कुंकन पु०
संज्ञा पुं० [सं० को़ङ्कण] दे० 'कोंकण' ।

कुंकुम पु०
संज्ञा पुं० [ सं० कुकुम] १. केसर । जाफरान । उ०— कुंकुम रंग सुअग जितो मुख चंद सो चंदन होड़ परी है ।— तुलसी (शब्द०) । २. लाल रंग की बुकनी, जिसे स्त्रियाँ माथे में लगाती हैं । रोली । ३. कुकुंमा ।

कुंकुमज्वर
संज्ञा पुं० [सं० कुङ्कमज्वर] एक प्रकार का ज्वर । श्वास लेने में कष्ट, छाती में पीड़ा, त्वचा थोड़ी गरमी आदि इसके लक्षण हैं । माधव० पृ० ४३. ।

कुंकुमफूल
संज्ञा पुं० [देश०] दुपहरिया का फूल ।

कुंकुमा
संज्ञा पुं० [संव्कुङ्कम] १. झिल्लौ की कुप्पी या ऐसा बनाहुआ लाख का पोला गोला जिसके भीतर गुलाल भरकर होली के दिनों नें मारते हैं । लाख को लोहे की नली में भरकर फूँकते हैं जिससे उसका फूलकर गोला बन जाता है । २. दो० कुंकुम— १ । उ०— कोई गटे कुंकुमा चोवा । दरसन आस टाढि़ मुख जोवा । — जायसी ग्रं ० (गुप्त), पृ ३१७ ।

कुंकुमाद्रि
संज्ञा पुं० [सं० कुङ्कमाद्रि०] एक पर्वत का नाम जो काश्मीर में है [को०] ।

कुंकुह पु०
संज्ञा पुं० [पि०] दे० 'कुंकुम' । उ०— पेट पत्र चंदन जनु लावा । कुंकुह केसरि बरन सोहावा । — जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ १९५.

कुंचन
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्चन] १. सिकुड़ने या बटुरने की क्रिया । सिमटाना ।२. आँख का एक रोग, जिसमें आँख की पलके सिकुड़ जाती हैं ।

कुंचि
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्चि] आठ मुट्ठी का एक परिमाण ।

कुंचिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्चिका] १. घुँधची । गुँजा । २. बाँस की टहनी । ३. कुंजी । ताल । चाभी । ४. एक प्रकार की मछली । ५. हुरहुर ।६. एक प्रकार का नरकट [को०] ।

कुंचित
वि० [सं० कुञ्चित] १. घूमा हुआ । टोढा । वक्र । २. घूँघरवाले । छल्लेदार (बाल) । उ०— कुंचित अलक तिलक गोरो- चन, ससि पर हरि के ऐन । कबहुँक खेलत जात घुटुरुवनि उपजावत सुख चैन ।— सूर० १० ।१०३ । (ख) चिक्कन कच कुंचि तगभुआरे । बहु प्रकार रचि मातुसँवारे ।— तुलसी (शब्द०) ।

कुंची, कुंची पु०
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्चिका] ताली । कुंजी । चाभी । उ०— धर्मधीर कुलकानि कुँची कर तेहि तारी दे दूरि धरयो री । ग्लक कपट कटिन उर आंर इतेहु जतन कछुबै न सरयो री । सूर (शब्द०) ।

कुंज
संज्ञा पुं० [सं क्ञ्ज, तुल, फ० कुंज] १. वह स्थान जिसके चारो औऱ घनी लता छाई हो । वह स्थान जो वृक्ष लता आदि से मंड़ा की तरह ढ़का हो । —उ०(क) जहँ वृदावन आदि उजर जहँकुंज लता विस्तार । तहै विहरत प्रिय प्रीतम दोऊ, निगम भृग गुंजार ।—सुर (शब्द०) । (ख) सघन कुंज छाया सखद सीतल मंद समीर । मन ह्वै जाता अजहुँ वहै कालिंदी के तीर ।— बिहारी (शब्द०) । यो०— कुंज कुटीर = लतागृह । कुंज की खोरी = दे० 'कुंचगली' (१) उ०— सुरदास प्रेम सकुचि निरखि मुख भजे कुंज की खोरी ।— सूर० १० । २६७ । कुंजगली = (१) बाटिका में लताओं से छायापथ । भूलभुलैया । (२) तग और पतली गली । कुंजबिहारी=दे० श्रीकृष्ण । उ०— उ०— जब तै बिछुरे कुँज बिहारी । नींद न परे घटे नहिं रजती रजती बिरह जुर भारी ।—सूर०, १० ।३२४७ । २. हाथी का दांत । ३. नीचे का जबड़ा (को०) । ४. दाँत [को०] । ५. गुफा । कदरा [को०] ।

कुंज (२)
संज्ञा पुं० [फा० कुंज = कोना] १. वे बूटे जो दुशाले के कोनों पर बनाए जाते हैं । २. खपरैल या छप्पर की छाजन में वह लकड़ी जो बँडेर से अंकर कोने पर तिरछी गिरती हैं । कोनिया । कोनसिला । ३. वोण । कोना ।

कुंजक
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्जक] ड़ेवड़ी परक का वह चोबदार जो अतःपुर में आता जाता हो । कंचुकी । ख्वाजःसर । उरदा- बेग । उ०— कुंजक क्लीब बिबिध परिचारक । जो रनिवास खबरि परचारक ।— रघुराज (शब्द०) ।

कुंजकुटोर
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जकुटीर] लतागृह । कुंजगृह । लताओं से घिरा हुआ घर । उ०— चलहि किन मानिनि कुंजकुटीर । तो बिनु कुँअर कोटि वनिताजुत बिलपर बिपिन अधीर ।— हित हरिवंश (शब्द०) ।

कुंजगली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुंज + गली] १. बगीचों में लता से छाया हुआ पथ । २. पतली तंग गली ।

कुंजड़ (१)
संज्ञा पुं० [अ० कुँदर] पिस्ते का गोंद जो दवा के काम आता है । और देखने में रूमी मस्तगीसे मिलता होता है । कुंदुर ।

कुंजड़ (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कुँजड़ा] [ स्त्री० कुँजड़ी] दे० 'कुँजड़ा' । उ०— उस कुंजड़ ने ठाकुर के शीश पर मुकुट रख दिया ।— कबीर सं०, पृ० ३४५ ।

कुंजर
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्जर] [स्त्री० कुंजरा कुंजरी] । हाथी । मुहा०— कुंजरो व (नरो वाकुजरोनरो) = हाथी या मनुष्य । श्वेत या कृष्ण । यह या वह । अनिश्चित या दुविधे की बाता । उ०— सोहौं सुमिरत नाम सुधारस पेखत परसि धरो । स्वारथ हू परमारथ हू की नहिं कुंजरो नरौ ।— तुलसी (शव्द०) । विशेष— द्रोणाचार्य जी कों वरदान था कि उनका प्राणा पुत्र- शोक में निकलेगा । महाभारत वे युद्ध में जब द्रोणाचार्यजी के बाणों से पांड़व दल को बड़ी क्षति पहुची तब कृष्णचंद्र ने यह गप उड़ाने की सलाह दी कि' अश्वत्थामा मार गया, और इसकी सत्यता के लिय अश्वत्थामा नाम के एक हाथी को मरवा ड़ाला । द्रोणाचार्य जी से बहुतों ने अश्वत्थामा के मारे जाने का समाचार कहा, पर उन्हें विश्वास नहीं आया, यहाँ तक कि स्वयं श्रीकृष्ण के कहने पर भी उन्होंने सत्य नहीं माना और कहा कि जबतक धर्मराज युधिष्ठिर न कहेंगे मैं इसे सत्य नहीं मानूँगा । इसपर कृष्णचंद्र ने यिधिष्ठिर को इतना कहने के लिये राजी कि अश्वत्थामा मारा गया, न जाने हाथी या मनुष्य' । अश्वत्यामा हतो, नरो वा कुँजरो वा' । कृष्ण जी ने ऐसा प्रबंध किया कि ज्यों ही युधिष्ठिर के मुँह से 'अश्वत्थामा हतो' वाक्य निकला, शंखध्वनि होने लगी और द्रोणाचार्य जी शेष कुँजरो वा नरो वा' जो धीरे कहा गया था, न सुन सके । वे प्राणायम द्वार सब बातों को जानकर प्राणा त्यागना चाहते थे कि द्रुपद के पुत्र धृष्टद्युम्न द्वारा, जो द्रौपदी का भाई था, उनका सिर काट लिया गया । युधिष्ठिर के इस सदिग्ध वाक्य को लेकर मुहाविरा दुविधे की बातों के अर्थ में प्रयुक्त होता है । २. एक नाग का नाम २. बाल । केश । ४. एक देश का नाम । ५. रामायण के अनुसार एक पर्वत का नाम । यह मलयागिरि की किसी शृंखला का नाम था । ६. अंजना के पिता और हनुमान के नाना का नाम । ७. पद्मपुराण के अनुसार एक वृद्ध शुक पक्षी का नाम जिसने समहर्षि च्यवन को उपदेश दिया था । ८. छप्पय के २१ वे भेद का नाम जिसमें ५० । गुरु,५२ लघु, १०२ वर्ण और १५२ मात्राएँ या ५० गुरू, ४८ लघु, ९८ वर्ण और १४८ मात्राएँ होती हैं । ९. पाँच के छंदों के प्रस्तार में पहला प्रस्तार । १०. हस्त नक्षत्र । ११. पीपल । १२. आठ की संख्या । १३. शिर (को०) । १४. एक आभूषण (को०) ।

कुजर (२)
वि० श्रेष्ठ । उत्तम । जैसे, पुरुषकुंजर, कपिकुंजर । विशेष— इस अर्थ में यह शब्द समस्त पदों के अंत में आता है । अमर कोशकार ने इस प्रसंग में व्याघ्र, पुंगव, ऋषम, कुंदर । सिंह शार्दल और नाग आदि शब्दों को भी श्रेष्ठ अर्थ में प्रयोग सूचित किया है ।

कुंजरकरण
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जरकरण] गजपिप्पली । गजपीपल ।

कुंजरग्रह
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्जरग्रह] वह व्यक्ति जो हाथी पकड़ने का व्यवसाय करता हो [को०] ।

कुंजरच्छाय
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जरच्छाय ] ज्योतिष के अनुसार एक योग । विशेष— जब कृष्ण त्रयोदशी मघा नक्षत्र से युक्त होती है अथवा सूर्य और चंद मघा नक्षत्र के होते हैं तब यह योग होता है । मनु के अनुसार जब कृष्णपक्ष में त्रयोदशी और चतुर्दशी का योग हो और उसी दिन पूर्वाह्न में हस्त नक्षत्र भी हो तब 'कुंजरच्छाय होता है । यह एक पर्व मान गया है और शास्त्रों में इस दिन पितरों के श्राद्ध का बड़ा फल लिखा हैं ।

कुंजरदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जरदरी] एक प्रदेश का नाम । अनुमलय ।

कुंजरपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जरपिप्पली] गजपिप्पली ।

कुंजरमनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जरमणि] गजमुक्ता । उ०— कुँजर मनि कठा कलित उरन्हि तुलसिका माल । — मानस १ ।२४३ ।

कुंजरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जरा] १. हथिनी । २. धातकी । धव ।

कुंजरानीक
संज्ञा पुं० [सं० कुजञरानीक] गजसैन्य । हाथियों की सेना [के०] ।

कुंजराराति
संज्ञा पुं० [ सं० कुञजराराति] हाथी का शत्रु, सिंह । २. शरभ । एक अष्टापद जंतु (को०) ।

कुंजरारि
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्जरारि] हाथी का बैरी सिंह । उ००— प्रबल प्रचंड़ बरि बंड़ बाहुदंड़ बीर धाए जातुधान हनुमान । लिए घोरिकै । महा बलपुंज कुंजरारि ज्यो गरजि भट जहाँ तहाँ पटँक लँगूर फेंरि फेरिकै ।— तुलसी (शब्द०) ।

कुंजरारोह
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्जरारोह] हाथवान । महावत । पीलवान ।

कुंजराशन
संज्ञा पुं० [क्ञ्जराशन] अश्वत्थ । पीपल ।

कुंजरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जरी] हथिनी । हस्तिनी । २. धव । पलाश [को०] ।

कुंजल (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्जल] काँजी ।

कुंजल (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० कुञ्जर] हाथी । हस्ती । गज । उ०— (क) अब जोबन बारी को राख । कुंजल बिरह विधाँसइ साख ।— जायसी (शब्द०) । (ख) ज्यों शिवछत दररन रवि पायो जेही गर निगरयो । सूरदास प्रभु रूप थक्यो मन कुँदल पंक परयौ ।— सूर (शब्द०) ।

कुंजविहारी
संज्ञा पुं० [कञ्जविहारिन्] १. कुंजों में विहार करने वाला पुरूष । २. श्रीकृष्ण ।

कुंजा (१)
संज्ञा पुं० [सं० क्रौ़ञ्ज; प्रा० कुँच कोंच्च; राज० कूंज, कुँफ, कूंफ] क्रौंच पक्षी । उ०— अंबर कुँजां कुरलियाँ गरजि भरे सब तल । जिनि पैं गोविद बीछुटे, तिनके कौण हवाल ।— कबीर ग्रं०, पृ० ७ ।

कुंजा (२)— †
संज्ञा पुं० [अ० कूजा] पुरवा । चुक्काड़ । उ०— प्याली गंगा जली टोकनी गंगा सागर । कुंजा जंबूड़बा और ताँबे की गागर ।— सूदन (शब्द०) ।

कुंजा (३) †
संज्ञा स्त्री० [ सं० कञ्चुक] कोंचुल । निर्मोंक । उ०—नानक देह तजै ज्यौ कुंजै मनु निरबान समाना ।— प्राण०, पृ० ६६ ।

कुंजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्चिका] १. कृष्णजीर । कालाजीरा । २. कुंजी । ३. ठीक । ग्रंथ की व्याख्या ।

कुंजित
वि० [सं० कूजित ] दे० 'कूजित' ।

कुंजी †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्जिका] चाभी । ताली । उ०— कुंजी उसकी जबानी शीरीं है । दिल मेरा कुफ्ल हैं बताशो का ।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० १६ । मुहा०— (किसी की) कुंजी हाथी में होना = किसी का वश में होना । किसीं की चाल या गति का वश में होना । जैसे,— वे तुमसे कुछ न बोलोंगे उनकी कुंजी तो हमारे हाथ मे हैं । २. पुस्तक जिससे किसी दूसरी पुस्तक का अर्थ खुले । टीका ।

कुंझ †पु कुंझी पु †
संज्ञा स्त्री० [क्रौञ्च, क्रौञ्ची] एक पक्षी । दे० ' कुंजा (१)' । उ०— (क) कुझां द्यउ नइ पंखड़ी, थाकउ बिनउ बहेसि ।— ढोला० दू० ६२ । (ख) कुंझी परदेसों फिरौ, अंबु धरै घर माहिं ।— दरिया० बानी, पृ० ४ ।

कुंट †
संज्ञा पुं० [हिं०] कोण । दिशा । खुँट । उ०— अठसठ तीरथ पगि भवै साधू निरखन जाय । चारि कुँट चौदह भवन निरखि निरखि बिगसाय ।— प्राण०, पृ० १८ ।

कुंटल †
संज्ञा पुं० [ अं० क्विन्टल] एक तौल जो १०० किलोग्राम की होती है ।

कुंठ
वि० [सं० कुण्ठ] [संज्ञा कुण्ठता, कुण्ठत्व । वि० कुंठित] १. जो चोखा या तीक्ष्ण न हो । गुठला । भोथरा । कुंद २. मूर्ख । स्थूल बुद्धि का । कुंदजेहन । ३. आलसी । सुस्त (को०) । ४. कमजोर । निर्बल (को०) । यौ०— कुठधी । कुठमना = मूर्ख । कुंदजेहन ।

कुंटक
वि० [सं० कुठक] बुद्धिहीन । नासमझ [को०] ।

कुंठा
संज्ञा स्त्री० [सं०कुण्ठ + आ ] १. खीझा । चिढ़ । २. निराशा । ३. मंन की गाँठ । मानसिक ग्रंथि । उ०— ओतिक्त मधुर कुंटा निष्टुर पावक मरंद रज के युग मन ।— अतिमा, पृ० ११८ । यौ०— कुठजात = निराशा, खीझ या मन की अतृप्त इच्छाओं से बना हुआ । उ०—.... ने तो आज के समूचे सहित्य को कुंठाजात मान है ।— हि० आं० प्र०, पृ० ३ ।

कुंठित
वि० [सं० कुण्ठित] १. जिसकी धार चोखी या तीक्ष्ण न हो । कुंद । गुठला । उ०— बहड़ न हाथ दहइ रीस छाती । भा कुठारकुठिन नृपघाति । — तुलसी (शब्द०) । २. मंद । बेकाम । निकम्मा । जैसे— तुम्हारी बुद्धि कुठित हो गई हैं । ३. गृहीत । ग्रहण क्रिया हुआ (को०) । ४. विकृत । परिवर्तित (को०) । ५. मूर्ख । जड़ (को०) । ६. बाधित । विघ्नन । अपहृत (को०) ।

कुंड़
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़] १. चौड़े मुँह का गहरा बर्तन । कुँड़ा । २. एक प्राचीन काल का मान जिससे अनाज नाप जाता था । ३. छोटा बँधा हुआ जलाशय । बहुत छोटा तालाब । जैसे— भरत- कुंड़, सुर्यकुंड़ । ४. पृथिवी में खोदा हुआ गड़्ढ़ा अथवा मिट्टी, धातु आदि का बना हुआ पात्र जिसमें अग्नि जलाकार अग्हिहोत्र आदि करते हैं । उ०— यज्ञ पुरुष प्रसन्न सब भए । निकसि कुंड़ ते दरसन दए । — सूर० ४ ।५ । ५. बटलोई । स्थाली । ६. जलपात्र । कमंड़लु (को०) । ७. शिव का एक नाम । ८. एक नाग का नाम ।— प्रा० भा०, प० पृ० ८९ । ९. धृतराष्ट्र का एक लड़का । १०. ऐसी स्त्री का जारज लड़का जिसका पति जीता हो । ११. मुजारी । पूला । गठ्टा । जैसे— दर्भकुंड़ । १२. ज्योतिष के अनुसार चंद्रमा के मंड़ल का एक भेद । १३. गर्व । गड़्ढा । उ०— उठै रूंड़ भू मैं परे मुंड़ लोटैं । भरैं कुंड़ लोहू बहे बीर ड़ोलैं ।— हम्मीर०, पृ० १९ । पु१४. लोहे का टोप । कूँड़ । खोद । उ०— (ख) तीर तरवारि भाला बरछी बंदूक हाथ आयस के कुंड़ माथ करन पनाह के ।—गोपाल (शब्द०) । (ख) कुंड़न के ऊपर कड़ाके उठै ठौर ठौर ।— भूषण ग्रं०, पृ,० ७३. । पु१५. हौदा । उ०— चढ़ि चित्रित सुंड़ भुसुंड़ पै सोभित कंचन कुड़ं पै । नृप सजेउ चलत जदु झुड़ पै जिमि गज मृग सिर पुंड़ पै ।—गोपाल (शब्द०) । पु १६. श्री राग के आठ पुर्त्रो में से एक का नाम । स०— सावा सारंग सागरा ओ गंधारी भीर । अष्ट पुत्र श्री राग के गोल कुंड़ गंभीर । — माधवानल०, पृ० १९४ ।

कुंड़क
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डक] १. पात्र । २. मटका । कुंड़ा । ३. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम [को०] ।

कुंड़कीट
संज्ञा पुं० [कुण्ड़कीट] १. चावकि के मत का अनुयायी । पतित ब्राह्मणी पुत्र । ३. रखेली या सुरैतिन के रूप में किसी स्त्री को रखनेवाली (को०) ।

कुंड़कोल
संज्ञा पुं० [कुण्ड़कील] नीच या जंगली व्यक्ति (को०) ।

कुंड़कोदर (१)
वि० [सं० कुण्कोदर] कुंड़े या मटके की तरह पेट वाला [को०] ।

कुंड़कोदर (२)
संज्ञा पुं० १. शिव जी का एक गण । २. एक नाग का नाम [को०] ।

कुंड़गोल, कुंड़गोलक
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़गोल, कुण्ड़गोलक] काँजी ।

कुंड़नी
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुण्ड़नी] मिट्टी का बड़ा बरतन [को०] ।

कुंड़पायिनामयन
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़पायिनामयन] एक यज्ञ जिसमें यजमान को २१ रात्रि तक दीक्षित रहना पड़ता हैं और उसके एक मास के उपरांत सोम संग्रह करने के लिये जाना पड़ता है ।

कुंड़पायी
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़पायिन्] १. सोमयाग करनेवाला वह यजमान जिसने १६ ऋत्विजों से सोमसत्र कराके कुंड़ाकर चमसे से सोमपान किया हो ।२. याज्ञिकों का एक संप्रदाय जिनके पूर्वक कुंडपायी थे या जिनके कुल में सोमयाग में कुंड़ा कार चमसे सोमपान होता था । विशेष— ऐसे लोगों के अयनयागादि औरों से कुछ विलक्षण हुआ करते थे । आश्वलायन श्रौतसूत्र में इनके अयनयाग का पृथक् विधान मिलता है ।

कुंड़र पु
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़ + र (प्रत्य०) अथवा कुण्ड़ल =घेरा, मंड़ल] दे० 'कुड़ल' । उ०— नाभी कुंड़र बानारसी । सौंह को होइ मीचु तहँ बसी ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९६ ।

कुंड़रा पु
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़ या हिं० कुंड़र] १. कुंड़ा । मटका । उ०— अस कहि इस कुंड़रा मँगायो । निज तुंबा तेहि औंध करायो ।— रघुराज— (शब्द०) । २. दे० 'कुँड़रा' ।

कुंड़ल
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़ल] १. सोने । चाँदी आदि का बना हुआ एक मंड़लाकार आभूषण जिस लोग कानों में पहनते हैं । बाली । मुरकी । उ०— घुघरारी लटैं लटकैं मुख उपर कुंड़ल लोल कपोलन की ।— तुलसी (शब्द०) । पहिए के आकार का एक आभूषण जिस गोरखनाथ के अनुयायो कनफटे कानों में पहनते हैं । यह सींग, लकड़ी, काँच, गेंड़े की खाल तथा सोचे आदि धातुओं का भी होता हैं । ३. कोइ मंड़लाकार आभूषण जैसे— कड़ा, चूड़ा आदि । ४. रस्सी आदि का गोल फंदा । ५. लोहे का वह गोल मंड़रा जो मोट या चरस के मुँह पर लगाया जाता हैं । मेखड़ा । मेड़ंरी । ६. कोल्हू के चारों ओर लगा हुआ गोल बंद ७. किसी लंबी लचीली वस्तु की कई गोल फेरों में सिमट कर बैठने की स्थिति । फेटी । मंड़ल । जैसे,— साँप कुंड़ल बांधकर बैठा है । क्रि० प्र०—बांधना ।—मारना । ८. वह मड़ल जो कुहरे या बदली में चंद्रमा या सूर्य के किनारे दिखाई पड़ाता है । क्रि० प्र०— में बैंठना । ९. छंद में वह मात्रिक गण जिसमें दो मात्राएँ हों, पर एक ही अक्षर हो । जैसे— 'श्री' । १०. बाईस मात्राओं का एक छंद जिसमें बारह और दस पर विराम होता है और अंत में दो गुरु होते हैं । विशेष—इस छंद में अंतिम दो गुरु के अतिरिक्त शेष अठारह मात्रओं का यह नियम है कि पहली बारह मात्राओं के शब्द या तो सब द्विकल वा त्रिकल अथवा दो त्रिकल के बाद तीन द्विकल अथवा तीन द्विकल के बाद दी त्रिकल होते और शेष बारह मात्राओं में त्रिकल के पश्चात् त्रिकल या तीन द्विकल होते है । इस छंद के चरणांत में अगर एक ही गुरु हो तो उये उड़ियाना कहते हैं । जैसे,— तु दयालु दीन हौं तू दानि हौं भिखारी । हैं प्रसिद्ध पातकी तु पापा पुंज हारी । नाथ तूअनाथ को अनाथ कौन मोसों । मो समान आरन नहिं आरनिहर तोंसों ।

कुंड़लपुर
संज्ञा पुं० [ सं० कुण्ड़लपुर] दे० 'कुंड़िनपुर' ।

कुंड़लाकार
वि० [सं० कुण्डलाकर] १. वर्तुलाकार । गोल । २. मंड़लकार ।

कुंड़लि पु
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड़लि] सर्प । शेषनाग । उ०— मेरु कछू न कछू दिग्दंति न कुंड़लि कोल कछून कछू है ।—भूषण ग्रं०, पृ० ३४ ।

कुंड़लिका
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुण्ड़लिका] १. मंड़लाकार रेखा । २. जलेबी नाम की एक मिठाई । ३. कुंण्ड़लिया छंद ।

कुंड़लित
वि० [सं० कुण्ड़लित] १. जो कुंड़ली मारे हुए हो । जो फेंटी मारे हुए हो । कई बलों में घूमा हुआ । २. कुंड़ल नामक आभूषण से युक्त । उ०— कोमल कुटिल कुंड़लित कनका— भरण भूषित कान ।— वर्ण०, पृ० ४ ।

कुंड़लिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुंण्डलिनी] १. तंत्र और उसके अनुयायी हठयोग के अनुसार एक कल्पित वस्तु, जो मूलाधार में सुषुम्ना नाड़ी के नीचे मानी गई है । विशेष— यह वहां साढे़ तीन कुंड़ली मारकर त्रिकोण के आकार में पड़ी सोती रहती है । योगी लोग इसी को जगाने के लिये अष्टांग योग का साधन करते हैं । अत्यंत योगाभ्यास करने से यह जागती है । जागने पर यह साँप की तरह अत्यंत चंचल होती है, एक जगह स्थिर नहीं रहती और सुषुम्ना नाड़ी में होती हुई मूलाधार से स्वाधिष्ठान, मणिपूर, अनाहत, विशुद्ध, अग्नि और मेरुशिखर होती हुई या उन्हें भेदती हुई ब्रह्मरंध्र सें सहस्रार चक्र में जाती है । ज्यों ज्यों यह उपर चढ़ती जाती है त्यों त्यों साधक में अलौकिक शक्तियों का विकास होता जाता है और उसके सांसारिक बंधन ढ़ले पड़ते जाते हैं । ऊपर के सहस्रार चक्र में उसे पकड़ कर योगबल से ठहरान और सदा के लिये उसे वहीं रोक रखना हठयोग के साधकों का परम पुरुषार्थ मान गया है । उनके मत से यही उनके मोक्ष का साधन हैं । किसी किसी तंत्र का यह भी मत है कि कुंड़लिनी नित्य जागती है और वह बीच के चक्रों को भेदतो हुई सहस्रार कमल में जाती है और वहाँ देवगण उसे अमृत से स्नान करते हैं । उनका कथन है कि यह कुंड़लिनी मनुष्यों के सोने की अवस्था में ऊपर चढ़ती हैं और जागने के समय अपने स्थान मूलाधार में चली जाती है । पर्या०— कुटिलांगी । भुजंगी । ईश्वरी । शक्ति । अरुंधती । कुंड़ली । २. जलेबी नाम की मिठाई । इमरती । ३. गुड़ूची । गिलोय ।

कुंड़लिया
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्ड़लिका, प्रा० कुँड़लिआ] एक मात्रिक छंद जो एक दोहे और रोले के योग से इस प्रकार बनता चहै कि दोह के अतिम चरण के कुछ शब्द रोले के आदि में अविकल आते हैं । जैसे,— गुण के ग्राहक सहस नर बिनु गुण लहै न कोय । जैसे कागा कोकिला शब्द सुनै सब कोय । शब्द सुनै सब कोय कोकिला सर्ब सुहावन । दोऊ के एक रंगे काग सब भए अपावन । कह गिरिधर कविराय सुनो हो ठाकुर मन के । बिनु गुण लहै न कोइ सहस गुण गाहक नर के ।

कुंडली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कूण्डली] १. जलेबी । २. कुंडलिनी । ३. गुडूचि । गिलोय । ४. कनचार । ५. केवाँच । ६. जन्मकाल के ग्रहों को बतलानेवाला; एक चक्र जिसमें बार घरह होते हैं । ७. गेंडुरी । इँडुवा । ८. साँप के बैठने की मुद्रा । फेंटी । ९. खँझरी । डफली ।

कुंडली (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डलिन्] १. साँप । २. वरुण । ३. मयूर । मोर । ४. चित्तल हरिण । ५. विष्णु । ६. शिव (को०) ।

कुंडली (३)
वि० १. जो कुंडल पहने हो । कुंडलधारी । २. घुमावदार । लपेटा हुआ । ३. कुंडली की आकृति का ।

कुंडलीकरण
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डलीकरण] धनुष को खींचकर इतना मोड़ना कि वह कुंडले के आकार का हो जाय [को०] ।

कुंडलीकृत
वि० [सं० कुण्डलीकृत] कुंडली के समान गोल आकृति का बनाया हुआ [को०] ।

कुंडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डक] मिट्टी का बना हुआ चौडे़ मुँह का एक गहरा बरतन, जिसमें पानी, अनाज आदि रखा जाता है । बड़ा मटका । कछरा ।

कुंडा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डल] १. दरवाजे की चौखट में लगा हुआ कोढ़ा, जिसमें साँकल फँसाई जाती है और ताला लगाया जाता है । २. कुश्ती का एक पेंच । विशेष—इसमें नीचे आए हुए विपक्षी की दाहिनी और खडे़ होकर अपनी दाहिनी टाँग उसकी गरदन में बाईं तरफ से डालकर उसकी दाहिनी बगल से बाहर निकाल लेते हैं औऱ अपने बाएँ पैर के घुटने के अंदर अपने दाहिने मोजे को दबाकर उसके सिर पर बैठकर बाएँ हाथ से उसका जाँघिया पकड़कर उसे चित्त कर लेते हैं ।

कुंडा (३)
संज्ञा पुं० [लश०] जहाज के अगले मस्तूल का चौथा खंड । निरकट । ताबर डोल ।

कुंडा (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डा] दुर्गा का एक नाम [को०] ।

कुंडाशी
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डाशिन्] १. कुंड नामक जारज पुरुष का अन्न खानेवाला । २. ध्रृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम ।

कुंडिक
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डिका] धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम ।

कुंडिका
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुण्डिका] १. कमंडलु । २. कुंडी । अथरी । पथरी । ३. तांबे का कुंड जिसमें हवन किया जाता हैं । ४. अथर्ववेद का एक उपनिषद् । ५. छोटा कुंड । उ०— ता रस की कुंडिका नाभि अस सोभित गहरी । त्रिबली ता महँ ललित भाँति मनु उपजति लहरी ।—नंद० ग्रं०, पृ०४ ।

कुंडिन
संज्ञा पुं० [सं०कुण्डिन] एक प्राचीन नगर, जो विदर्भ देश की राजधानी था । विशेष—वहाँ का राजा भीष्मक था जिसकी कन्या रुक्मिणी को श्रीकृष्ण हर ले गए थे । विदर्भ का आधुनिक नाम बीदर है, जो हैदराबाद राज्य में है । बोदर से कुछ दूर पर कुंडिल वती नाम की एक पुरानी नगरी आज तक है । जिसमें पूर्व— समृद्धि के चिन्ह पाए जाते हैं । यही स्थान प्राचीन कुंडिन या कुंडिनपुर हो सकता है ।

कुंडिल पु
संज्ञा पुं० [सं० कूण्डल] दे० 'कुण्डल' । उ०—कनक्क काम कुंडिल हलंत तेज उम्भरे ।—पृ० रा०, २५ । ३१२ ।

कुंडी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कूण्ड] पत्थर या मिट्टी के कटोरे के आकार का बरतन जिसमें लोग दही, चटनी आदि रखते हैं । पत्थर की कुंडी में भाँग भी घोटी जाती है । यौ०—कुंडी सोंटा = भाँग घोटने का सामान । २. लोहे की टोपी या शिरस्त्राण । कूँड । उ०—धरे टोप कुंडी कसे काँच अंगं ।—हम्मिर०, पृ०२४ ।

कुंडी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुण्डा] १. जंजीर की कड़ी । कड़ी । २. किवाड़ में लगी हुई साँकल जो किवाड़ को बंद रखने के लिये कुंडी में फँसाई या डाली जाती है । क्रि० प्र०—खोलना ।—बंद करना । मुहा०—कुंडी खटखटाना = द्वार खुलवाने के लिये साँकल को जोर जोर से हिलाना । कूंडी देना, मारना लगाना =कुंडी बंद करना । ३. लंगर का बडा छल्ला, जो उसके सिरे पर लगा रहता है ।

कुंडी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०कुण्डल] मुर्रा भैंस जिसकी सींग घुमी हुई होती है । दे० 'मुर्रा' ।

कुंडू
संज्ञा पुं० [देश०] काले रंग की एक चिड़िया जिसका कंठ औऱ मुँह सफेद और पूँछ पाली होती है । लंबाई में यह ग्यारह इंच की होती है । यह काश्मीर से आसाम तक मिलती है । इसे कस्तुरा भी कहते हैं ।

कुंडोघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्डोघ्नी] १. वह गाय जिसके थन बडे़ हों । बडे थनवाली गाय । २. वह स्त्री जिसके स्तन बडे़ हों । भरी छातीवाली औरत [को०] ।

कुंडोदर
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डोदर] महादेव जी का एक गण । उ०—विरूपाक्ष कुंडोदर नामा । रहिहै तुव समीप सब यामा ।—रघुराज (शब्द०) ।

कुंत
संज्ञा पुं० [सं० कुन्त] १. गवेधुक । कौड़िल्ला । केसई । २. भाला । बरछी । उ०—कुबलय विपिन कुंत बन सरिसा । वारिद तपत तेल जनु बरिसा ।—तुलसी (शब्द०) । ३. जूँ । ४. चंड भाव । क्रूर भाव । अनख । ५. जल । ६. कुश ७. अग्नि । ८. आकाश । ९. काल । १०. कमल । ११. खड्ग । उ०—कुंत सलिल औ कुस, कुंत अनल नभ, काल । कुंत कनत कवि कमल सो कुंतजु खंग कराल ।— अनेकार्थ० पृ० १२३ ।

कुंतक
संज्ञा पुं० [सं० कुन्तक] संस्कृत साहित्य में वक्रोक्ति संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य । वक्रोक्तिजीवित इनका ग्रंथ है ।

कुंतल
संज्ञा पुं० [सं० कुन्तल] १. सिर के बाल । केश । उ०— श्रवण मणि ताटंक मंजुल कुटिल कुंतल छोर ।—सूर (शब्द०) । २. प्याला । चुक्कड़ । ३. जौ । ४. सुगंधवाला । ५. हल । ६. संगीत में एक प्रकार का ध्रुपद, जिसके प्रति पाद में १६ अक्षर होते हैं । ७. एक देश का नाम जो कोंकण और बरार के बीच में था । ८. संपूर्ण जाति का एख राग जो दीपक का चौथा पुत्र में माना जाता है । इसके गाने का समय ग्रीष्म ऋतु का दोपहर है । ९. सुत्रधार (अने०) । १०. वेष बदलनेवाला पुरुष । बहुरुपिया (अने०) । ११. राम की सेना का एक बंदर ।

कुंतल (२) †;
संज्ञा पुं० [अं० क्विन्टल] एक तौल । कुंटल ।

कुंतलवर्द्धन
संज्ञा पुं० [सं० कुन्तलवर्द्धन] भृंगराज । भँगरा । भँगरेया ।

कुंतलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कुन्तलिका] १. एक पौधा । २. छुंरिका- विशेष । दर्वो । कलछा (को०) ।

कुंतली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुन्त = भाला] एक छोटी मक्खी जिसके छत्ते से डामर नामक मोंम निकलती है । इन मक्खियों को डंक नहीं होता । अलमोडा, बेलगाँव, छिंदवाडा; खानदेश आदि में ये मक्खियाँ बहुत होती हैं । पर्या०—कुन्ती । भिनकवा । नसरी । बँकुआ ।

कुंता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुन्ती] दे० 'कुंती' (१) ।

कुंतिभोज
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा का नाम, जिसने कुंती (पृथा) को गोद लिया था ।

कुंती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुन्ती] युधिष्ठिर, अर्जुन और भीम की माता । पृथा । विशेष—यह शूरसेन यादव की कन्या और वसुदेव की बहन थी । इसे इसके चचा भोज देश के राजा कुंतिभोज ने गोद लिया था । यह दुर्वासा ऋषि की बहुत सेवा करती थी, इससे उन्होंने इसे पाँच मंत्र एसे बतलाए कि वह पाँच देवताओं में से किसी को आह्वान कर पुत्र उत्पन्न करा सकती थी । उसने कुमारी अवस्था में ही सूर्य से कर्ण को उत्पन्न कराया । इसके उपरांत इसका विवाह पांडु से हुआ ।

कुंती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुन्त] बरछी । भाला । २. एक छोटी मक्खी । दे० कुंतली ।

कुंती (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] कंजे की जाति का एक पेड़ । विशेष—यह मध्य बंगाल, बरमा, आसाम आदि स्थानों में होता है । इसकी फलियाँ रेंगने और चमड़ा सिझाने के काम आती हैं और बीज से जो तेल निकलता है वह जलाने के काम में आता है । इसके फलों को टेटी कहते हैं । पर्या०—बकेटी । अणलकुच्ची ।

कुथु
संज्ञा पुं० [सं० कुन्थु] १. जैन शास्त्रानुसार छठा चक्रवर्ती २. जैनियों के मत से वर्तमान अवसर्पिणी (काल) का सत्रहवाँ अर्हत । उ०—फिरि आए हस्थिनापुर जहाँ । सांति कुंथु अरपुजे तहाँ ।—अर्ध०, पृ० ५३ ।

कुंद (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुन्द] १. जूही की तरह का एक पौधा, जिसमें सफेद फूल लगते हैं । इन फूलों में बड़ी मिठी सुगंध होती है । विशेष—यह पौधा क्वार से लेकर फागुन चैत तक फूलता रहा है । वैद्यक में यह शीतल, मधुर, कसैला, कुछ रेचक, पाचक तथा पित्तरोग और रुधिर विकार में उपकारी माना जाता है । प्रायः कवि लोग दाँतो की उपमा कुँद की कलियों से देते हैं । जैसे—बर दंत की पंगति कुंदकली, अधराधर पल्लव खोलन की ।—तुलसी (शब्द०) ।पर्या०—माध्य । मकरंद । श्वेतपुष्प । महामोद । सदापुष्प । वरट । मुक्तापुष्प । वनहास । भृंगबंधु । अट्टहास । २. कनेर का पेड़ । ३. कमल । ४. कंदर नाम का गोंद । ५. एक पर्वत का नाम । ६. कूबेर की नौ निधियों में से एक । ७. नौ की संख्या । ८. विष्णु । ९. खराद । उ०—गढ़ि गढ़ि छोलि छोलि कुंद की सी भाई बाते जैसी मुख कहौ तैसी उर जब आनिहौं ।—तुलसी(शब्द०) ।

कुंद (२)
वि० [फ़ा०] १. कुंठित । गुठला । ३. स्तब्ध । मंद । यौ०—कुंदजेहन = कुंठित बुद्धि का । मंदबुद्धि ।

कुंदर
संज्ञा पुं० [सं० कुन्दकर, टर्नर] खराद का काम करने- करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

कुंदन (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुन्द = श्वेतपुष्प या देस०] १. बहुत अच्छे और साफ सोने का पतला पत्तर, जिसे लगाकर जड़िए नगीने जड़ते हैं । क्रि० प्र०—लगाना । २. स्वच्छ सुवर्ण । बढ़िया सोना । खालिस सोना । उ०—पीतर पटतर बिगत, निषक (निकष) ज्यौं कुंदन रेखा ।—भक्तमाल (प्रिया०), पृ० ५५२ । विशेष—दमकती हुई स्वच्छ निर्मल वस्तु की उपमा प्रायः कुंदन से देते हैं, जैसे—कुंदन सा शरीर । मुहा०—कुन्दन सा दमकना = स्वच्छ सोने की भँति चमकना । कदन हो जाना = खूब स्वच्छ और निर्मल हो जाना । निखर आना ।

कुंदन (२)
वि० १. कुंदन के समान चोखा । खालिस । स्वच्छ । बढ़िया । जैसे—यह कुंदन माल है । २. स्वस्थ और सुंदर । नीरोग । जैसे—चार दिन औषध खाओ तुम्हारा शरीर कुंदन हो जायगा ।

कुंदनपुर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुंडिनपुर' ।

कुंदनसाज
संज्ञा पुं० [हिं० कुंदन + फ़ा० साज] १. कुंदन का पत्तर बनानेवाला । २. कुंदन देकर नगीना बैठानेवाला । जड़िया ।

कुंदम
संज्ञा पुं० [सं० कुन्दम] बिल्ली । मार्जार [को०] ।

कुंदर
संज्ञा पुं० [सं० कुन्दर] १. निघंटु में कथित एक घास जो कलिंग देश में होती है और जिसकी जड़ औषध के काम आती है । पर्या०—कंडूर । मिटी । दीर्घपत्र । खरच्छद । रसाल । सुतृण । मृगवल्लभ । २. विष्णु ।

कुंदरू
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डुर] दे० 'कुँदरू' ।

कुंदलता
संज्ञा पुं० [सं० कुन्दलता] १. छब्बीस अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसे 'सुख' भी कहते हैं । दे० 'सुख' । २. माधवी— लता ।

कुंदा (१)
संज्ञा पुं० [फा०, तुल० सं० स्कन्ध] १. लकडी का बहुत बडा, मोटा और बिना चीरा हुआ टुकड़ा जो प्रायः जलाने के काम में आता है । लक्कड़ । २. लकड़ी का वह टुकडा जिसपर रखकर बढ़ई लकड़ी गढ़ते, कुंदीगर कपडे़ पर कुदी करते और किसान घास काटते हैं । निहठा । निष्ठा । ३. बंदुक में वह पिछला लकड़ी का तिकौना भाग जिसमें घौड़ा और नली आदि जड़ी रहती है और जो बंदुक चलानेवाले की और रहता है । मुहा०—कुंदा चढाना = बंदूक की नली में लकडी जड़ना । ४. वह लकड़ी जिसमें अपराधी की पैर टोंके जाते हैं । काठ ५. दस्ता । मुठ । बेंट । ६. लकडी की बडी मोगरी जिससे कपडों की कुंदी की जाती है ।

कुंदा (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्कन्ध, हिं० कंधा] १. चिडिया का पर । डैना । मुहा०—कुंदे बाँध, जोड या तौलकर उतरना=पक्षी का अपने दोनों पर समेटकर नीचे आना । २. कुश्ती का एक पेंच । दे० 'कुंडा' । ३. कुश्ती में एक प्रकार का आघात, जो प्रतिद्वंदी को नीचे लाकर उसकी गरदन पर अपनी कलाई कोहनी के बीच की हड्डी से रगड़ते हुए किया जाता है । रद्दा । घस्सा । क्रि० प्र०—देना ।—लगाना ।

कुंदा (३)
संज्ञा पुं० [सं० कर्ण, हिं० कन्ना] १. पतग या गुड्डी के वे दोंनों कोने जिनके बीच में कमानी लगी रहती है २. पायजामे की वह तिकोनी कली जो दोनों पाँयचों के ऊपर मध्य में रहती है । कली । क्रि० प्र०—लगाना ।

कुंदा (४)
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड = कड़ाही] भुना हुआ दूध । खोवा । मावा । मुहा०—कुंदा कराना या भूनना = दूध से खोवा तैयार करना ।

कुंदा (५)
वि० [फा० कुन्द] दे० 'कुन्द (२)' । उ०—कुल शै में दिसता चंदा है । औ पाया नैन सो कुंदा है ।—दक्खिनी०, पृ० ३२३ ।

कुंदा (६)
संज्ञा पुं० [हिं० कुंडा] दरवाजे की साँकल या कोंढा । उ०—जरमन का प्रसिद्ध विद्वान् लेसिंग एक बार बहुत रात गए अपने घर आया और कुंदा खटखटाने लगा ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १६३ ।

कुंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुंदा] १. धुले या रँगे हुए कपड़ों की तह करके उनकी सिकुड़न और रुखाई दूर करने तथा तह जमाने के लिये उसे लकड़ी की मोगरी से कूटने की क्रिया । विशेष—इस देश में इस्तरी की प्रथा का प्रचार होने से पहले धोबी इसी का व्यवहार करते थे । आजकल भी कमखाब आदि पर कुंदी ही की जाती है । २. खूब मारना । ठोंकना । पीटना । क्रि० प्र०—करना । यौ०—कुंदीगर ।

कुंदीगर
संज्ञा पुं० [हिं० कुंदी + गर (प्रत्य०)] कंदी करनेवाला व्यक्ति ।

कुंदु
संज्ञा पुं० [सं० कुन्दु ] मूस । चूहा [को०] ।

कुंदुर
संज्ञा पुं० [सं०; अ०] १. एक प्रकार का सुगंधित पाला गोंद । विशेष—यह एक प्रकार का कँटिले पौधे से निकलता है जो दोहाथ ऊँचा होता है और अरब के यमन आदि पथरिले स्थानों में मिलता है । इसके फल और बीज कडूए होते हैं । जब सूर्य कर्क राशि में होता है तब गोंद इकट्ठा किया जाता है । हकिम लोग इसे पुष्ट, हृद्य और रक्तस्राव को रोकनेवाले मानते हैं । २. एक प्रकार का सुगंधित गोंद जो सलई के पेड़ से निकलता है । वैद्यक में यह रुचिकारक, स्वेदनाशक त्वचा को हितकारी और जूँ को दूर करनेवाला माना जाता है । पर्या०—सौराष्ट्री । पालंकी । तीक्ष्णगंध । कुंदारु । भीषण । सुगंध । विडालाक्ष । खपुर । नागवधूप्रिय । शल्लको निर्यास ।

कुंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुभ्भीं] १. काय फल । २. कुंभी जलकुंभी । ३. कुंभ नामक पेड़ ५. एक प्रकार का बड़ा वृक्ष । अरजम । विशेष—यह बहुत जल्दी बढ़ता और प्रायः सारे भारत में पाया जाता है । इसकी छाल से चमड़ा सिझाया जाता है और रेशों से रस्से आदि बनते हैं । कहीं कहीं अकाल के दिनों में इसकी छाल आटे की एरह पीसकर खाई भी जाती है । लकड़ी से खेती के औजार छाजन की बल्लियाँ गाडियों के धुरे और बंदूक के कुंदे बनाए जाते हैं । यह पानी में जल्दी सड़ता नहीं । जंगली सूअर इसकी छाल बहुत मजे में खाते हैं, इसलिये शिकारी लोग उनका शिकार करने के लिये प्रायः इसका उपयोग करते हैं ।

कुंभ
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भ] १. मिट्टी का घड़ा । घट । कलश । उ०— गुरु कुम्हार सिष कुम्भ है गढ़ गढ़ काढै़ खोट । अंतर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट ।—कबीर सा०, सं०, पृ० ३ । यौ०—कुभंज । कुभंकर्ण । कुभंकार । २. हाथी के सिर के दोनों और ऊपर उभडे़ हुए भाग । उ०— मत्त नाग तम कुंभ विदारी । ससि केसरी गगन बनचारी । तुलसी (शब्द०) । ३. एक राशि का मान जो दसवीं मानी जाती है । विशेष—यह धनिष्ठा नक्षत्र के उत्तरार्द्ध और शतभिष तथा पूर्व भातप्रद के तृतीय चरण तक उदय रहती है । इसका उदय- काल ३दंड ५८ पल है । यह राशि शीर्षोदय है । ४. एक मान जो दो द्रौण या ६४ सेर का होता है । इसे सूर्य भी कहते हैं । किसी किसी के मत से बीस द्रौण का भी एक कुंभ होता है । उ०—दो द्रोणों का शूर्प और कुंभ कहा है । — शाड्ग० सं०, पृ० ९ । ५. योगशास्त्र के अनुसार प्राणायम के तीन भागों में से एक । कुंभक । ६. एक पर्व का नाम जो प्रति १२ वें वर्ष लगता है । इस अवसर पर हरद्वार, प्रयाग नासिक आदि में बड़ा मेला लगता है । यह पर्व इसलिये कुंभ कहलाता है कि जब सूर्य कुंभराशि का होता है तभीं यह पड़ता है । ७. मिट्टी आदि का वह घड़ा जो देवालयों के शिखर पर तथा घरों की मुडे़री पर शोभा के लिये लगाया जाता है । कलश ८. गुग्गुल ९. वह पुरुष जिसने वेश्या रख ली हो । वेश्यापति । यौ०—कुंभदासी । १०. जैन मतानुसार वर्तमान अवसपिणी के १९ वें अर्हत का नाम । ११. बौद्धों के अनुसार बुद्धदेव के गत चौबीस जन्मों में से एक जन्म का नाम । १२. एक राग का नाम जो श्री राग का आठवाँ पुत्र माना जाता है । विशेष—यह संपूर्ण जाति का राग है और संध्या समय रात के पहले पहर में गाया जाता है । संगीत दामोदर में इसे सरस्वती और धनाश्री रागिनियों को योग से बना हुआ संकर राग माना है । १३. एक दैत्य का नाम । यह एक दानव था और प्रहल्लाद का पुत्र था । १४. एक राक्षस का नाम जो कुंभकर्ण का पुत्र था । १५. एक बानर का नाम । १६. हृदय का एक प्रकार का रोग (को०) । १७. एक पेड का नाम जो बंगाल, मद्रास, आसाम और अवध के जंगल में होता है । कुंबी । कुंभी । विशेष—इसकी लकड़ी मजबूत होती है । छाल काले रंग की होती है । लकडी़ मकान और आरायशी चीजें बनाने के काम में आती हैं और पानी में नहीं सड़ती । इसकी छाले रेशेदार होती हैं और उससे रस्सी बटी जाती है । यह औषधों में भी काम आती है । इसके फल को खुन्नी कहते हैं, जिसे पंजाबी स्वयं खाते तथा पशुओं को भी खिलाते हैं । इसके पत्ते माघ, फागुन में झड़ जाते हैं । इसे कुंबी और अर्जमा, अरजम भी कहती है ।

कुंभक
संज्ञा पुं० [सं०कुम्भक] प्राणायम का एक भाग, जिसमें साँस लेकर वायु को शरीर के भीतर रोक रखते हैं । विशेष—यह क्रिया पूरक के बाद की जाती है और इसमें मुँह बंद करके नाक के रंध्रों को एक और से अँगूठे और दूसरी ओर से मध्यमा तथा अनामिका से दबाकर बंद कर देते है, जिससे उसमें वायु आ जा नहीं सकती । इसे कुंभ भी कहते हैं ।

कुंभकरण, कुंभकरन पु
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भकर्ण] दे० 'कुंभकर्ण' । उ०—(क) कुंभकरण गहि समर अपारा ।—कबीर सा०,पृ० ४१ । (ख) उठि बिसाल बिकराल बड़ कुँभकरनु जमहान ।—तुलसी ग्रं०, पृ०८९ ।

कुंभकर्ण
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भकर्ण] एक राक्षस का नाम, जो रावण का भाई था । रामायण के अनुसार यह छह महीने सोता था ।

कुंभकला
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भकला] घड़ों का खेल जिसमें नट लोग सिर पर घडे़ रखकर बाँस पर चढते हैं । उ०—जैसे सीप समुद्र में चित देत अकासा । कुंभकला ह्वै खेलही, तस साहेब दासा ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० १४ ।

कुंभकामला
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भकामला] कामला रोग का एक भेद ।—माधव०, पृ०७५ । विशेष—पांडु रोग की उपेक्षा करने से कामला रोग होता है, उसी की दूसरी अवस्था कुंभकामला है । वैद्यक में इसे कृच्छ— साध्य कहा गया है ।

कुंभकार
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भकार] १. एक संकर जाति । कुम्हार । विशेष—ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार इस वर्णसंकर जाति की उत्पत्ति विश्वकर्मा पिता और शूद्रा माता से हुई है । जातिमाला में इसे पटआ (पटिका) पिता और गोप माता से उत्पन्नमाना है । उशना ने चोरी से वेश्यागमन करनेवाले विप्र और वेश्या की संतान माना है और पाराशर ने मालाकार और कर्मकरी के योग से इसकी उत्पत्ति मानी है । २. मुर्गा । कुक्कुट । ३. साँप (को०) । ४. जंगली पक्षी (को०) ।

कुंभकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भकारिका] १. दे० कुंभकारी' ।

कुंभकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भकारी] १. कुंभकार की स्त्री । २. कुलथी । ३. मैनसिल ।

कुंभज
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भज] १. घडे़ से उत्पन्न पुरुष । २. अगस्त्य मुनि । उ०—जासु कथा कुंभज रिषि गाई ।—मानस, १ ।५१ । ३ । ३. वशिष्ठ । ४. द्रोणाचार्य ।

कुंभजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भजन्प्रन] दे० 'कुंभज' ।

कुंभजात
संज्ञा पुं० दे० [सं० कुम्भजात] 'कुंभज' ।

कुंभदास
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भदास] ब्रज के अष्टछाप के कवियों में से एक कवि । यह सखा भाव से कृष्ण की उपासना करते थे ।

कुंभदासी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भदासी] १. कुटनी । दूती । २. कुंभिका । जलकुंभी ।

कुंभधर
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भधर] कुंभराशि ।

कुंभनी पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० कुम्भणी=जल का गर्त] जल भरा छोटा गड्ढा । उ०—रज्जब चेला चख्यहु विन गुरु मिल्या जा चंद । कूप भई पहु कुंभनी क्यूँ पावहिं प्रभु पद ।—ज्वब०, पृ० १४ ।

कुंभपंजर
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भपञ्जर] वह स्थान या अधार जो दीवार में बना हो । गनाक्ष । गौख । ताखा । [को०] ।

कुंभपदी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भपदी] द्रोणपदी [को०] ।

कुंभमंडूक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भमण्डूक] १. घडे का मेढक । २. अनुभवहीन व्यक्ति [को०] ।

कुंभयोनि
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भयोनि] १. अगस्त्य मुनि का एक नाम । २. गूमा का पेड़ ।

कुंभरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भरी] दुर्गा का एक नाम [को०] ।

कुंभरेता
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भरेतस्] अग्नि का एक नाम [को०] ।

कुंभला
संज्ञा स्त्री० [सं०कुम्भला] गोरखमुंडी ।

कुंभशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भशाला] मिट्टी के घडे़ बनाने का स्थान [को०] ।

कुंभसंधि
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भसन्धि] हाथी के सिर का वह गड्ढा जो उसके दोनों कुंभों के बीच में होता है ।

कुंभसंभव
संज्ञा पुं० [सं कुम्भसम्भव] अगस्त्य मुनि का एक नाम । उ०—जयति लवणांबुनिधि कुंभसंभव महा दनुज दुर्जन दवन दुरित हारी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुंभहनु
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भहनु] रावण का दल का एक राक्षस का नाम, जिसे वाल्मीकि के अनुसार तार नामक बंदर ने मारा था ।

कुंभांड
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भाण्ड] बाणासुर के एक मंत्री का नाम ।

कुंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भा] १. वेश्या । २. नागदंती ।

कुंभार पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भकार] कुम्हार । उ०—भल कए पुछलए धुरि संसार, तर सूते गढ़ि काट कुंभार ।— विद्यापति, पृ० ४३४ ।

कुंभिक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भिक] १. एक प्रकार का नपुंसक ।

कुंभिका
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भिका] १. कुंभी । जलकुंभी । २. वेश्या । ३. कायफल । ४. आँख का एक रोग, जिसमें पलकों के किनारे आँखों की कोरं में छोटी छोटी फुसीयाँ हो जाती हैं । वैद्यक के अनुसार यह रोग त्रिदोष से उत्पन्न होता है । इसे बीलनी भी कहते हैं । ५. परवल की लता । ६. एक रोग जिसमें लिंग पर जामुन की बीज की तरह फुड़िया होती है । यह रोग उन लोगों को हो जाता है जो लिंग बढ़ाने का इलाज करते हैं । शूक रोग । ७. छोटा घड़ा । गगरी (को०) ।

कुंभिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भिनी] १. पृथ्वी । २. जमालगोटा का वृक्ष । यौ०—कुंभिनीफल कुंभिनीबीज = जमालगोटा ।

कुंभिर
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भी] मछली फँसाने का काँटा । बँसी । उ०—बंसी कुंभिर मीहा, मच्छघातिननी नाम । बेसरसों उलझी जुलट, मानों बंसी काम ।—नंद० ग्रं०, पृ० ८२ ।

कुंभिल, कुंभिलक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भिल, कुम्भिलक] १. वह चोर जो सेंध लगाता हो । सेंधिया चोर । २. वह संतान जो अपूर्ण व्यस् में अथवा अपूर्ण गर्भ से उत्पन्न हो । ३. साला । की मछली । प्रकार ४. एक ५. साहित्यक चोरी करनेवाला । साहित्यिक चोर (को०) ।

कुंभी (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भिन्] हाथी । २. मगर । ३. गुग्गुल या वह पेड़ जिससे गुग्गुल निकलता है । ४. एक जहरीला कीड़ा । ५. पारस्कर के अनुसार एक राक्षस जो बच्चों को क्लेश देता है । ६. एक प्रकार की मछली । ७. आठ की संख्या (को०) ।

कुंभी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भी] १. छोटा घड़ । २. कायफल का पेड़ । ३. दंती का पेड़ । दाँती । ४. पांडर का पेड़ । ५. तरबूज । ६. बंसी । ७. एक पेड़ । विशेष—इसकी लकड़ी इगारते और आरायसी चीजें बनाने में काम आती हैं । इसकी छाल से चमड़ा सिझाते और रस्सी बटते हैं, और फल, जिसे कुन्नी (खुन्नी) कहते हैं, पंजाब के लोग खुद खाते और पशुओं को खिलाते हैं । ८. एक बनस्पति जो जलाशयों में पानी के ऊपर फैलती है । जलकुंभी । विशेष—इसके पत्ते चार पाँच अंगुल लंबे औऱ उतने ही चौडे तथा मोटे दल के होते हैं । इसकी जड़ भूमि में नहीं होती, बल्कि पानी पर सतह के नीचे होती है । यह फूलती फलती नहीं दिखाई देती, पर इसके बीज अवश्य होते हैं । इसकी बहुत सी जातियाँ होती हैं जिनकी पत्तीयाँ भिन्न भिन्न आकार के होती हैं । ८. एक नरक का नाम । कुंभीपाक नरक । १०. सलई का पेड़ । ११. गनियारी या अर्णी का पेड़ा । १२. तल । आधार । उ०— उन स्तंभो की कुंभियों (आधार) पर शिल्पियों ने एक एक करके 'अ' को छोडकर 'अ' से 'ट' तक के अक्षर खोद डाले हैं ।—भा० प्रा० लि०, पृ०४६ ।

कुंभीक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भिक] १. एक प्रकार का नपुसंक । इसे गुदयोनि भी कहते हैं । कुंभिक । २. कुंभी । जलकुंभी । पुन्नाग वृक्ष ।

कुंभीका
संज्ञा स्त्री० [सं० कुभीका] १. कुंभी । जलकुंभी । २. आँख का एक रोग । कुंभिका । बिलनी । ३. एक प्रकार का रोग जो व्यभिचारियों और लिंग बढ़ाने का औषध करनेवालों को हो जाता है । कुंभिका । शूक रोग ।

कुंभीधान्य
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीधान्य] घड़ा या मटका भर अन्न, जिसे कोई गृहस्थ परिवार छह दिन, या किसी किसी के मत से साल भर तक खा सके । विशेष—मनु, याज्ञवल्क्य आदि संहितकारों के मत से प्रत्येक व्यक्ति को अपने कुटुंब के पालन के लिये कुछ निश्चित दिनों के वास्ते अन्न संग्रह कर रखना चाहिए । इस प्रकार रखे हुए अन्न को 'कुंभीधान्य' भी कहते हैं ।

कुंभीधान्यक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीधान्यक] घड़ा भर अन्न रखनेवाला । उतना अन्न रखनेवाला जितना कोई गुहस्थ छह दिन या किसी के मत से सालभर खा सके ।

कुंभीनस
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीनस] [स्त्री० कुम्भीनसा] १. क्रूर साँप । २. एक प्रकार का जहरिला कीड़ा । ३. रावण ।

कुंभीनसि
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीनसि] शंबर नाम का असुर ।

कुंभीनसी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भीनसी] लवणासुर की माता जो सुमाली राक्षस की चार कन्याओं में से एक थी और कैतुमती से उत्पन्न हुई थी ।

कुंभीपाक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीपाक] १. पुराणानुसार एक नरक जिसमें मांस खाने के लिये पशु पक्षी मारनेवाले लोग खौलते हुए तेल में डाले जाते हैं । २. एक प्रकार का सन्निपात जिसमें नाक के रास्ते काला खून जाता और सिर घूमता है । ३. हँडिका में पकाई हुई वस्तु (को०) ।

कुंभीपाकी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भीपाकी] कायफल [को०] ।

कुभीपुर पु
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीपुर] हस्तिनापुर । पुरानी दिल्ली ।

कुंभीमद
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीमद] हाथी के मस्तक से चूनेवाला मदजल [को०] ।

कुंभीमुख
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीमुख] चरक के अनुसार एक प्रकार का फोड़ा ।

कुंभीर
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीर] १. नक्र या नाक नामक जंतु जो जल में होता है । २. एक प्रकार का छोटा कीड़ा । ३. एक यक्ष ।

कुंभीरक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीरक] चोर [को०] ।

कुंभीरासन
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीरासन] योग में एक प्रकार का आसन, जिसमें भूमि पर चित लेटकर एक पैर को दूसरे पैर पर और दोनों हाथों को माथे पर रख लेते हैं ।

कुंभील, कुंभीलक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भील कुम्भीलक] १. ताकर । चोर । २. नक्र । घड़ियाल [को०] ।

कुभीवल्क
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीवल्क] कायफर [को०] ।

कुंभेर
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुम्भेर] खंभारी । खंभारि । गंभारि ।

कुंभीदर
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भोदर] महादेव का एक गण का नाम । रघुवंश के अनुसार इसी ने सिंह बनकर वशिष्ठ की गौ नंदिनी पर आक्रमण किया था ।

कुंभोलूक
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भीलूक] एक प्रकार का उल्लू जो बहुत बड़ा होता है ।

कुँअर
संज्ञा पुं० [सं० कुमार] [स्त्री० कुँअरी] १. लड़का । पुत्र । बालक । यौ० — राजकुँअर । २. राजपुत्र । राजकुमार । उ०— देखन बाग कुँपर दोउ आए । वय किशोर सब भाँति सुहाए । —तुलसी (शब्द०) ।

कुँअरपुरिया
संज्ञा पुं० [हिं० कुअरपुर ] एक प्रकार की हलदी जो कटक के पास कुँअरपुर राज्य सें पैदा होती है । विशेष — यह प्रति पाँचवे वर्ष खेत से खोदी जाती है । इसकी जड़ या पत्ती लंबी होती है । इसके खेत में भैंस के गोबर की खाद दी जाती है ।

कुँअरप्पन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] कुमारपन । कौमारावस्था । कौमार्य । उ०— कुँअरप्पन प्रथिरान तपै तेजह कु महावर । सुकल बीजु दिन हुतें कला दिन चढ़त कलाकर । — पृ० रा०, ५ ।२ ।

कुँअराविरास
संज्ञा पुं०[हिं० कुँअर + विलास] कुँअर विलास । एक प्रकार का धान या चावल । उ०— घी खाड़ों औ कुँअर- विरासू । रामदास आवै अति वासू । —जायसी (शब्द०) ।

कुँअरि, कुँअरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमारी, प्रा० कुँआरी ] १. कुमारी । कन्या । २. राजकुमारी । उ०— (क) कुँअरी कुँआरी राहौ का करऊँ । —तुलसी (शब्द०) । (ख) कुँअरी पिंगल रायनी, मारुवणी तस नाम । ढोला०, दू० ९० ।

कुँअरेटा पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं० कुँअर + एटा (प्रत्य०) ] [स्त्री० कुँअरेटी] लड़का । बालक । उ०— लालन माल जरी पट लाल सखी सँग बाल वधू कुँअरेटी ।— देव (शब्द०) ।

कुँअर पु †
संज्ञा पुं० [स० कुवल्य, प्रा० कुअलअ ] द० 'कमल' । उ०— जंघ कुपतल करी कुँअल, झीणी लंब प्रलंब । ढोला एही मारुइ जाणि क कणयर कंब ।— ढोला०, दू० ४७३ ।

कुँआ
संज्ञा पुं० [सं० कूप, प्रा० कूव, कूय] [स्त्री० अल्पा० कुँइयाँ] कुँआ । कूप ।

कुँआरा
वि० [सं० कुमारक] [स्त्री० कुँआरी ] जिसका ब्याह न हुआ हो । बिन ब्याहा । उ०—सुकृत जाइ जो पन परिहरऊँ । कुँअरी कुँआरी रहौं का करऊँ । —तुलसी (शब्द०) ।

कुँइयाँ
संज्ञा स्त्री० [सं० कूपीका, प्र० कूविया ही० कुँआ] छोटा कुँआ । उ०— गगन मंडल बिच उर्धमुख कुइयाँ ।—कबीर श०, पृ० ५७ । यौ० — कठकुइयाँ = वह छोटा कुँआ जो काठ से बँधा हुआ हो ।

कुँईं
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी, प्रा० कुउई] कुमुदनी । उ०— कानों में गुड़हल खोस धवल, या कुँई, कनेर, लोध, पाटल ।— ग्राम्या पृ० १८ ।

कुँकुँ †
संज्ञा पुं० [हिं० कुँमकुम] दे० 'कुंकुम' उ०— मोती का आसा किया कुँकु चंदन तिलक सिंदूर ।—बी० रासो, पृ० २० ।

कुँजड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कुंज + ड़ा (प्रत्य०) या देश०] [स्त्री० कुँजडी,कुजड़िन] एक जाति जो तरकारी बोती और बेचती है । इस जाति के लोग प्रायः अब मुसलमान हो गए हैं । मुहा०— कुँजडे कसाई = नीच जाति के लोग । नीची श्रेणी के मुसलमान । कुँजडे का गल्ला = (१) वह गल्ला, राशि या वस्तु जिसके लेनदेल का लेखा न लिखा जाता हो । (२) बे सिर पैर का लेखा । गड़बड़ हिसाब । (३) गोलमाल । गड़बड़ । कुँजडें की दूकान = वह स्थान जहाँ सब छोटे बडें जा सकें या जहाँ भीडभाड़ ओर शोरगुल हो । जैसे — क्या तुम लोगों ने कचहरी को कुँजडे़ की दूकान समझ लिया है ?

कुँजड़ई, कँजड़ाई पु
वि० [हिं० कुँजडा + ई (प्रत्य०)] कुँजडापन उ०— गुरू शब्द का बैगन करि लै तब बनिहै कुँजडाई । — कबीर श०, भा० ३, पृ० ४८ ।

कुँड़
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड ] १. खेत में वह गहरी रेखा जो हल जोतने से पड़ जाती है । दै० 'कूँड़' ।

कुँडपुजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुण्ड + पूजाना = भरना ] किसानों का एक उत्सव जो उस दिन किया जाता है जिस दिन रबी की बोआई समाप्त होती है । कुँडमुदनी ।

कुँडबुजी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० कुँण्ड + बजना = भरना ] कुँडपुजी । कुँडमुदनी ।

कुँडमुदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुण्ड + मूँदना ] कुँडपुजी ।

कुँड़रा
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डल] [स्त्री० अल्पा० कुँडरी ] १. मंडलाकार खींची हुई रेखा (क) जिसके भीतर खडे़ होकर लोग शपथ करते थे । (ख) जिसके भीतर किसी वस्तु को रखकर उसे मंत्र आदि से रक्षित करते थे, और (ग) जिसके भीतर भोजन रखकर उसे छूत से बचाते हैं । २. कई फेरे दैकर मंडलाकार लपेटी हुई रस्सी या कपड़ा जिसे सिर के ऊपर रखकर बोझ या घड़ा आदि उठाते हैं । इंडुवा । गेंडरी ।

कुँडरा (१)
संज्ञा पुं० [ सं० कुण्ड +हिं० रा० (प्रत्य०)] कुंडा । मटका ।

कुँडरा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुण्डल] इंडुरी । गेंडुरी ।

कुँडाला
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड + हिं० ला (प्रत्य०) ] मिट्टी की कूँडी या पथरी जिसमें कालाबतू बनानेबाले टिकुरियों पर कलाबतू लपेटकर रखे रहते हैं ।

कुँडिया
संज्ञा स्त्री० [सं० कुण्ड + हिं० इया (प्रत्य०) ] १. एक चौखूँटा गडाढा जो शोरे के कारखानों में होता है । कोठी । बिशेष — यह गड्ढा दे हाथ चौड़ा, पाँच हाथ लंबा और हाथ भर गहरा होता है । शोरा जमाने के लिये इसमें नोनी मिट्टी पानी में मिलाकर डाली जाती है । २. मिटाटी का बरतन जिसमें बादले की पिटाई करनेवाले पीटने के निये बादला रखते हैं । कूँडी ।

कुँढवा †
संज्ञा पुं० [ सं० कुण्ड + हिं० वा (प्रत्य) ] मिटाटी का कूजा । कुल्हिया । पुरवा ।

कुँण †
सर्व [ सं० कः ] कौन । उ०— करै कुँण तेज परमाण काया ।— रघु० रू०, पृ० २९ ।

कुँदना
संज्ञा पुं० [ हीं० कुँदन = सोना ] बाजरे का एक रोग जिससे डंठल लाल हो जाते है, बाल में काली काली धूल जम जाती है और दाने नहीं पड़ते ।

कुँदरू
संज्ञा पुं० [सं० कण्डुर = करेला] एक बेल जिसमें चार पाँच अगुल लंबे फल लगते हैं और जिनकी तरकारी होती है । विशेष — ये फल पकने पर बहुत लाल होते हैं, इसी से कवि लोग ओठों की उपमा इनसें देते हैं । कुँदरू की पत्तियाँ चार पाँच अंगुल लंबी और पचकोनी होती हैं । इसमें सफेद फूल लगते है । वैद्यक में कुँदरू का फल शीतल, मलस्तंभक, स्तनों में दूध उत्पन्न करनेवाला तथा श्वास, दमा, वात और सूजन को दूर करनेवाला माना गया है । इसकी जड़ प्रमेहनाशक और धातुवर्धक मानी गई है । बरई प्रायः अपने पान के भीटों पर परवल की तरह इसकी बेल भीं चढ़ाते हैं । कुँदरू के विषय में यह भी प्रवाद चला आता है कि यह बुद्धिनाशक होता है । पर्या०—बिंबी । बिंबा । रक्तफला । तुंडी । औष्टोपसफला ओष्ठी । कर्मकरी । गोह्णी । छर्दिनी ।

कुँदला
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का खेमा या तंबू ।

कुँदेरना
क्रि० स० [ सं० कुदलन = खोंदना या सं० कुन्दकरण = छिलना खुरचना ] खुरचना । ठिसना । खरोचना । खूड़हेरना ।

कुँदेरा
संज्ञा पुं० [ सं० कुन्दकर = खरादनेवाला अथवा हिं० कुँदेरना + एरा (प्रत्य०) तुलनीय फा० कुँदह् कार] [स्त्री० कुँदनेरी] खरादनेवाला । खरादी । कुनेरा । उ०— कनक दंड दुइ भुजा कलाई । जानहु फेर कुँदेरे भाई ।— जायसी (शब्द०) ।

कुँभडा †
संज्ञा पुं० [ सं० कुष्माण्ड] दे० 'कुम्हड़ा' ।

कुँभार
संज्ञा पुं० [सं० कुम्भकार] कुम्हार ।

कुँभिलाना
कि० अ० [हि०] दे० 'कुम्हलाना' ।

कुँमर पु
संज्ञा पुं० [सं० कुमार ] दे० 'कुँवर' । उ०—किर मोसों मैया फिर कहीहैं, कुँमर कछुक तुतराई ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २३३ ।

कुँवर
संज्ञा पुं० [ सं० कुमार, प्रा० कुँवार ] [स्त्री० कुँवरी] १. लड़का । पुत्र । बेटा । २. राजपुत्र । राजा का लड़का ।

कुँवराई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कोमल] मृदुता । १. कोमलता । उ०— हेम कँवल तन सुंदरताई । फूल सरीख गात कुँवराई ।— चित्रा०, पृ० २११ ।

कुँवरी
संज्ञा स्त्री० [सं०कुमारी] १. कुआरी । २. राजकन्या । उ०— इक दिन राधे कुँवरि, स्याम धर खेलनि आई ।— नंद० ग्रं०, पृ० १९४ ।

कुँवरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमारी] दे० 'कुँवरि' ।

कतुंवरेटा
संज्ञा पुं० [हिं० कुँवर + एटा (प्रत्य०) ] [स्त्री० कुँवरेटी] बालक । छोटा लड़का । बच्चा ।

कुँवाँ
संज्ञा पुं० [सं० कुप] सं० 'कुआँ' ।

कुँवारा
वि० [सं० कुमार, प्रा० कुवार ] [स्त्री० कुवीरी ] जिसका ब्याह न हुआ हो । बिन ब्याहा । जैसे,—वह अभी कुँवारा है । उ०— सो वाको एक बेटी कुँवारी हती । सो कन्या के निमित्त वह वर ढूढ़न को गयो ।— दो सौ बावन०, पृ० ३७ ।

कुँहकुँह पु †
संज्ञा पुं० [ सं० कुङुम ] केशर । जाफरान । उ०— कोई कुँहकुँह परिमल लिए रहैं । लावै अंग रहस जनु चहै । — जायसी (शब्द०) ।

कुँहड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कुष्माण्ड ] कुम्हड़ा । उ० — कद्दू कुँहडै़ थैले, खरबूजे मटमैले । —आराधना, पृ० ७५ ।

कु (१)
उप [सं०] एक उपसर्ग जो संज्ञा के पहले लगकर विशेषण का काम देता है । जिस शब्द के पहले यह लगाया जाता है, उसके अर्थ में 'निच', 'कुत्सित' आदिका भाव आ जाता है । जैसे— संग कुमंग । पुत्र, कुपुत्र । टेव, कुटेव आदि । पर जिन शब्दों के आदि में स्वर होता है उनमें लगने से पहले इसका रूप 'कदू' (कदू) हो जाता है । जैसे— कदन्न, कदाचार, कदुष्ण । हिंदी में यह नियम नहीं है, जैसे कुअन्न, कुअसर आदि शब्दों में । इसके रूप 'कव' का भी मिलते हैं । जैसे,— किंप्रभु ।

कुँ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथिवी । यौ०— कुंज । २ . त्रिकोण बा त्रिभुज का आधार (को०) ।

कुँअटा †
संज्ञा पुं० [ सं० कुप, प्रा० कूव + हिं० टा (प्रत्य०) ] कुआँ । उ०— कुअटा एक पंच पनिहारी टूटी, लेजुरि भरैं मतिहारी ।—कबीर सा० सं०, भा०, २, पृ० ७ ।

कुँअन्न
संज्ञा पुं० [ सं० हिं० कु (खराब) + अन्न =] रद्दी अन्न । मोटा अनाज । रसहीन अन्न । उ० — अब अढ़ाई तीन सेर का मिलता है वह भी अन्न नहीं, कुअन्न । —अभिशप्त, पृ० २३ ।

कुअवसर
संज्ञा पुं० [हिं०] अनुपयुक्त समय या वातावरण । उ०— जानि कुअसर प्रीति दुराई । —मानस १ । ६८ ।

कुआँ
संज्ञा पुं० [सं० कूप, प्रा० कुव] पानी निकालने के लिए पृथ्वी में खोदा हुआ एक गहरा गड्ढा । कूप । विशेष — यह भीतर पानी की तह तक चला जाता है । इसके किनारे को लोग ईट या पत्थर से बाँधते हैं । इसके घेरे को जो पहले खोदा जाता है, भगाड़ या ढाल कहते । भगाड़ खोदे जाने पर उसमें लकड़ी के पहिए के आकार का चक्र रखते हैं जिसे निवार या जमवट कहते हैं । इसी निवार के ऊपर ईटों की जोड़ी होती है जिसे कोठी करते हैं । किसी किसी कोठी में दो निवार लगाए जाते हैं । दूसरा निवार पहले निवार के पाँच छ हाथ ऊपर रहता है और दोनों के बीच में पतली लकड़ियों की पटरियाँ लगाई जातीं हैं जिन्हे कैंची कहते हैं । कोठी तैयार हो जाने पर उसके बीच को मिट्टी निकाली जाती है जिससे कोठी नीचे धँसती जाती है और कुआँ गहरा होता जाता है । इस क्रिया को कोठी गलाना कहते हैं । इस प्रकार कई बार कोठी गलाने पर भीतर पानी का स्त्रोत मिलता हैं । पतले स्त्रोत की 'सोती' और मोटे स्त्रोत को 'मूसला' कहते हैं । कुएँ के ऊपर मुँह पर जो चबूतरा बनाया जाता हैं, वह 'जगत' कहलाता है कुएँ के मुँह पर के चौकठे को 'जाल' कहते हैं । पर्या०—कुप । अंधु । प्रहि । उदपान । अवट । कोट्टार । कात । कर्त । वज्र । काट । खात । अवत । क्रिवि । सूद । उत्स । श्रृष्यदात् । कारोतरात् । कुशेष । केवट । मुहा०— कुँआँ खोदना = (१) दूसरे की बुराई का सामान करना । दूसरे का नाश करने या उसे हानि पहुँचाने का प्रयत्न करना । जैसे — जो दूसरे के निये कुँआँ खोदता है, वह आप गिरता है । (२) जीविक के लिये परिश्रम करना । जैसे — उन्हें तो रोज कुँआँ खोदना और खाना है । कुँआँ जलाना या जोतना= कुएँ से खेत सीचने के लिये पानी निकालना । कुआँ या कुएँ झाँकना = यत्न में इधर उधर दौड़ना । खोज में चारो ओर मारे मारे फिरना । कोशिश में हैरान घूमना । जैसे,— इसके लिये हमें कितने कुएँ झाकने पडे़ । कुआँ या कुएँ झाकाना, झाकवाना = खोज में हैरान करना । यत्न में इधर उधर घुमाना । जैसे,— इस वस्तु ने हमें कितने कुएँ झँकवाए । (लोगों का विश्वास है कि कुत्ते के काटने का विष सात कुएँ झाँकने से उतर जाता है । इसी बात से यह मुहाविरा लिया गया है ।) कुएँ में गिरना = आपत्ति में फँसना । विपत्ति में पड़ना । जैसे,— जो जान बूझ कर कुएँ में गिरता है, उसे कोई कहाँ तक बचाएगा । कुएँ की मुट्टी कुएँ में लगना = जहाँ की आमदनी हो वहीं खर्च होना । कुएँ में डाल देना = जन्म नष्ट करना । सत्यानाश करना । जैसे,— ऐसी जगह संबंध करके तुमने लड़की कुएँ में डाल दी । कुएँ में बाँस डालना = बहुत तलाश करना । बहुत ढूँढना । बहुत छानबान करना । जैसे,— तुम्हारे लिये कुओं में बाँस डाने गए, इतनी देर कहाँ थे । कुएँ में बाँस पड़ना = बहुत खोज होना । कुएँ में भाँग पड़ना = मडली की मंडनी का उन्मत होना । सबकी बुद्धि मारी जाना । जैसे, — यहाँ तो कुँए में भाँग पड़ी है, कोई कुछ सुनता ही नहीं है कुएँ में बोलना या कुएँ में से बोलना = इतने धीरे मे बोलना कि सुनाई न पडे़ । कुएँ पर मे प्यासे आना = ऐसे स्थान पर पहुँचकर भी निराश लौटना जहाँ कायँ सिद्धि की पूरी आशा हो । यो०— अंधा कुआं = वह अँधेरा कुआँ जिसमें पानी न हो और जो घासपात मे ढका हो ।

कुआड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + हि० आड़ी] संगीत में वह लय जिसमें बराबर और डयोढ़ी (आड़ी) दोनो लयें पाई जायँ ।

कुआर
संज्ञा पुं० [सं० कुमार, प्रा० कुवार] [ वि० कुआरा ] हिंदुस्तानी सातवा महीना जो भादो के बाद और कार्तिक के पहले होता है । आसिन । आश्विन । असौज । विशेष— शरद ऋतु का प्रारंभ इसी महीने से माना जाता है । इस महीने के कृष्णपक्ष को पितृपक्ष और शुक्लपक्ष को देवपक्ष कहते हैं । सूर्य इस महीने में कन्या राशि का होता है और कन्या की सक्रांति प्रायः इसी महीने में पड़ती है ।

कुआरा
वि० [हि० कुआर] [वि० स्त्री० कुआरी ] कुआर का । जो कुआर में हो । उ०— माघ पुस की बादरी, और कुआरा घाम । ई तीनों परितेज के, करे पराया काम । — (शब्द०) ।

कुआरी (१)
वि० [देश०] क्वार मास में होनेवाला । जैसे, — कुआरी फसल, कुआरी धान ।

कुआरी (२)
संज्ञा पुं० क्वार में होनेवाला मोटे किस्म का एक धान ।

कुइंदर †
संज्ञा पुं० [हि० कुआँ + बर = जगह ] वह गड्ढा जो कुएँ के दब या बैठ जाने से उस स्थान पर बह जाता है ।

कुईयाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुआँ] छोटा कुआँ । यौ०—कठकुईयाँ ।

कुइला †
संज्ञा पुं० [ सं० कोकिल, देश, केइला (देशी० २ ।४८), हिं० कोयला ] कोयला । उ०—ढाढी एक सँदेसड़उ, प्रीतम कहिया जाइ । मा धण बलि कुइला भई भसम ढँढोलिसि आइ ।—ढोला०, दू० ११२ ।

कुई †
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० कुँई ।

कुई
संज्ञा स्त्री० [ देश० ] एक जंगली मनुष्य जाति । उ०—महाराष्ट्र, उड़ीसा और चोदि, कोशल के सीमांत जंगलों में रहनेवाले गोंड़ तथा कुई लोगों की बोलियों के साथ सीधा और स्पष्ट नाता है । — भारत० नि०, पृ० २३९ ।

कुकटी
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुक्कुटी = सेमल] कपास की एक जाति जिसकी रूई ललाई लिए सफेद रंग की होती है । यह गोरखपुर, बस्ती आदि जिलों में बोई जाती है ।

कुकठ
वि० [ सं० कुकाष्ठ, प्रा० कु +कठ्ठ = शुष्क, अथवा सं० कुकथ्य ] शुष्कहृदय । अरसिक । जो (प्राणी) कहने योग्य न हो । उ०— उलिगणाँ गुण वरणतां । कुकठ कुमाणसाँ जिण कहइ रास । — बी० रासी, पृ० २ ।

कुकड़ना
क्रि अ० [ हिं० सिकुड़ना ] सिकुड़कर रह जाना । संकुचित हो जाना । उ०— कोढ़िनि सी कुकरे कर कंजनि केशव श्वेत सबै तन तातो । — कोशव (शब्द०) ।

कुकड़बेल
संज्ञा स्त्री० [ सं० कु + कटुवल्ली ] बंडाल ।

कुकड़ी
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुक्कुटी ] १. कच्चे सूत का लपेटा हुआ लच्छा, जो कातकर तकले पर से उतारा जाता है । मुड्ढा । अंटी । २. मदार का डोडा या फल । ३. दे० 'खुखड़ी' । ४. मुरगी । उ०— कुकड़ी मारे बकरी मारे, हक हक करि बोलै । सबै जीव साई के प्यारे, उबरहुगे किस बोलै ।— कबीर ग्र०, पृ० १०८ ।

कुकनू
संज्ञा पुं० [यू०] एक पक्षी, जिसके बारे में यह प्रसिद्ध है कि वह अकेला नर ही पैदा होता है । उ०— कुकनू पंख जइस सर साजा । तस सर सा़जि जरे चह राजा ।—जायसी (शब्द०) । विशेष — यह गाने में बहुत निपुण समझा जाता है । कहते हैं, इसकी चोच में बहुत से छिद्र हाते है, जिनमें से तरह तरह के स्वर निकलते हैं । इसका गान ऐसा विलक्षण होता है कि उसमें से आग निकलती है । जब यह पूर्ण युवा होता है, तब बसंत ऋतु में लकड़ियां संग्रह कर उसपर बैठ कर गाता है । इसके गाने से आग निकलती है और यह जलकर भस्म हो जाता है । जब वरसात आती है, तब पाना पड़ने से इसकी राख में से अंडा निकल आता है जिससे कुछ दिनो में एक दूसरा पक्षी निकलता है । इसे फारसी में 'आतशजन' कहते है ।

कुकड़ि
संज्ञा पुं० [ सं० कु + कवि] बुरा कवि । कम प्रतिभावाला कवि । उ०— सब गुन रहित कुकबि कृत बाती । राम नाम जस अकित जानी ।— मानस, १ । १० ।

कुकभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मद्य [को०] ।

कुकर
संज्ञा पुं० [अं०] रसेई बनाने का एक आधुनिक यंत्र जिसपर एक साख अनेक चिजैं बनाई जाती हैं ।

कुकरी (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुक्कुट, कुक्कुटी, पुं० ही० कुकडी (कबीर), कुकड़ा (खुसरो) ] मुरगी । बनमुरगी । उ०— हारिल चरज आइ बँद परे । बनकुकरी, जलकुकरी घरे । — जायसी (शब्द०) । २. कच्चे सूत का लपेटा हुआ लच्छा । अंटी । कुकड़ी । मुड्ढा । उ०— छह मास तागा बरस दिन कुकरी । लोग बोलो भल कातल बपुरी ।—कबीर (शब्द०) ।

कुकरी (२) †
संज्ञा स्त्री० [देश० ] १. पीड़ा । दर्द । २. वह झिल्ली या सल जो घाव पर पड़ जाती है । पर्दा । झिल्ली । ३. खुखड़ी ।

कुकरौंदा
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुरद्रु] दे० 'कुकरौंधा' ।

कुकरौंधा
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुरद्रु] ओषधि में प्रयुक्त होनेवाला एक प्रकार का छोटा पौधा । विशेष — इसकी पतियाँ पाल की पत्तियों से कुछ बड़ी होती हैं । इससे एक प्रकार की कड़ी गंध निकलती है । बरसात के अंत में ठढी जगहों पर या मोरियों के किनारे यह उगता है । पहले इसकी पतियाँ बड़ी होती हैं, पर डालियों निकलने पर वे क्रमशः छोटी होने रोएँ होने लगती हैं । पत्तियों और डालियों पर छोटे छोटे घने रोएँ होते हैं जिनके कारण वे बहुत मुलायम मालूम होती हैं । जब यह हाथ डेढ़ हाथ का हो जाता है, तब इसकी चोटी पर मंजरी लगती है, जिसमें तुलसी की भाँति बीज निकलते हैं, जो पानी में ङालने पर इसबगोल की भाँति फूल जाते हैं । वैद्यक के अनुसार यह कड़वा, चरपरा और ज्वरनाशक है तथा रक्त और कफ के दोष को दूर करता है । यह आमरक्त, संग्रहणी और रक्तातिसार में भी उपकारी होता है । पर्या०—कुकुंदर । कुक्करदु । कुकुरमुत्ता । कुकरौंदा ।

कुकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] बुरा काम । खोटा काम ।

कुकर्मी
वि० [ हि० कुकर्म + ई (प्रत्य०)] बुरा काम करनावाला । पापी । खोटा ।

कुकस † पु
संज्ञा पुं० [ सं० कूकूल, प्रा० कुकुस, कुक्कुस =तुष, भूसी] अभक्ष्य पदार्थ । साधारण भोज्य पदार्थ । निकृष्ट पदार्थ । उ०— पूरब देश को पूरब्यालोक, पानफूलाँ तणउ तुँ लहइ भोग । कण संचइ कुकस भखइ आति चतुराई राजा गढ ग्वालेर । —बी० रासो०, पृ० ३५ ।

कुकील
संज्ञा पुं० [सं०] पहाड़ । पर्वत [को०] ।

कुकुंदर
संज्ञा पुं० [सं० कुकुन्दर] १. कुकरौंधा । २. चुतड़ पर का गड्ढा ।

कुकुज
संज्ञा पुं० [देश० ] एएक विशेष फूल या वृक्ष उ०— देत कुकुज कंकोल लो देवल सीस चढ़ाय ।— दीन ग्रं०, पृ० ९९ ।

कुकुत्संद
संज्ञा पुं० [कुकुत्सन्द] एक बुद्ध का नाम जो गौतम से पहले हुए थे ।

कुकुद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह पिता जो अपनी कन्या को विधिवत् पूरी साजसज्जा के साथ दान करता है [को०] ।

कुकुद (२)
संज्ञा पुं० [ सं० ककुद] १. चोटी । शिखर । २. सींग । ३,राजचिह्न । ४. बैल का डिल्ला । उ०— जब तें तेरे कुचि, रुचिर, हरि हेरे भरि नेन । कनक कलस कंबुक कुमुद, नीके तनक लगें न ।— स० सप्तक, पृ० २५७ ।

कुकुदमत
वि० [सं० ककुदमत्] चोटी या शृंगवाला । डिल्लवाला । उ०— पागुर करते दृढ निर्द्वद्व ककुद्मत् शैल वृषभपत् ।— अतिमा, पृ० १३७ ।

कुकुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राग का नाम । वि० दे० 'ककुभ' २. एक मात्रिक छंद जिसके प्रत्येक चरण में १६ और १४ के विश्राम से ३० मात्राएँ होती हैं । छंद के पादांत में दो गुरुका होना आवश्यक है । जैसे, — गिरिधर मोहन बंशीधारी, राधापति हरि बलबीरा । ब्रजबासी संतन हितकारी, शूरा हलधर रणधीरा । सुंदर रामप्रताप मुरारी, जसुदा को पीछो छीरा । चक्रपाणि कह सुनौ बिहारी, चितवन से हर मम पीरा ।

कुकुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी । वि० दे० 'ककुभा' ।

कुकुर
संज्ञा पुं० [सं०] १. यदुवंशी क्षत्रियों की एक जाति । ये लोग अंधक राजा के पुत्र कुकुर के वंशज माने जाते हैं । पर्या०—यादव । दाशार्ह । सात्वत । कुंक्कुर । २. एक प्रदेश जहाँ कुक्कुर जाति के क्षत्रिय रहते थे । यह देश राजपूताने के अंतर्गत है । ३. एक साँप का नाम । ४. कुता । ५. गंठिवन का पेड़ ।

कुकुरआलू
संज्ञा पुं० [हिं० कुकुर + आलू] एक बेल जो नैपाल, भूटान, आसाम और छोटा नागपुर आदि जंगलों में होती है । इसके कंद या जड़ को अकाल के दिनों में गरीब लोग खाते हैं ।

कुकुरखांसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुक्कुर +खाँसी] वह सूखी खांसी जिसमें कफ न गिरे । ढाँसी ।

कुकुरढाँसी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुकुरखाँसी' ।

कुक्कुरदंत
संज्ञा पुं० [हीं० कुकुर + दंत] [वि० कुकुरदंता ] वह दाँत जो किसी किसी को साधारण दांतों के अतिरिक्त और उनसे कुछ नीचे आड़ा निकलता है तथा जिसके कारण होंठ कुछ उठ जाता है ।

कुकुरदंता
वि० [हि० कुकुरदंत] जिसके मुँह में कुकुरदंत हो ।

कुकुरनिंदिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुकुर + निंदिया ] थोडी सी आहट से भी टूठ जानावाली नींद । श्वाननिद्रा । उ०— नींद नहीं आई, कुकुरनिंदिया की तरह दो एक झपकियाँ लीं ।— काले०, पृ० ३४ ।

कुकुरभंगरा
संज्ञा पुं० [हिं० कुकुर + भँगरा ] काला भँगरा । भँग- रैया । वि० दे० 'भँगरा' ।

कुकरमाछी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुकुर + माछी ] एक प्रकार की मक्खी जो घोडे़, बैल और कुत्ते आदि के शरीर पर लगती और काटती है । यह बहुत दृढ़ होती है । इन मक्खियों का रंग कुछ ललाई लिए हुए भूरा होता है ।

कुकुरमुता
संज्ञा पुं० [ हिं० कुक्कुर + मूत] एक प्रकार की खुमी जिसमें से बुरी गंध निकलती है । वि० दे० 'खुमि' ।

कुकुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुकुर ] १. कुकुड़ी । २. कुतिया । दे० 'कुक्कुर' ।

कुकुरौंछी †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० कुक्कुर + माछी] एक प्रकार की मक्खी । दे० 'कुकुरमाछी' ।

कुकुही (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुक्कुभ, प्रा० कुक्कुह] बनमुर्गी । उ०— मानुस तैं बड़ पापीया, अक्षर गुरुही न मान । बार यार बन कुकही गर्भ धरे चौखान ।— कबीर (शब्द०) ।

कुकुही (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] बाजरे की फसल का एक रोग जिसमें बाल पर काली बुंड़की सी जम जाती है और दाने नहीं पड़ते ।

कुकूण
संज्ञा पुं० [सं० कुकुणक] आँखों का एक रोग जो प्रायः बच्चो को होता है । कुथुरू । रोहा । विशेष — इस रोग में आँखों की पलकों में खुजलाहट होती है और पलक खोलने और मुँदने में कष्ट होता है । इस रोग सें लडके प्रायः आँख मलते हैं, तथा नाक और माथा रगड़ा करते हैं ।

कुकूणक
संज्ञा० पुं० [सं०] दे० 'कुकूण' ।

कुकूद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुकुद (१)' ।

कुकूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूसी । २. भूसी की आग । ३. वह गढ्ढा जिसमें लकड़ियाँ भरी हों । ४. कवच [को०] ।

कुकुलाग्नि
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुकुल + अग्नि] भूसी की आग । तुषाग्नि । तुषानल [को०] ।

कुक्कर
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुर ] दे० 'कुक्कुर' उ० — निषिद्ध मांस बिना हमारा भोजन ही नहिं बनता, कुक्कुर हमारा जलपान है । — भारतेदु ग्रं० भा० ३, पृ० ८५६ ।

कुक्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुर्गा । यौ०— कुक्कुटध्वनि । कुक्कुटमस्तक । कुक्कुटशिख । कुक्कुटांडक कुक्कुटभृत्य । २. चिनगारी । ३. लुक । ४. जटाधारी । मुर्गकेश ।

कुक्कुटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बनमुर्गी । कुकुही । २. निषादी माता और शूद्र पिता से उत्पन्न एक वर्णसंकर जाति ।

कुक्कुटकनाडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक टेढ़ी नली या यंत्र जिससे भरे बरतन चा स्थान से खाली बरतन या स्थान में पानी आदि पहुँचाया जाता है ।

कुक्कुटपाद
संज्ञा पुं० [सं०] गया के पास एक पर्वत का प्राचीन नाम जिसे अब कुर्किहार कहते हैं । विशेष — यह पर्वत गया से आठ कोस उत्तरपूर्व की ओर है । चीनी यात्रियों के यात्राविवरण से मालूम होता है कि यह यह उस समय बौद्धों का प्रधान तीर्थस्थान था । अब भी इसके आसपास कई टूटे फूटे स्तूप और मुर्तियां पाई जाती हैं ।

कुक्कुटमंडप
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुटमण्डप] जैन धर्म के अनुसार वह स्थान जहाँ कोई निर्वाण प्राप्त करता है [को०] ।

कुक्कुटमस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] चव्य । चाब । गजपिप्पली ।

कुक्कुटयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुटयन्त ] दे० 'कुक्कुटनाडी' ।

कुक्कुटव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्रत जो भादों की शुक्ला सप्तमी को होता है । इस दिन स्त्रियाँ संतान के लिये शिव और दुर्गा की पूजा करती हैं ।

कुक्कुटशिख
संज्ञा पुं० [सं०] कुसुम (कुसुंभ) का पेड या फूल ।

कुक्कुटांड
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुटाण्ड] दे० 'कुक्कुटांडक' [को०] ।

कुक्कुटांडक
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुटाण्डक ] सुश्रुन के अनुसार एक धान जो खाने में कसैला और मीठा होता है । दुद्धी ।

कुक्कुटाभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का साँप [को०] ।

कुक्कुटासन
संज्ञा पुं० [सं०] भोगसाधना में एक आसनविशेष [को०] ।

कुक्कुटाहि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सर्प [को०] ।

कुक्कुटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुक्कुटी' ।

कुक्कुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मुर्गी । २. दंभचर्या । पाखंड । ३. सेमल का पेड़ । ४. एक पर्कार का किड़ा । छिपकली या बह्मनी ।

कुक्कुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुर्गा । २.बनमुर्गा । ३. बार्निश [को०] ।

कुक्कुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुक्कुरी] १. कुत्ता । श्वान । २. आंध्र वंश का एक यदुवंशी राजा । ३. यदुवंशियों की एक शाखा । कुकुर ।एक मुनि का नाम । ५. एक वनस्पति । ग्रंथिपर्णी । गांडर (को०) ।

कुक्कुर (२)
वि० गाँठदार । गँठीला ।

कुक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पेट । उदर ।

कुक्षि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पेट । यौ०— कुक्षिसरि(१) पेटू ।(२)स्वार्थी । २. कोख । यौ०— कुक्षिगत = गर्भ या कोख में आगत । गर्भस्थ । कुक्षिज = पुत्र । कुक्षिस्थ = कुक्षिगत । ३. किसी चीज के बीज का भाग । ४. गुहा । ५. संतति । ६. गर्त । गढ्डा (को०) । ७. घाटी (को०) । ८. खाडी (को०) ।

कुक्षि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत के अनुसार एक दानव का नाम २. बलि नामक दानप राजा का नाम । ३. रामायण के अनुसार इक्ष्वाकु का पुत्र जो विकृक्षि का पिता था । ४. बलि का दूसरा नाम । ५. प्रियव्रत का दुसरा नाम ।६. एक प्राचीन देश ।

कुक्षिभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहत्सहिता के अनुसार ग्रहण के सात प्रकार के मोक्ष के भेदों में से एक । विशेष — इसके दो भेद होते हैं । 'दक्षिण कुक्षिभेद' और 'बाम कुक्षिभेद' । जब मोक्ष दाहिनी ओर से होता है, तब उसे दक्षिण कुक्षिभेद और जब बाईं ओर से होता है, तब उसे वाम कुक्षिभेद कहते हैं ।

कुक्षिशूल
संज्ञा पुं० [सं०] पेट की पीड़ा । उदरशुल [को०] ।

कुखड़ी †
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुक्कुटी] कच्चे सूत का लपेटा हुआ लच्छा । अटी । कुकड़ी । उ०— पिउनी पाँच पचिस रंग की, कुखड़ी नाम भजन का ।— कबीर श०, पृ० ७६ ।

कुखेत
संज्ञा पुं० [सं० कुक्षेत्र, पा० कुखेत्त] बुरा स्थान । खराब जगह । कुठाँव । उ०—(क) असगुन होंहि नगर पैठारा । रटहिं कुभांति कुखेत करारा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) चारों ओर ब्यास खगपति के झुंड झुंड बहु आय । ते कुखेत बोलत सुनि सुनि के अंग अंग कुम्हिलाये ।—सूर (शब्द०) ।

कुख्यात
वि० [सं०] निंदित । बदनाम ।

कुख्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] निंदा । बदनामी ।

कुगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गति । दुर्दशा । बुरी हालत । उ०—हम सुगति छोड़ क्यों कुगति विचारें जन की ।—साकेत, पृ० २२० ।

कुगहनि †पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + ग्रहण] अनुचित आग्रह । हठ । जिद । उ०—महामदअँध दसकंध न करत कान मीचु बस नीच हठि कुगहनि गही है ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] पापग्रह । खोटे ग्रह । अनिष्टकारी ग्रह [को०] ।

कुघा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुक्षि] दिशा । ओर । तरफ । उ०— चौहूँ कुघा ताड़िता तड़पै डरपै बनिता कहि केशव साँचै ।— केशव (शब्द०) ।

कुघाइ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कु+ घात, प्रा० घाइ] दे० 'कुघात' । उ०—कहिय कठिन कृत कोमलहु हित हठि होइ सहाइ । पलक पानि पर ओड़िअत समुझि कुघाइ सुघाइ ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०९ ।

कुघात
संज्ञा पुं० [हिं० कु+ घात] १. कुअवसर । बैमौका । २. बुरा दाँव । बुरकी चाल । छल कपट । उ०—बड़ कुघात करि पात- किनि कहेसि कोपगृह जाहु । काजु सँवारेहुव सजेग सब सहसा जनि पतियाहु ।—मानस, २ ।२२ ।

कुचंदन
संज्ञा पुं० [सं० कुचन्दन] १. रक्च चंदन । लाल चंदन । देवी चंदन । २. बक्कम । पटरंग । ३. कुँकुम ।

कुच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन । छाती । यौ०—कुचकुंभ ।—कुचतट । कचतटी = स्तन ।

कुच (२)
वि० १. संकुचित । २. कृपण । कंजुस ।

कुच (३)
संज्ञा पुं० [सं० कञ्चुक] काँचली । केचुल । उ०—साँप कुच छोड़े बिख नहीं छाँड़े । उदक माँहि जैसे बक ध्यान माँड़े ।— दक्खिनी०, पृ० ४० ।

कुच (४) पु
सर्व० [हिं० कुछ] दे० 'कुछ' । उ०—ना कुच खोवे ना कुच पीवे ।—दक्खिनी०, पृ० १६ ।

कुचकार
संज्ञा पुं० [देश०] भेड़ की एक जाति जो गिलगिल के उत्तर हंजा में पाई जाती है । यह पामीर में भी होती है । कुलंजा ।

कुचकुचवा †
संज्ञा पुं० [अनु०] उल्लू ।

कुचकुचाना
क्रि० स० [अनु० कुच कुच] १. लगातार कोंचना । बार बार नुकीली चीज धँसाना या बोंधना जैसे,—मुरब्बे के लिये आँवला कुचकुचाना । २. थोड़ा कुचलना ।

कुचक
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरों को हानि पहुँचानेवाला गुप्त प्रयत्न । षड़यंत्र । साजिश ।क्रि० प्र० —चलाना ।—रचना ।—खड़ा करना ।

कुचक्री
संज्ञा पु० [सं० कुचक्रिन] षड़यंत्र रचनेवाला । गुप्त प्रयत्न करके दूसरों को हानि पहुँचानेवाला ।

कुचना पु
क्रि० अ० [सं० कुञ्चन] सिकुड़ना । सिमटना (क्व०) । उ०—कैपै वर बानी डगै उर डीठ तुचाति कुचै सकुचै मति बेली ।—केशव (शब्द०) ।

कुचफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दाड़िम । अनार [को०] । पु २. स्तन ।

कुचमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का सन या पटुआ जिससे रस्से बनाए जाता है । २. हाथ से किसी स्त्री के स्तन मसलना ।

कुचमुख
संज्ञा पुं० [सं०] स्तन का अग्र भाग । कुचाग्र । चूवुक [को०] ।

कुचर (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कुचरा, कुचरी] १. बुरे स्थानों में घूमनेवाला । आवारा । २. नीच कर्म करनेवाला । ३. वह जो पराई निंदा करता फिरे । परनिंदक । ४. धीरे धीरे चलने वाला । रेंगनेवाला (को०) । ५. बुरी सुहबत का (को०) । ६. चोर (को०) ।

कुचर (२)
संज्ञा पुं० निश्चल वा स्थिर नक्षत्र [को०] ।

कुचरचा
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + चर्चा] अपवाद । अपकथन । निंदा । उ०—राम कुचरचा करहिं सब, सीतहिं लाइ कलंक । सदा अभागी लोग जग कहत सकोचु न संक ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९३ ।

कुचरा †
संज्ञा पुं० [हिं० कुँचा] [स्त्री० अल्पा० कूचरी] झाड़ू ।

कुचराई पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुच्चर] कुचाल । बुरी चाल । उ०— नाम रटन को करत निठुराई कूदि चलै कुचराई ।—धरनी०, पृ० ५ ।

कुचलना
क्रि० स० [हिं० कुचना या अनु०] १. किसी चीज पर सहसा ऐसी दाब पहुँचाना जिससे वह बहुत दब और विकृत हो जाय । मसलना । २. पैरों से रौंदना । पाँव से दबाना । संयो क्रि०—जाना ।—डालना ।—देना । मुहा०—सिर कुचलना = पराजित करना । मान ध्वंश करना । कुचल देना = शक्तिहीन कर देना ।

कुचला
संज्ञा पुं० [सं० कच्चीर] १. एक प्रकार का वृक्ष जो सारे भारतवर्ष में, पर बगाल और मदरास में अधिकता से होता हा । विशेष—इसकी पत्तियाँ पान के आकरा की चमकीले हरे रंग की होती है और फूल लंबे पतले और सफेद होते हैं । फूल झड़ जाने पर इसमें नारंगी के समान लाल और पीले फल लगते हैं, जिनके भीतर पील रंग का गुदा और बीज होता है । कच्चा फल मलावरोधक, वातवर्धक और ठंढ़ा होता है और पक्का फल भारी तथा कफ, बात, प्रमेह और रक्त के विकार को दुर करता है । इसका स्वाद कुछ मिठास लिए हुए कडुवा और कसैला होता होता है । इस वृक्ष की छाल और इसके बीज का उपयोग औषध में होता है । इसके लकड़ी में धुन नहीं लगता और वह बहुत मजबुत और चिमड़ी होती है औऱ गाड़ियाँ, हल, तख्ते आदि बनाने के काम में आती है । ३. इस वृक्ष का बीज जो बहुत जहरीला होता है । कुँचला । विशेष—यह गोल और चपटा होता है । इसके ऊपर मटमैले रंग का छिलका होता है जिसके अंदर दो दालें होती है । जिनके मध्य एक छोटा हरे रंग का अँखुआ रहता है । यह बहुत अधिक कड़ा होता है इसलिये इसका पीसना या तोड़ना बड़ा कठिन होता है । यह कड़ुवा, गरम मादक और बहुत विषैला होता है और कफ, वात रुधिरविकार, कुष्ठ और बवासीर को दुर करता है । वमन कराने और सुगंध सुँघाने से इसका विष उतर जाता है । कुत्ते के लिये यह बहुत घातक होता है । पर्या०—कारस्कर । विघतिंदु । कालकुठक । मर्कटतिंदु । कुपाक । किंपाक ।

कुचली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुचलना] वे दाँत जो डाढ़ों और राजदंत के बीच में होते हैं । ये नोकदार और बड़े होते है । कीला । सीता दाँत ।

कुचांशक
संज्ञा पुं० [सं०] स्तनों को बाँधने का वस्त्रखंड । स्तनो- त्तरीय । चोली [को०] ।

कुचाग्र
संज्ञा पुं० [सं० कुच+ अग्र पु०, हिं० कुचा अग्र (क्व०)] युवती के कच या उरोज का अगला भाग । कुचमुख । उ०— (क) उनके हृदयों कौ कलित कठोर कुचाग्र अंकुश से छेदती । प्रेमघन०, भा०२, पृ० १५ । (ख) कालिंदी न्हावहिं न नयन अंजौ न भ्रगंगद । कुचाअग्र परसें न नील दल कवल तौरि सद ।—पृ० रा०, २ ।३४९ ।

कुचाना
क्रि० स० [हिं० कोंचना] चुमाना । गोदना । गड़ाना । उ०—अपनी अंगुली से आँख कुचा कर आप ही पूछते हो कि आँसू क्यों आए ।—शकुंतला, पृ० ३० ।

कुचाल
संज्ञा स्त्री० [सं०कु + हिं० चाल] १. बुरा आचरण । खराब चालचलन । क्रि० प्र०—चलाना । २. दुष्टता । पाजीपन । खोटाई । बदमाशी । उ०—राजा दशरथ रानी कोसिला जाये । कैकयी कुचाल करि कानन पठाए ।— तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । यौ०—चाल कुचाल = खोटापन । उ०—नाहिं तो ठाकुर है अति दारुण करिहै चालु कुचाली हो ।—कबीर (शब्द०) ।

कुचलिया
संज्ञा पुं० [हिं० कुचाल + इया (प्रत्य०)] दे० 'कुवाली' ।

कुचाली
संज्ञा पुं० [हिं० कुचाल] १. कुयार्गी । २. बुरे आचरणवाला । ३. दुष्ट । पाजी । बदमाश । उ०—सकल कहहिं कब होइहि काली । बिघन बनवहि देव कुचाली ।—मानस २ ।११ ।

कुचाह पु
संज्ञा स्त्री० [कु + हिं० चाह] अमंगल । अशुभ बात । उ०—(क) जातुधान तिय जानि बियोगिनि दुखई सीय सुनाइ कुचाहैं ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४१३ । (ख) लाखन सपन यह नीक न होई । कठिन कुचाह सुनाइहि कोई ।—मानस, २ ।२२५ ।

कुचिक
संज्ञा पुं० [सं०] ईशान [पुर्वोत्तर] दिशा का एक प्राचीन देश, जो कदाचित् आधुनिक कूचबिहार हो ।

कुचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।

कुचित
वि० [सं०] १. सिकुड़ा हुआ । संकुचित । २. अल्प । थोड़ा [को०] ।

कुचिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्चिक या गुञ्जिका] छोटी छोटी टिकिया ।

कुचियादाँत
संज्ञा पुं० [हिं० कुचना > कुचिया + दाँत] वह दाँत जिससे प्राणी अपने आहार का कुचल कुचलकर खाते हैं । डाढ़ । चौभर ।

कुचिल पु
वि० [हिं०] दे० 'कुचील' । उ०—पतिब्रता मैली भली, काली कुचिल कुरूप । पतिबरता के रूप पै, वारौं कोटि सरूप ।—कबीर सा०, सं०, भा०१, पृ० ३० ।

कुचिलना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'कुचलना' । उ०—फूल की सी माल बाल लाला जो लपटि लागी तन मन औट पट कपट कुचलगे ।—देव (शब्द०) ।

कुचिला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुचला' ।

कुची
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्चिका, हिं० कुंची कुंची] दे० 'कुंची' ।

कुचील पु †
वि० [सं० कुचेल] मैले वस्त्रवाला । मैला कुचैला । मलिन उ०—(क) हौं कुचील मतिहीन सकल बिधि तुम कृपालु जग जान ।—सूर० १ ।१०० । (ख) कन्जल कीच कुचील किए तट अंचर अधर कपोल । थकि रहे पथिक सुयश हित ही के हस्त चरन मुख बोल ।—सूर (शब्द०) ।

कुचीला पु †
वि० [हिं० कुचील] दे० 'कुचैला' ।

कुचुमार
संज्ञा पु० [सं०] कामशास्त्र के एक प्रधान आचार्य का नाम जिनका मत वात्स्यायन के कामशास्त्र में उद्धत मिलता है ।

कुचेल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मैला कपड़ा । मलिन वस्त्र । १. पाठ ।

कुचेल (२)
वि० १. मैला कपड़ा पहननेवाला । जिसके कपड़े मैले हों । २. मैला । गंदा । मलिन ।

कुचेष्ट
वि० [सं० कु+चेष्टा] बुरी चेष्टावाला । जिसकी बुरी चेष्टा हो ।

कुचेष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० कुचेष्टा] १. बुरी चेष्टा । कुप्रयत्न । हानि पहुँचाने का यत्न । बुरी चाल । २. चेहरे का बुरा भाव ।

कुचैन पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कु+हिं० चैन] कष्ट । दुःख । व्याकुलता । उ०—सोवत जागत सपन बस रस रिस चैन कुचैन । सुरति स्याम घन की सुरति बिसरैं हूँ बिसरे न ।—बिहारी र०, दो०, २२७ ।

कुचैन (२)
वि० बेचैन । व्याकुल । उ०—साजे मोहन मोह कौं मोहीं करत कुवैन । कहा करौं उलटे परे टोने लानो नैन ।—बिहारी र०, दो०, ४७ ।

कुचैल पु
वि० [सं० कुचेल] फटा पुराना । मैला । गंदा । उ०—(क) पटकुचैल दुरबल द्विज देखत, तकै तंदुल खाए (हो) ।— सूर० २ ।७ । (ख) रे कुचैन तन तेलिया अपनी मुख तो हेर सुमनन बासे तेल को काहे डारत पेर ।—रसविधि (शब्द०) ।

कुचैला पु
वि० [सं० कुचेल] [वि० स्त्री० कुचैली] १. जिसका कपड़ा मैला हो । मैले कपडे़वाला । २. मैला । गंदा । जैसे—मैली कुचैली धोती । मैले कुचैले कपड़े ।

कुचौद्या †
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + चोद्य] कुत्सित प्रश्न । वितंडा । कुतर्क । खचुर । क्रि० प्र०—करना ।

कुच्चा
संज्ञा पुं० [फा० कुजह्] [स्त्री० कुच्चो] चमड़े आदि का बना हुआ कुप्पा ।

कुच्ची (१) †
संज्ञा पु० [फा० कुज़ह्] मिट्टी का लबा बरतन जिससे तेली तेल नापते हैं ।

कुच्ची (२)
वि० छोटी । भद्दी । उ०—मोटा तन व थुँदना थुँदला मूव कुच्ची आँख ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०, २, पृ० ७८९ ।

कुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] जलकमल का एक भेद । कुँई [को०] ।

कुच्छित, कुच्छित पु
वि० [सं० कुत्सित] कुत्सित । नीच । उ०— (क) सुरधुनी ओध संसर्ग तें नाम बदल कुच्छित नरो । परमहंस बंसानि में भयो विभागी बानरै ।—नाभा (शब्द०) । (ख) कुच्छित्त देस, कारन विक्रम । तहँ सु केम किज्जै गमन ।—पृ० रा०, १ ।१७९ ।

कुछ
वि० [सं० कचित् पा० किंची पू० हिं० कछु किछु] थोड़ी संख्या या मात्रा का । जरा । थोड़ा सा । टुक । जैसे— (क) देखो पेड़ में कुछ फल हैं । (ख) लोग आ रहे हैं । (ग) कुछ देर ठहरो तो बातचीत करें । मुहा०—कुछ एक=थोड़ा सा । कुछ ऐसा=विलक्षण । असाधारण । जैसे—(क) रात तो कुछ ऐसी नींद आई कि पड़ते ही सो गए । (ख) वह लड़का कुछ ऐसा घबडा़या कि भागते ही बना । कुछ कुछ=थोड़ा । जैसे—आज बुखार कुछ कुछ उतरा है । कुछ न कुछ=थोड़ी बहुत । कम या ज्यादा । बहुत कुछ । कितना कुछ=बहुत अधिक ।

कुछ (२)
सर्व० [सं० कश्चित् प्रा० कोचि] १. कोई (वस्तु) । जैसे,— कुछ खाओ तो ले आवें । (ख) कुछ दिलवाओ । (ग) हम कुछ नहीं जानते । मुहा०—कुछ का कुछ = और का और । विपरीत उलटा । जैसे—वाह सदा कुछ का कुछ समझना है । कुछ से कुछ होना = भारी उलट फरे होना । विशेष परिवर्तन हो जाना । कुछ कह बैठना = कड़ी बात कह देना । ऊची नीची सुना देना । गाली दे देना । कुछ कहना = कड़ी बात कहना । गाली देना । बिगड़ना । जैसे—तुम्हें किसी ने कुछ कहा है? कुछ सुनोगे या कुछ सुनने पर लगे हो = ऊँचा नीचा सुनोगे । गाल खाओगे । जैसे—तुम नहीं मानते हो, अब कुछ सुनोगे । कुछ खा लेना = विष खा लेना जैसे—इसने कुछ खा तो नहीं लिया । कुछ खाकर मर जाना = विष खाकर भर जाना । कुछ कर देना = जादू टोना कर देना । मंत्रप्रयोग कर देना । जैसे— जान पड़ता है कि किसी ने उसपर कुछ कर दिया है । कुछ हो जाना = कोई रोग या भूत । प्रेत की बाधा हो जाना जैसे—उसको कुछ हो तो नहीं गया । (किसी बुरी बात) या वस्तु का नाम लेकर लोग कभी कभी केवल इसी सर्वनाम का प्रयोग कर लेते है जैसे—उसे कुछ हो तो नहीं गया ।उसने कुछ खा तो नहीं लिया? किसी ने कुछ कहा तो नहीं? इत्यादि । कुछ हो=चाहे जो हो । २. कोई बड़ी बात । कोई अच्छी बात । जैसे, —यदि (५०) ही दिए तो कुछ नहीं किया । ३. कोई सार वस्तु । कोई काम की वस्तु । जैसे, —उसमें तो कुछ भी नहीं निकला । मुहा०—कुछ (कछु) न रहना = इज्जत न रहना । प्रतिष्ठा न रहना । उ०—नंददास प्रभु कछु न रहैगी, जब बरतन उधरौंगी ।—नंद ग्रं०, पृ० ३६२ । कुछ लगाना = (अपने को) बड़ा या श्रेष्ठ समझना । कुछ हो जाना = किसी योग्य हो जाना । किसी बात में समर्थन या किसली गुण से युक्त हो जाना । गणमान्य हो जाना । जैसे, —(क) यह लड़का परिश्रम करेगा तो कुछ हो जायगा । (ख) यदि यह काम चमक गया तो हम भी कुछ हो जायँगी ।

कुजंत्र पु
संज्ञा पु० [सं० कु + यन्त्र, प्रा०, जंत्र] १. बुरा यंत्र । २. अभिचार । टोटका । टोना । उ०—कलि कुकाठ कर कीन्ह कुजंत्रू । गाड़ि अवधि पढ़ि कठिन कुमत्रू ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुंजंभल
संज्ञा पुं० [सं० कुजम्भल] सेंध लगानेवाला । चोर [को०] ।

कुंजंभा (१)
वि० [सं० कुजम्भा] विकराल दाँतवाला ।

कुजंभा (२)
संज्ञा पुं० एक असुर जो प्रह्लाद का पुत्र था ।

कुंजंभिल
संज्ञा पुं० [सं० कुजम्भिल] दे० 'कुंजभल' ।

कुंज (१)
संज्ञा पुं० [स०] मंगल ग्रह । उ०—(क) भाल विसाल ललित लटकन मनि बाल दसा के चिकुर सुहाए । मानौ गुरु शनि कुज आगे करि ससिंहिं मिलन तम के गन आए ।— सूर०, १० ।१०४ । (ख) भाल लाल बेंदी ललन आखत रहे बिराजि । इंदु कला कुज में बसी मनहु राहु भय भाजि ।— बिहारी (शब्द०) । २. वृक्ष । पेड़ । उ०—चंदन बंदन जोग तुम धन्य द्रुमन के राय । देत कु कुज कंकोल लों देवन सीस चढ़ाय ।—दीन० ग्रं०, पृ० २१३ । ३. नरकासुर का नाम, जो पृथ्वी का पुत्र माना जाता था ।

कुज
वि० [मंगल के समान] लाल रंग का । लाला । उ०—(क) फहरी अनंत सोहैं धुजा । सित स्याम रंग कीति कुजा ।— सूदन (शब्द०) । (ख) बहु स्याम धुजा बहुरंग कुजा ।— सूदन (शब्द०) ।

कुज (३)
क्रि० वि० [फा० कुजा = कहाँ, क्यों] कहाँ । किस जगह । उ०—कुज रौला पाया अलमां कुज कागजां पाया भल्ल ।— संतवाणी०, भा०१, पृ० १५१ ।

कुज (४) पु †
वि० [हिं० कुछ] दे० 'कुछ' । उ०—वहां कुजऐतबार सिफत का नहीं सिबाए एकानियत के ।—दक्खिनी०, पृ० ४४२ । यौ०—कुजकोई = हर एक । प्रत्येक । जो चाहे । उ०—कुजकोई चुंबन करे गनका हंदो गाल । कुजकोई खांवण करै मावड़ि- यारो माल ।—बांकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १५ ।

कुजन
संज्ञा पुं० [सं०] बुरा व्यक्ति । दुर्जन व्यक्ति । असत्पुरुष ।

कुजन्मा
वि० [सं० कुजन्मन्] १. नीच से उत्पन्न । अकुलीन । २. पृथ्वी से उत्पन्न [को०] ।

कुजस
संज्ञा पु० [हिं० कु+ जस (सं० यशस्)] अपशय । निंदा । अपकीर्ति ।

कुजा
संज्ञा स्त्री० [सं० कु = पृथ्वी + जा = जायमान] १. सीता । जानकी । उ०—टूटे धनुष कठिन है ब्याहू । बिन भंजे को बरी कुजाहू ।—विश्राम (शब्द०) । २. कात्यायिनी का एक नाम ।

कुजात
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुजाति' । यौ०—जात कुजात ।

कुजाति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुरी जाति । नीच जाति । उ०—दुख सुख, पाप, पुण्य दिन राती । साधु, असाधु, सुजाति कुजाती ।— तुलसी (शब्द०) ।

कुजाति (२)
संज्ञा पुं० १. बुरी जाति का आदमी । नीच पुरुष । उ०— नहि तोष विचार न सीतलता । सब जाति कुजाति भये मँगता ।—तुलसी (शब्द०) । पतित या अधम पुरुष । उ०—कूर कुजाति कपून अघी सबकी सुधरै जो करै नर पुजा ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुजाम †
संज्ञा पुं० [सं० कु + याम] दे० 'कुजून' ।

कुजाष्टम
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योंतिष के अनुसार एक योग जो जन्मकुंडली के चक्र मंगल के आठवें स्थान पर होने से होंता है । यह योग बड़ा ही अशुभ माना जाता है । ज्योंतिषियों का मत है कि कुजाष्टम योग कुंडली के अन्य शुभ योगों को नष्ट कर देता है ।

कुजिया †
संज्ञा स्त्री० [फा० कुजट = प्याला] छोटी घरिया ।

कुजून †
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + हिं० जून = समय] १. कुसमय । बुरा समय । २ अतिकाल । देर । नावक्त ।

कुजोग पु †
संज्ञा पुं० [सं० कुयोग] १. कुसंग । कुमेल । बुरा मेल । उ०—ग्रहु भैषज जल पवन, पाइ कुजोग सुजोग । होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलच्छन लोग ।—तुलसी (शब्द०) । २. बुरा संयोग । बुरा अवसर । प्रतिकुल अवस्था ।

कुजोगी पु
वि० [सं० कुयोगी] असंयमी । उ०—पुरुष कुजोगी जिमि उरगारी । मोंह बिटप नहि सकहिं उपारी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुज्जा
संज्ञा पुं० [फा० कुजह्=प्याला] १. मिट्टी का प्याला । पुरवा । २. मिट्टी केकूजें में जमाई हुई मिस्त्री की बड़ी गोल डली ।

कुज्झटि, कज्झटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सं० 'कुज्झटिका' [को०] ।

कुज्झटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुहरा । कुहेलिका । उ०—क्षण क्षण विद्युत प्रकाश, गुरु गर्जन कधुर भास कुज्झटिका अट्टहास, अंतर्द्दग विनिस्तंद्र ।—आराधना, पृ० १३ ।

कुटंक
संज्ञा पुं० [सं० कुटङ्क] छाजन । छप्पर । छत [को०] ।

कुटंगक
संज्ञा पुं० [सं० कुटङ्गक] १. लताकुंज । लतामंडप । २. झोपड़ी । कुटी । आवास [को०] ।

कुटंत †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूटना + त (प्रत्य०)] १. कूटने का भाव । कुटाई । २. मार । प्रहार । जैसे—जाओ घर पर खूब कुटंत होगी । उ०—जेहि जियत इंद्रपुर में कुटंत । गज बाज ऊँट वृषमा लुटंत ।—सूदन (शब्द०) ।

कुटँम पु
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्ब] दे० 'कुटँम' । उ०—कुटँम कलित बा में रहत सदाँ ही हम, जाति के खवास खास बिस्व में बिभात हैं ।—पौद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ४३४ ।

कुट (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुटी] १. घर । गृह । २. कोट । गढ़ । ३. कलश । ४. वह घन जिससे पत्थर तोड़ा जाता है ।५. वृक्ष । ६. पर्वत ।

कुट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुष्ट, प्रा० कुठ्ठ] एक बड़ी मोटी झाड़ी जिसकी जड़ सुंगधित होती है । विशेष—कश्मीर के किनारे की ढालू पहाड़ियों पर ८००० से ९००० फुट की ऊँचाई तक यह होती है । चनाब और झेलम के ऊँचे कछारों में भी यह मिलती है । कश्मीर में इसकी जड़ खोदकर बहुत इकट्ठी की जाती है और छोटे छोटे टुकड़े में काटकर बाहर कलकत्ते और बंबई भेजी जाती है, जहाँ से इसकी चलान चीन और योरप को होती है । कश्मीर में इसका संग्रह राज्य की और से होता है । प्रत्येक काश्तकर को कुछ जड़ कर के रूप में देती पड़ती है । इसकी सुगंध बड़ी मनोहर होती है और चीन में इसे धूप की तरह जलाते हैं । इससे बाल भी मला जाता है । इसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि इससे सफेद बाल काले हो जाते हैं । काश्मीर में शाल के व्यापारी इसे दुशालों की तह में उन्हें कीड़ों से बचाने के लिये रखते हैं । पहले लोग असली कश्मीरी शाल की पहचान इसी की महक से करते थे । वैद्यक में यह गरम, कफ और वात- नाशक, दाद, खुजली आदि को दूर करनेवाली और शुक्रजनक मानी गई है । हकीम लोग कुट तीन प्रकार की मानते हैं । एक मीठी, तौल में हलकी, सुगंधित और पीलापन लिये सफेद होती है । दूसरी कड़वी, कुछ करौछे रंग की और बिना महक की होती है । तीसरी लाल रंग की और स्वाद में फीकी होती है और उसमें घीक्वार की सी महक होती है । पर्या०—कुष्ट । व्याधि । परिभाव्य । व्याप्थ । पाकल । उत्पल । कदाख्य । दुष्ट । आप्य । जरण । कौवेर । भासुर । गदाह्व । कुठिक । काकल । नीरुज । आमय । रुजा । गद । पारिबद्रक कुत्सित । पावन ।

कुट
संज्ञा पुं० [सं० कुट = कूटना] १. कुटा हुआ टुक़ड़ा । यौ०—कसकुट । तिलकुट । तिसकुट । मुहा०—कुटकरना= मैत्री खंडित करना । बालकों का दाँतों पर नाखून खुट से बुलाकर मित्रता तोड़ना । कुट्टी करना । २. फूटा और सड़ाया हुआ कागज । कुट्टी ।

कुटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. हल का फल । २. मयानी की रस्सी लपेटने का डंडा । ३. भागवत वर्णित एक देश और उसके निवासी । ४. वृक्षविशेष का नाम [को०] ।

कुटका (१)
संज्ञा पुं० [हिं० काटना] [स्त्री० अल्पा० कुटकी] १. छोटा टुकड़ा । उ०—साधुन ती झुपड़ी भली, ना साकट को गाँव । चंदन की कुटकी भली, ना बबूल बनराँव ।—कबीर (शब्द०) । २. कसीदे में का तिकोना बूटा । तिंघाड़ा ।

कुटकारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दासी । परिचारिका [को०] ।

कुटकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुटका] १. एक पौधा जिसकी जड़ शीतल प्रकृति की होती है और दवा के काम में आती है । विशेष—यह पश्चिमी और पूरबी घाटों में तथा अन्य पहाड़ी प्रदेशों में भी होता है । इसकी पत्तियाँ लंबी लंबी कटावदार और ऊपर को चौड़ी होती है । इसकी जड़ में गोल गोल बेड़ौल गाँठे पड़ते है जो औषध के काम में आती है । स्वाद में कुटकी कड़वी, चरपरी और रूखी होती है । प्रकृति इसकी शीतल है । यह भेदक, कफनाशक, तथा पित्तज्वर, श्वास, कोढ़ और कृमि को दूर करनेवाली मानी जाती है । इसमें दीपक और मादक गुण भी होता है । यह २ रत्ती से ४ रत्ती तक खाई जा सकती है । इसे काली कुटकी भी कहते हैं । पर्या०—तिक्ता । काडैरुहा । अरिष्टा । चक्रांगी । शकुलादिनी । कटुका । मत्स्यपित्ता । नकुलासादिनी । शतपर्वा । द्विजांगी । मलभेदिनी । कृष्णा । कृष्णोमेदा । कृष्णभेदी । महौषधि । कटवी । अंजनी कटु । वामघ्नी । चित्रांगी । २. एक जड़ी जो शिमले से काश्मीर तक पाँच से दस हदार फुट की ऊँचाई पर पहाड़ों में होती है । यह जिनशियन नाम की अंग्रेजी दवा के स्थान में व्यवहृत होती है । यह बल औऱ वीर्यवर्धक होती है ।

कुटकी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. एक छोटी चिड़िया । विशेष—यह भारत के घने जंगलों में होती है और ऋतु के अनुसार रंग बदलती है । यह पाँच इँच लंबी होती है और तीन चार अंडे देती है । यह कभी जोड़े में और कभी फुट रहती है । बोली इसकी कड़ी होती है । यह पत्ते, फूल, बाल, कपास आदि गूँथकर घोंसला बनाती है । २. बादिए के पेंच का वह भाग, जिसमें लोहे की कीलों या छड़ों में पेंच बनाया जाता है ।

कुटकी † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुटका = छोटा टुकड़ा] कंगनी । चेना ।

कुटकी (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० कटु+कीट] एक उड़नेवाला कीड़ा जो कुत्ते, बिल्ली आदि पशुओं के शरीर के रोयों में घुसा रहता है और उन्हें काटता है ।

कुटचारि पु
संज्ञा पुं० [सं० कूटचार] चुगुली । चबाबा । उ०— अस को आहि कुटीचर संगा । कै कुटचारिं कीन्ह रस भंगा ।— चित्रा० पृ० ५३ ।

कुटज
संज्ञा पु० [सं०] १. कुरैया । कर्ची । इंद्रजौ । अगस्त्य मुनि । ३. द्रोणाचार्य का एख नाम । ४. पद्म । कमल ।

कुटनई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुटनपन' ।

कुटनपन, कुटनपना
संज्ञा पु० [सं० कुट्टन अथवा हिं० कुटनी + पन (प्रत्य०)] १. कुटनी का काम । स्त्रीयों को फोड़ने फांसने का काम । दूती कर्म । २. इधर उधर लगाने का काम । झगड़ा लगाने का काम ।

कुटनपेशा
संज्ञा पुं० [हिं० कुटन + फा० पेशा] दे० 'कुटनपन' ।

कुटनहारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूटना + हारी (प्रत्य०)] धान कूटने का काम करनेवाली स्त्री । वह स्त्री जो धान कूटकर भूसी और चावल अलग करने का व्यवसाय करती हो ।

कुटना (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कुटनी] १. स्त्रियों को बहकाकर उन्हें परपुरुष से मिलाने वाला अथवा एक का संदेशा दूसरे तक पहुँचानेवाला व्यक्ति । स्त्रियों का दलाल दूत । टाल । २. एक की बात दूसरे से कहकर दो आदमियों में झगड़ा करानेवाला । चुगलखोर ।

कुटना (२)
संज्ञा पु० [हिं० कूटना] १. वह औजार या हाथियार जिससे कुटाई की जाय । २. कूटे जाने की क्रिया । यौ०—कटना पिसना = कूटे और पीसे जाने का काम ।

कुटना (३)
क्रि० अ० [हिं० कुटना] १. कूटा जाना । २. मारा या पीटा जाना ।

कुटनाई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुटनपन' ।

कुटनाना
क्रि० स० हिं० [कुटना] १. किसी स्त्री को बहकाकर कुमार्ग पर ले जाना । २. बहकाना ।

कुटनापन
संज्ञा पुं० [हिं० कुटना + पन (प्रत्य०)] दे० 'कुटनपन' ।

कुटनापा
संज्ञा पुं० [हिं० कुटना + पा (प्रत्य०)] दे० 'कुटनपन' ।

कुटनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुट्टनी] १. स्त्रियों को बहकाकर उन्हें पर- पुरुष से मिलाने अथवा एक का संदेशा दूसरे तक पहुँचानेवाली स्त्री । दूती । २. चुगली खाकर दो व्यक्तियों में झगड़ा करानेवाली स्त्री । इधर की उधर लगानेवाली औरत ।

कुटनीपन
संज्ञा पुं० [हिं० कुटनी + पन (प्रत्य०)] दे० 'कुटुनपन' ।

कुटन्नक
संज्ञा पुं० [सं०] केवट मोथा । कसेरू ।

कुटन्नट
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्योनाक । छोंका । २. केवट मोथा । कैवर्तमुस्ता ।

कुटप
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न की एक नाप । कुडव । २. घर से लगा हुआ या समीपवर्ती बगीचा । ३. संत । तपस्वी । ४. कमल । पद्म [को०] ।

कुटम पु
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्ब] दे० 'कुटुंब' । उ०—कुटम सेख करि खेस, करद लै अदल पठाए ।—ह० रासो०, पृ० १२१ ।

कुटर
संज्ञा पुं० [सं०] वह डंडा जिसमें मथानी की रस्सी लपेटी जाती है ।

कुटर, कुटर
संज्ञा पु० [अनु०] किसी कड़ी वस्तु के चबाने का शब्द ।

कुटरु
संज्ञा पु० [सं०] १. काग । २. तंबू । खीमा [को०] ।

कुटल
संज्ञा पु० [सं०] छप्पर । छत [को०] ।

कुटवाना
क्रि० स० [हिं० 'कुटना' का प्रे० रूप] कूटने की क्रिया कराना । कूटने में तत्पर करना ।

कुटवार †
संज्ञा पुं० [सं० कोटपाल] गाँव का गोड़इत । चौकीदार ।

कुटवारी
संज्ञा स्त्री० [सं० कोटपाल, प्रा० कुटुवाल = नगररक्षक, हिं० कोतवाल, कोतवाली] कोतवल का कार्य । नगररक्षा या चैकसी । दे० 'कोतवाली' । उ०—कैसे नगरि करौ कुटवारी, चंचल पुरिष विचषन नारी ।—कबीर ग्रं०, पृ० ११३ ।

कुटहारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दासी । सेविका । नौकरानी [को०] ।

कुटाई
संज्ञा [हिं० कूटना] १. कूटने का काम । २. कूटने की मजदूरी । ३. किसी को बहुत अधिक पीटना । कुटास ।

कुटार
संज्ञा पुं० [हिं० काटना] नटखट टट्टू ।

कुटास
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूटना] खूब मारना । पीटना ।

कुटि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. देह । शरीर । २. वृक्ष ।

कटि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झोपड़ी । कुटे । २. मोड़ । घुमाव ।

कटिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह गाँव जिसका प्रधान एक व्यक्ति हो [को०] ।

कुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुटिया' ।

कुटिचर
संज्ञा पुं० [सं०] जलशूकर । शिशुमार । सूँस [को०] ।

कुटिंया
संज्ञा स्त्री० [सं० कुटिका] छोटी झोपड़ी ।

कुटिर
संज्ञा पुं० [सं०] झोपड़ी । कुटिया [को०] ।

कुटिल (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कुटिला] १. वक्र । टेढ़ा । यौ०—कुटिलकीट = साँप । कुटिलबुद्धि, कुटिलमति, कुटिलस्वभाव, कुटिलशय = दुरात्मा । टेढ़ी प्रकृति का । बुरे स्वभाववाला । २. दगाबाज । कपटी । छली ।

कुटिल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शठ । खल । २. वह जिसका रंग पीला लिए सफेद हो और आँखे लाल हों । ३. चौदह अक्षरों का एक वर्ण वत्त जिसके प्रत्येक चरण में स, भ, न, य, ग, ग, होते हैं । उ०—सुभ नायो गगरिक तुव गंगा पानी । जिन शंभू सिर जननि दया की खानी तजि सारे कुटिलन कपटी को साथा । तिनपाई अति सुभ गति गावै गाथा । ४. तगर का फूल । ५. टिन [को०] ।

कुटिलई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कटिलता ।

कुटिलक
वि० [सं०] मुड़ा हुआ । वक्र [को०] ।

कुटिलकीट
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प । साँप । उ०—तनु तज्यो कुटिल- कीट ज्यों तज्यो मात पिता हूँ ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुटिलकीटक
संज्ञा पुं० [सं०] मकड़ा [को०] ।

कुटलगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वक्रगति । टेढ़ी चाल । २. एक वर्णवृत्त [को०] ।

कुटिलगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नदी । सरिता [को०] ।

कुटिलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टेढ़ापन । २. खोटाई । धोखेबाजी । छल । कपट ।

कुटिलपन
संज्ञा पुं० [सं० कुटिल + हिं० पन (प्रत्य०)] दे० 'कुटि— लता' । उ०—केकयनदिनि मंदमति कठिन कुटिलपन कीन्ह ।—मानस, २ ।९१ ।

कुटिललिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुटिला नामक एक लिपि । वि० दे० कुटिला २ ।

कुटिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती नदी । २. एक प्राचीन लिपि, जिसका प्रचार भारतवर्ष में आठवीं शताब्दी से ग्यारहवी शताब्दी तक था । विशेष—भारतीय प्राचीन लिपिमाला (पृ० ४२) के विवरण के अनुसार इसके अक्षरों तथा विशेषकर स्वरों की मात्राओं की कुटिल आकृतियों के कारण इसका नाम कुटिल रखा गया । यह गुप्त लिपि से निकली और इसका प्रचार ई० स० की छठी शताब्दी से नवीं तक रहा और इसी से नागरी और शारदा लिपियाँ निकलीं । ३. असबरग नामक गंधद्रव्य, जिसका उपयोग औषधों में भी होता है । ४. चैतन्य सप्रदाय के अनुसार राधिका की ननद और आयानघोष की बहन ।

कुटिलाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुटिलता' ।

कुटिलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिना आहट के पैर दबाकर आना । निःशब्द आगमन । २. लोहार की धौंकनी या भाथी [को०] ।

कुटिहा †
वि० [हिं० कूट + हा (प्रत्य०)] १. कूट कहनेवाला । २. व्यंग्य से हँसी उड़ानेवाला । ३. दिल्लगीबाज ।

कुटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जंगलों या देहात में रहने के लिये घास फूस से बनाया हुआ छोटा घर । पर्णशाला । कुटिया । झोपड़ी । २. मुरा नामक गंधद्रव्य । ३. सफेद कुड़ा । कुटज । ४. मरुआ नामक पौधा । ५. मदिरा । मद्य [को०] । ६. लतागृह । लतामंडप [को०] । ७. पुष्प का स्तवक । फूल का गुच्छा [को०] । ८. मोड़ । घुमाव [को०] ।

कुटीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा घर । कुटिया [को०] ।

कुटीचक
संज्ञा पुं० [सं०] चार प्रकार के संन्यासियों में से पहला । विशेष—इस कोटि का संन्यासी शिखासुत्र का त्याग नहीं करना । यह तीन दंड और कमंडलु रखना, कषाय पहनता और त्रिकाल संख्या करता है । यह अपने कुटुंब और बंधुओं के अतिरिक्त दूसरे के घर की भिक्षा नहीं लेता । मरने पर इसका दाहकर्म किया जाता है ।

कुटीचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुटीचक' । उ०—प्राचीन आर्यों ककी धर्मनीति में इसी लिये कुटीचर और एकातवासिंयों का ही अनुमोदन किया है ।—कंकाल, पृ० १८ ।

कुटीचर (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुचर या या सं० कूट + चर या सं० कुटीचर] कुटील । कपटी । छली । उ०—जोबन बैर परयौ है कुटीचर काम पै बाहु अनेक चहौंगी ।—घनानद, पृ० ६०० ।

कुटीप्रवेश
संज्ञा पुं० [सं०] आयुर्वेद के अनुसार कल्पचिकित्सा के लिये विशेष प्रकार से निर्मित कुटी में रहना [को०] ।

कुटीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'कुटी' । २. रति क्रिया । ३. संपू- र्णता [को०] ।

कुटीरक
संज्ञा पुं० [सं०] कुटी । कुटिया ।

कुटुंगक
संज्ञा पुं० [सं० कुटुङ्गक] १. वृक्ष पर चढ़ी हुई लता से बना हुआ मंडप । लताकुंज । २. वृक्ष पर चढ़ी हुई लता । ३. छत । छाजन । ४. कुटीर । झोपड़ी । ५. अन्न का भांडार (को०) ।

कुटुंब
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्ब] १. परिवार । कुनबा । खानदान । २. परिवार के प्रति कर्तव्य कर्म (को०) । ३. रिश्तेदार । संबंधी (को०) । ४. नाम (को०) । ५. जाति (को०) । ६. समूह (को०) ।

कुटुंबक
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्बक] १. दे० 'कुटुंब' । २. एक प्रकार की घास [को०] ।

कुटुंबिक
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्बिक] दे० 'कुटुबी' ।

कुटुंबिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुटुम्बिनी] १. एक क्षुद्र गुल्म जो मीठा, संग्राहक, कफपित्त का नाशक, रक्तशोधक और व्रण में उपकारी होता है । २. घर गृहस्थीवाली स्त्री । परिवारवाली स्त्री [को०] । ३. कुटुंब के प्रधान की पत्नी । ४. घर की नौकरानी ।

कुटुंबी
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्बिन्] [स्त्री० कुटुम्बिनी] १. परिवार— वाला । कुनबेवाला । २. कुटुंब के लोग । संबंधी । नातेदारा । ३. वह व्यक्ति जो किसी वस्तु की देखभाल करता हो [को०] । ४. किसान । कृषक [को०] ।

कुटुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुट्टनी' (को०) ।

कुटुम पु †
संज्ञा पु० [सं० कुटुम्ब] दे० 'कुटुम्ब' । यौ०—कुटुमकबीला = कुटुबीजन ।

कुटुवा †
संज्ञा पुं० [हिं० कूटना] १. कूटनेवाला । २. बैल या भैंस को बधिया करनेवाला ।

कुटेक
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + हिं० टेव] अनचित हठ । बुरी जिद ।

कुटेव
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + हिं० टेव] खराब आदत । बुरी बान । बुरा अभ्यास । उ०—नैनन यहै कुटेव परी । लुटत स्याम रूप आपुन ही निसि दिन पहर धरी ।—सूर (शब्द०) ।

कुटेशन
संज्ञा पुं० [अं० कोटेशन] दे० 'कोटोशन' ।

कुटौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूटना + औनी (प्रत्य०)] १. धान कूटने का काम । उ०—कर्कशा अपढ़ स्त्रियों का दिल बहलाव लड़ाई है । घर गृहस्थी के साथ काम पिसौनी कुटौनी से छुट्टी पाय जबतक दाँत न कर्र लें, आपस में झोंटीझोंटा न कर लें, तबतक कभी न अघायँ ।—हिंदी प्रदीप (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—कुटैनी पिसौनी = (१) धान कूटने और गेहूँ पीसने का काम । २. जीविका के लिये कठिन परिश्रम (स्त्रियों का) । जैसे—माँ तो कुटौनी पिसौनी करती है और बेटे का यह हाल है । २. धान कूटने की मजदूरी । जैसे—दो मन धान की कुटौनी कितनी हुई ।

कुटु
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुणाक । गुणा करनेवाला । २. वह अंक जिससे गुणा किया जाय [को०] ।

कुट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कूटने पीसनेवाला व्यक्ति । २. एक शिकारी पक्षी । ३. गुणक [को०] ।

कुट्ठन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नृत्य में वह मुद्रा जिसमें वृद्धावस्था के कारण दाँत से दाँत बजने का भाव दिखाया जाता है । २. कूटना (को०) । ३. पीसना (को०) । ४. काटना (को०) ।

कुट्टनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुटनी । दल्लाला । २. मनमोटाव करने के लिये एक आदमी की बात दूसरे आदमी से कहनेवाली । इधर की उधर लगानेवाली ।

कुट्टमित
संज्ञा पुं० [सं०] सुख के अनुभव—काल में स्त्रियों की मिथ्या दुःख- चेष्टा । यह ग्यारह प्रकार के हावों में से एक माना गया है । हेमचंद्र ने इसे स्त्रियों के दस प्रकार के अलंकारों में माना है ।

कुटटा
संज्ञा पुं० [हिं० काटना] १. परकटा कबूतर । वह कबूतर जिसकी पूँछ के पर कतरकर उसे उड़ने के अयोग्य कर देते हैं और जिसे दूसरे कबूतरों को बुलाने के लिये हाथ में लेकर उछालते हैं । २. वह पक्षी जिसके पैर बाँधकर जाल में इसलिये छोड़ देते हैं कि उसे देखकर और पक्षी आकर जाल में फँसे । मुल्लह ।

कुट्टाक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कुट्ट कि] १. काटने या विभक्त करनेवाला । २. कूटने पीसने का काम करनेवाला । कुट्टक ।

कुट्टार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कंबल । ओढ़ने का ऊनी वस्त्र । २. रति- क्रिया । संभोग । ३. पहाड़ । पर्वत । ४. पृथकता । पार्थक्य [को०] ।

कुटिटत
वि० [सं०] १. फटा हुआ । २. पिसा हुआ । कूटा हुआ [को०] ।

कुटि्टम
संज्ञा पु० [सं०] १. वह भूमि जिसपर कंकड़, पत्थर या ईटें बैठाई हों । पक्का फर्श । गच । २. अनार । दाड़िम । ३. रत्न की खान (को०) । ४. कुटी । छोटा गृह (को०) ।

कुट्टिमत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुटटमित' (को०) ।

कुट्टिहारिका
संज्ञा स्त्री० [पुं०] दे० 'कुटहारिका' [को०] ।

कुट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० काटना] १. घास, पयाल, या और चारे को छोटे छोटे टुकड़ों में काटने की क्रिया । क्रि० प्र०—करना ।—होना । २. गँड़ासे से बारीक कटा हुआ चारा । ३. कूटा और सड़ाया हुआ कागज, जिससे पुट्ठे और कलमदान इत्यादि बनते हैं । ४. लड़कों का एक शब्द, जिसका प्रयोग वे एक दूसरे से मित्रता तोड़ने के समय दाँतों पर नाखून खुट से बुलाकर करते हैं । ५. मैत्रीभंग । क्रि० प्र०—करना ।—होना । ५. परकटा कबूतर । वि० दे० 'कुटटा' ।

कुट्टीर
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा पहाड़ । पहाड़ी [को०] ।

कुट्टीरक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुटीरक' [को०] ।

कुट्टमल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुड्मल' (को०) ।

कुठ
संज्ञा पुं० [सं०] पेड़ । वृक्ष । गाछ [को०] ।

कुठर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुटर' [को०] ।

कुठला
संज्ञा पुं० [सं० कोष्ठ, प्रा० कोट्ठ+ ला (प्रत्य०)] [स्त्री० अल्पा० कुठली] १. अनाज रखने का मिट्टी का बड़ा बरतन । २. चुने की भट्ठी । क्रि० प्र०—चढ़ाना ।

कुठाँउ, कुठाँय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कु+ ठाँव] दे० 'कुठांव' ।

कुठाँव पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + हिं० ठाँव] बुरी ठौर । बुरी जगह । उ०—यह सब कलियुग को परभाव । जो नृप को मन गयो कुठाँव ।—सूर (शब्द०) । मुहा०—कुठाँव मारना = (१) मर्म स्थान पर मारना, अथवा ऐसे स्थान पर मारना जहाँ बहुत कष्ट या दुर्गति हो । (२) घोर आघात पहुँचाना । बुरी मौत मारना । उ०—धरम धुरंधर धीर धरि नयन उघारे राव । सिर धुनि लीन्ह उसास असि मारेसि मोहि कुठाँव ।—तुलसी (शब्द०) ।

कूठाकु †
संज्ञा पुं० [देश०] कठफोड़वा पक्षी ।

कुठाटंक
संज्ञा पुं० [सं० कुठारटङ्क] [स्त्री० कुठाटंका] छोटा कुल्हाड़ा । कुल्हाडी ।

कुठाट
संज्ञा पु० [सं० कु + हिं० ठाट] १. बुरा साज । बुरा सामान । उ०—राग के न साज न विराग जोग जाग जिय, काया नहिं छांड़ि देत ठाटिबो कुठाट को ।—तुलसी (शब्द०) । २. बुरा प्रबंध । बुरा आयोजन । उ०—(क) नट ज्यौ जिन पेट कुपेट कु कोटिक चेटक कोटि कुठाट ठटां ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मोहि लगि यह कुठाट तेहिं ठाटा । तुलसी (शब्द०) ।

कुठाय पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुठाँव (१)' ।

कुठार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुठारी] १. कुल्हाड़ी । २. परशु । उ०—कर कुठार मैं अकरन कोही । आगे अपराधी गुरुद्रोही ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—कुठाराघात । कुठारपाणि । ६. नाश करनेवाला । सत्यनाशी । कुलकुठार । ४. वृक्ष । पेड़ [को०] ।

कुठार (२)
संज्ञा पुं० [सं० कोष्ठागार, प्रा० कोट्टार, हिं० कोठार] अनाज आदि रखने का बड़ा बरतन । कोठिला ।

कुठारक
संज्ञा पुं० [सं०] कुल्हाड़ी [को०] ।

कुठारपाणि (१)
वि० [सं०] जो हाथ में परशु या कुठार लिए हो ।

कुठारपाणि (२)
संज्ञा पु० [सं०] परशुराम जी का एक नाम । उ०—निपट निदरि बोलि बचन कुठारपानि मानी त्रास औनिपन मानो गौनता गही ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुठारपानि
संज्ञा पुं० [सं० कुठारपाणि] परशुराम ।

कुठारघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुल्हाड़ी का आघात । कुल्हाड़ी का घाव । २. गहरी चोट । भारी सदमा ३. पुर्णतः नष्ट करनेवाला व्यवहार । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कुठारिक (१)
वि० संज्ञा पु० [सं०] लकड़ी काटकर जीविका अर्जित करनेवाला । लकड़हारा [को०] ।

कुठारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुल्हाड़ी [को०] ।

कठारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुल्हाड़ी । टाँगी । उ०—रामकथा कलि बिटप कुठारी । सादर सुनु गिरिराजकुमारी—मानस, १ ।११४ । २. नाश करनेवाली उ०—गहि पद बिनय कीन्ह बैठरी । जनि दिनकरकुल होसि कुठारी ।—मानस, २ ।३४ ।

कुठारी
संज्ञा पु० [हिं० कोठारी] दे० 'कोठारी' ।

कुठारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृक्ष । पेड़ । ३. वानर । बंदर ३. शस्त्रकार । अस्त्रनिर्माता [को०] ।

कुठाली
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + स्थाली = बटलोई हिं० कुठार + ई (अल्पा० प्रत्य०)] मिट्टी की घरिया जिसमें सोना चाँदी गलाते हैं । घरिया । उ०—पंडित जी ने संखिया मँगा दिया तो बाबा जी ने तुरंत कुठाली में डाल के पंडित जी के हाथ से एक बूटी का रस उसके ऊपर गिरवाया ।—श्रद्धाराम (शब्द०)

कुठाहर
संज्ञा पुं० [सं० कु + ठाहर = जगह] १. कुठौर । कुठाँव । बुरा स्थान । उ०—कहु लंकेस सहित परिवारा । कुसल कुठाहर बास तुम्हारा ।—मानस ५ ।४६ । २. बे मौका । बुरा अवसर । उ०—सो सब मोर पाप परिनामू । भयउ कुठाहर जेहि विधि बामू ।—मानस २ ।३६ ।

कुठि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ । तरु । २. पर्वत । पहाड़ [को०] ।

कुठिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० कोष्ठिका, प्रा० कोट्टिया] अनाज रखने का मिठ्ठी का गहरा बरतन ।

कुठिला †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुठला' ।

कुठी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की कँटीली बर्रै या कुसुम का पेड़ जो बंगाल में होता है और रंग बनाने के काम में आता है ।

कुठौर
संज्ञा पुं० [सं० कु + हिं० ठौर] १. कुठाँव । बुरी जगह । २. बे मौका । बे ठिकाना । अनुपयुक्त अवसर ।

कुठेर
संज्ञा पु० [सं०] १. तुलसी का पौधा । २. अग्नि [को०] ।

कुठेरक
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत तुलसी का पौधा [को०] ।

कुठेरु
संज्ञा पु० [सं०] चँवर या पंखे की वायु [को०] ।

कुडंग
संज्ञा पुं० [सं० कुडङ्न] कुंज । पेड़ों का झुरमुट [को०] ।

कुड
संज्ञा पुं० [कुट, कुठ प्रा, कुड] वृक्ष । पेड़ । उ०—सेही सियाल लंगूर बहु, कुड कदंम भरि तर रहिय ।—पृ० रा० ६ ।९४ ।

कुड़ (१)
संज्ञा पु० [सं० कुष्ठ, प्रा० कुट्टु] कुट नाम की औषधि ।

कुड़ (२)
संज्ञा पुं० [देश० या सं० कुट = समूह] अन्न की राशि । कूरा ।

कुड़ (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोड़ना = खोदना] हल की अगवाँसी । जाँघा ।

कुड़की †
संज्ञा स्त्री० [तु० कुर्क] दे० 'कुर्की' । उ०—किसपर कुड़की नहीं आई ।—गोदान, पृ० १ ।

कुड़कुड़
संज्ञा पुं० [अनु०] एक निर्थक शब्द, जिसकी सहायता से पक्षी, पशु आदि खेती से हटाए जाता हैं ।

कुड़कुड़ाना (१)
क्रि० अ० [अनु०] किसी अनुचित या अप्रिय बात को देख या सुनकर भीतर ही भीतर क्षुब्ध होना । मन ही मन कुढ़ना । कुडबुड़ाना ।

कुड़कुड़ाना (२)
क्रि० स० खेत में चिड़ियों को उड़ाना या जानवरों को भगाना । जैसे,—वह दिन भर खेत में बैठा कौए कुड़कुड़ाया करता हैं ।

कुड़कुड़ी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] भूख या अजीर्ण से होनेवाली पेट की गुड़गुड़ाहट । मुहा०—कुड़कुड़ी होना = किसी बात को जानने के लिये गहरी आकुलना या उत्कंठा होना । पेट में चूहे कूदना ।

कुडप
संज्ञा पुं० [सं० कुडप] दे० 'कुड़व' ।

कुड़ पना
क्रि० स० [हिं० कुड़ = हलकी लकीर] कँगनी के खेत को उस समय जोतना जब फसल एक बित्ते की हो जाय ।

कुड़बुड़ाना
क्रि० अ० [अनु०] मन हो मन कुढ़ना । कुड़कुड़ाना ।

कुड़मल पु
संज्ञा पुं० [सं० कुड्मल] दे० 'कुड़मल' । उ०—कुलिस कुंद कुडमम दामिनि दुति दसननि देखि लजाई ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४९२ ।

कुड़माई †
संज्ञा स्त्री० [पं०] विवाह के पहले विवाह के निश्चय के उपलक्ष्य में होनेवाला लोकाचार । अँगनी । सगाई ।

कुड़रि या †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुड़री + इया (प्रत्य०)] दे० 'कुड़री' ।

कुड़री
संज्ञा स्त्री० [कुण्डली] १. गेडुरी । इँडुरी । बिड़ई । बिड़वा । २. वह भूमि जो नदी के घूमने से बीच में पड़कर तीन तरफ जल से घिर जाय । कुड़रिया ।

कुड़ल
संज्ञा स्त्री० [सं० कुञ्चन] शरीर में ऐंठन जो रक्त की कमी या उसके ठँडे पड़चे से होती है । यह अवस्था मिरगी आदि रोगों में था निर्मलता के कारण होती है । तशत्रुज ।

कुड़व
संज्ञा पुं० [सं० कुडव] लोहे या लकड़ी का अन्न नापने का एक पुराना मान जो चार अंगुल चौड़ा और उतना ही गहरा होता था । विशेष१२ प्रकृति या मुट्ठी का एक कुड़व और ४ कुड़व का एक प्रस्थ होता है । पर वैद्यक में कुड़व ३२ तोले का होता है और प्रकृति १६ तौले की मानी जाती है ।

कुड़ा (१)
संज्ञा पु० [सं० कुटज] १. इंद्रजौ का वृक्ष । कुरैया ।

कुड़ा (२)
संज्ञा पु० [अ० करहह, हिं० कुढ़ा] दे० 'कुढ़ा' ।

कुड़ाली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुठारी] कुल्हाड़ी (लश०) ।

कुड़ि
संज्ञा पु० [सं०] देह । शरीर [को०] ।

कुडिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृतिका का या काष्ठ का बना हुआ जल— पात्र [को०] ।

कुडिठि पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुदृष्टि] कुदृष्टि बुरी नजर । उ०—रूप हमर वैरी भए गेल देइबि कुडिठि साल ।—विद्यापति पृ० ३५० ।

कुडिया
संज्ञा पुं० [सं० कुण्ड; हिं० कुँड, कुँड, कुड़ि + ईया (प्रत्य०) ] टोंप । उ०—सुन वे साँवलिया कुडिया दे ऊपर की हुआ फिरदा सिपाही ।—घनानंद, पृ० ४६७ ।

कुड़िल †
संज्ञा पुं० [सं० कुडिका] स्नान कराने का पात्र । उ०— माटी के कुड़िल न्हावाओं झटोले सुलाओ ।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१७ ।

कुड़िश
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली [को०] ।

कुड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुटी । कुटिया । कुटीर [को०] ।

कुड़ी †
संज्ञा स्त्री० [पं०] लड़की । कन्या [को०] ।

कुडुंक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था ।

कुड़ुक (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० कुरक] अंडा न देनेवाली मुरगी ।

कुड़ुक (३)
वि० व्यर्थ । खाली । मुहा०—कुड़ुक बोलना = व्यर्थ होना । खाली जाना ।

कुडेर
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुडरेना] वह नाली जो कुरिया में राब का सीरा निकालने के लिये बनाई जाती है ।

कुडेरना
क्रि० स० [देश०] राब के बारों को एक दूसरे पर इस प्रकार रखना जिसमें उसकी जूसी बहकर नकल जाय ।

कुडौल
वि० [सं० कु + हिं० डौल] बेढंगा । भद्दा ।

कुड्मल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कली । मुकुल । २. इक्कीस नरकों में से एक नरक । ३. नोक । अनी (को०) ।

कुडय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुड्या] १. दीवार । भित्ति । यौ०—कुडयच्छेदी = सेंध लगानेवाला चोर । कुडयच्छेद्य = दीवार का गड्ढा । कुडयमत्सी, कुडयमत्स्य = छिपकिली गृहणो- धिका । २. (दीवार पर) पलस्तर करना या चढ़ाना । ३. उत्सुकता । कौतुहल [को०] ।

कुढयक
संज्ञा पु० [सं०] दीवार । भित्ति [को०] ।

कुढ़्यार †
संज्ञा पुं० [पं०, हिं०, कूड़ा] तुच्छ । नगण्य । उ०—इक सूही दूजी सोहणी, तीजी सो भावती नारि । सुइने रुप्पे पच्चरी, नानक बिनु नावै कुड्यार ।—संतवाणी० पृ० ६८ ।

कुढ़ग (१)
संज्ञा पुं० [सं० कु + हिं० ढंग] बुरा ढंग । कुचाल । बुरी रीति ।

कुढ़ंग (२), कुढंग
वि० १. बुरे ढंग का । बेढगा । भद्दा । बुरा । उ०— कुढंग कोप तजि रंग रसी करति जुवति जग जोइ । पावसबातन गूढ़ यह, बूढ़न हूँ रँग होइ ।—बिहारी (शब्द०) । २. बुरी तरह का । बदमजा । कुढ़ंगा ।

कुंढंगा
वि० [हिं० कुंढंग] [स्त्री० कुंढंगी] १. बुरी चाल का । बेशऊर । उजड्ड । २. बेढ़ंगा । भद्दा ।

कुढंगी
वि० [हिं० कुढंग] कुमार्गी । बुरी चालचलन का । उ०— परयो एक पतित पराग तीर गंग जू के, कुटिल कृतघ्नी कोढ़ी कुंठित कुंढंगी अंध ।—पद्माकर (शब्द) ।

कुढ़
संज्ञा स्त्री० [सं० क्वथ्, प्रा, कढ़ कृत्थ] दे० 'कुढ़न' ।

कुढ़न
संज्ञा स्त्री० [सं० क्रुद्ध, प्रा० कुड्ढ] १. वह क्रोध जो मन ही मन रहे । वह क्रोध जो भीतर ही रहे, प्रकट न किया जाय । चिढ़ । २. वह दुःख जो दूसरे के अनिवार्य कष्ट की देखकर हो ।

कुढ़ना
क्रि० अ० [सं० क्रुंद्ध, या क्रुष्ट, प्रा० कुडढ़] १. भीतर ही भीतर क्रोध करना । मन ही मन खीझना या चिढ़ना । बुरा मानना । २. डाह करना । जलना । उ०—चंद्रगुप्त से उसके भाई लोग बुरा मानते थए और महानंद अपने सब पुत्रों का पक्ष करके इससे कुढ़ता था ।—हरिश्चंद्र (शब्द०) । ३. भीतर ही भीतर दुखी होना । मसोसना । उ०—श्रीकृष्णचंद इतना कह पाताल पुरी कौ गए कि माता तुम अब मत कुढ़ो, मै अपने भाइयों को अभी जाय ले आता हूँ ।—लल्लु । (शब्द०) । ४. दूसरे के कष्ट को देख भीतर ही भीतर मसोसकर रह जाना ।

कुढ़ब
वि० [सं० कु + हिं० ढब] १. बुरे ढंग का । बेढब । २. कठिन । दुस्तर ।

कुढ़ा
संज्ञा पुं० [अ० करहह] सूजाक के रोग में वह गाँठ जो पेशाब की नली में पड़ जाती है और जिसके कारण पेशाब बाहर नहीं निकलता और बड़ी पीड़ा होती है । यह गाँठ रक्त और पीब के भीतर जम जाने से पड़ जाती है ।

कुढ़ाना
क्रि० स० [हिं० कुढ़ना] १. क्रोध दिलाना । चिढ़ाना । खिझाना । २. दुःखी करना । कलपाना ।

कुढ़ावना पु
क्रि० स० [हिं० कुढ़ाना] दे० 'कुढ़ाना' । उ०—और वैष्णाव मात्रा को काहू प्रकार सों कुढ़ावनो नाहीं ।—दो सौ बावन०, पृ० ३३९ ।

कुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चीलर । २. नाभि का मैल । कीट । ३. बच्चा । उ०—कोल कोल कुण कीचर माहीं । बल तें भिरे सकोप तहाँ ही ।—गोपाल । (शब्द०) ।

कुण † (२)
सर्व० [हिं०] कौन । उ०—चंद वदन कइ कारणइ । कुण वर वरसी भींज कुवार ।—बी० रासो, पृ० ७ ।

कुणाक
संज्ञा पुं० [सं०] सद्यः उत्पन्न हुआ पशुशावक [को०] ।

कुणाप (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० कुणपी] दुर्गधयुक्त । अशुचि गंध वाला [को०] ।

कुणाप (२)
संज्ञा पु० [सं०] १. मृत शरीर । शव । लाश । २. इंगुदी । गोंदी । ३. राँगा । ४. बरछा । भाला । ५. अशुचि गंध । दुर्गंध [को०] ।

कुणापा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरछी । भाला ।

कुणापाशी
संज्ञा पुं० [स० कुणापाशिन्] १. एक प्रकार का प्रेत जौ मुर्दा खाता है । २. मुर्दा खानेवाला जंतु । जैसे,—गीध, कौआ, गीदड़ ।

कुणाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी चिड़िया मैना आदि [को०] ।

कुणाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की चिड़िया । २. अशोक का एक पुत्र [को०] ।

कुणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. तुन का पेड़ । २. वह मनुष्य जिसकी बाहु टेढ़ी हो गई हो या मारी गई हो । ३. नखब्रण । अर्बुद । गलका [को०] ।

कुतः
क्रि० वि० [सं० कुतस्] १. कहाँ से । किस स्थान से । २. कहाँ । किस जगह । ३. क्यों । कैसे [को०] ।

कुतक
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुतका' ।

कुतका
संज्ञा पु० [हिं० गतका] १. गतका । २. मोटा डंडा । सोंटा । उ०—लै कुतका कहैं 'दम्म मदारा' । राम रहे इनहू ते न्यारा । उ०—कबीर (शब्द०) । ३. भाँग घोटने का डंडा । भँगघोटना । मुहा०—कुतका दिखलाना या देखना=किसी चीज के देने से साफ इनकार कर जाना । अँगूठा । दिखलाना ।

कुतकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुतका] छोटी लकड़ी । छड़ी । उ०—अरघ चंद हेका दिए हेकां गाल हजार । हेकां कुरकी हे दुवै एह दुष्ट अवतार—बांकी ग्रं०, भा०२, पृ० २९ ।

कुतक्का पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुतका' । उ०—तहबैध बाँधि कुतक्का लीना दम दम करै दिवाना ।—सुंदर ग्रं०, भा०२, पृ० ८८५ ।

कुतना
क्रि० अ० [हिं० कूतना] कूतने का कार्य होना । कूता जाना ।

कुतप
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन का आठवां मुहुर्त जो मध्याह्न समय में होता है । २. मिताक्षरा के अनुसार आठ वस्तुएँ जिनकी श्राद्ध में आवश्यकता होती है, अर्थात्—मध्याह्न, खडगपात्र या गैडे के चमड़े का पात्र, नेपाली कंबल, चांदी का बरतन, कुश, तिलु, गाय और दौहित्र । इसे कुतापाष्टक भी कहते हैं । ३. एक बाजा । ३. बकरी बाल का कंबल । ५. सुर्य । ६. अग्नि । ७. द्विज । ८. अतिथि । ९. भाजा । १०. वृषभ । बैल [को०] । ११. अन्न (को०) । १२. कन्या का पुत्र [को०] । १३. कुश (को०) ।

कुतवा
संज्ञा पु० [अ० खुतबह्] १. वह धार्मिक व्याख्यान जिसे इमाम जुमा (शुक्रवार) की या ईद की नमाज के बाद देता है और जिसमें तत्कालीन खलीफा या शाह की प्रशंसा रहती है । दे० 'खुतवा' । उ०—कुतवा पढयो छत्र सिरतान । बैठि तखत फेरी निज आन ।—अर्ध०, पृ० ४ ।

कुतर पु
संज्ञा पुं० [सं० कुतरु] १. बुरा, वृक्ष, नीम, बबूल आदि । उ०—कुतुव हूँत आछो कुतर ऊगे चंदण पास ।—बांकी ग्रं०, भा०२, पृ० ८२ । २. एक प्रकार का तृण जो कपड़े में चिपक जाता है । इसे कुत्ता भी कहते हैं ।

कुतरक पु
संज्ञा पु० [सं० कुतर्क] दे० 'कुतर्क' । उ०—कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाखंड ।—मानस, १ ।३२ ।

कुतरीक पु
वि० [सं० कुतर्किन्] दे० कुतर्की । उ०—हरि हर पद रति मति न कुतरकी । तिन्ह कहं मधुर कथा रघुबर की ।— मानस, १ ।९ ।

कुतरन
संज्ञा पुं० [हिं० कुतरना] कुतरा हुआ टुकड़ा ।

कुतरना
क्रि० स० [सं० कर्तन = कतरना] १. किसी वस्तु में से बहुत थोड़ा सा भाग दाँत से काटकर अलग करना । दाँत से छोटा सा टुकड़ा काट लेना । जैसे—(क) चुहों ने कई जगह कपड़े कुतर डाले हैं । (ख) हिरन पौधों की पत्तियाँ कुतर गए हैं । २. किसी वस्तु में से कुछ अंश निकाल लेना । बीच ही में कुछ अंश उड़ा लेना । जैसे—(५) रुपए हमें मिले थे; उसमें से दो रुपए तुम्ही ने कुत्तर लिए ।

कुतरा पु †
संज्ञा पु० [हिं० कुत्ता] कुत्ता । कुक्कुर । श्वान । उ०— दीन हौ दीन हौं दीन महा नटनागर के घर को कुतरा हौ । नट०, पृ० ३ ।

कुतरु
वि० [सं० कु + तरु] बुरा पेड़ । उ०—कुतरु कुसरपुर राजमग लहत भुवन बिख्यात ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८८ ।

कुतर्क
संज्ञा पु० [सं०] बुरा तर्क । बेढ़ंगी दलील । बकवाद । विचंडा ।

कुतर्की (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुरर्किन्] व्यर्थ तर्क करनेवाला । बकवादी वितंडावादी ।

कुतर्की (२)
वि० कुतर्कदूषित ।

कुतला †
संज्ञा पुं० [हिं० कतरना, तुलनीय अ० कतल = काट डालना] हँसिया ।

कुतवार † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कूतना + वार] (प्रत्य०) वह पुरुष जो बँडाई के लिये खेत की फसल का कनकूत करे ।

कुतवार (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० कोटपाल, कोतवाल] कोतवाल । उ०— नौ पौरी तेहि गढ़ मँझियारा औ तहँ फिरहिं पांच कुतवारा । जायसी (शब्द०) ।

कुतवारी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कोटपाली, हिं० कोतवाली] १. कोतवाल का काम । उ०—शेष न पायो अंत पुहुमि जा की फनवारी । पवन बुहारच द्वार सदा संकर कुतबारी ।—सूर (शब्द०) । २. कोतवाला का कार्यस्थान । कोतवाली ।

कुतवाल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोतवाल' । उ०—आपु भए कुतवाल भली बिधि लूटहीं ।—कबीर रा०, भा०४, पृ० २ ।

कुतवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोतवाली' ।

कुतार †
संज्ञा पुं० [सं० कु हिं० तार] अंडस । असुविधा ।

कुताल
संज्ञा पुं० [सं० कु + ताल] संगीत में वह ताल जो असामयिक और अनियमित हो । उ०—ताल कुताल सप्त सुर जाने ।— माधवानल०, पृ० १९२ ।

कुताही
संज्ञा स्त्री० [हिं० काताही] दे० 'कोताही' ।

कुतिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुत्ती] कुत्ते की मादा । कूकरी । कुत्ती । उ०—इह दसा स्वान पाई तऊ कुतिया सौं उरझत गिरत ।— ब्रज० ग्रं० पृ० ११० ।

कुतुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. इच्छा । अभिलाषा । लालसा । २. कौतुक । कुतूहल । ३. उत्कट इच्छा या कामना [को०] ।

कुतुप
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिनमान का आठवाँ मुहुर्त । कुतप । २. तेल रखने की चमड़े की कुप्पी ।

कुतुब (१)
संज्ञा पु० [अ० कुत्ब] १. ध्रुवतारा । नेता । नायक । उ०— जिते गौस होर कुतुब है वो खबर लिए माव सूँ आपने सीस पर ।—दक्खिनी०, पृ० २६८ । यौ०—कुतुब जनूबी = दक्षिणी ध्रु । कुतुबनुमा । कुतुब शिमाली, कुतुबशमाली = उत्तरी ध्रुव ।

कुतुब (२)
[अ० किताब का बहु व०] पुस्तकें । किताबें [को०] ।

कुतुबखाना
संज्ञा पुं० [अ०कुतुबखानह] पुस्तकालय ।

कुतुबनुमा
संज्ञा पुं० [अ० कुत्बनुमा] एक यंत्र जिससे दिशा का ज्ञान होता है । दिग्दर्शक यंत्र । विशेष—यह एक छोटी डिबिया के आकार का होता है, जिसके भीतर लोहे की एक सूई के मुँह पर अयस्कांत की शक्ति रहती है जिससे वह सदा उत्तर दिशा की ओर रहा करती है । यह यंत्र सामुद्रिक नौकाओं और मापकों के काम आता है ।

कुतुबफरोश
संज्ञा पुं० [फ़ा० कुतुबफरोश] पुस्तकविक्रेता । किताबों बेचनेवाला ।

कुतुबमीनार
संज्ञा स्त्री० [अ० कुत्बमीनार] पुरानी दिल्ली की एक बहुत ऊँची मीनार । विशेष—कहते हैं इसे गुलामवंश के बादशाह कुतुबुद्दीन ऐबक ने निर्मित कराया था । इसी के पास लोहे की एक लाट है जिसे कुतुब साहब की लाट कहते हैं । यह लाट चौहान राजा पृथ्वी राज द्वारा निर्मित कहीं जाती है ।

कुतुबशाही
संज्ञा स्त्री० [अ०] दक्षिण भारत के पाँच बहमनी राज्यों में से एक ।

कुतुरझा
संज्ञा पुं० [देश०] एक हरा पक्षी जिसकी चोंच, पीठ और पैर लाल होते हैं ।

कुतुली
संज्ञा स्त्री० [देश०] इमली का कोमल फल, जिसके बींज मुलायम हों । कँटिया ।

कुतू
संज्ञा स्त्री० [सं०] चमडे़ की वह कुप्पी जिसमें तेल रखा जाता है [को०] ।

कुतूणक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुथुआ' ।

कुतूहल
संज्ञा पुं० [सं०] [कुतूहली] १. किसी वस्तु के देखने या किसी बात के सुनने की प्रबल इच्छा । उत्कंठा । २. वह वस्तु जिसके देखने को इच्छा हो । कौतुक । उ०—बन तो मेरे लिये कुतूहल हो गया ।—साकेत, पृ०, १३८ । ३. क्रींडा । खिलवाड़ । उ०—काम कुतूहल में बिलसै निशि वारबधू मन- मान हरे ।—केशव (शब्द०) ४. आश्चर्य । अचंभा । ५. नायिका का एक अलंकार ।

कुतूहली
वि० [सं० कुतूहलिन्] २. जिसे वस्तुओं को देखने या जानने की उत्कंठा हुआ करे । तमाशा देखनेवाला । उ०—यदि बहु मुझे बहुत कुतूहली न समझे तो मै एक बात जानने के लिये उत्सुक हूँ ।—जिप्सी, पृ० २९७ ।२. कौतुकी । खिलवाड़ ।

कुतृण
संज्ञा पुं० [सं०] कुंभी । जलकुंभी । आकाशमूली [को०] ।

कुत्ता
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० कुत्ती ] १. भेडिए, गीदड़ और लोमड़ी आदि की जाति का एक हिंसक पशु जिसे लोग साधारणतः घर की रक्षा के लिये पालते हैं । श्वान । कूकुर । विशेष—इसकी छोटी बड़ी अनेक जातियाँ होतीं हैं और यह सारे संसार में पाया जाता है । इसकी श्रवण शक्ति बहुत प्रबल होतीहै और यह जरा से खटके से जाग उठता है । अपने स्वामी का यह बहुत शुभचिंतक और भक्त होता है । किसी किसी जाति के कुत्ते की घ्राण शक्ति बहुत प्रबल होती है जिसके कारण वह किसी के पैरें के निशान सूँघकर उसके पास जा पहुँचता है । शिकार में भी इससे बहुत सहायता मिलती है । पागल कुत्ते के काटने से आदमी उसी की तरह से भूँकने लगता है और प्रायः कुछ दिनों में मर जाता है । बरसात में इसके विष का दौरा अधिक होता है । काटे हुए स्थान पर कुचला घिसकर लगाना लाभदायक होता है । यौ०—कुत्ते खसी = व्यर्थ और तुच्छ कार्य । मुहा०—क्या कित्ते ने काटा है = क्या पागल हुए हैं ? उ०— क्या हमें कुत्ते ने काटा है जो हम इतनी रात को वहाँ जाएँगे ? विशेष—साधारणतः पागल कुत्ते के काटने से मनुष्य पागल हो जाता है इसी से यह मुहावरा बना है । इसका प्रयोग प्रायः प्रश्न के लिये होता है और काकु अलंकार से अर्थ सिद्ध होता है । कुत्ते ने नहीं काटा है = दे० ' क्या कुत्ते ने काटा है ? कुत्ता घसीटना = नीच और तुच्छ कार्य करना । कुत्ते की मौत मरना = बहुत बुरी तरह से मरना । कुत्ते की हुड़क उठना = (१) पागल कुत्ते के काटने की लहर उठना (२) अचानक या कुसमय में किसी वस्तु के लिये आतुर होना । कुत्ते का दिमाग होना या कुत्ते का भेजा खाना = बहुत अधिक बकवाद करने की शक्ति होना । बहुत बक्की होना । कुत्ते की दुम = कभी अपनी बुरी चाल न छोङ़नेवाला । जिसपर समझने बुझाने या सत्संग आदि का कोई प्रभाव न पड़े । विशेष—कुत्ते की दुम टेढ़ी रहती है, वह कभी सीधी नहीं होती । इसी से यह मुहावरा बना है । २. एक प्रकार की घास जो कपड़ो में लिपट जाती है और जिसे लपटौवाँ कहते हैं । ३. कल का वह पुरजा जो किसी चक्कर को उलटा या पीछे की ओर घूमने से रोकता है ४. लकड़ी का एक छोटा चौकोर टुकड़ा जो करगहने में लगा रहता है और जिसके नीचे गिरा देने पर दरवाजा नहीं खुल सकता । बिल्ली । ५. संदूक का घोड़ा । ६. नीच या तुच्छ मनुष्य । क्षुद्र ।

कुत्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुत्ता] कुकुरी । कुतिया । कुत्ते की मादा ।

कुत्र
क्रि० वि० [सं०] कहाँ । किस जगह ? किस वातावरण में [को०] ।

कुत्स
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम, जिनकी बनाई हुई बहुत सी ऋचाएँ ऋग्वेद में हैं ।

कुत्सन
संज्ञा पुं० [सं०] [ वि० कुत्सित] १. निंदा । २. नीच काम । निंदित काम ।

कुत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निंदा ।

कुत्सित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुष्ठा या कुट नाम की औषधि । २. कुड़ा । कोरैया ।

कुत्सित (२)
वि० १. नीच । अधम । २. निंदित । गर्हित । खराब ।

कुत्स्य
वि० [सं०] निंदनीय । निंदा के योग्य ।

कुथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथरी । कंथा । २. हाथी की झूल । ३. रथ, पालकी आदी का ओहार । ४. एक कीड़ा । ५. प्रातःकाल स्नान करनेवाला ब्राह्मण । ६. कुश (को०) ।

कुथना
क्रि० अ० [हिं० कूथना] बहुत मार खाना । पीटा जाना ।

कुथरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० कु = पृथिवी + √ स्तृ = स्तरण, आस्तरण] दे० 'कथरी' ।

कुथरू
संज्ञा पुं० [सं० कुतूण] आँख का एक रोग ।

कुथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कँथा । कथरी । २. हाथी की झूल (को०) ।

कुथुआ
संज्ञा सं० [सं० कुतूणक] बालकों की आँख का एक रोग जिसमें पलकों के भीतर दाने पड़ जाते और बड़ी खुजली होती है ।

कुदई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोदई] दे० 'कोदो' ।

कुदकड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० कूदना] दे० 'कुदक्का' । उ०—जिसकी गोदी में जी चाहें खुल कर लेंटे, हँसे, शरारत करें, कुदकडे़ मारें ।—चाँदनी०, पृ० ९२ ।

कुदकना
क्रि० अ० [हिं० कूदना] उछलकूद करना । उ०—मेमनों से मेघों के बल, कुदकते ये प्रमुदित गिरि पर ।—पल्लव, पृ० २० ।

कुदक्कड़
वि० [हिं० कूदना या √ कुदक + कड़ (प्रत्य०)] कूदने में कुशल । कूदनेवाला ।

कुदक्का †
संज्ञा पुं० [हिं० कूदना] उछलकूद । मुहा०—कुदक्का मारना = इधर उधर कूदते फिरना ।

कुदरत
संज्ञा स्त्री० [अ० कुद्रत] १. शक्ति । प्रभुत्व । इखतियार । सामर्थ्य । उ०—कुदरत पाई खरी सों चित सों चित मिलाय । भँवर बिलंबा कमल रस अब कैसे उड़ि जाय ।— कबीर (शब्द०) २. प्रकृति । माया । ईश्वर सक्ति । महिमा । उ० उ०—कुदरत वाकी भर रही, रसनिधि सबही जाग । ईंधन बिन बनि यों रहे ज्यों पाहन में आग ।— रसनिधि (शब्द०) । मुहा०—कुदरत का खेल = ईश्वरीय लीला । प्रकृति की रचना । उ०—पढ़ै फारसी बेचैं तेल । यह देखो कुदरत का खेल । २. कारीगरी । रचना ।

कुदरति पु
वि० [अ० कुदरती] दे० 'कुदरती' । उ०—अष्षिय आइ जहाँ मिलि षानं । कुदरति कथा एक परमान ।—पृ० रा०, २४ ।३३ १ ।

कुदरती
वि० [अ०] १. प्राकृतिक । स्वाभाविक । २. दैवी । ईश्वरीय ।

कुदरा †
संज्ञा पुं० [सं० कुद्दाल] कुदार । उ०—कुदरा खुरपा बेल गुलसफा छुरा कतरनी । नहनी सौंहन परी डरी बहु झरना झरनी ।—सूदन (शब्द०) ।

कुदर्शन
वि० [सं०] जो देखने में बुरा मालूम हो । कुरूप । बदसूरत । भद्दा । अभव्य । उ०—कामी कृपण कुचील कुदर्शन कौन कृपा करि तारयो । ताते कहत दयालु देव मुनि काहे सूर बिसारचो ।—सूर । (शब्द०) ।

कुदलाना
क्रि० अ० [हिं० कूदना] कूदते हुए चलना । उछलना । कूदना । उ०—एहि बिधि बरषा ऋतु के माहीं । बन बछरू तिन सम कुदलाहीं ।—(शब्द०) ।

कुदली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुदली] दे० 'कुदाल' ।

कुदशा
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + दशा] बुरी गति । बुरी दशा । अधोगति । उ०—कार्यकर्ताओं का विशेष ध्यान देश की कुदशा की ओर खींचा जाय ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २०६ ।

कुदसियाँ †
वि० स्त्री० [अ०] फरिश्ता । पवित्र उ०—के महशर लग रहे ओ जाजा होर तर । अछे नित कुदसियाँ उसपर झूंबर ।— दक्खिनी०, पृ० २३७ ।

कुदाँव
संज्ञा पुं० [सं० कु + हिं० दाँव] १. बुरा दाँव । कुघात । विश्वास— घात । दगा । धोखा । उ०—पूरे को पूरा मिलै पूरा परसें दाँव । निगुरा तो कुब्बट चलै, जब तब करै कुदाँव ।— कबीर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—देनाउ०—समुझि सुमित्रा राम सिय रूप सुसील सुभाव । नृपसनेह लखि धुनेहु सिर, पापिनि दीन्ह कुदाँव ।—तुलसी (शब्द०) । †२. औचट । बुरी स्थिति । संकट की स्थिति । ३. बुरा स्थान । विकट स्थान ।

कुदीईं पु
वि० [हिं० कुदाँव] बुरे ढंग से दाँव घात करनेवाला छली । विश्वासघाती उ०—बार बहारन भोर ही हौं पठई मतिहीन मतौ कै लुगाइन । छेरी किवार उघारत ही अलि मोर चकोर कठोर कुदाइन ।—देव (शब्द०) ।

कुदाउँ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुदाँव' ।

कुदाता
संज्ञा पुं० [सं० कु (= १ बुरा । २ पृथिवीं) + दाता ] १. कृपण । २. पृथ्वी का दान देनेवाला । उ०—कृतघ्नी कुदाता कुकन्याहि चाहै ।—राम चं०, पृ० ९६ ।

कुदान (१)
संज्ञा पुं० [सं० कु + दान] १. बुरा दान (लेनेवाले के लिये) । विशेष—शय्यादान, गजदान आदि लेनेवाले के लिये बुरे समझे जाते हैं । २. कुपात्र या अयोग्य आदि को दान ।

कुदान (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० √ कूद + आन (प्रत्य०)] १. कूदने की क्रिया । कूदने का भाव । २. बहुत पहँचकर कहना । दूर की कौड़ी लाना । ३. उतनी दूरी जितनी एक बार कूदने में पार की जाय । जैसे—वह पाँच पाँच गज की कुदान मारता है । क्रि० प्र०—मारना । ४. कूदने का स्थान । जैसे—लोरिक की कुदान ।

कुदाना
क्रि० स० [हिं० कूदाना] १. कूदने का प्रेरणार्थक रूप । कूदने में प्रबृत्त करना । उ०—सन्मुख जाइ सुबाजि कुदाई । तजत शूल काटयो रिसि छाई ।—गोपाल (शब्द०) २. घोड़े आदि पर चढ़कर उसे दौडा़ना । जैसे—घोडा़ कुदाना ।

कुदाम पु
संज्ञा पुं० [सं० कु + हिं० दाम] खोट सिक्का । खोटा रुपया । उ०—जौ पें चेराई राम की करतो न लजातो । तौ तू दाम कुदाम ज्यों कर कर न बिकातो ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५३५ ।

कुदाय पु
संज्ञा पुं० [सं० कु + हिं० दाँव] कुदाँव । उ०—लेत केहरि को बयर झेक हनि गोमाय । त्योंहि रामगुलाम जानि निकाम देत कुदाय ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५६७ ।

कुदार †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुदाल' । उ०—ज्ञान कुदार ले बंदर गोडै ।—कबीर श०, पृ० १३६ ।

कुदारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुदाली' ।

कुदाल
संज्ञा स्त्री० [सं० कुद्दाल] लोहे का बना एक औजार । विशेष—यह प्रायः एक हाथ लंबा और चार अंगुल चौड़ा होता है । असके ऐन सिरे पर छेद में लकडी का लंबा बेंट लगा रहता है । यह जमीन या मिट्टी खोदने और खेत गोड़ने के काम आता है । मुहा०—कुदाल बजाना = (घर का) खोदा जाना ।

कुदाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुदाल] छोटी कुदाल ।

कुदाव †
संज्ञा पुं० [हिं० कूदना] कुदान । उ०—पूरे को पूरा मिलै, पडै़ सो पूरा दाव । निगुरा तो ऊभर चलै, जब तब करै कुदाव ।—कबीर सा० सं०, भा १, पृ० १७ ।

कुदास (१)
संज्ञा पुं० [?] जहाज की पतवार का खंभा । खड़ा पठान ।

कुदास (२)
संज्ञा पुं० [सं० कू + दास] बुरा सेवक । आज्ञा न माननेवाला नौकर [को०] ।

कुदास (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कूदना + आस (प्रत्य०)] कूदाने की प्रबल इच्छा ।

कुदिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आपत्ति का समय । कष्ट के दिन । खराब दिन । २. दिन का वह परिमाण जो एक सूर्योदय से लेकर दूसरे सूर्योदय तक के मध्य में होता है । सावन दिन । ३. वह दिन जिसमें ऋतुविरुद्ध या इसी प्रकार की और कष्ट देनेवाली घटनाएँ हों । जैसे,—पूस माघ में खूब वर्षा होना, बरसात में बिलकुल जल न बरसना, अथवा दिन रात लगातार जल बरसना आदि ।

कुदिष्टि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुदृष्टि] बुरी दृष्टि । बुरी नजर । पाप दृष्टि । बद निगाह ।

कुदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुरी नजर । पाप दृष्टि । बंद निगाह । उ०—इनहिं कुदष्टि बिलोकइ जोई । ताहि बधे कछु पाप न होई ।—तुलसी (शब्द०) । २. वह तर्क जो वेद से अनुमोदित न हो । वेद से सेवतंत्र तर्क ।

कुदूरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मेल । मैलापन । गंदलापन । २. मनो- मालिन्य । रंजिश । ३. द्वेष । अमर्ष । खुनस ।

कुदेव (१)
संज्ञा पुं० [सं० कु = भूमि + देव = देवता] भूदेव । भूसर । उ०—कुदेव देव नारिको न बाल वित्त ली जिए । विरोध विप्र वंश सों सों स्वप्न हू न कीजिए ।—केशव (शब्द०) ।

कुदेव (२)
संज्ञा पुं० [सं० कु = बुरा कुदेव = देवता] १. राक्षस । दैत्य । दानव । उ०—देव कुदेवनि के चरणोदक बोरयों सबै कलि को कुलपानी ।—केशव (शब्द०) । ३. जैनियों के अनुसार ऐसे देवता, जो उनसे भिन्न धर्मवालों के हों ।

कुदेस
संज्ञा पुं० [सं० कु + देश] वह देश जहाँ शासन की समुचित व्यवस्था न हो । बुरा देश । उ०—सेत सेत सब एक से, जहाँकपूर कपास । ऐसे देस कुदेस में कबहुँ न कीजै वास ।— भारतेंगु ग्रं०, भा० १, पृ० ६६५ ।

कुदेह (१)
वि० [सं०] कुरूप । बदशक्ल [को०] ।

कुदेह (२)
संज्ञा पुं० कु वेर का एक नाम [को०] ।

कुद्दार
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे का बना एक औजार । कुदाल ।

कुद्दाल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुदाल' [को०] ।

कुद्मल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुड्मल' [को०] ।

कुद्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुडय' [को०] ।

कुद्रंक
संज्ञा पुं० [सं० कुद्रङ्क] घंटाघर । वह स्थान जहाँ ऊँची जगह पर घड़ी लगी हो [को०] ।

कुद्रंग
संज्ञा पुं० [सं० कुद्रङ्ग] दे० 'कुद्रंक' [को०] ।

कुद्रव (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुद्रव, कद्रव] कोदो । कोदई ।

कुद्रव (२)
संज्ञा पुं० [देश०] तलवार चलाने के ३२ हाथों या प्रकारों में से एक । उ०—तिमि सव्य जानु विजातु संकोचित सुआहित चित्र को । धृतलपन कुद्रव क्षिप्त सव्येतर तथा उत्तरत को ।— रघुराज (शब्द०) ।

कुधर
संज्ञा पुं० [सं० कुध्र] १. पहाड़ । पर्वत । भूधर । उ०—कुधर समान सरीर विसाल । गरजि सिंधु इव रन विकराला ।— द्विज (शब्द०) । २. शेषनाग ।

कुधातु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुरी धातु । २. लोहा । उ०—सठ सुधरहिं सत संगति पाई । पारस परस कुधातु सुहाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह अन्न जो पाप की कमाई का हो । बुरा अन्न ।

कुधि
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लू । उलूक [को०] ।

कुधी
वि० [सं० कु + घी] १. मंदबुद्धि । दुर्बुद्धि । मूर्ख । २. बदमाश (को०) ।

कुध्र
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वत । पहाड़ । कुवर [को०] ।

कुनक
संज्ञा पुं० [सं०] कौवा । काक [को०] ।

कुनकाना पु
क्रि० स० [सं० क्वण] क्वणित करना । ध्वनित करना । उ०—सेज परी नूपुर रुनकावै । कर के कल कंकन कुनकावै ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५६ ।

कुनकुन
वि० [हिं०] दे० 'कुनकुना' ।

कुनकुना
वि० [सं० कुदुष्ण प्रा० कउण्ह] आधा गरम (पानी) । कुछ गरम (पानी) । गुनगुना ।

कुनख
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें नख खराब हो जाते और प्रायः पककर गिर जाते हैं । वैद्यों ने इसे त्रिदोषज माना है ।

कुनखी
वि० [सं० कुनखिन्] १. बुरे नखवाला । २. कुनख रोगवाला ।

कुनना
क्रि० सं० [सं० क्षृणन या घूर्णन = घुमाना] १. बरतन खरा दना । २. खुरचना । छीलना ।

कुनष
संज्ञा पुं० [सं० कुणप] दे० 'कुणप' ।

कुनाबा
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्ब, प्रा० कुटुब] परिवार । कुटुंब । खानदान । उ०—इनकी बदौलत उसके कुनबे ने खूब चैन किए ।—सैर ७०, पृ० १४ । मुहा०—कुनबा जोड़ना = नाते गोते के लोगों को इकट्ठा करना । परिवार जुटाना । उ०—कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा । भानमती का कुनबा जोड़ा ।

कुनबी
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्ब; हिं० कुनबा] हिंदुओं की एक जाति जो प्रायः खेती करती है । कहीं कहीं ये लोग अपने को गृहस्थ कहते हैं ।

कुनलई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक कँटीला छोटा पेड़, जिसमें बहुत सी पतली टहनियाँ होती हैं । विशेष—इसकी छाल ऊपर सफेद होती हैं । पत्तियाँ ३—४ अंगुल की होती है । गरमी के दिनों में इसमें बहुत छोटे—छोटे पीले फूल लगते हैं । इसकी लकड़ी बहुत कड़ी होता है और खेमों के खूँट आदि बनाने के काम आती है ।

कुनवा
संज्ञा पुं० [हिं० कुनना] [स्त्री० कुनवी] खरादनेवाला मनुष्य । बरतन चरख पर चढ़ाकर खरानेवाला मनुष्य । खरादी ।

कुनह पु †
संज्ञा स्त्री० [फा़० कीनह] [वि० कुनही] १. द्वेष । मनो- मालिन्य । मनमोटाव । उ०—कीन कुनह बिन गुनइ जिन तिन सुख सुनान पाव । सहसबाहु सुरनाथ भृगु अत्रिय सुत भृगराब ।—विश्राम । (शब्द०) । २. पुराना बैर । क्रि० प्र०—करना । निकालना ।—रखना ।

किनही
वि० [हिं० कुनह] द्वेष रखनेवाला । बुरा माननेवाला ।

कुनाई
संज्ञा स्त्री [हिं० कुनना = खरादना, खुरचना] १. वह चूर या बुकना जो किसी वस्तु की खरादने या खरचने पर निकलती है । बुरादा । २. खरादन की क्रिया । ३. खरादने की मजदूरी ।

कुनाकु
संज्ञा पुं० [सं०] एक पहाड़ी पक्षी [को०] ।

कुनाभि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बवडर । वातावर्त २. नौ निधियों म स एक ।

कुनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] कुख्याति । बदनामी । उ०—वृंदावन हरि बठ धाम । काह का गथ हरयो सबन को कहि अपना कियो कुनाम ।—सूर (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कुनालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोकिल पक्षी । कोयल । परभृत [को०] ।

कुनित पु
वि० [सं० क्वाणत] शब्द करता हुआ । गुंजार करता हुआ । बोलता हुआ । बजता हुआ । झनकार करता हुआ । उ०—किंकिणा कटि कुनित ककन काचुरा झनकार । हृदय चाका चमकि बैठा मातिन हार ।—सूर (शब्द०) ।

कुनिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० कुनना + इया (प्रत्य०)] खरादनेवाला व्यक्ति ।

कुनिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कूतना] कनकूत करनेवाला ।

कुनिया (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० काण, हि० कोनिया] कोना । उ०—शाम क वक्त वह थक कर दोवार के कुनिया से पीठ लगा बैठ गया था ।—फूला० पृ० ५७ ।

कनीति
संक्षा स्त्री० [सं० कू +नीति] दुर्नीति । बुरि नीति । अविचार ।उ०—अपने उन अग्रगण्यों की कुनीति की हानियाँ कुछ सूझने लगी है ।—प्रेमघन०, भा २, पृ० २४५ ।

कुनेर, कुनेरा
संज्ञा पुं० [हिं० कुनना] लोहे पीतल आदि के बरतनों की कुनाई करनेवाली जाति और उस जाति का व्यक्ति ।

कुनैन
संज्ञा पुं० [अं० क्विनिन] एक ओषधि जो अंग्रेजी चिकित्सा में ज्वर के लिये अत्यंत उपकारी मानी जाती है । कुनाइन । विशेष—यह एक पेड़ की छाल का सत है, जिसे सिकोना कहते हैं । यह पेड़ पहले दक्षिण अमेरिका में ही होता था पर अब यह भारतवर्ष के नीलगिर, मैसूर, सिकिम आदी ऊँचे पहाडी स्थानों में भी लगाया जाता हैं । यह दो ढंग से लगाया जाता है । कहीं तो बीज बोकर पौधे उगाते हैं और कहीं डालियाँ काटकर कलम लगाते हैं । इसके बीजों को घना बोते हैं और खूब सिंचाई करते हैं । ऊपर से फूस आदि की छाया भी करते हैं । ४०-४१ दिनों में अँखुए निकल आते हैं । जब दो या तीन जोडी पत्तियाँ निकल आती हैं तब पौधों को दूसरी जगह लगाते हैं । इसी प्रकार पौधों की कई बार उखाड़ उखाड़कर अन्यत्र लगाना पड़ता है । ये पौधे चार या छह छह फूट के अंतर पर लगाए जाते हैं । सिंकना कई प्रकार का होता है —भूरी छाल का लाल, छाल का और पोली छाल का । लाल छाल का पेड़ बड़ा होता है, भूरी छाल का मध्यम आकार का होता है और पीली छाल का झाड़ी के आकार का छोटा होता है । जब पौधा चार वर्ष का होता है तब उसकी छाल में सच्छी तरह क्षार आ जाता है और वह काम लायक हो जाती है । सातवें वर्ष से क्षार कुछ घटने लगता है, इससे १२-१४ वर्ष के भीतर ही सारे पेड़ छाल के लिये उखाड़ लिए जोते हैं । जड़ में क्षार का अंश विशेष होता है, इससे यह और भागों की अपेक्षा बहुमूल्य समझी जाती है ।

कुन्याई पु
संज्ञा पुं० [कु =बुरा+ न्यायी, हिं० न्याई] अन्याय करनेवाला । तेज अंड कुन्याई । उ०—एकहिं भूल सबै उपजाई । भेंटचो तेज अंड कुन्याई ।—कबीर सा०, पृ० ६ ।

कुन्याय
संज्ञा पुं० [कु + न्याय] अन्याय । न्यायविरुद्ध काम । उ०— बालक पै तेग वाही सो कुन्याय सल्ला ।—शिखर०, पृ० ६२ ।

कुपखि पु
संज्ञा पुं० [सं० कु + पक्षिन्] बुरा पक्षी । कटु शब्द कहनेवाला पक्षी । दृष्ठ पक्षी । उ०—हंस सु मान सरोवरी, छपड़ि आया वासु । सगति काग कुपंखि की किऊँ छूटे तिन पासु ।— प्राण०, भा १, पृ० १०५ ।

कृपथ
संज्ञा पुं० [सं० कृपथ] [वि० कृपंथी] १. बुरा मार्ग । २. निषिद्ध आचरण । कुचाल । उ०—रघुवंसिच कर सहज सुभाऊ । मन कुपंथ पग धरै न काऊ ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—पर चलना । ३. बुरा मत । कृत्सित सिद्धांत । उ०—चलत कुपंभ बेद मग छाँडे । कपट कलेवर कलिमल भाँडे ।—मानस, १ ।१२ ।

कृप
संज्ञा पुं० [देश०] घास, भूसा, पुआल आदि का ढेर (को०) ।

कृपक
संज्ञा पुं० [फा० कबक] एक पक्षी जिसकी आवाज सुरीली होती है ।

कुपढ़
वि० [सं० कु + हिं० पढ़ना] अनपढ़ । मूर्ख ।

कुपत्थ पु †
संज्ञा पुं० [सं० कुपथ्यु, प्रा० कुपथ्थ] १. किसी रोगी के रोग को बढ़ानेवाला आहार विहार । २. अस्वास्थ्यकर खान पान ।

कुपत्थी (१) †
वि० [सं० कुपथ्य] कुपथ्य करनेवाला । असंयमी ।

कुपत्थी (२)
संज्ञा पुं० वह व्यक्ति जो पथ्य से न रहे । बहपरहेज आदमी ।

कुपथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुरा रास्ता । २. निषिद्ध आचरण । बुरी चाल । यौ०—कुपतगामी = कुमार्गी । निषिद्ध आचरण का ।

कुपथ (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कुपथ्य] वह भोजन जो स्वास्थ्य जो स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो । उ०—राज काज कुपथ कुसाज भोग रोग को है वेद बुध विद्या वाय बिवस बलकहीं ।—तुलसी । (शब्द०) ।

कुपथ्य
संज्ञा पुं० [सं० कु + पथ्य] वह आहार बिहार जो स्वास्थ्य को हानिकारक हो । बदपरहेजी । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

कुपना पु
क्रि० अ० [हिं० कोपना] दे० 'कोपना' ।

कुपली
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोंपल' । उ०—जीभ न जीभ विगोयनो । दव का दाधा कुपली मेल्ही ।—बी० रासो, पृ० ३७ ।

कुपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] बुरी मंत्रणा । हुरी सलाह । उ०—कीन्हेसि कठिन पढ़ाइ कुपाठू । जिमि न नवै पुनि उकठि कुकाठू ।— तुलसी (शब्द०) ।

कुपाठी
वि० [सं० कुपाठिन्] बदमाश । नटकट । दुष्ट । उत्पाती ।

कुपातर
वि० [सं० कुपात्र] दे० 'कुपात्र' । उ०—म्हारी जात मैं भी कोई कुपातर निकल गयो ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ४४ ।

कुपात्र
वि० [सं०] १. किसी विषय का अनधिकारी । अयोग्य । नालायक । २. वह जिसे दान देना शास्त्रों में निषद्ध है ।

कुपार पु
संज्ञा पुं० [सं० अकूपार] समुद्र । उ०—देख अब रंक लंक जारत निशंक तेरी तऊ न बुझैगी जौ लौं आइहौं कुपार को ।—हनुमान (शब्द०) ।

कुपिंद
संज्ञा पुं० [सं० कुविन्द] जुलाहा । तंतुवाय ।

कुपित
वि० [सं०] १. क्रुद्ध । क्रोधित । २. अप्रसन्न । नाराज ।

कुपितमूल (
सैन्य) संज्ञा पुं० [सं०] भड़की हुई सेना । विशेष—कौटिल्य के मत में भड़की हुई और भिन्नगर्भ (तितर बितर हुई) सेनाओं में से कुपितमूल सामादि उपायों से शांत की जाकर उपयोग में लाई जा सकती है ।

कुपिन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कौपीन' ।

कुपिया †
क्रि० वि० [अ० खुपीयह्] छुपे छुपे । चुपचाप । छिपे हुए । खोपिया । पोशीदा । उ०—के प्रपंच कुपिया करै, रुपिया जोडण रोक । परपीड़ा पेखै नहीं, ऐ लोभीड़ा लोक ।—बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० ५६ ।

कुपीन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कौपीन] कौपीन । लंगोटी । उ०—गाँठी सत्त कुपीन में सदा फिरे निःसंक । नाम अमल माता रहै गिने इंद्र को रंक ।—मलूक०, पृ० ३३ ।

कुपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुत्र जो कुपथगामी हो । कुपूत । दुष्ट पुत्र ।

कुप्पक
संज्ञा पुं० [सं० कोप] घोडों का एक रोग जिसमें उन्हें ज्वर आता है और उनकी नाक से पानी बहता है ।

कुप्पना पु
संज्ञा पुं० [हिं० कोपना] दे० 'कोपना' । उ०—सुनी राव हम्मीर कुप्पे सुमारी ।—ह० रासो०, पृ० ६९ ।

कुष्पल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की सज्जी जिसके कलम बारीक और नुकीले होते हैं । यह लाल रंग की होती है और बरार की लोनार झील के पानी को सुखाकर निकाली जाती है ।

कुप्पा
संज्ञा पुं० [सं० कूपक] [स्त्री० अल्पा० कुप्पी] चमडे़ का बना हुआ घडे़ के आकार का एक बड़ा बर्तन जिसमें घी, तेल आदि रखे जाते हैं । यौ०—कुप्पासाज । मुहा०—कुप्पा लुढ़ना लुढ़कना =(१) किसी बडे़ आदमी का मरना । (२) अधिक व्यय होना । कुप्पा होना या हो जाना = (१) फूल जाना । सूजना । वरम होना । जैसे—भिड़ के काटने से उसका मुहँ कुप्पा हो गया (२) मोटा होना । हृष्टपुष्ट होना । जैसे, —वह दो महीने में ही कुप्पा हो गया (३) रूठना । रूठकर बोलचाल बंद करना । जैसे—वह जरा सी बात में कुप्पा हो जाते हैं । फूलकर कुप्पा होना = (१) मोटा होना । हृष्ट पुष्ट होना । (२) अत्यंत हर्षित होना । आनंद से फूल जाना । जैसे, —जिस समय वह यह सुनेगा फूलकर कुप्पा हो जायगा । किसी का मुँह कुप्पा होना = किसी की नाराज होकर मुँह फुलना । किसी का रूठकर बोलचाल बेंद करना । जैसे— जरा सी बात पर तुम्हारा मुँह कुप्पा हो जाता है । कुप्पा सा मुँह करना = मुँह फुलाना । रूटकर बोलचाल बंद करना ।

कुप्पासाज
संज्ञा पुं० [हिं० कुप्पा + फा० साज] कुप्पा बनानेवाला व्यक्ति ।

कुप्पी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुप्पा का अल्पा०] चमडे़ का बना हुआ कुप्पे सो चोटा बर्तन जिसंमें तेल, फुलेल आदि रखते हैं । फुलेली ।

कुफर
संज्ञा पुं० [अ० कुफ़] दोष । पाष । अपराध । अपवित्रता । कृतध्नता । उ०—अपना कुफर चीह्न नहिं भाई, हिंदू को काफर बतलाई ।—तुलसी० स०; पृ० २११ ।

कुफरान
संज्ञा पुं० [अ० कुफान] १. एहसानफरामोशी । कृतघ्नता । उ०—कुफरान जिकिर छोड़ी । पद साँच देव गोड़ों ।— गुलाल०, पृ० ११२ ।

कुफराना
वि० [अ० कुफ्रान] कृतघ्नता से भरा हुआ । उ०—काफिर कुफर करे कुफराना । दिल दलील हैराना ।—संत तुरसी०, पृ० १९८ ।

कुफल
संज्ञा पुं० [अ० क़ुफ़ुल, क़ुफ़ल] ताला । तालिका । द्वारयंत्र । उ०—जिन यह कुंजी कुफल उघाटी ।—कबीर श०, पृ० २२ ।

कुफार (१)
संज्ञा पुं० [अ० क़ुफ्फार, काफिर का बहुव०] काफिर लोग । अविश्वासी लोग । मूर्तिपूजक लोग उ०—गारी बकत कुफार जीति दल तासु न सोच लयो री ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५०३ ।

कुफार (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कु + फार] कुवचन । बुरी बात । झगझड़ा । झंझट । उ०— पार परोसिन डाहै हो निस दिन करत कुफार ।—गुलाल०, पृ० ५४ ।

कुफारी
वि० [हिं० कृ + फार] अश्लील । गंदी । असभ्यों की सी । उ० — आपुन हँसत हँसावत औरुन देत कृफारी गारी ।—झारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४११ ।

कृफुर (१)
संज्ञा पुं० [अ० कृफ] मुसलमानी मत के विरुद्ध अन्य मत । उ० — ढाहि देवालय कृफुर मिटाऊँ । पातसाह को हुकुम चलाऊँ । — लाल (शब्द०) । वि० दे० 'कृफ्र' ।

कृफुर (२)
संज्ञा पुं० पाप । अपराध । दोष । अविश्वास । उ० — भीखा कहै कृफुर तब टूटै जब साहब करहिं सहाई । — भीखा श०, पृ० ३२ ।

कृफेन
संज्ञा स्त्री० [सं०] काबुल नदी का पुराना नाम । इसे वैदिक काल में कृभा कहते थे ।

कृफेर
संज्ञा पुं० [सं० कृ + हिं० फेर] बुरे दिनों का चक्कर । दुर्भाग्य । उ०—मुख सों नाम रटा करै, निस दिन साधन संग । कहो धौं कौन कृफेर से, नाहिन लागत रंग ।— कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० ३३ ।

कुफ्र
संज्ञा पुं० [अ० कुफ़] १. मुसलमानी मत से मिन्न अन्य मत । उ०— सब कुफ्र और इस्लाम के झगड़ों में हैं भूले । देखा न कभी जिस्म का बुतखाना किसू ने । — दक्खिनी०, पृ० २४१ । २. मुसलमानी धर्म के विरुद्ध वाक्य । क्रि० प्र०—बकना ।

कुफ्ल
संज्ञा पुं० [अ० कुफ्ल ] ताला । जंतर । उ० कुंजी उसकी जबान शीरीं है । दिल मेरा कुफ्ल है बतासे का । — कविता कौ ०, भा० ४, पृ० १६ ।

कुफ्ली
संज्ञा स्त्री० [हीं०] दे० ' कुल्फी' ।

कुबंड (१)पु
संज्ञा पुं० [ सं० कोदण्ड, प्रा०, पु० हिं० कोबंड] धनुष । उ०— (क) कुबड कियो विविखंड महा बरवड प्रचंड भुजा बल ते ।— हनुमान (शब्द०) । (ख) भुसुंडिय और कुबंडिय साधि । परे दुहु ओरन तेभट आँधि । — सूदन (शब्द०) ।

कुबंड (२)पु
वि० [सं० कु + बण्ठ = खंज] खोंडा । विकृताँग । उ०— हाँ जीति सुरेश महेश की पूत गणेश को दंत उपार लियो । यम के वश कै पुनि बाहन का जिन तोरि विषाण कुबड कियो ।— हनुमान (शब्द०) ।

कुब
संज्ञा पुं० [फा़० कुब्बह्] ३. छोटा गुंबद । बुर्जी । गुमटी । २. गुबद के आकार की पीठ । कूबर ।

कुबग
संज्ञा पुं० [?] एक जंतु जो गिलहरी के आकार का होता है ।

कुबज—पु
संज्ञा पुं० [ सं० कुब्ज] कुबडा़ ।

कुबजा
संज्ञा स्त्री० [सं० कुब्जा] द० ' कुब्जा' ।

कुबज्या †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुब्जा ] दे० 'कुब्जा' । उ० —ऊधो बेगि सिधारो प्रज ते तुम जीते हम हारे । नट नागर सों यों कहियो कुबज्या को न बिसारे । — नट०, पृ० ४५ ।

कुबडा़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुब्ज + हिं० डा़ (प्रत्य०) ] [स्त्री० कुबडी़] वह पुरुष जिसकी पीठ टेढी हो गई हो या झुक गई हो । उ०—सबसे अधिक किरात डरे जो थे भी ठीक गँवार । कुबडे़ नीचे नीचे चल के डर से हो गए पार । — रत्नावली (शब्द०) ।

कुबडा़ (२)
वि० [ वि० स्त्री० कुबडा़ ] झुका हुआ । टेढा़ । उ०— तन सूखा कुबडी़ पीठ हुई घोडे़ पर जिन धरो बाबा । — नजिर । (शब्द०) ।

कुबडा़पन
संज्ञा पुं० [हिं० कुबडा़ + पन] कुबडा़ होने का भाव ।

कुबडो़ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुबडा़] १. दे० 'कुबरी' । २. वह छडी़ जिसका सिरा झुका हुआ हो । टेढ़िया ।

कुबत पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कु+ हिं० बात] १. बुरी बात । निंदा । उ०—करो कुबत जग कुटिलता तजो न दिनदयाल । दुखी होहुगे सरल हिय बसत त्रिभंगी लाल ।—बिहारी (शब्द०) । २. कुचाल । बुरी चाल । उ०—कहति ने देवर की कुबत, फुल तिय कलह डराति । पिंजरगत मंजार ढिग सुक लौं सूखति जाति । — बिहारी (शब्द०) ।

कुबरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुबडा़ ] १. कंस कि एक दासी जिसकी पीठ टेढी़ थी । यह कृष्णचंद्र पर अधिक प्रेम रखती थी । कुब्जा । उ०— योग कथा पठई व्रज को सब सो सठ चेरी की चाल चलाकी । ऊधो जू क्यों न कहै कुबरी जो बरी नटनागर हेरि हलाकी ।— तुलसी(शब्द०) ।२. वह छडी़ जिसका सिरा झुका हो । टेढ़िया । ३. एक प्रकार की मछली जो भारत चिन और लंका में प्ई जाती है ।

कुबलय पु
संज्ञा पुं० [सं० कुवलय] कुमुद । कमल । उ० — क्यों न फिरे सब जगत मैं करत दिगविजय मार । जाके दुगसामंत है कुवलय जितनहार ।— मति० ग्रं०, पृ० ३९६ ।

कुबलयापोड़
संज्ञा पुं० [सं० कुवलयापीड] दे० 'कुवलयापीड़' ।

कुबली
संज्ञा स्त्री० [सं० कुवलय = गोल] पिंडी गोला ।

कुबहा
वि० [हिं० कुब + हा (प्रत्य०)] कुवड़वाला ।

कुबाक पु
संज्ञा पुं० [सं० कुवाक्य] १. कुवचन । टेढा़ बोल । कठोर वचन । कड़ि बात । उ० — तजी सक सकुचति नचति बोलति बाक कुबाक । दिन छिनदा छाको रहति उठत न छिन छबि छाक । — बिहारा (शब्द०) २. गाली । अपशब्द । ३. शाप ।

कुबादो पु
वि० [सं० कु + वादिन ] व्यर्थ का विवाद करनेवाला । उ०— श्री शकराचार्य जी ने उस कामकोतुकवाद को, इस ढंग से समझ के कुबादा सेवड़ों को बाद में परास्त किया ।—भक्तमाल (श्री०) पृ० ४६७ ।

कुबानि पु
संज्ञा स्त्री० [ सं० कु + हिं० बानि] बुरी आदत । बुरी टेव । बुरी लत । कुटेव ।

कुबानी (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + वाणी] बुरा बोल । अशिष्ट शब्द । अमंगल बात ।

कुबानी (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + वानी (वाणिज्य)] बुरा व्यवसाय । खराब वाणिज्य । उ०—अपने चलन से कीन्ह कुबानी । लाभ न देख मूर भइ हानी । —जायसी (शब्द०) ।

कुबासन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुवासनो ] दे० 'कुवासना' ।

कुबिचार पु
वि० [सं० कुविचार] दे० 'कुविचार' ।

कुबिचारी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुविचारिन् ] दे० 'कुबिचारी' ।

कुबिज पु
वि० [सं० कुब्ज] दे० 'कुब्ज । उ०— कुबिज खंज अरु स्यामदंत नर ।— पं० रासो, पृ० १४ ।

कुबिजा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुब्जा' ।

कुबुजवा †
वि० [सं० कुब्ज, हिं० कुब्लि, कुबुज + वा (प्रत्य०)] कुबडा़ । कुब्ज । उ०—सइयाँ हसरे कुबुजवा हो हम धन अल्प कुमारि ।—गुलाल०, पृ० ५३ ।

कुबुजा पु
संज्ञा स्त्री [हिं०] दे० 'कुब्जा' । उ०—कोउ कहे रे मधुप स्याम जोगी तुम चेला । कुबजा तीरथ जाइ कियौ इंद्रिन को मेला । नंद० ग्रं०, पृ० १८५ ।

कुबुद
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बगला ।

कुबुद्धि (१)
वि० [सं०] जिसकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई हो । दुर्बुद्धि । मूर्ख ।

कुबुद्धि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मूर्खता । बेवकूफी । २. बुरी सलाह । कुमंत्रणा ।

कुबुधि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुबुद्धि' । उ०—काम औ क्रोध दुइ पाप का मूल है, कुबुधि का बिज का जानि बोबै । —कबीर रे०, पृ० ३२ ।

कुबेर
संज्ञा पुं० [सं० कुवेर] दे० 'कुवेर' ।

कुबेला
संज्ञा स्त्री० [सं० कुबेला] बुरा समय । अनुपयुक्त काल । उ०—अगर डोला कभी इस राह से गुजरे कुबेला, यहाँ अबवा तरे रुक एक पल विश्राम लेना ।—ठडा०, पृ० १८ ।

कुबोल
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + हिं० बोल] १. बुरी बात । अशुभ वचन । अमंगल बात ।

कुबोलना †
वि० [हिं० कुबोल] बुरी या अशिष्टतायुक्त बात कहने— वाला । अशुभभाषी । कुभाखी ।

कुबोलनी
वि० स्त्री० [हीं० कुबोल] बुरा बोल बोलनेवाली । कुभाषिणी । उ०—युवति कुरूप कुबोलनि जाके । सदा शोक हिय ह्वै है ताके । —निश्चल (शब्द०) ।

कुब्ज (१)
वि० [सं०] [स्त्री० कुब्जा ] जिसकी पीठ टेढी़ हो ।कुबडा़ ।

कुब्ज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राग जिसमें वायु के विकार स छाती या पीठ टढी़ होकर ऊँचा हो जाती है । यह दो प्रकार का होता है । एक में पीठ अगे की ओर और दूसरे में पीछे की और झुकती है । २. अपामार्ग । लहचिचिडा़ । लठजीरा ।

कुब्जकंठ
संज्ञा पुं० [सं० कुब्जकण्ठ] संनिपात का एक रोग । विशेष—इसमे कठ रुक जाता है ओर रोगो के गले क नीचे पानी नहीं उतरता । इसमें दाह, मोह आदि भी होता है । वैद्यक में इसे असाध्य माना है, और इसकी अवधि १३ दिन बतलाइ है ।

कुब्जक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मालती । २. नगर के आठ प्रकारों में से एक । उ०—शहर आठ तरह के होते है—राजधानी, नगर, पुर, नगरी, खेट, खर्वाट, कुब्जक, पहन ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ४८४ ।

कुबजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कंस की एक दासी, जिसकी पीठ कुबडी़ थी । यह कृष्णचंद्र से अधिक प्रेम रखती थी । कुबरी । २. कैकयी की मंथरा नाम की एक दासी । उ०—लखनु, भरतु, रिपुदमन सुमित्रा कुबरी क उर साल ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुब्जिका
संज्ञा स्त्री०, [सं०] १. आठ बर्ष की अवस्था की लड़की । २. दुर्गा देवी का एक नाम ।

कुब्बा †
संज्ञा पुं० [हिं० कुबडा़ ] डील्ला । कूबड़ ।

कुब्र
संज्ञा पुं० [ सं०] १. जंगल । २. यज्ञाथ निर्मित कुंड । ३. अँगूठी । ४. कान में पहनने का एक आभूषण । बाली । ५. डोरा । तंतु । धागा । ६. गाडी़ । शकट (को०) ।

कुभरा †
संज्ञा पुं० [ हिं० कुम्हार] दे० 'कुम्हार' । उ०—कुमरा ह्वै करी बासन धरीहूँ धोबी ह्वै मल धोअ । —कबीर ग्र०, पृ० २१७ ।

कुभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पृथ्वी की छाया । २. बुरी दीप्ति । ३. काबुल नदी ।

कुभायँ
संज्ञा पुं० [सं० कुभाव] दे० 'कुभाव' । उ०—भायँ कुभायँ अनख आलस हूँ । नाम जपत मगल दिसी दसहूँ । मानस, १ ।२८ ।

कुभाव
संज्ञा पुं० [ सं० कु + भाव ] अनुचित भाव । दुर्वुति । प्रेमशून्य भाव ।

कुभृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्वत । २. सात की संज्ञा । ३. काबुल नदी ।

कुमंठी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कमठ = बाँस] पतली लचीली टहनी । उ०—पाता बड़ बड़ देखी के चढे़ कुमठी धाय । तरुवर होय तो भार सह टूट रेंड अरराय ।—गिरिधर (शब्द०) ।

कुमंत्रणा
संज्ञा स्त्री० [ सं० कुमन्त्रणा] बुरी सलाह ।

कुमंत्रीत
वि० [ सं० कु + मन्त्रित] जिसे असत् परामर्श दिया गया हो ।

कुमइत पु
संज्ञा पुं०, वि० [हिं०] दे० 'कुम्मैत' ।

कुमकु
संज्ञा स्त्री० [ तु०] १. सहायता । मदद । उ०—लार्ड आकलेड ने जाने से पहले जलालाबादवालों की कुमक के लिये पेशावर में फौज जमा होने के लिये हुक्म जारी किया ।—शिवप्रसाद (शब्द०) । २. पक्षपात । हिमायत । तरफदारी । क्रि० प्र०—करना ।—पहुँचना ।—पहुँचाना ।—देना ।—आना । मुहा०—कुमक पर होना = हिमायत करना । पक्ष लेना । तरफ दारी करना ।

कुमका (१)
वि० [ तु० कुमक ] कुमक या कुमक से सबंध रखनेवाला । जैसे—कुमकी फौज ।

कुमका (२)
संज्ञा स्त्री० हाथियों के पकड़ने में सहायता करने के लिये सिखाई हुई हथिनी ।

कुमकुम
संज्ञा पुं० [सं० कुङ्कुम ] १. केशर । उ०—जहाँ स्याम घन रास उपायो । कुमकुम जल सुख वृष्टि रमायो ।—सूर (शब्द०) । २. कुमकुमा ।उ०—चंदन कालकूट सम जानहु । कुमकुम पवि प्रहार इव मानहु ।—मधुसूदनदास (शब्द०) ।

कुमकुमा
संज्ञा पुं० [ तु० कुमकुमा ] १. लाख का बना हुआ एक प्रकार का पोला, गोल या चिपटा लट्टु जिसमें अबीर और गुलाल भरकर होली में लोग एक दूसरे पर मारते हैं । इसके टुटने से गुलाल अबिर आदि इधर उधर बिखर जाता है ।उ०— चलत कुमकुमा रंग । पिचकारी अरु गुलाल का झारी ।—भारतेंदु प्र०, भा० १, पृ० ५०४ । २. एक प्रकार का तग मुँह का छोटा लोटा ।३. एक प्रकार की टाँकी जिससे सुनार नक्काशी किए हुए गहनों के उभरे हुए रवे दबाकर चौरस करते हैं । ४. काँच के बने हुए पोले, छोटे गोले जो कई रँग और आकार के होते हैं । छोटे दानों की माला बनती है जिसे स्त्रीयाँ पहनती हैं, और बडे़ गोल सजावट के लिये लटकाने के काम में आते हैं ।

कुमकुमा
वि० [हिं० कुमकुमा ] कुमकुमे के आकार का । विशेष—यह शब्द प्राय? लोटे के लिये प्रयुक्त होता है जिसे कुमकुमा कहते हैं ।

कुमत
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + मत ] दे० 'कुमंत्रणा' । उ०—तब कुमत करके निज शिष्यों सहित मायावी सेवडों का गुरू राजा श्री शंकराचार्य जी को ले ऊँचे छत पर जा बैठा । —वक्तमाल (श्री०) ४६७ ।

कुमति
संज्ञा स्त्री० [ सं० कु + मति ] खराब बुद्धि । कुबुद्धि । उ०— कुमति गुलाल डारै मुख मीजै । काम पुठरिया मारी— धरम०, पृ० ६२ ।

कुमरिया
संज्ञा पुं० [?] हाथियों की एक जाति । इस जाति का हाथी अधिक लंबा चौडा़ होता है और अच्छा माना जाता है । इसकी पीठ अधिक कुबडी़ नहीं होती ।

कुमरी
संज्ञा स्त्री० [अ०] पंडुक की एक जाति की चिड़िया, जो सफेद कबूतर और पंडुक से उत्पन्न होती है । उ०—बुलुल है फुँगा से जिसे कुमरी करे कू कूँ ।—कबीर ग्रं०, ४६७ । विशेष — यह सफेद रंग की होती है और इसके गले में कंठो या हँसुली होती है । इसके पैर लाल होते हैं और बोली बहुत गंभीर और मनोहर होती है । यह प्राय? उजाड़ स्थानों में रहती है । इसका पालना अशुभ समझा जाता है ।

कुमलियापोड †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुवलयापोड' उ०—कुमलि- यापीड सिर विकठ आग्राजरक, कडछियों कांन नटराज काली ।—बाँकी ग्रं०, भा० ३. पृ० १२५ ।

कुमसुम
संज्ञा पुं० [देश०] एक वृक्ष जिसकी लकडी़ भूरे रंग की और बहुत मजबूत होती है । विशेष— यह वृक्ष बहुत ऊँचा होता है और बिजों से पैदा होता हैं जो माघ, फागुन में बोए जाते है । यह कुमायूँ और पश्चिमी घाट में बहुत होता है । इसकी मजबूत लकडी़ इमारत के काम आती है । आसाम में इसकी डोंगी भी बनाई जाती है ।

कुमाऊँनी
संज्ञा स्त्री० [देश कुमाऊँ + हि० नी ] कुमाऊँ की भाषा ।

कुमाच (१)
संज्ञा पुं० [ अ० कुमाश] १. एक प्रकार का रेशमी कपडा़ । उ०—का भाषा का संस्कृत, प्रेम चाहीए साँव । काम जो आवै कामरी, का लै करै कुमाच ।—तुलसी (शब्द०) । २. गंजीफे के पते के एक रंग का नाम । ३. दे० 'कौंच' ।

कुमाच (२)
संज्ञा पुं० [देश०] बेडौल रोटी, जो कही से मोटी और कहीं से पतली हो ।

कुमाणस पु †
संज्ञा पुं० [सं० कु + मानुष ] कुमानुष । बुरा मनुष्य । उ०—उलिगणाँ गुण वरणताँ कुकथ कुकाणसाँ जिण कहइ रास । —बी० रासी, पृ० २ ।

कुमार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुमारी] १. पाँच वर्ष की आयु काबालक । २. पुत्र । लड़का । बेटा । ३. युवराज । ४. कार्तिकेय । ५.सिंधु नद । ६. तोता । सुग्गा । ७. खरा सोचा । ८. सनक, सनंदन, सनत् और सुजात आदि कई ऋषि जो सदा बालक ही रहते हैं । ९. युवावस्था या उससे पहले की अवस्थावाला पुरुष । उ०—बाल्मीकि मुनि बसत निरंतर राममत्रउच्चार । ताको फल मोहिं आज भयो, मोहिं दर्शन दियो कुमार ।— सूर (शब्द०) १०. जैनियों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के २१ वें जिन । ११ एक ग्रह जिसका उपद्रव बालकों पर होता है । १२. संगल ग्रह । १३. साईस । १४. अग्नि के एक पुत्र का नाम जिन्होंने कई वैदिक मंत्रों का प्रकाश किया था १५ . अग्नि । १६. शुद्ध या खरा सोना । १७. एक प्रजापति का नाम । १८. भारतवर्ष का नाम । १९. एक ऊँचा वक्ष जिस का पतझड़ पर्षा में होता है । सेवँ । विशेष — इसकी लकडी़ कुछ पीलापन या लगई लिए सफेद रंग की नरम, चिकनी चमकीली और मजबूत होती है । इसकी आलमारी, मेज, कुर्सी और आरायशी चीजें बनती हैं । बरमा में इसपर खुदाई का काम अच्छा होता है ।इसकी छाल और जड़ औषध के काम आती है और फल खाया जाता है । इसकी कलम भी लगती है और बीज भी बोया जाता है । यह वृक्ष पहाड़ों पर तीन हजार फुट की ऊँचाई तक मिलता है । यह बरमा, आसाम, बरार और मध्यप्रांत में बहुत होता है ।

कुमार
वि० [सं०] बिन ब्याहा । कुँआरा ।

कुमारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बच्चा । २. आँख की पुतली [कों०] ।

कुमारग †
संज्ञा पुं० [सं० कुमार्ग] कुमार्ग । बुरा मार्ग । यौ०—कुमारगगामी = कुमागंगामी । बुरी राह चलनेवाला । उ०—रे तियचोर कुमारगगामी । खल मल राशि मंदमति कामी । — तुलसी (शब्द०) ।

कुमारजीव
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्रजीवक नामक पृक्ष । जिवापूता पुत्रजिय पृक्ष [को०] ।

कुमारतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० कुमारतन्त्र] वैद्यक का वह भाग जिसमें बच्चों के रोगों का निदान और विकित्सा हो । बालतंत्र ।

कुमारपालन
संज्ञा पुं० [सं०] २. बच्चों की देखरेख करनेवाला आदमी । २. राजा शालिवाहन [को०] ।

कुमारबाज
संज्ञा पुं० [अ० किमार + फा० बाज (प्रत्य०)] वह जो जूआ खेलता हो । जुआरी ।

कुमारबाजी
संज्ञा स्त्री० [अ० किमार = जूआ + का० वाजी (प्रत्य०)] जूआ खेलने का भाव । जुआरीपन ।

कुमारभृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्मिणी को सुख से प्रसव कराने की विद्या २. गर्भिणी या नवप्रसूत बालकों के रोगों की चिकित्सा । का काम ।

कुमारभृत्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बच्चों की देखभाल । २. प्रसूता की देखभाल या सेवा । दाई का काम [को०] ।

कुमारयु
संज्ञा पुं० [सं०] राजकुमार । युवराज [को०] ।

कुमारललिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सात अक्षरों का एक वृत्त जसमें एक जगण, एक सगण और अंत में गुरु होता है । जैसे,—जु सोगहीं नसावै । प्रमोद उपजावें । अतीव सुकुमारी । कुमार ललिता री । २. बालकों की कीडा़ ।

कुमारलसिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] आठ अक्षरों का एक वृत, जिसमें एक जगरण, एक सगण और अंत में एक लघु और एक गुरु होता है । उ०— भजो जु सुखकंद को । हरो जु दुख छंद कों । (शब्द०) ।

कुमारवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] मौर । शिखी । वर्ही । मयूर [को०] ।

कुमारव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] जिवन भर ब्रह्मचर्य पालन करने का व्रत [को०] ।

कुमारसंभव
संज्ञा पुं० [सं० कुमारसम्भव ] कालिदासप्रणीत एक महाकाव्य । विशेष— इस काव्य में शिव—पार्वती—विवाह और कुमार कर्तिकेय की उत्पति का विस्तृत वर्णन है । इस महाकावय में कुल १७ सगँ है जिसमें प्राजीन टिकाएँ पाठ सर्ग के बाद नहीं मिलतीं । अत? ऐसा विश्वास किया जाता है कि कालिदास ने आठ ही सर्गों की रचना की है तथा शेष नव सर्ग किसी अन्य कवि की कृति है ।

कुमारसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमार कार्तिकेय की जननी । पार्वती [को०] ।

कुमारामात्य
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्तकाल में उच्च पदाधिकारियों को दि जानेवाली एक उपाधि । उ०— संभवत? सम्राट् तो कुसुमपुर चले गए हैं, और कुमारामात्य महाबलाधिकृत विरसेन स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया । रकंद०, पृ०४ ।

कुमारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमारी] दे० 'कुमारी' । उ०— मौन ते निकसि वृषभानु कै कुमारी देख्यौ, ता समै सहेट को निकुंज गिरयो तिर को ।—मति० ग्रं०, पृ० २९० ।

कुमारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुमारी । उ० — जागी पृथ्वी तनया कुमारिका छबि अच्युत । —अपरा, पृ० ४० ।

कुमारिल भट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसिद्ध मिमांसक और शबर भाष्य तथा अन्य श्रौत सूत्रों के टिकाकार । विशेष— पहले इन्होने जैन धर्म ग्रहण किया था पर कुछ समय पीछे अपने जैन गुरु को शास्त्रार्थ में परास्त करके ये वैदिक धर्म का प्रचार करने लगे थे । कहते हैं गुरुसिद्धांत का खंडन करने के प्रायश्चित्त के लिये ये कूटागि्नी में जल मरे थे । यह भी कहा जाता है कि इनके अग्नि में जलने के समय शंकराचार्य इनके पास भेंट करने के लिये गए थे ।

कुमारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दस वर्ष से बारह वर्ष तक की अवस्था की कन्या । यौ०—कुमारीपूजा । २. अविवाहीता कन्या (को०) ३. कन्या । पुत्री । लड़की (को०) । ४. घीकुआँर ५. नवमल्लिका । ६. बाँझ ककोडी़ ।७. बडी़ इलायची । ८. श्यामा पक्षी ९. सीता जी का एक नाम । १० पार्वती ११. दुर्गा १२. एक अंतरीप जो भारतवर्ष के दक्खिन में है । १३. चमेली १४. सेवती । १५. पृथ्वी का मध्य भाग १६?शाकद्धीप की सात नदियों में एक ।१७. अपराजिता ।

कुमारी (२)
वि० बीना ब्याही । जिस (स्त्री) का विवाह न हुआ हो ।

कुमारीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुमारी से उत्पन्न व्यक्ति । २. कर्ण का नाम [को०] ।

कुमारीपुर
संज्ञा पुं० [सं०] राजभवन का वह भाग जिसमें कुमारी लड़कीयाँ रहती हों [को०] ।

कुमारीपूजन
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की पूजा जो देवी पूजन के समय होती है और जिसमें कुमारी बालिकाओं का पूजन करके उन्हें मिष्ठान्न आदि दिया जाता है ।

कुमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कुमार्गी] १. बुरा मार्ग । बुरी राह । २. अधर्म ।

कुमार्गगामी
वि० [सं० कुमार्गंगामीन्] १. कुपंथी । कुमार्गी । २. अधर्मी ।

कुमार्गी
वि० [सं० कुमार्गिन्] [स्त्री० कुमार्गिनी] १. बदचलन । कुचाली । २. अधर्मी । धर्महीन ।

कुमालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन प्रदेश जो वर्तमान मालवा के अंतर्गत था । इसे सौवीर भी कहते हैं । २. उक्त देश के निवासी ।

कुमाला
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटा पेड़ जिसका फल खाया जाता है । विशेष—यह पेड़ देहरादून, अवध, छोटा नागपुर, बंबई तथा दक्षिण भारत में होता है । यह ८१० फुट ऊँचा होता है और इसकी पतियाँ चार पाँच इंच लंबी होती हैं । यह जेठ अषाढ़ में फूलता है और इसका फल खाया जाता है ।

कुमिस
संज्ञा पुं० [सं० कृ + मिष प्रा० मिस] कुब्याज । बुरा धोखा । दुष्टता से भरा बहाना या छल । उ०—भूषण कुमिस गैर मिसिल खरे किए को ।—भूषण ग्रं०, पृ० २० ।

कुमीच पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + मृत्यु? प्रा० मिच्चु] बुरी मृत्यु । अपमृत्यु ।

कुमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. रावण के दुर्मुख नामक एक योद्धा का का नाम । २. सूअर ।

कुमुख (२)
वि० पुं० [सं०] [वि० स्त्री० कुमुखी] १. बुरे मुखवाला जिसका चेहरा देखने में अच्छा न हो । २. कुत्सित या अपविचार को व्यक्त करनेवाला (मुख) । उ०—लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे । —पानस,२४३ ।

कुमुद
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुईं २. लाल कमल । ३. निर्दय । बेरहम । ४. कंजूस ।

कुमुद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुई । कोका २. लाल कमल । यौ०—कुमुदबंधु= चंद्रमा । ३. चाँदी । ४. विष्णु । ५. एक बंदर का नाम जो रावण के युद्ध में लडा़ था ६. एक प्रकार का दैत्य । ७. एक द्वीप का नाम ८. कपूर ९. एक नाग का नाम । इसकी बहन कुमुद्वती कुश की पत्नी थी । १०. आठ दिग्गजीं में से एक जो दक्षिणपश्चिम कोण में रहता है ११. विष्णु का एक पारिषद । १२. संगीत का एक ताल १३. एक केतु तारा जी कुई के आकार का है । विशेष —यह पश्चिम में उदय होता है और एक ही रात को दिखाई देता है । इसकी शिखा पूर्व की ओर होती है । कहते हैं कि इसके उदय होने पर दस वर्ष तक दुर्भिक्ष रहता है ।

कुमुद (२)
वि० १. कंजूस । कृपण । २. लोभी । लालची ।

कुमुदकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] चाँदनी । ज्योत्स्ना । उ०—कुमुदकला है जहाँ किलकती वहु नभ जैसा निर्मल है । —विणा, पृ० ८ ।

कुमुदकिरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंद्रमा की किरण । चंद्रश्मि । उ०— उ०—तुहिन बिंदु बनकर सुंदर, कुमुदकिरण से सहज उतर ।—वीणा, पृ० २ ।

कुसुदनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' ।

कुमुदबंधु
संज्ञा पुं० [सं० कुमुदबंधु] चंद्रमा । पर्या०—कुमुदनाथ । कुमुदपति । कुमुदबांधव । कुमुदसुह्रत् ।

कुमुदिन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' । उ०— जनु कुमुदिन घर चल्यौ चंद्रमा दैन परम सुख । —नंद० ग्रं०, पृ० २०६ ।

कुमुदिक
वि० [सं०] १. कुमुद से संबंध रखनेवाला । २. कुमुदों से भरा हुआ [को०] ।

कुमुदिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कट्फल [को०] ।

कुमुदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुईं । कोईं २. वह स्थान जहाँ कुमुद हों । उ०—कहुँ सैवालन मध्य कुमुदिनी लगि रहि पाँतिन । —भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४५४ । विशेष— इस शब्द के साथ 'पति' वाची शब्द जोड़ने से जो समस्त शब्द बनते हैं वे चंद्रमा का अर्थ देते हैं ।

कुमुदिनीपति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

कुमुद्वती
संज्ञा स्त्री०[ सं०] १. षड्ज स्वर की चार श्रुतियों में से दूसरी श्रुति । १. नागराज कुमुद की भगिनी और कुश की स्त्री । ३. कुमुद से पूर्ण बावडी़ । उ०—किन तीक्ष्ण करों से छिन्न हुई, यह कुमुद्वती जल भिन्न हुई । —साकेत, पृ० १४९ ।

कुमेटी (१)पु
संज्ञा स्त्री० [देश० कुमैड़ ] बुराई । उ०—मेटो सकल कुमेटी थोथी पो थी पढ़त मरोरी । —भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५०४ ।

कुमेटी (२)
संज्ञा स्त्री० [अं० कमिटी ] विचार विमर्श । राय मशविरा ।

कुमेड़िया
संज्ञा पुं० [देश०] एक छोटी जाति का हाथी ।

कुमेता पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुम्मैत' । उ०—मुसकी पंचकल्यानी कुमेता केहरी रंगा । — सुजान०, पृ० ८ ।

कुमेरु
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिणी ध्रुव ।

कुमैड़ †
संज्ञा पुं० [देश०] छल । कपट । धोखा । दगा ।

कुमैत
संज्ञा पुं० [हिं०] 'कुम्मैल' । उ०—रंग रंग के सजे तुरंगा । कुल्लह समुद कुमैत सुरगा । —हम्मीर० पृ० ३ ।

कुमैड़िया
संज्ञा पुं० [हिं० कुमैड़] छली । कपट । दगाबाज ।

कुमोद पु
संज्ञा पुं० [सं० कुमुद] कुईं । उ०—चली सबै मालत सँग भूले कमल कुमोद । बेध रही गन गंधरब वास परीम- लामोद । —जायसी (शब्द०) ।

कुमोदनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी ] दे० 'कुमोदिनी' । उ०— चहूँ ओर कुमोदनी चारु फुल्ली । —ह० रासो, पृ० ३६ ।

कुमोदिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुमुदिनी] दे० 'कुमुदिनी' ।

कुम्मेर पु
संज्ञा पुं० [सं० कुबेर] दे० 'कुबेर' । उ०—रिषिन माँहि नारदहिं जषिन कुम्मेर भँडारी । जती कपी हनुमंत सती हरिचंद बिचारी । —सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १११ ।

कुम्मैत (१)
संज्ञा पुं० [तु० कुमेत ] घोडे़ का एक रंग जो स्याही लिए लाल होता है । लाखी । २. वह घोडा़ जो स्याही लिए लाल हो । इस रंग का घोडा़ बहुत मजबत और तेज होत है । यौ०— आठो गाँठ कुम्मैत = अत्यंत चतुर । छँटा हुआ । चालाक । धूर्त ।

कुम्मैत (२)
वि० कुम्मैत रंग का ।

कुम्मैद पु
संज्ञा पुं० [हीं०] दे० 'कुम्मैत' ।

कुम्हडा़
संज्ञा पुं० [सं० कुष्माण्ड, पा० कुम्हंड, प्रा० कुभंड ] १. फैलनेवाली बेल जिसके फलों की तरकारी और मुरब्बा, पाक आदि बनाया जाता है । विशेष—इसके पते बडे़ गोल रोएँदार होते हैं । पते का डंठल बडा़ और पोला होता है । इसमें घंटी के आकार के बडे़ बडे़ पीले फूल लगते हैं । कुम्हडे़ की बेल बहुत दूर तक फैलती है । इसके फल गोल और बहुत बडे़ बडे़ सात आठ सेर तक के होते हैं । कुम्हडा़ दो प्रकार का होता है—एक सफेद, दूसरा पीला । सफेद रंग के कुम्हडे़ को पेठा कहते हैं । यह खाने में बहुत फीका सा होता है । लोग इसका मुरब्बा डालते हैं ओर इसके महीन टुकड़ों को पीठी में मिलाकर बरी भी बनाते हैं । पिले कुम्हडे़ का गूदा लाल रंग का और खाने में मिठा होता है । इसकी दो फसले होती हैं—एक गरमी में, दूसरी बरसात में । गरमी का कुम्हडा़ जमीन पर और बरसात का छप्पर आदि पर फैलता है । कुम्हडे़ के फल की तरकारी होती है और फूलों तथा पत्तों का साग बनता है । पर्या०—काशीफल । पेठा । २. कुम्हडे़ का फल । मुहा० —कुम्हड़ बतिया = (१) कुम्हडे़ का छोटा फल । (२) अशक्त और निर्बल मनुष्य । उ०—इहाँ कुम्हडबतिया कोउ नाहीं । जो तर्जनि देखत मरि जाहीं ।—तुलसी (शब्द०) । कुम्हडे़ की बतिया = (१) कुम्हडे़ का छोटा कच्चा फल । (२) अशक्त और निर्बल मनुष्य ।

कुम्हडौ़री
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुम्हडा़ + औरी (प्रत्य०) ] १. एक प्रकार की बरी, जो पीठी में कुम्हडे़ के महीन महीन टुकड़े मिलाकर बनाई जाती है । बरी । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना ।

कुम्हरा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुम्हार' । उ०—अरु कुम्हरा कै चाक घुमै वैसे नर घूमै ।—धरम०, पृ० ३६ ।

कुम्हरौटी
संज्ञा स्त्री० [ हीं० कुम्हार + औटी (प्रत्य०) ] १. एक प्रकार की काली मिट्टी जिससे कुम्हार लोग घडे़ और हाँडियाँ बनाते हैं । जटाव । २. कुम्हारों की बस्ती ।

कुम्हलाना
क्रि० अ० [सं० कु + म्लान] १. ताजगी का जाता रहना । सरसता और हरापन न रहना । मुरझाना । जैसे,—पौधे, पत्ते, फूल आदि का कुम्हलाना । उ०—तरू पर फूल कमल पर जल कण सुंदर परम सुहाते हैं । अल्प काल के बीच किंतु वे कुम्हलाकर मिट जाते हैं ।—श्रीधर पाठक (शब्द०) । २. सूखने पर होना । ३. प्रफुल्लता रहित होना । कांति का मलिन पड़ना । प्रभाहीन होना । जैसे—इतनी धूप में आए हो, चेहरा कुम्हलाया हुआ है । उ०—सुनि राजा अति अप्रिय बानी । हृदय कप मुख दुति कुम्हलानी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुम्हार
संज्ञा पुं० [सं० कुंभकार, प्रा० कुंभार] [स्त्री० कुम्हारिन] १. मिट्टी का बरतन बनानेवाला मनुष्य । २. मिट्टी का बरतन बनानेवाली जाति ।

कुम्हिलाना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'कुम्हलाना' । उ०—(क) सुंदर तन सुकुमार दोउ जन सूर किरिन कुम्हिलात ।—सूर०, ६ । ४३ । (ख) भजन बेलि जात कुम्हिलाइ । कौनि जुक्ति कै भक्ति दृढा़इ ।—जग० श०, भा० २, पृ० ९८ ।

कुम्ही पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुम्भी] एक पौधा जो पानी पर फैलता हैं । उ०—लोचन सपने के भ्रम भूले । मोत गए कुम्ही के जर ज्यों ऐसे वे निरमूले । सूरश्याम जल राशि परे अब रूप रंग अनुकूले ।—सूर (शब्द०) । विशेष—दे० 'कुंभी' ।

कुम्हैडा़ पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कुम्हडा़] दे० 'कुम्हडा़' ।

कुयलिया † पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोयल + इया (प्रत्य०)] दे० 'कोयल' । उ०—कूकनि लगी कुयलिया मधुर महान ।—नट०, पृ० १०४ ।

कुयोनि
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षृद्र जंतुओं की कोटि । तिर्यक्योनि ।

कुरंकर, कुरंकुर
संज्ञा पुं० [सं० कुरङ्कर; कुरङ्कर] सारस पक्षी [को०] ।

कुरंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुरंङ्क] [स्त्री० कुरंगी] १. बादामी या तामडे़ रंग का हिरन । २. मृग । हिरन । यौ०—कुरंगलांछन । ३. बरवै छद का एक नाम । ४. चंद्रमा में दृश्यमान धब्बा (को०) ।

कुरंग (२)
संज्ञा पुं० [सं० कु + हिं० रंग] १. बुरा रंग ढंग । बुरा लक्षण । २. घोडे़ का एक रंग जो लोहे के समान होता है । नीला । कुम्मैत । लखोरी । ३. इस रंग का घोडा़ । कुलंठा, लखौरी । उ०—हरे कुरंग महुअ बहु भांती । गरर कोकाह बलाह सुपाँती ।—जायसी (शब्द०) ।

कुरंग (३)
बुरे रंग का । बदरंग ।

कुरंगक
संज्ञा पुं० [सं० कुरंङ्कक] हरिण । मृग [को०] ।

कुरंगनयना
वि० स्त्री० [सं० कुरंगनयन] हिरन की आँखों के समान बडी़ बडी़ आँखोंवाली [को०] । पर्या०—कुरंगनयनी ।—कुरंगनेत्रा ।—कुरंगलोचना ।

कुरंगम
संज्ञा पुं० [सं० कुरङ्गम] हरिण । मृग । कुरंगक [को०] ।

कुरंगनाभि
संज्ञा पुं० [सं० कुरङ्गनाभि] कस्तूरी [को०] ।

कुरंगलांछन
संज्ञा पुं० [सं० कुरङ्ग लाञ्छन] चंद्रमा । मृगलाँछन ।

कुरंगिन, कुरंगिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुरङ्ग] हिरन । उ०— (क) चंदन माँझ कुरंगिन खोजू । तेहि को पाव को राजा भोजू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) जोबन पंखी बिरह बिआधू । केहरि भयो कुरंगिनि खाध ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २३६ ।

कुरंगसार
संज्ञा पुं० [सं० कुरङ्गसार] कस्तूरी । मुश्क । उ०— कोसर कुरंगसार रंग से लिपित दोऊ दूहू में दिपति औ छिपति जात छाती मैं ।—देव (शब्द०) ।

कुरंगी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुरंङ्गी] हरिणी । मृगी ।

कुरंगी (२)
वि० [सं० कु + हिं० रंगी] बुरे लक्षण, स्वभाव या रंगवाला ।

कुरच पु
संज्ञा पुं० [सं० क्रौञ्च] दे० 'क्रौंच' । उ०—ठाम ठाम जल थान मद्धिं जल जीव निवासिय । ढैक कुरंम कुरंच हंस सारस सुभ भासिय ।—पृ० रा० ६ । ९५ ।

कुरंचदीप पु
संज्ञा पुं० [सं० क्रौचञ्जदीप] दे० 'क्रौंचद्वीप' । उ०— कुरंचदीप जब मनूआ बहैं । रंचक हरि जस अंतरि गहै ।— प्राण०, ४६ ।

कुरंट
संज्ञा पुं० [सं० कुरण्ट] दे० 'कुरंटक' [को०] ।

कुरंटक
संज्ञा पुं० [सं० कुरण्टक] [स्त्री० कुरंटिका] पीली कटसरैया ।

कुरंड (१)
संज्ञा पुं० [कुरूबिंद = माणिक] एक खनिज पदार्थ, जो एक प्रकार का मूर्चिछत अलुसमीनम है और मिस्त्री की चमकीली डली के रूप में जमा हुआ मिलता है । विशेष—कडा़ई में यह हीरे से कुछ ही कम होता है । इसके चूर्ण को लाख आदि में मिलाकर हथियार तेज करने की सान बनाते हैं । अविशुद्ध अवस्था में चुंबक आदि से मिला हुआ जो दानेदार कुरंड मिलता है, वह मानिकरेत कहलाता है, जिससे सोनार सोने चाँदी के गहनों पर जिला देते हैं । अधिक कांतिवाले जो कुरंड मिलते हैं वे रत्न माने जाते हैं; और रंग के अनुसार उन्हें मानिक (लाल), नीलम, पुखराज, गोमेद आदि कहते हैं ।

कुरंड (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुरण्ड] १. औषध के काम में प्रयुक्त होनेवाला एक पौधा । विशेष—यह पौधा खेतों के किनारे और इधर उधर उगता है । इसमें सफेद रंग के फूल लगते हैं । वैद्यक में इसे अग्निदीपक, रूचिकारक, वीर्यवर्द्धक और मूत्रकृच्छ को दूर करनेवाला माना है । २. फोता बढ़ने का रोग । अंडवृद्धि रोग (को०) ।

कुरंडक
संज्ञा पुं० [सं० कुरण्डक] पीली कटसरैया ।

कुरंद † कुरंदर †
संज्ञा पुं० [देश०] गरीबी । दरिद्रता । उ०—(क) मनरा महराण समापण मोजा, कापण दीनाँ तरण कुरंद ।— रघु० रू०, पृ० १९ । (ख) बामण चार बेद के बकता, आगम दृष्टी ज्ञान धुरंधर । साहुकार सको धजवंधी दूजी गात अलेप कुरंदर ।—रघु० रू०, पृ० २७४ ।

कुरंबा
संज्ञा पुं० [देश०] भेड़ की एक जाति डील डौल में छोटी होती है और जिसके बाल निचे से काले पर सिरे पर सफेद होते हैं । इसका मांस अच्छा और स्वादिष्ट होता है ।

कुरंम पु
संज्ञा पुं० [सं० कूर्म] कूर्म । कछुवा । उ०—ढेंक कुरंम कुरंच । हंस सारस सुभ भासिय ।—पृ० रा० ६ । ९५ ।

कुरआन
संज्ञा पुं० [अ० कुरआन] दे० 'कुरान' । उ०—जर दीन है, कुरआन है, ईमाँ है, नबी है । जर ही मेरा अल्लाह है, जर राम हमारा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२५ ।

कुरकनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] घोड़े या गधे के चमडे़ का अगला भाग जिसका की मुख्त महीं बन सकता ।

कुरका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सलई । चीड़ । २. दक्षिण का एक देश जिसे अब कुर्ग कहते हैं । ३. एक नगर जो किर्ग देश में ताम्रपर्णी नदी के किनारे था और जहाँ वैष्णव आचार्य शठकोप का जन्म हुआ था ।

कुरकी
संज्ञा स्त्री० [तु० कुर्क] दे० 'कुर्की' ।

कुरकंड
संज्ञा पुं० [देश०] एक घास जिसे रीहा और कनखुरा भी कहते हैं । यह आसाम और बंगाल में होती है । इसका रेशा बहुत दृढ़ और बारीक होता है और जाल कपडे़ आदि बनाने के काम में आता है । विशेष—दे० 'रीहा' ।

कुरकुट (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुट = कुटना या कुट का आम्रेंडित रूप] किसी वस्तु का छोटा टुकडा़ ।

कुरकुट (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० कुक्कुट] १. मृर्गा । तमचुर । २०. मुर्गे की बोली । उ०—कुरकुट सुनि चुरकट भई बाला । लीनै उससि उसाय बिसाला ।—नंद० ग्रं०, पृ० १४२ ।

कुरकुटा
संज्ञा पुं० [सं० कुट = कूटना] १. किसी वस्तु का कूटा हुआ रवा । टुकडा़ । २. रोटी का टुकडा़ । उ०—कैसे सहब खिनहि खिन भूखा । कैसे खाब कुरकुटा रूखा ।—जायसी (शब्द०) ।

कुरकुर
संज्ञा पुं० [अनु०] खरी वस्तु के दबकर टुटने का शब्द । जैसे,—पापड़ दाँत के नीचे कुरकुर बोलता है । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।—बोलना ।

कुरकुरा
वि० [हिं० कुरकुर] [स्त्री० कुरकुरी] खरा और करारा जिसे तोड़ने पर कुरकुर शब्द हो ।

कुरकुराना
क्रि० अ० [हिं० कुरकुर] १. कुरकुर शब्द करना । २. कुरकुर शब्द करते हुए खाना (को०) ।

कुरकुराहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुरकुर] कुरकुर शब्द होने का भाव ।

कुरकुरी
संज्ञा पुं० [देश० । अनु०] १. घोडे़ की एक बीमारी जिसमें उसका पखाना, पेशाब बेद हो जाता है ओर पेट फूल आता है । २. पतली मुलायम हड्डी; जैसे, कान की ।

कुरखेत (१) पु †
संज्ञा पुं० [सं० कुरूक्षेत्र] १. वह स्थान जहाँ महाभारत का युद्ध हुआ था । २. युद्ध । संघर्ष ।

कुरखेत (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०] वह खेत जिसकी जुताई हो गई हो किंतु बुवाई न हुई हो ।

कुरगरा
संज्ञा पुं० [हिं० कोर + गर] एक छोटी थापी जीसमें दजंबंदी तथा कारनिस आदि का बारीक काम किया जाता है ।

कुरच †
संज्ञा पुं० [सं० क्रौञ्च] कराकुल पक्षी । उ०—वहि विधि रोदति जाति सिय, कुरच सरिस नम माँहि । हे रघुबर हे प्रणपति के हि अध र खहू नाहिं ।—(शब्द०) । (ख) बारहिं बारबिलाप करि कुंरच सरिस रघुराइ । तब लगि मैं सिष्यन सहित पहुँचेउँ तेहि बन आइ ।—मधुसूदनदास (शब्द०) ।

कुरचिल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] केकडा़ ।

कुरट
संज्ञा पुं० [सं०] १. चमडा़ बेचनेवाला । २. जूते बनानेवाला । चर्मकार [को०] ।

कुरडा़
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० कुरडी़] अरबी और तुरकी जर्गत के घोड़ों के जोड़े से उत्पन्न एक दोगली जाति का घोडा़ । इस जाति के घोडे़ अरब में मिलते हैं ।

कुरता
संज्ञा स्त्री० [तु०] [स्त्री० कुरती] एक पहनावा जो सिर डालकर पहना जाता है और जिसमें सामने छाती के नीचे किसी प्रकार का जोड़ या परदा नहीं होता ।

कुरती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुरता] १. स्त्रियों का एक पहनावा जो फतही की तरह का होता है ।२. (सोनार लोगों की बोली में) स्त्री ।

कुरथी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुलथी' ।

कुरन (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुरंड' । उ०—शब्द मस्कला करे ज्ञान का कुरन लगावै ।—पलटू०, पृ० ९ ।

कुरन (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० कूरा] राशि । ढेंर ।

कुरना पु †
क्रि० अ० [हिं० कूरा = ढेर] १. ढेंर लगना । कूरा लगना । उ०—(क) वैभव विभव ब्रह्मानंद की अपार धार कोशल की कोश एकवार ही कुरे परी ।—रघुराज (शब्द०) । (ख) पारावार, पूरन, अपार परब्रह्म राशि, जसुदा की कोरें एकबार ही कुरै परी ।—देव (शब्द०) । संयो० क्रि०—जाना ।—पड़ना । २. दे० 'कुरलना' । उ०—सारो सुआ जो रहचह करहीं । कुरहि परेवा औ करबरहीं ।—जायसी (शब्द०) ।

कुरब (१) †
संज्ञा पुं० [हिं०] इज्जत । उ०—कवियण किण पायो कुरब मांगे मावड़ियाँह ।—बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० १५ ।

कुरब (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कुरबक नामक वृक्ष और उसका फूल । लाल कटसरैया (को०) ।

कुरबक
संज्ञा पुं० [सं०] कटसरैया ।

कुरबनही
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोर + बनना] बढ़इयों का एक औजार जो रूखनी के आकार का होता है और जिससे कोने की कसर छीलकर साफ करते हैं । इसमें दस्ता नहीं होता ।

कुरबान
वि० [अ०] १. जो न्यौछावर किया गया हो । जो बलिदान किया गया हो । २. न्यौछावर । निसार । ३. बलि । सदका [को०] । मुहा०—कुरबान करना = न्योछावर करना । वारना । उ०— चंचल चारू बिशाल विवि लोचन मोचन मान । चितबत दिशि कब देखिहौं मन को करि कुरबान ।—विश्राम (शब्द०) । कुरबान जाना = नयोछावर होना । बलि जाना । कुरबान होना = (१) न्योछावर होना । (२) मरना । प्राण देना ।

कुरबानी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. किसी देवता आदि के लिये किसी जीव को बलिदान करने की क्रिया । कुरबान करने का काम । २. आत्मत्याग । आत्मबलिदान [को०] । ३. त्याग । स्वार्थ त्याग (को०) । क्रि० प्र०—करना ।—चढा़ना ।—देना ।

कुरम पु
संज्ञा पुं० [सं० कूर्म] कछुआ । कच्छप । उ०—कुरम सुतन को धरत है ऊँचे आपु उद्र को धावै ।—कबीर श०, भा० ३, पृ० १६ ।

कुरमा †पु
संज्ञा पुं० [हिं० कुनबा] कुटुंब । परिवार । उ०—भेद की भेरी अलोक कै झालरि, कौतुक भो कलि के कुरमा मैं । जुझत ही बलबीर बजै बहु दारिद के दरबार दमामैं ।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १३१ ।

कुरमा का बाँक
संज्ञा पुं० [देश०] वे आडी़ लडकीयाँ जो जहाज के नीचे अंदर की ओर शहतीरों के बीच में उनको जकडे़ रखने के लिये लगाई जाती हैं ।—(लश०) ।

कुरमी
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुर्मी' । उ०—नव कुरमी सत्रह कोरी । तोरह कुम्हार सबै सिर मोरी ।—कबीर सा०, पृ० ५६३ ।

कुरमुराना
क्रि० अ० [अनु०] कुर कुर करना । गतुशील होना । उ०—लता टूटी, कुरमुराता मूल में है सूक्ष्म भय का कीट ।— हरी घास०, पृ० १८ ।

कुरर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिद्ध की जाति का एक पक्षी । २. कराँकुल । क्रौंच ।

कुररा
संज्ञा [सं० कुररा] [स्त्री० कुररी] १. कराँकुल । क्रौंच । उ०—छत्र विटप बट पटु पिक डाढी़ । कुरर नकीब करत धुनि गाढी़ ।—देव (शब्द०) । २. टिटिहरी । उ०—लै कै कत भा कुररा लोपी । कठिन बिछोह जियहिं किमि गोपी ।— जायसी ।—(शब्द०) ।

कुरराव (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० कुरराज] दुर्योधन । उ०—जाप को पेगंबर, आपका दरियाव । ताप का सेस ज्वाल दाप का कुरराव ।—रा० रू०, पृ० ९७ ।

कुरराव (२)
संज्ञा पुं० [सं०] क्रौंच या बाज पक्षियों से घिरा स्थान ।

कुररी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आर्या छंद का एक बाद, जिसमें चार गुरु और उनचास लघु होते हैं । २. कुररा का स्त्रीलिंग रूप । क्रौंची । उ०—लै दच्छिन दिसि गयो गुसांई । बिलपति अति कुररी की नाईं ।—तुलसी (शब्द०) । दे० 'कुररा' ।

कुरल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रौंच । २. बाज पक्षी । ३. कुंचित केश । घुँघराले बाल ।

कुरल (२)
संज्ञा पुं० [त०] मद्रास के निकट मयलापुरम् में जन्म लेनेवाले संत कवि तिरूवल्लवर रचित तमिल भाषा का धर्मनीति शास्त्र ग्रंथ जो 'तमिलवेद' नाम से प्रसिद्ध है ।

कुरलना पु
क्रि० अ० [सं० कलरव या कुरव, हिं० कुर्र या अनु०] मधुर स्वर से पक्षियों का बोलना । उ०—(क) कुरलहिं सारस करहिं हुलासा । जीवन मरन सु एकहु पासा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) कौतुक केलि करहिं दुख नंसा । खुँदहिं कुरलहिं जन सर हुआ ।—जायसी (शब्द०) ।

कुरला
संज्ञा पुं० [हिं०] १. खेल । क्रीडा़ । २. कुल्ला । मुँह में भरकर पानी गिराना ।

कुरली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुररी पक्षी । ३. बाज की मादा ।

कुरव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक वृक्ष जिसके फूल लाल होते हैं । लाल फूल की कटसरैया । लाल कुरैया । कुरबक । मडुवा । उ०— बट बकुल कदंब पनस रसाल । कुसुमित तरुनिकर कुरव तमाल ।—तुलसी (शब्द०) । २. सफेद मदार । आक । ३. सियार । ४. कर्णकटु स्वर । कर्कश स्वर ।

कुरव (२)
वि० [सं० कु + रव] कर्कश या कटु शब्द करनेवाला [को०] ।

कुरवक
संज्ञा पुं० [सं०] कुरैया का वृक्ष और फूल । कुरव । उ०— छोटा सा कुरवक का पेड़ कैसा एक साथ फूल उठा ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३९३ ।

कुरवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुरवक] कटसरैया ।

कुरवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुडव] लकडी़ का एक बर्तन जो अन्न नापने के काम आता है । यह एक सेर का होता है ।

कुरवारना †
क्रि० स० [सं० कर्त्तन] खोदना । करोदना । खरोचना । उ०—(क) पग द्वै चलति ठठकि रहै ठाढी़ मौन धरे हरि के रस गीली । धरनी नख चरनन कुरवारति सौतिन भाग सुहाय डहीली ।—सूर (शब्द०) । (ख) कौन्यों थिरिकि बैठुं तेहि डारा । कौन्यों कली केल कुरवारा ।—जायसी (शब्द०) ।

कुरविंद
संज्ञा पुं० [सं० कुरूविन्द] दे० 'कुरुविंद' ।

कुरुषेत पु
संज्ञा पुं० [सं० कुरूक्षेत्र] 'कुरूक्षेत्र' ।

कुरसथ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की मैली खाँढ़ ।

कुरसा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक वृक्ष जो बहुत शीघ्र बढ़ता है और देखने में बहुत अच्छा मालूम होता है । इसकी लकडी़ लाल रंग की और मजबूत होती है और मकान तथा पुल के बनाने को काम आती है । यह कुमायूँ, नीलगिरि अवध, बंगाल, आसाम और मद्रास में होता है । २. जंगली गोभी ।

कुरसा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलिश] १. एक प्रकार की बडी़ मछली ।

कुरसी
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. एक प्रकार की चौकी जिसके पाये कुछ ऊँचे होते हैं और जिसमें पीछे की ओर सहारे के लिये पटरी या इसी प्रकार की और कोई चीज लगी रहती है । किसी किसी में हाथों के सहारे के लिये दोनों ओर दो लकडि़याँ भी लगी रहती हैं । यह केवल एक आदमी के बैठने योग्य बनाई जाती है । विशेष—कुरसी प्राय? लकडी़ की बनती है और उसमें बैठने और सहारा लगाने का स्थान बेंत से बुना या चमडें आदि से मढा़ होता है । कभी कभी पत्थर, लोहे या किसी दूसरी धातु से भी कुरसी बनाई जाती है । यह कई कई आकार और प्रकार की होती है । यौ०—आराम कुरसी= एक प्रकार की बडी़ कुरसी जिसपर आदमी लेट सकता है । २. वह चबूतरा जिसके ऊपर इमारत या इसी प्रकार की और कोई चीज बनाई जाती है । यह आसपास की भूमि से कुछ ऊँचा होता है और पानी, सीड़ आदि से इमारत की रक्षा करता है । ३. पीढी़ । पुश्त । यौ०—कुरसीनामा । ४. वह चौकोर ताबीज जो हुमेल के बीच में रहती है । चौकी । उरबसी । ५. नाव के किनारे किनारे की तख्ताबंदी । जहाज में इसी तख्ताबंदी पर नीचे पाल बँधा रहता है । ६. जहाज के मस्तूल के ऊपर की वे आडी़ तिरछी लकडी़याँ जिनपर खडे़ होकर मल्लाह पाल की रस्सियाँ तानते हैं । ७. नदियों में चलनेवाली छोटी नाव की लंबाई में पट्टियों का बना हुआ वह चौरस स्थान जिसपर आरोही बैठते हैं । पादारक ।

कुरसीनामा
संज्ञा पुं० [फा०] वह पत्र जिसमें किसी की वंशपरंपरा लिखी हो । वंशवृक्ष । शजरा । पुश्तनामा ।

कुरह
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + फा० रह या राह] बुरा रास्ता । कुमार्ग । उ०—जो देख बेजाबी कुरह सो भर्म अँधेरी पुरा ।—कबीर मं०, पृ० ३७१ ।

कुरहम
संज्ञा पुं० [सं०कु + अ० रहम] पाप । निर्दयता । उ०—रहम की नजर कर कुरहम दिल से दूर कर ।—मलूक०, पृ० २९ ।

कुराँ पु
संज्ञा पुं० [अ० कुरान] कुरन का संक्षिप्त रूप । उ०— गजनी तोडे़ सोमनाथ को, काबे को दे फूँक शिवा । जले कुराँ अरबी रेतों में सागर जा फिर वेद रहै ।—द्वंद्व०, पृ० ३२ ।

कुरा (१)
संज्ञा पुं० [अ० कुरह्] वह गाँठ जो पुराने जखम में पड़ जाती है । इसमें पीब जमा रहता है और नासूर हो जाता है ।

कुरा (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० कुरव] कटसरैया । उ०—कुरे की डाल में अंचल उलझा है ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) ।

कुराई (१)पु
संज्ञा पुं० [हि० कुराह] बुरा रास्ता । तंग और नीचा ऊँचा रास्ता । उ०—कुश कंटक काँकरी कुराई । कठुक कठोर कुवस्तु दुराई ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुराई (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पाँव में टालने का काठ ।

कुराई (३)
वि० [हिं०] दे० 'कुराही' ।

कुरान
संज्ञा पुं० [अ० कुरान] अरबी भाषा की एक पुस्तक जो मुसलमानों का धर्मग्रंथ है । उनका विश्वास है कि ईश्वर ने इस ग्रंथ के वाक्यों को भिन्न भिन्न काल में जिबरईल के द्वारा मुहम्मद साहब के पास भेजा था । इस ग्रंथ में तीस भाग हैं जिन्हें 'पारा' कहते हैं । विशेष—मुसलमान लोग आदर के लिये कुरान के साथ 'शरीफ' 'मजीद' आदि शब्द भी जोड़ते हैं । जैसे,—पढ़त कुरान शरीफ अजब मुख बिकृत बनावत ।—प्रेमधन०, भा० १, पृ० २० । मुहा०—कुरान उठाना या कुरान पर हाथ रखना = कुरान की साखी देना । कुरान की कसम खाना । कुरान का जामा पहनना = अत्यंत धर्मनिष्ठ बनना ।

कुरानी
वि० [हिं० कुरान + ई (प्रत्य०)] १. कुरान पर विश्वास करनेवाला (मुसलमान) । २. कुरान से संबंधित ।

कुराय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + फा० राह] रास्ते का ऊँचा नीचा स्थान । गड्ढा । खदरा । दे० 'कुराई' । उ०—काँट कुराय लपेटन लोठनि ठाँवहि ठाँव बझाऊ रे । जस जस चलिय दूरि तस तस निज बासन भेट जगाऊ रे ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुरारी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुरीर] दे० 'कुररी' । उ०—बाएँ कुरारीदाहिन कूचा । पहुँचै भुगुति जैसे मन रूचा ।—जायसि ग्रं० (गिप्त), पृ० २१२ ।

कुराल
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो हीमालय के उत्तरपश्चिम विभाग में शिमला, गढ़वाल और कुमाऊँ आदि स्थानों में होता है । इसमें फलियाँ लगती हैं ।

कुरास †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुरसा' ।

कुराह
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + फा राह] [वि० कुराही] कुमार्ग । बुरी राह । खराब रास्ता ।

कुराहर †पु
संज्ञा पुं० [सं० कोलाहल हिं० कुलाहल] शोर । गुल गपाडा़ । कोलाहल । उ०—कुहकहिं मोर सुहावन लागा । होय कुराहर बोलहिं कागा ।—जायसी (शब्द०) ।

कुराही (१)
वि० [हिं० कुराह + ई (प्रत्य०)] कुमार्गी । बदचलन । उ०—कुटिल कुराही कुलदोषी सो कलंक भरो कुमति मते मैं अति महा मद पूर है ।—रघुनाथ (शब्द०) ।

कुराही (२)
संज्ञा स्त्री० बदचलनी । दुराचार ।

कुरिंद
संज्ञा पुं० [देश०] दरिद्र ।—(डिं०) ।

कुरिया (१) †
संज्ञा स्त्री० [सं० कुटी या कुटिका] १. फूस की झोपडी़ । मँड़ई । कुटी । क्रि० प्र०—डालना ।—पड़ना ।—छान । २. बहुत छोटा गाँव ।

कुरिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुरौना] १. ढेर । बोझ । गाँज । २. राब के बोरों को जूसी निकालने के लिये तले ऊपर रखना ।

कुरियाना
क्रि० स० [हिं० कुरिया + ना (प्रत्य०)] कूरा लगाना । ढेर लगाना । एकत्र करना ।

कुरियार †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुरियाल] दे० 'कुरियाल' । उ०—सुख कुरियार फरहरी खाना । बिज भा जबहिं विआधा तुलाना ।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १६७ ।

कुरियाल
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्लोल] चिड़ियों का मौज में बैठकर पंख खुजलना या झड़झड़ाना । मुहा०—कुरियाल में आना = (१) चिड़ियों का आनँद में होना । (२) मौज में आना । आनंद या उमंग में होना । कुरियाल में गुलेला लगना = रंग में भंग होना । आनंद में विध्न पड़ना ।

कुरिल †
संज्ञा पुं० [सं० कुरट] जूता बनानेवाला या चमडे़ का कार- बार करनेवाला चमार ।

कुरिहार पु
संज्ञा पुं० [सं० कोलाहल] शोरगुल । हल्ला गुल्ला ।

कुरी (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चेना नाम का अन्न । २. अरहर की फलियाँ ।

कुरी (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुल] वंश । घराना । खानदान । उ०— (क) भइ आहाँ पदुमावति चली । छत्तिस कुरि भइ गोहन भली ।—जायसी (शब्द०) । (ख) नित नव मंगल कोसलपुरी । हरषित रहहिं लोग सब कुरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुरा (३) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कोइरी] दे० 'कोइरी' । उ०—तब लगि बोधो कुरी चमारा ।—कबीर सा०, प० ९३५ ।

कुरी (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. धुस । टीला । उ०—हाल सो करे गोइ लेइ बाढा़ । कुरी दुवौ पैज कै काढा़—जायसी (शब्द०) । २. ढेर । समूह । उ०—तेइ सन बोहित कुरी चलाए । तेई सन पवन पंख जनु लाए ।—जायसी (शब्द०) ३. कोल्हू ।

कुरी (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुरा = ढेर, भाग] विभाग । खंड । टुकडा़ । उ०—सीधै हैं कडे़ चने, मिली एक एक कुरी ।—अर्चना । पृ० ९४ । मुहा०—कुरी कुरी होना = टुकडे़ टुकडे़ होना । उ०— जाके रूप आगे रंभा रति उरबसी, शची हची मान मैनका को ह्नैगयो कुरी कुरी ।—रघुनाथ (शब्द०) ।

कुरीज (१)
संज्ञा पुं० [फा० कुरीज] १. चिड़िया का सालाना पंख गिराना । २. बेत या नरकट की बनी झोपडी़ ।

कुरीज (२)
वि० परकटी (चिड़िया) । (वह पक्षी) जिसके पंख टूट या गिर गए हों । उ०—आइ पिता के पद गहे माँ रोई उर ठोंकि । जैसे चिरी कुरीज की त्यौं सुत दसा बिलोकि ।— अर्घ०, पृ० १९ ।

कुरीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बुरी रीती । कुप्रथा । २. कुचाल ।

कुरीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों का शिरोवस्त्र । स्त्रियों के लिये सिर का एक पहनावा । कुंब । २. संभोग । रतिक्रिया [को०] ।

कुरुंट
संज्ञा पुं० [सं० कुरुण्ड] लाल कटसरैया [को०] । पर्या०—कुरुन्टक—कुरुण्ड ।

कुरुमँ
संज्ञा पुं० [सं० कूर्म] दे० 'कूर्म' । उ०—तरहि, कुरूँम बासुकि के पीठी । ऊपर इंद्र लोक पै दीठी । जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १४६ ।

कुरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैदिक आर्यो का एक कुल । २. एक प्राचीन दोश जो दो भागों में विभक्त था—उत्तर कुरू और दक्षिण कुरु । दक्षिण कुरु हिमालय के दक्षिण में था, जिसमें पांचा- लादि देश थे; और उत्तर कुरु हिमालय के उत्तर में था जिसमें फारस, तिब्बत आदि देश थे । इसको लोग स्वर्ग भी कहते थे । ३. एक सोमवशी राजा का नाम जिसके वंश में पांडु और धृतराष्ट्र हुए थे । ४. कुरु के वश में उत्पन्न पुरुष । ५. पुरो- हितकर्ता । ६. पका हुआ चावल । भात ।

कुरुआ (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुडव] अन्न नापने का एक मान, जो दस छटाँक के बराबर होता है ।

कुरुआ पु (२) †
संज्ञा पुं० [हिं०] दो० 'कड़ुआ' । उ०—कुरुआ क तेल आड्ग लाइअ बाँदी बड दासओ छपाइअ ।—कीर्ति०, पृ० ६८ ।

कुरुई
संज्ञा स्त्री० [सं० कुडव] बाँस या मूँज की बनी हुई छोटी डलिया । मौनी ।

कुरुकंदक
संज्ञा पुं० [सं० कुरुकन्दक] मूलक । मूली (को०) ।

कुरुक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक बहुत प्राचीन तीर्थ, जो सरस्वती नदी के बाएँ किनारे पर अंबाला और दिल्ली के बीच में है । विशेष—ऋग्वेद के कई ब्राह्मणों में लिखा है कि प्राचीन काल में ऋषि लोग इसी स्थान पर यज्ञादि किया करते थे । अब तक यहाँ एक बहुत पवित्र और प्राचीन सरोवर के चिह्न वर्तमान हैं, जिसका नाम ऋग्वेद में 'सूर्य्यनावत' लिखा है । किसी समय में इसके अंतगत अनेक बडे़ और पवित्र तीर्थ थे, जिनकेकुछ चिहनअबतक पाए जाते हैं । ऐसा प्रसिद्ध है कि यहाँ के ब्रम्हसर नामक सरोवर में परशुराम ने स्नान करके अपने आप को क्षत्रिय हत्या के पाप से मुक्त किया था और महाराज पुरूरवा ने इसी के किनारे बिछाडी़ हुई उर्वशी को फिर से पाया था । चद्रवंशी राजा कुरू इन्हीं सरोवरों में से किसी एक के तट पर बहुत दिनों तक तप करके गुप्त हुए थे । तभी से इसका नाम धर्मक्षेत्र और कुरूक्षेत्र पडा़ । महाभारत के प्रसिद्ध युद्ध के सिवा इस स्थान पर और भी अनेक बडे़ युद्ध हुए थे । पीछे से यही पर स्थाणु नामक महादेव की एक मूर्ति स्थापित हुई और (थानेसर) नामक नगर बसा, जहाँ राजा पुष्पमूर्ति ने वर्द्धन नामक राजवंश की प्रतिष्ठा की, जिसमें प्रसिद्ध महाराज हर्षवर्द्धन हुए । ग्रहण, पर्व आदि अवसरों पर अब भी यहाँ बहुत बडे़ बडे़ मेले लगते हैं ।

कुरुख
वि० [सं० कु + फा० रुख] जो मुँह बनाए हुए हो । नाराज । कुर्पित । उ०—(क) थकित सुभल दूग अरुन उनींदे कुरुख कटाक्ष करत मुख थोरी । खंजन मृग अकुलात घात डर श्याम ब्याध बाँधे रति डोरी ।—सूर (शब्द०) । (ख) मिलतहिं कुरुख चकत्ता को निरखि कीन्हों सरजा, सुरेस ज्यों दुचित्त ब्रजराज को ।—भूषण (शब्द०) ।

कुरुखेत †
संज्ञा पुं० [सं० कुरुक्षेत्र] कुरुक्षेत्र । उ०—निंदक न्हाय गहन कुरुखेत । अरपै नारि सिंगार समेत । चौसठ कुआँ बाउ खुदवावै । तबहूँ, निंदक नरकहिं जावै ।—कबीर (शब्द०) ।

कुरुजांगल
संज्ञा पुं० [सं० कुरुजाङ्गल, कुरुजाङ्गल] एक प्रचीन देश जो पाताल देश के पश्चिम में था ।

कुरुबिल्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. पदमराग मणि । मानिक । २. बन- कुलथी ।

कुरुम पु
संज्ञा पुं० [सं० कूर्म्म] कूर्म । कच्छप । उ०—कुरुम टुटै भुई फाटै तिन्ह हस्तिन्ह के चालि ।—जायसी (शब्द०) ।

कुरुराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुर्योधन । २. युधिष्ठिर ।

कुरुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बाला की लट, जो माथे पर बिखरी हो ।

कुरुल (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुरंड' ।

कुरुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक प्रकार की गमक ।

कुरुवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तर कुरु ।

कुरुविद
संज्ञा पुं० [सं० कुरुविन्द] १. मोथा । २. काच लवण । ३. उरनद । ४. मानिक । ५. दर्पण । ६. ईंगुर । शिंगरफ ।

कुरुविल
संज्ञा पुं० [सं०] एक पुरानी तौल का नाम ।

कुरुविस्त
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का एक निश्चित परिमाण [को०] ।

कुरुवृद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] भीष्म [को०] ।

कुरुश्रेष्ठ, कुरुसत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन (को०) ।

कुरूप
वि० [सं०] [स्त्री० कुरूपा] बुरी शकल का । बदसूरत । बेडोल । बेढंगा । उ०—करि कुरूप विधि परबस कीन्हा । बवा सो लुनिय लहिय जो दीन्हा ।—मानस, २ ।१६ ।

कुरूपता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुरूप होने का भाव । बदसूरती ।

कुरूप्य
संज्ञा पुं० [सं०] टीन [को०] ।

कुरेदना
क्रि० सं० [सं० कर्त्तन] खुरचना । खरोचना । कुरोदना । उ०—(क) कभी कभी साँप के काटने से एक सामान्य छाला सा पड़ जाता है और सूई के कुरेदने के से दाग पड जाते हैं ।—दुरर्गाप्रसाद मिश्र (शब्द०) । (ख) पक्षियों का कुरेदा हुआ ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) ।

कुरेदनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुरेदना] लकड़ी या लोहे आदि का एक औजार जो भट्ठे की आग, ढेर आदि कुरेदने के काम आता है और लंबा, नुकीला और छड़ के आकार का होता है ।

कुरेभा
संज्ञा स्त्री० [सं० करभ = बच्चा] एक प्रकार की गाय जो साल में दो बार बच्चा देती है ।

करेर पु †
संज्ञा पुं० [सं० कल्ललो या कल + केलि] कुलेल । आमोद प्रमोद । उ०—हँसहि हंस औ करहिं कुरेरा । चुनहि रतन मुकताहल हेरा ।—(शब्द०) ।

कुरेरना पु
क्रि० अ० [हिं० कुरेर] कुलेल करना । क्रीड़ा करना । उ०—करहि कुरेरे सुरँग रँगीली । औ चोवा चंदन सब गीलीं ।—जायसी ग्रं०, पृ० २४५ ।

कुरेलना
क्रि० स० [हिं० कुरदना] खोदना । करोदना । संयो० क्रि०—डालना ।

कुरेलनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुरेदनी' ।

कुरैत
स्त्री० [हिं० कूरा = भाग या ढेर + अइत वा एत (प्रत्य०)] [स्त्री० कुरैतिन] भाग पानेवाला । हिस्सेदार ।

कुरैना (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'कुरौना' ।

कुरैना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० कूरा] [स्त्री० कुरैनी] ढेर । राशि ।

कुरैया
संज्ञा स्त्री० [सं० कुटज] एक वृक्ष जो जंगली में होता है और जिसकी पत्तियाँ लंबी और लहरदार होती हैं । इसमें लंबे और सुगंधित फूल लगते हैं जो सफेद, लाल, पीले पौर काले या नीले रंग के होते हैं । विशेष—फूल के रंगों के विचार से ही इसके चार भेद हैं जिनके गुण भी पृथक् पृथक् माने गए हैं । सफेद फूल की कुरेया का बीज मीठा इंद्रयव और काले फूल की कुरैया का बीज कडुआ इंद्रयव कहलाता है । यह कसैला दीपक और हलका होता है और बवासीर अतिसार और संग्रहणी को दूर करता है । यह बरसात में फूलता है और देखने में बहुत भला मालूम होता है । पर्या०—कुटज । वत्सक । गिरिमल्लिका । वरतिक्त । पांडुर । कुटक । कटुक । कौटजा । तिक्तक । रक्तनाशक । वृक्षक । कूटज । काही । कालिंग । प्रावृष्य । यवफल । संग्राही । प्रावृषण । महागंध । इद्रुद्र । कौट ।

कुरौना पु †
क्रि० स० [हिं० कूरा = ढेर] ढेर लगाना । कूरा लगाना ।

कुरौनी †
संज्ञा संज्ञा [हि० कूरा] ढेर । राशि ।

कुर्क
वि० [तु० कुक्] [संज्ञा कुर्की] जब्त । उ०—रह रह आँखों में चुभती वह कुर्क बरधों की जोड़ी ।—ग्राम्या, २५ । यौ०—कुर्कअमीत । कुर्कनामा ।

कुर्कग्रमीन
संज्ञा पुं० [तु० कुर्क + फा० अमीन] वह सरकारी कर्मचारी जो अदालत के आज्ञानुसार जायदाद की कुर्की करता है ।

कुर्कनामा
सं० पुं० [तु० कुर्क + फा० नामा] अदालत का वह परवानाजिसके अनुसार कुर्क्मीन किसी की जयदाद की कुर्की करता है । जब्ती का परवाना ।

कुर्की
संज्ञा स्त्री० [तु० कुर्क + ई (प्रत्य०)] देना चकाने या भागे हुए अपराधी को अदालत में हाजिर कराने के लिए कर्जदार या अपराधी की जायदाद का सरकार द्वारा जब्त किया जाबा । विशेष—कभी कभी महाजन के विशेष कारण दिखलाने पर कर्जदार की जायदाद फैसला या डिग्री होने से पहले ही इसलिये जब्त कर ली जाती है कि जिसमें वह जायदाद इधर उधर न कर सके । इसे कच्ची कुर्की कहते हैं । मुहा०—कुर्की उठना = जब्त की हुई जायदाद को छोड़ देना । कुर्की बैठाना = कुर्क करना । जब्त करना । कुर्की ले जाना = कुर्कनामा लेकर किसी की जायदाद कुर्क करने के लिये जाना ।

कुर्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुर्गा । कुक्कुट । २. कूड़ा । करकट [को०] ।

कुर्कुर
संज्ञा पुं० [सं०] कुत्ता । श्वान [को०] ।

कुर्चिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कूर्चिक' [को०] ।

कुर्ता
संज्ञा पुं० [तु० कुरता] दे० 'कुरता' ।

कुर्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुर्ता] दे० 'कुरती' ।

कुर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कूर्दन' ।

कुर्दमी
संज्ञा स्त्री० [देश०] जहाज का रस्ता । आलात ।—(लश०) ।

कुर्पर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुहनी । २. घुटना । पैरों के बीच का हड्डियों का जोड़ [को०] ।

कुर्पास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुर्पासक' [को०] ।

कुर्पासक
संज्ञा पुं० [सं०] अंगिया । चोली ।

कुर्ब
संज्ञा पुं० [अ० कुर्ब] निकटता । समीपता ।

कुर्बान
संज्ञा पुं० [अ० कुर्बान] बलि । निछावर । भेट [को०] ।

कुर्बानी
संज्ञा स्त्री० [अ० कुर्बानी] दे० 'कुरबानीं' ।

कुर्ब्बि पु †
संज्ञा स्त्री० [देश०] फैलाव । विस्तार । उ०—प्रथम ही आप तें मूल माया करी । बहुरि वह कुर्ब्बि करि त्रिगुन ह्वै विस्तरी ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २५९ ।

कर्बोजवार
संज्ञा पुं० [अ० कुर्ब व जवार] आस पास । अगल बगल । पास पड़ोस [को०] ।

कुर्मीं
संज्ञा पुं० [सं० कुटुम्ब, प्रा० कुडुम्ब या सं० कु (=पृथवी) + हिं० स्त्री या देश०] एक जाति जो खेती करती है । कुनबी । विशेष—कहीं कहीं इस जाति के लोग अपना परिचय 'गृहस्थ' कहकर देते हैं ।

कुर्मुक
संज्ञा पुं० [सं० क्रमुक] सुपारी ।—(डिं०) ।

कुर्म्ह पु †
संज्ञा पुं० [सं० कूर्म] दे० 'कूर्म' । उ०—मीन रूप जो प्रथम सुभाऊ । ता पीछे कुर्म्हहि निर्माऊ ।—कबीर सा०, पृ० ११ ।

कुर्रना †
क्रि० अ० [अनु०] दे० 'कुरलना' ।

कुर्रा
संज्ञा पुं० [अ० कुर्अह] रमल के काम में प्रयुक्त पाँसा । पाँसा । पाशक । सारि । उ०—एक ओझा नाम निकालने के लिये बुलाया गया । मौलवी साहब ने कुर्रा फेंका ।—मान०, भा० ५, पृ० २५७ ।

कुर्री
स्त्री० [देश०] १. हेंगा । पटरा । पटैला । सुहागा । २. कुरकुरी हड्डी । वि० दे० 'कुरकुरी' । ३. गोल टिकिया ।

कुर्स
संज्ञा पुं० [अ० कुर्स = गोल टिकिया] १. गोल टिकिया । २. अरब देश का चाँदी का एक पुराना सिक्का जो लगभग डेढ़ आने मूल्य का होता है । ३. चीन देश का सोने या चाँदी का एक सिक्का जो नाव के आकार का होता है और जो तौल में पचास या सौ तोले और इससे कम या अधिक भी होता है ।

कुर्स (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास जिसकी जड़ लंबी नरम और मजबूत होती है और रस्सी बटने और चटाई बनाने के काम में आती है । इसकी खेती केवल जड़ के लिये होती है ।

कुर्सी
संज्ञा स्त्री० [अ० कुरसी] दे० 'कुरसी' ।

कुर्सीनामा
संज्ञा पुं० [अ० कुरसीनाम] दे० 'कुरसीनामा' ।

कुलंक
संज्ञा पुं० [फा० कुलंग] एक विशेष प्रकार का पक्षी । कुलंग । उ०—बहरी अमंख हित पंख बल गहै कुलंक असंक गत । सोनँग दुरंग अकबर सहित सझौं एम घर नेम सत ।—रा० रू०, पृ० १५३ ।

कुलंग (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. वह पक्षी जिसका सिर लाल और बाकी शरीर मटगैंले रंग का होता है । इसकी गरदन लंबी होती है । यह लकलक से बड़ा होता है और पानी के किनारे रहता है । उ०—तीतर, कपोत, पिक, केकी, कोक, पारावत, कुरर, कुंलग, कलहंस गहि लाए हैं ।—केशव (शब्द०) । २. मुर्गा । कुक्कुट । ३. लंबी टाँग का आदमी ।—(व्यंग) ।

कुलंग (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] कुलाँच । कूद । चौकड़ी । उ०—हेरय तहाँ हरिन कुलंग करि कूदयौ एक ताही समै साहसीक साहसनि मात के ।—हम्मीर०, पृ० ६ ।

कुलंज (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुलञ्ज] 'कुलंजन' ।

कुलंज (२)
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़े का एक दोष जिसमें चलते समय टाँगैं आपस में टकराती हैं ।

कुलंजन
संज्ञा पुं० [सं० कुलञ्जन] १. अदरक की तरह का एक पौधा । विशेष—यह बर्मा, मलाया द्वीप, चीन आदि में होता है । इसकी रेशेदार जड़ बाहर बहुत भेजीं जाती हैं । यह कड़वी, गरम और दीपन होती है तथा मुख की दुर्गध को दूर करती है । कुलंजन के दो भेद हैं—बड़ा कुलंजन और छोटा कुलंजन । पर्या०—कुलंज । कुर्णज । गंधमूल । २. पान की जड़ या डंठल । विशेष—इसे लोग खाली या पान की तरह चूना, कत्था आदि मिलाकर खाते हैं । इससे बैठा हुआ गला खुल जाता है ।

कुलंधर
वि० [सं० कुलन्धर] वंश परंपरा को चलानेवाला [को०] ।

कुलंभर
संज्ञा पुं० [सं० कुलम्भर] चोर [को०] ।

कुल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वंश । घराना । खानदान । यौ०—कुलकानि । कुलपति । कुलकलंक । कुलाँगार । कुलतिलक । कुलभूषण । कुलकंटक, आदि ।मुहा०—कुल बखानना (१) वंशविरुदावली वर्णन करना (२) बहुत गालियाँ देना । २. जाति । ३. समूह । समुदाय । झुंड । जैसे—कविकुलभूषण । कविकुलतिलक आदि । ४. भवन । घर । मकान । जैसे— गुरुकुल, ऋषिकुल आदि । ५. तंत्र के अनुसार प्रकृति, काल, आकाश, जल, तेज, वायु आदि पदार्थ । ६. वाम मार्ग । कौल धर्म । ७. संगीत में एक ताल जिसमें इस प्रकार १५ मात्राएँ होती हैं—द्रुत, लघुद्रुत, लघु, द्रुत, लघु द्रुत, द्रुत, द्रुत लघु, द्रुत, द्रुत, द्रुत, द्रुत और लघु । ८. स्मृति के अनुसार व्यापारियों या कारीगरों का संघ । श्रेणी । कंपनी । ९. कौटिल्य के अनुसार शासन करनेवाले उच्च कुल के लोगों का मंडल । कुलीनतंत्र राज्य । १०. देह । शरीर (को०) । ११. अगला भाग । आगे का हिस्सा (को०) । १२. एक प्रकार का नीला पत्थर [को०] । १३. गोत्र (को०) । १४. नगर । जनपद (को०) । १५. तंत्र के अनुसार कुंडलिनी शक्ति जो मूलाधार चक्र में है (को०) ।

कुल (२)
वि० [अ०] समस्त । सब । सारा । पूरा । तमास । यौ०—कुल जमा = (१) सब मिलाकर । (२) केवल । मात्र ।

कुलकंटक
संज्ञा पुं० [सं० कुलकन्टक] अपनी कुचाल से अपने वंशवालों को दुःखी करनेवाला ।

कुलक (१)
वि० [सं०] अच्छे कुल, खानदान का [को०] ।

कुलक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकर तेदुआ नाम का वृक्ष । २. कुचिला । ३. परवल या उसकी लता । ४. हरा साँप । ५. दीपक । ६. श्रेणी या समूह का प्रधान [को०] । ७. समूह [को०] । ८. बल्मीक । बाँबी । ९. संस्कृत में गद्य लिखने का एक ढंग । १०. संस्कृत में कविता लिखने का एक विशेष ढंग । उ०— यद्यपि हिंदी में इस ढंग की कविता का प्रचार नहीं है, तथापि अन्य भाषाओं में (जैसे, संस्कृत में कुलक, अंग्रेजी में ब्लेकवर्स, बँगला में अमित्राक्षर छंद आदि) इसका उपयुक्त प्रचार है ।—करुणा०, (सू०) । विशेष—कुलक में ५ से १४ तक एक साथ अन्वित पद्य या कविताएँ होती हैं । व्याकरण की दृष्टि से इनका वाक्यविन्यास और बंधान ऐसा होता है कि सब एक ही वाक्य में लिखा जा सकता है ।

कुलकज्जल
वि० [सं०] वंश को कलंकित करनेवाला ।

कुलकना
क्रि० अ० [हिं० किलकना] आनंदित होना । खुशी से उछलना । उ०—लक्ष्मण का तन पुलक उठा, मन मानो कुछ कुलक उठा ।—साकेत, पृ० ९३ ।

कुलकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न कन्या [को०] ।

कुलकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० कुलकर्तृ] वंश का आदिपुरुष । संस्थापक । कुलपति ।

कुलकलंक
संज्ञा पुं० [सं० कुलकलङ्क] अपनी कुचाल से अपने वंश की कीर्ति में धब्बा लगानेवाला ।

कुलकाट
वि० [सं० कुल + हिं० काट = मैल] कुल को कलंक लगाने वाला । उ०—कम हीमत, कुलकाट, माझी मरण, मलीण मत ।—बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ६१ ।

कुलकान पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुलकानि' । उ०—क्यों न तजैं ताके सुनै और सबै कुलकान ।—स० सप्तक, पृ० १८८ ।

कुलकानि
संज्ञा स्त्री० [सं० कुल + हिं० कान = मर्यादा] कुल की मर्यादा । कुल की लज्जा । उ०—छूटेंउ लाज डगरिया औ कुलकानि । करत जात अपरधवा परि गइ बानि ।— रहीम (शब्द०) ।

कुलकी †
संज्ञा स्त्री० [बँ०] चिलम ।

कुलकुंडलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार एक शक्ति जिसका समग्र संसार एक अंश है । इसकी महिमा 'प्रकृति' या शक्ति के समान कही जाती है और इसकी उपासना होती है ।

कुलकुल (१)
संज्ञा पुं० [अनु०] पक्षियों की मधुर ध्वनि । उ०—खगकुल कुलकुल सा बोल रहा ।—लहर, पृ० १६ ।

कुलकुल (२)
संज्ञा पुं० [अ०] बोतल वा सुराही से मदिरा या जल गिराने के समय होनेवाली आवाज [को०] ।

कुलकुलाना
क्रि० अ० [अनु०] कुल कुल शब्द करना । मुहा०—आँते कुलकुलाना = अत्यंत भूख लगना । उ०—पेट की आँतें कुलकुला रही थीं ।—दुर्गेशनंदिनी (शब्द०) । विशेष—जब पेट खाली होता है, तब आँतों से कुलकुल शब्द निकलता है ।

कुलकुली
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. कलबलाहट । खुजली । २. बेचैनी ।

कुलकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] कुल में पताका के समान श्रेष्ठ । कुल को यशस्वी बनानेवाला व्यक्ति [को०] ।

कुलक्षण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुरा लक्षण । बुरा चिह्न । २. कुचाल । बदचलनी ।

कुलक्षण (२)
वि० [सं०] [स्त्री० कुलक्षणा] १. बुरे लक्षणवाला । २. दुराचारी ।

कुलक्षणी
संज्ञा पुं० [कुलक्षण + ई (प्रत्य०)] १. बुरे लक्षणवाला । २. दुराचारी ।

कुलक्षणी (२)
संज्ञा स्त्री० १. बुरे लक्षणवाली । २. दुराचारिणी ।

कुलक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] कुल या वंश का विनाश (को०) ।

कुलगरिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंश का गौरव । खानदान की इज्जत (को०) ।

कुलगिरि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलपर्वत' [को०] ।

कुलगुर पु
संज्ञा पुं० [सं० कुलगुरु] दे० 'कुलगुरु' । उ०—वेदविहित कुलरीति कीन्ह दुहुँ कुलगुर ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५७ ।

कुलगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] वंश या खानदान का गुरु । कुल- पुरोहित (को०) ।

कुलगृह
संज्ञा पुं० [सं०] उच्चवंश का भवन । प्रतिष्ठित घर ।

कुलघ्न
वि० [सं०] वंश या कुल का विनाश करनेवाला (को०) ।

कुलचंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलचण्डी] एक देवी का नाम ।

कुलचंद
वि० [सं० कुल + चन्द्र] कुल या वंश को चंद्रमा के समान प्रकाशित करनेवाला । कुलभूषण । उ०—साहि तनै कुलचंदसिवा जस चंद सो चंद कियो छवि छीनो ।—भूषण ग्रं०, पृ० ४८ ।

कुलचा
संज्ञा पुं० [फा० कलीचहू] १. एक प्रकार की खमीरी रोटी, जो खूब फूली होती है । २. तंबू या खेमे के डंडे के ऊपर का गोल लट्टू । ३. छिपाकर इकटठा किया हुआ रुपया ।

कुलच्छन
संज्ञा पुं० वि० [हिं०] दे० 'कुलक्षण' ।

कुलच्छनी (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुलक्षणी' ।

कुलच्छनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुलक्षणी' । उ०—(क) बेहतर यह है कि राजा से कहिए, यह कुलच्छनी है, आपके योग नहीं ।—लल्लू (शब्द०) । (ख) पति को दुःख देखनेवाली मैं कुलच्छनी सती हूँ ।—लक्षमणसिंह (शब्द०) ।

कुलज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुलजा] १. उत्तम वंश में उत्पन्न । कुलीन । २. परवल । परोरा ।

कुलजन
संज्ञा पुं० [सं०] सत्कुलोत्पन्न व्यक्ति । कुलीन जन (को०) ।

कुलजा (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की जंगली भेड़ जो पामीर और गिलगित्त में होती है । यह डीलडौल में बड़ी होती है । कुचकार ।

कुलजा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलवधू ।

कुलजात
वि० [सं०] वंश में उत्पन्न । वंशोदभव ।

कुलजाया
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलीना स्त्री । पतिव्रता [को०] ।

कुलट (१)
वि० पुं० [सं०] [स्त्री० कुलटा] बहुत स्त्रियों से प्रेम रखनेवाला । व्यभिचारी । बदचलन । उ०—श्याम सखी कारेहु ते कारे । तब चितचोर भोर व्रजवासिन प्रेम नेक ब्रत टारे । लै सरबस नहिं मिले सूर प्रभ कहिये कुलट बिचारे ।— सूर (शब्द०) ।

कुलट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] औरस के अतिरिक्त और किसी प्रकार का पुत्र । क्षेत्रक, गोलक, दत्तक या क्रीत पुत्र ।

कुलटा (१)
वि० स्त्री० [सं०] बहुत पुरुषों से प्रेम रखनेवाली (स्त्री) । छिनाल । बदचलन । व्यभिचारिणी । पुंश्चली । पर्या०—पुंश्चली । स्वैरिणी । पांशुला । व्यभिचारिणी ।

कुलटा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह परकीया नायिका जो बहुत पुरुषों से प्रेम रखती हो ।

कुलतंतु
संज्ञा पुं० [सं० कुलतन्तु] वह पुरुष जिसे छोड़ और कोई दूसरा सहारा उसके कुलवालों को न हो ।

कुलतारन
वि० [सं० कुल + हिं० तारन] [वि० स्त्री० कुलतारनी] कुल को तारनेवाला । कुल को पवित्र करनेवाला । उ०—सुतहिं कह्यो तै भो कुलतारन । मोहिं दरसायो बारन तारन ।—रघु- राज (शब्द०) ।

कुलत
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + हिं० लत] बुरी आदत । कुटेंव ।

कुलतिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रसिद्ध चांद दिवस । शुक्ल पक्ष की चतुर्थी, अष्टमी, द्वादशी या चतुर्दशी तिथि (को०) ।

कुलतिलक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वंश की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाला पुरुष । वंश का गौरव (को०) ।

कुलतिलक (२)
वि० कुल की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाला । कुल में श्रेष्ठ ।

कुलती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] १. बुरी आदत । कुटेव । २. कौल संप्रदाय की साधना में प्रयुक्त होनेवाली स्त्री । कुलस्त्री । उ०—तजौ कुलती मेटी भंग । अहनिसि राषौ औजुद बंधि ।—गोरख०, पृ० ७४ ।

कुलत्ती †
वि० [सं० कु + हिं० लत] बुरी आदतवाला । कुटेववाला ।

कुलत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] कुलथी । कुरथ ।

कुलत्थिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलथी । कुरथी ।

कुलथ
संज्ञा पुं० [पुं० कुलत्थ] कुलथी ।

कुलथी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलत्थ या कुलत्थिका] उरद की तरह का एक मोटा अन्न जो प्रायः बरसात में ज्वार के साथ बोया जाता है । विशेष—इसकी बेल भी उरद की भाँति पृथ्वी पर फैलती है; पर इसकी पत्तियाँ पंजे के आकार की होती हैं । फलियाँ गुच्छों में लगती है और एक एक फली में तीन तीन चार चार दाने निकलते हैं । दाने उरद ही के से होते हैं, पर कुछ चिपटे और भिन्न भिन्न रंगों के, जैसे—भूरे, लाल, काले होते हैं । कुलथी घोड़ों और चौपायों को बहुत खिलाई जाती है । गरीब लोग इसकी दाल भी खाते हैं । यह कदन्न मानी गई है । वैद्य लोग इसे धातु शोधने के काम में लाते हैं । वैद्यक में इसे रूखी, कसैली, गरम, कब्ज करनेवाली तथा रक्तपित्तकारिणी मानते हैं । पर्या०—ताम्रबीज । श्वेतबीज । सितेतर । कालवृंत । ताम्रवृंत ।

कलदीप
संज्ञा पुं० [सं०] वंश को दीप की भाँति प्रकाशित करनेवाला व्यक्ति (को०) ।

कुलदीपक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलदीप' [को०] ।

कुलदुहिता
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलदुहितृ] दे० 'कुलकन्या' (को०) ।

कुलदूषण
वि० [सं०] ते० 'कुलकलंक' [को०] ।

कुलदेव
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुलदेवी] वह देवता जिसकी पूजा किसी कुल में परंपरा से होती आई हो । ऐसे देवताओं की पूजा विवाह आदि के समय या वार्षिक नवरात्र आदि के दिनों में होती है । कुलदेवता ।

कुलदेवता (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलदेव' ।

कुलदेवता (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] षोडश मातृकाओं में से एक ।

कुलदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह देवी जिसकी पूजा किसी कुल में परंपरा से होती आई हो ।

कुलद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] दस प्रमुख वृक्ष, जिनके नाम हैं—(१) पीपल, (२) बरगद, (३) बेल, (४) नीम, (५) कदंब, (६) गूलर, (७) इमली, (८) आमला, (९) लसोड़ा और (१०) करंज ।

कुलधन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पैतृक संपत्ति । खानदान की अत्यंत प्रिय एवं मूल्यवान् संपत्ति या परंपरा ।

कुलधन (२)
वि० जिसका धन वंश प्रतिष्ठारक्षा के लिये लगे [को०] ।

कुलधन्या
[सं०] कुल की प्रतिष्ठा बढ़ानेवाली । वंश की मर्यादा की रक्षा करनेवाली । उ०—जो कुछ मेरे वह, कन्या का, कुलधन्या का । अपरा, पृ० १८२ ।

कुलधर
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र । बेटा ।

कुलधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] वंशपरंपरा से आनेवाला कर्तव्य कर्म । पूर्वपुरुषों द्वारा पालित धर्म । विशेष—अभियोगों के निर्णय में भी इसका विचार किया जाता था ।

कुलधारक
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र । बेटा ।

कुलन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० कल्लाना] दर्द । टीस । जैसे,—दाँतों की कुलन ।

कुलनक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार भरणी, रोहिणी, पुष्य, मघा, उत्तराफाल्गुनी, चित्रा, विशाला, ज्येष्ठा पूर्वाषाढ, श्रवण, उत्तरभाद्रपद ये सब नक्षत्र ।

कुलना
क्रि० अ० [हिं० कुल्लाना] टीस मारना । दर्द करना । जैसे,—आजकल दाँत कुल रहे हैं ।

कुलनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाममार्ग या कौल धर्म के अनुसार वे स्त्रियाँ जिनकी पूजा कौल लोग चक्र में करते हैं । ये नौ प्रकार की होती हैं—नटी, कपालिनी, वेश्या, धौबिन, नाइन, ब्राह्मणी, शूद्रा, अहीरिन और मालिन ।

कुलनार
संज्ञा पुं० [नेश०] एक खनिज पदार्थ या पत्थर जो सफेद या कुछ सुरमई रंग लिए होता है । विशेष—इसे सिलखड़ी, संग जराहत, सफेद सुरमा और कर्पूर शिलासित भी कहते हैं । इसे भस्म करके गच या प्लास्टर आफ पेरिस बनाते हैं । इस भस्मचूर्ण में यह गुण होता है कि यह पानी पाने से लस पकड़ने लगता है और अंत में सूखने पर उसके सब कण मिलकर फिर ठोस पत्थर हो जाते हैं । इसकी मूर्तियाँ, खिलौने, इलेक्ट्रोटाइप के साँचे और बहुत सी चीजें बनती हैं । इससे शीशा भी जोड़ते हैं । कुलनार मद्रस, पंजाब, राजपूताने तथा भारतावर्ष के और कई भागों में मिलता है । जोधपुर और बोकानेर में इसकी बड़ी बड़ी खानें हैं, और इससे बहुत से काम होते हैं । इससे खिड़की की जालियाँ बड़े कौशल के साथ बनाते हैं । गच या गीले कुलनार की दो बराबर पट्टियाँ लेते हैं और उनमें एक ही नक्काशी की जालियाँ काटते हैं । फिर एक पट्टी की जालियों पर रंग बिरंग के शीशे बैठाकर ऊपर दूसरी पट्टी भी सटीक जमाकर बाँध देते हैं । इस प्रकार दोनों पट्टियाँ मिलकर एक हो जाती हैं और कटाव के बीच रंग बिरंग के शीशे दिखाई पड़ते हैं । आगरा, लाहौर आमेर आदि के शीश महल इसी गच की सहायता से बने हैं । कुलनार या सिलखड़ी का चूरा खेतों में भी खाद के लिये डाला जाता है । नील की खेती के लिये इसकी खाद बहुत उपयोगी होती है । पेशाब लाने के लिये वैद्य सिलखड़ी का चूरा दूध के साथ खिलाते हैं ।

कुलनीवीग्राहक
संज्ञा पुं० [सं०] किसी समाज या संघ की आमदनी को अपने पास जमा रखनेवाला । विशेष—कौटिल्य ने ऐसे धन का अपव्यय करनेवाले पर १०० पण जुर्माना लिखा है ।

कुलप
संज्ञा पुं० [सं०] कुल का प्रधान पुरुष । किसी कुल को अनुशासन में रखनेवाला प्रधान व्यक्ति । उ०—सामाजिक संगठन की मूलभूत इकाई कुल थी जिसमें एक पिता या ज्येष्ठ भ्राता के, जो कुलप कहलाता था, अनुशासन को मानते हुए कई सदस्य एक ही गृह में एक साथ रहते थे ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० ८२ ।

कुलपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. घर का मालिक । मुखिया । सरदार । २. वह अध्यापक जो विद्यार्थियों का भरण पोषण करता हुआ उन्हें शिक्षा दे । ३. शास्त्रानुसार वह ऋषि जो दस हजार मुखियों या ब्रह्मवारियों को अन्नदान और शिक्षा दे । ४. महंत । ५. किसी विद्यासंस्था विशेषतया कालिज या विश्व विद्यालय का वैधानिक प्रधान ।

कुलपरंपरा
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलपरंपरा] वंश में चली आती रीति । वंशपरंपरा । उ०—इन खिलाड़ियों के लड़के भी कुल- परंपरा से बहुधा सिपाही का काम अंगीकार करते थे । हिंदु सभ्यता, पृ० ४६ ।

कुलपर्वत
संज्ञा पुं० [सं०] सात पहाड़ों का एक समूह जिसके अंतर्गत ये पर्वत आते हैं—महेंद्र, मलय, सह्य, शुक्ति, ऋक्ष, विंध्य और पारियात्र ।

कुलपांसुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलटा । व्यभिचारिणी स्त्री [को०] ।

कुलपालक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की नारंगी ।

कुलपालक (२)
वि० वंश या खानदान का पालन और रक्षण करनेवाला [को०] ।

कुलपालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे०— 'कुलपालिका' [को०] ।

कुलपालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सती स्त्री । २. कुलजा स्त्री । उत्तम कुल की नारी [को०] ।

कुलपाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुलपालिका' [को०] ।

कुलपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] कुलीन मनुष्य । उच्चवंश का व्यक्ति [को०] ।

कुलपूज्य
वि० [सं०] जिसका मान कुलपरंपरा से होता आया हो । जो कुल का पूज्य हो । उ०—गुरु वसिष्ठ कुल पूज्य हमारे ।— तुलसी (शब्द०) ।

कुलफ पु †
संज्ञा पुं० [अ० कुफुल] ताला । उ०—(क) श्री रघुराज मनों जुलफै की जंजीरन की कुलफै खुलवाई ।— रघुराज (शब्द०) । (ख) अस करहु कुलफ कपाट है जब जीव जाहितै ना चलै ।—कबीर सा०, पृ० ११ । विशेष—कुछ लोग इसे स्त्रीलिंग भी मानते और लिखते हैं ।

कुलफत
संज्ञा स्त्री० [अ० कुल्फ] मानसिक चिंता या दुःख । विकलता । उ०—उलफत नेहा कुलफता नारी ।—कबीर श०, पृ० ६ । क्रि० प्र०—मिटना ।—होना ।

कुलफा (१)
संज्ञा पुं० [फा० खुर्फा़] एक साग जिसके पत्त दलदार, नीचे डंठल के पास नुकीले और सिर पर चौड़े होते हैं । विशेष—इसके पत्ते दो अगुल लंबे और डंठल में दो आमने सामने लगते हैं । इसके फूल पीले रंग के होते हैं । फूल झड़ जाने पर छोटे छोट कंगूरे निकलते हैं जिनमें काले गोल चिपढे दाने होते हैं । ये दाने बहुत छोटे होते हैं और दवा केकाम में आते हैं । लोग ठंढाई में इन्हें प्रायः डालते हैं । इसका पौधा एक बालिश्त से डेढ़ बालिश्त तक ऊँचा है और ठेडी जगह में उगता है । यह बसंत ऋतु के पहले बोया जाता है और गरमी में तैयार होता है । इसका पौधा बहुत जल्द बढ़ता है । बरसात में यह आपसे आप खेतों में जमता है । लोग इसका साग खाते हैं । वैद्यक में यह ठंढा माना गया है । इसी की छोटी जाति को लोनी, अमलोनी या नोनिया कहते हैं । यौ०—बृहल्लोणी । घोलिका ।

कुलफा (२) पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुलफ' । उ०—चर्म दृष्टि का कुलफा दे के, चौरासी भरमाई हो ।—कबीर श०, पृ० ६३ ।

कुलफी
संज्ञा स्त्री० [अ० कुफली] १. पैच । २. टीन या किसी धातु अथवा मिट्टी आदि का बना हुआ चोंगा जिसमें दूध आदि भरकर बर्फ जमाते हैं । ३. उपर्युक्त प्रकार से जमा हुआ दूध, मलाई या कोई शर्बत । जैसे—मलाई की कुलफी । ४. पीतल या ताँबे आदि की गोल या झुकी हुई नली जिसे नरकुल में लगाकार नैचा बाँधा जाता है ।

कुलबधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुलवती स्त्री । मर्यादा से रहनेवाली स्त्री । उ०—किती न गोकुल कुलबधू काहि न केहि सिखदीन ।— बिहारी (शब्द०) ।

कुलबाँसा
संज्ञा पुं० [हिं० कुल + बाँस] जुलाहों के करघों का एक बाँस जिसमें कंघी बँधी रहती है ।

कुलबुल
संज्ञा पुं० [अनु०] [संज्ञा कुलबुलाहट] छोटे छोटे जीवों के हिलने डुलने की आहट ।

कुलबुलाना
क्रि० अ० [अनु० कुलबुल] १. बहुत से छोटे छोटे जीवों का एक साथ मिलकर हिलना डोलना । इधर उधर रेंगना । जैसे,—मोरी में कीड़े कुलबुला रहे हैं । २. धीरे धीरे हिलना डोलना । जैसे,—बच्चा गोद में कुलबुला रहा है । ३. चंचल होना । आकुल होना । जैसे,—(क) सोया हुआ लड़का कुलबुलाकर उठ बैठा (ख) भूख के मारे अंतड़ियाँ कुलबुला रही हैं ।

कुलबुलाहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुलबुल] धीरे धीरे हिलने डुलने का भाव । इधर उधर रेंगना ।

कुलबोर
वि० [सं० कुल + हिं० बोरना] कुल को डुबानेवाला । कुल- कलंक । उ०—धरमदास बिनवेकर जोरी, नगरी के लोग कहैं कुलबोर ।—धरम, पृ० ७४ ।

कुलबोरन
वि० [हिं० कुल + बोरना] १. कुल को डुबानेवाला । वंश की मर्यादा को भ्रष्ट करनेवाला । कुल में दाग लगानेवाला । कुलकुठार । १. अयोग्य । नालायक ।

कुलबोरना †
वि० [हिं०] दे०— 'कुलबोर' । उ०—ओहि कुलबोरना के चिरई हंकाव ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५८ ।

कुलमौड़ †
वि० [सं० कुल + मौलि हिं मौर] कुलश्रेष्ठ । वंश में श्रेष्ठ और ख्यात । वंशभूषण । उ०—औरंग जैसे अक्खियौ, दूजै दिन रागौड़ा गया दरग्गह साह रै, मारुधर कुलमौड़ ।— रा० रू०, पृ० २७ ।

कुलराज्य
संज्ञा पुं० [सं०] किसी एक वंश के सरदारों का राज्य । किसी एक कुल के नायकों द्वारा चलनेवाला । शासन । सरदारतंत्र । विशेष—चाणक्य के अनुसार ऐसे राज्य में स्थिरता रहती है । अराजकता का भय नहीं रहता और ऐसे राज्य को शत्रु भी जल्दी नहीं जीत सकता ।

कुलवंत
वि० [सं० कुलवन्त] [स्त्री० कुलवन्ति, पु कुलवन्ती] कुलीन । उ०—(को) कुलवंत निकारहिं नारि सती ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जोबन चंचल ढीठ है करै निकाजै काज । धनि कुलवंती जो कुलधरै, कै जोबन मन लाज ।—जायसी (शब्द०) ।

कुलवान
वि० [सं० कुलवत्] [स्त्री० कुलवती] कुलीन । अच्छे वंश का अच्छे । खानदान का ।

कुलसंकुल
संज्ञा पुं० [सं० कुलसङअकुल] एक नरक का नाम ।

कुलसंघ
संज्ञा पुं० [सं० कुलसङ्घ] कुलीन तंत्र राज्य का शासक मंडल । वि ० दे० 'कुलराज्य' ।

कुलम पु †
संज्ञा पुं० [सं० कुलिश] वज्र । उ०—यांण मरकट हुलस गुरज रिमसिर पड़े । झट कुलस हूत गिर जाँण टोला झडै ।—रघु० रू०, पृ० १८४ ।

कुलशतावर ग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह ग्राम जिसकी आबादी सौ से अधिक हो ।

कुलसन
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया ।

कुलस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊँचे कुल की नारी । साध्वी स्त्री [को०] ।

कुलस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वंश की उन्नति । २. वंशपरंपरा से चलो आती प्रथा [को०] ।

कुलह
संज्ञा स्त्री० [फा० कुलाह] १. टोपी । उ०—पीत कुलह राजै, चूनरी सुपीत साजै, लहंगा पीत, कंचुकी पीत सौहै तन गोरै ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७७ । २. शिकारी । ३. चिड़ियों की आँखों पर का ढक्कन । टोपी । अँधियारी । उ०—बात दृढ़ाइ कुमति हँसि बोली । कुमति कुबिहँग कुलह जनु खोली ।— तुलसी (शब्द०) ।

कुलहवरा †
संज्ञा पुं० [फा० कुलाह + वाला] बच्चों के पहनने का एक प्रकार का कंटोप, जिसके नीचे पीछे की ओर पैर तक लटकता हुआ लंबा कपड़ा चुनकर सिला रहता है ।

कुलहा पु †
संज्ञा पुं० [फा० कुलाह] १. टोपी । २. शिकारी चिड़ियों की आँख ढकने की अँधियारी । ढोका । उ०—बगुला झपटै बाज पै, बाज रहै सिर नाय । कुलहा दीने पग बंधें, खोंटे दे फहराय ।—सभाविलास (शब्द०) ।

कुलही †
संज्ञा स्त्री० [फा० कुलाह] बच्चों के सिर पर देने की टोपी । कनटोप । उ०—(क) कुलही चित्र विचित्र झगूली । निरखहिं मातु मुदित मन फुली ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) खेलत कुँवर कनक आँगन में नैन निरखि छबि छाई । कुलहि लसत चिर स्याम सुभग अति बहु विधि सुरँग बनाई ।—सूर (शब्द०) ।

कुलहीन
वि० [सं० कुल + हीन] [वि० स्त्री० कुलहीनी] अकुलीन । हीन या निम्न कुल का । उ०—बैठु सभा मँह सो कुलहीनी । बेस्वा की गति ताकर चीन्ही ।—सं० दरिया, पृ० ४६ ।

कुलांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलांङ्गना] दे० 'कुलस्त्री' [को०] ।

कुलांगार
संज्ञा पुं० [सं० कुलाङ्गार] कुल का नाश करनेवाला । सत्यानाशी । उ०—ये कान्यकुब्ज कुल कुलांगार । खाकर पत्तल में करें छेद ।—अपरा, पृ० १७६ ।

कुलाँच
संज्ञा स्त्री० [तु० कुलाच] १. दोनों हाथों के बीच की दूरी । २. चौकड़ी । ३. छलांग । उछाल । (क) लेन कुलाँच लखो तुम अबहीं । धरत पाँव धरती जब तबहीं ।—लक्ष्मण- सिंह (शब्द०) । (ख) दस योजन कर बीच तहँ, पहुँचे एक कुलाँच । सिंहासन तें अवनि पर पटक्यो मारि तमाँच ।— विश्राम (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना ।—भरना ।—मारना ।—लेना ।

कुलाँचना
क्रि० प्र० [हिं०] चौकड़ी भरना । उछलना कूदना ।

कुलाँट पु
संज्ञा स्त्री० [तु० कुलाच] छलाँग । चौकड़ी । उछाल । उ०—अप्रमान हथ्थीन दा विक्रम बड़काया । करि कुलाँट अंतुक मनौं किलकार सुधाया ।—सूदन (शब्द०) ।

कुला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल मैनसिल [को०] ।

कुला (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० कुलाह] एक प्रकार की ऊँची टोपी । कुलाह । उ०—उन्हें कुला लगाकर साफा बाँधने में एक असुविधा अवगत होती थीं ।—लंबे देशों की ।—झाँसी० पृ० २२४ ।

कुलाकुल
संज्ञा पुं० [सं०] तंत्र के अनुसार कुछ निश्चत नक्षत्र, वार और तिथियाँ, जैसे—आर्द्रा, मूल, अभिजित् आदि नक्षत्र, बुधवार और द्वितीया, छठ और द्वादशी आदि तिथियाँ ।

कुलाक्रम पु
संज्ञा पुं० [सं० कुल + आक्रम] कुलमर्यादा । उ०—तजि कुलाक्रम अभिमांनां, झूठे भरमि भुलाना ।—कबीर ग्रं०, पृ० १७८ ।

कुलाचल
संज्ञा पुं० [सं० कुल + अचल] दे० 'कुलपर्वत' ।

कुलाचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुल परंपरा से आगत आचार व्यवहार या रीति रस्म । कुलरीति । कुलधर्म । २. वाममार्ग । कौलाचार [को०] ।

कुलाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] कुलगुरु । पुरोहित ।

कुलाधि पु
संज्ञा स्त्री० [पुं० कुल = समूह + आधि = रोग दोष] पाप । दोष । उ०—मछरी तुरकै पकरिया, बसै गंग के तीर । धोय कुलाधिनी भाजही, राम न कहै सरीर ।—कबीर (शब्द०) ।

कुलाबा
संज्ञा पुं० [अ०] १. लोहे का जमुरका, जिसके द्वारा किवाड़ बाजू से जकड़ा रहता है । पायजा । २. मछली फँसाने का काँटा । ३. जुलाहों के करघे की वह लकड़ी जो चकवा के बीच लगी रहती है । ४. नाली जिसमें होकर पानी निकलता हैं । मौरी । ५. जंजीर । सिकड़ी । उ०—रूह करें मेराज कुफर का खोलि कुलाबा । तीसों रोजा रहैं अंदर में सात रिकाबा ।—पलटू०, पृ० ४३ ।

कुलाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर । देह । जिस्म । २. खोता । घोंसला । ३. स्थान । जगह ।

कुलायिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पक्षिशाला । चिड़ियाघर । २. पिंजर । पिंजड़ा (को०) ।

कुलाल
संज्ञा पुं० [सं० तुलः फा० कुलाल] [स्त्री० कुलाली] १. मिट्टी के बरतन बनानेवाला । कुम्हार । उ०—जैसे चक्र कुलाल का फिरता बहु दीसै । ठौर छाँड़ि कतहूँ न गया यह बिसवा बीसै ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २ पृ० ८६४ । यौ०—कुलाल चक्र = कुम्हार का चाक । २. जंगली मुर्गा । ३. उलूक । उल्लू ।

कुलालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिड़ियाखाना ।

कुलाली (१)पु
संज्ञा स्त्री० [पुं०] १. कुम्हार की स्त्री । कुम्हारिन । २. कुम्हार जाति की स्त्री । ३. अंजन या सुरमे में प्रयुक्त होनेवाला एक प्रकार का नीला पत्थर (को०) ।

कुलाली (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्यपाली] कलाल की स्त्री । कलाली । कलारिन । उ०—भरि भरि प्याला देत कुलाली बाढै भक्ति खुमारा ।—चरण० बानी, पृ० १७१ ।

कुलाली (३)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दूरबीन ।—(डि०) ।

कुलाह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भूरे रंग का घोडा़, जिसके पैर गाँठ से सुमों तक काले हों ।

कुलाह (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. एक प्रकार की ऊँची टोपी जो फारस और अफगानिस्तन आदि में पहनी जाती है । उ०—खड़ा रहूँ दरबार तुम्हारे, ज्यों घर का बंदाजादा । नेकी की कुलाह सिर दीये, गले पैरहन साजा ।—संतवाणी०, भा० २, पृ० १०३ । २. ताज । मुकुट (को०) । टोपी (को०) ।

कुलाहक
संज्ञा पुं० [सं०] गिरगिट । कृकवाकु । प्रतिसूर्यक [को०] ।

कुलाहल पु
संज्ञा पुं० [सं० कोलाहल] दे० 'कोलाहल' । उ०—आपुस में सब करत कुलाहल धौरी धूमरि धेनु बुलाए ।—सूर० १० । ४४७ ।

कुलिंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुलिंङ्ग] १. एक प्रकार का पक्षी । २. चिड़ा । गौरा । ३. पक्षी चिड़िया । ४. काकड़ा । सींगी । ५. एक प्रकार का सर्प (को०) । ६. एक किस्म का चहा (को०) । ७. भूमिकूष्मांड । भुईं कुम्हड़ा (को०) । ८. हाथी । मतंगज (को०) ।

कुलिंग (२)
संज्ञा स्त्री० एक नदी का नाम ।

कुलिंग (३)
वि० बुरे लिंग का ।

कुलिंगक
संज्ञा पुं० [सं० कुलिङ्गक] चिड़ा । गौरा । पक्षी । चटक ।

कुलिंजन
संज्ञा पुं० [सं० कुलञ्चन] दे० 'कुलजन' ।

कुलिंद
संज्ञा पुं० [पुं० कुलिन्द] १. एक प्राचीन देश, जो उत्तर— पश्चिम भारत में था । कुनिंद । २. उक्त देश का निवासी । ३. उक्त देश का राजा ।

कुलि (१)
वि० [हिं०] दे० 'कुल' उ०—त्रिविध दोष दुख दारिद दावन । कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन ।—मानस १ । ३५ ।

कुलि (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हाथ । हस्त । कर । २. भटकटैया [को०] ।

कुलिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिल्पकार । दस्तकार । कारीगर । २. उत्तम वंश में उत्पन्न पुरुष । ३. आठ महानागों में से एक । ४. घुँघची का पेड़ । ५. तालमखाना । ६. किसी जाति या कुल का प्रधान पुरुष । ७. ज्योतिष में दिन और रात का कुछ निश्चित अंश, जो यात्रा या अन्य शुभ कर्मों के लियेनिषिद्ध समझा जाता है । ८. केकड़ा । कर्कट । ९. स्वजन । परिजन (को०) । १०. आखेटिक । शिकारी (को०) ।

कुलिज
संज्ञा पुं० [सं०] करज । नख [को०] ।

कुलिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कोलिया' ।

कुलिर
संज्ञा पुं० [सं०] केकड़ा । ३. कर्क राशी [को०] ।

कुलिश
संज्ञा पुं० [सं०] १. हीरा । उ०—माणिक मर्कत कुलिश पिरोजा । चीर कोरि पच रचे सरोजा ।—तुलसी (शब्द०) । २. वज्र । बिजली । गाज । चिल्ली । उ०—भयो कुलाहल अवध अति, सुनि नृप राउर सोर । बिपुल विहँग बन परयौ निसि, मानौ कुलिस कठोर ।—तुलसी (शब्द०) । ३. ईश्वरावतार राम, कृष्णादि के चरणों का एक चिह्न, जो वज्र के आकार का माना जाता है । उ०—अरुण चरण अकुशध्वज, कंज कुलिश चिह्न रुचिर, भ्राजत अति नूपुर बर मधुर मुखरकारी ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—कुलिशधर = वज्रधर । इंद्र । ४. कुठार । ५. एक प्रकार की मछली ।

कुलिशकर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलिशधर' [को०] ।

कुलिशधर
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र । सुरराज ।

कुलिशपाणि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलिशधर' ।

कुलिशनायक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रतिबंध [को०] ।

कुलिशासन
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धदेव का एक नाम ।

कुलिशो
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वेदोक्त नदी जो आकाश के मध्य में मानी जाती है ।

कुलिस
संज्ञा पुं० [सं० कुलिश] वज्र । कुलिश । उ०—कोटि कुलिस सम बचनु तुम्हारा । व्यर्थ धरहु धनु बान कुठारा ।— मानस, १ । २७३ ।

कुलींजन
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुलंजन' ।

कुली (१)
संज्ञा पुं० [तु०] १. बोझ ढोनेवाला । मजदूर । मोटिया । २. गुलाम (को०) । यौ०—कुली कबारी = छोटी जाति के लोग ।

कुली (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुलिन्] १. सप्त कुलपर्वतों में से एक । २. पर्वत [को०] ।

कुली (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बड़ी साली । पत्नी की बड़ी बहन । २. भटकटैया [को०] ।

कुली (४)
वि० [सं० कुलिन्] कुलीन । कुलवाले । ऊँचे वंश में उत्पन्न । जैसे,—कुली छतीस = छत्तीस कुलवाले ।

कुलीन (१)
वि० [सं०] [संज्ञा कुलीनता] १. उत्तम कुल में लत्पन्न । अच्छे घराने का । खानदानी । २. पवित्र । शुद्ध । साफ । उ०—गंग जो निरमल नीर कुलीना । नार मिले जलहोइ मलीना ।—जायसी (शब्द०) ।

कुलीन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार के बंगाली ब्राह्मण, जो उन पाँच ब्राह्मणों की संतान हैं, जिन्हें पंचगौड़ के महाराज आदि- शूर अपने राज्य में साग्निक ब्राह्मण न होने के कारण, आठर्वी शलाब्दी के आरंभ में काशी से अपने साथ ले गए थे । २. अच्छी नस्ल का घोड़ा (को०) । ३. नाखून में होनेवाला एक रोग (को०) । ४. शक्तिपूजक (को०) ।

कुलीनक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली मूँग या मुदग [को०] ।

कुलीनक (२)
वि० उच्च वंश में उत्पन्न । कुलीन [को०] ।

कुलीनस
संज्ञा पुं० [सं०] [सं०] पानी । जल । वारी [को०] ।

कुलीर †
संज्ञा पुं० [सं०] १. केकड़ा । २. कर्कराशि [को०] ।

कुलीरक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलीर' [को०] ।

कुलीश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलिश' [को०] ।

कुलुक
संज्ञा पुं० [सं०] जीभ पर जमनेवाली मैल । जिह्वामल [को०] ।

कुलुक्कगुंजा
संज्ञा स्त्री० [सं० कुलुक्कगुञ्जा] लूक । लुकाठी । उल्मुक [को०] ।

कुलुफ
संज्ञा पुं० [अ० कुफल] —ताला । उ०—(क) नैना न रहैं री मेरे हटके । कछु पढ़ि दिये सखी यहि ढोटा घूँघरवारे लटकै । कज्जल कुलुफ मेलि मंदिर में पलक सँदूक पट अटकैं ।—सूर (शब्द०) । (ख) जुलुक मैं कुलुक करी है मति मेरी छलि एरी अलि कहा करो कल ना परति है ।—दीन ग्रं०, पृ० १० ।

कुलुस †
संज्ञा पुं० [सं० कुलिश] एक प्रकार की मछली जो सिंधु, संयुक्त प्रांत, बंगाल और आसाम में पाई जाती है । लंबाई में यह पाँच फुट तक होती है इसे लोग तालाबों में पालते हैं । कुरसा ।

कुलू (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुलूत] कुल्हू नामक प्राचीन देश, जो काँगड़े के पास है ।

कुलू (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़, जिसकी मुलायम छाल के पर्त निकलते हैं । गुलु । विशेष—इसकी पत्तियाँ १०—११ इंच लंबी होती हैं और टहनियों के सिरों पर गुच्छों में होती हैं । इसके फूल छोटे छोटे और गंधकी रंग के होते हैं । यह पेड़ नैपाल की तराई, बुंदेलखंड तथा बंगाल में होता है । इसमें से एक प्रकार का गोंद निकलता हैं जिसे कतीरा या कतीला कहते हैं । वि० दे० 'गुलू' ।

कुलूत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुलू' (१) ।

कुलेल
संज्ञा स्त्री० [सं० कल्लोल] क्रीड़ा । कलोल । उ०—कोउ साँग बरछीन साधि हँसि कुलेलन ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ११ ।

कुलेलना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० हिं० कुलेल + ना (प्रत्य०)] क्रीड़ा करना । आमोद प्रमोद करना । उ०—देखि सरोवर हँसै कुलेली । पद्मावति सँग कहहि सहेली ।—जायसी (शब्द०) ।

कुलोदभव
वि० [सं०] १. कुलविशेष में उत्पन्न ।२. कुलीन [को०] ।

कुलापदेश
संज्ञा पुं० [सं०] कुल का नाम । कुलगत नाम [को०] ।

कुल्टू
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कोट' ।

कुल्थी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुल्थी' ।

कुल्फ पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुलुफ' । उ०—कोई माल इकट्ठा करता है कोइ कुंजी कुल्फ लगाता है ।—राम० धर्म०, पृ० ९२ ।

कुल्फ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक रोग । २. गुल्फ । टखना [को०] ।

कुलफी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुलफी' । उ०—मेवे, फल, मिठाई, बर्फ की कुल्फी सब मेजों पर सजा दिए गए । गबन, पृ० १०३ ।

कुल्माष
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुलथी । २. उर्द । माष । ३. बोरो धान । ४. वह अन्न जिसमें दो भाग या दल हों; जैसे—चना, उर्द, मटर आदि । ५. वन कुलथी । ६. सूर्य का एक पारिपार्श्वक । ७. खिचड़ी । ८. काँजी । ९. एक प्रकार का रोग ।

कुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिष्ठित व्यक्ति । आदरणीय मनुष्य (को०) । २. मित्रता का प्रकाशन (समवेदना, बधाई आदि) (को०) । ३. हड्डी । अस्थि (को०) । ४. डलिया । छाज (को०) । ५. मांस (को०) । ६. अन्न नापने का एक परिमाण या पैमाना । उ०—कुल्य अनाज नापने का एक साधन छोटी टोकरी के सदृश था ।—पूर्व०, म० पृ० १२३ ।

कुल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कृत्रिम नदी । नहर । २. छोटी नदी । नाला । ३, पनाला नाली । ४. कुलीन स्त्री । ५. जीवंती नामक ओषधि । ३. आठ द्रोण के बराबर की एक प्राचीन तौल (को०) । ७. साध्वी स्त्री (को०) । ८. परिखा । खाँई (को०) ।

कुल्यावाप
संज्ञा पुं० [सं०] गुप्तकालीन भूमि नापने की एक माप ।— पूर्व० म० भा०, पृ० १२३ ।

कुल्ल †
संज्ञा पुं० [देशी] कंठ । गला । ग्रीवा [को०] ।

कुल्ल (२) पु
वि० [अ० कुल] सब । समस्त । पूरा । तमाम । उ०— (क) मुजलिम जोरे ध्यान कुल्ल को हरि सौं तहैं लै राखे ।— सूर०, १ । १४२ । (ख) हँसे स्याम बलभद्द अक्कूर कुल्ली ।—पृ० रा०, २ । ४७७ ।

कुल्लह
संज्ञा पुं० [सं० कुलाह] दे० 'कुलाह' । उ०—रंग रंग के सजे तुरंगा । कुल्लह समुद्र कुमैत सुरंगा ।—हम्मीर०, पृ० ३ ।

कुल्ला (१)
संज्ञा पुं० [सं० कवल] [स्त्री० कुल्ली] १. मुँह को साफ करने के लिये उसमें पानी लेकर इधर उधर हिलाकर फेंकने की क्रिया । गरारा । क्रि० प्र०— करना ।—फेंकना ।—होना । २. उतना पानी जितना एक बार मुँह में लिया जाय ।

कुल्ला (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुल्या] ईख के खेत की वह हलकी सिंचाई, जो अंकुर निकलने पर होती है ।

कुल्ला (३)
संज्ञा पुं० [अ० कुल्लह] घोड़े का एक रग जिसमें पीठ की रीढ़ पर बराबर काली धारी होती है । २. इस रग का घोड़ा ।

कुल्ला (४)
संज्ञा पुं० [फा० काकुल, मि० सं० 'कुतल'] [स्त्री० कुल्ली] बाल । जुल्फ । काकुल । पट्टा ।

कुल्ला (५)
संज्ञा पुं० [अ० कुल्लह] १. शृंग । चोटी । २. किसी भी वस्तु का शीर्षभाग । ३. तलवार की मूठ । कब्जा [को०] ।

कुल्ली (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुल्ला] १. मुँह को साफ करने के लिये उसमें पानी लेकर और इधर उधर हिलाकर फेंकने की क्रिया । क्रि० प्र०— करना ।—होना । २. उतना पानी जितना एक बार मुँह में लिया जाय ।

कुल्ली (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० काकुल, मि० सं० कुन्तल] बाल । जुल्क । पट्टा । उ०—विश्वामित्र ने आकर उस यज्ञ की रक्षा के लिये कुल्लियोंवाला राम माँगा ।—लक्षमणसिंह (शब्द०) ।

कुल्लुक
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस । वि० दे० 'बाँसिनी' ।

कुल्लूक
संज्ञा पुं० [सं०] मनुसंहिता (मनुस्मृति) के टीकाकार जो दिवाकर भट्ट के पुत्र थे । कुल्लूक भट्ट ।

कुल्ल †
संज्ञा पुं० [देशी कुल्ल] कंठ । ग्रीवा । गला ।

कुल्वक
संज्ञा पुं० [सं०] जीभ पर जमी हुई मैल । जिह्वामल [को०] ।

कुल्हइया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुलही' । उ०—छोटी छोटी सीस लटुरिया भ्रमरावलि जनु आई री । तैसी तनिक कुल्हइया तापै देखत अति सुखदाई री ।—भारतेदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४४३ ।

कुल्हड़
संज्ञा स्त्री० [सं० कुल्हर] [स्त्री० कुल्हिया] पुरवा । चुक्कड़ ।

कुल्हरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुल्हाड़ी' । उ०—काटि हैं जमदूत कुल्हरी, अइहैं नहिं कोइ काम ।—जग० बानी, पृ० ३० ।

कुल्हा
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कूल्हा' ।

कुल्हाड़
संज्ञा पुं० दे० 'कुल्हाड़' । उ०—साखी कंध कुल्हाड़ अघाल, मतक दुनिया भार । गरीबदास शाह यों कहैं बखशो अबकी बार ।—कबीर मं०, पृ० १२० ।

कुल्हाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० कुठार] [स्त्री० अख्पा० कुल्हाड़ी] एक औजार, जिससे बढ़ई आदि पेड़ काटते और लकड़ी चीरते हैं । कुठार । टाँगा । विशेष—यह बारह चौदह अंगुल लंबा और चार छह अंगुल चौड़ा लोहे का होता है, जिसके एक सिर पर, जो तीन चार अंगुल मोटा होता है, एक लंबा, गोला छेद, इंच सवा इंच व्यास का होता है जिसमें लकड़ी का दस्ता लगाया जाता है, और दूसरा सिरा पतला, लंबा और धारदार होता है ।

कुल्हाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुल्हाड़ा का स्त्री० अल्पा०] १. छोटा कुल्हाड़ा । कुठार । टाँगी । २. बसूला (लश०) ।

कुल्हार—पु †
संज्ञा पुं० [हिं० कुल्हूं] वह स्थान जहाँ ईख पेरने का कोल्हू चलता है । कोल्हू चलने का स्थान । उ०—चलत कुल्हार जबै कोल्हुन पर चढ़त धाय कोउ ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ४४ ।

कुल्हारा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुल्हाड़ा' । उ०—जल ओंडे मैं चहुँ दिसि पैरयो पाउँ कुल्हारौ मारौ ।—सूर०, १ । १५२ । मुहा०—पाँव में कुल्हारा मारना = अपने हाथों अपनी हानि करना ।

कुल्हिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० कुल्हड़] छोटा पुरवा । छोटा कुल्हड़ । चुक्कड । उ०—तोरै चोंच न कीर तू यह पंजर है लोह । खुलिहै खुले कपाट के तजि कुल्हिया को मोह ।—दीनदयालु (शब्द०) । मुहा०—कुल्हिया में गुड़ फोड़ना = कोई कार्य इस प्रकार करना जिसमें किसी को कानों कान खबर न हो । उ०—सतगुरु कबीर बिचारि कहैं, क्या कुल्हिए में गुड़ फोरना जी ।— कबीर० रे०, पृ० ४७ ।

कुल्हू
संज्ञा पुं० [सं० कुलूत] एक देश का नाम जो काँगड़े के पास है । कुलू ।

कुल्हैया पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुलही' । उ०—नंददास बलिहारी छबि पै वारी नवल पाग बनी नवल कुल्हैया ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३७३ ।

कुवंग
संज्ञा पुं० [सं० कुवङ्ग] सीसा नाम की धातु ।

कुव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल । २. फूल ।

कुवज
संज्ञा पुं० [सं०] कमल से उत्पन्न । ब्रह्मा । उ०—सुत मरीचि, नाती कुवज, देव दनुज के तात । तपत यहाँ परजापती, सहित सुरन की मात ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) ।

कुवट पु
वि० [सं० कु + बर्त्य, प्रा० कुवट्ट] कुमार्ग । खराब रास्ता । उ०—तिमिर बीर गवन कुवट । त्रिगुन तेज रवि त्रास ।— पृ० रा०, २५ । ३०८ ।

कुवत्त पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुवार्ता, प्रा० कुवत्त] बुरी बात न कहने योग्य अनुचित बात । उ०—बुल्लिव ब्रह्म कुमार, अस कुवत्त किम बुझिझयो ।—प० रा०, पृ० १६९ ।

कुवम
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य । रवि । आदित्य [को०] ।

कुवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक वर्षा होना । अतिवृष्टि ।

कुवल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुमुदिनी । कुई । २. मोती । ३. जल । पानी । ४. साँप का पेट [को०] ।

कुवलय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुवलयिनी] १. नीली कोई । कोका । २. नील कमल । ३. भूमडल । ४. एक प्रकार के असुर ।

कुवलयानंद
संज्ञा पुं० [सं० कुवलयानन्द] संस्कृत का एक प्रसिद्ध अलंकार ग्रंथ जिसकी रचना अप्पय दीक्षित ने, जो द्रविण थे, की थी । इनका समय १७वीं शताब्दी है ।

कुवलयापीड़
संज्ञा पुं० [सं०] एक हाथी का नाम, जिसे कंस ने कृष्ण को मारने के लिये धनुषयज्ञ के मंडप के द्वार पर रख छोड़ा था । इसे कृष्णचंद्र ने मार डाला था ।

कुवलयाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. धुँधुमार राजा का एक नाम । २. प्रतर्दन का एक नाम । ३. ऋतुध्वज राजा का नाम । ४. एक घोड़ा, जिसे ऋषियों का यज्ञ विध्वंस करनेवाले पातालकेतु को मारने के लिये पुराणों के अनुवार सूर्पने पृथिवी पर भेजा था ।

कुवलयित
वि० [सं०] नील कमलोंवाला । नील कमल युक्त [को०] ।

कुवलयिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नीली कुईं का फूल और पौधा । २. नीले कमल से व्याप्त स्थान [को०] ।

कुवलयी
वि० [सं० कुवलयिन्] १. नील कमल से भरा हुआ कुवलय— वाला [को०] ।

कुवाँ
संज्ञा पुं० [सं० कूप, प्रा० कूव] दे० 'कुआँ' ।

कुवाँटा †
संज्ञा पुं० [सं० कु + पाटल] जंगली गुलाब ।

कुदा †
संज्ञा पुं० [कूप, प्रा० कूव] दे० कुआँ । उ०—नाला अपआप सागर हुवा, काहे के कारण होता है कुवा ।— दक्खिनी, पृ० २२ ।

कुवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] अयोग्य बात । दुर्वचन । गाली ।

कुवाच्य (१)
वि० [सं०] जो कहने योग्य न हो । गंदा । बुरा ।

कुवाच्य (२)
संज्ञा पुं० कठोर शब्द । दुर्वचन । गाली ।

कुवाट पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० कपाट] किवाड़ । दरवाजा ।—(डिं०) ।

कुबाट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दरवाजे का पल्ला [को०] ।

कुवाण पु
संज्ञा पुं० [सं० कृपाण] धनुष ।—(डिं०) ।

कुवा
वि० [सं०] परनिंदक । नीच । निम्न कोटि का [को०] ।

कुवार (१)
संज्ञा पुं० [सं० अश्विनी = कुवार] [वि० कुवारी] आश्विन का महीना । असोज । उ०—आइ सरद रितु अधिक पियारी । नव कुवार कातिक उजिआरी ।—जायसी ग्रं०, पृ० ३५० ।

कुवार (२)
संज्ञा पुं० [सं० कुमार] कुमार । पुत्र । उ०—फिर बदनेस कुवार विमौसु फतेअली, बैठे इकले जाइ करन मसलति भली ।—सुजान, पृ० १२ ।

कुवारी (१)
वि० [सं० कुमारी] जिसका विवाह न हुआ हो । कुमारी । उ०—सुरति कुवारी कन्या हंसा सँग व्याहिये ।—कबीर श०, भा० ४, पृ० ५ ।

कुवारी (२)
वि० [हिं० कुवार] कुवार के महीने में होनेवाला । कुवार का । जैसे—कुवारी फसल । कुवारी धान ।

कुवासना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुष्ट इच्छा । बुरी इच्छा ।

कुवाहुल
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊँट । उष्ट्र [को०] ।

कुविंद
संज्ञा पुं० [सं० कुविन्द] जुलाहा । कोरी ।

कुविचार
संज्ञा पुं० [सं०] दुष्ट विचार । बुरा विचार ।

कुविचारी
वि० [सं० कुविचारिन्] [स्त्री० कुविचारिणी] बुरे विचार वाला । जिसके विचार बुरे हों ।

कुविसन
संज्ञा पुं० [सं० कु + व्यसन] बुरा व्यसन । बुरी आदत । पाप कर्म । उ०—कुविसन करै कुसंगति जाइ । खोवै दाम अमल बदु खाइ ।—अर्ध०, पृ० ३२ ।

कुवेणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुवेणी' [को०] ।

कुवेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तुरन्त पकड़ी गई मछलियों के रखने की टोकरी । मछली रखने की डलिया । २. बिना तरीके बँधी हुई वेणी । सिर के बेतरतीब केशगुच्छ [को०] ।

कुवेर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देवता, जो इंद्र की नौ निधियों के भंडारी और महादेव जी के मित्रसमझे जाते हैं । विशेष—यह विश्रवस ऋषि के पुत्र और रावण सौतेले भाई थे । इनकी माता का नाम इलविला था । कहते हैं, इन्होंने विश्वकर्मा से लंका बनवाई थी । पर जब रावण ने इन्हें वहाँ से निकाल दिया तब इनके तपस्या करने पर ब्रह्मा ने इन्हें देवता बनाकर उत्तर दिशा का राज्य दे दिया और इंद्र का भंडारी बना दिया । यह समस्त संसार के स्वामी समझें जाते हैं । इनके एक आँख तीन पैर और आठ दाँत हैं । देवता होने पर भी इन का कहीं पूजन नहीं होता । कोई कोई इन्हें पुलस्त्य ऋषि का भी पुत्र बतलाते हैं । यौ०—कुवेराचल । कुवेराद्रि । कुवेरदिशा = उत्तरदिशा । कुवेर- बांधव = शिव । पर्या०—त्र्यवकसखा । यक्षराज । गुह्यकेश्वर । मनुष्यधर्मा ।धनद । राजराज । धनाधिप । किन्नरेश । वैश्रवण । नर- वाहन । यज्ञ । एकपिंग । ऐलविल । श्रीद । पुण्यजनेश्वर । हर्यक्ष । अलकाधिप । २. जैन मत में वर्तमान अवसर्पिणी (कावगति) के १९ वे अर्हत् का एक उपासक । ३. तुन का पेड़ ।

कुवेर (२)
वि० १. बुरा । खराब । २. बुरे या बेढंगे होठवाला [को०] ।

कुवेराचल
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत का एक नाम ।

कुवेराद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] कैलास पर्वत ।

कुवेल
संज्ञा पुं० [सं०] पंकज । कमल । पद्म [को०] ।

कुव्वत
संज्ञा स्त्री० [अ० कुव्वत] दे० 'कूवत' । उ०—पंडत कहे आई मौत गई कुव्वत अकल की ।—दक्खिनी०, पृ० ४७ ।

कुशंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कुशण्डिका] दे० 'कुशकंडिका' ।

कुश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० कुशा, कुशी] १. काँस की तरह की एक पवित्र और प्रसिद्ध घास । डाभ । दर्भ ।उ०— कुश किसलय साथरी सुहाई । प्रभु संग मंजु मनोज तुराई ।— तुलसी (शब्द०) । विशेष—इसकी पत्तियाँ नुकीली, तीखी और कड़ी होती हैं । प्राचीन काल में यज्ञों में इसका बहुत उपयोग होता था । इसकी रस्सियाँ ईंधन लपेटने, जुआ बाँधने आदि कामों में आती थीं । अब भी कुश पवित्र माना जाता है और कर्मकांड तथा तर्पण आदि में इसका उपयोग होता है । पर्या०—कुथ । दर्भ । पवित्र । याज्ञिक । बर्हि । ह्रस्वगर्भ । कुतुप । शूच्यग्र । २. जल । पानी । ३. एक राजा जो उपरिचर वसु का पुत्र था । ४. रामचंद्र का एक पुत्र । ५. पुराणानुसार सात द्वीपों में से एक द्वीप । ६. बलाकाश्व का पुत्र । ७. फाल । कुसिया । कुसी (हल की) ।

कुश (२)
वि० १. कुत्सित । नीच । २. उन्मत्त । पागल ।

कुशकंडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० कुशकण्डिका] वेदी पर या कुंड में अग्निस्थापन करने की आनुष्ठानिक क्रिया, जिसका विधान ऋग्वेदियों, यजुर्वेदियों और सामवेदियों के लिये भिन्न भिन्न है । इसमें होम करनेवाला कुशासन पर बैठ दाहिने हाथ में कुश लेकर उसकी नोक से वेदी पर रेखा खींचता जाता है ।

कुशकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । २. राजा कुशध्वज ।

कुशचीर
संज्ञा पुं० [सं०] कुश का बना हुआ वस्त्र (को०) ।

कुशद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार सात द्वीपों में से एक, जो चारों ओर घृतसमुद्र से घिरा है ।

कुशध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. ह्रस्वरोम राजा के पुत्र और सीरध्वज जनक के छोटे भाई । इनकी कन्याएँ माँडवी और श्रुतकीर्ति भरत और शत्रुघ्न को ब्याही थीं । २. एक ऋषि जो बृहस्पति के पुत्र और वेदवती के पिता थे ।

कुशन
संज्ञा पुं० [अ०] मोटा गद्दा ।

कुशनाभ
संज्ञा पुं० [सं०] अयोध्या के राजा कुश का पुत्र ।

कुशप
संज्ञा पुं० [सं०] जल पीने का पात्र ।

कुशपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] फोड़ा चीरने का एक औजार (वैद्यक) ।

कुशपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रंयिपूर्ण [को०] ।

कुशपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विष [को०] ।

कुशप्लवन
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ दिसका उल्लेख महाभारत में आया है ।

कुशमुद्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुश की बनी हुई अँगुठी । पवित्री । पैती । उ०— कुशमुद्रिका समिधैं स्त्रुवा कुश औ कमंडल को लिये ।—किशव (शब्द०) ।

कुशय
संज्ञा पुं० [सं०] पानी पीने का बरतन । आबखोरा [को०] ।

कुशल (१)
वि० [सं०] [स्त्री० कुशला] १. चतुर । दक्ष । प्रवीण । उ०—पर उरदेश कुशल बहुतेरे ।—तुलसी (शब्द०) । २. श्रेष्ठ । अच्छा । भला । ३. पुण्यशील । ४. प्रसन्न । खुश (को०) ।

कुशल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री, कुशल, कुशली] १. क्षेम । मंगल । खैरियत । राजी खुगी । उ०— अब कह कुशल बालि कहँ अह । बिहाँसि बचन अंगद अस कहई । —तुलसी (शब्द०) । यौ०—कुशलक्षेम । कुशलमंगल । २. वह जिसके हाथ मे कुश हो । ३. शिव का एक नाम । ४. कुश द्बीप का निवासी । ५. गुण (को०) ६. चतुरता । चतुराई (को०) ।

कुशलकाम
वि० [सं०] कुशल की कामना रखनेवाला । राँजीखशी चाहनेवाला [को०] ।

कुशलक्षेम
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजी खुशी । खैर आफियत ।

कुशलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चतुराई । निपुणता । चालाकी । २. योग्यता । प्रवीणता । ३. क्षेम । कुशलाई [को०] ।

कुशलप्रशन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी का कुशल मंगल पूछना । क्रि० प्र०— करना —पूछना ।

कुशलमंगल ।
संज्ञा पुं० [सं० कुशलमङ्गल] दे० 'कुशलक्षेम' ।

कुशलाई
संज्ञा स्त्री० [हि० कुशल] कल्याण । क्षेम । खैरियत । कुशल । उ०— मेरो कह्यौ सत्य कै जानौ । जो चाहो बृज की कुशलाई तो गोबर्धन मानौ ।—सूर (शब्द०) ।

कुशलात पु
संज्ञा पुं० [सं० कुशल + वार्ता, या सं० कृशल+हि० आत (प्रत्य०)] कुशल समाचार । मंगल समाचार । खैरयत । उ०—(क) दच्छ न कछु पूछी कुशलाना ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मधुकर ल्याए योग सँदेसो । भली श्याम कुशलात सुनाई सुनतहि भयों अँदेसी ।—सूर (शब्द०) ।

कुशली (१)
वि० [कृशलिन्] [स्त्री० कुशलिनी] १. कल्याणयुक्त । सकुशल । २. नीरोग । तंदुरुस्त । ३. निम्न जाति का । छोटी जाति का [को०] ।

कुशली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अशमंतक ता अवृटा नामक वृक्ष । २. लोना या अमलोनी नामक साग क्षद्रम्लकी ।

कुशवन
संज्ञा पुं० [सं०] एक वन जो व्रज में गोकुल के पास है ।

कुशवारी
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'कुसवारी' ।

कुशस्तरण
संज्ञा पुं० [सं०] होम करने के पहले यज्ञभूमि या यक्षकुंड़ के चारों ओर कुश बिछाने का काम । कुशकंड़िका ।

कुशस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] उत्तर भारत के एक स्थान का नाम जिसे संभवतः कन्नौज कहते हैं ।

कुशस्थली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. द्बारका का एक नाम । २. कुशावतो नामक नगरी जो विध्य पर्वत पर थी और जहाँ रामचंद्र जी के पुत्र कुश राज्य करते थे ।

कुशहस्त
वि० [सं०] श्राद्ध, तर्पण या दानादि करने के लिये उद्यत ।

कुशांगुरीय
संज्ञा पुं० [सं० कुशाङ्गरीय] कुश की बनी अँगूठी । पैंती पवित्री [को०] ।

कुशांगुलीय
संज्ञा पुं० [सं० कुशांङ्गलीय] कुशमुद्रिका । पवित्री [को०] ।

कुशांब
संज्ञा पुं० [सं० कुशाम्ब] निमि वंशीय राजा कुश क पुत्र जिसने पिता के आदेश से कोशांबी नगरी बसाई थी ।

कुशांबु
संज्ञा पुं० [सं० कुशाम्बु] १. दे० 'कुशांब' । २. कुश के आगले भाग से टपकना हआ पानी ।

कुशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुश । २. रस्सी । ३. एक प्रकार का मीठा नीबू । ३. लगाम । वल्ला (को०) । ४. लकड़ी का टुकड़ा । काष्ठखंड़ (को०) ।

कुशाक (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुश + आकार] यज्ञ की अग्नि [को०] ।

कुशाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] बानर । बंदर [को०] ।

कुशाग्र
वि० [सं०] कुश की नोक की तरह तीखा । तीव्र । तेज । नुकीला । जैसे—कुशाग्रबुद्बि=तीव बुद्बिरखनेवाला ।

कुशादगी
संज्ञा स्त्री० [फा०] फैलाव । विस्तार । चौड़ाई ।

कुशादा
वि० [फा० कुशादह्] [संज्ञा कुशादगी] १. खुला हुआ । आवरणरहित । २. विस्तूत । लंबा चौड़ा । खुलता । मुहा०—कुशादा करना = (१) खोलना । (२) फैलाना । चौड़ाकरना ।

कुशादादील
वि० [फा०] विशाल ह्वदयवाला महान् ।

कुशारणि
संज्ञा पुं० [सं०] दुर्वासा ऋषि ।

कुशावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] रामचंद्र जी के पुत्र कुश की राजधानी । का नाम ।

कुशावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरिद्बार के पास एक तीर्थ का नाम । २ एक ऋषि का नाम ।

कुशाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] इक्ष्वाकुवंशी एक राजा जिसकी राजधानी विशाल थी । यह सहदेव का पुत्र और सौमदत्त का पिता था ।

कुशासन (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुशा + आसन] कुश का बना हुआ आसन । कुश की चटाई । विशेष—शास्त्रों में दान, यज्ञ, श्राद्बु, उपासना आदि के समय कुशासन पर हो बैठने का विधान है ।

कुशासन (२)
संज्ञा पुं० [सं० क + शासन्] बुरा शासन । अब्यवस्थित राज्य । अन्यायपूर्वक किया जानेवाला शासन ।

कुशिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचिन आर्यवंश । विश्वमित्र जी इसी वंश के थे । २. एक राजा को विश्वामित्र के पितामह और गाधि के पिता थे । विशेष—महाभारत में लिखा है कि जब च्यवन ऋषि को ध्यान से यह विक्षित हुआ कि कुशिक वंश के द्बारा उनके वंश मेंट क्षत्रिय धर्म का संचार होगा, तब उन्होंने कुशित वंश को भस्म करना विचारा और वे राजा कुशिक के पास गए । बहुत दिनों तक अनेक प्रकार के कष्ट देने पर भी जब राजा और रानी में उन्होंने शाप देने के लिये कोई छिद्र न पाया तब उन्होने प्रसन्न होकर राजा कुशिक की वर दिया कि तुम्हारा पौत्र ब्राह्मणत्व लाभ करेगा । ३. कुशिक वंश का पुरुष । ४. हल की कुसी । फाल । ५. बहेड़ा ६ साल । साखू । ७. तेल की तलछट ।

कुशिक (२)
वि० [सं०] जिसकी आँखे टेढी़ हों । एंचाताना ।

कुशित
वि० [सं०] जल मिला हुआ । जलयुक्त [को०] ।

कुशिवा पु
संज्ञा पुं० [सं० कु + शिवा] अमंगल सूचित करनेवाली सियारिन । उ०— मुख में उलका लए फिरति हैं कुशिवा कारी । —श्यामा०, पृ०, ५ ।

कुशी
१ संज्ञा पुं० [सं० कुशिन्] १. वह जिसके हाथ में कुश हो । कुशावाला या कुशधारी व्यक्ति । २. वाल्मीकि ऋषि ।

कुशी (२)
वि० १ कुश का बना हुआ । ३. जल से युक्त [को०] ।

कुशी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हल की फाली । २. एक प्रकार की दर्वी ।

कुशीद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुसीद' ।

कुशीनगर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुशीनार' ।

कुशीनार
संज्ञा पुं० [सं० कुशनगर] वह स्थान जहाँ साल वृक्ष के नीचे गौतममबुद्ब का निर्वाण हुआ था । यह स्थान गोरखपुर जिले में है और इसे आजकल कसया कहते है ।

कुशीलव
संज्ञा पुं० [सं०] १. कवि । चारण । २. नाटक खेलने— वाला । नट । ३. गवैया । ४. वाल्मीकि ऋषि का एक नाम । ५. वार्ताप्रसारक । संवाददाता (को०) । ६. गप्प हाँकनेवाला व्यक्ति (को०) ।

कुशुंभ
संज्ञा पुं० [सं० कुशुम्भ] १. संन्यासी का कमंड़लु । २. जल का पात्र [को०] ।

कुशूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न रखने का घेरा । कोठला । कोठार । डेहरी । यौ०—कुशूलधान्य । कुशूलधान्यक । २. तुषाग्नि । ३. कड़ाही । ४. एक राक्षस । ५. बुरी पीड़ा । बुरा दर्द ।

कुशूलधान्यक
संज्ञा पुं० [सं०] गृहस्थों का एक भेद । वह गुहस्थ जिसके पास तीन वर्ष तक के लिये खाने भर को अन्न संचित हो ।

कुशेश पु
संज्ञा पुं० [सं० कुशेशय] दे० 'कुशेशय' ।

कुशेशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद्म । कमल । २. सारस । ३. कनक चपा । कनिआरी । ४. कुशद्बीप का एक पर्वत ।

कुशोदक
संज्ञा पुं० [सं०] (दान आदि क लिये हाथ में लिया हुआ) कुश मिल? जल ।

कुशोदका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी का नाम ।

कुश्तमकुशता
संज्ञा पुं० [फा० कुश्ती] उठापटक । गुत्थमगुत्था । कुस्ती । मुठभेड़ । लड़ाई ।

कुश्ता
संज्ञा पुं० [फा० कुश्तह] १. वह भस्म जो धातुओं को रासा- यनिक क्रिया से फूँककर बनाया जाय । भस्म । जैसे— अबरक का कुश्ता । चाँदी का कुश्ता । सोने का कुश्ता । २. वह जो मार डाला गया हो । निहत । ३. लाशा । मृत शरिर (को०) ।

कुश्ती
संज्ञा स्त्री० [फा़०] दो आदमियों का परस्पर एक दूसने की बलपूर्वक पछाड़ने या पटकने के लिये लड़ना । मल्ल युद्ब । पकड़ । यौ०—कुश्तीबाजी = कुश्ती लड़नेवाला । क्रि० प्र०—लड़ना । जीतना ।—हारना ।—करना ।—होना । मुहां०—कुश्ती में बढ़ा रहना = कुश्ती में जीत होना । कुश्ती बराबर रहना या छूटना = कुश्ती में किसी का न हारन । दोनो पक्षों का बराबर रहना । कुश्ती मारना = कुशती जीतना । कुश्ती में दूसरे को पछाड़ना कुस्ती बदना = कुश्ती लड़ने । का निश्चय करना । कुश्ती माँगवा = (किसी को) अपने साथ कुश्ती लड़ने के लिये कहना । कुश्ती लड़ाना =(किसी को) शिक्षा देने के लिये (उसमें) लड़ना । कुश्ती खाना = कुश्ती में हार जाना । कुश्तमकुरता = मुठभेड़ । लड़ाई ।

कुश्तीबाज
वि० [फा० कुश्तीवाज] कुश्ती लड़नेवाला । लड़ंता । पहलवान ।

कुश्तोखून
संज्ञा पुं० [फा०] खूनखराबा । मारकाट । सक्त पात [को०] ।

कुषल
वि० [सं०] दे० 'कुशल' [को०] ।

कुषाकु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । दिनकर । २. अग्नि । आगँ । ३. वानर । बंदर । कपि [को०] ।

कुषाकु (२)
वि० १. जलता हुआ तप्त । २. बुरा । खराब । घुणित [को०] ।

कुषित
वि० [सं०] जलमिश्रित । पानी मिला हुआ [को०] ।

कुषीतक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम । २ एक पक्षी ।

कुषीद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० कुसीद [को०] ।

कुषीद (२)
स्त्री० तटस्थ । उदासीन [को०] ।

कुषुंभ
संज्ञा पुं० [सं० कुषुम्भ] कीड़ों की वह थैली या कोश जिसमें उनका विष रहता है ।

कुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोढ़ २. कुट नामक ओषधि । ३. कुड़ा नामक वृक्ष । ४. नितंब का गड़ढ़ा (को०) ।

कुष्ठकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] भुई खेखसा नाम की लता । मार्कड़िका । भूम्याहुल्य ।

कुष्ठगंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० कुष्ठगन्धि] एलुआ ।

कुष्ठध्न
संज्ञा पुं० [सं०] ह्वितावली नाम की ओषधि ।

कुष्ठध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कठूमर । काकोदुंबरिका ।

कुष्ठनाशन
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीरिश नामक वृक्ष [को०] ।

कुष्ठसूदन
संज्ञा पुं० [सं०] अमलतास ।

कुष्ठहता
संज्ञा पुं० [सं० कुष्ठहन्तृ०] हस्तिकंद नामक ओषधि (को०) ।

कुष्ठहत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० कुष्ठहन्त्री] बकुवी [को०] ।

कुष्ठह्लत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. खौर का पेड़ २. विड़खदिर । ३. कुष्ठनाशक ।

कुष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] टोकरी का मुँह ।

कुष्ठारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंकपत्र । २. गंधक । ३. परवल । ४. दे० कुष्ठह्वत् ।

कुष्ठी
संज्ञा पुं० [सं० कुष्ठिन्] [स्त्री०, कुष्ठिनी] वह जिसे कोढ़ हुआ हो । कोढ़ी ।

कुष्मल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कर्तन । काटना । २. पत्र । पत्ता [को०] ।

कुष्मांड़
संज्ञा पुं० [सं० कुष्माण्ड] १. कुम्हड़ा । २. एक प्रकार के देवता जो शिव के अनुचर हैं । ३. जरायु । गर्भम्थली । पर्या०—कुष्मांड़ नवमी = कार्तिक शुक्ल नबमी । इस दिन कु्म्हड़े में स्वर्ण आदि रखकर दान करते है ।

कुष्मांडक
संज्ञा पुं० [सं० कुष्माण्ड़क] दे० 'कुष्माँड' [को०] ।

कुष्मांड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुष्माण्ड़ी] १. पार्वती का नाम । २. एक ऋचा दे० 'कूष्मांड़ी' । ३. यज्ञ में प्रयुक्त क्रिया वा कार्य । ४. कर्कारु । कुम्हड़ा [को०] ।

कुसंग
संज्ञा पुं० [सं० कुसङ्ग] बुरे लोगों का साथ । बुरी सोहबत । उ०— उपजइ बिनसइ ज्ञान जिमि पाइ कुसंग सुसग ।—मानस, ४ । १५ ।

कुसंगति
संज्ञा स्त्री० [सं० कुसङ्गति] बुरों का संग । बुरे लोगों के साथ उठना बैठना । उ०— को न कुसगति पाइ नसाई ।—मानस, २ । २४ ।

कुसस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] अंतःकरण में अयथार्थ या निषिद्बु बात का प्रभाव जिससे बुद्बि ठीक निश्चय न कर सके या मन अच्छे कामों की ओर न जाय । चित्त में बुरी बातों का जमना । बुरा संस्कार ।

कुस पु
संज्ञा पुं० [सं० कुशा] दे० 'कुश' । उ०—दुरबासा दुरजोधन पठय़ौ पाड़व अहित बिचारी । साक पत्र लै सर्ब आधाए न्हात भजे कुस ड़ारी ।—सूर०, १ । १२२ ।

कुसगुन
संज्ञा पुं० [सं०कु + हि० सगुन] १. बुरा सगुन । असगुन । कुलक्षण । उ०—कुसगुन लक अवध अति सीकू—तुलसी (शब्द०) ।

कुसब्द पु
संज्ञा पुं० [सं० कुशब्द] बुरे शब्द । उ०—तजहु कुसब्द बोलु सुभ बानी, अपने मारग चलिये । जग० बानी, पृ० २४ ।

कुसमय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुरा समय । २. वह समय जा किसी कार्य क लिय ठांक न हो । अनुपयुक्त अवसर । ३. वियत स आगे या पीछे का समय । ४. सकट का समय । दु?ख क दिन ।

कुसमल पु
संज्ञा पुं० [सं० कुस्मल] दे० कश्मल । उ०— सकल भुवन सब आत्मा । निविष करि हरि लेइ । पड़दा हे सा दूरि करि, कुसमल रहण न देइ ।—दादू०, पृ०, ४५२ ।

कुसमाजु
संज्ञा पुं० [सं० कु + समाज] बुरा समाज । बुरा लोगो का साथ य़ा साहबत । उ०—बिगरी जनम अनक का सुधर अबही आजु । हाहि राम का, नाम जपु तुलसा तजि कसुमाजु ।—तुलसी ग्र० पृ०, ८८ ।

कुसमेखु पु
संज्ञा पुं० [सं० कुसुमेषु] कामदब । पुष्पध्न्व । उ०—छूटाह अलकावलि बदन, भौहै चढ़ी कमान । जाल रोपि कसमखु जनु मारन चाहति प्रात । —चित्रा० ४५ ।

कुसयारी
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'कुसवारी' ।

कुसर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] पानिबेल या मूसल नामक लता की जड़ जो दवा के तौर पर काम में आती है ।

कुसर (२) पु †
वि० [सं० कुशल] दे० 'कुशल' । उ०— तुसरी कुसर कुसर सदा ब्रज मैं नित है हो । —धनानंद, पृ०, १९३ । यौ०—कुसरखेम = कुशलक्षेम । उ० —व्रज मैं कुसरखेम तौ आहि । कारन कवन कहह किन ताहि ।—नंद० ग्र०, पृ०, ३१६ ।

कुसराता †पु
संज्ञा स्त्री० [हि० कुशलात] दे० 'कुशलात' । उ०— चाहे निरबाहै नित हित कुसरात कौं । —झनानंद पु० ६२ ।

कुसरा पु †
वि० [सं० कुशलिन्] दे० 'कुशती' । उ०— गोबरधन को मूरति दुसरी । श्री गोबिंद चंद हित कुसरी ।—नद० ग्रं०, पृ०, ३०६ ।

कुसल पु †
वि० संज्ञा पुं० [सं० कुशल] दे० 'कुशल' ।

कुसलई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुशल + ई (प्रत्य०)] निपुणाता । चतुराई । उ०—जा कहुँ सिखई जाहि सिखई जाहि सुनैनी कला कुसलई सारी । तौ मनुजन की कौन चलाई मोहित होयँ चतुरभुज- धारी ।—प्रताप (शब्द०) ।

कुसलछेम † कुसलेछेम †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुशलक्षेम' ।

कुसलाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुशल, हि० कुसल+आई (प्रत्य०)] १. कुशलता । निपुणता । २, कुशलक्षेम । खैरियत । आनंद मंगल । उ०— कौसिक राउ लिए उर लाई । कहि असिस पूछी कुसलाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुसलात पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुशलात' ।

कुसलायत पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० कुसल + आयत (प्रत्य०)] दे० 'कुशलता', 'कुशलात' । उ०—तो तन कुसलायत तणीं बालम पूछूँ बात । —बाँकी० ग्र०, भा०, ३, पृ०, २५ ।

कुसली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुशली] दे० 'कुशला' ।

कुसली (२) †
संज्ञा पुं० [हि० कसली अथवा सं० कोश = आवरण, खोल + हि० ली (प्रत्य०)] १. आम् की गुठली । २. एक एकवान जो आम की गुठलां क आकार का होता है और जिसके अंदर मीठा पूर या कूरा भरा रहता है । गाझा । पिराक ।

कुसवा
सज्ञा पुं० [सं० कुश] जड़हन का एक रोग, जिसमें उसके पत्तें पीले पड़ जाते हे, ओर उनका रगखेर क ऐसा लाल हो जाता है खंरा ।

कुसवारी
संज्ञा पुं० [सं० कोश = हि, कुस + वारी (प्रत्य०)] १. रेशम का जंगली काड़ा जो बेर ओर पियासाल आदि पेड़ा पर कोया बनाकर उसके अंदर रहता है । विशेष—इस कीड़े क जीवन में चार अवस्थाएँ हाती है जिन्हें युग कह कसते हे । सब के पहले यह अंड़ के रूप में रहता है । अंड़े से निकलकर यह कमला की तरह का कीड़ा हो जाता है । फिर उसमे पक्षावरण दिखाई पड़ते है ओर वह तागे निकालता है । अंत में वह कोए स निकलकर कतिंग होकर उड़ने लगता है, जड़े खाता हे ओर मर जाता है । जिन कीड़ो की ये चार अवस्यापुँ या एर पी़ढ़ी वर्ष भर में बीतती हैं वे एक युगक कहलाते है । कही कहीं जैसे चीन में, ऐसे कीड़े भी पाए जाते है जनकी वर्ष भर में दो पिढ़ियाँ हो जाती है । ऐसे कीड़ों को द्बियुगक कहते है । बहुत से देशों में त्रियुगक और चतुर्युगक कीड़े तक मिलते है । विशेष दे० 'रेशम' । २. रेशम का कोया । उ०— अरे हाँ पलटू कुसवारी में कीटहिं चारा देत है ।—पलटू, पृ०, ९८ ।

कुसवाहा
संज्ञा पुं० [हि०] हिंदुओं में तरकारी, सब्जी आदि पैदा करनेवाली जोति । कोइरी ।

कुसाँब पु
संज्ञा पुं० [सं० कुशाम्ब] दे० 'कुशांब' ।

कुसाइत
संज्ञा स्त्री० [सं० कु + अ० सायत] १. बुरी साघ्त । बुरा मुहूर्त । कुसमय । उ०— न जानिये आज किस कुसाइत में घर से निकले कि हाथ गरम होना कैसा, एक फूटी झंझी से भी भेट न हुई ।—सौ अजान० (शब्द०) । २. अनुपयुक्त समय । बेमौका ।

कुसाखी पु
संज्ञा पुं० [सं० कु + शाखिनू = बृक्ष] बुरा पेड़ । कुवृक्ष । उ०—सठ सुधरै सतसंग तें गए बहुत बुध भाखि । जैसे मलय प्रसंग ते चंदन होहि कुसाखि ।—दीनदयालू (शब्द०) ।

कुसाद पु
वि० [हि० कुशादा] दे० 'कुशादा' । उ०—देवे मँहैकुसाद खाय में तंग है ।—पलटू०, पृ०, ७७ ।

कुसारी
संज्ञा स्त्री० [हि० कुसवारी] दे०] कुसवारी' ।

कुसाव पु †
संज्ञा पुं० [सं० कच्छ] कुच्छाव । कच्छी घोड़े । उ०— गज्जनेस अवदेश साहि पल्लांन कुसावं । —पृ० रा०, (उ०), पृ०, २८६ ।

कुसिया †
संज्ञा स्त्री० [हि० कुसी + या] दे० कुसी । उ०—वे धरती माता की छाती में कुसिया धुसेड़कर पीड़ा नही देना चाहते । —शुक्ल अभि० ग्र० पृ०, ४० ।

कुसियार
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की ईख जो मोटी, सफेद और नरम होती है । इसमें रस अधिक होता है । इसे विशेषकर लोग चूसने के काम में लाते, हैं, इससे गुड़ नहीं बनाते । थून । उ०—माड़ी भर जोंधरी, पोरिसकुसियारे, जल्दी जल्दी बढ़ौं भोजली होकर हुसियारे ।—शुक्ल अमि० ग्र०, पृ०, १३८ ।

कुसियारी
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'कुसवारी' ।

कुसी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुशी] हल की फाल ।

कुसी (२) पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशी] इच्छा । खुशी । उ०—विदर पिदर जाणै नहीं, मादर विदरां मूल । रा खैअगाणत रंगरा दिलरी कुसी दुकूल ।—वाँकी० ग्रं०; भा०, २. पृ०, ८५ ।

कुसीद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० कुसीदिक] १. ब्याज पर रुपया देने की रिति । सूद । ब्याज । वुद्धि । २. ब्याज पर दिया हुआ धन । यौ०—कुसीदजीवी । कुसीदपथ । कुसीदवृद्दि । ३. रक्त चंदन । ४. सूद या ब्याज लेनेवाला व्यक्ति । सूदखोर [को०] ।

कुसीद (२)
वि० आलसी । सुस्त । अकर्मण्य [को०] ।

कुसीदजीवी
संज्ञा पुं० [सं० कुसीदजीविन्] सूदखोर [को०] ।

कुसीदपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूद पर रुपया देना । २. वह सूद या ब्याज जो ५. प्रतिशत से अधिक हो (को०) । ३. ब्याज । सूद [को०] ।

कुसीदवृद्बि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋण का ब्याज [को०] ।

कुसीदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋण देनेवाली स्त्री । ब्याज पर रुपया देनेवाली स्त्री (को०) ।

कुसीदायी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाजन की या ब्याज पर रुपए देनेवाले की पत्नी [को०] ।

कुसीदिक
वि० सज्ञा पुं० [सं०] सूद पर रुपया देनेवाला । महाजन ।

कुसीदी
वि० संज्ञा् पुं० [सं० कुसीदिन्] महाजन या सूदखोर [को०] ।

कुसीनार
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'कुशीनार' ।

कुसुंब
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम्भ या कुसुम्बक] एक बड़ा वृक्ष जो भारत, बरमा और चीन में होता है । विशेष—इसकी लकड़ी कड़ी और मजबूत होती है और कोल्हू का जाठ और गाड़ियाँ बनाने के काम में आती है । इसकी लाख बहुत अच्छी होती है और अधिक दामोँ पर बिकती है । इसके फल खाए जाते हैं जाते हैं और बीजों से तेल निकलता है, जो जलाने, खाने और औषध के काम में आता है । इसकी पत्तियाँ ८-१० अंगुल लंबी होती हैं और सीके में दो दो आमने सामने लगती है । फूल चंपा के फूल के रंग के होते हैं । इसमें दो अंगुल लंबे, नुकीले, चिलने फल लगते है जों कवार कर्तिक में पकते हैं । जहाँ ये पेड़ अधिक होते है, जैसे अवध मेंट वहाँ इनकी पत्तियाँ गरमी में चौपायों को खिलाई जाती है ।

कुसुंबिया
संज्ञा स्त्री० [हि० कुमुंब + इया (प्रत्य०)] दे० 'कुसुंब' ।

कुसुंभ
संज्ञा पुं० [सं० कुसुँम्भ] १. कुसुम । बर्रै । अग्निशिखा । २. केसर । कुमकुम । ३. तपस्वी का जलपात्र । ४. स्वर्ण । सोना । ५. वाहय प्रेम । ऊपर्रा या दिखावटी प्रेम (को०) । यौ०—कसुंभराग ।

कुसुंभला
संज्ञा स्त्री० [सं० कुसुम्भाला] दारुहल्दी [को०] ।

कुसुभा (१)
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम्भ] १. कुसुम का रंग । २. अफीम और भाँग के योग से बना हुआ एक मादक द्रव्य ।

कुसुंभा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० कुसुम्भा] आषाढ़ शुक्ल पक्ष की छठ ।

कुसुंभी
वि० [सं० कुसुम्भ] कुसुम के रंग का । लाल । उ०— (क) मुख तँबोल सिर चीर कुसुभी । कानन कनक जड़ाऊ खुंभी ।— जायसी (शब्द०) ।

कुसुम (१)
संज्ञा पुं०[सं०] [वि० कुसुमित] १. फूल । पुष्प । २. वह गद्य जिसमें छोटे छोटे वाक्य हो । जैसे—हे राम । दास पर दया करो । ३. आँख का एक रोग । ४. जौनियों के अनुसार वर्तमान अवसार्पिणी के छठे अर्हत् के गणधर । ५. एक राजा का नाम । ६. मासिक धर्म । रजोदर्शन । रज । मुहा०—कुसुम का रोग = रजस्त्राव का रोग । ७.छद में ठगण का छठा भेद, जिसमें लघु, गुरु लघु, लघु (।ऽ।।) होते हैं । जैसे,—कृपा कर' । ८, एक प्रकार का फल [को०] । ९. अग्नि का एक भेद य रूप (को०) ।

कुसुम (२)
संज्ञा पुं० [कुसुम्भ, कुसुम्बक] १. दे० 'कुसुंब' । २. हनुमत् के मत से मेघ राग का एक पुत्र । यह षाड़व जाति का राग है और इसके गाने का समय दोपहर है । ३. लाल रंग । जैसे—कुसुम रंग ।

कुसुम (३)
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम्भ] एक पौधा जो पाँच छह फुट ऊँचा होता है और जो रबी फसल के साथ खेतों में बीजों या फूलों के लिये बोया जाता है । बर्रै । विशेष—यह दो प्रकार का होता बै एक जंगली और काँटेदार, और दूसरा बिना काँटे का । जंगली कुसुम की पत्तियों की नोकों पर काँटे होते हैं और उसके बीजों से तेल निकलता है । इसके फूल पीले, लाल, गुलाबी और सफेद होते हैं । दुसरी जाति में काँटे नहीं होते अथवा बहुत कम होते हैं । इसके बीजों से तेल और फूलों से बढ़िया लाल रंग निकलता है । इसके फूल प्राय? पीलों या नारंगी रंग के होते हैं । कभी कभी बैगनी या गुलाबी रंग के फूल भी पाए जाते हैं । पीले और लाल फूल वाले कुसुम खेतों में बीज और फूल के लिये और दूसरे रंग के फूलवाले कुसुम बगीचों में शोभा के लिये लगाए जाते हैं । इसकी डालियों के सिरे पर छोटा, गोल, नुकीला ढ़ोंड़ निकलता है, जिसपर पतले पतले बहुत से फूल होते है । जो पेड़ फूल के लिये बोए जाते हैं, उनके फूल नित्य प्रात?काल चुन लिए और छाया में सुखाए जाते हैं, पर बीज के लिये बोए जाते हैं, जो पहले वृक्षों में ही लगे लगे सुख जाते हैं । चुने हुए फूल एक कपड़े में रखकर ऊपर से खार मिला हुआ जल गिराते है, जो पहले तो पीला होकर निकलता है, पर पीछे खार आदि मिलाने से वह लाल हो जाता है । इसका बीज कोल्हू में ड़ालकर पेरा जाता है और उससे जो तेल निकलता है, वह खाने, जलाने और शरीर में लगाने के काम में आता है । वैद्यक में तेल को दस्तावर माना है इसके सिवा यह कई तरह से औषधियों में काम आता है और इससे मोमजामा भी बनता है ।

कुसुमकार्मुक
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव ।

कुसुमकुंतला
संज्ञा स्त्री० [सं० कुसुम + कुन्ताला] वेणी में पुष्प लगाने वाली स्त्री । उ०— नंदन की शत शत दिव्य कुसुमकुंतला ।—लहर, पृ०, ६६ ।

कुसुमदल
संज्ञा स्त्री० [सं० कुसुमदल] फल की पँखुरी या पत्ती । पुष्पदल । उ०— कवलि कुसुमदलि भीतरि जाता, दश अंगुलि के बीच समाता ।—प्राण०, पृ०, ६३ ।

कुसुमधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम + धन्वन्] दे० 'कुसुमबाण' [को०] ।

कुसुमपंचक
स्त्री० पुं० [सं० कुसुमपंञ्चक] कमल, अशोक, आम्र, नवमल्लिका और नीलकमल ये पाँच फूल कामदेव के बाण में कहे गाए हैं [को०] ।

कुसुमपल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाटालिपुत्र । पटना नगर । २. रजस्वला स्त्री [को०] ।

कुसुमपुर
संज्ञा पुं० [सं०] पाटलिपुत्र, पटना का एक प्राचीन नाम ।

कुसुमबाण
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव । मदन [को०] ।

कुसुमरेण
संज्ञा पुं० [सं०] पराग । पुष्परेणु ।

कुसुमविचित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णावृत्त जिसके प्रत्येक चरण में नगण, यगण, नगण, का क्रम होता है । जैसे—नयन यही ते तुम बदनामा । हरि छवि देखौ किन बसु जामा । अनुजसमेता जनकदुलारी । कुसुमविचित्रा कर फुलवारी ।

कुसुमशर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुसुमबाण' [को०] ।

कुसुमसर पु
संज्ञा पुं० [सं० कुसुमशर] कामदेव । उ०— बचन अगोचर चरित आति, नमो कुसुमसर देव ।—ब्रज० ग्र० पृ०, ९६ ।

कुसुममायक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'कुसुमबाण' [को०] ।

कुसुमभस्तबक
संज्ञा पुं० [सं०] दड़क का एक भेद जिसके प्रत्येक पद में नौ या नौ से अधिक सगण होते हैं । जैसे—भजिए हर को हर को हर को हर को हर को हर को हर को ।

कुसुमांजन
संज्ञा पुं० [सं० कुसुमाञ्जन] जिस्ते का भस्म ।

कुसुमांजलि
संज्ञा स्त्री० [वि० कुसुमाञ्जालि] १. फूल के भरी हुई अंजली । २. षोड़शोपचार पूजन में अंतिम उपचार जिसमें देवता पर हाथ की अंजुलि में फूल भरकर चढ़ाते है । पुष्पां- जलि । ३. न्याय का एक ग्रंथ जिसे उदयनाचार्य ने बनाया है ।

कुसुमाउँह पु †
स्त्री० पुं० [सं० कुसुमायुध, प्रा०, कुसुमाउह] दे० 'कुसुमायुध' । उ०— तसु नंदन भोगी सराअ, वर भोग पुरंदर । हुअ हुआसन तेजिकंति कुसुमाउँह सुंदर ।—कीर्ति०, पृ०, १० ।

कुसुमाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वसंत । २. छप्पय का एक भेद जिसमें ६ गुरु और १४० लघु अर्थात् कुल १४६ वर्ण या १५२ मात्राएँ अथवा ६ गुरु, २३६ लघु, कुल १४२ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती हैं । ३. बाग । बगीचा । वाटिका । उ०—अरु फूलि रहे कुसुमाकर मैंसू कहू पहचान की बास नहीं ।— घनानंद, पृ०, ९६ ।

कुसुमागम
संज्ञा पुं० [सं०] वसंत ।

कुसुमादपि
क्रि० वि० [सं० कुसुमात् + अपि] फूल से भी । शु०— वह शोभा पात्र नहीं कुसुमादपि मृदुल गात्र ।—ग्राम्या, पृ०, २० ।

कुसुमाधिप, कुसुमाधिराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. चम्पा का वृक्ष २. चंपा का पुष्प [को०] ।

कुसुमायुध
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव । ई०— 'प्रियवर' । मैं तव ह्वद्रय की नहीं जानती बात । संतापित करता मुझे कुसुमायुध दिन रात । —शकुं, पृ०, १३ ।

कुसुमाल
संज्ञा पुं० [सं०] चोर । चोर ।

कुसुमावचाय
संज्ञा पुं० [सं०] पुष्पों का चयन । फूलों का चुनना [को०] ।

कुसुमावतंसक
संज्ञा पुं० [सं० कुसुम + अवतन्सक] फुलों का गजरा । २. कुसुमाभरणा [को०] ।

कुसुमावलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] फूलों का गुच्छा । फूलों का समूह ।

कुसुमासव
संज्ञा पुं० [सं०] १. फूल का रस । मकरंद । २. मधु । पुष्पमधु ।

कुसुमित
वि० [सं०] फूला हुआ । पुष्पित ।

कुसुमितलतावेल्लिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अठरह अक्षरों का एक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में मगण, तगण, नगण, यगण, यगण का क्रम रहता है । जैसे—भाता नायो काल इन बरजोरी दही मूँ हमारे । झूठै लाई तो यह उलहनो आज होतै सकारे । मैं ना जाऊँ अंत कतहुँ लखौ नित्य भानू सुता की । शोभा वारी है कुसुमितलतावेल्लिता वीचि जाकी ।— (शब्द०) ।

कुसुमेष्
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामदेव । २. पुष्पमय वाण । फूल का बाण [को०] ।

कुसुमोदर
संज्ञा पुं० [सं०] ओट का पेड़ [को०] ।

कुसुली †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुसली' ।

कुसूत
संज्ञा पुं० [सं० कु + सुत्र, प्रा०, सुत्त, हि, सूत] १. बुरा सूत । उ०— कहति कबीर करम सों जोरी । सूत कुसूत बिनै भल कोरी ।—कबीर (शब्द०) । २. कुप्रबंध । कुब्योंत । उ०— रोग भयो भूत सो, कुसूम भयो तुलसी को भूतनाथ पाहि पद पंकज गहतु हौ । —तुलसी ग्रं० पृ०, २४० ।

कुसूर
संज्ञा पुं० [अ० कुसूर] दे० 'कसूर' । यौ०— कुसुरमंद । कुसूरवार । अपराधी । दोषी ।

कुसूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक देवयोनि । २. दे० 'कुशूल' ।

कुसृति
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्रजाल । हथकंड़ा । २. दुराचारा । ३. शठता । दुष्टता ।

कुसेसय
संज्ञा पुं० [सं० कुशेशय] कमल । पद्म । उ०— राजिवदल इंदीवर सतदल कमल कुसेसय़ जाति । निसिमुद्रित प्रातहिं वे बिगसत ए बिगसत दिनराति ।—सूर (शब्द०) ।

कुसेसे पु, कुसेसै पु
संज्ञा पुं० [सं० कुशेशय] दे० 'कुसेसय' । उ०— (क) फूल फूलि रहे जलज सुदेसे । इंदीवर, राजीव, कुसेसे ।—नंद० ग्र०, पृ०, ११९ । (ख) कुसल रहैं वे केस कुसेसै नैनि सुधारे ।—दीन० ग्र०, पृ०, ९७ ।

कुस्टि पु कुस्टी पु
वि० [सं० कुष्ठिन्] दे० कुष्ठी । उ० —(क) बाहन बैल कुस्टि कर भेसू । —जायसी ग्रं०, पृ०, २६० । (ख) कृस्टी अग कठ विष बाँध ।—चित्रा०, पृ० १९ ।

कुस्तंबरु
संज्ञा पुं० [सं० कुस्तम्जरु] धनियाँ का बीज ।

कुस्ती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'कुश्ती' ।

कुस्तुंबरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुस्तुम्बरी] धनियाँ ।

कुस्तुबरु
संज्ञा दे० [सं०] धनियाँ ।

कुस्तुभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. समुद्र । सागर [को०] ।

कृस्याली पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० खुशहाली] प्रसन्नता की स्थिति । खुथी की हालत । उ०— बागा बादिस्याँहा के कुस्याली का कुगारा । —शिखर०, पृ०, १९ ।

कुस्सा
संज्ञा पुं० [देश०] कुदाल ।

कुहंचा पु
संज्ञा पुं० [सं० कफोणि हि० कोहनो,] कोहनी । पहुँचा । लकाई । उ०— मुच्छा उमैठत उमड़ि ऐंठत कठिन कर कुहँचाव का ।—पद्माकर ग्र० पृ०, १६ ।

कुह
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुबेर ।२. छली या फरेबी व्यक्ति (को०) ।

कृहक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. माया । धोखा । जाल । फरेब । २. धूर्त ।मवकार । वंचक । ३. मेढ़क । ३. मुर्ग की कूक ।५ नाग— विशेष । ६. इंद्रजाल जाननेवाला । यौ०— कुहककार = कपटी । छली । कुहकचकित = दाँव पेंच से ड़रा हुआ । संदेह करनेवाला । सजग । कुहकजीवी = इंद्रजाली मायावी । वंचक । कुहकस्वन, कुहकस्वर = मुर्गा । कुहकवृत्ति = दे० 'कुहकजीवी' ।

कुहक पु (२)
वि० [सं० कुह + क] आश्चचर्यजनक । उ०—कालि कलह कालि करहु कुहक विक्रम सुकर्ण जिम । प०, रासी०, पृ०, १७४ ।

कुहकना
क्रि० अ० [सं० कुहूकया कुहूया अनुर०] पक्षी का मधुर स्वर में बोलना । पीकना । उ०— कुहकहिं मोर सुहावन लागा । होय कुराहर बोलाहिं काका ।— जायसी (शब्द०) । विशेष— प्रायः मोर और कोयल के ही बोलने को कुहकता कहते हैं ।

कुहकनी
संज्ञा स्त्री० [हि० कुहकना] कुहकनेवाली । कोकिल । कोयल ।

कुहकाना पु
क्रि० स० [हि० कुहकना] कूकने या कूजने के लिये प्रेरित करना । उ०— पिक गवाय केकी कुहकाई ।—नंद० ग्रं०, पृ०, १४१ ।

कुहकुह पु
संज्ञा पुं० [सं० कुङ्कम] केसर । कुमकुम । जाफरान । उ०— कनक हाट सब कुहकुह लीगी । बैठि महाजन सिंहलदीपी ।—जायसी (शब्द०) ।

कुहकुहाना
क्रि० अ० [सं० कुहू = कोयल की आवाज] १. कोयल या मोर का बोलना । कान के अंदर पानी जाने से हलकी सुरसुरी या खुजलाहट होना ।

कुहक्क
संज्ञा पुं० [सं०] ताल के साठ भेदों में से एक । इसमें दो द्रुत और दो लघु मात्राएँ होती है ।

कुहक्कड़ा †
संज्ञा स्त्री० [हि० कुहकना अथवा सं० कुह्वान = कर्कश ध्वनि] पुकार । कूकना । आवाज । उ०— बालउँ बाबा देसड़उ वाँणी जहाँ कुवाँह । आधी रात कुहक्कड़ा, ज्यउँ माणासाँ मुवाँह ।—ढोला०, दू०, ३५५ ।

कुहन (१)
वि [सं०] ईर्ष्या करनेवाला २. मक्कार । धोखेबाज ।

कुहन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चुहा मूसा । २. मिट्टी का बर्तन । ३. शीशे का बर्तन । ३. साँप ।

कुहना †
क्र० सं० [सं० कु + हनना = मारना] मारना । बुरी तरह से मारना । उ०— पाहि हनुमान । कतुनानिधान राम पाहि । कासी कामधेनु कालि कुहत कसाई है ।—तुलसी ग्र०, पृ० २४५ ।

कुहना (२)
संज्ञा पुं० [अनु० कुह = कोकिल की बोली] गाना । अलापना । उ०— आपु व्याध को रूप धरि कुहाँ कुरंगहि राग । तुलसी जो मृग मन मरै परै प्रेम पर दाण ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुहना (३)
वि [फा० कुहनह] जीर्णा । पुराना । बेकाम का [को०] ।

कूहना (४)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुहनिका' [को०] ।

कुहनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वार्थसिद्बि के निमित्त धार्मिक व्रत पूजा का दिखावा । ३. ढ़ोंग । पाखंड़ । दंम [को०] ।

कुहनी
संज्ञा स्त्री० [सं० कफोणि, प्रा०, कहोणि] १. हाथ और बाहु के जोड़ की हड़ड़ी । उ०— किसी को चुटकी, किसी को कुहनी किसी को ठोकर निपट लड़ाका ।—नजीर (शब्द०) । २. ताँबे या पितल की बनी हुई टेढ़ी नली जो हुक्के की निगाली में लगाई जाती है ।

कुहनी्उड़ान
संज्ञा स्त्री० [हि० कुहनी+उड़ान] कुश्ती का एक पेच जिसमें फुरती से कुहनी के झटके से प्रतिद्बद्बी के हाथों को पकड़कर रद्दा दिया जाता है । यह पेच ऐसी अवस्था में काम में लाया जाता है, जब प्रतिद्बंद्वी के दोनों हाथ अपनी गर्दन पर होते हैं । यो०— कुहनीउड़ान की टाँग = कुश्ती का एक पेच । जब विपक्षी अपने दोनों हाथ खेलाड़ी के कंधे पर रखे, तो खेलाड़ी उसका एक हाथ पकड़कर और दूसरा हाथ कुहनी से उड़ाकर अपनी बगल में दबा उसी समय अपनी दाँग झोंके से उसके पैर में मारे कि वह गिर पड़े । तीड़— उड़ाया हुआ हाथ खेलाड़ी की जाँघ में अड़ा देना और पैर से पीछे की टाँग मारकर गिराना इस दाँव का तोड़ है । कुहनीउड़ान की ड़ूब=कुश्ती का एक पेच । जव विपक्षि अपने कंधे पर हाथ रखे तब उसकी दोनों कुहानियों को उड़ाकर झट उसके पेट में घुसे ओर जाँघ से पकड़ उसके दोनों पैरों को उड़ाता हुआ गिरावे ।

कुहप पु
संज्ञा पुं० [सं० कुहू = अमावस्या + प] रजनीचर । राक्षस । उ०— मुनि मानव बिलोकि मघु मधुवन आज बुधि होत देव, दानव, कुहप की ।—देव (शब्द०) ।

कुहवर
संज्ञा पुं० [हि० कोहबर] दे० 'कोहबर' ।

कुहर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गड़ढा । गर्त । २. बिल । छेद । सूराख । जैसे—कर्णकुहर । ४. कान । ४. गला । कंठ । ५. समीपता । निकटता । ६. रतिक्रिया । ७. कंठस्वर । ८. वातायन । खिड़की [को०] । ८. गले का छेद । पु ९. कुहरा ।

कुहर (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का शिकरा जो पक्षियों को पकड़ता है । बरूरी ।

कुहर (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जिसका मांस खाया जाता है ।

कुहरा
संज्ञा पुं० [सं० कुहेड़ी] वायु में जल के अत्यत सूक्ष?म कर्णो का समूह जो ठंढ़ पाकर वायु में मिली हुई भाप के जमने से उत्पन्न होता है । ये जलकण पत्तियों ओर धासों पर पड़ कर बड़ी बड़ी बूँदों के रूप में दिखाई पड़ते है । क्रि० प्र०—पड़ना ।

कुहराम
संज्ञा पुं० [अ० कहर + आम] १. विलाप । रोना पीटना । आर्तनाद । बावैला । उ०—रनिवास सें कुहराम पड़ गया । लल्लू (शब्द०) । २. हलचल । उ०— सारे रावी गाँव के ब्राह्मणों में कुहराम मचा हुआ है । —किन्नर०, पृ०, ३८ । क्रि० प्र०— करना ।—ड़ालना ।—पड़ना ।—मचना । होना ।

कुहरित
संज्ञा पुं० [सं०] ३. कोकिल की कूक । २. ध्वनि । स्वर । ३. रनिक्रिया में मुख से निकला शब्द या सोत्कार [को०] ।

कुहरी
संज्ञा स्त्री० [सं० कुहंड़ा] हल्का कुहरा । कुहेलिका । उ०—जलाशय के किनारे कुहरी थी, हरे नीले नीले पत्तों का घेरा था ।— अपरा, पृ०, १९१ ।

कुहलि
संज्ञा पुं० [सं०] पान की पत्ती [को०] ।

कुहसार
संज्ञा पुं० [फा० कोइसार] १. पर्वत । पहाड़ । २. उपत्यका । घाटी [को०] ।

कुहाँर †
संज्ञा पुं० [हि० कुम्हार] दे० 'कुम्हार' ।

कुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कटुकी नाम की औषध [को०] ।

कुहाड़उ पु
संज्ञा पुं० [सं० कुठार, प्रा०, कुहाड़] दे० 'कुहारा' । उ०— बाबा म देसइ सारुवाँ सूधा एवालाँह?कघि कुहाड़उ सिरि घड़उ वासउ भझि थलाँह । —ढोला०, दू०, १५९ ।

कुहाड़ा पु
संज्ञा पुं० [हि० कुल्हाड़ा] [संज्ञा स्त्री० कुहाड़ी] कुठार । परशु । उ०— (क) कबीर तोड़ा मान गढ़ पकड़े पाँवो स्वान । ज्ञान कुहाड़ा कर्म बन, काटि किया मैदान ।— कबीर सा० सं० भा०, १. पृ० २६ । (ख) शब्द कुहाड़ी सूड़ साँसौ सुकृत करि किरसान । नाम निज कण बहुत ने । भूख दु?ख नसान ।—राम०, धर्म०, पृ० १२३ ।

कुहाना पु †
क्रि० अ० [सं० क्रौधन, प्रा०, वोहून] रिसाना । नाराज । होना । रूठना । उ०— (क) आप कुहाय मंदिर कहु सिंह जान औ गोन ।—जायसी (शब्द०) । (ख) तुम्हहि कुहाब परम प्रिय अहई ।—तुलसी (शब्द०) ।

कुहारा पु
संज्ञा पुं० [सं० कुठार] [स्त्री० कुहारि, कुहारी] कुल्हाड़ा । टाँगी । उ०—(क) इद्रिय स्वाद बिबस निसिबासर आयु अपनपौ हारयौ । जल उनमेद मीन ज्यों बपुरौ, पाउँ कुहारो मारय़ो ।—सूर (शब्द०) । (ख) बिरह कुहारी तन बहै घाव न बाँधै रोह । —कबीर (शब्द०) । (म) कविरा यह तन बन भया करम जो भया कुहारि ।—कबीर (शब्द०) ।

कुहासा †
संज्ञा पुं० [सं० कुहेंड़ी] कुहरा । कुहेमा ।

कुहिर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'कुहरा' ।

कुहिरा
संज्ञा पुं० [हिं० दे०] 'कुहरा' ।

कुही (१)
संज्ञा स्त्री० [कुध = एक पक्षी] एक प्रकार की शिकारी चिड़िया यो बाज से छोटी होती है । कुहर । उ०— (क) बहु कुही बाज सिच्चान सँच लगर लाग लाग्गत फिरे ।—पृ०, रा० (उ०)० पृ०, ११९ । (ख) नीचीयै नीवी निपट टिठि कुहीं लौं दोरि । उठि ऊँचे नीचे दियो मन कुलंग झकझोरि ।— बिहारी (शब्द०) ।

कुही (२)
संज्ञा स्त्री० [फा० कोही = पहाड़ी] घोड़े की एक जाति । टाँगन । उ०— तुरको ताजी कुही देश खंधारी जलकी । अरबी एराखी रु पर्वती कच्छी थलकी ।—सूदन (शब्द०) ।

कुहु पु
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'कुहू' । उ०— भनइ विद्यापति सुनह अभयपति कुकु निकट परिमाने । —विद्यापति, पृ०, ८८ ।

कुहुक
संज्ञा पुं० [अनु०] पक्षियों का मधुर स्वर । पीक ।

कुहुकना
क्रि० अ०[हि० कुहुक+ना (प्रत्य०)] पक्षियों का मधुर स्वर में बोलना । कुहकना । उ०— कुहूँ कुहूँ कोकिलै कुहुक रहे थे ।—सदल मिश्र (शब्द०) ।

कुहुकबान
संज्ञा पुं० [हि० कुहकना+बान] एक प्रकार का बाण, जो बाँस की कई पट्टियों को जोड़कर बनाया जाता है और जिसे चलाते समय कुछ शब्द निकलता है ।

कुहुकाना पु
क्रि० अ० [हि० कुहुक] दे० 'कुहुकना' । उ०—केइ मधुमत्त मधुप सँग गावत । केइ मिलि कल कोकिल कुहुका- वत ।— नंद० ग्रं०, पृ०, २६० ।

कुहूँ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुहू] दे० 'कुहू' । उ०— तिन हेरें अँधेरेई दीसै सबै, बिन सूझ तें पून्यो अबूझ कुहूँ ।— घनानंद पृ,० ७४ ।

कुहूँ
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह अमावस्या जिसमें चंद्रमा बिलकुल दिखलाई न दे । २. अमावस्या की अधिष्ठात्री देवी और अंगिरा ऋषि की कन्या, जो उनकी श्रद्बा नाम की स्त्री के गर्भ से उत्पन्न हुई थी । प्लक्ष द्बीप की एक नदी । ४. मोर या कोयल की कक । मोर या कोयल की बोली । विशेष— इस अर्थ में 'कुहू' के साथ कंठ, मूख, रव आदि शब्द लगाने से कोकिलवाची शब्द बनते हैं । जैसे—कुहूकंठ कुहूमुख, कुहूस्व, कुहूशब्द आदि । यौ०— कुहू कुहू = मयूर या कोयल की बोली । उ० —(क) ड़हड़हे भए द्रुम रंचक हवा के गुन कुहू कुहू मोरवा पुकारि मोद भरिगे ।—रसकुसुमाकर (शब्द०) । (ख) कारी कुरूप कसाइनै ये सु कुहू क्वैलिया ककन लागीं । पद्याकर (शब्द०) ।

कुहूकबान पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे०, कुहूकबान' । उ०— चले चंदबान घनबान औ कुहूकबान चलत कमान घूम आसवान छबै रहो ।— भूषण (शब्द०) ।

कुहूकाल
संज्ञा पुं० [सं०] अमावस्या का दिन [को०] ।

कुहूमुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोयल २. विपत्ति । ३. दूज का चाँद [को०] ।

कुहेड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुहरा । कुहेलिका ।

कुहेडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० । 'कुहेड़िका' [को०] ।

कुहेरा पु
संज्ञा पुं० [सं० कुहेलिका] दे० 'कुहरा' । उ०— राम बिनाँ संसार धंध कुहेरा सिरि प्रगटयां जम का पेरा । —कबीर ग्रं०, पृ०, १९५ ।

कुहेला पु
संज्ञा पुं० [सं० कुधि] एक प्रकार का शिकारी पक्षी । एक प्रकार का छोटा बाज उ०— कुही कुहेला बाज दिय नृप जलहन के हथ्थ ।—प० रासो पृ०, १०० ।

कुहेलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुहरा । २. कुहरे रे कारण फैला अंधकार । उ०— भाषा के विषय में आज हम अनिश्चितता की कुहेलिका में नहीं हैं ।—पोद्दार आभि०, ग्र०, पृ०, ७५ ।

कुहेलो
संज्ञा [सं०] दे० 'कुहेलिका' [को०] ।

कुहेसा पु
संज्ञा पुं० [हि० कुहासा] दे० 'कुहासा' । उ०— जनों के अज्ञानरूपी कुहे से को नाम करके..... ।—भक्तमाल (श्री०) । पृ०, ३७७ ।

कुहौ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० कुहू या अनुर०] १. मोर या कोकिल की कूल । उ०— बन वाटनु पिक बटपरा लखि बिरहिन मत मैं न । कुहो कुहौ कहि कहि उठै करि करि राते नैन ।— बिहारी र०, दो०, ४७५ ।

कुहौकुहौ पु
संज्ञा स्त्री० [हि० कुहू कुहू वा अनु०] कोकिल की बोली । कोयल की कूक ।