संज्ञा पुं० [स०] जंगली तिल । जर्तिल ।

जलंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० जलङ्ग] महाकाल नाम की एक लता ।

जलंग (२)
वि० जलसंबंधी । जलीय । जल का ।

जलंगम
संज्ञा पुं० [सं० जलङ्गम] चांडाल

जलंती पु †
वि० [हिं० जलना] जलनेवाली । जलती हुई । प्रज्वलित । उ०—तन भीतर मन मानिया बाहर कहूँ न लाग । ज्वाला ते फिर जल भया बुझी जलंती आग ।— कबीर सा० सं०, पृ०, ४५ ।

जलंधर
संज्ञा पुं० [सं० जलन्धर] १. एक पौराणिक राक्षस का नाम जो शिव जी की कोपाग्नि से गंगा—समुद्र—संगम में उत्पन्न हुआ था । विशेष—पद्म पुराण में लिखा है कि यह जनमते ही इतने जोर से रोने लगा कि सब देवता व्याकुल हो गए । उनकी ओर से जब ब्रह्मा ने जाकर समुद्र से पूछा कि यह किसका लड़का है तब उसने उत्तर दिया कि यह मेरा पुत्र है, आप इसे ले जाइए । जब ब्रह्मा ने उसे अपनी गोद में लिया तब उसने उनकी दाढ़ी इतने जोर से खींची कि उनकी आँखों से आँसू निकल पड़ा । इसी लिये ब्रह्मा ने इसका नाम 'जलंधर' रखा । बड़े होने पर इसने इंद्र की नगरी अमरावती पर अधिकार कर लिया । अंत में शिव जी इंद्र की ओर से उससे लड़ने गए । उसकी स्त्री वृंदा ने, जो कालनेमि की कन्या थी, अपने पति के प्राण बचाने के लिये ब्रह्मा की पूजा आरंभ की । जब देवताओं ने देखा कि जलंधर किसी प्रकार नहीं मर सकता तब अंत में जलंधर का रुप धारण करके विष्णु उसकी स्त्री वृंदा के पास गए । वृंदा ने उन्हें देखते ही पूजन छोड़ दिया । पूजन छोड़ते ही जलंधर के प्राण निकल गए । वृंदा क्रुद्ध होकर शाप देना चाहती थी पर ब्रह्मा के बहुत कुछ समझाने बुझाने पर वह सती हो गई । २. एक प्राचीन ऋषि का नाम । ३. योग का एक बंध ।

जलंधर (२)
संज्ञा पुं० [हिं० जलोदर] दे० 'जलोदर' ।

जलंबल
संज्ञा पुं० [सं० जलम्बल] १. नदी । २. अंजन ।

जल (१)
वि० [सं०] १. स्फूर्तिहीन । ठंढा । जड़ा । २. मूढ़ । हतज्ञान [को०] ।

जल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी । २. उशीर । खस । ३. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र । ४. ज्योतिष के अनुसार जन्मकुंडली में चौथा स्थान । ५. सुगंधवाला । नेत्रबाला ।६. धर्मशास्त्र के अनुसार एक प्रकार की परिक्षा या दिव्य । वि० दे० 'दिव्य' ।

जलअलि
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी का भँवर । २. एक काला कीड़ा जो पानी पर तैरा करता है । पैरौवा । भौंतुआ । उ०—भरत दशा तेहि अवसर कैसी । जल प्रवाह जल आलि गति जैसी । —तुलसी (शब्द०) । विशेष—इसकी बनावट खटमल की सी होती है, परंतु आकार में यह खटमल से बहुत बड़ा होता है । इसका स्वभाव है कि यह प्रायः एक और घूम घूमकर तैरता है । जलप्रवाह के विरुद्ध भी यह तेजी से तैर सकता है ।

जलई
संज्ञा स्त्री० [हिं० जड़ाना या बीजल] वह काँटा जिसके दोनों ओर दो अंकुड़े होते हैं और दो तख्तों के जोड़ पर जड़ा जाता है । यह प्रायः नाव के तख्तों की जड़ने में काम आता है ।

जलकंटक
संज्ञा पुं० [सं० जलकणटक] १. सिघाड़ा । २. कुंभी ।

जलकंडु
संज्ञा पुं० [सं० जलकाण्डु] एक प्रकार की खुजली जो पानी में बहुत काल तक लगातार रहने से पैरों में उत्पन्न होती है ।

जलकंद
संज्ञा पुं० [सं० जलकन्द] १. केला । कदली । २. काँदा । जलकँदरा ।

जलकँदरा
संज्ञा पुं० [सं० जल + कन्दली] काँदा नामक गुल्म जो प्रायः तालों के किनारे होता है ।

जलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. शंख । २. कौड़ी ।

जलकपि
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुमार या सूँस नामक जलजंतु ।

जलकपोत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया जो पानी के किनारे होती है ।

जलकना पु
क्रि० अ० [हिं० झलकना] चमकना । जगमगाना । देदीप्यमान होना । उ०—खिलवत से निकल जलकते दरबार में आया ।—कबीर मं०, पृ० ३९० ।

जलकरंक
संज्ञा पुं० [सं० जलकरङ्क] १. नारियल । २. पद्म । कमल । ३. शंख । ४. लहर । तरंग । जललता ।

जलकर
संज्ञा पुं० [हिं० जल + कर] १. वह पदार्थ जो जलाशयों आदि में हो और जिसपर जमींदार की और से कर लगाया जाय । जैसे, मछली, सिंघाड़ा, कवलगट्टा आदि । २. इस प्रकार के पदार्थों पर का कर । ३. वह द्रव्य या कर जो नगरों में पानी देने के बदले में नगरपालिकाएँ वसूल करती है । पानी का कर ।

जलकल
संज्ञा पुं० [हिं०] पानी वहुजानी की कल । पानी का नल । यौ०—जलकल विभाग=दे० 'वाटर वर्क्स' ।

जलकल्क
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेवार । २. कीचड़ । काई ।

जलकल्मष
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रमंथन में निकला हुआ विष [को०] ।

जलकष्ट
संज्ञा पुं० [सं० जल + कष्ट] जल का अभाव । पानो की कमी ।

जलकांक्ष
संज्ञा पुं० [सं० जलकाङ्क्ष] [स्त्री० जलकाक्षी] हाथी ।

जलकांत
संज्ञा पुं० [सं० जलकान्त] वायु । हवा । पवन ।

जलकांतार
संज्ञा पुं० [सं० जलकान्तार] वरुण ।

जलकाँदा
संज्ञा पुं [हिं० जल + काँदा] दे० 'काँदा' ।

जलकाक
संज्ञा पुं० [सं०] जलकौआ नामक पक्षी । पर्य्या०—दात्यूह । कालकंटक ।

जलकामुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यमुखी । २. कुटुंबिनी नाम का गुल्म (को०) ।

जलकाय
संज्ञा पुं० [सं०] जैन शास्त्रानुसार वह शरीरधारी जिसका जल ही शरीर है ।

जलकिनार
संज्ञा पुं० [हिं० जल + किनारा] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा ।

जलकिराट
संज्ञा पुं० [सं०] ग्राह या नाक नामक जलजंतु ।

जलकुँतल
संज्ञा पुं० [सं० जलकुन्तल] सेवार ।

जलकुंभी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जल + कुम्भीर] कुंभी नाम की वनस्पति जो जलाशायों में पानी के ऊपर होती है । विशेष—दे० 'कुंभी (२)'-८ ।

जलकुकुरी
संज्ञा स्त्री० [सं० जलकुक्कुट] एक जलपक्षी । मुर्गाबी । उ०—जैसे जल महँ रहै जलकुकुरी, पंख लिप्त जल नाहिं ।— जग० श०, भा० २, पृ० ८९ ।

जलकुक्कुट
संज्ञा पुं० [सं०] मुरगाबी । उ०—कहुँ कारंडव उड़त कहूँ जलकुक्कुट धावत ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४५६ ।

जलकुक्कुभ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की जल की चिड़िया । कुकुही । बनमुर्गो । पर्य्या०—कोयाष्टि । शिखरी ।

जलकुब्जक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेवार । २. काई ।

जलकूपी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कूआँ । कूप । २. तालाब । सर । ३. जलावर्त । आवर्त । भँवर [को०] ।

जलकूर्म
संज्ञा पुं० [सं०] शिशुमार या सूँस नामक जलजंतु ।

जलकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पुच्छल तारा जो पश्चिम में उदय होता है । विशेष—इसकी चोटी या शिखा पश्चिम की ओर होती है और स्निग्ध तथा मूल में मोटी होती है । यह देखने में स्वच्छ होता है । फलित ज्योतिष के अनुसार इसके उदय से नौ मास तक सुभिक्ष रहता है ।

जलकेलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जलक्रीड़ा' ।

जलकेश
संज्ञा पुं० [सं०] सेवार ।

जलकौआ
संज्ञा पुं० [हिं० जल + कौआ] एक प्रकार का जलपक्षी । विशेष—इसकी गर्दन सफेद, चोंच भूरी और शेष सारा शरीर काला होता है । मादा के पैर नर से कुछ विशेष बड़े होते हैं । यह चिड़िया सारे यूरोप, एशिया, अफ्रिका और उत्तरी अमेरिका में पाई जाती है । इसकी लंबाई दो से तीन हाथ तक होती है और यह एक बार में चार से छह तक अंडे देती है । वैद्यक के अनुसार इसका मांस खाने में स्निग्ध, भारी, वातनाशक, शीतल और बलवर्धक होता है ।

जलक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] देव और पितृ आदि का तर्पण ।

जलक्रीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह क्रीड़ा जो जलाशयों आदि में की जाय । जलविहार । जैसे, तौरना, एक दूसरे पर पानी फेंकना ।

जलखग
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी जो पानी के किनारे रहता है ।

जलखर
संज्ञा पुं० [हिं० जाल + खर] दे० 'जलखरी' ।

जलखरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाल + काढ़ना, या खारी] रस्सी यातागे की जाल की बनी हुई थैली या झोली जिसमें लोग फल आदि रखकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते हैं ।

जलखावा
संज्ञा पुं० [हिं० जल + खाना] जलपान । कलेवा ।

जलगर्द
संज्ञा पु० [सं०जल + फ्रा० गर्द] पानी में रहनेवाला सांप । डेड़हा ।

जलगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध के प्रधान शिष्य आनंद का पूर्वजन्म का नाम ।

जलगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी में का भँवर । २. कछुआ । ३. वह देश जिसमें जल कम हो । ४. चौकोर तालाब (को०) ।

जलघड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जल + घड़ी] एक यंत्र जिससे समय का ज्ञान होता है । विशेष—इसमें पानी पर तैरता हुआ एक कटोरा होता है जिसके पेंदे में छेद होता है । यह कटोरा पानी के नाँद में पड़ा रहता है । पेंदी के छेद से धीरे धीरे कटोरे में पानी जाता है और कठोरा एक घंढ़े में भरता और डूब जाता बै । डूबने के बाद फिर कटोरे को पानी से निकालकर खाली करके पानी की नाँद में डाल देते हैं और उसमें फिर पहले की तरह पानी भरने लगता है । इस प्रकार एक एक घंटे पर वह कटोरा डूबता है और फिर खाली करके पानी के ऊपर छोड़ा जाता है ।

जलघरा †
संज्ञा पुं० [हिं० जल + घर] वह स्थान जहाँ जल आदि रखा जाता है । नहाने का स्थान । उ०—ताकों श्रीनाथ जी के जलघरा में स्नान कराइये की सेवा सौंपी ।—दी सौ बावन०, भा० १, पृ० २०९ ।

जलघुमर
संज्ञा पुं० [हिं० जल + धूमना] पानी का भँवर । जलावर्त । चक्कर ।

जलचत्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह देश जिसमें जल कम हो । २. चौकोर तालाब (को०) ।

जलचर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जलचरी] पानी में रहनेवाले जंतु । जलजंतु । जैसे, मछली, कछुआ, मगर, आदि । उ०— जलचर थलचर नभचर नाना । जे जड़ चेतन जहाना ।—मानस, १ ।३ । यौ०—जलचरकेतु पु=मीनकेतु । कामदेव । उ०—सहित सहाय जाहु मम हेतू । चलेउ हरषि हिय जलचर केतू ।— मानस, १ ।१२५ ।

जलचरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मछली । उ०—मधुकर मो मन अधिक कठोर । बिगसि न गयो कुंभ काँचे लों बिछुरत नंदकिसोर । हमतें भली जलचरी बपुरी अपनौ मेह निवाह्यो । जल तें बिछुरि तुरत तन त्याग्यौ पुनि जल ही कौं चाह्यौ ।—सूर०, १० ।३७२९ ।

जलचारदर
संज्ञा स्त्री० [सं० जल + हिं० चादर] किसी ऊँचे स्थान से होनेवाला जल का झीना और विस्तृत प्रवाह । उ०—सहज सेत पंचतोरिया पहिरत अति छवि होति । जलचादर के दीप लौं जगमगाति तन जोति ।—बिहारी र०, दो० ३४० । विशेष—प्रायः धनवानों और राजाऔं आदि के स्थानों में शोभा के लिये इस प्रकार जल का प्रवाह कराया जाता है, जिसे जलचादर कहते हैं । कभी इसके पीछे आले बनाकर उनमें दीपक की पंक्ति भी जलाई जाती है जिससे रात के समय जलचादर के पीछे जगमगाती हुई दीपावली बहुत शोभा देती है ।

जलचारी
संज्ञा पु० [सं०] [स्त्री० जलचारिणी] जल में रहनेवाला जीव । जलचर ।

जलचिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] कुंभीर या नाक नामक जलजंतु ।

जलचौलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'चौलाई' ।

जलजंत पु
संज्ञा पुं० [सं० जलयन्त्र, प्रा० जलजंत] फुहारा । दे० 'जलयंत्र' । उ०—जलजंत छुट्टि महाराज आय । रानीन जुक्त मन मोद पाय ।—प० रासो, पृ० ४० ।

जलजंतु
संज्ञा पुं० [सं० जलजन्तु] जल में रहनेवाले जीवजंतु । जलचर ।

जलजंतुका
संज्ञा स्त्री० [सं० जलबन्तुका] जोंक ।

जलजंत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० लयन्त्र; प्रा० जलजंत्र, जलजत] झरना । फुहारा । उ०—चहुँ ओर सघन पर्वत सुगंध । जलजंत्र छुटै उच्चे सबंध ।—ह० रासो, पृ० ६३ ।

जलजंबुका
संज्ञा स्त्री० [सं० जलजम्बुका] जलजामुन जो साधारण जामुन से छोटा होता है । दे० 'जलजामुन' ।

जलजंबूका
संज्ञा स्त्री० [सं०जलजम्बूका] दे० 'जलजंबुका' ।

जलज (१)
वि० [सं०] जल में उत्पन्न होनेवाला । जो जल में उत्पन्न हो ।

जलज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कामल । २. शंख । ३. मछली । ४. पनीहाँ नाम का वृक्ष । ५. सेवार । ६. अंबुवेत । जलवेत । ७. जलजंतु । ८. सामुद्रिक या लोनार नमक । ९. मोती । १०. कुचले का पेड़ । ११. चौलाई ।

जलजन्म
संज्ञा पुं० [सं० जलजन्मन्] कमल [को०] ।

जलजन्य
संज्ञा पुं० [सं०] कमल ।

जलजला (१)
वि० [सं० ज्वल + जल > जज्वल] क्रोधी । दीप्त होने वाला । बिगड़ैल ।

जलजला (२)
संज्ञा पुं० [फा० जल् जलह] भूकंप । भूडोल ।

जलजलाना
क्रि० अ० [सं० ज्वश्ल, प्रा० जल, झाल, झल] झल् झल करना । चमकना । उ०—वे हिलकर रह जाते हैं, उजली धूप जलजलाती हुई नाचती निकल जाती है ।—आकाश०, पृ० १३३ ।

जलजात (१)
वि० [सं०] जो जल में उत्पन्न हो । जलज ।

जलजात (२)
संज्ञा पुं० पद्म । कमल ।

जलजान पु
संज्ञा पुं० [सं० जलयान] दे० 'जलयान' । उ०—हड्डप, पौत, नतका, पलन, तरि, वहित्र, जलजान । नाम नाँव चढ़ि भव उदधि केते तरे अजान ।—नंद० ग्रं०, पृ० ९१ ।

जलजामुन
संज्ञा पुं० [हिं० जल + जामुन] एक प्रकार का जामुन जिसके वृक्ष जंगलों में नदियों के किनारे आपसे आप उगते हैं । इसके फल बहुत छोटे और पत्तें कनेर के पत्तों के समान होते हैं ।

जलजावलि
संज्ञा स्त्री० [सं० जलज + अवलि] मोतियों की माला । उ०—लट लोल कपोल कलोल क्ररै, कल कंठ बनी जलजावलिद्वै । अँग अंग तरंग उठैं, दुति की परिहै मनौ रूप अबैधर च्वै ।—घनानंद, पृ० ५८५ ।

जलजासन
संज्ञा पुं० [सं०] कमल पर बैठनेवाले, ब्रह्मा ।

जलजिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] नक्र । नाक । घड़ियाल [को०] ।

जलजीवी
संज्ञा पुं० [सं० जलजीविन्] मल्लाह । मछुमा [को०] ।

जलजोनि पु
संज्ञा पुं० [सं० जल (=कृपीट) + योनि, प्रा० जोणि] अग्नि । पावक । उ०—जातबेद जलजोनि हरि चित्रभान बृहभान ।—अनेकार्थ०, पृ० ४ ।

जलडमरूमध्य
संज्ञा पुं० [सं०] भूगोल में जल की वह पतली प्रणाली जो जी बड़े समुद्रों या जलों के मध्य में हो और दोनों को मिलाती हो ।

जलडिंब
संज्ञा पुं० [सं० जलडिम्ब] शंबूक । घोंघा ।

जलतरंग
संज्ञा पुं० [सं० जलतरङ्ग] १. जल का हिलोर । जल की लहर । २. एक प्रकार का बाजा । विशेष—यह बाजा धातु की बहुत सी छोटी बड़ी कटोरियों को एक क्रम से रखकर बनाया और बजाया जाता है । बजाने के समय सब कटोरियों में पानी भर दिया जाता है और उन कटोरियों पर किसी हलकी मुँगरी से आघात करके तरह तरह के ऊँचे नीचे स्वर उत्पन्न किए जाती हैं ।

जलतरन पु †
संज्ञा पुं० [सं० जल + तरण, हिं० तरना] पानी में तैरने की विद्या । उ०—पसुभाषा औ जलतरन, धातु रसाइन जानु । रतन परख औ चातुरी, सकल अंग सग्यानु ।— माधवानल०, पृ० २०८ ।

जलतरोई
संज्ञा स्त्री० [हिं० जल + तरोई] मछली । (हास्य) ।

जलताडन
संज्ञा पुं० [सं०] पानी पीटना । जल को पीटने का काम । २. (लाक्ष०) निरर्थक कार्य । व्यर्थ का काम [को०] ।

जलतापिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली जिसे हिलसा, हेलसा कहते हैं ।

जलतापी
संज्ञा पुं० [सं० जलतापिन्] दे० 'जलतापिक' ।

जलताल
संज्ञा पुं० [सं०] सलई का पेड़ [को०] ।

जलतिक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सलई का पेड़ ।

जलत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छाता । २. वह कुटी जो एक स्थान से हटाकर दूसरे स्थान तक पहुँचाई जा सके ।

जलत्रास
संज्ञा पुं० [सं०] वह भय जो कुत्ते, श्रृगाल आदि जीवों के काटने पर मनुष्य को जल देखने अथवा उसका नाम सुनने से उत्पन्न होता है । अंग्रेजी में इसे 'हाइड्रोफोविया' कहते हैं ।

जलथंभ
संज्ञा पुं० [सं० जलस्तम्भ, जलस्तम्भन] मंत्रों आदि से जल का स्तंभन करने या उसे रोकने की क्रिया । जलस्तंभन । उ०—बिरह बिथा जल परस बिन बसियत मो मन ताल । कछु जानत जलथंभ विधि दुर्जोधन लौं लाल ।—बिहारी र०, दो० ४१४ ।

जलद (१)
वि० [सं०] जल देनेवाला । जो जल दे ।

जलद (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । बादल । २. मोथा । ३. कपूर । ४. पुराणानुसार शाकद्वीप के अंतर्गत एक वर्ष का नाम ।

जलदकाल
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षाऋतु । बरसात ।

जलदक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] शरद ऋतु ।

जलदतिताला
संज्ञा पुं० [हिं० जल्दी + तिलाला] वह साधारण तिताला ताल जिसकी गति साधारण से कुछ तेज हो । यह कौवाली से कुछ विलंबित होता है ।

जलदर्दुर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वाद्य [को०] ।

जलदस्यु
संज्ञा पुं० [सं०] समु्द्री डाकू । समुद्री जहाजों पर डकैती करनेवाले व्यक्ति ।

जलदाता
संज्ञा पुं० [सं० जलदातृ] तर्पण करनेवाला । देव, ऋषि और पितृ गणों को पानी देनेवाला [को०] ।

जलदान
संज्ञा पुं० [सं०] तर्पण [को०] ।

जलदाशन
संज्ञा पुं० [सं०] साखू का पेड़ । विशेष—प्राचीन काल में प्रवाद था कि बादल साखू की पत्तियाँ खाते हैं, इसी से साखू का यह नाम पड़ा ।

जलदुर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वह दुर्ग जो चारो ओर नदी, झील आदि से सुरक्षित हो ।

जलदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वाषाढ़ा नाम का नक्षत्र । २. वरुण जो जल के देवता हैं ।

जलदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण ।

जलदोदो
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का पौधा जो काई की तरह पानी पर फैलता है । इसके शरीर में लगने से खुजली पैदा होती है ।

जलद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] मुक्ता, शंख आदि द्रब्य जो जल से उत्पन्न होते हैं ।

जलद्रोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दोन, जिससे खेत में पानी देते या नाव का पानी उलीचते हैं ।

जलद्वीप
संज्ञा पु० [सं०] एक स्तनपायी जलजंतु । वि० दे० 'जलहस्ती'

जलधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल । २. मुरता । ३. समुद्र । ४. तिनिश । तिनस का पेड़ । ५. जलाशय । तालाब । झील । उ०—बहता दिन बीजइ पछइ राति पडंती देखि । रीही मझि डेरा किया ऊजल जलधर देखि ।—ढोला०, दू० ५९८ ।

जलधर केदारा
संज्ञा पुं० [सं० जलधर + हिं० केदार] एक संकर राग जो मेघ और केदार के योग से बनता है ।

जलधरमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बादलों की श्रीणी । २. बारह अक्षरों की एक वृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में क्रमशः मगण, भगण, सगण और मगण (SSS, SII, IIS, SSS) होते हैं । जैसे—मो भासै मोहन हमको दै योगा । ठानो ऊधो उन कुबजा सों भोगा । साँचो ग्वालागन कर नेहा देखी । प्रेमाभक्ती जलधरमाला लेखो ।

जलधरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्थर का या धातु आदि का बना हुआ वह अर्घा जिसमे शिबलिंग स्थापित किया जाता है । जलहरी ।

जलधार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शाकद्वीप का एक पर्वत ।

जलधार (२) पु०
संज्ञा स्त्री० [सं० जलधारा] दे० 'जलधारा' ।

जलधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पानी का प्रवाह । पानी की धारा । २. एक प्रकार की तपस्या जिसमें तपस्या करनेवाले पर कोई मनुष्य बराबर धार बाँधकर पानी डालता रहता है ।

जलधारी (१)
वि० [सं० जलधारिन्] [वि० स्त्री० जलधारिणी] पानी को धारण करनेवाला । जलधारक ।

जलधारी (२) पु
संज्ञा पुं० बादल । मेघ । उ०—श्रवण न सुनत, चरण गति वाके, नैन भये जलधारी ।—सूर ।

जलधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । उ०—बाँघ्यो बननिधि नीर— नीधि जलधि सिंधु बारीस । सत्य तोयानिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस ।—मानस, ६ । ५ । २. एक संख्या जो दस शंख की होती है और कुछ लोगों के मत से दस नील की । ३. चार की संख्या (को०) ।

जलधिगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लक्ष्मी । २. नदी । दरिया ।

जलधिज
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

जलधिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मी [को०] ।

जलधिरशाना
संज्ञा स्त्री० [सं०] समुद्र रूपी करधनीवाली अर्थात् पृथिवी [को०] ।

जलधेनु
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार दान के लिये एक प्रकार की कल्पित धेनु । विशेष—इस धेनु की कल्पना जल के घड़े में दान के लिये की जाती है । इस दान का विघान अनेक प्रकार के महापातकों से मुक्त होने के लिये है, और इस दान का लेनेवाला भी सब प्रकार के पातकों से मुक्त हो जाता है ।

जलन
संज्ञा स्त्री० [सं०ज्वलन, हिं० जलना] १. जलने की पीड़ा या दुःख । मानसिक वेदना या ताप । दाह । २. बहुत अधिक ईर्ष्या या दाह । मुहा०—जलन निकालना = द्वेष या ईर्ष्या से उत्पन्न इच्छा पूरी करना ।

जलनकुल
संज्ञा पुं० [सं०] ऊदबिलाव ।

जलना
क्रि० अ० [सं० ज्वलन] १. किसी पदार्थ का अग्नि के संयोग से अंगारे या लपट के रूप में हो जाना । दग्ध होना । भस्म होना । बलना । जैसे, लकड़ी जलना, मशाल जलना, घर जलना, दीपक जलना । यौ०—जलता बलता=होलिकाष्टक या पितृपक्ष का कोई दिन जिसमें कोई शुभ कार्य नहीं किया जाता । मुहा०—जलती आग=भयानक विपत्ति । जलती आग में कूदना=जान बूझकर भारी विपत्ति में फँसना । २. किसी पदार्थ का बहुत गरमी या आँच के कारण भाफ या कोयले आदि के रूप में हो जाना । जैसे, तवे पर रौटी जलना, कड़ाही में घी जलना, धूप में घास या पौधे का जलना । ३. आँच लगने के कारण किसी अंग का पीड़ित और विकृत होना झुलसना । जैसे, हाथ जलना । मुहा०—जले पर नमक छिड़कना या लगाना=किसी दुःखी या व्याथित मनुष्य को और अधिक दुःख या व्यथा पहुँचाना । जले फफोले फोड़ना=दुःखी या व्यथित व्यक्ति को किसी प्रकार, विशेषकर अपना बदला चुकाने की इच्छा से, और अधिक दुःखी या ब्यथित करना । जले पाँव की बिल्ली=जो स्त्री हरदम घूमती फिरती रहे और एक स्थान पर न ठहर सके । ४. बहुत अधिक डाह । ईर्ष्या या द्वेष आदि के कारणा कुढ़ना । मन हो मन संतप्त होना । यौ०—जलना भूनना=बहुत कुढ़ना । मुहा०—जली कटी या जली भूनी बात=वह लगती हुई बात जो द्वेष, डाह या क्रोध आदि के कारण बहुत व्यथित होकर कही जाय । जल मरना=डाह या ईर्ष्या आदि के कारण बहुत कुढ़ना । द्वेष आदि के कारण बहुत व्यथित हो उठना । उ०— तुम्ह अपनायो तब जनिहौं जब मनु फिरि परिहैं । हरखिहै न अति आदरे निदरे न जरि मरिहै ।—तुलसी (शब्द०) ।

जलनाडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जलानाली' ।

जलनाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] पानी बहने का मार्ग । प्रणाली । नाली । मोरी [को०] ।

जलनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. चार की संख्या ।

जलनिर्गम
संज्ञा पुं० [सं०] पानी का निकास ।

जलनीम
संज्ञा स्त्री० [हिं० जल + नीम] एक प्रकार की कोनिया जो कडुई होती है और प्रायः जलाशयों के निकट दलदली भूमि में उत्पन्न होती है ।

जलनीलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेवार । शैवाल ।

जलनीली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जलनीलिका' ।

जलपंडर पु
संज्ञा पुं० [सं० जल + देश० पंडुर] जलसर्प । पानी का साँप । उ०—सहजाँ सोई सुमिरिये आलस ऊँघ न आन । जन हरिया तन पेखणों ज्यों जलपंडर जान ।—राम० धर्म०, पृ० ५८ ।

जलपक पु
वि० [सं० जलपक्व] जल में पकनेवाला । जल में पका हुआ । उ०—घीपक जलपक जेते गने । कटुवा बटुवा ते सब बने ।—चित्रा०, पृ० १०३ ।

जलपक्षी
संज्ञा पुं० [सं० जलपक्षिन्] वह पक्षी जो जल के आस पास रहता हो ।

जलपटल
संज्ञा पुं० [सं०] बादल । मेघ [को०] ।

जलपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण । २. समुद्र । ३. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र ।

जलपथ
संज्ञा पुं० [सं०] नाली या नहर जिसमें से पानी बहता हो ।

जलपना पु
क्रि० अ०, क्रि० स० [हिं०] दे० 'जल्पना' ।

जलपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] नहर । नाला । जलपथ [को०] ।

जलपाई
संज्ञा स्त्री० [देश०] रुद्राक्ष की जाति का एक पेड़ । विशेष—यह वृक्ष हिमालय के उतरपूर्वीय भाग में तीन हजार फुट की ऊँचाई पर होता है और उत्तरी कनारा और ट्रावनकोर के जंगलों में भी मिलता है । यह रुद्राक्ष के पेड़ से छोटा होता है । इसका फल गूदेदार होता है और 'जंगली जैतून' कहलाता है । इसके कच्चे फलों की तरकारी और अचार बनाया जाता है और पक्के फल यों ही खाए जाते हैं ।

जलपाटल
संज्ञा पुं० [हि० जल + पटल] काजल । उ०—कज्जल जलपाटल मुखी नाग दीपसुत सोच । लोपाँजन दृग लै चली ताहि न देखै कोय ।—नंददास (शब्द०) ।

जलपात्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी का बर्तन । २. जल पीने का बर्तन [को०] ।

जलपान
संज्ञा पुं० [सं०] वह थोड़ा और हलका भोजन जो प्रातः- काल कार्य आरंभ करने से पहले अथवा संध्या को कार्य समाप्त करने के उपरांत साधारण भोजन से पहले किया जाता है । कलेवा । नाश्ता । यौ०—जलपानगृह=वह सार्वजनिक स्थान जहाँ जलपान की सामग्री मिलती हो तथा बैठकर खाने पीने के ब्यवस्था हो ।

जलपारावत
संज्ञा पुं० [सं०] जलकपोत नाम की चिड़िया जो जला- शयों के किनारे रहती है ।

जलपिंड
संज्ञा पुं० [सं० जलपिंड] अग्नि । आग ।

जलपित्त
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि ।

जलपिप्पलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलपीपल ।

जलपिप्पली
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलपीपल नाम की औषधि ।

जलपीपल
संज्ञा स्त्री० [सं० जलपिप्पली] पीपल के आकार की एक प्रकार की गंधहीन औषधि । विशेष—इसका पेड़ खड़े पानी में उत्पन्न होता है । पत्तियाँ बेंत की पत्तियों से मिलती जुलती और कोमल होती हैं । इसके तने में पास पास बहुत सी गाँठें होती हैं और इसकी डालियाँ दो ढाई हाथ लंबी होती हैं । इसके फल पीपल के फल की तरह होते हैं, पर उनमें गंध नहीं होती । यह खाने में तीखी, कड़ुई, कसैली और गुण में मलशोधक, दीपक, पाचक और गरम होती है । इसे 'गंगतिरिया' भी कहते हैं । पर्या०—महाराष्ट्री । शारदी । तोयवल्लरी । मत्स्यादिनी । मत्स्यगंधा । लांगली । शकुलादनी । चित्रपत्री । प्राणदा तृणशीता । बहुशिखा ।

जलपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. लज्जावंती की तरह का एक पौधा जो दलदली भूमि में उत्पन्न होता है । २. कमल आदि फूल जो जल में उत्पन्न होते हैं ।

जलपृष्ठजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेवार ।

जलपोत
संज्ञा पुं० [सं०] पानी का जहाज ।

जलप्पना पु
क्रि० अ० [सं० जल्प] दे० 'जल्पना' । उ०— बीर भद्र अरु रुद्र जलप्पिय । कहौ सत संकर वन थप्पिय ।— पृ० रा०, २५ । ४८२ ।

जलप्रदान
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेत या पितर आदि की उदकक्रिया । तर्पण ।

जलप्रदानिक
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत में स्त्रीपर्व के अंतर्गत एक उपपर्व का नाम ।

जलप्रपा
संज्ञा पुं० [सं०] वह स्थान जहां सर्वसाधारण को पानी पिलाया जाता हो । पौसरा । सबील । प्याऊ ।

जलप्रपात
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी नदी आदि का ऊँचे पहाड़ पर से नीचे स्थान पर गिरना । २. वह स्थान जहाँ किसी ऊँचे पहाड़ पर से नदी नीचे गिरती हो । ३. वर्षाकाल । प्रावृट् ऋतु । जलदागम (को०) ।

जलप्रलय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलप्लावन' ।

जलप्रवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी का बहाव । उ०—भरत दसा तेहि अवसर कैसी । जल प्रवाह जलअलि गति जैसी ।—मानस, ३ । २३३ । २. किसा के शव को नदी आदि में बहा देने की क्रिया या भाव । ३. किसी पदार्थ को बहते हुए जल में छोड़ देना । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

जलप्रांत
संज्ञा पुं० [सं०] नदी या जलाशय के आसपास का स्थान ।

जलप्राय
संज्ञा पुं० [सं०] वह प्रदेश या स्थान जहाँ जल अधिकता से हो । अनूप देश ।

जलप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] १. मछली । २. चातक । पपीहा ।

जलप्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चातकी । २. पार्वती । दुर्गा । दाक्षायणी । [को०] ।

जलप्रेत
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो जल में डूबकर मरने से प्रेत योनि प्राप्त करे ।

जलप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] ऊदबिलाव ।

जलप्लावन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी की बाढ़ जिससे आस पास की भूमि जल में डूब जाय । २. पुराणानुसार एक प्रकार का प्रलय जिसमें सब देश डूब जाते हैं । विशेष—इस प्रकार के प्लावन का वर्णन अनेक जातियों के धर्म- ग्रंथों में पाया जाता है । हमारे यहाँ के शतपथ ब्राह्मण, महाभारत तथा अनेक पुराणों में वर्णित, वैवस्वत मनु का प्लावन तथा मुसलमानों और ईसाइयों के हजरत नूह का तूफान इसी कोटि का है ।

जलफल
संज्ञा पुं० [सं०] सिंघाड़ा ।

जलबंध
संज्ञा पुं० [सं० जलबन्ध] मछली ।

जलबंधक
संज्ञा पुं० [सं० जलबन्धक] पत्थक मिट्टी आदि का बाँध जो किसी जलाशय का जल रोक रखने के लिये बनाया जाता है ।

जलबंधु
संज्ञा पुं० [सं० जलबन्धु] मछली ।

जलबालक
संज्ञा पुं० [सं०] विंध्याचल पर्वत ।

जलबालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] विद्युत् । बिजली ।

जलबिंदुजा
संज्ञा स्त्री० [सं० जलविन्दुजा] यावनाल शर्करा नाम की दस्तावर ओषधि जिसे फारसी में शीरखिश्त कहते हैं ।

जलबिंब
संज्ञा पुं० [सं० जलविम्व] पानी का बुलबुला ।

जलबिडाल
संज्ञा पुं० [सं०] ऊदबिलाव ।

जलविल्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह देश जहाँ जल कम हो । २.केकड़ा । ३. कच्छप । कछुआ (को०) । ४. चौकोर झील या तालाब (को०) ।

जलबुद् बुद
संज्ञा पुं० [सं०] पानी का बुल्ला । बुलबुला ।

जलबेत
संज्ञा पुं० [सं० जलवेतस् या जलवेत्र] जलाशयों के निकट की भूमि में पैदा होनेवाला एक प्रकार का बेत । विशेष—इस बेत का पेड़ लता के आकार का होता है । इसके पत्ते बाँस के पत्तों की तरह होते हैं और इसमें फल फूल आते ही नहीं । कुरसियाँ, बेंचें इत्यादि इसी बेत के छिलके से बुनी जाती हैं ।

जालबेली
संज्ञा स्त्री० [सं० जलवल्ली] जल में या जल के कारण उत्पन्न होनेवाली लताएँ । उ०—भय दिवाह आहुट्ठ दुति तपसरनी कौ कोप । जलबेली बिहु बागांब्रिष ते जिन भए अलोप ।—पृ० रा०, १ । ४९५ ।

जलब्रह्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिलमोची या हुरहुर का साग ।

जलब्राह्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जलब्रह्मी' ।

जलभँगरा
संज्ञा पुं० [हिं० जल + भँगरा] एक प्रकार का भँगरा जो पानी में या पानी के किनारे होता है ।

जलभँवरा
संज्ञा पुं० [हिं० जल + भँवरा] काले रंग का एक कीड़ा जो पानी पर बड़ी शीघ्रता से दौड़ता है । इसे भँवरा भी कहते हैं ।

जलभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलपात्र' ।

जलभालू
संज्ञा पुं० [हिं० जल + भालू] सील की जाति का एक जंतु । विशेष—यह आकार में आठ नौ हाथ लंबा होता है और इसके सारे शरीर में बड़े बड़े बाल होते हैं । यह झुड़ों में रहता है और इसकी सत्तर से अस्सी तक मादाओं कें झुंड़ में एक ही नर रहता है । यह पूर्व तथा उत्तरपूर्व एशिया और प्रशांत महासागर के उत्तरी भागों में अधिकता से पाया जाता है ।

जलभीति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलत्रास' ।

जलभू (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । २. एक प्रकार का कपूर । ३. जलचौलाई । ४. वह स्थान जहाँ जल एकत्र कर रखा जाता है (को०) ।

जलभू (२)
संज्ञा स्त्री० वह भूमि जहाँ जल अधिक हो । जलप्राय भूमि कच्छ । अनूप ।

जलभू (३)
वि० जलीय । जल में उत्पन्न [को०] ।

जलभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] वायु । हवा ।

जलभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । बादल । २. एक प्रकार का कपूर । ३. जल रखने का पात्र या बरतन ।

जलमंडल
संज्ञा पुं० [सं० जलमण्डल] एक प्रकार की बड़ी मकड़ी जिसके विष के संसर्ग से मनुष्य मर जा सकता है । चिरैया बुदकर ।

जलमंडूक
संज्ञा पुं० [सं० जलमण्डूक] प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा । जलदर्दुर ।

जलम †
संज्ञा पुं० [सं० जन्म; पु० हिं० जनम] दे० 'जन्म' ।

जलमाक्षिका
संज्ञा पुं० [सं०] जलनिवासी एक कीट [को०] ।

जलमग्न
वि० [सं०] जल में डूबा हुआ । जल में निमग्न [को०] ।

जलमदगु
संज्ञा पुं० [सं०] एक जलपक्षी । मछरंग । कौड़िल्ला ।

जलमधूक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलमहुआ' ।

जलमय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. शिव की एक मूर्ति ।

जलमय (२)
वि० जल से पूर्ण या जलनिर्मित [को०] ।

जलमर्कट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलकपि' ।

जलमल
संज्ञा पुं० [सं०] फेन । झाग ।

जलमसि
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल । मेघ । २. एक प्रकार का कपूर ।

जलमहुआ
संज्ञा पुं० [सं० जलमधूक] एक प्रकार का महुआ जो दक्षिण में कोंकण की और जलाशयों के निकट होता है । विशेष—इसकी पत्तियाँ उत्तरी भारत के महुए की पत्तियों से बड़ी होती हैं और फूल छोटे होते है । वेद्यक में यह ठंढ़ा, ब्रणनाशक, बलवीर्यवर्धक तथा रसायन और वमन को दूर करनेवाला माना गया है । पर्या०—दीर्घपत्रक । ह्रस्वपुष्पक । स्वादु । गौलिका । मधूलिका । क्षौद्रप्रिय । पतंग । कीरेष्ठ । गौरिकाक्ष । मांगल्य । मधुपुष्प ।

जलमातंग
संज्ञा पुं० [सं० जलमातङ्ग] दे० जलहस्ती [को०] ।

जलमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की देवियाँ जो जल में रहनेवाली मानी गई हैं । ये गिनती में सात हैं । इनके नाम है—(१) मस्सी; (२) कूर्मी; (३) वाराही; (४) दुर्दुरी; (५) मकरी; (६) जलूका और (७) जंतुका ।

जलमानुष
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जलमानुषी] परीरू नामक एक कल्पित जलजंतु जिसकी नाभि से ऊपर का भाग मनुष्य का सा और नीचे का मछली के ऐसा होता है । उ०— तुरत तुरंगम देव चढ़ाई । जलमानुष अगुआ सँग लाई ।—

जलमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलपथ' [को०] ।

जलमार्जार
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊदबिलाव ।

जलमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेघमाला । बादलों का समूह । उ०— बादल काला बरसिया अत जलमाला आँण । काम लगों चाला करण मतवाला रँग माँण ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ७ ।

जलमुक पु
संज्ञा पुं० [सं० जलमुक्, जलमुच्] मेघ । बादल । दे० 'जलमुच्' । उ०—नीरंद छीरद अंबुबह बारिद जलमुक नाँउ ।—अनेकार्थ०, पृ० ८२ ।

जलमुच्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल । मेघ । २. एक प्रकार का कपूर ।

जलमुर्गा
संज्ञा पुं० [हिं०] जलकुक्कुट । मुर्गाबी ।

जलमुलेठी
संज्ञा स्त्री० [सं० जलयष्टि] जलाशय के तट पर पैदा होनेवाली मुलेठी ।

जलमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] शिव ।

जलमूर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] करका । ओला ।

जलमोद
संज्ञा पुं० [सं०] उशीर । खस ।

जलयंत्र
संज्ञा पुं० [सं० जलयन्त्र] १. वह यंत्र (रहट, चरखी आदि) जिससे कुएँ आदि नीचे स्थानों से पानी ऊपर निकाला या उठाया जाता है । २. जलघड़ी । ३. फुहारा । फौआरा । यौ०—जलयंत्रगृह=फुहारा घर । वह घर जिसमें फुहारे लगे हों । जलयंत्रमांदिर= दे० 'जलयंत्रगृह' ।

जलयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह यात्रा जो अभिषेक आदि के निमित्त पवित्र जल लाने के लिये की जाती है । २. राजपुताने में प्रचालित एक उत्सव । विशेष—यह देवोत्थापिनी एकादशी के बाद चतुर्दशी को होता है । उस दिन उदयपुर के राणा अपने सरदारों के साथ सजकर बड़े समारोह से किसी ह्रद के पास जाकर जल की पूजा करते हैं । ३. वैष्णवों का एक उत्सव जो ज्येष्ठ की पूर्णिमा को होता है । इस दिन विष्णु की मूर्ति की खूब ठंढ़े जल से स्नान कराया जाता है ।

जलयान
संज्ञा पुं० [सं०] सवारी जो जल में काम आती है । जैसे, नाव, जहाज आदि ।

जलयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं० जल + युद्ध] पानी में होनेवाली लड़ाई । जलपोतों द्वारा युद्ध ।

जलरंक
संज्ञा पुं० [सं० जलरङ्क] बक । बगुला ।

जलरंकु
संज्ञा पुं० [सं० जलरङ्क] बनमुर्गी । जलकुवकुट । मुर्गाबी ।

जलरंज
संज्ञा पुं० [सं० जलरञ्ज] एक प्रकार का बगुला ।

जलरंड
संज्ञा पुं० [सं० जलरण्ड] १. आवर्त । भँवर । २. पानी की बूंद । जलकण । ३. साँप । सर्प ।

जलरख पु
संज्ञा पुं० [सं० जल + हिं० रख] यक्ष । जल के रखवारे । वरुण के सिपाही । उ०—तूझ तुरंगाँ दान रा हिमगिर तलहटियाँह । गाने गीत तुरंगमुख जलरख जल बटियाँह ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ९ ।

जलरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्री या साँभर नमक । २. नमक ।

जलराक्षसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल में रहनेवाली राक्षसी जिसका नाम सिंहिका था और जो आकाशनामी जीवों की छाया से उन्हें अपने और खींच लेती थी ।

जलराशि
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कर्क, मकर, कुंभ और मीन राशियाँ । २. समुद्र ।

जलरास पु
संज्ञा पुं० [सं० जलराशि] समुद्र । जल का पुंजीभूत रूप । सागर । उ०—जैसे नदी समुद्र समावै द्वैत भाव ताजि ह्वै जलरास ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ०१५६ ।

जलरुंड
संज्ञा पुं० [सं० जलरुण्ड] दे० 'जलरंड' ।

जलरुह
संज्ञा पुं० [सं०] कमल ।

जलरूप
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकर राशि । २ नक्र । मकर (को०) ।

जललता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पानी की लहर । तरंग ।

जललोहित
संज्ञा पुं० [सं०] एक राक्षस का नाम ।

जलवरंट
संज्ञा पुं० [सं० जलवरण्ट] जल के अधिक संसर्ग से होनेवाली एक प्रकार की पिटिका या व्रण [को०] ।

जलवर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ का एक भेद । उ०—सुनत मेघवर्तक साजि सैन लै आये । जलवर्त, वारिवर्त पवनवर्त, बीजुवर्त, आगिवतंक जलद संग ल्याये ।—सूर (शब्द०) । २. दे० 'जलावर्त' ।

जलवार्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का जलपक्षी [को०] ।

जलवल्कल
संज्ञा पुं० [सं०] जलकुंभी ।

जलवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] सिंघाड़ा ।

जलवा
संज्ञा पुं० [अ० जल्वह्] १. शोभा । दीप्ति । तड़क भड़क । उ०—जहाँ देखो वहाँ मौजूद मेरा कृष्ण प्यारा है । उसी का सब है जलवा जो जहाँ में आशाकारा है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ८५१ । २. प्रदर्शतन । नुमाइश । ३. दीदार । दर्शन (को०) । यौ०—जलवागर=प्रकट । प्रत्यक्ष । उ०—हुआ जब आइने में जलवागर मैं तब लिया बोसा । जो आया अपने काबू में तो फिर मुँह देखना क्या है ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० २६ ।

जलवाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक बाजा । उ०—जलाघात, जलवाद, चित्रयोग्य मालाग्रंथन ।—वर्ण०, पृ० २० ।

जलवाना
क्रि० स० [हिं० जलाना] जलाने का प्रेरणार्थक रूप । जलाने का काम दूसरे से कराना ।

जलवानीर
संज्ञा पुं० [सं०] जलबेत । अंबुबेतस् ।

जलवायस
संज्ञा पुं० [सं०] कौड़िल्ला पक्षी ।

जलवायु
संज्ञा पुं० [सं० जल + वायु] आबहवा । मौसम ।

जलवालुक
संज्ञा पुं० [सं०] विंध्य पर्वत श्रेशी [को०] ।

जलवास
संज्ञा पुं० [सं०] १. उशीर । खस । २. विष्णुकंद ।

जलवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । वारिवाह । २. वह व्यक्ति जो जल ढोता हो (को०) । ३. एक प्रकार का कपूर (को०) ।

जलवाहक, जलवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] जल ढोनेवाला व्यक्ति । पनभरा । जलघड़िया [को०] ।

जलविंदुजा
संज्ञा स्त्री० [सं० जलविन्दुजा] दे० 'जलबिंदुजा' ।

जलविषुव
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष के अनुसार एक योग जो सूर्य के कन्या राशि से मिलकर तुला राशि में संक्रामित होने के समय होता है । तुला संक्राति ।

जलवीर्य
संज्ञा पुं० [सं०] भरत के एक पुत्र का नाम ।

जलवृश्चिक
संज्ञा पुं० [सं०] झींगा मछली ।

जलवेत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलबेत' ।

जलवेतस्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलबेत' ।

जलवैकृत
संज्ञा पुं० [सं०] एक अशुभ योग । पानी या जलाशय में आकस्मिक विकार या अदभुत बातों का दिखाई पड़ना । विशेष—बृहत् संहिता के अनुसार नगर के पास से नदी का सरक जाना, तालाबों का अचानक एकबारगी सूख जाना, नदी के पानी में तेल, रक्त, मांस आदि बहना, जल का अकारण मैलाहो जाना, कुएँ में धुआँ, ज्वाला आदि देख पड़ना, उसके पानी का खौलने लगना या उसमें से रोने, गाने, गर्जने आदि के शब्दों का सुनाई पड़ना, जल के गंध, रस आदि का अचानक बदल जाना, जलाशय के पानी का बिगड़ जाना, इत्यादि इस योग में होते हैं । यह अशुभ माना गया है और इसकी शांति का कुछ विधान भी उसमें दिया गया है ।

जलव्यथ जलव्यध
स्त्री० पुं० [सं०] कंकमोट या कौआ नाम की मछली ।

जलव्याघ्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जलव्याघ्री] सील की जाति का एक जंतु जो बड़ा क्रूर और हिंसक होता हैं । विशेष—डील डौल में यह जलभालू से कुछ ही बड़ा होता है पर इसके शरीर पर के बाल जलभालू के बालों की तरह बहुत बड़े नहीं होते । इसके शरीर पर चीते की तरह दाग या धारियाँ होती हैं । यह प्रायः दक्षिण सागर में सेटलैंड नामक टापू के पास होता है ।

जलव्याल
संज्ञा पुं० [सं०] जलगर्द । पानी में का साँप ।

जलशय
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु ।

जलशयन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलशय' ।

जलशर्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्षोपल । करका । ओला [को०] ।

जलशायी
संज्ञा पुं० [सं० जलशायिन्] विष्णु ।

जलशुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोंघा [को०] ।

जलशुनक
संज्ञा पुं० [सं०] जल का नकुल । ऊदविलाव [को०] ।

जलशूक
संज्ञा पुं० [सं०] सेवार । काई ।

जलशूकर
संज्ञा पुं० [सं०] कुंभीर या नाक नामक जलजंतु ।

जलशोष
संज्ञा पुं० [सं०] सूखा । अनावृष्टि [को०] ।

जलसंघ
संज्ञा पुं० [सं०] धृतराषट्र के एक पुत्र का नाम । विशेष—महाभारत में लिखा है कि इसने सात्यकि के साथ भीषण युद्ध करके तोमर से उसका बायाँ हाथ तोड़ दिया था । अंत में यह सात्यकि के हाथ से मारा गया था ।

जलसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. नहाना । स्नान करना । २. घोना । पखारना । ३. मुर्दे को जल में बहा देना । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

जलसमाधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] योग के अनुसार जल में डूबकर प्राणत्याग । क्रि० प्र०—लेना । २. शव आदि को जल में ड्डबाना या तिरोहित करना । क्रि० प्र०—देना ।

जलसमुद्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणनुसार सात समुद्रों में से अंतिम समुद्र ।

जलसर्पिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलसा
संज्ञा पुं० [अ० जलसह] १. आनंद या उत्सव मनाने के लिये बहुत से लोगों का एक स्थान पर एकत्र होना, विशेषतः लोगों का वह जमावड़ा जिसमें खाना पीना, गाना बजाना, नाच रंग और आमोद प्रमोद हो । जैसे,— कल रात को सभी लोग जलसे में गए थे । २. सभा, समिति आदि का बड़ा आधिवेशन जिसमें सर्वसाधारण सम्मिलित हों । जैसे,—परसों आर्य समाज का सालाना जलसा होगा ।

जलसाई पु
संज्ञा पुं० [सं० जलशायी] भगवान् विष्णु । उ०—नींद, भूख अरु प्यास तजि करती हो तन राख । जलसाई बिन पूदिहैं क्यों मन के अभिलाख ।—माति० ग्रं०, पृ० ४४५ ।

जलसिंह
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जलसिंही] सील की जाति का एक जंतु । विशेष—यह जंतु, पाँच सात गज लंबा होता है और इसके सारे शरीर में ललाई लिए पीले रंग के या काले भूरे बाल होते हैं । इसकी गर्दन पर सिंह की तरह लंबे लंबे बाल होते हैं । यह अत्यंत बली और शांत प्रकृति का होता है । यह अमेरिका और एशिया के बीच 'कमचटका' उपद्वीप तथा 'क्यूरायल' आदि द्वीपों के आस पास मिलता है । यह झुंड़ में रहता है । इसकी गरज बड़ी भयानक होती है और तंग किए जाने पर यह भयंकर रूप से आक्रमण करता है ।

जलसिक्त
वि० [सं०] जल से खींचा हुआ । गीला । आद्र [को०] ।

जलसिरस
संज्ञा पुं० [सं० जलशिरिष] जल में या जलाशय के अति निकट पैदा होनेवाला एक प्रकार का सिरस वृक्ष जो साधारण सिरस वृक्ष से बहुत छोटा होता है । इसे कहीं कहीं ढाढोन भी कहते हैं ।

जलसीप
संज्ञा स्त्री० [सं० जलशुक्ति] वह सीप जिसमें मोती होता है ।

जलसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल । जलज । उ०—जलसुत प्रीतम जानि तास सम परम प्रकासा । अहिरिपु मध्य कियौ जिनि निश्चल बासा ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, (जी०), पृ० ११० । यौ०—जलसुत प्रीतम=सूर्य । २. मोती । मुक्ता । उ०—श्याम हृदय जलसुत की माला, अतिहि अनूपम छाजै (री) । मनहुँ बलाक भाँति नव घन पर, यह उपमा कछु भ्राजै (री) ।—सूर०, १० । १८०७ ।

जलसूचि
संज्ञा पुं० [सं०] सूँस । शिशुमार । २. बड़ा कछुआ । ३.जोंक । ४. एक प्रकार का पौधा जो जल मे पेदा होता है । ५. कौआ । ६. कंकमोट या कौआ नाम की मछली । ७. सिंघाड़ा ।

जलसूत
संज्ञा पुं० [सं०] नहरुआ रोग ।

जलसूर्य, जलसूर्यक
संज्ञा पुं० [सं०] पानी में व्यक्त सूर्य का प्रतिर्बिब [को०] ।

जलसेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सींचना । पानी देना । जल का छिड़काव ।

जलसेचन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलसेक' ।

जलसेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सेना जो जहाजों पर चढ़कर समुद्र में युद्ध करती हो । जहाजी बेड़ों पर रहनेवाली फौज । नोसेना । समुद्री सेना ।

जलसेनापति
संज्ञा पुं० [सं०] वह सेनापति जिसकी अधीनता में जलसेना हो । समुद्री सेना का प्रधान अधिकारी जिसकी अधीनता में बहुत से लड़ाई के जहाज और जलसैनिक हों । जल या नौसेना का प्रधान या अध्यक्ष । नौसेनापति ।

जलसेनी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली ।

जलस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० जलस्तम्भ] एकक दैवी घटना जिसमें जलाशयों या समुद्र में आकाश से बादल झुक पड़ते हैं और बादलों से जल तक एक मोटा स्तंभ सा बन जाता है । सूंड़ी । विशेष—यह जलस्तंभ कभी कभी सौ गज तक व्यास का होता है । जब यह बनने लगता है, तब आकाश में बादल स्तंभ के समान नीचे झुकते हुए दिखाई पड़ते हैं और थोड़ी ही देर में बढ़ते हुए जल तक पहुँचकर एक मोटे खंभे का रूप धारण कर लेते हैं । यह स्तंभ नीचे की ओर कुछ अधिक चौड़ा होता है । यह बीच में भूरे रंग का, पर किनारे की ओर काले रंग का होता है । इसमें एक केंद्ररेखा भी होती है जिसके आस पास भाप की एक मोटी तह होती है । इससे जलाशय का पानी ऊपर को खिंचने लगता है और बड़ा शोर होता है । यह स्तंभ प्रायः घंटों तक रहता है और बहुधा बढ़ता भी है । कभी कभी कई स्तंभ एक साथ ही दिखाई पड़ते हैं । स्थल में भी कभी कभी ऐसा स्तंभ बनता है जिसके कारण उस स्थान पर जहाँ वह बनता है, गहरा कुंड बन जाता है । जब यह नष्ट होने को होता है, तब ऊपर का भाग तो उठकर बादल में मिल जाता है और नीचे का पानी हो कर पानी बरस पड़ता है । लोग इसे प्रायः अशुभ और हानिकारक समझते हैं ।

जलस्तंभन
संज्ञा पुं० [सं० जलस्तम्भन] मंत्रादि से जल की गति का अवरोध करना । पानी बाँधना । विशेष—दुर्योधन को यह विद्या थी अतएव वह शल्य के मारे जाने के बाद द्वैपायन ह्रद में जल का स्तंभन करके पड़ा था । इसका विशेष विवरण महाभारत में शल्य पर्व के २९ वें अध्याय में द्रष्टव्य है ।

जलस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] जल थल । जल और जमीन ।

जलस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंडदूर्वा ।

जलस्थान, जलस्थाय
संज्ञा पुं० [सं०] पानी का स्थान । जलाशय । तालाब [को०] ।

जलस्राव
संज्ञा पुं० [सं०] एक नेत्ररोग [को०] ।

जलस्रोत
संज्ञा पुं० [सं०] जल का सोता । चश्मा । जलप्रवाह [को०] ।

जलह
संज्ञा पुं० [सं०] जल के फौवारोंवाला छोटा स्थान । वह स्थान जहाँ फुहारा लगा हो [को०] ।

जलहड्ड †
संज्ञा पुं० [हिं० जल + हड्डी] मोती । उ०—तै सौ लाख समापिया रावल लालच छडु । साँसण सीचाँण जिसा, जेथ हूलै जलहड्ड ।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ८० ।

जलहर (१) पु
वि० [हिं० जल + हर] जलमय । जल से भरा हुआ । उ०—दादू करता करत निमिष में जल माँहे थल थाप । थल माँ है जलहर करै, ऐसा समरथ आप ।—दादू (शब्द०) ।

जलहर (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० जलधर, प्रा० जलहर] १. मेघ । बादल । उ०—बिज्जुलियाँ नीलज्जियाँ जलहर तूँ ही लज्जि । सूनी सेज विदेस प्रिय मधुरइ मधुरइ गज्जि ।—ढोला०, दू० ५० । २. तालाब । सरवर । जलाशय । उ०—(क) बिरह जलाई मैं जलूँ जलती जलहर जाउ । मों देखे जलहार जलै संतों कहा बुझाउँ ।—कबीर (शब्द०) । (ख) नैना भए अनाथ हमारे । मदन गोपाल वहाँ ते सजनी सुनियत दूर सिघारे । वे जलहर हम मीन बापुरी कैसे जियहिं निनारे ।—सूर (शब्द०) । (ग) सुंदर सोल सिंगार सजि गई सरोवर पाल । चंद मुलक्यउ जल हँस्यउ जलहर कंपी पाल ।—ढोला०, दू० ३९४ ।

जलहरण
संज्ञा पुं० [सं०] बत्तीस अक्षरों की एक वणंवृति या दंडक जिसके अंत में दो लघु पड़ते हैं । इसमें सोलहवें वर्ण पर थति होती है । जैसे,—भरत सदा ही पूजे पादुका उतै सनेम, इते राम सिय बंधु सहित सिधारे बन । सूपनखा कै कुरूप मारे खल झुँड घने, हरी दससीस सीता राघव विकल मन ।

जलहरी
संज्ञा स्त्री [सं० जलधरी] १. पत्थर या धातु आदि का वह अर्घा जिसमें शिवलिंग स्थापित किया जाता हैं । उ०— लिंग जलहरी घर वर रोपा ।—कबीर सा०, पृ० १५८१ । २. एक बर्तन जिसमें नीचे पानी भरा रहता है । लोहार इसमें लोहा गरम करके बुझाते हैं । ३. मिट्टी का घड़ा जो गरमी के दिनों में शिवलिंग के ऊपर टाँगा जाता है । इसके नीचे एक बारीक छेद होता है जिसमें से दिन रात शिवलिंग पर पानी टपका करता है । क्रि० प्र०—चढ़ना ।—चढ़ाना ।

जलहस्ती
संज्ञा पुं० [सं०] सील की जाति का एक जलजंतु जो स्तनपायी होता है । विशेष—यह प्रायः छह से आठ गज तक लंबा होता है और इसके शरीर का चमड़ा बिना बालों का और काले रंग का होता है । इसके मुँह में ऊपर की और १६ और नीचे की और १४ दाँत होते हैं । यह प्रायः दक्षिण महासागर में पाया जाता है, पर जब वहाँ अधिक सरदी पड़ने लगती है, तब यह उत्तर की और बढ़ता है । नर की नाक कुछ लंबी और सूंड़ की तरह आगे को निकली हुई होती है और वह प्रायः १५—२० मादाओं के झुंड में रहता है । गरमी के दिनों में इसकी मादा एक या दो बच्चे देती है । इसका मांस काले रंग का और चरबी मिला होता है और बहुत गरिष्ठ होने के कारण खाने योग्य नहीं होता । इसकी चरबी के लिये, जिससे मोमबत्तियाँ आदि बनती हैं, इसका शिकार किया जाता है । प्रयत्न करने पर यह पाला भी जा सकता है ।

जलहार
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जलहरी] पानी भरनेवाला । पनिहारा ।

जलहारक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलहार' ।

जलहारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पानी भरनेवाली । पनिहारिन । २. नाली । जल के निकास की प्रणाली (को०) ।

जलहारी
संज्ञा पुं० [सं० जलहारिन्] [स्त्री० जलहारिणी] पनिहारा । जलहारक ।

जलहालम
संज्ञा पुं० [सं० जल + देश० हालम] एक प्रकार का हालम या चंसुर वृक्ष जो जलाशयों के निकट होता है । इसकी पत्तियाँ सलाद या मसाले की तरह काम में आती हैं और बीजों का उपयोग औषध में होता हैं ।

जलहास
संज्ञा पुं० [सं०] १. झाग । फेन । २. समुद्र का फेन । समुद्रफेन ।

जलहोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का होम जिसमें वैश्वदेवादि के उद्देश्य से जल में आहुति दी जाती है ।

जलांचल
संज्ञा पुं० [सं० जलाञ्चल] १. पानी की नहर । पानी का सोता । २. झरना । निर्झर (को०) । ३. सेवार । काई (को०) ।

जलांजल
संज्ञा पुं० [सं० जलाञ्चल] १. सेवार । २. सोता । स्रोत ।

जलांजलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पानी भरी अँजुली । २. पितरों या प्रेतादिक के उद्देश्य से अंजुली में जल भरकर देना । मुहा०—जलांजलि देना = त्थाग देना । छोड़ देना । कोई संबंध न रखना ।

जलांटक
संज्ञा पुं० [सं० जलाण्टक] मगर । नक । नाक [को०] ।

जलांतक
संज्ञा पुं० [सं० जलान्तक] १. सात समुद्रों में से एक समुद्र २. हरिवंश के अनुसार कुष्णचंद्र का एक पुत्र जो सत्यभामा गर्भ से उत्पन्न हुआ था ।

जलांबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० जलाम्बिका] कूप । कुआँ ।

जलाक
संज्ञा स्त्री० [हिं० जलना] १. पेट की जलन । २. तीक्ष्ण धूप की लपट । ३. लू ।

जलाकर
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र, नदी, कूप, स्रोत, जलाशय आदि जो जलयुक्त हों ।

जलाकांक्ष
संज्ञा पुं० [सं० जलाकाड्क्ष] हाथी ।

जलाकांक्षी
संज्ञा पुं० [सं० जलाकाङ्क्षिन्] दे० 'जलाकांक्ष' ।

जलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलाकाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल में आकाश का प्रतिबिंब । २. जलगत आकाश या शून्य [को०] ।

जलाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलपीपल । जलपिप्पली ।

जलाखु
संज्ञा [सं०] ऊदबिलाव ।

जलाजल पु
संज्ञा पुं० [हिं० झलाझल] गोटे आदि की झालर । झलाझल । उ०—गति गयंद कुच कुंभ किंकिणी मनहुँ घंट झहनावै । मोतिन हार जलाजल मानो खुमीदंत झलकावै ।— सूर (शब्द०) ।

जलाटन
संज्ञा पुं० [सं०] कंक नामक पक्षी ।

जलाटनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलाटीन
संज्ञा पुं० [अं० जेलाटीन] एक प्रकार की सरेस । दे० 'जेलाटीन' ।

जलातंक
संज्ञा पुं० [सं० जलातङ्क] जलत्रास नामक रोग ।

जलातन
वि० [हिं० जलना + तन] १. क्रोधी । बिगड़ैल । बदमिजाज । २. ईर्ष्यालु । डाही ।

जलात्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जोंक । २. कुआँ । कूप ।

जलात्यय
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा की समाप्ति का काल । शरत् काल ।

जलाद पु
संज्ञा पुं० [अ० जल्लाद] दे० 'जल्लाद' । उ०—हो मन राम नाम को गाहक । चौरासी लख जिया जोनि लख भटकत फिरत अनाहक । फरि हियाव सौ सौ जलाद यह हरि के पुर लै जाहि । घाट बाट कहुँ अटक होय नहिं सब कोउ देहि निबाहि ।—सूर० (शब्द०) ।

जलाधार
संज्ञा पुं० [सं०] जल का आधारभूत स्थान । जलाशय [को०] ।

जलाधिदैवत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुणा । २. पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र ।

जलधिप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण । २. फलित ज्योतिष के अनु— सार वह ग्रह जो संवत्सर में जल का अधिपति हो ।

जलाना (१)
क्रि० स० [हिं० 'जलना' का सक० रूप] १. किसी पदार्थ को अग्नि के संयोग से अंगारे या लपट के रूप में कर देना । प्रज्वलित करना । जैसे, आग जलाना, दीया जलाना । २. किसी पदार्थ को बहुत गरमो पहुँचाकर या आँच की सहायता से भाप या कोयले आदि के रूप में करना । जैसे, अँगारे पर रोटी जलाना, काढ़े का पानी जलाना । ३. आँच के द्वारा विकृत या पोड़ित करना । झुलसाना । जैसे—अंगारे से हाथ जलाना । ४. किसी के मन में डाह, ईर्ष्या या द्वेष आदि उत्पन्न करना । किसी के मन में संताप उत्पन्न करना । मुहा०—जला जलाकर मारना=बहुत दुःख देना । खूब तंग करना ।

जलाना पु (२)
क्रि० उ० [हिं० जल + आना(प्रत्य०)] जलमग्न होना । जलमय होना । उ०—महा प्रलय जब होवे भाई । स्वर्ग मृत्यु पाताल जलाई ।—कबीर सा०, पृ० २४३ ।

जलापा (१)
संज्ञा पुं०[हिं० √ जल + आपा(प्रत्य०)] डाह या ईर्ष्या आदि के कारण होनेवाली जलन । क्रि० प्र०—सहना ।—होना ।

जलापा (२)
संज्ञा पुं० [अ० जेलप पाउडर] एक विलायती औपध जो रेचक होती है ।

जलापात
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत ऊँचे स्थान पर से नदी आदि के जल क गिरना । जलप्रपात ।

जलामई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जलमय] जलमय । जल से परिपूर्ण । उ०—समुद्र मध्य डूबि कै उधारि नैन दीजिए । दशौ दिशा जलामई प्रत्मक्ष, ध्यान दीजिए ।—सुंदर, ग्रं०, भा० १, पृ० ५४ ।

जलायुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलार्णव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वर्षाकाल । बरसात । २. समुद्र । सागर (को०) ।

जलार्द्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीला वस्त्र । २. जलसिक्त पंखा । ३. जल से भीगा हुआ पदार्थ या स्थान [को०] ।

जलाल
संज्ञा पुं० [अ०] १. तेज । प्रकाश । उ०—खुदावंद का जलाला दहकती आग के सदृश दिखलाई देता था ।—कबीर मं०, पृ० २०१ । २. महिमा के कारण उत्पन्न होनेवाला प्रभाव । आतंक ।

जलालत
संज्ञा स्त्री० [अ० जलालत] तिरस्कार । अपमान । बेइ- ज्जती । उ०—कुछ देर बाद मंसूबा पलटा । बंबई के कारनामे याद आए । जालालत से नसों में खून दौड़ने लगा, सोचा क्या बंबई में मुँह दिखाएँ ।—काले०, पृ० ३७ ।

जलाली
वि० [अ०] प्रकाशित । दीप्त । आतंकयुक्त । उ०—किया उस उपर यक जलाली नजर, जों हैवत सूँ पानी हुआ सर बसर ।—दक्खिनी०, पृ० ११७ । २. ईश्वरीय । उ०—रूह जलाली करत हलाली, क्यों दोजख आगी जलता है ।—कबीर श०, भा २, पृ० १७ । ३. पराक्रमी । दुर्दम । अजेय । उ०— ऐसी सेन जलाली बर औरंगजेब ।—नट०, पृ० १६७ ।

जलालुक
संज्ञा पुं० [सं०] कमल की जड़ । भसींड़ ।

जलालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलालोका
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जलालुका' [को०] ।

जलावंत पु
वि० [सं० जलवन्त] पानीवाला । जल से परिपूर्ण । उ०—जलावंत इक सिंध अगम है सुखमन सूरत लाया । उलट पलट कै यह मन गरजै गगन मंडल घर पाया ।—पलटू०, पृ० ८१ ।

जलाव
संज्ञा पुं० [हिं० जलना + आव (प्रत्य०)] १. खमीर या आटे आदि का उठना । क्रि० प्र०—आना ।पतला शीरा । २. वह आटा जो उठाया हो । खमीर । ३. किवाम ।

जलावतन
वि० [अ०] [संज्ञा स्त्री० जलावतनी] जिसे देश निकाले का दंड मिला हो । निर्वासित ।

जलावतनी
संज्ञा स्त्री० [अ० जलावतन + ई] दंड़स्वरूप किसी अपराधी का शासक द्वारा देश से निकाल दिया जाना । देश- निकाला । निर्वासन ।

जलावतार
संज्ञा पुं० [सं०] नदी का वह स्थान जहाँ उतरने चढ़ने के लिये नाव आदि लगाई जाती है । धाट [को०] ।

जलावन
संज्ञा पुं० [हिं० जलाना] १. लकड़े, कंड़े आदि जो जलाने के काम में आते हैं । ईंधन । २. किसी वस्तु का वह अंश जो आग में उसके तपाए, जलाए या गलाए जाने पर जल जाता है । जलता । क्रि० प्र०—जाना ।—निकलना । ३. मौसिम में कोल्हू के पहले पहल चलने का उत्सव । भँडरव । विशेष—इसमें वे सब काश्तकार जो उस कोल्हू में अपनी ईख पेरना चाहते हैं, अपने अपने खेत से थोड़ी थो़ड़ी ईख लाकर वहाँ पेरते हैं और उसका रस ब्राह्मणों, भिखारियों आदि को पिलाते तथा उससे गुड़ बनाकर बाँटते हैं ।

जलावर्त्त
संज्ञा पुं० [सं०] पानी का भँवर । नाल ।

जलाशय (१)
वि० [सं०] १. जल में रहनें या शयन करनेवाला । २. मूर्ख । जड़ [को०] ।

जलाशय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ पानी जमा हो । जैसे,—गड़हा, तालाब, नदी, नाला, समुद्र आदि । २. उशीर । खस । ३. सिंघाड़ा । ४. लामज्जक नामक तृण । ५. मत्स्य । मछली (को०) ।

जलाशया
संज्ञा स्त्री० [सं०] र्गुदला । नागरमोथा ।

जलाशयोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] नए बने कूप या तालाब आदि की प्रतिष्ठा । दे० 'जलोत्सर्ग' ।

जलाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृत्तगुंड या दीर्घनाल नाम का तृण । २. जलाशय [को०] । ३. सारस । बक (को०) ।

जलाश्रया
संज्ञा स्त्री० [सं०] शूली घास ।

जलाष्ठीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा और चौकोर तालाब [को०] ।

जलासुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलाहल (१)
वि० [हिं० जलाजल, या सं० जलस्थल] जलमय । उ०—प्रानप्रिया अँसुआन के नीर पनारे भए बहि के भए नारे । नारे भए ते भई नदियाँ नदियाँ नद ह्वै गए काटि किनारे । वेगि चलो जू चलो ब्रज को नंदनंदन चाहत चेत हमारे । वे नद चाहत सिंधु भए अब सिंधु ते ह्वै हैं जलाहल सारे ।—(शब्द०) ।

जलाहल (२)
वि० [हिं० झलाझल] झलझलाता हुआ । चमक दमक । वाला । देदीप्यमान । उ०—कंठसरी बहु क्रांति, मिली मुकता- हलाँ ।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ३६ ।

जलाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल । २. कुमुद । कुँई ।

जलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जली
वि० [अ०] प्रकट । व्यक्त । स्पष्ट । प्रकाशमान । उ०— जिक्रे जली नित ऐसा याद हर दम अल्ला नाँव । यू हर आजा बरतन पूरे नासूत पावे ठाँव ।—दक्खिनी०, पृ० ५५ ।

जलील
वि० [अ० जलील] १. तुच्छ । बेकदर । २. जिसे नीचा दिखाया गया हो । अपमानित । तिरस्कृत ।

जलुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलू, जलूक
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जलू, जलूक] जलौका । जोंक [को०] ।

जलूका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलूस
संज्ञा पुं० [अ० जुलूस] बहुत से लोंगों का किसी उत्सव के उपलक्ष में सज धजकर, विशेषतः किसी सवारी के साथ किसी विशिष्ट स्थान पर जाने या नगर की परिक्रमा करने के लिये चलना । क्रि० प्र०—निकलना ।—निकालना । २. जलसा । धूमधाम । उ०—जोबन जलूस फूस लाये लों नसाय कहा पाप समुदाय मान मातो सान धरि कै ।—दीन० ग्रं०, पृ० १३८ ।

जलेंद्र
संज्ञा पुं० [सं०जलेन्द्र] १. वरुण । २. महासागर । ३. शिव [को०] ।

जलेंधन
संज्ञा पुं० [सं० जलेन्धन] १. बाड़वग्नि । २. वह पदार्थ जिसकी गरमी से पानी सूखता है । जैसे, सूर्य, विद्युत् आदि ।

जलेचर
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] जलचर ।

जलेच्छया
संज्ञा पुं० [सं०] हाथीसूँड़ नाम का पौधा जो पानी में उत्पन्न होता है ।

जलेज
संज्ञा पुं० [सं०] कमल । जलज ।

जलेतन
वि० [हिं० जलना + तन] १. जिसे बहुत जल्दी क्रोध आ जाता हो । जिसमें सहनशीलता बिलकुल न हो । २. जो डाह, ईर्ष्या आदि के कारण बहुत जलता हो ।

जलेबा
संज्ञा पुं० [हिं० जलेबी] बड़ी जलेबी । वि० दे० 'जलेबी' ।

जलेबी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जलाव (=खमीर या शोरा)] १. एक प्रकार की मिठाई जो कुंडलाकर होती है और खमीर उठाए हुए पतले मैदे से बनाई जाती है । विशेष—इसके बनाने की पद्धति यह है कि पतले उठे हुए मैदे को मिट्टी के किसी ऐसे बरतन में भर लेते हैं जिसके नीचे छेद होता है । तब उस बरतन को घी की कड़ाही के ऊपर रखकर इस प्रकार घुमाते हैं कि उसमें से मैदे की धार निकलकर कुंडलाकार होती जाती है । पक चुकने पर उसे घी में से निकालकर शीरे में थोड़ी देर तक डुबो बेते है । मिट्टी के बरतन की जगह कभी कभी कपड़े की पोटली का भी ब्यवहार किया जाता है । २. बरियारे की जाति का एक प्रकार का पौधा । विशेष—यह पौधा चार पाँच हाथ ऊँचा होता है और इसमें पीले रंग के फूल लगते हैं । इसके फूल के अंदर कुंडलाकार लिपटे हुए बहुत से छोटे छोटे बीज होते हैं । ३. गोल घेरा । कुंडली । लपेट । ४. एक प्रकार की आतिशबाजी जी मिट्टी के कसोरे में कुछ मसाले आदि रखकर और ऊपर कागज चिपका कर बनाई जाती है । यौ०—जलेबीदार=जिसमें कई घेरे हों ।

जलेभ
संज्ञा पुं० [सं०] जलहस्ती ।

जलेरुहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूरजमुखी नाम के फूल का पौधा । २. एक गुल्म । कुटुंबिनी [को०] ।

जलेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की अनुचरी एक मातृका का नाम ।

जलेवाह
संज्ञा पुं० [सं०] पानी में गोता लगाकर चीजें निकालने— वाला मनुष्य । गोताखोर ।

जलेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण । २. समुद्र । जलाधिप ।

जलेशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. मछली । २. विष्णु का एक नाम । विशेष—जिस समय सृष्टि का लय होता है, उस समय विष्णु जल में सोते हैं इसी से उनका यह नाम पड़ा हैं ।

जलेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. वरुण ।

जलोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलोच्छ्वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलाशयों में उठनेवाली लहरें जो उनकी सीमा का उल्लंघन करके बाहर गिरती हैं । जल का उमड़कर अपनी सीमा से बाहर गिरना या बहना । २. वह प्रयत्न जो किसी स्थान से जल को बाहर निकालने अथवा उसे किसी स्थान में प्रविष्ट करने के लिये किया जाय ।

जलोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार ताल, कुआँ या वावली आदि का विवाह ।

जलोदर
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें नाभि के पास पेट के चमड़े के नीचे की तह में पानी एकत्र हो जाता है । विशेष—इस रोग में पानी इकट्ठा होने से पेट फूल जाता है और आगे की ओर निकल पड़ता है । वैद्यों का मत है कि घृतादि पान करने और वस्ति कर्म, रेचन और वमन के पश्चात् चटपट ठंढे जल से स्नान करने से शरीर की जलवाहिनी नसें दूषित हो जाती हैं और पानी उतर आता है । इसमें रोगी के पेट में शब्द होता है और उसका शरीर काँपने लगता है ।

जलोद्धतिगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] बारह अक्षरों की एक वर्णवृत्ति जिसके प्रत्येक चरण में जगण, सगण, जगण और सगण होता है (ISI, II S I S I, IIS) । जैसे—जु साजि सुपली हरी हि सिर में । धसे जु बसुदेव रैन जल में । प्रभू चरण को छुआ जमुन में । जलोद्धति गति हरी छिनक में । २. जल बढ़ने की स्थिति ।

जलोद्भवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुँदला । २. छोटी ब्राह्मी ।

जलोद्भूता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुँदला नाम की घास ।

जलोन्नाद
संज्ञा पुं० [सं०] शिव के एक अनुचर का नाम ।

जलोरगी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जोंक ।

जलौकस
संज्ञा पुं० [सं०] जलौका । जोंक ।

जलौका
संज्ञा स्त्री० [सं० जलौकस्] जोंक ।

जल्द
कि्० वि० [अ०] [संज्ञा जल्दी] १. शीघ्र । चटपट । बिना विलंब । २. तेजी से ।

जल्दबाज
वि० [फ्रा० जल्दबाज्र] [संज्ञा जल्दबाजी] जो किसी काम के करने में बहुत, विशेषतः आकश्यकता से अधिक, जल्दी करता हो । बहूत अधिक जल्दी करनेवाला ।

जल्दबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ्रा० जल्दबाजी] उतावली । शीघ्रता ।

जल्दी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ०] शीघ्रता । फुरती ।

जल्दी (२) †
क्रि० वि० [अ० जल्दं] दे० 'जल्द' ।

जल्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथन । कहना । २. बकवाद । व्यर्थ की बरत । प्रलाप । ३. न्याय के अनुसार सोलह पदार्थों में से एक पदार्थ । विशेष—यह एक प्रकार का वाद हे जिसमें वादी छल, जाति और निग्रह स्थान को लेकर अपने पक्ष का मंडन और विपक्षी के पक्ष का खंडन करता है । इसमें वादी का उद्देश्य तत्त्व— निर्णय नहीं होता किंतु स्वपक्ष स्थापन और परपक्ष खंडन मात्र होता है । वाद के समान इसमें भी प्रतिज्ञा, हेतु आदि पाँच अवयव होते हैं ।

जल्पक
वि० [सं०] बकवादी । वाचाल । बातूनी । उ०—तब सोनित की प्यास तृषित राम सायक निकर । तजौं तोहि तेहि त्रास कटु जल्पक निसिचर अधम ।—मानस, ६ । ३२ ।

जल्पन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बकवाद । प्रलाप । गपशप । व्यर्थ की बातें । २. बहुत बढ़कर कही हुई बात । डींग ।

जल्पन (२)
वि० [सं०] बातूनी । जल्पक [को०] ।

जल्पना
क्रि० अ० [सं० जल्पन] व्यर्थ बकवाद करना । बहुत बढ़ चढकर बाते करना । डींग मारना । सीटना । उ०—(क) कट जल्पसि जड़ कपि बल जाके । बल प्रताप बुधि तेज न ताके ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जनि जल्पसि जड़ जतु कपि सठ विलोकु मम बाहु । लोकमाल बल बिपुल ससिग्रसन हेतु सब राहु ।—तुलसी (शब्द०) ।

जल्पना पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल्पन । बकवाद । डींग । उ०— भजि रघुपति करु हित आपना । छाड़हु नाथ तृषा जल्पना ।—मानस, ६ । ५५ ।

जल्पाक
वि० [सं०] व्यर्थ की बहुत सी बातें करनेवाला । जल्पक । बकवादी । वाचक ।

जल्पित
वि० [सं०] १. जो (बात) वास्तव में ठीक न हो । मिथ्या । २. कथित । उक्त । कहा हुआ ।

जल्ला †
संज्ञा पुं० [हिं० झील] १. झील । —(लश०) । २. ताल । ३. होज । ह्रद ।

जल्लाद (१)
संज्ञा पुं० [अ०] वह जिसका काम ऐसे पुरुषों के प्राण लेना हो, जिन्हें प्राणदंड की आज्ञा ही चुकी हो । घातक । बधुआ ।

जल्लाद (२)
वि० कूर । निर्दय । बेरहम ।

जल्हु
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि ।

जल्वा
संज्ञा पुं० [अ० जल्वह्] दे० 'जलवा' । उ०—विना उसके जल्वा के दिखती कोई परी या हूर नहीं । सिवा यार के दूसरे का इस दुनियाँ में नूर नहीं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० १९४ । यौ०—जल्वागार = दे० 'जल्वागार' । जल्वागाह = प्रदर्शनगृह । उ०—भौरों सा रस लेता रहता गाता फिरता तू राहों में । रूप और रस राग भरी इन जीवन की जल्वागाहों में । दीप ज०, पृ० १५३ ।

जल्वागाय पु
[फ़ा० जल्वागाह] दे० 'जल्वागाह' । उ०—जब इस बज्म छब की उख्सी दिखाय । तो जोहर हो ज्यों दिप मने जल्वागाय ।—दक्खिनी०, पृ० १३८ ।

जल्सा
संज्ञा पुं० [अ० जल्सह्] दे० 'जलसा' उ०—रेल में, जहाज में, खाने पीने के जल्सों में, पास बैठने में और बातचीत करने में जानपहचान नहीं समझी जाती ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३३० ।

जव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वेग ।

जव (२)
संज्ञा पुं० [सं० यव] जौ ।

जवन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० जवनी] वेगवान् । वेग- युक्त । तेज ।

जवन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेग । २. स्कंद का एक सैनिक । ३. घोड़ा ।

जवन (३)
संज्ञा पुं० [सं० यवन] दे० 'यवन' । उ०—पृथीराज जैचंद कलह करि जवन बुलायो ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५०७ ।

जवन (४)पु †
सर्व० [सं० यः पुनः٭; प्रा० जउण, या हिं०] दे० 'जौन' अथवा 'जिस' । उ०—जवन विधि मनुवा मरे सोई भाँति सम्हारो हो ।—धरम०, पृ० ९ ।

जवनाल
संज्ञा पुं० [सं० यवनाल] जौ का डंठल । दे० 'यवनाल' ।

जवनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पर्दा । दे० 'यवनिका' । उ०—(क) मोहन काहैं न उगिलौ माटी । बड़ी बार भई लोचन उधरे भरम जवनिंका फाटो । सूर निरखि नँदरानि भ्रमित भई कहति न मीठी खाटी ।—सूर०, १० ।२५४ (ख) द्वार झरो- खनि जवनिका रुचि लै छुटकाऊँ ।—घनानंद, पृ० ३१३ । २. कनात । घेरा (को०) । ३. नाव की पाल (को०) ।

जवनिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० जवनिमन्] गति । वेग । क्षिप्रता [को०] ।

जवनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जवाइन । अजवायन । २. तेजी । वेग ।

जवनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जवनिका' [को०] ।

जवनी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० यवनी] यवनी । यवन स्त्री । मुसलमान स्त्री । उ०—भूषन यों अवनी जवनी कहैं ।—कोऊ कहै सरजा सो हहारे । तू सबको प्रतिपालन हार विचारे भतार न मारु हमारे ।—भूषण ग्रं०, पृ० ५१ ।

जवस्
संज्ञा पुं० [सं०] वेग ।

जवस
संज्ञा पुं० [सं०] घास ।

जवाँ
संज्ञा पुं० [फ़ा० जवान का यौगिक रूप] युवक । युवा । यौ०—जवाँमर्द । जवाँमर्दी । जवाँवख्त = भाग्यवान् । सौभाग्य- शाली । जवाँसाल= युवक । नई उमर का ।

जवाँमर्द
वि० [फ़ा०] [संज्ञा जवाँमर्दी] १. शूरवीर । बहादुर । २. स्वेच्छापूर्वक सेना में भरती होनेवाला सिपाही । वालेंटियर ।

जवाँमर्दी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] वोरता । बहादुरी । मर्दांनगी ।

जवा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जपा' ।

जवा † (२)
संज्ञा पुं० [सं० यव] १. एक प्रकार की सिलाई जिसमें तीन बखिया लगाते है और इस प्रकार सिलाई करके दर्ज को चीरकर दोनों ओर तुरप देते हैं । २. लहसुन का एक दाना ।

जवाइन
संज्ञा स्त्री० [सं० यवानिका, यवानी; हिं० अजवाइन] अज- वाइन । जवाइन ।

जवाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाना, पुं० हिं जावना] १. वह धन जो जाने के उपलक्ष में दिया जाय । २. जाने की क्रिया । गमन । ३. जाने का भाव । यौ०—अवाई जवाई = आवागमन । आना जाना ।

जवाखार
संज्ञा पुं० [सं० यवक्षार] एक प्रकार का नमक जो जौ के क्षार से बनता है । वैद्यक में यह पाचक माना गया है ।

जवाद (१)
संज्ञा पुं० [अ० जबाद] दे० 'जवादि' । उ०—मृग नद जवाद सब चरचि अंग । कसमीर अगर सुर रहिय भ्रंग ।— पृ० रा०, ६ ।११२ ।

जवाद (२)
वि० [अ०] मुक्तहस्त । दानी । यशस्वीं । वदान्य । फैयाज । उ०—पुनि कूरम सौं विरचियौ छोड़ति देखि म्रजाद । बचन जीत तासौं भयौ सूरज आपु जवाद ।—सुजान०, पृ० ३३ ।

जवादानी
संज्ञा स्त्री० [सं० यव > हिं० जवा + दाना] चंपाकली नामक गहना जो गले में पहना जाता है ।

जवादि
संज्ञा पुं० [अ० जब्बाद, जबाद; जबाद; तुल० सं० जवादि] एक सुगांधित द्रव्य जो गंधमार्जार से निकाला जाता है । उ०— पहिले तजि आरस आरसी देखि घरीक धसे घनसारहि लै । पुनि पोंछि गुलाब तिलौंछि फुलेल अगोछे में ओछे अँगोछन कै । कहि केशव भेद जवादि सो माँजि इते पर आँजे में अंजन है । बहूरे हरि देखौं तौ देखों कइ सखि लाज ते लोचन लागे दहैं ।—केशव (शब्द०) । विशेष—राजनिघंटु में इसके गुणों का वर्णन प्राप्त होता है । यह पीले रंग की एक चिकनी लसदार चीज है जो कस्तूरी की तरह महकती है । इसे गौरासार, मृगघर्मज आदि भी कहते हैं । वि० दे० 'गंधबिलाव' ।

जवादि कस्तूरी
संज्ञा स्त्री० [अ० या सं०] दे० 'जवदि' ।

जवाधिक
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत तेज दौड़नेवाला घोड़ा ।

जवान (१)
वि० [फ़ा०] १. युवा । तरुण । यौ०—जवाँमर्द । जवाँमर्दी । २. बीर । बहादुर । पराक्रमी ।

जवान (२) †
संज्ञा पुं० १. मनुष्य । पुरुष । २. सिपाही । ३. बीर पुरुष ।

जवानिल
संज्ञा पुं० [सं०] तीव्रगामी वायु । तेज हवा । आँधी । तूफान [को०] ।

जवानी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवाइन । अजवायन ।

जवानी (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. यौवन । तरुणाई । युवावस्था । २. मस्ती । मद । मुहा०—जवानी उठना या जवानी उभड़ना = यौवन का प्रारंभ होना । तरुणाई का आरंभ होना । जवानी उतरना = उमर ढलना । बुढ़ापा आना । जवानी चढ़ना = (१) यौवन का आगमन होना । तरुणाई का प्रारंभ होना । (२) मद पर आना । मदमत्त होना । जवानी ढलना = उमर खसकना । जवानी उतरना । बुढ़ापा आना । जवानी पर आना = मस्ती में आना । यौवन के मद से मत्त होना । जवानी फटी पड़ना = जवानी का पूर्ण विकास पाना । उठती जवानी = यौवनारंभ । चढ़ती जवानी । उतरती जवानी = यौवनावसान । उमर खसकने की अवस्था । चढ़ती जवानी = यौवनारंभ । जवानी का प्रारंभ होना । उठती जवानी । चढ़ती जवानी माझा ढोला = भरी जयानी में उत्साह की जगह अशक्ततां या कम- जोरी दिखाना ।

जवाब
संज्ञा पुं० [अ०] १. किसी प्रश्न या बात को सुन अथवा पढ़कर उसके समाधान के लिये कही या लिखी हुई बात । उत्तर । यौ०—जवाबदावा । जवाबदारी । जवाबदेही । क्रि० प्र०—देना ।—पाना ।—माँगना ।—मिलना ।—लिखना । मुहा०—जवाब तलब करना = किसी घटना का कारण पूछना । कैफियत माँगना । जवाब मिलना या कोरा जबाब मिलना = निषेधात्मक उत्तर मिलना । २. वह जो कुछ किसी के परिणाम स्वरूप या बदले में किया जाय । कार्यरूप में दिया हुआ उत्तर । बदला । जैसे,—जब उधर से गोलियों की बौछार आंरभ हुई, तब इधर से भी उसका जवाब दिया गया । ३. मुकाबले को चीज । जोड़ । जैसे,—इस तस्वीर के जवाब में इसके सामने भी एक तस्वीर होनी चाहिए । ४. इनकार । अस्वीकार । नहीं करना । ५. नौकरी छूटने की आज्ञा । मौकूफी । जैसे,—कल उन्हें यहाँ से जवाब हो गया । क्रि० प्र०—देना ।—पाना ।—मिलना ।—होना ।

जवाबतलब
वि० [अ०] जिसके संबध में समाधानकारक उत्तर माँगा गया हो । उत्तर या जवाब माँगने लायक ।

जवाबतलबी
संज्ञा स्त्री० [अ० जवाबतल + फ़ा० ई (प्रत्य०)] जबाब माँगना । उत्तर माँगना [को०] ।

जवाबदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० जवाब + फ़ा० दारी(प्रत्य०)] जवाब- देही । उत्तरदाथित्व । उ०—यदि आज भारत की किसी भाषा या साहित्य के सामने जवाबदारी का विराट् प्रशन उपस्थित है तो वह हिंदीभाषा और हिंदी साहित्य के सामने है ।—शुक्ल अभि० ग्रं० (जी०), पृ० १३ ।

जवाबदावा
संज्ञा पुं० [अ० जवाव + हिं० दाता] वह उत्तर जो वादी के निवेदन पत्र के उत्तर में प्रतिवादी लिखकर अदालत में देता है ।

जवाबादिही
संज्ञा स्त्री० [अ० जवाब + फ़ा० दिही] दे० 'जवाब— देही' । उ०— (क) उस्सै जवाबदिही करने के लिये भी रूपे चाहियेंगे ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० २४३ । (ख) मदन मोहन की और से लाला ब्रजकिशोर जवाबदिही करते हैं ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३५७ ।

जवाबदेह
वि० [अ० जवाब + फ़ा दिही] जिसपर किसी बात का उत्तरदायित्व हो । जिम्मेदार ।

जबाबदेही
संज्ञा स्त्री० [अ० जवाब + फ़ा० दिही] १. उत्तर देने की क्रिया । २. उत्तरदायित्व । उत्तर देने का भाव । जिम्मेदारी । जैसे,—मैं अपने ऊपर इतनी बड़ी जवावदेही नहीं लेता ।

जवाबसवाल
संज्ञा पुं० [अ० जवाब + सवाल] १. प्रश्नोत्तर । २. वाद विवाद ।

जबाबी
वि० [अ० जबाब + फ़ा० ई (प्रत्य०)] जवाब संबंधी । जवाब का । जिसका जवाब देना हो । जैसे, जवाबी तार, जवाबी कार्ड ।

जवार (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. पड़ोस । २. आसपास का प्रदेश ।

जवार (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ज्वार] एक अन्न । वि० दे० 'जुआर' ।

जवार (३)
संज्ञा पुं० [अ० जवाल] १. अवनति । बुरे दिन । २. जंजाल । झँझट । भार ।

जवार (४) †
संज्ञा पुं० [हिं० जवाहर] दे० 'जवाहर' । उ०—सो सज्जन सूरे पूरे हैं । हीरे रतन जवार । तुलसी श०, पृ० २१० ।

जवारा
संज्ञा पुं० [हिं० जौ] जौ के हरे हरे अँकुर जो दशहरे के दिन स्त्रियाँ अपने भाई के कानों पर खौंसती हैं या श्रावणी और विजया दशमी में ब्राह्माण अपने यजमानों के हाथों में देते हैं । जई ।

जवारिश
संज्ञा स्त्री० [अ०] वह हकीमी या यूनानी औषघ जो अवलेह या चटनी जैसी होती है [को०] ।

जवारिस पु
संज्ञा स्त्री० [अ० जवारिश] दे० 'जवारिश' । उ०— संत जवारिस सो जन पौंवै, जा कौ ज्ञान प्रगासा ।—धरम०, पृ० ५ ।

जवारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जव] एक प्रकार का हार जिसमें जौ, छुहारे, मोती आदि मिलाकर गुँथे हुए होते हैं और जिसे कुछ जातियों में विवाह के उपरांत ससुर अपनी बहू को पहनाता है ।

जवारी (२)
संज्ञा स्त्री० १. सितार, तंबूरे, सारंगी आदि तारवाले बाजों में लकड़ी या हड्डी आदि का छोटा टुकड़ा जो उन बाजों में नीचे की ओर बिना जुड़ा हुआ रहता है और जिसपर होकर सब तार खूँटियों की ओर जाते हैं । यह टुकड़ा सब तारों को बाजे के तल से कुछ ऊपर उठाए रहता है । घोड़ी । २. तारवाले बाजों में षड़ज का तार । क्रि० प्र०—खोलना ।—चढ़ाना ।—बाँधना ।—लगाना ।

जवाल
संज्ञा पुं० [अ० जवाल] १. अवनति । उतार । धटाव । क्रि० प्र०—आना ।—पहुँचना । पु २. जंजाल । आफ्त । झंझट । बखेड़ा । उ०—छाँड़ि के जवाल जाल महिं तू गोपाल लाल तातें कहि दीनद्याल फंद क्यों फँसातु है ।—दीन० ग्रं०, पृ० १७० । मुहा०—जवाल में पड़ना या फँसना = आफत में फँसना । झंझट या बखेड़े में फँसना । जवाल में डालना = आफत में फँसाना ।

जवाशीर
संज्ञा पुं० [फ़ा० जावशीर] एक प्रकार का गंधाबिरोजा । विशेष—यह कुछ पीले रंग का और कुछ पतला होता है । इसमें से ताड़पीन की गंध आती है । इसका व्यवहार प्रायः औषधों में होता है । वि० दे० 'गंधाबिरोजा' ।

जवास
संज्ञा पुं० [सं० यवासक प्रा०, यवासअ] एक कंटीला क्षुप जिसकी पत्तियाँ करौंदे की पत्तियों के समान होती हैं । उ०—अर्क जवास पात बिनु भएऊ । जस सुराज खल उद्यम गएऊ ।—मानस, ४ ।१५ । विशेष—यह क्षुप नदियों के किनारे बलुई भूमि में आपसे आप उगता है । बरसात के दिनों में इसकी पत्तियाँ गिर जाती हैं । वर्षा के बीत जाने पर यह फलता फूलता है । वैद्यक में इसको कड़ुआ, कसैला, हलका और कफ, रक्त, पित्त, खाँसी, तृष्णा तथा ज्वर का नाशक और रक्तशोधक माना गया है । कहीं कहीं गरमी के दिनों में खस की तरह इसकी टट्टियाँ भी लगाते हैं । पर्या०—यास । यवासक । अनंता । बासपत्र । अधिककंटक । दूर- मूल । समुग्रांत । दीर्घमूल । मरुद्भव । कंटकी । वनदर्भ । सूक्ष्मपत्रा ।

जवासा
संज्ञा पुं० [सं० यवासक, प्रा० जवासअ] दे० 'जवास' ।

जवाह †
संज्ञा पुं० [?] [वि० जवाही] १. आँख का एक रोग जिसमें पलक के भीतर की ओर किनारे पर बाल जम जाते हैं । प्रवाल । परवाल । २. बैलों की आँख का एक रोग जिसमें उनकी आँख के नीचे मांस बढ़ आता है ।

जवाहड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० जवा (= दाना) + हड़] बहुत छोटी हड़ ।

जवाहर
संज्ञा पुं० [अ०] रत्न । मणि ।

जवाहरखाना
संज्ञा पुं० [अ० जवाहर + फा० खानह्] वह स्थान जिसमें बहुत से रत्न और आभूषण आदि रहते हों । रत्नकोष । तोशाखाना ।

जवाहरात
संज्ञा पुं० [अ०, जवाहर का बहुवचन रूप] बहुत से या अनेक प्रकार के रत्न और मणि आदि । जैसे,—अब उन्होंने कपड़े का काम छोड़कर जवाहरात का काम शुरू किया है ।

जवाहिर
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'जवाहर' । उ०—जटिल जवाहिर आभरन छवि के उठत तरंग । लपट गहत कर लपट सी लपट लगी सब संग ।—स० सप्तक, पृ० ३७३ । यौ०—जवाहिरखाना = दे० 'जवाहरखाना' ।

जवाहिरात
संज्ञा पुं० [अ०] जवाहिर का बहुवचन । दे० 'जवाहरात' ।

जवाही
वि० [हिं० जवाह] १. जिसकी आँख में जवाह रोग हुआ हो । २. जवाह रोग युक्त । जैसे, जवाही आँख ।

जविन
वि० [सं०] वेगवान । गतिशील [को०] ।

जवी (१)
वि० [सं० जविन्] वेगयुक्त । वेगवान् ।

जवी (२)
संज्ञा पुं० १. घोड़ा । ऊँठ ।

जवीय
वि० [सं० जवीयस्] अत्यंत वेगवान् । बहुत तेज ।

जवैया †
वि० [हिं० जाना + ऐया (प्रत्य०)] जानेवाला । गमनशील ।

जशन
संज्ञा पुं० [फा० जश्न, मि० सं० यजन] १. धार्मिक उत्सव । २. किसी प्रकार का उत्सव । नाचगान । जलसा । ३. आनंद । हर्ष । क्रि० प्र०—करना । मनाना । होना । ४. वह नाच और गाना जिसमें कई वेश्याएँ एक साथ संमिलित हों । यह बहुधा महफिल या जलसे की समाप्ति पर होता है । उ०—क्यों भाई अब आज जशन होगा न ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५२५ ।

जश्न
संज्ञा पुं० [फा०] दे० 'जशन' । उ०—एक जश्न सा वहाँ जमेगा, मदिराओं के दौर चलेंगें । सेठ हमारे चुने गए है, अबकी कौंसिल के मेंबर ।—मानव, पृ० ६८ ।

जस पु † (१)
क्रि० वि० [सं० याद्दश>जइस>जस, प्रा० जहा] जैसा । उ०—जस जस सुरसा बदन बढ़ावा । तासु दुगुन कपि रूप देखावा ।—तुलसी (शब्द०) ।

जस पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० यश] दे० 'यश' ।

जसद
संज्ञा पुं० [सं०] जस्ता ।

जसवान पु
वि० [सं० यशस्वान्] यशस्वी । जिसका यश चारों और फैला हो । उ०—चढ़े सूर सावंत सब, रूपवान जसवान ।—हम्मीर०, पृ० ५० ।

जसामत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. लंबाई, चौड़ाई और मोटाई, गहराई या ऊँचाई । २. मोटापा । स्थूलता [को०] ।

जसारत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. शूरता । बहादुरी । २. धृषृता । [को०] ।

जंसी
वि० [सं० यशी] कीर्तिवाला । यशवाला । यशस्वी । उ०— जाति की जान देख जौखों में, जो जसी लोग जान पर खेलें ।—चुभते०, पृ० ७ ।

जसीम
वि० [अ०] मोटा । स्थूल । पीवर । पीन [को०] ।

जसु पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यशोदा] नंद की पत्नी । यशोदा । उ०— थोरोई दूघ पूत के हितही । राखति जसु जमाइ नित नित ही ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४८ ।

जसुरि
संज्ञा पुं० [सं०] बज्र ।

जसुदा, जसोदा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० यशोदा ।

जसूँद
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष । विशेष—इस वृक्ष के रेशों से रस्से आदि बनते हैं । इसकी लकड़ी मुलायम होती है और मेज कुर्सी आदि बनाने के काम में आती है । इसे नताउल भी कहते हैं । वि० दे० 'नताउल' ।

जसोमति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'यशोदा' ।

जसोवा, जसोवै पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'यशोदा' । उ०— सो तुम मातु जसोवै, मोहि न जानहु बार । जहँ राजा बलि बाँघा छोरौ पैठि पतार ।—जायसी (शब्द०) ।

जस्टिफाई
संज्ञा पुं० [अं० जस्टिफाई] कंपोज किए हुए मैटर को इस सहूलियत से बैठाना या कसना कि कोई लाइन या पंक्ति छोटी बड़ी या कोई अक्षर इघर उधर न होने पाए । जैसे,— इस पेज का जस्टिफाई ठीक नहीं हुआ है । क्रि० प्र०—करना ।—होना ।

जस्टिस (१)
संज्ञा स्त्री० [अं०] न्याय । इन्साफ [को०] ।

जस्टिस (२)
संज्ञा पुं० वह जो न्याय करने के लिये नियुक्त हो । न्याय— मूर्ति । विचारपति । न्यायाधीश । जैसे—जस्टिस सुंदरलाल । विशेष—हिंदुस्तान में हाईकोर्ट के जज जस्टिस कहलाते हैं ।

जस्टिस आफ दि पीस
संज्ञा पुं० [अं०] [संक्षिप्त रूप जे० पी०] स्थानीय छोटे मैजिस्ट्रेट जो शांतिरक्षा, छोटे मोटे मामलों आदि का विचार करने के लिये नियुक्त किए जाते हैं । शांति— रक्षक । जैसे, आनरेरी मजिस्ट्रेट । विशेष—बंबई में कितने ही प्रतिष्ठित भारतीय जस्टिस आफ दि पीस हैं । इन्हें आनरेरी मजिस्ट्रेट ही समझना चाहिए । जज, मजिस्ट्रेट आदि भी जस्टिस आफ दि पीस कहलाते हैं । अपने महल्ले या आस पास दंग फसाद होने पर वे जस्टिस आफ दि पीस या शांतिरक्षक की हैसियत से शांतिरक्षा की व्यवस्था करते हैं ।

जस्त
संज्ञा पुं० [सं० जसद] दे० 'जस्ता' ।

जस्त
संज्ञा स्त्री० [फा०] छलाँग । कुलाँच । जैसे,—शिकार का आहट पाते ही वह जस्त मारने को तैयार हो जाती ।— संन्यासी, पृ० ५० ।

जस्तई
वि० [हिं० जस्ता] जस्ते के रंग का । खाकी ।

जस्ता
संज्ञा पुं० [सं० जसद] कालापन लिए सफेद या खाकी रंग की एक धातु । विशेष—इस धातु में गंधक का अंश बहुत होता है । इसका ब्यवहार अनेक प्रकार के कार्यों में, विशेषतः लोहे की चादरों पर, उन्हें मोरचे से बचाने के लिये कलई करने, बैटरी में बिजली उत्पन्न करने तथा बरतन बनाने आदि में होता है । भारत में इसकी सुराहियाँ बनती हैं जिनमें रखने से पानी बहुत जल्दी और खूब ठंढा हो जाता है । इसे ताँबे में मिलाने से पीतल बनता है । जर्मन सिलवर बनाने में भी इसका उपयोग होता है । विशेष रासायनिक प्रक्रिया से इसका क्षार भी बनाया जाता है, जिसे 'सफेदा' कहते हैं और जिसका व्यवहार औषधों तथा रंगों में होता है । पहले यह धातु भारत और चीन में ही मिलती थी पर बाद में बेलजियम तथा प्रूशिया में भी इसकी बहुत सी खानें मिलीं । यूरोपवालों को इसका पता बहुत हाल में लगा है ।

जहंदम पु †
[अ० जहन्नम, हिं० जहन्नुम] दे० 'जहन्नुम' । उ०— जगत जहंदम राचिया, झूठे कुल की लाज । तन बिनसें कुल बिनसिहै, गह्यौ न राम जिहाज ।—कबीर ग्रं०, पृ० ४७ ।

जहँ पु †
क्रि० वि० [सं० यत्र, प्रा० जथ्थ, अप० जहँ] दे० 'जहाँ' । उ०—अग्ग गयौ गिरि मिकट विकट उद्यान भयंकर । जहँ न खबरि दिसि बिदसि बहुत जहँ जीव खयंकर ।—पृ० रा०, ६ । ९४ । यौ०—जहँ जहँ = जहाँ जहाँ । जिस जिस जगह । उ०—जहँ जहँ चरण पड़े संतन के तहँ तहँ बंटाधार ।—कहाबत (शब्द०) । जहँ तहँ = जहाँ तहाँ । यत्र तत्र । उ०—जहँ तहँ लोगन्ह डेरा कीन्हा । भरत सोधु सबही कर तीन्हा ।— मानस, २ ।१९८ ।

जहँगीरी
संज्ञा स्त्री० [फा० जहाँगीरी] कलाई का एक आभूषण । वि० दे० 'जहाँगीरी' ।

जहँड़ना †
क्रि० अ० [सं० जहन, हिं० जहँड़ाना] १. घाटा उठाना । हानि उठाना । उ०—हिंदु गूँगा गुरु कहै, मुसलिम गोयमगोय । कहैं कबीर जहँड़े दोऊ, मोह नींद सें सोय ।— कबौर० (शब्द०) । २. धोखे में आना । भ्रम में पड़ना । उ०—अब हम जाना हो हार बाजी को खेल । डंक बजाय देखाय तमाशा बहुरि सो तेल सकेल । हरि बाजी सुर नर मुनि जहँड़े माया चेटक लाया । घर में डारि सबन भरमाया हृदया ज्ञान न आया ।—कबीर (शब्द०) ।

जहड़ाँना †
क्रि० अ० [सं० जहन] १. हानि उठाना । २. धोखे में पड़ना । उ०—सबै लोग जहँड़ा दयी अंधा सभै भुलान । कहा कोई नहिं मानहिं सब एकै माहँ समान ।—कबीर (शब्द०) ।

जहक (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० झकना] १. कुढ़न । चिढ़ । खीझ । २. आवेश । उत्तेजना ।

जहक (२)
वि० [सं०] छोड़ने या त्याग करनेवाला [को०] ।

जहक (३)
संज्ञा पुं० १. समय । २. बालक । शिशु । ३. साँप की केचुल [को०] ।

जहकना (१)
क्रि० अ० [हिं० चहकना] १. मस्त होना । प्रसन्न होना । आनंद से सराबोर होना । उ०—आजु कुंज मंदिर मेंछके रंग दोऊ बैठे, केलि करैं लाज छोड़ि रंग सों जहकि जहकि ।—भारतेंदु र्ग्र०, भा० २, पृ० १५० । २. उन्मत्त होना । प्रमत्त होना । उ०—जहकन लागीं कूर कीदलै अमंद चंद लखि चहुँ ओर सो चकोर लागे जहकन ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २२८ ।

जहकना † (२)
क्रि० स० [हिं० झकना] १. चिढ़ना । कुढ़ना ।

जहका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक जंतु । कटास । कटार [को०] ।

जहतिया †
संज्ञा पुं० [हिं० जगात (= कर)] जगात उगाहनेबाला । भूमिकर या लगान वसूल करनेवाला । उ०—साँचो सो लिख- वार कहावै । काथा ग्राम मसाहत करिकै जमा बाँधि ठहरावै । मन्मथ करे कैद अपनी में जान जहतिया लावै । माँडि माँडि खरिहान क्रोध को फोता भजन भरावै ।—सूर (शब्द०) ।

जहत्स्वार्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लक्षणा जिसमें पद या वाक्य अपने वाच्यार्थ को छोड़कर अभिप्रेत अर्थ को प्रकट करता है । जैसे, 'मम वर गंगा माहि' यहाँ 'गंगा माँहि' से 'गंगा के बीच' अर्थ नहीं है, कितु 'गंगा के किनारे' अर्थ है । इसे जहल्लक्षणा भी कहते हैं ।

जहदजहल्लक्षण
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की लक्षणा जिसमें एक या एक से अधिक देश का त्याग और केवल एक देश का ग्रहणा फिया जाय । वह लक्षण जिसमें वोलनेवाले को शब्द के वाच्यार्थ से निकलनेवाले कई एक भावों में से कुछ का परित्याग कर केवल किसी एक का ग्रहणा अभिप्रेत होता है । जैसे, यह वही देवदत्त हैं, इस वाक्य से बोलनेवाले का अभिप्राय केवल देवदत्त से हैं, न कि पहले के देवदत से या अब के देवदत से । इसी प्रकार छांदोग्य उपनिषद् में आए हुए 'तत्त्वमिस श्वेतकेती' अर्थात् 'हे श्वेतकेतु ! वह तू ही है', आया है । इस वाक्य से कहनेवाले का अभिप्राय ब्रह्म के सर्वज्ञत्व और श्वेतकेतु के अल्पज्ञत्व या ब्रह्म की सर्वव्यापिता और श्वेतकेतु की एकदेशिता के एक ठहराने का नहीं है किंतु दोनों की चेतनता ही की और लक्ष्य है ।

जहदना
क्रि० अ० [हिं० जहदा] १. कीचड़ हीना । दलदल हो जाना । संयो० क्रि०—जाना ।—उठाना । २. शिथिल पड़ना । थक जाना । हाँफ जाना ।

जहदा †
संज्ञा पुं० [?] दलदल । बहुत अधिक कीचड़ । उ०— जग जहदा में राचिया झूठे कुल की लाज । तन दीजे कुल बिनसिहै रटै न नाम जहाज ।—कबीर (शब्द०) ।

जहंदम पु †
संज्ञा पुं० [अ० जहन्नुम] दे० 'जहन्नुम' ।

जहन
पुं० [फा० जेहन, जेह् न] समझ । दिमाग । बुद्धि । धारणा । उ०—बादल नीचे हो और इनसान ऊँचे पर यह बात उनके जहन में नहीं आती थी ।—सैर कु०, पृ० १२ ।

जहना
क्रि० स० [सं० जहन] १. त्यागना । छोड़ना । परित्याग करना । २. नाश करना । नष्ट करना । उ०—जहि पर दोष अस्त भो कैसे । फिरिहै अब उलूक सुखमै सै । (शब्द०) ।

जहन्नम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बहन्मुम' ।

जहन्नुम
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरक । दोजख । मुहा०—जहन्नुम में जाना (१) नष्ट या बर्बाद होना, (२) आँखों से दूर होना । जहन्नुम में जाय । हमें कोई संबंध नहीं । विशेष—इस मुहावरे का प्रयोग दुःखजनित उदासीनता प्रकट करने के लिये होता है । जैसे,—अब मानता ही नहीं, तब जहन्नुम में जाय । २. वह स्थान जहाँ बहुत दुःख और कष्ट हो ।

जहन्नुमरसीन्
वि० [फा०] नरक में गया हुआ । दोजखी । मुहा०—जहन्नुमरसीद करना = नष्ट करना । नामनिशान मिटा देना । जहन्नुमरसीद होना = नष्ट या बरबाद होना ।

जहन्नुमी
वि० [फा०] जहन्नुम में जानेवाला । नारकिक । ??? ।

जहमत
संज्ञा स्त्री० [अ० जहमत] १. आपति । मुसीबत । ?? । मुहा०—जहमत उठाना = दुःख भोगना । मुसीबत सहना । २. झंझट । बखेड़ा । तरदुदुद । मुहा०—जहमत में पड़ना = झंझट में फँसना । वखेड़े में पड़ना ।

जहर (१)
संज्ञा स्त्री० [फा० जह्न] १. वह पदार्थ जो शरीर के अंदर पहुँचकर प्राण ले ले अथवा किसी अंग में पहुँचकर उसे रोगी कर दे । विष । मरन । यौ०—जहरदार । जहरबाद । जहरमोहरा । मुहा०—जहर उगलना =(१) मर्मभेदी बात कहना जिससे कोई बहुत दुःखी हो । (२) द्बेवपूर्ण बात कहना । जली कटी कहना । जहर करना या कर देना = बहुत अधिक नमक मिर्च आदि ड़ालकर किसी खाद्यपदार्थ को इतना कड़ुआ कर देना कि उसका खाना कठिन हो । जाय जहर का घूँट = बहुत कडुआ । बेसवाद या कड़ुवा होने के कारण न खाने योग्य । जहर का गूँट पीना = किसी अनुचित बात को देखकर क्रोध को मन ही मन बना रखना । क्रोध को प्रगड़ न होने देना । जहर का ??? = जो बहुत अधिक उपद्रव या अनिष्ट कर सकता हो । जहर की गाँठ = विष की गाँठ । किसी पर जहर खाना = किसी बात या आदमी के कारण ग्लानि, ईष्या, स्तज्जा आदि से बार्वबत्वा पर उतान होना । जैसे,—अपने इस काम पर तो उन्हें जहर खा लेना चाहिए । जहर देना = जहर दिलाना या खिलाना । जहर मार करना = अनिच्छा या अरजि होने पर भी जबरदस्ती खाना । जैसे,—कचहरी जाने की जल्दी बौ; किसी तरह दो रोटियाँ जहर वार करके चमड़े वने । जहर मारना = विष के प्रभाव या सक्ति को बबाना वा सांत करना । जहर में बुझाना = और, दुरी, तलवार, कटार आदि हथियारों को विचाक्त करना । विशेष— ऐसे हतिवारों से जब वार किया जाता है, सव?? ????होनावाले मनुष्य के शरीर में उनका बिच प्रवितृ हो ?? है जिसके प्रभाव से आदमी बहुत जल्दी घर जाता है ।२.अप्रिय बात या काम । वह बात या काम जो बहुत नागवार मालूम हो । जैसे,—हमारा यहाँ आना उन्हें जहर मालूम हुआ । मुहा०—जहर करना या कर देना = बहुत अधिक अप्रिय या असहा कर देना । बहुत नागवार बना देना । जैसे,—उन्होंने हमारा खाना पीना जहर कर दिया । जहर मिलाना = किसी बात की अप्रिय कर देना । जहर में बुझना = किसी बात या काम को अप्रिय बनाना । जैसे,—आप जो बात कहते हैं; जहर में बुझाकर कहते हैं । जहर लगना = बहुत अप्रिय जान पड़ना । बहुत नागवार मालूम होना ।

जहर (२)
वि० घातक । मार डालनेवाला । प्राण लेनेवाला । २. बहुत अधिक हानि पहुँचाने वाला । जैसे,— ज्वर के रोगी के लिये घी जहर है ।

जहर (३)पु
संज्ञा पुं० [हिं० जौहर] दे० 'जौहर' । उ०—ग्यारह पुत्र कठाइ बारहे अजय बचायो । साजि जहर ब्रत नारि धर्म धर्म कुल रखायो ।—राधाकृष्ण दास (शब्द०) । यौ०—जहर ब्रत = जौहर का ब्रत । जौहर का कार्य रूप में परिणयन ।

जहरगत
संज्ञा स्त्री० [हिं० जहर+गति] नाच की एक गत जिसमें घुँघठ काढ़कर नाचा जाता है ।

जहरदार
वि० [फा० जहरदार] जहरीला । विषाक्त ।

जहरवाद
संज्ञा पुं० [फा० जहरवाद] रक्त के विकार के कारण उत्पन्न होनेवाला एक प्रकार का बहुत भयंकर और विषाक्त फोड़ा । विशेष—इस फोड़े के आरंभ में शरीर के किसी अंग मे सूजन और जलन होती है और तदुपरांत उस अंग में फोड़ा होकर बढ़ने लगता है । इसका विष शरीर के भीतर ही भीतर शीघ्रता से फैलने लगता है और फोड़ा बड़ी कठिनता से अच्छा होता है । यह रोग मनुष्यों आदि को भी होता है । कहते है, इस फोड़े के अच्छे हो जाने पर भी रोगी अधिक दिनों तक नहीं जीता ।

जहरमोहरा
संज्ञा पुं० [फा० जहरमोहरह्] १. काले रंग का एक प्रकार का पत्थर जिसमें साँप काटने के कारण शरीर में चढ़े विष को खींच लेने की शक्ति होती है । विशेष—यह पत्थर शरीर में उस स्थान पर रखा जाता है जहाँ साँप ने काटा हो । कहते हैं, यह पत्थर उस स्थान पर आपसे आप चिपक जाता है, और जबतक सारा विष नहीं खींच लेता, तबतक वहाँ से नहीं छूटता । यह भी प्रवाद हे कि यह पत्थर बड़े मेढक के सिर में से निकलता है । २. हरे रंग का एक प्रकार का पत्थर जो कई तरह के विषों को खींच लेता है । विशेष—वह बहुत ठंढा होता है, इसलिये गरमी के दिनों में लोग इने पिसकर शरबत में मिलाकर पीते हैं । खुतन देश का वह/??/, जिसे 'जहरमोहरा खताई' कहते हैं । बहुत/??/होता है ।

जहरी
वि० [हिं० जहर +ई (प्रत्य०)] १. जहरवाला ।/??/। उ०—कुछ/???/, कुछ कुछ जहरी, कुछ झिल—* मिलती, कुछ कुछ गहरी, वह आती ज्यों नभगंधार मेरी वीणा में एक तार ।—क्वासि, पृ० ७४ । २. अत्यधिक मादक या नशीली वस्तु पीनेवाला । ३. कसर रखनेवाला । डाही । ईर्ष्यालु ।

जहरीला
वि० [हिं० जहर+ईला(प्रत्य०)] जिसके जहर हो । जहरदार । विषाक्त । जैसे, जहरीला फल, जहरीला जानवर ।

जहल (१)
संज्ञा पुं० [अ० जहल] नासमझी । मूर्खता । बुद्बिहीनता । उ०—गैर उसकी हुकम सूँ करना अमल । नफा नईं नुकसान है जानो जहल ।—दक्खिनी०, पृ० १९२ ।

जहल † (२)
संज्ञा पुं० [अ० जेल] कारागार । बंदीगृह । यौ०—जहलखाना = जेहलखाना । बंदीगृह । उ०—फैरै जहल— खाना रे हरी ।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३५९ ।

जहल्लत्दणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जहत्स्वार्था' ।

जहवाँ पु †
क्रि० वि० [सं० यत्र] दे० 'जहाँ (१)' ।

जहाँ
क्रि० वि० [सं० यत्र, पा० यत्थ, प्रा० जह] १. स्थान— सूचक एक शब्द । जिस स्थान पर । जिस जगह । उ०—धन्य सो देस जहाँ सुरसरी । धन्य नारि पतिब्रत अनुसरी ।—तुलसी (शब्द०) । मुहा०—जहाँ का तहाँ = अपने पहले के स्थान पर । जिस जगह पर हो, उसी जगह पर । जहाँ का तहाँ रह जाना =(१) दब जाना । आगे न बढ़ना । (२) कुछ कारवाई न होना । जहाँ तहाँ = इतस्ततः । इधर उधर । उ०—जहाँ तहँ गई सकल तब सीता कर मन सोच । मास दिवस वीते मोहि मारिहिं निसिचर पोच । —तुलसी (शब्द०) । २.सब जगह । सब स्थानों पर । उ०—रहा एक दिन अवधि कर अति आरत पुर लोग । जहँ तहँ सोचहिं नारि नर कृश तनु राम वियोग ।—तुलसी (शब्द०) ।

जहाँ (२)
संज्ञा पुं० [फा०] जहान । संसार । लोक । विशेष—इस रूप में इस शब्द का व्यवहार केवल कविता या बौगिक शब्दों में होता है । जैसे,—(क) जहाँ में जहाँ तक जगह पाइए । इमारत बनाते चले जाइए । (ख) जहाँगीरी । जहाँपनाह । यौ०—जहाँआरा । जहाँगर्द = संसार में घूमनेवाला । घुमक्कड़ । जहाँगर्दी = विश्वभ्रमण । संसारपर्यटन । जहाँगीर = विश्वविजयी । विश्व का शासक । जहाँदीद । जहाँदीदा । जहाँगीरी । जहाँपनाह ।

जहाँआरा
वि० [फा०] संसार को शोभित करनेवाला [को०] ।

जहाँगीर
संज्ञा पुं० [फा०] मुगल सम्राट अकबर का पुत्र ।

जहाँगीरी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. हाथ में पहनने का एक प्रकार का जड़ाऊ गहना । विशेष—यह कई प्रकार का होता है । साधारणतः हाथ में पहनने की सीने की वे पटरियाँ जहाँगीरी कहलाती हैं, जिनपर नग जड़े होते हैं । कहीं कहीं पटरियों में कोढे भी जड़े होते हैजिनमें बहुत छोटे छोटे घुँघुरुओँ के फूल के आकार के गुच्छे पिरो दिए जाते हैं । इन पटरियों को भी जहाँगीरी कहते है । २.हाथ में पहनने की लाख की एक प्रकार की चूड़ि ।

जहाँदीद
वि० [फा०] जिसने दुनियाँ को देखकर बहुत कुछ तजरुबा किया हो । अनुभवी ।

जहाँदीदा
वि० [फा० जहाँदीदह्] दे० 'जहाँदीद' ।

जहाँपनाह
संज्ञा पुं० [फा०] संसार का रक्षक । विशेष—इस शब्द का प्रयोग केवल बहुत बड़े राजा के लिये ही किया जाता है ।

जहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोरखमुंडी ।

जहाज
संज्ञा पुं० [अ० जहाज] बहुत अधिक बड़ी नाव जो बहुत गहरे जल विशेषतः समुद्र में चलती है । पोत । विशेष—आजकल के जहाजों का अधिकांश भाग लोहे का ही होता है और उनके चलाने के लिये भाप के बड़े बड़े इंजिनों से काम लिया जाता है । यात्रियों को ले जाने, भाल ढोने, देशों की रक्षा करने, लड़ने भिड़ने आदि कामों के लिये साधारण जहाजों की लंबाई छह सौ फुट तक होती है । यौ०—जहाज का कौवा या काग । जहाज का पंछी = दे०; जहाजी कौआ । उ०—(क) सीतापति रघुनाथ जू तुम लग मेरी दौर । जैसे काग जहाज को सूझन और न ठीर ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) मेरी मन अनत कहाँ सुक पावै । जैसे उड़ि जहाज को पंछी फिरि जहाज पै आवै ।—सूर० १ । १३७८ ।

जहाजरान
संज्ञा पुं० [फा० जहाज + फा० रा (प्रत्य०)] जहाज चलानेवाला । पोत का चालक [को०] ।

जहाजरानी
संज्ञा स्त्री० [अ० जहाज + फा० रानी (प्रत्य०)] जहाज चलाने का कार्य या पेशा । जहाज चलाना ।

जहाजी
वि० [अ० जहाज +फा० ई(प्रत्य०)] जहाच से संबंध रखनेवाला । जैसे, जहाजी बेड़ा । यौ०—जहाजी इत्र = एक प्रकार का निकृष्ट इत्र जो/??/में बनता है । जहाजी कौआ = (१) वह कौआ या कोई पक्षी जो किसी जहाज के छूटने के समय उसार बैठ जाता है । और जहाज के बहुत दूर समुद्र में निकल जाने पर जब वह उड़ता है, तब चारो ओर कहीं स्थल न देखकर फिर उसी जहाज पर आ बैठता है । साधारणतः इससे ऐसे मनुष्य का अभिप्राय लिया जाता है जिसे अपने ठहरने या कोई काम करने के लिये एक के सिधा और कोई दूसरा स्वान न मिलता हो । (२) बहुत बड़ा धूतं । भारी चालाक । जहाजी डाकू = वे डाकू जो समुद्रों में अपना जहाज लेकर गुमते रहते है और साधारण जहाजों के यात्रियों को लुट लेते है । समुद्री/?/। जहाजी सुपारी =एक प्रकार की सुपारी जो/??????/से लगभग दूनी बड़ी होती है ।

जहान
संज्ञा पुं० [फा०] संसार । लोक ।/??????????/जहान है (कहावत) । विशेष— कविता और यौगिक/?????????????/जाता है । वि० दे० '/??/' (/??/) ।

जहानक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रलय ।

जहालत
संज्ञा स्त्री० [अ०] अज्ञान । मूर्खता । मूढना ।

जहिया पु †
क्रि० वि० [सं० यद + हिया] जिस समय । जिस दिन । जब । उ० —(क) कह कबीर कुछ अछलो न जहिया । हरि बिरवा प्रतिपालेसि तहिया ।—कबीर (शब्द०) । (ख) भुजबल विश्व जितब तुम जहिया । धरिहै विष्णु मनुज तनु तहिया ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०— जहिया तहिया = जिस किसी समय ।

जहीं पु
क्रि० वि० [सं० यत्र, पा० यत्थ] १. जहाँ ही । जिस स्थान पर । उ०—सत्त खंड सात ही तरंगिनी बहै जहीं । सोह रूप ईश को अशेष जंतु सेवही ।—केशव (शब्द०) । यौ०— जही जहीं तहीं तहीं । उ०— जहीं जहीं विराम लेत राम जू तहीं तहीं अनेक भाँति के अनेक भोग भाग सौ बढ़ै ।— केशव (शब्द०) । २. ज्यों ही । उ०—सीय जहीं पहिराई । रामहि माल सुहाई । दुंदुभि देव बजाए । फूल तहीं बरसाए ।—केशव (शब्द०) ।

जहीन
वि० [अ० जहीन] १. बुद्धिमान् । समझदार । २. धारणा शक्तिवाला । मेधावी ।

जहु
संज्ञा पुं० [सं०] संतान । संतति । औलाद ।

जहूर
संज्ञा पुं० [अ० जहूर या जुहूर] प्रकाश । दीप्ति । उ०— जदपि रहौ है भावतो सकल जगत भरपूर । बल जैयै वा ठौर की जहँ ह्वै करै जहूर ।—स० सप्तक, पृ० १७८ । मुहा०—जहूर में आना = प्रकट होना । जहूर में लाना = प्रकट करना ।

जहूरा †
संज्ञा पुं० [अ० जहूर या जूहूर] १. देखावा । दृश्य । उ०— ये सच यार प्यार लख पूरा । रूप न रेख जहूरा । २. ठाठ । ३. लड़का ।—(बाजारू) ।

जाहेज
संज्ञा पुं० [अ० जहेज मि० सं० दायज] वह धन संपत्ति जो कन्या के विबाह में पिता की ओर से वर को अथवा उसके घरवालों को दी जाती है । दहेज ।

जह्नु
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. एक राजर्षि का नाम । विशेष—(१) पुराणों के अनुसार जब भगीरथ गंगा को लेकर आ रहे थे, तब जह्नु ऋषि मार्ग में यज्ञ कर रहे थे । गंगा के कारण यज्ञ में विघ्न होने के भय से इन्होंने उनको पी लिया था । भगीरथ जो के बहुत प्रार्थना करने पर इन्होंने फिर गंगा को कान से निकाल दिया था । तभी सें गंगा का नाम जह्नसुता, जाह्नवी आदि पड़ा ।(२) इस शब्द के साथ कन्या, सुता, तनया आदि पुत्रीवाचक शब्द लगाने से गंगा का अर्थ होता है । यौ०— जह्नुजा । जह्नुकन्या । जह्नुतनया । जह्नुलप्तमी । जह्नुसुता ।

जह्नुकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा ।

जह्नुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा । उ०— जो पृथ्वी के विपुल सुख की माधुरी है विपाशा । प्राणी सेवा जनित सुख की प्राप्ति तो जह्नुजा है ।—प्रिय०, पृ० २४४ ।

जह्नुतनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा ।

जह्नुसप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैशाख शुक्ला सप्तमी । कहते हैं, इसी दिन जह्नु ने गंगा को पान किया था । गंगासप्तमी ।

जह्नुसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा ।

जह्न
संज्ञा पुं० [अ० जह्न] विष । जहर [को०] ।

जांगल (१)
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्गल] १. तीतर । २. मांस । ३. वह देश जहाँ जल बहुत कम बरसता हो, धूप और गरमी अधिक पड़ती हो, हरे वृक्षों या घास आदि का अभाव हो, करील मदार, बेल और शमी आदि के पेड़ हों और बारहसिंघे तथा हिरन आदि पशु रहते हों । ४. ऐसे प्रदेश में पाए जानेवाले हिरन और बारहसिंघे आदि जंतु जिनका मांस मधुर, रूखा, हलका, दीपन, रुचिकारक, शीतल और प्रमेह कठमाला तथा श्लीपद आदि रोगों का नाशक कहा गया है ।

जांगल (२)
वि० जंगल संबंधी । जंगली ।

जांगलि
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्गलि] १. सँपेरा । साँप पकड़नेवाला । मदारी । २. विषवैद्य । साप का जहर उतारनेवाला ।

जांगलिक
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्गलिक] दे० 'जांगलि' ।

जांगली
संज्ञा स्त्री० [सं० जाङ्ली] कौछ । केंवाच ।

जांगलू
वि० [फा० जंगल] गंवार । जंगली । उजड्ड ।

जांगी
संज्ञा पुं० [फा़० जंग?] नगाड़ा ।—(डिं०) ।

जांगुल
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्गुल] १. तोरई । तरोई । २. विष । ३. दे० 'जंगुल' ।

जांगुलि
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्गलि] साँप पकड़नेवाला । गारुडी । सँपेरा ।

जांगुलिक
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्गलिक] दे० 'जांगुलि' ।

जांगुली
संज्ञा स्त्री० [सं० जाङ्गली] साँप का विष उतारने की विद्या ।

जांघिक
संज्ञा पुं० [सं० जाङ्घिक] १. उष्ट्र । ऊँट । २. एक प्रकार का मृग जिसे शिकारी भी कहते हैं । ३. वह जिसकी जीविका बहुत दौड़ने आदि से ही चलती है । जैसे, हरकारा ।

जांतव
वि० [सं० जान्तव] जंतु संबंधी । जंतुजन्य ।

जांव पु †
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बव] जामुन का फल या वृक्ष ।

जांबबंत
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बवत् > जाम्बवन्त] दे० 'जांबवान्' । उ०—(क) महाधीर गंभीर वचन सुनि जांबवंत समझाए । बढ़ी परस्पर प्रीति रीति तब भूषण सिया दिखाए ।—सूर (शब्द०) । (ख) जांबवंत सुतासुत कहाँ मम सुता बुद्धि वंत पुरुष यह सव संभारैं ।—सूर (शब्द०) ।

जांबव
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बव] १. जामुन का फल । जंबू फल । २. जामुन के फल से बनी हुई शराब । जामुन का बना मद्य । ३. जामुन का सिरका । ४. सोना । स्वर्ण ।

जांबवक
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बवक] दे० 'जांबब' ।

जांबवतू
संज्ञा पुं० [पुं० जान्बव] दे० 'जांबवान्' ।

जांबवती
संज्ञा स्त्री० [सं० जाम्बवती] १. जाम्बवान् की कन्या जिसके साथ श्रीकृष्ण ने विवाह किया था । उ०— (क) जांबवती अरपी कन्या भरि मणि राखी समुहाय । करि हरि ध्यान गए हरिपुर को जहाँ योगेश्वर जाय ।—सूर (शब्द०) । (ख) रिच्छराज वह मनि तासौं लै जांबवती कौं दीन्हीं । जब प्रसेन कौ बिलँव भई तब सत्राजित सुध लीन्हीं ।—सूर०, १० । ४१९० । विशेष—भागवत में लिखा है कि श्रीकृष्ण जब स्यमंतक मणि की खोज में जंगल में गए थे, तब वहीं उन्होंने जाँबवान् को परास्त करके वह मणि पाई थी और उसकी कन्या जांबवती से विवाह किया था । २. नागदमनी । नागदौम ।

जांबवान्
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बवान्] सुग्रीव के मंत्री का नाम जो ब्रह्मा का पुत्र माना जाता है । विशेष—इनके विषय में यह प्रसिद्ध है कि यह रीछ थे । रावण के साथ युद्ध करने में त्रेता युग में इन्होंने रामचंद्र को बहुत सहायता दी थी । भागवत में लिखा है कि द्वापर युग में इसी की कन्या जांबवती के साथ श्रीकृष्ण ने विवाह किया था । यह भी कहा जाता है कि सतयुग में इन्होंने वामन भगवान् की परिक्रमा की थी । इस कथा का उल्लेख रामचरितमानस (किष्किंधा कांड, दोहा २८) में भी है; यथा—बलि बाँधत प्रभु बाढ़ेउ सो तनु बरनि न जाय । उभय घरी महँ दीन्हीं सात प्रदच्छिन धाय ।

जांबवि
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बवि] बज्र ।

जांबवी
संज्ञा स्त्री० [सं० जाम्बवी] १. जांबवान् की पुत्री । जांबवती । २. नागदमनी ।

जांबवोष्ट
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बवोष्ठ] जांबोवष्ठ नामक छोटा अस्त्र जिससे प्राचीन काल में फोड़े आदि जलाए जाते थे ।

जांबीर
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बीर] जंबीरी नीबू । जँभीरी नीबू ।

जांबील
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बील] १. पैर के घुटनेवाली गोल हड्डी । २. जंवीरी नीबू (को०) ।

जांबुक
वि० [सं० जाम्बुक] जंबुक संबंधी । श्रृगाल संबंधी [को०] ।

जांबुमाली
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बुमालिन्] प्रहस्त नामक राक्षस के पुत्र का नाम जिसे अशोक वाटिका उजाड़ते समय हनुमान ने मार डाला था ।

जांबुवत्
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बुवत्] दे० 'जांबवान्' ।

जांबुवान
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बुवान्] दे० 'जांबवान्' ।

जांबू
संज्ञा पुं० [सं० जम्बू] दे० 'जंबू' (द्वीप) । उ०—जांबू और पलाक्ष है शालमली कुश चारि । क्रौंच संकला द्वीप षट पुष्कर सात विचारि—(शब्द०) ।

जांबूनद
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बून्द] १. धतूरा । २. सोना । ३. स्वर्णा— भूषण (को०) ।

जांबोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बोष्ठ] प्राचीन काल का एक प्रकार का छोटा अस्त्र जिससे फोड़े आदि जलाए जाते थे ।

जाँ (१)
वि०, संज्ञा स्त्री० [सं० जा] दे० 'जा' (१) ।

जाँ (२)
संज्ञा स्त्री० [फा०] प्राण । जान ।

जाँ (३)
वि० [फा० जा] दे० 'जा' (४) ।

जाँउनि †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जामुन] दे० 'जामुन' ।

जाँग (१)
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ों की एक जाति । उ०—जरदा, जिरही, जाँग, सुनौची, ऊदे खजन । कर रकवाहे कवल गिलमिली गुलगुल रंजन ।—सूदन (शब्द०) ।

जाँग (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाँघ] दे० 'जाँघ' ।

जाँगड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] राजाओं का यश गानेवाला । भाट । बंदी ।

जाँगड़िया
संज्ञा, पुं० [देश०] दे० 'जाँगड़ा' । उ०—(क) जाँगड़िया दूहा दिऐ सिंधू राग मझार ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ९९ । (ख) कुण पूछे ढोलाकणो जाँगड़िया नूँ जाब ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० १० ।

जाँगर (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जान या जाँघ > जाँग + फा० गर (प्रत्य०)] १. शरीर । देह । २. हाथ पैर । ३. पौरुष । बल । शक्ति । यौ०—जाँगरचोर = जो काम करने से जी चुराता हो । आलसी । डीलहराम । जाँगरतोड़ = मेहनत करनेवाला । मेहनती । जैसे, जाँगरतोड़ आदमी, जाँगरतोड़ काम । मुहा०—जाँगर टूटना, जाँगर थकना = शरीर शिथिल होना । पौरुष या श्रमशक्ति का जवाब देना ।

जाँगर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] खाली डंठल जिसमें से अन्न झाड़ लिया गया हो । उ०—तुलसी त्रिलोक की समृद्धि सौज संपदा अकेलि चाकि राखी रासि जाँगर जहान भी ।—तुलसी (शब्द०) ।

जाँगरा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'जागड़ा' । उ०—करै जाँगरे आलाप बिरद कलाप भूष प्रताप । अतिशय मिजाजी चढ़े बाजौ करत अरि उर ताप—रघुराज (शब्द०) ।

जाँगलू
वि० [हिं० जंगल] दे० 'जांगलू' ।

जाँगी
संज्ञा पुं० [फा० जंग] नगाड़ा ।—(डिं०) ।

जाँघ
संज्ञा स्त्री० [सं० जङ्घ (= पिंडली)] घुटने और कमरर के वीच का अंग । ऊरु ।

जाँघा †
संज्ञा पुं० [देश०] १. हक ।—(पूरबी) । २. कुएँ के ऊपर गड़ारी रखने का खंभा । ३. लकड़ी या लोहे का वह धुरा जिसमें गड़ारी पहनाई हुई होती है ।

जाँघिया
संज्ञा पुं० [हिं० जाँघ + इया (प्रत्य०)] १. लँगोट की तरह पहनावे का जाँघ को ढकने का एक प्रकार का सिला हुआ वस्त्र । काछा । विशेष—यह पायजामें की तरह का कमर में पहनने का एक प्रकार का सिला हुआ पहनावा है जिसकी चुस्त मोहरियाँ घुटनों के ऊपर कमर और पैर के जोड़ तक ही रहती हैं । इसमें पूरी रान दिखाई पड़ती है । इसे प्रायः पहलवान और नट आदि लँगोटे के ऊपर पहनते हैं । २. मालखंभ की एक प्रकार की कसरत । विशेष—इसमें बेंत को पैर के अँगूठे और दूसरी उँगली से पकड़कर पिंड़ली में लपेटते हुए दूसरी पिड़ली पर भी लपेटते है और तब दूसरे पैर के अँगूठे से बेंत को पकड़कर नीचे की ओर सिर करके लटक जाते हैं ।

जाँघिल † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जाँघ] वह बैल जिसका पिछला पैर चलने में लच खाता हो ।

जाँघिल † (२)
वि० जिसका पैर चलने में लच खाता हो ।

जाँघिल (३)
संज्ञा पुं० [देश०] १. खाकी रंग कि एक चिड़िया । विशेष—इसकी गरदन लंबी होती है । इसका मांस स्वादिष्ट होता है और उसी के लिये इसका शिकार किया जाता है । २. प्रायः एक बालिश्त लंबी एक प्रकार की छोटी चिड़िया । विशेष— इसकी छाती और पीठ सफेद, पर काले, चोंच और सिर पीला, पैर खाकी और दुम गुलाबी रंग की होती है ।

जाँच
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाँचना] १जाँचने की क्रिया या भाव । परीक्षा । परख । इम्तहान । आजमाइश । २. गवेषणा । तहकीकात । यौ०—जाँच पड़ताल = खोज के साथ किसी बात का पता लगाना । छानबीन ।

जाँचक †पु
संज्ञा पुं० [सं० याचक] दे० 'जाचक' या 'याचक' । उ०— जाँचक पै जाँचक कहँ जाँचे ? जौ जाँचै तौ रसना हारी ।— सूर, १ । ३४ ।

जाँचकता †पु
संज्ञा स्त्री० [सं० याचकता] दे० 'जाचकता' या 'याचकता' । उ०—(क) जेहि जाँचत जाँचकता जरि जाइ/??//??/जोर जहानहि रे ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सुख/??/दुखी इनके दुख जाँचकता अकुलानी ।—तुलसी (शब्द०) ।

जाँचकताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाँचक + ताई (प्रत्य०)] दे० 'जाचकता' ।

जाँचना
क्रि० स० [सं० याचना] १. किसी विषय की सत्यता या वसत्वता अथवा योग्यता या अयोग्यता का निर्णय करना । सत्यासत्य आदि का अनुसंधान करना । यह देखना कि कोई चीज ठीक है या नहीं ।—जैसे, हिसाब जाँचना, काम जाँचना । संयो० क्रि०—देखना ।—रखना ।—डालना । २. किसी बात के लिये प्रार्थना करना । माँगना । उ०— (क) जिन जाँच्यों जाह रस नंदराय ठरे । मानो बरसत मास असाढ़ दादुर मोर ररे ।—सूर (शब्द०) । (ख) रावन मरन मनुज कर जाँचा । प्रभु विधि बचन कीन्ह चह साँचा ।— तुलसी (शब्द०) । (ग) यही उदर के कारने जग जाँच्यो निसि याम । स्वामिपनो सिर पर चढयो सरयो न एको काम ।—कबीर (शब्द०) ।

जाँजरा पु †
वि० [सं० जर्जर, प्रा० जज्जर] [वि० स्त्री० जाजरी] जो बहुत ही जीर्ण हो । जर्जर । जीर्ण शीर्ण । उ०—लाग्वौ यहै देष जु में रोष ह्लै । धनुष तोरी जाँजरो, पुरानो हो मैं जानो गयो काम सो । —हनुमान (शब्द०) ।

जाँझ पु †
संज्ञा पुं० [सं० झन्झा ] वह वर्षा जिसके सात तेज हवा भी हो ।

जाँझा पु †
संज्ञा पुं० [सं० झन्झा] दे० 'जाँझ' ।

जाँट
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पेड़ जिसे रिया भी कहते हैं ।

जाँत
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र] आटा पीसने की बड़ी चक्की । जाँता । उ०—धरती सरग जाँत पट दोऊ । जो तेहि बिच जिउ राख न कोऊ । —जायसी ग्रं०, पृ० ६३ ।

जाँता
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र] १.आटा पीसने की पत्थर की बड़ी चक्की जो प्रायः जमीन में गड़ी रहती है । क्रि० प्र०—चलाना ।—पीसना । २. सुनारों और तारकशों आदि का एक औजार । विशेष—यह इस्पात या फौलाद लोहे की एक पटरी होती है । जिसमें कमलः बड़े छोटे अनेक छेद होते हैं । उन्हीं में कोई धातु की बत्ती या मोटा तार आदि रखकर उसे खींचते खींचते लंबा और महीन तार बना लेते हैं । इसे जंती भी कहते हैं ।

जाँद
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार के पेड़ का नाम ।

जाँन पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ज्ञान] ज्ञान । जानकारी । उ०—लखे जीव जेते सु केते जिहाँने । भ्रमै जंत्र तत्रं सु पावै न जानं ।—ह० रासो, पू० ३५ ।

जाँन (२)
संज्ञा पुं० [सं० यानं] गमन । जाना । यौ०—आवाजाँन = आवागमन । उ०—त्रिवेणी कर असनांन । तेरा मेट जाय आवाजाँन ।—रामानंद०, पृ० ९ ।

जाँन पु † (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० यान, यात्रा] बारात । उ०—ब्रंदावन बैसाख पर सोहे जान समोह । —रा० रू०, पृ० ३४७ ।

जाँपना
क्रि० सं० [अप० चंप, चंप्प] दे० 'चाँपना' ।

जाँपनाह †
संज्ञा पुं० [फ़ा० जहाँपनाह] दे० 'जहाँपनाह' ।

जाँब पु †
संज्ञा पुं० [सं० जम्बा] जंबू फल । जामुन । जाम । उ०—(क) काहू गही अंब की डारा । कोई बिरछ जाँच अति छारा । —जायसी (शब्द०) । (ख) श्याम जाँब कस्तूरी चोवा । अव जो ऊँच हृदय तेहि रोवा ।—जायसी (शब्द०) ।

जाँबख्शी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] प्राणदान । जीवनदान । उ०—हुजूर यह गुलाम का लड़का है । हूजूर इसकी जाँबख्शी करें, हूजूर का पुराना गुलाम हूँ ।—काया०, पृ० १९५ ।

जाँबाज
वि० [फ़ा० जाँबाज] प्राण निछावर करनेवाला । जान की बाजी लगा देनेवाला । साहसी । उ०—जिसके लिये जाँबाज है परवानए बेखौफ ।—कबीर मं०, पृ० ४६७ ।

जाँबाजी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० जाँबाजी] जान की बाजी । प्राणों का दाँव । साहस । उ०—पै एतो हूँ हम सून्यो, प्रेम अजूबो खेल । जाँबाजी बाजी जहाँ, दिल का दिल से मेल ।— रसखान०, पृ० ११ ।

जाँमल पु †
वि० [सं० यमल] दो । दोनों । उ०— भूप द्वार असक्रन्न भँडारी, हेमराज जाँमल हितकारी ।—रा० रू०, पृ० ३१५ ।

जाँ वँ †
वि० [फ़ा० जा] मुनासिब । वाजिब । उचित । यौ०—/??/।/????/।

जाँवत पु
अव्य० [सं० जावत्, हिं० जावत] दे० 'यावत्' । उ०— जाँवत जग साखा बन ढाँखा । जाँवत केस रोम पखि पाँखा । —जायसी (शब्द०) । (ख) पुन रुपवंत वखानो काहा । जाँवत जगत सबै सुख चाहा । —जायसी (शब्द०) ।

जाँवर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० जाना ] गमन । प्रस्थान । जाना । उ०— नव नव लाड़ लड़ाइ लड़ित नाहीं नाहीं कहूँ ब्रज जाँवरो ।—स्वामी हरिदास (शब्द०) ।

जा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.माता । माँ । २. देवरानी । देवर की स्त्री ।

जा (२)
वि० स्त्री० [ सं० तुल० फा० (प्रत्य) जा (= उतपन्न करनेवाला)] उत्पन्न । संभूत । जैसे, गिरिजा जनकजा ।

जा (३) पु †
सर्व० [हिं० जो] जो । जिस । उ०— (क) जाकर जापर स्तय सनेहू । सो तेहि मिलहि न कछु संबेहू । —तुलसी (शब्द०) । (ख) इक समान जब ह्वै रहत लाज काम ये दोइ । जा तिय के तन में तवहिं मध्या कहिए सोइ ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ८७ । (ग) मेरी भवबाधा हरौ राधा नागरि सोइ । जा तन की झाँइं परै स्यामु हरितदुति होइ ।—बिहारी र०, वो० १ ।

जा (४)
वि० [फा०] मुनासिब । उचित । वाजिब । जैसे,—आपकी बात बहुत जा है । यौ० —बेजा = नामुनासिब । जो ठीक न हो ।

जा (५)
संज्ञा पुं० स्थान । जगह । उ०—कुछ देर रहा हक्का बक्का भौचक्का सा आ गया कहाँ । क्या करुँ यहाँ जाऊँ किस जा । मिलन०, पृ० १९० ।

जाइंट
संज्ञा पुं० [अं० ज्वाइंट] १. जोड़ । पैबंद । २. गिरह । गाँठ । (मिस्तरी) । ३. दे० 'ज्वाइंट' ।

जाइ पु †
वि० [हिं० जाना] व्यर्थ । वृथा । निष्प्रयोजन । बेफायदा । उ०—सुमन सुमन अरपन लिए उपवन ते धन ल्याइ । धरनी धरि हरि तकि कही हाइ भयो श्रम जाइ । —(शब्द०) ।

जाइफर
संज्ञा पुं० [सं० जातीफल] दे० 'जायफल' ।

जाइफल
संज्ञा पुं० [सं० जातीफल] दे० 'जायफल' ।

जाइस
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'जायस' ।

जाई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० जा (= उत्पन्न)] कन्या । बेटी । पुत्री । उ०—खुशहाली हुई बाप होर माई कूँ । सुलक्खन हुआ पूत उस जाई कूँ । —दक्खिनी०, पृ० ३६० ।

जाई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० जाती] जाती । चमेली ।

जाउँनि †पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जामुन] दे० 'जामुन' ।

जाउर †
संज्ञा पुं० [हिं० जाउर (= चावल)] मीठा और चावल डालकर पकाया हुआ दूध । खीर ।

जाएल †
संज्ञा पुं० [देश०] दो बार जोता हुआ खेत ।

जाएस
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'जायस' ।

जाक पु †
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष, प्रा० जक्ल, जक्ष] यक्ष ।

जाकट
संज्ञा पुं० [अं० जैकेट] दे० 'जाकेट' ।

जाकड़
संज्ञा पुं० [हिं० जाकर; अथवा हिं० जकड़ना (= बाँचना)] १. दुकानदार के यहाँ से कोई माल इस कर्स पर से आना कि यदि वह पसंद न होगा, तो फेर दिया जायगा । पक्का काउलटा । २. इस प्रकार (शर्त पर) लाया हुआ माल । यौ०—जाकड़ बही ।

जाकड़बही
संज्ञा स्त्री० [हिं० डाकड़ + बही] वह वही जिसमें दुकानदार जाकड़पर दिए हुए माल का नाम, किस्म और दाम आदि टाँक लेते हैं ।

जाकिट †
संज्ञा स्त्री० [अं० जैकेट] दे० 'जाकेट' ।

जाकेट
संज्ञा स्त्री० [अं० जैकेट] कुर्ती या सबरी की तरह का एक प्रकार का अँग्रेजी पहनावा ।

जाख पु
संज्ञा पुं० [सं० यक्ष, प्रा० जक्ख] दे० 'दक्ष' । उ०— कोरी मटुकी दह्यौ जमायौ जाख न पूजव चायौ ?? । सिहिं घर देव पितर काहे कौं जा कर काहर जायौ ।—सूर०, १० ।३४६ ।

जाखन †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पहिए के आकार का ? चक्कर जो कूओं की नींव में दिया जाता है । ? । बैकार ।

जाखिनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० मक्षिणी, प्रा० ??? ] दे० 'यक्षिणी' । उ०—राघव करै जाकिनी कूवा । कहै तो भाव देखावै दूजा । —जायसी (शब्द०) ।

जाग (१)
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञ] यज्ञ । मख । उ०—(क) शव कौन्हैं सो दैहैं आम । ता सैती तुम कीजौ जाव । वक्ष कियैं वंघ्कपुर जैहौ । तहाँ आइ मोकौं तुम पैही । —सूर०, ९ ।२ । (ख) दच्छ लिए मुनि बोलि सब करब लदे ??? । नेवते सादर सकल सुरे जे पावत क्य वाज ।—तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०— करना । —जागना । — जगना । उ०—चहत महा मुनि जाग जयो । नीच निसाचर देत ?? ?? ?? ?? तयो । —तुलसी (शब्द०) ।

जाग † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जगह] १. जगह । स्कज । ?? । उ—(क) तुहिकाँ न मुहिकाँ कहीं ?? ?? ??, भाग कुंल और तोपखाना बाध व्यावा है । —सूदन (शब्द०) । (ख) कुदरत वाकी भर रही रसनिधि लचही लाय । ईंधन बिन घनियौ रहै ज्यों पाहन में आग । —रसविधि (शब्द०) । २. गृह । घर । मकान । —(डिं०) ।

जाग (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जागना] जागने की क्रिया या भाव । जागरण । उ०—घटती होइ जाहि ते अपनी ताको कीजै त्याग । धोखे कियो बास मन भीतर अव समझे भइ जाग ।—सूर (शब्द०) ।

जाग (४)
संज्ञा पुं० [देश०] वह कबूतर जो बिलकूल काले रंग का हो ।

जाग (५)
संज्ञा पुं० [अं० जक] जहाज का भांडाररक्षक ।

जागत
संज्ञा पुं० [अं०] जगती छंद ।

जागता
वि० [सं० आगत] [वि० स्त्री० जागती] १. सजग । सचेत । २. ?? । चकरकारिक । मुहा०—जागता = साक्षात् । जैसे, जागती जोत, जागती कबा ।उ०—जाहिरै जागति सी जमुना जब बूड़ै बहै उमहै वह वेवी । —पद्याकर (शब्द०) ।

जागतिक
वे० [सं०] जगतसंबंधी । सांसारिक [को०] ।

जागती कला
संज्ञा स्त्री० [हिं० जागना + कला] दे० 'जागती जोत' ।

जगती जोत
संज्ञा स्त्री० [हिं० जागना + सं० ज्योति] १. किसी देवता विशेषतः देवी की प्रत्यक्ष महिमा या चमत्कार । २. चिराग । दीपक ।

जागना (१)
क्रि० अ० [सं० जागरण] १. सोकर उठना । नींद त्यागना । उ०—आइ जगावहिं चेला जागहु । आवा गुरू पाय उठि लागहु । —जायसी (शब्द०) । संयो० क्रि०—उठना ।—पड़ना । २. निद्रारहित रहना । जाग्रत अवस्था में होना । ३. सजग होना । चैतन्य होना । सावधान होना । उ०—जरठाई दसा रबि काल उयो अजहूँ जड़ जीव न जागहि रे ।—तुलसी (शब्द०) । ४. उदित होना । चमक उठना । उ०—(क) भागत अभाग अनुरागत विराम भाम जागत आलस तुलसी से निकाम कै ।— तुलसी (शब्द०) । (ख) निश्चय प्रेम पौर एहि जागा । कसे कसौटी कंचन लागा । —जायसी (शब्द०) । ५. संमृद्ध होना । बढ़ चढ़कर होना । उ०—पद्माकर स्वादु सुधा तें सरें मधु तें महा माधुरी जागती है ।—पद्माकर (शब्द०) । ६. जोर शोर से उठना । समुत्थित होना । जैसे, लोकमत का जागना । ७. प्रज्वलित होना । जलना । ८. प्रादूभूँत होना । अस्तित्व प्राप्त करना । ९. प्रसिद्ध होना । मशहूर होना । उ०—खायो खोंचि माँगि मैं तेरो नाम लिया रे । तेरे बल बलि आजु लौं जग जागि जीया रे । —तुलसी (शब्द०) ।

जागना (२)पु
क्रि० अ० [सं० यजन] यज्ञ करना । उ०—पयसि पयागे जाग सत जागइ सोई पावए बहू भागी । विद्यापति, पृ० ४१० ।

जागनौल
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का हथियार ।

जागबलिक
संज्ञा पुं० [सं० याज्ञवल्कय] एक ऋषि । दे० 'याज्ञ वल्कय' । उ०—जागबलिक जो कथा सुहाई । भरद्वाज मुनिबरहिं सुनाई ।—तुलसी (शब्द०) ।

जागर
संज्ञा पुं० [सं०] १. जागरण । जाग । जागने की क्रिया । उ०—सुनि हरिदास यहै जिय जानौ सुपने को सो जागर ।—हरिदास (शब्द०) । २. कवच । अंगत्राण । जिरह बख्तर । ३. अंतःकरण की वह अवस्था जिसमें उसी सब वृत्तियाँ (मन; बुद्धि, अहंकार आदि) प्रकाशित या जाग्रत हों ।

जागरक
वि० [सं०] जाग्रत । चैतन्य [को०] ।

जागरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निद्रा का अभाव । जागना । २. किसी ब्रत, पर्व या धार्मिक उत्सव के उपलक्ष में अथवा इसी प्रकार के किसी और अवसर पर भगवदभजन करते हुए सारी रात जागना । उ०—वासर ध्यान करत सब बीत्यो । निशि जागरन करन मन भीत्यो । —सूर (शब्द०) ।

जागरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जागरण' [को०] ।

जागरित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नींद का न होना । जागरण । २. सांख्य और वेदांत के मत से वह अवस्था जिसमें मनुष्य कोइंद्रियों द्वारा सब प्रकार के व्यवहारों और कार्यों का अनुभव होता रहे ।

जागरित (२)
वि० जागा हुआ । चैतन्य । सचेत ।

जागरित स्थान
संज्ञा पुं० [सं०] वह आत्मा जो जागरित स्थिति में हो ।

जागरितांत
संज्ञा पुं० [सं० जागरितान्त] वह आत्मा जो जागरित स्थिति में हो । जागरित स्थान ।

जागरिता
वि० [सं० जागरित] [वि० स्त्री० जागरित्री] जागा हुआ । चैतन्य ।

जागरी
वि० [सं० जागरिन्] दे० 'जागरिता (२)' ।

जागरू †
संज्ञा पुं० [देश० जाँगर + हिं० ऊ (प्रत्य०)] १. भूसा आदि मिला हुआ वह खराब अन्न जो दँवाई के बाद अच्छा अन्न निकाल लेने पर बच रहता है । २. भूसा ।

जागरूक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो जाग्रत अवस्था में हो । चैतन्य ।

जागरूक (२)
वि० जागता हुआ । निद्रारहित । सावधान ।

जागरूप
वि० [हिं० जागना + रूप] जो बहुत ही प्रत्यक्ष और स्पष्ट हो ।

जागर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जागरण । जाग्रति । २. चेतनता ।

जागर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जागर्ति' [को०] ।

जागा †
संज्ञा स्त्री० [हिं० जगह] दे० 'जगह' ।

जागाह †पु
संज्ञा स्त्री० [फा० जायगाह, हिं० जगह] स्थान । जगह । उ०—कोई झगड़े अपनी जगाह पर, यह मेरी है यह तेरी है ।—राम० वर्म० (सं०), पृ० ९२ ।

जागी †पु
संज्ञा पुं० [सं० यज्ञ, अथवा देशज, जाँगड़ा, जाँगरा] भाट ।

जागीर
संज्ञा स्त्री० [फा०] एसी भूमि जो राजा, बादशाह, नवाब आदि किसी को प्रदान करते हैं । वह गाँव या जमीन आदि जो किसी राज्य या शासक आदि की ओर से किसी को उसकी सेवा के उपलक्ष में मिले । सेवा के पुरस्कार में मिली हुई भूमि । जमीन । मुआफी । तअल्लुका । परगना । क्रि० प्र०—देना ।— पाना ।— मिलना । यौ०—जागीर खिदमती = सेवा के बदले में मिली जागीर । जागीर मनसबी = वह जागीर जो किसी मनसब, किसी पद के कारण प्राप्त हो ।

जागीरदार
संज्ञा पुं० [फा०] वह जिसे जागीर मिली हो । जागीर का मालिक ।

जागीरदारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'जागीरी' ।

जागीरी पु †
संज्ञा स्त्री० [फा० जागीर + ई (प्रत्य०)] १. जागीरदार होने का भाव । २. अमीरी । रईसी । उ०— भागंता सो जूझिया पीठ जो लागा धाय । जागीरी सब ऊतरी धनी न कहसो आव ।—कबीर (शब्द०) । ३. जागीर के रूप में मिली मिलकियत ।

जागुड़
संज्ञा पुं० [सं० जागुड] १. केसर । २. एक प्राचीन देश का नाम । ३ इस देश का निवासी ।

जागृति
संज्ञा स्त्री० [सं० जागर्ति] दे० 'जागरण' ।

जागृवि
संज्ञा पुं० [सं०] १. राजा । २. आग । ३. जागरण (को०) ।

जाग्रत (१)
वि० [सं० जाग्रत्] १. जो जागता हो । सजग । सावधान । २. व्यक्त । प्रकाशमान । स्पष्ट (को०) ।

जाग्रत (२)
संज्ञा पुं० वह अवस्था जिसमें शब्द, स्पर्श आदि सब बातों का परिज्ञान और ग्रहण हो ।

जाग्रति
संज्ञा स्त्री० [सं० जाग्रत] जागरण । जागने की क्रिया ।

जाघनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऊरु । जाँघ । जंघा । २. पुच्छ । पूँछ (को०) ।

जाचक पु †
संज्ञा पुं० [सं० याचक] १.माँगनेवाला । वह जो माँगता हो । भिक्षुक । मंगन । भिखारी । उ०—(क) नर नाग सुरासुर जाचक जो तुम्ह सों मन भावत पायो न कै ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) नंद पौरि जे जाँचन आए । बहुरौ फिरि जाचक न कहाए । —१० ।३२ । २. भीख माँगनेवाला । भिखमंगा । उ०—दोऊ चाह भरे कछू चाहत कह्यो कहै न । नहिं जाचक सुनि सूम लौं बाहर निकसत बैन ।—बिहारी (शब्द०) ।

जाचकता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० याचकता] १. माँगने का भाव । भीख माँगने की क्रिया । भिखमंगी । उ०—जेहि जाचे सो जाचकता बस फिरि बहु नाचन नाच्यो । —तुलसी (शब्द०) ।

जाचना पु †
क्रि० स० [ सं० याचन] माँगना । उ०—जेहि जाचे सो जाचकता बस फिरि बहु नाच न नाच्यौ । —तुलसी (शब्द०) ।

जाजन पु
क्रि० स० [सं० याजन] यज्ञ कराना । उ०—जजन जाजन जाप रटन तीरथ दान ओषधी रसिक गदमूल देता ।—रै० बानी, पृ० २ ।

जाजना (१)पु †
क्रि० स० [हिं० जाना] जाना । जाने की क्रिया या भाव । उ०—आलँब न और जगदीसै कहौ जाजे कहाँ, आगि कै तो दाधे अंति आगि ही सिराहिंगे । —सुंदर० ग्रं०, (जी०), भा० १ पृ० ६६ ।

जाजना (२) पु †
क्रि० स० [हिं० जाजन] पूजा करना । उपासना करना । उ०—स्यंभ देव की सेवा जाजे, ते देव दृष्टि है सकल पछाने । —दक्खिनी०, पृ० ३४ ।

जाजम
संज्ञा स्त्री० [तु० जाजम] एक प्रकार की चादर जिसपर बेल बूटे आदि छपे होते हैं और जो फर्श पर बिछाने के काम में आती है ।

जाजमलार
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'जाजामलार' ।

जाजर पु †
वि० [सं० जर्जर] [वि० स्त्री० जाजरी, जाजरी] दुर्वल । कृश । जीर्ण । उ०—चरन गिरहिं कर कंपमान जाजर देह गिरंन । प्राण०, पृ० २५२ ।

जाजरा पु †
वि० [सं० जर्ज्जर,] जर्जर । जीर्ण । उ०—(क) ज्यों धुन लागई काठ को लोहइ लागई काँठ । काम किया घट जाजरा दादू बारह बाट । —दादू (शब्द०) । (ख) आँधरो अधन जड़ जाजरो जरा जवन सूकर के सावक ढका ढकेल्यौ मग मैं । —तुलसी (शब्द०) ।

जाजरी †
संज्ञा पुं० [देश०] बहेलिया । चिड़ीमार ।

जाजरू †
संज्ञा पुं० [फा० जाजरूर] दे० 'जाजरूर' ।

जाजरूर
संज्ञा पुं० [फा० जा + अ० जरूर] शौच क्रिया करने का स्थान । पाखाना । टट्टी ।

जाजल
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद की एक शाखा का नाम ।

जाजलि
संज्ञा [सं०] एक प्रवरप्रवर्तक ऋषि का नाम ।

जाजा पु †
वि० [अं० जियादह्, हिं० ज्यादा] बहुत ।अधिक । उ०—जाय जोगण बंद जाजा, प्रजुण वन्ही करे प्राजा । वहण आवध होम बाजा, रूपि दराजा रोस ।—रघु० रू०, पृ० २०७ ।

जाजात †
संज्ञा स्त्री० [फा० जायदाद] दे० 'जायदाद' ।

जाजामलार
संज्ञा पुं० [देश०] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं । इसे जाजमलार भी कहते हैं ।

जाजिम
संज्ञा स्त्री० [तु० जाजम] १. एक प्रकार की छपी हुई चादर जो बिछाने के काम में आती है । २. गलीचा । कालीन ।

जाजी
संज्ञा पुं० [सं० जाजिन्] योद्धा । वीर [को०] ।

जाजुल पु †
वि० [सं० जाज्वल्य] दीप्तिमान । प्रकाशमान । प्रदीप्त । उ०—दसकंठ सेन सिंघार दारुण, मार अषयकुमार । तो जो- धार जो जोधार जाजुल रामरो जोधार । —रघु० रू०, पृ० १६४ ।

जाजुलित पु
वि० [हिं० जाजुल + इत (प्रत्य०)] दे० 'जाजुल' ।

जाज्वल्य
वि० [सं०] १. प्रज्वलित । प्रकाशयुक्त । २. तेजवान् ।

जाज्वल्यमान
वि० [सं०] १. प्रज्वलित । दीप्तिमान् । २. तेजस्वी । तेजवान् ।

जाट (१)
संज्ञा पु० [सं० यष्टि अथवा सं० यादव, > जादव > जाडव > जाडअ > जाटअ > जाट] १. भारतवर्ष की एक प्रसिद्ध जाति जो समस्त पंजाब, सिंध, राजपूताने और उत्तर प्रदेश के कुछ भागों में फैली हुई है । विशेष—इस जाति के लोग संख्या में बहुत अधिक हैं और भिन्न भिन्न प्रदेश में भिन्न भिन्न नामों से प्रसिद्ध हैं । इस जाति के अधिकांश आचार व्यवहार आदि राजपूतों से मिलते जुलते होते हैं । कहीं कहीं ये लोग अपने को राजपूतों के अंतर्गत भी बतलाते हैं । राजपूतों के ३६ वंशों में जाटों का भी नाम आया है । कुछ देशों में जाटों और राजपूतों का बिवाह संबंध भी होता है । पर कहीं कहीं के जाटों में विधवा विवाह और सगाई की प्रथा भी प्रचलित है । जाटों की उत्पत्ति के संबंध में अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं । कोई कहता है कि इनकी उत्पत्ति शिव की जटा से हुई; और कोई जाटों को यदुवंशी और जाट शब्द को यदु या यादव से संबंद्ध बतलाता है । अधिकांश जाट खेती बारी से ही अपना निर्वाह करते हैं । पंजाब, अफगानिस्तान और बलूचिस्तान में बहुत से मुसलमान जाट भी हैं । २. एक प्रकार का रंगीन या चलता गाना ।

जाट (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० यष्टि, हिं० जाठ] दे० 'जाठ' ।

जाटलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] पलाश की जाति का एक पेड़ । इसे मोरवा या झाटलि भी कहते हैं ।

जाटलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक मातृका का नाम ।

जाटिकायन
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेद में एक ऋषि का नाम ।

जादु
संज्ञा पुं० [हिं० जाट] हिसार, करनाल ओर रोहतक के जाटों की बोली जिसे बाँगडू या हरियानी भी कहते हैं ।

जाठ
संज्ञा पुं० [सं० यष्टि] १. लकड़ी का वह मोटा और ऊँचा लट्ठा जो कोल्हू की कूँड़ी के बीच में लगा रहता है और जिसके घूमने और जिसका दाब पड़ने से कोल्हु में डाली हुई चीजें पेरी जाती हैं । २. किसी चीज, विशेषत; तालाब आदि के बीच में गड़ा हुआ लकड़ी का ऊँचा और मोटा लट्ठा । लाठ ।

जाठर (१)
संज्ञा पुं० [सं० जठर] १. पेट । उदर । २. पेट की वह अग्नि जिसकी सहायता से खाया हुआ अन्न पचता है । जठराग्नि । ३. भूख । क्षुधा ।

जाठर (२)
वि० १. जठर संबंधी । २. जो जठर से उत्पन्न हो (संतान) ।

जाठराग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जठराग्नि' ।

जाठरानल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जठराग्नि' ।

जाठि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यष्टि] दे० 'जाठ' ।

जाड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० जड़, हिं० जाड़ा] दे० 'जाड़ा' । उ०—जड़ता जाड़ विषम उर लागा । गएहुँ न मज्जन पाव अभागा ।—मानस, १ ।३९ ।

जाड़ (२)
वि० [हिं० ज्यादा] अत्यंत । बहुत । अधिक ।

जाड़ पु †
संज्ञा पुं० [सं० जाडय] जड़ता ।

जाड़ा
संज्ञा पुं० [सं० जड़] १. वह ऋतु जिसमें बहुत ठंडक पड़ती हो । शीतकाल । सरदी का मौसम । विशेष—भारतवर्ष में जाड़ा प्रायःअगहन के मध्य से आरंभ होता है और फागुन के आरंभ तक रहता है । २. सरदी । शीत । पाला । ठंढ । क्रि० प्र०—पड़ना ।—लगना ।

जाडय
संज्ञा पुं० [सं०] १. जड़ का भाव । दे० 'जड़ता' । २. जीभ का कुंठित, बेकार होना या स्वाद ग्रहण न करना ।

जाड्यारि
संज्ञा पुं० [सं०] जंबीरी नीबू ।

जाणराइ पु
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञान + हिं० राय] ईश्वर । ब्रह्म । उ०—दादू जुआ खेलै जाणराइ ताकौ लखै न कोय । सब जग बैठा जीति करि काहू लिप्त न होइ ।—दादू० बानी, पृ० ४५९ ।

जाणविज्जाण पु
संज्ञा पुं० [सं० ज्ञान + विज्ञान] ज्ञान और विज्ञान । उ०—जाणविज्जाण की गम्म कैसे लहै शुद्ध बुधि आपणी सार चूका ।—राम० धर्म०, पृ० १३९ ।

जात (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जन्म । २. पुत्र । बेटा । ३. चार प्रकार के पारिभाषिक पुत्रों में से एक । वह पुत्र जिसमें उसकी माता के से गुण हों । ४. जीव । प्राणी । ५. वर्ग । श्रेणी । जाति (को०) । ६. समूह । यूथ (को०) ।

जात (२)
वि० १. उत्पन्न । जन्मा हुआ । जैसे, जलजात । उ०—देखत उदधिजात देखि देखि निज गात चंपक के पात कछू लिख्यौ है बनाइ के ।—केशव (शब्द०) । २. व्यक्त । प्रकट । ३. प्रशस्त । अच्छा । ४. जिसने जन्म ग्रहण किया हो । जैसे, नवजात ।

जात (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० ज्ञाति] दे० 'जाति' । यौ०—जात पाँत ।

जात (४)
संज्ञा स्त्री० [अ० जात] १. शरीर । देह । काया । जैसे,— उसकी जात से तुम्हें बहुत फायदा होगा । २. कुल । वंश । नस्ल (को०) । ३. व्यक्तित्व (को०) । ४. जाति । कौम । बिरादरी । ५. अस्तित्व । हस्ती (को०) ।

जात (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० यात्रा] तीर्थयात्रा । किसी देवस्थान, तीर्थ आदि के निमित्त की जानेवाली यात्रा । उ०—इहि बिधि बीते मास छ सात । चले समेत सिखर की जात ।—अर्ध०, पृ० ६ ।

जातक (१)
वि० [सं०] उत्पन्न । पैदा हुआ । जात [को०] ।

जातक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बच्चा । उ०—(क) तुलसी मन रंजन रंजित अंजन । नयन सु खंजन जातक से । सजनी ससि में समसील उभै नव नील सरोरुह से विकसे ।—तुलसी ग्रं, पृ० १५६ । (ख) जानै कहाँ बाँझ ब्यावर दुख जातक जनहि न पीर है कैसी ।—सूर (शब्द०) । २. कारंडी । बत । ३. भिक्षु । ४. फलित ज्योतिष का एक भेद जिसके अनुसार कुंडली देखकर उसका फल कहते हैं । ५. एक प्रकार की बौद्ध कथाएँ जिनमें महात्मा बुद्धदेव के पुर्वजन्मों की बातें होती हैं । महात्मा बुद्ध के बोधिसत्व रूप पुर्व जन्मों की कथाएँ । ७. जातकर्म संस्कार । वि० दे० 'जातकर्म' । ८. एकजातीय वस्तुओं का समूह (को०) । यौ०—जातकचक्र = नवजात संतति के शुभाशुभ ग्रहों की स्थिति का बोधक चक्र । जातकध्वनि = जलौका । जोंक ।

जातक (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] हींग का पेड़ ।

जातकरम पु
संज्ञा पुं० [सं० जातकर्म] दे० 'जातकर्म' । उ०—तब नंदीमुख श्राद्ध करि जातकरम सब कीन्ह ।—तुलसी (शब्द०) ।

जातकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] हिंदुओं के दस संस्कारों में से चौथा संस्कार जो बालक के जन्म के समय होता है । उ०— जातकर्म करि पूजि पितर सुर दिए महिदेवन दान । तेहिं औसर सुत तीनि प्रगट भए मंगल, मुद, कल्यान ।—तुलसी ग्रं० पृ० २६४ । विशेष—इस संस्कार में बालक के जन्म का समाचार सुनते ही पिता मना कर देता है कि अभी बालक की नाल न काटी जाय । तटुपरांत वह पहने हुए कपड़ों सहित स्नान करके कुछ विशेष पूजन और वृद्ध श्राद्ध आदि करता है । इसके अनंतर ब्रह्मचारी, कुमारी, गर्भवती या विद्वान् ब्राहाण द्वारा धोई हुई सिल पर लोहे से पीसे हुए चावल और जौ के चूर्ण को अँगूठे और अनामिका से लेकर मंत्र पढ़ता हुआ बालक की जीभ पर मलता है । दूसरी बार वह सोने से घी लेकर मंत्र पढ़ता हुआ उसकी जीभ पर मलता है और तब नाल काटने और दूध पिलाने की आज्ञा देकर स्नान करता है । आजकल यह संस्कार बहुत कम लोग करते हैं ।

जातकलाप
वि० [सं०] पूँछवाला । पूँछ से युक्त । जैसे, मोर ।

जातकाम
वि० [सं०] आसक्त । अनुरक्त । [को०] ।

जातक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जातकर्म' ।

जातज्ञातरोग
संज्ञा पुं० [सं०] वह रोग जो बच्चे को गर्भ ही से माता के कुपथ्य आदि के कारण हो ।

जातना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यातना] दे० 'यातना' । उ०—गर्भ बास दुख रसि जातना तीब्र बिपति बिसरायो—तुलसी (शब्द०) ।

जातमन्मथ
वि० [सं०] दे० 'जातकाम' ।

जातदंत
वि० [सं० जातदन्त] (बालक) जिसके दाँत निकल चुके हो (को०) ।

जातदोष
वि० [सं०] जिसमें दोष हो । दोष युक्त [को०] ।

जातपत्द
वि० [सं०] जिसके पंख निकल आए हों [को०] ।

जातपाँत
संज्ञा स्त्री० [सं० जाति + पङ्क्ति] जाति । बिरादरी । जैसे,—जात पाँत पुछे नहिं कोइ । हरि को भजे सो हरि का होइ ।

जातपाश
वि० [सं०] जो बंधन में हो । बंधनयुक्त । बद्ध [को०] ।

जातपुत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसने संतान को जन्म दिया हो । पुत्रवती स्त्री [को०] ।

जातप्रत्यय
वि० [सं०] जिसके मन में विशवास उत्पन्न हो गया हो । प्रतीतियुक्त [को०] ।

जातमात्र
वि० [सं०] जन्मतुआ । तुरंत का जन्मा [को०] ।

जातमृत
वि० [सं०] जन्म लेते ही मर जानेवाला [को०] ।

जातरा †
संज्ञा स्त्री० [सं० यात्रा] दे० 'यात्रा' ।

जातरूप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुवर्णं । सोना । उ०—जातरूप मनि रचित अटारी । नाना रंग रुचिर गच ढारी ।—मानस, ७ । २७ । २. धतूरा । पीला धतूरा ।

जातरूप (२)
वि० सुंदर । सौंदर्ययुक्त [को०] ।

जातविभ्रम
वि० [सं०] किकर्तव्यविमूढ़ । घबड़ाया हुआ [को०] ।

जातवेद
संज्ञा पुं० [जातवेदस्] १. अग्नि । २. चित्रक वृक्ष । चीते का पेड़ । ३. अंतर्यामी । परमेश्वर । ४. सूर्य ।

जातवेदसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०] ।

जातवेदा
संज्ञा पुं० [सं० जातवेदस्] दे० 'जातवेद' ।

जातवेश्म
संज्ञा पुं० [सं० जातवेश्मन्] वह घर जिसमें बालक का जन्म हो । सौरी । सूतिकागार ।

जाता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कन्या । पुत्री ।

जाता (२)
वि० स्त्री० उत्पन्न ।

जाता (३)
संज्ञा पुं० [सं० यन्त्र] दे० 'जाँता' ।

जाता (४)
वि० [सं० ज्ञाता] ज्ञाता । जानकार । निष्णात । उ०—किते पुरान प्रवीन किते जोतिस के जाता । किते वेदविधि निपुन किते सुमृतन के ज्ञाता ।—सुजान०, पृ० २६ ।

जाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंदुओं में मनुष्य समाज का वह विभाग जो पहले पहल कर्मानुसार किया गया था, पर पीछे से स्वभावतः जन्मानुसार हो गया । उ०—कामी क्रोधी लालची इतने भक्ति न होय । भक्ति करे कोई सूरमा जाति वरन कुल खोय ।—कबीर (शब्द०) । विशेष—यह जातिविभाग आरंभ में वर्णविभाग के रूप में ही था, पर पीछे से प्रत्येक वर्ण में भी कर्मानुसार कई शाखाएँ हो गईँ, जो आगे चलकर भिन्न भिन्न जातियों के नामों से प्रसिद्ध हुईं । जैसे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, सोनार, लोहार, कुम्हार आदि । २. मनुष्य समाज का वह विभाग जो निवासस्थान या वंश- परंपरा के विचार से किया गया हो । जैसे, अंग्रेजी जाति, मुगल जाति, पारसी जाति, आर्य जाति आदि । ३. वह विभाग जो गुण, धर्म, आकृति आदि की समानता के विचार से किया जाय । कोटि । वर्ग । जैसे,—मनुष्य जाति, पशु जाति, कीट जाति । वह अच्छी जाति का घोड़ा है । यह दोनों आम एक ही जाति के हैं । उ०—(क) सकल जाति के बँधे तुरंगम रूप अनूप विशाला ।—रघुराज (शब्द०) । विशेष—न्याय के अनुसार द्रव्यों में परस्पर भेद रहते हुए भी जिससे उनके विषय में समान बुद्धि उत्पन्न हो, उसे जाति कहते हैं । जैसे, घटत्व, मनुष्यत्व, पशुत्व आदि । 'सामान्य' भी इसी का पर्याय है । ४. न्याय में किसी हेतु का वह अनुपयुक्त खंडन या उत्तर जो केवल साधर्म्य या बैधर्म्य के आधार पर हो । जैसे,—यदि वादी कहे कि आत्मा निष्क्रिय है, क्योंकि यह आकाश के समान विभु है और इसपर प्रतिवादी यह उत्तर दे कि विभु आकाश के समान घर्मवाला होने के कारण यदि आत्मा निष्क्रिय है, तो क्रियाहेतुगुणयुक्त लोष्ठ के समान होने के कारण क्ह क्रियावान् क्यों नहीं है, तो उसका यह उत्तर साधर्म्य के आधार पर होने के कारण अनुपयुक्त होगा और जाति के अंतर्गत आएगा । इसी प्रकार यदि वादी कहे कि शब्द अनित्य है क्योंकि वह उत्पत्ति धर्मवाला है और आकाश उत्पत्ति धर्मवाला नहीं है और इसके उत्तर में प्रतिवादी कहे कि यदि शब्द उत्पत्ति धर्मवाला और आकाश के असमान होने के कारण अनित्य है, तो वह घट के आसमान होने के कारण नित्य क्यों नहीं है, तो उसका यह उत्तर केवल बैधर्म्य के आधार पर होने के कारण अनुपयुक्त होगा और जाति के अंतर्गत आ जायगा । विशेष—न्याय में जाति सोलह पवार्थों के अंतर्गत मानी गई है । नैयायिकों ने इसके और भी सूक्ष्म २४ भेद किए हैं, जिनके नाम ये हैं—(१) साधर्म्य सम । (२) वैधर्म्य सम । (३) उत्कर्ष सम । (४) अपकर्ष सम । (५) वणर्य सम । (६) अवर्ण्य सम । (७) विकल्प सम । (८) साध्य सम । (९) प्राप्ति सम । (१०) अप्राप्ति सम । (११) प्रसंग सम । (१२) प्रतिद्यष्टांत सम । (१३) अनुत्पत्ति सन । (१४) संशय सम । (१५) प्रकरण सम । (१६) हेतु सम । (१७) अर्थापित्ति सम । (१८) अविशेष सम । (१९) उपपत्ति सम । (२०) उपलब्धि सम । (२१) अनुपलब्धि सम । (२२) नित्य सम । (२३) अनित्य सम, और (२४) कार्य सम । ५. वर्ण । ६. कुल । वंश । ७. गोत्र । ८. जन्म । ९. आमलकी । छोटा आँवला । १०. सामान्य । साधारण । आम । ११. चमेली । १२. जावित्री । १३. जायफल । जातीफल । १४. वह पद्य जिसके चरणों में मात्राओं का नियम हो । मात्रिक छंद ।

जातिकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जातकर्म' ।

जातिकोश, जातिकोष
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल ।

जातिकोशी, जातिकोषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जावित्री ।

जातिचरित्र
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार जातीय रहन सहन तथा प्रथा ।

जातिच्युत
वि० [सं०] जाति से गिरा या निकाला हुआ । जो जाति से अलग या बाहर हो ।

जातित्व
संज्ञा पुं० [सं०] जाति का भाव । जातीयता ।

जातिधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. जाति या वर्ण का धर्म । २. ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य आदि का अलग अलग कर्तव्य । जिस जाति में मनुष्य उत्पन्न हुआ ही, उसका विशेष आचार या कर्तव्य । विशेष—प्राचीन काल में अभियोगों का निर्णय करते हुए जाति— धर्म का आदार किया जाता था ।

जातिपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जातिपत्री] जावित्री ।

जातिपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] जावित्री ।

जातिपाँति
संज्ञा स्त्री० [सं० जाँति + हिं० पाँति > सं० पङ्क्ति] जाति या वर्ण आदि । उ०—जाति पाँति उन सम हम नाहीं । हम निर्गुण सब गुण उन पाहीं ।—सूर (शब्द०) ।

जातिफल
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल ।

जातिबैर
संज्ञा पुं० [सं० जातिवैर] स्वाभाविक शत्रुता । सहज बैर । विशेष—महाभारत में जातिवैर पाँच प्रकार का माना गया है,— (१.) स्त्रीकृत । (२.) वास्तुज । (३.) वाग्ज । (४.) सापत्न ओर (५.) अपराधज ।

जातिब्राह्मण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ब्राह्मण जिसका केवल जन्म किसी ब्राह्मण के घर में हुआ हो और जिसने तपस्या या वेद अध्ययन आदि न किया हो ।

जातिभ्रंश
संज्ञा पुं० [सं०] जातिच्युत होने का भाव । जातिभ्रष्टता [को०] ।

जातिभ्रंशकर
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार नौ प्रकार के पापों में से एक प्रकार का पाप जिसका करनेवाला जाति और आश्रम आदि से भ्रष्ट हो जाता है ।विशेष—इसके अंतर्गत ब्राह्मणों को पीड़ा देना, मदिरा पीना अथवा अखाद्य पदार्थ खाना, कपट व्यवहार करना और पुरुषमैथुन आदि कई निंदनीय काम हैं । यह पाप यदि अनजान में हो तो पापी को प्राजापत्य प्रायशिच्त और यदि जानकारी में हो तो सांतपन प्रायशिचत्त करना चाहिए ।

जातिभ्रष्ट
वि० [सं०] जातिच्युत । जातिबहिष्कृत [को०] ।

जातिमान्
वि० [सं० जातिमत्] सत्कुलोत्पन्न । कुलीन [को०] ।

जातिलक्षण
संज्ञा स्त्री० [सं०] जातिसूचक भेद । जातीय विशेषता [को०] ।

जातिवाचक
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्याकरण में संज्ञा का एक भेद । २. जाति को बतानेवाला शब्द [को०] ।

जातिविद्वेष
संज्ञा पुं० [सं०] जातियों का पारस्परिक वैर । जातिगत वैर । [को०] ।

जातिवैर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जातिबैर' ।

जातिवैरी
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाभाविक शत्रु [को०] ।

जातिव्यवसाय
संज्ञा पुं० [सं०] जातिगत पेशा । जातीय धंधा या काम । जैसे, सोनारी, लोहारी आदि ।

जातिशस्य
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल ।

जातिसंकर
संज्ञा पुं० [सं० जातिसंकर] दो जातियों का मिश्रण । वर्णसंकरता । दोगलापन ।

जातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल ।

जातिस्मर
वि० [सं०] जिसे अपने पूर्वजन्म का इतिवृत्त याद हो । जैसे,—जातिस्मर शिशु । जातिस्मर शुक । जातिस्मर मुनि ।

जातिस्मृत
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल । जातीफल ।

जातिस्वभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का अलंकार जिसमें आकृत्ति और गुण का वर्णन किया जाता है । २. जातिगत स्वभाव, प्रकृति या लक्षण ।

जातिहीन
वि० [सं०] १. नीची जाति का । निम्न जाति का । उ०—जातिहीन अघ जन्म महि मुक्त कीन्हि अस नारि । महामंद मन सुख चहसि ऐसे प्रभुहिं बिसारि ।—मानस, ३ ।३० । २. जातिभ्रष्ट । जातिच्युत (को०) ।

जाती (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमेली । २. आमलकी । छोटा आँवला । ३. मालती । ४. जायफल ।

जाती (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जाति] दे० 'जाति' । उ०—(क) सादर बोले सकल बराती । विष्णु बिरंचि देव सब जाती ।—मानस, १ ।९९ । (ख) दीन हीन मति जाती ।—मानस, ६ ।११५ ।

जाती (३)
संज्ञा पुं० [देश०] हाथी । हस्ती (डिं०) ।

जाती (४)
वि० [अ० जाती] १. व्यक्तिगत । २. अपना । निज का ।

जातीकोश
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल ।

जातीकोष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जातिकोश' ।

जातीपत्री
संज्ञा पुं० [सं०] जावित्री । जायपत्री ।

जातीपूग
संज्ञा पुं० [सं०] जायफल ।

जातीफल
संज्ञा पुं० [सं०] जाथफल ।

जातीय
वि० [सं०] जातिसंबंधी । जाति का । जातिवाला ।

जातीयता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जाति का भाव । जतित्व । २. जाति की ममता । ३. जाति ।

जातीरस
संज्ञा पुं० [सं०] बोल नामक गंधद्रव्य ।

जातु
अव्य० [सं०] १. कदाचित् । कभी । २. संभवतः । शायद ।

जातुक
संज्ञा पुं० [सं०] हींग ।

जातुज
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भवती स्त्री की इच्छा । दोहद ।

जातुधान
संज्ञा पुं० [सं०] राक्षस । निशाचर । असुर ।

जातुष
वि० [सं०] [वि० स्त्री० जातुषी] १. जतु या लाख का बना हुआ । २. चिपकनेवाला । चिपचिपा । लसदार (को०) ।

जातू
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र ।

जातूकर्णी
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपस्मृति बनानेवाले एक ऋषि का नाम । हरिवंश के अनुसार इनका जन्म अट्ठाईसवें द्वापर में हुआ था । २. शिव का एक नाम (को०) ।

जातूकर्णी
संज्ञा पुं० [सं०] महाकवि भवभूति के पिता का नाम ।

जातेष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'जातकर्म' ।

जातोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वह बैल जो बहुत ही छोटी अवस्था में बधिया कर दिया गया हो ।

जात्यंध
वि० [सं० जात्यन्ध] जन्मांध [को०] ।

जात्य
वि० [सं०] १. उत्तम कुल में उत्पन्न । कुलीन । २. श्रेष्ठ । ३. जो देखने में बहुत अच्छा हो । सुंदर ।

जात्य त्रिभुज
संज्ञा पुं० [सं०] वह त्रिभुज क्षेत्र जिसमें एक समकोण हो । जैसे/?/।

जात्यासन
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिकों का एक आसन । विशेष—इस आसन में हाथ और जमीन पर रखकर चलते हैं । कहते हैं कि इस आसन के सिद्ध हो जाने से पुर्वजन्म की सब बातें याद हो आती है ।

जात्युत्तर
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में वह दूषित उत्तर जिसमें व्याप्ति स्थिर हो । यह अठारह प्रकार का माना गया है ।

जात्यारोह
संज्ञा पुं० [सं०] खगोल के अक्षांश की गिनती में वह दूरी जो मेष से पूर्व की ओर प्रथम अंश से ली जाती है ।

जात्र पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यात्रा] तीर्थयात्रा । यात्रा । उ०— हुतौ आढय तब कियौ असद्व्यय करी न ब्रज बन जात्र ।—सूर०, १ ।२१६ ।

जात्रा †
संज्ञा स्त्री० [सं० यात्रा] दे० 'यात्रा' ।

जात्री †
संज्ञा पुं० [सं० यात्री] दे० 'यात्री' ।

जाथका † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जूथिका] ढेरी । ढेर । राशि ।

जादपति †पु
संज्ञा पुं० [सं० यादवपति] श्रीकृष्ण । विष्णु । उ०— कमला अहै जादपति बारी । ताको है मुकता रखवारी ।— इंद्रा०, पृ० १५९ ।

जादरसार पु †
संज्ञा पुं० [?] एक प्रकार का वस्त्र । उ०—पाटै बइठा दुई राजकुमार । पहिरी वस्त्र जादर सार ।—बी० रासो, पृ० २२ ।

जादव †पु
संज्ञा पुं० [सं० यादव] यादव । यदुवंशी ।

जादवपति †पु
संज्ञा पुं० [सं० यादवपति] श्रीकृष्णचंद्र ।

जादसंपति †
संज्ञा पुं० [सं० यादसाम्पति] जलजंतुओं का स्वामी । वरुण ।

जादसपती पु †
संज्ञा पुं० [सं० यादसाम्पति] दे० 'जादसंपति' ।

जादा पु †
वि० [अ० जियादह्, हिं० ज्यादा] दे० 'ज्यादा' ।

जादुई
वि० [फा० जादू] इंद्रजाल संबंधी । जादू के प्रभाववाला । उ०—इन चित्रों में जादुई आकर्षण है जिसकी सुहानी दीप्ति हमारी चेतना पर छा जाती है ।—प्रेम० और गोर्की पृ० १ ।

जादू (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. वह अदभुत और आश्चर्यजनक कृत्य जिसे लोग अलौकिक और आमानवी समझते हों । इंद्रजाल । तिलस्म । विशेष—प्राचीन काल में संसार की प्रायः सभी जातियों के लोग किसी न किसी रूप में जादू पर बहुत विश्वास करते थे । उन दिनों रोगों की चिकित्सा, बड़ी बड़ी कामनाओं की सिद्धि और इसी प्रकार की अनेक दूसरी बातों के लिये अच्छे अच्छे जादूगरों और सयानों से अनेक प्रकार के जादू ही कराए जाते थे । पर अब जादू पर से लोगों का विश्वास बहुत अंशों में उठ गया है । क्रि० प्र०—चलना ।—करना । मुहा०—जादू उतरना = जादू का प्रभाव समाप्त होना । जादू चलना = जादू का प्रभाव होना । किसी बात का प्रभाव होना । जादू काम करना = प्रभाव होना । उ०—उसमें न किसी का जादू काम कर रहा है और न किसी का टोना ।—चुभते० (प्रा०) पृ० ३ । जादू जगाना = प्रयोग आरंभ करने से पहले जादू को चैतन्य करना । २. वह अदभुत खेल या कृत्य जो दर्शकों की दृष्टि और बुद्धि को धोखा दे कर किया जाय । ताश, अँगूठी, घड़ी, छुरी और सिक्के आदि के तरह तरह के विलक्षण और बुद्धि को चकरानेवाले खेल इसी के अंतर्गत हैं । बाजीगरी का खेल । ३. टोना । टोटका । ४. दूसरे को मोहित करने की शक्ति । मोहिनी । जैसे,—उसकी आँखों में जादू है । क्रि० प्र०—करना ।—डालना ।

जादू पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० यादव] दे० 'जादो' । उ०—पूरब दिसि गढ़ गढ़नपनि समुद्र सिखर आति द्रुग्ग । तहँ सु विजय सुर राजपति जादू कुलह अभग्ग ।—पृ० रा०, २० । १ ।

जादूगर
संज्ञा पुं० [फा०] [स्त्री० जादूगरनी] वह जो जादू करता हो । तरह तरह के अदभुत और आश्चर्यजनक कृत्य करनेवाला मनुष्य ।

जादूगरी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. जादू करने की क्रिया । जादूगर का काम । २. जादू करने का ज्ञान । जादू की विद्या ।

जादूनजर
संज्ञा पुं० [फा० जादूनजर] दृष्टि मात्र से मोहित कर लेनेवाला । देखते ही मन लुभानेवाला । जिसके नेत्रों में जादू हो ।

जादूनिगाह
वि० [फा०] दे० 'जादूनजर' ।

जादूबयान
वि० [फा०] जिसकी वाणी वशीभूत करनेवाली हो । जिसकी वाणी में जादू जैसी शक्ति हो [को०] ।

जादूबयानी
संज्ञा स्त्री० [फा०] जादू जैसी शक्ति या प्रभाववाली वाणी । उ०—आपकी जादूबयानी तो इस दम अपना काम कर गई ।—फिसाना०, भा० १, पृ० ५ ।

जादो पु
संज्ञा पुं० [सं० यादव] दे० 'जादौ' । उ०—दुरजोधन को गर्व घटायो जादो कुल नास करी ।—कबीर श०, पृष्ठ ४० ।

जादौ पु †
संज्ञा पुं० [सं० यादव] १. यदुवंशी । यदुवंश में उत्पन्न । उ०—सुमति विचारहिं परिहरहिं दल सुमनहु संग्राम । सकल गए तन बिनु भए साखी जादौ काम ।— तुलसी (शब्द०) । २. नीच जाति । नीच कुलोत्पन्न ।

जादौराइ पु
संज्ञा पुं० [सं० यादवराज] श्रीकृष्णचंद्र । उ०— गई मारन पूतना कुच कालकूट लगाइ । मातु की गति दई ताहि कृपाल जादौराइ ।—तुलसी (शब्द०) ।

जात (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० ज्ञान] १. ज्ञान । जानकारी । जैसे,— हमारी जान में तो कोई ऐसा आदमी नहीं है । २. समझ । अनुमान । खयाल । उ०—मेरे जान इन्हहिं बोलिबे कारन चतुर जनक ठयो ठाट हतोरी ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—जान पहचान = परिचय । एक दूसरै से जानकारी । जैसे,—(क) हमारी उनकी जान पहचान नहीं है । (ख) उनसे तुमसे जान पहचान होगी । मुहा०—जान में = जानकारी में । जहाँ तक कोई जानता है वहाँ तक । विशेष—इस शब्द का प्रयोग समास में या 'में' विभक्ति के साथ ही होता है । इसके लिंग के विषय में भी मतभेद है । पुंलिग और स्त्रीलिंग दोनों में प्रयोग प्राप्त होते है ।

जान (२)
वि० सुजान । जानकार । ज्ञानवान । चतुर । उ०—(क) जानकी जीवन जान न जान्यो तौ जान कहावत जान्यौ कहा है ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २०७ । (ख) प्रेम समुद्र रूप रस गहिरे कैसे लागै घाट । बेकायो है जान कहावत जानपनो कि कहा परी बाट ।—हरिदास (शब्द०) । यौ०—जानपन । जानपनी । जानपनो पु । जानराय । जानसिरो- मनि = ज्ञानवानों में श्रेष्ठ । उ०—(क) तुम्ह परिपूरन काम जान सिरोमनि भाव प्रिय । जनगुन गाहक राम दोषदलन करुनायतन ।—मानस, २३२ । (ख) प्रभु कौ देखौ एक सुभाइ । अति गंभीर उदार उदधि हरि जान सिरोमनि राइ ।—सूर०, १ । ८ ।

जान (३)
संज्ञा पुं० [सं० जानु] दे० 'जानु' ।

जान (४)
संज्ञा पुं० [सं० यान] दे० 'यान' ।

जान (५)
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. प्राण । जीव । प्राणवायु । दम । जैसे,—जान है तो जहान है । मुहा०—जान आना = जी ठिकाने होना । चित्त में धैर्य होना । चित्त स्थिर होना । शांति होना । जान का गाहक = (१) प्राण लेने की इच्छा रखनेवाला । मार डालने का यत्न करनेवाला । शत्रु (२) बहुत तंग करनेवाला पीछा । न छोड़नेवाला । जान का रोग = ऐसा दुःखदायी व्यक्ति या वस्तु जोपीछा न छोड़े । सब दिन कष्ट देनेवाला । जान का लागू = दे० 'ज्ञान का गाहक' । जान के लाले पड़ना = प्राण बचना कठिन देखाई देना । जी पर आ बनना । (अपना) जान को जान न समझना = प्राण जाने की परवाह न करना । अत्यंत अधिक कष्ट या परिश्रम सहना । (दूसरे की) जान को जान न समझना = किसी को अत्यंत कष्ट या दुःख देना । किसी के साथ निष्ठुर व्यवहार करना । (किसी की) जान को रोना = किसी के कारण कष्ट पाकर उसका स्मरण करते हुए दुःखी होना । किसी के द्वारा पहुँचाए हुए कष्ट को याद करके दुःखी होना । जैसे,—तुमने उसकी जीविका ली, वह अबतक तुम्हारी जान को रोता है । जान खाना = (१) तंग करना । बार बार घेरकर दिक करना । (२) किसी बात के लिये बार बार कहना । जैसे,—चलते हैं, क्यों जान खाते हो । जान खोना = प्राण देना । मरना । जान चुराना = दे० 'जी चुराना' जान छुड़ाना = (१) प्राण बचाना । (२) किसी झंझट से छुटकारा करना । किसी अप्रिय या कष्टदायक वस्तु को दूर करना । संकट टालना । छुटकारा करना । निस्तार करना । जैसे,—(क) जब काम करने का समय आता है तब लोग जान छुड़ाकर भागते हैं ।(ख) इसे कुछ देकर अपनी जान छुड़ाओ । जान छूटना = किसी झंझट या आपत्ति से छुटकारा मिलना । किसी अप्रिय या कष्टदायक वस्तु का दूर होना । निस्तार होना । जैसे,—बिना कुच दिए जान नहीं छूटेगी । जान जाना = प्राण निकलना । मृत्यु होना । (किसी पर) जान जाना = किसी पर अत्यंत अधिक प्रेम होना । जान जोखों = प्राण का भय । प्राणहानि की आशंका । जीवन का संकट । प्राण जाने का ड़र । जान डालना = शक्ति का संचार करना । उ०—हम बेजान में जान डाल देते थे ।—चुभते० (दो दो०), पृ० २ । जान तोड़कर = दे० 'जी तोड़कर' । जान दूभर होना = जीवन कटना कठिन जान पड़ना । भारी मालूम होना । दुःख पड़ने के कारण जीने को इच्छा न रह जाना । जान देना = प्राण त्याग करना । मरना (किसी पर) जान देना = (१) किसी के किसी कर्म के कारण प्राण त्याग करना । किसी के किसी काम से रुष्ट या दुःखी होकर मरना । (२) किसी पर प्राण न्यौछावर करना । किसी को प्राण से बढ़कर चाहना । बहुत ही अधिक प्रेम करना । (किसी के लिये) जान देना = किसी को बहुत अधिक चाहना । (किसी वस्तु के लिये या पीछे) जान देना =किसी वस्तु के लिये अत्यंत अधिक व्यग्र होना । किसी वस्तु की प्राप्ति या रक्षा के लिये बेचैन होना । जैसे,—वह एक एक पैसे के लिये जान देता है; उसका कोई कुछ नहीं दबा सकता । जान निकलना = (१) प्राण निकलना । मरना । (२) भय के मारे प्राण सूखना । डर लगना । अत्यंत कष्ट होना । घोर पीड़ा होना । जान पड़ना = दे० 'जान आना' । जान पर आ बनना = (१) प्राण का भय होना । प्राण बचना कठिन दिखाई देना । (२) आपत्ति आना । चित्त संकट में पड़ना । (३) हैरानी होना । नाक में दम होना । गहरी व्यग्रता होना । जान पर खेलना = प्राणों को भय में डालना । जान को जोखों में डालना । अपने आपको ऐसी स्थिति में डालना जिसमें प्राण तक जाने का भय हो । जान पर नौबत आना = दे० 'जान पर आ बनना' । जान बचना = (१) प्राणरक्षा करना । (२) पीछा छुड़ाना । किसी कष्टदायक या अप्रिय वस्तु या व्यक्ति को दूर रखना । निस्तार करना । जैसे,—हम तो जान बचाते फिरते हैं, तुम बार बार हमें आकर घेरते हो । जान मारकर काम करना = जी तोड़कर काम करना । अत्यंत परिश्रम से काम करना । जान मारना = (१) प्राणहत्या करना । (२) सताना । दुःख देना । तंग करना । दिक करना । (३) अत्यंत परिश्रम कराना । कड़ी मेहनत लेना । जैसे,—उनके यहाँ कोई काम करने क्या जाय, दिन भर जान मार डालते हैं । जान में जान आना = धैर्य बँधना । ढारस होना । चित्त स्थिर होना । व्यग्रता, घबराहट या भय आदि का दूर होना । जान लेना = (१) मार डालना । प्राणघात करना । (२) तंग करना । दुःख देना । पीड़ीत करना । जैसे,—क्यों धूप में दौड़ाकर उसकी जान लेते हो । जान सी निकलने लगना = कठिन पीड़ा होना । बहुत दुःख होना । जान सूखना = (१) प्राण सूखना । भय के मारे स्तब्ध होना । होश हवाश उड़ना । जैसे—शेर को देखते ही उसकी तो जान सूख गई । (२) बहुत अधिक कष्ट होना । (३) बहुत बुरा लगना । खलना । जैसे,—किसी को कुछ देते देख तुम्हारी क्यों जान सूखती है । जान से जाना = प्राण खोना । मरना । जान से मारना = मार डालना । प्राण ले लेना । जान से जाना । जान हलाकान करना = सताना । तंग करना । दिक करना । हैरान करना । जान हलाकान होना =तंग होना । दिक होना । हैरान होना । जान होठों पर आना = (१) प्राण कंठगत होना । प्राण निकलने पर होना । (२) अत्यंत कष्ट होना । घोर पीड़ा होना । २. बल । शक्ति । बूता । सामर्थ्य । जैसे,—अब किसी में कुछ जान नहीं है जो तुम्हारा सामना करने आवे । ३. सार । तत्व । सबसे उत्तम अंश । जैसे,—यही पद तो उस कविता की जान है । ४. अच्छा या सुंदर करनेवाली वस्तु । शोभा बढ़ाने— वाली वस्तु । मजेदार करनेवाली चीज । चटकीला करने— वाली चीज । जैसे,—मसाला ही तो तरकारी की जान है । मुहा०—जान आना = ओप चढ़ना । शोभा बढ़ना । जैसे,—रंग फेर देने से इस तसवीर में जान आ गई है ।

जान (६)
संज्ञा पुं० [देश० या सं० यान] बारात । उ०—(क) कर जोड़े राजा कहइ,चालउ चउरासी राय की जान ।—बी० रासो, पृ० १० । (ख) जान पराई में अहमक बच्चे, कपड़े भी फट्टे देह भी ट्टट्टे । (कहावत) ।

जानकार
वि० [हिं० जानना + कार (प्रत्य०)] १. जाननेवाला अभिज्ञ । २. विज्ञ । चतुर ।

जानकारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० जानकार + ई (प्रत्य०)] १. अभिज्ञता । परिचय । वाकफियत । २. विज्ञता । निपुणता ।

जानकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जनक की पुत्री । सीता ।

जानकीकंत
संज्ञा पुं० [सं० जानकीकन्त] राम । उ०—द्रवै जानकी- कंत, तब छूटै संसारदुख ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९६ ।

जानकीजानि
संज्ञा पुं० [सं०] (जिसकी स्त्री जानकी है) रामचंद्र । उ०—बाहुबल विपुल परिमित पराक्रम अतुल गूढ़ गति जानकीजानि जानी ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानकीजीवन
संज्ञा पुं० [सं०] श्रीरामचंद्र । उ०—जानकीजीवन को जन ह्वै जरि जाहु सो जीह जो जाँचत औरहि ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानकीनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] जानकी के पति, श्रीराम । उ०— सौ बातन की एकै बात । सब तजि भजौ जानकीनाथ ।— सूर (शब्द०) ।

जानकीप्राण
संज्ञा पुं० [सं०] रामचंद्र । उ०—निज सहज रूप में संयत जानकीप्राण बोले ।—अनामिका, पृ० १५९ ।

जानकीमंगल
संज्ञा पुं० [सं०] गोस्वामी तुलसीदास का बनाया हुआ एक ग्रंथ जिसमें श्रीराम जानकी के विवाह का वर्णन है ।

जानकीरमण
संज्ञा पुं० [सं०] जानकी के पति—श्रीरामचंद्र ।

जानकीरवन पु
संज्ञा पुं० [सं० जानकीरमण] दे० 'जानकीरमण' ।

जानकीवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] रामचंद्र [को०] ।

जानदार पु (१)
वि० [फ्रा०] १. जिसमें जान हो । सजीव । जीवधारी । २. उत्कृष्ट । ओपदार । जैसे, जानदार मोती । जानदार चीज या वस्तु ।

जानदार (२)
संज्ञा पुं० जानवर । प्राणी ।

जाननहार पु
वि० [हिं० जानना + हार (प्रत्य०)] जानने या समझनेवाला । जाननिहार । उ०—सुखसागर सुख नींद बस सपने सब करतार । माया मायानाथ की को जग जाननहार ।—तुलसी ग्रं०, पृ० १२३ ।

जानना
क्रि० स० [सं० ज्ञान] १. किसी वस्तु की स्थिति, गुण, क्रिया या प्रणाली इत्यादि निर्दिष्ट करनेवाला भाव धारण करना । ज्ञान प्राप्त करना । बोध प्राप्त करना । अभिज्ञ होना । वाकिफ होना । परिचित होना । अनुभव करना । मालूम करना । जैसे,—(क) वह व्याकरण नहीं जानता । (ख) तुम तैरना नहीं जानते । (ग) मैं उसका घर नहीं जानता । संयो० क्रि०—जाना ।—पाना ।—लेना । यौ०—जानना बूझना = जानकारी रखना । ज्ञान रखना । मुहा०—जान पड़ना=(१) मालूम पड़ना । प्रतीत होना । (२) अनुभव होना । संवेदना होना । जैसे—जिस समय मैं गिरा था, उस समय तो कुछ नहीं जान पड़ा; पर पीछे बड़ा दर्द उठा । जानकर अनजान = किसी बात कि विषय में जानकारी रखते हुए भी किसी को चिढ़ाने, धोखा देने या अपना मतलब निकालने के लिये अपनी अनभिज्ञता प्रकट करना । जान बूझकर = भूले से नहीं । पुरे संकल्प के साथ । नीयत के साथ । अनजान में नहीं । जैसे,—तुमने जान बूझकर यह काम किया है । जान रखना = समझ रखना । ध्यान में रखना । मन में बैठाना । हृदयंगम करना । जैसे,—इस बात को खान रखो कि अब वह नहीं आएगा । किसी का कुछ जानना = किसी का सहायतार्थ दिया हुआ धन या किया हुआ उपकार स्मरण रखना । किसी के किए हुए उपकार के लिये कृतज होना । किसी का एहसानमंद होना । जैसे,—क्यों मुझे कोई दो बात कहे, मैं किसी का कुछ जानता हुँ । (.....) तो मैं जानूँ = (१) (..........) तो मैं समझूँ कि बड़ा भारी काम किया या बड़ी अनहोनी बात हो गई । जैसे,—(क) यदि तुम इतना कूद जाओ तो मैं जानूँ । (ख) यदि वह दो दिन में इसे कर लाए तो जानूँ । (२) (......) तो मैं समझूँ कि बात ठीक है । जैसे,—सुना तो है कि वे आनेवाले है; पर आ जायँ तो जानें । विशेष—इस मुहावरे के प्रयोग द्वारा यह अर्थ सूचित किया जाता है कि कोई काम बहुत कठिन है या किसी बात के होने का निश्चय कम है । इसका प्रयोग 'मैं' और 'हम' दोनों के साथ होता है । (.......) तो मौ नहीं जानता = (........) तो मैं जिम्मेदार नहीं । तो मेरा दोष नहीं । जैसे,—उसपर चढ़ते तो हो; पर यदि गिर पड़ोगे तो मैं नहीं जानता । मैं क्या जानूँ? तुम क्या जानो? वह क्या जाने? = मैं नहीं जानता, तुम नहीं जानते, वह नहीं जानता । (बहुवचन में भी यह मुहावरा बोला जाता है) । जाने अनजाने = जान बूझकर या बिना जाने बूझे । २. सूचना पाना । खबर पाना या रखना । अवगत होना । पता पाना या रखना । जैसे,—हमें यह जानकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि वे आनेवाले हैं । ३. अनुमान करना । सोचना । जैसे,—मैं जानता हूँ कि वे कल तक आ जाएँगे ।

जाननिहारा पु
वि० [हिं० जाननि + हार (प्रत्य०)] जाननेवाला । समझनेवाला । उ०—(क) औरु तुम्हहिं को जाननिहारा ।—मानस, २ ।१२७ । (ख) भूत भविष को जाननिहारा । कहतु है बन शुभ गवन की बारा ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५६ ।

जानपति पु
वि० [सं० ज्ञान + पति] ज्ञानियों में प्रधान । जानकारों में श्रेष्ठ । उ०—जानपति दानपति हाड़ा, हिंदुवान पति दिल्लीपति दलपति बलाबंधपति है ।—मति० ग्रं०, पृ० ३६ ।

जानपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. जनपद संबंधी वस्तु । २. जनपद का निवासी । जन । लोक । मनुष्य । ३. देश । ४. कर । माल- गुजारी । ५. मिताक्षरा के अनुसार लेख्य (दस्तावेज) के दो भेदों में से एक । विशेष—इस लेख्य (दस्तावेज में) लेख प्रजावर्ग के परस्पर व्यहार के संबंध में होता है । यह दो प्रकार का होता है—एक अपने हाथ से लिखा हुआ, दूसरा दूसरे के हाथ से लिखा हुआ । अपने हाथ से लिखे हुए में साक्षी की आवश्यकता नहीं होती थी ।

जानपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वृत्ति । २. एक अप्सरा । विशेष—इस अप्सरा को इंद्र ने शरद्वान् ऋषि का तप भंग करने के लिये भेजा था । शरद्वान् ऋषि ने मोहित होकर जो शुक्र- पात किया, उससे कृप और कृपीय की उत्पत्ति हुई । महाभारत आदिपर्व में यह आख्यान वर्णित है ।

जानपना पु
संज्ञा पुं० [हिं० जान + पन (प्रत्य०)] जानकारी । अभिज्ञता । चतुराई । होशियारी । उ०—बेकायो है जानकहावत जानपनो की कहा परी बाट ।—हरीदास (शब्द०) ।

जानपनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जान + पन (प्रत्य०)] बुद्धिमानी । जानकारी । चतुराई । होशियारी । उ०—(क) जानपनी की गुमान बड़ो तुलसी के विचार गँवार महा है ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जानी है जानपनी हरि की अब बाँधिएगी कछु मोठ कला की ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) दम दान दया नहिं जानपनी । जड़ता पर वंचन ताति घनी ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानबाज
संज्ञा पुं० [फा० जान + बाज] बल्लमटेर । वालंटियर । जान पर खेल जानेवाला (लश०) ।

जानमनि पु
संज्ञा पुं० [हिं० जान + सं० मणि] ज्ञानियों में श्रेष्ठ । बड़ा ज्ञानी पुरुष । बहुत बुद्धिमान मनुष्य । उ०—रूप सील सिंधु गुन सिंधु बंधु दीन को, दयानिधान जानमनि बीर बाहु बोल को ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २०० ।

जानमाज
संज्ञा स्त्री० [फा० जानमाज] एक पतला कालीन या आसन जिसपर मुसलमान नमाज पढ़ते है । नमाज पढ़ने का फर्श ।

जानराय
संज्ञा पुं० [हिं० जान + राय] जानकारों में श्रेष्ठ । अत्यंत ज्ञानी पुरुष । बड़ा बुद्धिमान मनुष्य । सुजान । उ०—जागिए कृपानिधान जानराय रामचंद्र जननी कहै बार बार भोर भयो प्यारे ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानवर (१)
संज्ञा पुं० [फा०] १. प्राणी । जीव । जीवधारी । २. पशु । जंतु । हैवान । मुहा०—जानवर लगना = जानवरों का आना जाना या दिखाई पड़ना । उ०—और वहाँ जंगलों में दरिंद जानवर लगते हैं और आदमियों को खा जाते हैं ।—सैर कु०, पृ० १६ ।

जानवर (२)
वि० मूर्ख । अहमक । जड़ ।

जानशीन
संज्ञा पुं० [फा० जानशीन] १. वह जो दूसरे की स्वीकृति के अनुसार उसके स्थान, पद या अधिकार पर हो । २. वह जो व्यवस्थानुसार दूसरे के पद या संपत्ति आदि का अधिकारी हो । उत्तराधिकारी ।

जानहार पु † (१)
वि० [हिं० जाना + हार (प्रत्य०)] १. जानेवाला । २. खो जानेवाला । हाथ से निकल जानेवाला । ३. मरनेवाला । नष्ट होनेवाला ।

जानहार पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० जानना + हार (प्रत्य०)] वह जो जाननेवाला हो । जाननेवाला या समझनेवाला व्यक्ति । दे० 'जाननिहार' ।

जानहार (३)
वि० जाननेवाला ।

जानहु पु †
अव्य [हिं० जानना] मानो । जैसे । उ०—धनि राजा अस सभा सँवारी । जानहु फूलि रही फुलहारी ।—जायसी (शब्द०) ।

जानाँ
संज्ञा पुं० [फा०] प्रिय । माशूक । प्यारा । उ०—दिल का हुजरा साफ कर जानाँ के आने के लिये ।—तुलसी० सा०, पृ० ४ ।

जाना (१)
क्रि० अ० [सं० √ या (हिं० जा)+ना (= जाना)] १. एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्राप्त होने के लिये गति में होना । गमन करना । किसी ओर बढ़ना । किसी ओर अग्र- सर होना । स्थान परित्याग करना । जगह छोडकर हटना । प्रस्थान करना । जैसे,—(क) वह घर की ओर जा रहा है । (ख) यहाँ से जाओ । मुहा०—जाने दो = (१) क्षमा करो । माफ करो । (२) त्याग करो । छोड दो । (३) चर्चा छोडो । प्रसंग छो़डो़ । जा पड़ना = किसी स्थान पर अकस्मात् पहुँचना । जा रहना = किसी स्थान पर जाकर वहाँ ठहरना । जैसे,—मुझे क्या, मैं किसी धर्मशाला में जा रहूँगा । किसी बात पर जाना = किसी बात के अनुसार कुछ अनुमान या निश्चय करना । किसी बात को ठीक मानकर उसपर चलना । किसी बात पर ध्यान देना । जैसे,—उसकी बातों पर मत जाओ अपना काम किए चलो । विशेष—इस क्रिया का प्रयोग संयो० क्रि० के रूप में प्रायः सब क्रियाओं के साथ केवल पू्र्णता आदि का बोध कराने के लिये होता है । जैसे, चले जाना, आ जाना, मिल जाना, खो जाना, डूब जाना, पहुँच जाना, हो जाना, दौड जाना, खा जाना इत्यादि । कहीं कहीं जाना का अर्थ भी बना रहता है । जैसे, कर जाना—इनके लिये भी कुछ कर जाओ । कर्मप्रधान कियाओं के बनाने में भी इस क्रिया का प्रयोग होता है । जैसे, किया जाना, खा जाना । जहाँ 'जाना' का संयोग किसी क्रिया के पहले होता है, वहाँ उसका अर्थ बना रहता है । जैसे, जो निकलना, जा डठना, जा भिडना । २. अलग होना । दूर होना । जैसे,—(क) बीमारी यहाँ से न जाने कब जायगी । (ख) सिर जाय तो जाय, पीछे नहीं हटेंगे । ३. हाथ या अधिकार से निकलना । हानि होना । मुहा०—क्या जाता है? = क्या व्यय होता है? क्या लगता है? क्या हानि होती है? जैसे,—उनका क्या जाता है, नुकसान तो होगा हमारा । किसी बात से भी गए? = इतनी बात से भी बंचित रहे? इतना करने के भी अधिकारी या पात्र न रहे? इतने में भी चूकनेवाले हो गए । जैसे,—उसने हमारे साथ इतनी बुराई की तो हम कुछ कहने से भी गए? ४. खोना । गायब होना । चोरी होना । गुम होना । जैसे,— (क) पुस्तक यहीं से गई है । (ख) जिसका माल जाता है, वही जानता है । ५. बीतना । व्यतीत होना । गुजरना (काल, समय) । उ०—(क) चार दिन इस महीने में भी गए ओर रूपया न आया । (ख) गया वक्त फिर हाथ आता नहीं । ६. नष्ट होना । बिगड़ना । सत्यानाश या बरबाद होना । जैसे,—यह घर भी अब गया । मुहा०—गया घर = दुर्दशाप्राप्त घराना । वह कुल जिसकी समुद्धि नष्ट हो गई हो । गया बीत = (१) दुर्दशाप्राप्त । (२) निकृष्ट । ७. मरना । मृत्यु को प्राप्त होना (स्त्री०) । जैसे०—ऊसके दो बच्चे जा चुके हैं । ज्ञ. प्रबाह के रूप में कहीं से निकलना । बहना ।जारी होना जैसे, आँख से पानी जाना, खुन जाना । धातु जाना, इत्यादि ।

जाना (२) † पु
क्रि० स० [सं० जनन] उत्पन्न करना । जन्म देना । पैदा करना । उ०—(क) मैया मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ । मोसौं कहत मोल कौ, लीन्हौ तू जसुमति कत जायो ।— सूर०, १० । २१५ । (ख) कोशलेश दशरथ के जाए । हम पितु बचन मानि बन आए ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्त्री । भार्या । जैसे, जानकीजानि । उ०—सो मय दीन्ह रावनहिं आनी । होइहिं जातुधानपति जानि ।—तुलसी (शब्द०) । विशेष—इस शब्द का प्रयोग समासांत में होता है और यह ह्नस्व इकरांत ही रहता है ।

जानि (२)पु
वि० [सं० ज्ञानी] जानकार । जाननेवाला । उ०— यह प्राकृत महिपाल सुझाऊ । जानि सिरोमनि कोसलराऊ ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानिब
संज्ञा स्त्री० [अ०] तरफ । ओर । दिशा । उ०—फौज उश्शाक देख हुर जानिब । नाजनी साहबे दिमाग हुआ ।— कविता कौ०, भा० ४, पृ० ७ ।

जानिबदार
संज्ञा स्त्री० [फा़०] तरफदार । पक्षपाती । हिमायती ।

जानिबदारी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] पक्षपात । हिमायत । तरफदारी ।

जानी (१)
संज्ञा पुं० [अं० जानी] विषयलंपट व्यभिचारी वयक्ति [को०] ।

जानी (२)
वि० [फा०] १. जान से संबंध रखनेवाला । प्राणों का । २. धनिष्ठ । गहरा (को०) । यौ०—जानी दुश्मन = जान लेने को तैयार दुश्मन । प्राणों का गाहक शत्रु । जानी दोस्त = दिली दोस्त । घनिष्ठ मित्र । प्रिय दोस्त । प्राणप्रिय मित्र ।

जानी (३)
वि० स्त्री० [फा० जान] प्राणप्यारी । प्राणेश्वरी । प्रिया ।

जानीवासउ पु †
संज्ञा [हिं० जनवासा] जनवासा । बारात ठहरने का स्थान । उ०—धार नग्री आयौ बीसल राव, जानीवासउ दीयो तिणि ठाव ।—बी० रासो, पृ० १९ ।

जानु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] जाँघ और पिंडली के मध्य का बाग । घुटना । उ०—(क) श्याम की सुंदरताई । बडे विशाल जानु लौं पहुँचत यह उपमा मन भाई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) जानु टेकि कपि भूमि न गिरा । उठा सँभारि बहुत रिस भरा ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानु (२)
संज्ञा पुं० [सं० जानु, तुल०फा०जानू] जाँघ । रान । उ०— बात है फाबत आक के मान है कदली विपरीत उठानु है ।... का न करै यह सौतिन के पर प्रान से प्यारी सुजान की जानु है ।—तोष (शब्द०) ।

जानु (३) पु
अव्य० [हिं० जानना] दे० 'जानो' । उ०—तरिवर फरे फरै फरहरी । फरे जानु इंद्रासन पुरी ।—जायसी (शब्द०) ।

जानुदघ्न
वि० [सं० जानु+दघ्न (दघ्नच् प्रत्य०)] घुटने तक गहरा या घुटनों तक ऊँचा [को०] ।

जानुपाणि
क्रि वि० [सं०] घुटरूवों । पैया पैयाँ । घुटनों और हाथों के बल (चलना. जैसे बच्चे चलते हैं) ।

जानुपानि पु
क्रि० वि० [सं० जानुपाणि]दे० 'जानुपाणि' । उ०— (क) जानुपानि धाए मोहिं धरना । श्यामन/?/अरुच कर चरना ।—तुलसी (शब्द०) (ख) पीत झँगुलिया तनु पहिराई । जानुपानि विचरन मोहि भाई ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) राजत सिंधु रूप राम सकल गुन निकाय धाम, कौतुकी कृपाल ब्रह्मा जानुपानि चारी ।—तुलसी (शब्द०) ।

जानुप्रह्नतिक
संज्ञा पुं० [सं०] मल्ल युद्ध या कुश्ती का एक ढंग जिसमें घुटनों का व्यवहार विशेष होता था ।

जानुफलक
संज्ञा पुं० [सं०] घुटने की वह हड्डी जो जाँघ और पिडलो को जोडती है [को०] ।

जानुमंडल
संज्ञा पुं० [सं० जानुमण्डल]दे० 'जानुफलक' ।

जानुवाँ
संज्ञा पुं० [सं० जानु + हिं० वाँ (प्रत्य०)] एक रोज जो हाथी के अगलै पिछले पैर के जोडों में होता है और जिसमें कभी कभी घुटने की हड्डी उभर आती है ।

जानुबिजानु
संज्ञा पुं० [सं०] तलवार के २२ हाथों में से एक ।

जानु
संज्ञा पुं० [फा० जानु] जंघा । जाँघ ।

जानो †
अव्य० [हिं० जाबना] मावो । जैसे । ऐसा जान पड़ता है कि ।

जान्य
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार एक ऋषि का नाम ।

जाप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी मंत्र या स्तोत्र आदि का बार बार मन में उच्चारण । मंत्र की विधिपूर्वक आवृति । ड०— अनमिल आखर अर्थ न जापू । प्रगट प्रभाव महेश प्रतापू ।— तुलसी (शब्द०) । २. भगवान् क् नाम का बार बार स्मरण और उच्चारण ।

जाप (२) †
संज्ञा स्त्री० [सं० जप] मंत्र या नाम आदि जपने की माला । उ०—बिरह अभूत जटा बैरानी । छाला काँव आप कंठ माला ।—जायसी (शब्द०) ।

जापक
संज्ञा पुं० [सं०] जपकर्ता । जप करनेवाला । जपनेवाला । उ०—(क) राम नाम नरकेशरी कनककसिपु कवि कालु । जापक जम पह्लाद जिमि पालिहि दसि सुरसालु ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) चित्रकुट सब दिन बसत प्रभु सिय लखन समेत । राम नाम जप जापकहि तुलसी अभिमत देत ।— तुलसी (शब्द०) ।

जापता पु †
संज्ञा पुं० [फा० जाबितह्] कायदा । नियम । पद्धति । जाव्ता । उ०—सादै या लिखावडि जापता सूँ मेल दौनी । सारा कामखाँन्याँ मै बुलास्या घाम लीनी ।—शिखर०, पृ० ५९ ।

जापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. जप । २. निवर्तन ।

जापा
संज्ञा पुं० [सं० जनन] सौरी । प्रसूतिका गृह ।

जापान
संज्ञा पुं० [जौ० निर्प्पान्; अं० जापान] एक द्वीपसमूह जो चीन के पूरब है ।

जापानी (१)
संज्ञा पुं० [अं० जापान+हिं० ई (प्रत्य०); या देश०] जापान द्वीपसमूह का निवासी । जापान का रहनेवाला ।

जापानी (२)
वि० जापान का । जापान का बना । जैसे, जापानी दियासलाई, जापानी भाषा ।

जापिनी पु
वि० [हिं०] जपनेवाली । उ०—बीर बधु ही पापिनी और बधू हरि लाहि । और पौर कहाँ जापिनी पौर पपीहा देहिं ।—स० सप्तक, पृ० २३४ ।

जापी
वि, संज्ञा पुं० [सं० जापिन्] जापक । जप करनेवाला । उ०—माधव जू मोते और न पापी । लंपट धूत पूत दमरी को विषय जाप को जापी ।—सूर० १ । १४० ।

जाप्य
वि० [सं०] (मंत्र या स्तुति) जप करने योग्य [को०] ।

जाफ †
संज्ञा पुं० [अ० जा' फ़, जो' फ़] १. बेहोशी । २. घुमरी । मूर्च्चा । ३. थकावट । शिथिलता । निर्बलता । क्रि० प्र०—आना ।—होना ।

जाफत
संज्ञा स्त्री० [अ० जियाफत] भोज । दाबत । क्रि० प्र०—करना ।— होना ।—खाना ।—खिलाना ।—देना ।

जाफरान
संज्ञा पुं० [अ० जाफरान] १. कैसर । २. अफगानिस्तान की एक तातारी जाति ।

जाफरानी
वि० [अ० जाफरानी] केसरिया । केसर के रंग का । केसर का सा पीला । जैसे, जाफरानी रंग, जाफरानी कपडा़ ।

जाफरानी ताँबा
संज्ञा पुं० [अ० जाफ़रानौ+ हिं० ताँबा] पीलापन लिए हुए उत्तम ताँबा जो जो चाँदी सोने में मेल देने के काम में आता है ।

जाफा
संज्ञा पुं० [अ० इजाफह्] वृद्धि । बढती । उ०—एक किसान दूसरे के खेत पर न चढे तो कोई जाफा कैसे करे ।—गोदान, पृ० २७ ।

जाब (१) पु
संज्ञा पुं० [अ० जवाब] उत्तर । जवाब । उ०—दिए जाब उनकूँ अलेकुल सलाम, ऐ जिब्रेल, नेकइल नेक नाम ।—दक्खिनी०, पृ० ३४५ ।

जाब (२)
संज्ञा पुं० [अ० जाब] १. धंधा । काम । २. द्रव्य के बदले में किया हुआ कार्य । यौ०—आब वर्क । आब प्रेस ।

जाब † (३)
संज्ञा पुं० [अ० जब्त, हिं० जाबा †] बैलों के मुह पर लगाने की जाली । उ०—बैलों की मुँह पर 'जाब' लगा दिया जाता है । मैला०, पृ० ९७ ।

जाबजा
क्रि० वि० [फा० जा+बजा] जगह जगह । इधर उधर

जाबडा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'जबडा' ।

जाबता
संज्ञा पुं० [फा० जाबितह्] दे० 'जाब्ता' ।

जाब प्रेस
संज्ञा पुं० [अ०] कार्ड, नोटिस आदि छोटी छोटी चीजों के छापने की कल ।

जाबर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] घीए के महीन टुकडों के साथ पका हुआ चावल ।

जाबर † (२)
वि० [सं० जर्जर] वृद्ध । बुड्ढा । जईफ ।—(डि०) ।

जाबर † (३)
वि० [फा० जबर] बलवान् । ताकतवर । अधिक बलवाला ।

जाबाल
संज्ञा पुं० [सं०] एक मुनि जिनकी माता का नाम जाबाल था । विशेष—छांदोग्य उपनिषद् में इनके संबंध में यह आख्यान आया है कि जब ये ऋषियों के पास वेद की शिक्षा प्राप्त करने कै लिये गए, तब उन्होंने इनका गोत्र तथा इनके पिता का नाम आदि पूछा । ये न बतला सके और अपनी माता के पास पूछने गए । माता ने कहा कि में जवानी में बहुतों के पास रही ओर उसी समय तू उत्पन्न हुआ । में नही जानती कि तू किसका पुत्र है । जा ओर कह दे कि मेरी माता का नाम जाबाला है और मेरा जाबाल है । जब आचार्य ने यह सुना तब उनेहोंने कहा कि 'हे जाबाल? समिधा लाओ, मैं तुह्मारा यज्ञोपवीत करुँ; क्योंकि ब्राह्मण के अतिरिक्त कोई ऐसा सत्य नहीं बोल सकता' । इनका एक नाम सत्यकाम भी है ।

जाबालि
संज्ञा पुं० [सं०] कश्यपवंशीय एक ऋषि जो राजा दशरथ के गुरू ओर मत्रियो में से थे । विशेष—इन्होंने चित्रकूट में रामचंद्र को बन से लौट जाने ओर राज्य करने के लिये बहुत समझाया था, यहाँ तक कि अपने उपदेश में इन्होंने चार्वाक से मिलते जुलते मत का आभास देकर भी राम को बनगमन से विमुख करने का प्रयत्न किया था ।

जाबित
वि० [अ० जावित] १. जब्त करनेवाला । सहनशील । २. प्रबंधक ।

जाबिता
संज्ञा पुं० [अ० जाबितह्]दे० 'जाब्ता' ।

जाविर
वि० [फा०] १. जब्र करनेवाला । अत्याचार करनेवाला । जबरदस्ती करनेवाला । २. जबरदस्त । प्रचंड ।

जाब्ता
संज्ञा पुं० [अ० जाब्ता] नियम । कायंदा । व्यवस्था । कानून । जैसे, जाब्ते की कारवाई, जाब्ते की पावंदी । यौ०—जाब्ता आदालत = अदालत संबंधी कार्यविधि । अदालती व्यवहार । जब्ता दीवानी = सर्वसाधारण के परस्पर अधिक व्यवहार से संबंध रखनेवाला कानून या व्यवस्था । जाब्ता फौजदारी = दंडनीय अपराधों से संबंध रखनेवाला कानून । जाब्ता माल = अदालत माल का व्यवहार या पद्धति ।

जाम (१)
संज्ञा पुं० [सं० याम] पहर । प्रहर । ७ १/२ घडी या तीन घंटे का समय । उ०—(क) गए जाम जुग भूपति आवा । घर घर ढत्सव बाज बधावा ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) दुतिय जाम संगीत उछव रस किक्ति काव्य जमि ।—पृ० रा०, ६ । ११ । (ग) उ०—जाम सिसा रहि भोर की, अल्हन सुप्न सु होय ।—प० रासो, पृ० १७० ।

जाम (२)
संज्ञा पुं० [फा०] १. प्याला । २. प्याले के आकार का बना हुआ कटोरा ।

जाम (३)
संज्ञा पुं० [अनु० झम (= जल्दी)] जहाज के दौड (लश०) ।

जाम (४)
संज्ञा पुं० [अं० जैम] १. जहाज का दो चट्टानों या और किसी वस्तु के बीच अटकाव । फँसाव (लश०) । क्रि० प्र०—आना ।—करना ।—होना ।

२. मुरब्बा । चाशनी में पागे हुए फल ।

जाम (५)
वि० रूका हुआ । अवरूद्ध । जैसे, दो गाडियों के लड जाने से रास्ता जाम हो गया ।

जाम (६)
संज्ञा पुं० [सं० जम्बू] जामुन ।

जामगिरी
संज्ञा पुं० [?] बंदुक का फलीता (लश०) ।

जामगी
संज्ञा पुं० [?] बंदूक या तोप का फलीता । उ०—जोत जामगिन में जगी लागे नषत दिखान । रन असमान समान भौ रन समान असमान ।—लाल (शब्द०) ।

जामण †
संज्ञा पुं० [सं० जन्म] उत्पत्ति । जन्मना । जन्म होना । पैदाइश । उ०—हरि रस माते मंगन भए सुमिरि सुमिरि भए मतवाले, जामाण मरण सब भूलि गए ।—दादू०, पृ० ५९६ । यौ०—लामणसरण = जन्म और मृत्यु ।

जामदग्न्य
संज्ञा पुं० [सं०] जमदग्नि के पुत्र । परशुराम ।

जामदानी
संज्ञा स्त्री० [फा० जामह् दानी > जामादानी] १. कपडों की पैटी । चमडे का संदुक जिसमें पहनने के कपडे रखे जाते है । २. एक प्रकार का कढा हुआ फूलदार कपडा । बूटीदार महीन कपडा । ३. शीशे या अबरक की बनी हुई छोटी संदूकची बच्चे अपनी खेलने की चीजे रखते हैं ।

जामन (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जमाना] वह थोडा सा दही या और कोई खट्टा पदार्थ जो दूध में उसे जमाकर दही बनाने के लिये डाला जाता है । उ०—फेरि कछू करि पौरि तें फिरि चितई मुसुकाय । आई जामन लेने कों नेहैं चली जमाय ।—बिहारी (शब्द०) ।

जामन (२)
संज्ञा पुं० [सं० जम्बू] १. जामुन । २. आलू बुखारे की जाति का एक पेड । पारस नाम का वृक्ष । विशेष—यह वृक्ष हिमालय पर पंजाब से लेकर सिकिम और भूटान तक होता है । इसमें से एक प्रकार का गोंद तथा जहरीला तेल निकलता है जो दवा के काम में आता है । इसके फल खाए जाते हैं और पत्तियाँ चौपायों को खिलाई जाती हैं । लकडी़ से खेती के सामान बनाए जाते हैं । इसे पारस भी कहते हैं ।

जामन पु † (३)
संज्ञा पुं० [सं० जन्म, पुं० हिं० जामण ] जन्म । उ०— सुनिए धनुषधारी, अरजी हमारी यह मेट दीजै भय भारी जामन मरन को ।—रघु० रू०, पृ०२८५ ।

जामना पु †
क्रि० अ० [हिं० जमना] दे० 'जमना' । उ०—ऊषर बरसे तृण नहिं जामा ।—तुलसी (शब्द०) ।

जामनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यामिनी] रात्रि । यामिनी । निशा ।

जामनी
वि० [सं० यावनी] दे० 'यावनी' ।

जाम बेतुआ
संज्ञा पुं० [हिं० जाम+ बेंत] एक प्रकार का बाँस । विशेष—यह बाँस प्रायः बरमा, आसाम और पूर्वी बंगाल में होता है । यह बाँस टट्टर बनाने, छत पाटने आदि के लिये बहुत अच्छा होता है ।

जामल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तंत्र । वि० दे० 'यामाल' जैसे, रूद्र जामल ।

जामवंत
संज्ञा पुं० [सं० जाम्बवान्] दे० 'जांबवान्' । उ०—जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ।—मानस, ५ ।१ ।

जामान पु
संज्ञा पुं० [सं० जाम्ववान्] दे० 'जांबवान्' । उ०— जामवान अंगद सुग्रीव तथा कोउ रावन ।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ४३ ।

जामा
संज्ञा पुं० [फा़० जामह्] १. पहनावा । कपडा़ । वस्त्र । उ०— सत कै सेल्ही जुगत कै जामा छिमा ढाल ठनकाई ।—कबीर श०, भा० २, पृ० १३२ । २. एक प्रकार का घुटने के नीचे बडे़ घेरे का पुराना पहनावा । उ०—हिंदू घुटने तक जामा पहनते हैं और सिर और कंधों पर कपडा़ रखते हैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १ पृ० २४९ । विशेष—इस पहनावे का नीचे का घेरा बहुत बडा़ और लहँगे की तरह चुननदार होता है । पेट के ऊपर इसकी काट बगलबंदी के ढंग की होती है । पुराने समय में लोग दरबार आदि में इसे पहनकर जाते थे । यह पहनावा प्राचीन कंचुक का रूपांतर जान पड़ता है जो मुसलमानों के आने पर हुआ होगा, क्योंकि यद्यपि यह शब्द फारसी है, तथापि प्राचीन पारसियों में इस प्रकार का पहनावा प्रचलित नहीं था । हिंदुओं में अबतक विवाह के अवसर पर यह पहनावा दुलहे को पहनाया जाता है । मुहा०—जामे से बाहर होना = आपे से बाहर होना । अत्यंत क्रोध करना । जामे में फूला न समाना = अत्यंत आनंदित होना । यौ०—जामाजेब = वह जिसके शरीर पर वस्त्र शोभा पाता हो । जामादार = कपड़ों की देखभाल करनेवाला नौकर । जामा- पोश = वस्त्रयुक्त परिधानयुक्त ।

जामात
संज्ञा पुं० [सं० जामातृ] दे० 'जामाता' ।

जामाता
संज्ञा पुं० [सं० जामातृ] १. दामाद । कन्या का पति । उ०—सादर पुनि भेटे जामाता । रूपसील गुननिधि सब भ्राता ।—तुलसी (शब्द०) । २. हुरहुर का पौधा । हुलहुल ।

जामातु पु
संज्ञा पुं० [सं० जामातृ] दे० 'जामाता' ।

जामातृक
संज्ञा पुं० [सं०] जामाता । दामाद [को०] ।

जामानी †
वि० [हिं०] दे० 'जामुनी' । उ०—कहीं बेंगनी जामानी तो कहीं कत्थई कहीं सुरमई । इन रंगों में डुबो गई मन, संध्या पावस की ।—मिट्टी०, पृ० ७६ ।

जामि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहिन । भगिनी । २. लड़की कन्या । ३. पुत्रबधू । बहु । पतोहू । ४. अपने संबंध या गोत्र की स्त्री । ५. कुल स्त्री । घर की बहु बेटी । विशेष—मनुस्मृति में यह शब्द आया है जिसका अर्थ कुल्लूक ने भगिनी, सपिंड की स्त्री, पत्नी, कन्या, पुत्रवधू आदि किया है । मनु ने लिखा है कि जिस घर में जामि प्रतिपूजित होती है; उसमें सुख की वृद्धि होती है, और जिसमें अपमानित होती है, उस कुल का नाश हो जाता है ।

जामि (२)
संज्ञा पुं० [सं० याम] दे० 'याम' और 'जाम' उ०—प्रथम जामि निसि रज्ज कज्ज हैगै दिष्षत लगि । दुतिय जाम संगीत उछव रस कित्ति काव्य जगि ।—पृ० रा०, ६ ।११ ।

जामिक पु
संज्ञा पुं० [सं० यामिक] पहरुआ । पहरा देनेवाला । रक्षक । उ०—चरन पीठ करुनानिधान के । जनु जुग जामिक प्रजा प्रान के ।—तुलसी (शब्द०) ।

जामित्र
संज्ञा पुं० [सं०] विवाहादि शुभ कर्म के काल के लग्न से सातवाँ स्थान ।

जामित्र वेध
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष का एक योग जिसमें विवाह आदि शुभ कर्म दूषित होते हैं । विशेष—शुभ कर्म का जो काल हो, उसके नक्षत्र की राशि से सातवीं राशि पर यदि सूर्य, शनि या मंगल हो, तब जामित्र- बेध होता है । किसी किसी के मत से सप्तम स्थान में पापग्रह होने से ही जामित्रबेध होता है । किंतु यदि चंद्रमा अपने मूल त्रिकोण या क्षेत्र में हो, अथवा पूर्ण चंद्र हो या पूर्ण चंद्र अपने या शुभ ग्रह के क्षेत्र में हो तो जामित्रवेध का दोष नहीं रह जाता ।

जामिन (१)
संज्ञा पुं० [अ० जामिन] १. जिम्मेदार । जमानत करनेवाला । इस बात का भार लेनेवाला कि यदि कोई विशेष मनुष्य कोई विशेष कार्य करेगा या न करेगा, तो मैं उस कार्य की पूर्ति करूँगा या दंड सहूगाँ । प्रतिभू । उ०—तो मैं आपको उनका जामिन समझूँगी ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६५१ । क्रि० प्र०—होना । २. दो अंगुल लंबी एक लकडी़ जो नैचे की दोनों नलियों को अलग रखने के लिये चिलमगर्दे और चूल कै बीच में बाँधी जाती है । ३. दूध जमाने की वस्तु । दे० 'जामन' ।

जामिन (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यामिनी] दे० 'यामिनी' । उ०— काम लुबध बोली सब कामिन । च्यार जाम गई जागत जामिन ।—पृ० रा०, १ ।४१० ।

जामिनदार
संज्ञा पुं० [फा़० जामिनदार] जमानत करनेवाला ।

जामिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० यामिनी] दे० 'जामिनी' । उ०— सुखद सुहाई सरद की कैसी जामिनि जात ।—अनेकार्थ०, पृ० ८३ ।

जामिनो (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यामिनी] दे० 'यामिनी' ।

जामिनी (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] जमानत । जिम्मेदारी ।

जामी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० यामी] १. दे० 'यामी' । २. दे० 'जामि' (१) ।

जामी (२)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० जनमना या जमना] बाप । पिता (डिं०) ।

जामुन
संज्ञा पुं० [सं० जम्बु] गरम देशों में होनेवाला एक सदाबहार पेड़ । जाम । जंबू । विशेष—यह वृक्ष भारतवर्ष से लेकर बरमा तक होता है और दक्षिण अमेरिका आदि में भी पाया जाता है । यह नदियों के किनारे कहीं कहीं आपसे आप उगता है, पर प्रायः फलों के लिये बस्ती के पास लगाया जाता है । इसकी लकडी़ का छिलका सफेद होता है और पत्तियाँ आठ दस अंगुल लंबी और तीन चार अंगुल चौडी़ तथा बहुत चिकनी, मोटे दल की और चमकीली होती है । बैसाख जेठ में इसमें मंजरी लगती है जिसके झड़ जाने पर गुच्छों में सरसों के बराबर फल दिखाई पडते हैं जो बढ़ने पर दो तीन अंगुल लंबे बेर के आकार के होते हैं । बरसात लगते ही ये फल पकने लगते हैं और पकने पर पहले बैंगनी रंग के और फिर खूब काले हो जाते हैं । ये फल कालेपन के लिये प्रसिद्द हैं । लोग 'जामुन सा काला' प्रायः बोलते हैं । फलों का स्वाद कसैलापन लिए मीठा होता है । फल में एक कडी़ गुठली होती है । इसकी लकडी़ पानी में सड़ती नहीं और मकानों में लगाने तथा खेती के सामान बनाने के काम में आती है । इसका पका फल खाया जाता है । फलों के रस का सिरका भी बनता है जो तिल्ली, यकृत् रोग आदि की दवा है । गोआ में इससे एक प्रकार की शराब भी बनती है । इसकी गुठली बहुमूत्र के रोगी के लिये अत्यंत उपकारी है । बौद्ध लोग जामुन के पेड़ को पवित्र मानते हैं । वैद्यक में जामुन का फल ग्राही, रूखा तथा कफ, पित्त और दाह को दूर करनेवाला माना जाता है । पर्या०—जंबू । सुरभिप्रभा । नीलफला । श्यामला । महास्कंधा । राजार्हा । राजफला । शुकप्रिया । मोदमादिनी । जंबुल ।

जामुनी
वि० [हिं० जामुन] जामुन के रंग का जामुन की तरह बैगनी या काला । जैसे, जामुनी रंग ।

जामेय
संज्ञा पुं० [सं०] भागिनेय । भांजा । बहिन का लड़का ।

जामेवार
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का दुशाला जिसकी सारी जमीन पर बेलबूटे रहते हैं । २. एक प्रकार की छींट जिसकी बूटी दुशाले की चाल की होती है ।

जायंट
वि० [अं०] साथ में काम करनेवाला । सहयोगी । संयुक्त । जैसे, जायंट सेक्रेटरी । जायंट एडीटर ।

जायंट मैजिस्ट्रेट
संज्ञा पुं० [अं०] फौजदारी का वह मजिस्ट्रेट या हाकिम जिसका दर्जा जिला मजिस्ट्रेट के नीचे होता है और जो प्रायः नया सिवीलियन होता है । जंट ।

जायँ † (१)
क्रि० वि० [अ० जा़यअ़] व्यर्थ । वृथा । निष्फल ।

जायँ † (२)
अव्य० [फा़० जा (= ठीक)] वाजिब । मुनासिब । ठीक । उचित । जैसे,—तुम्हारा कहना जायँ है ।

जाय पु (१)
अव्य० [अ० जायअ (= वृथा)] वृथा । निष्फल । व्यर्थ । बेकार । उ०—(क) जाय जीव बिनु देह सुहाई । बादि मोर सब बिनु रघुराई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) तात जाय जिन करहु गलानी । ईस अधीन जीव गति जानी ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) जेहि देह सनेह न रावरे सो ऐसी देह धराइ जो जाय जिए ।—तुलसी (शब्द०) ।

जाय † (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] चने और उड़द की भूनकर पकाई हुई दाल ।

जाय (३)
संज्ञा स्त्री० [फा़० 'जा' का यौगिक रूप] जगह । स्थान । मौका । यौ०—जायनमाज । जायपनाह, जायरहाइश = निवास स्थान ।

जाय (४)पु
वि० [सं० जात] जन्मा हुआ । पैदा । उत्पन्न । जैसे— चल जा दासीजाय तेरा उत्साह दिलाना निष्फल हुआ ।

जायक
संज्ञा पुं० [सं०] पीला चंदन ।

जायका
संज्ञा पुं० [अ० जाइक़ह, जा़यक़ह्] खाने पीने की चीजों का मजा । स्वाद । लज्जत ।

क्रि० प्र०—लेना ।

जायकेदार
वि० [अ० जायकह् + फा़० दार] स्वादिष्ट । मजेदार । जो खाने या पीने में अच्छा जान पडे़ ।

जायचा
संज्ञा पुं० [फा़० जा़यचह्] जन्मकुंडली । जन्मपत्री ।

जायज
वि० [अ० जा़यज़] यथार्थ । उचित । मुनासिब । ठीक । वाजिब । क्रि० प्र०—रखना ।

जायजा
संज्ञा पुं० [अ० जायजह्] १. जाँच । पड़ताल । मुहा०—जायजा देना = हिसाब समझाना । जायजा लेना = पड़ताल करना । जाँचना । २. हाजिरी । गिनती ।

जायजरूर
संज्ञा पुं० [फा़० जा + अ० जरूर] टट्टी । पाखाना ।

जायद
वि० [फा़० जा़यद] १. ज्यादा । अधिक । २. फालतू । अतिरिक्त ।

जायदाद
संज्ञा स्त्री० [फा़०] भूमि, धन या सामान आदि जिसपर किसी का अधिकार हो । संपत्ति । विशेष—कानून के अनुसार जायदाद दो प्रकार की है, मनकूला और गैरमनकूला । मनकूला जायदाद उसे कहते हैं जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर हटाई जा सके । जैसे, बरतन, कपडा, असबाब आदि । गैरमनकूला जायदाद उसे कहते हैं जो स्थानांतरित न की जा सके । जैसे, मकान, बाग, खेत, कुआँ आदि ।

जायदाद गैरमनकूला
संज्ञा स्त्री० [फा़० जायदाद + अ० गैरमनकूलह्] वह संपत्ति जो हटाई बढा़ई न जा सके । स्थावर संपत्ति । दे० 'जायदाद' शब्द का विशेष ।

जायदाद जौजियत
संज्ञा स्त्री० [फा़० जायदाद + अ० जौ़जियत] वह संपत्ति जिसपर स्त्री का अधिकार हो । स्त्रीधन ।

जायदाद मकफूला
संज्ञा स्त्री० [फा़० जायदाद + अ० मकफूलह्] वह संपत्ति जो किसी प्रकार रेहन या बंधक हो ।

जायदाद मनकूला
संज्ञा स्त्री० [फा़० जायदाद + अ० मनकूलह] चल संपत्ति । जंगम संपत्ति । दे० 'जायदाद' शब्द का विशेष ।

जायदाद मुतनाजिआ
संज्ञा स्त्री० [फा़० जायदाद + अ० मुतना- जिअह] वह संपत्ति जिसके आधिकार आदि के विषय में कोई झगडा़ हो । विवादग्रस्त संपत्ति ।

जायदाद शौहरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] वह संपत्ति जो स्त्री को उसके पति से मिले ।

जायनमाज
संज्ञा स्त्री० [फा़० जायनमाज] वह छोटी दरी, कालीन या इसी प्रकार का और कोई बिछौना जिसपर बैठकर मुसलमान नमाज पढ़ते हैं । बहुधा इसपर बना या छपा हुआ मसजिद का चित्र होता है । मुसल्ला ।

जायपनाह
संज्ञा स्त्री० [फा़०] आश्रय या पनाह का स्थान । आश्रय— गृह [को०] ।

जायपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं० जायपत्री] दे० 'जावित्री' ।

जायफर †
संज्ञा पुं० [सं० जातिफल, जातीफल])दे० 'जायफल' ।

जायफल
संज्ञा पुं० [सं० जातीफल, प्रा० जाइफल] अखरोट की तरह का पर उससे छोटा, प्रायः जामुन के बराबर, एक प्रकार का सुगंधित फल जिसका व्यवहार औषध और मसाले आदि में होता है जातीफल । पर्या०—कोषक । सुमनफल । कोश । जातिशस्य । शालूक । मालती- फल । मज्जसार । जातिसार । पुट । विशेष—जायफल का पेड़ प्रायः ३०, ३५ हाथ ऊँचा और सदा- बहार होता है, तथा मलाका, जावा और बटेविया आदि द्वीपों में पाया जाता है । दक्षिण भारत के नीलगिरि पर्वत के कुछ भागों में भी इसके पेड़ उत्पन्न किए जाते हैं । ताजे बीज बोकर इसके पेड़ उत्पन्न किए जाते हैं । इसके छोटे पौधों की तेज धूप आदि से रक्षा की जाती है और गरमी के दिनों में उन्हें नित्य सींचने की आवश्यकता होती है । जब पौधे डेढ़ दो हाथ ऊँचे हो जाती हैं । तब उन्हें १५—२० हाथ की दूरी पर अलग अलग रोप देते हैं । यदि उनकी जड़ों के पास पानी ठहरने दिया जाय अथवा व्यर्थ धासपात उगने दिया जाय तो ये पौधे बहुत जल्दी नष्ट हो जाते हैं । इसके नर और मादा पेड़ अलग अलग होते हैं । जब पेड़ फलने लगते हैं तब दोनों जातियों के पेड़ों को अलग अलग कर देते हैं और प्रति आठ दस मादा पेड़ों के पास उस और एक नर पेड़ लगा देते हैं जिधर से हवा अधिक आती है । इस प्रकार नर पौधों का पुंपराग उड़कर मादा पेड़ों के स्त्री रज तक पहुँचता है और पेड़ फलने लगते हैं । प्रायः सातवें वर्ष पेड़ फलने लगते हैं और पंद्रहवें वर्ष तक उनका फलना बराबर बढ़ता जाता है । एक अच्छे पेड़ में प्रतिवर्ष प्रायः डेढ़ दो हजार फल लगते हैं । फल बहुधा रात के समय स्वयं पेड़ों से गिर पड़ते हैं और सबेरे चुन लिए जाते हैं । फल के ऊपर एक प्रकार का छिलका होता है जो उतारकर अलग सुखा लिया जाता है । इसी सूखे हुए ऊपरी छिलके को जावित्री कहते हैं । छिलका उतारने के बाद उसके अंदर एक और बहुत कडा़ छिलका निकलता है । इस छिलके को तोड़ने पर अंदर से जायफल निकलता है जो छाँह में सुखा लिया जाता है । सूखने पर फल उस रूप में हो जाते हैं जिस रूप में वे बाजार में बिकने जाते हैं । जायफल में से एक प्रकार का सुंगधित तेल और अरक भी निकाला जाता है जिसका व्यवहार दूसरी चीजों की सुंगध बढा़ने अथवा औषधों में मिलाने के लिये होता है । जायफल की बुकनी या छोटे छोटे टुकडे़ पान के साथ भी खाए जाते है । भारतवर्ष में जायफल और जावित्री का व्यवहार बहुत प्रचीन काल से होता आया है । वैद्यक में इसे कडुआ, तीक्ष्ण गरम रेचक, हलका, चरपरा । अग्निदीपक, मलरोधक, बलवधंक तथा त्रिदोष, मुख की विरसंता, खाँसी, वमन, पीनस और हृदरोग आदि को दूर करनेवाला माना है ।

जायरी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की छोटी झाडी़ जी बुंदेलखंड और राजपूताने की पथरीली भूमि में नदियों के पास होती है ।

जायल
वि० [फा० या अ० जाइल ] जिसका नाश हो चुका हो । विनष्ट । समाप्त । बरबाद ।

जायस
संज्ञा पुं० रायबरेली जिले की एक तहसील तथा प्रसिद्धप्राचीन और ऐतिहासिक नगर जहाँ बहुत दिनों से सूफी फकीरों की गद्दी है । उ०—जायस नगर धरम अस्थानू । तहाँ आइ कवि कीन्ह बखानू ।—जायसी ग्रं०, पृ० ९ । विशेष—यहाँ मुसलमान विद्वान बहुत दिनों से होते आए हैं । बहुत सी जातियाँ अपना आदि स्थान इसी नगर को बताती हैं । पद्मावत या पद्मावती ग्रंथ के रचयिता प्रसिद्ध सूफी कवि मलिक मुहम्मद यहीं के निवासी थे और यहीं उन्हने पद्मावत की रचना की थी । उनका प्रसिद्ध संक्षिप्त नाम 'जायसी' इसी शब्द से बना है ।

जायसवाल
संज्ञा पुं० [हिं० जायस] १. जायस का रहनेवाला व्यक्ति । २. बनियों की एक शाखा ।

जायसी (१)
वि० [हिं० जायस] जायस का रहनेवाला । जायस संबंधी । जायस का ।

जायसी (२)
संज्ञा पुं० १. जायस का व्यक्ति या पदार्थ । २. प्रसिद्ध कवि मलिक मुहम्मद जायसी का संक्षिप्त नाम ।

जाया (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विबाहिता स्त्री । पत्नी । जोरू । विशेषतः वह स्त्री जो किसी बालक को जन्म दे चुकी हो । उ०—जरा मरन ते रहित अमाया । मात पिता सुत बंधु न जाया ।—सूर (शब्द०) । २. उपजाति वृत्त का सतवाँ भेद जिसके पहले तीन चरमों में (ज त ज ग ग)/?//?/और चौथे चरण में (त त ज ग ग)/?//?/ होता है । ३. जन्मकुंडली में लग्न से सातवाँ स्थान जहाँ से पत्नी के संबंध की गणना की जाती है ।

जाया (२)
वि० [अ० जाये या फा़० जायह्] खराब । नष्ट । व्यर्थ । खोया हुआ । क्रि० प्र०—करना ।—जाना ।—होना ।

जायाध्न
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में ग्रहों का एक योग । विशेष—यह योग उस समय होता है जब जन्मकुंडली में लग्न से सातवें स्थान पर मंगल या राहु ग्रह रहता है । जिस मनुष्य की कुंडली में यह योग पड़ता है फलित ज्योतिष के अनुसार उस मनुष्य की स्त्री नहीं जीती । २. वह मनुष्य जिसकी कुंडली में यह योग हो । ३. शरीर में का तिल ।

जायाजीव
संज्ञा पुं० [सं०] १. बगला पक्षी । २. अपनी जाया (स्त्री) के द्वार जीविका उपार्जित करनेवाला । नट । वेश्या का पति ।

जायानुजीवी
संज्ञा पुं० [सं० जायानुजीविन्] दे० 'जायाजीव' ।

जायी
संज्ञा पुं० [सं० जायिन्] संगीत में ध्रुपद की जाति का एक प्रकार का ताल ।

जायु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. औषध । दवा । २. वैद्य । भिषग ।

जायु (२)
वि० जीतनेवाला । जेता ।

जार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह पुरुष जिसके साथ किसी दूसरे की विवाहिता स्त्री का प्रेम या अनुचित संबंध हो । उपपति । पराई स्त्री से प्रेम करनेवाला पुरुष । यार आशना ।

जार (२)
वि० मारनेवाला । नाश करनेवाला ।

जार (३)
संज्ञा पुं० [लै० सीजर] रूस के सम्राट् की उपाधि ।

जार (४)पु
संज्ञा पुं० [सं० जाल] दे० 'जाल' । उ०—कहहिं कबीर पुकारि के, सबका उहे विचार । कहा हमार मानै नहिं, किमि छूटै भ्रम जार ।—कबीर बी०, पृ० १९५ ।

जार (५)
संज्ञा पुं० [फा़० जार] स्थान । जगह [को०] ।

जार (६)
संज्ञा पुं० [अ०] अँचार आदि रखने का मिट्टी, चीनी मिट्टी या शीशे का बर्तन ।

जारक
वि० [सं०] १. जलानेवाला । क्षीण या नष्ट करनेवाला । २. पाचक [को०] ।

जारकर्म
संज्ञा पुं० [सं०] व्यभिचार । छिनाला ।

जारज
संज्ञा पुं० [सं०] किसी स्त्री की वह संतान जो उसके जार या उपपति से उत्पन्न हुई हो । दोगली संतति । विशेष—धर्मशस्त्रों में जारज संतान दो प्रकार के माने गए हैं । जो संतान स्त्री के विवाहित पति के जीवनकाल में उसके उपपत्ति से उत्पन्न हो वह 'कुंड' और जो विवाहित पति के मर जाने पर उत्पन्न हो वह 'मोलक' कहलाती है । हिंदु धर्मशास्त्रानुसार जारज पुत्र किसी प्रकार के धर्म कार्य या पिंडदान आदि का अधिकारी नहीं होता ।

जारजन्मा
वि० [सं० जारजन्मन्] जार से उत्पन्न । जारज [को०] ।

जारजयोग
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में किसी बालक के जन्मकाल में पड़नेवाला एक प्रकार का योन जिससे यह सिद्धांत निकाला जाता है कि वह बालक अपने असली पिता के वीर्य से नहीं उत्पन्न हुआ है बल्कि अपनी माता के जार या उपपति के वीर्य से उत्पन्न है । उ०—चित पितमारन जोगु गनि भयो भएँ सुत सोगु । फिरि हुलस्यौ जिय जोइसी समझै जारज जोगु ।—बिहारी र०, दो० ५७५ । विशेष—बालक की जन्मकुंडली में यदि लग्न या चंद्रमा पर बृहस्पति की दृष्टि न हो अथवा सूर्य के साथ चंद्रमा युक्त न हो और पापयुक्त चंद्रमा के साथ सूर्य युक्त हो तो यह योम माना जाता है । द्वितिया, सप्तमी और द्वादशी तिथि में रवि, शनि या मंगलवार के दिन यदि कृत्तिका, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तराषाढा़, धनिष्ठा और पूर्वाभाद्रपद में से कोई एक नक्षत्र हो तो भी जारज योग होता है । इसके अतिरिक्त इन अवस्ताओं में कुछ अपवाद भी है जिनकी उपस्थिति में जारज योन होने पर भी बालक जारज नहीं माना जाता ।

जारजात
संज्ञा पुं० [सं०] जारज ।

जारजेट
संज्ञा स्त्री० [अं० जार्जेट] एक प्रकार का महीन तथा बढ़िया कपडा़ ।

जारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पारे का ग्यारहवाँ संस्कार । २. जलाना । भस्म करना । ३. धातुओं को फूँकना । विशेष—वैद्यक में सोना, चाँदी, ताँबा, लोहा, पारा आदि धातुओं को औषध के काम के लिये कई बार कुछ विशेष क्रियाओं से फूँककर भस्म करने को 'जारण' कहते हैं ।

जारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बडा़ जीरा । सफेद जीरा ।

जारदगवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्योतिष में मध्यमार्ग की एक वीथा का नाम जिसमें बराहमिहर के अनुसार श्रवण, धनिष्ठा और शतभिषा तथा विष्णुपुराण के अनुसार विशाखा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र हैं ।

जारन †
संज्ञा पुं० [सं० जारण या हिं० जलाना] १. जलाने की लकडी़ । इंधन । २. जलाने की क्रिया या भाव ।

जारना †
क्रि० सं० [सं० जारण, हिं० 'जलाना]दे० 'जलाना' ।

जारभरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपपति रखनेवाला स्त्री । परपुरुष से संबंध रखनेवाली स्त्री [को०] ।

जारा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जलाना] सोनार आदि की भट्टी का वह भाग जिसमें आग रहती है और जिसमें रखकर कोई चीज गलाई या तपाई जाती है । इसके नीचे एक एक छोटा छेद होता है जिसमें से होकर भाथी की हवा आती है ।

जारा पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं० जाला] दे० 'जाला' । उ०—रोमराजि अष्टदस भारा । अस्थि सैल सरिता नस जारा । मानस, ६ ।१५ ।

जारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसका किसी दूसरे पुरुष के साथ अनुचित संबंध हो । दुश्चरित्रा स्त्री ।

जारित
वि० [सं०] १. गलाया हुआ । पचाया हुआ । २. (धातु) शोधी हुई । भारी हुई [को०] ।

जारी (१)
वि० [अ०] १. बहता हुआ । प्रवाहित । जैसे, खून का जारी होना । २. चलता हुआ । प्रचलित । जैसे,—वह अख- बार जारी है या बंद हो गया ? क्रि० प्र०—करना ।—रखना ।—होना ।

जारी (२)
संज्ञा पुं० [फा़० जारी (= रोना)] १. एक प्रकार का गीत जिसे मुहरंम में ताजियों के सामने स्त्रीयाँ गाती हैं । २. रुदन । विलाप । यौ०—गिरिया व जारी = रोना पीटना । विलाप ।

जारी (३)
संज्ञा पुं० [देश०] झरबेरी का पौधा ।

जारी (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० जार + ई (प्रत्य०)] परस्त्री गमन । जार की क्रिया या भाव ।

जारी (५)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'जाली' । उ०—जारी अटारी, झरोखन, मोखन झाँकत दुरि दुरि ठौर ठौर तै परत काँकरी ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३४३ ।

जारुथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिवंश के अनुसार एक प्रचीन नगरी का नाम ।

जारूधि
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत के अनुसार एक पर्वत का नाम जो सुमेरु पर्वत के छत्ते का केसर माना जाता है ।

जारुत्थ
संज्ञा पुं० [सं० जारूथ्य] दे० 'जारूथ्य' ।

जारूथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह अश्वमेध यज्ञ जीसमें तिगुनी दक्षिणा दी जाय ।

जारोब
संज्ञा स्त्री० [फा़०] झाडू । बोहारी । कूँचा ।

जारोबकश (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] झाडू देनेवाला व्यक्ति ।

जारोबकश (२)
वि० झाडू देनेवाला ।

जारोबकशी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] झाड़ू देने का काम [को०] ।

जार्यक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का मृग ।

जालंधर
संज्ञा पुं० [सं० जालन्धर] १. एक ऋषि का नाम । २. जलंधर नाम का दैत्य । ३. पंजाब प्रांत का एक नगर ।

जालंधरी विद्या
संज्ञा स्त्री० [सं० जालन्धर (= एक दैत्य)] मायिक विद्या । माया । इंद्रजाल ।

जाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी प्रकार के तार या सूत आदि का बहुत दूर दूर पर बुना हुआ पट जिसका व्यवहार मछलियों और चिड़ियों आदि को पकड़ने के लिये होता है । विशेष—जाल में बहुत से सूतों, रस्सियों या तारों आदि को खडे़ और आडे़ फैलाकर इस प्रकार बुनते हैं कि बीच में बहुत से बडे़ बडे़ छेद छूट जाते हैं । क्रि० प्र०—बनाना ।—बुनना । यौ०—जालकर्म = मछुए का धंधा या पेशा । जालग्रथित = जाल में फँसा हुआ । जालजीवी । मुहा०—जाल डालना या फेंकना = मछलियाँ आदि पकड़ने, कोई वस्तु निकालने अथवा इसी प्रकार के किसी और काम के लिये जल में जाल छोड़ना । जाल फैलना या बिछाना = चिड़ियों आदि को फँसाने के लिये जाल लगाना । २. एक में ओतप्रोत बुने या गुथे हुए बहुत से तारों या रेशों का समूह । ३. वह युक्ति जो किसी को फँसाने या वश में करने के लिये की जाय । जैसे,—तुम उनके जाल से नहीं बच सकते । मुहा०—जाल फैलाना या बिछाना = किसी को फँसाने के लिये युक्ति करना । ४. मकडी़ का जाला । ५. समूह । जैसे,—पद्मजाल । ६. इंद्र— जाल । ७. गवाक्ष । झरोखा । ८. अहंकार । अभिमान । ९. वनस्पति आदि को जलाकर उसकी राख से तैयार किया हुआ नमक । क्षार । खार । १०. कदम का पेड । ११. एक प्रकार की तोप । उ०—जाल जंजाल हयनाल गयनाल हूँ बान नीसान फहरान लागे ।—सूदन (शब्द०) । १२. फूल की कली । १३. दे० 'जाली' । १४. वह झिल्ली जो जलपक्षियों के पंजे को युक्त करती है (को०) । १५. आँखों का एक रोग (को०) ।

जाल (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० ज्वाल] ज्वाला । लपट । उ०—अग्नि जाल किन तन उठत किन तन तन बरसै मेह । चक्रपवन डंडूर के केतन कंकर खेह ।—पृ० रा०, ६ ।५५ ।

जाल (३)
संज्ञा पुं० [अ० जअ़ल । मि० सं० जाल] वह उपाय या कृत्य जो किसी के धोखा देने या ठगने आदि के अभिप्राय से हो । फरेब । धोखा । झूठी कार्रवाई । क्रि० प्र०—करना ।—बनाना ।—रचना ।

जाल (४)पु
संज्ञा स्त्री० [देशी जाड़ (= गुल्म)] राजस्थान में होनेवाला एक वृक्षविशेष । उ०—थल मथ्थइ जल बाहिरी, तूँ काँइ नीली जाल । कँई तूँ सींची सज्जणे, कँइ बूठउ अग्गालि ।—ढोला०, दू० ३९ ।

जालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जाल । २. कली । ३. समूह । ४. गवाक्ष । झरोखा । ५. मोतियों का बना हुआ एक प्रकार का आभुषण । ६. केला । ७. चिड़ियों का घोंसला । ८. गर्व । अभिमान ।

जालकारक
संज्ञा पुं० [सं०] मकडा़ ।

जालकि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शस्त्रों से अपनी जीविका निर्वाह करनेवाला मनुष्य ।

जालकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेडी़ ।

जालकिरच
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाल + किरच] परतला मिली हुई वह पेटी जिसके साथ तलवार भी लगी हो ।

जालकी
संज्ञा पुं० [सं० जालकिन्] बादल [को०] ।

जालकीट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मकडा़ । २. वह कीडा़ जो मकडी़ के जाले में फँसा हो ।

जालगर्दभ
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का क्षुद्र रोग । विशेष—इसमें किसी स्थान पर कुछ सूजन हो जाती है और बिना पके ही इसमें जलन उत्पन्न होकता है । इस रोग में रोगी को ज्वर भी हो जाता है ।

जालगोणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दही मथने की हाँडी [को०] ।

जालजीवी
संज्ञा पुं० [सं० जालजीविन्] धीवर । मछुआ ।

जालदार
वि० [सं० जाल + हिं० दार] जिसमें जाल की तरह पास पास छेद हो । जालवाला । जालीदार । २. फंदेवाला । फंदेदार (को०) ।

जालना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'जलाना' । उ०—दादू केइ जाले केइ जालिये, केई जालन जाँहिं । केई जालन की केरें, दादू जीवन नाँहिं ।—दादू० बानी, पृ० ३९७ ।

जालनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०]दे० 'जालिनी' ४. । उ०—जालनी यह तीब्र दाह करके संयुक्त और मांस के जाल से व्याप्त होती है ।—माधव०, पृ० १८७ ।

जालपाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. हंस । २. जाबालि ऋषि के एक शिष्य का नाम । ३. एक प्राचीन देश का नाम । ४. वह पशु या पक्षी जिसके पैर की उँगलियाँ जालदार झिल्ली से ढँकी हों ।

जालप्राया
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंवच । जिरह बकतर । संजोपा ।

जालबंद
संज्ञा पुं० [हिं० जाल + फ्रा़० बंद] एक प्रकार का गलीचा जिसमें जाल की तरह बेलें बनी होती हैं ।

जालबर्बुरक
संज्ञा पुं० [सं०] बबूल की जाति का एक प्रकार का पेड़ जिसमें छोटी छोटी डालियाँ होती हैं ।

जालम पु †
वि० [हिं०] दे० 'जालिम' । उ०—विघन करत है चपेट पकड़ फेट काल की । नामा दर्जी जालम बिठू राजा का गुलाम ।—दक्खिनी०, पृ० ४५ ।

जालरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० जालरन्ध्र] घर में प्रकाश आने के लिये झरोखे में लगी हुई जाली या उसके छेद । उ०—जालरंघ्र भग अँगनु कौ कछु उजास सौ पाइ । पीठि दिए जगत्यौ रह्यौ डीठि झरोखैं लाइ ।—बिहारी (शब्द०) ।

जालव
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक दैत्य का नाम जो बलवल का पुत्र था और जिसका बलदेव जी ने बध किया था ।

जालसाज
संज्ञा पुं० [अ० जअ़ल + फा़० साज] वह जो दूसरों को धोखा देने के लिये झूठी कार्रवाई करे ।

जालसाजी
संज्ञा स्त्री० [जाल + साजीअ० जअ़ल + फा० साजी] फरेब या जाल करने का काम । दगाबाजी ।

जाला (१)
संज्ञा पुं० [सं० जाल] १. मकडी़ का बुना हुआ बहुत पतले तारों का वह जाल जिसमें वह अपने खाने के लिये मक्खियों और दूसरे कीड़ों मकोड़ों आदि को फँसाती है । वि० दे० 'मकडी़' । विशेष—इस प्रकार के जाले बहुधा गंदे मकानों की दावारों और छतों आदि पर लगे रहते हैं । २. आँख का रोग जिसमें पुतली के ऊपर एक सफेद परदा या झिल्ली सी पड़ जाती है और जिसके कारण कुछ कम दिखाई पड़ता है । विशेष—यह रोग प्रायः कुछ विशेष प्रकार के मैल आदि के जमने के कारण होता है, और ज्यों ज्यों झिल्ली मोटी होती जाती है, त्यों त्यों रोगी की दृष्टि नष्ट होती जाती है । झिल्ली अधिक मोटी होने के कारण जब यह रोग बढ़ जाता है, तब इसे माडा़ कहते हैं । ३. सूत या सन आदि का बना हुआ वह जाल जिसमें घास भूसा आदि पदार्थ बाँधे जाते हैं । ४. एक प्रकार का सरपत जिससे चीनी साफ की जाती है । ५. पानी रखने का मिट्टी का बडा़ बरतन । ६. दे० 'जाल' ।

जाला पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ज्वाला]दे० 'ज्वाला' । उ०—इक मुख्ख अग्गि जाला उठंत, इक परह देह बरिखा उठंत ।—पृ० रा०, ६ ।४५ ।

जालात्क्ष
संज्ञा पुं० [सं०] झरोखा । गवाक्ष ।

जालाष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की तरल ओषधि [को०] ।

जालिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कैवर्त । जाल बुननेवाला व्यक्ति । २. जाल से मृगादि जंतुओं को फँसानेवाला व्यक्ति । कर्कटक । ३. इंद्रजालिक । मदारी । बाजीगर । ४. मकडी़ (डिं०) । ५. प्रदेश आदि का प्रधान शासक (को०) ।

जालिक (२)
वि० जाल से जीविका अर्जित करनेवाला (को०) ।

जालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाश । फंदा । २. जाली । ३. विधवा स्त्री । ४. कवच । जिरह बकतर । संजोपा । ५. मकडी़ । ६. लोहा । ७. समूह । उ०—प्रनतजन कुमुदबन इंदुकर जालिका । जालसि आभिमान महिषेस बहु कालिका ।—तुलसी (शब्द०) । ८. स्त्रियों के मुख पर डालनेवाला आवरण या परदा । मुख पर डाली जानेवाली जाली (को०) । ९. जोंक (को०) । १०. केला (को०) । ११. एक प्रकार का वस्त्र (को०) ।

जालिनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तरोई । घिया । २. वह स्थान जहाँ चित्र बनते हों । चित्रशाला । ३. परवल की लता । ४. पिड़िका रोग का एक भेद । विशेष—इसमें रोगी के शरीर के मांसल स्थानों में दाहयुक्त फुंसियाँ हो जाती हैं । यह केवल प्रमेह के रोगियों को होता है ।

जालिनी पु (२)
वि० [हिं० जालना] जलानेवाली ।

जालिनीफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. तरोई । २. घिया ।

जालिम
वि० [अ०] जालिम जो बहुत ही अन्यायपूर्ण या निर्दयता का व्यवहार करता हो । जुल्म करनेवाला । अत्याचारी ।

जलिमाना
वि० [अ० जालिम, फा० जालिमानह्] अत्याचार संबंधी [को०] । जालसाज । फरेब या धोखा देनेवाला ।

जालिया (१)
वि० [हिं० जाल = (फरेब) + इया (प्रत्य०)] जाल फरेब करने या धोखा देनेवाला ।

जालिया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० जाल + इया (प्रत्य०)] जाल की सहायता से मछली पकड़नेवाला । धीवर ।

जाली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तरोडी़ । २. परवल ।

जाली (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाल] १. किसी चीज, विशेषतः लकडी़ पत्थर या धातु आदि, में बना हुआ बहुत से छोटे छोटे छेदों का समूह । क्रि० प्र०—काटना ।—बनाना । २. कसौदे का एक प्रकार का काम जिसमें किसी फूल या पत्ती आदि के बीच में बहुत से छोटे छोटे छेद बनाए जाते हैं । क्रि० प्र०—काढ़ना ।—निकालना ।—डालना ।—भरना ।—बनाना । ३. एक प्रकार का कपडा़ जिसमें बहुत से छोटे छोटे छेद होते हैं । ४. वह लकडी़ जो चार काटने के गड़ाँसे के दस्ते पर लगी रहती है । ५. कच्चे आम के अंदर गुठली के ऊपर का वह तंतुसमूह जो पकने से कुछ पहले उत्पन्न होता और पीछे से कडा़ हो जाता है । इसके उत्पन्न होने के उपरांत आम के फल का पकना आरंभ होता है । क्रि० प्र०—पड़ना । ६. दे० 'जाला' ।

जाली (३)
संज्ञा स्त्री० [अ०] एक प्रकार की छोटी नाव ।

जाली (४)
वि० [अ० जअ़ल + हिं० ई (प्रत्य०)] नकली । बनावटी । झूठा । जैसे, जाली सिक्का, जाली दस्तावेज । यौ०—जाली नोट = नकली नोट ।

जालीदार
वि० [देश०] जिसमें जाली बनी या पडी़ हों ।

जालीलेट
संज्ञा पुं० [हिं० जाली + लेट] एक प्रकार का कपडा़ जिसकी सारी बुनावट में बहुत से छोटे छोटे छेद होते हैं ।

जालोलोट (१)
संज्ञा पुं० [हिं० जाली + लोट] दे० 'जालीलेट' ।

जालीलोट (२) †
संज्ञा पुं० [हिं० जाली + अँ० नोट] दे० 'जाली नोट' ।

जालोर पु
संज्ञा पुं० [सं०] कश्मीर में विहार या अग्रहार का नाम [को०] ।

जाल्म (१)
वि० [सं०] १. पामर । नीच । २. मूर्ख । बेवकूफ । ३. क्रूर । कठोर । निष्ठुर (को०) ।

जाल्म (२)
संज्ञा पुं० १. दुष्ट, धूर्त या कपटी व्यक्ति । २. निर्धन या पदभ्रष्ट व्यक्ति । ३. बुरा पाठ या वाचन करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

जाल्मक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० जाल्मिका] १. वह जो अपने मित्र, गुरु या ब्राह्मण के साथ द्वेष करे । २. नीचे ये अधम या तुच्छ व्यक्ति ।

जाल्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।

जाल्य (२)
वि० जाल में फँसाए जाने योग्य [को०] ।

जावक †
संज्ञा पुं० [सं० यावक] लाह से बना हुआ पैरों में लगाने का लाल रंग । अलता । महावर ।

जावँत
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'जावत' । उ०—जावँत जगति हस्ति औ चाँटा । सब कहँ भुगुति रात दिन बाँटा ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२३ ।

जावत †
अव्य० [सं० यावत्] दे० 'यावत्' ।

जावन पु †
संज्ञा पुं० [हिं० जावना] जाने की क्रिया या भाव । जाना । उ०—नंगे हि आवन नंगे हि जावन झूठी रचिया बाजी । या दुनिया में जीवन थोडा़ गर्व करे सो पाजी ।— कबीर श०, भा० २, पृ० ४८ ।

जा/?न पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'जामन' । उ०—(क) नई दोहनी पोंछि पखारी धरि निर्धूम खीर पर तायों । तामें मिलि मिश्रित मिश्री करि है कपूर पुट जावन नायो ।—सूर (शब्द०) । (ख) तोष मरुत तब छमा जुडा़वइ । धृति सम जावन देइ जमावइ—तुलसी (शब्द०) ।

जावना † (१)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'जाना' । उ०—ऊँपर दीठा जावता, हलहल करइ करूर । एराकी ओखंभिया, जइसइ केती दूर ।—ढोला०, दू० ६४१ ।

जावना (२)
क्रि० अ० [हिं० जनना] जन्म लेना । उत्पन्न हेना । उ०—कहैं कि हमरे बालक जावै, बडी़ अयुर्बल दीजै ।—चरण० बानी, पृ० ७३ ।

जावन्य
संज्ञा पुं० [सं०] १, वेग । तेजी । २. शीघ्रता [को०] ।

जावर †
संज्ञा पुं० [देश०] १. ऊख के रस में पकाई गई खीर । बखीर । २. कद्दू के साथ पकाया हुआ चावल ।

जावा (१)
संज्ञा पुं० पूर्वी एशिया का एक द्वीप । यवद्वीप ।

जावा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० जामन या जमना] वह मसाला जिससे शराब चुआई जाती है । बेसवार । जाया ।

जावित्री
संज्ञा स्त्री० [सं० जातिपत्री] जायफल के ऊपर का छिलका जो बहुत सुगंधित होता है और औषध के काम में आता है । दे० 'जायफल' । विशेष—वैद्यक में इसे हलका, चरपरा, स्वादिष्ट, गरम, रूचि— कारक और कफ, खाँसी, वमन स्वास, तृषा, कृमि तथा विष का नाशक माना जाता है ।

जाषक
संज्ञा पुं० [सं०] पीला चंदन ।

जाषनी पु †
[हिं०] दे० 'यक्षिणी' । उ०—राघौ करी जाषनी पूजा । चहे सुभाव दिखावै दूजा ।—जायसी (शब्द०) ।

जाषरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० जाषनी] नटिनी । उ०—गीति गरुवि जाषरी मत्त बए मतरुफ गावइ ।—कीर्ति०, पृ० ४२ ।

जासु पु †
वि० [सं० यस्य, प्रा० जस्स] जिसका ।

जासू (१)
संज्ञा पुं० [देश०] वे पान जो उस अफीम में मिलाने कै लिये काटे जाते हैं जिससे मदक बनता है ।

जासू (२)पु
वि० [हिं० जासु] दे० 'जासु' ।

जासूस
संज्ञा पुं० [अं०] गुप्त रूप से किसी बात विशेषतः अपराध आदि का पता लगानेवाला । भेदिया । मुखबिर । खुफिथा ।

जासूसी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] गुप्त रूप से किसी बात का पता लगाने की क्रिया । जासूस का काम ।

जासों पु
सर्व० [हिं०] जिससे । उ०—नंददास दृष्टि जासों तनु की तरुनि पर ता ऊपर चंद वारों करति आरति नित ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३७७ ।

जास्ती (१)
वि० [अ० ज्यादती से देश० रूप] अधिक । ज्यादा । उ०— गिरी ऐसी दमदार थी कि पाव भर तौलते तो छह से जास्ती सुपारी नहीं चढा़ पाते तराजू पर ।—नई०, पृ० ७८ ।

जास्ती (२)
संज्ञा स्त्री० ज्यादती ।

जास्पति
संज्ञा पुं० [सं०] जामाता । जँवाई । दामाद ।

जाह (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. पद । २. मान । प्रतिष्ठा । ३. गौरव [को०] ।

जाह (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० ज्या] घनुष की डोरी । प्रत्यंचा । उ०— वाम हाथ लीध वाह जीभणे कसीस जाह ।—रघु० रु०, पृ० ७६ ।

जाहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गिरगिट । २. जोंक । ३. बिछौना । बिस्तर । ४. घोंघा ।

जाहपरस्त
वि० [फा़०] १. प्रतिष्ठा का लोभी । २. पदलोलुप । ३. बडे़ लोगों या अमीरों की भक्ति करनेवाला [को०] ।

जाहर †
वि० [अं० जाहिर] दे० 'जाहिर' ।

जाहिद
संज्ञा पुं० [अं० जाहिद] धर्मनिष्ठ । उ०—नहीं है जाहिदों को मै सेंती काम । लिखा है उनकी पेशानी में सिरका ।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० १९ ।

जाहिर
वि० [अं० जाहिर] १. जो छिपा न हो । जो सबके सामने हो । प्रगट । प्रकाशित । खुला हुआ । २. विदित । जाना हुआ । यौ०—जाहिर जहूर = जाहिर । जाहिरपरस्त = ऊपरी बातों पर दृष्टि रखनेवाला ।

जाहि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० जाति] मालती लता तथा उसका फूल ।

जाहिरा
क्रि० वि० [अ०] देखने में । प्रगट रूप में प्रत्यक्ष में । जैसे,—जाहिरा तो यह बात नहीं मालूम होती आगे ईश्वर जाने ।

जाहिल
वि० [अं०] १. मूर्ख । अनाडी़ । अज्ञान । नासमझ । २. अनपढ़ । विद्याहीन । जो कुछ पढा़ लिखा न हो ।

जाही
संज्ञा स्त्री० [सं० जाती] १. चमेली की जाति का एक प्रकार का सुगंधित फूल । २. एक प्रकार की आतिशबाजी ।

जाहुष
संज्ञा पुं० [सं०] एक व्यक्ति का नाम जिसकी रक्षा अश्विन् करते हैं [को०] ।

जाह्नवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जह्नु ऋषि से उत्पन्न, गंगा ।