भांग (१)
वि० [सं० भाङ्ग] भाँग का बना हुआ। भाँग का।

भांग (२)
संज्ञा पुं० दे० 'भागीन' [को०]।

भांगक
संज्ञा पुं० [सं० भाङ्गक] फटा हुआ कपड़ा। चिथड़ा [को०]।

भांगीन (१)
संज्ञा पुं० [सं० भाङ्गीन] भाँग का खेत।

भांगीन (२)
वि० भाँगनिर्मित। भाँग का [को०]।

भांजा
संज्ञा पुं० [हिं०] भानजा। बहिन का पुत्र।

भांड
संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड] १. पात्र। बर्तन। २. पेटी। बक्स। ३. मूलधन। ४. आभूषण। ५. अश्व का आभूषण। घोड़े का एक साज। ६. एक वाद्य। ७. दूकान का सामान। दूकान की समग्र वस्तुएँ। ८. नदी का मध्यभाग। नदी का पेटा। ९. भाँड़पन। भँड़ैती। भाँड का काम। १०. औजार। यत्र। ११. सामान या माल रखने का पात्र। १२. गर्दभांड नाम का वृक्ष [को०]। यौ०—भांडगोपक = बरतनों का रखरखाव करनेवाला व्यक्ति (बौद्ध)। भांडपति = ब्यापारी। भांडपुट = नापित। नाऊ। भांडपुष्प = एक प्रकार का साँप भांडप्रतिभांडक = वस्तु परिवर्तन। विनिमय। भांडभरक = पात्र में रखी हुई वस्तुएँ। भांडमूल्य= पूँजी जो वस्तु या सामान के रूप में हो। भांडशाला= भंडार। भांडागार।

भांडक
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डक] १. छोटा बरतन। छोटा पात्र। २. माल। व्यापार की वस्तुएँ [को०]।

भांडन
संज्ञा सं० [सं०] लड़ाई। झगड़ा। संघर्ष।

भांडागार
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डागार] १. भंडार। २. कोश। खजाना।

भांडागारिक
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डागारिक] १. भडार का निरी- क्षक या प्रधान। भडारी। २. खजांची। उ०— भांडागारिक जो खजाने का प्रबंध करता था।— हिंदु० सभ्यता, पृ० २९२।

भांडायन
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डायन] एक प्राचीन ऋषि का नाम।

भांडार
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डार] १. वह स्थान जहाँ काम में आनेवाली बहुत सी चीजें रखी जाती हों। गोदाम। भंडार। २. वह जिसमें एक ही तरह की बहुत सी चीजे या बातें हों। ३. वह कोठरी जिसमें अनाज आदि रखा जाता हो। ४. खजाना। कोश।

भांडारिक
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डारिक] भंडार का प्रधान। भंडारी।

भांडारी
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डारिन्] भंडारी। भांडारिक [को०]।

भाडि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाऊ की पेटी। किसवत [को०]। यौ०—भांडिवाह = हज्जाम। नाई। भांडिशाला।

भांडिक
संज्ञा पुं० [सं० भांण्डक] १. तुरही आदि बजाकर राजाओं को जगानेवाला मनुष्य। २. नापित (को०)।

भांडिका
संज्ञा स्त्री० [सं० भाणिडन] औजार। एक पौधा।

भांडिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्डिनी] टोकरी या पेटी आदि [को०]।

भांडिल
संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्डिल] नापित। हज्जाम।

भांडिशाला
संज्ञा स्त्री० [सं० भाण्ड़िशाला] नाई की दूकान या वह स्थान जहाँ बैठकर हजामत बनाई या बनवाई जाय।

भांडीर
संज्ञा पुं० [सं० भाण्डीर] १. वट बृक्ष। बड़ का पेड़। २. एक प्रकार का क्षुप। यौ०— भांडीरवन = वृंदावन का एक हिस्सा।

भांत
वि० [सं० भान्त (सविभक्तिक अङ्गरूप)] १. दीप्त। ज्योतित। प्रकाशयुक्त। २. वज्रसदृश। वज्रतुल्य [को०]।

भांद
संज्ञा पुं० [सं० भान्द] एक उपपुराण का नाम।

भाँईं
संज्ञा पुं० [हिं० भाना (= घुमाना)] खरादनेवाला। खरादी। कूनी।

भाँउँ पु
संज्ञा पुं० [सं० भाव] अभिप्राय। उ०— जहाँ ठाँव होवै कर हँसा सो कह केहि भाँउँ।—जायसी (शब्द०)।

भाँउर
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भाँवर'।

भाँउरि ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भाँवर'।

भाँकडी
संज्ञा पुं० [देश०] एक जगली झाड़ जिसे हसद सिंघाड़ा भा कहते हैं। यह गोखरू से मिलता जुलता है।

भाँखना †
क्रि० अ० [हिं० भाखना] दे० 'भाखना'। उ०— वार बार यौं भाँखही, कोउ जलदी करौ उपाइ।— नंद० ग्रं०, पृ० १९६।

भाँग (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गा या भृङ्गी] गाँजे की जाति का एक प्रसिद्ध पौधा जिसकी पत्तियाँ मादक होती हैं और जिन्हें पीसकर लोग नशे के लिये पीते हैं। भंग। विजया। बूटी। पत्ती। उ०— अति गह सुमर खोदाए खाए ले भाँग के गुंडा।—कीर्ति०, पृ० ४०। विशेष— यह पौधा भारत के प्रायः सभी स्थानों में और विशेषतः उत्तर भारत में इन्हीं पत्तियों के लिये बोया जाता है। नेपाल की तराई में कहीं कहीं यह आपसे आप और जगली भी होता है। पर जंगली पौधे की पत्तियाँ विशेष मादक नहीं होतीं; और इसीलिये उस पौधे का कोई उपयोग भी नहीं होता। पौधा प्रायः तीन हाथ ऊँचा होता है और पत्तियाँ किनारों पर कटावदार होती है। इस पौधे के स्त्री, पुरुष और उभवलिंग तीन भेद हैं। स्त्री बौधों की पत्तियाँ ही बहुधा पीसकर पीने के काम में आती हैं। पर कभी कभी पुरुष पौधे की पत्तियाँ भी इस काम में आती हैं। इसकी पत्तियाँ उपयुक्त समय पर उतार ली जाती है; क्योंकि यदी यह पत्तियाँ उतारी न जायँ और पौधे पर ही रहकर सूखकर पीली बड़ जायँ, तो फिर उनकी मादकता और साथ साथ उपयोगिता भी जाती रहती है। भारत के प्रायः सभी स्थानों में लोग इसकी पत्तियों को पीस और छानकर नशे के लिये पीते हैं। प्रायः इसके साथ बादाम आदि कई मसाले को मिला दिए जाते हैं। वैद्यक में इसे कफनाशक, ग्राहक, पाचक, तीक्ष्ण, गरप्र, पित्तजनक, बलवर्धक, मेधाजनक, रसायन, रुचिकारक, मलावरोधक और निद्राजनक माना गया है। मुहा०—भाँग छानना = भाँग की पत्तियों को पीस और छानकर/?/। भाँग खा जाना या पी जाना = नशे की सी बातें करना। नासमझी की या पागलपन की बातें करना। घर में भूजी भाँग न होना। =अत्यंत दरिद्र होना। पास में कुछ न होना। उ०— जुरि आए फाकेमस्त होली होय रही। घर में भूजी भाँग नहीं है, तौ भी न हिम्मत पस्त। होली होय रही।— भारतेंदु (शब्द०)।

भाँग (२)
संज्ञा पुं० [?] वैश्यों की जाति।

भाँगना †
क्रि० स० [सं० भञ्जन] तोड़ना। भंग कर देना। उ०—अंतर थी बहु जन्म को, सत्गुर भाँग्यो आय।— दरिया० बानी०, पृ० १।

भाँगर †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कीसी धातु आदि की गर्द या छोटे छोटे कण।

भाँज
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँजना] १. किसी पदार्थ को मोड़ने या तह करने का भाव अथवा क्रिया। २. भाँजने या घुमाने की क्रिया या भाव। ३. वह धन जो रुपया, नोट आदि भुनाने के बदले में दिया जाय। भुनाई। ४. ताने का सूत। (जुलाहा)।

भाँजना
क्रि० स० [सं० भञ्जन] १. तह करना। मोड़ना। जैसे फर्मा भाँजना। २. गदा, जोड़ी, मुगदर आदि घुमाना (व्यायाम)। ३. दो या कई लड़ों को एक में मिलाकर बटना। ४. तोड़ना। भंजन करना। उ०— अतृपत सुत जु छुभित तब भयौ। भाजन भाँजि भवन दुरि गयौ।— नंद० ग्रं०, पृ० २४९। ५. दूर करना। निरसन। उ०— आपा भाँजिबा सतगुर बोजिवा जोग पंथ न करिबा हेला।— गोरख०, पू० ६७।

भाँजा †
संज्ञा पुं० [हिं० भानजा] दे० 'भानजा'।

भाँजी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँलना (= मोड़ना)] वह बात जो किसी की ओर से किसी को अप्रसन्न या रुष्ट करने के लिये कहीं जाय। वह बात जो किसी के होते हुए काम में बाधा डालने के लिये कही जाय। शिकायत। चुगली। क्रि० प्र०—मारना।

भाँट (१)
संज्ञा पुं० [सं० भट्ट] दे० 'भाट'।

भाँट (२)
संज्ञा पुं० [देश०] देशी छींटों की छपाई में कई रंगों में से केवल काले रंग की छपाई जो प्रायः पहले होती है।

भाँटा †
संज्ञा पुं० [सं० भणटाक? वृन्ताक] दे० 'बैगन'।

भाँड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० भण्ड] १. विदूषक। मसखरी। बहुत अधिक हँसी मजाक करनेवाला। २. एक प्रकार के पेशेवर जो प्रायः अपना समाज बनाकर रहते हैं और महफिलों आदि में जाकर नाचते गाते, हास्यपूर्ण स्वाँग भरते और नकलें उतारते हैं। ३. हँसी दिल्लगी। भाँड़पन। ४. वह जिसे किसी की लज्जा न हो। नगा। बेहया। ५. सत्यानाश। बरबादी। उ०— तुलसी राम नाम जपु आलस छाँड़। राम विमुख कलिकाल को भयो न भाँड़।— तुलसी (शब्द०)।

भाँड़ (२)
संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड, हिं० भाँड़ा] १. बरतन। भाँड़ा। २. भंडाफोड़। रहस्योद् घाटन। उ०— वह गुरु बादि छोभ छल छाँड़ू। इहाँ कपट कर होइहिं भाँड़ू।— तुलसी (शब्द०)। ३. उपद्रव। उत्पात। गड़बड़ी। उ०— कबिरा माया मोहनी, जैसे मीठी खाँड़। सतगुर की किरपा भई नातर करती भाँड़।— कबीर (शब्द०)।

भाँड़ (३)
संज्ञा पुं० [सं० भ्राष्ट] दे० 'भाड़'।

भाँड़ना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० भण्ड] व्यर्थ इधर उधर घूमना। मारे मारे फिरना। उ०— सकल भुक्त भाँड़े घने चतुर चलावन हार। दादू सो सूझइ नहीं तिसका वार न पार।— दादू (शब्द०)।

भाँड़ना (२)
क्रि० स० १. किसी की चारों ओर निंदा करते फिरना। किसी को बुहत बदनाम करते फिरना। २. नष्ट भ्रष्ट करना। बिगाड़ना। खराब करना। उ०— कहे की न लाज अजहूँ न आयो बाज पिय सहित समाज गढ़ राँड़ कैसो भाँड़िगो।— तुलसी (शब्द०)। ३. भँड़ैती करना। मजाक करना। प्रेम से अपमानित करना। उ०— जीत्यों लड़ैती को संग गुपाल सो गारी दई भँड़वा कहि भाँड़यो।—ब्रज० ग्रं०, पृ० २९।

भाँड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० भाण्ड] १. बरतन। बासन। पात्र। २. बड़ा बरतन। जैसे, हंडा, कुंडा इत्यादि। मुहा०—भाँड़े में जी देना = किसी पर दिल लगा होना। उ०— को तुम उतर देय हो पाँड़े। सो बोलै जाको जिव भाँड़े।— जायसी (शब्द०)। भाँड़े भरना = पश्चात्ताप करना। पछताना। उ०— तब तू मारिबोई करति। रिसनि आगे कहि जो आवनि अब लै भाँड़े भरति।— सूर (शब्द०)।

भाँड़ा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भाँड़] १. भाँड़पन। २. भाँड़ का काम। उ०— कहूँ भाँड़ भाँड़यो करैं मान पावै।— केशव (शब्द०)।

भाँत †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भाँति'। उ०— गोकुल मैं कुल की कहौं क्यों निबहै कुसलात। बलिहारी तुम सौ लला हौं हारी हर भाँत।— स० सप्तक, पृ० ३५५।

भाँति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भेद] तरह। किसम। प्रकार। रीति। जैसे,— (क) अनेक भाँति के वृक्ष लगे हैं। (ख) यह कार्य इस भाँति न होगा। मुहा०—भाँति भाँति के = तरह तरह के। अनेक प्रकार के। उ०— पाँयन के रँग सों रँगि जात सो भाँति हि भाँति सरस्वति सेनी।—पद्माकर।

भाँति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भेद] मर्यादा। चाल। उ०— रटत रटत लटपो जाति पाँति भाँति घटयो जूठनि को लालची चहौं न दूध नह्यौ हौं।— तुलसी (शब्द०)।

भाँपना †
क्रि० स० [देश०] १. ताड़ना। पहचानना। २. देखना। (बाजारू)।

भाँपू
संज्ञा पुं० [हिं० भाँपना] भाँपने या ताड़नेवाला। दूर से ही ताड़नेवाला। दूर से ही देखकर अनुमान कर लेनेवाला।

भाँभी (१)
संज्ञा पुं० [डिं०] जूता सीनेवाला। चमड़े का काम करनेवाला। मोची। चमार।

भाँभी † (२)
वि० स्त्री० [सं० भ्रमण] भ्रमणशील। घूमनेवाली। उ०— साँवली सूरत भाँमी अँवखीं। अँख्याँ डाढा चेटक दीता।— घनानंद, पृ० ४१६।

भाँम पु
संज्ञा स्त्री० [सं० थमा, भामा] भामा। सुंदरी। उ०— भीतर अटान पैं छटा सी जगमगै भाँम करी काम केलि पाय जोबन नवीने तूँ।—दीन० ग्रं०, पृ० १५७।

भाँयँभाँयँ
संज्ञा पुं० [अनु०] नितांत एकांत स्थान वा सन्नाटे में होनेवाला शब्द। जैसे,— उनके चले जाने से घर भाँयँ भाँयँ करता है।

भाँरी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँवरी] दे० 'भाँवर'।

भाँवता
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भावता'।

भाँवना †
क्रि० स० [सं० भ्रमण] १. किसी चीज को खराद या चक्कर आदि पर घुसाना। खरादना। कुनना। २. बहुत अच्छी तरह गढ़कर और सुंदरतापूर्वक बनाना। उ०— (क) साँचे की सी ढारी अति सूछम सुधारि काढ़ी केशोदास अंग अँग भाँइ के उतारी है।— केशव (शब्द०)। (ख) गढ़ि गुढ़ि ग्रीवा छोलि छोलि कूँद की सी भाँई बातें जैसी मुख कहौ तैसी उर जब आनिहौ।— तुलसी (शब्द०)। (ग) भाँई ऐसी ग्रीवा भुज पान सों उदर अरु पंकज सो पाँइ गति हंस ऐसी जासु है।— केशव (शब्द०)।

भोंवर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमण] १. चारों ओर घूमना या चक्कर काटना। घूमरी लेना। परिक्रमा करना। उ०— जो तोहि पिये सो भाँवर लेई। सीस फिरै पँथ पैग न देई।— जायसी (शब्द०)। २. हल जोतने के समय एक बार खेत के चारों ओर घूम आना। ३. अग्नि को वह परिक्रमा जो विवाह के समय वर ओर वधू मिलकर करते हैं। क्रि० प्र०—फिरना।—लेना।

भाँवर (२)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] दे० 'भौंरा'। उ०—श्री हरिदास के स्वामी स्यामा कुज बिहारी पै वारौंगी मालती भाँवरो— हरिदास (शब्द०)।

भाँवरा
संज्ञा पुं० [सं० भ्रमर] भौंरा।

भाँवरि, भाँवरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँवर] दे० 'भाँवर'। उ०— बिरह भँवर होइ भाँवरि देई। खिन खिन जीव हिलोरहि लेई।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ११९।

भाँस †
संज्ञा स्त्री० [सं० भाष] बोल। आवाज। ध्वनि। बकार।

भा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दीप्ति। चमक। प्रकाश। उ०— मनि कुंडल अति भा खुलनि डुलनि डुलनि सु ललित कपोल।— घनानंद, पृ० २६९। २. शोभा। छटा। छवि। ३. किरण। रश्मि। ४. बिजली। विद्युत्।

भा † (२)
अव्य० चाहे। यदि इच्छा हो। वा। उ० —जो भावै सो कर लला इन्हें बाँध भा छोर। हैं तुव सुबरन रूप के ये दृग मेरे चोर।—रसनिधि (शब्द०)।

भाइ पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० भाव] १. प्रेम। प्रीति। मुहब्बत। उ०— आय आगे लेन आप दिए हैं पठाय जन देखी द्वारावती कृष्ण मिले बहु भाइ कै।— प्रियादास (शब्द०)। २. स्वभाव। भाव। उ०— भोरे भाई भोरही ह्वाँ खेलन गई ही खेल ही में खुल खेले कछु औरै कढ़ि रहयौ है।—देव (शब्द०)। ३. विचार। उ०— पिता/?/पति भूख लै सतायो अति माँगे तिया पास नहीं।/?/प्रियादास (शब्द०)।

भाइ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाँति] १. भाँति। प्रकार। तरह। उ०— (क) तब ब्रह्मा सों कह्यो सिर नाइ। जै ह्वैहै हमरी किहि भाइ।— सूर (शब्द०)। (ख) आशु बरषि हियरे हरषि सीतल सुखद सुभाइ। निरखि निरखि पिय मुद्रिकहि बरनति हैं बहु भाई।— केशव (शब्द०)। २. ढंग। चाल- ढाल। रंग ढंग। उ०—बहु बिधि देखत पुर के भाइ। राज सभा महँ बैठे जाइ।— केशव (शब्द०)।

भाइप पु †
संज्ञा पुं० [हिं० भाइ + प (पन) (प्रत्य०)] १. भाईचारा। भाईपन। २. मित्रता। बंधुत्व।

भाई
संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृ] १. किसी व्यक्ति के माता पिता से उत्पन्न दूसरा पुरुष। किसी के माता पिता का दूसरा पुत्र। बहन का उलटा। बधु। सहोदर। भ्राता। भैया। २. किसी वंश या परिवार की किसी एक पीढ़ी के किसी व्यक्ति के लिये उसी पीढ़ी का दूसरा पुरुष। जैसे, चाचा का लड़का = चचेरा भाई; फूफों का लड़का = फुफेरा भाई; मामा का लड़का= ममेरा भाई। ३. अपनी जाति या समाज का कोई व्यक्ति। बिरादरी।यो०—भाई बिरादरी। ४. बराबर वालों के लिये एक प्रकार का संबोधन। जैसे,— भाई पहले यहाँ बैठकर सब बातें सोच लो। उ०— बर अनुहार बरात न भाई। हँसी करइहउ पर पुर जाई।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—भाइयों को मूछें डखाड़मा = अपनों को अपमानित करना। उ०— जिनको बीर होने का दावा है, वे भाइयों की मूछे उखाड़कर मूँछे मरोड़ रहे हैं।— चुभते०, पृ० ३।

भाईचारा
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + चारा (प्रत्य०)] १. भाई के समान होने का भाव। बंधुत्व। २. परम मित्र या बंधु होने का भाव।

भाईदूज
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाई + दूज] यमद्वितिया। कार्तिक शुक्ल द्वितीया। भैया दूज। विशेष— इस दिन बहन अपने भाई को टीका लगाती है और भोजन कराती है।

भाईपन
संज्ञा पुं० [हिं० बाई + पन (प्रत्य०)] १. भ्रातृत्व। भाई होने का भाव। २. परम मित्र या बंधु होने का भाव।

भाईबंद
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + बंधु] भाई और मित्र बंधु आदि। अपनी जाति और बिरादरी के लोग। नाते और बिरादरी के आदमी।

भाई बिरादरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाई + बिरादरी] जाति या समाज के लोग।

भाउ पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० भाव] १. चित्तवृत्ति। विचार। भाव। २. प्रेम। प्रीति। उ०— (क) ते नर यह सर तजइ न काऊ। जिनके राम चरन भल भाऊ।— तुलसी (शब्द०)। (ख) राग रोष दोष पोषे गोगन समेत मन इन्ह की भगति कीन्हों इन्ही को भाउ मै।— तुलसी (शब्द०)। (ग) सो पद पंकज सुंदर नाउ। इत ही राखि गए भरि भाउ।— नद० ग्रं०, पृ० २२६।

भाउ (२)
संज्ञा पुं० [सं० भव] उत्पत्ति। जन्म। उ०— होत न भूतल भाउ भरत को। अचर सचर चर अचर करत को।— तुलसी (शब्द०)।

भाउ (३)
संज्ञा पुं० दे० 'भाव'।

भाउन पु
वि० [सं० भावन] सुंदर। अच्छा। उ०— अरुन बसन तन मैं पहिरि पीत सु दौना हाथ। साउन मैं भाउन लगत सखी सुहावन साथ।— स० सप्तक, पृ० ३३६।

भाउर † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रमण] दे० 'भाँवर'। उ०— गात गुराई हेम की दुति सु दुराई केत। कज बदन छबि जान अलि भूलि भाउरे लेत।— स० सप्तक, पृ० ३८४।

भाऊ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० भ्रातृ] भाई।

भाऊ पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० भाव] १. प्रेम। स्नेह। मुहव्बत। उ०— पुनि सप्रेम बोलेउ खग राऊ। जो कृपाल मोहि ऊपर भाऊ।— तुलसी (शब्द०)। २. भावना। ३. स्वभाव। उ०— महाराज रघुनाथ प्रभाऊ। करउ सकल कारन सति भाऊ।— तुलसी (शब्द०)। ४. हालत। अवस्था। उ०— (क) पारबती मन उपना चाऊ। देखौ कुँवर केर सत भाऊ।—जायसी (शब्द०)। (ख) द्रौपति का प्रतिपाल दुराऊ। ताते होइ सबहि सुख भाऊ।— सबल (शब्द०)। ५. महत्व। महिमा। कदर। उ०— का मोर पुरुष रैन कर राऊ। उलू न जान दिवस कर भाऊ।— जायसी (शब्द०)। ६. रूप। शक्ल। स्वरूप। आकृति। उ०— केतिक दिवस रहे तब राऊ। मोहित भए मोहनी भाऊ।— सबल (शब्द०)। ७. सत्ता। प्रभाव। उ०— प्रथम अरंभ कौन भाऊ। दूसर प्रगट कीन सो ठाऊ।— कबीर (शब्द०)। ८. वृत्ति। विचार। उ०— (क) बिहँसी धन सुनि के सत भाऊ। हीं रामा तू रावन राऊ।— जायसी (शब्द०)। (ख) कहौं सखी आपन सत भाऊ। हौं जो कहत जस रावन राऊ।— जायसी (शब्द०)।

भाएँ पु
क्रि० वि० [सं० भाव] समझ में। बुद्धि के अनुसार। उ०—सब ही या ब्रज के लोग चिकनिया मेरे भाएँ घास।— सूर (शब्द०)।

भाकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार नैऋत्य कोण में का एक देश। २. सूर्य। भास्कर। उ०— मनहु सिंधु महँ धूम अति भाकर भास छिपाय।— रघुराज (शब्द०)।

भाकसी
संज्ञा स्त्री० [सं० भस्त्री] भट्ठी। भरसाईं। उ०— शूल से फूल सुवास कुवास सी भाकसी से भए भौन सुभागे।— केशव (शब्द०)।

भाका †
संज्ञा स्त्री० [सं० भाषा] दे० 'भाषा'। उ०—फलतः भाखापन की उपेक्षा हुई और लोग भाका से चिढ़ने लगे।— पोद्दार, अभि० ग्रं०, पृ० ८८।

भाकुट
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की मछली। भाकुर।

भाकुर
संज्ञा स्त्री० [सं० भाकुट] एक प्रकार की मछली जिसका सिर बहुत बड़ा होता है।

भाकूट
संज्ञा पुं० [सं०] एक मछली। भाकुर।

भाकोश, भाकोष
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।

भाक्त
वि० [सं०] १. गौण। अमुख्य। लाक्षणिक। २. भोजन पर नियुक्त वा आश्रित। ३. भक्त संबंधी (को०)। ४. भोजन के योग्य। खाने लायक (को०)।

भाक्तिक
वि० [सं०] आश्रित। अन्न द्वारा पोष्य [को०]।

भाक्ष
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भाक्षिकी] अधिक खानेवाला। पेटू [को०]।

भाख पु †
संज्ञा पुं० [भाप्] भाषण।

भाखना पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० √ भाप्] दे० 'भाषण'।

भाखना पु † (२)
क्रि० स० [सं० भाषण] कहना। बोलना। उ०— (क) कह मुनि राम सत्य तुम्ह भाखा। भरत सनेह विचारु न राखा।— मानस, २। २५७। (ख) जेहन तोहर मन तन्हिको तइसन कत पति अउबि हे भाखी।— विद्यापति, पृ० ५४०।

भाखर
संज्ञा पुं० [डिं०] पर्वत। पहाड़।

भाखा ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भाषा] दे० 'भाषा'। उ०— बसहिं पंखि बोलहिं बहु भाषा। करहिं हुलास देखि कै साखा।— जायसी ग्रं०, पृ० ११।

भाखा (२)
संज्ञा स्त्री० हिंदी भाषा।

भाखापन †
संज्ञा पुं० [हिं० भाषा + पन (प्रत्य०)] भाषा या उपभाषा होने की क्रिया या भाषात्व। उ०— फलतः भखापन की उपेक्षा हुई और लोग भाका से चिढ़ने लगे।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८८।

भाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिस्सा। खड। अंश। जैसे,— इसके चार भाग कर डालो। उ०— बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि सस चहहि नाग अरि भागू।— तुलसी (शब्द०)। २. पार्श्व। तरफ। ओर। उ०— बाम भाग सोभित अनुकूला। आदि शक्ति छबि निधि जगमूला।— तुलसी (शब्द०)। ३. नसीब। भाग्य। किस्मत। प्रारब्ध। उ०— और सुनो यह रूप जवाहर भाग बड़े बिरलै कोउ पावै।— ठाकुर (शब्द०)। मुहा०— भाग खुलना = भाग्योदय होना। तकदीर खुलना। उ०— क्या मिला पूत जो सपूत नहीं। क्या खुली कोख जो न भाग खुला।— चोखे०, पृ० ३९। भाग फूटना =बुरे दिन आना। उ०— करतबों से फटे रहे जब हम। भाग कैसे न फूट तब जाता।— चुभते०, पृ० ६१। ४. सौभाग्य। खुशनसीवी। उ०— दिशि विदिशनि छबि लाग भाग पूरित पराग भर।— केशव (शब्द०)। ५. भाग्य का कल्पित स्थान। माथा। ललाट। उ०— सेज है सुहाग की कि भाग की सभा है शुभ भामिनी कौ भाल अहै भाग चारु चंद को।— केशव (शब्द०)। ६. प्रातःकाल। भोर। अरुणोदय काल। उ०— राग रजोगुण को प्रगट प्रतिपक्षी को भाग। रंगभूमि जावक बरणि को पराग अनुराग।— केशव (शब्द०)। ७. एक प्राचीन देश का नाम। ८. ऐश्वर्य। वैभव। ९. पूर्व फाल्गुनी नक्षत्र। १०. विभाजन। बटवारा। (को०)। ११. चतुर्थांश (को०)। १२. परिधि का ३६० वाँ भाग या एक अंश (को०)। १३. राशि का ३० वाँ अंश या हिस्सा (को०)। १४. रूप्यकार्ध। रुपए का आधा (को०)। १५. एक अंक। ११ का अंक या संख्या (को०)। १६. गणित में एक प्रकार की क्रिया जिसमें किसी संख्या को कुछ निश्चित स्थानों या भागों में बाँटना पड़ता है। किसी राशि को अनेक अंशों या भागों में बाँटने की क्रिया। गुणन के विपरीत क्रिया। विशेष— जिस राशि के भाग किए जाते हैं, उसे 'भाज्य' और जिससे भाग देते हैं; उसे 'भाजक' कहते हैं। भाज्य को भाजक से भाग देने पर जो संख्या निकलती है, उसे फल कहते हैं। जैसे,—। भाज्य भाजक १५) १३५ (९ फल १३५ *

भागक
संज्ञा पुं० [सं०] भाग। भाजक।

भागकल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिस्से बाँटना। बँटवारा।

भागजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विभाग के चार प्रकारों में से एक जिसमें एक हर और एक अंश होता है, चाहे वह सम भिन्न हो वा विषम भिन्न हो। जैसे,६/७, १७/९।

भागड़
संज्ञा [स्त्री० हिं० भागना + ड़ (प्रत्य०)] भागने, विशेषतः बहुत से लोगो के एक साथ घबराकर भागने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—पड़ना।—मचना।

भागत्याग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'जहदजहल्लक्षणा'।

भागदौड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० भागना + दौड़ना] दे० 'भागड़'।

भागघान
संज्ञा पुं० [सं०] खजाना।

भागधेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाग्य। तकदीर। किस्मत। २. सौभाग्य। अच्छी किस्मत (को०)। ३. खुशकिस्मती। प्रसन्नता। प्रफुल्लता (को०)। ४. संपत्ति। ६. वह कर जो राजा को दिया जाता है। ७. दायाद। सपिंड।

भागना
क्रि० अ० [सं० √ भाज्] १. किसी स्थान से हटने के लिये दौड़कर निकल जाना। पीछा छुड़ाने के लिये जल्दी जल्दी चले जाना। चटपट दूर हो जाना। पलायन करना। जैसे,— महल्लेवालों की आवाज सुनते ही डाकू भाग गए। संयों० क्रि०—जाना।—निकलना।—पड़ना। मुहा०—सिर पर पैर रखकर भागना = बहुत तेजी से भागना। जल्दी जल्दी चले जाना। २. टल जाना। हट जाना। जैसे,— अब भागते क्यों हो, जरा सामने बैठकर बातें करो। संयो० क्रि०—जाना। ३. कोई काम करने से बचना। पीछा छुड़ना। पिंड छुड़ाना। जैसे,— (क) आप उनके सामने जाने से सदा भागते हैं। (ख) मैं ऐसे कामों से बहुत भागता हूँ। ४. युद्ध में हार जाना। पीठ दिखाना।

भागनिधि
संज्ञा स्त्री० [प्रा० भाग(=भाग्य)+ निधि] भाग्य रूपी निधि। उ०— जसुद कूँख भागनिधि खानि। प्रगटयो कृस्न रतन सुखदानि।— घनानंद, पृ० ३१९।

भागनेय
संज्ञा पुं० [सं० भगिनेय] बहिन का बेटा। भानजा।

भागफल
संज्ञा पुं० [सं०] वह संख्या जो भाज्य को भाजक से भाग देने पर प्राप्त हो। लब्धि। जैसे,— यदि १६ को ४ से भाग दे० [४) १६ (४] [१६] [*] तो यहाँ ४ भागफल होगा।

भागबस
क्रि० वि० [हिं० भाग + बस] भाग्यवश। सौभाग्यतः। उ०— बागुर विषम तोराइ मनहु भाग मृग भागबस।— मानस, २। ७५।

भागभरा पु
वि० [हिं० भाग + भरना] [वि० भागभरी] भाग्य- वान्। खुशकिस्मत।

भागभाज्
वि० [सं०] हिस्सेदार [को०]।

भागभुज्
संज्ञा पुं० [सं०] नरेश। राजा [को०]।

भागभोगकर
संज्ञा पुं० [सं० भाग + भुज् + कर] एक प्रकार का भूमिकर। उ०— चेदि, गहड़वाल, परमार तथा पालवंशी लेखों में इस कर (भूमिकर) के लिये भागभोग कर या राजभोग कर का नाम मिलता है। संभवतः यह भूमि की उपज पर टैक्स था जो साधारणतः छठा हिस्सा होता था। पू० म० भा०, पृ० ११२।

भागरा
संज्ञा पुं० [देश०] एक संकर राग जो किसी किसी के मत से श्रीराग का पुत्र माना जाता है।

भागलक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जहदजहल्लक्षणा।

भागवंत
वि० [सं० भाग्यवान्] जिसका भाग्य बहुत अच्छा हो। खुशकिस्मत। भाग्यवान्।

भागवत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अठारह पुराणों में से सर्वप्रसिद्ध एक पुराण जिसमें १२ स्कंध, ३१२ अध्याय और १८००० श्लोक हैं। श्रीमद्भागवत। विशेष— इसमें अधिकांश कृष्ण संबंधी प्रेम और भक्ति रस की कथाएँ हैं और यह वेदांत का तिलकस्वरूप माना जाता है। वेदांत शास्त्र में ब्रह्म के संबंध में जिन गूढ़ बातों का उल्लेख हैं, उनमें से बहुतों की इसमें सरल व्याख्य मिलती है। सलाधारणतः हिंदुओं में इस ग्रंथ का अन्यान्य पुराणों की अपेक्षा विशेष आदर है और वैष्णवों के लिये तो यह प्रधान धर्मग्रंथ है। वे इसे महापुराण मानते हैं। पर शाक्त लोग देवीभागवत को ही भागवत कहते और महापुराण मानते हैं और इसे उपपुराण कहते हैं। २. देवीभागवत। ३. भगवदभक्त। हरिभक्त। ईश्वर का भक्त। ४. १३ मात्राओँ के एक छंद का नाम।

भागवत (२)
वि० भागवत संबंधी।

भागवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वैष्णवों की गले में पहनने की गोल दानों की एक प्रकार की कंठी।

भागवान
वि० [हिं० भाग + वान] दे० 'भाग्यवान्'।

भागसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का हेत्वाभास।

भागहर
वि० [सं०] भाग या अंश लेनेवाला। हिस्सेदार।

भागहार
संज्ञा पुं० [सं०] गणित में किसी राशि को कुछ निश्चित अशों में विभक्त करने की क्रिया। भाग। तकसीम।

भागहारी (१)
वि० [सं० भागहारिन्] [वि० स्त्री० भागहारिणी] हिस्सेदार।

भागहारी (२)
संज्ञा पुं० उत्तराधिकारी। २. विभाग। हिस्सा [को०]।

भागानुप्रविष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार गायों की रक्षा करनेवाला वह कर्मचारी जो गाय के मालिकों से दूध की आमदनी का दसवाँ भाग लेता था।

भागपहारी
वि० [सं० भागापहारिन्] हिस्सा पानेवाला। जिसने हिस्सा पाया हो [को०]।

भागाभाग
संज्ञा स्त्री० [हिं० भागना की द्विरुक्ति] भागने की हलचल। भागदौड़।

भागार्था
वि० [सं० भागार्थिन्] [वि० स्त्री० भागर्थिनी] अंश या हिस्सा चाहनेवाला।

भागार्हि
वि० [सं०] १. जो भाग देने के योग्य हो। विभक्त करने के योग्य। २. हिस्सा पाने का अधिकारी। जो विभाग का हकदार हो।

भागासुर
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक असुर का नाम।

भागि पु
संज्ञा पुं० [सं० भाग्य] दे० 'भाग्य'। उ०— निंदा अपने भागि को चली करति वह तीय।— शकुंतला, पृ० ९९।

भागिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋण जो ब्याज पर दिया जाय।

भागिक (२)
वि० अंश या भाग संबंधी [को०]।

भागिनेय
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० भागिनेयी] बहिन का लड़का। भानजा।

भागी (१)
संज्ञा पुं० [सं० भागिन्] [स्त्री० भागिनी] १. हिस्सेदार। शरीक। साझी। २. अधिकारी। हकदार। ३. शिव।

भागी (२)
वि० भाग या हिस्सावाला। जिसमें भाग या अंश हो।

भागीरथ (१)
संज्ञा पुं० [सं० भगीरथ] दे० 'भगीरथ'। उ०— भगीरथ जब बहु तप कियो। तब गंगा जू दर्शन दियो।— सूर (शब्द०)।

भागीरथ (२)
वि० भगीरथ संबंधी। भगीरथ तुल्य।

भागीरथी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गंगा नदी। जाह्नवी। विशेष— कहते हैं कि राजा भगीरथ ही इस लोक में गंगा को लाए थे, इसीलिये उसका यह नाम पड़ा। २. गंगा की एक शाखा का नाम जो बंगाल में है।

भागारथी (२)
संज्ञा पुं० गढ़वाल के पास की हिमालय की एक चोटी का नाम।

भागुरि
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य के भाष्यकर्ता एक ऋषि का नाम।

भागू
संज्ञा पुं० [हिं० भागना + ऊ (प्रत्य०)] वह जो भाग गया हो।

भागौत पु †
संज्ञा पुं० [सं० भागवत] दे० 'भागवत'। उ०— श्रीधर श्री भागौत में, परत धरम निरनै कियौ।—भक्तमाल, पृ० ५३२।

भाग्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह अवश्यंभावी दैवी विधान जिसके अनुसार प्रत्येक पदार्थ और विशेषतः मनुष्य के सब कार्य— उन्नति, अवनति नाश आदि पहले ही से निश्चित रहते हैं और जिससे अन्यथा और कुछ हो ही नहीं सकता। पदार्थों और मनुष्यों आदि के संबंध में पहले ही से निश्चित और अनिवार्य व्यवस्था या क्रम। तकदीर। किस्मत। नसीब। विशेष— भाग्य का सिद्धांत प्रायः सभी देशों और जातियों में किसी न किसी रूप में माना जाता है। हमारे शास्त्रकारोंका मत है कि हम लोग संसार में आकर जितने अच्छे या बुरै कर्म करते हैं, उन सबका कुछ न कुछ संस्कार हमारी आत्मा पर पड़ता है और आगे चलकर हमें उन्हीं संस्कारों का फल मिलता है। यही संस्कार भाग्य या कर्म कहलाते हैं और हमें सुख या दुःख देते हैं। एक जन्म में जो शुभ या अशुभ कृत्य किए जाते हैं, उनमें से कुछ का फल उसी जन्म में और कुछ का जन्मांतर में भागना पड़ता है। इसी विचार से हमारे यहाँ भाग्य के चार विभाग किए गए हैं— सचित, प्रारब्ध, क्रियमाण और भावी। प्रायः लोगों का यही विश्वास रहता है कि संसार में जो कुछ होता है, वह सदा भाग्य से ही होता है और उसपर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं होता। साधारणतः शरीर में भाग्य का स्थान ललाट माना जाता है। पर्या०—दैव। दिष्ट। भागधेय। नियति। विधि। प्राक्तन। कर्म्म। भवितव्यता। अदृष्ट। यौ०—भाग्यक्रम, भाग्यचक्र = भाग्य का क्रम या चक्र। भाग्य का फेर। भाग्यदोष। भाग्यपंच। भाग्यवल। भाग्यभाव। भाग्यलिपि। भाग्यवान्। भाग्यशाली। भाग्यहीन। भाग्यो- दय। आदि। मुहा०— दे० 'किस्मत' के मुहा०। २. उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र।

भाग्य (२)
वि० जो भाग करने के योग्य हो। हिस्सा करने लायक। भागार्ह।

भाग्यपंच
संज्ञा पुं० [सं० भाग्यपञ्च] एक प्रकार का खेमा [को०]।

भाग्यभाव
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मकुडली में जन्मलग्न से नवाँ स्थान जहाँ से मनुष्य के भाग्य के शुभाशुभ का विचार किया जाता है।

भाग्ययोग
वि० [सं०] भाग्यवान। भाग्यशाली।

भाग्यलिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] तकदीर की लिखावट। अदृष्ट रेखा।

भाग्यलेख्य पत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्रनीति के अनुसार बँटवारे का कागज। वह कागज जिसमें किसी जायदाद के हिस्सेदारों के हिस्से लिखे हों।

भाग्यवश, भाग्यवशात्
अव्य० [सं०] भाग्य से। किस्मत से।

भाग्यवाद
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्य के अनुसार ही शुभाशुभ की प्राप्ति मानने का सिद्धांत।

भाग्यविपर्यय, भाग्यविप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] अभाग्य। दुर्भाग्य [को०]।

भाग्यसंपद्
संज्ञा स्त्री० [सं० भायसंपत्(—द्)] सौभाग्य [को०]।

भाग्याधीन
वि० [सं०] जो भाग्य के अधीन हो।

भाग्योदय
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्य का खुलना।

भाचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] क्रांतिवृत्त।

भाजक (१)
वि० [सं०] विभाग करनेनाला। बाँटनेवाला।

भाजक (२)
संज्ञा पुं० वह अंक जिससे किसी राशि को भाग दिया जाय। विभाजक अंक (गणित)।

भाजकांश
संज्ञा पुं० [सं०] वह संख्या जिससे किसी राशि को भाग देने पर शेष कुछ भो न बचे। गुणनीयक।

भाजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बरतन। उ०— मनौ संख सूती धरी मरकत भाजन माहिं।—स० सप्तक, पृ० ३६५। २. आधार ३. आढ़क नाम की तौल जो ६४ पल के बराबर होती है। ४. योग्य। पात्र। जैसे, विश्वासभाजन। उ०— लखन कहा जसभाजन सोई। नाथ कृपा तव जापर होई।— तुलसी (शब्द०)। ५. विभाग। अंश (गणित)। ६. विभाजन करना। अलग अलग करना।

भाजनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाजन होने का भाव। पात्रता। योग्यता।

भजना पु
क्रि० अ० [सं० व्रजन, प्रा० वजन पु० हिं० भजना] दौड़कर किसी स्थान से दूसरे स्थान को निकल जाना। भागना। उ०— (क) शूरा के मैदान में कायर का क्या काम। कायर भाजै पीठि दै सूर करै संग्राम।— कबीर (शब्द०)। (ख) आवत देखि अधिक रव बाजी। चलेउ बराह मरुत गति भाजी।— तुलसी (शब्द०)। (ग) और मल्ल मारे शल तो- शल बहुत गए सब भाज। मल्ल युद्ध हरि करि गोपन सों लखि फूले ब्रजराज।— सूर (शब्द०)। (घ) भाल लाल बेंदी ललन आखत रहै बिराजि। इंदु कला कुज में बसी मनीं राह भय भाजि।— बिहारी (शब्द०)।

भाजित
वि० [सं०] १. जिसको दूसरी संख्या से भाग दिया गया हो। २. जो अलग किया गया हो। विभक्त।

भाजी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भाँग। पीच। २. तरकारी, साग आदि। उ०—(क) तुम तो तीन लोक के ठाकुर तुमते कहा दुराइय। हम तो प्रेम प्रीति के गाहक भाजी शाक चखाइय।— सूर (शब्द०)। (ख) मीठे तेल चना की भाजी। एक भकूनी दै मोहिं साजी।— सूर (शब्द०)। ३. मेथी।

भाजी (२)
संज्ञा पुं० [सं० भाजिन्] सेवक। भृत्य। नौकर।

भाजी (३)
वि० [सं० भाजिन्] भाग लेनेवाला। शरीक होनेवाला। संबंद्ध।

भाज्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह अंक जिसे भाजक अंक से भाग दिया जाता है।

भाज्य (२)
वि० विभाग करने के योग्य।

भाट (१)
संज्ञा पुं० [सं० भट्ट] [स्त्री० भाटिन] १. राजाओं का यश वर्णन करनेवाला कवि। चारण। बंदी। उ०— सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा। भूप भीर नट मागध भाटा।— तुलसी (शब्द०)। २. एक जाति का नाम। उ०— चली लोहारिन बाँकी नैना। भाटिन चली मधुर अति बैना।— जायसी (शब्द०)। विशेष— इस जाति के लोग राजाओ के यश का वर्णन और कविता करते हैं। यह लोग ब्राह्मण के अंतर्गत माने और दसौंधी आदि के नाम से पुकारे जाते हैं। इस जाति की अनेक शाखाएँ उत्तरीय भारत में बंगाल से पंजाब तक फैली हुई हैं।३. खुशामद करनेवाला पुरुष। खुशामदी। ४. राजदूत।

भाट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] भाड़ा। किराया।

भाट (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाठ] १. वह भूमि जो नदी के दो करारों के बीच में हो। पेटा/?/। २. बहाव की वह मिट्टी जो नदी का चढ़ाव उतरने पर उसके किनारों पर की भूमि पर वा कछार में जमती है। ३. नदी का किनारा। ४. नदी का बहाव। वह रुख जिधर को नदी बहकर दूसरे बडे़ जलाशय में गिरती है। उतार। चढ़ाव का उलटा ।

भाटक
संज्ञा पुं० [सं०] भाड़ा।

भाटा
संज्ञा पुं० [हिं० भाट] १. पानी का चढ़ाव की ओर से उतार की और जाना। चढ़ाव का उतरना। २. समुद्र के चढ़ाव का उतरना। ज्वार का उल्टा। दे० 'ज्वार भाटा'। ३. पथरीली। भूमि।

भाटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. किराया। भाड़ा। २. वेश्या की कमाई [को०]।

भाटिया
संज्ञा पुं० [सं० भट्ट] एक उपजाति जो गुजरात में रहती है। इस जाति के लोग अपने को क्षत्रियों के अंतर्गत मानते हैं। पंजाबियों में भी 'भाटिया' नाम की एक उपजाति है।

भाटी
संज्ञा पुं० [देश०] क्षत्रिय जाति की एक शाखा का नाम। उ०— फुरमान गए जैसलहमेर। भेम्या सब भाटी भए जेर।— पृ० रा० १। ४२३। विशेष— राजपूतों की एक जाति जो ईस्वी सन् १४ में गजनी से आई और पंजाब में बसी तथा वहाँ से हटकर राजपूताना में बसी।

भाटयौ पु
संज्ञा पुं० [हिं० भट] भाट का काम। भटई। यश- कीर्तन। उ०— कहूँ भाट भाटयो करैं मान पावैं। कहूँ लोलिनी बेड़िनी गीत गावैं।— केशव (शब्द०)।

भाठ †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाठना वा भरना] १. वह मिट्टी जो नदी अपने साथ चढ़ाव में बहाकर लाती है और उतार के समय कछार में ले जाती है। यह मिट्टी तह के रूप में भूमि पर जम जाती है और खाद का काम देती है। २. दे० 'भाट- १. और ३'। ३. धारा। बहाव।

भाठा
संज्ञा पुं० [हिं० भाठ] १. दे० 'भाटा'। २. गर्त। गड्ढा। ३. पत्थर। पस्तर। उ०— अन दिन उण री आथ ज्यूँ डाटो भाटो देर।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३४।

भाठी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाठा] पानी का उतार। भाटा।

भाठी पु † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भस्त्री] १. भट्ठी। उ०— भवन मोहि भाठी सम लागत मरति सोच ही सोचन। ऐसी गति मेरी तुम आगे करत कहा जिय दोचन।— सूर (शब्द०)। २. वह स्थान जहाँ मद्य चुलाया जाता है। भट्ठी। उ०— कबिरा भाठी प्रेम की, बहुतक बैठे आय। सिर सौंपे सो पीवही और पै पिया न जाय।— कबीर (शब्द०)।

भाड़
संज्ञा पुं० [सं० भ्राष्ट्र, पा० भट्टो] भड़भूजों की भट्ठी जिसमें वे अनाज भूनने के लिये बालू गरम करते हैं। विशेष— यह एक छोटी कोठी के आकार का होता है जिसमें एक द्वार होता है और जिसकी छत पर बहुत से मिट्टी के वरतन ऊपर को मुँह करके जड़े होते हैं। इसके दीवार हाथ सवा हाथ ऊँची होती है। इसके द्वार से ईंधन डाला जाता है जिससे आग जलती है। आग की गर्मी से बालू लाल होता है जिसे अलग निकालकर दूसरे बर्तन में दानों के साथ रखकर भूनते हैं। दो तीन बार इस प्रकार गरम बालू डालने ओर चलाने से दाने खिल जाते हैं। मुहा०—भाड़ झोंकना = (१) भाड़ में इंधन झोंकना। भाड़ में कूड़ा फेंकना। भाड़ गरम करना। (२) तुच्छ काम करना। नीच वृत्ति धारण करना। नीच काम करना। अयोग्य काम करना। ३. व्यर्थ समय गँवाना। जैसे,— बारह बरस दिल्ली में रहे, भाड़ झोंकते रहे। भाड़ में झोंकना या डालना =(१) आग में डालना। चूल्हे में डालना। जलाना। (२) फेंकना। नष्ट करना। (३) जाने देना। त्यागना। भाड़ में पड़े वा जाय= आग लगे। नष्ट हो। (उपेक्षा)।

भाडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० भाट] किराया। मुहा०—भाड़े का टटटू =(१) थोड़े दिन तक रहनेवाला। जो स्थायी न हो। क्षणिक। (२) जिसकी सदा मरम्मत हुआ करे वा जिसपर लाभ से व्यय अधिक पड़ता हो।

भाड़ा (२)
संज्ञा पुं० एक घास जो प्रायः हाथ भर ऊँची होती और निर्बल भूमि में उपजती है। यह चारे के काम आती है।

भाड़ा (३)
संज्ञा पुं० [सं० भरण] वह दिशा जिस ओर को वायु बहती हो। मुहा०— भाड़े पड़ना = जिधर वायु जाती हो, उधर नाव को चलाना। नाव को वायु के सहारे ले जाना। भाड़े फेरना = जिधर हवा का रुख हो, उधर नाव का मुँह फेरना।

भाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाट्यशास्त्रानुसार एक प्रकार का रूपक जो नाटकादि दस रूपकों के अतर्गत है। विशेष— यह एक अंक का होता है और इसमें हास्य रस की प्रधानता होती है। इसका नायक कोई निपुण पडित वा अन्य चतुर व्यक्ति होता है। इसमें नट आकाश की ओर देखकर आप ही आप सारी कहानी उक्ति प्रत्युक्ति के रूप में कहता जाता है, मानो वह किसी से बात कर रहा हो। वह बीच बीच में हँसता जाता और क्रोधादि करता जाता है। इसमें धूर्त के चरित्र का अनेक अवस्थाओं महित वर्णन होता है। बीच बीच में कहीं कहीं संगीत भी होता है। इसमें शौर्य और सौभाग्य द्वारा शृंगाररस/?/होता है। संस्कृत भाणों में कौशिकी वृत्ति द्वारा कथा का वर्णन किया जाता है। यह दृश्यकाव्य है। २. ब्याज। बहाना। मिस। ३. ज्ञान। बोध।

भाणिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अंक में समाप्त होनेवाला हास्य- रसप्रधान दृश्य काव्य। भाण।

भात (१)
संज्ञा पुं० [सं० भक्त, पा० भक्त, प्रा० भत्त] १. पानी मेंउबाला हुआ चावल। पकाया हुआ चावल। उ०— (क) अवभू वो तनु सवल राता। नाचै बाजन बाज वराता। मोर के माथे दूलह दीन्हों अकथा जोरि कहाता। मड़ये क चारन समधी दीन्हों पुत्र बहावल माता। दुलहिन लीपि चौक बैठाए निरभय पद परमाता। भातहि उलटि बरतहि/?/ भली बनी कुशलाता।—कबीर (शब्द०)। (ख) पहिले भात परोसे आना। जनहु सुबास कपूर बसाना।— सूर (शब्द०)। (ग) नंद बुलावत है गोपाल। आवहु बेगि बलैया लेहौं सुंदर नैन बिसाल। परसेउ थार धरेउ मग चितवत बेगि चली तुम लाल। भात सिरात तात दुख पावत क्यों न चलो तत्काल।— सूर (शब्द०)। २. विवाह की एक रसम। विशेष— यह विवाह के दूसरे वा तीसेर दिन होती है। इसमें समधी को भात खाने के लिये कन्या के घर बुलाया जाता और उसे भांत खिलाया जाता है। भात खाने के लिये उसे कुछ द्रव्य आदि भी भेंट किया जाता है। इसमें दोनों समधी मांडव में चौक पर बैठकर भात खाते हैं।

भात (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभात। सबेरा। २. दीप्ति। प्रकाश।

भात (३)
वि० चमकीला। प्रकाशयुक्त। व्यक्त [को०]।

भाता
संज्ञा पुं० [सं० भक्त—भत्त] उपज का वह भाग जो हलवाहे को राशि में से खलिहान में मिलता है। विशेष— पूर्व काल में जब मासिक वेतन या दैनिक मजदूरी देने की प्रथा नहीं थी, तब हल जोतनेवाले को अन्न की उपज का छठा भाग दिया जाता था, और इसके बदले में वह वर्ष भर सपरिवार खेती के सब काम काज करता था। यह प्रथा अब भी नेपाल की तराई में कहीं कहीं है।

भाति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शोभा। कांति। उ०— मनोहर है नैनन की भाति। मानहु दूरि करत बल अपने शरद कमल की भाति।— सूर (शब्द०)। २. प्रतीति या ज्ञान (को०)।

भाति (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भाँति'।

भातु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

भाथ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भस्त्रा, पा० भत्था] धौंकनी। उ०— (क) नृप चल्यो बान भरि भाथ में। लिए सरासन हाथ में।— गोपाल (शब्द०)। (ख) इनके बिनु जे जीवत जग में ते सब श्वास लेत जिमि भाथ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४५३।

भाथा
संज्ञा पुं० [सं० भस्त्रा प्रा० भत्था] १. चमड़े की बनी हुई लंबी थैली जिसमें तीर भरकर तीर चलानेवाले पीठ पर वा कटि में बाँधते थे। तरकश। तूणीर। उ०— पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।— तुलसी (शब्द०)। २. बड़ी भाथी।

भाथी
संज्ञा स्त्री० [सं० भस्त्री, पा० भत्थी] १. चमड़े की धींकनी जिसे लगाकर लोहार भट्ठी की आग सुलगाते हैं। धौंकनी। उ०— परम प्रभाती पर लोह दहैं भाथी सम, एहो बने बाथी साथी उग्रसेन सेन के।— गोपाल (शब्द०)। विशेष— यह चमड़े की होती है जो फैलती और सिकुड़ती है। जब इसमें बायु भरना होता है, तो इसके खींचकर फैलाते हैं और फिर दबाकर इसमें से वायु निकालते हैं। वायु एक छोटे छेद वा नली से होकर भट्ठी में पहुँचती है जिससे आग सुलगती है।

भादोँ
संज्ञा पुं० [सं० भाद्रपद, भादअअ, भादअउँ, भादों पा० भद्दो] एक महीने का नाम जो वर्षा ऋतु में पड़ता है। इस महीने की पूर्णमासी के दिन चंद्रमा भाद्रपदा नक्षत्र में रहता है। सावन के बाद और कुआर के पहले का महीना। उ०— बरषा ऋतु रघुपति भगति तुलसी शालि सुदास। राम नाम वर बरन जुग सावन भादों मास।— तुलसी (शब्द०)। पर्या०—भाद्र। भाद्रपद। औष्ठपद। नभस्थ।

भादौं पु
संज्ञा पुं० [सं० भाद्र] दे० 'भादों'।

भाद्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक महीने का नाम जो वर्षाऋतु में सावन और कुआर के बीच में बड़ता है। इस महीने की पूर्णमासी के दिन चंद्रमा भाद्रपदा नक्षत्र में रहता है। वैदिक काल में इस महीने का नाम नभस्य था। इसे प्रौष्ठपद भी कहते हैं। भाद्रपद। भादों।

भाद्रपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाद्र। भादों। २. बृहस्पति के एक वर्ष का नाम जब वह पूर्व भाद्रपदा वा उत्तर भाद्रपदा में उदय होता है।

भाद्रपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नक्षत्रपुंज का नाम। विशेष— इसके दो भाग किए गए हैं— पूर्वा भाद्रपदा और उत्तरा भाद्रपदा। पूर्वा भाद्रपदा यमल आकृति की है। यह उत्तर ओर अक्षांश से २४ डिग्री पर है और इसमें दो तारे हैं। उत्तरा भाद्रपदा की आकृति शय्या के आकार की है और यह अक्षांश से ३६ डिग्री उत्तर ओर है। इसमें भी दो तारे हैं। पूर्वा भाद्रपदा का देवता अजएकपात् और उत्तरा भाद्रपदा का अहिबुँध्न्य है। पहली कुंभ राशि में और दूसरी मीन में मानी जाती है।

भाद्रपदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भादों महीने की पूर्णिमा। भाद्री [को०]।

भाद्रमातुर
संज्ञा पुं० [सं०] भद्रमाता अर्थात् सती का पुत्र। वह जिसकी माता सती हो।

भाद्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भाद्रपदी'।

भान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश। रोशनी। २. दीप्ति। चमक। ३. ज्ञान। ४. प्रतीति। आभास। उ०— बाटिका उजारि अक्ष धारि मारि जारि गढ़ भानुकूल भानु को प्रताप भानु भान सो—तुलसी (शब्द०)।

भान (२)
संज्ञा पुं० [सं० भानु] दे० 'भानु'।

भान (३)
संज्ञा पुं० [देश०] तुंग नामक वृक्ष। दे० 'तुंग'।

भानजा
संज्ञा पुं० [हिं० बहिन + जा] [स्त्री० भानजी] बहिन का लड़का। उ०— यह कन्या तेरी भानजी है। इसे मत मार।— लल्लु (शब्द०)।

भानना पु (१)
क्रि० स० [सं० भञ्जन, भि० पं० भन्नना] १. तोड़ना।भंग करना। उ०—(क) तीन लोक मँह जे भट मानी। सब कै सकति शंभु धनु भानी।— तुलसी (शब्द०)। (ख) आपुहि करता आपुहि धरता आपु बनावत आपुहि भाने। ऐसो सूरदास के स्वामी ते गोपिन के हाथ बिकाने।— सूर (शब्द०)। (ग) सहसु बाहु अति बली बखान्यो। परशुराम ताको बल भान्यो।—लल्लू (शब्द०)। २. नष्ट करना। नाश करना। मिटाना। ध्वंस करना। उ०—(क) आरत दीन अनाथन को हित मानत लौकिक कानि हौ। है परिनाम भलो तुलसी को सरनागत भय भानिहौ।— तुलसी (शब्द०)। (ख) भाने मठ कूप वाय सरवर को पानी। गौँरीकंत पूजत जह नव- तन दल आनी।— तुलसी (शब्द०)। (ग) जै जै जै जगदीस तूँ तूँ समर्थ साँई। सकल भवन भानै घड़ै दूजा को नाहीं।— दादू०, पृ० ५५०। ३. हटाना। दूर करना। उ०— (क) ढोटा एक भए कैसेहु करि कौन कौन करवर विधि भानी। कर्म कर्म करि अबलों उबरयो ताको मारि पितर दे पानी।— सूर (शब्द०)। (ख) नाक में पिनाक मिसि बामता बिलोकि राम रोको परलोक लीक भारी भ्रम भानिकै।— तुलसी (शब्द०)। (ग) मों सों मिलवांत चातुरी तू नहिं भानत भेद। कहे देत यह प्रगट ही प्रगटयो पूस प्रस्वेद।— बिहारी (शब्द०)। ४. काटना। उ०— (क) अति ही भई अवज्ञा जानी चक्र सूदर्शन मान्यो। करि निज भाव एक कुश तनु में क्षणक दुष्ट शिर भान्यो।— सूर (शब्द०)। (ख) अजहूँ सिय सौंपु नतरु बीस भुजा भानै। रघुपति यह पैज करी भूतल धरि प्रानै।— सूर (शब्द०)।

भानना (२)
क्रि० स० [सं० भान(=प्रतीति), हिं० भान + ना (प्रत्य०)] समझना। अनुमान करना। जानना। उ०— भूत अपंची कृत औ कारज, इतनी सूछम सृष्टि पछान। पंचीकृत भूतन ते उपजेउ थूल पसारो सारो मान। कारण सूछम थूल देह अरु, पंचकोश इनहीं में जान। करि विवेक लखि आतम न्यारो, मूँज इर्ष्या काते ज्यों भान।— निश्चलदास (शब्द०)।

भानमती
संज्ञा स्त्री० [सं० भानुमती] वह नटी जो जादू का खेल करती हो। लाग का खेल करनेवाली स्त्री। जादूगरनी। उ०— जब वह भानमती का पेटारा खोल देता है तब सब कौतुक प्रगट होने लगते हैं।— कबीर मं०, पृ० ३३८। मुहा०— भानमती का कुनथा =बेमेल उपादानों से बनी वस्तु। भानमती का पिटारा= जिसमें तरह तरह की चीजें हों।

भानव
वि० [सं०] भानु संबंधी। सूर्य संबंधी [को०]।

भानवी
संज्ञा स्त्री० [सं० भानवीया] जमुना। उ०— देवी कोउ दानवी न मान हान होइ ऐसी, भानवी नहाव भाव भारती पठाई है।— केशव। (शब्द०)।

भानवीय (१)
वि० [सं०] भानु संबंधी।

भानवीय (२)
संज्ञा पुं० दाहिनी आँख।

भाना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० भान(=ज्ञान)] १. जान पड़ना। मालूम होना। उ०— मैं घर को ठाढ़ी हौ तिहारो को मों सर कटै आन। सोई लेहों जे मों मन भावै नंद महर की आन।—सूर (शब्द०)। २. अच्छा लगना। रुचना। पसंद आना। उ०— (क) महमद बाजी प्रेम की ज्यों भावै त्यों खेल। तेलहि फूलहि संग ज्यों होय फुलायल तेल।—जायसी (शब्द०)। (ख) गुन अवगुन जानत सब कोई। जौ जेहि भाव नीक तेहि सोई — तुलसी (शब्द०)। (ग) भावै सो करहू तो उदास भाव प्राणनाथ साथ लै चलहु कैसे लोक लाज बहनो।— केशव (शब्द०)। ३. शोभा देना। सोहना। फहना। उ०— तुम राजा चाहौ सुख पावा। जोगिहि भोग करत नहिं भावा।— जायसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—जाना।

भाना (२)
क्रि० स० [सं० भा(= प्रकाश)] चमकाना। उ०— कलकदंड दुई भूजा कलाई। जानहुँ फेरि कुँदेरे भाई।— जायसी (शब्द०)।

भानु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। यौ०—भानुजा। भानुतनया। भानुदिन। भानुभू। भानवार। आदि। २. विष्णु। ३. किरण। ४. मंदार। अर्क। ५. एक देवगंधर्व का नाम। ६. कृष्ण के एक पुत्र का नाम। ७. जैन ग्रंथों के अनुसार वर्तमान अवसर्पिणी के पंद्रहवें अर्हत् के पिता का नाम। ८. राजा। ९. उत्तम मग्वंतर के एक देवता का नाम। १०. प्रभा। प्रकाश (को०)। ११. शिव (को०)।

भानु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दक्ष की एक कन्या का नाम। पुराणा- नुसार यह धर्म वा मनु से ब्याही थी और इससे भानु वा आदित्य का जन्म हुआ था। २. कृष्ण की एक कन्या का नाम। ३. सुंदर स्त्री।

भानुकंप
संज्ञा पुं० [सं० भानुकम्प] ग्रहणादि के समय सूर्य के बिंब का काँपना। फलित ज्योतिष में यह अमंगलसूचक माना गया है।

भानुकेशर, भानुकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

भानुज
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० भानुजा] १. सूर्यपुत्र यम। २. शनैश्चर। ३. कर्ण।

भानुजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना।

भानुतनया
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना।

भानुतनूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना।

भानुदिन
संज्ञा पुं० [सं०] रविवार।

भानुदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. पाँचाल देश के एक राज- कुमार का नाम जो महाभारत में पांडवों की ओर से लड़कर कर्ण के हाथ मारा गया था।

भानुपाक
संज्ञा पुं० [सं०] औषध आदि को सूर्य की गर्मी या धूप की सहायता से पकाने की क्रिया।

भानुप्रताप
संज्ञा पुं० [सं०] रामायण के अनुसार एक राजा का नाम। यह कैकय देश के राजा सत्यकेतु का पुत्र था।विशेष— तुलसीकृत रामायण में इसकी कथा इस प्रकार दी है— अपने पिता द्वारा राज प्राप्त करने के बाद एक दिन प्रताप- भानु शिकार खेलने गया। इसे जंगल में एक सुअर देख पड़ा, इसने घोड़े को उसके पीछे डाल दिया। घने जंगल में जाकर सूअर कहीं छिप गया और राजा जंगल में भटक गया। उस जंगल में उसे एक तपस्वी का आश्रम मिला। वह तपस्वी राजा का एक शत्रु था जिसका राज्य इसने जीत लिया था। राजा प्यासा था और उसने तपस्वी को पहचाना न था। उससे उसने पानी माँगा। तपस्वी ने एक तालाब बतला दिया। राजा ने वहाँ जाकर जल पीकर अपना श्रम मिटाया। रात हो रही थी, इससे तपस्वी राजा को अपने आश्रम में ले गया। रात के समय दोनों में बातचीत हुई। तपस्वी ने कपट से राजा को अपनी मीठी मीठी बातों से वशीभूत कर लिया। भानुप्रताप उसकी बातें सुनकर उसपर विश्वास करके रात को वहीं आश्रम में सो रहा। तपस्वी ने अपने मित्र कालकेतु राक्षस को बुलाया। इसी ने सूकर बनकर राजा को भुलाया था। वह राजा को क्षणभर में उठाकर उसकी राजधानी में पहुँचा आया और उसके घोड़े को घुड़शाला में बाँध आया। साथ ही उस राजा के पुरोहित को भी उठाकर एक पर्वत की गुफा में बंद कर आया और पुरोहित का रूप धरकर उसके स्थान पर लेट रहा। सबेरे जब राजा जागा तो उसे मुनि पर विशेष श्रद्धा हुई। पुरोहित को बुलाकर राजा ने तीसरे दिन भोजन बनाने की आज्ञा दी और ब्राह्मणों को भोजन का निमंत्रण दिया। कपटी पुरोहित ने अनेक मांसों के साथ मनुष्य (ब्राह्मण) का मांस भी पकाया। जब ब्राह्मण लोग भोजन करने उठे राजा परोसने लगा तब इसी बीच में आकाशवाणी हुई कि तुम लोग यह अन्न मत खाओ, इसमें मनुष्य का मांस है। ब्राह्मण लोग आकाशवाणी सुनकर उठ गए और राजा को शाप दिया कि तुम परिवार सहित राक्षस हो। कहते हैं, वही राजा भानुप्रताप मरने पर रावण हुआ। (देखिए तुलसीकृत रामायण, बालघंड, दोहा १५३ से १७६)।

भानुफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] केला। —उ०— रँभा मोजा गजबसा भानुफला सुकुमार।—अनेकार्थ०, पृ० ३७।

भानुभू
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्य की पुत्री। यमुना।

भानुमत् (१)
वि० [सं०] १. दीप्तियुक्त। प्रकाशमान्। २. सुंदर।

भानुमत् (२)
संज्ञा पुं० १. सूर्य। २. कलिंग के एक राजा का नाम। ३. कृष्ण के एक पुत्र का नाम। ४. पुराणानुसार केशिध्वज के एक पुत्र का नाम। ५. भर्ग का एक नाम।

भानुमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विक्रमादित्य की रानी का नाम। यह राजा भोज की कन्या थी। यह अत्यंत रूपवती और इँद्रजाल विद्या की जानकार थी। २. अंगिरस की पहली कन्या का नाम। ३. दुर्यधिन की स्त्री का नाम। ४. सगर की एक स्त्री का नाम। ५. कृतवीर्य की कन्या का नाम जो अहंयाति से ब्याही थी। ६. गंगा। ७. जादूगरनी।

भानुमान् (१)
वि० [सं० भानुमत्] दे० 'भानुमत्'।

भानुमान् (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कोशल देश के एक राजा का नाम। यह दशरथ के श्वसुर थे।२. दे० 'भानुमत्'।

भानुमित्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु पुराण के अनुसार चंद्रगिरि के राजा के एक पुत्र का नाम। २. एक प्राचीन राजा का नाम। यह पुष्यमित्र के बाद गद्दी पर बैठा था।

भानुमुखी
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्यमुखी।

भानुवार
संज्ञा पुं० [सं०] रविवार। एतवार।

भानुसुत
संज्ञा पुं० [सं०] १. यम। २. मनु। ३. शनैश्चर। ४. कर्ण।

भानुसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] यमुना।

भानुसेन
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ण के एक पुत्र का नाम।

भानेमि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

भाप
संज्ञा स्त्री० [सं० वाष्प या वप्प] १. पानी के बहुत छोटे छोटे कण जो उसके खौलने की दशा में ऊपर को उठते दिखाई पड़ते हैं और ठढक पाकर कुहरै आदि का रूप धारण करते है। वाष्प। क्रि० प्र०—उठना।—निकलना। मुहा०—भाप लेना = औषधोपचार के पानी में कोई औषध आदि उबालकर उसके वाष्प से किसी पीड़ित अग को सेंकना। बफारा लेना। २. भौतिक शास्त्रानुसार घनीभूत वा द्रवीभूत पदार्थों की वह अवस्था जो उनके पर्याप्त ताप पाने पर प्राप्त होती है। विशेष— ताप के कारण ही घनीभूत वा ठोस पदार्थ द्रव होता तथा द्रव पदार्थ भाव का रूप धारण करता है। यौं तो भाप और वायुभूत वा अतिवाष्प (गैस) एक ही प्रकार के होते हैं। पर भाव सामान्य सर्दी और दबाव पाकर द्रव तथा ठोस हो जाती है और प्रायः वे पदार्थ जिनकी वह भाप है, द्रव वा ठोस रूप में उपलब्ध होते हैं। पर गैस साधारण सर्दी और दबाव पाने पर भी अपनी अवस्था नहीं बदलती। भाप दो प्रकार की होती है— एक आर्द्र, दूसरी अनार्द्र। आर्द्र भाप वह है जो अधिक ठढक पाकर गाढ़ी हो गई हो और अति सूक्ष्म बूँदों के रूप में, कहीं कुहरे, कहीं बादल आदि के रूप में दिखाई पड़े। अनार्द्र भाप अत्यंत सूक्ष्म और गैस के समान अगोचर पदार्थ है जो वायुमंडल में सब जगह अंशंशि रूप में न्यूनाधिक फैली हुई है। यहि जब अधिक दबाव वा ठढक पाती है, तब आर्द्र भाप बन जाती है। मुहा०— भाप भरना = चिड़ियों का अपने बच्चों के मुँह में मुँह डालकर फूँकना। (चिड़ियाँ अपने बच्चों को अंडे से निकलने पर दो तीन दिन तक उनके मुँह में दाना देने के पहले फूँकती हैं)।

भापना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भाँपना'।

भाफ
संज्ञा पुं० [सं० वाष्प] दे० 'भाप'।

भाबर
संज्ञा पुं० [सं० वप्र] एक घास का नाम जो हिमालय, राजपूताने,मध्य भारत, दक्षिण आदि में पहाड़ी प्रदेशों में होती है और रस्सी बनाने के काम आती है। अगिया। बनकस।

भाभर
संज्ञा पुं० [सं० वप्र] १. वह जंगल जो पहाड़ों के नीचे और तराई के बीच में होते हैं। यह प्रायः साखू आदि के होते हैं। २. एक प्रकार की घास जिसकी रस्सी बटी जाती है। यह पर्वतों पर होती है। इसे बनकस, बभनी, बबरी, बबई, आदि कहते हैं।

भाभरा पु †
वि० [हिं० भा + भरना] लाल। रक्ताभ। उ०— जाइस जवारे जूझा भाभरे भरत भोर, धाकरे धधल धाए मानत अमान कौं।— सूदन (शब्द०)।

भाभरी
संज्ञा स्त्री० [अनु०] १. गरम राख। पलका। २. कहारों की बोली में धूल जो राह में होती है। विशेष— जब राह में इतनी धूल होती है कि उसमें पैर धँस जायँ तो कहार अपने साथियो को भाभरी कहकर सचेत करते हैं।

भाभी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाई] बड़े भाई की स्त्री। भोजाई। उ०— (क) खइबे को कछु भाभी दीन्हों श्रीपति श्रीमुख बोले। फेंट ऊपर तें अंजुल तदुल बल करि हरिजू खाले।— सूर (शब्द०)। (ख) दै हौं सकों सिर तो कहँ भाभी पै ऊख के खेत न देखन जैहौं।— (शब्द०)।

भाभी ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भावी] दे० 'भावी'। उ०— रावन अस तेंतीस कोटि सब, एकछत राज करे। मिरतक बाँधि कूप में डारे भाभी सोच मरे।— घट०, पृ० ३६५।

भाम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रोध। २. प्रकाश। दीप्ति। ३. सूर्य। ४. बहनोई। ५. मंदार। अर्क (को०)। ६. एक वर्णवृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में भगण, मगण और अत में तीन सगण होते हैं (भ म स स स)।

भाम (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भामा] स्त्री। उ०— आनि पर भाम विधि बाम तेहि राम सों सकत संग्राम दसकंध काँधो।— तुलसी (शब्द०)। २. कृष्ण की पत्नी सत्यभामा का एक नाम (को०)।

भामक
संज्ञा पुं० [सं०] बहनोई।

भामता पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भावता] भावता। प्रियतम।

भामता (२)
संज्ञा स्त्री० भावती। प्रियतमा।

भामतीय
संज्ञा पुं० [हिं० भ्रमना] एक जाति का नाम। विशेष— इस जाति के लोग दक्षिण भारत में घूमा करते हैं और चोरी और ठगी से जीविका का निर्वाह करते हैं।

भामनी (१)
वि० [सं०] १. प्रकाशक। २. मालिक।

भामनी (२)
संज्ञा पुं० परमेश्वर।

भामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। उ०— वह सुधि आवत तोहि सुदामा। जब हम तुम बन गए, लकरियन पठए गुरु की भामा।— सूर (शब्द०)। २. क्रुद्ध स्त्री।

भामिन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भामिनी] दे० 'भामिनी'।

भामिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भामिनी] दे० 'भामिनी'।

भामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रोध करनेवाली स्त्री। २. स्त्री। औरत। उ०— सवँरई सो गुराई मिले छबि फबति सुनि समुझि भामिनी प्रीतिपन पागौ।— घनानंद, पृ० ४००।

भामी (१)
वि० [सं० भामिन्] १. क्रुद्ध। नाराज। २. सुंदर (को०)। ३. दीप्त। प्रदीप्त (को०)।

भामी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] तेज स्त्री।

भाय ‡ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भाई] भाई। उ०— सेमर केरा तूमरा सिहुले बैठा छाय। चोंच चहोरे सिर धुनै यह वाही को भाय।— कबीर (शब्द०)।

भाय (२)
संज्ञा पुं० [सं० भाव] १. अंतःकरण की वृत्त। भाव। उ०— (क) भाय कुमाय अनख आलस हू। नाम जपत मंगल दिसि दसहू।— तुलसी (शब्द०)। (ख) गोविंद प्रीति सबन की मानत। जेहि जेहि भाय करी जिन सेवा अंतरगत की जानत।— सूर (शब्द०)। (ग) चितवनि भोरे भाय की गोरे मुँह मुसकानि। लगनि लटकि आली करै चित खटकति नित आनि।—बिहारी (शब्द०)। २. परिमाण। उ०— भक्ति द्वार है साँकरा राई दसवें भाय। मन तौ मयगल ह्वै रह्यो कैसे होय सहाय।— कबीर (शब्द०)। ३. दर। भाव। उ०— भले बुरे जहँ एक से तहाँ न बसिए जाय। क्यों अन्याय- पुर में बिके खर गुर एकै भाय।— लल्लू (शब्द०)। ४. भाँति। ढंग।—उ०— (क) लखि पिय बिनती रिस भरी चितवै चंचल गाय। तब खंजन से दृगन में लाली अति छवि छाय।— मतिराम (शब्द०)। (ख) सोहत अंग सुभाय के भूषण, भौंर के भाय लसै लट छूटी।— नाथ (शब्द०)। (ग) ससि लखि जात विदित कहो जाय कमल कुह्मिलाय। यह ससि कुम्हिलानो अहो कमलहि लखि केहि भाय।— शृंगार स० (शब्द०)।

भायप
संज्ञा पुं० [हिं० भाई + प= पन (प्रत्य०)] भाईपन। भ्रातृभाव। भाईचारा। उ०— भायप भगति भरत आचरनू। कहत सुनत दुख दूषन हरनू।— तूलसी (शब्द०)।

भाया
वि० [हिं० भाना(=रुचना)] जो अच्छा जान पड़े। प्रिय। प्यारा। उ०— (क) शुक्र ताहि पढ़ि मंत्र जियायो। भयो तासु तनया को भायो।— सूर (शब्द०)। (ख) हमतो इतने ही सचु पायो। रजक धेनु गज केस मारि कै कियो आपनो भायो। महाराज होइ मातु पिता मिलि तऊ न ब्रज बिसरायो।— सूर (शब्द०)। (ग) हमरी महिमा देखन आयौ। होउ सबै अब वाको भायो।— नंद० ग्रं०, पृ० २६५।

भारंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० भारङ्गी] एक प्रकार का पौधा। बम्हनेटी। भृंगजा। असवरग। विशेष— यह बौधा मनुष्य के बराबर ऊँचा होता है। इसकी पत्तियाँ महुए की पत्तियों से मिलती हुई, गुदार और नरम होती हैं और लोग उनका साग बनाकर खाते हैं। इसका फूल सफेद होता है। इसकी जड़, डंठल, पत्ती और फल सब औषध के काम आते हैं। इसके फूल को 'गुल असवर्ग' कहते हैं। इसकी पत्तियों का प्रयोग ज्वर, दाह, हिचकी औरत्रिदोष में होता है। वैद्यक में इसके मूल का गुण गरम, रुचिकर, दीपन लिखा है और स्वाद कड़वा और कसैला, चरपरा और रूखा बतलाया है जिसका प्रयोग ज्वरा, श्वास, खाँसी और गुल्मादि में होता है। पर्या०—असबरग। ब्राह्मणी। पद्मा। भृंगजा। अंगारवल्लरी। ब्राह्मयष्टी। कंजी। दूर्वा।

भारंड
संज्ञा पुं० [सं० भारण्ड] एक पक्षी [को०]।

भार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक परिमाण जो बीस पसेरी का होता है। २. विष्णु। ३. बोझ। क्रि० प्र०—उठाना।—ढोना।—रखना।—लादना। ४. वह बोझ जिसे बहँगी के दोनों पल्लों पर रखकर कंधे पर उठाकर ले जाते हैं। उ०— मीन पीन पाठीन पुराना। मरि भरि भार कहाँरन आना।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—उठाना।—काँधना।—ढोना।—भरना। ५. सँभाल। रक्षा। उ०— पर घर गोपन ते कहेउ कर भार जुरावहु। सूर नृपति के द्वार पर उठि प्रात चलावहु।— सुर (शब्द०)। ६. किसी कर्तव्य के पालन का उत्तरदायित्व। जिम्मेदारी। मुहा०—किसी का भार उठाना =किसी का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लेना। भार उतारना =(१) कर्तव्य पूरा करना। (२) ज्यों त्यों किसी काम को पूरा करना। बला टालना। बेगार टालना। भर देना व डालना=बोझ रखना। बोझ डालना। उ०— मंजुल मंजरी पै हो मनिंद विचारि के भार सम्हारि कै दीजिए।—प्रताप (शब्द०)। ७. ढोल या नगाड़ा बजाने की एक पद्धति (को०)। ८. बहँगी जिसपर बोझ उठाते हैं (को०)। ९. कठिन काम (को०)। १०. आश्रय। सहारा। बल। उ०— दोहूँ खंभ ठेक सब मही। दुहुँ के भार सृष्टि सभ रही — जायसी (शब्द०)।

भार (२)
संज्ञा सं० [हिं० भाड़] दे० 'भाड़'।

भारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. भार नाम की तौल। २. भार। बोझ [को०]।

भारकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दाई। धाई।

भारक्षम
वि० [सं०] बोझ या जिम्मेदारी बहन करने में समर्थ [को०]।

भारग
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वतर। बेसर। खच्चर [को०]।

भारजा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भार्या] दे० 'भार्या'। उ०— जानै पर के गुन सबै महत पुरुष को संग। विद्या अपनी भारजा तिनमें मन कौ रंग।— ब्रज० ग्रं०, पृ० ७७।

भारजीवी
संज्ञा पुं० [सं० भारजीविन्] मोटिया। भारवाहक [को०]।

भारत
संज्ञा पुं० [सं०] १. महाभारत का पूर्वरूप वा मूल जो २४००० श्लोकों का था। वि० दे० 'महाभारत'। २. एक भूभाग (देश= वर्ष) का नाम। यह पुराणानुसार जंबु द्वीप के नौ वर्षों के अंतर्गत है। वि० दे० 'भारतवर्ष'। यौ०— भारतखंड। भातजात। भारतमंडल। भारतमाता। भारतरत्न। भारतवर्ष। भारतवासी। भारसंतान। भारतसावित्री। ३. नट। ४. भरत मुनि प्रणीत नाटयशास्त्र (को०)। ५. अग्नि। ६. सूर्य का एक नाम जब वे मेरु के दक्षिण होते हैं। दक्षि- णायन सूर्य (को०)। ७. भरत गोत्र में उत्पन्न पुरुष। ८. लंबा चौड़ा विवरण। कथा। उ०— गोकुल के कुल के गली के गोय गायन के जौ लगि कछू को कछू भारत भनै नहीं।— पदमाकर (शब्द०)। १. घोर युद्ध। घमासान लड़ाई। उ०— घरी एक भारत भाभा असवारन्ह मेल। जूझि कुवँर सब निबटे गोरा रहा अकेल।— जायसी (शब्द०)।

भारतखंड
संज्ञा पुं० [सं० भारतखण्ड] दे० 'भारतवर्ष'।

भारतजात
वि० [सं०] भारतवर्ष में उत्पन्न।

भारतमंडल
संज्ञा पुं० [सं० भारतमण्डल] दे० 'भारतवर्ष' [को०]।

भारतरत्न
संज्ञा पुं० [सं० भारत + रत्न] स्वतंत्र भारत की सरकार द्वारा दिया जानेवाला एक सर्वोच्च सम्मान।

भारतवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार जंबू द्वीप के अंतर्गत नौ वर्षों या खंडों में से एक जो हिमालय के दक्षिण ओर गंगोत्तरी से लेकर कन्याकुमारी तक और सिंधु नदी से ब्रह्मपुत्र तक फैला हुआ है। आर्यावर्त। हिंदुस्तान। विशेष— ब्रह्मपुराण में इसे भरतद्वीप लिखा है और अंग, यव, मलय, शंख, कुश और बाराह आदि द्वीपों को इसका उपद्वीप लिखा है जिन्हें अब अनाम, जावा, मालाय, आस्ट्रेलिया आदि कहते हैं और जो भारतीय द्वीपपुंज के अँर्तगत माने जाते हैं। ब्रह्मांडपुराण में इसके इंद्रद्वीप, कशेरु, ताम्रपर्ण, गभस्ति- मानु, नागद्वीप, साम्य, गंधर्व और वरुण ये नौ विभाग बतलाए गए हैं और लिखा है कि प्रजा का भरण पोषण करने के कारण मनु को भरत कहते हैं। उन्हीं भरत के नाम पर इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। कुछ लोगों का मत है कि दुष्यतं के पुत्र भरत के नाम पर इस देश का नाम 'भारत' पड़ा। इसी प्रकार भिन्न-भिन्न पुराणों में इस संबंध में भिन्न-भिन्न बातें दी हैं।

भारतवर्षीय
वि० [सं०] भारत का। भारत संबंधी।

भारतसवित्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] महाभारत के अनुसार एक स्तोत्र या स्तुति [को०]।

भारतानंद
संज्ञा पुं० [सं० भारतानन्द] ताल के साठ मुख्य भेदों में से एक भेद का नाम। (संगीत)।

भारति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भारती] १. सरस्वती। २. वाणी। उ०— मति भारति पंगु भई जो निहारि, बिचारि फिरी उपमान सबै।— तुलसी (शब्द०)।

भारती
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वचन। वाणी। २. सरस्वती। ३. एक पक्षी का नाम। ४. एक वृत्ति का नाम। इसके द्वारा रौद्र और बीभत्स रस का वर्णन किया जाता है। यह साधु वा संस्कृत भाषा में होती है। ५. ब्राह्मी। ६. संन्यासियों के दस नामों से एक। ७. एक नदी का नाम। ८. नाटय कला।(को०)। ९. मंडन मिश्र की पत्नी का नाम जिसने शंकराचार्य से शास्त्रार्थ किया था।

भारतीकरण
संज्ञा पुं० [सं० भारतीय + करण] किसी वस्तु या संस्था को भारतीय बनाना अर्थात् उसमें भारतीय तत्वों या भारत- वासियों का आधिक्य करना। जैसे, सेना का भारतीकरण।

भारती तीर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] एक तीर्थ का नाम।

भारतीय
वि० [सं०] १. भारत संबंधी। भारत का। जैसे, भारतीय चित्रकला, भारतीय दर्शन आदि। २. भारत का रहनेवाला। भारत का निवासी। यौ०—भारतीयकरण = दे० 'भारतीकरण'।

भारतुला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वास्तु विद्या के अनुसार स्तंभ के नौ भागों में से बाँचवाँ भाग जो बीच में होता है।

भारतेंदु
संज्ञा पुं० [सं० भारतेन्दु] १. भारतवर्ष का चंद्रमा। २. हिंदी गद्य के प्रवर्तक हरिश्चद्र जी (संवत् १९०७-१९४१) को उनकी विविध रचनाओं और हिंदीसेवा पर जनता द्वारा संमानार्थ प्रदत्त उपाधि जो कालांतर में उनके नाम का पर्याय हो गई।

भारथ पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भारत] १. दे० 'भारत'। २. युद्ध। संग्राम। उ०— भारथ होय जूझ जो ओधा। होंहि सहाय आय सब जोधा।— जायसी (शब्द०)। ३. अर्जुन का एक संबोधन।

भरथ (२)
संज्ञा [सं०] भारद्वाज नामक पक्षी। भरदूल [को०]।

भारथी
संज्ञा पुं० [सं० भारत] योद्धा। सिपाही। उ०— भयउ अपूर्व सीस कढ़ कोपी। महा भारथी नाउँ अलोपी।— जायसी (शब्द०)।

भारथ्थ पु †
संज्ञा पुं० [सं० भारत] लड़ाई। युद्ध। संवर्ष। उ०— प्रिय ए, ऊँमरस सूमरउ, करिस्यइ थाँ भारथ्थ।— ढोला०, दू० ३६३।

भारदड (१)
संज्ञा पुं० [सं० भारदण्ड] १. एक प्रकार का साम। २. भारयष्टि। बहँगी।

भारदंड (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भार + दंड] एक प्रकार का दंड। एक प्रकार की कसरत। विशेष— इसमें दंड करनेवाला साधारण दंड करते समय अपनी पीठ पर एक दूसरे आदमी को बैठा लेता है। वह पुरुष उसके पैरों की नली पर पाँव जमाकर हाथीं से उसकी कमर की करधनी या बंधन पकड़कर भुका रहता है और दंड करनेवाला उसका बोझ सँभाले हुए साधारण रीति ते दंड करता जाता है।

भारद्वाज
संज्ञा पुं० [सं०] १. भरद्वाज के कुल में उत्पन्न पुरुष। २. द्रोणाचार्य। ३. मंगल ग्रह। ४. भरदूल नामक पक्षी। उ०— भारद्वाज सुपंषी उभयं मुख उद्दरँ एक।—पृ० रा०, भा० २, पृ० ५१९। ५. बृहस्पति के एक पुत्र का नाम। ६. अगस्त्य ऋषि (को०)। ७. एक देश का नाम। ८. हड्डी। ९. एक ऋषि का नाम जिनका रचा हुआ श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र है। १०. कौटिल्य द्वारा निर्दिष्ट एक ग्रंथकार जिन्होंने अर्थ- शास्त्र पर ग्रंथ लिखा था (को०)।

भारद्वाजकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारद्वाज पक्षी। भरदूल [को०]।

भारद्वाजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी का नाम। २. जगली कपास की झाड़ा [को०]।

भारना पु
क्रि० स० [हिं० भार] १. बोझ लादना। भार डालना। बोझना। लादना। २. दबाना। भार देना। उ०—आपुन तरि तरि औरन तारत। असन अचेत पखान प्रगट पानी में बनकर डारत। इहि बिधि उपलै सुतरु पातु ज्यों तदपि सेन अत भारत। बूड़ि न सकत, सेतु, रचना रचि राम प्रताप बिचारत।—सूर (शब्द०)।

भारभारी
वि० [सं० भारभारिन्] बोझ उठानेवाला। बोझ ढोनेवाला।

भारभूत
वि० [सं०] बोझ रूप। कष्टप्रद। उ०—यह पल्ला यह पट यह अंचल भारभूत हो जाएँगे सब।—क्वासि, पृ० ८।

भारभृत्
वि० [सं०] भार धारण करनेवाला। बोझ ढोनेवाला।

भारय
संज्ञा पुं० [सं०] भारद्वाज नामक पक्षी। भरदूल।

भारयष्टि
संज्ञा पुं० [सं०] बहँगी।

भारव
संज्ञा पुं० [सं०] धनुष की रस्सी। ज्या।

भारवाह
वि० [सं०] १. भार ले जानेवाला। २. बहँगी ढोनेवाल।

भारवाहक (१)
वि० [सं०] बोझ ढोनेवाला।

भारवाहक (२)
संज्ञा पुं० मोटिया।

भारवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बोझ ढोने की क्रिया या भाव। २. गाड़ी जिसपर सामान लादा जाय (को०)। लद्दू पशु (को०)।

भारवाहिक (१)
वि० [सं०] भारवाहक। भर ढोनेवाला।

भारवाहिक (२)
संज्ञा पुं० मोटिया। मजदूर।

भारवाही (१)
वि० [सं० भारवाहिन्] [स्त्री० भारवाहिनी] भारवाह। बोझ ढोनेवाला। उ०—आकर्षण विहीन विद्युत्कण बने भारवाही थे भृत्य।—कामायनी, पृ० २०।

भारवाही (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीली।

भारवि
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन कवि जो किराताजु नीय नामक महाकाव्य के रचयिता थे। विशेष—भारवि के जन्म और निवासस्थान आदि के संबंध में अभी तक कोई पता नहीं लगा। कहते हैं, ये अपने गुरु की गोएँ लेकर हिमालय की तराई में चराने जाया करते थे वहीं प्राकृतिक शोक्षा देखकर इसमें कविता करते की स्फूर्ति हुई थी ।

भारवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तुलसी (को०)।

भारशिव
संज्ञा पुं० [सं० भार + शिव] भारतवर्ष का एक प्राचीन राजवंश। उ०—भारशिव नाम इसलिये पड़ा कि ये शिव के परम भक्त थे और अपनी पीठ पर शिवलिंग का भार वहन करते थे।—आ० भा०, पृ० ३४५। विशेष—चतुर्थ शती के आरंभ में, कुषाणों से पूर्व, प्रयाग से बनारस तक भारशिव राजवंश का उल्लेख मिलता है। संभवतः बुंदेलखड अंचल से इस राजवंश का उदय हुआ। इस राजवंश में भवनाथ तथा वीरसेन आदि प्रमुख शासक हुए हैं। नागवश के रूप के भो इसका उल्लेख मिलता है।नागपूजक होने के साथ ही ये शिवभक्त थे ओर शिवभक्ति का भार वहन करने के कारण इनका नाम भारशिव पड़ा। कुछ शिलालेखों में भी इनका उल्लेख पाया जाता है। इन्होने काशी में अश्वमेध यज्ञ भी किया था।

भारसह, भारसाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो भारी बोझ उठाने में समर्थ हो। २. वह जो अत्यंत मजबू्त ओर शक्तिशाली हो। ३. गदंभ। गदहा [को०]।

भारहर, भारहार
संज्ञा पुं० [सं०] बोझा उठा़नेवाला। मोटिया। मजदूर।

भारहारी
संज्ञा पुं० [सं० भारहारिन्] पृथ्वी का भार उतारनेवाले, विष्णु।

भारा † (१)
वि० [सं० भार] दे० 'भारी'। उ०—(क) रहे तहाँ निसिचर भट भारे। ते सब सुरन्ह समेत सँहारे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जे पद पद्म सदाशिव के धन सिंधु सुता उतरे नहिं टारे। जे पद पद्म परसि अति पावन सुरसरि दरस कटत अघ भारे।—सूर (शब्द०)।

भारा (२)
संज्ञा पुं० १. दे० 'भाड़ा'। २. दे० 'भार'।

भाराक्रांता
वि० [सं० भाराक्रान्त] बोझ से दबा हुआ [को०]।

भाराक्रांता
संज्ञा स्त्री० [सं० भाराक्रान्ता] एक पर्णिक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में न भ न र स और एक लघु और एक गुरु होते हैं और चौथे, छठे तथा सातवें वर्ण पर यति होती है।

भारावतरण, भारावतारण
संज्ञा पुं० [सं०] बोझ उतरना या उतारना।

भारावलंबकत्व
संज्ञा पुं० [सं० भारावलम्बकत्व] पदार्थों के परमाणुओं का पारस्परिक आकर्षण। विशेष—बहुतेरे पदार्थों के परमाणुओं का परस्पर आकर्षण ऐसा रहता है जो उन पदार्थों को दोनों और से खींचने में प्रतिबाधक होता है जिससे वह टूट नहीं सकते। इसी धर्म को भारावलंबकत्व कहते हैं।

भारा
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह।

भारिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] बोझ ढोनेवाला मजदूर।

भारिक (२)
वि० १. बोझ ढोकवाला। २. भारी [को०]।

भारी
वि० [सं० भारिन्, भार + ई] १. जिसमें भार हो। जिसमें अधिक बोझ हो। गुरु। बोझिल। उ०—(क) लपटहिं कोप पटहिं तरवारी। औ गोला ओला जस भारी।—जायसी (शब्द०)। (ख) भारी कहो तो नहिं डरूँ हलका कहूँ तो झीठ। मैं क्या जानूँ राम को नैना कछू न दीठ।—कबीर (शब्द०)। मुहा०—पेट भारी होना =पेट में अरुच होना। खाए हुए पदार्थों का ठीक तरह से न पचना। पेट भारी होना =गर्भिणी होना। पेट से होना। सिर भारी होना = सिर में पीड़ा होना। गला या आवाज भारी होना वा भारी पड़ना =गला पड़ना। गला बैठना। मुँह से ठीक आवाज न निकलना। भारी रहना =(१) नाव का रोकना (मल्लाह)। (२) धीरे चलना (कहार)। २. असह्य। कठिन। कराल। भीषण। उ०— (क) भरि भादों दुपहर अति भारी। कैसे रैन अँधियारी। — जायसी (शब्द०)। (ख) पुनि नर राव कहा करि भारी। वोल्यो सभा बीच व्रतधारी। — गोपाल (शब्द०)। (ग) गगन निहारि किलकारी भारी. सुनि हनुमान पहिचानि भए सानँद सचेत हैं।— तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०— लगना। ३. विशाल। बड़ा। वृहत्। महा। उ०— (क) दीरघ आयु भूमिपति भारी। इनमें नाहिं पदमिनी नारी। — जायसी (शब्द०)। (ख) जपहिं नाम जन आरति भारी। मिटहिं कुसँकठ होहिं सुखारी। — तुलसी (शब्द०)। (ग) जैसे मिटइ मोर भ्रम भारी। कहहु सो कथा नाथ बिस्तारी।— तुलसी (शब्द०)। मुहा०— बडा़ भारी = बहुत बहुत। भारी भरकम या भड़कम = बहुत बड़ा और भारी। जिसमें अधिक माल मसाला लगा हो और जो फलतः अधिक मूल्य का हो। बहमूल्य। जैसे; भारी जोड़ा, भारी गठरी। ४. अधिक। अत्यंत। बहुत। उ०— (क) तू कामिनी क्यौं धीर धरत है यह अचरज मोहिं भारी। — भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५१२। (ख) छोंकर के वृक्ष पर बटुवा झुलाइ दियो, कियो जाय दरशन, सुख भयो भारिये। — भक्तमाल, पृ० ५१९। (ग) यह सुनि गुरु बानी धनु गुन तानी जानी द्विज दुख दानि। ताड़ का सँहारी दारुण भारी नारी अतिबल जानि। — केशव (शब्द०)। ५. असह्य। दूभर। जैसे,— मेरा ही दम उन्हें भारी है। क्रि० प्र०— पड़ना।—लगना। ६. सूजा हुआ। फूला हुआ। जैसे, सुँह भीर होना। ७. प्रबल। जैसे,— वह अकेला दस पर भारी है। ८. गंभीर। शांत। मुहा०— भारी रहना = चुप रहना।(दलाल)।

भारीट
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी।

भारीपन
संज्ञा पुं० [हिं० भारी + पन (प्रत्य०)] १. भारी का भाव। गुरुत्व। २. गरिष्ठता। भारी होना।

भारुंड
संज्ञा पुं० [सं० भारुण्ड] रामायण के अनुसार एक वन का नाम जो पंजाब में सरस्वती नदी के पास पूर्व में था।

भारुंडि
संज्ञा पुं० [सं० भारुणिड़] १. एक प्रकार का साम। (गान)। २. एक ऋषि का नाम जो भारुंडि साम के द्रष्टा थे। ३. एक पक्षी का नाम। पुराणानुसार यह उत्तर कुरु का रहनेवाला है।

भारुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अविवाहित वैश्या और वैश्य व्रात्य से उत्पन्न पुत्र। २. शक्ति का उपासक। शक्ति की उपासना करनेवाला [को०]।

भारु
संज्ञा पुं० [हिं० भारी] धीरे चलने के लिये एक संकेत जिसका ब्यवहार कहार करते हैं।

भरुप
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्म। २. आत्मा [को०]।

भारोढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बोझ ढोना। भार वहन करना [को०]।

भरोद्वह (१)
वि० [सं०] भर ले जानेवाला।

भारोद्वह (२)
संज्ञा पुं० मोटिया। मजदूर।

भारौही
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारवाहिका [को०]।

भार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] भर्ग देश का राजा [को०]।

भार्गव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भृगु के वंश में उत्पन्न पुरुष। २. परशुराम। ३. शुक्राचार्य। ४. एक देश का नाम। यह मार्कंडेय पुराण के अनुसार भारतवर्ष के अंतर्गत पूर्व ओर है। ५. मार्कंडेय। ६. श्योनाक। ७. कुम्हार। ८. नीला भँगरा। ९. हीरा। १०. गज। हाथी। ११. एक उपपुराण का नाम। १२. जमदग्नि। १३. च्यवन। १४. भविष्य- वक्ता। दैवज्ञ। ज्योतिषी (को०)। १५. शिव (को०)। १६. धनुर्धर (को०)। १७. एक जाति जो संयुक्त प्रदेश के पश्चिम में पाई जाती है। विशेष— इस जाति के लोग अपने आपको ब्राह्मण कहते हैं, पर इनकी वृत्ति बहुधा वैश्यों की सी होती है। कुछ लोग इन्हें ढूमर बनिया भी कहते हैं।

भार्गव (२)
वि० भृगु संबंधी। भृगु का। जैसे, भागंव अस्त्र।

भार्गवक
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा [को०]।

भार्गवन
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार द्वारका के एक वन का नाम।

भार्गवप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा।

भार्गवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पार्वती। २. लक्ष्मी। ३. दूर्वा। दूब। ४. नीली दूब। ५. सफेद दुब।६. शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी (क०)। ७. उड़ीसा देश की एक नदी का नाम।

भार्गवीय
वि० [सं०] भृगु संबंधी।

भार्गवेश
संज्ञा पुं० [सं० भार्गव + ईश] परशुराम। उ०—अमेय तेज भर्ग भक्त भार्गवेश देखिऐ।—केशव (शब्द०)

भार्गायन
संज्ञा पुं० [सं०] भर्ग के गोत्र के लोग।

भार्गी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी।

भार्ङ्गी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारंगी।

भार्द्वाजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भारद्वाजी। बनकपास।

भार्य (१)
वि० [सं०] भरण पोषण करने के योग्य।

भार्य (२)
संज्ञा पुं० १. सेवक। नौकर। २. सैनिक। आयुधजीवी [को०]।

भार्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पत्नी। जाया। जोरु। स्त्री। उ०— उठा पिता के भी विरुद्ध मैं, किंतु आर्य भार्या हो तुम।— साकेत, पृ० ३८४।

भार्याजित
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पति जो पत्नीभक्त हो। जोरु का गुलाम। २. एक प्रकार का हिरन।

भार्याट
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो किसी दूसरे पुरुष क भोग के लिये अपनी स्त्री दे। अपनी स्त्री को दूसरे पुरुष के पास भेजनेवाला मनुष्य।

भार्याटिक (१)
वि० [सं०] जो अपनी भार्या में बहुत अनुरक्त हो। स्त्रैण।

भार्याटिक (२)
संज्ञा पुं० १. एक मुनि का नाम। २. एक प्रकार का हिरन।

भार्यात्व
संज्ञा पुं० [सं०] भार्या होने का भाव। पत्नीत्व।

भार्यारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मृग। २. एक पर्वत का नाम। २. जारज पुत्र का बाप। परस्त्री में उत्पन्न पुत्र का पिता (को०)।

भार्यावृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पतंग नाम क वृक्ष।

भार्यासौश्रुत
वि० [सं०] स्त्री के वश में रहनेवाला।

भाश्यँ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आधिक्य। प्रकर्षता। २. प्रबलता। तीव्रता [को०]।

भाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भवों के उपर का भाग। कपाल। ललाट। मस्तक। माथा। उ०— (क) भाल गुही गुन लाला लटै लपटी लर मोतिन की सुखदेनी। — केशव (शब्द०)। (ख) कानन कुंडल विशाल, गोरोचन तिलक भाल ग्रीवा छबि देखि देखि शोभा अधिकाई। (शब्द०)। २. तेज। ३. अंधकार। तम (को०)।

भाल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भाला] १. भाला। बरछा। उ०— (क) भाल बाँस खाँड़े वह परहीं। जान पखाल बाज के चढ़हीं।— जायसी (शब्द०)। (ख) भलपति बैठ भाल लै और बैठ धनकार। — जायसी (शब्द०)। २. तीर का फल। तीर की नोक। गाँसी। उ०— खौरि पनिच भृकुटी धनुष बधिक समरु तजि कानि। हनतु तरुन मृग तिलक सर सुरक भाल भरि तानि। — स० सप्तक, पृ० ६९।

भाल (१)
संज्ञा पुं० [सं० भल्लुक] रीछ। भालू। उ०— तहाँ सिंह बहु श्वान बृक सर्प गीध अरु भाल। — विश्राम (शब्द०)।

भालचंद्र
संज्ञा पुं० [सं भालचन्द्र] १. महादेव। २. गणेश।

भालचंद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० भालचन्द्रा] दुर्गा।

भालदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंदूर। सेंदुर। २. शिव (को०)।

भालदर्शी
वि० [सं०] जो किसी की भौं देखता रहे। जैसे, मालिक के इशारे पर दौडनेवाला नोकर [को०]।

भालना
क्रि० स० [?] १. ध्यानपूर्वक देखना। अच्छी तरह देखना। जैसे, देखना भालना। २. ढूँढ़ना। तलाश करना।

भालनेत्र, भाललोचन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव जिनके मस्तक में एक तीसरा नेत्र है।

भालवी
संज्ञा पुं० [सं० भल्लुक] रीछ। भालू (डिं०)।

भालांक
संज्ञा पुं० [सं०] १. करपत्र नामक अस्त्र। २. एक प्रकार का साग। ३. रोहित मछली। ४. कछुवा। ५. शिव। ६. ऐसा मनुष्य जिसके भाल या शरीर में बहुत अच्छे अच्छे लक्षण हों। (सामुद्रिक)।

भाला
संज्ञा पुं० [सं० भल्ल] वरछा नाम का हथियार। साँग। नेजा।

भालाबरदार
संज्ञा पुं० [हिं० भाला + फ़ा० बरदार] बरछा चलानेवाला। बरछैत।

भालि (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाला का स्त्री अल्पा०] १. बरछी। साँग। २. शूल। काँटा। उ०— (क) बापुरी मंजुल अंब की डार सु भालि सी है उर में अरती क्यों। — देव (शब्द०)। (ख) प्यारे के मरने को मूखँ लोग हृदय में गडी़ हुई भाली मानेत हैं। — लक्ष्मण सिंह (शब्द०)।

भालि (२)
संज्ञा पुं० [हिं० भाल] दे० 'भालू'। उ०— भालि बीर बाराह हक्की बज्जी चार्वाद्दसि। मुक्कि यान पँचान मिले सूर संमूह धसि।— पू० रा०, १७।२।

भालिया
संज्ञा पुं० [देश०] वह अन्न जो हलवाहे को वेतन में दिया जाता है। भाता।

भाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाला] १. भाले की गाँसी या नोक। उ०— जब वह सुरति होति उर अंतर लागति काम बाण की भाली। — सूर (शब्द०)। २. शूल। काँटा। उ०— कहा री कहौं कछु कहत न बनि आवै लगी मरम की भाली। री।— सूर (शब्द०)।

भालु (१)
संज्ञा पुं० [सं० भालुक] दे० 'भालू'।

भालु (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

भालुक
संज्ञा पुं० [सं०] भालू। रीछ।

भालुनाथ
संज्ञा पुं० [हिं० भालू + सं०नाथ] जामवंत। जांब- वान। उ०— भालुनाथ नल नील साथ चले बली बालि को जायो। —तुलसी (शब्द०)।

भालू
संज्ञा पुं० [सं० भल्लुक] एक प्रसिद्ध स्तनपायी भीषण चौपाया जो प्रायः सारे संसार के बड़े बड़े जंगलों और पहाड़ों में पाया जाता है। रीछ। विशेष— आकार और रंग आदि के विचार से यह कई प्रकार का होता है। यह प्रायः ४ फुट से ७ फुट तक लंबा और २ १/२ फुट से ४ फुट तक ऊँचा होता है। साधारणतः यह काले या भूरे रंग का होता है और इसके शरीर पर बुहत बड़े बड़े बाल होते हैं। उत्तरी ध्रुव के भालू का रंग प्रायः सफेद होता है। यह मांस भी खाता है और फल, मूल आदि भी। यह प्रायः दिन भर माँद में सोया रहता है और रात के समय शिकार की तलाश में बाहर निकलता है। भारत में प्रायः मदारी इसे पकड़कर नाचना और तरह तरह के खेल करना सिखलाते हैं। इसकी मादा प्रायः जाड़े के दिनों में एक साथ दो बच्चे देती है। बहुत ठंढे देशों में यह जाड़े के दिनों में प्रायः भूखा प्यासा और मुरदा सा होकर अपनी माँद में पड़ा रहता है। और वसंत ऋतु आने पर शिकार ढूँढ़ने निकलता है। उस समय यह और भी भीषण हो जाता है। यह शिकार के पीछे अथवा फल आदि खाने के लिये पेड़ों पर भी चढ़ जाता है। जंगल में यह अकेले दुकेले मनुष्यों पर भी आक्रमण करने से नहीं चूकता।

भालूक
संज्ञा पुं० [सं०] भालू।

भाल्लुक, भाल्लूक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भालू'।

भावंता पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भावना या भाना (= प्रिय लगना)] प्रेमपात्र। प्रिय। प्रीतम। उ०— (क) इहि बिधि भावंता बसौ हिलि मिलि नैनन माहि। खैचे दृग पर जात है मन कर प्रीतम बाँहि।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) जाते ससि तुव नुख लखै मेरो चित्त सिहाय। भावंता उनिहार कछु तो में पैयत आय।— रसनिधि (शब्द०)।

भावंता (२)
संज्ञा पुं० [सं० भ्वी] होनहार। भावी। उ०— आगे जस हमोर मतमंता। जो तस करेसि तोर भावता।— जायसी (शब्द०)।

भावँर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की घास जिससे कागज बनता है।

भावँर (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भाँवर'।

भाव
संज्ञा पुं० [सं०] सत्ता। अस्तित्व। हाना। अभाव का उलटा। २. मन में उत्पन्न होनेवाला विकार या प्रवृत्ति। विचार। ख्याल। जैसे,— (क) इस समय मेरे मन में अनेक प्रकार के भव उठ रहे हैं। (ख) उस समय आपके मन का भाव आपके चेहरे पर झलक रहा था। ३. अभिप्राय। तात्पर्य। मतलब। जैसे,— इस पद का भाव समझ में नहीं आता। ४. मुख की आकृति या चेष्टा। ५. आत्मा। ६. जन्म। ७. चित्त। ८ पदार्थ। चीज। ९. क्रिया। कृत्य। १०. विभूति। ११. विद्वान्। पडित। १२. जंतु जानवर। १३. रति आदि क्रिड़ा। विषय। १४. अच्छी तरह देखना। पर्यालोचन। १५. प्रेम। मुहब्बत। उ०— रामहि चितव भाव जेहि सीया। सो सनेह मुख नहिं कथनीया। — तुलसी (शब्द०)। १६. किसी धातु का अर्थ। १७. योनि। १८. उपदेश। १९. संसार। जगत्। दुनिया। २०. जन्मसमय का नक्षत्र। २१. कल्पना। उ०— जैसे भाव न संभवै तैसे करत प्रकास। होने असंभावित तहाँ उपमा केशवदास। — केशव (शब्द०)। २२. प्रकृति। स्वभाव। मिज्ज। १६. अंतःकरण में छिपी हुई कोई गूढ़ इच्छा। २०. ढंग। तरीका। उ०— देखा चाँद सूर्य जस साजा। सहसहिं भाव मदन तन गाजा। — जायसी (शब्द०)। २५० प्रकार। तरह। उ०— गुरु गुरु में भेद है, गुरु गुरु में भाव। —कबीर (शब्द०)। २६. दशा। अवस्था। हालत। २७. भावना। २८. विश्वास। भरोसा। उ०— अभू लगि जावों घर कैसे कैसे आवे डर बोली हरि जानिए न भाव पै न आयो है। — प्रियादास (शब्द०)। २९. आदर। प्रतिष्ठा। इज्जत। उ०— कहा भयौ जो सिर धरयौ तुम्हें कान्ह करि भाव। पंखा बिनु कछु और तुम यहाँ न पैहो नाव। — रसनिधि (शब्द०)। ३०. किसी पदार्थ का धर्मगुरु। ३१. उद्देश्य। ३२. किसी चीज की बिक्री आदि का हिसाब। दर। निर्ख। मुहा०— भाव उतरना या गिरना =किसी चीज का दाम घट जाना। भाव चढ़ना =दर तेज होना। ३३. ईश्वर, देवता आदि के प्रति होनेबाली श्रद्धा या भक्ति।उ०— भाव सहित खोजइ जो प्रानी। पाय भक्त मम सब सुख खानी। — तुलसी (शब्द०)। ३४. साठ संवत्सरों में से आठवाँ सवत्सर। ३५. फलित ज्योतिष में ग्रहों की शयन, उपवेशन, प्रकाशन, गमन आदि बारह चेष्टाओं में से कोई चेष्टा या ढंग जिसका ध्यान जन्मकुंडली का विचार करने के समय रखा जाता है और जिसके आधार पर फलाफल निर्भर करता है। विशेष— किसी किसी के मत से दीप्त, दीन, सुस्थ, मुदित आदि नौ और किसी किसी के मत से दस भाव भी हैं। ३५. युवती स्त्रियों के २८ प्रकार के स्वभावज अलंकारों के अंतर्गत तीन प्रकार के अंगज अलंकारों में से पहला। नायक आदि को देखने के कारण अथवा और किसी प्रकार नायिका के मन में उत्पन्न होनेवाला विकार। विशेष— साहित्यकारों ने इसके स्यौयी. व्यभिचारी और सात्विक ये तीन भेद किए हैं और रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भष, जुगुप्सा और विस्मय को स्थायी भाव के अंतर्गत, निर्वेद, ग्लानि, शंका, असूचा, मद, भ्रम, आलश्य, दैन्य चिंता, मोह, धृति, व्रीडा, चपलता, हर्ष, आवेग, जड़ता गर्व, विषाद, उत्सुकता, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, विरोध, अमर्ष, उग्रता, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क को ब्यभिचारी भाव के अंतर्गत; तथा स्वेद, स्तंभ, रोमांच, स्वरभंग, वेपयु वैवर्ण्य, अश्रु और प्रलय को सात्विक भाव के अंतर्गत रखा हैं। ३६. संगीत का पाँचवाँ अंग जिसमें प्रेमी या प्रेमिका के संयोग अथवा वियोग से होनेवाला सुख अथवा दुःख या इसी प्रकार का और कोई अनुभव शारीरिक चेष्टा से प्रत्यक्ष करके दिखाया जाता है। गीत का अभिप्राय प्रत्यक्ष कराने के लिये उसके विषय के अनुसार शरीर या अंगों का संचालन। विशेष— स्वर, नेत्र, मुख तथा अंगों की आकृति में आवश्यकता- नुसार परिवर्तन करके यह अनुभव प्रत्यक्ष कराया जाता हैं। जैसे, प्रसन्नता, व्याकुलता, प्रतीक्षा, उद्वेग, आकंक्षा आदि का भाव बताना। क्रि० प्र०—बताना। मुहा०— भाव बताना =कोई काम न करके केवल हाथ पैर मटकाना। व्यर्थ पर नखरे के साथ साथ हाथ पैर हिलाना। भाव देना =आकृति आदि से अथवा कोई अंग संचालित करके मन का भाव प्रकट करना। उ०— श्याम को भाव दै गई राधा। नारि नागरि न काह लख्यो कोऊ नहीं कान्ह कछु करत है बहुत अनुराधा। — सूर (शब्द०)। ३७. नाज। नखरा। चोंचला। ३८. वह पदार्थ जो जन्म लेता हो, रहता हो, बढ़ता हो, क्षीण होता हो, परिणामशील हो और नष्ट होता हो। छह भावों से युक्त पदार्थ। (सांख्य)। ३९. बुद्धि का वह गुण जिससे धर्म और अधर्म, क्षान और अज्ञान आदि का पता चलता है। ४०. वैशोषिक के अनुसार द्र्व्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय ये छह पदार्थ जिनका अस्तित्व होता है। अभाव का उल्टा। ४१. कोख। कुक्षि (को०)।

भावअर्हत
संज्ञा पुं० [सं० भावअर्हन्त] एक प्रकार के तीर्थकर (जैन)।

भावइ पु
अव्य० [हिं० भावना या भाना (=अच्छा लगना), मि० पं० भाँवें] जी चाहे। इच्छा हो तो। उ०— भावइ पानी सिर परइ, भावइ परै अँगार। — (शब्द०)।

भावई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भाविन्> भावी] होनहार। भावी। उ०— पसु आखेटक करन कौं, संग नुपति बरदाइ। अँसे में इह भावई, अकसमात हुअ आइ।— —पृ० रा०, ६। २८।

भावक (१)
क्रि० वि० [सं० भाव + क (प्रत्य०)] किंचित्। थोड़ा सा। जरा सा। कुछ एक। उ०— भावक उभरौहौं भयो कछुक परयो भरु आय। सीपहरा के मिस हियौ निसि दिन हेरत जाय।— बिहारी (शब्द०)।

भावक (२)
वि० [सं०] भाव से भरा। भावपूर्ण। उ०— भेद त्यों अभेद हाव भाव हूँ कुभाव केते, भावक सुबुद्धि यथामति निरधार ही। — रघुराज (शब्द०)।

भावक (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भावना करनेवाला। २. भावसंयुक्त। ३. भक्त। प्रेमी। अनुरामी। उ०— ताहू पर जे भावक पूरे ते दुख सुख सुनि गाथा। — रघुराज (शब्द०)। ४. भाव।

भावक (४)
वि० [सं०] उत्पादक। उत्पन्न करनेवाला।

भावकोश
संज्ञा पुं० [सं० भाव + कोश] भावों का क्षेत्र। भावचक्र। मन की गति का वह अंश जहाँ तक भाव जा सकते हैं। उ०— प्रीति वैर गर्व अभिमान तृष्णा इंद्रियलोलुपता इत्यादि भावकोश ही माने गए हैं। — रस०, पृ० १७०।

भावगति
संज्ञा स्त्री० [सं० भाव + गति] इरादा। इच्छा। विचार। उ०— जरा छिपे रहो, जिससे, मैं महाराज की भावगति जान सकूँ। —रत्नावली (शब्द०)।

भावगम्य
वि० [सं०] भक्तिभाव से जानने योग्य। जो भाव की सहायता से जाना जा सके। उ०— त्रयः शूल निर्मूलन शूल- पाणिम्। भजे/?/हं भवानीपतिं भावगम्यम्।— तुलसी (शब्द०)।

भावग्राहिता
संज्ञा स्त्री० [सं० भाव + ग्राहिता] भाव ग्रहण करने की शक्ति या प्रकृति। भावप्रवणता। भावुकता। उ०— उसी के अनुसार उसकी भावग्राहिता होगी। — रस क०, पृ० १६।

भावग्राही
वि० [सं० भावग्राहिन्] भावों को या तात्पर्य को समझनेवाला। रसज्ञ।

भावग्राह्य
वि० [सं०] १. भक्ति से ग्रहण करने योग्य। जिसे ग्रहण करने में मन में भक्तिभाव लाने की आवश्यकता हो। २. भाव द्वारा ग्राह्य।

भावचेष्टित
क्रि० वि० [सं०] शृंगारी या प्रेमसंबंधी चेष्टा।

भावज (१)
वि० [सं०] भाव से उत्पन्न।

भावज (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव।

भावज (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० भ्रातृजाया हिं० भौजाई] भाई की स्त्री। भाभी। भौजाई।

भावज्ञ
वि० [सं०] भाव या मनोभावों को समझनेवाला। उ०— चिर काल रसाल ही रहा, जिस भावज्ञ कबींद्र का कहा, जय हो उस कालिदास की।— साकेत, पृ० ३२०।

भावठी
संज्ञा स्त्री० [देश०] कच्ची खाल। बिना पकाई हुआ खाल। उ०— भरी अधौड़ी भावठी, बैठा पेट फुलाय। दादू सूकर स्वान ज्यों, ज्यों आवै त्यों खाइ।— दादू०, पृ० २६०।

भावत
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भावती] आपका। श्रीमान् का (आदरार्थक प्रयोग)।

भावता (१)
वि० [हिं० भावना(=अच्छा लगना) +ता (प्रत्य०)] [स्त्री० भावती] जो भला लगे। उ०— (क) सरद चंद निंदक मुख नीके। नीरज नयन भावते जी के। — तुलसी (शब्द०)। (ख) सुनियत भव भावते राम हैं सिय भावनी भवानि हैं। — तुलसी (शब्द०)।

भावता (२)
संज्ञा पुं० प्रेमपात्र। प्रियतम। उ०— पथिक आपने पथ लगौ इहाँ रहौ न पुपाइ। रसनिधि नैन सराय मैं एक भावतो आइ।— रसनिधि (शब्द०)।

भावताव
संज्ञा पुं० [हिं० भाव + ताव] किसी चीज का मूल्य या भाव आदि। निर्ख। दर। क्रि० प्र०—करना।—जाँचना।—देखना।

भावती
वि० स्त्री० [हिं० भावता] जो भला लगे। भला लगनेवाली। उ०— बाल विनोद भावती लीला अति पुनीत पुनि भाषी हो।— सूर (शब्द०)।

भावत्क
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भावत्की] दे० 'भावत' [को०]।

भावदत्त दान
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तव में चोरी न करके, चोरी की कैवल भावना करना। यह जैनियों के अनुसार एक प्रकार का पाप है।

भावदया
वि० [सं०] किसी जीव की दुर्गति देखकर उसकी रक्षा के अर्थ अंतःकरण में दया लाना। (जैन)।

भावदर्शी
वि० [सं० भावदर्शिन्] दे० 'मालदर्शी'।

भावन पु (१)
वि० [हिं० भावना(=अच्छा लगना)] अच्छा लगनेवाला। प्रिय लगनेवाला। जो भला लगे। भानेवाला। उ०— इमि कहि कै ब्याकुल भई, सो लखि कृपानिधान। धीर धरहु भाषत भए, भव भावन भगवान।— गिरिधर (शब्द०)। यौ०—मनभावन।

भावन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भावना। २. ध्यान। ३. विष्णु। ४. शिव (को०)। ५. निमित्त कारण (को०)। ६. अन्वेषण। अनुसंधान (को०)। ७. चिंतन। कल्पना करना (को०)। ८. प्रमाण (को०)। ९. सुगंधित करना (को०)। १०. द्रव पदार्थ से तर करके खरल करना (को०)।

भावन (३)
वि० दे० 'भावक' [को०]।

भावना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मन में किसी प्रकार की चिंता करना। ध्यान। विचार। ख्याल। उ०— जाकी रही भावना जैसी। हरिमूरति देखी तिन्ह तैसी। — तुलसी (शब्द०)। विशेष—पुराणों में तीन प्रकार की भावनाएँ मानी गई हैं— ब्रम्हभावना, कर्मभावना और उभयात्मिका भावना; और कहा गया है कि मनुष्य का चित्त जैसा होता है, वैसी ही उसकी भावना भी होती है। जिसका चित्त निर्मल होता है उसकी भावना ब्रम्हा संबंधी होती है; और जिसका चित्त समल होता है, उसकी भावना विषयवासना की ओर होती है। जैनियों में परिकर्म भावना, उपचार भावना और आत्म भावना ये तीन भावनाएँ मानी गई हैं; और बौद्धों में माध्ममिक योगाचार, सोत्रांतिक और वैभाषिक ये चार भावनाऐँ मानी गई है और कहा गया है कि मनुष्य इन्हीं के द्वारा परम पुरुषार्थ करता है। योगशास्त्र के अनुसार अन्य विषयों को छोड़कर बार बार केवल ध्येय वस्तु का ध्यान करना भावना कहलाता है। वैशेषिक के अनुसार यह आत्मा का एक गुण या संस्कार है जो देखे, सुने या जाने हुए पदार्थ के संबंध में स्मृत या पहचान का हेतु होता है; और ज्ञान, मद, दुःख आदि इसके नाशक हैं। २. चित्त का एक संस्कार जो अनुभव और स्मृति से उत्पन्न होता है। ३. कामना। वासना। इच्छा। चाह। उ०— (क) पाप के प्रताप ताके भोग रोग सोग जाके साध्यो चाहै आधि व्याधि भावना अशेष दाहि।—केशव (शब्द०)। (ख) तहँ भावना करत मन माँहीं। पूजत हरि पद पंकज काँहीं।— रघुराज (शब्द०)। ४. साधारण विचार या कल्पना। ५. काक। कोआ (को०)। ६. सलिल। जल (को०)। ७. वैद्यक के अनुसार किसी चूर्ण आदि को किसी प्रकार के रस या तरल पदार्थ में बार बार मिलाकर घोटना और सुखाना जिसमें उस औषध में रस या तरल पदार्थ के कुछ गुण आ जायँ। पुट। क्रि० प्र०—देना।

भावना पु (२)
क्रि० अ० अच्छा लगना। पसंद आना। रुचना। उ०— (क) मन भावै तिहारै तुम सोई करौ, हमें नेह को नातो निबाहनो है (शब्द०)।—(ख) गुन अवगुन जानत सब कोई। जो जेहि भाव नीक तेहि सोई।—तुलसी (शब्द०)। (ग) जग भल कहहिं भाव सब काहू। हठ कीन्हें अंतहु उर दाहू।—तुलसी (शब्द०)।

भावना (३)
वि० [हिं० भावना (=अच्छा लगना)] जो अच्छा लगे। प्रिय। प्यारा।

भावनामय
वि० [सं०] भावनायुक्त। काल्पनिक [को०]।

भावनामय शरीर
संज्ञा पुं० [सं०] सांख्य के अनुसार एक प्रकार का शरीर जो मनुष्य मृत्यु से कुछ ही पहले धारण करता है और जो उसके जन्म भर के किए हुए पापों और पुण्यों के अनुरूप होता है। जब आत्मा उस शरीर में पहुँच जाती है, तभी सृत्यु होती है।

भावनामार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] आध्यात्मिक सरणि। आध्यात्मिक अवस्था भाव [को०]।

भावनाश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

भावनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० भाना या भावना (=अच्छा लगना)] जो कुछ जी में आवे। इच्छानुसार बात या काम। उ०—जब जमदूत आइ घेरत हैं करत आपनी भावनि।— काष्ठजिह्ना (शब्द०)।

भावनिक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार किसी पदार्थ का वह नाम जो उसके केवल वर्तमान स्वरूप को देखकर रखा गया हो।

भावनीय
वि० [सं०] १. भावना करने योग्य। चिंता या विचार करने योग्य। २. जो सह्य हो। सहने योग्य।

भावनेरि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नृत्य का एक भेद। एक प्रकार का नाच [को०]।

भावपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तव में धन का संग्रह न करना, पर धन के संग्रह की मन में अभिलाषा रखना। (जैन)।

भावप्रकाश
संज्ञा पुं० [सं०] १. वैद्यक का प्रसिद्धग्रंथ। २. भाव या भावों का प्रकट होना।

भावप्रधान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भाववाच्य'।

भावप्रवण
वि० [सं०] रसज्ञ। भावुक [को०]।

भावप्राण
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार आत्मा की चेतना शक्ति।

भावबंध
संज्ञा पुं० [सं० भावबन्ध] जैनशास्त्र के अनुसार भावना या विचार जिनके द्वारा कर्म तत्व से आत्मा बधन में पड़ता है।

भावबंधन
वि० [स० भावबन्धन] जो हृदय को मोहित करे। मन को बाँधने या मुग्ध करनेवाला [को०]।

भावबोधक
वि० [सं०] १. भाव व्यक्त करने या बतानेवाला। भाव या प्रकट करनेवाला। २. अनुभाव।

भावभक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० भाव + भक्ति] १. भक्तिभाव। २. आदर। सत्कार। उ०—नैन मूँदि कर जोरि बोलायो। भाव भक्ति सों भोग लगायो।—सूर (शब्द०)।

भावभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भावों की भूमि या क्षेत्र। उ०— उनके काव्य की भावभूमि और उसकी मूलगत प्रेरणा तक पहुँच जाना सहज हो जाएगा।—अपरा० पृ० २।

भावमन
संज्ञा पुं० [सं० भावमनस्] जैनों के अनुसार पुदगलों के संयोग से उत्पन्न ज्ञान।

भावमिश्र
संज्ञा पुं० [सं०] योग पुरुष। आदरणीय सज्जन। विद्वज्जन। (नाट्य०)।

भावमृषावाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊपर से झूठ न बोलना, पर मन में झूठी बातों का कल्पना करना। २. शास्त्र के वास्तविक अर्थ को दबाकर अपना हेतु सिद्ध करने के लिये झूठ मूठ नया अर्थ देना। (जैन०)।

भावमैथुन
संज्ञा पुं० [सं०] मन में मैथुन का विचारा वा कल्पना करना (जैन०)।

भावय
संज्ञा पुं० [देश०] वह व्यक्ति जो धातु की चद्दर पीटने के समय पासे को सँडसे से पकडे रहता है और उलटता रहता है।

भावयति
संज्ञा पुं० [सं०] यति के समान चाल व्यवहार करनेवाला व्यक्ति। वह व्यक्ति जो यति जैसा आचरण करे।

भावयिता
वि० [सं० भावयितृ] पालन पोषण करनेवाला।

भावयोग
संज्ञा पुं० [सं० भाव+योग] वह जिसमें भावों का योग हो। उ०— कविता क्या है नामक प्रबंध में काव्य को हमने भावयोग कहा है।—रस०, पृ० ८७।

भावरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भृकुटी। उ०— बलि तेरी छबि भावरी चलि बिभावरी जाइ। जानति स्याम सुभावरी अब न भावरी ल्याइ। —राम धर्म० पृ० २४६।

भावरुप
वि० [सं० सप्तक] वास्तविक। यथार्थ [को०]।

भावलिंग
संज्ञा पुं० [सं० भावलिङ्ग] जैनों के अनुसार काम वासना के संबंध में होनेवाली मानसिक क्रिया। संभोग संबंधी भाव या विचार।

भावली
संज्ञा स्त्री० [देश०] जमींदार और असामी के बीच उपज की बँटाई।

भावलेश्य
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार आत्मा पर रहनेवाला भावों का आवरण। विचारों की रंगत जो आत्मा पर चढी रहती है।

भाववचन
वि० [सं०] व्याकरण में किसी अस्पष्ट विचारों या भावों को सूचित करनेवाली क्रिया।

भाववाचक
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्याकरण में वह संज्ञा जिससे किसी पदार्थ का भाव, धर्म या गुण आदि सूचित हो। जैसे, सज्जनता, लालिमा, ऊँचाई।

भाववाच्य
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण में क्रिया का वह रुप जिससे यह जाना जाय कि वाक्य का उद्देश्य उस क्रिया का कर्ता या कर्म कोई नहीं है, केवल कोई भाव है। इसमें कर्ता के साथ तृतीया की विभक्ति रहती है; क्रिया की कर्म की अपेक्षा नहीं होती और वह सदा एकवचन पुल्लिंग होती है। भाव- प्रधान क्रिया। जैसे,—मुझसे बोला नहीं जाता। उससे खाया नहीं जाता।

भावविकार
संज्ञा पुं० [सं०] यास्क के अनुसार जन्म, अस्तित्व, परिणाम, वधन, क्षय और नाश ये छह विकार जिनके अधीन जीव तब तक रहता है, जब तक उसे ज्ञान नहीं होता।

भावृवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।

भाव्यंजक
वि० [सं०भावव्यञ्जक] जिससे अच्छा वा अच्छी तरह भाव प्रकट होता है। भाव प्रकट करनेवाला।

भावशबलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें कई भावों को संधि होती है।

भावशांति
संज्ञा स्त्री० [सं० भावशान्ति] एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी बाव की शांति दिखाई जाती है।

भावशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नेकनीयती। भावों की शुद्धता वा निष्कपटता [को०]।

भावशून्य
वि० [सं०] भावरहित। जिसमें कोई भाव न हो। अनासक्त [को०]।

भावसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० भावसन्धि] एक प्रकार का अलंकारजिसमें दो विरुद्ध भावों की संधि का वर्णन होता है। जैसे, दुहूँ समाज हिय हर्ष विषादू। यहाँ हर्ष और विषाद की संधि है। विशेष— साधारणतः यह अलंकार नहीं माना जाता; क्योंकि इसका विषय रस से संबंध रखता है; और अलंकार से रस पृथक् है।

भावसंवर
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार वह शक्ति या क्रिया जिससे मन में नए भावों का ग्रहण रुक जाता है।

भावसती पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भास्वती] भास्वती नामक ज्योतिष का ग्रंथ। उ०— भावसती ब्याकरन सरसुती पिंगल पाठ पुरान। बेद भेद सैं बात कह तस जनु लागहि बान।—जायसी० ग्रं० (युप्त), पृ० १९२।

भावसत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भाव की स्वतंत्र स्थिति। भाव का स्वतंत्र अस्तित्व। उ०— भावयोग की सबसे उच्च कक्षा पर पहुँचे हुए मनुष्य का जग के साथ पूर्ण तादात्म्य हो जाता है, उसकी अलग भावसत्ता नहीं रह जाती, उसका हृदय विश्व- हृदय हो जाता है। —रस०, पृ० २५।

भावस्तय
वि० [सं०] जैनों के अनुसार ऐसा सत्य जो ध्रुव न होने पर भी भाव की दृष्टि से सत्य हो। जैसे,—यद्यपि तोते कई रंग के होते हैं, तथापि साधारणतः वे हरे कहे जाते हैं। अतः तोतों को हरा करना 'भावसत्य' है।

भावसमाहित
वि० [सं०] जिसके भाव व्यवस्थित एवं शांत हों। जिसके भाव केंद्रित हों।

भावसवलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें कई एक भावों का एक साथ वर्णन किया जाता है। भावशबलता।

भावसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. सांख्य के अनुसार तन्मात्राओं की उत्पत्ति। भौतिक सर्ग का उलटा या विलोम। २. बौद्धिक वा कल्पनाजन्य सर्जन, विचार वा रचना।

भावस्थ
वि० [सं०] १. भाव में लीन। उ०— वोले भावस्थ चंद्रमुख- निंदित रामचंद्र।—अपरा, पृ० ४९।

भावस्निग्ध
वि० [सं०] भाव के कारण अनुरक्त [को०]।

भावहिंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनों के अनुसार ऐसी हिंसा जो केवल भाव में हो, पर द्रव्य में न हो। कार्यतः हिंसा न करना, पर मन में यह इच्छा रखना कि अमुक व्यक्ति का घर जल जाय, अमुक व्यक्ति मर जाय।

भावांतर
संज्ञा पुं० [सं० भावान्तर] १. अन्य अर्थ। दूसरा अर्थ या भाव। २. मन की भाव से भिन्न अवस्था [को०]।

भावानुग
वि० [सं०] भाव का अनुगामी। भाव का अनुगमन करनेवाला [को०]।

भावानुगा
संज्ञा स्त्री० [सं० भावानुगा] छाया। परछाहीं [को०]।

भावाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाव। भावना। २१. प्रेम भावना की बाह्य अभिव्यक्ति। ३. पवित्रात्मा या सज्जन पुरुष। ४. रसिक। ५. अभिनेता। ६. वेशभूषा। साजसज्जा [को०]।

भावात्मक
वि० [सं०] भावमय। भाव के रुप में बदला हुआ। उ०— वासनात्मक अवस्था से भावात्मक अवस्था में आया हुआ राग ही अनुराग या प्रेम है।—रस०, पृ० ७६।

भावाभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाव और अभाव। होना और न होना। २. उत्पत्ति और लय वा नाश। ३. जैनों के अनुसार भाव का अभाव अथवा वर्तनान का भूत में होनेवाला परिवर्तन।

भावाभास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अलंकार। अनुचित स्थान पर भाव की अभिव्यक्ति। भाव का आभास होना। कृत्रिम या बनावटी भाव।

भावार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अर्थ वा टीका जिसमें मूल का केवल भाव आ जाय, अक्षरशः अनुवाद न हो। २. अभिप्राय। तात्पर्य। मतलब।

भावालंकार
संज्ञा पुं० [सं० भावालङ्कार] एक प्रकार का अलंकार।

भावाव
वि० [सं०] कोमल। नाजुक। दयालु।

भावाश्रित
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगीत में वह नृत्य जिसमें अंगों से भाव बताया जाय। २. संगीत में हस्तक का एक भेद। गाने का भाव के अनुसार हाथ उठाना, घुमाना और चलाना।

भाविक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह अनुमान जो अभी हुआ न हो पर होनेवाला हो। भावी अनुमान। २. वह अलंकार जिसमें भूत और भावी वातें प्रत्यक्ष वर्तमान की भाँति वर्णन की गई हों।

भाविक (२)
वि० १. भावी। होनेवाला। २. स्वाभाविक। वास्तविक। ३. भावुक। पु ४. जाननेवाला। मर्मज्ञ। उ०— वरनौ तास सुवन पद पंकज। जो विराग भाविक मनरजक।—रघुराज (शब्द०)।

भावित
वि० [सं०] १. जिसकी भावना की गई हो। सोचा हुआ। विचारा हुआ। २. मिलाया हुआ। ३. शुद्ध किया हुआ। ४. जिसमें किसी रस आदि की भावना दी गई हो। जिसमें पुट दिया गया हो। ५. सुगंधित किया हुआ। बासा हुआ। ६. मिला हुआ। प्राप्त। ७. भेंट किया हुआ। समर्पित।८. वशीकृत (को०)।

भाविता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भावी का भाव। होनहार। होनी।

भावितात्मा (१)
वि० [भावित् + आत्मन्] १. वह जिसने अपनी आत्मा पवित्र कर ली हो। २. तल्लीन। ३. शुद्ध। पवित्र।

भावितात्मा (२)
संज्ञा पुं० संत। महात्मा [को०]।

भावित्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग, मर्त्य और पाताल इन तीनों लोकों का समूह। त्रैलोक्य।

भावित्व
संज्ञा पुं० [सं०] होनहार।

भाविनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सौंदर्यशील महिला। सुंदरी स्त्री। २. साध्वी स्त्री। सच्चरित्र महिला। ३. क्रोड़ाप्रिय या कुलटा स्त्री। ४. एक प्रकार की संगीतरचना [को०]।

भाविन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीता की एक सखी का नाम। उ०— पुण्या परवीकला नीर्त्ति अहलादिनी क्रांता। भाविन्या शोभना लंबिनी विद्या शांता।—विश्राम (शब्द०)। २. होनहार। होनी। भावी।

भावी
संज्ञा स्त्री० [सं० भाविन्] १. भविष्यत् काल। आनेवाला समय। २. भविष्य में होनेवाली वह वात या व्यापार जिसका घटना निश्चित हो। अवश्य होनेवाली बात। भवितव्यता। उ०— भावी गाहू सों न टरै। गहै वह राहुकहाँ वह रवि शशि आनि संजोग परै।—सूर (शब्द०)। विशेष— साधारणतः भाग्यवादियों का विश्वास होता है कि कुछ घटना या बातें ऐसी होती हैं जिनका होना पहले से ही किसी अदृश्य शक्ति के द्वारा निश्चित होता है। ऐसी ही बातों को 'भावी' कहते हैं। ३. भाग्य। प्रारब्ध। तकदीर। ४. सुदंर। भव्य। शोभन (को०)। ५. अनुरक्त। आसक्त (को०)।

भावुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल। आनंद। २. बहनोई। (नाटयोक्ति में)। ३. सज्जन। भला आदमी। ४. भावना- प्रधान भाषा। अनुराग या रसयुक्त भाषा (को०)।

भावुक (२)
वि० १. भावना करनेवाला। सोचनेवाला। २. जिसके मन में भावों का विशेषतः कोमल भावों का संचार होता हो। जिसपर कोमल भावों का जल्दी प्रभाव पड़ता हो। ३. रसज्ञ। सहृदय (को०)। ४. भावी। होनेवाला (को०)। ५. उत्तम भावना करनेवाला। अच्छी वातें सोचनेवाला। उ०— भावुक जन से ही महत्कार्य होते हैं, ज्ञानी संसार असार मान रोते हैं।—साकेत, पृ० २४१।

भावै पु †
अव्य० [हिं० भाना] चाहे। दे० 'भावइ'। उ०— भावै चारिहु जुग महि पूरी। भावै आगि बाउ जल धूरी।— जायसी (शब्द०)।

भावोत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार क्रोध आदि बूरे भावों का त्याग।

भावोदय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जिसमें किसी भाव के उदय होने की अवस्था का वर्णन होता है।

भावोद्दीपक
वि० [सं०] भावों को उद्दीपन करनेवाला। भाव को उत्तेजित करनेवाला।

भावोद्रेक
संज्ञा पुं० [सं० भाव+उद्रेक] भावावेश। भावों का उत्थान। भावातिरेक। उ०—जिस भावोद्रेक और जिस ब्योरे के साथ नायक या नायिका के रुप का वर्णन किया जाता है उस भावो- द्रेक और उस ब्योरे के साथ उनका नहीं।— रस०, पृ० ७।

भावोन्मत्त
वि० [सं०] भावों के कारण उन्मत्त। भावविह्वल।

भावोन्मेष
संज्ञा पुं० [सं०] भाव का उद्रेक। भाव का उदय।

भाव्य (१)
वि० [सं०] १. अवश्य होनेवाला। जिसका होना बिलकुल निश्चित हो। भावी। २. भावना करने योग्य। सिद्ध या सावित करने योग्य।

भाव्य (२)
संज्ञा पुं० होनी। भावी [को०]।

भाव्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] होनी। भावी [को०]।

भाष पु
संज्ञा स्त्री० [सं० √ भाप्] भाषा। शब्द। वाणी। उ०— अब आयो वैसाख भाष नहिं कत की।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३६३।

भाषक
संज्ञा पुं० [सं०] बोलनेवाला। कहनेवाला। भाषण करनेवाला।

भाषज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] भाषा जाननेवाला। भाषा का ज्ञाता।

भाषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथन। बातचीत। कहना। २. कृपा- पूर्ण वाक्य। दया भरे शब्द (को०)। ३. व्याख्यान। वक्तृता। उ०—भाषण करने में भी तुझसे न लग जाय हा, मुझको पाप। शुद्ध करुँगी मैं इस तन की अग्नि ताप में अपने आप।—साकेत, पृ० ३८९। क्रि० प्र०—करना।—देना।—सुनना।— सुनाना।

भापना पु (१)
क्रि० अ० [सं० भाषण] बोलना। कहना। बात करना।

भाषना (२)
क्रि० अ० [सं० भक्षण] भोजन करना। खाना।

भाषांतर
संज्ञा पुं० [सं० भाषान्तर] एक भाषा में लिखे हुए लेख आदि के आधार पर दूसरी भाषा में लिखा हुआ लेख। अनुवाद। उल्था। तरजुमा।

भाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्यक्त नाद की वह समष्टि जिसकी सहायता से किसी एक समाज या देश के लोग अपने मनोगत भाव तथा विचार एक दूसरे पर प्रकट करते हैं। मुख से उच्चारित होनेवाले शब्दों और वाक्यों आदि का वह समूह जिनके द्वारा मन की बात बतलाई जाती है। बोली। जबान। वाणी। विशेष— इस समय सारे संसार में प्रायः हजारों प्रकार की भाषाएँ बोली जाती हैं जो साधारणतः अपने भाषियों को छोड़ और लोगों की समझ में नहीं आतीं। अपने समाज या देश की भाषा तो लोग बचपन से ही अभ्यस्त होने के कारण अच्छी तरह जानते हैं, पर दूसरे देशों या समाजों की भाषा बिना अच्छी़ तरह सीखे नहीं आती। भाषाविज्ञान के ज्ञाताओं ने भाषाओं के आर्य, सेमेटिक, हेमेटिक आदि कई वर्ग स्थापित करके उनमें से प्रत्येक की अलग अलग शाखाएँ स्थापित की हैं, और उन शाखाकों के भी अनेक वर्ग उपवर्ग बनाकर उनमें बड़ी बड़ी भाषाओं और उनके प्रांतीय भेदों, उपभाषाओं अथाव बोलियों को रखा है। जैसे हमारी हिंदी भाषा भाषाविज्ञान की दृष्टि से भाषाओं के आर्य वर्ग की भारतीय आर्य शाखा की एक भाषा है; और ब्रजभाषा, अवधी, बुंदेलखंडी आदि इसकी उपभाषाएँ या बोलियाँ हैं। पास पास बोली जानेवाली अनेक उपभाषाओं या बोलियों में बहुत कुछ साम्य होता है; और उसी साम्य के आधार पर उनके वर्ग या कुल स्थापित किए जाते हैं। यही बात बड़ी बड़ी भाषाओं में भी है जिनका पारस्परिक साम्य उतना अधिक तो नहीं, पर फिर भी बहुत कुछ होता है। संसार की सभी बातों की भाँति भाषा का भी मनुष्य की आदिम अवस्था के अव्यक्त नाद से अब तक बराबर विकास होता आया है; और इसी विकास के कारण भाषाओं में सदा परिवर्तन होता रहता है। भारतीय आर्यों की वैदिक भाषा से संस्कुत और प्राकृतों का, प्राकृतों से अपभ्रंशों का और अपभ्रंशों से आधुनिक भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। क्रि० प्र०—जानना।—बोलना।—सीखना।—समझना। २. किसी विशेष जनसमुदाय में प्रचलित बातचीत करने का ढंग। बोली। जैसे, ठगों की भाषा, दलालों की भाषा। ३.वह अव्यक्त नाद जिससे पशु, पक्षी आदि अपने मनोविकार या भाव प्रकट करते हैं। जैसे, बंदरों की भाषा। ४. आधुनिक हिंदी। ५. वह बोली जो वर्तमान समय में किसी देश में प्रचलित हो। उ०— जे प्राकृत कवि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।—मानस, पृ० ११। ६. एक प्रकार की रागिनी। ७. ताल का एक भेद। (संगीत)। ८. वाक्य। ९. वाणी। सरस्वीत। १०. निर्वचन। परिभाषा। व्याख्या। (को०)। ११. अर्जीदावा। अभियोगपत्र।

भाषाचित्रक
संज्ञा पुं० [सं०] शब्दों का खेल। प्रेहलिका। पहेली [को०]।

भाषाज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण का ज्ञान। शब्दविद्या का ज्ञान [को०]।

भाषापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] शुक्रनीति के अनुसार वह पत्र जिसमें कष्टों का निवेदन किया गया हो।

भाषापाद
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जीदावा।

भाषावद्ध
वि० [सं०] साधारण देश भाषा में बना हुआ। उ०— भाषावद्ध करब मैं सोई।—तुलसी (शब्द०)।

भाषाविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] भाषा वैज्ञानिक और शास्त्रीय अध्ययन का शास्त्र। वह शास्त्र जिसमें भाषा की उत्पत्ति, विकास, रुपपरिवर्तन, स्वरप्रयोग, स्वरयोजना, ध्वनिविज्ञान, ध्वनि- परिवर्तन, ध्वनिविकास, पदविज्ञान, अर्थविज्ञान, वाक्यविज्ञान, भाषाधारित्र प्रागैतिहासिक अध्ययन, भाषा का संघटनात्मक, प्रयोगात्मक तथा वर्णनात्मक अध्ययन आदि एवं भाषाओं का वर्णनात्मस, तुलनात्मक तथा ऐतिहासिक अध्ययन, अनुशीलन विश्लेषण एवं विवेचन किया जाता हो।

भाषासम
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का शब्दालंकार। काव्य मे केवल ऐसे शब्दों की योजना जो कई भाषाओं में समान रुप से प्रयुक्त होते हैं। उ०—मंजुल मणि मंजीरे कलगंभीरे विहार सरसी तीरे। विरसासि केलि कीरे किमालि धीरे च गंधसार समीरे। यह श्लोक संस्कृत, प्राकृत, शौरसेनी, नागर अपभ्रंश, अवंती आदि अनेक भाषाओं में इसी रुप में होगा।

भाषासमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] जैनियों के अनुसार एक प्रकार का आचार जिसके अंतर्गत ऐसी बातचीत आती है जिससे सब लोग प्रसन्न और संतुष्ट हों।

भाषिक
वि० [सं०] भाषा या बोली संबंधी।

भाषिका (१)
वि० [सं०] बोलनेवाली। कहनेवाली।

भाषिका (२)
संज्ञा स्त्री० वाणी।

भाषित (१)
वि० [सं०] कथित। कहा हुआ।

भाषित (२)
संज्ञा पुं० कथन। बातचीत। यौ०—आकाशभाषित। भाषितपुंस्क।

भाषिता
वि० [सं० भाषितृ] वक्ता। बोलनेवाला [को०]।

भाषितेशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती [को०]।

भाषी
संज्ञा पुं० [सं० भाषिन्] १. बोलनेवाला। जैसे; हिंदीभाषी। २. जल्पक। बहुभाषी। मुखर। वावदूक (को०)।

भाष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत्रग्रंथों का विस्तृत विवरण या व्याख्या। सूत्रों की की हुई व्याख्या या टीका। जैसे, वेदों का भाष्य। २. किसी गूढ़ बात या वाक्य की विस्तृत व्याख्या। जैसे,— आपके इस पद्य के साथ तो एक भाष्य की आवश्यकता है। ३. भाषानिबद्ध कोई भी ग्रंथ। ग्रंथ (को०)। ४. पाणिनि के सूत्रों पर पतंजलि द्वारा की हुई व्याख्या। महाभाष्य।

भाष्यकर, भाष्यकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूत्रों की व्याख्या करनेवाला। भाष्य बनानेवाला। २. पतंजलि का नाम।

भाष्यकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भाष्यकर', 'भाष्यकार'।

भासंत (१)
वि० [सं० भासन्त] [वि० स्त्री० भासंती] दीप्त। प्रकाशमान। २. सुंदर। रूपवान्।

भासंत (२)
संज्ञा पुं० १. भास नाम का पक्षी। शकुंत पक्षी। २. सूर्य। ३. चंद्रमा। ४. नक्षत्र [को०]।

भासंती
संज्ञा स्त्री० [सं० भासन्ती] तारा। नक्षत्र [को०]।

भास
संज्ञा पुं० [सं०] १. दीप्ति। प्रकाश। प्रभा। चमक। २. मयूख। किरण। ३. इच्छा। ४. गोशाला। ५. कुक्कुट (मुर्गा)। ६. गृध्र। गीध। ७. शकुंत पक्षी। ८. स्वाद। लज्जत। ९. मिथ्या ज्ञान। १०. महाभारत के अनुसार एक पर्वत का नाम। ११. संस्कृत के प्रथम नाटककार जो कालिदास से पूर्ववर्ती थे। प्रसिद्ध नाटक स्वप्नवासवदत्ता के रचयिता।

भासक (१)
वि० [सं०] १. चमकनेवाला। द्योतित। २. चमकाने या प्रकाश में लानेवाला।

भासक (२)
संज्ञा पुं० संस्कृत के एक कवि [को०]।

भासकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] रावण की सेना का मुख्य नायक जिसको हनुमान ने प्रमदावन उजाड़ने के समय मारा था।

भासता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गृध्र की तरह वृत्ति। अपहरण- शीलता। २. लुब्धता। ३. चमकीलापन [को०]।

भासना (१)
क्रि० अ० [सं० भासन] १. प्रकाशित होना। चमकना। २. मालूम होना। प्रतीत होना। ३. देख पड़ना। ४. फँसना। लिप्त होना। उ०—अपने भुजदंडन कर गहिए बिरह सलिल में भीसी।—सूर (शब्द०)। ५. भसना। डूबना। घँसना० उ०— यह मत दै गोपिन कौं आवहु बिरह नदी मैं भासत। —सूर०, १०। ३४२६।

भासना (२)
क्रि० स० [सं० भाषण] कहना। बोलना। उ०— सुमिल सुगीतनि गावैं निपट रसीलौ भासनि।—घनानंद, पृ० ४५३।

भासमंत
वि० [सं० भासमन्त] चमकदार। ज्योतिपूर्ण।

भासमान (१)
वि० [सं०] १. जान पड़ता हुआ। भासता हुआ। दिखाई देता हुआ। २. व्यक्त। ज्ञात। प्रकट। उ०— ऐसे वा समय वीरां कौ भासमान भयौ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १३४।

भासमान (२)
संज्ञा पुं० सूर्य। (डिं०)।

भासा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भाषा] दे० 'भाषा'।

भासिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिखाई पड़नेवाला।२. मालूम होनेवाला। लक्षित होनेवाला।

भासित
वि० [सं०] तेजोमय। चमकीला। प्रकाशित। प्रकाशमान।

भासी
वि० [सं०भासिन्] [वि० स्त्री० भासिनी] चमकनेवाला।

भासु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

भासुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुष्ठ रोग का औषध। कोढ़ की दवा। २. स्फटिक। बिल्लोर। ३. वीर। बहादुर।

भासुर (२)
वि० चमकदार। चमकीला।

भास
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चमक। दीप्ति।२. आकांक्षा। मनोरथ। ३. प्रकाश की किरण। ४. प्रतिच्छाया। प्रतिबिंब। ५. तेज। प्रताप। महत्ता [को०]।

भास्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुवर्ण। सोना। २. सूर्य। ३. अग्नि। आग। ४. वीर। ५. मदार का पेड़। ६. महादेव। शिव। ७. ज्योतिष शास्त्र के आचार्य। इन्होंने सिद्धांतशिरोमणि आदि ज्योतिष के ग्रंथ रचे हैं। ८. महाराष्ट्र ब्राह्मणों की एक प्रकार की पदवी। ९. पत्थर पर चित्र और बेल बूटे आदि बनाने की कला। यौ०— भास्करकर्म=दे० 'भास्कर्य'। भास्करद्युति=विष्णु। भास्करप्रिय=लाल। एक रत्न। भास्करलवण=एक प्रकार का नमक या उसका मिश्रण जो एक औषध है। भास्करसप्तमी =माघ शुक्ल पक्ष की सप्तमी।

भास्करि
संज्ञा पुं० [सं०] १. शनि ग्रह। २. वैवस्वत मनु का नाम। ३. कर्ण। ४. सुग्रीव। ५. एक मुनि। शैव दर्शन में प्रसिद्ध एक टीका।

भास्कर्य
संज्ञा पुं० [सं०] धातु पत्थर आदि की मूर्ति बनाने की कला।

भास्मन
वि० [सं०] [वि० स्त्री० भास्मनी] भस्म से निर्मित या भस्म संबंधी [को०]।

भास्य
वि० [सं०] व्यक्त या प्रकाश करने योग्य [को०]।

भास्वत् (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. उषा (को०)। ३. मदार का पेड़। ४. चमक। दीप्ति। ५. वीर। बहादुर।

भास्वत् (२)
वि० [वि० स्त्री० भास्वती] १. चमकीला। चमकदार। २. प्रकाश करनेवाला। चमकनेवाला।

भास्वती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नदी का नाम। (महाभारत)।

भास्वर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुष्ठ। का औषध। कोढ़ की दवा। २. दिन। ३. सूर्य। ४. अग्नि। कृशानु (को०)। ५. सूर्य का एंक अनुचर जिसे भगवान् सूर्य ने तारकासुर के वध के समय स्कंद को दिया था।

भास्वर (२)
वि० दीप्तियुक्त। चमकदार। प्रकाशमय। चमकीला।

भास्वान्
संज्ञा पुं०, वि० [सं० भास्वत्] दे० 'भास्वत्'।

भाहि पु
संज्ञा पुं० [देश०] १. दे० 'भाव'। उ०— जंपे सुबैन के कहे साहि। कढ्ढी न बत्त गंभीर भाहि।—पृ० रा० ९। ४४। २. भय। डर। उ०—नारी चली उतावली नख सिख लागै भाहि। सुंदर पटकै पीव सिर, दुःख सुनावै काहि।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७०८।

भिंग †
संज्ञा पुं० [सं भृङ्ग, प्रा० भिंग] १. भृंगी नाम का कीड़ा जिसे बिलनी भी कहते हैं। ३. भौंरा। उ०—भृंगी पुच्छइ भिंग सुन की संसारहि सार।—कीर्ति०, पृ० ६।

भिंग (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भग्न वा भङ्ग] बाधा।

भिंगराज
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गराज] दे० 'भृंगराज'।

भिंगार
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गार, प्रा० भिंगार] एक प्रका का पात्र। भृंगार। झारी या कमंडलु के वर्ग का एक पात्र।

भिंगिसी
संज्ञा स्त्री० [सं० भिङ्गिसी] कंबल की एक किस्म [को०]।

भिंड † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीटा] भीटा। तालाब के चारों ओर किनारे की ऊँची जमीन। ऊँची जमीन। उ०—इस पोखर के तीन भिंडों पर अव उपाध्याय घराने की बढ़ती आबादी छा गई थी। २-रति०, पृ० २१।

भिंड (२)
संज्ञा पुं० [सं० भिण्ड] दे० 'भिंडी'।

भिंडक
संज्ञा पुं० [सं० भिण्डक] दे० 'भिंडी'।

भिंडा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बड़ी सटक।

भिंडा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भिण्डा] भिंडी।

भिंडि
संज्ञा पुं० [सं० भिन्दि] गोफना। ढेलवाँस।

भींडिपाल
संज्ञा पुं० [सं० भिन्दिपाल] छोटा डंडा जो प्राचीन काल में फेंककर मारा जाता था।

भिंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० भिण्डा] एक प्रकार के पौधे की फली जिसकी तरकारी बनती है। विशेष—यह फली चार अंगुल से लेकर बालिश्त भर तक लंबी होती है। इसके पौधे चैत से जेठ तक बोए जाते हैं; और जब ६-७ अंगुल के हो जाते हैं; तब दूसरे स्थान में रोपे जाते हैं। इसकी फसल को खाद और निराई की आवश्यकता होती है। इसकी रेशों से रस्से आदि बनाए जाते हैं; और कागज भी बनाया जा सकता है। वैद्यक में इसे उष्ण, ग्राही और रुचिकारक माना है। इसे कहीं कहीं रामतरोई भी कहते हैं।

भिंदिपाल
संज्ञा पुं० [सं० भिन्दिपाल] १. दे० 'भिंडिपाल'। २. दे० 'भिंडी'।

भिंदु (१)
वि० [सं० भिन्दु] ध्वस्त या नष्ट करनेवाला।

भिंदु (२)
संज्ञा पुं० १. बिंदु। बूँद। २. विध्वंसक या नाशक व्यक्ति।

भिंदु (३)
संज्ञा स्त्री० वह स्त्री जिसे मरा हुआ बच्चा पैदा हो। मृत शिशु का प्रसव करनेवाली स्त्री [को०]।

भिंभर पु
वि० [सं० विह्लल, प्रा० भिंभल] चंचल। चपल। विह्वल।

भिंभरनेनी पु
वि० [हिं० भिंभर + नेन + ई] विह्वल या चंचल नेत्रवाली। उ०—ढलकंतिय बैनी भिभरनेनी जुग फल देनी रस मेन।—पृ० रा०, १२।२५५।

भिंसार ‡
संज्ञा पुं० [सं० भानु + सरण] सबेरा। सुबह। प्रातःकाल।

भिँगाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भिगोना'।

भिँगोरा
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गार] १. भँगरा। भृंगराज। घमरा। २. भृंगराज पक्षी।

भिँगोरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० भृङ्गराज] भृंगराज नामक पक्षी।

भिँजवना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भिगोना'। उ०—ब्रज बनिता बौरी भई होरी खेलत आज। रस ढौरी दौरी फिरत भिंजवति है ब्रजराज।—ब्रज ग्रं०, पृ० ३१।

भिँजाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भिगोना'।

भिँजोना, भिँजोवना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भिगोना'।

भिआ ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भैया] भाई। भइया।

भिउँ †
संज्ञा पुं० [सं० भीम] दे० 'भीम'। उ०—को होइ भिउँ अँगवै परदाहा।—जायसी० ग्रं०, पृ० १५९।

भिकारी, भिक्खारी पु †
संज्ञा पुं० [सं० भिक्षाचारी] दे० 'भिखारी'। उ०—अक्खर रस बुज्झनिहार नहिं कइकुल भमि भिक्खारि भउँ।—कीर्ति०, पृ० १२।

भिक्खु
संज्ञा पुं० [सं० भिक्षु, प्रा० भिक्खु] बौद्ध साधु। दे० 'भिक्षु'। उ०—उनका उपदेश मानकर संसार छोड़कर बहुत से लोग उनके अनुयायी हो गए और भिक्खु कहलाए।—हिंदु० सभ्यता०, पृ० २५३।

भिक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षा भाँगने की क्रिया। भीख माँगना। भिखमंगी।

भिक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. याचना। माँगना। जैसे,—मैं आपसे यह भिक्षा माँगता हूँ कि आप इसे छोड़ दें। २. दीनता दिखलाते हुए अपने उदरनिर्वाह के लिये धूम धूमकर अन्न, धन आदि माँगने का काम। भीख। क्रि० प्र०—माँगना। ३. इस प्रकार माँगने से मिली हुई वस्तु। भीख। ४. सेवा। नौकरी। ५. मजदूरी। वेतन। भृति (को०)। यौ०—भिक्षाकरण = भीख माँगना। भिक्षाचर = भिक्षुक। फकीर। भिक्षाचरण, भिक्षाचर्य, भिक्षाचर्या = दे० 'भिक्षाकरण'। भिक्षाजीवी। भीक्षापात्र। भिक्षाभांड। भिक्षाभाजन = दे० 'भिक्षापात्र'। भिक्षाभुज् = दे० 'भिक्षाजीवी'। भिक्षावास। भिक्षावृत्ति = भिक्षा द्वारा जीविका करना। भिक्षुक का जीवन।

भिक्षाक
संज्ञा पुं० [सं०] भीख माँगनेवाला। भिक्षुक।

भिक्षाजीवी
वि० [सं०] भिक्षा द्वारा निर्वाह करनेवाला [को०]।

भिक्षाटन
संज्ञा पुं० [सं०] भीख माँगने की फेरी। भीख माँगने के लिये इधर उधर घूमना।

भिक्षान्न
संज्ञा पुं० [सं०] भीख में प्राप्त अन्न।

भिक्षार्थी
वि० [सं० भिक्षार्थिन्] [स्त्री० भिक्षार्थिनी] भीख माँगनेवाला।

भिक्षापात्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह पात्र जिसमें भिखमंगे भीख माँगते हैं। कपाल। २. वह व्यक्ति जिसे भिक्षा देना उचित हो। भिक्षा प्राप्त करने का अधिकारी।

भिक्षाहँ
वि० [सं०] भिक्षा देने के योग्य।

भिक्षाशन
स्त्री० पुं० [सं०] भिक्षा में प्राप्त भोजन।

भक्षाशी
वि० [सं०] दे० 'भिक्षाजीवी'।

भिक्षावास
संज्ञा पुं० [सं० भिक्षावासस्] भिखारी का पहनावा।

भिक्षित
वि० [सं०] भिक्षा में मिला हुआ। याचना द्वारा प्राप्त [को०]।

भिक्षी
वि० [सं० भिक्षिन्] भीख माँगनेवाला।

भिक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] १. भीख माँगनेवाला। भिखारी। २. गोरख- मुंडी। मुंडी। ३. संन्यासी। [स्त्री० भिक्षुणी]। ४. बौद्ध संन्यासी।

भिक्षुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० भिक्षुकी] भिखमंगा। भिखारी। याचक।

भिक्षुक (२)
वि० [सं०] भीख। मागनेवाला।

भिक्षुचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] भिक्षावृत्ति [को०]।

भिक्षुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बोद्ध संन्यासिनी।

भिक्षुरूप
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव।

भिक्षुसंघ
संज्ञा पुं० [सं० भिक्षुसङ्घ] बौद्ध भिक्षुओं का संघ।

भिक्षुसंघाती
संज्ञा स्त्री० [सं० भिक्षुसङ्घात] चीवर।

भिक्षुसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] भिक्षुओं के लिये नियमों का संग्रह।

भिखमंगा
संज्ञा पुं० [हिं० भीख + माँगना] [स्त्री० भिखमंगन, भिखमंगिन] जो भीख माँगे। भिखारी। भिक्षुक। उ०— हौं पदमावति कर भिखमंगा। दिस्टि न आव समुद्र औ गंगा।—जायसी ग्रं०, पृ० २१७।

भिखार
संज्ञा पुं० [हिं० भीख + आर (प्रत्य०)] भीख माँगनेवाला। जो भीख माँगे। भिक्षुक।

भिखारी पु
संज्ञा पुं० [हिं०] भिक्षुक। भिखारी।

भिखारिणी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भिखारी] वह स्त्री जो भिक्षा माँगे। भीख माँगनेवाली स्त्री।

भिखारिन, भिखारिनी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'भिखारिणी'।

भिखारी (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भीख + आरी (प्रत्य०)] [स्त्री० भिखारिणी, भिखारिन, भिखारिनी] भीख माँगनेवाला व्यक्ति। भिक्षुक। भिखमंगा।

भिखारी (२)
वि० जिसके पास कुछ न हो। कंगाल।

भिखिया †
संज्ञा स्त्री० [सं० भिंक्षा] दे० 'भिक्षा'।

भिखियारी †
संज्ञा पुं० [सं० भिख] दे० 'भिखारी'।

भिख्या ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० भिक्षा] दे० 'भिक्षा'। उ०— तुम्ह जोगी वैरागी कहत न मानहु कोहु। माँगि लेहु कछु भिख्या खेलि अनत कहुँ होहु।—जायसी० ग्रं० (गुप्त), पृ० २६७।

भिगाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भिगीना'।

भिगाना
क्रि० स० [सं० अभ्यञ्ज] किसी चीज को पानी से तरकरना। पानी में इस प्रकार डुबाना जिसमें तर हो जाय। गीला करना। भिगाना। जैसे,—वह दवा पानी में भिगो दो। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

भिच्छा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भिक्षा] दे० 'भिक्षा'। उ०—जोगी बार आव सो जेहि भिच्छा कै आस। —जायसी ग्रं०, पृ० ६५।

भिच्छु पु
संज्ञा पुं० [सं० भिक्षु] दे० 'भिक्षु'। उ०—भिच्छु जानि जानकी सु भीख को बुलाइयो।—केशव (शब्द०)।

भिच्छुक पु
संज्ञा पुं० [सं० भिक्षुक] दे० 'भिक्षुक'। उ०—भूषन भिच्छुक भूप भए।—भूषण ग्रं०, पृ० २६७।

भिजवना पु
क्रि० स० [हिं० भिगोना] भिगोने में दूसरे को प्रवृत्त करना। पानी से तर कराना। उ०—(क) सर सरोज प्रफुलित निरखि हिय लखि अधिक अधीर। भिजवति से मंजुल करनि भरि भरि अंजुलि नीर।—प्रताप कवि (शब्द०)। (ख) बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि करुना बारि भूमि भिजई है।—तुलसी (शब्द०)।

भिजवाना
क्रि० स० [हिं० भेजना का प्रे० रूप] किसी को भेजने में प्रवृत्त करना। भेजने का काम दूसरे से कराना। जैसे,—(क) जरा अपने नौकर से यह पत्र भिजवा दीजिए। (ख) उन्होंने सब रुपया भिजवा दिया है।

भिजवावर †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भजियाउर'।

भिजाना (१)
क्रि० स० [सं० अभ्यञ्ज] भिगोना। तर करना। गीला करना। उ०—मुख पखारि मुँड़हर भिजै सीस सजल कर छुवाइ। मौरि उचै छूटेनि नै नारि सरोवर न्हाइ।— बिहारी (शब्द०)।

भिजाना (२)
क्रि० स० [हिं० भेजना] दे० 'भिजवाना'।

भिजोना, भिजोवना
क्रि० स० [हिं० भिगोना] दे० 'भिगोना'।

भिज्ञ
वि० [सं० अभिज्ञ या विज्ञ] जानकार। वाकिफ।

भिटका †
संज्ञा पुं० [हिं० भीटा] बमीठा। बामी।

भिटना †
संज्ञा पुं० [देश०] छोटा गोल फल। जैसे, कपास का भिटना।

भिटनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भिटना] स्तन के आगे का भाग कुचाग्र। चूँची। चूचुक।

भिटाना ‡
क्रि० स० [देशी भिट्ट (= भेटना)] दे० 'भेंटाना'।

भिट्टी
संज्ञा स्त्री० [देशी] दे० 'भेंट'। उ०—करिय भिट्टि मन मोद बढ़ाइय।—प० रासो, पृ० १५५।

भिड़ंत †
संज्ञा स्त्री० [देशी भिड, भिड़त] भिड़ने की स्थिति, क्रिया या भाव।

भिड़
/?/बरैं। ततैया।

भिड़ना
क्रि० अ० [हिं० भड़ अनु०?] १. एक चीज का बढ़कर दूसरी चीज से टक्कर खाना। टकराना। २. लड़ना। झगड़ना। लड़ाई करना। ३. समीप पहुँचना। पास पहुँचना। नजदीक होना। सटना। ४ प्रसंग करना। मैथुन करना। (बाजारू)। संयो० क्रि०—जाना।—पड़ना।

भि़ड़ज
संज्ञा पुं० [हिं० भिड़ना?] १. शूर। वीर पुरुष। २. घोड़ा। अश्व। (डिं०)। उ०—भिल चहुर मुछाँ भुहर भर वज पखर गूधर भिड़ज वर।—रघु० रू०, पृ० २१९। (ख) भिड़ज वारण रथाँ भारी, तडाँ सारी हुई त्यारी, सजे सावंत सूर।—रघु० रू०, पृ० ११७।

भिड़ज्जाँ
संज्ञा पुं० [?] घोड़ा (डिं०)।

भिड़हा †
संज्ञा स्त्री० [सं० वृक हिं० भेड़िया] दे० 'भेड़िया'। उ०— वृक पावक कों कहत कवि, वृक भिड़िहा को नाम। बृक दानव दलि देव शिव, राखे सुंदर स्याम।—नंद० ग्रं० पृ० ६०।

भिस पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० भित्त, हिं० भीत] दीवार। भीत। उ०— देखि भवन भित लिखल भुजगपति जसु मने परम तरासे।—विद्यापति, पृ० ३३७।

भितरिया
वि० [हिं०] १. अंतरंग। भीतर आने जानेवाला। २. (पुजारी) वल्लभकुल के मंदिरों के भीतर रहनेवाला।

भितल्ला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भीतरी + तल] दोरहे कपड़े में भीतरी ओर का पल्ला। कपड़े के भीतर का परत। अस्तर।

भितल्ला (२)
वि० भीतर का। अंदर का।

भितल्ली
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीतरी + तल] चक्की के नीचे का पाट।

भिताना पु
क्रि० स० [सं० भीति] डरना। भयभीत होना। खौफ खाना। उ०—(क) जानि कै जोर करो परिनाम तुम्है पछतैहौ पै मैं न भितैहों।—तुलसी (शब्द०)। (ख) हौं सनाथ ह्वैद्दौं सही तुमहु अनाथ पति जो लघुतहिं न भितैहौ।—तुलसी (शब्द०)।

भित्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. टुक्डा। शकल। खंड। २. अंश। भाग। ३. दीवाल। भित्ति [को०]।

भित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दीवार। भीत। २. अंश। विभाग। हिस्सा (को०)। ३. कोई टुटी वस्तु (को०)। ४. चटाई। नरकुल के सींक की चटाई (को०)। ५. दोष। त्रुटि (को०)। ६. मौका। अवसर (को०)। ७. डर। भय। भीति। ८. खंड। टुकड़ा। (डिं०)। ९. चित्र खींचने का आधार। वह पदार्थ जिसपर चित्र बनाया जाय। १०. भेदन। तोड़ना (को०)।

भित्तिक (१)
वि० [सं०] भेदन करने या तोड़नेवाला।

भित्तिक (२)
संज्ञा पुं० दीवाल। भीत [को०]।

भित्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छिपकली जो भीत पर रहती है। २. दीवाल। भीत [को०]।

भित्तिखातन
संज्ञा पुं० [सं०] चूहा। मूस [को०]।

भत्तिचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] भीत पर बनी तसवीर। दीवार पर बना चित्र [को०]।

भित्तिचौर
संज्ञा पुं० [सं०] चोर जो दीवार में सेंध लगाकर चोरी करे।

भित्तिपातन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूहा। मूषक। २. एक प्रकार का बड़ा चूहा [को०]।

भिद
संज्ञा पुं० [सं० भिद्] भेद। अंदर। उ०—(क) सम सरूप के माहिं जहाँ समरूप जु निकरै। सो सारूप्प निबध नाहि भिद पहिलों उफरै।—मतिराम (शब्द०)। (ख) मोक्ष काम गुरु शिष्य़ लखि ताको साधन ज्ञान। वेद उत्त, भाषण लगे जीव ब्रह्म भिद भान।—निश्चल (शब्द०)।

भिदक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँस। तलवार। २. वज्र। ३. हीरा [को०]।

भिदना
क्रि० अ० [सं० भिद्] १. पैवस्त होना। धस जाना। धँस जाना। २. छेदा जाना। ३. घायल होना। उ०— बज्र मरिस बर बान, हन्यो लवहि रिपुदमन पुनि। भिदि तासों बलवान, कियो क्रोध सिय पुत्र अति। —श्यामबिहारी (शब्द०)।

भिदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. टूटना। फटना। २. पार्थक्य। अलगाव। ३. किस्म। भेद। प्रकार। ४. धान्यक या जीरा (को०)।

भिदि, भिदिर, भिदु
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का वज्र [को०]।

भिदुर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वज्र। उ०— अशनि कुलिस पवि भिदुर पुनि वज्र ह्लादिनी आहिं।—नंददास (शब्द०)। २. भिदना। फटना। ३. नष्ट होना। ४. पाकर का पेड़। ५. हाथी के पैर का सिक्कड़।

भिदुर (२)
वि० १. भेदने या छेदनेवाला। २. जो आसानी से टूट जाय। तनुक। ३. मिश्रित। मिला जुला [को०]।

भिदेलिम
वि० [सं०] आसनी से टूट जानेवाला [को०]।

भिद्य (१)
वि० [सं०] भेदनीय।

भिद्य (२)
संज्ञा पुं० तीव्र प्रवाह द्वारा कगारों को काटने हुए वहनेवाला नद।

भिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र।

भिनकना
क्रि० अ० [अनु०] १. भिन्न भिन्न शब्द करना। (माक्खियों का)। मुहा०—किसी पर मक्खियाँ भिनकना = (१) किसी का इतना अशक्त हो जाना कि उसपर मक्खियाँ मिनभिनाया करें और वह उन्हें उड़ा न सके। नितांत असमर्थ हो जाना। (२) बहुत गंदा होना। अत्यंत मलिन रहना। २. किसी काम का अपूर्ण रह जाना। ३. घृणा उत्पन्न होना। जैसे,—अब तो उनकी सूरत देखकर जी भिनकता है।

भिनभिन
संज्ञा पुं० [अनु०] भिन भिन की ध्वनि।

भिनभिनाना
क्रि० अ० [अनु०] भिन्न भिन्न शब्द करना।

भिनभिनाहट
संज्ञा स्त्री० [अनु० भिनभिनाना + आहट (प्रत्य०)] भिनभिनाने की क्रिया या भात।

भिनसार †
संज्ञा पुं० [सं० विनिशा अथवा देश०] प्रभात। सबेरा। प्रातःकाल।

भिनुसरवा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बिनुसार + वा] दे० 'भिनसार'। उ०—राति जखनि भिनुसरवा रे पिया आएल हमार।— विद्यापति. पृ० ५५२।

भिनुसार
संज्ञा पुं० [हिं० भिनुसार, विहान] सबेरा। प्रभात। प्रातःकला। उ०—गा अँधियार रैनि मसि छूटी। भा भिनुसार किरन रबि फूटी।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२७।

भिनहीं
क्रि० वि० [सं० विनिशा] सबेरे। तड़के। प्रातःकाल।

भिन्न (१)
वि० [सं०] १. अलग। पृथक्। जुदा। जैसे,—ये दोनों बातें एक दूसरी से भिन्न हैं। २. कटा हुआ। छिन्न (को०)। ३. प्रस्फुटित। विकसित (को०)। ४. अस्तव्यस्त। इतस्ततः (को०)। ५. परिवर्तित। ६. शिथिलीकृत। ठीला किया हुआ (को०)। ७. मिश्रित। एक में मिला जुला (को०)। ७. खड़ा या उठा हुआ। जैसे, रोआँ (को०)। ८. इतर। दूसरा। अन्य। जैसे,—इस से भिन्न और कोई कारण हो ही नहीं सकता।

भिन्न (२)
संज्ञा पुं० १. नीलम का एक दोष जिसके कारण पहननेवाले को पति, पुत्रादि का शोक प्राप्त होना माना जाता है। २. वह संख्या जो इकाई से कुछ कम हो। (गणित)। ३. पुष्प। कुसुम (को०)। ४. किसी तेज धारवाले शस्त्र आदि से शरीर के किसी भाग का कट जाना। (वैद्यक)।

भिन्नक
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध।

भिन्नकट
वि० [सं०] मत्त। मस्त (हाथी)।

भिन्नकरट
संज्ञा पुं० [सं०] मस्त हाथी।

भिन्नकर्ण
वि० [सं०] (पशु) जिसके कान कटे हों।

भिन्नकूट
वि० [सं०] बिना सेनापति की (सेना)। विशेष—कौटिल्य ने मिन्नकूट और अंध (अशिक्षित) सेनाओं में से भिन्नकूट को अच्छा कहा है, क्योंकि उसमें जनता शासन को नष्ट करने के लिये एक नहीं हो सकती। वह सेनापति का प्रबंध हो जाने पर लड़ सकती है।

भिन्नक्रम
वि० [सं०] जिसका क्रम भंग हो। वे सिलसिले। दोष- युक्त [को०]।

भिन्नगति
वि० [सं०] तीव्रगति से जानेवाला [को०]।

भिन्नगर्भ
वि० [सं०] जिसका व्यूह विखर गया हो। अव्यवस्थित या अस्तब्यस्त (सेना)।

भिन्नगभिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्कटी। ककरी [को०]।

भिन्नगुणन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी भाग या अंश का गुण [को०]।

भिन्नघन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी सख्या का घन निकालना। घनमूल मालूम करना [को०]।

भिन्नात
संज्ञा स्त्री० [सं०] भिन्न होने का भाव। अलग होने का भाव। अलगाव। भेद। अंतर।

भिन्नत्व
संज्ञा पुं० [सं०] भिन्न होने का भाव। जुदाई।

भिन्नदर्शी
वि० [सं० भिन्नदर्शिन्] पक्षपाती। किसी तरफ का। किसी ओर वाला [को०]।

भिन्नदेश, भिन्नदेशीय
वि० [सं०] अन्य देश संबंधी। अन्यदेशीय। दूसरे देश का [को०]।

भिन्नदेह
वि० [सं०] आघातयुक्त। आहत। क्षत विक्षत [को०]।

भिन्नभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] किसी बर्तन का या घड़े का टुकड़ा [को०]।

भिन्नभिन्नात्मा
वि० [सं० भिन्नभिन्नात्मन्] चना [को०]।

भिन्नमंत्र
वि० [सं० भिन्नमन्त्र] भेद खोलनेवाला।

भिन्नमनुष्या
वि० स्त्री० [सं०] वह (भूमि) जिसमें भिन्न भिन्न जातियों, स्वभावों और पशों के लोग बसते हों। विशेष—कोटिल्य ने प्रचलित राजशासन की रक्षा के विचार से ऐसे देश को अच्छा कहा है, क्यौंकि उसमें जनता शासन को नष्ट करने के लिये एक नहीं हो सकती।

भिन्नमर्याद
वि० [सं०] १. जिसने मर्यादा भंग कर दी है। २. जो निर्धन हो। आनियंत्रित [को०]।

भिन्नमर्यादी
वि० [सं० भिन्नमर्यादिन्] दे० 'भिन्नमर्याद'।

भिन्नमुद्र
वि० [सं०] जिसकी मुद्रा या मोहर टूट गई हो।

भिन्नयोजनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भावप्रकाश के अनुसार पाषाण- भेदक नाम का पौधा [को०]।

भिन्नरुचि
वि० [सं०] अलग अलग रुचिवाला [को०]।

भिन्नवर्ण
वि० [सं०] १. दूसरे वर्ण का। २. विवर्ण। विव- रन [को०]।

भिन्नवृत्त
वि० [सं०] १. बुरा जीवन व्यतीत करनेवाला। जिसमें छददीष हो। २. छद संबंधी दोष से युक्त।

भिन्नवृत्ति
वि० [सं०] १. बुरा जीवन व्यतीत करनेवाला। भ्रष्ट। २. भिन्न रुचि या भाववाला। ३. दूसरे पेशे का।

भिन्नव्यवकलित
संज्ञा पुं० [सं०] अंकों का व्यवकलन या विया- जन [को०]।

भिन्नसंहति
वि० [सं०] संबंधविच्छिन्न। वियुक्त [को०]।

भिन्नहृदय
वि० [सं०] १. जिसका हृदय छिद गया हो। २. दुखी मन का। निराश [को०]।

भिन्नाना
क्रि० अ० [अनु०] चकराना।

भिन्नार्थ
वि० [सं०] १. भिन्न प्रयोजन या उद्देश्यवाला। २. जिसका अर्थ स्पष्ट हो। स्पष्टार्थक [को०]।

भिन्नोदर
संज्ञा पुं० [सं०] सौतेला भाई।

भियना पु †
क्रि० अ० [सं० भीत] भयभीत होना। डरना। उ०—(क) कलि मल खल दल भारी भीति भियो है।— तुलसी (शब्द०)। (ख) ढोली करि दाँवरी दावरी साँवरेहि देखि, सकुचि सहभि सिसु भारी भय भियो है।—तुलसी (शब्द०)।

भिया †
संज्ञा पुं० [हिं० भेया] भाई। भ्राता।

भियानी पु ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] स्वाहो। रोशनाई। उ०— कागद सात अकास बनावै। सात समुद्र भियानी लावै।— हिंदी प्रेमगाथा० पृ० २७७।

भिरंगी पु †
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्ग] एक प्रकार का कीड़ा। वि० दे० 'भृंग'। उ०—मोरे लगि गए बान सुरंगी हो। धन सतगुर उपदेश दियो है होइ गयो चित्त भिरंगी हो।— संतबानी०, भा० २, पृ० १३।

भिरना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भिड़ना'। उ०—आवत देसन लेत सिवा सरजे मिलिहौ भिरिहौ कि भगैहौ।—भूषण ग्रं०, पृ० ३१३।

भिरिंग
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्ग] दे० 'भृंग'।

भिरिंटिका
संज्ञा स्त्री० [सं० भिरिण्टिका] श्वेत गुंजा। सुफेद घुँघची [को०]।

भिलनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भील] भील जाति की स्त्री।

भिलनी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का धारीदार कपड़ा या चारखाना।

भिलना †
क्रि० अ० [देश०] मिलना। संयुक्त होना। उ०—गहरं, दुरदान भद्रान मद्दी। भिली साइरं जानि निव्वान नद्दी।—पृ० रा०, २।२३७।

भिलावाँ
संज्ञा पुं० [सं० भल्लातक] १. एक प्रसिद्ध जंगली वृक्ष जो सारे उत्तरी भारत में आसाम से पंजाब तक और हिमालय की तराई में ३५०० फुट की ऊँचाई तक पाया जाता है। विशेष—इसके पत्ते गूमा के पत्तों के समान होते हैं। इसके तने को पाछने से एक प्रकार का रस निकलता है जिससे वार्निश बनता है। इसमें जामुन के आकार का एक प्राकरा का लाल फल लगता है जो सूखने पर काला और चिपटा हो जाता है और जो बहुधा औषध के काम में आता है। कच्चे फलों की तरकारी भी बनती है। पक्के फल को जलाने से एक प्रकार का तेल निकलता है जिसके शरीर में लग जाने से बहुत जलन और सूजन होती है। इस तेल से बहुधा भारत के धोबी कपड़े पर निशान लगाते हैं जो कभी छूटता नहीं। इसमें फिटकरी आदि मिलाकर रंग भी बनाया जाता है। कच्चे फल का ऊपरी गूदा या भीतरी गिरी कहीं कहीं खाने के काम में भी आती है। वैद्यक में इसे कसैला, गरम, शुक्रजनक, मधुर, हलका तथा वात, कफ, उदररोग, कुष्ट, बवासीर, संग्रहणी, गुल्म, ज्वर आदि का नाशक माना है। पर्या०—अरुष्कर। शोथहृत। चह्विनामा। वीरतरु। व्रणवृंत भूतनाशन। अग्निमुखी। भल्ली। शैलबीज। वातारि। धनुर्वृक्ष। बीजपःदप। वह्नि। महातीक्ष्ण। अग्निक। स्फोटहेतु। रक्तहर।

भिल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भील'।

भिल्लगवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीलगाय।

भिल्लतरु
संज्ञा पुं० [सं०] लोध।

भिल्लभूषण
संज्ञा पुं० [सं०] घुँघची। गुंजा [को०]।

भिल्लीर
संज्ञा स्त्री० [देश० या सं० भल्ल(=तीर का फल)] भल्लिका। तीर का अग्र भाग। उ०— सननन सोर भिल्लरिय षनन धर धार षलकिक्य। —पृ० रा० २ २८३।

भिल्लोट, भिल्लोटक
संज्ञा पुं० [सं०] लोध का पेड़। लोध्र। वृक्ष [को०]।

भिश्त पु †
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० विहिश्त] वैकुंठ। स्वर्ग। उ०— अलख अकल जानै नही जीवल जहन्नम लोय। हरदम हरि जान्या नहीं मिश्त कहाँ ते होय।—कवीर (शब्द०)।

भिश्ती
संज्ञा पुं० [?] मशक द्वारा पानी ढोनेवाला व्यक्ति। सक्का।

भिषक्
संज्ञा पुं० [सं० भिषज्] १. बैद्य। चिकित्सक। २. ओषधि। दवा (को०)। ३. विष्णु का नाम (को०)। ४. देवताओं के वैद्य अश्विनीकुमार (को०)। विशेष— इस अर्थ का प्रयोगद्विवचन में होता है।

भिषक्पाश
संज्ञा पुं० [सं०] कुवंद्य। छद्यवैद्य [को०]।

भिषक्प्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुड़्च।

भिषग
संज्ञा पुं० [सं० भिषज्] भिषज् सब्द का कर्ता कारक एकवचन। दे० 'भिषक्'।

भिषग्जित
संज्ञा पुं० [सं०] दवा। औषध।

बइषग्भद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भद्रदतिका।

भिषग्माता
संज्ञा स्त्री० [सं० भिषग्मातृ] वासक। अड़्सा। अरुसा [को०]।

भिषग्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्कृष्ट बैद्य। श्रेष्ठ चिकित्सक। २. अश्विनीकुमार। दे० 'भिषक्'—३. का विशेष [को०]।

भिषज्
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्य। दे० 'भिषक'।

भिषजावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्ण [को०]।

भिषज्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. रोग का निवारण। २. औषध। दवा [को०]।

भिष्ख
संज्ञा पुं० [सं० भिक्षा] दे० 'भीख'। उ०— नहु मान धनिष्ख भिष्ख भावइय राअ घरहि उत्पत्ति। —कीर्ति०, पृ० ७०।

भिष्टल ‡
वि० [सं० भ्रष्ट] भ्रष्ट। पतित। खराब। उ०— कामी मति भिष्टल सदा, चलै चाल विपरीत। —सहजो०, पृ० १९५।

भिष्ठा †
संज्ञा पुं० [सं० विष्टा] मल। गू। गलीज।भिष्मा, भिष्मिका, भिष्मिटा भिष्मिष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूजा हुआ अन्न। दग्धान्न [को०]।

भिष्षना †पु
क्रि० स० [सं० भिक्षण] भीख माँगना। याचना करना। उ०— सनाह जोति दिष्षयं। मरीच भाने भिष्षयं। सुमट्ट छंद बद्दयं।—पृ० रा०, ७। ४९।

भिसटा पु †
संज्ञा पुं० [सं० विष्टा] मल। गू। गलीज। उ०— अणभजिया भजिया तणी दीसै प्रतष दुसाल। भिसटा तौ वायस भखै, मोती भवे मराल—रघु० रु०, पृ० ४१।

भिसत पु
संज्ञा पुं० [फ़ा० बिहिश्त] स्वर्ग। उ०—पग्यो न दिल प्रभुरै पदपंकज भिसत न त्यातिक भेटै। रघु० रू० पृ० १८।

भिसर
संज्ञा पुं० [सं० भूसुर] ब्राह्मण। (डिं०)।

भिसिणी (१)
संज्ञा पुं० [सं० व्यसनी] व्यसनी (डिं०)।

भिसिणी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० विसिनी] पदि्मनी। कमलिनी [को०]।

भिस्त
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० विहिश्त] 'भिश्त'।

भिस्स
संज्ञा स्त्री० [सं० विस] कमल की जड़। भँसीड़।

भिस्सटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भिष्मा' [को०]।

भिस्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उबाला चावल। भात [को०]।

भिस्सिटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भिष्मा'।

भिहराना †
क्रि० अ० [सं० बिहरणा] भहराना। टूट पड़ना। उ०—इत यह बली व्याल भिहरानी। मधु रिपु-आसन प्रति समुहानौ।—नंद ग्रं०, पृ० २८३।

भिहिलाना ‡
क्रि० अ० [हिं० बिहराना] बिखर जाना। नष्ट होना। उ०—कागज के पुतरी तन जानो वुंद परे भिहि- लाय़ो।—दरिया०, पृ० १००।

भीँगना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'भीगना'।

भीँगी
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गी] १. भँवरा। अलि। २. एक प्रकार का फतिंगा जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि वह किसी भी कृमि को अपने रूप में ले आता है।

भीँचना †
क्रि० स० [हिं० खींचना] १. खींचना। कसना। दबाना। उ०—त्यों तिय भींचि भुजनि मैं पी कूँ।—(शब्द०)। २. मूँदना। ढाँपना। बंद करना (आँख के लिये)। ३. काटना। दातों से काटना।

भीँजना पु
क्रि० अ० [हिं० भीगना] १. आर्द्र होना। गीला होना। तर होना। भीगना। २. पुलकित वा गदगद हो जाना। प्रेममग्न हो जाना। ३. लोगों के साथ हेल मेल बढ़ाना। मेल मिलाप पैदा करना। ४. स्नान करना। नहाना। ५. समा जाना। घुस जाना।

भीँट
संज्ञा पुं० [हिं० भीट] दे० 'भीट'।

भीँटना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'भेटना'। उ०—सुंदर तृष्णा कोढनो कंढी लोभ भ्रतार। इनकौं कबहुँ न भींटिये कोढ लगै तल ख्वार।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७१४।

भीँत
संज्ञा स्त्री० [सं० भित्ति] दे० 'भीत'।

भी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] भय। डर। खौफ। उ०—सुनत आइ ऋषि कुसहरे नरसिंह मंत्र पढ़ि भय भी के।—तुलसी (शब्द०)।

भी (२)
अव्य० [हिं० ही] १. अवश्य। निश्चय करके। जरूर। विशेष—इस अर्थ में इसका प्रयोग किसी एक पदार्थ या मनुष्य के साथ दूसरे पदार्थ या मनुष्य का निश्चयपूर्वक होना सूचित करता है। जैसे,—(क) तुम्हारे साथ में भी चलूँगा। (ख) वेतन के साथ भोजन भी मिलेगा। (ग) सजा के साथ जुरमाना भी होगा।२. अधिक। ज्यादा। विशेष। जैसे—इसपर सन्नाटा और भी आश्चर्यजनक है। ३. तक। लौं। उ०—मनुष्य की कौन कहे, जहाँ तक दृष्टि जाती थी, पशु भी दिखलाई न देता था। —अयोध्यासिंह (शब्द०)।

भीउँ पु
संज्ञा पुं० [सं० भाँम] युधिष्ठिर के छोटे भाई। भीमसेन। उ०—जैसे जरत लच्छ घर साहस कीन्हा भाउँ। जरत खभ तस काढयो कै पुरुषारथ जीउँ।—जायसी (शब्द०)।

भीक (१)
वि० [सं०] डरा हुआ। भीत।

भीक † (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीख] दे० 'भीख'।

भीकर
वि० [सं०] भयंकर। भयावना [को०]।

भीख
संज्ञा स्त्री० [सं० भिक्षा] १. किसी दरिद्र का दीनता दिखाते हुए उदरपूर्ति के लिये कुछ माँगना। भिक्षा। क्रि० प्र०—माँगना। यौ०—भिखमंगा। भिखारी। २. वह धन या पदार्थ जो इस प्रकार माँगने पर दिया जाय। भिक्षा में दी हुई चीज। खैरात। क्रि० प्र०—देना।—पाना।—मिलना।

भीखन पु
वि० [सं० भीषण] भयानक। भयंकर। डरावना। उ०—एरी खनहुँ न सुख लखों दुख है दुखाइ। भीखन भीखन लगत है तीखन तीख बनाइ।—रामसहाय (शब्द०)।

भीखम पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० भीष्म] राजा शांतनु के पुत्र भीष्म पितामह।

भीखम (२)
वि० भयानक। डरावना।

भोगना
क्रि० अ० [सं० अभ्यञ्ज] पानी या और किसी तरल पदार्थ के संयोग के कारण तर होना। आर्द्र होना। जैसे,— वर्षा से कपड़े भींगना, पानी में दवा भीगना। उ०—गगरी भरत सोरी सारी भीगी, सुरख चुनरिया।—गीत (शब्द०)। मुहा०—भोगी बिल्ली होना = भय आदि के कारण दब जाना। बिलकुल चुप रहना। उ०—भीगी बिल्ली हैं और काठ के उल्लू है।—चुभते०, पृ० ५।

भीच
संज्ञा पुं० [डिं०] दे० 'भोचर'। उ०—जीता भीच अजीत रा, ईंदै पाई हार।—रा० रू०, पृ० ६१।

भीचर
संज्ञा पुं० [डिं०] सुमट। वीर।

भीछ पु
संज्ञा पुं० [देश०] सुभट। भीच। भीचर। उ०—तब बहुरयौ पारस फिरिय फिरयौ भीछ चहुआन।—पृ० रा०, २५।५९२।

भीजना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'भीगना'। २. भारी होना। बढ़ना। उ०—बूड़ि बूड़ि तरैं औधि याह घनआनंद यौं जीव सूक्यौ जाय ज्यौं ज्यौं भीजत सरवरी।—घनानंद० पृ० २०।

भीट
संज्ञा पुं० [देश०] १. ढूहेवाली जमीन। टीलेदार भूमि। उभरी हुई पृथ्वी। २. वह ऊँची भूमि जहाँ पान की खेती होती है। भीटा। ३. एक प्रकार की तौल जो प्रायः मन भर के बराबर होती है।

भाटन
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भीटा'।

भीटना †
क्रि० स० [हिं०] भेटना। मिलना। उ०—सुंदर तृष्णा चूहरी लोभ चूहरो जानि। इनके भीटे होत है ऊँचे कुल की हानि।—सुंदर० ग्रं०, भा० २. पृ० ७४१।

भीटा
संज्ञा पुं० [देश०] १. आसपास की भूमि से कुछ उभरी हुई भूमि। ऊँची वा टीलेदार जमीन। २. वह बनाई हुई ऊँची और ढालुआँ जमीन जिसपर पान की खेती होती है और जो चारों ओर से छाजन या लताओं आदि से ढकी हुई होती है। वि० दे० 'पान'।

भीड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० भिड़ना] १. एक ही स्थान पर बहुत से आदमियों का जमाव। जनसमूह। आदमियों का झुंड। ठठ। जैसे,—(क) इस मेले में बहुत भीड़े होती है। (ख) रेल में बहुत भीड़ थी। क्रि० प्र०—करना।—लगना।—लगाना।—होना। मुहा०—भीड़ चीरना = जनसमूह की हटाकर जाने के लिये मार्ग बनाना। भीड़ छँटना = भीड़ के लोगों का इधर उधर हो जाना। भीड़ न रह जाना। २. संकट। आपत्ति। मुसीबत। जैसे,—जब तुम पर कोई भोड़ पड़े, तब मुझसे कहना। क्रि० प्र०—कटना।—काटना।—पड़ना।

भीड़न
संज्ञा स्त्री० [हिं० भिड़ना] मलने, लगाने या भरने की क्रिया।

भीड़ना पु †
क्रि० स० [हिं० भिड़ाना] १. मिलाना। लगाना। २. मलना। उ०—करि गुलाल सों धुंधरित सकल ग्वा- लिनी ग्वाल। रोरी भोड़न के सुमिस गोरी गहे गोपाल।—पद्माकर (शब्द०)।

भीड़ भड़का
संज्ञा पुं० [हिं० भीड़ + भड़क्का अनु०] बहुत से आदमियों का समूह। भीड़।

भीड़भाड़
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीड़ + भाड़ अनु०] मनूष्यौं का जमाव। जनसमूह। भोड़।

भीड़ा (१)
संज्ञा स्त्री० [प्रा० भिड़] दे० 'भीड़'।

भीड़ा (२)
वि० [हिं० भिड़ना] संकुचित। तंग। जैसे, भीड़ी गली। उ०—महत जी ने कहा कि स्वामी, गली बहुत भीड़ी है। लोगों का आना जाना रुक गया।/?/(शब्द०)।

भीड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वृन्तिका हिं० भिंड़ी] भिंडी। रामतरोई। उ०—बनकोरा पिड़ि साची चीड़ी। खोप पिंडारू कोमल भीड़ी।—सूर (शब्द०)।

भीड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीड़] जनसमूह। भीड़।

भीत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भित्ति] १. भित्तिका। दीवार। मुहा०—भीत में दौड़ना या दौरना = अपने सामर्थ्य से बाहर अथवा असंभव कार्य करना। उ०—बालि बला खर दूषन और अनेक गिरे जे जे भीत में दौरे।—तुलसी (शब्द०)। भीत के विना चित्र बनाना = बे सिर पैर की बात करना। बिना प्रमाण की बात करना। उ०—तात रिस करत भ्राता कहै मारिहौं मीति बिन चित्र तुग करत रेखा।—सूर (शब्द०)। २. विभाग करनेवाला परदा। २. चटाई। ४. छत। गच। ५. खंड। टुकड़ा। ६. स्थान। ७. दरार। ८ कोर। कसर। त्रुटि। ९. अवसर। अवकाश। मौका।

भोत (२)
वि० [सं०] [स्त्री० भीता] डरा हुआ। जिसे भय लगा हो। उ०—कनक गिरि शृंग चढ़ि दखि मर्कट कटक बदत मदोदरी परम भीता।—तुलसी (शब्द०)।

भीत (३)
संज्ञा पुं० भय। डर।

भीतगायन
संज्ञा पुं० [सं०] डरता हुआ या मुँहचोर गवैया।

भीतचारी
वि० [सं०] डरना। हुआ काम करनेवाला।

भीतड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० भीतर] मकान। गृह। उ०—कवरीजै जस गीतड़ा गया भीतड़ा भाग।—बाँकी० ग्र० भा० १, पृ० ४९।

भीतर (१)
क्रि० वि० [सं० अभ्यन्तर देशी भित्तर, भीतर] अदर। में जैसे,—घर के भीतर, महीन भर के भीतर, सौ रुपए के भीतर। उ०—भरत मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पह आए।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—भीतर का कूआँ = वह उपयोगी पदार्थ जिससे कोई लाभ न उठा सके। अच्छी, पर किसी के काम न आ सकने योग्य चीज। उ०—सूरदास प्रभू तुम बिन जोबन घर भीतर को कूप।—सूर (शब्द०)। भीतर पैठकर देखना = तत्व जानना। असलियत जाँचना।

भीतर (२)
संज्ञा पुं० १. अंत करण। हृदय। जैसे,—जो बात भीतर से न उठे, वह न करनी चाहिए। मुहा०—भीतर ही भीतर = मन ही मन। हृदय में। २. रनिवास। जनानखाना। उ०—अवधनाथ चाहत चलन भीतर करहु जनाउ। भए प्रेम बस सचिव सुनि विप्र सभासद राउ।—तुलसी (शब्द०)।

भीतरा
वि० [देशी भीतर] भीतर या जनानखाने में जानेवाला। स्त्रियों में आने जानेवाला।

भीतरि पु
अव्य० [हिं० भीतर] दे० 'भीतर'। उ०—करि गहि लई उठाइ पकरि गृह भीतरि लाई।—नद० ग्रं०, पृ० १९६।

भीतरिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० भीतर + इया (प्रत्य०)] १. वह जो भीतर रहता हो। २. वल्लभीय ठाकुरों के वे प्रधान पुजारी आदि जो मंदिर के भीतर मूर्ति के पास रहते हैं। (सब लोगों को मदिर के भीतर जाने का अधिकार नहीं होता)।

भीतरिया (२)
वि० भीतरवाला। अंदर का। भीतरी।

भीतरी
वि० [हिं० भीतर + ई (प्रत्य०)] १. भीतरवाला। अंदर का। जैसे, भीतरी कमरा; भीतरी दरवाजा। मुहा०—भीतरी आँखें अंधी होना = विवेक न होना। ज्ञान न होना। उ०—देख करके ही किसी ने क्या किया, साँसतें सह जातियाँ कितनी मुईं। तब हुआ क्या बाहरी आँखें बचे, जब कि आँखें भीतरी अंधी हुई।—चुभते०, पृ० ४९। २. छिपा हुआ। गुप्त। जैसे,—भीतरी बात, भीतरी वैमनस्य। ३. दे० 'भीतरी टाँग'।

भीतरी टाँग
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीतरी + टाँग] कुश्ती का एक पेंच। विशेष—जब शत्रु पीठ पर रहता है, तव मौका पाकर खिलाडी भीतर से ही टाँग मारकर विपक्षी को गिराता है। इसी को भोतरी टाँग कहते हैं।

भिति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डर। भय। खाफ। उ०— वानरेंद्र तव यों इंसि बोल्यो। भीति भेद जिय को सब खोल्यो।—केशव (शब्द०)। २. कंप।

भीति (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भित्ति हिं० भीत] दीवार। उ०—रही मिलि भीति पै सभोति लोक लाज भोजी।—घनानंद, पृ० २०७।

भीतिकर
वि० [सं०] भयंकर। भयावना। डरावना।

भीतिकारी
वि० [सं०] भयंकर। भयावना। डरावना। वना। खौफनाक।

भीतिच्छिद्
वि० [सं०] भय को दूर करनेवाला [को०]।

भीती पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० भित्ति] दीवार। उ०—परम प्रेम भय मृदु मसि कीनी। चारु चित्त भोती लिखि दीनी।—तुलसी (शब्द०)।

भीती (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० भीति] डर। भय। उ०—चंद्र की दुति गई पहैं पीरी भई सकुच नाहीं दई अति ही भंती। —सूर (शब्द०)।

भीती (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्तिकेय की एक अनुचरी या मातृका का नाम।

भोन पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बीहान] सवेरा। प्रातःकाल। उ०— काहू सों न कहो यह गहो मन माँझ एरी तेरी सौं सुनैगी जो पै आत रहें भोन है।—प्रियादास (शब्द०)।

भीनना
क्रि० अ० [हिं० भींगना] भर जाना। समा जाना। पैवस्त हो जाना। जैसे,—जहर रग रग में भीन गया है। उ०—(क) कौन ठगौरी भरी हरि आजु वजाइ है बाँसुरिया रंगभीनी।—रसखान (शब्द०)। (ख) रुकमिनि अँसुवन भीनी पुनि हरि अँसुर्वन भीनी।—नंद० ग्रं०, पृ० २०५।

भीना †
संज्ञा स्त्री० [सं० भिन्न] भिन्नता। अलगाव। उ०—मैं हूँ जीव करम बहु कीना। कैसे, यम सो करि हो भीना।—कबीर सा०, पृ० ५४९।

भीनी
वि० [हिं० भींगना] १. आर्द्र। सिक्त। २. हल्दी और मीठी (खुशबू)। जैसे—कैसी भीनी भीनी खुशबू आ रही है।

भीमंग पु
वि० [सं० भीमाङ्ग] भयंकर अगवाला। भयस्वरूप। उ०—जनु कि भीम भीमग दंत दंतीय उछारन। जनु कि गलगज्जि बज्जि पनग गरुड़ बहु पारन।—पृ० रा०, ८।३१।

भीम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भयानक रस। १. शिव। ३. विष्णु। ४. अम्लेबेत। ५. महादेव की आठ मूर्तियों के अंतर्गत एकमूर्ति। ६. एक गंधर्व का नाम। ७. पाँची पांडवों में से एक जो वायु के संयोग से कुंती के गर्भ से उत्पन्न हुए थें। (जन्मकथा के लिये दे० 'पांडु')। विशेष—ये युधिष्ठिर से छोटे और अर्जुन से बड़े थे। ये बहुत बड़े वीर ओर बलवान् ये। कहते हैं, जन्म के समय जब ये माता की गोद से गिरे थे, तब पत्तऱ टूटकर टुकड़े टुकड़े हो गया था। इनका और दुर्योधन का जन्म एक ही दिन हुआ था। इन्हें बहुत बलवान् देखकर दुर्योधन ने ईर्ष्या के कारण एक बार इन्हें विष खिला दिया था और इनके बेहोश हो जाने पर लताओं आदि से बाँधकर इन्हें जल में फेंक दिया था। जल में नागों के डसने के कारण इनका पहला विष उतर गया और नागराज ने इन्हें अमृत पिलाकर और इनमें दस हजार हाथियों का बल उत्पन्न कराके घर भेज दिया था। घर पहुँचकर इन्होंने दुर्योधन की दुष्टता का हाल सबसे कहा। पर युधिष्ठिर ने इन्हें मना कर दिया कि यह वात किसी से सत कहना; और अपने प्राणों की रक्षा के लिये सदा वहुत सचेत रहना। इसके उपरांत फिर कई बार कर्ण और शंकुनि की सहायता से दुर्योधन ने इनकी हत्या करने का विचार किया पर उसे सफलता न हुई। गदायुद्ध में भीम पारगत थे। जब दुर्योधन ने जतुगृह में पांडवों को जलाना चाहा था, तव भीम ही पहले से समाचार पाकर माता और भाइयों को साथ लेकर वहाँ से हट गए थे। जंगल में जाने पर हिंडिंब की वहन हिडिंबा इनपर आसक्त हो गई थी। उस समय इन्होंने हिडंब को युद्ध में मार डाला था और भाई तथा माता की आज्ञा से हिड़िबा से विवाह कर लिया था। इसके गर्भ से इन्हें घटोत्कच नाम का एक पुञ भी हुआ था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के समय ये पूर्व और वंग देश तक दिग्विजय के लिये गए थे और अनेक देशों तथा राजाओं पर विजयी हुए थे। जिस समय दुर्योधन ने जूए में द्रौपदी को जीतकर भरी सभा में उसका अपमान किया था, और उसे अपनी जाँघ पर बैठाना चाहा था; उस समय इन्होंने प्रतिज्ञा की थी की मैं दुर्योधन की यह जाँघ तोड़ डालूँगा और दुःशासन से लड़कर उसका रक्तपान करूँगा। वनवास में इन्होने अनेक जंगली राक्षसों और असुरों को मारा था। अज्ञातवास के समय ये वल्लभ नाम से सूपकार वनकर विराट के घर में रहे थे। जब कीचक ने द्रौपदी से छेड़छाड़ की थी, तब उसे भी उन्होंने मारा था। महाभारत युद्ध के समय कुरुक्षेत्र में इन्होंने अपनी प्रतिज्ञा का पालन किया था। दुर्योधन के सब भाइयों को मारकर दुर्योधन की जाँघ तोड़ी थी और दुशासन की भुजा तोड़कर उसका रक्त पीया था। महाप्रस्थान के समय भी ये युधिष्ठिर के साथ थे और सहदेव, नकुल तथा अर्जुन तीनों के मर जाने के उपरांत इनकी मृत्यु हुई थी। भीमसेन, वृकोदर आदि इनके नाम हैं। मुहा०—भीम के हाथी = भीमसेन के फेंकें हुए हाथी। विशेष—कहा जाता है, एक बार भीमसेन ने सात हाथी आकाश में फेंक दिए थे जो आज तक वायुमंडल में ही घूमते हैं, लौटकर पृथ्वी पर नहीं आए। इसका व्यवहार ऐसे पदार्थ या व्यक्ति के लिये होता है जो एक बार जाकर फिर न लौटे। उ०—अब निज नैन अनाथ भए। मधुबन हू ते माधव सजनी कहियत दूरि गए। मथुरा बसत हुती जिय आशा यह लागत व्यवहार। अव मन भयौ भीम के हाथी सुपने अगम अपार।—सूर (शब्द०)। ८. विदर्भ के एक राजा जिन्हें दमन नामक ऋषि के वर से दम, दांत और दमन नामक तीन पुत्र तथा दमयंती नाम की कन्या हुई थी। ९. महर्षि विश्वामित्र के पूर्वपुरुष जो पुरुरवा के पौत्र थे। १०. कुभकर्ण के पुत्र का नाम जो रावण की सेना का एक सेनापति था।

भीम (२)
वि० १. भीषण। भयानक। भयंकर। २. बहुत बड़ा।

भीमक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक प्रकार के गण जो पार्वती के क्रोध से उत्पन्न हुए थे।

भीमकर्मा
वि० [सं० भीमकर्मन्] १. भयंकर काम करनेवाला। २. महापराक्रमी। अत्यंत शक्तिशाली [को०]।

भीमकार्मुक
वि० [सं०] जिसका धनुष विशाल हो। बहुत बड़े धनुषवाला [को०]।

भीमकुमार
संज्ञा पुं० [सं०] भीमसेन के पुत्र घटोत्कच।

भीमचंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० भीमचण्ड़ी] एक देवी का नाम।

भीमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] भीम या भयानक होने का भाव। भयंकरता। डरावनापन। उ०—कौन के तेज बलसीम भट भीम से भीमता निरखि करि नैन ढाँके।—तुलसी (शब्द०)।

भीमतिथि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'भीमसेनी एकादशी'।

भीमदर्शन
वि० [सं०] भीम रूपवाला। जिसे देखने से डर लगे [को०]।

भीमद्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ शुक्ल द्वादशी तिथि [को०]।

भीमनाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिंह। शेर। २. भयंकर आवाज। ३. प्रलयकाल में प्रगट होनेवाला एक जलद (को०)।

भीमपराक्रम (१)
वि० [सं०] जिसका पराक्रम भष पैदा करे। महाबली।

भीमपराक्रम (२)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम [को०]।

भोमपलाशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संपूर्ण जाति की एक संकर रागिनी जिसके गाने का समय २१ दंड से २४ दंड तक है। यह धनाश्री और पूर्वी को मिलाकर वनाई गई है। इसमें गांधार, धैवत और निषाद तीनों स्वर कोमल और बाकी शुत लगते हैं। इसमें पंचम नादी और मध्यम संवादी होता है। कुछ लोग इसे श्रीराम की पुत्रवधू भी मानते हैं।

भीमपुर
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुंडिनपुर।

भीमबल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की अग्नि। २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम।

भीमबल (२)
वि० दे० 'भीमपराक्रम'।

भीममुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का बाण। (रामायण)। २. एक वानर का नाम।

भीमयु
वि० [सं०] भयानक। खतरनाक [को०]।

भीमर
संज्ञा पुं० [सं०] १. युद्ध। समर। २. गुप्तचर। जासूस। भेदिया (को०)।

भीमरथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक असुर जिसे विष्णु ने अपने कूम अवतार में मारा था। २. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम। ३. विकृति के एक पुत्र का नाम। ४ कृष्ण के एक पुत्र का नाम (को०)।

भीमरथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार सहय पर्वत से निकली हुई एक नदी जिसमें स्नान करने का बहुत माहात्म्य है। २. वैद्यक के अनुसार मनुष्य की वह अवस्था जो ७७ वें वर्ष के सातवें मास की सातवीं रात समाप्त होने पर होती है। कहते हैं, मनुष्य के लिये यह रात बहुत कठिन होती है; और जो इसे पार कर जाता है, वह बहुत पुण्यात्मा होता है।

भीमरा (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'भीमा' (नदी)।

भीमरा (२)
वि० भीषण। भयंकर।

भीमराज
संज्ञा पुं० [सं० भृङ्गराज] एक प्रसिद्ध चिड़िया जो काले रग की होती है। विशेष—इसकी टाँगें छोटी और पजे बहुत बड़े होते हैं और इसकी दुम से केवल १० पर होते हैं। यह प्रायः कीड़े मकोड़े खाती है और कभी कभी बड़ी चिड़ियों पर भी आक्रमण करती है। वह बहुत लड़ाकी होती है और छोटी छोटी चिड़ियों को, जिन्हें पकड़ लकती हैं, निगल जाती है। यह बोली की नकल करना बहुत अच्छा जानती है और अनेक पशुओं तथा मनुष्य की बोली बोल सकती है। इसकी स्वाभाविक बोली भी बहुत सुंदर होती है। यह अपना घोंसला खुले हुए स्थानों में वनाती है। इसकी अडों पर लाल वा गुलाबी धव्वे होते हैं।

भीमरिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुराणानुसार सत्यभामा के गर्भ से उत्पन्न श्रीकृष्ण की एक कन्या।

भीमल
वि० [सं०] भयानक। डरावना [को०]।

भीमविक्रम
वि० [सं०] डरावनी या भयानक शक्तिवाला।

भीमविक्रांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० भीमविक्रान्त] सिंह।

भीमविक्रांत (२)
वि० महाबलशाली [को०]।

भीमविग्रह
वि० [सं०] भयानक आकृति या शरीर वाला [को०]।

भीमवेग
वि० [सं०] अत्यंत तीव्र गति या वेगवाला [को०]।

भीमशंकर
संज्ञा पुं० [सं० भीमशङ्कर] भगवान् शंकर के द्वादश पवित्र लिंगों में से एक। यह ज्योतिलिंग पूना जिले के डाकिनी नामक स्थान में हैं।

भीमशासन
संज्ञा पुं० [सं०] यमराज का एक नाम [को०]।

भीमसेन
संज्ञा पुं० [सं०] युधिष्ठिर के छोटे भाई भीम। वि० दे० 'भीम'।

भीमसेनी
संज्ञा पुं० [हिं० भीमसेन + ई (प्रत्य़०)] भीमसेनी कपूर।/?/वनाम। दे० वि० 'कपूर'।

भीभसेनी (२)
वि० भीमसेन संबंधी। भीमसेन का। जैसे, भीमसेनी एकादशी।

भीमसेनी एकादशी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीमसेनी + एकादशी] १. ज्येष्ठ शुक्ला एकादशी। निर्जला एकादशी। २. माघ शुक्ला एकादशी।

भीमसेनी कपूर
संज्ञा पुं० [सं० भीमसेनी + कपूर] दे० 'कपूर'।

भीमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रोचना नाम का गंधद्रव्य। २. कोड़ा। चाबुक। ३. दक्षिण भारत की एक नदी जो पश्चिमी घाट से निकलकर कृष्णा नदी में मीलती है। ४. दुर्गा। ५. एक प्रकार की नाव। ४० हाथ लंबी, २० हाथ चौड़ी तथा १० हाथ ऊँची नाव। (युक्तिकल्पतरु)।

भीमा (२)
वि० स्त्री० भंयकर। भीषण।

भीमान्
वि० [सं० भीमत्] भयंकर। भयावह।

भीमू
संज्ञा पुं० [डिं०] भीमसेन।

भींमोत्तर
संज्ञा पुं० [सं०] कुम्हाखा। कूष्मांड।

भीमोदरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा का एक नाम।

भीम्राथली
संज्ञा पुं० [देश०] घोड़ों की एक जाति। उ०—जापानी पर्वती चीनिया भोटी ब्रह्मा देशी। धन्नी भीम्र थली काठिया मारवाड़ मधि देशी।—रघुराज (शब्द०)।

भीया पु †
संज्ञा पुं० [हिं० भैया] भाई। उ०—गोरख भँगि भषी नहिं कबहू सुरापान नहिं पीया। झूठहिं नाव लेत सिद्धत कौ नरक जाहिगौ भीया।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७१।

भीर पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० भीड़] १. दे० 'भीड़'। २. कष्ट। दुःख। तकलीफ। ३. संकट। विपत्ति। आफत। उ०— (क) जब जब भीर परत संतन पर तब तब होत सहाई।— तुलसी (शब्द०)। (ख) भोर बाँह पीर की निपट राखी महाबीर काम के सकोच तुलसी कै मोच भारी।—तुलसी (शब्द०)। (ग) अपर नरेश करै कोउ भीरा। बेगि जनाउब धर्मज तीरा।—सबल (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना।—पड़ना।

भीर (२)
वि० [सं० भीरु] १. डरा हुआ। भयभीत। उ०—वामदेव राम को सुभाव सील जानि जिय नातो नेह जानियत रघुवीर भीर हौं।—तुलसी (शब्द०)। २. डरपोक। डरनेवाला। कायर। साहसहीन। उ०—नृपहिं प्रान प्रिय तुम रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भोरा—तुलसी (शब्द०)।

भीरना पु
क्रि० अ० [सं० भी या हिं० भीरु] डरना। भयभीत होना। उ०—सुनौ एक बात सुत तिया लै करौ तगात चीरें धीरें भीरें नाहिं पीछे उन भाषिए।—प्रियादास (शब्द०)।

भीरा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो मध्य भारत तथा दक्षिण भारत में होता है। इसकी लकड़ियों से शहतीर बनते हैं और इनमें से गोंद, रंग और तेल निकलता है।

भीरा (२)
संज्ञा स्त्री० दे० 'भीर' या 'भीड़'।

भीरा (३)
वि० [सं० भीरु] डरपोक। कायर।

भीरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. अरहर की टाल। २. अरहर का बोझ। ३. भीड़। गुट। समूह। उ०—कहत कि सुनहु मिया ही हीरी। अवर खेल खेलहु बटि भीरी।—नंद० ग्रं०, पृ० २८५।

भीरु (१)
वि० [सं०] डरपोक। कायर। बुजदिल। कादर।

भीरु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शतावरी। कंटकारी। भटकटैया। ३. बकरी। ४. छाया। ५. भीत या डरपोक स्त्री। ६. रजत। चाँदी (को०)।

भीरु (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. श्रुंगाल। सियार। गीदड़। २. व्याघ्र। वाघ। ३. ऊख की एक जाति। ४ खजूर (को०)।

भीरुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वन। जंगल। २. उल्लू। ३. एक प्रकार की ईख। ४. चाँदी ५. व्याघ्र (को०)। ६. भालू। भल्लूक (को०)। ७. सियार। शृगाल (को०)।

भीरुक (२)
वि० डरपोक। कायर।

भीरुचेता (१)
संज्ञा पुं० [सं० भीरुचेतस्] हिरण।

भीरुचेता (२)
वि० डरपोक।

भीरुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डरपोकपन। कायरता। बुजदिली। २. जर। भय।

भीरुताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भीरुता + ई] दे० 'भीरुता'।

भईरुत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भीरुता'।

भीरुपत्री, भीरुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'शतमूली'।

भीरुयोध
वि० [सं०] (राज्य या राजा) जिसके योद्धा अर्थात् सैनिक डरनेवाले हों [को०]।

भीरुरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० भीरुरन्ध्र] भट्ठी। चूल्हा।

भीरुसत्व
वि० [सं०] स्वभावतः डरनेवाला [को०]।

भीरुहृदय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] हिरन।

भीरुहृदय (२)
वि० दे० 'भीरुचेता (२)'।

भीरू (१)
वि० [सं० भीरु] 'भीरु'।

भीरू (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। (डिं०) भीरु स्वभाववाली स्त्री।

भीरे पु †
क्रि० वि० [हिं० भिड़ना] समीप। नजदीक। पास।

भील (१)
संज्ञा पुं० [सं० भिल्ल] [स्त्री० भीलनी] एक प्रसिद्ध जंगली जाति। भिल्ल। उ०—चौदह वरष पाछे आए रघुनाथ नाथ साथ के जे मील कहैं आए प्रभु देखिए।—प्रियादास (शब्द०)। विशेष—बुहत ही प्राचीन काल से यह जाति राजपूताने, सिंध और मध्य भारत के जंगलों और पहाडों में पाई जाती है। इस जाति के लोग बहुत वीर और तीर चलाने में सिद्धहस्त होते हैं। ये क्रूर, भीषण और अत्याचारी होने पर भी सीधे सच्चे और स्वामिभक्त होते हैं। कुछ लोगों का विश्वास है कि ये भारत के आदि निवासी हैं। पुराणों में इन्हें ब्राह्मणी कन्या और तीवर पुरुष से उत्पन्न संकर माना गया है।

भील (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] ताल की वह सूखी मिट्टी जो प्रायः पपड़ी के रूप में हो जाती है।

भीलभूषण
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुंजा। घुँघची।

भीलु
वि० [सं०] भोरु। डरपोक।

भालुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भालू।

भालुक (२)
वि० भोरु। डरपोक।

भीव पु
संज्ञा पुं० [सं० भीम] भीमसेन। उ०—कुमकरन की खोपड़ी बूड़त बाँचा भीव।—जायसी (शब्द०)।

भीष
संज्ञा स्त्री० [सं० भीक्षा] भीख। खैरात।

भोषक
वि० [सं०] भीषण। भयंकर। डरावना।

भीपग †
संज्ञा पुं० [सं०] भिखारी। उ०—रति अनुकूल बिलास घाणाँ रलियामणाँ। भोषण दीसै इंद्र लिबूँ हूँ भाँमणाँ।—बाँधी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ४१।

भीपज पु †
संज्ञा पुं० [सं० भेषज या भिषज्] वैद्य। चिकित्सक।

भीषण (१)
वि० [सं०] १. जो देखने में बहुत भयानक हो। डरावना। २. जो बहुत दुष्ट या उग्र हो।

भीषण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भयानक रस (साहित्य)। २. कुँदरू। ३. कबूतर। ४. एक प्रकार का तालवृक्ष। ५. शिव। महादेव। ६. सलई। ७. ब्रह्मा।

भीषणक
वि० [सं०] भीषण। भयानक।

भीषणता
संज्ञा स्त्र० [सं०] भीषण होने का भाव। डरावनापन। भयकरता।

भीषणाकार
वि० [सं०] भयानक आकृति का। डरावनी शक्ल- सूरत वाला।

भीषणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीता की एक सखी का नाम।

भोपन पु
वि० [सं० भीषण] दे० 'भीषण'।

भीषनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भीषणो] सीता की एक सखी। उ०— श्री भूलीला कांति कृपा योगी ईशाना। उत्कृष्णा भीषनी चंद्रिका कूरा जाना।—प्रियादास (शब्द०)।

भीषम पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० भीष्म] दे० 'भीष्म'।

भीषम † (२)
वि० भयावना। भयंकर।

भीषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. डराना। भय दिखाना। २. डर। भय। भीति [को०]।

भीषित
वि० [सं०] डराया हुआ।

भीष्म (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भयानक रस। (साहित्य)। २. शिव। महादेव। ३. राक्षस। ४. राजा शांतनु के पूत्र जो गंगा के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। देवव्रत। गांगेय। विशेष—कहते हैं, कुरु देश के राजा शांतनु से गंगा ने इस शर्त पर विवाह किया था कि मैं जो चाहूँगी वही करूँगी। शांतनु से गंगा को सात पुत्र हुए थे। उन सबको गंगा ने जनमते ही जल में, फेंक दिया था। जब आठवाँ पुत्र यही देवव्रत उत्पन्न हुआ था, तब शांतनु ने गंगा को उसे जल में फेंकने से मना किया। गंगा ने कहा 'महाराज' आपने अपनी प्रतिज्ञा तोड़दी, अत मैं जाती हूँ। मैने देवकार्य की सिद्धि के लिये आप- से सहवास किया था। आप इस पुत्र को अपने पास रखें। यह बहुत वीर, धर्मात्मा और दृढ़प्रतिज्ञ होगा और आजन्म ब्रह्मचारी रहेगा। गंगा के चले जाने के कुछ दिनों बाद राजा शांतनु सत्यब्रती या योजनगंधा नाम की एक धीवरकन्या पर आसक्त हुए। पर धीवर ने कहा कि मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र ही राज्य का अधिकारी होना चाहिए भीष्म या उसकी संतान नहीं। इसपर देवव्रत ने यह भीष्म प्रतिज्ञा की कि मैं स्वयं राज्य नहीं लूँगा और न आजन्म विवाह ही करूँगा। इसी भीषण प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पडा। शांतनु को उस धीवर कन्या से चित्रांगद और विचित्रवीय नाम के पुत्र उत्पन्न हुए। शांतनु के उपरांत चित्रांगद को राज्य मिला; और चित्रांगद के एक गंधर्व (इसका नाम भी चित्रांगद ही था) द्वारा मारे जाने पर विचित्रवीर्य राजा हुए। एक बार काशिराज की स्वयंवर सभा में से देवव्रत अबा अबिका और अंबालिका नाम की तीन कन्याओं को उठा लाए थे और उनमें से अंबा तथा अंबालिका का विचित्रवीर्य से विवाह कर दिया था। विचित्रवीर्य के निःसंतान मर जाने पर सत्यवती ने देवव्रत से कहा कि तुम विचित्रवीर्य की स्त्रियों से नियोग करके संतान उत्पन्न करो। पर देवव्रत ने आजन्म ब्रह्मचारी रहने का जो व्रत किया था, उसे उन्होंने नहीं तोड़ा। अंत में वेदव्यास से नियोग कराके अंबिका और अंबालिका से धृतराष्ट्र और पांडु नामक दो पुत्र उत्पन्न कराए गए। महाभारत युद्ध के समय देवव्रत ने कौरवों का पक्ष लेकर दस दिन तक बहुत ही वीरतापूर्वक भीषण युद्ध किया था; और अंत में अर्जुन के हाथों घायल होकर शरशय्या पर पड़ गए थे। युद्ध समाप्त होने पर इन्होंने युधिष्ठर को बहुत अच्छे अच्छे उपदेश दिए थे जिनका उल्लेख महाभारत के 'शातिवं' में है। माघ शुक्ला अष्टमी को सूर्य के उत्तारायण होने पर ये अपनी इच्छा से मरे थे। ५. दे० 'भोष्मक'।

भीष्म (२)
वि० भीषण। भयंकर।

भीष्मक
संज्ञा पुं० [सं०] विदर्भ देश के एक राजा जो रुक्मिणी के पिता थे।

भीष्मकसुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रीकृष्ण की स्त्री रुक्मिणी।

भीष्मजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा [को०]।

भीष्मपंचक
संज्ञा पुं० [सं०] कार्तिक शुक्ला एकादशी से पू्र्णिमा तक के पाँच दिन। इन पाँच दिनों में लोग प्रायः व्रत रखते हैं।

भीष्मपर्व
संज्ञा पुं० [सं०] महाभात का एक अंश।

भीष्मपितामह
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'भष्म'।

भीष्ममणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिमालय के उत्तर में होनेवाला एक प्रकार का सफेद रंग का पत्थर या मणि जिसका धारण करना बहुत सुभ समझा जाता है।

भीष्मसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा।

<page n="3667"

भीष्मस्वरराज
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम।

भीष्माष्टमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ शुक्ल अष्टमी, जिस दिन भीष्म ने प्राण त्यागे थे। इस दिन भीष्म के नाम का तपण और दान आदि करने का विधान है।

भीसम पु
संज्ञा पुं० [सं० भीष्म] दे० 'भीष्म'।

भीसुर
वि० [सं० भास्वर, प्रा० भासुर, भीसुर] दे० 'भासुर'। उ०—चद बदण मृगलीचणी भासुर ससदल भाल। नासिका दीपसिखा जिसी गरभ सुकमाल।—ढोला, दू० ४७९।

भुंचना †
क्रि० स० [सं० भुज्, भुञ्ज] खाना। भाजन करना। उ०—भुगत लहु भंडारा भुची मुख ते नाद बजाओ।— प्राण०, पृ० १२५।

भुंजन
संज्ञा पुं० [हिं०] १. भोजन करना।

भुंजना
क्रि० स० [हिं०] १. दे० 'भूजना'। २. खाना। भक्षण करना।

भुंजित
विं० [हिं०] भुना हुआ। भूजा हुआ। उ०—भुंजित धान जगत में जैसे। बोज के काम न आवहि तैसे।—नंद० ग्रं०, पृ० २९९।

भुंटा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'भुट्टा'।

भुंड
संज्ञा पुं० [देश०] १. सूकर। वाराह। २. बाहु। भुजा। उ०—रुड्डांत भुंड मुंडि सुडं, हार रुंड रष्षए।—पृ० रा०, २।२२२।

भुंडली
संज्ञा स्त्री० [हिं० भूरा वा भुंडा] एक कीड़ा जिसे पिल्ला भी कहते हैं। इसके शरीर पर बाल होते हैं जो स्पर्श होने की दशा में शरीर में चुभ जाते हैं और खुजलाहट उत्पन्न करते हैं। कमला। सूडी।

भुंडा
वि० [सं० रुण्ड का अनु०] [स्त्री० भुंडी] बिना सीग का। जिसके सींग न हो (पशु)। २. दुष्ट। उद्दड। उच्छृंखल। निर्बंध।

भुंडी
संज्ञा स्त्री० [हिं० भुंडा] एक छोटी मछली जिसके मूँछें नहीं होती। विशेष—यह गिरई की जाति की होती है। गँवारों की धारणा है कि इसके खाने से खानेवालों को मूँछे नहीं निकलतीं।

भुँइ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि] पृथिवी। भूमि। उ०—अति अनीति कुरीति भइ भुइँ तरनि हूँ ते ताति। जाउँ कहँ बलि जाउँ कहूँ न ठाउ मति अकुलाति।—तुलसी (शब्द०)।

भुँइचाल †
संज्ञा [हिं० भुइँ (= भूमि) + चाल (= चलना, हिलना)] भृकंप। भूवाल। भूडोल। उ०—जनु भुँइचाल चलत नहि परा। टूटी कमल पीठि हिय डरा।—जायसी (शब्द०)।

भुँइधरा
संज्ञा पुं० [हिं० भुँइ + हरा] दे० 'भुँइहरा'।

भुँइफोर
संज्ञा पुं० [हिं० भुइँ + फोड़ना] एक प्रकार की खुभो जो बरसात के दिनों में बाँबी के आस पास निकलती है। यह तरकारी के काम आती है। गरजुआ।

भुँइहरा
संज्ञा पुं० [हिं० भुइँ + घर] वह स्थान जो भूमि के नीचे खोदकर बनाया गया हो। उ०—अस कहि बैठि भुँइहरा माहीं। कियो समाधि तीन दिन काहीं।—रघुराज (शब्द०)। २. पृथ्वी के नीचे बना हुआ कमरा। तहखाना।

भुँईं †
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि] भूमि। पृथ्वी।

भुकाना
क्रि० स० [सं० बुक्क] किसी को भूँकने अर्थात् बहुत बोलने में प्रवृत्त या परेशान करना।

भुगाल
संज्ञा पुं० [अनु०] तुरुही वा भांपा जिसके द्वारा सैनिक नायों पर अध्यक्ष अपनी आज्ञा की घोषणा करता है। (लश०)।

भुँजना
क्रि० अ० [हिं० भुनना] १. भुनने का अकर्मक रूप। भूना जाना। २. झुलसना।

भुँजरिया †
संज्ञा स्त्री० [देश०] जरई। भुजरिया।

भुँजवा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० भूँजना] भड़भूँजा।

भुअग †
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्ग] [स्त्री० भुअंगनि] साँप। सर्प। उ०—(क) बिरह भुअगनि तन डसा मंत्र न लागै कोय। बिरह बियोगी क्यों जिए जिए तौ बोरा होय।—कबीर (शब्द०)। (ख) कहा कृपण की माया कितनी करत फिरत अपनी अपनी। खाइ न सकै खरच नहिं जानै ज्यों भुअग सिर रहत मनी।—सूर (शब्द०)।

भुअंगम पु
संज्ञा पुं० [सं० भुजङ्गम] साँप। उ०—माई री मोहिं डस्यो भुअंगम कारो।—सूर (शब्द०)।

भुअंगिनि
संज्ञा स्त्री० [सं० भुजङ्गिनी] साँपिन। सर्पिणी। उ०— (क) सोइ बसुघातल सुधा तरंगिनी। भय भजिनि भ्रम भेक भुअंगिनि।—तुलसी (शब्द०)। (ख) स्याम भुअंगिनि रामावली। नाभा निकसि कँवल पहै चली।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० १९६।

भुअ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भू] धरती। पृथ्वी। उ०—चहुआँन सूर सोमेस सुअ धुव जनु गुअ अवतार लिय।—पृ० रा०, ६।२।

भुअन पु
संज्ञा पुं० [सं० भुवन] दे० 'भुवन'।

भुअना ‡
क्रि० अ० [देश०] भूलना। बहकना।

भुआ ‡
संज्ञा पुं० [सं० बहु या भूय अथवा घूक, प्रा० घूअ] सेमर आदि की रूई जो फल के भीतर भरी रहती है और डोडे के सूखने पर बाहर निकलती है। उ०—मारत चोंठ भुआ उधराना फिरि पाछे पछताना हो।—जग० बानी, पृ० ८२।

भुआर पु
संज्ञा पुं० [सं० भूपाल] दे० 'भुआल'।

भुआल
संज्ञा पुं० [सं० भूपाल, प्रा० भुआल] राजा। उ०— बदउ अवध भुआल सत्य प्रेम जेहि राम पद। बिछुरत दीन दयाल तनु तृत इव जिन पोरहरेउ।—तुलसी (शब्द०)।

भुइँ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० भूमि] भूमि। पृथ्वी। उ०—विपति बीज वर्षा रितु चेरी। भुइँ भइ कुमति केकई केरी।— तुलसी (शब्द०)। मुहा०—भुइँलाना = झुकाना। उ०—कुंडल गहे सीस भुइँ लावा। पावँर सुअन जहाँ वै पावा।—जायसी (शब्द०)।

भुइँ आँवला
संज्ञा पुं० [सं० भूम्यामलक] एक घास का नाम जो बरसात में ठंढे स्थान, प्रायः घरों के आसपास होती है। भद्र आँवला। विशेष—इसकी पत्तियाँ छोटी छोटी एक सीके में दोनों ओर होती हैं ओर इसी सीकें में पत्तियो की जड़ों में सरसों के बराबर छोटे फूलों की कोठियाँ लगती हैं जिनके फूल फूलने पर इतने छोटे होते हैं कि उनकी पँखड़ियाँ स्पष्ट नहीं दिखाई देती। इसके फूलों के झड़ जाने पर राई के बराबर छोटा फल लगता है—यह घास ओषधि के काम मे आती हैं। वैद्यक में इसका स्वाद कड़वा, कसैला और मधुर तथा प्रकृति शीतल और गुण खाँसी, रक्तपित्त, कफ और पांडु रोग का नाशक लिखा है। यह वातकारक और दाहनाशक है। पर्या०—भूम्यामलकी। भूम्यामली। शिवा। ताली। क्षेत्रमली। झारिका। भद्रामलकी।

भूइँकंप
संज्ञा पुं० [सं० भूमिकम्प] दे० 'भूकंप'।

भूइँकाँड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० भूइँ + कंद] एक घास। सफेद खस। विशेष—इसकी पत्तियाँ लहसुन की पत्तियों से चौड़ी होती हैं और इसकी जड़ में प्याज की तरह की गोल गाँठे पड़ती हैं। यह समुद्र के किनारे या जलाशयों के पास होता है। इसकी अनेक जातियाँ हैं। इसके फूल लंबे होते हैं और बीज की एक डड़ी के ऊपर सिरे पर गुच्छे में लगते हैं। इसे सफेद खस भी कहते हैं।

भुइँचाल
संज्ञा पुं० [हिं० भुइँ + चलना] भूचाल। भुंइचाल। भूकंप। उ०—मुनिगण त्याग्य़ों ध्यान तब महिमंडल भुइँचाल।—कबीर सा०, पृ० ३७।

भिइँडोल
संज्ञा पुं० [हिं० भुइँ + डोलना] भूकप। भूचाल।

भिइँतरवर
संज्ञा पुं० [हिं० भुइँ + तरुवर] सनाय की जाती का एक पेड़ जिसकी पंत्तियाँ सनाय के नाम से बाजारों में बिकती हैं। इसका प्रयोग सनाय के स्थान में होता है। इसका पेड़ चकवँड़ से मिलता जुलता होता है।