बिंग (१)
संज्ञा पुं० [सं० व्यङ्ग्य] १. वह चुभती हुई बात जिसका गूढ़ अर्थ हो। व्यंग्य। काकूक्ति। विशेष—दे० 'व्यग्य'। उ०—(क) करत बिंग ते बिंग दूसरी जुक्त अलंकृत माँहीं। सूरदास ग्वालिन की बातें को कस समुझत हाँही।—सूर (शब्द०)। (ख) प्रेम प्रशंसा विनय बिंग जुत सुनि विधि की वर बानी। तुलसी मुदित महेस मनहिं मन जगत मातु मुसुकानी।—तुलसी (शब्द०) २. आक्षेपपूर्ण वाक्य। ताना। क्रि० प्र०—छोड़ना।—बोलना।

बिंग † (२)
वि० [सं० वक्र या व्यग्य] [स्त्री० बिंगी] वक्र। टेढ़ा। उ०—मैं कुँआरी छोरियो की एक लंबी साँस हूँ। दो दिलों में चुबनेवाली एक बिंगी फाँस हूँ।—दाक्खिनी०, पृ० २९५।

बिंग्य पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यङ्गय] दे० 'विंग'। उ०—रस धुनि गुनि अरु लच्छना बिंग्य सब्द अभिराम। सप्त सही या मैं सही धरयो सतसई नाम।—स० सप्तक, पृ० ४००।

बिंछी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वृश्चिक हिं० बिच्छी, बिच्छू, बीछी] दे० 'बीछा'। उ०—काहर कंधन किसक कितक स्वानन मुख टुट्टत। बिंछी सर्प विषंग मंत्रवादी मिल लुट्टत।—पृ० रा०, ६। १०५।

बिजन पु †
संज्ञा पुं० [सं० व्यञ्जन, प्रा० बिंजन] भोज्य पदार्थ। खाने की सामग्री। उ०—(क) मायामय तेहि कीन्हि रसोई। बिंजन बहु गनि सकइ न कोई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सुंदर बिंजन सुंदर छीके। काँधनि धरि लिए लागत नीके।—नंद० ग्रं०, पृ० २५९।

बिंझ पु
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्य प्रा० बिंझ] दे० 'विंध्य'। उ०— जाऊँ वेगि थरि आपनि है जहाँ बिंझ बनाँह।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३७१।

बिंझनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वन्ध्या, प्रा० बंझा, हिं० बाँझ, बाँझिन] दे० 'बाँझ'। उ०—सब सौति कह्यो दुख सुनहु तुम्म, राजन्न तनय हमसों न क्रम्म। को जानि मात बिंझनी पीर, सौति कौ साल सालै सरीर।—पृ० रा०, १। ३७५।

बिंटना पु †
क्रि० स० [सं० वेष्टन, प्रा० विंटन, गुज० विंटवु] लपे- टना। वेष्टित। करना। उ०—मुख केस पास बिंटिय विसाल। बंध्यो कि सोम सोभा सिवाल।—पृ० रा० १। ३७२।

बिंटुलना पु
क्रि० स० [सं० वेष्टन प्रा० विंटन] बटोरना। एकत्र करना। उ०—बिंटुलिय बीर आना नरिंद। बीसल तड़ाग मधि द्रव्य कद।—पृ० रा०, १। ६०९।

बिंद पु †
संज्ञा पुं० [सं० विन्दु प्रा० विंदु] १. पानी की वूँद। २. दोनों भँवों के मध्य का स्थान। भ्रूमध्य। ३. बीर्यबुंद। उ०—जो कामी नर कृपण कहि परै आपनी रिंद। तदपिअकार्थ न दीजिए विद्या बिंद रु जिद।—रघुनाथदास (शब्द०)। ४. बिंदी। माथे का गोल तिलक। उ०—(क) मृगमद बिंद अनिंद सास खामिंद हिंद भुव।—गोपाल (शब्द०)। (ख) किधौं सु अधपक आम मैं मानहुँ मिलो अमंद। किधौं तनक है तम दुरयौ कै ठोढ़ी को बिंद।— पद्माकर (शब्द०)।

बिंदक पु
वि० [सं० विन्दक] जानकर। ज्ञाता। दे० 'विंदक'। उ०—चौरासी आसन बर जोगी। षटरस बिंदक चतुर सुभोगी।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३३४।

बिंदवि
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्दवि] बूँद। बिंदु [को०]।

बिंदा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वृन्दा] एक गोपी का नाम। उ०—इंद्रा बिंदा राधिका श्याम कामा नारि।—सूर (शब्द०)।

बिंदा (२)
संज्ञा पुं० [सं० विन्दु] १. माथे पर का गोल और बड़ा टीका। बेटा। बुँदा। बड़ी बिंदी। उ०—मृगमंद बिंदा ता में राजे। निरखत ताहि काम सत लाजे।—सूर (शब्द०)। २. इस आकर का कोई चिन्ह।

बिंदी
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्दु] १. सुन्ना। शून्य। सिफर। बिंदु। २. माथे पर लगाने का गोल छोटा टीका। बिंदुली। ३. इस प्रकार का कोई चिन्ह।

बिंदु
संज्ञा पुं० [सं० विन्दु, प्रा० बिंदु] दे० 'विंदु'।

बिंदुक
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुक] बूँद। दे० 'बिंदु' [को०]।

बिंदुक
संज्ञा पुं० [सं विन्दु+ हिं० का (प्रत्य०)] १. बिंदी। गोल टीका। उ०—लट लटकनि मोहन मिस बिंदुका तिलक भाल सुखकारी।—सूर (शब्द०)। २. इस आकार का कोई चिन्ह।

बिंदुमाधव पु
संज्ञा पुं० [सं० विन्दुमाधव] दे० 'विदुमाधव'।

बिंदुरा †
संज्ञा स्त्री० [सं० विन्दु] १. माथे पर का गोल टीका। बिंदी। बिंदुली। टिकुली। २. इस आकार का कोई चिन्ह।

बिंदुलरथी पु
संज्ञा पुं० [देश०] वेत।—नंद० ग्रं०, पृ० १०७।

बिंदुली
संज्ञा संज्ञा [सं० विन्दु] बिंदी। टिकुली। उ०—बंदन बिंदुली भाल की भुज आप बनाए।—सूर (शब्द०)।

बिंद्राबन
संज्ञा पुं० [सं० वृन्दावन, प्रा० बिंद्रावण] दे० 'बृंदावन'।

बिंध †
संज्ञा पुं० [सं० विन्ध्य, प्रा० विध] दे० 'विंध्याचल'। उ०—बिंध न इंधन पाइए, सायर जुरै न नीर।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९२।

बिंधना
क्रि० अ० [सं० बेधन, प्रा० विंधण] १. बींधना का अकर्मक रूप। बींधा जाना। छेदा जाना। २. फँसना। उलझना।

बिंधाना पु
क्रि० स० [हिं० बिंधना] छिद्रित कराना। वेधित कराना। उ०—(क) सुदंर क्यों पहिले न संभारत, जो गुर षाइ सु कांत बिंधावै।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ४०२। (ख) जो गुड़ खाय सो कान बिंधावै।—(कहावत)।

बिंधिया
संज्ञा पुं० [हिं० बाँधना + इया (प्रत्य०)] वह जो मोती बींधने का काम करता हो। मोती में छेद करनेवाला।

बिंब (१)
संज्ञा पुं० [सं० बिम्ब] १. प्रतिबिंब। छाया। अक्स। २. रवि। कमंडलु। ३. प्रतिमूर्ति। ४. कुंदरू नाम का फल। ५. सूर्य या चंद्रमा का मंडल। ६. कोई मडल। ७. गिरगिट। ८. सूर्य। (डिं०)। ९. उपमान। १०. झलक। आभास। उ०—बिरह बिंब अकुलाय उर त्यों सुनि कछु न सुहाय। चित न लगत कहूँ कैसह‌ूँ सो उद्वेग बनाय।—पद्माकर (शब्द०)। ११. छंद विशेष। जैसे,—फल अधर बिंब जासो। कहि अधर नाम तासो। लहत द्युति कौन मूँगा। बर्णि जग होत गूँगा।—गुमान (शब्द०)।

बिंब (२)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बाँबी'। उ०—साकट का मुख बिंब है निकसत बचन भुजंग। ताकी ओषधि मौन है विष नहिं व्यापै अंग।—कबीर (शब्द०)।

बिंबक
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बक] १. चंद्रमा या सूर्य का मंडल। २. कुँदरू। ३. साँचा। ४. बहुत प्राचीन काल का एक प्रकार का बाजा जिसपर चमड़ा मढ़ा होता था।

बिंबट
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बट] सरसों।

बिंबफल
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बफल] कुँदरू।

बिंबसार
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिंबिसार'।

बिंबा
संज्ञा पुं० [सं० विम्बा] १. कुँदरू। २. बिंब। प्रतिच्छाया। ३. चंद्रमा या सूर्य का मंडल।

बिंबाधर
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बाधर] पके हुए कुँदरू की तरह लाल होठ [को०]।

बिंबिका
संज्ञा स्त्री० [सं० बिम्बिका] १. सूर्य या चंद्र की परिधि। २. कुँदरू की लता [को०]।

बिंबित
वि० [सं० बिम्बित] १. प्रतिच्छायित। प्रतिबिंबित। २. चित्रीकृत [को०]।

बिंबिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० बिम्बिनी] आँख की पुतली। तारा। कनीनिका [को०]।

बिंबिसार
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बसार] मगध के एक प्राचीन राजा का नाम जो अजातशत्रु के पिता और गौतम बुद्ध के समका- लीन थे। कहते हैं, ये पहले शाक्त थे पर पीछे बुद्ध के उपदेश से बौद्ध हो गए थे।

बिंबु
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बु] सुपारी या उसका वृक्ष।

बिंबू
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बू] दे० 'बिंबु'।

बिंबोष्ठ
संज्ञा पुं० [सं० बिम्बोप्ठ] दे० 'बिंबाधर'।

बि पु
वि० [सं० द्वि प्रा० वि, मि० गुज० बे] दो। एक और एक।

बिअत †
वि० [सं० वि (= रहित) + अन्त] जिसका अंत न हो। अनंत। उ०—तिस महि अगम बस्तु बनाई। तूँ बिअंत धनी मिति तिलु नहीं पाई।—प्राण०, पृ० ४७।

बिअ पु
वि० [सं० द्वि, प्रा, बि, मि० गुज० बे] दे० 'बि'।

बिअहुता ‡
वि० [सं० विवाहित] १. जिसके साथ विवाह संबंध हुआ हो। २. विवाह संबंधी। विवाह का। जैसे, बिअहुता जोड़ा।

बिआज †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ब्याज'।

बिआधि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ब्याधि] दे० 'व्याधि'। उ०— परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई।—तुलसी (शब्द०)।

बिआधु †
संज्ञा पुं० [सं० व्याध] दे० 'व्याध'। उ०—जोबन पंखी बिरह बिआधू। केहरि भयउ कुरगिनि खाधू।—जायसी (शब्द०)।

बिआना
क्रि० स० [सं० विजनन, प्रा० बिआयण, तुल० गु० बियाववुँ] बच्चा देना। जनना। (विशेषतः पशुओं आदि के संबंध में)।

बिआपी
वि० [सं० व्यापिन्] दे० 'व्यापी'।

बिआस ‡
संज्ञा पुं० [सं० व्यास, प्रा० विआस] १. पौराणिक कथाएँ आदि सुनानेवाला। व्यास। कथक्कड़। २. पुराणों के वक्ता। दे० 'व्यास'। उ०—अस्टौ महासिद्धि तेहि जस कबि कहा बिआस।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० २१२।

बिआसी ‡
संज्ञा स्त्री० [देश०] धान (धावल) की खेती करने की एक विशेष पद्धति। उ०—चावल पैदा करने की बिआसी पद्धति भी अधिक लोकप्रिय है।—शुक्ल अभि० ग्रं० (विवि०) पृ० ४।

बिआह
संज्ञा पुं० [सं० विवाह, प्रा० बिआह] दे० 'व्याह'। उ०— लगन धरी औ रचा बिआहू। सिंघल नेवत फिरा सब काहू।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३०७।

बिआहना †
क्रि० स० [प्रा० बिआह+ हिं० ना (प्रत्य०)] परिणय करना। दे० 'ब्याहना'।

बिओग
संज्ञा पुं० [सं० वियोग, प्रा० बिओग] दे० 'वियोग'।

बिओगी †
वि० [प्रा० बिओग+ हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'वियोगी'।

बिकंत
वि० [सं० विकट] दे० 'विकट'। उ०—बहै नागमुष्षी सु सोहै बिकंतं। फटै हस्ति कुंर्भ ठनंकंत घंटं।—पृ० रा०, ५।४०६।

बिकच
वि० [सं० विकच] विकसित। खिला हुआ। उ०—बिकच नलिन लखें सकुचि मलिन होति, ऐसी कछू आँखिन अनोखी उरझनि है।—घनानंद, पृ० ५९।

बिकट
वि० [सं० विकट] दे० 'विकट'। उ०—असवार डिगत बाहन फिरै भिरै भूत भैरव बिकट।—हम्मीर०, पृ० ५८।

बिकना
क्रि० अ० [सं० विक्रयण] किसी पदार्थ का द्रव्य लेकर दिया जाना। मूल्य लेकर दिया जाना। बेचा जाना। बिक्री होना। संयो० क्रि०—जाना। मुहा०—किसी के हाथ बिकना = किसी का अनुचर, सेवक या दास होना। किसी का गुलाम बनना। जैसे, हम उनके हाथ बिके तो नहीं,जो उनका हुकुम माने। विशेष—कभी कभी इस अर्थ में और विशेषतः मोहित होने के अर्थ में केवल 'बिकना' शब्द का भी प्रयोग होता है। जैसे,—ठानहैं ऐसी नहीं करिके कर तोष चितै जेहिं कान्ह बिकानु है।—तोष (शब्द०)।

बिकरम † (१)
संज्ञा पुं० [सं० विक्रम] दे० 'विक्रमादित्य'। उ०— भोज भोग जस माना बिकरभ सका कीन्ह। परिख सो रतन पारखी सबइ लख लिखि दौन्ह।—जायसी (शब्द०)। २. पराक्रम। विक्रम।

विकरम (२)
वि० [सं० वि (= बुरा) + कर्म] खराब काम। बुरे काम। उ०—करम बिकरम करत नहिं डरिहैं।—सुंदर ग्रं, भा० २, पृ० ४०२।

विकरा †
संज्ञा पुं० [?] एक पिंड।

बिकरार ‡ (१)
वि० [फा़० बेकरार] ब्याकुल। विकल। बेचैन। उ०—कँवल डार गहि भइ बिकरारा। कासु पुकारउँ आपनहारा।—जायसी (शब्द०)।

बिकरार (२)
वि० [सं० विकराल] कठिन। भयानक। डरावना। भयंकर। उ०—(क) नाक कान बिनु भइ बिकरारा।— मानस, ३।१२। (ख) पुष्कर पुष्कर नयन चल्यो बृकसुत धिकरारो।—गोपाल (शब्द०)।

बिकराल
वि० [सं० विकराल] डरावना। विकराल। उ०— माली मेघमाल बनपाल बिकराल भट नीके सब काल सींचै सुधासार नीर के।—तुलसी (शब्द०)।

बिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० वि + कर्म] खराब काम। बुरा काम। उ०—कर्म न बिकर्म करै भाव न अभाव धरै सुभ हू असुभ परै यातें निधरक है।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६३६।

बिकल †
वि० [सं० विकल] १. व्याकुल। धवराया हुआ। २. बेचैन। उ०—बिकल विलोकि सुतहि समुझावति।—मानस, २।१६१।

बिकलई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विकल + हिं० ई (प्रत्य०)] व्याकुलता। बेचैनी। बिकलाई।

बिकलप पु
संज्ञा पुं० [सं० विकल्प] दे० 'विकल्प-१'। उ०— दरिया बिकलप मेट के, भज राम सहाई।—दरिया० बानी, पृ० ६२।

बिकलाई †
संज्ञा स्त्री० [सं० विकल + हिं० आई (प्रत्य०)] व्याकुलता। बेचैनी। उ०—(क) दासिन्ह दीख सचिव बिकलाई। कौसल्या गृह गई लवाई।—मानस, २।१४८। (ख) ऐसी कलाई लखे बिकलाई भई कल आई नहीं दिन राती।—अयोध्या- सिंह (शब्द०)।

बिकलाना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० विकल] १.व्याकुल होना। बेचैन होना। उ०—हरिमुख राधा राधा बानी। धरनी परे अचेत नहीं सुधि सखी देखि बिकलानी।—सूर (शब्द०)।

बिकलाना (२)
क्रि० स० व्याकुल करना। बेचैन करना।

बिकल्प
संज्ञा पुं० [सं० विकल्प] एक अलंकर। वि० दे० 'विकल्प'। उ०—ताहि बिकल्प बखानहीं, भूषन कबि सब कोय।— भूषण ग्रं०, पृ०।

बिकवाना
क्रि० स० [हिं० बिकना का प्रे० रूप] बेचने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को बेचने में प्रवृत्त करना। किसी से बिक्री कराना।

बिकसना
क्रि० अ० [सं० विकसन] १. खिलना। फूलना। प्रस्फुटित होना। २. प्रफुल्लित होना। बहुत प्रसन्न होना।

बिकसाना (१)
क्रि० अ० [सं० विकसन] दे० 'बिकसना'। उ०—पाहन बीच कमल बिकसाहीं जल मैं अगिनि जरे।—सूर (शब्द०)।

बिकसाना (२)
क्रि० स० १. विकसित करना। खिलाना। २. प्रफुल्लित करना। प्रसन्न करना।

बिकसानू पु
वि० [हिं० बिकसना] बिकसित होनेवाला। खिलनवाला। उ०—फूल अहै पै कलिय समानू। कलिय अहै पै है बिकसानू।—इंद्रा०, पृ० ४३।

बिकाऊ
वि० [हिं० बिकना + आऊ (प्रत्य०)] जो बिकने के लिये हो। जो बेचा जानेवाला हो। बिकनेवाला। जैसे,—कोई आलमारी बिकाई हो तो हमसे कहना।

बिकाना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बिकना१'।

बिकार पु † (१)
वि० [सं० विकार या विकराल] जिसकी दशा विकृत हो। २. विकराल। विकट। भीषण। उ०—तुम जाहु बालक छाँड़ि जमूना श्यामा मेरो जागिहै। अंग कारो मुख बिकारो दृष्टि पर तोहिं लागिहै।—सूर (शब्द०)।

बिकार पु † (२)
संज्ञा पुं० [सं० विकार] १. बिगड़ा हुआ रूप। विकृति। विक्रिया। उ०—बारिद बचन सुनि धुनि सीस सचिवनि कहे दससीस ईस बामता बिकार है।—तुलसी (शब्द०)। २. रोग। पीड़ा। दुःख। ३. दोष। ऐब। खराबी। बुराई। अवगुण। उ०—जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करतार। संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार।—तुलसी (शब्द०)। ४. बुरा कृत्य। पापकर्म। उ०—भनै रघुराज कार्पण्य पण्य चौधरी है जग के बिकार जेते सबै सरदार हैं।—रघुराज (शब्द०)। ५. कुवासना। उ०—रंजन संत आखिल अघगंजन भंजन विषय बिकारहि।—तुलसी (शब्द०)। विशेष दे० 'विकार'।

बिकारी † (१)
वि० [सं० विकार] १. विकृत रूपवाला। जिसका रूप बिगड़कर और का और हो गया हो। २. अहितकर। बुरा। हानिकारक। उ०—अशुभ होय जिनके सुमिरन ते बानर रीछ बिकारी।—तुलसी (शब्द०)।

बिकारी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० विकृत या वङ्क अथवा हिं० बिकार + ई (प्रत्य०)] एक प्रकार की टेढ़ी पाई जो अंकों आदि के आगे संख्या या मान आदि सूचित करने के लिये लगाई जाती है। लिखने में रूपए पैसे या मन सेर आदि का चिह्न जिसका जिसका रूप) तथा/?/होता है। उ०—बंक बिकारी देत ज्यों दाम रुपैया होत।—बिहारी (शब्द०)।

बिकाल
संज्ञा पुं० [बंग०] दिन का परार्ध भाग। अपराह्न काल। सकाल का उलटा।

बिकास
संज्ञा पुं० [सं० विकास] दे० 'विकास'।

बिकासना (१)
क्रि० अ० [हिं० बिकास + ना (प्रत्य०)] १. विक- साना। खिलाना। २. उद्घाटित करना।

बिकासना (२)
क्रि० अ० १. विकसित होना। खिलना। २. व्यक्त होना। स्फुट होना।

बिकिरी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विक्रयण] बिक्री। बेचने की वस्तु। उ०—अजपा जाप जहाँ है दूलह बिकिरी लावो वोहि हाटे।—संत० दरिया, पृ० १४०।

बिकुंठ †
संज्ञा पुं० [सं० बैकुण्ठ, प्रा० वेकुंठ] दे० 'वैकुंठ'।

बिकुटी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० द्वि, प्रा० बि + हिं० कुटी] योग में दूसरी नाड़ी। पिंगला नाम की नाड़ी। उ०—इकटी बिकुटी त्रिकुटी संधि। पछिम द्वारे पवनां बंधि।—गोरख०, पृ० ६३।

बिकुसा पु †
वि० [हिं० बिकसना] खिला हुआ। विकसित। उ०—कमल एक लागा जल माहीं। आधा बिकुसा आधा नाहीं।—इंद्रा०, पृ० ४०।

बिकूल पु
वि० [सं० विकूल] प्रतिकूल। विरुद्ध। उ०—सुपिय आज मैं अति अवमाने। सखि अब बिधि बिकूल पै जानै।— नंद० ग्रं०, पृ० १५२।

बिकृत
वि० [सं० विकृत] बिगड़ा हुआ। कुरूप। विकृत। उ०— पढ़त कुरान शरीफ अजब मुख बिकृत बनावत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २०।

बिक्ख पु
संज्ञा पुं० [सं० विष] दे० 'विष'। उ०—कीन्हेसि अमृत जियै जो पाए। कीन्हेसि बिक्ख, मीचु जेहि खाए।—जायसी ग्रं०, पृ० २।

बिक्ति पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यक्ति] मनुष्य। आदमी। जन। उ०— बिक्ति बिक्ति बिख्यान यह, ब्रह्म अनूप देखाए।—संत० दरिया, पृ० ४३।

बिक्रम पु
संज्ञा पुं० [सं० विक्रम] दे० 'विक्रम'।

बिक्रमाजीत
संज्ञा पुं० [सं० विक्रमादित्य] दे० 'विक्रमादित्य'।

बिक्रमी
संज्ञा पुं० [सं० वैक्रमीय अथवा हिं० बिक्रम + ई (प्रत्य०)] दे० 'वैक्रमीय'।

बिक्री
संज्ञा स्त्री० [सं० विक्रय] १. किसी पदार्थ के बेचे जाने की क्रिया या भाव। विक्रय। जैसे,—आज सबेरे से बिक्री ही नहीं हुई। २. वह धन जो बेचने से प्राप्त हो। बेचने से मिलनेवाला धन। जैसे,—यही १०)आज की बिक्री है।

बिक्रू
वि० [हिं० बिक्री] बेचने लायक। जो बेचा जाता हो। बिक्री का। बिकाऊ। (लश०)। विशेष—जहाजों आदि पर लश्कर के लोग इस विशेषण का प्रयोग ऐसे बने हुए वस्त्रों के लिये करते हैं जो नौसेना विभाग से उन्हें लागत के दाम पर मिलते हैं।

बिख †
संज्ञा पुं० [सं० विष] जहर। विष। उ०—नेकियाँ मानते नहीं ऐबी। क्यों उन्हीं के लिये न बिख चख लें।—चोखे०, पृ० २६। यौ०—बिख्रधर = सर्प।—अनेकार्थ०, पृ० ७०।

बिखम (१)
वि० [सं० विष] विष। जहर। गरल। (डिं०)।

बिखम (२)
वि० [सं० विषम] दे० 'विषम'।

बिखय पु
अव्य० [सं० विषय] विषय में। बारे में। संबंध में।

बिखरना
क्रि० अ० [सं० विकीर्ण] १. खंडों या कर्णों आदि का इधर उधर गिरना या फैल जाना। छितराना। तितर बितर होना। २. लट्टू होना। रीझना (लाक्ष०)। उ०—तुमने कुब्जा में रस देखा उसपर बिखरे।—अपलक, पृ० १०१।

बिखराना
क्रि० स० [हिं० बिखरना का सक० रूप] १.खंडोंया कणों को इधर उधर फैलाना। छितराना। २. छींटना। छिटकना।

बिखराव †
संज्ञा पुं० [हिं० बिखरना + आव (प्रत्य०)] बिखरने, अलग अलग होने या इतस्ततः होने का भाव।

बिखाद पु
संज्ञा पुं० [सं० विषाद] दे० 'विषाद'। उ०—तुअ परसाद बिखाद नयन जल काजरे मोर उपकारे।—विद्यापति, पृ० १४८।

बिखान पु
संज्ञा [सं० विषाण] सींग। उ०—ज्ञानवंत अपि सोइ नर पसु बिनु पूँछ बिखान।—तुलसी ग्रं०, पृ० ११४।

बिखें †
अव्य० [हिं०] दे० 'बिखय'।

बिखेरना
क्रि० स० [हिं० बिखरना का सक० रूप] खंडों या कण को इधर उधर फैलाना। तितर बितर करना। छितराना। छिटकाना। छींटना। उ०—है बिखेर देती वसुंधरा मोती सबके सोने पर, रवि बटोर लेता है उनको सदा सबेरा होने पर।—पंचवटी, पृ० ६। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

बिखैं पु †
अव्य० [सं० विपय] विषय में। संबंध में। संबंध में। बाबत। उ०—गुन की ओर न तुम बिखैं, औगुन को मो माहिं। होड़ परसपर यह परी, छोड़ बदी है नाहि।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ११।

बिखै पु
संज्ञा पुं० [सं० बिषय] दे० 'विषय'। उ०—छेरी उलटि बिगे धरि पकरा बिखै सरोवर साथा।—संत० दरिया, पृ० १०५।

बिखोंड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० बिख (= विष)] सारे भारत में पाई जानेवाली ज्वार की जाति की एक प्रकार की बड़ी घास जो बारहो महीने हरी रहती है। विशेष—यह जब अच्छी तरह बढ़ जाती है, तब चारे के लिये बहुत उपयोगी होती है; पर अरंभिक अवस्था में इसका प्रभाव खानेवाले पशुओं पर बहुत बुरा और प्रायः विष के समान होता है । इसमें से एक प्रकार के दाने भी निकलते हैं जिन्हें गरीब लोग यों ही पीसकर अथवा बाजरे आदि के आटे के साथ मिलाकर खाते हैं। इसकी कहीं खेती नहीं होती, यह खेतों की मेड़ों अथवा जलाशयों के आसपास आपसे आप होती है। इसका एक नाम कालामुच्छ भी है।

बिख्यान
संज्ञा पुं० [सं० व्याख्यान] दे० 'ब्याख्यान'। उ०—बिक्ति बिक्ति बिख्यान यह, ब्रह्म अनूप देखाए।—संत० दरिया, पृ० ३०।

बिग † (१)
संज्ञा पुं० [सं० वृक, हिं० बीग] दे० 'बीग'। उ०—छेरी उलटी बिगे धरि पकरा बिखै सरोवर साथा।—संत० दरिया, पृ० १०५।

बिग (२)
वि० [अं०] बड़ा। स्थूल। विपुल। बृहत्।

बिगड़ना
क्रि० अ० [सं० विकृत] १. किसी पदार्थ के गूण या रूप आदि में ऐसा विकार होना जिससे उसकी उपयोगिता घट जाय या नष्ट हो जाय। असली रूप या गुण का नष्ट हो जाना। खराब हो जाना। जैसे, मशीन बिगड़ना, अचार बिगड़ना, दूध बिगड़ना, काम बिगड़ना। २. किसी पदार्थ के बनते या गढ़े जाते समय उसमें कोई ऐसा विकार उत्पन्न होना जिससे वह ठीक या पूरा न उतरे। जैसे,— (क) यह तस्वीर अब तक तो ठीक बन रही थी पर अब बिगड़ चली है। (ख) देखते हैं कि तुम्हारे कारण ही यह बनती हुई बात बिगड़ रही है। ३. दुरवस्था को प्राप्त होना। खराब दशा में आना। अच्छा न रह जाना। जैसे,—(क) किसी जमाने में इनकी हालत बहुत अच्छी थी, पर आजकल ये बिगड़ गए हैं। (ख) बिगड़े घर की बात जाने दो। ४. नीतिपथ से भ्रष्ट होना। बदचलन होना। चाल चलन का खराब होना। जैसे,—आजकल उनका लड़का बिगड़ रहा है, पर वे कुछ ध्यान ही नहीं देते। ५. क्रुद्ध होना। गुस्से में आकर डाँट डपट करना। जैसे,—वे अपने नौकरों पर बहुत बिगड़ते हैं। ६. विरोधी होना। विद्रोह करना। जैसे,—सारी प्रजा बिगड़ खड़ी हुई। ७. (पशुओं आदि का) अपने स्वामी या रक्षक की आज्ञा या अधिकार से बाहर हो जाना। जैसे, घोड़ा बिगड़ना, हाथी बिगड़ना। ८. परस्पर विरोध या वैननस्य होना। लड़ाई झगड़ा होना। खटकना। जैसे,—आजकल उन दोनों में बिगड़ी हैं। ९. व्यर्थ होना। बैफायदा खर्च होना। जैसे,—आज बैठे बैठाए ५। बिगड़ गए। संयो० क्रि०—जाना।

बिगड़े दिल
संज्ञा पुं० [हिं० बिगड़ना + फा़० दिल] १. वह जो बात बात में बिगड़ खड़ा हो। हर बात में लड़ने झगड़नेवाला। २. वह जो बिगड़ा हुआ हो। कुमार्ग पर चलनेवाला।

बिगड़ैल
वि० [हिं० बिगड़ना + ऐल (प्रत्य०) या बिगड़ेदिल] १. जो बात बात में बिगड़ने लगता हो। बर बात में क्रोध करनेवाला। जो स्वभाव से क्रोधी हो। २. हठी। जिद्दी। ३. जो बिगड़ा हुआ हो। कुमार्ग पर चलनेवाला। बुरे रास्ते पर चलनेवाला। खराब चाल चलनवाला।

बिगत
संज्ञा पुं० [सं० विगत (= व्यतीत)] १. बीता हुआ। २. ब्यौरा। विवरण। उ०—(क) बकूँ जिका ज्यारा बिगत अबर न कोय उपाय।—रघु०, रू०, पृ० १३।

बिगताबिगत
संज्ञा पुं० [सं० बिगत + आविगत] अतीत और वर्तंमान का रूप। ज्ञेयाज्ञेय। उ०—बिमल एक रस उपजै न बिनसै उदय अस्त दोउ नाहीं। बिगताबिगत घटै नहिं कबहुँ बसत बसै सब माहीं।—रे० बानी०, पृ० ४५।

बिगति
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिगत'। समाचार। वृत्त। हाल चाल। उ०—अपर बिगति ऐसी जु यह पत्री याही हाथ। समाचार जानें सबै सुनौ इहाँ की गाथ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ६३।

बिगर
क्रि० वि० [अ० बगैर] बिना। रहित। बगैर। उ०— तुमहिं सुमिरि सब काज, सिद्धि होत सुकबीन के। रचत कछुक रघुराज, बिघन बिगर पूरण करहु।—रघुराज (शब्द०)।

बिगरना
क्रि० अ० [हिं० बिगड़ना] दे० 'बिगड़ना'। उ०— (क) विगरत मन सन्यास लेत जल नावत आम घरो सो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) साहेब कबीर मोहिं मिलिगे सतगुरु, बिगरल मोर बनाए।—कबीर०, श०, भा० ३, पृ० १६।

बिगराइल †
वि० [ हिं० बिगड़ना + आइल (प्रत्य०] १. हठी। दे० 'बिगड़ैल'। २. बिगड़ैल। बिगड़ा हुआ। उ०— कुटिल कुरूपिनी उदास ऐते पर बैठी वेस्या बिगराइल बिलासिन के पास है।—दूलह (शब्द०)।

बिगरायल †
वि० [हिं०] दे० 'बिगराइल'। उ०—हौं तो बिग- रायल और को बिगरो न बिगरिये।—तुलसी (शब्द०)।

बिगलित
वि० [सं० विगलित] द्रवीभूत। आर्द्र। अस्पष्टाक्षर। टूटा- फूटा। उ०—कलित स्वेद बिगलित बचन लखियतु कंपित गात।—स० सप्तक, पृ० ३८४।

बिगसना पु
क्रि० अ० [हिं०] खिलना। दे० 'बिकसना'। उ०—कल बिरवनि सों लपटि लता फूली झूलीं जल। बिलसत सारस हंस बंस बिगसत अंबुज दल।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५।

बिगसाना पु (१)
क्रि० स० [हिं० बिगसना] दे० 'विकसाना'।

बिगसाना (२)
क्रि० अ० दे० 'बिकसना'। उ०—(क) सियमुख सरद कमल जिमि किमि कहि जाय। निसि मलीन वह निस दिन यह बिगसाय।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सत गुरु चरण गहे हिय माहीं। भानु उदय पंकज बिगसाहीं।—कबीर सा०, पृ० ८३७।

बिगहरि
संज्ञा पुं० [सं० वृक, हिं० बिग, बीग + हर (प्रत्य०); या सं० वृक + हर (= चीता)] भेड़िया, चीता आदि हिंसक जंतु। उ०—साथिय एक कुँवर सो कहा। बन बिगहरि सों छूछो अहा।—इंद्रा०, पृ० २८।

बिगहा
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बीघा'।

बिगही †
संज्ञा स्त्री० [देश०] क्यारी। बरही।

बिगाड़
संज्ञा पुं० [हिं० बिगड़ना] १. बिगड़ने की क्रिया या भाव। २. खराबी। बुराई। दोष। ३. वैमनस्य। द्वेष। झगड़ा। लड़ाई।

बिगाड़ना
क्रि० स० [सं० विकार] १. किसी वस्तु के स्वाभाविक गुण या रूप को नष्ट कर देना। किसी पदार्थ में ऐसा विकार उत्पन्न करना जिससे उसकी उपयोगिता नष्ट हो जाय। जैसे, कल बिगाड़ना, रसोई बिगाड़ना। २. किसी पदार्थ को बनाते समय या कोई काम करते समय उसमें कोई ऐसा विकार उत्पन्न कर देना जिससे वह ठीक या पूरा न उतरे। जैसे,— इतना सब कुछ करके भी अंत में तुमने जरा से के लिये बात बिगाड़ दी। ३. दुरवस्था को प्राप्त कराना। बुरी दशा में लाना। जैसे,—दुर्व्यसन ही युवकों को बिगाड़ते हैं। ४. नीति- पथ से भ्रष्ट करना। कुमार्ग में लगाना। जैसे,—महाजनों ने रुपए देकर उनके लड़के को बिगाड़ दिया। ५. स्त्री का सतीत्व नष्ट करना। पतिव्रत्य भंग करना। ६. स्वभाव खराब करना। बुरी आदत लगाना। ७. बहकाना। ८. व्यर्थ व्यय करना। जैसे,—तुम तो यों ही अनावश्यक कामों में रुपए बिगाड़ा करते हो।

बिगाना †
वि० [फा़० बेगानह्] १. जो अपना न हो। जिससे आपसदारी का कोई संबंध न हो। पराया। गैर। उ०— किंतु फिर भी बन रहे हैं आज अपने ही बिगाने।—क्वासि, पृ० ६५। २. अजनबी। अनजान।

बिगार †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिगाड़'। उ०—बुधि न बिचार, न बिगार न सुधार सुधि देह गेह नेह नाते मन से निसरिगे।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३३९।

बिगार (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बेगार'।

बिगारना †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'बिगाड़ना'। उ०—(क) सरिता निज तट तोरि जो रूखन लेति खसाय। नीरि बिगारति आपनो सोभा देति नसाय।—शकुंतला, पृ० ९२। (ख) आपनों बनाइबे कों और कों बिगारिबे को सावधान ह्वै वे परद्रोह सो हुनर है।—ठाकुर०, पृ० १३।

बिगारि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बेगार'। उ० नाहिं तौ भव बिगारि महँ परिहौ छूटत अति कठिनाई हो।—तुलसी (शब्द०)।

बिगारी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बेगारी'।

बिगारी (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बेगारी'।

बिगास पु †
संज्ञा पुं० [सं० विकास] दे० 'विकास'। उ०—जनखन भान कीन्ह परगासू। कँवल करी मन कीन्ह बिगासू।— जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ३४०।

बिगासना पु
क्रि० स० [सं० विकास] विकसित करना। खिलाना। उ०—अभी अधर अस राजा सब आस करेइ। केहि कहँ कँवल बिगासा की मधुकर रस लेई।—जायसी (शब्द०)।

बिगाहा
संज्ञा पुं० [प्रा० बिग्गाहा] दे० 'बिग्गाहा'।

बिगिंध पु
संज्ञा पुं० [सं० वि (= विकृत) + गन्ध] असह्य दुर्गध। उ०—सुंदर नर तन पाइ के भगति न कीन्ह बिचारि। भयो क्रिमी बिनु नैन को बास बिगिंध सँवारि।—संत० दरिया०, पृ० १७।

बिगिर, बिगिरि पु †
क्रि० वि० [फा़० बगैर, हिं० बिगर, बिगिरि] दे० 'बगैर'। उ०—ता बिगिर ह्वै करि निकास निज धाम कँह आकुत महाउत सु आँकुस लै सटक्यो।—भूषण ग्रं०, पृ० ४३।

बिगुन पु †
वि० [सं० विगुण] जिसमें कोई गुण न हो। निर्गुण। गुणरहित।

बिगुर पु
वि० [सं० वि + गुरु] जिसने किसी गुरु से शिक्षा या दीक्षा न ली हो। निगुरा। उ०—हरि बिनु मर्म बिगुर बिनु फंदा। जहँ जहँ गए अपनपौ खोए तेहि फंदे बहु फंदा।— कबीर (शब्द०)।

बिगुरचिन पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विकुञ्चन? या देश०] दे० 'बिगू- चन'। उ०—कबिरा परजा साह की तू जिन करे खुवार। खरी बिगुरचिन होयगी लेखा देती बार।—कबीर (शब्द०)।

बिगुरदा पु †
संज्ञा पुं० [देश०] प्राचीन काल का एक प्रकार का हथियार। उ०—कपटो जब लौं कपट नहिं साच बिगुरदा धार। तब लौं कैसे मिलैगो प्रभु साँचौ रिझवार।—रसनिधि (शब्द०)।

बिगुर्चन पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिगूचन] दे० 'बिगूचन'।

बिगुल
संज्ञा पुं० [अं०] अँगरेजी ढंग की एक प्रकार की तुरही जो प्रायः सैनिकों को एकत्र करने अथवा इसी प्रकार का कोई और काम करने के लिये संकेत रूप में बजाई जाती है। मुहा०—बिगुल बजना = (१) किसी कार्य के लिये आदेश होना। (२) कूच होना।

बिगुलर पु †
संज्ञा पुं० [अं०] फौज में बिगुल बजानेवाला।

बिगूचन
संज्ञा स्त्री० [सं० विकुञ्चन अथवा विवेचन?] १. वह अवस्था जिसमें मनुष्य किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाता है। अस- मंजस। अड़चन। उ०—ऐसा भेद बिगूचन भारी। बेद कतेब दीन अस दुनियाँ, कौन पुरिष कौन नारी।—कबीर ग्रं०, पृ० १०६। २. कठिनता। दिक्कत। उ०—सूरदास अब होत बिगूचन भजि लै सारँगपान।—सूर (शब्द०)।

बिगूचना (१)
क्रि० अ० [सं० विकुञ्चन?] १. संकोच में पड़ना। दिक्कत में पड़ना। अड़चन या असमंजस में पड़ना। उ०— (क) संगति सोइ बिगूचन, जो है साकट साथ। कँचन कटोरा छाड़ि कै सनहक लीन्ही हाथ—कबीर (शब्द०)। (ख) ताकर हाल होल अधकूचा। छह दरशन में जैन बिगूचा।—कबीर (शब्द०)। २. दबाया जाना। पकड़ा जाना। उ०—राम ही के कोप मधुकैटम सँभारे अरि ताही ते बिगूचे बलराम सों न मेल हैं।—हृदयराम (शब्द०)।

बिगूचना (२)
क्रि० स० [सं० विकुञ्चन] दबोचना। धर दबाना। छोप लेना। उ०—लै परनालो सिवा सरजा करनाटक लौं सब देस बिगूचे।—भूषन (शब्द०)।

बिगूतना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बिगूचना'। उ०—जोगी जती तपी सन्यासी,अह निसि खोजै काया। मैं मेरी करि बहुत बिगूते, बिपै बाघ जग खाया।—कबीर ग्रं०, पृ० १५३।

बिगृह पु
संज्ञा पुं० [सं० विग्रह] विग्रह। शरीर। देह। उ०—सुध मीन लग्न बिगृह सु त्यागि। करि हवन जवन सुख हृदय पागि।—ह० रासो, पृ० २९।

बिगोना
क्रि० सं० [सं० विगोपन] १. नष्ट करना। विनाश करना। बिगाड़ना। उ०—(क) सूर सनेह करै जो तुम सों सो पुनि आप बिगोऊ।—सूर (शब्द०)। (ख) जिन्ह एहि बारि न मानस धोए। ते पापी कलिकाल बिगोए।— तुलसी (शब्द०)। (ग) तुम जब पाए तबहीं चढ़ाए ल्याए राम न्याव नेक कीजे बीर यों बिगोइयत हैं।—हृदयराम (शब्द०)। २. छिपाना। दुराना। उ०—द्वैत बचन को स्मरण जु होवै। ह्वै साक्षात तू ताहि बिगोवै।—निश्चलदास (शब्द०)। ३. तंग करना। दिक करना। ४. भ्रम में डालना। बहकाना। उ०—(क) प्रथम मोह मोहिं बहुत बिगोवा। राम बिमुख सुख कबहु न सोवा।—तुलसी (शब्द०) (ख) ताहि बिगोय सिवा सरजा, भनि भूषन औनि छपा यों पछारयो।— भूषन (शब्द०)। ५. व्यतीत करना। बिताना। उ०— बहु राछसा सहित तरु के तर तुमरे बिरह निज जमन बिगो- वति।—तुलसी (शब्द०)।

बिगोला †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बगूला'। उ०—भारतवर्ष के उत्तर पश्चमी आँचल पर सिकंदर एक आँधी की तरह आया और बिगोले की तरह चला गया।—भा० इ० रू०, पृ० ५४५।

बिगोवन पु
संज्ञा पुं० [सं० विगोपन] छिपाने की क्रिया या भाव। छिपाव। दुराव। उ०—कहियै कहा बिगोवनि या की रस मैं बिरस बढ़ायौ।—घनानंद०, पृ० ४४८।

बिग्गाहा
संज्ञा पुं० [सं० विगाथा] आर्या छंद का एक भेद जिसे 'उदुगीति' भी कहते हैं। इसके पहले चरण में १२, दूसरे में १५, तीसरे में १२, ओर चोथे में १८ मात्राएँ होती हैं। जैसे,—राम भजहु मन लाई, तन मन धन के सहित मीत रामहिं निस दिन ध्याओ, राम भजै तबहिं जान जग जीता।

बिग्यान पु
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञान] [वि० बिग्यानी] दे० 'विज्ञान'।

बिग्रह
संज्ञा पुं० [सं० विग्रह] १. शरीर। देह। उ०—भगत हेतु नर बिग्रह सुर वर गोतीत।—तुलसी (शब्द०)। २. झगड़ा लड़ाई। कलह। विरोध। उ०—बयरु न बिग्रह आस न वासा। सुखमय ताहि सदा सब आसा।—तुलसी (शब्द०)। ३. विभाग। ४. दे० 'विग्रह'।

बिघटना (१)
क्रि० अ० [सं० विघटन] नष्ट होना। विपरीत होना। उ०—करम क दोसे बिघटि गेलि साठि। अगला जनम बुझब परिफाटि।—विद्यापति, पृ० १०८।

बिघटाना (२)
क्रि० स० [सं० विघटन] विनाश करना। बिगाड़ना। तोड़ना फोड़ना। उ०—(क) रजनीचर मत्त गयंद घटा बिघटै मृगराज के साज लरै।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सुघट ग्रीव रस सीव कंठ मुकुता बिघटत तम।—हृदयराम (शब्द०)।

बिघटाना
क्रि० स० [हिं० बिघटना का सक० रूप] नष्ट करना। दे० 'बिघटना (२)'। उ०—सुघटेओ बिहि बिघटावे बाँक बिधाता की न करावे।—विद्यापति, पृ० ११४।

बिघन
संज्ञा पुं० [सं० विघ्न, प्रा, बिघन] दे० 'विघ्न'। उ०— गणपति बिघन बिनासन हारे।—(शब्द०)। वि० दे० 'विघ्न'।

बिघनता †
संज्ञा स्त्री० [सं०य विघ्नता] विघ्न का भाव या स्थिति। उ०—ग्रंथकरता गुरु कूँ भी इष्ट देवता सु अभेद करिकै, ग्रंथ की बिघनता दूरि करिबे के हेत बहुरि निमस्कार करत हैं।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८३।

बिघनहरन पु † (१)
वि० [सं० विघ्नहरण] बाधा को हटानेवाला। बाधा दूर करनेवाला।

बिघनहरन पु (२)
संज्ञा पुं० गणेश। गजानन। उ०—बिघनहरन मंगलकरन सदा रहहु अनुकूल।—(शब्द०)।

बिघार पु
संज्ञा पुं० [हिं० बिगहर] दे० 'बीग'।

बिघूर्नित पु
वि० [सं० विघूर्णित] इधर उधर घूमती या घूरती हुई। चंचल। उ०—मद बिघूर्नित लोचन गोरोचन बरन रोहिनीनंदन बल हलधर राजै।—घनानंद, पृ० ५५१।

बिच पु †
क्रि० वि० [प्रा० बिच्च (= मध्य)] दे० 'बीच'। उ०—ललित नाक नथुनी बनी चुनी रही ललचाय। गज- मुकतनि के बिच परयो, कहो कहाँ मन जाइ।—मति० ग्रं०, पृ० ४४८।

बिचकना
क्रि० अ० [सं० वि + (उप०)/?/चक् (= भ्रांति)] १. भौचका होना। घबड़ाना। चौंकना। २. (घोड़े का) भड़कना या बिदकना।

बिचकाना
क्रि० स० [अनु० अथवा हिं० 'बिचकना' का सक० रूप] १. किसी को चिढ़ाने के लिये (मुँह) टेढ़ा करना। बिराना। (मुँह) चिढ़ाना। २. (मुँह को) स्वाद बिगड़ने के कारण टेढ़ा करना। (मुँह) बनाना।

बिचखोपड़ †
संज्ञा पुं० [सं० विष + कपाल] दे० 'बिसखपरा'। उ०—घूमते हैं वनों में, पेड़ों पर बिचखोपड़।—कुकुर०, पृ० ६१।

बिचच्छिन पु †
वि० [सं० विचक्षण] दे० 'विचक्षण'। उ०— मुग्धा मैं धीरादिक लच्छिन। प्रगठ नहीं पै लखैं बिचच्छिन।—नंद० ग्रं०, पृ० १४७।

बिचछन †
वि० [सं० विचक्षण] दे० 'विचक्षण'। उ०—एत सब लछन संग बिचछन कपट रहत कतखन जेधरू।— विद्यापति, पृ० ४।

बिचरना
क्रि० अ० [सं० विचरण] १. इधर उधर घूमना। चलना फिरना। २. पर्यटन करना। यात्रा करना। सफर करना। उ०—ए विचरहिं मग बिनु पदयात्रा। रचे बादि बिधि बाहन नाना।—मानस, २।११९।

बिचल
वि० [सं० विचल] चलायमान। अस्थिर।

बिचलना
क्रि० अ० [सं० विचलन] १. विचलित होना। इधर उधर हटना। उ०—तिज दल बिचचल देखेसि बोस भुजा दस चाप।—मानस, ६।८०। २. हिम्मत हारना। ३. कहकर इनकार करना। मुकरना।

बिचला
वि० [हिं० बीच + ला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० बिचली] जो बीच में हो। बीचवाला। बीच का। जैसे, बिचला लड़का, बिचली किताब।

बिचलाना पु (१)
क्रि० अ० [सं० विचलन] दे० 'बिचलना'। उ०— प्रेम मगन ह्वै घायल खेलै कायर रन बिचलाना।—कबीर० श०, भा० ३, पृ० १९।

बिचलाना पु † (२)
क्रि० स० १. चलायमान करना। विचलित करना। डिगाना। २. हिला देना। २. तितर बितर करना। उ०—बिचलाइ दल बलवंत कीसन्ह घेरि पुनि रावन लियो।—मानस, ६।९९।

बिचवई † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बीच] १. मध्यस्थ। २. एजेंट। दलाल। उ०—वे विलायती वस्तुओं को बेचने के बिचवई हैं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २६६।

बिचवई † (२)
संज्ञा स्त्री० १. मध्यस्थता। किसी कार्य (बातचीत, खरीद फरोख्त, लड़ाई झगड़ा) में बीच में पड़ना। २. एजेंटी या दलाली।

बिचवाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बीच] दे० 'विचवई (२)'।

बिचवान
संज्ञा पुं० [हिं० बीच + वान] बीच में पड़नेवाला। बीच बिचाव करनेवाला। मध्यस्थ। उ०—विनय करै पंडित बिचवाना। काहे नहिं जेवहि जजमाना।—जायसी (शब्द०)।

बिचवानी
संज्ञा पुं० [हिं० बीच] दे० 'बिचवान'।

बिचहुत पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बीच + भूत > हुत] १. अंतर। फरक। २. दुबधा। संदेह। उ०—अब हँसि के शशि सूरहिं भेंटा। अहा जो शीत सो बिचहुत मेटा।—जायसी (शब्द०)।

बिचार
संज्ञा पुं० [सं० विचार] दे० 'विचार'। उ०—मुदिता मथै बिचार मथानी।—मानस, ७।११७।

बिचारणा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विचारणा] सोचने या विचारने की क्रिया।

बिचारना पु †
क्रि० अ० [सं० विचार + हिं० ना (प्रत्य०)] १. विचार करना। सोचना। गौर करना। २. पूछना। प्रश्न करना। (इस अर्थ में इसका प्रयोग प्रायः 'प्रश्न' शब्दकेसाथ होता है।)

बिचारमान पु †
वि० [सं० विचारवान्] १. विचार करनेवाला। बुद्धिमान्। २. विचारने के योग्य। विचारणीय। उ०— बिचारमान ब्रह्म देव अर्चमान मानिए।—केशव (शब्द०)।

बिचारा
वि० [फा़० बेचारह्] [स्त्री० बिचारी] दे० 'बेचारा'।

बिचारी पु †
संज्ञा पुं० [सं० विचारिन्] विचार करनेवाला। उ०—मारग छाँड़ि कुमारग सों रत बुधि विपरीत बिचारी हो।—सूर (शब्द०)। २. वह जो बहुत आचार विचार से रहता हो।

बिचाल पु †
संज्ञा पुं० [सं० विचाल] १. अलग करना। पृथक् करना। २. अंतर। फर्क।

बिचेत पु †
वि० [सं० विचेतस्] १. मुछित। बेहोश। अचेत। उ०—हरि चेत नाहिं बिचेत प्रानी भरन गोता खाइया।— गुलाल० पृ० ८५। २. बदहवास। व्याकुल।

बिचौँहाँ पु
वि० [हिं० बीच + औंहाँ (प्रत्य०)] बीचवाला। मध्य का। बीच का।

बिचौँहैँ पु
क्रि० वि० बीच में ही। मध्य में ही।

बिचौलिया
संज्ञा पुं० [हिं० बीच + औलया (प्रत्य०)] १. मध्यस्थ। २. दलाल। एजेंट।

बिच्चू †
संज्ञा पुं० [सं० वृश्चिक] बीछी। बिच्छू। उ०—बिच्छू ने नाँगी मारा रे मारा। छ न न न न कहने लगा।—दक्खिनी०, पृ० ५७।

बिच्छित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] शृंगार रस के ११ हावों में से एक जिसमें किंचित् शृंगार से ही पुरुष को मोहित कर लिया जाना वर्णन किया जाता है। जैसे,—बेंदी भाल तमोल मुख सीस सिलसिले बार। द्दग आँजे राजै खरी साजे सहज सिंगार।—बिहारी (शब्द०)।

बिच्छी †
संज्ञा स्त्री० [सं० वृश्चिक] दे० 'बिच्छू'। उ०—मानो सहस्त्र बिच्छियों ने एक साथ ही डंक मारा है।—कबीर सा०, पृ० ५७२।

बिच्छू
संज्ञा पुं० [सं० वृश्चिक] १. आठ पैर और दो सूँड़वाला एक प्रसिद्ध छोटा जहरीला जानवर। विशेष—यह जानवर प्रायः गरम देशों में अँधेरे स्थानों में जैसे, लकड़ियों या पत्थरों के नीचे, बिलों में रहता है। इसके आठ पैर और आगे की ओर दो सूँड़ होते हैं। इनमें से हर एक सूँड़ आगे की ओर दो भागों में चिमटी की तरह विभक्त होता है। इन्हीं सूँड़ों से यह अपने शिकारों को पकड़ता है। इसका पेट लंबा और गावदुमा होता है जिसके बाद एक और दूसरा अंग होता है जो दुम की तरह बराबर पतला होता जाता है। यह अंग मुड़कर जानवर की पीठ पर भी आ जाता है। जिसके अंतिम भाग में एक जहरीला डंक होता है जिससे वह अपने शिकार को मार डालता है। अपने हानि पहुँचानेवालों को भी यह इसी डंक से मारता है जिसके कारण सारे शरीर में असह्य पीड़ा और जलन होती है जो कई कई दिन तक थोड़ी बहुत बनी रहती है। कहीं कहीं ८-१० इंच के बिच्छ भी पाए जाते हैं जिनके डंक मारने से आदमी मर भी जाते हैं। इसके संबंध में अनेक प्रकार की किंवदंतियाँ प्रसिद्ध हैं। कुछलोग कहते हैं कि यदि बिच्छू चारों ओर से आग के बीच में फँस जाय तो वह जलना नहीं पसंद करेगा; बल्कि जलने से पहले अपने डंक से ही अपने आपको मार डालेगा। कुछ लोग कहते हैं, जिसके शरीर में से किसी प्रकार निकाला हुआ अँक इसके डंक के विष को अच्छा कर सकता है; और इसी लिये लोग जीते बिच्छू को पकड़कर तेल आदि में डालकर छोड़ देते हैं और बिच्छू के मर जाने पर उस तेल में डंक के विष को दूर करने का गुण मानने लगते हैं। पर इन सब किंवदंतियों में कोई सार नहीं है। २. एक प्रकार की घास जिसके शरीर में छू जाने से बिच्छू के काटने की सी जलन होती है। ३. काकतुंड़ी का पौधा या उसका फल। (क्व०)।

बिच्छेप पु †
संज्ञा पुं० [सं० विक्षेप, प्रा० बिच्छेप] दे० 'विक्षेप'।

बिछना
क्रि० अ० [सं० विस्तरण] १. बिछाना का अकर्मक रूप। बिस्तर आदि का बिछाया जाना। फैलाया जाना। २. किसी पदार्थ। जमीन पर बिखेरा जाना। छितराया जाना। ३. (मार पीटकर) जमीन पर लिटाया या गिराया जाना। संयो० क्रि०—लाना।

बिछनाग पु
संज्ञा पुं० [हिं० बछनाग] दे० 'बछनाग'। उ०— भूला अभरन राग सुहागा। सखिय भई दारुण बिछनागा।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० २६१।

बिछलन
संज्ञा स्त्री० [सं० विस्खलन] दे० 'फिसलन'। उ०— लहरों की बिछलन पर जब मचली पड़तीं किरणें भोली।—यामा, पृ० ६।

बिछलना †
क्रि० अ० [हिं० बिछलन] दे० 'फिसलना'।

बिछलहर †
वि० [हिं० बिछलना + हर (प्रत्य०)] पिच्छिल। फिसलन भरी। उ०—मेड़ के ऊपर से लोगों की निकाली हुई पगडंडी, वह भी पानी बरस जाने से बिछलहर।—काले०, पृ० १।

बिछलाना
क्रि० अ० [हिं० बिछलन] दे० 'फिसलना'।

बिछवाना
क्रि० स० [हिं० बिछाना का प्रे० रूप] बिछाने का काम दूसरे से कराना। दूसरे को बिछाने में प्रवृत्त करना।

बिछाउ †
संज्ञा पुं० [हिं० बिछाना] बिछाने की वस्तु। बिछौना।

बिछान †
संज्ञा पुं० [सं० विस्तर] दे० 'विछौना'।

बिछाना
क्रि० स० [सं० विस्तरण] १. (बिस्तर या कपड़े आदि को) जमीन पर उतनी दूर तक फैलाना जितनी दूर तक फैल सके। जैसे, बिछौना बिछाना, दरी बिछाना। उ०— औ भुईँ सुरँग बिछाव बिछावा।—जायसी ग्रं०, पृ० १२८। २. किसी चीज की जमीन पर कुछ दूर तक फैला देना। बिखेरना। बिखराना। जैसे, चूना बिछाना, बताशे बिछाना। ३. (मार मारकर) जमीन पर गिरा या लेटा देना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।

बिछायत
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिछाना + आयत (प्रत्य०)] १. बिछाने का काम। बिछोना। बिछाना। उ०—पाछै नारायन दास ने वा दिन बिछायत करि राखी।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १२३। २. बिछाने की वस्तु। बिछौना। उ०—कमरे में रेशमी गलीचे की बड़ी उम्दा बिछायत थी।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १७७।

बिछायति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिछायत] दे० 'बिछायत'। उ०— डेरा डयौढ़ौ करि खरे, करि बिछायति बेस।—ह० रासो पृ० ५०।

बिछाव पु
संज्ञा पुं० [हिं० बिछाना + आव (प्रत्य०) दे० 'बिछा'] वन'। उ०—औ भुईँ सुरंग बिछाव बिछावा।—जायसी ग्रं०, पृ० १२८।

बिछावन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिछौना'। उ०—करी बिछावन तहँ बड़ भारी। गादी तकिया बहुत अपारी।—कबीर सा०, पृ० ५४३।

बिछावना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बिछाना'। उ०—औ भुईँ सुरँग बिछाव बिछावा।—जायसी ग्रं०, पृ० १२८।

बिछिआ, बिछिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिच्छू + इया (प्रत्य०)] पैर की उँगलियों में पहनने का एक प्रकार का छल्ला। उ०—(क)अनवट बिछिया नखत तराई।—जायसी ग्रं०, (गुप्त०), पृ० १९०। (ख) तब या प्रकार नूपुर के शब्द अनवट बिछियान के पाइलन के तथा कटिसूत्रन के सब्दन सों पधारे।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २२०।

बिछिप्त †
वि० [सं० विक्षिप्त] दे० 'विक्षिप्त'।

बिछुआ †पु
संज्ञा पुं० [हिं० बिच्छू] १. पैर में पहनने का एक गहना। २. एक प्रकार की छोटी टेढ़ी छुरी। एक छोटा सा शस्त्र। बधनखा। ३. सन की पूली। ४. अगिया या भावर नाम का पौधा। विशेष—दे० 'अगिया'। ५. कमर में पहनने का एक गहना। एक प्रकार की करधनी।

बिछुट्टना पु
क्रि० अ० [प्रा० बि + छुट्टना (= छूटना)] दे० 'छूटना'। उ०—बज्जि गहर निसान। आणि अगबान बिछु- ट्टिय।—पृ० रा०, १।६३९।

बिछुड़न †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिछुड़ना] १. बिछड़ने या अलग होने का भाव। २. वियोग। विरह। जुदाई।

बिछुड़ना
क्रि० अ० [सं० विच्छेद] १. साथ रहनेवाले दो व्यक्तियों का एक दूसरे अलग होना। २. प्रेमियों का एक दूसरे से अलग होना। वियोग होना। संयो० क्रि०—जाना।

बिछुरंता पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बिछुड़ना + अंता (प्रत्य०)] १. बिछुड़नेवाला। उ०—बिछुरंता जब भेंटिऔ सो जानै जेहि नेहु।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० २३९। २. जो बिछड़ गया हो।

बिछुरना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बिछुड़ना'। उ०—बिछुरत सुंदर अधर तै रहत न जिहि घट साँस।—स० सप्तक, पृ० १८७।

बिछुरनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बिछुड़न'।

बिछुवा
संज्ञा पुं० [हिं०बिछुआ] १. पैर की उँगली का एक गहना। उ०—कंचन के बिछुवा पहिरावत प्यारी सखी परिहास बढ़ायौ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३३५। २. बाँक। बघ- नख। उ०—भौंहै बाँकी बाँक सी लखी कुंज की ओट। समर सस्त्र बिछुवा लग्यौ लालन लोटहि पोट।—ब्रज ग्रं०, पृ० १५। दे० 'बिछुआ'।

बिछूना पु †
संज्ञा पुं० [प्रा० बिच्छूढ़ (= वियुक्त) या हिं० बिछु- ड़ना] बिछुड़ा हुआ। जो बिछुड़ गया हो। उ०—मिले रहस भा चाहिय दूना। कित रोइय जौं मिलै बिछूना।—जायसी ग्रं०, पृ० ७६।

बिछोई पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बिछोह + ई (प्रत्य०)] १. वह जो बिछुड़ा हुआ हो। जिसका वियोग हुआ हो। उ०—अधिक मोह जौं मिले बिछाई।—जायसी ग्रं०, पृ० ७६। २. जो विरह का दुःख सह रहा हो। विरही।

बिछोड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० बिछड़ना] १. बिछड़ने की क्रिया या भाव। अलग होना। अलगाव। उ०—बरसों के बिछोड़े के वाद मिलने पर संबंधियों के दिल भर आते हैं।—फूलों० पृ० ३५। २. विरह होना। प्रेमियों का वियोग होना।

बिछोना †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिछौना'। उ०—तब या ने एकांत आछे बिछोना बिछाय दिए।—दो सौ बावन० भा० २, पृ० ४७।

बिछोय पु †
संज्ञा पुं० [सं० विच्छेद] वियोग। उ०—जुदाई। एक दिन ऐसा होयगा सबसे परै बिछोय। राजा राना राव रँक सावध क्यों नहिं होय।—कबीर (शब्द०)।

बिछोर पु
संज्ञा पुं० [हिं० बिछुड़न] वियोग। जुदाई। उ०—ऐसा जिवडा न मिलाए जो फरक बिछोर।—कबीर मं०, पृ० ३२५।

बिछोरना
क्रि० स० [हिं० बिछोर + ना (प्रत्य०)] अलगाना। वियुक्त करना। उ०—है सब उहि अदिष्ट के धोरे। बिछुरे मिलवै मिले बिछोरे।—नंद० ग्रं०, पृ० २३६।

बिछोव पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिछोह'। उ०—(क) हिआ देखि सो चंदन घेवरा मिलि कै लिखा बिछोव।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५५। (ख) अब सो मिलन कत सखी सहेलनि परा बिछोवा टूटि।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३१।

बिछोह
संज्ञा पुं० [हिं० बिछड़ना] बिछोड़ा। जुदाई। विरह। वियोग। उ०—आसा कहै हमीर सह, हम तुम भया बिछोह।—ह० रासो, पृ० १२०।

बिछौन, बिछौना
संज्ञा पुं० [हिं० बिछावना] वह कपड़ा जो सोने के काम के लिये बिछाया जाता हो। दरी, गद्दा, चाँदनी आदि जो सोने के लिये बिछाए जाते हैं। बिछावन। बिस्तर। उ०—जनु कोउ भूपति उतरायौ आइ। छत्र तनाइ, बिछौन बिछाई।—नंद० ग्रं०, पृ० २८९। २. वह फालतू सामान और काठ कबाड़ आदि जो जहाजों के पेंदे में बहूमूल्य पदार्थों को सीड़ आदि से बचाने के लिये उनके नीचे अथवा उनको टक्कर आदि से बचाने और उन्हें कसा रखने के लिये उनके बीच में बिछाया जाता है। (लश०)। क्रि० प्र०—करना।—डालना।—बिछाना।

बिज पु †
संज्ञा पुं० [सं० बीज] दे० 'बीज'। उ०—बिज से बिज उतपति किया सो बिज सभ के दीन्ह।—संत० दरिया, पृ० १।

बिजई † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बीज] बीज का अवशिष्ट अत्र जो नीच जाति के लोग खेतों से लाते हैं। बिजवार।

बिजई पु (२)
वि० [सं० विजयिन, हिं० बिजयी] जयशील। दे० 'बिजयी'। उ०—दोउ बिजई बिनई गुन मंदरि।—मानस, ७।२५।

बिजउर †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बिजौरा'। (डिं०)

बिजड़
संज्ञा स्त्री० [हिं०] तलवार। खड्ग।

बिजन पु †
संज्ञा पुं० [सं० ब्यजन] हवा करने का छोटा पंखा जोहाथ से हिलाया जाता है। बेना। उ०—(क) कैसे वह बाल लाल बाहिर बिजन आवै बिजय बयारि लागै लंक लचकत है।—मतिराम (शब्द०)। (ख) चंद्रक चंदन बरफ मिलि हिले जिन चहुँ पास। ग्रीषम गाल गरम लगै गै गुलाब के त्रास।—स० सप्तक, पृ० ३६२।

बिजन (२)
संज्ञा पुं० [सं० विजन] निर्जन स्थान। सुनसान जगह।

बिजन (३)
क्रि० वि० जिसके साथ कोई न हो। अकेला। उ०—कैसे वह बाल लाल बाहिर बिजन आवै बिजन बयारि लागै लंक लचकत है।—मतिराम (शब्द०)।

बिजन (४)
संज्ञा पुं० [अं० वेनज्यन्स (= प्रतिशोध, बदला)] प्रतिशोध। कत्ले आम। बहुत से लोगों की एक साथ हत्या। ल०—लाचार होकर नादिर शाह ने बिजन बोल दिया।— श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३३०।

बिजना †
संज्ञा पुं० [हिं० बिजन] पंखा। बेना। बिजन।

बिजनी
संज्ञा स्त्री० [सं० विजन] हिमालय की एक जंगली जाति। विशेष—यह जाति उस प्रदेश में बसती है जहाँ ब्रह्मपुत्र नद हिमालय को काटकर तिब्वत से भारत में आता है।

बिजय
संज्ञा पुं० [सं० विजय] दे० 'विजय'।

बिजयखार
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बिजयसार'।

बिजयघंट
संज्ञा पुं० [सं० विजय + घण्ट] बड़ा घंटा जो मंदिरों में लटकाया रहता है।

बिजयसार
संज्ञा पुं० [सं० विजयसार] एक प्रकार का बहुत बड़ा जंगली पेड़ जिसके पत्ते पीपल के पत्तों से कुछ छोटे होते हैं। बिजयखार। विशेष—इसमें आँवले के समान एक प्रकार के पीले फल भी लगते हैं। इसके फूल कड़वे, पर पाचक और बादी उत्पन्न करनेवाले होते हैं। इसकी लकड़ी कुछ कालापन लिए लाल रंग की और मजबूत होती है। यह प्रायः ढोल, तबले आदि बनाने के काम में आती है। इससे अनेक प्रकार की स्याहियाँ और रंग भी बनते हैं। वैद्यक में इसे कुष्ट, विसर्प, प्रमेह गुदा के रोग, कृमि, कफ, रक्त, और पित्त का नाशक माना है।

बिजया
संज्ञा स्त्री० [सं० विजया] भाँग। विजया। उ०—काया कूँड़ी साफ बनायो तिरबिधि बिजया नाई।—गुलाल०, पृ० २६।

बिजयी
वि० [सं० विजयिन्] विजयी। जयशील।

बिजरी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिजली] दे० 'बिजली'। उ०— प्रिया अति गति लई, बिजरी सी कोंधि गई।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८८५।

बिजरी (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] अलसी या तीसी का पौधा। (बुंदेल०)।

बिजली (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्] १. एक प्रसिद्ध शक्ति जिसके कारण वस्तुओं में आकर्षण और अपकर्ण होता है और जिससे कभी कभी ताप और प्रकाश भी उत्पन्न होता है। विद्युत्। विशेष—यह शक्ति सब वस्तुओं में और सदा नहीं होती, बल्कि कुछ विशिष्ट क्रियाओं की सहायता से उत्पन्न होती है। यह शक्ति एक तो घर्षण से और दूसरे रासायनिक क्रियाओं से उत्पन्न होती है। मोर पंख को थोड़ी देर तक उँगलियों से, लाह के टुकड़े को फलालीन से अथवा शीशे को रेशम से रगड़ने पर यह शक्ति उत्पन्न होती है। ऐसी बिजली के घनात्मक और ऋणात्मक ये दो भेद होते हैं। जब दो वस्तुओं को एक साथ रगड़ते हैं तो उनमें से एक से धन विद्युत् और दूसरी में से ऋण विद्युत् उत्पन्न होती है। बिजली कुछ विशिष्ट पदार्थों में चलती भी है और अत्यंत वेग से (प्रति सेंकंड २९००००मील अथवा प्रकाश के वेग की अपेक्षा डयोढ़े वेग से) चलती है। ऐसे पदार्थों को चालक कहते हैं। इनके एक सिरे पर यदि बिजली पहुँच जाय तो वह तुरंत उनके दूसरे सिरे पर जा पहुँचती है। धातुएँ, जल, वृक्ष, शरीर, बर्फ, आदि पदार्थ चालक हैं। कुछ पदार्थ ऐसे भी होते हैं जिनमें बिजली का संचालन नहीं होता ओर जिनको अवरोधक कहते हैं। जैसे, चूना, हवा, रेशम, शीशा, मोम, ऊन, लाह, आदि। घर्षण से जो बिजली उत्पन्न होती हैं, वह बहुत ही थोड़ी होती है और उसके उत्पादन में परिश्रम भी अधिक होता है। इसलिये वैज्ञानिकों ने अनेक रासायनिक प्रयोंगों और क्रियाओं की सहायता से बिजली उत्पन्न करने के उपाय निकाले हैं। ऐसे उपायों से थोड़े व्यय और कम परिश्रम से कम समय में बहुत अधिक बिजली उत्पन्न की जाती है जो एकत्र या संग्रह करके भी रखी जाती है। ये यंत्र अनेक आकार और प्रकार के होते हैं और इनसे बहुत अधिक मान में बिजली उत्पन्न होती है। इस प्रकार उत्पन्न की हुई बिजली से आजकल अनेक प्रकार के कार्य लिये जाते है। जैसे, रोशनी करना, पंखा चलाना, अनेक प्रकार की गाड़ियाँ चलाना, एक धातु पर दूसरा धातु चढ़ाना, समाचार भेजना, इत्यादि, इत्यादि। आजकल भारत के बड़े बड़े नगरों में ऐसी ही बिजली की सहायता से ट्राम गाड़ियाँ और अनेक प्रकार की मशीनें चलती हैं और रोशनी होती है। इससे अनेक प्रकार के रोगों की चिकित्साएँ भी होने लगी हैं। यदि यह बिजली अधिक मान में हो और मनुष्य के शरीर से उसका स्पर्श हो जाय तो उससे तुरंत ही मृत्यु भी हो सकती है। बिजली का आविष्कार पहले पहल थेल्स नामक एक व्यक्ति ने किया था जो ईसा से प्रायः ६०० वर्ष पूर्व हुआ था। उसने पहले पहल इस बात का पता लगाया था कि रेशम के साथ कुछ विशिष्ट वस्तुओं को रगड़ने से उसमें यह शक्ति आ जाती है कि वह कागज के टुकड़ों अथवा इसी प्रकार के कुछ और हलके पदार्थो को अपनी ओर खींचने लगती हैं। आरंभ के वैज्ञानिकों में से फ्रांक्लिन का मत था कि बिजली बहुत ही ही सूक्ष्म और गुरुत्वहीन द्रव पदार्थ है। पीछे से सेमर ने कल्पना की कि यह धन और ऋण दो गुरुत्वहीन द्रवपदार्थों के संयोग से उत्पन्न होती है। परंतु अभी तक इसके संबंध में कुछ विशेष निर्णय नहीं हो सका है। तो भी यह बात प्रायः निश्चित सी है कि बिजली कोई द्रव पदार्थ नहीं है। इसके अतिरिक्त इसका द्रव्य होना भी निश्चित नहीं है, क्योंकि इसमें कोई गुरुत्व नहीं होता। २. आकाश में सहसा उत्पन्न होनेवाला वह प्रकाश जो एक बादल से दूसरे बादल में जानेवाली अथवा किसी बादल से पृथ्वी की ओर आनेवाली वातावरण की बिजली के कारण उत्पन्न होता है। चपला। विशेष—साधारणतः वातावरण में सदा कुछ न कुछ बिजली रहती है जो प्रायः धनात्मक होती है और जो पृथ्वी से कुछ ऊँचाई पर पाई जाती है। वैज्ञानिकों का मत है कि सूर्य की किरणों के कारण पानी से जो भाप बनती है, उसके साथ इस बिजली का विशेष संबंध हैं; क्योंकि प्रातःकाल वातावरण में यह बिजली थोड़े परिणाम में रहती हैं और ज्यों ज्यों दिन चढ़ता है, त्यों त्यों बढ़ती जाती है। इसके अतिरिक्त बादलों में भी कहीं धनात्मक और कहीं ऋणात्मक बिजली रहती है। जब धनात्मक और ऋणात्मक बिजलीवाले दो बादल आमने सामने आते हैं, तब पहले उनका उन दोनों की बिजली में आकर्षण होता है और अब उसका विसर्जन होता है जिससे प्रकाश देख पड़ता है। जिस समय कोई धन विद्युतवाला बादल पृथ्वी के सामने आता है, उस समय पृथ्वी के ऊपर की ओर ऋणविद्युत् उत्पन्न होती है और तब दोनों मिलकर विसर्जित होती हैं जिससे प्रकाश होता है। यही बिजली आकाश से तिरछी रेखा के रूप में पृथ्वी की ओर बड़े वेग से चलती है और उसके मार्ग में जो कुछ पड़ता है, उसे जला या नष्ट कर देती है। इसी को साधारण बोलचाल की भाषा में बिजली गिरना या बिजली पड़ना आदि कहते हैं। इसके मार्ग में पड़नेवाले वृक्ष और घर गिर जाते हैं और मनुष्य या दूसरे जीव मर जाते हैं। यह प्रकाश प्रायः मीलों लंबा होता हैं और इसकी गति प्रायः वक्र होती है। गति की वक्रता का कारण यह है कि वातावरण में इसे जिधर सबसे कम अवरोध मिलता है, उधर ही यह बढ़ चलती है। बादलों के गरजने का कारण भी यही बिजली है; क्योंकि जब बादलों में से इसका विसर्जन होता है, तब वायु में बहुत अधिक गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है। कभी ऐसा भी होता है कि यह प्रकाश एक लंभी चादर के रूप में दिखाई पड़ता है। पर यह प्रायः क्षितिज के पास और उसी समय दिखाई देता है जब वर्षा अथवा तूफान बहुत दूर पर हो। कभी कभी बिजली के गोले भी आकाश से नीचे गिरते हुए दिखाई देते हैं जो पृथ्वी तक पहुँचने से पहले ही भीषण शब्द उत्पन्न करते हुए फट जाते हैं। पर ऐसे गोले बहुत ही कम गिरते हैं और कुछ ही क्षणों तक दिखाई देते है। क्रि० प्र०—चमकना। मुहा०—बिजली गिरना या पड़ना = दे० ऊपर 'विशेष'। बिजली कड़कना = बिजली के विसर्जन के कारण आकाश में बहुत जोर का शब्द होना। बिजली चमक जाना = चकाचौंध होना। चकपकाहट होना। सनसनी फैलना। उ०—अखाड़े में गदका लेकर खड़े हुए तो मालूम हुआ बिजली चमक गई।—फिसाना०, भा० १, पृ० ७। बिजली गिराना = कहर ढाना। जुल्म ढाना। उ०—दिल में जिगरा में सीने में पहलू में आपने। बिजली कहाँ कहाँ न गिराई तमाम रात।—फिसाना०, भा० ३, पृ० ११९। ३. आम की गुठली के अंदर की गिरी। ४. गले में पहनने का एक प्रकार का गहना। ५. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना।

बिजली (२)
वि० १. बहुत अधिक चंचल या तेज। २. बहुत अधिक चमकनेवाला। चमकीला।

बिजलीघर
संज्ञा पुं० [हिं०] वह स्थान जहाँ विद्युत् पैदा की जाय।

बिजलीमार
संज्ञा पुं० [देश०] इक प्रकार का बड़ा वृक्ष जो बहुत सुंदर और छायादार होता है। विशेष—इसके हीर की लकड़ी बहुत कड़ी होती है और प्रायः सिरिस की लकड़ी की तरह काम में आती है। यह आसाम और दारजिलिंग के आस पास की तराइयों में अधिकता से होता है। आसामवाले इस वृक्ष पर एक प्रकार की लाख भी उत्पन्न करते हैं।

बिजवार †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिजई'।

बिजहन
वि० [हिं० बीज + हन] जिसका बीज नष्ट हो गया हो। जिसकी बीज शक्ति नष्ट हो गई हो। जैसे, बिजहन गेहूँ।

बिजागी पु
संज्ञा पुं० [सं० बज्राग्नि, हिं० बजागि] दे० 'बजागि' उ०—रानी सुनि सिर परी बिजागी। सुनतहि जरी कोप की आगी।—चित्रा०, पृ० ३७।

बिजाती
वि० [सं० विजातीय] १. दूसरी जाति का। और जाति या तरह का। उ०—गुरुजन नैन बिजातियन परी कौन यह बान। प्रीतम मुख अवलोक तन होत जु आड़े आन।— रसनिधि (शब्द०)। २. जो जाति से बहिष्कृत कर दिया गया हो। जाति से निकला हुआ। अजाती।

बिजान पु †
संज्ञा पुं० [फा़० वि + जान] अज्ञान। अनजान। उ०—जो यह एकै जानिया तो जानो सब जान। जो यह एक न जानिया तौ सबही जानु बिजान।—कबीर (शब्द०)।

बिजायठ
संज्ञा पुं० [सं० विजय] बाँह पर पहनने का बाजूबंद नामक गहना। अंगद। भुज। बाजू।

बिजार ‡
संज्ञा पुं० [देश०] १. बैल। २. साँड।

बिजुरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिजली] दे० 'बिजली'। उ०— मेघ डरहिं बिजुरी जहँ डीठी। कुरुम डरै घरनी जेहि पीठी।—जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० २९९।

बिजुल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्] बिजली। दामिनि। उ०— कहुँ कहुँ मृगु निरजन बन माहीं। चमकत भजत बिजुल की नाई।—पद्माकर (शब्द०)।

बिजूका, बिजूखा ‡
संज्ञा पुं० [देश०] १. खेतों में पक्षियों आदि को डराकर दूर रखने के उद्देश्य से लकड़ी के ऊपर उलटी रखी हुई काली हाँड़ी। उ०—भेष बिजूका नाम का, देखत डरै कुरग। दरिया सिंघा ना डरै भीतर निर्भय अंग।— दरिया० बानी, पृ० ३४। २. धोका। छल (क्व०)।

बिजै पु
संज्ञा पुं० [प्रा० विजय] दे० 'विजय'।

बिजैसार
संज्ञा स्त्री० [सं० विजयसार] दे० 'विजयसार'।

बिजोग पु †
संज्ञा पुं० [सं० वियोग, प्रा० बिजोग] वियोग। उ०—खोजी को डर बहुत है, पल पल पड़ै बिजोग। प्रन राखत जो तन गिरै, सो तन साहेब जोग।—कबीर सा० सं०, पृ० २६।

बिजोना
[सं० बीजवन] बीज बोना। उ०—आछी भाँति सुधारिकै खेत किसान बिजोय। नत पीछे पछतायगो समै गयो जब खोय।—दीन० ग्रं०, पृ० २३६।

बिजोरा (१)
संज्ञा पुं० [सं० बीजपूर, प्रा० बिज्जउर] दे० 'बिजौरा'।

बिजोरा (२)
वि० [सं० वि + फा़० जोर (= ताकत)] कमजोर। अशक्त। निर्बल।

बिजोहा
संज्ञा पुं० [देश०] केशव के अनुसार एक छंद का नाम। विशेष—दे० 'बिज्जूहा'।

बिजौर, बिजौरा
संज्ञा पुं० [सं० बीजपूरक, प्रा० बिज्जऊरअ] नीबू की जाति का एक वृक्ष। विशेष—इसके पत्ते नीबू के पत्तों के समान, पर उससे बहुत अधिक बड़े होते हैं। इसके फूलों का रंग सफेद होता है और फल बड़ी नारंगी के बराबर होते हैं। यह दो प्रकार का होता है, एक खट्टे फलवाला और दूसरा मीठे फलवाला। फलों का छिलका बहुत मोटा होता है। वैद्यक में इसे खट्टा, गरम, कंठशोधक, तीक्ष्ण, हलका, दीपक, रुचिकारक, स्वादिष्ट और त्रिदोष, तृषा, खाँसी, हिचकी आदि को दूर करनेवाला माना है। इस वृक्ष की जड़, इसके फल और फलों के बीज तीनों औषध के काम आते हैं। पर्या०—बीजपूर। मातुलुंग। रुचक। फलपूरक। अम्लकेशर। बीजपूर्ण। पूर्णबीज। सुकेश। बीजक। सुपूरा। बीजफलक। जंतुघ्न। पूरक। रोचनफल।

बिजौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बीज + औरी (प्रत्य०)] उड़द की पीठी और पेठे के मेल से बनी हुई बड़ी। कुम्हड़ौरी।

बिज्जु पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत् प्रा० बिज्जु] दे० 'बिजली'। उ०—नागर नट पट पीत धर जिमि घन बिज्जु बिलात।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८८।

बिज्जुपात पु
संज्ञा पुं० [सं० विद्युत्पात] बिजली का गिरना। बज्रपात।

बिज्जुल पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विज्जुल] त्वचा। छिलका।

बिज्जुल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्, प्रा० विज्जुल] बिजुली। दामिनि। उ०—सूर कै तेज तें सूरज दीसत चंद के तेज ते चंद उजासै। तारे के तेज तैं तारे उदीसत बिज्जुल तेज तें बिज्जु चकासैं।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६१८।

बिज्जू
संज्ञा पुं० [देश०] बिल्ली के आकर प्रकार का एक जंगली जानवर जो प्रायः दो हाथ लंबा होता है। बीजू। विशेष—यह प्रायः जंगलों में बिल खोदकर अपनी मादा के साथ उसी में रहता हैं। दिन के समय वह जल्दी बाहर नहीं निकलता, पर रात को बाहर निकलकर चूहों, मुरगियों आदि का शिकार करता और उनको खा जाता है। कभी कभी यह कब्रों को खोदकर उनमें से मृतक शरीर को निकालकर भी खा जाता है।

बिज्जूहा
संज्ञा पुं० [?] एक वर्णिक वृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो 'रगण' होते हैं। जैसे,—पुन्य के पाल हैं। दीन के द्याल हैं। सीय के हेत हैं। नैन से भेत हैं। इसी का नाम 'विमोह' और 'विजोहा' भी है।

बिज्ञान
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञान] दे० 'विज्ञान'। उ०—जेहि बिज्ञान मगन मुनी ज्ञानी।—मानस, १। १११।

बिज्ञानी पु
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञानी] वह जो विशिष्ट ज्ञानयुक्त हो। वह जो ज्ञान की परिधि को पार कर गया हो। उ०— ह्वै गइ दसा अरूढ़ ज्ञान तजि भई बिज्ञानी।—पलटू०, भा० १, पृ० ३०।

बिझँवारी
संज्ञा स्त्री० [देश०] छत्तीसगढ़ में बोली जानेवाली एक प्रकार की बोली।

बिझकना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बिझुकना'।

बिझरा †
संज्ञा पुं० [हिं० मेझरना (= मिलाना)] एक में मिला हुआ मटर, चना, गेहूँ और जो।

बिझुकना पु
क्रि० अ० [हिं० झोंका] १. भड़कना। उ०—बोले झुकैं उझकै अनबोलै फिरै बिझुके से हिये महँ फूले।—केशव (शब्द०)। २. डरना। भयभीत होना। उ०—हँसि उठयो नरनायक चाइकौ रिसभरी बिझुकै सरसाइकै।—गुमान (शब्द०)। ३. टेढ़ा होना। तनना। उ०—नेह उरझे से नैन देखिबे को बिरुझे से बिझुकी सी भौहें उझके से उरजात हैं।—केशव (शब्द०)।

बिझुका पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिजूका'। उ०—बुधि मेरी किरषी, गुर मेरो बिझुका, आखिर दोउ रखवारे।—कबीर ग्रं०, पृ० २१९।

बिझुकाना पु् †
[हिं० बिझुकना का सक० रूप] १. मड़काना। उ०—भाग बड़ो जु रची तुम सों वह तो बिझुकाइ कहो कहँ कीजै।—केशव (शब्द०)। २. डराना। उ०—दान दया शुभ शील सखा बिझुकै गुण भिझुक को बिझुकावै।—केशव (शब्द०)।

बिझूका पु
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'बिजूका'। उ०—जगत बिझूका देषि करि मन मृग मानै संक। सुंदर कियौ बिचार जब मिथ्या पुरुष करंक।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७२९। २. धोखा। छल। फरेब। उ०—अजहूँ बेगि समुझि किनदेषौ यह संसार बिझूकौ रे।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ९१०।

बिटंड पु
संज्ञा पुं० [सं० बितण्डा] दे० 'बितंडा'। हुज्जत। शरा- रत। उ०—काह अवनि पाएँ अस मरसी। करसि बिटंड भरम नहिं करसी।—पदुमावत, पृ० २५४।

बिटंबन पु
संज्ञा पुं० [सं० विडम्बन] दे० 'विडंबना'। उ०—नाना रँग बोलहि बहु बानी। अरुझै भेष बिठंबन ठानी।—द० सागर, पृ० २४।

बिट
संज्ञा पुं० [सं० विठ्] १. साहित्य में नायक का वह सखा जो सब कलाओं में निपुण हो। उ०—पीठमर्द बिट चेट पुनि बहुरि बिदूषक होई। मोचै मान तियान को पीठमर्द है सोई।—पद्माकर (शब्द०)। २. वैश्य। उ०—बस्त बसी ब्रह्य छत्री बिट शूद्र जाति अनुसारा।—रघुराज (शब्द०)। ३. पक्षियों की विष्टा। बीट। ४. नीच। खल। धूर्त। उ०— नट भट बिट ठग ठाठ पीक पाच है सबन कौ।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १६।

बिटक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० बिटक] फोड़ा। फुसी [को०]।

बिटप पु
संज्ञा पुं० [सं० विटप] १. वृक्ष। २. क्षुप। ३. टहनी।

बिटपी
संज्ञा पुं० [सं० विटपी] दे० 'विटपी'।

बिटरना
क्रि० अ० [हिं० बिटारना का अक० रूप] १. धँधोला जाना। २. गंदा होना।

बिटामिन
संज्ञा पुं० [अं० विटामिन] जीवनतत्व। पोषक तत्व। उ०—जिसमें बिटामिन भले ही कम हो किंतु किलोरी शक्ति अधिक रहती है।—किन्नर०, पृ० ७।

बिटारना
क्रि० स० [सं० बिलोडन] १. घँघोलना। घँघोलकर गंदा करना। उ०—बगुली नीर बिटारिया सायर चढ़ा कलंक। और पखेरू पीबिया हस न बोलै चंच।—कबीर (शब्द०)।

बिटालना
क्रि० सं० [हिं० बिडारना] फैलाना। बिखेरना। घँघोलना।

बिटिनिया, बिटिया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बेटी'।

बिटोरा, बिटौरा
संज्ञा पुं० [हिं० बटोरना] [अव० बिटहुर, बिठुहरा] उपलों का ढेर। उ०—कान जिनि गह्यौ तिनि सूप सौ बनाई कह्यौ, पीठि जिनि गही तिनि बिटोरा बतायो है।—सुंदर ग्रं०, भाग २, पृ० ६२०।

बिट्टी, बिट्टो
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिटिया] दे० 'बेटी'। उ०—पूछा, अरी बिट्टो तुम्हें क्या हुआ।—कुकुर०, पृ० ४४।

बिट्ठल
संज्ञा पुं० [सं० विष्णु, महा० बिठोवा] १. विष्णु का एक नाम। २. बंबई प्रांत में शोलापूर के अंतर्गत पंढरपुर नगर की एक प्रधान देवमूर्ति। उ०—बाल दशा बिट्ठल पानि जाके पय पीयो मृतक गऊ जिआइ परचो असुरन को दियो।—नाभा (शब्द०)। विशेष—यह मूर्ति देखने में बुद्ध की मूर्ति जान पड़ती है। जैन लोग इसे अपने तीर्थकर की मूर्ति और हिंदू लोग विष्णु भगवान् की मूर्ति बतलाते हैं।

बिठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. आकाश। २. वायुमंडल [को०]।

बिठक
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश [को०]।

बिठलाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बैठाना'।

बिठाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बेठाला'।

बिठालना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बैठाना'।

बिडंब
संज्ञा पुं० [सं० विडम्ब] आडंबर। दिखावा। यौ०—बिडंबरत = पाखंडरत। उ०—कतहुँ मूढ़ पंडित बिडंबरत कबहुँ धर्मरत ज्ञानी।—(शब्द०)।

बिडंबना पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० बिडम्बना] १. नकल। स्वरूप बनाना। २. उपहास। हँसी। निंदा। बदनामी। उ०— ज्ञानी तापस सूर कबि कोबिद गुन आगार। केहिकै लोभ बिडंबना कीन्ह न एहि संसार।—तुलसी (शब्द०)।

बिड (१)
पुं० [सं०] एक प्रकार का नमक।

बिड (२)
संज्ञा पुं० [सं० विट्] १. विष्टा। (डिं०) दे० 'बिट'—३। २. दे० 'विट'।

बिड़ पु
संज्ञा पुं० [सं० विट] नीच। खल। धूर्त। उ०—बीर करि केसरी कुठारपानि मानी हारि तेरी कहा चली बिड़ तो सो गनै फालि को।—तुलसी (शब्द०)।

बिड़द †
संज्ञा पुं० [सं० बिरद] दे० 'विरद'। उ०—हम कसिये क्या होइगा, बिड़द तुम्हारा जाइ। पीछे ही पछिताहुगे ताथैं प्रगटहु आइ।—दादू० बानी, पृ० ६३।

बिडर (१)
वि० [हिं० बिडरना] छितराया हुआ। अलग अलग। दूर दूर।

बिडर † (२)
वि० [हिं० बि (= विना) + डर (= भय)] १. जिसे भय न हो। न डरनेवाला। निर्भय। निडर। २. धृष्ट। ढीठ।

बिडरना
क्रि० अ० [सं० विट् (= तीखे स्वर से पूकारना, चिल्लाना)] १. उधर उधर होना। तितर बितर होना। उ०—भीर भई सुरभी सब बिडरीं मुरली भली सँभारी।— सूर (शब्द०)। २. पशुओं का भयभीत होना। बिचकना। उ०—सिव समाज जब देखन लागे। बिडरि चले बाहन सब भागे।—तुलसी (शब्द०)। ३. नष्ट होना। बरबाद होना।

बिडराना
क्रि० स० [हिं० बिडरना का सक० रूप] १. इधर उधर करना। तितर बितर करना। २. भगाना। उ०— खाए फल दल मधु सबन रखवारे बिडराय।—विश्राम (शब्द०)।

बिड़वना पु † (१)
क्रि० स० [सं० विट् (जोर से चिल्लाना)] तोड़ना। उ०—यद्यपि अलक अंज गहि बाँधे तऊ चपल गति न्यारे। घूँघट पट बागुर ज्यों बिड़वत जतन करत शशि हारे।—सूर (शब्द०)।

बिड़वना पु † (२)
क्रि० स० [हिं० बिढ़वना] कमाना। पैदा करना। उ०—रहूँ भरोसे राम के, बनिजे कबहुँ न जाँव। दास मलूका यों कहैं, हरि बिड़वै मैं खाँव।—मलूक० बानी, पृ० ३४।

बिड़ा पु
संज्ञा पुं० [सं० विटप या विरुह, हिं० बिरवा] पेड़। बिरवा। विटप। उ०—कबीर चंदन का बिड़ा, बैठयाआक पलास। आप सरीखे करि लिए, जे होते उन पास।—कबीर ग्रं०, पृ० ५०।

बिड़ायते
वि० [सं० वृद्धायते] अधिक। ज्यादा (दलाल)।

बिडारना
क्रि० स० [सं० बिडरना का सक० रूप] भयभीत करके भगाना। उ०—(क) अर्जुन आदि बीर जो रहेऊ। दिए बिडारि बिकल सब भयऊ।—विश्राम (शब्द०)। (ख) कुंभकरन कपि फोज बिडारी।—तुलसी (शब्द०)। २. नष्ट करना। बरबाद करना। न रहने देना। उ०—सेतु बंध जेइ धनुष बिडारा। उहौ धनुष भौंहन्ह सो हारा।—जायसी (शब्द०)।

बिडाल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिल्ली। बिलाव। २. आँख का डेला। ढेंढर (को०)। ३. बिडालाक्ष नामक दैत्य जिसे दुर्गा ने मारा था। ४. आँख के रोगों की एक प्रकार की ओषधि। ५. दोहे के बीसवें भेद का नाम जिसमें २ अक्षर गुरु और ४२ अक्षर लघु होते हैं। जैसे,—बिरद सुमिरि सुधि करत नित हरि तुव चरन निहार। यह भव जलनिधि तें उरत कब प्रभु करिहहु पार।

बिडालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख का गोलक। २. आँखों पर लेप चढ़ाने की क्रिया। ३. बिलाव।

बिडालपद, बिडालपदक
संज्ञा पुं० [सं०] एक तौल जो एक कर्ष के बराबर होती है। विशेष—दे० 'कर्ष'।

बिडालवृत्तिक
वि० [सं०] बिल्ली के स्वभाववाला। लोभी। कपटी, दंभी, हिंसक, सबको धोका देनेवाला, और सबसे टेढ़ा रहनेवाला।

बिडालव्रतिक
वि० [सं०] बिडालवत् व्यवहारवाला। झूठा।

बिडालाक्ष
वि० [सं०] जिसकी आँखें बिल्ली की आँखों के समान हों।

बिडालाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक राक्षसी का नाम।

बिडालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिल्ली। २. हरताल।

बिडाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बिल्ली। २. एक प्रकार का आँख का रोग। ३. एक योगिनी जो इस रोग की अधिष्ठात्री मानी जाती है। ४. एक प्रकार का पौधा।

बिडिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] पान का बीड़ा। गिलौरी।

बिड़ी †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बीड़ी'।

बिडौजा
संज्ञा पुं० [सं० बिडौजस्] इंद्र का एक नाम।

बिड्डाल पु
संज्ञा पुं० [सं० बिडाल] बिडालाक्ष नाम का एक राक्षस। उ०—जै सुरझ जै रक्तबोज बिड्डाल बिहंडिनि।—भूषण, ग्रं०, पृ० ३।

बिढ़ई पु ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिलाव] बिलाव। बिल्ली। उ०— कहल बिनु मोहि रहल न जाई। बिढ़ई ले ले कूकुर खाई।—कबीर बी० (शिशु०), पृ० २८०।

बिढ़तो पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बढ़ना (= अधिक होना)] कमाई। नफा। लाभ। उ०—द पठयो पहिलो बिढ़तो ब्रज सादर सिर धरि लीजै।—तुलसी (शब्द०)।

बिढ़ना पु
क्रि० स० [सं० वर्द्धन, प्रा० बड्ढण] दे० 'बिढ़वना'। उ०—तात राउ नहिं सोचन जोगू। बिढ़इ सुकृत जस कीन्हेउ भोगू।—तुलसी (शब्द०)।

बिढ़वना पु †
क्रि० स० [सं० अभिवर्धन या वृद्धि, हिं० बढ़ाना] १. कमाना। २. संचय करना। इकट्ठा करना।

बिढ़ाना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बिढ़वना'।

बिण पु †
अव्य० [सं० बिना] दे० 'बिन'। उ०—तुम बिण भव दुख कौण निवारे।—दक्खिनो०, पृ० १२२।

बितंड पु
संज्ञा पुं० [सं० वि + तुण्ड (= मुख)] रूप। आकृति या मुक। उ०—धर बितड वाराह। बीर बीरन बिदारि पल।—पृ० रा०, २।१४४।

बितंडा
संज्ञा पुं० [सं० वितण्डा] १. बखेड़ा। झंझट। २. बिना अर्थ की बहस। यौ०—बितडावाद। उ०—विद्वन्मंडल करत बितंडावाद विनाशक।—भारतेंदु० ग्रं०, भा० २, पृ० ७५०।

बित पु †
संज्ञा पुं० [सं० वित्त] १. धन। द्रव्य। उ०—तुम बित नारि भवन परिवारा। होहि जाहि जग बारहि बारा।— मानस, ६।६०। २. सामर्थ्थ। शक्ति। ३. कद। आकार।

बितताना (१)
क्रि० अ० [हिं० बिलखाना] बिलखाना। व्याकुल होना। विशेष सतप्त होना। उ०—(क) रोवति महरि फिरति बिततानी। बार बार लै कंठ लगावति अतिहि शिथिल भइ बानी।—सूर (शब्द०)। (ख) प्रिया पिय लीन्ही अंकम लाय। खेलत में तुम बिरह बढ़ायो गई कहा बितताय।— सूर (शब्द०)। (ग) सूर स्याम रस भरी गोपिका बन में यों बितताहीं।—सूर (शब्द०)।

बितताना (२)
क्रि० स० संतप्त करना। सताना। दुखी करना।

बितन पु
संज्ञा पुं० [सं० वि (= रहित) + तनु] अतनु। कामदेव। उ०—तिय तन बितन जु पच सर, लगे पंच ही बाट।— नंद०, ग्रं०, पृ० १३५।

बितना ‡ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बित्ता] दे० 'बित्ता'। उ०—इंद्र गरब हर सजह में गिरि नख पर धर लीन। इह इतना बितना भरा कहु कितना बल कीन।—रसनिधि (शब्द०)।

बितना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० बीतना] गुजरना। व्यतीत होना। उ०—नद दास लगे नैनि लाल सों, पलक ओट भए बितत जुग चारि।—नंद ग्रं०, पृ० ३५३।

बितनु पु
संज्ञा पुं० [सं० व्तिनु] दे० 'वितनु'। उ०—फटिक छरी सी किरन कुंज रंध्रनि जब आई। मानों बितनु बितान सुदेस तनाउ तनाई।—नंद० ग्रं०, पृ० ७।

बितरना पु †
क्रि० स० [सं० वितरण] बाँटना। वितरण करना। उ०—कहै पद्माकर सुहेम हय हाथिन के हलके हजारन के बितर बिचारैं ना।—पद्माकर (शब्द०)।

बितरेक पु
वि० [सं० व्यतिरेक] अतिशयतायुक्त। अतिक्रमण करनेवाला। उ०—ए हो नटनागर। तिहारी सौंह साँची कहौं, सारे भुवमंडल विधाता रची एक है। प्यारी के नयन अनियारेकारे कजरारे, मृग मीन कंज खंज हूँ ते बितरेक है।— नट०, ४९।

बितवना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बिताना'। उ०—घर के काज अकाज किए सब जग सुख दुखमय बितवत।—श्यामा०, पृ० ८४।

बितस्ति
संज्ञा पुं० [सं० वितस्ति] बित्ता। १२ अंगुल। दे० 'वितस्ति'। उ०—सप्त बितस्ति काइ कौं करयो। रहत बहुरि कहां धौं परयौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २७०।

बिता
संज्ञा पुं० [सं० वितस्ति] दे० 'बित्ता'।

बितान
संज्ञा पुं० [सं० वितान] दे० 'वितान'। उ०—सजहि सुमंगल कलस बितान बनावहिं।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५६।

बिताना
क्रि० स० [सं० व्यतीत, हिं० बीतना का संक्षिप्त रूप, या सं० व्यतीत, प्रा० बितोत + हिं० ना (प्रत्य०)] (समय) आदि व्यतीत करना। (वक्त) गुजारना। काटना।

बिताल †
संज्ञा पुं० [सं० बेताल] दे० 'बैताल'।

बितावना पु †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बिताना'।

बितीत पु (१)
वि० [सं० व्यतीत, प्रा० वितीत] दे० 'व्यतीत'।

बितीत (२)
संज्ञा पुं० व्यतीत करने या गुजर जाने की स्थिति या बाव। उ०—यौंही बितीत कीनौ समय ताकत डोल्यौ काक ज्यों।—व्रज० ग्रं०, पृ० ११६।

बितीतना (१)
क्रि० अ० [सं० व्यतीत, प्रा० बितीत = ना (प्रत्य०)] व्यतीत होना। गुजरना। उ०—(क) सात द्योस यहि रीति बितीते। पंचम इंद्रिन के गुन जीते।—लाल (शब्द०)। (ख) विधिक्त बारह मास बितीते।—पद्माकर (शब्द०)। (ग) ज्यौं ज्यौं बितीतति है रजनी उठि त्यौं त्यौं उनींदे से अंगनि ऐंठे।—(शब्द०)।

बितीतना (२)
क्रि० स० बिताना। गुजारना।

बितीपात पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यतीपात] ज्योतिष में एक योग। वि० दे० 'व्यतीपात'। उ०—बितीपात परदोष बताई। ये सब झूठी बात चलाई।—घट०, पृ० १३।

बितुंड पु
संज्ञा पुं० [सं० वितुण्ड] दे० 'वितुंड'। उ०—बलित बितुंड पै बिराजि बिलखाइ कै।—हम्मीर०, पृ० ४०।

बितु †पु
संज्ञा पुं० [सं० वित्त, हिं० वित] दे० 'वित्त'।

बित्त
संज्ञा पुं० [सं० वित्त] १. धन। दौलत। २. हैसियत। औकात। ३. सामर्थ्य। शक्ति। बूता। उ०—किसी की मड़ी में आकर अपने बित्त से बढ़कर काम मत करो। पर कोइ यदि अपने बित्त के बाहर माँगे या ऐसी वस्तु माँगे जिससे दाता की सर्वस्व हानि होती हो तो वह दे कि नहीं ?। यौ०—बित्तहीन = धनहीन। निर्धन। उ०—दीन बित्तहीन कैसे दूसरी गढ़ाइहौं।—तुलसी (शब्द०)।

बित्ता
संज्ञा पुं० [सं० वितस्ति] हाथ की सब अँगुलियाँ फैलाने पर अँगूठे के सिरे से कनिष्ठिका के सिरे तक की दूरी। बालिश्त।

बित्ती
संज्ञा स्त्री० [सं० वृत्ति] वह धन जो दूकानदार लोग गोशाला या और किसी धर्मकार्य कै लिये माल या दाम चुकाने के समय, काटकर अलग रखते हैं।

बिथकना
क्रि० अ० [हिं० थकना] १. थकना। २. चकित होना। हैरान होना। स्तब्द होना। उ०—अति अनूप जहँ जनक निवासू। बिथकहिं विबुध बिलोकि बिलासू।—तुलसी (शब्द०)। ३. मोहित होना। उ०—सूर अमर ललना गण अमर बिथकी लोक बिसारी।—सूर (शब्द०)।

बिथकित
वि० [हिं० बिथकना] थकित। मोहित। स्तब्ध। उ०— तुलसी भइ गति बिथकित करि अनुमान। रामलषन के रूप न देखेउ आन।—तुलसी ग्रं०, पृ० २१।

बिथरना
क्रि० अ० [सं० विस्तरण, प्रा० विथ्थरण या विकिरण] १. छितराना। बिखरना। इधर उधर होना। २. अलग अलग होना। खिल जाना। उ०—परा थिरति कंचन महँ सीसा। बिथरि न मिलइ सावँ पइ सीसा।—जायसी (शब्द०)।

बिथरनी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वैतरणी] दे० 'वैतरणी'। उ०— मन सूधा कौ कूच कियौ है, ग्यान बिथरनी पाई। जीव की गाँठि गुढ़ी सब मागी, जहाँ की तहाँ ल्यो लाई।—कबीर ग्रं०, पृ० १८६।

बिथराना †
क्रि० स० [हिं० बिथरना] बिखेरना। अस्त व्यस्त करना। इधर उधर करना। उ०—हार तोरि बिथराइ दियो। मैया यै तुम कहन चली कत दधि माखन सब छीन लियो।—सूर (शब्द०)।

बिथा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० व्यथा, प्रा० विथा] दुःख। पीड़ा। क्लेश। कष्ट। तकलीफ। उ०—(क) हृदय की कबहुँ न जरनि घटी। बिन गोपाल बिथा या तनु की कैसे जात कटी।—सूर (शब्द०)। (ख) नैना मोहन रूप सों मन कों देत मिलाय। प्रीति लगै मन की बिथा सकों न ये फिर पाय।—रसनिधि (शब्द०)।

बिथार पु
संज्ञा पुं० [सं० विस्तार, प्रा० विथ्थार, विथार] दे० 'विस्तार'। उ०—तनकहि बीज बोइ बिरख बिथार होइ, तनक चिनग परै भसम समान है।—सुंदर० ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० १०३।

बिथारना
क्रि० स० [हिं० बिथरना का सक० रूप] छितराना। छिटकाना। बिखेरना। उ०—(क) मनहुं रविबाल मृगराज तन निकर करि दलित अति ललित मनिगन बिथारे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) रावणहिं मारों पुर भली भाँति जारों, अंड मुंडल बिथारों आज राम बल पाइ कै।—हनुमान (शब्द०)।

बिथित पु
वि० [सं० व्यथित] जिसे कष्ट पहुँचा हो। पीडित। दुःखित। उ०—निंदा अपने भागि की चली करति वह तीय। रोई बाँह पसारि के भई बिथित अति हीय।—शकुंतला, पृ० ९९।

बिथुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] शीशम की जाति का एक प्रकार का वृक्ष जिसे पस्सी भी कहते हैं। वि० दे० 'पस्सी'।

बिथुरना †
क्रि० अ० [सं० विस्तरण] दे० 'बिथरना'। उ०—पुहूप परे बिथुरै पुनि वेही। ताते मैं मानत अब येही।—पद्माकर (शब्द०)।

बिथुरा †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पीड़ा।—नंद० ग्रं०, पृ० ९६।

बिथुराना
क्रि० स० [हिं० बिथुरना] दे० 'बिथराना'।

बिथुरित
वि० [हिं० बिथुर + इत (प्रत्य०)] लोल। चंचल। अस्त व्यस्त।—बियुरित कुडल अलक तिलक झुकि झाई लेहीं।— नंद० ग्रं०, पृ० ३२।

बिथोरना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बिथराना'।

बिदकना
क्रि० [अ० विदरण] १. फटना। चिरना। विदीर्ण होना। २. घायल होना। जखमी होना। ३. भड़कना। चोंकना।

बिदकाना
क्रि० स० [सं० विदारण] १. फाड़ना। विदीर्ण करना। २. घायल करना। जख्मी करना। उ०—चोच चंगुलन तन बिदकायो, मुर्छित ह्वै पुनि आरी लै आयो।—विश्राम (शब्द०)। ३. चौंकाना। भड़काना।

बिदरँग पु
वि० [फा़० बदरंग] दे० 'बदरंग'। उ०—देह सुरंगी तब लगैं जब लग प्राण समीप। जीव जाति जाती रही सुंदर बिदरँग दीप।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७१०।

बिदर †
संज्ञा पुं० [सं० विदर्भ] १. देश विशेष। विदर्म नाम का देश। बरार। उ०—दहिनइ बिदर चँदेरी बाए। दुहु को होब बाट दुहु ठाएँ।—जायसी (शब्द०)। २. एक प्रकार की उपधातु। विशेष—यह ताँबे और जस्ते के मेल से बनती है और इसके पात्र भी बनते हैं। आरंभ में इसका बनना बिदर्भ देश से ही आरंभ हुआ था, इसलिये इसका यह नाम पड़ा।

बिदरद †
वि० [फा़० बेदर्द] दे० 'बेदर्द'। उ०—झमक सहचरी सरन, बिदरदाँ, जुल्फ जाल झक मोरें।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३९३।

बिदरन † पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विदीर्ण] दरार। दरज। शिगाफ।

बिदरना पु
क्रि० अ० [सं० विदीर्ण] विदीर्ण होना। खंड खंड होना। फटना। उ०—(क) हृदय न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतम नीर।—मानस, २। १४६। (ख) हृदय दाड़िम ज्यों न बिदरयो समुझि लील सुभाउ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३५२।

बिदरना पु (२)
वि० [वि० स्त्री० बिदरनि] फाड़नेवाला। चीरनेवाला। विदीर्ण करनेवाला। उ०—जोति रूप लिंगमई अगनित लिंगमई मोक्ष बितरनि बिदरनि जग जाल की।— तुलसी ग्रं०, पृ० २४५।

बिदरनि
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिदरना] विदीर्ण करने अथवा होने की क्रिया, भाव या स्थ्ति। उ०—हाथिन सों हाथी मारे, घोड़े घोड़े सों सँहारे, रथनि सो रथ बिदरनि बलवान की।— तुलसी ग्रं०, पृ० १९२।

बिदरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विदर्भ, हिं० बिदर] जस्ते और ताँबे के मेल से बरतन आदि बनाने का काम जिसमें बीच बीच में सोने या चाँदी के तारों से नक्काशी के हुई होती है। बिदर की धातु का काम। २. बिदर धातु का बना हुआ सामान।

बिदरी (२)
वि० [हिं० बिदर + ई (प्रत्य०)] बिदर या बिदर्भ संबंधी। बिदर का।

बिदरी (३)
संज्ञा स्त्री० [?] बिदलित। उ०—बिदरी कहे बीधि तेहि लूटा अवर जहाँ तक पोता।—संत० दरिया, पृ० ११३।

बिदरीसाज
संज्ञा पुं० [हिं० बिदरी + फा़० साज] वह जो बिदर की धातु से बरतन आदि बनाता हो। बिदर का काम बनानेवाला।

बिदलना पु
क्रि० स० [सं० वि + दलन] विदीर्ण करना। नष्ट करना। ध्वस्त करना। दलना। उ०—तें रनकेहरि केहरि के बिदले अरि कुंजर छैल छवा से।—तुलसी ग्रं०, पृ० २५१।

बिदलित
वि० [सं० बिदलित] दे० 'विदलित'। उ०—सुंदर जिह्वा आपुनी अपने ही सब दंत। जौ रसना बिदलित भई तो कहा बैर करंत।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८०४।

बिदहना
क्रि० सं० [सं० विदहन] [स्त्री० बिदहनी] धान या ककुनी आदि की फसल पर आरंभ में पाटा या हेंगा चलाना। विशेष—जिस समय फसल एक बालिश्त हो जाती है और वर्षा होती है, तब मिट्टी गीली हो जाने पर उसपर हेंगा या पाटा चला देते हैं। इससे फसल लेट जाती है और फिर जब उठती है, तब जोरों से बढ़ती है।

बिदहनी
संज्ञा स्त्री० [सं० विदहन] बिदहने की क्रिया या भाव। क्रि० प्र०—करना।—लगना।—लगाना।

बिदा
संज्ञा स्त्री० [अ० बिदाअ] १. प्रस्थान। गमन। रवानगी। रुखसत। उ०—बेटी को बिदा कै अकुलाने गिरिराज कुल व्याकुल सकल शुद्धि बुद्धि बदली गई।—देव (शब्द०)। २. जाने की आज्ञा। उ०—माँगहु बिदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना।—माँगना।—मिलना। ३. द्विरागमन। गौना।

बिदाई
संज्ञा स्त्री० [अ० बिदाअ, हिं० बिदा + ई (प्रत्य०)] १. बिदा होने की क्रिया या भाव। २. बिदा होने की आज्ञा। ३. वह धन जो किसी को बिदा होने के समय, उसका सत्कार करने के लिये दिया जाय।

बिदामी
वि० [हिं० बादाम] दे० 'बादामी'।

बिदारना †
क्रि० स० [सं० विदारण] १. चीरना। फाड़ना। उ०—सीयबरन सन केतकि अति हिय हारि। किहेसि भँवर कर हरवा हृदय बिदारि।—तुलसी ग्रं०, पृ० २१।

बदारी
संज्ञा पुं० [सं० विदारी] १. शालपर्णी। २. भूमि कूष्मांड। भूइँ कुम्हड़ा। ३. अठारह प्रकार के कंठरोगों में से एक प्रकार का रोग।

बिदारीकंद
संज्ञा पुं० [सं० विदारीकन्द] एक प्रकार का कंदजिसकी बेल के पत्ते अरुई के पत्ते के समान होते हैं। बिलाई कंद। विशेष—यह कंद बेल की जड़ में होता है इसका रंग कुछ लाल होता है और इसके ऊपर एक प्रकार के छोटे छोटे रोएँ होते हैं। वैद्यक में इसे मधुर, शीतल, भारी, स्निग्ध, रक्तपित्त- नाशक, कफकारक, वीर्यवर्धक, वर्ण को सुंदर करनेवाला और रुधिरविकार, दाह तथा वमन को दूर करनेवाला माना है।

बिदावा
वि० [फा़० बेदावह्] बेदावा। अधिकार या किसी प्रकार की कामना से रहित। उ०—अनडीठे सिउँ सहजि पतीना तबते भया बिदावै।—प्राण०, पृ० ६६१।

बिदिसा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विदिशा] दे० 'विदिशा'।

बिदीरन पु
संज्ञा पुं० [सं० विदीर्णन] फाड़ना। विदीर्ण करने की स्थिति, क्रिया या भाव।

बिदीरना पु
क्रि० स० [सं० विदीर्णन] दे० 'बिदारना'।

बिदुराना पु
क्रि० अ० [सं० विदुर (= चतुर)] मुसकराना। धीरे धीरे हँसना। उ०—धरै तहाँ जहँ होइ रजाई। बद्यो विदेह बचन बिदुराई।—रघुराज (शब्द०)।

बिदुरानि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिदुराना] मुसकराहट। मुसक्यान उ०—नए चाँद से बदन बिदुरानि खासी त्यों जवाहिर जड़े कड़े दिल कादर ते।—रघुराज (शब्द०)।

बिदूखना, बिदूषना पु
क्रि० अ० [सं० विदूषण] १. दोष लगाना। कलंक लगाना। ऐब लगाना। २. खराब करना। बिगाड़ना।

बिदूरित पु
सं० [सं० विदूरित] दूरीकृत। दूर किया हुआ। अलग किया हुआ।

बिदेस
संज्ञा पुं० [सं० विदेश] विदेश। परदेश। अपने देश के अतिरिक्त और कोई देश। जैसे, देश विदेश मारे मारे फिरना।

बिदेसी
वि० [हिं० विदेशी] दे० 'विदेशी'।

बिदेह पु
संज्ञा पुं० [सं० वि + देह (= शरीररहित)] १. अनग। कामदेव। उ०—त्यौं दुख देखि हँसै चपला, अरु पोन हूँ दूनो बिदेह ते दाहक।—घनानंद, पृ० १०४। २. राजा जनक का एक नाम। ३. वह जो देहाभिमान वा शरीर की स्थिति से रहित हो। उ०—भएउ बिदेह बिदेह बिसेखी।— मानस, १।२१५।

बिदेहना
संज्ञा स्त्री० [हिं०] बिदहने की क्रिया। उ०—कुछ बीज परती (बिना जुते) खेतों में ही बोए जाते हैं। इस प्रक्रिया को बिदेहना कहते हैं।—संपूर्ण० अभि० ग्रं०, पृ० २४७।

बिदेही
वि० [सं० वि + देहिन्] देहाभिमान से रहित। उ०— साहेब कबीर प्रभु मिले बिदेही, झीना दरस दिखाइया।— धरम० श०, पृ० ५६।

बिदोरना
क्रि० स० [सं० विदीर्णन] फैलाना। चलाना। निपोरना। उ०—खाय के पान बिदोरत ओठ हैं बैठि सभा में बने अलबेला।—कविता कौ०, भा० १, पृ० ३९६।

बिदोख पु †
संज्ञा पुं० [सं० विद्वेप] बैर। वैमनस्य।

बिद्दत †
संज्ञा स्त्री० [अ० बिदअत] १. पूरानी अच्छी बात को बिगाड़नेवाली नई खराब बात। २. खराबी। बुराई। दोष। ३. कष्ट। तकलीफ। ४. विपत्ति। आफत। ५. अत्याचार। ६. दुर्दशा। क्रि० प्र०—में पड़ना।—भोगना।—सहना।—होना।

बिद्दतो
वि० [हिं० विद्दत + ई] विद्दत करनेवाला।

बिद्ध पु
वि० [सं० विद्ध] बेधा हुआ। बिंधा हुआ। विद्ध।

बिद्धि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विधि] भाँति। प्रकार। दे० 'विधि'। उ०—कमलति चंपक चारु फूल सब बिद्धि फल। सरद रित्त ससि सीस मरुत्त त्रिबिद्ध चल।—पृ० रा०, २।१३९।

बिद्यारथी पु
संज्ञा पुं० [सं० विद्यार्थी] दे० 'विद्यार्थी'। उ०— बिद्यारथिन करावहु यहि बिधि सत सिच्छा दय।—प्रेमघ०, भा० १, पृ० २१।

बिद्यावाही पु
संज्ञा पुं० [सं० विद्या + वाहिन्] १. विद्धान। २. पंडित। उ०—बिद्यावाही पढ़हि ग्रंथ गुनि गूढ़ि अनेकहिं।— रत्नाकर, भा० १, पृ० ९६।

बिद्रुम
संज्ञा पुं० [सं० विद्रुम] दे० 'विद्रुम'। उ०—हीरा गहै सो बिद्रुम धारा। बिहँसत जगत होइ उजियारा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १९०।

बिद्वेस
संज्ञा पुं० [सं० विद्वेस] विद्वेष। वैर। शत्रुता। उ०— संतन को बिद्वेस जु आहि। मृत्युमात्र जिनि जानहु ताहि।— नंद ग्रं०, पृ० २३३।

बिधंस पु
संज्ञा पुं० [सं० विध्वंस] विनाश। विध्वंस। उ०— करहि बिधंस आव दसकंधर।—मानस, ६।८४।

बिधंसक
वि० [सं० विध्वंसक] दे० 'विध्वंसक'। उ०—मतिभ्रंसक सब धर्म बिधंसक। निरदै महा बिस्थ पसुहिंसक।—नंद० ग्रं०, पृ० २५२।

बिधंसना पु †
क्रि० स० [सं० विध्वंसन] नाश करना। विध्वंस करना। नष्ट करना। उ०—बन बिधंसि सुत बधि पुर जारा।—मानस, ६।२४।

बिधँसना पु
क्रि० स० [सं० विध्वंसन] दे० 'बिधंसना'।

बिध (१)
संज्ञा पुं० [सं० विधि] हाथियों का चारा या रातिब।

बिध (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० विधि] १. प्रकार। तरह। भाँति। उ०— जद्यपि करनी है करी मैं हर भात मुरार। प्रभु करनी कर आपनी सब बिध लेहु सुधार।—रसनिधि (शब्द०)। २. ब्रह्मा। विधाता।

बिध (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० विधा (= लाभ)] जमा खर्च का हिसाब। आय व्यय का लेका।मुहा०—बिध मिलना = आय व्यय का हिसाब ठीक करना। यह देखना कि आय और व्यय की सब मदें ठीक ठीक लिखी गई हैं या नहीं।

बिधना (१)
संज्ञा पुं० [सं० विधि + हिं० ना (प्रत्य०)] ब्रह्मा। कर्तार। विधि। विधाता। उ०—अहो बिधना तो पै अचरा पसारि माँगों जनम जनम जनम दीजो याही ब्रज बसिबो।—(शब्द०)।

बिधना (२)
क्रि० अ० [सं० विद्ध] विद्ध होना। बेधा जाना। दे० 'बिंधना'।

बिंधना (३)
क्रि० स० फँसाना। विद्ध करना।

बिधबंदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिधि (= जमा) + फा़० बंदी] भूमिकर देने की वह रीति जिसमें बीधे आदि के हिसाब से कोई कर नियत नहीं होता बल्कि कुल जमीन के लिये यों ही अंदाज से कुछ रकम दे दी जाती है। बिल मुकता।

बिधवना पु
क्रि० स० [सं० विद्ध] बेधना। विद्ध करना। फँसाना। उ०—जैसे बधिक अधिक मृग बिधवत राग रागिनी ठानी।—सूर (शब्द०)।

बिधवपन †
संज्ञा पुं० [सं० विधवा + हिं० पन (प्रत्य०)] रँड़ापा। वैधव्य। उ०—लीन्ह बिधवपन अपजस आपू। दीन्हेउँ प्रजहिं सोक संतापू।—मानस, २।१८०।

बिधवा
वि० [सं० विधवा] वह स्त्री जिसका पति मर गया हो। राँड़। बेवा।

बिधवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बिंधवाना'।

बिधाँसना पु
क्रि० स० [सं० विध्वंसन] विध्वंस करना। नष्ट करना। नाश करना। उ०—जनहुँ लंक सब लूसी हनू बिधाँसी बारि। जागि उठेउ अस देखत सखि कहु सपन बिचारि।—जायसी (शब्द०)।

बिधाइनी पु
वि० स्त्री० [सं० विधायिनी] विधान करनेवाली। दे० 'बिधानी'। उ०—पूरनमासी भगवती, सिद्घ बिधाइनि सोय।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ६४८।

बिधाई पु
संज्ञा पुं० [सं० विधायक] वह जो विधान करता हो। विधायक। उ०—जैति सौमित्रि रघुनंदनांदकर रीछ कपि कटक संघट बिधाई।—तुलसी (शब्द०)।

बिधात पु
संज्ञा पुं० [सं० विधाता] दे० 'विधाता'। उ०—पाछैं अदभुत निरखि बिधात। चक्यो थक्यो जहँ फुरै न वात।—नंद० ग्रं०, पृ० २६८।

बिधान
संज्ञा पुं० [सं० विधान] दे० 'विधान'। उ०—गान निसान बितानबर, बिरचे बिबिध विधान।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८५।

बिधाना
क्रि० अ० [हिं० बिंधना] दे० 'बिंधाना'। उ०— बाहन बिधाए बाँह जघन जघन माह कहे छोड़े नाह नाहिं गयो चाहै मुचि कै।—देव (शब्द०)।

बिधानी पु †
संज्ञा पुं० [सं० विधान] विधान करनेवाला। बनानेवाला। रचनेवाला।

बिधि (१)
संज्ञा पुं० [सं० विधि] दे० 'विधि'। उ०—बिधि केहि भाँति धरउँ मन धीरा।—मानस, १।

बिधि (२)
संज्ञा स्त्री० प्रकार। भाँति। तरह। उ०—एहि बिधि पंथ करत पछितावा।—मानस, २।

बिधिना
स्त्री० पुं० [हिं०] दे० 'बिधना'। उ०—बिधिना सों बिनती यहै मिलि बिछुरन नहिं होय।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ३४।

बिधुंतुद
संज्ञा पुं० [हिं० बिधुन्तुद] राहु।

बिधुंसना पु †
क्रि० स० [सं० विध्वंस + हिं० ना (प्रत्य०)] दे० 'विधाँसना'। उ०—लक बिधुंसी बानराँ थे काई सराहो राजा गठ अजमेर।—बी० रासो, पृ० ३३।

बिधु पु
संज्ञा पुं० [सं० विधु] दे० 'विधु'।

बिधुर पु
संज्ञा पुं० [सं० विधुर] दे० 'विधुर'।

बिधुली
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बाँस जो हिमालय की तराई में पाया जाता है। इसे नल बाँस और देव बाँस भी कहते हैं। विशेष—दे० 'देवबाँस'।

बिनंठना पु ‡
क्रि० अ० [सं० विनष्ट, प्रा० बिनट्ठ, बिनंठ] विनष्ट होना। उ०—पासि बिनंठा कप्पड़ा, क्या करै बिचारी चोल।—कबीर ग्रं०, पृ० ३।

बिनंती, बिनंतु ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'विनती'। उ०—(क) तब यह ब्राह्मन बिनंती कियो।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ८५। (ख) औसा संम्रयु को नही किसु यहि करउँ बिनंतु।—प्राण०, पृ० २११।

बिन † (१)
अव्य० [हिं०] दे० 'बिना'।

बिन † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक जाति। बिंद।

बिनई ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बिहान] प्रातःकाल। सबेरा। उ०— राजै, लै जाउ द्वै के चारि, बिनई जाइ के दीजिए।—पोद्दार अभि०, ग्रं०, पृ० ९२१।

बिनई
वि० [सं० विनयी] १. विनती करनेवाला। २. नम्र।

बिनउ पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'विनय'।

बिनउनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिनना] बुनने की मजदूरी। उ०—काह बिनउनी देह परम हरि बालहिआ।—विद्यापति, पृ० १५४।

बिनठना पु †
क्रि० अ० [सं० विनष्ट] दे० 'बिनशना'। उ०— (क) काया काची कारवी, काची केवल धातु। साबतु रख हित राम तनु नाहि न बिनठी बात।—कबीर ग्रं०, पृ० २५१। (ख) ते नर बिनठे मूलि जिनि धधै मैं ध्याया नहीं।—कबीर ग्रं०, पृ० २३।

बिनत पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विनति] विनभ्रता। विनती। उ०— बिनती सब औगुन गुन होई। सेवक बिनत तजै नहिं कोई।—चित्रा०, पृ० १५६।

बिनत (२)
वि० [सं० विनत] नम्र। झुका हुआ।

बिनता
संज्ञा पुं० [देश०] पिंडकी नाम की चिड़िया।

बिनति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विज्ञप्ति?] प्रार्थना। बिनती। उ०—बिपर असीसि बिनति अउधारा। सुआ जीउ नहिं करउँ निनारा।—जायसी (शब्द०)।

बिनती
संज्ञा स्त्री० [सं० विनय या विज्ञप्ति] प्रार्थना। निवेदन अर्ज। उ०—बिनती करत नरत हौं लाज।—(शब्द०)।

बिनता पत्र
संज्ञा पुं० [हिं० बिनती + पत्र] प्रार्थनापत्र। आवेदन। उ०—श्री गुसांई जी को बिनती पत्र लिखि के वा मनुष्य को महाप्रसाद लियाइ कै नारायन दास ने बिदा कियो।—दो सौ बावन, भा० १, पृ० १३२।

बिनन
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिनना (= चुनना)] १. बिनने या चुनने की क्रिया या भाव। २. वह कूड़ी कर्कट आदि जो किसी चीज में से चुनकर निकाला जाय। चुनना। जैसे,— मन भर गेहूँ में से तीन सेर तो बिनन ही निकल गई। ३. बुनने की क्रिया या भाव। बुनावट।

बिनना (१)
क्रि० स० [सं० वीक्षण] १. छोटी छोटी वस्तुओं को एक एक एक करके उठाना। चुनना। २. छाँट छाँठकर अलग करना। इच्छानुसार संग्रह करना।

बिनना (२)
क्रि० स० [हिं० बींधना] डंकवाले जीव का डंक मारना। काटना। बींधना।

बिनना (३)
क्रि० स० [सं० वयन] दे० 'बुनना'।

बिननिहार पु
वि०, संज्ञा पुं० [हिं० बिनन + हार] वह जो बिनता या चुनता हो। बिनने या बुननेवाला। उ०—बिननिहार के चिन्है न कोई ताते जम जिव लूटा।—संत० दरिया, पृ० १२५।

बिनय
संज्ञा स्त्री० [सं० विनय] दे० 'विनय'।

बिनयना पु
क्रि० अ० [सं० विनयन] दे० 'बिनवना'।

बिनरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'अरनी'। (वृक्ष)।

बिनवट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बनेठी, बनौट] बनौट। बनेठी चलाने की क्रिया का विद्या। यौ०—बिनवट पटा। उ०—कुछ बिनवट पटे के हाथ सीखे हैं।—काया०, पृ० २९९।

बिनवन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बीनना] दे० 'बिनन'।

बिनवना पु †
क्रि० अ० [सं० विनयन] विनय करना। मिन्नत करना। प्रार्थना करना। उ०—अजहूँ कछु संसउ मन मोरे। करहु कृपा बिनवों कर जोरे।—मानस, १।१०९।

बिनवाना †
क्रि० स० [हिं० बीनना] बिनने या बुनने का काम कराना।

बिनशना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० विनाश] नष्ट होना। बरबाद होना।

बिनशना (२)
क्रि० स० विनाश करना। नष्ट करना।

बिनसना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० विनष्ट] विनष्ट होना। नाश होना।

बिनसना (२)
क्रि० स० नष्ट करना। चौपट करना।

बिनसाना (१)
क्रि० स० [सं० विनाशना] विनाश करना। बिगाड़ डालना। नष्ट कर देना।

बिनसाना (२)
क्रि० अ० विनष्ट होना। उ०—(क) कबहुँ कि काँजी सीकरन छीर सिंधु बिनसाय।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जग में घर की फूट बुरी। घर की फूटहिं सों बिनसाई सुबरन लंक पुरी।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।

बिनहोनी पु †
वि० [हिं० बिना + होनी] अनहोनी। उ०— बिनहोनी हरि करि सकै होनी देहि मिटाय। चरणदास करु भक्ति हो आपा देहु उठाय।—भक्ति प०, पृ० १७१।

बिनाँणी, बिनाँनी पु
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञानी, प्रा० विणणाणी] दे० 'विज्ञानी'। उ०—(क) गगनि सिबर महि सबद प्रकास्या तहँ बूझै बिनाँणी।—गोरख०, पृ० २। (ख) मानव पशु पषी किए करतार, बिनाँनी।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २०६।

बिना (१)
अव्य० [सं० विना] छोड़कर। बगैर। जैसे,—(क) आपके बिना तो यहाँ कोई काम ही न होगा। (ख) अब वे बिना किताब लिए नहीं मानेंगे।

बिना (२)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. नीवँ। जड़। बुनियाद। २. वजह। सबब। कारण [को०]।

बिनाइक पु
संज्ञा पुं० [सं० विनायक] दे० 'विनायक'। उ०—सिगरे नरनाद्दक, असुर बिनाइक राकसपति हिय हारि गए।— केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १७१।

बिनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिनना या बीनना] १. बीनने या चुनने की क्रिया या भाव। २. बीनने या चुनने की मजदूरी। ३. बुनने की क्रिया या भाव। बुनावट। ४. बुनने की मजदूरी।

बिनाणा पु
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञान, प्रा० विणाण] दे० 'विज्ञान'। उ०—जिहि जिहि जाण बिनाण है तिहि घठि आवरणा धणा।—कबीर ग्रं०, पृ० ५१।

बिनाणी
वि० [सं० विज्ञानिन् प्रा० विणाणि] दे० 'विज्ञानी'। उ०—विष का अपृत करि लिया, पावक का पाणी। बाँका सूधा कर लिया, सो साधु बिनाणी।—दादू० बानी, पृ० ३१०।

बिनाती
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बिनती'। उ०—पइ गोसाई सउ एक बिनाती। मारग कठिन जाब केहि भाँती।— जायसी (शब्द०)।

बिनाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'बुनवाना'।

बिनानी (१)
वि० [सं० विज्ञानी] अज्ञानी। अनजान। उ०—(क) रोवन लागे कृष्ण बिनानी। जसुमति आइ गई ले पानी।— सूर (शब्द०)। (ख) पाहन शिला निरखि हरि डारयो ऊपर खेलन श्याम बिनानी।—सूर (शब्द०)। (ग) भवन काज को गई नंदरानी। आँगन छँड़े श्याम बिनानी।—सूर (शब्द०)।

बिनानी पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० विज्ञान] बिज्ञानी। उ०—तहाँ पवन न चालइ पानी। तहाँ आपई एक बिनानी।—दादू (शब्द०)।

बिनानी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० विज्ञान] विशेष। विचार। गौर। तर्क वितर्क। उ०—चितै रहे तब नंद पुवति मुख मन मन करत बिनानी।—सूर (शब्द०)।

बिनावट
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिनना] दे० 'बुनावट'।

बिनासना
क्रि० स० [सं० बिनष्ठ] विनष्ट करना। संहार करना। बरबाद करना।

बिनासो पु
वि० [सं० विनाशिन्] दे० 'विनाशी'।

बिनाह पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'विनाश'।

बिनि पु
अव्य० [हिं०] दे० 'बिना'। उ०—नख नाराचनि बिनि कुँअरि करिहो कहा प्रनाम।—नंद० ग्रं०, पृ० ९७।

बिनिया
संज्ञा स्त्री० [सं० विनय] दे० 'विनय'। उ०—दैवल दै बिनिया सु सुनि कालिंदी सुखदाय।—प० रासो, पृ० १२३।

बिनु
अव्य० [हिं०] दे० 'बिना'। उ०—तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहै घ्रान बिनु बास असखा।—मानस, १।११८।

बिनूठा †
वि० [हिं० अनूठा] अनूठा। अनोखा। आश्चर्यप्रद। विलक्षण।

बिनै पु †
संज्ञा पुं० [सं० विनय] दे० 'विनय'। उ०—हाथ जोड़कर पंच परमेश्वर से बिनै है।—मैला०, पृ० २९।

बिनैका †
संज्ञा पुं० [सं० विनायक] पकवान बनाते समय का वह पकवान जो पहले घान मे से निकालकर गणेश के निमित्त अलग रख देते हैं। यह भाग पकवान बनानेवाले को मिलता है।

बिनोद
संज्ञा पुं० [सं० विनोद] खेल कूद। क्रीड़ा। दे० 'विनोद'।

बिनौ पु †
संज्ञा पुं० [सं० विनय] दे० 'विनय'। उ०—बिनौ करहिं जेते गढ़पती। का जिउ कीन्ह कवनि मति मती।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३०८।

बिनौरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिनौला] एक प्रकार की घास जो खरीफ के खेतों में पैदा होती है। इसमें छोटे पीले फूल निकलते हैं। यह प्रायः चारे के काम में आती है।

बिनौला
संज्ञा पुं० [देश०] कपास का बोज जो पशुओं के लिये पुष्टिकारक होता है। इससे एक प्रकार का तेल भी निकलता है। बनौर। कुकटी।

बिन्हनी ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिंधना] जुलाहों की वह लकड़ी या छड़ जो ताने मे लगा रहता है और जो तागे से लपेठन में बँधा रहता है।

बिपंचकी
संज्ञा स्त्री० [सं० विपञ्चिका] वीणा। दे० 'विपंची'। उ०—बुलंत बाणि कोकिला, बिपची सुर मिला।—ह० रासो, पृ० २५।

बिपच्छ † (१)
संज्ञा पुं० [सं० विपक्ष] शत्रु। बैरी। दुशमन।

बिपच्छ (२)
वि० अप्रसन्न। नाराज। प्रतिकूल। विमुख विरुद्ध। उ०—बिंध न इँधन पाइए सायर जुरै न नीर। परे उपास कुबेर घर जो बिपच्छ रघुबीर।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९२।

बिपक्षी †
संज्ञा पुं० [सं० विपाक्षन्] वह जो विपक्ष का हो। विरोधी। शत्रु। दुशमन।

बिपणी
संज्ञा स्त्री० [सं० विपणि] बाजार। हाट।

बिपत ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बिपत्ति'। उ०—इसी बिपत में रात कटी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३०।

बिपता †
संज्ञा स्त्री० [देशी] दे० 'विपत्ति'।

बिपति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'विपत्ति'। उ०—धन गरजै जल बरसी इनपर बिपति परै किन आई।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५०६।

बिपत्त, बिपत्ति
संज्ञा स्त्री० [देशी] दे० 'विपत्ति'।

बिपद, बिपदा पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विपद्] आफत। मुसीबत। संकट। विपत्ति।

बिपर पु †
संज्ञा पुं० [सं० विप्र] ब्राह्मण। उ०—अपढ़ बिपर जोगी घर बारी। नाथ कहै रे पूता इनका संग निबारी।— गोरख०, पृ० ८०।

बिपाकु पु
संज्ञा पुं० [सं० विपाक] परिणाभ। फल। दे० 'विपाक'। उ०—राम बिरह दसरथ दुखित कहति कैकई काकु। कुसमय जाप उपाय सब केवल करम बिपाकु।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९८।

बिपाशा, बिपासा
संज्ञा स्त्री० [सं० विपाशा] व्यास नदी।

बिपुंगवासन पु
संज्ञा पुं० [?] गरुड है वाहन जिसका—विष्णु अर्थात् कृष्ण। उ०—अरुन अयन संगीत तन बृंदावन हित जासु। नगधर कमला सकत बर बिपुंगवासन आसु।—स० सप्तक, पृ० ३२९।

बिपोहना
क्रि स० [हिं०] गूँथना। ग्रथित करना।

बिप्रिय पु
वि० [सं० विप्रिय] अप्रिय। उ०—ऐसे बहुतै बिप्रिय बैन। कहे जु प्रीतम पंकज नैन।—नंद० ग्रं०, पृ० ३१९।

बिप्रीति पु
वि० [सं० विपरीत] उलटा। विपरीत। उ०— बिप्रीति बुद्धि कौने दई, हीन बचन मुख निक्करै।—ह० रासो, पृ० ११७।

बिफर पु †
वि० [हिं०] दे० 'विफल'।

बिफरना पु †
क्रि० अ० [सं० विस्फुरण, या विप्लवन] विप्लव करने पर उद्यत हो जाना। बागी होना। विद्रोही होना। उ०—घूमति हैं झुक झूमति हैं मुख चूमति हैं थिर है न थकी ये। चौंकि परै चितवैं बिफरै सफरै जलहीन ज्यों प्रेम पकी ये। रीझति हैं खुलि खोझति हैं अँसुवान सों भीजती सोभ तकी ये। ता छिन तें उछकी न कहूँ सजनी अँखियाँ हरि रूप छकी ये।—(शब्द०)। २. बिगड़ उठना। नाराज होना। उ०—बिफरे सब बीर सुधीर मन।—ह० रासो, पृ० १५७।

बिबछना पु †
क्रि० अ० [सं० विपक्ष, हिं० बिपच्छ] १. विरोधी होना। २. उलझना। अटकना। फँसना। उ०—बिबछि गयो मन लागि ज्यों ललित त्रिभंगी संग। सूधी रहै न और तगि नउन रहै वह अंग।—रसनिधि (शब्द०)।

बिबध पु
वि० [सं० विविध] दे० 'विविध'। उ०—ललित विलोकनि पै बिबध विलास है,।—मति० ग्रं०, पृ० ४२०।

बिबधान पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यवधान, प्रा० विवधान] दे० 'व्यव- धान'। उ०—चित बिबधान सहति नहिं सोई। रूप मंजरी अस रस भोई।—नंद० ग्रं०, पृ० १४२।

बिबर (१)
संज्ञा पुं० [सं० विवर] दे० 'विवर'।

बिबर पु (२)
वि० [सं० विवरण] व्यौरेवार। उ०—निज धाम आयअप अनुज सों, बिबर बिबर बातैं जु हुव।—ह० रासो, पृ० ४८।

बिबरजित पु ‡
वि० [सं० विवर्जित] दे० 'विवर्ज्जित'। उ०— मूरुष सौ बिबरजित रहना, प्रगट पसू समान।—रामानंद०, पृ० ३४।

बिबरन पु (१)
वि० [सं० विवर्ण] १. जिसका रंग खराब हो गया हो। बदरंग। २. चिंता या ग्लानि आदि के कारण जिसके चेहरे का रंग उड़ गया हो। जिसके मुख की कांति नष्ट हो गई हो। जिसका चेहरा उतरा हो। उ०—(क) बिबरन भयउ निपट नरपालू। दामिन हनेउ मनहु तरु तालू।— तुलसी (शब्द०)। (ख) बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहु पिता महतारी।—तुलसी (शब्द०)।

बिबरन पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० विवरण] दे० 'विवरण'। उ०— ज्ञान सँपूरन प्रेम रस बिबरन करो बिचार।—द० सागर, पृ० २२।

बिबर्त
संज्ञा पुं० [सं० विवर्त] दे० 'विवर्त'। उ०—जग बिबर्त सूँ न्यारा जान। परम अद्वैत रूप निर्बान।—दया० बानी, पृ० १६।

बिबस पु ‡ (१)
वि० [सं० विवश] १. मजबूर। विवश। उ०—नंददास प्रभु की छबि निरखत बिबस भइँ ब्रजबाल।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७८। २. परतंत्र। पराधीन।—मनु अंबुज बन बास बिबसु है, अलि लंपट उठि धाए।—नंद०, ग्रं०, पृ० ३८१।

बिबस (२)
क्रि० वि० [सं० विवस] विवश होकर। लाचारी से। बेबसी की हालत में। उ०—बिबसहु जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं।—तुलसी (शब्द०)।

बिबसाना पु ‡
क्रि० अ० [हिं० विवश] विवश होना। लाचार होना।

बिबहार पु †
संज्ञा पुं० [सं० व्यवहार, प्रा० बिवहार] दे० 'व्यवहार'।

बिबाई
संज्ञा स्त्री० [सं० विपादिका] एक रोग जिसमें पैरों के तलुए का चमड़ा फठ जाता है और वहाँ जख्म हो जाता है। इससे चलने फिरने में बहुत कष्ट होता है। यह रोग प्रायः जाडे के दिनों में और बुड्ढों को हुआ करता है। उ०—जिसके पैर न फटी बिवाई। वह क्या जाने पीर पराई।—(शब्द०)। क्रि० प्र०—फटना।

बिबाक †
वि० [अ० बेबाक़] दे० 'बेबाक'। उ०—स्वारथ रहित परमारथी कहावत हैं भे सनेह बिबस बिदेहता बिबाके हैं।— तुलसी (शब्द०)।

बिबाकी
संज्ञा स्त्री० [अ० बेबाक़ी] १. बेबाक होने का भाव। हिसाब आदि का साफ होना। २. समाप्ति। अंत। उ०— रिषि हित राम सुकेतु सुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।—मानस, १।२४।

बिबादक
वि० [सं० विवादक] दे० 'विवादी'। उ०—सुंदर स्वान बिबादक निंदक, जानहिं लाभ न हानि।—जग० श०, भा० २, पृ० १८।

बिबादना पु
क्रि० स० [हिं० बिवाद + ना (प्रत्य०)] बहस मुबाहसा करना वादविवाद करना। झगड़ा करना।

बिबाह
संज्ञा पुं० [सं विवाह] दे० 'विवाह'। उ०—भयौ बिबाह परम रँग भीनौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२१।

बिबाहना पु
क्रि० स० [हिं० बिबाह + ना (प्रत्या०)] विवाह करना। शादी करना।

बिबि
वि० [सं० द्वि] दो। उ०—(क) बिबि रसना तनु स्याम है बंक चलनि बिष खानि।—तुलसी ग्रं०, पृ० १०७। (ख) सखि कह राहु अमृत जब पियो। तेरे कंत खड बिबि कियो।—नंद० ग्रं०, पृ० १३४। (ग) माणिक निखर सुख मेर के सिखर बिबि कनक बनाए बिधि सरोज के।—देवदत्त (शब्द०)।

बिबुध
संज्ञा पुं० [सं० विबुध] दे० 'विबुध'।

बिबुधेश
संज्ञा पुं० [सं० विबुधेश] इंद्र। उ०—जयति बिबुधेश धनदादि दुर्लभ महाराज सम्राज सुखप्रद बिरागी।—तुलसी (शब्द०)।

बिवेकता
संज्ञा स्त्री० [सं० विवेकिता] विवेचन की योग्यता। विवेचन करने की शक्ती। उ०—भावै वार रहो भावै पार रहो, दया संग कबीर बिबेकता हैं।—कबीर० रे० पृ० ३६।

बिबेखो पु
संज्ञा पुं० [सं० विवेक] दे० 'विवेक'। उ०—(क) अलख नाम घट भीतर देखो। हृदये माहीं करो बिबेखो।— कबीर सा०, पृ० ८५३। (ख) ढोल मारि के सबै चेतावों, सतगुरु शबद बिबेखो।—कबीर० शा०, भा० ४, पृ० २६।

बिबौरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिमौरा] दे० 'विमौरा'। उ०— आसन मारि बिबौरी होवै, तबहूँ भक्ति न होई।—जग० श०, भा० २, पृ० ३३।

बिभंगित
वि० [सं० विभड़्गित] कंपित। तरंगित। उ०—भाव अभंग तरंग बिभंगित महा मधुर रसरूप सरीर।—घनानंद, पृ० ४४९।

बिभंगिनी
वि० [सं० विभड़्गिनी] तरंगिणी। तरंगोंवाली। उ०— मधुर केलि आनँदघन अनुराग बिभंगिनी।—घनानंद, पृ० ४३२।

बिभग पु
वि० [सं० विभक्त, प्रा० विभग्ग] अलग। पृथक्। जुदा। उ०—दिन्निय सु सीस तिहि घाल सोह। उड़ि परयो मथ्थ धर विभग होइ।—प० रासो, पृ० ४०।

बिभचार
संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचार] दे० 'व्यभिचार'। उ०— कृष्ण तुष्ट करि कर्म करै जो आन प्रकारा। फल बिभचार न होइ, होइ सुख परम अपारा।—नंद० ग्रं०, पृ० ४०।

बिभचारी पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचारिन्] व्यभिचारी। बिषयी। उ०—ता कहुँ गए बिभचारी। अइया मनुषहुँ बूझि तुम्हारी।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३२३।

बिभछ पु
संज्ञा पुं० [सं० वीभत्स, प्रा० वीभच्छ] दे० 'बीभत्स'। उ०—जित्तो सु जग धारह धनिय विभछ बीर बित्तौ जहाँ।—पृ० रा०, १।६५४।

बिभावरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विभावरी] रात्रि। विभावरी। उ०—दिन ही मैं तिन सम कानि के कपाट तोरि, धूँधरि अबीर की कों मानत बिभावरी।—घनानंद, पृ० ५९०।

बिभिचार पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचार] अनैतिक कार्य। नीच कर्म। उ०—जानत सब बिभिचार तब गुनत न नाह सुजान।—दीन० ग्रं०, पृ० ११६।

बिभिचारी
संज्ञा पुं० [सं० व्यभिचारी] [स्त्री० व्याभचारिनी] दे० 'व्याभिचारी'।

बिभित्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेदन करने वा किसी वस्तु को तोड़ने की इच्छा [को०]।

बिभित्सु
वि० [सं०] भेदन करने या तोड़ने की इच्छावाला [को०]।

बिभिनाना ‡
क्रि० स० [सं० विभिन्न] अलग करना। विभाग करना।

बिभीखन †
संज्ञा पुं० [सं० विभीपण] रावण का भाई। विशेष— दे० 'विभीषण (१)'। उ०—बिभीखन जब दीन भयो है, ताहि कियो परधान।—जग० श०, पृ० ११३।

बिभीतक
संज्ञा पुं० [सं०] बहेड़ा [को०]।

बिभीषक
वि० [सं०] भयकारक। त्रासद [को०]।

बिभीषण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रावण का भाई। विशेष—दे० 'विभीषण (१)'।

बिभीषण (२)
वि० भीषण। डरावना। बहुत भयानक।

बिभीषिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बिभीषिका' [को०]।

बिभौ पु
संज्ञा पुं० [सं० विभव] दे० 'बिभव'। उ०—(क) अगिनि तै बिस्फुलिंग ज्यौं जगै। अगिनिहिं बिभो दिखावन लगै।—नंद० ग्रं०, पृ० २७०। (ख) करहिं पाप औ ज्ञान कथहिं बहु, आपन बिभौ बढाई।—जग० बानी, पृ० २३।

बिमन (१)
वि० [सं० बिमनस्] १. जिसे बहुत दुःख हो। २. उदास। सुस्त। चितित।

बिमन (२)
क्रि० वि० बिना मन के। बिना चित्त लगाए। अनमना होकर।

बिमनी
संज्ञा पुं० [सं० विमनस्] व्यसनी। उ०—कुछ लोग कहते हैं कि रंडियों के घरों पर बिमनियों की इतनी भीड़ होने लगी कि स्थान के संकोच से उन्हें अपने घरों से नीचे नाचना पड़ा।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३३।

बिमनैन पु
वि० [सं० विमन] बिमनस्क। उ०—लै मन मोहन मोहे कहूँ न बिथा बिमनैन की मानौ कहा तुम। घनानंद, पृ० १२४।

बिमर्दना
क्रि० स० [सं० बिमर्दन] मर्दित करना। कुचलना। नष्ट करना।

बिमान
संज्ञा पुं० [सं० विमान] १. अनादर। अवज्ञा। २. २. वायुयान।

बिमानी
वि० [सं वि + मान] मानरहित। निरभिमान। उ०— बिधि के समान हैं बिमानी कृतराजहंस बिबिध बिबुध युत मेरु सो अचल है।—केशव (शब्द०)।

बिमानु पु
संज्ञा पु० [सं० विमान] दे० 'विमान'। स०—सनमाने कपि भालु सब सादर साजु बिमानु।—तुलसी ग्रं०, पृ० ९०।

बिमासणि
संज्ञा स्त्री० [सं० विमर्शिनू>विमशिनी] विचारिका। विमर्श करनेवाली। परीक्षिका। उ०—आगै है मन खरी बिमासणि लेखा माँगै दे रे। काहे सावै नीद भरी रे, कृत विचारै तरै।—दादू० वानी, पृ० ५६८।

बिमूढ़ पु
वि० [सं विमूढ] दे० 'विमूढ'।

बिमोचना
क्रि० स० [सं० विमोचन] १. मुत्क करना। छोड़ना। २. गिराना। टपकाना।

बिमोटा †
संज्ञा पुं० [देश०] बामी। बल्मीक।

बिमोटा †
संज्ञा पुं० [देश०] बिमोन। बाबी।

बिमोहना (१)
क्रि० स० [सं० विमोहन] मोहित करना। लुभाना। मोहना। उ०—एक मनयन कवि मुहमद गुनी। सोह बिमोहा। जोइ कवि सुनी।—जायसी (शब्द०)।

बिमोहना (१)
क्रि० अ० मोहित होना। असत्क होना। उ०— सरबर रूप बिमोहा हिये हिलोरहि लोह। पाँव छुवै मनु पावौं एहि मिसि लहरहि देइ।—जायसी (शब्द०)।

बिमौटा †
संज्ञा पुं० [देश०] बांबी।

बिमौरा ‡
संज्ञा पुं० [सं० वल्मीक] टीले के आकार का दीमक के रहने का स्थानम। वल्मीक। बामी।

बिय पु † (१)
वि० [सं० द्धि, प्रा० वि] १. दो। युग्म। २. दूसरा। द्धितीय।

बिय पु † (२)
संज्ञा पुं०[सं० बीज, प्रा० वीज] दे० 'बीज'।

बियत पु
संज्ञ पुं० [सं० बियत्] आकाश। उ०—जहाँ जहँ जोहि जोनि जनम महि पताल बियत।— तुलसी (शब्द०)।

बियर
संज्ञा स्त्री० [अं०] जो की बनी हुई एक प्रकार की हलकी अग्रेजी शराब जो प्रायः स्त्रियाँ पीती हैं।

बियरसा
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का बहुत ऊँचा वृक्ष जो पहाड़ों में ३००० कुट की ऊँचाई तक होता हैं। विशेष— इसकी५ लकड़ी कुछ लाली लिए काले रंग की, बहुत मजबूत और कड़ी होती है और बड़ी कठिनता से कटती है। लकड़ी प्रायः इमारत और मेज, कुर्सो आईदि बनाने के काम में आती। इसमें एक प्रकार के सुगधित फूल लगते है और गोंद भी होती है जो कई काम में अती है।

बियहुता ‡
वि० [सं० विवाहित] [स्त्री० वियहुती] जिसके साथ विवाह हुआ हो जिसके साथ शदी हुइ हो। विवाहित।

बिया † (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बीज'।

बिया (२)
वि० [सं० द्धि] दूसरा। अन्य। अपर।

बिया (३)
संज्ञा पुं० [सं० द्धि] शत्रु०। (डि०)।

बियाज †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ब्याज'।

बियाजू †
वि० [सं० व्याज + ऊ] (घन) जिसका ब्याज लिया जाय। सूद पर दिया हुआ (रूपया)।

बियाड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० बिया + ड़ (प्रात्य०)] वह खेत जिसमें पहले बीज बोएं जाते हैं और छोटे छोटे पोधे हो जाने पर वहाँ से उखाड़कर दूसरे खेत में रोपे जाते हैं।

बियाधा पु †
संज्ञा पुं० [सं० व्याध] दे० ' ब्याधा'।

बियाधि †
संज्ञा स्त्री० [सं० व्याधि] दे० 'व्याधि'। बिशेष—यह शब्द विशोषकर पसुओं के लिये प्रयुक्ता होता है।

बियाना †
स्त्री० सं० [सं० बिजनन] (पशुओं आदि का) बच्चा देन। जनना। वि० दे० 'ब्याना'।

बियापना पु †
क्रि० सं० [सं० व्यापन] दे० 'व्यापना'।

बियापित पु
वि० [सं० व्यापित] व्याप्य। फैला हुआ। उ०— नि स्वादी निर्लिप्त बियापति नि० चित अगुन सुख धामी।— कबीर० श०, भा० ४, पृ० २८।

बियाबान
संज्ञा पुं० [फा०] ऐसा उजाड़ स्थान या जंगल जाहाँ कोसों तक पानी न मिले।

बियाबानी
वि० [फा़बियाबान + ई (प्रत्य०)] जंगल संबंधी। जंगली।

बियार †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बयार'। उ०— चंदन चौकी पै बैठनों औउ अँचरन ठोरू बीयार।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ८७७।

बियारी
संज्ञा स्त्री० [सं० बि + अद् (= भोजन करना)] रात का भोजन। विशेष—दे० 'ब्यालू'।

बियारू (१)
संज्ञा पुं० [देश०] दे० ' बयार'। वायु।

बियारू (२)
संज्ञा स्त्री० [वि + अद्ध] बियालू। ब्यालू।

बियाल पु
संज्ञा पुं० [सं० व्याल, प्रा० वियाल] दे० ' व्याल'।

बियालू पु †
संज्ञा स्त्री० [बि + अद्] रात का भोजन। विशेष— दे० ' व्यालू'।

बियाह पु
संज्ञा पुं० [प्रा० बियाह] दे० 'विवाह'।

बियाहचार पु
संज्ञा पुं० [हिं० बियाइ + चार] बविवाहब का आचार। विवाह की रस्म। उ०—लाग बियाहचार सब होइ।— जायसी ग्रं० पृ० १२६।

बियाहता †
वि० स्त्री० [सं० विवाहित] जिसके साथ विवाह हुआ हो। जिसके साथ नि्यमानुसार पाणिग्रहण हुआ हो।

बियाहुत पु †
[ हिं० बियाह + उत] विवाह संवंधी। वैवाहिक। विवाह का। उ०— बाजै लाग बियाहुत बाजा।—इंद्रा०, पृ० १६५।

बियो (१)
संज्ञा पुं [डिं०] बेटे का बेटा। पोता।

बियो (२)
वि० [हिं०] दे० 'विय'।

बियोग
संज्ञा पुं० [सं० वियोग] दे० 'वियोग'। उ०—चढा़ बियोग चलेउ होड जोगी।—जायमी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३२८।

बियौ पु
वि० [हिं०] दूसरा। उ०—परमानंद भगत के बस सो, उपमा कोंन बियौ—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २४०।

बिरंग
वि० [हिं० बि (प्रत्य०) + रंग] १. कई रंगों का। जिसमें एक से अधिक रंग हो। जैसे, रंग बिरंग। २. बिना रंग का। जिसमें कोई रंग न हो।

बिरंच
संज्ञा पुं० [सं० विरञ्चि] दे० 'विरंचि'। उ०—अर्जुन ज्यौं धनुधर अवधि तिहि सम और न होइ। तिम तुव प्रेम अवधि सूबूधि रची बिरंच कोइ।—अनेकार्थ०, पृ० ८।

बिरंचन †
संज्ञा स्त्री० [देश०] लरी। माला की लड़ी। उ०—कोटि ग्रंथ को अर्थ तेरह बिरंचन में गाई।—भक्तमाल, पृ० ५५२।

बिरंचि पु
संज्ञा पुं० [सं० विरञ्चि] ब्रह्मा।

बिरंज
संज्ञा पुं० [फा़० बिरंज] १. चावल। २. पका हुआ चावल। भात। ३. पीतल।

बिरंजारी
संज्ञा पुं० [फा़०] व्यापारी [को०]।

बिरंजी
संज्ञा स्त्री० [?] लोहे की छोटी कील। छोटा काँटा।

बिरंब †
संज्ञा पुं० [सं० बिलम्ब] दे० 'विलंब'। उ०—सत्य कहत कछु करत न खेला। आवहु चालि न बिरंब की वेला।—नंद० ग्रं० पृ० २९८।

बिरँन †
संज्ञा पुं० [हिं० बीर] भाई। उ०—ए पिया, मेरे मन भाई ऐ चूँदरी। ए धँन, अपने बिरँन पे माँगि।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१४।

बिर पु †
संज्ञा पुं० [हिं० बीर (= भाई)] दे० 'बीर'। इ०—मन फूला फूला फिरै, जक्त में केसा नाता रे। माता कहै यह पुत्र हमारा, बहिन कहै बिर मेरा रे।—संतबानी०, भा० २, पृ० ३।

बिरई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिरवा] १. जड़ी बूटी। २. छोटा पौधा।

बिरकत पु
वि० [सं० विरक्त] दे० 'विरक्त'। उ०—(क) कामणि अंग बिरकत भया रत भया हरि नांइ।—कबीर ग्रं०, पृ० ५१। (ख) बैरागी बिरकत भला ग्रेही चित्त उदार। दोउ बातों खाली पड़ै, ताको बार न पार।—संतबानी०, भा० २, पृ० ४७। (ग) जल ज्यों निर्मल होय सदा बिरकत वही। तजै न शीतल अंग बसे नित ही मही।—मन विरक्त०, पृ० २४९।

बिरख पु
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष] दे० 'वृक्ष'।

बिरखब †
संज्ञा पुं० [सं० वृषभ] दे० 'वृषभ'। उ०—ब्राह्मन सो बिरखब को साजा।—द० सागर, पृ० ५३।

बिरखभ ‡
[सं० वृषभ] दे० 'वृषभ'। उ०—कबीर गुरु की भक्ति बिन, राजा बिरखम होय। माटी लदै कुम्हार की, घास न डारै कोय।—कबीर सा० सं०, पृ० १७।

बिरखा †
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्पा] दे० 'बरखा'। उ०—बरसते मेघ भलते ही बिरखा, कोन काम आपनी उन्होत रखा।— दक्खिनी०, पृ० २०२।

बिरगिंध पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिर (= विपरीत या बुरा) + गंध] विकृत या विपरीत गंध। दुर्गध उ०—पातुर लोभी अधिक ढिठाई। मन्मथ जल बिरगंध बसाई।—चित्रा०, पृ० २१४।

बिरगिड
संज्ञा स्त्री० [अं० ब्रिगेड़] १. सेना का एक विभाग जिसमें कई रेजिमेंट या पलटनें होती हैं। २. काम करनेवालों का कोइ ऐसा दल जो एक तरह की वर्दी पहनता हो और एक ही अधिकारी की अधीनता में काम करता हो। जैसे, फायर ब्रिगेड़।

बिरचना पु (१)
क्रि० स० [सं० विरञ्चन] विशेष रूप से सँवारना। रचना। उ०—कोऊ चदन घसत कोउ तिलक लगावत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २३।

बिरचना पु (१)
क्रि० अ० [सं० विरञ्जन] क्रोध करना। राग से रहित होना। उ०—बीदचो बीनड़ो, हठ गाढो़ लेहल्ल।—बाँकी ग्रं०, भा० ३, पृ० १।

बिरछ, बिरछा †
[सं० वृक्ष] पौधा। बिरवा। उ०— (क) निज लक्ष सिद्धि सी, तनिक घूमकर तिरछे, जो सींच रही थीं पर्णकुटी के बिरछे।—साकेत, पृ० २०२। (ख) बिरछा पूछै बीज को, बीज वृक्ष के माहिं। जीव जो ढूँढै़ ब्रह्म को ब्रह्म जीव के पाहिं।—कबीर सा० सं०, पृ० १९।

बिरछिक बिरछीक पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० वृश्चिक] दे० 'वृश्चिक'।

बिरज
वि० [सं० वि० + रज (= शुद्ध)] १. निर्मल। शुद्ध। २. रजोगुण रहित। उ०—ब्रम्हा जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।—मानस १।५०।

बिरझना †
क्रि० अ० [सं० विरुद्ध्य + (ति)] उलझना। झगड़ना। उ०—बदन चद्र के लखन को शिशु ज्यों बिरझत नैन।—रसनिधि (शब्द०)।

बिरझाना
क्रि० अ० [हिं० बिरुझना का प्रेर०] १. दे० 'बिरझना'। २. क्रुद्ध होना। रुष्ट होना।

बिरतंत पु †
क्रि० अ० [सं० वृत्तान्त] दे० 'वृत्तांत'। उ०— (क) कहत जुद्ध बिरतंत अंत अरि कौ करि आइय।—सुजान०, पृ० ३५। (ख) प्रान बचन दीसत नहीं, जानि लियौ बिरतंत।—हम्मीर०, पृ० ३९।

बिरत (१)
वि० [सं० विरत] दे० 'विरत'

बिरत पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वृत्त] वृत्तांत। विवरण। उ०—प्रथम सलाम कहो जु तुम बिरत कहो सु विशेष।—ह० रासो, पृ० ५७।

बिरत (३)
संज्ञा पुं० [सं० वृत्ति] [स्त्री० बिरती] व्यवहार स्थिति। आजीविका। उ०—(क) इसमें चिर प्राचीन शब्द वृत्ति था, जिससे हिंदी बिरत निकला है।—हिंदु० सभ्यता, पृ० १३१। (ख) सांख्य योग और नौधा भक्ती। सुपना में इनकी बिरती।—दरिया० बानी, पृ० २५।

बिरतांत पु †
[सं० वृत्तान्त] दे० 'वृत्तातं'।

बिरता
संजा पुं० [सं० वृति (= स्थिति)] १. बूता। बल। शक्ति। उ०—(क) राजा साहब क्हेंगे, फिर गए ही किस बिरते पर थे।—काया०, पृ० २२९। (ख) सच्ची बात तो दीवान साहब है कि झाँसी बिचारी का कोई बिरता नहीं।—झाँसी०, पृ० ३८४। २. वृति। योगक्षेम। आनविका। व्यवहार स्थिति।

बिरताना पु †
क्रि० स० [सं० वर्त्तन] विभाग करके सबको अलग अलग देना। बाँटना। वितरण करना।

विरति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विरत] दे० 'विरक्ति'।

विरतिया †
संज्ञा पुं० [सं० वृत्ति + हिं० इया (प्रत्य०)] हज्जाम या बारी आदि की जाति का वह व्यक्ति जो विवाह संबंध ठीक करने के लिये वर पक्ष की ओर से कन्यावालों के यहाँ अथवा कन्या पक्ष से वरपक्ष की योग्यता, मर्यादा, अवस्था आदि देखने के लिये जाता है। बरेखी करनेवाला।

बिरथ पु (१)
वि० [सं० व्यर्थ या वृथा] दे० 'बिरथा'। उ०— सब धर्म बिधंसक। निरदै महाबिरथ पशुहिंसक।—नंद० मतिभ्रंसक ग्रं०, पृ० २५२।

बिरथ (२)
वि० [सं० विरथ] दे० 'विरथ'। १. जो रथ पर या रथवाला न हो। उ०—रावन रथी बिरथ रघुबीरा।—मानस, ६।७९। २. रथ से च्युत। रथ से रहित। उ०—धरि कच बिरथ कीन्ह महि गिरा।—मानस, ३।२३।

बिरथा † (१)
वि० [सं० वृथा] निरर्थक। फिजूल। बेकाम। व्यर्थ। उ०—ऊठत बैठत जागत, यहु मन तुझे चितारे। सूख दूख इस मन की बिरथा तुझही आगे सारे।—संतबानी०, भा० २, पृ० ४८।

बिरथा (२)
क्रि० वि० बिना किसी कारण के। अनावश्यक रूप से।

बिरदग पु
संज्ञा पुं० [हिं० मिरदग] दे० 'मृदंग'।

बिरद †
संज्ञा पुं० [सं० विरुद] १. बड़ाई। यश। नेकनामी। २. दे० 'विरद'।

बिरदाना पु †
[हिं० बिरद + ना (प्रत्य०)] यशगान। गुण वर्णंन करना। उ०—नाना बिरद बंदि बिरदावै।— ह० रासो, पृ० ७६।

बिरदेत, बिरदैत (१)
संज्ञा पुं० [हिं० बिरद + ऐत (प्रत्य०)] बहुत अधिक प्रसिद्ध वीर या योद्धा। ऐसा वीर या दानी पुरुष जिसका नाम बहुत दूर तक हो। जिसके नाम का बिरद बखाना जाय।

बिरदेत, बिरदैत (२)
वि० प्रसिद्ध बिरदवाला। श्रेष्ठ। नामी। उ०—प्रौढो़कति तासों कहत, भूषन कवि बिरदेत।—भूषण ग्रं०, पृ० २६८।

बिरदालि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विरुदालि] दे० 'विरुदावलि'। उ०—वावंड बुल्लि बिरदालि बंक।—प० रासो०, पृ० ५३।

बिरद्द पु
संज्ञा पुं० [हिं० बिरद] दे० 'बिरद'। उ०—सुनत बिरद्द बीर गलगाजे।—हम्मीर, पृ० २५।

बिरध †
वि० [सं० वृद्ध] दे० 'वृद्ध'।

बिरधाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिरध + आई (प्रत्य०)] बुढा़पा। वृद्धावस्था।

बिरधापन
संज्ञा पुं० [सं० वृद्घ + हिं० पज (प्रत्य०)] वृद्ध होने का भाव। बुढा़पा। २. वृद्ध होने की अवस्था। वृद्धावस्था। उ०—तेरी नंद बहुत यश पायो। जिन बिरधा- पन सुत जायो।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ४२४।

बिरम
संज्ञा पुं० [सं० प्रा० विरम या विलाब] विराम। अटकाव। विलब। उ०—हा हा हा फिर हा हा सुखनिधि बिरम न जात सह्यो।—घनानंद, पृ० ३४९।

बिरमना †
क्रि० अ० [सं० बिलम्वन] १. ठहरना। रुकना। विलंब करना। २. सुस्ताना। आराम करना। मोहित होकर फँस रहना।

बिरमाना (१)
क्रि० स० [हिं० बिरमना का सक० रूप] १. ठहराना। रोक रखना। २. मोहित करके फँसा रखना। उ०—राखे पिय बिरमाह सु आवन ना दिया।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० ३६४। ३. व्यतीत करना। गुजारना। बिताना।

बिरमाना पु (१)
क्रि० अ० [सं० बिराम] विश्राम करना। सुस्ताना। उ०—चुवत स्वेत मकरंद कन तरु तर बिरमाइ। आवतु दच्छिन देस तैं थक्यौ ब़टोही बाइ।—बिहारी (शब्द०)।

बिरराना पु (१)
क्रि० स० [हिं० बिलगाना] अलग करना। त्याग करना। छोड़ना। उ०—धीरज धन मैं दीन्ह लुटाई। नीति सहचरी सो बिरराई।—नंद०, ग्रं० पृ० १५२।

बिरराना † (२)
क्रि० अ० [हिं० बिललाना] दे० 'बिललाना'—२। उ०—तब वह सुररानौ बिलखानो। आयो कितहूँ ते बिर- रानो।—नंद०, ग्रं० पृ० ३१२।

बिररे पु †
वि० [हिं० बिरला का बहु ब०] दे० 'बिरला'। उ०—कहैं कबीर सुनो भाई साधो बिररे उतरिगे पार।— कबीर० श०, भा० ३, पृ० २८।

बिरल
वि० [सं० विरल] दे० 'विरल'। उ०—बहु सद्ध र्मपरायन जस कहुँ बिरल सुनाहीं।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ५।

बिरला
वि० [सं० विरल] कोई कोई। बहुत में से कोई एक आध। इक्का दुक्का। जैसे,—साहित्य क्षेत्र में ऐसा कोइ बिरला ही होगा जो आपको न जानता हो।

बिरले
वि० [हिं० बिरला फा़ बहु व०] कुछ। इने गिने। उ०— ते बिरले जग देखिए कहुँ हजार मैं एक।—स० सप्तक, पृ० ३६८।

बिरधा †
संज्ञा पुं० [सं० विरुह] १. वृक्ष। २. पौधा। ३. चना। बूट।

बिरवाई †
संज्ञा स्ञी० [हिं० बिरवा + ई (प्रत्य०)] दे० 'बिरवाही'।

बिरवाही †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिरवा + ही (प्रत्य०)] १. छोटे पोधों का बाग या कुंज। छोटे पौधों का समूह। २. वह स्थान जहाँ छोटे छोटे पौधे उगाए गए हों।

बिरषभ पु
संज्ञा पुं० [सं० वृषभ] दे० 'वृषभ'।

बिरस (१)
वि० [सं० विरस] रसहीन। शुष्क।

बिरस (२)
संज्ञा पुं० अरसिकता। रसविमुखता। विगाड़। उ०—ऐसें जान ? रस माहिं बिरस अनीति है।—घनानंद, पृ० ७३।

बिरसन
संज्ञा पुं० [सं० रस (= विष)] जहर। विष १. (डिं०)।

बिरसना पु †
क्रि० अ० [सं० विलसन] विलास करना। भोगना। उ०—नीर घटे पुनि पूछ न कोई। बिरसि जो लीज हाथ रस सोई।—जायसी (शब्द०)।

बिरह
संज्ञा पुं० [सं० विरह] विरह। वियोग। उ०—राम बिरह व्याकुल भरत सानुज सहिज समाज।—मानस, २।२१२।

बिरहा (१)
संज्ञा पुं० [सं० विरह] वियोग। उ०—दरिया गुर किरपा करी, बिरहा दिया पठाय। यह बिरहा मेरे साध को सोता लिया जगाय।—दरिया० बानी, पृ० ९।

बिरहा (२)
संज्ञा पुं० [सं० विरह] एक प्रकार का गीत जो प्रायः अहीर लोग गाते हैं। इसका अतिम शब्द प्रायः बहुत खींचकर कहा जाता है। जैसे,—बेद, हकीम बुलाप्रो कोई गोइयाँ कोई लेओ री खबरिया मोर। खिरकी से खिरकी ज्यों फिरकी फिरति दुओ पिरकी उठल बड़ जोर।—बलबीर (शब्द०)। मुहा०—झार बिरहा गाना = बढ़कर ऐसी बातें कहना जो प्रायः कार्य रूप में परिणत न हो सकती हों।

बिरहाना पु †
क्रि० अ० [हिं० बिरहा + ना (प्रत्य०)] विरहयुक्त होना। विरहजन्य दुःख से पीड़ित होना।

बिरही
संज्ञा पुं० [सं० विरहिनू] [स्त्री० बिरहिन, विरहिनी] वियोग से पीड़ित पुरुष। वह पुरुष जो अपनी प्रेमिका के विरह से दुःखित हो।

बिरहुली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. कबीर साहित्य में एक विशेष रचना जिसमें सर्प और उसके विष आदि की चर्चा हो। २. २. बिरवा। जड़ी बूटी। ३. सर्पादि का विष दूर करनेवाला। विषवैद्य।

बिराग
संज्ञा पुं० [सं० विराग] दे० 'विराग'।

बिरागना
क्रि० अ० [हिं० बिराग + ना (प्रत्य०)] विरक्त होना। अनास्क होना। उ०—बँधेउ सनेह बिदेह बिराग बिरागेउ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ४९।

बिराजना
क्रि० अ० [सं० वि + रञ्जन] १. शोभित होना। शोभा देना। उ०—झूलत बैसि हिँड़ोरनि पिय कर संग। उत्तम चोर बिराजल भूषन अंग।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, ३७९। २. बैठना। आसीन होना। विराजना।

बिरादर
संज्ञा पुं० [फा़०] १. भाई। भ्राता। २. सजातीय। भाई बंधु।

बिरादराना
वि० [फा़० बिरादरानह्] बिरादर संबंधी। जातीय

बिरादरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. भाईचारा। बंधुत्व। २. जातीय समाज। एक ही जाति के लोगों का समूह।मुहा०—बिरादरी से बाहर या खारिज होना = जाति से बहिष्कृत होना। जातिच्युत होना।

बिरान
वि० [हिं० बेगाना] पराया। बेगाना। उ०—बहुतक फिरहिं गरब की माती खोजत पुरुष बिरान।—जग० श०, पृ० ८५।

बिराना पु (१)
वि० [फा़० बेगानह्] [वि० स्त्री० बिरानी] १. पराया। जो अपने से अलग हो। उ०—मैं तुम्हारे घर से चली आई तो बिरानी हो गई।—मान०, मा० ५, पृ० १०२। २. दूसरे का। जो अपना न हो। उ०—अरुन अधर, दसननि दुति निरखत, विद्रु म सिखर लजाने। सूर स्याम आछौ बपु काछे, पटतर मेटि बिराने।—सूर०, १०।१७५६।

बिराना † (२)
क्रि० अ० [अनु०] किसी को दिखाकर चिढा़ने कै लिये मुहँ विलक्षण मुद्रा बनाना। बिरावना। मुँह चिढा़ना। दे० 'मुँह' का मुहा०। उ०—दई सैन सब सखन को लै गोरस समुदाय। गए निकरि जब दूरि तब आपहु भगे बिराय।—रघुनाथ (शब्द०)।

बिराल
संज्ञा पुं० [सं० विडाल] दे० 'बिडाल'।

बिरावना पु †
क्रि० स० [सं० विरावण (= शब्द)] १. मुँह चिढा़ना। किसी के मुहँ से निकले हुए शब्द को उसे चिढा़ने के लिये उसी प्रकार उच्चारण करना। २. किसी को दिखलाकर चिढा़ने हेतु मुँह की कोई विलक्षण मुद्रा बनाना।

बिरास पु †
[सं० बिलास] दे० 'विलास'।

बिरासी पु
संज्ञा पुं० [सं० विलासिन्] वह जो विलास करता हो। विलासी। उ०—जौ लगि कालिंदि होहि बिरासी। पुनि सुरसरि होइ समुद परासी।—जायसी (शब्द०)।

बिरिख पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० वृष] दे० 'वृष'। उ०—बिरिख सँवरिया दहिने बोला।—जायसी ग्रं०, पृ० ५६।

बिरिख (२)
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष, प्रा० ब्रिक्ख] दे० 'वृक्ष'।

बिरछ पु †
संज्ञा पुं० [सं० वृक्ष] दे० 'वृक्ष'।

बिरिध पु †
वि० [सं० वृद्व] दे० 'वृद्ध'। उ०—विरिध होइ नहि जौलहि जिआ।—जायसी ग्रं० (गुप्त)।, पृ० ४३।

बिरियाँ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेला] समय। वक्त। बेला। उ०— पुनि आउब यहिं बिरियाँ काली।—तुलसी (शब्द०)।

बिरियाँ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वार] बार। दफा। पारी। उ०— (क) सूर की बिरियाँ नि्ठुर भए प्रभु मोते कछु न सरयो।—सूर (शब्द०)। (ख) बीस बिरियाँ चोर को तो कबहुँ मिलि है साहु।—सूर (शब्द०)।

बिरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बाली] १. चाँदी या सोने का बना हुआ छोटी कटोरी के आकार का एक गहना जो कान में पहना जाता है। पच्छिमी जिलों में इसे 'ढार' कहते हैं। उ०—कानों में झुमके रहे झूल, बिरया, गलचुमनी, कर्णफूल।—प्राम्या, पृ० ४०। २. चखें के बेलन में की कपड़े या लकड़ी की वह गोल टिकिया जो इसलिये लगाई जाती है कि चर्खे की मूँड़ी खूँटे से रगड़ न खाय।

बिरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० वीटिका] १. दे० 'बीड़ी'। २. दे० 'बीड़ा' या 'बोरी'। उ०—बिरी अधर, अंजन नयन, मिहँदी पग अरु पान।—मति० ग्रं०, पृ० ३४९।

बिरुआ †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का राजहंस।

बिरुज
वि० [सं० विरुज] दे० 'विरुज'। रोग रहित। उ०—जानिय तव मन विरुज गोसाईं।—मानस,

बिरुझना †
क्रि० अ० [सं० विरुद्धय (+ ति) या हिं० उलझना] झगड़ना। उलझना। उ०—जो बालक जननी सों बिरुझै माता ताको लेइ बनाइ।—सूर (शब्द०)।

बिरुझाना पु †
क्रि० अ० [सं० विरुद्ध या हिं० उलझना] क्रुद्ध होकर लड़ने के लिये प्रस्तुत होना। उलझना।

बिरुद
संज्ञा पुं० [सं०] बिरद। यश। बड़प्पन।

बिरुदावलि
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिरद् + अवली] दे० 'विरुदावली'। उ०—बंदी जन बिरुदावलि बोलत मुदित विप्त धुनि छंद के।—घनानंद०, पृ० ४६०।

बिरूप
वि० [सं० विं + रूप] विपरीत। उलटा। उ०—जहाँ वरनिए हेतु ते उपजत काज बिरूप। और बिसम तहँ कहत हैं कबि मतिराम अनूप।—मति० ग्रं०, पृ० ४०६।

बिरोग ‡
संज्ञा पुं० [सं० वियोग] दुःख। कष्ट। वेदना।

बिरोजा
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'गंधाबिरोजा'।

बिरोध
संज्ञा पुं० [सं० विरोध] दे० 'विरोध'।

बिरोधना †
क्रि० अ० [सं० विरोधन] विरोध करना। बैर करना। द्वेष करना। उ०—(क) साई ये न बिरोधिए गुरु पंड़ित कबि यार। बेटा बनिता पौरिया यज्ञ करावन- हार।—गिरधर (शब्द०)। (ख) तब मारीच हृदय अनुमाना। नवहिं बिरोधे नहिं कल्यानी।—तुलसी (शब्द०)।

बिरोलना पु †
क्रि० स० [सं० विलो़डन, प्रा० विरोलण, विलोलण] बिलोना। मथना। दे० 'बिलोड़ना'। उ०—(क) बिरोलि दद्धि ज्यों मही। घटा तटाक घूँमही। लिय प्रथम्म लछ्छ्मी।—पृ० रा०, २।२२। (ख) गोरष लो गोपलं गगन गाइ दुहि पीवै लौ। महीं बिरोलि अमी रस पीजै अनभै लागा जीजै लो।—गोरख०, पृ० ११३।

बिलंगम
संज्ञा पुं० [सं० विलङ्गम] सर्प। साँप [को०]।

बिलंगी †
संज्ञा स्त्री० [सं० विलग्निका या देश०] अलगनी। अरगनी।

बिलंजा †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा जो प्रायः सारे भारत में पाया जाता है। इसकी पत्तियाँ साग के रूप में खाई जाती हैं और ओषधि रूप में भी उनका ब्यवहार होता है।

बिलंद
वि० [फा़० बुलंद] १. ऊँचा। उच्च। उ०—(क) मंद बिलंद अभेरा दलकन पाइअ दुख झकझोरा रे।—तुलसी (शब्द०)। (ख) प्रवल बिलंद वर बारनि के दंतनि सौं बैरनि के बाँके बाँके दुरग बिदारे हैं।—केशव (शब्द०)। २. विफल। नाकामयाब। जैसे,—अगर अच्छी तरह न पढ़ोगे तो इस बार इम्तहान में बिलंद हो जाओगे।

बिलंब (१)
वि० [फ़ा० बुलंद] १. ऊँचा। २. बड़ा। ३. जो विफल हो गया हो (ब्यंग्य)।

बिलंब (२)
संज्ञा पुं० [सं० विलम्ब] दे० 'विलंब'।

बिलबना पु
क्रि० अ० [सं० विलम्बन] १. विलंब करना। देर करना। २. ठहरना। रुकना। अटकना। उ०—जीव बिलंबा पीव सों, पिय जो लिया मिलाय। लेख समान अलेख में, अब कछु कहा न जाय।—कबीर ग्रं०, पृ० ४७।

बिलंबित
वि० [सं० विलम्बित] दे० 'विलंबित'।

बिल (१)
संज्ञा पुं० [सं० बिल] १. वह खाली स्थान जो किसी चीज में खुदने, फटने आदि के कारण हो गया हो और दूर तक गया हो। छेद। दरज। विवर। २. इंद्र का अश्व। उच्चैः- श्रवा (को०)। ३. एक प्रकार का वेतम (को०)। ४. जमीन के अदर खोदकर बनाया हुआ कुछ जंगली जीवों के रहने का स्थान। जैसे, चूहे का बिल, साँप का बिल। मुहा०—बिल ढूँढ़ते फिरना = अपनी रक्षा का उपाय ढूँढ़ते फिरना। बहुत परेशान होकर अपने बचने की तरकीब ढूँढ़ना।

बिल (२)
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह व्योरेवार परचा जो अपना बाकी रुपया पाने के लिये किसी देनदार के सामने पेश किया जाता है। पावने के हिसाब का परचा। पुरजा। विशेष—बिल में प्रायः बेंची या दी हुई चीजों के तिथि सहित नाम और दाम, किसी के लिये व्यय किए हुए धन का विवरण, अथवा किसी के लिये किए हुए कार्य या सेवा आदि का विवरण और उसके पुरस्कार की रकम का उल्लेख होता है। इसके उपस्थित होने पर वाजिव पावना चुकाया जाता है। २. किसी कानून आदि का वह मसौदा जो कानून बनानेवाली सभा में उपस्थित किया जाय। कानून की पांडुलिपि।

बिलकारी
संज्ञा पुं० [सं० बिलकारिन्] मूसा। चूहा। [को०]।

बिलकुल
क्रि० वि० [अ०] पूरा पूरा। सब। जैसे—उनका हिसाब बिलकुल साफ कर दिया गया। २. सिर से पैर तक। आदि से अंत तक। निरा। निपट। जैसे,—तुम भी बिलकुल बेवकूफ हो। ३. सब। पूरा पूरा। (परिमाण या मिक)

बिलखना
क्रि० अ० [हिं० अथवा सं० वि = (विपरीत) + लक्ष (= दिखाई देना = दुःख प्रकट करना)] १. विलाप करना। रोना। २. दुखी होना। उ०—सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कह्यो मुनिनाथ।—तुलसी (शब्द०)। २. संकुचित होना। सिकुड़ जाना।

बिलखाना (१)
क्रि० सं० [हिं० बिलखना का प्रे० रूप या सकर्मक] बिलखना का सकर्मक रूप। रुलाना। २. दुःखी करना।

बिलखाना (२)
क्रि० अ० १. दे० 'बिलखना'। उ०—सीता भातु सनेह बस बचन कहइ बिलखाइ।—मानस, १।२५५। २. संकुचित होना। उ०—(क) बिकसित कंज कुमुद बिलखाने।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जेहि बिलोके बिलखाहि विमाना।—मानस, २।२१३।

बिलखावा पु
क्रि० सं० [हिं० बिलखाना] किसी को उदास, निष्प्रभ वा संकुचित करना। उ०—काम तून तल सरिस जानु जुग उरु करि कर करभहि बिलखावति।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५१५।

बिलग (१)
वि० [सं० उप० वि (= पार्थक्य या राहित्य) + लग्न; हिं० लगना] [अन्य रूप - बिलगि, बिलगु] अलग। पृथक्। जुदा। उ०—बिलग बिलग ह्वै चरहु सब निज निज सहित समाज।—तुलसी (शब्द०)।

बिलग (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बि (प्रत्य०) + लगना] [अन्य रूप बिलगि बिलगु] १. पार्थक्य। अलग होने का भाव। २. द्वेष या और कोई बुरा भाव। रंज। उ०—(क) देवि करौं कछु बिनय़ सो बिलगु न मानब।—तुलसी (शब्द०)। (ख) इनको बिलगु न मानिए कहि केशव पल आधु। पानी पावक पवन प्रभु त्यों असाधु त्यों साधु।—केशव (शब्द०)। क्रि० प्र०—मानना।

बिलगर
संज्ञा पुं० [देश०] गिरगिट्टी नाम का वृक्ष जो प्रायः बागों में शोभा के लिये लगाया जाता है। वि० दे० 'गिरगिट्टी'।

बिलगाना
क्रि० अ० [हिं० बिलग + आना (प्रत्य०)] १. अलग होना। पृथक् होना। दूर होना। उ०—निज निज सेन सहित बिलगाने।—तुलसी (शब्द०)। २. पृथक् या स्पष्ट रूप से दिखाई देना।

बिलगाना (२)
क्रि० स० अलग करना। पृथक् करना। दूर करना। उ०—(क) ज्यो सर्करा मिलै सिकता महँ बल ते न कोउ बिलगावै।—तुलसी (शब्द०)। (ख) भलेउ पोच सब विधि उपजाए। गनि गुन दोष वेद बिलगाए।—तुलसी (शब्द०)। २. छाँटना। चुनना।

बिलगाव
संज्ञा पुं० [हिं० बिलग + आव (प्रत्य़०)] पृथक् वा अलग होना। पृथकत्व। अलगाव।

बिलगी
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का संकर राग।

बिलगु पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिलग'। उ०—स्वामिनि अविनय छमब हमारी। बिलगु न मानव जानि गवाँरी।—तुलसी (शब्द०)।

बिलच्छन
वि० [सं० विलक्षण] दे० 'विलक्षण'।

बिलछना
क्रि० अ० [सं० वि + लक्ष्य] लक्ष करना। ताड़ना।

बिलछाना (१)
क्रि० अ० [सं० वि + लक्ष्य (= दृष्टि)] दृष्टि से परे होना। दूर होना। समाप्त होना। उ०—कहै कबीर सुनो भाई। साधो, लोक लाज बिलछानी।—संतबानी०, भा० २, पृ० १२।

बिलछाना (२)
क्रि० स० [सं० वि + लक्ष(= देखना)] पृथक् पृथक् करना। चुनना। बीछना। उ०—प्रथम कहों अंडज की बानी। एकहि एक कहौं बिलछानी।—कबीर सा०, पृ० ३९।

बिलटना
क्रि० अ० [सं० विनष्ट] बर्बाद होना। खत्म होना। नष्ट होना। उ०—अगर आप इस तरह दो चार महीने और फर्स्ट क्लास जेंटुलमैन बनेंगे तो बिलट ही जाइएगा। फिसाना०, भा० ३, पृ०, ५८। (ख) रोजी बिलटी हाय हाय, सब मुखतारी हाय हाय।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६७८।

बिलटी
संज्ञा स्त्री० [अं० बिलेट] रेल द्वारा भेजे जानेवाले माल की वह रसीद जो रेलवे कंपनी से मिलती है। रेलवे रसीद। विशेष—जिस स्थान से माल भेजा जाता है, उस स्थान पर यह रसीद मिलती है। पीछे से यह रसीद उस व्यक्ति के पास भेज दी जाती है, जिसके नाम माल भेजा जाता है। निर्दिष्ट स्थान पर यही रसीद दिखलाने पर माल मिलता है। इसमें माल का विवरण, तौल, महसूल, आदि लिखा रहता है।

बिलनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिल या सं० भृङ्गिन्] काली भींरी जो दीवारों पर या किवाड़ों पर अपने रहने के लिये मिट्टी की बाँबी बनाती है। यही वह भृंगी है जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह किसी कीड़े को पकड़कर भृंगी ही बना डालती है। भ्रमरी।

बिलनी (२)
संज्ञा स्त्री० आँख की पलक पर होनेवाली एक छोटी फुंसी। गुहांजनी।

बिलपना पु †
क्रि० अ० [सं० विलपन] विलाप करना। रोना।

बिलफेल
क्रि० वि० [अ० बिलफ़ेल] इस समय। अभी। संप्रति। वर्तमान अवस्था में। जैसे,—बिलफेल १००) लेकर काम चलाइए; फिर और ले लीजिएगा।

बिलबिलाना
क्रि० अ० [अनु०] १. छोटे छोटे कीड़ों का इधर इधर रेंगना। जैसे,—उसके घाव में कीडे़ बिलविलाते हैं। २. व्याकुल होकर बकना। असंबद्ध प्रलाप करना। ३. कष्ट के कारण व्याकुल होकर रोना चिल्लाना। ४. भूख से बेचैन हो उठना।

बिलम पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० विलम्ब] दे० 'विलंब'। उ०—कहै पतिसाह नहिं बिलम किज्जे।—ह० रासो, पृ० ८७।

बिलमना पु †
क्रि० अ० [सं० विलम्बन] १. विलंब करना। देर करना। २. ठहर जाना। रुकना। उ०—बीच में बिल में बिराजे बिष्णुथल में। सुगंगा जू के जल में अन्हाए एक पल में।—पद्याकर (शब्द०)। ३. किसी के प्रेमपाश में फँसकर कहीं रुक रहना। उ०—माधव बिलमि बिदेस रहे।—सूर (शब्द०)। विश्राम करना। ठहरना। उ०—क्या बिलम सकेगा वह नंदन के आँगन में।—सूत०, पृ० ८९।

बिलमाना
क्रि० स० [हिं० बिलमना का सक० रूप] रोक रखना। अटका रखना। उ०—कहेसि को मोहि बातन बिलमावा। हत्या केर न तोहि डेरावा।—जायसी (शब्द०)। २. प्रेमपाश में फँसा रखना। प्रेम के वशीभूत कर रोक रखना। उ०—ठाने अठान जेठानिन हू सब लोगन हू अकलंक लगाए। सासु लरी गहि गाँस खरी ननदीन के बोल न जात गनाए। एती सही जिनके लिये मैं सखि तै कहि कौने कहाँ बिलमाए। आए गरे लगि प्रान पै केसे हुँ कान्हर आजु अजौ नहिं आए।—कोई कवि (शब्द०)।

बिललाना †
क्रि० अ० [सं० बिलयन विलाप + हिं० ना (प्रत्य०)] १. बिलखकर रोना। विलाप करना। उ०—औंधाई सीसी सुलखि बिरह बरी बिललात। बीचलि सूखि गुलाब गो छींटौ छुई न गात।—बिहारी (शब्द०)। २. व्याकुल होकर असंबद्ध बातें कहना। उ०—दीन हुवौ बिललात फिरै नित इंद्रिनि कै बस छीलक छौले।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ५८७।

बिलल्ला
वि० [देश० अथवा सं० वि = (रहित) + हिं० लुर = (लर)] [वि० स्त्री० बिलल्ली] जिसे किसी बात का कुछ भी शऊर या ढग न हो। गावदी। मुर्ख। उ०—बिलल्ली है ! तुम ऐसी दस को बेच ले।—सैर०, पृ० ३०। २. इधर उधर आवारा- गर्दी में समय बितानेवाला।

बिलल्लापन
संज्ञा पुं० [हिं० बिलल्ला + पन (प्रत्य०)] आवा- रगी। मूर्खता। फूहड़पन। उ०—दो एक और हों तो बस मुहल्ला उजड़ जाय। बिलल्लेपन की एक ही कही।—सैर०, पृ० ३०।

बिलवाना
क्रि० स० [सं० वि + लय, विलयन] १. किसी वस्तु को खो देना। नष्ट करना। बरबाद करना। २. किसी वस्तु को दूसरे द्वारा नष्ट कराना। बरबाद कराना। दूसरे को बिलाने में प्रवृत्त करना। संयो० क्रि०—डालना।—देना। ३. ऐसे स्थान में रखवाना या रखना जहाँ कोई देख न सेक। छिपाना अथवा छिपाने के काम में दूसरे को प्रवृत्त करना। संयो० क्रि०—देना।

बिलसना पु † (१)
क्रि० अ० [सं० विलसन] विशेष रूप से शोभा देना। बहुत भला जान पड़ना। उ०—(क) त्यों पद्माकर बोलै हँसे हुलसै बिलसै मुखचंद्र उज्यारी।—पद्माकर (शब्द०)। (ख) बिलसत बेतस बनज बिकासे।—तुलसी (शब्द०)।

बिलसना (२)
क्रि० स० भोग करना। भोगना। विलास करना। उ०—(क) सज्जन सींव विभीषन भो अजहूँ बिलसै बर बंधुबधू जो।—तुलसी (शब्द०)। (ख) इंद्रसन बैठे सुख बिलसत दूर किए भुवभार।—सूर (शब्द०)।

बिलसाना पु †
क्रि० स [हिं० बिलसना] १. भोग करना। बरतना। काम में लाना। उ०—दान देय खाही बिलसाही। ता को घन मुनी यश गाही।—सबल (शब्द०)। २. दूसरे को बिलसने में प्रवृत्त करना। दूसरे से भोगवाना।

बिलस्त
संज्ञा पुं० [हिं०] 'बालिस्त'।

बिलहरा
संज्ञा पुं० [हिं० वेल] [स्त्री० बिलहरी] बाँस की तीलियों या खस आदि का बना हुआ एक प्रकार का संपुट जिसमें पान के लगे हुए बीड़े रखे जाते हैं।

बिलाँद †
संज्ञा पुं० [हिं० बिलस्त] बालिश्त। बित्ता। उ०—किस भाँति यह बिलाँद भर की चीज खिलौना नहीं है।—सुनीता, पृ० २०९।

बिला
अव्य० [अ०] बिना। बगैर। उ०—आज अपनी जरा सी मेहर की निगाह से इस बादशाहत को बिला कीमत खरीद सकती हो।—राधाकृष्ण दास (शब्द०)। यौ०—बिला तकल्लुफ = निःसंकोच। बिला तरद्दुद = निःशंक।बिला नागा = प्रतिदिन। रोजाना। बिला बजह = अकारण व्यर्थ। बिला वास्ता = बिना किसी संबंध या सिलसिला के। बिला शक, बिला शुबहा = संदेह रहित। निसंदेह। बिला सबब = दे० 'बिला वजह'। बिला शर्त = बिना किसी दाँव या बाजी के। बिना किसी प्रतिबंध के।

बिलाइत †
संज्ञा पुं० [अ० वलायत] संरक्षक। स्वामी। वली। उ०—जोगी सो जे मन जोगवै, बिन बिलाइत राज भोगवै।—गोरख०, पृ० ३५।

बिलाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिल्ली] बिल्ली। बिलारी। उ०—नवनि नीच के अति दुखदाई। जिमि अकुश धनु उरग बिलाई।— तुलसी। (शब्द०)। २. कुएँ में गिरा हुआ बरतन या रस्सी आदि निकालने का काँटा जो प्रायः लोहे का बनता है। इसके अगले भाग में बहुत सी अँकुसियाँ लगी रहती हैं जिनमें चीज फँसकर निकल आती है। ३. लोहे या लकड़ी की एक सिटकनी जो किवाड़ों में उनको वद करने के लिये लगाई जाती है। पटेला। ४. [संज्ञा पुं०] दे० 'बिलैया-२'।

बिलाईकंद
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिदारीकद'।

बिलाना
क्रि० अ० [सं० विलायन] १. नष्ट होना। विलीन होना। न रह जाना। उ०—कबहुँ प्रबल चल मारुत जहँ तहँ मेघ बिलाहिं।—तुलसी (शब्द०)। २. छिप जाना। अदृश्य हो जाना। गायब होना। उ०—जेँवत अधिक सुवासिक मुँह में परत बिलाय। सहस स्वाद सो पावै एक कौर जो खाय।—जायसी (शब्द०)।

बिलाप
संज्ञा पुं० [सं० विलाप] दे० 'विलाप'।

बिलापना पु
क्रि० अ० [हिं० विलाप + ना (प्रत्य०)] दे० 'बिलपना'।

बिलायत
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'विलायत'। उ०—सुनि बिलाप दूखहु दुख लागा।—मानस, २।

बिलायती
वि० [हिं० विनायत + ई (प्रत्य०)] विलायत का। वेदेश संबंधी। उ०—बड़े खेमों का कपड़ा बिलायती जरबफ्त का था और बाहरी ओर पुर्तगाली कपड़ा था।—हुमायूँ०, पृ० ४०।

बिलायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुफा। गुहा। २. माँद [को०]।

बिलार †
संज्ञा पुं० [सं० बिडाल] [स्त्री० बिलारी] बिल्ला। मार्जार।

बिलारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिलार] बिल्ली। मंजारी।

बिलारी कंद
संज्ञा पुं० [सं० बिदारीकन्द] एक प्रकार का कंद। दे० 'विदारीकंद'।

बिलाल †
संज्ञा पुं० [सं० पिडाल] दे० 'बिलार'।

बिलाव
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बिलार'। उ०—मैं अपने जीने से ऐसा निरास हो रहा हूँ जैसे बिलाव का पकड़ा मूसा।—शंकुतला, पृ० १२८।

बिलावर
संज्ञा पुं० [अं० बिल्लौर] दे० 'बिल्लौर'।

बिलावल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] एक राग जो केदारा और कल्याण के योग से बनता है। इसे दीपक राग का पुत्र मानते हैं। यह सबेरे के समय गाया जाता है। उ०—बजि ललित बिलावल गिरी देव।—ह० रासो०, पृ० ११०।

बिलावल पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्लभा] १. प्रेमिका। प्रियतमा। २. स्त्री। पत्नी। जैसे, राजविलावल।

बिलास
संज्ञा पुं० [सं० विलास] दे० 'विलास'। उ०—चित्त सुनाल के अग्र लसे लहु कठव कष्ट बिलास बिलासे।— कशव (शब्द०)।

बिलासना
क्रि० स० [सं० विलसन] भोग करना। भोगना। बरतना। उ०—चित्त सुनाल के अग्र लसे लहु कंठव कष्ट बिलास बिलासे।—केशव (शब्द०)।

बिलासिका
वि० स्त्री० [सं० बिलासिका] आनंद देनेवाली। विलास करनेवाली। उ०—देवनदी बर वारि बिलासिका। भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।

बिलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० विलासिनी] पुँश्चली। दे० 'विला- सिनी'।

बिलासी (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिण भारत में मालाबार और कनारा में आपसे आप होता है और दूसरे स्थानों में लगाया जाता है। बारना। विशेष—इसकी पत्तियाँ अंडाकार और ३ से ६ इंच तक लंबी होती है। इसकी छाल और पत्तियों का ओषधि के रूप में व्यवहार होता है और इसके फल का गूदा राज लोग इमारत की लेई में मिलाते हैं जिससे उनकी जुड़ाई बहुत मजबूत हो जाती है।

बिलासी (२)
वि० [सं० विलासिन्] [वि० स्त्री० विलासिनी] विलास करनेवाला। भोग करनेवाला। उ०—देखि फिरौं तब ही तब रावण साता रसातल के गे बिलासी।—केशव (शब्द०)।

बिलिंबी
संज्ञा स्त्री० [मलया० बलिया] एक प्रकार की कमरख का फल या उसका पेड़।

बिलियर्ड
संज्ञा पुं० [अं०] एक अंग्रेजी खेल जो गोल अंटों और लंबी लंबी छड़ियों द्वारा बडी मेज पर खेला जाता है। यौ०—विलियर्ड टेबुल = वह मेज जिसपर बिलियर्ड का खेल खेला जाता है। बिलियर्ड रूम = वह घर जहाँ यह खेल खेला जाता है।

बिलिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बेला = (कटोरा)] कटोरी।

बिलिया (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] गाय, बैल के गले की एक बीमारी।

बिलिश
संज्ञा पुं० [सं० बडिश] मछली मारने का काँटा या उसमें का चारा।

बिलुठना पु
क्रि० अ० [सं० विलुण्ठन] लोटना। उ०—मुनिजन जिनहि पत्यात न रती। ते पद बिलुठत ताकी छती।—नंद० ग्रं०, पृ० २३९।

बिलूधना पु
क्रि० अ० [सं० वि + लुब्ध] विलुप्त होना। बिलाना। उ०—चद सूर दोउ गगन बिलूधा भईला घोर अंधारं।—गोरख० पृ० ९६।

बिलूमना
क्रि० अ० [सं० वि + लभ्बन] विलमना। लटकना। अटकना। उ०—वह प्यारी के कंठ बिलू्म्यो करै, मुख चू्म्यौ करै त्यों ही झूम्यौ करै।—नट०, पृ० ५०।

बिलूर (१)
संज्ञा पुं० [फ़ा० बिलोर] दे० 'बिल्लौर'। उ०—बिसद बसन मेहींन मैं ती तन सूर जहूर। मनु बिलूर फानूस मैं दीपै दीप कपूर।—स० सप्तक, पृ० २७३।

बिलूरगात
संज्ञा पुं० [सं० तिब्बती] तिब्बत के एक पर्वत का नाम। विशेष—यह शब्द जैनियों के बैताडय (पर्वत) का अपभ्रंश जान पड़ता है।

बिलेशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प। २. चूहा। २३. बिल या माँद में रहनेवाला कोई जानवर। ४. खरगोश [को०]।

बिलैया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिल्ली + ऐया (प्रत्य०)] १. बिल्ली। २. मिटकिनी। अगंला। ३. पेठा, कद्दू, मूली आदि के महीन महीन डोरे से लच्छे काटने का एक औजार। कद्दूकश। विशेष—यह वास्तव में लोहे की एक (चार पायों की) चौकी सी होती है जिसपर उभरे हुए छेद बने होते हैं। उभारों से रगड़ खाकर कटे हुए कतरे छेदों के नीचे गिरते जाते हैं।

बिलोकना पु
क्रि० स० [सं० बिलोकन] १. देखना। लोचन लोल बिसाल बिलोकनि को न बिलोकि भयो बस माई।—मति० ग्रं०, पृ० ४०३। २. जाँच करना। परीक्षा करना।

बिलोकनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विलोकन] १. देखने की क्रिया। चितवन। उ०—लोचन लोल बिसाल बिलोकनि को न बिलोकि भयो बस भाई।—मति० ग्रं०, पृ० ४०३। २. दृष्टिपात। कटाक्ष। उ०—ललित बिलोकनि पै विबध विलास है।—मति० ग्रं०, पृ० ४२०।

बिलोगी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।

बिलोचन
संज्ञा पुं० [सं० बिलोचन] आँख। दे० 'विलोचन'। उ०—काल न देखत कालबस, बीस बिलोचन अंधु।—तुलसी ग्रं०, पृ० ८७।

बिलोचना पु
क्रि० स० [सं० विलोचन] जाँचना। परीक्षा करना। उ०—लोचन बिलोच पोच ललिता की ओटन सों हाव भाव भरी करत झोंटन मैं ललित बात।—नंद० ग्रं०, पृ० ३७६।

बिलोडना पु
क्रि० स० [सं० बिलोडन] १. मथना। पानी की सी वस्तु को चारों ओर से खूब हिलाना। २. अस्त व्यस्त कर देना। गड्ड बड्ड करना।

बिलोन (१)
वि० [सं० वि + हिं० लोन(= लगण = लावण्य)] बिना लावण्य का। कुरूप। बदसूरत। उ०—लोन बिलोन तहाँ की कहै। लोनी सोइ कंत जेहि चहै।—जायसी (शब्द०)।

बिलोन (२)
वि० [सं० वि + लवण] अलोना। बिना नमक का।

बिलोना (१)
क्रि० स० [सं० विलोडन] १. मथना। किसी वस्तु, विशेषतः पानी की सी वस्तु, को खूब हिलाना। जैसे, दही बिलोना (घी निकालने के लिये)। उ०—ज्यूँ मही बिलोए माखण आवै। त्यूँ मन मथियों तें तत पावै।—संतबानी०, भा० २, पृ० ९८। २. ढालना। गिराना। उ०—तुलसी मदोवै रोइ रोइ के बिलोबै आँसु बार बार कह्यो मैं पुकारि दाढ़ीजार सों।—तुलसी (शब्द०)।

बिलोना † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० बिलोना] वह वस्तु जो बिलोकर निकाली जाय। नवनीत। मक्खन। उ०—सत के बिलोना बिलोय मोर माई। ऐसा बिलोय जामें तत्त न जाई।—कबीर (शब्द०)।

बिलोना (३)
वि० [हिं०] 'बिलोन'।

बिलोपित
वि० [सं० विलुप्त] गायब। अंतर्धान। उ०—तब जिंदा बाबा मथुरा नगर से बिलोपित हो गए।—कबीर मं०, पृ० ४९७।

बिलोरना पु
क्रि० सं० [स० विलो़डन] १. दे० 'बिलोडना'। १. छिन्न भिन्न कर डालना। अस्त व्यस्त कर डालना। उ०— घोरि डारी केसरि सुबेसरि बिलोरि ड़ारी बोरि डारी चूनरि चुवति रंग रैनी ज्यौं।—पद्माकर (शब्द०)।

बिलोल
वि० [सं० विलोल] चंचल। चपल। उ०—लंबित सोभए हार बिलोल, मुदित मनोभय खेल हि़डोल।—विद्यापति, पृ० ३४०,।

बिलोलना
क्रि० सं० [सं० विलोलन] डोलना। हिलना। उ०— डोलति अडोल मन खोलति न बोलति कलोलति बिलोलति न तोलति त्रसति सी।—देव (शब्द०)।

बिलोवनापु †
क्रि० स० [सं० विलोड़न, प्रा० विलोअण] दे० 'बिलोना'। उ०—(क) तब प्रेमलता जाइ कै देखें तो श्री जसोदा जी दही बिलोवति हैं।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०८।

बिलौका
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विलौका'।

बिलौटा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बिल्ली + औटा (प्रत्य०)] बिल्ली का बच्चा।

बिलौर
संज्ञा पुं० [फ़ा बिलौर] दे० 'बिल्लौर'।

बिलौरा
संज्ञा पुं० [हिं० बिल्ली या बिलाई + औरा (प्रत्य०)] बिल्ली का बच्चा।

बिलौरी
वि० [फ़ा० बिलौर + ई (प्रत्य०)] 'बिल्लौरी'। उ०—तामें धारा तीन बीच में सहर बिलौरी।—पलटू०, बानी, पृ० ७।

बिल्कला
संज्ञा स्त्री० [सं०] यात्रार्थ निकलती हुई औरत [को०]।

बिल्कुल
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'बिलकुल'।

बिल्मुक्ता (१)
वि० [अ०] जो घट बढ़न सके। जैसे, लगान बिल्मुक्ता।

बिल्मुक्ता (२)
संज्ञा पुं० १. वह पट्टा जिसकी शर्तों के अनुसार लगान घटाया बढ़ाया न जा सके।

बिल्ल
संज्ञा पुं० [सं०] १. गडढा। गड़हा। २. वृक्षादि का थाला। आलवाल। ३. हिंग [को०]।

बिल्ला (१)
संज्ञा पुं० [सं० विडाल, हिं० बिल्ली (का पुं० वाचक)] [स्त्री० बिल्ली] मार्जार। दे० 'बिल्ली'।

बिल्ला (२)
संज्ञा पुं० [सं० पटल, हिं० पल्ला, बल्ला] चपरास की तरह की पीतल की पतली पट्टी जिसे पहचान के लिये विशेष विशेष प्रकार कै काम करनेवाले (जैसे, चपरासी, कुली, लैसंसदार, खोचेवाले) बाँह पर या गले में पहनते हैं। बंज।

बिल्लाना †
क्रि० अ० [हिं० बिललाना] दे० 'बिललाना'। उ०— (क) आवन आवन होय रह्यो रे, नहिं आवन की बात। मीरा ब्याकुल बिरहनी रे, बाल ज्यों बिल्लात।—संतबानी०, भा० २, पृ० ७०। (ख) हथनियाँ पास चिल्लाती थीं, वे विवश विकल बिल्लाती थीं।—साकेत, पृ० १५६।

बिल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं० बिडाल, हिं० बिलार] केवल पंजों के बल चलनेवाले पूरा तलवा जमीन पर न रखनेवाले मांसाहारी पशुओं में से एक जो सिंह, व्याघ्र आदि की जाति का है और अपनी जाति में सबसे छोटा है। बिल्ली नाम इस पशु की मादा का है पर यही अधिक प्रसिद्ध है। इसका प्रधान भक्ष्य चूहा है। विशेष—इसकी लबाई एक हाथ से कम होती है और पूँछ डेढ़ दो बालिश्त की होती है। बिल्ली की जाति के और पशुओं के जो लक्षण हैं, वे सब बिल्ली में भी होते हैं—जैसे टेढ़े पैने नख जो गद्दी के भीतर छिपे रहते हैं और आक्रमण के समय निकलते हैं; परदे के कारण आँख की पुतली का घटना बढ़ना; सिर की बनावट नीचे की ओर भुकती हुई; २८ या ३० दाँतों में केवल नाम मात्र के लिये एक चौभर होना; बिना आहठ दिए चलकर शिकार पर झपटना, इत्यादि, इत्यादि। कुत्तों आदि के समान बिल्ली की नाक में भी घ्राणग्राही चर्म कुछ ऊपर होता है। इससे वह पदार्थों को बहुत दूर से सूँघ लेती है। भारतवर्ष में बिल्ली के दो भेद किए जाते हैं, एक बनबिलाव और दूसरा पालतू बिल्ली। वास्तव में दोनों प्रकार की बिल्लियाँ बस्ती में या उसके आसपास ही पाई जाती हैं। बनबिलाव का रंग स्वाभाविक भूरा, कुछ चित्तीदार होता है और वह पालतू से क्रूर और बलिष्ठ होता है। पालतू बिल्लियाँ सफेद, काली, बादामी, चितकबरी कई रंग की होती हैं। उनके रोएँ भी मुलायम होते हैं। पालतू बिल्लियों में अगोरा या पारसा बिल्ली बहुत अच्छी समझी जाती है। वह डोल में भी बडी होती है और उसके रोएँ भी घने, बड़े बड़े और मुलायम होते हैं। ऐसी बिल्लियाँ प्रायः काबुली अपने साथ बेचने के लिये लाते हैं। बिल्ली बहुत दिनों से मनुष्यों के बीच रहती आई है। रामायण, मनुस्मृति , अष्टाध्यायी सबमें बिल्ली का उल्लेख मिलता है। मनुस्मृति में बिल्ली का जूठा खाने का निषेध है। बिल्ली पहले पहल कहाँ पाली गई, इसके संबंध में कुछ लोगों का अनुमान है कि पहले पहल प्राचीन मिस्रवालों ने बिल्ली पाली क्योंकि मिस्र में जिस प्रकार मनुष्यों की मोमियाई लाशें मिलती हैं, उसी प्रकार बिल्ली की भी। मिस्रवाले जिस प्रकार मनुष्यों के शव मसाले से सुरक्षित रखते थे उसी प्रकार पालतू जानवरें के भी। पश्चिम के तथा अन्य अनेक देशों में इनको पालतू जानवर के रूप में भी रखा जाता है। मुहा०—बिल्ली के भाग्य से छींका टूटना = जो वस्तु प्राप्त होने में कठिनाई हो, उसकी प्राप्ति आसानी से हो जाना। उ०— कितना ही स्थान खाली है बँगले की कोई सुध लेनेवाला नहीं है, बिल्ली के भाग्य से छींका टूटा।—किन्नर०, पृ० ६५। बिल्लयों से चूहों की न चलना = ताकतवर से कमजोरों की न चलना। उ०—बिल्लियों से चली न चूहों की। छिपकली से रुके न कीड़े पल।—चुमते०, पृ० ६९। २. किवाड़ की सिटकनी जिसे कोढ़े में डाल देने से ढकेलने पर किवाड़ नहीं खुल सकते। एक प्रकार का अर्गल। बिलैया। ३. एक प्रकार की मछली जो उत्तरीय भारत में और बरमा की नदियों में होती है। पकड़े जाने पर यह मछली काटती है जिससे विष सा चढ़ जाता है।

बिल्ली लोटन
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिल्ली + लोटना] एक प्रकार की बूटी जिसके विषय में प्रसिद्ध है कि उसकी गंध से बिल्ली मस्त होकर लोटने लगती है। यह दवा में काम आती है। यूनानी हकीम इसे 'बादरंजबोया' कहते हैं।

बिल्लूर
संज्ञा पुं० [फा० विल्लूर] दे० 'बिल्लौर'।

बिल्लौर
संज्ञा पुं० [सं वैदूर्य्य, प्रा० बेलुरिय, तुल० फा़० विल्लूर] १. एक प्रकार का स्वच्छ सफेद पत्थर जो शीशे के समान पारदशंक होता है। विशेष—अणुओं की योजना की विशेषता के कारण इसमें यह गुण होता है जैसा कि मिश्री की स्वच्छ डली में देखा जाता है। २. स्वच्छ शीशा जिसके भीतर मैल आदि न हो।

बिल्लौरी
वि० [हिं० बिल्लौर + ई (प्रत्य०)] बिल्लौर का बना हुआ। बिल्लौर पत्थर का। जैसे, बिल्लौरी चूड़िया। २. बिल्लौर के समान स्वच्छ।

बिल्व
संज्ञा पुं० [सं० विल्व] १. बेल का पेड़। २. बेल का फल। ३. एक तौल जो एक पल होती है। ४. छीटा तालाब या गड़हा (को०)।

बिल्वकीया
संज्ञा स्त्री० [सं० विल्वकीया] वह भूमि जहाँ बेल के वृक्ष उगाए गए हों [को०]।

बिल्वदंड
संज्ञा पुं० [सं० विल्वदण्ड] शिव का एक नाम [को०]।

बिल्हण
संज्ञा पु० [सं० विल्हण] विक्रमांकदेवचरित नामक संस्कृत प्रबंधकाव्य के कर्ता।

बिवछना पु
क्रि अ० [देश०] दे० 'बिबछना'।

बिवरना (१)
क्रि० स० [सं० विवरण] १. सुलझाना। एक में गुथी हुई वस्तुओं को अलग अलग करना। २. बेधे या गुथे हुए बालों को हाथ या कंधी आदि से अलग अलग करके साफ करना। बाल सुलझाना।

बिवरना (२)
क्रि० अ० सुलझना।

बिवराना
क्रि स० [हिं० बिवरना का प्रे० रूप] १. बालों को खुलवाकर सुलझवाना। उ०—पुनि निज जटा राम बिवराए। गुरु अनुसासन मांगि नहाए।—तुलसी (शब्द०)। २. बाल सुलझाना।

बिवसाइ पु ‡
संज्ञा पु० [सं० व्यवसाय, प्रा० विवसाइ] दे० 'व्यवसाय'।

बिवस्वत पु
वि० [सं० वैवस्वत] दे० 'वैवस्वत'। उ०—त्यों हि उपाधि संयोग ते सीसत आहि मिल्यो सो बिकारा। काढ़ि लिए जु बिचार बिवस्वत सुंदर शुदध स्वरूप है न्यारा।— सुंन्दर ग्रं०, भा० २, पु० ६०५।

बिवहार पु
संज्ञा पुं० [सं० ब्यवहार] दे० 'ब्यवहार'। उ०—(क) कुल बिवहार बेदबिधि चाहिए जँह जस। उपरोहित दोउ करहिं मुदित मन तहँ तस।—तुलसी ग्रं०, पृ० १५६। (ख) जबही मैं क्रीडत बिविध बिवहार होत काम क्रोध लोभ मोह जल मैं संहार है।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पु० ६१४।

बिवाई
संज्ञा स्त्री० [सं० विपादिका] पैर में होनेवाला एक प्रकार का रोग जिसमें पैर की उँगलियों के बीच का भाग या तलुए का चमड़ा फट जाता है। उ०—जाके पैर न फटी बिवाई। सो का जानै पीर पराई।—कहावत (शब्द०)। क्रि० प्र०—फटना।

बिवान पु
संज्ञा पु० [सं० विमान, प्रा० विवाण] दे० —'विमान'।

बिवाय ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० विपादिका] दे० 'बिवाई'।

बिवाय (२)
संज्ञा पुं० [सं० व्यपाय (= विश्लेष , अंत ?)] विध्र। वाधा। (डिं०)।

बिवेचना पु
क्रि स० [सं० विवेचन] व्याख्या करना। गुणदोष कहना।

बिवोगनी ‡
संज्ञा स्त्री० [देश० तुल० सं० वियोगिनी] दे० 'बियोगिनी'। उ०—दरसन कारनि बिरहनी, बैरागनि होवै। दादू बिरह बिवोगनी, हरि मारग जोवै।—दादू० बानी, पृ० ५७।

बिशप
संज्ञा पुं० [अं०] ईसाई मत का सबसे बड़ा पादरी।

बिष
संज्ञा पुं० [सं० विष] दे० 'विष'।

बिवमाई
संज्ञा स्त्री० [सं० विपमयता या सं० विपम + हिं० आई (प्रत्य०)] विष का गुणा। भयंकरता। जहरीलापन। उ०— देखहु दै मधु की पुट कोटि मिटै न घटै बिष की बिषमाई।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० १८।

बिषय पु (१)
अव्य० [सं० विषये] दे० 'बिखय', 'बिर्खे'। उ०— अन्य अनेकन काज बिषय आदेश हेतु नत।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १५।

बिषय (२)
संज्ञा पुं० [सं० विपय] दे० 'विषय'।

बिषया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विपय] विषय की वासना। कामेच्छा।

बिषहर पु
वि० [सं० विपहर] विष के प्रभाव को हरण करनेवाला। मांत्रिक। विषवैद्य। उ०—यह बिषहर धन्वतरि आयो। मूर मंत्र पढ़ि तोहि जियायो।—हिं० क० का०, पृ० २१८।

बिषान
संज्ञा पुं० [सं० विषाण] दे० 'विषाण'।

बिषार, बिषारा
वि० [सं० विप + हिं० आर या आरा (प्रत्य०)] जहरीला। विवयुक्त।

विषिया पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विपय] दे० 'विषया'।

बिषै पु
संज्ञा पुं० [सं० विपय] दे० 'विषय'। उ०—जो तजै आप यह बिषै सुख तौ सुख होत अनंत अति।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ११०।

बिष्टाला पु
संज्ञा पुं० [सं० विस्तार ?] ब्यौरा। विवरण। उ०— नव डाँड़ी दस मुंसफ धावहि रेयति बसन न देही। डोरी पूरी मापहि नाही बहु बिष्टाला लेही।—कबीर ग्रं०, पृ० २७३।

बिसच पु
संज्ञा पुं० [सं० वि + सञ्चय] १. संचय का अभाव। वस्तुओं की सँभाल न रखना। बेपरवाई। उ०—लघु मनुजहू को सच कियहु बिसंच रंच न होय।—रघुराज (शब्द०)। २. कार्य की हानि। वाधा। ३. अमगल। भय। डर। उ०—रचक नहि बिसच कोशिक संग जात लखन सहकारी।—रघुराज (शब्द०)।

बिसंभर †
संज्ञा पुं० [सं० बिश्वम्भर] दे० 'विश्वंभर'।

बिसंभर पु †
वि० [सं० वि०(उप०) + हिं० सँभार] १. जो सँभाल न सकें। जिसे ठीक और व्यवस्थित न रख सकें। उ०— तन बिसँभर मन बाउर लटा। उरझा प्रेम परी सिर जटा।—जायसी (शब्द०)। २. बेखबर। गाफिल। असावधान।

बिसँभार †
वि० [सं० वि (उप०) + हिं० सँभार] जिसकी सुध बुध खो गई हो। जिसे तन बदन की खबर न हो। बेखबर। गाफिल। असावधान। उ०—परा सुप्रेम समुद्र अपारा। लहरहिं लहर होई बिसँभारा।—जायसी (शब्द०)।

बिसंसृत
वि० [सं० विसंसृत] विसंसृत। स्खलित। च्युत। उ०—नगर मैं बगर बगर ह्वै गयौ। देवकी गर्भ बिसंसृत भयौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २२४।

बिस पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० विप] १. दे० 'विष'। गरल। उ०—डरी डरी बिझरी रहति, डरी प्रेम बिस पाय।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५६। २. जल।—अनेकाथ०, पृ० ५०।

बिस (२)
संज्ञा पुं० [सं०] कमल की नाल। मृणाल।

बिसकंठी
संज्ञा पुं० [सं० विसकण्ठिन्] एक प्रकार का छोटा बक या बगुला [को०]।

बिसकरमा पु
संज्ञा पुं० [सं० विश्वकर्मा] दे० 'विश्वकर्मा'।

बिसखपरा
संज्ञा पुं० [सं० बिप +खर्पर] १. हाथ सवा हाथ लंबा गोह की जाति का एक विषैला सरीसृप जंतु। इसक काटा जीव तुरंत मर जाता है। इसकी जीभ रंगीन होती है जिसे यह थोड़ी थोड़ी देर पर निकाला करता है। देखने में यह बड़ी भारी छिपकली सा होता है। २. एक प्रकार की जंगली बूटी जिसकी पत्तियाँ बनगोभी की सी परंतु कुछ अधिक हरी और लंबी होती है। यह औषध में काम आती है। इसे 'बिसखपरी' भी कहते हैं। ३. पुनर्नवा। पथरचटा। गदहपूरना।

बिसखापर, बिसखोपड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० विष + खर्पर] दे० 'बिसखपरा'। उ०—बीछू बिसखापरहि चाँपत चरन बीच लपटै फनीजै गहि पटकै पछार को।—राम कवि (शब्द०)।

बिसटा पु
संज्ञा पुं० [सं० विष्टा] दे० 'विष्टा'। उ०—पान ओकपूर लोंग चर काग आगै राखी, बिसटा बिगध खात अधिक सियान कै।—सुंदर ग्रं० (जी०), भा० १, पृ० १०४।

बिसटी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] बेगार (डिं०)।

बिसटी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वसत] लँगोटी। चिट।

बिसतरना (१)
क्रि० स० [सं० विस्तारण] विस्तार करना। बढ़ाना। फैलाना। उ०—एक पल ठाढ़ी ह्वै कै सामुहें रही निहारि फेरि कै लजौंही, भौह सोचै बिसतरि कै।—रघुनाथ (शब्द०)।

बिसतरना पु (२)
क्रि० अ० [सं० विस्तरण] विस्तृत होना अभिवृद्धि होना। बढ़ना। उ०—बिहुँसि गरे सों लागी मिली रघुनाथ प्रभा अंगनि सो गुन रूप ऐसी बिसतरि गो।—रघुनाथ (शब्द०)।

बिसतार
संज्ञा पुं० [सं० विस्तार] दे० 'विस्तार'।

बिसद पु
वि० [सं० विशद] दे० 'विशद'।

बिसदता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विशद + ता (प्रत्य०)] स्वच्छता। पवित्रता। निर्मलता। उ०—ललित बिसदता नखन यौ चरन अरुनता रग। ज्यों बिकला ससि की कला लसति सुसंध्या संग।—स० सप्तक, पृ० २४४।

बिसन
संज्ञा पुं० [सं० व्यसन] दे० 'व्यसन'।

बिसनी (१)
वि० [सं० व्यसनिन्] १. जिसे किसी बात का व्यसन या शोक हो। २. जो अपने व्यवहार के लिये सदा बढ़िया चोजें ही डूँढ़ा करे। जिसे चीजें जल्दी पसंद न आएँ। जो व्यवहार की साधारण वस्तु सामने आने पर नाक मों सिकोड़े। ३. जिसे सफाई, सजावट या बनाव सिंगार बहुत पसंद हो। छैला। चिकनिया। शौकीन। ४. वेश्यागामी। रंडीबाज। उ०—ज्ञानी मूढ़ औ चेला चोर साहु भर भूना। बिस्वा बिसनी भेड़ कसाई नाहिं कोई घर सूना।—पलटु० बानी, भा० ३, पृ० २७। (ख) रडियाँ बिसनियों से रुपया लेकर सारंगी ही में डाल देती हैं।—प्रेमधन०, भा०, २, पृ० ३३०। ५. दुःखदायक। कष्टदायक। उ०—क्यों जियौ कैसी करौ बहुरयौ बिसु सी बिसनी बिसवासिनि फूली।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ६६।

बिसनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बिसिनो, प्रा० बिसणी] १. कमलिनी। २. लता।—अनेकार्थ०, पृ० ८८।

बिसबास पु
संज्ञा पुं० [सं० विश्वास] दे० 'विश्वास'। उ०—ब्रज जीवन फेरि बसौ ब्रज में, बिसबास में यों बिस घोरिए ना। पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ५९६।

बिसमउ †
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय] दे० 'विस्मय'।

बिसमय
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय] १. आश्चर्य। २. गर्व ३. विषाद। उ०—पेयसी समाद सुनि हरि बिसमय कए पाए ततहि बेरा।—विद्यापति, पृ० ९५।

बिसमरना पु
क्रि० स० [सं० विस्मरण] विस्मृत करना। भूल जाना। उ०—सुत तिय धन की सुधि बिसमरै।—सूर (शब्द०)।

बिसमला पु
संज्ञा पुं० [अं० बिसमिल्लाह] मुसलमानों में जबह करने की क्रिया। उ०—जब नहिं होते गाई कसाई। तब बिसमला किनि फुरमाई।—कबीर ग्रं०, पृ० २३९।

बिसमव †
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय या बिस्मित] दे० 'विस्मय'।

बिसमाद †
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय] दे० 'विस्मय'। उ०—जाइ सुखासन आसु भा, बाजु गीत औ नाद। चला पाछु सब आवै, कटक भरा बिसमाद।—चित्रा०, पृ० ३७।

बिसमादी
वि० [हिं० बिसमाद + ई (प्रत्य०)] बिस्मय से युक्त। चकित। उ०—हौ बिसमादी देस निल, केहि मारग होइ जाउँ। को राजा यह नगर मों को रानी यह गाउँ।— इंद्रा०, पृ० १२४।

बिसमादु पू
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय, हिं० बिसमाद] दे० 'विस्मय'। उ०—जिनि चखिया तिसु आया स्वादु। नानक बोलै इहु बिसमादु।—प्राण०, पृ० १३४।

बिसमाध ‡
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय] दे० 'बिसमौ (१)'।

बिसमित
वि० [सं० विस्मित] दे० 'विस्मित'। उ०—सुनत वचन बिसमित महतारी।—मानस, १।

बिसमिल
वि० [फा़० बिस्मिल] १. घायल। जख्मी। २. जबह करना। घायल करते हुए मारना। उ०—गऊ पकड़ बिसमिल करे, दरगह खंड वजूद। गरीबदास उस गऊ का, पिए जुलाहा दूध।—कबीर मं०, पृ० ११४।

बिसमिल्ला (ह्)
संज्ञा पुं० [अ०] श्रीगणेश। प्रारंभ। आरंभ। आदि। मुहा०—बिसमिल्ला ही गलत होना = आदि से ही गलती का शुरू होना। किसी कार्य के आरंभ ही में विध्न, बाधा वा भूल का होना। उ०—किंतु संयुक्ता को संयोगिता लिखकर बिसमिल्ला ही गलत कर डाला।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४४०। बिसमिल्ला करना = आरंभ करना। लग्गा लगाना। शुरू करना।

बिसमौ (१)
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय, हिं० बिसमव, बिसमउ] विषाद। दुःख। रंज (अवध)। उ०—नाग फाँस उन्ह मेला गीवा। हरष न बिसमौ एकौ जीवा।—जायसी (शब्द०)।

बिसमौ (२)
क्रि० वि० [सं० वि + समय] बिना समय के। असमय या कुसमय। उ०—बिरह अगस्त जो बिसमौ उपऊ। सरवर हरष सूखि सब गयऊ।—जायसी (शब्द०)।

बिसयक पु †
संज्ञा पुं० [सं० विपय] १. देश। प्रदेश। २. रियासत।

बिसरना
क्रि० स० [विस्मरण, प्रा० विम्हरण, बिस्सरण] भूल जाना। बिस्मृत होना। याद न रहना। ध्यान में न रहना। उ०—(क) बिसरा भोग सुख बासू।—जायसी (शब्द०)। (ख) बिसरा मरन भई रिस गाढ़ी।—तूलसी (शब्द०)। (ग) सुरति स्याम घन की सुरति बिसरेहू बिसरै न।—बिहारी (शब्द०)।

बिसरात पु
संज्ञा पुं० [सं० वेशरह्] खच्चर। अश्वतर। उ०— कूजत पिक मानहु गज माते। ढेक महोख उँट बिसराते।—तुलसी (शब्द०)।

बिसराना
क्रि० स० [सं० बिस्मारण हिं० बिसरना] भुला देना ध्यान में न रखना। विस्मृत करना। उ०— (क) दच्छ सकल निज सुता बोलाई। हमरे बयर तुम्हउ बिसराई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) बिसराइयो न याको है सेवकी अयानी।—प्रताप (शब्द०)। (ग) थोरेई गुन रीझते बिसराई वह बानि। तुमहूँ कान्ह भए मनौ आज काल के दानि।—बिहारी (शब्द०)।

बिसराम पु
संज्ञा पुं० [सं० विश्राम] दे० 'विश्राम'। उ०—प्यारी की ठोढ़ी को बिंदु दिनेस किधौं बिसराम गोविंद के जी को। चारु चुभ्यो कणिका मणिनील को कैधों जमाव जम्यौ रजनी को।—दिनेस (शब्द०)।

बिसरामी पु
वि० [सं० विश्राम, हिं० बिसराम + ई (प्रत्य०)] विश्राम देनेवाला। सुख देनेवाला। सुखद। उ०—सुआ सो राजा कर बिसरामी। मारि न जाय चहै जेहि स्वामी।—जायसी (शब्द०)।

बिसरावना पु †
क्रि० स० [हिं० बिसराना] दे० 'बिसराना'। उ०—करि कै उनके गुन गान सदा अपने दुख को बिसरावनो है।—हरिश्चंद्र (शब्द०)।

बिसर्पी
वि० [सं० विसर्पिन्] बढ़नेवाला। फैलनेवाला। गतिशील। उ०—उठि उठि सठ ह्याँ तै भागु तौ लौं अभागे। मम बचन बिसर्पी सर्प जौ लौं न लागे।—रामचं०, पृ० ९७।

बिसल
संज्ञा पुं० [सं०] कनखा। कोपल। अंकुर [को०]।

बिसवना † (१)
क्रि० अ० [सं० विश्रमण] अस्त होना। समाप्त होना। बीतना।

बिसवना † (२)
क्रि० स० समाप्त करना। बिता देना।

बिसवल †
संज्ञा पुं० [देश०] बबूल की जाति का एक प्रकार का वृक्ष जिसे ऊँदरू भी कहते हैं। वि० दे० 'ऊँदरू'।

बिसवा पु (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बिस्वा'। उ०—दादू सतगुरू बंदिए मन क्रम बिसवा बीस।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६६५।

बिसवा ‡ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] वेश्या।

बिसवार
संज्ञा पुं० [सं० विपय (= वस्तु) + हिं० वार (प्रत्य०)] हज्जामों की वह पेटी जिसमें वे हजामत बनाने के औजार रखते हैं। छुरहँड़ी। किसबत।

बिवास पु
संज्ञा पुं० [सं० विश्वास] दे० 'विश्वास'।

बिसवासिनि (१)
वि० स्त्री० [सं० विश्वासिन्] १. विश्वास करनेवाली। २. जिसपर विश्वास हो।

बिसवासिनि (२)
वि० स्त्री० [सं० अविश्वासिन्] १.जिसपर विश्वास न हो। २. विश्वासघातिनी। उ०—क्यों जियो कैसी करौ बहुरयो बिसु सी बिसनी बिसवासिनि फूली।—केशव ग्रं०, भा० १, पृ० ६६।

बिसवासी (१)
वि० [सं० विश्वासिन्] १. जो विश्वास करे। २. जिसपर विश्वास हो। जिसका एतबार हो।

बिसवासी (२)
वि० [सं० अविश्वासिन्] १. जिसपर विश्वास न न किया जा सके। बेएतबार। विश्वासघाती। २. जिसका कुछ ठीक न हो कि कब क्या करे करावेगा। जैसे,—बिस- वासी पेट के कारण परदेश में पड़े हैं (बोलचाल)।

बिससना पु (१)
क्रि० स० [सं० विश्वसन] विश्वास करना। एतबार करना। भरोसा करना। उ०—न ये बिससिए अति नए दुरजन दुसह स्वभाव। आटै परि प्रानन हरत काँटे लौं लगि पाव।—बिहारी (शब्द०)।

बिससना (२)
क्रि० स० [सं० विशसन] १. वध करना। मारना। घात करना। उ०—पुनि तुरग को बिससि तहँ कौसल्या कर दीन। कियो होम करि घ्राण वप दसरथ नृपति प्रवीन।—रघुराज (शब्द०)। २. शरीर काटना। चीरना फाड़ना।

बिसह पु
संज्ञा पुं० [सं० वृपभ] बैल। उ०—रहट बिसह एह मृढ़ मन, दिएँ अधौटा नैन। कहा जो हाँक्यो जनम भरि चलेहु न एको कैन।—चित्रा०, पृ० १७५।

बिसहना पु (१)
क्रि० स० [हिं० बिसाह] १. मोल लेना। खरीदना। दाम देकर कोई वस्तु लेना। क्रय करना। २. जान बूझकर अपने साथ लगाना। उ०—जो पै हरि जन के ओगुण गहते। तौ सुरपति कुरुराज बालि सों कत हठ बैर बिसहते।—तुलसी (शब्द०)।

बिसहना † (२)
संज्ञा पुं० [बिसाह] [स्त्री० बिसहनी] सौदा। बिसाहना।

बिसहर पु
संज्ञा पुं० [सं० विपधर, प्रा० बिसहर] सर्प। उ०— (क) ए अप्पन गनिएँ नहीं, बैरी बिसहर घाव।—पृ० रा०, ७। ६४। (ख) बिसहर सी लट सों लपटि, मो मन हठि लपटात। कियो। आपनो पाइहै तू तिय कहा सकात।—मुबारक (शब्द०)।

बिसहरू †
संज्ञा पुं० [हिं० बिसहना + रू (प्रत्य०)] मोल लेनेवाला। खरीददार।

बिसहिनी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।

बिसाँयँध (१)
वि० [सं० वसा (= मज्जा, चरबी) + गंध] सड़ी मछली सी गंधवाला। जिससे सड़ी मछली की सी गंध आती हो।

बिसाँयँध (२)
संज्ञा स्त्री० मछली की सी गंध। सड़े मांस की सी गंध। उ०—जो अन्हवाय भरे अरगजा। तोहु बिसाँयँध ओहि नहिं तजा।—जायसी (शब्द०)। मुहा०—बिसाँयँध आना = सड़ी मछली सी दुगंध आना।

बिसा †
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'बिस्वा'। उ०—बोस बिसे व्रत भंग भयो सु कहो अब केशव को धनु ताने।— केशव (शब्द०)।

बिसाईँध
वि० संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'बिसाँयँध'।

बिसाइत †
संज्ञा स्त्री० [अ० बिसाती] बिसातबाना। फुटकर। ज०— किसी पर सस्ती बिसाइत की चीजें हैं तो किसी पर बासी साग और भाजी और चुचके फल रखे हैं।—त्याग०, पृ० ६२।

बिसाख पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विशाखा] दे० 'विशाखा'।

बिसात
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. हैसियत। समाई। वित्त। धन।संपत्ति का विस्तार। औकात। जैसे,—मेरी बिसात नहीं है कि मैं यह मकान मोल लूँ। २. जमा। पूँजी। उ०—(क) मन धन हती बिसात जो सो तोहिं दियो बताय। बाकी बाकी बिरह की प्रीतम भरी न जाथ।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) हे रघुनाथ कहा कहिए पिय की तिय पूरन पुन्य बिसात सी।—रघुनाथ (शब्द०)। २. सामर्थ्य। हकीकत। स्थिति। गणना। उ०—(क) मोदिनि मेरु अजादि सुर सो इक दिन नसि जात। गजश्रुति सम नर आयु चर ताकी कौन बिसात।—विश्राम (शब्द०)। (ख) स्त्री की बिसात है कितनी, बड़े बड़े योगियों के ध्यान इस बरसात में छूट जाते हैं।—हरिश्चंद्र (शब्द०)। (ग) समय की अनादि अनंत्त धारा के प्रवाह में १९ वर्ष के जीवन की बिसात ही क्या।— बालकृष्ण (शब्द०)। ४. शतरंज या चौपड़ आदि खेलने का कपड़ा या बिछोना जिसपर खाने बने होते हैं। उ०— हित बिसात धर मन नरद, चलि कै देइ न दाव। यासों प्रीतम की रजा बाजू खेलत चाव।—रसनिधि (शब्द०)। ५. दरी। फर्श पर बिछाई जानेवाजी कोई वस्तु। बिछावन।

बिसाती
संज्ञा पुं० [अ०] १. बिस्तर बिछाकर उसपर सौदा रखकर बेचनेवाला। २. छोटी चीजों का दुकानदार। सुई, तागा, लैप, रंग, चूडी, गोली तथा खिलौने इत्यादि छोटी छोटी वस्तुओं का बेचनेवाला। उ०—बढ़ई संगतरास बिसाती। सिकलीगर कहार की पाँती।—जायसी (शब्द०)।

बिसान पु
संज्ञा पुं० [सं० विषाण] विषाण। सींग। उ०— (क) बरु जामहि सस सोस बिसाना।—मानस,। (ख) तुम्हरे सीस बिसान कोऊ ना संग तुम्हारी।—पलटू०, भा० पृ० २४।

बिसाना (१)
क्रि० अ० [सं० वश] वश चलना। बल चलना। काबू चलना। उ०—(क) जो सिर परे आय सो सहै। कछु न बिसाय काह सों कहै—जायसी (शब्द०)। (ख) जानि बूझि के परै आपसे भाड़ में। तासे काह बिसाय खुसी जो मार में।—पलटू० बानी, पृ० १००।

बिसाना † (२)
क्रि० अ० [सं० विप हिं० बिस + ना (प्रत्य०)] विष का प्रभाव करना। जहर का असर का असर करना। जहरीला होना। जैसे, कुत्ते, का काटा, बिसाता है।

बिसाना † (३)
क्रि० अ० [सं० √ विश (वेशन = उपवेशन)] बैठना ठहरना। लदना। उ०—करे हाकिमी गोरा जाय। खर्चा भारत सीस बिसाय।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० १८६।

बिसामण पु
संज्ञा पुं० [सं० विश्रमण] भय। शंका। संशय। रुकावट। उ०—आगम मो पै जान्यूँ न जाइ। इहै बिसामण जियरे माँहि।—दादू० बानी, पृ० ६६४।

बिसायँध पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विष + गन्ध] १. दुगंध। बदबू। २. माँस की दुगंध। गोशत की बदबू। उ०—मोटि माँसु रुचि भोजन तासू। औ मृख आय बिसायँध बासू।—जायसी (शब्द०)।

बिसारद पु
संज्ञा पुं० [सं० विशारद] दे० 'विशारद'।

बिसारना
क्रि० स० [हिं० बिसरना] भुला देना। स्मरण न रखना। ध्यान में न रखना। विस्मृत करना। उ०—(क) धीर सिखापन आपनहू को बिसूरि बिसूरि बिसारत हो बन्यौ। धीर (शब्द०)। (ख) देश कोश की सुरति बिसारी।— तुलसी (शब्द०)। (ग) पाथर महुँ नहि पतँग बिसारा। जहँ तहँ सँवर दिन्ह तुइँ चारा।—जायसी (शब्द०)। संयो० क्रि०—देना।

बिसारा
वि० [सं० विपालु] [वि० स्त्री० बिसारी] विष भरा। विषाक्त। विषैला। उ०—नैन बिसारे बान सों चली बटाउइ मारि। बचन सुधारस सींचि कै वाहि जीव दै नारि।—मति० ग्रं०, पृ० ४४६।

बिपास पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०/?/विश्वास] विश्वासघात। उ०— प्रीतम अनेरे मेरे घूमत घनेरे प्रान बिष भोए बिषम बिसास बान हत है।—घनानंद०, पृ० ६२।

बिसास (२)
संज्ञा पुं० [सं० विश्वास] दे० 'विश्वास'।उ०—तुम्हरे नावँ बिसास छाँडि है आन की आस संसार धरम मेरो मन धीजै।—रे०, बानी०, पृ० ९।

बिसासिन, बिसासिनि
संज्ञा स्त्री० [सं० अविश्वासिनी] (स्त्री) जिसपर विश्वास न किया जा सके। विश्वासघातिनी। दगाबाज (स्त्री)। उ०—(क) लाजहू को न डेराति अबूझ बिसासिनि के छल को पछिताति है।—(शब्द०)। (ख) राखि गई घर सूने बिसासिनि सासु जँजाल ते मोहि न छोरयो।—(शब्द०)।

बिसासी पु
वि० [सं० अविश्वासी] [स्त्री० बिसासिन] जिसपर विश्वास न किया जा सके। विश्वासघाती। दगाबाज। धोखे- बाज। छली। कपटी। उ०—(क) कबहूँ वा बिसासी सुजान के आँगन मो अँसुवानि हूँ लै बरसो।—घनानंद०, पृ० १०८। (ख) सेखर घैर करै सिगरे पुरवासी बिसासी भए दुखदात हैं।—सेखर (शब्द०)। (ग) जापै हों पठाई ता बिसासी पै गई न दीसै, संकर को चाही चंदकला तें लहाई री।—दूलह (शब्द०)। (घ) गोकुल के चख में चक चावगो, चोर लौं चौंके अयान बिसासी।—गोकुल (शब्द०)।

बिसाह
संज्ञा पुं० [सं० व्यवसाय] मोल लेने का काम। खरीद। क्रय।

बिसाहना (१)
क्रि० स० [हिं० बिसाह + ना (प्रत्य०)] १. खरीदना मोल लेना। क्रय करना। दाम देकर लेना। उ०—(क) जाहिर जहान में जमानो एक भाँति भयो बेचिए बिबुध धेनु, रासभी बिसाहिए।—तुलसी (शब्द०)। (ख) हौं बनिजार तो बनिज बिसाहौ। भर व्योपार लेहु जो चाही।—जायसी (शब्द०)। (ग) हाटों में रखी हुई बेचने बिसाहने की वस्तुएँ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०)। २. जान बूझकर अपने पीछे लगाना। अपने साथ करना। जैसे, रार बिसाहना, बैर बीसाहना। उ०—निदान पहले तो हैदरअली के बेटे टीपू सुलतान का सिर खुजलाया कि इन अँग्रेजों से बैर बिसाहा।—शिवप्रसाद (शब्द०)।

बिसाहना (२)
संज्ञा पुं० १. मोल लेने की वस्तु। काम की चीजें जिसे खरीदें। सौदा। उ०—सबही लीन्ह बिसाहन और घर कीन्ह बहोर।—जायसी (शब्द०)। २. मोल लेने की क्रिया। खरीद। उ०—(क) पूरा किया बिसाहना बहुरी न आवै हट्ट।—कबीर (शब्द०)। (ख) इहाँ बिसाहन करि चली आगे बिषमी बाट।—कबीर (शब्द०)।

बिसाहनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिसाहना] सौदा। जो वस्तु मोल ली जाय। उ०—(क) जो कहुँ प्रीति बिसाहनी करतौ मन नहिं जाय। काहे को कर माँगती बिरह जगातो आय।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) कोई करै बिसाहनी काहू के न बिकाय। कोऊ चालै लाभ सों कोऊ मूर गवाँय।—जायसी (शब्द०)।

बिसाहा
संज्ञा पुं० [हिं० बिसाहना] सौदा। खरीदी हई वस्तु। जो वस्तु मोल ली जाय। बिसाहन। बिसाहनी। उ०—(क) सिंघलदीप जाय सब चाहा मोल न पाउव जहाँ बिसाहा।—जायसी (शब्द०)। (ख) जिन्ह यहि हाट न लीन्ह बिसाहा। लाकहुँ आन हाट किन लाहा।—जायसी (शब्द०)।

बिसिख पु
संज्ञा पुं० [सं० विशिख] दे० 'विशिख'। उ०—हरिहि हेरि ही हरि गयौ बिसिख लगे झषकेत। थहरि सयन तें हेत करि, डहरि रहरि के खेत।—स० सप्तक, पृ० २६१।

बिसिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० विसिनी] कमलसमूह वा कमल। उ०— ज्यों निशि बिसिनी जल में रहै। बसै कलानिधि नभ सो वहै।—राम० धर्म०, पृ० ३४३। यौ०—बिसिनीपत्र = कमल का पत्ता।

बिसियर पु (१)
वि० [सं० विषधर] विषैला। विषयुक्त। उ०— कनक बरन छबि मैन नैन बिसिपर बिनु सायक।—हनुमान (शब्द०)।

बिसियर (२)
संज्ञा पुं० सर्प। विषधर।

बिसिल
वि० [सं०] विस से संबद्ध। कमल संबंधी [को०]।

बिसी
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चमड़ा। वह चर्म जो हिमालय के द्बादश ग्राम में द्बारा तैयार किया गया हो [को०]।

बिसीष पु
वि० [सं० विशिष्ट या विशेष] असाधारण। दे० 'विशिष्ट'।उ०—अंदर नट्ट बुलाइ कै पुच्छिय बिगति बिसीष।—पृ० रा०, २५। २५।

बिसुकरमा, बिसुकर्मा पु
संज्ञा पुं० [सं० विश्वकर्मन्] दे० 'विश्व- कर्मा'।

बिसुनना
क्रि० अ० [हिं० सुरकना, सुनकना] कोई वस्तु खाते। समय उसका कुछ अंश नाक की ओर चढ़ जाना।

बिसुनी
संज्ञा स्त्री० [सं० विष्णु ?] अमरबेल।—अनेकार्थ (शब्द०)।

बिसुरना (१)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'बिसूरना'।

बिसुरना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० विसूरण] चिंता। बिसूरना।

बिसुवा †
संज्ञा पुं० [हिं० बिस्वा] दे० 'बिस्वा'।

बिसूरना (१)
क्रि० अ० [सं० विसूरण (= शोक)] सोच करना। चिंता करना। खेद करना। मन में दुःख मानना। उ०—(क) जानि कठिन शिव चाप बिसूरति। चली राखि उर स्यामल मूरति।—तुलसी (शब्द०)। (ख) जनु करुना बहु बेष बिसूरति।—तुलसी (शब्द०)।

बिसूरना (१)
संज्ञा स्त्री० चिंता। फिक्र। सोच। उ०—लालची लबार बिललात द्वार द्वार, दीन बदन मलीन मन मिटै ना बिसूरना।—तुलसी (शब्द०)।

बिसूलना पु
क्रि० स० [सं० वि + हिं० सूरना, सूलना, हूलना] पीड़ित करना। कष्ट देना। व्यथा पहुँचाना। उ०—फूल बिसूलैं देहि री ही हूलै अलि अंध। तन मन रंध करैं पवन सीतल मंद सुगंध।—सं० सप्तक, पृ० २३०।

बिसेख पु
वि० [सं० विशेष] दे० 'विशेष'। उ०—(क) बिसेखि न देखलि ए निरमलि रमनी। सुरपुर सञों चलि आइल गजग- मनी।—विद्यापति, पृ० २०। (ख) दूति दयावति कहहि बिसेखि।—विद्यापति, पृ० ५०।

बिसेखता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विशेषता] दे० 'विशेषता'।

बिसेखना पु
क्रि० अ० [सं० विशेष] १. विशेष प्रकार से वर्णन करना। विशेष रूप से कहना। ब्योरेवार वर्णन करना। विवृत करना। उ०—नैन नाहिं पै सब कुछ देखा। कवन भाँति अस जाय बिसेखा।—जायसी (शब्द०)। २. निर्णय करना। निश्चित करना। उ०—पंडित गुनि सामुद्रिक देखा। देखि रूप औ लगन बिसेखा।—जायसी (शब्द०)। ३. विशेष रूप से होना या प्रतीत होना।उ०—(क) सुरिज किरन जनु गगन बिसेखी। जमुना माँझ सरस्वति देखी।—जायसी (शब्द०)।

बिसेन
संज्ञा पुं० [?] क्षत्रियों की एक शाखा जिसका राज्य किसी समय वर्तमान गोरखपर के आस पास के प्रदेश से लेकर नैपाल तक था।

बिसेस पु
वि० [सं० विशेष] दे० 'विशेष'।

बिसेसर पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० विश्वेश्वर] दे० 'विश्वेश्वर'। उ०— बसैं विंदुसमाधव बिसेसरादि देव सबै।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।

बिसेसिक पु
संज्ञा पुं० [सं० वैशेषिक] दे० 'वैशेषिक'। उ०— कथन पातंजल जोग कहयौ, सो बिसेसिक सार समय जो बतायौ।—घट०, पृ० १३०।

बिसधा †
वि० [हिं० बिसायँध] १. जिसमें दुगंध आती हो। बदबूदार। २. माँस मछली आदि की गंधवाला। उ०—तजि नागेसर फूल सुहावा। कवँल बिसैंधहि सौ मन लावा।—जायसी (शब्द०)।

बिसोक
वि० [सं० बि + शोक] शोकरहित। गतशोक। वीतशोक। उ०—राम नाम जपु तुलसी होइ बिसोक।—तुलसी ग्रं०, पृ० २३।

बिस्कुट
संज्ञा पुं० [अं०] खमीरी आटे की तंदूर पर पकी हुई एक प्रकार की टिकिया। विशेष—यह बहुत हलकी और सुपाच्य होती है और दूध में डालनेसे फूल जाती है। बिस्कुट नमकीन और मीठा दोनों प्रकार का होता है। इसे योरप के लोग बहुत खाते हैं। अब भारत में भी इसका विशेष प्रचार हो गया है।

बिस्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'विस्त' [को०]।

बिस्तर
संज्ञा पुं० [सं० विस्तर, फा़०] १. बिछौना। बिछावन। वह मोटा कपड़ा जिसे फैलाकर उसपर सोएँ। शयनासन। २. विस्तार। बढ़ाव। उ०—(क) जोति एकै कियौ बिस्तर, तहाँ जहाँ समाइ।—जग० बानी, पृ० २। (ख) बहुत काल लगि दोउ युध कीन्हो। बिस्तर भीति न मे कहि दीन्हो।—रघुराज (शब्द०)।

बिस्तरना (१)
क्रि० अ० [सं० विस्तरणा] फैलना। इधर उधर बढ़ना।

बिस्तरना (२)
क्रि० स० १. फैलाना। बढ़ाना। अधिक करना। उ०—दुःख मूल गनि पाप, पाप कहँ कुमति प्रकासी। मोह कुमति बिस्तरै क्रोध मोहै उल्लासै।—मतिराम (शब्द०)। २. विस्तार से कहना। बढ़ाकर वर्णन करना। उ०—गर्भ परीक्षित रक्षा करी। सोइ कथा सकल बिस्तरी।—सूर (शब्द०)।

बिस्तरा
संज्ञा पुं० [फा़० बिस्तर] दे० 'बिस्तर'।

बिस्तार पु
संज्ञा पुं० [सं० बिस्तर] बिस्तार। फैलाव। उ०— रूप तिलक, कच कुटिल किरनि छबि कुंडल कुल बिस्तार।—सूर०, १०।१७९६।

बिस्तारना
क्रि० स० [सं० विस्तारण] विस्तृत करना। फैलाना। उ०—तब आपन प्रभाव बिस्तारा। निज बस कीन्ह सकल संसारा।—तुलसी (शब्द०)।

बिस्तुइया †
संज्ञा स्त्री० [सं० विषतूलिका या हिं० विष + तूना (= टपकना, चूना)] छिपकली। गृहगोधा।

बिस्थार
संज्ञा पुं० [सं० विस्तार] दे० 'विस्तार'। उ०—(क) बहुत बिस्थार कहियतु है एको।—प्राण०, पृ० २३। (ख) एक स ते कीना बिस्थारु। नामक एक अनेक बिचारु।—प्राण०, पृ० ६९।

बिस्थीरु पु
वि० [सं० विस्थिर ?] अस्थिर। चंचल। उ०— नानक लखिय न जाय बहुत बिस्थीरु।—प्राण०, पृ० १६०।

बिस्मै
संज्ञा पुं० [सं० विस्मय] दे० 'विस्मय'। उ०—माधौनल कियौ रागु, सुनि धुनि हौं बिस्मै भई।—हिंदी प्रेमगाथा०, पृ० १८९।

बिस्त्राम
संज्ञा पुं० [सं० विश्राम] दे० 'विश्राम'।

बिस्व
संज्ञा पुं० [सं० विश्व] दे० 'बिस्वा'। उ०—गिरिधर दास बिस्व कीरति बिलासी रमा, हासी लौं उजासी जाकी जगत हुलासी है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८१।

बिस्वा (१)
संज्ञा स्त्री० [?] सोंठ।—अनेकार्थ०, पृ० १०४।

बिस्वा † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वेश्या] रंडी। वेश्या। उ०—बिस्वा किए सिंगार है बैठी बीच बजार।—पलटू० बानी, भा० १, पृ० १८।

बिस्वा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बीसवाँ] एक बीघे का बीसवाँ भाग। मुहा०—बीस बिस्वा = निश्चय। निस्संदेह। उ०—देखे बिना दोष दे सीसा। नरक परै सो बिस्वे बीसा।—रघुनाथदास (शब्द०)।

बिस्वादार
संज्ञा पुं० [हिं० बिस्वा + फा़० दार] १. हिस्सेदार। पट्टीदार। २. किसी बड़े राजा या ताल्लुकेदार के अधीन जमींदार।

बिस्वास
संज्ञा पुं० [सं० विश्वास] दे० 'विश्वास'।

बिहंग
संज्ञा पुं० [सं० विहङ्ग] दे० 'विहंग'।

बिहंडना
क्रि० स० [सं० विघटन वा सं० विखण्डन, प्रा० विहंडण] १. खंड खंड कर डालना। तोड़ना। २. काटना। ३. नष्ट कर देना। मार डालना। उ०—(क) परम तत आधारी मेरे, शिव नगरी घर मेरा। कालहिं षंडूँ मीच बिहडूँ, बहुरि न करिहूँ फेरा।—कबीर ग्रं०, पृ० १५४। (ख) तू अध के अध ओघन खंडै। अधिक अनेकन बिघन बिहंडै।—लाल (शब्द०)।

बिहंडा पु
वि० [सं० विभण्ड, या विखण्डन, प्रा० विहंड, बिहंडण] [स्त्री० बिहडी] भंड आचरण करता हुआ। भ्रष्टाचार युक्त। उ०—तू तो रंडी फिरै बिहडी, सब धन डारे खोय रे।—कबीर श०, भा०, पृ० ३५।

बिहँसना
क्रि० अ० [सं० विहसन] मुस्कराना। मंद मंद हँसना। जाहु बेगि संकट अति भ्राता। लछिमन बिहँसि कहा सुनु माता।—तुलसी (शब्द०)।

बिहँसाना
क्रि० अ० १. दे० 'बिहँसना'। उ०—ततखन एक सखी बिहँसानी। कौतुक एक न देखहु रानी।—जायसी (शब्द०)। २. प्रफुल्लित होना। खिलना (फूल का)।

बिहँसाना (२)
क्रि० स० हँसाना। हर्षित करना।

बिह (१)
संज्ञा पुं० [सं० विधि, प्रा० बिहि] ब्रह्मा। उ०—सुघटित बिह बिघटारे।—विद्यापति, पृ० ५९।

बिह (२)
वि० [फा़०] भला। अच्छा [को०]।

बिहँसौहाँ
वि० [हिं० √ बिहँस + औंहा (प्रत्य०)] १. विहँसन- शील। हँसता हुआ। २. खिला हुआ। विकसित। उ०— भौहैं करि सूधी बिहँसौंहै कै कपोल नैक सौहैं करि लोचन रसौंहैं नंदलाल सौं।—मति० ग्रं०, पृ० ३१२।

बिहग
संज्ञा पुं० [सं० विहग] दे० 'विहग'। उ०—सुकृती साधु नाम गुन गाना। ते बिचित्र जल बिहग सभाना।—मानस, १।३७।

बिहडना पु
क्रि० अ० [प्रा० विहडण, हिं० बिहँडना] खंडित होना। टूटना। उ०—दादू संगी सोई कीजिए, कबहूँ पलट न जाइ। आदि अंति बिहडै नहीं, ता सन यहूँ मन लाइ।—दादू०, पृ० ४६३।

बिहतर
वि० [फा़०] बहुत अच्छा।

बिहतरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] भलाई। कुशल।

बिहतार †
संज्ञा पुं० [सं० विस्तार] दे० 'विस्तार'।

बिहद, बिहद
वि० [फा़० बेहद] असीम। परिमाण से बहुत अधिक। उ०—(क) भूषण भनत नाद बिहद नगारन के, नदी नद मद गैबरन के रलत हैं।—भूषण (शब्द०)। (ख) देव नद्दी कैसी कित्ति दिपति बिसद्दी जासु युगलेश साहिथी बिहददी मनो देवराज।—युगलेश (शब्द०)। (ग) कहै मतिराम बलविक्रम बिहद्द सुनि गरजनि परै दिगवारन बिपति मैं।—मति० ग्रं०, पृ० ३८६।

बिहफे †
संज्ञा पुं० [सं० वृहस्पति] दे० 'वृहस्पति'। उ०—बिहफे गुरु दीरघ गुरु, सबके गुरु गोविंद।—नंद० ग्रं०, पृ० ७४।

बिहबल पु
वि० [सं०] १. व्याकुल। उ०—यादोपति यदुनाथ खगपति साथ जन जान्यो बिहबल तब छाँड़ि दियो थल में।—सूर (शब्द०)। २.शिथिल। उ०—ह्वै गई बिहबल अंग पृथु फिरि सजे सकल सिंगार जू।—केशव (शब्द०)।

बिहरना (१)
क्रि० अ० [सं० विहरण] घूमना फिरना। सैर करना। भ्रमण करना। उ०—जिन बीथिन बिहरै सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।—तुलसी (शब्द०)।

बिहरना पु † (२)
क्रि० स० [सं० विघटन, प्रा० विहडन] १. फटना। दरकना। विदीर्ण होना। उ०—तासु दूत ह्वै हम कुल बोरा। ऐसेहु उर बिहरु न तोरा।—तुलसी (शब्द०)। २. टुकड़े टुकड़े होकर टूटना। फूटकर बिखर जाना। उ०—हृदय बड़ दारुन रे पिया बिनु बिरहि न जाए।—विद्यापति, पृ० १५।

बिहराना पु †
क्रि० अ० [हिं० बिहरना] फटना। उ०—(क) केरा के से पात बिहराने फन सेस के।—भूषण (शब्द०)। (ख) पुष्ट भए अंडा बिहराना। कछु दिन गत भी चक्षु सुजाना।—कबीर सा०, पृ० २२४।

बिहरी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० व्यौहार] चंदा। बरार। भेजा।

बिहवल
वि० [सं० विह्वल] दे० 'बिहबल'। उ०—तब तुम सर अभ्यास लख्यो बिहबल ह्वै नाहीं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १०९।

बिहसनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिहँसना] बिहँसने का भाव या कार्य। उ०—बाढ़ चली बिहसनि मनो सोभा सहज बिलास।—मति० ग्रं०, पृ० ३१५।

बिहसाना
क्रि० स० [सं० विहसन, हिं० बिहँसना] विकसित करना। उ०—अष्ट कँवल दल पाँखुरी उनको बिहसावो।—धरनी० श०, पृ० ३१।

बिहसिन पु
वि० स्त्री० [सं० विहसन] हँसनेवाली। हँसोड़। उ०—बिहसिन आई नीर कों बीर तरनिजा तीर। बीर गिरी तिहि हेरि री पहिराई बलबीर।—स० सप्तक, पृ० २३०।

बिहस्त पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० बिहिश्त] दे० 'बिहिश्त'। उ०— (क) दल दोय दिख्त बीर। पहुँचे बिहस्त गहीर।—ह० रासो, पृ० १४२। (ख) चढ़ि विमाँन दोऊ तहाँ पहुँचे जाय बिहस्त।—ह० रासो, पृ० १४२।

बिहाग
संज्ञा पुं० [सं० विभाग (= वियोग)] एक राग जो आधी रात के बाद लगभग २ बजे के गाया जाता है। यह राग हिंडोल राग का पुत्र माना जाता है।

बिहागड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० बिहाग + ड़ा (प्रत्य०)] संपूर्ण जाति का एक राग जिसमें सब शुद्ध स्वर लगते हैं। विशेष—इसके गाने का समय रात को १६ दंड से २० दंड तक है। कोई इसे हिंडोल राग की रागिनी कहते हैं और कोई इसे सरस्वती, केदार और मारवा के योग से उत्पन्न मानते हैं।

बिहाड़ पु
संज्ञा पुं० [सं० विभात, प्रा० विहाड] दे० 'बिहान'। उ०—मारू सनमुख तेड़ियाँ, दियण स्वदेसा कज्ज। कहउ कदे थे चालिस्यउ, कोई बिहाड़इ अज्ज।—ढोला०, दू० १०७।

बिहाण पु
संज्ञा पुं० [सं० विभात; प्रा० बिहाण या सं० विभानु ?] दे० 'बिहान'।

बिहान (१)
संज्ञा पुं० [सं० विभात, प्रा० बिहाड, बिहाण] सबेरा। प्रातःकाल। उ०—लसत सेत सारी ढकयो तरल तरयोना कान। परयो मनो सुरसरि सलिल रबि प्रतिबिंब बिहान।—बिहारी (शब्द०)।

बिहान (२)
क्रि० वि० आनेवाले दूसरे दिन। कल्ह। कल। उ०—सकल यथाक्रम खबरि बखाने। राम होहिं युवराज बिहाने।—रघुराज (शब्द०)।

बिहाना (१)
क्रि० स० [सं० वि + हा (= छोड़ना)] छोड़ना। त्यागना। उ०—सुनु खगेस हरि भगति बिहाई। जे सुख चाहहिं आन उपाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सहज सनेह स्वामि सेवकाई। स्वारथ छल फल चारि बिहाई।—तुलसी (शब्द०)।

बिहाना (२)
क्रि० अ० व्यतीत होना। गुजरना। बीतना। उ०— (क) चेतना है तो चेत ले निस दिन में प्रानी। छिन छिन अवधि बिहात है, फूटै घट ज्यों पानी।—संतबानी० भा० २, पृ० ४७। (ख) बड़ी बिरह की रैनि यह क्योहूँ कै न बिहाय।—रसनिधि (शब्द०)। (ग) निमिष बिहात कल्प सम तेही।—तुलसी (शब्द०)।

बिहायसी
संज्ञा पुं० [सं० विहायस्] आकाश। आसमान।—नंद० ग्रं०, पृ० ९७।

बिहारक
वि० [सं० विहारक] बिहार करनेवाला। उ०—व्यास विरंचि सुरेस महेसहु के हिय अंबर बीच बिहारक।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० २००।

बिहार
संज्ञा पुं० [सं० विहार] १. दे० 'विहार'। २. भारत का एक राज्य।

बिहारना
क्रि० अ० [सं० बिहरण] बिहार करना। केलि वा क्रीड़ा करना। उ०—(क) सुर नर नाग नव कन्यन के प्राण- पति पति देवतानहू कै हियन बिहारे हैं।—केशव (शब्द०)। (ख) पदुम सहस्त्र बरत तुम धारौ। विष्णु लोक में जाय बिहारी।—रघनाथदास (शब्द०)।

बिहारी (१)
वि० [सं० विहारिन्] [स्त्री० विहारिणी] बिहार करनेवाला। उ०—एक इहाँ दुख देखत केशव होत उहाँ सुरलोक बिहारी।—केशव (शब्द०)।

बिहारी (२)
संज्ञा पुं० श्रीकृष्ण का एक नाम।

बिहाल
वि० [फा़० बेहाल] व्याकुल। बेचैन। उ०—ताके भय रघुबीर कृपाल। सकल भुवन मैं फिरयो बिहाला।—तुलसी (शब्द०)।

बिहाली पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० बेहाली] उ०—नौवाँ कोठ गौड मन माली। दुरमति करै बिहाली।—घट०, पृ० ४५।

बिहास पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यास] दे० 'व्यास'। उ०—पारासर जो पुत्त बिहासह। सतवंती ग्रभ्भं गुरु भासह।—पृ० रा०, १।८७।

बिहि पु
संज्ञा पुं० [सं० विधि, प्रा० विहि] दे० 'विधि'।

बिहित
वि० [सं० विहित] दे० 'विहित'। उ०—ललित बरनि अस बिहित कहि, सकल हाव दस जान।—मति० ग्रं०, पृ० ३४४।

बिहित पु
संज्ञा पुं० [फा़० बिहिश्त] दे० 'बिहिश्त'।

बिहिश्त
संज्ञा स्त्री० [फा़० बिहिश्त] स्वर्ग। वैकुंठ।उ०—सिजदे से गर बिहिश्त मिले दूर कीजिए।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४८०। २. स्वर्गतुल्य स्थान। आनंदपूर्ण जगह।

बिहिश्ती
वि० [फा़०] १. स्वर्गीय। स्वर्ग का। स्वर्ग संबंधी। २. पु मशक से पानी का छिड़काव करनेवाला।

बिहिस्त
संज्ञा स्त्री० [फा़० बहिश्त] दे० 'बिहिश्त'। उ०—किसने बिहिस्त बैकुठ बनाया।—कबीर सा०, पृ० १५१३।

बिही
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. एक पेड़ जिसके फल अमरूद से मिलते जुलते होते हैं। यह पेशावर और काबुल की ओर होता है। २. उक्त पेड़ का फल जो मेवों में गिना जाता है। ३. अमरूद। उ०—वहाँ संभर प्रदेश के राजमाली ने आपके साथ के संतों को बिही के फल लेने से रोक दिया।—भक्तमाल (श्री०), पृ० ४३७। २. नेकी। भलाई ।

बिहीदाना
संज्ञा पुं० [फा़०] बिही नामक फल का बीद जो दवा के काम मे आता है। इन बीजों को भिगो देने से लुआब निकलता है जो शर्बत की तरह पिया जाता है।

बिहीन
वि० [हिं० बिहीन] रहित। बिना। उ०—बारि बिहीन मीन ज्यों व्याकुल ब्रजनारि सबै।—सूर (शब्द०)।

बिहून
वि० [हिं० बिहीन] बिना। रहित। उ०—(क) निज संगी निज सम करत दुरजन मन दुख दून। मलयाचल है संत जब तुलसी दोष बिहून।—तुलसी (शब्द०) (ख) ढोल बाजता ना सुनै सुरति बिहूना कान।—कबीर (शब्द०)।

बिहोरना
क्रि० अ० [हिं० विहरना (= फूटना)] बिछुड़ना। उ०—सीता के बिहोरे रती राम में न बल, दूजे लछिमन मेघनाद ते क्यों जीति है।—हनुमान (शब्द०)।

बिहोस †
वि० [फा़० बेहोश] दे० 'बेहोश'। उ०—पड़ा बिहोस होस कर बेंदे, विषय लहर में माता है।—कबीर श०, पृ० ५।

बींझ
वि० [सं० विद्ध, प्रा० विज्झ] गुथा हुआ। सधन।

बींड़ (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बींड़ा'।

बींड़ा (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बीड़ा'।

बींड़ा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० बींड़ी + आ (प्रत्य०)] पेड़ की पतली टहनियों से बुनकर बनाया हुआ मेंडरे के आकार का लंबा नाल जो कच्चे कुएँ या चोड में इसलिये दिया जाता है कि उसका भगाड़ न गिरे। बींड। २. धान की पयाल को बुन और लपेटकर बनाया हुआ गोल आसन जिसपर गाँव के लोग आग के किनारे बैठकर तापते हैं। विशेष—पहले पयाल को बुनकर उसका लंबा फीता बनाते हैं। फिर उस फीते कोवतुं लाकार लपेटकर ऊपर से रस्सी से कसकर बाँध देते हैं। यह गोल होता है और बैठने के काम आता है। ३. घास आदि को लपेटकर बनाई हुई गेंडुरी जिसपर घड़े रखे जाते हैं। ४. वह गेंडुरी जिसे सिर पर रखकर घड़े, टोकरे आदि का भार उठाते हैं। ५. बड़ी बींड़ी। लुंडा। ६. जलाने की लकड़ी या बाँस आदि का बाँधकर बनाया हुआ बोझ। ७. पिंडी। पिंड।

बींड़िया †
संज्ञा पुं० [हिं० बींड़ी] वह बैल जो तीन बैलों की गाड़ी में सबसे आगे रहता है और जिसके गले के नीचे बींड़ी रहती है। जूँड़िया।

बींड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० वेणी] १. वह मोटी और कपड़े आदि में लपेटी हुई रस्सी जो उस बैल के आगे के सामने छाती पर रहती है जो तीन बैलों की गाड़ी में सबसे आगे रहता है। २. रस्सी या सूत की वह पिंडी जो लकड़ी या किसी और चीज के ऊपर लपेटकर बनाई जाय। ३. वह लकड़ी जिसपर सूत आदि को लपेटकर बींड़ी बनाई जाती है। ४. वह गेंडुरी जिसे सिर पर रखकर घड़ा, टोकरा या और कोई बोझ उठाते हैं। ५. केंसुला।

बींद † (१)
संज्ञा पुं० [सं० विन्दु] दे० 'विंदु'। उ०—डटे सींध षीसे बींद, कांचा गुरु जे गम्य न देही।—रामानंद०, पृ० ३४।

बींद (२)
संज्ञा पुं० [देशज्ञ अथवा सं० √ विदु>विन्द =दूढ़ँना, चुनना, वरण करना] [स्त्री० बींदणी] वर। दूल्हा। उ०— (क) लै चलै बींद ननकरि बिलँब दिन तुच्छै साहौ सु पुनि।—पृ० रा०, २५।१९०। (ख) सब जग सूना नींद भरि, संत न आवै नींद। काल खड़ा सिर ऊपरै ज्यों तोरणि आया बोंद।—कबीर ग्रं०, पृ० ४६।

बींदना †
क्रि० अ० [सं० विदु, प्रा० विंद + हिं० ना (प्रत्य०)] अनुमान करना। अंदाज से जानना। उ०—झुकि झुकि झप- कोंहै पलनु फिरि फिरि जुरि जमुहाइ। बींदि पियागम नींद मिसि दीं सब अली उठाइ।—बिहारी (शब्द०)।

बींधना पु (१)
क्रि० अ० [सं० विद्ध] १. बीधना। २. फँसना। उलझना। उ०—(क) अंतर्यामी यहो न जानत जो मों उरहि बिती। ज्यों कुजुवरि रस बोंधि हारि गथु सीचतुपटकि चिती।—सूर (शब्द०)। (ख) भूल्यो भौह भाल में चुभ्यो कै टेढ़ी चाल में, छक्यो कै छविजाल में कै बींध्यो बनमाल में।—पद्माकर (शब्द०)।

बींधना (२)
क्रि० स० विदुध करना। छेदना। बेधना। जैसे, कान बींधना।

बींधना ‡ (३)
संज्ञा पुं० [सं० वेधन] विदुध करने या छेदने का औजार। उ०—लानि देबे तैं भइया बसुला वो बींधना, हेरि देबे ओकर तन के खोझा।—शुक्ल अभि० ग्रं०—पृ० १४२।

बींभर †
वि० [सं० विह्वल, प्रा० विंभर] विह्वल। उ०—निस बीती त्रय जांम, गजर बज्जी घड़ियाले। कर आदर परजंक जग्यौ बींभर तिँह काले।—रा० रू०, पृ० १५३।

बी (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० 'बीबी' का संक्षिप्त रूप] दे० 'बीबी'। उ०— असुवन भीजी बी जी छीजी और पसीजी मीजी पीजी सो पतीजी राग रंग रौन रितई।—(शब्द०)।

बी (२)
अव्य० [स० अपि, प्रा० अवि] दे० 'भी'। उ०—(क) जिव का बी ओ जिवाला रूपों में रूप आला।—दक्खिनी०, पृ० ११०। (ख) सो उपज सी ताँ वाल बी ताँ दरी लीताँ दूर।—रघु० रू००, पृ० १४५।

बीआ †
संज्ञा पुं० [सं० बीज, प्रा० बीय, बीअ] बीज। बीया।

बीकट पु †
वि० [सं० वि+ कृष्ट, प्रा० विअट्ठ] दूरस्थित। दूर। उ०—है हरि निकट बीकट नाँहि।जो दीपक जोति धरे घट माँही।—संत० दरिया, पृ० ६२।

बीकना पु
क्रि० अ० [सं० विक्रयण] दे० 'बिकना'। उ०—जीव अछित,जोबन गया, कछू न किया नीका। यहु हीरा निरमो- लिक, कौड़ी पर बीका।—कबीर ग्रं०, पृ० १४८।

बीका †
वि० [सं० वक्र] टेढ़ा। उ०—तुम अपने नाश को देखा चाहती हो। तुम्हारा बाल तक बीका न होगा। परंतु तुम अपना जीवन चाहती हो तो मौन रहो।—अयोध्यासिंह (शब्द०)।

बीख † (१)
संज्ञा पुं० [सं० बीखा (= गति)] पद। कदम। डग। उ०—(क) जरा आप जोरा किया नेत्रन दीनी पीठ। आँखों ऊपर आँगुरी बीख भरे पचि नीठ।—कबीर (शब्द०)। (ख) हरिया संगी राम है का सतगुरु की सीख। जिन पैंड दुनियाँ चलै भरूँ न काई बीख।—राम० धर्म०, पृ० ६६।

बीख (२)
संज्ञा पुं० [सं० विष] दे० 'विष'।

बीग †
संज्ञा पुं० [सं० वृक] [स्त्री० बीगिन] भेड़िया। उ०—चींटी के पग हस्ती बाँधे छेरी बीगहि खायो। उदधि माँहि ते निकसि माँछरी चोड़े गेह करायो।—कबीर (शब्द०)।

बागना ‡
क्रि० स० [सं० विकिरण] १. छाँटना। छितराना। २. गिरना। फेकना।

बोगहाटी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिगहार, बीधा + टी (प्रत्य०)] वह लगान जो बीधे के हिसाब से लिया जाय।

बीघा †
संज्ञा पुं० [सं० विग्रह, प्रा० बिग्गह] खेत नापने का एक वर्गमान जो बीस बिस्वे का होता है। उ०—अब भए सौतिन के हाथ के रे घर बीघा सौ कीन्ह।—मलूक० बानी, पृ० १३। विशेष—एक जरीब लंबी और एक जरीब चौड़ी भूमि क्षेत्रफल में एक बीघा होती है। भिन्न भिन्न प्रांतों में भिन्न भिन्न मान की जरीब का प्रचार है। अतः प्रांतिक बीघे का मान जिसे देही वा देहाती बीघा कहते हैं, सब जगह समान नहीं है। पक्का बीधा जिसे सरकारी बीघा भी कहते हैं, ३०२५ वर्गगज का होता है जो एक एकड़ का पाँचवाँ भाग होता है, अब सब जगह प्रायः इसी बीघे का प्रयोग होता है।

बीच † (१)
संज्ञा पुं० [सं० विच (= अलग करना)] १. किसी परिधि, सीमा या मर्यादा का केंद्र अथवा उस केंद्र के आस पास का कोई स्थान जहाँ से चारों ओर की सीमा प्रायः समान अंतर पर हो। किसी पदार्थ का मध्य भाग। मध्य। उ०— (क) मन को यारों पटकि टूक टूक हो जाय। टूटे पाछे फिर जुरे बीच गाँठि परि जाय। (ख) जनमपत्रिका वतिकैं देखहु मनहि विचार। दारुन बैरी मीचु के बीच बिराजत नारि।—तुलसी (शब्द०)। मुहा०—बीच खेत = (१) खुले मैदान। सबके सामने। प्रकट रूप में। २. अवश्य। जरूर। उ०—आजाद जरूर छूट आएँगे। वह टिकनेवाले आदमी नहीं है। बीच खेत आएँगे।—फिसाना०, भा० ३, पृ० २११। बीच बाजार = दे० 'बीच खेत'। उ०— बिस्वा किए सिँगार है बैठी बीच बजार।—पलटू०, बानी, भा० १, पृ० १८। बीच बीच में = (१) रह रह कर। थोड़ी थोड़ी देर में। (२) थोड़ी थोड़ी दूरी पर। ३. भेद। अंतर। फरक। उ०—(क) बंदौं संत असज्जन चरना। दुखप्रद उभय बीच कछु बरना।—तुलसी (शब्द०)। (ख) धन्य हो धन्य हो तुम घोष नारी।—मोहि धोखो गयो दरस तुमको भयो तुमहि मोहिं देखो री बीच भारी।— सूर (शब्द०)। मुहा०—बीच करना = (१) लड़नेवालों को लड़ने से रोकने के लिये अलग अलग करना। उ०—ललित भृकृटि तिलक भाल चिबुक अधर, द्विज रसाल, हास चारुतर कपोल नासिका सुहाई। मधुकर जुग पंकज बिच मुख बिलोक नीरज पर लरत मधुप अबलि मानों बीच किए आई।—तुलसी (शब्द०)। (२) झगड़ा निबटाना। झगड़ा मिटाना। उ०— (क) चोरी के फल तुमहिं दिखाऊँ। बीच करन जो आवै कोऊ ताकौ सौंह दिवाऊँ। सूर श्याम चोरन के राजा बहुरि कहा मैं पाऊँ।—सूर (शब्द०)। (ख) रहा कोई घरहरियाँ करे जो दोउ महँ बीच।—जायसी (शब्द०)। बीच पड़ना = (१) परिवर्तन होना। और का और होना। बदल जाना। उ०—कोटि जतन कोऊ करे परे न प्रकृतिहि बीच। नल बल जल ऊँचे चढ़ै अंत नीच को नीच।—बिहारी (शब्द०)।(२) झगड़ा निपटाने के लिये पंच बनना। मध्यस्य होना। बीच पारना वा डालना = (१) परिवर्तन करना। (२) विभेद वा पार्थक्य करना। उ०—(क) विधि न सकेउ सहि मोर दुलारा। नीच बीच जननी मिस पारा।—तुलसी (शब्द०)। (ख) गिरि सों गिरि आनि मिलावती फेरि उपाय कै बीचहि पारती है।—प्रताप (शब्द०)। बीच में पड़ना = (१) मध्यस्थ होना। (२) जिम्मेदार बनना। प्रतिभू बनना। बीच रखना = भेद करना। दुराव रखना। पराया समझना। उ०—कीन्ह प्रीति कछु बीच न राखा। लछिमन राम चरित सब भाषा।—तुलसी (शब्द०)। बीच में कूदना = अना- वश्यक हस्तक्षेप करना। ध्यर्थ टाँग अड़ाना। (किसी को) बीच देना या बीच में देना = (१) मध्यस्थ बनाना। (२) साक्षी बनाना। (ईश्वर आदि को) बीच में रखकर कहना = (ईश्वर आदी की) शपथ खाना। कसम खाना। विशेष—इस अर्थ में कभी कभी जिसकी कसम खानी होती है; उसका नाम लेकर और उसके साथ केवल 'बीच' शब्द लगाकर भी बोलते हैं। जैसे,—ईश्वर बीच, हम कुछ नहीं जानते। उ०—तोहि अलि कीन्ह आप भा केवा। हौं पठवा गुरु बीच परेवा।—जायसी (शब्द०)। यौ०—बीचबचाव, बीचबिचाव = बिचवई। मध्यस्थता। ३. दो वस्तुओं वा खंडों के बीच का अंतर। अवकाश। उ०— अवनि जमहि जाँचई कैकेई। महि न बीच बिधि मीचु न देई।—तुलसी (शब्द०)। ४. अवसर। मौका। अवकाश।

बीच (२)
क्रि० वि० दरमियान। अंदर। में। उ०—जानी न ऐसी चढ़ा चढ़ी में किहिधौं कटि बीच ही लूटि लई सी।—पद्माकर (शब्द०)।

बीच (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वीचि] लहर। तरंग। दे० 'बीचि'। उ०—राम सीअ जस ललित सुधा सम। उपमा बीच बिलास मनोरम।—मानस १।३७।

बीचलना
क्रि० अ० [सं० बिचलन] दे० 'बिचलना'। उ०— कायर कादर बीचलै, मिला न सबद अमोल।—संतबानी०, भा० १, पृ० १२४।

बीचार पु
संज्ञा पुं० [सं० विचार] दे० 'विचार'। उ०—कहैं कबीर बीचार बिन दूनियाँ, काल के संग सदा नींद सोवै।—कबीर० रे०, पृ० २४।

बीचि
संज्ञा स्त्री० [सं० वीचि] लहर। तरंग। उ०—बीचिन के सोर सौं जनावत पुकार कै।—मतिराम (शब्द०)।

बीचु पु् †
संज्ञा पुं० [हिं० बीच] १. अवसर। मौका। २. अंतर। फरक। उ०—चतुर गँभीर राम महतारी। बीचु पाइ निज बाँत सँवारी।—तुलसी (शब्द०)।

बीचोबीच
क्रि० वि० [हिं० बीच] बिल्कुल बीच में। ठीक मध्य मेँ। उ०—श्री कृष्णचंद भी अर्जुन को साथ ले वहाँ गए और जा के बीचोबीच स्वयंवर के खड़े हुए।—लल्लू० (शब्द०)।

बीछण †
संज्ञा स्त्री० [सं०वृश्चिक] दे० 'बिच्छी'। उ०—तन धारे बीछण तणी, जग चुगलाँ री जीह।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५१।

बीछना पु (१)
क्रि० स० [सं० विचय वा विचयन या सं० वीक्षण] १. चुनना। पसंद करके अलग करना। उ०—सानुज सानंद हिए छाँटना। आगे ह्वै जनक लिए रचना रुचिर सब सादर दिखइ कै। दिए दिव्य आसन सुवास सावकास अति आछे आछे बीछे बीछे बिछीना बिछाइ कै।—तुलसी (शब्द०)।

बीछना पु (२)
क्रि० स० [सं बीक्षण] देखना। भली भाँति देखना। एक एक को अलग अलग देखना। उ०—बाहिर भीतर भीतर बाहीर ज्यौं कोउ जानै त्यों ही करि ईछो। जैसो ही आपुनो भाव है सुंदर तैसो हि है दृग खोलि कै बोछो।—सुंदर० ग्र०, भा० २, पृ० ५७७।

बीछी पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० वृश्चिक] बिच्छू। उ०—ग्रह गृहीत पुनि बात बस तेहि पुनि बीछी मार। ताहि पिपाई बारुनी कहहु जीबन उपचार।—तुलसी (शब्द०)। कि० प्र०—मारना। मुहा०—बीछी चढ़ना= बिच्छू के डंक का विष चढ़ना। उ०— नगर ब्यापि गइ बात सुतीछी। छुवत चढ़ी जनु सब तन बीछी।—तुलसी (शब्द०)।

बीछुटना, बीछड़ना पु †
कि० स० [हिं०] दे० बिछुड़ना। उ०—(क) नाँ वहु मरै न बीछुटै नाँ दुख व्यापै कोइ।— द दू०, पृ० ४६३। (ख) पान बेल से बीछुडे़ परदेशा रस देत।— दरिया० बानी, पृ० २।

बीछू पु †
संज्ञा पुं० [सं० वृश्चिक] १. दे० 'बिच्छू'। उ०—सीत असह बिष चित चढै़ सुख न मढै़ परिजंक। बिनु मोहन अगहन हनै बीछू कैसो डंक।—शृंगार सत० (शब्द०)। २. दे० बिछुआ (हतियार)। उ०—बीछू के घाय गिरे अफजल्लहि ऊपर ही सिवराज निहारयो।—भूषण। (शब्द०)।

बीज
संज्ञा पुं० [सं०] १. फूलवाले वृक्षों का गर्भांड जिससे वृक्ष अकुरित होकर उत्पन्न होता हे। बीया। तुख्म। दाना। विशेष—वह गर्भांड एक छिलके मे बंद रहता है ओर इसमें अव्यक्त रूप से भावी वृक्ष का भ्रूण रहता हे। जब इस गर्भांड को उपयुक्त जलवायु ओर स्थान मिलता हे तब वह भ्रूण जिसमे अंकुर अव्यक्त रहता है, प्रबुदध होकर बढ़ता ओर अंकुर रूप में परिणत हो जाता है। यही अंकुर समय पांकर बढ़ता है ओर बढ़कर वैसा ही पेड़ हो जाता है जैसे पेड़ के गर्भांड से वह स्वयं निकला था। कि० प्र०—उगना —डालना।—बोना २. प्रधान कारण। मूल प्रकृति। ३. जड। मूल। ४. हेतु। कारण। ५. शुक्र। वीर्य। ६. वह अव्यक्त सांकेतिक वर्ण-समुदाय वा शब्द जिसको कोई व्यक्ति जो उसके सांकेतिक भावों को न जानता हो, नहीं समझ सकता। ७. गणित का एक भेद जिसमें अव्यक्त संख्या के सूचक संकेतों का व्यवहार होता है। दे०—'बीजगणित'। ८. अव्यक्त संख्यासूचक सकेत। ९. वह अव्यक्त ध्वनि वा शब्द जिसमें तंत्रानुसार किसी देवता को प्रसन्न करने की शक्ति मानी गई हो। विशेष—भिन्न भिन्न देवताओं का भिन्न भिन्न बीजमंत्र होता है। १०. मंत्र का प्रधान भाग या अंग। विशेष—तंत्रानुसार मंत्र के तीन प्रधान अंग होता हैं—बीज, शक्ति और कीलक। ११. वह भावपूर्ण सांकेतिक अव्यक्त शब्द जिसमें बहुत से भाव सूक्ष्म रूप से सन्निवेशित हों और जिसका तात्पर्य दूसरे लोग, जिन्हे सांकेतिक अर्थो का ज्ञान न हो, न जान सकें। ऐसे शब्दों का प्रयोग रासायनिक तथा इसी प्रकार के ओर कार्यो के लिये किया जाता है। १२. मज्जा (को०)। १३. नाटक में प्रारंभ में मूल कथा की ओर संकेत। उ०—यह रूपक राजा सूरजदेव की रानी नीलदेवी का अपने पति के प्राण के बदले में उक्त पतिप्राणहारक शत्रु का बध कर डालने के बीज पर लिया गया है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४२८।

बीज (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० बिद्युत्] दे० 'बिजली'। उ०—छुटयौ पट्ट पीतंबरं कट्टि छुट्टी। मनों स्याम आकास ते बीज तुट्टी।— पृ० रा०, १। १३४। (ख) अजहुँ शशी मुँह बीज दिखावा। चौंध परयो कछु कहै न आवा।—जायसी (शब्द०)।

बीजक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूची। फिहरिस्त। २. वह सूची जिसमें माल का ब्योरा, दर और मूल्य आदि लिखा हो। यह सूची बेचनेवाला माल के साथ खरीदनेवाले के पास भेजता है। ३. वह सूची जो किसी गडे़ हुए धन की, उसके साथ रहती है। ४. असना का वृक्ष। ५. बिजौरा नीबू। ६. बीज। ७. वे फल जिसमें बीज अधिक हों, जैसे, अंजीर (को०)।८. जनम के समय बच्चे की वह अवस्था जब उसका सिर दोनों भुजाओं के बीच में होकर योनि के द्वार पर आ जाय। ९. कबीरदास के पदों के तीन संग्रहों में से एक।

बीजकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० बीजकर्तृ] शिव का एक नाम [को०]।

बीजकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] बाजीकरण।

बीजकोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुष्प का वह अंश जहाँ बीज रहता है। २. कमल के बीच का वह छत्ता जिसमें कमल के बीज या कमलगट्टा रहता है [को०]।

बीजक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] बीजगणित के नियमानुसार गणित के किसी प्रश्न की क्रिया।

बीजखाद
संज्ञा पुं० [सं० बीज + हिं० खाद] वह रकम जो जमीदारों या महाजनों की ओर से किसानों को बीज और खाद आदि के लिये पोशगी दी जाती है।

बीजगणित
संज्ञा पुं० [सं०] गणित का वह भेद जिसमें अक्षरों को संख्याओं का द्योतक मानकर कुछ सांकेतिक चिह्नों और निश्चित युक्तियों के द्वारा गणना की जाती है और विशेषतः निश्चित संख्याएँ आदि जानी जाती है।

बीजगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] परवल।

बीजगुप्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेम।२. फली। ३. भूसी।

बीजत्व
संज्ञा पुं० [सं०] बीज का भाव। बीजपन।

बीजदर्शक
संज्ञा पुं० [सं०] नाटको में अभिनय का परिदर्शक। वह व्यक्ति जो नाटक के अभिनय की व्यवस्था करता हो।

बीजद्रव्य
संज्ञा पुं० [सं०] मूल द्रव्य या तत्व [को०]।

बीजधान्य
संज्ञा पुं० [सं०] धनियाँ।

बीजन पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यजन ] बेना। पंखा। उ०—खासे रस बीजन सुखाने पोन खाने खुले, खस के खजाने खसखाने खूब खस खास।—पद्माकर (शब्द०)। †२. बिजन। भोजन। व्यंजन।

बीजना पु (१)
संज्ञा पुं० [सं०व्यजन] दे० 'बीजत'। उ०—सोहत चंद चिराग बीजना करत दसौं दिस।—ब्रज० ग्र०, पृ० १२१।

बीजना (२)
क्रि० स० [सं० व्यजन] १. पंखा डुलना। उ०—केइ कोमल पद लै रींजत। केई लै कुसुम बीजना बीजत।—नंद० ग्रं० पृ० २७७। †२. रात्रि का भोजन करना। व्यालू करना।

बीजनिर्वापण
संज्ञा पुं० [सं०] बीज बोना [को०]।

बीजपादप
संज्ञा पुं० [सं०] मिलावाँ।

बीजपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरुआ। २. मदन वृक्ष।

बीजपूर, बीजपूरक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बिजौरा नीबू। २. चकोतरा।

बीजपेशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंडकोष।

बीजप्ररोह, बीजप्ररोही
वि० [सं० बीजप्ररोहिन्] बीजोत्पन्न। बीज से पैदा होनेवाला [को०]।

बीजफलक
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नीबू।

बीजबंद
संज्ञा पुं० [हिं० बीज + बाँधना] खिरैंटी के बीज। बरियारे के बीज। बला।

बीजमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० बीजमन्त्र] १. किसी देवता के उद्देश्य से निश्चित किया हुआ मूलमंत्र। २. किसी काम को करने का असली ढंग। मूलमत्र। गुर।

बीजमातृका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कमलगट्टा।

बीजमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वाममार्ग का एक भेद।

बीजमार्गी
संज्ञा पुं० [सं० बीजमार्गिन्] बीजमार्ग पंथ के अनुयायी।

बीजरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] उड़द की दाल।

बीजरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'बिजली'।

बीजरुह
संज्ञा पुं० [सं०] धान्य। अन्न [को०]।

बीजरेचन
संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटा।

बीजल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसमें बीज हो।

बीजल (२)
वि० बीजवाला। बीजयुक्त।

बीजल (३)
संज्ञा स्त्री० [डिं०] तलवार।

बीजल पु (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत्० प्रा० बिज्जल] दे० 'बिजली' उ०—(क) बीजल ज्यों चमके बाढाली काइर कादरि भाजै।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८८५। (ख) हैजम हुजाब सिर उच्छटो बीजलि कै अंबर अरी।—पृ० रा०, १२। १४८।

बीजवपन
संज्ञा पुं० [सं०] बीज बोना। २. खेत [को०]।

बीजवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

बीजवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] असना का पेड़।

बीजसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।

बीजहरा, बीजहारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक डाकिनी का नाम।

बीजांकुर
संज्ञा पुं० [सं० बीजाड्कुर] आँखुआ। अकुर [को०]।

बीजांकुरन्याय
संज्ञा पुं० [सं० बीजाड्कुर न्याय] एक न्याय जिसका व्यवहार दो संबद्ध वस्तुओं के नित्य प्रवाह का दृष्टांत देने के लिये होता है। बीज से अंकुर होता है ओर अंकुर से बीज होता है। इन दोनों का प्रवाह अनादि काल से चला आता है। दो वस्तुओं में इसी प्रकार का प्रवाह या संबंध दिखलाने के लिये इसका उपयोग होता है।

बीजा (१)
वि० [सं० द्वितीय, पा० द्वितियो, प्रा० दुओ, बिइज्ज, अप० व्ज्जिय, पु० हिं० दूज्जा] [वि० स्त्री० बीजी] दूसरा। अन्य। उ०—ए मन के गुण गुंथत जे पहिचानता जानकी और न बीजो।—हनुमान (शब्द०)।

बीजा (२)
संज्ञा पुं० [सं० बजिक, प्रा० बीजय, वीजअ] १. दे० 'बीज'। २. बीजक। असना का वृक्ष। बिजैसार वृक्ष जिसकी लकड़ी मजबूत होती है।—शुक्ल अभि० ग्रं० (विविध), पृ० १४।

बीजाकृत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह खेत जो बीज बोने के बाद जोता गया हो। २. बोया हुआ खेत। वह खेत जिसमें बीजवपन हुआ हो [को०]।

बीजाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] किसी बीजमंत्र का पहला अक्षर।

बीजाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] जमालगोटा।

बीजाढय
वि० [सं०] बीजयुक्त। बीज से पूरित [को०]।

बीजाध्यज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] शिव।

बीजापहारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'बीजहरा' [को०]।

बीजार्थ
वि० [सं०] संतति की कामनावाला। संतान का इच्छुक [को०]।

बीजाश्व
संज्ञा पुं० [सं०] सज्जित अश्व [को०]।

बीजित
वि० [सं०] जिसमें बीज बोया जा चुका हो। बोया हुआ।

बीजी (१)
वि० [सं० बीजिन्] १. बीजवाला। २. बीज संबंधी। जिसका संबंध बीज से हो।

बीजी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बीज + ई (प्रत्य०)] १. गिरी। मीगी। २. गुठली।

बीजी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० बीजिन्] १. पिता। बीज से उत्पत्ति करनेवाला बाप। क्षेत्री का उलटा। २. सूर्य (को०)।

बीजू ‡ (४)
संज्ञा स्त्री० [सं० बीज] दे० 'चाबी'। उ०— जिस विषम कोठड़ी जंदे मारे। बिनु बीजी क्यों खूलाहिं ताले।—प्राण०, पृ० ३२।

बीजु
संज्ञा स्त्री० [सं० विद्युत, प्रा० विज्जु] बिजली। उ०— हरिमुख देखिए बसुदेव।...श्वान सूने पहरुवा सब नींद उपजी गेह। निशि अँधेरी बीजु चमकै सघन बरषै महे।—सूर (शब्द०)।

बीजुपात
संज्ञा पु० [सं० विद्युत्पात, प्रा० विज्जुपात] दे० 'वज्रपात'।

बीजुरी
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'बिजली'।

बीजू (१)
वि० [हिं० बीज + ऊ (प्रत्य०)] बीज से उत्पन्न। जो बीज बोने से उत्पन्न हुआ हो। कलमी का भिन्न। जैसे, बीजू आम।

बीजू (२)
संज्ञा पुं० [सं० विद्यृत्] दे० ' बिज्जु'।

बीजोदक
संज्ञा पुं० [सं०] ओला।

बीज्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो अछे कुल मे उत्पन्न हुआ हो। कुलीन।

बीझ पु
वि० [सं० विलन] दे० 'बीझा'। उ०—परेउ अब वनखंड माहाँ। दंडकारण्य बीझ बन जाहाँ।—जायसी (शब्द०)।

बीझना पु †
क्रि० अ० [सं० बिद्ध, प्रा० बिउझ] लिप्त होना। फँसना। उ०—(क) डोलैं बन बन जोर यौवन के याचकन राग वश कीन्हें बन बासी बीझि रहे हैं।—देव (शब्द०)। (ख) झींझि झींझि झुकि कै बिरुझि बीझि मेरे बैरी एरी रीझ रीझि तैं रिझाए रिझवार री।—देव (शब्द०)।

बीझा पु †
वि० [सं० विजन] १. जहाँ मनुष्य न हों। निर्जन। एकांत। २. सघन। घना (जंगल)।

बीट
संज्ञा स्त्री० [सं० विट्] १. पक्षियों की विष्ठा। चिड़ियों का गुह। २. गुह। मल। (व्यंग्य)। ३. दे० 'विठ्लवण'।

बीटी
संज्ञा स्त्री० [देश०] आभूषण विशेष। उ०—भूजबंध पहुँचि बीटी हथफूल है जु खासा।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५८।

बीठल
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'विट्ठल'।

बीड़ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बीड़ा] एक के ऊपर एक रखे हुए रुपए जो साधारणतः गुल्ली का आकार धारण कर लेते हैं।

बीड़ (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'बींड़', 'बींड़ा'।

बीड़ (३)
वि० [सं० वृत या विद्ध] सधन। घना। उ०—महा बीड़ बन आयो तहाँ। रोवन लग्यो बोझिया तहाँ।—अर्ध०, पृ० ३९।

बीड़ा
संज्ञा पुं० [सं० वीटक] १. सादी गिलौरी जो पान में चूना, कत्था, सुपारी आदि डालकर और लपेठकर बनाऊ जाती है। खीली। मुहा०—बीड़ा उठाना = (१) कोई काम करने का संकल्प करना। किसी काम के करने के लिये हामी भरना। पण बाँधना। उ०—कबिरा निंदक मर गया अब क्या कहिएजाइ। ऐसा कोई ना मिले बीड़ा लेइ उठाइ।—कबीर (शब्द०)। (२) उद्यत होना। मुस्तैद होना। उ०—कहे कंस मन लाय भलो भयो मंत्री दयो। लीने मल्ल बुलाय आदर कर बीरा लयो।—लल्लू (शब्द०)। बीड़ा डालना वा रखना = किसी कठिन काम के करने के लिये सभा में लोगों के सामने पान की गिलौरी रखकर यह कहना कि जिसमें यह काम करने की योगता हो या साहस हो वह इसे उठा ले। जो पुरुष उसे उठा ले, उसी को उसके करने का भार दिया जाता है। (यह प्रायः प्राचीन काल के दरबारों की रस्म थी जो अब उठ सी गई है)। बीढ़ा या बीरा देना = (१) कोई काम करने की आज्ञा देना। काम का भार देना। सोंपना। दे० 'बीड़ा डालना'। उ०—कंस नृपति ने शकट बुलाए लेकर बीरा दीन्हों। आय नदगृह द्वार नगर में रूप प्रगठ निज कीन्हों।—सूर (शब्द०)। (२) नाचने, गाने, बजाने आदि का व्यवसाय करनेवालों को किसी उत्सव में सम्मिलित होकर अपना काम करने के लिये नियत करना। नाचने, गानेवालों आदि को साई देना। बयाना देना। २. वह डोरी जो तलवार की म्यान में मुँह के पास बँधी रहती है। विशेष—म्यान में तलवार डालकर यह डोरी तलवार के दस्ते की खूँटी में बाँध दी जाती है जिससे वह म्यान से निकल नहीं सकती।

बीड़िया
वि० [हिं० बीडा + इया (प्रत्य०)] १. बीड़ा उठानेवाला। अगुवा। नेता। २. दे० 'बींड़िया'।

बीड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बीड़ा] १. दे० 'बीड़ा'। २. गड्डी। दे० 'बीड़'। २. मिस्सी जिसे स्त्रियाँ दाँत रँगने के लिये मुँह में मलती हैं। ४. पत्ते में लपेटा हुआ सुरती का चूर जिसे लोग विशेषतः भारतीय सिगरेट या चुरुट आदि के समान सुलगाकर पीते हैं।

बीड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०बीढ़ा] एक प्रकार की नाव।

बीतक
संज्ञा पु० [सं० वृत्र] बीती हुई घटना। समाचार। वृत्त। उ०—ता पछ हिंदू तुरक सबै बीतक ज्यें बित्यो।—पृ० रा०,२१। २११।

बीतना
क्रि० अ० [सं० व्यतीत या वीत (जैसे,वीतराग)] १. समय का विगत होना। वक्त कटना। गुजराना। उ०— (क) चोरासी लक्षहु जीव झूलैं धरोंह रविसुत धाय। कोटिन कलप युग बीतिया मानै ना अजहुँ हाय।—कबीर (शब्द०)। (ख) जनम गयो वादहि चिर बीति। परमारथ पालन न करेउ कछु अनुदिन अधिक अनीत।—तुलसी (सब्द०)। (ग) कछु दिन पत्र मक्ष करि बीते कछु दिन लीन्हों पानी। कछु दिन पवन कुयो अनुप्रासन रोक्यो श्वास यह जानी।—सूर (शब्द०)। २. दूर होना। जाता रहना। छुट जाना। निवृत्त होना। ऊ०—(क) सब बिधि सानुकूल लखि सीता। भा निसोच उर अपडर बीता। तुलसी—(शब्द०)। (ख) मुनि बाल्मीकि कृपा सतो ऋषि राममंत्र फल पायो। उलटा नाम जपत अघ बीत्यो पुनि उपदेश करायो।—सूर (शब्द०)। २. सघटित होना। घटना। पड़ना। उ०—मन बच क्रम पल ओट न भावत छिन युग बरस सयाने। सूरश्याम के वश्य भप ये जेहि बीते लो जाने।—सूर (शब्द०)।

बीतरागी
[सं० वीतराग + हिं० ई (प्रत्य०)] दे० 'वीतराग'। उ०—सहज का ख्याल सोइ बीतरागी।—पलटू० बानी, भा० २, पू० ४०।

बीता †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'बित्ता'।

बीती
संज्ञा स्त्री० [सं० व्यतीत या व त] १. गुजरी हुई स्थति या बात। २. खबर। हाल।

बोथि
संज्ञा स्त्री० [सं० वीथि] दे० 'वीथी'।

वीथित पु †
वि० [सं० व्यथित] दुखित। पीड़ित। उ०—पातकी पपीहा जल पान को न प्यासो काहू बीथित वियोगिनि के प्रानन को प्यासो हैं।—पद्माकर (शब्द०)।

बीथी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विधि] दे० 'वीथी'। उ०—बीथीं सीचीं चतुरसम चोकै चारु पुराइ।—मानल, १। २९६।

बीध पु
संज्ञा स्त्री० [सं० विधि] दे० 'बिधि' (प्रकार)। उ०—बुध का कोट सबल नाहाँ टूटे। ताते मनसा कोस बीध लूटे।—रामानंद०, पृ० ३२।

बीधना † (१)
क्रि० अ० [सं० विद्ध] फँसना। उलझना। उ०— (क) धरती बरसे बादल भीजे भीट भया पोराऊ। हंस उड़ाने ताल सुखाने चहले बीघा पाऊ।—कबीर (शब्द०)। (ख) नैना बाघे दोऊ मेरे। श्याम सुदंर के दरस परस में इत उत फिरत न फेरे।—सूर (शब्द०)। (ग) कोन भाँति रहिहै बिरद अब देखबी मुरारि। बीधे मोसों आय के गीधे गीधहि तारि।—बिहारी (शब्द०)।

बीधना (२)
क्रि० स० दे० 'बींधना'।

बीधा
संज्ञा पुं० [सं० विधान] यह तय करना की इस गाँव की इतनी मालगुजारी सरकारी होगी। मालगुजारी निश्चित करना।

बीन
संज्ञा स्त्री० [सं० वीण] एक प्रसिद्ध बाजा जो सितार की तरह का पर उससे बड़ा होता हे। विशेष—इसमें दोनों ओर बहुत बडे़ तूँबे होते हैं जो बीच के एक लबे डाँड़ से मिले होते हैं। इसमें एक सिरे से दूसरे सिरे तक साधारणतः ५ या ७ तार लगे होते हैं जिनमें प्रत्येक में आवश्यकतानुसार भिन्न भन्न प्रकार के स्वर निकाले जाते है। यह बाज बहुत उच्च कोटि का माना जाता है ओर प्रायः बहुत बडे़ बडे़ गवैयों के काम का होता है। दे० 'वीणा'। यों०—घीनकार=बीणा का जानकार। वीणावादक।

बीनती †
संज्ञा स्त्री० [सं० बिनती] विनय। दे० 'विनती'। उ०— जब देवतान ने एसी बीनती करी, तब आकासबानी भई।—पोद्दार अभि० ग्रं, पृ० ४९१।(ख) सूरदास की बीनती कोउ लै पहुँचावै।—सूर०, १। ४।

बीनना (१)
क्रि० स० [सं० विनयन] १. छोटी छोटी चीजों को उठाना। चुनना। उ०—(क) भोर फल बीनबे को गए फुलवाई हैं। सीसनि भे सचाई हैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नैन किलकिला मीत के ऐसे कहू प्रवीन। हिय समुद्र ते लेत हैं बीन तुरत मन मीन।—रसनिधि (शब्द०)। २. छाँटकर अलग करना। छाँटना। उ०—सुंदर नवीन निज करन सो बीन बीन बेला की कली ये आजु कौन छीन लीनी है।—प्रताप (शब्द०)। यौ०—बीनाचोंनी †=बिनने और चुनने का काम। बीनना चुनना। उ०—तब रेंडा श्रीगुसाई जी की आज्ञा मानि कै भंडार में बीनाचोंनी करि आवै।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ७४।

बीनना (२)
क्रि० स० [हि०] दे० 'बींधना'।

बीनना (३)
क्रि० स० [हि०] दे० 'बुनना'।

बीनवना पु
क्रि० स० [सं० विनवन] दे० 'बिनवना'। उ०— पय लग्गि प्रानपति बीनबों, नाह नेह मुझ चित धरहु। दिन दिन अबद्धि जुब्बन घटय कंत बसंत न गम करहु।—पृ० रा०, ६१। १०।

बीना
संज्ञा स्त्री० [सं० वीणा] दे० 'बीन' उ०—कहूँ सुंदरी बेनु बीना बजावें।—केशव (शब्द०)।

बीफै
संज्ञा पुं० [सं० बृहस्पति] बृहस्पतिनार। गुरुवार।

बीबा†
संज्ञा पुं० [देश०] मुसलमान। उ०—मरे गड़ै कबरा महीं, बीबा मंसबदार।—बाँकी० ग्र०, भा० २, पृ० ९८।

बीबादी पु
वि० [सं० विवादिन्] दे० 'विवादी'। उ०—बकवादी बीबादी निंदक, तेहिं का मुँह करु काला।—जग० श०, भा० २, पृ० १८।

बीबी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. कुलवधू। कुलीन स्त्री। २. पत्नी। स्त्री। उ०—चित्त अनचैन आँसू उमगत नैन देखि बीबी कहैं बैन मियाँ कहियत काहि नै।—(शब्द०)। ३. स्त्रियों के लिये आदरार्थक शब्द। ४. अविवाहिता लड़की। कन्या। (आगरा)।

बीबेक पु
संज्ञा पुं० [सं० विवेक] दे० 'विवेक'। उ०— दरिया जो कहें जब ज्ञान नहीं बीबेक बिना बहु भेख पसारी।—संत० दरिया, पृ० ६२।

बीबेरना
संज्ञा पु० [सिहाली] एक प्रकार का वृक्ष जो दक्षिण भारत के पश्चिमी घाटों में बहुत होता है। विशेष—इस वृक्ष की लकड़ी का रंग पीला होता हे और यह इमारत और नावें बनाने के काम में आती है। इसकी लकड़ी में जल्दी घुन या कीड़ा आदि नहीं लगता।

बीभंग
वि० [सं० विभङग] चंचल। चपल। उ०—नाचत चित्त त्रिभंग बंस बसीधर राजै। अति उतंग (माया) बीभंग। नाम लेपंत सुराजै।—पृ० रा०, २। ३४०।

वीभच्छ, वीभछ पु
संज्ञा पुं० [सं० वीभत्स, प्रा० बीभच्छ, अप० बीभछ] दे० 'बीभत्स' (रस)। उ०—(क) सगपन सुहास बीभच्छ रिन भय भयांन कमधज्ज दुति।—पृ० रा०, २५। ३८१। (ख) बीभछ अरिन समूह सांत उप्पनो मरन भय।—पृ० रा०,२५। ५०१।

बीभत्स (१)
वि० [सं०] १. जिसे देखकर घृणा हो। घृणित। २. क्रूर। ३. पापी।

बीभत्स (२)
सज्ञा पुं० १. काव्य के नौ रसों के अंतर्गत सातवाँ रस। विशोष— इसमें रक्त, मांस आदि ऐसी बातों का वर्णन होता है जिनसे अरुचि ओर घृणा तथा इद्रियों में संकोच उत्पन्न होता है। इसका वर्ण नील और देवता महाकाल माने गए है। जुगुप्सा इसका स्थायी भाव है, पीब, मेद, मज्जा, रक्त, मांस या उनकी दुर्गंधि आदि विभाग हैं, कप, रोमांच, आलस्य, संकोच आदि अनुभाव हैं और मोह, मरण, आवेग, व्याधि आदि व्यभिचारी भाव हैं। उ०—यथा पढ़त मत्र अरु यंत्र अत्र लीलत इमि जुग्गिनि। मनहुँ गिलत मद मत्त गरुड़ तिय अरुण उरुग्गिनि। हरबरात हरषात प्रथम परसत पल पंगत। जँह प्रताप जिति जंग रंग अंग अंग उमंगत। जहँ पद्माकर उपपत्ति अति रन रकतन नद्दिय बहत। चख चकित चित्त चरबीन चुभि चकचकाइ चंडी रहत।—पद्माकर। २. अर्जुन का नाम (को०)। ३. घृणोत्पादक वस्तु (को०)।

बीभत्सा
संज्ञा स्त्री० [सं०] घृणा। जुगुप्सा। अरुचि [को०]।

बीभत्सित
वि० [सं०] निंदित। घृणित।

बीभत्सु
संज्ञा पुं० [सं०] १. पांडुपुत्र अर्जुन। २. अर्जुन वृक्ष।

बीभल †
वि० [सं० विहवल] रसविह्वल। विह्वल। रसिक। उ०—आखडियाँ अणियालियाँ काजल रेख कियाहँ। बीभलियाँ भावंदियाँ, लाज सनेहु लियाँह।—बाँकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० ९३।

बीभो पु
संज्ञा पु० [सं० विभव] दे० 'विभव'। उ०—हरणकसीप वध कर अधपती देही। इंद्र को बीभी प्रहलाद न लेही।—दक्खिनी०, पृ० २८।

बीम (१)
संज्ञा पुं० [अं०] १. जहाज के पार्श्व मे लंबाई के बल में लगा हुआ बड़ा शहतीर। आड़ा। २. जहाज का मस्तूल। (लश०)।

बीम (२)
संज्ञा पुं० [फा०] भय। डर। खौफ [को०]।

बीमा
संज्ञा पुं० [फा० बीम (=भय)] किसी प्रकार की विशेषतः आर्थिक हानि पूरी करने की जिम्मेदारी जो कुछ निश्चित धन लेकर उसके बदले में की जाती है। कुछ धन लेकर इस बात की जमानत करना कि यादि अमुख कार्य में अमुक प्रकार की हानि होगी तो उसकी पूर्ति हम इतना धन देकर कर देंगे। विशेष—आजकाल बीमे की गणना एक प्रकार से व्यापार के अंतर्गत होती है ओर इसके लिये अनेक प्रकार की कंपनियाँस्थपित हैं। उसमें बीमा करनेवाला कुछ निश्चित नियमों के अनुसार समय समय पर या एक साथ ही कुछ निश्चित धन लेकर अपने ऊपर इस बात का जिम्मा लेता है कि यदि बिमा करनेवाले की अमुक कार्य या व्यापार आदि में अमुक प्रकार की हानि या दुर्घटना आदि होगी तो उसके बदले में हम बीमा करानेवाल को इतना धन देगे। आजकाल मकानों या गोदामों आदि के जलने का, समुद्र में जहजों के डूबने का, भेजे हुए माल को ठीक दशा मे नियत स्थान तक पहुँचने का या दुर्घटना आदि के कारण हाथ पेर टूटने या शरीर बेकाम हो जाने का बीमा होता है। एक प्रकार का बीमा ओर होता है जो जान बीमा या जीवन बीमा कहलाता हे। इसमे बीमा करानेवाले को प्रतिमास, प्रतिवर्ष, अथवा एक साथ ही कुछ निश्चित धन देना पड़ता हे और उसके किसी निश्चित अवस्था तक पहुँचने पर उसे बीमे की रकम मिल जाती हे; अथवा यदि उस निश्चित अवस्था तक पहुँचने से पहले ही उसकी मृत्यु हो जाय तो उसके परिवारवालो को वह रकम मिल जाती है। आजकल बालको के विवाह और पढ़ाई लिखाई के व्यय के संबंध में भी बीमा होने लगा है ओर वृद्धावस्था मे शरीर अशक्य हो जाने की दशा मे जीवननिर्वाह का भी। डाक द्वारा पत्र या माल आदि भेजने का भी डाकविभाग द्वारा बीमा होता है। यौ०—बीमा कराई=वह धन जो बीमा करानेवाला बीमा कराने के लिये बीमा करनेवाले को देता है। २. वह पत्र या पार्सल आदि जिसका इस प्रकार बीमा हुआ हो।

बीमार
वि० [फा०] [संज्ञा बीमारी] वह जिसे कोई बीमारी हुई हो। रागग्रस्त। रोगो। क्रि० प्र०—पड़ना।—होना।

बीमारदार
वि० [फा०] रोगी की सुश्रूषा करनेवाला। जो रोगियों की सेवा करे। तीमारदार।

बीमारदारी
संज्ञा स्त्री० [फा०] १. रोग। व्याधि। २. झंझट। ३. बुरी आदत (बोल०)।

बीय पु † (१)
संज्ञा पुं० [सं० बीज, प्रा० बीय] दे० 'बीज'। उ०—बीय सुबय लय मध्य ज्ञान अंकूर सजूरन।—पृ० रा०, १। ४।

बीय पु
वि० [सं० द्वितीय] दे० 'दो'। उ०—जोरि रची बिधिना निपुन, एक प्रान तनु बीय।—नंद० ग्रं०, पृ० ८६।

बीया पु (१)
वि० [सं० द्वितीय] दूसरा। उ०—(क) तुम जाइ कहहु नवाब सों जो साँचु राखत जीय में। तो एक बार मीली हमें नहिं बात कहमी बीय में।—सुजान०, पृ० १०। (ख) एक तूँ दोइ तूँ तीन तूँ चारि तूँ पच तूँ तत्व मैं जगत कीयो। नाम अरु रूप ह्वै बहुत बिधि विस्तरयो तुम बिना ओर कोऊ नाहि बीयौ।—सुदर० ग्रं० भा० २, पृ० ६४८। (ग) फिर बदनेस कुआर बीयो सु फली अली। बैठे इकलें जाइ करन मसलत भली।—सुदन (शब्द०)।

बीया (२)
संज्ञा पुं० [सं० बील, प्रा० बीय] बीज। दाना।

बीयास †
संज्ञा पुं० [सं० व्यास, प्रा० बीयास] कृष्ण द्वैपायन।

बीर
वि० [सं० वीर] दे० 'वीर'।

बीर (२)
संज्ञा पुं० [सं० बीर] भाई। भ्राता। उ०—(क) सबै ब्रज है यमुना के तीर। काली नाग के फन पर नितंत संकर्षण को बीर।—सूर (शब्द०)। (ख) चिरजीवी जोरी जुरे क्यों न सनेह गँभीर। को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के बीर।—बिहारी (शब्द०)। २. एक देवयोनि जिनकी संख्या ५२ कही जाती है। उ०—प्रसन चंद सम जतिय दिन्न इक मंत्र इष्ट जिय। इह आराधत भट्ट प्रगट पचास बीर बिय।—पृ० रा०, ६। २६।

बीर (३)
संज्ञा स्त्री० १. सखी। सहेली। उ०—(क) बार बुद्धि बालनि के साथ ही बढ़ी है बीर कुचनि के साथ ही सकुच उर आई है।—केशव (शब्द०)। (ख) यह जा यसोदा के पास बैठी ओर किशल पूछ अशीश दी कि बीर तेरा कान्ह जीवे कोठि बरस।—लल्लू (शब्द०)। २. एक आभूषण जिसे स्त्रियाँ कान में पहनती है। बिरिया। चाँद बोल। उ०—लसैं बीरैं चका सी चलैं श्रुति में भृकुटी जुवा रूप रही छबि छवै। (ख) अंग अंग अनंग झलकत सोहत कानन बीरै सोभा देत देखत ही बनै जोन्ह सी फूली।—हरिदास (शब्द०)। विशेष—यह गोल चक्राकार होता है ओर इसका ऊपरी भाग ढालुआँ ओर उठा हुआ होता है। इसके दूसरी ओर खूँटी होती है जो कान के छेद में डालकर पहनी जाती है। इसमें ढाई तीन अंगुल लंबी कँगनीदार पूँछ सी निकली रहती है जिसमें प्रायः स्त्रियाँ रेशम आदि का झब्बा लगवाती हैं। यह झब्बा पहनते समय सामने कान की ओर रहता है। ३. कलाई में पहनने का एक प्रकार का गहना। बेरवा। उ०— हाथ पहुँची बीर कंगन जरित मुँदरी भ्राजई।—सूर (शब्द०) ४. पशुओं को चराने का स्थान। चरागाह। चरी। ५. चरागाह में पशुओं को चराने का वह महसूल जो पशुओं की संख्या के अनुसार लिया जाता है।

बीरस †
संज्ञा पुं० [सं० वीरुत्] दे० 'बिरवा'।

बीरज पु
संज्ञा पुं० [सं० वीर्य] दे० 'वीर्य'।

बीरत पु †
संज्ञा पुं० [सं० वीरत्व, प्रा० बीरत] वीरता। पराक्रम। उ०—जाया रजपूतानियाँ, बीरत दीधी वेह।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ४।

बीरन (१)
संज्ञा पुं० [सं० वीर] भाई। उ०—बीरन आए लिवाइबे को तिन को मृदुवान हू मानि न लेत है।—पद्माकर (शब्द०)।

बीरन (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वीरण] १. खस का ऊपरी हिस्सा। दे०'गाडर'। २. जड़ी। बूटी। उ०—फनपति बीरन देख के, राखे फनहि सकोर।—कबीर० सा०, पृ० ८६४।

बीरनि
संज्ञा स्त्री० [देश०] कान में पहनाने का एक प्रकार का गहना। ढारों। तरना। बीरी।

बीरबधू पु
संज्ञा स्त्री० [सं० इन्द्रवधू] दे० 'बीरबहूटी'। उ०—छन परभा के छल रही चमकि मार करबार। बीरबधू के व्याज री दहकत आज अँगार।—स० सप्तक, पृ० २७२।

बीरबहूटी
संज्ञा स्त्री० [सं० विर + वधूटी] एक छोटा रेंगनेवाला कीड़ा। उ०—(क) कोकिल बैन पाँति बग छूटी। धन निसरी जनु बीरबहूटी।—जायसी (शब्द०)। (ख) बीर- बहूटी बिराजहि दादुर धुनि चहुँओर। मधुर गरज धन बरखहिं सुनि सुनि बोलत मोर।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—यह किलनी जाति का होता है ओर प्रायः बरसात आरभ होने के समय जमीन पर इधर उधर रेंगता हुआ दिखाई पड़ता है। इनका रंग गहरा लाल होता है और मखमल की तरह इसपर छोटे छोटे कोमल रोयें होते हैं। इसे 'इंद्रवधू' भी कहते हैं।

बीरम †
संज्ञा पुं० [हिं० बीरन] बीरन। भाई। उ०—दाई ददा के इंदरी जरत हय भोजी के जियरा जुड़ाय। ओ मोरे बीरम भौजी का जियरा जुड़ाय।—शुक्ल अभि० ग्रं०, पृ० १४३।

बीरा पु
संज्ञा पुं० [सं० वीटक, हिं० बीड़ा] १. पान का बीड़ा। वि० दे० 'बीड़ा'। उ०—(क) जब तू आपनी स्त्री के पास जाय तब यह बीरा खोलि कै आधो लीजो आधी स्त्री को दीजो।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० ६७। (ख) उन हँस कै बीरा दई हरषि लुई सुखदान। होन लगी अब दुहुन की मग मधुरी मुसकान।—स० सप्तक, पृ० ३७७। २. वह फूल फल आदि जो देवता के प्रसाद स्वरूप भक्तों आदि को मिलता है।—कत अपनी परतती नसावत मैं पायो हरि हीरा। सूर पतित तबहीं लै उठिहै जब हँसि दैहै बीरा।—सूर (शब्द०)।

बीरालाप
संज्ञा पुं० [सं० वीर + आलाप] वीरों की ललकार। वीरों की हुंकार। उ०—सेना सहित खंग खीच के 'मारो मारो क्षुद्र रावण को' इस प्रकार बीरालाप करते हुए घोडे़ पर चढे़।—भक्तमाल, पृ० ५७२।

बीरिट
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। पवन। २. भीड़भाड़ [को०]।

बीरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० वीरी वा हिं० बीड़ा] १. चूना, कत्था ओर सुपारी पड़ा हुआ पान का बीड़ा। उ०—निरषत द्रप्पन नैन वदन बीरी रद खंडित।—पृ० रा०, १४। १६१। (ख) तरिवन श्रवण नैन दोउ आँजति नासा बेसरि साजत। बीरी मुख भरि चिबुक डिठोना निरखि कपोलनि लाजत।—सूर (सब्द०)।—ढरकी के बीच में लंबाई के बल वह छेद जिसमें से नरी भरकर तागा निकाला जाता है। ३. लोहे का वह छेददार टुकड़ा जिसपर कोई दूसरा लोहा रखकर लोहार छेद करते हैं। ४. कान में पहनने का एक प्रकार का गहना जिसे 'तरना' बी कहते हैं। उ०—बीरी न होई बिराजत कानन जानन को मन लावत धंबै।—(शब्द०)। ५. एक दंतमंजन। मिस्सी। दाँत रँगने का मंजन। उ०—कोइ बीरा कोइ लीन्हे बीरी।—जायसी ग्रं०, पृ० १२७।

बीरो, बीरौ पु ‡
संज्ञा पुं० [हिं० बिरवा] वृक्ष। पेड़। उ०—(क) आपहु खोइ ओहि जो पावा। सो बीरो जनु लाइ जमावा।—(शब्द०)। (ख) सुनि रानी मन कीन्ह विचारा। उपजत बीरो जो न उपारा।—चित्रा०, पृ० ५२।

बीर्ज पु
संज्ञा पुं० [सं० वीर्य] दे० 'वीर्य'। उ०—हमारी मान बीजँ बल जितो। प्रभु तुम सम्यक जानहृ तितो।—नद०, ग्र०, पृ० २७४।

बील (१)
वि० [सं० विल] पोला। अंदर से खाली।

बील (२)
संज्ञा पुं० वह भूमि जो नीची हो ओर जहाँ पानी भरा रहता हो। झील ताल इत्यादि की भूमि।

बील (३)
संज्ञा पुं० [सं० विल्व] १. बेल। उ०—रहे उधारे मूडँ बारहू तापर नाहीं। तप्यो जेठ को घाम बील की पकरी छाहीं।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ७६। २. एक ओषधि का नाम।

बीलो †
संज्ञा स्त्री० [हिं० बिल्ली] दे० 'बिल्ली'। उ०—बीली नाचे मुस मिरदगी खरहा ताल बजावै।—संत० दरिया० पृ० १२६।

बीवर † (१)
वि० [सं० वीरवर] वीरवर। श्रेष्ठ योद्धा। बीरों में श्रेष्ठ। उ०—रयणागिर राठोड़ बल काढयो तै बीवरो।—नट०, पृ० १७२।

बीवर (२)
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का जंतु जो उत्तरीय अमेरिका और एशिया के उत्तरी किनारे पर होता है। विशेष—यह पानी के किनारे झुंड बाँधकर रहता है। इसके मुँह में बडे़, बडे़ मजवूत और कँटीले दाँत होते है ओर ऊपर नीचे चार चार डाढ़ें होती हैं जो ऊपर की ओर चिपटी ओर कठोर होती हैं। इसके प्रत्येक पाँव में पाँच पाँच उँगलियाँ होती हैं। पिछले पैरों की उँगलियाँ जुडी रहती हैं ओर दूसरी उँगली का नाखून भी दोहरा रहता है। इसकी पूँछ भारी, नीचे ऊपर से चपटी ओर छिलकों से ढँकी होती है। इसकी नाक ओर कान की बनावट ऐसी होती है कि पानी में गोता लगाने से आपसे आप उनके छेद बंद हो जाते हैं। इसका चमड़ा, जो समूर कहलाता है, कोमल होता है ओर बडे़ दामों को बिकता है। इसका मांस स्वादिष्ट होता है पर लोग इसका शिकार विशेषतः चमडे के लिये ही करते हैं।

बीवी
संज्ञा स्त्री० [फा०] दे० 'वीवी'।

बीस (१)
वि० [सं० विंशति, प्रा० वीशति, बीसा] जो संख्या में दस का दूना और उन्नीस से एक अधिक हो। मुहा०—बीस बिस्वे=अधिक संभवतः। जैसे,—बीसा बिस्वे हम सबेरे ही पहुँच जायँगे। बीस बिसे= (१) दे० 'बीस बिस्वे'। (२) पृर्णतः। पूरी तोर से। उ०—(क) सातहु द्वीपन केअवनीपति हारि रहे जिय में जब जाने। बीस बीसे ब्रत भंग भयो सो कहो अव केशव को धनु ताने।—केशव (शब्द०)। (ख) बीस बीसे जानी महा मूरख विधाता है।—पद्माकर (शब्द०)। २. श्रेष्ट। बडा। ३. अच्छा। उत्तप। श्रेष्ठ। उ०—नाथ अचान उचकि के चढे़ तासु के सीस। ताकी जनु महिमा करी, बीस राजते बीस।—देवस्वामी (शब्द०)।

बीस (२)
संज्ञा स्त्री० १. बीस की संख्या। बीस की संख्या का द्योतक चिह्न। बीस का अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—२०।

बीस (३)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जो गोरखपुर और बरमा के जगलों तथा कोंकण देश में पाया जाता है। इसकी लकड़ी बहुत अच्छी होती है ओर प्रायः बदूक के कुंदे बनाने के काम में आती है।

बीस (४)
संज्ञा पुं० [सं० विष] जहर। विष।

बीसना †
क्रि० स० [सं० विशन वा वेशन] शतरज या चौसर आदि खेलने के लिये बिसात बिछाना। खेल के लिये बिसात फैलाना।

बीसरना पु
क्रि० अ०, क्रि० स० [सं० विस्मरण] दे० 'बिसरना'। उ०—परन कुटी सो बीसरत नाहीं, नाहिन भावत सुंदर धाम।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ३०५।

बीसरना पु
क्रि० स० [हिं० बिसरना] दे० 'बिसराना' उ०— क्यूँ बीसरायो गोरी पूरब देस। पाप तणउ तिहाँ नहीं प्रवेश।—वी० रासो, पृ० ३५।

बीसवाँ
वि० [सं० विंशतिम, हिं० बीस + वाँ (प्रत्य०)] जो गणना में उन्नीस के बाद हो। बीस के स्थान पर पड़नेवाला।

बीसाल पु
वि० [सं० विशाल] दे० 'विशाल'। उ०—भाल तीलक बीसाल लोचन आनंद कद श्रीराम है।—रामानंद०, पृ० ५५।

बीसी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बीस] १. बीस चीजों का समूह। कोड़ी। २. ज्योतिष शास्त्र के अनुसार साठ संवत्सरों के तीन विभागों में से कोई विभाग। इनमें से पहली बीसी ब्रह्मबीसी, दूसरी विष्णुबीसी और तीसरी रुद्र वा शिवबीसी कहलाती है। उ०—बीसी बिश्वनाथ को विषाद वड़ो बारानसी बूझिए न ऐसी गति शंकर सहर की।—तुलसी (शब्द०)। ३. भूमि की एक प्रकार की नाप जो एक एकड़ से कम होती है। उतनी भूमि जिसमें बीस नालियाँ हों।

बीसी (२)
संज्ञा पुं० [सं० विशिख] तोलने का काँटा। तुला।

बीसी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० हि० बिस्वा] प्रति बीघे दो बिस्वे की उपज जो जमींदार को दी जाती है।

बीहंगम पु
संज्ञा पुं० [सं० विडङ्गम] दे० 'बिहग'। उ०—बीहंगम चढ़ि गयउ अकासा।—द० सागर, पृ० ६७।

बीह पु (१)
वि० [सं० विशति, प्रा० बीसा, बीह] बीस। उ०— सांचहु मैं लबार भुज बीहा। जौं न उपारउँ तव दस जीहा।—तुलसी (शब्द०)।

बीह पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० भी (=भय)] भय। भीति। उ०—भिड़ दहुँ ऐ भाजै नही, मरण रौ बीह।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ५।

बीहड़ (१)
वि० [सं० विकट] १. ऊँचा नीचा। विषम। ऊबड़ खाबड़। जैसे, बीहड़ भूमि, बीहड़ जगल। २. जो ठीक न हो। जो सरल या सम न हो। विषम। विकट।

बीहड़ (२)
वि० [सं० विघट, विलग या हिं० वारी] अलग। पृथक्। जुदा।

बीहन †
संज्ञा पुं० [हिं० बेहन] बीज। बेंगा। उ०—तहसीलदार साहब दरवाजे पर बैठे हुए बीहन लेनेवालों से कहते हैं।—मैला०, पृ० २०३।

बोहर पु
वि० [सं० विघट] अलग। पृथक्। उ०—(क) साज सात बैकुंठ जस तस साजे खँड सात। बीहर बीहर भाव तस खँड खँड ऊपर छात।—जायसी (शब्द०)। (ख) बीहर सीहर सबकी बोली। विधि यह कहाँ कहाँ सों खोली।—जायसी (शब्द०)।