पींग †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पेंग'।

पींगाली †
संज्ञा पुं० [सं० पिङ्गल(=छंत)?] भैरव राग के एक पुत्र का नाम। उ०— पींगाली मधु माधौ गावै।— माधवानल०, पृ० १९३।

पींजण पु
क्रि० स० [सं० पिञ्जन] दे० 'पींजना'। उ०— रुह रुई पींजण के कारण, आपन राम पठाया। सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ८६९।

पींजन
संज्ञा पुं० [सं० पिञ्जन] रुई धुनने की क्रिया।

पींजना
क्रि० स०[सं० पिञ्जन (=धुनकी)] रुई धुनना। उ०—चिंहु चक्क हक्क धर धरहरत, पिसुन पींजि किज्जय नरम। —पृ० रा०, ३।५५।

पींजर पु †
संज्ञा पुं० [सं० पिञ्जर]दे० 'पिंजड़ा' या 'पंजर'।

पींजरा पु
संज्ञा पुं० [सं० पिञ्जर] दे० 'पिंजड़ा'।

पींड †
संज्ञा पुं० [सं० पिण्ड] १. शरीर। देह। पिंड। उ०— बिन जिव पींड छार करि कूरा। छार मिलावइ सो हित पूरा।— जायसी (शब्द०)। २. वृक्ष का धड़। वृक्ष देह। तना। पेड़ी। उ०— कटहर डार पींड सो पाके। बड़हर सोउ अनूप अति ताके।— जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३८। ३. किसी गीली वस्तु का गोला। पिंड। पिंडी। ४. कोल्हू के चारों ओर गीली मिट्टी का बनाया हुआ घेरा जिसमें से ईख की अंगारियाँ या छोटे टुकडे़ छटककर बाहुर नहीं निकलने पाते। ५. चरखे का मध्य भाग। बेलन। ६. शिरोभूषण। दे० 'पीड़'। उ०— (क) शिखी की भाँति शिर पींड डोलत सुभग चाप ते अधिक नवमाल शोभा।— सूर (शब्द०)। (ख) पींड श्रीखंड शिर भेष नटवर कसे अंग इक छटा मैं ही भुलाई।— सूर (शब्द०)। ७. पिंडखजूर नामक फल। उ०— खरिक दाख अरु गिरी चिरारी। पींड बदाम लेत बनवारी। — सूर (शब्द०)।

पींडी
संज्ञा स्त्री० [सं० पिण्डिका] दे० 'पिंडी'।

पींडुरी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पिंडुली'।

पींढुला ‡
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पीढ़ा'। उ०— सासु कू डारयौ पींढुला, नँनद कूँ डारयौ मुढ़िला।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१७।

पींपर पु
संज्ञा पुं० [सं० पिप्पल] दे० 'पीपर'। उ०— षिल्लत सिकार पिथ कुँअर डर। पसु पींपर दल थरहरै।— पृ० रा०, ६।१००।

पी पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] दे० 'पिय'। उ०— राति अनत बसि भोर पी झूमत आए ऐन। निरखि न सौहैं नैन ती करति न सौहैं नैन।— स० सप्तक, पृ० २५६।

पी (२)
संज्ञा स्त्री० [अनु०] पपीहे की बोली। उ०— पी पी करत पपीहा। पापी प्राण त्याग कर दैहौं। — श्रीनिवासदास (शब्द०)। यौ०— पी कहाँ = पपीहे की बोली।

पीअर ‡ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पीला] पीले रंग का वस्त्र। पियरी। उ०— ए पिया, हमें पीअरे की साध। पिअरौ चों न रँगाइए।— पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१४।

पीअर पु (२)
वि० [सं० पीत] दे० 'पीयर'। उ०— दान देति है मनि गन चीरा। हेम पटबर पीअर चीरा। —भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ५१८।

पींउ
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] दे० 'पिय'।

पीउ, पीऊ
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० पिय'। उ०— तब लगि धीर सुना नहिं पीऊ। सुनतहिं घरी रहे नहीं जीऊ। —पदमावत, पृ० २७२।

पीऊख पु †
संज्ञा पुं० [सं० पीयूष] अमृत। पीयूष। सुधा। उ०— तुअ दरसन बिनु तिल ओ न जीव। जइऊ कलामति पीऊख पीव।— विद्यापति, पृ० १९९।

पीक (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पिञ्च (=दबाना, निचोड़ना)] १. थूक से मिला हुआ पान का रस। चबाए हुए बीडे़ या गिलौरी का रस। पान के रंग से रँगा हुआ थूक। थूक। यौ०— पीकदान। पीकलीक। २. पहली बार का रंग। वह रंग जो कपडे़ को पहली बार रंग में डुबोने से चढ़ता है (रँगरेज)।

पोक (२)
वि० [अं० पीक (=चोटी)] ऊँचनीच। ऊबड़ खाबड़। असमतल। नाहमवार (लश०)।

पीक (३)
संज्ञा पुं० [अं०] कोना (लश०)।

पीक (४)
वि० खड़ा। कायम (लश०)।

पीक † (५)
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'पीका'। मुहा०— पीक फूटना = पनपना।

पीकदान
संज्ञा पुं० [हिं० पीक + फा० दान (=आधार; पात्र)] एक विशेष प्रकार का बना हुआ वह बरतन या पात्र जिसमें पान की पीक थूकी या डाली जाती है। उगालदान।

पीकना †
क्रि० अ० [सं० पिक अथवा पपीहे की बोली 'पी' से अनुकृत] पिहिकना। पपीहे या कोयल का बोलना। उ०— अब न धीर धारत बनत सुरत बिसारी कंत। पिक पापी पीकन लगे बगरेउ बाग बसंत।— (शब्द०)।

पीकपात्र
संज्ञा पुं० [हिं० पीक+सं० पात्र] पीकदान। उगालदान। उ०— नट भट बिट ठग ठाठ, पीकपात्र है सबन कौ।— ब्रज ग्रं०, पृ० ९६।

पीका †
संज्ञा पुं० [देश०] किसी वृक्ष का नया कोमल पत्ता। कोंपल। पल्लव। उ०— कहै पदमाकर परागन में पानहू में पातन में पीकन पलासन पगंत है।— पदमाकर (शब्द०)। मुहा०— पीका फूटना = पनपना। पल्लवित होना। कोंपले फेंकना। उ०— जासु चरन जल सींचन पाई। पीका फूटि हरित ह्वै जाई।— रघुराज (शब्द०)।

पीच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] ठुड्ढी। ठोढी़। [को०]।

पीच (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पिञ्च] १. भात का पसाव। माँड़। २. पान की पीक।

पीचू
संज्ञा पुं० [देश०] १. एक प्रकार का झाड़। चीलू। जरदालू। २. करील का पक्का फल। पक्का कचड़ा या ढेंटी।

पीच्छ ‡
संज्ञा पुं० [सं० पिच्छ] दे० 'पिच्छ'। उ०— सो श्री ठाकुर जी ने मोर पीच्छ कौ मुकुट धारन कियो है।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३२६।

पीछ † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीच] पीच। माँड़।

पीछ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीछे या पिछला] पक्षियों की दुम।

पीछ (३)
संज्ञा स्त्री० [अं० पिच] एक प्रकार की राल जो जहाज आदि में दरार भरने के काम में आती है। दामर। गीर। कील। (लश०)।

पीछ † (४)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पीछा'। जैसे, आगपीछ = आगापीछा।

पीछरि पु ‡
वि० [सं०] पिच्छल। मसृण। चिकना। उ०—पथ पीछरि एक रयनि अंधार। कुचजुग कलसे जमुना भेलि पार।— विद्यापति, पृ० ३०८।

पीछला पु
वि० [हिं०] दे० पिछला'। उ०— ग्राह गह्यौ गाढे़ बैर पीछले के बाढे़ भयो।— मति० ग्रं०, पृ० ३८७।

पीछा
संज्ञा पुं० [सं० पश्चात्, प्रा० पच्छा] १. किसी व्यक्ति या वस्तु का वह भाग जो सामने की विरुद्ध दिशा में हो। किसी व्यक्ति या वस्तु के पीछे की ओर का भाग। पश्चात्- भाग। पुश्त। 'आगा' का उलटा। जैसे,— (क) इस इमारत का आगा जितना अच्छा बना है उतना अच्छा पीछा नहीं बना है। (ख)त इस अँगरखे का पीछा ठीक नहीं है। मुहा०— पीछा दिखाना = (१) भागना। हारकर घर का रास्ता लेना। पीठ दिखाना। जैसे,— कुल दो ही घंटे की लड़ाई के बाद शत्रु ने पीछा दिखाया। (२) दे० 'पीछा देना'। पीछा देना = किसी काम में पहले साथ देकर फिर किनारा करना। पीछे जाना। मौके पर हट जाना या धोखा देना। पहले भरोसा दिलाकर पीछे सहायता न देना। पीछा भारी होना = (१) पीछे की ओर शत्रु का होना। पीछे की ओर से भय या खतरा होना। (२) कुमुक आ जाने से सेना का पश्चात् भाग सबल हो जाना। २. किसी घटना का पश्चातवर्ती काल। किसी घटना के बाद का समय। जैसे,— (क) ब्याह का पीछा है, इसी से हाथ इतना तंग है। (ख) इतने बडे़ रईस (की मृत्यु) का पीछा है, हजारों रुपए लग जाएँगे। ३. पीछे पीछे चलकर किसी के साथ लगे रहने का भाव। जैसे,— (क) बडे़ का पीछा है, कुछ न कुछ दे ही जायगा। (ख) चार साल तक इस साधु का पीछा किया पर इसने कुछ भी न बताया। मुहा०— पीछा करना = (१) किसी के पीछे पीछे जाना या फिरा करना। हर समय किसी के साथ या समीप बना रहना। कोई काम निकालने के लिये या किसी आशा से किसी के साथ लगे रहना। (२) अनिच्छुक व्यक्ति से कोई काम कराने के लिये अत्यंत आग्रह करते रहना। किसी बात के लिये किसी को तंग या दिक करना। गले पड़ना। जैसे,— अब तो तुम इस काम के लिये मेरा पीछा न करते तो मैं तुम्हारा बड़ा उपकार मानता। (३) किसी को पकड़ने, मारने या भगाने आदि के लिये उसके पीछे पीछे चलना। खदेड़ना। पीछा छुड़ाना = (१) पीछा करनेवाले से छुटकारा प्राप्त करना। किसी बात के आग्रह से, तंग या दुःखी करनेवाले से अपने आपको दूर कर लेना। गले पडे़ हुए व्यक्ति से जान छुड़ाना। जैसे,— बड़ी कठिनाई से इसआदमी से पीछा छुड़ाया है। (२) अप्रिय या इच्छाविरुद्ध संबंध का अंत करना। दुःखदायी संबंध से छुटकारा प्राप्त करना। दुःखद प्रतीत होनेवाले कार्य को समाप्त कर सकना या कर लेना। जैसे,— किसी आशंका से पीछा छुड़ाना, किसी काम से पीछा छुड़ाना। पीछा छूटना = (१) पीछा करनेवाले से छुटकारा मिलना। अप्रिय साथ का कष्ट दूर होना। गले पडे़ हुए का साथ छूटना। पिंड छूटना। जान छूटना। (२) अप्रिय कार्य या संबंध से छुटकारा मिलना। दुःखद वस्तु का अंत या समाप्ति होता। रिहाई मिलना। पीछा छोड़ना = (१) पीछा करने का काम बंद करना। किसी आशा या प्रयोजन से किसी के साथ फिरना बंद करना। सहारा छोड़ना। (२) किसी बात के लिये किसी से अत्यंत आग्रह करना बंद करना। जान खाना छोड़ना। तंग करना बंद करना। (३) जिस बात में बहुत देर से लगे हों उसे छोड़ देना। पीछा पकड़ना = किसी आशा से किसी का समीपवर्ती, दरबारी या साथी बनना। आश्रय का आकांक्षी बनना। सहारा बनना। जैसे, किसी रईस का पीछा पकड़ना।

पीछाणना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पहचानना'। उ०—जीणी अहिनाणहु लेउँ पीछाणी।—बी० रासो, पृ० ७७।

पीछू पु †
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'पीछे'।

पीछे
अव्य [हिं० पीछा] १. पीठ की ओर। जिधर मुँह हो उसकी विरुद्ध दिशा में। आगे या सामने का उलटा। पश्चात्। जैसे,— जरा अपने पीछे तो देखो कि कौन खड़ा है। यौ०— पीछे पिछडे़ = अविकसित। अनुन्नत। पिछडे़ हुए। मुहा०— (किसी के) पीछे चलना = (१) किसी विषय में किसी को पथप्रदर्शक, नेता या गुरु मानना। कार्यविशेष में किसी का पदानुसरण करना। किसी का अनुयायी या अनुगामी होना। अनुकरण करना जैसे,— वह ऐसा वैसा आदमी नहीं है, उसके पीछे चलनेवालों की संख्या हजारों से ऊपर है। (२) एक आदमी ने जैसा किया हो वैसा ही करना। किसी का अनुकरण करना। नकल करना। जैसे,— खोज के विषय में भरतीय विद्वान् भी बहुधा यूरोपीय पंडितों के पीछे चले हैं। (किसी के) पीछे छूटना = (१) किसी के साथ रहकर उसका भेद लेने या उसकी गतिविधि पर दृष्टि रखने के लिये नियुक्त किया जाना। जासूस बनाकर किसी के साथ लगाया जाना। जैसे,— आज कल उनके पीछे कई आदमी छूटे हैं। (२) किसी भागे हुए आदमी को पकड़ने के लिये नियुक्त किया जाना। (किसी के) पीछे छोड़ना या भेजना=(१) जासूस या भेदिया बनाकर किसी को किसी के साथ लगाना। गुप्त रूप से किसी के साथ रहकर उसका भेद लेने या उसके कर्मों से जानकारी रखने के लिये किसी को नियत करना। साथ लगाना। (२) किसी आदमी को पकड़ने के लिये किसी को भेजना या दौड़ाना। किसी का पीछा करने के लिये किसी को भेजना। (धन) पीछे डालना = खर्च से बचाकर भविष्यत् की आवश्यकता के लिये कुछ रखना। आगे के लिये बटोरना। संचय करना। जैसे,— प्रत्येक मनुष्य को चाहिए कि अपनी कमाई में से कुछ न कुछ पीछे डालता जाय। (किसी को) पीछे डालना= पीछे छोड़ना। पीछे दौड़ना। जैसे, — उसने चोरों के पीछे सवार डाले। (किसी के) पीछे दौड़ाना = (१) गए या जाते हुए आदमी को फेर लाने के लिये किसी को रवाना करना। किसी को लौटा लाने के लिये किसी को दौड़ाना या भेजना। (२) भागे या भागते हुए को पकड़ लाने के लिये किसी को भेजना। भागे या भागते हुए का पोछा करने के लिये किसी को रवाना करना। पिछे पछताना उसी चने को खाना = (१) इच्छापूर्वक त्यागी हुई वस्तु को त्यागने की गलती समझकर फिर ग्रहण करना। (२) किसी कार्य को न करने का निश्चय करके फिर करना। उ०— इसका निरादर कर वे पीछे पछताएँगे और उसी चने को खाएँगे।— प्रंमघन०, भा० २, पृ० ४०५। (किसी काम के) पीछे पड़ना = किसी काम को कर डालने पर तुल जाना। किसी कार्य के लिये अविराम उद्योग करना। किसी कार्य की सिद्धि के लिये आग्रहयुक्त होना। बार बार विफल होने पर भी किसी काम के लिये उत्साह के साथ प्रयत्न करते रहना। (किसी व्यक्ति के) पीछे पड़ना =(१) कोई काम करने के लिये किसी से बार बार कहना। किसी से कोई प्रार्थना करते हुए आग्रहयुक्त होना। किसी के पीछे लगकर उससे कोई अनुरोध करना। घेरना। जान खाना। तंग करना। (२) किसी के संबंध में कोई ऐसा कार्य बार बार आग्रहपूर्वक करना जिससे उसे कष्ट पहुँचे या उसका अपकार हो। मौका या संधि ढूँढ़ ढूँढ़कर किसी की बुराई करते रहना। किसी को हानि पहुँचाने के लिये आग्रह- युक्त होना। जैसे,— बरसों से यह दुष्ट न जाने क्यों मेरे पीछे पड़ रहा है। पीछे लगना = (१) किसी आशा या प्रयोजन से किसी के पीछे पीछे चला करना। साथ हो लेना। साथ साथ चलना। पीछे पीछे घूमना। पीछा करना। जैसे,— तुम तो कितने दिनों से उनके पीछे लगे हो पर अभी तक हाथ कुछ न आया। (२) अनिष्ट या अप्रिय वस्तु का संबंध हो जाना। दुःखजनक वस्तु का साथ हो जाना। रोग कष्टादि का देर तक बना रहना। जैसे,— रोग पीछे लगना, मुसीबत पीछे लगना आदि। (अपने) पीछे लगाना = (१) आश्रय देना। साथ कर लेना। (२) रोग दुःख आदि की प्राप्ति और स्थिति में स्वतः कारण होना। अनिष्ट वस्तु से संबंध कर लेना। पालना। जैसे,— मुसीबत पीछे लगाना, झंझट पीछे लगाना आदि। (किसी और के) पीछे लगाना = (१) साथ लगा देना। अनिष्ट या अप्रिय वस्तु से संबंध करा देना। मढ़ देना। जैसे,— तुसने यह अच्छी मुसीबत हमारे पीछे लगा दी। (२) भेद लेने या निगाह रखने के लिये किसी को किसी के साथ कर देना। किसीआदमी को किसी का पीछा करने के लिये नियुक्त करना या योजना। कार्रवाइयाँ देखते रहने के लिये किसी आदमी को अपके साथ कर देना। किसी के साथ रहने के लिये नियुक्त करना। विशेष— 'धीरे' आदि कितने ही अन्य अव्ययों के समान 'पीछे' भी प्रायः आवृत्ति के साथ आता है; जैसे, पीछे पीछे आना, पीछे पीछे चलना, पीछे पीछे घूमना, आदि। इस रूप मे अर्थात् आवृत्तिपूर्वक यह जिस क्रिया का विशेषण होता है उसका लगातार अधिक समय तक होना सूचित होता है। २. पीछे की ओर कुछ दूर पर। पीठ की अथवा आगे की विरुद्ध दिशा में। कुछ दूर पर। जैसे, (क) उनके मकान को तुम बहुत पीछे छोड़ आए। (ख) वह गाँव बहुत पीछे छूट गया। मुहा०—पीछे छूटना, पड़ना या होना =(१) किसी विषय में किसी से कम होना। गुण योग्यता आदि की तुलना में किसी से न्यून रह जाना। किसी विषय में किसी व्यक्ति की अपेक्षा घटकर होना। पिछड़ा होना। जैसे,— और विषयों की तो मैं नहीं कह सता पर रचनाभ्यास में तुम उससे बहुत पीछे छूट गए हो। (२) किसी विषय में किसी ऐसे आदमी से घट जाना जिससे किसी समय बराबरी रही हो। पिछड़ जाना। जैसे,— बीमारी के कारण वह अपने सहपाठियों से बहुत पीछे छूट गया। (प्रायः इस अर्थ में यह क्रिया 'जाना' से संयुक्त होकर आती है)। (किसी को, पीछे छोड़ना = किसी विषय में किसी से बढ़कर या अधिक होना। किसी विषय में किसी की अपेक्षा अधिक सामर्थ्य- वान होना या योग्यता रखना। जैसे,— इस विषय में वह हजारों को पीछे छोड़ गया। (२) किसी विषय में किसी से बढ़ जाना। किसी से आगे निकल जाना। किसी विषय में किसी विशेष व्यक्ति को अपेक्षा अधिक योग्य या सामर्थ्य- वान हो जाना। ३. देश या कालक्रम में किसी के पश्चात् या उपरांत। स्थिति या घटना के विचार से किसी के अनंतर कुछ दूर या कुछ देर बाद। किसी वस्तु या व्यापार के पश्चादवर्ती स्थान या काल में। पश्चात्। उपरांत। अनंतर। जैसे,— (क) पचास हाथ लंबी पाँत में सब लोग एक दूसरे के पीछे खडे़ थे। (ख) तुम्हारे काशी आने के कितना पीछे यह घटना हुई। ४. अंत में। आखिर में। (क्व०)। जैसे,— पहले तो वे बहुत दिनों तक पड़ते रहे पीछे बीमार पड़ने के कारण उनका पढ़ना लिखना छूट गया। ५. किसी की अनुपस्थिति या अभाव में। किसी की अविद्यमानता में। पीठ पीछे। जैसे,— किसी के पीछे उसकी बुराई करना अच्छा काम नहीं। ६. मर जाने पर। इस लोक में न रह जाने की दशा में। मरणोपरांत। जैसे,— (क) आदमी के पीछे उसका नाम ही रह जाता है। (ख) वे अपने पीछे चार बच्चे, एक विधवा और प्रायः पचास हजार का ऋण छोड़ गए। ७. लिये। वास्ते। कारण। अर्थ। खातिर। जैसे,— इस आदमी के पीछे मैंने क्या क्या कष्ट न सहा पर यह ऐसा कृतघ्न निकला कि सब भूल गया। ८. कारण। निमित्त। बदौलत। जैसे,— तुम्हारे पीछे हमें भी क्या बात सुननी पड़ी।

पीछो †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पीछा'। उ०— तब वा सर्प की नागिन ने वा वैष्णव को पीछो कियो।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३३२।

पीजन
संज्ञा पुं० [सं० पिञ्जन] भेड़ों के बाल बुनकने की धुनकी। (गडे़रिए)।

पीजर †
संज्ञा पुं० [सं० पिञ्जर] दे० 'पिञ्जर'। उ०— छाज न पंखिहि पीजर ठाटू।— जायसी ग्रं०, पृ० ७६।

पीजरा †
संज्ञा पुं० [हिं० पीजर] दे० 'पिजड़'।

पीटन †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पिटना'।

पीटना † (१)
क्रि० स० [सं० पीडन] १. किसी वस्तु पर चोट पहुँ- चाना। मारना। संयो क्रि०—डालना।—देना।—लेना। मुहा०—छाती पीटना = दुःख या शोक प्रकट करने के लिये छाती पर हाथ से आघात करना। किसी बात को पीटना = किसी बात या कार्य पर तीव्र दुःख प्रकाश करना। किसी बात को सोच सोचकर दुःखित होना। हाय हाय करना । सिर धुनना। (स्त्रि०)। किसी व्यक्ति को या के लिये पीटना = किसी व्यक्ति की मृत्यु का शोक करना। किसी के मरने पर छाती पीटना मातम करना। उ०— आँख फूटे जो भर नजर देखे। मुझको पीटे अगर इधर देखे।— एक उर्दू कवि (शब्द०)। २. आघात पहुँचाकर किसी वस्तु को फैलाना या बढ़ाना। चोट से चिपटा या चौड़ा करना। जैसे, पत्तर पीटना। संयो० क्रि०—डालना।—देना।—लेना। ३. किसी जीवधारी पर आघात करना। किसी के शरीर को चोट अथवा पीड़ा पहुँचाना। मारना। प्रहार करना। ठोंकना। जैसे,— आज तुमने भारी अपराध किया है, तुम्हारे बास तुम्हें अवश्य पीटेंगे। संयो० क्रि०—डालना। ४. किसी न किसी प्रकार कर डालना या कर लेना। भले या बुरे प्रकार से कर डालना। येन केन प्रकारण किसी काम को समाप्त या संपन्न कर लेना। निबटा देना। जैसे,— शाम तक इस काम को अवश्य पीट डालूँगा। संयो० क्रि०—डालना।—देना। ५. किसी न किसी प्रकार प्राप्त कर लेना। येन केन प्रकारेण उपार्जित करना। फटकार लेना। जैसे,— शाम तक चार रुपए पीट लेता हूँ। संयो० क्रि०—लेना।

पीटना (३)
संज्ञा पुं० १. मृत्युशोक। मातम। पिट्टस। जैसे,—यहाँ यह कैसा पीटना पड़ा हुआ है। २. आपद्। मुसीबत। आफत।

पीट पठिंगा †
संज्ञा पुं० [हीं० पीठ + सं० पृष्ठ + अंग] आश्रय।सहायक। उ०— मुहम्मद जिसका पीटपठिंगा उसकूँ क्या है डर।— दक्खिनी०, पृ० ५४।

पीठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लकड़ी, पत्थर या धातु का बना हुआ बैठने का आधार या आसन। पीढ़ा। चौकी। विशेष— दे० 'पीढ़ा'। २. व्रतियों, विद्यार्थियों आदि के बैठने का आसन। कुशासन आदि। ३. किसी मूर्ति के नीचे का आधारपिंड। मूर्ति का वह आसनवत् भाग जिसके ऊपर वह खड़ी रहती है। मूर्ति का आधार। ४. किसी वस्तु के रहने की जगह। अधिष्ठान। जैसे, विद्यापीठ। ५. सिंहासन। राजासन। तख्त। ६. वेदी। देवपीठ। ७. वह स्थान जहाँ पुराणानुसार दक्षपुत्री सती का कोई अंग या आभूषण विष्णु के चक्र से कटकर गिरा है। विशेष— ऐसे स्थान भिन्न भिन्न पुराणों के मत से ५१, ५३, ७७ अथवा १०८ हैं। इनमें से कुछ की महापीठ और कुछ की उपपीठ संज्ञा है। शिवचरित् नामक ग्रंथ में जिसमें कुल ७७ पीठ गिनाए गए हैं; ५१ को महापीठ और २६ को उपपीठ कहा है। ये सब स्थान तांत्रिक तखा शाक्तधर्म के अनुसार अति पुनीत और सिद्धिदायक माने गए हैं। इन स्थानों में जपादि करने से शीघ्र सिद्धि और दान, होम, स्नान आदि करने से अक्षय पुण्य होना माना गया है। इन स्थानों की उत्पत्ति के संबंध में पुराणों में यह कथा है— शिव से अप्रसन्न होकर उनके ससुर दक्ष ने उनको अपमानित करने का निश्चय किया। उन्होंने बृहस्पति नामक यज्ञ आरंभ किया जिसमें त्रिभुवन के यावत् देवी देवताओं को निमंत्रित किया पर शिव और अपनी कन्या सती को न पूछा। सती बिना बुलाए भी पिता के समारंभ में संमिलित होने को तैयार हो गई और शिव ने भी अंत को उनकी हठ रख ली। सती जब बाप के यज्ञस्थान में पहुँची तब दक्ष ने उनकी आदर अभ्यर्थना तो न की व भगवान् भुतनाथ की जी भरकर निंदा करने लगे। सती को पूज्य पति की निंदा सुनना असह्य हुआ। वे यज्ञकुंड में कूद पड़ीं और जल मरीं। उनके साथ शिव के जो अनुचर गए थे उन्होंने लौटकर शिव को यह समाचार सुनाया जिसे सुनकर शिवाजी क्रोध से पागल हो उठे और वीरभद्रादि अनुचरों के द्वारा दक्ष को मरवा डाला और उनका यज्ञ विध्वंस करा दिया। सती के विछोह का उनको इतना दुःख हुआ कि वे उनकी मृत देह को कधे पर रखकर चारों ओर नाचते हुए घूमने लगे। अंत को भगवान विष्णु ने इस दशा से उनका उद्धार करने के अभिप्राय से अपने चक्र द्वारा धीरे धीरे सती के सारे शव को काटकर गिरा दिया। जिन जिन स्थानों पर उनका कोई अंग या आभूषण कटकर गिरा उन सबमें एक एक शक्ति और भैरव भिन्न भिन्न नाम तथा रूप से अवस्थान करते हैं। जिन स्थानों में कोई एक अंग गिरा वे महापीठ और जिनमें किसी अंग का अंश या कोई अलंकार मात्र गिरा वे उपपीठ हुए। इन महापीठों, उपपीठों और उनमें अवस्थान करनेवाली शक्तियों और भैरवों के नाम तंत्रचूड़ामणि आदि तंत्रग्रंथों और देवीभागवत, कालिकापुराण आदि पुराणों में दिए गए हैं। काशी में कान के कुंडल का गिरना कहा गया है। यहाँ की शक्ति का नाम मणिकर्णी, अन्नपूर्णा या विशालाक्षी और भैरव का कालभैरव है। ८. प्रदेश। प्रांत। ९. बैठने का एक विशेष ढंग। एक आसन। १०. कंस के एक मंत्री का नाम। ११. एक विशेष असुर। १२. वृत्त के किसी अंश का पूरक।

पीठ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पृष्ठ] १. प्राणियों के शरीर में पेट की दूसरी ओर का भाग जो मनुष्य में पीछे की ओर और तिर्यक् पशुओं, पक्षियों, कीडे़ मकोडे़ आदि के शरीर में ऊपर की ओर पड़ता है। पृष्ठ। पुश्त। मुहा०— पीठ का = दे० 'पीठ पर का'। पीठ का कच्चा = (घोड़ा) जो देखने में हृष्ट पुष्ट और सजीला हो पर सवारी में ठीक न हो। (ऐसा घोड़ा) जिसकी चाल से सवार प्रसन्न न हो। चाल न जाननेवाला (घोड़ा)। पीठ का सच्चा = (घोड़ा) जिसमें अच्छी चाल हो। चालदार (घोड़ा)। ऐसा घोड़ा जो सवारी के समय सुख दे। पीठ की = दे० 'पीठ पर की'। पीठ चारपाई से लग जाना = बीमारी के कारण अत्यंत दुबला और कमजोर हो जाना। उठने बैठने में असमर्थ हो जाना। पीठ खाली होना = सहायकहीन होना। कोई सहारा देनेवाला या हिमायती न होना। पीठ पर किसी का न होना। पीठ ठोंकना = (१) कोई उत्तम कार्य करने के लिये अभिनंदन करना। किसी के कार्य से प्रसन्नता प्रकट करना। किसी के कार्य की प्रशंसा करना। शाबासी देना। जैसे,— तुम्हारे पीठ ठोंकने से ही वे आज मुझसे लड़ गए। (२) किसी कार्य में अग्रसर होने के लिये साहस देना। हिम्मत बढ़ाना। प्रोत्साहित करना। पीठ पर हाथ फेरना। पीठ तोड़ना = कमर तोड़ना। हताश कर देना। पीठ दिखाना = युद्ध या मुकाबिले से भाग जाना। मैदान छोड़ देना। पीछा दिखाना। जैसे,— कुल एक ही घंटे लोहा बजने के बाद शत्रु ने पीठ दिखाई। पीठ दिखाकर जाना = स्नेह तोड़कर या ममता छोड़कर जाना। घरवालों या प्रिय वर्ग से विदा होना। परदेश के लिये प्रस्थान करना। पीठ देना = (१) यात्रार्थ किसी या कहीं से बिदा होना। रुखसत होना। (२) विमुख होना। मुँह मोड़ना। (३) भाग जाना। पीठ दिखाना। (४) किनारा खींचना। साथ न देना। पीछा देना। (५) चारपाई पर पीठ रखना। सोना। लेटना। आराम। करना जैसे,— (क) आज तीन दिन से दो मिनट के लिये भी मैं पीठ न दे सका। (ख) काम के मारे आजकल मुझे पीठ देना हराम हो रहा है। (यह मुहावरा निषेधार्थ या निषेधा- र्थक वाक्य में ही प्रयुक्त होता है जैसा उदाहरणों से प्रकट होता है।) किसी की ओर पीठ देना = (१) किसी की ओर पीठ करके बैठना। मुँह फेर लेना। (२) अरुचिपूर्वक उपेक्षा प्रकट करना। किसी की ओर ध्यान देने या उसकी बात सुनने से अनिच्छा दिखाना। पीठ पर = एक ही माता द्वारा जन्मक्रम में पीछे। एक ही माता की संतानों में से किसी विशेष के जन्म के अनंतर। जैसे,—इस लड़के के पीठ परक्या तुम्हारे कोई संतान नहीं हुई। पीठ पर का, पीठ पर का = (१) जन्मक्रम में अपने सहोदर (भाई या बहिन) के अनंतर का। (२) जोड़ का। बराबरी का। उ०— दूसरा कौन पीठ पर का है।— चोखे०, पृ० १४। पीठ पर खाना = भागते हुए मार खाना। भागने की दशा में पिटना। कायरता प्रकट करते हुए घायल होना। पीठ भीजना = दे० 'पीठ पर हाथ फेरना'। पीठ पर हाथ फेरना = दे० 'पीठ ठोंकना'। पीठ पर होना = (१) सहायक होना। सहायता के लिये तैयार होना। मदद पर होना। हिमायत पर होना। जैसे,— आज मेरी पीठ पर कोई होता तो मैं इस प्रकार दीन हीन बनकर क्यों भटकता फिरता ? (२) जन्मक्रम में अपने किसी भाई या बहिन के पीछे होना। अपने सहोदरों में से किसी के पीछे जन्म ग्रहण करना। पीठ पीछे = किसी के पीछे। अनुपस्थिति में। परोक्ष में। जैसे,— पीठ पीछे किसी की निंदा नहीं करना चहिए। पीठ फेरना = (१) बिदा होना। चला जाना। रुखसत होना। (२) भाग जाना। पीठ दिखाना। (३) किसी की ओर पीठ कर देना। मुँह फेर लेना। (४) अरुचि वा अनिच्छा प्रकट करना। उपेक्षा सूचित करना (किसी की) पीठ लगना = चित होना। कुश्ती में हार खाना। पटका जाना। पछाड़ा जाना। (घोडे़ बैल आदि की) पीठ लगना = पीठ पर घाव हो जाना। पीठ पक जाना। (चारपाई आदि से) पीठ लगना = लेटना। सोना। पड़ना। कल लेना। आराम करना। (किसी की) पीठ लगाना = चित कर देना। कुश्ती में हरा देना। पछाड़ देना। पटकना (घोडे़ बैल आदि की) पीठ लगाना = घोडे़ या बैल को इस प्रकार कसना या लादना कि उसकी पीठ पर घाव हो जाय। सवारी या पीठ पर घाव कर देना। २. किसी वस्तु की बनावट का ऊपरी भाग। किसी वस्तु की बाहरी बनावट। पृष्ठ भाग। भीतरी भाग या पेट का उलटा। ३. रोटी के ऊपर का भाग। ४. जहाज का फर्श (लश०)।

पीठक
संज्ञा पुं० [सं०] पीढ़ा।

पीठ का मोज
संज्ञा पुं० [हिं० पीठ + फा०मोजह] कुश्ती का एक पेंच। इसमें जब जोड़ कंधे पर बायाँ हाथ रखने आता है तब दाहिने हाथ से उसको उड़ाकर उलटा कर देते हैं और कलाई के ऊपर के भाग को इस प्रकार पकड़ते हैं कि अपनी कोहनी उसके कंधे के पास जा पहुँचती है, फिर झट पैतरा बदलकर जोड़ की पीठ पर जाने के इरादे से बढ़ते हुए बाएँ हाथ से बाएँ पाँव का मोजा उठाकर गिरा देते हैं।

पीठ के डंडे
संज्ञा पुं० [हिं० पीठ + हिं० डंडा] कुश्ती का एक पेंच। इसमें जब खिलाड़ी जोड़ की पीठ पर होता है तब शत्रु की बगल से ले जाकर दोनों हाथ गर्दन पर चढ़ाने चाहिए और गर्दन को दबाते हुए भीतरी अड़ानी टाँग मारकर गिराना चाहिए।

पीठकेलि
संज्ञा पुं० [सं०] पीठमर्द। नायक।

पीठग
वि० [सं०] पंगु। लँगड़ा [को०]।

पीठगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] वह गड्ढा जो मूर्ति को जमाने के लिये पीठ (आसन) पर खोदकर बनाया जाता है।

पीठचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक प्रकार का रथ।

पीठदेवता
संज्ञा पुं० [सं०] आधार शक्ति। आदिदेवता।

पीठना †
क्रि० स० [सं० पिष्ट, हिं० पीठ + ना] दे० 'पीसना'। उ०—एकन आदी मरिच सों पीठा। दूसर दूध खाँड़ सों मीठा।—जायसी (शब्द०)।

पीठनायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चौदह वर्षिया (अरजस्का) वह कुमारी जो दुर्गापूजा के अवसर पर दुर्गा मानकर पूजी जाती है [को०]।

पीठनायिका देवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुराणानुसार किसी पीठस्थान की अधिष्ठात्री देवी। २. दुर्गा। भगवती।

पीठन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तंत्रोक न्यास जो प्रायः सभी तांत्रिक पूजाओ में आवश्यक है।

पीठभू
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीर के आसपास का भूभाग। चहार- दीवारी के आसपास की जमीन।

पीठमर्द
संज्ञा पुं० [सं०] १. नायक के चार सखाओं में से एक जो वचनचातुरी से नायिका का मानमोचन करने में समर्थ हो। यह शृंगार रस के उद्दोपन विभाव के अंतर्गत है। २. वह नायक जो कुपित नायिका को प्रसन्न कर सके। मानमोचन में समर्थ नायक। विशेष—संस्कृत के अधिकांश आचार्यों ने पीठमर्द को नायक का भेद भी माना है परंतु कुछ रसाचायों ने इसकी गणना सखाओं में की है। २. अत्यंत धृष्ट नायक, सखा या अत्यंत ढीठ (को०)। ३. नृत्य की शिक्षा देनेवाला व्यक्ति। नृत्यगुरु (को०)।

पीठयर्दिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जो प्रिय को प्राप्त करने में नायिका की सहायता करती है [को०]।

पीठविवर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पीठगर्भ'।

पीठसर्प
वि० [सं०] लँगड़ा।

पीठसर्पी
वि० [सं० पीठसर्पिन्] लँगड़ा।

पीठस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'पीठ'—७। देवीपीठ। २. सिंहासन बत्तीसी के अनुसार 'प्रतिष्ठान' (आधुनिक झूँसी) का एक नाम।

पीठा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पीठक] दे० 'पीढ़ा'। उ०—आवत पीठा बैठन दीन्हों कुशल बृझि अति निकट बुलाई।—सूर (शब्द०)।

पीठा (२)
संज्ञा पुं० [सं० पिष्ठक, प्रा० पिठ्ठक] एक पकवान जो आटे की लोईयों में चने या उरद की पीठी भरकर बनाया जाता है। विशेष—पीठी में नमक, मसाला आदि देकर आटे की लोईयों में उसे भरते हैं और फिर लोई का मुँह बंदकर उसे गोल चौकोर या चिपटा कर लेते हैं। फिर उन सबको एक बरतन में पानी के साथ आग पर चढ़ा देते हैं। कोई कोईउसे पानी में न उबालकर केवल भाप पर पकाते हैं। घी में चुपड़कर खाने से यह अधिक स्वादिष्ट हो जाता है। पूरब की तरफ इसको 'फरा या फारा' भी कहते हैं। कदाचित् इस नामकरण का कारण यह हो कि पक जाने पर लोई का पेट फट जाता है और पीठी झलकने लगती है।

पीठा (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पट्ठा'।

पीठाण †
संज्ञा पुं० [सं० पीठस्थान (= युद्धपीठ, या रणक्षेत्र)] युद्धभूमि। रणस्थल। उ०—पाडियो राम दसकठ पीठाण में सबद जै जै हुवा लोक सारां।—रघु रू०, पृ० ३१।

पीठि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीठ] दे० 'पीठ'।

पीठिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीढा़। २. मूर्ति, खंभे आदि का मूल या आधार। ३. अंश। अध्याय। ३. पृष्ठभूमि (को०)। ४. तामदान। डाँडी (कौटि०)।

पीठी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पिष्ठ या पिष्टक, प्रा० पिट्ठ] पानी में भिगोकर पीसी हुई दाल विशेषतः उरद या मूँग की दाल जो बरे, पकौड़ी आदि बनाने अथवा कचौरी में भरने के काम में आती है। क्रि० प्र०—पीसना।—भरना।

पीठी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीठ] दे० 'पीठ'।

पीड़ (१)
संज्ञा पुं० [देश०] मिट्टी का आधार जिसे घड़े को पीटकर बढ़ाते समय उसके भीतर रख लेते हैं।

पीड़ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० आपीड] सिर या बालों पर बाँधा जानेवाला एक प्रकार का आभूषण। उ०—करधर कै घरमैर सखीरी। कै सृक् सीपज की बगपंगति, कै मयूर की पीड़ पखीरी।—सूर (शब्द०)।

पोड़
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पीड़ा'। उ०—मूये पीड़ पुकारताँ, दैव न मिलिया आइ। दादू थोड़ी बात थी जे टुक दरस दिखाइ।—दादू०, पृ० ५९।

पीड़क
संज्ञा पुं० [सं० पीड़क] १. पीड़ा देने या पहुँचानेवाला। दुःखदायी। यंत्रणादाता। २. अत्याचारी। उत्पीड़क। सतानेवाला।

पीड़न
संज्ञा पुं० [सं० पीड़न] [वि० पीड़क, पीड़नीय, पीड़ित] १. दबाने की क्रिया। किसी वस्तु को दबाना। चापना। २. पेरना। पेलना। ३. दुःख देना। यंत्रणा पहुँचाना। तक- लीफ देना। ४. अत्याचार करना। उत्पीड़न। उ०—मानव के पाशव पीड़न का देतीं वे निर्भम विज्ञापन।—ग्राम्या, पृ० २४। ५. आक्रमण द्वारा किसी देश को बर्भाद करना। ६. फोड़े को पीव निकालने के लिये दबाना। ७. किसी वस्तु को भली भाँति पकड़ना। ग्रहण करना। हाथ में पकड़ना। जैसे, पाणिपीड़न। ८. सूर्य चंद्र आदि का ग्रहण। ९. उच्छेद। नाश। १०. अभिभव। तिरोभाव। लोप। ११. पेरने या दबाने का यंत्र (को०)। १२. अनाज को डंठल से पीट या रौंदकर निकालना (को०)। १३. आलिंगनबद्ध करना। दबोचना दबा देना। १४. स्वरों के उच्चारण में गलती करना (को०)।

पीड़नीय (१)
वि० [सं० पीडनीय] पीड़न करेन योग्य। दुःख पहुँचाने योग्य। २. जिससे पीड़न किया जाय (को०)।

पीड़नीय (२)
संज्ञा पुं० १. याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार मंत्री और सेना से रहित राजा। २. यज्ञवल्क्य स्मृति में वर्णित चार प्रकार के शत्रुओं में से एक।

पीड़वा ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिपदा] दे० 'परिवा'। उ०—आज सखी मोहि विहांण। पीड़वा कइ दिन कहइ छइ जाण।— बी० रासो, पृ० ४७।

पीड़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० पीडा] १. किसी प्रकार का दुःख पहुँचाने का भाव। शारीरिक या मानसिक क्लेश का अनुभव। वेदना। व्यथा। तकलीफ। दर्द। २. रोग। व्याधि। ३. सिर में लपेटी हुई माला। शिरोमाला। ४. एक सुगंधित ओषधि। धूप सरल। सरल। ५. बाधा। गड़बड़। (को०)। ६. हानि। नुकसान (को०)। ७. विरोध (को०)। ८. प्रतिबंध। अवरोध (को०)। ९. करुणा। दया (को०)। १०. सरल वृक्ष (को०)। ११. डलिया। टोकरी (को०)।

पीड़ाकर
वि० [सं० पीडाकर] कष्टकर। दुःखदायी। उ०— पार्थिवैश्वर्य का अंधकार पीड़ाकर।—तुलसी०, पृ० १९।

पीड़ाकरण
संज्ञा पुं० [सं० पीड़ाकरण] कष्ट देना। दुःख या पीड़ा पहुँचाना [को०]।

पीड़ागृह
संज्ञा पुं० [सं० पीडागृह] वह स्थान जहाँ पीड़ा पहुँचाई जाय। साँसतघर [को०]।

पीड़ार †
संज्ञा पुं० [सं० फणाकर ?] सर्प। एक प्रकार का सर्प। पीवणा।/?/पीणा। उ०—राई नहीं सखी भइंस पीडार। अस्त्रीय चरित्र उलिषई ही गँवार।—बी० रासो, पृ० ३८।

पीड़ास्थान
संज्ञा स्त्री० [सं० पीडास्थान] कुंडली में उपचय अर्थात् लग्न से तीसरे, छठे दसवें और ग्यारहवें स्थान के अतिरिक्त स्थान। अशुभ ग्रहों के स्थान।

पीड़िका
संज्ञा स्त्री० [सं० पीडिका] फुंसी। पिटिका [को०]।

पीड़ित (१)
वि० [सं० पीडित] १. पीड़ायुक्त। जिसे व्यथा या पीड़ा पहुँची हो। दुःखित। क्लेशयुक्त। २. रोगी। बीमार। ३. दबाया हुआ। जिसपर दाब पहुँचाया गया हो। ४. उच्छित्र। नष्ट किया हुआ। ५. कसकर बाँधा हुआ (को०)।

पीड़ित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रियों के कान का छेद। कर्णभेद। २. तंत्रसार में दिए हुए एक प्रकार के मंत्र। ३. पीड़ा देने या कष्ट पहुँचाने की क्रिया (को०)। ४. एक रतिबंध। सुरत काल का एक विशेष आसन (को०)।

पीड़ी (१)
वि० [सं० पीडिन्] कष्ट पहुँचानेवाला। दुःखकर [को०]।

पीड़ी † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पीठिका, हिं० पीढ़ो] वेदी। उ०— इससे अच्छा यही होगा कि भगवती दुर्गा की पीडी पर मेरी बलि चढ़ा दो।—नई०, पृ० ३७।

पीडुरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पिंडली'।

पीढ़ा
संज्ञा पुं० [सं० पीठ अथवा पीठक] [स्त्री० अल्पा० पिढ़िया, पीढ़ी] चौकी के आकार का वह आसन जिसपर हिंदू लोग विशेषतः भोजन करते समय बैठते हैं। पाटा। पीठ। पीठक। विशेष—इसकी लंबाई डेढ़ दो हाथ, चौड़ाई पौन या एक हाथ और उँचाई चार छह अँगुली से प्रायः अधिक नहीं होती। अधिकतर यह आम की लकड़ी से बनाया जाता है। अमीर लोग संगमरमर और राजा महाराजा सोने चाँदी आधि के भी पीढ़े बनवाते हैं।

पीढ़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० पीठिका] १. किसी विशेष कुल की परंपरा में किसी विशेष व्यक्ति की संतति का क्रमागत स्थान। किसी कुल या वंश में किसी विशेष व्यक्ति से आरंभ करके उससे ऊपर या नीचे के पुरुषों का गणनाक्रम से निश्चित स्थान। किसी व्यक्ति से या उसकी कुलपरंपरा में किसी विशेष व्यक्ति से आरंभ करके बाप, दादा, परदादे आदि अथवा बेटे, पोते, परपोते आदि के क्रम से पहला, दूसरा, चौथा आदि कोई स्थान। पुश्त। जैसे,—(क) ये राजा कृष्णसिंह की चौथी पीढ़ी में हैं। (ख) यदि वंशोन्नति संबंधी नियमों का भली भाँति पालन किया जाय तो हमारी तीसरी पीढ़ी की संतान अवश्य यथेष्ट बलवान् और दीर्घजीवी होगी। विशेष—पीढ़ी का हिसाब ऊपर और नीचे दोनों ओर चलता है। किसी व्यक्ति के पिता और पितामह जिस प्रकार क्रम से उसकी पहली और दूसरी पीढ़ी में हैं उसी प्रकार उसके पुत्र और पौत्र भी। परंतु अधिकतर स्थलों में अकेला पीढ़ी शब्द नीचे के क्रम का ही बोधक होता है; ऊपर के क्रम का सूचक बनाने के लिये प्रायः उसके आगे 'ऊपर की' विशेषण लगा देते हैं। यह शब्द मनुष्यों ही के लिये नहीं अन्य सब पिंडज और अंडज प्राणियों के लिये भी प्रयुक्त हो सकता है। २. उपर्युक्त किसी विशेष स्थान अथवा पीढ़ी के समस्त व्यक्ति या प्राणी। किसी विशेष व्यक्ति अथवा प्राणी का संतति समुदाय। जैसे,—(क) हमारे पूर्वजों ने कदापि न सोचा होगा कि हमारी कोई पीढ़ी ऐसे कर्म करने पर भी उतारू हो जाएगी। (ख) यह संपत्ति हमारे पास तीन पीढ़ियों से चली आ रही है। ३. किसी जाति, दश अथवा लोकमंडल मात्र के बीच किसी कालविशेष में होनेवाला समस्त जनसमुदाय। कालविशेष में किसी विशेष जाति, देश अथवा समस्त संसार में वर्तमान व्यक्तियो अथवा जीवों आदि का समुदाय। किसी विशेष समय में वर्गविशेष के व्यक्तियों की समष्टि। संतति। संतान। नस्ल। जैसे,—(क) भारतवासियों की अगली पीढ़ी के कर्तव्य बहुत ही गुरुतर होंगे। (ख) उपाय करने से गोवंश की दूसरी पीढ़ी अधिक दुधारी और हृष्टपृष्ट बनाई जा सकती है।

पीढ़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीढ़ा] छोटा पीढ़ा। उ०—चंदन पीढ़ी बैठक सुरति रस बिंजन।—धरम० श०, पृ० ६६।

पीढ़ीबंध
संज्ञा पुं० [हिं० पीढ़ी + सं० बन्व] वंशक्रम। पीढ़ियों का क्रम। उ०—कुल महिमा बरणै कवण बुध बल पीढ़ीबंध।—रा० रू०, पृ० १०।

पीत (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पीता] १. पीला। पीतवर्णयुक्त। २. भूरा रंग। कपिलवर्ण (क्व०)।

पीत (२)
वि० [सं० पान] १. पिया हुआ। जिसका पान किया गया हो। २. जिसने पी लिया हो। जिसने पान कर लिया हो (को०)। ३. सोखा हुआ (को०)। ४. पूर्ण रूप से भरा हुआ (को०)। ५. सिंचित। जल से सींचा हुआ (को०)।

पीत (३)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीला रंग। हल्दी का रंग। २. भूरे रंग का। कपिल। ३. हरताल। ४. हरिचंदन। ५. कुसुम। ६. अंकोल या ढेरे का पेड़। ७. सिंहोर का पेड़। ८. धूप- सरल। ९. बेंत। १०. पुखराज। ११. तुन। नंदिवृक्ष। १२. एक प्रकार की सोमलता। १३. पीली कटसरैया। १४. पदमाख। पद्मकाष्ठ। १५. पीला खस। १६. मूँगा। १७. सोमा। सुवर्ण (को०)। १८. वल्कल (को०)। १९. चक्रवाक (को०)। २०. इंद्र (को०)। २१. मेढक (को०)। २२. गरुड़ (को०)। २३. गोमूत्र (को०)। २४. शुक्रचंचु। मैना की चोंच (को०)। २५. कर्णिकार। कनेर (को०)। २६. चंपक। चंपा (को०)।

पीत पु (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'प्रीति'। उ०—तम ग्रासक या दीप मैं पूरित पीत सनेह। बाती विसद हुतास पितु ललित तासु की देह।—दीन० ग्रं०, पृ० १७४।

पीतकंद
संज्ञा पुं० [सं० पीतकन्द] गाजर।

पीतक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हरताल। २. केसर। ३. अगर। ४. पदमाख। ५. सोनामाखी। ६. नंदिवृक्ष। तुन। ७. विजय- सार। ८. सोनापाठा। ९. हलदुआ। दरिद्र। १०. किंकि- रात। ११. पीतल। १२. पिला चंदन। १३. एक प्रकार का बबूल। १४. शहद। १५. गाजर। १६. सफेद जीरा। पीत- जीरक। १७. पीली लोध। १८. चिरायता। १९. चंदन।

पीतक (२)
वि० पीला। पीले रंग का। पीतवर्ण।

पीतकदली
संज्ञा पुं० [सं०] सोनकेला। स्वर्णकदली। चंपक- कदली।

पीतकद्रुम
संज्ञा पुं० [सं०] हलदुआ। हरिद्रवृक्ष।

पीतकरवीरक
संज्ञा पुं० [सं०] पीला कनेर। पीले फूल की केना।

पीतका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कटसरैया। २. हलदी।

पीतकावेर
संज्ञा पुं० [सं०] १. केसर। २. पीतल।

पीतकाष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. पिला चंदन। २. पद्माख।

पीतकीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] आवर्त की लता। भागवत वल्ली।

पीतकुरवक
संज्ञा पुं० [सं०] पीली कटसरैया।

पीतकुरुंट
संज्ञा पुं० [सं० पीतकुरुण्ट] पीली कटसरैया।

पीतकुष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] पीले रंग का कुष्ठ रोग [को०]। विशेष—भगिनीगमन के पाप से इस रोग का होना कहा गया है; यथा—भगिनीगमनेनैव पीतकुष्ठः प्रजायते।

पीतकुष्मांड
संज्ञा पुं० [सं० पीतकुष्माण्ड] कुम्हड़ा। पीला कुम्हड़ा जिसकी तरकारी खाई जाती है।

पीतकुसुम
संज्ञा पुं० [सं०] पीली कटसरैया।

पीतकेदार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान।

पीतगंध
संज्ञा पुं० [सं० पीतगन्ध] पीला चंदन। हरिचंदन।

पीतगंधक
संज्ञा पुं० [सं० पीतगन्धक] गंधक।

पीतघोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की तुरई। २. पीले फुलोवाली घोषा नाम की एक लता (को०)।

पीतचंचु
संज्ञा पुं० [सं० पीतचञ्चु] एक प्रकार का शुक जिसकी चोंच पीली होती है [को०]।

पीतचंदन
संज्ञा पुं० [सं० पीतचन्दन] १. द्रविड़देशीय पीले रंग का चंदन। हरिचंदन। विशेष—वैद्यक के अनुसार यह शीतल, तिक्त, तथा कुष्ठ, श्लेष्म, कडु, विचर्चिका, दाद और कृमि का नाशक और कांतिकर है। पर्या०—हरिचंदन। पीतगंध। कालेय। कालीय। कालीयक। पीताभ। हरिप्रिय। माधवप्रिय। पीतक। पीतकाष्ठ। वव्वर्र । कालसार। कालानुसार्थक। कलंबक। २. हरिद्रा। हलदी (को०)। ३. कुंकुम। केशर (को०)।

पीतचंपक
संज्ञा पुं० [सं० पीतचम्पक] १. पीली चंपा। २. दीया। प्रदीप। चिराग।

पीतचोप
संज्ञा पुं० [सं०] टेसू। पलास का फूल।

पीतझिंटी
संज्ञा स्त्री० [सं० पीताझिण्टी] १. पीले फूलवाली कट- सरैया। २. एक प्रकार की कटाई।

पीततंडुल
संज्ञा पुं० [सं० पीततण्डुल] १. काँगुन वृक्ष। कँगुनी। २. साल वृक्ष।

पीततंडुलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० पीततण्डुलिका] साल वृक्ष। शाल या सर्ज वृक्ष।

पीतता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीत का भाव। पीलापन। जर्दी।

पीततुंड
संज्ञा पुं० [सं० पीततुण्ड] बया पक्षी। कारंडव पक्षी।

पीततैला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्योतिष्मती। मालकँगनी। २. बड़ी मालकँगनी। महा ज्योतिष्मती।

पीतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पीतता'।

पीतदंतता
संज्ञा स्त्री० [सं० पीतदन्तता] दाँतों का एक पित्तज रोग जिसमें दाँत पीले हो जाते हैं।

पीतदारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवदार। २. धूप। साल। ३. हल- दुआ। ४. हलदी। ५. चिरायता। ६. कायकरंज।

पीतदीप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बौद्धों के एक देवता।

पीतदुग्धा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एख प्रकार की कटहरी। २. ऊँटकटीला। ऊँटकटारा। भँड़भाँड़। ३. एक प्रकार का थूहड़। सातला। ४. वह गाय जो सूद के बदले में दूध पीने के लिये ऋणदाता को दी गई हो (को०)।

पातद्रु
संज्ञा पुं० [सं०] १. दारु हलदी। २. एक प्रकार का देवदार। धूप सरल।

पीतधातु पु
संज्ञा पुं० [सं० पीत + धातु] रामरज। गोपीचंदन। उ०—स्यामा तू अति स्यामहिं भावै। बैठत उठत चलत गौ चारत तेरी लीला गावै। पीत बरन लखि पीत वसत उर पीतधातु अँग लावे।—सूर, १०।२५७९।

पीतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. केशर। २. धूप सरल। ३. हरताल। ४. आमड़ा। ५. पाकड़।

पीतनक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पीतन'।

पीतनदी
संज्ञा स्त्री० [सं० पीत (= पीला) + नदी] चीन की प्रसिद्ध नदी ह्वांगहो जो अपने किनारे पर उपजाऊ पीली मिट्टी अधिकता से छोड़ती है। उ०—उसकी मुख्य भूमि पीत नदी (ह्वाग्हो) के बड़े चकोर चक्कर से पश्चिम थी।—किन्नर०, पृ० ८५।

पीतनाश
संज्ञा पुं० [सं०] लकुच। बड़हर। क्षुद्र पनस।

पीतनिद्र
वि० [सं०] जो गहरी नींद में हो। गहरी नींद में सोया हुआ [को०]।

पीतनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरिवन। शालपर्णी।

पीतनील (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नीले और पीले रंग के संयोग से बना हुआ रंग। हरा रंग।

पीतनील (२)
वि० हरे रंग का। हरित वर्ण (पदार्थ)।

पीरपराग
संज्ञा पुं० [सं०] पद्मकेशर। कमल का केसर। किंजल्क।

पीतपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृश्चिकाली।

पीतपापरा पु
संज्ञा पुं० [सं० पीत + पर्पट, हिं० पितपापड़ा] दे० 'पीतपापड़ा'। उ०—मोथा नींब चिरायत बाँसा। पीतपापरा पित कहँ नासा।—इंद्रा०, पृ० १५१।

पीतपादप
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोनापाठा। श्योनाक वृक्ष। २. लोध का पेड़।

पीतपादा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पीत + पाद] मैना। सारिका।

पीतपादा (२)
वि० स्त्री० जिसके चरण पीले हों।

पीतपिष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा धातु।

पीतपुष्प (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कनेर। २. घिया तोरई। ३. पीले फूल की कटसरैया। ४. चंपा। ५. रग नामक क्षुप। ६. पेठा। ७. तगर। ८. हिंगोट। ९. लाल कचनार।

पीतपुष्प (२)
वि० पीले फूलोंवाला।/?/लगते हों [को०]।

पीतपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] दे०/?/।

पीतपुष्पका
संज्ञा स्त्री० [सं०] जंगली ककड़ी।

पीतपुष्पा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झिंझरीटा। २./?/। ३. सहदेवी। ४. अरहर। ५. तोरई। ६. पीले फूल की कट- सरैया। ७. पीले फूल का कनेर। ८. सोनजुही। यूथिका।

पीतपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शंखाहुली। २. सहदेई। ३. बड़ी/?/। ४. खीरा। ५. इंद्रायण। ६. सोनजुही।

पीतपृष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की कौड़ी। वह कौड़ी जिसकी पीठ पीली होती है। चित्ती कौड़ी।

पीतप्रसव
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिंगुपत्री। २. पीला कनेर।

पीतफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिहोर। शाखोट वृक्ष। २. कनरख। कर्मरंग। ३. घव का वृक्ष।

पीतफलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सिहोर। २. रीठा। ३. कमरख। ४. घव वृक्ष।

पीतफेन
संज्ञा पुं० [सं०] रीठा। अरिष्टक वृक्ष।

पीतबलि
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक।

पीतबीलुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हरिद्रा। हलदी।

पीतबीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेथी।

पीतभद्रक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बबूल। देव कर्वुर।

पीतभृंगराज
संज्ञा पुं० [सं० पीतभृंङ्गराज] पीला भँगरा।

पीतम पु (१)
वि० [सं० प्रियतम] दे० 'प्रियतम'।

पीतम (२) पु
संज्ञा पुं० दे० 'प्रियतम'। उभ०—बिना प्रेम पैये नहिं पीतम लाख संपदा बारी।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६९६।

पीतमणि
संज्ञा पुं० [सं०] पुखराज। पुष्पराग मणि।

पीतमस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ी जाति का बाज। श्येन पक्षी।

पीतमाक्षिक
संज्ञा पुं० [सं०] सोनामाखी। स्वर्णमाक्षिक।

पीतमारुत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सर्प [को०]।

पीतमुंड
संज्ञा पुं० [सं० पीतमुण्ड] एक प्रकार का हरिन।

पीतमुदग
संज्ञा पुं० [सं०] पीले रंग की मूँग [को०]।

पीतमूलक
संज्ञा पुं० [सं०] गाजर।

पीतमूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] रेवंद चीनी।

पीतयूथी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोनजूही। स्वर्णयूथिका।

पीतर † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पित्तल, पितल] दे० 'पीतल'।

पीतर † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पितृ, पितर] दे० 'पितर'। उ०—(क) पीतर पाथर पूजन लागे तीरथ गर्व भुलाना।—कबीर ग्रं०, पृ० ३३८। यौ०—पीतरपंड = पितपिंड। पिंडदान। उ०—पीतरपंड भरावइ छई राई।—बी० रासो, पृ० ५२।

पीतरक्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुखराज। २. पद्माख। पदमकाठ। ३. पीलापन लिए हुए लाल रंग (को०)।

पीतरक्त (२)
वि० पीलापन लिए हुए लाल रंग का [को०]।

पीतरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] पुखराज। पीतमणि।

पीतरस
संज्ञा पुं० [सं०] कसेरू।

पीतराग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद्मकेसर। २. मोम। ३. पीला रंग।

पीतराग (२)
वि० पीला। पीले रंग का।

पीतरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जंभीरी। कुंभेर। २. पीली कुटकी।

पीतल
संज्ञा पुं० [सं० पित्तल, पीतल] १. एक प्रसिद्ध उपधातु जो ताँबे और जस्ते के संयोग से बनती हैं। कभी कभी इसमें राँगे या सीसे का कुछ अंश मिलाया जाता है। विशेष—यह ताँबे की अपेक्षा कुछ अधिक दृढ़ होती है। इसका व्यवहार बहुधा थाली, कटोरे, गिलास, गगरे, हंडे आदि बरतन बनाने में होता है। देवताओं की मूर्तियाँ, उनके सिंहासन, घंटे अनेक प्रकार के वाद्य, यंत्र, ताले, कलों के कुछ पुरजे और गरीबों के लिये गहने भी पीतल से बनाए जाते हैं। पीतल की चीजें लोहे की चीजों से कुछ अधिक टिकाऊ होती हैं, क्योंकि उनमें मोरचा नहीं लगता। यह पीतल दो प्रकार का होता है—एक कुछ सफेदी लिए पीले रंग का और दूसरा कुछ लाली लिए पीले रंग का। राँगे का भाग अधिक होने से इसमें कुछ सफेदी और सीसे का भाग अधिक होने से लाली आ जाती है। यदि इसमें निकल का मेल दिया जाय तो इसका रंग जर्मन सिलवर के समान हो जाता है। इसपर कलई बहुत अच्छी होती है। २. पीला रंग। पीत वर्ण (को०)।

पीतल (२)
वि० पीत वर्ण का। पीला [को०]।

पीतलक
संज्ञा पुं० [सं० पित्तलक] पीतल [को०]।

पीतलोह
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल।

पीतवर्ण (१)
वि० [सं०] पीले रंग का। पीला।

पीतवर्ण (२)
संज्ञा पुं० १. पीला मेढक। स्वर्णमंडूक। २. ताड़। ताल- वृक्ष। ३. कर्दब। ४. हलदुआ। ५. लाल कचनार। ६. मैनसिल। ७. पीतचंदन। ८. केसर। ९. पीला रंग। पीत वर्ण।

पीतवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशबेल।

पीतवान
संज्ञा पुं० [देश०] हाथी की दोनों आँखों के बीच की जगह।

पीतवालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हलदी।

पीतवास
संज्ञा पुं० [सं० पीतवासस्] श्रीकृष्ण।

पीतवास
वि० जो पीले कपड़े पहने हों। पीतवसन युक्त।

पीतविंदु
संज्ञा पुं० [सं० पीतविन्दु] विष्णु के चरणचिह्नों में से एक।

पीतवीजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मेथी।

पीतवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. सोना पीठा। २. धूप सरल।

पीतशाल
संज्ञा पुं० [सं०] विजयसार।

पीतशालक
संज्ञा पुं० [सं०] पीतशाल। विजयसार।

पीतशेष (१)
संज्ञा पुं० [सं० पीत + शेष] वह अंश जो पीने के बाद बचा हुआ हो [को०]।

पीतशेष (२)
वि० पीने के बाद बचा हुआ [को०]।

पीतशोणित
वि० [सं०] १. खून पीनेवाली (तलवार)। २. जिसने रक्तपान किया हो [को०]।

पीतसरा
संज्ञा पुं० [सं० पितृव्य + श्वश्रू, हिं० पितिया + ससुर] चचिया ससुर। ससुर का भाई।

पीतसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीतचंदन। हरिचंदन। २. मलया- गिरि चंदन। सफेद चंदन। ३. गोमेद मणि। ४. अंकोल ढेरा। ५. विजयसार। ६. शिलारस।

पीतसारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीम का पेड़। २. ढेरे का पेड़।

पीतसारि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंजन। सुरमा [को०]।

पीतसारिका
संज्ञा पुं० [सं०] काला सुरमा।

पीतसाल
संज्ञा पुं० [सं०] विजयसार।

पीतसालक
संज्ञा पुं० [सं०] विजयसार। पीतसार।

पीतस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० पीतस्कन्ध] १. सुअर। शूकर। २. एक वृक्ष।

पीतस्फटिक
संज्ञा पुं० [सं०] पुखराज।

पीतस्फोट
संज्ञा पुं० [सं०] खुजली। खसरा रोग।

पीतहरित
वि० [सं०] पीलापन लिए हुए हरे रंग का [को०]।

पीतांग
संज्ञा पुं० [सं० पीताङ्ग] सोनापाठा।

पीतांबर (१)
संज्ञा पुं० [सं० पीताम्बर] १. पीले रंग का वस्त्र। पीला कपड़ा। २. मरदानी रेशमी धोती जिसे हिंदू लोग पूजापाठ, संस्कार, भोजन आदि के समय पहनते हैं। विशेष—इस वस्त्र का व्यवहार भारत में बहुत प्राचीन काल से होता है। पहले कदाचित् पीली रेशमी धोती को ही पीतांबर कहते थे; पर अब लाल, नीली, हरी आदि रंगों की धोतियाँ भी पीतांबर कहलाती हैं। ३. श्रीकृष्ण। ४. नट। शैलूष। अभिनेता। ५. विष्णु (को०)।

पीतांबर (२)
वि० पीले कपड़ेवाला। पीतवसनयुक्त। पीतांबरधारी।

पीतांभर पु
संज्ञा पुं० [सं० पीताम्बर] दे० 'पीतांबर'। उ०— प्रथम प्रयानह सुंदरी मिली अंक लिय बाल। पीतांभर अंबर धरे दीप जोति रचि थाल।—पृ० रा०, ८।१८।

पीता (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हलदी। उ०—पीता गौरी कांचनी रजनी पिंडानाम।—अनेकार्थ०, पृ० १०५। २. दारु हलदी। ३. बड़ी मालकँगनी। ४. भूरे रंग का शीशम। ५. फलप्रियंगु। ६. गोरोचन। ७. अतीस। ८. पीला केला। स्वर्णकदली। ९. जंगली बिजौरा नीबू। १०. जर्द चमेली। ११. देवदार। १२. राल। १३. असगंध। १४. शालिपर्णी। १५. अकासवेल।

पीता (२)
वि० पीले रंग की। पीले रंगवाली (स्त्री अथवा वस्तु)।

पीता (३) †
संज्ञा पुं० [हिं० पित्ता] दे० 'पित्ता'। मुहा०—पीते को मारना = दे० 'पित्ता मारना'। उ०—पीते को मारै सोई जन पूरा।—प्राण०, पृ० २९।

पीताब्धि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र को पी जानेवाले, अगस्त्य मुनि।

पीताभ (१)
वि० [सं०] जिसमें से पीली आभा निकलती हो। पीला। पीतवर्ण। उ०—पीताभ, अग्निमय ज्यों दुर्जय।—अपरा, पृ० ६२।

पीताभ (२)
संज्ञा पुं० पीला चंदन। पीत चंदन।

पीताभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अभ्रक जो पीला होता है।

पीताम्लान
संज्ञा पुं० [सं०] पीली कटसरैया।

पीतारुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पीलापन लिए हुए लाल रंग।

पितारुण (२)
वि० पीलापन लिए हुए लाल रंग का। पीतारुण वर्णयुक्त। पीतरक्त वर्ण विशिष्ट।

पितावशेष
वि०, संज्ञा पुं० [सं० पीत + अवशेष] दे० 'पीतशेष'।

पिताश्म
संज्ञा पुं० [सं० पीताश्मन्] पुखराज। पुष्पराग मणि।

पीताह्व
संज्ञा पुं० [सं०] राल।

पीति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीना। पान (वैदिक)। २. गुप्ति। रक्षण। रक्षा। ३. गति। ४. सुँड। ५. गंजा। मदिरागृह। (को०)। ६. पांथागार। पांथशाला (को०)।

पीति (२)
संज्ञा पुं० घोड़ा। अश्व।

पीतिआ †
संज्ञा पुं० [सं० पितृव्य] बाप का भाई। चाचा। उ०— आए नगर आगरे माँहिं। सुंदरदास पीतिआ पाहिं।—अर्ध०, पृ० ७।

पीतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हलदी। २. दारु हलदी। सोनजूही। स्वर्णयूयी। ३. केसर (को०)।

पीतिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शालपर्णी।

पीतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० पीतिमन्] पीला रंग [को०]।

पीती (१)
संज्ञा पुं० [सं० पीतिन्] घोड़ा।

पीती पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रीति] दे० 'प्रीति'।

पीतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य। २. अग्नि। ३. यूथपति। हाथियों के समूह का नायक।

पीतुदारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. गूलर। २. देवदार।

पीतोदक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नारियल (जिसके भीतर जल या रस रहता है)।

पीतोदक (२)
वि० १. जिसका पानी पिया गया हो। २. जो पानी पिए हुए हो [को०]। जो गाय जितना जल पीना था, पी चुकी हो और जरा के कारण अब नहीं पी सकती हो (कठोय०)।

पीथ
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पानी। २. घी। ३. अग्नि। ४. सूर्य। ५. काल। समय। ६. रक्षा। रक्षण (को०)। ७. पान (को०)।

पीथक पु †
वि० [हिं० पृथक्] दे० 'पृथक्'। उ०—फतमाला पीथल्ल का, पीथक पारथ अंग। तत्ता ताए लोह सम सदा धाया जंग।—रा० रू०, मृ० १२६।

पीथि
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ा।

पीदड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पिद्दी] दे० 'पिद्दी'।

पीन (१)
वि० [सं०] १. स्थूल। मोटा। उ०—गजहस्तप्राय जानु- युगल पीन मांसल कूर्म्मपुष्ठाकार श्रोणी।—वर्ण०, पृ० ४। २. पुष्प। प्रवृद्ध। परिवर्धित। ३. संपन्न। भरा पूरा। ४. बृहत्। बड़ा (को०)।

पीन (२)
संज्ञा पुं० स्थूलता। मोटाई।

पीनक
संज्ञा स्त्री० [हिं० पिनकना] १. अफीम के नशे में ऊँघना। नशे की हालत में अफीमची का आगे की ओर झुक झुक पड़ना। क्रि० प्र०—लेना।मुहा०—पीनक में आना = अफीमची का नशे में ऊँघने लगना। २. ऊँघना। नींद के आने से आगे की ओर झुक झुक पड़ना। जैसे,—तुम्हें शाम हुई कि लगे पीनक लेने। क्रि० प्र०—लेना।

पीनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मोटाई। स्थूलता। उ०—दया दान दूबरों हौं पापा ही की पीनता।—संतवाणी०, पृ० ८५। २. आधिक्य। बहुतायत।

पीनना
क्रि० स० [सं० पिञ्जन] दे० 'पीजना'। उ०—बहुत रुई पीनी बहु बिधि करि, मुदित भए हरि राई। दादू दास अजब पीनारा सुंदर बलि बलि जाई।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८६९।

पीनल कोड
संज्ञा पुं० [अं० पेनल कोड] अपराध और दंड संबंधी व्यवस्थाओं या कानूनों का संग्रह। दंडविधि। ताजी- रात। जैसे, इंडियन पीनल कोड।

पीनवक्षा
वि० [सं० पीनवक्षम्] चौड़ी छातीवाला। जिसका वक्ष विशाल हो [को०]।

पीनस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] नाक का एक रोग जिसमें उसकी घ्राण या वास पहचानने की शक्ति नष्ट हो जाती है। विशेष—इस रोग में नाक के नथने शुष्क, कफ से भरे हुए और क्लिन्न अर्थात् गीले रहते हैं तथा उनमें जलन भी रहती है। वात और कफ के प्रकोपवाले जुकाम के लक्षण प्रायः इसमें मिलते हैं।

पीनस (२)
संज्ञा स्त्री० [फा़० फीनस] पालकी।

पीनसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] ककड़ी।

पीनसित
वि० [सं०] पीनस से पीड़ित। पीनसी [को०]।

पीनसी
वि० [सं० पीनसिन्] जिसे पीनस रोग हुआ हो। पीनस से पीड़ित।

पीना (१)
क्रि० स० [सं० पान] किसी तरल वस्तु को घूँट घूँट करके गले के नीचे उतारना। जल या जलसदृश वस्तु को मुँह के द्वारा पेट में पहुँचाना। पैट पदार्थ को मुख द्वारा ग्रहण करना। घूँटना। पान करना। जैसे, पानी पीना, शरबत पीना, दूध पीना आदि। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। २. किसी बात को दबा देना। किसी कार्य के संबंध में वचन या कार्य से कुछ न करना। किसी संबंध में सर्वथा मौन धारण कर लेना। पूर्ण उपेक्षा करना। किसी घटना के संबंध में अपनी स्थिति ऐसी कर लेना जिससे उससे पूर्ण असंबंध प्रकट हो। जैसे,—इस मामले को वह इस प्रकार पी जायगा; ऐसी आशा तो नहीं थी। ३. (गाली, अपमान आदि पर) क्रोध या उत्तेजना न प्रकट करना। सह जाना। बरदाश्त करना। जैसे,—इस भारी अपमान को वह इस तरह पी गया मानों कुछ हुआ ही नहीं। ४. किसी मनो- विकार को भीतर ही भीतर दबा देना। मनोभाव को बिना प्रकट किए ही नष्ट कर देना। मारना। जैसे, गुस्सा पीना। ५. किसी मनोविकार का कुछ भी अनुभव न करना। मनोभाव ही न रहने देना। कुछ भी शेष या बाकी न रखना। जैसे, लज्जा पी जाना। ६. मद्य पीना। शराब पीना। सुरापान करना। जैसे,—जब जब वह पीता है तब तब उसकी यही दशा होती है। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।—लेना। ७. हुक्के, चुरुट आदि का धुआँ भीतर खींचना। धूमपान करना। जैसे, हुक्का पीना, चुरुट पीना, गाँजा पीना, चंडू पीना आदि। संयो० क्रि०—जाना।—डालना। —लोना। ८. सोखना। शोषण करना। जज्ब करना। जैसे,—(क) यह जूता इतना तेल पिएगा, यह मैंने नहीं समझा था। (ख) मिट्टी का बरतन तो सारा घी पी जायगा। संयो० क्रि०—जाना।—डालना।

पीना (२)
संज्ञा पुं० [सं० पीडन (= पेरना) ] तिल, तीसी आदि की खली। उ०—बिना विचार विवेक भए सब एकै घानी। पीना भा संसार जाठि ऊपर मर्रानी।—पलटू०, भा० १, पृ० ५९।

पीना (३)
संज्ञा पुं० [देश०] डाट। डट्टा (लश०)।

पीनारा पु
संज्ञा पुं० [सं० पिञ्जार] रुई धुननेवाला। धुनिया। उ०—दादू दास अजब पीनारा, सुंदर बलि बलि जाई।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ८६९।

पीनी (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पोस्त, तीसी या तिल आदि की खली।

पीनी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीना] हुक्के की नली। निगाली। उ०— अंदर से बुढ़िया निकली तो कुल्ली ने कहा पीनी हमारे पास है, तुम हुक्का भरकर ला दो।—रति०, पृ० ५५।

पोनोघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] भरे हुए स्तनोंवाली गौ [को०]।

पोनोरु
वि० [सं० पीन + उरु] भारी जाँघोंवाली। जिसके उरु पीन हों। उ०—करके अधिकार किसी भीरु पीनोरु नतनयना नवयौवना पर।—अपरा, पृ० ९।

पीप (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पूय] फूटे फोड़े या घाव के भीतर से निकलनेवाला सफेद लसदार पदार्थ जो दूषित रक्ते का रूपां- तर होता है। विशेष—इसमें रक्त के श्वेत कण ही अधिकता से होते हैं। उनके अतिरिक्त इसमें शरीर के सड़े हुए और नष्ट घटकों और तंतुओं का भी कुछ लाल अंश होता है। शरीर के किसी भाग में इस पदार्थ के एकत्र हो जाने से ही व्रण या फोड़ा होता है और जब तक यह निकल नहीं जाता तब तक बहुत कष्ट होता है।

पीप पु (२)
संज्ञा पुं० [प्रा० पिप्पल, हिं० पीपल] दे० 'पीपल'। उ०— सुहल्या जनु पोंनय पीप पतं।—पृ० रा०, १। ११४।

पीपर
संज्ञा पुं० [सं० पिप्पल] दे० 'पीपल'।

पीपरपर्न पु
संज्ञा पुं० [हिं० पीपल + पर्न> सं० पर्ण] कान में पहनने का एक आभूषण। उ०—पीपरपर्न मुलमुली तीखन बहु खलेल झूमिका सुसरमन।—सूदन (शब्द०)।

पीपरामूल
संज्ञा पुं० [सं० पीप्पल + मूल] दे० 'पीपलामूल'।

पीपरि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा पाकड़।

पीपरि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पीप्पली] दे० 'पीपल (२)'।

पीपरि (३) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पीपल (१)'।

पीपल (१)
संज्ञा पुं० [सं० पिप्पल] बरगद की जाति का एक/?/सिद्ध वृक्ष जो भारत में प्रायः सभी स्थानों पर अधिकता से पाया जाता है। विशेष—यह वृक्ष ऊँचाई में बरगद के समान ही होता है, पर इसमें उसकी तरह जटाएँ नहीं फूटतीं। पत्ते इसके गोल होते हैं और आगे की और लंबी गावदुम नोक होती है। इसकी छाल सफेद और चिकनी होती है। लकड़ी पोली और कमजोर होती है और जलाने के सिवा और किसी काम की नहीं होती। इसका गोदा (फल) बरगद के गोदे की अपेक्षा छोटा और चिपटा तथा पकने पर यथेष्ट मीठा होता है। गोते लगने का समय बैसाख जेठ है। इसकी डालियों पर लाख के कीड़े पैदा होते हैं और पाले जाते हैं। बस यही इसका विशेष उपयोग है। गोदे बच्चे खाते हैं और पत्ते बकरियों और ऊँटों, हाथियों को खिलाए जाते हैं। छाल के रेशों से ब्रह्मा (बर्मा) वाले एक प्रकार का हरा कागज बनाते हैं। पुराणानुसार पीपल अत्यंत पवित्र और पूजनीय है। इसके रोपण करने का अक्षय पुण्य लिखा है। पद्यपुराण के अनुसार पार्वती के शाप से जिस प्रकार शिव को बरगद और ब्रह्मा को पाकड़ के रूप में अवतार लेना पड़ा उसी प्रकार विष्णु को पीपल का रूप ग्रहण करना पड़ा। भगवदगीता में भी श्रीकृष्ण ने कहा है कि वृक्षों में मुझे पीपल जानो। हिंदू लोग बड़ी श्रद्धा से इसकी पूजा और प्रदक्षिणा करते हैं और इसकी लकड़ी काटना या जलाना पाप समझते हैं। दो तीन विशेष संस्कारों में, जैसे, मकान की नींव रखना, उपनयन आदि में इसकी लकड़ी काम में लाई जाती है। बौदध लोग भी पीपल को परम पवित्र मानते हैं, क्योंकि बुदध को संबोधि की प्राप्ति पीपल के पेड़ के नीचे ही हुई थी। वह वृक्ष बोधिद्रुम के नाम से प्रसिदध है। वैद्यक के अनुसार इसके पके फल शीतल, अतिशय हृद्य तथा रक्तपित्त, विष, दाह, छर्दि, शोष, अरुचि और योनिदोष के नाशक हैं। छाल संकोचक है। मुलायम छाल और नए निकले हुए पत्ते पुराने प्रमेह की उत्तम औषध है। फल का चूर्ण सेवन करने से क्षुधावृदि्ध और कोष्ठशुदि्ध होती है। फलों के भीतर के बीज शीतल और धातु परिवदर्धक माने जाते हैं। पर्या०—बोधिद्रुम। चलदल। पिप्पल। कुंजराशन। अच्युता- वास। चलपत्र। पवित्रक। शुभद। याज्ञिक। गजभक्षण। श्रीमान्। क्षीरद्रुम। विप्र। मांगल्य। श्यामलय। गुह्यपुण्य। सेव्य। सत्य। शुचिद्रुम। धनुवृक्ष।

पीपल (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पिप्पली] एक लता जिसकी कलियाँ प्रसिद्ध ओषधि हैं। विशेष—इसेक पत्ते पान के समान होते हैं। कलियाँ तीन चार अंगुल लंबी शहतूत के आकर की होती हैं और उनका पृष्ठभाग भी वैसा ही दानेदार होता है। इसका रंग मटमैला और स्वाद तीखा होता है। छोटी कलियों को छोटी पीपल और बड़ी तथा किंचित् मोटी कलियों को बड़ी पीपल कहते हैं। ओषधि के लिये अधिकतर छोटी ही काम में लाई जाती है। वैद्यक के अनुसार पीपल (फली) किंचित् उष्ण, चरपरी, स्निग्ध, पाक में स्वादिष्ट, वीर्यवर्धक, दीपन, रसायन हलकी, रेचक तथा कफ, वात, श्वास, कास, उदररोग, ज्वर, कुष्ठ, प्रमेह, गुल्म, क्षयरोग, बवासीर, प्लीहा, शूल और आमवात को दूर करनेवाली मानी जाती है। पर्या०—पिप्पली। मागधी। कृष्णा। चपला। चंचला। उपकुल्ला। कोल्या। वैदेही। तिक्ततंडुला। उष्णा। शौंडी। कोला। कटी। एरंडा। मगधा। कृकला। कटुबीजा। कारंगी। दंतकफा। मगधोदभवा।

पीपलमूल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पीपलामूल'। उ०—बिसूचित तन नहीं सकै समारि। पीपलमूल ज्वाइनि तारि।—प्राण०, पृ० १५०।

पीपलामूल
संज्ञा पुं० [सं० पिप्पलीमूल] एक प्रसिद्ध ओषधि जो पीपल ओषधि की जड़ है। विशेष—आयुर्वेद के अनुसार पीपलामूल चरपरा, तीखा, गरम, रुखा, दस्तावर, पित्त को कुपित करनेवाला, पाचक, रेचक तथा कफ, वात, उदररोग, आनाह, प्लोहा, गुल्म, कृमि, श्वास, क्षयरोग, खाँसी, आम और शूल को दूर करनेवाला माना जाता है। पीपरामूल नाम से भी यह प्रसिद्ध है।

पीपा
संज्ञा पुं० [?] बड़े ढोल के आकार का या चौकोर काठ या लोहे का पात्र जिसमें मद्य, तेल आदि तरल पदार्थ रखे और चालान किए जाते हैं। विशेष—बरसात के अतिरिक्त अन्य दिनों में बड़े बड़े पीपों को पंक्ति में बिछाकर नदियों पर पुल भी बनाए जाते हैं।

पीपिया ‡
संज्ञा पुं० [अनु०] आम की गुठली या अन्य किसी साधन से बनाया हुआ बच्चों का बाजा।

पीव
संज्ञा पुं० [सं० पूय, हिं० पीप] दे० 'पीप'।

पीय पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] दे० 'पिय'। उ०—प्यारी झूलत प्यार सौं पीय झुलावत जात। मनौ सितारे भूमी नभ फिरि आवत फिरि जात।—स० सप्तक, पृ० ३६३।

पीयर †
वि० [अप० पीअर] दे० 'पीला'।

पीया पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रिय] स्वामी। पति। पिय।

पीयु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काल। समय। २. सूर्य। ३. अग्नि (को०)। ४. स्वर्ण। सोना (को०)। ५. थूक। ६. कौआ। काक। ७. उल्लू। पेचक।

पीयु (२)
वि० १. हिंसा करनेवाला। हिंसक। २. प्रतिकूल। विरुदध।

पीयूक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पाकर।

पीयूख
संज्ञा पुं० [सं० पीयूष] दे० 'पीयूष'।

पीयूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अमृत। सुधा। २. दूध। ३. नई ब्याई हुई गाय का प्रथम से सातवें दिन तक का दूध। उस गायका दूध जिसे व्याए सात दिन से अधिक न हुआ हो। नव- प्रसूता गाय का दूध। विशेष—वैद्यक के अनुसार ऐसा दूध रूखा, दाहकारक, रक्त को कुपित करनेवाला और पित्तकारक होता है। साधारणतः ऐसा दूध लोग नहीं पीते क्योंकि वह स्वास्थ्य के लिये हानिकारक माना जाता है। यौ०—पीयूषद्युति, पीयूषधाम = पीयूषभानु। पीयूषभुक, पीयूष- मयूख, पीयूषमहा, पीयूषरुचि = चंद्रमा।

पीयूषभानु
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा। उ०—तीछन जुन्हाई भई ग्रीषम को घामु, भयो भीसम पीयूषभानु, भानु दुपहर कौ।—मतिराम (शब्द०)।

पीयूषभुक्
संज्ञा पुं० [सं० पीयूषभुज्] १. चंद्रमा। २. देवता [को०]।

पीयूषमहा
संज्ञा पुं० [सं० पीयूषमहस्] अमृतमय किरणोंवाला। अमृतदीधिति। चंद्रमा [को०]।

पीयूषरुचि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा।

पीयूषवर्ण (१)
वि० [सं०] दूध की तरह सफेद [को०]।

पीयूषवर्ण (२)
संज्ञा पुं० श्वेत वर्ण का घोड़ा। सफेद घोड़ा [को०]।

पीयूषवर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा। २. कपूर। ३. एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में १०—९ विश्राम से १९ मात्राएँ और अंत में गुरु लघु होता है। इसको 'आनंदवर्धक' भी कहते हैं। ४. जयदेव कवि की उपाधि। ५. अमृत की वर्षा (को०)।

पीर (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पीडा] १.पीड़ा। दुःख। दर्द। तकलीफ। उ०—जाके पैर न फटी बिवाई। सो का जानै पीर पराई।—तुलसी (शब्द०)। २. दूसरे की पीड़ा या कष्ट देखकर उत्पन्न पीड़ा। दूसरे के दुःख से दुःखानुभव। सहानुभूति। हमदर्दी। दया। करुणा। मुहा०—पीर न आना = दूसरे के दुःख से दुखी न होना। पराए कष्ट पर न पसीजना। सहानुभूति या हमदर्दी न पैदा होना। ३. बच्चा जनने के समय की पीड़ा। प्रसवपीड़ा। उ०— कमर उठी पीर मैं तो लाला जनूँगी।—गीत (शब्द०)। क्रि० प्र०—आना।—उठना।—होना। विशेष—यद्यपि ब्रजभाषा, खड़ी बोली और उर्दू तीनों भाषाओं के कवियों ने बहुतायत से इस शब्द का प्रयोग किया है और स्त्रियों की बोलचाल में अब भी इसका बहुत व्यवहार होता है तथापि गद्य में इसका व्यवहार प्रायः नहीं होता।

पीर (२)
वि० [फा़०] [संज्ञा पीरी] १. वृदध। बूढ़ा। बड़ा। बुजुर्ग। २. महात्मा। सिदध। ३. धूर्त। चालाक। उस्ताद। (बोलचाल)।

पीर (३)
संज्ञा पुं० १. धर्मगुरु। परलोक का मार्गदर्शक। २. मुसलमानों के धर्मगुरु।

पीर (४)
संज्ञा पुं० [फा़० पीर (= गुरु)] सोमवार का दिन। चंद्रवार।

पीरक पु
वि० [सं० पीडक, हिं० पीर + क (प्रत्य०)] पीड़ा देनेवाला। सतानेवाला। उ०—प्राननि प्रान हौ, प्यारे सुजान हौ, बोलौ इते परपीरक हौ क्यों।—घनानंद, पृ० १२१।

पीरजादा
संज्ञा पुं० [फा़० पीरजादह्] [स्त्री० पीरजादी] किसी पीर या धर्मगुरु की संतान। उ०—यो सुन कर जमा हो सब पीरजादे, सवारों जमा कर कर होर प्यादे।—दक्खिनी०, पृ० १९६।

पीरजाल
संज्ञा स्त्री० [फा़० पीरजाल] वृद्धा स्त्री। बुढ़िया [को०]।

पीरनाबालिग
वि० [फा़० पीर + अ० नाबालिग] ऐसा वृद्ध जो बच्चों के से काम और बातें करे। सठियाया हुआ बुड्ढा। बुदिधभ्रष्ट बूढ़ा।

पीरमर्द
संज्ञा पुं० [फा़०] बूढ़ा और सदाचारी व्यक्ति [को०]।

पीरमान
संज्ञा पुं० [लश०] मस्तूल के ऊपर बँधे हुए वे डंडे जिनके दोनों सिरों पर लट्टू बने रहते हैं और जिनपर पाल चढ़ाई जाती है। अडडंडा। परवान।

पीरमुरशिद
संज्ञा पुं० [फा़०] गुरु, महात्मा, पूजनीय अथवा अपने से दरजे में बहुत बड़ा। विशेष—महात्माओं के अतिरिक्त राजाओं, बादशाहों और बडों के लिये भी इसका प्रयोग किया जाता है।

पीरसाल
वि० [फा़०] १. बूढ़ा। व्योवृदध। २. वृदधा। बूढ़ी [को०]।

पीरा ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पीडा] दे० 'पीड़ा'।

पीरा (२)
वि० [सं० पीत, प्रा० पीअर] दे० 'पीला'। उ०—पाँच तत्त रँग भिन भिन देखा। कारा पीरा सुरख सपेदा।— घट०, पृ० २३८।

पीराई
संज्ञा पुं० [फा़० पीर + हिं० आई (प्रत्य०)] वह जाति जिसकी जीविका पीरों के गीत गाने से चलती है। डफाली।

पीरान
संज्ञा स्त्री० [फा़०] वह भूमि जो किसी पीर की सेवा में अर्पित हो। २. भूमि जो पीरों की सहायता के लिये हो [को०]।

पीराना
वि० [फा़० पीरानह्] बूढ़ों के समान। बृदध जैसा। वृदध का [को०]।

पीरानी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] पीर की पली [को०]।

पीरानेपीर
संज्ञा पुं० [फा़०] पीरों का पीर [को०]।

पीरामिड
संज्ञा पुं० [अं० पिरेमिड] ऊपर को उठा हुआ त्रिको- णात्मक कब्रगाह। विशेष—मिस्र में इस प्रकार के अनेक कब्रगाह बने हैं, जिनमें प्राचीनतम राजाओं के शव सुरक्षित हैं। विश्व की आश्चर्य- जनक वस्तुओं में पिरामिड भी हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से इन कब्रों या पिरामिडों का विशेष महत्व है।

पीरी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. बूढ़ापा। वृदधावस्था। २. चेला मूड़ने का धंधा या पेशा। गुरुवाई। ३. चालाकी। धूर्तता (क्व०)। ४. इजारा। ठेका। हुकूमत। जैसे,—क्यातुम्हारे बाबा की पीरी है। ५. अमानुषिक शक्ति या उसके कार्य। चमत्कार। करामात (क्व०)।

पीरी (२)
वि० स्त्री० [हिं०] दे० 'पीला'। उ०—यह पीरी पीरी भई, पीरी मोहि मिलाय।—ब्रज० ग्रं०, पृ० ५६।

पीरी † (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पीला] पीलिया या कामला रोग।

पीरू (१)
संज्ञा पुं० [फा़० पीलमुर्ग] एक प्रकार का मुर्ग। विशेष—इस शब्द का पुराना रूप 'पीलू' है। पर अब इस रूप में ही अधिक प्रचलित है।

पीरो पु
वि० [हिं०] दे० 'पीला'। उ०—(क) राधे राधै टेर टेर, पीरो पट फेर फेर, हेर हेर हरि डोलै गेर गेर बन में। (ख) द्वै सिंध आनन पर जमें कारो पीरो गात।—नंद० ग्रं०, पृ० १८४।

पीरोज पु
संज्ञा पुं० [सं० पेरोज (= उपरत्न) फा़० फीरोजह्, पीरोजह्, हिं० पीरोजा] दे० 'फीरोजा'। उ०—कहूँ दाडिमी चूव चिंचन्न चंपी। मनों लाल मानिक्क पीरोज थप्पी।—पृ० रा०, २। ४७०।

पीरोजा
संज्ञा पुं० [फा़० पीरोजह्] दे० 'फीरोजा'।

पील (१)
संज्ञा पुं० [फा़०] १. हाथी। गज। हस्ति। उ०—परै पील भुम्मी सु घुम्मैं गरज्जैं।—ह० रासो, पृ० १४९। २. शतरंज के खेल का एक मोहरा। यह तिरछा चलता है और तिरछा ही मारता है। इसको पीला, फील, फीला तथा ऊँठ भी कहते हैं। विशेष—दे० 'शतरंज'।

पील (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पीलू] कीड़ा।

पील (३)
संज्ञा पुं० [सं० पीलु] दे० 'पीलु'—१।

पील पु (४)
वि० [हिं० पीला] दे० 'पीला'। उ०—ता में लील पील सम द्वारा।—घट०, पृ० २४९।

पीलक (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पीले रंग का पक्षी जिसके डैने काले और चोंच लाल होती है।

पीलक
संज्ञा पुं० [सं०] बड़ा और काला चींटा [को०]।

पीलखाँ
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष।

पीलखाना
संज्ञा पुं० [फा़० पीलखानह्] हस्तिशाला। हथसार।

पीलपाँव
संज्ञा पुं० [फा़० पीलपा] एक प्रसिद्ध रोग। फीलपा। श्लीपद। विशेष—इसमें घुटने के नीचे एक या दोनों पैर सुजे रहते हैं। सूजन पुरानी होने पर उसमें खुजली और घाव भी हो जाता है। सूजन पहले टाँग के पिछले भाग से आरंभ होती है फिर धीरे धीरे सारी टाँग में व्याप्त हो जाती है। आरंभ में ज्वर और जिस पैर में यह रोग होनेवाला रहता है उसके पट्ठे में गिलटी निकलती है जिसमें असह्य पीड़ा होती है। वात की अधिकता में सूजन काली, रूखी, फटी और तीव्र वेदनायुक्त; पित्त की अधिकता में कोमल, पीली और दाहयुक्त तथा कफ की अधिकता में कठिन, चिकनी, सफेद या पांडुवर्ण और भारी होती है। बहुत जल्दी उपाय न करने से यह रोग असाध्य हो जाता है। सीड़वाले देशों में गह रोग अधिक होता है। कई आचार्यों के मत से हाथ, गला, कान, नाक, होठ आदि की सूजन भी इसी के अंतर्गत है।

पीलपा
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'पीलपाँव'।

पीलपाया
संज्ञा पुं० [फा़० पीलपायह्] वह खंभा जो ठेक या सहारे के लिये लगाया जाता है [को०]।

पीलपाल पु
संज्ञा पुं० [फा़० पील, सं० पीलु + सं० पाल] पीलवान। महावत। हाथीवान।

पीलबान
संज्ञा पुं० [फा़०] दे० 'पीलवान'। उ०—पीलबाननि सँवारे ये मतंग मतवारे ते।—हम्मीर; पृ० २३।

पीलवान
संज्ञा पुं० [फा़० पीलबान] हाथीवान। महावत। फीलबान।

पीलसोज
संज्ञा पुं० [फा़० फतीलसोज] दीया जलाने की दीवट। चौमुखा दीवट। चिरागदान। उ०—पीलसोज फानुस कुपी तिखटी सुमसालै।—सूदन (शब्द०)।

पीला (१)
वि० [सं० पीतलक (= पीला), अप० पीअर, पीअल] [वि० स्त्री० पीली] १. हलदी, सोने या केसर के रंग का (पदार्थ)। जिसका रंग पीला हो। पीतवर्ण। जर्द। २. ऐसा सफेद जिसमें सुर्खी या चमक न हो। रक्त का अभावसूचक श्वेत। जिससे वर्ण की आभा न निकलती हो। कांतिहीन। निस्तेज। धुँधला सफेद। जैसे, पीला चेहरा। मुहा०—पीला पड़ना या होना = (१) रक्त के अभाव के कारण (मनुष्य के शरीर या चेहरे के) रंग में चमक या कांति न रह जाना। बीमारी के कारण चेहरे या शरीर से रक्त का अभाव सूचित होना। ललाई, तेज या दमक न रह जाना। जैसे,—तुम दिन ब दिन पीले हुए जा रहे हो, आखिर तुम्हें कौन सा रोग लगा है। (२) भय के कारण चेहरे पर सफेदी आ जाना। खून सूख जाना। रंग उड़ जाना या फीका पड़ जाना। जैसे,—मेरी सूरत देखते ही वह एकदम पीला पड़ गया।

पीला (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का रंग जो हलदी या सोने के रंग से मिलता जुलता होता है और जो हलदी, हरसिंगार आदि से बनाया जाता है। मुहा०—पीली फटना = पौ फटना। तड़का होना।

पीला
संज्ञा पुं० [फा़० पीलह्] शतरंज का एक मोहरा। दे० 'पील'।

पीला कनेर
संज्ञा पुं० [हिं० पीला + कनेर] कनेर के दो भेदों में से एक जिसका फूल पीला और आकार में घंटी के समान होता है। लाल कनेर की अपेक्षा इसका पेड़ कुछ अधिक ऊँचा होता है। वैद्यक के अनुसार इसके गुण भी सफेद कनेर के समान ही होते हैं। विशेष—दे० 'कनेर'।

पीला धतूरा
संज्ञा पुं० [हिं० पीला + धतूरा] १. भँड़ भाँड़। सत्या- नासी। घमोय। ऊँटकटारा। २. पीले वर्ण का कनक पुष्प। विशेष—काले या नीले धतूरे के समान इसमें भी तीन फूल एक ही में लगें रहते हैं। खिल जाने पर इसका फूल सोने की तरह पीला दिखता है। यह वृक्ष बहुत कम दिखाई पड़ता है।

पीलापन
संज्ञा पुं० [हिं० पीला + पन (प्रत्य०)] पीला होने का भाव। पीतता। जर्दी।

पीलाबरेल
संज्ञा पुं० [देश०] बरियारा। बनमेथी।

पीलाम
संज्ञा पुं० [/?/] साटन नाम का कपड़ा।

पीला शेर
संज्ञा पुं० [हिं० पीला + फा़० शेर] एक प्रकार का बाध जो अफ्रीका में पाया जाता है और जिसका रंग कुछ पीला होता है।

पीलिमा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीला] पीलापन। पीतता।

पीलिया
संज्ञा पुं० [हिं० पीला + इया (प्रत्य०)] कमल रोग जिसमें मनुष्य की आँखें और शरीर पीला हो जाता है।

पीलीचमेली
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीली + चमेली] दे० 'चमेली'।

पीली चिट्ठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीली + चिट्ठी] विवाह का निमंत्रणपत्र जिसपर प्रायः केसर, हलदी आदि छिड़का रहता है।

पीली जुही
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीली + जुही] दे० 'सोनजुही'।

पोलीमिट्टी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पीली + मिट्टी] एक प्रकार की मिट्टी जो चिकनी, कड़ी और रंग में पीली होती है।

पीलु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक फलदार वृक्ष जिसे पीला या पीलू कहते हैं। विशेष—वैद्यक के अनुसार इसका फल स्वादु, कटु, तिक्त, उष्ण, भेदक तथा वायु, कफ, पित्त, गुल्म, प्रमेह, संधिवाक आदि का नाशक माना गया है। मीठा पीलु कम गरम और त्रिदोष- नाशक माना जाना है। २. फूल। पुष्प। ३. परमाणु। ४. हाथी। ५. हड्डी का टुकड़ा। अस्थिखंड। ६. तालवृक्ष का तना। तालकांड। ७. बाण। ८. कृमि। ९. चने का साग। १०. सरपत या सरकंडे का फूल। शरतृणपुष्प। ११. लाल कटसरैया। किंकिरात वृक्ष। १२. अखरोट का पेड़। १३. कांचन देश का अखरोट। १४. हथेली। करतल।

पीलुआ
संज्ञा पुं० [देश०] मछली पकड़ने का बहुत बड़ा जाला।

पीलुक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कीड़ा। चींटी।

पीलुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चुरनहार। मूर्वा। २. चने का साग कंचूक शाक।

पीलुपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] क्षीर मोरट। मोरट या मूर्वा लता।

पीलुपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चुरनहार। मूर्वा। २. कुँदरू। कंदूरी।

पीलुपाक
संज्ञा पुं० [सं०] वैशेषिकों का मत। वैशेषिकों का एक सिद्धांत जिसके अनुसार ताप समग्र पदार्थ (जैसे, कच्चा घड़ा) के अणुओं पर ही कार्य करता है। विशेष—दे० 'वैशेषिक'।

पीलुपाकवादी
संज्ञा पुं० [सं० पीलुपाकवादिन्] वैशेषिक।

पीलुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीलुवृक्ष की जड़। २. सतावर। ३. शालपर्णी।

पीलुमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवान गाय।

पीलुसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम।

पीलु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पीलु] १. एक प्रकार का काँटेदार वृक्ष जो दक्षिण भारत में अधिकता से होता है। विशेष—यह दो प्रकार का होता है छोटा और दुसरा बड़ा। इसमें एक प्रकार के छोटे छोटे लाल या काले फल लगते हैं जो वैद्यक के अनुसार वायु और गुल्म नाशक, पित्तद और भेदक माने जाते हैं। इसके ङरे डंठलों की दतवन अच्छी होती है। पुराणानुसार इसके फुले हुए वृक्षों को देखने से मनुष्य निरोग होता है। २. सफेद लंबे कीडों जो सड़ने पर फलों आदि में पड़ जाते हैं। मुहा०—पीलु पड़ना=कीड़े उत्पन्न होना।

पीलू (१)
संज्ञा पुं० एक राग जिसके गाने का समय दिन को २१ दंड से २४ दंड तक अर्थात् तीसरा पहर है। इसमें गांधार और ऋषभ का मेल होता है और सब शुद्ध स्वर लगते हैं।

पीलो †
संज्ञा स्त्री० [देश०] पक्षी। विशेष। उ०—नीले नभ में पीलो के दल आतप में धीरे मँडराते। —ग्राम्या, पृ० ३८।

पीव (१)
वि० [सं० पीवन्] १. स्थुल। मोटा। २. पुष्ट।

पीव (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पीप'।

पीव (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पिय] प्रिय। पति। स्वामी। उ०—हरि मोर पीव मैं राम की बहुरिया। —कबीर (शब्द०)।

पीवनहारा
वि० [हिं० पीवना+हारा (प्रत्य०)] पीनेवाला। उ०—अधरसुधा सरबस जुहमारौ। ताकौ निधरक पीवन- हारे। —नंद० ग्रं०, पृ० २९४।

पीवना पु
क्रि० स० [हिं० पीना] दे० 'पीना'।

पीवर (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पीवरा] [संज्ञा पीवरता, पीवरत्व] १. मोटा। स्थुल। तगड़ा। उ०—सुढर अंस पीवर रुचिर, परम ललित भुज बेलि। —घनानंद, पृ० २६०। २. भारी। गुरु। वजनी।

पीवर (२)
संज्ञा पुं० १. कछुआ। २. जटा। ३. तामस मन्वंतर के सप्तर्षि में से एक ऋषि का नाम।

पीवरस्तनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़े स्तनवाली गाय या स्त्री।

पीवरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. असगंध। २. सतावर।

पीवरा (२)
वि० स्त्री० दे० 'पीवर'।

पीवरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सतावर। २. सरिवन। शालपर्णी। ३. वर्हिषद नामक पितृ की मानसी कन्याओं में से एक। ४. युवती स्त्री। ५. गाय।

पीवस
संज्ञा पुं० [सं०] मोटा तगड़ा। स्थुल। (वैदिक)।

पीवा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] जल। पानी।

पीवा † (२)
वि० [सं० पीवन्] पुष्ट। मोटा। स्थुल। २. ताकतवर। शक्तिशाली (को०)।

पीवा (३)
संज्ञा पुं० वायु [को०]।

पीविष्ठ
वि० [सं०] अतिशय स्थुल। बहुत मोटा।

पीस
वि० [अं०] विभाग। हिस्सा। खँड। टुकड़ा।

पीसगुड
संज्ञा पुं० [अं० पीसगुड्ज] (कपड़े का) थान। रेजा। जैसे, पीस गुड्ज के व्यापारी।

पीसना (१)
क्रि० स० [सं० पेषण] १. सुखी या ठोस वस्तु को रगड़ या दबाव पहुँचाकर चुर चुर करना। किसी वस्तु को आटे, बुकनी या धुल के रुप में करना। चक्की आदि में दलकर या सिल आदि पर रगड़कर किसी वस्तु को अत्यंत बारीक टुकड़ों में करना। जैसे, गेहुँ पीसना, सुर्खीं पीसना आदि। विशेष—इसका प्रयोग पीसी जानेवाली, पीसनेवाली तथा पीसकर तैयार वस्तुओं के साथ भी होता है। जैसे, गेहुँ पीसना, चक्की पीसना और आटा पीसना। २. किसी वस्तु को जल की सहायता से रगड़कर मुलायम और बारीक करना। जैसे, चटनी पीसना, मसाला पीसना, बादाम पीसना, भंग पीसना आदि। ३. कुचल देना। दबाकर भुरकुस कर देना। पिलापिला कर देना। जैसे,—तुमने तो पत्थर गिराकर मेरी ऊँगली बिलकुल पीस डाली। मुहा०—किसी (आदमी) को पीसना=बहुत भारी अपकार करना या हानि पहुँचना। नष्टप्राय कर देना। चौपट कर देना। कुचलना। जैसे,—वह उन्हें कुछ नहीं समझता, चुटकी बजाते पीस डालेगा। ४. कटकटाना। किरकिराना। जैसे, दाँत पीसना। ५. कड़ी मिहनत करना। कठोर श्रम करना। जान डालना। जैसे,— सारा दिन पीसता हुँ फिर भी काम पुरा नहीं होता।

पीसना (२)
संज्ञा पुं० १. वह वस्तु जो किसी को पिसने को दी जाय। पीसी जानेवाली वस्तु। जैसे, गेहुँ का पीसना तो इसे दे दो, चने का और किसी को दिया जायागा। २. उतनी वस्तु जो किसी एक आदमी को पीसने को दी जाय। एक आदमी के हिस्से का पीसना। जैसे,—तुम अपना पीसना ले जाओ। ३. किसी एक आदमी के हिस्से या जिम्मे का काम। उतना काम जो किसी एक आदमी के लिये अलग कर दिया गया हो (व्यंग्य में)। मुहा०—पीसना पीसना=(१) कठिन परिश्रम का काम लगातार करते रहना। (२) किसी साधारण काम करने में देर लगाना या आवश्यकता से अधिक समय लेना। (व्यंग में)।

पीसन पु †
संज्ञा पुं० [सं० पिशुन हिं०] दे० 'पिशुन'। उ०— पीसुन मीली सबहिं धुतारा। सबही ज्ञान भुलावनहारा। — कबीर सा०, भा० ४, पृ० ५३७।

पीसू †
संज्ञा पुं० [हिं० पिस्सु] एक प्रकार का परदार छोटा कीड़ा जो मच्छरों की तरह काटता है। यह पशुओं को बहुत तंग करता है और उनके रोएँ में हड़ी शीघ्रता से रेंगता है।

पीह
संज्ञा स्त्री० [?] चरबी।

पीहर
संज्ञा पुं० [सं० पितृ, प्रा,० पिअ, पिउ, पिइ+ सं० गेह या घर? प्रा० हर] स्त्रियों के माता पिता का घर। मैका। उ०—सासरै जाऊँ तो सास रिसैहै, पीहर जाऊँ खिजै भैया। —घनानंद, पृ० ५८२।

पीहा पु
संज्ञा पुं० [हिं० पपीहा] दे० 'पपीहा'। उ०—नंद के कुमार बिनु लगै उर आर ऊधो पीहा पुकार झनकार झींगुरन की। —दीन० ग्रं०, पृ० ४०।

पीहू
संज्ञा पुं० [हिं० पिस्सु] दे० 'पीसु'।

पुं
संज्ञा पुं० [सं० पुंस] १. पुरुष। पुमान्। मर्द। २. मानव। मानव जातीय प्राणी। सेवक। नौकर। ४. पुल्लिंग (व्या०)। ५. पुल्लिंग शब्द। ६. आत्मा। ७. जीवित प्राणी। ८. एक प्रकार का नरक [को०]।

पुंख
संज्ञा पुं० [सं० पुङ्ख] १. बाण का पिछला भाग जिसमें पर खोंसे रहते थे। २. मगलाचार। ३. श्येन। एक प्रकार का बाज पक्षी।

पुंखित
वि० [सं० पुङ्खित] (बाण) जिसमें पर लगे हों। पंखयुक्त (शर)।

पुंग
संज्ञा पुं० [सं० पुङ्ग] समुह।

पुंगफल
संज्ञा पुं० [सं० पुगफल] दे० 'पूगीफल'।

पुंगरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक लंबी पोली नली जिसे फूँककर बजाते हैं। उ०—नरास्थि की पुंगली फुकती—बड़ी बड़ी लंबी टाँगें फेंकती, दो सुंदरी एक ओर ब्याही और एक ओर कुमारी कन्या को काँख में खोंसे थे। —श्यामा०, पृ० १८।

पुंगल (१)
संज्ञा पुं० [सं० पुङ्गल] आत्मा।

पुंगल पु (२)
वि० [?] श्रेष्ठ। उत्तम।

पुंगला
संज्ञा पुं० [सं० पुङ्ग (=आत्मा)+ ल (प्रत्य०)] बेटा। पुत्र। आत्मज। उ०—ना हुँ तेरा पुंगला ना तु मेरी माय। —दक्खिनी०, पृ० २०।

पुंगव
संज्ञा पुं० [सं० पुङ्गव] १. बैल। वृष। विशेष—किसी पद या शब्द के आगे लगने से यह शब्द श्रेष्ठ का अर्थ देता है जैसे, नरपुंगव, वीरपुंगव। २. एक औषध का नाम।

पुंगवकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभध्वज। शिव।

पुंगीफल
संज्ञा पुं० [सं० पुंगीफल] दे० 'पुगीफल'।

पुचिह्न
संज्ञा पुं० [सं० पुंश्चिह्न] शिश्न। लिंग।

पुंछ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुच्छ, प्रा० पुंछ, हिं० पुँछ] दे० 'पूँछ'। उ०—स्रप व्युह आकार सज्जे सभारं। द्रढं फन्न पुंछं रचे भ्रित्त सारं। —पृ० रा०, १। ६३४।

पुंछल
वि० [सं० पुच्छल?] दे० 'पुंच्छल'। उ०—छुट रहे हैं पुंछल तारे होते रहते उल्कापात। —मिट्टी०, पृ० १०६।

पुंज
संज्ञा पुं० [सं० पुञ्ज] समुह। ढेर।

पुंजदल
संज्ञा पुं० [सं० पुञ्जदल] सुसना का साग। सुनिषण्ण शाक।

पुंजनी पु
वि० स्त्री० [सं० पुञ्ज] समुहयुक्त। बहुत अधिकतावाली। पुंजयुक्त। उ०—नंददास पावन भयौ सो यह लीला गाय प्रेम रस पुंजनी। —नंद० ग्रं०, पृ० १८९।

पुंजन्म
संज्ञा पुं० [सं० पुम्+ जन्मन्] नर शिशु का जन्म लेना [को०]।

पुंजश
अव्य० [सं० पुञ्जश] ढेर का ढेर। बहुत सा।

पुंजा †
संज्ञा पुं० [सं० पुञ्ज] १. गुच्छा। समुह। २. पुला। गट्ठा।

पुंजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] समुह।

पुंजिअ पु
वि० [सं० पुञ्जित] एकत्रित। पुंजित। राशिभुत। पुंजीभुत। उ०—जलदानेन हु जलओ नहु पुंजिओ धुमो।—कीर्ति०, पृ० ६।

पुंजिक
संज्ञा पुं० [सं० पुञ्जिक] जमी हुई बर्फ। वर्षोपल। करका।

पुंजित
वि० [सं० पुञ्जित] १. पुंजीभुत। राशि में एकत्रित। २. इकट्ठे दबाया हुआ [को०]।

पुंजिष्ठ (१)
वि० [सं० पुञ्जिष्ठ] पुंजीभुत। एकत्रित।

पुंजिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० १. धीवर। मल्लाह। मछुआ। २. बहेलिया। चिड़ोमार [को०]।

पुंजी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुँजी] दे० 'पुँजी'।

पुंड
संज्ञा पुं० [सं० पुण्ट] १. तिलक। चंदन, केसर आदि पोतकर मस्तक या शरीर पर बनाया हुआ चिह्न। टीका। यौ०—उर्ध्वपुंड। त्रिपुंड। २. दक्षिण की एक जाति जो पहले रेशम के कीड़े पालने का काम करती थी।

पुंडका †
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्डक, पुण्डका] माघवी लता। उ०— बासंती पुनि पुंडिका मुक्त फला अरु नाऊँ। —नंद ग्रं०, पृ० १०६।

पुंडरिया
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डरीक] पुंडरी का पौधा।

पुडरी (१)
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डरिन्] एक प्रकार का पौधा जिसकी पत्तियाँ शालपर्णी की पत्तियों की सो होती हैं। विशेष—इसका रस आँख में लगाने से आँख के रोग दुर होते हैं। वैद्यक में यह मीठा, कडुवा, कसैला, वीर्यवर्धक, शीतल और नेत्रों को हितकारी माना गया है। पर्या०—श्रीपुष्प। शीत। पुंडरीयक। प्रपौंडरीक। चात्तुष्य। तालपुष्पक। सालपुष्प। स्थलपद्म। सानुज। अनुज।

पुंडरी
वि० [सं० पाण्डुर] दे० 'पांडुर' (१)। उ०—प्रह फूटी, दिसि पुंडरी हणहणिया हय थट्ट। ढोलइ घण ढंढोलियउ सीतल सुंदर घट्ट। —ढोला, दु० ६०२।

पुंडरोक
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डरीक] १. श्वेत कमल। २. कमल। यौ०—पुंडरीकदलोपम=कमलपत्र के समान। पुंडरीकनयन, पुंडरीकपालशात्त, पुंडरीकलोचन=दे० 'पुंडरीकाक्ष'। पुंडरीकप्लव। पुंडरीकमुख। ३. रेशम का कीड़ा। पाट कीट। ४. शेर। बाघ। नाहर। ५. एक प्रकार का सुंगधयुक्त पौधा। पुंडरिया। ६. सफेद छाता। ७. कमंडलु। ८. तिलक। ९. एक यज्ञ। १०. एक प्रकार का आम। सफेदा। ११. एक प्रकार का धान। १२. सफेद रंग का हाथी। १३. एक प्रकार की ईख। पौढ़ा। १४. चीनी। शर्करा। १५. सफेद रंग का साँप। १६. एक प्रकार का बाज पक्षी। १७. श्वेत कुष्ट। सफेद कोढ़। १८. हाथियों का ज्वर। १९. एक नाग का नाम। २०. अग्नि- कोण के दिग्गज का नाम। २१. क्रौचद्धीप का एक पर्वत। २२. महाभारत में वर्णित एक तीर्थ स्थान। २३. अग्नि। आग। २४. बाण। शर (अनेकार्थ०)। २५. आकाश (अनेकार्थ०)। २६. जैनियों के एक गणधर। २७. कालिदास द्धारा (रघवंश) महाकाव्य में उल्लिखित रघुवंशीय एक राजा का नाम। २८. दौने का पौधा। २९. श्वेत वर्ण। सफेद रंग।

पुंडरीकपालाशाक्ष
वि० [सं० पुण्डरीकपालाशाक्ष] कमल की पुंखुड़ियों के समान नयनवाला [को०]।

पुंडरीकप्लव
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डरीकप्लव] एक प्रकार का पक्षी [को०]।

पुंडरीकमुख
वि० [सं० पुण्डरीकमुख] कमलमुख। जिसका मुख कमल के समान प्रफुल्ल हो [को०]।

पुंडरीकमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्डरीकमुखी] एक प्रकार की जोंक [को०]।

पुंडरीकसुतसुता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्डरीक (= कमल)+सुत (=ब्रह्मा)+सुता (=पुत्री)] सरस्वती। शारदा। उ०— पुंडरीकसुतसुता तासु पदकमल मनाऊँ। बिसद बरन बर बसन बिसद भुषन हिय ध्याऊँ। —ह० रासो, पृ० १।

पुंडरीकाक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डरीकात्त] १. विष्णु भगवान्। नारायण (जिनके नेत्र कमल के समान हैं) २. रेशम के कीड़े पालनेवाली एक जाति।

पुंडरीकाक्ष (२)
वि० जिसके नेत्र कमल के समान हों।

पुंडरीकेक्षण
वि०, संज्ञा पुं० [सं० पुण्डरीकेक्षण] दे० 'पुंडरीकाक्ष' [को०]।

पुंडरीयक
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डरीयक] १. पुंडरी का पौधा। स्थल- पदम। २. एक लता जो औषधि में प्रयुक्त होती है (को०)।

पुंडर्य
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डर्य्य] १. पुंडरी का पौधा। २. पौधा। लता। एक बेल (को०)।

पुंड्र
संज्ञा पुं० [सं० पुणड्र] १. एक प्रकार की (विशेषतः लाल) ईख। पौंढ़ा। २. बलि के पुत्र एक दैत्य का नाम जिसके नाम पर देश का नाम पड़ा। ३. अतिमुक्तक। तिनिशवृक्ष। ४. माधवी लता। ४. ह्वस्व प्लक्ष। पाकर। पक्कड़। ६. श्वेत कमल। ७. चंदन केसर आदि को रेखाओं से शरीर पर बनाया हुआ चिह्न या चित्र। तिलक। टीका। जैसे, ऊर्ध्वपुंड्र। ८. तिलक वृक्ष। ९. कीड़ा। कीट। कृमि (को०)। १०. भारत के एक भाग प्राचीन नाम जो इतिहास पुराणादि में मिलता है। महाभारत के अनुसार अंग, बंग, कलिंग, पुंड्र और सुह्म, बलि के इन पाँच पुत्रों के नाम पर देशों के नाम पड़े। ११. एक प्राचीन जाति। विशेष—इस जाति का उल्लेक ऐतरेय ब्राह्मण में इस प्रकार है— विश्वामित्र के सौ पुत्रौं में से पचास तो नधुच्छदा से बड़े और पचास छोटे थे। विश्वामित्र ने जब शुन शेप का अभिषेक किया तब ज्येष्ठ पुत्र बहुत असंतुष्ट हुए। इसपर विश्वामित्र ने उन्हें शाप दिया कि तुम्हारे पुत्र अंत्यज होगे। अंघ्र, पुंड्र, शवर, मुतिव इत्यादि उन्ही पुत्रों के वंशज हुए जिनकी गिनती दस्युओं में हुई। महाभारत में एक स्थान पर यवन, किरात, गांधार, चीन, शवर आदि दस्यु जातियों के साथ पौंड्रकों का नाम भी है। पर दुसरे स्थान पर 'पौंड्रकों' और सुपुंड्रकों में भेद किया है। पौंड्रकों और पुंड़्रों को तो अंग, बंग, गय आदि के साथ शास्त्रधारी क्षत्रिय लिखा है जिन्होंने युधिष्ठिर के लिये बहुत साधन इकट्ठा किया था। उनके जाने पर युधिष्ठिर के द्धारपाल ने उन्हें नहीं रोका था। पर वंग कलिंग, मगध, ताम्रलिप्त आदि के साथ सुपुंड्रकों का द्धारपाल द्धारा रोका जाना लिखा है जिससे वे वृषलत्वप्राप्त क्षत्रिय जान पड़ते है। मनुस्मृति में जिन पौंड्रकों का उल्लेख है वे भी संस्कारभ्रष्ट क्षत्रिय थे जो म्लेच्छ हो गए थे। इससे पौंड्र या पुंड्र सुपुंड्रों से भिन्न और क्षत्रिय प्रतीत होते हैं। महाभारत कर्णपर्व में भी कुरु, पांचाल, शाल्व, मत्स्य, नैनिष, कलिंग मागध आदि शाश्वत धर्म जाननेवाले महात्माओं के साथ पौंड्रों का भी उल्लेख है, आदिपर्व में बलि के पाँच पुत्रों (अंग वंग आदि) में जिस पुंड्र का नाम है उसी के वंशज संभवतः ये पुंड्र या पौड्र हों। ब्रह्मांड और मत्स्य पुराण के अनुसार पुंड्र लोग प्राच्य (पुरबी भारत के) थे, पर विष्णु पुराण में और मार्कडेय पुराण में उन्हें दाक्षिणात्य लिखा है।

पुंड्रक
संज्ञा पुं० [सं० पुण्ड्रक] १. मागधी लता। २. तिलक। टीका। ३. तिलक वृक्ष। ४. एक प्रकार की (लाल) ईख। पौंढ़ा। ५. वह जो रेशम के कीड़े पालने का व्यवसाय करता हो (को०)। ६. घोड़े के शरीर का एक चिह्न जो रोएँ के रंग के भेद से होते है। शंक, चक्र, गदा, पद्म, खड्ग, अंकुश और धनुष के ऐसे चिह्न को पुंड्रक कहते हैं।

पुंड्रकेलि
संज्ञा पुं० [सं० पुण्डुकेलि] हाथी [को०]।

पुंड्रवर्धन
संज्ञा पुं० [सं० षुण्ड्रवर्द्धन] पुंड्र देश की प्राचीन राजधानी। विशेष—यह नगर किसी समय में हिंदुओं और बौद्धों दोनों का तीर्थ था। स्कदंपुराण में यहाँ 'मंदार' नामक शिवमुर्ति का होना लिखा है। देवी भागवत के अनुसार सती के देहांश गिरने से जो पीठ हुए उनमें एक यह भी है। चीनी यात्री हुएन्सांग ने इस नगर को एक समृद्ध नगर लिखा है। इसकी स्थिति कहाँ है, इसपर मतभेद है। कोई इसे रंगपुर के पास कहते है और कोई पबना को ही प्राचीन पुड्रवर्धन के स्थान पर मानते हैं। पर कुछ लोगों का कहना है कि यह नगर गंगातट के पास होना चाहिए जैसा कथासरित्सागर और हुएन्सांग के उल्लेख से पाया जाता है। अतः मालदह से दो कोस उत्तरपुर्व जो फीरोजाबाद नाम का स्थान है वही प्राचीन पुंड्रवर्धन हो सकता है। वहाँ के लोग उसे अब तक पौंड़ोवा, पांडया या बड़पुँड़ो कहते हैं।

पुंदल
संज्ञा पुं० [?] जहाज के मस्तुल का पिछला भाग। (लश०)।

पुंध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुषक। चुहा। २. कोई भी पशु जो नर हो [को०]।

पुंनाग
संज्ञा पुं० [सं० पुन्नाग] दे० 'पुन्नाग'।

पुंभाव
संज्ञा पुं० [सं० पुभ्भाव] १. पुरुषत्व। २. व्याकरण में पुंल्लिंग [को०]।

पुंमंत्र
संज्ञा पुं० [सं० पुम् मन्त्र] वह मंत्र जिसेक अंत में 'स्वाहा' या 'नमः' न हो।

पुंयान
संज्ञा पुं० [सं०] सवारी, पालकी या डाँडी जिसे पुरुष ढोते हैं [को०]।

पुंयोग
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुष का योग। पुरुषसंपर्क। पुरुष से संबंध [को०]।

पुंरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] सुंदर व्यक्ति। अच्छा व्यक्ति [को०]।

पुंराशि
संज्ञा पुं० [सं०] ज्यौतिष में नर राशि [को०]।

पुंलिंग
संज्ञा पुं० [सं० पुलिङ्ग] १. पुरुष का चिह्न। २. शिश्न। ३. व्याकरण में पुरुषवाचक शब्द।

पुवंत्
वि० [सं०] १. पुरुष की तरह। पुल्लिंग के समान (व्याकरण)।

पुंवत्स
संज्ञा पुं० [सं०] बछड़ा। गोवत्स [को०]।

पुंवृष
संज्ञा पुं० [सं०] छछुंदर।

पुंशचल
संज्ञा पुं० [सं०] व्यभिचारी पुरुष [को०]।

पुंश्चिली (१)
वि० स्त्री० [सं०] अनेक पुरुषों के पास जानेवाली (स्त्री०)। व्यभिचारिणी। कुलटा। छिनाल।

पुंशचली (२)
संज्ञा स्त्री० कुलटा स्त्री।

पुंश्चलीय
संज्ञा पुं० [सं०] कुलटा या वेश्या का पुत्र।

पुंश्चलू
संज्ञा स्त्री० [वैदिक सं०] कुलटा स्त्री [को०]।

पुंश्चिह्न
संज्ञा पुं० [सं०] पुरुषसुचक चिह्न। लिंग। शिश्न [को०]।

पुंस पु
संज्ञा पुं० [सं० पुस्] पुरुष। नर। उ०—आदि हु राम हि अंत हु राम ही मध्य हु राम हि पुंस न बामै।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ५०२।

पुंसवत्
वि० [सं०] दे० 'पुंवत्' [को०]।

पुंसवन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुग्ध। दुध। २. द्धिजातियों के सोलह संस्कारों में से दुसरा संस्कार जो गर्भाधान से तीसरे महीने में किया जाता है। गर्भिणी पुत्र प्रसव करे इस अभिप्राय से यह किया जाता है। विशेष—गर्भ हिलने डोलने के पहले हील यह संस्कार होना चाहिए। अच्छे दिन और मुहुर्त में अग्निस्थापना करके स्त्री और पुरुष कुशासन पर बैठते हैं। पति उठकर स्त्री का दाहिना कधा स्पर्श करता है, फिर दाहिने हाथ से स्त्री के नाभि को स्पर्श करता है फिर दाहिने हाथ से स्त्री के नाभि को स्पर्श करता हुआ कुछ मंत्र पढ़ता है। यहाँ तक तो प्रथम पुंसवन हुआ। फिर दुसरे दिन या उसी दिन किसी बटवृक्ष की पुर्वोत्तर शाखा की टहनी के दो फलोंवाले सिरे (शुंगा= फुनगी) को जौ या उरद देकर सात बार मंत्र पढ़कर क्रय करते हैं औऱ मंत्र पढ़ते हुए नोचकर लाते हैं। बट की फुनगी को साफ सिल पर ओस के पानी से पीसते हैं। फिर इस बरगद के रस को पश्चिम ओर मुँह करके बैठी स्त्री के पीछे होकर पति उसकी नाक के दाहिने नयुने में डाल देता हैं। ३. गर्भ (को०)। ४. बैष्णवों का एक व्रत। भागवत में यह व्रत स्त्रियों के लिये कर्तव्य कहा है।

पुंसवन (२)
वि० प्रत्रोत्पादक।

पुंसवान्
वि० [सं० पुंसवत्] [वि० स्त्री० पुंसवती] पुत्रवाला।

पुसानुज
वि० [सं०] जिसको बड़ा भाई हो [को०]।

पुंसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जिसको बछड़ा हो [को०]।

पुंस्कोकिल
संज्ञा पुं० [सं०] कोकिल पक्षी। नर कोयल [को०]।

पुंस्त्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरुषत्व। पुरुष का धर्म। २. पुरुष की स्त्रीसहवास की शक्ति। ३. शुक्र। वीर्य। ४. (व्याकरण में) पुंलिगत्व (को०)। ५. गंधतृण।

पुंस्त्वविग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] भुतृण। एक सुगंधयुक्त घास।

पुँछल्ला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पुँछार'।

पुँछवाना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पुछवाना'।

पुँछार पु †
संज्ञा पुं० [हिं० पुँछ+ आर (प्रत्य०)] मयुर। मोर। उ०—(क) जानि पुँछार जो भय बनबासु। रोवँ रोवँ परि फाँद न आँसु। —जायसी (शब्द०)। (ख) कुँड़ै फेरि जानु गिउ गाड़े। हरे पुँछार ढगे जनु ठाढ़े। —जायसी (शब्द०)। (ग) कुटी में मेरी रक्खी है। पुँछार जो मिट्टी की है। — प्रतापनारायण मिश्र (शब्द०)। विशेष—यह शब्द पुं० ही मिलता है। स्त्री० प्रयोग उदाहरण (ग) को छोड़ और कहीं देखने में नहीं आया।

पुँछाला
संज्ञा पुं० [हिं० पुँछ+ ला (प्रत्य०)] १. पुछल्ला। दुँबाला। पुँछ की तरह जोड़ी हुई वस्तु। जैसे,—(क) पतंग या कनकौवे के नीचे बँधी हुई लबी धज्जी जो नीचे लटकती रहती है। (ख) टोपी के पीछे टँकी हुई धज्जी जो नीचे लटकती रहती है। २. बराबर पीछे लगा रहनेवाला। साथ न छोड़नेवाला। बराबर साथ में दिखाई पड़नेवाला। जैसे,— वह जहाँ जाता है यह पुँछाला उनके साथ रहता है। ३. साथ में जुड़ी या लगी हुई वस्तु या व्यक्ति जिसकी उतनी आवश्यकता न हो। जैसे,—तुम आप तो जाते ही हो एक पुँछाला क्यों पीछे लगाए जाते हो। ४. पिछलग्गु। खुशामद से पीछे लगा रहनेवाला। चापलुस। आश्रित।

पुँछीरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुँछ+ औरी (प्रत्य०)] दे० 'पुछल्ला'। उ०—फेरि कै नैन परे तन पै बदनामी की तापै लगाई पुँछोरी। प्रीति की चंग उमंग चढ़ाय कै सी हरि हाथ बढ़ाय कै तोरी। —भारतंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २६४।

पुंडरिया पुँडरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्डरीक] पुंडरी नामक पौधा।

पुँहतना पु ‡
क्रि० अ० [हिं० पहुँचना] दे० 'पहुँचना'। उ०— मजल के करे पुँहतों नगर उदधमत। कही कागद समय हुती मिल हकीकत। —रघु० रु०, पृ० ७९।

पुआ
संज्ञा पुं० [सं० पुप] मीठे रस में सने हुए आँटे की मोटी पुरी या टिकिया।

पुआई
संज्ञा स्त्री० [देश०] एख सदाबहार पेड़। विशेष—इसकी लकड़ी द्दढ़, चिकनी और पीले रंग की होती है। यह घरों में लकड़ी, मेज, कुरसी, आदि बनाने के काम में आती है। लकड़ी प्रति घनफुट १७ या १८ सेर तोल में होती है। यह पेड़ दारजिलिंग, सिकम (सिक्किम), भोटान आदि पहाड़ी प्रदेशों में आठ हजार फुट की ऊँचाई तक होता है। इसी से मिलता जुलता एक और पेड़ होता है जिसे डिडिया कहते है और जिसके पत्तों में एक प्रकार की सुगंध होती है।

पुआल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक ऊँचा जंगली पेड़ जिसकी लकड़ी बहुत मजबुत और पीले रंग की होती है और इमारतों में लगती है। यह दारजिलिंग, सिक्किम और भोटान के जंगलों मे होता है।

पुआल (२)
संज्ञा पुं० [सं० पलाल] दे० 'पयाल'।

पुकार
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुकारना] १. किसी का नाम लेकर बुलाने की क्रिया या भाव। अपनी ओर ध्यान आकर्षित करने के लिये किसी के प्रति ऊँचे स्वर से संबोधन। सुनाने के लिये जोर से किसी का नाम लेना या कोई बात कहना। हाँक। टेर। २. रक्षा या सहायता के लिये चिल्लाहट। बचाव या मदद के लिये दी हुई आवाज। दुहाई। उ०—असुर महा उत्पात कियो तब करी पुकार। —सुर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना। —मचना। —मचाना। —होना। ३. प्रतिकार के लिये चिल्लाहट। किसी से पहुँचे हुए दुःख या हानि का उससे निवेदन जो दंड या पुर्ति की व्यवस्था करे। फरियाद। नालिश। जैसे,—उसने दरबार में पुकार की। ४. माँग की चिल्लाहट। गहरी मांग। जैसे,—जहाँ जाओ वहाँ पानी पानी की पुकार सुनाई पड़ती थी। क्रि० प्र०—करना। —मचना। —मचना। —होना।

पुकारना
क्रि० स० [सं० संप्लुतकरण (=आवाज को खींचना)या प्रकुश (=पुकारना)] १. नाम लेकर बुलाना। अपनी और ध्यान आकर्षित करने के लिये ऊँचे स्वर से संबोधन करना। किसी का इसलिये जोर से नाम लेना जिसमें वह ध्यान दे या सुनकर पास आए। हाँक देना। टेरना आवाज लगाना। जैसे,—(क) नौकर को पुकारो वह आकर ले जायगा। (ख) उसने पीछे से पुकारा, मैं खड़ा हो गया। संयो० क्रि०—देना। २. नाम का उच्चारण करना। रटना। धुन लगाना। जैसे, हरिनाम पुकारना। ३. ध्यान आकर्षित करने के लिये कोई बात जोर से कहना। चिल्लाकर कहना। घोषित करना। जैसे, (क) ग्वालिन का 'दही दही' पुकारना। (ख) मंगन का द्धार पर पुकारना। उ०—कारे कबहुँ न होयँ आपने मधुबन कहौं पुकारि। —सुर (शब्द०)। ४. चिल्लाकर माँगना। किसी वस्तु को पाने के लिये आकुल होकर बार बार उसका नाम लेना। जैसे, प्यास के मारे सब 'पानी पानी' चुकार रहे हैं। ५. रक्षा के लिये चिल्लाना। गोहार लगाना। छुटकारे के लिये आवाज लगाना। उ०—पाँव पयादे धाय़ गए गज जबै पुकारयो। —सुर (शब्द०)। ६. प्रतिकार के लिये किसी से चिल्लाकर कहना। किसी के पहुँचे हुए दुःख या हानि को उससे जो दंड या पूर्ति की व्यवस्था करे। फरियाद करना। नालिश करना। उ०—जाय पुकारयो नृप दरबार। —सबल (शब्द०)। ७. नामकरण करना। अभिहित करना। संज्ञा द्धारा निर्देश करना। जैसे,—(क) तुम्हारे यहाँ इस चिड़िया को किस नाम से पुकारते हैं। (ख) यहाँ मुझे लोग यही कहकर पुकारते हैं।

पुक्करवत्ती ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० पुष्कलावती] वह प्रदेश जो श्रीराम ने भरत के पुत्र को दिया था। दे० 'पुष्कलावती'। उ०— तक्षक नै तखसली, पुकर नै पुक्करवत्तिय। —रघु० रु०, पृ० २८०।

पुक्कश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चांडाल। विशेष—मनुस्मृति के अनुसार निषाद पुरुष और शुद्रा के गभ से और उशाना के अनुसार शुद्र पुरुष और क्षत्रिया स्त्री के गर्भ से इस जाति की उत्पत्ति है। २. अधम ब्यक्ति। नीच पुरुष।

पुक्कश (२)
वि० अधम। नीच।

पुक्कशक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पुक्कश'।

पुक्कशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पुक्कसी' [को०]।

पुक्कष
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पुक्कश'।

पुक्कस
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पुक्कश'।

पुक्कसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कालापन। कालिमा। २. नील का पौधा। ३. कुड्मल। कली। कोरक (को०)। ४. पुक्कश जाति की स्त्री (को०)।

पुक्कार पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्करण, प्रा० पुक्कार] फरियाद। गोहार। दे० 'पुकार'। उ०—पुक्कार परिय नृप पंगपुर कहय सबै किन्नव हदस। —प० रासो, पृ० १२७।

पुख पु †
संज्ञा पुं० [सं० पुष्प] दे० 'पुष्प'। जैसे, पुखाराज=पुष्प राग।

पुखत पु
वि० [सं० पुष्ट या फा० पुख्तह्] पुर्णतः। भली प्रकार। उ०—प्राणी तुँ डूबो पुखत मोह नदी रे माँहि। देव नदी में डूबियो नख पग हंदो नाहिं। —बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ११०। २. दृढ़। पुख्ता। उ०—प्राण गाँठ जेते पुखत, इण तन माझल एह। क्यावर तेते नाम कर दाम गाँठ मत देह। —बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ५१।

पुखता †
वि० [फा० पुख्तह्] दे० 'पुख्ता'।

पुखर पु
संज्ञा पुं० [सं० पुष्कर, प्रा० पुक्खर] तालाब। पोखरा।—भरहिं पुखर औ ताल तलाबा। —जायसी (शब्द०)।

पुखरा †
संज्ञा पुं० [सं० पुष्कर, प्रा० पुक्खर] पोखरा। तालाब।

पुखराज
संज्ञा पुं० [सं० पुष्पराग] एक प्रकार का रत्न या बहु- मुल्य पत्थर जो प्रायःपीला होता है पर कभी कभी कुछ हलका नीलापन या हरापन लिए भी होता है। विशेष—यह अलुमीनियम का एक प्रकार का सैकत छार है। यह हीरे से भारी पर कम कड़ा होता है। पुखराज अधिकतर ग्रेनाइट की चट्टानों और कभी कभी ज्वालामुखी पर्वतों की दरारों में मिलता है। कार्नवाल (ईँगलैंड), स्काटलैंड, ब्रैजिल, मैक्सिको, साइबेरिया और अमेरिका के संयुक्त राज में यह पाया जाता है। ब्रैजिल का गहरे पीले रंग का पुखराज सबसे अच्छा माना जाता है। यों तो भारतवर्ष तथा और पुर्विय देशों में भी यह थोड़ा बहुत पाया जाता है। हमारे यहाँ के रत्नपरीक्षा के ग्रंथों में पुष्पराग के कई भेद लिखे हैं। जो पुष्पराग कुछ पीलापन लाल रंग का हो उसे कौरंट और जो कुछ ललाई लिए पीले रंग का हो उसे काषायक कहते हैं। जो कुछ ललाई लिए सफेद हो वह सोमलक, जो बिलकुल लाल हो पद्मराग और जो नीला हो वह इंद्रनील है। इस प्रकार प्रचीन ग्रंथों में पुखराज भी कुरंड जाति के पत्थरों में माना गया है।

पुख्ता
वि० [फा० पुख्तह्] १. मजबुत। द्दढ़। पुष्ट। २. परिपक्व। ३. स्थिर। टिकाऊ। ४. नियत। निश्चित [को०]। यौ०—पुख्ताअकल=दृढ़ मति। स्थिरबुदि्ध। परिपक्व मति। पुख्तामग्ज=दे० 'पुख्ता्कल'। पुख्तामिजाज=स्थिरमति। द्दढ़चित्त।

पुख्य
संज्ञा पुं० [सं० पुष्य] दे० 'पुष्य'।

पुगंड
संज्ञा पुं० [सं० पौगणड] दे० 'पोगंड', 'पौगंड'। उ०—बाल कुमार पुगंड धरम आसक्त जु ललित तन। धरमी नित्य किसोर कान्ह मोहत सबको मन। —नंद० ग्रं०, पृ० ६।

पुगतापण
संज्ञा पुं० [हिं० पुगना (=पुरा होना)+पन (प्रत्य०)] बुढ़ापा। वार्धक्य। उ०—कर कंपै लोयण झरै मुख लल- रावै जीह। मावड़िया जुध में मिलै पुगतापण रा दीह। — बाँकी ग्रं० भा० २, पृ० १८।

पुगना †
क्रि० अ० [हिं० पुजना] पुरा होना। पुर्ण होना। चुकता होना। खत्म होना।

पुगाना
क्रि० स० [हिं० पुजाना] १. पुरा करना। पुजाना। जैसे, मिति पुगाना, रुपया पुगाना। २. गीली के खेल में गोली का गड्ढ में डालना (लड़के)।

पुचकार
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुचकारना] प्यार जताने के लिये ओठों से निकाला हुआ चुमने का सा शब्द। चुमकार।

पुचकारना
क्रि० स० [अनुध्व० पुच (=ओठों को दबाकर छोड़ने से निकला हुआ शब्द)+ हिं० कार+ ना (प्रत्य०)] चुमने का सा शब्द निकालकर प्यार जताना। चुमकारना। जैसे, (क) बच्चे को पुचकारना। (ख) कुत्ते को पुचकारना। उ०—(क) ठोंकि पीठ पुचकारि बहोरी। कीन्हीं बिदा सिद्धि कहि तोरी। —रघुराज (शब्द०)। (ख) सुनि बैठाय अंक दानवपति पोंछि वदन पुचकारी। बेटा, पढौ कौन बिद्या तुम देहु परीक्षा सारी। —रघुराज (शब्द०)।

पुचकारी
संज्ञा स्त्री० [सं० पुचकारना] प्यार जताने के लिये ओठों से निकाला हुआ चुमने का सा शब्द। चुमकार। जैसे, जान- वर या बच्चे को पुचकारी देकर बुलाना। क्रि० प्र०—देना।

पुचपुच
संज्ञा स्त्री० [अनुध्व०] ओठों निकाली हुई चुमने की सी आवाज। पुचकारी।

पुचारस
संज्ञा पुं० [देश०] कई धातुओं का मेल। ऐसी धातु जिसमें मिलावट हो।

पुचारना (१)
क्रि० स० [हिं० पुचारा] १. पुचारा देना। २. पोतना। ३. मीठी बातें कहना। प्रसन्न करनेवाली बातें कहना। चापलुसी करना। ठकुरसुहाती कहना। ४. उत्साहित करनेवाली बातें कहना। प्रोत्साहित करना। पुचकारना।

पुचाड़ा †
संज्ञा पुं० [हिं० पुतारा या अनु० पुचपुच] दे० 'पुचारा'। उ०—पश्चिम के विचारकों ने यहाँवालों को अक्सर यह पुचाड़ा दिया है कि तुम्हारी विशेषता तो परोक्ष चिंतन में है। —आचार्य०; पृ० ९६।

पुचारा (१)
संज्ञा पुं० अनु० पुचपुच (=भीगे कपड़े को दबाने का शब्द) या पुतारा] १. किसी वस्तु के ऊपर पानी से तर कपड़ा फेरने की क्रिया। भीगे कपड़े से पोंछने का काम। जैसे,—बरतन आँच पर चढ़ाकर ऊपर से पानी का पुचारा। देते जाना। क्रि० प्र०—देना। २. पतला लेप करने का काम। हलकी पुताई या लिपाई। पोता। क्रि० प्र०—देना। —फेरना। ३. किसी वस्तु के ऊपर कोई गीली वस्तु फेरकर चढ़ाई हुई पतली तह। हलका लेप। जैसे, चुने का पुचारा, मिट्टी या गोबर का पुचारा। ४. वह गीला कपड़ा जिससे पोचते या पुचारा देता हैं। जैसे, जुलाहों का पुचारा जिससे पाई के ऊपर माँड़ या पानी पोतते हैं। ५. लेप करने या पोतने के लिये पानी में घोली हुई वस्तु (जैसे, रंग चुना आदि), ६. दगी हुई तोप या बंदुक की गरम नली को ठंढी करने के लिये उसपर गीला कपड़ा डालने की क्रीया। ७. किसी को अनुकुल करने या मनाने के लिये कहे हुए मीठे और सुहाते वचन। प्रसन्न करनेवाले वचन। जैसे,—कड़ाई से नहीं बनेगा, पुचारा देकर काम लेना चाहिए। क्रि० प्र०—देना। ८. झुठी प्रशंसा। चापलुसी। ठकुरसुहाती। खुशामद। क्रि० प्र०—देना। ९. उत्साह बढ़ानेवाले वचन। किसी ओर प्रवृत्त करनेवाले वचन। बढ़ावा। जैसे,—जरा पुचारा दे दो; देखो वह सब कुछ करने को तैयार हो जाता है।

पुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] १. दुम। पुँछ। २. किसी वस्तु का पिछला भाग। ३. पुँछ जिसमें बाल हों (को०)। ४. मोर की पुँछ (को०)।

पुच्छकंटक
संज्ञा पुं० [सं० पुच्छकण्टक] बिच्छु [को०]।

पुच्छजाह
संज्ञा पुं० [सं०] पुँछ का अग्रिम भाग। पुँछ की जड़ [को०]।

पुच्छटि, पुच्छटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] उँगली चटकाने की क्रिया। छोटिका [को०]।

पुच्छदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मणा नाम का कंद।

पुच्छना पु
क्रि० स० [सं० पृच्छन] दे० 'पुंछना'। उ०—(क) भृंगी पुच्छइ भिंग सुन सुन की संसारहि सार। —कीर्ति०, पृ० ९। (ख) पुच्छि मात पित पुच्छि पुच्छि परिवार गेह सब।—पृ० रा०, २५।२९७।

पुच्छफल
संज्ञा पुं० [सं०] बेर का पेड़।

पुच्छबंध
संज्ञा पुं० [सं० पुच्छबन्ध] घोड़े के पिछले पैर बाँधने की रस्सी [को०]।

पुच्छमूल
संज्ञा पुं० [सं०] पुँछ का मुल। पुँछ की जड़ [को०]।

पुच्छल
वि० [सं० पुच्छ+ हिं० ल (प्रत्य०)] दुमदार। पुँछदार। यौ०—पुच्छल तारा=कभी कभी उदित होनेवाला वह तारा जिससे लगा हुआ भाप या कुहरे सा द्रव्य जाडु के आकार का आकाश में दुर तक फैला दिखाई देता है। विशेष—दे० 'केतु'।

पुच्छाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] पुच्छमुल [को०]।

पुच्छिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] माषपर्णी।

पुच्छी (१)
वि० [सं० पुच्छिन्] पुँछवाला। दुमदार।

पुच्छी (२)
संज्ञा पुं० १. आक। मदार। २. कुक्कुट। मुर्ग।

पुच्छत्तर ‡
संज्ञा पुं० [हिं० पुछना] दे० 'पुछैया'। उ०—मैं कहीं चला गया, तो उसका कोई पुछत्तर भी न रहेगा।—रंगभुमि, भा० २, पृ० ५६२।

पुछना † (१)
क्रि० अ० [हिं० पोंछना का अक०] १. पुछकर समास हो जाना। मिट जाना। २. जमीन पर पड़े हुए पानी या किसी तरल द्रव्य पोंछकर हटाया जाना।

पुछना (२)
संज्ञा पुं० वह कपड़ा जिससे जमीन या जमीन चौंकी पीढ़ा आदि पर पड़े हुए पानी आदि को पोंछा जाता है।

पुछना (३)
क्रि० स० [सं० पृच्छन, प्रा० पुच्छण, हिं० पछना] दे० 'पुछना'। उ०—ए माँ कह मोय पुछों तो ही। —विद्यापति, पृ० ५०९।

पुछनियाँ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुछना] पृच्छा। प्रश्न। जिज्ञासा। उ०—साधन माँ छत्तीस कौम है टेढ़ी तोर पुछ- नियाँ। —कबीर श०, भा० १, पृ० १०४।

पुछल्ला
संज्ञा पुं० [हिं० पुँछ + ला (प्रत्य०)] १. बड़ी पुँछ। लंबी दुम। २. पुँछ की तरह जोड़ी हुई वस्तु। जैसे, (क) पतंग या कनकौवे के नीचे बँधी हुई लंबी धज्जी जो लटकती रहती है। (ख) टापी में टँकी हुई धज्जी जो अलग लटकती रहती है। ३. बराबर पीछे लगा रहनेवाला व्यक्ति। साथ न छोड़नेवाला। बराबर साथ में दिखाई पड़नेवाला। जैसे,— वह जहाँ जाता है यह पुछल्ला उसके साथ रहता है। ४. साथ में जुड़ी या लगी हुई वस्तु या व्यक्ति जिसकी उतनी आवश्य- कता न हो। जैसे,—तुम आप तो जाते ही हो, एक पुछल्ला क्यों पीछे लगाए जाते हो। ५. पिछलग्गु। खुशामद से पीछे लगा रहनेवाला। चापलुस। आश्रित। जैसे, अमीरों का पुछल्ला। †६. लपेटन की बाई ओर का खूँटा (जुलाहे)।

पुछवाना †
क्रि० स० [हिं० पुछना का प्रे० रुप] (किसी से) पुछने का कार्य कराना। उ०—जब कहोगी यदुकुल चंद्र से स्वयं पुछवा देंगे। —श्यामा०, पृ० ९१।

पुछवैया †
संज्ञा पुं० [हिं० √ पुछ + वैया (प्रत्य०)] दे० 'पुछैया'।

पुछानना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'पुछना'। उ०—राजह सुर हकार लिय, दिय सादर सनमान। वीर बिरद बरादाय प्रति, लागे बत्त पुछान। —पृ० रा०, ६।१४७।

पुछाना
क्रि० स० [हिं० पुछना का प्रे० रुप] दे० 'पुछवाना'। उ०—बच्चा को बुलाकर पुछाए देती हुँ। —मान०, भा० ५, पृ० १९७।

पुछार पु † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० √ पुछ + आर (प्रत्य०)] पुछनेवाला व्यक्ति। खोज खबर लेनेवाला व्यक्ति। आदर करनेवाला।

पुछार पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पुँछार'।

पुछार † (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुछना] पुछताछ।

पुछिया
संज्ञा पुं० [हिं० √ पुछ + इया (प्रत्य०)] दुंबा। मेढ़ा।

पुंछैया
संज्ञा पुं० [हिं० √ पुछ + ऐया (प्रत्य०)] पुछनेवाला व्यक्ति। खोज खबर लेनेवाला आदमी। ध्यान देनेवाला व्यक्ति।

पुजंत †
क्रि० वि० [हिं०/?/+ अंत (प्रत्य०) पूजना (=पूजा करना)] पुजन करने के लिये। पूजनार्थ। उ०—गौरि पुजंतहि बेटी आई सुभद्रा। —पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९५८।

पुजंता †
संज्ञा पुं० [सं० पुजा+ अन्ता (प्रत्य०)] वह व्यक्ति जो पुजा करे। पुजारी। पुजा करनेवाला।

पुजना
क्रि० अ० [हिं० पुजना] १. पूजा जाना। आराधना का विषय होना। जैसे,—वहाँ अनेक देवता पुजते हैं। २. आद्दत होना। संमानित होना। ३. पुर्ण होना। पूरा होना।

पुजवना पु † (१)
क्रि० स० [हिं० पूजना] १. पुजाना। भरना। २. पूरा करना। ३. सफल करना। उ०—जिन व्रज बीथिन में सदा बिहरत स्यामा स्याम। सकल मनोरथ मंजु मम ते पुजवहु सुख घाम। —(शब्द०)।

पुजवना † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पुजा] पूजा के लिये सामग्री। पूजा का उपकरण। पूजा करने का सामान। पुजापा।

पुजवाना
क्रि० स० [हिं० पूजना का प्रे० रुप] १. पूजन कराना। पूजा करने में प्रवृत्त करना। आराधन कराना। जैसे,—हम अपने ठाकुर दुसरे से पुजवा लेंगे। २. अपनी पूजा कराना। पूजा प्रतिष्ठा लेना। जैसे,—ये देवता ऐसे हैं जो सबसे पुजवाते हैं। ३. अपनी सेवा शुश्रुषा कराना। आदर संमान कराना। जैसे,—गाँवों में साधु अपने को खूब पुजवाते हैं।

पुजाई (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० ?पूज + आई (प्रत्य०)] १. पूजने का भाव या क्रिया। जैसे, गंगापुजाई। २. पूजने का दाम या मजदुरी।

पुजाई (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुजना (=पुरा होना)] १. पूरा करने की क्रिया या भाव। २. पूरा करने की मजदुरी।

पुजाना (१)
क्रि० स० [हिं० पुजना का प्रे० रुप] १. दूसरे से पूजा कराना। पूजा में प्रवृत्त या नियुक्त कराना। जैसे, पुजारी से ठाकुर पुजाना। २. अपनी पूजा प्रतिष्ठा कराना। आदर सम्मान प्राप्त करना। भेंट चढ़वाना। ३. धन वसुल करना। जैसे,—(क) गाँवों में बैरागी खूब पुजाते हैं। (ख) आज ५) उससे पुजाए। संयो० क्रि०—लेना।

पुजाना (१)
क्रि० स० [हिं० पूजना (=पूरा होना, भरना)] १. भर देना। किसी घाव, गड्ढे आधि को बराबर करना। जैसे,—यह दवा घाव को बहुत जल्दी पुजा देगी। संयो० क्रि०—देना। २. पूरा करना। पूर्ति करना। कमी दुर करना। उ०—पंडुबधू पटहीन सभा में कोटिन वसन पुजाए। —सुर (शब्द०)। ३. परिपुर्ण करना। सफल करना। उ०—करि विवाह ताही लै आयो। तासु मनोरथ सकल पुजायो। —सूर (शब्द०)।

पुजापा
संज्ञा पुं० [सं० पुजा+ ?] १. देवपूजन की समाग्री, जैसे, फूलपत्र, नैवेद्य, पंचपात्र, अरघा इत्यादि। पूजा का सामान।मुहा०—पुजापा फैलाना=(१) वस्तुओं को बिना किसी क्रम के इधर उधर फैलाकर रखना। (२) आडंबर फैलाना। बखेड़ा फैलाना। २. पूजा की सामग्री रखने की झोली। पुजाही।

पुजापेदानी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुजापा+ फा़० दान (प्रत्य०)] पूजा का पात्र। उ०—घरेलु बरतन भाँड़े प्राय, मिट्टी के भाँति भाँति के प्रकार और आकृति के, बनाए जाते थे, जैसे, पुजापेदानी, पीने के आबखोरे आदि। —हिंदु० सभ्यता, पृ० २१।

पुजारी
संज्ञा पुं० [सं० पुजा+कारी] १. पुजा करनेवाला। जो पूजा करता हो। २. किसी देवमुर्ति की नियमित रुप से सेवा शुश्रूषा करनेवाला व्यक्ति।

पुजाही
संज्ञा स्त्री० [हिं० पूजा+आही (प्रत्य०)] पूजन की सामग्री रखने की थैली या पात्र।

पुजेरा पु
संज्ञा पुं० [हिं० पूजा + एरा (प्रत्य०)] दे० 'पुजारी'। उ०—जब यह बात पुजेरा कही। सरग सेन जिय मानी सही। —अर्ध०, पृ० १०।

पुजेरी पु
संज्ञा पुं० [हिं० पूजा+एरी (प्रत्य०)] दे० 'पुजारी'। उ०—आप देव आप ही पुजेरी। आपुहि भोजन जेंवत ढेरी।—सुर (शब्द०)।

पुजेला †
संज्ञा पुं० [हिं० पूजा] दे० 'पुजारी'।

पुजैया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पूजन+ऐया (प्रत्य०)] पुजारी। पूजा करनेवाला।

पुजैया (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पूजना (=भरना)] पूरा करनेवाला। भरनेवाला।

पुजैया (३)
संज्ञा स्त्री० १. दे० 'पुजाई'। २. बाजे गाजे के साथ सपरिवार किसी देवता के गीत गाते हुए पूजन के निमित्त जाने की क्रिया।

पुजौना †
संज्ञा पुं० [हिं० पूजा+औना (प्रत्य०)] दे० 'पुजवना'।

पुजौरा
संज्ञा पुं० [हिं० पूजा+भार?] १. पूजन। अर्चना। २. पूजा के समय देवता को अर्पित करने की सामग्री।

पुज्जना पु (१)
क्रि० स० [सं० पूजन] अर्चन करना। 'पूजना'। उ०—करि होय देव पुज्जे अपार। गो भुभि रत्थ हाटक सुढार। —ह० रासो, पृ० १५।

पुज्जना पु (२)
क्रि० अ० [हिं० पूजना] पूरा होना। पूर्ण होना। पूजना। उ०—भय चंद चंद तन मन प्रसन। अस अभूत पुज्जिय रलिय। —पृ० रा०, ६।

पुट (१)
संज्ञा पुं० [अनु० पुट पुट (छींटा=गिले का शब्द)] १. किसी वस्तु से तर करने या उसका हलका मेल करने के लिये डाला हुआ छींटा। हलका छिरकाव। जैसे,—(क) पकाते वक्त ऊपर से पानी का हलका पुट दे देना। क्रि० प्र०—देना। २. रँग या हलका मेल देने के लिये किसी वस्तु को धुले हुए रंग या और किसी पतली चीज में डुबाना। बोर। जैसे— इसमें एक पुट लाल रंग का दे दो। उ०—ज्यों बिन पुट पट गहत न रँग को, रंग न रसै परै। —सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना। ३. बहुत हलका मेल। अल्प मात्रा में मिश्रण। भावना। जैसे, माँग में संखिया का भी पुट है।

पुट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आच्छादन। ढाकनेवाली वस्तु। जैसे, रदपुट, नेत्रपुट। २. दोना। गोल गहरा पात्र। कटोरा। उ०—(क) पियत नैन पुट रुप पियुखा। —तुलसी (शब्द०)। (ख) जलपुट आनि धरो आँगन में मोहन नेक तौ लीजै। — सूर (शब्द०)। ३. दोने के आकार की वस्तु। कटोरे की तरह की चीज। जैसे, अंजालिपुट। ४. मुँहबंद बरतन। औषध पकाने का पात्र विशेष। विशेष—दो हाथ लंबा, दो हाथ चौड़ा, दो हाथ गहरा एक चौखूँटा गड्ढा खोदकर उसमें बिना पथे हुए उपले डाल दे। उपलों के ऊपर औषध का मुँहबंद बरतन रख दे और ऊपर से भी चारों ओर उपले डालकर आग लगा दे। दवा पक जायगी। यह महापुट है। इसी प्रकार गड्ढे के विस्तार के के हिसाब से कपोतपुट, कौक्कुटपुट, गजपुट, भांडपुट, इत्यादि हैं; जैसे सवा हाथ विस्तार के गड्ढे में जो पात्र रखा जाय वह गजपुट है। ५. कटोरे के आकार के दो बराबर बरतनों को मुँह मिलाकर जोड़ने से बना हुआ बंद घेरा। संपुट। ६. घोड़े की टाप। ७. अंत पट। अँतरौटा। ८. जायफल। ९. एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में दो नगण, एक मगण और एक यगण होता है। जैसे,—श्रवणपुट करी ना जान रानी। रघुपति कर याकी मीचु ठानी। १०. कोश (को०)। ११. खाली जगह। रिक्त स्थान। जैसे, नासापुट, कर्णपुट (को०)। १२. कौटिल्य के अनुसार पोटली या पैकेट जिसपर मुहर की जाती थी।

पुटकंद
संज्ञा पुं० [सं० पुटकन्द] कोलकंद। बाराही कंद।

पुटक
संज्ञा पुं० [सं०] कमल। विशेष—शेष अर्थ पुट के समान।

पुटकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पद्मिनी। कमलिनी। २. पद्मसमूह। ३. कमलों से भरा देश।

पुटकी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पुटक (=दोना)] पोटली। गठरी।

पुटकी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पटपटाना (=मरना)] १. आकस्मिक मृत्यु। मौत जो एकबारगी आ पड़े। २. वज्रपात। दवी आपति। आफत। गजब। मुहा०—(किसी पर) पुटकी पड़ना=(१) मौत आना। अकाल मृत्यु होना। (२) वज्र पड़ना। आफत आना। गजब गिरना (स्त्रि० शाप)।

पुटकी (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुट (=हलका मेल)] बेसन या आटा जो तरकारी के रस में उसे गाढ़ा करने के लिये मिला दिया जाता है। आलन।

पुटग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] १. गगरा। कलसा। ताँबे का गगरा (को०)।

पुटन
संज्ञा पुं० [सं०] आच्छादन करना।

पुटनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] फेनी नाम की मिठाई।

पुटपरी †
संज्ञा स्त्री० [देशी] १. धतूरे की पुट दी हुई मदिरा। २. पगचंपी। पैर पर चंपी करने की क्रिया। उ०—जीव नरेश अविद्या निद्रा सज्या सोयौ करि हेत। कर्म षवास पुटपरी लाई तातें बहुविधि भयो अचेत। —सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६४१।

पुटपाक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्ते के दोनों में रखकर औषध पकाने का विधान (वैद्यक)। विशेष—पकाई जानेवाली ओषध को गंभारी, बरगद, जामुन, आदि के पत्तों में चारों ओर से लपेट दे और कसकर बाँध दे। फिर पत्तों के ऊपर गीली मिट्टी का अंगुल दो अंगुल मोटा लेप कर दे। फिर उस पिंड को उपले की आग में डाल दे। जब मिट्टी पककर लाल हो जाय तब समझे कि दवा पक गई। नेत्ररोगों में भी पुटपाक की रीती से औषध पकाकर उसका रस आँख में डालने का विधान है। स्निग्ध मांस और कुछ औषध लेकर द्रव पदार्थ मिलाकर पीस डाले फिर सबको ऊपर लिखित रीति से पकाकर उसका रस निचोड़कर आँख में डाले। २. मुँहबंद बरतन में दवा रखकर उसे गड्ढे के भीतर पकाने का विधान। विशेष—भस्म बनाने के लिये धातुएँ प्रायः इसी रीति से फुँकी जाती है। ३. फुटपाक द्धारा सिद्ध रस या औषध। उ०—रावण सो रस राज सुभट रस सहित लंक खल खलतो। करि पुटपार नाकनायक हित घने घने घर घलतो। —तुलसी (शब्द०)।

पुटपी पु
संज्ञा पुं० [सं० पुट] संपुट। कली। पुट। उ०—कब पुटपी कब फुरनै आवै। कब नाभिकमल महँ जाय समावै। — प्राण०, पृ० २९।

पुटभेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल का भँवर। २. एक प्रकार का वाद्य (कौ०)। ३. नगर। पत्तन।

पुटभेदक
संज्ञा पुं० [सं०] परतदार प्रस्तर जो आधा पुरसा खोदने पर जमीन के भीतर मिले। (बृहत्संहिता)। विशेष—कहाँ खोदने से जल निकलेगा इसका विचार जिस उदकार्गल प्रकरण में है उसी में इसका उल्लेख हैं।

पुटभेदन
संज्ञा पुं० [सं०] नगर। पत्तन। उपनगर। कस्बा [को०]।

पुटरिया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पोटली'।

पुटरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पोटलिका] दे० 'पोटली'।

पुटली पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० पट्टु, हिं० पटुली] दे० 'पटुली'। उ०—अंक भरै पुटली पै बेठे मुख लखि जीव जिवावै।—घनानंद, पृ० ४६८।

पुटलो † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पोटलिका] दे० 'पोटली'।

पुटालु
संज्ञा पुं० [सं०] कोल कंद। बाराही कंद।

पुटास
संज्ञा पुं० [अं० पोटास] दे० 'पोटास'।

पुटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संपुट। पुंड़िया। २. इलायची।

पुटित (१)
वि० [सं०] १. जो सिमटकर दोने के आकार का हो गया हो। २. संकुचित। सुकड़ा हुआ। ३. फटा या फाड़ा हुआ। ४. सिला हुआ। ५. बंद। ६. घृष्ट। घर्षित। चुर्णित (को०)। ७. आदि और अंत में किसी विशेष मंत्र या बीजाक्षर से युक्त (मंत्र, श्लोक आदि)।

पुटित (२)
संज्ञा पुं० हाथ की अंजलि [को०]।

पुटिया
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली।

पुटियाना †
क्रि० स० [हिं० पुट+याना (प्रत्य०)] फुसलाकर अपने पक्ष में करना। स्वार्थसिदि्ध के लिये किसी को अपने अनुकूल बनाना।

पुटी
संज्ञा स्त्री० [सं० पुट] १. छोटा दोना। छोटा कटोरा। उ०— भरि भरि परन पुटी रचि रुरी। —तुलसी (शब्द०)। २. खाली स्थान जिसमें कोई वस्तु रखी जा सके। जैसे, चंचुपुटी। ३. पुड़िया। ४. कौपीन। लँगोटी। ५. आच्छादन (को०)। (अन्य अर्थ 'पुट' शब्द के समान)।

पुटीन
संज्ञा पुं० [अं० पुटी] किवाड़ों में शीशे बैठाने या लकड़ी के जोड़, छेद, दरार आदि भरने में काम आनेवाला एक मसाला जो अलसी के तेल में खरिया मिट्टी मिलाकर बनाया जाता है।

पुटोटज
संज्ञा पुं० ]सं० पुट+उटज] सफेद छत्र। श्वेत छाता (को०)।

पुटोदक
संज्ञा पुं० [सं० पुट+उदक] जिसके भीतर जल हो— नारियल [को०]।

पुटोला पु
संज्ञा पुं० [हिं०] एक प्रकार का रेशमी वस्त्र। पटोल। उ०—फाड़ि पुटोला धज करौं कामलड़ी पाहिराउँ। जिहि जिहि भेषा हरि मिलै सोइ सोइ भेष कराउँ। —कबीर ग्रं०, ११।

पुट्टी
संज्ञा स्त्री० [देश०] मछलियों के पकड़ने का झाबा।

पुट्ठ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुष्ट, प्रा० पुट्ठ] दे० 'पीठ'। उ०—तिन पर तुट्टै बीज जौं जिन पर राज अरुट्ठ। राज काज संमुह भिरन दई न कबहु पुट्ठ। —पृ० रा०, ५। ५।

पुट्ठा
संज्ञा पुं० [सं० पुष्ठ या पृष्ठ] १. चूतड़ का ऊपरी कुछ कड़ा भाग। २. चौपायों विशेषत घोड़ों का चूतड़। मुहा०—पुट्ठे पर हाथ न रखने देना=चंचलता और तेजी के कारण सवार को पास न आने देना। (घोड़ों के लिये)। ३. घोड़ों की संख्या के लिये शब्द। जैसे,—(क) इस साल कितने पुट्ठे लाए?. (ख) फी पुट्ठा १००) के हिसाब से दाम ले लो। ५. पुट्ठे पर का मजबूत चमड़ा। (चमार)।

पुट्ठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुठ्टः] बैलगाड़ी के पहिए के घेरे का एक भाग जिसमें आरा और गज घुसे रहते हैं। विशेष—किसी पहिए में ४ किसी में ६ ऐसे भाग मिलकर पूरा घेरा बनाते हैं।

पुठवार (१)
क्रि० वि० [हिं० पुट्ठा] पीछे। बगल में। उ०—तुम सैन सजै पुठवार रहौ अब आयसु देहु न और बह्यौ। हम जाय जुरें पहले उन सौं तुम गौर करौ लखि लोह बह्यौ। —सूदन (शब्द०)।

पुठवार (२)
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठ] दे० 'पुठवाल'—१। उ०—ठाढ़े खड़े पुठवार, भली बिधि लूटहीं। —कबीर श०, भा० २, पृ० १२२।

पुठवाल
संज्ञा पुं० [सं० पृष्ठक, हिं० पुठ्ठा+वाला] १. चोरों के दल का वह बलिष्ठ आदमी जो सेंध के मुँह पर पहरे के लिये खड़ा रहता है। २. भले बुरे काम में किसी का साथ देनेवाला। मददगार। पृष्ठरक्षक।

पुड़ पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पृष्ठ, प्रा० पुट्ठ] दे० 'पीठ'। उ०—जस छल जागणहार, धर पुड़ त्यागणहार धिन। अरुणानुज असवार कर छाया ज्यों सिर करै। —बाँकी० ग्रं०, भा०३, पृ० ४५।

पुड़ँग
संज्ञा पुं० [सं० पुटक] दे० 'पुटक'। उ०—पड़ै पुड़ँग तहँ पेम की एक अखंडी धार। हरिया हरिजन पीवसी दुनियाँ सुधी न सार। —राम० धर्म०, पृ० ६३।

पुड़ा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पुट] [स्त्री० अल्पा० पुड़िया] बड़ा पुड़िया या बंडल।

पुड़ा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पुट्ठ] वह चमड़ा जिससे ढोल मढ़ा जाता है।

पुड़िया
स्त्री० संज्ञा [सं० पुटिका, प्रा० पुडिया] १. मोड़ या लपेटकर संपुट के आकार का किया हुआ कागज या पत्ता जिसके भीतर कोई वस्तु रखी जाय। जैसे,—पंसारी ने एक पुड़िया बाँधकर दी। क्रि० प्र०—बाँधना। २. पुंड़िया में लपेटी हुई दवा की एक खुराक या मात्रा। जैसे,— एक पुड़िया सुबह खाना एक शाम। ३. आधारस्थान। खान। भंडार। घर। जैसे,—यह बुढ़िया आफत की पुड़िया है।

पुड़ी़
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुड़ा़] वह चमड़ा जिससे ढोल मढ़ा जाता है। †२. दे० 'पुड़िया'। ३. पुड़ी़।

पुण † (१)
संज्ञा पुं० [सं० पुण्य] दे० 'पुण्य'। उ०—पुण सो हुयो फल आज प्रापत आप दरसण वारणै। —रघु० रु०, पृ० १२६।

पुण (२)
क्रि० वि० [सं० पुनः] पुनः। फिर।

पुणग पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पन्नग] दे० 'पन्नग'। उ०—धर नीगुल दीवउ सजल, छाजइ पुणग न माइ। —ढोला, दू० ५०६।

पुणग पु
संज्ञा पुं० [सं० पुटक, राज० पुडग] दे० 'पुटक'। उ०— दादू तृषा बिना तनि प्रीति न उपजै सीतल निकट जल घरिया। जनम लगै जिव पुणग न पीवै, निरमल दह दिस भरिया। —दादु०, पृ० ७२।

पुणचा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'पहुँचा'। उ०—पुणचा जड़त जड़ाऊ पुणची कल आजान भुजा केयूर। —रघु० रु०, पृ० २५६।

पुणची †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'पहुँची'। उ०—पुणचा जड़त जड़ाऊ पुणची कल आजान भुजा केयुर। —रघु० रु०, पृ० २५६।

पुणिंद पु
संज्ञा पुं० [सं० फणीन्द्र] फणीद्र। सर्प। उ०—मारु घुँघटि दिट्ठ मई, एता सहित पुणिंद। कीर, भमर, कोकिल, कमल, चंद, मयंद, गयंद। —ढोला०, दू० ४५५।

पुणि †
क्रि० वि० [सं० पुनः] दे० 'पुनि'।

पुण्य (१)
वि० [सं०] १. पवित्र। २. शुभ। अच्छा। भला। ३. धर्म- विहित। जैसे, पुण्य कार्य। ४. गुणयुक्त (को०)। ५. न्याय- संगत (को०)। ६. अनुकूल। रुचि के अनुसार (को०)। सुंदर। प्रिय (को०)। ७. मीठी या मधुर (गंध)। ८. गंभीर (को०)।

पुण्य (२)
संज्ञा पुं० १. वह कर्म जिसका फल शुभ हो। शुभादृष्ट। सुकृत। भला काम। धर्म का कार्य। जैसे,—दीनों को दान देना बड़े पुण्य का कार्य है। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. शुभ कर्म का संचय। जैसे,—ऐसा करने से बड़ा पुण्य होता है। क्रि० प्र०—होना। ३. पवित्रता (को०)। ४. पशुओं को पानी पिलाने की नाँद (को०) ५. एक व्रत। दे० 'पुण्यक'—२।

पुण्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्रत, अनुष्ठान आदि जिनसे पुण्य होता है। २. ब्रह्मावैवर्त पुराण के गणपति खंड (अ० ३-४) में कथित एक व्रत। वह व्रत या उपचार जो पुत्रवती स्त्री अपने पुत्र के कल्याण के लिये करती है। ३. विष्णु।

पुण्यकर्ता
वि० [सं० पुण्यकर्तृ] दे० 'पुण्यकर्मा'।

पुण्यकर्मा
वि० [सं०] पुण्यकार्य करनेवाला व्यक्ति [को०]।

पुण्यकाल
संज्ञा पुं० [सं०] दान पुण्य का समय।

पुण्यकीतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. पुराणों का बाँचना [को०]।

पुण्यकीर्ति
वि० [सं०] पवित्र कीर्तिवाला। पूजनीय [को०]।

पुण्यकृत्
वि० [सं०] पुण्य करनेवाला। धार्मिक। [को०]।

पुण्यक्षेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह स्थान जहाँ जाने से पुण्य हो। तीर्थ। २. आर्यवर्त का एख नाम (को०)।

पुण्यगंध
संज्ञा पुं० [सं० पुण्यगन्ध] चंपा। चंपक।

पुण्यगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्यगन्धा] सोनजूही का फूल।

पुण्यगंधि
वि० [सं० पुण्यगन्धि] खुशबूदार। सुगंधित [को०]।

पुण्यगृह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न सत्र। २. मंदिर [को०]।

पुण्यजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्मात्मा। सज्जन। २. राक्षस। ३. यक्ष।

पुण्यजनेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर।

पुण्यजित
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रलोक, स्वर्ग लोक आदि (जिनकी प्राप्ति पुण्य द्वारा होती है)।

पुण्यतृण
संज्ञा पुं० [सं०] श्वेत कुश [को०]।

पुण्यदर्शन (१)
वि० [सं०] जिसके दर्शन से पुण्य हो। जिसके दर्शन- का फल शुभ या अच्छा हो।

पुण्यदर्शन (२)
संज्ञा पुं० नीलकंठ। चाष पक्षी। (विजयादशमी के दिन इसके दर्शन से लोग पुण्य मानते हैं)।

पुण्यदुह
वि० [सं० पुण्यदुट्] पुण्यदाता। आनंद प्रदान करनेवाला [को०]।

पुण्यपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] पवित्रत्मा। पुण्यवान व्यक्ति [को०]।

पुण्यफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुण्य कर्मो का फल। २. वह बाग जिसमें लक्ष्मी निवास करती है [को०]।

पुण्यभाक्
वि० [सं० पुण्यभाज्] पवित्र व्यक्ति। पवित्रात्मा [को०]।

पुण्यभू, पुण्यभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आर्यावर्त देश। २. पुत्रवती स्त्री।

पुण्ययोग
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्व जन्म में किए हुए पुण्य कर्मों का फल [को०]।

पुण्यलोक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग [को०]।

पुण्यवान्
वि० [सं० पुण्यवत्] [वि० स्त्री० पुण्यवती] पुण्य करनेवाला। धर्मांत्मा।

पुण्यविजित
वि० [सं०] पुण्य से प्राप्त [को०]।

पुण्यशकुन
संज्ञा सं० १. पक्षी जिसका दर्शन शुभ सगुन देनेवाला हो। २. शुभदायक शकुन [को०]।

पुण्यशील
वि० [सं०] पुण्य कार्य करनेवाला। धर्मनिष्ठ [को०]।

पुण्यश्लोक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० पुण्यश्लोका] जिसका सुंदर चरित्र या यश हो। पवित्र चरित्र या आचरणवाला। जिसका जीवनवृत्तांत पवित्र और शिक्षादायक हो।

पुण्यश्लोक (२)
संज्ञा पुं० १. नल। २. युधिष्ठर। ३. विष्णु।

पुण्यश्लोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीता। २. द्रौपदी।

पुण्यस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. पवित्र स्थान। तीर्थस्थान। २. जन्मकुंडली में लग्न से नवाँ स्थान जिसमें कुछ ग्रहों के होने से पुण्यवान् या पुण्यहीन होने का विचार किया जाता है।

पुण्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तुलसी। २. पुनपुना नदी।

पुण्याई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुण्य + आई (प्रत्य०)] पुण्य का फल या पुण्य का प्रभाव। जैसे,—आज तो वह पुरखों की पुण्याई से बच गया।

पुण्यात्मा
वि० [सं० पुण्यात्मन्] जिसकी प्रवृत्ति पुण्य की ओर हो। पुण्यशील। धर्मात्मा।

पुण्याह
संज्ञा पुं० [सं०] शुभ दिन। मंगल का दिन।

पुण्याहवाचन
संज्ञा पुं० [सं०] देवकार्य के अनुष्ठान के पहले मंगल के लिये 'पुण्याह' शब्द का तीन बार कथन।

पुण्योदय
संज्ञा पुं० [सं०] भाग्योदय। अच्छे दिनों का आगमन [को०]।

पुत्
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम जिससे पुत्र होने पर उदधार होता है।

पुतना (१)
क्रि० अ० [हिं० पोतना] पोता जाना। पुताई का कार्य होना।

पुतना पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पूतना] दे० 'पूतना'। उ०—पय प्यावत प्रानन हरे, पुतना बाल चरित्र।—नंद ग्रं०, पृ० १८०।

पुतरा पु †
संज्ञा पुं० [सं० पुतल] दे० 'पुतला'।

पुतरि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्तली] नेत्र का काला अंश। उ०— नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई।—मानस, २।५९।

पुतरिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्तलिका] दे० 'पुत्तलिका'।

पुतरिया ‡
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुतरी + इय (प्रत्य०)] दे० 'पुतरी'।

पुतरी
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्तली] गुड़िया। पुतली। उ०—बोलत हँमति, हरति इमि हियौ। जनु बिधि पुतरी मैं जिय दियौ।— नंद० ग्रं०, पृ० २२१। २. आँख का काला भाग। पुतली उ०—दृग जुग को मोहै। तिन संग पुतरी सोहै।— भिखारी० ग्रं०, भा० १, पृ० १९०।

पुतला
संज्ञा पुं० [सं० पुत्तक, पुतल] [स्त्री० पुतली] १. लकड़ी, मिट्टी, धातु, कपड़े आदि का बना हुआ पुरुष का आकार या मूर्ति विशेषतः वह जो विनोद या क्रीड़ा (खेल) के लिये हो। मुहा०—किसी का पुतला बाँधना = किसी की निंदा करते फिरना। किसी की अपकीर्ति फैलाना। बदनामी करना। विशेष—भाट जिसके यहाँ कुछ नहीं पाते हैं उसके नाम का एक पुतला बाँस में बाँधकर घूमते हैं और उसे कंजूस कह कहकर गालियाँ देते हैं। इस संदर्भ में गोस्वामी तुलसीदास का यह पदांश द्रष्टव्य है,—तौ तुलसी पूतरा बाँधिहै। २. शव की प्राप्ति न होने पर, आटा, सरपत आदि का बना हुआ आकार जो दाह किया जाता है। ३. जहाज के आगे का पुतला या तस्वीर। (लश०)।

पुतली
संज्ञा स्त्री० [हिं० पुतला] १. लकड़ी, मिट्टी, धातु, कपड़े आदि की बनी हुई स्त्री की आकृति या मूर्ति विश्षतः वह जो विनोद या क्रीड़ा (खेल) के लिये हो। गुड़िया। २. आँख का काल भाग जिसके बीच में वह छेद होता है जिससे होकर प्रकाश की किरणें भीतर जाती हैं और पदार्थों का प्रतिबिंब उपस्थित करती हैं। नेत्र के ज्योतिष्केंद्र के चारों ओर का कृष्णमंडल। विशेष—दूसरे की आँख पर दृष्टि गड़ाकर देखनेवाले को इस काले मडल के बीच के तिल में अपना प्रतिबिंब पुतली के आकार का दिखाई देता है इसी से यह नाम पड़ा। मुहा०—पुतली उलटना या फिर जाना = (१) आँखें पथरा जाना। नेत्र स्तब्ध होना। (मरणचिह्न)। (२) घमंड हो जाना। ३. कपड़ा बुनने की कला या मशीन। यौ०—पुतलीघर = वह स्थान जहाँ कपड़ा बुनने के लिये मशीनें बैठाई गई हों। कपड़ा बुनने की मिल। ४. किसी स्त्री की सुकुमारता और सुंदरता सूचित करने के लिये व्यवहृत शब्द। जैसे,—वह स्त्री क्या है पुतली है। ५. घोड़े की टाप का वह मांस जो मेढक की तरह निकला होता है।

पुताई
संज्ञा स्त्री० [हिं० पोतना + आई (प्रत्य०)] १. किसी गीली वस्तु की तह चढ़ाने का काम। पोतने की क्रिया या भाव। २. दीवार आदि पर मिट्टी, गोबर, चूने आदि पोतने का काम। ३. पोतने की मजदूरी।

पुतारा
संज्ञा पुं० [हिं० पुतना, पोतना] १. किसी वस्तु के ऊपर पानी से तर कपड़ा फेरने की क्रिया। भीगे कपड़े से पोछने का काम। २. पोतने का तर कपड़ा।

पुत्त पु
संज्ञा पुं० [सं० पुत्र, प्रा० पुत्त] १. दे० 'पुत्र'। २. 'पुतली'-१, २, ४।

पुत्तरी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्री] १. दे० 'पुत्री'।

पुत्तल
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० पुतली] पुतला। यौ०—पुत्तलदहन। पुत्तलपूजा = मूर्तिपूजा। पुतले की पूजा। पुत्तलविधि। दे० 'पुत्तलदहन' (क्रम में)।

पुत्तलक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० पुत्तलिका] पुतला।

पुत्तलदहन
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसे व्यक्ति का पुतला बनाकर जलाना जो कहीं अन्यत्र मर गया हो अथवा जिसका शव प्राप्त न हो [को०]।

पुत्तलि
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्तली] दे० 'पुतली'।

पुत्तलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुतली। २. गुड़िया।

पुत्तली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुतली। २. गुड़िया।

पुत्ति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्रि, प्रा० पुत्ति] दे० 'पुत्री'। उ०—तिह सुत्त नाँहि गृह पुत्ति दोइ। किय व्याह कमध चहुआन सोइ।—पृ० रा०, १।६७१।

पुत्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मधुमक्खी। २. दीमक।

पुत्र
संज्ञा पुं० [सं० पुत्त्र] [स्त्री० पुत्री] १. लड़का। बेटा। विशेष—'पुत्र' शब्द की व्युत्पत्ति के लिये यह कल्पना की गई है कि जो पुन्नाम ['पुत्' नाम] नरक से उद्धार करे उसकी संज्ञा पुत्र है। पर यह व्यत्पत्ति कल्पित है। मनु ने बारह प्रकार के पुत्र कहै हैं—औरस, क्षेत्रज, दत्तक, कृत्रिम्, गूढ़ोत्पन्न, अपविद्ध, कानीन, सहोढ, क्रीत, पौनर्भव, स्वयंदत्त और शौद्घ। विवाहिता सवर्णा स्त्री के गर्भ से जिसकी उत्पत्ति हुई हो वह 'औरस' कहलाता है। औरस ही सबसे श्रेष्ठ और मुख्य पुत्र है। मृत, नपुंसक आदि की स्त्री देवर आदि से नियोग द्वारा जो पुत्र उत्पन्न करे वह 'क्षेत्रज' है। गोद लिया हुआ पुत्र 'दत्तक' कहलाता है। किसी पुत्र गुणों से युक्त व्यक्ति को यदि कोई अपने पुत्र के स्थान पर नियत करे तो वह 'कृत्रिम' पुत्र होगा। जिसकी स्त्री को किसी स्वजातीय या घर के पुरुष से ही पुत्र उत्पन्न हो, पर यह निश्चित न हो कि किससे, तो वह उसका 'गूढ़ोत्पन्न' पुत्र कहा जायगा। जिसे माता पिता दोनों ने या एक ने त्याग दिया हो और तीसरे ने ग्रहण किया हो वह उस ग्रहण करनेवाले का 'अपविद्ध' पुत्र होगा। जिस कन्या ने अपने बाप के घर कुवारी अवस्था में ही गुप्त संयोग से पुत्र उत्पन्न किया हो उस कन्या का वह पुत्र उसके विवाहिता पति का 'कानीन' पुत्र कहा जायगा। पहले से गर्भवती कन्या का जिस पुरुष के साथ विवाह होगा गर्भजात पुत्र उस पुरुष का 'सहोढ़' पुत्र होगा। माता पिता को मूल्य देकर जिसे मोल लें वह मोल लेनेवाले का 'क्रीत' पुत्र कहा जायगा। पति द्वारा त्यागी जाकर अथवा विधवा या स्वेच्छाचारिणी होकर जो परपुरुष संयोग द्वारा पुत्र उत्पन्न करे वह पुत्र उस पुरुष का 'पौनभर्व' पुत्र होगा। मातृपितृविहीन अथवा माता पिता का त्यागा हुआ यदि किसी से आप आकर कहे कि 'मैं आपका पुत्र हुआ' तो वह 'स्वयंदत्त' पुत्र कहलाता है। विवाहिता शूद्रा और ब्राह्मण से संयोग से उत्पन्न पुत्र ब्राह्मण का 'पार्शव' या 'शौद्र' पुत्र कहलाएगा। २. प्रिय बालक। प्यारा बच्चा (को०)। ३. पशुओं का छोटा बच्चा (को०)। ४. अपने वर्ग की साधारण या छोटी वस्तु। जैसे, शिलापुत्र, असिपुत्र (समासांत में प्रयुक्त)। ५. कुंडली में जन्मलग्न से पाँचवाँ स्थान (को०)।

पुत्रकदा
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्रकन्दा] लक्ष्मणकंद जिसके सेवन से गर्भदोष दूर होते हैं।

शिशुपत्र, पुत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुत्र पुत्रसम। शिशुपुत्र बेटा। २. पतंग। फतिंगा। टिड्डी। ३. दाने का पौधा। ४. एक प्रकार का चूहा (शरभ) जिसके काटने से बड़ी पीड़ा और सूजन होती है। ५. गुड्डा। पत्तलक (को०)। ६. दयनीय व्यक्ति। दया करने योग्य व्यक्ति (को०)। ७. बाल। केश (को०)। ८. धोखे- बाज या धूर्त व्यक्ति (को०)। ९. एक पर्वत का नाम (को०)। १०. एक विशेष वृक्ष (को०)।

पुत्रकर्म
संज्ञा पुं० [सं० पुत्रकर्मन्] पुत्रजन्मोत्सव। पुत्रोत्पत्ति पर किया जानेवाला उत्सव [को०]।

पुत्रका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पुत्रिका' [को०]।

पुत्रकाम
वि० [सं०] जिसे पुत्र की कामना हो [को०]।

पुत्रकामेष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक यज्ञ जो पुत्रप्राप्ति की इच्छा से किया जाता है।

पुत्रकाम्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्रप्राप्ति की कामना [को०]।

पुत्रकार्य
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र संबंधी संस्कार। पुत्र संबंधी उत्सव [को०]।

पुत्रकृत् पुत्रकृतक
संज्ञा पुं० [सं०] माना हुआ पुत्र। दत्तक पुत्र [को०]।

पुत्रध्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक योनिरोग जिसके कारण गर्भ नहीं ठहरता।

पुत्रजग्धी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऐसी स्त्री जो अपने बच्चों को स्वय खा जाय [को०]।

पुत्रजात
वि० [सं०] जिसको पुत्र पैदा हुआ हो [को०]।

पुत्रजीव
संज्ञा पुं० [सं०] इंगुदी से मिलता जुलता एक बड़ा और सुंदर पेड़ जो हिमालय से लेकर सिंहल तक होता है। जिया- पोता। विशेष—इसकी लकड़ी कड़ी और मजबूत होती है। यह चैत बैसाख में फूलता है। फल भी इसके इंगुदी के फलों के ऐसे होते हैं। बीज सूखकर रुद्राक्ष की तरह हो जाते हैं; इससे बहुत से साधु उसकी माला पहनते हैं। बीजों से तेल भीनिकलता है जो जलाने के काम में आता है। छाल, बीज और पत्ते दवा के काम में आते हैं। वैद्यक में पुत्रजीव भारी वीर्यवर्धक, गर्भदायक, कफकारक, मलमूत्रकारक, रूखा और शीतल माना जाता है। पर्या०—जियापोता। पुतजिया। पवित्र। गर्भद। सिदिघद। यष्टीपुष्प।

पुत्रजीवक
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्रजीव नामक वृक्ष।

पुत्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बंध्या ककोंटकी। बाँझ ककोड़ा या खेखसा। २. लक्ष्मणा कंद। ३. सफेद भटकटैया। श्वेत कंटकारि। ४. जीवंती।

पुत्रदात्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक लता जो मालवा में होती है। इसके सेवन से पुत्रप्राप्ति होती है। २. श्वेत कंटकारि।

पुत्रधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र का कर्तव्य [को०]।

पुत्रपौत्रीण
वि० [सं०] पुत्र से पौत्र तक क्रमशः प्राप्त या प्रचलित। आनुवशिक, वंशपरपरागत [को०]।

पुत्रप्रतिनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र का स्थानापन्न। दत्तक पुत्र [को०]।

पुत्रप्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्वेतकंटकारि। २. क्षविका।

पुत्रप्रवर
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्रों में श्रेष्ठ पुत्र। ज्येष्ठ पुत्र। सबसे बड़ा लड़का [को०]।

पुत्रप्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पूत्रसू'।

पुत्रभद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ी जीवंती।

पुत्रभांड
संज्ञा पुं० [सं० पुत्रभाण्ड] पुत्र का प्रतिनिधि। वह जो पुत्र का स्थानापन्न हो [को०]।

पुत्रभाव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुत्र का भाव। पुत्रत्व। २. फलित ज्योतिष में लग्न से पंचम स्थान का विचार जिसके द्वारा ज्योतिषी यह निश्चित करते हैं कि किसके कितने पुत्र या कन्याएँ होंगी।

पुत्रलाभ
संज्ञा पुं० [सं०] पुत्र का जन्म लेना। पुत्रप्राप्ति।

पुत्रवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिसके पुत्र हो। पुत्रवाली। पूती। उ०—पुत्रवती जुबता जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुत होई।—मानस, २।७५।

पुत्रवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्र की स्त्री। पतोहू। पुतऊ।

पुत्रशृंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० पुत्रश्रृडगी] मेढ़ा। अजश्रृगी।

पुत्रश्रेणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मुसाकानी।

पुत्रसख
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो बच्चों को बहुत अधिक चाहता हो। बच्चों का मित्र [को०]।

पुत्रसप्तमी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि [को०]।

पुत्रसहम
संज्ञा पुं० [सं० पुत्र + अ० सहम] नीलकंठ ताजिक में जो ५० प्रकार के सहम कहे गए हैं उनमें से एक। विशेष—बृहस्पतिस्फुट में से चंद्रस्फुट निकाल लेने से जो अंक बचे उसे लग्नस्फुट के साथ जोड़ने से पुत्रसहम आता है। इसके द्वारा पुत्रलाभ आदि का विचार किया जाता है।

पुत्रसू
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्र की माँ [को०]।

पुत्राचार्य
वि० [सं०] पुत्र को गुरु माननेवाला [को०]।

पुत्रादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अप्राकृतिक माँ। अपनी संतानों को खा जानेवाली माँ। २. व्याघ्री [को०]।

पुत्रादी
वि० [सं० पुत्रादिन्] [वि० स्त्री० पुत्रादिनी] पुत्रभक्षक। बेटे को खानेवाला। (गाली)।

पुत्रान्नाद
वि० [सं०] पुत्र से भरणपोषण प्राप्त करनेवाला। पुत्र की आजीविका पर जीनेवाला। कुटीचक [को०]।

पुत्रार्थी
वि० [सं० पुत्रार्थिन्] [वि० स्त्री० पुत्रार्थिनी] पुत्र की कामना करनेवाला। पुत्र चाहनेवाला [को०]।

पुत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लड़की। बेटी। उ०—जनक सुखद गीता। पुत्रिका पाइ सीता।—केशव (शब्द०)। २. पुत्र के स्थान पर मानी हुई कन्या। विशेष—मनुस्मृति नवम अध्याय में कहा है कि जिसे पुत्र न हो वह कन्या को इस प्रकार पुत्र रूप से ग्रहण कर सकता है। विवाह के समय वह जामाता से यह निश्चय कर ले कि 'कन्या' का जो पुत्र होगा वह मेरा 'स्वधाकर' अर्थात् मुझे पिंड देनेवाला और मेरी संपत्ति का अधिकारी होगा। ३. गुड़िया। मूर्ति। पुतली। ४. आँख की पुतली। उ०— महादेव की नेत्र की पुत्रिका सी। कि संग्राम की भूमि में चंद्रिका सी।—केशव (शब्द०)। ५. स्त्री की तसवीर। उ०—चित्र की सी पुत्रिका की रूरे बगरूरे माहिं, शंबर छोड़ाय लई कामिनी की काम की।—केशव (शब्द०)। ६. (समासांत में) अपने वर्ग की छोटी या तुच्छ वस्तु। जैसे, असिपुत्रिका, खड्गपुत्रिका (को०)।

पुत्रिकापुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कन्या का पुत्र जो पुत्र के समान माना गया हो और संपत्ति का अधिकारी हो। २. दौहित्र (को०)।

पुत्रिकाभर्ता
संज्ञा पुं० [सं० पुत्रिकाभर्तृ] जामाता। दामाद [को०]।

पुत्रिकासुत
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पुत्रिकापुत्र' [को०]।

पुत्रिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसको पुत्र हों। पुत्र- वती स्त्री। २. एख परपुष्ट लता [को०]।

पुत्रिय
वि० [सं०] पुत्र से संबंधित। पुत्रविषयक [को०]।

पुत्री (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कन्या। लड़की। बेटी। २. दुर्गा (को०)।

पुत्री (२)
वि० [सं० पुत्रिन्] [वि० स्त्री० पुत्रिणी] पुत्रवाला। जिसे पुत्र हो।

पुत्रीय
वि० [सं०] पुत्र का। पुत्र संबंधी। पुत्रिय [को०]।

पुत्रीया
स्त्री० स्त्री० [सं०] पुत्रप्राप्ति की कामना [को०]।

पुत्रेप्सु
वि० [सं०] पुत्र की कामना करनेवाला [को०]।

पुत्रेष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का यज्ञ जो पुत्रलाभ की इच्छा से किया जाता है।

पुत्रेष्टिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पुत्रेष्टि' [को०]।

पुत्रैषणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पुत्रकामना। पुत्रेच्छा [को०]।

पुत्र्य
वि० [सं०] पुत्र संबंधी। पुत्रीय [को०]।

पुदीना
संज्ञा पुं० [फा़० पोदीनह्] एक छोटा पौधा जो या तो जमीन पर ही फैलता है अथवा अधिक से अधकि एक या डेढ़ बीता ऊपर जाता है। विशेष—इसकी पत्तियाँ दो ढाई अंगुल लंबी और डेढ़ पौने दो अंगुल तक चौड़ीःतथा किनारे पर कटावदार और देखने में खुरदारी होती है, पत्तियों में बहुत अच्छी गंध होती है इससे लोग उन्हें चटनी आदि में पीसकर डालते हैं। पुदीने को यहाँ डंठलों से ही लगाते हैं, उसका बीज नहीं बोते। पुदीने का फूल सफेद होता है और बीज छोटे छोटे होते हैं। पुदीना तीन प्रकार का होता है—साधारण, पहाड़ी और जलपुदीना। जलपुदीने की पत्तियाँ कुछ बड़ी होती हैं। पुदीना रुचिकारक, अजीर्णनाशक और वमन को रोकनेवाला है। यह पौधा हिंदुस्तान में बाहर से आया है, प्राचीन ग्रंथों में इसका उल्लेख नहीं है। यह पिपरमिंट की जाति का ही पौधा है।

पुदगल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जैनशास्त्रानुसार ६ द्रव्यों में से एक। जगत् के रूपवान् जड़ पदार्थ। स्पर्श, रस और वर्णवाला पदार्थ। विशेष—जैन दर्शन में षड्द्रव्य माने गए हैं—जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुदुगलास्ति- काय और काल। २. शरीर। देह। (बौदुध)। ३. परमाणु। ४. आत्मा। ५. गंधतृण। ६. शिव (को०)।

पुदुगल
वि० सुंदर। प्यारा। सलोना [को०]।

पुदुगलास्तिकाय
संज्ञा पुं० [सं०] संसार के सब रूपवान जड़ पदार्थों की समष्टि।

पुनः
अव्य० [सं० पुनर, पुनः] १. फिर। दोबारा। दूसरी बार। २. उपरांत। पीछे। अनंतर। विशेष—संस्कृत व्याकरण के अनुसार विभिन्न वर्णों का योग होने पर यह पुनः पुनर् और पुनश् आदि रूपों में परिवर्तित होता है।

पुनःकरण
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से करना। पुनः करना [को०]।

पुनःक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पुनःकरण'।

पुनःखुरी
संज्ञा पुं० [सं० पुनःखुरिन्] घोड़े के पैर का एक रोग जिसमें उनकी टाप फैल जाती है और वे लड़खड़ाते चलते हैं।

पुनःपाक
संज्ञा पुं० [सं०] किसी वस्तु को फिर से पकाना या पकाया जाना [को०]।

पुनःपुनः
क्रि० वि० [सं०] बार बार।

पुनःपुना
संज्ञा स्त्री० [सं०] गया की पुनपुना नदी।

पुनःप्रतिनिवतन
संज्ञा पुं० [सं०] वापस आना। लौट आना [को०]।

पुनःप्रमाद
संज्ञा पुं० [सं०] दुबारा उपेक्षा या लापरवाही करना [को०]।

पुनःसंगम
संज्ञा पुं० [सं० पुनःसङ्गम] फिर से मिलना। पुनः मिलना। पुनर्मिलन।

पुनःसंधान
संज्ञा पुं० [सं० पुनःसन्धान] अग्निहोत्र को फिर से जलाना [को०]।

पुनःसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से किया जानेवाला संस्कार। उपनयन आदि संस्कार जो फिर से किए जायँ। विशेष—जैसे, अनजाने अभक्ष्य, मलमूत्र, मद्य लगा हुआ अन्न आदि मुँह में पड़ जाने से ब्राह्मण का फिर से उपनयन होना चाहिए। इस पुनःसंस्कार में शिरोमुंडन मेखला, दंड, भैक्ष्य और ब्रह्मचर्य की आवश्यकता नहीं होती।

पुनःसंस्कृत
वि० [सं०] पुनःसंस्कारयुक्त। फिर से सुधारा या ठीक किया हुआ।

पुनःस्थापन
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से स्थापित करना। पुनःप्रतिष्ठा करना।

पुन † (१)
अव्य० [सं० पुनः] दे० 'पुनः'। उ०—पुन भविष्य प्रादुर्भाव में पुष्कर क्षेत्र की उतपति कौ बर्नन है—पौद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४८४।

पुन (२)
संज्ञा पुं० [सं० पुण्य] पुण्य। धर्म। सबाब।

पुनना
क्रि० स० [हिं० पूरना] बुरा भला कहना। उघटना। बखानना। बुराई खोल खोलकर कहना (स्त्रि०)।

पुनपुन †, पुनपुना
संज्ञा स्त्री० [सं० पुनःपुना] बिहार या मगध की एक छोटी नदी जो गया से बहती है और पवित्र मानी जाती है। इसके किनारे लोग पिंडदान करते हैं। वर्षा को छोड़ और ऋतुओं में इसमें जल नहीं रहता।

पुनरपागम
संज्ञा पुं० [सं० पुनर् + अपागम] फिर से चले जाना [को०]।

पुनरपि
क्रि० वि० [सं०] फिर भी। बार बार।

पुनरबस पु †
संज्ञा पुं० [सं० पुनर्वसु] दे० 'पुनर्वसु'।

पुनरबसु पु †
संज्ञा पुं० [सं० पुनर्वसु] दे० 'पुनर्वसु'।

पुनरागत
वि० [सं०] वापिस आया हुआ। लौटा हुआ [को०]।

पुनरागम, पुनरागमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. फिर से या पुनः आना। आना। दोबारा आना। २. संसार में फिर आना। पुनः फिर जन्म लेना।

पुनरागामी
वि० [सं० पुनरागामिन्] [वि० पुनरागामिनी] फिर से आ जानेवाला। लौटनेवाला।

पुनराजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] फिर से जन्म लेना [को०]।

पुनरादि
वि० [सं०] पुनः प्रारंभ करनेवाला [को०]।

पुनराधान
संज्ञा पुं० [सं०] श्रौत या स्मार्त अग्नि का फिर से ग्रहण। फिर से अग्निस्थापन। विशेष—पत्नी की मृत्यु हो जाने पर उसके दाहकर्म में अग्नि अर्पित करके गृहस्थ फिर सरे विवाह और अग्नि ग्रहण कर सकता है।

पुनराधेय
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से अग्निस्थापन [को०]।

पुनरानयन
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से ले आना। वापिस लौटा लाना [को०]।

पुनरालंभ
संज्ञा पुं० [सं० पुनराभ्भ] पुनः ग्रहण करना। पुनः स्वीकरण।

पुनरावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. लौटना। २. पुनर्जन्म [को०]।

पुनरावर्तक
वि० [सं०] बार बार आनेवाला (ज्वर आदि)।

पुनरावर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] पुनः होना। फिर पूर्वस्थिति का आना। उ०—कभी कभी हम वही देखते पुनरावर्तन। उसे मानते नियम चल रहा जिसमें जीवन।—कामायनी, पृ० १९१।

पुनरावर्ती
वि० [सं० पुनरावर्तिन] १. पुनः जन्म लेनेवाला। २. फिर से होनेवाला। पिर पूर्व की स्थिति में आनेवाला। उ०—गत यदि पुनरावर्ती होता तो हो जाता जीवन नित नव।—अपलक, पृ० ८।

पुनरावृत्त
वि० [सं०] १. फिर से घूमा हुआ। फिर से घूमकर आया हुआ। २. दोहराया हुआ। फिर से किया या कहा हुआ।

पुनरावृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पिर से घूमना। फिर से घूमकर आना। २. किए हुए काम को फिर करना। दोहराना। ३. पुनःपाठ। एक बार पढ़कर फिर पढ़ना। दोहराना।

पुनरुक्त (१)
वि० [सं०] १. फिर से कहा हुआ। २. एक बार का कहा हुआ। जो फिर कहा गया हो।

पुनरक्त (२)
संज्ञा पुं० दुबारा कहना [को०]।

पुनरुक्तवदाभास
संज्ञा पुं० [सं०] वह शब्दलंकार जिसमें शब्द सुनने से पुनरुक्ति सी जान पड़े परंतु यथार्थ में न हो। जैसे,— वंदनीय केहि के नहीं वे कविंद मति मान। स्वर्ग गए हू काव्यरस जिनको जगत जहान। इसमें 'जगत' और 'जहान' इन दोनों शब्दों के प्रयोग में पुनरुक्ति जान पड़ती है, पर है नहीं, क्योंकि 'जगत्' का अर्थ है—जगता है।

पुनरुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक बार कही हुई बात को फिर कहना। कहे हुए वचन को फिर लाना। विशेष—साहित्य की दृष्टि से रचना का यह एक दोष माना जाता है।

पुनरुज्जीवित
वि० [सं० पुनर्+ उज्जीवित] जिसे फिर से जीवन प्राप्त हुआ हो। जो फिर जी उठा हो।

पुनरुत्थान
संज्ञा पुं० [सं०] पुनःउठना। फिर से उन्नति करना [को०]।

पुनरुत्थित
वि० [सं० पुनर् + उत्थित] फिर से उठा हुआ [को०]।

पुनरुद्धार
संज्ञा पुं० [सं०] मरम्मत कराना। सुधार कराना। जीर्ण शीर्ण (भवतादि) को ठीक कराना।

पुनरूगमन
संज्ञा पुं० [सं०] लौटेना। फिर से जाना [को०]।

पुनरूढा
वि० स्त्री० [सं०] (स्त्री०) जिसका फिर से विवाह हुआ हो [को०]।

पुनरोपी पु
क्रि० वि० [सं० पुनरपि] दे० 'पुनरपि'। उ०— मित्तं पुनरोपि चित्तयं बसयं।—पृ० रा०, २५।३७७।

पुनर्गेय
वि० [सं०] १. जो फिर से गाया गया हो। २. जो फिर से गाया जाय। पुनः गान योग्य [को०]।

पुनर्ग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुनरुक्ति। २. बार बार ग्रहण या लेना।

पुनर्जन्म
संज्ञा पुं० [सं०] मरने के बाद फिर दूसरे शरीर में उत्पत्ति। एक शरीर छूटने पर दूसरा शरीर धारण।

पुनर्जन्मा
संज्ञा पुं० [सं० पुनर्जन्मन्] ब्राह्मण [को०]।

पुनर्जागरण
संज्ञा पुं० [सं० पुनर + जागरण] १. पुनः जगना। पुनरुत्थान। २. युरोपीय इतिहास का एक युगविशेष। प्राचीन का गौरवगान और उसकी पुनःस्थापना इस प्रवृत्ति की प्रमुख विशेषता है।

पुनर्जात
वि० [सं०] फिर से जन्म लेनेवाला [को०]।

पुनर्डीन
संज्ञा पुं० [सं०] पक्षियों के उड़ने का एक प्रकार [को०]।

पुनर्णव
संज्ञा पुं० [सं०] नख। नाखून।

पुनर्दाय
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से दे देना। लौटा देना [को०]।

पुनर्नव (१)
वि० [सं०] जो फिर से नया हो गया हो।

पुनर्नव (२)
संज्ञा पुं० दे० 'पुनर्णव'।

पुनर्नवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छोटा पौधा जिसकी पत्तियाँ चौलाई की पत्तियों की सी गोल गोल होती हैं। विशेष—फूलों के रंग के भेद से यह पौधा तीन प्रकार का होता है—श्वेत, रक्त और नील। श्वेत पुनर्नवा को विषखपरा और रक्त पुनर्नवा को साँठ या गदहपूरना कहते हैं। श्वेत पुनर्नवा या विषखपरे का पौधा जमीन पर फैला होता है, ऊपर की ओर बहुत कम जाता है। फूल सफेद होते हैं। साँठ या गदह- पूरना ऊसर और कँकरीली जमीन पर अधिक होती है। फूल लाला होते हैं, डंठल लाल होते हैं और पत्तियाँ भी किनारे पर कुछ ललाई लिए होती हैं। पुनर्नवा की जड़ मूसला होती है और नीचे दूर तक गई होती है। औषध में इसी जड़ का व्यवहार अधिकतर होता है पुनर्नवा कड़वी, गरम, चरपरी, कसैली, रुचिकारक, अग्निदीपक, रूखी, खारी, दस्तावर, हृदय और नेत्र को हितकारी, तथा सूजन, कफ, वात, खाँसी, बवासीर, सूल, पांडू रोग इत्यादि को दूर करनेवाली मानी जाती है। नेत्ररोगों में तो यह बहुत उपकारी मानी जाती है। इसकी जड़ को पीते भी हैं और घिसकर घी आदि के साथ अंजन की तरह लगाते भी हैं। ऐसा प्रसिद्ध है कि इसके सेवन से आँखें नई हो जाती हैं। पर्या०—(क) श्वेत पुनर्नवा। श्वेतमूला। कठिल्ल। चिराटिका। बृश्चीरा। सितवर्षाभू। वर्षागी। वर्षाही। विसाख। शशि- वाटिका। पृथ्वा। घनपत्र। शोथघ्नी। दीर्घपत्रिका। (ख) रक्त पुनर्नवा। रक्तपत्रिका। रक्तकांड। वर्षकेतु। वर्षाभू। रक्तपष्पा। लोहिता। क्रूरा। मडलपत्रिका। चिकस्वरा। विषघ्नी। सारिणी। शोणपत्र। भौमा। पुनर्भव। नव। नव्य। (ग) नीलपुनर्नवा। नीला। श्यामा। नीलवर्षाभू। नीलिनी।

पुनर्पि पु †
अव्य [सं० पुनरपि] फिर। दुबारा। उ०—मनुनिर्मलु सूचा सचु होई, नानक इतरसि पुनर्पि जन्म न होई।—प्राण०, पृ० २३५।

पुनर्भव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. फिर होना। पुनर्जन्म। २. नख। नाखून। ३. रक्तपुनर्नवा।

पुनर्भव (२)
वि० जो फिर हुआ हो। फिर उत्पन्न।

पुनर्भाव
संज्ञा पुं० [सं०] नया जन्म। पुनर्जन्म [को०]।

पुनर्भू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विधवा स्त्री जिसका विवाह पहले पति के मरने पर दूसरे पुरुष से हो। विशेष—मिताक्षरा के अनुसार पुनर्भू तीन प्रकार की होती हैं। जिसका पहले पति से केवल विवाह भर हुआ हो, समागम न हुआ हो, दूसरा विवाह होने पर वह अक्षतयोनि स्त्री प्रथमा पुनर्भू होगी। विधवा हो जाने पर जिसके चरित्र के बिगड़ने का डर गुरुजनों को हो उसका यदि वे पुनर्विवाह कर दें तो वह द्वितीया पुनर्भू होगी। विधवा होकर व्यभिचार करनेवाली स्त्री का यदि फिर विवाह कर दिया जाय तो वह तृतीया पुनर्भू होगी।

पुनर्भोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्व कर्म के फलों (सुख दूःख आदि) का भोग। २. किसी वस्तु का पुनः प्राप्त होना [को०]।

पुनर्वसु
संज्ञा पुं० [सं०] सत्ताईस नक्षत्रों में से सातवाँ नक्षत्र। दे० 'नक्षत्र'। २. विष्णु। ३. शिव। ४. कात्यायन मुनि। ५. एक लोक।

पुनर्विभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] विभाजित वस्तु को फिर विभाजित करना।

पुनर्वार
क्रि० वि० [सं० पुनर् + वार] दुबारा। फिर से। उ०— पुनर्वार गाएँ नूतन स्वर, नव कर से दे ताल, चतुर्दिक छा जाए विश्वास।—अनामिका, पृ० ६७।

पुनर्विवाह
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से विवाह या परिणयन करना [को०]।

पुनवती पु
वि० [सं० पुण्यवती] पुण्यवाली। भाग्यवाली। पुण्यात्मा। उ०—किहि पुनवंती सामुहउ, म्हु उपराठउ आज।—ढोला०, दू० ३५०।

पुनवाँसी
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्णमासी] पूर्णिमा। पूनो। पूर्णमासी। उ०—खासी परकासी पुनवाँसी चंद्रिका सी जाके, वासी अविनासी अघनासी ऐसी कासी है।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८२।

पुनश्च
क्रि० वि० [सं०] पुन। फिर [को०]।

पुनश्चर्वण
संज्ञा पुं० [सं०] पागुर। पगुरी। जुगाली [को०]।

पुनाग
संज्ञा पुं० [सं० पुन्नाग] दे० 'पुन्नाग' (वृक्ष)। उ०—साल ताल हिंताल तमालन बंजुल धवा पुनागा।—श्यामा०, पृ० ११८।

पुनाराज
संज्ञा पुं० [सं० पुनरराज] नया नरेश। नया राजा [को०]।

पुनि पु †
क्रि० वि० [सं० पुनः] १. फिर। तदनंतर। उसके बाद। उ०—(क) पुनि रघुपति बहुविधि समझाए।—मानस, ७।६५। पुनि पुष्पक चढ़ि कपिन समेता।—मानस, ७६८। २. फिर से। दोबारा। मुहा०—पुनि पुनि = बार बार। उ०—पुनि पुनि मोहिं देखाव कुठारा।—तुलसी (शब्द०)।

पुनिम पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्णिमा] दे० 'पूर्णिमा'। उ०—उठ उठ माधव कि सुतसि मंद, गहन लाग देख पुनिम क चंद।—विद्यापति, पृ० ६५।

पुनिमासी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्णिमासी] दे० 'पूर्णमासी'। उ०—चहुआँन राह लग्गन फिरयौ, पूरन पुनमासी सगुर।—पृ० रा०, १९। १७८।

पुनी पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पुण्य, हिं० + पुन + ई (प्रत्य०)] पुण्य करनेवाला। पुण्यात्मा। उ०—सब निर्दभ, धर्मरत पुनी। नर अरु नारि चतुर सब गुनी।—तुलसी (शब्द०)।

पुनी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्ण, या पूर्णिमा] पूर्णिमा। पूनो। उ०—चित्र में बिलोकत ही लाल को बदन बाल, जीते जेहिं कोटि चंद शरद पुनीन को।—मतिराम (शब्द०)।

पुनी पु (३)
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'पुनी'। उ०—मानस बचन काय किए पाप सति भाय राम को कहाय दास दगाबाज पुनी सो।—तुलसी (शब्द०)।

पुनीत
वि० [सं०] पवित्र किया हुआ। पवित्र। पाक।

पुनीतव पु
वि० [सं० पुण्यतम या हिं०] दे० 'पुनीत'। उ०— जरतकार जाजुल्लि परासुर परम पुनीतव।—ह० रासो, पृ० १०।

पुन्नु पु †
अव्य० [सं० पुनः] दे० 'पुनः'। उ०—जञो डिठि का ओर एहि मति तोर, पुनु हेरसि किए परि गोरि।—विद्या- पति, पृ० २९९।

पुन्न †
संज्ञा पुं० [सं० पुण्य, प्रा० पुण्ण, पुन्न] दे० 'पुण्य'। उ०— तिरथ ब्रत तप दान पुन्नं, होम जज्ञ सोइ।—जग० श०, भा० २, पृ० ८१।

पुन्नक्षत्र
संज्ञा पुं० [सं० पुम् + नक्षत्र] नर नक्षत्र। वह नक्षत्र जिसमें नर संतान की उत्पत्ति हो [को०]।

पुन्नाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुलतान चंपा। विशेष—इसका पेड़ बड़ा और सदाबहार होता है। पत्तियाँ इसकी गोल अंडाकार, दोनों सिरों पर प्रायः बराबर चौड़ी और चंपा की पत्तियों से मिलती जुलती होती हैं। टहनियों के सिरे पर लाल रंग के फूल गुच्छों में लगते हैं। फूलों में केसर होता है जो पुन्नागकेसर कहलाता है और दवा के काम में आता है। फल भी गुच्छों में ही लगते हैं। इस पेड़ की लकड़ी बहुत मजबूत ललाई लिए बादामी रंग की होती है। यह इमारतों में लगती है, जहाज के मस्तूल बनाने, रेल की पटरी के नीचे देने तथा और बहुत से कामों में आती है। छाल को छीलने से एक प्रकार का रस या गोंद निकलता है। जिसमें सुगंध होती है। फलों के बीज से तेल निकलता है। पुन्नाग के पेड़ दक्षिण मद्रास प्रांत में समुद्रतट पर बहुत अधिक होते हैं। उड़ीसा, सिंहल और बरमा में भी यह पेड़ आपसे आप होता है। समुद्रतट की रेतीली भूमि में जहाँ और कोई पेड़ नहीं होता वहाँ यह अपने फल फूल की बहारदिखाता है। वैद्यक में पुन्नाग मधुर, शीतल, सुगंध और पित्तनाशक माना जाता है। पर्या०—पुरुषाख्य। रक्तवृक्ष। देववल्लभ। पुरुष। तुंग। केसर। केसरी। २. श्वेत कमल। ३. जायफल। ४. पुरुषश्रेष्ठ। मनुष्यों में बड़ा।

पुन्नाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. चक्रमर्द। चकवँड़ का पौधा। २. कर्नाटक के पास एक देश। ३. दिगंबर जैन संप्रदाय का एक संघ। जैन हरिवंश के कर्ता जिनसेनाचार्य इसी संघ के थे।

पुन्नाड
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'पुन्नाट'।

पुन्नामा
संज्ञा पुं० [सं० पुन्नामन्] पुन् नाम का एक नरक। २. पुन्नाग वृक्ष [को०]।

पुन्नि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्य प्रा० पुन्न] दे० 'पुण्य'। उ०—दस असुमेध अग्गि जेई कीन्हा। दाव पुन्नि सारि सेउ न दीन्हा।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १३१।

पुन्निम पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्णिमा, प्रा० पुन्निमा] दे० 'पूर्णिमा। उ०—उद्दित अधान सुभ गतनह। जेम जलधि पुन्निम बढ़ही।—पृ० रा०, १।६८४।

पुन्य
संज्ञा पुं० [सं० पुण्य] दे० 'पुण्य'।

पुन्यजन पु
संज्ञा पुं० [सं० पुण्यजन] असुर। राक्षस। उ०—कौनप अस्रप पुन्यजन निकषासूत दुर्नाद।—अनेकार्थ०, पृ० ८४।

पुन्यताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्यता] पुण्यता। पुण्य।

पुन्यथली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पुण्य + स्थल] पुण्यस्थली। पवित्र स्थान। उ०—पुन्यथली तिहिं जानि बिराजे, बात नहीं कछु और।—सूर०, १०।१७८९।

पुपली †
संज्ञा स्त्री० [हिं० पोपला] बाँस की पतली पोली नली।

पुपूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुद्ध, स्वच्छ करने की इच्छा [को०]।

पुप्प, पुप्फ पु †
संज्ञा पुं० [सं० पुष्प, प्रा० पुष्फ] पुष्प। फूल। उ०— (क) अनेक पुष्प बीचि ग्रंथि भासित त्रिषंडियं।—पृ० रा०, २५।३१०। (ख) पुष्फ पानि धरि धूप पिथ्त पाइन दो असह।—पृ० रा०, १।१६८९।

पुप्फुट
संज्ञा पुं० [सं०] तालु और मसूढ़ों का एक रोग [को०]।

पुप्फुल
संज्ञा पुं० [सं०] उदरस्थ वायु। जठरवात।

पुप्फुस
संज्ञा पुं० [सं०] १. पद्यबीज कोश। कंवलगट्टे का छत्ता। २. फुप्फुस।

पुब्ब पु
संज्ञा पुं० [सं० पूर्व, प्रा० पुब्ब] पूर्व। पूर्व दिशा।

पुब्बता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पूर्व] अपूर्वता। अतुल्यता।

पुमान्
संज्ञा पुं० [सं०] मर्द। नर। पुरुष।