अभंग (१)
वि० [सं० अभड़्ग०] १. अखंड़ । अटूट । पूर्णा । उ०—जनता की सेवा का व्रत मैं लेता अभंग ।—अपरा, पृ० ६४ । २. अनाशवान् । न मिटनेवाला । उ०—आदि, मध्य अरू अंत लौं, अबिहड़ सदा अभंग । कबीर उस करता की सेवग तजै न संग ।—कबीर गग्रं०, पृ० ८६ । ३. जिसका क्रम न टूटे । लगा- तार । उ०—प्रिये, प्रिये उत्तर दो मैं ही करता नहीं पुकार अभंग ।—साकेत, पृ० ३८५ । ४. जो भंग या नष्ट न किया जा सके । सुदृढ़ । उ०—निपट अभंग गढ़ कोट सब हारे तैं ।—भुषण ग्रं० पृ० ८२ ।

अभंग (२)
संज्ञा पुं० १. संगीत में एक प्रकार का ताल जिसमें एक लघु, एक गुरू और दो प्लुत मात्राएँ होती हैं ।२. एक प्रकार का पद या भजन जिनका व्यवहार मराठी में होता है । जैसे— तुकाराम के अभंग । ३. एक श्लेष जिसमें शब्द को विभक्त किए बिना ही दसरा अर्थ प्रकट हो । अर्थश्लेष (को०) ।४. भंग या पराजय का अभाव (को०) ।

अभंगपद
संज्ञा पुं० [सं० अभङ्गपद] श्लेष अलंकार का एक भेद । वह श्लेष जिसमें अक्षरों को इधर उधर न करना पड़े और शब्दों से भिन्न भिन्न अर्थ निकल आवें । उ०—(क) अति अकुलाय शिलीमुखन, वन में रहत सदाय । तिन कमलन की हरत छबि तेरे नैन सुभाय (शब्द०) । यहाँ 'शिलीमुख', 'वन' और 'कमल' शब्द के दो दो अर्थ बिना शब्दों को तोड़े हुए हो जाते हैं । (ख) रावन सिर सरोज बनचारी । चलि रघुबीर सिली मुख धारी ।— मानस, ६ ।९१ ।

अभंगिनी
वि० स्त्री० [सं० अभड़्ग+इनी (प्रत्य०)] जो विच्छिन्न न हो । उ०—तन से न सही, अभंगिनी, मन से हैं हम किंतु संगिनी ।—साकेत, पृ० ३६४ ।

अभंगी पु
वि० [सं० अभङ्गिनी] १. अभंग । पूर्ण । अखंड ।२. जिसके किसी अंश का हरण न हो सके । जिसका कोई कुछ न ले सके । उ०—आए माई दुरँग स्याम के संगी ।....सूधी कहि सबहिनि समुझावत, ते साँचे सरबंगी । औरनि कौ सरबस लै मारत आपुन भए अभंगी । सूर०, १० । ३५११ ।

अभंगुर
वि० [सं० अभङ्गुर] १. जो टूटनेवाला न हो । दृढं । मजबूत । २. अनाशवान् । न मिटनेवाला ।

अभंजन (१)
वि० [सं० अभञ्जन] जिसका भंजनन हो सके । अटूट । अखंड ।

अभंजन (२)
संज्ञा पुं० द्रव वा तरल पदार्थ जिनके टुक़ड़े नहीं हो सकते, जैसे—जल, तेल आदि ।

अभ पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अम्र' । उ० —जिण दिन स्वामी अभ न गभ । ये ते जुग सूना गया । —बी० रासो, पृ० ८२ ।

अभक्त
वि० [सं०] १. जे भक्त न हो । भक्तिशून्य । श्रद्धाहीन । २. भगवद्विमुख । उ०—भक्त अभक्त सबै खैई । सबको भक्षै निरंजन राई । —कबीर सा०, पृ० ५७ । जो हाँटा न गया हो । जो अलग न किया गया गहो । जिसके टुकड़े न हुए हों । समूचा ।

अभक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भोजन न करना । उपवास [को०] ।

अभक्ष (२)
वि० दे० 'अभक्ष्य' ।

अभक्षण
संज्ञा पुं० दे० 'अभक्ष' ।

अभक्ष्य (१)
वि० [सं०] १. अखाद्य । अभोज्य । जो खाने के योग्य न हो । २. जिसके खाने का धर्मशास्त्र में निषेध हो ।

अभक्ष्य (२)
संज्ञा पुं० भोजन के लिए निषिद्ध खाद्य पदार्थ [को०] ।

अभख पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अभक्ष्य' । उ०—केचित अभख भखत न सकाहीं । मदिरा पान मांस पुनि खाहीं ।—सुंदर ग्रं०, पृ० ८२ ।

अभग
वि० [सं०] अभागा । भाग्यहीन[ को०] ।

अभगत पु
वि० [हि०] दे० 'अभत्क' । उ०—तदपि करहिं सम बिषम बिहार । भगत अभगत हृदय अनुसार । —मानस, २ ।२१८ ।

अभग्ग पुं०
वि० [सं०भग्न] जो विभक्त या अलग विलग न हो । जो टूटा या भग्न न हो । उ०—तहँ सु विजय सुरराजपति, जादू कुलह अभग्ग । —पृ० रा०, २० ।१ ।

अभग्न
वि० [सं०] अखंड । जो खंडित न हुआ हो । समूचा । उ०—जगत्तत्व की खोज में लग्न जहाँ ऋषियों ने अभग्न किया श्रम था । —इतिहास, पृ० ६०६ ।

अभद्र (१)
वि० [सं०] १. अमांगलिक । अशुभ । अकल्याणकारी ।२. अश्रेष्ट । असाधु । अशिष्ट । बेहूदा । कमीना ।

अभद्र (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुराई । पाप । दृष्टता । २. शोक [को०] ।

अभद्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अमांगलिकता । अशुभ । २. अशिष्टता । असाधुता । बुराई । खोटाई । बेहूदगी ।

अभपद पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अभयपद' । उ०—अभपद भुजदंड मूल, पीन अंस सानुकूल, कनक मेखला दुकूल दामिनी धरखी री ।—सूर०, १० । १३८४ ।

अभयंकर
वि० [सं० अभयङ्कर] १. जो भयंकर न हो । सौम्य ।२. अभय करनेवाला [को०] ।

अभय (१)
वि० [सं०] [स्त्री० अभया] निर्भय । निडर । बेखौफ । उ०—जिन्ह कर भुज बल पाइ दसानन । अभय भए बिचरत मुनि कानन ।—मानस, ३ ।१६ । मुहा.—अभय देना वा अभय बाँह दोना=भय से बचाने का वचन देना । शरण देना । निर्भय करना । उ०—(क) ब्रहमा रूद्रलोकहूँ गयो । उनहुँ ताहि अभय नहि दयो । —सूर० (शब्द०) । (ख) लछिमन अभयबाँह तोहि दिन्ही ।—मानस ४ ।१० । यौ०—अभयदान । अभयवचन । अभयबाँह ।

अभय (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उशीर । खय । वीरणमूल । २. निर्भयता । ३. परमात्म । ४. परमात्मविषयक ज्ञान । ५. भौतिक संपत्ति अभाव । सांसारिक संपदाविहीनता ।६. अभयसूचक एक मुद्रा । ७. शिव । ८.भय से प्राप्त त्राण । ९, यात्रा संबंधी एक योग [को०] ।

अभयचारी
संज्ञा पुं० [सं० अभसचारिन्] वे जंगली पशु जिनके मारने की आज्ञा न हो ।

अभयडिंडिम
संज्ञा पुं० [सं०अझयड़िण्‍िम] १. सुरक्षात्मक भरोसे की घोषण । एक युद्ध वाद्य [को०] ।

अभयद (१)
वि० [सं०] दे० 'अभयदाता' [को०] ।

अभयद (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु का एक नाम ।२. जैनों के एक अर्हत [को०] ।

अभयदक्षिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुरक्षा का वचन, आश्वासन या भरोसा देना । भयभीत को शरण देना । (को०) ।

अभयदाता
वि० [सं० अभय+दातृ] अभय देनेवाला ।उ०— मांडवी चित्त चातक नवांहुदवतण सरन तुलसीदास अभयदाता ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४७४ ।

अभयदान
संज्ञा पुं० [सं०] भय बचाने का वचन देना । निर्भय करना । शरण देना । रक्षा करना । उ०—नरहरि देखि हर्ष मन कीन्हौ । अभयदान प्रहलादहि दीन्हौं ।—सूर० ७ ।२ क्रि० प्र०—देना ।

अभयदानी
वि० [सं० अभदानिन्] अभय देनेवाला । उ०—गाइ द्विजराज तियकाज न पुकार लाजै, भोगवै नरक घोर चोर को अभयदानि ।—राम चं०, पृ० ९२ ।

अभयपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुरक्षा के आश्वासन का लिखित पत्र या अभिलेख [को०] ।

अभयपद
संज्ञा पुं० [सं० अभयपद] निर्भय पद । मोक्ष । मुक्ति । उ०—पिता बचन खड़ै सो पापी, सोइ प्रहलादहिं कीन्हौ । निकसे खंभ बीच तैं नरहरि, ताहि अभयपद दीन्हौ ।— सूर० १ ।१०४ ।

अभयप्रद
वि० [सं०] भय से विमुक्ति का आश्वासन देनेवाला । अभय देनेवाला (को०) ।

अभयमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक तांत्रिक मुद्रा । २. भय से विमुक्ति का भाव व्यक्त करनेवाला हाथ का एक संकेत [को०] ।

अभययाचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] भय से रक्षा करने की प्रार्थना । अभय की भीख [को०] ।

अभयवचन
संज्ञा पुं० [सं०] भय से बचाने की प्रतिज्ञा । रक्षा का वचन । क्रि० प्र०—देना ।

अभयवन
संज्ञा पुं० [सं०] वह वन जिसे काटने की आज्ञा न हो । रक्षित वन ।

अभयवनपरिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] रक्षित वन संबंधी राजनियम का भंग या विघात । जैसे, उसमें घुसना, पेड़ काटना, लकड़ी तोड़ना आदि ।

अभया (१)
वि० [सं०] निर्भया । बेड़र की । निड़र ।

अभया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की हरीतकी या हड़ जिसमें पाँच रेथाएँ होती हैं । उ०—अभया सोंठ चिरायत कना । सोचर मिर्चहिं चूरन बना ।.....इंद्रा०, पृ१५१ । २. दुर्गा का एक स्वरूप (को०) ।

अभर पु
वि० [सं० अ=अति+भर=भार] दुर्वह । न ढोने योग्य । उ०—भई रे गैया एक बिरंचि दियो है भार अभर भो भाई । नौ नारी को पानि पियाति है तृषा तऊ न बुताई । —कबीर (शब्द०) ।

अभरन (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० आभरण] दे० 'आभरण' । उ०—इतनौ सुनत मगन ह्वै रानी बोलि लए नँदराई । सूरदास कंचन के अभरन लै झगरिनि पहिराई । —सूर० १० । १६ ।

अभरन (२) पु
वि० [सं०अ+हिं० भरत=मान प्रतिष्ठा] अपमानिता दुर्दषाग्रस्त । उ०— उस बात की कसक हमारे मन से नहीं जाती जो बलराम ने तुम्हों अभरन किया था । —लल्लू० (शब्द०) ।

अभरम (१)पु
वि० [सं० अ+भ्रम, हि० भरम] १. भ्रम न करनेवाला । अभ्रांत । अचूक । २.नि?शंक । निड़र । उ०—कृतवर्मा भट चल्यौ अभरमा कंचन वरमा ।—गोपाल (शब्द०) ।

अभरम (२)
क्रि० वि० निःसंदेह । बिना संशय । निश्चय ।

अभरी पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० अ+हि० भरी] परिपूर्णता ।उ०— अभरी थावै आथ सु चित सरसावै चाव ।—बाँकीदास ग्रं०, भा० १, पृ०,५० ।

अभर्तृका
वि० स्त्री० [सं०] १. अविवाहिता कुमारी ।२. पति- विहीन । विधवा [को०] ।

अभर्म पु
क्रि० वि० [हि०]दे० 'अभरम' । उ०—राम कह्यो जो तुम चह्यो यह दुर्लभ वर पर्म । पै मेरे सतसंग ते होइहि सत्य अभर्म ।—गोवाल०(शब्द०) ।

अभल पु
वि० [सं अ+हि० भल=भला] अश्रेष्ट । बुरा । खराब ।

अभव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १.न होना अनस्तित्व ।२.नाश । प्रलय । ३. निर्वाण । मोक्ष (को०) ।

अभव (२)
वि० जो उत्पन्न हो । अजन्मा [को०] ।

अभव्य (१)
वि० [सं०] १. न होने योग्य ।२. विलक्षण । अदभुत । अनहोना ।३. अमांगलिक । अशुभ । बुरा । अभागा ।४. अशिष्ट । बेहुदा । भद्दा । भोंड़ा ।

अभव्य (२)
संज्ञा पुं० जैन शास्त्रानुसार जीव, जो कभी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकते ।

अभाऊ पु
वि० [सं० अ+भाव] १. जो न भावे । जो अच्छा न लगे । उ०—भइ अज्ञा को भाँट अभाऊ । बाएँ हाथ देइ बरम्हाऊ ।— जायसी ग्रं०, पृ०११४ ।२. जो न सोहे । अशोभित । उ०— काढ़हु मुद्रा फाटिक अभाऊ । पहिरहु कुंडल कनक जड़ाऊ ।— जायसी (शब्द०) ।

अभाग (१)
वि० [सं०] १. बिना भाग का । बिना हिस्से का ।२. अविभक्त ।

अभाग (२) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभाग्य' । उ०—सपनेहु दोस कलेसु न काहू । मोर अभाग उदधि अवगाहू । —मानस, २ ।२६० ।

अभागा
वि० [सं० अभाग्य] [स्त्री० अभागिन्, अभागिनी] मंदभाग्य । भाग्यहीन । प्रारब्धहीन । बदकिस्मत । उ०—(क) अति खल जे विषई बक कागा । एहि सर निकट न जाइ अभागा ।— मानस, १ ।३८ । (ख) कैसे तू अभागा यहाँ पहुँचा है मरने?— लहर, पृ० ७२ ।

अभागी
वि० [सं० अभागिन्] [वि० स्त्री० अभारिती] १. जिसे कुछ भाग न मिले । जिसें हिस्सा न मिले ।२. भाग्यहीन । बदकिस्मत । उ०—करतु राजु लंका सठ त्यागी । होइहि जब कर कीट अभागी ।—मानस, ५ ।५३ ।

अभाग्य (१)
वि० [सं०] अभागवाल । भाग्यहीन । अभागा [को०] ।

अभाग्य (२)
सं० पुं० [सं०] प्रारब्धहीनता । दुर्दैव । बुरा दिन । बद- किस्मती । उ०—मोर अभाग्य जिआवत ओही । जेहि हौं हरि पद कमल बिछोही । —मानस, ६ ।९८ ।

अभाजन
संज्ञा पुं० [सं०] अपात्र । कुपात्र । बुरा आदमी ।

अभाजै पु
वि० [सं० अविभाजित] जो विभक्त न हो । अखंडित । समूचा पूर्ण । उ०—अभाजै सी रोटली कागा ले जाइला । पूछौ म्हारा गुरू ने कहाँ बैसि खाइला । —गोरख०, पृ० १२८ ।

अभाय पु
संज्ञा पुं० [सं०अभाव] भावशून्यता । अनस्तित्व । असत्ता । उ०—त्यो ही कछु घूमि झूमि बेसुध गए कै हाय, पाय परे उखरि अभाय मुख छायौ है । —रत्नाकर, भा० १, पृ० ११९ ।

अभार पु
वि० [हि०] दे० 'अभर' । उ०—दैव दीन्ह सबु मोहि अभारू । मोरे नीति न बिचारू । —मानस, २ ।२६८ ।

अभाव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. असत्ता । अनस्तित्व । नेस्ती । अविद्य- मानत । न होना । २.आधुनिक नैयायिकों के मत के अनुसार वैशेषिक शास्त्र में सातवाँ पदार्थ । विशेष—काणादकृत सूत्रग्रंथ में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष । और समवाय, ये छ पदार्थ ही अभाव' माने गए हैं । अभाव पाँच प्रकार का है, यथा (क) प्रागभाव=जो किसी क्रिया और गुण के पहले न हो; जैसे, घड़ा बनने के पहले न था । (ख) पध्वंसाभाव= जो एक बार होकर फिर न रहे; जैसे 'घड़ा बन कर टूट गया । '(ग) अन्योन्याभाव=एक पदार्थ का दूसरा पदार्थ न होना; जैसे, घोड़ा बैल नहीं है और बैल घोड़ा नहीं है । (घ)अत्यंताभाव= जो न कमी था, न है और न होगा; जैसे, आकाशकुसुम, बंध्या का पुत्र । और (च) संसर्गभाव=एक वस्तु के संबंध में दूसरे का अभाव; जैसे, घर में घोड़ा नहीं हैं । २. त्रुटि । टोटा । कमी । घाट । जैसे, राजा के घर में द्रव्य का कौन अभाव है । उ०—अपने अभाव की जड़ता में वह रह न सकेगा कभी मग्न । —कामायनी, पृ १५१ । ३. नाश । मृत्यु [को०] । लोप । अंतरिक्ष । अंतर्धान [को०] ।

अभाव (२)
वि० भावरहित । स्नेरहित । लोप । अंतरिक्ष । अंतर्धान (को०) ।

अभाव (३) पु
संज्ञा पुं० [सं० अ=बुरा +भाव] कुभाव । दुभवि । विरोध । उ०—हम तिनकौ बहु भाँति खिझाव । उनके कबुहुँ अभाव न आवा । —विश्राम (शब्द०) ।

अभावन (१) पु
वि० [सं० आ+भावन] सुंदर । रुचिर । रुचिकर ।

अभावन (२)
वि० [सं० अ=नहीं+भावन] असुंदर । अरूचिकर । अप्रिय ।

अभावना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. विवेक या निर्णय का अभाव ।२. धार्मिक धाराणाओं का अभाव (को०) ।

अभावनीय
वि० [सं०] १. जो भावना में न आ सके । अचिंतनीय । २. अशोभनीय । उ०—इसी असामंजस्य के कारण वह ऐसे ऐसे अभावनीय कार्य कर बैठता है ।—मृग० पृ० ५५ ।

अभावपदार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] भावशून्य पदार्थ । सत्ताहीन पदार्थ । असत् पदार्थ ।

अभावप्रमाण
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय मे किसी किसी आचार्य के मत से एक प्रमाण जिसमें कारण के न होने से कार्य के न होने का ज्ञान हो । गौतम ने इसको प्रमाण में नहीं लिया हैं ।

अभावित
वि० [सं०] जिसका भावना न की गई हो । क्रि० प्र०—रहना ।

अभावी
वि० [सं० अभाविन्] [वि० स्त्री० अभाविनी] १. जिसकी स्थिति की भावना न हो सके । २. न होनेवाला ।

अभाव्य
वि० [सं०] दे० 'अभावी' [को०] ।

अभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] भाषण का अभाव । न बोलना । मौन । उ०—मैं नहीं हूँ यों अभाषण योग्य ।—साकेत, पृ० १८९ ।

अभाषित
वि० [सं०] न कहा हुआ । अकथित [को०] ।

अभाष्य
वि० [सं०] न बोलने योग्य बात या व्यक्ति । उ०—लोग उन्हें अस्पृश्य और अभाष्य मान उनसे उपेक्षा ही करते रहे ।—प्रेमघन०, भा०२, पृ०२४२ । यौ०— अभाष्य़भाषण=न कहने योग्य बातें कहना या अभाष्य व्यक्ति से बातें करना ।

अभास पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आभास' । उ०—कह हनुमंत सुनहु प्रभु, ससि तुमहारा प्रिय दास । तव मूरति बिधु उर बासति, सोइ स्यामता अभास ।— मानस, ६ ।१२ ।

अभासना पु
क्रि० अ० [सं० आभास, हि० आभास से नाम०.] भासना । दिखाई देना । जना पड़ना । उ०— कंकन, किंकिनि भूषन जिते । मोहिं श्रीकृष्ण अभासत तिते । — नंद ग्रं० पृ० २६६ ।

अभिंतर पु
क्रि० वि० [सं० अभ्यन्तर, प्रा० अब्भिंतर]दे० 'अभ्यंतर' । उ०— उत्तम पुरूष की दशा जौं किसमिस दाख । बाहिज अभिंतर बिरागी मृदु अंग हैं । — सुंदर ग्रं० पृ० १०० ।

अभि
उप० [सं०] एक उपसर्ग जो शब्दों लगकर उनमें इन अर्थों की विशेषता उत्पन्न करता है— १. सामने । जैसे; अभ्युत्थान । अभ्यागत । २. बुरा । जैसे; अभियुक्त । ३. अधिक । जैसे; अभिलाषा । ४. समीप । जैसे; अभिसारिका ।५. बारंबार, अच्छी तरह । जैसे; अभ्यास । ६. दूर । जैसे; अभिहरण । ७. ऊपर । जैसे; अभ्युदय ।

अभिअंतर पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अभ्यंतर' । उ०— प्रेम भगति जल बिनु रघुराई । अभिअंतर मल कबहुँ न जाई ।— मानस, ७ ।४९ ।

अभिकंपन
संज्ञा पुं० [सं० अभिकम्पन] तीव्र कंपन । बुरी तरह काँपना [को०] ।

अभिक (१)
वि० [सं०] कामुक । कामी । विषयी ।

अभिक (२)
संज्ञा पुं० कामुक व्यक्ति वा प्रेमी जन [को०] ।

अभिकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभाव । २. आकर्षण । खिंचाव [को०] ।

अभिकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] कृषि का एक उपकरण । खेती का एक औजार [को०] ।

अभिकांक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिकाङक्षा] चाह । इच्छा । अभिलाषा [को०] ।

अभिकांक्षी
वि० [सं० अभिकाङक्षिन्] इच्छुक । अभिलाषी । मनोरथवाला [को०] ।

अभिकाम (१)
वि० [सं०] १. इच्छुक । अभिलाषी । २. प्रेमी । ३. कामुक [को०] ।

अभिकाम (२)
संज्ञा पुं० १. प्रेम । प्यार । २. इच्छा । अभिलाषा [को०] ।

अभिकृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का छंद जिसमें १०० वर्ण या मात्राएँ होती हैं [को०] ।

अभिक्रंद
संज्ञा पुं० [सं० अभिक्रन्द] चिल्लाहट । गर्जन । शोर [को०]

अभिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुविचारित आक्रमण । धावा । उ०— देखि देखि बिक्रम अभिक्रम अकालिनि के कालिनि के बाद साधुवाद बहु दीन्हे हैं । —रत्नाकार, भा० २ पृ० १६२ । २. आरोहण (को०) । ३. प्रारंभ । शुरूआत (को०) । प्रयत्न । चेष्टा (को०) ।

अभिक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेना का शत्रु के संमुख जाना । चढाई । धावा । २ दे० 'अभिक्रम' ।

अभिक्रांति
संज्ञा स्री० [सं० अभिक्रान्ति] दे० 'अभिक्रमण' [को०] ।

अभिक्रांती
वि० [सं० अभिक्रान्तिन्] १. जो पहुँचा गया हो । २. जिसने आरंभ कर दिया हो । आरंभक [को०] ।

अभिक्रोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. निंदा करना । कुवाच्य बोलना । २. चिल्लाना ।

अभिक्रोशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. जोर से चिल्लाने या अपशब्द कहनेवाला व्यक्ति । २. आगे आगे जोर से घोषणा करनेवाला

अभिक्षिप्त
वि० [सं०] फेका हुआ । तिरस्कृत [को०] ।

अभिख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नाम । यश । कीर्ति । २. शोभा । ३. कुख्याति (को०) । ४. महात्म्य । महिमा (को०) । बुद्धि । धी (को०) । ५. नाम (को०) । ६. पुकारना । संबोधन । ७. बताना । कहना (को०) । ८.शब्द । पर्याय (को०) । व्यक्ति [को०] ।

अभिख्यात
वि० [सं०] १. कीर्तिशाली । २. विख्यात । मशहूर [को०] ।

अभिख्यान
संज्ञा पुं० [सं०] नाम । प्रसिद्धि । यश । कीर्ति [को०] ।

अभिगम
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'अभिगमन' [को०] ।

अभिगमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पास जाना । पहुँचना । २. सहवास । सभोग ३. देवताओं के स्थान को झाड़ू देकर और लीप पोत कर साफ करना । ४. समझना ।

अभिगम्य
वि० [सं०] १. अभिगमन के योग्य । २. बोधगम्य [को०] ।

अभिगामी
वि० [सं० अभिगाभिन्] [स्त्री० अभिगाभिनी] १. पास जानेवाला । २. हहवास या संभोग करनेवाला । जैसे— ऋतुकालाभिगामी ।

अभिगुंजन
संज्ञा पुं० [सं० अभि + गुञ्जन] मधुर ध्वनि । रसीला स्वर ।

अभिगुंजी पु
वि० [हि०] अभिगुंजन करनेवाली । उ०— मधुर अधर अभिगुंजी धरै । कान्ह मुरलिया सुर संग ररै ।— घनानंद० प० १८९ ।

अभिगुप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छिपाकर रखना । सँभालकर रखना । २. आत्मसंयमन [को०] ।

अभिगूँज
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'अभिगुंजन' ।

अभिगोप्ता
वि० [सं० अभिगोप्तृ] छिपा रखनेवाला । बचा रखनेवाला । संरक्षणकर्ता [को०] ।

अभिग्रस्त
वि० [सं०] शत्रु द्वारा दबाया हुआ । आक्रंत [को०] ।

अभिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेना । आदान । ग्रहण । स्वीकार । २. झागड़ा । प्रहार । कलहा । ३. लूटा । ड़ाका । ४. चढा़ई । धावा । ५. चुनौती (को०) । ६. शिकायत (को०) । अधिकार शक्ति [को०] ।

अभिग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] स्वामी की उपस्थिति में उसकी वस्तु का अपहरण । राहजनी । लूट (को०) ।

अभिघट
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल का एक बाजा जो घड़े के आकार का होता था और जिसके मुँह पर चमजड़ा मढ़ा रहता था ।

अभिघात
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिघातक, अभिघाती] १. चोट पहुँचना । प्रहार । मार । ताड़ना । पुरूष की बाई ओर और स्त्री की दाई ओर का मसा ।

अभिघातक
वि० [सं०] चोट पहुँचानेवाला [को०]

अभिघातकी
वि० [सं० अभिघातकिन्] दे० 'अभिघातक' ।

अभिघाती
वि० [सं० अभिघातिन्] [वि० स्त्री० अभिघातिनी] दे० 'अभिघातक' ।

अभिघार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सींचना । छिड़काव । २. घी की आहुति । ३. घी से छौंकना या बघारना । ४. घी ।

अभिचर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अभिचारी] दास । नौकर सेवक ।

अभिचरण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिचार' ।

अभिचरणीय
वि० [सं०] 'अभिचरण या अभिचार के योग्य' [को०] ।

अभिचार
संज्ञा पुं० [सं०] अथर्ववेदोक्त मंत्र यंत्र द्वार मारण और उच्चाटन आदि हिंसा कर्म । पुरश्चरण । २. तंत्र के प्रयोग, जो छ?प्रकार के होते हैं— मारण, मोहन, स्तंभन विद्वेषण, उच्चाटन और वशीकरण । स्मृति मे इन कर्मों का उपपातकों में माना गया है । उ०—उसकी आँखों में अभिचार का संकेत है; मुस्कुराहट में विनाश की सूचना हैं । —स्कंद०, पृ० २९ ।

अभिचारक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] यंत्र मंत्र आदी द्वारा माराण, उच्चाटन आदि कर्म ।

अभिचारक (२)
वि० यंत्र मंत्र द्वारा उच्चाटन आदि करनेवाला ।

अभिचारी
वि० [सं० अभिचारिन्][वि० स्त्री० अभिचारिणी] दे० 'अभिचारक' ।

अभिज
वि० [सं०] चारो ओर होनेवाला [को०] ।

अभिजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुल । वंश । २. परिवार । ३. जन्मभूमि । वह स्थान जहाँ अपना तथा पिता, पितामह आदि का जन्म हुआ हो । ४. वह जो घर में सबसे बड़ा हो । घर का अगुप्रा । कुल में श्रेष्ठ व्यक्ति । ५. ख्याति । कीर्ति । ६. परिजन ।

अभिजनन
संज्ञा पुं० [सं० अभि + जनन] प्रादुर्भाव । उत्पत्ति । उ०—विश्व के अधिपति ने ....... अविच्छेद्य समन्वय का अभिजनन किया ।— संपूर्णा० अभि ग्रं०, पृ० १११ ।

अभिजय
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्ण रूप से विजय । पूरी जीत [को०] ।

अभीजात (१)
वि० [सं०] १. अच्छे कुल में उत्पन्न । कुलीन । उ०— अत्याचारियों की नृशंसता से यदुकुल को अभिजात वर्ग ने ब्रज को सूना कर दिया ।—कंकाल, पृ० १४८ ।२. बुद्धिमान् । पंडित । ३.यो़ग्य । उपयुक्त । ४. मान्य । पूज्य । ५. सुंदर । मनोहर ।

अभिजात (२)
संज्ञा पुं० १. उच्चवंश । कुलीनता । २. जातकर्म [को०] ।

अभिजाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऊँचे कुल में जन्म । कुलीनता [को०] ।

अभिजित (१)
वि० [सं० अभिजित्] १. विजयी । २. अभिजित् नक्षत्र में उत्पन्न (को०) ।

अभिजित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन का आठवाँ मुहूर्त । दोपहर के पौने बारह बजे से लेकर साढ़े बारह बजे तक का श्राद्ध के लिये उपयुक्त समय । २. एक नक्षत्र जिसमें तीन तारे मिलकर सिंघाड़े के आकर होते हैं । ३. उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के अंतिम १५ दंड़ तथा श्रवण नश्रत्र के प्रथम चार दंड़ । उ७— नौमी तिथि मधुमास पुनीता । सुकल पच्छ प्रनिजित हरि प्रीता ।—मानस, १ ।१९१ । ४. विष्णु (को०) । ५.एक यज्ञ (को०) । ६. एक लग्न का नाम (को०) ।

अभिज्ञ
वि० [सं०] जानकार । परिचित । विज्ञ । २. निपुण कुशल ।

अभिज्ञता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जानकारी । विज्ञता । २. निपुणता । कुशलता ।

अभिज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पहचानना । जानना । २. याद करना । स्मरण आना । ३. अलौकिक क्षमता या शक्ति । इसके पाँच भेद हैं—कोई भी रूप धारण करना; दूर की बात सुनना; दूर- दर्शन; अन्य के विचार और स्थिति को जान लेना [को०] ।

अभिज्ञात
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराण के अनुसार शाल्मली द्वीप के सात वर्षों वा खंडों में से एक । २. जाना समझा ।

अभिज्ञातर्थ
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय में एक प्रकार का निग्रह स्थान । विवाद या तर्क वह अवस्था जब वादी अप्रसिद्ध या शिष्ट अर्थों के शब्दों द्वारा कोई बात प्रकट करने लगे अथवा इतनी जल्दी जल्दी बोलने लगे कि कोइ समझ न सके और इस कारण तर्क रूक जाय ।

अभिज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिज्ञात] १. स्मृति । ख्याल । २. वह चिह्न जिससे कोइ वस्तु पहचानी जाय । लक्षण । पहिचान । ३. वह वस्तु जो किसी बात का स्मरण या विश्वास दिलाने के लिये उपस्थित की जाय । निशानी । सहिदानी । परिचायक चिह्न । उ०— सीता को अभीज्ञान रूप से देने के लिये राम ने हनूमान को अपनी अँगूठी दी (शब्द०) । ४. मुद्रा की छाप मुहर ।

अभिज्ञानपत्र
संज्ञा पुं० सं० परिचयपत्र । सिफारिशी चिट्ठी [को०] ।

अभिज्ञान शाकुंतल
संज्ञा पुं० [सं० अभिज्ञानशाकुन्तल] महाकवि कालिदास कृत सात अंकों का प्रसिद्ध नाटक ।

अभिज्ञापक
वि० [सं०] जानकारी या सूचना देनेवाला [को०] ।

अभितः
अ० [सं०] १. संनिकट । २. चारो ओर से । सर्वत? । ३. पूर्णत? । ४. शीघ्रता से । ५. दोनों ओर से । ६. पहले और बाद में । ७.आमने सामने से [को०] ।

अभितप्त
वि० [सं०] १. गर्म । जला हु़आ । प्रज्वलित । २. पश्चा- त्तापयुक्त । अनुतप्त [को०] ।

अभिताप
संज्ञा पुं० [सं०] १. मानसिक या शारीरिक उग्र ताप या दाह । २. प्रबल व्यग्रता, क्षोभ या वेदना [को०] ।

अभिद पु
वि० [हि०] दे० 'अभेद्य' । उ०— अभिद अछद रूप मम जान । जो सब घट हैं एक समान ।— सूर० ३ ।१३

अभिदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. देखना । २. दिखाई देना । ३. व्यक्त या प्रकट होना [को०] ।

अभिद्रव
संज्ञा पुं० [सं०] आक्रमण । हमला । चढा़ई [को०] ।

अभिद्रवण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिद्रव' [को०] ।

अभिद्रुत
वि० [सं०] आक्रांत । पददलित [को०] ।

अभिद्रोह
संज्ञा पुं० [सं०] १. हानिकारक विरोध । २. उत्पीड़न । ३. निंदा । कुत्सा । ४. क्रूरता । ५. दु?ख [को०] ।

अभिधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्धों के अनुसार परम सत्य । सर्वोच्च धर्म ।

अभिधर्मपिटक
संज्ञा पुं० [सं०] 'त्रिपिटक' ।

अभिधर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. भूत प्रेतों का आवेश । २. उत्पीड़न । ३. किसी के विरुद्ध आघात करना [को०] ।

अभिधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शब्द की तीन शक्तियों में से एक । शब्द के वाच्यार्थ को व्यक्त करने की शक्ति । शब्दों के उस अभिप्राय को प्रकट करने की शक्ति जिससे् यौगिक या व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ सीधे निकलता हो । मुख्यार्थ । २. शब्द या ध्वनि । ३. नाम (को०) ।

अभिधान
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिधायक, अभिधेय] १. नाम । लकब । २. कथन । ३. शब्दकोश । ४. गीत । गान (को०) ।

अभिधानक
संज्ञा पुं० [सं०] आवाज । शब्द । ध्वनि (को०) ।

अभिधानमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] शब्दकोश [को०] ।

अभिधायक
वि० [स्त्री० अभिधायिका] १. अभिधेय अर्थ का वाचक (शब्द) । २. नाम रखनेवाला । ३. कहनेवाला । ४. सूचक । परिचायक ।

अभिधावक
वि० [सं०] हमला करनेवाला । आक्रमणकारी । आक्रा— मक [को०] ।

अभिधावन
संज्ञा पुं० [सं०] चढ़ाई । आक्रमण [को०] ।

अभिधेय (१)
वि० [सं०] १. अभिधा शक्ति से बोध्य (अर्थ) । प्रतिपाद्य । वाच्य । २. जिसका बोध नाम लेने से ही हो जाय । ३. नाम देने योग्य ।

अभिधेय (२)
संज्ञा पुं० १. नाम । अभिधा । २. विषयवस्तु (को०) ३. भावार्थ [को०] ।

अभिध्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुसरे की वस्तु या संपति की इच्छा । पराई वस्तु की चाह । २. अभिलाषा । इच्छा । लोभ ।

अभिध्यान
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिलाषा । इच्छा । २. प्राप्ति— कामना । लोभ । ३. निंदा । ४. ध्यानमग्नता ।

अभिनंतु पु
वि० [सं० अभिनन्द्य] अभिनंदन योग्य ।उ०—को अभिनंतु रहै रन षग्गं ।— पृ० रा० ।

अभिनंद (१)
वि० [सं० अभिनन्द] प्रसन्न या आनंदित करनेवाला [को०] ।

अभिनंद (२)
संज्ञा पुं० १. आनंद । २. स्तुति । प्रशंसा । ३.बधाई ४. अभिलाषा । ५. स्वल्प सुख । ६. प्रोत्साहन । बढ़ावा । ७. परमात्मा का नाम [को०] ।

अभिनंदन
संज्ञा पुं० [सं० अभिनन्दन][वि० अभिनंदनीय, अभिनंदित] १. आनंद । २. संतोष । ३. उत्तेजना । प्रोत्साहन । ४. आकांक्षा । इच्छा । ५. विनीत प्रार्थाना । उ० —गुरू के वचन सचिव अभिनंदन । सुने भरत हिय हित जनु चंदन ।उ०— मानस, २ ।१७६ । ६. प्रशंसा । प्रतिष्ठा । आदर ।उ०— यह अवसर हमने उनके आभिनंदन के लिये उपयुक्त समझा । —संपूर्णा० अभि० ग्रं, पृ० (ग) । यौ०— अभिनंदन ग्रंथ= वह ग्रंथ जो किसी व्यक्ति के महत्वपूर्ण कार्यों के प्रति आदर प्रकट के लिये उसके जीवन की पचासवीं या साठवीं या किसी भी जन्मतिथि पर दिया जाता है । अभिनंदनपत्र— वह आदर या प्रतिष्ठासूचक पत्र जो किसी महान् पुरूष के आगमन पर हर्ष और संतोष प्रकट करने के लिये सुनाया और अर्पण किया जाता है । (अ०) ऐड्रेस । ७. जैन लोगों को चौथे तीर्थंकर का नाम । ८. आम ।

अभिनंदना पु
क्रि० [सं० अभिनन्दन से हिं० नाम०] सत्कृत करना । मान देना । संमानित करना ।

अभिनंदनीय
वि० [सं० अभिनन्दनीय] वंदनीय । प्रशंसा के योग्य । उ०—मेरे हित है हित यही स्पृश्य, अभिनंदनीय ।— अपरा, पृ०१८१ ।

अभिनंदित
वि० [सं० अभिनमन्दित] वंदित । प्रशंसित । उ० — लोगों ने साधु साधु कहकर उसे अभिनंदित किया । — इंद्र०, पृ० १२८ ।

अभिनंदी
वि० [सं० अभिनन्दिन्] संमान करनेवाला । अभिनंदन- कर्ता [को०] ।

अभिनंद्य
वि० [सं० अभिनन्द्य] अभिनंदन के योग्य । अभिनंदनीय [को०] ।

अभिन पु
वि० [हिं०] दे० 'अभिन्न' । उ०— भिन भिन अभिन वाणि मुख भाखि ।— बेलि०, दू० १९८ ।

अभिनय
संज्ञा पुं० [सं० वि० अभिनीति, अभिनेय] दूसरे व्यक्तियों के भाषण तथा चेष्टा को कुछ काल के लिये धारण करना । नाटय- मुद्रा । कालकृत अवस्थाविशेष । का अनुकरण । स्वाँग । नकल । नाटक का खेल । विशेष—इसके चार विभाग हैं— (क) आंगिक, जिसमें केवल अंग— भंगी वा शरीर की चेष्टा दिखाई जाय । (ख) वाचिक, जिसमें केवल वाक्यों द्वारा कार्य किया जाय । (ग) आहार्य, जिसमें केवल वाक्य या भूषण आदि के धारण की ही आवश्यकता हो, बोलने चालने का प्रयोजन न हो । जैसे, राजा के आस पास पगड़ी आदी बाँध कर चोबदार और मुसाहिबों का चुपचाप खड़ा रहना । (ग) सात्विक, जिसमें, स्त्री, स्वेद, रोमांच और कंप आदि अवस्थाओं का अनुकरण हो । क्रि० प्र०— करना । — होना । मुहा०— अभिनय करना=नाचना कूदना । यौ०— अभिनयाचार्य=नृत्यकाला का शिक्षक क । नृत्यकलाविद् । अभिनयविद्या=नृत्यकला । नाटय कला ।

अभिनव
वि० [सं०] १. नया । नवीन । उ०—केहरि किशोर से अभिनव अवयव प्रस्फुटित हुए थे । — कामायनी, पृ० २७७ । २. ताजा । ३.अनुभवहीन । अतिनूतन [को०] ।

अभिनवगुप्त
संज्ञा पुं० [सं०] ध्वनिशास्त्र के एक प्रथित व्याख्याकार । ध्यान्यालोक की टीका लोचन के लेखक ।

अभिनहन
संज्ञा पुं० [सं०] एक पट्टी जो आँखों पर बाँधी जाती है । २. अँधौटी । अनवट । ३. अंधा । दृष्टहीन व्यक्ती [को०] ।

अभिनासी पु
वि० [हि०] दे० 'अविनाशी' । उ०— हंस तो अभिनासी, काल तो हलाहल, सुन्य तो परम सुन्य ।—रामानंद०, पृ० २९ ।

अभिनिधन (१)
वि० [सं०] मरणासन्न । जिसका अंत निकट हो [को०] ।

अभिनिधन (२)
संज्ञा पुं० सामवेद की वे ऋचाएँ जिनका मरणासन्न के निकट गान होता हैं ।

अभिनियोग
संज्ञा पुं० [सं०] कार्य में मनोयोगपूर्वक संलग्नता । दत्तचित्तता [को०] ।

अभिनिर्माण
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रस्थान । कूच । २. आक्रमण । शत्रु के विरुद्ध बढ़ाव या चढ़ाई [को०] ।

अभिनिर्वृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कार्यपूर्ति । कार्यसंपन्ता ।

अभिनिविष्ट
वि० [सं०] १. धँसा हुआ । पैठा हुआ । गड़ा हुआ । २. बैठा हुआ । उपविष्ट । ३. एक ही ओर लगा हुआ । अनन्य मन से अनुरक्त । लिप्त । मग्न ।

अभिनिवेश
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिनिविष्ट, अभिनिवेशित] १. प्रवेश । पैठा । गति । २. मनोयोग । किसी विषय में गति । लीनता । अनुरक्ति । एकाग्रचिंतन । ३. दृढ़ संकल्प । तत्परता । ४. योगशास्त्र के पाँच क्लेशों में से अंतिम । मरणभय से उत्पन्न क्लेश । मृत्युशंका । ५. दर्प । घमंड़ । शान । नाक । [को०] । ६. उत्कट लालसा । तीव्र आकांक्षा [को०] ।

अभिनिवेशित
वि० [सं०] प्रविष्ट ।

अभिनिष्क्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाहर जाना । बहिर्गमन । २. बौद्धों के अनुसार प्रव्रज्या ग्रहणार्थ गृह का परित्याग ।

अभिनिष्पत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्णता । समाप्ति अंत । परिपूर्णता निष्पन्नता [को०]

अभिनिष्पन्न
वि० [सं०] पूर्ण । समाप्त । सिद्ध [को०] ।

अभिनीत
वि० [सं०] १. निकट लाया हुआ । २. पूर्णता को पहुँचाया हुआ । सुसज्जित । अलंकृत । ३. युक्त । उचित । न्याय्य । ४. अभिनय किया हुआ । खेला हुआ (नाटक) । नकल करके दिखलाया हुआ । ५. विज्ञ । धीर । ६. क्रुद्ध (को०) । ७. दयालु (को०) । ८. स्वीकृत (को०) ।

अभिनेतव्य
वि० [सं०] नाटक द्वरा प्रस्तुत करने योग्य । अभिनय के योग्य [को०] ।

अभिनेता
वि० [सं० अभिनेतृ] अभिनय करनेवाला । स्वांग दिखानेवाला । नाटक का पात्र । (अं०) ऐक्टर ।

अभिनेत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाटक में अभिनय करनेवाली स्त्री । नटी । (अं०) ऐक्ट्रेस ।

अभिनेय
वि० [सं०] अभिनय करने योग्य । खेलने योग्य (नाटक) ।

अभिनै पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभिनय' । उ०—नटवा निपट निपुन रासमंडल मैं अभिनै भेद बतावै, गीत रीति परवान सों ।—घनानंद, पृ० ३९८ ।

अभिन्न
वि० [सं०] [संज्ञा अभिन्नता] १. जो भिन्न न हो । अपृथक् । एकमय । २. अप्रभावित (को०) । ३. जो बदला न हो । अपरिवर्तित । (को०) । ४. अविभक्त । पूर्ण, जैसे, संख्या (को०) । ५. मिला हुआ । सटा हुआ । लगा हुआ । संबद्ध । यौ०—अभिन्नपुट=नया पत्ता । अभिन्नहृदय= घनिष्ठ ।

अभिन्नता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. भिन्नता का अभाव । अपृथकत्व । २. लगावट । संबंध । ३. मेल ।

अभिन्नपद
संज्ञा पुं० [सं०] श्लेष अलंकार का एक भेद । अभंगवद श्लेष ।

अभिन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] संनिपात का एक भेद जिसमें नींद नहीं आती, देह काँपती हैं, चेष्टा बिगड़ जाती हैं और इंद्रियाँ शिथिल हो जाती हैं और सिर के बाल बीच से अलग अलग हो जाते हैं ।

अभिपतन
संज्ञा पुं० [सं०] १. समीप आना । २. आक्रमण । प्रहार । ३. प्रस्थान [को०] ।

अभिप्रत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. समीप आना । २. पूर्ति । ३. रक्षण करना । ४. दें० उपपत्ति [को०] ।

अभिपन्न
वि० [सं०] १. निकट गया या पहुँचा हुआ । २. भगोड़ा । ३. पराभूत या त्रासित ।४. विपत्तिग्रस्त । अभागा । ५. दोषी । ६. स्वीकृत । ७. मृत । ८. रक्षित । ९.दुर किया हुआ [को०] ।

अभिपुष्प (१)
वि० [सं०] पुष्प से आवृत । फूलों से ढ़का; जैसे, वृक्ष ।

अभिपुष्प (२)
संज्ञा पुं० सुंदर पुष्प । नायाब फूल [को०] ।

अभिप्रणय
संज्ञा पुं० [सं०] प्रेम । कृपा । अनुग्रह [को०] ।

अभिप्रणयन
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कार । वेदविधि से अग्नि आदि का संस्कार ।

अभिप्रपन्न
वि० [सं०] संप्राप्त । उपलब्ध [को०] ।

अभिप्राणन
संज्ञा पुं० [सं०] साँस बाहर छोड़ना । फूँक मारना [को०] ।

अभिप्राय
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिप्रेत] १. आशय । मतलब । अर्थ । तात्पर्य । गरज । प्रयोजन । उ०— उसने सशंक हँसकर कुछ अभिप्राय से पूछा ।— इंद्र०, पृ०१०० । २. अर्थ । माने । मतलब । जैसे, शब्द या वाक्य का (को०) । ३. राय । विचार । सलाह (को०) । ४. संबंध । लगाव (को०) । ५. विष्णु का एक नाम (को०) ।

अभिप्रेत
वि० [सं०] १. इष्ट । अभिलषित चाहा हुआ । २. प्रिय । ३. स्वीकृत ।

अभिप्रोक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञादि में प्रयुक्त विभिन्न पात्रों और सामानों का जलादि द्वारा सिंचन [को०] ।

अभिप्लव
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपद्रव । उत्पात । फसाद । २. गवा- मयन यज्ञ में प्रति मास का पंचमाश जो छ? छ? दिनों का होता था और जिनमें से प्रत्येक का अलग नाम होता था । स्तोम आदि का पाठ जो एक अभिप्लव में होता था ।४. उमड़कर बहना । बाढ़ । ५. प्रजापत्य आदित्य ।

अभिप्लुत
वि० [सं०] १. आवृत आच्छादित । २. युक्त [को०] ।

अभिभव
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिभावुक, अभिभावो, अभिभूत] १. पराजय । २. तिरस्कार । अनादर । ३. अनहोनी बात । विलक्षण घटना । ४. प्राबल्य । अधिकता [को०] ।

अभिभाव
वि० [सं०] दे० 'अभिभावक' ।

अभिभावक
वि० [सं०] १. अभिभूत वा पराजित करनेवाला । तिरस्कार करनेवाला । २. जड़ अर्थत् स्तंभित कर देनेवाला ।३. वशीभूत करनेवला । दबाव में लानेबाला । ४. रक्षक । सर- परस्त । उ०—अभिभावक अब वही हमारे रखते स्नेह सहित मुझको । — प्रेम०, पृ० १६ । ५. आक्रमण करनेवाला (को०) ।

अभिभावन
वि० [सं०] वशीभूत करनेवला । मानेवाला । रूचिकर । उ०— चले चतुर्दिक् हल अभिमावन । — आराधना, पृ० २६ ।

अभिभावी
वि० [सं० अभिभीविन्] दे० 'अभिभावक' ।

अभिभावुक
वि० [सं०] दे० 'अभिभावक' ।

अभिभाषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रवचन । भाषण । २. बोलना । भाषण देना । ३. आयोजन आदि में सर्वमुख्य भाषण । ४. लिखित भाषण [को०] ।

अभिभूत
वि० [सं०] १. पराजित । हराया हुआ । २. पीड़ित । उ०— जब चले थे तुम यहाँ स् दूत । तब पिता क्या थे अधिक अभिभूत । — साकेत, पृ० १७१ । ३. जिस पर प्रभाव ड़ाला गया हो । जो वश में किया गया हो । वशीभूत । ४. विच- लित । व्याकुल । किंकर्तव्याविमूढ़ ।

अभिभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभिभव । पराजय । हार ।

अभिमंडन
संज्ञा पुं० [सं० अभिमण्डन] [वि० अभिमंडित] १. भूषित करना । सजाना । सँवारना । २. पक्ष का प्रतिपादन या समर्थन ।

अभिमंता
वि० [सं० अभिमन्तृ] १. डींग हाँकनेवाला आत्मवंचक । २. अहंमन्य । सर्वज्ञता का दंभी (को०) ।

अभिमंत्रण
संज्ञा पुं० [सं० अभिमन्त्रण] [स्त्री० अभिमंत्रणा] १. मंत्र- द्वारा संस्कार । २. आवाहन ।

अभिमंत्रित
वि० [सं० अभिमन्त्रित] १. मंत्र द्वारा शुद्ध किया हुआ । २. जिसका आवाहन हुआ हो ।

अभिमंथ
संज्ञा पुं० [सं० अभिमन्थ] एक नेत्ररोग । अभिमंथ [को०] ।

अभिमत (१)
वि० [सं०] इष्ट । मनोनीत । वांछित । पसंद का । उ०— जो न होहिं मंगलमग सुरबिधि बाधक । तौ अभिमत फल पाविहिं करि स्रमु साधक । — तुलसी ग्रं०, पृ ३२ । २. संमत । राय के मुताबिक ।

अभिमत (२)
संज्ञा पुं० १. मत । सम्मति । राय । २. विचार ।३. अभिलषित वस्तु । मनचाही बात । उ०— अभिमत दानि देव- तरुवर से । सेवत सुलभ सुखद हरिहर, से :—तुलसी (शब्द०) । ४. इच्छा । आकांक्षा (को०) ।

अभिमति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अभिभान । गर्व । अहंकार । २. वेदांत के अनुसार इस प्रकार की मिथ्या अहंकार भावना कि अमुक वस्तु मेरी है । ३. अभिलाषा । इच्छा । चाह । ४. मति । राय । विचार । ५. आदर । संमान (को०) ।

अभिमन्यु
संज्ञा पुं० [सं०] अर्जुन के पुत का नाम । विशेष— कृष्ण और बलराम की बहन सुभद्रा इसकी माता थी । महाभारत युद्ध में द्रोणाचार्य के सेनापतित्व में निर्मित चक्रव्यूह का भेदन करते समय सात महारथियों ने इसे मारा था । छोटी अवस्था से ही अत्यंत बली और क्रोधी होने से इसका नाम अभिमन्यु पड़ा । महाभारत के द्रोण पर्व में इसके जन्म और निधन का सविस्तार वर्णन है ।

अभिमर
संज्ञा पुं० [सं०] १. संहार । विनाश । हनन । २. युद्ध । ३. स्वपक्ष के व्यक्ति द्वारा कृत विश्वासघात । ४. केद । ५. शेर हाथी आदि से भी भिड़ने के लिये संन्नद्ध व्यक्ति ।

अभिमर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] १. पीसना । चूर चूर करना । २. घस्सा । रगड़ । ३. युद्ध ।

अभिमर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्पर्श । संपर्क । २. प्रहार । ३. आक्र- मण । ४. संभोग । ५. बलात्कार [को०] ।

अभिमर्शक
वि० [सं०] अभिमर्शन करनेवाला [को०] ।

अभिमर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिमर्श' ।

अभिमर्शी
वि० [सं० अभिमाशिन्] दे० 'अभिमर्शक' ।

अभिमर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिमर्श' ।

अभिमर्षक
[सं०] दे० 'अभिमर्शक' ।

अभिमर्षण
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'अभिमर्शन' ।

अभिमर्षी
वि० [सं० अभिमर्षिन्] दे० 'अभिमर्शी' ।

अभिमाद
संज्ञा पुं० [सं०] नशा । मद [को०] । यौ०—अभिमान ।

अभिमान
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिमानी] १. अहंकार । गर्व । दर्प । घमंड़ । २. स्वाभिमान ३. बुद्धि । ज्ञान (को०) । ४. प्रेम । स्नेह (को०) ।५.कामना । इच्छा (को०)६. प्रमाण (को०) ।

अभिमानित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसमें अभिमान हो । २. प्रेम । स्नेह । ३. संभोग । मैथुन [को०] ।

अभिमानित (२)
वि० [सं०] १. गर्वित । अभिमानयुक्त ।

अभिमानी
वि० [सं० अभिमानिन्] [स्त्री० अभिमानिनी] १. अहंकारा । घमंड़ी । दर्पी । अपने को कुछ लगानेवाला । २. स्वात्माभिमानी ।

अभिमुख (१)
क्रि० वि० [सं०] सामने । संमुख । समक्ष ।

अभिमुख (२)
वि० [सं०] १. प्रवृत्त । तत्पर । उद्यत । संनद्ध । २. ओर । तरफ । ३. निकट होना । पहुँचने के करीब होना । ४. अनुकूल [को०] ।

अभिमृष्ट
वि० [सं०] १. स्पष्ट । छुआ हुआ । थपकाया । गया । २. मर्दित । ३. मिश्रित । ४. स्नात । ५. संसृष्ट । आक्रांत [को०] ।

अभि्म्लात
वि० [सं०] मुरझाया या कुम्हलाया हुआ [को०] । यौ०—अभिम्लातवर्ण— फीके रंगावाला ।

अभियांचा
संज्ञा स्त्री० [सं० अभियाञ्चा] दे० १. 'अभियाचन' ।

अभियाचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. माँगन । याचना । २. प्रार्थना करना [को०] ।

अभियाचित
वि० [सं०] जिसकी याचना की गई हो ।

अभियाता
वि० [सं०अभियातृ] १. निकट जाने या पहुँचनेवाला । २. आक्रामक । अभियान करनेवाला [को०] ।

अभियान
संज्ञा पुं० [सं०] १. सामने जाना । २. आक्रमण । चढ़ाई [को०] ।

अभियायी
वि० [सं० अभियायिन्] दे० 'अभियाता' [को०] ।

अभियुक्त
वि० [सं०] [ स्त्री० अभीयुक्त ] १. जिसपर अभियोग चलाया गया हो । जो किसी मुकदमे में फँसा हो । प्रतिवादी । मुल- जिम । अभियोक्ता का उलटा । २. लिप्त । संलग्न । उ०— कहाँ आज वह चितवन चेतन, श्याम मोह कज्जल अभि— युक्त । —अपरा, पृ० १२० । ३. विद्वान् । विशेषज्ञ । दक्ष (को०) । ४. नियुक्त (को०) । ५. कथित (को०) । ६. उपयुक्त । ठीक (को०) । ७. अध्यवसायी (को०) । ८. आक्रांत (को०) ।

अभियुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभियोग [को०] ।

अभियोक्ता (१)
वि० [सं० अभियोक्तृ] [ स्त्री० अभियोक्तृ] १. अभियोग उपस्थित करनेवाला । वादी । मुद्दई । फरियादी । अभियुक्त का उलटा । आरोपी । २. आक्रामक । आक्रमणकारी (को०) ।

अभियोक्ता (२)
संज्ञा पुं० शत्रु । आक्रामक व्यक्ति [को०] ।

अभियोग
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभियोगी, अभियुक्त, अभियोक्ता] १. अपराध की योजना । दोषारोप । उ०—काश्यप मुझपर अभियोग लगाते हैं कि मेंने जाना बूझकर यह ब्रह्महत्या की । — जनमेजय०, पृ०५५ । २. किसी के द्वारा किए गए दोष या हानि के विरूद्ध न्यायालय में निवेदन । नालिश । मुकदमा । ३. चढाई । आक्रमण । ४. उद्योग । ५. मनोनिवेश । लगन ।

अभियोगी (१)
वि० [सं० अभियोगिन्] १. अभियोग चलानेवाला । नालिश करनेवाला । फरियादी । २. आक्रमणकारी (को०) । ३. लगनवाला ।

अभियोगी (२)
संज्ञा पुं० वादी । मुकदमा खडा़ करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

अभियोज्य
वि० [सं०] जिसपर दोष या आरोप लग सके [को०] । यौ०—अभियोज्यदोष = अभियोग चलने योग्य दोष या आरोप ।

अभिरंजन
संज्ञा पुं० [सं० अभिरञ्जन] रँगना [को०] ।

अभिरंजित
वि० [सं० अभिरञ्जित] रँगा हुआ ।

अभिरक्त
वि० [सं०] १. लगा हुआ । संबद्ध । अनुरक्त । २. मधुर । प्रिय [को०] ।

अभिरक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] पूरी तरह से रक्षा या बचाव [को०] ।

अभिरक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अभिरक्षण' ।

अभिरक्षित
वि० [सं०] पूरी तरह से रक्षित या शासित [को०]

अभिरक्ष्य
वि० [सं०] पूर्णत? रक्षा या बचाव के योग्य [को०] ।

अभिरत
वि० [सं०] १. लीन । अनुरक्त । २. लगा हुआ । ३. युक्त । सहित । उ०— किधौं यह राजपुत्री, बरहीं बरयो है, किधौं उपदि बरयो है यहि सोभा अभिरत हौं ।— राम चं०, पृ० ५१ । ३. प्रसन्न । प्रमुदित (को०) ।

अभिरति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनुराग प्रीति । २. लगान । लगाव । लीनता । ३. संतोष । हर्ष । आनंद । ४. कार्य का अभ्यास या पेशा [को०] ।

अभिरना पु
क्रि० स० [सं० अभि = संमुख + रण अथवा प्रा० अब्भिड़इ = भिड़ना, मिलना] १. भिड़ना । लड़ना उलझना । उ०—चटकत चटकी डाँड़ कहूँ कोउ भरत पैतरे । लरत लराई कोऊ एक एकन सों अभिरे ।— प्रेमघन०, भा० १. पृ० ११ । २. टेकना । सहारा लेना । उ०— मुसकाति खरी खँभिमा अभिरी, बिर खाति लजाति महा मन में ।—बेनी (शब्द०) ।

अभिरमण
संज्ञा पुं० [सं०] सम्यक् आनंद लेना या रमण करना [को०] ।

अभिराज पु
वि० [सं० अभिराज] अत्यंत शोभित । उ०— चौका बना चौगान, जगमग अभिराज हो ।— धरम०, पृ० ९ ।

अभिराद्ध
वि० [सं०] भली भाँति समाराधित, प्रसन्न या पुष्ट किया हुआ [को०] ।

अभिराम (१)
वि० [सं०] [स्त्री० अभिरामा] आनंददायक । मनोहर । सुखद । सुंदर । प्रिय । रम्य । उ०— और देखा वह सुंदर दृश्य । नयन का इंद्रजाल अभिराम । —कामायनी, पृ० ४६ ।

अभिराम (२)
संज्ञा पुं० आनंद । सुख । उ०— (क) तुलसी अदभुत देवता आसा देवी नाम । सेए सोक समर्पई, विमुख भए अभिराम ।— तुलसी ग्रं०, पृ० १२४ । (ख) तुलसिदास चाँचरि मिसहि, कहे राम गुन ग्राम । गावहिं सुनहिं नारि नर, पावहिं सब अभिराम ।— तुलसी (शब्द) । २. शिव का एक नाम (को०) ।

अभिरामिनी
वि० स्त्री० [सं०] मनोहारिणी । सुंदर । उ०— हरित गंभीर बानीर दुहुँ तीर वर, मध्य धार विशद विश्व अभिरामिनी । — तुलसी ग्रं०, पृ० ४६३ ।

अभिरामी
वि० [सं० अभिरामिन्] [वि० स्त्री अभिरामिनी] रमण करनेवाला । संचरण करनेवाला । व्याप्त होनेवाला । उ०— अखिल भुवनभर्ता, ब्रह्मरुद्रादि कर्ता, थिरचर अभिरामी, कीय जामातु नामी ।— केशव (शब्द०) ।

अभिरुचि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अत्यंत रुचि । चाह । पसंद । प्रवृत्ति । उ०— संतान स्नेह और आत्मसुख की अभिरूचि संमति देती है कि इस काम सै हमको भी सहायता मिलेगी ।— श्रीनिवास ग्र०, पृ० १९३ । २.प्रसिद्धि की चाह । महत्वाकांक्षा (को०) ।

अभिरुत
वि० [सं०] १. ध्वनित । शब्दायमान । २. कूजित । गुंजित [को०] ।

अभिरुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में मूर्च्छनाविशेष । इसका सरगम यों है— रे, ग, म, प, ध, नि, स । म, प, ध, नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि, स ।

अभिरुप (१)
वि० [सं०] [ स्त्री० अभिरुपा] १. प्रिय । रमणीय । मनो- हर । सुंदर । सुगठित । २. मिलता जुलता । अनुरुप (को०) । ३. चतुर । विद्वान् । प्रबुद्ध (को०) ।

अभिरूप (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । २. विष्णु । ३. कामदेव । ४. चंद्रमा । ५. पंडित ।

अभिरोग
संज्ञा पुं० [सं०] चौपायों का एक रोग जिसमें जीभ में कीडे़ पड़ जाते हैं ।

अभिलंघन
संज्ञा पुं० [सं० अभिलड्घन] १. उछलकर अथवा कूदकर पार करना । २. सीमा, अधिकार या क्षेत्र का अतिक्रमण [को०] ।

अभिलक्षित
वि० [सं०] १. चिह्नांकित । चिह्नित । २. चुना हुआ । संकेतित (को०) ।

अभिलक्ष्य
वि० [सं०] विशेष लक्ष्य योग्य । ध्यान में लेने योग्य [को०] ।

अभिलषण
संज्ञा पुं० [सं०] अभिलाषा करना । चाहना । लालायित होना [को०] ।

अभिलषिक रोग
संज्ञा पुं० [सं०] वात ब्याधि के चौरासी भेदों में से एक ।

अभिलषित (१)
वि० [सं०] वांछित । ईप्सित । इष्ट । चाहा हुआ । उ०— अभिलषित वस्तु तो दूर रहे, हाँ मिले अनिच्छित दुखद खेद । — कामायनी, पृ० १६४ ।

अभिलषित (२)
संज्ञा पुं० इच्छा । आकांक्षा । मनोरथ । उ०— अभिलषित अधूरी रह न जाय । —गीतिका ।

अभिलाख पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभिलाषा' । उ०—अभिलाख यह जिय पूर्ववत, धन धन्य मोहि सबही कहै ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ५१४ ।

अभिलाखना पु
क्रि० स० [सं० अभिलषण] इच्छा करना । चाहना । उ०—तब सिय देखि भूप अभिलाखे । कूर कपूत मूढ़ मन माखे ।—तुलसी (शब्द०) ।

अभिलाखा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिलाषा का प्रा० हिं० रूप] दे० 'अभिलाषा' । उ०—सबके हृदय मदन अभिलाखा । लता निहारि नवहिं तरुसाखा ।— मानस, १ । ८५ ।

अभिलाखी पु
वि० [हिं०] दे० 'अभिलाषी' ।

अभिलाप
संज्ञा पुं० [सं०] १. शब्द । कथन । वाक्य । २. मन के संकल्प का कथन वा उच्चारण । ३. वर्णन । भाषण (को०) ।

अभिलाव
संज्ञा पुं० [सं०] सफल काटना । लवना [को०] ।

अभिलाष
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिलाषक, अभिलाषी, अभिलाषुक, अभिलषित] १. इच्छा । मनोरथ । कामना । चाह । उ०— भाग छोट अभिलाष बड़ करौं एक विश्वास । पैहैं सुख सुनि सुजन जन खल करिहैं उपहास ।— मानस १ । ८ । २. लोभ । ३. वियोग । शृंगार के अंतर्गत दस दशाओं में से एक । प्रिय से मिलने की इच्छा ।

अभिलाषक
वि० [सं०] इच्छा करनेवाला । आकांक्षा करनेवाला ।

अभिलाषना
क्रि० स० [सं० अभिलक्ष्ण] इच्छा करना । चाहना । उ०— जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यो, मन मैं अति गरवाऊ ।— सूर० १० । २२१ ।

अभिलाषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इच्छा । कामना । आकांक्षा । दे० 'अभिलाष' । उ०—भूलता ही जाता दिन रात सजल अभिलाषा कलित अतीत ।— कामायनी, पृ ४९ ।

अभिलाषी
वि० [सं० अभिलाषिन्] [स्त्री० अभिलाषिनी] इच्छा करनेवाला । आकांक्षी । इच्छुक ।

अभिलाषुक
वि० [सं०] दे० 'अभिलाषक' ।

अभिलास पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभिलाष' ।

अभिलासा पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अभिलाषा' ।

अभिलासी पु
वि० [सं० अभिलाषिन्] दे० 'अभिलाषी' । दे० उ०— को है जनक, कोन, है जननी,कौन नारि, को दासी ? कैसे बरन, भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलासी ।—सूर०,१० । ४२४९ ।

अभिलिखित (१)
वि० [सं०] लिखा हुआ । खोदा हुआ [को०] ।

अभिलिखित (२)
संज्ञा पुं० १. लिखना । लेखन । २. हस्ताक्षर । ३. लिखित मसविदा [को०] ।

अभिलीन
वि० [सं०] १. भली भाँति लीन । २. अनुरक्त । आसक्त । ३. आवेष्टित [को०] ।

अभिलुलित
वि० [सं०] १. क्षोमित । चंचला । अस्थिर । २. विक्री- ड़ित । क्रीडायुक्त [को०] ।

अभिलूता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मकडी़ का एक भेद [को०] ।

अभिलेख
संज्ञा पुं० [सं०] लेख । प्रामाणिक लेख । शिला या धातु- पटल पर खोदा लेख ।

अभिलेखन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिखना, खोदना या उत्कीर्ण करना [को०] ।

अभिलेखित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रमाणिक रुप से लिखित पटल या पत्र आदि [को०] ।

अभिलेखित (२)
वि० लिखित । लिपिबद्ध [को०] ।

अभिवंचन
संज्ञा [सं० अभिवञ्चन] ठगना ।

अभिवंचित
वि० [सं० अभिवञ्चित] ठगा गया । छला गया । धोखा खाया हुआ [को०] ।

अभिवंदन
संज्ञा पुं० [सं० अभिवन्दन] [वि० अभिवंदनीय, अभिवंदित, अभिवंद्य] १. प्रणाम । नमस्कार । सलाम । बंदगी । २. स्तुति ।

अभिवंदना
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिवन्नना] १. नमस्कार । प्रणाम । २. स्तुति । प्रशंसा ।

अभिवंदनीय
वि० [सं० अभिवन्दनीय] १. प्रणाम करने योग्य । नमस्कार करने योग्य । २.प्रशंसा करने योग्य । स्तुति करने योग्य ।

अभिवंदित
वि० [सं० अभिवन्दित] प्रणाम किया हुआ । नमस्कार किया हुआ । २. प्रशसित । स्तुत्य ।

अभिबंद्य
वि० [सं० अभिवन्द्य] दे० 'अभिवंदनीय' ।

अभिवचन
संज्ञा पुं० [सं०] वादा । इकरार । प्रतिज्ञा ।

अभिवदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाषण । कथन । २. नमन । प्रणाम । नमस्कार [को०] ।

अभिवद्य
वि० [सं०] कथन या निर्वचन योग्य [को०] ।

अभिवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बढ़ना (किसी ओर) । २. हमला करना । आक्रमण । [को०] ।

अभिवांछा
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिवाञ्छा] अभिलाषा । लालसा । इच्छा [को०] ।

अभिवांछित
वि० [सं० अभिवाञ्छित] अभिलाषित । चाहा हुआ ।

अभिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिवादन' [को०] ।

अभिवादक
वि० [सं०] [स्त्री० अभिवादिका] १. नमस्कार करनेवाला २. विनीत । आदरान्वित । विनम्र [को०] ।

अभिवादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रणाम नमस्कार । वंदना । २. स्तुति । ३.अतिरंजना । अतिवाद । डींग [को०] ।

अभिवादयिता
वि० [सं० अभिवादयितृ] दे० 'अभिवादन' ।

अभिवादित
वि० [सं०] वंदित । नमस्कृत ।

अभिवादी
वि० [सं० अभिवादिन्] [ वि० स्त्री० अभिवादिनी] दे० 'अभिवादक' ।

अभिवाद्य
वि० [सं०] नमस्कार योग्य । अभिवादनीय [को०] ।

अभिवास
संज्ञा पुं० [सं०] चादर । आवरण । वस्त्राच्छादन [को०] ।

अभिवासन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिवास' ।

अभिविनीत
वि० [सं०] १. सुशिक्षित । २. व्यवहारकुशल । शिष्ट । सुशील । ३. शुद्ध । पवित्र [को०] ।

अभिविमान
वि० [सं०] दिक्कालातीत । निस्सीम आकार का (परमात्मा की एक उपाधि) ।

अभिविश्रुत
वि० [सं०] बडी़ ख्याति या प्रसिद्धिवाला (को०) ।

अभिवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] सफलता, उन्नति या समृद्धि [को०] । उ०— ज्ञान विज्ञान से मनुष्य की अभिवृद्धि हो सकती है, विकास नहीं हो सकता । —हिं० आ० प्र, पृ २०६ ।

अभिव्यंजक
वि० [सं० अभिव्यंञ्जक] प्रकट करनेवाला । प्रकाशक । सूचक । बोधक ।

अभिव्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० अभिव्यंञ्जन] [ स्त्री० अभिव्यंजना] प्राकट्य । अभिव्यक्ति । प्रकाश । विकास ।

अभिव्यंजना
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिव्यञ्जना] मन के भावों का शब्दों में चित्रण या रूपविधान । दे० 'अभिव्यंजन' ।

अभिव्यंजनावाद
संज्ञा पुं० [सं० अभिव्यञ्जना + वाद; (अं० एक्सप्रेशनिज्म)] योरप में प्रचलित चिवकला, साहित्य आदि का वह सिद्धांत जिसमें बाह्य वस्तु या विषय को कला का गौण और अपनी या पात्रों की आंतरिक अनुभूतियों के प्रतीकात्मक चित्रण को प्रधान अंग माना जाता है । विशेष— इसमें अभिव्यंजना ही सब कुछ है; जिसकी अभिव्यंजना की जाती है वह कुछ नहीं । इस मत का प्रधान प्रवर्तक इटली का क्रोच है । अभिव्यंजनावादियों के अनुसार जिस रूप मे अभिव्यंजनक होती है उससे भिन्न अर्थ आदि का विचार कला में अनावश्यक है । जैसे— वाल्मीकि रामायण की इस उक्ति में 'न स संकुचित? पंथा? येन बाली हतो गत?', कवि का कथन यही वाक्य है, न कि यह कि जिस प्रकार बाली मारा गया उसी प्रकार तुम भी मारे जा सकते हो । इसी तरह 'भारत के फूटे भाग्य के टुकडों जुड़ते कयों नहीं ? में इतना ही कहना है कि 'हे फूट से अलग हुए भारत- वासियों एकता क्यों नहीं रखते ? यदि तुम एक हो जाओ तो भारत का भाग्योदय हो जाय । साराश यह कि इस मत में ध्वनि या व्यंजना की गुंजाइश नहीं है ।— चिंतामणि, भाग २, पृ० ९६ ।

अभिव्यंजनावदी
वि० [सं० अभिव्यञ्जना + वादिन् (अं० एक्सप्रेशनिस्ट)] अभिव्यंजनावाद का अनुयायी या समर्थक ।

अभिव्यंजित
वि० [सं० अभिव्यञ्जित] सुस्पष्ट प्रकटित । व्यक्त । अभिव्यक्त ।

अभिव्यक्त
वि० [सं०] प्रकट किया हुआ । स्पष्ट किया हुआ । जाहिर किया हुआ ।

अभिव्यक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रकाशन । स्पष्टीकरण । साक्षात्कार । प्रकट होना । २. उस वस्तु का प्रत्यक्ष होना जो पहले किसी कारण से अप्रत्यक्ष हो, जैसे— अँधेरे में रथी चीज का उजाले में साफ साफ दीख पड़ना । ३. न्याय के अनुसार सूक्ष्म और अप्र- त्यक्ष कारण का प्रत्यक्ष कार्य में आविर्भाव जैसे, बीज से अंकुर का निकलना ।

अभिव्यक्तिवाद
संज्ञा पुं० [सं० अभिव्यक्ति + वाद] जगत् को ब्रह्म की अभिव्यक्ति मानने का सिद्धांत ।

अभिव्यक्तिवादी
वि० [सं० अभिव्यक्तिवादिन्] अभिव्यक्तिवाद का अनुयायी या समर्थक ।

अभिव्यक्तिकरण
संज्ञा पुं० [सं० अभि + व्यक्तिकरण] प्राकटय । सामने आ जाना । अभिव्यंजना ।

अभिव्यापक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० अभिव्यापिका] पूर्ण रूप से फैलनेवाला । अच्छी तरह प्रचलित होनेवाला । पूर्ण रूप से व्याप्त रहनेवाला ।

अभिव्यापक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] ईश्वर । यौ०—अभिव्यापक आधार= व्याकरण में वह आधार जिसके हर एक अंश में आधेय हो, जैसे 'तिल में तेल' ।

अभिव्यापी
वि० संज्ञा पुं० [सं० अभिव्यापिन्] दे० 'अभिव्यापक' ।

अभिव्याप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.सन्निवेश । समावेश । २. सर्व- व्यापकता [को०] ।

अभिशंका
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिशड़्का] [वि० अभिशंकित] १. आशंका । संदेह । चिंता । २. भय । व्यग्रता [को०] ।

अभिशंसन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिशस्त] सत्य या झूठ आरोप अथवा दोष लगाना । २. व्यभिचार का मिथ्या दोष लगाना । ३. गाली देना । अपमान करना ।

अभिशंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अभिशंसन' ।

अभिशपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शाप । २. गंभीर आरोप । ३. मिथ्यारोप [को०] । यौ० —अभिशपन ज्वर = शापजन्य ज्वर ।

अभिशप्त
वि० [सं०] १. शापित । जिसे शाप दिया गया हो । उ०— जो जनपद परस तिरस्कृत अभिशप्त कही जाती है । — आँसू, पृ० ७८ । २. जिसपर मिथ्या दोष लगा हो ।

अभिशस्त
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अभिशस्ता] १. जिसपर व्यभिचार का मिथ्या दोष लगा हो । २. व्यर्थ कलंकित । लांछित ।

अभिशस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अभिशाप । २. निंदा । ३. हिंसा । ४. विपत्ति । ५. प्रार्थना [को०] ।

अभिशाप
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिशापित, अभिशप्त] १. शाप । बद दुआ । उ०— अभिशाप ताप की ज्वाला से जल रहा आज मन और अंग । — कामायनी, पृ० १६२ । २. मिथ्या दोषा- रोपण । झूठमूठ का अपवाद । ३. बुराई । अहित [को०] ।

अभिशापन
संज्ञा पुं० [सं०] शाप देना । बद दुआ देना । कोसना [को०] ।

अभिशापित
वि० [सं०] दे० 'अभिशप्त' ।

अभिश्लेषण
संज्ञा पुं० [सं०] पट्टी [को०] ।

अभिषंग
संज्ञा पुं० [सं० अभिषग्ङ] १.पूर्ण संबंध या मिलन (को०) । २. दृढ मिलाप । आलिंगन । ३. संभोग । ४.पराजय । हार । ५. निंदा । आक्रोश । कोसना । ६. शपथ । कसम । ७. मिथ्या- पवाद । झूठा दोषारोपण । ८. भूत प्रेत आवेश । ९. शोक । दु?ख । यौ०— अभिषंगज्वर=भूत प्रेत आदि के आवेश या प्रभाव से उत्पन्न ज्वर ।

अभिषंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिषग्डन] वेद की एक ऋचा ।

अभिषंगी
वि० [सं० अभिषङिन्न्] अभिषंग से युक्त । अभिषंगवाला ।

अभिषंजन
संज्ञा पुं० [सं० अभिषञ्जन] दे० 'अभिषंग' [को०] ।

अभिषव
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ में स्नान । २. मद्य खींचना । शराब चुवाना । ३. सोमलता को कुचलकर गारना या निचोड़ना । ४. सोमरस पान ५. यज्ञ । ६. काँजी । ७. स्नान । नहाना [को०] । ८.राजायारोहण । ९. अधिकारप्राप्ति [को०] ।

अभिषवण
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्नान । २. सोमरस निकालने या निचोड़ने का साधन [को०] ।

अभिषवणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोमरस निकालने का साधन या यंत्र [को०] ।

अभिषावक
संज्ञा पुं० [सं०] सोमरस निचोड़नेवाला पुरोहित [को०] ।

अभिषिंचन
संज्ञा पुं० [सं० अभिषिञ्चन] जल छिड़कना । उ०— अभिषिंचन ब्राह्मण (अध्वर्यु), क्षत्रिय और वैश्य मिलकर करते थे जो कि राष्ट्र की तीन इकाइयाँ थीं ।— हिंदु० सभ्यता, पृ०१०३ ।

अभिषिक्त
वि० [सं०] [वि० स्त्री० अभिषिक्ता] १. जिसका अभिषेक हुआ हो । जिसके ऊपर जल आदि छिडका गया हो । जो जल आदि से नहलाया गया हो । २. बाधाशांति के लिये जिसपर मंत्र पढ़कर दूर्वा और कुश से पानी छिडका गया हो । ३. जिसपर विधिपूर्वक जल छिड़ककर किसी अधिकार का भार दिया गया हो । राजपद पर निर्वाचित ।

अभिषुत
वि० [सं०] १. निचोड़ा हुआ । उ०—यह अतीव मधुर सोम, तुम्हारे लिये अभिषुत हुआ है ।—प्रा० भा० पृ०, प० १३३ । २. स्नात । जो स्नान कर चुका हो । (को०) ।

अभिषेक
संक्षा पु० [सं०] १. जल से सिंचन । छिड़काव । २. ऊपर से जल डालकर स्नान । ३. बाधाशांति या मंगल के लिये मंत्र पढ़कर कुश और दूब से जल छिड़कना । मार्जन । ४. विधिपूर्वक मंत्र से जल छिड़ककर अधिकारप्रदान । राजपद पर निर्वाचन । ५. यज्ञादि के पीछे शांति के लिये स्नान । ६. शिवलिंग के ऊपर तिपाई के सहारे जल से भरकर एक ऐसा घड़ा रखना जिसके पेदे में बारीक छेद, धीरे धीरे पानी टपकने के लिये हो । रुद्राभिषेक । यौ०—अभिषेकपात्र = अभिषेक का पात्र । अभिषेकाह=अभिषेक का दिन । राज्यारोहण का दिन ।

अभिषेकना पु
क्रि० स० [सं० अभिषेफ] अभिषेक करना । उ०— आजु अभिषेकत पिय को प्यारी । धरि दृग ध्यान नवल आँसुन के भरि भरि उमगे बारी ।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० ६१८ ।

अभिषेकशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्थान या मंडप जहाँ अभिषेक हो । राज्याभिषेक मंडप [को०] ।

अभिषेक्ता
संज्ञा पुं० [सं०] वह व्यक्ति जो अभिषेक करे । अभिषेक करनेवाला व्यक्ति [को०] ।

अभिषेक्य
वि० [सं०] दे० 'अभिषेचनीय' [को०] ।

अभिषेचन
संज्ञा पुं० [सं०] विधिपूर्वक मंत्र से जल छिड़ककर अधिकारप्रदान । राजपद पर निर्वाचन । उ०— इसके बाद शक्ति, प्रभुता और प्रार्थना के मंत्र पढ़ते पढ़ते पुरोहित जलों से अभिषेचन करते थे ।— हिंदु० सभ्यता, पृ० ११४ ।

अभिषेचनीय
वि० [सं०] १. अभिषेक योग्य । २. राज्यारोहण योग्य । ३. अभिषेक संबंधी [को०] ।

अभिषेच्य
वि० [सं०] दे० 'अभिषेचनीय' [को०] ।

अभिषेणन
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु के विरुद्ध बढा़व या चढा़ई [को०] ।

अभिषोता
संज्ञा पुं० [सं० अभिषोतृ] दे० 'अभिषावक' [को०] ।

अभिष्यंद
संज्ञा पुं० [सं० अभिष्यन्द] १. बहाव । स्राव । २. आँख का एक रोग जिसमें सुई के छेदने के समान पीडा और किर- किराहट होती है, आंखें लाल हो जाती हैं और उनसे पानी और कीचड निकलता है । आँख आना ।

अभिष्यंदिरमण
संज्ञा पुं० [सं० अभिष्यन्दिरमण] उपनगर । बडे़ नगर से लगा हुआ चोटा नगर । शाखा नगर [को०] ।

अभिष्यंदी
वि० [सं० अभिष्यंदिन्] १. रसने, बहने या चूनेवाला । २. रेचक । दस्तावर । ३. जलापसारक (को०) ।

अभिष्वंग
संज्ञा पुं० [सं० अभिष्वग्ङ] घनिष्ठ संबंध । प्रेम । अनुराग । उ०— आत्मस्नेह यह आत्मप्रेम है जो आत्मा में अभिष्वंग उत्पन्न करता है । — संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३६९ ।

अभिसंग
संज्ञा पुं० [सं० अभिसग्ड] दे० 'अभिसंग' [को०] ।

अभिसंताप
संज्ञा पुं० [सं० अभिसन्ताप] १. युद्ध । संघर्ष । स्पर्धा । २. पीड़ा [को०] ।

अभिसंदेह
संज्ञा पुं० [सं० अभिसंन्देह] १. अदला बदली । विनिमय । २. जननेंद्रिय [को०] ।

अभिसंदोह
संज्ञा पुं० [सं० अभिसंदोह] दे० 'अभिसंदेह' [को०] ।

अभिसंध
संज्ञा पुं० [सं० अभिसंन्ध] १. ठग । धोखा देनेवाला । वंचक । २. निंदक [को०] ।

अभिसंधक
संज्ञा पुं० [सं० अभिसंन्धक] दे० 'अभिसंध' [को०] ।

अभिसंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिसंन्धा] १. कहना । बतलाना । २. वादा । वचन । ३. बात का पक्का व्यक्ति । ४. धोखा । छल [को०] ।

अभिसंधान
संज्ञा पुं० [सं० अभिसंन्धान] १. वंचाना । प्रतारणा । धोखा । जाल । २. फलोद्देश्य । लक्ष्य । उ०— इस कार्य को करने में उसका अभिसंधान कया है यह देखना चाहिए (शब्द०) । ३. इच्छा या रुचि (को०) । ४. स्वार्थ (को०) ।

अभिसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिसंन्धि] १. प्रतारणा । वंचना । धोखा । उ०— भरत में अभिसंधि का हो गंध, तो मुझे निज राम की सौगंध । — साकेत, पृ० १८७ । २. चुपचाप कोई काम करने की कई आदमियों की सलाह कुचक्र । षडयंत्र । उ०— तक्षशिलाधीश की भी उसमें अधिसंधि है । — चंद्र०, पृ० ७५ । ३. विशेष समझोता या संधि । ४. लक्ष्य । उद्देश्य । ५. अंतर्ग- मित या सन्निहित अर्थ । अभिप्राय । राय । ६. जोड़ । योग । ७. घोषणा । वादा ।

अभिसंधिकृत
क्रि० वि० [सं० अभिन्धिकृत] जानबूझ कर किया हुआ [को०] ।

अभिसंधिता
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिसन्धिता] कलहांतरिता नायिका । स्वयंप्रिय का अपमान कर पश्चात्ताप करनेवाली स्त्री ।

अभिसंपात
संज्ञा पुं० [सं० अभिसम्पात] १. सम्मिलन । संगम । २. युद्ध । संघर्ष । ३. बददुआ । शाप । ४. पतन [को०] ।

अभिसंबंध
संज्ञा पुं० [सं० अभिसम्बन्ध] १. घनिष्ठ संबंध । २. समागम । संभोग [को०] ।

अभिसंयोग
संज्ञा पुं० [सं०] घनिष्ठ संबंध । बहुत नजदीक का संबंध [को०] ।

अभिसंश्रय
संज्ञा पुं० [सं०] शरण । आश्रय । त्राण । पनाह [को०] ।

अभिसंस्कार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूझ । विचार । कल्पना । २. व्यर्थ या निष्फल कार्य । ३. विकास । परिष्कार । उ०— चेतना का स्वभाव चित्त का अभिसंस्कार करना है ।— संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३४६ ।

अभिसंमत
वि० [सं० अभिसम्मत] माननीय । आदरणीय । संमान्य [को०] ।

अभिसर
संज्ञा पुं० [सं०] १. संगी । साथी । २. सहायक । मददगार । ३. सेवक । अनुचर [को०] ।

अभिसरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. आगे जाना । २. समीप गमन । ३. प्रिय से मिलने के लिये जाना ।

अभिसरन पु
संज्ञा पुं० [सं० अभिशरण] १. शरण । सहाय । सहारा । उ०= संतन को लै अभिसरन, समुझहिं सुगति प्रवीन । करम बिपरजय कबहुँ नहिं, सदा राम रस लीन ।— तुलसी (शब्द०) । २. दे० 'अभिसरण' ।

अभिसरना पु
क्रि० अ० [सं० अभिसरण] १. संचरण करना । जाना । २. किसी वांछित स्थान को जाना । ३. नायक या नायिका का अपने प्रिय से मिलने के लिये संकेतस्थल को जाना । उ०—चकित चित्त साहस सहित, नील बसन युत गात । कुलटा संध्या अभिसरै, उत्सव तम अधिरात ।— केशव (शब्द०) ।

अभिसार
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभिसारिका, अभिसारी] १. साधन । सहाय । सहारा । बल । २. युद्ध । ३. प्रिय से मिलने के लिये नायिका या नायक का संकेतस्थल में जाना । ४. संकेतस्थल । सहेट [को०] । ५. आक्रमण [को०] । ६. शक्ति । ताकत (को०) । ७. सहयोगी । साथी । अनुगत (को०) । ८. औजार । उपकरणा । साधन (को०) । ९. शुद्ध करने का एक सस्कांर (को०) ।

अभिसारना पु
क्रि० अ० [सं० अभिसार से नाम०] १. गमन करना । जाना । घूमना । २. प्रिय से मिलने के लिये नायिका या नायक का संकेत स्थल में जाना । उ०— समय जोग पट भूषन धारै । पिय अभिसारि आप अभिसारै । — नंद० ग्रं०, पृ० १५६ ।

अभिसारक पु
वि० [सं०] अभिसार करनेवाला ।

अभिसारका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अवस्थानुसार नायिका के दस भेदों में एक । वह स्त्री जो सकेत स्थल में प्रिय से मिलने के स्वयं जाय या प्रिय को बुलाए । विशेष—यह दो प्रकार की है, शुक्लाभिसारिका (जो चाँदनी रात में गमन करे) और कृष्णाभिसारिका (जो अँधेरी रात में मिलने जाया) कोई कोई एक तीसरा भेद दिवाभिसारिका (दिन में जानेवाली) भी मानते हैं । साहित्य शास्त्र में अभिसार के आठ स्थान कहे गे हैं— (१) खेत, (२) उपवन या बगीचा (३)भग्नमंदिर, (४) दूती या सहेली का निवासस्थान, (५) जंगल, (६) तीर्थस्थान, (७) श्मशान । (८) नदीतट या परिसर ।

अभिसारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अभिसारिका । २. त्रिष्टुभ् छंद का भेद जो ११ की जगह १२ वर्णों की स्थिति से जगती छद के सन्निकट जान पड़ता है [को०] ।

अभिसारी
वि० [सं० अभिसारिन्] [संज्ञा स्त्री० अभिसारिका] १. साधक । सहायक । २. प्रिय से मिलने के लिए संकेतस्थल में जानेवाला । उ०— धनि गोपी धनि ग्वाला धन्य सुरभी बनचारी । धनि यह पावन भूमि जहाँ गोबिंद अभिसारी । —सूर (शब्द०) । ३. आक्रामक । हमला करनेवाला (को०) । ४. आगे जानेवाला । सामने जानेवाला (को०) ।

अबिसेख(ष) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभिषेक' । उ०— मुनिदेव मिले अभिसेख कीन्ह । — हम्मारी रा०, पृ० १२ ।

अभिसेचना पु
क्रि० स० [सं० अभिषेचन] सींचना । अभिषिक्त करना । उ०— आजु कछु मंगल घन उनए । बरसत बूँदन मनु अभिसेचत मंगल कलस लए । चमकि मंगलामुखी दामिनी मंगल करत नए । — भारतेंदु ग्रं०, भा २, पृ० ११४ ।

अभिस्कंद
संज्ञा पुं० [सं० अभिस्कन्द] १. आक्रमण । धावा । २. शत्रु [ को०] ।

अभिस्नेह
वि० [सं०] घनिष्ठ स्नेह । चाह [को०] ।

अभिस्मरण
संज्ञा पुं० [सं० अभि + स्मरण] विशेष रूप से की गई याद । ध्यान । स्मृति । उ०— 'स्मृति' संस्कृत वस्तु का अभिस्मरण है ।— संपूर्णा० ग्रं०, पृ० ३४७ ।

अभिस्यंद
संज्ञा पुं० [सं० अभिस्यन्द] दे० 'अभिष्यंद' (को०) ।

अभिहत
वि० [सं०] १. पीटा हुआ । ताड़ित । आहत । आक्रांत । २. गुणा किया हुआ । गुणित । ३. पराजित । पराभूत । ४. बाधित । निरुद्ध [को०] ।

अभिहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निशान लगाना । चोट करना । पीटना । २. गुणन क्रिया [को०] ।

अभिहर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] उठा ले जाना । ले भागना । हटा देना [को०] ।

अभिहर (२)
वि० [सं०] उठाईगीर । ले भागनेवाला [को०] ।

अभिहरण
संज्ञा पुं० [सं०] छीन ले जाना । लूटना [को०] ।

अभिहर्ता
संज्ञा पुं० [सं० अभिहर्तृ] १. डाकू । २. अपहरणकर्ता । ले भागनेवाला [को०] ।

अभिहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. आक्रमण । हमला । उ०— कैधों पांडुपूतनि कौ कछुक पखंड यामैं, कोऊ अभिहार कै सभा कौ ज्ञान लूट्यौ है । — रत्नाकर, भा— २, पृ० १११ । २. मिश्रण । मिलावट (को०) । ३. लूचपाट । चोरी । डाका (को०) । ४. प्रयत्न । चेष्टा (को०) । ५. शस्त्रसज्ज होना (को०) । ६. समीप लाना (को०) । ७. मद्यप शराबी (को०) ।

अभिहारिनि पु
वि० स्त्री [सं० अभिहारिणी] सामने से हरण करने वाली । उ०— देखी सुनी ग्वारिनि कितेक ब्रजबारिनि पै राधा सी न और अभिहारिनि लखाई है । हेरत हीं हेरत हरयौ तौ है हमारौ कछू काह धौं हिरनौ पै न परत जनाई है ।— रत्नाकर, भा० २, पृ० २२१ ।

अभिहास
संज्ञा पुं० [सं०] विनोद । हँसी । मजाक । दिल्लगी [को०] ।

अभिहित
वि० [सं०] १. उक्त । कथित । कहा हुआ । २. संबद्ध । युक्त । बद्ध [को०] ।

अभिहितसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० अभिहितसन्धि] कौटिल्य के अनुसार वह संधि जिसकी लिखापढ़ी न हुई हो ।

अभिहितान्वयवाद
संज्ञा पुं० [सं०] कुमारिल भट्ट प्रभृति पुराने नैयायिकों, मीमांसकों और आलंकारियों या साहित्यिकों का मत कि वाक्य का प्रत्येक पद अलग स्वतंत्र और अनन्वित अर्थ रखता है । बाद में सब अर्थों का समन्वय करने पर समूचे वाक्य का अर्थ निकलता है । अन्विताभिधामवाद का उलटा ।

अभिहितान्वयवादी
संज्ञा पुं० [सं० अभिहितान्वयवादिन्] अभीहीतान्वयवाद का अनुयायी या समर्थक ।

अभिहूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आवाहन । २. समाराधन । पूजन [को०] ।

अभिहोम
संज्ञा पुं० [सं०] घृत की आहुति देना । घी से होम करना [को०] ।

अभी (१)
क्रि वि० [हि० अव + ही] १. इसी क्षण । इसी समय । इसी वक्त । तुरंत । तत्काल । २. अब तक । ३. अभी भी । ४. आजकल । इन दिनों । इस समय ।

यौ० —अभी अभी =इसी समय । तुरत । तत्काल ।

अभी (२)
वि० [सं०] निर्भय । निड़र [को०] ।

अभीक (१)
वि० [सं०] १. निर्भय । निड़र । २. निष्ठुर । कठोरहृदय । ३. उस्तुक । इच्छुक । ४. भयानक (को०) । ५. कामुक । लंपट । ६. अभिगत । प्राप्त (को०) ।

अभीक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेमी । पति । २. स्वामी । मलिक । ३. कवि ।

अभीक्ष्ण
वि० [सं०] १.निरंतर । लगातार । २. अधिक । ३. जो बार बार दुहराया जाय । आवर्तित [को०] ।

अभीघात
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिघात' ।

अभीत
वि० [सं०] निड़र । निर्भय । उ०—सूत, मागध बंदि आदि अभीत, गा उठे जीवन विजय के गीत । साकेत, पृ० १९६ ।

अभीता पु
वि० [हिं०] दे० 'अभीत' । उ०—अहं सु अज अव्ययं अभीता । —सुंदर ग्र०, भा० १, पृ० ११३ ।

अभीति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्भयता । निडरता । २. आक्रमण । ३. निकटता [को०] ।

अभीति (२)
वि० [सं०] अभीत । निर्भीक [को०] ।

अभीप्सा
संज्ञा पुं० [सं०] चाहना । इच्छा । अभीलाषा । उ०—करती सहज प्रवेश हृदय में जगा अभीप्सा ।—रजत०, पृ० १० ।

अभीप्सित (१)
वि० [सं०] अभीलषित । चाहा हुआ । वांछित । इच्छित । उ०—हे भरतभद्र, अब कहो अभीप्सित अपना ।—साकेत, पृ० २२७ ।

अभीप्सित (२)
संज्ञा पुं० इच्छा । कामना । चाह [को०] ।

अभीप्सी
वि० [सं० अभिप्सन्] दे० 'अभीप्सु' [को०] ।

अभीप्सु
वि० [सं०] अभिप्सा करनेवाला । चाहनेवाला । इच्छुक [को०] ।

अभीम (१)
वि० [सं०] जो भय उत्पन्न करनेवाला न हो [को०] ।

अभीम (२)
संज्ञा पुं० विष्णु का एक नाम [को०] ।

अभीमान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिमान' [को०] ।

अभीमुद
वि० [सं०] अत्याधिक प्रसन्न या आनंदयुक्त [को०] ।

अभीमोद
संज्ञा पुं० [सं०] प्रसन्नता । खुशी [को०] ।

अभीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. गोप । अहीर । २. काव्य में एक छंद जिसके प्रत्येक चरण में ११ मात्राएँ और अंत में जगण (ISI) होता है । उ०—यहि विधि श्री रघुनाथ, गहे भरत कर हाथ । पूजत लोक अपार, गए, राज दरबार (शब्द०) ।

अभीरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का साँप [को०] ।

अभीराजी
संज्ञा पुं० [सं०] एक विषैला कीड़ा [को०] ।

अभीरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभीरों या अहीरों की बोली ।

अभीरु (१)
वि० [सं०] १. निर्भय । निड़र । २.जो भयकारक न हो ।

अभीरु (२)
संज्ञा पुं० १. शिव । २. भैरव ।

अभीरुण
वि० [सं०] १. निर्भय । २. निर्दोष [को०] ।

अभीरुपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतमूली [को०] ।

अभील
संज्ञा पुं० [सं०] १. कठिनाई । परेशानी । २. भयंकर दृश्य [को०] ।

३६

अभीशाप
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभिशाप' [को०] ।

अभीशु
संज्ञा पुं० [सं०] १. वल्गा । लगाम । २. रश्मि । किरण । ३. बाहु । भुजा । ४. उँगली [को०] ।

अभीषया
क्रि० वि० [सं०] निर्भयतापूर्वक [को०] ।

अभीषु
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभीशु' [को०] ।

अभीष्ट (१)
वि० [सं०] १. वांछित । चाहा हुआ । अभिलषित । उ०— जो स्पर्श कर लेता कभी था पुण्य प्रेम अभीष्ट को ।— कानन०, पृ० २९ । २. मनोनीत । पसंद का । ३. अभिप्रेत । आश्य के अनुकूल । ४. प्रिय (को०) । ५. वैकल्पिक [को०] ।

अभीष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. मनोरथ । मनचाही बात । उ०—'आपका अभीष्ट सिद्ध हो जायगा । (शब्द०) । २. प्रिय व्यक्ति या प्रेमी । ३. प्रचीन आचार्यों के मत से एक अलंकार जिसमें अपने इष्ट की सिद्ध दूसरे के कार्य द्बारा दिखाई जाय । यह यथार्थ में प्रहर्षण अलंकार के अंतर्गत आ जाता है । यौ०—अभीष्टलाभ=इच्छित वस्तु की प्राप्ति । अभीष्टसिद्धि= अभीलाषित इच्छा का पूर्ण होना ।

अभीष्टा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गृहस्वामिनी । २. प्रेमिका । ३. पान [को०] ।

अभीष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभीष्ट वस्तु, इच्छा या बात (को०) ।

अभुआना पु †
क्रि अ० [सं० आ+भावन] हाथ पैर पटकना और जोर जोर से सिर हिलाना जिससे सिर पर भूत का आना समझा जाता है ।

अभुक्त
वि० [सं०] १. न खाया हुआ । २. न भोग किया हुआ । बिना बर्ता हुआ । अव्यवहत । अछूता । उ०—नर अभुक्त उपयुक्त थान ताकै हित हित हेरत । रत्नाकर, भाग १. पृ० १६४ । ३. जिसने भोजन न किया हो (को०) । ४. जिसने भोग न किया हो (को०) ।

अभुक्तपूर्व
वि० [सं०] जिसका पहले कभी भोग या व्यवहार न किया गया हो ।

अभुक्तमूल
संज्ञा स्त्री० [सं०] ज्येष्ठा नक्षत्र के अंत की दो घड़ी तथा मूल नक्षत्र के आदि की दो घड़ी । गंड़ांत ।

अभुग्न
वि० [सं०] १. न झुका हुआ । सीधा । २. स्वस्थ । निरोग (को०) ।

अभुज
वि० [सं०] बाहुविहीन । बिना भुजा का [को०] ।

अभुल पु
वि० [हिं० अमूल, अनभूल] जो न भूले । बिना भूले । अचूक । उ०—बेधंत आनि बानह अभुल । भ्रगुक सीस कामंग इव ।—पृ०, रा०, ६१ ।११७२ ।

अभुवाना पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अभुआना' । उ०—माया भूत भुताना साधो, आलम सब अभुवाता है ।—पलटू०, पृ० ९० ।

अभू (१)—पु
क्रि० वि० [हिं० अव+हूँ=भी] अब भी ।

अभू (२)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।

अभूखन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'आभूषण' । उ० —तोरि तनी तन छोरि अभूखन भूलि गई गर देन की फाँसी । —इतिहास, पृ० ३०४ ।

अभूत
वि० [सं०] १.जो हुआ न हो । २. वर्तमान । ३. असत्य । मिथ्या (को०) ।४. अपूर्व । विलक्षण । अनोखा । उ०—आँगन खेलत घुटरुनि धाए । उपमा एक अभूत भई तब जब जननी पट पति उठाए । नील जलद पर उड़ुगन निरखत तजि सुभाव मनु तड़ित छपाए ।—सूर (शब्द०) ।

अभूतदोष
वि० [सं०] दोषरहित । निर्दोष [को०] ।

अभूतपूर्व
वि० [सं०] १. जो पहले न हुआ हो । २. अपूर्व । अनोखा । विलक्षण ।

अभूतशत्रु
वि० [सं०] जिसका कोई शत्रु न हो । अजातशत्रु [को०] ।

अभूताहरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाटयशास्त्र के अनुसार किसी प्रकार का कपटयुक्त या व्यंग्यपूर्ण वचन कहना । गर्भसंधि के तेरह अंगों में से एक । २. अयथार्थ बात कहना । छलपूर्ण बात कहना । (को०) ।

अभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अस्तित्वहीनता । अविद्यमानता । २. अशक्तता । ३. निर्धनता । ४. विपत्ति । बर्वादी । विनाश [को०] ।

अभूतोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपमा के दस भेदों में से एक जिसमें उत्कर्ष के कारण उपमान का कथन न हो सके । उ०—जौ पटतरिअ तीअ सम सीया । जग असि जुवति कहाँ कमनीया ।— मानस, १ । २४७ ।

अभूमि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह जो भूमि न हो । भूमि के अतिरिक्त अन्य पदार्थ । २. अनुपयुक्त स्थान । ३. स्थानाभाव । ४. पहुँच से परे का स्थान [को०] ।

अभूमिज
वि० [सं०] १. निकृष्ट अथवा अनुपयुक्त स्थान में उत्पन्न । २. जो भूमि में उत्पन्न न हो [को०] ।

अभूमिप्राप्तसैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह सेना जो अनुपयुक्त भूमि में पड़ गई हो । ऐसी जगह पड़ी हुई फौज जहाँ से लड़ना असंभव हो ।

अभूरि
वि० [सं०] स्वल्प । कुछ । थोड़ा । कतिपय [को०] ।

अभूष
वि० [सं०] अभूषित [को०] ।

अभूषन
संज्ञा पुं० [सं० आभूषण] दे० 'आभूषन' । उ०—हीरन के अभूषन पै वारों जग ऐन ।—नद० ग्रं०, पृ० ३६५ ।

अभूषित
वि० [सं०] बिना आभूषण के । अनलंकृत । बिना सजाया हुआ । [को०]

अभृत
वि० [सं०] जिसे पारिश्रमिक न दिया जाता हो [को०] ।

अभृतक
वि० [सं०] दे० 'अभृत' (को०) ।

अभृतसैन्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह सेना जिसे वेतन या भत्ता न मिला हो । विशेष—कौटिल्य के अनुसार यह व्याधिज (बीमार) सैन्य से उपयोगी है, । क्योंकि वेतन पा जाने पर जी लगकर लड़ सकती है ।

अभृश
वि० [सं०] थोड़ा । कुछ । चंद [को०] ।

अभेड़ा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभेरा' ।

अभेद (१
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभेदनीय, अभेद्य] १. भेद का अभाव । अभिन्नता । एकत्व । २.एकरूपता । समानता । ३. रूपक अलंकार के दो भेदों में से एक जिसमें उपमेय और उपमानका अभेद बिना निषेध के कथन किया जाय, जैसे—मुखचंद, चरणाकमल । उ०—रंभन मंजरि पुच्छ फिरावत मुच्छ उसीरनि की फहरी है । चंदन, कुंद, गुलाबन, आमन सीत सुगंधन की लहरी है । ताल बड़े फणि चक्र प्रवीन जू मित बियोगिनि की कहरी है । आनन ज्वाल गुलाल उड़ावत ब्याल बसंत बड़ो जहरी है ।—बेनी (शब्द०) । इसकी कोई कोई पृथक् अलंकार भी मानते हैं ।

अभेद (२
वि० १. भेदशून्य । एकरूप । समान । उ०—ब्रह्म जो व्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद ।—मानस, १ ।५० ।

अभेद (३) पु
वि० [सं० अभेद्य] जिसका भेदन या छदन न हो सके । जिसके भीतर कोई वस्तु न घुस सके । जिसका विभाग न हो सके ।—उ०—कवच अभेद बिप्र गुरु पूजा । एहि सम विजय उपाय न दूजा ।—मानस, ६ ।७९ ।

अभेदनीय
वि० [सं०] दे० 'अभेद्य' ।

अभेदबुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] भेदराहित बुद्धि । एकतापरक बुद्धि । बुद्धि या विचार की वह स्थिति जिसमें भेदभाव नहीं होता ।

अभेदवादी
वि० [सं० अभेदवादिन्] [वि० स्त्री० अभेदयादिनी] जीवात्मा और परमात्मा में भेद न माननेवाला । अद्बैतवादी । उ०—तेह अभेदवादी ज्ञानी नर । देखा मैं चरित्र कलिजुग कर ।—मानस, ७ ।१०० ।

अभेदाभेद
वि० [सं०] एक । एकाकार । उ०—कहीं नरायण नाभि है कहीं ब्रह्म कहिं वेद । कहिं शंकर गिरजा कहीं, कहीं अभेदाभेद ।—भक्ति० पृ० २८५ ।

अभेद्य (१
वि० [सं०] १. जिसका भेदन वा छेदन न हो सके । जिसके भीतर कोई चीज घुस न सके । जिसका विभाग न हो सके । २. जो टूट न सके । अखंड़नीय । अविभाज्य ।

अभेद्य (२
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा । हीरक । वज्र [को०] ।

अभेय पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभेव' ।

अभेरना पु
क्रि० स० [सं० अभिद, प्रा० अब्भिड़] मिलाना । मिश्रित करना । एक में करना । उ०—जपहु बुद्धि कै दुई सन फेहु । दही चूर अस हिया अभेरहु ।—जायसी (शब्द०) ।

अभेरा
संज्ञा पुं० [सं० अभि=सामने+रण=लड़ाई अथवा प्रा० अब्भिड़] रगड़ा । झगड़ा । मुठभेड़ । टक्कार । मुकाबिला उ०—(क) उठै आगि दोउ ड़ार अभेरा । कौन साथ तीहिं बैरी केरा ।—जायसी (शब्द०) । (ख) विषम कहार मार मदमाते चलाहिं न पाउँ बटोरा रे । मंद बिलंद अभेरा दक्कन पाइय दुख झकझोरा रे ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५५३ ।

अभेव (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० अभेद] अभेद । अभिन्नता । एकता ।

अभेव (२) पु
वि० भेदरहित । अन्नि । एक । उ०—सिष सुमिरन साँचा करै हो जाय अलख अभेव ।—दरिया० बानी, पृ० ५ ।

अभै पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभय' । उ०—सदा सुभाव सुलभ सुमिरन बस, भक्तन अभै दियौ ।—सूर० १ ।४० ।

अभौदिक पु
वि० [सं०] दे० 'अभेद्य' [को०] ।

अभैन पु
वि० [सं०] दे० 'अमय' । उ०—भरं अमैनं सुयं सब्ब रष्षै ।—पृ० रा०, १ ।३१२ ।

अभैपद पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अवयपद' । उ०—ध्रुवहि अभैपद दियौ मुरारी ।—सूर० ।१ ।६० ।

अभैमंत्र पु
संज्ञा पुं० [सं० अभयमन्त्र] निर्भयता प्रदान करनेवाला मंत्र ।

अभैर
संज्ञा पुं० [सं०?] धरन या लकड़ी जिसमें ड़ोरी बांधकर करघे की कंघियाँ लटकाई जाती है । कलवाँसा । दढ़ेरी ।

अभोक्तव्य
वि० [सं०] जो भोगने योग्य न हो । जिसका उपयोग न किया जाय । अनुपयुक्त [को०] ।

अभोक्ता
वि० [सं० अभोक्तृ] [वि० स्त्री० अभोक्त्री] १. भोग न करनेवाला । व्यवहार न करनेवाला । २. विरक्त (को०) ।

अभोखण पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आभूषण' । उ०— अंगि अभोखण अच्छियड़, तन सोक्त सगलाइ । मांरु अंबा—मउर जिम, कर लग्गइ कुँमलाइ । —ढोला० दू० ४७१ ।

अभोग (१) पु
वि० [सं०] जिसका भोग न किया गया हो । अछूत । उ०— वरनि सिगार न जाने उँ नख सिख जैस अमोग । तस जग किछू न पायउँ उपम देउँ जोग ।—जायसी (शब्द०) ।

अभोग (२)
संज्ञा पुं० भोग का अभाव [को०] ।

अभोगी
वि० [सं० अभिगिन्] [स्त्री० अभीगीनी] भोग न करनेवाला । इंद्रियों के सुख से उदासीन । विरक्त । उ०—हमरें जान सदाशिव जोगी । अज अनवद्य अकाम अभोगी ।— मानस, १ ।९० ।

अभोग्य
वि० [सं०] जो भोग योग्य न हो [को०] ।

अभोज पु
वि० [सं० अभोज्य] न खाने योग्य । अभक्ष्य । उ०— भोज अभोज न रति विरति, नीरस सरस समान । भोग होइ अभिलाष बिनु, महाभोग ता मान । राम चं० पृ० १५२ ।

अभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भोजन न करना । २. भोजन से परहेज । ३. उववास ।व्रत [को०] ।

अभोज्य
वि० [सं०] १. न खाने योग्य । अभक्ष्य । अभोज । २. जिसका खाना वर्जित हो [को०] ।

अभोटी पु
संज्ञा पुं० [हि०] शूद्र श्रेणी के नौकर । उ०—मंदिर में शूद्र श्रेणी के नौकर अभीटी कहलाते रहे ।—पू० म० भा० पृ० ३२३ ।

अभील पु
वि० [हि० भुलना] जो भूला न हो । जो भूलनेवाला न हो । उ०—अमोल अभोल अतोल अमंग । अकंज अगंज अलुंज अभंग । पृ० रा, ६ । ४ । ३१७ ।

अभौ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभय' । उ०—नृपति बहुत जाचिय अभौ ।पृ० रा०, ५७ । २६७ ।

अभौतिक
वि० [सं०] १. जो पंचभूत का न बना हो । जो पृथ्वी, जल, अग्नि से उत्पन्न न हो । अपार्थव । २. अगोचर ।

अभौम
वि० [सं०] १. जो भूमि से उत्पन्न न हो । अभूमिज । २. जो खराब या गलत जगह में पैदा हो [को०] ।

अम्भि पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अभ्र' । उ०—उड़ै सार सारं असी बक झारं । मनों अभ्मि सम बाल बज्जयो सवार । पृ० रा०, ६१ । २०२० ।

अभ्यंग
संज्ञा पुं० [संज्ञा अभ्यड़ग] [वि० अभ्यंक्तस, अभ्यजनीय] १. लेपन । चारों ओर पोतना । मल मलकरं लगाना । २. नवनीत । नैनु (को०) । ३. तैलमर्दन । स्नेहन । यौ०—तैलाभ्यंग ।

अभ्यंजन
संज्ञा पुं० [सं० अभ्यञ्जन] १. तैल आदि की मालिश । २. आँखों में सुरभा या अंजन लगाना । ३.अंगराग । तैल आदि । ४. मक्खन । नवनीत [को०] ।

अभ्यंजनीय
वि० [सं० अभ्यञ्जनीय] १. पोतने योग्य । लगाने योग्य । २. तेल या उबटन लगाने योग्य ।

अभ्यंत पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अभ्यंतर' । उ०—अगम अगोचर रहया अभ्यंत । कबीर ग्रं० पृ० २६९ ।

अभ्यंतज
वि० [सं० अभ्यन्तज] भीतरी । अंत तक । अभ्यंतर । उ०— रहै कौन अभ्यंतजं बल प्रकार । —पृ० रा० ४४ । ९९ ।

अभ्यंतर (१)
संज्ञा पुं० [सं० अभ्यन्तर] १. मध्य । बीच । उ०—निसि लौ रमत कोष अभ्यंतर, जो हित कहौ सो थीरी ।—सूर०, १० । ३८४८ । २. हृदय । अंत?करण ।

अभ्यंतर (२)
क्रि० वि० भीतर । अंदर ।

अभ्यंतर (३)
वि० १. सुपरिचित । अंतरंग । निकटतम । २. घनिष्ठता के साथ संबद्ध । ३. कुशल । ४. भीतर का । अंदर का । भीतरी । उ०—बाहिर कोटि उपाय करिय, अभ्यंतर ग्रंथि न छूटै ।— तुलसी ग्रं० पृ० ५१५ ।

अभ्यंतरक
संज्ञा पुं० [सं० अभ्यन्तरक] अंतरंग मित्र । घनिष्ठ मित्र [को०] ।

अभ्यक्त
वि० [सं०] १. पोते हुए । लगाए हुए । । २. तेल या उबटन लगाए हुए । ३. सुसज्य । सजा हुआ (को०) ।

अभ्यग्र
वि० [सं०] १. नजदीक । समीप । नवीन । ताजा [को०] ।

अभ्यघ्यीन
वि० [सं०] १. अधीन । जो किसी के अधिकार या नियंत्रण में हो । २. जो किसी नियम से बँधा हुआ हो [को०] ।

अभ्यनुज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्वीकृति । अनुमति । संमति । २. आदेश । ३. पदच्युति या अनुपस्थिति की माफी [को०] ।

अभ्यनुज्ञात
वि० १. स्वीकृत । २. समर्थित [को०] ।

अभ्यमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आक्रमण । धावा । २. आधात । ३. रोग [को०] ।

अभ्यमित
वि० [सं०] १. रोगी । २. आहत । चोट खाए हुए [को०] ।

अभ्यर्चन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभ्यर्चना' ।

अभ्यर्चना
संज्ञा स्त्री० [सं०] संमान । पूजा । आराधना [को०] ।

अभ्यर्ण (१)
वि० १. समीप । नजदीक । पास । २. समीप पहुँचा हुआ या आनेवाला [को०] ।

अभ्यर्ण (२)
संज्ञा पुं० सामीप्य । निकटना [को०] ।

अभ्यर्थन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अभ्यर्थना' ।

अभ्यर्थना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. संमुख प्रार्थना । विनय़ । दरख्वास्त । २. समान के लिये आगे बड़कर लेना । अगवानी । उ०—लोग स्टेशन पर उनकी अभ्यर्थना के लिये खड़े थे (शब्द०) ।

अभ्यर्थनीय
वि० [सं०] १. प्रार्थना करने योग्य । विनय करने योग्य । २. आगे बढ़कर लेने योग्य ।

अभ्यर्थित
वि [सं०] १. जिससे प्रार्थना की गई हो । जिससे विनय की गई हो । २. जो आगे बड़कर लिया गया हो [को०] ।

अभ्यर्थी
वि० [सं० अभ्यर्थिन्] [वि० स्त्री अभ्यर्थिनी] अभ्यर्थना करने वाला । निवेदन करनेवाला [को०] ।

अभ्यर्थ्य
वि० [सं०] दे० 'अभ्यर्थनीय' ।

अभ्यर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] कष्ट पहुँचाना भाव । उत्पीड़ना । [को०] ।

अभ्यर्दित
वि० [सं०] जिसे पीड़ा पहुँ चाई गई हो । पीड़ित [को०] ।

अभ्यलंकार
संज्ञा पुं० [सं० अभ्यलङ्गार] आभुषण । मंड़न [को०] ।

अभ्यलंकृत
वि० [सं० अभ्यलड़कृत] आभुषित । मंड़ित ।सज्जित [को०] ।

अभ्यर्हण
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पुजा । २. आदर । संमान । श्रद्बा [को०] ।

अभ्यवकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] वहि?निष्कासन । बाहर निकासना या खीचना [को०] ।

अभ्यवस्कंद
संज्ञा पुं० [सं० अभ्यवस्कन्द] १. ड़टकर शत्रु का प्रतिरोध करना । शत्रु के खिलांफ बलपुर्वक आक्रमण करना । २. जा पहुँचना । पकड़ लेना । ३. शत्रु के परस्त करने के लिये तीव्रता पुर्वक आक्रमण करना । ४. आघात । ५. पतन [को०] ।

अभ्यवस्कंदन
संज्ञा पुं० [सं० अभ्यवस्कन्दन] दे० 'अभ्यवस्कंद' ।

अभ्यवहरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. नीचे फेंकना । २. भोजन करना । खाना । ३. गले के नीचे उतारना [को०] ।

अभ्यवहार (१)
वि० [सं०] भोजनोपयुक्त । खाने योग्य [को०] ।

अभ्यवहार (२)
संज्ञा पुं० १. भोजन करना । २. भोजन [को०] । यौ.—अभ्यबहार मंड़प=भोजन का स्थान । खाने का मंड़प ।

अभ्यसन
संज्ञा पुं० [सं०] अनुशीलन । अभ्यास [को०] ।

अभ्यसनीय
वि० [सं०] अभ्यास करने योग्य । जिसपर अभ्यास किया जाय [को०] ।

अभ्यसित
वि० [सं०] अभ्यास, किया हुआ । अभ्यस्त ।

अभ्यसुय
वि० [सं०] १. क्रोधी । गुस्सैल । २. जाही । ईर्ष्यालु । द्बेषी [को०] ।

अभ्यसुया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रोध । गुस्सा । २. ड़ाह । जलन । ईर्षा [को०] ।

अभ्यस्त
वि० [सं०] १. जिसका अभ्यास कीया गया हो । बार बार कीया हुआ । मश्क किया हुआ । जैसे—यह तो मेरा अभ्यस्त विषय है । (शब्द०) ।२. जिसने अभ्यास कीया हो । जिसने अनुशीलन कीया हो । दक्ष । निपुण । जैसे—वह इस कार्य में अभ्यस्त है (श्बद०) ३. पठित । अधीत [को०] । ४. आदत । स्वभाव [को०] ५. पक्का । आदी [को०] ।

अभ्यस्त
वि [सं०] दे० 'अभ्यसनीय' [को०] ।

अभ्यांत
वि० [सं० अभ्यान्त] १. रोगी । आतुर । २. घायल । आहत [को०] ।

अभ्याकर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पहलवानों का एक दुसरे को लककारने के यि सोना ठोंकना [को०] ।

अभ्याकांक्षित (१)
वि० [सं० अभ्याकाङ्क्षीत] चाहा हुआ । अभि- लषित [को०] ।

अभ्याकांक्षित (२)
संज्ञा पुं० १. मिथ्या अभियोग । झुठी नालिश । झुठा दावा । २. इच्छा । अमिलाषा [को०] ।

अभ्याखान
संज्ञा पुं० [सं०] मिथ्या अभियोग । झुठा दावा । झुठी नालिश ।

अभ्यादत (१)
वि [सं०] १. सामने य़ा समीप आया हुआ । २. अतिथि रुप में घर आया हुआ ।

अभ्यागत (२)
संज्ञा पुं० अतिथि । मेहमान । पहुना, जैसे—अथ्यागत की सेवा गृहस्थों का धर्म है (शब्द०) ।

अभ्यागम
संज्ञा पुं० [सं०] १. सामने आना । उपस्थिति । २. सभी- पता । पड़ोस । ३. सामना । ४. मुकाबिला । मुठभेड़ । युद्ब । ५. विरोध । ६. अभ्युत्थान । अगवानी । ७. किसी निर्णय पर पहुँचना । ८. आघात । ९. वध (को०) ।१०—शत्रुता (को०) ।

अभ्यागरिक
वि० [सं०] १. कुटुंब के पालने में तत्पर । लड़के बालों में फँसा । घरबारी । २. कुटुंब पालने में व्याग्र । गृसस्थी की झंझट से हैरान ।

अभ्याघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. आधात । आक्रमण । २. बाधा । रुका- वट । (को०) ।

अभ्यात्त
वि० [सं०] १, प्राप्त । मिला हुआ । २. ब्रह्मा का विशेषण परिव्याप्त [को०] ।

अभ्याधन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रारंभ । स्थापन [को०] ।

अभ्यापात
संज्ञा पुं० [सं०] विपत्ति । दुर्भाग्य [को०] ।

अभ्यामर्द
संज्ञा पुं० [सं०] युद्ध । संघर्ष [को०] ।

अभ्याश (१)
वि० [सं०] समीपवर्ती । निकट [को०] ।

अभ्याश (२)
संज्ञा पुं० १. सामीप्य । निकटता । पड़ोस २. परिणाम । नतिजा । ३. प्रप्ताशा । अभ्युदय [को०] ।

अभ्यास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बार बार किसी काम को करना । पुर्णाता प्राप्त करने के लिये फिर फिर एक ही क्रिया का अवलंबन । अनुशीलन । साधन । आवृत्ति । मश्क । उ०— (क) करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान । रसरी आवत जात ते सिल पर परत निसान । सभा वि० (शब्द०) । क्रि० प्र०—करना । होना । २. आदत । रब्त । बान । टेव । जैसे—उन्हें तो गाली देने का अभ्यास पड़ गया है (शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना । ३. प्राचीनों के अनुसार एक काव्यालंकार जिसमें किसी दुष्कर बात को सिद्ध करनेवाले का कथन हो । उ०—हरि सुमिरन प्रहबाद किय, जरयो, न अगिन मँझार । गयो गिरायो गिरिहु ते, भयो न बाँको बार (शब्द०) । कुछ लोग ऐसं कथन में चमत्कार न मान उसे अलंकार नहीं मानते । ४. अनुशासन (को०) । ५. पडोस (को०) । ६. गुरान (को०) । ७. संगीत में एक ही पद की बार बार आवृत्ति । टेक [को०] ।

अभ्यास (२)— पु
वि० [सं० अभ्याश] समीप । निकट । —अनेकार्थ० ।

अभ्यासकला
संज्ञा पुं० [सं०] योग की उन चार कलाओ में से एक जो विविध योगंगों के मेल से बनती है । आसन ओर प्राण- याम का मेल ।

अभ्यासयोग
संज्ञा पुं० [सं०] १. बार बार अनुशीलन करने की क्रिया । २. लगातार एक ही बिषय का बार बार चितन करने से मन या मस्तिष्क की एकाग्रता ।

अभ्यासादन
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रु पर आक्रमण या सामना करना [को०] ।

अभ्यासित पु
वि० [सं० अभ्यास] दे० 'अभ्यसित' । उ०—रात दिना के सुनै किए जे आति अभ्यासित भाव, तिन सों कैसे बचौं कहो मन कोटिक करौ उपाव । —भारतेंदु ग्रं० भा० २. पृ० ५३९ ।

अभ्यासी
वि० [सं० अभ्यासीन्] [स्त्री० अभ्यासिनी] अभ्यास करनेवाला । साधक ।

अभ्याहत
वि० [सं०] १. पीड़ित । ताड़ित । २. बधित । ३. दोषय़ुक्त [को०] ।

अभ्याहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. निकट लाना । २. अपहरण चौर्य [को०] ।

अभ्युक्त
वि० [सं०] किसी संगर्म में कहा हुआ [को०] ।

अभ्युक्षणा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेचन । छिड़काव । सिंचन । २. मार्जन [को०] ।

अभ्युक्षित
वि० [सं०] १. छिड़का हुआ । सिंचित । २. जिसपर छिड़का गया हो । जिसका सिंचन हुआ हो ।

अभ्युक्ष्य
वि० [सं०] छिड़कने योग्य ।

अभ्युचित
वि० [सं०] परंपारित । प्रचलित । नियमित [को०] ।

अभ्युच्चय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृद्धि । उत्थान । संपन्नता । उत्कर्ष । २. एकत्रीकरण [को०] ।

अभ्युच्छाय
संज्ञा पुं० [सं०] १ चढ़ाव । उठान । २. सगित में स्वर- साधन की एक प्रणाली जो इस प्रकार है ।—सा, ग, रे, म, ग, प, म, ध, प नि, ध सा । अवरोही —सा ध, नि प, ध सा, प ग, म रे ग स ।

अभ्युच्छित
वि० [सं०] उन्नत । उठा हुआ । उच्च [को०] ।

अभ्युत्थान
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभ्युत्थायी, अभ्युत्यित, अभ्युत्थेय] १. उठाना । २. किसी बड़े के आने पर उसके आदर के लिये उठाकर खड़ा हो जाना । प्रत्युदगमन । ३. बढ़ती । समृद्धि । उन्नाति । गौरव । ४. उठान । आरंभ । उदय । उत्पात्ति ।

अभ्युत्थायी
वि० [सं० अभ्युत्थायिन्] [स्त्री० अभ्युत्थआयिनी] १. उठकर खड़ा होनेवाला । २. आदर के लिये उठकर खड़ा होने वाला । ३. उन्नति करनेवाला । ४. बढ़नेवाला ।

अभ्युत्थित
वि० [सं०] १. उठा हुआ । २. आदर के लिये उठकर खड़ा हुआ । ३. उन्नत । वढ़ा हुआ ।

अभ्युत्थेय
वि० [सं०] १. उठने, योग्य । २. अभ्युत्यान के योग्य हो । जिसे उठकर आदर देना उचित हो । ३. उन्नति के योग्य ।

अभ्युदय
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभ्युदित, आन्युदयिक] १. सुर्य आदि ग्रहों का उदय । २. प्रादुर्माव । उत्पत्ति । ३. इष्टलाम । मनो- रथ की सिद्धि । ४. विवाह आदि शुभ अवसर । ५. वृद्धि । बढ़ती । उन्नति । तरक्की । ६. अस्तित्व में आना आविर्भूत होना [को०] ।७. घर में संतान के जन्म लेने पर किय़ा जानेवाला नांदिमुख श्राद्ध ।[को०] ।

अभ्युदाहरण
संज्ञा पुं० [सं०] कौटिल्य के अनुसार किसी तथ्य को प्रमाणित करने के लिये विपरीत तथ्त द्बारा दिया गया उदाहरण ।

अभ्युदित
वि० [सं०] १. उगा हुआ । निकला हुआ । उत्पन्न । प्रादुर्भूत । २. दिन चढ़े तक सोनेवाला । ३. सूर्योदय के समय उठकर नित्यकर्म न करनेवाला । ४. समृद्दु । उन्नत । ५. उत्सव रुप मनाया हुआ [को०] ।

अभ्युपगत
वि० [सं०] १. पास गया हुआ । सामने आया हुआ । प्राप्त । २. स्वीकृत । अंगीकृत । मंजुर किया हुआ । ३. समान । तुल्य़ [को०] ।

अभ्युपगम
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अभ्युपगत] १. पास जाना । सामने आना या जाना । प्राप्ति । २. स्वीकार । अंगीकार । मंजुरी । ३. वादा करना (को०) । ४. न्याय के अनुसार सिद्बांत के चार भेदों में से एक । विशेष—बिना परीक्षा किए किसी ऐसी बात को मानकर जिसका खंड़न करना है, फिर उसकी विशेष परीक्षा करने को अभ्युपगम सिद्धात कहते है । जैसे, एक पक्ष का आदमी कहे कि शब्द द्रव्य है । इसपर उसका विपक्षी कहे कि अच्छा हम थोड़ी देर के लिये मान भी लेते है कि शब्द द्रव्य है पर यह तो बतलाओ कि बह नित्य है या आनित्य । इस प्रकार मानना अभ्युपगम सिद्बांत हुआ ।

अभ्युपपत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सहायता के लिये पहुँचना । २. दया । अनुग्रह । ३. अनुमोदन । स्वीकृति । मंजुरी । ४. खीखना । ढ़ाढ़स । ५. रक्षा । बचाव । ६. वादा [को०] ।

अभ्युपाय
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वादा । २. स्वीकृत । ३. उपाय साधन [को०] ।

अभ्युपायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भेट । उपहार । २. रिस्वत [को०] ।

अभ्युपेत
वि० [सं०] १. पहुँचा हुआ । आया हुआ । २. वादा किया हुआ । स्वीकृत [को०] ।

अभ्युषित (१)
वि० [सं०] साथ या निकट रहनेवाला ।

अभ्युषित (२)
संज्ञा पुं० साथ रहनेवाला [को०] ।

अभ्यूढ़
वि० [सं०] समीप लाया हुआ [को०] ।

अभ्यूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार की रोटी । २. आधा पका हुआ भोजन [को०] ।

अभ्यूह
संज्ञा पुं० [सं०] १. तर्क । बहस । २. निष्कर्ष । ३. अनुमान । ४. विचार [को०] ।

अभ्रंकष (१)
वि० [सं० अभ्रङकष] गगनचुबी । बहुत ऊँचा [को०] ।

अभ्रंकष (२)
संज्ञा पुं० १. वायु । हवा । २. पर्वत [को०] ।

अभ्रंलिह (१)
वि० [सं०] गगचुंबी [को०] ।

अभ्रंलिह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] हवा [को०] ।

अभ्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ । बादल । २. आकाश । ३. अभ्रक धातु । ४.स्वर्ण । सोना । ५. नागरमोया । ६. गणित में शून्य । ७. कपूर (को०) । ८. बेत वेत्र (को०) ।

अभ्रक
संज्ञा पुं० [सं०] अबरक । भोड़र । दे० 'अबरक' ।

अभ्रकसत्व
संज्ञा पुं० [सं०] इस्पात [को०] ।

अभ्रकूट
संज्ञा पुं० [सं०] पर्वताकार बादल की चोटी [को०] ।

अभ्रगंगा
संज्ञा स्त्री० [सं० अभ्रगङ्गा] आकाशगंगा । [को०] ।

अभ्रनाग
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत [को०] ।

अभ्रपथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायुमंडल । २. गुब्बारा [को०] ।

अभ्रपिशाच
संज्ञा पुं० [सं०] राहु [को०] ।

अभ्रपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेंत । २. आकाशकुसुम । असंभव बात । पानी [को०] ।

अभ्रभेदी
वि० [सं० अभ्रभेदिन्] आकाश को भेदनेवाला । गगन- चुंबी [को०] ।

अभ्रम (१)
वि० [सं०] जिसे भ्रम न हो । भ्रमरहित [को०] ।

अभ्रम (२)
संज्ञा पुं० भ्रम का अभाव । स्थिरता । दृढ़ता [को०] ।

अभ्रमांसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी [को०] ।

अभ्रमातंग
संज्ञा पुं० [सं० अभ्रमातङ्ग] ऐरावत [को०] ।

अभ्रमु
संज्ञा स्त्री० [सं०] पूर्व के दिग्गज की पत्नी । ऐरावत की पत्नी [को०] ।

अभ्रमुप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत [को०] ।

अभ्ररोह
संज्ञा पुं० [सं०] वैदूर्य मणि । लाजवर्त [को०] ।

अभ्रमुवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] ऐरावत [को०] ।

अभ्रवाटिक
संज्ञा पुं० [सं०] आम्रातक वृक्ष (को०) ।

अभ्रवाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] आमडे का वृक्ष [को०] ।

अभ्रांत
वि० [सं० अभ्रान्त] १. भ्रांतिशून्य । भ्रमरगित । २. भ्रम- शून्य । स्थिर । व्यवस्थित । यौ०—अभ्रांतबुद्धि = जिसकी बुद्धि थिर हो ।

अभ्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० अभ्रान्ति] १. भांति का न होना । स्थिरता । अचंचलता । २. भ्रम का अभाव । भूल चूक का न होना ।

अभ्रित (१) पु
वि० [सं० अ + भृत] जो भरा न जा सके । अपूरणीय उ०—दुज बर बज्र पैठ जेहा धर । बिल अभ्रित तिह थांन पंडि थिर ।—पृ० रा०, १ ।१४७ ।

अभ्रित (२)
वि० [सं०] बादलों से ढँका हुआ [को०] ।

अभ्रिय (१)
वि० [सं०] १. बादलों से संबधित या बादलों से उत्पन्न [को०] ।

अभ्रिय
संज्ञा पुं० बिजली [को०] ।

अभ्रो
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. फावड़ा । कुदाल । २. नाव साफ करने के लिये लकड़ी का एक नुकीला औजार [को०] ।

अभ्रेष
संज्ञा पुं० [सं०] उपयुक्ताता । औचित्य [को०] ।

अभ्रोत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वज्र [को०] ।

अभ्य
संज्ञा पुं० [सं०] नंगा रहनेवाला साधु । दिगंबर साधु [को०] ।

अभ्व (१)
वि० [सं०] १. महत् । विशाल । २. शक्तिशाली । ३. भसंकर [को०] ।

अभ्व (२)
संज्ञा पुं० १. विशालता । २. भयंकरता । ३. अत्यधिक शक्ति [को०] ।

अमंख पु
संज्ञा पुं० [सं आमिष] दे० 'आमिष' । उ०—बहरी अमंख हित पंखबल, गहै कुलंक असंक गत । रा० रू०, १५३ ।

अमंग
वि० [हिं० मंगन] १. न मांगनेवाला । अयाचक ।

अमंगल (१)
वि० [हिं० अमंङ्गल] १. मंगलशून्य । अशुभ । २. भाग्यहीन । अभागा [को०] ।

अमंगल (२)
संज्ञा पुं० १. अकल्याण । अहित । अशुभ । दुःख । २. दुर्भाग्य (को०) । ३. रेंड़का पेड़ । रेंड़ । एरंड ।

अमंगलचार †पु
संज्ञा पुं० [सं० अ + हिं० मंगलचार] रुदन । विलाप । उ०—करहिं अमंगलचार, कहाँ गए राजा हो—पलटू०, भा० ३, पृ० ७४ ।

अमंगल्य
वि० संज्ञा पुं० [सं० अमङ्गल्य] दे० 'अमंगल' [को०] ।

अमंड (१)
वि० [सं० अमण्ड] १. मंडनरदित । सज्जाविहीन । अनलंकृत । २. माँड़ रहित (चावल) ।

अमंड (२)
स्त्री० पुं० रेंड का वृक्ष । एरंड द्रुम [को०] ।

अमंडित
वि० [सं० अमण्डित] अनलंकृत । दे० 'अमंड' [को०] ।

अमंत पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० अमंत्र प्रा० अमंत] अमान्य मत । कुमत । अनुचित विचार । उ०—इन आकर्षै कज्ज बिन, किंनौ अप्प अमंत—पृ० रा०, ६ ।१४३ ।

अमंत (२)
वि० [सं० अमित] अत्यधिक । उ०—राजन रक्खिय सब्ब इह, बाढ़िय प्रीत अमंत ।—पृ० रा० (उ०), पृ० २५० ।

अमंत्र
वि० [सं० अमन्त्र] १. जो वेदमंत्रों का अधिकारी न हो । जैसे, स्त्री, शूद्र आदि । २. जिसमें वैदिक मंत्रों की आवश्यकता न हो (कर्म) । ३. वेदमंत्रों को न जाननेवाला । अवेदज्ञ । ४. मंत्रविहीन [को०] ।

अमंत्रक
वि० [सं० अमन्त्रक] पुं० 'अमंत्र' [को०] ।

अमंत्रज्ञ
वि० [सं० अमन्त्रज्ञ] वैदिक मंत्रों को न जाननेवाला [को०] ।

अमंद (१)
वि० [सं० अमन्द] १. जो धीमा न हो । तेज । २. उत्तम । श्रेष्ठ । स्वच्छ । सुंदर । भला । उ०—सूर० १० । २०३ । ३. उद्योगी । कार्यकुशल । चलता पुरजा । चतुर । ४. कम नहीं । बहुत । अधिक [को०] ।

अमंद (२)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का वृक्ष [को०] ।

अम (१)
वि० [सं०] अपक्व । कच्चा [को०] ।

अम (२)
संज्ञा पुं० १. बीमारी का कारण । २. बीमारी । रोग । ३. दाब । भार (को०) । ४. शक्ति । बल (को०) । ५. भय । डर (को०) । ६. सेवक । नौकर । ७. प्राणवायु (को०) । ८. वह स्थिति या अवस्था जो अमित हो (को०) ।

अम (३) पु †
सर्व [सं० अस्मत्<, प्रा० अन्ह] दे० 'हम' । उ०—महाराणी जसराज री यां बोली तिणवार । प्रथम अमां पखाहिए खग धाराजल धार । रा० रू०, पृ० ३३ ।

अम पु
संज्ञा पुं० [सं० आम्र, प्रा० अब, अंव, पु अंभ] आम । विशेष—समस्त पदों में यह प्रायः पहले आता है; जैसे, अमचूर, अमरस, अमरसी ।

अमका †
सर्व [सं० अमुक] ऐसा ऐसा । अमुक । फलाना ।

अमग्ग पु
संज्ञा पुं० [सं० अमार्ग प्रा० अमग्ग] कुपंथ । कुराह । कुमार्ग ।

अमचुर
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमचूर' ।

अमचूर
संज्ञा पुं० [हिं० अम='आम' + चूर] सुखाए हुए कच्चे आम का चूर्ण । पिसी हुई अमहर । मुहा०—सूखकर अमचूर होना=बहुत दुबला होना । शरीर में हाड़ चाम भर रह जाना ।

अमज्जक
वि० [सं०] जिसमें मज्जा न हो । मज्जाविहीन [को०] ।

अमड़ा
संज्ञा पुं० [सं० आम्रातक, प्रा० अंबाडय] एक पेड़ जिसकी पत्तियाँ शरीफे की पत्तियों से छोटी और सीकों मे लगती हैं । इसमें भी आम की तरह मौर छोटे छोटे खट्टे फल लगते हैं अचार, चटनी आदि के काम में आते हैं । उक्त पेड़ का फल । अमारी ।

अमणिव
वि० [सं०] रत्नविहीन [को०] ।

अमत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मत का अभाव । असंमति । २. रोग । ३. मृत्यु । ४. काल । समय (को०) । रेणु । धूलि (को०) ।

अमत (२)
वि० १. जिसका अनुभव न हुआ हो या न हो सके । २. अज्ञात । ३. अस्वीकृत [को०] ।

अमति (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समय । २. चंद्रमा । ३. आकार । ढाँचा । ४. अभाव । ५. बुरा या निकृष्ट व्यक्ति [को०] ।

अमति (२)
संज्ञा स्त्री० १. अज्ञान । अचेतना । २. ज्ञान, लक्ष्य या दूर- दर्शिता का अभाव [को०] ।

अमति (३)
वि० १. गरीब । दरिद्र । २. दुष्ट । बदमाश [को०] ।

अमतपदार्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] साहित्य में एक प्रकार का शब्ददोष जहाँ दूसरा अर्थ प्रकृत के विरुद्ध हो ।

अमत्त
वि० [सं०] १. मदरहीत । २. बिना घमंड का । ३. शांत । जिसका मस्तिष्क ठीक हो ।

अमत्ति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अ + मति] अमति । दुर्मति । कुमति । हीनमति । उ०—अंत मत्ति सो गत्ति । अंतजा मत्ति अमत्तिय ।— पृ० रा०, ३१ ।१०१ ।

अमत्सर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] मत्सर का न होना । मात्सर्य का अभाव [को०] ।

अमत्सर
वि० शत्रुता न रखनेवाला । मात्सर्यहीन [को०] ।

अमद (१)
वि० [सं०] १. जिसे मद न हो । मदरहित । अभिमान रहित । २. दुःखी । ३. गंभीर [को०] ।

अमद (२)
संज्ञा पुं० [अ०] विचार । संकल्प [को०] ।

अमदन्
क्रि० वि० [अ०] जानबूझकर । इच्छापूर्वक ।

अमदान
संज्ञा पुं० [सं०]

अमधुर (१)
वि० [सं०] १. जो मधुर न हो कटु । अरुचिकर ।

अमधुर (२)
संज्ञा पुं० संगीतशास्त्र के अनुसार बाँसुरी के सुर के छहः दोषों में से एक ।

अमन (१)
संज्ञा पुं० [अ० अम्न] १. शांति । चैन । आराम । इतमीनान । २. रक्षा । बचाव । यौ०—अमनअमान = शांति । सुरक्षा । सुव्यवस्था । अमन चैन= सुख । आराम । शांति । अमनपसंद=आरामपसंद । शांतिप्रिया

अमन (२)
संज्ञा पुं० [सं० अमनस्] १. अनुभूति का न होना । अनुभूति का अभाव । २. ज्ञानाभाव [को०] ।

अमनस्क
वि० [सं०] १. मन या इच्छा से रहित । उदासीन । २. उदास । अनमना । अन्यमनस्क । दे० 'अमना' ।

अमना
वि० [सं० अमनस्] १. मन या इच्छारहित । उदासीन । अन्यमनस्क । २. उदास । ३. स्नेहरहित । ४. बेफिक्र । ५. अनमना । ६. मन पर नियंत्रण न रखनेवाला । ७. नासमझ मूर्ख । (को०) ।

अमना (२)
संज्ञा पुं० परब्रह्म [को०] ।

अमनाक्
अव्य० थोड़ा नहीं । बहुत । अधिक [को०] ।

अमनिया (१)
वि० [सं अ + मल अथवा कमनीय ?] शुद्ध । पवित्र । अछूता । उ०—कबहि अमनिया हलुवां खावै ।— पलटू०, पृ० ११० ।

अमनिया (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं०] भोजन बनाने की क्रिया । रसोई पकाना । (साधु की परि०) ।

अमनुष्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो मनुष्य न हो । अमानव । २. राक्षस । दैत्य [को०] ।

अमनुष्य (२)
संज्ञा पुं० १. अमानवीय । २. जहाँ मनष्य अधिक आता जाता न हो [को०] ।

अमनेंत पु
वि० [अ० अमन + हिं० ऐंत (प्रत्य०)] अमन करनेवाला । शासन करनेवाला । उ०—अषैसिंह अमनेंत इक खल खंडन बलवंड । सुजान०, पु० ५ ।

अमने पु †
सर्व० [सं० अस्म, प्रा० हम्म, पु अम, गुज० मन्ने=मुझे] १. हमको । मुझको । २. हमने । मैंने । उ०—आप अप्रछन अमने देखे, आपणपो न दिखाड़े रे । —दादू०, पृ० ५३४ ।

अमनैक (१)
संज्ञा पुं० [सं आम्नायिक=वंस का अथवा सं० आत्मन्, प्रा० अप्पण, गुज० अमे, अमे, अमो, हिं० अपना, अपनैक] १. अवध में एक प्रकार के काश्तकार जिन्हें कुवपरंपरा के कारण लगान के संबंध में कुछ विशेष अधिकार प्राप्त रहते हैं । २. सरदार । हकदार । दावेदार । अधिकारी व्यक्ति । उ०—जेठे पुत्र सुभट छबि छाए । नाम सार वाहन जे गाए । जानि जुद्ध अमनैक अढ़ाए । खेलहार ता समय पठाए ।—लाल० (शब्द०) ।

अमनैक (२)
वि० अधिकार जतानेवाला । ढीठ । साहसी । उ०—(क) दौरि दधिदान काज ऐसो अमनैक तहाँ आली बनमाली आइ बहियाँ गहन है ।—पद्माकर, (शब्द०) । (ख) जाति हौं गोरस बेचन को ब्रज बीयित धूम मची चहुँघा तें । बाल गोपाल सबै अमनैक हैं फागुन में बचिहौं री कहाँ ते ।—बैनी (शब्द०) ।

अमनैकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अमनैक] मनमाना आचरण । ढीठ व्यवहार । अमनैकपन । उ०—चंचल चोखे चपल अति नहीं देत पल चैन । कमनैती सीखी नई अमनैकी इन नैन ।—सं० सप्तक, पृ० ३५८ ।

अमनोज्ञ
वि० [सं०] १. असुंदर । जो सुंदर न हो । २. अप्रिय । अरुचिकर [को०] ।

अमनोनिवेश
संज्ञा पुं० [सं० अ + मनस् + निवेश] मनोनिवेश का न होना । असावधानी । उ०—किंतु ऐसा उनके अमनोनिवेश ... से हुआ है । —ठेठ० (उपो) पृ० ६ ।

अमनोरथ
वि० [सं०] मनोरथशून्य । इच्छारहित । उ०—अब तक मैं उक्त कार्य की पूर्ति से अमनोरथ रहा हूँ । —ठेठ० (उपो०), पृ० १ ।

अमम (१)
वि० [सं०] १. ममतारहित । अहंकारशून्य । २. स्वार्थ- विहीन । अलिप्त । मोहरहित [को०] ।

अमम (२)
संज्ञा पुं० बारहवें भावी जैन तीर्थंकर [को०] ।

अमर (१)
वि० [सं०] १. जो मरे नहीं । चिरजीवी । २. शाश्वत । अविनाशी ।

अमर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अमरा, अमरी] १. देवता । २. पारा । ३. हडजोड़ का पेड़ । ४. अमरकोश । ५. लिंगानुशासन नामक प्रसिद्ध कोश के कर्ता अमरसिंह जो विक्रमादित्य के नवरत्नों में से एक थे । ६. मरुदगणों में से एक । उनचास पवनों में से एक । ७. विवाह के पहले वर कन्या के राशिवर्ग के मिलान के लिये नक्षत्रों का एक गण जिसमें ये नक्षत्र होते हैं—अश्विनी, रेवती, पुष्य, स्वाती, हस्त पुनर्वसु, अनुराधा, मृगशिरा और श्रवण । ८. सोन (को०) । ९. तैंतीस (३३) की संख्या (को०) । १०. एक प्रकार का देवदार वृक्ष (को०) । ११. अस्थिसमूह (को०) । १२. एक पर्वत (को०) । १३. स्नुही वृक्ष । सेंहुड़ (को०) ।

अमर (३) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अंबर' । उ०—उड्डि रेन डंबर अमर दिष्यौ सेन चहुआन । —पृ० रा० ९ ।१३१ ।

अमरकंटक
संज्ञा पुं० [सं० अमरकण्टक] विंध्याचल पर्वत पर एक ऊँचा स्थान जहाँ से सोन और नर्मदा नदियाँ निकलती हैं । यह हिंदुओं के तीर्थो में से है । यहाँ प्रतिवर्ष शिवदर्शन के निमित्त धूमधाम से मेला होता है ।

अमरकोट
संज्ञा पुं० [सं०] राजपूताने का एक प्रसिद्ध स्थान [को०] ।

अमरकोश
संज्ञा पुं० [सं०] अमरसिंह द्वारा निर्मित संस्कृत का प्रसिद्ध कोश ।

अमरख पु
संज्ञा पुं० [सं० अमर्ष] १. क्रोध । कोप । गुस्सा । रिस । उ०—बरवस खोज पिता के गयऊ । खोज न पाय अमरख तब भयऊ ।—कबीर सा०, पृ० ५९ । २. रस के अंतर्गत ३३ संचारी भावों में से एक । दूसरे का अहंकार न सहकर उसके नष्ट करने की इच्छा ।

अमरखी पु
वि० [सं० अमर्षिन्] क्रोधी । बुरा माननेवाला । दुःखी होनेवाला ।

अमरगुरु
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के गुरु । बृहस्पति [को०] ।

अमरज
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का खैर का पेड़ [को०] ।

अमरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अमरता । मृत्य का अभाव ।

अमरण (२)
वि० मरणरहित । अमर । चिरजीवी ।

अमरताटिनो
संज्ञा स्त्री० [सं०] गंगा । देवनदी [को०] ।

अमरतरु
संज्ञा पुं० [सं०] देवतरु । कल्पवृक्ष [को०] ।

अमरता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मृत्यु का अभाव । चिरजीवन । उ०— सुधा सराहिअ अमरता हरल सराहिअ मीचु ।—मानस, १ ।१५ । २. देवत्व । उ०—अरे अमरता के चमकीले पुतनो तेरे वे जयनाद । —कामायानी, पृ० ७ ।

अमरत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. अमरता । २. देवत्व ।

अमरदारु
संज्ञा पुं० [सं०] देवदारु का पेड़ ।

अमरद्विज
संज्ञा पुं० [सं०] मंदिर का प्रबंधक या पुजारी ब्राह्मण [को०] ।

अमरधाम
संज्ञा पुं० [सं० अमरधामन्] स्वर्ग । देवलोक । [को०] ।

अमरनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र । २. काश्मीर की राजधानी श्रीनगर से सात दिन के मार्ग पर हिंदुओं का एक तीर्थ । यहाँ श्रावण की पूर्णिमा को बर्फ के बने हुए शिवलिंग का दर्शन होता है । ३. जैन लोगों के १८ वें तीर्थंकर ।

अमरपख पु
संज्ञा पुं० [सं० अमरपक्ष] पितृपक्ष । उ०—समय पाइ कै लगत है, नीचु करन गुमान । पय अमरपख द्विजन लौं काग चहै सनमान । —रसनिधि (शब्द०) ।

अमरपति
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र । उ०—खेलत हरयौ अमरपति मान । — घनानंद, पृ० २४८ ।

अमरपद
संज्ञा पुं० [सं०] देवपद । मोक्ष । मुक्ति । उ०—अछै अमरपद लहिए । —कबीर श०, पृ० २६ ।

अमरपन पु
संज्ञा पुं० [सं० अमर + हिं० पन] १. अमरता । चिरजीवना । २. देवत्व ।

अमरपुर
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० अमरपुरी] अमरवती । देवताओं का नगर ।

अमरपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अमरपुष्पक' [को०] ।

अमरपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. कल्पवृक्ष । २. वृक्षविशेष । काँस । ३. तालमखाना । ४. गोखरू । ५. केतक (को०) । ६. चूत (को०) ।

अमरपुष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अधःपुषअपी का क्षुप [को०] ।

अमरबेल
संज्ञा पुं० [सं० अमबर + वेल्लि, अम्बरपल्ली] एक पीली लता या बौर जिसमें जड़ और पत्तियाँ नहीं होतीं । आकाशबेल । आकाशवल्ली । विशेष—यह लता जिस पेड़ पर चढ़ती है उसके रस से अपना परिपोषण करती है और उस वृक्ष को निर्बल कर देती है । इसमें सफेद फूल लगते हैं । वैद्य इसे मधुर, पित्तानाशक और वीर्यवर्धक मानते हैं ।

अमरबौंर
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अमरबेल' । उ०—अमरबौंर अर्थात् आकाशबौर ने तो ऐसे बहुतेरे वृक्षो को जकड़ लिया— प्रेमघन०, पृ० १९ ।

अमरभनित पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अमर + भणिति] अमरवाणी । संस्कृत । उ०—चित चकोर भाषा भती अमरभनित अवगाहि । —घनानंद० पृ० ६०७ ।

अमरमूरि
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अमियमूरि' ।

अमररत्न
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक । बिल्लौर ।

अमरराज
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र । उ०—घनन घनन घंटागन बजैं । अमरराज गज की छविं लजै । —नंद० ग्रं०, पृ० २८७ ।

अमरलोक
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्रपुरी । देवलोक । स्वर्ग ।

अमरवर
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं में श्रेष्ठ । इंद्र । उ०—खिलति मिलति तिनको नरपति सों । जिभि वर देत अमरवर रति सों । —गोपाल (शब्द०) ।

अमरवल्लरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आकाशबौर । अमरबेल [को०] ।

अमरवल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमरबेल ।

अमरस (१)
संज्ञा पुं० [हिं० अप्र = आप्र + रस] निचोड़कर और जमाकर सुखाया हुआ का रस । अनावट ।

अमरस (२) पु †
संज्ञा पुं० [सं० अप्रर्ष] दे० 'अमरख' । उ०—अमरस बे इतबार, निरदयाता मन नासतिक, नरसम सार असार, पैलाँ घर वाँछै पिसण । —बाँकीदास ग्रं०, भा० १, पृ० ६२ ।

अमरसर पु
संज्ञा पुं० [हिं०] अमृतसर । पंजाब का एक नगर जो सिक्खों का नीर्थस्थान है । ड०—जो पंजाब अमरसर गाया । सो बाबे ने नहीं बताया । —घट०, पृ० ३२८ ।

अमरसरी †
वि० [हिं० अमरसर] अमृतसर से संबद्ध । अमरसर का ।

अमरहरी †
वि० [हिं०] दे० 'अमरसरी' ।

अमरसी
वि० [हिं० आबरस + ई (प्रत्य०)] आम के रस की तरह पीला । सुतहला । यह रंग छटाँक हलदी और आठ माशे चूना मिलाकर बनता है ।

अमरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.दूब । २.गुर्च । गिलोय । ३.सेंहुड । थूहर । ४.नीली कोयल । बड़ा नील का पेड़ । ५.चमड़े की झिल्ली जिसमें गर्भ का बच्चा लिपटा है । आँवर । जटायु । ६.नाभि का नाल जो नवजात बच्चे को लगा रहता है । ७.इंद्रायण । ८.बरियारा । बरगद की एक छोटी जंगली जाति । ९.घीकुआर । १०.इंद्रपुरी ।

अमरा पु (२)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमड़ा' ।

अमराई †
संज्ञा स्त्री० [सं० आम्रराजि] १.आम का बाग । आम की बारी । २.उपवन । उद्यान । उ०—वह हरी लताओं की सुंदर अमराई ।<—कानन०, पृ० ३९ ।

अमराऊ पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमराव' । उ०—देखा सब राउन अमराऊ ।<—जायसी ग्रं०, पृ० ११ ।

अमराचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के आचार्य या गुरु । बृह- स्पति [को०] ।

अमराद्रि
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का पर्वत । सुमेरु [को०] ।

अमराधिप
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०] ।

अमरापगा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवनदी । गंगा [को०] ।

अमरापति पु
संज्ञा पुं० [सं० अमरपति] इंद्र । उ०—अमरापति चरननि तर लोटत । —सूर०, १०९५० ।

अमराय पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] अमराई । उद्यान । उ०—आस पास अमराय बरारी । जहँ लग फूल तिती फुलवारी । —नंद० ग्रं०, पृ० ११९ ।

अमरारि
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं के शत्रु । राक्षस (को०) । यौ०—अमरारिगुरु, अमरारिपूज्य = दैत्यगुरु । शुक्र ।

अमरालय
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का स्थान । स्वर्ग । इंद्रलोक ।

अमराव पु †
संज्ञा पुं० [सं० आम्रराजि] दे० 'अमराई' ।

अमरावती
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवताओं की पुरी । इंद्रपुरी । सुरपुरी ।

अमरित पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमृत' । उ० —अमरित पथ नित स्रवहि बच्छ महि थंभन जावहिं । —अकबरी०, पृ० ७२ ।

अमरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.देवता की स्त्री । देवकन्या । देवपत्नी । २.एक पेड़ जिससे एक प्रकार का चमकीला गोंद निकलता है । सज । सग । आसन । पियासाल । विशेष—इस होंद को सुगंध के लिये जलाते हैं । संथाल लोग इसे खाते भी हैं । इसकी छाल से रंग बनता है चमड़ा सिझाया जाता है । लकड़ी मकान, छकड़े और नाव बनाने तथा जलाने के काम में आती है । इसकी डालियों से लाही भी निकलती है और पत्तियों पर सिंहभूम आदि स्थानों में टसर रेशम का कीड़ा भी पाला जाता है ।

अमरी (२)
संज्ञा स्त्री० हठयोगियों की एक क्रिया । उ०—बजरी करंतां अमरी राषै अमरी करंतां बाई । भोग करंता जे व्यंद राषै ते गोरष का गुरभाई । —गोरख०, पृ० ४९ ।

अमरीकन
वि० [हिं०] दे० 'अमेरिकन' ।

अमरीका
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमेरिका' ।

अमरीकी
वि० [हिं०] दे० 'अमेरिकन' । ३७

अमरीष पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अंबरीष' । उ०—दुरवासा अमरीष सतायौ । —पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० २४० ।

अमरु
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा जिसने 'अमरुशतक' नामक शृंगार का ग्रंथ बनाया था ।

अमरू
संज्ञा पुं० [अ० अहमर = लाल ?] एक प्रकार का रेशमी कपड़ा जो काशी में बुना जाता है ।

अमरूत
संज्ञा पुं० [फा० अमरूद, तु० मुरूद] एक पेड़ जिसका धड़ और टहनियाँ पतली और पत्तियाँ पाँच या छः अंगुल लंबी होती हैं । विशेष—इसका फल कच्चा रहने पर कसैला और पकने पर मीठा होता है और उसके भईतर छोटे छोटे बीज होते हैं । यह फल रेचक होता है । पत्ती और छा्ल रँगने तथा चमड़ा सिझाने के काम आती है । मदक पीनेवाले इसकी पत्ती को अफीम में मिलाकर मदक बनाते हैं । किसी किसी का मत है कि यह पेड़ अमरीका से आया है । पर भारतवर्ष में कई स्थानों पर यह जंगली होता है । इलाहाबाद और काशी का यह फल प्रसिद्ध है । पर्या०—(मद्धभारत; मध्यप्रदेश तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश) जाम । बिही । सपड़ी । (राजस्थान) जायफल । (बंगाल) प्यारा । (दक्षिण) पेरूफल । पेरुक । (नेपाल तराई) रुन्नी । (अवध) सफरी । अमरूद । (तिरहुत) लताम ।

अमरूद
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमरूत' ।

अमरेश
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं का राजा । इंद्र ।

अमरेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] अमरेश । इंद्र ।

अमरैया †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अमराई' ।

अमरौती †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] अमरता । अमरत्व । उ०—जनम हुआ है कायर घर तो घर बैठे अमरौती खाय ।—काले०, पृ० २४ ।

अमर्त्य
वि० [सं०] जो मर्त्य न हो । अविनश्वर । अमर [को०] । यौ०—अमर्त्यभुवन = देवलोक । अमर्त्यापगा = गंगा ।

अमर्दित
वि० [सं०] १.जिसका मर्दन न हुआ हो । जो मला न गया हो । बिना मला दला । जो गिंजा मिंजा न हो । २.जो दबाया या हराया न गया हो । अपराभूत । अपराजित ।

अमर्याद
वि० [सं०] १.मर्यादाविरुद्ध । अव्यवस्थित । बेफायदा । २.बिना मर्यादा का । अप्रतिष्ठित । ३.सीमारहित । असंगत आचरण करनेवाला (को०) ।

अमर्यादा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अप्रतिष्ठा । बेइज्जती । मर्यादा या सीमा का न होना । असंगत आचरण ।

अमर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० अमर्षित, अमर्षी] १.क्रोध । रिस । २. वह द्वेष या दुःख जो ऐसे मनुष्य का कोई अपकार ना कर सकने के कारण उत्पन्न होता है जिसने अपने गुणों का तिरस्कार किया हो । ३.असहिष्णुता । अक्षमा । ४.तैतीस संचारी भावों में से एक (को०) ।

अमर्षण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] क्रोध । रिस । असहिष्णुता ।

अमर्षण (२)
वि० क्रोधी । असहिष्णु [को०] ।

अमर्षित
वि० [सं०] अमर्षी । क्रोधी [को०] ।

अमर्षी
वि० [सं० अमर्षिन्] [वि० स्त्री० अमर्षिणी] क्रोधी । असहन- शील ।जल्दी बुरा माननेवाला ।

अमल (१)
वि० [सं०] १. निर्मल । स्वच्छ । २. निर्दोष । पापशून्य । ३. उज्वल । प्रकाशित । चमकीला (को०) ।

अमल (२)
संज्ञा पुं० १. अबरक । अभ्रक । २ स्वच्छता । निर्मलता (को०) । ३. परब्रह्म (को०) ।

अमल (३)
संज्ञा पुं० [अ०] १. व्यवहार । कार्य । आचरण । साधन । क्रि० प्र० करना ।—होना । यौ०—अमलदरामद = कार्रवाई । २. अधिकार । शासन । हुकूमत । उ०—हम चौधरी डोम सरदार । अमल हमारा दोनों पार । —भारतेंदु ग्रं०, प्र० भा०, पृ० २९२ । यौ०—अमलदखल । अमलदरामद = जाब्ते की काररवाई । अमलदारी = राज्य । हुकूमत । अधिकार । अमलप =अधिकारपत्र । ३. नशा । उ०—किईं ठाकुर अलगा वहउ, आवउ अमल कराँह । —ढोला०, दू०, ६२८ । यौ०—अमलपानी =नशा वगैरह । ४. आदत । बान । टेव । व्यसन । लत । उ०—आनंद कंद चंद मुख निसि दिन अवलोकत यह अमल परयो । —सूर० (शब्द०) । क्रि० प्र०—पड़ना । उ०—हरिदरसन अमल परयो लाजन लजानी ।—सूर० (शब्द०) । ५. प्रभाव । असर । उ०—अभी दवा का अमल नहीं हुआ है (शब्द०) । ६. भोगकाल । समय । वक्त । उ०—अब चार का अमल है (शब्द०) ।

अमलकोची †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कंजे की जाति का एक प्रकार का वृक्ष जिसकी फलियों से चमड़ा सिझाया जाता है । वि० दे० 'कुंती' ।

अमलगुच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] पद्मकाष्ठ या पद्म नामक वृक्ष । वि० दे० 'पदम' ।

अमलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निर्मलता । स्वच्छता । २. निर्दोषता ।

अमलतास
संज्ञा पुं० [सं० अम्ल] एक पेड़ जिसमें डेढ़ दो फुट लंबी गोल गोल फलियाँ लगती हैं । पर्या०—आरग्वध । घनबहेड़ा । किरवरा । विशेष—इसकी पत्तियाँ सिरिस के समान और फूल सन के समान पीले रंग के होते हैं । फलियों के ऊपर का छिलका कड़ा और भीतर का गूदा अफीम की तरह चिपचिपा, खाने में कुछ मिठास लिए हुए खट्टा और कड़ुआ और बहुत दस्तावर होता है । इसके फूलों का गुलकंद बनता है जो गुलाब के गुलकंद से अधिक रेचक होता है । इसके बीजों से कै कराई जाती है ।

अमलतासिया
वि० [हिं० अमलतास+ इया (प्रत्य०.)] अमलतास के फूल के समान हल्के पाले रंग का । हल्का पीला । गंधकी ।

अमलदार
संज्ञा पुं० [ अ० अमल + फा० दार] अधिकारी । शासक । हुकूमत करनेवाला ।

अमलदारी
संज्ञा स्त्री० [ अ० अमल + फा० दारी] १. अधिकार । दखल । शासन । २. रुहेलखंड में एक प्रकार की काश्तकारी जिसमें असामी को पैदावार के अनुसार लगान देना पड़ता है । कनकूत ।

अमलपट्टा
संज्ञा पुं० [अ० अमल + हिं० पट्टा] वह दस्तावेज या अधिकारपत्र जो किसी प्रतिनिधि या कारिंदे को किसी कार्य में नियुक्त करने के लंये दिया जाय ।

अमलपतत्री
संज्ञा पुं० [सं० अमलपतत्रिन्] जंगली हंस [को०] ।

अमलबेत
संज्ञा पुं० [सं० अम्लवेतस्] १. एक प्रकार की लता जो पश्चिम के पहाड़ों में होती है और जिसकी सूखी हुई हटनियाँ बाजार में बिकती हैं और दवा में पड़ती हैं । २. एक मध्यम आकार का पेड़ जो बागों लगाया जाता है । विशेष—इसके फूल सफेद और फल गोल, खरबूजे के समान, पकने पर पीले और चिकने होते हैं । इस फल की खटाई बड़ी तीक्ष्ण होती है । इसमें सूई गल जाती है । यह अग्निसंदीपक और पाचक होता है, इस कारण चूरण में पड़ता है । यह एक प्रकार का नीबू हे ।

अमलबेद
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमलबेत' । उ०—चूरन अमलबेद का भारी । जिसको खाते कृष्णमुरारी । —भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ६६२ ।

अमलबेल
संज्ञा स्त्री० [अमल ?+ हिं० बेल] एक प्रकार की लता । विशेष—यह भारत के प्रायः समी गरम प्रदेशों में पाई जाती है । वर्षा ऋतु में इसमें नीलापन लिए हुए सफेद रंग के सुंदर फूल लगते हैं । इसकी पत्तयाँ फोड़ों पर उन्हें पकाने के लिये बाँधी जाती हैं ।

अमलमणि
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक । बिल्लौर ।

अमलरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] स्फटिक [को०] ।

अमला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १ लक्ष्मी । २. सातला वृक्ष । ३. पताल आँवला ।

अमला (२)
संज्ञा पुं० [सं० आमलक] आँवला ।

अमला (३)
संज्ञा पुं० [अ० अमलह्] कर्मचारी । कचहरी या दफ्तर में काम करनेवाला । कार्याधिकारी । उ०—फूलि न जौ तू ह्वै गयो राजा बाबू अमला जज्ज । —भारतेंदु ग्रं०, १ ।५५१ । यौ०—अमलफैला (अमला फैलह)=कचहरी का कर्मचारी । अमलासाजी =कर्मचारियों को धूप देकर वशीभूत करने की क्रिया ।

अमला (४) पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमल' । उ०—आठ पहर अमला । रा माँता हेलौ देता डोलौ ।—घनानंद, पृ० ४४५ ।

अमलातक
संज्ञा पुं० [सं०] अमलबेत [को०] ।

अमलानक
संज्ञा पुं० [सं०] अमलबेत [को०] ।

अमलिन
वि० [सं०] १. स्वच्छ । निर्मल । नर्दोष ।

अमली (१)
वि० [अ० अमल + फा० ई (प्रत्य.)] १. अमल में आनेवाला व्यावहारिक । २. अमल करनेवाला । कर्मण्य । ३. नशेबाज ।

अमली (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्लिका] १. इमली । २. एक झाड़ोदार पेड़ जो हिमालय के दक्षिण गढ़वाल से आसाम तक होता है । करमई गौरूबटी ।

अमलीसमली पु
वि० [हिं०] उलटी सीधी । उ०— अमाली समली आरती । जाई बघेरइ दिय़ो मिलांण । — ब्री० रासो०, पृ० १२ ।

आमलुनियाँ †
संज्ञा पुं० [देश०] खर पतवार । एक तरह की घास जो खेतों मे आपने आप उग जाती है ।

अमलूक
संज्ञा पु० [सं० अम्ल] एक प्रकार का मेवा और उसका पेड़ । बिशेष— यह आफगानिस्थान, बिलूचीस्तान, हजारा, काश्मीर और पांजाब का उत्तर हिमालय की पहाडीय़ों पर हौता है । इसमें से बहुत सा रस बहता है जौ जमकर गौंद की तरह हो जाता है । इसका फल ताजा और सूखा दोनों खाय़ा जाता है । सूखा फल काबुली लौग लातें हैं । इसे मलूक भी कहेतें हैं ।

आमलोनी
संज्ञा स्त्री० [सं० आम्ललोणी] नोनिय़ाँ घास । नोनी । विशेष— इसकी पतियाँ बहुत छोटी छोटी, मोटे दल की और खाने में खट्टी होती हैं । लोग इसका साग बनाकर खातें हैं जो अग्नि बर्धक होता है । कहते हैं की इसके रस से धतूरे का विष उतर जाता है । यह बड़ी पत्तियों का भी हौता है जिसे 'कुलफा' कहते हैं ।

अमल्लक †
वि० [अ० मुतलक] बिलकुल । पूरा पूरा । समूचा । ज्य़ों का त्य़ों ।

अमवा पु †
संज्ञा पु० [देश०] दें० 'आम' । उ०—चड़ि अमवा की डारि, अकेली धन का रै खड़ो ।— धरम० पृ० ४३ ।

अमस (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. काल । समय । २. रोग । ३.मुर्खता [को०] ।

अमस (२)
वि० निर्बोध । अज्ञानी ।

अमसूल
संज्ञा पुं० [देश०] एक पताला पेड़ जो नीलगिरी पर बहुताय़त से होता है । विशेष— इस वृक्ष की डालिय़ां नीचे कि ओर झुकी होती हैं । दक्षिण में कोकण, किनारा और कुर्ग के जंगलों में भी य़ह होता है । इसका फल खाय़ जाता और गौवा में ब्रिंदाव के नाम से बिकता है । पर य़ह वृक्ष उस तेल के कारण अधिक प्रसिद्ध हे जो उसके बीज से निकला जाता है और तेल कोकम का मक्खन कहलाता है । बाजारों मे य़ह तेल जमी हुई सफेद लंबी बत्तिय़ों या टिकिय़ों के रूप में मिलता है जो साधारण गर्मी से पिघल जाती हैं । यह बर्धक और संकोचक समझा जाता है तथा सूजन आदि में इसकी मालिश होती है । इससे मरहम भी बनाय़ा जाता है ।

अमसृण
वि० [सं०] जो मसृण न हो । कठोर । कड़ा [को०] ।

अमहर
संज्ञा स्त्री० [हि० आम=अम+हर(प्रत्य०)] छिले हुए कच्चे आम की सुखाई हुई फाँक । यह दाल और तराकारी मे पड़ती है । इसे कूटकर आमचूर भी बनाते है ।

अमहल पु
संज्ञा पु० [सं० अ=नहीं+अ० महल] १.बिना घर का । अनिकेत । २.जिसके रहने का कोई एक स्थान न हो । व्य़ापक । उ०—अंबरीख और याग जनक जड़ शेष सहस मुख पाना । कहँ लौं गनौं अनंत कोटि लै अमहल महन दिवान ।— कबीर (शब्द०) ।

अमांश (१)
वि० [सं०] १. मांसहीन ।२.दुर्बल । निर्बल ।

अमांस (२)
संज्ञा पुं० वह जो मांस न हो । मांस से इतर पदार्थ [को०] ।

अमांसक
वि० [सं०] अमांश [को०] ।

अमाँ
अव्य० [हिं० ए+फा० मियाँ] मुसलमानों में बातचीत में प्रचलित एक संबोधन । ऐ मियाँ । अरे यार ।

अमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अमावस्या ।२. अमावस्या की कला । स्कंदपुराण के अनुसार चंद्रमा की सोलहवीं कला जिसका क्षय और उदय नहीं हौता ।३.घर । ४.मर्त्यलोक । इहलोक । ५. चौपयौं की आँख पर की बतौरी जो अशुम समझी जाती है ।

अमा (२)
वि० मापरहित । अमाप [को०] ।

अमधौत †
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है ।

अमाजुर
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपने पिता के घर पर ही बड़ी और बूढ़ी हो जानेवाली अविवाहिता स्त्री [को०] ।

अमातना पु
क्रि० स०[सं० आमन्त्रण, प्रा० आमत्रण] आमंत्रित करना । निमंत्रण देना । न्योता देना । आह्वान करना । बुलाना । उ—कह्यो महरि सों करौ चँड़ाई हम अपने घर जात । तुमहूँ करौं भोग सामग्री कुलदेवता अमाति ।—सूर० (शब्द०) ।

अमातृ
वि० [सं०] माताविहीन । बीना माँ का [को०] ।

अमात्य़
संज्ञा पुं० [सं०] मंत्री । वजीर ।

अमात्र (१)
वि० [सं०] १.मात्रारहित । बेहद । अपरिमित । २.अपूर्ण । असमग्र [को०] । ३.आरंभिक [को०] ।

अमात्र (२)
संज्ञा पुं० १.माप या इयत्ता का अभाव । वह जो माप नहीं हैं । २. परब्रह्म [को०] ।

अमान (१)
वि० [सं०] १.जिसका माल या अंदाज न हो । अपरीमित । परीमाणरहित । इयत्ताशून्य । उ०—मायागुन ज्ञानातीत अमाना बेद पुरान भनंता ।— मानस,१ ।१६२ । २. बेहद । बहुत । उ०—आकाश विमान अमान छये । हा हा सब ही यह शब्द रये । — केशव (सब्द०) । ३. गर्वरहीत । निरभिमान । सिधासादा । उ०—सदा रामप्रिय होब तुम्ह सुभ गुन भवन अमान— । कामरूप इच्छामरन ज्ञान बिराग निधान । — मानस, ७ ।११३ । ४. मानशून्य । अप्रतिष्ठित । अनादत । आत्मा- भिमानरहित । उ०—(क) अनुन अमान जानि तेहि दिन्ह पिता बनबास ।— मानस, ६ ।३० (क) । (ख) अनुन अमान मातु पितु होना । उदासीन सब संसय छीना ।— मानस, १ ।६७ ।

अमान (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. रक्षा । बचाब । २. शरण । पनाह । ३. शांति । उ०— मांगने से अगर मिले हमको क्यों न जी की अमान तो माँगूँ । — चुभते०, पृ० ५४ ।

अमानत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. अपनी वस्तु को किसी दूसरे के पास एक नियत काल तक के लिये रखना २. वह बस्तु जो दूसरे के पास किसी नियत या अनियत काल तक के लिये रख दी जाय । थानी । धरोहर । उपनिधि । ३. प्राचीन का काम या पद (को०) ।४. शांती । अमन । यौ०— अमानतखाता=कोठी, बैंक आदि का वह खाता जिसमें अमानत की रकम जमा की जाती है । अमानतखाना=वह स्थान जहाँ अमानत में वस्तुएँ रखी जाती हैं । अमानतनाला = अमानत रखते समय प्रमाणस्वरूप लिखा जानेवाला पत्र । अमानत में खयानत करना या होना = अमानत में रखी हुई रकम को खा जाना ।

अमानतदार
संज्ञा पुं० [ अ० अमानत +फा० दार] १. जिसके पास कोई चीज अमानत रखी जाय । धरोहर रखनेवाला । २. अमीन (को०) ।

अमानन
संज्ञा पुं० [ सं०] दे० ' अमानना' [को०] ।

अमानना
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनादर । अवज्ञा । तिरस्कार । अपमान [को०] ।

अमानव
वि० [सं०] मानवेतर [को०] ।

अमानस्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पीड़ा । दुःख [को०] ।

अमानस्य (२)
वि० पीड़ित । व्यथित । दुखित [को०] ।

अमाना (१)
क्रि० अ० [सं० आ = पूरा पूरा + मान = माप] १. पूर पूरा भरना । समाना । अँटना । जैसे— इस बरतन में इतना पानी नहीं अमा सकता (शब्द०) । उ०— सुनि सुनि मन हनु- मान के प्रेम उमँग न अमाइ ।— तुलसी ग्र०, पृ० ८६ । २. फूलना । उमड़ना । इतराना । उ०— करि कछु ज्ञान अभिमान जान दै है कैसी मति ठानी । तन, धन जानि जाम जुग छाया भूलति कहा अमानी ।— सूर (शब्द०) ।

अमाना (२) †
संज्ञा पुं० [सं० अयन] बखार का मुँह । अन्न की कोठरी का द्वार । आना ।

अमानित
वि० [सं०] १. जिसे माना न गया हो । २. जिसका मान न हुआ हो । असंमानित ।

अमानितसेना
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह सेना जिसकी वीरता के उपलक्ष्य में उचित आदर मान न किया गया हो और जो इस कारण असंतुष्ट हो । विशेष— कौटिल्य ने ऐसी सेना को विमानित (जिसकी बेइज्जती की गई हो) सेना से उपयोगी है, क्योंकि उचित मान पाकर यह जी लगाकर लड़ सकती है ।

अमानिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] नम्रता । मान का न होना [को०] ।

अमानित्व
संज्ञा पुं० [सं०] गर्वराहित्य । अमानिता । [को०] ।

अमानिया
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पटसन ।

अमानिशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमावस्या की रात्रि । अंधकारयुक्त रात [को०] ।

अमानी (१)
वि० [सं०] निरभिमान । घमंड़रहित । अहंकारशून्य । उ०— मोरे प्रौढ़ तनम सम ग्यानी । बालक सुत सम दास अमानी ।— मानस, ३ ।३७ ।

अमानी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० आत्मन्] १. वह भूमि जिसकी जमींदार सरकार हो और जिसका प्रबंध उसकी ओर से जिले का कल- क्टर करे । खास । २. जमीन या कोई कार्य जिसका प्रबंध अपने ही हाथ में हो, ठीके पर न दिया गया हो । ३. लगान की वसूली जिसमें बिगड़ी हुई फसल का विचार करके कुछ कमी की जाय ।

अमानी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० अ+ हिं० मानना] मनमानी अवस्था । अपने मन की कार्रवाई । अंधेर ।

अमानुष (१)
वि० [सं०] १. मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर । अलौकिक । उ०— सकल अमानुष करमु तुम्हारे । केवल कौसिक कृपा सुधारे ।— मानस, १ ।३५७ । २. मनुष्यस्वभाव के विरूद्ध । पाशव । पैशाचिक ।

अमानुष (२)
संज्ञा पुं० १. मनुष्य से भिन्न प्राणी । २. देव देवता । ३. राक्षस ।

अमानुषिक
वि० [सं०] १. अलौकिक । अमानुषी । पैशाचिक [को०] ।

अमानुषी
वि० [सं०] १. मनुष्य स्वभाव के विरूद्ध । पाशव । पैशा- चिक । २. मानवी शक्ति के बाहर । अलौकिक ।

अमानुषीय
वि० [सं०] दे० ' अमानुषी' ।

अमान्य
वि० [सं०] अमाननीय । अस्वीकृत [को०] ।

अमान्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] न मानना । अस्वीकृति ।

अमाप
वि० [सं०] १. जिसके परिमाण का अंदाजा न हो सके । अपरिमित । उ०— अगर धूप धूम उठता जहाँ ई तहाँ, उठत बगूरे अब अति ही अमाप हैं । —भूषण ग्रं०, पृ० २४४ । २. बेहद । बहुत । उ०— मारयौ चूहै आप दई बधाई सबनि हीं । या सूरता अमाप दृगनि देखि बाढ़ी हँसी ।— हम्मीर०, पृ० १५ ।

अमापनीय
वि० [सं०] जिसकी माप न की जा सके । अमाप [को०] ।

अमापित
वि० [सं०] जो मापा न गया हो जिसकी माप न हुई हो [को०] ।

अमाप्य
वि० [सं०] अमापनीय [को०] ।

अमाम पु †
वि० [हिं० अमाप] बहुत । उ०— पैराई करै प्रणाम उमंगे मना अमाम ।— रा० रू०,पृ० ७६ ।

अमामसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ' अमावस्या' [को०] ।

अमामा
संज्ञा पुं० [ अ० इमामत] पगड़ी । वह पगड़ी जिसके अंदर टोपी रहती है । उ०— कोई टोपी टोप बनाता है कोई बाँधे फिरै अमामा है ।— राम० धर्म०, पृ० ९२ ।

अमामसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अमावस्या' [को०] ।

अमाय (१) पु
वि० [सं०] दे० ' अमाय' । २. अपरिसीम [को०] ।

अमाय (२)
संज्ञा पुं० परब्रह्म [को०] ।

अमाया (१)
वि० [सं०] १. मायारहित । निर्लिप्त । २. निःस्वार्थ । निष्क- पट । निश्छल । उ०—जौ मोरे मन बच अरू काया । प्रीति राम पद कमल अमाया । — मानस, ६ ।५८ ।

अमाया (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] निष्कपटता । निश्छलता । ईमानदारी [को०] ।

अमायिक
वि० [सं०] १. दोषरहित । २. मायारहित । ३. निश्छल । निष्कपट । ४. सच्चा ।

अमायी
[सं० अमायिन्] दे० 'अमायिक' [को०] ।

अमार (१) †
संज्ञा पुं० [फा० अंबार] १. अन्न रखने का घेरा । अरहर के सूखे ड़ंठलों या सरकंड़ों की टट्टी गाड़कर बनाया हुआ घेरा । जिसे ऊपर से छा देते हैं, और जिसमें ऊपर नीचे भुस देकर बीच में अनाज रखते हैं । २. राशि । बहुतायत । ढेर । उ०— जर जेबर का अमार लगा रहता होगा उसके यहाँ ।— नई०, पृ० ३६ ।

अमार (२)
संज्ञा पुं० [अ०] अमरण [को०] ।

अमार पु (३)
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमरी' ।

अमार (४) पु †
सर्व० [हि०; तुल० बे० अमार, ने०, हाम्रा; हाम्रो, ] हमारा । मेरे । उ०— कइबा देवल पुतली । ईसीय छइ प्रभु जी अमारड़ी नार ।— बी० रासो, पृ० ९० ।

अमारग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमार्ग' ।

अमारी (१)
संज्ञा स्त्री०[अ०] हाथी का छायादार या मंड़पयुक्त हौदा ।

अमारी (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० आमड़ा या अनड़ा] अमड़ा नामक वृक्ष या उसका फल ।

अमार्ग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १कुमार्ग । कुराह । २. बदवलनी । बुरी चाल । दुराचरण ।

अमार्ग (२)
मार्गहित । मार्गविहीन । [को०] ।

अमार्जित
वि० [सं०] १. जो धोकर शुद्ध न किया गया हो । अस्वच्छ । २. जिसका संस्कार न हुआ हो । बिना शोधा हुआ ।

आमार्ज्य
वि० [सं०] १. जिसको स्वच्छ न किया जा सके ।२. जिसका संस्कार या शोधन करना संभव न हो ।

अमाल पु
संज्ञा पुं० [अ० अमल] अमल रखनेवाला । हाकिम । शासक । उ०— पैज प्रतिपाल, भूमिभार को हमाल को हमाल, चहुँ चक्क को अमाल, भयो दंडक जहान को ।— भूषण (शब्द०) ।

अमालनाम
संज्ञा पुं० [अ० अमाल+ फा० नामह] १. वह पुस्तक या रजिस्टर जिसमें कर्मचारियों की भली या बुरी कार्रवाइयाँ दर्ज की जाती हैं । २. कर्मपुस्तक । कर्मपत्र । मुसलमानी मत के अनुसार वह पुस्तक जिसमें प्रणियों के शुभ और अशुभ कर्म कयामत में पेश करने के लिये नित्य दर्ज किए जाते हैं ।

अमाली पु
संज्ञा स्त्री० [अ० अमल] १. जाँच । २. लेखाजोखा । उ०— धरनी साल ब साल अमाली, जमा खरच यहि पाई ।— धरनी०, पृ० ३ ।

अमावट (१)
संज्ञा पुं० [ सं० आम्र, हिं० आन + सं० आवर्त; प्रा० आवट्ट] आम के सुखाए हुए रस के पर्त या तह । विशेष— इसे बनाने के लिये पके आम को निचोड़कर उसका रस कपड़े या किसी और चीज पर फैलाकर सुखाते हैं । जब रस की तब सूख जाती है तब उसे लपेटकर सरख लेते हैं ।

अमावट (२)
संज्ञा स्त्री० [देश०] पहिना जाति की एक मछली ।

अमावड़ †
वि० [सं० अ+ प्रा० माव (माप्)+ डिं० ड़ (पत्य०)] शक्तिशाली । जोरावर ।

अमावना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० ' अमाना' ।

अमावस
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० ' अमावस्या' । उ०— मौन अमावस मूल बिन रोहिनि बिन अखतीज ।— वाघ०१८१ ।

अमावसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमावस्या [को०] ।

अमावस्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कृष्णपक्ष की अंतिम तिथि । वह तिथी जिसमें सूर्य और चंद्रमा एक ही शशि के हों । २. हठयोग की एक क्रिया ।

अमावास्य
वि० [सं०] १. जो अमावस्या के दिन हुआ हो ।

अमावास्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० ' अमावस्या' ।

अमाह
संज्ञा पुं० [सं० अमांस] [वि० अमाही] नेत्ररोग विशेष । आँख के डेले से निकला हुआ लाल मांस । नाखूना ।

अमाही
वि० [हि० अमाह] अमाह रोग संबंधी । अमाह रोगवाला ।

अमिअ पु
संज्ञा पुं० [सं० अमृत, प्रा० अमिअ, अप० अमिअँ, मै०, पु अमित्र] दे० ' अमिय' उ०— अमिअ मूरि मय चूरन चारू । समन सकल भव रुज परिवारू ।— मानस १ ।१ ।

अमिञ पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दें० ' अमृत' । उ०— कणण समाइअ अमिञ रस बुज्झ कहंते कते ।— कीर्ति०, पृ० ५६ ।

अमिख पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० ' आमिष' ।

अमिट
वि० [सं० अ +हिं० मिटना; अथवा अ=नहीं+मर्त्य=मरने— वाला] १. जो न मिटे । जो नष्ट न हो । नाशहीन । स्थायी । २. जो न टले । अटल । जो निश्चय हो । अवश्वंभावी ।

अमित
वि० [सं०] जिसका परिमाण न हो । अपरिमित । बेहद । असीम । २. बहुत । अधिक । ३. तिरस्कृत । उपेक्षित (को०) । ४. अज्ञात । अनजाना (को०) । ५. असंस्कृत । संस्कारहीन (को०) । ६. केशव के अनुसार वह अर्थालंकर जिसमें साधन ही साधक की सिद्धि का फल भोगे । जैसे— 'दूती नायक के पास नायिका का सँदेसा लेकर जाय, परंतु स्वयं उससे प्रीति कर ले ।' उ०— आनन सीकर सीक कहा ? हिय तौ हित ते अति आतुर आई । फीको भयो मुख ही मुख राग क्यों ? तेरे पिया बहु बार बकाई । प्रीतम को पट क्यों पलटयो? अलि केवल तेरी प्रतीति को ल्याई । केशव नीके ही नायक सों रमि नायिका बातन ही बहराई ।—केशव (शब्द०) । यौ०— अमितक्रतु । अमिताशन । अमिततेजा । अमितौजा । अमितद्युति । अमितविक्रम ।

अमितक्रतु
वि० [सं०] असीम बुद्धि या साहसवाला [को०] ।

अमितता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमित होना । आधिक्य ।

अमिततेजा
वि० [सं० अमिततेजस्] असीम कांतिमान् [को०] ।

अमितद्युति
वि० [सं०] अंत्यधिक प्रकाशवाला [को०] ।

अमितविक्रम
वि० [सं०] १. अत्यंत बलवान् । २. विष्णु का विशेषण [को०] ।

अमितवीर्य
वि० [सं०] अत्यंत शक्तिशाली [को०] ।

अमिताई पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] अधिकता । असीमता [को०] ।

अमिताभ (१)
वि० [सं०] अत्यंत तेजस्वी [को०] ।

अमिताभ (२)
संज्ञा पुं० महात्मा बुद्ध का एक नाम ।

अमिताशन (१)
वि० [सं०] १. जो सब कुछ खाय । सर्वभक्षी । २. जिसके खाने का ठिकाना न हो ।

अमिताशन (२)
संज्ञा पुं० १. अग्नि । आग । २. परमेश्वर विष्णु (को०) ।

अमिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अनंतता । असीमता [को०] ।

अमितौजा
वि० [सं० अमितौजस्] अत्यधिक । शक्तिशाली । सर्व- शक्तिमान [को०] ।

अमित्र
वि० [सं०] १ जो मित्र न हो । शत्रु । बैरी । २. बिना मित्र का जिसका कोई दोस्त न हो । अमित्रक । ३. अतुकांत [बंग०] । उ०— अपनी अमित्र कविता की तरह अपने गीतों के लिये भी मैं इधर उधर सुन चुका था ।— गीतिका (भू०) पृ० १२ ।

अमित्रक
वि० [सं०] दे० 'अमित्र' ।

अमित्रखाद
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र [को०] ।

अमित्रघात
संज्ञा पुं० [सं०] शत्रुऔं का नाश करना । शत्रुऔं का हनन ।

अमित्रघाती
वि० [सं० अनित्रघातिन्] शत्रुऔं का नाश करनेवाला ।

अमित्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] शत्रुता । विरोध ।

अमित्रविषयातिगनानौका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जहाज जो शत्रु के राष्ट्र में जानेवाला हो ।

अमित्रसह
वि० [सं०] शत्रुऔं को वशीभूत करनेवाला इंद्र ।

अमित्राक्षर
वि० [सं० अमिताक्षर] जिसमें अक्षरें की कोई निश्चित संख्या न हो । जिसमे तुक न हो । गद्यमय । उ०— वहुत पहले भी अमिनाक्षर कविता लिखी गई है । करुणा, (प्र०) ।

अमित्री
वि० [सं० अमित्रिन्] बैरी । शत्रु [को०] ।

अमिथ्या पु †
वि० [अ=उच्चा०+ मिथ्या ] व्यर्थ । बेकार उ०— सतगुरु भक्तिभेद नहिं पाए, जीव अमिथ्या दीन्हा ।— घट०, पु० २६४ ।

अमिय़ पु
संज्ञा पुं० [सं० अमृत; प्रा० अमिअ, अमिय] अमृत । उ० — देखि अमिय़ रस अन्हधरह भएउ नासिका कीर । पौन बास पहुँचावै अस रम छाँड़ न तीर ।— जाय़सी ग्रं०, पृ० ४३ ।

अमियमूरि
संज्ञा स्त्री० [अमृत + मूरि] अमरमूर । अमृतबूटी । संजीवनी ज़ड़ी । जिलानेवाली बूटी । उ०—प्रमिय मूरि मय चूरन चारू । शमन सकल भवरुज परिवारू ।—तुलसी (शब्द०) ।

अमिया
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्रिका, प्रा० अम्मिआ] कच्चे आम । उ०—बैठी होगी; जामुन अमिया लदी रौस के पेड़ों पर ।— मिट्टी०, पृ० ६५ ।

अमिरती †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दें० 'इमरती' ।

अमिरथा पु †
संज्ञा वि० [हिं०] दे० 'अबिरथा' । उ०—गया सब जनम अमिरथा मोरा ।—चित्ता०, पृ० १३० ।

अमिरस पु
संज्ञा पु्० [हिं०] १. अमृतरस । २. हठपोग के अनुसार चंद्रमा से द्रेवित होनेवाला रस । उ०— पछिम दिसा धुन अंन- हद गरज अमिरम करै उपजे ब्रह्मग्यांन ।— रामानंद०, पृ०१२ ।

अमिरित पु †
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अमृत' । उ०—औ जो यह अमिरित सों पागे । सोऊअ मर जग भए सभागे ।—चित्रा०, पृ० १२ ।

अमिल पु
वि० [सं० अ+हिं० मिलना] १. न मिलने योग्य । अप्राय । उ०— नीपट अमिल वह, तुम्हैं मिलिबे की जक, कैसे कै मिलाउँ गती मो पै न विहंग की ।— केशव (शब्द०) ।२. बेमेल । बेजोड़ । अनमिल । असंबद्ध । ३. भिन्नवर्गीय । जो हिला मिला न हो । जो हिले मिले नहीं । जिसमें मिल जोल न हो । उ०—हरषि न बोली लखि ललन । निरषि अमीन सँग साथ । आँखिन ही में हँसि धरयों, सीस हिए पर हाथ ।— बिहारी (शब्द) । ४. ऊबड़ खबड़ । ऊँचा नीत्ती । उ०— अमिल सुमिल सीड़ी मदन सदन की कि जगमगै पग जुग जेहरि जराय की ।— केशव (शब्द०) ।

अमिलताई पु
संज्ञा स्त्री० [हि० अमिल+ताई(प्रत्य०) न मिलने का भाव । कपट । दूर दूर रहना । उ०— मिलता न कहुँ भरे रावरे अमिलताई हीए मै किए बिमाल जे बिलोह छन हैं ।— रसखान०, पृ० ६३ ।

अनिलतास †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमलतास' ।

अमिलपट्टी
संज्ञा स्त्री० [हि० अ अमिल +पट्टी=जोड़] सिलाई या तुर- पन का एक भेद । चौड़ी तुरान ।

अमिलातक
संज्ञा पुं० [सं०] अमलातक । अमलबेत [को०] ।

अमिलित
वि० [सं०] न मिला हुया । पृथक् । जुदा ।

अमिलियापाट
संज्ञा पुं० [हिं० अमिली =इमली + पाट=रेशन] एक प्रकार का सन या पटसन ।

अमीली (१) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्लिका] दे० 'इमली' । उ०—अलूचा अमीली अँवबलदी । आल आँवला साल अफलदी । — सुजान०, पृ० १६१ ।

अमीली (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अ =नहीं +मिलना] मेला या अनुकूलता का अभाब । खटाई । कपट । विरोध । मनमुटाव । उ०—जहाँ अमीली पाकै हिय माँहाँ । तहँ न भाव नौरँग कै छाहाँ ।— जायसी (शब्द०) ।

अमिश्र
वि० [सं०] जो मिश्रित न हो । मिलावटारहित । शुद्ध । खालिस [को०] ।

अमिश्रण
संज्ञा पुं० [सं०] मिलावट का अभाव ।

अमिश्रराशि
संज्ञा स्त्री० [सं०] गाणित में वह राशि जो एक ही इकाई द्वारा प्रकार की जाती है । इकाई १ से ९तक की संख्या ।

अमिश्रित
वि० [सं०] १. न मिला हुआ । जो मीलाया न गया हो । २. जिसमें कोई वस्तु मिलाई न गई हो । वे मिलावट । खलिस । शुद्ध । पृथग्भूत ।

अमिष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १ छल का अभाव । बहाने के न होने का भाव या स्थिति । २. दे० 'अमिष' । ३. सांसारिक सुख । ऐश आराम (को०) ।

अमिष (२)
वि० निश्छल । जो हिलेबाज न हो ।

अमी (१)पु
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'अमिय' । उ०— 'दास' मनभावती न भावती चलन तेरी अधर अमी के अवलोके मोहि रहिए ।— निखारी ग्रं०, भा० १, पृ० १३८ । यौ०—अमीकर । अमीरस ।

अमो (२)
वि० [सं० अमिन्] रोगी [को०] ।

अमीक
वि० अ० गहरा । उ०—या पानी का बाँ इक चश्मा अमीक । — दक्खिनी० पृ० ३४५ ।

अमिकर पु
संज्ञा पुं० [सं० अमृतकार; अमिय + कर] — अमृतांशु चंद्रमा ।

अमीकला
संज्ञा पुं० [प्रा० अमी+कला] चंद्रमा । उ०— अद् मत अमीकला आनँदघन सुजस — जोन्ह रसवृष्टि सुहाई ।— घनानंद, प्र० ५५८ ।

अमोच पु
क्रि० वि० [सं० अ +मृत्यु, प्रा० भिच्चु] मृत्युबिहिन । बिना मृत्य के ।

अमिढ़
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'अधौरी' ।

अमीत (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० अमित्र, प्रा० अमित ] १. जो मित्र न हो । शत्रु । बैरी । उ०— पावक तुल्य अमीत न को भयो, मीतन को भयो धाम सुधा को ।— भूषण (शब्द०) । २. अलग । विच्छिन्न । उ०— आन देव की पुजा कीन्हीं, गुरु से रहा । अमीता रे ।—कबीर श०, पृ० ८

अमीत (२)
वि० [सं०] जिसे क्षति न पहुँची हो । अक्षत [को०] ।

अमीन (१)
संज्ञा पुं० [ अ०] १. वह व्यक्ति जो अमानत रखता हैं । २. विश्वसनीय । ३. वह अदालती कर्मचारी जिसके सुपुर्द बाहर का काम हो, जैसे मौके की तहकीकात करना, जमीन नापना, बँट- वारा करना, ड़िगरी का अमलदरामद करना इत्यादि ।

अमीन (२) पु
संज्ञा पुं० [ पं०] दे० ' अमी' । उ०— आनँदघन हित पोखि कै पाले प्रान अमीन ।— घनानंद. पृ० १८० ।

अमीपत्र पु
संज्ञा पुं० [हिं० अमी+ पत्र= पात्र] अमृतपात्र । अमृतघट

अमीबा
संज्ञा पुं० [अं०] एक अति सूक्ष्म जीव जिसे सूक्ष्मनिरीक्षक यंत्र से देखा जा सकता है ।

अमीमांसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीमांसा या विवेचना काअभाव [को०] ।

अमीर
संज्ञा पुं० [अ०] १. कार्याधिकार रखनेवाला । सरदार । २. धनाढय । संपन्न । दौलतमंद । ३. उदार । ४. अफगानिस्तान के राजा की उपाधि ।

अमीरजादा
संज्ञा पुं० [अ० अमीर+फा० जादह] [संज्ञा स्त्री० अमीर- जादी ] अमीर या धनवान का पुत्र । शाहजादा । राजकुमार ।

अमीरस पु
संज्ञा पुं० [हिं०] अमृत । उ०— आदि नाम जो अमीरस चाखे ।— कबीर सा०, पृ० ८७० ।

अमीराना
वि० [अ० अमीर + फा० आनह (प्रत्य०)] अमीरों के ढंग का । जिससे अमीरी प्रकट हो । धनिकोचित ।

अमीरी (१)
संज्ञा स्त्री० [अ० अमीर + ई (प्रत्य०)] १. धनाढयता । दौलतमंदी । उ०— जो सुख पावा नाम भजन में सो सुख नाहिं अमीरी में ।— कबीर० श०, पृ० ७० । २. उदारता ।

अमीरी (२)
वि० अमीर का सा । अमीरों के योग्य । जैसे, अमीरी ठाठा

अमीरुलबहर
वि० [अ०] नौबलाध्यक्ष । नौसेनापति [को०] ।

अमीव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाप । २. दुःख । ३. रोग । ४. दुश्मन (को०) । ५. हानि । क्षति (को०) ।

अमुंद्ध पु
वि० [सं० अ + मुग्ध] मुग्ध । मूर्ख । मूढ़ । उ०— कोन भुजाबल जुध करै । सुनि कमधज्ज अमुंद्ध ।—पृ० रा० २५ ।७७४

अमुक
वि० [सं०] फलाँ । ऐसा ऐसा । विशेष— इस शब्द का प्रयोग किसी नाम के स्थान पर करते हैं । जब किसी वर्ग के किसी एक भी व्यक्ति या वस्तु को निर्दिष्ट किए बिना काम नहीं चल सकता, तब किसी का नाम न लेकर इस शब्द को लाते हैं । जैसे, 'यह नहीं कहना चाहिए कि अमुक व्यक्ति ने ऐसा किया तो हम भी ऐसा करें' ।

अमुक्त
वि० [सं०] १. जो मुक्त या बंधनरहित न हो । बद्ध । २. जिसे छुटकारा न मिला हो । जो फँसा हो । ३. जिसकां मोक्ष न हुआ हो । ४. शस्त्र (छुरा, कटारी आदि) जो हाथी में पकड़कर चलाया जाय [को०] ।

अमुक्तहस्त
वि० [सं०] १. देने में जिसके हाथ दबे हों । कंजूस । कृपण । २. कमखर्च । अल्प व्यय करनेवाला [को०] ।

अमुख
वि० [सं०] मुखविहीन । वक्त्रहीन [को०] ।

अमुख्य
वि० [सं०] जो मुख्य न हो । अप्रधान । गौण । निम्न ।

अमुग्ध
वि० [सं०] १. जो मुग्ध या मोहित न हो । २. जितेंद्रिय । विरक्त । अनासक्त । ३. चतुर ।

अमुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह लोक । परलोक । जन्मांतर ।

यौ०— इहामुत्रलोक परलोक ।

अमुत्रत्य
वि० [सं०] भविष्य जीवन या परलोक संबंधी [को०] ।

अमुद्र
वि० [सं०] १. जिसके पास कहीं जाने का परवाना या मुहर न हो । जिसके पास मुद्रा या निशानी न हो (को०) ।

अमुना
क्रि० वि० [सं०] ऐसे । इस प्रकार । उ०— अमुना बिधि जमुनातट आवति । — नंद० ग्रं०, पृ० २९८ ।

अमुला पु
वि० [हिं०] दे० ' अमूल्य' । उ०— नाम तेरो अमुला नाम तेरो चंदन घसि जयै नाम उचारै ।— संत र०, पृ० १२९ ।

अमुष्य
वि० [सं०] प्रसिद्ध । विख्यात । मशहूर । यौ०— अमुष्यपुत्र = प्रसिद्ध वंश में उत्पन्न । कुलीन ।

अमूक पु
वि० [सं०] १. जो गूँगा न हो । २. बोलनेवाल । वक्ता । ३. चतुर । प्रवीण ।

अमकी पु † (
अमूके पु †) अमूकौ पु † वि० [सं० अमुख] दे० ' अमुक' । जैसे, अमूकी ठौर, अमूके वैष्णव; अमूकौ कुम्हार आदि ।

अमूझाना पु †
क्रि० अ० [सं० अवरुद्ध, प्रा० अबरुज्झ, * अवउज्झ, * अमउज्झ] १. उलझाना । फँसना । उ०— कठिन करम की परत भापसी मनहिं अमूझत है रे ।— सुंदर० ग्रं०, पृ० ८४२ ।

अमूझा पु †
वि० [हिं० अमूझना वा उलझाना] अस्पष्ट । जो खुलासा न हो । उ०— अपस अमूझ्यो अरथ सबदपिण विण हित साजै ।— रघु०, पृ० १४ । २. गर्मी से संतप्त होना ।

अमूढ़ (१)
वि० [सं० अमूढ़] १. जो मूर्ख न हो । चतुर । २. विद्वान् । पंड़ित ।

अमूढ़ (२)
संज्ञा पुं० पंचतन्मात्र में से एक । इनके नाम ये हैं— अविशेष, महाभूत, अशांत, अधीर और अमूढ़ ।

अमूमन्
अव्य० [सं०] अनुमानतः । सामान्यतया । प्रायः ।

अमूर
संज्ञा पुं० [अ०] बात । चर्चा । उ०— मेरे खत के दीगर अमूर का जवाब आपने कुछ न दिया । — प्रेम और गोर्की, पृ० ६१ ।

अमूरत पु
वि० [ हिं०] दें० ' अमूर्त' । उ०— अलख अमूरत सिर्जन हारा ।— इंद्रा०, पृ० १६७ ।

अमूरति पु
वि० [हिं०] दें० ' अमूर्ति' । उ०— चमकत सो निरवान अमूरति छकित भयो मन बेधि उमंग । — जग० श०, भा०२, पृ० ८१ ।

अमूर्त (१)
वि० [सं०] मूर्तिरहित । निराकर । अवयवशून्य । निरवयव । उ०— कुछ भावों के विषय तो 'अमूर्त' तक होने लगे, जैसे कीर्ति की लालासा ।— रस०, पृ० १६५ ।

अमूर्त (२)
संज्ञा पुं० १. परमेश्वर ।२. आत्मा । ३. जीव । ४. काल । ५. दिशा । ६. आकाश । ७. वायु । ८. शिव (को०) । यौ०—अमूर्तगुण— धर्म अधर्म आदि गुण जो अमूर्त माने जाते हैं ।

अमूर्ति (१)
वि० [सं०] मूर्तिरहित । निराकर ।

अमूर्ति (२)
संज्ञा पुं० विष्णू [को०] ।

अमूर्ति (३)
संज्ञा स्त्री० आकारहीनता । निराकरता [को०] ।

अमूर्तिमान् (१)
वि० [सं० अमूर्तिमत्] १. निराकरता । मुर्तिरहित । २. अप्रत्यक्ष । अगोचर ।

अमूर्तिमान (२)
संज्ञा पुं० विष्णू [को०] ।

अमूर्तीक
वि० [सं०] अमूर्त । निराकार निरवयव । उ०—दूसरा द्रव्य है धर्म जो अमूर्तिक सर्वव्यापी है ।—हिंदु० सभ्यता, पृ० २२७ ।

अमूल (१)
वि० [सं०] १. जिसका मूल न हो । बे जड़ का । २. निरा— धार । प्रमाणरहित (को०) । ३. अभौतिक (को०) । ४. चल (को०)

अमूल (२)
संज्ञा पु० सांख्य के अनुसार प्रकृति ।

अमूल (३)पु
वि० [सं० अमूल्य] अनमोल । उ०—(क) जउ भरि बूठउ भाद्रवउ मारू देस अमूल ।—ढोला० दु० २५० । (ख) दिव्य वस्त्र काहू करन, नाना बरन अमूल ।—पृ० रा० ६ ।५१ ।

अमूल (४)पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'आमूल' । उ०—नैन चोट आसी लगी गासी ज्यौं भरपूर । मचत चलत क्यौहूँ नहीं खौंचत काम अमूर ।—स० सप्तक, पृ० ३५३ ।

अमूलक
वि० [सं०] १. जिसकी कोई जड़ न हो । निर्मूल । २. असत्य । मिथ्या । दे० 'अमूले (१)' ।

अमूला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्निशिखा नाम का पौधा ।

अमूल्य
वि० [सं०] १. जिसका मूल्य निर्धारित न हो सके । अनमोल । २. बहुमूल्य । बेशकीमती । ३. जिसके लिये कोई मूल्य न दिया जाय । मुफ्त का ।

अमृत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वस्तु जिसके पीने से जीव अमर हो जाता है । पुराणनुसार समुद्रमंथन से निकले १४ रन्तों में से एक । सुधा । पीयूष । निर्जर । २. जल । ३. घी । ४. यज्ञ के पीछे की बची हुई सामग्री । ५. अन्न । ६. मुक्ति । ७. दूध । ८. औषधि । ९. विष । १०. बछनाग । ११. पारा । १२. धन । १३. सोना । १४. हृद्य पदार्थ । १५. वह वस्तु जो बिना माँगे मिले । १६. सुस्वादु द्रव्य । मीठी या मधुर वस्तु । १७. अमर । देवता (को०) । उ०—राजकुमार, ब्राह्मण.... स्वराज्य में बिचरता है और अमृत होकर जीता है ।— चंद्र० पृ० ५६ । १८. धन्वंतरी (को०) । १९. इंद्र (को०) । २०. सूर्य (को०) । २१. शिव (को०) । २२. विष्णु (को०) । २३. सोमरस (को०) । २४. पानी (को०) । २५. चार की संख्या (को०) । २६. निर्गुण मतानुसार वह रस जो तालुमूल— स्थित चन्द्रमा से स्त्रवित होता है और जिसे योगी साधना द्वारा जीभ को उलटा करके पीता है । २७. बाराही कंद (को०) । २८. परब्रह्म (को०) । २९. भात (को०) ।

अमृत (२)
वि० [सं०] १. जो मरा न हो । २. जो मरणशील न हो । ३. अमरत्व प्रदान करनेवाला । ४. अविनश्वर । शाश्वत । ५. प्रिय । अभीष्ट । सुंदर [को०] ।

अमृतकर
संज्ञा पुं० [सं०] जिसकी किरणों में अमृत रहता है । चंद्रमा ।

अमृतकुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० अमृतकुण्डली] १. एक छंद जो प्लवंगन या चांद्रायण के अंत में हरिगीतिका के दो पद मिलाने से बन जाता है । २. एक प्रकार का बाजा । उ०—बाजत बीन रबाब किन्नरी अमृतकुंडली यंत्र ।—सूर (शब्द०) ।

अमृतक्षार
संज्ञा पुं० [सं०] नौसादर [को०] ।

अमृतगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक छंद । विशेष—इसके प्रत्येक चरण में एक नगण एक जगण फिर एक नगण और में गुरु होता है । (। । । ।s । । । । s) इसकोत्वरितगति तथा अमृततिलका भी कहते है । उ०— निज नग खोजत हरजू । पय सित लक्षमि बरजू (शब्द०) ।

अमृतगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा । ईश्वर । २. जिवात्मा (को०) ।

अमृतजटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जटामासी ।

अमृततरंगिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० अमृततरङ्गिणी] चंद्रिका । चाँदनी ।

अमृतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरण का अभाव । न मरना । २. मोक्ष । मुक्ति ।

अमृतदान
संज्ञा पुं० [सं० अमृत+फा० दान; अथवा सं० मुद्धान्] भोजन की चीज रखने का ढकनेदार बर्तन । एक प्रकार का डब्बा ।

अमृतदीधिति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

अमृतद्यति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

अमृतद्रब
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा की किरण ।

अमृतधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्ति जिसकी चार चरणों में से प्रथम चरण में २०, दूसरे में १२, तीसरे में १६ और चौथे में ८ अक्षर होते हैं । उ०—सरबस तज मन भज नित प्रभु भवदुखहर्ता । साँची अहहिं प्रभु जगतभर्त्ता । दनुज—कुल—अरि जगहित धरमधर्ता । रामा असुर सुहर्ता (शब्द०) ।

अमृतधुनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अमृतध्वनि' ।

अमृतध्वनि
संज्ञा स्त्री० [सं० अमृत+ ध्वनि] २४ मात्राओं का एक यौगिक छंद । विशेष—इसके आरंभ में एक रहता है । इसमें दोहे को मिलाकर छह चरण होते और प्रत्येक चरण में भटके के साथ अर्थात् द्वित्व वर्णों से युक्त यमक रहते हैं । यह छंद प्रायः वीररस के लिये व्यवहृत होता है । उ०—प्रतिभट उद— भट विकट जहँ लरत लच्छ पर लच्छ । श्री जगदेश नरेश तहँ, अच्छच्छवि परतच्छ । अच्छच्छिबि परतच्छच्छटनि विपच्छच्छय करि । स्वच्छच्छिति अति कित्तित्थिर, सुअमित्तिभय हरि । उज्झिन्झहरि समुज्झिज्झहरि विरुज्झज्झटपट । कुष्पप्रगट सुरिप्पगनि विलुप्पप्रतिभट ।—सूदन (शब्द०) ।

अमृतप (१)
वि० [सं०] १. अमृत पान करनेवाला । २. मद्यप । शराबी (को०) ।

अमृतप (२)
संज्ञा पुं० १. देवता । २. विष्णु ।

अमृतफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाशपाती । २. परवल ।

अमृतफला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आँवला । २. अंगूर । दाख । ३. मुनक्का ।

अमृतबंधु
संज्ञा पुं० [सं० अमृतबन्धु] १. देवता । २. चंद्रमा ।

अमृतबान
संज्ञा पुं० [सं० मृदा्भण्ड वा मृद्वान] रोगनी हाँडी । मिट्टी का रोगनी पात्र । लाह का रोगन किया हुआ मिट्टी का बरतन जिसमें अचार, मुरब्बा, घी आदि रखते हैं । मर्तबान ।

अमृतबिंदु
संज्ञा पुं० [सं० अमृतबिन्दु] एक उपनिषत् जो अथर्ववेदीय माना जाता है ।

अमृतभुक्
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता । २. वह जो अमृत का पान करे [को०]

अमृतमंथन
संज्ञा पुं० [सं० अमृतमन्थन] अमृत के लिये समु्द्र का मंथन । समुद्रमंथन [को०] ।

अमृतमती
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमृतगति छंद [को०] ।

अमृतमालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा [को०] ।

अमृतमूरि
संज्ञा स्त्री० [सं० अमृत+हिं० मूरि] संजीवनी जड़ी । अमरमूर ।

अमृतमूर्ति
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०] ।

अमृतयोग
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष में एक शुभफलदायक योगा । विशेष—रविवार को हस्त, गुरुवार को पुष्य, बुंध को अनुराधा, शनि को रोहिणी, सोमवार को श्रवण, मंगल को रेवती, शुक्र को अश्विनी—ये सब नक्षत्र अमृतयोग में कहे जाते हैं । रवि और मंगलवार को नंदा तिथि अर्थात् परिवा, षष्ठ और एकादशी हो, शुक्र और सोमवार को भद्रा अर्थात् द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी हो बुधवार को ज्या अर्थात् तृतीया, अष्टमी और त्रयोदशी, गुरुवार को रिक्ता अर्थात् चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी हो, शनिबार को पूर्णा अर्थात् पंचमी, दशमी और
पूर्णिमा हो तो भी अमृतयोग होता है । इस योग के होने से भद्रा और व्यतीपात आदि का अशुभ प्रभाव मिट जाता है ।

अमृतरश्मि
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा ।

अमृतरस
संज्ञा पुं० [सं०] १. सुधा । अमृत । २. परब्रह्म [को०] ।

अमृतरसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काले रंग का अंगुर । २. एक मिठाई । अनरसा [को०] ।

अमृतलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] गुर्च । गिलोय ।

अमृतलतिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अमृतलता' ।

अमृतलोक
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग । अमरलोक ।

अमृतवपु
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंद्रमा । २. विष्णु [को०] । शिव [को०] ।

अमृतवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञशेष सामग्री का उपयोग करना । उ०—वे तपस्वी ऋत और अमृतवृत्ति से जीवननिर्वाह करते हुए... प्रार्थना करते थे ।—स्कद०, पृ० १३२ ।

अमृतसंजीवनी
वि० [सं० अमृतसञ्जीवनी] दे० 'मृतसंजीवनी' ।

अमृतसंभवा
संज्ञा स्त्री० [सं० अमृतसम्भवा] गुर्च । गिलोप ।

अमृतसहोदर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अमृतसोदर' ।

अमृतसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. नवनीत । मक्खन । २.घी ।

अमृतसारज
संज्ञा पुं० [सं०] गुड़ [को०] ।

अमृतसू
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा [को०] ।

अमृतसोदर
संज्ञा पुं० [सं०] १. उच्चैःश्रवा नाम का अश्व । २. अश्व । तुरग [को०] ।

अमृतस्रवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रुदंती या रुद्रवंती नाम का पौधा [को०] ।

अमतांधस्
संज्ञा पुं० [सं० अमृतान्धस्] देवता ।

अमृतांशु
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी किरणों में अमृत हो । चंद्रमा ।

अमृता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गुर्च । उ०—धूप बीच यह समय न जाहू । सेंधा साथ अमृता खाहू ।—इंद्रा०, पृ० १५४ । २. इंद्रायण । ३. मालकँगनी । ४. अतीस ५. हड़ । ६. लाल ३५निसोथ । ७. आँवला । ८. दूब । ९. तुलसी । १०. पीपल । पिप्पली । ११. मदिरा । १२. फिटकरी [को०] । खरबूजा [को०] । १४. शरीर की एक नाड़ी (को०) । १५. सूर्य की एक किरण का नाम [को०] ।

अमृताक्षर
वि० [सं०] १. अजर । अमर । अविनश्वर [को०] । उ०— फूटीं तर अमृताक्षर निर्भर ।—अपरा, पृ० २३० ।

अमृताफल
संज्ञा पुं० [सं०] परवर । परोरा । पटोल [को०] ।

अमृतासंग
संज्ञा पुं० [सं० अमृतासङ्ग] तूतिया [को०] ।

अमृताशी
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु । २. देवता [को०] ।

अमृताशन
संज्ञा पुं० [सं०] देवता [को०] ।

अमृताशो
संज्ञा पुं० [सं० अमृताशिन्] देवता [को०] ।

अमृताहरण
संज्ञा पुं० [सं०] गरुड़ ।

अमृताह्व
संज्ञा पुं० [सं०] एक फल । नाशपाती [को०] ।

अमृतेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. देवता २. शिव [को०] ।

अमृतेशय
संज्ञा पुं० [सं०] जलशायी विष्णु [को०] ।

अमृतेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] अमृतेश [को०] ।

अमृतेष्टका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ईट [को०] ।

अमृतोत्पन्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अमृतोद्भव' ।

अमृतोत्पन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] मक्षिका । मक्खी [को०] ।

अमृतोद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] खर्परी तुत्थ । खपरिया तूतिया [को०] ।

अमृत्यु (१)
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु का एक नाम [को०] ।

अमृत्यु (२)
संज्ञा स्त्री० मृत्यु का अभाव । अमरता [को०] ।

अमृत्यु (३)
वि० १. अमर । अमृत बनानेवाला [को०] ।

अमृष्ट
वि० [सं०] अमार्जित । जो साफ न हो । गंदा । जो शुद्ध न किया गया हो । यौ०.—अमृष्टभोजी=अपवित्र वा अशुद्ध भोजन करनेवाला । अमृष्ट— मृज= जिसकी शुद्धता अक्षुरण हो ।

अमेंट †
वि० [हिं०] दे० 'अमिट' । उ—काह कहौं मैं ओंहि कहँ जेइ दुख कीन्ह अमेंट ।—जायसी ग्रं०, पृ० २४२ ।

अमेजना पु
क्रि० अ० [फा० आमेज] मिलावट होना । मिलना । उ०—(क) कहै पदमाकर पगी यों रस रंग जामें, खुलिगे सुअंग सब रंगनि अमेजे ते ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० ४८ । (ख) मोतिन की माल मलमलवारी सारी, सजै झलमल जोति होति चाँदनी अमेजे मैं—बेनी (शब्द०) ।

अमेजना (२) पु
क्रि० स० मिलाना । मिलावट करना ।

अमेठ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० अ+ मृष्ट, प्रा० पिठ्ठ, पु पेठ पु अपेठ] पिय । निपट निलज इह जेठ, धाय धाय बधुवनि गहै ।— दे० 'ऐंठ' । उ०—रही न ननक अमेठ तुम बिन नंदकुमार नंद० ग्रं०, पृ० १६६ ।

अमेठना पु
क्रि० स० [हिं० अमेठ से नाम०] दे० 'उमेठना' । उ०— पुनि जब भौंह अमेठन लागै । तब ये ग्वाल बाल डरि भागै ।— नंद० ग्रं०, पृ० ३०१ ।

अमेठी
संज्ञा स्त्री० [हिं० अनेठ+ ई] ऐंठ । अकड़ । अभिमान । गर्व । उ०—एक आँख शिक्षा की हेठी से देखने लगी उसे अमेठी से ।—बेला, पृ० ५३ ।

अमेत पु
वि० [सं० अमित] अगणित । अनेक । अमित । उ०—सुक समीप मन कुँवरि कौ, लग्यौ वचन कै हेत । अति विचित्र पंडित सुआ, कथत जु कथा अमेत ।—पृ० रा० २० ।१३ ।

अमेदस्क
वि० [सं०] मेदा रहित । दुबला पतला [को०] ।

अमेधा
वि० [सं० अमेधस्] जिसमें मेधा न हो । मूर्ख । बुद्धिहीन [को०] ।

अमेध्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपवित्र वस्तु । विष्ठा, मूत्र आदि । विशेष—स्मृति के अनुसार ये चीजें अमेध्य हैं—मनुष्य की हड्ड़ी शव, विष्ठा मूत्र चरबी, पसीना, आँसू, पीब, कफ, मघ, वीर्य और रज । २. एक प्रकार का प्रेत । ३. अपशकुन [को०] ।

अमेध्य (२)
वि० १. जो वस्तु यज्ञ में काम न आ सके । जैसे, पशुओं में कुत्ता और अन्नों में मसूर, उर्द आदि । २. जो यज्ञ कराने योग्य न हो । ३. अपवित्र ।

अमेय
वि० [सं०] १. अपरिमाण । असीम । इयत्ताशून्य । बेहद । २. जो जाना न जा सके । अज्ञेय । उ०—कथं सुंदरं सुंदंर नामधेंयं । नमस्ते नमस्ते नमस्ते अमेयं ।—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २७९ ।

अमेयात्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० अमेयात्मन्] विष्णु [को०] ।

अमेयात्मा (२)
वि० महान् आत्मावाला । उदारमना । [को०] ।

अमेरिकन
वि० [अ०] १ अमेरिका का । २. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका का निवासी । ३. अमेरिका संबंधी ।

अमेरिका
संज्ञा पुं० [अ०] पश्चिमी गोलार्ध एक महादेश । यह दो भागों में बँटा हुआ है—उत्तरी अमेरिका और दक्षिणी अमेरिका । उ०—तुम नहीं मिले तुमसे हैं हुए नव योरप अमेरिका ।—अनामिका, पृ० २१ ।

अमेरिकी
वि० [हिं०] दे० 'अमेरिकन' ।

अमेल
वि० [सं० अ+ मेल] जिसका किसी से मेल न बैठता हो । जो किसी से मेल न खाय । अनमेल । असंबद्ध ।

अमेली पु
वि० [हिं० अमेल] अनमिल । असंबद्ध । अंड बड । उ०— खेलै फाग अनुराग सों उमंग तें, वे गावैं मन भावैं तहाँ वचन अमेली के (शब्द०) ।

अमेव पु
वि० [हिं०] दे० 'अमेय' ।

अमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का रोग जिसमें पेशाब नहीं उतरती या रुक रुककर उतरती है ।

अमैड़ पु
वि० दे० 'अमैड़े' ।

अमैड़ा पु
वि० [हिं० अ+भेड़ = सीमा] मर्यादा या सीमा न मानने— वाला । उ०—कोऊ न देखै न काहू दिखावत आपनो आनन जान अमैड़े ।—घनानंद, पृ० ४६ ।

अमैठना पु
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'अमेठना' ।

अमोक्ष (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मोक्ष न मिलना । २. बंधन [को०] ।

अमोक्ष (२)
वि० १. जिसका मोक्ष न हुआ हो । प्रमुक्त । २. जिसका मोक्ष न हो सके । ३. बँधा हुआ [को०] ।

अमोगाँ †
वि० [सं० अमोघ] अत्यधिक । बहुत (बोल०) ।

अमोघ (१)
वि० [सं०] १. निष्फल न होनेवाला । वृथा न अन्यथा न होनेवाला । अव्यर्थ । अचूक । लक्ष्य पर पहुँचनेवाला । खाली न जानेवाला । २. अनिंद्य । अद्वितीय । उ०—सब सामंत समंध चढ़ि । विच सुंदरी अमोघ ।—पृ० रा०, २५ ।७८० ।

अमोघ (२)
संज्ञा पुं० १. व्यर्थ न होने का भाव । अव्यर्थ । २. शिव । ३. विष्णु [को०] ।

अमोघकिरण
संज्ञा स्त्री० [सं०] सूर्योदय और सूर्यास्त के समय की किरण [को०] ।

अमोघदंड
संज्ञा पुं० [सं० अमोघदण्ड] वह जो दंड देने में न चूके । शिव [को०] ।

अमोदर्शी
वि० [सं० अमोघदर्शिन्] अचूक दृष्टिवाला [को०] ।

अमोघदृष्टि
वि० [सं०] दे० 'अमोघदर्शी' ।

अमोघवाक्
वि० [सं०] जिसकी वाणी कभी व्यर्थ न होती हो [को०]

अमोघविक्रम (१)
वि० [सं०] जिसका पराक्रम कभी विफल न होता हो [को०] ।

अमोघविक्रम (२)
संज्ञा पुं० शिप्र [को०] ।

अमोघा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कश्यप की एक स्त्री जिनसे पक्षी उत्पन्न हुए थे । २. हड़ं । ३. वायाबिडंग । ४. पाढ़र का पेड और फूल । ५. शिव की पत्नी [को०] । ६. एक शस्त्र । शक्ति [को०] ।

अमोचन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] छुटकारा न होना । न छूटना ।

अमोचन (२) पु
वि० न छुटनेवाला । दृढ़ । उ०—मूँदि रहे पिय प्यारी लोचन । अति हित बेनी उर परसाए वेष्टित भुजा अमोचन ।— सूर०— (शब्द०) ।

अमेचनीय
वि० [सं०] न छूटने योग्य [को०] ।

अमोद (१)
वि० [सं०] मोद रहित । आनंदशून्य [को०] ।

अमोद (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० अमोद] सुगंध । आमोद । उ०—जैसे कमल अमोदहिं पाइ । ठाँ ठाँ उठत मधुप अकुलाइ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २५९ ।

अमोनिया
संज्ञा पुं० [अं० एमोनिया] नौसादर ।

अमोर (१) पु
वि० [हिं०] न मुड़नेवाला । अडिग । स्थिर । उ०—रजं पुत्त पंचास झुपझे अमोरं । बजै जीत के नद्द नीसानं घोरं ।— पृ० रा०, २० ।६६ ।

अमोर (२)
वि० [हिं०] दे० 'अमो' । उ०—प्रत्यनीक तासों कहैं, भूषन बुद्धि अमोर ।—भूषण ग्रं०, पृ० २५८ ।

अमोरी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० अम + औरी (प्रत्य०)] १. आम का बहुत छोटा कच्चा फल । अँबिया । २ आमड़ा । अम्मारी । उ०—फल को नाम बुझाबन लागे हरि कहि दियो अमोरि ।— सूर (शब्द०) ।

अमोल पु
वि० [सं० अमूल्य] [वि० स्त्री० अमोली] १. अमूल्य । अत्यधिक मूल्य का । मूल्यवान् । उ०—रस सिंगार पार के पाओत अमोल मनोभव सिधा ।—विद्यापति, पृ० ३५ । २. जिसका मूल्य न लगाया जा सके । तुव नाम अमोल समरथ करहु दाया निर्धन ।—कबीर सा०, पृ० ५२२ ।

अमोलक पु
वि० [हिं० अमोल + क (प्रत्य०)] दे० 'अमूल्य' । उ०— छाँड़ि कनक मनि रतन अमोलक काँच की पिरव रही ।— सूर० (शब्द०) ।

अमोला
संज्ञा पुं० [सं० आम्र] आम का नया निकलता हुआ पौधा ।

अमोलिक पु
वि० [हिं०] दे० 'अमूल्य' । उ०—पाटंबर पहिराय कै अधिक अमोलिकौ । नदंराय देव फूले नंददास बोलिकैं ।— नंद० ग्रं० पृ० ३३६ ।

अमोही पु
वि० [सं० अमोह + ई (प्रत्य०)] १. विरक्त । २. निर्भोही । निष्ठुर । उ०—प्रीत सुजान आनीति करौ जिन हा हा न हूजिऐ मोहि अमोही ।—घनानंद०, पृ०

अमौआ (१)
संज्ञा पुं० [सं० आम+ औआ (प्रत्य०)] १. आम के फल का रंग । यह कई प्रकार होता है, जैसे, पीला, सुनहरा, माशी, किशनशी, मुँ निला ईत्यादि । २. अमौआ रंग का कपड़ा ।

अमौआ (२)
वि० आम के रस के रंग का ।

अमौन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मौन का अभाव । बोलना । २. आत्म— ज्ञान । ३. मुनि के कर्तव्यों का आपालन । मुनि न होना [को०] ।

अमौलिक
वि० [सं०] १. बिना जड़ का । निर्मुल । २. बे सिर पैर का । बिना आधार का । जिसका संबंध मूल से न हो । ३. अपयार्थ । मिथ्या । ४. अन्य रचना आधार पर या अनुवाद के रूप में रचित [को०] ।

अम्म
संज्ञा पुं० [अ०] चाचा । उ०—कहे ऐ अम्मे बुजुर्गवार व मेरे दुनिया होर दीन के आधार मेरे ।—दक्खिनी, पृ० २३७ ।

अम्मय
वि० [सं०] जलमय । जलयुक्त या जलनिर्मित [को०] ।

अम्मर पु
वि० [हिं०] दे० 'अमर' । उ०—भला है अस्थान अम्मर जेति है परगास ।—जग० बानी, भा० १, पृ० ४ ।

अम्मरसरा
संज्ञा पुं० [हिं० अनरसर + प्रा (प्रत्य०)] अमृतसर का कबूतर । एक कबुतर जिसका सारा शरीर सफेद और कंठ काला होता है ।

अम्मल
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'अगल' । उ०—बाजीगिरी रंग दिखावे ऐसा अम्मल मुझे नहिं भावे ।—दखिनी०, पुं० १२५ ।

अम्माँ
संज्ञा स्त्री० [सं० अम्बा] माता । माँ ।

अम्मामा
संज्ञा पुं० [अ० अन्मानह] एक प्रकार का साफा जिसे मुसल— मान बाँधते हैं । यौ०—अम्मामेबाज—(१) साफ बाँध हुए । (२) साफा बाँधनेवाला ।

अम्मारी
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अंबारी' ।

अम्याँ
अव्य० [हिं०] दे० 'अमाँ' । जैसे; अम्याँ क्या कहते हो ।

अम्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] आम्र [को०] ।

अम्र (२)
संज्ञा पुं० १. बात । विषय । कार्य । मुआमिला । उ०— अम्र खुदा का लिथा बजा तूँ नहीं मुनकिर होना ।—दक्खिनी पृ० ५५ । २. हुक्म । आदेश ।

अम्रत पु †
पुं० [हिं०] दे० 'अमृत' । उ०—चउरास्या यहु वर्णव्या । अम्रत रसायण नरतति व्यास—बी० रासो, पृ० १००

अम्रात
संज्ञा पुं० [सं०] १. अमड़ा का पेड़ । २. अमड़ा फल [को०] ।

अम्रातक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अम्रात' ।

अम्रत्या पु
संज्ञा पुं० [सं० ब० व० अमर्याः] देवता । (अनेकार्थ०) ।

अम्रित पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'अमृत' । उ०—सत्त नाम रम अम्रित पीवहु चरन तों लौ लाइ ।—जग० बानी, भा० ६, पृ० २५ ।

अम्रियमाणा
वि० [सं०] जो मरणशील न हो । अमर । उ०—मै गाता था गाने भूले अभ्रियमाण ।—अनाभिका, पृ० ४५ ।

अम्ल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जिह्वा से अनुभूत होनेवाला छः रसों में से एक । भटाई । २. तेजाब । ३. सिरका [को०] । ४. मट्ठा जिसमें एक चतुर्यांश जल हो [को०] । ४. वमन [को०] ।

अम्ल (२)
वि० खट्टा । तुर्श । यौ०—अम्लपंचक—पाँच प्रकार के प्रमुख खट्टे फल—जंबीरी नीबू, खट्टा अनार, इमली, नारंगी और अमलबेत ।

अम्लक
संज्ञा पुं० [सं०] लकुच वृक्ष । बड़हार ।

अम्लकांड़
संज्ञा पुं० [सं० अम्लकाण्ड] एक पौधा । लवणवृक्ष [को०] ।

अम्लकेशर
संज्ञा पुं० [सं०] बिजौरा नीबू [को०] ।

अम्लगोरस
संज्ञा पुं० [सं०] खट्टा दूध [को०] ।

अम्लजन
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'आक्सिजन' ।

अम्लतरु
संज्ञा पुं० [सं०] इमली का वृक्ष [को०] ।

अम्लता
संज्ञा स्त्री० [सं०] खट्टापन । खटाई ।

अम्लनिशा
संज्ञा पुं० [सं०] शठी नाम का पौधा [को०] ।

अम्लापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] अश्मंतक नाम का पौधा [को०] ।

अम्लपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पलाशी लता । २. क्षुद्राम्लिका [को०] ।

अम्लपनस
संज्ञा पुं० [सं०] बड़हार [को०] ।

अम्लपाद
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अम्लतरु' ।

अम्लपित्त
संज्ञा पुं० [सं०] रोगविशेष जिसमें जो कुछ भोजन किया जाता है सब पित्त के दोष से खट्टा हो जाता है । विशेष—यह रोग रुखी, खटी, कड़वी और गर्म वस्तुओं के खाने से उत्पन्न होता है । इसके लक्षण ये हैं—रंगबिरंग का मल उतरना, दाह, वमन, मूर्च्छा, हृदय में पीड़ा, ज्वर, भोजन में अरुचि, खट्टे डकार आना इत्यादि ।

अम्लफल
संज्ञा पुं० [सं०] इमली [को०] ।

अम्लबीजक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अम्लफल' ।

अम्लभेदन
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लवेत [को०] ।

अम्लमेह
संज्ञा पुं० [सं०] मूत्रविषयक रोग । एक प्रकार का प्रमेह [को०] ।

अम्लरुहा
संज्ञा पुं० [सं०] मालवा में पाया जानेवाला एक प्रकार का पान [को०] ।

अम्ललोणिका
संज्ञा पुं० [सं०] अमलोनी । नोनियाँ साग ।

अम्ललोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अम्लोणिका' [को०] ।

अम्ललोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'अमलोनी' [को०] ।

अम्लवर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] खट्टे फलों या पत्तो का वर्ग जिसमें नीबू नारंगी अनार, इमली आदि आते हैं [को०] ।

अम्लबल्ली
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक कद । त्रिपर्णिका [को०] ।

अम्लवाकट
संज्ञा पुं० [सं०] आमड़ा फल और वृक्ष [को०] ।

अम्लवाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का पान [को०] ।

अम्लावास्तूक
संज्ञा पुं० [सं०] चुक्रक [को०] ।

अम्लवृक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अम्लतह' [को०] ।

अम्ववेत
संज्ञा पुं० [सं० अम्लेवेतस्] दे० 'मलबेत' ।

अम्लसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. काँजी । २. चुक । ३. अम्रलबेत । ४. हिंताल । ५. अमलसार गंधक । ६. नीबू का फल और वृक्ष [को०] ।

अम्लहरिद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आँबहा आदी । कपूर कचरी ।

अम्लांकुश
संज्ञा पुं० [सं० अम्लाकुङ्श] एक खट्टा साग [को०] ।

अम्लाध्युशित (
रोग) संज्ञा पुं० [सं०] आँख का रोग जो आधिक खटाई खआने से होता है । विशेष—इस रोग में आँखे लाल हो जाती हैं कभी कभी पक भी जाती हैं, उनमें पीड़ा होती है, और पानी बहा करता है ।

अम्लान (१)
वि० [सं०] १. जो उदास न हो । मलिन न हो । बिना मुझाया हुआ । २. जो प्रफुल्लित हो । हृष्ट । प्रसन्न । २. निर्मल । स्वच्छ । साफ ।

अम्लान (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाणपुष्प नामक वृक्ष । २. दुवहरिया । कटसरैया ।

अम्लानि (१)
वि० [सं०] जो मुरझाए नहीं [को०] ।

अम्लानि (२)
संज्ञा स्त्री० १. शक्ति । २. ताजगी । नवता [को०] ।

अम्लानी
वि० [सं० अम्लानिन्] साफ । स्वच्छ [को०] ।

अम्लिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इमली । २. खट्टी उबार । ३. पलाश आदि पौधा [को०] ।

अम्लिकावटक
संज्ञा पुं० [सं०] खटाई से युक्त एक प्रकार का बड़ा [को०] ।

अम्लिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] खट्टापन [को०] ।

अम्लीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] वह क्रिया जिससे कोई वस्तु खट्टी की जाय ।

अम्लीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अम्लिका । इमली [को०] ।

अम्लीय
वि० [सं०] अम्ल विषयक । अम्ल से संबंधित [को०] ।

अम्लोटक
संज्ञा पुं० [सं०] अश्मंतक पौधा [को०] ।

अम्लोदनार
संज्ञा पुं० [सं०] खट्टी डकार ।

अम्ह पु
सर्व० [सं० अस्मद्; प्रा० अम्ह] दे० 'हम' । उ०—अम्हाँमन अचरिज भएउ, सखियाँ आखड़ एम ।—ढोला० दू०,६ ।

अम्हौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० अंभ—जल + हिं० और (प्रत्य०) अथवा सं० ऊष्मा, प्रा० उम्हा, उम्ह, प्रा० *अम्ह + औरी प्रत्य०] बहुत छोटी छोटी फुंसियाँ जो गरमी के दिनों पसीने के कारण लोगों के शरीर में निकल आती हैं । अंधौरी ।