परबंचन पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रवञ्चना] दे० 'प्रवंचना'।

परबंद
संज्ञा पुं० [सं० पस्बन्ध] नाच की एक गत जिसमें दोनों पैर इस प्रकार खड़े रखते हैं कि कमर पर दोनौं कुहनियाँ सटी रहती है।

परबंध पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रबन्ध] दे० 'प्रबंध'।

परब (१)
संज्ञा पुं० [सं० पर्वन्] दे० 'पर्व'। उ०—राम तिलक हित मंगल साजा। परब जोग जनु जुरेउ समाजा।—मानस, १।४१।

परब (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्व (= पोर, खंड)] किसी रत्न वा जवाहिर का छोटा टुकडा़।

परबत
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत] दे० 'पर्वत'। उ०—परबत में कंदरा, तहाँ किन्नर सु बिराजै।—पृ० रा०, १।३८६।

परबता पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत] दे० 'परबत्ता' पर्वती सुग्गा। उ०—राजा चला सँवारि सो लता। परबत कहँ जो चला परबता।—जायसी ग्रं०, पृ० ६९।

परबत्ता
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत] पहाड़ी तोता या सुग्गा जो देशी तोते से बड़ा होता है और जिसके दोनौं डैनों पर लाल दाग होते हैं। करमेल।

परबल पु (१)
वि० [सं० प्रबल] दे० 'प्रबल'। उ०—पाँच जने परबल परपंची उलटि परे बंदीखाने।—धरनी०, पृ० १४।

परबल †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'परवल'।

परवस पु
संज्ञा पुं०, वि० [सं० परवश] दे० 'परवश'। उ०—मन ही मन मुरझाय रहति हौं तन परबस गुरजन की घेरी।— घनानंद, पृ० ४२८।

परबसताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परवश्यता + ई (प्रत्य०)] परा- धीनता। परतंत्रता। उ०—हरि विरंचि हर हेरि राम प्रेम परबसताई। सुख समाज रघुराज के बरनत विसुद्ध मन सुरनि सुमन झरि लाई।—तुलसी (शब्द०)।

परबाल †
संज्ञा स्त्री० [फा़० परवाज] दे० 'परवाज'। उ०—देखो उस बादशाह के नयन के बाज। मोहन के रूप के तोती पर परबाज।—दक्खिनी०, पृ० ३१४।

परबाल (१)
संज्ञा पुं० [हिं० पर (= दूसरा) + बाल (= रोयाँ)] आँख की पलक पर वह फालतू निकला हुआ बाल या बिरनी जिसके कारण बहुत पीडा़ होती है।

परबाल (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाल] दे० 'प्रवाल'।

परबाल (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० परबाला] परस्त्री। परकीया नायिका। उ०—पी चूमे परबाल लखि बालहि गुरुजन साथ। कचनि परसि, बाहूँ धरे कुचनि खरे पर हाथ।—स० सप्तक, पृ० २७४।

परबास पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रवास] दे० 'प्रवास'।

परबी
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्वन्] १. पर्व का दिन। उत्सव का दिन। पुण्यकाल। उ०—ऐसी परबी पाय नहीं तुम महिमा जानी।—पलटू०, पृ० १६। ३. त्यौहारी। पर्व पर प्राप्त धन आदि।

परबीन पु
वि० [सं० प्रवीण] दे० 'प्रवीण'। उ०—सदा रूप गुन रीझि पिय जाके रहे अधीन। स्वाधीनै पर्तिका तियै बरनत कवि परबीन।—मति ग्रं०, पृ० ३०९।

परबेष पु
संज्ञा पुं० [सं० परिवेष] दे० 'परिवेष'। उ०—पूरन चंद पियूष मयूष मनो, परवेस की रेख विराजै।—मति० ग्रं०, पृ० ३४९।

परबेस पु
संज्ञा पुं० [सं प्रवेश] दे० 'प्रवेश'।

परबोध पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रवोध] दे० 'प्रबोध'।

परबोधना पु
क्रि० स० [सं० प्रबोधन] १. जगाना। २. ज्ञानो- पदेश करना। ३. प्रबोध देना। दिलासा देना। तसल्ली देना। ढाढ़स बँधाना। समझाना। उ०—पुनि यह कहा मोहि परबोधत धरनि गिरी मुरझँया।—सूर। (शब्द०)।

परब्बत पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्वत] दे० 'पर्वत'। उ०—मानो प्रतच्छ परब्बत की नभ लीक लसी कपि यों धुकि धायो।—तुलसी ग्रं०, पृ० १९६।

परब्रह्म
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्म जो जगत से परे है। निर्गुण निरुपाधि ब्रह्म।

परभंजन पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रभञ्जन] दे० 'प्रभंजन'। उ०— सहित परभंजन की गति धरे अंबर विराजै प्रगटावै तिय तन काँम।—पोद्धार अभि०, ग्रं०, पृ० ४८८।

परभव
संज्ञा पुं० [सं०] जन्मांतर। दूसरा जन्म।

परभा
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रभा] दे० 'प्रभा'।

परभाइ पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रभाव] दे० 'प्रभाव'।

परभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरी ओर का भाग। २. पश्चिम भाग। ३. शेष भाग। बचा हुआ भाग। ४. गुणोत्कर्ष उत्कृष्टता। अच्छापन। ५, सुसंपदा। ६. प्रचुरता। अधिक्य (को०)।

परभाग्योपजीवी
वि० [सं० परभाग्योपजीविन्] दूसरे की कमाई खाकर रहनेवाला।

परभात पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रभात] दे० 'प्रभात'। उ०—(क) हरष हृदय परभात पयाना।—मानस, १। (ख) कहौं सुनौ ब्रज ही के बात। ब्रज बसि लखों साँझ परभात।— घनानंद, पृ० ३२४।

परभाती
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रभाती] दे० 'प्रभाती'। उ०—इतने ही में किसी महात्मा ने ऐसी परभाती गाई कि फिर वह आकाश संपत्ति हाथ न आई।—श्यामा० पृ० ५।

परभाव
संज्ञा पुं० [सं० प्रभाव] दे० 'प्रभाव'। उ०—यह सब कलयुग को परभाव। जो नृप के मन भयो कुठाव।— सूर (शब्द०)।

परभास पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रभास] प्रभास तीर्थ। उ०—क्रोध काल प्रत्यक्ष ही कियौ सकल कौ नास। सुंदर कौरव पांड़ुवा छपन कोटि परभास।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ७०६।

परभुक्त
वि० [सं०] वि० [वि० स्त्री० परभुक्ता] अन्य द्वारा उपभुक्त [को०]।

परभुक्ता
वि० स्त्री० [सं०] दूसरे की भोगी हुई। (स्त्री) जिसके साथ पहले दूसरा समागम कर चुका हों।

परभुमि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० पर + मूमि] दे० 'परदेश' उ०—गुनी पुरिष जौ परभुमि आई। त्यों त्यों महँग मोल बिकाई।— माधवानल०, पृ० १९३।

परभूता पु
वि० [सं० प्रभूत] प्रचुर। प्रभूत। उ०—रूप सुबरन देउँ परभूता। करै धनी उपजावै दूता।—इंद्रा०, पृ० १९३।

परभृत्
संज्ञा पुं० [सं०] काक। कौआ [को०]।

परभृत (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कोयल। कोकिल (जो काँए के द्वारा पाली जाती है)।

परभृत (२)
वि० अन्य द्वारा पालित या पोषित [को०]।

परम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु। ३. ऊँकार। प्रणव (को०)। ४. वह व्यक्ति या वस्तु जो सर्वाच्च हो (को०)।

परम (२)
वि० १. सबसे बढ़ा चढा़। अत्यंत। हद से ज्यादा। २. जो बढ़ चढ़कर हो। उत्कृष्ट। ३. प्रधान। मुख्य। ४. आद्य। आदिम। ५. बहुत अधिक अत्यधिक (को०)। ६. सबसे निकृष्ट या खराब (को०)।

परमक
वि० [सं०] सर्वोच्च। सर्वोत्तम। सर्वोत्कृष्ट (को०)।

परमकांड़
संज्ञा पुं० [सं० परमकाण्ड] अत्यंत शुभ या आनंददायक समय [को०]।

परमक्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं० परमक्रान्ति] सूर्य की शेष क्रांति [को०]।

परमक्खर पु
संज्ञा पुं० [सं० परमाक्षर] ओंकार। ब्रह्म। सत्य। उ०—जंपै चंद विरद्द मोहि परमक्खर सुभझँ।— पृ० रा०।

परमगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तम गति। मोक्ष। मुक्ति।

परमगव
संज्ञा पुं० [सं०] उत्कृष्ट गाय या बैल [को०]।

परमगहन
वि० [सं०] अत्यंत गूढ़। अतीव क्लिष्ट। अति जटिल [को०]।

परमगूढ
वि० [सं०] परम गहन।

परमजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रकृति।

परमज्या
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र।

परमट (१)
संज्ञा पुं० [देश०] संगीत में एक ताल।

परमट (२)
संज्ञा पुं० [अं० परमिट] १. वह कर या महसूल जो विदेश से आने जानेवाले माल पर लगाता है। कर। महसूल। चुंगी।

परमट हाउस
संज्ञा पुं० [हिं० परमट + अं० हाउस] दे० 'कस्टम हाउस'।

परमतत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूल तत्व जिससे संपूर्ण विश्व का विकास है। मूल सत्ता। २. ब्रह्म। ईश्वर।

परमद
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत मद्य पीने से होनेवाला एक रोग, जिसमें शरीर भारी रहता है, मुँह का स्वाद बिगड़ता रहता है, प्यास अधिक लगती है, माथे और शरीर के जोड़ों में दर्द होता है। उ०—है बिस मों प्यार मन माहीं। परमद छबि मुख ऊपर नाहीं।—इंद्रा०, पृ० ३७।

परमदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] महासामंत की स्त्री की उपाधि। विशेष—सतलज नदी तटस्थ मर्मद ग्राम में महासामंत शब्द तथा महाराज समुद्रसेन के लेख में महासामंत की स्त्री के लिये परमदेवी शब्द का प्रयोग किया गया है।

परमधाम
संज्ञा पुं० [सं०] वैकुंठ।

परमनेंट
वि० [अं०] स्थायी। स्थिर। कायम। जैसे,—परमनेंट अड़ंर सेक्रेटरी।

परमन्यु
संज्ञा पुं० [सं०] यदुवंशी कक्षेयु के पुत्र का नाम।

परमपद
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबसे श्रेष्ठ पद। सर्वोच्च स्थान। २. मोक्ष। मुक्ति। उ०—लीजै साहिब का नाम, परम पद पाइए।—कबीर श०, पृ० ४१।

परमपिता
संज्ञा पुं० [सं० परमपितृ] परमेश्वर।

परमपुरुष, परमपूरुष
संज्ञा पुं० [सं०] १. परमात्मा। २. विष्णु।

परमप्रख्य
वि० [सं०] बहुत प्रसिद्ध [को०]।

परमफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबसे उत्तम फल या परिणाम। २. मोक्ष। मुक्ति।

परमब्रह्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. परब्रह्म। २. ईश्वर।

परमब्रह्मचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

परमभट्टारक
संज्ञा पुं० [सं०] एकच्छत्र राजाओं की एक प्राचीन उपाधि।

परमभट्टारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्राचीन काल में प्रयुक्त साम्राज्ञी की उपाधि। २. रानियों की एक सम्मानसूचक उपाधि।

परममहत्
वि० [सं०] सबसे बड़ा और व्यापक। विशेष—काल, आत्मा, आकाश और दिक् ये सर्वगत होने के कारण परम महत् कहलाते हैं।

परममहाभट्टारक
संज्ञा पुं० [सं०] प्रचीन काल में महाराजधिराजों की अपाधि।

परमरस
संज्ञा स्त्री० [सं०] पानी मिला हुआ मट्ठा। जलमिश्रित तक्र।

परमर्द्दिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] महोबे के एक चंदेलवंशी राजा जो आल्हा में राजा परमाल के नाम से प्रसिद्ध हैं। पृथ्वीराज ने इनपर चढा़ई करके इनको। अधीन किया था।

परमर्मज्ञ
वि० [सं०] परकीय मन का ज्ञाता। दूसरे के भेद को जाननेवाला [को०]।

परमर्षि
संज्ञा पुं० [सं०] महान ऋषि [को०]।

परमल (१)
संज्ञा पुं० [सं० परिमल (= कूटा हुआ, मला हुआ ?)] ज्वार या गेहूँ का एक प्रकार का भुना हुआ दाना या चबेना। विशेष—इसे बनाने के लिये पहले ज्वार को भिगोकर कूटते हैं। और फिर भाड़ में भून लेते हैं।

परमल (२)
संज्ञा पुं० [सं० परिमल] दे० 'परिमल'। उ०—अरँड बंस लागैं नहीं गुरु चंदन की बास। रीते रहे गठीले पोले रज्जब परमल पास।—रज्जब०, पृ० १२।

परमली, परमल
वि० [हिं० परमल + ई] १. परिमल संबंधी। पुष्षपराग का। जिसमें परिमल हो। उ०—(क) सहस गुंजार में परमली झाल है, झिलमिली उलटि के पौन भरना।— पलटू०, पृ० ३०। (ख) राधे उघटत परमलू प्रगटत अद्भुत ओप। मैन, फिरंगी की मनौ छूटन लागी तोप।—ब्रज० ग्रं०, पृ० १९।

परमहंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. संन्यासियों का एक भेद। वह संन्यासी जो ज्ञान की परमावस्था को पहुँच गया हो अर्थत् 'सच्चिदा- नंद ब्रह्म मैं ही हूँ' इसका पूर्ण रूप से अनुभव जिसे हो गया हो। उ०—संन्यासी कहावै तो तू तीन्यो लोक न्यास करि सुंदर परमहंस होइ या सिधंत है।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ६१२। विशेष—कुटीचक, बहूदक, हंस और परमहंस जो चार प्रकार के अवधूत कहे कए है उनमें परमहंस सबसे श्रेष्ठ है। जिस प्रकार संन्यासी होने पर शिखासूत्र का त्याग कर दंड ग्रहण करते हैं उसी प्रकार परमहंस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर दंड की भी आवश्यकता नहीं रह जाती। निर्णायसिंधु में लिखा है कि जो परमहंस विद्वान् न हों उन्हें एक दंड धारण करना चाहिए पर जो विद्वान् हों उन्हें दंड की कोई आवश्यकतानहीं। परमहंस आश्रम में प्रवेश करने पर मनुष्य सब प्रकार के वंधनों से मुक्त समझा जाता है। उसके लिये श्राद्ध, संध्या, तर्पण आदि आवश्यक नहीं। देवार्चन आदि भी उसके लिये नहीं हैं, किसी को नमस्कार आदि करने से उसे कोई प्रयोजन नहीं। उसे अध्यात्मनिष्ठ होकर निर्द्वद्वं और निराग्रह भाव से ब्रह्म में स्थित रहना चाहिए। पर आजकल कुछ परमहंस देवमूर्तियों का पूजन आदि करते हैं, पर नमस्कार नहीं करते। २. परमात्मा। उ०—परमहंस तुम सबके ईस। बचन तुम्हारो श्रुति जगदीस।—सूर (शब्द०)।

परमांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० परमाङ्गना] श्रेष्ठ महिला। अच्छी स्त्री [को०]।

परमा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] चव्य।

परमा पु (२)
संज्ञा स्त्री० शोभा। छवि। खूबसूरती। उ०—बानी मधुरी बास बन परमा परम बिसाल।—दीनदयाल (शब्द०)। विशेष—यह प्रयोग 'अमरकोश' के 'सुषमा परमा शोभा' में 'परमा' विशेषण को पर्याय समझने के कारण चल पड़ा है।

परमा † (३)
संज्ञा पुं० [सं० प्रमेह] प्रमेह रोग।

परमाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] ऊँकार। ब्रह्म [को०]।

परमाटा (१)
संज्ञा पुं० [देश०] संगीत में एक ताल।

परमाटा (२)
संज्ञा पुं० [अं० परमटा] एक प्रकार का चिकना, चम- कीला और दबीज कपड़ा। विशेष—परमाटा आस्ट्रोलिया में एक स्थान है। वहाँ से जो ऊन आता था उससे एक प्रकार का कपड़ा बनता था जिसका ताना सूत का और बाना ऊन का होता था। उसी को पर- माटा कहते थे। पर अब परमाटा सूत का ही बनता है।

परमाटिक
संज्ञा पुं० [सं०] यजुर्वेद की एक शाखा का नाम [को०]।

परमाण पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रमाण] दे० 'प्रमाण'। उ०—चरण देखाड़ तो परमाण। स्वामी माहरै नैणों निरखू माँगू ये ज मान।—दादू०, पृ० ५९१।

परमाणु
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत सूक्ष्म अणु। पृथ्वी, जल, तेज और वायु इस चार भूतों का वह छोटे से छोटा भाग जिसके फिर विभाग नहीं हो सकते। विशेष—वैशेषिक में चार भूतों के चार तरह के परमाणु माने हैं—पृथ्वी परमाणु, जल परमाणु, तेज परमाणु और वायु- परमाणु। पाँचवाँ भूत आकाश विभु है। इससे उसके टुकड़े नहीं हो सकते। परमाणु इसलिये मानने पड़े हैं कि जितने पदार्थ देखने में आते हैं सब छोटे छोटे टुकड़ों से बने हैं। इन टुकड़ों में से किसी एक को लेकर हम बराबर टुकड़े करते जायँ तो अंत में ऐसे टुकड़े होंगे जो हमें दिखाई न पड़ेंगे। किसी छेद से आती हुई सूर्य की किरणों में जो छोटे छोटे कण दिखाई पड़ते हैं उनके टुकड़े करने से अणु होंगे। ये अणु भी जिन सूक्ष्मतिसूक्ष्म कणों से मिलकर बने होंगे उन्हीं का नाम परमाणु रखा गया है। न्याय और वैशेषिक के मत से इन्हीं परमाणुओं के संयोग से पृथ्वी आदि द्रव्यों की उत्पत्ति हुई है जिसका क्रम प्रशस्तपाद भाष्य में इस प्रकार लिखा गाय हैं। जब जीवों के कर्मकल के भोग का समय आता है तब महेश्वर की उस भोग के अनुकूल सृष्टि करने की इच्छा होती है। इस इच्छा के अनुसार जीवों के अद्दष्ट के बल से वायु पर- माणुओं में चलन उत्पन्न होता है। इस चलन से उन पर- माणुओं में परस्पर संयोग होता है। दो दो परमाणुओं के मिलने से 'द्वयणुक' उत्पन्न होते हैं। तीन द्वयणुक मिलने से 'त्रसरेणु'। चार द्वयणुक मिलने से 'चतुरणुक' इत्यादि उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकार एक महान् वायु उत्पन्न होता है। उसी वायु में जल परमाणुओं के परस्पर संयोग से जलद्वयणुक जलत्रसेरणु आदि की योजना होते होते महान् जलनिधि उत्पन्न होता है। इस जलनिधि में पृथ्वी परमाणुओं के संयोग से द्वयणुकादी क्रम से महापृथ्वी उत्पन्न होती है। उसी जलनिधि में तेजस् परमाणुओं के परस्पर संयोग से महान् तेजोराशि की उत्पत्ति होती है। इसी क्रम से चारो महाभूत उत्पन्न होते हैं। यही संक्षेप में वैशेषिकों का परमाणुवाद है। परमाणु अत्यंत सूक्ष्म और केवल अनुमेय है। अतः 'तर्कामृत' नाम के एक नवीन ग्रंथ में जो यह लिखा गया है कि सूर्य की आती हुई किरणों की बीच जो धूल के कण दिखाई पड़ते हैं उनके छठे भाग को परमाणु कहते हैं, वह प्रामाणिक नहीं है। वैशेषिकों का सिद्धांत है कि कारण गुणपूर्वक ही कार्य के गुण होते हैं, अतः जैसे गुण परमाणु में होंगे वैसे ही गुण उनसे बनी हुई वस्तुओं में होगे। जैसे, गंध, गुरुत्व आदि जिस प्रकार पृथ्वी परमाणु में रहते हैं उसी प्रकार सब पार्थिव वस्तुओं में होते हैं। आधुनिक रसायन और भौतिक वा भूत विज्ञान द्वारा प्राचीनों की मूलभूत और परमाणुसंबंधी धारणा का बहुत कुछ निराकरण हो गया है। प्राचीन लोग पंचमहाभूत मानते थे, जिनमें से आकाश को छोड़ शेष चार भूतों के अनुसार चार प्रकार के परमाणु भी उन्हें मानने पड़े थे। पर इन चार भूतों में से अब तीन तो कई मूल भूतों के योग से बने पाए गए हैं। जैसे, जल दो गैसों (वायु से भी सूक्ष्म भूत) के योग से बना सिद्ध हुआ। इसी प्रकार वायु में भी भिन्न गैसो का संयोग विश्लेषण द्वारा पाया गया। रहा तेज, उसे विज्ञान भूत नहीं मानता केवल भूत की शक्ति (गति शक्ति) का एक रूप मानता है। ताप से परिमाण (तौल) की वृद्धि नहीं होती। ठढें लोहे का जो वजन रहेगा वही उसे तपाने पर भी रहेगा। अस्तु, आधुनिक रसायन- शास्त्र में शताधिक मूल भूत माने गए हैं, जिनमें से कुछ तो धातुएँ हैं जैसे ताँबा, सोना, लोहा, सीसा, चाँदी, राँगा, जस्ता; कुछ और खनिज हैं, जैसे, गंधक, फासफरस,पोटासियम, अंजन, पारा, हड़ताल, तथा कुछ गैस हैं, जैसे, आक्सीजन, नाइट्रोजन, गाइड्रोजन आदि। इन्हीं मूल भूतों के अनुसार परमाणु आधुनिक रसायन में माने जाते हैं। पहले समझा जाता था कि ये अविभाज्य हैं। अब इनके भी टुकड़े कर दिए गए हैं।

परमाणुबम
संज्ञा पुं० [सं० परमाणु + अं० बँम] यूरेनियम तथा और परमाणुओं को तोड़कर बनाया गया एक महाविध्वंसक बम जिसका निर्माण सबसे पहले अमेरिका ने द्वितीय महायुद्ध के समय किया जापान के हिरोशिमा और नागासाकी नगरों पर अमेरिका ने इसे छोड़ा जिससे पूरा नगर और आबादी समाप्त हो गई।

परमाणुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] न्याय और वैशेषिक का यह सिद्धांत कि परमाणुओं से जगत् सृष्टि हुई है। विशेष—वैशेषिक और न्याय दोनों पृथ्वी आदि चार महाभूतों की उत्पत्ति चार प्रकार के परमाणुओं के योग से मानते हैं (दे० परमाणु)। जिस परमाणु में जो गुण होते हैं वे उससे बने हुए पदार्थो में भी होते हैं। पृथ्वी, वायु इत्यादि के परमाणुओं के योग से बने हुए पदार्थ जो नाना रूप रंग और आकृति के होते हैं वह इस कारण कि भिन्न भिन्न भूतों द्वयणुकों या त्रसरेणुकों का सन्निवेश और संघटन तरह तरह का होता है। दूसरी बात यह है कि तेज के संबंध से वस्तुओं के गुणों में फेरफार हो जाता है। जैसे, कच्चा घड़ा पकाए जाने पर लाल हो जाता है। इसके संबंध में वैशेषिकों की यह धारणा है कि आँवें में जाकर अग्नि के प्रभाव से घड़े के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं; अर्थातू उसके परमाणु अलग अलग हो जाते हैं। अलग होने पर प्रत्येक परमाणु तेज के योग से रंग बदलकर लाल हो जाता है। फिर जब सब अणु जुड़कर फिर घड़े रूप में हो जाते हैं तब घड़े का रंग लाल निकल आता है। वैशेषिक कहते हैं कि आँवे में जाकर घड़े का एक बार नष्ट होकर फिर बन जाना इतने सूक्ष्म काल में होता है कि हम लोग देख नहीं सकते। इसी विलक्षण मत को 'पीलुपाक मत' कहते हैं। नैयायिकों का मत इस विषय में ऐसा नहीं हैं। वे कहते हैं कि इस प्रकार अदृश्य नाश और उत्पत्ति मानने की कोई आवश्यकता नहीं, केयोंकि सब वस्तुओं में परमाणुओं या द्वयणुकों का संयोग इस प्रकार का रहता है कि उनके बीच बीच में कुछ अवकाश रह जाता है। इसी अवकाश में भरकर अग्नि का तेज अणुओं का रंग बदलता है। वेदांत में नैयायिकों और वैशेषिकों के परमाणु- वाद का खंडन किया गया है।

परमाणुवादी
संज्ञा पुं० [सं० परमाणुवादिन्] परमाणओं के योग से सृष्टि की उत्पत्ति माननेवाला। सृष्टि की उत्पत्ति के संबंध में न्याय और वैशेषिक का मत माननेवाला।

परमातमा
संज्ञा पुं० [सं० परमात्मा] दे० 'परमात्मा'। उ०— (क) काटि कै ब्राह्मन मस्तक कौ, यह आपने कौ परमातमा माने।—पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ४९१। (ख) करत फिरत मन बावरे आपन ही पहचान। तो ही मैं परमातमा लेत नहीं पहिचान।—स० सप्तक, पृ० १७९।

परमात्मा
संज्ञा पुं० [पुं० परमात्मन्] ब्रह्म। परब्रह्म। ईश्वर।

परमाद्वैत
संज्ञा पुं० [पुं०] १. सर्वभेदरहित परमात्मा। २. विष्णु।

परमानंद
संज्ञा पुं० [सं० परमानन्द] १. बहुत बड़ा सुख। ब्रह्म के अनुभव का सुख। ब्रह्मानंद। ३. आनंदस्वरूप ब्रह्म।

परमान पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण। सबूत। २. यथार्थ बात। सत्य बात। ३. सीमा। मिति। अवधि। हद। उ०— तप बल तेहि करि आपु समाना। रखिहौं इहाँ बरष परमाना।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः अव्ययवत् रहता है।

परमानना पु
क्रि० स० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण मानना। ठीक समझना। २. स्वीकार करना। सकारना।

परमान्न
संज्ञा पुं० [सं०] खीर। पायस। विशेष—देवताओं को अधिक प्रिय होने के कारण यह नाम पड़ा।

परमामुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्रिपुरा देवी की पूजा के समय करणीय एक प्रकार की मुद्रा [को०]।

परमायु
संज्ञा स्त्री० [सं० परमायुस्] अधिक से आधिक आयु। जीवित काल की सीमा। विशेष—मनुष्य की परमायु १२० वर्ष की मानी जाती है। फलित ज्योतिष में मनुष्य की परमायु चार प्रकार से निकाली जाती है जिसे क्रमशः अंशायु, पिंडायु, निसर्गायु और जीवायु कहते हैं। लग्न बलवान् हो तो निसर्गायु और यदि तीनों दुर्बल हों तो जीवायु निकालनी चाहिए।

परमायुष
संज्ञा पुं० [सं०] वियजसाल का पेड़।

परमार
संज्ञा पुं० [सं० पर (= शत्रु) + हिं० मारना] राजपूतों का एक कुल जो अग्निकुल के अंतर्गत है। पँवार। विशेष—परमारों की उत्पत्ति शिलालेखों तथा पद्मगुप्तरचित 'नवसाहसांकचरित' नामक ग्रंथ में इस प्रकार मिलती है। महर्षि वशिष्ठ अर्बुदगिरि (आबू पहाड़) पर निवास करते थे। विश्वामित्र उनकी गाय वहाँ से छीन ले गए। वशिष्ठ ने यज्ञ किया और अग्निकुंड़ से एक बीर पुरुष उत्पन्न हुआ जिसने बात की बात में विश्वामित्र की सारी सेना नष्ट करके गाय लाकर वशिष्ठ के आश्रम के पर बाँध दी। वशिष्ठ ने प्रसन्न होकर कहा 'तुम परमार (शत्रुओं को मारनेवाले) हो और तु्म्हारा राज्य चलेगा'। इसी परमार के वंश के लोग परमार कहलाए। पृथ्वीराज रासो (आदि पर्व) के अनुसार उपद्रवी दानवों से आबू के ऋषियों की रक्षा करने के लिये वशिष्ठ ने अग्निकुंड़ से परमार की उत्पत्ति की। टाड साहब ने परमारों की अनेक शाखाएँ गिनाई हैं, जैसे, मोरी (जो गहलोतों के पहले चित्तौर के राजा थे), सोडा, या सोढा, संकल, खैर, उमर सुमरा (जो आजकल मुसलमान हैं), विहिल, महीपावत, बलहार, कावा, ओमता, इत्य़ादि।इनके अतिरिक्त चाँवड़, खेजर, सगरा, वरकोटा, संपाल, भीवा, कोहिला, धंद, देवा, बरहर, निकुंभ, टीका, इत्यादि और भी कुल हैं जिनमें से कुछ सिंध पार रहते हैं और पठान मुसलमान हो गए हैं। परमारों का राज्य मालवा में था। यह तो प्रसिद्ध ही है कि अनेक स्थानों पर मिले हुए शिलालेखों तथा पद्मगुप्त के नव- साहसांकचरित से मालवा के परमार राजाओं की वंशावली इस प्रकार निकलती है— परमार कृष्ण उपेंद्र वैरिसिंह(१ म) सीयक (१ म) वाक्पति (१म) वैरिसिंह वज्रट (द्वितीय) सीयक हर्ष वाक्पति (२ य)  सिंधुराज नवसाहसांक भोज उदयादित्य ईसा की आठवीं शताब्दी में कृष्ण उपेंद्र ने मालवा का राज्य प्राप्त किया। सीयक (द्वितीय) या श्रीहर्षदेव के संबंध में पद्मगुप्त ने लिखा है कि उसने एक हूण राजा को पराजित किया। उदयपुर की प्रशस्ति से यह भी जाना जाता है कि उसने राष्ट्रकूट वंशीय मान्यखेट (मानखेडा़) के राजा खेट्टिग- देव का राज्य ले लिया। 'पाइअलच्छी नाममाला' नाम का 'धनपाल' का लिखा एक प्राकृत कोश है जिसमें लिखा है कि 'विक्रम' संवत् १०२६ में मालवा के राजा ने मान्यखेट पर चढा़ई की और उसे लूटा। उसी समय में यह ग्रंथ लिखा गया। श्रीहर्षदेव या सीयक (द्वितीय) के पुत्र वाक्पतिराज (द्वितीय) का पहला ताम्रपत्र १०३१ वि० संवत् का मिलता है। ताम्रपत्रों, शिलालेखों और नवसाहसां- कचरित में वाक्पतिराज के कई नाम मिलते हैं, जैसे, मुंज, उत्पलराज, अमोधवर्ष, पृथिवीवल्लभ, श्रीवल्लभ आदि। यह बड़ा विद्वान् और कवि था। मुंज वाक्पतिराज के अनेक श्लोक प्रबंधचिंतामणि, भोजप्रबंध तथा अलंकार ग्रंथों में मिलते हैं। इसकी सभा में कवि धनंजय, पिंगल टीकाकार हलायुध, कोशकार धनपाल और पद्मगुप्त परिमल आदि अनेक पंडित थे। इसने दक्षिण के कर्णाट, लाट केरल, चोल आदि अनेक देशों को जय किया। प्रबंधचितामणि में लिखा है कि वाक्पतिराज ने चालुक्यराज द्वितीय तैलप को सोलह बार हराया, पर अंत में एक चढा़ई में एक चढाई में उसके यहाँ बंदी हो गया और वहीं उसकी मृत्यु हुई। चालुक्य राजाओं के शिलालेखों में भी इस बात का उल्लेख मिलता है। मुंज के उपरांत उसका छोटा भाई सिंधुराज या सिंधुल गद्दी पर बैठा। इसकी एक उपाधि 'नवसाहसांक' भी थी। 'नवसाहसांकचरित' में 'पद्मगुप्त' ने इसी का वृत्तांत लिखा है। सिंधुराज का पुत्र महाप्रतापी विद्वान् और दानी भोज हुआ, जिसका नाम भारत में घर घर प्रसिद्ध है। उदयपुर प्रशस्ति में लिखा है कि भोज ने गुर्जर, लाट, कर्णाट, तुरुष्क आदि अनेक देशों पर चढा़ई की। भोज ने कल्याण के चालुक्य राजा तृतीय जयसिंह पर भी चढा़ई की थी। पर जान पड़ता है कि इसमें उसे सफलता नहीं हुई। 'विल्हण' के विक्रमांकदेव- चरित' में लिखा है कि जयसिंह के उत्तराधिकारी चालुक्यराज सोमेश्वर (द्वितीय) ने भोज की राजधानी धारा नगरी पर चढा़ई की और भोज को भागना पडा़। 'प्रबंधचिंतामणि' तथा नागपुर की प्रशस्ति में भी लिखा है कि चेदिराज कर्ण और गुर्जरराज चालुक्य भीम ने मिलकर भोज पर चढा़ई की, जिससे भोज का अधःपतन हुआ। भोज की मृत्यु कब हुई, यह ठीक नहीं मालूम। पर इतना अवश्य पता चलता हैं कि ९६४ शक (सन् १०४२-४३ ई०) तक वह विद्यमान था। राजतरंगिणी में लिखा है कि काश्मीरपति 'कलस' और मालवाधिप 'भोज' दोनों कवि थे और एक ही समय में वर्तमान थे। इससे जान पड़ता है कि सन् १०६२ ई० के कुछ काल पीछे ही उसकी मृत्यु हुई होगी। भोज के पीछे उदयादित्य का नाम मिलता है, जिसने धारा नगरी को शत्रुओं के हाथ से निकाला और धरणीवराह के मंदिर की मरम्मत कराई। इससे अधिक और कुछ ज्ञात नहीं। भूपाल (भोपाल) में प्राप्त उदयवर्म के ताम्रपत्र तथा पिपलिया के ताम्रपत्र में ये नाम और मिलते हैं—भोजवंशीय भहाराज यशोवर्मदेव, उसका पुत्र जयधर्मदेव, उसके पीछे महाकुमार लक्ष्मीवर्मदेव, उसके पीछे हरिश्चंद्र का पुत्र उदयवर्मदेव पिछले दोनों कुमार भोजवंशीय थे या नहीं, यह नहीं कहा जा सकता। जान पड़ता है, ये सामंत राजा थे जो जयवर्मदेव के बहुत पीछे हुए। अवध में 'भुकसा' नाम के कुछ क्षत्रिय हैं जो अपने को भोजवंशी बतलाते हैं। उनका कहना है कि भोज के पीछे उदयादित्य निर्विघ्न राज नहीं कर पाया। उसके भाई जगतराव ने उसे निकाल दिया और वह कुछ अनुचरों और पुरोहितों के साथ वनवास नाम के गाँव में आ बसा। उसी के वंश के ये भुकसा क्षत्रिय हैं।

परमारथ पु
संज्ञा पुं० [सं० परमार्थ] दे० 'परमार्थ'। उ०—परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुँ मनहुँ निहारे।—मानस, २।२८८।

परमारथवादी पु
[हिं०] दे० 'परमार्थवादी'। उ०—प्रभु जे मुनि पर मारथवादी। कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी।—मानस, १ १०८।

परमारथी पु
वि० [सं० परमार्थी] दे० 'परमार्थी'। उ०—(क) एहि जग जामिनि जागहि जोगी। परमारथी प्रपंच वियोगी।—मानस, २।९६। (ख) नमों प्रेम परमारथी जाचत हैं तोहि। नंदलाल के चरन कौं दे मिलाइ किन मोहि।—स० सप्तक, पृ० १७३।

परमार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्कृष्ट पदार्थ। सबसे बढ़कर वस्तु। २. सार वस्तु। वास्तव सत्ता। नाम रूपादि से परे यथार्थ तत्व। ३. मोक्ष। ४. दुःख का सर्वथा अभावरूप सुख (न्याय)। ५. सत्य (को०) दे०। ६. बह्म (को०)।

परमार्थता
संज्ञा स्त्री० [सं०] सत्य भाव। याथार्थ्य।

परमार्थवादी
संज्ञा पुं० [सं० परमार्थवादिन्] ज्ञानी। वेदांती। तत्वज्ञ।

परमार्थविद्
वि० [सं०] ब्रह्मज्ञानसंपन्न। जिसे परमार्थ का ज्ञान हो [को०]।

परमार्थी
वि० [सं० परमार्थिन्] १. यथार्थ तत्व को ढूँढ़नेवाला। तत्वजिज्ञासु। २. मोक्ष चाहनेवाला। मुमुक्षु।

परमाह
संज्ञा पुं० [सं०] शुभ दिन। पुण्य दिवस। अच्छा दिन। उ०—मरन ठानि परमाह मरजी वाकी धारि मत।—नट०, पृ० १००।

परमिति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परिमिति] दे० 'परिमिति'। उ०— सतगुन सुर गन अंब आद्विति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी।—मानस, १।३१।

परमिश्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कौटिल्य के अनुसार वह भुक्ति या राज्य जिसमें मित्र और शत्रु दोनों समान रूप से हों।

परमीकरणमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार देवताओं के आह्वान की एक मुद्रा, जिसमें हाथ के दोनों अँगूठों को एक में गाँठकर उँगलियों को फैलाते हैं। इसे महामुद्रा भी कहते हैं।

परमुख पु (१)
वि० [सं० पराङमुख] १. विमुख। पीछे फिरा हुआ। २. जो ध्यान न दे। जो प्रतिकूल आचरण करै।

परमुख † (२)
संज्ञा पुं० [सं० पर + मुख] एक प्रकार की काव्य उक्ति जिसमें वर्णनीय का अन्य पुरुष के वचनों से वर्णन कराया जाय।—रघु० रू०, पृ० ६८।

परमुखापेक्षिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूसरे का मुँह देखने की वृत्ति। किसी अन्य के भरोसे रहने का स्वभाव। उ०—आचारणा- त्मक जगत् की परमुखापेक्षिता वाली प्रवृत्ति को प्रेमचंद जी की प्रतिभा ने मोड़ अवश्य दिया है।—प्रेम० और गोर्की, पृ० १९७।

परमृत्यु
संज्ञा पुं० [सं०] काक। कौआ। विशेष—प्रवाद है कि कौए आपसे आप नहीं मरते।

परमेश
संज्ञा पुं० [सं०] दे० १. संसार का कर्ता और परिचालक

परमेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. संसार का कर्ता और परिचालक सगुण ब्रह्म। २. विष्णु। ३. शिव। ४. ब्रह्मा (को०)। ५. इंद्र का नाम (को०)। ६. चक्रवर्ती नरेश (को०)।

परमेश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा या देवी का नाम।

परमेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] चतुर्मुख ब्रह्मा। प्रजापति (शुक्ल यजु०)।

परमेष्ठिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परमेष्ठी की शक्ति। देवी। २. श्री। ३. वाग्देवी। ४. व्राह्मी जड़ी।

परमेष्ठी
संज्ञा पुं० [सं० परमेष्टिन्] १. ब्रह्मा, अग्नि, आदि देवता। २. विष्णु। ३. शिव। ४. एक जिन का नाम। ५. शलिग्राम का एक विशेष भेद। ६. विराट् पुरुष। ७. चाक्षुष मनु। ८. गरुड़। ९. आध्यात्मिक शिक्षक। गुरु (को०)।

परमेसर पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० परमेश्वर] दे० 'परमेश्वर'।

परमेसरी ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० परमेश्वरी] दे० 'परमेश्वरी'। उ०— एइ कविलास इद्रं कै अइरी। की कहुँ ते आई परमेसरी।—जायसी ग्रं०, पृ० ८२।

परमेसुर पु ‡
संज्ञा पुं० [सं० परमेश्वर] दे० 'परमेश्वर'। उ०—बहुरयो आनि सिला पर नाख्यौ। तब यह सिसु परमेसुर राख्यौ।—नंद० ग्रं०, पृ० २५९।

परमेश्वर पु
संज्ञा पुं० [सं० परमेश्वर] दे० 'परमेश्वर'। उ०—जज्ञ दान अर्बुद अवनि परमेस्वर पावन सुध्रुव।—प० रासो, पृ० १३।

परमोद पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रमोद] दे० 'प्रमोद'।

परमोध पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रबोध] दे० 'प्रबोध'।

परमोधना पु
क्रि० स० [सं० प्रबोधन] दे० ' प्रबोधना'। उ०— सहज धार हरिध्यान ज्ञान से मन परमोधै।—पलटू०, पृ० १००।

परयंक पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्क] दे० 'पयँक'

परयंत पु
अव्य० [सं० पर्यन्त] दे० 'पर्यत'। उ०—पकड़ समसेर संग्राम में पैसिबे, देह परयंत कर जुद्ध भाई।—कबीर श०, पृ० ६८।

परयस्तापह्नुति
संज्ञा स्त्री० [सं० पर्यस्तापहनुति] दे० 'पर्यस्ताप- ह्नुति'।

परयाय पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्याय] दे० 'पर्याय' (अलंकार)। उ०—ताहि कहत परयाय हैं भूषन सुकवि विवेक।—भूषण ग्रं०, पृ० ५३।

परयुग
संज्ञा पुं० [सं०] परवर्ती युग। परवर्ती काल (को०)।

पररमण
संज्ञा पुं० [सं०] परकीया स्त्री के साथ रमण करनेवाला। जार। उपपति [को०]।

परराष्ट्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. शत्रु का राज्य। २, स्वराष्ट्र के अतिरिक्त अन्य राष्ट्र जिसमें मिञ शत्रु और तटस्थ राष्ट्र आते है। स्वराष्ट्र का उलटा। यौ०—परराष्ट्रमंत्री—शासनविधांन में वह सर्वोच्च अधिकारीजो विदेशी मामलों की देखरेख करता है। परराष्ट्र विभाग = वह विभाग जो परराष्ट्र संबंधी मामलों की देखरेख करता है।

पररु
संज्ञा पुं० [सं०] नील भृंगराज। नीली भँगरैया।

परल
संज्ञा पुं० [देश०] एक जंगली पेड़ जिसकी जड़ और छाल दवा के काम में आती है और लकड़ी इमारतों में लगती है। परताल।

परपलउ ‡
पुं० [सं० प्रलय] दे० 'प्रलय'।

परलय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रलय] प्रलय। सृष्टि का नाश वा अंत। उ०—पल में परलय होयगी बहुरि करोगे कब्ब ?— कबीर (शब्द०)।

परला
वि० [सं० पर (= उधर का, दूसरा) + ला (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० परली] उस ओर का। दूसरी तरफ का। उरला का उलटा। उ०—आँगन के सामने कमरे के परली ओर बरामदे से झाँककर मिसेज शुक्ला ने उत्तर दिया।—अभिशप्त, पृ० २१। मुहा०—परले दरजे का = दे० 'परले सिरे का'। परले सिरे का = हद दरजे का। अत्यंत। बहुत अधिक। परले पार होना = (१) अंत तक पहुँचना। बहुत दूर तक जाना। (२) समाप्त होना।

परलाप पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रलाप] दे० 'प्रलाप'। उ०—भीखा मन परलाप बड़ा कहि साँच बजावत गाला की।—भीखा० श०, पृ० २८।

परल पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रलय] दे० 'प्रलय'। उ०—मरजाद छोड़ि सागर चलै कहि हमीर परलै करन।-हम्मीर०; पृ० १३।

परलोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरा लोक। वह स्थान जो शरीर छोड़ने पर आत्मा को प्राप्त होता है। जैसे, स्वर्ग, बैकुंठ आदि। यौ०—परलोकगमन, परलोकप्राप्ति, परलोकयान, परलोकवास = मृत्यु। मौत। परलोकवासी = मृत। मरा। हुआ (आदरार्थ)। मुहा०—परलोकगामी होना = मरना। परलोक बनाना = मरने के बाद अच्छा लोक प्राप्त करना। सदगति होना। परलोक बिगड़ना = मृत्यु के अनंतर अच्छे लोक का न मिलना। परलोक सँवारना = जीवन में उस प्रकर के काम करना जिससे मृत्यु के अनंतर अच्छे लोकप्राप्ति की संभावना हो। उ०—पाइ न जेहि परलोक सँवारा।-मानस, ७।२७। परलोक सिधारना = मरना। २. मृत्यु के उपरांत आत्मा की दूसरी स्थिति की प्राप्ति। जैसे, जो ईश्वर और परलोक में विश्वास नहीं करते वे नास्तिक कहलाते हैं। (शब्द०)।

परलोकगमन
संज्ञा पुं० [सं०] मृत्यु।

परलोकप्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृत्यु।

परलौ पु ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रलय, हिं० परलउ] दे० 'प्रलय'। उ०— भा परलौ निअराएन्हि जबहीं। मरै सो ताकर परलौ तबही।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २२५।

परवंचना पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रवञ्चना] दे० 'प्रवंचना'। उ०— विद्या लों सोख्यो भलो जिन परवंचन ज्ञान।—शकुंतला, पृ० ९६।

परवक्तव्यपण्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह माल जिसका सौदा दूसरे के साथ हो चुका हो। विशेष—ऐसा सौदा किसी दूसरे ग्राहक के हाथ बेचनेवालों के लिय कौटिल्य और स्मृतकारों ने दंड़ का विधान किया है।

परवर पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० पटोल] परवल।

परवर (२)
संज्ञा पुं० [सं०] आँख का एक रोग।

परवर (३)
संज्ञा पुं० [सं० प्रवर] दे० 'प्रवर'।

परवर (४)
वि० [फा़०] पालन करनेवाला। पोषण करनेवाला। जैसे, परवरदिगार, गरीबपरवर आदि [को०]।

परवरदा
वि० [फा़० परवर्दह्] पालित। पोषित। उ०—छाँव सूँ मेरे हुए हैं बादशाह, साया परवरदा हैं मेरे सब मुलूक।—दक्खिनो०; पृ० १८६।

परवरदिगार
संज्ञा पुं० [फा़०] १. पालन करनेवाला। पोषण करनेवाला। २. ईश्वर।

परवरिश
संज्ञा स्त्री० [फा़०] पालन पोषण।

परवर्त
वि० [सं० प्रवर्तित]

परवरिश
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रवर्तित] प्रतिष्ठित [को०]।

परवर्ती
वि० [सं० परवर्त्तिन्] बाद में होनेवाला। पश्चाद्वर्ती। उ०—यदि मैंने अंतिम बार माँ का मुख न देखा होता तो संभवतः मेरा परवर्ती जीवन ऐसा विषाक्त न हुआ होता।— पदें०, पृ० ३१।

परवल
संज्ञा पुं० [सं० पटोल] १. एक लता जो टट्टियों पर चढाई जाती है और जिसके फलों की तरकारी होती है। विशेष—यह सारे उत्तरीय भारत में पंजाब से लेकर बंगाल आसाम तक होती है। पूरब में पान भीटों पर परवल की बेलें चढा़ई जाती हैं। फल चार पाँच अंगुल लंबे और दोनों सिरों की ओर पतले या नुकीले होते हैं। फलों के भीतर गूदे के बीच गोल बीजों की कई पंक्तियाँ होती हैं। परवल की तककारी पथ्य मानी जाती है और ज्वर के रोगियों को दी जाती है। वैद्यक में परवल के फल कटु, तिक्त, पाचन, दीपन, हृद्य, वृष्य, उष्ण, सारक तथा, कफ, पित्त, ज्वर दाह को हटानेवाले माने जाते हैं। जड़ विरेचक और पत्ते तिक्त और पित्तनाशक कहे गए हैं। पर्या०—कुलक। तिक्त। पटु। कर्कशफल। कुलज। वाजि- मान। लताफल। राजफल। वरतिक्त। अमृताफल। कटु- फल। राजनाम। बीजगर्भ। नागफल। कुष्ठारि। कासमर्दन। ज्योतस्नी। कच्छुघ्नी। २. चिचड़ा जिसके फलों की तरकारी होती है।

परवश
वि० [सं०] जो दूसरे वश में हो। पराधीन।

परवश्य
वि० [सं०] जो दूसरे के दश में हो। पराधीन।

परवश्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] पराधीनता।

परवस्ती पु ‡
संज्ञा स्त्री० [फा़० परवरिश] दे० 'परवरिश'।

परवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० पुट वा पूर, हिं० पुर, पुरवा] [स्त्री० अल्पा० परई] मिट्टी का बना हुआ कटोरे के आकार का बरतन। कोसा।

परवा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रतिपदा, प्रा० पडिवा] पक्ष की पहली तिथि। पड़बा। परिवा।

परवा (३)
संज्ञा स्त्री० [फा़०] १. चिंता। व्यग्रता। खटका। आशंका। जैसे,(क) उसकी धमकी की मुझे परवा नहीं हैं। (ख) तु मेरा साथ न दोगे तो कुछ परवा नहीं। २. ध्यान। ख्याल। किसी बात की ओर दतचित्त होने का भाव। जैसे—(क) तुम उस लड़के की पढाई लिखाई की कुछ परवा नहीं रखते। (ख) उसे इतना लोग समझाते हैं पर वह कुछ परवा नहीं करता। ३. आसरा। भरोसा। जैसे,—जिसके घर में सब कुछ है उसे दूसरे की क्या परवा। क्रि० प्र०—करना।—होना।

परवा (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की घास।

परवाई पु
संज्ञा स्त्री० [फा़० परवाह] दे० 'परवा' या 'परवाह'।

परवाच्य
वि० [सं०] जिसे दूसरे बुरा कहते हों। निंदित।

परबाज (१)
संज्ञा स्त्री० [फा़० परवाज] उड़ान। उ०—सतलोक सिधार साथ सतसाज। उस वक्त करे वुलंद परवाज। कबीर मं०, पृ० १४९। २. नाज। घमंड (को०)।

परवाज (२)
वि० १. उड़नेवाला। २. घमंडी। सिट्टू। (समासात में प्रयुक्त)।

परवाजी †
संज्ञा स्त्री० [फा़०] उड़ान [को०]।

परवाणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. धर्माध्यक्ष। २. वत्सर। ३. कार्तिकेय का वाहन, मयूर।

परवाणि पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पमाण] दे० 'प्रमाण'। उ०— एकै अख्खर पीव का, सोई सत करि जाणि। राम नाम सतगुरु कह्मा, दादू सो परवाणि।—दादू०, पृ० ३२।

परवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. विरोंधात्मक उत्तर। २. परनिंदा। ३. प्रवाद। अफवाह [को०]।

परवादी
संज्ञा पुं० [सं० परवादिन्] वह जो परवाद करे [को०]।

परवान पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रमाण] १. प्रमाण। सबूत। उ०— हमारे कहत रहै नहिं मानू। जो वह कहै सोइ परवानू।— पदमावत, पृ० २५६। २. यथार्थ बात। सत्य बात। ३. सीमा। मिति। अवधि। हद। उ०—(क) तपवल तेहि करि आपु समाना। रखिहौं इहाँ बरस परवाना।— तुलसी (शब्द०)। (ख) नौ लख जल के जीव बखानी। चतुर लक्ष पक्षी परवानी।—कबीर सा०, पृ० ३७। विशेष—इस अर्थ में इस शब्द का प्रयोग प्रायः अब्ययवत् रहता है। मुहा०—परवान चढ़ना = (१) पूरी आयु तक पहुँचना। सब सुखों का पूरा भोग करना। जैसे, फले फूले परवान चढे़ (स्त्रि० आशीर्वाद)। २. विवाहित होना। ब्याहने जाना (स्त्रि०)।

परवान (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पाल, फा० बादबान] जहाज का पाल। बादबान।

परवानगी
संज्ञा स्त्री० [फा़०] इजाजत। आज्ञा। अनुमति। उ०—तब वा लाछाबाई ने बाजबहादुर को परवानगी दीनी।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १५९।

परवानना पु
क्रि० अ० [ सं० प्रमाण] प्रमाण मानना। ठीक समझना। उ०—हमरे कहत न जो तुम मानहु। जो वह कहै सोइ परवानहु।—जायसी (शब्द०)।

परवाना
संज्ञा पुं० [फा़० परवान] १. आज्ञापत्र। यौ०—परवाने नवीस = परवाना लेखक। २. फतिंगा। पंखी। पतंग। ३. वह जो आसक्त हो। आशिक (को०)। ४. कुत्ते के बराबर एक जंतु जो सिंह के सिंह आगे आगे चलता है (को०)।

परवान्
वि० [सं० परवत्] १. दूसरे के आश्रित। पराधीन। २. निस्सहाय। असहाय। निराश्रित [को०]।

परवाया
संज्ञा पुं० [हिं० पैर + पाया] चारपाई के पायों के नीचे रखने की चीज।

परवार पु †
संज्ञा पुं० [सं० परिवार] दे० 'परिवार'। उ०— परगह सह परवार अरी सहमार उडाणूँ। सुरगण ग्रंदप सुपह डहै बँध तासु छुडाणूँ।—रघु० रू०, पृ० ४८।

परवास (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रवास] दे० 'प्रवास'। उ०—सब परवास निरंतर खेलहि, जहँ जस तहाँ समाया।—जग० बानी, पृ० १७।

परवास (२)
संज्ञा पुं० [सं० वास] आच्छादन। उ०—कपड़सार सूची सहस बाँधि बचन परवास। किंय दुराउ यह चतुरी गो सठ तुलसीदास।—तुलसी (शब्द०)।

परवाल पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाल] दे० 'प्रवाल'।

परवासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँदा। बंदाक। परगाछा।

परवासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परवासिका'।

परवाह
संज्ञा स्त्री० [फा़० परवा] १. चिंता। व्यग्रता खटका। आशंका। उ०—चित्र के से लिखे दोऊ ठाढे़ रहे कासीराम, नाहीं परावाह लोग लाख करो लरिबो।—काशीराम (शब्द०)। २. ध्यान। ख्याल। किसी बात की ओर चित्त देना। ३. आसरा। भरोसा। उ०—जग में गति जाहि जगत्पति की परवाह सो ताहि कहा नर की।—तुलसी (शब्द०)।

परवाह (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रवाह] बहने का भाव। मुहा०—परवाह करना = बहाना। धारा में छोड़ना। जैसे,— इस मुर्दे को परवाह कर दो।

परवाहना
क्रि० स० [हिं० परवाह] प्रवाह करना। बहाना। उ०—या महाराँणी उच्चरै, सुहड़ा तजौ सचीत। परवाहौ खगधार दे जमणा धार प्रवीत।—रा० रू०, पृ० ३०।

परवी †
संज्ञा स्त्री० [सं० पार्विणी] पर्व काल। पुण्य काल। पर्विणी। उ०—परवी परै बरत वा होई। तेहि दिन मैथुन करै जो कोई।—विश्राम० (शब्द०)।

परवीन पु †
वि० [सं० प्रवीण] दे० 'प्रवीण'। उ०—पहुपावति परवीन अति वचनु मानि मनु लीन।—रसरतन, पृ० ५९।

परवृढ
संज्ञा पुं० [सं० परिवृढ] स्वामी। सरदार। उ०—नर नामन तें पति जुरे, परवृढ़ इन ईसान। भू भुज, धरनीकंत, विभु, नरपति, ईस सुजान।—नंद, ग्रं०, पृ० १०८।

परवेख पु
संज्ञा पुं० [सं० परिवेष] बहुत हलकी बदली के बीच दिखाई पड़नेवाला चंद्रमा के चारो ओर पड़ा हुआ घेरा। मंडल। चाँद की अथाई। उ०—सारी सहित किनारी मुख छबि देख। मनहुँ शरद निशि चहुँ दिशि दुति परवेख।— रहीम (शब्द०)।

परवेश पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रवेश] दे० 'प्रवेश'।

परवेश्म
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग।

परवेस
संज्ञा पुं० [सं० प्रवेश, हिं० परवेश] दे० 'प्रवेश'। उ०— वहँ नहिं चंद वहाँ नहिं सूरज, नाहिं पवन परवेस।—कबीर श०, भा० ३, पृ० ४।

परव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] धृतराष्ट्र।

परश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] स्पर्शमणि। पारस पत्थर।

परश (२)
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श] स्पर्श। छूना।

परशाला
संज्ञा पुं० [सं०] परगाछा। बाँदा।

परशु
संज्ञा पुं० [सं०] एक अस्त्र जिसमें एक डंडे के सिरे पर एक अर्धचंद्राकार लोहे का फल लगा रहता है। एक प्रकार की कुल्हाड़ी जो पहले लड़ाई में काम आती थी। तवर। भलुवा।

परशुधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. परशु धारण करनेवाला। २. परशुराम। ३. गणेश। गणपति (को०)।

परशुपलाश
संज्ञा पुं० [सं०] फरसे का फल या अगला हिस्सा। परशु की धार [को०]।

परशुमुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उँगलियों की एक मुद्रा।

परशुराम
संज्ञा पुं० [सं०] जमदग्नि ऋषि के एक पुत्र जिन्होंने २१ बार क्षत्रियों का नाश किया था। ये ईश्वर के छठे अवतार माने जाते हैं। 'परशु' इनका मुख्य शस्त्र था, इसी से यह नाम पड़ा। विशेष—महाभारत के शांतिपर्व में इनकी उत्पत्ति के संबंध में यह कथा लिखी है,—कुशिक पर प्रसन्न होकर इंद्र उनके यहाँ गाधि नाम से उत्पन्न हुए। गाधि को सत्यवती नाम की एक कन्या हुई जिसे उन्होंने भृगु के पुत्र ऋचीक को ब्याहा। ऋचीक ने एक बार प्रसन्न होकर अपनी स्त्री और सास के लिये दो चरु प्रस्तुत किए और सत्यवती से कहा 'इस चरु को तुम खाना'। इससे तुम्हें परम शांत और तेजस्वी पुत्र उत्पन्न होगा। इस दूसरे चरु को अपनी माता को दे देना। इससे उन्हें अत्यंत वीर और प्रबल पुत्र उत्पन्न होगा जो सब राजाओं को जीतेगा। पर भूल से सत्यवती ने अपनी मातावाला चरु खा लिया और गाधि की स्त्री, सत्यवती की माता ने सत्यवती का चरु खाया। जब ऋचीक को यह पता चला तब उन्होंने सत्यवती से कहा—'यह तो उलटा हो गया। तुम्हारे गर्भ से अब जो बालक उत्पन्न होगा वह बड़ा कूर और प्रचंड क्षात्रतेज से युक्त होगा और तुम्हारी माता के गर्भ से जो पुत्र होगा वह प्ररम शांत, तपस्वी और ब्राह्मण के गुणों से युक्त होगा'। सत्यवती ने बहुत विनती की कि मेरा पुत्र ऐसा न हो, मेरा पौत्र हो तो हो। महाभारत के वनपर्व में यही कथा कुछ दूसरे प्रकार से है। कुछ दिनों में सत्यवती गर्भ के जमदग्नि की उत्पत्ति हुई जो रूप और स्वाध्याय में अद्वितीय हुए और जिन्होंने समस्त वेद, वेदांग का तथा धनुर्वेद का अध्ययन किया। प्रसेनजित् राजा की कन्या रेणुका से उनका विवाह हुआ। रेणुका के गर्भ से पाँच पुत्र हुए—समन्वान्, सुषेण, वसु, विश्वावसु और राम या परशुराम। इसके आगे वनपर्व में कथा इस प्रकार है। एक दिन रेणुका स्नान करने के लिये नदी में गई थी। वहाँ उसने राजा चित्ररथ को अपनी स्त्री के साथ जलक्रीड़ा करते देखा और कामवासना से उद्विग्न होकर घर आई। जमदग्नि उसकी यह दशा देख बहुत कुपित हुए और उन्होंने अपने चार पुत्रों को एक एक करके रेणुका के बध की आज्ञा दी, पर स्नेहवश किसी से ऐसा न हो सका। इतने में परशुराम आए। परशुराम ने आज्ञा पाते ही माता का सिर काट डाला। इसपर जमदग्नि ने प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये कहा। परशुराम बोले—'पहले तो मेरी माता को जिला दीजिए और फिर यह वर दीजिए कि मैं परमायु प्राप्त करूँ और युद्ध में मेरे सामने कोई न ठहर सके'। जम- दग्नि ने ऐसा ही किया। एक दिन राजा कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन जमदग्नि के आश्रम पर आया। आश्रम पर रेणुका को छोड़ और कोई न था। कार्तवीर्य आश्रम के पेड़ पौधों को उजाड़ होमधेनु का बछड़ा लेकर चल दिया। परशुराम ने आकर जब यह सुना तब वे तुरंत दौड़े जाकर कार्तवीर्य की सहस्त्र भुजाओं को फरसे से काट डाला सहस्त्रार्जुन के कुटुंबियों और साथियों ने एक दिन आकार जमदग्नि से बदला लिया और उन्हें वाणों से मार डाला। परशुराम ने आश्रम पर आकर जब यह देखा तब पहले तो बहुत विलाप किया, फिर संपूर्ण क्षत्रियों के नाश की प्रतिज्ञा की। उन्होंने शस्त्र लेकर सहस्त्रार्जुन के पुत्र पौत्रादि का बध करके क्रमशः सारे क्षञियों का नाश किया। परशुराम की इस क्रूरता पर ब्राह्मण समाज में उनकी निंदा होने लगी और परशुराम दया से खिन्न हो वन में चले गए। एक दिन विश्वामित्र के पौत्र परावसु ने परशुराम से कहा कि 'अभी जो यज्ञ हुआ था उसमें न जाने कितने प्रतापी राजा आए थे, आपने पृथ्वी को जो क्षत्रियविहीन करने की प्रतिज्ञा की थी वह सब व्यर्थ थी'। परशुराम इसपर क्रुद्ध होकर फिर निकले और जो क्षत्रिय बचे थे उन सबका बाल बच्चों के सहित संहार किया। गर्भवती स्त्रियों ने बड़ी कठिनता से इधर उधर छिपकर अपनी रक्षा की। क्षत्रियों का नाश करके परशुराम ने अश्वमेध यज्ञ किया और उसमें सारी पृथ्वी कश्यप को दान दो दी। पृथ्वी क्षत्रियों से सर्वथा रहित न हो जाय इस आभिप्राय से कश्यप ने परशुराम से कहा 'अब यह पृथ्वी हमारी हो चुकी अब तुम दक्षिण समुद्र की ओर चले जाओ'। परशुराम ने ऐसा ही किया। वाल्मीकि रामायण में लिखा है जब रामचंद्र शिव का धनुष तोड़ सीता को ब्याहकर लौट रहे थे तब परशुराम ने उनका रास्ता रोका और वैष्णव धनु उनके हाथ में देकर कहा कि 'शैव धनुष तो तुमने तोड़ा अब इस वैष्णव धनुष को चढा़ओ। यदि इसपर बाण चढा़ सकोगे तो मैं तुम्हारे साथ युद्ध करूँगा'। राम धनुष पर बाण चढा़कर बोले 'बोलो अब इस बाण से मैं तुम्हारी' गति का अवरोध करूँ या तप से अर्जित तुम्हारे लोकों का हरण करूँ'। परशु राम ने हततेज और चकित होकर कहा 'मैंने सारी पृथ्वी कश्यप को दान में दे दी है, इससे मैं रात को पृथ्वी पर नहीं सोता। मेरी गति का अवरोध न करो, लोकों का हरण कर लो'।

परशुवन
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम जिसके पेड़ों के पत्ते परशु की सी तीखी धार के हैं।

परश्वध
संज्ञा पुं० [सं०] परशु। तब्बर। कुठार। कुल्हाड़ी।

परसंग पु
संज्ञा पुं० [सं० प्रसङ्ग] स्त्री०-पुरुष-संयोग। मैथुन। दे० 'प्रसंग'। उ०—दारु बिन सिंग बानरहित निखंग भयौ, जंग भयौ दारुन दुहूँ के परसंग मैं।—हम्मीर०, पृ० ५४।

परसंज्ञक
संज्ञा पुं० [सं०] आत्मा [को०]।

परसंसा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रशंसा] दे० 'प्रशंसा'।

परस (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श] छूना। छूने की क्रिया या भाव। स्पर्श। उ०—दरस परस मंजन अरु पाना। हरै पाप कह वेद पुराना।—तुलसी (शब्द०)।

परस (२)
संज्ञा पुं० [सं० परश] पारस पत्थर। स्पर्श मणि। उ०— उ०—गुंजा ग्रहै परस मनि खोई।—मानस, ७।४४। यौ०—परसपखान। परसमनि।

परस (३)
संज्ञा पुं० [सं० परशु, हिं० फरसा] फरसा। परशु। जैसे, परसधर, परसराम।

परसधर पु
संज्ञा पुं० [सं० परशुधर, हिं० परसुधर] दे० 'परशुराम'। उ०—बिधि करी परसधर, बोलि ठौर। जजमाँन कियउ भृगुकुल सुमौर।—ह० रासो, पृ० ११।

परसन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्शन] १. छूना। छूने का काम २. छूने का भाव।

परसन (२)
वि० [सं० प्रसन्न] प्रसन्न। खुश। आनंदित। उ०— तबहिं असीस दई परसन ह्वै सकल होहु तुव कामा।—सूर (शब्द०)।

परसना पु (१)
क्रि० स० [सं० स्पर्शन] १. छूना। स्पर्श करना। २. छुलाना। स्पर्श कराना। उ०—साधन हीन दीन निज अध बस शिला भई मुनि नारी। गृह ते गवनि परसि पद पावन घोर ताप तें तारी।—तुलसी (शब्द०)।

परसना (२)
क्रि० स० [सं० परिवेक्षण] भोज्य पदार्थ किसी के सामने रखना। परोसना। विशेष—इस क्रिया का प्रयोग भोजन और भोजन करनेवाले दोनों के लिये होता है। जैसे, खाना परसना, किसी को परसना। संयो० क्रि०—देना।—लेना।

परसनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० स्पर्शन] स्पर्श का भाव या स्थिति। उ०—कुचन की परसनि नीवी करसनि। सुखन की बरसनि मन की सरसनि।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२२।

परसन्न पु
वि० [सं० प्रसन्न] दे० 'प्रसन्न'। उ०—पाहन पखान जे करहि सेव। परसन्न होहि मन चाहि देव।—रसरतन, पृ० ५५।

परसन्नता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रसन्नता] दे० 'प्रसन्नता'।

परसपखान पु
संज्ञा पुं० [सं० स्पर्श + पाषाण] पारस पत्थर। स्पर्श मणि। उ०—रूपवंत धनवंत सभागे। परपखान पौरि तिन्ह लागे।—जायसी (शब्द०)।

परसपर
क्रि० वि० [ सं० परस्पर] दे० 'परस्पर'। उ०—(क) मुनि रघुबीर परसपर नवहीं।—मानस, २।१०८। (ख) मोहन लखि छबि परसपर चंचल चख चित चोर। मंजु मालती कुंज मैं बिहरत नंदकिसोर।—स० सप्तक, पृ० ३४३।

परसराम
संज्ञा पुं० [सं० परशुराम] दे० 'परशुराम'। उ०— ऋषि जामदग्नि सुत परसराम, हनि क्षत्रि सकल द्विज तेज धाम।—ह० रासो, पृ० ७।

परसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] किसी शब्द के आगे जुड़नेवाला प्रत्यय।

परसवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] पर या उत्तरवर्ती वर्ण के समान वर्ण।

परसा (१)
संज्ञा पुं० [सं० परशु] फरसा। परशु। तव्बर। कुल्हाड़ा। कुठार।

परसा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० परसना] एक मनुष्य के खाने भर का भोजन जो पात्र में रखकर दिया दाय। पत्तल।

परसाद †
संज्ञा पुं० [सं० प्रसाद] दे० 'प्रसाद'। उ०—तुअ परसाद विखाद नयन जल काजरे मोर उपकारे।— विद्यापति, पृ० १११।

परसादी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० परसाद + ई (प्रत्य०)] दे० 'प्रसाद'। उ०—उन भाखा कढ़िया परसादी। इन कढा़व हलुवे की बाँधी।—घट०, पृ० २९०।

परसान पु (१)
क्रि० स० [ हिं० परसना] छुलाना। स्पर्श कराना। उ०—सुरसरि जब भुव ऊपर आवै। उनको अपनो जल परसावै।—सूर (शब्द०)।

परसाना (२)
क्रि० स० [हिं० परसना] भोजन आदि बँटवाना। भोजन का सामान सामने रखवाना। उ०—महर गोप सब ही मिल बैठे पनवारे परसाए।—सूर (शब्द०)।

परसामान्य
संज्ञा पुं० [सं०] गुण-कर्म-समवेत सत्ता (जैनदर्शन)।

परसाल (१)
अव्य० [ सं० पर + फा़० साल] १. गत वर्ष। पिछले साल। २. आगामी वर्ष। अगले साल।

परसाल (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पानी + सार] एक प्रकार की घास जो पानी में पैदा होती है। इसे पससारी भी कहते हैं।

परसिद्ध पु
वि० [सं० प्रसिद्ध] दे० 'प्रसिद्ध'।

परसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रसिद्धि] दे० 'प्रसिद्धि'।

परसिया
संज्ञा स्त्री० [सं० परशु, हिं परसा] हँसिया।

परसी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की छोटी मछली जो नदियों में होती है।

परसीया
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ जिसकी लकड़ी से मेज, कुरसी इत्यादि बनाई जाती है और जो मदरास और गुजरात में बहुतायत से होता है। इसकी लकड़ी स्याह सरस और मजबूत होती है।

परसु पु
संज्ञा पुं० [सं० परशु] दे० 'परशु'। यौ०—परसुधर = परसुधर। उ०—पंथ परशुधर आगमनु समय सोच सब काहु। दे०—तुलसी ग्रं०, पृ० ७१। परसुराम = 'परशुराम'। उ०—परसुराम पितु अग्या राखी।—मानस, २।१७४।

परसूक्ष्म
संज्ञा पुं० [सं०] एक सूक्ष्म परिमाण जो आठ परमाणुओं के बराबर माना गया है।

परसूत ‡पु
वि० संज्ञा पुं० [सं० प्रसूत] दे० 'प्रसूत'।

परसेद पु
संज्ञा पुं० [ सं० प्रस्वेंद] दे० 'प्रस्वेद'। उ०—घटि घटि गोपी घटि घटि कान्ह। घटि घटि राम अमर अस्थान। गंगा जमना अंतर वेद। सुरसती नीर बहै परसेद।—दादू०, पृ० ६७६।

परसों
अव्य० [सं० परश्वः] १. गत दिन से पहले दिन। बीते हुए कल से एक दिन पहले। जैसे,—मैं परसों वहाँ गया था। २. आगामी दिन से आगे के दिन। आनेवाले कल से एक दिन आगे। जैसे,—वह परसों जायगा।

परसोतम पु ‡
संज्ञा पुं० [ सं० पुरुषोत्तम] दे० 'पुरुषोत्तम'।

परसोत्तम †पु
संज्ञा पुं० [सं० पुरुषोत्तम] दे० ' पुरुषोत्तम'। उ०— प्रात समें श्रीवल्लभ सुत के बदन कमल को दरसन कीजै। तीन लोक बँदित, परसोत्तम, उपमा कहा जो पटतर दीजै।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२५।

परसोर
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है।

परसौहाँ पु †
वि० [सं० स्पर्श, हिं० परस + औहाँ (प्रत्य०)] स्पर्श करनेवाला। छूनेवाला। उ०—तिथ तरसौंहैं मुनि किए करि सरसौंहैं नेह। घर परसौंहैं ह्वै झर बरसौहैं मेह।—बिहारी (शब्द०)।

परस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] पराई स्त्री। परकीया।

परस्त्रीगमन
संज्ञा पुं० [सं०] पराई स्त्री से साथ संभोग।

परस्पर
क्रि० वि० [सं०] एक दूसरे के साथ। आपस में। जैसे,— (क), उनमें परस्पर बड़ी प्रीति है। (ख) यह तो परस्पर का व्यवहार है।

परस्परज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] एक दूसरे को जाननेवाला। मित्र। सखा [को०]।

परस्परापेक्ष्य
वि० [सं०] एक दूसरे की अपेक्षा रखनेवाला। अन्योन्याश्रित। उ०—किंतु बहुत से परस्परापेक्ष्य और इंद्रिय- ग्राह्य होते है।—संपूर्णानंद अभि० ग्रं०, पृ० ३३२।

परस्परोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अर्थालंकार जिसमें उपमान की उपमा उपमेय को और उपमेय की उपमा उपमान को दी जाती है। इसे 'उपमेयोपमा' भी कहते हैं।

परस्वध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परश्वध' [को०]।

परहरना पु
क्रि० स० [सं० परि + हरण] परित्याग करना। छोड़ना। उ०—(क) घट की मानि अनीति सब मन की मेटि उपाधि। दादू परहर पंचकी, राम कहैं ते साध।— दादू०, पृ० ४१०। (ख) भक्ति छुड़ावै निगुरा करई। कहे कहाए जो परहरई।—विश्राम (शब्द०)।

परहार
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'प्रहार'। २. दे० 'परिहार'।

परहारना पु
क्रि० स० [हिं० परिहार] दे० 'परहरना'। उ०— हरष शोक दोऊ परहारे। होय मगन गुरु चरणै धारै।— कबीर सा०, पृ० ८७४।

परहारी
संज्ञा पुं० [ सं० प्रहरी] जगन्नाथ जी के मंदिर के पुजारी जो मंदिर ही में रहते हैं।

परहास पु †
संज्ञा पुं० [देश०] डिंगल के साणोर गीत का एक भेद। इसे प्रहास भी कहते हैं।—रघु० रू०, पृ० ५१।

परहेज
संज्ञा पुं० [फा़० परहेज] १. स्वास्थ्प को हानि पहुँचानेवाली बातों से बचना। रोग उत्पन्न करनेवीली या बढानेवाली वस्तुओं का त्याग। खाने पीने आदि का संयम। जैसे,—वह परहेज नहीं करता, दवा क्या फायदा करे ? २. बुरी बातों से बचने का नियम। दोषों और बुराइयों से दूर रहना। क्रि० प्र०—करना।—से रहना।—होना।

परहेजगार
संज्ञा पुं० [फा़० परहेजगार] १. परहेज करनेवाला। संयमी। कुपथ्य न करनेवाला। २. बुराइयों से बचनेवाला। दोषों से दूर रहनेवाला।

परहेजगारी
संज्ञा स्त्री० [फा़० परहेजगारी] १. परहेज करने का काम। संयम। २. दोषों और बुराइयों का त्याग।

परहेलना पु
क्रि० स० [सं० प्रहेलन] निरादर करना। तिरस्कार करना। उ०—मै पिउ प्रीति भरोसे परब किन्ह जिय माँह। तेहि रिस हौं परहेली रूसेउ नागर नाह।—जायसी (शब्द०)।

परहोंक ‡
संज्ञा पुं० [देश०] पहली बिक्री। बोहनी। उ०—जइसन परहोंक तइसन बीक।—विद्यापति, पृ० २७३।

परांगद
संज्ञा पुं० [सं० पराङ्गद] शिव।

परांगब
संज्ञा पुं० [सं० पराङ्गव] समुद्र।

परांचा
संज्ञा पुं० [फा़० प्राँच] १. तख्ता। पटरी। २. तख्तों की पाटन जो आसपास के तल से ऊँचाई पर हो और जिसपर उठ बैठ सकते हों। पाटन। ३. बेड़ा।

परांज
संज्ञा पुं० [सं० पराञ्ज] १. तेल निकालने का यंत्र। कोल्हू २. फेन। ३. छुरी का फल।

परांजन
संज्ञा पुं० [सं० पराञ्जन] दे० 'परांज'।

पराँचा
संज्ञा पुं० [लश०?] एक प्रकार की कम चौड़ी और लंबी नाव।

पराँठा
संज्ञा पुं० [हिं० पलटना] घी लगाकर तवे पर सेंकी हुई चपाती।

परा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चार प्रकार की वाणियों में पहली वाणी जो नादस्वरूपा और मूलाधार से निकली हुई मानी जाती है। २. वह विद्या जो ऐसी वस्तु का ज्ञान कराती है जो सब गोचर पदार्थो से परे हो। ब्रह्मविद्या। उपनिषद बिद्या। ३. एक प्रकार का सामगान। ४. एक नदी का नाम। ५. गंगा। ६. बाँझ ककोड़ा। बंध्या कर्कोटकी।

परा (२)
वि० स्त्री० [सं०] १. जो सबसे परे हो। २. श्रेष्ठ। उत्तम।

परा (३)
संज्ञा पुं० [हिं० पारना] रेशम खोलनेवालों का लकड़ी का बारह चैदह अंगुल लंबा एक औजार।

परा (४)
संज्ञा पुं० [ फा़० पर्रह् ? ] पंक्ति। कतार। दे० 'पर्रा'। उ०—राजकुमार कला दरसावत पावत परम प्रसंसा। सखा प्रमोदित परा मिलावता जहँ रधुकुल अवतंसा।—रघुराज (शब्द०)।

परा (५)
उप० [सं०] संस्कृत का एक उपसर्ग जो अर्थ में प्रातिलोम्य, आभिमुख्य, धर्षण, प्राधान्य, विक्रम, स्वातंञ्य, गमन, घातन आदि विशेषताएँ व्यक्त करता है। जैसे, पराहत, परागत, पराधीन, पराक्रांत, पराजित आदि [को०]।

पराअण †
वि० [सं० परायण] दे० 'परायण'। उ०—किति लद्ध सूर संगाम, धम्म पराअण हिअअ, विपअकम्म नहु दीन जंपइ।—कीर्ति०, पृ० ६।

पराइण
वि० [सं० परायण] लीन। निमग्न। परायण। उ०— दादू जुरा काल जम्मण, मरण, जहाँ जहाँ जिव जाइ। भगति पराइण लीन मन। ताकौ काल न खाइ।—दादू०, पृ० ४०४।

पराई
वि० स्त्री० [हिं० पराया] अन्य की। दूसरे। उ०—(क) बिनु जोबन भइ आस पराई। कहा सो पूत खंभ होय आई।—जायसी (शब्द०)। (ख) तोहि कौन मति रावन आई। आजु कालि दिन चारि पाँच में लंका होत पराई।— सूर (शब्द०)। २. जो आत्मीय न हो। दूसरा। विराना। उ०—मैन फिर लिखवाया कि तूँ आ जा, घर में बसना ठीक है। पराई जगह के पैर नहीं होते।—पिंजरे०, पृ० ६३।

पराक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मनु आदि स्मृतियों के अनुसार एक प्रकार का कृच्छ व्रत जो यतात्मा और प्रमादरहित होकर और चार दिनों तक निराहार रहकर किया जाता था। इसका विधान धर्मशास्त्रों में प्रायश्चित के प्रकरण में है। २. खङ्ग। ३. एक रोग का नाम। ४. एक क्षुद्र जंतु।

पराक (२)
वि० लघु। छोटा [को०]।

पराकरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपेक्षा करना। २. दूर करना। ३. अस्वीकार करना [को०]।

पराकाश
संज्ञा पुं० [सं०] शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दूरदर्शिता।

पराकाष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चरम सीमा। सीमांत। हद। अंत। २. गायत्री का एक भेद। ३. ब्रह्मा की आधी आयु।

पराकोटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पराकाष्ठा। २. ब्रह्मा की आधी आयु।

पराक्
वि० [सं०] दे० 'पराच्'।

पराक्पुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अपामार्ग। चिचड़ी। चिरचिटा।

पराक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० पराक्रमी] १. बल। शक्ति। सामर्थ्य। २. अभियान। आक्रमण (को०)। ३. विष्णु (को०)। ४. पुरुषार्थ। पौरुष। उद्योग। मुहा०—पराक्रम चलना = पुरुषार्थ या उद्योग हो सकना।

पराक्रमी
वि० [सं० पराक्रमिन्] १. बलवान्। वलिष्ठ। २. बीर। बहादुर। ३. पुरुषार्थी। ४. उद्योगी। उद्यमी।

पराक्रांत
वि० [सं० पराक्रान्त] दे० 'पराक्रमी'। २. दूसरों द्वारा आक्रांत या पराजित। ३. जिसका मुख मोड़ दिया गया हो [को०]।

पराग (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह रज या धूलि जो फूलों के बीच लंबे केसरों पर जमा रहती है। पुष्परज। विशेष—इसी पराग के फूलों के बीच के गर्भकोशों में पड़ने से गर्भाधान होता और बीज पड़ते हैं। २. धूलि। रज। ३. एक प्रकार का सुगंधित चूर्ण जिसे लगाकर स्नान किया जाता है। ४. चंदन। ५. उपराग। ग्रहण। ६. कपूंररज। कपूर की धूल या चूर्ण। ७. विख्याति। ८. एक पर्वत। ९. स्वच्छंद गति वा गमन।

पराग † (२)
संज्ञा पुं० [सं० प्रयाग] दे० 'प्रयाग'। उ०—गया गोमती काशि परागा। होइ पुष्य जन्म शुद्धि अनुरागा।—कबीर सा०, पृ० ४०२।

परागकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] फूलों के बीच में वे पतले लंबे सूत जिनकी नोक पर पराग लगा रहता है। इन्हें पौधों की पुं० जननेंद्रिय समझना चाहिए।

परागत
वि० [सं०] १. घिरा हुआ। आवृत। २. मरा हुआ। मृत। ३. विस्तृत [को०]।

परागति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गायत्री।

परागना पु
क्रि० स० [सं० उपराग] अनुरक्त होना। उ०— ऊधो तुम हो अति बड़ भागी। अपरस रहत सनेह तगा ते नाहिन मन अनुरागी। पुरइन पात रहत जल भीतर ता रस देह न दागी। ज्यों जल माँह तेल की गागरि बूँद न ताकोलागी। प्रीति नदी महँ पाँव न बोरयो दृष्टि न रूप परागी। सूरदास अबला हम भोरी गुर चोंटी ज्यों पागी।—सूर (शब्द०)।

परागराज †
संज्ञा पुं० [सं० प्रयागराज] दे० 'प्रयाग'। उ०— महाराज, अस्थान तो परागराज है।—रंगभूमि, भा० २, पृ० ४९६।

पराङमुख
वि० [सं०] १. मुँह फेरे हुए। विमुख। २. जो ध्यान न दे। उदासीन। ३. विरुद्ध।

पराच्
वि० [सं०] १. प्रतिलोमगामी। उलटा चलनेवाला। २. उद्धवगामी। ३. अप्रत्यक्षगम्य। परोक्षगम्य। ४. बाह्योन्मुख।

पराचित (१)
वि० [सं०] दूसरों द्वारा प्रतिपालित। परपोषित [को०]।

पराचित (२)
संज्ञा पुं० दास। गुलाम [को०]।

पराचित ‡
संज्ञा पुं० [सं० प्रायश्चित्त] दे० 'प्रायश्चित'।

पराचीन पु † (१)
वि० [सं० प्राचीन] दे० 'प्राचीन'। उ०—तब तुव अल्हन जल आनहि पराचीन यह बत्त।—प० रासो, पृ० ११३।

पराचीन (२)
वि० [सं०] १. पराङमुख। २. अनुपयुक्त। ३. बहिर्मुख [को०]।

पराछित †
संज्ञा पुं० [सं० प्रायश्चित] दे० 'प्रायश्चित्त'। उ०— याको घूर गुनौरे डारो। दूत पराछित या बिधि मारो।— कबीर सा०, पृ० ५३९।

पराजय
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजय का उलटा। हार। शिकस्त। क्रि० प्र०—करना।—होना।

पराजिका
संज्ञा स्त्री० [सं० उपराजिका या हिं० परज] परज नाम की रागिनी।

पराजित
वि० [सं०] परास्त। पराभूत। हारा हुआ।

पराजिष्णु
वि० [सं०] १. पराजय योग्य। जिसे परास्त किया जा सके। २. पराजित। परास्त [को०]।

पराजै पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पराजय] दे० 'पराजय'। उ०—जीत लीधी जमी कठैथी जेणरी, पराजै हुई नँह फतै पाई।—रघु० रू०, पृ० ३१।

पराडीन
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चादगति। पीछे चलना या उड़ना [को०]।

पराण पु
संज्ञा पुं० [सं० प्राण] दे० 'प्राण'। उ०—साँई तेरे नाँव परि सिर जीव करूँ कुरबान। तन मन तुम परि बारणौं, दादू पिंड पराण।—दादू०, पृ० ३८१।

पराणसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपचार। चिकित्सा। दवा करना। [को०]।

परात
संज्ञा स्त्री० [सं० पात्र; तुल० पुर्त्त० प्राट] थाली के आकार का एक बड़ा बरतन जिसका किनारा थाली के किनारे से ऊँचा होता है। यह आटा गूँधने, हाथ पैर धोने आदि के काम आता है। उ०—कोउ परात कोउ लोटा लाई। साह सभा सब हाथ धोवाई।—जायसी (शब्द०)।

परातपर पु
वि० संज्ञा पुं० [सं० परात्पर] दे० 'परात्पर'। उ०— महतत्व परै मूल माया परै ब्रह्म, ताहि तै परातपर सुंदर कहतु है।—सुंदर० ग्रं० भा० २, पृ० ५९५।

परात्पर (१)
वि० [सं०] जिसके परे कोई दूसरा न हो। सर्वश्रेष्ठ।

परात्पर (२)
संज्ञा पुं० १. परमात्मा। २. विष्णु।

परात्प्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] उलप नाम का तृण। एक घास जो कुश की तरह की होती है और जिसमें जौ या गेहूँ के से दाने पड़ते हैं। इसकी बालों में दूँड़ नही होते।

परात्मा
संज्ञा पुं० [सं० परात्मन्] परामात्मा। परब्रह्म।

परादन
संज्ञा पुं० [सं०] फारस का घोड़ा।

पराधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तीब्र मानसिक पीड़ा। २. मृगया। आखेट [को०]।

पराधीन
वि० [सं०] परवश। जो दूसरे के अधीन हो। जो दूसरे के ताबे हो। उ०—पराधीन सुख सपनेहु नाहीं।—तुलसी (शब्द०)। पर्या०—परतंत्र। परवश।

पराधीनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] परतंत्रता। दूसरे की अधीनता।

परान पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्राण, हिं० पराला] दे० 'प्राण'। उ०— (क) वाणी विमल पंच पराना। पहिली सीस मिले अगवाना।—दादू०, पृ० ६३८। (ख) आजु कया पिंजर- बँध टूटा। आजु परान परेवा छूटा।—पदमावत, पृ० २४९।

पराना पु †
क्रि० अ० [सं० पलायन] भागना। उ०—(क) आज जो तरवर चलभल नाहीं। आवहु यहि बन छाँड़ि पराहीं।—जायसी (शब्द०)। (ख) भाई रे गैया एक विरंचि दियो है भार अमर भो भाई। नौ नारी को पानी पियत है तृषा तऊ न बुझाई। कोठा बहतरि औ लौ लावे बज्र केवार लगाई। खूँटा गाड़ि डोर दृढ़ बाँधो तउ वह तोरि पराई।—कबीर (शब्द०)। (ग) देखि विकट भट बड़ि कटकाई। जच्छ जीव लइ गए पराई।—मानस, १।१७९। (घ) जासु देस नृप लीन्ह छोड़ाई। समर सेन तजि गयउ पराई।—तुलसी (शब्द०)।

परानी †
संज्ञा पुं० [सं० प्राणी] दे० 'प्राणी'। उ०—बूझोरे नर परानी क्या सुपचै अधिकार। गण गंधर्व मुनि देव ऋषि सब मिलि कीन्ह अहार।—कबीर सा०, पृ० ५१।

परान्न
संज्ञा पुं० [सं०] पराया धान्य। दूसरे का दिया हुआ भोजन।

परान्नभोजी
वि० [सं० परान्नभोजिन्] दूसरे का दिया अन्न खाकर जीवनयापन करनेवाला [को०]।

परापति †पु
संज्ञा स्त्री० [सं० प्राप्ति] दे० 'प्राप्ति'। उ०—जन रज्जब गुरु की दया दृष्टि परापति होय। प्रगट गुपत पिछानिए जिसहिं न दीखै कोय।—रज्जब०, पृ० ५।

परापर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] फालसा।

परापर (२)
वि० [सं० परात्पर] दे० 'परात्पर'। उ०—ब्रह्मसार निराकार परापर नूर पियारो। बसो सर्बे जहँ वास नाथ निज आप नियारो।—राम० धर्म०, पृ० १७३।

परापर (३)
वि० [सं०] वैशेषिक के अनुसार परत्व और अपरत्व गुणों से युक्त [को०]।

परापरी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परा + अपरा] परत्व और अपरत्व। विद्या और अविद्या। ज्ञान और अज्ञान। उ०—परापरी पासै रहै, कोई न जाणै ताहि। सतगुरु दिया दिखाइ करि, दादू रह्या ल्यौ लाइ।—दादू०, पृ० ८।

परापित †
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'प्राप्ति'। उ०—धरम पंथ छाड़ौ जनि कोई। धरमहि सिद्धि परापित होई।—चित्रा०, पृ० ४४।

पराभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. पराजय। हार। क्रि० प्र०—करना।—होना। २. तिरस्कार। मानध्वंस। ३. विनाश। ४. वैश्य युग के अंतर्गत पाँचवा वर्ष। विशेष—बृहत्संहिता के अनुसार इस वर्ष अग्नि, शस्त्र पीड़ा, रोग, आदि होते हैं और गो ब्राह्मण को विशेष भय होता है।

पराभिक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के वानप्रस्थ जो गृहस्थों के घर से थोड़ी भिक्षा लेकर वन में अपना कालक्षेप करते हैं।

पराभूत
वि० [सं०] १. पराजित। हारा हुआ। २. ध्वस्त। नष्ट। ३. अनादृत। तिरस्कृत (को०)।

पराभूति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'पराभव' [को०]।

पराभौ †
संज्ञा पुं० [सं० पराभव] १. तिरस्कार। अनादर। उ०— तब लौं उबैने पाय फिरत पेटै खलाय बाये मुह सहत पराभौ देस देस को।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२८। २. दे० 'पराभव'।

परामर्श
संज्ञा पुं० [सं०] १. पकड़ना। खींचना। जैसे, केश परामर्श। २. विवेचन। विचार। ३. निर्णय। ४. अनुमान। ५. स्मृति। याद। ६. युक्ति। ७. सलाह। मंत्रणा। उ०— तुम्हारा चित्त कुछ और ही परामर्श देता है।—अयोध्या (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—देना।—लेना।—मिलना।—होना। ८. व्याधिग्रस्त होना (को०)। ९. आक्रमण (को०)। १०. स्पर्शन। ११. न्याय में व्याप्ति वि/?/ष्ट पक्षधर्म का होना। अनुमिति (को०)।

परामर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. खींचना। २. स्मरण। चिंतन। ३. विचार करना। ४. सलाह करना। मशवरा करना।

परामृत (१)
वि० [सं०] जो मृत्यु आदि के बंधन से छूट गया हो। मुक्त।

परामृत (२)
संज्ञा पुं० वर्षा। वर्षण [को०]।

परामृष्ट
वि० [सं०] १. पकड़कर खींचा हुआ। २. पीड़ित। ३. विचारा हुआ। निर्णय किया हुआ। ४. जिसकी सलाह दी गई हो। ५. संबंधयुक्त। संबद्ध (को०)। ६. छूआ हुआ। स्पृष्ट (को०)।

परायचा
संज्ञा पुं० [फा़० पारचह् (=कपड़ा)] १. पड़ों के कटे टुकड़ों की टोपियाँ इत्यादि बनाकर बेचनेवाला। २. सिले सिलाए कपड़े बेचनेवाला।

परायण (१)
वि० [सं०] १. गत। गया हुआ। २. निरत। प्रवृत्त। तत्पर। लगा हुआ। जैसे, धर्मपरायण, नीतिपरायण। ३. आश्रित। अवलंबित (को०)। ४. त्राता। रक्षक (को०)।

परायण (२)
संज्ञा पुं० १. भागकर शरण लेने का स्थान। आश्रय। २. विष्णु। ३. अंतिम लक्ष्य। प्रधान या उत्कृष्ट लक्ष्य (को०)। ४. सार। तत्व (को०)।

परायत्त
वि० [सं०] पराधीन।

परायन पु
वि० [सं० परायण] १. निरत। प्रबृत्त। तत्पर। उ०— काम क्रोध मद लोभ परायन। निर्दय कपटी कुटिल मलायन।—मानस, ७।६९। २. दे० 'परायण'।

पराया
वि० पुं० [सं० परकीय>परईय>पराया, या सं० पर + हिं० आया (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० पराई] १. दूसरे का। अन्य का। जैसे, पराया माल, पराया धन, पराई स्त्री। उ०— (क) औ जानहि तन होइहि नासू। पोखै मास पराये मासू।—जायसी (शब्द०)। (ख) मुनिहिं मोह मन हाथ पराये। हँसहिं संभु गन अति सचुपाये।—तुलसी (शब्द०)। २. जो आत्मीय न हो। जो स्वजनों में न हो। गैर। बिराना। उ०— बिगरत अपनो काज है हँसत पराये लोग।—(शब्द०)। मुहा०—अपना पराया समझना = (१) यह ज्ञान होना कि कौन बिराना है। शत्रु, मित्र भला बुरा पहचानना। (२) भेदभाव रखना। पराया मुँह ताकना = औरों का भरोसा करना। दूसरों का मुँह जोहना। उ०—जो रहे ताकते पराया मुँह, तो दुखों से न किसलिये जकड़े।—चुभते०, पृ० १०।

परायु
संज्ञा पुं० [सं० परायुस्] ब्रह्मा।

परार पु
वि० [सं० पर + आर (प्रत्य०)] [वि० स्त्री० परारी] दूसरे का। पराया। बिराना। उ०—बादर की छाँही बैसे जीवन जग माँही, उठि देखु नाहीं कौन आपनों परार है।—(शब्द०)।

परारथ पु
संज्ञा पुं० [सं० परार्थ] १. मोक्ष। परार्थ। मुक्ति। उ०— पंचकोस पुन्य कोस स्वारथ परारथ को जानि आप आपने सुपास बास दियो है।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३४१। २. दे० 'परार्थ'।

परारध पु
संज्ञा पुं० [सं० परार्द्ध] दे० 'परार्द्ध'।

परारबध, पराब्ध ‡
संज्ञा पुं० [सं० प्रारब्ध] भाग्य। किस्मत।

परारि
अव्य० [सं०] परियार साल। पर साल के पहले या बाद के वर्ष में [को०]।

परारू
संज्ञा पुं० [सं०] करेला।

परारुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पाषाण। पत्थर। चट्टान [को०]।

परार्थ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरे का काम। दूसरे का उपकार। स्वार्थ का उलटा। उ०—स्वार्थ सदा रहना परार्थ दूर, और वही परार्थ जो रहे।—अपरा, पृ० १३७। २. सर्वोत्कृष्ट लाभ (को०)। ३. मोक्ष। मुक्ति (को०)।

परार्थ (२)
वि० १. जो दूसरे के अर्थ हो। परनिमित्तक। २. अन्य लक्ष्यवाला। अन्यार्थक [को०]।

परार्द्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. सबसे बड़ी संख्या। वह संख्या जिसेलिखने में अठारह अंक लिखने पड़ें। १, ००, ००, ००, ००, ००, ००,००, ०००। एक शंख। २. ब्रह्मा की आयु का आधा काल। ३. परवर्ती आधा। पूर्वार्ध का उलटा (को०)।

परार्द्धि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

परार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परार्द्ध'।

परालब्ध †
संज्ञा पुं० [सं० प्रारब्ध] दे० 'प्रारब्ध'। उ०—पलटू वह एक है परालब्द है जोर।—पलटू०, पृ० २०।

परालब्धि †
संज्ञा स्त्री० [सं० प्रारब्ध, हिं० परालब्ध + ई (प्रत्य०)] भाग्य। किस्मत। प्रारब्ध। उ०—अपना किया आपही पावै। परालब्धि वह नाम कहावै।—कबीर सा०, पृ० ३०।

पराव पु †
वि० [सं० पर] दे० 'पराया'। उ०—जननी सम जानहिं पर नारी। धनु पराव विष तें विष भारी।— मानस, २।१३०। (ख) बिरह दिवस व्याकुल महतारी। निजु पराव नहिं हृदय सम्हारी।—रामाश्वमेध (शब्द०)।

परावठा
संज्ञा पुं० [हिं० पराँठा] दे० 'परौठा'। उ०—रायसाहिब देवीदास तड़के ही परावठे और फल लाए।—किन्नर०, पृ० ५।

परावत
संज्ञा पुं० [सं०] फालसा।

परावन (१)
संज्ञा पुं० [सं० पलायन, हिं० पराना] एक साथ बहुत से लोगों का भागना। भगदड़। भागड़। पलायन। उ०— (क) फिरत लोग जँह तहँ बिललाने। को है अपने कौन बिराने। ग्वाल गए जे धेनु चरावन। तिन्है परयौ बन माँझ परावन।—सूर (शब्द०)। (ख) जेहि न होइ रन सनमुख कोई। सुरपुर नितहिं परावन होई।—तुलसी (शब्द०)।

परावन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० पड़ना, पड़ाव] गाँव के लोगों का घर के बाहर डेरा डालकर पूजा और उत्सव करने की रीति। उ०—भजे अँध्यारी रैनि मैं भयो मनोरथ काज। पूरे पूरब पून्य तें परयो परावन आज।—मति० ग्रं०, पृ० ४४८।

परावर (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० परावरा] १. सर्वश्रेष्ठ। २. अगला पिछला। ३. निकट का दूर का। ४. इधर का उधर का।

परावर (२)
संज्ञा पुं० १. समग्रता। अखिलता। संर्पूणता। २. विश्व। ३. कारण और कार्य [को०]।

परावरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपनिष्द् विद्या [को०]।

परावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रत्यावर्तन। पलटने का भाव। लौटना। पलटाव। २. अदल बदल। लेन देन। ३. फैसला बरलाना। निर्णय उलटना (को०)। ४. ग्रंथ की आवृत्ति। उद्धरणी (को०)।

परावर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रत्यावर्तन। पलटना। लौटना। पीछे फिरना। २. जैन दर्शन के अनुसार ग्रंथों का दोहराना। उद्धरणी। आम्नाय। ३. दे० 'परावर्त'।

परावर्त्त व्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुकदमे की फिर से जाँच। मुकदमे का फिर से फैसला।

परावर्त्तित
वि० [सं०] पलटाया हुआ। पीछे फेरा हुआ।

परावर्ती
वि० [सं० परावर्त्तिन्] परावर्तित होनेवाला [को०]।

परावर्त्त्य
वि० [सं०] जो परावर्त्तित किया जा सके। पलटने के योग्य [को०]। यौ०—परावर्त्य व्यवहार = दे० 'परावर्त व्यवहार'।

परावसु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शतपथ ब्राह्मण के अनुसार असुरों के पुरोहित का नाम। २. महाभारत के अनुसार रैभ्य मुनि के एक पुत्र का नाम। ३. एक गंधर्व का नाम। ४. विश्वामित्र के एक पुत्र पौत्र का नाम। ५. संवत्सर के साठ चक्रों में से ४०वें संवत्सर का नाम (को०)।

परावह
संज्ञा पुं० [सं०] वायु के सात भेदों में से एक।

परावा पु †
वि० [सं०] दे० 'पराया'। उ०—करहि मोहवस द्रोह परावा। संत संग हरि कथा न भावा।—मानस, ७। ४०।

पराविद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] कुबेर। यक्षप/?/[को०]।

परावृत्त
वि० [सं०] १. पलटा हुआ या पलटाया हुआ। फेरा हुआ। २. बदला हुआ।

परावृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पलटने या पलटाने का भाव। पलटाव। २. मुकदमे का फिर से विचार या फैसला।

परावेदी
संज्ञा स्त्री० [सं०] कटाई। भटकटैया।

पराव्याध
संज्ञा पुं० [सं०] पत्थर को फेकना। हाथ से प्रस्तर के फेके जाने पर उसकी गिरने की दूरी या फासला [को०]।

पराशर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गोत्रकार ऋषि जो पुराणानुसार वसिष्ठ और शक्ति के पुत्र थे। विशेष—इनके पिता का देहांत इनके जन्म के पूर्व हो चुका था अतः इनका पालन पोषण इनके पितामह वसिष्ठ जी ने किया था। यही व्यास कृष्ण द्वैपायन के पिता थे। २. चरक संहिता के अनुसार आयुर्वेद के एक आचार्य का नाम। ३. एक प्रसिद्ध स्मृतिकार। इनकी स्मृति पराशर स्मृति के नाम से प्रख्यात है और कलियुग के लिये प्रमाणभूत मानी जाती है। ४. एक नाम का नाम। ५. ज्योतिष शास्त्र के एक आचार्य जिनकी रची पराशरी संहिता है। ६. गृह्य सूत्रों में से एक।

पराशरी
संज्ञा पुं० [सं० पराशरिन्] १. भिक्षुक। २. संन्यासी [को०]।

पराश्रय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरे का सहारा। पराया भरोसा। दूसरे का अवलंब। २. पराधीनता।

पराश्रय (२)
संज्ञा पुं० पराश्रित। पराधीन [को०]।

पराश्रया
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाँदा। बंदाक। परगाछा।

पराश्रित
वि० [सं०] १. जिसे दूसरे का ही आसरा हो। जिसका काम दूसरे से चलता हो। २. दूसरे के अधीन।

परासग
संज्ञा पुं० [सं० परासङ्ग] अन्य का आश्रय। पराश्रय [को०]।

परास (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी स्थान से उतनी दूरी जितनी दूरी पर उस स्थान से फेंकी हुई वस्तु गिरे। २. टीन।

परास पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० पलाश] दे० 'पलास'। उ०—जर परास कोइला के भेसू। तव फूलै राता होइ टेसू।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० ३३०।

परासक्त
वि० [सं०] दूसरे पर आसक्त। दूसरे से बँधा हुआ। किसी अन्य के वशीभूत। उ०—योग युक्ति करि याको पावै। परासक्त अपने वश लावै।—अष्टांग०, पृ० ८१।

परासचित †
संज्ञा पुं० [सं० प्रायश्चित्त] दे० 'प्रायश्चित्त'। उ०— कुकर्म का परासचित तो करना ही पड़ता है।—गोदान, पृ० २२१।

परासन
संज्ञा पुं० [सं०] हत्या। बध। हनन [को०]।

परासी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक रागिनी का नाम। दे० 'पलाश्री'।

परासु
वि० [सं०] जिसका प्राण निकल गया हो। मरा हुआ। मृत।

परास्कंदी
वि० [सं० परास्कन्दिन्] चौर। स्तेन। चोर [को०]।

परास्त
वि० [सं०] १. पराजित। हारा हुआ। २. विजित। ध्वस्त। ३. प्रभावहीन। दबा हुआ। से, ज्ञान अज्ञान जैसे परास्त हो गया। ४. जो स्वीकृत न हो। अस्वीकृत (को०)। ५. क्षिप्त। फेका हुआ (को०)।

परास्तता
संज्ञा स्त्री० [सं० परास्त + ता] पराजय। हार। उ०— आई परास्तता कर्म भोग में जिसके।—साकेत, पृ० २१८।

पराह
संज्ञा पुं० [सं०] दूसरा दिन। वर्तमान के आगे या पीछे का दिवस [को०]।

पराहत
वि० [सं०] १. आक्रांत। ध्वस्त। २. मिटाया हुआ। दूर किया हुआ। ३. निराकृत। खंडित। ४. जीता हुआ।

पराहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रत्याख्यान। खंडन (को०)।

पराहृति
वि० [सं०] दूर किया या हटाया हुआ [को०]।

पराह्न
वि० [सं०] अपराह्न। दोपहर के बाद का समय। तीसरा पहर।

परिंद, परिंदा
संज्ञा पुं० [फा़० परिन्दह्] पक्षी। चिड़िया। उ०—(क) हबा जो पधारी सनकती, बहकती परिंदों की टोली जो आई चहकती।—अपलक, पृ० ९२। (ख) मेरे प्राण परिंदों से ही डूब डूब जाते रंगों में, संध्या के सौ रंग सौ तरह भर जाते मेरे अंगों में।—मिट्टी०, पृ० ७७। (ग) ऐसी जगह ले चलो जहाँ परिंदा पर न मारता हो। फिसा०, भा० ३, पृ० ५४।

परि (१)
उप० [सं०] एक संस्कृत उपसर्ग जिसके लगने से शब्द में इन अर्थों की वृद्धि होती है। १. चारों ओर। जैसे, परिक्रमण, परिवेष्टन, परिभ्रमण, परिधि। २. सर्वतोभाव। अच्छी तरह। जैसे, परिकल्पन, परिपूर्ण। ३. अतिशय। जैसे, परिवर्द्धन। ४. पूर्णता। जैसे, परित्याग, परिताप। ५. दोषाख्यान। जैसे, परिहास, परिवाद। ६. नियम। क्रम। जैसे, परिच्छेद।

परि (२)
अव्य० [हिं०] प्रकार। भाँति। तरह। उ०—(क) जब सोऊँ तब जागवइ, जब जागू तब जाइ। मारू ढोलउ संमरइ, इणि परि रयण बिहाइ।—ढोला०, दू० ७६। (ख) संग सखी सील कुल वेस समाणी पेखि कली पदमिणी परि।—बेलि०, दू० १४।

परि पु (३)
प्रत्य० [हिं०] दे० 'पर'। उ०—बदन कमल परि घूँघर केस। देखि कै गोरज छुभित सुबेस।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२१।

परिकंप
संज्ञा पुं० [सं० परिकम्प] १. भय। डर। २. कंपन। कँपकँपी [को०]।

परिक
संज्ञा स्त्री० [देश०] खराब चाँदी। खोटी चाँदी। (सुनार)।

परिकथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक कहानी के अंतर्गत उसी के संबंध की दूसरी कहानी। अंतर्कथा।

परिकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पर्यक। पलंम। २. परिवार। उ०— भव भवा सबै परिकर समेत।—ह० रासो, पृ० ६१। ३. बृंद। समूह। ४. घेरनेवालों का समूह। अनुयायियों का दल। अनुचर वर्ग। लवाजमा। उ०—श्री बृंदाबन राज है, जुगल केलि रस धास। तहँ के परिसर आदि को, बरनत या थल नाम।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ६४७। ५. समारंभ। तैयारी। ६. कमरबंद। पट्टका। उ०—मृग बिलोकि कटि परिकर बाँधा। करतर चाप रुचिर सर साँधा।—मानस, ३।२७। ७. विवेक। ५. एक अर्थालंकार जिसमें अभिप्राय भरे हुए विशेषणों के साथ विशेष्य आता है। जैसे,— हिमकरबदनी तिय निरखि पिय दृग शीतल होय। ९. नाटक में भावी घटनाओं का संक्षेप में सूचन जिसे बीज कहते हैं (को०)। १०. कार्य में सहायक। सहकर्मी (को०)। ११. फैसला। निर्णय (को०)।

परिकरमा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परिक्रमा] दे० 'परिक्रमा'। उ०— जप जोग दान विधान बहु विधि करै कर्म अनेक हो। सत कोटि तीरथ भूमि परिकरमा करि न पावै थेक हो।—कबीर सा०, पृ० ४११।

परिकरांकुर
संज्ञा पुं० [सं० परिकराङ्कुर] एक अर्थालंकार जिसमें किसी विशेष्य या शब्द का प्रयोग विशेष अभिप्राय लिए हो। जैसे,—वामा, भामा, कामिनी कहि बोलो प्रानेस। प्यारी कहत लजात नहिं पावस चलत विदेस।—बिहारी। यहाँ वामा (जो वाम हो) आदि शब्द विशेष अभिप्राय लिए हुए हैं। नायिका कहती है कि जब आप मुझे छोड़ विदेश जा रहे हैं तब इन्हीं नामों से पुकारिए, प्यारी कहकर न पुकारिए।

परिकर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काटना। कर्तन। २. शूल। पीड़ा। ३. गोलाकार कर्तन। वृत्ताकार काटना [को०]।

परिकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० परिकर्तृ] वह याजक पुरोहित जो ज्येष्ठ के अविवाहित रहने पर कनिष्ठ का विवाह कराए [को०]।

परिकर्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] तीखा दर्द। चूभनेवाला तीक्ष्ण शूल [को०]।

परिकर्म
संज्ञा पुं० [सं० परिकर्मन्] १. देह में चंदन, केसर, उबटन आदि लगाना। शरीरसंस्कार। २. पैर में महावर आदि रचना (को०)। ३. गणित के आठ अंग या विभाग (को०)। ४. पूजन। अर्चन (को०)।

परिकर्मा (१)
संज्ञा पुं० [सं० परिकर्मन्] परिचारक। सेवक।

परिकर्मा पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० परिक्रमा] दे० 'परिक्रमा'। उ०— बार बार परिकर्मा दै कै सुंदर बदन बिलोकन कै कै।—नंद० ग्रं०, पृ० २७४।

परिकर्मी
वि० [सं० परिकर्मिन्] दास। सेवक [को०]।

परिकर्ष, परिकर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृत्त। घेरा। २. बाहर निकालना। बाहर खींचना [को०]।

परिकर्षित
वि० [सं०] १. प्रपीड़ित। उत्पीड़ित। २. खींचा हुआ। कर्षित [को०]।

परिकलित (१)
वि० [सं०] आकलित। भूषित। अलंकृत। उ०—जब तक काव्य-भावना-परिकलित सहृदय सामाजिक का हृदय स्वाभिमान की वासना से वासित नहीं होगा तब तक भाव भाव मात्र रह जाएगा।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३११।

परिकलित (२)
संज्ञा पुं० अनुमान। आकलन [को०]।

परिकल्कन
संज्ञा पुं० [सं०] प्रवंचना। दगाबाजी।

परिकल्पन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिकल्पित] १. मनन। चिंतन। २. बनावट। रचना। ३. बंटन। बाँटना (को०)। ४. निश्चय करना। निश्चयन (को०)।

परिकल्पना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिकल्पन'। उ०—अब पुरा- तत्ववेत्ताओं ने तदनुरूप स्थानों की खोज एवं परिकल्पनाएँ कर ली हैं।—आधुनिक० (भू०)—क।

परिकल्पित
वि० [सं०] १. कल्पना किया हुआ। सोचा हुआ। २. मन में गढ़ा हुआ। मनगढ़ंत। ३. निश्चित। ठहराया हुआ। ४. मन में सोचकर बनाया हुआ। रचित। ५. विभक्त। अंशों में बाँटा हुआ। ६. बाँटा हुआ (को०)।

परिकांक्षित
संज्ञा पुं० [सं० परिकाङ्क्षित] तपसी। भक्त [को०]।

परिकीर्ण
वि० [सं०] १. व्यास। विस्तृत। फैला हुआ। २. सम- पित। ३. परिवेष्टित (को०)।

परिकीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊँचे स्वर से कीर्तन। खूब गाना। २. गुणों का विस्तृत वर्णन। अधिक प्रशंसा। ३. घोषित करना। घोषणा करना (को०)।

परिकीर्तित
वि० [सं०] परिकीर्तन किया हुआ [को०]।

परिकूट
संज्ञा पुं० [सं०] १. नगर या दुर्ग के फाटक पर की खाई। २. एक नागराज।

परिकूल
संज्ञा पुं० [सं०] किनारे की भूमि। तटवर्ती भूमि [को०]।

परिकृश
वि० [सं०] अत्यंत कृश या क्षीण। अत्यंत दुबला पतला [को०]।

परिकोप
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत क्रोध। तीव्रतर कोप [को०]।

परिक्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. टहलना। घूमना। २. चारो ओर घूमना। फेरी देना। परिक्रमा। ३. क्रम। श्रेणी। ४. प्रवेश।

परिक्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] १. टहलना। मन बहलाने के लिये घूमना। चारों ओर घूमना। फेरी देना। दे० 'परिक्रम'।

परिक्रमसह
संज्ञा पुं० [सं०] छाग। बकरा [को०]।

परिक्रमा
संज्ञा स्त्री० [सं० परिक्रम] १. चारो ओर घूमना। फेरी। चक्कर। प्रदक्षिणा। क्रि० प्र०—करना।—होना। विशेष—किसी तीर्थस्थान या मंदिर के चारों ओर जो घूमते हैं उसे परिक्रमा कहते हैं। २. किसी तीर्थ या मंदिर के चारो ओर घूमने के लिये बना हुआ मार्ग।

परिक्रमित
वि० [सं० परिक्रम + इत (प्रत्य०)] परिक्रमा की हुई। जिसकी परिक्रमा की गई हो। ड०—स्वर्ग खंड षड् ऋतु परिक्रमित, आम्र मंजरित, मधुप गुंजरित। कुसुमित फल- द्रुम पिक कल कूजित, उर्वर अभिमत हे।—ग्राम्या, पृ० ५५।

परिक्रम, परिक्रयण
संज्ञा पुं० [सं०] १ मोल। खरीद। २. किराया। भाड़ा (को०)। ३. मजदूरी पर काम करना (को०)। ४. द्रव्य देकर कोई चीज खरीदना (को०)। ५. वह खरीद जिसके क्रयवस्तु के परिवर्तन में कोई वस्तु दी जाय (को०)।

परिक्रय संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० परिक्रय सन्धि] वह संधि जो जंगली पदार्थ, धन या कोश का कुछ भाग या संपूर्ण कोश देकर की जाय। (कामंदक)।

परिक्रांत (१)
वि० [सं० परिक्रान्त] जिसकी परिक्रमा की गई हो [को०]।

परिक्रांत (२)
संज्ञा पुं० १. वह स्थान जिसपर क्रमण या गमन किया गया हो। २. कदम। डग [को०]।

परिक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खाई आदि से घेरने की क्रिया। २. एक प्रकार का एकाह यज्ञ जो स्वर्ग की कामना से किया जाता है। ३. घेरना। आवेष्टित करना (को०)। ४. दे० 'परिकर' (को०)। ५. मनोयोग (को०)।

परिक्लांत
वि० [सं० परिक्लान्त] जो थककर चूर हो गया हो। बहुत श्रांत [को०]।

परिक्लिष्ट (१)
वि० [सं०] १. नष्ट। भ्रष्ट। परिक्षत। २. अतिक्लिष्ट। अतिगूढ़।

परिक्लिष्ट (२)
संज्ञा पुं० परेशानी। क्लेश। तकलीफ [को०]।

परिक्लेद
संज्ञा पुं० [सं०] तरी। आर्द्रता [को०]।

परिक्वणन
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।

परिक्षत
वि० [सं०] नष्ट। भ्रष्ट।

परिक्षति
संज्ञा स्त्री० [सं०] पीड़ा। कष्ट। क्षति [को०]।

परिक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] नाश। विनाश। बरबादी [को०]।

परिक्षव
संज्ञा पुं० [सं०] छींक। छिक्का।

परिक्षा (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कीचड़। कर्दम।

परिक्षा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० परीक्षा] दे० 'परीक्षा'।

परिक्षाम
वि० [सं०] अत्यंत दुर्बल। कमजोर [को०]।

परिक्षालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. भली भाँति धोना। अच्छी तरह पखारना। २. वह पानी जो धोने के काम आए [को०]।

परिक्षित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक राजा जो अभिमन्यु का पुत्र था। वि० दे० 'परीक्षित'। ३. अग्नि का एक नाम (को०)।

परिक्षित
वि० [सं०] १. खाई आदि से घेरा हुआ। २. सब ओर से घिरी हुई (सेना)। वि० दे० 'उपरुद्ध'। ३. इतस्ततः क्षिप्त। विकीर्ण (को०)। ४. छोड़ा हुआ। त्यक्त (को०)।

परिक्षीण
वि० [सं०] १. निर्धन। २. दुर्बल और अशक्त (सेना)। ३. अत्यंत कृश (को०)। ४. लुप्त। नष्ट (को०)।

परिक्षीव
वि० [सं०] मतवाला। उन्मत्त [को०]।

परिक्षेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. परित्याग। २. टहलना। ३. फैलाना। ४. घेरना। ५. घेरनेवाली वस्तु। ५. ज्ञानेंद्रिय [को०]।

परिखन
वि० [हिं० परखना] निगहबानी करनेवाला। देख रेख करनेवाला। अगोरिया। उ०—गरम माहिं रक्षा करी जहाँ हितू नहिं कोइ। अब का परिखव पालिहैं विपिन गए मँह सोइ।—विश्राम (शब्द०)।

परिखना † (१)
क्रि० स० [सं० परीक्षा] पहचानना। जाँचना। परीक्षा करना। इम्तहान करना।

परिखना (२)
क्रि० स० [सं० प्रतीक्षण] इंतजार करना। राह देखना मार्ग प्रतीक्षा करना। आसरा देखना। उ०—परिखेसि मोहिं एक पखवारा। नहिं आवउँ तब जानेसि मारा।—तुलसी (शब्द०)।

परिखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह गहरा गड्ढा जो किसी नगर या दुर्ग के चारों ओर इसलिये खोदा जाता था कि शत्रु उसमें सहज में न घुस सकें। किसी नगर या दुर्ग को घेरनेवाली खाईं। खंदक। खाईं। ३. तल या मूल (लाक्ष०)।

परिखात
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'परिखा'। २. खाईं खोदने का कार्य। ३. हल से जोतने की क्रिया। हराई। बाह [को०]।

परिखान
संज्ञा स्त्री० [सं० परिखात] गाड़ी के पहिए की लीक।

परिखिन्न
वि० [सं०] अत्यंत खिन्न। कष्टग्रस्त। पीड़ित [को०]।

परिखेद
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत खेद। अत्यधिक थकान [को०]।

परिख्यात
वि० [सं०] विख्यात। प्रसिद्ध। मशहूर।

परिख्याति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रसिद्ध [को०]।

परिगणन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिगणित, परिगणनीय, परिगण्य] १. भली भाँति गिनना। सम्यक् रीति से गिनना। २. गिनना। गणना करना। शुमार करना।

परिगणना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिगणन'।

परिगणनीय
वि० [सं०] परिगणना के योग्य [को०]।

परिगणित
वि० [सं०] गिना हुआ। जिसकी गिनती हो चुकी हो। उ०—वंग देश में जिस चाल के बहुत से नाटक बन भी चुके हैं वह सब नवीन भेद में परिगणित हैं।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ७१९।

परिगण्य
वि० [सं०] दे० 'परिगणित'।

परिगत
वि० [सं०] १. गत। बीता हुआ। गया गुजरा। २. मरा हुआ। मृत। ३. विस्मृत। जिसे भूल गए हों। ४. ज्ञात। जाना हुआ। ५. प्राप्त। मिला हुआ। ६. वेष्टित। घेरा हुआ ७. स्मृत। स्मरण किया हुआ (को०)। ८. बाधित। बाधा- युक्त (को०)। ९. पीड़ित। पीड़ायुक्त (को०)।

परिगम
संज्ञा पुं० [सं०] १. घेरना। आवेष्टित करना। २. जानना। ३. प्राप्त करना। ४. व्याप्त होना या करना [को०]।

परिगमन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिगम' [को०]।

परिगर्भिक
संज्ञा पुं० [सं०] वैद्यक के अनुसार बालकों का एक रोग जो गर्भिणी माता का दूध पीने से होता है। विशेष—इसमें बालक को खाँसी, कै अरुचि और तंद्रा होती है, उसका शरीर दुबला हो जाता है, भोजन नहीं पचता, और पेट बढ़ जाता है। वैद्यक में इस रोग में अग्निदीपक औषधों के सेवन का विधान है।

परिगर्वित
वि० [सं०] बहुत गर्ववाला। भारी घमंडी।

परिगर्हण
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत निंदा। विशेष गर्हण [को०]।

परिगलित
वि० [सं०] १. गला हुआ। गलित। २. तरल। पिघला हुआ। ३. च्युत। नीचे गिरा हुआ। ४. गायब। लुप्त [को०]।

परिगह पु
संज्ञा पुं० [सं० परिग्रह] कुटुंबी। संगी साथी या आश्रित जन। उ०—राजपाट दर परिगह तुमहीं सउँ उँजियार। बइठि भोग रस मानहु कह न चलहु अँधियार।—जायसी (शब्द०)।

परिगहन
संज्ञा पुं० [सं०] अत्यंत घना। अत्यंत गहन [को०]।

परिगहना पु
क्रि० स० [सं० परिग्रहण] ग्रहण या स्वीकार करना। आसरा देना। सहारा देना। उ०—तेरे मुह फेर मोसे कायर कपूत कूर लटे लटपटेनि को कौन परिगहैगो।—तुलसी ग्रं०, पृ० ५८७।

परिगाढ
वि० [सं०] अत्यधिक। बहुत ज्यादा [को०]।

परिगीत
वि० [सं०] बहुत अधिक वर्णित [को०]।

परिगीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का वृत्त। एक छंद [को०]।

परिगुंठित
वि० [सं० परिगुण्ठित] छिपाया हुआ। ढका हुआ।

परिगुंडित
वि० [सं० परिगुण्डित] धूल से छिपा हुआ। गर्द से ढका हुआ।

परिगूढ
वि० [सं०] जो समझ में कठिनता से आए। अत्यंत गूढ़ [को०]।

परिगृद्ध
वि० [सं०] अत्यंत लालची। विशेष लालचवाला [को०]।

परिगृहीत
वि० [सं०] १. स्वीकृत। मंजूर किया हुआ। २. मिला हुआ। शामिल। ३. चारो ओर से घेरा हुआ। चारो ओर से आवृत (को०)। ४. धारण या ग्रहण किया हुआ (को०)। ५. अनुगमित। अनुसृत (को०)। ६. पकड़ा हुआ (को०)। ७. संरक्षित। सुरक्षित (को०)।

परिगृहीता (१)
वि० [सं०] विवाहिता। परिणीता [को०]।

परिगृहीता (२)
संज्ञा पुं० [सं० परिगृहीतृ] १. पति। २. सहयोगी। सहायक। ३. वह व्यक्ति जो गोद ले [को०]।

परिगृह्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] विवाहिता स्त्री। धर्मपत्नी।

परिग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रतिग्रह। ग्रहण। लेना। दान लेना। २. पाना। ३. धनादि का संग्रह। ४. स्वीकार। अंगीकार। आदरपूर्वक कोई वस्तु लेना। ५. स्त्री को अँगीकार करना। विवाह। ६. पत्नी। स्त्री। भार्या। ७. सेना का पिछला भाग ८. परिजन। परिवार। स्त्री पुत्र आदि। ९. राहुग्रस्त सूर्य। १०. मुलकंद। ११. शाप। १२. शपथ। कसम। १३. विष्णु। १४. अनुग्रह। मिहरबानी। १५. जैन शास्त्रों के अनुसार तीन प्रकार के गतिनिबंधन कर्म-द्रव्य-परिग्रह, भावपरिग्रह और द्रव्यभावपरिग्रह। १६. कुछ विशिष्ट वस्तुएँ संग्रह न करने का व्रत। १७. राष्ट्र। राज्य (को०)। १८. दंड (को०)। १९. गृह। मकान। घर (को०)।

परिग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सब प्रकार से ग्रहण। पूर्ण रूप से ग्रहण करना। २. कपड़े पहनना।

परिग्राम
संज्ञा पुं० [सं०] गाँव के सामने का भाग।

परिग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] एक विशेष प्रकार की यज्ञवेदी।

परिग्राह्य
वि० [सं०] ग्रहण करने योग्य। जो ग्रहण किया जा सके।

परिघ
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहाँगी। गँड़ासा। २. ज्योतिष में एक योग। २७ योगों के अंतर्गत १९वाँ योग। विशेष—इस योग को आधा छोड़कर शुभ कर्म करने चाहिए। जन्मकाल में यह योग पड़ने से मनुष्य वंशकुठार, असत्य- साक्षी क्षमाहीन, स्वल्पानुभोक्ता और शत्रुदल को जीतनेवाला होता है। ३. अर्गला। अगड़ी। ४. मुदगर । ५. शूल। भाला। बर्छी। ६. कलस। ७. घोड़ा। ८. गोपुर। फाटक। ९. घर। १०. स्वामिकार्तिक का एक अनुचर। ११. तीर। १२. पर्वत १३. वज्र। १४. शेषनाग। १५. जल। १६. चंद्र। १७. सूर्य। १८. नदी। १९. स्थल। २०. आनंद और सुख की निवारक अविद्या। २१. बाधा। प्रतिबंध। २२. महाभारत के अनुसार एक चांडाल का नाम। २३. सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार का मूढ़ गर्भ। २४. वे बादल जो सूर्य के उदय या अस्त होने के समय उसके सामने आ जाँय। २५. शीशे का घड़ा या जलपात्र (को०)।

परिघट्टन
संज्ञा पुं० [सं०] (कलछी से) चारो ओर से घर्षण करना। दर्वी आदि से चलाना [को०]।

परिघट्टित
वि० [सं०] घर्षण किया हुआ। चलाया या मथा हुआ [को०]।

परिघमूढ़गर्भ
संज्ञा पुं० [सं० परिघमूढगर्भ] वह बालक जो प्रसव के समय योनि के द्वार पर आकर अगड़ी की तरह अटक जाय।

परिघर्म, परिघर्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] यज्ञ में काम आनेवाला एक विशेष पात्र।

परिघह पु
संज्ञा पुं० [सं० परिग्रह] दे० 'परिगह' या 'परिग्रह'। उ०—राम दे राव जालौर धर गोइंद गढ्ढ धामनि ग्रसै। दाहिम्म बयानै उप्पनौ पृथीराज परिघह बसै।—पृ० रा०, १।५८४।

परिघात
संज्ञा पुं० [सं०] १. हत्या। हनन। मार डालना। २. वह अस्त्र जिससे किसी की हत्या की जा सकती हो। ३. उल्लंघन करना (को०)। ४. लोहे की गदा या मुदगर (को०)। ५. नष्ट करना (को०)।

परिघातन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिघात' [को०]।

परिघाती
वि० [सं० परिघातिन्] १. परिघात करनेवाला। हत्याकारी। मार डालनेवाला। २. उल्लंघन करनेवाला (को०)। ३. नष्ट करनेवाला (को०)।

परिघृष्ट
वि० [सं०] अत्यंत घर्षित। अच्छी तरह घृष्ट [को०]।

परिघृष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का वानप्रस्थ [को०]।

परिघोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघगर्जन। बादल का गरजना। २. शब्द। आवाज। ३. अनुचित कथन। अनुपयुक्त बात (को०)।

परिचक्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्राचीन नगरी का नाम।

परिचड्ड †पु
वि० [सं० प्रचण्ड] दे० 'प्रचंड'। उ०—अजरां परि अजमेर माल बंधव परिचड्डं। अस्त बस्त अरु चर्म टंक लभ्भै नन हड्डं।—पृ० रा०, १।६६८।

परिचना
क्रि० अ० [हिं० परचना] दे० 'परचना'।

परिचपल
वि० [सं०] अति चंचल। जो किसी समय स्थिर न रहे। जो हर समय हिलता डुलता या घूमता फिरता रहे।

परिचय
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी विषय या वस्तु के संबंध की प्राप्त की हुई अथवा मिली हुई जानकारी। ज्ञान। अभिज्ञता। विशेष जानकारी। जैसे,—थोड़े दिनों से मुझे भी उनके स्वभाव का परिचय हो गया है। २. प्रमाण। लक्षण। जैसे,— उस पद पर थोड़े ही दिनों तक रहकर उन्होंने अपनी योग्यता का अच्छा परिचय दिया था। ३. किसी व्यक्ति के नामधाम या गुणकर्म आदि के संबंध की जानकारी। जैसे,—मुझे आपका परिचय नहीं मिला। क्रि० प्र०—कराना।—देना।—दिलाना।—पाना।— मिलना।—होना। ४. जान पहचान। जैसे,—यहाँ तो बहुत से आदमियों के साथ आपका परिचय है। ५. अभ्यास। मश्क। ६. हठयोग में नाद की चार अवस्थाओं में से तीसरी अवस्था। ७. इकट्ठा करना। एकत्र करना। जमा करना (को०)।

परिचय करुणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बढ़ता हुआ प्रेम। प्रवर्धित करुणा [को०]।

परिचयपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] किसी की पूरी जानकारी देनेवाला पत्र।

परिचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेवक। खिदमतगार। टहलुआ। २. रोगी की सेवा करनेवाला। शुश्रूषाकारी। ३. वह सैनिक जो रथ पर शत्रु के प्रहार से उसकी रक्षा करने के लिये बैठाया जाता था। ४. दंडनायक। सेनापति। परिधिस्थ। ५. अंग- रक्षक सैनिक (को०)। ६. आदर। अभ्यर्थना। सत्कार (को०)।

परिचर (२)
वि० भ्मणशील। चल। गतिशील [को०]।

परिचरजा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परिचर्या] दे० 'परिचर्या'। उ०—निज कर गृह परिचरजा करई। रामचंद्र आश्रेस अनुसरई।—मानस, ७। २४।

परिचरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिचरणीय, परिचरितव्य] १. सेवा करना या सेवा। परिचर्या। खिदमत। टहल। २. भ्रमण। चंक्रमण (को०)।

परिचरणीय
वि० [सं०] १. परिचरण के योग्य। भ्रमण के योग्य। २. सेवा के योग्य [को०]।

परिचरत
संज्ञा स्त्री० [डिं०] प्रलय। कयामत।

परिचरितव्य
वि० [सं०] दे० 'परिचरणीय' [को०]।

परिचरिता
संज्ञा पुं० [सं० परिचरितृ] सेवक। सेवा करनेवाला। शुश्रूषाकारी।

परिचरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दासी। सेविका। लौंडी।

परिचर्जा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परिचर्या] दे० 'परिचर्या'।

परिचर्मण्य
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े का बना हुआ फीता [को०]।

परिचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेवा। टहल। खिदमद। २. रोगी की सेवा शुश्रूषा।

परिचायक
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिचय करानेवाला। जान पहचान करानेवाला। २. सूचित। करनेवाला। जतानेवाला।

परिचाय्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. यज्ञ की अग्नि। २. यज्ञकुंड।

परिचार
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेवा। टहल। खिदमत। २. सेवक। टहलुआ। उ०—तजि कुलगामि को निसंक होय क्यों न करे बेगि मृगगैनी अनुकंपा परिचार पै।—मोहन०, पृ० १०३। ३. वह स्थान जो टहलने या घूमने फिरने के लिये निर्दिष्ट हो।

परिचारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. सेवक। नौकर। भृत्य। टहलुआ। २. वह जो किसी रोगी की सेवा करने पर नियुक्त हो। शुश्रूषाकारी। ३. वह जो देवमंदिर आदि का कार्य अथवा प्रबंध करता हो।

परिचारण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिचारी, परिचार्य] १. सेवा करना। टहल या खिदमत करना। सेवकाई। खिदमतगारी। २. सहवास करना। संग करना या रहना।

परिचारना पु
क्रि० स० [सं० परिचारण] सेवा करना। खिदमत करना।

परिचारि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परिचारिका] सेविका। टहलवी। उ०—हौं भई तुम परिचारि, नाथ तुम भए हमारे।—नंद० ग्रं०, पृ० २७५।

परिचारिक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० परिचारिका] सेवक। खिदमत- गार। दे० 'परिचारक'।

परिचारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दासी। सेविका। मजदूरनी। उ०— जेहि सहसन परिचारिका राखत हाथहिं हाथ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ३०७।

परिचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिचारिका'। उ०—माँ से पूछने पर उसने यही कहा कि अपने यौवन में परिचारिणी के रूप में मैं बहुत स्थानों में विचरी।—सं० दरिया, पृ० ६०।

परिचारित
संज्ञा पुं० [सं०] खेल। क्रीड़ा। मनोरंजन।

परिचारी
वि० [सं० परिचारिन्] १. टहलनेवाला। वह जो भ्रमण करता हो। २. सेवा करनेवाला। टहलू। चाकर।

परिचार्य
वि० [सं०] सेव्य। सेवा करने योग्य। जिसकी सेवा करना उचित हो।

परिचालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चलानेवाला। चलने के लिये प्रेरित करनेवाला। २. किसी काम को जारी रखने तथा आगे बढ़ानेवाला। संचालक। ३. गति देनेवाला। हिलानेवाला।

परिचालकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिचालन करने की क्रिया, भाव अथवा शक्ति।

परिचालन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिचालित] १. चलाना। चलने के लिये प्रेरित करना। चलने में लगाना। २. कार्य का निर्वाह करना। कार्यक्रम को जारी रखना। जैसे,—इस पत्र का परिचालन उन्होंने बड़ी ही उत्तमता के साथ किया। ३. हिलाना। गति देना। हरकत देना।

परिचालित
वि० [सं०] १. चलाया हुआ। चलने में लगाया हुआ। २. निर्वाह किया हुआ। बराबर जारी रखा हुआ। ३. हिलाया हुआ। जिसे गति दी गई हो।

परिचिंतन
संज्ञा पुं० [सं० परिचिन्तन] १. स्मरण करना। २. चिंतन करना। विचार करना [को०]।

परिचित
वि० [सं०] १. जिसका परिचय हो चुका हो। जाना बूझा। ज्ञात। मालूम। जैसे,—इस पुस्तक का विषय मेरा परिचित नहीं है। २. जिसको परिचय हो चुका हो। वह जो किसी को जान चुका हो। अभिज्ञ। वाकिफ। जैसे,—मैं उनके स्व- भाव से बिलकुल परिचित नहीं हूँ। ३. जान पहचान रखनेवाला। मिलने जुलनेवाला। मुलाकाती। जैसे,—मेरी परि चित मंडली अब इतनी बड़ी हो गई है कि मिलने जुलने में ही प्रायः मेरा सारा समय लग जाता है। ४. जैन दर्शन के अनुसार वह स्वर्गीय आत्मा जो दो बार किसी चक्र में आ चुकी हो। ५. इकट्ठा किया हुआ। ढेर लगा हुआ। संचित। ६. किसी काम को बार बार करना। अभ्यास। मश्क (को०)।

परिचिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिचय। ज्ञान। अभिज्ञता। जानकारी।

परिचिह्नित
वि० [सं०] हस्ताक्षरयुक्त [को०]।

परिचीर्ण
वि० [सं०] सेवित। जिसकी सेवा की गई हो [को०]।

परिचुंबन
संज्ञा पुं० [सं० परिचुम्बन] [वि० परिचुंबित] प्रेमपूर्वक चुंबन। भरपूर प्रेम या स्नेह से चुंबन करना।

परिचुंबित
वि० [सं० परिचुंबित] अतिशय प्रेम के साथ चूमा गया [को०]।

परिचेय
वि० [सं०] १. परिचय योग्य। जान पहचान करने योग्य। साहब सलामत या राहोरस्म रखने योग्य। २. एकत्र करने योग्य। ढेर लगाने योग्य। संचय करने योग्य।

परिचै †
संज्ञा पुं० [सं० परिचय] दे० 'परिचय'। उ०—जल जैसे तूँबा तिरै, परिचै पिंड जीव नहिं मरै।—रै० बानी, पृ० २।

परिचो †पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परिचय] ज्ञान। उ०—करतल निरखि कहत सब गुन गन बहुतनि परिचो पाई।—तुलसी (शब्द०)।

परिच्छंद
संज्ञा पुं० [सं० परिच्छन्द] वस्त्र। पहरावा। पोशाक।

परिच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपड़ा जो किसी वस्तु को ढक या छिपा सके। आच्छादन। ढाकनेवाली वस्तु। पट। जैसे, लिहाफ खोल, झूल आदि। २. वस्त्र। पहनावा। पोशाक। उ०— आपने जो मूल्यवान् परिच्छद मुझे पहनाया है।—प्रेमधन०, भा० २, पृ० ३६८। ३. राजचिह्न। ४. राजा आदि के सब समय साथ रहनेवाले नौकर। अनुचर। ५. परिजन। परिवार। कुटुंब। ५. असबाब। सामान। ७. प्रांत। प्रदेश। विशेष—नागौद रियासत के खोह नामक गाँव में जो ताम्र- पत्र मिला है, उसमें इस शब्द का प्रयोग पाया गया है। वहाँ लिखा है—दक्षिणेन बलवर्मा परिच्छदः।

परिच्छन्न
वि० [सं०] १. ढका हुआ। छिपा हुआ। ३. जो कपड़े पहने हो। वस्त्रयुक्त। वस्त्रादि से सज्जित। ३. जो साफ किया हुआ हो। ४. परिच्छद (सेवक, अनुचर आदि) से युक्त (को०)।

परिच्छा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० परीक्षा] दे० 'परीक्षा'।

परिच्छित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीमा। अवधि। इयत्ता। हद। ३. दो पदार्थों को बिलकुल अलग अलग कर देना। सीमा द्वारा दो वस्तुओं को एक दूसरी से बिलकुल जुदा कर देना। ३. विभाग। बाँट। ४. यथार्थ व्याख्या। सूक्ष्म व्याख्या (को०)।

परिच्छिन्न
वि० [सं०] १. परिच्छेदविशिष्ट। सीमायुक्त। परिमित। मर्यादित। २. विभक्त। विभाजित। अलग अलग किया हुआ। ३. चारो ओर से कुछ कटा हुआ (को०)। ४. जिसका उपचार किया गया हो (को०)।

परिच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १ काटकर विभक्त करने का भाव। कंड या टुकड़े करना। विभाजन। २. ग्रंथ या पुस्तक का ऐसा विभाग या खंड जिसमें प्रधान विषय के अंगभूत पर स्वतंत्र विषय का वर्णन या विवेचन होता है। ग्रंथ का कोई स्वतंत्र विभाग। ग्रंथविच्छेद। ग्रंथसंधि। अध्याय। जैसे,—अमुक पुस्तक में कुल १० परिच्छेद हैं। विशेष—ग्रंथ के विषय के अनुसार उसके विभागों नाम भी भिन्न भिन्न होते हैं। काव्य में प्रत्येक को सर्ग, कोष में वर्ग, अलंकार में परिच्छेद तथा उच्छ्वास, कथा में उदघात, पुराण और संहिता आदि में अध्याय, नाटक में अंक, तंत्र में पटल, ब्राह्मण में कांड, संगीत में प्रकरण और भाष्य में आह्निक कहते हैं। इसके अतिरिक्त पाद, तरंग, स्तवक, प्रपाठक, स्कंध, मंजरी, लहरी, शाखा आदि भी परिच्छेद के स्थानापन्न हुआ करते हैं। परिच्छेद का नाम विषय के अनुसार नहीं किंतु संख्या के अनुसार होता है; जैसे, नवाँ परिच्छेद, दसवाँ परिच्छेद। ३. सीमा। इयत्ता। अवधि। हद। दो वस्तुओं को स्पष्ट रूप से अलग अलग कर देना। सीमानिर्धारण द्वारा दो वस्तुओं को बिलगाना। परिभाषा द्वारा दो या भावों का अतर स्पष्ट कर देना। जैसे, सत्यासत्य का परिच्छेद, धर्माधर्म का परिच्छेद। ५. निर्णय। निश्चय। फैसला। ६. विभाग। बँटवारा।

परिच्छेदक
संज्ञा पुं० [ सं०] १. सीमा या इयत्ता निर्धारित करनेवाला। हद मुकर्रर करनेवाला। २. बिलगानेवाला। पृथक् करनेवाला। ३. सीमा। हद। ४. परिमाण, गिनती, नाप या तोल।

परिच्छेदकर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की समाधि।

परिच्छेदन
संज्ञा पुं० [सं०] १. विभाजन। बँटवारा। २. पुस्तक का अध्याय। ३. अवधारण। विवेचन [को०]।

परिच्छेदातीत
वि० [सं०] जिसका परिच्छेद न हो सके। जिसकी सीमा, विभाग, इयत्ता, अवधि आदि की परिभाषा या निर्धारण न हो सके।

परिच्छेद्य
वि० [सं०] १. गिनने, नापने या तोलने योग्य। परिमेय। २. अलग करने योग्य। बिलगाने योग्य। विभाज्य।

परिच्युत
वि० [सं०] १. सब भाँति गिरा हुआ। सर्वथा भ्रष्ट या पतित। ३. जाति या पंक्ति से बहिष्कृत। बिरादरी से निकाला हुआ।

परिच्युति
संज्ञा स्त्री० [सं०] गिरना। पतन। स्खलन। भ्रंश।

परिछन
संज्ञा पुं० [ हिं०] दे० 'परछन'। उ०—(क) कंचन थार सोह बर पानी। परिछन चली हरहि हरषानी।— मानस, १।९६। (ख) को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्म बर परिछन चली।—मानस, १।३१८।

परिछना (१)
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'परछना' उ०—बधुन्ह सहित सुत परिछि सब चली लवाइ निकेत।—मानस १।३४९।

परिछना † (२)
क्रि० स० [सं० परीक्षा, हीं० परिच्छा, परीछा] परीक्षा लेना। परखना। जाँचना। उ०—कहिए अब लौ ठहरयौ कौन। सोई भाग्यो तुव साम्हे सो गयो परिछयौ जौन।— भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २९८।

परिछाहीं
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'परछाई'। उ०—मन थिर करहु देव डर नाहीं। भरतहिं जान राम परिछाहीं।— तुलसी (शब्द०)।

परिछिन्न पु
वि० [सं० परिच्छिन्न] दे० 'परिच्छिन्न'।

परिजंक पु
संज्ञा पुं० [सं० पर्यङ्क] दे० 'पर्यक'।

परिजटन पु
संज्ञा पुं० [सं० परिअटन>पर्यटन] दे० 'पर्यटन'।

परिजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिवार। आश्रित या पोष्य वर्ग। वे लोग जो अपने भरण पोषण के लिये किसी एक व्यक्ति पर अवलंबित हों; जैसे, स्त्री, पुत्र सेवक आदि। २. सदा साथ रहनेवाले सेवक। अनुचरवर्ग।

परिजनता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परिजन होने का भाव। २. अधीनता।

परिजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० परिजन्मनू] १. चंद्रमा। २. अग्नि।

परिजपित
वि० [सं०] (प्रार्थना, जप आदि) जो मंद स्वर से उच्चरित हो [को०]।

परिजप्त
वि० [सं०] १. मुग्ध। मोहित। २. दे० ' परिजपित'।

परिजय्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो चारो ओर जय करने में समर्थ हो। सब ओर जीत सकनेवाला।

परिजल्पित
संज्ञा पुं० [सं०] १. चित्रजल्प का दुसरा भेद। दे० 'चित्रजल्प'। २. अपने मालिक के दुर्गणों का कथन करते हुए सेवक द्वारा अव्यक्त रूप में अपने कौशल, उत्कर्ष आदि की अभिव्यक्ति (को०)।

परिजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] आदि जन्मभूमि। उदगम। निकास।

परिजात
वि० [सं०] १. उत्पन्न। जन्मा हुआ। २. पूर्ण विकसित।

परिज्ञप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बातचीत। कथोपकथन। २. पहचान या पहचानना।

परिज्ञा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ज्ञान। २. सूक्ष्म ज्ञान। निश्चयात्मक ज्ञान। संशयरहित ज्ञान।

परिज्ञात
वि० [सं०] १. जाना हुआ। विशेष या सम्यक् रूप से जाना हुआ। २. निश्चित रूप से जाना हुआ।

परिज्ञाता
वि०, संज्ञा पुं० [ सं० परिज्ञातृ] अच्छी तरह जानने बूझने और पहचाननेवाला [को०]।

परिज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु का भली भाँति ज्ञान। पूर्ण ज्ञान। सम्यक् ज्ञान। २. निश्चयात्मक ज्ञान। ऐसा ज्ञान जिसपर पूरा भरोसा हो। उ०—तुम्हें इतनी भी समझ या परिज्ञान नहीं।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ४६। ३. सूक्ष्म ज्ञान। भेद अथवा अंतर का ज्ञान। किसी वस्तु के सूक्ष्म से सूक्ष्म गुण दोषों का ज्ञान।

परिज्वा
संज्ञा पुं० [ सं० परिज्वन्] १. चंद्रमा। २. अग्नि। ३. सेवक। ४. यज्ञ करनेवाला। ५. इंद्र।

परिठना पु †
वि० [सं० परिस्धिति; प्रा० परिट्ठिअ; अथवा सं० प्रतिष्ठित; प्रा० परिट्ठिअ] पूर्णतः स्थित या स्थापित होना। उ०—भुमुहाँ ऊपर सोहली परिठिउ जाँणि क चंग। ढोला एही मारूवी नव नेही नव रंग।—ढोला०, दू० ४६५।

परिडीन
देश० पुं० [सं०] किसी पक्षी की वृत्ताकार गति में उड़ान। किसी पक्षी का चक्कर काटते हुए उड़ना।

परिणत
वि० [सं०] [स्त्री० परिणति] १. बिलकुल या बहुत झुका हुआ। अति नम्र या नत। २. जिसका परिणाम हुआ हो। जो बहलकर और का और हो गया हो। बदला हुआ। विकारयुक्त। रूपांतरित। अवस्थांतरित। जैसे, दूध का दही के रूप में परिणत होना। ३. पका हुआ। पक्का। जैसे, परिणत फल। ४. पचा हुआ। रसादि में परिवर्तित (भोजन)। ५. प्रौढ़। पुष्ट। बढ़ा हुआ। पक्का। कच्चा का उलटा (बुद्धि या वय)। ६. समाप्त। अवसित (को०)।

परिणति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. झुकाव। नीचे की ओर झुकना। अवनति। २. बदलना। रूपांतर होना। अवस्थांतर प्राप्ति। परिणयन। विकृति। ३. पकना या पचना। परिपाक। ४. प्रौढा़वस्था। प्रौढ़ता। पक्वता। पुष्टि। पुख्तगी। ५. वृद्धता। बुढाई। ६.अंत। अवसान।

परिणद्ध
वि० [सं०] १. लपेटा हुआ। मढ़ा हुआ। आवृत्त। २. बाँधा हुआ। जकड़ा हुआ। ३. विस्तीर्ण। चौड़ा। विशाल।

परिणमन
संज्ञा पुं० [सं०] परिणत होने की क्रिया। परिणाम को प्राप्त करना। रूपांतरण होना (को०)।

परिणमयिता
वि० [सं० परिणमथितृ] परिणत करनेवाला। परिणाम को पहुँचा देनेवाला [को०]।

परिणय
संज्ञा पुं० [सं०] ब्याह। विवाह। उद्वाह। दारपरिग्रह। शादी।

परिणयन
संज्ञा पुं० [सं०] ब्याहना। विवाह करने की क्रिया। दारपरिग्रह। उ०—आनंदित जनपद सबै पुरतिय मंगल गाय। चंद ब्रह्म परिणयन करि सुर एप धामनि जाय।—प० रासो,पृ० १५।

परिणहन
संज्ञा पुं० [सं०] १.चारो ओर से बाँधने का भाव। २. लपेटने या आवृत करने का भाव।

परिणाम
संज्ञा पुं० [सं०] १. बदलने का भाव या कार्य। बदलना। एक रूप या अवस्था को छोड़कर दूसरे रूप या अवस्था को प्राप्त होना। रूपांतरप्राप्ति। २. प्राकृतिक नियमानुसार वस्तुओं का रूपांतरित या अवस्थांतरित होना। स्वाभाविक रीति से रूपपरिवर्तन या अवस्थांतरप्राप्ति। मूल प्रकृति का उलटा। विकृति। विकारप्राप्ति (सांख्य)। विशेष— सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति का स्वभाव ही परिणाम अर्थात् एक रूप या अवस्था से च्युत होकर दूसरे रूप या अवस्था को प्राप्त होते रहना है,और उसका यह स्वभाव ही जगत् की उत्पत्ति,स्थिति और नाश का कारण है। जिस परिणाम के कारण जगत् की रचना होती है उसे'विरूप' अथवा'विसदृश परिणाम'और जिसके कारण उसका अभाव या प्रलय होता है उसे'स्वरूप'अथवा'सद्दश परिणाम' कहते हैं। सत्व,रज,तम की साम्यावस्था भंग होकर उनके परस्पर विषम परिणाम में संयुत्क होने से क्रमशःअसंख्य कार्यो अथवा जगत् के पदार्थों का उत्पन्न होना'विरूप परिणाम'है और फिर इसी कार्यशृंखला का अपने अपने कारण में लीन होते हुए व्यत्क जगत् का अभाव प्रस्तुत करना 'स्वरूप परिणाम'है। 'विरूप परिणाम'से त्रिगुणों की साम्यावस्था विनष्ट होती है और वे स्वरूप से च्युत होते हैं और'स्वरूप परिणाम'से उन्हें पुनःसाम्यावस्था तथा स्वरूपस्थिति प्राप्त होती है। पुरूष अथवा आत्मा के अतिरिक्त संसार में और जो कुछ है सब परिणामी है अर्थात् रूपांतरित होता रहता है तथापि कुछ पदार्थो का परिणाम शीघ्र दिखाई पड़ जाता है। कुछ का बहुत समय में भी द्दष्टिगोचर नहीं होता। जो परिणाम शीघ्र उपलब्ध होता है उसे 'तीब्र परिणाम'और जिसकी उपलब्धि बहुत देर में होती है उसे 'मृदु परिणाम'कहते हैं। सद्दश अथवा विसदृश परिणाम मेंसे जब एक की मृदुता चरम अवस्था का पहुँच जाती है, तब दूसरा परिणाम आरंभ होत है। ३. प्रथम या प्रकृत रूप या अवस्था से च्युत होने के उपरांत प्राप्त हुआ दूसरा रुप या अवस्था। किसी वस्तु का कार्यरूप या कार्यावस्था। विकृति। विकार। रूपांतर। अवस्थांतर जैसे,दूघ का परिणाम दही,लकड़ी का राख आदि। ४. किसी वस्तु के एक धर्म के निवृत्त होने पर दुसरे धर्म की प्राप्ति। एक धर्म या समुदाय का तिरोभाव या क्षय होकर दूसरे धर्म या संस्कारों का प्रादुर्भाव या उदय। एक स्थिति से दूसरी स्थिति में प्राप्ति (योग)। विशेष—पातंजल दर्शन में चित्त के निरोध,समाधि और एका- ग्रता नाम से तीन परिणाम माने हैं। व्युत्थान अर्थात् राजस भूमियों के संस्कारों का प्रतिक्षण अधिकाधिक अभिभूत, लुप्त या निरूद्ध अथवा'गरवैराग्य'अर्थात् शुद्ध सातिक संस्कारों का उदित और वर्धित होते जाना चित्त का 'निरोध' 'परिणाम' है। चित्त की सर्वांर्थता या विक्षेप- रूप धर्म का क्षय और एकाग्रता रूप धर्म का उदय होना अर्थात् उसकी चंचलता का सर्वांश में लोप होकर एका- ग्रता धर्म का पूर्णँरूप से प्रकाश होता,'समाधि परिणाम' है। एक ही विषय में वित्त के शातं और उदित दोनों धर्म अर्थात् भूत और वर्तमान दोनों वृत्तियाँ 'एकाग्रता परिणाम'हैं। समाधि परिणाम में चित्त का विक्षेप धर्म शांत हो जाता है अर्थात् अपना व्यापार समाप्त करके भूत काल में प्रविष्ट हो जाता है और केवल एकाग्रता धर्म उदित रहता है अर्थात् व्यापार करनेवाले धर्म की अवस्था में रहता है। परंतु एकाग्रता परिणाम की अवस्था में चित्त एक ही विषय में इन दोनों प्रकार के धर्मों या वृत्तियों से संबंध रखता हुआ स्थित होता है। चित्त के परिणामों की तरह स्थूल सूक्ष्म भूतों तथा इंद्रियों के भी उक्त दर्शन में तीन परिणाम बताए गए हैं-धर्म परिणाम,लक्षण परिणाम,और अवस्था परिणाम। द्रव्य अथवा धर्मी का एक धर्म को छोड़कर दूसरा धर्म स्वीकार करना धर्म परिणाम है,जैसे ,मृत्तिकारूप धर्मी का पिंडरूप धर्म को छोड़कर घटरूप धर्म को स्वीकार करना। एक काल या सोपान में स्थित धर्म का दूसरे काल या सोपान में आना लक्षण परिणाम है,जैसे,पिड़रूप में रहने के समय मृत्तिका का घटरूप धर्म भविष्यत् या अनागत सोपान में था,परंतु उसके घटाकार हो जाने पर वह तो वर्तमान सोपान में आ गया और उसका पिड़ताधर्म भूत सोपान में स्थित हो गया। किसी धर्म का नवीन या प्राचीन होना अवस्था परिणाम है। जैसे,घड़े का नया या पुराना होना। इसी प्रकार दृष्टि,श्रवण आदि इंद्रियों का एक रूप या शब्द का ग्रहण छोड़कर दूसरे रूप या शब्द का ग्रहण करना उसका 'धर्म परिणाम'है। दर्शन,श्रवण आदि धर्म का वर्तमान, भूत आदि होकर स्थित होना'लक्षण परिणाम'है और उनमें अस्पष्टता होना'अवस्था परिणाम'है। ५. एक अर्थालंकार जिसमें उपमेय के कार्य का उपमान द्वारा किया जाना अथवा अप्रकृत (उपमान)का प्रकृत (उपमेंय) से एकरूप होकर कोई कार्य करना कहा जाता है। जैसे, 'कर कमलन धनु सायक फेरत'अथवा'हरे हरे पद कमल तें फूलन बीनति बाला'। इस उदाहरणों में'धनुसायक फेरना' और'फुल चुनना'वस्तुतः कर के कार्य है,पर कवि ने उसके उपमान कमल द्वारा इनका किया जाना कहा है। विशेष—रूपक अलंकार से इसमें यह भेद है कि इसके उपमान से कोई विशेष कार्य कराकर अर्थ में चमत्कार पैदा किया जाता है परंतु रूपक के उपमान से कोई कार्य कराने की और लक्ष्य ही नहीं होता। केवल उपमेय पर उसका आरोप भर कर दिया जाता है। 'कर कमलन धनुसायक फेरत' 'अपने करकंज लिखी यह पाती','मुख शशि हरत अँधार' आदि परिणाम के उदाहरणों से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ६. पकने या पचने का भाव। पाक। ७. बाढ़। विकास। वृद्धि। परिपुष्टि। ८. वृद्ध होना। बूढ़ा होना। ९. बीतना। समाप्त होना। अवसान। १०. नतीजा। फल।

परिणामक
वि० [सं०] परिणाम लानेवाला। रूपांतर या अवस्थांतर लानेवाला [को०]।

परिणामदर्शी
वि० [सं० परिणामदर्शिन्] जिसे काम करने के पहले उसका नतीजा मालूम हो जाय। फल को सोचकर कार्य करनेवाला। सोच समझकर कार्य करनेवाला। भविष्य या होनहार को जान सकनेवाला सूक्ष्मदर्शी। दूरदर्शी।

परिणामदृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी कार्य के परिणाम को जान लेने की शक्ति। आगामी फल की ओर दृष्टि।

परिणामन
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिणत करना। पूर्ण पुष्ट तथा वर्घित करना। २. परिणाम को प्राप्त करना। ३. जाति या संघ का उद्दिष्ट वस्तु को अपने काम में लाना (बौद्ध)।

परिणामपथ्य
वि० [सं०] अच्छे परिणामवाला। उत्तम फलदायक [को०]।

परिणामवाद
संज्ञा पुं० [सं०] वह सिद्धांत जिसमें जगत् की उत्पत्ति नाश आदि नित्य परिणाम के रूप में माने जाते हैं। (सांख्य मत)।

परिणामवादी
वि० [सं० परिणामवादिन्] परिणामवाद को माननेवाला। सांख्य मतानुयायी [को०]।

परिणामशूल
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें भोजन पचने के समय पेट में पीड़ा होती है।

परिणामिक
वि० [सं०] सुपाच्य। सरलता से पच जानेवाला [को०]।

परिणामित्व
संज्ञा पुं० [सं०] बदलने का स्वभाव या धर्म। परिवर्तन- शीलता।

परिणामिनित्य
वि० [सं०] जो नित्य हो,पर बदलता रहे। जो परिणामशील होकर नित्य या अविनाशी होकर। जिसकी सत्तास्थिर रहे पर रूप,आकार आदि बदलता रहे। जो एकरस न होकर भी अविनाशी हो। विशेष—सांख्य दर्शन के अनुसार प्रकृति परिणामिनित्य है और पुरूष अथवा आत्मा अपरिणामिनित्य।

परिणामी
वि० [सं० परिणामिन्] [वि० स्त्री० परिणामिनी] १. जो बराबर बदलता रहे। जिसका बदलने का स्वभाव हो। रूपांतरित होने या रहनेवाला। परिवर्तनधर्मी। २.जो परिवर्तन स्वीकार करे। बदलनेवाला।

परिणय
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु को जिस दिशा में चाहे चलाना। सब ओर चलाना। २. चौसर,शतरंज आदि के गोटों को चलाना। ३.विवाह। ब्याह।

परिणायक
संज्ञा पुं० [सं०] १.नेता। चलानेवाला। पथप्रदर्शक। २. सेनापति। ३.स्वामी। पति। भर्ता।

परिणयकरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] बौद्ध चक्रवर्ती। राजाओं के सप्तधन अथवा सात कोषों में से एक।

परिणाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. विस्तार। फैलाव। २.विशालता। चौड़ाई। ३.लंबी साँस। दीर्घ श्वास।

परिणाहवान्
वि० [सं० परिणाहवत्] विस्तारयुक्त। फैला हुआ। प्रशस्त।

परिणाही
वि० [सं० परिणाहिन्] विस्तायुक्त। फैला हुआ। विस्तृत।

परिणिंसक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चूमनेवाला। चुंबनकारी। २. खानेवाला। भक्षणकारी।

परिणिंसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चूमना। चुंबन। २. खाना। भक्षण।

परिणीत
वि० [सं०] १.विवाहित। जिसका ब्याह हो चुका हो। २.समाप्त। संपन्नकृत। पूर्णँ।

परिणीतरत्न
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिणायकरत्न'।

परिणीता
वि० [सं०] विवाहिता। विवाह की हुई (स्त्री)।

परिणीता
संज्ञा स्त्री० विवाहिता स्त्री। पत्नी। [को०]।

परिणेतव्या
वि० स्त्री० [सं०] परिणय के योग्य (कुमारी)। विवाह के योग्य [को०]।

परिणेता
संज्ञा पुं० [ सं० परिणेतृ] स्वामी। पति। भर्ता।

परिणेय
वि० [सं०] चारो ओर घुमाया जानेवाला [को०]।

परिणेया
वि० [सं०] ब्याहने योग्य (स्त्री)। पत्नी या भार्या बनाने के उपयुक्त।

परितः
अव्य० [सं० परितस्] १. सब ओर। चारो ओर। २. सब प्रकार। संपूर्ण रूप से। सर्वतोभाव से।

परितच्छ पु (१)
संज्ञा पुं० [ सं० प्रत्यक्ष] दे० 'प्रत्यक्ष'।

परितच्छ पु (२)
क्रि० वि० सामने से। देखते देखते।

परितत्नु
वि० [सं०] सब कहीं फैला हुआ। सर्वत्र व्याप्त। सर्वतो- व्याप्त (अथर्ववेद)।

परितप्त
वि० [सं०] १. तपा हुआ। अत्यंत गरम। जलता हुआ। २. क्लेश का अनुभव करता हुआ। दुःखित। संतप्त।

परितप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तपन। जलन। दाह। गरमी। २. दुःख। क्लेश। व्यथा। मनस्ताप।

परितर्कण
संज्ञा पुं० [सं०] मनोयोगपूर्वक विचार। विशेष रूप से विमर्श करना [को०]।

परितर्कित
वि० [सं०] १. संभावित। संभावनायुक्त। २. परीक्षित। निर्णीत [को०]।

परितर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] संतुष्ट करना। प्रसन्न करना। तृप्त करना [को०]।

परिताप
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्यंत जलन। गरमी। आंच। ताव। २. दुःख। क्लेश। पीड़ा। व्यथा। दर्द। तकलीफ। ३. मान- सिक दुःख या क्लेश। संताप। मनस्ताप। क्षोभ। उद्वेग। रंज। ४. पश्चात्ताप। पछतावा। उ०—अपने समय के नष्ट होने का परिताप होता है। —प्रेमघन०,भा० २,पृ० ४४९। ५. भय। डर। ६. कंप। कँपकँपी। ७. एक विशेष नरक का नाम।

परितापक
वि० [सं०] क्षोभक। तापक। कष्टदायी। दुःखद। उ०—वेदना का स्वभाव विषय के आह्लादक,परितापक और इन दोनों आकारों से विविध स्वरूप का अनुभव करना है।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०,पृ० ३४७।

परितापित
वि० [सं०] संतापित। परितप्त। पीड़ित। तपाया हुआ। उ०—अब भी चेत ले तू नीच। दुःख परितापित धरा का स्नेह जल से र्सीच।—राज्यश्री,पृ० ४८।

परितापी (१)
वि० [सं० परितापिन्] १.जिसको परिताप हो। परितापयुक्त। दुःखित या व्यथित। २. जलता हुआ। अत्यंत ताप- युक्त। ३. परितापकर्ता। पीड़ा देनेवाला। सतानेवाला। उ०—कृपारहित हिंसक सब पापी। बरनि न जाइ विश्व परितापी।—मानस,१।१७६।

परितापी (२)
संज्ञा पुं० [सं०] परितापकर्ता या पीड़ा देनेवाला व्यक्ति। उत्पीड़क। सतानेवाला।

परितिक्त (१)
वि० [सं०] अत्यंत तीता। बहुत तिक्त।

परितिक्त (२)
संज्ञा पुं० नीम। निंब।

परितुष्ट
वि० [सं०] १. खूब संतुष्ट। जिसका पूर्ण रीति से संतोष हो गया हो। २. प्रसन्न। खुश।

परितुष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परितुष्ट होने का भाव। संतुष्टता। संतोष। परितोष। २. प्रसन्नता। खुशी।

परितृप्त
वि० [सं०] अघाया हुआ। संतुष्ट। तृप्त।

परितृप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] अघाना। संतु्ष्टि। तृप्ति।

परितोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. संतोष। तृप्ति। उ०—ब्रजप्रसाद को पूरन पोष। रसबस लह्यो प्रान परितोष।—घनानंद,पृ० ३०९। २. प्रसन्नता। खुशी। वह प्रसन्नता जो किसी विशेष अभिलाषा या इच्छा के होने से उत्पन्न हो।

परितोषक
संज्ञा पुं० [सं०] परितोष करनेवाला। संतुष्ट करनेवाला। प्रसन्न या खुश करनेवाला।

परितोषण
संज्ञा पुं० [सं०] परितुष्टि। संतोष।

परितोषवान्
वि० [सं० परितोषवत्] परितोषयुक्त। संतुष्ट। परितुष्ट।

परितोषी
वि० [सं० परितोषिन्] संतोषशील। संतोषी।

परितोस पु
संज्ञा पुं० [सं० परितोष]दे० 'परितोष'।

परित्यक्त
वि० [सं०] १. जो त्याग दिया गया हो। जो छोड़ दिया गया हो। २.छोड़ा,फेंका,निकाला या दूर किया हुआ।

परित्यक्ता (१)
संज्ञा पुं० [सं० परित्यकतृ] परित्याग करनेवाला। त्यागने,छोड़ने या फेंकनेवाला।

परित्यक्ता (२)
वि० स्त्री० [परित्यक्त का स्त्री०] त्यागी हुई। छोड़ी हुई।

परित्यजन
संज्ञा पुं० [सं०] परित्याग की क्रिया। त्यागना। छोड़ना। फेंकना। निकालना।

परित्यज्य
वि० [सं०] परित्याग के योग्य। फेंकने,छोड़ने या निकालने योग्य।

परित्याग
संज्ञा पुं० [सं०] १.त्यागने का भाव। त्याग। २. निकालना। अलग कर देना। छोड़ना। ३.यज्ञ। याग (को०)। ४.अलगाव। जुदाई (को०)। ५.औदार्य। उदा- रता (को०)।

परित्यागना पु
क्रि० सं० [सं० परित्यजन] छोड़ देना। त्याग देना।

परित्यागी
वि० [सं० परित्यागिन्] परित्यागशील। त्याग करनेवाला। छोड़नेवाला।

परित्याजन
संज्ञा पुं० [सं०] परित्याग की क्रिया। छोड़ना। निकालना।

परित्याज्य
वि० [सं०] परित्यागयोग्य। त्यागने या छोड़ देन के योग्य। खारिज करने के काबिल।

परित्रस्त
वि० [सं०] अधिक भयभीत। अत्यंत त्रस्त। विशेष डरा हुआ [को०]।

परित्राण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी की रक्षा करना,विशेषतःऐसे समय में जब कोई उसे मार डालने को उद्यत हो। बचाव। हिफाजत। रक्षा। २. आत्मरक्षण। अपनी रक्षा। ३.शरीर के बाल। रोंगटे। ४. पूर्णतः रक्षण या बचाव (को०)। ५. पनाह। शरण। आश्रय (को०)।

परित्रात
वि० [सं०] जिसकी रक्षा की गई हो। रक्षाप्राप्त।

परित्रातव्य
वि० [सं०] रक्षा करने योग्य। परिरक्षितव्य [को०]।

परित्राता
संज्ञा पुं० [सं० परित्रातृ] परित्राणकर्ता। रक्षक। रक्षा करनेवाला। बचानेवाला।

परित्रायक
संज्ञा पुं० [सं०] परित्राता। रक्षक। रक्षा करनेवाला।

परित्रास
संज्ञा पुं० [सं०] विशेष भय। बहुत डर [को०]।

परिदशित
वि० [सं०] बक्तर से भली भाँति ढँका हुआ। जिरहपोश।

परिदग्घ
वि० [सं०] अत्यंत जला हुआ। झुलसा हुआ [को०]।

परिदर
संज्ञा पुं० [सं०] दांतों का एक रोग जिसमें मसूड़े़ दाँतों से अलग हो जाते है और थूक के साथ रक्त निकलता है। वैद्यक के अनुसार यह रोग पित्त,रूघिर और कफ के प्रकोप से होता है।

परिदर्शन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सम्यक् रूप से अवलोकन। भली- भाँति देखना। २. दर्शन। अवलोकन। देखना।

परिदलन
संज्ञा पुं० [सं०] नष्ट करना। रौंदना [को०]।

परिदलित
वि० [सं०] दलित। दमित। कुंठित। उ०—अज्ञात मनःक्षेत्र से कोई परिदलित ग्रंथि उसी प्रकार प्रस्फुटित हो जाती है जैसे बच्चे अपने मन की बातें बाह्य जगत् में देखने लग जाते हैं।—संपूर्ण० अभि० ग्रं०,पृ० २९४।

परिदष्ट
वि० [सं०] १.जो काटकर टुकड़े टुकढे कर दिया गया हो। २. काटा हुआ। दंशित।

परिदहन
संज्ञा पुं० [सं०] अच्छी तरह जलाना। दग्घ करना। झुलसाना [को०]।

परिदान
संज्ञा पुं० [सं०] १. लौटा देना। वापस कर देना। फिर दे देना। फेर देना। २. विनिमय। परिवर्तन। अदला बदली।

परिदाय
संज्ञा पुं० [सं०] सुगंध। परिमोद। खुशबू।

परिदायी
संज्ञा पुं० [सं० परिदाथिन्] वह व्यक्ति जो ऐसे व्यक्ति को अपनी कन्या दान करे जिसका बड़ा भाई अविवाहित हो। परिवेत्ता का ससुर।

परिदाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्यंत दाह या जलन। २. मानसिक पीड़ा या व्यथा। शोक। संताप।

परिदिग्घ (१)
वि० [सं०] १. जो किसी अन्य वस्तु के आवरण से ढक दिया गया हो। किसी वस्तु से लिप्त या पुता हुआ [को०]।

परिदिग्घ (२)
संज्ञा पुं० मांस का वह टुकड़ा जिसपर अन्न की तह या लेप चढ़ाकर पकाया गया हो [को०]।

परिदीन
वि० [सं०] जिसको अतिशय मानसिक दुःख हो। अत्यंत खिन्नचित्त।

परिदृढ़
वि० [सं०] बहुत मजबूत। नितांत दृढ [को०]।

परिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] विलाप। रोना धोना।

परिदेवन
संज्ञा पुं० [सं०] विलाप करना। कलपना। रोकर आंतरिक दुःख जताना। अनुशोचन। अनुतापन।

परिदेवना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिदेवन'[को०]।

परिद्यून
वि० [सं०] दुःखयुक्त। पीड़ायुक्त। शोक या वेदनामय [को०]।

परिद्रष्टा
संज्ञा पुं० [सं० परिद्रष्ट] परिदर्शनकारी। दर्शन करनेवाला। दे्खनेवाला। अवलोकन करनेवाला।

परिद्वीप
संज्ञा पुं० [सं०] गरूड के एक पुत्र का नाम।

परिध
संज्ञा पुं० [सं० परिधि] दे० 'परिधि'।

परिधन पु
संज्ञा पुं० [सं० परिधान] नीचे पहनने का कपड़ा। धोती आदि। उ०—(क) कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनि चीरा। —तुलसी (शब्द०)। (ख)सीस जटा सरसीरूह लोचन,बने परिधन मुनि चीर।— तुलसी (शब्द०)।

परिधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी वस्तु से अपने शरीर को चारो ओर से छिपाना। कपड़े लपेटना। २. कपड़ा पहनना। ३. वह जो पहना जाय। वस्त्र,कपड़ा,पोशक। पहनावा। ४. धोती आदि नीचे पहनने के वस्त्र। ५. स्तुति,प्रार्थना, गायन आदि का समाप्त करना।

परिधानीय
वि० [सं०] [वि० स्त्री० परिधानीया] परिधान योग्य। पहनने योग्य। २. जो पहना जाय। वस्त्र। परिधेय।

परिधायन
संज्ञा पुं० [सं०] वस्त्र। पहनावा [को०]।

परिधाय
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहनावा। परिधेय। वस्त्र। २. जलस्थान। ३. नितंब (को०)। ४. जनस्थान। जनपद (को०)।

परिधायक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ढकने,लपेटने या चारो ओर से घेरनेवाला। २. बाड़ा। रूँधान। ३. चहारदीवारी।

परिधारण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिघार्य,परिघृत] १. उठाना। सहारना। धारण करना। २. बचा रखना। रक्षा करना।

परिधावन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहनने की प्रेरणा करना। २. पहनवाना।

परिधावन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दौड़ना। भागना। २. पीछे पीछे दौड़ना [को०]।

परिधावी (१)
वि० [सं० परिधाविम्] १. दौड़नेवाला। २. द्रवण- शील। बहनेवाला (को०)।

परिधावी (२)
संज्ञा पुं० बृहस्पति के ६० वर्ष के युगचक्र या फेरे में से ४६ वाँ या २० वा वर्ष।

परिधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह रेखा जो किसी गोल पदार्थ के चारो ओर खींचने से बने। गोल बस्तु की चौहदी बनानेवाली रेखा। गोल पदार्थ का विस्तार नियमित करनेवाली रेखा। घेरा। २. रेखागणित में वह रेखा जो किसी वृत्त के चारो ओर खिंची हुई हो। वृत्त की चतु?सीमा प्रस्तुत करनेवाली रेखा। दायरे की शक्ल या चौहदी बनानेवाली रेखा। घेरा। ३. सूर्य चंद आदि के आस पास देख पड़नेवाला घेरा। परिवेश। मंडल। ४. किसी प्रकार का,विशेषतःकिसी वस्तु की रक्षा के लिये बनाया हुआ,घेरा। बाड़ा,रूँधान या चहारदीवारी। ५. घेरा। सीमा। वृत्त। दायरा। उ०—मैं किसी उचित रीति से उसकी शत्रुता की परिधि के बाहर जा सकता हुँ।—भारतेंदु० ग्रं०,भा० २,पृ० ६२३। ६ यज्ञकुंड़ के आसपास गाड़े जानेवाले तीन खूँटे। विशेष—इन खूँटों के नाम दक्षिण,उत्तर और मध्यम होते थे। ६. कक्षा। नीयत या नियमित मार्ग। ७. परिधेय। कपड़ा। वस्त्र। पोशाक। ८. प्रकाशमंडल। ज्योतिवृत्त (को०)। ९. आवरण (को०)। १०. पहिए का धेरा (को०)। ११. क्षितिज (को०)। १२. समिधा (को०)।

परिधिपतिखेचर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

परिधिस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिचारक। परिचर। सेवक। खिद- मतगार। २. वे सैनिक जो रथ के चारो ओर इसलिये खड़े कराए जाते थे कि शत्रु के प्रहार से रथ और रथी की रक्षा करते रहें। रथ और रथी की रक्षक सेना।

परिधीर
वि० [सं०] अतिशय धीर। गंभीर।

परिधूपित
वि० [सं०] पूर्णतः धूप से वासित। पूर्णतः सुगंधयुक्त किया हुआ [कौ०]।

परिधूमन
संज्ञा पुं० [सं०] सुश्रुत के अनुसार तृष्णा रोग का एक उपद्रव जिसमें एक विशेष प्रकार की कै आती है।

परिधूमायन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिघूमन'।

परिधूसर
वि० [सं०] अत्यधिक धूलियुक्त। धूल से भरा हुआ [को०]।

परिधेय (१)
वि० [सं०] पहनने के योग्य। परिधान के उपयुक्त।

परिधेय (२)
संज्ञा पुं० वस्त्र। पोशक। कपड़ा। विशेषतः वह वस्त्र जो नीचे या भीतर पहना जाय।

परिध्वंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्यंत नाश। बिलकुल मिट जाना। २. नाश। मिटना। ३. जातिच्युत होना (को०)। ४. वर्ण- साँकर्य। वर्णसंकरता (को०)। ५. उपप्लव (को०)।

परिनय पु
संज्ञा पुं० [सं० परिणय] दे० 'परिणय'।

परिनयन पु
संज्ञा पुं० [सं० परिणयन] दे० 'परिणयन'। उ०— पहुँचि नहिंय परिनयन कहँ जुग भाइन सुघि भुल्लि।—प० रासो, पृ० ९०।

परिनाम (१)
संज्ञा पुं० [सं० प्रणाम] दे० 'प्रणाम'। उ०—परसे बीर सु सब्ब करी प्रथिराज पाइ परिनामं।

परिनाम पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० परिणाम] नतीजा। फल। परिणाम उ०—दिनै दिन बाढ़त आनंद को प्रवाह महा जाके परिनाम न मिलै दुःख सोग है।—दीन, ग्रं०, पृ० १४१।

परिनामी पु
वि० [सं० परिणामी] दे० 'परिणामी'।

परिनिर्वपण
संज्ञा पुं० [सं०] प्रदान करना। देना। बांटना [को०]।

परिनिर्वाण
संज्ञा पुं० [सं०] अति निर्वाण। पूर्ण निर्वाण। पूर्ण मोक्ष।

परिनिर्वाति
संज्ञा स्त्री० [सं०] निर्वाण मुक्ति। निर्वाण गति।

परिनिर्वृत्त
वि० [सं०] जिसको परिनिर्वाण प्राप्त हुआ हो। परिमुक्त। मुक्त।

परिनिर्वृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिमुक्ति। मोक्ष। मुक्ति।

परिनिष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चरम सीमा या अवस्था। अंतिम सीमा। पराकाष्ठा। २. पूर्णता। ३. अभ्यास अथवा ज्ञान की पूर्णता।

परिनिष्ठित
वि० [सं०] १. पूर्ण। संपन्न। समाप्त। २. पूर्ण। अभ्यस्त। पूर्ण कुशल।

परिनिष्पन्न
वि० [सं०] १. भली भाँती पूरा किया हुआ। २. सुख दुःख तथा भाव अभाव की चिंता से मुक्त। उ०—स्वभावतीन है—परिकल्पित, परतंत्र, परिनिष्पन्न।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० ३८०।

परिनैष्ठिक
वि० [सं०] सर्वश्रेष्ठ। सर्वोच्च। सर्वोत्कृष्ट।

परिन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] १. काव्य में वह स्थल जहाँ कोई विशेष अर्थ पूरा हो। २. नाटक में आख्यानबीज अर्थीत् मुख्य कथा की मूलभूत घटना की संकेत से सूचना करना।

परिपंच पु †
संज्ञा पुं० [सं० प्रपञ्च] दे० 'प्रपंच'।

परिपंथ
संज्ञा पुं० [सं० परिपन्थ] वह जो रास्ता रोके हुए हो।

परिपंथक
संज्ञा पुं० [सं० परिपन्थक] शत्रु। दुश्मन।

परिपंथिक
वि० [परिपन्थिक] दे० 'परिपंथक'।

परिपंथी
संज्ञा पुं० [सं० परिपन्थिन्] १. शत्रु। दुश्मन। उ०— आज बने मेरे परिपंथी, मुझ बेबस के सकल उपकरण। मुझसे ही विद्रोह कर चले मेरे ये लालित इंद्रिय गण।—अपलक, पृ० ७९। २. विरूद्ध कार्य करनेवाला। प्रतिकूल आचरण करनेवाला (वैदिक)।

परिपक्व
वि० [सं०] १. अच्छी तरह पका हुआ। पूर्ण पक्व। सम्यक् रीति से पक्व। खूब पका हुआ। जैसे, इँट, फल, अन्न आदि। २. अच्छी तरह पचा हुआ। सम्यक् रीति से जीर्ण। जो बिलकुल हजम हो गया हो। ३. पूर्ण विकसित। परिणत। प्रौढ। पका। पुख्ता। जैसे, परिपक्व बुद्धि या ज्ञान। ४. जो बहुत कुछ देख सून चुका हो। बहुदर्शी। तजुरवेकार। ५. निपुण। कुशल। प्रवीण। उस्ताद। पूरा।

परिपक्वता
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिपक्व होने की क्रिया या भाव।

परिपक्वावस्था
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. परिपक्व होने की दशा या स्थिति। २. प्रौढता। प्रौढ़ावस्था।

परिपण
संज्ञा पुं० [सं०] मूल धन। पूँजी।

परिपणन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाजी लगाना। शर्त बदना। २. वचन देना। वादा करना [को०]।

परिपणितकाल संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० परिपणितकाल सन्धि] आप इतने समय तक लड़िए और मैं इतने समय तक लड़ूँगा इस प्रकार की समय संबंधी संधि।

परिपणितदेश संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० परिपणितदेश सन्धि] आप इस देश पर चढ़ाई करिए और हम इस देश पर चढ़ाई करते हैं, इस ढंग की देश विषयक संधि।

परिपणितसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० परिपणितसन्धि] कुछ शर्तों के साथ की गई संधि। इसके तीन भेद हैं—परिपणितदेश संधि, परिपणितकाल संधि, और परिपणित/?/संधि।

परिपणितार्थ संधि
संज्ञा स्त्री० [सं० परिपणितार्थ सन्धि] आप इतना काम करें और मैं इतना काम करूँगा, ऐसी कार्य विषयक संधि।

परिपति
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वव्यापी। वह जो हर स्थान में उपस्थित हो।

परिपन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिपण' [को०]।

परिपर
संज्ञा पुं० [सं०] टेढा़ मेढा़ चक्करदार रास्ता [को०]।

परिपरी
संज्ञा पुं० [सं० परिपरिन्] शत्रु। विपक्ष। प्रतिद्वंदी [को०]।

परिपवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अनाज ओसाना। भूसे और अन्न को अलग करने की क्रिया। ओसाई। २. अन्न ओसाने की खँचिया। डलिया (को०)।

परिपांडिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० परिपाणिडमन् ] अधिक श्वेतता या पीलापन [को०]।

परिपांडु
वि० [सं० परिपाणडु ] १. बहुत हलका पीला। सफेदी लिये हुए पीला। २. दुर्बल। कृश। क्षीण।

परिपांडुर
वि० [सं० परिपाणडुर] दे० 'परिपांडु' [को०]।

परिपाक
संज्ञा पुं०[सं०] १. पकने का भाव। पकना या पकाया जाना। २. पचने का भाव। पचना। पचाया जाना। ३. प्रौढता। पूर्णता। परिणति (बुद्धि अनुभव आदि के लिये)। ४. बहुदर्शिता। तजुर्बेकारी। ५. कुशलता। निपुणता। प्रवीणता। उस्तादी। ६. कर्मफल। विपाक। परिणाम। फल। नतीजा।

परिपाकिनी
संज्ञा पुं० [सं०] निसोथ।

परिपाचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अच्छी तरह पचना। भली भाँति पचना। २. वह जो पूरी तरह से पच जाय।

परिपाचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] किसी पदार्थ को पूर्ण पक्व अवस्था में लाना।

परिपाचित
वि० [सं०] १. पूर्णतः पकाया हुआ। २. भूना हुआ।

परिपाटल
वि० [सं०] जिसका रंग पीलपन लिए लाल हो। जर्दी लिए हुए लाल रंग का।

परिपाटलित
वि० [सं०] पीले और लाल रंग में रँगा हुआ। जो पीला और लाल रंग मिलाकर रँग गया हो।

परिपाटि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिपाटि'।

परिपाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. क्रम। श्रेणी। सिलसिला। २. प्रणाली। रीति। शैली। तरीका। चाल। ढंग। ३. अंकगणित। ४. पद्धति। रीति। चाल। नियम। संप्रदाय। उ०— (क) जेतिक हरि अवतार सबै पूरण करि जानै। परिपाटि ध्वज विजय सदृश भागवत बखाने।—नाभाजी (शब्द०)। (ख) पाटी सी है परिपाटी कवित्त की ताकौं त्रिधा बिधि बुद्धि बनाई। —भिखारी० ग्रं०, भा० २, पृ० २५०।

परिपाठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बार बार सविस्तार (वेद) पाठ करना। २. विशद या विस्तृत उल्लेख [को०]।

परिपार पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० पालि या परिपाटी] मर्यादा। उ०— अरे परेखो को करै तुँही बिलोकि बिचारि। किहिं नर किहिं सर राखियै खरै बढै परिपारि।—बिहारी (शब्द०)।

परिपारना पु
क्रि० स० [सं० परिपालना] प्रतिपालन करना। निर्वाह करना। उ०—भूल्यो चूक्यो होहुँ सो, लीज्यो संत सवारि। गीति राधिका रमन की प्रीति रीति परिपारि। ब्रज० ग्रं०, पृ० ११।

परिपार्श्व
संज्ञा पुं० [सं०] पार्श्व। बगल।

परिपालक
वि० [सं०] परिपालन करनेवाला [को०]।

परिपालन
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्षा करना। बचाना। २. रक्षा। बचाव।

परिपालना पु (१)
क्रि० सं० [सं० परिपालन] रक्षा करना। बचाना। उ०— बससि सदा हम कहँ परिपालय।—मानस, ७।३४।

परिपालना (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिपालन' [को०]।

परिपालनीय
वि० [सं०] परिपालन या रक्षण के योग्य [को०]।

परिपालयिता
संज्ञा पुं० [सं० परिपालयतृ ] वह जो परिपालन करे [को०]।

परिपालयिषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिपालन की इच्छा [को०]।

परिपाल्य
वि० [सं०] जो रक्षा या पालन करने के योग्य हो।

परिपिंग
वि० [सं० परिपिङ्ग ] लाली से युक्त भूरा। अत्यंत पिंग वर्ण का [को०]।

परिपिंजर
वि० [सं० परिपिच्जर ] हलके लाल रंग का। पिंगलवर्ण।

परिपिच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचिन काल का एक आभूषण जो मोर की पूँछ के परोंसे बनता था।

परिपिष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] सीसा।

परिपीड़न
संज्ञा पुं० [सं० परिपीडन ] [वि० परिपीडित ] १. अत्यंत पीडा़ पहुँचाना या देना। २. पीसना। ३. अनिष्ट करना।

परिपीवर
वि० [स०] १. छिलका या बोकला अलग करना। २. संपुटन [को०]।

परिपुष्करा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोंडुब ककडी़। गोडुबा।

परिपुष्ट
वि० [सं०] १. जिसका पोषण भली भाँति किया गया हो। सम्यक् रीति से घोषित। २. जिसकी वृद्धि पूर्ण रीति से पुष्ट हुई हो। खूब हृष्ट पुष्ट। पूर्ण पुष्ट।

परिपूजन
संज्ञा पुं० [सं०] सम्यक् प्रकार से पूजन या उपासना।

परिपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विधिवत् पूजन [को०]।

परिपूजित
वि० [सं०] विधिवत् पूजित। सविधि पूजाप्राप्त [को०]।

परिपूत (१)
वि० [सं०] अति पवित्र।

परिपूत (२)
संज्ञा पुं० ऐसा अन्न जिसका भूसी या छिलका अलग कर लिया गया हो। छाँटा हुआ अन्न।

परिपूरक
वि० [सं०] १. परिपूर्ण कर देनेवाला। भर देनेवाला। लबालब कर देनेवाला। २. समृद्धीकर्ता। धनधान्य से भरनेवाला। ३. संपूर्ण।

परिपूरण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] परिपूर्ण करना। भरना। २. पूर्ण या पूरा करना [को०]।

परिपूरण (२)
वि० [सं० परिपूर्ण ] दे० 'परिपूर्ण'। उ०—खुल खुल नव इच्छाएँ, फैलाती जीवन के दल। गा गा प्राणों का मधुकर, पीता मधुरस परिपूरण।—गुंजन, पृ० १९।

परिपूरणीय
वि० [सं०] परिपूर्ण करने योग्य। परिपूरित करने लायक [को०]।

परिपूरन
वि० [सं० परिपूर्ण ] दे० 'परिपूर्ण'। उ०—प्रेम भरे जग प्रगटिहैं, हरि परिपूरन रूप।—नंद० ग्रं०, पृ० २२७।

परिपूरित
वि० [सं०] १.परिपूर्ण। खूब भरा हुआ। लबालब। २. संपूर्ण। समाप्त किया हुआ। पूरा किया हुआ।

परिपूर्ण
वि० [सं०] १. खूब भरा हुआ। सम्यक् रीति से व्याप्त। २. पूर्ण तृप्त। अघाया हुआ। ३. समाप्त किया हुआ। संपूर्ण। पूरा किया हुआ।

परिपूर्णचंद्रविमलप्रभ
संज्ञा पुं० [सं० परिपूर्णचंद्रविमलप्रभ ] एक प्रकार की समाधि जिसका वर्णन बौद्ध शास्त्रों में मिलता है।

परिपूर्णेदु
संज्ञा पुं० [सं० परिपूर्णेन्दु ] पूर्णिमा का चंद्रमा। षोडश कलायुक्त चंद्रमा [को०]।

परिपूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] परिपूर्ण होने की क्रिया या भाव परिपूर्णता।

परिपृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] जिज्ञासा। प्रश्न [को०]।

परिपृच्छक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] प्रश्नकर्ता। वह जो पूछे। पूछनेवाला। जिज्ञासा करनेवाला।

परिपृच्छक (२)
वि० पूछनेवाला। जिज्ञासा करनेवाला।

परिपृच्छनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह बात जिसको लेकर वादविवाद किया जाय। वाद का विषय।

परिपृच्छा
संज्ञा स्त्री० [सं०] जिज्ञासा। पूछना। प्रश्न करना।

परिपेल
संज्ञा पुं० [सं०] केवटी मोथा। कैवर्त मुस्तक।

परिपेलव (१)
वि० [सं०] अति सुकुमार या कोमल।

परिपेलव (२)
संज्ञा पुं० केवटी मोथा।

परिपोट
संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक रोग जिसमें लोक का चमडा़ सूजकर स्याही लिए हुए लाल रंग का हो जाता है और उसमें पीडा़ होती है। प्रायः कान में भारी बाली आदि पहनने से यह रोग होता है।

परिपोटक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिपोट'।

परिपोटन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिपोट'।

परिपोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिपोट'।

परिपोष
संज्ञा पुं० [सं०] पूर्ण पुष्टि या वृद्धि।

परिपोषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पालन। परवरिश करना। २. पुष्ट या वर्धित करना।

परिप्रश्न
संज्ञा पुं० [सं०] जिज्ञासा। प्रश्न [को०]।

परिप्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्राप्ति। मिलना।

परिप्रेक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'परिप्रेक्ष्य'।

परिप्रेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'परिप्रेक्ष्य'।

परिप्रेक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] दृश्यों वस्तुओं या व्यक्तियों का ऐसा चित्रण जिसमें प्रत्येक का अंतर स्पष्ट हो जाय।

परिप्रेषण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० परिप्रेषित, परिप्रेष्य ] १. चारो ओर भेजना। जिधर इच्छा हो उधर भेजना। दूत या हरकारा बनाकर भेजना। २. निर्वासन। किसी विशेष स्थान या देश से निकाल देना। ३. त्याग देना। परित्याग करना।

परिप्रेषित
वि० [सं०] १. भेजा हुआ। प्रेरित। २. निर्वासित। निकाला हुआ। ३. त्यागा हुआ। परित्यक्त।

परिप्रेष्य (१)
वि० [सं०] भेजने योग्य। प्रेरणा करने योग्य।

परिप्रेष्य (२)
संज्ञा पुं० नौकर। दास। टहलुआ। अनुचर।

परिप्रोत
वि० [सं० परि + प्रोत ] चारो ओर से गुथा हुआ या छिपा हुआ। उ०—उमड़ पडा़ पावस परिप्रोत। फूट रहे नव नव जलस्रोत।—गुंजन, पृ० ६८।

परिप्लव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. तैरना। २. बाढ प्लावन। ३. अत्याचार। जुल्म। ४. नौका। नाव। जहाज। ५. पुराणा- नुसार एक राजकुमार का नाम जो सुखीनल राजा का लडका था।

परिप्लव (२)
वि० [सं०] १. हिलता हुआ। काँपता हुआ। चंचल। अस्थिर। २. बहता हुआ। चलता हुआ। गतियुक्त।

परिप्लवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ में काम आनेवाली एक प्रकार की करछी या चिमचा। एक प्रकार की दर्वीं।

परिप्लावित
वि० [सं०] दे० 'परिप्लुत' [को०]।

परिप्लुत (१)
वि० [सं०] १. जिसके चारो ओर जल ही जल हो। प्लावित। डूबा हुआ। २. गीला। भीगा हुआ। तराबोर। आर्द्र। स्नात। ३. काँपता हुआ। कंपित।

परिप्लुत (२)
संज्ञा पु० फलाँग। छलांग।

परिप्लुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मदिरा। शराब। २. वह योनि जिसमें मैथुन या मासकि रज स्राव के समय पीडा़ हो।

परिप्लुष्ट
वि० [सं०] जला हुआ। भुना हुआ।

परिप्लोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलन। दाह। २. जलना। भुनना। तपना। ३. शरीर के भीतर की गरमी।

परिफुल्ल
वि० [सं०] १. अच्ची तरह खिला हुआ। सम्यक् विकसित। खूब खिला हुआ। २. खूब खुला हुआ। अच्छी तरह खुला हुआ। जैसे,परिफुल्ल नेत्र। ३. जिसके रोंगटे खडे़ हों। रोमांचयुक्त।