संस्कृत या हिंदी वर्णमाला का छठा अक्षर या वर्ण जिसका उच्चारण स्थान ओठ है । यह दो मात्राओं का होने से दीर्घ और तीन मात्राओं का होने से प्लुत होता है । अनुनासिक और निरनुनासिक के भेद से इन दोनों के भी दो दो भेद होंगे । इस वर्ण के उच्चारण में जीभ की नोक नहीं लगती ।

ऊँख †
संज्ञा पुं० [ हिं० ] 'ऊख', 'ईख' ।

ऊँग †
संज्ञा स्त्री० [ हिं० ] दे० 'ऊँघ' ।

ऊँगना †
संज्ञा स्त्री० [ देश० ] १. चौपायों का एक रोग जिसमें उनके कान बहते हैं और उनका शरीर ठंडा हो जाता है और खाना पीना छूट जाता है । २. बैलगाडी़ आदि की धुरी में तेल देना । औंगना ।

ऊँगलि पु
संज्ञा स्त्री० [ हिं० ] दे० 'अँगुली' । उ०— द्वादस ऊँगलि सास उलटै बैठत बाय ।—प्राण०, पृ० ४१ ।

ऊँगा
संज्ञा पुं० [ सं० अपामार्ग ] [ स्त्री० अल्पा ऊँगी ] अपामार्ग । चिचडा़ । अज्जाझारा ।

ऊँगी
संज्ञा स्त्री० [ हिं० ऊँगा ] चिचडी़ । अपामार्ग ।

ऊँघ (१)
संज्ञा स्त्री० [ सं० अवाड् = नीचे मुख, प्रा० उघइ = सोता है ] ऊँघाई । निद्रागम । झपकी । अर्धनिद्रा ।

ऊँघ (२)
संज्ञा स्त्री० [ हिं० औंगन ] बैलगाडी़ के पहिए की नाभि और धुरकीली के बीच पहनाई हुई सन की गेडुरी । यह इसलिये लगाई जाती है जिसमें पहिया कसा रहे और धुरकीली की रगड़ से कटे नहीं ।

ऊँघन
संज्ञा स्त्री० [ हिं० ऊँघ ] ऊँघ । झपकी ।

ऊँघना
क्रि० अ० [ सं० अवाड् =नीचे मुँह ] झपकी लेना । नींद में झूमना । निद्रालु होना ।

ऊँच †
वि० [ सं० उच्च ] १. ऊँचा । ऊपर उठा हुआ । २. बडा़ । श्रेष्ठ । उत्तम । यौ०—ऊँच नीच = छोटा बडा़ । आला अदना । ३. उत्तम जाति या कुल का । कुलीन । उ०— दानव, देव, ऊँच अरू नीचू ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—ऊँच नीच = कुलीन अकुलीन । सुजाति । उ०— वहाँ पर ऊँच नीच का कुछ भी विचार नहीं है । मुहा०—ऊँच नीच न सोचना = भला बुरा न सोचना । उ०— बेगम—तसबीर की जरूरत ही क्या है ? अ०—हमारी खुशी । बेगम—तुम ऊँच नीच नहीं सोचते और यह ऐब है ।—सैर कु०, पृ० २६ ।

ऊँचा
वि० [ सं० उच्च ] [ स्त्री० ऊँची ] १. जो दूर तक ऊपर की ओर गया हो । उठा हुआ । उन्नत । बुलंद । जैसे,—ऊँचा पहाड़ । ऊँचा मकान । मुहा०— ऊँचा नीचा = (१) ऊबड़ खाबड़ । जो समथल न हो । उ०— ऊँच नीच में बोई कियारी । जो उपजी सो भई हमारी ।—(शब्द०) । (२) भला बुरा । हानि लाभ । जैसे,—मनुष्य को ऊँचा नीचा देखकर चलना चाहिए । ऊँचा नीचा दिखाना, सुशाना या समझाना = (१) हानि लाभ बतलाना । (२) उलटा सीधा समझाना । बहकाना । जैसे,— उसने ऊँचा नीचा सुझाकर उसे अपने दाँव पर चढा़ लिया । ऊँचा नीचा सोचना या समझना = हानि लाभ बिचारना । उ०— बडा़ हुआ तो क्या हुआ बढ़ गया जैसे बाँस । ऊँच नीच समझे नहीं किया बंस का नाश ।—कबीर (शब्द०) । २. जिसका छोर ऊँचे तक हो । जो ऊपर से नीचे की ओर कम दूर तक आया हो । जिसका लटकाव कम हो, जैसे ऊँचा कुरता, ऊँचा परदा । जैसे,—तुम्हारा अँगरखा बहुत ऊँचा है । ३.श्रेष्ठ । महान् । बडा़ । जैसे,—ऊँचा कुल । ऊँचा पद । जैसे,— (क) उनके बिचार बहुत ऊँचे हैं । (ख) नाम बडा ऊँचा कान दोनों बूचा । मुहा०—ऊँचा नीचा या ऊँची नीची सुनाना = खोटी खरी सुनाना । भला बुरा कहना । फटकारना । ४. जोर का (शब्द०) । तीव्र (स्वर) । जैसे,—उसने बहुत ऊँचे स्वर से पुकारा । मुहा०— ऊँचा सुनना = केवल जोर की आवाज सुनना । कम सुनना । जैसे; —वह थोडा़ ऊँचा सुनता है, जोर से कहो । ऊँचा सुनाई देना या पड़ना = केवल जोर की आवाज सुनाई देना । कम सुनाई पड़ना । जैसे,— उसे कुछ ऊँचा सुनाई पड़ता है । ऊँची दुकान फीका पकवान = नाम या रूप के अनुरूप गुण का अभाव । ऊँची साँस = लंबी साँस । दुखभरी साँस ।

ऊँचाई
संज्ञा स्त्री० [ हिं० ऊँचा + ई (प्रत्य०) ] १. ऊपर की ओर का विस्तार । उठान । उच्चता । बलंदी । २. गौरव । बडा़ई । श्रेष्ठता ।

ऊँचि पु †
वि० [ हिं० ] दे० 'ऊँचा' में । उ०— इहाँ ऊँचि पदवी हुती गोपीनाथ कहाय । अब जदुकुल पावन भयो, दासी जूठन खाय ।—नंद ग्रं०, पृ० १८३ ।

ऊँचे †पु
क्रि० वि० [ हिं०ऊँचा ] १. ऊँचे पर । ऊपर की ओर । उ०— ऊँचे चितै सराहियत गिरह कबूतर लेत ।—बिहारी (शब्द०) । २. जोर से (शब्द करना) । उ०— अवसर हार्यों रे तै हारच्यो । हरि भजु बिलँब छांडि सूरज प्रभु ऊँचे टेरि पुकारयो । सूर (शब्द०) । मुहा०—ऊँचे नीचे पैर पड़ना = व्यभिचार में फँसना । विशेष— खडी़ बोली में वि० 'नीचा' से क्रि० वि० 'नीचे' तो बनाते हैं । पर 'ऊँचा' से 'ऊँचे' नहीं बनाते । पर ब्रजभाषा तथा और और प्रांतिक बोलियों में इस रूप का क्रि० वि० की तरह प्रयोग बराबर मिलता है ।

ऊँचो पु
वि० [ सं० उच्च ] दे० 'ऊँचा' । उ०— ऐसो ऊँचो दुरग महाबली को जामैं, नखतावली सो बहस दीपावली करति है ।—भूषण ग्रं०, पृ० १२ ।

ऊँछ
संज्ञा पुं० [ देश० ] एक राग का नाम । उ०— ऊँछ अडा़ने के सुर सुनियत निपट नाप की लीन । करत बिहार मधुर केदारो सकल सुरन सुख दीन ।—सूर (शब्द०) ।

ऊँछना
क्रि० अ० [ सं० उच्छन = बीतना ] कंघी करना ।

ऊँट
संज्ञा पुं० [ सं० उष्ट्र, प्रा० उट्ट ] [ स्त्री० ऊँटनी ] एक ऊँचा चौपाया जो सवारी और बोझ लादने के काम में आता है । विशेष—यह गरम और जलशून्य स्थानों अर्थात् रेगिस्तानी मुल्कों में अधिक होता है । एशिया और अफ्रीका के गरम प्रदेशों में सर्वत्र होता है । इसका आदि स्थान अरब और मिस्र है । इसके बिना अरबवालों का कोई काम नहीं चल सकता । वे इसपर सवारी ही नहीं करते बल्कि इसका दूध, मांस, चमडा सब काम में लाते हैं । इसका रंग भूरा, डील बहुत ऊँचा (७-८ फुट), टाँगें और गरदन लंबी, कान और पूँछ छोटी, मुँह लंबा और होठ लटके हुए होते हैं । ऊँट की लंबाई के कारण ही कभी कभी लंबे आदमी को हँसी में ऊँट कह देते हैं । ऊँट दो प्रकार का होता है — एक साधारण या अरबी और दूसरा बगदादी । अरबी ऊँट की पीठ पर एक कूव होता है । ऊँट भारी बोझ उठाकर सैकडों कोस की मंजिल तै करता है । यह बिना दाना पानी के कई दिनों तक रह सकता है । मादा को ऊँटनी या साँडनी कहते हैं । यह बहुत दूर तक बराबर एक चाल चलने से प्रसिद्ध है । पुराने समय में इसी पर डाक जाती थी । ऊँटनी एक बार में एक बच्चा देती है और उसे दूध बहुत उतरता है । इसका दूध बहुत गाढा होता है और उसमें से एक प्रकार की गंध आती है । कहते हैं, यदि यह दूध देर तक रखा जाय तो उसमें कीडे पड जाते हैं । मुहा०—ऊँट किस करवट बैठता है = मामला किस प्रकार निबटता अथवा क्या नतीजा निकलता है । ऊँट की कौन सी कल सीधी = बेढंगों के काम में कहीं भी सलीके का न होना । ऊँट से आदमी होना = बेढंगे से सलीकेदार होना । उ०— जो कहीं छह महाने हमारी जूतियाँ सीधी करो तो ऊँट से आदमी बन जाओ ।—फिसाना०, भा० १, पृ० ७ । ऊँट की चोरी और झुके झुके = छिप न सकनेवाली बात को छिपाने का यत्न । ऊँटे के गले में बिल्ली बाँधना = ऐसा जोड़ बैठा देना जिसका कोई मेल ही न हो । १. ऊँट का पाद होना = बेफायदा बात । निरर्थक बात । उ०— करनी कौ रस मिटिगयौ भयौ न आतम स्वाद । भई बनारसि की दशा जथा ऊँट कौ पाद ।—अर्ध०, पृ० ५४ । ऊँट के मुँह में जीरा = अधिक भोजन करनेवाले को स्वल्प सामग्री देना । बडी़ जरूरत के सामने स्वल्प सामग्री की व्यवस्था । ऊँट निगल जायँ, दुम से हिचकियाँ = दावा बडी बडी बातों का और व्यवहार में उलझन तनिक सी बात पर । २. ऊँट मक्के को भागता है = स्वभाव आदत का शिकार होना । ऊँट बैल का साथ = बेमेल साथ । अनमोल संगति । उ०— ऊँट बैल का साथ हुआ है । कुत्ता पकडे हुए जुवा है ।—आराधना पृ० ७२ ।

ऊँटकटारा
संज्ञा पुं० [ सं० उष्ट्रकण्ट ] एक कँटीली झाडी़ जो जमीन पर फैलती है । विशेष—इसकी पत्तियाँ भँडभाँड की तरह लंबी लंबी और काँटेदार होती हैं । डालियों में गड़नेवाली रोईं होती है । ऊँटकटारा कंकरीली और ऊसर जमीन में होता है । इसे ऊँट बडे़ चाव से खाते हैं । इसकी जड को पानी में पीसकर पिलाने से स्त्रियों का शीघ्र प्रसव होता है । इसको कोई कोई बलवर्द्धक भी मानते हैं । पर्याय—ऊँटकटीरा, ऊँटकटेला, कंटालु, करमादन, उत्कंटक, शृंगार, तीक्ष्णाग्र ।

ऊटकटाल पु
संज्ञा पुं० [ हिं० ऊँटकटारा ] दे० 'ऊँट कटारा' । उ०— दूजा दोवड़ चोवडा़, ऊँट कटालउ खाँण, जिण मुख नागर बेलियाँ, सो करहउ केकाँण ।—ढोला०, दू० ३०९ ।

ऊँटकटाला पु
संज्ञा पुं० [ हिं० ऊँटकटारा ] दे० 'ऊँटकटारा' । उ०— मन गमता पाया नहीं ऊँटकटाला खाइ ।—ढोला०, दू० ४२७१ ।

ऊँटकटीरा
संज्ञा पुं० [ हिं० ] दे० 'ऊँटकटारा' ।

ऊँटनाल
संज्ञा स्त्री० [ हिं० ऊँट + नाल ] छोटी तोप जो ऊँट पर से चलाई जाती है । उ०— जगीं जामगीं त्यौं चलैं ऊँटनालैं ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० १० ।

ऊँटनी
संज्ञा स्त्री० [ सं० उष्ट्री ] मादा ऊँट [ को०] । यौ०— ऊँटनी सवार = साँड़नी सवार । संदेशवाहक । हरकारा ।

ऊँटवान
संज्ञा पुं० [ हिं० ऊँट+ वान (प्रत्य०) ] ऊँट चलानेवाला ।

ऊँठ पु
संज्ञा पुं० [ हिं०] दे० 'ऊँट' । उ०— तोप हजार पचीस री, भार तणाँ सों ऊँठ ।—रा० रू०, पृ० २७२ ।

ऊँडा (१) †पु
संज्ञा पुं० [ सं० कुंड ] १. वह बरतन जिसमें धन रखकर भूमि में गाड़ दें । २. चहबच्चा । तहखाना । उ०— (क) है कोई मुसलमान समझावै । ई मन चंचल चार पाहरू छूटा हाथ न आवै । जोरि जोरि धन ऊँडा़ गाडे जहाँ कोई लेन न पावै ।—कबीर (शब्द०) । (ख) ऊँडा चितरू सम दशा साधूगण गंभीर । जो धोखा विरचै नहीं सोही संत सधीर ।— कबीर (शब्द०) ।

ऊँडा (२)
वि० गहरा । गंभीर उ०— (क) ऊँडा पाणी कोहरइ थल चढि जाइ निट्ठ । मारवणी कइ कारणइ देस अदीठा दिट्ठ ।— ढोला०, दू० ५२३ । (ख) कस्तूरी कंडभरी, मेली उडे ठाँय । दरिया छानी क्यों रहै, साख भरै सब गाँय ।—दरिया० बानी०, पृ० ३९ ।

ऊँड़े
वि० [टि० अ०] गहरे । उ०—कस्तूरी कुड़े भरी, मेली ऊँड़े ठाँय ।—दरिया० बानी०, पृ० ३९ ।

ऊँदर †
संज्ञा पुं० [सं० ऊन्दुर] चूहा । मूसा ।

ऊँधा (१)पु †
वि० [हिं०] दे० 'औँधा' । उ०—ऊँधे खोरे काचे भाड़े । इन महि अम्रित टिकै न पांडे ।—प्राण० पृ० २६५ । मुहा०—उँधा ताला मारना=उलटा ताला बंद करना । दिवाले का द्योतन । उ०—ए बाजै देवालिया, ऊँधा ताला मार ।— बाँकी० ग्रं०, भा०२, पृ०— ६६ ।

ऊँधा (२)पु †
संज्ञा पुं० [हि० औंधा] १. ढालुवाँ किनारा । ढाल । २. तालाब में चौपायों के पानी का घाट जो ढालुवा होता है । गऊघाट ।

ऊँनमना
क्रि० अ० [सं० अवनमन] दे० 'उनवना' । उ०—उँनमि विआई बादली बर्सण लगे अँगार ।—कबीर ग्रं०, पृ० ८० ।

ऊँभरा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उमरा' । उ०—और बधाई उंमरा करी आइ सुरतांन ।—पृ० रा०, ९ । २१० ।

ऊँबरा पु
संज्ञा पुं० [अ० उमरा] दे० 'उमराव' । उ०—अकबर लक्खाँ ऊँवरा कीधा साथ कमंध ।—रा० रु०, पृ० ९६ ।

ऊँहूँ †
अव्य० [देश०] कभी नहीं । हर्गिज नहीं । विशेष—जब लोग किसी प्रश्न के उत्तर में आलस्य से वा और किसी कारण से मुँह खोलना नहीं चाहते तब इस अव्यक्त शब्द से काम लेते हैं ।

ऊ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. महादेव । २. चंद्रमा ।

ऊ (२)पु †
अव्य० [सं० अपि (संहिता दशा में उ)=भी] भी । उ०—तुलसीदास ग्वालिन अति नागरि, नटनागर मनि नंदलला ऊ—तुलसी (शब्द०) ।

ऊ (२) †पु
सर्व० [सं० अदस् या असौ>*प्रा० अहउ> वह, उह, ओह ऊ; अथवा प्रा० *अव>वह, ऊ, उह, औह] वह । उ०—(क) लगन जिसका जिस जिस धात सूँ है । ऊ नई किसका खुदा की जात सूँ है ।—दक्खिनी०, पृ० ११५ । (ख) ऊ गति काहु बिरले जाना ।—कबीर० सा०, पृ० ६०६ ।

ऊआना †पु
क्रि० अ० [सं० उदयन] उगना । उदय होना । निकलना । उ०—(क) भयो रजायस मारहु सुआ । सूर न आउ चंद जंह ऊआ ।—जायसी (शब्द०) । (ख) नासा देखि लजान्यो सूआ । सूक आय बेसर होय ऊआ ।— जायसी (शब्द०) ।

उआवाई
वि० [हिं० आव बाबव; सं० वायु=हवा ?] अंडबंड । बे सिरपैर का । निरर्थक । व्यर्थ । उ०—जन्म गवायो ऊआवाई भोजन । भजे न चरण कमल यदुपति के रह्यो विलोकत छाई ।—सूर (शब्द०) ।

ऊक (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० उल्का] १. उल्का । टूटता तारा । उ०— ऊक पात दिकदाह दिन फेकरहिं स्वान सियार । उदित केतु गत हेतु महि कंपति बारहिं बार ।—तुलसी (शब्द०) । २. लुक्क लुआठा । उ०—घरी एक झरि सार बहु ज्यों अगि संजुक्ता ऊक । पृ० रा०, १० । ३३ । ३. दाह । जलन । आच । ताप । तपन । ताव । उ०—कहाँ लौं मानै अपनी चूक । बिनु गुपाल सखि री यह छतियाँ ह्वै नगई द्वै टूक । तन मन धन यौवन ऐसे सब भए भुअँगम फूँक । हृदय जरत है दावानल ज्यों कठिन बिरह की ऊक । जाकी मणि सिर ते हरि लीनी कहा कहत अति मूक । सूरदास ब्रज वास बसीं हम मनो दाहिनो सूक ।—सूर (शब्द०) ।

ऊक (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० चूक का अनुकरण अथवा सं० अव+कृ (अवकृत्) भूल । चूक । गलती । उ०—सुंदर इस औजूद मौं इश्क लगाई ऊक । आशिक ठंडा होइ आइ मिलै माशूक ।—सुदरं ग्रं०, भा०१, पृ० २९१ ।

ऊक (३)
वि० [सं० उत्कट] उत्कट । तीव्र । उ०—अति ऊक गंध रसु रस्स वासि ।—पृ० रा०, ५७ । २५२ ।

ऊकटना
क्रि० अ० [हिं० 'अकठना'] उ०—उत्तर आज स उत्तरउ, ऊकटिया सारेह । बेलाँ बेलाँ परहरइ, एकल्लाँ मारेह ।—ढोला०, दू० २९५ ।

ऊकट्ट पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्कट] दे० 'उत्कट' ।

ऊकठना पु
क्रि० अ० [सं० उत्त+कर्ष; हिं० कढ़ना] बाहर निकलना । उ०—उत्तर आज स वज्जियउ ऊकठियइ केकाँण कामणि । काँमकमेड़ि, ज्यऊँ हइ लागउ सींचाण ।—ढोला०, दु० २९७ ।

ऊकना (१)पु †
क्रि० अ० [हिं०] चूकना । भूल करना । गलती करना । उ०—अपनो हित मानि सुजान सुनो धरि कान निदान तें ऊकिए ना । निज प्रैम की पोखनिहारि बिसारि अनीति झरोखनि ढूकिए ना ।—आनंघन (शब्द०) ।

ऊकना (२)पु †
क्रि० स० छोड़ देना । भूल जाना । उ०—दूर दूर पै काज द्वै, परे एँक सँग आय । ऊकन जोग न एक हु, इनमें परत लखाय ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) ।

ऊकना (३)पु †
क्रि० स० [सं० उल्का, हिं० ऊक] जलाना । दाहना । भस्म करना । तपाना । उ०—ए ब्रजचंद्र, चलो किन वा ब्रज लूकैं वसंत की ऊकन लागीं । त्यों पदमाकर पेखो पलासन पावक सी मनौ फूँकन लागी ।—पदमाकर (शब्द०) ।

ऊकपात पु
संज्ञा पुं० [सं० उल्का+ पात] दे० 'उल्कापात' ।— उ०—ऊकपात, दिकदाह दिन फेकरहिं स्वान सियार । तुलसी ग्रं०, पृ० ८९ ।

ऊकरड़ी
संज्ञा पुं० [सं० अवकर, अवस्कर; प्रा० अवक्कर उक्कर> उकर+ड़ी (प्रत्य०)] १. अशुचि राशि । २. धूरा । वह स्थान जहाँ मैला इकट्ठा किया जाता है । उ०—करहउ कूड़ई मन थकइ, पग राखीयउ जाँण । ऊकरड़ी डोका चुगई अपस डँमायउ आँण ।—ढोला०, दु० ३३६ ।

ऊकलता पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० आकुलता] १. व्यग्रता । २. त्वरा । जल्दीबाजी । उ०—ऊकलता बूकी मती, है नह कोतक हास—बाँकी० ग्रं०, भा०१, पृ० ३३ ।

ऊकलना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उकलना' । उ०—कलकलिया कुंत किरण कलि ऊकलि । बरजित विसिख विवरजित पाउ ।—वेलि०, दु० ११९ ।

ऊकार
संज्ञा पुं० [सं० ऊ+ कार] ऊ' अक्षर या उसकी ध्वनि [को०] ।

ऊख (१)
संज्ञा पुं० [सं० इक्षु] ईख । गन्ना दे० 'ईख' ।

ऊख पु (२)
वि० [सं० उष्म> प्रा० उखम्> हिं० ऊख] तपा हुआ । गरम । उ०—ऊष्ण काल अरु देह खिन मगपंची तन ऊख । चातक बतियाँ ना रुचीं, अन जल सींचे रूख ।—तुलसी (शब्द०) ।

ऊख (३)पु †
संज्ञा पुं० १. धूप । घाम । २. ग्रीष्म ऋतु । गर्मी के दिन ।

ऊख पु
स्त्री० [सं० उषा, प्रा० ऊख, हिं० उख] ऊषा । सूर्योदय से पूर्व की बेला ।

ऊखड़
संज्ञा पुं० [सं० ऊषर] पहाड़ के नीचे की सूखी जमीन । भाभर (कुमाऊँ) ।

उखधी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ओषधि] वनस्पति, वनोषधि । उ०— पीलाणी धरा ऊखधी पाकी, सरदि कालि एहबी सिरी ।—बेलि०, दू० २०७ ।

ऊखल (१)
संज्ञा पुं० [सं० उलूखल] काठ या पत्यर का बना हुआ एक गहरा बरतन जिसमें रखकर धान और किसी अन्न की भूसी अलग करने के लिये मूसल से कूटते हैं । औखली । काँडी । हावन । उ०—ऊखल तनिक तिरीछौ करिकै, डारि दिए तरु तिन मधि बरि कै । —नंद ग्रं०, पृ० २५१ । मुहा०—ऊखल में सिर देना=झंझट में जान बूझकर पड़ना । ऊखल में सिर देकर मूसल से डरना क्या=झंझट में जान- बूझकर पड़ने पर मुसीबतों की क्या चिंता ।

ऊखल (२)
संज्ञा पुं० [सं० ऊखर्वल] एक प्रकार का तृण या घास ।

ऊखा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊषा] उषा । वाणासुर की कन्या का नाम जो अनिरुद्ध की पत्नी थी । उ०—जन ऊखा कहँ अनिरुध मिला । मेटि न जाइ लिखा पुरुविला ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २५५ ।

ऊखाणा पु †
संज्ञा पुं० दे० 'उपखान' । उ०—(क) खाघो सो ही मीठ है, अग्र जनम किण दीठ । ऊखांणों अदतां पढ़ै, पूरब पद दे पीठ । —बाँकी ग्रं०, भा० २, पृ० २७ । (ख) ऊखाणो सायद भरे, सो गोला घर सून ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ८८ ।

ऊखि पु †
सज्ञा स्त्री० दे० 'ऊख' । उ०—कीन्हेसि ऊखि मीठि रस भरी । कीन्हैसि करुइ बेलि बहु फरी । —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १२३ ।

ऊखिल पु †
वि० [देश०] पराया । अपरिचित । उ०—रूपनिधान सुजान लखें बिन आँखिन दीठि हि दई है ऊखिल ज्यौं खरकै पुतरीन मैं, सूल की मूल सलाक भई है ।— घनानंद०, पृ० ५ ।

ऊगट पुं०
संज्ञा [सं० उद्वर्त, प्र० उबट्ठ] दे० 'उबटना' । उ०— साखिए ऊगट माँणिजड, खिजमति करइ अनंत, मासू तन मंडप रच्यउ, मिलण सुहावा कंत । —ढोला०, दू० ५३५ ।

ऊगना पु
क्रि० अ० [सं० उद्+ √ गम्; हिं० उगना] दे० 'उगना' । उ०—(क) भरत बीज सब भूनिया, ऊग न सक्के फेर ।—दरिया० बानी०, पृ० ३ । (ख० ना जानौं क्या होयगा ऊगे से परभात । —कबीर० सा० सं०, पृ० ३ ।

ऊगर पु †
क्रि० अ० [सं० उद्+ √ गृ; प्रा० उग्गिल; राज० उगरणो उवरणी] बच रहना । निकलना । उ०—आव धरा दसअनम्यउ, महलाँ ऊपर मेह । बाहर थाजइ ऊगरइ भीगा माँझ धरेह । —ढोला, दू० २७२ ।

ऊगरा (१)
वि० [हिं० ओगरना] खाली उबाला हुआ ।

ऊगरा (२)
संज्ञा पुं० खाली उबाला हुआ भोजन ।

ऊगालना †पु
क्रि० अ० [सं० उद्गार; प्रा० उग्गाल, उग्गार] जुगाली करना । पगुराना । उ०—तंत तणक्कइ, पी पियइ, करहउ उगालेह । —ढोला०, दू० ६३१ ।

ऊघट
संज्ञा सं० [हिं०] दे० 'अवघट' । उ०—हम न जाएब तुम पासे, जाएब ऊघट घाटे कन्हैया ।—विद्यापति, पृ० <num३४९ ।

ऊचल
वि० दे० 'उच्च' । उ०—तइ जओ काम हृदय अनुपाम । रोएल घट ऊचल के ठाम । —विद्यापति, पृ, ४०९ ।

ऊचाला
संज्ञा पुं० [सं० उच्चलन, प्रा० उच्चालो] १. स्थानांतर गमन । २. अकाल पड़ने पर मरुस्थल की जातियों द्वारा पशुओं के साथ किसी साधनसंपन्न स्थान में जाकर बसना । उ०— पिंगल उचालऊ कियउ नल नखर चइदेस । ढोला०, दू० २ ।

ऊचित
वि० [हिं०] दे० 'उचित' । उ०—तातें आपको मोहोर धरनी ऊचित नाहीं हतो । —दो सौ बावन०, भा० <num२, पृ० ७३ ।

ऊचेड़ंती पु
वि० [सं० उच्चैश्चलन्ती] निकलनेवाली । बाहर करनेवाली । उ०—सिंधु परइ सउ जोअणे, नीची खिवई निहल्ल । उर मेंहदी सज्जणाँ, ऊचेड़ती सल्ल । ढोला०, दू० ११२ ।

ऊछजना
क्रि० स० [हिं० उ+छजना] ऊपर की ओर करना । उठना । उ०—छोह घणै ऊछज छरा, केहर फाड़ै डाच ।— बांकी० ग्रं०, भा०१. पृ० ११ ।

ऊछव पु
संज्ञा पुं ०[सं० उत्सव, प्रा० उच्छव] दे० 'उत्सव' । उ०— पहिरावणी राजा करी । उछव गुड़ी भोज दुवारि ।— बीसल० रास०, पृ० ११२ ।

ऊछाह पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह] दे० 'उत्साह' । उ०— सजि सिंगार आनंद मढ़ी बढी सरस ऊछाह । रंगमहल फूली फिरति चितवत मग चित चाह । —स० सप्तक, पृ० ३८९ ।

ऊछेद पु
संज्ञा पुं ०[सं० उच्छेद] उच्छेद । खंडन । उ०—गुरु के शब्द ऊछेद को कहत सकल हम जान ।—कबीर सा०, ८७४ ।

ऊछेर
क्रि० अ० [सं० उत्त+श्रि० प्रा० उच्छेर] ऊँचा होना । उठना । वर्धित होना । उ०—कुल उछेर कुवाट, पैलां घर वाछैं पिसण । —बांकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ६१ ।

ऊज पु
संज्ञा पुं० [देश०] उपद्रव । ऊधम । अँधेरे । उ०—हमारो दान मारयौ इनि रातिनी बेचि बेचि जात । घेरौ सखा जान ज्यों न पावै छियो जिनि । देखो हरि के ऊज उठाइबे की बात रातिबिराति बहु बेटी कोऊ निकसति है पुनि । श्राहरिदास के स्वामी की प्रकृति ना फिरि छइपा छांडो किनि ।—स्वामी हरिदास (शब्द०) । क्रि० प्र०—उठाना ।—मचाना ।

ऊजड़
वि० [सं० उत्+ज्वालित या ज्वलित] उजड़ा हुआ । ध्वस्त । बीरान । बिना बस्ती का ।

ऊजती पु
वि० [हिं०] दे० 'उजला' । उ०—नीरद सरद के दरद दलि देस करैं उपदेस ये ऊजती बेस साजिके ।—दीन० ग्रं०, पृ० ४४ ।

ऊजन (१) पु
वि० [सं० विजन] । विजन । निर्जन । मानवरहित । उ०—जहँ देवी आंबिदा । नगर बाहर मठ ऊजन ।—नंद० ग्रं०, पृ० २०८ ।

ऊजन (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'ऊज' । उ०—नित कोलाहल निन ब्रज ऊजन । —घनानंद, पृ० २९० ।

ऊजना पु
क्रि० अ० [हिं० उ+कूजन> उ+२ऊजन>ऊजन] आंदोलित होना । उमंगित होना । उ०—आवैं कहूँ मनमोहन मो गली पूरब भागन को ब्रज ऊजै । —घनानंद, पृ० २०३ ।

ऊजम पु
संज्ञा पुं० [सं० उद्यम, प्रा० उज्जम] दे० 'उद्यम' । उ०— ऊपड़ी धुड़ी रवि लागी अंबरि, खेतिए ऊजम भरिया खाद ।—वेलि०, दू० १९३ ।

ऊजर (१) पु
वि० [सं० उज्ज्वल, प्रा० उज्जल] दे० 'उजला' । उ०— कबिरा पाँच बलधिया ऊजर जाहिं । बलिहारी वा दास की, पकरि जो राखै बाहिं । —कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० २२ ।

ऊजर (२)पु
वि० [हिं० उजड़ना] उजाड़ । उजड़ा हुआ । बिना बस्ती का । उ०—(क) ऊधौ कैसे जीवै कमलनयन बिनु । तब तौ पलक लगन दुख पावत अब जो निरषि भरि जात अंग छिनु । जो ऊजर खेरे के देवन को पूजै को मानै । तो हम बिनु गोपाल भए ऊधो क प्रीति को जानै । —सूर (शब्द०) ।

ऊजरा पु
वि० [हिं० उजला] दे० 'ऊजर' और 'उजला' ।

ऊजरी पु
वि० स्त्री० [हिं० उजला] दे० 'उजला' । उ०—सेज ऊजरी, चंद नै निरमल, तापै कमल छए । —नंद ग्रं०, पृ० ३४२ ।

ऊजल पु
वि० [हिं० उजला] दे० 'ऊजर' । उ०—मैं अति ऊजल, हौं प्रभु को प्रिय पाप न रंच गहौ गुनगाही ।—दीन० ग्रं०, पृ० १७२ ।

ऊजला पु
वि० [हिं० उजला] दे० 'उजला' । उ०—कोइला होय न ऊजला, सौ मन साबुन लाय । —कबीर० सा० सं०, पृ० ५७ ।

ऊजासड़ पु
संज्ञा पुं० [हिं० उजाड़+(स्वा० मध्यागम) स] दे० 'उजाड़' । उ०—थल मथ्थइ ऊजासड़क थे इण केहइ रंग । धण लीजइ, प्री मारिजइ, छाँड़ि विडाणउ संग । —ढोला० दू० ६३२ ।

ऊजू
संज्ञा पुं० [अ० वजू] नमाज पढ़ने से पहले मुँह हाथ धोना । उ०—न्हाइ धोई नहिं अचारा । ऊजू तैं पुनि हूवा न्यारा । — सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० ३०४ ।

ऊझड़ पु
वि० [हिं०] दे० 'ऊजड़' । ऊझड़ जाताँ बाट बनावै ।—कबीर ग्रं०, पृ० १३४ ।

ऊझल (१) पु
वि० [सं० उज्ज्वल] दे० 'उज्ज्वल' । उ०—द्रुम नव पल्लव लागि, फूल खिले बहु भाँत के । रस ऊझल तन जागि, आगि मदन के गात के । —ब्रज० ग्रं०, पृ० २२ ।

ऊझल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ओझल] दे० 'ओझल' । उ०—हरपट ऊझल मित्र सुम्हारा । पट उठाइ कखु है उँजियारा ।—इँद्र०, पृ० १३१ ।

ऊटक नाटक
संज्ञा पुं० [सं० नाटक अथवा हिं० ऊटक (असद्वशा,नुकरणात्मकपूर्वद्विरुक्ति+सं० नाटक] इधर उधर का काम । वह काम जिसका कुछ निश्चय न हो । जैसे,—(क) बैठने से तो काम चलेगा नहीं; कुछ ऊटक नाटक ही होगा । (क) वह ऊटक नाटक करके किसी प्रकार गुजर करता है ।

ऊटना पु
क्रि० अ० [हिं० औटना=खलबलाना] १. उत्साहित होना । हौसला करना । मंसूबा बाँधना । उमंग में आना । उ०—(क) काज मही सिवराज बली हिंदुवान बढ़ाइबे को उर ऊटै ।—भूषण (शब्द०) । (ख) काढे तीर बीर जब ऊटयो । सर समूह सत्रुन पर छूटयो । —लाल (शब्द०) । (ग) मारत गाल कहा इतनो मनमोहन जू अपने मन ऊटे । रघुनाथ (शब्द०) । (ग) जूटै लगे जान गन, ऊटै लगे ज्वान जन, छूटै लगे बान घन, लूटै लगे प्रान तन ।—गीरिधरदास (शब्द०) । २. तर्क वितर्क करना । सोच विचार करना ।

ऊटपटाँग
वि० [हिं० अटपट+अंग अथवा हिं० ऊँट+पट(<सं० पृष्ठ)+अग] १. अटपट । टेढ़ामेढ़ा । बेढंगा । बेमेल । असंबद्ध । बेजोड़ । बेसिर पैर का । क्रमविहीन । अंडबंड । ऊलजलूल । उ०—तुम्हारे सब काम ऊटपटाँग होते हैं । २. निरर्थक । व्यर् थ । व्याहियात । फजूल । विशेष—दिल्ली में 'ऊतपटाँग' बोलते हैं ।

ऊठ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० उठान] १. उभार । उठाव । उ०—चातुरी चोख मनोज के चोजनि घूघरिवार मैं ऊठ अगैंठी ।—घनानंद, पृ० ३७ । २. उमंग । उ०—रिस रूसनैं रूखि मै ऊठ अनूठि में लागति जागति जोति महा । —घनानेद, पृ० २२ ।

ऊठत पु
क्रि० वि० [हिं० उठना] उठते हुए । उ०—बैठत राम हिं ऊठत रामहि, बोलत रामहि राम रह्यो हैं ।—सुंदर० ग्रं०, पृ० ५०२ ।

ऊठना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उठना' । —तब श्री गुसाँई जो गोविंददास कोटोरि कै कहे, जो गोविंददास, ऊठो तुमको नवनीतप्रिय जी के सदैव ऐसे ही दरसन होंगे ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० २८९ ।

ऊड़ना
क्रि० स० [सं० ऊढ] विवाह करना । शादी करना । उ०— बिरिध खाइ नवजोवन सौ तिरिया सों ऊड़ ।—जायसी (शब्द०) ।

ऊड़ा
संज्ञा पुं० [सं० ऊन, प्रा० उण> ऊड़] १. कमी । टोटा । घाटा । गिरानी । अकाल । २. नाश । लोप । क्रि० प्र०—पड़ना ।

ऊड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ना] १. जुलाहों के डाँड़े वा सेठे में लगा हुआ टेकुआ जिसपर लपेटे हुए सूत को जुलाहे पट्टी पर घूम घूम कर चढ़ाते जाते हैं । दुतकला । २. रेशम खोलनेवालों की चरखी जिसपर वे लोग संगल वा रेशम के बड़े बड़े लच्छों को डालकर एक प्रकार की परेती पर उतारते हैं ।

ऊड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० √ ब्रुड़ (वर्ण विपर्यय)=डूबना, हिं० बूड़ना] १. बुड्डी । गोता । क्रि० प्र०—मारना । २. पनडुब्बी चिड़िया । उ०—भौंह घनुक पल काजल बूड़ी़ । वह भइ धानुक हौं भयो ऊड़ी । —जायसी (शब्द०) ।

उढ़
वि० [सं० ऊढ] [स्त्री० ऊढा] १. ब्याहा हुआ । २. धारण किया हुआ ।

ऊढकंटक
वि० [सं० ऊढकण्टक] जिसने कवच धारण किया हो [को०] ।

ऊढ़ना पु
क्रि० अ० [सं० ऊह=संदेह पर विचार] १. तर्क करना । चोच विचार करना । अनुमान बाँधन । उ०—मृगमद नाहिन मृगन मैं ऊढत हैं दिन राति । तिल तरूनि के चिबुक में सोई मृगमद भाति ।—मुबारख (शब्द०) ।

ऊढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊढा] १. विवाहिता स्त्री । २. परकीया नायिका का एक भेद । वह ब्याही स्त्री जो अपने पति को छोड़ दूसरे से प्रेम करे ।

ऊढ़ि
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊढ़ि] १. विवाह । ब्याह । २. ढोना । वहन करना [को०] ।

ऊणहार पु
वि० [सं० उनहार] हे० 'उनहार' । उ०—घट घट के ऊणहार सब, प्राण परस ह्वै जाइ । —दादू०, पृ० ४२३ ।

ऊत
वि० [सं० अपुत्र, प्रा० अउत्त] १. बिना पुत्र का । निःसंतान । निपूता । यौ०—ऊन निपूता=निःसंतान । बे औलाद । विशेष—एक प्रकार की गाली है जिसे स्त्रियाँ बहुत देती हैं । २. उजड्ड । बेबकूफ । उ०—टोटे में भक्ती करै, ताका नाम सपूत । माया धारी मस्खरे, केते ही गये ऊत ।—कबीर० सा० स०, भा० १, पृ० ३६ ।

ऊत (२)
संज्ञा पुं० वह निःसंतान मरने के कारण पिंड आदि न पाकर भूत होता है । उ०—ऊत के ऊत, उजाड़ के भूत । सीता के सराये, जनक के शराबी (शब्द०) ।

ऊतभूत
संज्ञा पुं० [हिं० ऊन+सं० भूत] भूत, प्रेत, पिशाच आदि । उ०—ऊत भूत को व्यावना पाखंड और परपंच ।—कबीर० मं०, पृ० ५२७ ।

ऊतम पु
वि० [सं० उत्तम] दे० 'उत्तम' । उ०—नहिं को ऊतम नाहीं को हीना । सभ मैं एक जोति प्रभु कीना । —प्राण०, (शब्द०) ।

ऊतर (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्तर] दे० 'उत्तर' । उ०—बहू दूबरी होत क्यों यौं जब बूझो सास । ऊतर कढ़यो न बालमुख ऊँचे लेत उसास । —नंद० ग्रं०, पृ० २९६ ।

ऊतर (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० ऊत्तर] बहाना । मिस । उ०—ऊतर कौन हू कै पदमाकर दै फिरै कुंजगलीन में फेरी ।—पद्माकर (शब्द०) ।

ऊतरु पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्तर] दे० 'उत्तर' । उ०—आन की ढिग उसास नहिं लेई । मूँदै मुख तिहि ऊतरु देई ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५० ।

ऊतला पु
वि० [हिं० उतावल] चंचल । वेगवान । तेज । उ०— पानी ते अति पातला, धूआँ ते अति झीन । पवनहुँ ते अति ऊतला, दोस्त कबीरा कीन । —कबीर (शब्द०) ।

ऊति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रक्षा । २. उन्नति । ३. आनंद । ४. बुनना । ५. सीना । ६. सिलाई की मजदूरी । ७. सहायता । ८. अभिलाषा या इच्छा । ९. खेल या क्रीड़ा । १०. कृपा या अनुग्रह [को०] ।

ऊतिम पु †
वि० [सं० उत्तम] दे० 'उत्तम' ।

ऊती
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊति] रक्षा करना । उ०—अवतारी अवतार धरन अरु जितक विभूती । इह सब आश्रय के अधार जग जिहिं की ऊती । —नंद० ग्रं०, पृ० ४४ ।

ऊथल पथल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उथलपुथल' । उ०—भूचाल भूमि ऊथलपथल इस सु छत्रि पहु पंग दल ।—पृ० रा०, ६० । २०३९ ।

ऊद (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. अगर का पेड़ । २. अगर की लकड़ी । ३. एक प्रकार का बाजा । बरतन ।

ऊद (२)
संज्ञा पुं० [सं० उद्र] ऊदबिलाव ।

ऊदबत्ती
संज्ञा स्त्री० [अ० ऊद+हिं० बत्ती] एक प्रकार की दक्षिण की बनी हुई अगरबत्ती । इसे सुगंध के लिये लोग जलाते हैं ।

ऊदबिलाव
संज्ञा पुं० [सं० उद्विडाल] नेवले के आकार का पर उससे बड़ा एक जंतु जो जल और स्थल दोनों में रहता है । विशेष—यह प्रायः नदी के किनारों पर पाया जाता है और मछलियाँ पकड़कर खाता है । इसके कान छोटे, पंजे जालीदार, नाखून टेढ़े और पूँछ पुछ चिपटी होती है । रंग इसका भूरा होता है । यह पानी में जिस स्थान पर डूबता है वहाँ से बड़ी दूर पर और बडी देर के बाद उतराता है । लोग इसे मछली पकड़वाने के लिये पालते भी हैं । यौ०—ऊदबिलाव की ढेरी=वह झगड़ा जो कभी न निपटे । सब दिन लगा रहनेवाला झगड़ा । विशेष—कहते हैं, जब कई ऊजबिलाव मिलकर मछलियाँ मारते हैं तब वे एक जगह उनकी ढेरी लगा देते हैं और फिर बाँटने बैठते हैं । जब सबके हिस्से अलग अलग लग जाते हैं तब कोई न कोई ऊदबिलाव अपना हिस्सा कम समझकर फिर सबको मिला देता है और फिर बँटाई शुरू होती है ।

ऊदर
संज्ञा पुं० [सं० उदर] दे० 'उदर' । उ०—सवा लक्ष जीव भरों अहारा, तऊ न ऊदर भरै तुम्हारा । —कबीर० सा०, पृ० ९ ।

ऊदल (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक पेड़ । गुलबादला । बूटी । विशेष—यह हिमालय की तराई के जंगलों में बहुत होता है । बरमा और दक्षिण में भी होता है । इसकी छाल से बड़ा मजबूत रेशा निकलता है जिसे बटकर रस्सा बनाते हैं । दक्षिण में हाथी बाँधने का रस्सा प्रायः इसी का बनाते हैं ।

ऊदल (२)
संज्ञा पुं० [हिं० उदयसिंह का संक्षिप्त रूप हिं०] महोबे के राजा परमाल के मुख्य सामंतों में से एक, जो अपने समय के बड़े भारी वीरों में था । यह आल्हा का छोटा भाई और पृथ्वी राज का समकालीन था ।

ऊदसोज
संज्ञा पुं० [अ० ऊद+फा० सोज] धूपदानी । अगरदान ।

ऊदा (१)
वि० [अ० ऊद अथवा फा० कबूद] ललाई लिए हुए काले रंग का । बैगनी रंग का ।

ऊदा (२)
संज्ञा पुं० ऊदे रंग का घोड़ा ।

ऊदी
वि० [हिं० ऊद+ई प्रत्य०] १. ऊद का या ऊद संबंधी । २. ऊदी का रंग । बैगनी रंग का ।

ऊदी सेम
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊदी+सेम] केवाँच ।

ऊध
संज्ञा पुं० [सं० ऊधस्, ऊधः] १ गुप्त स्थान जहाँ मित्र ही जा सकें । २. स्तन या छाती [को०] ।

ऊधन्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुग्ध [को०] ।

ऊधम
संज्ञा पुं० [सं उद्धम=ध्वनित] उपद्रव । उत्पात । धूम । हुल्लड़ । हल्ला गुल्ला । शोर गुल । दंगा फसाद । क्रि० प्र०—उठना ।—करना ।—जोतना ।—मचाना ।

ऊधमी
वि० [हिं० ऊधम] [स्त्री० ऊधमिन] ऊधम करनेवाला । उपद्रवी । शरारती । फसादी ।

ऊधव पु
संज्ञा पुं० [सं० उद्धव] दे० 'उद्धव' ।

ऊधस्
संज्ञा पुं० [सं०] १ स्तन । छाती । २. मित्रों के मिलने का गुप्त स्थान [को०] ।

ऊधस्य पु
संज्ञा पुं० [सं० ऊधस्] दूध (हिं०) ।

ऊधो पु †
संज्ञा पुं० [सं० ऊद्धव] उद्धव । कृष्ण के सखा एक यादव । मुहा०—ऊधो का लेना न माधो का देना=किसी से कुछ संबंध नहीं । किसी के देने लेने में नहीं । लगाव बझाव से अलग ।

ऊधौ
संज्ञा पुं० [सं० उद्धव] दे० 'ऊधो' । उ०—ऊधो की ऊपदेस सुनौ ब्रजनागरी । रूप सील लावन्य सबै गुन आगरी । — नंद० ग्र०, पृ० १७३ ।

ऊनंत पु
वि० [सं० उन्नत] दे० 'उन्नत' । उ०—बेटी राजा भोज की ऊनंत पयोहरवाली वेस । — वि० रासो०, पृ० ६ ।

ऊन (१)
संज्ञा पुं० [सं० ऊर्ण] भेड़ बकरी आदि का रोयाँ । भेड़ के ऊपर का वह बाल जिससे कंबल और पहनने के गरम कपड़े बनते हैं । विशेष—भारतवर्ष में उत्तराखंड वा हिमालय के तटस्थ देशों की भेड़ों का ऊन होता है । काश्मीर और तिव्वत इसके लिये प्रसिद्ध हैं । पंजाब, हजारा और अफगानिस्तान की कोच वा अरल नाम की भेड़ का भी ऊन अच्छा होता है । गढ़वाल, नैनीताल, पटना, पोयंबटूर और मैसुर आदि की भेड़ों से भी बढ़िया ऊन निकलता है । ऊन और बाल में भेद यह है कि ऊन के तागे यों ही बहुत बारीक होते हैं अर्थात् उनका घेरा एक इंच हजारवें भाग से भी कम होता है । इसके अतिरिक्त उनके ऊपर बहुत सी सूक्ष्म दिउली वा पतं (जो एक इंच में ४००० तक आ सकती हैं) होती हैं । किसी कारण अच्छे ऊन की जो लोई आदि होती है उनके ऊपर थोड़े दिन के बाद महीन महीन गोल रवे से दिखाई पड़ने लगते हैं । प्रायः बहुत सी भेड़ों में ऊन और बाल मिला रहता है । ऊन की उत्तमता इन बातों से देखी जाती है—रोएँ की बारीकी, उसकी गुरुचन, उसका दिउलीदर होना, उसकी लंबाई, मजबूती, मुलायमियत और चमक । भेड़ के चमड़े की तह में से एक प्रकार की चिकनाई निकलती है जिससे ऊन मुलायम रहता है । कश्मीर, तिब्बत और नैपाल आदि ठंडे देशों में एक प्रकार की बकरी होती है जिसके रोएँ के नीचे की तह में पशम या पशमीना होता है । इसी को काश्मीर में 'असली तूस' कहते हैं जो दुशाले आदि में दिया जाता है ।

ऊन (२)
वि० [सं०] १ कम । न्यून । थोडा़ । २. तुच्छ । हीन । नाचीज । क्षुद्र ।

ऊन (३)
संज्ञा पुं० मन छोटा करना । खेद । दुःख । ग्लानि । रंज । उ०—(क) अस कस कहहु मानि मन ऊना । सुख सुहाग तुम कहँ दिन दूना । —तुलसी (शब्द०) । (ख) जनि जननी मानहु मन ऊना । तुमतें प्रेम राम के दूना । —तुलसी (शब्द०) । क्रि० प्र०—मानना=दुख मानना । रंज मानना । उ०—सुनु कपि जिय मानसि जनि ऊना । तै मम प्रिय लछिमन तें दूना ।—तुलसी (शब्द०) ।

ऊनक
वि० [सं०] १ न्यून । कम । २. हीन । मंद । तुच्छ । ३. दोषपूर्ण । दोषयुक्त [को०] ।

ऊनत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊनता] दे० 'ऊनता' । उ०—त्रिकुटी चढ़ा अनँत सुख पाया, मन की ऊनत भागी ।—दरिया० बानी०, पृ० ५७ ।

ऊनता
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊन] कमी । न्यूनता । घटी । हीनता ।

ऊनमना पु
क्रि० अ० [सं० अवनमन] दे० 'उनवना' । उ०— ऊनमियउ उत्तर दिसइ, गाज्यउ गहिर गंभीर । — ढोला० दू०, १८ ।

ऊनयना पु
क्रि० अ० [सं० अवनमन] दे० 'उनवना' । उ०— गउखे बइठे एकठा मालवणी नई ढोल । अंबर दीठउ ऊनयउ, सिय संभारय बोल । —ढोला०, दू० २४३ ।

ऊनरना पु
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उनरना' । उ०—ए पिया, काँहर ऊनरे औरू काँहर बरस्यौ जाइ । —पोद्दार अभि० ग्रं०, पृ० ९१४ ।

ऊनवना
क्रि० अ० [सं० अवनमन] दे० 'उनवना' । उ०—एक सबद सौं ऊनवै, वर्ष न लागै आइ । एक सबद सौं बीखरै, आप आप कौं जाइ । —दादू०, पृ० ३६२ ।

ऊना (१)
वि० [सं० ऊन] [वि० स्त्री० ऊनी] १ कम । थोड़ा । छोटा । उ०—सूनौ कै परमपद, ऊनो कै अनंत मद, नूनो कै नदीस नद, इंदिरा झुरै परी । —देव (शब्द०) । २. तुच्छ । नाचीज । हीन ।

ऊना (२)
संज्ञा पुं० १ एक प्रकार की छोटी तलवार जो स्त्रियों के व्यवहार के लिये बनती है । उ०—मुरि मुरित कहुँ ना, उत्तम ऊना, सब तैं दूना काट करै । —पद्माकर ग्रं०, पृ० २८ । विशेष—इसका लोहा बहुत अच्छा और लचीला होता है । इसे रानियाँ अपने तकिए के नीचे रखती हैं ।

ऊनित
वि० [सं०] घटाया हुआ । कम किया गया [को०] ।

ऊनी (१)
वि० स्त्री० [सं० ऊन] १ कम । न्यून । थोड़ी ।

ऊनी (२)
संज्ञा स्त्री० उदासी । रंज । खेद । ग्लानि । उ०—सोति सजोग न जानि परै मन मानती का उर आनती ऊनी । सुंदर मंजुल मोतिन की पहिरो न भटू किन नाक नथूनी ।—प्रताप (शब्द०) ।

ऊनी (३)
[हिं० ऊन+ई (प्रत्य०)] ऊन का बना हुआ । (वस्त्र आदि) ।

ऊनोदरता तप पु
संज्ञा पुं० [सं०] जैन लोगों का एक व्रत जिसमें प्रति दिन एक एक ग्रास भोजन घटाते जाते हैं ।

ऊनौ पु
वि० दे० 'ऊन' । उ०—रसहूँ लगि कल कंत सौं कलह न कीजै काउ । कानहिं जो ऊनौ करै, सो सोनो जरि जाउ ।—नंद० ग्रं०, पृ० १५२ ।

ऊनाल
संज्ञा पुं० [सं० ऊष्णकाल; प्रा० उण्ह+आल=ऊण्हाल] उष्णकाल । ग्रीष्म ऋतु । उ०—कहिए मालवणी तणइ रहियइ साल्ह विमास । ऊन्हालउ ऊतारियउ, प्रगटयउ पावस मास ।—ढोला० दू० २४२ ।

ऊप
संज्ञा पुं० [सं० वप्] अन्न का एक तरह का ब्याज । विशेष—इसका व्यवहार यों है कि बीज बोने के लिये जो अन्न किसान लेते हैं उसके बदले में फसल के अंत में प्रति मन दो तीन सेर अधिक देते हैं । कहीं कहीं डयोढ़ा सवाई भी चलता है ।

ऊप (२)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ओप' । उ०—(क) तौ निरमल मुख देखै जोग होइ तेहि ऊप ।—जायसी (शब्द०) । (ख) अजब अनूप रूप चमक दमक ऊप, सुंदर सोभित अति सुहावनी । —सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० १४९ ।

ऊपजना पु
क्रि० अ० [हिं० उपजना] दे० 'उपजना' । उ०—शब्द गहा सुख ऊपजा, गया अँदेशा मोर ।—दरिया० बानी०, पृ० ३ ।

ऊपट पु
संज्ञा पुं० [सं ऊप+पट] उपवस्त्र । उत्तरीय । वह चादर जो दीक्षा में गुरु देता है । उ०—ऐसा ऊपट पाय अब, जग मग चलै बलाय । —मलूक०, पृ० ३२ ।

ऊपड़ना पु
क्रि० अ० [हिं० उपड़ना] दे० 'उपणना' । उ०— उत्तर दी भुइँ जू ऊपड़इ, पालउ पवन धणाह ।—ढोला० दू०, २९९ ।

ऊपति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्पत्ति] दे० 'उत्पत्ति' । उ०—तब बंस भाव जरतित्त मान, सँभरी हुत ऊपत्ति थान ।—पृ० रा०, ५७ ।२९३ ।

ऊपना पु
क्रि० अ० [हिं० उपना] दे० 'उपना' । उ०—चंदन के ढिग मानौ ऊपनी है चंदनी । —सुंदर० ग्रं० (जी०), पृ० १६८ ।

ऊपर
क्रि० वि० [सं० उपरि] [वि० ऊपरी] १. ऊँचे स्थान में । ऊँचाई पर आकाश की ओर । जैसे,—तसवीर बहुत ऊपर है, नहीं पहुँचोगे । आधार पर । सहारे पर । जैसे,—(क) पुस्तक मेज के ऊपर है । (ख) मेरे ऊपर कृपा कीजिए । ३. ऊँची श्रेणी में । उच्च कोटि में । जैसे,—इनके ऊपर कई कर्मचारी हैं । ४. (लेख मे) पहले । जैसे,—ऊपर लिखा जा चुका है । कि... । ५. अधिक । ज्यादा । जैसे; —हमें यहाँ आए दो घंटे से ऊपर हुए । ६. प्रकट में । देखने में । जाहिरी तौर पर । प्रत्यक्ष में । बाहर में । उ०—ऊपर हित अंतर कुटिलाई ।—विश्राम (शब्द०) । ७. तट पर । किनारे पर । जैसे,—ताल के ऊपर, गाँव से थोड़ा हटकर, एक बड़ा भारी बड़ का पेड़ है । ८. अतिरिक्त । परे । प्रतिकूल । उ०—वर्णाक्षम कर मान यदि, तब लगि श्रुति कर दास । वर्णाश्रम ते त्यक्त जे श्रुति ऊपर तेहि वास । —(शब्द०) ।मुहा०—ऊपर ऊपर=बाला बाला । अलग अलग । निराले निराले । बिना और किसी को जताए । चुपके से । जैसे,— तुम ऊपर ऊपर रुपया फटकार लेते हो, हमें कुछ नहीं देते । ऊपर ऊपर जाना = लक्ष्य से बाहर जाना । निष्फल होना । व्यर्थ जाना । कुछ प्रभाव न उत्पन्न करना । जैसे,—मैं लाख कहूँ, मेरा कहना तो सब ऊपर ऊपर जाता है । ऊपर का दम भरना = ऊँची साँस चलना । उखडी साँस चलना । ऊपर की आमदनी =(१) वह प्राप्ति जो नियत या निश्चित से अधिक हो । बँधी तनख्वाह वा आमदनी के सिवाय मिली हुई रकम । (२</num) इधर उधर से फटकारी हुई रकम । ऊपर की दोनों जाना= दोनों आँखें फूटना । उ०—ऊपर की दोनों गईं हिय की गईं हेराय । कह कबीर चारिहुँ गईं तासों कहा बसाय । —कबीर (शब्द०) । ऊपर छार पड़ना = मर जाना । उ०—जौ लहि ऊपर छार न परे, तौ लहि यह तृष्णा नहीं मरे ।—जायसी (शब्द०) । ऊपर टूट पड़ना=धावा करना । आक्रमण करना । ऊपर तले =(१) ऊपर नीचे (२) एक के पीछे एक । आगे पीछे । लगातार । क्रमशः । ऊपर तले के =आगे पीछे के भाई वा बहनें । वे दो भाई वा बहनें जिनके बीच में और कोई भाई या बहन न हुई हो । पू० तरउपरिया (स्त्रियों का विश्वास है कि ऐसे लड़कों में बराबर खटपट रहा करती है ।) ऊपर लेना =जिम्मे लेना । हाथ में लेना । (किसी कार्य का) भार लेना । जैसे,—तुम यह काम अपने ऊपर लोगे । ऊपरवाला=(१) ईश्वर । (२) अफसर । ऊँचे दरजे का । (३) भृत्य । सेवक । नौकर । चाकर । काम करनेवाला । (४) अपरिचित । बिना जाना बूझा आदमी । बाहरी आदमी । ऊपर से—(१</num) बलंदी से । (२) इसके अतिरिक्त । सिवा इसके । (३) वेतन से अधिक । घूस । रिश्वत । ऊपर की आय । भेंट । नज्र । असाधारण आय । (४) प्रत्यक्ष में दिखाने के लिये । जाहिरी तौर पर । जैसे,—वह मन में कुछ और रखता है और ऊपर से मीठी मीठी बातें करता है । ऊपर से चला जाना= कचर के चले जाना । रौंदने हुए जाना । ऊपर ही से उसासें लेना=दिखावटी रंज या दुःख करना । उ०—जो न जानें ऊपर ही से उसके लिये उसाँसें लिया करते हैं ।—प्रंमघन०, भा २, पृ० ५५ । ऊपर होना=(१) बढ़ जाना । आगे निकल जाना । (२) बढ़कर होना । श्रेष्ठ होना । (३) प्रधान होना । जैसे,—(क) उन्हीं की बात सबके ऊपर है । (ख) भाग्य ही सबके ऊपर है ।

ऊपरचूँट
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊपर+चूँटना=खोंटना] बाल को ऊपर से काट लेना और डंठल को खड़ा रहने देना । छपका । ऊपरछँट ।

ऊपरहार
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊपर+देश. हार] गाँव से दूर स्थित कम उपजाऊ भूमि । उ०—गौहान की भूमि और ऊपरहार की भूमि में भी अंर माना जाता है । —कृषि०, पृ० ५० ।

ऊपरि पु
क्रि० वि० [हिं० ऊपर] दे० 'ऊपर' । उ०—वैष्णव को जीवमात्र ऊपरि दया राखी चाहिए । —दो सौ बावन०, भा १, पृ० १४१ ।

ऊपरी
वि० [हिं० ऊपर+ई (प्रत्य०)] १. ऊपर का । २. बाहर का । बाहरी । ३. जो नियत न हो । बँधे हुए के सिवा । गैर मामूली । ४. दिखौआ । नुमाइशी ।

ऊपरीफसाद
संज्ञा पुं० [हिं० ऊपरी+अ० फसाद] भूतबाधा । प्रेतादि ।

ऊपरीफेर
संज्ञा पुं० [हिं० ऊपरी+फेर] दे० 'ऊपरी फसाद' ।

ऊपल †
संज्ञा पुं० [हिं० उपला] दे० 'उपला' ।

ऊपली पु
वि० [हिं०] दे० 'ऊपरी' । उ०—दादू यह परिख सराफी ऊपली, भीतरि की यहु नाँहिं । अंतरि की जानै नहीं, ताथै खोटा खाँहिं । —दादू०, पृ० २८८ ।

ऊपलो पु
वि० [हिं० ऊपर+ओ (प्राय०)] ऊपर का । ऊपरी । उ०— थारो नाक सरीखा ऊपलो होठ । —वी० रासो, पृ० ७२ ।

ऊपाड़ना
क्रि० स० [हिं० उपाड़ना] दे० 'उपारना' । उ०—ऊपाड़े आबू जिली, पर निंदारी पोट ।—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ५८ ।

ऊबंध (१) पु
संज्ञा पुं [सं० उदबंध] बाँध । उ०—मुरझ थाँन मेवाड़, राँण राजाँन सरीखा । महुण देख ऊबंध, करै कुण बंध परीखा ।—रा० रू० पृ० २३ ।

ऊबंध (२)
वि० बंधरहित । मर्यादा रहित । उ०—सितर खाँन सकबंध, कटक अनमंध छिलेकर । असपत हद सामंद, कीध ऊबध प्रमेसर । —रा० रू०, पृ० १५३ ।

ऊबंधना पु
क्रि० स० [हि० बाँधना] बाँधना । उ०—सूजै घर बाघौ सकबंधी बाँधे पाप किया ऊबंधी । —रा० रू०, पृ० १४ ।

ऊब (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० ऊबना] कुछ काल तक निरतर एक ही अवस्था में रहने से चित्त की व्याकुलता । उद्वेग । घबड़ाहट । उ०—चहत न काहू सों न कहत काहूं की सबकी सहत, उर अंतर न ऊब है ।—तुलसी (शब्द०) । यौ०—ऊबकर साँस लेना=ठंडी साँस लेना । दीर्घ निश्वास खीचना । उ०—हाथ धोय जब बैठो लीन्ह ऊबि के साँस ।—जायसी (शब्द०) ।

ऊब (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० ऊभ=हौसला, उमंग] उत्साह । उमंग । उ०—नंदनँदन लै गए हमारी अब ब्रज कुल की ऊब । सूरश्याम तजि और सूझै ज्यों खेरें की दूब । —सूर (शब्द०) ।

ऊबट (१)
संज्ञा पुं [सं० उद्=बुरा+वर्त्म, वट्ट=मार्ग] कठिन मार्ग । अटपट रास्ता । उ०—जब वर्षा में होत है मारग जल संयोग । बाट छाँड़ि ऊबट चलत सकल सयाने लोग ।— गुमान (शब्द०) ।

ऊबट (२)
वि० ऊबड़ खाबड़ । ऊँचा नीचा । उ०—ऊबट न गैल सदा सिंहन की शैल बनजोर के ले बैल मानो बोलें डकरात से ।—हनुमान (शब्द०) ।

ऊबड़ खाबड़
वि० [अनु०] ऊँचा नीचा । जो समथल न हो । अटपट ।

ऊबटना पु
क्रि० अ० [उदवृत] उत्पन्न होना । पैदा होना । उदित होना । उ०—काट जिका कुल ऊबटै आठ वाट इतफाक ।— बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ६४ ।

ऊबना
क्रि० अ० [सं० जद्व जन, पा० उब्बिजन, हिं० उबियाना] उकताना । घबराना । अकुलाना । कुछ काल तक एक ही अवस्था में निरतर रहने से चित्त की व्याकुलता । उ०—ऊबत हौ डूबत डगत हौ डोलत हौ बोलत न काहे प्रीति रीति न रितै चले । कहैं पदमाकर त्यों उससि उसासनि सो आँसुवै अपार आइ आँखिन इतै चलै— । पद्माकर (शब्द०) ।

ऊबर पु
वि० [हि० उबरना] अतिरिक्त । अधिक ।

ऊबरना पु
क्रि० अ० [हिं० उबरना] दे० 'उबरना' ।

उबाँ पु
संज्ञा पुं [देश०] ऊसर । उ०—ऊबाँ जलबल कायराँ, विदराँ कुल बिवहार—बाँकी० ग्रं०, भा० २, पृ० ३५ ।

ऊबेड़ना
क्रि० स० [हिं० उबेरना] दे० 'उबेरना' । उ०—जेहो सीहा जाड़, ऊबेड़ै ऊबड़हरो ।—बांकी० ग्रं०, भा० ३, पृ० १७ ।

ऊब्बट पु
संज्ञा पुं० [हिं० ऊबट] दे० 'उबट' । उ०—चढ़ं उब्बटं वाट थट्टे सुचल्ले । —ह० रासो, पृ० ६८ ।

ऊभ पु (१)
वि० [हि० ऊभना=खड़ा होना] ऊँवा । उभरा हुआ । उठा हुआ । उ०—बर पीपर सिर ऊम जो कीन्हा । पाकर तिन सूखे फर दीन्हा ।—जायसी (शब्द०) ।

ऊभ (२) पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊब] १. व्याकुलता । ऊब । उ०— राजै लीन्ह ऊभ भर साँस । ऐस बोल जनु बोल निरासा ।— जायसी ग्रं० (गुप्त०), पृ० ९८ ।२. उमस । गरमी । ३. हौसला । उमंग । हुब्ब ।

ऊभचूभ (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० ऊभ+चूभ] १. डूबना उतराना । २. आशा निराशा के मध्य की स्थिति । क्रि० प्र० होना=उ०—व्यास महा कच्छप सी धरणी, ऊभचूभ थी विकलित सी ।—कामायनी, पृ० १५ ।

ऊभचूभ (१)
क्रि० वि० पूर्ण रूप से या सराबोर (जल) ।

ऊभट पु
संज्ञा पुं० [हिं० ऊबट] दे० 'ऊबट' । उ०—पूरे को पूरा मिलै, पडै सो पूरा दाव । निगुरा तो ऊभट चलै, जब तब करै कुदाव । —कबीर सा० सं०, भा० १, पृ० १७ ।

ऊभना (१)पु
क्रि० अ० [सं० उद्भवन=ऊपर होना; गुज० ऊभूँ= खड़ा होना] १. उठना । खड़ा होना । उ०—(क) बिरहिन ऊभी पंथ सिर पंथी पूछै धाय । एक शब्द कहो पीव का कबेर मिलैंगे आय ।—कबीर (शब्द०) । (ख) एक खड़ा होना लहै इक ऊभा ही बिललाय । समरथ मेरा साँइया सूता देइ जगाय ।—कबीर (शब्द०) । (ग) ऊभा मारूँ बैठा मारूँ मारूँ जागत सूता । तीन भवन में जाल पसारूँ कहाँ जायगा पूता ।—दादू (शब्द०) । (घ) करुणा करति मंदोदरि रानी । चौदह सहस सुंदरी ऊभी उठै न कंत महा अभिमानी ।—सूर (शब्द०) । २. उत्पन्न होना । आना या लगना (लाज) । उ०—ढोलउ मन चलपथ थपउ ऊभउ साहइ लाज, साम्हउ वीसू आवियउ, आइ कियउ सुभराज । —ढोला० दू० १०५ ।

ऊभना (२)
क्रि० [हिं० ऊबना] घबड़ाना । व्याकुल होना ।

ऊभरना पु
क्रि० अ० [हि० उभरना] दे० 'उभरना' । उ०—उरमाल झलंझण ऊमरियं । —रा० रू०, पृ० ३४ ।

ऊभा
वि० [हिं० ऊभना=खडा़ होना] खड़ा । स्थित । उ०—परी करै औ ऊभा धावै, बाहर भीतर दौडा़ आवै । —कबीर० सा०, पृ० ५४२ ।

ऊभासाँसी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊबना+साँस अथवा ऊभ +सास] दम घुटना । साँस फूलना । ऊबना ।

ऊभि पु
वि० [हिं० ऊभ] दे० 'ऊभ' । उ०—निसँसि ऊभि मरि लीन्हेसि स्वाँसा । भई अधार जियन कै आसा । —जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० २८८ ।

ऊमंती पु
वि० [सं० उन्मत्त] १. उन्मत्त । पागल । विक्षिप्त । २. विचारहीन । उ०—चिल्हानी वुलि पत्ति सों, ऊमंती वर- जंत । बड़ गुरजन बत्ती सुनी सो दिट्ठी दिषि कंत । —पृ० रा०, ६१ ।१८५१ ।

ऊमक पु
संज्ञा स्त्री०[सं० उमंग] झोंक । उठान । वेग । उ०— इक ऊमक अरू दमक संहारै । लेहि साँस जब बीसक मारै । — लाल (शब्द०) ।

ऊमट पु
संज्ञा पुं० [देश०] क्षत्रियों का एक भेद । उ०—ऊमट अनेक अवनी निधान । अरबीन चढ़े आए अभान । —सुदन (शब्द०) ।

ऊमटना पु
क्रि० स० [हिं० उमँडना] दे० 'उमडना' । उ०— विरह महाधण ऊमटयउ, थाह निहालइ मुध्ध । —ढोला० दू० १५ ।

ऊमनापु
क्रि० अ० [देश०] अमड़ना । उमगना । उ०—बरसत भूमि भूमि उनए बादर महि कहँ चूमि चूमि । निसरि परी साँपिनि सी नदिया वेगि चली ऊमि ऊमि । —देवस्वामी (शब्द०) ।

ऊमर (१)
संज्ञा पुं० [सं० उदुम्बर] १. गूलर । उदुंबर । २. बनियों की एक जाति ।

ऊमर पु (२)
संज्ञा स्त्री० [अ० उम्र] दे० 'उम्र' । उ०—दौड़े ऊमर पटका देती, छित जिमि बादल छाया । —रघु० रू०, पृ० १६ ।

ऊमरा
संज्ञा पुं० [हिं० ऊमर] दे० 'ऊमर' ।

ऊमरि पु
संज्ञा पुं० [हिं० ऊमर] दे० 'ऊमर' । उ०—तरू ऊमरि को आसन अनूप । यहु रचित हेय मय विश्वरूप । —राम० धर्म०, पृ० १५५ ।

ऊमस
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊमस] दे० 'उमस' ।

ऊमहना
क्रि० अ० [हिं० उमहना] दे० 'उमहना' । उ०—साहिब मारू ऊमहया, खोड़इ होइ रहेह । —ढोला० दू०, ३१७ ।

ऊमा †
संज्ञा [हिं०] दे० 'उंबी' ।

ऊमिरि
संज्ञा स्त्री० [अ० उम्र] दे० 'उम्र' । उ०—बीती ऊमरि मोर बीती निसि न वियोग । —नट०, पृ० १०४ ।

ऊमी †
संज्ञा स्त्री० [सं० उम्बी] जौ या गेहूँ की हरी बाल । दे० 'उंबी' ।

ऊर (१)
संज्ञा पुं० [देश०] पंजाब में धान बोने की एक रीति । जड़हन रोपना । विशेष—बेहन के पौधे जब एक महीने के हो जाते हैं तब उन्हें पानी से भरे हुए खेत में दूर दूर पर बैठाते हैं ।

ऊर (२) पु
वि० [हिं० और] दे० 'और' । उ०—गरब करि ऊभो छइ सामरयो राव, मो सरीखा नहीं ऊर भुवाल ।—बी० रासो, पृ० ३२ ।

ऊर (३)
संज्ञा पुं० [हिं० और] ओर । अंत ।

ऊरज(१) पु
संज्ञा पुं० [सं० उरोज] दे० 'उरोज' । उ०—तरूनी, रमनी सुंदरी, तनु ऊरज पुनि सोइ । तिय तोसी तिहुँ लोक में रची विरंचि न कोइ—नंद० ग्रं०, पृ० ८६ ।

ऊरज (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० ऊर्ज] दे० 'ऊर्ज' ।

ऊरण (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० आवरण] आवरण वस्त्र । कपड़ा । उ०— सुभ ऊरण जंघ सुभोमयं । पदकन्न अभूषण सज्ज लयं । —प० रासो, पृ० १६४ ।

ऊरण (२) पु
वि० [हिं० ऊऋण] दे० 'उऋण' । उ०—करसूँ जग ऊरण करण पर दुख हरण पमार । —बाँकी० ग्रं०, पृ० ७७ ।

ऊरध पु
वि० [सं० उर्ध्व] दे० 'ऊर्ध्व' ।

ऊरधरेता पु
वि० [सं० ऊर्ध्वरेतस्] दे० 'ऊर्ध्वरेता' । उ०—अरू समुझाये योग ही बहु भाँति बहु अंग । ऊपधरेता ही कही जीतन विंद अनंग । —भक्ति०, पृ० ५७ ।

ऊरम
संज्ञा स्त्री० [देश०] आत्म कलाओं में से एक । उ०—ऊरम बोलिये मन धूरम बोलिये पवन । —गोरख०, पृ० २०४ ।

ऊरमधूरम
वि० [हिं० ऊरम+धूरम] असंबद्ध । असंगत । उ०— ऊरम—धूरम जोती झाला । —गोरख०, पृ० २०५ ।

ऊरमी
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊर्मि] लहर । उ०—सरित संग करि छुभित सु सिंधु । उमगि ऊरमी ह्नै गयौ अंधु । —नंद० ग्रं०, पृ० २८९ ।

ऊरव्य
संज्ञा पुं० [सं०] ऊरूज । वैश्य ।

ऊरस
संज्ञा स्त्री० [सं० विरस] विरस । स्वादहीन । उ०—नीरस निगोडो दिन भरै भीरू ऊरसों । —घनानाद, पृ० १४८ ।

ऊरा
वि० [हिं० पूरा का अनु०] न्युन । कम । उ०—पूरन सारू न कबहूँ ऊरा । —प्राण०, पृ० ३६ ।

ऊरी
संज्ञा स्त्री० [देश०] जुलाहों का एक औजार । दुतकला । सलाक ।

ऊरु
संज्ञा पुं० [सं०] जानु । जंघा । रान । उ०—रोक सकता हूँ ऊरूओं के बल से ही उसे, टूटे भी लगाम यदि मेरी कभी भूले से । —साकेत, पृ० ७३ ।

ऊरुग्लानि
संज्ञा स्त्री० [सं० ] जाँघों की कमजोरी [को०] ।

ऊरुज (१)
संज्ञा पुं० [सं० ऊरू+ज] १. जंघा से उत्पन्न वस्तु । २. वैश्य जाति कि ब्रह्मा के जंघों से उत्पन्न कही जाती है ।

ऊरुज (२)
वि० जो जाँघ से उत्पन्न हो [को०] ।

ऊरुजन्मा
संज्ञा पुं० [सं० ऊरुजन्मन्] वैश्य ।

ऊरुफलक
संज्ञा स्त्री० [सं० ] जाँघ की हड्डी । कूल्हे की हड्डी [को०] ।

ऊरुसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊरुसन्धि] पट्टा । जाँघ का जोड़ [को०] ।

ऊरुसंभव
वि० [ऊरुसम्भव] जाँघ से उत्पन्न [को०] ।

ऊरुस्कंभ
संज्ञा पुं० [सं० ऊरूस्कम्भ] दे० 'ऊरुस्तंभ' [को०] ।

ऊरुस्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० ऊरूस्तम्भ] वात का एक रोग जिसमें पैर जकड़ जातो हैं ।

ऊरुस्तंभा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊरूस्तम्भा] केले का पेड़ [को०] ।

ऊरू (१) पु
संज्ञा पुं० [सं० ऊरू] दे० 'ऊरू' । उ०—नीबी बंधन दृढ़ कै धरै । ऊरू जमल बाँधि इव करै । —नंद० ग्रं०, पृ० १४६ ।

ऊरू (२)
संज्ञा स्त्री० [देश० ] ऐल नाम की कँटीली लता । अलई ।

ऊरूदभव (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] ऊरू से उत्पन्न वैश्य [को०] ।

ऊरूदभव (२)
वि० [सं० ] जो ऊरू या जाँघ से उत्पन्न हो [को०] ।

ऊरे पु †
वि० [हिं० ओर] इधर । पहले । उ०—अब श्री गुसाँई की सेवकिनी एक ब्राह्मनी, उज्जैन ते चार कोस ऊरे में एक ग्राम है ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३१३ ।

ऊर्ज (१)
वि० [सं० उर्जस्, ऊर्ज?] बलवान । शक्तिमान । बली ।

ऊर्ज (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] [वि० ऊर्जस्वल, ऊर्जस्वी] १. बल । शक्ति । २. कार्तिक मास । ३. एक काव्यालंकार जिसमें सहायकों के घटने पर भा अहंकार का न छोड़ ना वर्णन किया जाता है । उ०—को बपुरा जो मिल्यो है विभीषण ह्वै कुल दूषण् जीवैगो कौ लौं । कुंभ करन्न मरयो मघवा रिपु तौऊ कहा म डरों चम सौं लौं । श्री रघुनाथ के गातन सुंदरि जानहु तू कुशलात न तौ लौं । शाल सबै दिगपालन को कर रावण के करवास है जौ लौ । (इसमें भाई और पुत्र के न रहने पर भी रावण अंहकार नहीं छोड़ता) । —केशव (शब्द०) । ४. अन्न का सार- भूत रस (को०) । ५. पानी (को०) । ६. आहार । भोजन (को०) । ७. जीवन (को०) । ८. श्वास (को०) । ९. प्रयत्न । उद्योग (को०) । १०. उत्साह (को०) । ११. प्रजनन शक्ति (को०) ।

ऊर्जमेध
वि० [सं०] अत्यंत प्रतिभाशाली । अत्यंत चतुर [को०] ।

ऊर्जस्
संज्ञा पुं० [सं० ] १. बल । शक्ति । पराक्रम । २. उमंग । उत्साह । ३. भोज्य वस्तु । अहार ।

ऊर्जस्वल
वि० [सं०] १. बलवान् । बली । शक्तिमान् । २. श्रेष्ठ । उ०—करा रहे ऊर्जस्वल बल से नित्य नवल कौशल का मेल । साध रहे हैं सुभट विकट बहु भय विस्मय साहस के खेल ।—साकेत, पृ० ३७५ । ३. तेजस्वी । तेजयुक्त (को०) ।

ऊर्जस्वान्
वि० [सं०ऊर्जस्वत्] १.ऊर्जस्वी । २. रसीला । ३. खाद्य- युक्त [को०] ।

ऊर्जस्वित
वि० [सं०] शक्तिशाली । श्रेष्ठ । कांतियुक्त । उ०—मैं तुम्हें पवित्र, उज्वल और ऊर्जस्वित पात हूँ ।— कंकाल, पृ० १११ ।

ऊर्जस्वी (१)
वि० [सं० ऊर्जस्विन्] १. बलवान् । सक्तिमान् । २. तेजवान् । ३. प्रतापी ।

ऊर्जस्वी (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] एक काव्यालंकार । जहाँ रसाभास या भावाभास स्थायी भाव का अथवा बाव का अंग हो ऐसे वर्णन में यह अलंकार माना जाता है ।

ऊर्जा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊर्जस्] १. शक्ति । बल । २. आहार । ३. उत्पत्ति । ४. दक्ष की पुत्री का नाम जो वशिष्ठ के साथ ब्याही गई थी [को०] ।

ऊर्जित
वि० [सं०] १. शक्तिशाली । बलवान् । २. महान् । प्रतापी । ३. गौरवशाली । योग्य । उदात्तचरित्र । ४. गंभीर ।उ०—दृश्य मेवाड के पवित्र बलिदान का ऊर्जित आलोक आँख छोलता था सबकी । —लहर, पृ० ६९ ।

ऊर्जी
वि० [सं०] जहाँ खाने पीने की वस्तुएँ अत्यधिक हों [को०] ।

ऊर्ण
संज्ञा पुं० [सं० ] १. ऊन । भेड़ या बकरी के बाल ।

ऊर्णनाभ
संज्ञा पुं० [सं० ] मकड़ी । लूता ।

ऊर्णनाभि
संज्ञा पुं० [सं० ] मकड़ी ।

ऊर्णपट
संज्ञा पुं० [सं० ] मकड़ी [को०] ।

ऊर्णम्रद
वि० [सं०] ऊन की तरह मुलायम [को०] ।

ऊर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. ऊन । २. चित्ररथ नामक गंधर्व की स्त्री । ३. भौंहों के मध्य की भौंरी [को०] ।

ऊर्णापिंड
संज्ञा पुं० [सं० ऊर्णापिण्ड] ऊन का गोला [को०] ।

ऊर्णायु
संज्ञा पुं० [सं० ] १. कंबल । ऊनी वस्त्र । २. एक गंधर्व का नाम । ३. भेंडा़ (को०) । ४. मकड़ा (को०) ।

ऊर्णावल
वि० [सं०] ऊनी [को०] ।

ऊर्णावान्
वि० [सं० ऊर्णावत्] ऊनी [को०] ।

ऊर्णासूत्र
संज्ञा पुं० [सं० ] ऊन का धागा [को०] ।

ऊर्णुत
वि० [सं०] ढका हुआ [को०] ।

ऊर्दर
संज्ञा पुं० [सं० ] १. अनाज नाप्ने का पात्र । २. वीर । ३. राक्षस [को०] ।

ऊर्दध्व (१)
क्रि० वि० [सं०] ऊपर । ऊपर की ओर ।

ऊर्द्ध्व (२)
वि० १. ऊँचा । ऊपर का । ऊपर की ओर किए हुए । २. खडा़ । ३. बिखरए हुए (बाल) [को०] । विशेष—हिंदी में यौगिक शब्दों में ही यह प्राय? आता है जैसे; उद्र्ध्वगमन, उद्रर्ध्वरेता, । ऊर्द्धश्वास ।

ऊर्द्ध्व (३)
संज्ञा पुं० [सं० ] १. दस दिशाओं में से एक । सिर के ठीक ऊपर की दिशा । २. उच्चता । ऊँचाई [को०] ।

ऊर्दध्व (४)
संज्ञा पुं० [सं० ] एक प्रकार का मृदंग [को०] ।

ऊर्दध्वकंठ
वि० [सं० उर्द्रध्वकण्ठ] उठी हुई गरदनवाला [को०] ।

ऊर्द्ध्वक
संज्ञा पुं० [सं० ] एक प्रकार का मृदंग ।

ऊर्द्ध्वकर्ण
वि० [सं०] उपर को उठे हुए या खडे़ कानवाला [को०] ।

ऊर्द्ध्वकाय
संज्ञा पुं० [सं० ] शरीर की ऊपरी भाग [को०] ।

ऊर्द्ध्केश
वि० [सं०] १. खडे बालोंवाला । २. बिखरे बालोंवाला [को०] ।

ऊद्ध्वक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं० ] उच्चपद—प्राप्ति के लिये कार्य या क्रिया ।

ऊर्द्ध्वग
वि० [सं०] १. ऊपर को जानेवाला । २. उठता हुआ । जो ऊपर को गया हो [को०] ।

ऊर्द्ध्वागुलि
वि० [सं० उद्रर्ध्वाग्ङृलु] उँगलियों को ऊपर किए हुए [को०] ।

ऊर्द्ध्वगति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उपर की ओर चाल । २. मुक्ति ।

ऊर्द्ध्वगति (२)
वि० ऊपर की ओर जानेवाला [को०] ।

ऊर्द्ध्वगामी
वि० [सं० उद्रर्ध्वगामिन्] १. ऊपर जानेवाला । २. मुक्त । निर्वाणप्राप्त ।

ऊर्द्ध्वचरण
संज्ञा पुं० [सं० ] १. एक प्रकार के तपस्वी जो सर के बल खडे़ होकर तप करते हैं । २. शरभ नामक सिंह जिसके आठ पैरों में से चार पैर ऊपर को होते थे ।

ऊर्द्ध्वताल
संज्ञा पुं० [सं० ] संगीत में एक ताल विशेष ।

ऊर्द्ध्वतिक्त
संज्ञा पुं० [सं० ] चिरायता ।

ऊर्द्ध्वदृष्टि
वि० [सं०] जिसकी दृष्टि ऊपर की ओर हो । महत्वाकांक्षी ।

ऊर्द्ध्वदृष्टि (२)
संज्ञा स्त्री० योग की एक क्रिया विशेष जिसमें दृष्टि ऊपर की ओर ले जाकर त्रिकुटी पर जमाते हैं [को०] ।

ऊर्द्ध्वदेव
संज्ञा पुं० [सं० ] विष्णु । नारायण ।

ऊर्द्ध्वदेह
संज्ञा स्त्री० [सं० ] मृत्यु के पश्चात् मिलनेवाला सूक्ष्म या लिंगशरीर को ।

ऊर्द्ध्वद्वार
संज्ञा पुं० [सं० ] ब्रह्मरंध्र । दसवाँ द्वार । ब्रह्मांड का छिद्र । विशेष—कहते हैं, इससे प्राण निकलने पर मुक्ति होती है ।

ऊर्द्ध्वनयन (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] शरभ नामक जंतु ।

ऊर्द्ध्वनयन (२)
वि० १. जिसके नेत्र ऊपर की ओर हों । २. महत्वा- कांक्षी [को०] ।

ऊर्द्ध्वनेत्र
वि० [सं०] १. जो ऊपर देख रहा हो । २. महत्वाकांक्षावाला [को०] ।

ऊर्द्ध्वपाद
संज्ञा पुं० [सं० ] शरभ नामक पौराणिक जंतु । विशेष—इसके आठ पैर माने गए हैं जिनमें से चार ऊपर को होते हैं ।

ऊर्द्ध्वपुंड्र
संज्ञा पुं० [सं० ऊद्रर्ध्वपुण्ड्र] खडा़ तिलक । वैष्णवी तिलक ।

ऊर्द्ध्वबाहु
संज्ञा पुं० [सं० ] एअक प्रकार के तपस्वी जो अपने एक बाहु के ऊपर की ओर उठाए रहते हैं । वह बाहु सूखकर बेकाम हो जाता है ।

ऊर्द्ध्वबृहती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वैदिक छंद ।—प्रा० भा० प०, पृ० १७२ ।

ऊर्द्ध्वमंडल
संज्ञा पुं० [सं० उद्रर्ध्वमंडल] वायुमंडल का ऊपरी भाग, जो पृथ्वीतल से २० मील की ऊँचाई तक माना जाता है [को०] ।

ऊर्द्ध्वमंथी (१)
वि० [सं० ऊद्रर्ध्वमन्थिन्] १. जो अपने वीर्य को गिरने न दे । स्त्रीप्रसंग से बचनेवालसा । ऊद्रर्ध्वरेता ।

ऊर्द्ध्वमंथी (२)
संज्ञा पुं० ब्रह्मचारी ।

ऊर्द्ध्वमुख (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] अग्नि । आग ।

ऊर्द्ध्वमुख (२)
वि० जिसका मुँह ऊपर की ओर हो ।

ऊर्द्ध्वमूल (१)
संज्ञा पुं० [सं० ] संसार । दुनिया । जगत् ।

ऊर्द्ध्वमूल (२)
वि० जिसकी जड़ ऊपर की ओर हो ।

ऊर्द्ध्वरेखा
संज्ञा श्त्री० [सं०] पुराणानुसार रामकृष्ण आदि विष्णु के अवतारों के ४८ चरण चिहनों में से एक चिहन । विशेष—अँगूठे और अँगूठे के निकटवाली अँगुली के बीच से निकलकर यह रेखा सीधे और लंबे आकार में एँडी के मध्य भाग तक गई हुई मानी जाती है ।

ऊर्द्ध्वरेता (१)
वि० [सं० उद्रर्ध्वरेतस्] जो अपने वीर्य को गिरने न दे । ब्रह्मचारी । स्त्रीप्रसंग से परहेज करनेवाला ।

ऊर्द्ध्वरेता (२)
संज्ञा पुं० १. महादेव । २. भीष्म पितामह । ३. हनुमान । ४. सनकादि । ५. संन्यासी ।

ऊर्द्ध्वलिंगी
संज्ञा पुं० [सं० उद्रर्ध्वलिग्डिन्] १. शिव । महादेव । २. ऊर्ध्वरेता । ब्रह्मचारी ।

ऊर्द्ध्वलोक
संज्ञा पुं० [सं० ] १.आकाश । २. बैकुंठ । स्वर्ग ।

ऊर्द्ध्ववात
संज्ञा पुं० [सं० ] १.अधिक डकार आने का रोग । २. शरीर के ऊपरी भाग में रहनेवाला वायु (को०) ।

ऊर्द्ध्ववायु
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १.डकार । २. शरीर के ऊपरी भाग में रहनेवाली वायु (को०) ।

ऊर्द्ध्वशायी (१)
वि० [सं० ऊद्रर्ध्वशायिन्] ऊपर की ओर मुँह करके सोनेवाला ।

ऊर्द्ध्वशायी (२)
संज्ञा पुं० शिव । महादेव ।

ऊर्द्ध्वशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] वमन । कै [को०] ।

ऊर्द्ध्वश्वास
संज्ञा पुं० [सं० ] १. ऊपर को चढ़ती हुई साँस । उल्टी साँस । २. श्वास की कमी या तंगी । क्रि० प्र०—चलना—लगना ।

ऊर्द्ध्वसानु (१)
वि० [सं०] १. अधिकाधिक ऊपर जानेवाला । २. आगे निकल जानेवाला ।

ऊर्द्ध्वसानु (२)
संज्ञा पुं० पर्वत की चोटी । पर्वतशिखर ।

ऊर्द्ध्वस्थ
वि० [सं०] जो ऊपर हो । उच्च [को०] ।

ऊर्द्ध्वस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अश्व का शिक्षण । घोडा़ निकालना या फेरना । २. एश्व की पीठ । ३. उच्चता । उदात्तता । ४. उत्थान । समुत्थान । ५. सीधा खडा होना । खडे़ होने की स्थिति [को०] ।

ऊर्द्ध्वस्रोता
वि० [सं०] श्त्री प्रसंग से बचनेवाला । ऊद्रर्ध्वरेता । ब्रह्मचारी [को०] ।

ऊर्द्ध्वाग
संज्ञा पुं० [सं० ऊद्रर्ध्वग्ङ] शरीर का ऊपरी भाग । सिर । मूँड़ । मस्तक ।

ऊर्द्ध्वाकर्षण
संज्ञा पुं० [सं० ] ऊपर की ओर का खिंचाव ।

ऊद्रर्ध्वायन
संज्ञा पुं० [सं० ] १. ऊपर की ओर गमन । २. ऊपर की ओर उड़ने का कार्य । ३. स्वर्ग जाने का मार्ग [को०] ।

ऊर्द्ध्वारोह
संज्ञा पुं० [सं० ] दे० 'उर्द्ध्वारोहण' ।

ऊर्द्ध्वारोहण
संज्ञा पुं० [सं० ] ऊपर की ओर चढना । २. स्वर्गा- रोहण । स्वर्गगमन । ३. मरना । देहांत । इंतकाल ।

ऊर्ध पु
क्रि० वि० [सं० उदर्ध्व] दे० 'ऊर्ध्व' ।

ऊर्ध्व (१)
क्रि० वि० [सं० ] दे० 'ऊद्रर्ध्व' ।

ऊर्ध्व (२)
वि० दे० 'ऊद्रर्ध्व' ।

ऊर्ध्वदृग
क्रि० वि० [सं० उर्धदृक्, ऊर्ध्वदृग्] आँख ऊपर किए हुए या उठाए हुए । उ०—ऊर्ध्वदृग गगन में देखते मुक्ति मणि ।—गीतिका पृ० २० ।

ऊर्ध्वा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक विशेष प्रकार की प्राचीन नौका जो ३२ हाथ लंबी, १६ हाथ चौडी़ और १६ हाथ ऊँची होती थी ।

ऊर्ननाभि पु
संज्ञा पुं० [सं० 'ऊर्णनाभि'] दे० 'ऊर्णनाभि' । उ०— छिनक में करौ, भरौ, संहारौ, । ऊर्ननाभि लौं फिरि बिस्तारौ ।—नंद ग्रं०, पृ० २२६ ।

ऊर्मि, ऊर्मी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लहर । तरंग । उ०—ऊर्मि घूर्णित रे, मृत्यु महान, खोजता कहाँ कहाँ नादान ।—गीतिका, पृ० २७ । यौ०— ऊर्मिलाली=समुद्र । २. पीडा । दु?ख । विशेष—ये छह हैं । जैसे; — एक मत से सर्दी, गर्मी, लोभ, मोह, भूख, प्यास । दूसरे मत से भूख, प्यास, जरा मृत्यु, शोक, मोह । ३. छह की संख्या । ४. शिकन । कपडे़ की सलोट । ५. धारा । प्रवाह या वेग (को०) । ६. पंक्ति । क्रम (को०) । ७. प्रकाश । ज्योति (को०) ।

ऊर्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लहर । तरंग । २. अँगूठी । मुद्रिका । ३. दु?ख (किसी खोई हुई वस्तु के लिये) । ४. मधुमक्खी की भनभनाहट । ५. कपडे की सलोट [को०] ।

ऊर्मिमान
वि० [सं० उर्मिमत्] १. ऊर्मिल । लहरों से युक्त । तरंगायित । २. घुँघराले (केश) [को०] ।

ऊर्मिमाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. तरंगावली । लहरों का समूह । २. एक प्रकार का छंद [को०] ।

ऊर्मिमुखर
वि० [हिं० ऊर्मि+मुखर] लहरों से ध्वनित । लहरों की कलकल से गुंजित । उ०—क्या वही तुम्हारा देस, ऊर्मि- मुखर इस सागर के उस पार कनक किरण से छाया ग्रस्ता- चल पश्चिम द्वार । —अनामिका, पृ० ५६ ।

ऊर्मिल
वि० [सं०] लहरीला । तरंगयुक्त । तरंगति । उ०—है ऊर्मिल जल निश्चलत्प्राण पर शतदल ।—तुलसी०, पृ० १ ।

ऊर्मिला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्ष्मण के पत्नी का नाम ।

ऊर्मिला (२)
वि० दे० 'ऊर्मिल' । उ०—बहु चली सलिला अनवसित, ऊर्मिला, जैसे उतारी । —अर्चना, पृ० १०४ ।

ऊर्मी
वि० [सं० ऊर्मिन्] तरंगमय । तरंगित [को०] ।

ऊर्म्य
वि० [सं०] ऊर्मिल । तरंगायित । लहराता हुआ [को०] ।

ऊर्म्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि । रात [को०] ।

ऊर्ब (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र । २. मेघ । बादल । ३. सरोवर । ताल । ४. कासार । हनद । झील । ५. बडवानल । ६. पशु- शाला । ७. पितरों का एक वर्ग [को०] ।

ऊर्व (२)
वि० विस्तृत । बडा़ [को०] ।

ऊर्वरा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'उर्वरा' ।

ऊर्वरा (२)
वि० दे० 'उर्वरा' ।

ऊर्वशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'उर्वशी' ।

ऊर्व्यंग
संज्ञा पुं० [सं० ऊर्व्यग्ङ] छत्रक । कुकुरमुत्ता [को०] ।

ऊर्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] देवताड नामक घास [को०] ।

ऊलंग (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चाय ।

ऊलग (२)
वि० [सं० उन्नग्न] उलंग । नंगा ।२—१७

ऊलंबना पु
क्रि० स० [सं० अवलम्ब, प्रा० ओलंब या ऊलंब] अवलंबित करके । सहारा लिए हुए । उ०—ऊलंबे सिर हत्थडा । चाहंदी रसलुध्ध बिरह महाघण ऊमटयऊ थाह निहालइ मुध्ध ।—ढोला०, पू० १५ ।

ऊलजलूल
वि० [देश०] १. असंबंद्ध । बेसिरपैर का । अंड बंड । बेठिकाने का । अनुचित । उ०—जो मैं जानूँगा कि तूने भूल के किसी ऊलजलूल काम में रुपये धूल किए तो फिर उमर भर तेरी बात न मानूँगा । शिवप्रसाद (शब्द०) । २. अनाडी़ । अहमक । बेसमझ । जैसे०—वह बडा़ ऊलजलूल अदमी है । ३. बेअदब । अशिष्ट ।

ऊलना
क्रि० अ० [सं० उल्लल् या उत्+/?लल्] १. कूदना । उछलना । आनंदित होने के कारण उछलना, कूदना । ३. उमंगित होना । उ०—साज सज्जि चल्यौ सुफुनि जनु ऊलौ दरियाव ।— पृ० रा० ६१ ।६२० । ४. अकुलाना । ५. आतुर होना ।

ऊला
वि० [हिं० ऊलना] उछाल । वेग । उ०—और भी बढ़ाये पैग दोनो ओर ऊले से । साकेत, पृ २७३ ।

ऊलर (१)
संज्ञा स्त्री [देश०] कश्मीर देश की एक झील ।

ऊलर पु † (२)
वि० [हिं०] झुका हुआ । घिरा हुआ । उ०—घमँड घटा ऊलर होइ आई दामिनि दमक डरावे । संत० वाणी०, भा० २, पृ० ७३ ।

ऊलहना पु
क्रि अ० [सं० उत्+लस्; प्रा० उल्लअ, उल्लर] १. विकासित होना । २. दे० 'उलसना' ० उ०—दोष बसंत को दीजै कहा, उलही न करील की डारन पाती ।—पधाकर ग्रं०, पृ० २३८ ।

ऊला पु
अव्य० [हिं० ऊरे] इधर । इस ओर । उ०—औ राठौड़ हुवै ज्याँ आगै भिडताँ ऊला भागै । रा०, रू०, पृ ९० ।

ऊलालना पु
क्रि० स० [देश०] उछलना । उड़ना । उ०—आडा डूँगर वन घणा तांह मिलीजइ केम । उलालीजइ मूँठ भरि मन सींचारणउ जेम ।—ढोला०, दू० २१२ ।

ऊली
वि० [हिं० ऊलना=उछलना=अस्य़िर] छली । उ०— छछछा छाया देषनि भूली । छल बल करैं छलैगी ऊली ।— सुंदर ग्रं०, बा० १, पृ० २२१ ।

ऊलूक
संज्ञा पुं० [सं०] दो० 'उलूक' ।

ऊवड़ना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उमड़ना' । उ०—ऊजलियाँ धाराँ ऊवडि़यौ परनाले जल रूहिर पडै़ ।—बेलि०, दू० १२० ।

ऊवाबाई पु †
अव्य० [देश०] ऊटपटाँग । व्यर्थ । उ०—ऊपर तेरे पहिचानै, ऊवाबाई जगतहिं जानै ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २१९ ।

ऊष
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊसर भूमि । रेहवाली भूमि । २. नोनी मिट्टी । लोना मिट्टी । ३. अम्ल । क्षार । ४. दरार । छेद । ५. कान का छेद । ६. मलय पर्वत । ७. ऊषा । भोर । ८. वीर्य [को०] ।

ऊषक
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रत्यूष । भोर । २. नमक । ३. काली मिर्च [को०] ।

ऊषण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चीता या चित्रक । २. काली मिर्च । ३. सोंठ । शुंठी । ४. पिप्पली । ५. पिप्पलीमूल । ६. चव्य [को०] ।

ऊषद पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ओषधि] दे० 'ओषधि', 'ओषधी' । उ०— काहरऊ पीवौ न ऊषद खाई दाँत कष्ट बंध्यो गोरडी ।—वी० रासो०, पृ० ६४ ।

ऊषधी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ओषधि] दे० 'ओषधि', 'ओषधी' । उ०—ऊषधी सब्ब मनि सब्ब धात । बर वृष्ष लता फल पुहप पात ।—पृ रा०, १ ।२३३ ।

ऊषर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वह भूमि जहाँ रेह अधिक हो और कुछ उत्पन्न न होता हो । ऊसर ।

ऊषर (२)
वि० खारा । क्षार [को०] ।

ऊषरज
संज्ञा पुं० [सं०] नोनी मिट्टी से तैयार किया हुआ नमक । २. एक प्रकार का चुंबक [को०] ।

ऊषरना पु
क्रि० अ० [हिं० उसरना] हटना । उतरना । अलग होना । उ०—तौ पाई जरिया सिर पर धरिया विस ऊषरिया तन तिरिया ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ २३० ।

ऊषा
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रभात । सबेरा । २. अरूणोदय । पौ फटने की लाली । ३. वाणासुर की कन्या जो अनिरूद्ध को व्याही गई थी ।

ऊषाकाल
संज्ञा पुं० [सं०] प्रात?काल । सबेरा । तड़का ।

ऊषापति
संज्ञा पुं० [सं०] श्री कृष्ण के पौत्र अनिरूद्ध ।

ऊषी
संज्ञा स्त्री० [सं०] नोना लगी हुई मिट्टी । रेहवाली जमीन [को०] ।

ऊष्म (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गर्मी । २. भाप ।३ गरमी का मौसम ।

ऊष्म (२)
वि० गर्म ।

ऊष्मज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उष्मज' । उ०—ऊष्मज खान विष्णु ने उत्पन्न किए ।—कबीर मं०, पृ० ४० ।

ऊष्मज (२)
वि० [सं०] १. ग्रमी में उत्पन्न । २. गर्मी से उत्पन्न होनेवाला ।

ऊष्मप
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि । २. एक पितृवर्ग [को०] ।

ऊष्मवर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] 'श, ष, स, ह' ये अक्षर ऊष्म कहलाते हैं । विशेष—शायद इस कारण कि इनमें उच्चारण के समय मुँह से गरम हवा निकलती है ।

ऊष्मा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊष्मन्] १. ग्रीष्म काल । २. तपन । गर्मी । ३. भाप । ४. आवेश । क्रोध [को०] ।

ऊष्मायण
संज्ञा पुं० [सं०] गरमी का मौसम [को०] ।

ऊसन (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पौधा । जिससे तेल निकलता है । विशेष—यह सरसों की तरह जौ ओर गेहूँ के साथ बोया जाता है और इनमें से तेल निकलता है जो जलाने के काम में आता है । इसकी खली चौपायों को दी जाती है । इसे जेवा और तरमिरा भी कहते हैं ।

ऊसन (२) पु
वि० दे० 'उष्ण' । उ०—सीत बायु ऊसन नहिं सरवत काम कुटिल नहिं होई । —रै० बानी, पृ० ११ ।

ऊसन (३)
वि० [सं० अवसन्त] आलसी । निश्चेष्त । उ०—करहा वामन रूप करि, चिहुँ चलणे पग पूरि । तू थाकउ, हू ऊसनउ, भँइ भारी घर इरि ।—ढोला०, दू० ४९७ ।

ऊसर (१)
संज्ञा पुं० [सं० ऊषर] वह भूमि जिसमें रहे अधिक हो ओर कुछ उत्पन्न न हो । उ०—ऊसर बरसे तृण नहिं जामा ।— तुलसी (शब्द०) । मुहा०—ऊसर में कमल खिलाना=असंभव कार्य को संभव कर दिखाना । उ०—बीज को धूल में मिलाकर भी, जो नहीं धूल में मिला देते । ऊसरों में कमल खिला देना, वे हँसी खेल हैं समझ लेते ।—चुभते०, पृ० ८ ।

ऊसर (२)
वि० (भुमि) जिसमें तृण या पौधा न उत्पन्न हो ।

ऊससना पु
क्रि० अ० [सं० उच्छ्वास> हिं० 'उसास' से] उच्छ्वसित होना । आनंदित होना । उ०—ऊससे घणै उछाह, चाँप बाण धरे चाह । रघु० रू०, पृ० ७६ ।

ऊसार पु
संज्ञा पुं० [सं० उपशाल] दे० 'ओसार' । उ०—पाडयो ऊसारै तेड्यौ छइ राई, छीनी उलगी माँई सूँ कही ।—बी० रासो, पृ० ८३ ।

ऊसास पु
संज्ञा पुं० [हिं० उसास] दे० 'उसास' । उ०—ते ऊसास अगिनि की उषी । कुँवरि क देवी ज्वालामुखी ।—नंद० ग्रं०, पृ०, १३४ ।

ऊसे पु
क्रि० वि० [हिं०] वैसे । उस तरह के । उ०—साहिब सेती रहो सुरखरू आतम बखसे ऊसे से ।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० २३ ।

ऊह (१)
अव्य० [हिं०] १. क्लेश या दु?ख सूचक शब्द । ओह । २. विस्मयसूचक शब्द ।

ऊह (२)
संज्ञा सं० पुं० १. अनुमान । विचार । उ०—सँग सवा लाख सवार । गज त्योंही अमित तयार । बहू सुतर प्यादे जूह । कबि को कहै करि ऊह ।—रघुराज (शब्द०) । २. तर्क । दलील । ३. परिवर्तन । फेरफार (को०) । ४. परीक्षा (को०) । ५. अध्याहार द्वारा अनुक्त पद की पूर्ति करना (को०) । ६. तर्क की युक्ति । तर्कयुक्ति (को०) ।

ऊह (३)
संज्ञा स्त्री० [सं०] किंवदंती । अफवाह ।

ऊहन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ऊहनीय] १. तर्क । दलील । २. परिवर्तन । बदलाव (को०) । ३. सुधार (को०) ।

ऊहनी
संज्ञा स्त्री० [को०] [सं०] झाड़ । बढ़नी [को०] ।

ऊहनीय
वि० [सं०] १. तर्क करने योग्य । तर्कनीय । विचार योग्य २. परिवर्तन या सुधार योग्य (को०) ।

ऊहाँ पु
क्रि० वि० [हिं० 'तहाँ' के वजन पर] दे० 'उहाँ' । उ०—तब हरिवंश जी ऊहाँ दंडवत करि परदेश के सर्व समाचार कहें— दो सौ बावन०, भाग १, पृ० ७९ ।

ऊहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ऊह' ।

ऊहापोह
संज्ञा पुं० [सं० ऊह + अपोह] तर्क वितर्क । सोचविचार । जैसे,—इस कार्य की साधन सामग्री मेरे पास है या नहीं, अशक्त पुरूष असी ऊहापोह में कार्य का समय व्यतीत करके चुपवाप बैठ रहता है । उ०—क्या बाहर की ठेलापेली ही कुछ कम थी, जो भीतर भी भाषों का ऊहापोह मचा ।—मिलन० पृ० १९० । विशेष—यह बुद्धि का गुण कहा गया है जिसमें किसी विचार को ग्रहण किया जाता है ।

ऊहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] झाड़ू । बुहारी [को०] ।

ऊही (१)
वि० [सं० उहिन्] ऊहा करनेवाला । तर्क वितर्क करनेवाला ।

ऊही पु (२)
सर्व० दे० 'वही' । उद—जिणि देसे सज्जण वसइ, तिणि दिसि बज्जउ वाउ । उहाँ लगे मों लग्गसी, ऊही लाख पसाउ । ढोला०, दू० ७४ ।

ऊह्य
वि० [सं०] जो ऊहा करने योग्य हो । तर्क्य । तर्कनीय [को०] ।