एक स्वर जो वर्णमाला का सातवाँ वर्ण है । इसकी गणना स्वरों में है और इसका उच्चारण स्थान संस्कृत व्यकरणानुसार मूर्द्धा है । इसके तीन भेद हैं—ह्वस्व, दीर्घ और प्लुत । इनमें से भी एक एक के उदात्त, अनुदात्त और त्वरित तीन तीन भेद हैं । इन नौ भेदों में भी प्रत्येक के अनुनासिक और निरनुनासिक दो दो भेद हैं । इस प्रकार ऋ के कुल अठारह भेद हुए ।

ऋंजासन
संज्ञा पुं० [सं ऋञ्जासन] मेघ । बादल [को०] ।

ऋ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. देवमाता । अदिति । २. निंदा । बुराई ।

ऋ (२)
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ग [को०] ।

ऋकार
संज्ञा पुं० [सं०] 'ऋ' स्वर और उसकी ध्वनि [को०] ।

ऋक् (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऋचा । वेदमंत्र ।२. स्तुति । स्तोत्र । ३. पूजा (को०) । ४. कांति । प्रभा । रोचिस् (को०) ।

ऋक् (२)
संज्ञा पुं० ऋग्वेद ।

ऋक्ण
वि० [सं०] आहत । चोट खाया हुआ । क्षत [को०] ।

ऋकक्तंत्र
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्तन्त्र] सामवेद का परि शिष्ट भाग [को०] ।

ऋक्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. धन । सुवर्ण । सोना । ३. दाय धन । विरासत । वर्सा । किसी संबंधी की संपत्ति का वह भाग जो धर्मशास्त्र के अनुसार मिले । ४. हिस्से की जायदाद । हिस्सा ।

ऋक्थग्राह
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के द्वारा छोड़ी हुई संपत्ति को प्राप्त करनेवाला व्यक्ति । उत्तराधिकारी । वारिस [को०] ।

ऋक्थभाग
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिस्सा । दाय ।२. संपत्ति वा जायदाद का भाग [को०] ।

ऋक्थभागी
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्थभागिन्] दे० 'ऋक्थग्राह' ।

ऋक्थहारी
संज्ञा पुं० [ऋक्थहारिन्] उत्तराधिकारी । वारिस [को०] ।

ऋक्संहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋग्वेद के मंत्रों का संग्रह [को०] ।

ऋक्ष
संज्ञा स्त्री० [सं०] [स्त्री० ऋक्षी] १. भाल । २. तारा । नक्षत्र । उ०—जनु ऋक्ष सबै यहि—त्रास भगे । जिय जानि चकोर फँदान ठगे ।—राम चं०, पृ० १८ । ६. मेष—वष आदि राशि । ४. भिलावाँ । ५. शोनाक वृक्ष । ६. रैवतक पर्वत का एक भाग ।

ऋक्षगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋक्षगन्धा] महाश्वेता । जंगली । क्षीर विदारी [को०] ।

ऋक्षजिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] कुष्ठ का एक भेद । वह पीड़ायुक्त कोढ़जो किनारों पर लाल, बीच में पीलापन लिए काला, छूने में कड़ा और रीछ की जीभ के आकार का हो ।

ऋक्षनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. नक्षत्रों के राजा चंद्रमा । २. भालुओं के सरदार जांबवान् ।

ऋक्षनेमि
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०] ।

ऋक्षपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋक्षनाथ' [को०] ।

ऋक्षप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] वृषभ । बैल [को०] ।

ऋक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुरोहित । २. काँटा । ३. वर्षा । ४. वाष्प । भाप [को०] ।

ऋक्षराज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋक्षनाथ' [को०] ।

ऋक्षवान
संज्ञा पुं० [सं०] ऋक्ष पर्वत जो नर्मदा के किनारे से गुजरात तक है । यह रैवतक पर्वत की चोटी से उत्पन्न अर्थात् उसी का एक भाग माना गया है ।

ऋक्षविडंवी
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्षविडम्विन्] ठग ज्योतिषी [को०] ।

ऋक्षविभावन
संज्ञा पुं० [सं०] ग्रहों एवं नक्षत्रों की गति का निरी- क्षण [को०] ।

ऋक्षहरीश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] रीछ और बंदरों का राजा । सुग्रीव [को०] ।

ऋक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तर दिशा [को०] ।

ऋक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] रीछ की मादा । मादा भालू [को०] ।

ऋक्षोक
वि० [सं०] रीछ के समान मांस खानेवाला [को०] ।

ऋक्षोका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अपदेवी [को०] ।

श्रृक्षेश
संज्ञा पुं० [सं०] हिमांशु । चंद्रमा [को०] ।

ऋखि पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋषि] दे० 'ऋषि' । उ०—गाधि के नंद तिहारे गुरू जिनते ऋखि पेख किए उबरे हैं ।—राम० चं०, पृ० ४२ ।

ऋग पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋग्] दे० 'ऋग्वेद' । उ०—(क) पढ़िबी परयो न छठी छमत, ऋगु, जजुर, अथर्वन, साम को ।— तुलसी ग्रं०, पृ० ५३७ । (ख) न हो संतोष इसपर भी तो उपमा तीसरी लेलो । युगल पदधारिणी त्रिगुणात्मिका ऋग की ऋचा समझे । —कविता कौ०, भा० २, पृ० २३४ ।

ऋग्वेद
संज्ञा पुं० [सं०] चार वेदों में से एक । प्रथम वेद । वि० दे० 'वेद' ।

ऋग्वेदी
वि० [सं० ऋग्वेदिन्] ऋग्वेद का जानने या पढ़नेवाला ।

ऋचा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेदमंत्र जो पद्य में हो । २. वेदमंत्र । कंडिका । ३. स्तोत्र । स्तुति । उ०—लगे पढ़न रच्छा ऋचा ऋषिराज बिराजे ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २७१ ।

ऋचीक
संज्ञा पुं० [सं०] भृगृवंशीय एक ऋषि जो जमदग्नि के पिता थे । विश्वामित्र के पिता गाधि ने अपनी सत्यवती नाम की कन्या इन्हें ब्याही थी ।

ऋचीष
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक नरक का नाम ।२. कड़ाही [को०] ।

ऋच्छ पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋक्ष्] १. भालू । रीछ । उ०—घायल बीर बिराजत चहुँचिसि, हरषित सकल ऋच्छ अरु बनचर ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ४०० । २. दे० 'ऋक्ष' । यौ०—ऋच्छपति=जांबवान् ।

ऋच्छका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अभिलाषा । इच्छा [को०] ।

ऋच्छरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेड़ी । २. वेश्या [को०] ।

ऋजिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋजिमन्] सरलता [को०] ।

ऋजीक (१)
वि० [सं०] १. मिश्रित । मिला हुआ । २. पृथक् किया हुआ । हटाया हुआ । ३. भ्रष्ट [को०] ।

ऋजीक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र का नाम । २. साधन । ३. एक पर्वत का नाम । ४. धूम्र । धुआँ [को०] ।

ऋजोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहे का तसला या कड़ाही । २. सोमलता की । सीठी । ३. सीठी । ४. एक नरक का नाम । ५. जल ।

ऋजु
वि० [सं०] [स्त्री० ऋज्वी] १. सीधा । जो टेढ़ा न हो । अवक्र । उ०—ऋजु प्रशस्त पथ बीच बीच में, कहीं लता के कुंज घने ।—कामायनी, पृ० १८२ ।२. सरल । सुगम । सहज । जो कठिन न हो । ३. सीधे स्वभाव का । सरल चित्त का । अकुटिल । ४. अनुकूल । प्रसन्न ।

ऋजुकाय (१)
वि० [सं०] सीधे शरीरवाला [को०] ।

ऋजुकाय (२)
संज्ञा पुं कश्यप ऋषि [को०] ।

ऋजुक्रतु (१)
वि० [सं०] सही और उचित ढंग से काम करनेवाला । सुकर्मी [को०] ।

ऋजुक्रतु (२)
संज्ञा पु० इंद्र का नाम ।

ऋजुग (१)
वि० [सं०] अपने आचरण एवं व्यवहार के प्रति ईमानदार । सदाचारी [को०] ।

ऋजुग (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इषु । तीर । बाण । २. सदाचारी व्यक्ति [को०] ।

ऋजुता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सीधापन । टेढ़ेपन का अभाव । २. सरलता । सुगमता । ३. सरल स्वभाव । सिधाई । सज्जनता ।

ऋजुनीति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सदाचार ।२. मार्गदर्शन [को०] ।

ऋजुमिताक्षरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'मिताक्षरा' [को०] ।

ऋजुरोहित
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का सीधा और लाल रंग का धनुष [को०] । पर्या०—इंद्रयुध । शक्रधनु ।

ऋजुलेखा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सीधी रेखा [को०] ।

ऋजुसूत्र
संज्ञा पुं० [सं०] जैन दर्शन में वह 'नय' या प्रमाणों द्वारा निश्चित अर्थ को ग्रहण करने की वृत्ति जो अतीत और अनागत को नहीं मानती, केवल वर्तमान ही को मानती है ।

ऋज्वी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरल स्वभाव की तथा सीधी स्त्री ।२. ग्रहों की गति या चाल [को०] ।

ऋण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी से कुछ समय के लिये कुछ द्रव्य लेना । ब्याज पर मिला हुआ धन । कर्ज । उधार । क्रि० प्र०—करना ।—काढ़ना ।—देना ।—लेना । मुहा०—ऋण उतरना=कर्ज अदा होना । ऋण चढ़ना=कर्ज होना । जैसे,—उनके ऊपर बहुत ऋण चढ़ गया है । ऋण चढ़ाना=जिम्मे रुपया निकालना । ऋण पटाना=धीरे धीरे कर्ज का रुपया अदा होना । ऋण पटाना=धीरे धीरे उधार लिया हुआ रुपया चुकता करना । जैसे,—हम चार महीनों में यह ऋण पटा देंगे । ऋण मढ़ना=ऋण चढ़ाना । देनदार बनाना । जैसे,—'वह हमारे ऊपर ऋण मढ़कर गया है ।' २. किसी उपकार के बदले में किसी के प्रति आवश्यक या कर्यव्य रूप से किया जानेवाला कार्य । वह कार्य जिसका दायित्व किसी पर हो । ३. किसी का किया हुआ उपकार या एहसान । ४. घटाने या बाकी निकालने का चिह्नन (—) (गणित) । ५. किला । दुर्ग (को०) । ६. भूमि । जमीन (को०) ।७. पानी । जल (को०) । यौ०—ऋणकर्ता, ऋणग्राही=कर्ज लेनेवाला । ऋणद, ऋणदाता, ऋणदायी=कर्जा चुकता करनेवाला । ऋणमुक्त । ऋण- मुक्ति=ऋणशुद्धि ।

ऋण (२)
वि० खाते, गणित आदि में जो ऋण के पक्ष का हो ।

ऋणग्रस्त
वि० [सं०] कर्ज से लदा हुआ [को०] ।

ऋणग्रस्तता
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्ज से लद जाने की स्थिति [को०] ।

ऋणच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ज को चुकाना [को०] ।

ऋणत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तीन प्रकार का ऋण—देवऋण, ऋषि- ऋण और पितृऋण [को०] ।

ऋणदान
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ज चुकाना [को०] ।

ऋणदास
संज्ञा पुं० [सं०] ऐसा दास जो उस व्यक्ति की दासता करता हो जिसने उसका कर्ज चुकता करके उसे खरीद लिया हो [को०] ।

ऋणनिर्मोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] पितृऋण से मुक्ति [को०] ।

ऋणपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] लेन देन के व्यवहार का पत्र जिसपर गवाहों के समक्ष ऋण लेने और देने की व्यवस्था लिखी रहती है । तमस्सुक । रुक्का । दस्तावेज [को०] । पर्या०—ऋणलेख्य । ऋणलेख्य पत्र ।

ऋणमत्कुण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋणमार्गण' [को०] ।

ऋणमार्गण
संज्ञा पुं० [सं०] जिसने कर्जदार से महाजन का रुपया अदा करने का जिम्मा अपने ऊपर लिया हो । प्रतिभू । जामिन ।

ऋणमुक्त
वि० [सं०] जो कर्ज अदा कर चुका हो । उऋण । ऋण- रहित ।उ०—तो हमसे धन लेकर आप शीघ्र ही ऋणमुक्त हूजिए ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० २८८ ।

ऋणमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्ज अदायगी [को०] ।

ऋणमोक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ज से छुटकारा । ऋण का चुकता हो जाना [को०] ।

ऋणमोक्षित
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति में लिखे हुए १५ प्रकार के दासों में से एक । वह जो अपना ऋण चुकाने में असमर्थ होकर अपने महाजन का अथवा उस महाजन को रुपया चुकानेवाले का दास हो गया हो ।

ऋणलेख्य पत्र
संज्ञा पुं० [सं०] लेन देन के व्यवहार का वह पत्र जो साक्षियों के सामने लिखा गया हो । दस्तावेज ।

ऋणविद्युत्
संज्ञा पुं० [सं० ऋण+विद्युत्] विकर्षण करनेवाली बिजली । धन विद्युत् का विलोम ।

ऋणशुद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋण का साफ होना । कर्ज का अदा होना ।

ऋणशोध
संज्ञा पुं० [सं० ऋण+शोध] ऋण चुकाना । कर्ज अदा करना ।उ०—मानव की शीतल छाया में ऋणशोध करूँगा निज कृति का ।—कामायनी, पु० ७६ ।

ऋणशोधन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋणशोध' ।

ऋणसमुद्धार
संज्ञा पुं [सं०] कर्ज की वसूली [को०] ।

ऋणांतक
संज्ञा पुं [सं० ऋणान्तक] मंगल ग्रह [को०] ।

ऋणात्मक
वि० [सं०] ऋणरूप । 'नेगेटिव' का अर्थानुवाद । बहुधा 'विद्युत्' का विशेषण [को०] ।

ऋणादान
संज्ञा पुं० [सं०] दिया हुआ कर्ज वापस मिलना [को०] ।

ऋणानपाकरण
संज्ञा पुं० [सं०] कर्ज चुकाना । ऋण या उधार चुकता करना [को०] ।

ऋणापनयन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋणापकरण' [को०] ।

ऋणापनोदन
संज्ञा पुं० [सं०] ऋण का चुकता हो जाना । कर्ज की अदायगी [को०] ।

ऋणार्ण
संज्ञा पुं० [सं०] वह ऋण जो दूसरा ऋण चुकाने के लिये लिया जाय ।

ऋणिक
वि० [सं०] ऋणी । कर्जदार ।

ऋणिया †
वि० [सं० ऋणिन्] ऋणी ।

ऋणी
वि० [सं० ऋणिन्] १. जिसने ऋण लिया हो । कर्जदार । देनदार । अधमर्ण । २. उपकृत । उपकार माननेवाला । अनुगृहीत । जिसे किसी उपकार का बदला देना हो । जैसे,— इस विपत्ति से उद्धार कीजिए, हम आपके चिर ऋणी रहेंगे ।

ऋणोद्ग्रहण
संज्ञा पुं० [सं०] किसी भी प्रकार से कर्ज चुकता करा लेना [को०] ।

ऋतंभर
वि०, संज्ञा पुं० [सं० ऋतम्भर] सत्य का धारण तथा पालन करनेवाला । परमेश्वर [को०] ।

ऋतंभरा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतम्भरा] सदा एक समान रहनेवाली बुद्धि [को०] ।

ऋत (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उंछवृत्ति ।२. मोक्ष ।३. जल ।४. कर्म का फल ।५. यज्ञ । सत्य ।७. ईश्वरीय नियम ।८. ब्रह्म । ९. एक आदित्य ।१०. सूर्य ।११. प्रिय भाषण । अनुकूल कथन (को०) ।

ऋत (२)
वि० १. दीप्त ।२. पूजित ।३. सच्चा ।४. उचित । योग्य । ५. अनुकूल ।

ऋतधामा (१)
वि० [सं० ऋतधामन्] सत्य में वास करनेवाला । सत्य तथा पवित्र आचरणवाला [को०] ।

ऋतधामा (२)
संज्ञा पुं० विष्णु [को०] ।

ऋतध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०] ।

ऋतपर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋतुपर्ण' ।

ऋतपेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक एकाह यज्ञ जो छोटे पापों के नाश के लिये किया जाता है ।

ऋतवादी
वि० [सं० ऋज्ञवादिन्] सत्यवादी । सच बोलनेवाला [को०] ।

ऋतव्य
वि० [सं०] ऋतु सबंधी । मौसमी [को०] ।

ऋतव्रत
वि० [सं०] सत्य का व्रत लेनेवाला । सत्यवादी [को०] ।

ऋतिकर
वि० [सं० ऋतिङ्कर] १. कष्टद ।२. भाग्यहीन [को०] ।

ऋति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गति । २. स्पर्द्धा ।३. निंदा ।४. मार्ग ।५. मंगल । कल्याण ।६. स्मृति । याददाश्त (को०) । ७. दुर्भाग्य । अभाग्य (को०) ।८. कष्ट । दुःख (को०) ।९. आक्रमण [को०] ।१०. सत्य । सच्चाई (को०) ।

ऋति (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. नरमेध यज्ञ में पूज्य एक देव ।२. आक्रामक शत्रु या सेना [को०] ।

ऋतीया
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घृणा ।२. लज्जा ।३. निंदा [को०] ।

ऋतु
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्राकृतिक अवस्थाओं के अनुसार वर्ष के दो दो महीनों के छह विभाग । मौसम । उ०—सिगरी ऋतु शौभित शुभ्र जहीं ।—राम चं०, पृ० ८० । विशेष—ऋतुएँ छह हैं—(क) वसंत (चैत और वैसाख), (ख) ग्रीष्म (जेठे और आषाढ़), (ग) वर्षा (सावन और भादों), (घ) शरद (क्वार और कार्तिक), (च) हेमंत (अगहन और पूस), (छ) शिशिर (माघ और फागुन) । २. रजोदर्शन के उपरांत वह काल जिसमें स्त्रियाँ गर्भधारण के योग्य होती हैं ।३. उपयुक्त समय या काल (को०) ।४. समुचित या सुनिश्चित व्यवस्था (को०) ।५. विष्णु (को०) । ६. मास । महीना (को०) ।७. दीप्ति । प्रकाश (को०) ।८. छह की संख्या (को०) ।

ऋतुकर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम ।

ऋतुकाल
संज्ञा पुं० [सं०] रजोदर्शन के उपरांत के १५ दिन जिसमें स्त्रियाँ गर्भधारण के योग्य रहती हैं । इनमें से प्रथम चार दिन तथा ग्यारवाँ और तेरहवाँ दिन गमन के लिये निषिद्ध है । यौ०—ऋतुकालभिगामी=दे० 'ऋतुगामी' ।

ऋतुगमन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० ऋतुगामी] ऋतुकाल में स्त्री के पास जाना । ऋतुमती स्त्री के साथ संभोग करना ।

ऋतुगामी
वि० [सं० ऋतुगामिन्] ऋतुकाल में स्त्री के पास जाने— वाला [को०] ।

ऋतुचर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋतुओं के अनुसार आहार विहार की व्यवस्था ।

ऋतुदान
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋतुमती स्त्री के साथ संतान की इच्छा से संभोग । गर्भधान ।

ऋतुनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतुओं का स्वामी । वसंत ऋतु ।उ०— मानहु रति ऋतुनाथ सहित मुनि वेष बनाए है मैन ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३३५ ।

ऋतुपति
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'ऋतुनाथ' ।उ०—जनु रतिपति ऋतुपति कोसलपुर बिहरत सहित समाज ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २६५ ।

ऋतुपण
संज्ञा पुं० [सं०] अयोध्या के एक राजा जो नल के सखा थे और पासा खेलने में बड़े निपुड़ थे ।

ऋतुपर्याय
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतुओं की आवृत्ति । ऋतुओं का आवा- गमन [को०] ।

ऋतुपा
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र का एक नाम [को०] ।

ऋतुप्राप्त
वि० [सं०] फलनेवाला (वृक्ष) । फल देनेवाला (पेड़) ।

ऋतुप्राप्ता
वि० [सं०] (स्त्री) जिसे रजोदर्शन हो चुका हो ।

ऋतुप्राप्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] रजोदर्शन [को०] ।

ऋतुफल
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतुविशेष में होनेवाले फल [को०] ।

ऋतुभाग
संज्ञा पुं० [सं०] छठा हिस्सा [को०] ।

ऋतुमती
वि० स्त्री० [सं०] १. रजस्वला । पुष्यवती । मासिक- धर्म—युक्ता । विशेष—धर्मशास्त्र और आयुर्वेद के अनुसार रजोदर्शन के उपरांत तीन दिन तक स्त्री को ब्रह्मचर्यपूर्वक रखना चाहिए, पति का मुख न देखना चाहिए चटाई इत्यादि पर सोना चाहिए, हाथ पर अथवा कटोरे या दोने में खाना चाहिए, आंसू न गिराना चाहिए, नाखून न कटाना चाहिए, तेल, उबटन और काजल न लगाना चाहिए, दिन को सोना न चाहिए, बहुत भारी शब्द न सुनना चाहिए, हँसना और बहुत बोलना भी न चाहिए । चौथे दिन स्नान करके सुंदर वस्त्र और आभूषण धारण करना और पति का मुख देखकर सब व्यवहार करना चाहिए । २. (स्त्री) जिसका ऋतुकाल हो । जिस (स्त्री) के रजोदर्शन के उपरांत के १६ दिन न बीते हों और गर्भाधान के योग्य हो ।

ऋतुमुख
संज्ञा पुं० [सं०] किसी भी ऋतु का पहला दिन [को०] ।

ऋतुराज
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतुओं का राजा वसंत ।उ०—मानहु चयन मयनपुर आयउ प्रिय ऋतुराज ।—तुलसी ग्रं०, पृ० ३४८ ।

ऋतुलिंग
संज्ञा पुं० [सं० ऋतुलिङ्ग] १. ऋतुबोधक चिह्न ।२. रज्रस्राव के लक्षण [को०] ।

ऋतुवती पु
वि० स्त्री० [सं०] दे० 'ऋतुमती' ।

ऋतुविज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह विज्ञान जिसमें वायुमंडल में होनेवाले परिवर्तनों के आधार पर आँधी, वर्षा आदि का अनुमान लगाया जाता है । २. आधुनिक भौतिक विज्ञान की एक शाखा ।

ऋतुविपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतु के अनुसार वायुमंडल का न होना । जैसे, वसंत ऋतु में पानी का बरसना ।

ऋतुवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतुओं का आवागमन [को०] ।

ऋतुवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] रजोदर्शन या उसके बाद १६ दिनों तक गर्भाधान के लिये उपयुक्त समय [को०] ।

ऋतुसंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋतुसन्धि] १. दो ऋतुओं का संधिकाल । २. पक्ष की अंतिम तिथि—पूर्णिमा और अमावस्या [को०] ।

ऋतुसंहार
संज्ञा पुं० [सं०] कालिदास का षड़ऋतु वर्णन—विषयक प्रसिद्ध खंडकाव्य ।

ऋतुसात्म्य
संज्ञा पुं० [सं०] ऋतु के अनुसार आहार [को०] ।

ऋतुस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] एक विशेष यज्ञ [को०] ।

ऋतुस्नाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह जो रजोदर्शन के चौथे दिन स्नान करके शुद्ध हुई हो [को०] ।

ऋतुस्नान
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० ऋतुस्नाता] रजोदर्शन के चौथे दिन का स्त्रियों का स्नान । रजस्वला का चौथे दिन का स्नान । विशेष—रजोदर्शन के उपरांत तीन दिन तक स्त्री अपवित्र रहती है । चौथे दिन जब वह स्नान करती है तब कुटुंब के लोगों तथा घर की सब खाने पीने की वस्तुओं को छूने पाती है । स्नान के पीछे स्त्री को पति या उसके अभाव में सूर्य का दर्शन करना चाहिए ।

ऋत्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. परिपुष्ट वीर्य । २. गर्भाधान का उपयुक्त अवसर [को०] ।

ऋत्विक
संज्ञा पुं० [सं० ऋत्विक्] दे० 'ऋत्विज्' । उ०—दैव विवाह यज्ञ में ऋत्विक को दान । प्रेमघन०, भा० २, पृ० ५७ ।

ऋत्विज्
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० आर्त्विजी] यज्ञ करनेवाला । वह जिसका यज्ञ में वरण किया जाय । विशेष—ऋत्विजों की संख्या १६ होती है जिसमें चार मुख्य हैं—(क) होता (ऋग्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ख) अध्वर्यु (यजुर्वेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (ग) उद्गाता (सामवेद के अनुसार कर्म करानेवाला) । (घ) ब्रह्मा (चार वेदों का जाननेवाला और पूरे कर्म का निरीक्षण करनेवाला । इनके अतिरिक्त बारह और ऋत्विजों के नाम ये हैं— मैत्रावरुण, प्रतिप्रस्थाता, ब्राह्मणच्छंसी, प्रस्तोता, अच्छावाक्, नेष्टा, आग्नीध्र, प्रतिहर्त्ता, ग्रवस्तुत्, उन्नेता, पोता और सुब्रह्मण्य ।

ऋत्विज पु
संज्ञा पुं० [सं० ऋत्विज्] दे० 'ऋत्विज्' । उ०—अब चलूँ वेदी पर बिछाने के लिये ये दाभ मुझे ऋत्विज ब्राह्माणों को देने हैं ।—शकुंतला, पृ० ४३ ।

ऋद्ध (१)
वि० [सं०] १. संपन्न । वृद्धिप्राप्त । समृद्ध । २. संग्रह किया हुआ । जमा किया हुआ (अन्न) ।

ऋद्ध (२)
संज्ञा पुं० १. पेड़ से मलकर या दायँकर अलग किया हुआ धान । संपन्न धान्य । २. विष्णु (को०) । ३. उत्कर्ष । वृद्धि (को०) । ४. विशिष्ट अथवा प्रत्यक्ष फल (को०) ।

ऋद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक ओषधि या लता जिसका फंद दवा के काम में आता है । विशेष—यह कंद कपास की गाँठ के समान और बाँई ओर को कुछ घूमा रहता है तथा इसके ऊपर सफेद रोईं होती है । यह बलकारक, त्रिदोषनाशक, शुक्रजनक, मधुर, भारी तथा मूर्छा को दूर करनेवाला है । पर्या०—प्राणप्रिया । वृष्या । प्राणदा । संपदाह्वया । सिद्धा । योग्या । चेतनीया । रथागी । मंगल्या । लोककांता । जीवश्रेष्ठा । यशस्या । २. समृद्धि । बढ़ती ।३. आर्या छंद का एक भेद जिसमें २६ गुरु और ५ लघु होते हैं । ४. गणेश की क दासी जो समृद्धि की देवी मानी जाती है (को०) । ५. पार्वती (को०) । ६. लक्ष्मी (को०) । ७. पत्नी (को०) । ८. सफलता । सिद्धि (को०) ।

ऋद्धिकाम
वि० [सं०] समृद्धि । चाहनेवाला [को०] ।

ऋद्धिमान
वि० [सं० ऋद्धिमान्] संपन्न । प्रतिष्ठित ।

ऋद्धिसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] समृद्धि और सफलता । विशेष—ये गणेश जी की दासियाँ मानी जाती हैं ।

ऋधिसिधि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋद्धिसिद्धि] दे० 'ऋद्धिसिद्धि' । उ०—ऋधि सिधि विधि चारि सुगति जा बिनु गति अगति ।—तुसली ग्रं० पृ० ३६० ।

ऋन
संज्ञा पुं० [सं० ऋण] दे० 'ऋण' । उ०—पाही खेती, लगनवट, ऋन कुब्याज, मग खेत । बैर बड़े सौं आपने किए पाँच दुःख हेत—तुसली ग्रं०, पृ० १४३ ।

ऋनियाँ पु
वि० [हिं० ऋन+इया (प्रत्य०)] ऋणी । कर्जदार । देनदार । उ०—साँची सेवकाई हनुमान की सुजानगय ऋनियाँ कहाए हौ बिकानो ताके हाथ जू ।—तुसली ग्रं०, पृ० २०२ ।

ऋनी पु †
वि० [सं० ऋणी] दे० 'ऋणी' । उ०—पूरब तप बहु कियो कष्ट करि इनको बहुत ऋनी हौं । —सूर (शब्द०) ।

ऋभु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गण देवता । २. देवता । ३. देवों का अनुचर वर्ग (को०) । ४. शिल्पी । रथकार (को०) । ५. अर्ध देवता के रूप में कथित सुधन्वा के तीन पुत्र ऋभु, वाज और विभ्वन् जिनका बोध ज्येष्ठ ऋभु के नाम से होता है ।

ऋभुक्ष
संज्ञा पुं० [सं० ऋभुक्षन्] १. इंद्र । २. स्वर्ग । ३. वज्र ।

ऋश्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सफेद पैरोंवाला मृग । २. हनन । वध । ३. दुःख देना । कष्ट पहुँचाना । पीड़न ।

ऋश्यकेतन, ऋश्यकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] १.कामदेव । प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध [को०] ।

ऋश्यद
संज्ञा पुं० [सं०] हरिन को पकड़ने के लिये खुदा हुआ गर्त [को०] ।

ऋश्यमूक
संज्ञा [सं०] पर्वतविशेष [को०] ।

ऋषभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैल । वृषभ । विशेष—पुरुष या नर आदि शब्दों के आगे उपमान रूप में समस्त होने से सिंह, व्याघ्र आदि शब्दों के समान यह शब्द भी श्रेष्ठ का अर्थ देता है । जैसे,— पुरुषर्षभ=पुरुषश्रेष्ठ । २. नक्र या नाक नामक जलजंतु की पूँछ । ३. राम की सेना का एक बंदर । ४. बैल के आकार का दक्षिण का एक पर्वत जिस पर हरिश्याम नामक चंदन होता है (वाल्मीकीय) । ५. संगीत के सात स्वरों में से दूसरा । विशेष—इसकी तीन श्रृतियाँ हैं—दयावती, रंजनी और रतिका । इसकी जाति क्षत्रिय, वर्ण पीला, देवता ब्रह्मा, ऋतु शिशिर, वार सोम, छंद गायत्री तथा पुत्र मालकोश है । यह स्वर बैल के समान कहा जाता हैं पर कोई इसे चातक के स्वर के समान मानते हैं । नाभि से उठकर कंठ और शीर्ष को जाती हुई वायु से इसकी उत्पत्ति होती है । ऋषभ (कोमल) के स्वरग्राम बनाने से विकृत स्वर इस प्रकार होते हैं— ऋषभ स्वर । गांधार—ऋषभ । तीव्र मध्यम—गांधार । पंचम—मध्यम । धैवत—पंचम । निषाद—धैवत । कोमल ऋषभ—निषाद ।५. लहसुन की तरह की एक ओषधि या जड़ी जो हिमालय पर होती है । इसका कंद मधुर, बलकारक और कामोद्दीपक होता है । ७. नर जानवर । जैसे,—अजर्षभ=बकरा (को०) । ८. वारह की पूँछ (को) । ९. विष्णु का एक अवतार (को०) ।

ऋषभक
संज्ञा पुं० [सं०] अष्टवर्ग की ओषधियों में से एक [को०] ।

ऋषभकूट
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०] ।

ऋषभतर
संज्ञा पुं० [सं०] छोटा या जवान बैल [को०] ।

ऋषभदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. भागवत के अनुसार राजा नाभि के पुत्र जो विष्णु के २४ अवतारों में गिने जाते हैं । २. जैन धर्म के आदि तीर्थंकर ।

ऋषभध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] शिव । महादेव ।

ऋषभी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसका रंग रूप पुरुष की तरह हो । २. गाय (को०) । ३. विधवा (को०) । ४. कपिकच्छु । केवाँच (को०) । ५. दे० 'शिराला', 'शिरालक' (को०) ।

ऋषि
संज्ञा पुं० [सं०] १. वेदमंत्रों का प्रकाश करनेवाला । मंत्र- द्रष्टा । आध्यात्मिक और भौतिक तत्वों का साक्षात्कार करनेवाला । विशेष—ऋषि सात प्रकार के माने गए हैं—(क) महर्षि, जैसे, व्यास । (ख) परमर्षि जैसे, भेल । (ग) देवर्षि, जैसे, नारद । (घ) ब्रह्मर्षि, जैसे, वसिष्ठ । (च) श्रुतर्षि, जैसे सुश्रुत । (छ) राजर्षि, जैसे ऋतुपर्ण और (ज) कांडर्षि, जैसे जैमिनि । एक पद ऐसे सात ऋषियों का माना गया है जो कल्पांत प्रलयों में वेदों को रक्षित रखते हैं । भिन्न भिन्न मनवतरों में सप्तर्षि के अंतर्गत भिन्न भिन्न ऋषि माने गये हैं । जैसे, इस वैवस्वत मन्वंतर के सप्तर्षि ये हैं—कश्यप, अत्रि, वश्ष्ठ, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि और भरद्वाज । स्वायंभुव । मन्वंतर के— मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु और वशिष्ठ । यौ०—ऋषिऋण । ऋषिकल्प=ऋषितुल्य । ऋषिकुमार=ऋषि का पुत्र । ऋषिगिरि=मगध का एक पर्वत । ऋषिपचमी । ऋषि— मित्र । ऋषिराज । ऋषिवर्य । ऋषिसाह्वय=श्रृषिपत्तन । ऋषिस्वाध्याय ।

ऋषिऋण
संज्ञा पुं० [सं० ऋषि+ऋण] ऋषियों के प्रति कर्तव्य । विशेष—वेद पठनपाठन से इस ऋण से उद्धार होता है ।

ऋषिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. निम्न श्रेणी या स्तर का ऋषि ।२. प्राचीन काल का एक जनपद और उसके निवासी [को०] ।

ऋषिकुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषि का वश ।२. ऋषि का आश्रम । ३. गुरुकुल [को०] ।

ऋषिकुल्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी का नाम जिसका उल्लेख महाभारत के ती्र्थयात्रा पर्व में है ।

ऋषिचांद्रायण
संज्ञा पुं० [सं० ऋषिचान्द्रायण] एक विशिष्ट प्रकार का व्रत [को०] ।

ऋषिजांगल
संज्ञा पुं० [सं० ऋषिजांङ्गल] [स्त्री० ऋषिजाङ्गलिका] ऋक्षगंधा नामक पौधा [को०] ।

ऋषितर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] ऋषियों की तृप्ति के निमित्त किया जानेवाला तर्पण या जलदान [को०] ।

ऋषिदेव
संज्ञा पुं० [सं०] एक बुद्ध का नाम [को०] ।

ऋषिपंचमी
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋषिपञ्चमी] भाद्र शुक्ल पंचमी । इस तिथि को स्त्रियाँ व्रतपवास आदि करती है ।

ऋर्षिपतन
संज्ञा पुं० [सं०] प्राचीन काल में वारणासी के निकट एक वन का नाम । वर्तमान सारनाथ [को०] ।

ऋर्षिप्रोक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीषपर्णी नामक पौधा [को०] ।

ऋषिमित्र
वि० [सं०] ऋषियों में सूर्य के समान तेजस्वी । उ०— हँसि के कह्यो ऋषिमित्र । अब बैठ राजपवित्र ।—राम चं०, पृ० १० ।

ऋषियज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] ऋषियों के ऋण से मुक्ति पाने के निमित्त किया जानेवाला एक यज्ञ [को०] ।

ऋषिराई पु
वि० [सं० ऋषिराज] ऋषियों में श्रेष्ठ । ऋषिराज ।

ऋषिलोक
संज्ञा पुं० [सं०] सत्यलोक के पास का एक लोक [को०] ।

ऋषिस्तोम
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषियों की स्तुति या प्रार्थना । २. एक दिन में होनेवाला यज्ञविशेष [को०] ।

ऋषिस्वाध्याय
संज्ञा पुं० [सं०] वेदों का अध्ययन या आवृति [को०] ।

ऋषिहृदय
संज्ञा पुं० [सं०] ऋषियों के समान शुद्ध हृदयवाला [को०] ।

ऋषीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऋषि का पुत्र । २. दे० 'ऋषिक' [को०] ।

ऋषीश
वि० [सं०] ऋषियों में श्रेष्ठ । उ०—प्रासपास, ऋषीश शोभित सूर सोदर साथ । —राम० चं०, पृ० १७६ ।

ऋषीश्वर
वि० [सं०] दे० 'ऋषीश' । उ०—तुरुनी यह अत्रि ऋषीश्वर की सी । —राम चं०, पृ० ८८ ।

ऋषु (१)
वि० [सं०] १. बड़ा शक्तिशाली । २. बुद्धिमान । चतुर । ३. गंता । जानेवाला [को०] ।

ऋषु (२)
संज्ञा पुं० १. सुर्य की किरण । २. जलती हुई अग्नि । ३. उल्का । मशाल । ४ऋषि [को०] ।

ऋष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. खडग । तलवार । २. शस्त्र । हथियार ।३. दीप्ति । कांति । ४. एक वाद्य (को०) । ५. दुधारी तलवार (को०) ।

ऋष्टिक
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का एक देश जिसका उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में है ।

ऋष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का मृग जिसके पैर श्वेत होते हैं और जो कुछ काले रंग का होता है । ऋश्य । २. एक प्रकार का कोढ़ ।

ऋष्यकेतन, श्रृष्यकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] अनिरुद्ध ।

ऋष्यगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० ऋष्यगन्धा] दे० 'ऋक्षगंधा' ।

ऋष्यगना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'ऋष्यप्रोक्ता' [को०] ।

ऋष्यप्रोक्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सतावर । २. शुकशिंबी । केवाँच (को०) । ३. अतिबला (को०) ।

ऋश्यजिह्व
संज्ञा पुं० [सं०] कोढ़ का एक प्रकार ।

ऋष्यम्क
संज्ञा पुं० [सं०] दक्षिण का एक पर्वत [को०] ।

ऋष्यक
संज्ञा पुं० [सं०] चितकबरा या शेवत पौरोंवाला मृगा [को०] ।

ऋषिशृंग
संज्ञा पुं० [सं० ऋष्यशृङ्ग] एक ऋषि जो विभांडक ऋषि के पुत्र थे । विशेष—इनकी उत्पत्ति एक मृगी से कही गई है । इनको एक छोटी सींग थी जिससे इनका यह नाम पड़ा । अंग देश के लोमावाद राजा की पालिता कन्या शांता, दशारथ की पुत्री थी, इनको ब्याही गई थी ।

ऋष्व (१)
वि० [सं०] विशाल । उच्च । शिष्ट [को०] ।

ऋष्व (२)
संज्ञा पुं० १. ईंद्र । अग्नि [को०] ।

ऋहत्
वि० [सं०] छोटा । दुर्बल [को०] ।