लेंगा ‡
संज्ञा पुं० [हि० लहगा] दे० 'लहँगा'।

लेंड़
संज्ञा पुं० [सं० लेण्ड़] मल। लेंड [को०]।

लेंस
संज्ञा पुं० [अं०] शीशे का ताल जो प्रकाश की किरनों को एकत्र या केंद्रीभूत करे। जैस,— चश्मे का लेंस, फोटोग्राफी का लेंस।

लेंड़
संज्ञा पुं० [सं० लेँण्ड़] [स्त्री० अल्पा, लँड़ी] मल की बत्ती जो उस्तर्ग के समय बँध जाती है। बँधा मल।

लूड़हरा †
संज्ञा पुं० [देश०] मक्का। भुट्टा।

लड़ी (१)
संज्ञा स्त्री० [हि० लेंड़] १. मल की बत्ती जो उत्सर्ग के समय बँध जाती है। बँधा मल। २. बकरी या ऊँट का मल जो बँधी गोलियों के आकार में निकलता है।

लेँड़ी (२)
संज्ञा स्त्री० [हि० लेज] छह हाथ लंबी रस्सी जिसके एक सिरे पर मुद्धी और दूसरे सिरे पर घुंड़ी होती है। यह घोड़े के दुम में चूतड़ों पर से लगाई जाती है। (घोड़े का साज)।

लेंडु़आ †
संज्ञा पुं० [देश०] कागज का एक खिलौना जो उछालकर फेंक देने पर जमीन में गिरते ही फिर खड़ा हो जाता है। इसे खड़ेखाँ और मतवाला भी कहते हैं।

लेँडौरो
संज्ञा स्त्री० [देश०] (चौपायों को) दाना या चारा खिलाने का बर्तन।

लेँहड़
संज्ञा स्त्री० [देश०] भेड़ों या दूसरे चौपायों का झुंड़।

लेँहड़ा
संज्ञा पुं० [देश०] झुंड़। दल। समूह। कतार। गल्ला। (चौपायों के लिये)। उ०— सिंहन के लेंहड़े नहीं, हंसन की नहि पाँत। लालन की नहि बोरियाँ, साधु न चलैं जमात।— कबीर (शब्द०)।

ले (१)
अव्य० [हि० लेना, लेकर] आरंभ होकर। शुरू होकर। जैसे,—यहाँ से ले वहाँ तक।

ले ‡ (२)
[सं० लग्न, हि० लग, लगि] तक। पर्यंत।

ले (३)
क्रि० सं० [सं० लभन] दे० 'लेना'।

लेइ †
अव्य० [सं० लग्न, हिं० लगि] तक। पर्यंत।

लेई
संज्ञा स्त्री० [सं० लेहिन्, लेही या लेह्य] १. पानी में घुले हुए किसी चूर्ण को गाढ़ा करके बनाया हुआ लसीला पदार्थ जिसे उँगलो से उठाकर चाट सकें। अवलेह। २. आँटे को भूनकर उसमें शरबत मिलाकर गाढ़ा किया हुआ पदार्थ जो खाया जाता है। लपसी। यौ०—लेई पूँजी=सारी जमा। सर्वस्व। ३. घुला हुआ आटा जो आग पर पकाकर गाढ़ा और लसदार किया गया हो और जो कागज आदि चिपकने के काम में आवे। ४. सुरखी मिला हुआ बरी का चूना जो गाढ़ा घोला जाता है और ईटों के जोड़ाई में काम आता है।

लेक्चर
संज्ञा पुं० [अं०] व्याख्यान। वक्तृता। क्रि० प्र०—देना। मुहा०—लेक्चर झाड़ना=धूमधाम से व्याख्यान देना (व्यंग्य)

लेक्चरबाजी
संज्ञा स्त्री० [अं० लेक्चर+फा० बाजी] १. खूब लेक्चर देने का क्रिया। २. बकवास। बकबक।

लेक्चरर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो लेक्चर देता हो। व्याख्याता २. उपप्राध्यापक [को०]।

लेख (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिखे हुए अक्षर। लिपि। २. लिखी हुई बात। ३. लिखावट। लिखाई। ४. लेखा। हिसाब किताब। उ०— गुन औगुन बिधि पूछव होइहि लेख अउ जोख।— जायसी (शब्द०)। ५. पंक्ति। लकीर। रेखा। ६. पत्र। चीठी (को०)। ७. देव। देवता। उ०— चढे़ विमानन लेख अलेखन वर्षहि मुदित प्रसूना।— रघुराज (शब्द०)।

लेख पु (२)
वि० १. लेख्य। लिखने योग्य। २. लेखा करने योग्य। हिसाब के लायक।

लेख (३)
संज्ञा स्त्री० [हि० लीक] लकीर। पक्की बात। उ०— विश्वं- भर श्रीपात त्रिभुवनपति वेद विदित यह लेख।— तुलसी (शब्द०)।

लेखक
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० लेखिका] १. जो किसी बात की अक्षरों में उतारे। लिखनेवाला। लिपिकार। लिपिक। २. चित्र लिखनेवाला। चित्रकार (को०)। ३. किसी विषय पर लिखकर अपने विचार प्रकट करनेवाला। लेख लिखनेवाला। ग्रंथकार। जैसे,—इस पुस्तक का लेखक कौन है ? ३. एक प्रत का नाम। उ०— लेखक कहता बात बिचारी। बाम्हन सुन अपराध हमारी।— सवल० (शब्द०)। यौ०—लेखकदोप, लेखकप्रमाद=लेखक की लिखने में त्रुटि। लिखनेवाले की भूल या प्रमाद।

लेखन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० लेखनीय, लेख्य] १. लिखने का कार्य। अक्षराविन्यास। अक्षर बनाना। २. लिखने की कला या विद्या। ३. चित्र बनाना। उ०— जल बिनु तरंग, भीति बिनु लेखन बिनु चेतहि चतुराई।— सूर (शब्द०)। ४. हिसाब करना। लेखा लगाना। कूतना। ५. छर्दन। उलटीकरना। वमन करना। कै करना। ६. औपध द्वारा रसादि सप्त धातुओं या वात आदि दोषों का शोषण करके पतला करना। ७. इस काम के लिये उपयुक्त औषध। ८. शल्य क्रिया में काटना, चोरना वा खरोंचना (को०)। ९. इस काम में प्रयुक्त होनेवाला औजार आदि (को०)। १०. एक प्रकार काट सरकंड़ा या नरसल जिसकी कलम बनाते हैं (को०)। ११. भोज- पत्र का वृक्ष (को०)। १२. भोजपत्र या ताड़पत्र, जिसपर प्राचीन काल में लिखा जाता था। १३. खाँसी। १४. उद्दीपन। उत्तेजन (को०)।

लेखन (२)
वि० [सं०] १. खुरचनेवाला। २. दीप्त करनेवाला। उत्तेजक [को०]।

लेखनवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] रसादि सप्त धातु या वातागि त्रिदोष और वमन इत्यादि को पतला कर देनेवाली पिचकारी।

लेखनसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लेखसाधन' [को०]।

लेखनहार पु
वि० [हि० लेखन+हार] लिखने का काम करनेवाला। जो लिखता हो। लेखक।

लेखना पु
क्रि० सं० [सं० लेखन] १. अक्षर या चित्र बनाना। लिखना। उ०— कुंदन लीक कसौटी में लेखी सी दिखी सुनारि सुनारि सलोनी।— देव (शब्द०)। २. हिसाब, संख्या या परिमाण आदि निश्चित करना। गिनती करना। यौ०—लेखना जोखना=(१) नाप, तौल या गिनती करके संख्या या परिमाण आदि निश्चित करना। ठीक ठीक अंदाज करना। हिसाब करना। (२) जाँच करना। परीक्षा करना। उ०— लेखे जोखे चोखे चित तुलसी स्वारथ हित, नीके देखे देवता देवैया घने गथ के।—तुलसी (शब्द०)। ३. मन ही मन ठहराना। समझना। सोचना। विचारना। मानना। उ०—(क) हौं आहि आपन दरपन लेखीं। कर्रौ सिंगार भोर मुख देखौं।— जायसी (शब्द०)। (ख) जे जे तव सूर सुभट कीट सम न लेखौं।— सूर (शब्द०)। (ग) सिय सौमित्रि राम छबि देखहि। साधन सकल सफल करि लेखिहिं।—तुलसी (शब्द०)।

लेखनिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्रवाहक। २. वह जो लिखना पढ़ना न जानता हो। वह जो अपने बदले किसीं को प्रतिनिधि बनाकर अधिकारपत्र लिखावे। ३. लिखक। लिखनेवाला नकल उतारनेवाला [को०]।

लेखनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलम। लेखनी। २. तूलिका चित्र लिखने की कमल [को०]।

लेखनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह वस्तु जिससे लिखें या अक्षर बनावें। वणतूलिका। कलम। लिखनी। फौंटेन पेन। २. चमचा। कलछी (को०)। मुहा०—लेखनी उठाना=लिखना आरंभ करना।

लेखनीय
वि० [सं०] १. लिखने, खींचने या चित्र बनाने के योग्य। २. जिससे घटाया या पतला किया जा सके (को०)।

लेखपट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लेखपत्र' [को०]।

लेखपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. लिखित पत्र। लिखा हुआ कागज। २. दस्तावेज।

लेखपत्रिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लेखपत्र' [को०]।

लेखपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लेखप्रणाली' [को०]।

लेखपाल
संज्ञा पुं० [हिं० लेख + पाल ] जमीन की नापजोख का लेखा रखनेवाला सरकारी कर्मचारी। पटवारी।

लेखप्रणाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिखने की शैली। लिखने का ढंग।

लेखर्षभ
संज्ञा पुं० [सं०] देवताओं में श्रेष्ठ, इंद्र।

लेखशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] लिखना सिखानेवाला विद्यालय [को०]।

लेखशलिक
संज्ञा पुं० [सं०] लेखशाला का विद्यार्थी [को०]।

लेखशैली
संज्ञा स्त्री० [सं०] लेखप्रणाली।

लेखसाघन
संज्ञा पुं० [सं०] लिखने का साधन कलम, स्याही, कागज, पटरी आदि [को०]।

लेखहार, लेखहारक
संज्ञा पुं० [सं०] चिट्ठी ले जानेवाला। पत्रवाहक।

लेखहारी
संज्ञा पुं० [सं० लेखहारिन्] दे० 'लेखहार' [को०]।

लेखा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लिखना] १.गणना। गिनती। हिसाब किताब। जैसे,—(क) आमदनी और खर्च का लेखा लगा लो। (ख) इसका लेखा लगाओ कि वह आठ कोस रोज चलकर वहाँ कितने दिनों में पहुँचेगा। २. ठीक ठीक अंदाज। कूत। क्रि० प्र०—लगाना। ३. रुपए पैसे या और किसी वस्तु की गिनती आदि का ठीक ठीक लिखा हुआ व्योरा। आय व्यय आदि का विवरण। जैसे,— तुम अपना लेखा पेश करो; रुपया चुका दिया जाय। यौ०—लेखा वही। लेखा पत्तर। मुहा०—लेखा जाँचना = यह देखना कि हिसाब ठीक है या नहीं। लेखा डेवढ़ करना = (१) हिसाब चुकता करना। (२) हिसाब बराबर करना। (३) चौपट करना। नाश करना। लेखा पूरा या साफ करना = हिसाब साफ करना। पिछला देना चुकाना। लेखा डालना = हिसाब किताब खोलना। लेनदेन के व्यवहार को बही में लिखना। ४. अनुमान। विचार। समझ। मुहा०—किसी के लेखे = (१) किसी की समझ में। किसी के बिचार के अनुसार। जैसे,—हमारे लेखे तो सब बराबर हैं। (२) किसी के लिये या वास्ते।

लेखा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लिपि। लिखावट। २. रेखा। लकीर। जैसे, —चद्रलेखा। ३. कतार। पंक्ति (को०)। ४. निशान। चिह्न (को०)। ५. किनारा। छोर। सिरा (को०)। ६. चद्रांश। चंद्रमा की कला। चंद्रशृंग (को०)। ७. किरीट (को०)। ८. शरीर पर चंदन आदि से रेखानिर्माण (को०)।

लेखाक्षर
संज्ञा पुं० [सं०] लिखावट [को०]।

लेखाधिकारी
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्र आदि लिखने लिखाने का अधिकारी। २. मंत्री। सचिव [को०]।

लेखानुजीवी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लेखानुजीविन्] अनुचर। देवता [को०]।

लेखानुजीवी (२)
वि० लेखन द्वारा जीविका चलानेवाला।

लेखावही
संज्ञा स्त्री० [हिं० लेखा + वही] वह वही जिसमें रोकड़ के लेन देन का व्योरा रहता है।

लेखावलय
संज्ञा पुं० [सं०] लकीरों का घेरा। चारों ओर से गोलाकार घेरी हुई रेखा [को०]।

लेखाविधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लिखने की प्रक्रिया। २. रेखांकन। चित्रलेखन की प्रक्रिया [को०]।

लेखासंधि
संज्ञा स्त्री० [सं० लेखासन्धि] नासिकामूल का ऊपरी भाग जहाँ दोनों ओर की भौहें मिलती हैं। भ्रूसंधि [को०]।

लेखिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. लिखनेवाली। २. ग्रंथ या पुस्तक बनानेवाली। ३. छोटी या हलकी लकीर या रेखा [को०]।

लेखित
वि० [सं०] १. लिखाया हुआ। लिखवाया हुआ। २. लिखित। लिखा हुआ (को०)।

लेखिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कलम। लेखनी। २. करछी। चमचा [को०]।

लेखी
वि० [सं० लेखिन्] १. स्पर्श करनेवाला। छूनेवाला या छूता हुआ। २. लेख करनेवाला [को०]।

लेखीलक
संज्ञा पुं० [सं०] पत्रवाहक। चिट्ठीरसा [को०]।

लेखे †
अव्य० [हिं० लेखा] १. विचार से। अनुमान से। २. लिये।

लेख्य (१)
वि० [सं०] १. लिखने योग्य। २. जो लिखा जाने को हो।

लेख्य (२)
संज्ञा पुं० १. लिखी बात। लेख। २. दस्तावेज। विशेष—धर्मशास्त्र में 'लेख्य' मनुष्यप्रमाण के दो भेदों में से एक है। इसके भी दो भेद हैं—शासन और जानपद। (चीरक)।

लेख्यक
वि० [सं०] लिखा हुआ। लिखित [को०]।

लेख्यकृत
वि० [सं०] लिखित। लेखवद्ध [को०]।

लेख्यगत
वि० [सं०] चित्रित। चित्र द्वारा वर्णित [को०]।

लेख्यचूर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चित्र बनाने की कूँची या लिखने की कलम, पेंसिल आदि [को०]।

लेख्यपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दे०'लेख्य पत्रक'।

लेख्यपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'लेखपत्र'। २. ताड़पत्र [को०]।

लेख्यप्रसंग
संज्ञा पुं० [सं० लेख्यप्रसंङ्ग] दस्तवेज [को०]।

लेख्यस्थान
संज्ञा पुं० [सं०] लिखने का स्थान [को०]।

लेख्यारूढ़
वि० [सं०] जिसके संबंध में लिखा पढ़ी हो गई हो। दस्तावेजी। जैसे,—लेख्यारूढ़ आधि।

लेज †
संज्ञा स्त्री० [सं० रज्जु, मागधी प्रा० लेज्जु] रस्सी। डोरी।

लेजम
संज्ञा स्त्री० [फ़ा० लेज़म] १. एक प्रकार की नरम और लचकदार कमान जिससे धनुष चलाने का अभ्यास किया जाता है। २. वह कमान जिसमें लोहे की जंजीर लगी रहती है और जिससे पहलवान लोग कसरत करते हैं। विशेष—इसे हाथ में लेकर कई तरह के पैतरों और बैठकों के साथ कसरत करते हैं। प्राइमरी स्कूलों में भी क्रिड़ा में इसको भाँजना सिखाया जाता है। क्रि० प्र०—भाँजना।—हिलाना।

लेजरंग
संज्ञा पुं० [लेज + हिं० रंग] मरकत या पन्ने की एक रंगत जो उसका गुण मानी जाती है।

लेजिम
संज्ञा पुं० [फा़० लेज़म] दे० 'लेजम'।

लेजिरलेटिव एसेंब्ली
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'व्यवस्थापिका परिपद्'।

लेजिस्लेटिव काउंसिल
संज्ञा स्त्री० [अं०] प्रधान शासक या गवर्नर की वह सभा जो देश के लिये कानून बनाती है।

लेजिस्लेटिव कौंसिल
संज्ञा स्त्री० [अं० लेजिस्लेटिव काउंसिल] दे० 'व्यवस्थापिका सभा'।

लेजुर †
संज्ञा स्त्री० [सं० रज्जु, मागधी प्रा० लेज्जु] १. रस्सी। डोरी। २. कूएँ से पानी खींचने की रस्सी। उ०—लेजुरे भइउँ, नाथ, बिनु तोहीं।—जायसी (शब्द०)।

लेजुरा (१)
संज्ञा पुं० [मा० प्रा० लेज्जु] दे० 'लेजुर'।

लेजुरा (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का अगहनी धान जिसका चावल बहुत दिनों तक रहता है।

लेजुरी †
संज्ञा स्त्री० [मा० प्रा० लेज्जु] दे० 'लेजुर'।

लेट (१)
संज्ञा स्त्री० [देश०] सुरखी, कंकड़ और चूना पीटकर बनाई हुई कड़ी चिकनी सतह। गच।

लेट (२)
वि० [अं०] जो निश्चित या ठीक समय के उपरांत आवे, रहे या हो। जिसे देर हुई हो। जैसे,—यह गाड़ी प्रायः लेट रहती है। यौ०—लेट फी।

लेट (३)
संज्ञा पुं० [सं०] मनु द्वारा उल्लिखित एक जाति का नाम। (मनु०)।

लेटना
क्रि० अ० [सं० लुण्ठन, हिं० लोटना] १. हाथ पैर और सारा शरीर जमीन या और किसी सतह पर टिकाकर पड़ रहना। पीठ जमीन या बिस्तरे आदि से लगाकर बदन की सारी लंबाई उसपर ठहराना। खड़ा या बैठा न रहना। पौढ़ना। जैसे,—जाकर चारपाई पर लेट रहो। संयो० क्रि०—जाना।—रहना। २. किसी चीज का बगल की ओर झुककर जमीन पर गिर जाना। मुहा०—खेती लेट जाना = (१) फसल का अधिक पानी या हवा के कारण सीधा खड़ा न रहना, झुककर जमीन पर पड़ जाना। (२) नत होना। विनीत हो जाना। प्रभुत्व मान लेना। गुड़ लेट जाना = ताव बिगड़ने के कारण गुड़ का गीला और चिप- चिपा हो जाना। ३. मर जाना।

लेटपेट
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार की चाय।

लेट फी
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह फीस जो निश्चित समय के बाद डाकखाने में कोई चीज दाखिल करने पर देनी पड़ती है। विशेष—डाकखाने में प्रायः सभी कामों के लिये समय निश्चित रहता है। उस निश्चित समय के उपरांत यदि कोई व्यक्ति कोई चीज रजिस्टरी कराना या चिट्ठी रवाना करना चाहे, तो उसे कुछ फीस देनी पड़ती है जो लेट फी कहलाती है। २. स्कूल, कालेज आदि में फीस जमा होने की निश्चित तिथी के बाद उक्त फीस के साथ देय कुछ अतिरिक्त द्रव्य।

लेटर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वर्ण। अक्षर। २. पत्र। चिट्ठी [को०]।

लेटर बाक्स
संज्ञा पुं० [अं० लेटर + बाक्स] डाकखाने का वह संदूक जिसमें कहीं भेजने से लिये लोग चिटि्ठयाँ डालते हैं। चिट्ठी डालने का संदूक।

लेटर्स पेटेट
संज्ञा पुं० [अं०] वह राजकीय आज्ञापत्र जिसमें किसी को कोई पद या स्वत्व आदि देने या कोई संस्था स्थापित करने की बात लिखी रहती है। राजकीय आज्ञापत्र। शाहि फर- मान। जैसे,—१८६१ में पार्लमेंट ने कानून बनाकर महारानी को अधिकार दे दिया था कि अपने लेटर्स पेटेंट से कलकत्ता, बंबई, मद्रास और आगरा प्रदेशों में हाईकोर्ट स्थापित करें।

लेटा
संज्ञा पुं० [देश०] गल्ले का बाजार। मंडी।

लेटाना
क्रि० स [हिं० लेटना का प्रेर० रूप] दूसरे को लेटने में प्रवृत्त करना। संयो० क्रि०—देना।

लेड
संज्ञा पुं० [अं०] १. सीसा नामक धातु। २. प्रायः दो अंगुल चौड़ी सीसे की ढली हुई पत्तर की तरह पतली पटरी जो छापे- खाने में अक्षरों की पंक्तियों के बीच में अक्षरों को ऊपर नीचे होने से रोकने के लिये दी जाती है।

लेडमोल्ड
संज्ञा पुं० [अं०] छापेखाने में अक्षरों की पंक्तियों के बीच में रखने के लिये सीसे की पटरीयाँ ढालने का साँचा। लेड ढालने का साँचा।

लेडी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. भले घर की स्त्री। महिला। २. लार्ड या सरदार की पत्नी। ३. अंग्रेजी फैशन में ढली हुई औरत।

लेत
संज्ञा सं० [सं०] अश्रु। आँसू [को०]।

लेथो
संज्ञा पुं० [अं० लीथो] दे० 'लीथो'।

लेद (१)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का गीत जो फागुन में गाया जाता है।

लेद (२)
संज्ञा पुं० [अं० लेथ] खरादने की मशीन। खराद मशीन।

लेदवा †
संज्ञा पुं० [देश०] खेत में होनेवाली एक प्रकार की ककडी़। फूट।

लेदार
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की चिड़िया।

लेदी
संज्ञा स्त्री० [देश०] १. जलाशयों के किनारे रहनेवाली एक प्रकार की छोटी चिड़िया। उ०—बोलहिं सुआ ढेक बक लेदी। रही अबोल मीन जलभेदी।—जायसी (शब्द०)। २. घास का पुला जिसे हल के नीचे के भाग में इसलिये बाँध देते है जिसमें चौड़ी कूँड़ बने। ३.चारा। घास। पुआल आदि।

लेन (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लेना] १. लेने की क्रिया या भाव। यौ०—लेन देन। २. वह रकम जो किसी के यहाँ बाकी हो या मिलनेवाली हो। लहना। पावना।

लेन† (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] गली। कूचा। जैसे,—प्यारीचरण सरकार लेन, कलकत्ता।

लेनदार
संज्ञा पुं० [हिं० लेन + फ़ा० दार (प्रत्य०)] जिसका कुछ बाकी हो। जिसका ऋण चुकाना हो। महाजन। लहनेदार।

लेनदेन
संज्ञा पुं० [हिं० लेना + देना] १. लेने और देने का व्यवहार। आदान प्रदान। २. रुपया ऋण देने और ऋण लेने का व्यवहार जो किसी के साथ किया जाय। जैसे, हमारा उसका लेनदेन नहीं है। ३. रुपए लेने देने का व्यवसाय। महाजनी। जैसे,— उसके यहाँ रुपए का लेनदेन होता हैं। मुहा०—लेनदेन न होना = व्यवहार न होना। सरोकार न होना। सबंध या प्रयोजन न होना। उ०—हमें कछु लेन न देन है ऐ बीर तुम्हारे।—सूर (शब्द०)।

लेनहार पु
वि० [हिं० लेना + हार (प्रत्य०)] लेनेवाला। लेनदार। लहनेदार।

लेना
क्रि० स० [सं० लभन, हिं० लहना] १. दूसरे के हाथ से अपने हाथ में करना। ग्रहण करना। प्राप्त करना। लाभ करना। जैसे,— उसने रुपया दिया, तो मैंने ले लिया। संयो० क्रि०—लेना। २. ग्रहण करना। थामना। पकड़ना। जैसे,—छड़ी अपने हाथ में ले लो और किताब मुझे दे दो। मुहा०—ऊपर लेना = सिर या कंधे पर रखना। ३. मोल लेना। क्रय करना। खरीदना। जैसे,—बाजार में तुम्हें क्या क्या लेना है ? मुहा०—ले देना = दूसरे को मोल लेकर देना। खरीद देना। ४. अपने अधिकार में करना। कब्जे में लाना। जीतना। जैसे,— उसने सिंध के किनारे का देश ले लिया। ५. उधार लेना। कर्ज लेना। ऋण ग्रहण करना। जैसे,— १०००) महाजन से लिए, तब काम चला। ६. कार्य सिद्ध करना या समाप्त करना। काम पूरा करना। जैसे,—आधे से अधिक काम हो गया है; अब ले लिया। ७. जीतना। जैसे,—बाजी लेना। ८. भागते हुए को पकड़ना। धरना। जैसे—लेना, जाने न पावे। ९. गोद में थामना। जैसे,—जरा बच्चे को ले लो। १०. किसी आते हुए आदमी से आगे जाकर मिलना। अगवानी करना। अभ्यर्थना करना। जैसे—शहर के सब रईस स्टेशन पर उन्हें लेने गए हैं। उ०—भरत आइ आगे भै लीन्हे।—तुलसी (शब्द०)। ११. प्राप्त होना। पहुँचना। जैसे,—घर लेना मुश्किल हो गया है। १२. किसी कार्य का भार ग्रहण करना। किसी काम को पूराकरने का वादा करना। जिम्मे लेना। जैसे,—जब इस काम को लिया है, तब पूरा करके ही छोड़ूँगा। मुहा०—ऊपर लेना = जिम्ने लेना। भार ग्रहण करना। जैसे—इस काम को में अपने ऊपर लेता हूँ। १३. सेवन करना। पीना। जैसे—कभी कभी वे थोड़ी सी भाँग ले लेते हैं। १४. धारण करना। स्वीकार करना। अंगीकार करना। जैसे,—योग लेना, संन्यास लेना, बाना लेना। १५. काटकर अलग करना। काटना। जैसे,—(क) नाखून लेना, बाल लेना (ख) धीरे से ऊपर का हिस्सा ले लो, अंदर छुरी न लगने पावे। १६. किसी को उपहास द्वारा लज्जित करना। हँसी ठट्टा करके या व्यंग्य बोलकर शरमिंदा करना। जैसे,—आज उनको खूब लिया। मुहा०—आड़े हाथों लेना = गूढ़ व्यंग्य द्वारा लज्जित करना। छिपा हुआ आक्षेप करके लज्जित करना। १७. पुरुष या स्त्री के साथ संभोग करना। १८. संचय करना। एकत्र करना। जैसे,—मैं गुरु के लिये फूल लेने गया था। मुहा०—ले आना = लेकर आना। लाना। ले उड़ना = (१) लेकर भाग जाना। (२) किसी बात को लेकर उसपर बहुत कुछ कह चलना। किसी बात का संकेत पाते ही बितड़ावाद खड़ा करना। जैसे—तुमने तो जहाँ कोई बात सुनी, बस ले उड़े। लेने के देने पड़ना = (१) लेने के स्थान पर उलटे देना पड़ना। भले के लिये कुछ करते हुए बुरा होना। (किसी मामले में) लाभ के बदले हानि होना। (२) बहुत कठिन समय आना। जान पर आ बनना। जैसे,—देखते देखते बच्चे के लेने के देने पड़ गए। ले चलना = (१) लेकर चलना। थामकर या ऊपर उठाकर चलना। (२) चलते समय किसी को साथ करना। साथ साथ गमन करना या पहुँचाना। जैसे—मेले में उन्हें भी ले चलो। ले जाना = लेकर जाना। पास में रखकर प्रस्थान करना। जैसे—(क) यह किताब ले जाओ; अब काम नहीं है। (ख) यह पत्र उनके पास ले जाओ। ले डालना = (१) खराब करना। चौपट करना। नष्ट करना। (२) पराजित करना। हराना। (३) किसी काम को निबटा देना। पूरा करना। समाप्त करना। ले डूबना = अपने साथ दूसरे को भी खराब करना। ले दे करना = (१) हुज्जत करना। तकरार करना। (२) बहुत प्रयत्न करना। बड़ी कोशिश करना। जैसे—बड़ी ले दे की, तब जाकर काम पूरा हुआ। ले देकर = (१) लेना देना सब जोड़कर। खर्च या देना आदि घटा कर। जैसे—सब ले देकर १००) बचते हैं। (२) सब मिलाकर। जाड़ जाड़कर। जैसे— ले देकर इतने ही रुपए तो होते है। (३) बड़ी मुश्किल से कठिनता से। लेना देना = (१) लेने और देने का व्यवहार। (२) रुपया उधार देने और लेने का व्यवसाय। लेना देना होना = मतलब या प्रयोजन होना। सरोकार होना। जैसे,— मुझे किसी से कुछ लेना देना है जो परवा करुँ। लेना एक न देना दो = कुछ मतलब नहीं। कुछ प्रयोजन नहीं। कुछ सरोकार नहीं। उ०—माँगि के खैबो, मसीत को सोइबो लैबे को एक न दैबे को दोऊ।—तुलसी (शब्द०)। ले निकलना = लेकर चल देना। ले पड़ना = (१) अपने साथ जमीन पर गिरा देना। (२) संभोग करने लगना। ले पालना = गोद लेना। दत्तक लेना। ले बैठना = (१) बोझ लिए डूब जाना। (नाव आदि का)। (२) अपने साथ नष्ट या खराब करना। ३. किसी व्यवसाय का नष्ट होकर लगे हुए धन को नष्ट करना। जैसे— यह कारखाना सारी पूँजी ले बैठेगा। ले भागना = लेकर भाग जाना। ले मरना = अपने साथ नष्ट या बरबाद करना। ले रखना = लेकर रख छोड़ना। कान में लेना = सुनना। उ०—करैं घरी दस ता मैं कोऊ जो खबरि देत लेत नहिं कान और मरवावही।—प्रियादास (शब्द०)। ले = इस शब्द का प्रयोग किसी को संबोधन करके इन अर्थों का बोध कराने के लिये किया जाता है—(१) अच्छा, जो तू चाहता है, वही होता है। जैसे—ले, मैं चला जाता हूँ, जो चाहे सो कर। (२) अच्छा, जो तू किसी तरह नहीं मानता है, तो मैं यहाँ तक करता हूँ। जैसे,—ले, तेरे हाथ जोड़ू हूँ, क्यों न गावेगी ?—हरिश्चंद्र (शब्द०)। ३. किसी के प्रतिकूल कोई बात हो जाने पर उसे चिढ़ाने या लज्जित करने के लिये प्रयुक्त। देख ! कैसा फल मिला। जैसे,—(क) ले ! और बढ़ बढ़कर बातें कर। (ख) ले ! कैसी मिठाई मिली। विशेष—इस क्रिया का प्रयोग संयो० क्रिया के रूप में सकर्मक और अकर्मक दोनों क्रियाओं के धातुरूप के आगे कहीं तो (क) केवल पूर्ति सूचित करने के लिये होता है; जैसे—इस बीच में उसने अपना काम कर लिया। और (ख) कहीं स्वय वक्ता द्वारा किसी क्रिया का किया जाना सूचित करने के लिये। जैसे,—तुम रहने दो, मैं अपना काम आप कर लूँगा।

लेनिहार पु
वि० [हिं० लेना + हार] लेनेवाला। लेनदार। लहनेदार। उ०—जनु लेनिहार न लेहि जिउ हरहिं तरासहिं ताहि। एतने बोल आय मुख करै करै तराहि तराहि।—जायसी (शब्द०)।

लेप
संज्ञा पुं० [सं०] १. गीली या पानी आदि के साथ मिली हुई वस्तु जिसकी तह किसी वस्तुओ के ऊपर फैलाकर चढ़ाई जाय। पोतने, छोपने या चुपड़ने की चीज। लेई के समान गाढ़ी गीली वस्तु। मरहम। जैसे,—जहाँ चाट लगो है, वहाँ यह लेप चढ़ा देना। क्रि० प्र०—चढ़ाना।—रखना।—लगाना। २. गाढ़ी गीली वस्तु की तह जो किसी वस्तुओ के ऊपर फैलाई जाय। ३. उबटन। बटना। ४. लगाव। संबंध। ५. धब्बा। दाग (को०)। ६. किसी वस्तु में मिट्टी लगाना। मृतिकालेपन (को०)। ७. नैतिक पतन या दोष। पाप। ९. खाद्यपदार्थ। १०. श्रद्ध के समय पिंडदान के अनंतर हाथों में लगा हुआ पिंड का अन्न जिसे वेदी पर बिछे हुए कुशमूल में लगाते हैं। यह अन्न चौथी, पाँचवीं और छठी पीढ़ी के लेखभागी पितर प्राप्त करते हैं।

लेपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लेप करनेवाला। पोतने या लगानेवाला। २. एक जाति या वर्ग। राजगीर (को०)। ३. साँचे बनानेवाला। ढलाई करनेवाला (को०)।

लेपकर
संज्ञा पुं० [सं०] लेप करनेवाला। दे० 'लेपक' [को०]।

लेपकामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] साँचे के द्वारा ढाली हुई नारीमूर्ति। दे० 'लेप्यनारी—२' [को०]।

लेपची
संज्ञा पुं० [देश०] नैपालियों की एक जाति।

लपचू
संज्ञा पुं० [अं० ?] एक किस्म की उत्तम कोटि की चाय।

लेपन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० लेपिता, लेप्य, लिप्त] १. गाढ़ी गीली वस्तु की तह चढ़ाना। लेई सी गीली चीज पोतना या छोपना। २. तुरुष्क नामक एक गंधद्रव्य (को०)। ३. लेपनीय वस्तु उबटन, अंगराग, आदि (को०)। ४. मांस (को०)।

लेपना
क्रि० स० [सं० लेपन] गाढ़ी गीली वस्तु की तह चढ़ाना। कीचड़ या लेई सी गाढ़ी चीज फैलाकर पोतना। छोपना।

लेपभागी
संज्ञा पुं० [सं० लेपभागिन्] पिता की ओर चौथी, पाँचवीं और छठी पीढ़ी के पूर्वज [को०]।

लेपभुज
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लेपभागी' [को०]।

लेपालक
संज्ञा पुं० [हिं० लेना + पालना] गोद लिया हुआ पुत्र। दत्तक पुत्र। पालट।

लेपी (१)
वि० [सं० लेपिन्] लेप करनेवाला।

लेपी (२)
संज्ञा पुं० १. लेखक। लिपिकार। २. राजगीर। थवई (को०)।

लेप्य
वि० [सं०] १. लेपन करने योग्य। लेपनीय। ढालने लायक। साँचे के द्वारा ढालने के योग्य (को०)। यौ०—लेप्यकार = लेप्यकृत् = दे० 'लेपक', 'लेपकर'। लेप्यनारी। लेप्यमयी। लेप्यस्त्री = दे० 'लेप्यनारी'।

लेप्यनारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह स्त्री जिसपर चंदन आदि का लेप लगा हो। पत्थर या मिट्टी की बनी स्त्री की मूर्ति।

लेप्यमयो
संज्ञा स्त्री० [सं०] मिट्टी, पत्थर या काठ की बनी पुतली [को०]।

लेफ्टिनेंट
संज्ञा पुं० [अं० लेफ्टिनेन्ट] १. वह सहायक कर्मचारी जिसे यह अधिकार हो कि अपने से उच्च कर्मचारी के आज्ञानुसार या उसकी आज्ञा के अभाव में यथाभिमत कोई काम कर सके। जैसे,—लेफ्टिनेंट कर्नल, लेफ्टिनेंट गवर्नर, लेफ्टिनेंट जनरल इत्यादि। २. सेना का वह अध्यक्ष जो कप्तान के मातहत होता है और कप्तान की अनुपस्थिती में सेना पर पूर्ण अधिकार रखता है।

लेफ्टिनेंट कर्नल
संज्ञा पुं० [अं०] सेना का एक अफसर जिसका दर्जा कर्नल के बाद ही है।

लेफ्टिनेंट जनरल
संज्ञा पुं० [अं०] सेना का एक अफसर जिसका दर्जा जेनरल के बाद ही है। सहायक सैन्याध्यक्ष।

लेबर
संज्ञा पुं० [अ०] १. श्रम। मेहनत (विशेषतः शारीरिक)। २. श्रमिक वर्ग [ को०]। यौ०—लेबरपार्टी = वह संगठन या दल जो श्रमिकों का प्रतिनिधित्व करता हो। लेबर मेंबर = शासन में श्रमिक वर्ग का प्रिनिधि सदस्य। लेबर यूनियन = मजदूरों का संघ।

लेबरना †
क्रि० स० [हिं० लपेटना, लिबड़ना या लेभरना] ताने में माँढ़ो लगाना। (जुलाहा)।

लेबरर
संज्ञा पुं० [अं०] वह जो शारीरिक परिश्रम द्वारा जीविका निर्वाह करता हो। मेहनत मजदूरी करके गुजर करनेवाला। श्रमजीवा। मजदूर।

लेबुल
संज्ञा पुं० [अ०] पते या विवरण आदि की सूचक वह चिट जो पुस्तकों, ओषध आदि की पुड़ियों, बोतलों या गठरियों आदि पर लगाई जाती है। नामविधि।

लेबोरेटरी
संज्ञा स्त्री० [अं०] वह शाला या मंदिर जिसमें वैज्ञानिक परीक्षाएँ की जाती हों, किसी परिक्रिया की जाँच की जाती हो, अथवा रासायनिक पदार्थ, औषधियाँ इत्यादि बनाई या तैयार की जाती हों। प्रयोगशाला।

लेमन
संज्ञा पुं० [अं० तुल० अ० लीमूँ] नीबू [को०]। यौ०—लेमनचूस। लेमनजूस।

लेमनचूस
संज्ञा पुं० [अ० लेमन + हिं० चूसना] नीबू आदि के योग से बनी चीनी की गोलियाँ [को०]।

लेमनेड
संज्ञा पुं० [अं०] नीबू का शरबत जो पहले नीबू के रस को शरबत में मिलाकर बनाते थे; पर जो अब नीबू के सत्त की शरबत में मिलाकर बनाते हैं और बोतल में हवा के जोर से बंद करके रखते हैं। विलायती मीठा पानी। (यह प्रायः पाचक होता है।)

लेमर
संज्ञा पुं० [अं०] एक प्रकार का जंतु। विशेष—यह पेड़ों पर रहता है और फल, फूल, अंकुर, पत्तियाँ, अंडे और कीड़े मकोड़े, जो पेड़ों पर रहते है, खाता है। पहले मेडागास्कर टापू में इसका पता लगा था। यह बंदरों से मिलता जुलता होता है। इसकी अनेक जातियों का पता चला है, जो अफ्रीका और पूर्वोय टापुओं में फिलिपाइन और सिलीबीज तक मीलती हैं। इनके सिवा इसकी एक और जाति है, जो बिना पूँछ के होती है और मलाया, बोर्निओ, सुमात्रा आदि में मिलती है। इसकी पूँछ लंबी होती है। इसकी कुछ जातियों के जंतुओं को दिन में दिखाई नहीं देता।

लेमू
संज्ञा पुं० [फ़ा०] नीबू [को०]।

लेमूनी
वि० [फ़ा०] नीबू का। नीबू से युक्त। जिसमें नीबू का योग हो [को०]।

लेय
संज्ञा पुं० [सं०] सिंह राशि [को०]।

लेर
संज्ञा स्त्री० [हिं० लहर] दे० 'लहर'। (लश०)।

लेरुआ ‡ (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लड़ुआ] दे० 'लड्डू'।

लेरुआ पु (२)
संज्ञा पुं० [देश०] १. गाय का छोटा बच्चा। बछड़ा। २. बच्चा। शिशु। उ०—ललन लोने लरुआ बलि मैया। सुख सोइए नींद बेरिया भइ चारु चरित चारयौ भैया।—तुलसी ग्रं०, पृ० २७७।

लेरुआरी †
संज्ञा पुं० [हिं० लट + आरी (प्रत्य०)] वह भेंड़ जिसके गले में लट लटकी रहती है। (गड़रिया)।

लेरुवा
संज्ञा पुं० [सं० लह] १. बछड़ा। उ०—(क) जो न बसौं, लोल नैन, लरुवा मरहिं सब खरक खरेई आजु सूनैं सुनियतु है।—केशव (शब्द०)। (ख) लाड़िली लाली कलोरी लुरी कहँ लाल लके कहाँ अग लगाइ कै। आजु तो केशव कैसहु लरुवै लागत देत न कसहुँ आइ कै।—केशव (शब्द०)। २. शिशु। बच्चा। बामक।

लेला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] [स्त्री० लेली] १. भेंड बकरी का बच्चा। २. वह जो साथ (?) रहता हो। 'पिछलग्गू'।

लेला (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कंप। कंपन [को०]।

लेलापमाना
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि को सात जिह्वाओं में एक का नाम [को०]।

लेलितक
संज्ञा पुं० [सं०] गंधक [को०]।

लेलिह
संज्ञा पुं० [सं०] १. जूँ। लीख। २. साँप।

लेलिहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र में अँगुलियों की एक प्रकार की मुद्रा [को०]।

लेलीतक
संज्ञा पुं० [सं०] लेलितक। गंधक [को०]।

लेलिहान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प। साँप। २. शिव [को०]।

लेलिहान (२)
वि० [सं०] बार बार जीभ से स्वाद लेनेवाला। चाटनेवाला।

लेव
संज्ञा पुं० [सं० लेप्य] १. अच्छी तरह घुली हुई मिट्टी या पिसी हुई ओषधियाँ जो किसी स्थान पर लगाई जायँ। लेप। २. मिट्टी आदि का लेप जो हंडी या और बर्तनों की पेंदी पर, उन्हें आग पर चढ़ाने से पहले, जलाने से बचाने के लिये, किया जाता है। ३. दीवार पर लगाने का गिलावा। कहागल। क्रि० प्र०—चढ़ना।—चढ़ाना।—देना। मुहा०—लेव चढ़ना = मोटा होना। मोटाई आना। (व्यंग्य)। ४. दे० 'लेवा'।

लेवक
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का वृक्ष जिसकी लकड़ी इमारत के काम में आती है।

लेवड़ा ‡
संज्ञा पुं० [हिं० लेव + ड़ा (प्रत्य०)] १. लेव। लेप। २. पलस्तर। किसी लेप आदि का वह चप्पड़ जो फूलकर गिरने लगता है। जैसे, लेवड़ा उखड़ना।

लेवरना †
क्रि० स० [हिं० लेव, या लेवड़ा] लेवा लगाना। कहगिल करना। लेव लगाना।

लेवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० लेप्य] १. गिलावा। २. मिट्टी का गिलावा। कहगिल। ३. नाव की पेंदी का वह तखता जो सिरे से पतवार तक लगाया जाता है। ४. लेप। ५. पानी का इतना बरसना कि जोतने पर खेत की मीटी और पानी मीलकर गिलावा बन जाय। क्रि० प्र०—लगना। ६. गाय, भैंस आदि का थन। †७. कथरी।

लेवा (२)
वि० [हिं० लेना] लेनेवाला। जैसे,—नामलैवा। जानलेवा। विशेष—इस अर्थ में इसका व्यवहार केवल यौगिक शब्दों के अंत में होता है। यौ०—लेवा देई = लेनदेन। आदान प्रदान। उ०—अपनो काज सँवार सूर सुनि हमहि बनावत कूप। लेवा देई बराबर में है कौन रंक को भूप।—सूर (शब्द०)।

लेवार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अग्रहार।

लेवार † (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लेव] लेव। गिलावा।

लेवारना ‡
क्रि० स० १. दे० 'लेवरना'। २. दे० 'लेवरना'।

लेवाल
संज्ञा पुं० [हिं० लेना + वाल (प्रत्य०)] लेने या खरीदनेवाला।

लेवी
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. एक प्रकार का दरबार जो विलायत में राजा लोग और हिंदुस्तान में वायसराय करते थे। २. उद्देश्य- विशेष से खड़ी की हुई पल्टन। जैसे,—मकरान लेवी कोर। विशेष दे० 'मिलिशा'।

लेश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अणु। २. छुटाई। सूक्षमता। ३. चिह्न। निशान। उ०—राम सच्चिदानंद दिनेसा। नहिं तहँ मोहनिसा लवलेसा।—तुलसी (शब्द०)। ४. संसर्ग। लगाव। संबंध। उ०—जो कोई कोष भरै मुख बैना। सनमुख हतै गिरा सर पैना। तुलसी तऊ लेस रिस नाहीं। सो सीतल कहिए जग माहीं।—तुलसी (शब्द०)। ५. एक अलंकार, जिसमें किसी वस्तु के वर्णन के केवल एक ही भाग या अंश में रोचकता आती है। ६. एक प्रकार का गाना। ७. समय का एक मान जो दो 'कला' (कुछ के मत से १२ कला) के बराबर होता है (को०)।

लेश (२)
वि० अल्प थोड़ा।

लेशिक
संज्ञा पुं० [सं०] घास काटनेवाला। घसियारा [को०]।

लेशी
वि० [सं० लेशिन्] सक्षम अंश से युक्त। लवलेशवाला [को०]।

लेशोक्त
वि० [सं०] इंगित मात्र। संकेतित। इशारे में या दबी जबान से सुझाया हुआ। संक्षेप में कहा गया [को०]।

लेश्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रकाश [को०]।

लेश्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जैनियों के अनुसार जीव की वह अवस्था जिसके कारण कर्म जीव को बाँधता है। यह छह प्रकार की मानी गई है—कृष्ण, नील, कपोत, पीत, पद्म और शुक्ल। विशेष—इसे जैन लोग जीव का पर्याय भी मानते हैं। २. प्रकाश (को०)।

लेष पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लेश] दे० 'लेश'।

लेष पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० लेख] दे० 'लेख'।

लेषना पु (१)
क्रि० स० [हिं० लखना] दे० 'लखना'। उ०—दुख सुख अरु अपमान बड़ाई। सब सम लेषहिं बिपति बिहाई।—तुलसी (शब्द०)।

लेषना पु (२)
क्रि० स० [सं० लेखन] दे० 'लिखना'। उ०—सीय स्वयंबरु माई दोऊ भाई आए देषन। सुनत चली प्रमदा प्रमुदित मन, प्रेम पुलकि तन मनहुँ मदन मंजुल मेषन। निरषि मनोहरताई सुपुमाई कहैं एक एक सों भूरि भाग हम धन्य आली ए दिन एषन। तुलसी सहज सनेह सुरंग सब, सो समाज चित चित्रसार लागी लेषन।—तुलसी (शब्द०)।

लेषनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लेखनी] दे० 'लेखनी'।

लेषे पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'लेखे'।

लेष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] मिट्टी का ढोका [को०]। यौ०—लेष्टभेदन = मिट्टी के ढोंके तोड़ने का औजार।

लेस † (१)
वि० [सं० लेश] दे० 'लेश'। उ०—(क) लरिका और पढ़त शाला में, तिनहिं करत उपदेश। हरि को भजन करो सबही मिलि और जगत सब लेस।—सूर (शब्द०)। (ख) राजा देन कहि दीन वन, माहिं न सो दुख लेस। तुम्ह बिन भरतहि भूषतिहि प्रजहि प्रचंड कलेस।—तुलसी (शब्द०)।

लेस (२)
संज्ञा स्त्री० [अं०] १. कलाबत्तू या किनारे पर टाँकने की इसी प्रकार की और कोई पटरी। गाटा। २. बेल। यौ०—लेसदार = (१) बेलदार। जिसपर बेल लगी हो। (२) गटिदार। जिसपर गोट टँकी हों।

लेश (३)
संज्ञा पुं० [हिं० लासा] १. मिट्टी का गिलावा जो दीवार पर लगाने के लिये बनाया जाता है। २. किसी वस्तु को पानी में घोलकर गाढ़ा किया हुआ। गिलावा। चेप। लस। यौ०—लेसदार = लसीला। चिपचिपा।

लेसक
संज्ञा पुं० [सं०] गजारोही। हाथी का सवार [को०]।

लेसना (१)
क्रि० स० [सं० लेश्या (= प्रकाश)] जलाना। उ०— एहि बिधि लेसइ दीप तेजरासि विज्ञानमय। जातहि जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—देना।

लेसना (२)
क्रि० स० [हिं० लेस या लस] १. किसी चीज पर लेस लगाना। पोतना। २. घर की दीवार पर मिट्टी का गिलावा पोतना। कहगिल करना। ३. चिपकाना। सटाना। ४. इधर की बात उधर लगाना। चुगली खाना। ५. दो आदमियों में विवाद उत्पन्न करने के लिये उन्हें उत्तेजित करना।

लेसिक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लेसक' [को०]।

लेसे †
संज्ञा पुं० [देश०] छह ढोली पान का एक गट्ठा।

लेह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'अवलेह'। २. लेहन करनेवाला (को०)। ३. खाना। आहार। भोजन (को०)। ४. ग्रहण का एक भेद जिसमें पृथ्वी की छाया (या राहु) सूर्य या चंद्रबिंब को जीभ के समान चाटता हुआ जान पड़ता है।

लेह (२)
संज्ञा पुं० [देश०] लोध नामक वृक्ष। विशेष दे० 'लोध'।

लेहन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० लेहक, लेह्य] चाटना। उ०—जहँ जहँ भीर परत भक्तन को तहँ तहँ होत सहाय। अस्तुति करि मन हरष बढ़ायो लेहन जोभ कराय।—सूर (शब्द०)।

लेहना † (१)
संज्ञा पुं० [सं० लेह (= आहार)] पशुओं का चारा।

लेहना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लहना] १. खेत में कटे हुए शस्य या फसिल की वह डाँठ जो काटनेवाले मजदूरों को काटने की मदूजरी में दी जाती है। २. कटी हुई फसिल का वह बाल सहित डंठल जो नाई, धोबी आदि को दिया जाता है। ३. डंठल या बयाल आदि की वह मात्रा जो उठानेवाले के दोनो हाथों के बीच में आ सके। ४. दे० 'लहना'।

लेहसुआ
संज्ञा पुं० [हिं० लेस] एक प्रकार की घास। कनकौवा। विशेष—इसकी पत्तियाँ चार अंगुल लंबी, तीन अंगुल चौड़ी, ऊपर को नुकीली और धारीदार होती हैं। यह घास बरसात में उप्तन्न होती है और बहुत कोमल तथा लसीली होती है। इसका साग भी बनाया जाता है और इसे पशु भी खाते हैं। इसके फूल नीले रंग के और छोटे छोटे होते हैं। इसकी पत्तियाँ बेसन में लपेटकर तेल आदि में तलने से रोटी की भाँति फूल जाती है।

लेहसुर
संज्ञा पुं० [देश०] कुम्हारों का एक औजार जिससे वे मिट्टी को मिलाते हैं। पाँसू।

लेहाजा
क्रि० वि० [अ० लिहाज़ा] इसलिये। इस वास्ते। इस कारण।

लेहाड़ा †
वि० [देश०] दे० 'लिहाड़ा'।

लेहाड़ापन
संज्ञा पुं० [देश०] दे० 'लिहाड़ापन'।

लेहाड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लिहाड़ी] अप्रतिष्ठा। अपमान। (दलाल)। क्रि० प्र०—करना।—लेना।—होना।

लेहाफ
संज्ञा पुं० [अ० लिहाफ़] दे० 'लिहाफ'।

लेहिन
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा [को०]।

लेही (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कान के अग्रभाग में या ऊपर होनेवाला एक रोग [को०]।

लेही (२)
वि० [सं० लेहिन्] आस्वादन करनेवाला। बाटनेवाला [को०]।

लह्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पदार्थ जो चाटने के लिये हो। वह जो चाटा जाय। यह भोजन के छह प्रकारों में से एक है। चटनी। उ०—विविध भाँति के रुचिर अचारा। लेह्य चोष्य वर पेय प्रकारा।—रघुराज (शब्द०)। २. अवलेह।

लेह्य (२)
वि० चाटने के योग्य। जो चाटा जाय।

लैंग (१)
वि० [सं० लैङ्ग] व्याकरण में लिंग से संबंधित [को०]।

लैंग (२)
संज्ञा पुं० अठारह पुराणों में एक पुराण।

लैंगधूम
संज्ञा पुं० [सं० लैङगधूम] अज्ञ पुरोहित। मूर्ख पुरो- हित [को०]।

लैंगिक
संज्ञा पुं० [सं० लैङगिक] १. वैशेषिक दर्शन के अनुसार अनुमान प्रमाण। वह ज्ञान जो लिंग द्वारा प्राप्त हो। विशेष—इसका स्पष्ट लक्षण सूत्र में न कहकर इसे उदाहरण द्वारा इस प्रकार लक्षित किया गया है कि यह इसका कार्य है, यह इसका कारण है, यह इसका संयोगी है, यह इसका विरोधी है, यह इसका समवाची है, आदि; इस प्रकारका ज्ञान लैंगिक ज्ञान कहलाता है। इसी को न्याय में अनुमान कहते हैं। २. मूर्तिकार। शिल्पी। भास्कर। कारीगर (को०)।

लैंगिक (२)
वि० [वि० स्त्री० लैंगिकी] १. चिह्नों या लक्षणों पर आधारित। अनुमित (को०)। २. लिंग संबंधी। जननेंद्रिय संबंधी। ३. मूर्तिकार (को०)।

लैंगी
संज्ञा स्त्री० [सं० लैङ्गी] लिंगिनी नाम की बूटी [को०]।

लैंगोदुभव
संज्ञा पुं० [सं० लैङ्गोदुभव] लिंग की उत्पत्ति का कया या आख्यान [को०]।

लैंडो
संज्ञा स्त्री० [अं०] एक प्रकार की घोड़ागाड़ी। विशेष—इस घोड़ागाडी में ऊपर की ओर टप होता है। यह टप बीच में से इस प्रकार खुलता है कि पिछला, अंश पीछे की ओर और अगला आगे की ओर सिकुड़कर दब और नीचे बैठ जाता है। इससे आमने सामने दोनों ओर बैठने की चौकियाँ होती हैं।

लैंप
संज्ञा पुं० [अं०] दीपक। चिराग।

लैंसर
संज्ञा पुं० [अं०] रिसाले के सवारों के तीन भेदों में से एक जो भाला लिए रहते हैं और जिनके घोड़े भारी होते हैं।

लै पु
अव्य [हिं० लगना] तक। पर्यंत।

लैकुची
संज्ञा पुं० [सं०] विशेष प्रकार के रेशों, तत्तुओं या सूत्रों से निर्मित एक परिधान [को०]।

लैटिन
संज्ञा स्त्री० एक भाषा जो पूर्व काल में इटली देश में बोली जाती थी। विशेष—किसी समय में सारे यूरोप में यह विद्वानों और पादरियों की भाषा थी। इस भाषा का साहित्य बहुत उन्नत था; और इसीलिये अब भी कुछ लोग इसका अध्ययन करते हैं।

लैतोलाल
संज्ञा पुं० [अ०] हीला हवाला। टाल मटूल [को०]।

लैन
संज्ञा स्त्री० [अं० लाइन] १. सीधी लकीर जिसमें लंबाई मात्र हो। २. सीमा की लकीर। ३. कतार। पंक्ति। ४. पैदल सिपाहियों की सेना। यौ०—लैनडोरी = पेशखेमा। ५. सिपाहियों के रहने की जगह। वारक।

लैया †
संज्ञा पुं० [हिं० लपना ?] वह धान जो अगहन में कटता हैं। जड़हन। शाली। लवक।

लैरू
संज्ञा पुं० [सं० लेह] दे० 'लेरुवा'। उ०—उद्विग्ना और विपुल विकला क्यों न सो धेनु होगी। प्यारा लैरू अलग जिसकी आँख से हो गया है।—प्रिय०, पृ० १३१।

लैल
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] रात्रि। निशा। यामिनी।

लैला
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. 'कैस' की प्रेमिका, जिसके प्रेम में वह पागल हो गया था। अतः सब उसे 'मजनू', 'मज्नूँन' (पागल) कहने लगे थे। 'लैलामजनूँ' की प्रेमकथा की नायिका। यौ०—लैला मजनूँ = (१) लैला और मजनूँ का प्रेमाख्यान। इस नाम की प्रेमकथा। (२) प्रेमी प्रेमिका। २. प्रिया। प्रेयसी। ३. सुंदरी। श्यामा (को०)।

लैली
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'लैला'।

लैवेंडर
संज्ञा पुं० [अं०] एक सुगंधित तरल पदार्थ जो एक पौधे के फूलों से निकाला जाता है और जो इतर की भाँति कपड़ों में, या ठंढक पहुँचाने के लिये सिर में लगाया जाता है।

लैसंस
संज्ञा पुं० [अं० लाइसेंस] वह प्रमाणपत्र जिसके द्वारा किसी मनुष्य को विशेष अधिकार प्रदान किया जाता है। सनद। अधिकारपत्र। जैसे,—अफीम बेचने का लैसंस, एक्का या गाड़ी हाँकने का लैसंस, बंदूक रखने का लैंसस।

लैस (१)
वि० [अं० लेस] वर्दी और हथियारों से सजा हुआ। कटिवद्ध। तैयार। क्रि० प्र०—होना।

लैस (२)
संज्ञा पुं० कपड़े पर चढ़ाने का फीता।

लैस पु (३)
संज्ञा पुं० एक प्रकार का बाण जिसकी नोक लंबी और बड़ी होती है। उ०—किहूँ लैस कत्ती धरत्ती घुमाई। किहूँ सैल की रेल हत्थों चलाई।—सूदन (शब्द०)।

लैस (४)
संज्ञा पुं० [हिं० लेस] १. एक प्रकार का सिरका। २. कमानी।

लैस (५)
संज्ञा पुं० [अ०] शेर। सिंह।

लोँ
अव्य० [हिं० लग] दे० 'लौं'।

लोँडी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लेला] कान का लोलक।

लोँदा
संज्ञा पुं० [सं० लुणठन] किसी गोले पदार्थ का वह अंश जो ढेले की तरह बँधा हो। जैसे,—घी का लोंदा, दही का लोंदा, मिट्टी का लोंदा।

लो
अव्य० [हिं० लेना] एक अव्यय जिसका प्रयोग श्रोता को संबोधन करके उसका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने एवं आश्चर्य व्यक्त करने में किया जाता है। जैसे,—(क) लो ! खाली बैठे देख तुम्हें कैसी पत्र लिखाने की सूझी। (ख) लो ! चलो मैं जाता हूँ। (ग) लो ! देखते जाओ, यह क्या कर रहा है। (घ) लो ! क्या से क्या हो गया।

लोअर
वि० [अं०] नीचे का। निम्न [को०]।

लोअर कोर्ट
संज्ञा पुं० [अं०] नीचे की अदालत। निम्न विचारा- लय। मातहत अदालत।

लोइ पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लोक, प्रा० लोओ या लोयो] लोग। उ०—(क) देवि बिनु करतूति कहिबो जानिहै लघु लोइ। कहौं जो मुख की समर सरि कालि कारिख धोइ।—तुलसी (शब्द०)।

लोइ (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० रोचि, प्रा० लोई] १. प्रभा। सौंदर्य। दीप्ति। उ०—(क) इनमें होइ दरसात है हर मूरत की लोइ। या तैं लोइन कहत हैं इनसौं मिलि सब कोइ।—रसनिधि (शब्द०)। (ख) कैसे ऐसे रूप की नर तें उतपति होइ। भूतल से निकसति कहीं बिच्चु छटा का लोइ।—लक्षमण (शब्द०)। २. लव। शिखा। उ०—ईंधन के टारे बिना बढ़ति न पावक लोइ। फन न उरावत नागहू जो छेड्यो नहिं होइ।—लक्षमण (शब्द०)।

लोइन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लावण्य] लावण्य। नमक। सौंदर्य। नमकीनी। उ०—लीने हू सहस, कीने जतन हजार।लोइन लोइन सिंधु तन, पैरि न पावत पार।—लल्लूलाल (शब्द०)।

लोइन (२)
संज्ञा पुं० [सं० लोचन, प्रा० लोयण, लोइण] दे० 'लोयन'। उ०—इनमें ह्वै दरसात है हर मूरत की लोइ। या तैं लोइन कहत हैं इन सौं मिल सब कोइ।—स० सप्तक, पृ० १९३।

लोई (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लोप्ती = प्रा० लोबी] गुँधे हुए आटे का उतना अंश जो एक रोटी मात्र के लिये निकालकर गोली के आकार का बनाया जाता है और जिसे बेलकर रोटी बनाते हैं। उ०— भाजी भावती है महा मोदक मही की शोभा पूरी रची है कर लोनाई बिधि लोई में।—रघुनाथ (शब्द०)।

लोई (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लोमीय (= लोई)] एक प्रकार का कंबल जो पतले ऊन से बुना जाता है और कंबल से कुछ अधिक लंबा और चौड़ा होता है। इसकी बुनावट प्रायः दुसुत्ती की सी होती है। उ०—सीतलपाटी टाट, लोई कम्बल ऊन के। बची न एकौ हाट, खेस निवारहि आदिहै।—सूदन (शब्द०)।

लोई (३)
संज्ञा पुं० [सं० लोक] लोग। दे० 'लोई'। उ०—(क), नागर नवल कुँआर वर सुंदर मारग जात लेत मन गोई।—सूर (शब्द)। (ख) सूरश्याम मनहरण मनोहर गोकुल बसि मोहे सब लोई।—सूर (शब्द०)। (ग) बल बसदेव कुशल सबू लोई। अर्जुन यह सुन दीने रोई।—सूर (शब्द०)।

लोकंजन पु
संज्ञा पुं० [सं० लोपञ्जन या हिं० लुकना + अंजन] वह कल्पित अंजन जिसे आँख में लगाने से मनुष्य का अदृश्य होना माना जाता है। लोपांजन। उ०—जो कहिए बिधना ही रची सिख तें धर क्यों पग की सँग लीन्हो। जो कहिए कि विरंचि रची है तौ देखी न जाति किती दृग दीन्हो। कीन्हे बिचार न आवै भनै नृप संभु भनै तब मो मति चीन्हो। जो चितचोर को चित चुरावत राधे के लंक लोकंजन कीन्हो।—शंभु (शब्द०)।

लोकंदा †
संज्ञा पुं० [हिं० लोकना ?] [स्त्री० लोकंदी] विवाह में कन्या के डोले के साथ दासी को भेजना। उ०—छेरी बाघहि व्याह होत है मंगल गावे गाई। बन के रोझ धौ दायज दीन्हों गोह लोकंदे जाई।—कबीर (शब्द०)। क्रि० प्र०—जाना।—भेजना।

लोकंदी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोकना ?] वह दासी जो कन्या के पहले पहल ससुराल जाते समय उसके साथ भेजी जाती हैं।

लोकल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्थानविशेष जिसका बोध प्राणी को हो। विशेष—उपनिषदों में दो लोक माने गए हैं—इहलोक और परलोक। निरुक्त में तीन लोकों का उल्लेख मिलता है— पृथ्वी, अंतरिक्ष और द्युलोक। इनका दूसरा नाम 'भू?', 'भुव?' और 'स्व?' है। ये महाव्याहृति कहलाते हैं। इन तीन महाव्याहृतियों की भाँति चार और 'मह?', 'जन?', 'तप?' और 'सत्यम्' शब्द हैं, जो तीनों महाव्याहृतियों के साथ मिलकर सप्तव्याहृति कहलाते हैं। इन सातो महाव्याहृतियों के नाम से पौराणिक काल में सात लोकों की कल्पना हुई, जिनके नाम इस प्रकार हैं—भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक और सत्यलोक। फिर पिछे इनके साथ सात पाताल—जिनके नाम अतल, नितल, वितल, गभस्तिमान, तल, सुतल और पाताल हैं—और सब मिलाकर चौदह लोक किए गए। पुराणों में पातालों के नाम में मतभेद है। पद्मपुराण में इनके नाम अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल, और पाताल बतलाए गए हैं। अग्निपुराण में अतल, सुतल, वितल, गभस्तिमान्, महातल, रसातल और पाताल; तथा विष्णुपुराण में अतल, वितल, नितल, गभस्तिस्मान्, महातल, सुतल और पाताल इनके नाम लिखे गए हैं। इस प्रकार चौदह लोक या भुवन माने गए हैं। सुश्रुत में लोक दो प्रकार का माना गया है—स्थावर और जंगम। २. संसार। जगत्। ३. स्थान। निवासस्थान। जैसे,—ब्रह्म लोक, विष्णु लोक इत्यादि। ४. प्रदेश। विषय। दिशा। जैसे,— लोकपाल, लोकपति इत्यादि। ५. लोग। जन। उ०—माधव या लगि है जग जीजतु। जाते हरि सों प्रेम पुरातन बहुरि नयो करि कीजतु। कहँ रवि राहु भयो रिपुमति रचि विधि संजोग बनायो। उहि उपकारि आजु यह औसर हरि दर्शन सचु पायो। कहाँ बसहिं यदुनाथ सिंधु तट कहँ हम गोकुल बासी। वह वियोग यह मिलनि कहाँ अब काल चाल औरासी। सूरदास मुनि चरण चरचि करि सुर लोकनि रुचि मानी। तब अरु अब यह दुसह प्रमानी निभिषो पीरि न जानी। सूर (शब्द०)। ६. समाज। मानव जाति। उ०—(क) सब से परम मनोहर गोपी। नँद नंदन के नेह मेह जिन लोग लीक लोपी।—सूर (शब्द०)। (ख) सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहु बेद न आन उपाऊ।—तुलसी (शब्द०)। ७.प्राणी। उ०—उगेहु अरुन अवलोकहु ताता। पंकज लोक कोक सुखदाता।—तुलसी (शब्द०)। ८. यश। कीर्ति। उ०—लोक में लोक बड़ो अपलोक सुकेशव दास जो होऊ सो होऊ।—केशव (शब्द०)। ९. दृश्य या देखने योग्य वस्तु [को०]। १०. प्रकाश (को०)। ११. ७ या १४ की संख्या। १२. अपना या निज का स्वरूप (को०)। १३. फज (को०)। १४. भोग्य वस्तु (को०)। १५. चक्षुरिद्रिय। देखने की इंद्रिय। नेत्र (को०)।

लोकल (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार का पक्षी जो बत्तख से बड़ा और खाकी रंग का होता है।

लोककंटक
संज्ञा पुं० [सं० लोककण्टक] वह जो समाज का कंटक, विरोधी या हानिकर हो। लोगों को कष्ट या हानी पहुँचानेवाला। दुष्ट प्राणी।

लोककथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] परंपरा से जनसामान्य में प्रचलित कथाएँ [को०]।

लोककता
संज्ञा पुं० [सं० लोककर्तृ] १. विश्व का निर्माता। ब्रह्मा। २. विष्णु। ३. शिव [को०]।

लोककल्प (१)
वि० [सं०] १. विश्व के अनुरूप। संसार से मिलता जुलता। २. विश्व के द्वारा मानित [को०]।

लोककल्प (२)
संज्ञा पुं० [सं०] विश्व की अवधि। विश्व की आयु [को०]।

लोककांत
वि० [सं० लोककान्त] सर्वजनप्रिय। सबका प्रिय जिसे सब चाहते हों [को०]।

लोकफात (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लोककान्ता] औषध के काम आनेवाला ऋद्वि नामक एक पौधा [को०]।

लोककार
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]।

लोककारण कारण
संज्ञा पुं० [सं०] शिव का एक नाम [को०]।

लोकक्षिति
वि० [सं० लोकक्षित्] स्वर्ग लोक का निवासी।

लोकगति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनुष्यों के क्रियाकलाप [को०]।

लोकगाथा
संज्ञा स्त्री० [सं०] परंपरा से जनसमाज में चले आते हुए गीत। लोकगीत जो जनभाषा (बोलचाल की भाषा) में निवद्ध हों [को०]।

लोकचक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

लोकचारित्र
संज्ञा पुं० [सं०] संसार की चलन। लोक का चरित्र वा आचार आदि। लोकाचार [को०]।

लोकजननी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लक्षमी। लोकमाता।

लोकजित्
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुद्ध। २. एक संत का नाम (को०)। वह जिसने संसार को जीत लिया हो।

लोकज्येष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध।

लोकटी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] लोमड़ी।

लोकतंत्र
संज्ञा पुं० [सं० लोक + तन्त्र] १. संसार का मार्ग या चलन। २. जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा चलाया जानेवाला शासन।

लोकतुषार
संज्ञा पुं० [सं०] कपूर।

लोकत्रय
संज्ञा पुं० [सं०] तीनों लोकों की समष्टि। त्रिलोक [को०]।

लोकदंभक
वि० [सं० लोकदम्भक] संसार को या सबको धोखा देनेवाला [को०]।

लोकद्वार
संज्ञा पु० [सं०] स्वर्ग का द्वार [को०]।

लोकधर्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. सांसारिक विषय। २. बौद्ध मता- नुसार संसार की अवस्था [को०]।

लोकधाता
संज्ञा पुं० [सं० लोकधातृ] शिव [को०]।

लोकधातु
संज्ञा पुं० [सं०] जंवुद्वीप का एक नाम [को०]।

लोकधारिणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] पृथ्वी।

लोकधुनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० लोकध्वनि] जनरव। अफवाह। उ०— चरचा चरनि सो चरची जानी मन रघुराइ। दूत मुख सुनि लोकधुनि घर घरनि बूझी जाइ।—तुलसी (शब्द०)।

लोकन
संज्ञा पुं० [सं०] अवलोकन। देखना [को०]।

लोकना
क्रि० स० [सं० लोपन] १. ऊपर से गिरती हुई किसी वस्तु की भूमि पर गिरने से पहले दो हाथों से पकड़ लेना। २. बीच में से ही उड़ा लेना। उ०—जाते जेर सब लोक बिलोकि बिलोचन सो बिप लोक लियो है।—तुलसी (शब्द०)। क्रि० प्र०—लेना।

लोकनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. लोकपाल। ३. बुद्ध।

लोकनी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] दे० 'लोकंदी'।

लोकनीय
वि० [सं०] देखने योग्य। अवलोकनीय [को०]।

लोकनेता
संज्ञा पुं० [सं० लोकनेतृ] शिव [को०]।

लोकप, लोकपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्मा। २. दिक्पाल। नरेश। लोकपाल। ३. राजा।

लोकपक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मानव का आदरभाव। सहज संमान [को०]।

लोकपथ
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वसंमत मार्ग। समाज द्वारा मान्य सामान्य चलन [को०]।

लोकपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लोकपथ' [को०]।

लोकपरोक्ष
वि० [सं०] संसार से परे वा छिपा हुआ। गुप्त [को०]।

लोकपाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिक्पाल। विशेष—पुराणानुसार आठ दिशाओं के अलग अलग लोकपाल हैं। यथा—इंद्र पूर्व दिशा का; अग्नि दक्षिणपूर्व का; यम दक्षिण का; सूर्य दक्षिणपश्चिम का; कुबेर उत्तर का और सोम उत्तर- पूर्व का। किसी किसी ग्रंथ में सूर्य और सोम के स्थान पर निऋति और ईशानी या पृथ्वी के नाम मिलते हैं। २. अवलोकितेश्वर बोधिसत्व का एक नाम। ३. नरेश। राजा। नृपति। उ०—दिगपालन की भुवपालन की लोकपालन की किन मातु गई च्वै।—केशव (शब्द०)।

लोकपितामह
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मा।

लोकप्रकाशन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।

लोकप्रत्यय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो संसार में सर्वत्र मिलता हो।

लोकप्रदीप
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्ध।

लोकप्रवाद
संज्ञा पुं० [सं०] जिसे संसार के सभी लोग कहते और समझते हों। साधारण बात।

लोकप्रसिद्ध
वि० [सं०] सब पर प्रकट। लोगों में ख्यात। सर्व- विदित। उजागर [को०]।

लोकबंधु
संज्ञा पुं० [सं० लोकबन्धु] १. शिव। २. सूर्य।

लोकबांधव
संज्ञा पुं० [सं० लोकबान्धव] दे० 'लोकबंधु' [को०]।

लोकबाह्य
वि० [सं०] १. समाज से बहिष्कृत। जातिच्युत। अजाती। २. संसार से विपरीत मत रखनेवाला। सनकी [को०]।

लोकभर्ता
वि० [सं० लोकभर्तृ] जगत् का पालक। संसार का पालन पोषण करनेवाला [को०]।

लोकभावन
वि० [सं०] संसार का कल्याण करनेवाला [को०]।

लोकमर्यादा
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रचलित या समाज द्वारा स्वीकृत रीति रिवाज या प्रथा [को०]।

लोकमाता
संज्ञा स्त्री० [सं० लोकमातृ] १. गौरी। पार्वती। २. रमा। लक्ष्मी [को०]।

लोकमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] सर्वस्वीकृत प्रथा [को०]।

लोकयज्ञ
संज्ञा पुं० [सं०] जनता के समर्थन की इच्छा। लौकैपणा [को०]।

लोकयात्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्यवहार। २. व्यापार। ३. क्रम। सांसारिक अस्तित्व (को०)। ४. जीवनयापन का साधन। योगक्षेम (को०)।

लोकरंजन
संज्ञा पुं० [सं० लोकरञ्जन] लोकप्रियता। सबको प्रसन्न रखना [को०]।

लोकरक्षक
संज्ञा पुं० [सं० लोकरक्षक] राजा। शासक [को०]।

लोकरव
संज्ञा पुं० [सं०] अफवाह। प्रवाद।

लोकरा †
संज्ञा पुं० [देश०] चीथड़ा।

लोकरावण
वि० [सं०] जनता या प्रजा का उत्पीड़क [को०]।

लोकल
वि० [अं०] १. प्रांतिक। प्रादेशिक। २. किसी एक ही स्थान जिले, नगर या प्रदेश आदि से संबंध रखनेवाला। स्थानीय। प्रादेशिक। यौ०—लोकल बोर्ड। लोकल गवर्नमेंट।

लोकल बोर्ड
संज्ञा पुं० [अं०] वह स्थानीय समिति जिसके सभ्यों का चुनाव किसी स्थान के कर देनेवाले करते हों और जिसके अधिकार में उस स्थान की सफाई आदि की व्यवस्था हो।

लोकलीक पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोक + लीक] लोकमर्यादा। उ०— सरस असम सर सरसिज लोचनि बिलोकि लोकलीक लाज लोपिबे को आगरी।—केशव (शब्द०)।

लोकलेख
संज्ञा पुं० [सं०] १. सार्वजनिक अभिलेख या दस्तावेज। २. सामान्य पत्र [को०]।

लोकलोचन
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।

लोकवचन
संज्ञा पुं० [सं०] जनश्रुति। अफवाह [को०]।

लोकवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] विश्व के पोषण का आधार या साधन [को०]।

लोकवाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. जनश्रृति। अफवाह। २. सर्वसाधारण की चर्चा का विषय। सवंविदित विवरण [को०]।

लोकवार्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लोकवाद' [को०]।

लोकविद्विष्ट
वि० [सं०] सबका अप्रिय। जिससे सारा संसार घृणा करता हो [को०]।

लोकविधि
संज्ञा पुं० [सं०] १.समाजसंमत मार्ग। प्रशस्त पथ। २. विश्व का स्त्रष्टा। ब्रह्मा [को०]।

लोकविनायक
संज्ञा पुं० [सं०] लोगों का अधिपति देवतावर्ग [को०]।

लोकविभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोकव्यवहार' [को०]।

लोकविरुद्ध
वि० [सं०] जो लोकाचार के विपरीत हो [को०]।

लोकविश्रुत
वि० [सं०] संसार भर में प्रसिद्ध। जगद्विख्यात।

लोकविसर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रलय। विश्व की समाप्ति। २. विश्व का उद्भव। संसार की उत्पत्ति [को०]।

लोकवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] लोकव्यापार। लोक में प्रचलित प्रथा [को०]।

लोकवृत्तांत
संज्ञा पुं० [सं० लोकवृत्तान्त] १. संसार का तौर तरीका। लोकाचार। प्रचलन। २.घटनाक्रम [को०]।

लोकव्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोकवृत्तांत' [को०]।

लोकव्रत
संज्ञा पुं० [सं०] संसार का सामान्य व्यापार [को०]।

लोकश्रुति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जनश्रुति। अफवाह। २. लोक- प्रसिद्धि [को०]।

लोकसंकरता
संज्ञा स्त्री० [सं० लोकसङ्गकरता] समाज में संकरता या मिश्रण। संसार म घालमेल या अस्तव्यस्तता [को०]।

लोकसंग्रह
संज्ञा पुं० [सं० लोकसङ्ग्रह] १. संसार के लोगों को प्रसन्न करना। २. संसार का कल्याण या सबकी भलाई चाहना।

लोकसंग्रही
वि० [सं० लोकसङ्ग्रहिन्] लोककल्याण की कामना करनेवाला।

लोकसंपन्न
वि० [सं० लोकसम्पन्न] लौकिक ज्ञान से युक्त [को०]।

लोकसंवाध
संज्ञा पुं० [सं० लोकसम्बाध] मनुष्यों का आवगमन। भीड़बाड़ [को०]।

लोकसंसृति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बाग्य। विधियोग। २. संसार- मार्ग [को०]।

लोकसाक्षिक
वि० [सं०] १. संसार को साक्षी माननेवाला। संसार के समस्त। अगोपनीय। २. साक्षी द्धारा प्रमाणित [को०]।

लोकसाक्षी
संज्ञा पुं० [सं० लोकसाक्षिन्] १. ब्राह्मण। २. अग्नि [को०]।

लोकसाधक
वि०[सं०] लोकों का बनानेवाला [को०]।

लोकसाधारण
वि० [सं०] सर्वसामान्य (विषय) [को०]।

लोकसारंग
संज्ञा पुं० [सं० लोकसारङ्ग] विष्णु का एक नाम [को०]।

लोकसिद्ध
वि० [सं०] १. लोकप्रचलित। सामान्य। प्रथानुसारी। २. सामान्यतः स्वीकृत [को०]।

लाकसीमातिवर्ती
वि० [सं० लोकसीमातिवर्तिन्] असाधारण। असामान्य। लोकोत्तर [को०]।

लोकसुंदर (१)
वि० [सं० लोकसुंन्दर] सर्वानुमोदित। लोकप्रशंसित।

लोकसुंदर (२)
संज्ञा पुं० बुद्ध का एक नाम [को०]।

लोकसेवक
संज्ञा पुं० [सं० लोक+ सेवक] समाज या लोक की सेवा करनेवाला। जनता का सेनक।

लोकस्थल
संज्ञा पुं० [सं०] सामान्य घटना [को०]।

लोकस्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्रह्मांड का नियमन या अवस्थिति। २.लोकसंमत विधिन विधान [को०]।

लोकहाँदी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोक+ हल्दी] एक प्रकार की हल्दी।

लोकहार
वि० [सं० लोक+ हरण] लोक को हरण करनेवाला। संसार को नष्ट करनेवाला। उ०—वियोग सीय कौ न, काल लोकहार जानिए।—केशव (शब्द०)।

लोकहास्य
वि० [सं०] जगहँसाई का पात्र [को०]।

लोकहित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सबकी भलाई। सार्वजनिक कुशल [को०]।

लोकहित (२)
वि० [सं०] सर्वजनहितकारी। सर्बोपकारक [को०]।

लोकांतर
संज्ञा पुं०[सं० लोकान्तर] वह लोक जहाँ मरने पर जीव जाताहै। अन्य लोक। यौ०—लोकांतरगमन=अन्य लोक में गमन। स्वर्गवास।

लोकांतरिक
वि० [सं० लोकान्तरिक] जो लोकों के मध्य स्थित हो।

लोकांतरित
वि० [सं० लाकांतरित] १. जो इस लोक से दुसरे लोक में चला गया हो। २. मरा हुआ। मृत। स्वर्गीय।

लोकाकाश
संज्ञा पुं०[सं०] विश्व जिसमें सब प्रकार के जीव और तत्व रहते हैं। (जैन)।

लोकाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] आकाशदिक्। दिशा। शून्य [को०]।

लोकाचार
संज्ञा पुं० [सं०] संसार में बरता जानेवाला व्यवहार। लोकव्यवहार।

लोकाट
संज्ञा पुं० [चीनी लुः+ क्यु] एक पौधा जिसका फल खाया जाता है। लकुच। लुकाट। विशेष—इस पौधै की पत्तियों लंबी और नुकाली, तेंदु की पत्तिया के आकार की, पर उससे कुछ बड़ी होती है। इसका पेड़ बीस पचीस हाथ से अधिक ऊँचा नहीं होता। इसके पेड़ में फागुन चैत की महीने में मंजरियाँ लसगती हैं और बड़े बेर के बराबर फल लगते हैं, जो पकने पर पीले होते हैं और खाने में प्रायः मीठे, गुदार और स्वादिष्ट होते हैं। सहारनपुर में लोकाट बहुित अच्छा और मीठा उत्पन्न होता है।यह फल चीन औऱ जापान देश का है औऱ वहीं से भारतवर्ष में आया है।

लोकातिग
वि० [सं०] असाधारण। लोकोत्तर [को०]।

लोकातिशय
वि० [सं०] लोकोत्कृष्ट। असामान्य [को०]।

लोकात्मा
संज्ञा पुं० [सं० लोकात्मन्] विश्व का आत्मा [को०]।

लोकादि
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्व का आरंभ। २ ० विश्व का स्रष्टा। विधाता [को०]।

लोकाधिक
वि० [सं०] दे० 'लोकातिग' [को०]।

लोकाधिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोकपाल। २. बुद्ध। ३. राजा (को०)।

लोकाना †
क्रि० स० [हिं० लोकना का प्रेर०, रुप] अधर में फेंकना। उछालना।

लोकानुग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] लोक या जगत् का कल्याण। लोक- संपन्नता [को०]।

लोकानुभावी
वि० [सं० लोकानुभाविन्] १. विश्व को पराभुत करनेवाला। विश्वव्यापी। जैसे, प्रकाश [को०]।

लोकानुराग
संज्ञा पुं० [सं०] मानवप्रेम। विश्वप्रेम। उदारता। दानशीलता [को०]।

लोकानुवृत्त
संज्ञा पुं० [सं०] लोकसेवा की भावना। लोकसेवा- भाव [को०]।

लोकापवाद
संज्ञा पुं० [सं०] बदनामी। अपयश [को०]।

लोकाभिलाक्षित
वि० [सं०] सर्वप्रिय [को०]।

लोकाभ्युदय
संज्ञा पुं० [सं०] लोक का अभ्युदय। सबका कल्याण। सबका उदय [को०]।

लोकायत
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह मनुष्य जो इस लोक में अतिरिक्त दूसरे लोक को न मानता हो। २. चार्बाक दर्शन, जिसमें परलोक या परोक्षवाद का खंडन है। ३. किसी किसी के मत से टुर्मिल नामक छंद का एक नाम।

लोकायतिक
संज्ञा पुं० [सं०] नास्तिक। भौतिकवादी [को०]।

लोकायन
संज्ञा पुं० [सं०] नारायण का एक नाम [को०]।

लोकालोक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक पर्वत का नाम। चक्रवाल। विशेष—कहते हैं, यह सातो समु्द्रों और द्धीषों की चारों ओर से आवेष्ठित किए हुए हैं, जिसके बाहर सूर्य या चंद्र का प्रकाश नहीं पहुचता। बौद्ध ग्रंथों में इसे चक्रवाल कहा है।

लोकित
वि० [सं०] अवलोकन। देखा हुआ [को०]।

लोका
वि० [सं० लोकिन] १. लोक में रहनेवाला। २. लोक का अधिपति।

लोकेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. विश्व का स्वामी। ईश्वर। २. राजा। ३. ब्राह्मण। ४. पारा [को०]।

लोकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वुद्घ। २. भुवन और जनों का प्रभु। ३. दे० 'लोकपाल' [को०]।

लोकेशवरात्मजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वुद्ध की एक शक्ति का नाम [को०]।

लोकैपणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सांसारिक अभ्युदय की कामना। २. स्वर्ग के सुख की कामना।

लोकोक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कहावत। मसल। २. काव्य में वह अलंकार जिसमें किसी लोकोक्ति का प्रयोग करेक कुछ रोचकता या चमत्कार लाया जाय।

लोकोत्तर
वि० [सं०] जो इस लोक में होनेवाले पदार्थों आदि से श्रेष्ठ हो। बहुत ही अदभुत और विलक्षण। अलौकिक। जैसे,— (क) वहाँ एक योगी ने कई लोकोत्तर चमत्कार दिखलाए थे। (ख) यह कौन सी लोकोत्तर वस्तु है जिसके लिये तुम इतना अभिमान करते हो।

लोकोपकार
संज्ञा पुं० [सं०] संसार के उपकार का काम।

लोकोपकारक
वि० [सं०] लोक का उपकार करनेवाला।

लोखड़ी †
संज्ञा पुं० [हिं० लोहा + खड] १. नाई के औजार। जैसे,—छुरा, कंची नहरनी आदि। २. लोहारों या बढ़इया आदि के लाहे के औजार। ३. इन औजारों को रखने का वक्त या पेटी।

लोखरिया, लोखरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोखड़ी] दे० 'लोखड़ी'।

लोग
संज्ञा पुं० [सं० लोक] [स्त्री० लुगाई, लोगाई] जन। मनुष्य।आदमी। उ०—(क) देख रतन हीरामन रोवा। राजा जिव लोगन हठ कोवा।—जायसी (शब्द०)। (ख) अमृत वस्तु जानै नहीं, मगन भए कित लोग। कहहि कबीर कामो नहीं जीवहिं मरन न जोग।—कबीर (शब्द०)। (ग) जिन विथिन बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।—तुलसी (शब्द०)। विशेष—हिंदी में इस शब्द का प्रयोग सदा बहुवचन में और मनुष्यों के समूह के लिये ही होता है। जैसे,—लोग चले आ रहे हैं। यौ०—लोगबाग = जनसमाज। सर्वसाधारण जन।

लोगचिरकी
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक प्रकार का फूल।

लोगाई †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोग + आई (प्रत्य०)] स्त्री। औरत। उ०—(क) वृंद वृंद मिल चलीं लोगाई। सहज सिंगार किए उठि धाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) पुनि ज्वर दौ दौनी पुर लाई। जरन लगे पुर लोग लुगाई।—सूर (शब्द०)। विशेष—इस शब्द का शुद्घ रूप प्रायः 'लुगाइ' ही माना जाता है।

लोच (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लचक] १. लचलचाहट। लचक। २. कोमलता। उ०—चलौ चले छुटि जायगी हठ रावरे सँकोच। खरे चढ़ाए देत अब, आए लोचन लोच।—बिहारी (शब्द०)। ३. अच्छा ढंग।

लोच (२)
संज्ञा पुं० [सं० रुचि] अभिलाषा। उ०—मोको परयो सोच यज्ञ पूरण को लोच, हिये लिए वाको नाम जिनि गाम तजि जाइए।—प्रियादास (शब्द०)।

लोच (३)
संज्ञा पुं० [सं० लुञ्चन] जैन साधुओं का अपने सिर के बालों को उखाड़ना। लुंचन।

लोच (४)
संज्ञा पुं० [सं०] आँसु [को०]। यौ०—लोचमर्कट = दे० 'लोचमस्तक'।

लोचक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुर्खजन। २. आँख की पुतली। ३. काजल। ४. कान का एक गहना। ५. काला या नीला कपड़ा। ६. प्रत्यंचा। धनुष की डोरी। ७. माथे पर पहनने का एक गहना। बंदी। ८. मांस का लोथड़ा। ९. साँप की केंचुल। १०. झुर्रों पड़ी खाल। ११. तनी हुई भौहैं। १२. केले का वृक्ष [को०]।

लोचक (२)
वि० १. मुर्ख। अज्ञ। बुद्धिहीन। २. दुध का आहार करनेवाला। पयहारी।

लोचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. आँख। नेत्र। नयन। मुहा०—लोचन भर आना = आँखों में आँसु डबडबा आना। आँखें भर आना। उ०—यह सुनिकै हलधर तहँ धाए। देखि श्याम ऊखल सों बाँधे, तबही दोउ लोचन भरि आए।—सूर (शब्द०)। २. देखना अवलोकने या देखने की क्रिया (को०)।

लोचनगोचर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] दृष्टि में आनेवाला दायरा। दृष्टिपथ।

लोचनगोचर (२)
वि० आँखों द्धारा देखने योग्य। उ०—मम लोचनगोचर सोइ आवा। बहुरि कि अस प्रभु बनिहि बनावा।—मानस, पृ० १०।

लोचनपथ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोचनगोचर' [को०]।

लोचनपरुप
वि० [सं०] कठोर या शुष्क द्दष्टिवाला। क्रोधपूर्ण नेत्रोंवाला [को०]।

लोचनमग पु
संज्ञा पुं० [सं० लोचन + सं० मार्ग, प्रा० मग्ग] नेत्रमार्ग। उ०—लोचनमग रामहिं उर आली, दीन्हें पलक कपाट सयानी।—मानस,१।२३२।

लोचनमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोचनपथ' [को०]।

लोचनमालक
संज्ञा पुं० [सं०] आधी रात के पहले का सपना। पूर्व निशा का स्वप्न [को०]।

लोचनहिता
संज्ञा पुं० [सं०] तुत्थांजन। नीला थोथा। शिखि- ग्रीव [को०]।

लोचनांचल
संज्ञा पुं० [सं० लोचनाञ्चल] अपांग। कटाक्ष। आँखो की कोर [को०]।

लोचना † (१)
क्रि० स० [हिं० लोचन] १. प्रकाशित करना। २. रुचि उत्पन्न करना। उ०—निसि बासर लोचन रहत अपनो मन अभिराम। या तैं पायो रसिक निधि इन नै लोचन नाम।— रसनिधि (शब्द०)। ३. अभिलाषा करना। उ०—स्वर्ग में देवगण भी लोचते हैं और इस बात के लिये तरसते हैं कि भारत की कर्मभूमि में किसी तरह एक बार हमारा जन्म होता।—हिंदी प्रदीप (शब्द०)।

लोचना (२)
क्रि० अ० शोभित होना। उ०—लोचै परी सियरी पर्यंक पै बीती घरीन खरी खरी सोचै।—पद्माकर (शब्द०)।

लोचना (३)
क्रि० अ० १. अभिलाषा करना। कामना करना। उ०— (क) कहति है सकोचति है सखी को बोलाइबे को लोचति है भटू बैठी सोचति है मन तें।—रघुनाथ (शब्द०)। (ख) कुँअरि सयानि बिलोकि मातु पितु सों कहि। गिरिजा जोग जुरहिं बर अनुदिन लोचहिं।—तुलसी (शब्द०)। २. ललचना। तरसना। उ०—अब तिनके बंधन मोचहिंगे। दास बिना पुनि हम लोचहिंगे।—सूर (शब्द०)।

लोचना (४)
संज्ञा पुं० [सं० लुञ्चन] नाई। हज्जाम (क्व०)।

लोचान (५)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बुद्ध की एक शक्ति का नाम। लोके- श्वरात्मजा [को०]।

लोचना (६)
संज्ञा पुं० [सं० रोचन (=रोली, हरिद्रा)] १. कन्या के संतान होने पर कन्या के पितृगृह से भेजा जानेवाला मांगलिक उपहार। २. बहू के संतानवती होने पर उसके पिता तथा अन्य सगे संबंधियों के यहाँ भेजा जानेवाला शुभ संदेश।

लोचनापात
संज्ञा पुं० [सं०] दृष्टिनिक्षेप [को०]।

लोचनामय
संज्ञा पुं० [सं०] नेत्ररोग [को०]।

लोचनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक औषध। महाश्रावणिका [को०]।

लोचमस्तक
संज्ञा पुं० [सं०] मयुरशिखा। रुद्रजटा नाम का क्षुप [को०]।

लोचारक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक नरक का नाम।

लोचिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दही, घी तथा गरम जल से गुंधे हुए आटे की घी में छानी गई महीन पूरी [को०]।

लोचून
संज्ञा पुं० [सं० लोहचूर्ण] १. लोहे का चूरा। २. लोहे् की कोट का चूर्ण।

लोजंग
संज्ञा स्त्री० [देश० लोहा + जंग ?] एक प्रकार की नाव जिसके दोनों ओर के सिक्के लंबे होते हैं।

लोट (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लेटना] लोटने का भाववाचक रुप। लोटने की क्रिया या भाव। लुढ़कना। क्रि० प्र०—लगाना। मुहा०—लोट मारना = (१) लेटना। सोना। (२) किसी के प्रेम में बेसुध होना। लोट होना या हो जाना = (१) आसक्त होना। रीझना। (२) व्याकुल होना।

लोट (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लोटना] १. उतार। घाट। उ०—चारों तरफ पुख्ता लोट बने।—लल्लु (शब्द०)। २. पु त्रिवली। उ०—(क) नार नवाए ताके हुरी करी कोकरी चोट। चौंकि केरी झझकी चकी चँपी हँगा गहि लोट।—शृंगार० (शब्द०)। (ख) बड़ति निकास कुच कोर रुचि कढ़त गौर भुज मूल। मन लुटिगी लोटन चढ़त चुँटति ऊँचे फुल।— बिहारी (शब्द०)।

लोट † (३)
संज्ञा पुं० [अं० नोट] कागज की मुद्रा। नोट।

लोटन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लुड़कना। लुठन [को०]।

लाटन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लोटना] १. एक प्रकार का हल जिसकी जोताई बहुत गहरी नहीं होती। २. एक प्रकार का कबुतर जो चोंच पकड़कर भूमि में लुढ़का देने से लोटने लगता है; और जबतक उठाया न जाय, लोटता रहता है। ३. राह में की पड़ी हुई छोटी कंकड़ियों जो वायु चलने से इधर उधर लुढ़कती रहती है। उ०—काँट कुराय लपेटन लोटनि ठावहिं ठाव बझाऊ रे। जस जस चलिय दूरि तस तस निज वासना भेंट लगाऊ रे।—तुलसी (शब्द०)।

लोटनसज्जी
संज्ञा स्त्री० [देश० लोटन + सज्जी] एक प्रकार की सज्जी जो सफेद और गुलाबी रंग की होती है। यह प्रायः मुरब्बे आदि के गलाने में काम आती है।

लोटना (१)
क्रि० अ० [सं० लुण्ठन] १. भूमि पर या किसी ऐसे ही आधार के सहारे, उसे स्पर्श करते हुए, ऊपर नीचे होते हुए किसी का एक स्थान से दुसरे स्थान की ओर जाना या गमन करना। सीधे और उलटे लेटते हुए किसी ओर को जाना। उ०—(क) परी क्या भुँइ लोटै कहँ रे जीव बिनु भीव। को उठाय बैठारै वाज पियारे जीव।—जायसी (शब्द०)। (ख) काम नारि अति लोटत फिरै। कंत कंत कहि छति भुज भरे।—लल्लू (शब्द०)। २. लुढ़कना। उ०—जानहुँ लोटहिं चढ़े भुअंगा। बेधी बार मलय गिरि अंगा।—जायसी (शब्द०)। ३. कष्ट से करवट बदलना। तड़पना। क्रि० प्र०—जाना। मुहा०—लोट जाना = (१) बेसुध होना। बेहोश हो जाना। (२) मर जाना। जैसे,—एक ही वार में पाँच कबुतर लोट गए। ४. विश्राम करना। लेटना। मुहा०—लोट पोट करना = लेटना। विश्राम करना। ५. मुग्ध देखि प्रभु बोलन भये।—रघुनाथ (शब्द०)।

लोटना (२)
स्त्री० स्त्री० [सं०] दाक्षिण्य। सौजन्य। शिष्टता। शालीनता [को०]।

लोटपटा †
संज्ञा पुं० [हिं० लोटना + पाटा] १. विवाह के समय पीढ़ा या स्थान बदलने की रीति। इसमें वर के स्थान पर वधू और वधू के स्थान पर वर बैठाया जाता है। फेरपटा या पटाफेरा। विशेष—फेरपटा की रस्म हो जाने के बाद द्धिरागमन या गौने की रस्म आवश्यक नहीं मानी जाती और कन्या बैरोक टोक ससुराल आने जाने लगती है । २. बाजी का उलट फेर। दाँव का इधर से उधर हो जाना। उलटफेर। उ०—कीजै कहा विधि की विधि को दियो दाँवन लोटपटा करिवे को।—पद्माकर (शब्द०)।

लोटपोट
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोटना + पोटना (=फैल जाना)] १. लेटने या शयन करने की क्रिया। २. हँसी आदि के कारण लुढ़कना। ३. मुग्ध होना। क्रि० प्र०—करना।—होना।

लोटा (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लोटना] [स्त्री० अल्पा० लुटिया] धातु का एक पात्र जो प्रायः गोल होता है और पानी रखने के काम में आता है। यह कलसे से छोटा होता है। कभी कभी इसमें टोंटी भी लगाई जाती है; और ऐसे लोटे को टोंटीदार लोटा कहते हैं। मुहा०—लोटा या लुटिया डुबोना = (१) कलंक लगाना। (२) सब काम चौपट करना। सर्वनाश करना।

लोटा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमलोनी का शाक [को०]।

लोटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अमलोनी का शाक [को०]।

लोटिया
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोटा + इया (प्रत्य०)] छोटा गोल जल- पात्र जो लोटे के आकार का हो। छोटा लोटा।

लोटी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोटा + ई (प्रत्य०)] १. छोटा लोटा। २. वह बर्तन जिससे तमोली पान सींचते हैं।

लोट
संज्ञा पुं० [सं०] जमीन पर लोटना या लुढ़कना [को०]। यौ०—लोटभु = स्थान जहाँ घोड़े लोटते हैं।

लोठन
संज्ञा पुं० [सं०] शिर हिलाना [को०]।

लोठारी नंगर
संज्ञा पुं० [हिं० लोठारी + लंगर] एक प्रकार का लंगर जो जहाजी या बड़े लंगर से छोटा और केज लंगर से बड़ा होता है। (लश०)।

लोडन
संज्ञा पुं० [सं०] विलोड़न। हिलाना डुलाना। क्षुभित करना। मंथन [को०]।

लोड़ना पु †
क्रि० स० [पं० लोड़ (=आवश्यकता)] आवश्यकताहोना। दरकार होना। उ०—(क) तिसो घड़ी नव्वाव से कर जोरि बखाना। जेहा जिसनुँ लोड़िया तेहा फुरमाना। ('कलपाना' शुद्ध पाठ)।—सूदन (शब्द०)। (ख) असी हाल एहा हुआ राख्यो निजु साया। जेहा जिसनुँ लोड़िए तेहा फल पावा।—सूदन (शब्द०)।

लोढ़कना †
क्रि० अ० [सं० लुठन] दे० 'लुढ़कना'।

लोढ़ना (१)
क्रि० स० [सं० लुण्ठन] १. चुनना। तोड़ना। जैसे,—फुल लोढ़ना। उ०—कुसुम लोढ़न हम जाइव हो रामा।—गीत (शब्द०)। २. ओटना। जैसे,—कपास लोढ़ना।

लोढ़ना † (२)
क्रि० अ० [सं० लुण्ठन] जमीन पर लोटना या घसिटना [को०]।

लोढ़ा
संज्ञा पुं० [सं० लोष्ठ] [स्त्री० अल्पा० लोढिया] १. पत्थर का वह गोल लंबोतरा टुकड़ा जिससे सिल पर किसी चीज को रखकर पीसते हैं। बट्टा। उ०—फोरहिं सिल लोढ़ा सदन लागे अढुकि पहार। कायर कूर कपूत कलि घर घर सहर डहार।— तुलसी (शब्द०)। मुहा०—लोढ़ा डालना = बराबर करना। उ०—घूमि चहुँ दिसि झूमि रहे घन बूँदन ते छिति डारत लोढ़े।—रघुनाथ (शब्द०)। लोढ़ाढाल = चौपट। सत्यानाश। उ०—विष्णु कलोहल रव कहिं कोप कियो विकराल। झटकि पटकि झट लटकि कसि कीन्हो लोढ़ाढाल।—(शब्द०)। २. बुंदेलखंड के बराबर नामक हल का एक अंश। विशेष—यह हल मोटी लकड़ी का होता है। इसमें दत्तुआ या लोहे की कीलें लगी होती हैं, जिनमें पास लगाया जाता है।

लोढ़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोढ़ा + इया (प्रत्य०)] छोटा लोढ़ा। बट्टा। जैसे,—सिल लोढ़िया ले आओ।

लोण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] लोनी साग।

लोण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोन'।

लोणक
संज्ञा पुं० [सं०] नमक। लवण [को०]।

लोणा, लोणाम्ला
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोनी। क्षुद्रम्लिका [को०]।

लोणार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का क्षारविशेष। नमक [को०]।

लोणका
संज्ञा पुं० [सं०] अमलीनी साग। लोणाम्ला।

लोणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] क्षुद्राम्लिका। अमलोनी [को०]।

लोत
संज्ञा पुं० [सं०] १. आसु। लोर। २. चिह्न। निशान। ३. लूट का माल वा धन। ४. नमक [को०]।

लोत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. नेत्रजल। आँसु। लोर। २. चोरी का धन। लूट का माल [को०]।

लोथ, लोथि
संज्ञा स्त्री० [सं० लोष्ठ या लोठ] किसी प्राणी का मृत शरीर। लाश। शव। उ०—(क) लोथिन्ह तें लहु के प्रवाह चले जहाँ, तहाँ मानहु गिरिन गेरु झरना झरत हैं।—तुलसी (शब्द०)। (ख) गृव श्रृगाल कूकर आपस में लड़ लड़ लोये खैंच खैंच लाते।—लल्लू (शब्द०)। (ग) तब कंस की लोथ को घसीट जमुना तीर आए।—लल्लू (शब्द०)। (घ) भूषन बखानै भूरि भूतन मैं टाँगे चंद्रायतन लोथैं लटकत हैं।—भूषण (शब्द०)। मुहा०—लोथ गिरना = मारा जाना। लोथ डालना = मार गिराना। प्राणांत करना। हत्या करना। लोथपोथ होना = थकने से चूर होना। अत्यंत शिथिल होना। लथपथ होना।

लोथड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० लोथ + ड़ा] मांस का बड़ा खंड जिसमें हड्डी न हो। मांसपिंड।

लोथरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० लोथड़ा] दे० 'लोथड़ा'।

लोथारी
संज्ञा स्त्री० [सं० लुण्ठन] १. कम पानी में से नाव को खींचते या धीरे धीरे खेते हुए किनारे लगाना। २. लोथारी लंगर डालकर पानी की तह का पता लेते हुए मार्ग से किनारे की ओर नाव बढ़ाना। (लश०)। यौ०—लोथारी लंगर। मुहा०—लोथारी डालना = लोथारी लंगर को थोड़े पानी में डालकर तल की थाह लेते हुए नाव को किनारे लगाना। लोथारी तानना = ठीक और नाव जाने के योग्य से होकर नाव को किनारे ले जाना।

लोथारी लंगर
संज्ञा पुं० [हिं० लोथारी + लंगर] सबसे छोटा लंगर। विशेष—यह उस जगह डाला जाता है, जहाँ पानी कम होता है और यह जानना अभिप्रेत होता है कि यह किनारे जाने का मार्ग है या नहीं।

लोद
संज्ञा स्त्री० [सं० लोध] दे० 'लोध'।

लोदी
संज्ञा पुं० [फा़०] पठानों की एक जाति [को०]।

लोध
संज्ञा स्त्री० [सं० लोध्र, लोध] १. एक प्रकार का वृक्ष जो भारतवर्ष के जंगलों में उत्पन्न होता है। विशेष—इस वृक्ष की छाल रँगने, चमड़ा सिझाने और ओषधियों में काम आती है। छाल को गरम पानी में भिगो देने से पीला रंग निकलता है। कहीं कहीं इसकी छाल पानी में उबालकर भी रंग निकाला जाता है। छाल को सज्जी मिट्टी के साथ पानी में उबालने से लाल रंग निकलता है, जिससे छींट छापते हैं। वैद्यक में इसकी छाल और लकड़ी दोनों का प्रयोग होता है। इसकी छाल कुछ कसैली होती है पेचिश आदि पेट के कई रोगों में दी जाती है। इसका गुण ठंढा है और २० ग्रेन तक इसकी मात्रा है। इसके काढ़े का भी प्रयोग किया जाता है। लोध की लकड़ी के काढ़े से कुल्ला करने से मसूढ़े से रक्त निक- लना जाता रहता है और वह द्दढ़ हो जाता है। इसकी लकड़ी जल्दी फट जाती है; पर मजबुत होती है औऱ कई तरह के काम में लाई जाती है। २.एक जाति का नाम।

लोधरा
संज्ञा पुं० [सं० लोध्र] एक प्रकार का ताँबा जो जापान से आता है।

लोधी
संज्ञा [फा़० लोदी] पठानों की एक जाति।

लोध्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोध नामक वृक्ष।विशेष—इसके दो भेद होते है—श्वेत लोध और रक्त लोध। यह कसैला, ठंढा और वात, पित्त नाशक माना जाता है। विशेष दे० 'लोध'। पर्या०—तिल्वक। गालब।शावर। तिर्राट। तिल्वक्र। मार्जन। भिल्लतरु। कांडकीलक। शंवर। कांडनीलक। हेमपुष्पक। झिल्ली। २. एक जाति का नाम।

लोध्र (२)
संज्ञा पुं० [सं० लोध्र, हिं० लोधरा] जापानी ताँबा। लोधरा।

लोध्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोध्र'। यौ०—लोध्रकवृक्ष = लोध्र का पेड़।

लोध्रतिलक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अलंकार जो उपमा का एक भेद माना जाता है।

लोध्ररेणु
संज्ञा पुं० [सं०] लोध्र के फुल का चुर्ण जिसका अंगराग की तरह उपयोग होता था।

लोना पु †
संज्ञा पुं० [सं० लवण या लोण] १. लवण। नमक। मुहा०—किसी का लोन खाना = अन्न खाना। पाला जाना। दास होना। उ०—पाछे कह्वौ लंकापति सुनो हनुमान कपि रामचंद्र ही को एक तही लोन खायो है।—हनुमान्नाटक (शब्द०)। किसी का लोन निकलना = नमकहरामी का फल मिलना। अकृतज्ञता का फल पाना। उ०—तातेमन पोखियत घोर बरतोर मिसि फुटि फुटि निकसत है लोन राम राय को।—तुलसी (शब्द०)। किसी का लोन न मानना = किसी का उपकार न मानना। कृतघ्न होना। उ०—नैनन को अब नाहिं पत्याऊँ। बहुर्यो उनको बोलति हों तुम हाइ हाइ लीजै नहिं नाऊँ। अब उनको मै नाहिं बसाऊँ मेरे उनको नाहीं ठाऊँ। व्याकुल भई डोलत हौं ऐसेहि वे जहँ हैं महाँ नहिं जाऊँ। खाइ खवाइ बड़े जब कीन्हें बसे जाइ अब और हिं गाऊँ। अपनो कियो आप पावैंगे मैं काहे उनको पछिताऊँ। जैसे लोन हमारो मान्यो कहा कहौं कहि काहि सुनाऊँ। सुरदास मैं इन बिन रहिहौं कृपा करैं उनको सरमाऊँ।—सूर (शब्द०)। जले पर लोन लगाना या देना = दुःख पर दुःख देना। दुखी को दुखी करना। उ०—अति कटु बचन कहै कैकेई। मानो लोन जले पर देई।—तुलसी (शब्द०)। किसी बात का लोन सा लगना = अरुचिकर होना। अप्रिय होना। उ०—राजै लोन सुनाव लागहुँ हुँ जस लोन। आइ कुँहाइ महिर कहँ सिंह जान औ गौन।—जायसी (शब्द०)। लोन चराना = नमकीन बनाना। जैसे,—आम को लोन चराना। २. सौंदर्य। लावण्य। उ०—जो उन महँ देखेसि इक दासी। देखि लोन होय लोन बिलासी।—जायसी (शब्द०)। विशेष दे० 'नमक'।

लोनहरामी †
वि० [हिं० लोन + अ० हरामी] कृतघ्न। नमक- हराम। उ०—मन भयो ढीठ इनहिं के कीन्हें ऐसे लोन- हरामी। सूरादस प्रभु इनहिं पत्याने आखिर बड़े निकामी।— सूर (शब्द०)।

लोना (१)
वि० [हिं० लोन] [भाव० संज्ञा लोनाहि] १. नमकीन। सलोना। २. सुंदर। उ०—(क) लालन जोग लवन अति लोने। भे न भाई अस अहहि न होने।—तुलसी (शब्द०)। (ख) नाउन अति गुन खानि तौ बेगि बोलाइहो। करि सिंगार अति लोनि तौ बिहँसति आइहो।—तुलसी (शब्द०)।

लोना (२)
संज्ञा पुं० [हिं० लोन] १. एक प्रकार का रोग जो ईंट, पत्थर और मिट्टी की दीवारों में लगता है। नोना। विशेष—इससे दीवार झड़ने लगती और कमजोर हो जाती है; थोड़े दिनों में उसमें गड्डे पड़ जाते हैं; और वह कटकर गिर पड़ता है। यह रोग प्रायः नींव के पास के भाग में आरंभ होता है और ऊपर की और बढ़ता है। क्रि० प्र०—लगना। २. वह धूल या मिट्टी जो लोना लगने पर दीवार से झड़कर गिरती है। यह खेत में डाली जाती है और खाद का काम देती है। ३. नमकीन मिट्टी, जिससे शोरा बनाया जाता है। ४. वह क्षार जो चने की पत्तियों पर इकट्ठा होता है और जिसके कारण उसकी पत्तियाँ चाटने पर खट्टी जान पड़ती है। ५. एक प्रकार का कीड़ा जो घोंधे की जाति का होता है और प्रायः नाव के पेंदे में चपका हुआ मिलता है। ६. अमलोनी नाम की घास जिसे रसायनी धातु सिद्ध करने के काम में लाते हैं। उ०—(क) कहाँ सो खोएहु विरवा लोना। जेहि तें होइ रुप औ सोना।— जायसी (शब्द०)। (ख) जहँ लोना विरवा कै जाती। कहि कै सँदेस आन को पाती।—जायसी (शब्द०)।

लोना (३)
क्रि० स० [सं० लवण] फसल काटना। उ०—बीज बोई जोई अँत लोनिए सोइ समुझि यह बात नहिं चित धरई।—सुर (शब्द०)।

लोना (४)
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक कल्पित स्त्री जो जाति की चमार और जादू टोने में बहुत प्रवीण कही जाती है। नोना चमाइन। उ०—तू काँवरु परा बस टोना। भूला जोग छरा तोहि लोना—जायसी (शब्द०)।

लोनाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोना + ई (प्रत्य०)] लावण्य। सुंदरता। उ०—हृदय सराहत सीय लोनाई। गुरु समीप गवने दोउ भाई।—तुलसी (शब्द०)।

लोनार †
संज्ञा पुं० [हिं० लुन (=नमक) + और (प्रत्य०) या सं० लोन + हिं० आर (प्रत्य०)] वह स्थान जहाँ से नमक आता हो। जैसे,—नमक की खान, झील या क्यारी।

लोनिका
संज्ञा स्त्री० [हिं० लवण, लोन] लोनी नामक साग। विशेष दे० 'लोनी'। उ०—रुचियत जानि लोनिका फाँगी। कढ़ी कृपालु दुसरी माँगी।—सुर (शब्द०)।

लोनिया (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लवण, लोन + इया (प्रत्य०)] एक जाति जो लोन या नमक बनाने का व्यवसाय करती है। यह जाति शुद्रों के अंतर्गत मानी जाती है। नोनियाँ। (अब ये लोग अपने को चौहान कहते हैं)।

लोनिया (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोन] लोनी नामक साग।

लोनी (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लवण, लोन] १. कुलफे की जाति का एक प्रकार का साग। विशेष—इसको पत्तियाँ बहुत छोटी छोटी होती है। यह ठंढी जगह पर, जहाँ सीड़ होती है, उत्पन्न होती है। यह स्वाद में खटास लिए होती है। इसमें रंग बिरंग के फुल लगते हैं। इसे लोग गमलों में बोते हैं और बिलायती लोनी कहते हैं। इसके बीज विलायत से आते हैं। २. वह क्षार जो चने की पत्तियों पर बैठता है। ३. एक प्रकार की मिट्टी जिससे लोनियाँ लोग शोरा और नमक बनाते हैं। ४. दे० 'लोना'।

लोनी (२)
वि० स्त्री० [हिं० लोना] लावण्यमयी। सुंदरी।

लोना पु (३)
संज्ञा पुं० [सं० नवनीत] लौनी। मक्खन। नवनीत।

लोप
संज्ञा पुं० [सं०] [संज्ञा लोपन] [वि० लुप्त, लोपक, लोप्ता लोप्य] १. नाश। क्षय। २. विच्छेद। जैसे,—कर्म का लोप होना। ३. अदर्शन। अभाव। ४. व्याकरण के चार प्रधान नियमों में से एक, जिसके अनुसार शब्द के साधन में किसी वर्ण को उड़ा देते हैं। जैसे,—अभिधान में अ का लोप करके पिधान शब्द बनाया जाता हैं। ५. छिपना। अंतर्धान होना। उ०—बहु बरषि आयुघ बारिधर सम दियो पटरथ लोप कै।—गिरिधर (शब्द०)। ६. तोड़ना। भंग (को०)। ७. अतिक्रमण। उल्लंघन (को०)। ८. अवहेलना। उपेक्षा (को०)। ९. व्याकुलता। आकुलता (को०)।

लोपक (१)
वि० [सं०] बाधक। नाशक [को०]।

लोपक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] भग। खंड [को०]।

लोपन
संज्ञा पुं० [सं०] १. लुप्त करना। तिरोहित करना। २. नष्ट करना। भंग करना। विनाशन।

लोपना पु † (१)
क्रि० स० [सं० लोपन] १. लुप्त करना। मिटाना। उ०—(क) कलि सकोप लोषो सुचालि निज कठिन कुचालि चलाई।—तुलसी (शब्द०)। (ख) सब ते परम मनोहर गोपी। नँद नंदन के नेह मेह जिनि लोक लीक लोपी।—सूर (शब्द०)। (ग) लोपे कोपे इंद्र लौं रोपे प्रलय अकाल। गिरिधारी राखे सबै गो, गोपी, गोपाल।—बिहारी (शब्द०)। २. छिपाना। ३. भंग करना (को०)।

लोपना (२)
क्रि० अ० १. लुप्त होना। मिटना। उ०—राय दसरत्थ के समर्थ राम राय मति तेरे हेरे लोपै लिपि बिधिहु गनक की।—तुलसी (शब्द०)। २. छिपाना। (क्क०)।

लोपांजन
संज्ञा पुं० [सं० लोपाञ्जन] वह कल्पित अंजन जिसके विषय में यह प्रसिद्ध है कि इसके लगाने से लगानेवाला अद्दश्य हो जाता है।

लोपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की चिड़िया। २. दे० 'लोपामुद्रा'।

लोपक, लोपापक
संज्ञा पुं० [सं०] गीदड़। सियार।

लोपापिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रृगाली। मादा सियार [को०]।

लोपामुद्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अगस्त्य ऋषि की स्त्री का नाम। लोपा। विशेष—पुराणों में लिखा है कि अगस्त्य ने बहुत दीर्ध काल तक ब्रह्मचर्य धारण किया था और वे विवाह नहीं करते थे। एक बार उन्होने स्वप्न में देखा कि हमारे पितर गड्ढे में उलटे लटके हुए हैं। अगस्त्य ने उन्हें इस प्रकार अधोमुख लटका देखकर उनसे कारण पूछा। पितरों ने कहा कि यदि तुप विवाह करेक संतान उत्पन्न करो, तो हम लोगों को इस यातना से छुट्टी मिले। अगस्त्य ने बहुत ढुँढा, पर उनको सर्वलक्षणों से युक्त कोई कन्या विवाह करने योग्य नहीं मिली। निदान उन्होंने सब प्राणियों के उत्तम उत्तम अँग लेकर एक कन्या बनाई। उस समय विदर्भ देश का राजा पुत्र के लिये कर रहा था। अगस्त्य जी ने लोपामुद्रा उसी विदर्भराज को प्रदान की। जब वह बड़ी हुई, तब अगस्त्य जी ने विदर्भराज से कन्या की याचना की। विदर्भराज ने लोपामुद्रा अगस्त्य जी को सोँप दी और दी और अगस्त्य जी ने उसका पाणिग्रहण कर उसे अपनी पत्नी बनाया। पर्या०—लोपा। कोशीतकी।वरप्रदा। २. एक तारे का नाम जो दक्षिण में अगस्त्य मंडल के पास उदय होता है।

लोपायक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोपाक'।

लोपायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की चिड़िया।

लोपाश, लोपाशक
संज्ञा पुं० [सं०] गीदड़। सियार।

लोपिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की मिठाई [को०]।

लोपी
वि० [सं० लोपिन्] १. भँग करनेवाला। नष्ट करनेवाला। २. हानि पहुँचानेवाला। ३. वह जो लुप्त हो सके [को०]।

लोप्ता
वि० [सं० लोप्तृ] भंग करनेवाला। तोड़नेवाला। नाशक [को०]।

लोप्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] लुट का माल। चोरी की संपत्ति [को०]।

लोबत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. पुतली। गुड़िया। २. खिलौना [को०]। यौ०—लोबनबाज=कठपुतली का खेल करनेवाला।

लोबा †
संज्ञा स्त्री० [सं० लोमाश या हिं० लोमड़ी] लोमड़ी। उ०— कीन्हेसि लोबा इंदुर चाँटी। कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी।— जायसी (शब्द०)।

लोबान
संज्ञा पुं० [अ०] एक वृक्ष का सुगंधित गोंद। विशेष—यह वृक्ष अफ्रिका के पूर्वी किनारे पर, सुमालीलैंड में अरब के दक्षिणी समुद्रतट पर होता है और वही से लोबान अनेक रुपों में भारतवर्ष में आता है। कुहुर जकरं, कुहगुर उनस, कुहुर शफ, कुहुकशफा आदि इसी के भेद हैं। इनमें से कई दबा के काम में आते हैं। इनमें लोबानकशफा, जिसे धुप भी कहते हैं, भारतवर्ष में लोबान के नाम से बिक्रता है। यह गोंद वृक्ष की छाल के साथ लगा रहता है। अरभ से लोबान बंबई आता है। वहाँ छाँट छाँटकर उसके भेदकिए जाते हैं। जो पीले रंग की बुँदा के रुप के साफ दाने होते हैं, वे कौड़िया कहलाते हैं। उनको छआँटकर युरोप भेज देते हैं तथा मिला जुला औऱ चुरा भारतवर्ष और चीन के लिये रख लेते हैं।एक और प्रकार का लोबान जावा, सुमात्रा आदि स्थानों से आता है, जिसे जाबी लोबान कहते हैं। युरोप में इससे एक प्रकार का क्षार बनाया जाताहै जिसे वैजोइक एसिड कहते हैं। लोबान प्रायः जलाने के काम में लाया जाता है, जिससे सुंगंधित धुआँ निकलता है। वैद्यक में कुहुरपलोबान का प्रयोग सुजाक में और जावी लोबान का प्रयोग खाँसी में होता है। यह अधिकतर मरहम के काम में लाया जाता है।

लोबानी
वि० [अ०] १. लोबान से युक्त। लोबानवाला। लोबान जैसा। यौ०—लोबानी ऊद=एक प्रकार का सपेद ऊद या सुगंधित लकड़ी।

लोबिया
संज्ञा पुं० [सं० लोभ्य, मि० अ०] एक प्रकार का बोड़ा। विशेष—यह सफेद रंग का और बहुत बड़ा होता है। इसके फल एक हाथ लंबे और तीन अंगुल तक चौड़े और बहुत कोमल होते हैं और पकाकर खाए जातै हैं। बीजों से दाल और दालमोट बनाते हैं। इसकी और भी जातियाँ है; पर लोबिया सबसे उत्तम माना जाता है। पौधा शोभा और भाजी के लिये बागों में बोया जाता है और बहुमूल्य होता है। उ०— कंचन के याम कहि काम जहाँ ये उपाधि, राम राज भलो जहाँ सबै लंबिया।—हनुमन्नाटक (शब्द०)।

लोविया कंजई
संज्ञा पुं० [हिं० लोबिया+ कँजई] एक रंग जो गहरा हरा होता है।

लोभ
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० लुब्ध, लोभी] १. दूसरे के पदार्थ को लेने की कामना। —तृष्णा। लिप्सा। स्पृहापर्या०। कांक्षा। गर्द्ध। इच्छा। वांछा। अभिलाषा। २.जैन दर्शन के अनुसार वह मोहनीय कर्म जिसके कारण मनुष्य किसी पदार्थ को त्याग नहीं सकता। अर्थात् यह त्याग का वाधक होता है। अधैर्यता। अधीरता (को०)। ४. कृप- णता। कजुंसी।

लोभन (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० लोभनी] लुभानेवाला। उलझाने या फँसानेवाला [को०]।

लोभन (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रलोभन। लालच। आकर्षण। उलझन। २. सुवर्ण। सोना [को०]।

लोभना पु †
क्रि० अ० [हिं० लोभ] लुब्ध होना। मुग्ध होना। उ०—(क) करनफुल नासिक अति सोभा। ससि मुख आइ सुक जनु लोभा।—जायसी (शब्द०)। (ख) सोहत सुबरन सुरथ फनद मंदिर सम ओभा। जिनमें रतन बिहंग बने जेहि लकि जग लोभा।—दरासंधवघ (शब्द०)।

लोभना (२)
क्रि० स० [सं० लोभन] लुभाना। मुग्ध करना।

लोभनीय
वि० [सं०] लुभानेवाला। आकर्षण [को०]।

लोभविजयी
संज्ञा पुं० [सं०] वह राजा जो असल में लड़ाई न करना चाहता हो, कुछ धन आदि चाहता हो। विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि ऐसे को कुछ धन देकर मित्र बना लेना चाहिए।

लोभाना पु †
क्रि० स० [हिं० लोभाना का सक०] मोहित करना। मुग्ध करना। उ०—माँगहु बर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चले चलाए।—तुलसी (शब्द०)।

लोभाना (२)
क्रि० अ० मोहित होना। मुग्ध होना। उ०—(क) अस विचारि हरि भजत सयाने। मुक्ति निरादरि भगति लोभाने।— तुलसी (शब्द०)। (ख) बहुरि भगवान का निरखि सुंदर परम कह्वो एहि माहि है सब भलाई। पै न इच्छा कै कछु वस्तु की, अरुन ए देखि मोहबई लोभाई।—सुर (शब्द०)।

लोभार पु †
वि० [हिं० लोभ+ और (प्रत्य०)] लुभानेवाला। मुग्ध करनेवाला। उ०—वय किशोर व्य तड़ित बरत तन तख सिख अँग लोभारे। है चितु कैं हितज लै सब छबि बिनु बिधि निज हाथ सँवारे।—तुलसी (शब्द०)।

लोभित
वि० [सं०] लुब्ध। मुग्ध। लुभाया हुआ। उ०—नलिन पराग मेघ माधुरि सों मुकुलित अंब कदंब। मुनि मन मधुप सदा रस लोभित सेवत अज शइव अंब।—सुर (शब्द०)।

लोभी
वि० [सं० लोभिन्] [वि,० स्त्री० लोभिनी] १. जिसे किसी बात का लोभ हो। उ०—नए नए हरि दरसन लोभी श्रावण शब्द रसाल। प्रथम ही मन गयो तनु तजि तब भई बेहाल।— (शब्द०)। २. बहुत अधिक लोभ करनेवाला। लालची। ३. लुब्ध। लुभाया हुआ। उ०—ए कैसी है लोभिनी छबि धरति चुराई और न ऐसी सकरै मर्यादाजाई।—सुर (शब्द०)।

लोभ्य
वि० [सं०] आकर्षक। लोभनीय [को०]।

लोम (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १ ० शरीर भर के छोटे छोटे बाल। रोवाँ। रोम। उ०—शतशत इंद्र लोम प्रति मोमनि। शत लोमनि मेरे इक लोमनि।—सूर (शब्द०)। २. बाल। जैसे,—गोलेम। ३. पूँछ (को०)। ४. ऊर्णा। ऊन (को०)।

लोम (२)
संज्ञा पुं० [सं० लोमश] लोमड़ी। उ०—भुषन भनत भारे बालुक भयानक हैं भीतर भेर लीलगऊ लोम हैं।— भूषण (शब्द०)।

लोमकरणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जटामासी। २. माँसी नामक घास।

लोमकर्कटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अजमोदा।

लोमकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] शशक। खरगोश।

लोमकी
संज्ञा पुं० [सं० लोमकिन्] एक पक्षी [को०]।

लोमकीट
संज्ञा पुं० [सं०] जुँ [को०]।

लोमकूप
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर में का वह छिद्र जो रोएँ की जड़ में होता है। लोमगर्त।

लोमगर्त
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोमकुप' [को०]।

लोमघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] गंज नामक रोग। इंद्रलप्तक।

लोमड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं० लोमश] कुत्ते या गीदड़ की जाति का एक जंतु जो ऊँचाई में कुत्ते से छोटा होता है, पर विस्तार में लंबा। विशेष—भारतवर्ष की लोमड़ी का रंग गीदड़ सा होता है; पर यह उससे बहुत छोटी होता है। इसकी नाक नुकीली, पूँछ झवरी और आँखएं बहुत तेज होती हैं और यह बहुत तेज भागनेवाली होती है। अच्छे अच्छे कुत्ते इसका पीछा नहीं कर सकते। चालाकी के लिये यह बहुत प्रसिद्ध है। ऋतु के अनुसार इसका रोवाँ झड़ता और रंग बदलता है। यह कीड़े मकोड़ों और छोटे छोटे पक्षियों को पकड़कर खाती है। अन्य देशों में इसकी अनेक जातियाँ मिलती है। अमेरिका में लाल रंग की लोमड़ी होती है, जिसके रोएँ जाड़े में सफेद रंग के हो जाते हैं। कहीं कहीं बिल्कुल काली लोमड़ी भी होती है। उन सबके बाल या रोएँ बहुत कोमल होते हैं, और उनका शिकार उनकी खाल के लिये किया जाता है, दजिसे ससूर या पोस्तीन कहते है। शीपतकटिबंध प्रदेश की लोमड़िया बिल बनाकर झुंड में रहती है। युरोप की लोमड़ियाँ बड़ी भयानक होती हैं। वे गाँवों में घुसकर अंगुर आदि फुलों का और पालतु पक्षियों का नाश कर देती हैं। बारत की लोमड़ी चैत बैसाख में बच्चे देती है। बच्चों की संख्या पाँच छह होती है; और वे डेढ़ वर्ष में पूरी बाढ़ को पहुँचते हैं। इनकी आयु तेरह चौदह वर्ष की कही गई है।

लोमपाद
संज्ञा पुं० [सं०] अंग देश के एक राजा का नाम। विशेष—यह राजा दशरथ के मित्र थे। एक वार इन्होंने ब्राह्मणों का अपमान किया। उससे क्रोध कर ब्राह्मण उनका देश छोड़कर चले गए। ब्राह्मणों के चले जाने से अंग देश में अवर्षण पड़ा। इसके निवारणार्थ राजा लोमपाद ने ऋष्यशृंग को राज्य में बुलाकर उन्हें अपने मित्र दशरथ की कन्या, जिसका नाम श्रोता था, प्रदान की जिससे अनावृष्टि दुर हो गई। इन्हें रोमपादट भी कहते हैं।

लोमपादपुर
संज्ञा पुं० [सं०] चंपा नगरी जिसे अब भागलपुर कहते हैं।

लोमफल
संज्ञा पुं० [सं०] रोएंदार फल। भव्य नामक फल [को०]।

लोममणि
संज्ञा पुं० [सं०] बाल से बना रक्षाकवच।

लोमयूक
संज्ञा पुं० [सं०] जुँ। यूका [को०]।

मोलरंध्र
संज्ञा पुं० [सं० लोमरन्ध्र] दे० 'रोमकूप'।

लोमर †
वि० [हिं० लोमड़ी] डरपोक।भग्गु। कायर। (उपेक्षा०)।

लोमराजि
संज्ञा स्त्री० [सं०] रोमावलि [को०]।

लोमरी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लोमशा] दे० 'लोमड़ी'।

लोमरोग
संज्ञा पुं० [सं०] गंज रोग। गंजा होने का रोग। वह रोग जिसमें बाल झड़ जाते हैं [को०]।

लोमलताघर
संज्ञा पुं० [सं०] पेट। उदर। तोंद [को०]।

लोमवाही
वि० [सं० लोमवाहिन्] १. पखवाला। २. रोएँदार। ३. तेज घारवाल [को०]।

लोमविष (१)
वि० [सं०] (पशु) जिसके रोएँ में विष होता है [को०]।

लोमविष (२)
संज्ञा पुं० व्याध्र। बाघ।

लोमश
संज्ञा पुं० [सं०] १.एक ऋषि का नाम। विशेष—पुराणों में इनको अमर कहा गया है। महाभारत के अनुसार ये युधिष्ठिर के साथ तीर्थयात्राको गए थे और उन्हें सब तीर्थोंका वृत्तांत वतलाया था। २. मेष। मेढ़ा। ३. एक पौधा।

लोमश (२)
वि० १. अधिक और बड़े बड़े रोएँवाला। झवरा। २. ऊनी। ऊन का (को०)। ३. बालों से भरा या ढका हुआ (को०)। ४. घास से ढका हुआ (को०)।

लोमशकर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] एक जानवर जो बिल या माँद में रहता है [को०]।

लोमशकांडा
संज्ञा स्त्री० [सं० लोमशकाण्डा] कर्कटी। ककड़ी।

लोमशपर्णिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] लामपर्णी नामक औषधि।

लोमशषर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लोमशषर्णीनी'।

लोमशपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] सिरिस। शीरीप।

लोमशमार्जार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की बिल्ली जिसके बाल कोमल होते हैं और जिससे मुश्क निकलता है। गंधमार्जार। विशेष दे० 'गंधाविलाव'। पर्या०—पुतिक। मारजातक। सुगधी। सुत्रपातन।

लोमशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वैदिक काल की एक स्त्री जो कई मंत्रों की रचयिता मानी जाती है। २. काकजघा। माँसी। ३. बच। ४. अतिबला। ५. कौंछ। केवाँच। ६. नीलाट कसीस। कसीस। ७. लोमड़ी (को०)। ८. श्रृगाली। सियारिन (को०)। ९. दुर्गा की एक अनुचरी या शाकिनी (को०)।

लोमशातन
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल।

लोमशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वृक्ष [को०]।

लोमश्य
संज्ञा पुं०[सं०] झबरापन। झबरे या घने लंबे बालों का होना [को०]।

लोमस
संज्ञा पुं० [सं० लोमश] दे० 'लोमश'।

लोमहर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] रोमहर्ष। रोमाच [को०]।

लोमहर्षक
वि० [सं०] रांडटे खड़े करनेवाला। रोमाचकारी [को०]।

लोमहर्षण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणों के अनुसार व्यास के एक शिष्य का नाम जा उग्रश्रवा के पुत्र थे। इन्हीं को सुत कहते हैं। २. रोमाच।

लोमहर्षण (२)
वि० ऐसा भीषण जिससे रोएँ खड़े हो जाय। बहुत अधिक भयानक।

लोमहृत्
संज्ञा पुं० [सं०] हरताल। लोमशातन [को०]।

लोमांच
संज्ञा पुं० [सं० लोमाच्च] १. रोमांच। २. कोमल ऊन। मुलायम ऊन (को०)। ३. द्रुम। पूँछ (को०)।

लोमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बचा।बच।

लोमाद
संज्ञा पुं० [सं०] जुँ की एक जाति [को०]।

लोमालि
संज्ञा स्त्री० [सं०] छाती से नाभि तक उगे घने रोएँ। रोमाबली [को०]।

लोमालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोमड़ी [को०]।

लोमाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लोमालि'।

लोमावलि, लोमावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'लोमालि' [को०]।

लोमाश
संज्ञा पुं० [सं०] १ ० सियार। गीदड़। २. नर लोमड़ी।

लोमाशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गीदड़ी। सियारत। २. लोमड़ी (को०)।

लोय † (१)
संज्ञा पुं० [सं० लोक] लोग। उ०—जहाँ प्रगट भूषण भनत हेतु काज ते होय। सो बिभावना औरऊ कहत सयाने लोय।— भूषण (शब्द०)।

लोय (२)
संज्ञा पुं० [सं० लोचन, हिं० लोयन] आँख।नेत्र। नयन।

लोय (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लव या लाव] लौ। लपट। ज्वाला। उ०—/?/निर्मल रत्न प्रवीन धरे बड़ी लोय सो आँखन ओरी जरे। —लक्ष्मण (शब्द०)।

लोय (४)
अव्य० [हिं० लौं] तक। पर्यत।

लोयन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लोचन, ब्रा० लोयख] आँख। उ०— जनक सुता तब उर धारे धीरा। नील नलिन लोयन भरि नीरा।—तुलसी (शब्द०)।

लोयन पु (२)
संज्ञा पुं०[सं० लावण्य] लायण्य। सौंदर्य।

लोर † (१)
वि० [सं० लोल] १. लोल। चंचल। उ०—यह वाणी कहत ही लजानी समुझि भई जिय और। सुरश्याम मुख निरखि चली घर आनंद लोचन लोर।—सूर (शब्द०)। २. उत्सुक। इच्छुक।

लोर (२)
संज्ञा पुं० [सं० लोल] १. कान का कुंडल। २. लटकन। ३.कान के नीचे का लटका हुआ भाग। लोलक।

लोर (३)
संज्ञा पुं० [देशी या सं० लोल (=अश्रु या हिं० लोण)] आँसू। उ०—बोलि ढिग बैठारि ताकी पोछि लोचन लोर। सुर प्रभु के बिरह ब्याकुल सखि लखि मुख ओर।—सुर (शब्द०)।

लोरना पु
क्रि० अ० [सं० लोल] १. चंचल होना। २. लपकना। ललकना। उ०—पुनि उठि जागि देखै मुकुर नारि ललचान अरक भरि लैन लोरै। सूर प्रभु भावती के सदा रस भरे नैन भरि भरि प्रिया रुप चोरै।—सूर (शब्द०)। ३. लिपटना। उ०—लोरहिं आइ भूमि तरु शआखाफल फूलन क भारा। नाना रंग कुरंग सग एक चरैं सुढग अपारा—रघुराज (शब्द०)। ४. झुकना। उ०—देव कर जोरि जोरि बदति सुरात लघु लोगान के लोरि लोरि पायान परति है।—देव (शब्द०)। ५. लोटना। उ०— कलप लता से लता बृगदन बिलासे, झुके अजब किता से भूमि लोरन के आते हैं।—रघुराज (शब्द०)।

लोरवा †
संज्ञा पुं० [देशी लार+वा (प्रत्य०)] आसु। लोर। (पूरब)।

लोरा
संज्ञा स्त्री० [सं० लोल] १. एक प्रकार का गीत जो स्त्रियाँ बच्चों को सुलाने के लिये गाती हैं। साथ ही वे बच्चे को गोद में लेकर हिलाती भी जाती है; अथवा खाट पर लेटाकर थपकी देती जाती हैं। २. तोते को एक जाति।

लोलंब
संज्ञा पुं० [सं० लोलम्ब] बड़ा भौरा [को०]।

लोल (१)
वि० [सं०] १. हिलता डोलता। कंपायमान। क्षुब्ध। अशांत २. चंचल। उ०—भाल तिलक कंचन किरीट सिर कुंडल लोल कपोलनि झाँई। निरखहिं नारि निकर विदेह पुर निमिशा की मरजाद मिटाई। तुलसी (शब्द०)। ३. परिवर्तनशील। ४. क्षणिक। क्षणभंगुर। ५. उत्सुक। अति इच्छुक।

लोल (२)
संज्ञा पुं० लिंगेंद्रिय।

लोलक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लटकन जो बालियों में पहला जाता है। यह मछली के आकार का या किसी औऱ आकार का होता है। स्त्रियों इसे नया या वाली में पिरोकर पहनती है। उ०— करनफूल खुटिला अरु खुभिय। लोलक सोत सींक हुँ चुँभिय।— सूदन (शब्द०)। २. कान की लव। लोलकी। ३. करघेमें मिट्टी का एक लट्टु जो राछ में इसलिये लगाया जाता है कि उसकी ऊपर या नीचे करके राछ उठा या दवा सकें। ४. घंटी या घंटे के बीच में लगा हुआ लटकने जो हिलाने से इधर उधर टकराकर घंटी में लगकर शब्द उत्पन्न करता है।

लोलकर्ण
वि० [सं०] लोगों की बात सुनेन का आदमी। सबकी बातें सुननेवाला (को०)।

लोलकी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोमक] कान का वह भाग जो गालों के किनारे इधर उधर नीचे को लटकता रहता है। इसी में छेद करके कुंडल या बाली आदि पहनते हैं।

लोलघट
संज्ञा सं० [सं०] पवन जिसका शरीर चंचल है [को०]।

लोलचक्षु
वि० [सं० लोलचक्षुस्] १. कामनायुक्त नेत्रों से देखनेवाला। प्रेम से देखनेवाला। ३. जिसके नेत्र चारों ओर नाचते हो। चंचलनेत्र [को०]।

लोलजट
संज्ञा पुं० [सं०] बृहत्संहिता के अनुसार एक राज्य जो ईशान कोण में है।

लोलजिह्व (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सर्प जिसकी जीभ लपलपाती रहती है [को०]।

लोलजिह्व (२)
वि० [सं०] लालची। चटोरा [को०]।

लोलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. चापल्य। चंचलता। २. लालसा। लालच। लीभ [को०]।

लोलत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोलता' [को०]।

लोलदिदेश
संज्ञा पुं० [सं०] लोलार्क नामक सूर्य। उ०—लोमदिनेस त्रिलोचन लोचन करणघंच घंटा सी। तुलसी (शब्द०)।

लोलनयन
वि० [सं०] दे० 'लोलचक्षु'।

लोलना पु
क्रि० अ० [सं० लोलन] हिलना। डोलना। उ०— गागरि नागरि लिए पनिघट तें चली घरहिं आवलै। ग्रीवा डोलत लीचन लोलत हरि के चिकतहि चुरावै।—सूर (शब्द०)।

लोलनेत्र, लाललोचन
वि० [सं०] दे० 'लोलचक्षु' [को०]।

लीलालांगूल
संज्ञा पुं० [सं० लोलालाङ्गुल] १. चंचल पुँछ। आस्फालनकरता हुआ पुच्छ। २. एक स्त्रोत्र। हनुमान जी की एक स्तुति।

लोला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १.जिह्वा। जीभ।२. लक्ष्मी। ३. मधु दैत्य की माता। ४. एक योगिनी का नाम। ५. युक्तिकल्पतरु के अनुसार एक प्रकार की नाव। ६४ हाथ चाँड़ी, ८ हाथ लंबी और ६ २/४ हाथ ऊँची नौका। ६. चंचला स्त्री। अत्यत चपल औरत (को०)। ७. विद्युत। तड़ित। चपल (को०)। ८. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में मगण, सगण, मगण, भगण और अंत में दो गुरु होते हैं। इसमें सात सात पर यति होती है। उ०—मा सौमौ भग गौ रो काहु ती मुख देखे। सिहौ- री कटि जोहे हस्ती चालहिं पेखे। लोला सी मृदुबैना पूछै बाल नवीना। बोली मातु फबै ना बाणी नोति विहोना।—छद०० पृ० २००।

लोला † (२)
संज्ञा पुं० [देश०] लड़कों का एक खइलौना। यह एक डंडा होता है, जिसके दोनों सिरों पर दो लट्टु होते हैं।

लोलाक्षि, लोलाक्षिका, लोलाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके नेत्र चप हों।चंचल नेत्रोंवाली स्त्री [को०]।

लोलार्क
संज्ञा पुं० [सं०] १.काशी के एक प्रसिद्ध तीर्थ का नाम जिसे लोलार्क कुंड कहते हैं। २. सूर्य का एक नाम (को०)।

लोलाबिंराज
संज्ञा पुं० [सं० लोलिम्बराज] आयुर्वेद के एक ग्रंथ के लेखर [कगो०]।

लोलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक शाक।चांगेरी। अमलोनी [को०]।

लोलित
वि० [सं०] १. शल्थ। २.ढआला। शिथिल। क्षुव्ध। कंपित। हिलाय हुआ [को०]।

लोलिनी
वि० स्त्री० [सं० लील] चंचल प्रकृतिवाली। उ०—कहुँ लोलिनी बेड़िनी गीत गावैं।—केशव (शब्द०)।

लोलुप
वि० [सं०] १. लोभी। लालची। २. चटोर। चट्टु। ३. किसी बात के लिये परम उत्सुक। ४. विब्बंसक। तोड़फोड़ करनेवाला। नाशक (को०)।

लोलुपता
संज्ञा स्त्री० [सं० लोलुप+ ता] लालच। तीव्र आकांक्षा। लालसा [को०]।

लोलुपत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोलुपता' [को०]।

लोलुपा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बलवती आकांक्षा। तीव्र इच्छा। गहरी लालसा [को०]।

लोलुभ
वि० [सं०] तीव्र आकांक्षा से युक्त। गहरी लालसवाला। लोलुप [को०]।

लोलुव
वि० [सं०] बहुत अधिक या बारबार कहनेवाला [को०]।

लोलेक्षण
वि० [सं०] चंचल नेत्रवाला। लोलचक्षु [को०]।

लोबा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० लोमशा] १. लोमड़ी। उ०—(क) बार अकाशे धँवेरे आए। लोला दरस आइ देखराए।—जायसी (शब्द०)। (ख) लोवा फिरि फिरि दरस देखावा। सुरभी सनमुख शिशुहि पियावा।—तुलसी (शब्द०)।

लोवा (२)
संज्ञा पुं० [सं० लब, हिं० लवा] तीतर की जाति का एक पक्षी। लवा। विशेष— यह वटेर से छोटा होता है और कश्मीर, मध्यप्रदेश तथा संयुक्त प्रांत में पाया जाता है। नर प्रायः मादा से कुछ अधिक बड़ा होता है। शिकारी इसका शिकार करते हैं। इसे गुरगा भी कहते हैं।

लोशन
संज्ञा पुं० [अं०] अधिक पानी में धुली हुई औषधि जो शरीर में ऊपर से लगाने, किसी पीड़ित अंश को धोने या तर रखने आदि के काम में आती है।

लोष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पत्थर। २. ढोला। डला। ३. लोहे का मोरचा (को०)। यौ०—लोष्टकुटिका=मिट्टी की डली या गोली। लोष्टघात=डेले से मारना। लोष्ट भंजन, लोष्टभेदन=जिसमे मिट्टी के डेले तोड़े जायँ पटेला। लोष्टमर्दो=(१) डेला तोड़नेवाला। मिट्टी के डले तोड़नेवाला। (२) दे० 'लोष्टध्न'।

लोष्टक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मिट्टी का डेला। २. धव्वा। ३. किसी जिन्ह या निशान का वतानेवाली वस्तु [को०]।

लोष्टघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] खेती का वह औजार जिससे खेत के डेले फोड़ते हैं। पटेला। पाटा।

लोष्टभंजन
संज्ञा पुं० [सं० लोष्टभोञ्जन] दे० 'लोष्टन ' [को०]।

लोष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोष्ट'।

लोहँड़ी
संज्ञा पुं० [सं० लौहभाण्ड या हिं० लोह+ड़ा० (प्रत्य०)] [स्त्री० लाहँड़ी] १. लोहे का एक प्रकार का पात्र जिसमें खाना पकाया जाता है। कभी कभी इसमें दस्ता भी लगा रहता है। २. तसला। उ०— चुंवक लोहँड़ा औटा खोवा। भा हलुवा घिउ केर निचोवा। —जायसी (शब्द०)।

लोह (१)
वि० [सं०] १. लाल रंगवाला। तामड़ा। ३. तांबे का वना हुआ। २. लोहे का वना हुआ।

लोह (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहा नामक प्रसिद्ध धातु। २. रक्त। खून। ३. लाल बकरा। ४. ताँवा (को०)। ५. इस्पात (को०)। ६. गोई धातु (को०)। ७. सोना (को०)। ८. शस्त्र। हथियार। उ०— लोह गहे लालच करि जिय को औरौ सुभट लजावै। सूरदास प्रभु जोति शत्रु को कुशल क्षेम घर आवै। —सूर (शब्द०)। ९. मछली पकड़न की कँटिया (को०)। १०. अगुरू। अगर नामक गंधद्रव्य (को०)।

लोहकंटक
संज्ञा पुं० [सं० लोहकण्टक] मदनफल का वृक्ष। मैनफल का पेड़। २. लोहे का काँटा [को०]।

लोहकटक
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे की साँकल। सिक्कड़ [को०]।

लोहकांत
संज्ञा पुं० [सं० लोहकान्त] चुंवक। अयस्कांत।

लोहकार
संज्ञा पुं० [सं०] लोहार।

लोहकार्षापण
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे का सिक्का या वाट।

लोहकिट्ट
संज्ञा पुं० [सं०] लोहे की कीट या मैल जो भट्ठे में डालकर लोहे को गलाने या ताव देने से निकलती है।विशेष— वैद्यक में इसे कृमि, वात, पित्त, जूल, मेह, गुल्म और शोय का नाशक लिखा है। इसका स्वाद मधुर और कटु तथा प्रकृति उष्ण मानी गई है। इसे मंडूर भी कहते हैं। पर्या०— किट्ट। लोहचूर्ण। अयोमल। लोहज। कृष्णचूर्ण। लोष्ट।

लोहकुंभी
संज्ञा स्त्री० [सं० लोहकुम्भी] लोहे का वह पात्र जिसमें कोई वस्तु खौलाई जाय। कड़ाहा [को०]।

लोहगंध
संज्ञा पुं० [सं० लोहगन्ध] महाभारत के अनुसार एक जाति का नाम।

लोहघातक
संज्ञा पुं० [सं०] कर्मकार नामक जाति। इस जाति के लोग लोहे को तपाकर पीटते हैं। लोहार।

लोहचर्मवान्
वि० [सं० लोहचर्मवत्] (व्यक्ति) जो लोहे का कवच पहने हो[को०]।

लोहचारक
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक [को०]।

लोहचालिका
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बख्तर जिससे सारा शरीर ढका रहता था [को०]।

लोहचून
संज्ञा पुं० [सं० लोहचूर्ण] दे० 'लोहचूर्ण'।

लोहचूर्ण
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहे का वुरादा या चूरा। लोहे की रेत। २. मोरचा। मैल [को०]।

लोहज
संज्ञा पुं० [सं०] १. कसकुट। कांसा। २. लोहे का चूरा [को०]।

लोहजाल
संज्ञा पुं० [सं०] कवच। जिरहवख्तर [को०]।

लोहजित्
संज्ञा पुं० [सं०] हीरा [को०]।

लोहदारक
संज्ञा पुं० [सं०] एक नरक का नाम। दे० 'लौहचारक' को०[।

लोहद्रावी
संज्ञा पुं० [सं० लोहद्राविन्] १. सोहागा। २. अम्लवेत।

होलनाल
संज्ञा पुं० [सं०] नाराच नामक अस्त्र। विशेष दे० 'नाराच'।

लोहनिर्यास
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोहकिट्ट' [को०]।

लोहनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोह+नी (प्रत्य०)] लोहे का तसला जिससे मल्लाह नाव का पानी उलीचते हैं।

लोहपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] सारस। बगुला [को०]।

लोहप्रतिमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. निहाई जिसपर तपाया हुआ लोहा रखकर पीटते हैं। २. लोहे को वनी मूर्ति [को०]।

लोहबंदा †
संज्ञा पुं० [हिं० लोहा+बाँधना] वह डंडा या छड़ी जिसका सिरा लोहे से मढ़ा हो।

लोहबद्ध
वि० [सं०] लोहे से मढ़े हुए सिरेवाला [को०]।

लोहबान
संज्ञा पुं० [अ० लोवान] दे० 'लोबान'।

लोहमणि
संज्ञा पुं० [सं०] सोने का पाँसा [को०]।

लोहमल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोहकिट्ट' [को०]।

लोहमाल
संज्ञा पुं० [सं०] भाला। वर्छा [को०]।

लोहमारक (१)
वि० [सं०] लोहशोधक [को०]।

लोहमारक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक साग [को०]।

लोहमुक्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लाल मोती [को०]।

लोहरज
संज्ञा स्त्री० [सं० लोहरजस्] मोरचा। जंग [को०]।

लोहराजक
संज्ञा पुं० [सं०] चाँदी [को०]।

लोहलंगर
संज्ञा पुं० [हिं० लोहा+लंगर] १. जाहज का लंगर। २. वहुत भारी वस्तु।

लोहल (१)
वि० [सं०] १. लौहनिर्मित। लोहे का बना हुआ। २. अस्पष्ट बालनेवाला [को०]।

लोहल (२)
संज्ञा पुं० शृंखला का मुल्य छल्ला [को०]।

लोहलिंग
संज्ञा पुं० [सं० लोहलिङ्ग] खून से भरा फोड़ा [को०]।

लोहवर
संज्ञा पुं० [सं०] सुवर्ण। सोना [को०]।

लोहवर्म
संज्ञा पुं० [सं० लोहवर्मन्] लोहे का कवच [को०]।

लोहशंकु
संज्ञा पुं० [सं० लोहशङ्कु] १. पुराणानुसार इक्कीस नरकों में से एक नरक का नाम। २. लोहे का भाला (को०)।

लोहशुद्धिक
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा [को०]।

लोहश्लेष्ण, लोहश्लेष्मक
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा।

लोहसंकर
संज्ञा पुं० [सं० लोहसङ्गर] १. धातुओं का मिश्रण। २. वतलोह। नीला इस्पात [को०]।

लोहसश्लेषक
संज्ञा पुं० [सं०] सुहागा [को०]।

लोहसार
संज्ञा पुं० [सं०] १. भौलाद। २. फौलाद को बनी जंजीर। उ०— लोहसार हस्ती पहिराए। मेघ साम जनु गरजत आए। —जयसी (शब्द०)।

लोहहारक
संज्ञा पुं० [सं०] मनु के अनुसार एक नरक का नाम।

लोहागारक
संज्ञा पुं०[सं० लोहाङ्गरक] दे० 'लोहहारक'।

लोहागी, लोहाँगी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोह+अग+ई] वह छड़ी या ड़डा जिसक एक किनारे पर लोहा लगा होता है।

लोहा (१)
संज्ञा पुं० [सं० लोह] १. एक प्रसीद्ध धातु जो संसार के सभी भागों में अनेक धातुओं के साथ मिली हुई पाई जाती है। विशेष— इसका रग प्रायः काला होता है। वायु या जल के 'संसर्ग से इसमे मोचो लग जाता है। भारतवर्ष में इस धातु का ज्ञान वैदिक काल से चला आता है। वेदो में लोहे को साफ करने की विधि पाई जाती है और उसके बन कठिन और तीक्ष्ण हथियारों का उल्लेख मिलता है। लोहे का ज्ञान पहले पहले संसार में किसे, कव, कहाँ और किस प्रकार हुआ, इसका उल्लेख नहीं मिलता। वैद्यक शास्त्र के अनुसार लाहा पाँच प्रकार का होता है—काँची, पाडि, का, कालिग और वज्रक। इनमें काँची, पाड और कालिग क्रमशः दाक्षण की काचापुरी, पंडा और कलिंग देश के लाहे के लोहे क नाम है, जा वहाँ को खाना से निकलते थे। जान पड़ता है, ब्रज्रक उस लोहे का कहते थे, जो आकाश से उल्का के रुप में गिरता था, क्योंकि बहुत दिनों से संसार में यह बात चलो आता है कि बिजली से या उल्कापात में लोहा गिरना है। कति हर एक स्थान के शुद्द किए लोहे का कहते हैं। इन्हीं पाँच प्रकार के लोहों का प्रयोग वैद्यक में सर्वश्रेष्ठ मानकर लिखा गया है। यह बलप्रद, शोथ, शूल, अर्शकुष्ट, पांडु, प्रमेह मेद और वायु का नाशक, आँखों की ज्योति और आयु को बढ़ानेवाला, गुरू तथा सारक माना जाता है। कुछ लोगों का तो यह भी मत है कि लोहा सब रोगों का नाश कर सकता है; और मृत्यु तक की हटा देता है। वैद्यक में लोहे के भस्म का प्रयोग होता है। भारतवर्ष का लोहा प्राचीन काल में संसार भर में प्रख्यात था। यहाँ के लोगो को ऐसे उपाय मालूम थे जिनसे लोहे पर सेकड़ों वर्षों तक ऋतु का प्रभाव नहीं पड़ता था; और वर्षा तथा वायु के सहन से तथा मिट्टी में गड़े रहने से उसमें मोर्चा नहीं लगता था। दिल्ली का प्रसिद्ध स्तंभ इसका उदारहण हे, जिसे पंद्रह सौ वर्ष से अधिक बीत चुके हैं। उसपर अभी तक कहीं मोर्च का नाम तक नहीं है।आज कल लोहे को जिस प्रणाली से साफ करते हैं, वह यह है,—खान से निकले हुए लोहे को पहले आग में डालकर जला देते हैं, जिससे पानी और गंधक आदि के अंश उसमे से निकल जाते हैं। फिर उस लोहे को कोयले या पत्थर के चूने के साथ मिलाकर बड़ी में डालकर गलाते हैं। इससे आक्सिजन का अंश, जो पहली बार जलाने से नही निकल सकता है, निकल जाता है। इतना साफ करने पर भी लोहे में पोत सैंकड़ा दो से पाँच अंश तक गंधक, कार्वन, सिलिका, फासफौ- रस, अलूमीनम आदि रह जाते हैँ। उन्हें अलग करने के लिये उसे फिर भट्टी तैयार करके लगाते हैं, और तब धन से पोटते हैं। पहले को देगचून और दूसरे को लोहा या कमाया हुआ लोहा कहते हैं।इस कच्चे लोहे में भी सैकड़ा पीछे ० १५ से .०५ तक कार्बन मिला रहता है।उसी कार्बन का निकालना प्रधान काम है। इस्पात में सैकड़े पीछे .६ से .२ तक कार्बन होता है। उत्तम लोहा वही माना जाता है, जिसपर अम्ल या एसिड आदि का कुछ भी प्रभाव न पड़े। विशुद्ध लोहे का रंग चाँदी की तरह सफेद होता है और जिला करने पर वह चमकने लगता है। याद लोहे को घिसा जाय, तो उससे एक प्रकार की गंध सी निकलती है। पुराणो में लिखा है कि प्राचीन काल में जब देवताओं ने लामिल दत्य का वध किया, तब उसी के शरीर से लोहा उत्पन्न हुआ। तीक्ष्ण, मुड़ और कांत लोहों के पर्याय भी अलग अलग है। तीक्ष्ण के पर्याय शस्त्रा- यस, शास्त्र्य, पिंड, शठ, आयस, निशित, तीव्र, खग, चित्रायस, मुंडज। इत्यादि। मुंड के पर्याय—दृषत्सार, शिलात्मज, अश्मज, कृषिलौह इत्यादि। कुछ लागों का कथन है कि आदि में 'लोहा' ताँबे को कहते थे। कारण यह है कि 'लौह' शब्द का प्रधान या यौगिक अर्थ है— ला। पीछे इसका प्रयोग लोहे के लिये करने लगे। पर यह कथन कई कारणों से ठीक नहीं जान पडता। एक कारण यह है कि वेदों में लौह और अयस् शब्दों का प्रोयग प्रायः सब धातुओं के लिये मिलता है। दूसरे यह कि अब लोहे को आधुनिक विद्वान लाल रेग का कारण मानने लगे हैं। उनकी धारणा है कि रक्त में लोहे के अंश ही के कारण ललाई है, और मिट्टी में लोहे का अंश मिला रहने स ही मिट्टी। के वर्तन और ईंटें आदि पकाने पर लाल हो जाती है। मुहा०—लोहे के चने=अत्यंत कठिन और दुःसाध्य काम। लोहे के चने चवाना=अत्यंत कठिन करना। यौ०—लोहे की स्टाही=एक प्रकार का रंग जो लोहे से तैयार किया जाता है। विशेष— यह रंग तैयार करने के लिये पहले गुड़ या शीरे को पानी में घोल लेते हैं और उसमें लोहचून छोड़कर धूप में रख देते हैं। कई दिनों में वह उठने लगता है, और उसके ऊपर झाग काले रंग का हो जाता है, तब जान लेते हैं कि रंग तैयार हो गया है।इसे 'कसेरे की स्याही' और 'कत्य' भी कहते हैं। यह रँगाई के काम में आता है। २. अस्त्र। हथीयार। उ०— नेही लोहा नूर लखि कटत कटाच्छन माँहि। असनेही हित खेत तजि भागत लोहे जाहिं। —रसनिधि (शब्द०)। ३. लड़ाई। यूद्ध। मुहा०—लोहा गहना=हथियार उठाना। युद्ध करना। उ०— काशीराम कहैं रघुवंशिन की रीति यही जासों कीजे मोह तासों लोह कैसे गहिए।—हनुमन्नाटक (शब्द०)। लोहा वजना =युद्ध होना। उ०— दोनों वीर ललकार के ऐसे टूटे कि हाथियों के यूथ पै सिंह टूटे और लगा लोहा वजने।—लल्लू (शब्द०)। लोहा वरसना=तलवार चलना। घमासान मचना। किसी का लोहा मानना=(१)किसी विषय में किसी का प्रभुत्व स्वीकार करना। किसी विषय में किसी से दवना। (२) पराजित होना। हार जाना। लोहा लेना=लड़ना। युद्ध करना। लड़ाई करना। उ०— सनमुख लोह भरत सन लेऊँ।जियत न सुरसरि उतरन देऊँ।—तुलसी (शब्द०)। ४. लोहे को वनाई हुई कोई चीज या उपकरण। जैसे,—लगाम, कवच आदि। उ०—(क) राजा धरा आन के तन पहिरावा लोह। ऐसी लोह सो पहिरे चेत श्याम की ओह। जायसी (शब्द०)। (ख) पवन समान सुद्र पर धावहिं। बूड़ि न पाँव पार होइ आवहिं। थिर न रहहिं रिस लोह चलाहीं। भआजहिं पूँछ सीस उपराहीं।—जायसी (शब्द०)। ४. लाल रंग का बैल। ५. धाक। दवदवा। प्रभुत्व (को०)। ६. कपड़े की शिकन दूर करनेवाली धोबी की इस्तिरी।

लोहा (२)
वि० [वि० स्त्री० लोही] १. लाल। २. वहुत अधिक कड़ा। कठोर।

लोहाख्य
संज्ञा पुं० [सं०] अगुरु [को०]।

लोहाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] बाण के आगे लगी लोहे की नोक [को०]।

लोहाज
संज्ञा पुं० [सं०] लाल बकरा [को०]।

लोहाना (१)
क्रि० अ० [हिं० लोहा+आना(प्रत्य०)] लोहे के बर्तन में रखी रहने के कारण किसी वस्तु में लोहे के गुण या रंग आदि का उतर आना। किसी पदार्थ में लोहे का रंग या स्वाद आ जाना।

लोहाना (२)
संज्ञा पुं० [देश०] एक जाति का नाम।

लोहाभिसार
संज्ञा पुं०[सं०] दे० 'लोहाभिहार'।

लोहाभिहार
संज्ञा पुं० [सं०] सेना का एक उत्सव जिसमें युद्धार्थ अस्त्र शस्त्रों की सफाई की जाती है।

लोहामिष
संज्ञा पुं० [सं०] लाल वकरे का मांस [को०]।

लोहायस
वि० [सं०] दे० 'लौहायस'।

लोहार
संज्ञा पुं० [सं० लौहाकार, प्रा० लोह+आर (प्रत्य०)][स्त्री० लोहारिन या लोहाइन] एक जाति जो लोहे का काम करती है। विशेष— इस जाति के अनेक भेद हैं। उनमें से कुछ अपने को व्राह्मण कहते हैं और यज्ञोपवीत धारण करते हैं। उनकी अंतर्जातियों के नाम भी औझा आदि होते हैं। पर अधिकतर आचारहीन होते हैं और शूद्र माने जाति हैं। प्रत्येक अंतर्जाति का खान पान और विवाह संबंध पृथक् पृथक् होता है; और उनके नाम भी भिन्न होते हैं। यौ०—लोहार की स्याही=कसीस। हीरा कसीस।

लोहारखाना
संज्ञा पुं० [हिं० लोहार+फ़ा० खानह्] लोहारों के काम करने का स्थान।

लोहारी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लोहार+ई (प्रत्य०)] लोहारों का काम। लोहार का व्यवसाय या पेशा।

लोहार्गल
संज्ञा पुं० [सं०] १. वराहपुराण में वर्णित एक तीर्थ का नाम। २. लोहे का सिक्कड़ [को०]।

लोहि
संज्ञा पुं० [सं०] श्वते वर्ण का टंकणक्षार। एक किस्म का सुहागा [को०]।

लोहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोहे का पात्र, तसला आदि [को०]।

लोहित (१)
वि० [सं०] रक्त। लाल। उ०— दिवस का अवसान समीप था, गगन था कुछ लोहित हो चला।—प्रिय०, पृ० १।

लोहित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंगल ग्रह। उ०— प्रति मंदिर कलमनि पर भ्राजहिं मनि गन दुति अपनी।मानहुँ प्रगटि विपुल लोहित पुर पठइ दिए अवनी।—तुलसी (शब्द०)। २. लाल रंग (को०)। ३. साँप। ४. एक प्रकार का मृग। ५. ब्रह्मपुत्र नद का एक नाम (को०)। ६. एक प्रकार का धान (को०)। ७. आँख का एक विशेष रोग (को०)। ८. एक रत्न। लाल। ९. ताँवा (को०)। १०. खून। रक्त (को०)। ११. केसर (को०)। १२. युद्ध (को०)। १३. लाल चंदन (को०)। १४. एक समुद्र (को०)। १५. रोहू मछली (को०)। १६. अपूर्ण या हीन इंद्रधनु (को०)।

लोहितक (१)
संज्ञा पुं०[सं०] १. पद्यराग मणि। लाल मणि। २. मंगल ग्रह। ३. एक प्रकार का धान। ४. फूल नामक धातु। ५. ताँवा। ६. आजकल के रोहतक नगर का प्राचीन नाम।

लोहितक (२)
वि० लाल। रक्त वर्ण का [को०]।

लोहितकल्माष
वि० [सं०] लाल धव्वोंवाला[को०]।

लोहितकृष्ण
वि० [सं०] गहरा लाल [को०]।

लोहितक्षय
संज्ञा पुं० [सं०] रक्ताल्पता रोग[को०]।

लोहितग्रीव
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि का एक नाम [को०]।

लोहितचंदन
संज्ञा पुं० [सं० लोहितचन्दन] १. केसर। कुंकुम। २. लाल चंदन [को०]।

लोहिततूल
वि० [सं०] लाल चोटीवाला [को०]।

लिहितनयन
वि० [सं०] जिसकी आखें (क्रोध से) लाल हो गई हों। लाल आँखोंवाला [को०]।

लोहितपादक
वि० [सं०] लाल तलवोंवाला (शिशु)।

लोहितगित्ति
वि० [सं० ] रक्तपित्त रोग का रोगी।

लोहितपुष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] अनार का वृक्ष [को०]।

लोहितमुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक मूल्यवान् रत्न[को०]।

लोहितमृत्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. गोरू। गैरिक धातु। २. लाल रंग की मिट्टी।

लोहितराग
संज्ञा पुं० [सं०] लाल रंग।

लोहितवासा
वि० [सं० लोहितवासस्] जिसके वस्त्र रक्त वर्ण या लाल रंग के हों।

लोहित शतपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] लाल कमल [को०]।

लोहितशवल
वि० [सं०] लाल रंग में ओतप्रोत [को०]।

लोहितस्मृति
संज्ञा पुं० [सं०] एक स्मृतिग्रंथ।

लोहितांग
संज्ञा पुं० [सं० लोहिताङ्ग] १. मोगल ग्रह। २. कांपिल्ल नामक वृक्ष (को०)।

लोहिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि की सात जिह्वाओं में से एक का नाम [को०]।

लोहिताक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. लाल पासा। २. एक जाति का सर्प। ३. कोयल। ४. विष्णु। ५. वगल। काँख। कुक्षि। ६. नितंव [को०]।

लोहिताक्षक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का सर्प [को०]।

लोहिताधिप
संज्ञा पुं० [सं०] मंगल ग्रह [को०]।

लोहितानन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] शिकारी नेवला। एक प्रकार का नेवला जो घड़ियाल के अडे नष्ट कर देता है [को०]।

लोहितानन (२)
वि० लाल मुख का। लाल मुखवाला [को०]।

लोहितायस
संज्ञा पुं० [सं० ] ताँवा [को०]।

लोहितद्रि
वि० [सं०] खून से तर। खून से भींगा हुआ [को०]।

लोहिताशोक
संज्ञा पुं० [सं०] अशोक वृक्ष का एक भेद। शक्ताशोक। लाल फूलोंवाला अशोक [को०]।

लोहिताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] १. पावक। अग्नि। २. शिव का एक नाम [को०]।

लोहितिमा
संज्ञा स्त्री० [सं० लोहितिमन्] रक्तता। रक्तिमा। लालिमा [को०]।

लोहितीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक पुराना सिक्का। २. बटखरा। बाट [को०]।

लोहितेक्षण
वि० [सं०] लाल लाल नेत्रोंवाला। दे० 'लोहित- नयन' [को०]।

लोहितोद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार इछीस नरकों में से एक नरक का नाम। जहाँ का जल रक्तमय कहा गया है।

लोहितोद (२)
वि० १. जिसका जल लाल हो। २. रक्तमय जलवाला [को०]।

लोहित्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्राचीन गाँव का नाम। वाल्मीकि ने कपीवती नदी का इसमें होकर बहना लिखा है। २. ब्रह्मपुत्र नद। ३. एक समुद्र का नाम। पुराणानुसार यह कुश द्वीप के पास है। ४. एक प्रकार का चावल (को०)। दे० 'लोहित्य'।

लोहित्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक नदी का नाम। २. एक अप्सरा का नाम।

लोहिनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शरीरस्थ एक नीड़ी। २. एक बौधे का नाम [को०]।

लोहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्त्री जिसके शरीर का वर्ण लाल हो। लाल चमड़ीवाली स्त्री० [को०]।

लोहिनीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रक्त कांति। लाल कांति [को०]।

लोहिया
संज्ञा पुं० [हिं० लोहा+इया (प्रत्य०)] १. लोहे की चीजों का व्यापार करनेवाला। २. बनियों और मारवाड़ियों की एक जाति का नाम। ३. लाल रंग का बैल। ४. लोहे की वनी हुई गोली।

लोही ‡
संज्ञा स्त्री० [सं० लोह] १. अरुणिमा। ऊया की लाली। २. चुगली। शिकायत। निंदा। ३. दे० 'लौही'।

लोहू
संज्ञा पुं० [सं० लोहित (=लाल)] रक्त। विशेष दे० 'लहू'। उ०— (क) तहिया हम तुम एकै लोहू। एकै प्रान वियावल मोहू। —कवीर (शब्द०)। (ख) राते विंव भए तेहि लोहू। परवर पाक फटे हिय गोहूँ। —जायसी (शब्द०)। (ग) लोयिन्ह ते लोहू के प्रवाह चले जहाँ तहाँ मनहू गिरिन गेरू झरना झरत हैं। —तुलसी (शब्द०)। (घ) माता को मांस तोहि लागतु है मीठी मुख पियत पिता को लोहू नेक न अघाति हैं।— केशव (शब्द०)। यौ०— लोहू लुहान=खून से लथपथ। उ० 'अरे यह क्या! मनू औन नाना साहव दोनों लोहुलुहान है।—झाँसी०, पृ० २५।

लोहोन्छष्ट
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोहिकिट्ट'।

लोहोत्तम
संज्ञा पुं० [सं०] स्वर्ण। सोना [को०]।

लोहोत्थ
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोहकिट्ट' [को०]।

लोह्य
संज्ञा पुं० [सं०] पीतल [को०]।

लौंडा (१)
संज्ञा पुं० [सं० लावण्य या लावण्यक या लुण्टक अथवा देशी] [स्त्री० लौंडी, लौंडिया] १. छोकरा। बालक। लड़का। २. खूवसूरत और नमकीन लड़का। यौ०— सौंडेवाज। लौंडेवाजी।

लौंडा (२)
वि० १. अबोध। २. छिछोरा।

लौंडापन
संज्ञा पुं० [हिं० लौंडा+पन (प्रत्य०)] १. लौंडा होने का भाव। २. लड़कपन। नादानी। ३. छिछोरापन।

लौंडोबाज
वि० [हिं० लौंडा+फ़ा० वाज] १. (पुरुष) जो सुंदर वालकों से प्रेम रखता हो ओर उनके साथ प्रकृतिविरुद्ध आचरण करता हो। २. (स्त्री) जो कम अवस्था के युवकों से प्रेम रखती हो। (बाजारू)।

लौडिवाली
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौंडा + फा़० वाजी] लौंडेबाज का काम। लौंडों से प्रेम रखना।

लौँ पु
अव्य० [हिं० लग] १. तक। पर्यंत। उ०—अजहूँ लौ राजत नीरधि तट करत सांख्य विस्तार। सांख्यायन से बहुत महामुनि सेवत चरण सुचार।—सूर (शब्द०)। (ख) चलत चलत लौं लै चले सब सुख संग लगाय। ग्रीषम वासर सिसिर निसि पिय मो पास बसाय। बिहारी (शब्द०)। २. समान। तुल्य। बराबर। उ०—(क) दुतिये के शशि लौं बाढ़ैं शिशु देखै जननि जसोई। यह सुख सूरदास के नैनन दिन दिन दुनौ होई।—सूर (शब्द०)। (ख) कहति न देवर की कुवत कुलतिय कलह डराति। पंजर गात मंजार ढिग सुक लौं सूखति जाति—बिहारी (शब्द०)।

लौँकना पु †
क्रि० अ० [सं० लोकन] १. दृष्टिगोचर होना। दिखाई देना। उ०—लौंकन चीर ध्वजा रतनारे। सावन भादों के घन वारे।—गुमान (शब्द०)। २. चमकना। ३. आँखों में चकाचींध होना।

लौँग
संज्ञा पुं० [सं० लवङ्ग] १. एक झाड़ की कली जो खिलने से पहले ही तोड़कर सुखा ली जाती है। इसके वृक्ष मालाबार अफ्रीका के समुद्रतट, जंजिवार, मलाया, जावा आदि में होते हैं। विशेष—लौंग की खेती के लिये काली मिट्टी और विशेषतः वह मिट्टी जो ज्वालामुखी की राख हो या जिसमें बालू मिला हो, अच्छी मानी जाती है । पहले इसको पनीरी में एक एक फुट पर बो देते हैं। इसका बीज जहाँ तक हो, जब तक ताजा रहे, तभी तक बोया जाता है; क्योंकि फूल सूख जाने पर बीज नहीं जमतें। चार पाँच सप्ताह में बीज उग आते हैं। पौधे जब चार फुट ऊँचे हो जाते हैं, तब उनको पनीरी से उखाड़कर बीस बीस फुट की दूरी पर बाग में लगाते हैं। जहाँ यह लगाया जाय वहाँ की भूमि पोली और दोमट होनी चाहिए। मटियार, बालू या दलदल में यह पौधा नहीं रह सकता। यदि काली मिट्टी में बालू मिला हो और उसके नीचे पीली मिट्टी और कंकड़ पड़ जाय तो लौंग का पेड़ बहुत शीघ्र बढ़ता है। अत्यंत घनी छाया इसको हानिकर होती है। पनीरी बैठाने का समय प्रायः वर्षा का आरंभ है। बैठाए हुए पौधे को दो तीन वर्ष तक धूप से बचाने के लिये प्रायः छाया की आवश्यकता पड़ती है; और आँधी से बचाने के लिये इसके बाग की घनी झाड़ी से रुँधाई करने की आवश्य- कता होती है। कभी कभी इसमें आवश्यकतानुसार पानी भी दिया जाता है। तीसरे वर्ष इसके ऊपर से छाजन हटा ली जाती है; और छठे वर्ष से फूल आने लगता है। बारहवें वर्ष पौधा खूब खिलता है; और बीस पचीस वर्ष तक फूलता रहता है। इसके बाद फूल कम आने लगते हैं। कलियाँ पहले हरी रहती है; फिर पीली और अंत को गुलाबी रंग की होती हैं। वही उनके तोड़ने का समय है। ये कलियाँ या तो बँधी हुई चुन ली जाती हैं अथवा लकड़ियों से पीटकर नीचे गिरा दी जाती हैं, और फिर उनको इकट्ठा करके सुखा लिया जाता है। यही लौंग है जो बाजारों में बिकता है। कोई कोई कलियाँ जो पेड़ों में रह जाती हैं, बढ़कर फूल जाती हैं और फूल झड़ जाने पर नीचे का भाग फूलकर छोटा सी घुंडी के आकार का हो जाता है, जिसमें एक या दो दाने होते हैं। यही घुंडी बोने के काम में आती है। लौंग की कलम भी उसकी डाली को मिट्टी में दबाने से तैयार की जाती है। डेढ़ दो महीने में उसमें जड़े निकल आती हैं। इस प्रकार की कलम जल्दी फूलने लगती हैं। वैद्यक में इस का स्वाद बरारा कड़ु्आ, गुण शीतल, दीपन, पाचन, रूत्तिकारक कफ-पित्त-नाशक, प्यास और वमन को मिटानेवाला, आँखों के लिये हितकर और शूल, खाँसी, श्वास, हिचकी और क्षय रोग का नाशक माना गया है। लौंग से भवके द्वारा एक प्रकार का तेल निकलता है। उसका व्यवहार सभी देशी और विदेशी औषधी में होता है। वैद्यक मे इसके तेल का वातनाशक, अग्निदीपक, कफनाशक और गर्भिणी के वमन को दूर करनेवाला लिखा है। दाँत की पीड़ा में जब दू पेत्त कृमि हो जायँ, इसको लगाना विशेष लाभदायक होता है। लौंग का प्रयोग विशेषकर मसाले में होता है। पर्या०—देवकुसुम। श्रीसंज्ञ। कलिकोत्तम। भृंगार। सुषिर। तीक्ष्ण। वारिज। शेखर। लब। श्रीपुष्प। रुचिर। वारिपुष्प। दिव्यगंध। तीक्ष्णपुष्प। २. लौंग के आकार का एक आभूषण जिसे स्त्रियाँ नाक या कान में पहनती हैं। उ०—यदापि लौंग ललितौ तऊ तू नयहरि दृक आरु। सदा संक दढिऐ रहै रहै चढ़ी सी नाक।—बिहारी (शब्द०)।

लौंगचिड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० लौंग + चिड़ा (=चिड़िया)] १. एक प्रकार का कबाब जो बेसन मिलाकर बनाया जाता है। २. फुलकी रोटी (क्व०)।

लौंगमुश्क
संज्ञा पुं० [हिं० लौंद + मुश्क] एक प्रकार के फूल का नाम।

लौंगरा
संज्ञा पुं० [हिं० लौंग] एक प्रकार की वार्षिक घास। एक घास जो बरसात में होती है। विशेष—इसकी पत्तियाँ गोल और नुकीली, बरियारे से कुछ अधिक बड़ी और चमकीली होती हैं। यह घास बरसात में उगती है और इसमें लौंग के आकार की कलियाँ लगती हैं, जिनके डंठल प्रायः चौकोर होते हैं। फूल पीले रंग के होते हैं और पक जाने पर नीचे के डंठल कुछ मोटे हो जाते हैं, जिनमें बीजों से भरे चार बीजकोश निकलते हैं। बीज काले रंग के और चिपटे होते हैं। बंगाल में लोग इसकी पत्तियों का साग बनाते हैं।

लौँगियामिर्च
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौंग + इया (प्रत्य०) + मिर्च] एक प्रकार की बहुत कड़वी मिर्च जिसका पेड़ बहुत बड़ा और फल छोटे छोटे होते हैं। इसे मिरची भी कहते हैं।

लौँड़ा †
संज्ञा पुं० [सं० लिङ्ग वा देश०] पुरुष की मूत्रेंद्रिय।

लौँड़िया
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौंड़ी + आ (प्रत्य०)] दे० 'लौंड़ी'। उ०—तेकर होइबों लौंड़ीया, जे रहिया बतावै हो।—धरनी०, पृ० १२७।

लौँड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौंडा] दासी। मजदूरनी। उ०—मन मनसा द्वै लौंड़ी निकारि डारो, मारो हंकार तृष्णा कुबुधि कुबाद की।—कबीर (शब्द०)।

लौँद
संज्ञा पुं० [सं० लब्ध या लब्धि = (प्राप्ति)?] अधिमास। मलमास।

लौँदरा †
संज्ञा पुं० [हिं० लव (=बालू)] वह पानी जो ग्रीष्म ऋतु में वर्षा आरंभ होने से पहले बरसता है। लवँदरा। लवंद। दौंगरा।

लौँदा पु
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लोंदा'।

लौँदी
संज्ञा स्त्री० [देश०] वह करछी जिससे खँडसार में पाक चलाया जाता है। (बुँदेला)।

लौँन (१)
संज्ञा पुं० [सं० लवन] १. दे० 'लवन'। २. दे० 'लौंद'।

लौँन (२)
संज्ञा पुं० [सं० लवण] दे० 'लोन'। उ०—तैसो इह कहिए अब कौन। दाधे पर जस लागत लौंग।—नंद० ग्रं०, पृ० १७१।

लौ (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० दावा] १. आग की लपट। ज्वाला। उ०— जोरि जो धरी है बेदरद द्वारे तौन होरी, मेरी बिरहागि की उलूकनि लौ लाइ आव।—पद्माकर (शब्द०)। २. दीपक की टेम। दीपशिखा।

लौ (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लाग] १. लाग। चाह। राग। उ०—लौ इनकी लागी रहै निज मन मोहन रूप। तातैं इन रसनिधि लयौ लोचन नाम अनूप।—रसनिधि (शब्द०)। २. चित्त की वृति। यौ०—लौलीन = किसी के ध्यान में डूबा हुआ या मस्त। उ०— खसम न चीन्हें बावरी पर पुरुषै लौलीन। कबीर पुकारि के परी न बानी चीन्ह।—कबीर (शब्द०)। ३. आशा। कामना। उ०—लौ लगी लोयन में लखिबे की उसे गुरु लोगन को भय भारी।—सुंदरीसर्वस्व (शब्द०)। क्रि० प्र०—लगना।—लगाना।

लौ (३)
संज्ञा पुं० [सं० लोलक] कान का लटका हुआ भाग। लोलकी।

लौआ
संज्ञा पुं० [सं० लावुक] कद्दू। घीआ।

लौकना
क्रि० अ० [सं० लोकन] दूर से दिखाई देना। उ०—मनि कुंडल झलकै अति लोनै। जजु कौंधा लौकहि दुइ कोने।— जायसी (शब्द०)।

लौकांतिक
संज्ञा पुं० [सं० लौकान्तिक] जैनों के अनुसार वे स्वर्गस्थ जीव जो पाँचवें स्वर्ग ब्रह्मलोक में रहते हैं। ऐसे जीवों का जो दूसरा अवतार होता है, वह अंतिम होता है और उसके उपरांत फिर उन्हें अवतार धारण करने की आवश्यकता नहीं रह जाती।

लौका †
संज्ञा पु० [सं० लावुक] [स्त्री० लौकी] कद्दू। उ०—भइ भूजी लौका परबती। रौंता कीन्ह काटि कै रती।—जायसी (शब्द०)।

लौकायतिक
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो चार्वाक मत को मानता हो। नास्तिक। भौतिकवादी [को०]।

लौकिक (१)
वि० [सं०] १. लोक संबंधी। सांसारिक। २. पार्थिव। भौतिक। ३. व्यावहारिक। ४. सामान्य। साधारण। प्रचलित। सार्वजनिक।

लौकिक (२)
संज्ञा पुं० १. सात मात्राओं के छंदों का नाम। ऐसे छंद इक्कीस प्रकार के होते हैं। २. सांसारिक व्यवहार। लोक- व्यवहार या चलन (को०)।

लौकिकन्याय
संज्ञा पुं० [सं०] लोक में पाला जानेवाला नियम। साधारण नियम।

लौकिकाग्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अग्नि जिसका विधिपूर्वक संस्कार न हुआ हो। सामान्य अग्नि।

लौकिकज्ञ
वि० [सं०] लोकव्यवहार को जाननेवाला [को०]।

लौकी †
संज्ञा स्त्री० [सं० लावुक] १. कद्दू। घीआ। २. काठ की वह नली जिसे भबके में लगाकर मद्य चुआते हैं।

लौक्य
वि० [सं०] १. लौकिक। पार्थिव। २. साधारण। सामान्य। प्रचलित [को०]।

लौगाक्षि
संज्ञा पुं० [सं०] धर्मशास्त्र के कर्ता एक प्राचीन आचार्य का नाम।

लौज
संज्ञा पुं० [अ० लौज़] १. बादाम। २. एक प्रकार की मिठाई जो काटकर तिकोनिया बरफी के आकार की बनाई जाती है। इसमें प्रायः बादाम पीसकर डालते हैं। यौ०—लौजात की गोट = वह ऐंठ की गोट जो समोसे के जोड़ों पर बनाई जाती है।

लौजीना
संज्ञा पुं० [अ० लौजीना] १. बादाम का हलवा। २. पिस्ते बादाम से बनी मिठाई [को०]।

लौजोरा पु †
संज्ञा पुं० [हिं० लौ + जोड़ना] पीतल या काँसे के कारखाने में वह काम करनेवाला जो भट्ठी के पास बैठा हुआ यह देखता रहता है कि धातु गल गई या नहीं। धातु गलानेवाला।

लौट
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौटना] लौटने की क्रिया, भाव या ढंग। घुमाव। मुड़ना। उ०—करु उठाय घूघुट करत उझरत पट गुझरौट। सुख मोटै लूटीं ललन लखि ललना की लौत।— बिहारी र०, दो० ४२४।

लौटनहारा पु †
वि० [हिं० लौटना + हरा (प्रत्य०)] लौटने, वापस होने या मुड़ जानेवाला। उ०—साँकरी खोर में काँकरी की करि चोट चलौ फिरि लौटनहारौ।—पद्माकर (शब्द०)।

लौटना (१)
क्रि० अ० [हिं० उलटना] १. कही जाकर पुनः वहाँ से फिरना। वापस आना। पलटना। उ०—(क) नख तें सिख लौं लखि मोहन को तन लाड़िली लौटन पीठ दई। कबि बेनी छबीले भरी अँकवारि पसारि भुजा करि नेहमई। यह गुंज की माल कठोर अहो रहो मो छातियाँ गड़ि पीर भई। उचकी लची चौंकी चकी मुख फेरि तरेरि बडी अँखियाँ चितई।—बेनी (शब्द०)। २. इधर से उधर मुँह फेरना। पीछे की ओर मुँह करना। उ०—ताही समय उठो घन घोर शोर दामिनी सी लागी लौटि श्याम घन उर सों लपकि कै।—केशव (शब्द०)। संयो क्रि०—जाना।—पड़ना।

लौटना (२)
क्रि० स० इधर से उधर करना। पलटना। उलटना। जैसे— पुस्तक के पत्ते लौटना। (क्क०)।

लौटपटा
संज्ञा पुं० [हिं० लौट + पटा] १. दे० 'लोटपोट'। २. 'लहालोट'।

लौटपौट
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौट + अनु० पौट] १. दोरुखी छपाई। वह छपाई जिसमें दोनों ओर एक से बेल बूटे दिखाई पड़ें। वह छपाई जिसमें उलटा सीधा न हो। २. उलटने पलटने की क्रिया। ३. दे० 'लोटपोट'।

लौटफेर
संज्ञा पुं० [हिं० लौट + फेर] इधर का उधर हो जाना। उलटफेर। हेर फेर। भारी परिवर्तन।

लौटान
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौटना] लौटने की क्रिया या भाव।

लौटाना
क्रि० स० [हिं० लौटना का सक० रुप] १. फेरना। पलटाना। २. वापस करना। जैसे,—(क) यदि आप वहाँ जायँ, तो उन्हें लौटाकर ला सकते हैं। (ख) अब आप ये सब पुस्तकें उन्हें लौटा दें। ३. किसी को उल्टे मुँह फेरना। वापस करना। ४. ऊपर नीचे करना। जैसे,—कपड़ा लौटाना। (क्व०)।

लौटानी
क्रि० वि० [हिं० लौटना] लौटते समय। लौटती बार।

लौड़ा
संज्ञा पुं० [सं० लोल या हिं० लंड] पुरुष की मूत्रेंद्रिय।

लौद, लौदरा †
संज्ञा पुं० [सं० नव + डाली] [स्त्री० लौदड़ी, लौदरी] अरहर आदि की नरम डाली जिससे छानी छाने का का काम लेते हैं। (दुआब या अंतर्वेद)।

लौन पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० लवण] नमक। लवण। उ०—(क) कीन्हेहू कोटिक जतन अब गहि काढ़ै कौन। भौ मनमोहन रूप मिलि पानी में को लौन।—बिहारी (शब्द०)। (ख) प्रीतम पै चाख्यो दृगन रूप मलोने लौन। कहैं इश्क मैदान में तौ कहु अचरज कौन।—रसनिधि (शब्द०)।

लौन † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० लवन] फसल की कटाई। लौनी।

लौनहार †
संज्ञा पुं० [हिं० लौना + हार (प्रत्य०)] [स्त्री० लौन— हारिन] खेत काटनेवाला। लौनी करनेवाला।

लौना †
संज्ञा पुं० [सं० लूम या रोम] वह रस्सी जिससे किसी पशु के एक अगले और एक पिछले पैर को एक साथ बाँधते हैं, जिसमें खुला छोड़ देने पर भी वह दूर तक न जा सके।

लौना (२)
संज्ञा पुं० [सं० ज्वलन] ईंधन।

लौना (३)
संज्ञा पुं० [सं० लवन] फसल काटने का काम। कटनी। कटाई। लौनी।

लौना पु (४)
वि० [सं० लावण्य (=लोन)] [वि० स्त्री० लौनी] लावण्ययुक्त। सुंदर। उ०—खेलत है हरि वागे वने जहाँ बैठी प्रिया रति तें अति लौनी।—केशव (शब्द०)।

लौनी ‡ (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौना] १. फसल की कटनी। कटाई। २. वह कटा हुआ डंठल जो अँकवार में आवे। अँकोरा। डाबी। लहना।

लौनी पु (२)
संज्ञा स्त्री० [हिं० नवनीत] नैनू। नवनीत। उ०— लौनी कर आनन परसत हैं कछुक खाइ कछु लग्यो कपेलनि। कहि जन सूर कहाँ लौं वरनौं धन्य नंद जीवन युग तोलनि।—सूर (शब्द०)।

लौमना †
संज्ञा पुं० [सं० लूम] दे० 'लौना'।

लौमनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौना या लौनी] १. दे० 'लौना'। २. दे० 'लौना'।

लौरी
संज्ञा स्त्री० [सं० लेह, हिं० लैरू] बछिया। उ०—सो सुनि राधिका काँपि गई डरि दौरि के लौरिहिं सी लपटानी।— सुधानिधि, पृ० ११९।

लौल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. अस्थिरता। चंचल वृत्ति। २. उत्सुकता। उत्कट अभिलाषा। लालच [को०]।

लौस
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. लिप्त होना। २. मिलावट। मिश्रण। ३. धब्बा। दाग [को०]।

लौह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहा। २. शस्त्रास्त्र। ३. लाल बकरे का मांस (को०)।

लौह (२)
वि० [सं०] १. लोहे का बना हुआ। २. ताम्रानिर्मित। ३. तामड़ा। ताँबे के रंग का। लाल। ४. धातुनिर्मित [को०]।

लौह (३)
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. तख्ती। २. पुस्तक का सफा। पृष्ठ। पन्ना। पत्र।

लौहकार
संज्ञा पुं० [सं०] लौहार।

लौहचारक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक भीषण नरक का नाम।

लौहज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंडूर। २. लौहे का मोरचा। जंग [को०]।

लौहबंद
संज्ञा पुं० [सं० लौहबन्ध] लोहे की बड़ी या सिक्कड़ [को०]।

लौहभांड
संज्ञा पुं० [सं० लौहभाण्ड] लोहे का पात्र [को०]।

लौहभू
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लौहात्मा' [को०]।

लौहमल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'लौहज'।

लौहशंकु
संज्ञा पुं० [सं० लौहशङ्कु] लोहे का भाला [को०]।

लौहशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] धातुविद्या। धातुविज्ञान [को०]।

लौहसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लवण जो लोहे से बनाया जाता है। यह रासायनिक परिक्रिया द्वारा बनता है और औषधों में काम आता है।

लौहा
संज्ञा पुं० [सं० लौह] दे० 'लोहा'।

लौहाचार्य
संज्ञा पुं० [सं०] धातुओं के तत्व को जाननेवाला आचार्य। वह जो धातुविद्या का अच्छा ज्ञाता हो। धातुविद्याविद्।

लौहात्मा
संज्ञा पुं० [सं० लौहात्मन्] लोहे का पात्र। कड़ाही। केतली [को०]।

लौहायस
वि० [सं०] लोहे या ताँबे का बना हुआ।

लौहासव
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का आसव जो लोहे के योग से बनाया जाता है। (वैद्यक)।

लौहि
संज्ञा पुं० [सं०] हरिवंश के अनुसार अष्टक के एक पुत्र का नाम।

लौहित
संज्ञा पुं० [सं०] महादेव का त्रिशूल।

लौहिता
संज्ञा पुं० [हिं० लोहा] वैश्यों की एक जाति जो लोहे का व्यापार करती है। लोहिया।

लौहितायन
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्र का नाम।

लौहिताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] लोहिताश्व। अग्नि [को०]।

लौहितिक
वि० [सं०] लालिमायुक्त। ललौंहा [को०]।

लौहित्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का धान जिसके चावल लालरंग के होते हैं। २. ब्रह्मपुत्र नद। ३. एक पर्वत का नाम। ४. एक तीर्थ का नाम। ५. लाल सागर। ६. लालिमा। ललाई, लाली (को०)।

लौही
संज्ञा स्त्री० [सं०] लौहपात्र। कड़ाही आदि [को०]।

लौहैष्ट
वि० [सं०] लोहे या अन्य किसी धातु के बने हुए बम से युक्त रथ [को०]।

ल्याना पु
क्रि० स० [हिं० ले + आना] १. दे० 'लाना'। उ०— (क) ल्याई लाल बिलोकिए जिय की जीवन मूलि। रही भौन के कौन में सोनजुही सी फूलि।—बिहारी (शब्द०)। (ख) काहे ते ल्याई फिरि मोहन बिहारी जू को, फैसे वाही ल्यावों, जैसे वाको मन ल्याई है।—पद्माकर (शब्द०)। (ग) विप्र वचन सुनि सखी सुआसिनि चली जानकिहिं ल्याई। कुँवर निरखि जयपाल मेलि उर कुँअरि रही सकुचाई।—तुलसी (शब्द०)।

ल्यारी †
संज्ञा पुं० [देश०] भेड़िया। उ०—श्रीकृष्णचंद्र ने मुसकरा के कहा—बहुत अच्छा, तू बन भेड़िया और सब ग्वाल बाल होंवे मेढा़। सो सुनते ही व्योमासुर तो फूलकर ल्यारी हुआ और ग्वाल बाल सब बने मेढ़े।—लल्लू (शब्द०)।

ल्यावना पु
क्रि० स० [हिं० लाना] दे० 'लाना'। उ०—पितहि भू ल्यावते, जगत यज्ञ पावते।—केशव (शब्द०)।

ल्यौ पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० लौ] ध्यान। लौ।

ल्वाब
संज्ञा पुं० [अ० लुआब] दे० 'लुआब'।

ल्वारि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लुआर] दे० 'लूह'।

ल्वीन
वि० [सं०] गत। गया हुआ [को०]।

ल्हासा † (१)
संज्ञा पुं० [हिं० लस] दे० 'लासा'।

ल्हासा (२)
संज्ञा पुं० तिब्बत की राजधानी जिसे लासा भी कहते हैं।

ल्हीक †
संज्ञा स्त्री० [हिं० लीख] १. जूँ। २. दे० 'लीख'।