वांक
संज्ञा पुं० [सं० वाङ्क] समुद्र [को०]।

वांगाल
संज्ञा पुं० [सं० वाङ्गाल] संगीत में एक राग [को०]।

वांगाली
संज्ञा स्त्री० [सं० वाङ्गाली] एक रागिनी (संगीत) [को०]।

वंछिक
वि० [सं० वाञ्छिक] चाहने या वांछा करनेवाला। अभिलाषी। इच्छुक [को०]।

वांछन
संज्ञा पुं० [सं० वाञ्छन] चाहना। इच्छा करना [को०]।

वांछनीय
वि० [सं० वाञ्छनीय] १. चाहने या कामना के योग्य। २. जिसकी इच्छा हो।

वांछा
संज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छा] [वि० वांछित, वांछनीय] इच्छा। अभिलाषा। चाह। विशेष—सिद्धांत मुक्तावली के अनुसार वांछा नामक आत्मवृत्ति दो प्रकार की होती है। एक उपायविषयिणी, दूसरी फलविषयिणी। फल का अर्थ है—सुख की प्राप्ति और दुःख का न होना। जिस वांछा का कारण फलज्ञान हो, अर्थात् जो वांछा इस रूप में हो कि अमुक सुख मुझे मिले, वह फलविषयिणी है। जो वांछा किसी ऐसे उपाय के संबंध में हो, जिससे इष्ट- साधन हो, वह उपायविषयिण है।

वांछातीत
वि० [सं० वाञ्छातीत] इच्छा के परे। जिसकी अभिलाषा न की जा सके। उ०—उन्मेष,,, उसकी गति तीव्र हो या मंद, प्रत्यक्ष हो या परोक्ष, वांछित हो या वांछातीत।—नदी०, पृ० ८८।

वांछित (१)
वि० [सं० वाञ्छित] अभिलषित। इच्छित। चाहा हुआ। जिसकी इच्छा हो।

वांछित (२)
संज्ञा पुं० १. इच्छा। आकांक्षा। चाह। २. संगीत में एक ताल [को०]।

वांछितव्य
वि० [सं० वाञ्छितव्य] देश० 'वांछतीय'।

वांछिनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वाञ्छिनी] १. कुलटा। पुंश्चली। २. कामार्थिनी या अत्यंत कामुक स्त्री [को०]।

वांछी
वि० [सं० वाञ्छित] १. इच्छुक। चाहनेवाला। २. कामुक। लंपट। विषयी [को०]।

वांछ्य
वि० [सं० वाञ्छय] दे० 'वांछनीय'।

वांत (१)
संज्ञा पुं० [सं० वान्त] १. वमन। कै। २. वमन किया हुआ पदार्थ [को०]।

वांत (२)
वि० १. वमन किया हुआ। २. निःसृत। त्यक्त। उत्क्षिप्त। ३. गिराया हुआ। चूआ हुआ। ४. जिसने कै किया हो [को०]।

वांताद
संज्ञा पुं० [सं० वान्ताद] १. कुत्ता। श्वान। २. एक पक्षी का नाम। [को०]।

वांतान्न
संज्ञा पुं० [सं० वान्तान्न] वमित अन्न। कै किया हुआ अन्न।

वांताशी (१)
वि० [सं० वान्ताशिन्] वमन खानेवाला।

वांताशी (२)
संज्ञा पुं० १. कुत्ता। २. वह ब्राह्मण जो भोजन के लिये अपने कुल या गोत्र की प्रशंसा करे। ३. दूषित या निषिद्ध पदार्थो को खानेवाला राक्षस (को०)।

वांति
संज्ञा स्त्री० [सं० वान्ति] १. वमन। वांत। कै। २. वमन करने की क्रिया [को०]।

वांतिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वान्तिका] कुटकी।

वांतिकृत् (१)
संज्ञा पुं० [सं० वान्तिकृत्] मदनफल वृक्ष। मैनफल का पेड़।

वांतिकृत् (२)
वि० वमनकारक। वमन करानेवाला [को०]।

वांतिदा
संज्ञा स्त्री० [सं० वान्तिदा] कुटकी।

वांतिशोधनी
संज्ञा स्त्री० [सं० वान्तिशोधनी] जीरक। जीरा।

वांतिहृत्
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वांतिकृत्'।

वांश
वि० [सं०] वंश संबधी। बाँस का बना हुआ [को०]।

वांशिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाँसुरी बजानेवाला। २. बाँस काटनेवाला [को०]।

वांशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वंशरोचना। बंसलोचन [को०]।

वाँ
अव्य० [हिं० वहाँ का संक्षिप्त रूप] उस जगह। उस स्थान पर। उ०—घर बैठत वाँ जल सों रजए।—हम्मीर रा०, पृ० ४५।

वाँकम †
संज्ञा पुं० [हिं० वाक्रमन् या वक्रम] वक्रता। बाँकापन। उ०—सखी अमीणो साहिबो, वाँकम सूँ भरियोह।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० ७।

वाँग ‡
संज्ञा पुं० [फा़० बाँग] दे० 'वाँग'। उ०—कतहु वाँग कतहु वेद, कतहु मिसिमल कतहु छेद।—कीर्ति०, पृ० ४२।

वाँचण
क्रि० स० [सं० वाचन, हिं० बाँचना] दे० 'बाँचना'। उ०— संदेसा मति मोकलउ, प्रीतम तूँ आवेस। आँगलड़ी ही गलि गयाँ, नयण न वाँचण देस।—ढोला०, दू० १४४।

वाँलम पु
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] दे० 'वल्लभ—२'। उ०—वाँलम एक हिलोर दे, आइ सकइ तउ आइ। वाहड़ियाँ वे थक्कियाँ, काग उड़ाइ उड़ाइ।—ढोला०, दू० १६७।

वाँस पु
संज्ञा पुं० [सं० पार्श्व, प्रा० पास, वास] दे० 'पास'। उ०— साल्ह कुँवर करहइ चढयउ, वाँसइ चाढ़ी नार।—ढोला०, दू० ६२५।

वाः
संज्ञा पुं० [सं० वार्] जल। पानी [को०]।

वाःकिटि
संज्ञा पुं० [सं०] जल का कीट वा शूकर, शिंशुमार। सूँस।

वाः पुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] लवंग। लौंग।

वाःसदन
संज्ञा पुं० [सं०] जलपात्र [को०]।

वाःस्थ
वि० [सं०] पानी में स्थित। पानी में टिका हुआ [को०]।

वा (१)
अव्य० [सं०] विकल्प या संदेहवाचक शब्द। या। अथवा।

वा पु (२)
सर्व० [हिं० वह] ब्रजभाषा में प्रथम पुरुष का वह एकवचन रूप, जो कारकचिह्न लगने के पहले उसे प्राप्त होता है। जैसे,—वाने वाको, वासे, वासो इत्यादि। उ०—(क) वा सुरतरु महँ अवर एक अदभुत छबि छाजै। साखा दल फल फूलनि हरि प्रतिबिंब बिराजै।—नंद० ग्रं०, पृ० ६। (ख) रहै देह वाके परस याहि द्दगन ही देखि ।—बिहारी (शब्द०)। (ग) और प्रभु जब किवाड़ खोलन पधारते तब ओ ठाकुर जी वा इ पुकार सों पूछते।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०१।

वा (३)
वि० [फा़०] कुशादा। खुला या फैला हुआ। खुले। उ०—दिन के वा दतुण्न के दर्बार में रौनक अफरोज हुए।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० १७।

वाइ पु (१)
सर्व० [हिं० वह] दे० 'वाहि'। उ०—नैन कमल ह्मा लगत है कमल लगत है वाइ। कमल काल सज्जन हियो दोनों एक सुझाइ।—रसनिधि (शब्द०)।

वाइ † (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वापी] वापिका दे० 'बाय'।

वाइक पु
वि० [सं० वाचिक] कहा हुआ। वाणी या वचन द्वारा व्यक्त। उ०—काइक वाइक मानस हू करि है गुरु देव ही बंदन मेरो।—सुंदर ग्रं०, भा० २, पृ० ३८३।

वाइकौंट
संज्ञा पुं० [अं०] [स्त्री० वाइकौंटेस] इंगलैड के सामंतों और बड़े बड़े भुम्यधिकारियों को वंशपरंपरा के लिये दी जानेवाली एक प्रतिष्ठासूचक उपाधि जिसका दर्जा 'अर्ल' के नीचे और 'बैरन' के ऊपर है। विशेष दे० 'ड्यूक'।

वाइज
वि० संज्ञा पुं० [अ० वाइज] धर्मोपदेष्टा। उपदेशक। मजहबी नसीहत देनेवाला। उ०—रंगे शराब से मेरी नीयत बदल गई। बाइज की बात रह गई साकी की चल गई।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६२०।

वाइदा
संज्ञा पुं० [अ०] दे० 'वादा'।

वाइन
संज्ञा स्त्री० [अँ०] शराब। मद्य। सुरा।

वाइस पु (१)
संज्ञा पुं० दे० [सं० वायस] 'वायस'। उ०—कंक वाइस उलू गिद्ध सुर असुभ कहि।—सुजान०, पृ० १६।

वाइस (२)
संज्ञा पुं० [अं०] प्रतिनिधि। दूसरे के स्थान पर या सहायक रूप में काम करनेवाला व्यक्ति। जैसे, वाइस चांसलर, वाइस प्रेसिडेंट आदि।

वाइस चांसलर
संज्ञा पुं० [अं०] विश्वविद्यालय का वह ऊँचा मुख्याधिकारी जो चांसलर के सहायतार्थ हो और प्रायः उसकी अनुपस्थिति के कारण उसके अधिकांश कामों को कर सकता हो। हिंदी में इसके पर्याय रूप में कही कुलपति और कहीं उपकुलपति शब्द प्रयुक्त हो रहा है।

वाइस चेयरमैन
संज्ञा पुं० [अं०] वह जिसका दर्जा चेयरमैन या सभाध्यक्ष के बाद ही होता है और जो उसकी अनुपस्थिति में उसका काम करता है। उपाध्यक्ष। उपसभापति। जैसे,— म्युनिसिपैलिटी के वाइस चेयरमैन।

वाइस प्रेसिडेंट
संज्ञा पुं० [अं०] वह जिसका दर्जा प्रेसिडेंट या सभा- पति के बाद ही होता है और जो उसकी अनुपस्तिथि में सभा का संचालन करता है। उपसभापति। जैसे,—कौंसिल के वाइस प्रेसिडेंट।

वाइसराय
संज्ञा पुं० [अं०] अंग्रेजों के शासन काल में हिंदुस्तान का वह सर्वप्रधान शासक अधिकारी जो सम्राट् के प्रतिनिधि (बड़ा लाट) के रूप में कार्य करता था और भारत का सवोंच्च अधिकारी था। बड़े लाट साहब।

वाई †
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु] दे० 'वायु'। उ०—सकसे का जैतवार अकसे का वाई। अरिदल समुद्र आए कुंभज के भाई।—रा० रू०, पृ० ९७।

वाउ ‡
संज्ञा पुं० [सं० वायु] दे० 'वायु'। उ०—भ्रांति गनै सो लवै न वाउ।—प्राण०, पृ० ३३।

वाउचर
संज्ञा पुं० [अं०] वह कागज या पुरजा या बही जिसमें किसी प्रकार के हिसाब का ब्यौरा हो।

वाक्
पुं० [सं० वाच्] १. वाणी। वाक्य। २. सरस्वती। ३. बोलने की इंद्रिय। ४. शव्द। ५. ध्वनि (को०)। ६. कथन। वक्तव्य (को०)। ७. वादा। प्रतिज्ञा। ८. उक्ति (को०)।

वाक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बगलों का समूह। २. बगलों की उड़ान (को०)। ३. वाणी। वाक्य। ४. वेद का एक भाग। ५. खेत की वह कूत जो बिना खेत नापे की जाती है।

वाक (२)
वि० वक संबंधी। बगलों का।

वाकई (१)
वि० [अ० वाक़ई] ठीक। यथार्थ। सच। वास्तव। जैसे,—जो कुछ कहता हुँ, वह वाकई कहता हुँ।

वाकई (२)
अव्य० सचमुच। यथार्थ में। वास्तव में। जैसे—क्या आप वाकई वहाँ गए थे ?

वाकफियत
संज्ञा स्त्री० [अ० वाक़फियत] १. वाकिफ होने का भाव जानकारी। २. जान पहचान। परिचय।

वाकया
संज्ञा पुं० [अ० वाक़िअह्] १. कोई बात जो घटित हो व्यापारसंयोग। घटना। २. वृत्तांत। समाचार। यौ०—वाकयानवीस, वाकयानिगार = मुसलमानी साम्राज्य मे वह कर्मचारी जिसका कार्य इतिहास के रूप में घटनाओं को लिखना होता था।

वाकयात
संज्ञा पुं० [अ० वाक़िआत] वाकया का बहुवचन।

वाका
संज्ञा पुं० [अ० वाक़अ] १. होनेवाला। घटनेवाला। मुहा०—वाका होना = घटना के रूप में उपस्थित होना घटित होना। २. स्थित। खड़ा। प्रतिष्ठित। जैसे,—वह मकान दरिया के किनारे वाका है।

वाकिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] तंत्र के अनुसार एक देवी का नाम।

वाकिफ
वि० [अ० वाकि़फ़] १. जानकार। ज्ञाता। जैसे,—मैं इस बात से वाकिफ़ न था। २. बात को समझने बूझनेवाला। बातों की जानकारी रखनेवाला। अनुभवी। जैसे,—किसी वाकिफ आदमी को इंतजाम के लिये भेजना चाहिए।

वाकिफकार
वि० [अ० वाकिफ़ + फा़० कार] काम को समझने बूझनेवाला। जो अनाड़ी न हो। कार्याभिज्ञ उ०—वे हैं वाकिफकार मिलन की राह बतावैं।—पलटू०, पृ० ७।

वाकिफकारी
संज्ञा स्त्री० [अं० वाक़िफ़कारी] परिचय। जानकारी। अभिज्ञता [को०]।

वाकिफीयत
संज्ञा स्त्री० [अ० वाक़िफ़ीयत] दे० 'वाकफियत' [को०]।

वाकुची
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकुची।

वाकुल
संज्ञा पुं० [सं०] बकुल या मौलसिरी का पेड़ वा पुष्प।

वाकै
संज्ञा पुं० [अ० वाक़अ़] दे० 'वाका'। उ०—इस सब से उसकी कारवाई में अक्सर खलल वाकै होते रहते हैं।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ३१।

वाकोवाक
संज्ञा पुं० [सं०] कथोपथन। बातचीत।

वाकोवाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] परस्पर कथोपकथन। बातचीत। २. परस्पर तर्क। ३. तर्क विद्या। विशेष—छांदोग्योपनिषद्में नारद ने सनत्कुमारों से अपनो जिन जिन विद्याओं के ज्ञाता होने की बात कही थी, उनमें 'वाको- वाक्य' विद्या भी थी।

वाकौ †
संज्ञा पुं० [अ० वाक़यह्] दे० 'वाक्या'। उ०—वाकौ झूठौ अक्खयौ, दक्खिण गयो सदूर।—रा० रू०, पृ० ३२४।

वाक्कलह
संज्ञा पुं० [सं०] कहासुनी। वाक्युद्ध। उ०—मुख्य विवाद- ग्रस्त विषय छूट कर व्यर्थ घृणित वाक्कलह उत्पन्न हो जाता। प्रेमधन०, भा० २, पृ० ३०३।

वाक्का
संज्ञा स्त्री० [सं०] चरक के अनुसार एक प्रकार का पक्षी।

वाक्कीर
संज्ञा पुं० [सं०] पत्नी का भाई। साला। श्यालक [को०]।

वाक्केलि, वाक्केली
संज्ञा स्त्री० [सं०] हास परिहास [को०]।

वाक्क्षत
संज्ञा पुं० [सं०] बात की चोट।

वाक्चपल
वि० [सं०] १. बहुत बातें करनेवाला। बातें करने में तेज। मुँहजोर। २. भड़भड़िया।

वाक्छल
संज्ञा पुं० [सं०] न्यायशास्त्र के अनुसार छल के तीन भेदों में से एक। विशेष—जब वक्ता के साधारण रूप से कहे हुए कथन में दूसरे पक्ष द्वारा अभिप्रेत अर्थ से अन्य अर्थ की कल्पना उसे केवल चक्कर में डालने के लिये की जाती है, तब वाक्छल कहा जाता है। जैसे,—वक्ता ने कहा,—यह बालक नवकंबल है। (नव- कंबलोयं बालकः) अर्थात् नए कंबलवाला है। इसका प्रति- वादी यदि यह अर्थ लगावे कि इस बालक के पास संख्या में नौ कंबल हैं, और कहे—'नौ कंबल कहाँ हैं,' एक ही तो हैं'। तो यह वाक्छल होना।

वाक्पटु
वि० [सं०] बात करने में चतुर। वाक्कुशल।

वाक्पति
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति। २. विष्णु। ३. पुष्य नक्षत्र (को०)। ४. अनवद्य वचन। पटु वाक्य। निर्दोष बात।

वाक्पतिराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक कवि जो राजा यशोवर्मा के आश्रित थे। इन्होंने प्राकृत में गौड़वहो (गोड़वध) नामक काव्य की रचना की है। ये भवभूति के समसामयिक थे। २. मालवा का एक परमार राजा जो सीयक का पुत्र था। (इस नाम का एक और राजा हुआ है।)।

वाकप्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बोलने के लिये उपयुक्त क्षण। २. वाणी का क्षेत्र। भाषण का क्षेत्र [को०]।

वाक्पाटव
संज्ञा पुं० [सं०] वाक्पटुता। भाषण की योग्यता। [को०]।

वाक्पारीण
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वाणी या कथन के क्षेत्र को पार कर गया हो।

वाक्पारुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वचन की कठोरता। बात का कडुआपन। मुँहजोरी। २. धर्मशास्त्रानुसार किसी की जाति, कुल इत्यादि के दोषों को इस प्रकार ऊंचे स्वर से कहना कि उससे उद्वेग उत्पन्न हो।

वाक्पुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] डींगभरी बात। बे सिर पैर की बात [को०]।

वाक्प्रचोदन
संज्ञा पुं० [सं०] मौखिक या शब्दिक आज्ञा [को०]।

वाक्प्रतोद
संज्ञा पुं० [सं०] वाणी का अंकुश। व्यंग्य। ताना। [को०]।

वाक्प्रदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती नदी [को०]।

वाक्प्रलाप
संज्ञा पुं० [सं०] वाक्पटुता। वाग्मिता [को०]।

वाक्प्रसारी
वि० [सं० वाक्पसारिन्] भाषणकुशल। लंबी चौड़ी बातें करनेवाला [को०]।

वाक्फियत
संज्ञा स्त्री० [अ० वाक्फ़ियत] जानकारी। परिज्ञान।

वाक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह पद समूह जिससे ओता को वक्ता के अभिप्राय का बोध हो। भाषा को भाषावैज्ञानिक आर्थिक इकाई का बोधक पद समूह। वाक्य में कम से कम कारक (कर्तृ आदि) जो संज्ञा या सर्वनाम होता है, और क्रिया का होना आवश्यक है। क्रियापद और कारक पद से युक्त साकांक्ष अर्थबोधक पद- समूह या पदोच्चय। उद्देश्यांश और विवेयांशवाले सार्थक पदों का समूह। विशेष—नैयायिकों और अलंकारियों के अनुसार बाक्य में (१) आकांक्षा, (२) योग्यता और (३) आसक्ति या सन्निधि होनी चाहिए। 'आकांक्षा' का अभिप्राय यह है कि शब्द यों ही रखे हुए न हों, वे मिलकर किसी एक तात्पर्प का बोध कराते हों। जैसे, कोई कहे—'मनुष्य चारपाई पुस्तक' तो यह वाक्य न होगा। जब वह कहेगा—'मनुष्य चारपाई पर पुस्तक पढ़ता है।' तब वाक्य होगा। 'योग्यता' का तात्पर्य यह है कि पदों के समूह से निकला हुआ अर्थ असंगत या असंभव न हो। जैसे, कोई कहे—'पानी में हाथ जल गया' तो यह वाक्य न होगा। 'आसक्ति' या 'सन्निधि' का मतलब है सामीप्य या निकटता। अर्थात् तात्पर्यबोध करानेवाले पदों के बीच देश या काल का व्यवधान न हो। जैसे, कोई यह न कहकर कि 'कुत्ता मारा, पानी पिया' यह कहे—'कुत्ता पिया मारा पानी' तो इसमें आसक्ति न होने से वाक्य न बनेगा; क्योंकि 'कुता' और 'मारा' के बीच 'पिया' शब्द का व्यवधान पड़ता है। इसी प्रकार यदि काई 'पानी' सबेरे कहे और 'पिया' शाम को कहे, तो इसमें काल संबंधी व्यवधान होगा। काव्य भेद का विषय मुख्यतः न्याय दर्शन के विवेचन से प्रारंभ होता है और यह मीमांसा और न्यायदर्शनों के अंतर्गत आता है। दर्शन शास्त्रीय वाक्यों के ३ भेद-विधिवाक्य, अनुवाद वाक्य और अर्थवाद वाक्य किए गए हैं। इनमें अंतिम के चार भेद- स्तुति, निंदा, परकृति और पुराकल्प बताए गए हैं। वक्ता के अभिप्रेत अथवा वक्तव्य की अबाधकता वाक्य का मुख्य उद्देश्य माना गया है। इसी की पृष्ठ भूमि में सस्कृत वैयाकरणों ने वाक्यस्फोट की उद्भावना की है। वाक्यपदोयकार द्वारा स्फोटात्मक वाक्य की अखंड सत्ता स्वीकृत है। भाषाबैज्ञानिकों की द्दष्टि में वाक्य संश्लेषणात्मक और विश्लेषणा- त्मक होते हैं। शब्दाकृतिमूलक वाक्य के शब्दभेदानुसार चार भेद हैं—समासप्रधान, व्यासप्रधान, प्रत्ययप्रधान और विभक्तिप्रधान। इन्हीं के आधार पर भाषाओं का भी वर्गीकरण विद्वानों ने किया है। आधुनिक व्याकरण की द्दष्टि से वाक्य के तीन भेद होते हैं—सरल वाक्य. मिश्रित वाक्य और संयुक्त वाक्य। २. कथन। उक्ति (को०)। ३. न्याय में युक्ति। उपपत्ति। हेतु ४. विधि। नियम। अनुशासन (को०)। ५. ज्योतिष में गणना की सौर प्रक्रिया (को०)। ६. प्रतिज्ञा। पूर्व पक्ष (को०)। ७. आदेश। प्रभुत्व। शासन (को०)। ८. विधिस्मंत साक्ष्य वा प्रमाण (को०)। ९. वाक्रप्रदत्त होना (को०)।

वाक्यकंठ
वि० [सं० वाक्यवण्ठ] जिसके कंठ में बात आ गई हो। जो बोलना ही चाहता हो [को०]।

वाक्यकर
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक की बात दूसरे से कहनेवाला। दूत। २. बातें बनानेवाला।

वाक्यखंड
संज्ञा पुं० [सं० वाक्यखण्ड] वाक्य के भीतर आया हुआ वाक्य। उपवाक्य [को०]।

वाक्यखंडन
संज्ञा पुं० [सं० वाक्यखण्डन] तर्क का खंडन करना [को०]।

वाक्यग्रह
संज्ञा पुं० [सं०] किसी कारण से वाणी का रुकना। वाक्स्तंभन [को०]।

वाक्यज्ञान
संज्ञा पुं० [सं०] केवल वार्तालाप करना। वाचक ज्ञान। विद्या का ज्ञान। उ०—वाक्य ज्ञान अत्यंत निपुनभव पार न पावै कोई। निशि गृह मध्य दीप की बातन तम निवृत्त नहिं होई। संतवाणी०, भा० २, पृ० ८५।

वाक्यपदीय
संज्ञा पुं० [सं०] भर्तृहरि द्वारा विरचित एक व्याकरण ग्रंथ जिसमें तीन कांड हैं। वाक्यपद संबंधी व्याकरण दर्शन के सिद्धांतों का कारिकाओं में गूढ़ विबेचन है। व्याकरण दर्शन के प्राचीनतम और प्रामाणिक ग्रंथों में इसकी गणना है। शब्दब्रह्म, स्फोटब्रह्म और स्फोटवाद का इसमें प्रतिपादन है। इसे 'हरिकारिका' भी कहते हैं। इसकी दो प्राचीन टीकाएँ प्राप्त होती हैं।

वाक्यपद्धति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाक्यरचना की पद्धति, प्रणाली या ढंग। शैली [को०]।

वाक्यप्रबंध
संज्ञा पुं० [सं०] १. निबंध। लेख। २. वाक्य की गति। वाक्य का प्रवाह [को०]।

वाक्यभेद
संज्ञा पुं० [सं०] मीमांसा के एक ही वाक्य का एक ही काल में परस्पर विरुद्ध अर्थ करना।

वाक्यरचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वाक्यविन्यास'।

वाक्यवक्रता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाक्यगत वक्रता। वाक्य की भंगिमा। उ०—अलंकार, चाहे अप्रस्तुत वस्तुयोजना के रूप में हों (जैंसे उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा इत्यादि में) चाहे वाक्यवक्रता के रूप में हों (जैंसे अप्रस्तुतप्रशंसा, परिसंख्या, व्याजस्तुति, विरोध इत्यादि में), चाहे वर्णविन्यास के रूप में (जैसे अनुप्रास में) लाए जाते हैं वे प्रस्तुत भाव या भावना के उत्कर्ष के लिये ही।—रस०, पृ० ४९।

वाक्यविन्यास
संज्ञा पुं० [सं०] वाक्यरचना। वाक्यों का संयोजन या गठन [को०]।

वाक्यविलेख
संज्ञा पुं० [सं०] लेखा जोखा तथा आदेश आदि लिखने का प्रधान अधिकारी [को०]।

वाक्यविशारद
वि० [सं०] बात करने में कुशल [को०]।

वाक्यशेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधूरी बात। अधूरा भाषण। २. अपूर्ण वाक्य। न्यूनपद वाक्य [को०]।

वाक्यसारथि
संज्ञा पुं० [सं०] प्रवक्ता। प्रमुख बोलनेवाला [को०]।

वाक्यस्थ
वि० [सं०] आज्ञाकारी। विनत। नम्र (को०)।

वाक्यहारक
संज्ञा पुं० [सं०] दूत। संदेशवाहक [को०]।

वाक्यहारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दूती। संदेशवाहिका [को०]।

वाक्याडंबर
संज्ञा पुं० [सं० वाक्यआडम्बर] दीर्घ और क्लिष्ट शब्दों तथा लंबे लंबे समासों से युक्त वाक्य [को०]।

वाक्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाक्य का अर्थ। २. वाक्य प्रमाण के बल पर प्राप्त किया हुआ वाक्य का अभिप्राय। सामान्य ढंग से अभिप्रवृत्त, पदार्थीं का विशेष में अवस्थान (सामान्येनाभि- प्रवृत्तानां पदार्थानां यद्विशेषेष्वस्थानं स वाक्यार्थः)।

वाक्यालाप
संज्ञा पुं० [सं०] बात चीत। संभाषण। प्रवचन [को०]।

वाक्यैकवाक्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] मीमांसा के अनुसार एक वाक्य को दूसरे वाक्य से मिलाकर उसके सुसंगत अर्थ का बोध कराना।

वाक्यशाक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाणी। सरस्वती। उ०— ईश्वरीय वाक्शक्ति अर्थात वाणी वा सरस्वती का प्रादुर्भाव हुआ। प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७१।

वाक्शलाका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कड़ी बात। २. लगनेवाली बात। ३. श्राप। शाप [को०]।

वाक्शल्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वाक्शलाका'।

वाक्संग
संज्ञा पुं० [सं०वाक्सङ्ग] १. धीरे धीरे कहना। २. वाणी का रुक जाना। वाक्यस्तंभ [को०]।

वाक्संतक्षण
संज्ञा पुं० [सं० वाक्य सन्तक्षण] व्यंग्यात्मक वचन [को०]।

वाक्संयम
संज्ञा पुं० [वि०] वाणी का संयम। अन्यथा बात न कहना। व्यर्थ बातें न करना।

वाक्संवर
संज्ञा पुं० [सं०] वाणी को प्रतिरुद्घ या सीमित करना वाक्यसंयम [को०]।

वाक्सरणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाणी की पद्धति या राह। वाक्यप्रकार। बात कहने का ढंग। उ०—वाक्सरणि जिसके द्वारा पात्रों के विचार व्यक्त होते हैं।—पा० सा० सि०, पृ० १३१।

वाक्सार
संज्ञा पुं० [सं०] व्यंग्य [को०]।

वाकसिद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसकी कही हुई बात ठीक निकले। वह जिसने वाक्सिद्धि प्राप्त कर ली हो [को०]।

वाक्सिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाणी की सिद्धि; अर्थात् इस प्रकार को सिद्धि या शक्ति कि जो भी बात मुँह से निकले, वह ठीक ठीक घटे।

वाक्स्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० वाक्स्तम्भ] वाणी का रुक जाना। वाणी को लकवा मार जाना। बोली बंद हो जाना [को०]।

वांगत
संज्ञा पुं० [सं० वागन्त] सबसे ऊँचा स्वर [को०]।

वाग पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वागा] दे० 'वागा'। उ०—घाली टापर वाग मुखि, झेक्यउ राज दुआरि। करहइ किया टहूकड़ा, निद्रा जागी नारि।—ढोला०, दू० ३४५।

वागतीत
संज्ञा पुं० [सं०] एक मित्र वा संकर जाति [को०]।

वागधिप
संज्ञा पुं० [सं०] बृहस्पति [को०]।

वागना पु
क्रि० ऊ० [सं० √ बंक=(चलाना)] दे० 'बागना'।

वागपहारक
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] १. दूसरों की उक्ति को चुराने वाला। २. मिथ्यावादा [को०]।

वागपेत
वि० [सं०] मूक। गूँगा [को०]।

वागर
संज्ञा पुं० [सं०] १. वारक। २. शाण। सान। ३. निर्णय। ४. वृक। भेड़िया। ५. पंडित। ६. मुमुक्षु। ७. निर्भय। निडर। नायक। ८. वड़वाग्नि। (को०)। ९. सूर्ये का एक घोड़ा।

वागरवाल पु
वि० [सं० वागर] वाक्चतुर। विद्वान्। पंडित। उ०—नरवर गढ़ ढोलइ कन्हइ, जावउ वागरवाल।—ढोला०, दू०, पृ० १०५।

वागा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वल्गा। लगाम।

वागाडंबर
संज्ञा पं० [सं० वाक् + आडम्बर] वाग्जाल। व्यर्थ की लंबी चौड़ी बात। उ०—किसी जन विशेष को मनस्ताप देने ही के अर्थ ब्यर्थ वागाडंबर !—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २९९।

वागात्मा
वि० [सं० वाक् + आत्मन्] शब्दमय [को०]।

वागारु
संज्ञा पुं० [सं०] आशा देकर निराश करनेवाला। आसरे में रखकर पोछे धोखा देनेवाला। विश्वासघाती।

वागाशनि
संज्ञा पुं० [सं०] बुद्धदेव।

वागीश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति। २. ब्रह्मा। ३. वाग्मी। कवि। ४. पुष्य नक्षत्र [को०]।

वागीश (२)
वि० अच्छा बोलनेवाला। वक्ता।

वागीशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।

वागीश्वर (१)
संज्ञा पुं [सं०] १. बृहस्पति। २. ब्रह्मा। ३. मंजुवोष बोधिसत्व। ४. वाग्मी। कवि।

वागीश्वर (२)
वि० अच्छा बोलनेवाला। सद्वक्ता।

वागीश्वरी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।

वागुंजार
संज्ञा पु० [सं० वागुञ्जार] सुश्रुत के अनुसार एक प्रकार को मछली।

वागुजार
वि० [फा० वागुजार] छोड़ने या त्यागनेवाला [को०]।

वागुजारी
संज्ञा स्त्री० [फा० वागुजारी] १. मुक्ति। त्यागना। २. छूट (जायदाद आदि की)।

वागुजाश्ता
वि० [फा० वागुजाश्तह्] छूटा या छोड़ा हुआ [को०]।

वागुजी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बकुची नाम की ओषधि। सोमराजी।

वागुण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमरख। २. बैंगन। भंटा।

वागुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मृगों या पक्षियों के र्फसाने का जाल। जाल। यौ०—वागुरावृत्ति=(१) शिकारा। बहेलिया। (२) पशु फँसाने जीविका।

वागुरिक
संज्ञा पुं० [सं०] हिरन फँसानेवाला शिकारी। मृगव्याध।

वागुरीक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वागुरिक'। उ०—एक तंतुवाय क सेवक के रूप म, वागुरीक मृगपाशिक अथवा बढ़ई का काम करते हैं।—हिंदु० सम्यता, पृ०३०४।

वागुलि
संज्ञा पुं० [सं०] डिब्बा। पानदान।

वागुलिक
संज्ञा पुं० [सं०] राजाओं का वह सेवक जिसका काम उनको पान खिलाना होता है। खवास।

वागुस
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बड़ा मत्स्य [को०]।

वागृषभ
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्तम वक्ता। २. विद्वान् [को०]।

वाग्गुण
संज्ञा पुं० [सं०] वक्तृत्व की श्रेष्ठता। बालने का एक गुण वा पद्धति।विशेष—हेमचंद्र ने ३५ प्रकार के वाग्गुण कहे हैं।

वाग्गुद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का पक्षी। विशेष—मनुस्मृति में लिखा है कि जो गुड़ चुराता है. वह दूसरे जन्म में वाग्गुद पक्षी होता है।

वाग्गुलि, वाग्गुलिक
संज्ञा पुं० [सं०] राजाओं का वह खवास जा उनको पान खिलाता है।

वाग्जाल
संज्ञा पुं० [सं०] बातों को लपेट। बातों काडंबर या भरमार।

वाग्जीवन
संज्ञा पुं० [सं०] विदूषक [को०]।

वाग्डंबर
संज्ञा पुं० [सं० वाग्डंबर] १. दर्पवचन। अतिशयोक्ति। २. विदग्धतापूर्ण भाषा [को०]।

वाग्दंड
संज्ञा पुं० [सं० वाग्दण्ड] १. भला बुरा कहने का दंड। मौखिक दंड। डाँट डपट। लिथाड़। २. वाक्संयम। वाणी का नियंत्रण (को०)।

वाग्दत्त
वि० [सं०] मुँह से दिया हुआ। वचनों द्वारा प्रदान किया हुआ। जिसे दूसरे को देने के लिये कह चुके हों।

वाग्दत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कन्या जिसके विवाह की बात किसी के साथ ठहराई जा चुकी हो, केवल विवाह संस्कार होने को बाकी हो। उ०—यह विधि वाग्दत्ता कन्या के लिये है।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० १९९। विशेष—पूर्व काल में प्रथा थी कि कन्या का पिता जामाता के पास जाकर कहता था कि मैं अपनी कन्या तुम्हें दूँगा । इस प्रकार देने को कही हुई कन्या वाग्दत्ता कही गई है। आजकल इस प्रकार तो नहीं कहा जाता; पर बरच्छा या फलदान का टीका चढ़ाया जाता है।

वाग्दरिद्र
वि० [सं०] बहुत कम बोलनेवाला। अल्पवक्ता [को०]।

वाग्दल
संज्ञा पुं० [सं०] ओष्ठाघर। ओठ।

वाग्दान
संज्ञा पुं० [सं०] कन्या के पिता का किसी से जाकर यह कहना कि मैं अपनी कन्या तुम्हें ब्याहूँगा। विशेष—प्राचीन काल में कन्या का पिता जिसे उत्तम वर समझता था, उसके पास जाकर कहता था—मैं अपनी कन्या तुम्हें दूँगा। यही कथन वाग्दान कहलाता था।

वाग्दुष्ट (१)
वि० [सं०] १. परुषभाषी। कटुभाषी। २. जिसे किसी न शाप दिया हो। जिसे किसी न कासा हा। अभिशप्त। ३. अशुद्ध वा व्याकरण क प्रतिकूल भाषा का प्रयाग करनवाला (को०)।

वाग्दुष्ट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जा निदा करता हो। निदक। वह ब्राह्मण जिसका उपयुक्त समय पर उपनयन संस्कार न हुआ ही [को०]।

वाग्देवता
संज्ञा पुं० [सं०] वाणी। सरस्वती।

वाग्देवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वता। वारण।

वाग्देवत्यचरु
संज्ञा पुं० [सं०] वह चरु जो सरस्वता के उद्दश्य से पकाया गया ही।

वाग्दोष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बोलने की त्रुटि। जैसे, वर्णों का ठाक उच्चारण न करना इत्यादि। २. व्याकरण संबंधा त्राटया या दोष। ३. निंदा या गाली।

वाग्धारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाणी की अप्रतिहत गति। वाणी की अटूट धारा। उ०—रामानंद और वल्लभाचार्य ने जिस भक्तिरस का प्रभृत संचय किया, कबीर, सूर आदि की वाग्धारा ने उसका संचार जनता के बीच किया।—आचार्य०, पृ० ९४।

वाग्निबंधन
वि० [सं० वाग्निबन्धन] जो शब्दों पर निर्भर या आधारित हो [को०]।

वाग्बंधन
संज्ञा पुं० [सं० वाग्बन्धन] बोलने से विरत करना। बोलने न देना।

वाग्बद्ध
वि० [सं०] मौन। चुप [को०]।

वाग्बाहुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वागाडंबर'। उ०—उनकी कृति वाग्बाहुल्य से भरी रहती है।—साहित्य०, पृ० २४१।

वाग्भट
संज्ञा पुं० [सं०] १. अष्टांगहृदय सहिता नामक वैद्यक के ग्रंथ के रचयिता जिनके पिता का नाम सिंहगुप्त था। ग्रंथकार का वेद्यक के ग्रंथकतांओं में बड़ा संमान और प्रामाम्य है। २. पदार्थ- चंद्रिका, भावप्रकाश, रसरत्न समुच्चय, शास्त्रदर्पण आदि के रचयिता। ३. वैद्यक निघंटु के रचयिता। ४. एक जैन पंडित जिनके पिता का नाम नेमिकुमार था। इनके रचे अलंकारतिलक, वाग्भटालंकार और छंदानुशासन प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।

वाग्मिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पांडित्य। २. उत्तम वक्तृत्व शक्ति [को०]।

वाग्मित्व
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वान्मिता' [को०]।

वाग्मी
संज्ञा पुं० [सं० वाग्मिन्] १. वाचाल। अच्छा वक्ता। २. पंडित। ३. बृहस्पति। ४. एक पुरुवंशी राजा। ५. विष्णु (को०)। ६. शुक। तोता (को०)।

वाग्य (१)
वि० [सं०] १. परिमितभाषी। २. सत्य वक्ता [को०]।

वाग्य (२)
संज्ञा पुं० १. निर्वेद। २. विनम्रता। विनय। शालीनता (को०)। ५. संदेह। शंका। विकल्प (को०)।

वाग्यत
वि० [सं०] वाणी का संयम या निरोध करनेवाला मितभाषि। [को०]।

वाग्यम
संज्ञा पुं० [सं०] वह जिसने वाणी का निरोध कर लिया हो, मुनि [को०]।

वाग्यमन
संज्ञा पुं० [सं०] वाणी का संयम। बोलने में संयम।

वाग्याम
संज्ञा पुं० [सं०] मूक। गूँगा [को०]।

वाग्युद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] कहासुनी। वादविवाद।

वाग्यज्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशुद्ध रूव से कहा हुआ वाक्य। २. कठोर वाक्य। ३. शाप।

वाग्वद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चमगादड़ [को०]।

वाग्वादिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।

वाग्विद
वि० [सं०]दे० 'वाग्विदग्ध' [को०]।

वाग्विदग्ध
वि० [सं०] १. पंडित। २. बातचीत करने में चतुर।

वाग्विदग्धता
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'वाग्वैदग्ध्य'।

वाग्विनिःसृत
वि० [सं०] कथन से व्यंजित [को०]।

वाग्विभव
संज्ञा पुं० [सं०] वाणीरुपी संपत्ति। वाणी का वैभव। भाषा पर विशेष अधिकार [को०]।

वाग्विरोध
संज्ञा पुं० [पुं०] वादविवाद। कहासुनी [को०]।

वाग्विलास
संज्ञा पुं० [सं०] आनदपूर्वक परस्पर संभाषण। आनंद- पूर्वक बातचीत करना। २. व्यर्थ का वागाडंडर।

वाग्विलासी
संज्ञा पुं० [सं० वाग्विलासिन्] १. कपोत। कबूतर। २. पंड्डक। पंडुखी [को०]।

वाग्विस्तर
संज्ञा पुं० [सं०] वाक्प्रपंच। वाणी क्रा विस्तार [को०]।

वाग्वीर
संज्ञा पुं० [सं०] खूब लंबी चौड़ी बातें करनेवाला व्यक्ति। बातचीत में वीरता दिखानेवाला आदमी [को०]।

वाग्वैचिञ्य
संज्ञा पुं० [सं०] चमत्कारप्रियता। भाषा की विचित्रता। उ०—अभिव्यंजनावाद तो बेचारा अभिव्यजना को छोड़कर किसी वाग्वैचित्र्य की बात ही नहीं करता।—आचार्य०, पृ० १२०।

वाग्वैदग्ध्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बात करने की चतुरता। २. सुंदर अलकार और चमत्कारपूर्ण उक्तियों की निपुणता। उ०—कवि गंग के छंदों में जैसा काव्यगत चमत्कार, वाग्वैदग्ध्य, भाषासौष्ठव वर्तमान है, उनके प्रकाश में रीतिकालीन कवियों की पृथक्ता स्पष्ट हो जाती है।—अकबरी०, पृ११८। विशेष—काव्य में वाग्वँदमध्य को प्रधानता मानते हुए भा काव्य की आत्मा रस ही कहा गया है। अग्निपुराण में स्पष्ट लिखा है— 'वाग्वैदग्ध्य प्रधाने/?/पि रस एवात्र जीवितम्'।

वाग्व्यय
संज्ञा पुं० [सं०] वाक्क्षंप। वाक्क्षय [को०]।

वाग्व्यवहार
संज्ञा पुं० [सं०] वाचिक विचारणा। मौखिक निरुपण या कथन [को०]।

वाग्व्यापार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथन की पद्धति। २. भाषण शैली। ३. बातचीत। वार्तालाप [को०]।

वाघंभर पु
संज्ञा पुं० [सं० व्याघ्राम्बर]दे० 'बाघंबर'। उ० शिव विभूत गोला लिये, वाधभर धरि अंग।—प० रासो, पृ० १७९।

बाघंमर †
संज्ञा पुं० [सं० व्याघ्राम्बर]दे० 'बाघंबर'।

वाङ्निमित्त
संज्ञा पुं० [सं०] पृर्वसूचना [को०]।

वाङ्निश्चय
संज्ञा पुं० [सं०] वाणी द्वारा विवाह की बातचीत पक्की होना [को०]।

वाङ्निष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वचनबद्धता। वचन का पालन [को०]।

वाङ्मती
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नदी जो नैपाल से निकलती है और आजकल 'वागमती' कहलाती है। विशेष—वराहपुराण (गोकर्ण महात्म्य) में इस नदी की अत्यंत पवित्र, गंगा से भी पवित्र, कहा है और इसमें स्नान करने तथा इसके किनारे मरने से विष्णुलोक की प्राप्ति बतलाई है।

वाङ्मधुर
वि० [सं०] मिष्टभाषी। मधुर बोलनेवाला [को०]।

वाङ्मय (१)
वि० [सं०] १. वाक्यात्मक। वचन संबंधी।२. वचन द्वारा किया हुआ। जैसे,—वाङ् मय पाप। विशेष—वचनों द्वारा किए हुए पाप चार प्रकार के कहे गए हैं— पारुष्य, अनृत, पैशुन्य और असंनद्ध प्रलाप। ३. जो पठन पाठन का बिषय हो। ४. वाक्पटु। वाक्चतुर [को०]।

वाङ्मय (२)
संज्ञा पुं० १. गद्य पद्यात्मक वाक्य आदि जो पठन पाठन का विषय हो। साहित्य। उ०—इस्लाम के प्रवेश ने भारतवर्ष की ललित कलाओं तथा वाङ् मय के क्षेत्रों पर अपना विशेष प्रभाव डाला।—अकबरी० (भू०) पृ० २। २. वाक्पटुता। वाग्मिता (को०)। ३. अलंकारशास्त्र। साहित्यशास्त्र (को०)।

वाङ् मयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सरस्वती।

वाङ् मुख
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का गद्यकाव्य। उपन्यास। २. भूमिका। प्रस्तावना।

वाङ् मूर्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाणी। सरस्वती [को०]।

वाचंयम
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुनि। २. मौन व्रत धारण करनेवाला पुरुष। मौनी।

वाच्
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाचा। वाणी। वाक्य।

वाच (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाच्] दे० 'वाच्'। उ०—काय मन वाच सब धर्म करिबो करै।—केशव (शब्द०)।

वाच (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक प्रकार की मछली। २. मदन नाम का एक पौधा (को०)।

वाँच
संज्ञा स्त्री० [अं०] जेब में रखने की या कलाई पर बाँधने की छोटी धड़ी।

वाचक (१)
वि० (सं०) १. बतानेवाला। कहनेवाला। द्योतक। सूचक। बोधक। जैसे—उपमावाचक शब्द, लिंगवाचक प्रत्यय। २. मौखिक। शाब्दिक (को०)।

वाचक (२)
संज्ञा पुं० वह जिससे किसी वस्तु का अर्थ बोध हो। नाम। संज्ञा। संकेत। २. वक्ता। ३. पाठक (को०)। ४. दूत। संदेशवाहक (को०)।

वाचकत्व
संज्ञा पुं० [सं०] सुचकत्व। वाचक होने का भाव। बोधकत्व। उ०—मेरी समझ में रसास्वादन का प्रकृत स्वरूप आनंद शब्द से व्यक्त नहीं होता। लोकोत्तर, अनिवर्तनीय आदि विशेषणों से न तो उसके वाचकत्व का परिहार होता है, न प्रयोग का प्रायश्चित्त होता है।—आचार्य०, पृ० ४।

वाचकता
संज्ञा स्त्री० [सं०]दे० 'वाचकत्व'।

वाचकधर्मलुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह उपमा जिसमें वाचक शब्द और सामान्य धर्म का लोप हो, जैस ईस प्रसाद असास तुम्हारी। सब सुतबधू देवसरि बारी।—तुलसी। यहाँ उपमान और उपमेय तो है पर उपमावाचक शब्द और साधारण धर्म नहीं है।

वाचकपद
संज्ञा पुं० [सं०] बोधक पद या शब्द [को०]।

वाचकलुपत्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का उपमालंकार जिसमें उपमावाचाक शब्द का लोप होता है। जैसे,—नील सरोरुह श्याम, तरुण अरुण वारिज नयन।—तुलसी (शब्द)।

वाचकोपमानधर्मलुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह उपमा जिसमें वाचक शब्द, उपमान और धर्म तीनों लुप्त हों केवल उपुमेय भर हो। जैसे,—जेहि बर बाजि राम असवारा। तेहि सारदौ न बरनै पारा।—तुलसी।

वाचकोपमानलुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपमालंकार का एक भेद जिसमे वाचक और उपमान का लोप होता है। यथा,—तेरे ये कटु वचन हूँ सुनत हियो हरखात।

वाचकोपमेयलुप्ता
संज्ञा स्त्री० [सं०] उपमालंकार का एक भेद जिसमें वाचक और उपमेय का लोप होता है। जैसे,—अटा उदय होतै भयो छबिधर पूरन चंद।

वाचक्नवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वचक्नु ऋषि की अपत्या। गार्गीं। वाचकूटी।

वाचन
संज्ञा पुं० [सं०] पढ़ना या उच्चारण करना। पठन। बाँचना। २. कहना। बताना। ३. प्रतिपादन।

वाचनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पहेली। २. एक प्रकार की मिठाई (को०)।

वाचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पाठ। २. पाठ का अंश। ३. अध्याय। परिच्छेद [को०]।

वाचनालय
संज्ञा पुं० [सं०] वह कमरा या भवन जहाँ पुस्तकें और समाचारपत्र आदि पढ़ने को मिलते हों। (अँ०) रेडिंग रूप।

वाचनिक
वि० [सं०] १. वचन संबंधी। मौखिक। शब्दों द्वारा व्यक्त २. वाचन करनेवाला [को०]।

वाचयिता
वि० [सं० वाचयितृ] १. वाचक। बाँचनेवाला। २. पाठ करानेवाला। पाठसंचालक (को०)।

वाचसांपति
संज्ञा पुं० [सं० वाचसाम्पति] बृहस्पति।—(सोम, ब्रह्मा, प्रजापति, विश्वकर्मा आदि के लिये भो प्रयुक्त।)

वाचस्पति
संज्ञा पुं० [सं०] १. बृहस्पति। २. शब्द प्रतिपालक। ३. पुष्य नक्षत्र (को०)। ४. सुवक्ता (को०)। एक कोशकार (को०)। ६. एक ऋषि का नाम (को०)। ७. एक दार्शनिक का नाम (को०)। ८. वेद (को०)।

वाचस्पत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. भाषणकुशलता। २. उत्तम वक्तव्य। ३. संस्कृत का एक कोशग्रंथ [को०]।

वाचस्पत्य (२)
वि० १. वाचस्पति सबंधी। २. बृहस्पति द्वारा कथित या उक्त [को०]।

वाचा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वाणी। सरस्वती। २. वाक्य। वचन। शब्द। ३. सूक्त। ऋचा (को०)। ४. शपय। कसम (को०)।

वाचा (२)
वि० वचन द्वारा। वचन या कथन से।

वाचाट
वि० [सं०] १. वाचाल। २. बक्की। बकवादा।

वाचापत्र
संज्ञा पुं० [सं०] प्रतिज्ञापत्र।

वाचाबंध पु
वि० [सं० वाचाबद्ध] प्रतिज्ञाबद्ध। वचनबद्ध। उ०— वाचाबंध कंस करि छाँड्या तब वसुदेव पतीजे हो। याके गर्भ अवतरे जे सुत सावधान ह्वै लाजे ही।—सूर (शब्द०)।

वाचाबंधन
संज्ञा पुं० [सं० वाचाबन्धन] प्रतिज्ञाबद्ध होना।

वाचाबद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] वादे में बँधा हुआ। वचन देने के कारण विवश। प्रातज्ञाबद्ध।

वाचाल
वि० [सं०] १. बालने में तेज। वाक्पटु। २. बकवादी। व्यर्थ बकनेवाला।

वाचालता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बहुभाषिता। बहुत बोलना। २. बातचात में निपुणता।

वाचासहाय
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो वाणी द्वारा सहायक हो, मित्र। मधुरभाषी सखा [को०]।

वाचिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वाचिका, वाचिकी] १. वाणी संबंधो। २. वाणी से किया हुआ। ३. संकेत से कहा हुआ।

वाचिका (२)
संज्ञा० पुं० अभिनय का एक भेद जिसमें केवल वाक्यविन्यास द्वारा अभिनय का कार्य संपन्न होता है। यौ० वाचिकपत्र—(१) प्रतिज्ञापत्र। (२) समाचारपत्र। (३) चिट्टी। पत्र। वाचिकहारक=संदेशहारक। दूत।

वाची
वि० [सं० वाचिन्] १. वाक्ययुक्त। २. प्रकट करनेवाला। बोध करानेवाला। सूचक। विशेष—यह शब्द समास में समस्त पद के अत में आने से वाचक और विधायक का अर्थ देता है। जैसे,—पुरुषवाची= पुरुषवाचक।

वाचोयुक्ति (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुंदर भाषण। २. वक्तव्य [को०]।

वाचोयुक्ति (२)
वि० भाषणपटु। वक्तव्य में निपुण [को०]।

वाचोयुक्तिपटु
सं० [सं०] वाग्मी [को०]।

वाच्य (१)
वि० [सं०] १. कहने योग्य। जो कथन में आवे। २. शब्द- संकेत द्वारा जिसका बोध हो। अभिवा द्वारा जिसका बोध हो। अभिधेय। विशेष—जिस शब्द द्वारा बोध होता है, उसे 'वाचक' कहते हैं, और जिस वस्तु या अर्थ का बोध होता है, असे 'वाच्य' कहते हैं। ३. जिसे लोग भला बुरा कहें। कुत्सित। हीन।

वाच्य (२)
संज्ञा पुं० १. अभिधेयार्थ। वाच्यार्थ। शब्दयोजना से प्राप्त अर्थ। व्यंग्य का उलटा। विशेष दे० 'वाच्यार्थ'। उ०— एक में भाव वाच्य द्वारा प्रकट किया गया, दूसरे में अलंकार रूप ब्यंग्य द्वारा।—रस०, पृ० १२३। ४. प्रतिपादन।

वाच्यचित्र
संज्ञा पुं० [सं०] निम्न कोटि का काव्य [को०]।

वाच्यता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वाच्य होने का भाव। ४. कुत्सा। निंदा। अपयश [को०]।

वाच्यत्व
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वाच्यता' [को०]।

वाच्यार्थ
संज्ञा पुं० [सं०] वह अभिप्राय जो शब्दों के नियत अर्थ द्वारा ही प्रकट हो। सकेत रूप से स्थिर शब्दों का नियत अर्थ। मूल शब्दार्थ। विशेष—अभिधा, लक्षणा और व्यंजना ये तीन शक्तियाँ शब्द की मानी जाती हैं। इनमें से प्रथम के सिवा और सब का आधार 'अभिध्रा' है, जो शब्दसंकेत में नियत अर्थ का बोध कराती है। जैसे,—'कुता' और 'इमली' कहने से पशुविशेष ओर वृक्षविशेष का हा बाध होता है। इस प्रकार का मूल अर्थ वाच्यार्थ कहलाता है। विशेष दे० 'शब्दशक्ति'।

वाच्यावाच्य
संज्ञा पु० [सं०] भली बुरी या कहने न कहने योग्य बात। जैसे,—उसे वाच्यावाच्य का विचार नहीं है।

वाछी पु †
संज्ञा पुं० [सं० वत्सक, प्रा० वच्छअ, वच्छय]दे० 'वत्स'। उ०—पाँच कोपर चरावे। चित सौ वाछा राखीला।— दक्खिनी०, पृ० ३३।

वाजंती पु
वि० [हिं०बाजना, बजना] बजती हुई। उ०—बोली वीणाहंस गत, पग वाजंती पाल। रायजादी घर अंगणइ छुटे पटे छंछाल।—ढोला०, दू०, ५४०।

वाज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. घृत। घो। २. यज्ञ। ३. अन्न। ४. जल। ५. संग्राम। युद्ध। ६. बल। ७. वाण में का पंख जो पीछे लगा रहता है। ८. पलक। निमेष। ९. वेग। उ०—अवलंबत, रव, जव, चपल, रंहसि, रय, त्वर, वाज। सहसा, सत्वर, रभ, तुरा, तुरन वेग के साज।—नद० ग्रं०, पृ० १०७। १०. मुनि। ११. शब्द। आवाज । १२. श्राद्ध में दिया जानेवाला चावल का पिंड (को०)। १३. पंख। पर (को०)। १४. चैत्र मास का एक नाम (को०)। १५. यज्ञ के अंत में पढ़ा जानेवाला एक मंत्र (को०)। १६. प्रतियोगिता में प्राप्त पुरस्कार (को०)। १७. तीव्र गतिवाला घोड़ा (को०)। १७. तीन ऋतुओं में से एक ऋतु (को०)। १८. प्राप्ति। लाभ (को०)।

वाज (२)
संज्ञा पुं० [अ० वाज] १. उपदेश। शिक्षा। २. वार्मिक व्याख्यान। ३. घार्मिक उपदेश। कथा। क्रि० प्र०—करना।—देना।—होना।

वाजकर्मा
वि० [सं० वाजकर्मन्] युद्ध में संलग्न [को०]।

वाजकृत्य
संज्ञा पुं० [सं०] लड़ाई [को०]।

वाजगंध्य
वि० [सं० वाजगन्ध्य] जिसके पास गाड़ी भर धन या लूट का माल हो। [को०]।

वाजजित्
वि० [सं०] प्रतियोगिता या युद्ध में विजयी होनेवाला [को०]।

वाजदा
वि० [सं०] वाज अर्थात् बल या वेग प्रदान करनेवाली [को०]।

वाजदावर्षा
संज्ञा पुं० [सं० वाजदावर्षस्] एक साम का नाम।

वाजदावा
वि० [सं० वाजदावन्] धनद्रव्य, इनाम आदि देनेवाला [को०]।

वाजना पु †
क्रि० अ० [हिं०] बजना। ध्वनित होना।

वाजपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. अन्नपति।

वाजपेई पु
संज्ञा पुं० [सं० वाजपेयिन्, वाजपेयी] दे० 'वाजपेयी'। उ०—ब्याध अपराध की साध राखी कौन, पिंगलै कौन मति भक्तभेई। कौन धौं सामजाजी अजामिल अधम कौन गजराज धौं वाजपेई ? तुलसी (शब्द०)।

वाजपेय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रसिद्ध यज्ञ, जो सात श्रोत यज्ञों में पचवाँ है।

वाजपेयक
वि० [सं०] वाजपेय यज्ञ संबधी [को०]।

वाजपेयी
संज्ञा पुं० [सं० वाजपेयिन्] १. वह पुरुष जिसने वाजपेय यज्ञ किया हो। २. ब्राह्मण का एक उपाध जो कान्यकुव्जी में होती है। ३. अत्यत कुलीन पुरुष। जैसे,—वे कौन बड़े भारी वाजपेयी हैं।

वाजप्य
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रकार ऋषि। इनके गोत्र के लोग वाजप्यायन कहलाते हैं।

वाजबी
वि० [फ़ा० वाजिबी] दे० 'बाजिबी'।

वाजभर्मीय
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

वाजभृत
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

वाजभोजी
संज्ञा पुं० [सं० वाजभोजिन्] वाजपेय यज्ञ [को०]।

वाजयु
वि० [सं०] १. युद्ध या प्रतियोगिता के लिये इच्छुक। २. तेजस्वी। शक्तिशाली। ३. उत्साही। ४. धन देनेवाला [को०]।

वाजवत
संज्ञा पुं० [सं०] [अपत्य वाजवतायनि] एक गोत्रकार ऋषि, जिनके गोत्र के लोग 'वाजवतायनि' कहलाते हैं।

वाजवाल
संज्ञा पुं० [सं०] मरकत [को०]।

वाजश्रव
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम।

वाजश्रवस
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाजश्रवा ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष। २. एक ऋषि जिनके पुत्र का नाम 'नचिकेता' था और जो अपने पिता के क्रुद्ध होने पर यमराज के यहाँ चला गया था। वहाँ उसने उनसे ज्ञान प्राप्त किया था।

वाजश्रवा
संज्ञा पुं० [सं० वाजश्रवस्] १. अग्नि। २. एक गोत्रकार ऋषि का नाम।

वाजस
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम ? का नाम।

वाजसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। २. विष्णु [को०]।

वाजसनि
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्यं। २. अन्नदाता (को०)।

वाजसनेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. यजुर्वेद की एक शाखा का नाम। विशेष—इसे याज्ञवल्क्य ने अपने गुरु वैशंपायन पर क्रुद्ध होकर उनकी पढ़ाई हुई विद्या उगलने पर सूर्य के तप से प्राप्त की थी। मत्स्य पुराण के अनुसार वैशंपायन के शाप से वाजसनेय शाखा नष्ट हो गई। पर आजकल शुक्ल यजुर्वेद की जो संहिता मिलती है, वह वाजसनेय संहिता कहलाती है। यजुर्वेद के दो पाठ हैं शुक्ल और कृष्ण। शुक्ल में १५ शाखा है; कराव, माध्यंदिन; जाबाल, बुधेय, शाकेय, तापनीय, कापीस, पौंड्रवहा, आवर्त्तिक, परमावर्त्तिक, पाराशरीय, वैनेय, बौधेय, औघेय और गालव। यह सब एकत्रित होकर वाजसनेयी शाखा भी कहलाती हैं। २. याज्ञवल्क्य ऋषि जो सूर्य के छात्र थे।

वाजसनेयक
वि० [सं०] १. वाजसनेय संबंधी। २. याज्ञवल्क्य द्वारा रचित [को०]।

वाजसनेयी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वाजसनेयिन्] १. वाजसनेय शाखा के प्रवर्तक याज्ञवल्क्य। २. इस शाखा के अनुयायी लोग [को०]।

वाजसनेयी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] शुक्ल यजुवेंद की पंद्रहों शाखाओं का नाम।—प्रा० भा० प०, पृ० १८२।

वाजसाम
संज्ञा पुं० [सं० वाजसामन्] एक साम का नाम।

वाजस्त्रजाक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] वेण राजा का नाम।

वाजा पु †
संज्ञा, पुं० [सं० वाद्य]दे० 'बाजा'। उ०—सज्जण चाल्या हे सखी, वाजइ वाजा रंग। जिण वाटइ सज्जण गया, सा वाटड़ी सुरंग।—ढोला०, दू० ३५६।

वाजिगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० वाजिगन्धा] अश्वगंधा। असगंध।

वाजित
वि० [सं०] वाज युक्त। पंखोंवाला। जैसे, वाण [को०]।

वाजित्र
संज्ञा पुं० [सं० वादित्र] बाजा। वाद्य। वाद्ययंत्र। उ०—हुई सोपारी मनि हरष्यो छइ राव। वाजित्र बाजइ नीसाँणों घाव।—बी० रासो, पृ० ९।

वाजिदंत, वाजिदंतक
संज्ञा पुं० [सं० वाजिदन्त, वाजिदन्तक] वासक। अड़ूसा।

वाजिन
संज्ञा पुं० [सं०] १. शक्ति (वेद)। २. संघर्ष। होड़। ३. उलझन। ४. छेने का पानी [को०]।

वाजिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. घोड़ी। २. अश्वगंधा। असगंध। ३. उषा (को०)। ४. अन्न (वेद)।

वाजिब
वि० [अ०] उचित। ठीक। मुनासिब। उ०—वाकिफ हो सो गमि लहै, वाजिब सखुन अजूब।—कबीर० श०, पृ० ३०।

वाजिबी
वि० [अ०] उचित। ठीक। मुनासिब। मुहा०—वाजिबी बात=ठीक बात। यथार्थं या सच्ची बात। वाजिबी खर्च=आवश्यक खर्च।

वाजिबुल्अदा (१)
वि० [अ०] (रकम या धन) जिसके देने का समय आ गया हो। (वह रकम) जिसका दे देना उचित हो, या जिसे देने का समय पूरा हो गया हो।

वाजिबुल् अदा (२)
संज्ञा पुं० ऐसा धन या रकम जिसे देने का समय पूरा हो चुका हो।

वाजिबुल् अर्ज
संज्ञा पुं० [अ० वाजिबुल अर्ज़] वह शर्त जो कानूनी बंदोबस्त के समय जमीदारों और काश्तकारों के बीच गाँव के रिवाज आदि के संबध में लिखी जाती है।

वाजिबुल् वसूल (१)
वि० [अ०] (धन) जिसके वसूल करने का वक्त आ गया हो।

वाजिबुल् वसुल (२)
संज्ञा पुं० ऐसा धन या रकम जिसे वसूल करना उचित हो।

वाजिपृष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] अम्लान वृज्ञ। दे० 'अम्लान' [को०]।

वाजिभ
संज्ञा पुं० [पुं०] अश्विनी नक्षत्र।

वाजिभक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] चना। चणक [को०]।

वाजिभोजन
संज्ञा पुं० [सं०] मूँग। मुद्गग।

वाजिमान्
संज्ञा पुं० [सं० वाजिमत्] परवल। पटोल [को०]।

वाजिमेध
संज्ञा पुं० [सं०] एक यज्ञ। अश्वमेध।

वाजियोजक
संज्ञा पुं० [सं०] सारथी। साईस [को०]।

वाजिराज
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. उच्चैःश्रवा।

वाजिविष्ठा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वट का वृक्ष। बरगद [को०]।

वाजिशत्रु
संज्ञा पुं० [सं०] अश्वमार। कनेर का पेड़।

वाजिशाला
संज्ञा पुं० [सं०] मंदुरा। अस्तबल। घुडसाल [को०]।

वाजिशिरा
संज्ञा पुं० [सं० वाजिशिरस्] १. भगवान् के एक अवतार का नाम। २. एक दानध का नाम।

वाजी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वाजिन्] १. घोड़ा। २. वासक। अड़ूसा। ३. फटे हुए दूध का पानी। विशेष—वैद्यक में इसे रुचिकर तथा तृष्ण, दाह, रक्तपित्त और ज्वर का नाशक लिखा है। ४. हवि। ५. वाण। तीर (को०)। ६. वह जो वाजसनेयी शाखा का अनुयायी हो (को०)। ७. आदित्य। सूर्य (को०)। ८. इंद्र। ९. बृहस्पति (को०) । १०. पक्षी (को०)। ११. सात की संख्या (को०)। १२. लगाम। वल्गा (को०)।

वाजी (२)
वि० १. तीव्र। वेगयुक्त। तेज। २. सुद्दढ़। मजबूत। ३. अन्नवाला। जिसके पास अन्न हो। ४. पंखोंवाला। पक्षयुक्त [को०]।

वाजीकर
वि० [सं०] १. कामोद्दीपक। २. शक्तिवर्धक [को०]।

वाजीकरण
संज्ञा पुं० [सं०] वह आयुर्वेदिक प्रयोग जिससे मनुष्य में वीर्य, स्तंभनशक्ति और पुंसत्व की वृद्धिं हो। उ०—जिस औषध से०००स्त्री विषये अभिलाषा उत्पन्न हो और धातु बढ़े तिसको वाजीकरण कहते हैं।—शाङ्गंघर०, पृ० ३९। विशेष—जिस प्रयोग से मनुष्य अश्व के समान रतिशक्तिवाला हो, उसे वाजीकरण कहते हैं। मनुष्य में जब वीर्य की अल्पता होती है, तब वाजीकरण औषधों का व्यवहार किया जाता हैं। साधारणतः धी, दूध, मांस आदि पदार्थ वीर्यवर्द्धक होते हैं। पर आयुर्वेद में वाजीकरण पर एक अलग प्रकरण रहता है, जिसमें अनेक प्रकार की काष्ठौंषधों और रसौषधों की व्यवस्था रहती है।

वाजीत्र
संज्ञा पुं० [सं० वादित्र] बाजा। वाद्ययंत्र। उ०—मोती चउक पुराबीया, वाजीत्र बाजे घुरइ निसांण।—बी० रासो, पृ० २२।

वाजूँ
वि० [अ० वाजूँ] अधोमुख। उलटा।

वाजे
वि [अ० वाजे़अ] १. रखने या धर देनेवाला। वजा करनेवाला। २. रचनेवाला बनानेवाला [को०]।

वाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. मार्ग। रास्ता। उ०—जिण बाटइ सज्जण गया सा वाटड़ी सुरंग।—ढोला०, दू० ३४६। २. वास्तु। इमारत। ३. मंडप। ४. आवृत स्थान। घेरेदार जगह (को०)। ५. उद्यान। उपवन (को०)। ६. एक अन्न (को०)। ७. तट पर लगाया हुआ लकड़ी का बाँध (को०)। ८. उरुसंधि। वंक्षण (को०)। ९. प्रांत। प्रदेश (को०)।

वाटक
संज्ञा पुं० [सं०] १. उद्यान। उपवन। २. घेरा। बाड़। दे० 'वाट' [को०]।

वाटड़ी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाट + (राज०) ड़ी (प्रत्य०) मार्ग। राह। पथ। उ०—सज्जण चाल्या हे सखी, वाजइ वाजारंग। जिण वाइट सज्जण गया सा वाटड़ी सुरंग।—ढोला०, दू० ३५६

वाटधान
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक जनपद जो काश्मीर के नैऋत्य कोण में कहा गया है। नकुल के दिग्विजय में इसे पश्चिम में और मत्स्यपुराण में उत्तर दिशा में लिखा है। २. स्मृति के अनुसार ब्राह्मणी माता और वर्ण ब्राह्मण या कर्महीन ब्राह्मण से उत्पन्न एक संकर जाति। ३. वह सैन्याधिकारी जो अपनी सेना को प्रकृति एवं प्रवृत्ति से परिचित हो (को०)। ४. भूस्वामी। जमींदार (को०)।

वाटर
संज्ञा पुं० [अं०] पानी। यौ०—वाटरकलर=(१) एक प्रकार का रंग। (२) इस रंग से बना चित्र। वाटर पेटिग=वाटरकलर से चित्र बनाना। वाटरपीलो=एक खेल का नाम। वाटरप्रूफ। वाटर मार्क=(१)जल की गहराई का सूचक चिह्न। (२) कागज पर छपा विशेष प्रकार का चिह्न आदि जो प्रकाश के सामने करने पर दिखाई पड़ता है, जैसे मुद्राविनिमय के नोटों आदि पर रहता है। वाटर वर्क्स। वाटरशूट। सोडावाटर आदि।

वाटरप्रूफ
वि० [अ०] जिसपर पानी का प्रभाव न पड़े। जो पानी में न भीग सके। जैसे, वाटरप्रूफ कपड़ा।

वाटरवक्सं
संज्ञा पुं० [अं०] १. नगर में पानी पहुँचाने का विभाग। पानी पहुँचाने की कल का कार्यालय। २. पानी पहुँचाने की कल। जलकल।

वाटरशूट
संज्ञा स्त्री० [अ०] पानी में कूदकर तैरने की क्रीड़ा। जलक्रीड़ा।

वाटली पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्तुली, प्रा० वट्टुली, राज०, वाटला, अथवा देश० बट्टु या वट्ट, गुज० वाटको०] पात्र। छोटी कटोरी। ल०—माती जड़ी स हाथि, सुरह सुगंधी वाटकी। सूती माँझिम राति, जाणूँ ढोलू जागली।—ढोला० दू०, ५०५।

वाटशृंखला
संज्ञा स्त्री० [सं० वाट श्रृङ् खला] वह शृंखला या जंजीर जिससे कोई स्थान घेर दिया गया हो [को०]।

वाटि (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] घिरा हुआ भूभाग [को०]।

वाटि पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वर्ति, प्रा० वट्टि, राज० वाटि] दे० 'बत्ती'। उ०—ढोला माखड़ी मुई, सइँ सारड़ी न लघ्घ। दीवा केरी वाटि जिन, खोड़ी खोड़ी दध्ध।—ढोला०, दू० ६०९।

वाटिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वास्तु। इमारत। २. वाग। बगीचा। ३. हिंगुपत्री। ४. पर्णशाला। कुटीर (को०)। ५. अतिबला। बरियारा (को०)।

वाटिदीर्घ
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वाटिदीर्घा] सरपत। एक प्रकार की लंबी घास [को०]।

वाटी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वास्तु। इमारत। घर। २. वह भूभाग जहाँ कोई घर बनाया गया हो (को०)। ३. अहाता। बाड़ा (को०)। ४. उद्यान। उपवन (को०)। ५. सड़क। रथ्या (को०)। ६. जाँघ का जोड़। उरुसंधि (को०)। ७. एक प्रकार का अन्न (को०)। ८. अतिबला। बरियारा (को०)।

वाट्टक
संज्ञा पुं० [सं०] भुना हुआ जौ। बहुरी।

वाटय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बला। बरियारा। खिरैंटी। २. भुना हुआ जौ।

वाट्य (२)
वि० १. उपवन। २. बट्काष्ठ का बना हुआ। वट निर्मित (को०)।

वाट्यपुष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. चंदन। २. कुंकुम।

वाट्यपुष्पी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अतिबला। बरियारा।

वाट्यमंड
संज्ञा पुं० [सं० वाट्यमण्ड़] बिना भूसी या छिलके के भुने हूए और दले हुए जोका मांड। विशेष—एक भाग दले हुए जौ चौगुने पानी में पकाने से वाट्यमंड बनता है। वैद्यक मे यह हल्का। रतिकर, दीपन, हृद्य तथा, पत्त, इलेष्मा, वायु और अनाद्यनाशक कहा गया है।

वाट्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] बरियारा। बीजबंद।

वाट्याल
संज्ञा पुं० [सं०] बरियारा। बीजबंद।

वाट्यालक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वाट्याल'।

वाट्यालिका, वाट्याली
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा बरियारा।

वाड
संज्ञा पुं० [सं०] घेरा। बाड़। वेष्टन [को०]।

वाड़ पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वाड] दे० 'वाड़'। उ०—सील संतोष की वाड़ करायलो गुरु शब्द रखवारी।—राम० धर्म०, पृ० ४२।

वाड़व (१)
संज्ञा पुं० [सं० वाडव] १. दे० 'बाड़व' (१)। २. ब्राह्मण (को०)। ३. एक वैयाकरण का नाम (को०)। ४. वडवा का समूह। अश्वसमूह (को०)। ६. एक मुहूर्त का नाम (को०)। ७. एक रतिबंध। ८. पाताल (को०)।

वाड़व (२)
वि० दे० 'बाड़व' (२)।

वाडवहरण
संज्ञा पुं० [सं०] घोड़ों का चारा। घोड़े को दिया जानेवाला चारा, दाना, घास आदि [को०]।

वाडवहारक
संज्ञा पुं० [सं०] एक समुद्री जतु [को०]।

वाड़वाग्नि
संज्ञा स्त्री० [सं०वाडवाग्नि] १. समुद्र के अंदर की आग। २. समुद्री आग। वह आग जो समुद्र में दिखाई देती है।

वाड़वानल
संज्ञा पुं० सं० वाडवानल बड़वानल। दे० वाड़वाग्नि [को०]।

वाडवेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. अश्विनीकुमार। २. ब्राह्मण। ३. अश्व। घोड़ा। ४. साँड़ [को०]।

वाडव्य
संज्ञा पुं० [सं०] ब्राह्मण समुदाय [को०]।

वाढ
वि० [सं०] दे० 'बाढ' (१)[को०]।

वाढम्
अव्य० [सं०] अलम्। बस। काफी है। बहुत हो चुका।

वाण
संज्ञा पुं० [सं०] धारदार फल लगा हुआ छड़ी के आकार का छोटा अस्त्र जो धनिष की डोरी पर खींचकर छोड़ा जाता है। तीर। विशेष—बृहत् शर्ङ्गधर में धनुष और वाण बनाने के सबंध में बहुत स नियम दिए गए हैं। उसमें लिखा है कि वाण या तीर का फल शुद्ध लौह का होना चाहिए। फल कई आकार के बनाए जाते थे, जैसे,—आरामुख, क्षुरु्प्र, गोपुच्छ, अधचद्र, सूचीमुख, भल्ल, वत्सदत, द्विभल्ल, कीर्णक और काकतुंड। ये सब भिन्न भिन्न कामों के लिये होते थे। जंसे,—आरामुख वाण वर्म (बकतर) भेजने के लिये, अधंचंद्र सिर काटने के लिये, आरामुख और सूचीमुख ढाल छेदने के लिये, क्षुरप्र धनुष काटने के लिये, भल्ल हृदय भेदने के लिये, द्विभल्ल धनुष की डोरी काटने के लिये, आदि। वाण के फल पर अच्छी जिला होनी चाहिए। पीपल, सेंधा नमक और गुड़ को गोमूत्र में पीसकर फल पर लेप करे, फिर फल को आग्न में तपाकर तेल में बुझावे, तो अच्छी जिला होगी। शर कैसा होना चाहिए, इसके संबंध में भी बहुत सी बातें हैं। वाण ठीक सीधा जाय, रास्ते में इधर उधर न हो, इसके लिये पिछले भाग में कुछ दूर तक कौवे, हंस, बगले, गीध और मयूर आदि किसी पक्षी के परलगाने चाहिए। विशेष विवरण के लिये देखिए 'वनुर्वेद' और 'बाण' शब्द।

वाणावली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वाणों को अवली। तीरों की कतार। तीरों की लगातार वर्षा। २. एक साथ बने हुए पाँच श्लोक। श्लोकों का पंचक।

वाणि
संज्ञा स्त्री० [स०] १. बुनना (कपड़ा आदि)। २. करगह। करघा। ३. सरस्वती। ४. बादल। ५. मूल्य। कीमत। ६. शब्द। वाणी [को०]।

वाणिज
संज्ञा पुं० [सं०] १. वणिक। २. बड़वानल। ३. तुला राशि का चिह्न (को०)।

वाणिजक
संज्ञा पुं० [सं०] वणिक्। व्यापारी।

वाणिजिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वणिक्। व्यापारी। २. धूर्त। ठग। ३. बड़वानल [को०]।

वाणिज्य
संज्ञा पुं० [सं०] व्यापार। बाणिज्य।

वाणिज्यक
संज्ञा पुं० [सं०] व्यापारी [को०]।

वाणिज्य दूत
संज्ञा पुं० [सं०] वह मनुष्य जो किसी स्वाधीन राज्य या देश के प्रतिनिधि रूप से दूसरे देश में रहता और अपने देश के व्यापारिक स्वार्यों की रक्षा करता हो। कान्सल। उ०—दोनों सरकार महावाणिज्य दूतों, वाणिज्य दूतों, उपवाणिज्य दूतों, तथा अन्य वाणिज्य दूताभिकर्ताओं की नियुक्ति के लिये संभत हैं। —नेपाल०, पृ० २५६।

वाणिज्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वीणिज्य' [को०]।

वाणिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक वर्णवृत्त [को०]।

वाणिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. नर्तकी। २. सत्त। ३. शृंगार- प्रिय और स्वेच्छाचारिणो औरत (लाक्ष०)। ४. एक वर्णवृत्त का नाम, जिसके प्रत्येक चरण में १६ वर्ण अर्थात् क्रमानुसार नगण, जगण, भगण, फिर जगण और अंत में रगण और गुरु होता है।

वाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सरस्वती। २. मुंहसे निकले हुए सार्थक शब्द। वचन। उ०—इसमें भी मन और भाव हैं किंतु नहीं वैसी वाणी।—पंचवटी, पृ० ९। मुहा०—वाणी फुरना=मुँह से शब्द निकलना। ३. वाक्शक्ति। उ०—इतनी कहत गरुड़ पर चढ़िकै तुरतहि मधु- वन आए। कंबु कपोल परसि बालक के वाणी प्रगट कराए।—सूर (शब्द०) । ४. वागिंद्रिय। जीभ। रसना। उ०—नैन निरखि चक्रित ह्वै गए। मन वाणी दोऊ थकि रए।—सूर (शब्द०)। ५. स्वर। ६. साहित्यिक रचना या कृति। ग्रंथ (को०)। ७. प्रशंसा। स्तवन।स्तुति (को०)। ८. एक छंद (को०)। ९. बुनाई [को०]।

वाणीवाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक पक्षी (को०)।

वाणीमय
वि० [सं०] शब्दित। शब्दायमान। ध्वनित। उ०—वाणी- मय मरु प्रांतर, छई है विषणण लाज।—आराधना, पृ० ३१।

वातंड
संज्ञा पुं० [सं० वातण्ड] एक गोत्रकार ऋषि का नाम, जिनके गोत्रवाले वातंड्य कहलाते हैं।

वातंड्य
संज्ञा पुं० [सं० वातणड्य] [स्त्रीं वातंड्यादिनी] वातंड ऋषि के गोत्र में उत्पन्न पुरुष।

वात
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। हवा। २. वैद्यक के अनुसार शरीर के अंदर की वह वायु जिसके कुपित होने से अनेक प्रकार के रोग होते हैं। विशेष—शरीर में इसका स्थान पक्वाशय माना गया है। कहते हैं, शरीर की सब धातुओं और मल आदि का परिचालन इसी से होता है, और श्वास प्रश्वास, चेष्टा, वेग आदि इंद्रियों के कार्यों का भी यही मूल है। ३. वायु का देवता। वायु का अधिष्ठाता देवता (को०)। ४. गठिया। संधिवात (को०)। ५. धृष्ट नायक (को०)।

वात (२)
वि० १. बही हुई। २. इच्छित। अभीष्ट। प्रार्थित [को०]।

वातकंटक
संज्ञा पुं० [सं० वातकण्टक] एक प्रकार का वात रोग विशेष—इसमें पाँव की गाँठों में वायु के धुसने के कारण जोड़ों में बड़ी पीड़ा होती है। यह रोग ऊँचे नेचे पैर पड़ने या अधिक परिश्रम करने से हो जाता है।

वातक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अशनपर्णी। २. उपपति। जार (को०)।

वातकपिंडक
संज्ञा पुं० [सं० वातक पिणडक] जन्मजात नपुंसक [को०]।

वातकर
वि० [सं०] वायुकारक। शरीर में वात पैदा करनेवाला।

वातकर्म
संज्ञा पुं० [सं० वातकर्मन्] अपानवायु का निकालना। पादना [को०]।

वातकी
वि० [सं० वातकिन्] १. वात संबंधी। वात दोष से उत्पन्न। उ०—स्वरभेद और सूखी साँसी उठे ये बातकी खाँसी के लक्षण हैं।—माधव०, पृ० ८९। २. वात रोग का रोगी (को०)।

वातकुंडलिका
संज्ञा स्त्री० [सं० वातकुणडलिक] एक प्रकार का मूत्ररोग। उ०—इस दारुण व्याधि को वातकुंडलिका रोग कहते हैं।—माधव०, पृ० १७४। विशेष—मूत्रकृच्छ का रोगी यदि कुपथ्य करके रूखी वस्तुएँ खाता है, तो यह उपद्रव होता है। इस व्याधि में वायु कुंडलाकार होकर पेड़ू में घूमता रहता है, रोगी को पेशाब करने में पीड़ा होती है, और बुँद बूँद करके पेशाब उतरता है।

वातकुंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० वात कुणडली] एक मुत्ररोग। विशेष दे० 'वातकुंडलिका' [को०]।

वातकुंभ
संज्ञा पुं० [सं०वातकुम्भ] हाथी के माथे का निचला भाग। हाथी का गंडस्थल [को०]।

वातकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] धूल। गर्द।

वातकेलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुंदर आलाप। प्रेमियों की कानाफूसी। २. उपपति के दाँतों या नखों का क्षत्र।

वातकोपन
वि० [सं०] शरीरस्थ वायु को दुषित करनेवाला [को०]।

वातक्षोभ
संज्ञा पुं० [सं०] शरीरस्थ वायु का दूषित होना [को०]।

वातगंड
संज्ञा पुं० [सं० वातगण्ड] वातज गलगंड रोग जिसमें गले की नसें काली या लाल और कड़ी हो जाती हैं तथा बहुत दिन में पकती हैं।

वातगज
संज्ञा पुं० [सं०] तीव्र गति से दौड़नेवाला मृग [को०]।

वातगामी
संज्ञा पुं० [सं० वातगामिन्] पक्षी। विहग [को०]।

वातगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का गुल्म रोग जो वात के प्रकोप से होता है। विशेष—वैद्यक के अनुसार अधिक भोजन करने, रूखा अन्न खाने, बलवान् से लड़ने, मल मुत्र रोकने या अधिक विरेचनादि लेने से यह रोग होता है। इसमें गोला सा बँध जाता है, जौ इधर से उधर रेंगता सा जान पड़ता है। कभी कभी बड़ी पीड़ा होती है। यह पीड़ा प्रायः भोजन पचने के पीछे खाली पेट होने पर होती है और भोजन करने पर घट जाती है। २. आँधी। अंधड़। तूफान (को०)।

वातघ्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. शालपर्णी। २. अश्वगंधा। असगध।

वातचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ज्योतिष में एक योग। विशेष—आषाढ़ी पूर्णिमा के दिन सूर्यास्त्र के समय यह योग आता है। उस समय वायु की दिशा द्वारा वर्ष के फलाफल का विचार किया जाता है। २. अंधवायु। चक्रवात। बवंडर।

वातचटक
संज्ञा पुं० [सं०] तित्तिर। तीतर पक्षी।

वातज (१)
वि० [सं०] वायु द्वारा उत्पन्न। वातकृत्।

वातज (२)
संज्ञा पुं० उदरव्यथा। उदरशूल। पेट में उत्पन्न होनेवाली चुभन या पीड़ा [को०]।

वातजात
संज्ञा पुं० [सं० वात + जात] पवनसुत। हनुमान। उ०— महमि सुखात वातजात की सुरति करि लवा ज्यों लुकात तुलसी झपेटे बाज के।—तुलसी (शब्द०)।

वातज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ज्वर। विशेष—इसमें गला, होंठ और मुँह सुखते हैं, नींद नहीं आती, हिचकी आती है, शरीर रूखा हो जाता है, सिर और देह में पीड़ा होती है, मुँह फीका लगता है और मल रूद्ध हो जाता है। यह ज्वर कभी घट और कभी बढ़ जाता है।

वाततूल
संज्ञा पुं० [सं०] महीन तागा जो कभी कभी आकाश में इधर उधर उड़ता दिखाई पड़ता है। विशेष—यह एक प्रकार की बहुत छोटी मकड़ियों का जाला होता है जिसके सहारे वह एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर जाया करती हैं। इसी को बुढ़िया का तागा कहते हैं। पर्या०—वृद्धसूत्रक। इंद्रतूल। ग्रावाहास। वशकफ। मरुघ्वज।

वातथुडा,
संज्ञा स्त्री० [सं०] [अन्य रूप—वातखुडा, वातथूडा, वातहुडा] १. तेज हवा। २. भयंकर वातरोगी। ३. एक प्रकार की चेचक की बीमारी। ४. सूंदरी स्त्री [को०]।

वातध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। २. धूल (को०)।

वातनाडी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का नासूर जिसमें वायु के प्रकोप से दाँत को जड़ में नासूर हो जाता है। इसमें से रक्त सहित पीब निकला करता है और चुभने की सी पीड़ा होती है।

वातपंड
संज्ञा पुं० [सं० वातपण्ड] एक प्रकार का नपुंसक [को०]।

वातपट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पताका। ध्वजा। २. नाव का पाल (को०)।

वातपत्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दिशा।

वातपर्याय
संज्ञा पुं० [सं०] एक चक्षुरोग, जिसमें कभी भौ में और कभी आँखें धँसने से बड़ी पीड़ा होती है।

वातपात
संज्ञा पुं० [सं०] वायु का प्रबल वेग या झोंका [को०]।

वातपित्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक तरह का गठिया रोग [को०]।

वातपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीम। भीमसेन। ३. वंचक। ठग (को०)।

वातपोथ
संज्ञा पुं० [सं०] पलाश।

वातपोथक
संज्ञा पुं० [सं०] पलाश [को०]।

वातप्रकृति
वि० [सं०] जिसकी प्रकृति वायुप्रधान हो।

वातप्रकोप
संज्ञा पुं० [सं०] वायु का बढ़ जाना। वायु की अधिकता। विशेष—इसमें अनेक प्रकार के रोग होते हैं।

वातप्रमी
संज्ञा पुं० [सं०] १. मृग। हिरन। २. नकुल। नेवला। ३. घोड़ा।

वातप्रमेह
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का प्रमेह। उ०—उदावर्त,... शोष, सूखी खाँसी, श्वास ये वातप्रमेह के उपद्रव हैं।—माधव०, पृ० १८५।

वातप्रवाहिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का अतिसार रोग [को०]।

वातप्रशमिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] आलूबुखारा।

वातफुल्लांत्र
संज्ञा पुं० [सं० वातफुल्लान्त्र] १. वायु के कारण आँतों का फूलना। २. फुफ्फुस [को०]।

वातमंडली
संज्ञा स्त्री० [सं० वातमणडली] वात्याचक्र। बवंडर [को०]।

वातमज
संज्ञा पुं० [सं०] जिधर की हवा हो, उधर मुख करके दौड़नेवाला मृग। वातमृग।

वातमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वायुपथ। आकाश [को०]।

वातमृग
संज्ञा पुं० [सं०] जिधर की हवा हो, उधर मुख करके दौड़नेवाला मृग। वातमृग।

वातरंग
संज्ञा पुं० [सं० वातरङ्ग] चलदल वृक्ष। पीपल।

वातर
वि० [सं०] १. तुफानी। झंझामय। २. तेज। चुस्त [को०]।

वातरक्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक रोग जिसमें कुपथ्य और अयुक्ताहार विहार से रक्त वायु से दूषित हो जाता है। विशेष—इसमें पैर के तलवे से घुटने तक छोटी छोटी फुंसियाँ हो जाती हैं, जठराग्नि मंद पड़ जाती है और शरीर दुर्बल होता जाता है।

वातरक्तघ्न
संज्ञा पुं० [सं०] कुक्कुर नाम का वृक्ष [को०]।

वातरक्तारि
संज्ञा पुं० [सं०] पितघ्नी लता [को०]।

वातरथ
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ।

वातरायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. निष्प्रयोजन पुरुष। निकम्मा आदमी। २. कांड। ३. करपत्र। आरा। ४. कूट। शिखर। चोटी। ५. चीड़ का पेड़। सरल वृक्ष। ६. उन्मत्त पुरुष। ७. वाण। ८. वाण की उड़ान। तीर के लक्ष्य तक पहुँचने की दूरी (को०)।

वातरूष
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्रधनुष। २. उत्कोच। घूस। रिशवत। ३. तूफान। प्रचंड हवा। आँधी (को०)।

वातरोग
संज्ञा पुं० [सं०] वात से उत्पन्न रोग। गठिया आदि [को०]।

वातरोहिणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का रंग जिसमें रोगी की जीभ पर चारों ओर कटि के समान मांस उभर आता है और उसका गला रुक सा जाता है। इसमें रोगी को बड़ा कष्ट होता है।

वार्ताद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] काठ और लोहे का बना हुआ पात्र।

वातल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. चना। २. वायु। हवा (को०)।

वातल (२)
वि० १. वायुकारक। वायुवर्धक। २. तूफानी। झंझामय (को०)। ३. हवा से फूला हुआ (को०)। यो०—वातलमंडली=बवंडर। वात्याचक्र। वातलयोनि=योनि का दूषित होना।

वातवलासक ज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एंक प्रकार का ज्वर। उ०—देह रूखी हो, अंग जकड़ जावै कफ विशेष होय यह ज्वर वात और कफ से होता है इसको वातवलासक ज्वर कहते हैं।—माधव०, पृ० ३३।

वातवसन
संज्ञा पुं० [सं०] वातपट। पाल। उ०—जीर्ण शीर्ण वात- वसन, दुर्गाति है नौका की।—अपलक, पृ० ९८।

वातवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] मूत्रनिरोध [को०]।

वात विलोडित
वि० [सं०] हवा से मथा हुआ। वायुकंपित। उ०— वात विलोडित जलप्रसार में क्षोभ और आकुलता का आभास मिलता है।—रस०, पृ० १७।

वातवृद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] अंडकोष की सूजन। अंडवृद्धि। [को०]।

वातवैरी
संज्ञा पुं० [सं० वातवैरिन्] १. बादाम। २. एरंड। रेंड़ वृक्ष (को०)।

वातव्याधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] गठिया।

वातशीर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्ति। पेड़ू। २. पिचकारी।

वातशूल
संज्ञा पुं० [सं०] वायुविकारजन्य शूल। वायु के विकार से होनेवाली पीड़ा [को०]।

वातशोणित
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वातरक्त' [को०]।

वातश्लेष्मज्वर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का ज्वर। उ०—त्तौमित्य नाम गीले कपड़े से देह की ढकने से जैसा हो ऐसा मालूम हो, संधियों में फूटनी, निद्रा, देह भारी, मस्तक, भारी, नाक से पानी गिरे, खाँसी, पसीने का आना, शरीर में दाह ज्वर का मध्यवेग ये वातश्लेष्पज्वर के लक्षण हैं।—माधव० पृ० १६।

वातसख
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

वातसह
वि० [सं०] वात रोग से ग्रस्त। गठिया का रोगी। जिसे गठिया का रोग हो [को०]।

वातसार
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्व। बेल।

वातसारथि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

वातस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० वातस्कन्ध] आकाश का वह भाग जहाँ वायु चलती रहती है।

वातस्वन
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

वातहत
वि० [सं०] वायुजन्य उन्माद से ग्रस्त [को०]।

वातहा
वि० [सं०] वायुविकार शामक। वायुनाशक [को०]।

वातांड
संज्ञा पुं० [सं० वाताणड] अंडकोश का एक रोग, जिसमें एक अंड चलता रहता है।

वाता
संज्ञा पुं० [सं० वातृ] पवन। वायु [को०]।

वाताख्य
संज्ञा पुं० [सं०] वह घर जिसमें दक्षिण और पूर्व की ओर दालान हो [को०]।

वाताट
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य का घोड़ा। २. हिरन।

वातातिसार
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का अतिसार जो वायुविकार से होता है। विशेष—इसमें लालाई लिए हुए झागदार, रूखा, आम मिला हुआ दस्त होता है, और मल उतन्ते समय आवाज भी होती है।—माधव०, पृ० ४५।

वातात्मज
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीमसेन (को०)।

वाताद
संज्ञा पुं० [सं०] बादाम।

वाताध्वा
सं० पुं० [सं०] झरोखा। मोखा। गवाक्ष। खिड़की [को०]।

वातापि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक असुर का नाम। विशेष—आतापि और वातापि दो भाई थे। दोनों मिलकर ऋषियों को बहुत सताया करते थे। वातापि तो भेंड़ बन जाता था और उसका भाई आतापि उसे मारकर ब्राह्मणों को भोजन कराया करता था। जब ब्राह्मण लोग खा चुकते, तब वह वातापि का नाम लेकर पुकारता था और वह उनका पेट फाड़कर निकल जाता था। इस प्रकार उन दोनौं ने बहुत से ब्राह्मणों को मार डाला। एक दिन अगस्त्य ऋषि उन दोनों के घर आए। आतापि ने वातापि को मारकर अगस्त्य को खिलाया और फिर नाम लेकर पुकारने लगा। अगस्त्य जी ने डकार लेकर कहा कि वह तो मेरे पेट में कभी का पच गया, अब कहाँ आता है। यौ०—वातापिद्विट्, वातापिसूदन, वातापिहा=वातापि को मारने या पचा जानेवाले, अस्गत्य ऋषि।

वातापी
संज्ञा पुं० [सं० वातापि] दे० 'वातापि'। उ०—मुनियों की कोख के भेदन करनेवाले वातापी नामक असुर को जिन्होंने पचा डाला था।—बृहत्संहिता, पृ० ७६।

वाताप्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. उदक। जल। २. सोम। ३. शोथ। ४. उफान। खमीर [को०]।

वाताम
संज्ञा पुं० [सं०] बादाम।

वातामोदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] करतूरी।

वाताय
संज्ञा पुं० [सं०] पर्ण। पत्ता [को०]।

वातायन
संज्ञा [सं०] १. गवाक्ष। झरोखा। छोटी खिड़की। २. घोड़ा। ३. एक मंत्रद्रष्ठा ऋषि का नाम। ४. रामायण के अनुसार एक जनपद का नाम। ५. अलिंद। द्वारमंडप (को०)। ६. मंडप। माँड़ों (को०)।

वातायमान
वि० [सं०] वायु की तरह गतिशील [को०]।

वातायु
संज्ञा पुं० [सं०] हिरन।

वातारि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एरंड। रेंड़। २. शतमूली। ३. सिंहारू। निर्गुंडी। ४. अजवाइन। ५. थूहर। सेंहुड़। ६. बायविडंग। ७. सूरन। जिमीकंद। ८. भिलावाँ। ९. सतावर। १०. तिलक वृक्ष। ११. नील का पौधा।

वातालि, वाताली
संज्ञा स्त्री० [सं०] वात्या। आँधी। तुफान [को०]।

वातावरण
संज्ञा पुं० [सं०] १. पृथ्वी के चारों ओर रहनेवाली वायु। २. परिस्थिति। ३. आस पास की स्थिति। उ०—प्रशामित है वातावरण, नमितमुख सांध्य कमल।—अपरा, पृ० ३८।

वातावर्त
संज्ञा पुं० [सं०] बवंडर। वात्याचक्र [को०]।

वाताश
संज्ञा पुं० [स०] सर्प [को०]।

वाताशी
संज्ञा पुं० [सं० वाताशिन्] साँप। सर्प [को०]।

वाताश्व
संज्ञा पुं० [सं०] तीव्रगामी घोड़ा [को०]।

वाताष्ठीला
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक उदररोग जिसमें नाभि के नीचे वायु की गाँठ सी पड़ जाती है, जो इधर उधर रेंगती सो जान पड़ती है। यह कभी कभी मूत्र का अवरोध भी करती है।

वातास
संज्ञा स्त्री० [सं० वात, हिं० बतास] हवा। वायु। बयार। उ०—आज जाने कैसी बातास, छोड़ती सौरभ। श्लथ उच्छृ- वास।—गुंजन, पृ०५३।

वाताहत
वि० [सं०] वायु से आहत, हिलाया हुआ। वायुकंपित। उ०—दिकपिजर में बद्ध गजाधिप सा विनतानन, वाताहत हो गगन आर्त करता गुरु गर्जन।—रश्मि०, पृ० ५४। २. गठिया रोग से ग्रस्त (को०)।

वाताहति
संज्ञा स्त्री० [सं०] वायु का प्रचंड झोंका [को०]।

वाताहार
वि० [सं०] वायु पीकर जीनेवाला [को०]।

वातिंगण
संज्ञा पुं० [सं० वातिङ्गण] दे० 'वातिगम' [को०]।

वाति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वायु। २. सूर्य। ३. चंद्रमा।

वातिक (१)
वि० [सं०] [स्त्री० वातिकी] १. तूफानी। २. पागल। उन्माद से पीड़ीत। ३. संधिवात या गठिया रोगवाला। ४. वायु के कारण उत्पन्न। वातजन्य। उ०—ऐसे शूलों को वातिक शूल कहते हैं।—माधव, ० पृ० १५९।

वातिक (२)
संज्ञा पुं० १. पपीहा। २. वह व्यक्ति जो वातव्याधि से प्रभावित हो। पागल। उन्मत्त। वातुल। ३. चाटुकार। ४. एक प्रकार का ज्वर। ५. देवयोनि विशेष। ६. ऐंद्र- जालिक। बाजीगर। 7. विष वैद्य [को०]।

वातिग
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वातिगम'।

वातिगम
संज्ञा पुं० [सं०] १. भंटा। बैगन। २. वह व्यक्ति जो धातुविज्ञान का ज्ञाता हो। खनिजविज्ञान का वेत्ता (को०)।

वातीक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का छोटा पक्षी।

वातीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] चावल का माँड़ [को०]।

वातीय (२)
वि० वायुसंबंधी [को०]।

वातुल (१)
वि० [सं०] १. वायुप्रधान। २. वायु के कोप से जिसकी बुद्धि ठिकाने न हो। बातूनी। बकबादी (को०)। ३. संधिवात से पीड़ित (को०)।

वातुल (२)
संज्ञा पुं० १. बावला। उन्मत्त। २. पागल। वायु का आवर्त। बवंडर (को०)।

वातुलि
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ा चमगादड़ [को०]।

वातुल
वि० [सं०] दे० 'वातुल'। उ०—उठता वह वातूल वेग से है कब से।—साकेत, पृ० ४०१।

वातूलीभ्रम
संज्ञा पुं० [सं०] बवंडर। वात्याचक्र [को०]।

वातृ
संज्ञा पुं० [सं०] वायु [को०]।

वातोदर
संज्ञा पुं० [सं०] एक वातरोग। विशेष—इसमें हाथ, पाँव, नाभि, काँख, पसली, पेट, कमर और पीठ में पीड़ा होती है; सूखी खाँसी आती है; शरीर भारी रहता है; अंगों में ऐंठन होती है; और मल का अवरोध हो जाता है। पेट में कभी वभी गुड़गुड़ाहट भी होती है और पेट फूला रहता है। पेट ठोंकने से ऐसा शब्द निकलता है, जैसे हवा भरी हुई मशक ठोंकने से।

वातोना
संज्ञा पुं० [सं०] गोजिह्वा नाम का एक पौधा [को०]।

वातोर्मी
संज्ञा पुं० [सं०] ग्यारह अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसमें मगण, भगण, तगण और अंत में दो गुरु होते हैं। जैसे,—मो भाँती गो गहि धीरा धरो जू। नीकै कौरो सह युद्धै करो जू। पाओगे अर्जुन या रीति मुक्ति। वातोर्मी सो समुझौ आत्मयुक्ति।—छंदः०, पृष्ठ १६१।

वातोलंबन
संज्ञा पुं० [सं० वातोलम्बन] एक प्रकार का सन्निपात ज्वर। विशेष—इसमें रोगी को श्वास, खाँसी, भ्रम और मूर्छा होती है तथा वह प्रलाप करता है। उसकी पसलियों में पीड़ा होती है, वह जंभाई अधिक लेता है और उसके मुँह का स्वाद कसैला रहता है।

वात्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बवडर। २. तूफान। आँधी। उ०— आरँभिक वात्या उद् गम मैं अब प्रकृति बन रहा संसृति का।— कामायनी, पृ० ७६।

वात्याचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. बवंडर। २. बावेला (लाक्ष०)। उ०— कारण समझ में नहीं आता—यह वात्याचक्र क्यों ?—चंद्र०, पृ० १८१।

वात्स
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गोत्रकार ऋषि का नाम। २. एक साम का नाम।

वात्सक
संज्ञा पुं० [सं०] बछड़ों का समूह या झुंड [को०]।

वात्सरिक
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिषी।

वात्सल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रेम। स्नेह। १. वह स्नेह जो पिताया माता के हृदय में संतति के प्रति होता है। माता पिता का प्रेम। विशेष—साहित्य में जिस प्रकार नायक नायिका के रतिभाव के वर्णन द्वारा शृंगार रस माना जाता है, उसी प्रकार कुछ लोग माता पिता के रतिभाव के विभाव, अनुभाव और सचारी सहित वर्णन को वात्सल्य रस मानते हैं। पर यह सर्वसंमत नहीं है। अधिकांश लोग दांपत्य रति के अतिरिक्त और प्रकार के रति भाव को 'भाव' ही मानते हैं।

वात्सि, वात्सी
संज्ञा स्त्री० [सं०] ब्राह्मण और शूद्रा के संसर्ग से उत्पन्न कन्या [को०]।

वात्सिपुत्र, वात्सीपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] नाई। नापित [को०]।

वात्स्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम। ३. एक गोत्र जिसमें ओर्व, च्ववन, भार्गव, जामदग्न्य और आप्रुवान नामक पाँच प्रवर होते हैं।

वात्स्यायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक ऋषि का नाम। २. न्यायशास्त्र के प्रसिद्ध भाष्यकार। ३. कामसूत्र के प्रणेता एक प्रसिद्ध ऋषि।

वाथुरी †
संज्ञा स्त्री० [देश०] एक पुरानी जाति का नाम। उ०—अन्य जातियाँ भी थीं—हाडिक्क, बागुडि के पुर्वज वाथुरी तथा चूहड़े।—प्रा० भा० प०, पृ० १८१।

वाद
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह बातचीत जो किसी तत्व के निर्णय के लिये हो। तर्क। शास्त्रार्थ। दलील। विशेष—'वाद' न्याय के सोलह पदार्थों में दसवाँ पदार्थ माना गया है। जब किसी बात के संबंध में एक कहता है कि यह इस प्रकार है और दूसरा कहता है कि नहीं, इस प्रकार है, और दोनों अपने अपने पक्ष की युक्तियों को सामने रखते हुए कथोप- कथन में प्रवृत्त होते हैं, तब वह कथोपकथन 'वाद' कहलाता है। यह वाद शास्त्रीय नियमों के अनुसार होता है, और उसमें दोनों अपने अपने कथन को प्रमाणों द्वारा पुष्ट करते हुए दूसरे के प्रमाणों का खंडन करते हैं। यदि कोई निग्रहस्थान में आ जाता है, तो उसका पक्ष गिरा हुआ माना जाता है और वाद समाप्त हो जाता है। २. किसी पक्ष के तत्वज्ञों द्वारा निश्चित सिद्धांत। उसूल। जैसे— अद्वैतवाद, आरंभवाद, परिणामवाद। ३. बहस। झगड़ा। ४. भाषण (को०)। ५. वक्तव्य। उक्ति। आरोप (को०)। ५. वर्णन। वृत्त (को)। ६. उत्तर (को०)। ७. विवृति। व्याख्या (को०)। ८. ध्वनन। ध्वनि (को०)। ९. विवरण। अफवाह (को०)। १०. अभियोग। नालिश। (को०)। ११. संमति। सलाह (को०)। १२. अनुबध। इकरारनामा (को०)।

वादक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाजा बजानेवाला। २. वक्ता। ३. वाद करनेवाला। तक या शास्त्रार्थ करनेवाला।

वादकर
वि० [सं०] दे० 'वादकृत्' [को०]।

वादकर्ता
संज्ञा पुं० [सं० वादकर्तृ] वाद्य बजानेवाला। वादक [को०]।

वादकृत्
वि० [सं०] जो झगड़े या विवाद का कारण हो। विवाद करनेवाला [को०]।

वादग्रस्त
वि० [सं०] १. किसी वाद का आग्रही। उ०—इसका प्रमाण वादग्रस्त आलोचकों की प्रवृत्ति है।— आचार्य०, पृ० १४१। २. अनिश्वित। विवादास्पद (को०)।

वादचंचु
संज्ञा पुं० [सं० वादचञ्चु] १. शास्त्रार्थ करने में पटु। वाद करने में दक्ष। २. हाजिरजवाब। श्लेषगर्भित उत्तर देने में पटु व्यक्ति (को०)।

वाददंड
संज्ञा, पुं० [सं० वाददणड] सारंगी आदि बाजों के बजाने की कमानी।

वादद
वि० [सं०] प्रतिस्पर्धी [को०]।

वादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाजा बजाना। २. बाजा। ३. वह जो संगीतवाद्य को बजाता हो (को०)।

वादनक
संज्ञा पुं० [सं०] बाजा।

वादनीय
संज्ञा पुं० [सं०] नरसल। सर [को०]।

वादप्रतिवाद
संज्ञा पुं० [सं०] शास्त्रीय विषयों में होनेवाला कथोप- कथन। बहस।

वादयुद्ध
संज्ञा पुं० [सं०] विवाद। तर्कवितर्क [को०]।

वादरंग
संज्ञा पुं० [सं० वादरङ्ग] १. अश्वत्थ का वृक्ष। २. गुलर का वृक्ष (को०)।

वादर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कपास के सूत का कपड़ा। २. कपास का पेड़। ३. बेर का पेड़।

वादरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कपास।

वादरायण
संज्ञा पुं० [सं०] व्यासदेव। वेदव्यास।

वादरायणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. व्यास के पुत्र, शुकदेव। २. व्यासदेव।

वादरि
संज्ञा पुं० [सं०] वादरायण के पिता। विशेष—इनका मत वेदांत दर्शन में प्रायः उद्धृत मिलता है।

वादरिक
संज्ञा पुं० [सं०] बेर बीननेवाला।

वादल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मधुयष्टिका। जेठी मधु। मधु। मुलेठी।२. अंधकारमय दिवस (को०)।

वादवादी
संज्ञा पुं० [सं० वादवादिन्] जैन [को०]।

वादविवाद
संज्ञा पुं० [सं०] शाब्दिक झगड़ा। बहस। यौ०—वादविवाद प्रतियोगिता = वह वादविवाद जिसमें विभिन्न प्रतियोगी किसी निर्धारित विषय के पक्षविपक्ष में भाषण करते हैं और निर्णायकों की संमति से सर्वोंतम वक्ता पुरस्कृत होते हैं।

वादसाधन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अपकार करना। २. तर्क करना या तर्क मे प्रमाण देना।

वादा
संज्ञा पुं० [अ० वाइदह] (१) नियत समय या घड़ी। मुहा०—वादा आना = १. घड़ी आ पहुँचना। नियत समय का प्राप्त होना। २. काल आना। मृत्यु का समय आना। वादा पूरा होना = जीवनकाल समाप्त होना। २. इस बात का विश्वास दिलाना कि मैं अमुक काम करूँगा। वचन। प्रतिज्ञा। इकरार। मुहा०—वादा करना = कोई बात या काम करने के लिये वचन देना। प्रतिज्ञा करना। वादा पूरा करना = वचन के अनुसार काम पूरा करना। प्रतिज्ञा पूर्ण करना। वादा टालना = जिस समय कोई काम करने का वचन दिया हो, उस समय न करना। प्रतिज्ञा भंग करना। वादा खिलाफी करना = बात पूरी न करना। कथन के विरुद्ध कार्य करना। वादा रखाना = वचन लेना। प्रतिज्ञा कराना।उ०—सौंह करि कहत हौं, एहो प्यारे रघुनाथ आवति रखाए वादो उनहीं के घर सों।—रघुनाथ (शब्द०)। वादे से निकल जाना = वचन से पलट जाना। कहकर न करना। कहे के खिलाफ करना। कहकर मुकर जाना। उ०—नवाब साहब ने शरई कसम खाई और कहा, अगर अबकी वादे से निकल जाऊँ तो शरीफ नहीं पाजी समझता,च मार समझना—सैर कु०, पृ० २५। यौ०—वादाखिलाफ = वादा पूरा न करनेवाला। वादाखिलाफी = प्रतिज्ञा भंग। वचन पूरा न करना। वादागाह = सहेट स्थल। वह स्थान जहाँ मिलने की बात तै हुई हो। वादाफरामोश, वादाशिकन = वचन भंग करनेवाला। वादा पूरा न करनेवाला।

वादानुवाद
संज्ञा पुं० [सं०] तर्क वितर्क। शास्त्रार्थ। बहस।

वादान्य
वि० [सं०] उदार। वदान्य [को०]।

वादाम
संज्ञा पुं० [सं०] बादाम [को०]।

वादाल
संज्ञा पुं० [सं०] सहस्रदंष्ट्रा नामक मछली।

वादाशिकनी
[संज्ञा स्त्री] [फा०] प्रतिज्ञा भंग। वादखिलाफी [को०]।

वादि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विद्धान्। बुद्धिमान। चतुर। उ०— लह्मो जीति बहु वादिगन जिन वादीश्वर नाम।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० १०२। २. वक्ता। बोलनेवाला (को०)।

वादि (२)
अव्य०, [हिं० बादि]। दे० 'बादि'।

वादिक (१)
वि० [सं०] १. तार्किक। वाद करनेबाला।

वादिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाजीगर। जादूगर। ऐंद्रजालिक। २. वंदी। भाँट [को०]।

वादित (१)
वि० [सं०] १. बजाया हुआ। नादित। २. जो बोलने के लिये प्रतिर कराया गया हो। उच्चरित कराया हुआ (को०)।

वादित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] वाद्य संगीत [को०]।

वादितव्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. जो कहे या बजाए जाने योग्य हो। २. वाद्य संगीत [को०]।

वादित्र
संज्ञा पुं० [सं०] बाद्य। बाजा। उ०—पै मिलि बैठत जबै सबै रँगि जात एक रँग। भिन्न भिन्न वादित्र यथा मिलि बजत एक सँग।—प्रेमघन० भा० १. पृ० ४। २. वाद्यसंगीत (को०)। यौ०—वादित्रगण = वाद्य समूह। वाद्यश्रेणी।

वादित्रलगुड
संज्ञा पुं० [सं०] नगाड़ा, ढोल आदि बजाने की लकड़ी।

वादिर
संज्ञा पुं० [सं०] बेर के समान छोटे फलवाला वृक्ष [को०]।

वादिराज
संज्ञा पुं० [सं० वादिराज] मंजुघोष।

वादिश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. विद्वान् पुरुष। विद्याव्यसनी। २. संत। ऋषि। मुनि [को०]।

वादिश (२)
वि० सत्यवक्ता। साधुवादी [को०]।

वादींद्र
संज्ञा [सं० वादीन्द्र] मजुघोष।

वादी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वादिन्] १. वक्ता। बोलनेवाला। २. किसी वाद का पहले पहल प्रस्ताव करनेवाला जिसका प्रतिवादी की ओर से खंडन होता है। ३. व्यवहार में किसी के प्रति कोई अभियोग चलानेवाला। मुकदमा लानेवाला। फरियादी। मुद्दई। ४. व्याख्याता। अध्य़ापक (को०)। ५. राग का मुख्य स्वर (को०)। ६. रासायनिक। कामिघागर (को०)। ७. गायक। ८. बाजा बजानेवाला (को०)। ९. एक बुद्ध (को०)।

वादी (२)
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] १. घाटी। २. नदीतट का मैदान। ३. बना जंगल [को०]।

वादीला पु
वि० [सं० वादिन् + हिं० ला (प्रत्य०)] वाद करनेवाला। हठीला। हठवाला। उ०—वादीला बनवा रै, जितै कलाया जोर।—बाँकी० ग्रं०, भा० १, पृ० २०।

वादु पु
संज्ञा पुं० [सं० वाद] वाद। संवाद। बातचीत। उ०— तेल तंबोल का वादु।—अकबरी०, पृ० १५०।

वादूलि
संज्ञा पुं० [सं०] विश्वामित्र के एक पुत्र का नाम।

वाद् गल
संज्ञा पुं० [सं०] ओष्ठ। ओष्ठ।

वाद्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बजाना। २. बाजा। ३. बाजे की ध्वनि या स्वर (को०)। यौ०—वाद्यकर, वाद्यधर = संगीतज्ञ। वाद्यनिर्धोष = वाद्य की ध्वनि। बाजे को आवाज वाद्यभांड।

वाद्यक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बाजा बजानेवाला। २. वाद्य (को०)।

वाद्यभांड
संज्ञा पुं० [सं० वाद्यभाण्ड] १. मुरज आदि बाजे। २. बाजों का समूह। वाद्ययंत्रों का ढेर (को०)।

वाद्यमान
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो बजने या बोलने में प्रवृत्त किया जाय। २. वाद्य संगीत [को०]।

वाध, वाधन
संज्ञा पुं० [सं०] बाधा। रोक। प्रतिबंध [को०]।

वाधल
संज्ञा पुं० [सं०] तैत्तरीय संहिता से सबंधित एक श्रौत सूत्र [को०]।

वाधा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पीड़ा। २. निषेध। रोक [को०]।

वाधुवय, वाधूवय
संज्ञा पुं० [सं०] पाणिग्रद्दण। विवाह [को०]।

वाधुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक व्यक्ति का नाम। २. वह व्यक्ति जो संस्कार करे। संस्कार करनेवाला [को०]।

वाधू
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाव का डाँड़। २. नौका। नाव।

वाधूल
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रकार ऋषि का नाम। इस गोत्र के लोग वाधौल कहलाते हैं।

वाध्रीणस
संज्ञा पुं० [सं०] गैंडा [को०]।

वाघ्यश्व
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

वान (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कट। गोनटी। चटाई। २. पानी में लगनेवाला वायु का झोंका। ३. गति। ४. सुरंग। ५. सौरभ। सुगंध। ६. सूखा फल। ७. बाना। ८. बनों का समूह या घना जंगल (को०)।९. बुनाई। बुनने की क्रिया (को०)। १०. घर की दीवार का छेद (को०)। ११. चतुर व्यक्ति (को०)। १२. यमराज (को०)। १३. एक प्रकार का बंसलोचन (को०)।

वान (२)
वि० खिला हुआ। प्रफुल्लित। ३. हवा से सूखा हुआ। शुष्क। ३. वन का। वन संबंधी। जंगली [को०]।

वान पु (३)
संज्ञा, स्त्री० [सं० वाणी] वाणी। वचन। प्रतिज्ञा। उ०— निज्ज वान सुप्रमान। वान नीसान बधै सुर।—पृ० रा०।

वान पु (४)
संज्ञा पुं० [सं० वाण] दे० 'वाण'। उ०—करे कुंभ चूरं। भरे वान भूरे।—पृ० रा०, २। २८।

वानक
संज्ञा पुं० [सं०] ब्रह्मचर्य की अवस्था [को०]।

वानदंड
संज्ञा पुं० [सं० वानदण्ड] वह लकड़ी जिसमें बाना लपेटकर बुना जाता है।

वानप्रस्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १. महुए का पेड़। मधूक वूक्ष। २. पलाश। ३. प्राचीन भारतीय आर्यों के अनुसार मनुष्य के चार विभागों या आश्रमों में से तीसरा विभाग या आश्रम। विशेष—यह आश्रम गार्हस्थ्य के पीछे और संन्यास के पहले पड़ता है। शास्त्र के अनुसार पचास वर्ष के ऊपर हो जाने पर और गार्हस्थ्य़ आश्रम से चत्त हट जाने पर मनुष्य इस आश्रम का अधिकारी होता है। इस आश्रम में प्रवेश करनेवाले को नगर, गाँव या बस्ती से अलग वन में रहना, जंगली फल खाना, और उन्हीं से पंचमहायज्ञादि करना चाहिए शय्या, वाहन, वस्त्र, पलंग आदि सब त्याग देना चाहिए। स्त्री को चाहे पुत्र के पास छोड़े, चाहे अपने साथ वन में ले जाय। जब इस आश्रम में रहकर मनुष्य पूर्ण वैराग्यसपन्न हो जाय, तब उसे संन्यास लेना चाहिए। ४. उदासी। वैरागी। साधु (को०)।

वानप्रस्थी
वि० [सं०वानप्रस्थिन्] वानप्रस्थ के योग्य। वानप्रस्थ से संबंधित। विरक्त। सर्वत्यागी। उ०—निर्मल वानप्रस्थी मनो- वृत्ति में बरामदे में टहल रही थी।—वो दुनिया, पृ० १००।

वानप्रस्थ्य
संज्ञा पुं० [सं०] वानप्रस्थ की स्थिति या अवस्था [को०]।

वानर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बंदर। २. दोहे का एक भेद, जिसके प्रत्येक चरण में १० गुरु और २८ लघु होते हैं। यथा—जड़ चेतन गुणदोषमय, विश्व कीन्ह करतार। संत हंस गुण गहहिं पै परिहरि वारि विकार। ३. एक प्रकार का गंधद्रव्य। राल। यक्षधूप (को०)।

वानर (२)
संज्ञा पुं० [देश०] राठोड़ क्षत्रियों की एक शाखा। उ०— बन्नर नील जिसौ बल वानर।—रा० रू०, पृ० १४६।

वानरकेतन, वानरकेतु, वानरध्वज
संज्ञा पुं० [सं०] कपिव्वज। अर्जुन [को०]।

वानरप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] खिरनी का वृक्ष [को०]।

वानराक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] जंगली बकरा [को०]।

वानराधात
संज्ञा पुं० [सं०] लोध्र वृक्ष [को०]।

वानरापसद
संज्ञा पुं० [सं०] उपेक्षणीय। तुच्छ।

वानरी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. केवाँच। कपिकच्छु। २. बंदर की मादा। बँदरिया। मर्कटी।

वानरी (२)
वि० वानर का। वानर संबधी [को०]।

वानरेद्र
संज्ञा पुं० [सं० वानरेंद्र] १. हनुमान। २. सुग्रीव [को०]।

वानल
संज्ञा पुं० [सं०] काली बनतुलसी।

वानवासक
संज्ञा पुं० [सं०] वैश्य पुरुष और वैदेही स्त्री से उत्पन्न संतान [को०]।

वानवासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] सोलह मात्राओं के छंदों या चौपाई का एक भेद जिसमें नवीं और बारहवीं मात्राएँ लघु पड़ती हैं। जैसे,—'सीय लषन जेहि बिधि सुख लहहीं'।

वानस्पत्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह वृक्ष जिसमें पहलें फूल लगकर पीछे फल लगते हैं। जैसे, आम, जामुन आदि। २. बनस्पति का समूह।

वानस्पत्य (२)
वि० १. वृक्ष संबंधी। वृक्ष से प्राप्त होनेवाला। वनस्पति निर्मित, जैसे सोम। २. वृक्ष के नीचे रहनेवाला (को०)।

वाना
संज्ञा स्त्री० [स०] १. बटेर पक्षी। २. सूखा फल (को०)।

वानायु
संज्ञा पुं० [सं०] १. भारत के पश्चिमोत्तर स्थित एक देश का प्राचीन नाम। २. हिरन [को०]।

वानायुज
संज्ञा पुं० [सं०] वानायु देश का घोड़ा।

वानिक
वि० [सं०] वनवासी [को०]।

वानिनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वणिज (वणिक), प्रा० बनिअ, बनी] वनियाइन। वणिक् को पत्नी। उ०— वानिनि बीथी माँडि सए सहस हि नागरि।—कीर्ति०, पृ० ३२।

वानीथ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कैवर्त मुस्तक। केवटी मोथा। कुट। गोन।

वानीय (२)
वि० बितने योग्य [को०]।

वानीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बेंत। उ०—जिनके तीर वानीर के भिरे मदकल कूजित विहंगमों से शोभित हैं,—श्यामा०, पृ० ४०। २. पाकड़ का पेड़। पक्कड़।

वानीरक
संज्ञा पुं० [सं०] मूँज।

वानीरज
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूँज नाम की घास। २. कुष्ठ नाम का वृक्ष [को०]।

वानेत पु
संज्ञा पुं० [हिं० बान + एत (प्रत्य०)] दे० 'बानैत'। उ०— जित्यौ वानेतं उदल चढ़ेतं बैस मरेतं स्वर्ग गयौ।—प० रासो, पृ० १४९।

वानेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] गोन नाम का तृण जो पानी में होता है। कैवर्त मुस्तक।

वानेय (२)
वि० १. जलसंबंधी। जलीय। २. वनसंबंधी। वन का [को०]।

वान्य
वि० [सं०] दे० 'वानेय'।

वान्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वनसमूह। २. मृतवत्सा गौ [को०]।

वाप
संज्ञा पुं० [स०] १. बोना। वपन। वयन। २. मुंडन। ३. क्षेत्र। खेत। ४. बुनला। ५. वप्ता। बोनेवाला (को०)। ६. बीया। बीज (को०)। विशेष—हिंदी के पितावाचकशब्द 'बाप' का भो यह पुर्वका लीन रूप है।

वापक
संज्ञा पुं० [सं०] बीज बोनेवाला।

वापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. बीज बोना। २. क्षौर। मुंडन (को०)।

वापस
वि० [फ़ा०] लौटा हुआ। फिरा हुआ। मुहा०—वापस आना = किसी स्थान पर जाकर वहाँ से फिर आ जाना। लौट आना। वापस करना = (१) किसी आए हुए मनुष्य को फिर वहीं भेजना, जहाँ से वह आया हो। लौटाना। (२) किसी वस्तु को मोल लेकर फिर दूकानदार को दे देना और उससे दाम ले लेना। जैसे, यह छाता अच्छा नहीं है; वापस कर दो। (३) दे० 'वापस लेना'। (४) किसी से ली हुई वस्तु को फिर दे देना। वापस जाना = फिर वहीं जाना, जहाँ से आया हो। लौट जाना। वापस लेना = दी हुई या बेची हुई वस्तु को पुनः देने या बेचनेवाले द्वारा ले लेना। वापस होना = (१) लौट जाना। (२) किसी मोल ली हुई वस्तु का फिर दूकानदार को उससे दाम लेकर दे जाना। फेरा जाना। जैसे,—अब यह छाता वापस नहीं हो सकता। (३) दी हुई वस्तु का फिर मिल जाना या ली हुई वस्तु का फिर दे दिया जाना।

वापसीं
वि० [फ़ा०] अंतिम। आखिरी। जैसे, वापसीं साँस [को०]।

वापसी (१)
वि० [फ़ा० वापस] लौटा हुआ या फेरा हुआ। जैसे,— वापसी डाक़।

वापसी (२)
संज्ञा स्त्री० १. लौटने की क्रिया या भाव। प्रत्यावर्तन। जैसे,—वापसी के समय लेते जाना। २. किसी दी हुई वस्तु को फिर लेने या ली हुई वस्तु को फिर देने का काम या भाव।

वापारु पु
संज्ञा पुं० [सं० व्यापार] दे० 'व्यापार'। उ०—सुख दुःख अरु पन्न पापु भला बुरा वापारु।—प्राण०, पृ० २११।

वापि
संज्ञा स्त्री० [सं० वापि, वापी] दे० 'वापी'। उ०—किधौं पेट थल किधौं, वापि किधौ सागर है। जेतो जल परै, तेतो सकल समातु है।—सुंदर ग्रं०, भा० १, पृ० १२१।

वापिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का बड़ा चौड़ा कूप्राँ या जलाशय। वापी। बावली।

वापित (१)
वि० [सं०] १. बोया हुआ। २. मुंडित। मूँड़ा हुआ।

वापित (२)
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का धान्य। बोवारी धान [को०]।

वापी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटा जलाशय। बावली।

वापी (२)
वि० [सं० वापिन्] बोनेवाला [को०]।

वापीह
संज्ञा पुं० [सं०] पपीहा। चातक [को०]।

वाप्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुट। २. बोवारी धान। ३. बावली का पानी।

वावस्तगी
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] लगाव। संबंध [को०]।

वाबस्ता
वि० [फा० वाबस्तहू] १. बँधा हुआ। संबद्ध। २. संलग्न। ३. संबंधी। आत्मीय [को०]।

वाभन पु
संज्ञा पुं० [सं० ब्राह्मण] दे० 'ब्राह्मण'। उ०—वाभन को जनम जनेऊ मेलि जानि बूझ, जीभ हो बिगारिबे को याच्यो जन जन में।—अकबरी०, पृ० ११५।

वाम (१)
वि० [सं०] १. बायाँ। दक्षिण या दाहिने का उलटा। २. प्रतिकूल। विरुद्ध। खिलाफ। अहित में तत्पर। उ०—बिधि वाम की करनी कठिन जेइ मातु कीन्ही बावरी।—तुलसी (शब्द०)। ३. टेढ़ा। कुटिल। ४. खोटा। दुष्ट। नीच। ५. जो अच्छा न हो। बुरा। ६. बाईं ओर स्थित या विद्यमान (को०)। ७. सुंदर। प्रिय। लावणयमय। जैसे, वामलोचना, वामोरु (को०)। ८. अल्प। लघु (को०)। ९. क्रूर। कठोर (को०)।

वाम (२)
संज्ञा पुं० १ कामदेव। २. एक रूद्र का नाम। वामदेव। शिव। ३. वरुण। ४. कुच। स्तन। ५. धन। ६. ऋचीक के एक पुत्र का नाम। ७. कृष्ण के एक पुत्र का नाम। ८. चंद्रमा के रथ के एक घोड़े का नाम। ९.२४ अक्षरों का एक वर्णवृत्त जिसके प्रत्येक चरण में सात जगण और एक यगण होता है। इसे मंजरी, करंद और माधवी भी कहते हैं। यह एक प्रकार का सवैया ही है। जैसे,—जु लोक यथामति वेद पढ़ैं सह आगम औ दस आठ सयाने। ०००लहैं भलि वाम अरू धनधान तु काह भयो बिनु रामहि जाने। छंदः०, पृ० २४५। १०. निषिद्ध आचरण वा कार्य। कदाचार। वाभाचार [को०]। ११. बायाँ पार्श्व या हाथ (को०)। १२. प्राणी। जंतु (को०)। १३. साँप (को०)। १४. वमन। मतली (को०)। १५. सुंदरतम वा अभीप्सित वस्तु। प्रिय वस्तु या व्यक्ति (को०)। १६. दुर्भाग्य। अभाग्य। संकट (को०)।

वाम पु (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वामा] दे० 'वामा'। उ०—नवल त्रिभंग कदम तर ठाढ़ो, मोहत सब ब्रज वाम।—गीत (शब्द०)।

वाम (४)
संज्ञा पुं० [फ़ा०] १. ऋण। कर्ज। २. रंग। वर्ण [को०]।

वामक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंगभंगी का एक भेद। २. बौद्ध ग्रंथों के अनुसार एक चक्रवर्ती। ३. एक संकर जाति [को०]।

वामक (३)
/?/१. बायाँ। २. विरुद्ध। विपरीत [को०]।

वामकक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रकार ऋषि का नाम जिनके गोत्र के लोग वामकक्षायन कहे जाते थे।

वामकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक देवी जिसकी पूजा प्राणः जादूगर आदि करते हैं।

वामतः
क्रि० वि० [सं० वामतस्] बाईं ओर। बाईं तरफ [को०]।

वामता
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रतिकूलता। विपरीतता। उ०—बुद्धि से तो क्षुद्र मानव भी चलाता काम अपने। वामता से हीन विधि की शक्ति क्या होती प्रमाणित।—इत्यलम्, पृ० ११४।

वामद्दक्
संज्ञा स्त्री० [सं० वामद्दश्] सुंदर नेत्रोंवाली औरत। स्त्री। महिला।

वामदेव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिव। महादेव। २. गौतम गोत्रीय एक वैदिक ऋषि जो ऋग्वेद के चौथे मंडल के अधिकांश सूक्तों के द्रष्टा थे। ३. दशरथ के एक मंत्री का नाम।

वामदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दुर्गा। २. सावित्री।

वामदेव्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक साम का नाम। २. एक ऋपि का नाम। ३. पुराणानुसार शाल्मलि द्वीप के एक पर्वत का नाम।

वामदेव्य (२)
वि० वामदेव ऋषि से उत्पन्न [को०]।

वामन (१)
वि० [सं०] १. बौना। छोटे डील का। २. ह्रस्व। खर्व। ३. विनत। नम्र (को०)। ४. पूज्य। अभिवाद्य (को०)। ५. दुष्ट। नीच। ओछा (को०)।

वामन (२)
संज्ञा पुं० १. विष्णु। २. शिव। ३. एक दिग्गज का नाम। ४. एक प्रकार का घोड़ा, जो डीलडौल में छोटा होता है। ५. दनु के एक पुत्र का नाम। ६. एक नाग का नाम। ७. गरुड़वंशी एक पक्षी का नाम। ८. क्रौंच द्वीप के एक पर्वत का नाम। ९. विष्णु भगवान् का पाँचवाँ अवतार जो बलि को छलने के लिये अदिति के गर्भ से हुआ था। १०. अठारह पुराणों में से एक। ११. नीले रंग का बकरा। उ०— नीले रंग के छाग को वामन कहते हैं।—बृहत्०, पृ० ३०८। १२. संस्कृत साहित्य में रीति संप्रदाय की प्रतिष्ठा करनेवाले एक आचार्य। ११. बौना या ठिगना व्यक्ति (को०)। १२. अंकोट या अंकेल का वृक्ष (को०)। १३. एक मास (को०)।१४. पाणिनि के सूत्र पर 'काशिका वृत्ति' नामक भाष्य के प्रणेता (को०)।

वामनक
संज्ञा पुं० [सं०] १. क्रौंच द्वीप का एक पर्वत। २. छोटे कद का आदमी। ३. ठिगनापन। बौना (को०)।

वामनद्बादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पर्व तिथि जो भाद्र शुक्ल १२ को पड़ती है। इस दिन व्रत करके विष्णु भगवान् के वामना- वतार की पूजा की जाती है।

वामनपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] अट्ठारह पुराणों में से एक पुराण।

वामनयना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदर नेत्रोंवाली स्त्री [को०]।

वामना
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अप्सरा का नाम।

वामनिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्कंद की अनुचरी एक माता या मातृका का नाम। २. बौनी स्त्री।

वामनी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बौने आकार की स्त्री। २. घोड़ी। ३. एक प्रकार का नारी रोग जो योनि में होता है। वामिनी। ४. एक प्रकार की स्त्री [को०]।

वामनी (२)
वि० वाम अर्थात् धन लानेवाली।

वामनीकृत
वि० [सं०] छोटा किया हुआ। नम्र क्रिया हुआ। झुकाया हुआ [को०]।

वामनेत्र
संज्ञा पुं० [सं०] दीर्घ ईकार [को०]।

वामपथ
संज्ञा पुं० [सं० वाम + पथ] दे० 'वाममार्ग'। उ०—जन बल- वर्धन के हेतु वामपथ का चालन।—अपरा पृ० २१२।

वामभ्रू
संज्ञा स्त्री [सं०] सुभ्रु। सुंदर भौहोंवाली स्त्री [को०]।

वाममार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] वेदविहित दक्षिण मार्ग से भिन्न तांत्रिक मत। विशेष—वाम मार्ग में मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा, व्यभिचार आदि निषिद्ध बाचों का विधान रहता है। तांत्रिक मत की दक्षिण मार्ग शाखा भी है जिसमें दक्षिणकाली, शिव, विष्णु आदि की उपासना का विशिष्ट विधान है।

वामरथ
संज्ञा पुं० [सं०] एक गोत्रकार ऋषि का नाम, जिसके गोत्रवाले वामरथ्य कहलाते थे।

वामलूर
संज्ञा पुं० [सं०] दीमक का भीटा। वल्मीक। बाँबौ।

वामलोचना
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदरी स्त्री।

वामांगिनी, वामांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वामाङ्गिनी, वामाङ्गी] पत्नी। भार्या [को०]।

वामा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। २. दुर्गा। ३. लक्ष्मी (को०)। ४. सरस्वती (को०)। ५. मनोहारिणी स्त्री। भ्रूविलासवती सुंदरी रमणी (को०)। ६. दस अक्षरों के एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में तगण, यगण और भगण तथा अंत में एक गुरु होता है। यथा—तु यों भग वामा तें सरला। टेढ़े धनु ते ज्यों तीर चला। ये हैं दुख नाना की जननी। ऐसी हम गाथा ते अकनी।—छंद०?, पृ० १५४।

वामाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सुंदर स्त्री। २. दीर्घ ईकार। वामनेत्र।

वामागम
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वामाचार' [को०]।

वामाचार
संज्ञा पुं० [सं०] तांत्रिक मत का एक भेद जिसमें पंच- मकार अर्थात् मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन द्वारा उपास्य देव की पूजा की जाती है। इस मत को माननेवाले स्वमताव- लंबी को वीर, साधक आदि और विरोधी को कंटक कहते हैं।

वामाचारी
संज्ञा पुं० [सं० वामाचारिन्] वामागम को माननेवाला वामाचार मत का अनुगामी [को०]।

वामापीड़न
संज्ञा पुं० [सं०] पीलू का पेड़।

वामारंभ
वि० [सं० वामारम्भ] जो झुके नहीं। स्वाभिमानी। अदम- नीय [को०]।

वामावर्त
वि० [सं०] १. दक्षिणावर्त का उलटा। (वह फेरी) जो किसी वस्तु (देवप्रतिमा आदि) की बाई ओर से आरंभ की जाय। जैसे,—वामावर्त परिक्रम। २. (वह चक्कर) जो बाईं ओर से चला हो। ३. जिसमें बाईं ओर का घुमाव या भँवरी हो। जैसे,—वामावर्त शंख। विशेष—शंख दो प्रकार के होते हैं—एक वामावर्त, दुसरा दक्षिणावर्त । दक्षिणवर्त शंख अत्यंत शुभ और दुष्प्राप्य कहा जाता है।

वामि
संज्ञा स्त्री० [सं०] नारी [को०]।

वामिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चंडिका।

वामिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार का योनिरोग जिसमें गर्भाशय से छहू सात दिन तक रज का स्राव होता रहता है। इसमें कभी पीड़ा होती है, कभी नहीं होती।

वामिल
वि० [सं०] १. सुंदर। मनोहर। २. अहंकारी। घंमडी। ३. ३. धूर्त। चालाक। कपटी [को०]।

वामी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्रृगाली। गीदड़ी। २. मादा हाथी। हथिनी (को०)। ३. घोड़ी। ४. गदही।

वामी (२)
वि० [सं० वामिन्] १. वामाचार को माननेवाला। २. वमन करनेवाला [को०]।

वामेक्षणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] मनोहर नेत्रोंवाली स्त्री [को०]।

वामेतर
वि० [सं०] दाहिना [को०]।

वामोरु, वामोरू
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुंदर उरुवाली स्त्री। सुंदरी स्त्री।

वाम्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक स्त्री जो गोत्रकार थी। इसके गोत्रवाले वाम्नेय कहलाते थे।

वाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. वामदेव ऋषि के घोड़े का नाम। २. वामता। कुटिलता। दुष्टता। विपरीतता (को०)।

वाम्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक साम का नाम। २. एक ऋषि का नाम (को०)।

वाय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुनना या सीना। २. बुनने या सीने का साधन। ३. तागा। डोरा (को०)। ४. पक्षी (को०)। ५. नेता नायक (को०)।

वाय पु (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वायु] दे० 'वायु'।—उ० वाय सों वाय मलि मलि कर जानि। पानि म घ्रत कसं मथि आन।—रामानंद०, पृ० १४।

वाय (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वापी, हिं० बाय] बावली। वापी।

वायक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जो बुनता हो। बुननेवाला। उ०— पत्र रंध्र तें छनि छनि आवत चाँदनि रस सिंगार की वायक।— भारतेंदु ग्रं०, भा० १. पृ० ४००। २. तंतुवाय। जुलाहा। ३. राशि। समूह। ढेर (को०)।

वायक (२) पु
संज्ञा पुं० [सं० वाद, प्रा० वाय + क (प्रत्य०)] उक्ति। कथन। वचन। वाक्य। उ०—वाँका रा वायक सुणौ, कायरड़ा किण काज। बाँकी ग्रं०, भा० १, पृ० ८।

वायदंड
संज्ञा पुं० [सं० वायदणड] जुलाहों की ढरकी।

वायन
संज्ञा पुं [सं०] १. वह मिठाई या पकवान जो देवपूजा या विवाहादि के लिये बनाया जाय। २. एक्र गंधद्रव्य (को०)। विशेष—दे० 'बायन'।

वायनक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वायन' [को०]।

वायनरज्जु
संज्ञा पुं० [सं०] जुलाहों के करघे की बै।

वायर पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० बयार] वायु। बयार। उ०—सूराँ नूर दरस्सिया, तोले सेल करग्ग। वायर ज्यों लागा विमुह कायर आँठू मग्ग।—रा० रू०, पृ० २०३।

वायव
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वायवी] १. वायु संबंधी या वायु से प्राप्त। २. आध्यात्मिक। ३. मनःकल्पित। हवाई। ४. अमूर्त। सूक्ष्म। उ०—तुम्हारी अलौकिक शक्ति, वायवी प्रतिभा, एवं मायावी आकर्षण के प्रभाव से यह कार्य अधिक सुगमता से संपन्न हो सकेगा, इसी लिये मैने तुम्हारा आवाहन किया है।—ज्योत्स्ना, पृ० ५०।

वायवी
संज्ञा स्त्री० [सं० वायवी, वायवीय] वायु की दिशा। उत्तरपश्चिम दिशा [को०]।

वायवीय
वि० [सं०] वायु संबंधी। २. सूक्ष्म। उ०—मूर्तिमती कला का वायबीय आकार उसके हृदय के भीतर स्पर्श करके मधुरता से भर रहा था। यौ०—वायवीय पुराण = वायुपुराण।

वायव्य (१)
वि० [सं०] १. वायु संबंधी। २. वायुघटित। वायु से बना हुआ। ३. जिसका देवता वायु हो।

वायव्य (२)
संज्ञा पुं० १. वह कोण या दिशा जिसका अधिपति वायु है। उत्तरपश्चिम का कोना। पश्चिमोत्तर दिशा। २. वायु पुराण। ३. एक अस्त्र का नाम। ४. स्वाती नक्षत्र (को०)।

वायव्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] पश्चिमोत्तर दिशा [को०]।

वायस
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगुरु। अगर का पेड़। २. कौआ। ३. तारपीन (को०)। ४. वह मकान जिसका दरवाजा उत्तरपूर्व की ओर हो (को०)। ५. कौओं का झुंड (को०)। ६. पक्षी। बड़ा पक्षी (को०)।

वायसजंघा
संज्ञा स्त्री० [सं० वायसजङ्घा] काकजंघा नाम का पौधा। विशेषदे० 'काकजंघा'। [को०]।

वायसतंतु
संज्ञा पुं० [सं० वायसतन्तु] १. हनु के दोनों जोड़। २. काकतुंडी। कौआठोंठी।

वायसतुंड
संज्ञा पुं० [सं० वायसतुणड] कौंआठोंठी [को०]।

वायसपीलु
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृक्ष। काकपीलु [को०]।

वायसांतक
संज्ञा पुं० [सं० वायसान्तक] उलूक। उल्लू।

वायसादनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. महाज्योतिष्मती लता। २. कौआठोंठी।

वायसाराति, वायसारि
संज्ञा पुं० [सं०] उल्लु। उलूक [को०]।

वायसाह्वा
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का भक्ष्य शाक।

वायसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. छोटी मकोय जिसमें गुच्छों में गोल मिर्च के समान लाल फल लगते हैं। काकमाची। २. महाज्योतिष्मती। ३. काकतुंडी। कौवाठोंठी। ४. सफेद घुँघची। ५. काकजंघा। मासी। ६. महाकरंज। बड़ा कंजा। ७. कौवे की मादा (को०)।

वायुसेक्षु
संज्ञा पुं० [सं०] काँस नाम का तृण।

वायसोलिका, वायसोली
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. काकोली। माल- कंगनी। २. महा ज्योतिष्मती लता।

वायार
संज्ञा पुं० [देशी] ठंढ भरी हवा। जाड़े की हवा।—देशी०, पृ० २९५।

वायु
संज्ञा स्त्री० [सं०] हवा। वात। विशेष—वैशेषिक दर्शन वायु को द्रव्यों में मानता है और उसे रूपरहित, स्पर्शवान् तथा नित्य कहता है। न्याय दर्शन में वायु पंचभूतों में है और इसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु से ही स्पर्शेंद्रिय की उत्पत्ति मानी गई है। वैशेषिक दर्शन स्पर्श के अतिरिक्त संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व और वेग भी वायु के गुण मानता है। सांख्य में वायु की उत्पत्ति स्पर्श तन्मात्रा से मानी गई है। उपनिषदों के अनुसार वेदांती भी वायु की उत्पत्ति आकाश मे मानते हैं। २. वायु देवता। पवन देवता (को०)। ३. प्राणवायु। जीवनवायु भो पाँच प्रकार कहा का है—प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान। ४. साँस। श्वास (को०)। ५. 'य' अक्षर (को०)। ६. एक वसु (को०)। ८. एक दैत्य का नाम, (को०)। ९. गंधर्वों के एक राजा का नाम (को०)।

वायुकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] धूलि [को०]।

वायुकोण
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिमोत्तर दिशा।

वायुगंड
संज्ञा पुं० [सं० वायुगण्ड] अजीर्ण। अफरा [को०]।

वायुगति
वि० [सं०] तीव्र गति। अत्यंत तीव्र चाल [को०]।

वायुगीत
वि० [सं०] सर्वविदित। प्रसिद्ध [को०]।

वायुगुल्म
संज्ञा पुं० [सं०] १. वातचक्र। बगोला। बवंडर। २. पेट का एक रोग। वायगोला। विशेष—इस रोग में पेट के अंदर वायु का एक गोला सा बँध जाता है, जो घटता बढ़ता और सारे पेट में फिरता रहता है। कभी कभी यह पीड़ा भी उत्पन्न करता है। इसमें प्रायः मल मूत्र का अवरोध भी हो जाता है और गला सूखा रहता है। हृदय, बगल और पसली में कभी कभी बड़ा दर्द होता है। खाली पेट में इसका जोर अधिक रहता है और भरे पेट में कम। कड़ु वे, कसैले पदा्र्थों के खाने से यह रोग बढ़ता है। ३. जल का आवर्त। पानी की भँवर (को०)।

वायुगोचर
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिमोत्तर दिशा।

वायुग्रंथि
संज्ञा स्त्री० [सं० वायुग्रन्थि] १. वायुगुल्म। २. बवंडर [को०]।

वायुग्रस्त
वि० [सं०] बात रोग से पीड़ित [को०]।

वायुजात, वायुतनय
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वायुपुत्र' [को०]।

वायुदार, वायुदारु
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल।

वायुदिश्
संज्ञा स्त्री० [सं०] पश्चिमोत्तर दिशा [को०]।

वायुदेव
संज्ञा पुं० [सं०] स्वाति नक्षत्र जिसके देवता वायु हैं [को०]।

वायुनिघ्न
वि० [सं०] वातप्रकोप से पीड़ित। उन्मत्त [को०]।

वायुपंचक
संज्ञा पुं० [सं० वायुपञ्चक] शरीरस्थ पंचवायु [को०]।

वायुपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. हनुमान। २. भीम।

वायुपुराण
संज्ञा पुं० [सं०] अट्ठारह पुराणों में से एक पुराण।

वायुफल
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्रधनुष। २. ओला (को०)।

वायुभक्ष, वायुभक्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. सर्प। साँप। २. वह तपस्वी जो केवल वायु पीकर रहे।

वायुभुक्
संज्ञा पुं० [सं० वायुभुज्] दे० 'वायुभक्ष' [को०]।

वायुमंडल
संज्ञा पुं० [सं० वायुमण्डल] १. आकाश, जिसमें वायु प्रवाहित होती है। २. बवंडर (को०)।

वायुमरुल्लिपि
संज्ञा स्त्री० [सं०] ललितविस्तर के अनुसार एक लिपि का नाम।

वायुमार्ग
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश।

वायुयान
संज्ञा पुं० [सं०] हवाई जहाज। वायु में उड़नेवाला यान। विमान। उ०—रेडियो, तार, औ फोन वाष्प, जल, वायुयान। मिट गया दिशावधि का जिनसे व्यवधान यान।—प्राम्या, पृ० ८८।

वायुयानवेधी तोप
संज्ञा स्त्री० [सं० वायुयानवेघी + तु० तोप] विमान विध्वंसक तोप। (अं० ऐंटी-एअरक्राफ्ट गन)। उ०—जमीन से वायुयानवेधी तोपें आक्रमणकारी वायुयानों पर गोले चला रही थीं।—'आज'।

वायुर
वि० [सं०] १. वायुयुक्त। हवादार। २. तूफानी। अंधड़ से भरा हुआ [को०]।

वायुरोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात।

वायुलोक
संज्ञा पुं० [सं०] १. पुराणानुसार एक लोक का नाम। २. आकाश।

वायुवर्त्म
संज्ञा पुं० [सं० वायुवर्त्मन्] आकाश [को०]।

वायुवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूम। धुआँ। २. भाप [को०]।

वायुवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. धूम्र। धूआँ। ३. शिव (को०)। ४. विष्णु। (को०)।

वायुवाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शरीर की नस। शिरा [को०]।

वायुवेग
वि० [सं०] वायु के समान तीव्र गतिवाला [को०]।

वायुसख, वायुसखा, वायुसखि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि।

वायुस्कंध
संज्ञा पुं० [सं० वायुस्कन्ध] वायु का क्षेत्र [को०]।

वायुहन्
संज्ञा पुं० [सं०] एक ऋषि का नाम जो मंकण ऋषि के पुत्र थे। विशेष—कथा है कि मंकण ऋषि एक बार सरस्वती में स्नान कर रहे थे। वहाँ उनको एक नग्न स्त्री स्नान करती हुई दिखाई दी। उसे देखकर उनका वीर्य स्खलित हो गया। उसे उन्होने एक घड़े में रखा, वह सात भागों में विभक्त हो गया और उनसे वायुवेग, वायुबल, वायुहन्, वायुमंडल, वायुजाल, वायुरेता और वायुचक्र नामक सात पुत्र उत्पन्न हुए।

वायौ पु †
वि० [सं० वायुग्रस्त] वावला। उ०—विचित्र हुवौ लड़ता रस वायौ।—रा० रू०, पृ० ५१।

वाय्यास्पद
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश। वातावरण [को०]।

वारंक
संज्ञा पुं० [सं० वारङ्क] पक्षी।

वारंग
संज्ञा पुं० [सं० वारङ्क] १. तलवार की मूठ। २. अँकु़ड़े के आकार का एक अस्त्र जिससे चिकित्सक अस्थिविनष्ट शल्प निकालते थे। (सुश्रुत)।

वारंट
संज्ञा पुं० [अ०] अदालत का वह आज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी कर्मचारी को वह काम करने का अधिकर प्राप्त हो जाय, जिसे वह अन्यथा करने में असमर्थ हो। यह कई प्रकार का होता है, जैसे,—वारंट गिरफ्तारी, वारंट तलाशी, वारंट रिहाई इत्यादि।

वारंट गिरफ्तारी
संज्ञा पुं० [अं० वारंट + फ़ा० गिरफ्तारी] अदालत का आज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी कर्मचारी को यह अधिकार दिया जाय कि वह किसी पुरुष को पकड़कर अदालत में हाजिर करे।

वारंट तलाशी
संज्ञा पुं० [अं० वारंट + फ़ा० तलाशी] अदालत का वह आज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी कर्मचारी को यह अधिकार दिया जाय कि वह किसी स्थान में जाकर वहाँ की तलाशी ले।

धारंट रिहाई
संज्ञा पुं० [अं० वारंट + फा० रिहाई] अदालत का वह आज्ञापत्र जिसके अनुसार किसी सरकारी कर्मचारी को यह आज्ञा और अधिकार मिले कि वह किसी पुरुष को, जा जेल, हवालात या गिरफ्तारी में हो, छोड़ दे; या किसी माल या जायदाद को, जो कुर्क हो या किसी की सपुर्दगी में हो, मालिक को लौटा दे।

वारवार
अव्य० [वारम् वारम्] दे० 'बारंबार'। उ०—रिपुओं की पुकार भी मानो निष्फल जाती वारंवार।—साकेत, पृ० ३९४।

वार
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। पानी। २. रक्षक। त्राता। प्रति- पालक (को०)।

वार (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. द्वार। दरवाजा। उ०,—संदेसे ही घर भरय़उ कइ अंगणि कई वार।—ढोला०, दू० २००। २. अवरोध। रोक। रुकावट। ३. ढाँकनेवाली वस्तु। आवरण। ४. कोई नियत काल। अवसर। दफा। मरतबा। जैसे—वारं- वार। ५. क्षण। ६. सप्ताह का दिन। जैसे,—आज कौन वार हौ। ७. कुज वृक्ष। ८. पानपात्र। मद्य का प्याला। ९. वाण। तीर। १०. नदी या समुद्र का किनारा।—उ० जोय प्रबल अणपार जल वार रह्मा भड़ आन। निडर उलंघण वार- निध, हुवो त्यार हनुमान।—रघु० रू०, पृ० १३६। ११. शिवका नाम। १२. जलराशि। जलौघ (को०)। १३. पूँछ। दुम (को०)। १४. दाँव। बारी। जैसे—अपना अपना वार है। उ०—देस देस के भूपति आवै। द्वारे भीर वार नहिं पावै।—हि० क० का०, पृ० १८८। मुहा०—वार मिलना = फुरसत मिलना। वार सरना = अवसर या मौका मिलना। संभव हो सकना। पार पड़ना। उ०— सूआ एक संदेसड़उ, वार सरेसी तुभ्झ। प्रीतम वाँसइ जाय नई, मुई सुणावे मुभक्त।—ढोला०, दू० ३९८।

वार (२)
संज्ञा पुं० [सं० वार(=दाँव, बारी।) या फ़ा०] चोट। आघात। आक्रमण। हमला। उ०—वार नाम वैरी के ऊपर प्रहार चाहैं हैं किंवा वार हैं बाल ताको चाहैं हैं, अर्थात् उत्तम बालक वा वारागंना। x x x अथवा वार मूढ़ को न चाहै।— दीन० ग्रं०, पृ० १७८। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—वार खाली जाना = (१) प्रहार का ठीक स्थान पर न पड़ना। चलाया हुआ अस्त्र न लगना। (२) युक्ति सफल न होना। चली हुई चाल या तदबीर का कुछ नतीजा न होना।

वार (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वार, हिं० बेर] देर। विलंब। उ०—चल्या ठकुराल्या न लावीय वार, भोज तणाँ मिलिया असवार।— बी० रासो पृ० १६।

वार (४)
संज्ञा पुं० [हिं० उबार] बचाना। रक्षा करना। उ०—गया हैं हृदय हिल, लो थके को वार।—आराधना, पृ० ४६।

वार (५)
संज्ञा पुं० [सं० वाल] [स्त्री० वारा] १. बालक। बच्चा। शिशु। २. अज्ञ या मूर्ख व्यक्ति। उ०—(क) किवा वार है वाल ताको चाई हैं अर्थात् उत्तम बालक ००००००००००।—दीन०। ग्रं०, पृ० १७८। (ख) तीनों अंड भए तिवारा। ता के रूप भए अधिकारा।—कबीर सा०, पृ० १६।

वार (६)
संज्ञा पुं० [अं०] युद्ध। समर। जंग। जैसे,—जर्मन वार। यौ०—वारफंड = युद्ध के लिये आर्थिक मदद या चंदा आदि का संग्रह।

वारक
संज्ञा पुं० [सं०] १. निषेध करनेवाला। वह जो वारण करे। प्रतिबंधक। २. घोड़े का कदम। ३. घोड़ा। ४. एक प्रकार का विशेष घोड़ा (को०)। ५. वह स्थान जहाँ पीड़ा हो। कष्ट- स्थान। ६. बाधा का स्थान। ७. एक सुगंधित तृण।

वारकन्यका, वारकन्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।

वारकी
संज्ञा पुं० [सं० वारकिन्] १. प्रतिवादी। शत्रु। २. समुद्र। ३. पत्ते खाकर रहनेवाला तपस्वी। पर्णाशी यति। ४. शुभ लक्षणों से युक्त घोड़ा (को०)।

वारकीर
संज्ञा पुं० [सं०] १. साला। २. द्बारपाल। ३. बाड़वाग्नि। ४. जूँ। ५. कंधी। ६. लड़ाई का घोड़ा। चित्राश्व।

वारट
संज्ञा पुं० [सं०] खेत या खेतों का सिलसिला [को०]।

वारटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] हंसिनी [को०]।

वारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी बात को न करने का संकेत या आज्ञा। निषेध। मनाही। उ०—हठपूर्वक मुझको भरत करें यदि वारण।—साकेत, पृ० २२०। क्रि० प्र०—करना।—जोना। २. रोक। रुकावट। बाधा। ३. कवच। बकतर। ४. हाथी। ६. हरताल। ७. काला सीसम। ८. पारिभद्र। ९. सफेद कोरैया का फूल। १० छप्पय छंद का एक भेद जिसमें ४१ गुरु, ७० लघु कुल १११ वर्ण या १५२ मात्राएँ होती हैं; अथवा ४१ गुरु, ६६ लघु, कुल १०७ वर्ण या १४८ मात्राएँ होती है। ११. द्बार। कपाट (को०)। १२. प्रतिरक्षा। संरक्षा। प्ररक्षा (को०)। १३. हाथी की सूँड़। १४. मेहराब या तोरण की एक प्रकार की सजावट या नक्काशी [को०]।

वारणकणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] गजपिप्पली।

वारणकर
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी की सूँड़ [को०]।

वारणकृच्छ
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का कृच्छू व्रत जिसमें एक महीने तक पानी में जौ का सत्तू घोलकर पीना पड़ता है।

वारणकेसर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'नागकेसर'।

वारणबुषा, वारणबुसा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कदली। केला।

वारणवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] केला। कदली [को०]।

वारणशाला
संज्ञा स्त्री० [सं०] हस्तिशाला [को०]।

वारणसाह्वय
संज्ञा पुं० [सं०] हस्तिनापुर का एक नाम [को०]।

वारणसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वाराणसी' [को०]।

वारणहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का तंत्रवाद्य [को०]।

वारणनन
संज्ञा पुं० [पुं०] गजानन। गणेश [को०]।

वारणावत
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक जनपद या नगर जो गंगा के किनारे था। विशेष—यहीं पर दुर्योधन ने पांडवों को जलाने के लिये लाक्षागृह बनवाया था। कुछ लोग इसे करनाला के आसपास मानते हैं और कुछ लोग इलाहाबाद जिले के हँडिया नामक स्थान के पास।

वारणीय
वि० [सं०] निषेध योग्य। प्रतिषेघ्य।

वारता पु
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्ता] बातचीत। कथोपकथन। उ०— सदा ज्ञान वैराग्य योग की होत वारता। ईस भझि मै निरत, सबन के हिय उदारता।—प्रेमघन०, भा० १, पृ० ४।

वारतिय पु
संज्ञा स्त्री० [सं० बारस्त्री] वेश्या। उ०—ताके रहीं वारतिय दोई। रूपवती रंभा छबि छोई।—रघुराज (शब्द०)।

वारत्र
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वारत्रा] चर्म रज्जु। चमड़े का बना तसमा [को०]।

वारत्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पक्षी। वारटा [को०]।

वारद पु
संज्ञा पुं० [सं० वारिद] बादल। उ०—सोहति घोटी सेत में कनक बरन तन बाल। सारद वारद बीजुरी भा रद कीजत लाल।—बिहारी (शब्द०)।

वारदात
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. कोई भीषण या शोचनीय कांड। दुर्घटना। २. मारपीट। मारकाट। दंगा फसाद। क्रि० प्र०—करना।—होना। ३. घटना संबधी समाचार। हाल [को०]।

वारघ पु
संज्ञा पुं० [सं० वारिधि] दे० 'वारिधि'। उ०—वारध मुनि पीधो, त्रंबक विष, जिके प्रकट दरसे जग जांण।—रघु० रू०, पृ० २६८।

वारघान
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार एक जनपद का नाम। इसे वाटधान भी कहते हैं।

वारन (१)पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० वारना] निछावर। बलि। उ०—नित हित सों पालत रहै रूप भूप नंदलाल। छबि पनिवारन मैं मनौ द्दग पर वारन हाल।—रसनिधि (शब्द०)।

वारन (२)
संज्ञा पुं० [सं० वंदन] वंदनदार। वंदनमाला। उ०—घर घर धुजा पताका बानी। तोरन वारन वासर ठानी।—सूर (शब्द०)।

वारना (१)
क्रि० स० [हिं० उतारना] निछावर करना। उत्सर्ग करना। उ०—(क) चितै रही मुख इंदु मनोहर या छबि पर वारति तन को। कछि काछिनी भेष नटवर को बीच मिली मुरलीधर को।—सूर (शब्द०)। (ख) कौसिला की कोषि पर तोष तन वारिए री। राम दसरथ की बलाय लीजै आलि री।—तुलसी (शब्द०)। (ग) तो पर वारौं उरबसी सुन राधिका सुजान। तु मोहन के उर बसी ह्वै उरबसी समान।—बिहारी (शब्द०)।

वारना (२)
संज्ञा पुं० निछावर। उत्सर्ग। उ०—अति कोमल कर चरन सरोरुह, अधर दसन नासा सोहै री। लटकन सीस कंठ मणि भ्राजत कोटि वारने गै री।—सूर (शब्द०)। क्रि० प्र०—करना।—होना। मुहा०—वारने जाना = निछावर होना। बलि जाना। उ०— बाल विभुषन, बसन मनोहर अंगनि बिरचि बनैहौं। सोभा- निरखि निछावरि करि उर लाइ वारन जैहौं।—तुलसी (शब्द०)।

वारनारी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या।

वारनिश
संज्ञा स्त्री० [अं० वार्निश] एक प्रकार का यौगिक तरल पदार्थ जो लकाड़यो आदि पर उनमें चमक लाने के लिये लगाया जाता है।

वारपार (१)
संज्ञा पुं० [सं० अवार + पार] १. (नदी आदि का) यह किनारा और वह किनारा। पूरा विस्तार। जैसे,—नदी इतनी बढ़ी है कि वारपार नहीं सूझता। २. यह छोर और वह छोर। अंत। उ०—वारपार नहिं सुझहि लाखन उमरा मीर।—जायसी (शब्द०)।

वारपार (२)
अव्य० १. इस किनारे से उस किनारे तक। जैसे,—वार- पार जाने में एक घंटा लगेगा। उ०—अति सुमार गार सार वारपार बहत हैं।—घनानंद, पृ० ३५०। मुहा०—वारपार करना = पूरा विस्तार तै करना। वारवार होना = पूरा विस्तार तै होना। २. एक पार्श्व से दूसरे पार्श्व तक। एक बगल से दूसरी बगल तक। पूरी चौड़ाई या मोटाई तक। जैसे,—बरछी वारपार हो गई। मुहा०—वारपार करना = इस ओर से उस ओर तक घँसाना। पूरी मोटाई छेदकर दूसरी ओर निकालना।

वारफेर
संज्ञा स्त्री० [हिं० वार + फेर] १. निछावर। बलि। २. वह रुपया पैसा जो दूल्हा या दुलहिन के सिर पर से घुमाकर डोमनियों आदि की दिया जाता है। उ०—बोली कर जोरि मेरो जोर न चलत कछू चाहो सोई होहु यह वारिफेरि डारिए।—प्रियादास (शब्द०)।

वारबाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'वारवाण'। २. एक प्रकार का कंबल (कौ०)।

वारबुसा, वारबूषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] कदली। केला [को०]।

वारमुखी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। उ०—कहै तुम कौन वारमुखी नहीं भोग संग भरुवा सुगहै मौन सुनी परी परी बेरी है।—प्रिया- दास (शब्द०)।

वारमुख्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्याओं के वर्ग की प्रधान स्त्री। कुट्टनी। कुट्टनी नायका।

वारयिता
संज्ञा पुं० [सं० वारयितृ] पति [को०]।

वारयुवती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या [को०]।

वारयोग
संज्ञा पुं० [सं०] चूर्ण। पाउडर [को०]।

वारयोषित्, वारयोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वारबधू'।

वारला
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हंसी। हंसिनी। २. केला। ३. भिड़ या बेर्रे (को०)।

वारवारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कवच। २. ढाल [को०]।

वारलीक
संज्ञा पुं० [सं०] बिल्वजा तृण। बनकस।

वारवधू
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।

वारवाण
संज्ञा पुं० [सं०] १. कौटेल्य के अनुसाद एंड़ी तक लंबा अंगा। २. कंचुक। कुंचुकी (को०)। ३. कवच। जिरहबख्तर।

वारवाणि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वंशी बज, नेवाला। २. उत्तम गायक। ३. घर्माध्यक्ष। न्यायाधीश। जज। ४. ज्यौतिर्विद। ज्योतिषी। ५. वर्ष (को०)।

वारवाणि (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी [को०]।

वारवाणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या।

वारवासि
संज्ञा पुं० [सं०] महाभारत के अनुसार एक जनपद का नाम जो भारत की पश्चिमी सीमा के आगे था।

वारवास्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वारवासि'।

वारविलासिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वेश्या। रंडी।

वारवृषा
संज्ञा पुं० [सं०] १. अन्न। २. केला [को०]।

वारवेला
संज्ञा स्त्री० [सं०] दिन का एक अशुभ समय जब कोई शुभ कार्य करना वर्जित है [को०]।

वारशिप
संज्ञा पुं० [अं०] जंगी जहाज। लड़ाकू जहाज। युद्धपोत।

वारसुंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० वीरसुन्दरी] दे० 'वारस्त्री'।

वारसेवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वेश्यावृत्ति। रंडी का व्यवसाय। २. वेश्याओं का समुदाय [को०]।

वारस्त्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाजारू स्त्री। गणिका। वेश्या। रंडी।

वारांगणा
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराङ्गणा] वेश्या। रंडी।

वारांगना
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराङ्गना] दे० 'वारांगणा'।

वारांनिधि
संज्ञा पुं० [सं० वारान्निधि] समुद्र। उ०—जयति वैराग्य विज्ञान वारांनिवे, नमत नर्मद पाप ताप हर्ता।—तुलसी (शब्द०)।

वारा (१)
संज्ञा पुं० [सं० वारण(=रक्षा, बचाव)] १. खर्च की बचत। किफायत। २. लाभ। फायदा। क्रि० प्र०—पड़ना।—बैठना।

वारा (२)
संज्ञा पुं० [हिं० वार(=यह किनारा)] इधर क किनारा। इस ओर का तट या छोर। वार। यौ०—वारान्यारा। वारापार।

वारा (३)
वि० किफायत। सस्ता।

वारा (४)
वि० [हिं० वारना] [वि० स्त्री० वारी] जो निछावर हुआ हो। जिसने किसी पर अपने को उत्सर्ग किया हो। मुहा०—वारा होना = निछावर होना। कुरबान होना। (प्यार का वाक्य)। उ०—हौं वारी तेरे इंदुवदन पर अति छबि अलसानि रोई।—सूर (शब्द०)। वारा जाना = दे० 'वारा होना'। उ०—बनवारी वारी गई बनवारी पै आज।—रस- निधि (शब्द०)।

वारा पु (५)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाला] दे० 'बाला'। उ०—इक सूक्षम अस्थूल दै, वारा भूषण येह।—प० रासो, पृ० १६३।

वाराणसी
संज्ञा स्त्री० [सं०] काशी नगरी का प्राचीन नाम। विशेष—कुछ लोग यह नाम वरुणा और असी नदियों के कारण मानते हैं। पर इस प्रकार यह शब्द सिद्ध नहीं होता। लोग इसकी ठीक व्युत्पत्ति 'वर' + अनस् (जल) अर्थात् 'पवित्र जलवाली पुरीं' बतलाते हैं। कुछ विद्वान् 'उत्तम रथोंवाली पुरी अर्थ भी करते हैं। विशेष दे० 'काशी'।

वाराणसेय
वि० [सं०] वाराणसी का। वाराणसी में स्थित या उत्पन्न। जैसे, वाराणसेय विद्वत्सभा।

वारान्यारा
संज्ञा पुं० [हिं० वार + न्यारा] १. इस पक्ष या उस पक्ष में निर्णय। किसी ओर निश्चय। फैसला। उ०—आर्य गौरव- सर्वस्व का वारान्यारा होना सहज सुलभ है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३७२। २. झंझट या झगड़े का निबर्टरा। चले आते हुए मामले का खातमा। जैसे,—उस मामले का अभी तक कुछ वारान्यारा नहीं हुआ।

वारापार
संज्ञा पुं० [हिं० वारपार] ओर छोर। अंत। उ०—(क) महिमा अपार काहू बोल को न वारापार बड़ी साहबो में नाथ बड़े सावधान हौ।—तुलसी ग्रं०, पृ० २२९। (ख) वह खुद सब कुछ सह सकती थी, उसकी सहन शक्ति का वारापार न था, पर चक्रधर को इस दशा में देखकर उसे दुःख होता था।—काया०, पृ० ३७९।

वांरालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुर्गा।

वारावस्कंदी
संज्ञा पुं० [सं० वारावस्कन्दिन्] अग्नि।

वाराशि
संज्ञा पुं० [सं०] सागर। समुद्र।

वारासन
संज्ञा पुं० [सं०] तालाब। झोल। [को०]।

वाराह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वाराही] १. दे० 'वराह'। २. काली मैनी का वृक्ष। ३. पानी के किनारे होनेवाला बैत। अंबुवेतस। ४. एक पहाड़ (को०)। ५. एक साम (को०)।

वाराह (२)
वि० १. शुकर संबंधी। २. वराह अवतार संबंधी [को०]।

वाराहकंद
संज्ञा पुं० [सं० वाराहकन्द] एक प्रकार का कंद, जिसपर शूकर के समान बाल होते हैं।

वाराहकर्णी
स्त्री० [सं०] असगंध। वराहकर्णी [को०]।

वाराहकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] एक कल्प (ब्रह्मा का दिन) का नाम जिसमें हम लोग रह रहे हैं [को०]।

वाराहद्वादशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] माघ शुक्ल द्वादशी [को०]।

वाराहपत्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्वगंधा। असगंध।

वाराहांगी
संज्ञा स्त्री० [सं० वाराहाङ्गी] दंती का पेड़।

वाराही
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ब्राह्मणी आदि आठ मातृकाओं में से एक मातृका का नाम। २. एक योगिनी का नाम। ३. वाराहीकंद। ४. कँगनी। ५. श्यामा पक्षी। ६. सफेद भू- कुष्मांडा। बिलाई कंद। विदारी कंद। ७. शूकरी (को०)। ८. पृथ्वी (को०)। ९. एक प्रकार की माप (को०)।

वाराहीकंद
संज्ञा पुं० [सं० वाराहीकन्द] एक प्रकार का महाकंद जो गेंठी कहलाता है। विशेष—कहते हैं, यह अनूप (जलप्राय) देश में होता है। इसके कंद के ऊपर सूअर के बालों के समान रोएँ होते हैं। इसका आकार प्रायः गुड़ की भेली के समान होता है और इसके पत्ते कँटीले, बड़े बड़े तथा अनीदार होते हैं। वैद्यक में यह चरपरा, कडुवा, बलकारक, पित्तजनक, रसायन, शुक्रजनक, वीर्यवर्धक, अग्निदीपक, मधुर, गरम, स्वर को शुद्ध करनेवाला, आयुवर्धक तथा कोढ़, प्रमेह, त्रिदोष, कफ, वात, कृमि और मूत्रकृच्छ्र का नाशक माना है। पर्या०—वाराही। चर्मकारालुक। विष्क्सेनप्रिया। घृष्टि। वदरा। कच्छा। बनमालिनी। गृष्टि। बिल्वमूला। शूकरी। क्रीड़- कन्या। कौमारी। त्रिनेत्रा। ब्रह्मपुत्री। क्रोड़ी। कन्या। माधवेष्टा। शूकरकंद। वनवासी। कुष्ठनाशन। वल्य। अमृत। महावीर्य। शंवरकंद। वराहकंद। वीर। ब्राह्मीकंद। महौषध। सुकंदक। वृच्छिद। व्याधिहंता। मागधी।

वारि (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। पानी। २. तरल पदार्थ। ३. ह्नीवेर। सुगंधबाला।

वारि (२)
संज्ञा स्त्री० १. वाणी। सरस्वती। २. हाथी के बाँधने की जंजीर आदि। ३. हाथी के बाँधने का स्थान। ४. छोटा कलसा या गगरा। ५. हाथियों के पकड़ने का गड्ढा आदि (को०)। ६. बंदी। कैदी (को०)। ७. वाक्। बोली (को०)।

वारि (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं० बारा(= छोटा)] दे० 'बारी'। उ०—सुनहु वारि माधौनल कहई। इहि जग नेहु नहीं थिर रहई।—माघवा- नल०, पृ० १९७।

वारिकंटक
संज्ञा पुं० [सं० वारिकण्टक] सिंघाड़ा [को०]।

वारिकफ
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।

वारिकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] कुंभी। कुंभिका (को०)।

वारिकर्पूर
संज्ञा पुं० [सं०] इलीश या हिलसा नाम की एक मछली [को०]।

वारिकुब्ज
संज्ञा पुं० [सं०] सिंघाड़ा।

वारिकुब्जक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वारिकुब्ज'।

वारिकूट
संज्ञा पुं० [सं०] नगरद्वार की रक्षा के लिये बना हुआ स्तूप वा ढूहा [को०]।

वारिकोल
संज्ञा पुं० [सं०] कच्छप। कछुआ।

वारिक्रिमि
संज्ञा पुं० [सं०] जलौका। जोंक [को०]।

वारिगर्भ
संज्ञा पुं० [सं०] बादल [को०]।

वारिगृह
संज्ञा पुं० [सं०] तालाब। पोखरा [को०]।

वारिचक्र
संज्ञा पुं० [सं०] जलावर्त। भँवर। उ०—तुझमें बहु वारिचक्र हैं, कितने कच्छप और नक्र हैं।—साकेत, पृ० ३३०।

वारिचत्वर
संज्ञा पुं० [सं०] १. कुंभी। जलकुंभी। कुंभिका। २. जलाशय [को०]।

वारिचर
संज्ञा पुं० [सं०] १. पानी में रहनेवाले जंतु। २. मत्स्य। मछली। ३. शंख।

वारिचरकेतु
संज्ञा पुं० [सं०] कामदेव। मीनकेतन।

वारिचामर
संज्ञा पुं० [सं०] शैवाल। सेवार [को०]।

वारिचारी
वि० [सं० वारिचारिन्] जल में रहनेवाला (जंतु)।

वारिज (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। २. द्रोणी लवण। ३, मछली। ४. शंख। ५. घोंघा। ६. कौड़ी। ७. ? उत्तम सुवण। खरा सोना। ८. एक प्रकार का शाक। विशेष दे० 'गौर सुवर्ण' (को०)। ९. लौंग (को०)।

वारिज (२)
वि० जल में उत्पन्न। जल में होनेवाला [को०]।

वारिजात
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल। २. शंख। ३. दे० 'वारिज'।

वारिजीवक
वि० [सं०] जल से जीविका चलानेवाला (मल्लाह)।

वारित
वि० [सं०] १. जो रोका गया हो। जो मना किया गया हो। निवारित। २. छिपाया हुआ। ढका हुआ (को०)।

वारितर
संज्ञा पुं० [सं०] उशीर। खस।

वारितस्कर
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल। २. सूर्यं [को०]।

वारित्र
संज्ञा पुं० [सं०] निषिद्ध आचरण [को०]।

वारित्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] छत्र। छाता [को०]।

वारिद (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। २. भद्र मुस्तक। नागर- मोथा। ३. एक गंधद्रव्य। सुगंधबाला। बाला। ४. पितरों को जल देनेवाला (को०)।

वारिद्र
संज्ञा पुं० [सं०] चातक। पपीहा [को०]।

वारिधर
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। बादल। वारिवाह। २. भद्र- मुस्तक। नागरमोथा।

वारिधार
संज्ञा पुं० [सं०] एक पर्वत का नाम [को०]।

वारिधारा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृष्टि की बौछार। जल की वर्षा [को०]।

वारिधि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। २. जलपात्र [को०]।

वा रनाथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. वरुण। २. समुद्र। ३. बादल। मेघ। ४. नाग लोक जहाँ सर्पों का निवास माना जाता है (को०)।

वारिनिधि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।

वारिपथ
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्रयात्रा। जलयात्रा [को०]।

वारिपर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. जलकुंभी। २. पानी की काई।

वारिपूर्णा
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वारिपर्णी' [को०]।

वारिपृश्नी
संज्ञा स्त्री० [सं०] जलकुंभी।

वारिप्रवाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल का प्रवाह या धारा। २. झरना। जलप्रपात [को०]।

वारिबदर
सं० स्त्री० [सं०] आँवला [को०]।

वारिबालक
संज्ञा पुं० [सं०] ह्नीबेर नामक गंधद्रव्य [को०]।

वारिभव
संज्ञा पुं० [सं०] १. शंख। २. रसांजन। सौबीर [को०]।

वारिमसि
संज्ञा पुं० [सं०] बादल।

वारिमुक
संज्ञा पुं० [सं० वारिमुच्] बादल। मेघ।

वारिमूली
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वारिपर्णी' [को०]।

वारियंत्र
संज्ञा पुं० [सं० वारियन्त्र] १. फौआरा। जलयंत्र। २. जलघटिका। रहट (को०)।

वारियाँ
संज्ञा स्त्री० [हिं० वारी] निछावर। बलि। क्रि० प्र०—जाना। मुहा०—वारियाँ जाऊँ = तुझपर निछावर हूँ। (स्त्रियों का प्यार का वाक्य जो वे बातचीत में लाया करती हैं)।

वारिर
संज्ञा पुं० [सं०] मेघ। बादल [को०]।

वारिरथ
संज्ञा पुं० [सं०] नौका। नाव। पोत। [को०]।

वारिराज
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण [को०]।

वारिराशि
संज्ञा पुं० [सं०] १. समुद्र। २. झील।

वारिरुह
संज्ञा पुं० [सं०] कमल।

वारिलोमा
संज्ञा पुं० [सं० वारिलोमन्] वरुण।

वारिवद
संज्ञा पुं० [सं० वारिवन्द] एक प्राचीन जनपद। विशेष—यह कूचबिहार के उत्तर में बताया जाता है।

वारिवदन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वारिबदर'।

वारिवर
संज्ञा पुं० [सं०] करौंदा।

वारिवर्णक
संज्ञा पुं० [सं०] रेत। बालू। सिकता।

वारिवर्त पु
संज्ञा पुं० [सं० वारि आवर्त्त] एक मेघ का नाम। उ०—सुनत मेघवर्तक साजि सैन लै आए। जलवर्त, वारिवर्त, पवनर्वत, वज्रवर्त, आगिवर्तक जलद संग लाए।-सूर (शब्द०)।

वारिवल्लभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] विदारी कंद [को०]।

वारिवास
संज्ञा पुं० [सं०] मद्य बनानेवाला। कलवार। कलार।

वारिवाह, वारिवाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघ। वारिधर। २. मुस्तक। मोथा।

वारिवाही
संज्ञा पुं० [सं० वारिवाहिन्] मेघ। बादल।

वारिश
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु।

वारिशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] फलित ज्योतिष का एक ग्रंथ। विशेष—यह ग्रंथ गर्ग मुनि का रचा हुआ कहा जाता है। इससे यह निकाला जाता है कि किस स्थान में कैसी वृष्टि होगी, और कब कब होगी।

वारिसंभव
संज्ञा पुं० [सं० वारिसम्भव] १. लौंग। २. अंजन विशेष। ३. खस की सुगाधित जड़। उसीर [को०]।

वारिस
संज्ञा पुं० [अ०] १. दायाद। दायभागी पुरुष। २. वह पुरुष जो किसी के मरने के पीछे उसकी संपत्ति आदि का स्वामी और उसके ऋण आदि का देनदार हो। उत्तराधिकारी। ३. रक्षक।

वारिसाम्य
संज्ञा पुं० [सं०] दुग्ध। दूध [को०]।

वारिसार
संज्ञा पुं० [सं०] भागवत पुराण के अनुसार चंद्रगुप्त के एक पुत्र का नाम।

वारींवद्र
संज्ञा पुं० [सं० वारीन्द्र] समुद्र।

वारी (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथी के बाँधने की जंजीर या अँडुआ। २. कलसी। छोटा गगरा। दे० 'वारि'।

वारी (२)
वि० दे० 'वारा'।

वारी (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० बालिका> प्रा० बालिआ> हिं० बरी] छोटी उम्र की बालिका उ०—वारी सुकुमारी, दरिद्र जर्जर लस्त को ब्याह दी जाय। प्रेमघन०, भा० २, पृ० १८७।

वारी (४)
संज्ञा स्त्री० [हिं० पारी, बारी] बारी। अवसर। समय। उ०— साँकिया राज राँणा सकल, अकल पाँण छिलियौ असुर। लहरीस जाँण वारी लहै, गरज निवारी सीम गुर।-रा० रू०, पृ० १९।

वारीट
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी।

वारीफेरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० वारना + फेरना] किसी प्रिय व्यक्ति के ऊपर कुछ द्रव्य, या और कोई वस्तु घुमाकर इसलिये छोड़ना या उत्सर्ग करना, जिसमें उसकी सब बाधाएँ दूर हो जायँ। निछावर। (स्त्रियों का एक टोटका)। उ०—भुजन पर जननी बारीफेरी डारी। क्यों तोरयो कोमल कर कमलन संभु सरासऩ भारी।—तुलसी (शब्द०)। (ख) 'क्योंकि आरकी लेखनी विचारी कलम की कारीगरी पर वारीफेरी हो जाती है।—प्रेमघन०, भा० २, पृ० २७। क्रि० प्र०—डालना।

वारीश
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।

वारुंड
संज्ञा पुं० [सं० वारुण्ड] १. साँपों का राजा। २, नाव में से पानी निकालने का बरतन। तसला। ३. कान की मैल। खूँट। ४. आँख का कीचड़।

वारुंडी
संज्ञा स्त्री० [सं० वारुण्डी] द्वार की सीढ़ी [को०]।

वारु
संज्ञा पुं० [सं०] १. विजयहस्ति। विजयकुंजर। जंगी हाथी। २. अश्व। घोड़ा (को०)।

वारुक
वि० [सं०] चयनकर्ता। चुननेवाला [को०]।

वारुठ
संज्ञा पुं० [सं०] १. अंतशय्या। मरण खाट। २. वह टिकठी जिसपर मुरदे को लेट कर ले जाते हैं। अरथी।

वारुण (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल। २. शतभिषा नक्षत्र। ३. भारतवर्ष के एक खंड का नाम। (इसे आजकल 'वरनारक' कहते हैं।) ४. एक अस्ञ का नाम। ५. हरताल। ६. एक उपपुराण का नाम। ७. वरुण या वरुना नाम का पेड़। ८. जलजंतु (को०)। ९. पश्चिम दिशा (को०)।

वारुण (२)
वि० १. वरुण संबधी। वरुण का। २. जलीय। जलसंबंधी। ३. पश्चिमी [को०]।

वारुणक
संज्ञा पुं० [सं०] एक जनपद का नाम।

वारुणकर्म
संज्ञा पुं० [सं० वारुणकर्मन्] कूआँ, पोखरा, बावली आदि जलाशय बनवाने का काम।

वारुणकृच्छ्र
संज्ञा पुं० [सं०] स्मृति के अनुसार एक व्रत, जिसमें महीने भर तक पानी में घुला सत्तू खाकर रहते थे।

वारुणपाशक
संज्ञा पुं० [सं०] एक विशाल समुद्री जंतु [को०]।

वारुणि
संज्ञा पुं० [सं०] १. अगस्त्य मुनि। २. वसिष्ठ। ३. भृगु। ४. विनता के एक पुत्र का नाम। ५. एक जनपद का नाम। ६. दँतैला हाथी। ७. वारुण वृक्ष। बरुना का पेड़।

वारुणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. मदिरा। शराब। विशेष—कई प्रकार की मदिरा का नाम वारुणी है। जैसे,— पुनर्नवा (गदहपूरना) की पीसकर बनाई हुई, ताड़ या खजूर के रस से बनी हुई, साठी धान के चावल और हड़ पीसकर बनाई हुई। २. वरुण की स्त्री। वरुणानी। ३. उपनिषद् विद्या, जिसका उपदेश वरुण ने किया था। ४. पश्चिम दिशा। ५. शतभिषा नक्षत्र। ६. एक नदी का नाम। ७. भुईआँवला। ८. गाँडर दूब। ९. घोड़े की एक चाल। १०. इंद्रवारुणी लता। इंदारुन की बेल। ११. हथिनी। १२. एक पर्व जो उस समय माना जाता है जब चैत महीने की कुष्ण त्रयोदशी को शतभिषा नक्षत्र पड़ता है। इस दिन लोग गंगास्नान, दान आदि करते हैं। १३. दूर्वा। दूब (को०)। १४. घोड़े की गति का एक भेद (को०)। १५. एक नदी का नाम (को०)। १६. वृंदावन के एक कदंब का रस, दो वरुण की कृपा से बलराम जी के लिये निकला था। १७. कदंब के पके हुए फलों से बनाया हुआ मद्य।

वारुणीवर
संज्ञा पुं० [सं०] जैनों के अनुसार चौथे द्वीप और उसके समुद्र का नाम।

वारुणीवल्लभ
संज्ञा पुं० [सं०] वरुण देवता [को०]।

वारुणीश
संज्ञा पुं० [सं०] विष्णु [को०]।

वारुण्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] भ्रम। भ्रांति [को०]।

वारूण्य (२)
वि० १. वरुण संबंधी। २. मदिरा संबंधी [को०]।

वारूढ़
संज्ञा पुं० [सं०] [स्त्री० वारूढ़ा] १. अग्नि। आग। २. पिंजरा (को०)। ३. संबल। पाथेय (को०)। ४. द्वार का पल्ला (को०)। ५. वस्त्र का छोर (को०)। ६. किनारा। तट (को०)।

वारेंद्र
संज्ञा पुं० [सं० वारेन्द्र] [स्त्री० वारेंद्री] गौड़ देश के एक प्राचीन जनपद का नाम जो आजकल के राजशाही जिले में था।

वारै †
क्रि० वि० [सं० बहिर्] दे० 'बाहर'। उ०—पाँण जोडे हुकुम पावै अतुर वारैं भरथ आवै ले चले हित लेख।—रघु० रू०, पृ० ११६।

वार्कजंभ
संज्ञा पुं० [सं० वार्कजम्भ] १. एक साम का नाम। २. वृकजंभ ऋषि का गोत्रज।

वार्कार्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक यज्ञ कर्म।

वार्क्ष (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वार्क्षी] १. वृक्ष संबधी या वृक्ष का बना हुआ। २. वृक्षों से युक्त या घिरा हुआ (को०)।

वार्क्ष (२)
संज्ञा पुं० १. वृक्ष की छाल का बना हुआ वस्त्र। २. वन। अरण्य। जंगल (को०)।

वार्क्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] प्रचेतागण की स्त्री मारिषा का नाम। विशेष—इसका जन्म कुंड मुनि और प्रम्लोचा अप्सरा से हुआ था। कुंड मुनि गोमता के तट पर तप कर रहे थे। उनको तपोभ्रष्ट करने के लिये इंद्र ने प्रम्लोचा को भेजा था वह मुनि के आश्रम में बहुत काल तक रही। जब मुनि को उसके छल का ज्ञान हुआ, तब वे अपने को धिक्कारने लगे। प्रम्लोचा शाप के भय से भागी। उसके शरीर से पसाना निकला, जो एक वृक्ष के ऊपर पड़ा। उसी से मारिषा उत्पन्न हुई। मारिषा को राजा ने प्रचेतागण को प्रदान किया, जिससे दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ।

वार्क्ष्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वार्क्ष' [को०]।

वार्गर
संज्ञा पुं० [सं०] श्यालक। साला [को०]।

वार्च
संज्ञा पुं० [सं०] हस।

वार्ड
संज्ञा पुं० [अं०] १. रक्षा। हिफाजत। २. किसी विशिष्ट कार्य के लिये घेरकर बनाया हुआ स्थान। ३. नगर में उसके महल्लों आदि का समूह, जो किसी निशिष्ट कार्य के लिये अलग नियत किया गया हो। ४. अस्पताल या जेल आदि के अंदर के अलग अलग विभाग। ५. अलग अलग कमरा या विभाग आदि (को०)।

वार्डन
संज्ञा पुं० [अं०] १. अभिभावक। २. छात्रावासों में छात्रों के प्रतिपालक। ३. रक्षक। ४. जेल के भीतर का पहरेदार [को०]।

वार्डर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह जो रक्षा करता हो। रक्षक २. जेल आदि के अंदर का पहरेदार।

वार्णक
संज्ञा पुं० [सं०] लेखक।

वार्णिक
संज्ञा पुं० [सं०] लेखक।

वार्तक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वार्त्तक' [को०]।

वार्त्त (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. आरोग्य। निरामय। २. किसी वृत्ति या व्यवसाय में लगा हुआ व्यक्ति। कामकाजी आदमी। ३. कुश- लता। दक्षता (को०)। ४. भूसी। तुष। छिलका (को०)।

वार्त्त (२)
वि० १. स्वस्थ। निरोग। २. हलका। कमजोर। सारहीन। ३. वृत्तिशाली। जीविकाप्राप्त।

वार्त्तक
संज्ञा पुं० [सं०] बटेर पक्षी।

वार्त्ता
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्त्ता, वार्ता] १. जनश्रुति। अफवाह। २. संवाद। वृत्तांत। हाल। ३. विषय। मामला। प्रसंग। बात। ४. चार विद्यावर्गों (आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दंडनीति) में एक। ५. कथोपकथन। बातचीत। यौ०—वार्त्तालाप। ५. वेश्य वृत्ति जिसके अंतर्गत कृषिकर्म, वाणिज्य, गोरक्षा और कुसीद हैं। यौ०—वार्ताकर्म = कृषि, व्यापार, गोपालन आदि वैश्यों के कार्य। ६. दुर्गा। ७. अन्य के द्वारा क्रय विक्रय होना। ८. ठहरना। रहना (को०)। ९. बैगन। भाँटा (को०)। १०. वृत्ति। आजी- विका (को०)।

वार्त्ताक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बैंगन। भंटा। २. बटेर पक्षी। यौ०—वार्त्ताकशाकट, वार्ताकशाकिन = बैंगन का खेत [को०]।

वार्त्ताकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बैंगन। भंटा।

वार्त्ताकु
संज्ञा पुं० [सं०] बैंगन। भंटा।

वार्त्तानुकर्षक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुप्तचर। जासूस। २. दूत। चर संदेशवाहक [को०]।

वार्त्तानुजीवी
संज्ञा पुं० [सं० वार्त्तानुजीविन्] कृषि, गोरक्षा, व्यापार आदि द्वारा जीविका चलानेवाला। वैश्य [को०]।

वार्त्तापति
संज्ञा पुं० [सं०] काम करानेवाला मालिक।

वार्तायन
संज्ञा पुं० [सं०] १. गुढ़ पुरुष। प्रणिधि। चर। २. दूत। एलची। संदेशवाहक।

वार्त्तारंभ
संज्ञा पुं० [सं० वार्त्तारम्भ] व्यापार। रोजगार [को०]।

वार्त्तालाप
संज्ञा पुं० [सं०] बातचीत। कथोपकथन। क्रि० प्र०—करना।—होना।

वार्त्तावह
संज्ञा पुं० [सं०] १. पनसारी। २. समाचार ले जानेवाला। दूत। ३. नीति शास्त्र का वह भाग, जो आय व्यय से संबंध रखता है। वार्त्ता।

वार्त्तावशेष
वि० [सं०] मृत। मरा हुआ।

वार्त्तावृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वह जिसकी जीविका वार्त्ता, कृषिकर्म पर आधृत हो। २. गृहपति। ३. वैश्य [को०]।

वार्ताशस्त्रोपजीवी
संज्ञा पुं० [सं० वार्त्ताशस्त्रोपजीविन्] केवल वाणिज्य या युद्ध व्यवसाय में लगे रहनेवाले लोग। विशेष—कौटिल्य ने लिखा है कि कांबोज और सौराष्ट्र देशवाले अधिकतर ऐसे ही हैं।

वार्ता साहित्य
संज्ञा पुं० [सं०] आख्यान। कथा साहित्य। उ०— जिसका उल्लेख संग्रह ग्रंथों, वार्तासाहित्य, समकालीन कवियों की रचनाओं, ऐतिहासिक ग्रंथों तथा हस्तलिखित प्रतियों में मिलता है।—अकबरी,० पृ० ३८।

वार्त्तिक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. किसी ग्रंथ के उक्त, अनुक्त और दुरुक्त अर्थों का स्पष्टार्थकारी विवेचक वाक्य या ग्रंथ। जैसे,—पाणिनि की अष्टाध्यायी पर कात्यायन का वार्तिक, न्यायसूत्र के वात्स्या- यन भाष्य पर उद्योतकर का न्याय वार्तिक। विशेष—वृत्ति और भाष्य केवल मूल ग्रंथ के आशय को स्पष्ट करते हैं, उसके बाहर कुछ नहीं कहते। पर वार्त्तिककार को पूर्ण स्वतंत्रता रहती है। वह नई बातें भी कह सकता है। २. वृत्ति या आचार शास्त्र का अध्ययन करनेवाला। उ०—वेदज्ञ, वैद्य, वैदेशिक, वार्त्तिक, वक्ता, व्यसनी, व्यावहारिक विद्यामंत।—वर्ण०, पृ० १०। ३. दूत। चर। ४. वैद्य (को०)। ५. बटेर पक्षी (को०)। ६. किसान (मुख्यतःवैश्य)। ७. व्यवसायी। व्यापारी (को०)। ८. विवाह का भोजन (को०)। ९. भंटा। बैगन (को०)।

वार्तिक (२)
वि० १. संदेश लानेवाला। दूत। संदेशवाहक। २. समाचार संबंधी। व्याख्यात्मक [को०]।

वार्तिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. व्यापार। वाणिज्य। २. खबर। समाचार [को०]।

वार्त्तीक, वार्तीर
संज्ञा पुं० [सं०] बटेर पक्षी का एक भेद।

वार्त्तघ्न (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अर्जुन। २. जयंत।

वार्त्रध्न (२)
वि० वृत्रघ्न संबंधी। इंद्र संबंधी। [को०]।

वार्त्रतूर
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

वार्द
संज्ञा पुं० [सं० वार्द्द] मेघ। बादल।

वार्दर
संज्ञा पुं० [सं० वार्द्धर] १. दक्षिणावर्त शंख। २. जल। ३. घोड़े के गले पर की दाहिनी ओर की भौंरी। ४. आम की गुठली। ५. रेशम। ६. जल। ७. काकचिंचा।

वार्दल
संज्ञा पुं० [सं०] १. मेघाच्छन्न दिवस। दुर्दिन। वर्षा का दिन। २. मसिपात्र। ३. मसि। स्याही [को०]।

वार्दालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा [को०]।

वार्द्धक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुढ़ापा। वृद्धावस्था। २. बुढ़ापे के कारण होनेवाली कमजोरी (को०)। ३. वृद्ध जनों का समूह या मंडलो (को०)।

वार्द्धंक्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुढ़ापा। २. वृद्धि। बढ़ती। ३. बुढ़ापे की कमजोरी (को०)।

वार्द्घि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र।

वार्द्घिभव
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्री नमक। द्रोणी लवण [को०]।

वार्द्धुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वार्द्धक' [को०]।

वार्द्धुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वार्द्धुषि'।

वार्द्धुषि
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक व्याज लेनेवाला।

वार्द्धुषिक
संज्ञा पुं० [सं०] बहुत अधिक सुद लेनेवाला। सूदखोर।

वार्द्धुषी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वार्द्धुषिन्] सदखोर। वार्द्धुषिक [को०]।

वार्द्धुषी (२)
संज्ञा स्त्री० सूदखोरी [को०]।

वार्द्धुष्य
संज्ञा पुं० [सं०] अन्न को अधिक ब्याज पर देने का व्यवसाय। बिसार।

वार्द्धेय
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्री लवण [को०]।

वाद्धर्य
संज्ञा पुं० [सं०] बृद्धता। बुढ़ापा [को०]।

वादुर्ध्र
संज्ञा पुं० [सं०] चमड़े की बद्धी। तसमा।

वादूर्ध्री
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वाद्र्ध' [को०]।

वार्द्धीणस
संज्ञा पुं० [सं०] १. गैंड़ा। २. वह बधिया बकरा जिसका रंग सफेद हो और जिसके कान इतने लंबे हों कि पानी पीते समय पानी से छू जायँ। ३. एक प्रकार का पक्षी जिसका सिर लाल, गला नीला और शेष शरीर काला कहा गया है। प्राचीन काल में इस पक्षी का बलिदान विष्णु के उद्देश्य से होता था।

वार्धनी
संज्ञा पुं० [सं०] जलपात्र। घड़ा [को०]।

वार्धि
संज्ञा पुं० [सं०] समुद्र [को०]।

वार्धुषिक
संज्ञा पुं० [सं०] कम दाम पर वस्तु खरीदकर अधिक दाम पर बेचने का व्यवसाय करनेवाला। खरीद फरोख्त का रोजगारी। बनिया। (स्मृति)।

वार्निश
संज्ञा स्त्री० [अं०] दे० 'बारनिश'। लकड़ी आदि की बनी वस्तुओं में खूबसूरती और चमक लाने के लिये लगाया जानेवाला रोगन। उ०—(क) रमा ने मुग्दर की जोड़ी देखी। उसपर वार्निश थो, साफ सुथरी, मानों अभी किसी ने फेरकर रख दिया हो।—गबन, पृ० २३४। (ख) वे मार्मिक से मार्मिक प्रत्यक्ष द्दश्य के सामने वार्निश किए हुए काठ के कुंदे या गढ़ी हुई पत्थर की मूर्ति के समान खड़े रह जायेंगे।—चितामणि, भा० २, पृ० २१२।

वार्बट
संज्ञा पुं० [सं०] नाव [को०]।

वार्भट
संज्ञा पुं० [सं०] घड़ियाल।

वामंण
संज्ञा पुं० [सं०] कवचों का समूह [को०]।

वार्मिण
संज्ञा पुं० [सं०] कवच धारण करनेवालों का दल [को०]।

वार्मुच
संज्ञा पुं० [सं० वार्मुच्] १. बादल। २. मुस्तक। मोथा।

वार्य (१)
वि० [सं०] १. जो रोका जा सके। जिसका निवारण हो सके। वारणीय। २. जिसे वारण करना हो। जिसे रोकना हो। ३. वारि संबंधी। जल संबंधी [को०]।

वार्य (२)
संज्ञा पुं० १. आशीर्वाद। वरदान। २. जायदाद। संपत्ति। ३. दीवार [को०]।

वार्युद्भव
संज्ञा पुं० [सं०] जलज। कमल [को०]।

वार्योका
संज्ञा स्त्री० [सं० वार्योकस्] जोंक।

वार्वट
संज्ञा पुं० [सं०] नौका। नाव। बेड़ा।

वार्वणा
संज्ञा स्त्री० [सं०] नीले रंग की मक्खी।

वार्ष
वि० [सं०] १. वर्षा संबंधी। २. वार्षिक [को०]।

वार्षक
संज्ञा पुं० [सं०] पुराणानुसार पृथ्वी के दस भागों में से एक भाग का नाम, जिसे सुद्युम्न ने विभक्त किया था।

वार्षगण
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार के वैदिक आचार्य।

वार्षभ
वि० [सं०] बृषम संबंधी। बैल संबंधी [को०]।

वार्षभानवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] वृषभानु की पुत्री। राधा [को०]।

वार्षल
वि० [सं०] शूद्र संबंधी। शूद्र का कार्य, पेशा आदि [को०]।

वार्षलि
संज्ञा पुं० [सं०] शूद्रा का पुत्र।

वार्षाहर
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

वार्षिक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वार्षिकी] १. वर्ष संबंधी। २. जो प्रतिवर्ष होता हो। सालाना। ३. वर्षाकाल में होनेवाला। ४. एक वर्ष तक रहनेवाला [को०]।

वार्षिक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] त्रायमाण नाम की एक लता, जिसका प्रयोग ओषधि के रूप में होता है।

वार्षिकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बेले का फूल। २. वह नदी जिसमें साल भर पाना रहता है (को०)। ३. प्रति वर्ष नियामित रूप से होनेवाली पूजा आदि (को०)।

वार्षिक्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वर्षा ऋतु [को०]।

वार्षिक्य (२)
वि० वर्षा संबधी [को०]।

वार्षिला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वर्षा ऋतु [को०]।

वार्षुक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वार्षुकी] बरसालू। वर्षणशील। बरसनेवाला [को०]।

वार्ष्ण
संज्ञा पुं० [सं०] कृष्णचद्र।

वार्ष्णि
संज्ञा [सं०] कृष्ण [को०]।

वार्ष्णेय
संज्ञा पुं० [सं०] १. वृष्णि की संतान। २. कृष्णचंद्र। ३. नल का सारथी (को०)।

वार्ह
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वार्हो] दे० 'बार्ह' [को०]।

वार्हत
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बेगन। बृहती फल [को०]।

वार्हद्रथ
संज्ञा पुं० [सं०] बृहद्रय का पुत्र, जरासंध।

वार्हद्रथि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बार्हद्रथ' [को०]।

वार्हस्पत
वि०, संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बार्हस्पत'।

वार्हस्पत्य
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वाहँस्पत्य' [को०]।

वार्हिण
वि० [सं०] मयूर संबंधी। दे० 'बार्हिण'।

वालंटियर
संज्ञा पुं० [अं०] १. वह मनुष्य जो बिना किसी पुरस्कार या वेतन के किसी कार्य में अपनी इच्छा से योग दे। स्वयं- सेवक। स्वेच्छा सेवक। २. वह सिपाही जो विना वेतन के अपनी इच्छा से फौज में सिपाही या अफसर का काम करे। बल्लमटेर।

वाल पु (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० बाला] युवती स्त्री। बाला। उ०—सुभंत केश वालयं। सारत्त ज्यौं सेवालयं।—पृ० रा०, ६१।१८८३।

वाल (२)
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बाल'।

वालक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बालछड़। २. कंकण। कंगन। अंगूठी। ३. घोड़े या हाथी की पूँछ (को०)। दे० 'बालक'।

वालखिल्य
संज्ञा पुं० [सं०] १. दे० 'बालखिल्य'। २. ऋग्वेद की ११ ऋचाएँ।

वालदैन
संज्ञा पुं० [अ०] माता पिता। माँ बाप।

वालधान
संज्ञा पुं० [सं०] वालधि। पूँछ।

वालधि
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. पूंछ। पुच्छ। २. भैंसा। महिष। ३. एक ऋषि [को०]।

वालनाटक
संज्ञा पुं० [सं०] एक तरह का निम्नकोटि का अन्न वा कदब [को०]।

वालपाशक
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी की पूँछ का एक भाग [को०]।

वालपुत्र
संज्ञा पुं० [सं०] मूँछ [को०]।

वालप्रिय
संज्ञा पुं० [सं०] गाय की जाति का एक पशु। चमरी गाय [को०]।

वालरा †
संज्ञा पुं० [देश०] विशेष ढंग से की जानेवाली खेती। उ०— पहाड़ों के ढेलों आदि पर, जहाँ हल नहीं चलाए जा सकते, भील लोग जगह जगह लकड़ियाँ काटकर उनके ढेर लगाते और उनको जला देते हैं, जिसकी राख खाद का काम देती है फिर, वे लोग वहाँ की जमीन को खोदकर उसमें मक्का वगैरह अन्न बोते हैं। ऐसी खेती को वालरा (वल्लर) कहते हैं।—राज० इति०, पृ० १४३४।

वालव
संज्ञा पुं० [सं०] ज्योतिष में एक करण का नाम।

वालव्यजन
संज्ञा पुं० [सं०] १. चामर। चँवर। २. छोटा पंखा। उ०—यह माला, यह मल्लिका का वालव्यजन क्या होगा- मेरा दिनभर का परिश्रम।—राज्यश्री, पृ० ८।

वालहस्त
संज्ञा पुं० [सं०] बालधि। पूँछ [को०]।

वाला (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. इंद्रवज्रा और उपेंद्रवज्रा के मेल से बने हुए उपजाति नामक सोलह प्रकार के वृत्तों में से एक, जिसके पहले तीन चरणों में दो तगण, एक जगण और दो गुरु होते हैं; तथा चौथे चरण में और सब वही रहता है, केवल प्रथम वर्ण लघु होता है। जैसे,—राखौ सदा शंभु हिए अखंडा। बाधौ सबै शूर तनै जु दंडा। धारो विभूती तन अक्षमंडा। नसैं सबैई अघ ओघ चंडा। २. नारियल (को०)। ३. दे० 'बाला'।

वाला (२)
वि० [फ़ा० वालहू] १. प्रतिष्ठित। मान्य। २. उच्च। उत्तुंग। श्रेष्ठ। उत्तम [को०]। यौ०—दे० 'बाला' शब्द में।

वालाक्षी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक पौधा, जिसके फूलों के दल आँख के आकार के लगते हैं।

वालाग्र
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्राचीन मान जो आठ रज का माना जाता था। उ०—आठ रज का वालाग्र होता है।—बृहत्संहिता पृ० २८६। दे० 'बालाग्र'।

वालि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'बालि'।

वालिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. दे० 'बालिका'। २. वालुका। बालू। ३. कान का एक गहना। बाला। बाली। ४. इलायची। ५. मुहर। मुद्रा (को०)।

वालिखिल्ल पु
संज्ञा पुं० [सं० वालखिल्य] दे० 'बालखिल्य'।

वालिद
संज्ञा पुं० [अ०] पिता। बाप।

वालिदा
संज्ञा स्त्री० [अ० वालिदह] माता। माँ।

वालिदैन
संज्ञा पुं० [अ०] माँ बाप। उ०—देखता वालिदैन अपने मकमूर हाल। परेशान अपन भी फिकर लग दुबाल।— दक्खिनी०, पृ० २६८।

वालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अश्विनी नक्षत्र [को०]।

वालिभ पु
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] दे० 'वल्लभ'। उ०—वालिभ गरथ वसीकरण, वीजा सहु अकयथ्य। जिए चढया दल उत्तरइ, तरुणि पसारइ हथ्य।—ढोला०, दू० १६९।

वाली (१)
संज्ञा पुं० [सं० वालिन्] बंदरों का एक राजा जो सुग्रीव का बड़ा भाई और अगद का पिता था। विशेष—पुराणों में इसकी उत्पत्ति इंद्र के वीर्य से कही गई है। विशेष दे० 'बालि'।

वाली (२)
संज्ञा पुं० [अ०] १. मित्र। सखा। २. शासक। हाकिम। उ०—वह बाला वाली इस घर का। है खालिक सब बहरो बर का।—दक्खिनी०, पृ० २२३।

वालुंक
संज्ञा पुं० [सं० वालुङ्क] एक प्रकार की ककड़ी [को०]।

वालु
संज्ञा पुं० [सं०] एक गंध द्रव्य।

वालुक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक गंध द्रव्य। २. पनियालू।

वालुक (२)
वि० १. बालू की तरह का। २. नमक से बना हुआ [को०]।

वालुकांबुधि
संज्ञा पुं० [सं० वालुकाम्बुधि] बालू का समुद्र, मरुस्थल। रोगस्तान [को०]।

वालुका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. बालू। रेत। २. शाखा। ३. हाथ पैर। ४. ककड़ी। ५. कपूर। ६. चूर्ण (को०)।

वालुकात्मिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] चीनी। शर्करा [को०]।

वालुकाप्रभा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक नरक का नाम।

वालुकाब्धि
संज्ञा पुं० [सं०] रेगिस्तान। मरुभूमि।

वालुकायंत्र
संज्ञा पुं० [सं० वालुकायन्व] औषध सिद्ध करने का एक प्रकार का यंत्र। दे० 'बालुका यंत्र'।

वालुकार्णव
संज्ञा पुं० [सं०] मरुभूमि। रेगिस्तान [को०]।

वालुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक प्रकार की ककड़ी।

वालुकेल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का लवण [को०]।

वालुकेश्वर
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०]। थौ०—वालुकेश्वर तीर्थ = बंबई के पास का एक तीर्थ स्थान।

वालूक
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का विष।

वालेय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. गधा। २. पुत्र। ३. एक प्रकार का करंज। अंगारवल्लरी।

वालेय (२)
वि० [सं०] दे० 'बालेय (२)' [को०]।

वाल्क
संज्ञा पुं० [सं०] क्षौमादि वस्त्र। वल्क से बना वस्त्र।

वाल्कल (१)
वि० [सं०] वल्कल का। छाल का।

वाल्कल (२)
संज्ञा पुं० दे० 'वाल्क'।

वाल्कली
संज्ञा स्त्री० [सं०] मदिरा। गौड़ी मद्य।

वाल्गुक
वि० [सं०] बहुत सुंदर [को०]।

वाल्गुद
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का चमगादड़ [को०]।

वाल्मिकि, वाल्मीक, वाल्मीकि
संज्ञा पुं० [सं०] एक मुनि जो रामायण के रचयिता और आदि कवि कहे जाते हैं। विशेष—इनका जन्म भृगु वंश में हुआ था। ये प्रचेता के वंशज थे और तमसा नदी के किनारे, जिसे अब टौंस कहते हैं, रहते थे। ये एक बार अपने शिष्यों सहित नदी तट पर स्नान करने गए। वहाँ शिष्यों को घाट। पर स्नान संध्या करने के लिये छोड़कर नदी के किनारे टहल रहे थे कि इसी बीच में एक निषाद ने एक क्रौंच को मारा। क्रौंच रक्त में लथपथ भूमि पर गिर पड़ा और क्रौंची चिल्लाने लगी। यह घटना देखकर मुनि के मुँह से यह वाक्य निकल गया—'मा निषाद प्रतिष्ठा त्वमगमः शाश्वती समाः। यत्क्रौञ्च मिथुनादेकमवधी' काममोहितम्।' यह वाक्य विशुद्ध वर्णयुक्त सुंदर अनुष्टुभूथा। यह छंद मुनि को इतना। रुचिकर हुआ कि उन्होंने समस्त रामायण महाकाव्य इसी छंद में रच डाला।

वाल्मीकीय
वि० स्त्री० [सं०] १. वाल्मीकि संबंधी। वाल्मीकि की। २. वाल्मीकि की बनाई हुई।

वाल्लभ्य
संज्ञा पुं० [सं०] प्रियता। प्यार। वल्लभता (को०)]।

वाल्हा पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ] बालम। प्रिय। स्वामी। उ०— वाल्हा सेज हमारे रे, तूँ आव हूँ वारी रे, हूँ दासी तुम्हारी रे।—दादू०, पृ० ५०४।

वाल्हा (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० वल्लभा] पत्नी। प्रिया। उ०—वाल्हा हूँ ताहरी, तूँ माहरौ नाथ। तुम सू पहली प्रीतड़ी, पूरिवलौ साथ।—दादू० पृ० ३८९।

वावदूक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अच्छा बोलनेवाला। वक्ता। वाग्मी। २. बहुत बकनेवाला। बकवादी।

वावदूकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] वाग्मिता।

वावय
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की तुलसी का पौधा [को०]।

वावसू पु
संज्ञा पुं० [देश०] चर। दूत। जासूस। उ०—इतरे अस खड़ आविया, सथ वावसू सताब। अकबर कहियौ आवते, बहियौ साह निबाब।—रा० रू०, पृ० १०८।

वावात
वि० [सं०] प्रिय। चहेता [को०]।

वावाता
संज्ञा स्त्री० [सं०] राजा की वह प्रिया पत्नी जो शूद्र जाति की होती थी। उ०—उस समय राजा को चार स्त्रियाँ रखने का अधिकार था; महिषी (पटरानी), परिवाक्त्री (उपेक्षिता), वावाता (प्रिया) तथा पालागली (किसी दरबारी अफसर की लड़की)।—प्रा० भा० प०, पृ० १८५।

वावुट
संज्ञा पुं० [सं०] नाव। बेड़ा। डोंगी [को०]।

वावू पु
संज्ञा, पुं० [सं० वायु] दे० 'वायु'। उ०—खोजे बाबू हत्थड़ा, धूडि भरेसी मूठि।—ढोला० दू० ३६१।

वावृत्त
वि० [सं०] छाँटा गया। चुना गया। पसंद किया गया [को०]।

वावेला
संज्ञा पुं० [अ०] १. विलाप। रोना पीटना। २. शोरगुल। हल्ला। चिल्लाहट। क्रि० प्र०—करना।—मचाना।—होना।

वाश (१)
संज्ञा पुं० [सं०] अड़ूसा। वासक।

वाश (२)
वि० १. बहुत रोनेवाला। रोना। २. निवेदित।

वाश (३)
संज्ञा पुं० [सं०] एक साम का नाम।

वाशक
संज्ञा पुं० [सं०] १. चिल्लानेवाला। निनादकारी। २. रोनेवाला। ३. अड़ूसा।

वाशन (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. पक्षियों का बोलना। २. मक्खियों का भिनभिनाना।

वाशन (२)
वि० १. चिल्लानेवाला। शब्द करनेवाला। २. चहचहोनेवाला ३. भिनभिनानेवाला।

वाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वासक। अड़ूसा।

वाशि
संज्ञा पुं० [सं०] अग्नि। आग।

वाशिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अड़ूसा

वाशित (१)
संज्ञा पुं० [सं०] पशु पक्षी आदि का शब्द।

वाशित (२)
वि० १. दे० 'वासित'। २. शब्दित। पुकारा हुआ। (को०)।

वाशिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। २. हथिनी। ३. पत्नी [को०]।

वाशितागृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] जवान हथिनी [को०]।

वाशिष्ठ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक उपपुराण का नाम। २. एक प्राचीन तीर्थ का नाम।

वाशिष्ठ (२)
वि० [सं०] वशिष्ठ सबंधी। वशिष्ठ का।

वाशिष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] गोमती नदी।

वाशी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कुल्हाड़ी। कुठार। २. ध्वनि। स्वर। ३. युद्ध का निनाद [को०]।

वाशुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात। रात्रि [को०]।

वाश्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. मंदिर। निवास। २. चौराहा। ३. दिन। दिवस (को०)। ४. वृषभ। बैल (को०)। ५. गोबर (को०)।

वाश्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. माता। २. बछड़े सहित गाय [को०]।

वाष्कल (१)
संज्ञा पुं० [सं०] वीर। योद्धा [को०]।

वाष्कल (२)
वि० महान्। बड़ा [को०]।

वाष्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. लोहा। २. आँसू। ३. भाप। भाफ। ४. कटकारि। भटकटैया। य़ौ०—वाष्पदुर्दिन = अश्रुभरी (आँखें)। वाष्पमुख = आँसू से जिसका मुँह गीला हो। वष्पमोक्ष, वाष्पमोक्षण = अश्रुपात। रुदन। (अन्य यौ० शब्दों के लिये देखें 'बाष्प' शब्द)।

वाष्पक
संज्ञा पुं० [सं०] १. मरसा नाम का साग। २. दे० 'बाष्पक'।

वाष्पयान
संज्ञा पुं० [सं०] भाप की शक्ति से चलनेवाला यान। रेलगाड़ी। उ०—रेडियो, तार औ 'फोन',—वाष्प, जल, वायुयान, मिट गया दिशावधि का जिनसे व्यवधान मान।—ग्राम्या, पृ० ८८।

वाष्पिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] हिंगुपत्री।

वाष्पी, वाष्पीका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वाष्पिका' [को०]।

वासंत (१)
संज्ञा पुं० [सं० वासन्त] १. ऊँट। २. कोकिल। ३. मलय वायु। ४. मूँग। ५. मैनफल। ६. लंपट या दुराचारी व्यक्ति (को०)। ७. जवान हाथी या कोई भी जवान पशु (को०)।

वसंत (२)
वि० १. बसंती। वसंत ऋतु का। वसंत संबंधी। २. युवा। जीवन के वसंत में वर्तमान। युवक। ३. कार्यतत्पर। काम में संलग्न [को०]।

वासंत (३)
संज्ञा पुं० [सं० वसन्त] दे० 'वसंत'। उ०—वासंत विना इन सकल बुधि सब्ब मनोरथ रह्यौ मन।—पृ० रा०, ५८।८१।

वासंतक
वि० [सं० वासन्तक] १. वसंत संबंधी। २. वसंत ऋतु में बोया हुआ।

वासंतिक (१)
संज्ञा पुं० [सं० वासन्तिक] १. भाँड़। विदूषक। २. नाचनेवाला। नर्तक। अभिनेता।

वासंतिक (२)
वि० वसंत संबंधी।

वासंतिकता
संज्ञा स्त्री० [सं० वासन्तिकता] वसंत संबंधी होने का भाव। आनंद। मौज।

वासंती
संज्ञा स्त्री० [सं० वासन्ती] १. माधवी लता। २. जूही। ३. एक पुष्प जो जूही की जाति का होता है। यह वसंत ऋतु में ही फूलता है और सुगंधित होता है। नेवारी। ४. गनियारी नामक फूल। ५. मदनोत्सव। ६. दुर्गा। ७. एक वृत्त का नाम जिसके प्रत्येक चरण में चौदह वर्ण (म, त, न, म, ग ग) होते हैं, जिनमें ६, ७, ८ और ९ वाँ वर्ण लधु और शेष गुरु होते हैं।

वासंदर पु
संज्ञा पुं० [सं० वैश्वानर, प्रा० वइसाणर, वइस्साणर, अप, वासंदर, बैसंदर] अग्नि। वैसंदर। उ०—का वासंदर सेवियइ, कइ तरुणी, कइ मंद।—ढोला०, दू० २९४।

वासः
संज्ञा पुं० [सं० वासस्] दे० 'वासस्'। यौ०—वासःकुटी = रावटी। खेमा। तंबू। २. वासःखंड = वस्त्र का टुकड़ा।

वास
संज्ञा पुं० [सं०] १. अवस्थान। रहना। निवास। उ०—गोदा- वरी तीर पर प्रभु ने दंडक वन में वास किया।—साकेत, पृ० ३७८। क्रि० प्र०—करना।—होना। यौ०—कारावास। तीर्थवास। कल्पवास। कैलाशवास। बैकुठवास। २. गृह। घर। मकान। ३. स्थान। स्थल। जगह। स्थिति (को०)। ४. वासक। अड़ूसा। ५. एक दिन की यात्रा (को०)। ६. वासना। भावना (को०)। ७. संकाश। औपम्य। साद्दश्य (को०)। ८. सुगंध। बू। यौ०—वासकर्णी। वासगृह = गृह का भीतरी हिस्सा। शयनकक्ष। वासताबूल = सुगधित पान। वासपर्यय। वासप्रासाद = महल। वासभ वन, वासमंदिर, वाससदन = निवासस्थान। घर। वास- यष्टि। वासयोग = सुगंधित चूर्ण। पाउडर। वाससज्जा = दे० 'वासकसज्जा'।

वासक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. अड़ूसा। २. गान का एक अंग। विशेष—शंकर के मत से मनोहर, कंदर्प, चारु और नंदन नामक इसके चार भेद हैं। कोई कोई विनोद, वरद, नंद और कुमुद को इसका भेद मानते हैं। ३. वासर। दिन। ४. शालक राग का एक भेद। ५. वस्त्र। ६. गध। सुगंधद्रव्य (को०)। ७. शयनागार शयनकक्ष (को०)।

वासक पु (२)
संज्ञा पुं० [सं० वासुकि] दे० 'वासुकि'। उ०—एक दंत पाताल चलावा। तहाँ जाय वासक को खावा।—कबीर सा० पृ० ८०२।

वासक (३)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वासका, वासिका] १. सुवासित करनेवाला। सुगंधित करनेवाला। २. बसानेवाला बसने के लिये प्रेरित करनेवाला [को०]।

वासकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वह कक्ष जहाँ सार्वजनिक प्रदर्शन, नृत्य, गीत, कुश्ती आदि किए जायँ। २. यज्ञशाला [को०]।

वासकसज्जा
संज्ञा स्ञी० [सं०] नायिका भेद के अनुसार वह नायिका जो नायक से मिलने की तैयारी किए हुए घर आदि सजाकर और आप भी सजकर बैठी हो।

वासकसज्जिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वासकसज्जा' [को०]।

वासका
संज्ञा स्त्री० [सं०] अड़ूसा।

वासकेट
संज्ञा पुं०, स्त्री० [अं० वेस्टकोट] एक प्रकार की छोटा बंडी या कमर तक की कुरती जिससे केवल पीठ,छाती और पेट ढकता है। विशेष—इसमें आस्तीन नहीं होती। आगे और पीछे के कपड़ों में भेद होता है। इसे कसने के लिये पीछे बकसुएदार दो बंद होते हैं। २. एक प्रकार की बडी जिस में अस्तान नहीं होती। यह एक ही कपड़े की बनती है। इसे जवाहर बंडी भी कहते हैं।

वासत
संज्ञा पुं० [सं०] गर्दभ। गदहा।

वासतेय
वि० [सं०] बस्ती के योग्य। रहने लायक।

वासतेयी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. रात। रात्रि। २. रहने की जगह। घर। निवास (को०)।

वासन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० वासित] १. सुगंधित करना। बासना। धूपन। २. वस्त्र। ३. वास। निवास। ४. ज्ञान। ५. बसना। निवास करना (को०)। ६. आच्छादन। गिलाफ। लिफाफा (को०)। ७. कोई पात्र, आधार, टोकरो, संदूक, बर्तन आदि (को०)। ८. योग की एक मुद्रा (को०)।

वासना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. प्रत्याशा। २. ज्ञान। ३. किसी पूर्व स्थिति के जमे प्रभाव से उत्पन्न मानसिक दशा। भावना। संस्कार। स्मृति हेतु। ४. न्याय के अनुसार देहात्म बुद्धिजन्य मिथ्या संस्कार। ५. इच्छा। कामना ६. दुर्गा। ७. अर्क का पत्नी। ७. सुगंधित करने या बासने की क्रिया (को०)। ८. प्रमाण। उपपात्त (गणित में)।

वासना (२)
क्रि० स० दे० 'बासना'।

वासना (३)
संज्ञा स्त्री० [सं० वास] सुगंध। खुशबू। उ०—बिन वासना को फूल कहो कौन काम को।—कबीर मं०, पृ० ३६३।

वासनात्मक
वि० [सं० वासना] वासनामय। वासनायुक्त। उ०— वासनात्मक अवस्था में इन दोनों के विषय सामान्य रहते है।—रस०, पृ० ७५।

वासनामय
संज्ञा पुं० [सं०] संस्कारजन्य। भावना से युक्त [को०]।

वासनीय
वि० [सं०] दुर्बोध। अत्यंत क्लिष्ट [को०]।

वासपर्यय
संज्ञा पुं० [सं०] स्थान बदलना। स्थानपरिवर्तन [को०]।

वासयष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] चिड़ियों के बैठने का अड्डा। छतरी [को०]।

वासर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दिन। दिवस। उ०—यह तारक जो खचे रचे, निशि में वासर बीज से बचे।—साकेत, पृ० ३२२। २.क्रम। बारी (को०)। ३. एक नाग का नाम (को०)। ४. वह घर जिसमें विवाह हो जाने पर स्त्री पुरुष पहली रात को सोते हैं।

वासर (२)
वि० प्रभात संबंधी। प्रातःकालीन (को०)।

वासरकन्यका
संज्ञा स्त्री० [सं०] रात्रि।

वासरकृत्
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।

वासरमणि
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य।

वासरसंग
संज्ञा पुं० [सं० वासरसङ्ग] प्रातःकाल।

वासराधीश
संज्ञा पुं० [सं०] दिन का स्वामी। सूर्य [को०]।

वासरेश
संज्ञा पुं० [सं०] सूर्य [को०]।

वासव (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। २. धनिष्ठा नक्षत्र। यौ०—वासवचाप = इंद्रधनुष। वासवज = इंद्र का पुत्र—१. अर्जुन। (२) बालि। (३) जयंत। वासवदत्ता = (१) सुबंधु का संस्कृत गद्य काव्य (२) वत्सराज उदयन की महिषी। वासवदिक्, वासवदिशा = पूर्वदिशा जिसका अधिपति इंद्र है।

वासव (२)
वि० १. वसु संबंधी। २. इंद्र संबंधी। इंद्र का [को०]।

वासवानुज
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपेंद्र। विष्णु। २. कृष्णचंद्र।

वासवार
संज्ञा पुं० [देशी०] घोड़ा। तुरंग।—देशी०, पृ० २९६।

वासवावरज
संज्ञा पुं० [सं०] विप्णु [को०]।

वासवावास
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश। गगन [को०]।

वासवाशा
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंद्र की दिशा। पूर्व दिशा।

वासवि
संज्ञा पुं० [सं०] इंद्र के पुत्र—१. अर्जुन। २. बालि। ३. जयंत।

वासवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] व्यास की माता सत्यवती। मत्स्यगंधा।

वासवेय
संज्ञा पुं० [सं०] वासवी के पुत्र, वेदव्यास।

वाससू
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्त्र। कपड़ा। २. आच्छादन। परदा (को०)। ३. प्रेत पट। वाच्छादन (को०)। ४. वाणपुंख। तीर के पिछले भाग मे लगाया जानेवाला पर (को०)। ५. रुई। कपास (को०)। जाल। सूत्रजाल (को०)।

वासा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. वासक। अड़ूसा। उ०—वासा यह तरु पै तुम्हैं वासा वासर येक।—दीन० ग्रं०, पृ० १०१। २. बासंती। माधवी लता।

वासा (२)
संज्ञा पुं० दे० 'बासा'।

वासात्य
वि० [सं०] उषःकालीन। उषाकाल का [को०]।

वासायनिक
वि० [सं०] दरवाजे दरवाजे घूमनेवाला [को०]।

वासि
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक प्रकार का कुठार। बसूला। २. निवास। वास करना। रहना (को०)।

वासिक
वि० [अ० वासिक़] मजबूत। दृढ़ [को०]।

वासिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'वासक' [को०]।

वासित (१)
वि० [सं०] १. सुगंधित किया हुआ। महकाया हुआ। २. वस्त्राच्छदित। कपड़े से ढका हुआ। ३. जो ताजा न हो। बासी। ४. ख्यात। प्रसिद्ध (को०)। ५. जो रोका गया हो। ठहराया हुआ (को०)। ६. बसाया हुआ। आबाद (को०)। ७. मसालेदार (को०)। ८. आर्द्र। तर। भिगोया हुआ (को०)।

वासित (२)
संज्ञा पुं० १. पक्षियों की चहचहाहट। कलरव। २. स्मृति- जन्य ज्ञान। वासना [को०]।

वासित (३)
वि० [अ०] मध्यवर्ती। बीच का [को०]।

वासिता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। २. हथिनी। ३. दे० 'वाशिता'। ४. चंद्रशेखर के मत से आर्याछंद का एक भेद, जिसमें ९ गुरु और २९ लघु वर्ण होते हैं।

वासिल
वि० [अ०] १. पहुँचाया हुआ। प्राप्त। २. मिलनेवाला। मुलाकात करनेवाला (को०)। ३. सटा हुआ संयुक्त (को०)। ४. मिला हुआ। जो वसूल हुआ हो। यौ०—वासिल बाकी = वसूल और बाकी कम। उ०—वासिल बाकी स्याहा मुजमिल सब अधरम की बाकी। चित्रगुप्त होते मुस्तौफी शरण गहौं मैं काकी।—सूर (शब्द०)।

वासिलात
संज्ञा पुं० [अ०] वह धन जो वसूल हुआ हो।—वसूल हुए धन का योग। विशेष—इसका प्रयोग बहुवचन में होता है।

वासिष्टवा
संज्ञा पुं० [सं०] १. रक्त। रुधिर। २. दे० 'वसिष्ठ'।

वासिष्ठ (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० वाशिष्ठी] वशिष्ठ संबंधी। २. वशिष्ठ द्वारा कृत।

वासिष्ठ (२)
संज्ञा पुं० वशिष्ठ ऋषि का पुत्र। २. दे० 'वासिष्ठ' [को०]।

वासिष्ठी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्तर दिशा। २. गोमती नदी [को०]।

वासी (१)
संज्ञा पुं० [सं० वासिन्] रहनेवाला। बसनेवाला। अधिवासी। जैसे, ग्रामवासी। नगरवासी।

वासी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] बसूला जिससे बढ़ई लकड़ी छीलते हैं। तक्षणी।

वासुंधरेय
संज्ञा पुं० [सं० वासुन्धरेय] एक नरक का नाम [को०]।

वासुंधरेयो
संज्ञा स्त्री० [सं० वासुन्धरेयी] वसुंधरा की पुत्री। भूमिजा। भूमिगत। सीता [को०]।

वासु
संज्ञा पुं० [सं०] १. विष्णु। २. परमात्मा। ३. आत्मा (को०)। ४. पुनर्वसु नक्षत्र।

वासुक पु
संज्ञा पुं० [सं० वासुकि] दे० 'वासुकि'। उ०—दंड भरै सेवा करै, वासुक इंद्र कुबेर। मनु गंध्रव किन्नर सबै, जच्छ रहें होई चेर।—माधवानल०, पृ० १८६।

वासुकि
संज्ञा पुं० [सं०] आठ नागों में से दूसरा नागराज। यौ०—वासुकिसुता = वासुकि की पुत्री। सुलोचना।

वासुकी
संज्ञा पुं० [सं० वासुक] दे० 'वासुकि'।

वासुकेय
संज्ञा पुं० [सं०] वासुकि [को०]। यौं०—वासुकेयस्वसा = मनसा देवी।

वासुदेव
संज्ञा पुं० [सं०] १. वसुदेव के पुत्र, श्री कृष्णचंद्र। २. मुनि- श्रेष्ट कपिल का एक नाम (को०)। ३. घोड़ा। अश्व (को०)। ४. जैनों का एक वर्ग (को०)। ५. हरिवंश के अनुसार पुंड्र देश के राजा का नाम (को०)। ६. पीपल का पेड़। अश्वत्य। (बोलचाल)।

वासुदेवक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वासुदेव। २. श्रीकृष्ण का उपासक। ३. वह जिसमे वासुदेव नाम कलंकित हो (को०)।

वासुदेवप्रियंकरी
संज्ञा स्त्री० [सं० वासुदेवप्रियङ्करी] शतावरी। वासुदेवी (को०)।

वासुदेवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] शतावरी [को०]।

वासुभद्र
संज्ञा पुं० [सं०] वासुदेव। श्रीकृष्णचंद्र।

वासुमंद
संज्ञा पुं० [सं वासुमन्द] एक साम का नाम।

वासुरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. स्त्री। २. हथिनी। ३. रात्री। रात। ४. भूमि। जमीन।

वासू
संज्ञा स्त्री० [सं०] नाटकों की परिभषा में स्त्रियों के लिये संबोधन का शब्द।

वासूला पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'वसूला'। उ०—ऊछले खले तज तुरंग एक। वासूले पूँलाँसूँ विसेख।—रा० रू०, पृ० २४९।

वासोख्त
संज्ञा पुं० [अ० वासोख्त] उर्दू कविता का एक प्रकार, जो मुसद्दस के ढंग का होता है और जिसमें प्रेमिका के व्यवाहार से रुष्ट होकर प्रेम छोड़ने और प्रेमिका के त्याग का उल्लेख होता है [को०]।

वासोख्वा
वि० [अ० वासोख्तह्] १. जला हुआ। २. रुष्ट [को०]।

वासोद
वि० [सं०] जो वस्त्र देता हो। वस्त्रदाता [को०]।

वासोभृत्
वि० [सं०] जो वस्त्र पहने हुए हो। जिसने वस्त्र पहना हो [को०]।

वासौकस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. निवासगृह। २. तबू। खेमा।

वास्कट
संज्ञा स्त्री० [अ० वेस्टकोट] फतुही।

वास्त
संज्ञा पुं० [सं०] बकरा।

वास्तव (१)
वि० [सं०] प्रकृत। यथार्थ। सत्य। यौ०—वास्तव में = सचमुच। सत्यतः। असल में। दरअसल। वाकई।

वास्तव (२)
संज्ञा पुं० परमार्थभूत। असल तत्व।

वास्तविक (१)
वि० [सं०] १. परमार्थ। सत्य। प्राकृत। २. यथार्थ। ठीक।

वास्तविक (२)
संज्ञा पुं० १. मालाकार। माली। २. यथ थवादी [को०]।

वास्तवोषा
संज्ञा स्त्री० [सं०] निशा। रात [को०]।

वास्तव्य (१)
वि० [सं०] १. रहने योग्य। बसने योग्य। २. बसनेवाला। अधिवासी। ३. अनुपयोगी होने से त्यक्त वा छोडा़ हुआ (को०)। ४. आबाद। जो वसा हुआ हो (को०)।

वास्तव्य (२)
संज्ञा पुं० बस्ती। आबादी।

वास्ता
संज्ञा पुं० [अ०] १. संबंध। लगाव। मुहा०—वास्ता पड़ना = व्यवहार का अवसर आना। काम पड़ना। जैसे—तुमको उससे वास्ता नहीं पड़ा है; नहीं तो जानते। वास्ता पैदा करना = ढब लगाना। संबंध जोड़ना। वास्ता रखना = लगाव रखना। संबंध रखना। २. मित्रता। ३. स्त्री और पुरुष का अनुचित संबंध। ४. वह जो मध्यस्थ हो (को०)।

वास्तिक
संज्ञा पुं० [सं०] बकरों का समूह [को०]।

वास्तु
संज्ञा पुं० [सं०] १. शुभ निवासयोग्य स्थान। वह स्थान जिसपर घर उठाया जाय। डीह। विशेष—घर बनाने के पहले वास्तु या डीह के शुभाशुभ का विचार किया जाता है। बृहत्संहिता में वास्तुगृह के उत्तम, मघ्यम, आदि क्रम से पाँच भेद कहे गए हैं। २. घर। गृह। मकान। ३. इमारत। ४. कक्ष। कमरा (को०)। ५. दे० 'वास्तूक'—१, २। ६. आठ वस्सुओं में से एक का नाम (को०)। ७. एक प्रकार का अन्न (को०)।

वास्तुक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बथुआ नाम का साग। २. पुनर्नवा। गदहपूरना। यौ०—वारतुकर्म = गृहनिर्माण। वास्तुकाल = भवन बनाने का उपयुक्त एवं शुभ समय। वास्तुकालिंग। वास्तुकीर्ण = एक प्रकार का पट मंडप। वास्तुज = घरेलू। गृह सबंधी। वास्तुज्ञान = दे० 'वास्तुकला'। वास्तुदेव, वास्तुदेवता = गृहदेवता। वास्तुनर = आदर्श भवन। वास्तुपि। वास्तुपति। व स्तुपुरुष। वास्तुपूजा। वास्तुयाग।

वास्तुकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक शाक। चिल्ली शाक [को०]।

वास्तुकला
संज्ञा स्त्री० [सं०] वस्तु या भवननिर्माण की कला। उ०— उसमें न तो मूर्तिकला और न वास्तुकला के उत्कृष्ट उदाहरणों के सौंदर्य की प्रशंसा करने का क्षमता थी।—पा० सा० सि०, पृ० १२१।

वास्तुकालिंग
संज्ञा पुं० [सं० वास्तुकालिङ्ग] तरबूज। कलींदा।

वास्तुप, वास्तुपति
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तु का अधिष्ठाता देवता। उस स्थान का देवता जिसमें घर बना हो। वास्तुपुरुष।

वास्तुपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वास्तुपति'।

वास्तुपूजा
संज्ञा स्त्री० [सं०] वास्तु पुरुष की पूजा जो नवीन घर में गृहप्रवेश के आरंभ में की जाती है।

वास्तुबंधन
संज्ञा पुं० [सं० वास्तुबन्धन] गृहनिर्माण [को०]।

वास्तुयाग
संज्ञा पुं० [सं०] वह योग जो नवीन गृह में प्रवेश करने के समय किया जाता है।

वास्तुविद्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह विद्या जिससे वास्तु या इमारत के संबंध की सारी बातों का परिज्ञान होता है। भवननिर्माण की कला।

वास्तुविधान
संज्ञा पुं० [सं०] गृहनिर्माण [को०]।

वास्तुशांति
संज्ञा स्त्री० [सं० वास्तुशान्ति] वे शांति आदि कर्म जा नवीन गृह में प्रवेश करते समय किए जाते हैं। पर्या०—वास्तुशमन। वास्तुप्रशमन। वास्तुयाग। व स्तूपशम। वास्तूपशमन, आदि।

वास्तुशाक
संज्ञा पुं० [सं०] बथुआ [को०]।

वास्तुशास्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] वास्तुविषयक शास्त्र। दे० 'वास्तुविद्या'।

वास्तूक
संज्ञा पुं० [सं०] एक शाक। बथुआ।

वास्ते
अव्य० [अ०] १. लिये। निमित्त। जैसे,—तुम्हारे वास्ते आम लाय हूँ। २. हेतु। सबब। जैसे—तुम किस वास्ते वहाँ जाते हो ?

वास्तेय
वि० [सं०] १. वस्ति सबंधी। कुक्षि वा उदर संबधी। २. वस्त, वस्तु और वास्तु संबंधी। बसाने लायक। आबाद करने लायक [को०]।

वास्तोष्पति
संज्ञा पुं० [सं०] १. इंद्र। सुरपति। २. देवता मात्र। ३. वास्तुपति।

वास्त्र (१)
संज्ञा पुं० [सं०] रथ जिसपर परदा वा ओहार पड़ा हो। वस्त्र। से ढका रथ [को०]।

वास्त्र (२)
वि० १. वस्त्रनिर्मित। २. वस्त्र से आच्छादित या ढँका हुआ [को०]।

वास्थ
वि० [सं०] जल में रहनेवाला। जलस्थ।

वास्प
संज्ञा पुं० [सं०] १. गरमी। ऊष्मा। २. लोहा। ३. भाप। वाष्प।

वास्पेय
संज्ञा पुं० [सं०] नागकेसर।

वास्य (१)
संज्ञा पुं० [सं०] कुठार। कुल्हाड़ा [को०]।

वास्य (२)
वि० १. ढँकने या आच्छादन करने लायक। २. आबाद करने या बसाने योग्य [को०]।

वास्र
संज्ञा पुं० [सं०] दिवस। दिन [को०]।

वास्त्रा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सवत्सा गौ। गाय। २. माता [को०]।

वाह (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाहन। सवारी। २. लादकर या खींचकर ले चलनेवाला। ३. घोड़ा। ४. बैल। ५. भैंसा। ६. वायु। ७. बाहु। भुजा (को०)। ८. ढोना। ले जाना। वहन करना (को०)। ९. अर्जन। प्रापण (को०)। १०. प्रवाह। धारा। बहाव (को०)। ११. प्राचीन काल का एक तौल या मान जो चार गोणी का होता था।

वाह (२)
वि० १. लादकर या खींचकर ले जानेवाला। जैसे, अंबुवाह ! २. प्रवहमान। बहनेवाला [को०]।

वाह (३)
अव्य० [फ़ा०] १. प्रशंसासूचक शब्द। धन्य। जैसे,—वाह ! यह तुम्हारा ही काम था। विशेष—कभी कभी अत्यंत हर्ष प्रकट करने के लिये यह शब्द दो बार भी आता है। जैसे, वाह वाह, आ गए। २. आश्चर्यसूचक शब्द। जैसे,—वाह ! मियाँ काले, क्या खूब रंग निकाले। ३. घृणाद्योतक शब्द। जैसे,—वाह, तुम्हारा यह मुँह। ४. आनंदसूचक शब्द।

वाहक
संज्ञा पुं० [सं०] १. लादकर या खींचकर वस्तुओं को ले चलनेवाला। बोझ ढोने या खींचनेवाला। जैसे, भारवाहक। २. सारथी। ३. अश्वारोही। घुड़सवार (को०)। ४. जल- प्रणाली। नहर (को०)।

वाहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सवारी। २. धारण करना या ले जाना (को०)। ३. हाँकना। गति में प्रवृत्त करना। जैसे, घोड़े आदि को (को०)। ४. गज। हाथी (को०)। ५. नौका का दंड। डाँड़ा। पतवार (को०)।

वाहनप
संज्ञा पुं० [सं०] अश्व आदि का परिचारक। साईस [को०]।

वाहनश्रेष्ठ
संज्ञा पुं० [सं०] अश्व। घोड़ा [को०]।

वाहना (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] सेना [को०]।

वाहना (२)
क्रि० स० [सं० वहन] दे० 'बाहना'।

वाहरिपु
संज्ञा पुं० [सं०] महिष। भैंसा।

वाहल
संज्ञा पुं० [सं०] १. जलप्रणाली। प्रवाह। स्त्रोत। जल की धारा। २. यान। वाह। प्रवहण [को०]।

वाहला † (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० वाहल] धारा। प्रवाह। जल का प्रवाह या पूर। उ० —जउ साहिब तू नावियउ, मेहाँ पहलइ पूर। विचइ वहेसी वाहला, दूर स दूरे दूर।—ढोला०, दू० १४७।

वाहला † (२)
संज्ञा पुं० [सं० वल्लभ, प्रा० वल्लह] प्रिय। स्वामी। उ०— मारा वाहला जी, विषया थी वारे।—दादू०, पृ० ५१९।

वाहवाह
अव्य० [फ़ा० वाह] बहुत अच्छा। साधुवाद। प्रशंसासूचक शब्द। उ०—जब अपने प्रान पिंड की जानी। तब प्रगटी वाह- वाह की बानी।—प्राण०, पृ० १६१। मुहा०—वाह वाह होना=खूब प्रसन्न होना। उ०—जबाने खल्क भी 'हातिम' अजब तमाशा है। जिधर वह निकले उधर वाह वाह निकले है।—कविता कौ०, भा० ४, पृ० ४५।

वाहवाही
संज्ञा स्त्री० [फ़ा०] लोगों के प्रशंसा। स्तुति। साधुवाद। मुहा०—वाहवाही लेना या लूटना=लोगों की प्रशंसा का पात्र बनना। जैसे,—दूसरे को माल बाँटकर उसने खूब वाहवाही लूटी।

वाहस्
संज्ञा पुं० [सं०] १. अग्नि। २. ऋचा। सूक्त [को०]।

वाहस
संज्ञा पुं० [सं०] १. अजगर। २. अग्नि। पावक। ३. एक साग। ४. झरना [को०]।

वाहा
संज्ञा स्त्री० [सं०] बाहु। भुजा [को०]।

वाहावाहवि
अव्य० [सं०] १. हाथोहाथ। २. आमने सामने [को०]।

वाहावाहवी
संज्ञा स्त्री० [सं०] हाथ से होनेवाला युद्ध [को०]।

वाहिक
संज्ञा पुं० [सं०] १. गाड़ी। छकड़ा। २. ढक्का। २. बोझ ढौंने की गाड़ी (को०)।

वाहित (१)
वि० [सं०] १. प्रवाहित। २. चलाया हुआ। चालित। ३. वंचित। ४. चो वहन किया गया हो। ढोया हुआ। ५. बिताया हुआ। व्यतीत किया हुआ (को०)। ६. नष्ट। विध्वस्त (को०)। ७. जिसके निमित्त चेष्टा की गई हो (को०)।

वाहित (२)
संज्ञा पुं० बड़ा भार। भारी बीझ [को०]।

वाहित्थ
संज्ञा पुं० [सं०] हाथी के मस्तक के बीच का भाग [को०]।

वाहिद (१)
संज्ञा पुं० [अ०] १. एक की संख्या। २. ईश्वर। खुदा। उ०—है वाहिद और युकजा वही। गुन ज्ञान की टकसार है।—कबीर मं०, पृ० ३९१।

वाहिद (२)
वि० यकला। अद्वय। एक। इकला [को०]।

वाहिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. सेना। २. सेना का एक भेद, जिसमें ८१ हाथी, ८१ रथ, २४३ घोड़े और ४०५ पैदल होते थे। एक वाहिनी में तीन गण होते थे। ३. नदी (को०)। यौ०—वाहिनीनिवेश=सेना की छावनी। सैन्यशिविर। वाहिनी- पति।

वाहिनीक
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वाहिनी' [को०]।

वाहिनीपति
संज्ञा पुं० [सं०] १. वाहिनी नामक सेना विभाग का अधिपति या प्रधान। २. सेनापति। ३. नदियों का अधिपति। समुद्र (को०)।

वाहिनीश
संज्ञा पुं० [सं०]दे० 'वाहिनीपति'।

वाहिम
वि० [अ०] १. शक्की। वहमी। २. कल्पना करनेवाला [को०]।

वाहिमा
संज्ञा पुं० [अ० वाहिमहू] १. भ्रम। भ्रांति। वहम। २. कल्पना शक्ति [को०]।

वाहियात (१)
वि० [अ० वाही+फ़ा० यात] १. व्यर्थ। फजूल। जैसे,—तुम तो यों ही वाहियात वका करते हो २. बुरा। खराब। जैसे,—वाहिवात आदमियों का साथ मत किया करो।

वाहियात (२)
संज्ञा स्त्री० निरर्थक और व्यर्थ की बात।

वाही (१)
वि० [अ०] १. सुस्त। ढीला। २. निकम्मा। ३. बुद्धिहीन। मूर्ख। उ०—पीठि परो ईठि सो बसीठि बिनु ढीठ मन नीठ न सँभारै वाही मोहि मढ़ि रहो है।—देव (शब्द०)। ४. आवारा। ५. बेठिकाने का। ६. वेहूदा। उ०—वाही ही खासे।—सैर०, पृ० ४।

वाही पु (२)
सर्व० [हि०]दे० 'वही'। उ०—(क) वाही थी गुण वेलड़ी, वाही थी रस बेलि। पीणई पीवी मारवी, चाल्या सूती मेलि।—ढोला०, दू० ६१०। (ख) उपरना वाही कैं जु रह्यो। जाही के उर बसे स्यामघन, निसि कों जहँ सुख गह्मो।—नंद० ग्रं०, पृ० ३५५।

वाही (३)
वि० [सं० वाहिन्] १. वहन करने या ढोनेवाला। २. रथ आदि खींचनेवाला। ३. उत्पन्न करनेवाला। पैदा करने या लानेवाला। ४. बहनेवाला। ५. गिराने या प्रवाहिन करने वाला [को०]।

वाही (४)
संज्ञा पुं० रथ। गाड़ी [को०]।

वाहीतवाही (१)
वि० [अ० वाही+तबाही] १. बेहूदा। आवारा। क्रि० प्र०—फिरना। २. अंडबंड। बेसिर पैर का। क्रि० प्र०—वकना।

वाहीतवाही (२)
संज्ञा स्त्री० अंडबंड बातें। गाली गलौज। उ०—बेगम साहब के सामने लगीं बाहीतवाही बकने, बड़ी एक हो।—सैर०, पृ० २७।

वाहु
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. हाथ के ऊपर का भाग जो कुहनी और कंधे के बीच में होता है। भुजदंड। दे० 'बाहु'। २. गणित शास्त्र में त्रिकोणादि क्षेत्रों के किनारे की (पार्श्व) रेखा। भुजा।

वाहुक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वाहुक' [को०]।

वाहुमूल
संज्ञा पुं० [सं०] कंधें और बाँह का जोड़। काँख।

वाहुल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कार्तिक का महीना। २. शाक्य मुनि के पुत्र का नाम।दे०'बाहुल' [को०]।

वाहुल्य
संज्ञा पुं० [सं०] आधिक्य। अधिकता। बाहुल्य।

वाहुवार
संज्ञा पुं० [सं०] बहेड़े का वृक्ष।

वाह्म (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. यान। रथ। सवारी। २. भारवाही पशु। दे० 'बाह्य'।

वाह्य (२)
क्रि० वि० १. बाहर। २. अलग। जैसे,—लोकवाह्य।

वाह्य आतिथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] बाहर से आया हुआ विदेशी माल।

वाह्यक
संज्ञा पुं० [सं०] रथ [को०]।

वाह्यकी
संज्ञा स्त्री० [सं०] सुश्रुत के अनुसार एक विवैला कीट [को०]।

वाह्यान्तर (१)
वि० [सं० वाह्यान्तर] भीतर और बाहर का। जैसे,— वाह्यातर शुद्धि।

वाह्यान्तर (२)
क्रि० वि० भीतर और बाहर।

वाह्याभरण
संज्ञा पुं० [सं०] बाहरी भूषण। बाहर की भूषा, या सजावट, अलैकार आदि। उ०—अलंकार सिद्धांत काब्य के केवल वाह्याभरण पर जोर देते हैं।—अरस्तू०, पृ० १५९।

वाह्यायाम
संज्ञा, पुं० [सं०] एक प्रकार का वात रोग।—माधव०, पृ० १३९।

वाह्याली
संज्ञा स्त्री० [सं०] घोड़े के चलने योग्य सड़क [को०]। यौ०—वाह्यालीभू=वाह्याली।

वाह्येंद्रिय
संज्ञा स्त्री० [सं० वाह्येंन्द्रिय] पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ जिनका काम वाह्य विषयों का ग्रहण करना है। आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा।

वाह्लि
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'वाह्लीक'। यौ०—वाह्लिज=बलख या वाह्वीक का अश्व।

वाह्लीक
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक जनपद जो भारत की उत्तरपश्चिम सीमा पर था। गांधार के पास का एक प्रदेश। विशेष—साधारणतः आजकल के 'बलख', जो अफगानिस्तान के उत्तरी भाग में है, के आसपास का प्रदेश ही, जिसे प्राचीन पारसी 'बकतर' और युनानी 'बैक्ट्रिया' कहते थे, वाह्लीक माना जाता है; पर पाश्चात्य पुरातत्वविद् इसे आजकल के हिंदुस्तान के बाहर नहीं मानना चाहते। २. वाह्लीक देश का घोड़ा। ३. कुंकुम। केसर। ४. हींग। ५. एक प्रमुख गंधर्व का नाम।