१. हिंदी वर्णामाला का पाँचवाँ अक्षर । इसका उच्चारणस्थान ओष्ठ है । यह तीव मुख्य स्वरीं में है । हसके ह्नस्व, दीर्घ, प्लुत तथा सानुनासिक और निरनुनासिक भेद से १८ भेद होने हैं । 'उ' को गुणा करने से 'ओ' और वूद्धि करने से 'औ' होता है ।

उंकुणा
संज्ञा पुं० [सं० उङ्कुण] खटमल [को०] ।

उंगल
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलि़] दे० 'अंगुल' ।

उंगलि
संज्ञा पुं० [सं० अङ्गुलि] दे० 'अंगुल' । उठ—भैसत उंगलि वाई खेलु । मनि सचु अहार करि (तासों) मेलु ।—प्राणा०, १ ।९९ ।

उंच पु
वि० [हिं० ऊँचा] १. ऊँची । अधिक । २. उपयुक्त । ३. योग्य । उ०—यों वरष्ष दुअ वित्ति गय । भइअ वैस बर उंच ।—पृ० रा०, २५ । १७९ ।

उंचन
संज्ञा स्त्री० [सं० उदञ्चन = ऊपरखींचना या उठाना] अदवायन । अदवान । वह रस्सी जो खाट के पायताने की तरफ बुनावट से छूटे हुए स्थान को भरती है और जिसको खोंचकर कसने से बुनावट तनकर कड़ी हो जाती है ।

उंचना
क्रि० स० [सं० उदञ्चन] अदवान तानना । उंचन कसना । अदवान खींचना ।

उंचसा
वि० [हिं० उनचास] दे० 'उनचास' ।

उंच्छाहे पु
वि० [सं० उत्साह] उत्साहपूर्वक । उत्साह से । उ०— वीर पुरुष कइ जंमअइ नाह न जंपइ नाम । जइ उंच्छाहे फुर कहसि हञो आकण्डन काम । ।—कीर्ति०, पृ० ६ ।

उंछ
संज्ञा स्त्री० [सं० उञ्छ] मालिक के ले जाने के पीछे खेत में पड़े हुए अन्न के एक एक दाने को जीविका के लेये चुनने का काम । सीला बीनना । यौ०—उंछवर्ती । उंछवृत्ति । उंछशील ।

उंछन
संज्ञा पुं० [सं० उञ्छन] गल्ले की मंडी में भूमि पर गिरे हुए दानों को बीनने का कार्य [को०] ।

उंछवृत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० उञ्छवृत्ति] खेत में गिरे हुए ढानों को चुनकर जीवननिर्वाह करने का कर्म ।

उंछशिल
संज्ञा पुं० [सं० उञ्छशिल] उंछवृत्ति ।

उंछशील
वि० [सं० उञ्छशोल] उंछवृत्ति पर निर्वाह करनेवाला ।

उंझट
संज्ञा पुं० [देशी०] दे० 'झंझट' । उ०—सौ उंझट में उलझों को कैसे कै सुलझाउँ ।—प्रेंमघन०, १ ।१९१ ।

उंट पु
संज्ञा पुं० [हिं० ऊँट] दे० 'ऊँट' । उ०—सै पंचदिन्न अति उंट अच्छ । कत्तार भार फक्कार कच्छ । । दोइ सै दिन्न दासो सुचंग । झलकंत । तास द्रप्पन सुअंग । ।— पृ० रा०, ४ ।११ ।

उंड पु
[सं० उण्डुक] शरीर का अंग—पेट । उ०—पंड हथ्थ नर उंड । अष्ट अंगुल अर्ध वपृ ।—पृ रा०, १ ।२४४ ।

उंडले पु
संज्ञा पुं० [सं० उण्डुक] १. शरीर का एक भाग—पेट । उ०—उचाय धाय उंडले । हिरन्नकस्य खंडले । । छुटंत कट्टि ठुम्मरं । अठंत मुछ्छ धुम्मरं । ।—पृ० रा०, २ ।१७ ।२. मंच । मचान । उच्चासन । ३. आँत का आवरण ।

उंडुक
संज्ञा पुं० [सं० उण्डुक] १. कुष्ठ रोम का एक भेद । २. जाल । ३. शरीर का हिस्सा—पेट [को०] ।

उंदन
संज्ञा पुं० [सं० उन्दन] गीला करना । भिगोना [को०] ।

उंदर
संज्ञा पुं० [सं० उन्दुर] दे० 'उंदुर' । उ०—ज्यों उरगह मुष उंदर परै । यों सुदेह नाहर कहै । । भवतव्य बात मिट्टै नहीं । नाम एक जुगजुग रहै । ।—पृ० रा०, ७ ।१५० ।

उंदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० उन्दुऱ] चुहिया । उ०—स्यंघ बैठा पान कतरै, घूँस गिलौरा लावे । उंदरी बपुरी मंगल गावै कछू एक आनंद सुलावै । ।—कबीर ग्रं०, पृ० ९२ ।

उंदुर
संज्ञा पुं० [सं० उन्दुर] चूहा । मूसा । उ०— (का) उंदुर राजा टीका बैठे बिषहर करै खवासी । श्वान बापुरो धरनि ठाकुरो बिल्ली धर में दासी । ।—कबीर (शाब्द०) । (ख) कीन्हेसि लोवा उँदुर चाँटी । कीन्हेसि बहुत रहहिं खनि माटी । ।— जायसी (शब्द०) ।

उंदुरकर्णिका
संज्ञा स्त्री० [सं० उन्दुरकर्णिका] दे० 'उंदुरकर्णी' ।

उंदुरकर्णी
संज्ञा स्त्री० [सं० उन्दुरकर्णी] एक प्रकार की लता (को०) ।

उंनंगनो पु
क्रि० अ० [सं० उल्लंघन] दे० 'उलंघना' । उ०— उँनंगे सुरतान दल । सारुंडै चतुरंग । ।—पृठ रा०, १३ ।६२ ।

उंपत पु
क्रि० अ० दे० 'ओपना' । उ०—चालुक चातुर बिर बर । जिन उंपत मुदव मुदव पानि । ।—पृ० रा०, ५ ।३० ।

उंबर उंबुर
संज्ञा पुं० [सं० उम्बर, उम्बुर] चौखट की ऊपरी लकड़ी जिसे भरेठा भी कहने हैं [को०] ।

उंबी
संज्ञा स्त्री० [सं० उम्बी] गीली घास की आग पर पकाई हुई जौ गेहूँ की बाल । चिकित्सा में इसका प्रयोग किया जाता है [को०] ।

उंमरा
संज्ञा पुं० [अ० उमरा] दे० 'उमराव' । उ०—बोलि उंमरा मीर सब । यौं जंप्यौ सुरतांन । अब कै पग गढ्ढे गहौ । भंजो षेत परांन । ।—पृ० रा०, १३ ।३८ ।

उँ
अव्य०— एक प्राय? अव्यक्त शाब्द जो प्रशन, अवज्ञा कोध तथा स्वीकृति सूचित करने के लिये व्यवहृत होता है । इसका प्रयोग उस अवसर पर होता है जब बोलनेवाला आलस्य से, अथवा मुँह फँसे रहने या और किसी कारण से नहीं खोल पाता ।

उँखारी
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊख] दे० 'उखारी' ।

उँगनी
संज्ञा स्त्री० [दे० ओंगना] बैलगाड़ी के पहिए में तेल देने की क्रिया ।

उँगलाना पु
क्रि० स० [हिं० उँगली से नाम०] हैरान करना । सताना ।

उँगली
संज्ञा स्त्री० [सं० अङ्गुलि] हथेली के छोरों से निकले हुए फलियों के आकार के पाँच अवयव जो वस्तुओं को ग्रहण करते हैं और जिनके छोरों पर स्पर्शज्ञान की शक्ति अधिक होती है । उँगालियों की गणना अंगुष्ठ से आरंभ करते हैं । अंगुष्ठ के उपरांत तर्जनी, फिर मध्यमा, फिर अनामिका और अंत में कनिष्टिका है । अनामिका इन पाँचों उँगलियों में निर्बल होती है । मुहा०—(पाँचों) उँगलियाँ घी में होना = सब प्रकार से लाभ ही लाभ होना । जैसे—तुम्हारा क्या, तुम्हारी तो पाँचों उँगलियाँ घी में हैं । उंगलियाँ चमकाना = बातचीत या लड़ाई करते समय हाथ और उँगलियों को हिलाना या मटकाना । विशेष—यह विशेषकर स्त्रियों और जनखों की मुद्रा है ।

उँगलियाँ नचाना
दे० 'उँगलियाँ चमकाना' । उँगलियाँ फोड़ना = दे० 'उँगलियाँ चटकाना' । (पाँचों) उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं = एक जाति की सब वस्तुएँ समान मुणवाली नहीं होतीं । (सीधी) उँगलियाँ घी न निकलना = सिधाई के साथ काम न निकलना । भलमंसाहत से कार्य सिद्ध न होना । उँगलियों पर दिन गिनना = उत्सुकता से किसी (दिन) की प्रतीक्षा करना । उ०—दिन फिरेंगे या फिरेंगे ही नहीं । ऊब दिन हैं उँगलियों पर गिन रहे । ।—चुभते०, पृ० ३ । उँगलियों पर नचाना = जिस दशा में चाहे, उस दशा में करना, अपनी इच्छा के अनुसार ले चलना । अपने वश में रखना । तंग करना । जैसे—अजी तुम्हारे ऐसों को तो मैं उँगलियों पर नचाता हूँ । (किसी पर या किसी की ओर) उँगली उठाना = (किसी का) लोगों की निदा का लक्ष्य होना । निंदा होना । बदनामी होना । (किसी पर या किसी की ओर) उँगली उठाना = (१) निंदा का लक्ष्य बनाना । लांछित करना । दोषी बताना । उ०— चाहे काम किसी का हो पर लोग उँगली तुम्हारी ही ओर उठाते हैं । (२) तनिक भी हानि पहुँचाना । टेढ़ी नजर से देखना । उ०—मजाल है कि हमारे रहते तुम्हारी ओर कोई उँगली उठा सके । उँगली करना=हैरान करना । सताना । दम न लेने देना । आराम न करने देना । उ०—जितना काम करो उतना ही वे और उँगली किए जाते हैं । उँगलीचटकाना =(१) उँगलियों को इस प्रकार खींचना । या दबाना कि उनसे चट चट शब्द निकले । (२) शाप देना । (स्त्री०) । विशेष—जब स्त्रियाँ किसी पर बहुत कुपित होती हैं तब उलटे पंजों को मिलाकर उंगलियाँ चटकाती हैं और इस प्रकार के शाप देती हैं—'तेरे बेटे मरें, भाई मरें' इत्यादि ।

उँगली दिखाना
धमकाना । डराना । उ०—जो तुम्हें उँगली दिखाए मैं उसकी आँखे निकलवा लूँ । (हलक में) उँगली देकर (माल) निकालना = बड़ी छानबीन और कड़ाई के साथ किसी हजम की हुई वस्तु को प्राप्त करना । जैसे—वे रुपए मिलनेवाले नहीं थे; मैंने हलक में उँगली देकर उन्हें निकाला । (कानों में, उँगली देना—किसी बात से विरक्त या उदासीन होकर उसकी चर्चा बचाना । किसी विषय को न सुनने का प्रयत्न करना । अनसुनी करना । जैसे—हमने तो अब कानों में उँगली दे ली है, जो चाहे सो हो । (दाँतो में) उँगली देना या दबाना, दाँत तले उँगली दबाना = चकित होना । अचंभे में आना । जैसे—उस लड़के का साहस देख लोग दाँतों में उँगली दबाकर रह गए । उँगली पकड़ते पहुँचा पकड़ना = किसी व्याक्ति से किसी वस्तु का थोड़ा सा भाग पाकर साहस- पूर्वक उसकी सारी वस्तु पर अधिकार जमाना । थोड़ा सा सहारा पाकर विशेष की प्राप्ति के लेये उत्साहित होना । जैसे—मैंने तुम्हें बरामदे में जगह दी अब तुम कोठरी में भी अपना असबाब फैला रहे हो । भाई, उँगली पकड़ते पहुँचा पकड़ना ठीक नहीं । उंगली पर पहाड़ उठाना = असंभव कार्य कर दिखाना । उ०—सिर उठाना उन्हें पहाड़ हुआ । जो उठाते पहाड़ उँगली पर । ।—चुभते०, पृ० २५ । (किसी कूति पर) उँगली रखना = दोष दिखलाना । ऐब निकालना । जैसे—भला आपकी कविता पर कोई उँगली रख सकता है । उँगली लगाना = (१) छूना । जैसे—खबरदार, इस तसवीर पर उँगली मत लगाना । (२) किसी कार्य में हाथ लगाना । किसी कार्य में थोड़ा भी परिश्रम करना । जैसे—उन्होंने इस काम में उंगली भी न लगाई पर नाम उन्हीं का हुआ ।

उँगलीमिलाव
संज्ञा पुं० [हिं० उँगली + मिलाव] नाच की एक गत । इसमें दोनों हाथ सिर के ऊपर उठाकर उनकी उँगलियाँ मिला दी जाती हैं ।

उँघाई †
संज्ञा पुं० [हिं० ऊँघना] १. ऊँघने की क्रिया या भाव । २. निद्रागम । झपकी । क्रि० प्र०—आना ।—लगना ।

उँच †
वि० [हिं० ऊँच] दे० 'ऊँच' । उ०—'तुका' 'सूदा' बहुत कहावे लड़त बिरला कोय । एक पावे ऊँच पदवी एक खौंसों जोय । दक्खिनी०, पृ० १०८ ।

उँचनाव
संज्ञा पुं० [देश०] एक किस्म का चारखाने का कपड़ा ।

उँचाई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उच्च, हिं० ऊँच + आई (प्रत्य)०] १. बलंदी । ऊँचापन । उ०—हिय न समाई दीठि नहिं आनहुँ ठाढ़ सुमेर । कहँ लगि कहौं उँचाई कहँ लगि बरनौं फेर । ।—जायसी ग्रं०,पृ० १५ । २ बड़प्पन । महत्व ।

उँचान पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उँचा + आन (प्रत्य०)] उँचाई । बलंदी ।

उँचाना
क्रि० सं० [हिं० ऊँचा से नामिक धातु] ऊँचा करना । उठाना । उ०—(क) सुनौ किन कनकपुरी के राइ । हौं बुधि-बल- छल करि पचि हारी, लख्यौ न सीस उँचाई ।—सूर०, ९ ।७८ । (ख) बलि कहयौ बिलंब अब नैंकु नहिं कीजिए मंदराचल अचल चले धाई । दोऊ इक मंत्र है जाइ पहुँचे तहाँ, कहयौ, अब लीजियै इहिं उँचाई ।—सूर०, ८ । ८ ।

उँचाव पु †
संज्ञा पुं० [हिं० उँचा + आव (प्रत्य०] ऊँचापन । उँचाई । बलंदी ।

उँचास
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊँचा + आस (प्रत्य०)] ऊँचा होने का भाव । ऊँचाई ।

उँजरिया पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'अँजोरिया' ।

उँजाला पु
संज्ञा पुं [हिं० उजाला] दे० 'उजाला' । उ०—यही मुँह उसके अँधियाले जी का उँजाला है ।—ठेठ०, पृ० ६६ ।

उँजियार पु
संज्ञा पुं० [हिं० उजियार] दे० 'उजियार' । उ०— जस अंचल महँ छिपै न दीया । तम उँजियार दिखावै हीया ।—जायसी ग्रं०, पृ० १९ ।

उँजियारा (१)पु
वि० दे० [हिं० उजाला] 'उजाला' । उ०—स्त्रवन सीप दुइ दीप सँवारे । कुंडल कनक रचे उँजियारे ।—जायसी ग्रं०; पृ० १९३ ।

उँजियारा (२)पु
संज्ञा पुं० [हिं० उजाला] दे० 'उजाला' । उ०— जैसे चाँद गोहने सब तारा । परेउँ भुलाइ देखि उँजियारा । ।— जायसी ग्रं०, पृ० २५७ ।

उँजेरा पु उँजेला पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उजाला', 'उजेला' ।

उँज्यारा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उजाला' ।

उँज्यारी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'उजारी' । उ०—आवत कातिक की जब रजनि उँज्यारी प्यारी ।—प्रेमघन०, १ ।३३ ।

उँटड़ा
संज्ञा पुं० [हिं० उटड़ा] दे० 'उटड़ा' ।

उँटरा
संज्ञा पुं० [हिं० उटड़ा] दे० 'उटड़ा' ।

उँडाकी
वि० [हिं० उड़ना] उड़नेवाला । उ०—उरस छवता थका आविया उँडाकी ।—रघु० रू०, पृ० १३१ ।

उँडेलना, उँड़ेलना
क्रि० सं० [हिं० उड़ेलना] दे० 'उड़ेलना' ।

उँदरी
संज्ञा स्त्री० [सं० ऊर्ण = बाल + दर = नाश करनेवाला] सिर के बालों का झड़ जाना । गंज ।

उँदरू
संज्ञा पुं० [सं० कुन्दरु] बबूल की जाति की एक प्रकार की काँटेदार झाड़ी या बेल जो हिमालय की तराई, पूर्वी बंगाल, बरमा और दक्षिण में होती है । ऐल । विसवल । रिसवल ।हैंस । विशेष—इसके छिलके से बंबई में मछली के जाल पर माँझा देया जाता है । इसकी पत्तियाँ बबूल ही की तरह महीन महीन होती हैं और सींकों में लगती हैं । ये झाड़ियाँ पहले गाँव या कोट के चारों ओर रक्षा के लिये बहुत लगाई जाती थीं । इसमें बबूल की तरह फलियाँ लगती हैँ जिनके गूदे से सिर के बाल साफ होते हैं ।

उँह
अव्य० [अनु०] १. अस्वीकार, घृणा या बेपरवाहीसूचक शब्द । २. वेदनासूचक शब्द ।

उ (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. ब्रह्ना । २. नर । उ०—नर, नारायण और विधि ये तीनों मम केस । उ, अ, आ अलक विभाम ते भाख्यो यह परमेस । (शब्द०) । ३. चंद्रमंडल (को०) ।

उ (२)पु
अव्य० भी । उ०—औरउ एक कहौं निज चोरी । सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी ।—तुलसी (शब्द०) ।

उअना पु
क्रि० अ० [हिं० उगना] उदय होना । उगना । उ०— (क) फूले कुमुद सेत उजियारे । मानहुँ उए गनन महँ तारे ।—जायसी ग्रं०, पृ० १३ । (ख) प्राची दिसि ससि उयेउ सुहावा । सिय मुख सरिस देखि सुख पावा ।— मानस, १ ।२३७ । (ग) उयौ सरद—राका—ससी, करति क्यों न चित चेतु । मनौ मदन छितिपाल कौ छाँहगीरु छबि देतु ।— बिहारी र०, दो० २३१ ।

उअर पु
संज्ञा पुं० [सं० उदर] दे० 'उर' उ०—आगम्म सरद ऋतु चलन साज । आनंद उअर उमगे सु राज । ।—पृ० रा०, २५ ।४५ ।

उआदा पु
संज्ञा पुं० [हिं०] 'वादा' । उ०—दैहैं करि मौज सोई लौहैं हम हरबर, ता छन उआदो खत टीपन लिखाइहैं ।—गंग कवित्ता, पृ० १३४ ।

उआना (१)पु
क्रि० स० [सं०] हिं० उअना का प्रेरणा० रूप उगाना । उदय कराना ।

उआना पु
क्रि० स० [सं० उद् गुरण = प्रा० उग्गुरन = हथियार तानना] किसी को मारने के लेये हाथ या हथियार तानना ।

उआली †
संज्ञा स्त्री० [देश०] कान का गहना । कर्णावतंस [को०] ।

उऋण
वि० [सं० उत् + ऋण] १. ऋणरहित । ऋणमुक्त । जिसका ऋण से उद्धार हो गया हो । उ०—तुम्हारा सहचरा सहचर बनकर क्या न उऋण होऊँ मैं बिना विलंब ।—कामायनी पृ० ५६ ।

उऋन
वि० [हिं० उऋणा] दे० 'उऋण' । उ०—कोटि कलप लगि तुम प्रति प्रति उपकार करौ जौ हे मनहरनी तरुनी उऋन न होउँ तबौ तौ । ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१ ।

उकचन
संज्ञा पुं० [सं० मुचकुन्द] मुचकुंद का फूल [को०] ।

उकचना पु
क्रि० अ० [सं० उत्कष > उक्कस=उखाड़ना] १. उखड़ना । अलग होना । २. पर्त से अलग होना । उचड़ना । ३. उठ भागना । हट जाना । स्थान त्याग करना । उ०— सरजा के डर हम आए इतै भाजि तब सिंह सों डराय याहू ठौर ते उकचि है ।—भूषण (शब्द०) ।

उकटना
क्रि० स० [सं० उत्कथ्थन पा० उक्कथन] बार बार कहना दे० 'उघटना' । उ०—मैंने तुमसे सैकड़ों बार कहा होगा कि जो बात गुजर गई उसे बार बार मत उकटा करो ।—सज्जाद संबुल (शब्द०) ।

उकटा (१)
वि० [हिं० उकटना] [स्त्री० उकटी] उकटनेवाला । एहसान जतानेवाला । किए हुए उपकार को बार बार कहनेवाला । उ०—नकटे का खाइए उकटे का न खाइए ।— (शब्द०) ।

उकटा (२)
संज्ञा पुं० उकटने का कार्य । किसी के किए हुए अपराध या अपने उपकार को बार बार जताने का कार्य । यौ०—उकटा पुरान = गई बीती और दबी दबाई बातों का विस्तारपूर्वक कथन । उकटा पेची = दे० 'उकटा पुरान' ।

उकठना
क्रि० अ० [सं० अव = अपदृष्ट, सूखा + < काष्ठ = लकड़ी) । जैसे कठियाना = कड़ा होना] सूखना । सूखकर कड़ा या चीमड़ हो जाना । सूखकर ऐंठ जाना । उ०—(क) कीन्हेसि कटिन पढ़ाइ कुपाठू । जिमि न नवइ पुनि उकठि कुकाठू । ।—मानस, २ ।२० । (ख) मधुवन तुम कत रहत हरे? कौन काज ठाढ़े रहे बन में काहे न उकठि परे ।—सूर (शब्द०) ।

उकठा
वि० [अव = बुरा + काष्ठ = लकड़ी] शुष्क । सूखा । सूखकर ऐंठा हुआ । उ०—छोह ते पलुहहिं उकठे रूखा । कोह ते महि सायर सब सूखा । ।—जायसी (शब्द०) । यौ०—उकठा काठ । मुहा०—अकठे काठ को हरा भरा बना देना = मरे हुए को जिला देना । मुर्दे को जिंदा कर देना ।

उकड़ूँ
संज्ञा पुं० [सं० उत्कुटुक, प्रा० उक्कुडुग, उक्कुडुय = आसन- विशेष] घुटने मोड़कर बैठने की एक मुद्रा जिसमें दोनों तलवे जमीन पर पूरे बैठते हैं और चूतड़ एँड़ियों से लगे रहते हैं । क्रि० प्र०—उकड़ू बैठना ।

उकढ़ना
क्रि० अ० [सं० उकृष्ट>उकड्ढ + ना] दे० 'कढ़ना' । उ०— तुरंग कुदाइ आगे उकढ़ि अरिगन में गयौ ।—पझाकर यह कहि ग्रं०, पृ० १९ ।

उकत (१)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति] दे० 'उक्ति' । उ०—थाकी मत लखत न बनत जाकी सखी बिचित्र । बनत न मन औरे उकत चुकत चितेरे चित्र ।—स० सप्तक, ३७१ ।

उकत (२)पु
संज्ञा पुं० [सं० उक्ति] डिंगल में एक प्रकार की वर्णनपद्धति । उ०—मिश्रत माँहो माँहि मिल, बाँधै उकत विशेष ।— रघु० रू०, २ ।४८ ।

उकताना
क्रि० अ० [सं० अवकुलन पू० हिं० अकुताना] १. ऊबना । उ०—रोज पूड़ी़ खाते खाते जी उकता गया । (शब्द०) । २. घबड़ाना । आकुल होना । जल्दी मचाना । उतावली करना । उ०—उकताते क्यों हो; ठहरो, थोड़ी देर में चलते हैं । संयो० क्रि०.—उठना । जाना । पड़ना ।

उकताहट
संज्ञा स्त्री० [हिं० उकताना] अधीरता । व्याकुलता । जल्दबाजी ।

उकति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति] दे० 'उक्ति' । उ०—तन सुबरन सुबरन बरन सुबरन उकति उछाह । धनि सुबरनमय ह्वै रही सुबरन ही की चाह ।—पझाकर ग्रं०, पृ० १०६ ।

उकबा
संज्ञा पुं० [अ० उकबहू] प्रलय का दिन । उ०—करामत कश्फ हक तुमना देवेगा भोत कुछ न्यामताँ दर रोजे उकबा । भरै । ।—दक्खिनी०, पृ० ११५ ।

उकरू
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उकड़ूँ' । उ०— उकरू नहिं बैठत भुंमि—हम्मीर रा०, पृ० ४५ ।

उकलना पु
क्रि० अ० [सं० उत्कलन = खुलना] [क्रि० स० उकेलना, प्रे० क्रि० उकलवाना़] १. तह से अलग होना । उचड़ना । पृथक् होना । २. लिपटी हुई जीज का खुलना । उधड़ना । बिखरना । उ०—ग्रीष्म ऋतु क्रीड़त सुजान । षिति उकलंत षेह नभ साजन । ।—पृ० रा०, २५ ।२ ।

उकलवाना
क्रि० स० [हिं० उकेलना का रूप] दूसरे को उकेलने के लेये नेयुक्त करना ।

उकलाई
संज्ञा स्त्री० [सं० उदि्गरण, प्रा० उग्गाल] कै । उलटी । वमन । मचली ।

उकलाना (१)
क्रि० अ० [हिं० उकलाई] उलटी करना । वमन करना । कै करुना ।

उकलाना (२)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'अकुलाना' ।

उकलेसरी
संज्ञा पुं० [सं० उत्कल अथवा हिं० अंकलेश्वर] उकलेसर (अंकलेश्वर) का बना हुआ कागज । (उकलेसर दक्षिण में है) ।

उकलैदिस
संज्ञा पुं० [अ० यू०] १. एक यूनानी गणितज्ञ जिसने रेखागणित निकाला था । २. रेखागणित ।

उकवत
संज्ञा पुं० [सं० उत्कोथ] दे० 'उकवथ' ।

उकवथ
संज्ञा पुं० [सं० उत्कोथ] एक प्रकार का चर्मरोग जो प्राय पैर में घुटने के नीचे होता है । इसमें दाने निकलते हैं जिनमें खाज होती है और जिनमें से चेप बहा करता है ।

उकसना
क्रि० अ० [सं० उत्कषण] १. उमरना । ऊपर को उठना । उ०—(क) पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाई ।—तुलसी (शब्द०) । (ख) सेज सों उकसि बाम स्याम सों लपटि गई होति रति रीति विपरीति रस तार की ।—रघुनाथ (शाब्द०) २. निकलना । अंकुरित होना । उ०—लाग्यो आनि नवेलियहिं मनसिज बान । उकसन लाग उरोजवा, दूग तिरछान । ।— रहीम (शब्द०) । ३. सीवन का खुलना । उधड़ना । ४. दूसरे के द्वारा प्रेरित होना (को०) ।

उकसनि पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० उकसना] उभाड़ । उ०—दृग लागे तिरछे चलन पग मंद लागे, उर में कछूक उकसनि सी कढ़ै लगी ।—(शब्द०) ।

उकसवाना †
क्रि० सं० [हिं० 'उकासना' का प्रे० रूप] किसी दूसरे से उकासने की क्रिया कराना ।

उकसाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० 'उकासना'] १. उकासने की क्रिया या भाव । २. उकासने की मजदूरी ।

उकसाना
क्रि० स० [हिं० 'उकसना ' का प्रे० रूप] १. ऊपर को उठाना । २. उभाड़ना । उत्तेजित करना । उ०—ये लोग तुम्हारे ही उकसाए हुए हैं ।—(शाब्द०) । ३. उठा देना । हटा देना । उ०—गाढ़ैं ठाढ़ैं कुचनु ढिलि पिय हिय को ठहराइ । उकसौहैं ही तो हियैं दई सबै उकसाइ । ।—बिहारी र० दो० ४६२ । ४. । दिए की बत्ती बढ़ाना या खसकाना ।

उकसाहट †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उकसाना] १. उकसाने का भाव या क्रिया । २. उत्तेजना ।

उकसौंहाँ पु
वि० [हिं० उकसना + औहाँ (प्रत्य०)] [स्त्री०] उकसौंहीं] उभड़ता हुआ । उठता हुआ । उ०—उर उकसौहैं उरज लखि धरत क्यों न धनि धीर । इनहिं बिलोकि बिलोकि— यतु सौतिन के उर पीर । ।—पद्दाकर ग्रं०, पृ० ८५ ।

उकाब (१)
संज्ञा पुं० [अ० उकाब] बड़ी जाती का एक गिद्ध । गरुड़ ।

उकाब (२)
संज्ञा स्त्री० अफवाह । उड़ती खबर । उ०—आजकल ऐसी उकाब उड़ रही है कि महाराज साहेब जापान जानेवाले हैं । —(शब्द०) ।

उकार
संज्ञा पुं० [सं०] १. 'उ' स्वर । २. शिव [को०] ।

उकारांत
वि० [सं० उकारान्त] वह शब्द जिसके अंत में उ हो, जैसे साधु ।

उकालना पु
क्रि० सं० [हिं० उकलना] दे० 'उकेलना' ।

उकास †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उकासना] उकासने की क्रिया या भाव ।

उकासना पु
क्रि० स० [हिं० उकसाना] उभाड़ना । ऊपर को फेंकना । ऊपर को खींचना । उ०—गैयाँ बिडरि चलीं जित तित को सखा जहाँ तहँ घेरैं । वृषभ शृंग सों धरनि उकासत बल मोहन तन हेरैं ।—सूर० (शब्द०) ।

उकासी पु (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० उकसना] सामने से परदे का हट जाना । खुल जाना । उ०—राखी ना रहत जऊ हाँसी कसि राखी देव नैसुक उकासी मुख ससि से उलसि उठैं ।—देव (शब्द०) ।

उकासी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं० अवकाश] छुट्टी । फुरसत ।

उकिठा पु †
वि० [हिं० उकठा] दे० 'उकठा' । उ०—उकिठा बन फूलै हरियाय ।—कबीर श०, भा० १. पृ० १२ ।

उकिड़ना †
क्रि० अ० [हिं० उकलना] दे० 'उकलना' ।

उकिरना पु
क्रि० अ० [सं० उत्कीर्ण] उभड़ना । ऊपर होना । उ०—रस सरस कुच कहि चंद । उर उकिर आनँद कंद । ।— पृ० रा०, १४ ।१५२ ।

उकिलना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उकलना' ।

उकिलवाना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उकलवाना' ।

उकिसना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उकसना' ।

उकीरना
क्रि० स० [सं० उत् √ कृ>उत्किरण=ऊपर फेंकना, उभारदार लिखना] १. उभाड़ना । उखाड़ना । २. उचाड़ना उकेलना । ३. खोदना । ४. नक्काशी करना । उकेरना । उ०—इंदु के उदोत तें उकोरी ऐसी काढ़ी सब सारस सरस सोभासार तें निकारी सी ।—केशाव ग्रं, भा० १, पृ० १९० ।

उकील
संज्ञा पुं० [अ० वकील] दे० 'वकील' । उ०—अवल उकील नूँ जी आदर कुरब दे अवधेस ।—रघु० रू० पृ० ८१ ।

उकुण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उंकुण' [को०] ।

उकुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति] दे० 'उक्ति' । उ०—भनहिं विद्यापति एहो रस गाव । अभिनव कामिनि उकुति बुझाव ।— विद्यापति, पृ० २१० ।

उकुति जुगुति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति युक्ति] दे० 'उक्ति युक्ति' ।

उकुरु
संज्ञा पुं० [सं० उत्कुटुक; प्रा० उक्कुडुय] दे० 'उकड़ू' ।

उकुरू
संज्ञा पुं०, [हिं०] द० 'उकुड़ूँ' । उ०—झूलत पाट की डोरी गहे पटुली पर बैठन ज्यौं उकुरू की ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १; पृ० ३९१ ।

उकुसना पु
क्रि० स० [हिं० उकासना] उजाड़ना । उधेड़ना । उ०—उकुसि कुटी तेहि छन तृण काटी । मूरति चहुँ कित पाथर पाटी । ।—रघुराज (शब्द०) ।

उकेरना
क्रि० स० [सं० उत् + √ कृ > किर, प्रा० उक्किटर] लकड़ी, पत्थर लोहा आदि कड़ी चीजों पर छेनी इत्यादि से नक्काशी करना । चित्र बनाना । विशेष रूप से बेलबूटे इत्यादि बनाना ।

उकेलना
क्रि० स० [हिं० उकलना, दे० उक्केल्लाविय] १. उचाड़ना । तह या पर्त से अलग करना । नोचना् । जैसे—वहाँ का चमड़ा मत उकेलो, पक जायगा । २. लिपटी हुई चीज को छुड़ाना या अलग करना । उधेड़ना । जैसे— चारपाई की पटिया से रस्सी उकेल लो ।

उकेला (१)
संज्ञा पुं० [देश०] बाना । विशेष—गड़रिए कंबल बुनने में बाना को उकेला बोलते हैं ।

उकेला (२)
क्रि० स० [हिं० उकेलना] 'उकेलना' क्रिया का भूत- कालिक रूप ।

उकौथ, † उकौथा †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उकवथ' ।

उकौना †
संज्ञा पुं० [सं० उत्क + औना (प्रत्य०); देशी० ओक्किय, हिं० ओकाई ? ] गर्भवती स्त्री में होनेवाली अनेक प्रकार की प्रबल इच्छाएँ । दोहद । क्रि० प्र०—उठना ।

उक्कत पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति] दे० 'उक्ति' । उ०—पग मुक्कत उक्कत लिषिय । न्निप निय नयन निहारि । ।—पृ० रा० ६६ ।२४० ।

उक्कती † पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति] दे० 'उकित' । उ०—उर भरम छेह लैणौ अगम असकस उद्यम उक्कती । कर भाव पार गुण सर करण साची नाम सरस्वती । ।—रा० रू० पृ० ६ ।

उक्त (१)
वि० [सं०] कथित । कहा हुआ ।

उक्त (२) पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उक्ति] दे० 'उक्ति' । उ०—कहै मंछ कवि जिकणनूँ उक्त सदाहिज आँण ।—रा० रू०, पृ० ३९ ।

उक्तनिर्वाह
संज्ञा पुं० [सं० ] अपनी कही हुई बात की रक्षा या समर्थन [को०] ।

उक्तप्रत्युक्त
संज्ञा पुं० [सं०] १. लास्य के दस अंगों में से एक । २. (नाट्य शास्त्त के अनुसार) उक्ति प्रतियुक्ति से युक्त, उपालंभ के साहित,—अलीक (अप्रिय या मिथ्या) सा प्रतीत होनेवाला और विलासपूर्ण अर्थ से सुसंपन्न गान ।

उक्तवाक्य (१)
वि० [सं०] जो अपना विचार या कथन कहा चुका हो [को०] ।

उक्तवाक्य
संज्ञा पुं० निर्णय । फैसला [को०] ।

उक्तानुशासन
संज्ञा पुं० [सं०] आदेशप्राप्त व्यकित । वह व्याक्ति जिसको आदेश मिला हो [को०] ।

उक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कथन । वचन । २. अनोखा वाक्य । जैसे— कवियों की उक्ति । उ०—काव्य का सारा चमत्कार उक्ति में ही है, पर कोई उक्ति काव्य तभी है जब उसके मूल में भाव हो ।—रस०, पू० ३ । ३. महत्वपूर्ण कथन (को०) । ४. घोषणा (को०) । ५. अभिव्यक्ति (को०) ।

उक्तियुक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] संमति और उपाय । सलाह और तदबीर । क्रि० प्र०—भिड़ाना ।—लगाना ।

उक्थ
संज्ञा पुं० [सं०] १.भिन्न भिन्न देवताओं के वैदिक स्तोत्र । २. यज्ञ में वह दिन जब उक्थ का पाठ होता है । ३. प्राण । ४. ऋषभक नाम की अष्टवर्गीय ओषधि ।

उक्थी
वि० [सं० उक्थिन्] स्तोत्रों का पाठ करनेवाला [को०] ।

उक्दा
संज्ञा पुं० [अ० उक्दह] १. ग्रंथि । गाँठ । २. भेद । रहस्य । उ०—यह वह उक्दा है जो किसी से अब तक नहीं खुला प्यारे ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० २, पृ० २०२ ।

उक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. जल छिड़कने की क्रिया । २. जल से अभिषेक करना [को०] ।

उक्षा
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य । बैल । ३. सोम (को०) । ४. मरुत(को०) । ५अग्नि (को०) । ६. ऋषभक नामक अष्टवर्गीय ओषधि (को०) ।

उक्षाल (१)
वि० [सं०] १. तेज । क्षिप्र । वगयुक्त । २. विशाल । श्रेष्ठ [को०] ।

उक्षाल (२)
संज्ञा पुं० कपि । बंदर [को०] ।

उक्षाल (३)
संज्ञा स्त्री० [हिं, उछाल] उछाल । छलाँग । कूद । उ०—पलानै तहाँ तेज ताजी तुरंगा । परै उच्च उक्षाल मानौ कुरंगा ।—प० रा०, पृ० १६७ ।

उखटना (१)
क्रि० अ० [सं० उत्कर्षण] १. लड़खड़ाना । चलने में इघर उधर पैर रखना ।

उखटना (२)
क्रि० स० [उत्खण्डन, प्रा० उक्खंडण] खोंटना । कुतरना ।

उखड़ना
क्रि, अ० [सं० उत्कुष्ट, पा० उक्कक्ख अथवा सं० उत्खनन, पा० उक्खडन] १. किसी जमी या गड़ी हुई वस्तु का अपने स्थान से अलग हो जाना । जड़ सहित अलग होना । खुदना । जमना का उलटा । जैसे—आँधी आने से यह पेड़ जड़ से उखड़ गया । २. किसी दृढ़ स्थिति से अलग होना । जैसे—अँगूठी से नगीना उखड़ गया । ३. जोड़ से हट जाना । जैसे—कुश्ती में उसका एक हाथ उखड़ गया । ४. (घोड़े के संबंध में) चाल में भेद पड़ना । तार या सिलसिले का टूटना । जैसे—यह घोडा थोड़ी ही दूर में उखड़ जाता है । ५. संगीत में बेताल और बेसुर होना । जैसे—वह अच्छा गवैया नहीं है, गाने में उखड़ जाया करता है । ६. ग्राहक का भड़क जाना । जैसे— दलालों के लगने से गाहक उखड़ गया । ७. एकत्र या जमा न रहना । तितर बितर हो जाना । उठ जाना । जैसे—वर्षा के कारण मेला उखड़ गया । ८. हटना । अलग होना । जैसे— जब वह बहाँ से उखड़े तब तो किसी दूसरे की पहुँच वहाँ हो । ९. टूट जाना । जैसे—तुक्कल हत्थे पर से उखड़ गई । १०. सीवन या टाँके का खुलना । संयो० क्रि०—आना ।—जाना ।—पड़ना । ११.परस्पर की बातचीत में क्रोध या आवेश में आना (बोल०) मुहा०—उखड़ी उखड़ी बातें करना = बेलौस बातें करना । उदासीनता दिखाते हुए बात करना । विरक्तिसूचक बात करना । उखाड़ी पुखड़ी सुनाना = ऊँचा नीचा सुनाना । अंडबंड सुनाना । उखाड़ी उखड़ना = कुछ किया हो सकना । जैसे— वहाँ तुम्हारी कुछ भी उखाड़ी न उखड़ेगी । तबीयत या मन काउखड़ना = किसी की ओर से उदासीनता होना । विरत्ति होना । दम उखड़ना = (१) बँधी हुई साँस टूटना ।(२ गाते गाते या बात करते करते स्वरभंग होना ।(३) दर निकलना । प्राण निकलना । पैर या पाँव उखड़ना = (१ ठहर न सकना । एक साथ पैर जमा न रहना । जैसे—नदी के बहाव से पाँब उखड़े जाते हैं । लड़ने के लिये सामने न खड़ा रहना । भागना । जैसे—बैरियों के धावे से उनके पाँव उखड़ गए ।

उखड़वाना
क्रि० स० [हिं० उखाड़ना का प्रे० रूप] किसी को उखाड़ने में प्रवृत्त करना ।

उखद पु
संज्ञा स्त्री० [सं० ओषधि, हिं० ओखध] दे० 'ओषधि' । उ०—चतुरविध वेद प्रणीत चिकित्सा । ससत्र उखद मँत्र तँत्र सुवि ।—बेलि०, दू० २८४ ।

उखना †
संज्ञा स्त्री० [सं० उषण] मिरच । काली मिरच [को०] ।

उखभोज †
संज्ञा पुं० [हिं० ऊख + सं० भोज] ईख की बोआई का पहला दिन । ईस दिन किसान उत्सव मनाते हैं ।

उखम पु
संज्ञा पुं० [सं० ऊष्म] गरमी । ताप ।

उखमज पु †
संज्ञा पुं० [सं० ऊष्मज] १. ऊष्मज जीव । क्षुद्र कीट । उ०—पिंडज ब्रहम ने लीन्ह बनाई । उखमज सब बिश्नू ते आई ।—सं० दरिया, पृ० ९ । २. झगड़ा, बखेड़ा या उपद्रव करने के लिये मन में आनेवाला कुविचार (बोल०) ।

उखर पु
संज्ञा पुं० [हिं० ऊख] ईख बो जाने के पीछे हल पूजने की रीति । हरपुजी ।

उखरना पु †
क्रि अ० [हिं० उखड़ना] दे० 'उखड़ना' ।

उखराज †
संज्ञा पुं० [हिं० ऊख + राज] ईख की बोआई का पहला दिन । इस दिन किसान उत्सव मनाते हैं ।

उखरैया पु
[हिं० उखरना + ऐया (प्रत्य०)] उखाड़नेवाला । उ० भूमि के हरैया उखरैया भूमिधरनि के बिधि भिरचे प्रमाउ जाको जमजई है ।—तुलसी ग्रं० पृ० ३१२ ।

उखर्वल
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार की घास [को०] ।

उखली
संज्ञा स्त्री० [सं० उदभल, उलूखेल; पा० उच्खल, प्रा० उक्खल उऊखल, उऊहल] मोढ़े के आकार का लकड़ी का बना हुआ एक पात्र । ओखली । काँडी । विशेष—इसके बीच में एक हाथ से कुछ कम गहरा गड्ढा होता है । इस गड्ढा में डालकर भूसीवाले अनाजों की भूसी मूसल से कूटकर अलग की जाती है । कहीं कहीं ऊखली पत्थर की भी बनती है जो जमीन में एक जगह गाड़ दी जाती है ।

उखा (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] देग । बटलोई ।

उखा (२)पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उषा] दे० 'उषा' ।

उखाड़
संज्ञा पुं० [हिं० उखाड़ना] १. उखाड़ने की क्रीया । उत्पाटन । २. कुश्ती के पेंच का तोड़ । वह युक्ती जिससे कोई पेंच रद किया जाता है । ३. कुशती का एक पेंच । उखेड़਍< । ऊचकाव । विशेष—यह उस समय काम में लाया जाता है जब विपक्षी पट होकर हाथ और पैर जमीन में अड़ा लेता है । इसमें विपक्षी के दाहिने पैर को अपने दाहिने पैर में फँसाकर कमर तक ऊपर उठाते हैं और अपना दाहिना हाथ विपक्षी की पसलियों से ले जाकर उसकी गर्दन पर चढ़ाते हैं और दबाकर चित करते हैं । ४. विपक्षी को गिराने के लिये उसकी टाँगों में घुस जाना । मुहा०—उखाड़ पछाड़ = (१)अदल बदल । इधर का उधर । उलट पलट । उ०— इसका उखाड़ पछाड़ ठीक नहीं । प्रेमधन०, भा०२, पृ०२११(२)इधर की उधर लगना । अगाई लुतरी चुगलखोरी ।

उखाड़ना
क्रि० स० [हिं० उखड़ना] किसी जमी, गड़ी या बैठी वस्तु को स्थान से पृथक् करना । उत्पाटन करना । जैसे (क) हाथी ने बाग के कई पेड़ उखाड़ ड़ाले ।(ख) उसने मेरी अँगूठी का नगीना उखाड़ दिया । २. अंग के जोड़ से अलग करना । जैसे कुश्ती में एक पहलवान ने दूसरे की कलाई उखाड़ दी । ३.जिस कार्य के लिये जो उद्यत हो उसका मन सहसा फेर देना । भड़काना । बिचकाना । जैसे तुमने आकर हमारा गाहक उखाड़ दिया । ४. तितर बितर कर देना । जैसे, उस दिन मेह ने मेला उखाड़ दिया । ५.हटाना । टालना । जैसे, उसे यहाँ से उखाड़ो तब तुमहारा रंग जमेगा । ६. नष्ट करना । ध्वस्त करना । उ०—भुजाओं से बैरियों को उखाड़नेवाले दिलीप ।—लक्षमण (श्बद०) । मुहा०—कान उखाड़ना = (१) किसी अपराध के दंड में जोर से कान मलना या खींचना । कान गरम करना । (२) धमकाना । विशेष— विशेषकर शिक्षक और माँ बाप नटखट लड़कों को कान मलते हैं । गड़े मुर्दे उखाड़ना = पुरानी बातें को फिर से छेड़ना । गई बीती बात को उभाड़ना । पैर उखाड़ देना = स्थान से विचलित करना । हटाना । भगाना । जैसे —सिकखों ने पठानों के पैर उखाड़ दिए ।

उखाड़ू
वि० [हिं० उखाड़ना] १. उखाड़नेवाला । २. चुगलखोर । इधर की उधर लगानेवाला ।

उखारना पु
क्रि०, स० [हिं० उखाड़ना] दे० 'उखाड़ना' । उ०— लीन्हो उखारि पहर बिसाल चल्यो तेहि काल बिलंब न लायो । तुलसी ग्रं०, पृ० १९६ ।

उखारी
संज्ञा स्त्री० [हिं उख] ईख का खेत । उ० तपै मृगसिरा बिलखैं चारि । बन बालक औ भैंस उखारि । (शब्द०) ।

उखालिया
संज्ञा पुं० [सं० उष? + काल] प्रातःकाल का भोजन । सहरगही । सरगही ।

उखाव
संज्ञा पृं० [हिं उख] दे० उखारी ।

उखेड़
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उखाड़' ।

उखेड़ना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उखाड़ना' । उ० (क) मेरे सैयाद जालिम ने उखेड़े बालोंपर अपने । कविता कौ०, भा० ४, पृ० ६६२ । (ख) काम हो कान के उखेड़े जो । तो घुसेड़ें न पेट में छूरी । चुभते०, पृ० ५४ ।

उखेड़वाना
क्रि० स० [हिं उखड़ना का प्रेर० रूप] उखड़ने के लिये नियुक्त करना । उखड़वाना ।

उखेरना पु
क्रि० स० [हिं० उखेड़ना] नोचकर अलग करना । उ०— (क) इतनी सुनत जसोदानंदन गोबर्धन तन हेरौ । लियौ उठाइ, सैल भुज गहि के, महि तैं पकरि उखेरौ सूर०,१० । ८६८ । (ख, ज्यौं दिवाल गीली पर काँकर डारत ही जु गड़े रे । सूर लटकि लागे अँग छवि, पर निठुर ना जात उखेरे । सूर०, १० । २२२३ ।)

उखेरा †
संज्ञा पृं० [सं० ईक्षु] ईख । ऊख ।

उखेलना पु
क्रि० स० [सं उल्लेखन] उरेहना । लिखना । (तस्वीर) खींचना । उ०—चचा चित्र रचो बहु भारी चिंत्रहीं छोड़ि चेतु चित्रकारी । जिन यह चित्र विचित्र उखेला । चित्र छोड़ि तू चेत चितेला ।—कबीर (श्बद०) ।

उख्य
संज्ञा पृं० [सं०] हाँड़ी में पकाया मांस जिनकी आहुतियाँ यज्ञों में दी जाती थीं ।

उगजोआ
संज्ञा पृं० [देश०] परतेले के रंग में कपड़े को बार बार डुबाने की क्रिया ।

उगटना पु
क्रि० अ० [सं० उदघाटन] १. उघटना । बार बार कहना । उ०— उगटहिं छंद प्रबंध गीत पद राग तान बंधान । सुनि कित्नर गंधर्व सराहत बिथकहिं बिबुध विमान ।—तुलसी (शब्द०) । २. ताना मारना । बोली बोलना ।

उगदना †
क्रि० अ० [सं० उद् + गद = कहना, हिं० उकटना] कहना । बोलना ।(दालाल) ।

उगना
क्रि० अ० [सं० उदगमन; पा० उग्गवन] १. निकलना । उदय होना । प्रकट होना । जैसे— वह देखो सूरज उगा । उ०— भन विद्यापति उगंत सेविअ मदन चिंतथु आउ ।— विद्यापति, पृ २२७ । २. जमाना । अंकुरित होना । जैसे— खेत में धान उग आए । संयो०—क्रि० आना ।—उठना ।—जाना ।—पड़ना । ३.उपजना । उत्पन्न होना । उ०— विछुरंता जब भेटै सो जानै जेहि नेह । सुक्ख सुहेला उगबै दु?ख भ्करै जिमि मेह । जायसी (शब्द०) । ४.अधिक आकर्षक प्रतीत होना । शोभित होना । सुंदर लगना ।

उगनींस
वि० [सं० एकोनविंशति, प्रा० अउणवींस, एगूणवीस,हिं० उन्नीस] उत्नीस । एक कम बीस । उ०—नव गज दस गज गज उगनींसा, पुरिया एक तनाई । सात सूत दे गंड बहतरि, पाट लगी अधिकाई । ।—कबीर ग्रं०,पृ०१५३ ।

उगमना †
क्रि० अ० [सं उदगमन प्रा० ऊग्गमण] उगना । उदित होना । उ०— सूरज पछिम किम उगमई ।— वी० रासो० पृ०६० ।

उगमन
संज्ञा पुं० [सं० उदगमन] पूर्व दिशा, जिधर से सूरज निकलता हैं ।

उगरना (१) †
क्रि० अ० [सं अग्र या उदगरण] १. सामने आना । निकलना । उ०— गवन करै कहँ उगरै कोई । सनमुख, सोम लाभ बहु होई ।—जायसी (शब्द०) ।२.कुएँ के स्त्रोत के पानी का बाहर आना । जैसे कुआँ उगरना ।

उगरना (२) †
क्रि० अ० [हिं उबरना] बचना । रक्षा होना । सुरक्षित होना । उ०—उगरीय जीय मानिक्क तन्न ।—पृ० रा० ५७ । २१७ ।

उगलना
क्रि० स० [सं० उदगरण, पा० प्रा० उग्गिलन] १. पेट में गई हुई वस्तु को मुँह से बाहर निकालना । कै करना । जैसे—जो खाया पिया था सो सब उगल दिया । २. मुँह में गई वस्तु को बाहर थूक देना जैसे—दैखो निगलना मत, उगल दो । ३. पचाया माल विवश होकर वापस करना । जैसे, यार माल तो पच गया था, पर ऐसे फेर में पड़ गए कि उगल देना पड़ा । ४. किसी बात को पेट में न रखना । जो बात छिपाने के लिये कही जाय उसे प्रकट कर देना । जैसे— यह बड़ा दुष्ट मनुष्य है; जो कुछ यहाँ देखता है सब जाकर शत्रुओं के सामने उगलता है । ५. विवश होकर कोई भेद खोल देना । दबाव या संकट में पड़कर गुप्त बात बता देना । जैसे— जब अच्छी मार पड़ेगी; तब आप ही सब बातें उगल देगा । सं० क्रि०—देना ।—पड़ना । ६. बाहर निकालना । जैसे—ज्वालामुखी पहाड़ आग उगलते हैं । मुहा०—जहर उगलना = ऐसी बात मुँह से निकलना जो दूसरे को बहुत बुरी लगे या हानि पहुँचाये ।

उगलवाना
क्रि० स० [हिं० गलना] दे० 'उगलाना' ।

उगलाना
क्रि० स० [हिं० 'उगलना' का उ० रूप] १. मुख से निकलवाना । २. इकबाल कराना । दोष को स्वीकार कराना । ३. पचे हुए माल को निकलवाना । ४. डर, दबाव आदि से विवश कर भेद खुलवाना ।

उगवना पु
क्रि० स० [हिं० उगना] १. उगाना । उदय करना । २. उत्पन्न करना ।

उगसाना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उकसाना' ।

उगसारना पु
क्रि० स० [हिं० उकसाना] बयान करना । कहना । प्रकट करना । खोलना । उ०—संगै राजा दुख उगसारा । जियत जीव ना करौ निरारा । —जायसी (शब्द०) ।

उगहन पु
संज्ञा पुं० [हिं० उगना] उदित या प्रकट होने का भाव । उ०—अगहन गहन समान, गहिमत मोर शरीर ससि । दीजै दरसन दान, उगहन होय जु पुन्यबल ।—नंद० ग्रं०, पृ० १६९ ।

उगहना (१) †
क्रि० अ० [सं० उग्ग्रह] दे० 'उगना' । उ०—मारू सी देखी नही, अणमुख दोय नयणाँह । थोड़ों सो भोले पड़इ, दणयर उगहनाँह ।—ढोला०, दू० ४७८ ।

उगहना (२)
क्रि० स० [हिं०] "उगाहना" ।

उगहनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उगाहना] उगाहने में प्राप्त किया गया द्रव्य या वस्तु । चंदा । उगाही ।

उगाना (१)
क्रि० स० [हिं० उगना] १. जनाना । अंकुरित करना । (पौधा या अन्न आदि) उत्पन्न करना । २. उदय करना । प्रकट करना । उ०—ज्यों जल मधि सों लहिर उगाई, तिमि परमातम आतम आई ।—कबीर सा०, पृ० १००० ।

उगाना (२) †
क्रि० स० [सं० उदघात प्रां० उगघाअ] मारने के लिये कोई वस्तु उठाना । तानना । उआना ।

उगार पु
संज्ञा पुं० [हिं०] १. दे० 'उगाल' । २. धीरे धीरे निचुड़कर इकट्ठा हुआ पानी । ३. निचोड़ा हुआ पानी । ४. कपड़ा रँगनेपर बचा हुआ रंग जो फेक दिया जाता है । ५. मुख में चबाई हुई वस्तु । उ०—सो ताही समै श्री गुसाई जी आप अपनो चर्वित उगार हरिजी को दिए ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १५० ।

उगारना (१)
क्रि० स० [सं० उद्वार] उद्वार करना । रक्षा करना । उबारना । बचाना । उ०—सबै दुष्ट भंजे सुसेवक उगारे । करे काम निज धाम नरहर पधारे ।—पृ० रा०, २ ।२१२ ।

उगारना (२)
क्रि० स० [सं० उदगलन] कुएँ की मिट्टी या खराब पानी आदि निकालकर सफाई करना ।

उगारना (३) †
क्री० स० [हि०] दे० 'उकासना' ।

उगाल
संज्ञा पुं० [सं० उदगाल, पा० उग्गाल] १. पीक । थूक । खखार । उ०—अभी उगाल दास को दीजे, जल को परम कल्यान ।—धरम०, पृ० ३० । २. पुराने कपड़े (ठगों की बोली) ।

उगालदान
संज्ञा पुं० [हिं० उगाल + फा० दान (प्रत्य०)] थूकने या खखार आदि गिराने का बरतन । पीकदान । उ०— आप जो मेरी डाढ़ी को अपना उगालदान समझते थे और मुझे ठीक इस तरह ठोकर मारते थे जैसे कोई अपनी देहली पर अनजान कुत्ते को मारता है ।—भारतेंदु ग्रं०, १, पृ० ५६७ ।

उगाला (१)
संज्ञा पुं० [हिं० उगाल] एक प्रकार का कीड़ा जो अनाज की फसल को हानि पहुँचाता है ।

उगाला (२) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उगाल] वह जमीन जो सर्वदा पानी से तर रहे । पनमार ।

उगाहना
क्रि० स० [सं० उदग्रहण, प्रा० उग्गाहण] १. वसूल करना । बहुत से आदमियों से स्वीकृत नियमानुसार अलग अलग धन आदि लेकर इकट्ठा करना । उ०— (क) वह चपरासी चंदा उगाहने गया है । (ख) लेखौ करि लीजै मन- मोहन दूध दही कछु खाहु । सदभाखन तुम्हरेहि मुखलायक, लीजै दान उगाहु ।—सूर०, १० । १५९५ । २. चंदा करना । सार्वजनिक कार्य के लिये द्रव्य एकत्रित करना । संयो क्रि०—डालना ।— देना ।—लेना ।

उगाहो
संज्ञा स्त्री० [हिं० उगाहना] १. भिन्न भिन्न लोगों से उन के स्वीकृत नियमानुसार अन्न धन आदि लेकर इकट्ठा करने का कार्य । रुपया पैसा वसूल करने का काम । वसूली । २. वसूल किया हुआ रुपया पैसा । ३. जमीन का लगान । ४. एक प्रकार का रुपए लेन देन जिसमें महाजन कुछ रुपए देकर ऋणी से तब तक महीने महीने या सप्ताह कुछ वसूल करता रहता है जब तक उसका रुपया ब्याज सहित वसूल न हो जाए । ५. चंदा आदि के रूप में एकत्रित किया गया द्रव्य ।

उगिलना पु †
क्रि० स० [सं० उदिगरण प्रा० उग्गिरण] दे० 'उगलना' उ० —ब्राह्मन ज्यों उगिल्यो उरगारि हौं त्यों ही तिहारे हिये न हितैहौं ।—तुलसी ग्रं० पृ० २२२ । ।

उगिलवाना पु †
क्रि० स० [हिं० उगिलना का० प्रे० रूप] दे० उगलवाना ।

उगिलाना पु
क्रि० स० [हिं० उगिलना का प्रे० रूप] दे० 'उगलाना' ।

उगैरा †
अव्य० [हिं०] दे० 'वगैरह' । उ०—भारी अगै उगैरा भारत, हेकण जीभ प्रताप हुवा । —बाँकीदास ग्रं०, ३ । १०३ ।

उग्ग पु
वि० [सं० उग्र, प्रा० उग्ग] दे० 'उग्र' । उ०— तजो अब उग्ग असेष सुभाव । करो सब उप्पर क्षोभ सुचाव । । —हम्मीर रा०, पृ० ८ ।

उग्गना पु
क्रि० अ० [सं० उदगमन, प्रा० उग्गमण, उग्गवण, उग्गण] दे० 'उगना' । उ०—पच्छिम सूरज उग्गवै, उलटि गंग बह नीर । —हम्मीर रा०, पृ० ५७ ।

उग्गरना पु
क्रि० अ० [सं० उदगरण] दे० 'उगरना' । उ०—इते उग्गरे कंदलं चंद कब्बी । पृ० रा०, २५ । ७६४ ।

उग्गार पु
संज्ञा पुं० [सं० उदगार, प्रा० उग्गार] दे० 'उदगार' ।

उग्गाहा
संज्ञा पुं० [सं० उदगाथा, प्रा० उग्गाहा] आर्या छंद के भेदों में से एक । इसका दूसरा नाम गीति भी है । इसके विषम चरणों में १२—१२ मात्राएँ और सम चरणों में १८—१८ मात्राएँ होती हैं । विषम गणों में जगण न होना चाहिए । उ०—रामा रामा रामा, आठो जामा जपौ यही नामा । त्यागो सारे कामा पैहौ अंतै हरी जु को धामा (शब्द०) ।

उग्र (१)
वि० [सं० ] १. प्रचंड । उत्कट । २. तेज । तीव्र । ३. कड़ा । प्रबल । ४. घोर । रौद्र । ५. कोपनशील । उ०—कोई उग्र कोई क्षुद्र कहावै कोई जीव कोई नरिपर खावै । —कबीर सा०, पृ० ९, ३ । ६. उच्च (को०) । ७. परिश्रमी (को०) ।

उग्र (२)
संज्ञा पुं० [स्त्री० उग्रा] १. महादेव । रुद्र । २. वत्सनाग विष । बच्छनाग जहर । ३. क्षत्रिय पिता और शूद्रा माता से उत्पन्न एक संकर जाति । ४. उग्र संज्ञक पाँच नक्षत्र अर्थात् पूर्वा- फाल्गुनी, पूर्वाषाढ़ पूर्वाभाद्रपद, मघा और भरणी । ५. सहजन का पेड़ । मुनगा । ६. केरल देश । ७. एक दानव का नाम । ८. धृतराष्ट्र के एक पुत्र का नाम । ९. विष्णु । १० । सूर्य । ११ । रौद्र रस (को०) । १२. वायु । पवन (को०) ।

उग्रक
वि० [सं० ] वीर । शक्तिशाली [को०] ।

उग्रकर्मा
वि० [सं० उग्रकर्मन्] भयंकर काम करनेवाला । कूरकर्मा [को०] ।

उग्रकाड़
संज्ञा पुं० [सं० उग्रकाण्ड] करैला ।

उग्रगंध (१)
संज्ञा पुं० [सं० उग्रगन्ध] १. लहसून । २. कायफल । ३. हींग । ४. बर्बरी । ममरी । ५. चंपा ।

उग्रगंध (२)
वि० [सं० ] तीव्र गंधवाला । तेज महकनेवाला ।

उग्रगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० उग्रगन्धा] १. अजवायन । २. आजमोदा ३. बच । ४. नकछिकनी ।

उग्रचंडा
संज्ञा स्त्री० [सं० उग्रचण्डा] दुर्गा [को०] ।

उग्रचारिणी
संज्ञा स्त्री० [सं० ] दुर्गा [को०] ।

उग्रज
संज्ञा पुं० [सं० ] कंस [को०] ।

उग्रजाति
वि० [सं० ] नीच वंश में उतपन्न । जारज [को०] ।

उग्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० ] तेजी । प्रचंडता । उद्दंडता । उत्कटता । उ०—इधर उग्रोँ को उग्रता की टेव सी पड़ गई । —प्रेमघन०, भा० २, पृ० ३०९ ।

उग्रतारा
संज्ञा स्त्री० [सं० ] एक देवी [को०] ।

उग्रतेजा
वि० [सं० उग्रतेजस्] प्रचंड तेजस्वी । भीषण तेज से युक्त [को०] ।

उग्रदंड
वि० [सं० उग्रदण्ड] कठोरतापूर्वक शासन करनेवाला । कठोर । कूर । निर्दयी [को०] ।

उग्रदर्शन
वि० [सं० ] जो देखने में भयंकर या डरावना हो [को०] ।

उग्रधन्वा
संज्ञा पुं० [सं० उग्रधन्वन्] १. इंद्र । २.शिव ।

उग्रनासिक
वि० [सं० ] जिसके नाक बड़ी हो [को० ] ।

उग्रपंथी
वि० [सं० उग्र + हिं० पंथी] उग्र विचारोंवाला । क्रांतिकारी विचारोंवाला ।

उग्रपुत्र (१)
वि० [सं० ] शक्तिशाली वंश में उत्पन्न होनेवाला [को०] ।

उग्रपुत्र (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] कार्तिकेय [को०] ।

उग्ररेता
संज्ञा पुं० [सं० उगरेतस्] रुद्र का एक रूप (को०) ।

उग्रवादी
वि० [सं० उग्र + वादिन्] दे० 'उग्रपंथी' ।

उग्रवीर्य
संज्ञा पुं० [सं० ] हींग ।

उग्रशेखरा
संज्ञा स्त्री० [सं० ] शिव के मस्तक पर रहनेवाली गंगा ।

उग्रसेन
संज्ञा पुं० [सं० ] १. मथुरा का राजा, कंस का पिता । २. राजा परीक्षित का एक पुत्र ।

उग्रह
संज्ञा पुं० [सं० उद्ग्रह] ग्रहण से मुक्त होने का भाव । मोक्ष ।

उग्रहना पु
क्रि० स० [हिं० उग्रह] छोड़ना । मुक्त करना । त्यागना । उगलना ।

उग्रा
संज्ञा स्त्री० [सं० ] १. दुर्गा । महाकाली । २. अजवायन । ३. बच । ४. नकछिकनी । ५. उग्र स्वभाव की स्त्री । ६. धनिया । ७. कर्कशा स्त्री । ८. निषाद स्वर की दो श्रुतियों में से पहली श्रुति ।

उघटना
क्रि० अ० [सं० पा० उत्कथन, उक्कथन अथवा उदघाटन, पा० उग्घाटन] १. संगीत में ताल की जाँच के लिये मात्राओं की गणना करके किसी प्रकार का शब्द या संकेत करना । ताल देना । सम पर तान तोड़ना । उ०—(क) संग गोप गोधन- गव लीन्हेँ, नागा गति कौतुक उपजावत । कोउ गावत कोउ नृत्य करत कोउ उघटत कोउ करताल बजावत । सूर०, १० । ४७९ । (ख) उघटत स्याम नृत्यति नारि । धरे अधर अपंगउपजैं लेत हैं गिरधारि । —सूर, १० । १०५९ । २. गई बीती बात को उठाना । दबी गबाई बात को उभाड़ना । कभी के किए अपने उपकार या दूसरे के अपराध को बार बार कहकर ताना देना । जैसे (क) नकटे का खाइए उघटे का खाइए । (ख) जो बात भूल चूक से एक बार हो गई उसे क्या बार बार उघटते हो । ४. किसी को भला बुरा कहते कहते उसके बाप दादे को भी भला बुरा कहने लगना । उ० —सब दिन कौ भरि लेउँ आजु हीँ तब छाड़ौँ मैँ तुमकौ । उघटति हौ तुम मातु पिता लौँ नहिं जानति हौ हमकौ । सू० १० । १५०८ ।

उघटा (१)
वि० [हिं० उघटना] उघटनेवाला । किए हुए उपकार को बार बार कहनेवाला । एहसान जतानेवाला । जैसे—नकटे का खाइए उघटे का न खाइए ।

उघटा (२)
संज्ञा पुं० [सं० ] उघटने का कार्य ।

उघड़ना
क्रि० अ० [सं० उदघाटन, प्रा० उग्घाडण] १. खुलना । आवरण का हटना । (आवरण के संबंध में) । २. खुलना । आवरण रहित होना । (आवृत के संबंध में) । उ०—सुपन में हरि दरस दीनहों, मैं न जाणयो हरि जात । नैन म्हारा उघड़ आया, रही मन पछतात । —संतवाणी०, पृ० ७० । ३. नंगा होना । मुहा०— उघड़कर नाचना = खुल्लमखुल्ला लोकलज्जा छोड़कर मनमाना काम करना । ४. प्रगट होना । प्रकाशित होना । ५. भंडा फूटना । मुहा०—उघड़ पड़ना = खुल पड़ना । अपने असल रूप को खोल देना । भेद प्रकट कर देना । दे० 'उघटना' ।

उघन्नी †
संज्ञा [सं० उदघाटिनी, हिं० उघारिनी] ताली । कुंजी । चाभी ।

उघरना पु
क्रि० अ० [सं० उदघाटन, पा० उग्घाडण] १. खुलना । आवरण का हटना (आवरण के संबंध में) । उ० (क) जैसे— सपनों सोइ देखियत तैसौ यह संसार । जात विलय ह्वै छिनक मात्र में उघरत नैन किवार । —सूर० (शब्द०) । (ख) सूरदास जसुमति के आगे उघरि गई कलई । —सूर० (शब्द०) । २. खुलना । आवरणरहित होना (आवृत के संबंध में) । उ०—उघरहिं विमल विलोचन ही के । —मानस; ९ । १ नंगा होना । मुहा०—उधरकर नाचना= लोकलज्जा छोड़कर खुल्लमखुल्ला मनमाना काम करना । उ०—(क) अब हौं उघरि नच्यौ चाहत हौं तुमहि बिरद बिन करिहौं । —सूर, (विनय) १३४ । (ख) दुबिधा उर दूरि भई गई मति वह काँची । राधा तैं आपु बिबस भई उघरि नाँची । —सूर, १० । १९१० । ४. प्रकट होना । प्रकाशित होना । उ०— (क) छतौ नेहु कागर हियैं भई लखाइ न टाँकु । बिरह तचैं उघरयौ सु अब सेहुड़ कैसौ आँकु । —बिहारी र०, दो० ४५७ । (ख) ज्यों ज्यों मद लाली चढ़ै त्यों त्यों उघरत जाय । —बिहारी (शब्द०) । ५. असली रूप में प्रकट होना । असलियत का खुलना । भंडा फूटना । उ०— (क) चरन चोंच लोचन रंगौ चलौ मराली चाल । छीर नीर बिबरन समय बक उघरत तेहि काल । —तुलसी (शब्द०) । (ख) उघरहिं अंत न होइ निबाहू । कालनेमि जिमि रावन राहू । । —मानस, १ । ७ । (ग) दाई आगैं पेट दुरावति, वाकी बुद्धि आजु मैं जानी । हम जातहिं वह उधारि परैगी दूध दूध पानी सो पानी— सूर०, १० । १७२३ ।

उघरनी †
संज्ञा स्त्री० [हिं० ] दे० 'उघन्नी' ।

उघरानी †
संज्ञा स्त्री० [सं० उद्ग्रहण* अप० उगहरण] दे० 'उगाही' । उ०—म्हारी' । शगरी उघराणी डूब जासी । —श्रीनिवास ग्रं०, पृ० ५७ ।

उघरारा (१)पु †
संज्ञा पुं० [हिं० उघड़ना, उघरना] [स्त्री० उघरारी] खुलाहुआ स्थान । उ० —(क) पावस वरषि रहे उघरारैं, सिसिर समय बसि नीर मझारैं । —पद्माकर (शब्द०) । (ख) रंग गयो उखरि कुरंग भयो परे परे, डारे उघरारे मारे फूंक के उड़त है । काशी राम राम सों परशुराम ऐसो कहतो तोरते धनुष ऐसे ऐसे बलकत है । —हनुमन्नाटक (शब्द०) ।

उघरारा पु † (२)
वि० खुला हुआ । खुला रहनेवाला ।

उघरावना
क्रि० स० [हिं० ] दे० 'उगाहना' । उ०— अटक गोपी मही दांण उघरावजै, पावजै अधर रस गोरधन पास । —बाँकी ग्रं०, अ० ३, पृ० ११९ ।

उघाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० उगाही] दे० 'उगाही' । उ०—भाड़े और उघाई आदि की भूली भूलाई रस्मो को लोग ऊपर चट कर जाते थे । —श्रीनिवास० ग्रं०, पृ० ३७४ ।

उघाड़ना
क्रि० स० [सं० उदघाटन, प्रा० उग्घाडण, उघाडण] १. खोलना । आवरण का हटाना (आवरण के संबंध में) । २. खोलना । आवरणरहित करना (आवृत के संबंध में) । ३. नंगा करना । ४. प्रकट करना । प्रकाशित करना । ५. गुप्त बात को खोलना । भंडा फोड़ना ।

उघाना †पु
क्रि० स० [सं० उद्ग्रहण] 'उगाहना' । उ०—सो तहाँ वैष्णवन सों जाइकै मिलैगो तब वैष्णव तोंको भेंट उघाय देइँगे । —दो सौ बावन, भा० २, पृ० ११६ ।

उघार (१)
संज्ञा पुं० [हिं० उघारना] उघारने की क्रिया या भाव ।

उघार (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ओहार] परदा । आवरण ।

उघरना पु
क्रि० स० [सं० उदघाटन, प्रा० उग्घाडण] १. खोलना । ढाँकनेवाली चीज को दूर करना (आवरण के संबंध में) । उ०—आवत देखहिं विषय बयारी । ते हटि देहि कपाट उघारी । । —मानस, ७ । ११८ । २. खोलना । आवरणरहित करना । नंगा करना (आवृत के संबंध में) । उ०—(क) तब शिव तीसर नयन उधारा, चितवत काम भयेउ जरि छारा ।—मानस, १ । ८७ । (ख) विदुर शस्त्र सब तहीं उतारी, चल्यो तीरथनि मुंड उघारी । —सूर० (शब्द०) । (ग) मनहुँ काल तरवारि उघारी । —तुलसी (शब्द०) । ३. प्रकट करना । प्रकाशित करना । ४. कुआँ खोदने के लिये जमीन की पहली खोदाई ।

उघारा
वि० [हिं० उघारना] उघड़ा हुआ । आवरणहीन । नंगा । निर्वस्त्र ।

उघेड़ना †
क्रि० स० [हिं० ] दे० 'उघाड़ना' ।

उघेलना पु
क्रि० स० [हिं० उघारना] खोलना । उ०—कित तीतिर बन जीभ उघेला । सो कित हेकरि फाँद गिउँ मेला ।—जायसी ग्रं०, पृ० २८ ।

उचंत
संज्ञा पुं० [हिं० उचाना= उठाना, लेना] ऊपर ही ऊपर लेन देन करना । ऊपर ही ऊपर सामान्य लिखापढ़ी पर धन लेना ।

उचंतखाता
संज्ञा पुं० [हिं० उचंत+ खाता] बही या पंजी में वह खाता जिसमें उचंत में दिया गया धन लिखा जाता है ।

उच पु
वि० [सं० उच्च] दे० 'उच्च' । उ०—कसे कंचुकी मैं दुबौ उच कुच करत बिहार, गुंमज के गजकुंभ के गरम गिरावन- हार —सं० सप्त्क, पृ० ३५३ ।

उचकन
संज्ञा पुं० [सं० उच्च + कृत् > हिं० उचक से उचकन] ईट, पत्थर आदि का वह टुकड़ा जिसे नीचे देकर किसी चीज को ऊँची करते हैं । जैसे, चूल्हे पर चढ़े हुए बरतन के पेदे के नीचे दिया हुआ खपड़ैल का टुकड़ा अथवा खाते समय थाली को एक ओर ऊँचा करने के लिये पेंदी के नीचे रखी हुई लकड़ी ।

उचकना (१)
क्रि० अ० [सं० उच्च = ऊँचा + करण = करना] १. ऊँचा होने के लिये पैर के पंजों के बल एँडी उठाकर खड़ा होना । कोई वस्तु लेने या देखने के लिये शरीर को उठाना और सिर ऊँचा करना । जैसे,— (क) दीवार की आड़ से क्या उचक उचककर देख रहे हो । (ख) वह लड़का टोकरे में से आम निकालने के लिये उचक रहा है । उ०—सुठि ऊँचे देखत वह उचका । दृष्टि पहुँच पर पहुँच न सका । —जायसी (शब्द०) । २. उछलना । कूदना । उ०—यों कहिकै उचकी परजंक ते पूरि रही दृग बारि की बूँदे ।—देव (शब्द०) ।

उचकना (२)
क्रि० स० उछलकर लेना । लपककर छीपना । उठाकर चल देना । जैसे—जो चीज होती है तुम हाथ से उचक ले जाते हो । संयो० क्रि०—ले जाना ।

उचकना (३)
संज्ञा पुं० उचकने की क्रिया या भाव ।

उचका पु
क्रि० वि० [हिं० औचक या अचाका] अचानक । सहसा । उ०—ज्यों हरनिन की होत हँकाई, उचका उठै बाघ बिरझाई ।—लाल (शब्द०) ।

उचकाना
क्रि० सं० [हिं० 'उचकना'] उठाना । ऊपर करना । उ०—स्याम लियो गिरिराज उठाइ । सत्य वचन गिरि देव कहत हैं कान्ह लेहि मोहिं कर उचकाइ ।—सूर०, १० । ८२१ ।

उचकैयाँ पु
वि० [हिं० उचक + ऐया (प्रत्य०)] उछलयुक्त । उचकता हुआ । उ०—जा गिर तें चढ़ि कुलाँच लीनी उचकैयाँ ।—नंद० ग्रं०, पृ० ३२९ ।

उचकौहीं पु
वि० [हिं० उचक + औहीं (प्रत्य०)] उचकनेवाली । उ०—लचकौहीं सो लंक उर, उचकौहीं सो ऐन, बिहसौंहे से बदन मैं, लसत नचौहैं नैन । —मति० ग्रं०, पृ० ४४६ ।

उचक्का
संज्ञा पुं० [हि० उचकना से] [स्त्री० उचक्की] १. उचककर चीज ले भागनेवाला । चाईं । ठग । जैसे, मेलों में चोर उचक्के बहुत जाते हैं । २. बदमाश । लुच्चा । उठाईगीरा । उ०—बटपारी, ठग, चोर, उचक्का, गाँठिकट, लठबाँसी ।—सूर०, १ । १८६ ।

उचटना
क्रि० अ० [स० उच्चाटन] १. उचड़ना । जमी हुई वस्तु का उखड़ना । उ०—लंक लगाई दर्द हनुमंत बिमान बचे अति उच्चरुखी ह्वै । पाचि फटै उचटै बहुधा मनि रानी रटैं पानी पानी दुखी ह्वै ।—केशव (शब्द०) । २. अलग होना । पृथक् होना । छूटना । उ०—अति अगिनि झार भंभार धुंधार करि उचटि अंगार झंझार छायो ।—सूर० १० । ५९६ । ३. भड़कना । बिचकना । जैसे, —तुम्हारा गाहक उचट गया । ४. विरक्त होना । हटना । जैसे—जी उचटना (शब्द०) ५. खुलना । उ०—जागहु जागहु नंदकुमा । रवि बहु चढ़यो रैनि सब निघटी उचटे सकल किवार ।—सूर०, १० । ४०८ ।

उचटाना पु
क्रि० स० [सं० उच्चाटन] १. उचाड़ना । अलग करना । बिखेरना । नोचना । २. पृथक् करना । छुड़ाना । ३. उदासीन करना । खिन्न करना । विरक्त करना । उ०— नैननि हरि हौं निठुर कराए । चुगली करी जाइ उन आगैं हमतैं वै उचटाए । सूर०, १० । २३३४ । ४. भड़काना । बिचकाना । उ०—चहती उचटायो, सोर मचायो, सब मिलि यासों बीचु हरै ।—गुमान (शब्द०) ।

उचटावना पु
क्रि० स० [हिं० उचटाना] । दे० 'उचटाना' ।

उचड़ना
क्रि० अ० [सं० उच्चारण, प्रा० उच्चाडण] १. सटी या लगी हुई चीज का अलग होना । पृथक् होना । २. किसी स्थान से हटना या अलग होना । जाना । भागना । जैसे—कौआ, यदि हमारे भैया आते हों तो उचड़ जा (स्त्री०) । विशेष—जब घर का कोई विदेश में रहता है तब स्त्रीयाँ शकुन द्वारा उसके आने का समय विचारा करती हैं । जैसे, यदि कौआ खपड़ैल पर आकार बैठता है तो उससे कहती हैं कि यदि 'अमुक आते हो तो उचड़ जा' । यदि कौआ उड़ गया तो समझती हैं कि विदेश गया हुआ व्यक्ति शीघ्र आएगा ।

उचना (१)पु
क्रि० अ० [सं० उच्च से नामिक धातु] १. ऊँचा होना । ऊपर उठना । उचकना । उ०—अँगुरिन उचि, भरु भीति दै, उलमि चितै चख लोल, रुचि सों दुहूँ दुहूँनु के चूमे चारु कपोल ।—बिहारी र०, दो० ५०५ । २. उठना । उ०—(क) इतर नृपति जिहि उचत निकट करि देत न मूठ रिती ।—सूर० (शब्द०) । (ख) औचक ही उचि ऐंचि लई गहि गोरे बड़े कर कोर उचाइकै ।—देव (शब्द०) ।

उचना (२)
क्रि० स० [सं० उच्च] ऊँचा करना । ऊपर उठाना । उठाना । उ०—(क) हँसि ओठनु बिच, करु उचै, कियै निचौहैं नैन, खरैं अरैं प्रिय कैं प्रिया लगी बिरी मुख दैन ।....बिहारी र०, दो० ६२७ । (ख) भौंह उचै आँचर उलटि मोरि मोरि मुहँ मोरि । नीठि नीठि भीतर गई दीठि दीठि सों जोरि ।—बिहारी (शब्द०) ।

उचनि पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उच्च] उभाड़ । उठान । उ०—(क) परी दृष्टि कुच उचनि पिया की वह मुख कह्यो न जाई । अंगिया नील माँड़नी राती निरखत नैन चुराई । सूर० (शब्द०) । (ख) चिबुक तर कंठ श्रीमाल मोतीन छबि कुच उचनि हेम गिरि अतिहि लाजै । सूर० (शब्द०) ।

उचरंग †
संज्ञा पुं० [हि० उछरता + अंग] उड़नेवाला कीड़ा । पतंग । फतिंगा ।

उचरना (१)पु
क्रि० स० [सं० उच्चारण] उच्चारण करना । बोलना । मुँह से शब्द निकालना । उ०—चढ़ि गिरि शिखर शब्द इक उचरयो गगन उठ्यो आघात, कंपत कमठ शेष बसुधा नभ रवि- रथ भयो उतपात ।—सूर० (शब्द०) ।

उचरना (२)
क्रि० अ० १. शब्द होना । मुँह से शब्द निकालना ।

उचरना (३)
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उचड़ना' ।

उचरना (४)पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उछलना' । उ०—आँषु धरन हित दुष्ट मँजारी, मो परि उचरि परी दइमारी ।—नंद० ग्रं० पृ० १४८ ।

उचराई
संज्ञा स्त्री० [हिं० उचर + आई (प्रत्य०)] १. उच्चारण करने की क्रिया या भाव । २. उच्चारण करने या कुछ बतलाने का पारिश्रमिक ।

उचलना †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उचड़ना' ।

उचाई
संज्ञा अ० [हिं०] दे० 'ऊँचाई' । उ०—सागर मैं गहिराई, मेरु मैं उचाई, रविनायक में रूप की निकाई निरधारिए ।— मति० ग्रं०, पृ० ३७२ ।

उचाकु पु †
संज्ञा पुं० [हिं० उचाट या सं० उत्चक = भ्रांति] उचाट । उ०—नींदौ जाइ, भूखौ जाइ, जियहू में जाइ, जाइ उरहू में आइ आइ लागत उचाकु सो । —गंग०, पृ० १३ ।

उचाट
संज्ञा पुं० [सं० उच्चाट] १. मन का न लगना । विरक्ति । उदासीनता । अनमनापन । उ०—(क) न जाने क्यों आजकल चित्र उचाट रहता है । (क) सुर स्वारथी मलीन मन, कीन्ह कुमंत्र कुठाटु । रचि प्रपंच माया प्रबल, भय, भ्रम, अरति उचाटु । । —मानस, २ । २९४ । (ख) प्रथम कुमति करि कपट सकेला । सो उचाट सब के सिर मेला ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) मोहन लला को सुन्यो चलत बिदेस भयो मोहनी को चारु चित्र निपट उचाट में ।—मतिराम (शब्द०) ।

उचाटन पु
संज्ञा पुं० [सं० उच्चाटन] दे० 'उच्चाटन' । उ०— मारन मोहन उचाटन बसिकरन मनहिं माहिं पछिताई ।— कबीर श०, भा० २, पृ० २८ ।

उचाटना
क्रि० स० [सं० उच्चाटन] उच्चाटन करना । हटाना । ध्यान तोड़ना । विरक्त करना । जैसे—उसने हमारा चित्त उचाट दिया ।

उचाटी
संज्ञा स्त्री० [सं० उच्चाट, हिं० उवाट + ई (प्रत्य०)] उचाट । उदासीनता । अनमनापन । विरक्ति । उ०—दासरथी लिखमण सुत दशरथ, दोऊ सुणे सिधारे दसरथ । दीह उचाटी कीधे दशरथ, दीधो प्राण पछाड़ी दशरथ । ।—रघु० रू०, पृ० ११२ ।

उचाटू †
वि० [हिं० उचाट + ऊ (प्रत्य०)] १. उचाट करनेवाला । मन को उदास करनेवाला । २. उदास । अनमना ।

उचाड़ना
क्रि० स० [हिं० उचड़ना] १. लगी या सटी हुई चीज को अलग करना । नोचना । २. उखाड़ना ।

उचाढ़ी पु
वि० स्त्री० [सं० उच्चटित] उचाट । उदासीन । अनमना । विखत । उ०—सखी संग की निरखति यह छबि भई व्याकुल मन्मथ की डाढ़ी । सूरदास प्रभु के रसबस सब भवन काज तें भई उचाढ़ी । ।—सूर०, १० । ७३६ ।

उचान
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'ऊँचान' ।

उचाना पु †
क्रि० स० [हिं०] १. उठाना । 'उँचाना' । उ०—मोहन मोहनी रस भरे । .....दरकि कंचुकि, तरकि माला, रही धरणी जाइ । सूर प्रभु करि निरखि करुणा तुरत लई उचाइ ।—सूर (शब्द०) । २. ऊपर उठना । ऊँचा करना । उ०—सुनि यह श्याम बिरह भरे । सखिन तब भुज गहि उचाए बावरे कत होत । सूर प्रभि तुम चतुर मोहन मिलो अपने गोत ।—सूर (शब्द०) ।

उचापत †, उचापति †
संज्ञा पुं० [देश०] १. बनिए का हिसाब किताब । उठान । लेखा । उ०—मूल दास सौं बहुत कृपाल ।करै उचापति सौंपै माल—अर्ध०, पृ० । २. जो चीज बनिए के यहैँ से उधार ली जाय ।

उचार पु
संज्ञा पुं० [सं० उच्चार] कथन । उच्चारण । उ०—मानुस देही पाप का, किया न नाम उचार ।—दरिया० बानी, पृ० ८ ।

उचारन पु
संज्ञा पुं० [सं० उच्चारण] दे० 'उच्चारण' ।

उचारना (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० उच्चारण] उच्चारण करना । मुँह से शब्द निकालना । बोलना । उ०—पकरि लियो छन माँझ असुर बल डारयो न खन विदारी । रुधिर पान करि माल आँत धरि जय जय शब्द उचारी ।—सूर (शब्द०) ।

उचरना (२)
क्रि० स० [सं० उच्चाटन] उखाड़ना । नोचना । उ०— (क) वृक्ष उचारि पेड़ि सों लीन्ही । मस्तक झार तार मुख दीन्ही ।—जायसी (शब्द०) । (ख) ऋषी क्रोध करि जटा उचारी । सो कृत्या भइ ज्वाला भारी ।—सूर (शब्द०) ।

उचालना †
क्रि० सं० [हिं०] दे० 'उचाड़ना' ।

उचावा
संज्ञा पुं० [सं० उच्चावच] सपने में बकना । बर्राना ।

उचास
संज्ञा स्त्री० [हिं० ऊँचा + आस (प्रत्य०)] उँचाई । ऊँचास । उ०—जण अपणाय गया तारण जग चित्रकूट गिर सिखर उचास ।—रघु० रू०, पृ० १३० ।

उचित
वि० [सं०] [संज्ञा औचित्य] १. योग्य । ठीक । उपयुक्त । मुनासिब । वाजिब । २. परंपरित (को०) । ३. सामान्य (को०) । ४. प्रशंसनीय (को०) । ५. आनंदकर (को०) । ६. अनुकूल (को०) । ७ । ज्ञात (को०) । ८. विश्वसनीय (को०) । ९. ग्राह्य (को०) । १० । सुविधाजनक (को०) । यौ०—उचितज्ञ = उचित या विहित का ज्ञाता ।

उचिष्ट पु
संज्ञा पुं० [सं० उच्छिष्ट] दे० 'उच्छिष्ट' । उ०—(क) अनेक ग्रंथ तिन बरन बत यौं उचिष्ट मति मैं लहिए ।—पृ० रा०, १ । १५ । (ख)संत उचिष्ट वार मन झेला । दुरलभ दीन दुहेला ।—घट०, पृ० २०१ ।

उचेड़ना †
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उचाड़ना' ।

उचेरना, उचेलना
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उकेलना', 'उचाड़ना' । उ०—देह आप करि मेंनिया महा अज्ञ मतिमंद । सुंदर निकसै छीलकै जबहि उचेरे कंद । ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ७८० ।

उचैंहा पु
वि० [हिं०] दे० 'उचौंहा' ।

उचौंहा, उचौंहा पु
वि० [हिं० ऊँचा + औंहा (प्रत्य०)] [स्त्री० उँचौंही] ऊँचा उठा हुआ । उभड़ा हुआ । उ०—आजु कालि दिन द्वैक तें भई और ही भाँति । उरज उचौहैं दै उरू तनु तकि तिया अन्हाति ।—पदमाकर (शब्द०) ।

उच्चंड
वि० [सं० उच्चण्ड] १. प्रचंड । उग्र । २. तेज । तीव्र । ३. अत्यत कुद्ध । ४. उतावला [को०] ।

उच्चंद्र
संज्ञा पुं० [सं० उच्चन्द्र] रात्रि का अंतिम भाग जब चंद्रमा नहीं रहता । रात्रिशेष [को०] ।

उच्च
वि० [सं०] १. ऊँचा । २. श्रेष्ठ । बड़ा । महान । उत्तम । जैसे, —(को) यहाँ पर उच्च और नीच का विचार नहीं है । (ख) उनके विचार बहुत उच्च हैं । ३. तार नाम का सप्तक जो शेष दोनों सप्तकों से ऊँचा होता है (संगीत) । ४. प्रभाव- शील ।५. उच्चपदासीन (को०) । यौ०—उच्चाशय । उच्चकुल । उच्चकोटि । उच्चपद । विशेष—ज्योतिष में मेष का सूर्य उच्च (देश अंशों के भीतर परम उच्च) वृष का चंद्रमा उच्च (६ अंशों के भीतर परम उच्च), मकर का मंगल उच्च (२८ अंशों के भीतर परम उच्च), कन्या का बुध उच्च (१५ अंशों के भीतर परम उच्च), कर्क का बृहस्पति उच्च (५ अंशों के भीतर परम उच्च), मीन का शुक्र उच्च (२७ अंशों के भीतर परम उच्च), तुला का शनि उच्च (२७ अंशों के भीतर परम उच्च), इसी प्रकार उच्चराशि से सातवीं राशि पर होने से वह नीच होता है, जैसे, मेष का सूर्य उच्च और तुला का नीच होता है ।

उच्चक
वि० [सं० उच्च + क] उच्चतम । सबसे अधिक ऊँचा ।

उच्चकित
वि० [सं०] दे० 'चकित' ।

उच्चक्षु
वि० [सं० उच्चक्षुस्] १. ऊपर की ओर देखनेवाला । २. अंधा । बिना आँख का [को०] ।

उच्चगिर
वि० [सं०] जोर से बोलनेवाला । जिसकी आवाज बुलदं हो [को०] ।

उच्चघन
संज्ञा पुं० [सं०] छिपी हँसी । वह हँसी जो चेहरे पर व्यक्त न हो ([को०]) ।

उच्चटा
संज्ञा स्त्री० (सं०) १. एक प्रकार की घास । २. घमंड (को०) । ३. अभ्यास । परंपरा (को०) । ४. गुंजा (को०) । ५. एक प्रकार का लहसुन (को०) । ६. चुड़ाला (को०) । ७. भूम्या- मलकी (को०) । ८. नागरमुस्ता । नागरमोथा (को०) ।

उच्चतम (१)
वि० [सं०] सबसे ऊँचा ।

उच्चतम (२)
संज्ञा पुं० संगीत में एक बनावटी सप्तक जो 'तार' से भी ऊँचा होता है और केवल बजाने के काम में आता है ।

उच्चतर
वि० [सं०] अपेक्षाकृत अधिक ऊँचा ।

उच्चतरु
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊँचा या लंबा पेड़ । २. नारियल का पेड़ [को०] ।

उच्चता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. ऊँचाई । २. श्रेष्ठता । बड़ाई । बड़प्पन । ३. उत्तमता ।

उच्चताल
संज्ञा पुं० [सं०] भोज या पान गोष्ठी के अवसर पर होनेवाला नाच, गाना [को०] ।

उच्चल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उच्चता' । उ०—और जब सावन लुभावन बरस धाया, उन्हें निज उच्च पर जब तरस आया ।—हिस० पृ० २ ।

उच्चन्यायालय
संज्ञा पुं० [सं० उच्च + न्यायालय = अँ० हाईकोर्ट] राज्य का सर्वोच्च न्यायालय जिसमें उन मुकदमों पर विचार होता है, जिनपर जिले का न्यायलय निर्णय दे चुकता है । गंभीर महत्व के कुछ अन्य मुकदमे भी इसमें ले जाए जाते हैं ।

उच्चय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. संपुंज । समूह । ढेर । २. (पुष्पादि) चुनने की क्रिया । ३. नीवीबंध । ४. अभिवृद्धि । अभ्युदय । ५. नीवार धान्य । ६. त्रिभुज का उलटा भाग (को०) ।

उच्चय (२)पु
वि० [सं० उच्चौ] दे० 'ऊँचा' । उ०—कबहुँ हृदय उमंगि बहुत उच्चय स्वर गावें—सुंदर० ग्रं०, भा० १, पृ० २६ ।

उच्चयापचय
संज्ञा पुं० [सं०] उत्थान और पतन [को०] ।

उच्चरण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उच्चरणीय, उच्चरित] १. कंठ, तालु, जिह्वा आदि के प्रयत्न से शब्द निकलना । मुँह से शब्द फूटना । २. ऊपर या बाहर आना (को०) ।

उच्चरना पु
क्रि० स० [सं० उच्चरण] उच्चारण करना । बोलना । उ०—बेदमंत्र मुनिवर उच्चरहीं । जय जय जय संकर सुर करहीं ।—मानस, १ । १०१ ।

उच्चरित (१)
वि० [सं०] १. कथित । कहा हुआ । २. बाहर आया हुआ [को०] ।

उच्चरित (२)
संज्ञा पुं० मल । विष्ठा [को०] ।

उच्चल (१)
वि० [सं०] गतिवान । चलायमान । उ०—तोता मारू माँह गुण, जेता तारा अभ्भ । उच्चलचित्ता साजणाँ, कहि क्यउँ दाखउँ सभ्भ ।—ढोला०, दू० ४८७ ।

उच्चल (२)
संज्ञा पुं० मन [को०] ।

उच्चलन
संज्ञा पुं० [सं०] गमन । रवाना होना । जाना [को०] ।

उच्चलित
वि० [सं०] १. जाने के लिये उद्यत । प्रस्थान करनेवाला । २. गया हुआ । ३. फटका हुआ [को०] ।

उच्चस्त्रव
संज्ञा पुं० [सं० उच्चौःश्रवा] दे० 'उच्चैश्रवा' । उ०— मनु उच्चस्त्रव के बंधु, आबर्त चक्र सु कंधु ।—हम्मीर रा० पृ० १२४ ।

उच्चाट
संज्ञा पुं० [सं०] १. उखाड़ने या नोचने की क्रिया । २. चित्त का न लगना । अनमनापन । विरक्ति । उदासीनता ।

उच्चाटन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उच्चाटनीय, उच्चाटित] १. लगी या सटी हुई चीज को अलग करना । विश्लेषण । २. उचाड़ना । उखाड़ना । नोचना । ३. किसी के चित्त को कहीं से हटाना । तंत्र के ६ अभिचारों या प्रयोगों में से एक । उ०— मारन मोहन उच्चाटन और स्तंभन इत्यादि सब बल वेदमंत्रों में है ।—कबीर ग्रं०, पृ० ३४ । ४. चित्त का न लगना । अनमनापन । विरक्ति । उदासीनता ।

उच्चाटनीय
वि० [सं०] १. उखाड़ने योग्य । उचाड़ने के लायक । २. उच्चाटन प्रयोग के योग्य । जिसपर उच्चाटन प्रयोग हो सके ।

उच्चाटित
वि० [सं०] १. उखाड़ा हुआ । उचाड़ा हुआ । २. जिसपर उच्चाटन प्रयोग किया गया हो ।

उच्चना पु
क्रि० स० [हिं० उचाना] दे० 'उचाना' । उ०—दौरि राज पृथ्वीराज सु आयौ, षमाषमा अष्षै उच्चायौ ।—पृ० रा०, ४ । ४ ।

उच्चार
संज्ञा पुं० [सं०] १. कथन । शब्द मुँह से निकालना । बोलना । उ०—सकल सुख दैनहार तातै करों उच्चार कहत हौं बार बार जिनि भुलवों । नंद० ग्रं०, पृ० ३२८ ।— क्रि० प्र०—करना । होना । यौ०—गोत्रोच्चार । मंत्रोच्चार । शाखोच्चार । १. मल पुरीष ।

उच्चारक
वि० [सं०] उच्चार करनेवाला । कहनेवाला [को०] ।

उच्चारण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उच्चारणीय, उच्चारित, उच्चर्य, उच्चार्यप्राण] १. कंठ, तालु, ओष्ठ, जिह्वा आदि के प्रयत्न द्वारा मनुष्यों का व्यक्त और विभक्त ध्वनि निकलना । मुँह से स्वर और व्यंजनयुक्त शब्द निकालना । जैसे (क) वह लड़का शब्दों का ठीक ठीक उच्चारण नहीं कर सकता । (ख) बहुत से लोग वेद के मंत्रों का उच्चारण सबके सामने नहीं करते । विशेष—गद्य में मनुष्य ही की बोली के लिये इस शब्द का प्रयोग होता है । मानव शब्द के उच्चारण के स्थान से संबद्ध मनुष्य हैं—उर, कठ, मूर्द्धा, जिह्वा, स्थरतंत्री, काकल, अभिकाकल, जिह्वामूल, वर्त्स, दाँत, नाक, ओठ और तालु । २. यावर्णों शब्दों को बोलने का ढंग । तलफ्फुज । जैसे— बंगालियों का संस्कृत उच्चारण अच्छा नहीं होता ।

उच्चारणीय
वि० [सं०] उच्चारण करने योग्य । बोलने लायक । मुँह से निकालने लायक ।

उच्चारना पु
क्रि० स० [सं० उच्चारण] (शब्द) मुँह से निकलना । उच्चारण करना । बोलना । उ०—कै मुख करि भृंगन मिस अस्तुति उच्चारत । भारतेंदु ग्रं० भा० १ । पृ० ४५५ ।

उच्चारित
वि० [सं०] जिसका उच्चारण किया गया हो । बोला हुआ । कहा हुआ ।

उच्चार्य
वि० [सं०] दे० 'उच्चारणीय' ।

उच्चार्यमाण
वि० [सं०] जिसका उच्चारण किया जाय । बोला जानेवाला ।

उच्चावच
वि० [सं०] १. ऊँचा नीचा । २. ऊबड़ खाबड़ । विषम । ३. छोटा बड़ा । ४. अनेक रूप या प्रकार का । विभिन्न । विविध [को०] ।

उच्चिंगट
संज्ञा पुं० [सं० उच्चिंगट] १. भावाविष्ट या क्रुद्ध व्यक्ति । २. एक प्रकार का केकड़ा । ३. एक जाति का झिंगुर [को०] ।

उच्चित
वि० [सं०] चुना हुआ । एकत्र किया हुआ । पुंजीकृत ।

उच्चित्र
वि० [सं०] स्पष्ट रूप से बने हुए, विशेषतः उभरे हुए, चित्रों के साथ [को०] ।

उच्चूड, उच्चूल
संज्ञा पुं० [सं०] १. ध्वज या उसका ऊपर का भाग । २. ध्वज के ऊपरी हिस्से की सजावट [को०] ।

उच्चे पु
वि० [सं० उच्च वा उच्चैः] ऊँचा । उ०—जल जंत्र- छुटे उच्चे संबंध । हम्मीर रा०, पृ० ६३ ।

उच्चैः
अव्य० [सं०] १. ऊँचा । नीचा का उलटा । २. ऊँचे स्वर से । जोर से । ३. बहुत अछिक । ज्यादा [को०] । विशेष—समास में या स्वतंत्र रूप इसका विशेषण की तरह भी प्रयोग होता है ।

उच्चैश्रवा (१)
संज्ञा पुं० [सं० उच्चैः श्रवस्] इंद्र का सफेद घोड़ा जिसके खड़े खड़े कान और सात मुँह थे । यह समुद्र में से निकले हुए चौदह रत्नों में था । उ०—एक बेर सूर्यपुत्र उच्चैश्रवा अश्वारूढ़ होकर विष्णु के दर्शनार्थ बैकुंठ को गया । कबीर ग्रं०, पृ० १८८ ।

उच्चैश्रवा (२)
वि० ऊँचा सुननेवाला । बहरा ।

उच्छटना पु
क्रि० अ० [सं०] [उत्क्षिप्ति > प्रा०* उच्छअढ़ > हिं० उच्छड़, उछल या उतृ + शल] उछलना । छूटना । पड़ना । गिरना । उ०—हैजाम हुज्ज सिर उच्छटी । बीजलि के अंबर अरी । क्रंनान भंजि पुष्परि षला । मही अग्गि उछटी परी । ।— पृ० रा० १२ । १४८ ।

उच्छन्न (३)
वि० [सं०] १. दबा हुआ । लुप्त । २. खूला हुआ । आवरणरहित । अनावृत (को०) । ३. नष्ट । विध्वस्त । उच्छिन्न । काटा हुआ [को०] ।

उच्छरना पु
क्रि० अ० [सं० उच्छेलन] दे० 'उछरना' और 'उछलना' । उ०—के बहुत रजत चकई चलत कै फुहार जल उच्छरत ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, पृ० ४५६ ।

उच्छल
वि० [सं०] ऊपर की ओर उछलनेवाला । आगे की ओर बढ़नेवाला ३. लहरानेवाला । तरंगायित । उ०—कुछ माँग रही इठला इठला, निज उच्छल गरिमा से निकला, चंचल कपोल की नृत्य कला ।—इत्यलम्, पृ० ९६ ।

उच्छलन
संज्ञा पुं० [सं०] उछलने या तरंगायित होने की क्रिया या भाव । उ०—परम प्रेम उच्छलन इक, बढ़यो जु तन मन मैन । व्रज बाला बिरहिन भई, कहति चंद सौं बैन । ।—नंद० ग्रं०, पृ० १६२ ।

उच्छलना पु
क्रि० अ० [सं० उच्छलन] दे० 'उछलना' । उ०— सिंधु जल उच्छल्यौ गिरे पर्वत शिखर वृक्ष जड़ सों सबै दिये उजारी । भारतेंदु ग्रं०, २, पृ० ४३७ ।

उच्छलित
वि० [सं०] १. उछलता हुआ । छलकता हुआ । तरंगायित । २. हिलता डुलता हुआ । कंपित [को०] । ३. गया हुआ । गत (को०) ।

उच्छव पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्सव, प्रा० उच्छव] उत्सव । उ०—बोलि सबै गोकुल की बाला । उच्छव कियो महा तत्काला ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४१ ।

उच्छव्रति पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उच्छवृत्ति] दे० 'उंछवृत्ति' ।

उच्छादन
संज्ञा पुं० [सं० अक्छादन] १. आच्छादन । ढकना । २. सुगंधित द्रव्यों को शरीर पर मलना । लेपना ।

उच्छाव पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह] १. उत्साह । उमंग । २. धूमधाम ।

उच्छास पु
संज्ञा पुं० [सं० उच्छ्वास, प्रा० उच्छास, ऊसास] दे० 'उच्छासन' ।

उच्छासन
वि० [सं०] प्रतिबंध शासन में न रहनेवाला । अनियंत्रित । निरंकुश [को०] ।

उच्छ्वासित
वि० [सं०] १. उच्छवासयुक्त । २. जिसपर साँस का प्रभाव पड़ा हो । ३. प्रफुल्लित ।

उच्छास्त्र
वि० [सं०] १. शास्त्रविरुद्ध । नियम या समाजविरुद्ध । २. शास्त्रविरोधी आचरण करनेवाला (को०) । यौ०—उच्छास्त्रवर्ती = शास्त्रानुकूल आचरण न करनेवाला ।

उच्छाह पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्साह प्रा० उच्छाह] दे० 'उछाह', । उत्साह । उ०—उच्छाह सहित उठि सेख तब, आनंद मंगल बर्षियउ ।—हमीर रा०, पृ० ५३ ।

उच्छिंघन
संज्ञा पुं० [सं० उच्छिङ्घन] नाक से साँस लेना । खर्राटे भरना [को०] ।

उच्छिख
वि० [सं०] १. चूड़ायुक्त, शिखासहित । २. जिसकी लपट ऊपर की ओर जा रही हो । ३. चमकीला । प्रकाशमान [को०] ।

उच्छित्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विनाश । उच्छेद [को०] ।

उच्छिन्न
वि० [सं०] १. कटा हुआ । खंडित । २. उखाड़ा हुआ । जैसे—यहाँ के पौधे सव उच्छिन्न कर दिए । ३. निर्मूल । नष्ट । जैसे—चार पीढ़ी के पीछे वह वंश ही उच्छिन्न हो गया । उ०—यदि नियम न हों, उच्छिन्न सभी हों कबके ।—साकेत, पु० २१३ ।

उच्छिन्नसांधि
संज्ञा स्त्री० [सं उच्छिन्नसन्धि] वह संधि जो उपजाक या खनिज पदार्थों से परिपूर्ण भूमि का दान करने की जाय ।

उच्छिलींध्र
संज्ञा पु० [सं० उच्छिलीन्ध्र] कुकुरमुत्ता या रामछाता जो बरसात में भूमि फोड़कर निकलता है । छत्रक ।

उच्छिष्ट (१)
वि० [सं०] १. किसी के खाने से बचा हुआ । जिसमें खाने के लिये किसी ने मुँह लगा दिया हो । किसी के आगे का बचा हुआ (भोजन) । जूठा । जैसे—वह किसी का उच्छिष्ट भजन नहीं खा सकता । विशेष—धर्मशास्त्र में उच्छिष्ट भोजन का निषेध है । २. दूसरे का बार्ता हुआ । जिसे दूसरा व्यवहार कर चूका हो । ३. जुठे मुँहवाला । जिसके मुख में जूठन लगी हो (को०) ।४. परित्यक्त । छोड़ा हुआ (को०) ।४. एक दिन पूर्व का । बासी (को०) ।

उच्छिष्ट (२)
संज्ञा पुं० १. जूठी वस्तु ।२. मधु । शहद ।

उच्छिष्ट गणेश
संज्ञा पुं० [सं०] गणपति का एक तंत्रोक्त रूप [को०] ।

उच्छिष्ट चांडालिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मातंगी देवी [को०] ।

उच्छिष्ट भोत्त्का
वि० [सं० च्छिष्टभोत्त्क] उच्छिष्ट या परित्यक्त वस्तु खानेवाला । नीच (व्यक्ति) [को०] ।

उच्छिष्ट भोजन
संज्ञा पुं [सं०] १. जूठी वस्तु का भक्षण । जूठन खाना । २. देवर्पित प्रसाद या पंचमहायज्ञ से बचे हुए अन्न का भोजन [को०] ।

उच्छिष्ट भोजी
वि० [सं० उच्छिष्ट भोजिन्] [वि० स्त्री० उच्छिष्ट- भोजनो] उच्छिष्ट खानेवाला । जूठन खानेवाला ।

उच्छिष्टमोदन
संज्ञा पुं० [सं०] मोम [को०] ।

उच्छोर्षक (१)
वि० [सं०] उन्नत या उठे हुए सिरवाला [को०] ।

उच्छोर्षक (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. शिरोपधान । तकिया । २. उत्तमांग सिर [को०] ।

उच्छुल्क (१)
वि० [सं० उत् + शुल्क] कौटिल्य के अनुसार बिना चुंगी या महसूल का (माल, वस्तु) ।

उच्छुल्क (२)
क्रि० वि० बिना चुंगी या महसूल दिए ।

उच्छुष्क
वि० [सं०] शुल्क । सुखा हुआ [को०] ।

उच्छू
संज्ञा स्त्री० [सं० उत् + श्वस् > उच्छवस् > उच्छ, उच्छव पं० उत्थू] एक प्रकार की खाँसी जो गले में पानी इत्यादि के रुकने से आने लगती है । सुनसुनी ।

उच्छून
वि० [सं०] १. बढ़ा हुआ । २. फूना हुआ । सूजा हुआ । स्थूल । ३. भारी ऊचा (को०) ।

उच्छंखल
वि० [सं० [सं० उच्छुड्खल] १. जो शृंखलाबद्ध न हो । कमविहीन । अंडबँड । २. बंधनविहीन । निरंकुश । स्वेच्छा- चारी मनमाना काम करनेवाला । उ०—अंग अंग में नव- यौवन उच्छ खल, किंतु बँधा लावण्यपाश से नम्र सहास अचंचल ।—अनामिका, पु० ५० । ३. उद्दंड । अक्खड । किसी का दबाब न माननेवाला ।

उच्छृंखलता
संज्ञा स्त्री० [सं० उच्छृड्खलता] उच्छृंखल होने का भाव । निरंकुशता । उ०—वह अविकार गहन—सुख—दुख—गृह, वह उच्छृं खलता उद्दाम ।—अपरा, पृ० ११० ।

उच्छेतव्य
वि० [सं०] उच्छेद के योग्य । उखाड़ने को योग्य । निर्मूल करने के योग्य । विशेष—राजनीति और धर्मशास्त्र में राजाओं के चार प्रकार के शत्रु माने गए हैं । उनमें से उच्छेतव्य वह है जो व्यसनी और सेना दुर्ग से रहित हो तथा जिसके वश में न हो ।

उच्छेता
वि० [सं० उच्छेतृ] उच्छेद करनेवाला । नाशक । विध्वंसक ।

उच्छेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. उखाड़ पखाड़ । विश्लेषण । खंडन । २. नशा । क्रि० प्र०—करना ।—होना । यौ०—मूलोच्छेद ।

उच्छेदवाद
संज्ञा पुं० [सं० उच्छेद + वाद = सिद्धांत] [वि० उच्छेद- वादी] आत्मा के अस्तित्व को माननेवाला दार्शनिक सिद्धांत ।

उच्छेदित
वि० [सं० उच्छेद + इत (प्रत्य०)] १. खंडित । २. उत्पा- टित । ३. विनाशित । उ०—हम उन्मूजित हैं, उच्छेदित इस जगती के ।— रजत, पृ० ३२ ।

उच्छेदी
वि० [सं० उच्छेदिन्] उच्छेद या विनाश करनेवाला ।

उच्छेष
संज्ञा पुं० [सं०] १. अवशिष्ट । बचा हुआ । २. भोजन का बचा हुआ अंश [को०] ।

उच्छेषण
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उच्छेष' ।

उच्छोषण (१)
वि० [सं०] शुष्क करनेवाला । सुखानेवाला । शोषक [को०] ।

उच्छोषण (२)
संज्ञा पुं० [सं०] सुखाना । रस खींचना [को०] ।

उच्छ्रय उच्छ्राय
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उदय । उगना । २. उन्नयन । उत्थान । ३. उच्चता । ऊँचाई । प्रकर्ष । उत्कर्ष । ४. विकास वृद्धि । ५. घमंड । गर्व । ६. एक प्रकार का स्तंभ [को०] ।

उच्छवसन
संज्ञा पुं० [सं०] १. साँस लेना । गहरी साँस लेना । आह भरना । ३. शिथिलीकरण (को०) ।

उच्छ्वसित
वि० [सं०] १. उच्छ्वासयुक्त । २. जिसपर उच्छ्वास का प्रभाव पड़ा हो । ३. विकसित । प्रफुल्लित । फूला हुआ । ४. जीवित । ५. बाहर गया हुआ । ६. आशा या भरोसे से भरा हुआ । ढ़ाढ़स बँधाया हुआ (को०) । ७. निश्चिंत । संतुष्ट (को०) ।

उच्छवास
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उच्छ्वासित, उछ्वासित, उच्छ् वासी] १. ऊपर को खींची हुई साँस । उसास । २ साँस । श्वास । उ०—घूम उठे हैं शून्य में, उमड़ घुमड़ घनघोर, ये किसके उच्छ्वास से छाए हैं सब ओर ।—साकेत, पु० २७१ । यो०—शोकोच्छवास । ३. ग्रंथ का विभाग । प्रकरण । ४. सांत्वना (को०) ।५. प्रोत्साहन (को०) । ६. मरण (को०) । ७. हवा की नलिका (को०) ८. फैलाव । बुद्धि (को०) । ९. झाग ।

उच्छ्वासित
वि० [सं०] १. थका हुआ । श्रांत । २. विपुल । आधिक । ३. दे० 'उच्छ्वासित' [को०] ।

उच्छ्वासी
वि० [सं० उच्छ्वासिन्] [वि० स्त्री० उच्छ्वासिनो] १. साँस लेनेवाला । २. आह भरनेवाला । ३. मरने, विलीन होने या मुरझानेवाला (को०) । रुकनेवाला [को०] । आगे आनेवाला (को०) । विभक्त (को०) ।

उछंक पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्संग, प्रा० उच्छंग] दे० 'उत्संग' । देटी राजा भोज की उठइ उछंकि लेई अंकमाय ।—बी० रासो, पृ० ५० ।

उछंग पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्सङ्ग प्रा० उच्छंग] २. गोद । क्रोड़ । कोरा । उ०—(क) स्तुति करि वे गए स्वर्ग को अभय हाथ करि दीन्हों, बंधन छोरि नंदबालक को लै उछंग करि लीन्हों ।—सूर (शब्द०) (ख) जननी उमा बोलि तब लीन्ही, लेइ उछंग सुंदर सिख दीन्ही । तुलसी (शब्द०) । २. समीप । अतिनिकट । उ०— जानि कुअवरु प्रीति दुराई, सखि उछंग बैठी पुनि जाई ।— मानस १ । ६८ । ३. हृदय । मुहा०—उछंग लेना = आलिंगन करना । हृदय से लगना । उ०—मैं हारी त्यों ही तुम हारो चरन चापि स्रम मेटौंगी । सूर स्याम ज्यों उछंग लई मोहि त्यों में हूँ हँसि भेटौंगी ।— सूर० १० । ११४७ ।

उछंछल पु
वि० [सं० उत् + चंचल = उच्चंचल] उछलनेवाला । उ०— अलबेला सु उछंछला अनमी अव नंदा ।— पृ० रा० २५ । ५३९ ।

उछकना पु
क्रि० अ० [हिं० उचकना, उझकना = चौंकना] चौंकना चेतना । चेत में आना । उ०— डर न टरै, नींद न परै, हरै न काल बिपाकु, छिनकु छाकि उछकै न फिरि खरौ बिषमु छबि छाकु ।—बिहारी र० दो० ३१८ ।

उछक्का †
वि० पुं० स्त्री० [हिं० उचकना] १. जगह जगह उछलता फिरनेवाला । २. कुलटा । दुश्चरित्रा ।

उछटना
क्रि० अ० [सं० उत् + √ चाट्या √ चल्] छूटना । गिरना । छटककर गिरना । उ०—हैजाम हुज्ज सिर उच्छटी, बीजलि कै अंबर अरी । क्रंनान भंजिषु परि षला, मही अग्नि उछटी परी ।—पृ० रा०, १२ । १४८ ।

उजरंग पु
संज्ञा पुं० [हिं० उछाह] उत्साह । उमंग । उ०—सब्रत जली झलहल न्नप संगे, अष्ट निकट गायण उछरंगे ।—रा० रु० पृ० १८ ।

उछरना
१)पु क्रि० अ० [सं० उच्छलन] दे० 'उछलना' । उ०—जमत उड़त ऐंडत उछरत पैंजनी बजावत ।—प्रेमघन०, भा० १ पृ० ११ ।

उछरना (२) †
क्रि० स० [हिं० उछाल + ना (प्रत्य०)] वमन या उल्टी करना ।

उछल कूद
संज्ञा स्त्री० [हिं० उछलना + कूदना] १. खेलकूद ।२. हलचल । अधीरता । चंचलता । मुहा०—उछल कूद करना = आवेग और उत्साह दिखाना । बढ़ बढ़कर बातें करना । जैसे,—बहुत उछल कूद करते थे, पर इस समय कुछ करते नहीं बनता ।

उछलना
क्रि० अ० [सं० उच्छलन] १. नीचे ऊपर होना । वेग से ऊपर उठना और गिरना । जैसे—समुद्र का जल पुरसों उछलता है । २. झटके के साथ एकबारगी शरीर को क्षण भर के लिये इस प्रकार ऊपर उठा लेना जिसमें पृथ्वी का लगाव छूट जाय । कूदना । जैसे—उस लड़के ने उछलकर पेड़ से फल तोड़ लिया । विशेष—अत्यंत प्रसन्नता के कारण भी लोग उछलते हैं । जैसे, यह बात सुनते ही वह खुशी के मारे उछल पड़ा । ३. अत्यंत प्रसन्न होना । खुशी से फूलना । जैसे, जब से उन्होंने यह खबर सुनी है तभी से उछल रहे हैं । ४. चिह्न पड़ना । उपटना । उभड़ना । जैसे, (क) उसके हाथ में जहाँ जहाँ बेंत लगा है, उछल आया है । (ख) तुम्हारे माथे में चंदन उछला नहीं । (ग) इस मोहर के अक्षर ठीक उछले नहीं । उ०—बैठ भँवर कुच नारँग लारी, लागे नख उछरै रंग धारी ।—जायसी (शब्द०) । ५. उतराना । तरना । उ०— (क) चोर चुराई तूँबड़ी गाड़ी पानी माहि । वह गाड़े ते ऊछलै यों करनी छपनी नाहिं । कबीर (शब्द०) । (ख) बैरी बिन काज बूड़ि बूड़ि उछरत वह बड़े बंस विरद बड़ाई सो बडायती । निधि है निधान की परिधि प्रिय प्रान की सुमन की अवधि वृषभान की लड़ायती ।— देव (शब्द०) ।

उछलवाना
क्रि० स० [हिं० उछलना का प्रे० रूप] उछलने में प्रवृत्त करना ।

उछला
वि० [हिं० उथला] उथला । छिछला । कम गहरा ।

उछलाना
क्रि० स० [हिं० उछलना का प्रे० रूप] दे० 'उछलवाना' ।

उछलित पु
वि० [सं० उच्छलित] दे० 'उच्छलित' । उ०—अति रसमत्त बदन नहिं काहू उछलित रस आवेसा । —भारतेंदु ग्रं० भा० २, पृ० ५३२ ।

उछव पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्सव, प्रा० उच्छव]दे० 'उच्चव' । उ०— प्रथम जामि निसि रज्ज कज्ज है गै दिष्षत लगि, दुतिय जाम संगीत, उछव रस कित्ति काव्य जगि ।—पृ० रा०, ६ । ११ ।

उछट्टना
क्रि० अ० [हिं० उछाह से नाम०] दे० 'उछलना' । उ०— जत गरल कंठ दीसदृति वीय, जिम चित प्रगट संसार नीय । सारंग उछह तिन पान पानि, दिव तुंग जाल जव जवानि मानि ।—पृ० रा०, ७ । ९ ।

उछाँट
संज्ञा पुं० [सं० उच्चाट]दे० 'उजाट' । उ०— जिस वक्त आदमी का दील उछाँट होता है उस वक्त उसको किसी की बात अच्छी नहीं लगती ।—श्रीनिवास ग्रं० पृ० ५८ ।

उछाँटना (१)
क्रि० स० [सं० उच्चाटन, हिं० उचाटना] उचाटना । उदासीन करना । विरक्त करना । उ०—हर किशोर ने हरगोविंद की तरफ से आपका मन उछाँटने के लिये यह तदबीर की हो तो भी कुछ आश्चर्य नहीं ।—परीक्षागुरु (शब्द०) । २. उखाड़ना । उपाटना ।

उछाँटना (२)पु
क्रि० स० [हिं० छाँटना] छाँटना । चुनना । उ०— अकिल अरग सो ऊतरी बिधिना दीन्ही बाँटि, एक अभागी रह गया एक न लई उछाँटि ।—कबीर (शब्द०) ।

उछार पु
स्त्री० पुं० [सं० उच्छाल] सहसा ऊपर उठने की क्रिया । उछाल । २. ऊपर उठने की हद । ऊँचाई जहाँ तक कोई वस्तु उचल सकती है । ३. ऊँचाई । उ०— यक लख योजन भानु तें, है शशि लोक उछार । योजन अड़तालिस सहस में ताको बिस्तार ।—विश्राम (शब्द०) । ४. उछलता हुआ कण । छींटा । उ०—आई खेलि होरी ब्रजगोरी संग अंग अंग रंगीन अनंग सरसाइगो । कुंकुम की मार वापै रंगिनि उछार उड़ै बुक्का औ गुलाल लाल लाल बरसाइगो । रसखान (शब्द०) । ५. वमन । कै ।

उछारना
क्रि० स० [हिं० 'उछरना' का प्रे० रूप] दे० 'उछलना' ।

उछाल (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० उच्छाल] २. सहसा ऊपर उठने की क्रिया २. फलाँग । चौकड़ी । कुदान । जैसे, हिरन की उछाल सबसे अधिक होती है । क्रि० प्र०— भरना । मरना । लेना । ३. ऊपर उठने की हद या ऊँचाई ।

उछाल (२)
संज्ञा पुं० [सं० छर्दि, प्रा० छड्डि] उलटी । कै । वमन ।

उछालछक्का
वि० [हिं० उछाल + छक्का] व्यभिचारिणी । छिनाल ।

उछलना
क्रि० स० [सं० उच्छालन] १. ऊपर की ओर फेंकना । उचकना । २. प्रकट करना । प्रकाशित करना । उजागर करना । जैसे, तुम अपनी करनी से अपने पुरखों का खूब नाम उछाल रहे हो । ३. कलंकित करना । बदनाम करने की चेष्टा करना । (व्यंग्य) ।

उछाला
संज्ञा पुं० [प्रा० उच्छाल, हिं० उछाल] जोश । उबाल । दे० 'उछाल' ।

उछाव पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्साह, प्रा० उच्छाह] उत्सव । उछाह । उ०—देश मालगिर हुवउ हो उछाव राजमती कउ रचउ वीवाह ।—बी० रासो, पृ० १५ ।

उछावा पु
संज्ञा पुं० [हिं० उछाव] उत्साह । हर्ष । आनंद । उ०— देखि दरश होय अधिक उछोव । कबीर सा०, पृ० ५६१ ।

उछाह
संज्ञा पुं० [सं० उत्साह प्रा० उत्साह] [वि० उछाही] १. उत्साह । उमंग । हर्ष । प्रसन्नता । आनंद । उ० (क) छढ़हि कुँवर मन करहि उछाहू । आगे घाल जिनै नहिं काहू । ।—जायसी (शब्द०) । (ख) और सबै हरखी हँसति गावति भरी उछाह । तुम्ही बहू बिलखी फेरै क्यों देवर कै ब्याह ।—बिहारी र० ६०२ । (ग) नाह के ब्याह कि चाह सुनी हिय माहिं उछाह छबीली के छायो । पौढ़ि रही पट ओढ़ि अटा दुख को मिस कै सुख बाल छिपायो ।—मतिराम (शब्द०) । २. उत्सव । आनंद की धू्म । ३. जैन लोगों की रथयात्रा । उत्कंठा । इच्छा । उ०—लंकादाहु देखे न उछाह रह्यो काहुन को कहैं सब सचिव पुकारे पाँव रोपिहैं ।—तुलसी ग्रं० पृ० १८० ।

उछाहित पु
वि० [सं० उत्साहित, प्रा० उच्छाहिय, हिं० उछाह उछाह + इत (प्रत्य०)] उत्साही । उछाह से युक्त । उछाह भरा । उत्साह करनेवाला । उ०—बीर विजय दिन बीर भूमि के बीर उछाहित । प्रेमघन० भा० १, पृ० ३४९ ।

उछाहो पु
वि० [हिं० उछाह] उत्साह करनेवाला । आनंद मनानेवाला ।

उछिन्न पु †
वि० [सं० उच्छिन्न] दे० 'उच्छिन्न' ।

उछिष्ट पु †
वि० [सं० उच्छिष्ट]—दे० 'उच्छिष्ट' ।

उछोड़ †
संज्ञा पुं० [हिं० छीर = किनारा] जगह । छेद । अनावृत स्थान ।

उछीनना पु
क्रि० स० [सं० उच्छिन्न] उच्छिन्न करना । उखड़ना । नष्ट करना । उ०—घने मीर बनबीर उछीने । पेलि मतंग घाट उन लीने ।—लाल (शब्द०) ।

उछीर पु
संज्ञा पुं० [ हिं० छोर = किनारा] अवकाश । जगह । रंध्र । अनावृत स्थान । उ०—देखि द्वार भीर पगदासी कटि बाँधी धीर कर सों उछीर करि चाहैं पद गाइए । देखि लीनों वेई, काहू दीनी पाँच सात चोट, कीनी धकाधकी, रिस मन में न आइए । ।—प्रियदास (शब्द०) ।

उछेद पु
संज्ञा पुं० [सं० उच्छेद] दे० 'उच्छेद' । उ०—निराकार तें वेद आदि भेद जाने नहिं, पंड़ित करत उछेद, मते वेद के जग चले ।—कबीर सा० पृ० १४ ।

उछेदना पु
क्रि० स० [सं० उच्छेदन] उच्छेद करना । नष्ट करना । प्रभावित करना । उ०—सत्य शब्द मन देइ उछेदी । मन चिन्हे कोईबिरले भेदी ।— कबीर सा०, पृ० २१६ ।

उछोह पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्सव] उत्सव । उछाह । आनंद । उ०— बाबा मंगलदास का रामचंद्र परमोह, पधराए गुरु पादुका कीये बहुत उछोह । सुंदर ग्रं० भा० १, पृ० १२३ ।

उछछ पु
वि० [सं० उच्छ, प्रा० उच्छ = हीन] दे० ओछा । उ०— बहु दिवस सोम नृप हुऊ सुषंग । किम उछ्छ वत्त कढ्ढी मुषंग ।—पृ० रा० ८ ।४ ।

उछछप पु †
संज्ञा पुं० [सं० उत्सव, प्रा० उच्छव] दे० 'उत्सव' ।

उछ्छरना
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'उछलना' । उ०— मनों तरक्क बिछ्छुरे मिलंद चंद उछ्छरे । पृ० रा० २५ । १४५ ।

उछ्छारना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उछरना', । उ०—बीर मंत्र उच्चार लोह ऊछ्छिन उछ्छारै । पृ० रा० २४ । १८१ ।

उजक
संज्ञा पुं० [तु० उज़क] शाही जमाने की बड़ी मुहर ।

उजका †
संज्ञा पुं० [हिं० उझकना] चिथड़े और घास फूस का पुतला जो खेत में चिड़ियों को दूर रखने के लिये रखा जाता है । बिजखा ।

उजग्गी पु
वि० [उज्जागृत] जागी हुई । जागती रहनेवाली । उ०—बचं उच्चरै बेंन निसि की उजग्गी । मनो कोकिला भाष संगीत लग्गी ।—पृ० रा० ६१ ।४२८ ।

उजट पु
संज्ञा पुं० [सं० उटज] झोपड़ा । पर्णशाला ।

उजड़ना
क्रि० अ० [सं० अव—उ = नहीं + जड़ना = जमाना अथवा देशी उज्जड [वि० उजाड़] १. उखड़ना पुखड़ना । उच्छिन्न होना । ध्वस्त होना । २. गिर पड़ जाना । बिख- रना । तितर बितर होना । जैसे, —यह घर एक ही बरसात में उजड़ जायगा । ४. बरबाद होना । तबाह होना । नष्ट होना । बीरान होना । उ०—(क) कई प्राणियों के मर जाने से उनका घर उजड़ गया । (ख) यह गाँव उजड़ गया ।

उजड़वाना
क्रि० स० [हि० उजड़ना का प्रे० रूप] किसी को उजाड़ने में प्रवृत्त करना ।

उजड़ा
वि० [हिं० उजड़ना] [वि० स्त्री० उजड़ी] १. उजड़ा हुआ । उखड़ा पुखड़ा हुआ । ध्वस्त । २. जिसका घरबार उजड़ गया हो । ३. नष्ट । निकम्मा (स्त्रि०) ।

उजड़ड
वि० [सं० उत् (= बहुत) + जड़ (= मूर्ख)] १. वज्र मूर्ख । अशिष्ट । असभ्य । जंगली । गवाँर । १. उद्दड़ । निरंकुश । जिसे बुरा काम करने में कुछ आगा पीछा न हो ।

उजड़्ड़पन
संज्ञा पुं० [हि० उजड़ड़ + पन (प्रत्य०)] उद्दंड़ता । अशिष्टता । असभ्यता । बेहुदापन ।

उजबक (१)
संज्ञा पुं० [तुं० उजबेक] तातारियों की एक जाति ।

उजबक (२)
वि० उजड़्ड़ । बेवकूफ । अनाड़ी । मूर्ख ।

उजबकपन
संज्ञा पुं० [तु० उजबेक + हि० पन (प्रत्य०) ] बेवकूफी । मूर्खता । उ०—बौद्धिक उजबकपन (इंटेलेक्चुश्रल वलगेरिज्म) भी एक बड़ा बुरा दोष है ।—कुंकुम (भू०), पृ० १८ ।

उजबेग
वि० [तु० उजबेक] तातारियों की जाति से संबंधित । तातारियों की जाति का । उ०—तैमूरी और उजबेग बादशाहों के साथ इतने युद्ध किए और संकट झेले ।—हुमायूँ, पृ० २ ।

उजम्मत
संज्ञा स्त्री० [अ०] बड़ाई । प्रतिष्ठा । संमान । उ०— मनमानी अपनी अजम्मत और तारीफ लिखी । =प्रेमघन० भा० २, पृ० १५७ ।

उजर †पु
वि० [सं० उज्जवल, प्रा० उज्जल] दे० 'उज्जल' । उ०— उजर नयन नलिना काजरे न कर मलिना ।—विद्यापति, पृ० ७७ ।

उजरत
संज्ञा स्त्री० [अ०] १. मजदूरी । २. किराया । भाड़ा । उ०—अच्छा, तो क्या आप समझते हैं । कि अपनी उजरत छोड़ दूँगी ।—मान० भा० पृ० ३६ । मुहा०—उजरत पर देना = किराये पर देना । भाड़े पर देना ।

उजरना पु †
क्रि० अ० [हि० उजड़न] दे० 'उजड़ना' । उ०— नारद बचन न मै परिहरऊँ । बसौ भवनु उजरौ नही ड़रऊँ ।—मानस, १ ।८० ।

उजरनि पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० उजरना] उजड़ने का भाव । वीरानापन । उ०—उजरनि बसी है हमारी आँखियानि देखौ, सुबस सुदेस जहाँ भावते बसत हो ।—घनानंद, पृ० ७१ ।

उजरा पु †
वि० [हि०] दे० 'उजला' ।

उजराई पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० †उज्जर] १. उज्वलता । सफेदी । २. स्वच्छता । सफाई । कांति । दीप्ति । उ०—कहा कुसुम, कह कौमुदी, कितक आरसी जोति । जाकी उजराई लखैं आँखि ऊजरी होति । —बिहारी र०, दो० १२ ।

उजराना पु †
क्रि० सं० [सं० उज्वलन] उज्वल कराना । उजलवाना । साफ कराना । उ०—(क) अंजन दै नैननि, अतर मुख मंजन कै, लीन्हें उजराइ कर गजरा जराइ के ।— देव (शब्द०) । (ख) तन कंचन, हीरा हँसनि विद्रुम अधर बनाय, तिल मनि स्याम जड़े तहाँ विधि जरिया उजराय ।— मुबारक (शब्द०) ।

उजल पु
वि० [सं० फज्ज्वल, प्रा० उज्जल] दे० 'उज्वल' । उ०—मृदुल उजल गंगा जल पहिंरेः उठत जु तन तें छबि की लहरें ।—नंद० ग्र०, पृ० २४८ ।

उजलत
संज्ञा स्त्री० [अ०] उतावली । जल्दी । यौ०—उजलत प्रसंद, उजलतबाज = उतावली करनेवाला । उजलतबाजी = शीघ्रता । उतावली ।

उजलवाना
क्रि० सं० [हि० उजालना का प्रे० रूप] १. गहने या अस्त्र अदि का साफ करवाना । मैल निकलवाना । निखरवाना । २. उज्वलित करना । जलाना ।

उजला (१)
वि० [सं०उज्ज्वल, प्रा० उज्जल] [स्त्री० उजली] १. श्वेत । धौला । सफेद । २. स्वच्छ । साफ । निर्मल । झक । दिव्य । मुहा०—उजला मुहा करना = गौरवान्वित करना । महत्व बढ़ाना । जैसे, उसने अपने कुल भर का मुँह उजला किया । उजला मुँह होना = (१) गौरवान्वित होना । जैसे, उनके इस कार्य से सारे भारतवासियों का मुँह उजला हुआ । (२) निष्कलंक होना । जैसे, लाख करो, तुम्हारा मुँह उजला नहीं हो सकता । उजली समझ = उज्वल बुद्धि, स्वच्छ विचार ।

उजला (२)
संज्ञा पुं० [हि० उजली = धोबिन] धोबी ।

उजलापन
संज्ञा पुं० [हि० उजला + पन (प्रत्य०)] सफेद । स्वच्छता । निर्मलता ।

उजली
संज्ञा स्त्री० [हि० उजला] धोबिन (स्त्री०) । विशेष—मुसलमान स्त्रियों रात को धोबिन का नाम लेना बुरा समझती हैं, इसे 'उजली' कहती हैं ।

उजवना पु
क्रि० अ० [सं० उद्यम, प्रा० उज्जम; सं० उद् + यत्, प्रा० उज्जव] प्रयत्न करना । उद्यत होना । उद्यम करना । उ०—हौं उजऊ सू अज्ज, करौ राजन अकथ क्रम ।—पृ० रा०, ९ ।१३३ ।

उजवालना पु
क्रि० स० [सं० उज्ज्वल] उज्वलित करना । प्रकाशित करना । जलाना । उ०—(क) पैखौ घर मैं पवण सूँ, बचै दीप दुतिबंत । घर मै उजवालौ घणौ दीप हूँत दरसंत ।—बाँकी० ग्र०, भा० १, पृ० ६८ ।(ख) लंबा प्राग अचंभा भारी श्वास वेग ततकालू । प्रकट इकीसूं मणिया छेद्या । सुरति शब्द उजवालू । —राम०, धर्म०, पृ० ३६८ ।

उजवास
संज्ञा पुं० [सं० उद्यास = प्रयत्न] प्रयत्न । चेष्टा । तैयारी ।

उजागर (१)
वि० [उद् = ऊपर, अच्छी तरह + जागर = जागना, जलना, प्रकाशित होना । जैसे, उदबुद्ध्य स्वाग्ने प्रति जागु हीथ । प्रा० उज्जागर = जागरण अथवा सं० उद्योतकर, प्रा० उज्जोअगर । स्त्री० उजागरी] १. प्रकाशित । जाज्वल्यमान् । दीप्तिमान् । जगमगाता हुआ । २. प्रसिद्ध । विख्यात । उ०— (क) जांबवान जो बली उजागर सिंह मारि मणि लीन्ही । पर्वत गुंफा बैठि अपने गृह जाय सुता को दीन्ही ।—सूर (शब्द०) (ख) सोई बिजई बिनई गुनसागर । तास सुजस उजागर । ।—तुलसी (शब्द०) । (ग) क्यों गुन रूप उजागरि त्रयलोक नागरि भूखन धारि उतारन लागी । ।—मतिराम (शब्द०) । उ०—बंधु बंस तैं कीन्ह उजागर । भजेहु राम सोभा सुखसागर । —मानस । ६ । ३३ । क्रि० प्र०—करना होना ।

उजाड़ (१)
संज्ञा पुं० [सं० उत् + जड़ या जर अथवा उज्ज्वाल > उजार > उजाड़ु] १. उजड़ा हुआ स्थान । ध्वस्त स्थान । गिरी पड़ी जगह । २. निर्जन स्थान । शून्य स्थान । वह स्थान जहाँ बस्ती न हो । ३. जंगल । बियाबन । उ०—बड़ा हुआ तो क्या हुआ जो रे बड़ा मति नाहिं । जैसे फूल उजाड़ का मिथ्या ही झरि जाहि ।—जायसी (शब्द०) ।

उजाड़ (२)
वि० १. ध्वस्त । उच्छिन्न । गिरा पड़ा । क्रि० प्र०—करना ।—होना । उ०—अबहूँ दृष्टि मया करु नाथ निठुर घर आव, मंदिर उजाड़ होत है नव कै आई बसाव ।—जायसी (शब्द०) । २. जो आबाद न हो । निर्जन । जैसे—उस उजाड़ गाँव में क्या था जो मिलता ।

उजाड़ना
क्रि० स० [हि० उजाड़ना] १. ध्वस्त करना । तितर बितर करना । गिराना पड़ाना । उधेड़ना । २. उखाड़ना । उच्छिन्न करना । नष्ट करना । खोद फेंकना । ३. नष्ट करना । बिगाड़ना । जैसे—मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है जो तू मेरे पीछे पड़ा है ।

उजाड़
वि० [हिं० उजाड़ना] उजाड़नेवाला । नष्ट करनेवाला ।

उजाथर पु †
वि० [सं० युद्ध + स्थिर या ओजस् + स्थिर] वीर । बहादुर । उ०—एक ऊजाथर कलहि एहवा साथी सहु आखाढ—सिंध ।—बेलि०, दू० ७४ ।

उजान
क्रि० वि० [सं० उद् = ऊपर + यान = जाना] धारा से उलटी ओर । चढ़ाव की ओर । भाटा का उल्टा । जैसे— नाव इस समय उजान जा रही है ।

उजार पु †
वि० संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'उजाड़' । उ०—फलानो परगनो उजार पन्यौ है ।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० २०६ ।

मउजारना (१)पु † (१)
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उजाड़ना' । उ०—(क) नाथ एक आवा कपि भारी । जेहि अशोक बाटिका उजारी ।—मानस, ५ ।१८ (ख) जारि डारौं लंकहि उजारि डारौं उपवन फारि डारौं रावन को तो मैं हनुमंत हौं ।— पद्माकर (शब्द०) ।

उजारना (२) †
क्रि० स० [हिं० उजालना] जलाना (दीपक) । प्रकाश करना ।

उजारा (१)पु †
संज्ञा पुं० [हि० उजाला] उजाला । प्रकाश ।

उजारा (२) †
वि० प्रकाशमान । कांतिमान । उ०—(क) जौं न होत अस पुरुष उजारा । सूझि न परत पंय अँवियार । ।—जायसी ग्रं, पृ० ४ । (ख) हरि के गर्भवास जननी को बदन उजारयो लाग्यो हो । मानहुँ सरद चंद्नमा प्रगटयो सोच तिमिर तनु भाग्यो हो ।—सूर (शब्द०) ।

उजारी (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'उजाली' ।

उजारी (२) †
संज्ञा स्त्री० कटि हुई फसल का थोड़ा सा अन्न जो किसी देवता के लिये अलग निकाल दिया जाता है । अगऊँ ।

उजारी (३)पु †
वि० [हिं०] दे० 'उजाड़' । उ०—मोर बसंत सो पदमिनि बारी । जेहि बिनु भयउ बंसत उजारी । जायसी ग्रं०, पृ० ८७ ।

उजालना
क्रि० स० [सं० उज्ज्वालन, प्रा० उज्जालण] १. गहना और हथियार अदि साफ करना । मैल निकलना । चमकाना । निखारना । २. प्रकाशित करना । उ०— उन्होंने हिंगोट के तेल से उजाली हुई, भीतर पवित्र मृगचर्म के बिछौनेवाली कुटी उसको रहने के लिये दी ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) । ३. बालना । जलाना । जैसे, दिया । उजालना ।

उजाला (१)
संज्ञा पुं० [सं० उज्ज्वल] [स्त्री० उजाली] १. प्रकाश । चाँदनी । रोशनी । जैसे, (क) उजाले में आओ तुम्हारा मुँह तो देखें । (ख) उजाले से अँधेरे में आने पर थोड़ी देर तक कुछ नहीं सुझाई पड़ता । क्रि० प्र०—करना ।— होना । २. वह पुरुष जिससे गौरव हो । अपने कुल और जाति में श्रेष्ठ । जैसे—वह लड़का अपने घर का उजाला है । मुहा०—उजाला होना = (१) दिन निकलना । प्रकाश होना । (२) सर्वनाश होना । उजाले का तारा=शुक्र ग्रह ।

उजाला (२)
वि० [स्त्री० उजाली] प्रकाशमान । अँधेरा का उलटा । यौ०—उजाली रात = चाँदनी रात । उजाला पाख, उजाले पाख = शुक्ल पक्ष । सुदी ।

उजालिका पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उज्जालिका] उजियाली रात । चाँदनी रात । उ०—मानहु सिसुमार चक्र उड़ुगन सह लसत गगन । उदित मुदित पसरित दस दिसि उजालिका ।— भारतेंदु ग्र०, भा० २, पृ० २९८ ।

उजाली
संज्ञा स्त्री० [हि० उजाला] चाँदनी । चंद्रिका । उ०—उस प्रसन्न मुख में और खिली उजाली के चंद्रमा में दोनों में नेत्र धारियों की प्रीति समान रस लेनेवाली हुई ।—लक्ष्मणसिंह (शब्द०) ।

उजास
संज्ञा पुं० [सं० उद्युति प्रा० उज्जोश्र; अथवा सं० उदभास प्रा० उज्झास (= देदीप्यमान) ] १. चमका । प्रकाश । उजाला । उ—पिंजर प्रेम प्रकासिया अंतर भया उजास, सुख करि सूती महल में बानी फूटी बास । कबीर (शब्द०) । (ख) पत्रा ही तिथि पाइए वा घर कै चहुँ पास, नित प्रति पूनोई रहै आनन औप उजास ।—बिहारी र०, दो० ७३ । क्रि० प्र०— पाना = झलक मिलना । उ०—जालरंध्र मग अँगनु कौ कछु उजास सौ पाइ । पीठि दिऐ जग सौ रह्यौ दीठि झरोखैं लाइ ।—बिहारी रा०, दो० २६३ ।—रहना ।—होना ।

उजासना
क्रि० सं० [सं० उदभासन, प्रा० उज्झासण, हि० उजास से नाम०] १. प्रकाशित करना । बालना । जलाना । प्रज्व- लित करना । २. उज्वल या स्वच्छ करना ।

उजासी पु
संज्ञा स्त्री० [हि० उजास + ई (प्रत्य०)] उजाला प्रकाश । द्युति । छटा । उ०—हासी लौं उजासी जाफी जगत हुलासी हैं ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० १, २८१ ।

उजिअरि पु †
वि० स्त्री० [सं० उज्ज्वल] उजली । गोरी । कांतिमती । उ०—चाँद जैस धन अजिअरि अहो, भा पिउ रोस गहन अस गही ।—जायसी ग्रं० (गुप्त), पृ० १७८ ।

उजियर पु †
वि० [सं० उज्ज्वल] उजला । सफेंद । उ०— छालहिं माड़ा और घी पोई । उजियर देखि पाप गंध धोई ।— जायसी (शब्द०) ।

उजयरिया पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० उज्ज्वल] चाँदनी । प्रकाश । उजेला । उ०—(क) लै पौढ़ी आँगन हीं सुत को छिटकि रही आछी उजियरिया । सूर स्याम कछु कहत कहत ही बस करि लीन्हें आई निंदरिया—सूर०, १० ।२४६ । (ख) गगन भवन माँ मगन भइउँ मैं, बिनु दीपक उजियरियाँ री ।—जग० श०, भा० २, पृ० १०९ ।

उजियाना †
क्रि० स० [सं० उज्जीवन, प्रा० उज्जीवण, उज्जीयण] उत्पन्न करना । पैदा करना । प्रकट करना ।

उजियार (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० उज्जवल] उजाला । प्रकाश । उ०— (क) राम राम मनि दिप धरु जीह देहरी द्वार, तुलसी भीतर बाहिरेहुँ जो चाहसि उजियार ।—मानस १ ।२१ । क्रि० प्र०—करना । उ०—जोति अयन को कियो उजियार, जैसे कोऊ गेह सवार ।—सूर (शब्द०) । होना ।

उजियार (२)पु †
वि० १. प्रकाशमान् । दीप्तिमान् । कंतिमान् । उज्जवल । उ०—(क) जस आँचल महँ छिपै न दीया, तस उजियार दिखावै हीया ।— जायसी (शब्द०) । २. चतुर । बुद्धिमान । उ०—आगे आउ पंखि उजियारा । कह सुदीप पतंग किय मारा ।—जायसी(शब्द०) ।

उजियारना पु †
क्रि० सं० [हिं० उजियारा] १. प्रकाशित करना । २.बालना । जलाना । उ०—सरस सुगंधन सों आँगन सिंचावै करपूरमय बातिन सों दीप उजियारती ।—व्यंग्यार्थ (शब्द०) ।

उजियारा (१)पु †
संज्ञा पुं० [सं उज्जवल] [स्त्री० उजियारी] १. उजाला । प्रकाश । चाँदना । उ०— देखि धराहर कर उजियारा । छिपि गए चाँद सुरुज औ तारा ।—जायसी (शब्द०) । २.प्रतापी और भाग्यशाली पुरुष । वंश को उज्जवल या गौर- वान्वित करनेवाला पुरुष । उ०—(क) तू राजा दुहु कुल उजियारा अस कै चरच्यों मरम तुम्हारा । (ख) तेहि कुल रतन सेन उजियारा धनि जननी । जनमा अस बारा ।—जायसी । (शब्द०) ।

उजियारा (२)पु †
वि० १. प्रकाशमान् । उ०— सैयद असरफ पीर पियारा, जेहिं मोहिं पंथ दीन्ह उजियीरा । जायसी ग्रं०, पृ० ७ ।२.कंतिमान् । द्युतिमान् । उज्ज्वल । उ०—ससि चौदह जो दई सँवारा । ताहू चाहि रूप उजियारा । जायसी (शब्द०) ।

उजियारी पु † (१)
संज्ञा स्त्री० [हिं० उजियारा] १. चाँदनी । चंद्रिका । उ०—आय सरत ऋतु आधिक पियारी । नव कुआर कातिक उजियारी ।—जायसी (शब्द०) । प्रकाश । रोशनी । उ०—और नखत चहुँ दिसि उजियारी । ठाँवहिं ठाँव दीप अस बारी ।— जायसी (शब्द०) । ३. वंश को उज्जवल करनेवाली स्त्री । सती साध्वी स्त्री । उ०—(क) माई मैं दूनो कुल उजि- यारी । बारह खसम नैहरे खायो सोरह खायो ससुरारी ।— कबीर (शब्द०) । (ख) सो पदमावती ताकरि बारी, औ सब दीप माहिं उजियारी ।—जायसी (शब्द०) ।

उजियारो (२)
वि० प्रकाशयुक्त । उजेली । उ०— कबहुक रतन महल चित्रसारी सरद निसा उजियारी । बैठे जनक सुता सँग बिल- सत मधुर केलि मनुहारी ।— सूर (शब्द०) ।

उजियाला
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उजाला' । उ०—द्विज चहक उठे, हो गाय नाय उजियाला ।—साकेत, पृ० २४५ ।

उजिहिरा पु
वि० [सं० उज्ज्वल] ज्योतिर्मय । प्रकाशयुक्त । चमकता हुआ । उ०—हीरा मोती लाल जवहिरा । पान चढ़े पुनि देहु उजिहिरा ।— कबीर सा०, पृ० ५५७ ।

उजीता (१)
वि० [सं उत् + ज्योति + प्रा० *उज्जइति > उजीता अथवा उद्युति, प्रा० उज्जोअ] प्रकाशमान् । रोशन ।

उजीता (२)
संज्ञा पुं० चाँदनी । प्रकाश । उजाला ।

उजीर पु †
संज्ञा पुं० [अ० वजोर] दे० 'वजीर' । उ०—(क) पाप उजीर कह्यो सोइ मान्यो, धर्म सु धन लुटयौ । सूर०, १ ।६४ । (ख) खिज्यौ देखि पतिसाह कौ कियौ उजीर सुबोध ।—हम्मीर रा०, पृ० ५६ ।

उजुर
संज्ञा पुं० [अ० उज्त्र] दे० 'उज्त्र' । उ०—चाकर ह्वै उजुर कियौ न जाया, नेक पै कछू दिन उबरते तौ घने काज करते ।— भूषण ग्र०, पृ०४० ।

उजू
संज्ञा पुं० [अ० वजू] दे० 'वजू' ।

उजूबा (१)
संज्ञा पुं० [अ० उजूबा] बैगनी रंग का एक पत्थर जिसमें चमकदार छींटे पड़े रहते हैं ।

उजूबा (२) †
वि० [अ० उजूबह] दे० 'अजूबा' ।

उजेनी पु,—उजेनी पु
संज्ञा स्त्री० [सं०उज्जयिनी, प्रा० उज्ज- यिणी उज्जेणी] दे० 'उज्जयिनी' । उ०—(क)हाड़ा बुंदी का धरणी नग्र उजेणी आई दीयों मेल्हाण ।—बीसल० रास०, पृ० १८ । (ख) गयेऊँ उजेनी सुनु उरगारी ।— मानस,७ । १०५ ।

उजेर पु
संज्ञा पुं० [सं० उज्ज्वल] उजाला । प्रकाश । उ०— मारग हुत जो अँधेरा सूझा, भा उजेर सब जाना बूझा ।—जायसी (शब्द०) ।

उजेरना †
क्रि० स० [हिं० उजेर से नाम०] दे० 'उजालना' । उ०—पुनि कहि उठी जसोदा मैया उठाहु कान्ह रबि किरनि उजेरत ।—सूर०,१० ।४०५ ।

उजेरा (१)पु
संज्ञा पुं० [सं० उज्जवल] उजाला । प्रकाश ।

उजेरा (२)
वि० प्रकाशमान् ।

उजेरा (३)
संज्ञा पुं० [अव—उ = नहीं + जेर = रहट] बैल जो हल इत्यादि में जोता न गया हो ।

उजेला (१)
संज्ञा पुं० [सं० उज्वल] प्रकाश । चाँदनी । रोशनी ।— उजेला (२)— वि० [स्त्री० उजेलि] प्रकाशमान् । यौ०—उजेली रात = चाँदनी रात । उजेला पाख = शुक्ल पक्ष ।

उजोरा
संज्ञा पुं० [सं० उज्जवल] प्रकाश । रोशनी । चाँदनी ।

उज्जना पु
क्रि० अ० [सं० उदय] उदित होना प्रकट । होना । उपस्थित होना । उ०—लाज सरस चहुआन जोग उज्जै जुध मुत्तम ।— पृ० रा०२६ ।५० ।

उज्जयंत
संज्ञा पुं० [सं० उज्जयन्त] रैवतर्क पर्वत जो विंध्य श्रेणी का एक भाग है [को०] ।

उज्जयिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] मालवा देश की प्राचीन राजधानी । विशेष—यह सिप्रा नदी के तट पर है । विक्रमादित्य यहाँ के बड़े प्रतापी राजा हुए हैं । यहाँ महाकाल नाम का शिव का एक अत्यंत प्राचीन मंदिर है ।

उज्जर
वि० [सं० उज्जवल, प्रा० उज्जल] दे० 'उज्जवल' ।

उज्जल (१)
क्रि० वि० [सं० उद् = ऊपर + जल = पाना] बहाव से उलटी ओर । नदी के चढ़ाव की ओर । भाटा का उलटा । उजान । जैसे, यह नाव उज्जल जा रही है ।

उज्जल (२)पु
वि० [सं० उज्जवल, प्र० उज्जल] दे० 'उज्जवल' । उ०— हार काजु नहिं आवैं जैसे उज्ज्वल ओरे ।—नंद० ग्रं०, पृ० २०५ ।

उज्जागरी पु
वि० स्त्री० [हिं० उजागर] उजागर करनेवाली । प्रकाशित करनेवाली । उ०—मध्य ब्रजनागरी, रूप रस आगरी, घोष उज्जगरी, स्याम प्यारी ।—सूर० १० ।१७५१ ।

उज्जारना पु
क्रि० स० [सं० उज्वालन, प्रा० उज्जालण] जलाना । ध्वस्त करना । उजाड़ना । उ०—जागीरै भोपति किय जारिय, तनुज मारि बस्ती उज्जारिय ।—प० रा०, पृ० १२३ ।

उज्जासन
संज्ञा पुं० [सं०] मारण । वध ।

उज्जित
वि० [सं०] विजित । जीता हुआ । पराजित [को०] ।

उज्जिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] विजय । जीत [को०] ।

उज्जिहान
संज्ञा पुं० [सं०] वाल्मीकीय रामायण में वर्णित एक देश का नाम ।

उज्जीवन
संज्ञा पुं० [सं०] फिर से या दुबारा प्राप्त होनेवाला जीवन । नष्ट होने पर फिर से अस्तित्व में आने का भाव । पुनर्जीवन [को०] ।

उज्जीवित
वि० [सं०] पुन? जीवनप्राप्त । फिर से अस्तित्व में आया हुआ [को०] ।

उज्जीवी
वि० [सं० उज्जीविन्] फिर से जीवनप्राप्त । जिसे फिर से जीवन प्राप्त हो सकता हो । [को०] ।

उज्जू
संज्ञा पुं० [अ० 'वजू' हिं० उजू] दे० 'वजू' उ०—क्या उज्जू पाक किया मुँह धोया क्या मसीति सिर लाया ।—कबीर ग्रं० पृ० ६२३ ।

उज्जृंभ (१)
संज्ञा पुं० [सं० उज्जूम्भ] १. उबासी । जँमाई लेना । २. फैलना । प्रसरित होना । ३. खिलना । विकसित होना । ४. टूटना । अलग होना [को०] ।

उज्जृंभ (२)
वि० १. खिला हुआ । स्फुटित । २. खुला हुआ । [को०] ।

उज्जृंभण
संज्ञा पुं० [सं० उज्जृम्भण] दे० 'उज्जृंभ' ।

उज्जैन
संज्ञा पुं० [सं० उज्जयिनी] मालवा देश की प्राचीन राजधानी ।

उज्जैनि
संज्ञा स्त्री० [सं० उज्जयिनी] दे० 'उज्जयिनी' । उ०—ता समै उज्जैनि के बोहोत वैष्णव नाम पाइबे को आए हते ।— दो सौ बावन०, भा० १, पृ० ३१४ ।

उज्जवल (१)
वि० [सं०] १. दीप्तिमान् । प्रकाशमान् । २. शुभ्त्र । विशद । स्वच्छ । निर्मल । उ०—नव उज्जल जलधार हार हीरक सी सोहति ।—भारतेंदु ग्रं०, भा०,१, पृ० २८२ । ३. बेदाग । ४. श्वेत । सफेद । ५. शानदार । भव्य । वैभव- पूर्ण । उ०—उज्ज्वल गाथा कैसे गाऊँ मधुर चाँदनी रातों की ।—लहर, पृ० ५ । ६. पवित्र । शुचि । उ०—तुम्हारी कुटीयों में चुपचाप, चल रहा था उज्ज्वल व्यापार ।—लहर पृ० ७ । ८. सुंदर । सौंदर्यपूरित (को०) । ९. खिला हुआ । विकसित (को०) ।

उज्ज्वल (२)
संज्ञा पुं० १. प्रीति । अनुराग । प्यार । २. स्वर्ण [को०] ।

उज्ज्वलता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कांति । दीप्ति । चमक । आभा । आब । २. स्वच्छता । निर्मलता । उ०—क्या होगी इतनी उज्ज्वल इतना वंदन अभिनंदन ।—अपरा, पृ० ७४ । ३. सफेदी ।

उज्ज्वलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रकाश । दीप्ति । २. जलना ।बलना । ३. स्वच्छ करने का कार्य । ४. अग्नि । (को०) । ५. स्वर्ण । सोना (को०) ।

उज्ज्वला
संज्ञा स्त्री० [सं०] बारह अक्षरों का एक वृत्त जिसमें दो नगण, एक भगण और एक रगण होते हैं । उ०—न नभ रघुवरा कहु भूसुरा । लसत तरणि तेज भनौं फुरा । । धरनि तल जबै मिल ना थला । गगन भरति कीरति उज्जवता । (शब्द०) । २. कांति । प्रकाश । ज्योति । चमक (को०) । ३. स्वच्छता । सफाई (को०) ।

उज्ज्वलित
वि० [सं०] १. प्रकाशित किया हुआ । प्रदीप्त २. स्वच्छ किया हुआ । साफ किया हुआ । झलकाया हुआ ।

उज्झ
वि० [सं०] त्यक्त । छोड़ा हुआ [को०] ।

उज्झक
संज्ञा पुं० [सं०] १. बादल । मेघ । भक्त [को०] ।

उज्झटित
वि० [सं०] घबड़ाया हुआ । उलझन में पड़ा हुआ । परेशान (को०) ।

उज्झड़
वि० [सं० उद्] (=बहुत)+जड (=मूर्ख) झक्की । झक्कड़ । मनमौजी । आगा पीछा न सोचनेवाला । उद्धत । मूर्ख ।

उज्झन
संज्ञा पुं० [सं०] छोड़ना । हटाना । परित्याग (को०) ।

उज्झित
वि० [सं०] छोड़ा या त्याग हुआ । परित्यक्त [को०] ।

उज्यारा पु
संज्ञा पुं० [हिं० उजियारा] दे० 'उजाला' । उ०—मृदु मुसकानि मुखचंद चारु चाँदनी सौं राख्यौ कै उज्यारो अभिराम द्वारा भौन को ।—मति० ग्रं०, पृ० ३४५ ।

उज्यारी पु †
संज्ञा स्त्री० [हीं० उजियारी] दे० 'उजाली' । उ०— भूषन सुद्ध सुधान के सौधनि सोधति सी धरि ओप उज्यारी ।—भूषण ग्रं०, पृ० २८ ।

उज्यास पु
संज्ञा पुं० [हीं० उजास] दे० 'उजास' ।

उज्त्र
संज्ञा पुं० [अ० उज्त्र] १. बाधा । विरोध । आपत्ति । २. वक्तत्व । जैसे—(क) हमको इस काम को करने में कोई उज्त्र नहीं है । (ख) जिसे जो उज्त्र हो, वह अभी पेश करे । ३. बहाना (को०) । २. कारण । हेतु (को०) । क्रि० प्र०—करना ।—पेश करना ।—लाना । ५. विवशता । लाचारी (को०) । ६. बहाना । हेतु । कारण (को०) ।

उज्त्रख्वाही
संज्ञा स्त्री० [अ० उज्त्र+ फा० ख्वाह+ई० (प्रत्य०)] क्षमाप्रार्थना । क्षमायाचना [को०] ।

उज्त्रत
संज्ञा स्त्री० [अ०] दे० 'उजरत' ।

उज्त्रदारी
संज्ञा स्त्री० [अ० उज्त्र+फा० दार] किसी ऐसे मामले में उज्त्र पेश करना जिसके विषय में अदालत से किसी ने कोई आजा प्राप्त की हो या प्राप्त करने की दरखास्त दी हो । जैसे, दाखिल खारिज, बँटवारा, नीलाम आदि के विषय में ।

उझंटना पु
क्रि० स० [सं० उज्झ] छोड़ना । उछालना । झटकना । उ०—भयो जंग में जंग आवै न वंटै, उभै सीस ईसं दूग्यारै उझंटैं ।—पृ० रा०, ६१ ।२२०३ ।

उझकना पु
क्रि० अ० [हिं० उचकना] १. उचकना । उछलना । कूदना । उ०—बरज्य़ौ नाहिं मानत उझकत फिरत हौ कान्ह घर घर ।—सूर (शब्द०) । यौ०—उझकना बिझुकना=उछलना कूदना । उछलना । पटकना । उ०—बाँह छुए उझकै बिझुकै न धरै पलिका पग ज्यौं रतिभीति है ।—सेवक (शब्द०) । २. ऊपर उठना । उभड़ना । उमड़ना । उ०—नेह उझके से नैन देखिबं बिरझै से बिझुकी सी भौहें उझके से डर जात हैं ।—केशव (शब्द०) । ३. ताकने के लिये उँचा होना । झाँकने के लिये सिर उठाना । झाँकने के लिये सिर बाहर निकालना । उ०—(क) जहँ तहँ उझकि झरोखा झाँकति जनक नगर की नार । चितवनि कृपा राम अवलोकत दीन्हों सुख जो अपार ।—सूर (शब्द०) । (ख) सूने भवन अकेली मैं ही नीकैं उझकि निहारयौ ।—सूर०, १० । २६९३ । (ग) मोहिं भरोसौ रोझिहै उझकि झाँकि इक बार ।—बिहारी र०, दो० ६८२ । (घ) फिरि फिरि उझकति, फिर दुरति, दुरि, दुरि उझकति जाइ ।—बिहारी र०, दो० ५२७ । (ङ) अचरज करै भूलि मन रहै । झेरि उझककर देखन चहै ।—लल्लू० (शब्द०) । ४. चंचल होना । सजग होना । चौंकना । उ०— (क) देखि देखि मुगलन की हरमैं भवन त्यागैं उझकि उझकि उठै बहत ब्यारी के । भूषण (शब्द०) । (ख) हेरत ही जाके छके पलहू उझकि सकै न । मन गहनै धरि मीत पै छबि मद पीवत नैन । ।—रसनिधि (शब्द०) ।

उझकुन
संज्ञा पुं० [हीं०] दे० 'उचकन' ।

उझपना
क्रि अ० [हीं० झपना] खुलना । पलकों का बंद न होना ।

उझर पु
वि० [देशी० उज्झल=प्रबल] =बलिष्ठ । उ०—है हन्यौ जाम उद्दव उझर मिलि चिहुँ चंपिय बंड भर ।—पृ० रा० ९ ।२०३ ।

उझरना पु (१)
क्रि० स० [सं० उत्+सरण] ऊपर की और उठाना । उपर खिसकाना । उ०—करु उठाइ घूँ घटु करत उझरत पट गुँझरौट, सुख मौटैं लूटी ललन सखि ललना की लौट ।—बिहारी र०, दो ४२४ ।

उझरना पु (२)
क्रि० अ० [हीं० उजड़ना] उजड़ना । समाप्त होना । उ०—कहै कबीर नट नाटिक थाके मंदला कौन बजावै । गये पषनियाँ उझरी बाजी, कों काहू के आवै ।—कबीर ग्रंथ० पृ० ११७ ।

उझलना (१)
क्रि० स० [सं० उज्झरण] ढालना । किसी द्रव पदार्थ को ऊपर से गिराना ।

उझलना पु (२)
क्रि० अ० अमड़ना । बढ़ना । उ०—वह सेन दरेरन देति चली । मनु सावन की सरिता उझली । सूदन (शब्द०) ।

उझाँकना
क्रि० स० [हिं० उ+ झाँकना] झाँकना । उचककर देखना । उ०—कोऊ खड़ी द्बार कोउ ताकै । दौरी गलियन फिरत उझाँकै ।—लल्लु० (शब्द०) ।

उझाँटना पु
क्रि० स० [सं० उज्झ] छोड़ना । गिराना । उ०— गऊ पय औटिय धार उझाँटि । धरे भरि भाजन मिश्रिय बाँटि ।—पृ० रा० ६३ । १०६ ।

उझालना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उझलना' ।

उझिल पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० औज्जवल्य] कांति । दीप्ति । उ०—रूप की उझिल आछे आनन पै नई नई तैसी तरुनई तेह ओपी अरुनई है ।—घनानंद, पृ० ३१ ।

उझिलना †
क्रि० स० [हीं०] दे० 'उझलना' ।

उझिला
संज्ञा स्त्री० [ही० उझिलना] १. उबटन के लिये उबाली हुई सरसों । उबटन का सुगंधित सामान जिसमें तिल, सरसों नागरमोथा आदि पड़ता है । २. खेत के ऊँचे स्थानों से खोदी हई मिट्टी जो उसी खेत के गड्ढों या नीचे स्थानों में खेत चौरस करने के लिये भरी जाती है । ३. अदाव या टपके हुए महुए को पिसे हुए पोस्ते के दाने के साथ उबालकर बनाया हुआ एक प्रकार का भोजन ।

उझीना
संज्ञा पुं० [देश०] जलाने के लिये उपले जोड़ने की क्रिया । अहरा । क्रि० प्र०—लगाना ।

उटंग † उटुंग †
वि० [सं० उत्तृङ्ग] वह कपड़ा जो पहनेन में ऊँचा या छोटा हो । वह कपड़ा जो नीचे वहाँ तक न पहुँ चता हो जहाँ तक पहुँ चना चाहिए । आछा कपड़ा ।

उटंगन
संज्ञा पुं० [सं० उट=घास+अन्न] एक घास । विशेष—यह ठंडी जगहों में नदी के कछारों में उत्पन्न होती है । और तिनपतिया के आकार की होती है, पर इसमें चार पत्तियाँ होती हैं । इसका साग खाया जाता है । यह शीतल, मलरोधक, त्रिदोषघ्न, हलकी, कसैली और स्वादिष्ट होती है और ज्वर, श्वास तथा प्रमेह आदि को दूर करती है । पर्या०.—सुनिषक । शिरिआरि । चौपतिया । गुठुवा । तुसना ।

उटंगा
वि० [हीं०] दे० 'उटंग' ।

उट
संज्ञा पुं० [सं०] पत्ती । घास । तृण । [को०] ।

उटकना (१)पु
क्रि० स० [देसज] अनुमान करना । अटकल लगाना । अंदाजना । उ०—भूखन बसन बिलोकत सिय के । बरने तेहि अवसर बचन बिबेक बीर रस बिय के । धीर बीर सुनि समुझि परसपर बल उपाय उटकत निज हिय के—तुलसी (शब्द०) ।

उटकना (२) †
क्रि० अ० [हीं० अटकना] गाय भैंस आदि का दूध देते देते बिच में रुक जाना ।

उटक नाटक
वि० [हिं० उठना] ऊँचानीचा । ऊबड़ खाबड़ अंडबंड ।

उटक्कर पु
संज्ञा पुं० [हीं०] १. दे० 'टक्कर' । उ०—सीसन को टक्कर लेत उटक्कर घालत छक्कर लरि लपटैं ।—पद्मा ग्रं०, पृ० २६ । †२. मनमाना । इधर उधर का । यौ०—उटक्कर फातिहा=दे० 'उटक्करलैस' ।

उटक्करलैस
वि० [हीं० अटकल+ लसना] अटकलपच्चू । मनमाना । अंडबंड । बिना समझा बूझा । जैसे,—तुम्हारी सब बातें उटक्करलैस हुआ करती हैं । उ०—निदान बिना किसी ठौर ठिकाने उटक्करलैस इधर से उधर और उधर से इधर । प्रेमघन०, भा० २, पृ० १५९ ।

उटज
संज्ञा पुं० [सं०] झोपड़ी । कुटी ।

उटड़पा
संज्ञा पुं० [हीं० उठना या ऊँट] दे० 'उटड़ा' ।

उटड़ा
संज्ञा पुं० [देशज] एक टेढ़ी लकड़ी जो गाड़ी के अगले भाग में, जहाँ हर से मिलते हैं, जूए के नीचे लगी रहती है । इसी के बल पर गाड़ी का अगला भाग जमीन पर टिकाया जाता है । उटहपा । उटहड़ा ।

उटपटाँग
संज्ञा पुं० [हीं०] दे० 'ऊटपटाँग' । उ०—दूसरी कसर निकालने के लिये व्यर्थ उटपटाँग बातें बक चलते हैं ।— प्रेमघन०, भा० २, पृ० २५२ ।

उटहड़ा
संज्ञा पुं० [हीं०] दे० 'उटड़ा' ।

उटारी
संज्ञा स्त्री० [हीं० उठना] वह लकड़ी जिस पर रखकर चारा काटा जाता है । निष्ठा । निहटा ।

उटेव
संज्ञा पुं० [हीं० उ+टेव] छाजन की धरन के बीचोबीच ठोंकी हुई डेढ़ की दो खड़ी लकड़ियाँ जिनपर एक बेड़ी लकड़ी या गड़ारी बैठाकर उसके ऊपर धरन रखते हैं ।

उट्टा
संज्ञा पुं० [हीं० ओटना] दे० 'ओटनी' ।

उट्ठना पु
क्रि० अ० [सं० उत्+स्था; प्रा० उट्ठण] दे० 'उठना' उ०—सोई धाव तन पर लगै उट्ठ सँभालै साज ।—दरिया० बानी, पृ० १२ ।

उट्ठी
संज्ञा स्त्री० [हीं० उठना] किसी प्रतियोगिता में पराजय या उससे हट जाने की स्थिति, भाव या क्रिया । क्रि० प्र०—उट्ठी बोलना = पूरी तरह से हार स्वीकार कर लेना । उ०—इस अर्थयुग में सब संबल जिसका है वही उट्ठी बोल गया ।—इंद्र०, पृ० ६६ । विशेष—बच्चे अपने खेल में इस शब्द का प्रयोग करते हैं ।

उठंगल
वि० [देश०] १. बेढंगा । भोंड़ा । २. बेशऊर । अशिष्ठ ।

उठँगन †
संज्ञा पुं० [सं० *उत्थिताङ्गं>*उठअंग*उठँग से बना] १. आड़ । टेक । २. उठँगने की वस्तु । बैठने में पीठ को सहारा देनेवाली वस्तु ।

उठँगना
क्रि० अ० [सं० उत्थित+अङ्गं] १. किसी ऊँची वस्तु का कुछ सहारा लेना । टेक लगाना । जैसे—वह दीवार से उठँगकर बैठ गया । २. लेटना । पड़ रहना । कमर सीधी करना । जैसे—बहुत देर से जग रहे हो, जरा उठँग तो लो ।

उठँगाना
क्रि० स० [हीं० उठँगना का सक० रूप] १. किसी वस्तु को पृथ्वी या और किसी आधार पर खड़ा रखने के लिये उसे तिरक्षा करके उसके किसी भाग को किसी दूसरी वस्तु से लगाना । भिड़ाना । २. (किवाड़) भड़ाना या बंद करना । ३. शयन करना । लिटा देना ।

उठकना
क्रि० अ० [हीं० उठँगना] दे० 'उठँगना' ।

उठतक
संज्ञा पुं० [हीं० उठना] १. वह चीज जो पीठ लगे हुए घोड़े की पीठ को बचाने के लिये जीन या काठी के नीचे रखी जाय । उड़तक । २. उचकन । आड़ । टेक ।

उठना
क्रि० अ० [सं० उत्थान, पा० उट्ठान, प्रा० उट्ठाण, उटठण] १. नीची स्थिति से और ऊँची स्थिति में होना । किसी वस्तु का ऐसी स्थिती में होना जिसमें उसका विस्तारपहले की अपेक्षा अधिक ऊँचाई तक पहुँचे । जैसे, लेटे हुए प्राणी का खड़ा होना । ऊँचा होना । संयो० क्रि०—जान ।—पड़ना । मुहा०—उठ खड़ा होना = चलने को तैयार होना । जैसे, अभी आए एक घंटा भी नहीं हुआ और उठ खड़े हुए । उठ जाना = दुनिया से उठ जाना । मर जाना । जैसे, —इस संसार में कैसे कैसे लोग उठ गए । उ०—जो उठि गयो बहरि नहीं आयो मरि मरि कहाँ समाहीं ।—कबीर (शब्द०) । उठती कोंपल = नक्युव्क । गभरू । उठती जवानी = युवावस्था का आरंभ । उठती परती = आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में प्रचलित जोत का एक भेद जिसके अनुसार किसानों को केवल उन खेतों का लगान देना पड़ता है जिनको वे उस वर्ष जोतते हैं और परती खेतों का नहीं देना पड़ता । उठते बैठते = प्रत्येक अवस्था में । हर घड़ी । प्रतिक्षण । जैसे—किसी को उठते बैठते गालियाँ देना ठीक नहीं । उठते जूती और बैठते लात = परस्पर मेल न होना । आपस में न बनना । उठना बैठना = आना जाना । संग साथ । मेल जोल । जैसे—इनका उठना बैठना बड़े लोगों में रहा है । उठ बैठ = दे० 'उठाबैठी' । उठाबैठी = (१) हैरानी । दौड़—धूप । २. बेकली । बेचैनी । ३. उठने बैठने की कसरत । बैठक । २. ऊँचा होना । और ऊँचाई तक बढ़ जाना । जैसे—लहर उठना । उ०—लहरैं उठी समुद उलथाना । भूला पंथ सरग नियराना—जायसी (शब्द०) । २. ऊपर जाना । ऊपर चढ़ना । ऊपर होना । जैसे—बादल उठना, धूँआँ उठना, गर्द उठना । टिड्डी उठना । उ०—(क) उठी रेनु रबी गएऊ छपाई । मरुत थकित् बसुधा अकुलाई ।—मानस, ६ ।७८ । (ख) खनै उठइ खन बूडइ, अस हिय कमल सँकेत । हीरमनहि बुलावहि सखी कहत जिव लेत ।—जायसी (शब्द०) । ४. कूदना । उछलना । उ०— उठहि तुरंग लेहिं नहिं बागा । जातौ—उलटि गगन कहँ लागा—जायसी (शब्द०) । ५. बिस्तर छोड़ना ।जागना । जैसे,— देखो कितना दिन चढ़ आया, उठो ।उ०—प्रातकाल उठिकै रघुनाथा । मातु पिता गुरु नावहिं माथा ।—तुलसी (शब्द०) । संयो० क्रि०—पड़ना ।—बैठना । ६. निकलना । उदय होना । उ०—विहँसि जगावतिं सखी सयानी । सूर उठा, उठु पदुमिनि रानी ।—जायसी (शब्द०) । ७. निकलना । उत्पन्न होना । उदभूत होना, जैसे—विचार उठना, राग उठना । जैसे,—मेरे मन में तरह के विचार उठ रहे हैं । उ०—(क) छुद्रघंट कटी कंचन तागा । चलते उठहिं छतीसो रागा ।—जांयसी (शब्द०) । (ख) जो धनहीन मनोरथ ज्यों उठि बीचहिं बीच बिलाइ गयो है ।—(शब्द०) । ८. सहसा आरंभ होना । एकबारगी शुरू होना । अचानक उभड़ना । जैसे—बात उठना, दर्द उठना, आँधी उठना, हवा उठना । उ०—आधे समुद आय सो नाहीं । उठी बाड़ आँधी उपराही ।—जायसी (शब्द०) । ९. तैयार होना । सन्नद्ध होना । उद्यत होना । जैसे,—प्रब आप उठे है, यह काम चपपट हो जाएगा । मुहा०—मारने उठना = मारने के लिये उद्यत होना ।१०. किसी अंक या चिहन का स्पष्ट होना । उभड़ना । जैसे—इस पृष्ठ के अक्षर अच्छी तरह उठे नहीं हैं । ११. पाँस बनना । खमीर आना । सड़कर उफनाना । जैसे,—(क) ताड़ी धूप में रखने से उठने लगती है । (ख) ईख का रस जब धूप खाकर उठता है तब छानकर सिरका बनाने के लिये रख लिया जाता है । १२. किसी दुकान या सभा सामज का बंद होना । किसी दुकान या कार्यालय के कार्य का समय पूरा होना । जैसे,— अगर लेना है तो जल्दी जाओ, नहीं तो दुकानें उठ जाँयगी । उ०—दास तुलसी परत धरनि धर धकनि धुक हाटसी उठत जंबुकनि लूट्यो । तुलसी (शब्द०) । १३. किसी दुकान या कारखाने का काम बंद होना । किसी कार्यलय का चलना बंद हो जाना । उ०—यहाँ बहुत से चीनी के कारखाने थे; सब उठ गए । १४. हटना । अलग होना । दूर होना । स्थान त्याग करना । प्रस्थान करना । जैसे,—(क) यहाँ से उठो । (ख) बारात उठ चुकी । १५. किसी प्रथा का दूर होना । किसी रीति का बंद होना । जैसे—सती होने की रीति अब हिंदुस्थान से उठ गई । १६ . खर्च होना । काम में लगना । जैसे,—(क) आज सबेरे से इस समय तक १० रुपए उठ चुके । (ख) तुम्हारे यहाँ कितने का घी रोज उठता होगा । संयो० क्रि०—जाना । ७. बिकना । भाड़े रक जाना । लगान पर जाना । जैसे,—(क)—ऐसा सौदा दुकान पर क्यों रखते हो जो उठता नहीं । (ख) उनका घर कितने महीने पर उठा है? १८ याद आना । ध्यान पर चढ़ना । स्मरण आना । जैसे,—वह श्लोक मुझे उठता नहीं है । १९. किसी वस्तु का क्रमश?जुड़ जुडकर पूरी ऊँचाई पर पहुँचाना । मकान या दीवार आदि का तैयार होना । जैसे (क) तुम्हारा घर अभी उठा या नहीं । (ख) नदी के किनारे बाँध उठ जाय तो अच्छा है । उ०—उठा बाँध तस सब जग बाँधा ।—जायसी (शब्द०) । विशेष—इस अर्थ में उठना का प्रयोग उन्हीं वस्तुओं के संबंध में होता है जो बराबर ईंट मिट्टी आदि सामग्रियों को निचे ऊपर रखते हुए कुछ ऊँचाई तक पहुँचाकर तैयार की जाती हैं । जैसे—मकान, दीवार, बाँध, भीटा इत्यादि । २. गाय, भैस या घोड़ी आदि का मस्ताना या अलंग पर आना । विशेष—'उठना' उन कई क्रियाओं में से है जो और क्रियाओं के पीछे संयोज्य क्रियायों की तरह लगती हैं । यह अकर्मक क्रिया धातु के पिछे प्राय?लगता है । केवल कहना, बोलना आदि दो एक सकर्मक क्रियाएँ हैं जिनकी धातु के साथ भी यह देखा जाता है । जिस क्रिया के पिछे इसका संयोग होता है, उसमें आकस्मिक का भाव आ जाता है । जैसे, रो उठना, चिल्ला उठना, बोल उठना ।

उठल्लू
वि० [सं० उत्+ हिं० ठल्लू या हिं० उठ+लू (प्रत्य०)] १. एक स्थान पर न रहनेवाला । आसनदगधी । आसनकोपी । २. आवारा । बेठिकाने का । मुहा०—उठल्लू का चूल्हा या उठल्लू चूल्हा=बेकाम इधर उधर फिरनेवाला । निकम्मा । आवारागर्द । न०—दो तीन उम्मेदवारऔर दस बीस उठल्लू के चूल्हे, कोई खड़ा है, कोई बैठा है ।—भारतेंदु ग्रं०, भा० ३, पृ० ८१४ ।

उठवाना
क्रि० स० [हीं० उठना का प्रे० रूप] उठाने के लिये किसी को तत्पर करना ।

उठवैया
वि० [हिं० प्रे० उठवा+ऐसा (प्रत्य०) १. उठवानेवाला । २. उठानेवाला । ३. उठानेवाला ।

उठाँगन
संज्ञा पुं [हिं० उठ+ आँगन] बड़ा आँगन । लंबा चौड़ा सहन ।

उठाईगीर, उठाईगीरा
वि० [हिं० उठाना+ फा० गीर] १. आँख बचाकर छोटी मोटी चीजों को चुरा लेनेवाला । उचक्का । जेबकतरा । चाईं । २. बदमाश । लुच्चा । उ०—ऐसे उठाई- गीरों के मुहँ क्यों लगते हो । मान०, भा० १, पृ० ३१० ।

उठान
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्थान, उट्ठान प्रा० उट्ठाण] १. उठना । उठने की क्रिया । २. ऊँचाई । ३. रोह । बाढ़ । बढ़ने का ढंग । वृद्धिक्रम । जैसे—इस लड़के की उठान अच्छी है । ३. गति की प्रांरभिक अवस्था । आरंभ । जैसे, इस ग्रंथ का उठान तो अच्छा है, इसी तरह पूरा उतर जाय तो कहें । उ०—सरस सुमिलि चित तुरंग की करि करि अमित उठान । गोइ निबाहे जीतिए प्रेम खेल चैगान ।—बिहारी (शब्द०) । ४. खर्च । व्यय । खपत । जैसे—गल्ले की उठान यहाँ बहुत नहीं होती है ।

उठाना
क्रि० स० [हिं० उठना का सक० रूप] १. नीचि स्थिति से ऊँची स्थिति में करना । जैसे, लेटे हुए प्राणी को बैठाना या बैठे हुए प्राणी को खड़ा करना । किसी वस्तु को ऐसी स्थिति में लाना जिसमें उसका विस्तार पहले की अपेक्षा अधिक ऊँचाई तक पहुँचे । ऊँचा या खड़ा करना । जैसे—(क) दूहने के लिये—गाय को उठाओ । (ख) कुरसी गिर पड़ी है, उसे उठा दो । २. नीचे से ऊपर ले जाना । निम्न आधार से उच्च आधार पर पहुँचना । ऊपर ले जाना । जैसे,—(क) कलम गिर पड़ी है, जरा उठा दो । (ख) वह पत्थर को उठाकर ऊपर ले गया । ३. धारण करना । कुछ काल तक ऊपर लिए रहना । जैसे,—(क) उतना ही लादो जितना उठा सको । (ख) ये कड़ियाँ पत्थर का बोझ नहीं उठा सकतीं । ४. स्थान त्याग कराना । हटाना । दूर करना । जसे,—(क) इसको यहाँ से उठा दो । (ख) यहाँ से अपना डेरा डंडा उठाओ । ५. जगाना । ६ . निकालना । ऊत्पन्न करना । सहसा आरंभ करना । एकबारगी शुरू करना । अचानक उभाड़ना । छेड़ना जैसे—बात उठाना, झगड़ा उठाना । उ०—जब से हमने यह काम उठाया है, तभी से विघ्न हो रहे हैं । ७. तैयार करना । उद्यत करना । सन्नद्ध करना । जैसे, इन्हें इस काम के लिये उठाओ तो ठीक हो । ९. मकान या दीवार आदि तैयार करना । जैसे, घर उठाना, दीवार उठाना । १०. नित्य नियमित समय के अनुसार किसी दूकान या कारखाने को बंद करना । ११. किसी प्रथा का बद करना । जैसे—अंग्रेजों ने यहाँ से सती की रीति उठा दी । १२ खर्च करना । लगाना । व्यय करना । जैसे,—रोज इतना रुपया उठाओगे तो कैसे काम चलेगा ? १३. किसी वस्तु को भाड़े या किराए पर देना । १४. भोग करना । अनुभव करना । भोगना । जैसे—दु?ख उठाना, सुख उठाना । उ०—इतना कष्ट आप ही के लिये उठाया है । १५. शिरोधार्य करना । सादर स्वीकार करना । मानना । उ०—करै उपाय जो बिरथा जाई । नृप की आज्ञा लियो उठाई । —सूर (शब्द०) । १६. जगाना । जैसे,—उसे सोने दो, मत उठाओ । १७. किसी वस्तु को हाथ में लेकर कसम खाना । जैसे, गंगा उठाना, तुलसी उठाना । मुहा०—उठा धरना = बढ़ जाना । जैसे—उसने तो इस बात में अपने बाप को भी उठा धरा । उठा रखना = छोड़ना, बाकी रखना । कसर छोड़ना । जैसे,—तुमने हमें तंग करने के लिये कोई बात उठा नहीं रखी । उठा ले जाना = (१) किसी वस्तु को इस प्रकार लेकर चल देना कि किसी को पता न लगे । चोरी से वस्तु को उठा ले जाना । चोरी करना । (२) बल- पूर्वक किसी वस्तु को ले जाना । विशेष—कहीं कहीं जिस वस्तु या विषय की सामग्री के साथ इस क्रिया का प्रयोग होता है वहाँ उस वस्तु या विषय के करने का आरंभ सूचित होता है । जैसे—कलम उठाना = लिखने के लिये तैयार होना । डंडा उठाना = मारने के लिये तैयार होना । झोली उठाना = भीख माँगने जाने के लिये तैयार होना, इत्यादि । उ०—(क) अब बिना तुम्हारे कलम अठाए न बनेगा । (ख) जब हमसे नहीं सहा गया, तब हमने छडी़ उठाई ।

उठाव
संज्ञा पुं० [हिं० उठना] १. उन्नत अंश । उठान । २. मेहराब के पाट के मध्यविदु और झुकाव के मध्यविंदु क अंतर ।

उठावना पुं०
क्रि० स० [सं० उत्थापन प्रा० उठ्ठावण] दे० 'उठाना' ।

उठावनी
संज्ञा स्त्री० हीं० [उठावना] दे० उठौनी ।

उठेल
संज्ञा स्त्री० [हिं० ठेलना] धक्का । उ०—अरिबर सिलाही बहु गिराए सक्ति की जु उठेल सों ।—पदमाकर ग्रं० पृ० २० ।

उठौआ
वि० [हीं० उठ+ औआ (प्रत्य०)] दे० 'उठौवा' ।

उठौनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० उ०+औनी (प्रत्य०)] १. उठाने की क्रिया । ३. उठाने की मजदूरी या पुरस्कार । ३. वह रुपया जो किसी फसल की पैदावार या और किसी वस्तु के लिये पेशगी दिया जाय । अगौहा । बेहरी । दादनी । ४. बनियों या दूकानदारों के साथ उधार का लेन देन । ५. वह दक्षिण जो पुरोहित या ज्योतिषी को विवाह का मूहूर्त विचारने पर दी जाती है । पुरहत । ६. वह धन या रुपया आदि जो निम्न जातियों में वर की ओर से कन्या के घर विवाह करने से पहले उसे दृढ़ बनाने के लिये भेजा जाता है । लगनं धरौआ । ७. वह रुपया पैसा या अन्न जो संकट पड़ने पर किसी देवता की पूजा के उद्देश्य से अलग रखा जाय । ८. वैश्यों के यहाँ की एक रीति जो किसी के मर जाने पर होती है । इसमें मरने के दूसरे या तीसरे दिन बिरादरी के लोग इकट्ठे होकर मृतक के परिवार के लोगों को कुछ रुपया देते हैं और पुरुषों को पगड़ी बाँधते हैं । ९. एक रीति जो किसी के मरने के तिसरे दिन होती है । इसमें मृतक की अस्थि संचित करके रख दी जाती है । १०. एक लकड़ी जिसमें जुलाहे पाई की लुगदी लपेटते हैं । ११. धान के खेत की हलके हल की दूर दूर जाताई । यह दो प्रकार की होती है—बिदहनी और धुरहनी । आधिक पानी होने पर जोतने को बिदहनी कहते हैं और सूखे में जोतने को धुरहनी कहते हैं । गाहना । १२. प्रसूता की सेवा सुश्रूषा ।

उठौवा (१)
वि० [हिं० उठ+औवा (प्रत्य०)] जिसका कोई स्थान नियत न हो । जो नियत स्थान पर न रहता हो । यौ०—उ़ठौवा चूल्हा=वह चूल्हा जिसे हम जहाँ चाहे उठा ले जायँ । उठौवा पायखाना = वह पायखाना जिसे भंगी नित्य प्रति या प्राय?आकर उठाता है ।

उठौवा (२)
संज्ञा स्त्री० प्रसूता की सेवा सुश्रूषा जो दाई करती हैं । उठौनी । क्रि० प्र०—कमाना ।

उडंड (१)पु
वि० [सं० उद्दण्ड] दे० 'उद्दण्ड' । उ०—हे मन चेतनि बुद्धि हू चेतनि चित हू चेतनि आहि उडंडा ।—सुंदर० ग्रं०, भा० २, पृ० ६४६ ।

उडंड (२)पु
वि० [हीं० उड़ना] उड़नेवाला । उड़ता हुआ । उ०— समरू बन रूव बधन्न दुनं । न फिरै तिन हथ्थन सीस षिनं । अति उंच उतंग तुरंग तुरं । धरि चषि गिलंद उडंद षुरं ।—पृ० रा० १२ । ३५ ।

उडग्गन पु
संज्ञा पुं० [सं० उड़ुगण] नक्षत्रसमह । उडुगन । उ०— श्रवन बिराजत स्वाति सुत करत न बनै बखान । । मनु कमल पत्र अग्रज रहै । ओस उडग्गन आन ।—पृ० रा०, १ ।१५३ ।

उडियन पु
संज्ञा पुं० [सं० उडुगण, प्रा० उडिगण] उडुगन । नक्षत्र- समूह । तारे । उ०—इक्क कहै आकास तास हो उड़ियन तुट्टौ । इक्क कहै सुरलोक तास कोई नर लुट्टौ ।—पृ० रा०, ४ । ३ ।

उडीयण पु
संज्ञा पुं० [सं० उडुगण] नक्षत्रसमूह । तारे ।उ०— राजति राजकुँअरि राय अंगरम उडीयण बीरज अंबहरि ।— बेलि, दू० १४ ।

उड़ंकू
वि० [हीं० उड़ाकू = उड़+आकू, अंकू (प्रत्य०)] १. उड़नेवाला । २. उड़ने की योग्यता रखनेवाला । जो उड़ सके । ३. चलने फिरनेवाला । डोलनेवाला ।

उड़ंत
संज्ञा पुं० [हीं० उड़+ अंत (प्रत्य०)] कुश्ती का एक पेच या ढंग जिसमें खिंलाड़ी एक दूसरे की पकड़ को बचाने के लिये इधर से उधर हुआ करते हैं ।

उड़ंबरी
संज्ञा स्त्री० [सं० उड्डम्बर] एक पुराना बाजा जिसमें बजाने के लिये तार लगे रहते हैं ।

उड़ पु
संज्ञा पुं० [सं० उडु] दे० 'उडु' । उ०—तनक जु बाम चरन यै कर् यौ । उडि कै जाय उड़नि में रर् यौ । ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४१ ।

उड़चक †
संज्ञा पुं० [हीं० उड़ना] चोर । उचक्का ।

उड़तक
संज्ञा पुं० [हीं० उठना] दे० 'उठतक' ।

उड़ती बैठक
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ना+ बैठक] दोनों पावों को समेटकर उठते बैठते हुए आगे बढ़ना या पीछे हटना । बैठक का एक भेद ।

उड़द †
संज्ञा पुं० [हिं० उरद] दे० 'उरद' ।

उड़ध पु †
वि० [सं० ऊर्ध्व] ऊँचा । उ०—प्रकासे उड़ध न अचवै आतम तत्त विचारी ।—रामानंद, पृ० १२ ।

उड़न
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ना] उड़ने की क्रिया । उड़ान । यौ०—उड़नखटोला । उड़नछु । उड़नझाँईं ।

उड़नखटोला
संज्ञा पुं० [हीं० उड़न+ खटोला] उड़नेवाला खटोला । विमान ।

उड़नगोला
संज्ञा पुं० [हीं० उड़न+ गोला] बंदूक की गोली जो बिना निशाना ताके चलाई जाय ।

उड़नघाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ना+ हिं० घाई = घात] धोखा । जुल चालाकी । चकमा । उ०—मगर जिस शै को साफ साफ अपनी आँखों देखा, उसमें तुम क्या उड़नघाइयाँ बताओगे । सैर कु०, पृ० २० । विशेष—यह शब्द जुआरियों का है, वि० दे० 'उड़ानघाई' ।

उड़नछू
वि० [हीं० उड़ना] चंपत । गायब । क्रि० प्र०—होना ।

उड़नझाँई
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़न+झाँईं] चकमा । बुत्ता । बहाली । क्रि० प्र०—बताना ।

उड़नतश्तरी
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़न+ तश्तरी] तश्तरी के तरीके का ज्योतिर्मय यांत्रिक उपकरण जो कभी कभी आकाश में यान की तरह उड़ता हुआ दिखाई देता है । विशेष—ऐसा कहा जाता है कि ये वैजानिक उपकरण अन्य ग्रहवासियों के हैं, जिसमें बैठकर वै पृथ्वी की ओर आते हैं और फिर अपने ग्रहों को चले जाते हैं ।

उड़नफल
संज्ञा पुं० [हीं० उड्न+फल] वह फल जिसके खाने से उड़ने की शक्ति उत्पन्न हो ।

उड़नफाखता
वि० [हिं० उड़न+फआ० फाखतह] सीध सादा । मूर्ख ।

उड़ना (१)
क्रि० अ० [सं० उड्ड़ीयन] १. चिड़ियों का आकाश या हवा में होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । जैसे— चिड़ियाँ उड़ती हैं । उ०—सुआ जो उतर देत रह पूछा । उड़िगा पिंजर न बोलै छूछा ।—जायसी (शब्द०) १. आकाश- मार्ग से एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना । हवा में होकर जाना । निराधार हवा में ऊपर फिरना । जैसे,—गर्द उड़ना, पत्ती उड़ना । उ०—अंधकूप भा आवइ उड़त आव तस छार । ताल तालाब औ पोखरा धूरि भरी ज्योनार ।—जायसी (शब्द०) । ३. हवा में ऊपर उठना । जैसे—गुड्डी उड़ रही है । उ०—लहर झकोर उड़हिं जल भीजा तौहू रूप रंग नहिं छीजा । जायसी (शब्द०) । हवा में फैलना । जैसे— छींटा उड़ना, सुगंध उड़ना, खबर उड़ना । ५. वायु से चीजों का इधर उधर हो जाना । छितराना । फैलना । जैसे,—एक ऐसा झोंका आया कि सब कागज कमरे भर में उड़ गए । ६. किसी ऐसी वस्तु का हवा में इधर उधर हिलना जिसका कोई भाग किसी आधार से लगा हो । फहराना । फरफराना । जैसे—पताका उड़ रही है । ७. तेज चलना । वेग से चलना । भागना । जैसे—(क) चलो उड़ों, अब देर मत करो । (ख) घोड़ा सवार को लेकर उ । । उ०—कोइ बोहित जग पवन उड़ाहीं । कोई चमकि बीच पर जाहीं ।—जायसी (शव्द०) । ८. झटके के साथ अलग होना । कटना । गिरकर दूर जा पड़ना । जैसे,—(क) एक हाथ में बकरे का सिर उड़ गया ।(ख) सँभालकर चाकू पकड़ो नहीं तो उँगली उड़ जायगी । उ०—फूटा कोट फूट जनु सीसा । उड़हीं बुर्ज जाहिं सब पीसा ।—जायसी (शब्द०) ९. पृथक् होना । उघड़ना । छितराना । जैसे—किताब की जिल्द उड़ गई । उ०—वहिके गुण सँवरत भइ माला । अबहूँ न बहुरा उड़िगा छाला ।— जायसी (शब्द०) १०. जाता रहना । गायब होना । लापता होना । दूर होना । मिटना । नष्ट होना । उ०—(क) घर बंद का बंद और सारा माल उड़ गया । (ख) अभई तो वह स्त्री यहीं बैठी थी, कहाँ उड़ गई । (ग) देखते देखते दर्द उड़ गया । (घ) इस पुरानी पुस्तक के अक्षर उड़ गए हैं, पढ़े नहीं जाते । (ङ) रजिस्टर से लड़के का नाम उड़ गया । ११. खाने पीने की चीज का खर्च होना । आनंद के साथ खाया पीया जाना । जैसे,—कल तो खूब मिठाई उड़ी । १२. किसी योग्य वस्तु का भोगा जाना । जैसे, स्त्री संभोग होना । १३. आमोद प्रमोद की वस्तु का व्यवहार होना । जैसे,—(क) वहाँ तो ताश उड़ रहा है । (ख) यहाँ दिन रात तान उड़ा करती है । १४. रंग आदि का फीका पड़ना । धीमा पड़ना । जैसे—(क) इस कपड़े का रंग उड़ गया । (ख) इस बरतन की कलई उड़ गई । १४ किसी पर मार पड़ना । लगना । जैसे—उसपर स्कूल में खूब बेंत उड़े । १६. बातों में बहलाना । भुलावा देना । चकमा देना । धोखा देना । जैसे— भाइ उड़ते क्यों हो, साफ साफ बताओ । १७. घोड़े का चौफाल कूदना । घोड़े का चारो पैर उठाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर बड़ी शान से रखना । जमना । १८ फर्लांग मारना । फलांगना । कूदना । (कुशती) ।

उड़ना (२)
क्रि० स० फर्लांग मारकर कीसि वस्तु को लाँघना । कूदकर पार करना । जैसे—(क) वह घोड़ा खाईं उड़ता है । (ख) अच्छे सिखाए हुए घोड़े सात सात टट्टियाँ उड़ते हैं । (ग) वह घोड़ा बात की बात में खंदक उड़ गया । मुहा०—उड़ आना—(१) किसी स्थान से वेग से आना । झटपट आना । भाग आना । जैसे—इतने जल्द तुम वहाँ से उड़ आए । उ०—बहुत व्यास कह ठाकुर काही । उड़ि अइहै ठाकुर ब्रज माँही ।—रघुराज (शब्द०) । २ इतनी जल्दी आना कि किसी को खबर न हो । चुपके से भाग आना । उ०—(क) करी खेचरी सिद्ध जनु उड़ि सी आई ग्वारि । बाहिर जनु मदमत्त बिधु दियो अमी सब डारि ।—व्यास (शब्द०) । उड़ चलना—(१) तेज दौड़ना । सरपट भागना । (२) शोभित होना । भला लगना । अच्छा लगना । फबना । जैसे,—टोपी देने से वह उड़ चलता है । (३) मजेदार होना । स्वादिष्ट बनना । जैसे—तरकारी मसाले से उड़ चलती है । (४) कुमार्ग स्वीकार करना । बदराह बनना । जैसे,—अब तो वह भी उड़ चला । (५) इतराना । मर्यादा को छोड़ चलना । बढ़कर चलना । घमंड करना । जैसे,—नीच आदमी थोड़े ही में उड़ चलते हैं । उड़ता होना या बनना = भाग जाना । चलता होना । चल देना । जैसे—वह सारा माल लेकर उड़ता हुआ । उड़ती खबर = वह खबर जिसकी सचाई का निश्चय नहो । बाजारू खबर । किंवदंती । उड़ती चिड़िया पकड़ना+असंभव कार्य करना । उ०—अब तो वह उड़ती चिड़ीयाँ पकड़ती है ।—सैर कु०, पृ० २९ । उड़ खाना=(१) उड़ उड़ के काटना । धर खाना । (२) अप्रिय लगना । न सुहाना । उ०—ता ऊपर लिखि योग पठावत खाहु नीब तजि दाख । सूरदास ऊधो की बातियाँ उड़ि उड़ि बैठी खात ।—सूर (शब्द०) ।

उड़प (१)
संज्ञा पुं० [हिं० उड़ना] नृत्य का एक भेद ।

उड़प (२)
संज्ञा पुं० [सं० उडुप] दे० 'उड़प' । उ०—जब हीं नँदनंदमन भयौ, तब ही उडप उदय है लयौ ।—नंद० ग्रं०, पृ० २१६ ।

उड़पति पु
संज्ञा [सं० उडुपति] दे० 'उडुपति' ।

उड़पाल
संज्ञा पुं० [सं० उडुपाल] दे० 'उड़ुपाल' ।

उड़राज
संज्ञा पुं० [सं० उडुराज] दे० 'उडुराज' ।

उड़रो
संज्ञा स्त्री० [हीं० उड़द+ ई (प्रत्य०)] एक प्रकार का उरद जो छोटा होता है ।

उड़व
संज्ञा पुं० [सं० ओडव] १. रागों की एक जाति जिसमें केवल पाँच स्वर लगें और कोई दो स्वर न लगें । जैसे,—मधुमास सारंग, बृंदाबनी सारंग; इन दोनों में गांधार और धैवत नहीं लगते; भूपाली जिसमें मध्यम और निषाद नहीं हैं तथा माल- कोश और हिंडोल जिनमें ऋषम और पंचम नहीं लगते । २. मृदंग के बारह प्रबंधों में से एक ।

उड़वना पु
क्रि० स० [हिं०] दे० 'उड़ाना' । उ०—उड़वत धूरि धरे काँकरी । सबनि के दृगनि परी साँकरी ।—नंद० ग्रं०, पृ० २४२ ।

उड़वाना पु
क्रि० स० [हिं० उड़ाना का प्रे० रूप] उड़ाने में प्रवृत्त करना ।

उड़सना †
क्रि० अ० [सं० वि+ ध्वंसन>विढंसन>उड़ँसन अथवा सं० उद्+? वस्] भंग होना । नष्ट होना । उ०—उड़सा नाच नच- नियाँ मारा । रहसे तुरुक बजाइ के तारा ।—जायसी (शब्द०) ।

उड़ाक †
वि० [हिं० उड़+आक(प्रत्य०), उड़+आका (प्रत्य०)] १. उड़नेवाला । उड़ाकू । २. जिसमें उड़ने की योग्यता हो । जो उड़ सकता हो । उ०—छपन छपा के रबि इव भा के दंड उतंग उड़ाँके । बिबिधि कता के, बँधे पताके, छुवैंजे रवि रथ चाके ।—रघुराज (शब्द०) ।

उड़ाकू
वि० [हीं० उड़+आकू (प्रत्य०)] दे० 'उड़ाक' ।

उड़ा
संज्ञा पुं० [हीं० ओटना] रेशम खोलने का एक औजार । यह एक प्रकार का परेता है जिसमें चार परे और छह तिखियाँ होती हैं । तीखियाँ मथानी के आकार की होती है । तीखियों के बीच में छेद होता है जिसमें गज डाला जाता है ।

उड़ाइक पु
वि०, संज्ञा पुं० [सं० उड्ड़ायक] वह जो (गुड्ड़ी आदि) उड़ाता हो । उड़ानेवाला । उडायक । उ०—कहा भयौ, जौ बिछुरे, मो मनु तो मन साथ । उड़ी जाउँ कितहूँ, तऊ गुडी उड़ाइक हाथ ।—बिहारी र०, दो० ५७ ।

उड़ाई
संज्ञा स्त्री० [उड़+आई (प्रत्य०)] १. उड़ने की क्रिया या भाव ।

उड़ाऊ
वि० [हिं० उड़+आऊ (प्रत्य०)] १. उड़नेवाला । उड़ंकू । २. खर्च करनेवाला । खरची । अमितव्ययी । फजूलखर्च । जैसे,—वह बड़ा उड़ाऊ है, इसी से उसे अँटता नहीं ।

उड़ाका
संज्ञा पुं० [हिं० उड़+ आका (प्रत्य०)] १. वह जो उड़ सकता हो । २. वह जो वायुयान आदि पर उड़ता हो । ङवाई जहाज पर उड़नेवाला । ३? विमानचालक ।

उड़ाका दल
संज्ञा पुं० [हिं० उड़ाका+सं० दल] पुलिस का वह विशेष दल जो दुर्घटणा की सूचना मिलते ही तुरंग दुर्घटना स्थल की ओर रवाना हो जाता है ।

उड़ाकू
वि० [हिं० उड़+ आकू (प्रत्य०)] १. उड़नेवाला । उड़ंकू । २. जो उड़ सकता हो । जिसमें उड़ने की योग्यता हो ।

उड़ान (१)
संज्ञा स्त्री० [सं० उड्डयन] १. अड़ने की क्रिया । उ०—पंखि न कोई होय सुजानू । जानै भुगति कि जान उड़ानू ।—जायसी ग्रं०, पृ० २१ । यौ०—उड़ानघाईं, उड़नफल'=दे० 'उड़नघाईं', उड़नफल । वै उड़ान फर तनियै खाए । जब भा पंख पाँख तन आए ।—जायसी ग्रं० पृ० २६ । उड़ान पर्दा । २. छलाँग । कुदान । जैसे—(क) हिरन ने कुत्तों को देखते ही उड़ान भारी । (ख) चार उड़ान में घोड़ा २० मील गया । क्रि० प्र०—भरना । मारना । ३. उतनी दूरी जितनी एक दौड़ में तै कर सकें । जैसे उ०— काशी से सारनाथ दो उड़ान है । ४. कल्पना । उक्ति । विचार । मुहा०—उड़ान भरना=कल्पना करना । विचार करना । विचारना । उ०—किंतु वहाँ से यों ही उड़ान भरना नहीं होता—चिंता मणि, भा० २. पृ० २ । उड़ान मारना=बहाना करना । बातों में टालना । जैसे—तुम इतनी उड़ान क्यों मारते हो, साफ साफ कह क्यों नहीं डालते ? उड़ उड़ू होना=(१) दुर दुर होना । (२) चारों ओर से बुरा होना । कलंकित होना । बदनाम होना । नक्कू बनना ।

उड़ान (२)पु
संज्ञा पुं० [देश०] १. कलाई । गट्टा । उ०—गोरे उड़ान रही खुभिकै चुभिकै चित माँह बड़ी चटकीली ।—गुमान (शब्द०) । २. मालखंभ की एक कसरत जिसमें एक हाथ में बेत दबाकर उसे हाथ से लपेटकर पकड़ते हैं और दूसरे हाथ से ऊपर का भाग पकड़कर पावँ पृत्वी से उठा लेते हैं और एक बार आजमाकर बेत पर उसी प्रकार चढ़ जाते हैं जैसे गड़े हुए मालखंम पर ।

उड़ानघाई
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ान+घाई=उँगलियों के बीच की संधि] धोखा । जुल । चालाकी । विशेष—यह शब्द जुआरियों का है । जुआरी जुपा खेलते समय उँगुलियों की घाई या गवा में छोटी कौड़ियाँ छिपाए रखते हैं जिसमें फेंकते समय यथेष्ट कौड़ियाँ पड़ें ।

उड़ानपर्दा
संज्ञा पुं० [हिं० उड़ान+फा० पर्दह] बैलगाड़ी का पर्दा । वह पर्दा जो बैलगाड़ी पर डाला जाता है ।

उड़ानफर—पु, ऊड़ानफल पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उड़नफल' । उ०—'वै उड़ानफर तहियै खाए । जब भा पंखि पाँख तन आए । ।—जायसी ग्रं०, पृ० २६ ।

उड़ाना (१)
क्रि० स० [हिं० उड़ना का सक० रूप] १. किसी उड़नेवाली वस्तु को उड़ने में प्रवृत्त करना । जैसे,—वह कबूतर उड़ाता है । २. हवा में फैलाना । हवा में इधर उधर छितराना । जैसे,— सुगंध उड़ाना । धूल उड़ाना । अबीर उड़ाना । उ०—(क) जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं । कहुहु तूल केहि लेखे माहीं ।—मानस, १ ।१२ । (ख) जानि कै सुजान कही लै दिखाओ लाल प्यारेलाल नैसुक उघारे पर सुगंध उड़ाइए ।—प्रिया० (शब्द०) ३. उड़नेवाले जीवों कौ भगाना या हटाना । जैसे—चिड़ियों को खेत में से उड़ा दो । ४. झटके के साथ अलग करना । चट से पृथक् करना । काटना । गिराकर दूर फेंकना । जैसे—(क) उसने चाकू से अपनी अँगुली उड़ा दी । (ख) मारते मारते खाल उड़ा देंगे । (क) सिपाहियों ने गोलों से बुर्ज उड़ा दिए । उ०—असि रन धारत जदपि तदपि बहु सिर न उड़ावत ।— गोवाल (शब्द०) । ५. हटाना । दूर करना । गायब करना । जैसे,—बाजीगर ने देखते देखते रूमाल उड़ा दिया । ६. चुराना । हजम करना । जैसे,—चोर ने यात्री की गठरी उड़ाई । ७. दूर करना मिटाना । नष्ट करना । खारिज करना । जैसे, (क) गुरु ने लड़के का नाम रजिस्टर से उड़ा दिया । (ख) उसने सब अक्षर उड़ा दिए । ८ खर्च करना । बरबाद करना । जैसे—उसने अपना धन थोड़े ही दिनों में उड़ा दिया । ९. खाने पिने की चीज को खूब खाना पीना । चट करना । जैसे,—लोग शराब कबाब उड़ा रहे हैं । १०. किसी भोग्य वस्तु को भोगना । जैसे,—स्त्रीसंभोग करना । ११.आमोद प्रमोद की वस्तु का व्यवहार करना । जैसे,—लोग वहाँ ताश या शतरंज उड़ाते हैं । (ख) थोड़ी देर रह उसने तान उड़ाई । १२. हाथ या हलके हथियार से प्रहार करना । लगाना । मारना । जैसे— चपत उड़ाना । बैंत उड़ाना, जूते उड़ाना, डंडे उड़ाना इत्यादि । १३. भुलावा देना । बात काटना । बात टालना । प्रसंग बदलना । जैसे,—हमें बातों ही में मत उड़ाओ, लाओ कुछ दो । (च) हम उसी के मुँह से कहलाना चाहते थे; पर उसने बात उड़ा दी । ११ झूठ मूठ दोष लगाना । झूठी अपकीर्ति फैलाना । जैसे,—व्यर्थ क्यों किसी को उड़ाते हो । १५. किसी विद्या या कला कौशल को इस प्रकार चुपचाप सीख लेना कि उसके आचार्य या धारणकर्ता को खबर न हो । जैसे,—जब कि उसने तुम्हें सिखाने से इनकार किया तब उसने वह विद्या कैसे उड़ाई । १६. दौड़ना । वेग से भगाना । जैसे,—उसने अपना घोड़ा उड़ाया और चलता हुआ ।

उड़ाना (२)पु
क्रि० स० [हिं० उढ़ाना] दे० 'ओढ़ाना' । उ०—कोई दिन सर पर छतर उड़ावे ।—दकिखनी०, पृ० ६४ ।

उड़ायक पु
वि० संज्ञा पुं० [सं० उड्ड़ायक] दे० 'उड़ाइक' ।

उड़ाल
संज्ञा पुं० [पं०] १ कचनार की छाल । २ कचनार की छाल की बटी हुई रस्सी जीसमें पंजाब में छप्पर छाते हैं ।

उड़ावनी
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ाना] ओसाई । ओसाने का कार्य ।

उड़ास पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उद्वास] रहने का स्थान । वासस्थान । महल । उ०—(क) सात खंड धौराहर तासू । सो रानी कहँ दीन्ह उड़ासू ।—जायसी (शब्द०) । (ख) और नखत वहि के चहुँपासा । सब रानिन की अहैं उड़ासा ।—जायसी (शब्द०) ।

उड़ासना
क्रि० स० [सं० उद्वासन] १बिछौने को समेटना । बिस्तर उठाना । जैसे,—बिस्तर उड़ास दो । पु २. किसी चिज को तहस नहस करना । उजाड़ना । उ०—भनै रघुराज राज सिंहन की बासिनी है शासिनी अधिन की यमपुर की उडा़सिनी ।— रघुराज (शब्द०) । ३ किसी के बैठने या सोने में विघ्न डालना । किसी को स्थान से हटाना । जैसे,—चिड़ियों ने यहाँ बसेरा लिया है, उन्हें मत उड़ासो ।

उड़िगन पु
संज्ञा पुं० [सं० उडुगन] दे० 'उडुगण' । उ०—चाँद सुरुज नाँहि तहवाँ नाहि उड़िगन की जाति ।—सं० दरिया, पृ० १ ।

उड़िया (१)
वि० [हिं० उड़ीसा] उड़ीसा देश का रहनेवाला ।

उड़िया (२)
संज्ञा स्त्री० [उत्कल ओड़िया] उड़ीसा की भाषा और उसकी लिपि । जैसे, उड़िया भाषा । उड़िया लिपि ।

उड़ियाना
संज्ञा पुं० [देश०] एक मात्रिक छंद जिसमें १२ और १० के विश्राम से २२ मात्राएँ होती हैं और में एक गुरु होता है । १२ मात्राएँ इस क्रम से हों कि या तो सब द्विकल या त्रिकल हों अथवा दो त्रिकल के पीछे तीन द्विकल अथवा तीन द्विकल के पीछे दो त्रिकल हों । जैसे—ठुमुकि चलत रामचंद्र बाजत पैजनिया । धाय मातु गोद लेति दशरथ की रनियाँ ।— तुलसी (शब्द०) ।

उड़ियाँना पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़+ इयाँनी (प्रत्य०)] उड़ान । कल्पना । विचार । उ०—सहज सुभावै वाषर ल्याई, मोरे मन उड़ियाँनी आई ।—गोरख०, पृ० १०४ ।

उड़िल
संज्ञा पुं० [सं० ऊर्ण+ इल (प्रत्य०)] वह भेड़ जिसका वाल मूड़ा न गया हो । मूड़िल का उलटा ।

उड़ी
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ से] १मालखंभ की एक प्रकार की कसरत जिससे शरीर में फुरती आती है । इसके तीन भेद हैं— सशस्त्र, सचक्र और साधारण । २ कलैया । कलाबाजी ।

उड़ीकना
क्रि० स० [सं० उदवीक्षण] बाट जोहना । राह देखना । प्रतीक्षा करना । उ०—(क) अभी अभी थारी बाँट उड़ीकाँ थाँ बिन बिरहा अधिक सतावै ।—घनानंद, पृ० ३३४ । (ख) रही उड़ीक द्वारा पर मै हूँ अंत घड़ी जीवन की, पूर्ण करो हे नाथ ! शेष है एक साध दर्शन की ।—पथिक, पृ० ५२ ।

उड़ीश
संज्ञा पुं० [देश०] एक प्रकार की बँवर जिससे बोझ बाँधते हैं और झूले का पुल और टोकरा बनाते हैं ।

उड़ीसा
संज्ञा पुं० [सं० ओड़्+देश] भारतवर्ष का एक समुद्रतटस्थ प्रदेश जो छोटा नागपुर के दक्षिण पड़ता है । उत्कल प्रदेश ।

उडुंबर
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उदुंबर' ।

उडु
संज्ञा पुं० [सं०] १ नक्षत्र । तारा । यौ०—उडुपति । उडुराज । २ पक्षी । चिड़ियाँ । ३ केवट । मल्लाह । ४ पानी । जल ।

उडुप (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १ चंद्रमा । उ०—कन स्वेद भयौ सु बिराजत यौं उडुपौ नभ तारनि संग भयौ ।—घनानंद, पृ० १४४ । २. नाव । ३ घड़नई या घंडई । ४ मिलावाँ । ५. बड़ा गरुड़ । ६. चर्म से ढँका हुआ एक प्रकार का पानपात्र (को०) ।

उडुप (२)
संज्ञा पुं० [हिं० उड़ना] एक प्रकार का नृत्य । उ०— बहु वर्ण विविधि आलाप कालि । मुखचालि चारु अरु शब्द- चालि । बहु उड़ुप, तियगपति, पति, अडाल । अरु लाग, धाउ रापउरँगाल ।—केशव (शब्द०) ।

उड़ुपति
संज्ञा पुं० [सं०] १ चंद्रमा । १ सोमलता ।

उडुपथ
संज्ञा पुं० [सं०] आकाश ।

उडुराज
संज्ञा पुं० [सं०] चंद्रमा उ०—ताही छिन उडुराज उदित रस— रास सहायक ।—नंद० ग्रं०, पृ० ७ ।

उड़ुस
संज्ञा पुं० [देशज] खटमल ।

उड़ेच †
संज्ञा पुं० [हिं० उड़ + पेंच] १. कुटिलता । कपट । २. बैर । अदावत । दुश्मनी । क्रि० प्र० —रखना । —निकालना ।

उड़ेदंड
संज्ञा पुं० [हिं० उड़ना + दंड] एक प्रकार का दंड (कसरत) जिसमें सपाट खीचते हुए दोनों पैरों को ऊपर फेंकते हैं ।

उड़ेरना पु
क्रि० स० [हिं० ] दे० 'उड़ेलना' ।

उड़ेलना
क्रि० स० [सं० उद्धारण = निकलना अथवा, उदीरण = फेंकना] १. किसी तरल पदार्थ को एक पात्र से दूसरे पात्र में डालना । ढालना । जैसे, —दूध इस गिलास में उड़ेल दो । २. किसी द्रव पदार्थ को गिराना या फेंकना । जैसे, —पानी को जमीन पर उड़ेल दो । क्रि० प्र० —देना । लेना ।

उड़ैनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० उड़ना] जूगूनू । खद्योत । उ०— (क) कौधत रहि जस भादौं रैनी । श्याम रैन जनु चलै उड़ैनी । — जायसी (शब्द०) । (ख) चमक बीस जस भादौं रैनी । जगत दिष्टि भरि रही उड़ैनी । जायसी (शब्द०) ।

उड़ौंहाँ †
वि० [हिं० उड़ना + औंहाँ (प्रत्य०)] उड़नेवाला । उ०— करे चाह सौं चुटकि कै खरै उडौहैं मैन । ताज नवाएँ तरफरत करत खूँद सी नैंन । —बिहारी र०, दो० ५४२ ।

उड्डयन
संज्ञा पुं० [सं० ] उड़ना । उड़ान ।

उड्डामर
वि० [सं० ] १. संमान्य । श्रेष्ठ । आदरणीय । २. प्रचंड । शक्तिशाली । अत्युग्र । दुर्धर्ष [को०] । यौ०—उड्डामर तंत्र = एक तंत्र का नाम ।

उड्डामरी
वि० [सं० उड्डामरिन्] तीव्र कोलाहल या घोष करनेवाला [को०] ।

उड्डीयान
संज्ञा पुं० [सं० ] हाथ की उँगलियों की एक प्रकार की मुद्रा [को०] ।

उड्डीन (१)
वि० [सं०] उड़ा हुआ । उड़ान करता हुआ । उड़ता हुआ [को०]

उड्डीन (२)
सं० पुं० [सं० ] १. उड़ान । उड़ना । २. पक्षियों की विशेष प्रकार की उड़ान [को०] ।

उड्डीयन
संज्ञा पुं० [सं० ] १. हठयोग का एक बंध या क्रिया जिसके द्वारा योगी उड़ते हैं । कहते हैं इसमें सुषुम्ना नाड़ी में प्राण को ठहराकर पेट को पीठ में सटाते हैं ओर पक्षियों की तरह उड़ते हैं । १. उड़ना । उड़ान । उ०—स्वनित उड्डीयन —ध्वनित गतिजनित अनहद नाद से यह— दिग्दिगंताकाश बक्षस्थल, रहा है गूँज अहरह । —क्वासि, पृ०, १०१ ।

उड्डीयमान
वि० [सं० उड्डीयमत्] [स्त्री० उड्डीयमती] उड़नेवाला । उड़ता हुआ । क्रि० प्र०— होना । उड़ना ।

उड्डीश
संज्ञा पुं० [सं० ] १. शिव । २. एक प्रकार का तंत्रग्रंथ [को०] ।

उड्यान
संज्ञा पुं० [सं० उड्डयन] हठयोग का एक आसन, जिसमें दोनों जानुओं को मोड़कर पैरों के तलवों को परस्पर मिलाकर बैठा जाता है । उ०—उडयान बंध सुमूल बंधहि बंध जालंधर करी । —सुंदर ग्रं० भा० १, पृ० ५० ।

उढ़ †
संज्ञा पुं० [बोल० हिं० ऊढ़] वह घास फूस या चिथड़े का पुतला जो फसल को चिड़ियों से बचाने के लिये खेत में गाड़ दिया जाता है । पुतला । बिजूखा ।

उढ़कन
संज्ञा पुं० [हिं० उढ़कना] १. ठोकर । रोक । २. सहारा । वह वस्तु जिसपर कोई दूसरी वस्तु अड़ी रहे ।

उढ़कना
क्रि० अ० [हिं० अढ़ुकना] १. अड़ना । ठोकर खाना । जैसे,—देखो उढ़ककर गिरना मत । २. रुकना । ठहरना ३. सहारा लेना । टेक लगाना । जैसे, —वह दीवार से उढ़ककर बैठा है ।

उढ़काना
क्रि० स० [हिं० उढ़कना] किसी के सहारे खड़ा करना । जैसे, —हल को दीवार से उढ़काकर रख दो । उ०—असमसान की भूमि तें गुरु को घर लै आय । गिरदा में उढ़काय कै देत भये बैठाय । —रघुराज (शब्द०) ।

उढ़रना †
क्रि० अ० [सं० ऊढ़ा = विवाहिता + हरण] विवाहिता स्त्री का किसी अन्य पुरुष के साथ निकल जाना । उ०—मुए चाम से चाम कटावै भुइँ सँकरी में सोवैं । घाघ कहैं ये तीनों भकुआ उढ़रि जाय औ रोवैं । । (शब्द०) ।

उढ़री
संज्ञा स्त्री० [हिं० उढ़रना] १. वह स्त्री जो विवाहिता न हो । रखुई । सुरैतिन । २. वह स्त्री जिसे कोई निकाल ले गया हो । उ०—जनम लेत उढ़री अबला के ले छीर पियाई । कबीर श०, भा० १, पृ० ५३ ।

उढ़ाना
क्रि० सं० [हिं० ओढ़ाना] दे० 'ओढ़ाना' उ०— कहूँ जो उढ़ावो यहाँ बैठि मोही । —हम्मीर रा०, पृ० ३८ ।

उढ़ारना
क्रि० सं० [हिं० उढ़रना] किसी अन्य की स्त्री को निकाल लाना । दूसरे की स्त्री को ले भागना ।

उढ़ावनि—पु, उढ़ावनी पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उढ़ाना] चद्दर । ओढ़नी । उ०—उन्होंने आते ही ... रुक्मिणी को ... राता चोला उढ़ावनि बनाय बिठाया । —लल्लू (शब्द०) ।

उढ़कन †
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० "उढ़कन" ।

उढ़ुकना †
क्रि० अ० [हिं० ] दे० "उढ़कना" ।

उढ़ुकाना †
क्रि० स० [हिं० ] दे० "उढ़काना" ।

उढ़ौनी पु
संज्ञा स्त्री० [हिं० उढ़ावनि] दे० 'ओढ़नी' ।

उढ्ढ पु
वि० [सं० उर्ध्व, प्रा० उड्ड] उर्ध्व । ऊपर । ऊँचा । उ०— ऊन सिंधार झुमझार । उढ्ढ बढ्ढा उच्छारे । —पृ० रा० ६१ । ५४४ ।

उणती पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० उन्नति] दे० "उन्नति" । उ०—जन रज्जब उणती उठै, दु?ख दारिद्र सु दूरि । —रज्जब०, पृ०५ ।

उणहारि †
वि० [सं० अनुहार, प्रा० अणुहार, राज० उणिहार] दे० 'उनहार' । उ०—पुरुष विदेसि कामणि किया, उसही के उणहारि । कारज को सीझै नहीं, दादू माथै मारि । —दादू० बानी, पृ० २४७ ।

उतंक पु (१)
संज्ञा पुं० [सं० उत्तङ्क] १. एक ऋषि जो वेद ऋषि के शिष्य थे । २. एक ऋषि, जो गौतम के शिष्य थे ।

उतंक पु (२)
वि० [सं० उत्तुङ्ग] ऊँचा । उ०— देवै पाथर भर पुरट तब लेवै नि?संक, इहि विधान पूजै गिरिहि नर वर बुद्धि उतंक । —गोपाल (शब्द०) ।

उतंग पु
वि० [सं० उत्तुङ्ग, प्रा० उत्तंग] १. ऊँचा । बलंद । उ०— अति उतंग जलनिधि चहुँ पासा, कनक कोट कर परम प्रकासा ।—मानस ५ ।३ ।

उतंगा
वि० [सं० उत्तुङ्ग, प्रा०, उत्तंग] दे० 'उतंग' । उ०—सहैज सहजै मेला होइगा, जागी भक्ति उतंगा । —कबीर श०, भा० २, पृ०, ६१ ।

उतंत पु
वि० [सं० उन्नत या उत्तत=ऊँचा] सयाना । जवान । बड़ा । उ०—भइ उतंत पदमावति बारी, रचि रचि विधि सब कला सँवारी ।—जायसी (शब्द०) ।

उतंस पु
संज्ञा पुं० [सं उत्तंस] दे० 'उत्तंस' ।

उतंसक पु
वि० [सं० उत्तंस + क (प्रत्य०)] दे० 'अवतंस' उ०—जब जब जो उदगार होइ अति प्रेम विध्वंसक । सोइ सोइ करैं निरोध गोपकुल केलि उतसंक । नंद ग्रं०, पृ० ४४ ।

उतँग
वि० [सं० उत्तुङ्ग] दे० 'उत्तुंग' । उ०—उतँग जँमीर होइ रखवारी, छुह को सकै राजा कै बारी । —जायसी ग्रं०, पृ० ४६ ।

उतथ्य
संज्ञा पुं० [सं०] अंगिरस गोत्र के एक ऋषि । विशेष—यह बृहस्पति के बड़े भाई थे । इनके बनाए बहुत से मंत्र वेदों में हैं । यौ०—उतथ्यानुज = बृहस्पति । उतथ्यतनय = गौतम ।

उतन पु
क्रि० वि० [हिं० उ = उत + तन (प्रत्य०) ] उस तरफ । उस ओर । उ०—उतन ग्वालि तू कित चली ये उनये घनघोर । हौं आयौं लखि तुव घरै पैठत कारो चोर । (शब्द०) ।

उतना (१)
वि० [हिं० उस + तन (हिं० प्रत्य० सं० 'तावार्न्' से) या हिं० उत+ ना (प्रत्य०)] उस मात्रा का । उस कदर । जैसे, —बालकों को जितना आराम माता दे सकती है उतना और कोई नहीं ।

उतना (२)
क्रि० वि० उस परिमाण से । उस मात्रा से । जैसे, —अरे भाई उतना ही चलना जितना चल सको ।

उतन्ना
संज्ञा पुं० [सं० उत्तंस अथवा देशज] एक प्रकार की बाली जो कान के ऊपरी भाग में पहनी जाती है ।

उतपति पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्पत्ति] दे० 'उत्पत्ति' । उ०—कैसे ऐसे रूप की नर तें उतपति होइ । भूतल तें निकसति कहूँ बिज्जुछटा की लोइ । —शकुंतला, पृ० २१ ।

उतपत्ति पु †
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्पत्ति] दे० 'उत्पत्ति' । उ०—कर्महिं ते उतपत्ति है कर्महिं ते सब नास । कर्म किए ते मुक्ति होइ परब्रह्मपुर बास । —नंद० ग्रं०, पृ० १७६ ।

उतपथ पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्पथ] विपथ । कृपय । उ०— अँधरो करै बधिर पुनि करहीं । उतपथ चलथ बिचार न टरहीं । — नंद०, ग्रं०, पृ० २१४ ।

उतपनना पु
क्रि० अ० [सं० उत्पन्न] उत्पन्न होना । उ०— सुन्न काबुदबुदा सुन्न उतपत भया सुन्नहीं गगहिं फिर गुप्त होइ । — कबीर रे०, पृ० २७ ।

उतपन्न पु †
वि० [सं० उत्पन्न] दे० 'उत्पन्न' ।

उतपात पु †
संज्ञा पुं० [सं० उत्पात] दे० 'उत्पात' । उ०—समन अमित उतपात सब भरत चरित जप जाग । मानस, १ । ४१ ।

उतपानना पु (१)
क्रि० स० [सं० उत्पादन या उत्पन्न या प्रा० उप्पायण] उत्पन्न करना । उपजाना । पैदा करना । उ०— तासों मिलि नृप बहु सुख माने, षष्ट पुत्र तासों उतपाने । — सूर (शब्द०) ।

उतपानना (२)पु
क्रि० अ० उत्पन्न होना ।

उतमंग पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्माङ्ग] दे० 'उत्तमांग' ।

उतरंग
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरङ्ग] लड़की या पत्थर की पटरी जो दरवाजों में साह के ऊपर बैठाई जाती है ।

उतर पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्तर] दे० 'उत्तर' । उ०—(क) उतर देत छौड़ौं बिनु मारे, केवल कौसिक सील तुम्हारे । —मानस, २ ।२७५ । (ख) पुनि धनि कनक पानि मसि माँगी, उतर लिखत भीजी तन आँगी । —जायसी ग्रं० पृ० ९९ ।

उतरन (१) †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उतरना] २. पहने हुए पुराने कपड़े ।

उतरन (२)
संज्ञा पुं० [हिं० ] दे० 'उतरंग' ।

उतरन पुतरन †
संज्ञा स्त्री० [हिं० उतरना + अनु०] उतारे हुए पुराने वस्त्र ।

उतरना (१)
क्रि० अ० [सं० अवतरण या प्रा० उत्तरण] [क्रि० स० उतरना । प्रे० उतरवाना] २. अपनी चेष्टा से ऊपर से नीचे आना । ऊँचे स्थान से सँभलकर नीचे आना । जैसे, घोड़े से उतरना, कोठे पर से उतरना इत्यादि । २. ढलना । अवनति पर होना । घटाव पर होना । ह्नासोन्मुख होना । जैसे, — (क) उसकी अब उतरती अवस्था है । (ख) नदी अब उतर गई है । ३. शरीर में किसी जोड़, नस या हड्डी का अपनी जगह से हट जाना । जैसे, (क) उसका कूला उतर गया । (ख) यहाँ की नस उतर गई है । ४. कांति या स्वर का फीका पड़ना, बिगड़ना या धीमा पड़ना । जैसे, (क) धूप खाते खाते उसका रंग उतर गया है । (ख) ये आग अब उतर गए हैं, खाने योग्य नहीं है । (ग) उसका चेहरा उतर गया है । (घ) देखो स्वर कैसा उतरता चढ़ता है । ५. किसी उग्र प्रभाव या उद्वेग का दूर होना । जैसे, नशा उतरना । विष उतरना । (६) किसी निर्दिष्ट कालविभाग जैसे, वर्ष, मास या नक्षत्रविशेष का समाप्त होना । जैसे, (क) आषाढ़ उतरते उतरते वे आएँगे । (ख) शनि की दशा अब उतर रही है । विशेष— दिन या उससे छोटे कालविभाग के लिए 'उतरना' का प्रयोग नहीं होता, जैसे —यह नहीं कहा जाता कि 'सोमवार' उतर गया ।' या 'एकादशी उतर गई' । ७. किसी ऐसी वस्तु का तैयार होना, जो सूत या उसी प्रकार की और किसी अखंड सामाग्री के थोड़े थोड़े अंश बराबर बैठाते जाने से तैयार हो । सूई तागे आदि से बननेंवाली चीजों का तैयार होना । जैसे, मोजा उतरना, थान उतरना, कसीदा उतरना । जैसे, चार दिनों के बाद यह मोजा उतरा है । (८) ऐसी वस्तु का तैयार होना जो खराद या साँचे पर चढ़ाकर बनाई जाय । (९) भाव का कम होना । जैसे, गेहू का भाव आजकल उतर गया है । (१०) डेरा करना । ठहरना । टिकना । जैसे, जब आप बनारस आइए तब मेरे यहाँ उतारिए । ११ नकल होना । खिंचना । अंकित होना । जैसे, (क) तुम्हारी तसवीर कहाँ उतरेगी । (ख) ये सब कविताएँ तुम्हारी कापी पर उतरी हैं । १२. बच्चों का मर जाना । जैसे, उसके बच्ची हो होकर उतर जाती हैं । १३. भर आना । संचारित होना । जैसे, नजला उतरना । दूध उतरना । फोति में पानी उतरना । जैसे, उसकी माँ के थनों में दूध ही नहीं उतरता । १४. फलों का पकने पर तोड़ा जाना । जैसे, तुम्हारी ओर खरबूजे उतरने लगे या नहीं? १५. भभके में खिंचकर तैयार होना । खौलते हुए पानी में किसी चीज का सार उतरना । जैसे, यहाँ अर्क किस जगह उतरना है? (ख) अभी कुसुम का रंग अच्छी तरह नहीं उतरा है, ओर खौलाऔ । (ग) अभी चाय अच्छी तरह नहीं उतरी । १६. लगी या लिपटी वस्तु का अलग होना । सफाई के साथ कटना । उचड़ना । उघड़ना । जैसे, कलम बनाते हुए उसकी उँगली उतर गई (ख) एक ही हाथ में बकरे का सिर उतर गया (ग) बकरे की खाल उतर गई । १७. धारण की हुई वस्तु का अलग होना । जैसे, उसके शरीर पर से सब कपड़े लत्तो उतर गए । १८. तौल में ठहरना । जैसे, देखें यह चिज तौल में कितनी उतरती है । १९. किसी बाजे की कसन का ढीला होना जिससे उसका स्वर विकृत हो जाता है । जैसे, सितार उतरना, पखावज उतरना, ढोल उतरना । २०. जन्म लेना । अवतार लेना । जैसे,— तुम क्या सारे संसार की विद्या लेकर उतरे हो? २१. सामने आना । घटित होना । जैसा तुम करोगे वैसा तुम्हारे आगे उतरेगा । २२. कुश्ती या युद्ध के लिये अखाड़े या मैदान में आना । जैसे, (क) अखाड़े में अच्छे अच्छे पहलवान उतरे हैं । (ख) यदि हिम्मत हो तो तलवार लेकर उतर आओ । २३. आदर के निमित्त किसी वस्तु का शरीर के चारों तरफ घुमाया जाना । जैसे, आरती उतरना, न्यौछावर उतरना । २४. शतरंज में किसी प्यादे का कोई बड़ा मोहरा बन जाना । जैसे, फरजी उतरा ओत मात हुई ।२५. — वसूल होना । जैसे, (क) कितना चंदा उतरा?(ख) हमारा सब लहना उतर आया । २६ .—स्त्रीसंभोग करना (आशिष्टों की भाषा) । २७ .— आग पर चढाई जानेबाली चीज का पककर तैयार होना । जैसे, पूरी उतरना । पाग उतरना । मुहा०—उतकर = निम्न श्रेणी का । नीचे दरजे का । उ०— वह जाति में मुझसे उतरकर है । —ठेठ हिंदी० पृ० ९ । गले में उतरना या गले के निचे उतरना = (१) निगल जाना । जैसे, — क्या करें, दवा गले के नीचे उतरती ही नहीं । (२) मन में धँसना । चित्त में असर करना । जैसे, हमारी कहीं बाते तो उसकी गले के नीचे उतरती ही नहीं ।चित से उतरना = (१) विस्मृत होना । भूल जाना । (२) नीचा जँचना । अप्रिय लगना । अश्रद्धाभाजन होना । जैसे— उसकी चाल ऐसी है कि वह सबके चित से उतर जाएगा । चेहरा उतरना = मुख मलिन होना । मुख पर उदासी छाना । जैसे, उनका चेहरा आज हमने उतरा देखा । चेहरे का रंग उतरना—दे० 'चेहरा उतरना' ।

उतरना (२)
क्रि० स० [सं० उत्तरण] नदी, नाले या पुल की पार करना । उ०— लखन दीख पय उतर करारा । चहुँ दिसि फिरेउ घनुष जिमि नारा । —मानस २ ।१३३ ।

उतरवाना
क्रि० स० [हि० उतरना का प्रि० रूप] किसी को उतारने के काये में प्रवृत्त करना ।

उतरहा
बि० [हि० उत्तर+हा (प्रत्य०)] [स्त्री० उतरही] उत्तरवाला । उत्तर का ।

उतराई
संज्ञा स्त्री० [हि० उतरना] १. ऊपर से नीचे आने की क्रिया । २. नदी के पार आने का महसूल या मजूरी । उ०— कहेउ कृपाल लेहि उतराई, केवट चरन गई अकुलाई ।— मानस २ । १०२ । ३. नाव आदि पर से उतरने का स्थान । ४. नीचे की ओर ढलती हुई जमीन । उतार । ढाल ।

उतरना (१)
क्रि० अ० [सं० उत्तरण] १. पानी के ऊर आना । पानी की सतह पर तैरना । जैसे,—काग इतना हल्का होता है कि पानी में ड़ालने से उतराता रहता है । २. उबलना उफान खाना । उ०—ताही समय दूध उतरना, दौरी तुरत उतार न जाना ।—विश्राम (शब्द०) ३. पीछे पिछे लगे फिरना । जैसे—यह बच्ची कहना नहीं मानता साथ ही साथ उतराता फिरता है । ४. प्रकट होना । हर जगह दिखाई देना । इधर उधर बहका फिरना । जैस, आजकल शहर में काबुली बहुत उतराए हैं । (ख) घायल ह्वै करसायल ज्यों मृग त्यों उतही उतरायल घूमै । देव (शब्द०) ।

उतरना (२)
क्रि० स० [उतरना क्रिया का प्रि० रूप] उतारने का काम अन्य से कराना 'उतारना' ।

उतरायल पु
वि० [हि०उतारना] उतारा हुआ व्यवहार किया हुआ । पुराना । जैसे—उतरायल कपड़े (शब्द०) ।

उतरारी पु †
वि० [सं० उतर+हि० ओरी प्रत्य०] उत्तर की (हवा) ।

उतराव
संज्ञा पुं० [हि० उतरना] उतार । ढाल । उ०—शिमला मंसूरी इत्यादि, स्थानों में जहाँ सरकार ने पत्थर काटकर सड़कें निकाल दी हैं वहाँ चढाव उतराव तो अवश्य रहता है, पर लोग बेखटके घोड़ा दौड़ाते चले जाते हैं ।—शिवप्रसाद (शब्द०) ।

उतरवना पु
वि० स० [हि० उतरना क्रिया का प्रे० रूप] उतारने का काम किसी और से कराना ।

उतराहा †
क्रि० बि० [सं० उत्तर+हिं० हा० (प्रत्य०)] उत्तर की और । उ०—मिथुन तुला कुंभ पछाहाँ, करक मीन बिरछिक उतराहा ।— जायसी (शब्द०) ।

उतरिन पु †
वि० [हिं०] दे० 'उऋण' ।

उतरिबी पु †
क्रि० अ० [हिं०] दे० 'तरना' । उ०—बरषा सी लागी निसि बासर बिलोचननि, बाढौ परवाह भयौ नावानि उतरिबौ । —मतिराम ग्रं० पृ० ३५८ ।

उतलाना पु †
क्रि० अ० [प्रा० उत्तावल, उतावल = शीघ्रता] जल्दी करना । उ०—चली तब धाई लछमन पाँव छुए जाई । बोली मुसकाय एक बात कहौं भावती । बरबे के काज राम तुम पै पठाई हौं गजानन मनाय आई ताते उतलापती । ।—हुनुमान (शब्द०)

उतल्ला
वि० [हिं०] दे० 'उतायल' ।

उतवंग पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्तमाँग] मस्तक । सिर ।—डिं० ।

उतसहकंठा पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्कण्ठा] प्रबल इच्छा । उत्कंठा । उ०— शरद सुहाई आई राति, दुहँ जीस फूल रही बन जाति, .... उतसहकंठा हरि सो बढ़ी ।—सूर (शब्द०) ।

उताइल पु
वि [प्रा० उत्तावल] दे० 'उतायल' । उ०— (क) गुरु मोहदीं सेवक मैं सेवा । चलै उताइल जोहि कर सेवा । जायसी ग्रं० पृ० ८ । (ख) दाधि सुत ओरि भख सुत सुभाव चल तहाँ उताइल आई । देखि ताहि सुर लिख कुबेर को बित्त तुरत समुझाई ।— साहित्य० १६६ ।

इताइली पु
संज्ञा स्त्री० [प्रा० उत्तावल] दे० 'उतायली' ।

उतान
वि० [सं० उत्तान = उत्+तान, प्रा० उत्राण = उन्मुख] २. पीठ को जमीनपर लगाकर लेटे हुए । चित । सीधा । उ०—उमा रावनहि अस अभिमाना । जिमि टिट्टिभ खग सूत उताना ।—मानस, ३ । ३९ । २. तना हुआ । फैला हुआ । क्रि० प्र०— चलना ।

उतामला †
वि० [हिं०] 'उतावला' ।

उतायल पु
वि० [प्रा० उत्तावला = उतावली] जल्दी । शीघ्र । तेज । उ०—जब सुमिरत रघुबीर सुभाऊ, तब पथ परत उतायल पाऊ ।—तुलसी (शब्द०) ।

उतायली पु
संज्ञा स्त्री० [हि० उतायल] जल्दी । शीघ्रता । उ०— श्याम सकुच प्यारी उर जानी ।....करत कहा पिय आति उता- यली मैं कहुँ जात परानि । सूर (शब्द०) ।

उतार
संज्ञा पुं० [सं० अव+√ तृ, प्रा० उत्तार, हि० उतरना] १. उतरने की क्रिया । २. क्रमशः नीचे की ओर प्रवृति । ढाल । जैसे, —पहाड़ का उतार । (शब्द०) । य़ौ०—उतार चढाव = ऊँचाई निचाई । उतार सुतार = गौं । सुबीता । मुहा०—उतार चढाव बताना = (१)ऊँचा नीचा समझाना । (२) धोखा देना । ३. उतरने योग्य स्थान । जैसे, (क) पहाड़ के उस तरफ उतार नहीं है, मत जाओ । ४. किसी वस्तु की मोटाई या घेरे का क्रमशः कम होना । जैसे, इस छड़ी का चढ़ाव उतार बहुत अच्छा है । किसी क्रमशः बढ़ी हुई बस्तु का घटना । घटाव । कमी । जैसे नदी अब उतार पर है । ६. नदी में हलकर पार करने योग्य स्थान । हिलान । जैसे— यहाँ उतार नहीँ है, और ओगे चलो । ७. समुद्र का भाटा । ८. दरी के करघे का पिछला बाँस जो बनुनेबाले से दूर और चढ़ाव के समानांतर होता है । ९. उतारन । निकृष्ट । उ०— अपत उतार, अपकार की अगार जग जाकी छाँई छुए सहमतब्याध बाँध की ।—तुलसी ग्रं० पृ० २९३ । १०. उतारा । न्योछावर । सदका । ११. परिहार । उस वस्तु का प्रयोग जिसमे विष आदि का दोष या ओर कोई प्रभाव दूर हो । जैसे, (क) हींग अफीम का उतार है । (ख) इस मंत्र का उतार क्या है । १२. वह अभि- चार जो अपने मंगल के लिये किसान करते है । इसमें वे एक दिन गाँव के बाहर रहते है । १३. कुश्ती का एक दाँव । उ०—दस्ती, उतार, लोकान, पट, ढाक कालाजंग, घिस्से आदि दाँव चले ओर कटे ।—काले० पृ० ४१ ।

उतारन
संज्ञा पुं० [प्रा० उत्तारण, हि० उतारना] उतारा हुआ कपड़ा । वह पहिरावा जो धारण करते करते पुराना हो गया हो । जैसे, आपकी उतारन पुतारन मिल जाय । २. न्योछावर । उतारा । ३. निकृष्ट वस्तु । यौ०— उतारन पुतारन ।

उतारना (१)
क्रि० सं० [ सं० अवतारण, प्रा० उत्तांरण] १. ऊँचे स्थान से निचे स्थान में लाना । उ०—अहे, दहेड़ी जिनि घरै, जिनि तू लेहि उतारि, नीकें है छोकै छुबै ऐसैई रहि नारि ।—बिहारी र० दो० ३१९ । २. किसी वस्तु का प्रतिरूप कागज इत्यादि पर बनाना । (चित्र) खींचना । जैसे, यह मनुष्य बहुत अच्छी तसवीर उतारता है । ३. लेख की प्रतिलिपि लेना । लिखावट कि नकल करना । जैसे, इस पुस्तक की एक प्रतिलिपि उतारकर अपने पास रख लो । ४. लगी या लिपटि पस्तु का अलग करना । सफाई के साथ काटना । उचाड़ना । उघेड़ना । उ०—(क) अस्वत्थामा निसि तहँ ओए, द्रोपदि सुत तहँ सोवत पाए । उनके सिर लै गयौ उतारि, कह्यौ पांड़वनि आयौ मारि । सूर०, १ ।२८९ । (ख) सिर सरीज निज करन्हि उतारी, पूजेऊ अमित बार त्रिपुरारी ।—मानस ३ । २५ (ग) बकरे की खाल उतार लो । (घ) दूध पर ले मलाई उतार लो । (शब्द०) । ५. किसी धरण की हुई वस्तु को दूर करना । पहनी हुई चीज को अलग करना । जैसे, (क) कपड़े उतार ड़ालो । (ख) अंगूठी कहाँ उतारकर रखी ? ६. ठहरना । टिकाना । डेरा देना । जेसे, इन लोगें के धर्मशाले में उतार दो । ७. आदर के निमित्त किसी बस्तु को शरीर के चारो ओर से घुमाना । जैसे, —आरती उतारना । ८. उतारा करना । कीसी वस्तु को मनुष्य के चारो ओर घुमाकर भूत प्रेत, की भेट के रूप में चौराहे आदि पर रखना । ९. न्योछावर करना । बारना । उ०— वरिए गौन में सिधुर सिहिनी, शायद नीरज नैनन वारिए । वरिए मत्त महा बृष ओजाहि चंद्रघटा मुसुकान उतारिए ।—रघुराज (शब्द०) । १०. चुकाना । अदा करना । जैसे, पहले अपने ऊपर से ऋण तो उतार लो । तब तीर्थयात्रा करना । ११. वसूल करना । जैसे, (क) पुस्तकालय का सब चंदा उतार लाओ तब तनखाह मिलेगी । (ख) हम अपना सब लहना उतार लेंगे तब यहाँ से जाएँगे । (ग) उसने इधर से उधर की बातें करकी (१००) उतार लिए । १२. किसी उग्र प्रभाव का दूर करना जैसे,—नशा उतारना, विष उतरना । १३. निगलना । जैसे, इस दबा को पानी के साथ उतार जाऔ । १४. जन्म देना । उत्पन्न करना । उ०— दियो शाप भारी, बात सुनी न हमारी, घटि कुल में उतारी, देह सोई याको जानिए ।—प्रिया (शब्द०) । १५. किसी ऐसी वस्तु का तैयार करना जो सूत या उसी प्रकार की और किसी अखंड़ सामग्री के बराबर बैठाते जाने से तैयार हो । सुई तागे आदि से बननेवाली चोजों का तैयार करना । जेसे, जुलाहे ने कल चार थान उतारे । १६. ऐसी वस्तु का तैयार करना जो खराद, साँचे या चाक आदि पर चढ़ाकर बनाई जाय । जैसे, चाक पर से बरतन उतारना, कालिब पर से टोपी उतरना । उ०—(क) कुम्हार ने दिन भर में १०० हँड़ियाँ उतारीँ । (ख) केशेदास कृंदन के कोश ते प्रकाशमान चिंतामाणि ओपनी सोँ ओपि कँ उतारी सी । (शब्द०) । १७. बाजे आदि की कसन की ढीला करनाष जैसे, सितार और ढोल कि उतारकर रख दो ।—केशव (शब्द०) । १८. भभके से खींचकर तैयार करना । खौलते पानी में किसी वस्तु का सार उतारना । जैसे,(क) वह शराब उतारता है । (ख) हम कुसुम का रंग अच्छी तरह उतार लेते हैं । १६. शतरंज में प्यादे को बढ़ाकार कोई बड़ा मोहरा बनाना । २. स्त्री का संभोग करना । (अशिष्टों की भाषा) । २१. तौल में पूरा कर देना । जैसे, वह तौल में सेर का सवा सेर उतार देता है । २२. आग पर चढ़ाई जानेवाली वस्तु का पककर तैयार । करना । जैसे, पूरी उतारना । पाग उतारना । संयों० क्रि०—ड़ालना ।—देना—लेना ।

उतारना (२)
क्रि० सं० [सं० उत्तारणा] पार ले जाना । नदी नाले के पार पहुँचाना । उ०— बरु तीर मारहु लखनु पै जब लगि न पाय पखरिहौँ । तब लगि न तुलसीदास नाथ कृपालु पार उतारिहौँ ।—मानस, २ । १०० ।

उतारी (१)
संज्ञा पुं० [हि० उतरना] १. डेरा ड़ालने या टिकाने का कार्य । उ०—बाग ही में पथिक उतारी होत आयो है । दूलह (शब्द०) । २. उतरने का स्थान । पड़ाव । उ०—गरजत क्रोध लोभ कौ नारी, सूझत कहुँ न उतारौ । —सूर० १ । २०९ । ३. नदी पार करने की क्रिया । यौ०— उतारे का झोपड़ा = सराय । धर्मशाला ।

उतारा (२)
संज्ञा पुं० [हि० उतरना] १. प्रेतबाधा या रोग की शांति के लिये किसी व्यक्ति के शरीर के चारों ओर खाने पीने ओदि की कुछ सामग्री की घुमाकार चौरहे या और किसी स्थान पर रखना । उ०—कहुँ रूसत रोवत नहिं सोवत रगवाये न रगाहीँ, घी के तुला कराबहीं जननी विविध उतार कराहीँ ।—रघुराज (शब्द०) । क्रि० प्र०— उतारना । —करना । २. उतारे कि सामग्री या वस्तु ।

उतारू (१)
[हि० उतरना] उद्यत । तत्पर । सन्नद्ध । तैयार । मुस्तैद । जैसे, इतनी ही सी बात के लिये वे मारने पर उतारू हुए । कि० प्र०—करना ।—होना ।

उतारू (२)
संज्ञा पुं० [हि०] मुसाफिर ।—(लश०) ।

उताल (१)पु
क्रि० वि० [प्रा० उत्ताल, जल्दी शीघ्र] जल्दी । शीघ्र । उ०— (क) कहै न जाइ उताल जहाँ भूपति तिहारो । हौं बृदावन चंद्र कहा कोउ करै हमारी? । सूर (शब्द०) । (ख) कहै धाय मिलाय कै आव उतात तू गाय गोपाल की गाइन में ।—रघुनाथ (शब्द०) । (ग) सो राजा जो अगमन पहुँचै सूर सु भवन उताल । —सूर०, १० । २२३ ।

उताल (२)पु
संज्ञा स्त्री० शीघ्रता । जल्दी । उ०—(क) ज्यौं ज्यौं आवति निकट निसि त्यौं त्यौं खरी उताल, झमकि झमकि टहलैँ करै लगी रहचटै बाल । —बिहारी र०, दो० ५४३ । (ख) कहै शिव कवि दबि काहे को रही है बाम, घाम ते पसीना भयो ताको सियराय ले, बात कहिबे, नंदलाल कि उताल कहा? हाल तो, हरिननैनी । हफनि मिटाय ले ।—शिव (शब्द०) ।

उताली (१)पु †
संज्ञा स्त्री० [हि० उताल] शीघ्रता । जल्दी । उतावली । चपलता । फुर्ती । उ०— गोपी ग्वाल माली जुरे आपुस सें कहैं आली कोऊ जसुदा के ओतरयो जो इंद्रजाली है, कहै पदमाकर करै को यौं उताली जापै रहन न पावँ कहूँ एकौ फन खाली है ।—पद्माकर ग्रं०, पृ० २३१ ।

उतालो (२)
क्रि० वि० शीघ्रता के साथ । जल्दी से । उ०— रूसि कहूं कढ़ि माली गयो गई ताई मनावन सासु उताली । —पद्माकर ग्रं०, पृ० १६१ ।

उतावल (२)
पु क्रि० वि० [प्रा० उत्तावल] जल्दी जल्दी । शीघ्रता से उ०—(क) कौउ गावत कोउ बेनु बजावत कोऊ उतावल धावत । हरिदर्शन की आसा कारन बिबिध मुदित सब आवत ।—सूर०, १० ।४२८२ (ख) मोको श्री गोकुल उतावल ही जाती है ।—दो सौ बावन०, भा०१, पृ० ४४ ।

उतावल पु
वि० दे० 'उतावला' ।

उतावला
वि० [प्रा० उत्तावल+आ (प्रत्य०)] [स्त्री० उतावली] १. जल्दी मचानेवाला । जिसे जल्दी हो । जल्दबाज । चंचल । उ०—(क) पानी हू ते पातला धूँआँ हू ते झीन, पवनहुँ वेग उतावला दोस्त कबीरा कीन ।—कबिर (शब्द०) । अरे मन, तू उतावला न हो, धीरज धर, तेरे हित की अनसूया पूछ रही है । —शकुतंला, पृ० २० । ८ व्यग्र । घबराया हुआ । उत्सुक । उ० —क्या जाने उतावला होकर जी बहलाने के लिये उसने बाजे में कुंजी दे रखी हो । —अयोध्या (शब्द०) ।

उतावलि पु †
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'उतावली' । उ०— सो जनेऊ तोरि कै बुहारि उतावलि गों बाँधी । —सो सौ बावन०, भा० २, पृ० ८५ ।

उतावली (१)
संज्ञा स्त्री० [प्रा० उत्तावल—ई (प्रत्य०)] १. जल्दी । शीघ्रता । जल्दबाजी । हड़बड़ी । उ०—(क) बसन शुक्र तनया के लीन्हे, करत उताबलि परे न चीन्हे । पूर०, ९ । १७४ । (ख) उनको कई तीर्थों में जाना है इसलिये वह उतावली कर रहे है । अयोध्या (शब्द०) । २. व्यग्रता । चंचलता ।

उतावली (२)
वि० स्त्री० जिसे जल्दी हो । जो जल्दी में हो । शीघ्रता करनेवाली । उ०—तबहिं गई में ब्रज उतावली आई ग्वाल बोलाइ । सूर स्याम दुहि देन कह्नयो, सुनि राधा गई मुसुकाइ ।—सूर०, १० । ७२८ ।(क) आजु अकेली उतावली हौं पहुँची तट लौं तुम आई करार में । बालसखीन के हा हा किए मन कैहूँ दियो जल केलि बिहार में ।—संदरीसर्वस्व (शव्द०) ।

उताहल (१)पु
क्रि० वि० [हि० उतावल] शीघ्रता से । तेजी से । चपलता से । उ०—गुरु मेहदी सेवक मैं सेवा, चलै उताहल जेहिकर खोवा ।—जायसी (शब्द०) ।

उताहल (२)पु
वि० उतावला ।

उताहिल पु †
[हिं०] दे० 'उतावल' ।

उतिपत्ति पु
संज्ञा स्त्री० [हि०] दे० 'उत्पत्ति' । उ०—दीपमालिका उतिपत्ति सब कहै सुनाऊँ तोहि । पृ० रा० २३ ।२ ।

उतिम पु
वि० [सं० उत्तम] दे० 'उत्तम' । उ०—एहि रे दगध हुँत उतिम मरीजै ।—जायसी ग्रं० पृ० १०८ ।

उतिमाहाँ पु
क्रि० वि० [सं० उत्तम] उत्तम । श्रेष्ट । उ०— चंपावति जो रूप उतिमाहाँ, पदमावति कि जोति मन छाहाँ ।—जायसी ग्र० (गृप्त), पृ० १५३ ।

उतू
संज्ञा पुं० [हि०] दे० 'उत्तू' । उ० —चोली चुनावट चीन्हे चुभें चपि होत उजागर दाग उतू के । —घनानंद, पृ० ४७ ।

उतृण पु †
वि० [सं० उद्+तीर्ण] १. ऋणमुक्त । उऋण । अनृण । उ०—हाय किस भाँति उस पिता के धर्म ऋण से उतृण होऊँ ।—तोताराम (शब्द०) । २. जिसने उपकार का बदाला चुका दिया हो । उ०— आप अपना आधा धन भी उसको दे देवें तब भी उसके ऋण से उतृण नहीं । हो सकते । शिवप्रसाद (शब्द०) ।

उतृन पु †
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उतृण' । उ० —पलतू मै उतृन भया, मोर दोस जिन देय । पलटू० बानी०, भा० १, पृ० ६ ।

उतै पु †
क्रि० वि० [हि० उत] वहाँ उधर । उस ओर । उ०— खेलत खेल सखीनि में उतै धूरी अवगहि, पलक न लागत एक पल इतै नाह मुख चाहि ।— मतिराम ग्रं०, पृ० ४४९ ।

उतैला (१)पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'उतावला' ।

उतैला (२)
संज्ञा पुं० [देश०] उर्ज । माष ।

उत्कंठ (१)
वि० [सं० उत्कण्ठ] १. ऊपर गर्दन किए हुए ।२. तैयार । उद्यत । ३. उत्कंठायुक्त । उत्कंठित [को०] ।

उत्कंठा
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्कण्ठा] १. प्रबल इच्छा । तीव्र अभिलाषा । लालसा । चाव । ८. रस में एक संचारी का नाम । किसी नाम में बिलंब न सहकर उसे चटपट करने की अभिलाषा । जैसे, फिरि फिरि बूझति, कहि कहा कह्यो साँवरे गात, कहा करत देखे, कहाँ आली चली क्यों बात ।—बिहारी र०, दो० २१९ ।

उत्कंठातुर
वि० [सं० उत्कण्ठा+आतुर] तीव्र इच्छा की पूर्ति के ।

उत्कंठित
वि० [उत्कण्ठिता] उत्कठायुक्त । उत्सुक । उत्साहित । चाव से भरा हुआ ।

उत्कंठिता
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्कण्ठिता] संकेत स्थान में प्रिय के न आने पर वितर्क करनेवालि नायिक । जैसे, नभ लाली चाली निसा, चटकीली धुनि कीन, राति पाली आली, अनत, आए बनमाली न —बिहारी र०, दो ११५ ।

उत्कंदक
संज्ञा पुं० [सं० उत्कन्दक] एक प्रकार का रोग [को०] ।

उत्कंधर (१)
वि० [सं० उत्कन्धर] ऊपर गर्दन किए हुए [को०] ।

उत्कंधर (२)
संज्ञा पुं० गर्दन ऊपर करना [को०] ।

उत्कंप
संज्ञा पुं० [सं० उत्कम्प] कँपकँपी ।

उत्क (१)
वि० [सं०] १. इच्छा रखनेवाला । १. दुःखद कष्टप्रा । ३. भूलनेबाला [को०] ।

उत्क (२)
संज्ञा पुं० १. इच्छा । अवसर [को०] ।

उत्कच (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. हिरण्याक्ष के नौ पुत्रों में से एक । २. परावसु गंधर्व के नो पुत्तों में से एक ।

उत्कच (२)
वि० १. खड़े बालोंबाला । २. गंजा [को०] ।

उत्कट (१)
वि० [सं०] तीव्र । विकट । कठिन । उग्र । प्रचंड़ । दुःसह । प्रबल । उ०—तथापि दूसरों कि उत्कट कीर्ति से इसमें ईर्षो होती है । — भारतेदु ग्रंथ, भा० १, पृष्ठ २६३ ।

उत्कट (२)
संज्ञा पुं० [सं०] १. मूँज । २. ईख । गन्ना । ३. दालचिनी ४. तज । तेजपात्ता ।

उत्कटा
संज्ञा स्त्री० [सं०] सैंही लता [को०] ।

उत्कर
संज्ञा स्त्री० [सं०] राशि । ढेर [को०] ।

उत्कर्कर
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का बाजा [को०] ।

उत्क
वि० र्ण [सं०] १. कान खड़े हुए । २. उत्सुक । (किसी बात को सुनने के लिये) [को०] ।

उत्कर्णाता
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्कर्ण] उत्सुकता । उ०—देख भाव- प्रवणाता, वरवर्णाता, वाक्य सुनने हुई उत्कर्णाता—साकेत, पृ० ९९ ।

उत्कर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] १. काटना । २. फाड़ ड़ालना । ३. उन्मूलन [को०] ।

उत्कर्ष
संज्ञा पुं० [सं०] १. बड़ाई । प्रशंसा । २. श्रेष्ठता । उत्तमता । अधिकता । बढ़ती । उ०—भले की भलाई और बुरे की बुराई दिखलाकर एक का उत्कर्ष ओर दूसरे का पतन दिखलाया जाता है—रस क० पृ० २७ ।

उत्कर्षक
वि० [सं०] उत्कर्ष की ओर से ले जानेबाला । उत्कर्ष- दायक [को०] ।

उत्कर्षता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. श्रेष्ठता । बड़ाई । उत्तमता । २. अधिकता । प्रचुरता । ३. समृद्धि ।

उत्कर्षित
वि० [सं०] उत्कर्षप्राप्त । उत्कर्ष को पहुँचा हुआ । उ०— उसे ज्ञात था, लोहे को है गुण विधि से अर्पित । निम्म सार से यह सुवर्ण में हो सकता उत्कर्षित । —दैनिकी, पृ० २३ ।

उत्कर्षी
वि० [सं० उत्कषिन्] दे० 'उत्कर्षक' [को०] । यो०—उत्कलखड़ = स्कदपुराणा का एक भाग । २. बहेलिया । ३. बोझा ढोनेबाला । ४. ब्राह्मणों का एक भेद [को०] ।

उत्कलाप
वि० [स०] ऊपर की तरफ पूँछ फँलाए हुए [को०] ।

उत्कलिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. उत्कंठा । २. फूल की कली । ३. तरंग । लहर । ४. वह गद्य जिसमें बड़े बड़े समासवाले पद हों ।

उत्कलित
वि० [सं०] मुक्त । प्रस्फुटित । उ०— हर पिता कंठ की हष्त आर, उत्कलित रागिनी की बहार ।—अनामिका, पृ० १२७ ।

उत्कर्षण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चीरना । फाड़ना । २. हल से जोतना [को०]

उत्का
वि० स्त्री० [सं०] दे० 'उत्कंठिता' । उ०—आप जाय संकेत में, पीव न आयो होय । ताकी मत चिंता करै उत्का कहिए सोय ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ३०४ ।

उत्काका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह गाय जो प्रति वर्ष बच्चा दे । बरसाइन गाय ।

उत्कार
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. अनाज फटकना या पछोरना । २. अनाज की राशी लगाना । ३. वह जो बीज बोता है [को०] ।

उत्कारिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] लोथा । पुलटिस । लेप [को०] ।

उत्काशन
संज्ञा पुं० [सं०] आज्ञा देना [कों०] ।

उत्कास
संज्ञा पुं० [सं०] गला साफ करना । खखरना [को०] ।

उत्कसन
संज्ञा पुं० दे० 'उत्कास' [को०] ।

उत्कासिका
संज्ञा स्त्री० दे० 'उत्कासन'[को०] ।

उत्कोर्ण
वि० [सं०] लिखा हुआ । खुदा हुआ । छिदा हुआ । बिधा हुआ । उ०— गवर्नमेंट ने पंड़ित जी की विद्वत्ता की प्रशंसा उत्कीर्ण कराकर एक सोने का पदक पुरस्कार में दिया ।— सरस्वती (शब्द०) ।

उत्कीर्णकर्ता
वि० [सं०] लिखने या लिखवानेवाला । उ०— आगे के पल्लव अभिलेख संस्कृत में है जिसके अध्ययन से पता चलता है कि उनके लेखक तथा उत्कीर्णकर्ता पाँचवीं तथा छठीं शताब्दी में हुए थे ।—प्रा० भा०, पृ० ५९१ ।

उत्कीर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्कीर्तित] १. प्रसंशा । स्सुति करना । २. चिल्लाना । जोर से पुकारना । ३. घोषणा करना ।

उत्कृट
संज्ञा पुं० [सं०] चित्त सोना । [को०] ।

उत्कुटक
वि० [सं०] ऊपर मुँह करके सोया हुआ [को०] ।

उत्कुण
संज्ञा० पुं० [सं०] १. मत्कुण । खटमल । उड़स । २. बालों का कीड़ा । जूँ ।

उत्कूज
संज्ञा पुं० [सं०] कोयल का गान करना । कोयल का कूकना [को०] ।

उत्कूट
संज्ञा पुं० [सं०] छाता या छतरी [को०] ।

उत्कूर्दन
संज्ञा पुं० [सं०] कूदना । उछलना [को०] ।

उत्कूल
वि० [सं०] १. ऊपर जानेवाला (पर्बत या नदी) । २. किनारे पर पहुँचानेवाला । ३. किनारे की तरफ बढ़नेवाला [को०] ।

उत्कृति (१)
संज्ञा पृं० [सं०] २६ वर्ण के वृत्ता का नाम । सुख और भुजंग विजृ भित इत्यादि इन्हीं के अंतर्गत है ।

उत्कृति (२)
वि० छब्बीस (संख्या) ।

उत्कृष्ट
वि० [सं०] १. उत्तम । श्रेष्ठ । अच्छे से अच्छे । सर्वोत्तम । २. ऊपर से उठाया हुआ (को०) । ३. जोता हुआ । (को०) । ४. तोड़ा हुआ । काटा हुआ (को०) ।

उत्कृष्टवेदन
संज्ञा पुं० [सं०] अपने से उच्च जाति के व्यक्ति से विवाह करना [को०] ।

उत्कृष्टता
संज्ञा स्त्री० [सं०] बड़ाई । श्रेष्टता । अच्छापन । बड़प्पन । उत्कृष्ट होने की स्थिति । उ०—यह मनुष्य जिससे वेनिस के प्रत्येक निवासियों की घृणा है, जिसके निकट महत्व और पानिप कोई उत्कृष्टता नही रखाता, जो वृद्धा और युबा सब पर कराघात करने को उद्यत है.... । — अयोध्या (शब्द०) ।

उत्केद्र
वि० [सं० उत्केन्द्र] १. केंद्र से निकाला या अलग किया हुआ । २. बिना नियमवाला [को०] ।

उत्कोंद्रक
वि० [सं० उत्केद्रक] केंद्र से अलग या बाहर करनेबाला [को०] ।

उत्केंद्रकशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्केन्द्रकशक्ति] केंद्र से दूर फेंकनेवाली शक्ति । यह शक्ति जोर से चक्कर भारती हुई वस्तुओं में उत्पन्न हो जाती है, जिससे उस वस्तु का काई खंड़ित अंश अथवा ऊपर रखी हुई कोई और चीज उसके केंद्र से बाहर की और वेग से जाती है; जैसे, पहिए से लगा हुआ कीचड़ गाड़ी चलते समय दूर जा पड़ता है ।

उत्केंद्रता
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्केन्द्रता] केंद्र से च्युत होना । धुरी- हीनता । उ०—दुर्बाधता, प्राचुर्ब और उत्केंद्रता शास्त्रीय संपूर्णता के विरुद्ध है ।—पा० सा० पृ० १७१ ।

उत्कोच
संज्ञा पुं० [सं०] घूस । रिश्वत । यो०—उत्कीचग्राही । उत्कोचजीवी ।

उत्कोचक (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० उत्कोचिका] घूसखोर । रिश्वत खानेवाला ।

उत्कोचक (२)
संज्ञा पुं० रिश्वत खाना । रिश्वत लेना [को०] ।

उत्कोटि
वि० [सं०] नोकवाला । नोकदार [को०] ।

उत्क्रम
संज्ञा पुं० [सं०] १. उलटपलट । क्रमभंग । विपर्यय । २. असंमान होना ।

उत्क्रमण
संज्ञा पुं० [सं०] [ वि० उत्क्रमणीय] १. क्रम का उल्लंघन । २. मरण । मृत्यु । ३. बाहर या ऊपर जाना [को०] । ३. बुद्धि होना । बढ़ना [को०] ।

उत्क्रांति
संज्ञा स्त्री० [सं०उत्क्रान्ति] क्रमशः उत्तमता ओर पूर्णता की ओर बढ़ती हुई प्रवृत्ती । दे० 'ओरोह' । उ०—मनोमंदिर की मेरी शांति । बनी जाती है क्यों उत्क्रांति? सांकेत, पृ० ३२ । यौ०— उत्क्रातिवाद । उ०— भाषाविज्ञान और उत्क्रांतिवाद ने भी बहुत सी ऐतिहासिक घटनाऔ में तार्किक सबद्धता दिखाई ।—पा० सा०, पृ०, ९ ।

उत्क्रोश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शोरगुल । हल्ला । चिल्लाना । जोर की आवाज । २. घोषण । राजज्ञापत्र द्वारा प्रकाशन । ३. कुररी पक्षी [को०] ।

उत्क्रोशपात
संज्ञा पुं० [सं०] एक प्रकार का नृत्य [को०] ।

उत्वलेद
पंज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उत्कलेदन' [को०] ।

उत्वलेदन
संज्ञा पुं० [सं०] तर या गीला । यौ०— उत्कलेदनवस्ति= तरी पहुँचाने की इच्छा से उपयुक्त औषधियों के क्वाथ पिचकारी द्वारा वस्ति में पहुँचना ।

उत्क्लेश
संज्ञा पुं० [सं०] १. शरीर का स्वस्थ न रहना । २. बेचैनी । ३. कलेजे के समीप जलन [को०] ।

उत्क्षिप्त
वि० [सं०] १. ऊपर उछाला हुआ । ऊपर फेंका हुआ [को०] ।

उत्क्षिप
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊपर की तरफ उछालाना । उपर की तरफ फेंकना [को०] ।

उत्क्षेपक
संज्ञा पुं० [सं०] १. वस्त्रादि का चोर ।—(स्मृति) । २. वह जो उछालाता या फेंकता है [को०] । ३. वह जो भेजता है [को०] ।

उत्क्षेपण
संज्ञा पुं० [सं०] १. चुराना । चोरी । २. ऊपर की ओर फेंकना । ३. सोलह पण की एक माप । ४. पंखा । ४. किसी वस्तु का ढकना । पिहान । ६. मुसल, मुँजरी या पिटना इत्यादि जिससे अन्न पीटा जाता है । ७. सूप ।

उत्खनन
संज्ञा पुं० [सं०] खोदना । खनना । गड़ी वस्तु को बाहर निकालना ।

उत्खला
संज्ञा पुं० [सं०] मुरा नामक एक सुगंधित द्रव्य [को०] ।

उत्खात
वि० [सं०] उखाड़ा हुआ । २. खोदकर निकाला हुआ । [को०] । ३. खोदा हुआ [को०] ।

उत्खाता
वि० [सं० उत्खातृ] १. खोदनेवाला । २. उखाड़नेवाला [को०] ।

उत्खाती
वि० [सं० उत्खातिन्] १.ऊबड़ खाबड़ । जो सम न हो । २. नष्ट करनेवाला । विनाशकारी [को०] ।

उत्खान
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उत्खनन' [को०] ।

उत्खेद
संज्ञा पुं० [सं०] १. खोदना । खनना । २. बाहर निकालना । ३. छेदना [को०] ।

उत्तंक
संज्ञा पुं० [सं० उत्तङ्क्क] दे० 'उतंक' [को०] ।

उत्तंग पु
वि० दे० 'उत्तुंग' । उ०— उत्तंग मरकत मंदिरतन मधिबहु मृदंग जु बाजहीं । घन—समै भानहु घुमरि करि घन घन पटल गल गाजहीं ।—भूषण ग्रं०, पृ०, ४ ।

उत्तंभ
संज्ञा पुं० [सं० उत्तम्भ] १. आधार देना । सहारा देना । सहारा देना । २. रोकना [को०] ।

उत्तंभन
संज्ञा पुं० [सं० उत्तम्भन] दे० 'उत्तंभ' [को०] ।

उत्तंस
संज्ञा पुं० [सं०] १. मुकुट । किरीट । २. मुकुट पर धारण की हुई माला । ३. कान का एक गहना । कर्णपूर । करफूल । ४. एक प्रकार का अलंकार (साहित्य) । उ०— उत्तंस—गौण भाव से कही उक्ति को प्रधानता देना ।—संपूर्णा० अभि० ग्रं०, पृ० २६३ ।

उत्त (१)पु
संज्ञा पुं० [उत्] आश्चर्य । संदेह । उ०—मेरे मन उत्त री तू कैसे उतरी है, मुंदरी तू कैसे करि उतरी समृंद री ।— हनुमान (शब्द०) ।

उत्त (२)पु
क्रि० वि० [हिं०] दे० 'उत' । उ०—कहा किया हम आइ कहा करैंगे जाइ, इत के भये न उत्त के चले मूल गँवाह ।— कबीर ग्रं०, पृ० २३ ।

उत्त (३)पु
अव्य० उधर ।

उत्तट
वि० [सं०] किनारे तक छलकता हुआ [को०] ।

उत्तपन
संज्ञा पु० [सं०] एक विशेष प्रकार की आग [को०] ।

उत्तप्त
वि० [सं०] १. खूब तपा हुआ । २. दुःखी । क्लेशित । पीड़ित । संतप्त । ३. क्रोधित । कुपित । ४. स्नान किया किया हुआ । धोया हुआ ।

उत्तप्त (२)
संज्ञा पुं० १. सुखाया हुआ मांस । २. अधिक गर्म [को०] ।

उत्तब्ध
वि० [सं०] १. ऊपर उठाया हुआ । २. उत्तोजित किया गया [को०] ।

उत्तभित
वि० [सं०] दे० 'उत्तब्ध' [को०] ।

उत्तम (१)
वि० [सं०] [वि० स्त्री० उत्तमा] १. श्रेष्ठ । सबसे अच्छा । सबसे भल ।

उत्तम (२)
संज्ञा पुं० [सं०] छोटी रानी सुरुचि से उत्पन्न राजा उत्तानपाद का पुत्र । ध्रुव का सौतेला भाई ।

उत्तमगंधा
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्तमगंधा] चमेली । मालती । उ०— सुमना जाती मल्लिका, उत्तमगंधा आस, कछु इक तुव तन बास सों मिसति जासु की बात ।—नंद० ग्रं०, पृ० १०५ ।

उत्तमतया
क्रि० वि० [सं०] उत्तमतापूर्वक । उत्तमता से । अच्छी तरह से । भली भाँति ।

उत्तमता
संज्ञा स्त्री० [सं०] श्रेष्ठता । उत्कृष्टता । खूबी । भलाई । उ०— इसमें तो सब जाक की उत्तमता निकल सकती है ।— भारतेंदु ग्रं०, भा०, ३, पृ० १९ ।

उत्तमताई पु
संज्ञा स्त्री० [सं० उतामता+हिं० ई (प्रत्य०)] भलाई । बड़ाई । बड़ाप्पन । उ०—बनिक लहत सुनि धन अधिकाई । लहत सूद्रकुलष उत्तमाताई ।—पद्माकर (शब्द०) ।

उतमत्व
संज्ञा पुं० [सं०] आच्छापन । भलाई ।

उतमन
संज्ञा पुं० [सं०] १. अधैर्य । २. साहस छूटना । दिल खोना [को०] ।

उत्तमपुरुष
संज्ञा पुं० [सं०] व्याकरण सें वह सर्वनाम जो बोलनेवाले पुरुष को सूचित करता है; जैसे,— मैं, 'हम' ।

उत्तमफलिनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] दुद्धि या दुग्धिका नाम का पौधा ।

उत्तमर्ण
संज्ञा स्त्री० [सं०] ऋण देनेवाला व्याक्ति । महाज । अधमर्ण का उलटा ।

उत्तमर्णिक
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'उत्तमर्ण' [को०] ।

उत्तममित्र
संज्ञा पुं० [सं०] वह जो राष्ट्र या राज्य के लिये सबसे उत्तम मित्र हो । उत्तम मित्र के कौटिल्य ने छह भेद देए हैं— (१) नित्यामित्र (२) वश्यमित्र, (३) लघूत्थानमित्र, (४) पितृपैतामह मित्र, (५) मदनमित्र, (६) अद्वैष्यामित्र [को०] ।

उत्तमवयस
संज्ञा पुं० [सं०] जीवन की अंतिम अवस्था । जिवन का शेष भाग [को०] ।

उत्तमवर्ण
वि० [सं०] १. सुवर्ण । अच्छे रंगवाला । उत्तम जाति का [को०] ।

उत्तमवेश
संज्ञा पुं० [सं०] शिव [को०] ।

उत्तमश्रुत
वि० [सं०] बहुश्रुत । बड़ा विद्वान् [को०] ।

उत्तमश्लोक (१)
वि० [सं०] यशस्वी । कीर्तिमान [को०] ।

उत्तमश्लोक (२)
संज्ञा पुं० १. सुयश । उत्तमकीत्ति । पुण्य । यश । २. भगवान । नारायण । विष्णु [को०] ।

उत्तमसंग्रह
संज्ञा पुं० [सं० उत्तमसंङ्ग्रह] परस्त्री से लगाव [को०] ।

उतमसाहस पु
संज्ञा पुं० [सं०] १. एक हजार पण के जुर्माने का दड़ । २. कोई बड़ा दंड़, जैसे—शूली, फाँसी, जायदाद का जब्त होना, अंगमंग, देशनिकाला इत्यादि ।

उत्तमांग
संज्ञा पुं० [सं० उत्तमाङ्गं] सिर । शीर्ष । मस्तक ।

उत्तमांभस
संज्ञा पुं० [सं० उत्तमाम्मस] सांख्यमतानुसार नो प्रकार की तुष्टियों मे एक जो हिंसा के त्याग से होती है । योग की परिभाष में उसे सार्वभौम महाव्रत कहते है ।

उत्तमा (१)
वि० [सं० उत्तम का वि० स्त्री०] अच्छी । भली ।

उत्तमा (२)
संज्ञा स्त्री० १. पुरी विशेष । २. शूक रोग के १८ भेदों में से एक जिसमें अजीर्ण तथा रक्तपित्त को प्रयोग से इंद्रिय पर मूँग या उर्द की सी लाल फुंसियाँ ही जाती हैं । ३. दूधी । दुद्धी दुग्धिका । ४. इंदीवरा । युग्मफल । ५. हिदी साहित्य समेलन की एक परिक्षा का नाम ।

उत्तमादूती
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह दूती जो नायक या नायिका को मीठी बातों से समझा बुझाकर मना लावे ।

उत्तमानायिका
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह स्वकीया नायिका जो पति के प्रतिकूल होने पर भी अनुकूल बनी रहे ।

उत्तमारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] इंदीवरी नाम का एक पौधा [को०] ।

उत्तमार्द्ध
संज्ञा पुं० [सं०] १. पूर्वार्द्ध की एक अपेक्षा सुंदर उत्तारार्द्ध । वह जिसका उत्तरार्द्ध अच्छा हो । २. उत्तरार्द्ध [को०] ।

उत्तमार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उत्तमार्द्ध' [को०] ।

उत्तमाह
संज्ञा पुं० [सं०] १. अच्छा दिन । सौभाग्यवाला दिन । अंतिम दिन [को०] ।

उत्तमीय
वि० [सं०] सबसे ऊपर । सबसे अच्छा । सबसे ऊँचा । प्रधान [को०] ।

उत्तमीत्तम
वि० [सं०] अच्छी से अच्छा । सर्वात्तम ।

उत्तमीत्तमक
संज्ञा पुं० [सं०] लास्य के दस अंगों में से एक । कोप अथवा प्रसन्नताजनक, आक्षेपयुक्त, रसपूर्ण, हाव और भाव से संयुक्त विचित्र पद्य—रचना—युक्त । (नाट्यशास्त्र) ।

उत्तमौजा (१)
वि० [सं० उत्तमौजस्] जिसका बल या तेज उत्तम हो ।

उत्तमौजा (२)
संज्ञा पुं० १. मनु के दस लड़कों में से एक । २. युधासन्यु का भाई एक राजा जो पांडवों का पक्षपाती था ।

उत्तंरग (१)
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरङ्ग] काठ का मेहराब जो चौखट के ऊपर उगाया जाता है [को०] ।

उत्तरंग (२)
वि० १. आनंद से भरा हुआ । २. लहराता हुआ । ३. काँपता हुआ । उछलता हुआ [को०] ।

उत्तर (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. दक्षिण दिशा के सामने की दिशा । ईशान और वायव्य कोण के बीच की दिशा । उदीची । २. किसी बात को सुनकर उसके समाधान के लिये कही हुई बात । जवाब । उ०—लघु आनन उत्तर देत बड़ी लरिहै मरिहै मारिहै करिहैकुछ साकी । गोरी, गरूर गुमान भरी कहो कौसिक, छोटी सो ढोटी है काकी । — तुलसी ग्रं०, पृ० १६० । जैसे, हमारे प्रश्न का उत्तर अभी नहीं आया । ३. प्रतिकार । बदला । जैसे, हम गलियों का उत्तर घूसों से देंगे । ४. एक वैदिक गीत । ५. राजा विराट रा पुत्र । ६. एक काव्यालंकार जिसमें उत्तर के सुनते ही प्रश्न का अनुमान किया जाता है अथवा प्रश्नों का ऐसा उत्तर दिया जाता है जो अप्रसिद्ध हो । जैसे— (क) धेनु धुमरी रावरी ह्याँ कित है जदुबीर, वा तमाल तरुवर तकी, तरनि तनूजा तीर (शब्द०) । इस उदाहरण में 'तुम्हारी गाय यहाँ कहीँ है' इस उत्तर के सुनने से हमारी गाय यहाँ कहीँ है?' इस प्रश्न का अनुमान होता है ।(ख) 'कहा विषम है? दैवगति, सुख कह? तिय गुनगान । दुर्लभ कह? गुन गाहकहि, कहा दुःख? खल जान' (शब्द०) । इस उदाहरण में 'दुःख क्या है आदि प्रश्नों के 'खल' आदि अप्रसिद्ध उत्तर होता है । उ०— (क) को कहिए जल सों सुखी का कहिए पर श्याम, को कहिए जे रस बिना को कहिए सुख वाम (शव्द०) । यहाँ 'जल से कोन सुखी है ? इस प्रश्न का उत्तर इसी प्रश्न- वाक्य आदि का शब्द 'कोक (कमल)' है । इसी प्रकार और भी है । (ख) गउ, पीठ पर लेहु, अंग राग अरु हार करु, गृह प्रकाश करि देहु कान्ह कह्यो सारँग नहीं (शब्द०) । यहाँ गाओ, पीठ पर चढाओ, आदि सब बातों का उत्तर 'सारंग (जिसके अर्थ वीण, घोड़ा, चंदन, फूल और दीपक आदि हैं) नहीं' से दिया गया है । (ग) प्रश्न—घोड़ा क्यों अड़ा, पान क्यों सड़ा, रोटी क्यों जली? उत्तर— 'फोरा न था' । यौ०—उत्तर प्रत्युत्तर ।

उत्तर (२)
वि० १. पिछला । बाद का । उपरांत का । उ०— (क) दैंहहँ दाग स्वकर हत आछे । उत्तर क्रियहिं करहूँगो पाछो ।— पद्माकर (शब्द०) । यौ०— उत्तर भाग । उत्तर काल । २. ऊपर का । जैसे, उत्तरदंत । उत्तरहुनु । उत्तरारणी ३. बढ़कर । श्रेष्ठ । जैसे,—लोकोत्तर ।

उत्तर (३)
क्रि० वि० पीछे । बाद । जैसे, उत्तरेत्तर ।

उत्तरकल्प
संज्ञा पुं० [सं०] दुसरा कल्प जिसमें खनिज पदार्थों एवं पर्वतों की सृष्ट हुई थी [को०]

उत्तरकांड़
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरकाण्ड] रामायण का सातवाँ या अंतिम कांड़ (अध्याय) [को०] ।

उत्तरकाय
संज्ञा पुं० [सं०] शरीर का ऊपरी भाग [को०] ।

उत्तरकाल
संज्ञा पुं० [सं०] भविष्यकाल [को०] ।

उत्तरकाशी
संज्ञा पुं० [सं०] एक स्थान जो हरिद्वार के उत्तर में है और बदरीनारायण के मार्ग में पड़ता है ।

उत्तरकुरु
संज्ञा पुं० [सं०] जंबूद्वीप के नौ वर्षों या खंड़ो में से एक ।

उत्तरकोशल
संज्ञा पुं० [सं०] अयोद्या के आसपास का देश । प्रबध ।

उत्तरकोशला
संज्ञा स्त्री० [सं०] अयोध्या नगरी ।

उत्तरकोसल
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उत्तरकोशल' [को०] ।

उत्तरक्रिया
संज्ञा स्त्री० [सं०] शवदाह के अनँतर मृतक के निमित्त होनेवाला विधान ।

उत्तरगुण
संज्ञा पुं० [सं०] जैनशास्तनुसार वे गुण जो मूल गुण की रक्षा करें ।

उत्तरग्रंथ
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरग्रन्थ] रचना का परिशिष्ट [को०] ।

उत्तरच्छद
संज्ञा पुं० [सं०] १. आवरणा । २. बिछावन के ऊपर बिछाई जानेबाली चादर [को०] ।

उत्तरज्योतिष
संज्ञा पुं० [सं०] पश्चिम दिशा का एक देश ।

उत्तरण
संज्ञा पुं० [सं०] उतरना । नाव आदि के द्वारा जलाशाय पार करना [को०] ।

उत्तरतत्र
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरतन्त्र] सुश्रुत या किसी वैद्यक ग्रंथ का पिछला भाग ।

उत्तरदाता (१)
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरदातृ] [स्त्री० उत्तरदात्री] वह जिससे किसी कार्य के बनने विगड़ने पर पूछताछ की जाय ।

उत्तरदाता (२)
वि० जवाबदेह । जिम्मेदार ।

उत्तरदायित्व
संज्ञा पुं० [सं०उत्तर+दायित्व; फा० जवाबदेही का हिं० रूप] जवाबदेही । जिम्मेदारी । उ०—गुप्त साम्राज्य की भावी शासक को अपने उत्तरदयित्व का ध्यान नहीं ।— स्कंद०, पृ०, ४ ।

उत्तरदायी
वि० [सं० उत्तरदायिन्] [वि० स्त्री० उत्तरदायिनी] उत्तर देनेवाल । जवाबदेह । जिम्मेदार ।

उत्तरदायी सरकार
संज्ञा स्त्री० [हि० उत्तरदायी+सरकार] उत्तरदायी शासन । उत्तरदायित्वपूर्ण शासन । वह शासन जिमसें शासक वर्ग के व्यक्ति अपने कायों के लिये जनता या जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी हो । उ०—यद्यपि केंद्र और प्रांतों दोनों में उत्तरदायी सरकार की व्यवस्था की गई थी... । भा० रा० शा० वि० पृ० ३ ।

उत्तरनाभि
संज्ञा स्त्री० [सं०] यज्ञ में उत्तर की और का कुंड़ ।

उत्तरपक्ष
संज्ञा पुं० [सं०] शास्त्रार्थ में वह सिद्धात जिसमें पूर्व पक्ष अर्थात् पहले किए हुए निरूपण या प्रश्न का खंड़न या समाधान हो । जवाब की दलील ।

उत्तरपट
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपरना । दुपट्टा । चादर । २. बिछाने की चद्दर ।

उत्तरपथ
संज्ञा पुं० [सं०] देवायान ।

उत्तरपद
संज्ञा पुं० [सं०] किसी यौगिक शब्द का अंतिम शब्द । जैसे, रवि—कुल— कमल—दिवाकार' में 'दिवाकर' (शब्द०) ।

उत्तरपाद
संज्ञा पुं० [सं०] चुनौती का जवाब [को०] ।

उत्तरप्रदेश
संज्ञा पुं० [सं०] भारत संघ का एक राज्य [को०] ।

उत्तरप्रोष्ठपदयुग
संज्ञा पुं० [सं०] नंदन, विजय, जय, मन्मथ ओर दुर्मख; इन वर्षां का समूह ।

उत्तरप्रोष्ठपदा
संज्ञा स्त्री० [सं०] उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र ।

उत्तरभोगी
वि० [सं० उत्तरभीगिन्] उपभुत्क, त्यक्त या बची हुई वस्तु का उपभोग करनेवाला [को०] ।

उत्तरमंद्र
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरमन्द्र] संगीत में एक मूर्च्छना का नाम ।इसका स्वरग्राम यों है । —स, रे, ग, म, प, ध, नि, ध, नि, स, रे, ग, म, प, ध, नि, स, रे, ग, ।

उत्तरमानस
संज्ञा पुं० [सं०] गया तीर्थ में एक सरोवर ।

उत्तरमीमांसा
संज्ञा पुं० [सं०] वेदांत दर्शन ।

उत्तरलक्षण
संज्ञा पुं० [सं०] जवाब का उपयुक्त संकेत [को०] ।

उत्तरवय
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'उत्तरवयस' [को०] ।

उत्तरवयस
संज्ञा पुं० [सं०] बुढ़ापा । वृद्धावस्था ।

उत्तरवर्तन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'अनुवृत्ति' [को०] ।

उत्तरवस्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] छोटी पिचकारी [को०] ।

उत्तवस्त्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊपर पहना जानेवाला वस्त्र । २. दुपट्टा आदि [को०] ।

उत्तरवादी
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरवादिन्] वह जो बाद में न्याय की माँग करता है प्रतिवादी । मुद्दालेह [को०] ।

उत्तरसाक्षी
संज्ञा पुं० [सं०] कृतसाक्षी के पाँच भेदों में से एक । वह साक्षी जो औरों के मुँह से मामले का हाल सुनसुनाकर साक्षी दे ।

उत्तसाधक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] सहायक [को०] ।

उत्तरसाधक (२)
वि० १. शेष भाग को पूरा करनेवाला । २. उत्तर (जवाब) को सिद्ध करनेवाला [को०] ।

उत्तरा
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. राजा विराट की कन्या ओर अभिमन्यु की स्त्री जिससे परीक्षित उत्पन्न हुए । थे । २. उत्तरीदिशा । [को] । ३. एक नक्षत्र [को०] ।

उत्तराखंड़
संज्ञा पुं० [सं० उत्तराखण्ड़] भारतवर्ष का वह उत्तरी हिस्सा जो हिमालय के आसपास में पड़ता है [को०] ।

उत्तराधिकार
संज्ञा पुं० [सं०] किसी के मरने के पीछे उसके धनादि का स्वत्व । वरासत ।

उत्तराधिकारी
संज्ञा पुं० [सं० उत्तराधिकारिन्] [स्त्री० उत्तराधिकारिणी] वह जो किसी के मरने के पीछे उसकी सपत्ति का मालिक हो । वारिस ।

उत्तरापेक्षी
वि० [सं० उत्तररापेक्षिन्] अपने कथन का जवाब चाहनेवाला [को०] ।

उत्तराफाल्गुनी
संज्ञा स्त्री० [सं०] बारहबाँ नक्षत्र ।

उत्तराभाद्रपद
संज्ञा स्त्री० [सं०] छब्वीसवाँ नक्षत्र ।

उत्तराभास
संज्ञा पुं० [सं०] झूठा जवाब । अंडबड़ जवाब (स्मृति) । विशेष—यह कई प्रकार का होता है— (१) संदिग्ध, जैसे, किसी पर सौ मुद्रा का अभियोग है ओर वह पूछने पर कहे कि हमें याद नही कि हमने १०० स्वर्णमुद्राएँ ली या रजत मुद्राएँ । (२) प्रकृति से अन्य, जैसे, किसी पर गाय का दाम न देने का अभियोग है ओर वह पूछने पर कहे कि गाय तो नहीं घोड़ा अलबत इनसे लिया था । (३) अत्यल्प, जैसे, १००) के स्थान पर पूछने पर कोई कहे कि मैने पाँच ही रुपए लिए थे । (४) अत्याधिक । (५) पक्षैकदेशव्यापी, जैसे किसी पर सोने और कपड़े का दाम न देने का अभियोग है और वह कहे कि हमने कपड़ा लिया था, सोना नहीं । (६) व्यस्तपद, जैसे, रुपए के अभियोग के उत्तर में कोई कहे कि वादी ने हमे मारा है । (७) अव्यापी, अर्थात् जिसके उत्तर का काई ठौर ठिकाना न हो । (८) निगूढ़ार्थ, जैसे, रुपए के अभियोग में अभियुक्त कहे कि हैं, क्या मुझपर चाहते है?' अर्थात् मुझ पर नहीं, किसी और पर चाहते होंगे । (९) आकुल जैसे, 'मैने रुपए लिए हैं, पर मुछपर चाहिए नहीं ।' (१०) व्याख्यागम्य, जिस उत्तर में कठिन या दोहरे अर्थ के शब्दों के प्रयोंग से व्याख्या की आवश्यकता हो । (११) असार, जैसे किसी ने अभियोग चलाया कि अमुक ने व्याज तो दे दिया है पर मूलधन नहीं दिया है । और वह कहे कि हमने ब्याज तो दिया है पर मूलधन लिया ही नहीं ।

उत्तरायण
संज्ञा पुं० [सं०] १. सूर्य की मकर रेखा से उत्तर, कर्क रेखा की और, गति । २. वह छह महीने का समय जिसके बीच सूर्य मकर रेखा से चलकर बराबर उत्तर की और बढ़ाता रहता है । विशेष—सूर्य २२ दिसम्बर को अपनी दक्षिणी अयनसीमा मकर- रेखा पर पहूँ चता है फिर वहाँ से मकर की अयनसंक्राति अर्थात् २३-२४ दिसबर से उत्तर की ओर बढ़ने लगता है ओर २१ जून को कर्क रेखा अर्थात् उत्तरी अयनसीमा पर पहुँच जाता है ।

उत्तरायणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] संगीत में एक मूर्छना जिसका स्वरग्राम यों है—ध, नि, रे, ग, म, प, स, रे, ग, म, प, ।

उत्तरराणि
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'उत्तरारणी' [को०] ।

उत्तरारणी
संज्ञा स्त्री० [सं०] अन्गीमंथन की दी लकड़ियों में से ऊपर की लकड़ी ।

उत्तरार्ध
संज्ञा पुं० [सं०] पिछला आधा । पीछे का अर्ध भाग ।

उत्तराषाढ़ा
संज्ञा स्त्री० [सं०] २१वाँ नक्षत्र ।

उत्तरासंग
संज्ञा पुं० [सं० उत्तरासंग] दे० उत्तरवस्त्र' [को०] ।

उत्तरी (१)
वि० [ सं० उत्तरीय] उत्तर दिशा से संबंधित । उत्तर का [को०] ।

उत्तरी (२)
संज्ञा स्त्री० [सं०] कर्नाटकी पद्धति की एक रागीनी (संगीत) [को०] ।

उत्तरी ध्रुव
संज्ञा पुं० [हि० उत्तरी+ध्रुव] पृथ्वी का ऊपरी सिरा । सुमेरु [को०] ।

उत्तरीय (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. उपरना । दुपट्टा चद्दर । ओड़नी । २. एक प्रकार का बहुत बड़ा सन जो बड़ा मजबूत होता है और सहज में काता जा सकता है । यह बड़ा मुलायम और चमकीला होता है तथा सब सनों से अच्छा समझा जाता है ।

उत्तरीय (१)
वि० १. ऊपर का । ऊपरवाला । २. उत्तर दिशा का । उत्तर दिशा संबंधी । यौ०— उत्तरीय पट ।

उत्तरीयक (१)
संज्ञा पुं० दे० 'उत्तरीय (१)' [को०] ।

उत्तरीयक (२)
वि० दे० ' उत्तरीय (२)' [को०] ।

उत्तरेतर
वि० [सं०] उत्तरदिशा से भिन्न । दक्षिणी [को०] ।

उत्तरोत्तर
क्रि० वि० [सं०] आगे आगे । एक के पीछे एक । एक के अनंतर दूसरा । क्रमशः लगातार । दीनों दिन ।

उत्तर्जन
संज्ञा पुं० [सं०] १. प्रचंड़ तर्जन । २. भर्यकर तर्जन [को०] ।

उत्तालित
वि० [सं०] ऊपर की तरफ उछाला या फेंका हुआ [को०] ।

उत्तशृंखल पु
वि० [हि०] दे० 'उच्छृ खल' । उ०— ऊतशृंखल अज्ञान जिते अन ईश्वरवादी ।— भक्तमाल, पृ० ४६१ ।

उत्तसुमंग पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उत्तमांग' । उ०— मांड़त मुकुट उत्तमुमंग, रचि बहु धात मौल सुरंग ।— पृ० रा०, १८ ।४९ ।

उत्ता (१) †
वि० [हि० उतना][ स्त्री० उत्ती] उतना ।

उत्ता (२)
वि० [हि० उतरा] उतरा हुआ । उ०— झिड़का ज्यों ड़ाले कुत्ता । सबहीँ के मन सूँ उत्ता ।— चरण० बानी, पृ० २८ ।

उत्तान (१)
वि० [सं०] पीठ को जमीन पर लगए हुए । चित । सीधा । यौ०— उत्तानपणि । उत्तानपाद ।

उत्तान (२)
संज्ञा पुं० चरक के मत से वात रक्त का एक भेद । इसका प्रभाव त्वचा और मांस पर होता है । उ०—वात रक्त चरक ने दो प्रकार का कहा है—एक तो उत्थान, दूसरा गंभीर ।— माधव नि०, पृ १५१ ।

उत्तानक
संज्ञा पुं० [सं०] उच्चटा नामक घास [को०] ।

उत्तानकमर्क
संज्ञा पुं० [सं०] बैठने की मुद्रा [को०] ।

उत्तानपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] लाल एरंड़ [कों] ।

उत्तानपात पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० 'उत्त नपद' । उ० उत्पानप त सुत ध्रूअ जेम, रहि जाय बात्त इन अचलतेम ।—पृ० रा० ६६ ।६०५ ।

उत्तानपाद
संज्ञा पुं० [सं०] एक राजा जो स्वायंभुव मनु के पुत्र और प्रसिद्द भक्त ध्रुव के पिता थे । उ०—नृप उत्तानपाद सुत तासू ध्रुव हरिभगत भएउ सुत जासू ।—मानस०, १ । १४२ ।

उत्तानपादज
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. धुवतारा । २. ध्रुव [को०] ।

उत्तानशय (२)
वि० [सं०] ऊपर की तरफ मुँह करके लेटा हुआ [को०] ।

उत्तानशय (२)
संज्ञा पुं० दुधमुहाँ बच्चा [को०] ।

उत्तानहृदय
वि० [सं०] १. निश्छल । निष्कपट । साफ दिलवाला । २. उदार [को०] ।

उत्तानित
वि० [सं०] १. ऊपर उठाया या फैलाया हुआ ।२. ऊपर की तरफ मुँह कीए हुए [को०] ।

उत्ताप
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्तप्त और उत्तापित] १. गर्मी । तपन । २. कष्ट । वेदना । ३. दुःख । शोक । उ०—जो कुकार्य में अभिमत द्रुव्य, फूँक दिखाते निज सामर्थ्य । सो अपनी करनी पर आप, पछताते पाकर उत्ताप । —सरस्वती (शब्द०) । ४. क्षोभ । उग्रभाग । उ०— उठै विविध उत्ताप प्रबल अवरुद्ध भाव गर्जनकारी, त्यों उन्नत अभिलाष अपूरित करै यत्न साधन भारी । ।—श्रीधर पाठक (शव्द०) ।

उत्तापित
वि० [सं०] १. गर्म । तपाया हुआ । संतापित । २. क्षुब्ध । दुःखी क्लेशित ।

उत्तापी
वि० [सं० उत्तापिन्] १. बहुत गरम । उत्तप्त । उत्तापयुक्त । २. दुःखी किया हुया । दुःखयुक्त [को०] ।

उत्तार (१)
वि० [सं०] १. सवसे बड़ा । श्रेष्ठ [को०] ।

उत्तार (२)
संज्ञा पुं० १. उद्धार करना । २. पार करना । किनारे पर उतारना । ३. मुक्त करना । ४. वमन । ५. अनस्थिरता [को०] ।

उत्तारक (१)
वि० [सं०] उद्धार करनेवाला [को०] ।

उत्तारक (२)
संज्ञा पुं० शिव । महादेव [को०] ।

उत्तारण
संज्ञा पुं० [सं०] १. उद्धार करना । २. पार के जाना या उतारना । ३. विष्णु [को०] ।

उत्तारी
वि० [सं० उत्तारिन्] १. पार करने या उतारनेवाला । २. अस्थिर । ३. अस्वस्थ [को०] ।

उत्तार्य
वि० [सं०] १. पार करने योग्य । नौका से पार करने योग्य । २. वमन करने योग्य [को०] ।

उत्ताल (१)
वि० [सं०] १. अशातं । क्षुब्ध । उ०— मंदर थका, थके असुरासुर, थका रज्जु का नाग, थका सिंधु उत्ताल शिथिल हो उगल रहा है झाग ।—धूप और धुआँ, पृ० २१ । २. प्रबल । विकराल प्रचंड़ [को०] । ३. उन्नत [को०]४. कठिन [को०] । ५. प्रत्यक्ष [को०] ।

उत्ताल (२)
संज्ञा पुं० २. बनमानुष १. एक विशेष संख्या [को०] ।

उत्ताव पु
संज्ञा पुं० [सं० उत्ताप] दे० 'उत्ताप' । उ०—पष्ष पंच पंथह गवन, आतुर, खरि उत्ताव, । पृ० रा०, ५८ । ५० ।

उत्तिम
वि० [हिं०] दे० 'उत्तम' । उ०—सब संसार परथमै आए मातौं दीप । एकी दीप उत्तिम सिहल दीप समीप ।— जायसी ग्रं० (गृप्त) २५ ।

उत्तिर
संज्ञा पुं० [सं० उत्तर] वह पट्टी जो खंभे में गले के ऊपर और कंप के नीचे होती है ।

उत्तीर्ण
वि० [सं०] १. पर गया हुआ । पारंगत । २. मुक्त । ३. परिक्षा में कृतकार्य । पासशुद ।

उत्तुंग
वि० [सं० उत्तङ्ग] १. ऊँचा । बहुत ऊँचा । उ०—हिमागिरि के उत्तुँग शिखर पर बैठ शिला की शीतल छाँह ।—कामायनी, पृ० ३ । २ तीव्र लहरवाला ।

उत्तुंडित
संज्ञा पुं० [सं०उत्तुण्ड़ित] काँटे की नोका । काटे का सिरा [को०] ।

उत्तुष
संज्ञा पुं० [सं०] भूसी निकाला हुआ या भुना हुआ चना [को०] ।

उत्तू (१)
संज्ञा पुं० [हिं०] १. वह औजार जिसकी गरम करके कपड़े पर बेल बूटों रथा चु्न्नट के निशान ड़ालते हैँ । २. बेलबूटे का काम जो इस औजार से बनता है । क्रि० प्र०—करना । का काम बनना । मुहा०—उत्तू करना=(१) गाली देना । २. कपड़े पर बेल बूटे की छाप या चुन्नट ड़ालना । मारकर उत्तू बनाना=किसि को इतना मारना की उसके बदन में दाग पड़ जायँ तो कुछ दिन तक बने रहें ।

उत्तू (२)
वि० बदहवाशा । नशे में चूर । क्रि० प्र०— करना ।— होना । जैसे, उसने इतनी भाँग पी ली कि उत्तू हो गया (शब्द०) ।

उत्तूकश
संज्ञा पुं० [हि० उत्तू+फा० कश] उत्तू का काम बनानेवाला ।

उत्तूगर
संज्ञा पुं० [हि० उत्तू + फ० गर] दे० 'उत्तूकश' ।

उत्तेजक
वि० [सं०] १. उभाड़नेवाला । बढ़ानेवाला । उकसानेवाला । प्रेरक । २. वेगों को तीव्र करनेवाला ।

उत्तेजन
संज्ञा पुं० [सं०] वढ़वा । उत्साह । प्रेरणा ।

उत्तेजना
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० उत्तोजित, उत्तेजक] १. प्रेरणा । बढ़वा । प्रोत्साहन ।२. वेगों को तीव्र करने की क्रिया । यो०— उत्तेजनाजनक = भड़कानेवाला । क्रोध उत्पन्न करनेवाला ।

उत्तेजित
वि० [सं०] १. क्षुब्ध । आविष्ट । २. प्रेरित । प्रत्साहित । उ०— जनता उत्तोजित होकर आदर्शवादी हो जाती है ।— कायाकल्प, पृ० १८३ ।

उत्तोरण
वि० [सं०] तोरण से सजाया हुआ [को०] ।

उत्तोलन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊपर का उठाना । ऊँचा करना । तानना । २. तोलना । वजन करना । यौ०—झड़ोत्तोलन, ध्वजोत्तीलन=झड़ा फहरना या ऊँचा करना ।

उत्त्रास
संज्ञा पुं० [सं०] १. अत्यधिक भय । २. आतंक [को०]

उत्थ
वि० [सं०] उत्पन्न या निकाला हुया । निकला हुआ । विशेष—इसका प्रयोग पदांत में होता है—जैसे, आनंदोत्थ [को०] ।

उत्पथ पु
संज्ञा पुं० [हि०] उठान । उत्थान । उ०—वहँ कोइ रिद्धि न सिद्धि है वहँ नहि पुण्य न पाप, हरिया विषय न वासना वहँ उत्थप नहिं थाप ।— राम० धर्म० पृ० ६१ ।

उत्थवना पु
क्रि० स० [सं० उत्थापन] अनुष्ठान करना । आरभं करना । उ०—राजा सुकृत यज्ञ उत्ययऊ । तोहिठाँ एक अचंमा भयऊ ।—सबल सिंह (शब्द०) ।

उत्थाँ
क्रि० वि० [पं०] वहाँ । इधर । उधर । उ०—इत्था उत्थां जित्थां कित्थाँ, हूँ जीवाँ तो नाल वे । —दादू बानी, पृ०, ५१३ ।

उत्थान
संज्ञा पुं० [सं०] १. उठने का कार्य । २. उठान । आरंभ । ३. उन्नाति । समृद्धि । बढ़ती । ४. जागना [को०] ५. खुशी । [को०] । ३. लड़ाई [को०] । ७. आँगन [को०] । ८. सेना [को०] । ९. सीमा । हद [को०] । १० पुरुषत्व [कों०] । ११. किताब [को०] १२. माल्यार्पण [को०] १३. प्रबंध । व्यवस्था [को०] । १४. रोग होने का कारण [को०] । यौ०—उत्थान एकादशी =कार्तिक शुक्ल पक्ष की एकादशी । देवोत्थान । उत्थानपतन =उन्नचि अवनति ।

उत्थानक
वि० [सं०] १. ऊपर उठानेवाला । २. उन्नत करानेवाला । [को०] ।

उत्थापक
वि० [सं०] उन्नत करनेवाला । उभारनेवाला । २. उठानेवाला जगानेवाला । ३. प्रेरणा देनेवाला [को०] ।

उत्थापन
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊपर उठाना । २. हिलानाड़ुना । ३. जगना । उ०—तब स्नान बकोकै श्री गिरेराज ऊपर पधारे । सो श्री गोवर्धननाथ जी को उत्थापन किए ।—दो सौ बावन०, भा० २, पृ० २३ ।

उत्थापनभोग
संज्ञा पुं० [सं०] जागरण का भोग । जागरणकालीन भोग । उ०— भावप्रकाश क्यों? जो, उत्थानभोग में मेवा अवश्य आना चाहीए ।—दो सौ बावन०, भा० १, पृ० १०३ ।

उत्थित
वि० [सं०] उठा हुआ । उ०—जलप्रापात के उत्थित जल सी ।—इत्यलम्, पृ० २७ । २. बचाया हुआ । ३. उत्पन्न । ४. बढेनेवाला । घटित होनेवाला । ६. फैलाया हुआ [को०] ।

उत्थिति
संज्ञा स्त्री० [सं०] दे० 'उत्थान' [को०] ।

उत्पट
संज्ञा पुं० [सं०] १. पेड़ की गोंद । २. ऊपर पहनने का कपड़ा । उपरना । दुपट्टा ।

उत्पत
संज्ञा पुं० [सं०] एक परकार का पक्षी [को०] ।

उत्पतन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्पतनीय, उत्पतित] १. ऊपर उठना । २. उड़ना (को०) । ३. उछलना । कूदना (को०) । ४. उछालना (को०) । ५. उत्पन्न करना (को०) ।

उत्पातक
वि० [सं०] १. झंडे ऊँचा किए हुए । २. विप्लवकारी (को०) ।

उत्पति पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'उत्पति' । उ०—(क) नृप प्रस्न करिय यह उये बात । सब कहो बंस उत्पति सुतात ।—हम्मीर रा० पृ० ३ । (ख) उत्पति प्रलय होत जग भाई, कहौं सुनौ सो नृप चित लाई ।—सूर (शब्द०) ।

उत्पती पु
संज्ञा स्त्री० [हिं०] दे० 'उत्पत्ति' । उ०—नीर पवन की उत्पती, कहैं कबीर विचार, जो निज शब्द समावही, सोई हंस हमार ।—कबीर सा० पृ० ९९४ ।

उत्पत्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० उत्पन्न] १. उदगम । पैदाइश । जन्म । उदभव । २. सृष्टि । ३. आरंभ । शुरु ।

उत्पथ
संज्ञा पुं० [सं०] १. बुरा रास्ता । विकट मार्ग । २. कुमार्ग । बुरा आचरण । यौ०—उत्पथगामी ।

उत्पथिक
संज्ञा पुं० [सं०] वे लोग जो नगर में इधर उधर आजा रहे हों ।

उत्पन पु
वि० [हिं०] दे० 'उत्पन्न' ।

उत्पन्न
वि० [सं०] [स्त्री० उत्पन्ना] पैदा । जन्मा हुआ ।

उत्पन्ना
संज्ञा स्त्री० [सं०] अगहनबदी एकादशी ।

उत्पल
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल । २. नीलकमल ।

उत्पलगंधिक
संज्ञा पुं० [सं० उत्पलगन्धिक] एक प्रकार का चंदन [को०] ।

उत्पलपत्र
संज्ञा पुं० [सं०] १. कमल की पत्ती । २. नाखून से चमड़े । का हल्का छिल जाना । नखक्षत । ३. चंदन का तिलक । ४. चौड़े फलवाला चाकू [को०] ।

उत्पलपत्रक
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उत्पलपत्र—४' [को०] ।

उत्पलशारिवा
संज्ञा स्त्री० [सं०] शयामा लता [को०] ।

उत्पलिनो
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. कमल फूलों का समूह । २. फूल सहित कमल का पौधा । ३. वृत्त [को०] ।

उत्पवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. साफ करना । पवित्र करना । २. शुद्ध या साफ करने का यंत्र । ३. कुश द्वारा अग्नि पर घृत छिड़- कना [को०] ।

उत्पाचित
वि० [सं०] अच्छि तरह उबाला हुआ । अच्छी तरह पकाया हुआ [को०] ।

उत्पाट
संज्ञा पुं० [सं०] कान में पीड़ा होना । २. दे० 'उत्पाटन [को०] ।

उत्पाटन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्पाटित] उखाड़ना ।

उत्पाटिका (१)
वि० [सं०] उखाड़नेवाली [को०] ।

उत्पाटिका (२)
संज्ञा स्त्री० पेड़ की छाल [को०] ।

उत्पात
संज्ञा पुं० [सं०] १. कष्ट पहुँचानेवाली आकस्मिक घटना । उपद्रव । आफत । २. अशांति । हलचल । ३. ऊधम । दंगा । शरारत ।

उत्पातक (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. कान का एक रोग । लोलक के छेद में भारी गहना पहनने से अथवा किसी प्रकार के खिंचाव से लोलक में सूजन, दाह और पीड़ा उत्पन्न होती है ।

उत्पातक (२)
वि० उपद्रव या उत्पात करनेवाला ।

उत्पातिक
वि० [सं०] अपर प्रकृतिवाला । प्राकृतिक सत्ता से परे (जैन) [को०] ।

उत्पाती
संज्ञा पुं० [सं० उत्पातिन्] [स्त्री० हिं० उत्पानिन] उत्पात मचानेवाला । उपद्रवी । नटखट । शरारती । दंगा मचानेवाला । अशांति उत्पन्न करनेवाला । उ०— पोथी पाठ पढ़े दिन राती, ये केवल भ्रम के उत्पाती । कबीर सा० पृ० ८४० ।

उत्पाद (१)
वि० [सं०] जिसके पैर ऊपर उठे हों [को०] ।

उत्पाद (२)
संज्ञा पुं० जन्म । उत्पत्ति [को०] ।

उत्पादक
वि० [सं०] [वि० स्त्री० उत्पादिका] उत्पन्न करनेवाला ।

उत्पादन
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्पादित] उत्पन्न करना । पैदा करना ।

उत्पादशय
संज्ञा पुं० [सं०] १. बालक । २. टिट्टिभ पक्षी [को०] ।

उत्पादिका (१)
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. एक फतिंगी । एक तरह का कीड़ा । २. माता [को०] ।

उत्पादिका (२)
वि० पैदा करनेवाली [को०] ।

उत्पादित
वि० [सं०] उत्पन्न किया हुआ ।

उत्पादी
वि० [सं० उत्पादिन्] [स्त्री० उत्पादिनी] उत्पन्न करनेवाली ।

उत्पाली
संज्ञा स्त्री० [सं०] स्वास्थय । तंदुरुस्ती [को०] ।

उत्पिंज
संज्ञा पुं० [सं० उत्पिञ्ज] १. षड्यंत्र । २. अराजकता । विद्रोह [को०] ।

उत्पिंजर
वि० [सं० उत्पिञ्जर] १. मुक्ता किया हुआ । २. अव्यवस्थित ३. व्याकुल [को०] ।

उत्पिंजल
वि० [सं० उत्पिञ्जल] दे० 'उत्पिंजर' [को०] ।

उत्पीड़
संज्ञा पुं० [सं० उत्पीड] १. बहना । २. फेन । ३. घाव (को०) । ४. दे० 'उत्पीडन' (को०) ।

उत्पीड़क
वि० [सं० उत्पीडक] त्रासप्रद । पीड़ा पहुँचानेवाला । उ०—किंतु अविवेक उन्हें उत्पीड़क बना देता है ।—रस क० पृ० ४ ।

उत्पीड़न
संज्ञा पुं० [सं० उत्पीडन] [वि० उत्तपीड़ित] १. दबाना । तकलीफ देना । २. पीड़ा पहुँचना ।

उत्पुच्छ
वि० [सं०] ऊपर पूँछ किए रहनेवाला [को०] ।

उत्पुट
वि० [सं०] खिला हुआ । विकसित [को०] ।

उत्पुटक
संज्ञा पुं० [सं०] कान का एक रोग [को०] ।

उत्पुलक
वि० [सं०] १. पुलकित । रोमांचित । २. प्रसन्न । खुश । [को०] ।

उत्प्रबंध
वि० [सं० उत्प्रबन्ध] १. निरंतर । अनवरत । अविराम [को०] ।

उत्प्रभ (१)
वि० [सं०] प्रभा से भरा हुआ । प्रभापूर्ण । प्रकाश फैलानेवाला [को०] ।

उत्प्रभ (२)
संज्ञा पुं० बड़ी तीव्र आग । तेज आग । दहकता हुआ अंगारा [को०] ।

उत्प्रसव
संज्ञा पुं० [सं०] गर्भ गिराना । गर्भपात होना [को०] ।

उत्प्रास
संज्ञा पुं० [सं०] १. लड़खड़ाना । लुढ़कना । २. फेंकना । ३. हास विनोद । हँसी मजाक । ४. अट्टहास । ५. तीक्ष्ण वचन । कटुवचन । व्यंग्यवचन । ६. आधिक्य [को०] ।

उत्प्रासन
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उत्प्रास' [को०] ।

उत्प्रेक्षक
वि० [सं०] उत्प्रेक्षा करनेवाला । अनुमान करनेवाला । समझनेवाला । विचार करनेवाला [को०] ।

उत्प्रेक्षा
संज्ञा स्त्री० [सं०] [वि० उत्प्रेक्ष्य] १. उदभावना । आरोप । २. एक अथलिंकार जिसमें भेद—ज्ञान—पूर्वक उपमेय में उपमान की प्रतीति होती है । जैसे, मुख मानो चंद्रमा है । मानो, जानो, । मनु, जनु, इव, मेरी जान, इत्यादि शब्द इस अलंकार के वाचक हैं । पर कहीं ये शब्द लुप्त भी रहते हैं : जैसे गम्योत्प्रेक्षा में । विशेष—इस अलंकार के पाँच भेद हैं—(१) वस्तूत्प्रेक्षा, (२) हेतूत्प्रेक्षा, (३) फलोत्प्रेक्षा, (४) गम्योत्प्रेक्षा और (५) सापहनवोत्प्रेक्षा । (१) वस्तूत्प्रेक्षा में एक वस्तु दूसरी वस्तु के तुल्य जान पड़ती है । इसको स्वरूपोत्प्रेक्षा भी कहते हैं । इसके दो भेद हैं—'उक्तविषया' और 'अनुक्तविषया' ।जिसमें उत्प्रेक्षा का विषय कह दिया जाय वह उक्तविषया है । जैसे, सोहत ओढ़ै पीतु पटु स्याम, सलोने गात, मनो नीलमनि सैल पर आतपु परयौ प्रभात ।—बिहारी र०, दो० ६८९ । यहाँ 'श्यामतनु,' जो उत्प्रेक्षा का वाषय है, वह कह दिया गया है । जहाँ विषय न कहकर उत्प्रेक्षा की जाय तो उसे 'अनुक्तविषया उत्प्रेक्षा' कहते हैं । जैसे, 'अंजन बरबत गगन यह मानो अथये भानु (शब्द०) । अंधकार, जो उत्प्रेक्षा का विषय है, उसका उल्लेख यहाँ नहीं हैं । (२) हेतूत्प्रेक्षा—जिसमें जिस वस्तु का हेतु नहीं है, उसको उस वस्तु का हेतु मानकर उत्प्रेक्षा करते हैं । इसके भी दो भेद हैं—'सिद्धविषया' और 'असिद्धविषया' । जिसमें उत्प्रेक्षा का विषय सिद्ध हो उसे 'सिद्धविषया' कहते हैं । जैसे, 'अरुण भये कोमल, चरण भुवि चलिंब ते मानु । (शब्द०) ।— यहाँ नायिका का भूमि पर चलना सिद्धविषय है परंतु भूमि पर चलना चरणों के लाल होने का कारण नहीं हैं । जहाँ उत्प्रेक्षा का विषय असिद्ध अर्थात् असंभव हो उसे 'असिद्धविषया' कहते हैं । जैसे, अजहुँ मान रहिबो चहत थिर तिय-हृदय-निकेत, मनहुँ उदित शशि कुपित ह्वै अरुण भयो एहि हेत (शब्द०) । स्त्रियों का मान दूर न होने से चंद्रमा को क्रोध उत्पन्न होना । सर्वथा असंभव है । इसलिये 'असिद्धविषया' है । (३) फलोत्प्रेक्षा जिसमें जो जिसका फल नहीं है वह उसका फल माना जाय । इसके भी दो भेद हैं—सिद्धविषया और असिद्धविषया । 'सिद्धविषया' जैसे, कटि मानो कुच धरन को किसी कनक कीदाम (शब्द०) । 'असिद्धविषया' जैसे, जौ कटि समता लहन मनु सिंह करत बन बास (शब्द०) । (४) गम्योत्प्रेक्षा जिसमें उत्प्रेक्षावाचक शब्द न रखकर उत्प्रेक्षा की जाय । जैसे, तोरि तीर तरु के सुमन वर सुंगध के भौन, यमुना तव पूजन करत बृंदावन के पौन (शब्द०) । (५) सापह्मैवो- त्प्रेक्षा' जिसमें अपहनुति सहित उत्प्रेक्षा की जाय । यह भी वस्तु, हेतु और फल के विचार से तीन प्रकार की होती है— (क) सापहनव वस्तुत्प्रेक्षा' जैसे, तैसी चाल चाहन चलति उतसाहन सौं, जैसो विधि बाहन विराजत बिजैठो है । तैसो भृकुटी को ठाट तैसो ही दिपै ललाट तैसो ही बिलोकिबे को पीको प्रान पैठो है । तैसियै तरुनताई नीलकंठ आई उर शैशव महाई तासों फिरै ऐंठो ऐंठो है । नाहीं लट भाल पर छूटे गोरे गाल पर मानव रूपमाल पर ब्याल ऐंठ बैठो है । (शब्द०) । यहाँ गौरवर्ण कपोल पर छूटी हूई अलकों का निषेध करके रूपमाला पर सर्प के बैठने की संभावना की गई है । अतः 'सापहनव वस्तुत्प्रेक्षा' है । (ख) सापहनव हेतूत्प्रेक्षा' जैसे, फूलन के मग में परत पग डगमगे मानौ सुकुमारता की बेलि विधि बई है । गोरे गरे धँसत लसत पीक लीक नीकी मुख ओप पूरण छपेश छबि छई है । उन्नत उरोज औ नितंब भीर श्रीपति जू टूटि जिन परै लंक शंका चित्त भई है । याते रोममाल मिस मारग छरी दै त्रिबली की डोरि गाँठि काम बागबान दई है (शब्द०) । यहाँ 'मिस' शब्द के कथन से कैतवा हनुति से मिली हुई हेतूत्प्रेक्षा है, क्योंकि त्रिवली रूप रस्सी बाँधते कुच और नितंब भार से कटि न टूट पड़े इस अहेतु को हेतु भाव से कथन किया गया है । (ग) 'सापहनव फलोत्प्रेक्षा' जैसे, कमलन कों तिहि मित्र लखि मानहु हतबे काज, प्रविशहिं सर नहिं स्नानहित रवितापित गजराज (शब्द०) । यहाँ सूर्यतापित होकर गज का सरोवर में प्रवेश स्थान के लिये न बताकर यह दिखाया गया है कि वह कमलों को, जो सूर्य के मित्र हैं, नष्ट करने के लिये आया है ।

उत्प्रेक्षोपमा
संज्ञा स्त्री० [सं०] एक अथलिंकार जिसमें किसी एक वस्तु के गुण का बहुतों में होना पाया जाना वर्णन किया जाता है । उ०—न्यारो ही गुमन मन मिननि के मानियत जानियत सबही सुकैसे न जताइये । गर्ब बाढयो परिमाण पंचबाण बाणनि को आन भाँति बिनु कैसे कै बताइये । केसोदास सविलास गीत रंग रंगनि कुरंगअं गनानि हूँ के आँनसनि गाइये । सीता जी के नयन की निकाई हमही मैं है सु झूठै है कमल खंजरीट हूँ में पाइये ।—केशव (शब्द०) ।

उत्प्लव
संज्ञा पुं० [सं०] उछालना । कूदना [को०] ।

उत्प्लवन
संज्ञा पुं० [सं०] १. कूदना । उछलना । २. तेल, घी आदि का मैल कुश से निकालना [को०] ।

उत्फाल
संज्ञा पुं० [सं०] १. छलाँग मारना । उछलना [को०] ।

उत्फुल्ल
वि० [सं०] १. विकसित । फूला हुआ । प्रफुल्लित । खिला हुआ । २. उत्तान । चित्त ।

उत्संग
संज्ञा पुं० [सं० उत्सङ्ग] १. गोद । क्रोड़ । कोरा । अंक । २. मध्य भाग । बीच । ३. ऊपर भाग । ४. निर्/?/प्त । विरक्त । ५. राजकुमार के जन्म पर प्रजा तथा करद राजाओं से नजराने के रूप से प्राप्त धन । ६. नाड़ी व्रण का आंतरिक भाग । ७. शिखर । चोटी । ८. सतह । ९. ढाल । १०. बगल । ११. वितान ।

उत्संगक
संज्ञा पुं० [सं० उत्सङ्गक] हाथ की एक मुद्रा का नाम [को०] ।

उत्संगित
वि० [सं० उत्सङ्गित] १. संमिलित । युक्त । संयुक्त । २. गोद में लिया हुआ । आलिंगित [को०] ।

उत्संगिनो
संज्ञा स्त्री० [सं० उत्सङ्गिन्] फुंसी जो पलक के नीचे हो जाती है [को०] ।

उत्संगो (१)
वि० [सं० उत्सङ्गिन्] १. साहचर्य में रहनेवाला । २. गहरे पहुँचा हुआ (व्रण) ।

उत्सगो (२)
संज्ञा पुं० व्रण । गहरा घाव [को०] ।

उत्स
संज्ञा पुं० [सं०] १. स्त्रोत । २. झरना । जलधारा । ३. जलमय स्थान ।

उत्सन्न
वि० [सं०] १. उच्छिन्न । उखाड़ा हुआ । २.बढ़ा हुआ । ३. पूरा किया हुआ । ४. ऊपर उठा हुआ [को०] ।

उत्सर
संज्ञा पुं० [सं०] एक वृत्त का नाम [को०] ।

उत्सर्ग
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्सर्गो, औत्सर्गिक, उत्सर्ग्य] १. त्याग । छोड़ना । यौ०—वृषोत्सर्ग । व्रतोत्सर्ग । २. दान । न्योछावर । ३. समाप्ति । एक वैदिक कर्म । विशेष—यह पूस महाने की रोहणी और अष्टका को ग्राम से बाहर जल के समीर अपने गृह सूत्र की विधि के अनुसार किया जाता है । उसके बाद दो दिन एक रात वेद की पढ़ाई बंद रहते है । ४. व्याकरण का कोई साधारण सा नियम ।

उत्सर्गतः
क्रि० वि० [सं०] साधारणतः । नियमतः । सामान्य रूप से [को०] ।

उत्सर्गी
वि० [सं० उत्सर्गिन्] त्यागनेवाला । निछावर करनेवाला [को०] ।

उत्सर्जन
वि० [सं०] [वि० उत्सर्जित, उत्सृष्ट] १. त्याग । छोड़ना । दान । ३. एक वैदिक गृहकर्म जो वर्ष में दो बार होता है, एक पूस में, और दूसरा श्रावण में ।

उत्सर्प
संज्ञा पुं० [सं०] दे० 'उत्सर्पण' ।

उत्सर्पण
संज्ञा पुं० [सं०] १. ऊपर चढ़ना । चढ़ाव । उल्लंघन । लाँघना । ३. फूलना । ३. फैल जाना ।

उत्सर्पिणो
संज्ञा पुं० [सं०] जैनमतानुसार काल की वह गति या अवस्था जिसमें रूप, रस, गंध, स्पर्श इन चारो की क्रम से वृद्धि होती है ।

उत्सर्पी
वि० [सं० उत्सर्पिन्] १. ऊपर चढ़नेवाला । २. उत्तम । श्रेष्ठ [को०] ।

उत्सर्या
संज्ञा स्त्री० [सं०] गर्भयोग्य अवस्था को पहुँचती हुई गाय [को०] ।

उत्सव
संज्ञा पुं० [सं०] १. उछाह । मंगल कार्य । धूमधाम । जलसा । २. मंगल समय । त्योहार । पर्व । समैया । आनंद । विहार । जैसे, रत्युत्सव ।

उत्साद
संज्ञा पुं० [सं०] विनाश । संहार [को०] ।

उत्सादक
वि० [सं०] विनाशकारी । आततायी । उ०—क्षमा नहीं है खल के लिये भली । समाज उत्सादक दंड योग्य है ।— प्रि० प्र०, पृ० १८३ ।

उत्सादन
संज्ञा पुं० [सं०] १. नाश । क्षय । २. बाधा देना । रोकना । ३. उबटन या सुगंधित लेप लगाना । ४. घाव का पूरा होना । ५. ऊपर चढ़ना । ६.उठाना । ७. भली भाँति खेत जोतना या दुबारा खेत जोतना [को०] ।

उत्सादनिय
वि० [सं०] १. नाश करने योग्य । २. चढ़ने योग्य [को०] ।

उत्सादित
वि० [सं०] १. नष्ट किया हुआ । २. सुगंध द्रव्य से शुद्ध किया हुआ । ३. चढ़ाया हुआ । ४. उठाया हुआ [को०] ।

उत्सारक
संज्ञा पुं० [सं०] द्वारपाल । चोबदार ।

उत्सारण
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्सारणीय] १. दूर हटाना । निका- लना । २. अतिथि का स्वागत करना । ३. गति देना । चलाना । ४. भाव या दर को कम कर देना [को०] ।

उत्साह
संज्ञा पुं० [सं०] [वि० उत्साहित, उत्साही] १. वह प्रसन्नता जो किसी आनेवाले सुख को सोचकर होती है और मनुष्य को कार्य में प्रवृत्त करती है । उमंग । उछाह । जोश । हौसला । २. साहस । हिम्मत । विशेष—उत्साह बीर रस का स्थायी माना जाता है ।

उत्साहक
वि० [सं०] १. उत्साह देनेवाला । २. कर्म में रुचि लेनेवाला [को०] ।

उत्साहन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्साह देना । कर्म की प्रेरणा देना । अध्यवसाय । उद्यम [को०] ।

उत्साहवर्धन
संज्ञा पुं० [सं०] १. उत्साह की वृद्धि । २. शक्ति का अधिक हो जान । ३. वीर रस [को०] ।

उत्साहवृत्तांत
संज्ञा पुं० [सं० उत्साहवृत्तांत] उत्साहव को बढ़ाने की युक्ति या कौशल । युद्ध के लिये उत्तेजित करने की क्रिया [को०] ।

उत्साहशक्ति
संज्ञा स्त्री० [सं०] चढ़ाई तथा युद्ध करने की शक्ति ।

उत्साहसिद्धि
संज्ञा स्त्री० [सं०] वह कार्य जो उत्साहशक्ति (लड़ने भिड़ने के साहस) से सिद्ध हो ।

उत्साहहेतुक
वि० [सं०] उत्तेजित या उत्साहित करनेवाला [को०] ।

उत्साही
वि० [सं० उत्साहिन्] उत्साहयुक्त । उमंगवाला । हौसलेवाला ।

उत्सिक्त
वि० [सं०] १. जिसका उत्सेक हुआ हो । अभिषिक्त । सिंचति २. घमडी । गर्वोन्मत्त । ३. चलचित्त । अस्थिर चित्तवाला [को०] ।

उत्सुक
वि० [सं०] १. उत्कंठित । अत्यंच इच्छुक । चाह से आकुल । उ०—वे यह पुस्तक देखने के लिये बड़े उत्सुक हैं । (शब्द०) । २. चाही हुई बात में देर न सहकर उसके उद्योग में तत्पर ।

उत्सुकता
संज्ञा स्त्री० [सं०] १. आकुल इच्छा । २. किसी कार्य में विलंब न सहकर उसमें तत्पर होना । यह रस में एक संचारी भाव है ।

उत्सूत्र
वि० [सं० ] १. सूत्र से मुक्त । नियमविहीन । २. धागे से पृथक् [को०] ।

उत्सूर
संज्ञा पुं० [सं०] सायंकाल । संध्या ।

उत्सूष्ट
वि० [सं०] त्यागा हुआ । छोड़ा हुआ ।

उत्सृष्ट पशु
संज्ञा पुं० [सं०] श्राद्ध के समय छोड़ा गया गाय का बछड़ा जिसे छोड़ने के पहले विशेष चिह्नन से दाग देते हैं । साँड़ [को०] ।

उत्सृष्टवृत्ति
संज्ञा पुं० [सं०] फेंके हुए अन्न को लेना । यह तक वृत्ति हे जिसके दो भेद हैं—शिल खौर उंछ ।

उत्सृष्टि
संज्ञा स्त्री० [सं०] त्याग । उत्सर्जन [को०] ।

उत्सेक
संज्ञा पुं० [सं०] १. अभिमान । गर्व । २. छिड़काव । ऊपर को बढ़ाना । उफान [को०] ।

उत्सेको
वि० [सं० उत्सेकिन्] १. अभिमानी । घमंडी । २. बढ़कर । बहनेवाला । ३. उफानवाला [को०] ।

उत्सेचन
संज्ञा पुं० [सं०] १. सींचने की क्रिया । २. उफान [को०] ।

उत्सेध (१)
संज्ञा पुं० [सं०] १. बढ़ती । उन्नति । २. ऊँचाई । ३. शोथ ४. संहनन ।

उत्सेध (२)
वि० १. ऊँचा । २. श्रेष्ठ । उ०—जहाँ कहीं निज बात को समुझि करत प्रतिषेध । तहाँ कहत आक्षेप हैं कवि जन मति उत्सेध । (शब्द०) ।

उत्स्मय
संज्ञा पुं० [सं०] स्मित । मुस्कान [को०] ।

उत्स्य
वि० [सं०] १. उत्स या सोते से निकला हुआ । सोते में होनेवाला । २. उत्ससंबंधी [को०] ।

उथपनथापन पु
वि० [सं० उत्थापन+हिं० थापन] उत्थापित को स्थापित करनेवाला । उ०—कहेउ जनक कर जोरि कीन्ह मोंहि आपन, रघुकुल तिलक सदा तुम्ह उथपन थापन । —तुलसी ग्रं०, पृ० ६१ ।

उथपना पु
क्रि० स० [सं० उत्थापन] उठान । उखाड़ना । उजाड़ना । उ०—(क) तेरे थपे उथपै न महेश थपै थिर को कपि जे धर घाले ।—तुलसी (शबद०) । (ख) उथपै तेहि को जेहिं राम थपै थपिहै पुनि को जेहि वै टरिहैं ।—तुलसी (शब्द०) ।

उथप्पन पु
संज्ञा पुं० [हिं०] दे० दे० 'उत्थापन' । उ०—नृपति को थप्पन उथप्पन समर्थ सत्रु—साल—सुत करै करतूत्ति चित्त चाह की ।—मतिराम ग्रं०, पृ० ३७२ ।

उथराना पु
क्रि० अ० [सं० उत्+स्थिर] उठना । किंचित उठना । उ०—नैतनि बोरति रूप के भौंर अचंभे भरी छतिया उथराई ।—घनानंद, पृ० १०९ ।

उथलना
क्रि० अ० [सं० उत्+हि० √ हिल] १.चलना । हिलना । उ०—ये हदयविदारक वचन कहने को मेरी जीभ नहीं उथलती ।—श्रीनिवास ग्रं०, पृ० १३१ ।२ । डगमगाना । डावाँडोल होना । चलायमान होना । उ०—राजा शिशुवाल जरासंध समेत सब असुर दल लिए इस धूमधाम से आया । कि जिसके बोझे से लगे शेषनाग और पृथ्वी उथलने ।—लल्लू (शब्द०) । यौ०—उथलना पुथलना=(१) नीचे ऊपर होना । इधर का उधर होना । (२) उलटना । उलट पुलट होना । नीचे ऊपर होना । (३) पानी का कम होना । पानी का छिछला होना ।

उथलपुथल (१)
संज्ञा पुं० [हिं० उथलना] उलट पुलट । अंडबंड । विपर्यय । क्रमभंग ।

उथलपुथल (२)
संज्ञा वि० उलट पुलट । अंड का बंड । इधर का उधर ।

उथला
वि० [सं० उत्+स्थल] कम गहरा । छिछला । ओछा ।

उथापना (१)पु †
क्रि० स० [सं० उत्थापन] १. ऊपर उठाना या खड़ा करना । २. उखाड़ना । उ०—एकन उथापि एकै थापन जगत- हित अनख अखय रिपु फिरे चहुँ चकबर ।—अकबरी०, पृ० ६६ ।

उथापना (२)पु
क्रि० स० दे० 'थापन' ।

उथुराना पु †
क्रि० अ० [हिं० उथला] उथला होना । उ०—जिमि जिमि सैसव जल उथुराने । तिमि तिमि नैन—मीन इतराने ।— नंद ग्रं०, पृ० १२२ ।