संज्ञा

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अनुवाद

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

संगीत ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ सङ्गीत]

१. नृत्य, गीत और वाद्य का समाहार । वह कार्य जिसमें नाचना, गाना और बजाना तीनों हों । विशेष—संगीत का मुख्य उद्देश्य मनोरंजन है; और भिन्न भिन्न देशों में भिन्न भिन्न प्रकार से मनोरंजन के लिये गाना बजाना हुआ करता है । संभवत: भारतवर्ष में ही सबसे पहले संगीत की ओर लोगों का ध्यान गया था । वैदिक काल में ही यहाँ के लोग मंत्रों का गान करते और उसके साथ साथ हस्तक्षेप आदि करते और बाजा बजाते थे । धीरे धीरे इस कला ने इतनी उन्नति की कि 'सामवेद' की रचना हुई । इस प्रकार मानो सामवेद भारतीय संगीत का सबसे प्राचीन और पूर्वरुप है । पीछे संगीत का बड़ा प्रचार हुआ । सुर, नर सभी इससे प्रेम करने लगे । रामायण और महाभारत के समय में इस देश में इसका बड़ा आदर था । नाचने, गाने और बजाने का अभ्यास सभी सम्य लोग करते थे । संगीत शास्त्र के प्रथम आचार्य 'भरत' माने जाते हैं । इनके पश्चाता काश्यप, मतंग, पार्ष्टि, नारद, हनुमत् आदि ने संगीत शास्त्र की आलोचना की । कहते है कि प्राचीन यूनान, अरब और फारसवालों ने भारतवासियों से ही संगीत शास्त्र की शिक्षा ग्रहण की थी । कुछ लोगों का मत है कि स्वर, ताल, नृत्य, भाव, कोक और हस्त इन सातों के समाहार को संगीत कहते हैं; पर अधिकांश लोग गान, वाद्य और नृत्य को ही संगीत मानते हैं; और यदि वास्तविक दृष्टि से देखा जाय तो शेष चारों का भी समा- वेश इन्हीं तीनों में हो जाता है । इनमें से गीत और वाद्य को 'श्राव्य संगीत' तथा नृत्य को संगीत कहते हैं । संगीत के और भी दो भेद किए गए हैं —मार्ग और देशी । कहते हैं कि किसी समय महादेव के सामने भरत ने अपनी संगीतविद्या का परिचय दिया था । उस संगीत के पथ प्रदर्शक ब्रह्मा थे और वह संगीत मुक्तिदाता था । वही संगीत 'मार्ग' कहलाता था । इसके अतिरिक्त भिन्न भिन्न देशों में लोग अपने अपने ढंग पर जो गाते, बजाते और नाचते हैं, उसे देशी कहते हैं । कुछ लोग केवल गाने और बजाने को ही और कुछ लोग केवल गाने को ही, भ्रम से, संगीत कहते हैं ।

२. सामूहिक गान । सहगान । एक साथ मिलकर गाया हुआ गान (को॰) ।

३. कई वाद्यों वा एक स्वर ताल में बजना ।

संगीत ^२ वि॰ जो साथ मिलकर गाया गया हो [को॰] ।

संगीत पु संज्ञा पुं॰ [सं॰ साङ्गीत] दे॰ 'संगीत' । उ॰—जोतिक आगम जानि, सामुद्रिक संगीत सब ।—हिं॰ क॰ का॰, पृ॰ १८८ ।

संधि

  1. संगीत = सं + गीत

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