आयुर्वेद -- आयुर्वेद शब्द दो शब्दों 'आयु' और 'वेद' से मिलकर बना है। आयु का अर्थ होता है 'जीवन' और वेद मतलब 'विज्ञान' होता है। अर्थात आयुर्वेद का अर्थ जीवन-विज्ञान या आयुर्विज्ञान होता है।
अग्नि -- भौमाग्नि, दिव्याग्नि, जठराग्नि
अनुपान -- जिस पदार्थ के साथ दवा सेवन की जाए। जैसे जल , शहद
अपथ्य -- त्यागने योग्य, सेवन न करने योग्य
अनुभूत -- आज़माया हुआ
असाध्य -- लाइलाज
अजीर्ण -- बदहजमी
अभिष्यन्दि -- भारीपन और शिथिलता पैदा करने वाला, जैसे दही
अनुलोमन -- नीचे की ओर गति करना
अतिसार -- बार बार पतले दस्त होना
अर्श -- बवासीर
अर्दित -- मुंह का लकवा
अष्टांग आयुर्वेद -- कायचिकित्सा, शल्यतन्त्र, शालक्यतन्त्र, कौमारभृत्य, अगदतन्त्र, भूतविद्या, रसायनतन्त्र और वाजीकरण।
आत्मा -- पंचमहाभूत और मन से भिन्न, चेतनावान्, निर्विकार और नित्य है तथा साक्षी स्वरूप है।
आम -- खाये हुए आहार को 'जब तक वह पूरी तरह पच ना जाए', आम कहते हैं। अन्न-नलिका से होता हुआ अन्न जहाँ पहुँचता है उस अंग को 'आमाशय' यानि 'आम का स्थान' कहते हैं।
आयु -- आचार्यों ने शरीर, इंद्रिय, मन तथा आत्मा के संयोग को आयु कहा है : सुखायु, दुखायु, हितायु, अहितायु
आहार -- खान-पान
इन्द्रिय -- कान, त्वचा, आँखें, जीभ, और नाक
उपशय -- अज्ञात व्याधि में व्याधि के ज्ञान के लिए, तथा ज्ञात रोग में चिकित्सा के लिए, उपशय का प्रयोग किया जाता है। ये छः हैं- १) हेतुविपरीत, २) व्याधिविपरीत ३) हेतु-व्याधिविपरीत ४) हेतुविपरीतार्थकारी ५) व्याधिविपरीतार्थकारी तथा ६) हेतु-व्याधिविपरीतार्थकारी
पंचकर्म -- वमन, विरेचन, अनुवासन बस्ति, निरूह बस्ति तथा नस्य
पंचकोल -- चव्य,छित्रकछल, पीपल, पीपलमूल और सौंठ
पंचमूल बृहत् -- बेल, गंभारी, अरणि, पाटला , श्योनक
पंचमूल लघु -- शलिपर्णी, प्रश्निपर्णी, छोटी कटेली, बड़ी कटेली और गोखरू। (दोनों पंचमूल मिलकर दशमूल कहलाते हैं )
परीक्षित -- परीक्षित, आजमाया हुआ
पथ्य -- सेवन योग्य
परिपाक -- पूरा पाक जाना, पच जाना
प्रकोप -- वृद्धि, उग्रता, कुपित होना
पथ्यापथ्य -- पथ्य एवं अपथ्य
प्रज्ञापराध -- जानबूझ कर अपराध कार्य करना
पाण्डु -- पीलिया रोग, रक्त की कमी होना
पाचक -- पचाने वाला, पर दीपन न करने वाला द्रव्य, जैसे केसर
पिच्छिल -- रेशेदार और भारी
बल्य -- बल देने वाला
बृंहण -- पोषण करने वाला ; विभिन्न लक्षणों के अनुसार दोषों और विकारों के शमनार्थ विशेष गुणवाली औषधि का प्रयोग, जैसे ज्वरनाशक, विषघ्न, वेदनाहर आदि।
भावना देना -- किसी द्रव्य के रस में उसी द्रव्य के चूर्ण को गीला करके सुखाना। जितनी भावना देना होता है, उतनी ही बार चूर्ण को उसी द्रव्य के रस में गीला करके सुखाते हैं।
भैषज्यकल्पना -- औषधि-निर्माण की प्रक्रिया जैसे स्वरस (जूस), कल्क या चूर्ण (पेस्ट या पाउडर), शीत क्वाथ (इनफ़्यूज़न), क्वाथ (डिकॉक्शन), आसव तथा अरिष्ट (टिंक्चर्स), तैल, घृत, अवलेह आदि तथा खनिज द्रव्यों के शोधन, जारण, मारण, अमृतीकरण, सत्वपातन आदि।
मन -- अणुत्वं चैकत्वं द्वौ गुणौ मनसः स्मृतः॥
मूर्छा -- बेहोशी
मदत्य -- अधिक मद्यपान करने से होने वाला रोग
मूत्र कृच्छ -- पेशाब करने में कष्ट होना, रुकावट होना
योग -- नुस्खा
योगवाही -- दूसरे पदार्थ के साथ मिलने पर उसके गुणों की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे शहद।
रसायन -- रोग और बुढ़ापे को दूर रख कर धातुओं की पुष्टि और रोगप्रतिरोधक शक्ति की वृद्धि करने वाला पदार्थ, जैसे हरड़, आंवला
रेचन -- अधपके मल को पतला करके दस्तों के द्वारा बाहर निकालने वाला पदार्थ, जैसे त्रिफला, निशोथ।
रुक्ष -- रूखा
रोगीपरीक्षा -- आप्तोपदेश, प्रत्यक्ष, अनुमान और युक्ति
वातकारक -- वात (वायु) को कुपित करने वाले अर्थात बढ़ाने वाले पदार्थ।
वातज -- वात (वायु) दोष के कुपित होने पर इसके परिणामस्वरूप शरीर में जो रोग उत्पन्न होते हैं वातज अर्थात वात से उत्पन्न होना कहते हैं।
वातशामक -- वात (वायु) का शमन करने वाला , जो वात प्रकोप को शांत कर दे। इसी तरह पित्तकारक, पित्तज और पित्तशामक तथा कफकारक, कफज और कफशामक का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। इनका प्रकोप और शमन होता रहता है।