प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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हरे ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] 'हरि' शब्द का संबोधन का रूप । उ॰—(क) जय राम सदा सुखधाम हरे । रघुनायक सायक चाप धरे । — मानस, ६ ।११० । (ख) हति नाथ अनाथन्ह पाहि हरे । बिषया बन पामर भूलि परे ।—मानस, ७ ।१४ ।

हरे पु ^२ क्रि॰ वि॰ [हिं॰ हरुए]

१. धीरे से । आहिस्ता से । तेजी के साथ नहीं । मंद मंद । उ॰—लाज के साज धरेई रहे तब नैनन लै मन ही सों मिलाए । कैसी करौं अब क्यों निकसै री हरेई हरे हिय में हरि आए ।—केशव (शब्द॰) ।

२. जो ऊँचा या जोर का न हो । जो तीव्र न हो (ध्वनि, शब्द आदि) । उ॰—दूरि तें दौरत, देव, गए सुनि के धुनि रोस महा चित चीन्हों । संग की औरै उठी हँसि कै तब हेरि हरे हरि जू हँसि दीन्हों ।—देव (शब्द॰) ।

३. जो कठोर या तीव्र न हो । हलका कोमल । (आघात, स्पर्श आदि) । यौ॰—हरे हरे = धीरे धीरे । उ॰—रोस दरसाय बाल हरि तन हेरि हेरि फूल की छरी सों खरी मारती हरे हरे ।— (शब्द॰) ।