स्वर
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनस्वर निकालनेवाले (बीन, सितार, हारमोनियम आदि) बाजों से उत्पन्न ध्वनिसमूह या गीत को यंत्र और मनुष्य के गले से निकले हुए गातृ कहते हैं । पर साधारण बोलचाल में यंत्र को कोई गीत नहीं कहता, केवल गातृ को गीत कहते हैं । क्रि॰ प्र॰—गाना । मुहा॰—गीत गाना = बड़ाई करना । प्रशंसा करना । जैसे,— जिससे चार पैसा पाते हैं उसके गीत गाते हैं । अपनी ही गीत गाना = अपना ही वृत्तांत कहना । अपनी ही बात कहना, दूसरे की न सुनना ।
२. बड़ाई । यश । उ॰—गीध मानो गुरु, कपि भालु माने मीत कै, पुनीत गीत साके सब साहेब समत्थ के ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ २०४ ।
३. वह जिसका यश गाया जाय ।
स्वर ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. प्राणी के कंठ से अथवा किसी पदार्थ पर आघात पड़ने के कारण उत्पन्न होनेवाला शब्द, जिसमें कुछ कोमलता, तीव्रता, मृदुता, कटुता, उदात्तता, अनुदात्तता आदि गुण हों । जैसे,—(क) मैंने आपके स्वर से ही आपको पहचान लिया था । (ख) दूर से कोयल का स्वर सुनाई पड़ा । (ग) इस छड़ को ठोंकने पर कैसा अच्छा स्वर निकलता है । उ॰—लै लै नाम सप्रेम सरस स्वर कौसल्या कल कीरति गावै ।—तुलसी (शब्द॰) ।
२. संगीत में वह शब्द जिसका कोई निश्चित रूप हो और जिसकी कोमलता या तीव्रता अथवा उतार चढ़ाव आदि का, सुनते ही, सहज में अनुमान हो सके । सुर । उ॰— चारों भ्रातन श्रमित जानि कै जननी तब पौढ़ाए । चापत चरण जननि अप अपनी कछुक मधुर स्वर गाए ।—सूर (शब्द॰) । विशेष—यों तो स्वरों की कोई संख्या बतलाई ही नहीं जा सकती, परंतु फिर भी सुभीते के लिये सभी देशों और सभी कालों में सात स्वर नियत किए गए हैं । हमारे यहाँ इन सातों स्वरों के नाम क्रम से षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम, पंचम, धैवत और निषाद रखे गए हैं जिनके संक्षिप्त रूप सा, रे ग, म, प, ध और नि हैं । वैज्ञानिकों ने परीक्षा करके सिद्ध किया है कि किसी पदार्थ में २
५६. बार कंप होने पर षड्ज, २९८ २/
३. बार कंप होने पर ऋषभ, ३
२०. बार कंप होने पर गांधार स्वर उत्पन्न होता है; और इसी प्रकार बढ़ते बढ़ते ४
८०. बार कंप होने पर निषाद स्वर निकलता है । तात्पर्य यह कि कंपन जितना ही अधिक और जल्दी जल्दी होता है, स्वर भी उतना ही ऊँचा चढ़ता जाता है । इस क्रम के अनुसार षड्ज से निषाद तक सातों स्वरों के समूह को सप्तक कहते हैं । एक सप्तक के उपरांत दूसरा सप्तक चलता है, जिसके स्वरों की कंपनसंख्या इस संख्या से दूनी होती है । इसी प्रकार तीसरा और चौथा सप्तक भी होता है । यदि प्रत्येक स्वर की कपनसंख्या नियत से आधी हो, तो स्वर बराबर नीचे होते जायँगे और उन स्वरों का समूह नीचे का सप्तक कहलाएगा । हमारे यहाँ यह भी माना गया है कि ये सातों स्वर क्रमशः मोर, गौ, बकरी, क्रौंच, कोयल, घोड़े और हाथी के स्वर से लिए गए हैं, अर्थात् ये सब प्राणी क्रमशः इन्हीं स्वरों में बोलते हैं; और इन्हीं के अनुकरण पर स्वरों की यह संख्या नियत की गई है । भिन्न भिन्न स्वरों के उच्चारण स्थान भी भिन्न भिन्न कहे गए हैं । जैसे,—नासा, कंठ, उर, तालु, जीभ और दाँत इन छह स्थानों में उत्पन्न होने के कारण पहला स्वर षड्ज कहलाता है । जिस स्वर की गति नाभि से सिर तक पहुँचे, वह ऋषभ कहलाता है, आदि । ये सब स्वर गले से तो निकलते ही हैं, पर बाजों से भी उसी प्रकार निकलते है । इन सातों में से सा और प तो शुद्ध स्वर कहलते हैं, क्योंकि इनका कोई भेद नेहीं होता; पर शेष पाचों श्वर कोमल और तीव्र दो प्रकार के होते हैं । प्रत्येक स्वर दो दो, तीन तीन भागों में बंटा रहता हैं, जिनमें से प्रत्येक भाग 'श्रुति' कहलाता है । मुहा॰—स्वर उतारना = स्वर नीचा या धीमा करना । स्वर चढ़ाना = स्वर ऊँचा या तेज करना । स्वर निकालना = स्वर उत्पन्न करना । स्वर भरना = अभ्यास के लिये किसी एक ही स्वर का कुछ समय तक उच्चारण करना । स्वर मिलाना = किसी सुनाई पड़ते हुए स्वर के अनुसार स्वर उत्पन्न करना ।
३. व्याकरण में वह वर्णात्मक शब्द जिसका उच्चारण आपसे आप स्वतंत्रतापूर्वक होता है और जो किसी व्यंजन के उच्चारण में सहायक होता हैं । संस्कृत वर्णमाला में अ, इ, उ, ऋ, ऌ, ए, ऐ, ओ, औ और हिंदी वर्णमाला में
११. स्वर हैं— अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, और औ ।
४. वेदपाठ में होनेवाले शब्दों का उतार चढ़ाव ।
५. नासिका में से निकलनेवाली वायु या श्वास ।
६. उच्चारण में होनेवाली स्पंदन की मात्रा । उदात्त, अनुदात्त, स्वरित आदि ।
७. सात की संख्या (को॰) ।
८. ध्वनि । आवाज । शब्द (को॰) ।
९. स्वरों की मृदुता । ध्वनि की कोमलता (को॰) ।
१०. खर्राटा । खर्राटे की ध्वनि (को॰) ।
११. विष्णु का एक नाम (को॰) । यौ॰—स्वरग्राम = सरगम ।
स्वर पु ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ स्वर्] आकाश । उ॰—परब्रह्म अरु जीव जो महानाद स्वर चारि । पंचम विदु षष्ठरु अवर माया दिव्य निहारि ।—विश्राम (शब्द॰) ।