सौ
विशेषण
संज्ञा
संख्या १००
अनुवाद
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
सौ पु ^६ संज्ञा स्त्री॰ [हि॰ सौँह] दे॰ 'सौँह' । उ॰—बात सुने ते बहुत हँसोगे चरण कमल की सोँ । मेरी देह छुटत यम पठए जितक दूत घर मोँ ।—सूर (शब्द॰) ।
सौ ^१ वि॰ [सं॰ शत] जो गिनती में पचास का दूना हो । नब्बे और दस । शत ।
२. †संख्या में अधिक । बहुत ।
सौ ^२ संज्ञा पुं॰ नब्बे और दस की संख्या या अंक जो इस प्रकार लिखा जाता है—१०० । मुहा॰—सौ बात की एक बात = सारांश । तात्पर्य । निष्कर्ष । निचोड़ । उ॰—(क) सौ बातन की एकै बात । सब तजि भजो जानकीनाथ ।—सूर (शब्द॰) । (ख) सौ बातन की एकै बात । हरि हरि हरि सुमिरहु दिन राति ।—सूर (शब्द॰) । सौ की सीधी एक = सारांश । सब का सार । निचोड़ा । उ॰—रोम रोम जीभ पाय कहै तो कह्यो न जाय, जानत ब्रजेश सब मर्दन मयन के । सूधी यह बात जानी गिरधर ते बखानो सौ कि सीधी एक यही दायक चयन के ।—गिरधर (शब्द॰) । सौ का सवाया = पचीस प्रतिशत मुनाफा । सौ कोस भागना = एक दम दूर रहना । अलग रहना । सौ जान से आशिक, कुर्बान या फिदा होना = अत्यंत प्रेम करना या मुग्ध होना । पूरी तरह मुग्ध होना । उ॰—और उसकी चटक मटक पर हमारा हिंदीस्तान सौ जान से कुर्बान है ।—प्रेमधन॰, भा॰ २, पृ॰ २५६ । सौ सौ बार = बहुत बार । अनगिनत मर्तबा । उ॰—जो निगुरा सुमिरन करै, दिन मैं सौ सौ बार । नगर नायका सत करै, जरै कौन की लार ।—कबीर सा॰ सं, भा॰ १, पृ॰ १७ ।
सौ पु॰ ^३ वि॰ [सं॰ सम (=समान) प्रा॰ सऊँ] दे॰ 'सा' । उ॰— (क) हे मुँदरी तेरो सुकृत मेरो ही सौ हीन ।—लक्ष्मण (शब्द॰) । (ख) बर बीरन जुद्ध इतौ सँपज्यो, तिहि ठौर भयानक सौ उपज्यौ ।—पृ॰ रा॰, २४ ।१६६ ।