सोना

संज्ञा

सोना पु॰

  1. स्वर्ण, कंचन, कनक, हेम

क्रिया

  1. निद्रा लेना

अनुवाद

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

सोना ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ सुवर्ण, स्वर्ण, प्रा॰ सोष्ण (=सोण)]

१. सुंदर उज्वल पीले रंग की एक प्रसिद्ध बहुमूल्य धातु जिसके सिक्के और गहने आदि बनते है । विशेष— यह खानों में या स्लेट अथवा पहाड़ों की दरारों में पाया जाता है । यह प्रायः कंकड़ के रुप में मिलता है । कंकड़ को चूर कर और पानी का तरारा देकर धूल, मिट्टी आदि बहा दी जाती है और सोना अलग कर लिया जाता है । कभी कभी सोना विशुद्ध अवस्था में भी मिल जाता है । पर प्रायः लोहे, तांबे तथा अन्य धातुओं में मिली हुई अवस्था में ही पाया जाता है । यह सीसे के समान नरम होता है पर चांदी, तांबे आदि के मेल से यह कड़ा हो जाता है । यह बहुत वजनी होता है । भारीपन में प्लैटिनम और इरिडियम धातुओं के बाद इसी का स्थान है । यह पीटकर इतना पतला किया जा सकता है कि पारदर्शक हो जाता है । इस प्रकार का इसका बहुत पतला तार भी बनाया जा सकता है । सोने पर जंग नहीं लगता । इसपर कोई खास तेजाब असर नहीं करता । हाँ, गंधक औक शोरे के तेजाब में आँच देने से यह गल जाता है । हिंदुस्तान में प्रायः सभी प्रांतों में सोना पाया जाता हैं, पर मैसूर और हैदराबाद की खानों में अधिक मिलता है । पिछली शताब्दी में कैलि- फोर्निया और आस्ट्रेलिया में भी इसकी बहुत बड़ी खानें मिली हैं । सोना सब धातुओं में श्रेष्ठ माना गया है । हिंदू इसे बहुत पवित्र और लक्ष्मी का रुप मानते हैं । कमर और पैर में सोना पहनने का निषेध है । सोना कितनी ही रसौषधों में भी पड़ता है । वैद्यक में यह त्रिदोषनाशक तथा बलवीर्य, स्मरण शक्ति और कांतिवर्धक माना गया है । पर्या॰— स्वर्ण । कनक । कांचन । हेम । गांगेय । हिरण्य । तप- नीय । चांपेय । शांतकुंभ । हाटक । जातरुप । रुक्म । महारजत । भर्म्म । गैरिक । लोहवर । चामीकर । कार्तस्वर । मनोहर । तेज । दीप्तक । कर्व्वूर । कर्च्चूर । अग्निवीर्य । मुख्यधातु । भद्राधातु । भद्र । उद्धसारुक । शांतकौंभ । भूरि । कल्याण । स्पर्शमणि । प्रभव । अग्नि । अग्निशिख । भास्कर । मांगल्य । आग्नेय । भरु । चंद्र । उज्वल । भृंगार । कलधौत । पिंजान । जांबव । अग्निबीज । द्रविण । अग्निभ । दीप्त । सौमंजक । जांबुनद । जांबूनद । निष्क । रुग्म । अष्टापद । अपिंदर । मुहा॰— सोना कसना=रखने के लिये कसौटी पर सोने की लकीर खींचना । सोना कसवाना या कसाना = कसौटी पर सोने की जांच करना । परखवाना । सोने का कौर खिलाना= अत्यधिक सुखी रखना । उ॰— तुम रहते ही हो तो कौन सोने का कौर खिला देते हो । — मान॰, भा॰ ५, पृ॰१६८ । सोने का घर मिट्टी होना=लाख का खाक होना । सारा वैभव नष्ट होना । सोने का पानी=किसी धातु पर चढ़ाया हुआ सोने का आब । मुलम्मा । सोने का महल उठाना=(१) अत्यंत धनी होना । (२) किसी कार्य में अत्यधिक व्यय करना । सोने का होना=बहुमूल्य होना । गुणी होना । उ॰— उनके यहाँ ब्याह करने में ही हमारी पत रहेगी, देवकीनंदन सोने का भी हो तो, हमारे काम का नहीं है । — ठेठ॰, पृ॰११ । सोने की चिड़िया= वह जिससे सदा लाभ ही लाभ होता रहे । मालदार आदमी । उ॰— अम्मा दस दिन में झख मार के अप ही मिलेंगी । सोने की चिडिया को कोई छोड़ता है भला । — सैर॰, पृ॰२८ । सोने की चिड़ीया हाथ से उड़ जाना या निकल जाना=किसी मालदार आदमी का चंगुल में न आना । सोने की चिड़िया हाथ आना या लगना = (१) कोई ईप्सित वस्तु अकस्मात् प्राप्त होना । उ॰— सुब्हान अल्ला सुब्हान अल्ला । सोने की चिड़िया हाथ आई । कहा, हुजूर खूदा के लिये चिक उठवा दें । — फिसाना॰, भा॰३, पृ॰६८ । (२) जिससे अत्यधिक लाभ हो उसका एका- एक मिल जाना । सोने की तौल तौलना=साधारण वस्तु भी सोने की तरह तौलना कि बाल बराबर भी फर्क न रहे । सोने के मोल होना=अत्यधिक मूल्य का होना । बहुमूल्य होना । सोने में घुन लगना = संभव बात का होना । अनहोनी होना । उ॰— काहू चीटी लगे पाँख, काहू यम मारे काख, सुनो है न देख्यो घुन लागो है कनक को । — हनुमन्नाटक (शब्द॰) । सोने में सुगंध=किसी बहुत बढ़िया चीज में और अधिक विशेषता होना । सोने में सुहागा=रंग में निखार आना आना । और भी उत्कृष्ट होना । सोने से लदे रहना=( १) अत्यधिक स्वर्ण- भूषण पहनना । (२) ऐश्वर्य का उपभोग करना । क्रि॰ प्र॰— गलना ।— गलाना ।—तपना ।—तपाना ।

२. अत्यंत बहुमूल्य वस्तु । बहुत महँगी चीज ।

३. अत्यंत सुंदर वस्तु । उज्वल या कांतिमान् पदार्थ । जैसे, — शरीर सोना हो जाना ।

४. एक प्रकार का हंस । राजहंस ।

सोना ^२ संज्ञा पुं॰ सझोले कद का एक वृक्ष जो बरार और दारजिलिंग की तराइयों में होता है । कोलपार । विशेष— इस वृक्ष में कलियाँ लगती हैं जिनका मुरब्बा बनता है । इसकी लकड़ी मजबूत होती है और इमारत तथा खेती के औजार बनाने के काम में आती है । चीरने के समय लकड़ी का रंग अंदर से गुलाबी निकलता है, पर हवा लगने से वह काला हो जाता है ।

सोना ^३ संज्ञा स्त्री॰ प्रायः एक हाथ लंबी एक प्रकार की मछली जो भारत और बरमा की नदियों में पाई जाती है ।

सोना ^४ क्रि॰ अ॰ [सं॰ शयन]

१. उस अवस्था में होना जिसमें चेतन क्रियाएँ रुक जाती हैं और मन तथा मस्तिष्क दोनों विश्रा म करते हैं । नींद लेना । शयन करना । आँख लगना ।

२. लेटना । आराम करना । संयो॰ क्रि॰— जाना । मुहा॰— सोते जागते=हर घड़ी । हर समय ।

२. शरीर के किसी अंग का सुत्र होना । जैसे, — मेरे पैर सो गए । उ॰— आगे किसू के क्या करें दस्ते तमादराज । वह हाथ सो गया है सिर्हाने धरे धरे । — कविता कौ॰, भा ४, पृ॰१६३ । विशेष— यह क्रिया प्रायः एक अंग को एक ही अवस्था में कुछ अधिक समय तक रखने पर हो जाती है ।

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