प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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सिद्धांत संज्ञा पुं॰ [सं॰ सिद्धान्त]

१. भलीभाँति सोच विचार कर स्थिर किया हुआ मत । वह बात जिसके सदा सत्य होने का निश्चय मन में हो । उसूल ।

२. प्रधान लक्ष्य । मुख्य उद्देश्य या अभिप्राय । ठीक मतलब ।

३. वह बात जो विद्वानों या उनके किसी वर्ग या संप्रदाय द्वारा सत्य मानी जाती हो । मत । विशेष—न्याय शास्त्र में सिद्धांत चार प्रकार के कहे गए हैं । सर्वतंत्र सिद्धांत, प्रतितंत्र सिद्धांत, अधिकरण सिद्घांत, और अभ्युपगम सिद्धांत । सर्वतंत्र वह सिद्धांत है जिसे विद्वानों क े सब वर्ग या संप्रदाय मानते हों अर्थात् जो सर्वसम्मत हो । प्रतितंत्र वह सिद्धांत है जिसे किसी शाखा के दार्शनिक मानते हों और किसी शाखा के विरोध करते हों । जैसे,—पुरुष या आत्मा असंख्य है, यह सांख्य का मत है, जिसका वेदांत विरोध करता है । अधिकरण वह सिद्धांत है जिसे मान लेने पर कुछ और सिद्धांत भी साथ मानने ही पड़ते हों यह मानना ही पड़ता है कि आत्मा मन आदि इंद्रियों से पृथक् कोई सत्ता है । अभ्युयगम वह सिद्धांत है जो स्पष्ट रूप से कहा न गया हो, पर सब स्थलों को विचार करने से प्रकट होता हो । जैसे, न्यायसूत्रों में कहीं यह स्पष्ट नहीं कहा गया है कि मन भी एक इंद्रिय है, पर मन संबंधी सूत्रों का वितार करने पर यह बात प्रकट हो जाती है ।

४. सम्मति । पक्की राय ।

५. निर्णींत अर्थ या विषय । नतीजा । तत्व की बात । क्रि॰ प्र॰—निकलना ।—निकालना ।—पर पहुँचना ।

६. पूर्व पक्ष के खंडन के उपरांत स्थिर मत ।

७. किसी शास्त्र (ज्योतिष, गणित आदि) पर लिखी हुई कोई विशेष पुस्तक । जैसे,—सूर्य सिद्धांत, ब्रह्म सिद्धांत ।