दो साखी

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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साखी ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ साक्षि] साक्षी । गवाह । उ॰—(क) ऊँच नीच ब्यौरौ न रहाइ । ताकी साखी मैं सुनि भाइ ।—सूर॰, १ ।२३० । (ख) सूरदास प्रभु अटक न मानत ग्वाल सबै हैं । साखी ।—सूर॰, १० ।७७४ ।

साखी ^२ संज्ञा स्त्री॰

१. साक्षी । गवाही । मुहा॰—साखी पुकारना = साक्षी का कुछ कहना । साक्षी देना । गवाही देना । उ॰—याते योग न आवै मन में तू नीके करि राखि । सूरदास स्वामी के आगे निगम पुकारत साखि ।—सूर (शब्द॰) ।

२. ज्ञान संबंधी पद या दोहे । वह कविता जिसका विषय ज्ञान हो । जैसे,—कबीर की साखी । उ॰—साखो सबदो दोहरा कहि किहनो उपखान । भगति निरूपहि भगत कलि निंदहि बेद पुरान ।—तुलसी ग्रं॰, पृ॰ १५१ ।

साखी ^३ संज्ञा पुं॰ [सं॰ शाखिन्]

१. (शाखाओं वाला) वृक्ष पेड़ । उ॰—(क) तुलसीदास रूँध्यो यहै सठ साखि सिहारे ।—तुलसी (शब्द॰) । (ख) धरती बान बेधि सब राखी । साखी ठाढ़ देहिं सब साखी ।—जायसी (शब्द॰) ।

२. †पंच । निर्णायक ।