प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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समुच्चय संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. बहुत सी चीजों का एक में मिलना । समाहार । मिलन ।

२. समूह । राशि । ढेर ।

३. साहित्य में एक प्रकार का अलंकार जिसके दो भेद माने गए हैं । एक तो वह जहाँ आश्चर्य, हर्ष, विषाद आदि बहुत से भावों के एक साथ उदित होने का वर्णन हो । जैसे,—हे हरि तुम बिनु राधिका सेज परी अकुलाति । तरफराति, तमकति, तचति, सुसकति, सुखी जाति । दूसरा वह जहाँ किसी एक ही कार्य के लिये बहुत से कारणों का वर्णन हो । जैसे,—गंगा गीता गायत्री गनपति गरुड़ गोपाल । प्रातःकाल जे नर भजैं ते न परैं भव- जाल ।

४. वाक्य या शब्दों का समाहार । शब्दों का परस्पर मिलन या योग (को॰) ।

५. कौटिल्य के मत से वह आपत्ति जिसमें यह निश्चय हो कि इस उपाय के अतिरिक्त और उपायों से भी काम हो सकता है ।