प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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शंख संज्ञा पुं॰ [सं॰ शङ्ख]

१. एक प्रकार का बड़ा घोंघा जो समुद्र में पाया जाता है । विशेष—इसे एक प्रकार का जलजंतु, जिसे शंख कहते हैं, अपने रहने के लिये तैयार करता है । लोग इस जंतु को मारकर उसका यह कलेवर बजाने के उपयोग में लाते हैं । यह बहुत पवित्र समझा जाता है और देवता आदि के सामने तथा लड़ाई के समय मुँह से फूँककर बजाया जाता है । पुराणों के अनुसार विष्णु भगवान् के चारों हाथों में से एक हाथ में शंख भी रहता है । इसके दो भेद होते हैं । एक दक्षिणावर्त्त और दूसरा वामावर्त्त । इनमें से दक्षिणावर्त्त बहुत कम मिलता है । वैद्यक के अनुसार यह नेत्रों को हितकारी, पित, कफ, रुधिरविकार विषविकार, वायुगोला, शूल, श्वास, अजीर्ण, संग्रहणी और मुँहासे को नष्ट करनेवाला माना गया है । दक्षिणावर्त में इससे भी अधिक गुण होते हैं । कहते है, जिसके घर में यह रहता है, उसके धन की अधिक वृद्धि होती है । वामावर्त्त ही अधिक मिलता है और यही औषध के काम आता है । जो शंख उज्वल और चमकदार होता है, वह उत्तप्त समझा जाता है । इसको विधिपूर्वक शुद्ध कर भस्म बनाकर देने से सब प्रकार के ज्वर, सब प्रकार की खाँसी, श्वास, अतिसार आदि रोगों में उचित अनुपान से अत्यंत लाभकारी है । यह स्तंभक और वाजीकरण भी है । इसकी मात्रा चार रत्ती से डेढ़ माशे तक है ।