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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

व्रत संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. भोजन करना । भक्षण । खाना ।

२. किसी पुराय तिथि का अथवा पुण्य की प्राप्ति के विचार से नियमपूर्वक उपवास करना । विशेष—प्रायःहिदु लोग या तो व्रत के दिन कुछ नहीं खाते, या केवल फल खाते हैं और या केवल कोई एक विशिष्ट पदार्थ खाकर रहते हैं । साधारणतः प्रत्य़ेक एकादशी को जो व्रत किया जाता है, उसमें लोग केवल फल ही खाते है, पर प्रदोष आदि के व्रत में अन्न भी खाया करते हैं । कुछ विशिष्ट तिथियों के व्रत भी विशिष्ट हुआ करते हैं । जैसे— निर्जला एकादशी के व्रत में जल तक न ग्रहण करने का विधान है । कुछ विशिष्ट वारों को उनके देवताओँ के उद्देश्य से भी व्रत किया जाता है । कुछ व्रत ऐसे भी होते है जो कई कई दिनों बल्कि महीनों तक चलते है । जैस— वाद्रा- यण, चातुमोस्य व्रत आदि । कुछ बड़े बडे ऐसे भी व्रत होत है जिनके अंत अथवा दूसर दिन विशेष विधानपूर्वक पारण किया जाता है । कुछ व्रत ऐसे भी है जिनका विधान केवल स्त्रियो के लिय़े है । जैसे,—जावपुत्र (जावत्पुत्रिका) या हरितालका व्रत । व्रत के एक दिन पहले से ही लागा कुछ विशेष आचार- पूर्वक रहते है । क्रि॰ प्र॰—करना ।—रखना ।

३. कोइ काम करने अथवा न करने का नियमपूर्वक दृढ़ निश्चय । किसी बात का पक्का संकल्प । जैसे,—ब्रह्मचय व्रत, पतिव्रता, पत्निव्रत । उ॰—किस व्रत में है व्रता बार यह निद्रा का यो त्याग किए । —पंचवटी, पृ॰६ ।

४. धार्मिक अनुष्ठान । धार्मिक नियम संयम आदि (को॰) ।

५. जावनचया । आचरण । चालचलन (को॰) ।

६. विधि । विधान । नियम (को॰) ।

७. यज्ञ (को॰) ।

८. कम । करतब (को॰) ।

९. याजना (को॰) ।

१०. मानसिक स्फुर्ति (को॰) ।

११. कामाय । ब्रह्माचर्य (को॰) ।

१२. एक हा प्रकार के मार्जन का अभ्यास (को॰) ।

१३. दुग्धाहार (को॰) ।