"देश": अवतरणों में अंतर

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==== शब्दसागर ====
देश संज्ञा पुं॰ [सं॰] <br><br>१. विस्तार । जिसके भीतर सब कुछ है । दिक् । स्थान । विशेष—न्याय या वैशेपिक के अनुसार जिसके आगे पीछे, ऊपर नीचे उत्तर दक्षिण आदि का प्रत्यय होता है वह देश या दिग्दव्य है । काल के समान संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग देश के भी गुण हैं । देश के विभु और एक होने पर भी उपाधिभेद से उत्तर दक्षिण, आगे पीछे आदि भेट मान लिए गए हैं । देश संबंधा 'पूर्व' और 'पर' का विपर्यय हो सकता है, पर काल संबंधी पूर्वापर का नहीं । पश्चिमी दार्शनिकों में काँट आदि ने देश (और काल) को मन से बाहर की कोई वस्तु नहीं माना हैं, अंतःकरण का आरोप मात्र कहा है जो वस्तु संबंध ग्रहण के लिये वह अपनी ओर से करता है । दे॰ 'काल' । यौ॰—देशकाल । <br><br>२. पृथ्वी का वह विभाग जिसका कोई अलग नाम हो, जिसके अंतर्गत कई प्रांत, नगर, ग्राम आदि हों तथा जिसमें अधिकांश एक जाति के और एक भाषा बोलनेवाले लोग रहते हैं । जनपद । विशेष—देश तीन प्रकार के होते हैं—जांगल्यहैं—जांगल, अनूप और साधारण । तीन प्रकार के और देश माने गए हैं—देवमातृक (जिसमें वर्षा ही के जल से खेती आदि के सारे कार्य हों), नदीमातृक और उभयमातृक । <br><br>३. वह भूभाग जो एक ही राजा या शासक के अधीन अथवा एक शासनपद्धति के अंतर्गत हो । राष्ट्र । <br><br>४. स्थान । जगह । <br><br>५. शरीर का कोई भाग । अंग । जैसे, स्कंध देश, कटि देश । <br><br>६. एक राग जो किसी के मत से संपुर्ण जाति का और किसी के मत से षाड़व (ऋवर्जित) हैं । <br><br>७. जैनशास्त्रानुसार चौथा पंचक जिसक द्वारा अर्थानुसंधानपूर्वक तपस्या अर्थात् गुरु॰, जन, गुहा, स्मशान और रुद्र की वृद्धि होती है ।
 
[[श्रेणी: हिन्दी-प्रकाशितकोशों से अर्थ-शब्दसागर]]
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