विक्षनरी:भारतीय दर्शन परिभाषा कोश भाग-२

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पंच कला देखिए कला (पंचक)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंच कारण देखिए कारण पंचक।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंच कृत्य परमेश्वर की पारमेश्वरी लीला के पाँच अंग। वे हैं – सृष्टि, स्थिति, संहार, विधान (निग्रह) और अनुग्रह। इन्हीं कृत्यों की लीला को करते रहने से वह परमेश्वर है। ये कृत्य ही उसकी परमेश्वरता की अभिव्यक्ति के पाँच अंग हैं। मूलतः ये पाँचों कृत्य उसी के हैं। उसी की इच्छा के अनुसार इन कृत्यों को इस स्थूल जगत् में क्रम से ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव नामक पाँच कारण आगे आगे निभाते रहते हैं। (देखिएना.वि. 4-81; शि.स्तो. 1-3)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंच तत्त्व धारणा पाँच तत्त्वों को आलंबन बनाकर की जाने वाली आणवोपाय के तत्त्वाध्वा में एक विशेष धारणा। इसे पंचमी विद्या भी कहते हैं। इस धारणा में अकल तथा मंत्र महेश्वर नामक दो प्रमातृ तत्त्वों तथा इनकी दो शक्तियों को मिलाकर सभी चार तत्त्वों को धारणा का आलंबन बनाते हुए उन्हें मंत्रेश्वर के स्वरूप में देखते हुए और इन्हें उसी के शुद्ध रूप का विस्तार समझते हुए भावना द्वारा व्याप्त किया जाता है। इस अभ्यास से मंत्रेश्वर परिपूर्ण परम शिवरूप में ही अभिव्यक्त हो जाता है और उसकी ऐसी अभिव्यक्ति के अभ्यास से परिपूर्ण शिवभाव का आणव समावेश साधक को हो जाता है। (तन्त्रालोक 10-112, 113, 125 से 127)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंच मंत्र स्वच्छंदनाथ के ईशान, तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव तथा अघोर (यथास्थान देखिए) नामक पाँच मंत्रात्मक शरीरों को पंचमंत्र कहते हैं। (देखिएपंच वक्त्र)। स्वच्छंदनाथ के ये पाँच शरीर मंत्र अर्थात् विद्येश्वर स्तर के देवता होते हैं। उनके इन शरीरों में प्रकट होकर संसार का कल्याण करने के स्वभाव को ही उनके पाँच मुख अभिव्यक्त करते हैं। सभी शिव आगमों, रुद्र आगमों और भैरव आगमों का उपदेश इन्हीं पंचमंत्रों ने विविध रूपों में ठहर कर किया है। (मा.वि.वा. 0 1-251-257)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंच वक्त्र परमेश्वर के पर स्वरूप को अभिव्यक्त करने वाली तथा संसार का त्राण करने वाली उसकी चित्, निर्वृत्ति (आनंद), इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया नामक पाँच अंतरंग शक्तियाँ ही उसके पाँच मुख कहे जाते हैं। (स्व.तं.उ. प 2, पृ. 54)। उसकी ये पाँच शक्तियाँ या मुख जब अभेदात्मक, भेदाभेदात्मक तथा भेदात्मक शैवशास्त्र का उपदेश करने के लिए क्रमशः ईशान, तत्पुरुष, सद्योजात, वामदेव तथा अघोर नामक पाँच मुख वाले स्वच्छंदनाथ के रूप में प्रकट हो जाती हैं तब स्वच्छंदनाथ के उस पाँच मुखों वाले शरीर को भी पंचवक्त्र कहते हैं। इन सशरीर पाँच रूपों को पंचमंत्र भी कहते हैं। (तं.आ.वि. 1-18)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंच शक्ति परमशिव की चित्, निर्वृत्ति (आनन्द), इच्छा, ज्ञान तथा क्रिया (यथास्थान देखिए) नामक पाँच मूलभूत अंतरंग शक्तियाँ। इन्हीं पाँच शक्तियों से परमेश्वर अपनी परमेश्वरता को निभाता रहता है। ये शक्तियाँ उसका स्वभाव हैं। इन्हीं के बल से वह परमेश्वर है। परमशिव के इस पाँच शक्तियों की अभिव्यक्ति से युक्त रूप को पंच वक्त्र (देखिए) भी कहा जाता है। (स्व.तं.उ. 92, पृ. 54, तं.सा. पृ.6)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंचकंचुक सर्वज्ञता तृप्तिरनादिबौधः (12/33) प्रभृति वायपुराण के श्लोक में शिव के सर्वज्ञता, तृप्ति, अनादिबोध, स्वतन्त्रता, अलुप्तशक्तिता और अनन्तशक्तिता ये छः गुण गिनाये गये हैं। अद्वैत सिद्धान्त के अनुसार जीव शिव से अभिन्न हैं, किन्तु माया के कारण उसका स्वरूप संकुचित हो जाता है और इसके बाद कला, विद्या, राग, काल और नियति तत्त्वों के कारण क्रमशः उसकी सर्वकर्तृता, सर्वज्ञता, नित्यपरिपूर्णतृप्तिता, नित्यता और स्वतन्त्रता – ये पाँच शक्तियाँ संकुचित हो जाती हैं (द्रष्टव्य-सौ.सु., 1/32-39)। अतः इन पाँचों तत्त्वों को पंचकंचुक कहा जाता है। माया का भी इसमें समावेश कर कुछ आचार्य कंचुकों की संख्या छः मानते हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पंचकला विधि/धारणा आणवोपाय की कलाध्वा नामक धारणा में छत्तीस तत्त्वों को व्याप्त करने वाले पंच कला वर्ग को आलंबन बनाकर की जाने वाली साधना को पंचकला विधि या धारणा कहते हैं। इस धारणा में निवृत्ति, प्रतिष्ठा, विद्या, शांता तथा शांत्यातीता नामक पाँच कलाओं को क्रम से धारणा का आलंबन बनाते हुए उन्हें अपने ही स्वरूप से भावना द्वारा व्याप्त करके अपने शिवभाव के समावेश में प्रवेश किया जाता है। (तं.सा.पृ. 110-111)। एक एक कला को भावना द्वारा परिपूर्ण स्वात्म-रूपतया पुनः पुनः देखते रहने से भी कलाविधि का अभ्यास त्रिकयोग में किया जाता है। उससे भी साधक को आणव समावेश हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंचकृत्य शैव और शाक्त दर्शन में शिव को पंचकृत्यकारी बताया गया है। सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोधान, और अनुग्रह ये शिव के पाँच कार्य हैं। शिव की तिरोधान शक्ति के कारण जीव अपने परमार्थ स्वरूप को भूल बैठता है और उसका अनुग्रह होने पर, जिसको कि आगम की भाषा में शक्तिपात कहा जाता है, वह अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। शिव के इन दो व्यापारों की तुलना वेदान्त दर्शन के अध्यारोप और अपवाद शब्दों से की जा सकती है। आभासन, रक्ति, विमर्शन, बीजावस्थापन और विलापन नामक पंचकृत्यों का प्रतिपादन प्रत्यभिज्ञाहृदय (सू. 11) में किया गया है। शक्तिपात दशा में परिच्छिन्न प्रमाता में भी इन कृत्यों की अभिव्यक्ति मानी गई है। इनके अतिरिक्त क्रम दर्शन में सृष्टि, स्थिति, संहार, अनाख्या और भासा नामक पंचकृत्य प्रतिपादित हैं। इनकी व्याख्या अलग से की है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पंचदश तत्त्व धारणा (पाँच दशी विद्या) पृथ्वी तत्त्व को साधना का आलंबन बनाकर सातों प्रमातृ वर्गो और उनकी सात शक्तियों का उसी के भीतर भावना से देखने के अभ्यास को पंचदश तत्त्वधारणा या पाँचदशी विद्या कहते हैं। पृथ्वी के स्वरूप में ही शेष चौदह तत्त्वों को विलीन करने वाली यह आणवोपाय के तत्त्वाध्वा की एक विशेष धारणा है। इसमें अकल, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर, मंत्र (विद्येश्वर), विज्ञानाकल, प्रलयाकल तथा सकल नामक सात प्रमाताओं को और उनकी सात शक्तियों को भी साधनाकाय आलंबन बनाया जाता है। इस अभ्यास की दृढ़ता पर साधक अपनी शिवता के आणव समावेश में प्रवेश करता है। (तं.आ.10-6 से 17; वही वि.वृ. 79, 80; मा.वि.तं. 2-2)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पंचपर्वा विद्या विद्या के पाँच पर्व हैं – वैराग्य, सांख्य, योग, तप और केशव में भक्ति। वैराग्य के बिना विद्या का अंकुरण भी संभव नहीं है। सांख्यशास्त्र भी विद्या का स्थान है। योग साधना और तप भी विद्या के पर्व हैं। केशव में भक्ति तो विद्या का सर्वोत्तम साधन है (त.दी.नि.पृ. 144)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पंचम भगवान् शिव के ईशानमुख से पंचवक्‍त्र गणाधीश्‍वर का प्रादुर्भाव बताया जाता है। इस गणाधीश्‍वर के पाँचों मुखों से एक-एक महापुरुष प्रकट हुये। उनके नाम हैं- ‘मखारि’, ‘कालारि’, ‘पुरारि’, ‘स्मरारि’ और ‘वेदारि’। इन्हीं को ‘पंचम’ कहते हैं। इनमें प्रत्येक पंचम से बाहर-बारह उपपंचमों की उत्पत्‍ति बतायी जाती है।

वीरशैव संप्रदाय में ‘पंचम’ नाम की एक जाति भी है। बताया जाता है कि इस जाति के सभी व्यक्‍ति उन मूल पंचमों और उपपंचमों के वंश में उत्पन्‍न हुये हैं। मूल पुरुष के नाम से ही इनकी जाति का नाम भी पंचम है। इनको व्यवहार में ‘पंचमशाली’ कहा जाता है। वीरशैव धर्म के जो प्रमुख पाँच आचार्य हैं, जिन्हें पंचाचार्य’ कहते हैं, वे यही इन पंचमों के गुरु होते हैं। पंचम जाति में उत्पन्‍न प्रत्येक व्यक्‍ति के गोत्र, सूत्र, प्रवर, शाखा आदि अपने-अपने गुरु के अनुसार होते हैं। इन पंचमों का वैवाहिक संबंध समान गोत्र वालों में न होकर अपने से भिन्‍न गोत्र-सूत्र वालों के साथ किया जाता है (वी.स.सं. 5/4-55)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचमंत्र शिव के पाँच स्वरूप।

पाशुपत शास्‍त्र में शिव के मुख्य पाँच स्वरूप माने गए हैं। वे हैं- सद्योजात, कामदेव, अघोर, तत्पुरुष तथा ईशान। (देखिए पा.सू. तथा ग.का.)। इस ‘मंत्र’ पद की व्याख्या पाशुपत शास्‍त्रों में भी नहीं मिलती है और सिद्‍धांत शैव शास्‍त्रों में भी नहीं। काश्मीर शैव शास्‍त्र के अनुसार भेदभूमिका पर उतरे हुए शिव के पाँच दिव्य रूपों को पञ्‍चमंत्र कहा जाता है। इन पाँच रूपों के समष्‍टि स्वरूप शिव को स्वच्छनाद कहते हैं, जो पंचमुख हैं और जिसके उन मुखों के नाम ईशान, तत्पुरुष आदि हैं। मंत्र शब्द का तात्पर्य है भेद भूमिका पर उतरा हुआ शुद्‍ध प्रमाता।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पंचमावस्था पाशुपत साधक की एक उत्कृष्‍टतर अवस्था।

पाशुपत साधना की इस अवस्था में साधक साधना पूर्ण कर चुका होता है तथा उसका स्थूल शरीर शेष नहीं रहता है, अतः जीविका के लिए उसे किसी भी वृत्‍ति की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। यह साधना की अंतिम अवस्था पंचमावस्था कहलाती है। (ग.का.टी.पृ.5)। ऐसा भासर्वज्ञ का विचार है। यह तो मुक्‍त योगी की स्थिति होती है सांसारिक साधक की नहीं।

पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में भी योग की पाँचवी भूमिका का वर्णन विस्तारपूर्वक किया गया है। (पा.सू.कौ.भा. अध्याय 5)। संसार में ही रहते हुए योगी की उसी दशा को पञ्‍चमावस्था माना जाए तो अधिक उपयुक्‍त होगा।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पंचवाह क्रम दर्शन में श्रीपीठ, पंचवाह, नेत्रत्रय, वृन्दचक्र, गुरुपंक्ति और पाँच शक्तियों की उपासना विहित है। अपने शरीर को ही यहाँ श्रीपीठ बताया गया है। इस शरीर में भी परमेश्वर पाँच प्रकार से स्फुरित होता है। परमेश्वर के स्फुरण की यह धारा ही वाह के नाम से अभिहित है। इनके नाम हैं – व्योमवामेश्वरी, खेचरी, दिक्चरी, गोचरी और भूचरी। कुछ आचार्य गोचरी, दिक्चरी और भूचरी अथवा भूचरी, द्क्चिरी और गोचरी के क्रम से इनकी स्थिति बताते हैं। ये ही पाँचों शक्तियाँ क्रमशः चित्, आनन्द, इच्छा, ज्ञान और क्रिया शक्ति के रूप में तथा परा, सूक्ष्मा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के रूप में अनुभूत होती है। सृष्टि प्रभृति जितने भी पाँच संख्या वाले पदार्थ हैं, उन सबका समन्वय इन्हीं से होता है। प्रणव की पाँच कला तथा अन्य भी ऊपर बताए गए व्योम (पाँच) संख्या वाले पदार्थों का वमन करने वाली शक्ति का नाम व्योमवामेश्वरी है। यह परमेश्वर की अविकल्प भूमि में अनुप्रविष्ट विच्छवित का ही विलास है (महार्थमंजरी, पृ. 83-87)।

  क्षेमराज ने प्रत्यभिज्ञाहृदय (12 सू.) में इसका वामेश्वरी के नाम से वर्णन किया है। वहाँ अन्य चार शक्तियों का क्रम यह है – खेचरी, गोचरी, दिक्चरी और भूचरी। प्रत्यभिज्ञाहृदय में प्रदर्शित क्रम के अनुसार यहाँ क्रमशः इन पाँचों का वर्णन किया जा रहा है।

1. वामेश्वरी

  संवित् क्रम में चितिस्वरूपा महाशक्ति वामेश्वरी नाम धारण कर खेचरी, गोचरी, दिक्चरी और भूचरी- इन चार स्वरूपों में परिस्फुरित होती है। अविभक्त दशा में प्रमाता, आन्तर प्रमाण और प्रमेय विभाग नहीं रहता। परन्तु स्फुरण की अवस्था में प्रमाता, आन्तर प्रमाण या अन्तःकरण, बहिःकरण या बाह्य इन्द्रियाँ और प्रमेय ये चार विभाग अलग-अलग प्रकाशित होते हैं। ये अपरिमित प्रमाता को परिच्छिन्न (परिसीमित) बना देते हैं। ये सब पशुओं को विमोहित करते हैं। परन्तु आत्मा जब शिवभूमि में प्रविष्ट होती है, तब ये शक्तियाँ शिवहृदय को विकसित करती हैं। उस समय में खेचरी आदि शक्तियाँ ही आत्मा के पूर्णकर्तृत्व आदि की प्रकाशक चिद्गगनचरी, अभेदविश्चय गोचरी, अभेदालोचनात्मक दिक्चरी तथा स्वांगकल्प अद्वयप्रथामय प्रमेयात्मक भूचरी के रूप में प्रकाशमान होती हैं।
  वाम शब्द वम् धातु से संबद्ध है, जिसका अर्थ होता है- वमन करना, बाहर फेंकना। यह शक्ति वामेश्वरी इसलिये कहलाती है कि यह विश्व को परमशिव से बाहर फेंकती है। वाम शब्द का अर्थ बायाँ और विपरीत भी है। यह शक्ति वामेश्वरी इसलिए भी कहलाती है कि यद्यपि शिव में अभेद, अर्थात् पूर्णता की चेतना है, किन्तु संसार दशा में इस शक्ति के कारण उसमें भेद और अपूर्णता की भावना घर कर जाती है। इसके कारण प्रत्येक जीव शरीर, प्राण इत्यादि को ही अपना स्वरूप समझने लगता है।
  वाम शब्द का अर्थ सुन्दर भी होता है। परब्रह्म का सौन्दर्य इसी बात में निहित है कि वह विश्व का वमन करता हुआ पारमेश्वरी लीला के चमत्कार को चमका देता है, अन्यथा वह शून्य गननवत् जड़ और इसीलिए भावात्मक सौन्दर्य से रहित होता है।

2. खेचरी

    खेचरी शक्ति का संबन्ध प्रमाता से है। इसके कारण चेतन आत्मा अपरिमित प्रमाता से परिमित प्रमाता बन जाती है। ‘खे (आकाशे) चरतीति खेचरी’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार ख शब्द का अर्थ आकाश है। खे सप्तमी विभक्ति है। इसका अर्थ है ‘आकाश में’। यहाँ ख या आकाश चित् का प्रतीक है। इस शक्ति का नाम खेचरी इसलिए है कि इसका क्षेत्र चिद्गगन है। चिद्गगन के पारमार्थिक स्वभाव को छिपा कर यह प्रमाता को परिमित प्रमाता बना देती है। वह अब पशु बन जाता है। माया से उद्भूत कला आदि पंचकंचुक समष्टि रूप से खेचरी चक्र के नाम से अभिहित होते हैं। इनका नाम आत्मा के स्वरूपभूत पाँच नित्य धर्मों को संकुचित करना है। सर्वकर्तृत्व, सर्वज्ञत्व, नित्यत्व, विभुत्व और आप्तकामत्व- ये पाँच आत्मा के स्वाभाविक धर्म हैं। शिव रूपी आत्मा चिदाकाश में संचरण में समर्थ होने पर भी पशु दशा में इस खेचरी चक्र से आक्रान्त होकर परिमित प्रमाता बन जाता है। उस समय वह अल्पकर्ता, अल्पक्ष, अनित्य, नियतदेशवृत्ति और भोग की आकांक्षा से लिप्त हो जाता है।

3. गोचरी

  गोचरी का संबन्ध अन्तःकरण से है। इस चक्र से चेतन आत्मा अन्तःकरण से परिच्छिन्न हो जाता है। गौ शब्द गमन या चलन का द्योतक है। किरण, गौ, इन्द्रियाँ- ये सभी पदार्थ ‘गौ’ शब्द से अभिहित होते हैं, क्योंकि इस सब में गमन का भाव निहित है। अन्तःकरण इन्द्रियों का आश्रय है। वही इन्द्रियों को परिचालित करता है। इसलिये वह गोचरी शक्ति का क्षेत्र है। इसके कारण आत्मा का स्वभावसिद्ध अभेदनिश्चय, अभेदाभिमान तथा अभेद विकल्पमय पारमार्थिक स्वरूप तिरोहित हो जाता है। भेदनिश्चय, भेदाभिमान तथा भेदविकल्प प्रधान अन्तःकरण रूप देवियाँ ही गोचरी शक्ति के नाम से प्रसिद्ध हैं।

4. दिक्चरी

   दिक्चरी का संबन्ध बहिःकरण (बाह्य इन्द्रिय) से है। दिक्चरी चक्र के द्वारा चेतन आत्मा बहिःकरणों से परिच्छिन्न हो जाता है। दिक्चरी वह शक्ति है, जो दिक् (दिशाओं) में चलती रहती हैं बहिःकरण या बाह्य इन्द्रियों का संबंध दिक् या देश से है। इसलिये दिक्चरी शक्ति का क्षेत्र बाह्य इन्द्रियाँ हैं। इस शक्ति के कारण पारमार्थिक अभेद प्रथा (अभेद ज्ञान) आच्छादित हो जाती है तथा भेदविचारमय भेद प्रथा का प्राकट्य हो जाता है। यह बाह्य कारण रूप दैवीचक्र ही दिक्चरी शक्ति के नाम से प्रसिद्ध है।

5. भूचरी

  भूचरी शक्ति का संबन्ध भावों (पदार्थों) से है। इसके कारण चेतन आत्मा भावों (पदार्थों = प्रमेयों) में ही अटका रह जाता है। ‘भूचरी’ में विद्यमान ‘भू’ का अर्थ ‘होना’ है। जो कुछ हो गया है, वह ‘भू’ के अन्तर्गत है। अतः यह शक्ति सभी भाव, अर्थात् पदार्थ अथवा प्रमेयों (विषयों) का बोध कराती है। सभी पदार्थ या प्रमेय भूचरी के क्षेत्र में आते हैं। भूचरी शक्ति के कारण पारमार्थिक सर्वात्मकता आवृत हो जाती है और परिच्छिन्न आभासमय प्रमेयवर्ग प्रकाशित हो उठता है।  
दर्शन : शाक्त दर्शन

पंचसूतक धर्मशास्‍त्रों में जनन, मरण, रज, उच्छिष्‍ठ तथा जाति से पाँच प्रकार के सूतक माने गये हैं, अर्थात् घर में किसी का जन्म या मृत्यु होने पर, घर की किसी स्‍त्री के रजस्वला होने पर सूतक की प्राप्‍ति होती है। अतः इस सूतक के समय उस घर में पूजा आदि वैदिक कर्मो का निषेध किया गया है। उसी प्रकार उच्छिष्‍ठ का ग्रहण तथा कुछ विशिष्‍ट जाति के लोगों के साथ संपर्क न करने का भी विधान है। किंतु वीरशैव आचार्य एवं संतों ने विशेष परिस्थितियों में उपर्युक्‍त सूतकों को स्वीकार नहीं किया है, जैसे कि इष्‍टलिंग का धारण तथा उसकी पूजा के लिये जनन, मरण और रज इन तीन प्रकार के सूतकों की प्रवृत्‍ति नहीं होती। इसी प्रकार पादोदक और प्रसाद के सेवन के प्रसंग में ‘उच्छिष्‍ठ-सूतक’ को भी नहीं माना जाता। इसका तात्पर्य यह है कि वीरशैव-धर्म में दीक्षा के समय गुरु अपने शिष्य को इष्‍टलिंग देता है और उसे आमरण शरीर पर धारण करने का आदेश करता है। यह दीक्षा स्‍त्री तथा पुरुषों के लिये समान रूप से होती है। दीक्षा-संपन्‍न स्‍त्री यदि रजस्वला अथवा प्रसूता होती है, तो उस समय उस स्‍त्री को इष्‍टलिंग की पूजा करने का अधिकार है या नहीं ? यह शंका होने पर वीरशैव आचार्ये ने इष्‍टलिंग धारण करने वाली स्‍त्री को इष्‍टलिंग की पूजा का अधिकार प्रदान किया है। जैसे पौण्डरीक आदि दीर्घकालीन सत्रों का संकल्प करके त्याग करते समय यजमान की पत्‍नी यदि रजस्वला हो जाती है, तो भी वह स्‍नान करके गीला वस्‍त्र पहनकर पुन: याग में सम्मिलित होती है, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में दीक्षित स्‍त्री रजस्वला या प्रसूता होने पर भी उसी दिन स्‍नान एवं गुरु के चरणोदक का प्रोक्षण करके शुद्‍ध होकर अपने नित्यकर्म इष्‍टलिंग की पूजा करने के लिये अधिकारी होती है। इष्‍टलिंग की पूजा के अतिरिक्‍त पाक आदि अन्य कार्यों के लिए वीरशैव धर्म में भी सूतक माना जाता है। जैसे हस्तस्पर्श के अयोग्य होने पर भी जिह्वा मंत्रोच्‍चारण के लिये योग्य है, उसी प्रकार रजस्वला या प्रसूता स्‍त्री पाक आदि अन्य लौकिक कर्म करने के लिये अयोग्य और अपवित्र होने पर भी इष्‍टलिंग के धारण एवं उसकी पूजा के लिये वह अग्‍नि, रवि तथा वायु के समान सदा पवित्र रहती है। घर में किसी की मृत्यु होती है, तो उस घर के लोग भी शव संस्कार के बाद स्‍नान एवं गुरु के चरणोदक के प्रोक्षण से घर को शुद्‍ध करके अपने अपने इष्‍टलिंग पूजा रूप नित्यकर्म को बिना किसी बाधा के यथावत् अवश्‍य पूरा करते हैं। अतः वीरशैवों को इष्‍टलिंग की पूजा में मरणसूतक भी नहीं लगता (सि.शि. 9/43-45 पृष्‍ठ 150-151; वी.मा.सं. 47/25-26; ब्र.सू. 1-1-1) श्रीकर.भा.पृष्‍ठ 11-12; सि.शि.वी.भा.पृष्‍ठ 41-56)।

वीरशैव संप्रदाय में प्रतिदिन गुरु या जंगम की पादपूजा करके एक पात्र में पादोदक (चरणमृत) तैयार किया जाता है और उस पादपूजा में सम्मिलित सभी शिवभक्‍त उसी एक पात्र में से पादोदक का सेवन करते हैं। यहाँ प्रथम व्यक्‍ति के ग्रहण करने के बाद वह पादोदक उच्छिष्‍ठ हो जाता है, तो दूसरा उसका ग्रहण करें या नहीं ? यह शंका होती है। वीरशैव आचार्यो ने इस प्रसंग में भी उच्छिष्‍ठ सूतक को नहीं माना है। जैसे सोमयाग में हविःशेषभूत सोमरस को चमस नामक पात्र में संग्रह करके यज्ञशाला के सभी ऋत्विज उस चमस पात्र से सोमरस का सेवन करते हैं, तो भी वहाँ उच्छिष्‍ठ-सूतक नहीं माना जाता, उसी प्रकार वीरशैव धर्म में भी एक पात्र से अनेक लोगों के द्‍वारा पादोदक स्वीकार करने पर भी उच्छिष्‍ठ-सूतक नहीं होता। गुरु या जंगम के भोजन से अवशिष्‍ट अन्‍न को प्रसाद कहते हैं। इस प्रसाद के स्वीकार करने में भी उच्छिष्‍ठ सूतक नहीं है (वी.आ.चं. पृष्‍ठ 119; सि.शि.वी.भा. पृष्‍ठ 56-57)।
बारहवीं शताब्दी के वीरशैव संतों ने जाति-सूतक का भी निषेध किया है। उन्होंने शिवदीक्षा-संपन्‍न व्यक्‍ति किसी भी जाति का हो, उनके साथ समता का व्यवहार करने को कहा है- (व.शा.सा. भाग 1 पृष्‍ठ 380-381)।
इस प्रकार धर्मशास्‍त्र-सम्मत पाँच प्रकार के सूतकों को वीरशैव धर्म में सीमित रूप में ही मान्यता दी गयी है। तब भी लोकव्यवहार में इनका पालन आवश्यक है।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचसूत्रलिंग पंचसूत्र’ स्थूल लिंग के निर्माण की एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से निर्मित सामान्य शिला या स्फटिक के लिंग को ‘पंचसूत्र लिंग’ कहा जाता है। उसका विधान यह है- सामान्यत: लिंग में ‘बाण’, ‘पीठ’ और ‘गोमुख’ ये तीन भाग होते हैं। ऊपर के गोलाकार को ‘बाण’, उस बाण के आश्रयभूत नीचे के भाग को ‘पीठ’ और जलहरी को ‘गोमुख’ कहा जाता है। शिलामय लिंग का निर्माण करते समय पहले ‘बाण’ तैयार करके उस बाण के वर्तुल परिमाण सदृश पीठ की लंबाई और पीठ के ऊपर की तथा नीचे की चौड़ाई होनी चाहिये। बाण के वर्तुल के आधे माप का गोमुख तैयार करना चाहिये। इस प्रकार बाण का वर्तुल, पीठ की लंबाई, पीठ के नीचे की चौड़ाई इन चारों का माप समान होना चाहिये और गोमुख का माप मात्र बाण के वर्तुल का आधा रहना चाहिये। यही ‘पंचसूत्र’ प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया से निर्मित लिंग को ही ‘पंचसूत्र लिंग’ कहा जाता है।

इस परिणाम में न्यनाधिक्य होने पर, अर्थात् यदि बाण अधिक परिमाण का हो तो, उस लिंग की पूजा से अपमृत्यु और पीठ का परिमाण अधिक होने पर धन का क्षय बताया गया है। बाण और पीठ का परिमाण समान होने पर ही उस लिंग से भोग तथा मोक्ष की प्राप्‍ति होती है (वी.आ.प्र. 1-94-95; क्रि.सा.भाग.3 पृष्‍ठ 41)।
इस प्रकार से निर्मित ‘पंचसूत्रलिंग’ ही वीरशैवों को क्रियादीक्षा के समय संस्कार करके आचार्य के द्‍वारा दिया जाता है।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार लिंगाचार, सदाचार, शिवाचार, गणाचार और भृत्याचार इन पाँच प्रकार के आचारों को ‘पंचाचार’ कहते हैं। यहाँ पर ‘आचार’ का अर्थ है- वेद और शास्‍त्र के प्रवर्तक एवं निवर्तक आदेशों को क्रियान्वित करना, अर्थात् शास्‍त्रविहित कर्मों को करना और निषिद्‍ध कर्मो को छोड़ना ही ‘आचार’ है। वेद कहता है ‘सत्यं वद’ (सत्य बोलो) और ‘सुरां न पिवेत्’ (मद्‍यपान मत करो)। इन प्रवर्तक और निवर्तक आदेशों के अनुसार ‘सत्य बोलना’ तथा मद्‍यपान छोड़ देना’ ये आचार हैं। इस प्रकार के आचार अनंत हैं। उन सबको पाँच भागों में विभक्‍त करके वीरशैव धर्म में ‘पंचाचारों’ का प्रतिपादन किया गया है। ये पाँच प्रकार के आचार साधकों को दुर्मार्ग से रोककर उनके अंतःकरण की शुद्‍धि में कारण बनते हैं। अतः प्रत्येक वीरशैव को अपने जीवन में इनका पालन करना आवश्यक है। (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद 9/4; श. वि. द. पृष्‍ठ 210)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार क. लिंगाचार अंग (जीव) को लिंगस्वरूप की प्राप्‍ति के लिये बताये गये आचार को ‘लिंगाचार’ कहते हैं, अर्थात् जिस आचार के पालन से अंग लिंगस्वरूप हो जाता है, वही ‘लिंगाचार’ है। शरीर, मन तथा भावना से क्रमशः लिंग की पूजा, लिंग का चिंतन एवं लिंग का निदिध्यासन करना ही लिंगाचार का स्वरूप है।

वीरशैव संप्रदाय में गुरु अपने शिष्य को क्रियादीक्षा के द्‍वारा ‘इष्‍टलिंग’ प्रदान करता है, मंत्रदीक्षा के द्‍वारा ‘प्राणलिंग’ के स्वरूप को समझाता है और वेध-दीक्षा के माध्यम से ‘भावलिंग’ का बोध कराता है। इस प्रकार त्रिविध दीक्षा से प्राप्‍त इष्‍ट, प्राण तथा भावलिंग की गुरु के उपदेश के अनुसार क्रमशः शरीर से अर्चन, मन से चिंतन और भावना से निदिध्यासन करना ही लिंगाचार कहलाता है। इस संप्रदाय में दीक्षा-संपन्‍न जीव को अपने इष्‍ट, प्राण तथा भावलिंग के अतिरिक्‍त अन्य देवी-देवताओ की अर्चना आदि का निषेध हैं। यह निषेध उनके प्रति घृणा की भावना से नहीं, किंतु इष्‍टलिंग आदि में निष्‍ठा बढ़ाने के लिये है। अतः गुरुदीक्षा से प्राप्‍त उन लिंगों को ही अपना आराध्य समझ कर उन्हीं की अर्चना आदि में तत्पर रहना लिंगाचार है। इस लिंगाचार के निष्‍ठापूर्वक पालन करने से अंग (जीव) लिंग स्वरूप हो जाता है (चं.ज्ञा.आ.क्रिया पाद. 9/5,11; सि.शि. 9-31-33 पृष्‍ठ 147)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार ख. सदाचार जिस आचरण से सज्‍जन तथा शिवभक्‍त संतुष्‍ट होते हैं और जिससे अंतरंग तथा बहिरंग की शुद्‍धि होती है, उसे सदाचार कहते हैं (सू.आ.क्रियापाद. 8/7)। सदाचार में धर्ममूलक अर्थार्जन और उस धन का यथाशक्‍ति गुरु, लिंग और जंगम के आतिथ्य में विनियोग करना, सदा शिवभक्‍तों के साथ रहना आदि विशुद्‍ध आचारों का समावेश किया गया है (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 9/6)।

सदाचार में आठ प्रकार के ‘शीलों’ का भी समावेश किया गया है। वीरशैव संप्रदाय में शिव-ज्ञान की इच्छा की उत्पत्‍ति में कारणीभूत नैतिक आचरणों को ‘शील’ कहते हैं। वे हैं- अंकुरशील, उत्पन्‍नशील, द्‍विदलशील, प्रवृद्‍धशील, सप्रकांडशील, सशाखाशील, सपुष्पशील और सफलशील। इन्हीं को ‘अष्‍टशील’ कहते हैं। इनके लक्षण इस प्रकार हैं –
1. अंकुरशील

गुरु-कृपा प्राप्‍त करके उनसे दीक्षा लेकर अपने शरीर को शुद्‍ध कर लेना तथा इष्‍टलिंग की पूजा आदि करना ही ‘अंकुरशील’ कहलाता है। शील की प्रथम अवस्था होने से इसे ‘अंकुरशील’ कहा गया है।

2. उत्पन्‍नशील

जब साधक स्वयं दीक्षित होकर पूजा आदि में प्रवृत्‍त हो जाता है और उसी प्रकार अपने पुत्र आदि परिवार के लोगों को भी प्रवृत्‍त कराता है तब उसे ‘उत्पन्‍नशील’ कहते हैं।

3. द्‍विदलशील

भस्म, रुद्राक्ष आदि को, जो कि शिव के अलंकार कहे जाते है, सदा शरीर पर धारण करना ही ‘द्‍विदलशील’ है।

4. प्रवृद्‍धशील

शिव के माहात्म्य को सुनकर उसका मनन करना ही ‘प्रवृद्‍धशील’ कहलाता है। साधक की भक्‍ति की वृद्‍धि में यह कारण होता है।

5. सप्रकांडशील

अपने इष्‍टलिंग की पूजा किये बिना अन्‍न, जल आदि का सेवन न करना ही ‘सप्रकांडशील’ कहा जाता है।

6. सशाखाशील

इष्‍टलिंग के अनिवेदित पदार्थो का सेवन नन करना ही ‘सशाखाशील’ है।

7. सपुष्पशील

शिव को समर्पित वस्तुओं को, जिन्हें प्रसाद कहते हैं, न त्यागना, अर्थात् शिवप्रसाद की अवज्ञा न करना ही सपुष्पशील है।

8. सफलशील

गुरु, लिंग और जंगम में, जो वीरशैव धर्म में पूजनीय है, भेद-बुद्‍धि को त्यागकर, उनको शिवस्वरूप समझकर उनकी आराधना करना ही ‘सफलशील’ कहलाता है।

इस प्रकार इन आठ ‘शील’ नामक अंगों से युक्‍त यह आचार ही ‘सदाचार’ है (चं. ज्ञा. आ. क्रियापाद 9/19-31)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार ग. शिवाचार सृष्‍टि, स्थिति, संहार आदि पंचकृत्यों को करनेवाले शिव को ही अपना अनन्य रक्षक मानना ‘शिवाचार’ कहलाता है (चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद 9/7)। शिवाचार में द्रव्य, क्षेत्र, गृह, भांड, तृण, काष्‍ठ, वीटिका, पाक, रस, भव, भूत, भाव, मार्ग, काल, वाक् और जन इन सोलह पदार्थो को शिवशास्‍त्रोक्‍त विधि से शुद्‍ध कर लेने का विधान है।

इन सोलह पदार्थो की शुद्‍धि के लक्षण शास्‍त्रों में इस प्रकार वर्णित हैं- शिवभक्‍त के हाथ से प्राप्‍त फल, मूल आदि का ग्रहण करना और अभक्‍त के हाथ से प्राप्‍त होने पर उसे भस्म-प्रेक्षण विधि से शुद्‍ध कर लेना द्रव्यशुद्‍धि है। अपने खेत के चारों कोनों में नंदि-अंकित एक-एक शिला की स्थापना करना क्षेत्रशुद्‍धि है। घर के महाद्‍वार पर शिवलिंग को उत्कीर्ण कराना गृहशुद्‍धि है। उसी प्रकार अपने उपयोग के बर्तनों पर भी शिवलिंग को उत्कीर्ण कराना ‘भांड-शुद्‍धि’ कहलाती है। गाय, बैल आदि को खिलाए जाने वाले घास को भस्म-प्रेक्षण से शुद्‍ध कर लेना ‘तृण-शुद्‍धि’ है और इसी प्रकार जलाने की लकड़ियों को भी भस्म-प्रेक्षण से शुद्‍ध कर लेना ‘काष्‍ठ-शुद्‍धि’ है। केवल शिवभक्‍त के हाथ से ताम्बूल ग्रहण करना ‘वीटिका-शुद्‍धि’ कहलाता है। शिवदीक्षा-संपन्‍न व्यक्‍ति के बनाये भोजन को ग्रहण करना ‘पाक-शुद्‍धि’ है। केवल गोरस का सेवन करना ‘रसशुद्‍धि’ है। पुनर्जन्म के कारणीभूत काम्यकर्मो को त्यागकर निष्काम कर्म करना ही ‘भवशुद्‍धि’ है। सभी प्राणियों में दया रखना ‘भूतशुद्‍धि’ है। सभी कामनाओं को त्यागकर मन में सदा शिव का ही चिंतन करना ‘भावसुद्‍धि’ है। मार्ग में किसी प्राणी की हिंसा किये बिना सावधानी से चलना ‘मार्गशुद्‍धि’ है। शास्‍त्रोक्‍त ब्रह्म मुहूर्त में शिवलिंग की पूजा करना ‘कालशुद्‍धि’ हे। मुख से अनृत, पुरुष, बीभत्स तथा दांभिक वचनों का प्रयोग न करना ‘वाकशुद्‍धि’ है। सदा सज्‍जनों के सहवास में रहना ‘जनशुद्‍धि’ है। इस प्रकार अपने दैनिक जीवन में उपर्युक्‍त सोलह प्रकार की शुद्‍धियों को अपने आचरण में लाना ही ‘शिवाचार’ है (चं. ज्ञा. आ. क्रियापाद 9/32-50)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार घ. गणाचार इस आचार में कायिक, वाचिक तथा मानस 64 प्रकार के शीलों का अर्थात् उत्‍तम आचरणों का समावेश किया गया है। उनमें प्रमुख हैं- शिव या शिवभक्‍तों की निंदा न सुनना, यदि कोई निंदा करता है, तो उसको दंडित करना; दंडित करने की सामर्थ्य न रहने पर उस स्थान को त्याग देना; इंद्रियों से शास्‍त्र-निषिद्‍ध विषयों का सेवन न करना; मन से निषिद्‍ध भोग का संकल्प भी न करना; किसी पर क्रोधित न होना; धन आदि का लोभ त्याग देना; संपत्‍ति आने पर भी मदोन्मत्‍त न होना; शत्रु और अपने पुत्र में विषमता को त्यागकर समता भाव रखना; निगमागम-वाक्यों में श्रद्‍धा रखना; काया, वाचा, मनसा कदापि प्रमाद नहीं करना; अनुपलब्ध वस्तुओं का व्यसन छोड़कर प्राप्‍त वस्तुओं से ही संतुष्‍ट रहना; पंचाक्षरी मंत्र का सदा मन में जप करना, ‘सोടहं’ भाव से शिव का चिंतन करना, विश्‍व के समस्त प्राणियों को शिव के ही अनंत रूप समझना। इस प्रकार के 64 शीलों (आचरणों) का समष्‍टि-स्वरूप ही ‘गणाचार’ कहलाता है। इस गणाचार के पालन से साधक के त्रिकरण (शरीर, मन, वाणी) परिशुद्‍ध हो जाते हैं- और उसे शिव सायुज्‍य की प्राप्‍ति हो जाती है (सि.शि. 9/36,37 पृष्‍ठ 148; चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद. 9/51-123)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार ङ भृत्याचार शिव-भक्‍त ही इस पृथ्वी में श्रेष्‍ठ हैं और मैं उनका भृत्य अर्थात् दास हूँ, ऐसा समझकर उनके साथ विनम्रता से व्यवहार करना ही ‘भृत्याचार’ कहलाता है (चं. शा. आ. क्रियापद 9/9)। ‘भृत्यभाव’ और ‘वीरभृत्य भाव’ के भेद से यह भृत्याचार दो प्रकार का है। अपने को गुरु, लिंग तथा जंगम का सेवक समझकर श्रद्‍धा से निरंतर उनकी सेवा में तत्पर रहने की भावना को ‘भृत्य-भाव’ कहते हैं। जिस भाव से युक्‍त साधक गुरु को तन, अपने इष्‍टलिंग को मन तथा जंगम को अपना सर्वस्‍व अत्यंत आनंद से समर्पित कर देता और उसके प्रतिफल पारलौकिक सुख से निःस्पृह होकर केवल मोक्ष की अभिलाषा रखता है, उसे ‘वीरभृत्य-भाव’ कहते हैं। इस वीरभृत्यभाव के साधक को ‘वीरभृत्य’ कहा जाता है। यही शिवानुग्रह को प्राप्‍त करता है। (चं. ज्ञा. आ. क्रियापाद 9/124-126)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार्य वीरशैव धर्म के संस्थापक पाँच आचार्यो को ‘पंचाचार्य’ कहते हैं। ये पंचाचार्य ही वीरशैवों के गोत्र प्रवर्तक हैं। आगमों की मान्यता है कि इन पंचाचार्यों ने प्रत्येक युग में शिव के सद्‍योजात, वामदेव, अद्‍योर, तत्पुरुष और ईशान मुखों से प्रकट होकर वीरशैव धर्म की स्थापना की है। प्रत्येक युग में इनके नाम भिन्‍न-भिन्‍न होते हैं। कृतयुग में इनके नाम इस प्रकार थे- एकाक्षर-शिवाचार्य तथा द्‍वयक्षर शिवाचार्य, त्र्यक्षरशिवाचार्य, चतुरक्षर-शिवाचार्य तथा पंचाक्षर-शिवाचार्य (सु.पं.पं. प्र. पृष्‍ठ 2)।

त्रेतायुग में- एकवक्‍त्र शिवाचार्य, द्‍विवक्‍त्र शिवाचार्य, त्रिवक्‍त्र शिवाचार्य, चतुर्वक्‍त्र शिवाचार्य और पंचवक्‍त्र शिवाचार्य (सु.पं.पं.प्र. पृष्‍ठ2)।
द्‍वापरयुग में- रेणुक शिवाचार्य, दारुक शिवाचार्य, घंटाकर्ण शिवाचार्य, धेनुकर्ण शिवाचार्य एवं विश्‍वकर्ण शिवाचार्य (सु.पं.पं.प्र. पृष्‍ठ 2)।
कलियुग में- रेवणाराध्य, मरुलाराध्य, एकोरामाराध्य, पंडिताराध्य और विश्‍वाराध्य (वी.स.सं. 1/26-34)। कलियुग के इन पंचाचार्यों का आविर्भाव पाँच शिवलिंगों से माना जाता है। उन सबका विवरण इस प्रकार है-
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार्य 1. रेवणाराध्य रेवणाराध्य ने कोनलुपाक (आंध्र) क्षेत्र के सोमेश्‍वरलिंग से प्रादुर्भूत होकर धर्मप्रचार के लिये बालेहोन्‍नूर (कर्नाटक) में एक मठ की स्थापना की, जो कि ‘रंभापुरी पीठ’ के नाम से प्रसिद्‍ध है। ये ही ‘वीरगोत्र’ ‘पंडिविडिसूत्र’ के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को ‘रेणुका शाखा’ कहते हैं और इनका सिंहासन ‘वीर सिंहासन’ कहलाता है (वी.स.सं. 1/37-39; हिं. पृष्‍ठ 695-696; वी.म. पृष्‍ठ 1)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार्य 2. मरुलाराध्य अवंतिकापुरी (मध्यप्रदेश) के वटक्षेत्र के सिद्‍धेश्‍वरलिंग से, अर्थात् भगवान् के वामदेव मुख से, मरुलाराध्य जी प्रकट हुये। कहते हैं कि वे अवंती के राजा से अनबन हो जाने के कारण बल्लारी जिले (कर्नाटक) के एक गाँव में जाकर बस गये। इनके बसने के कारण उस गाँव का नाम भी उज्‍जयिनी पड़ गया। यहाँ पर एक मठ की स्थापना हुई, जिसे उज्‍जयिनी पीठ कहते हैं। इस पीठ के आचार्य मरुलाराध्य जी वृष्‍टि सूत्र और नंदिगोत्र के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को ‘दारुक शाखा’ कहते हैं और इनका सिंहासन ‘सद्‍धर्म सिंहासन’ के नाम से प्रसिद्‍ध है। उज्‍जैन (मध्य प्रदेश) में भी इनका एक शाखा मठ बहुत दिन तक अस्तित्व में रहा (वी.स.सं. 1/40-43; हिं.पृष्‍ठ 695-696; वी.म.पृष्‍ठ 26-28)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार्य 3. एकोरामाराध्य द्राक्षाराम क्षेत्र के रामनाथ लिंग से, अर्थात् भगवान् के अघोर मुख से, एकोरामाराध्य जी प्रकट हुये और उन्होंने उत्‍तराखंड के श्री केदारेश्‍वर के पास ओखीमठ (उ.प्र.) में एक पीठ की स्थापना की। इसे ‘केदारपीठ’ कहते हैं। इस पीठ के मूल आचार्य एकोरामाराध्य ‘भृङ्गिगोत्र’ और ‘लंबनसूत्र’ के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा का नाम घंटाकर्ण (शंकुकर्ण) है। इनके सिंहासन को ‘वैराग्य सिंहासन’ कहते हैं (वी.स.सं. 1/44-46)। यह केदारपीठ भी अत्यंत प्राचीन है। इसकी प्राचीनता का प्रमाण एक ताम्र शासन है, जो उसी पीठ में मौजूद है। हिमवत् केदार में महाराजा जनमेजय के राज्यकाल में स्वामी आनंदलिंग जंगम वहाँ के मठ के जगदगुरु थे। उन्हीं के नाम जनमेजय ने मंदाकिनी, क्षीरगंगा, सरस्वती आदि नदियों के संगम के बीच जितना क्षेत्र है, जिसे ‘केदारक्षेत्र’ कहते हैं, इसका दान इस उद्‍देश्य से किया कि ओखीमठ के आचार्य गोस्वामी आनंदलिंग जंगम के शिष्‍य श्री केदार क्षेत्र वासी श्री ज्ञानलिंग जंगम इसकी आय से भवान् केदारेश्‍वर की पूजा-अर्चा किया करें। उन्होंने सूर्यग्रहण के अवसर पर श्री केदारेश्‍वर को साक्षी करके अपने माता-पिता की शिवलोक-प्राप्‍ति के लिये उन्हें इस क्षेत्र के पूरे अधिकार समेत दान दिया। यह दान महाराज जनमेजय ने मार्गशीर्ष अमावस्या सोमवार को युधिष्‍ठिर के राज्यारोहण के नवासी बरस बीतने पर प्लवंगनाम संवत्सर में किया। अतः केदारेश्‍वर का यह मठ पाँच हजार बरसों से अधिक पुराना है। टेहरी नरेश इस पीठ के शिष्य हैं। इस पीठ के जगद्‍गुरु को ‘रावल’ उपाधि से संबोधित किया जाता है। टेहरी नरेश इनके पट्‍टाधिकार के समय तिलकोत्सव समारंभ में उनको यह ‘रावल’ उपाधि देते हैं (हि. पृष्‍ठ 695-696; वी.म. पृष्‍ठ 29-32)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार्य 4. पंडिताराध्य श्रीशैलम् (आंध्र) के मल्लिकार्जुन लिंग से, अर्थात् भगवान् के तत्पुरुष मुख से, पंडिताराध्य प्रकट हुये और श्रीशैलम् में ही उन्होंने एक पीठ की स्थापना की। इस पीठ को श्रीशैलपीठ कहते हैं। यह पंडिताराध्य ‘वृषभगोत्र’ तथा ‘मुक्‍तागुच्छ’ सूत्र के प्रवर्तक हैं। इनकी शाखा को ‘धेनुकर्णशाखा’ कहते हैं और इनका सिंहासन ‘सूर्य सिंहासन’ नाम से प्रसिद्‍ध है (वी.स.सं. 1/47-50; हि. पृष्‍ठ 695-696; वी.म. पृष्‍ठ 33-34)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचाचार्य 5. विश्‍वाराध्य श्री काशीक्षेत्र (उत्तर प्रदेश) के विश्‍वनाथ से, अर्थात् भगवान् के ईशानमुख से, जगद्‍गुरु विश्‍वाराध्य जी प्रकट हुये और उन्होंने काशी में ही एक पीठ की स्थापना की, जिसे ‘ज्ञानपीठ’ कहते हैं। वह आजकल ‘जंगम वाड़ीमठ’ के नाम से प्रसिद्‍ध है। यह विश्‍वाराध्य ‘स्कंदगोत्र’ और ‘पंचवर्णसूत्र’ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनकी शाखा को ‘विश्‍वकण ‘शाखा’ कहते हैं। इनका सिंहासन ‘ज्ञानसिंहासन’ के नाम से प्रसिद्‍ध है (वी.स.सं. 1/51-54; वी.म. पृष्‍ठ 35)। काशी का यह जंगमवाड़ी मठ भी अत्यंत प्राचीन है। इस मठ के ‘मल्लिकार्जुनजंगम’ नामक जगद्‍गुरु के समय में उस समय के काशी के राजा जयनंददेव ने विक्रम संवत् 631 में प्रबोधिनी एकादशी को भूमि दान किया था। इस तरह यह ताम्र शासन चौदह सौ तीन वर्ष प्राचीन है। हुमायूँ, अकबर, जहाँगीर, शाहजहाँ तथा औरंगजेब आदि मुगल राजओं के दानपत्र भी इस मठ में मौजूद हैं।

नेपाल देश में ‘भक्‍तपुर’ में भी इसका एक शाखा-मठ है। वहाँ भी वह जंगमवाड़ी मठ के नाम से ही प्रसिद्‍ध है। उस मठ के लिये भी विक्रम संवत 692 ज्येष्‍ठ सुदी अष्‍टमी के दिन नेपाल के राजा विश्‍वमल्ल ने श्री मल्लिकार्जुन यति को भूमिदान किया था। शिला पर उत्कीर्ण वह दानपत्र उसी मठ में आज भी उपलब्ध है (हिं. पृष्‍ठ 695-696)।
उपर्युक्‍त ये पंचाचार्य वीरशैवों के प्रधान गुरु माने जाते हैं। इन्हें महाचार्य या जगद्‍गुरु भी कहते हैं। वीरशैवों के दीक्षा, विवाह आदि धार्मिक तथा सामाजिक कार्य इन्हीं महाचार्यो की साक्षी में संपन्‍न किये जाते हैं। (वी. स.सं. 1-55-63)। कर्नाटक, आंध्र तथा महाराष्‍ट्र में प्रायः प्रत्येक गाँव में एक एक मठ है, जो इन पंचाचार्यो में से किसी एक की शाखा से संबंध रखता है। उन शाखा मठों के अधिकारियों को ‘आचार्य’ या ‘पट्‍टाधिकारी’ कहते हैं।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पंचात्मक भगवान् भगवान् अग्निहोत्र, दर्शपौर्णमास, चातुर्मास्य, पशुयाग और सोमयाग, यह पाँच यज्ञ स्वरूप हैं। “यज्ञो वै विष्णुः” यह वचन इसी का समर्थक है (त.दी.नि.पृ. 130)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पंचार्थ पाँच कोटियों वाला, पाँच वर्गों वाला।

पाशुपत सूत्र के व्याख्याता कौडिन्य (राशीकार) ने पाशुपत दर्शन को पाँच वर्गों या कोटियों में विभाजित किया है। ये पाँच वर्ग हैं- कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखान्त। इन्हीं पाँच कोटियों को पंचार्थ कहते हैं तथा पाशुपतसूत्र कौडिन्य भाष्य को पंचार्थ भाष्य के नाम से भी अभिहित किया जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 1,2)। इस भाष्य में पाशुपत दर्शन के इन पाँच प्रतिपाद्य विषयों का विस्तारपूर्वक निरूपण किया गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पति स्वामी। शिव।

पाशुपत दर्शन में इस जगत के सृष्‍टिकर्ता व स्थितिकर्ता को पति कहा गया है। जो पशुओं अर्थात् समस्त जीवों (अर्थात् उनके सूक्ष्म तथा स्थूल शरीरों) की सृष्‍टि करता है तथा उनकी रक्षा करता है, वह पति कहलाता है। पति विभु है, वह अपरिमित ज्ञानशक्‍ति व क्रियाशक्‍ति से संपन्‍न है। अपनी इस अपरिमित तथा व्यापक शक्‍ति से पति इस जगत का सृष्‍टि व स्थिति कारण बनता है। पति की ही शक्‍ति से समस्त पशुओं (जीवों) का इष्‍ट, अनिष्‍ट, शरीर, स्थान आदि निर्धारित होते हैं। अर्थात् पति ही समस्त विश्‍व का एकमात्र संचालक है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.5)। पशु अथवा जीव के समस्त कार्यों पर स्वामित्व ही पति (ईश्‍वर) का पतित्व होता है। (ग.का.टी.पृ 10)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पति प्रमाता समस्त प्रपंच को अभेद दृष्टि से देखने वाला प्रमाता। पूर्ण अभेद एवं भेदाभेद दृष्टिकोण वाले दोनों प्रकार के प्रमाता। इनमें से कोई प्रमेय तत्त्व को आत्मरूपतया ही देखते हुए केवल ‘अहं’ इसी का सतत विमर्श करते हैं और कोई उसे स्वशरीर तुल्य समझते हुए ‘अहमिदम्’ या ‘इदमहम्’ इस प्रकार का विमर्श करते हैं। दोनों प्रकार के शुद्ध प्राणी पति कोटि में गिने जाते हैं। इस प्रकार शिवतत्त्व से लेकर शुद्ध विद्या तत्त्व तक के अकल, मंत्रमहेश्वर और मंत्रेश्वर इन सभी प्राणियों को पति प्रमाता कहा जाता है। ये समस्त विश्व को अपने ही शुद्ध संवित् रूप में देखते हैं तथा इन्हें अपनी ही ज्ञान, क्रिया नामक शक्तियों का प्रसार मानते हैं। (ई.प्र. 3-2-3; 4-1-4)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पद मालिनीविजय (2/36-35) तथा तन्त्रालोक (10/227-287) में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत अवस्थाओं का निरूपण पिण्ड, पद, रूप, रूपातीत तथा महाप्रचय अथवा सततोदित अवस्था के रूप में किया गया है। यहाँ मन्त्र को पदस्थ बताया गया है और इसके गतागत, सुविक्षिप्त, संगत और सुसमाहित नामक चार भेद माने गये हैं। मालिनीविजय में कुलचक्र की व्याप्ति (19/30-48) और शिवज्ञान के प्रसंग (20/1-7, 18-26) में भी इस विषय का विवरण मिलता है। जैन ग्रन्थ ज्ञानार्णव के 35वें प्रकरण में पदस्थ ध्यान वर्णित है। इसमें वर्ण और मन्त्रों की ध्यानविधि बताई गई है। योगिनी हृदय (1/42) में बताया गया है कि पद में पूर्णगिरी पीठ की स्थिति है। दीपिकाकार ने इसकी व्याख्या की है कि पद अर्थात् हंस – वाण का आधार हृदय है। वहीं अन्यत्र (3/94) इसको विघ्नरूप माना है। इसीलिये 3/137 की व्याख्या में अमृतानन्द द्वारा उद्धृत एक प्रामाणिक वचन में बताया गया है कि पद से मुक्त होने पर ही वास्तविक मुक्ति मिलती है। कौलज्ञाननिर्णय में एक स्थान पर (पृ. 4) पद का अर्थ ध्यान तथा अन्यत्र (पृ. 90) माया से विमोहित जीव किया है। वहीं (पृ. 53) यह भी बताया गया है कि इसके आठ भेद होते हैं। आणव उपाय के प्रसंग में इस शब्द की चर्चा आ चुकी है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पद-अध्वन् आणवोपाय की कालाध्वन् नामक धारणा में आलंबन बनने वाला तीसरा मार्ग। इस धारणा में प्रमाण अंश की प्रधानता रहती है। इस उपाय में साधक मंत्रों के समाहार रूप तथा प्रमाणस्वरूप पद को अपनी धारणा का आलंबन बनाते हुए इसके समस्त स्वरूप को दृढ़तर भावना द्वारा अपने शुद्ध स्वरूप से व्याप्त कर लेता है। इसके सतत् अभ्यास से साधक को अपने शिवभाव का आणव समावेश हो जाता है। (तं.सा.पृ. 47, 61, 112)। काल एक अमूर्त काल्पनिक तत्त्व है। इसे क्रिया क्षणों द्वारा मापा जाता है। उनमें भी सूक्ष्मतर क्रिया क्षण जानने की क्रिया में प्रकट होते हैं। जानना सदा सशब्द होता है क्योंकि शब्द के माध्यम से ही जानने का आभासन होता है। शब्द के तीन रूप होते हैं। उसके सूक्ष्मतर रूप को वर्ण, सूक्ष्म रूप को मंत्र और स्थूल रूप को पद कहते हैं। पद का ही आश्रय पदाध्वन् योग में लिया जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पदस्थ 1. प्राण से एकरूपता प्राप्त कर लेने पर योगी की दशा। अपने वास्तविक शुद्ध एवं परिपूर्ण संविदात्मक स्वरूप को पहचानने के प्रत्येक प्रमेयात्मक अध्वन् अर्थात् मार्ग का आधार मूलतः प्राण ही बनता है। इस प्रकार सभी संकल्पों एवं विकल्पों का आश्रयस्थान भी प्राण ही है। संकल्पों और विकल्पों को इस प्रकार जानने तथा इनके आश्रयस्थान प्राण से एकरूपता प्राप्त करने को पद कहते हैं। ऐसी एकरूपता पर स्थिति हो जाने पर योगी को पदस्थ कहते हैं। इस प्रकार प्राण से एकात्मकता प्राप्त कर लेने पर संकल्पों से भी एकात्मकता प्राप्त हो जाती है। (तं.आ.आ. 1.-254, 255)। 2. योगियों की शाब्दी परंपरा में स्वप्न दशा में ठहरे हुए योगी को भी पदस्थ कहते हैं और स्वप्न दशा का भी एक नाम पदस्थ है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पदार्थ-विपर्यास पदार्थों के स्वाभाविक धर्मों का अन्यथा हो जाना, जैसे अग्नि का अपने स्वाभाविक उष्णत्व को त्यागकर शीतल हो जाना। कोई योगी जब अणिमादियुक्त होते हैं तब वे अपने अलौकिक शक्ति के बल पर भौतिक पदार्थों के स्वभाव में विपर्यास कर सकते हैं या नहीं – यह प्रश्न उठता है। योगशास्त्र का कहना है (द्र. व्यासभाष्य 3/45) कि समर्थ योगी पदार्थों के धर्मों का विपर्यास (= अन्यथाभाव) नहीं कर सकते, क्योंकि इस ब्रह्माण्ड के पदार्थधर्म प्राक्सिद्ध हिरण्यगर्भ के संकल्प के अनुसार हैं, अतः ब्रह्माण्डवासी कोई सिद्ध पुरुष उन धर्मों का अन्यथात्व नहीं कर सकते।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

पर तत्त्व छत्तीस तत्त्वों (देखिए) से उत्तीर्ण तथा इन सभी का परिपूर्ण सामरस्यात्मक अनुत्तर तत्त्व। (देखिएपरम शिव)। इसे सैंतीसवें तत्त्व के रूप में माना गया है। छत्तीस तत्त्वों का उदय इसी में से होता है और उनका लय भी इसी के भीतर होता है। वह इसी की स्वभावभूत इच्छा के बल से उसी के अनुसार होता है। इसी को परिपूर्ण परमेश्वर कहा जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पर भैरव देखिए भैरव (1)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पर शिव देखिए परम शिव।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परचित्तज्ञान योगसूत्र (3/19) कहता है कि प्रत्यय में संयम करने पर परचित्त की ज्ञान रूप सिद्धि होती है। योगी की अपनी चित्तवृत्ति प्रत्यय है, अर्थात् योगी अपने चित्त को शून्यवत् करके परचित्तगत भाव को जान सकते हैं (यह प्रक्रिया गुरुमुखगम्य है)। कोई-कोई कहते हैं कि प्रत्यय का अर्थ परचित्त ही है, अर्थात् पर के प्रत्यय में संयम करने पर परचित्त का ज्ञान होता है। पर का चित्त किस स्थिति में है (अनुरक्त है, या विद्विष्ट है या भीत है, इस प्रकार) – यह ज्ञान पहले उदित होता है। परचित्त का आलम्बन क्या है – इसको जानने के लिए पृथक् संयम करना पड़ता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परजंगम देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘जंगम’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

परंपरा मोक्ष कर्म से सिद्ध होने वाला मोक्ष परंपरा मोक्ष है, क्योंकि कर्म से साक्षात् मोक्ष नहीं होता है। कर्म का विधान करने वाली श्रुतियाँ भी परंपरा मोक्ष को ही कर्म का फल निश्चित करती हैं। साक्षात् मोक्ष तो ज्ञान और भक्ति से ही होता है (अ.भा.पृ. 1198)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

परब्रह्म बृहत् होने के कारण असीम तथा बृहंक होने के कारण संपूर्ण विश्व को विकास में लाने वाला तथा व्याप्त करने वाला पर तत्त्व। सूक्ष्म रूप से सब कुछ को व्याप्त करते हुए अनंत चित्र विचित्र रूपों में स्वयं चमकने वाला परमेश्वर। भैरव। देखिए भैरव। परब्रह्म शुद्ध चिन्मय है। परंतु उसके भीतर समस्त विश्व की सृष्टि करने वाला वीर्य सदा विद्यमान रहता है। उस वीर्य की उच्छलन क्रिया से वह विभोर होकर रहता है। उसकी उसी क्रिया से शिव से पृथ्वी तक के तत्त्वों के उदय और लय हुआ करते हैं। अतः वह आकाश की तरह सर्वथा शांत न होकर चिच्चमत्कार से भरा रहता है। उसी से वह विश्व का बृंहण या विकास करता है और यही उसकी ब्रह्मता है। (पटलत्री.वि.पृ. 221)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परम-अद्वैत पराद्वैत। महाद्वैत। परमाद्वय। वह दृष्टि, जिसमें किसी भी प्रकार का द्वैत शेष रह ही नहीं सकता। इसके अनुसार द्वैत, द्वैताद्वैत, अद्वैत, बंधन, मुक्ति, जड़, चेतन आदि प्रत्येक प्रकार की भेदमय अवस्थाएँ एकमात्र परिपूर्ण शुद्ध संवित् रूप में ही चमकती हैं। भेद केवल कल्पना मात्र है। परम शिव ही परिपूर्ण शुद्ध संवित् स्वरूप है। उसी के स्वातंत्र्य से एवं उसके अपने ही आनंद की लीला से उसी में सभी कुछ उसी के रूप में चमकता है। (तं.आ. 2-16 से 19)। शिवदृष्टि के अनुसार सभी कुछ शिवमय है। एक जड़ पदार्थ एवं परमशिव में स्वभावतः कोई भेद नहीं है। जो कुछ भी जिस भी रूप में है वह सभी शिवमय ही है। एक जड़ पदार्थ भी उतना ही परिपूर्ण परमेश्वर है जितना स्वयं परमशिव है। सब कुछ पूर्ण परमेश्वर ही है। उससे भिन्न या अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ऐसा सिद्धांत ही पराद्वैत या परम-अद्वैत है। (शि.दृ. 5-105 से 109)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परमशिव अनुत्तर संवित्। प्रकाश और विमर्श का परम सामरस्यात्मक परतत्त्व। वह सैंतीसवां तत्त्व, जिसमें शिव से लेकर पृथ्वी पर्यंत सभी छत्तीस तत्त्वों का उसी की स्वेच्छा से समय समय पर लय और उदय होता रहता है तथा ऐसा होने पर भी जो सर्वथा एवं सर्वंदा शुद्ध, असीम तथा परिपूर्ण ही बना रहता है। परशिव। परमेश्वर। प्रकाशात्मक ज्ञानस्वरूपता तथा विमर्शात्मक क्रियास्वरूपता का परिपूर्ण सामरस्य। (म.म.पटलपृ. 34-37, ई.प्र.वि. 4-1-14)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परमाणु सांख्ययोगग्रन्थों में कदाचित् परमाणु और अणु शब्द प्रयुक्त होते हैं। सांख्यीय परमाणु त्रैगुणिक (त्रिगुणविकारभूत व्यक्त पदार्थ) है, अतः यह नित्य, निरवयव, निष्कारण नहीं हो सकता। परमाणु पाँच प्रकार के हैं। विज्ञानभिक्षु ने यहाँ इन परमाणुओं का स्वरूप इस प्रकार दिखाया है – पृथ्वीपरमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो मूर्ति (= काठिन्य) – समानजातीय शब्दादितन्मात्रों से उत्पन्न होता है। यह स्थूलपृथ्वी की परम सूक्ष्म अवस्था है। जलपरमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो गन्धतन्मात्र को छोड़कर चार तन्मात्रों (जो स्नेहजातीय हैं) से उत्पन्न होता है। इससे महाजल आदि होते हैं। तेजःपरमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो गन्ध-रस तन्मात्र को छोड़कर शेष तीन तन्मात्रों (जो उष्णता-जातीय हैं) से उत्पन्न होता है; इससे महातेजः आदि होते हैं। वायु-परमाणु वह ग्राह्य पदार्थ है जो गन्ध-रस-रूप तन्मात्रों को छोड़कर शेष दो तन्मात्रों (जो सततसंचरणशीलता-जातीय है) से उद्भूत होता है। अहंकारांशसहकृत शब्दतन्मात्र से आकाशपरमाणु उत्पन्न होता है। ‘परमसूक्ष्म’ के अर्थ में भी परमाणु शब्द (जो विशेषण है), प्रयुक्त होता है। द्र. योगसूत्र 1/40।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परशरीरावेश दसूरे के शरीर में अपने को प्रविष्ट करने की क्षमता परशरीरावेश कहलाता है। संयम विशेष के बल से ऐसा किया जा सकता है। योगसूत्र कहता है कि बन्धकारण का शैथिल्य होने से अथवा प्रचार संवेदन से परशरीरावेश रूप सिद्धि उद्भूत होती है (3/38)। कर्माशय बन्ध का कारण है। नाडीमार्ग में चित्त का संचार किस रूप से होता है – इसका अनुभव करना प्रचार संवेदन है। योगी अपने चित्त को दूसरे के शरीर में निक्षिप्त करते हैं; चित्ताधीन इन्द्रियाँ चित्त का अनुसरण करती हुई परशरीर में प्रविष्ट हो जाती हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परा देवी 1. पराशक्ति, कौलिकी शक्ति, आनंदशक्ति, पराविसर्गशक्ति, हृदय। संपूर्ण परापरा तथा अपरा शक्ति समूहों को अभिव्यक्त करने वाली निरतिशय स्वातंत्र्य के ऐश्वर्य से परिपूर्ण तथा इस ऐश्वर्य के चमत्कार को उल्लसित करने वाली तथा इस उल्लास से संपूर्ण शुद्ध तथा अशुद्ध सृष्टि को अभिव्यक्त करने वाली परमशिव की नैसर्गिक स्वभावरूपा अनुत्तराशक्ति। (तं.आ.आ. 3-66 से 70)। 2. अभेदमयी शक्ति दशा में जिस शक्ति के द्वारा परमेश्वर समस्त प्रमातृ गणों और प्रमेय समूहों को धारण करता हुआ वहाँ के समस्त प्रमातृ व्यापारों की कलना को निभाता है उसकी उस शक्ति को भी परा देवी कहते हैं। द्वादश महाकाली देवियों में इस परादेवी का उल्लेख आता है। यह भी कई एक कालियों के रूपों में प्रकट होती हुई प्रमातृ-प्रमेय-प्रमाणमय व्यापारों की कलना को चलाती रहती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परा भट्टारिका पारमेश्वरी पराशक्ति को परा भट्टारिका कहा जाता है। भट्टारक पारमैश्वर्य से संपन्न अधिकार देवाधिदेवों को कहते हैं, जैसे ईश्वर भट्टारक, सदाशिव भट्टारक, शिवभट्टारक। तदनुसार भगवती पराशक्ति, जो शक्ति तत्त्व पर शासन करती है, उसे परा भट्टारिका कहा जाता है। ज्येष्ठा, रौद्री और वामा नामक भट्टारिकाएँ उसकी अपेक्षा अपर अर्थात् निचली कोटि की देवियाँ हैं। उच्चतम स्थान की देवी परा भट्टारका ही है। इसी को क्रमनय में काली कहा जाता है और श्रीचक्र के उपासक इसी को ललिता त्रिपुर सुंदरी कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परा वाक् कारण बिन्दु का अभिव्यक्त स्वरूप शब्दब्रह्म कहलाता है और यह मूलाधार में निष्पन्दावस्था में अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित रहता है। इसी स्थिति को परा वाक् कहा जाता है। शास्त्रों में नादात्मक अकारादि मातृका वर्णों की चार अवस्थाएँ वर्णित हैं – अनाहतहतोत्तीर्ण, अनाहतहत, अनाहत और हत। इनमें अनाहतहतोत्तीर्ण अवस्था ही परा वाक् है। तन्त्रालोक (5/97-100) में उद्धृत ब्रह्मयामल में नाद को राव कहा गया है। परावाक् स्वरूप अहंविमर्शात्मक राव पश्चन्ती, मध्यमा, वैखरी और इनके स्थूल, सूक्ष्म तथा पर भेदों के कारण नवधा विभक्त हो जाता है। इन सबका आधारभूत परावागात्मक राव दशम है। इस तरह से यह परावागात्मिका राविणी दिव्य आनन्दप्रदायक दस प्रकार के नाद का नदन करती रहती है। इसी से वर्णाम्बिका का पश्यन्ती रूप अभिव्यक्त होता है। परा वाक् को ही सूक्ष्मा और कुण्डलिनी शक्ति भी कहा जाता है। योगिनीहृदय (1/36) में इसको अम्बिका शक्ति कहा गया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

परा शुद्ध विद्या सदाशिव तत्त्व तथा ईश्वर तत्त्व में रहने वाली मंत्रमहेश्वर तथा मंत्रेश्वर प्राणियों के भेदाभेदमय दृष्टिकोण को शुद्ध विद्या या परा शुद्ध विद्या कहते हैं। इन तत्त्वों में रहने वाली प्राणियों में क्रमशः ‘अहम् इदम्’ अर्थात् ‘मैं यह हूँ’ तथा ‘इदम् अहम्’ अर्थात् ‘यह मैं हूँ’ ऐसा भेदाभेदमय दृष्टिकोण बना रहता है। (ई.प्र.वि.2, पृ. 196, 7)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परा संवित् अनुत्तर संवित्। प्रकाश एवं विमर्श का शुद्ध, एकघन सामरस्यात्मक परस्वरूप। छत्तीस तत्त्वों से उत्तीर्ण तथा छत्तीस तत्त्वों का संघट्टात्मक शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण स्वरूप। काश्मीर शैव दर्शन के अनुसार जो कुछ भी, जहाँ कहीं भी, जिस किसी भी रूप में आभासित होता है, वह सभी कुछ संवित् स्वरूप ही है और संविद्रूप में संविद्रूप बनकर ही चमकता रहता है। परमशिव के ऐसे अनुत्तर स्वरूप को परासंवित् कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पराद्वैत देखिए परम-अद्वैत।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परानंद आणव उपाय के उच्चार योग में भिन्न भिन्न स्थितियों में विश्रांति के हो जाने पर अभिव्यक्त होने वाली आनंद की छह भूमिकाओं में से तीसरी भूमिका। उच्चार योग की प्राण धारणा में जब साधक को अपने जीवस्वरूप की विषयशून्यता की स्थिति पर पूर्ण विश्रांति हो जाती है तब उसे प्राण और अपान पर विश्रांति का अभ्यास करना होता है। इस अभ्यास में अनंत प्रमेयों को अपान द्वारा प्राण में ही विलीन करना होता है। इसके सतत अभ्यास से साधक जिस आनंद का अनुभव करता है, उसे परानंद कहते हैं। (तं.आ.आ. 5-45, 46)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परापरा देवी ज्ञान शक्ति शुद्धशुद्ध मार्ग को प्रकाशित करने वाली तथा घोरा मातृ मंडली अर्थात् घोर शक्तियों (देखिए) के अनंत समूहों को अविरत रूप से प्रकट करते रहने वाली पारमेश्वरी शक्ति। ये शक्ति समूह मुक्ति के मार्ग को अवरुद्ध करने वाले हैं तथा मिश्रित कर्मफल के प्रति आसक्ति उत्पन्न करते हुए जीव को संसार के प्रति ही आसक्त रखने की पारमेश्वरी लीला को निभाते हैं। (तं.आ.आ. 3-74, 75 मा.वि.तं. 3-32)। भेदाभेदमयी विद्या भूमिका के भीतर समस्त प्रमातृ-प्रमाण-प्रमेयमय व्यापारों की कलना करने वाली तथा इस भूमिका के समस्त प्रपंचों को धारण करने वाली वह पारमेश्वरी शक्ति, जिसके कई एक रूप द्वादश कालियों में गिने जाते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परापरावस्था / दशा भेदाभेद की अवस्था। वह दशा, जिसमें इदंता का पृथक् विकास नहीं हुआ होता है परंतु उसके प्रति अत्यंत सूक्ष्म उन्मुखता उभर चुकी होती है। इस अवस्था में सदाशिव, ईश्वर तथा शुद्ध विद्या और इन तत्त्वों में रहने वाले मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर तथा विद्येश्वर नामक प्राणी एवं उनका भेदाभेदमय दृष्टिकोण आता है। इस अवस्था में परमशिव का चित्, निर्वृत्ति (आनंद) आदि शक्ति पंचक विकासोन्मुख होता है। (शि.दृ.वृ.पृ. 6,7; ई.प्र.वि.2, पृ. 199)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पराभक्ति ऐसी प्रेममयी और ज्ञानमयी भक्ति जिसमें उपास्य और उपासक का भेद सर्वथा विगलित हो जाता है और उपासक अपने को उपास्य के ही रूप में जानने लगता है। यह शैव दर्शन की समावेशमयी भक्ति है। इसी भक्ति की प्रशंसा उत्पल देव आदि आचार्यो ने की है। इसको ‘ज्ञानस्य परमा भूमि’ ज्ञान की सर्वोच्च भूमि और ‘योगस्य परमादशा’ योग की सर्वोच्च दशा कहा गया है। (ई.प्र. 1-1-1)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परामर्श – शक्‍ति देखिए ‘चिच्छक्‍ति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

परामायाशक्ति देखिए महामाया (परा); मायाशक्ति (परा)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परावस्था / दशा शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण ‘अहम्’ की अवस्था। पूर्ण अभेद की अवस्था। पूर्ण अभेद की अवस्था। वह अवस्था, जिसमें परमेश्वर का समस्त शक्ति समूह तथा संपूर्ण सूक्ष्म एवं स्थूल प्रपंच परिपूर्ण सामरस्यात्मक संविद्रूपता में ही चमकता रहता है। इस पूर्ण अभेद की दशा में सभी कुछ परमशिव के ही रूप में परमशिव में ही निर्विभागतया चमकता है। इस अवस्था में विश्व रचना के प्रति किसी भी प्रकार की सूक्ष्मातिसूक्ष्म उन्मुखता भी उभरी नहीं होती है, केवल परिपूर्ण चिन्मात्र प्रकाशरूपता शुद्ध विमर्शात्मकतया असीम और अनवच्छिन्न ‘अहं’ के रूप में चमकती रहती है। (शि.दृ.वृ., पृ.7)। हाँ, समस्त सृष्टि-संहार-लीला का बीज उसी में अनभिव्यक्तता से विद्यमान रहता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परावाच् (वाणी) शुद्ध तथा परिपूर्ण अहमात्मक परामर्शरूपिणी, असीम, शुद्ध तथा सूक्ष्मतर वाणी। अपनी परिपूर्ण शुद्ध संविद्रूपता का निर्विभागतया सतत प्रत्यवमर्श। जिस वाणी में पश्यंती, मध्यमा तथा वैखरी नामक तीनों वाणियाँ सामरस्य रूप में स्थित रहती हैं तथा जिसमें से अपने भिन्न भिन्न रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। इस प्रकार यह तीनों वाणियों की पूर्ण सामरस्य की दशा है तथा शिव शक्ति के संघट्ट रूप परासंवित् में ही चमकती रहती हैं। (तं.आ.वि. 2 पृ. 225)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पराशक्ति देखिए परादेवी।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पराहंभाव परामर्श देखिए अहम् परामर्श।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परिकर्म विक्षिप्त चित्त को समाहित करने के लिए चित्त-प्रसन्नता-कारक मैत्री आदि जिन चार आचरणों का उल्लेख योगसूत्र 1/33 में किया गया है, वे परिकर्म कहलाते हैं। परिकर्म का अर्थ है – ‘एकाग्रता-हेतुक चित्तसंस्कार’ अथवा ‘ऐसे संस्कार का निष्पादक आचरण’। प्रसन्नचित्त ही समाहित हो सकता है (प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते – गीता. 2/65)। इस दृष्टि से ये परिकर्म उपदिष्ट हुए हैं। समाधिसाधन की दृष्टि से परिकर्म बाह्य साधन है। परिकर्म से सात्विक शुद्धि होती है – शुक्ल धर्म की वृद्धि होती है और चित्त क्रमशः समाधि के मार्ग में प्रवृत्त होता रहता है। बौद्ध शास्त्र में इस आचरण को ‘ब्रह्मविहार’ कहा गया है। किसी प्राचीन सांख्याचार्य के एक वचन में (4/90 व्यासभाष्य में उद्धृत) मैत्री आदि के लिए ‘विहार’ शब्द प्रयुक्त हुआ है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परिणाम जब किसी धर्मी (द्रव्य) में वर्तमान धर्म का नाश होकर अन्य धर्म उदित होता है, तब यह परिवर्तन ‘परिणाम’ कहलाता है। जिसका यह परिणाम होता है, वह परिणाम-भेद के कारण भिन्न नहीं होता – वह अवस्थित ही रह जाता है। सुवर्णरूप धर्मी के पिण्डाकार रूप धर्म के स्थान पर जब कुण्डल-रूप अन्य अवस्था उत्पन्न होती है, तब ‘सुवर्ण का परिणाम हुआ’ यह कहा जाता है। परिणाम का स्पष्ट लक्षण 3/13 व्यासभाष्य में इस प्रकार दिया गया है – अवस्थित (अपेक्षाकृत स्थिर) द्रव्य के पूर्व धर्म की निवृत्ति होने पर जो अन्य धर्म का आविर्भाव (उदय) होता है, वह परिणाम है। वास्तविक दृष्टि से परिणाम का अर्थ धर्मपरिणाम ही है। लक्षण -परिणाम और अवस्था -परिणाम नामक जो अन्य दो परिणाम योगशास्त्र में बताए गए हैं, वे धर्मपरिणाम पर आश्रित हैं। तीनों परिणामों को इस प्रकार समझा जा सकता है – सुवर्ण-रूप धर्मी का जो वलय, कुण्डल आदि परिणाम होता है, वह धर्मपरिणाम का उदाहरण है। सुवर्णपिण्ड में वलयरूप धर्म अनागत रूप में रहता है; वह (स्वर्णकार के द्वारा) वलयरूप धर्म में वर्तमान (उदित) होता है और बाद में वलय नष्ट हो जाता है। यह जो वलय का अनागत-उदित-अतीत हो जाना रूप व्यापार है, यह लक्षण नामक परिणाम है। वर्तमान धर्म की नूतनता और पुरातनता अवस्था-परिणाम हैं। किसी वस्तु का हृस्व-दीर्घादि-रूप होना भी अवस्था-परिणाम है। त्रैगुणिक वस्तु का इस प्रकार परिणत होते रहना उसका स्वभाव है; कोई भी व्यक्ति किसी भी उपाय से किसी भी त्रैगुणिक वस्तु को परिणामहीन नहीं कर सकता। जो परिणाम अनागत (भविष्य) है, वह उपयोगी क्रिया द्वारा उदित (वर्तमान) अवश्य होगा और उदित वस्तु नूतन होने पर भी बाद में पुरातन होगी या उदित पदार्थ बलशाली होने पर भी बाद में उसके बल में परिवर्तन होगा। उदित (वर्तमान) वस्तु बाद में अवश्य नष्ट होगी। कूटस्थनित्य पुरुष में परिणाम नहीं है, पर गुणत्रयरूपा प्रकृति परिणामशीला है। प्रकृति चूंकि नित्य है, अतः वह ‘परिणामिनी-नित्या’ है। प्रकृति से बुद्धि (महत्) रूप परिणाम जब नहीं होता तब भी उसमें परिणाम होता है (त्रिगुण के चलस्वभाव के कारण)। यह परिणाम ‘सदृश परिणाम’ कहलाता है। महत् आदि परिणाम ‘विसदृश परिणाम’ कहलाते हैं, क्योंकि इनमें तीन गुण असमान परिमाण में रहते हैं। क्रम के अनुसार परिणाम में भेद होता है, जैसे मिट्टी के पिण्डत्व धर्म का क्रम है घटत्वधर्म (योगसूत्र 3/15)। ऐसा क्रम लक्षण और अवस्थापरिणाम में भी होता है। यौगिक दृष्टि से क्रम क्षणिक है; क्षणावच्छिन्न परिवर्तन ही सूक्ष्मतम क्रम है। ये परिणाम जिस प्रकार भौतिक-भूत-तन्मात्र में हैं, उसी प्रकार इन्द्रिय में भी हैं। उदाहरणार्थ चक्षुरूप धर्मी इन्द्रिय का नील-श्वेत-पीत आदि विषय में जो आलोचन होता है, वह धर्मपरिणाम है; आलोचन रूप धर्म का अनागत-उदित-अतीत होना लक्षणपरिणाम है; और आलोचन का स्फुट-अस्फुट होना अवस्थापरिणाम है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परिणामदुःखता सभी प्राकृत पदार्थ दुःखप्रद हैं – इसको प्रमाणित करने के लिए योगसूत्र (2/15) में परिणामदुःख-रूप युक्ति सर्वप्रथम दी गई है। परिणाम-हेतुक दुःख = परिणामदुःख। इस युक्ति का तात्पर्य यह है कि जो वर्तमान में सुखकर प्रतीत हो रहा है, वह भी बाद में दुःखकारक अवश्य होगा। व्याख्याकारों का कहना है कि विषयसुख के अनुभवकाल में जो राग नामक क्लेश उत्पन्न होता है उससे बाद में संकल्प होता है जिससे पुनः धर्म-अधर्म रूप कर्म किए जाते हैं। इस कर्म से जो कर्माशय होता है, वह प्राणी को जाति (जन्म = देहग्रहण), आयु और भोग देता है। जब तक देहधारण है तब तक दुःखभोग भी है। विषयभोगकाल में सुखविरोधी दुःख के साधनों के प्रति द्वेष भी होता है और इन साधनों को पूर्णरूप से न छोड़ सकने के कारण प्राणी सुह्यमान भी होता रहता है। इस प्रकार रागकृत कर्माशय के साथ-साथ द्वेष-मोहकृत कर्माशय भी होते रहते हैं। चूंकि सुख स्वयं भविष्यत् दुःख का साधन हो जाता है। अतः सुखेच्छु प्राणी अनिवार्यतः दुःख को भी प्राप्त कहता है – यह परिणामदुःखयुक्ति का सार है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परितापविपाक कर्माशय के तीन विपाक होते हैं (जाति, आयु और भोग)। यदि इनके मूल में अपुण्य (= पाप) अधिक मात्रा में हो तो उनसे परिताप अर्थात् दुःख की प्राप्ति ही अधिक होती है (योगसू. 2/14)। विपाक के अन्तर्गत जो भोग है, वह सुख-दुःख बोध है, अतः भोग परिताप-रूप फल को उत्पन्न करता है – ऐसा कहना सहसा असंगत प्रतीत हो सकता है। उत्तर यह है कि विपाक के अन्तर्गत भोग का तात्पर्य शब्दादिरूप चित्तवृत्ति यदि अपुण्यहेतुक हो तो वह परितापप्रद होगी – यह सूत्रकार का तात्पर्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परिदृष्टधर्म चित्तरूप धर्मी द्रव्य के जितने धर्म हैं, वे द्विविध हैं – परिदृष्ट एव अपरिदृष्ट। परिदृष्ट धर्म उसको कहते हैं जो प्रत्ययात्मक हो अर्थात् उपलब्ध हो – प्रत्यक्ष हो – ज्ञातस्वरूप हो। प्रमाणादिवृत्तियाँ सदैव ज्ञात होकर ही उदित होती हैं, अतः वे परिदृष्ट धर्मों में आती हैं। ये परिदृष्ट धर्म द्रव्यरूप हैं, चूंकि ये वृत्तिरूप हैं (वृत्तियाँ द्रव्यरूपा ही मानी जाती हैं)। प्रवृत्ति चूंकि ज्ञातरूपा होती हैं, अतः प्रवृत्ति भी परिदृष्टधर्म में आ सकती हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परिपूर्ण जो सर्वथा, सर्वतः और सर्वदा शुद्ध एवं असीम बना रहता हुआ प्रत्येक प्रकार के स्थूल तथा सूक्ष्म भावों, अवस्थाओं एवं पदार्थों से पूरी तरह से भरा रहता है। जिसमें किसी भी प्रकार का देशकृत एवं आकारकृत कोई भी संकोच नहीं होता है। काश्मीर शैव दर्शन के अनुसार संपूर्ण बाह्य जगत् संविद्रूप परमशिव में संविद्रूप में ही सदैव स्थित रहता है। जो कुछ भी आभासित होता है, वह उसी संविद्रूपता का ही बाह्य प्रतिबिंब होता है; उससे भिन्न कुछ भी नहीं हो सकता है। अतः विश्वात्मक एवं विश्वोत्तीर्ण दोनों ही रूपों का एकघन स्वरूप अनुत्तर परमशिव ही परिपूर्ण होता है। (म.म.पटलपृ. 37-38)। समस्त विश्व उसमें है अतः वह विश्व से पूर्ण है। फिर समस्त विश्व को वही सत्ता प्रदान करता हुआ विश्व का पूरक भी है। दोनों ही प्रकार की दृष्टियों को लेकर के उसे पूर्ण कहा गया है। परिउपसर्ग उस पूर्णता के सर्वतोमुखी विस्तार का द्योतक है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परिमाण किसी वस्तु का परिमाण कितना है – इस प्रकार का कोई विचार सांख्ययोग के प्रचलित ग्रन्थों में नहीं मिलता। सांख्यसूत्र में परिमाण-सम्बन्धी उस मत का खण्डन मिलता है जिसमें कहा गया है कि परिमाण चार प्रकार के हैं – अणु, महत्, हृस्व और दीर्घ। सूत्रकार का कहना है कि अणु और महत् परिमाण – ये दो ही भेद स्वीकार्य हैं, क्योंकि हृस्व-दीर्घ परिमाणों का अन्तर्भाव महत्-परिमाण में ही हो जाता है (5/90)। सांख्यकारिका (15) में ‘परिमाण’ का प्रसंग अव्यक्त की सत्ता सिद्ध करने के समय किया गया है। महत् आदि कार्यवस्तु परिमित परिमाण वाले अर्थात् अव्यापी होते हैं। सांख्य सभी व्यक्त पदार्थों को अव्यापी मानता है, अतः कोई भी व्यक्त पदार्थ सर्वव्यापी अर्थात् विभुपरिमाण नहीं है। यह सांख्यीय दृष्टि से कहना होगा।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

परिस्पंद देखिए स्पंद।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परुष ईश्‍वर का एक नामांतर।

पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्‍वर अपनी स्वतंत्र इच्छाशक्‍ति के अनुसार विविध जीवों व शरीरों की उत्पत्‍ति कर सकता है। अतः पौरूष संपन्‍न होने के कारण पुरुष कहलाता है। (ग.का.टी.पृ.11)। लोक व्यवहार में पुरुष में सृष्‍टि करने की शक्‍ति होती है। इसी समय से परमेश्‍वर को भी पुरुष कहते हैं। वस्तुत: वही एकमात्र परमपुरुष है क्योंकि मूल सृष्‍टि का एकमात्र कारण वही है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

परोक्ष दीक्षा शिष्य सामने न हो, देशांतर में हो, परलोक में हो, या अगला जन्म ले चुका हो तो उसे जो दीक्षा दी जाती है उसे परोक्ष दीक्षा कहते हैं। जालप्रयोग दीक्षा (देखिए) की तरह यही परोक्ष दीक्षा की जाती है। केवल जीव का आकर्षण और दर्भमयी प्रतिमा में प्रवेशन इस दीक्षा में नहीं किया जाता है। (तं.सा.पृ. 166)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


परोक्षवाद अन्य को लक्ष्य कर अन्य का कथन परोक्षवाद है। अर्थात् किसी के संबंध में प्रत्यक्षतः कुछ न कर दूसरे व्याज से कुछ कहना परोक्षवाद है। जैसे, श्वेतकेतूपाख्यान में जीव को पुरुषोत्तम का अधिष्ठान बताने के उद्देश्य से ही जीव का अक्षर ब्रह्म से अभेद प्रतिपादित किया गया है, न कि जीव अक्षर ब्रह्म से वस्तुतः अभिन्न है। अक्षर ब्रह्म पुरुषोत्तम का अधिष्ठान है, यह पुष्टि मार्ग का सिद्धांत है। ऐसी स्थिति में जीव और अक्षर ब्रह्म को अभिन्न बताने में श्रुति का उद्देश्य यही है कि अक्षर ब्रह्म के समान ही जीव भी पुरुषोत्तम के अधिष्ठान के रूप में बोधित हो। ऐसा नहीं है कि जीव वस्तुतः अक्षर ब्रह्म से अभिन्न है। यही परोक्षवाद है (अ.भा.पृ. 1032)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पर्यायसप्तक

  शक्तिसंगम तन्त्र में पर्याय के नाम से तन्त्रों का विभाग किया गया हैं-  देश, काल, आम्नाय, विद्या, दर्शन, आयतन और आगम के भेद से पर्याय सात प्रकार के होते हैं। किस देश में कौन सा आचार, क्रम, मार्ग या तन्त्र प्रचलित हैं, सका ज्ञान देश पर्याय से होता है। किस काल में कौन सी विद्या कैसे प्रचलित हुई? उसका स्वरूप क्या है? इन सबका ज्ञान काल पर्याय से होता है। किस आम्नाय में कैसा आचार है? उसका स्वरूप क्या है और उसकी विशेषता क्या है? इन प्रश्नों का समाधान आम्नाय पर्याय में वर्णित है। किस विद्या की उपासना किस आचार से की जाती है? कलियुग में उसका क्या स्वरूप है? उसका फल क्या है? इन सब विषयों का निर्णय विद्या पर्याय में किया गया है। किस दर्शन का क्या आचार है? इसके प्रतिपादक तन्त्र कौन-कौन से हैं? इस बात का निरूपण दर्शन पर्याय में किया गया है। किस आयतन की उत्पत्ति कैसे हुई? किस में कितने तन्त्र हैं? इसका आचार क्या है, इन बातों का निर्णय आयतन पर्याय में किया गया है। किस आगम की उत्पत्ति कैसे हुई? इनका आचार क्या है? मुख्य और अंग मन्त्र कौन-कौन से हैं? इनकी परंपरा कैसी है? इनमें तन्त्र कितने हैं? और इनसे सिद्धि कैसे मिलती है? इन सब विषयों का निरूपण आगम पर्याय में किया गया है।
  इस प्रकरण की समाप्ति (4/7/157-160) में देश पर्याय का पूर्वाम्नाय में, काल पर्याय का दक्षिणाम्नाय में, आगम पर्याय का पश्चिमाम्नाय में, दर्शन पर्याय का उत्तराम्नाय में, आयतन पर्याय का पातालाम्नाय में और विद्या पर्याय का ऊर्ध्वाम्नाय में समावेश किया गया है। इसको वहाँ पर्यायाम्नाय भी कहा गया है। इस तरह से उक्त छः पर्यायों में भी आम्नाय पर्याय की अनिवार्य उपस्थिति रहती है, अतः आम्नाय ही इन सब में प्रधान है। तथापि दर्शन और आगम पर्याय का भी अपना निजी स्वरूप सुरक्षित है। इसी तरह से देश और काल के भेद से ही तन्त्रों का भेद होता ही है। दश महाविद्या तथा अन्य विद्याओं के प्रतिपादक स्वतन्त्र तन्त्र ग्रन्थ उपल्बध होते ही हैं। इसलिये उक्त सभी पर्यायों की स्वतन्त्र स्थिति तन्त्रशास्त्र में मान्य हैं और इसका इतना विस्तार से वर्णन किया गया है। इससे तान्त्रिक वाङ्मय की विशालता का भी परिचय मिलता है।

1. देशपर्याय

  शक्तिसंगम तन्त्र (4/2/15-33) में कादि और हादि के भेद से 56-56 देशों के नाम गिनाये गये हैं और इनकी सीमा का निर्धारण भी वहीं (3/7/15-72) किया गया है। इन सभी देशों को पुनः पाक्, प्रत्यक्, दक्षिण और उदक् तथा केरल, काश्मीर, गौड और विलास के नाम से चार भागों में बाँटा गया है। अंग से मालव पर्यन्त केरल, मरुदेश से नेपाल तक काश्मीर, सिलहट्ट से सिन्धु पर्यन्त गौड सम्प्रदाय फैला हुआ है। विलास सम्प्रदाय पूरे देश में व्याप्त है। चीन देश में 100 तंत्र और 7 उपतन्त्र, द्रविड देश में 20 तंत्र और 25 उपतन्त्र, केरल में 60 तन्त्र और 50 उपतन्त्र, काश्मीर  में 100 तन्त्र और 10 उपतन्त्र, गौड देश में 72 तन्त्र और 16 उपतन्त्रों की स्थिति है। इनके अतिरिक्त ऊर्ध्व दिशा और पाताल में भी सकल और निष्कल के क्रम के अनुसार शाक्त और शैव तन्त्रों की स्थिति बताई गई है। इन सबका विवरण वहीं (4/5/40-73) देखना चाहिये।

2. कालपर्याय इसका विस्तृत विवरण शक्तिसंगम तन्त्र के चतुर्थ खण्ड के 5-6 पटलों में किया गया है। कादि और हादि उभय मतों में इसका एक ही रूप समान रूप से मान्य है। यहाँ प्रधानतः दस महाविद्या, गणेश, वटुक, प्रभृति दस अवतारों की जयन्तियों का वर्णन करने के बाद बताया गया है कि उचित समय पर ही इन विद्याओं तथा देवताओं की आराधना करनी चाहिये। इसके लिये शकुनविचार भी आवश्यक है। कालपर्याय स्थित तन्त्रों की गणना वहाँ इस प्रकार की गई है –

  शाक्त कालपर्याय में 64 तन्त्र, 326 उपतन्त्र, 300 संहिता, 100 चूडामणि, 9 अर्णव, 4 डामर, 8 यामल, 2 सूक्त, 6 पुराण, 1 उपवेद, 3 कक्षपुटी, 2 विमर्षिणी, 8 कल्प, 2 कल्पलता, 3 चिन्तामणि ग्रन्थों का समावेश है।
  शैव कालपर्याय में 33 तन्त्र, 325 उपतन्त्र, 3 संहिता, 1 अर्णव, 2 यामल, 3 डामर, 1 उड्डालक, 2 उड्डीश, 8 कल्प, 8 संहिता, 2 चूडामणि, 2 विमर्षिणी, 1 अवतार, 5 बोध, 5 सूक्त, 2 चिन्तामणि, 9 पुराण, 3 उपपुराण, 2 कक्षपुटी, 3 कल्पद्रुम, 2 कामधेनु, 3 सद्भाव, 5 तत्त्व और 2 क्रम तन्त्र समाविष्ट हैं।
  वैष्णव कालपर्याय में 75 तन्त्र, 205 उपतन्त्र, 20 कल्प, 8 संहिता, 1 अर्णव, 5 कक्षपुटी, 8 चूडामणि, 2 चिन्तामणि, 2 उड्डालक, 2 उड्डीश, 2 डामर, 1 यामल, 5 पुराण, 3 तत्त्व, 3 बोध, 3 विमर्षिणी तथा एक-एक संख्या के अमृत, तर्पण, कामधेनु और कल्पद्रुम ग्रन्थों की गणना होती है।
  सौर कालपर्याय में 30 तन्त्र, 114 उपतन्त्र, 4 संहिता, 2 उपसंहिता, 5 पुराण, 10 कल्प, 2 कक्षपुटी, 3 तत्त्व, 5 विमर्षिणी, 5 चूडामणि, 2 चिन्तामणि, 1 डामर, 1 यामल, 5 उड्डालक, 2 अवतार, 2 उड्डीश, 3 अर्णव तथा एक-एक संख्या के दर्पण और अमृत ग्रन्थों का  का समावेश है।
  गाणपत्य कालपर्याय में 50 तन्त्र, 25 उपतन्त्र, 2 पुराण, 2 अमृत, 3 सागर, 3 दर्पण, 9 कल्प, 3 कक्षपुटी, 3 विमर्षिणी, 2 तत्त्व, 2 उड्डालक, 2 उड्डीश, 3 चूडामणि, 3 चिन्तामणि, 1 डामर, 1 यामल और और 8 पंचरात्र ग्रन्थ समाविष्ट हैं।

3. आम्नायपर्याय

   वहीं सप्तम पटल में इस पर्याय का वर्णन किया गया है। साथ ही प्रत्येक आम्नाय के देवताओं का भी निरूपण मिलता है। आम्नाय पर्याय के तन्त्रों की गणना वहाँ इस प्रकार बताई गई है – पूर्वाम्नाय में 64 तन्त्र और 670 उपतन्त्र हैं। दक्षिणाम्नाय में 400 तन्त्र और 375 उपतन्त्र हैं। कालपर्याय के ही समान यहाँ यामल प्रभृति ग्रन्थ भी होते हैं। पश्चिमाम्नाय में 96 तन्त्र और इतने ही उपतन्त्र होने हैं। उत्तराम्नाय में 925 तन्त्र तथा 364 उपतन्त्र होते हैं। ऊर्ध्वाम्नाय में 64 तन्त्र और 85 उपतन्त्र तथा पातालाम्नाय में 105 तन्त्र और 2100 उपतन्त्र हैं। आम्नाय विभाग को दीक्षाम्नाय भी कहा जाता है। इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड (1/4/67-69) में पाँच आम्नायों का विवरण मिलता है। वहाँ बताया गया है कि केरल सम्प्रदाय का ऊर्ध्वाम्नाय में, काश्मीर का पश्चिमाम्नाय में, विलास और वैष्णव का दक्षिणाम्नाय में, चैतन्य का पूर्वाम्नाय में और गौड सम्प्रदाय का उत्तराम्नाय में समावेश किया जाता है।

4. विद्यापर्याय विद्यापर्याय का वर्णन यहाँ (4/7/38-47) समयाम्नाय के नाम से किया गया है। समयाम्नाय को भी यहाँ पुनः षडाम्नाय में विभक्त कर और उनके देवता आदि का वर्णन करते हुए बाद में उनके तन्त्रों और उपतन्त्रों की संख्या बातई गई है, जो कि इस प्रकार है – पूर्वाम्नाय में 10 तन्त्र और 5 उपतन्त्र, दक्षिणाम्नाय में 8 तन्त्र और 9 उपतन्त्र, पश्चिमाम्नाय में 20 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, उत्तराम्नाय में 100 तन्त्र और 9 उपतन्त्र, ऊर्ध्वाम्नाय में 20 तन्त्र और 3 उपतन्त्र, पातालाम्नाय में 9 तन्त्र और 2 उपतन्त्र होते हैं। 5. दर्शनपर्याय दर्शनपर्याय के विवरण में यहाँ (4/7/48-58) बताया गया है कि 100 तन्त्र और 8 उपतन्त्रों से युक्त शाक्त दर्शन पूर्वाम्नाय में, 50 तन्त्र और 5 उपतन्त्रों से युक्त शैव दर्शन दक्षिणाम्नाय में, दक्षिणाचार के प्रतिपादक 36 तन्त्र और 36 ही उपतन्त्रों से अलंकृत वैष्णव दर्शन पश्चिमाम्नाय में, 70 तन्त्र और 3 उपतन्त्रों से मंडित गाणप दर्शन उत्तराम्नाय में, 12 तन्त्र और 10 उपतन्त्रों से संयुक्त सौर दर्शन ऊर्ध्वाम्नाय में तथा 100 तन्त्र और 63 उपतन्त्रों से राजित बौद्ध दर्शन पातालाम्नाय में प्रतिष्ठित है। उक्त विभाग हादिमत के अनुसार है। कादिमत के अनुसार शैव दर्शन पूर्व में, वैष्णव दक्षिण में, गाणप पश्चिम में, सौर उत्तर में और शाक्त दर्शन ऊर्ध्वाम्नाय में प्रतिष्ठित है। यहाँ षडाम्नाय के आधार पर षड्दर्शनों का प्रतिपादन किया गया है। इसी ग्रन्थ के प्रथम खण्ड (3/85-88) में तारा, त्रिपुरा और छिन्नमस्ता के भेद से षड्दर्शनों की गणना की गई है। तदनुसार शाक्त, शैव, गाणपत, सौर, वैष्णव और बौद्ध ये तारा के षड्दर्शन हैं। वैदिक, सौर, शाक्त, शैव, गाणपत्य और बौद्ध ये त्रिपुरा के षड्दर्शन हैं। यहाँ वौष्णव के स्थान पर वैदिक दर्शन का समावेश किया गया है। छिन्ना षड्दर्शन में चान्द्र, स्वायम्भुव, जैन, चीन और नील इन पाँच दर्शनों की ही गणना मिलती है। बौद्ध दर्शन को मिलाकर यह संख्या पूरी की जा सकती है। 6. आयतनपर्याय आयतनपर्याय का विवरण यहाँ नहीं मिलता है। केवल पंचायतन का उल्लेख (4/7/53) मिलता है। पाँच उपास्य देवताओं के आयतनों (मन्दिरों) का एक स्थान पर समाहार पंचायतन के नाम से प्रसिद्ध है। स्मार्त धर्म में शक्ति, शिव, विष्णु, सूर्य और गणेश में से किसी एक इष्ट देवता को मुख्य मानकर उसके मन्दिर के मध्य में तथा उसके चारों कोनों पर चार अन्य देवताओं के आयतनों की स्थापना विहित है। कृष्णानन्द के तन्त्रसार में भी इनका विवरण मिलता है। आयतन पर्याय में इन्हीं की उपासना के प्रतिपादक शास्त्रों की गणना होनी चाहिये। प्रपंचसार और शारदातिलक ऐसे ही ग्रन्थ हैं। अथवा कादिमत के अनुसार प्रदर्शित दर्शन पर्याय में पाँच ही दर्शन वर्णित हैं। उनका भी पंचायतन विभाग में समावेश किया जा सकता है। इस प्रकारण (4/7/59-156, 161-165) में दिव्याम्नाय, विद्याम्नाय, सिद्धाम्नाय, रत्नाम्नाय (महाम्न्या) मण्डलाम्नाय, रसातलाम्नाय, पंचकृत्याम्नाय, कालिकाम्नाय, बटुकाम्नाय का ही विस्तार से वर्णन किया गया है। दिव्याम्नाय की दो प्रकार की व्याख्या की गई है। वस्तुतः इनका संबंध आम्नाय पर्याय से है। पंचकृत्याम्नाय का वर्णन कुलार्णव तन्त्र (3/41-45) में भी मिलता है। इसका संबंध शंकराचार्य द्वारा प्रतिष्ठापित पाँच मठों से भी है, ऐसा यहीं (4/8/75-92) बताया गया है। 7. आगमपर्याय आयतन पर्याय में प्रदर्शित रत्नाम्नाय (महाम्नाय) का ही यहाँ 4/7/93-94) आगम पर्याय नामक अन्तिम विभाग के रूप में वर्णन है। तदनुसार चीनागम में अक्षोभ्यतन्त्र के साथ 7 तन्त्र, बौद्धागम में 21 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, जैनागम में 16 तन्त्र ओर 8 उपतन्त्र, पाशुपतागम में 9 तन्त्र और 6 उपतन्त्र, कापालिकागम में 1 तन्त्र और 4 उपतन्त्र, पाषण्डागम में 3 तन्त्र और 5 उपतन्त्र, पांचरात्रागम में 10 तन्त्र और 7 उपतन्त्र, अघोरागम में 10 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, मंजुघोषागम में 20 तन्त्र और 30 उपतन्त्र, भैरवागम में 100 तन्त्र और 70 उपतन्त्र, बटुकागम में 200 तन्त्र और 80 उपतन्त्र, संजीवन्यागम में 3 तन्त्र और 7 उपतन्त्र, सिद्धेश्वरागम में 10 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, नीलवीरागम में 17 तन्त्र, मन्त्रसिद्धयागम में 18 तन्त्र, मृत्युंजयागम में 20 तन्त्र और 12 उपतन्त्र, मायाविहारागम में 3 तन्त्र और 5 उपतन्त्र, विश्वरूपागम में 9 तन्त्र और 7 उपतन्त्र, योगरूपागम में 50 तन्त्र और 10 उपतन्त्र, विरूपागम में 7 तन्त्र और 8 उपतन्त्र, यक्षिप्यागम में 5 तन्त्र और 70 उपतन्त्र, निग्रहागम में 10 तन्त्र और 200 उपतन्त्र विराजमान हैं। ”

दर्शन : शाक्त दर्शन

पशु जीव।

पाशुपत दर्शन के अनुसार समस्त चेतन जीव, सिद्‍धों व जीवन्मुक्‍तों को छोड़कर, पशु कहलाते हैं। क्योंकि सामान्यतया ये जीव ऐश्‍वर्यविहीन होते हैं और ऐश्‍वर्यविहीनता ही बंधन होता है। अतः ऐश्‍वर्य और स्वातंत्र्य का अभाव जीव को भिन्‍न-भिन्‍न पाशों के बंधन में बांध देता है और पाशो के बंधनों में बंध जाने के कारण ही जीव पशु कहलाता है। सांख्य दर्शन के तेईस तत्व ही पाशुपत दर्शन में पाश कहलाते हैं। ये पाश कलाएं भी कहलाती हैं। इन कलाओं के बंधन में बंध जाने के कारण जीव परवश हो जाता है, वह स्वतंत्र नहीं रहता है। अस्‍वातंत्र्य ही जीव के बंधन का मुख्य रूप बनकर उसे पशु बना देता है। (पाशुनात् पशव: – पा. सू. कौ. भा. पृ. 5)।
कौडिन्य भाष्य में पशु को तीन प्रकार का बताया गया है- देव, मनुष्य और तिर्यक्। देव ब्राह्म आदि आठ प्रकार के कहे गए हैं। मनुष्य ब्राह्मण आदि विविध तरह के तथा तिर्यक् मृगादि पाँच प्रकार के कहे गए हैं। इन सभी तरह के, पशुओं में कुछ साञ्‍जन (शरीर व इन्द्रिय सहित) तथा कुछ निरञ्‍जन (शरीर व इन्द्रियरहित) होते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ 147)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पशु माया और कंचुकों से मलिन बना हुआ, क्लेश, कर्म, विपाक और आशय से घिरा हुआ तथा समस्त प्रपंच को भेद दृष्टि से देखने वाला प्रमाता। वस्तुतः अपने ही स्वातंत्र्य से अपने आनंद के लिए अपनी मायाशक्ति तथा उसी से विकसित कला विद्या आदि पाँच आवरक तत्त्वों से घिरा हुआ शुद्ध संवित् स्वरूप परम शिव ही पशु कहलाता है। इस भूमिका पर उतरकर उसकी समस्त ऐश्वर्यशालिनी शक्तियाँ संकोच को प्राप्त कर जाती हैं। इस प्रकार की संकुचित संवित् जब पुर्यष्टक रूप सूक्ष्मतर देह में प्रविष्ट हो जाती है तो उसे ही पशु कहा जाता है। (तं.सा.पृ. 82-3)। इस स्थिति में पहुँचने पर वह कर्मानुसार फल भोग से कलुषित होता रहता है। (ई.प्र. 3-2-3)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पशुत्व मल का एक प्रकार।

पाशुपत दर्शन के अनुसार पशुत्व, जो पुरुष का गुण है तथा धर्म-अधर्म दोनों से व्यतिरिक्‍त है, पंचम प्रकार का मल है। पुरुष की ज्ञानशक्‍ति व क्रियाशक्‍ति में जो संकोचरूपी बंधन पड़ता है, वही पशुत्व होता है, जिससे पुरुष बंधन में पड़ा रहता है। असर्वज्ञत्व, अपतित्व आदि पशुत्व के भेद भी गिने गए हैं। इस तरह का ऐश्‍वर्यहीनता रूप बंधन ही पशुत्व है और वही संसार तथा जन्ममरण का अनादि कारण है। (ग.का.टी.पु.23)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पशुत्वहानि विशुद्‍धि का भेद।

पाशुपत साधना का अभ्यास करते-करते युक्‍त साधक के पशुत्व का पूर्णरूपेण उच्छेद हो जाता है। उसका पशुत्व रूपी बंधन कट जाता है, तथा वह पशुत्वहानि रूप विशुद्‍धि को प्राप्‍त कर लेता है, जिसकी प्राप्‍ति से साधक साधना के पथ पर आगे बढ़ते हुए उत्कृष्‍ट स्तर की विशुद्‍धि को प्राप्‍त करने के प्रति अग्रसर हो जाता है। (ग.का.टी.पृ.7)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पशुपति भगवान महेश्‍वर का नामांतर।

पशुओं अर्थात् समस्त जीवात्माओं के ईश्‍वर, स्वामी व पालक को पाशुपत दर्शन में पशुपति (पशुओं का पति) नाम से अभिहित किया गया है। (पा.सू.कौ.भा. पृ. 5)।
पति ही पशुओं के लिए जगत की सृष्‍टि करता है। उस सृष्‍टि मे वे कर्मफल भोग को भी प्राप्‍त करते हैं और पाशुपत योग का अभ्यास भी करते हैं। इस तरह से उनका हित करता हुआ परमेश्‍वर उनका पालक या पति है।
केवल उसी पशु की योग में प्रवृत्ति हो जाती है जिस पर शिव अनुग्रह करते हैं। इस तरह से अनुग्रह द्वारा जीवों को योग में प्रवृत्त करने वाला और उसके फलस्वरूप उन्हें संसृति के कष्टों से बचाने वाला शिव उन पशुओं का पति कहलाता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पशुमातरः पशुओं को अर्थात् बद्ध जीवों को विविध प्रकार की प्रेरणा देने वाली परमेश्वर की शक्तियाँ। ये शक्तियाँ पशु प्रमाता को अर्थात् जीव को अपने शुद्ध स्वरूप के प्रति अभिमुख करने वाली, उसमें सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति उत्पन्न करने वाली तथा उसका अधःपतन करने वाली क्रमशः अघोर, घोर तथा घोरतरी शक्तियों के तीन वर्गों में विभक्त हैं। शक्तियों के ये तीन वर्ग ही एक-एक जीव के साथ ब्राह्मी, माहेश्वरी आदि आठ मातृकाओं के रूप में लगकर उसके समस्त व्यवहारों में उसे चलाती रहती हैं। परमेश्वर की ज्येष्ठा, रौद्री और वामा नामक शक्तियों के अधीन रहकर ये ‘पशुमातरः’ काम करती रहती हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पश्यंती वाच् / वाणी परावाच् (देखिए) ही अपने परिपूर्ण स्वातंत्र्य से बाह्यरूपतया अभिव्यक्त होने की अतिसूक्ष्म इच्छा से प्रेरित होकर जिस भेदाभेदात्मक रूप में प्रकट होती है उसे पश्यंती वाच् कहते हैं। इस वाणी में अभी तक वाच्य और वाचक के पार्थक्य के स्फुट उदय के न होने से उनके भेद की भी अभिव्यक्ति स्पष्टतया नहीं हुई होती है। इसमें संविद्रूप परावाक् ही प्रधानतया शुद्धाशुद्ध प्रमातृ रूप में प्रकट होती है। (तं.आ.वि.2 पृ. 225)। परंतु इस वाणी में समस्त वाच्यों और वाचकों का क्रमरहित आभास होता है। यह परा में और इसमें भेद है। आगे मध्यमा में समस्त भेद का क्रमरूपतया स्फुट आभास बुद्धि के क्षेत्र में हो जाता है, जो पश्यंती में नहीं होता। अतः पश्यंती को अविभागा और संहृतक्रमा कहा गया है। इस वाणी की स्पष्ट अभिव्यक्ति मुख्यतया सदाशिव दशा में हुआ करती है। (स्व.वृ., पृ. 149)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पश्यन्ती व्यंजक के प्रयत्न से संस्कृत मूलाधार स्थित पवन जब नाभि तक चला जाता है, तो उस पवन से पश्यत्नी वाक् अभिव्यक्त होती है। यह विमर्शात्मक मन से जुड़ी रहती है और इसमें कार्य बिन्दु का सामान्य स्पन्दन प्रकाशित हो उठता है। पश्यन्ती को नाद की अनाहतहत अवस्था माना जाता है। अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति के सहारे परा वाक् अनेक रूप धारण करने को जब उद्यत होती है, तो पहले वर्णाम्बिका का पश्यन्ती रूप अभिव्यक्त होता है। कामकलाविलासकार पुण्यानन्द (23-24 श्लो.) ने पश्यन्ती के ग्यारह अवयव माने हैं। प्रकाशात्मक अकार की वामा, ज्येष्ठा, रौद्री और अम्बिका नामक चार कलाएँ तथा समष्टि रूप अकार मिलकर उसके पाँच अवयव होते हैं। इसी तरह विमर्शात्मक हकार की इच्छा, ज्ञान, क्रिया और शान्ता नामक चार कलाएँ तथा समष्टि रूप हकार मिलकर भी पाँच अवयव होते हैं। अकार और हकार की सामरस्यावस्था पश्यन्ती का ग्यारहवाँ रूप बनती हैं। योगिनी हृदय (1/37-38) में इसको वामा शक्ति कहा गया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पात भक्ति मार्ग में भगवद्भाव से च्युत हो जाना पात है। भगवद् भाव से च्युति के कारण ही इन्द्रत्व आदि के प्राप्ति रूप आधिकारिक फल को भी पतन कहा गया है (अ.भा.पृ. 1289)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पादोदक देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

पारमार्थिक सत्ता व्यावहारिक सत्ता का मूल, शुद्ध एवं स्थिर रूप। संपूर्ण व्यावहारिक सत्ता मूलतः अनुत्तर संवित् में संवित् के ही रूप में रहती है। पारमार्थिक सत्ता परमसिव की शक्तिता का अंतः रूप है। आभासमान समस्त विश्व वस्तुतः सर्वथा असत्य नहीं है, क्योंकि यह अपने पारमार्थिक रूप में सदैव शुद्ध संवित् रूप में तो आभासित होता ही रहता है। वही उसकी पारमार्थिक सत्ता है। पारमार्थिक सत्ता कल्पित व्यावहारिक सत्ता का ही अकल्पित एवं शुद्ध रूप है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पार्थिव अंड देखिए प्रतिष्ठा कला।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पाश परमशिव की शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संविद्रूपता से भिन्न जो कुछ भी आभासित होता है, वह सभी कुछ बंधन स्वरूप होता हुआ पाश कहलाता है। वस्तुतः संवित् से भिन्न कुछ भी नहीं है, वही परमशिव है। परंतु जब वही अपने परिपूर्ण स्वातंत्र्य से अपनी परमाद्वैत संविद्रूपता को अपने ही आनंद के लिए छिपाता हुआ और अपने आपको संकुचित रूप में प्रकट करता हुआ अनंत रूपों में अभिव्यक्त होता है तो वे सभी संकुचित रूप तथा सारे का सारा प्रपंच पाश कहलाते हैं। (तं.आ. आ. 8-292)। अपनी परिपूर्ण शुद्ध संविद्रूपता का अज्ञान। (वही 293)। देखिए मल।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पाशाष्टक अद्वैतवादी शाक्त दर्शन की त्रिपुरा, क्रम, कौल प्रभृति सभी शाखाओं में पाशाष्टक की चर्चा आई है। कुलार्णव तन्त्र (13/90) में इनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं- घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा, कुल, शील और जाति। योगिनीहृदयदीपिका (पृ. 81), महार्थमंजरी (पृ. 145) प्रभृति ग्रन्थों में इनका उल्लेख मिलता है। इसका अभिप्राय यह है कि शाक्त साधक घृणा, शंका, भय, लज्जा, जुगुप्सा प्रभृति मानसिक विकृत भावों से तथा कुल, शील और जाति के संकीर्ण बन्धनों से अपने को मुक्त कर लेता है। इन पाशों से जब तक साधक बँधा रहता है, तब तक वह जीवन्मुक्त कैसे कहा जा सकता है? इस पाशमुक्त स्थिति का पूर्ण विकास किसी अघोरी बाबा में देखने को मिलता है। सहज अवस्था की प्राप्ति के लिये भी इन पाशों से मुक्त होना आवश्यक है। भारतीय और तिब्बती साहित्य में 84 सिद्धों की चर्चा मिलती है। वे सभी इन पाशों से मुक्त महायोगी माने गये हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पाशुपत दर्शन सम्प्रति उपलब्ध पाशुपत साहित्य के ग्रंथों में पाशुपत मत के दार्शनिक सिद्‍धांतों का विशेष प्रतिपादन नहीं हुआ है। इसमें अधिकतर पाशुपत धर्म तथा पाशुपत योग के बारे में व्याख्या हुई है। पाशुपत मत वास्तव में दर्शन की एक व्यवस्थित पद्‍धति नहीं थी अपितु योगियों का सम्प्रदाय था। योगियों के समूहों के समूह शिव को आराध्य देव मानकर साधना विशेष का अभ्यास करते – करते समस्त भारत का भ्रमण करे रहते थे। कहीं-कहीं पर उस समय के राजा लोग भी उन संन्यासियों से प्रभावित होकर उन्हें आश्रय दे देते थे तथा शिव की पूजा व भक्‍ति को अपनाते थे।

वैदिक रूद्र का आदिम निवासियों के शिव के साथ एकीकरण होने पर कालांतर में शिव ने जब प्रमुख स्थान ग्रहण कर लिया तब शैवमत भिन्‍न – भिन्‍न स्थानों पर भिन्‍न – भिन्‍न धाराओं में समृद्‍ध होने लगा। दक्षिण में तमिलनाडू में शैव सिद्‍धांत, कर्नाटक में वीर शैव, काश्मीर में प्रत्यभिज्ञा शैव दर्शन तथा राजपूताना, गुजरात आदि में पाशुपत मत के रूप में शैव दर्शन पनपने लगा। वैसे पाशुपत संन्यासी समस्त भारत में भ्रमण करते रहे हैं, परंतु पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश के गुजरात काठियावाड़ में अवतार लेने के कारण वही स्थान पाशुपत मत का केंद्र माना जाने लगा। इस तरह से पाशुपत मत प्रधानरूप से संन्यासियों में पनपी योगविधि थी दार्शनिक सिद्‍धांत नहीं। परंतु बाद में पाशुपत मत के जो ग्रंथ बने उनमें पाशुपत सिद्‍धांतों की थोड़ी बहुत व्याख्या की गई है।
पाशुपतसूत्र तथा उसके कौडिन्यकृत पञ्‍चार्थीभाष्य में पाँच पदार्थों की व्याख्या की गई। पाशुपत दर्शन के विषयों को पाँच वर्गों में बांटा गया है। वे हैं- कार्य, कारण, योग, विधि और दुःखांत। गणकारिकाकार ने पाशुपत सिद्‍धांत को नौ गणों में विभाजित किया है। इनमें से आठ गण पंचक हैं तथा एक गण त्रिक। परंतु पाशुपत मत व दर्शन का मुख्य विषय योगविधि है तथा समस्त योग, धर्म व दर्शन का फल दुःखांत अर्थात् समस्त सांसारिक क्लेशों की पूर्ण निवृत्‍ति और ऐश्‍वर्यपूर्ण सिद्‍धियों की प्राप्‍ति है। माधवाचार्य तथा हरिभद्र ने भी अपने ग्रंथों में अर्थात् सर्वदर्शन संग्रह तथा षड्‍दर्शन समुच्‍चय में पाशुपत सूत्र तथा गणकारिका के आधार पर ही पाशुपत मत का प्रतिपादन किया है।
इन सब ग्रंथों के आधार पर पाशुपत दर्शन का मुख्य सार है कि समस्त फल अर्थात् जगत कार्य है। इसका एकमात्र हेतु (कारण) ईश्‍वर है, जिसको भिन्‍न-भिन्‍न नामों से अभिहित किया गया है। ईश्‍वर स्वतंत्र है। वह समस्त कार्य को उत्पन्‍न करने अथवा संहार करने में पूर्णत: स्वतंत्र है। उसे किसी अन्य कारण की अपेक्षा नहीं होती है। पाशुपत मत में कर्म सिद्‍धांत या माया अथवा अविद्या का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। ईश्‍वर शतश: निरपेक्ष रूप से कार्य का कारण बनता है तथा जीवों को मुक्‍ति दिलाने में उसी का एकान्तिक प्रसाद काम करता है। जिस पर ईशप्रसाद होगा, वही मुक्‍तिमार्ग में लगेगा। उसकी एकमात्र स्वतंत्र इच्छा से, जीवों को इष्‍ट, अनिष्‍ट, स्थान, शरीर, विषय इंद्रियों आदि की प्राप्‍ति होती है।
पाशुपत मत में योग के साथ – साथ भक्‍ति पर काफी बल दिया गया है। भक्‍ति सिद्‍धि का एक आवश्यक सहायक तत्व है, तथा मोक्ष पारमैश्‍वर्य प्राप्‍ति है। परंतु मुक्‍त जीव ईश्‍वर के साथ एक नहीं होता है, अपितु उसी की जैसी स्थिति को प्राप्‍त कर लेता है जिस स्थिति को रूद्र सायुज्य कहा गया है। पाशुपत दर्शन, योग व धर्म का चरम उद्‍देश्य सापाक को रुद्रसायुज्य की प्राप्‍ति करवाना है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पाशुपत धर्म पाशुपत मत में मुख्य विषय योगविधि है, परंतु योगविधि का अनुसरण करने से पूर्व हर साधक को उस योग से संबंधित धर्मविशेष का अनुसरण करना पड़ता है। पाशुपत धर्म वैदिक धर्म से कई बातों में भिन्‍नता लिए है। वैसे पाशुपत मत का अनुयायी केवल ब्राह्मण या द्‍विज ही हो सकता है। शूद्र और स्‍त्री के साथ बोलना या उन्हें देखना भी साधक के लिए निषिद्‍ध है। यदि गलती से देख ही ले तो उसे शुद्‍धि करनी पड़ती है। (पा.सू. 1-12, 13,14,15)।

पाशुपत मत में वैदिक धर्म की कुछ एक बातें अवश्य समाई हैं, वह है ओंङ्कार पर ध्यान लगाना तथा अघोर आदि मंत्रों का जप करना। परंतु और सभी अनुष्‍ठानों में पाशुपत धर्म भिन्‍नता लिए हुए हैं। इसमें बलि, हवन आदि को कहीं स्थान नहीं मिला है। बस एकमात्र पूजा और योग साधना को ही प्रमुख स्थान मिला है।
वास्तव में पाशुपत धर्म में भी भिन्‍न-भिन्‍न विधियाँ ही हैं। पाशुपत धर्म साधारण गृहस्थ के लिए नहीं प्रतिपादित हुआ है। पाशुपत धर्म के आचार्यों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि साधारण मानवमात्र के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, परंतु पाशुपत साधक के लिए कौन-सी धर्मविधि अपेक्षित है, उसे साधना करते-करते कहाँ निवास करना चाहिए, कैसे जीविका का निर्वाह करना चाहिए, वस्‍त्र कैसे पहनने चाहिए? आदि सभी बातों की व्याख्या की गई है। इस प्रकार से पाशुपत धर्म केवल योगियों के लिए ही बना है।
पाशुपत धर्म में अहिंसा पर काफी बल दिया गया है, परंतु साधक मांस का सेवन कर सकता है, यदि वह भिक्षा में मिला हो। परंतु स्वयं पशु को मार कर उसका मांस खाना निषिद्‍ध है। आहार लाघव नामक यम में भी यही बात कही गई है कि साधक के भोजन की मात्रा नही अपितु उसके भोजन अर्जित करने के ढंग में आहारलाघव होता है। भिक्षा में मिला अन्‍न या जो कहीं पड़ा हो, केवल उसी अन्‍न को पाशुपत साधक खाए तो आहारलाघव नामक यम का पालन माना जाएगा। परंतु यदि किसी से बलात्कार से छीना हुआ एक ग्रास भी ले, वह अनुचित है।
पाशुपत धर्म में शिव की मूर्ति की पूजा को पूरे अनुष्‍ठान से करने को कहा गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पाशुपत मत (प्रागैतिहासिक)

पाशुपत शैव मत के बीज प्रागैतिहासिक काल में भी विद्‍यमान थे। क्योंकि सिन्धु घाटी के कुल निवासियों के धर्म के बारे में कई प्रमाणों से अनुमान लगाया जाता है कि उन निवासियों में पाशुपत शैव धर्म का प्रचलन था। सिन्धु घाटी में उस समय के प्रचलित धर्म को निश्‍चित करने के लिए कई प्रमाण उपलब्ध होते हैं जैसे मोहजोंदड़ों की खुदाई में मिले अवशेषों में पुरुष देवता का खुदा हुआ पक्‍की मिट्‍टी का एक चित्र मिला है, जिसके दायीं तरफ एक हाथी और एक शेर तथा बायीं तरफ एक गेंडा और एक भैंसा चित्रित है तथा सिंहासन के नीचे दो हिरण दिखाए गए हैं। पुरुष देवता के चहुँ ओर इतने पशुओं को अंकित करने का शायद यही अर्थ रहा हो कि पशुओं के रक्षक यह पुरुष देवता माने जाते रहे हों तथा इस संदर्भ में भी उसे पशुपति माना जाता हो। वैसे तो पाशुपत मत में पशु का अर्थ जानवरमात्र न लेकर जीवमात्र लिया गया है। परंतु ऋग्वेद में रूद्र से एक स्थान पर प्रार्थना की गई है कि वह द्‍विपादों (जीवों) तथा चतुष्पादों (जानवरों) की रक्षा करे। (ऋग्वेद 1-114 -1)। वैदिक रूद्र ने समय के बहाव के साथ-साथ शिव का रूप धारण किया। अतः बहुत संभव है कि वेदों में सिंधुघाटी के जिस देवता को शिश्‍नदेव कहा गया है, वह यही पुरुष देवता ही हो। तथा पशुमात्र (चाहे जानवर हो या जीव) का रक्षक होने के कारण पशुपति कहा जाने लगा हो। इस पुरुष देवता की विशेष मुद्रा, जिस मुद्रा में वह बैठा है, उस प्रागैतिहासिक काल में शैव योग के प्रचलन का एक और प्रमाण उपस्थित करती हैं। इस तरह की मुद्रा शैव मत के शांभव योग में आती है।
इस मुद्रा के अतिरिक्‍त लिंग और योनि के आकार के कई पत्थर मिले हैं, जिनसे सिन्धु घाटी सभ्यता में लिंगोपासना का पता चलता है। इस तरह से सिन्धु घाटी के लोग किसी पुरुष देवता को तथा उसके लिंग को प्रतीक के रूप में पूजते थे। ऊपर चर्चित मुद्रा में आसन विशेष अंकित होने से तथा एक नासाग्रदृष्‍टि वाले योगी की प्रस्तर मूर्ति से यह भी पता चलता है कि योग का भी प्रचलन रह होगा तथा कई इतिहासवेत्‍ताओं के मतानुसार सिन्धुघाटी में पाशुपत शैवमत प्रचलित था। बाद में वैदिक आर्यों के देवताओं ने धीर-धीरे सिन्धु घाटी में प्रचलित उस प्रागैतिहासिक शैव धर्म को आत्मसात् कर लिया। क्योंकि वैदिक साहित्य का ध्यान पूर्वक अनुशीलन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि वैदिक रूद्र का रूप धीरे-धीरे बदलता गया और वह सिन्धुघाटी के शिव का रूप धारण करता गया। यजुर्वेद के समय तक शैव धर्म वैदिक आर्यों के धर्म का मुख्य अंग बन गया और यहाँ तक कि वैदिक धर्म में लिंगोपासना का समावेश भी हो गया चाहे उसका रूप काफी बदल गया। बाद में श्‍वेताश्‍वतर उपनिषद्, नारायणीय उपनिषद्, अथर्वशिरस् उपनिषद, पुराणों, महाभारत तथा रामायण में पाशुपत धर्म ने प्रमुख धर्म के रूप में तथा शिव ने परम देवता के रूप में एक निश्‍चित व महत्वपूर्ण स्थान ले लिया। इस तरह से पाशुपत मत भारत का अतिप्राचीन धर्म है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पाशुपत योग पाशुपत मत का मुख्य विषय योग साधना है तथा पाशुपत मत के ग्रंथ प्रमुखत: पाशुपत योग का ही प्रतिपादन करते हैं। पाशुपतों ने योग शब्द की व्याख्या की है कि जीवात्मा का परमात्मा से संयोग ही योग कहलाता है (आत्मेश्‍वर संयोगों योग: पा. सू. कौ. भा. पृ. 41)। यह योग दो प्रकार का कहा गया है – क्रियात्मक योग तथा क्रियोपरम योग।

क्रियात्मक योग में जप, ध्यान समाधि आदि का अभ्यास करना होता है, परंतु क्रियोपरम योग में क्रिया की पूर्ण निवृत्‍ति होती है तथा शुद्‍ध संवित् ही शेष रहती है। पाशुपत मत में यम, नियमों आदि पर भी काफी बल दिया गया है। पातञ्‍जल योग में चितवृत्‍तियों का विरोध योग होता है। परंतु पाशुपत मत में चित्‍तवृत्‍तियों के सांसारिक विषयों से पूर्णत: निवृत्‍त होने पर तथा संपूर्णत: ईश्‍वर में ही लगे रहने को योग कहते हैं। इस योग को प्राप्‍त करने के लिए जप, तप, रूद्रस्मरण और पाशुपत मत की विधि का पालन आवश्यक है जो इस योग के मुख्य अंग हैं। यह विधि एक विचित्र साधना है जो साधक को आलोचना और निन्दा का पात्र बना देती है तथा जो काफी विस्तृत है। इसमें आने वाले सभी पारिभाषिक शब्द यथा स्थान परिभाषित किए गए हैं। पाशुपत साधना का अपना विशेष अङ्ग यह विधि ही है जो अन्य साधना मार्गों में कही भी नहीं मिलती है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पाशुपत लकुलीश प्रागैतिहासिक काल से प्रचलित पाशुपत शैव धर्म को वैदिक आर्यों के धर्म के साथ एकीकरण हो जाने के उपरांत तथा रामायण महाभारत के समय तक पूर्णरूपेण एक लोकधर्म बनने के उपरांत कालांतर में पाशुपत मत का एक अभिनव आविर्भाव हुआ तथा इस युग में इस मत के ऐतिहासिक संस्थापक का नाम लकुलीश अथवा लगुलीश है जिसके आविर्भाव का काल दूसरी शती का आरंभ माना जाता है। पुराण साहित्य से हमें ज्ञात होता है कि लकुलिन् अथवा नकुलिन् ने लोगों में पाशुपत अथवा माहेश्‍वर योग का प्रचार किया। (वायुपुराण 23-217-21; लिङ्गपुराण 2-24)। इस नकुलिन् को भगवान शिव का अवतार माना गया है। (लिङ्गपुराम 124-32)। परंतु इस लकुलीश का समय पूरी तरह निश्‍चित नहीं है कि कब हुआ था? कुछ विद्‍वानों ने इसको पतंजलि के समय 200 ई.पू. में रखा है तथा कई विद्‍वानों ने चन्द्रगुप्‍त द्‍वितीय के मथुरा शिलालेख के आधार पर ईसा की दूसरी शती में रखा है। राजस्थान, गुजरात, काठियावाड़ उड़ीसा आदि कई स्थानों में मिले कई शिलालेखों में नकुलीश की मूर्ति खुदी हुई मिली है। तेरहवीं शती के श्रृंगारदेव चित्र प्रशस्ति में भी लकुलिन् का पाशुपत संप्रदाय के संस्थापक के रूप में तथा उसके चार पुत्रों अथवा चार शिष्यों का उल्लेख हुआ है। चीनी यात्री ह्यूनसांग को हिन्दुकुश से दक्षिणभारत तक पाशुपत संन्यासी मिलते रहे। बादरायण, शंकर आदि ने भी उनके अनुयायियों का उल्लेख किया है। रामानुज (12वीं शती) ने भी पाशुपत शैवों के आचार का उल्लेख किया है। लकुलीश की जो पूर्ण या अर्धखंडित मूर्तियाँ मिली हैं, उन सबमें उसका मस्तक केशों से ढ़का हुआ है। दाएं हाथ में बीजपूर का फल तथा बाएं हाथ में लगुड (दण्ड) रहता है। लकुलीश के अवतार लेने के बारे में वायुपुराण, लिंगपुराण तथा कायावरोहण माहात्म्य में सामग्री मिलती है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

पिंगला नाडी नाडी शब्द के विवरण में बताया गया है कि शरीर स्थित अनन्त नाडियों में से तीन नाडियँ मुख्य हैं – इडा, पिंगला और सुषुम्णा। इनमें से पिंगला नाडी शरीर के दक्षिण भाग में स्थित है, जो कि सूर्यात्मक माना जाता है। पिंगला नाडी दक्षिण मुष्क से उठकर धनुष की तरह तिरछे आकार में दाहिने गुर्दे और हंसुली में से होती हुई दक्षिण नासिका तक गतिशील रहती है। पिंगला नाडी खितरक्त वर्ण की है। इसमें सूर्य का संचार होता है। यह ऊर्ध्वगामिनी नाडी है। ज्ञानसंकलिनी तन्त्र (11-12 श्लो.) में पिंगला नाडी को यमुना बताया गया है। सकाम कर्मों का अनुष्ठान करने वाले जीवों को यह नाडी शुक्ल देवयान मार्ग से देवलोक में ले जाती है, जो कि अन्ततः पुनर्जन्म का कारण बनता है। इन नाडियों का शोधन किये बिना साधक कभी भी स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित नहीं हो सकता। रेचक प्राणायाम करते समय पिंगला नाडी से ही वायु को बाहर निकाला जाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पिंड परिशुद्‍ध अंतःकरण वाले जीव को ‘पिंड’ कहते हैं। वीरशैव दर्शन में ‘आणव’ आदि मल-त्रय से आवृत परशिव का अंश ही जीव कहलाता है। यह अपने कर्मानुसार जन्म-मरण-चक्र में भ्रमण करता हुआ अनेक जन्मों में मन, वाणी तथा शरीर से जन्य पापों के प्रशमनार्थ यदि अनेक मनुष्‍य-जन्मों में पुण्य कार्य ही करता रहता है, तो उसके प्राक्‍तन नानाविध पाप ध्वस्त हो जाते हैं और वह पुण्यदेही बन जाता है, तथा उसमें शिवभक्‍ति का अंकुर उदित हो जाता है।

शुद्‍ध अंतःकरण वाले इसी जीव को वीरशैव संतों ने ‘आदिपिंड’ कहा है। आदिपिंड कहने का उनका तात्पर्य यह है कि पहली बार इसका अंतःकरण शुद्‍ध हुआ है और उसमें शिवभक्‍ति का उदय हुआ है। यह अन्य जीवों से विलक्षण है। इसको ‘चरम-देही’ कहा जाता है, अर्थात् यही इसका चरम अंतिम देह है। अब इसका पुनर्जन्म नहीं होने वाला है। इसी जन्म में यह विवेक और वैराग्य को प्राप्‍त करके वीरशैवों की उपासना के क्रम से मुक्‍त हो जाता है – (सि. शि. 5/31-33 तथा 52-54, पृष्‍ठ 62,63, 72; तो.व.को. पृष्‍ठ 43)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पिंड-ज्ञानी आत्मानात्म-विवेक-संपन्‍न जीव को वीरशैव दर्शन में ‘पिंडज्ञानी’ कहते हैं। शरीर आदि से आत्मा के पार्थक्य का ज्ञान ही ‘पिंडज्ञान’ है, अर्थात् नश्‍वर शरीर, इंद्रिय, मन तथा बुद्‍धि को अनात्मा जानकर उससे भिन्‍न सनातन और मुख्य अहं-प्रत्यय (मैं इस प्रकार के ज्ञान) के विषयीभूत चैतन्य को ही आत्मा समझना पिंडज्ञान है। इसे ‘आत्मानात्म विवेक’ और ‘क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ-विज्ञान’ भी कहा गया है। इस विवेक से युक्‍त शुद्‍ध अंतःकरण वाला जीव ही ‘पिंड-ज्ञानी’ कहलाता है। यह शरीर आदि से अपने को भिन्‍न मानता हुआ भी शिव को भी अपने से भिन्‍न तथा अपना प्रेरक मानता है। इस तरह इसमें अभी भेदबुद्‍धि बनी रहती है (सि.शि. 5/1-6 पृष्‍ठ 73-75)।

इस ‘पिंडज्ञानी’ को वीरशैव संतों ने ‘मध्य-पिंड’ कहा है। इसको ‘मध्य-पिंड’ इसलिये कहा जाता है कि अविवेकी-जीव और मुक्‍त जीव इन दोनों के बीच में इसकी स्थिति रहती है, अर्थात् आत्मानात्मा के विवेक का उदय होने से यह सामान्य संसारी जीवों से श्रेष्‍ठ है, और इसको अभी परशिव के साथ सामरस्य (एकता) का बोध नहीं हुआ है, अतः उन मुक्‍तात्माओं से यह कनिष्‍ठ है। इस प्रकार उन दोनों के मध्य अवस्थित होने से यह ‘मध्य – पिंड’ कहलाता है (तो.व.को. पृ.283)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पिंडस्थ जाग्रत् आदि दशाओं के भिन्न भिन्न नाम जो योगियों की परंपरा में प्रचलित हुए हैं उनमें जाग्रत् दशा को पिंडस्थ कहते हैं। पिंड स्थूल शरीर का नाम है। जाग्रत् में सारा व्यवहार स्थूल शरीर में ही ठहरता हुआ देखने में आता है। अतः इसे ऐसा नाम दिया गया है। शैवदर्शन में पिंडस्थ के चार भेद माने गए हैं और वे हैं – अबुद्ध (साधारण बद्ध प्राणी), बुद्ध (शास्त्रज्ञान वाला योगाभ्यासी साधक), प्रबुद्ध (योगज अनुभूति वाला साधक) और अप्रबुद्ध (परिपक्व ज्ञान वाला सिद्ध योगी)। (तं.आ.आ. 10-241, मा.वि.तं. 2-43)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पिण्ड मालिनीविजय तन्त्र (2/36-45) तथा तन्त्रालोक (10/227-287) में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत अवस्थाओं का निरूपण पिण्ड, पद, रूप, रूपातीत तथा महाप्रचय अथवा सततोदित अवस्था के रूप में किया गया है। यहाँ जीवात्मा को पिण्ड बताया गया है। पिण्ड, अर्थात् शरीर को ही जीवात्मा मानने वाला यह जीव अबुद्ध, बुद्ध, प्रबुद्ध और सुप्रबुद्ध के भेद से चार प्रकार का होता है। मालिनीविजय में कुलचक्र की व्याप्ति के (19/30-48) और शिवज्ञान के प्रसंग (20/1-7, 18-26) में भी पिण्ड पद का विवरण मिलता है। जैन तन्त्र ग्रन्थ ज्ञानार्णव के 34 वे प्रकरण में पिण्डरूप ध्यान का वर्णन है। वहाँ इस ध्यान में पाँच प्रकार की धारणाएँ बताई गई हैं। योगिनीहृदय (1/42) में वर्णित है कि कन्द, अर्थात् पिण्ड में कामरूप पीठ की स्थिति है। दीपिकाकार ने पिण्ड, अर्थात् कुण्डलिनी शक्ति का स्थान मूलाधार बताया है। वहीं अन्यत्र (3/94) इसको विघ्नरूप माना है। इसलिये 3/137 की व्याख्या में अमृतानन्द द्वारा उद्धृत एक प्रामाणिक वचन में बताया गया है कि इससे मुक्त होने पर ही वास्तविक मुक्ति मिलती है। कौलज्ञाननिर्णय में एक स्थान पर (पृ. 4) पिण्ड का अर्थ स्थान, दूसरे स्थान पर (पृ. 90) बद्ध आत्मा किया है। वहीं (पृ. 53) यह भी बताया गया है कि इसके आठ भेद होते हैं। आणव उपाय के प्रसंग में भी शब्द की चर्चा आ चुकी है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पिधान कृत्य / विलय कृत्य निग्रह कृत्य / परमेश्वर के सृष्टि, स्थिति आदि पाँच कृत्यों में से एक कृत्य। इसे परमेश्वर के स्वरूप को भुला डालने या छिपा देने की पारमेश्वरी लीला कहते हैं। इस कृत्य के प्रभाव से प्राणी अज्ञान के गर्त में और नीचे चला जाता है, शिष्य दीक्षा को प्राप्त करके भी निष्ठा और विश्वास को खो देता है; गुरु की, शास्त्र की, मंत्र आदि की अवहेलना, निंदा आदि करने लग जाता है। ऐसी प्रवृत्तियों का मूल कारण परमेश्वर का पिधान कृत्य होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पीठ तन्त्रालोक (15/82-96) और उसकी जयरथ कृत टीका विवेक में बताया गया है कि आन्तर और बाह्य याग की निष्पत्ति के योग्य स्थान को पीठ कहा जाता है। पीठ भी बाह्य और आन्तर के भेद से द्विविध हैं। बाह्य पीठ की स्थिति बाहर देश विशेष में तथा आन्तरपीठ की स्थिति शरीर के भीतर स्थान विशेष में मानी गई है। भगवान् शिव की इच्छा शक्ति ही पीठ के रूप में परिणत होती है। बाह्य और आन्तर पीठस्थानों में उपासना के माध्यम से साधक अपने महतो महीयान संवित् स्वरूप की जानकारी प्राप्त कर सकता है। यह संवित्स्वरूपा शक्ति ही पीठ के रूप में परिणत होती है। शक्ति पीठ से बिन्दुमय और नादमय पीठ की अभिव्यक्ति होती है और ये ही तीन पीठ लोक में कामरूप, पूर्णगिरी और उड्डियान के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं।

  पीठों के अतिरिक्त उपपीठ, सन्दोह, उपसन्दोह, क्षेत्र और उपक्षेत्रों का भी इसी क्रम से प्रादुर्भाव होता है। शाम्भव, शाक्त और आणव धाम का तथा पर्वताग्र, नदीतीर और एकलिंग का प्रादुर्भाव भी इन्हीं पीठों से होता है। तन्त्रालोक में कुल मिलाकर 33 या 34 पीठों का वर्णन मिलता है। कौलज्ञाननिर्णय में भी इनमें से कुछ का उल्लेख है। इसी तरह से तन्त्रालोक के 29 वें आह्निक में और बौद्ध सम्प्रदाय के हेवज्रतन्त्र के सप्तम पटल में भी इनका विवरण मिलता है। उक्त विभागों के अतिरिक्त यहाँ मेलापक और उपमेलापक, पीलव और उपपीलव, श्मशान और उपश्मशान के नाम से भी पीठों का विभाग वर्णित है। तन्त्रालोक और कौलज्ञाननिर्णय में तीन-तीन संख्या के क्रम से पीठ, उपपीठ आदि का वर्णन है। वहाँ जालन्धर का पीठ में अन्तर्भाव नहीं किया गया है। हेवज्रतन्त्र में चार-चार की संख्या के क्रम से ये वर्णित हैं। वहाँ जालन्धर का नाम पीठों में परिगणित है। साधनामाला नामक बौद्ध ग्रन्थ में उड्डियान, जालन्धर, कामरूप और श्रीहट्ट नामक चार पीठ उल्लिखित हैं। किन्तु अब बौद्ध तथा शैव-शाक्त सम्प्रदायों में कामरूप, पूर्णगिरि, जालन्धर और ओड्डियान नामक चार पीठ प्रसिद्ध हैं। उक्त सभी विभागों के अन्तर्गत वर्णित पीठों की संख्या 32 से 34 तक होती है।
  योगिनीहृदय (3/37-43) के पीठन्यास प्रकरण में तथा प्रपंचसार की  प्रयोगक्रमदीपिका (पृ. 579) में योगिनीन्यास के प्रसंग में 51 पीठों के नाम चर्चित हैं। ज्ञानार्णव तन्त्र (14/114-123) में यद्यपि 50 ही पीठ वर्णित हैं, किन्तु भास्करराय (सेतुबन्ध, पृ. 213) के अनुसार यहाँ भी 51 ही पीठ मान्य है। शास्त्रों में वर्णित है कि विष्णुचक्र से विच्छिन्न सती के अंग जहाँ जहाँ गिरे, उन स्थानों की पीठ संज्ञा हो गई। इनकी संख्या 51 मानी जाती है।
  शारदातिलक की टीका में राघव भट्ट ने अष्टाष्टक, अर्थात् आठ अष्टकों के भेद से भैरव और योगिनियों के समान पीठों की संख्या भी 64 बताई है। वहाँ इनके नाम भी वर्णित हैं। देवीभागवत (7/30/44-50) में इन पीठों की संख्या 108 है। कुब्जिकातन्त्र के 7वें पटल में भी पीठों के शताधिक नाम हैं। डा. दिनेशचन्द्र सरकार ने पीठनिर्णय नामक लघुकाय ग्रन्थ के संपादन के प्रसंग में इस विषय पर विशद विचार प्रस्तुत किये थे। इसके लिये ‘दी शाक्त पीठाज्’ नामक ग्रन्थ देखना चाहिये।
  महार्थमंजरीकार (पृ. 83, 95) इस शरीर को ही पीठ मानते हैं। यह स्थूल पीठ है। वृन्दचक्र सूक्ष्म पीठ और पंचवाह पर पीठ है। इस प्रकार स्थूल, सूक्ष्म और पर के भेद से पीठ त्रिविध हैं। इस त्रिविध श्रीपीठ पर इष्टदेव की उपासना की जाती है (पृ. 83-96)।

(क) ओड्याण पीठ

  योगिनीहृदय (1/41) में बताया गया है कि प्रकाश और विमर्श की प्रतीक शांता और अंबिका शक्ति के सामरस्य से ओड्याण पीठ की सृष्टि होती है। इसकी स्थिति शरीर में रूपातीत, निरंजन, चिन्मय तत्त्व, अर्थात् चिन्मयता की अभिव्यक्ति के स्थान ब्रह्मरंध्र में हैं। यह तेजस्तत्त्वात्मक है। इसका आकार त्रिकोणात्मक है। यह रक्त वर्ण का है। यह पीठ चितमय है। इस पर लिंग अवस्थित है। इस पीठ की बाह्य स्थिति के विषय में विवाद है। कुछ लोग उड़ीसा में तथा अन्य कश्मीर में इसकी स्थिति मानते हैं। इस पीठ में भगवती त्रिपुरसुन्दरी निवास करती है, अतः अन्तिम पक्ष ही उचित प्रतीत होता है। सिद्ध परम्परा में कश्मीर को मेधापीठ कहते हैं।

(ख) कामरूप पीठ

   योगिनीहृदय (1/41) में बताया गया है कि प्रकाश और विमर्श की प्रतीक ज्ञाना और ज्येष्ठा शक्ति के सामरस्य से कामरूप पीठ की सृष्टि होती है। इसकी स्थिति शरीर में कन्द, पिण्ड, कुण्डलिनी के निवास स्थान मूलाधार में है, जो कि सुषुम्णा नाडी का भी मूल स्थान है। यह पृथ्वीतत्त्वात्मक है। इसका आकार चतुरस्त्र और वर्ण पीत है। यह पीठ मनोमय है। इसमें स्वयंभू लिंग अवस्थित हैं। कामरूप पीठ ही कामाख्या पीठ के नाम से भी प्रसिद्ध है। कालिकापुराण प्रभृति ग्रन्थों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है।

(ग) जालन्धर पीठ

   योगिनीहृदय (1/41) में बताया गया है कि प्रकाश और विमर्श की प्रतीक क्रिया और रौद्री शक्ति के सामरस्य से जालन्धर पीठ की सृष्टि होती है। इसकी स्थिति शरीर में रूप बिन्दु, अर्थात् भ्रूमध्य में है। यह जलतत्त्वात्मक है। इसका आकार अर्धचन्द्र सदृश है। यह श्वेत वर्ण का है। यह पीठ अहंकारमय है। इसमें बाण लिंग की स्थिति मानी गई है। इस पीठ की अधिष्ठात्री देवी वज्रेश्वरी है। कांगड़ा में इस देवी का मन्दिर है। तन्त्रालोक की टीका में जयरथ ने श्रीशम्भुनाथ के नामोल्लेख के प्रसङ्ग में उसे जालन्धर पीठ का गुरू बताया है (त. असा. वि., खं. 1, पृ. 236)। चम्बा के संग्रहालय में जालन्धर पीठ दीपिका नामक पाण्डुलिपि विद्यमान है। तदनुसार जालन्धर पीठ का केन्द्र कांगड़ा में (वज्रेश्वरी स्थान) है और उसका विस्तार ज्वालामुखी, वैजनाथ (तारा), हडसर (बाला) और त्रिलोकनाथपुर तक है।

(घ) पूर्णगिरी पीठ

   योगिनीहृदय (1/41) में बताया गया है कि प्रकाश और विमर्श की प्रतीक इच्छा और वामा शक्ति के सामरस्य से पूर्णगिरी पीठ की सृष्टि होती है। इसकी स्थिति शरीर में पद, हंस, अर्थात् प्राण के उद्भव स्थल हृदय में है। यह वायुतत्त्वात्मक है। इसका आकार वृत्ताकार स्थापित छः बिन्दुओं से बनता है। यह धूम्र वर्ण का है। यह पीठ बुद्धिमय है। इसमें इतर लिंग की स्थिति मानी गई है। कुछ लोग अल्मोड़ा के पास इस पीठ की स्थिति मानते हैं और अन्य कोल्हापुर स्थित महालक्ष्मी पीठ को ही उक्त नाम देते हैं। पूर्णगिरी पीठ की अधिष्ठात्री देवी भगमालिनी है। तदनुसार ही इस पीठ की बाह्य स्थिति निश्चित होनी चाहिये। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

पीठ विभाग डा. प्रबोध चन्द्र बागची ने अपने ग्रन्थ ‘स्टडीज इन दी तन्त्राज’ (पृ. 3) में ब्रह्मयामल के प्रमाण पर तन्त्रशास्त्र को विद्यापीठ, मन्त्रपीठ, मुद्रापीठ और मण्डलपीठ नामक चार विभागों में बाँटा है। भैरवाष्टक और यामलाष्टक का अन्तर्भाव विद्यापीठ में, योगिनीजाल, योगिनीहृदय, मन्त्रमालिनी, अघोरेशी, अघोरेश्वरी, क्रीडाघोरेश्वरी, लाकिनीकल्प, मारीचि, महामारी, उग्रविद्या गणतन्त्र का भी विद्यापीठ में और वीरभैरव, चण्डभैरव, गुडकाभैरव, महाभैरव, महावीरेश का मुद्रापीठ में समावेश बताया गया है। जयद्रथयामल विद्यापीठ से संबद्ध तन्त्र है। किन्तु स्वच्छन्दतन्त्र को चतुष्पीठ महातन्त्र कहा गया है। इसका अभिप्रायः यह निकाला जा सकता है कि स्वच्छन्दतन्त्र में उन सभी विषयों का समावेश है, जिनका कि वर्णन उक्त चतुर्विध तन्त्रों में मिलता है।

  नित्याषोडशिकार्णव की अर्थरत्नावली टीका में उद्धृत संकेतपद्धति के एक वचन में ओड्याण पूर्णगिरी, जालन्धर और कामरूप पीठ को क्रमशः आज्ञापीठ, मन्त्रपीठ, विद्यापीठ और मुद्रापीठ बताया गया है। इससे यह तात्पर्य निकाला जा सकता है कि उक्त चतुर्विध तन्त्रों का आविर्भाव इन चतुर्विध पीठों में हुआ था। तन्त्रालोक के 29वें आह्निक (पृ. 114) में भी उक्त चार पीठों में विभक्त शास्त्रों की चर्चा आई है। उससे ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे शैव और वैष्णव आगम ज्ञान, क्रिया, चर्या और योग नामक विभागों में विभक्त हैं, उसी तरह से शाक्त आगम भी विद्या, मन्त्र, मुद्रा और मण्डल विभागों में विभक्त थे, अर्थात् उन शैव वैष्णव और शाक्त आगमों में उक्त विषयों का प्रतिपादन किया गया था। तन्त्रालोक (37/24-25) में यह भी बताया गया है कि विद्यापीठ विभाग के अन्तर्गत आने वाले तन्त्रों में मालिनीविजयोत्तर तन्त्र प्रधान है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

पुत्रकदीक्षा यह दीक्षा साधक को सद्यः आगे ले चलने वाली उत्कृष्ट प्रकार की क्रिया-दीक्षा होती है। इसमें बाह्य आचार के नियम ढीले पड़ जाते हैं और आंतरयोग का अभ्यास स्थिर होने लग जाता है। इस दीक्षा का पात्र बना हुआ शिष्य पुत्रक कहलाता है। ऐसा शिष्य उस गुरु के पुत्र तुल्य माना जाता है। (इसी दृष्टि से आ. अभिनव गुप्त ने लक्ष्मण गुप्त को उत्पलज अर्थात् उत्पन्न देव का पुत्र, और उत्पल देव को सोमानंदात्मज कहा है)। यह दीक्षा सभी पाशों से छुटकारा दिलाने वाली है तथा एकमात्र प्रारब्ध कर्म को छोड़कर शेष सभी भूत और भविष्यत् कर्मों का भी शोधन कर देती है। (तं.सा., 155-160)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पुरातनरु तमिलनाडु प्रदेश में 63 शैवसंत हो गये हैं। इन संतों को ही कन्‍नड़ भाषा में ‘पुरातनरु’ कहा जाता है। इन सबका आविर्भाव-काल नवीं शताब्दी माना जाता है। इनमें अठारह ब्राह्मण, बारह क्षत्रिय, पाँच वैश्य, चौबीस शूद्र, एक हरिजन तथा तीन स्‍त्रियाँ हैं। इस प्रकार इन तिरसठ संतों में सभी वर्णो के स्‍त्री-पुरुष पाये जाते हें। तमिल भाषा में इन्हें ’63 नायनार्’ कहा गया है। बारहवीं सदी में तमिल भाषा के सुप्रसिद्‍ध कवि ‘शेक्‍किलार’ने ‘तिरुत्‍तोण्डार-पुराणम्’ या ‘पेरियपुराणम्’ नामक बृहद् ग्रंथ की रचना की, जिसमें इन 63 संतों का विस्तृत चरित्र पाया जाता है। इस ‘पेरिय पुराणम्’ को तमिल साहित्य का पाँचवाँ वेद कहा गया है।

इन संतों की जीवनी से ज्ञात होता है कि इनमें से कुछ शिवलिंग की पूजा से तथा अन्य गुरुजनों के ज्ञानोपदेश से मुक्‍त हो गये हैं। कर्नाटक के अनेक वीरशैव संत तथा कवियों ने इन शैव संतों की स्तुति की है तथा इनके चरित्र का वर्णन किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि वीरशैव संतों पर उन पुरातन शैव संतों का गहरा प्रभाव रहा है। कन्‍नड़ भाषा में इन शैव संतों के चरित्र-प्रतिपादक अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं, उनमें वीरभद्र कवि का ‘अरवत्‍तु-मूवर-पुराण’, निजगुण शिवयोगी का ‘अरवत्‍तुमूरुमंदि-पुरातन-स्तोत्र’, अण्णाजी का ‘सौंदर-विलास’ आदि प्रसिद्‍ध है। उपमन्यु मुनि के ‘भक्‍तिविलास सम्’ नामक संस्कृत ग्रंथ में भी इन सबका चरित्र वर्णित है। (वी.त.प्र. पृष्‍ठ 212-220; द.भा.इ.पृष्‍ठ 320, 328)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

पुरुष अन्तःकरण अथवा बुद्धि रूप पुरी में निवास करने के कारण निर्गुण बुद्धिसाक्षी आत्मा पुरुष कहलाता है। पुरुष न किसी का कार्य है और न किसी का कारण (‘नप्रकृति-नविकृति’) है। उपनिषदों का निर्गुण आत्मा (उपाधिहीन ब्रह्म) ही सांख्यीय पुरुष है। ‘अव्यक्तात् पुरुषः परः’ इस कठवाक्य (1/3/11) में जिस पुरुष का प्रतिपादन है, वही सांख्यीय पुरुष है। उपनिषदों के कुछ व्याख्याकार इस पुरुष को एक तथा सुखस्वरूप कहते हैं। सांख्यीय दृष्टि में पुरुष असंख्येय है तथा वह चिद्रूपमात्र है, सुखस्वरूप नहीं है। यह पुरुष स्वरूपतः सर्वज्ञ -सर्वशक्ति नहीं है; उपाधियोग से ही सर्वज्ञ -सर्वशक्ति होता है। अन्तःकरण या चित्त सदैव पुरुष के द्वारा ही प्रकाशित होता है – विषयों का ज्ञाता होता है; उपादान की दृष्टि से अन्तःकरण या चित्त जड़ त्रिगुण का विकार है। इस पुरुष को ही द्रष्टा, चित्ति, चित्तिशक्ति, भोक्तृशक्ति, भोक्ता, चैतन्य आदि शब्दों से कहा जाता है; कहीं-कहीं भोक्ता आदि शब्द पुरुष -प्रकृति -संयोग जीव को लक्ष्य कर भी प्रयुक्त होते हैं। सांख्ययोगीय दृष्टि में यह पुरुष हेतुहीन, कूटस्थनित्य, व्यापी (=बुद्धिगत सभी विकारों का ज्ञाता), निष्क्रिय, एकस्वरूप (=एकाधिकभावहीन), निराधार, लयहीन, अवयवहीन, स्वतन्त्र, त्रिगुणातीत, असंग, अविषय (बाह्य-आभ्यन्तर इन्द्रियों का), असामान्य अर्थात् प्रत्येक, चेतन, अप्रसवधर्मा, साक्षी, केवल, उदासीन तथा अकर्त्ता है (द्र. सांख्यका. 10, 11, 19)। सभी बुद्धियों के द्रष्टा (प्रकाशक) के रूप में एक ही पुरुष है – यह सांख्य नहीं मानता। प्रत्येक बुद्धिसत्व के द्रष्टा के रूप में एक-एक पुरुष है – यह सांख्यीय दृष्टि है। इस विषय में सांख्य की युक्तियाँ सांख्यका. 18 में द्रष्टव्य हैं। यदि पुरुष बहु नहीं होते, तो बहु बुद्धियों का आविर्भाव नहीं होता – यह सांख्य कहता है। योगदर्शन (2/20) में पुरुष (चितिशक्ति) को अनन्त (सीमाकारक हेतु न रहने के कारण), शुद्ध (अमिश्रित), दर्शितविषय, अपरिणामी एवं अप्रतिसंक्रम (प्रतिसंचारशून्य) कहा गया है। व्यक्त -अव्यक्त से पृथक् पुरुष की सत्ता जिन युक्तियों से सिद्ध होती है, उनका उल्लेख सांख्यकारिका 17 में है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

पुरुष तत्त्व देखिए पुंस्तत्त्व।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पुरुषख्याति पुरुष (तत्त्व) – विषयक ख्याति = पुरुषख्याति अर्थात् पुरुषविषयक प्रज्ञा (योगसू. 1.16)। पुरुष अपरिणामी, कूटस्थ, शुद्ध, अनन्त है तथा त्रिगुण से अत्यन्त भिन्न है – इस प्रकार का पुरुषस्वभाव-विषयक निश्चय ही पुरुषख्याति है। पुरुष (तत्त्व) बुद्धि का साक्षात् ज्ञेय विषय (घटादि की तरह) नहीं होता, अतः उपर्युक्त निश्चय आगम और अनुमान से होता है। पुरुषख्याति से सत्वादि गुणों के प्रति विरक्ति होती है; यह विरक्ति ही परवैराग्य कहलाती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

पुरुषज्ञान योगसूत्र (3/35) में पुरुषज्ञान के लिए जिस संयम का विधान किया गया है, उसका नाम स्वार्थसंयम है (बुद्धिसत्त्व परार्थ है, चित्त-स्वरूप द्रष्टा स्वार्थ है; अतः इस संयम का नाम ‘स्वार्थ संयम’ रखा गया है)। पुरुष (तत्त्व) चूंकि कूटस्थ-अपरिणामी है, अतः वह ज्ञान का वस्तुतः विषय नहीं हो सकता। पुरुष विषयी है; किसी भी प्रमाण से पुरुष साक्षात ज्ञात नहीं होता। अतः पुरुष-ज्ञान का तात्पर्य है – पुरुष के द्वारा चित्तवृत्ति का प्रकाशन होता है – इस तथ्य का अवधारण। चित्त में पुरुष का जो प्रतिबिम्ब है, उस प्रतिबिम्ब में संयम करने पर पुरुष सत्ता का ज्ञान होता है। कोई कहते हैं कि अपने में प्रतिबिम्बित बुद्धिवृत्ति का दर्शन करना ही पुरुष का पुरुषज्ञान है। यह मत कई आचार्यों को मान्य नहीं है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

पुरुषार्थ जीवन की सार्थकता के लिए मानव द्वारा अर्थ्यमान (प्रार्थित) होने से पुरुषार्थ कहा जाता है। यद्यपि अन्यत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार ही पुरुषार्थ माने गए हैं, किंतु वल्लभ दर्शन के अनुसार भक्ति भी एक स्वतंत्र पंचम पुरुषार्थ है और यह पुरुषार्थों में सर्वोत्कृष्ट है (भा.सु.11टी.स्क.10उ.पृ. 45)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुरुषार्थ सांख्ययोग में भोग और अपवर्ग को ‘पुरुषार्थ’ कहा जाता है। ये दो ज्ञान के विशेष प्रकार हैं। इष्ट-अनिष्ट-रूप से विषय का ज्ञान, जिसमें बुद्धिवृत्ति के साथ द्रष्टा का अभेद-प्रत्यय रहता है, भोग है और विषय से पृथक् विषयी, भोक्ता, निर्विकार पुरुष है – ऐसा विवेक अपवर्ग है (द्र. व्यासभाष्य 2/18)। पुरुष के हेतु (प्रयोजन) से ये दो सिद्ध होते हैं, अतः ये पुरुषार्थ कहलाते हैं। भोगापवर्ग ही करण – प्रकृति के मूल में है। जब तक भोगापवर्ग बुद्धि में रहेंगे, तब तक करणवर्ग कर्म करता रहेगा। चित्त का सदा के लिए निरोध होने पर भोगापवर्ग भी समाप्त हो जाते हैं। कुछ व्याख्याकार ‘निर्गुण पुरुष का अभीष्ट हैं’, अतः ये दो पुरुषार्थ कहलाते हैं – ऐसा कहते हैं। यह अशास्त्रीय दृष्टि है, क्योंकि पुरुष (तत्त्व) में इच्छा -संकल्पादि नहीं हैं। ये दो बुद्धिकृत, बुद्धिस्थ होने पर भी पुरुष में आरोपित होते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

पुरुषोत्तमानन्द मानुषानन्द से लेकर ब्रह्मानन्द तक आनन्द की अनेक श्रेणियाँ हैं। इन सभी आनन्दों का उपजीव्य अर्थात् मूल स्रोत पुरुषोत्तमानन्द है। पुष्टि मार्ग में ब्रह्म से भी ऊँचा स्थान भगवान् पुरुषोत्तम का है। इसीलिए ब्रह्मानन्द से भी श्रेष्ठ पुरुषोत्तमानन्द माना गया है (अ.भा.पृ. 1184)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुर्यष्टक योगिनीहृदयदीपिका (पृ. 68, 284, 302) में चित्ति, चित, चैतन्य, चेतनाद्वय, कर्म, जीव कला और शरीर को सूक्ष्म पुर्यष्टक बताया है। स्पन्दकारिका (श्लो. 49) में पंचतन्मात्रा, मन, अहंकार और बुद्धि की समष्टि को पुर्यष्टक कहा गया है। भोजदेव कृत तत्त्वप्रकाश के टीकाकारों ने (पृ. 37-39) शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, मन, बुद्धि और अहंकार को पुर्यष्टक बताया है। मतान्तर में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, बुद्धिन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय और अन्तःकरण को पुर्यष्टक माना गया है। अन्य आचार्य कर्मेन्द्रिय, ज्ञानेन्द्रिय, अन्तःकरण चतुष्टय, प्राणादि पंचक, तन्मात्रपंचक, काम, कर्म और अविद्या का समावेश पुर्यष्टक में करते हैं। अन्य व्याख्याकार सर्ग से लेकर कल्पान्त या मोक्षान्त तक स्थायी, प्रत्येक पुरुष के लिये नियत, पृथ्वी से लेकर कला तत्त्व पर्यन्त त्रिंशतत्त्वात्मक असाधारण स्वरूप वाले सूक्ष्म देह को पुर्यष्टक मानते हैं। सांख्यसंमत सूक्ष्म शरीर से इनकी तुलना की जा सकती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

पुर्यष्टक सूक्ष्म शरीर। पाँच तन्मात्र तत्त्वों तथा बुद्धि, मन एवं अहंकार की क्रमशः सत्त्व, रज तथा तम – इन तीन वृत्तियों को मिलाकर आठ के समष्टि रूप सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर को पुर्यष्टक कहते हैं। स्थूल शरीर में भी इन आठ की इस समष्टि की समानता होने के कारण इसे भी कहीं कहीं पुर्यष्टक कहा जाता है। (स्पन्दविवृति पृ. 155, 156; ई.प्र.वि.खं. 2 पृ. 237)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पुष्टि भगवान् का अनुग्रह पुष्टि है। “पोषणं तदनुग्रहः”। प्रयत्न साध्य शास्त्र विहित ज्ञान एवं भक्ति रूप साधन से होने वाली मुक्ति मर्यादा है, तथा इन साधनों से रहितों को स्वरूप बल से होने वाली भगवत्प्राप्ति पुष्टि है। यद्यपि अक्षर प्राप्ति भी मुक्ति है जो ज्ञानियों को प्राप्त होती है तथा भगवत्प्राप्ति भी मुक्ति है जो भक्तों को प्राप्त होती है। इस प्रकार ज्ञान और भक्ति से प्राप्त होने वाली ये दोनों ही मुक्तियाँ मर्यादा कही गयी हैं। किन्तु स्वरूप बल अर्थात् भगवदनुग्रह से होने वाली भगवत्प्राप्तिरूप मुक्ति पुष्टि है (प्र.र.पृ. 74)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुष्टिपुष्टि अतिशय भाव को प्राप्त जो भगवदनुग्रह है, उससे साध्य मुक्ति पुष्टि-पुष्टि है। अर्थात् भगवान् में लय मर्यादामार्गीय मुक्ति है तथा भगवान की नित्य लीला में अंतःप्रवेश पुष्टिमार्गीय मुक्ति है। किन्तु पुष्टि मर्यादा को भी अतिक्रान्त करके जिसमें प्रवेश हो जाने पर भक्त के लिए पुष्टिमार्गीय परम तत्त्व अनुभव का विषय बने, वह पुष्टिपुष्टि है। यह भगवान् के अतिशय अनुग्रह से साध्य है (अ.भा.पृ. 1317)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुष्टिभक्ति भगवान् के विशेषानुग्रह से उत्पन्न भक्ति पुष्टिभक्ति है तथा भगवदनुग्रह को प्राप्त भक्त पुष्टि भक्त है (प्र.र.पृ. 81)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुष्टिमार्ग जिसमें विषय के रूप में विषय का त्याग हो अर्थात् विषय में ममता का विरह हो और विषय को भगवदीय समझ कर ग्रहण किया जाए, वह मार्ग पुष्टिमार्ग है। (प्र.र.पृ. 113)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुष्टिमार्ग मर्यादा विहित साधन के बिना ही मुक्ति प्रदान की भगवान् की इच्छा पुष्टिमार्ग की मर्यादा है (अ.भा.पृ. 1314)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुष्टिमार्गीय मुक्ति भगवान् की नित्य लीला में अंतःप्रवेश (समावेश) पुष्टिमार्गीय मुक्ति है (अ.भा.पृ. 1316, 1388)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पुंस्तत्व पुरुष तत्त्व, मायीय प्रमाता, शून्य, जीव तत्त्व आदि। छत्तीस तत्त्वों के अवरोहण क्रम में बारहवें स्थान पर आने वाला तत्त्व। शुद्ध एवं परिपूर्ण संवित्स्वरूप परमशिव ही जब अपने स्वातंत्र्य से अपने ही आनंद के लिए माया तत्त्व एवं उससे विकसित पाँच कंचुकों से पूर्णतया आवेष्टित होता हुआ अतीव संकोच को प्राप्त कर जाता है तो उस अवस्था में पहुँचे हुए उसके संवित् को ही पुरुष तत्त्व कहते हैं। इस प्रकार अतीव संकुचित ‘संवित्’ या सीमित ‘अहं’ ही पुरुष तत्त्व कहलाता है। (ई..प्र. 3-1-9, 1-6-4,5)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पूजन (ज्ञानयोग) शैवी साधना के ज्ञानयोग का वह उपाय, जिसमें साधक पुनः पुनः विमर्शन करता है कि पूजक, पूजन तथा पूज्य, इन तीनों रूपों में वस्तुतः शिव ही व्याप्त होकर ठहरा हुआ है, वह स्वयं शिव से किसी भी अंश में भिन्न नहीं है, अतः भिन्न भिन्न रूपों में सर्वत्र उसी की पूजा होती रहती है। इस प्रकार के भान से वह सदातृप्त होता रहता है। सभी अवस्थाओं में अपना ही रूप देखने के कारण पूजन न होने से न तो उसे खेद ही होता है और न ही पूजन होने से उसे तुष्टि होती है। इस प्रकार के शुद्ध विकल्पों के अंतः परामर्श को पूजन कहते हैं। (शि.दृ. 7-92 से 95)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पूजा महार्थमजरी (पृ. 106), चिद्गगनचन्द्रिका (73 श्लो.) प्रभृति क्रम दर्शन के ग्रन्थों में पूजा के चार प्रकार बताये गये हैं। वे हैं – चार, राव, चरु और मुद्रा। चार, चरु और मुद्रा शब्दों को यहाँ क्रमशः आचार विशेष, द्रव्यविशेष और शरीर के अवयवों की विशेष प्रकार की स्थिति अथवा विशेष प्रकार के वेश को धारण करने के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है। ये तीनों क्रमशः राव के ही पोषक हैं। राव ही यहाँ प्रधान है। विमर्श अथवा अपनी आत्मशक्ति के साक्षात्कार को यहाँ राव कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि अपने स्वरूप की अपरोक्ष अनुभूति ही परम पूजा है। कुछ आचार्य निजबलनिभालन के नाम से इसका वर्णन करते हैं। इसका अभिप्राय यह है कि साधक के अपने हृदय की स्फुरता ही परमेश्वर या इष्ट देवता है अपने इस स्वरूप की सतत अपरोक्ष (साक्षात्) अनुभूति ही निजबलनिभालन के नाम से अभिहित है। इस आत्मविमर्श का ही नामान्तर जीवन्मुक्ति है।

  योगिनीहृदय (2/2-4) में परा, परापरा और अपरा के भेद से पूजा के तीन प्रकार बताये गये हैं। इनमें परा पूजा सर्वोत्तम है। यह बाह्य पत्र, पुष्प आदि से सम्पन्न नहीं होती, किन्तु अपने महिमामय स्वात्मस्वरूप अद्वय धाम में प्रतिष्ठित होना ही परा पूजा है। इस परा पूजा का निरूपण विज्ञान भैरव, संकेत पद्धति प्रभृति ग्रन्थों में विस्तार से मिलता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

पूर्ण (पूर्णता) देखिए परिपूर्ण।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पूर्णभगवान् जब सत्त्वगुणात्मक, रजोगुणात्मक या तमोगुणात्मक शरीर विशेष रूप अधिष्ठान की अपेक्षा किए बिना स्वयं अभिगुणात्मक शुद्ध साकार ब्रह्म आविर्भूत होते हैं, तब वे स्वयं पूर्णभगवान हैं। ऐसे शुद्ध साकार ब्रह्म भगवान श्रीकृष्ण ही हैं। यद्यपि वे भी अधिष्ठान रूप में लीला शरीर से युक्त हैं, तथापि उनका वह विग्रह अभिगुणात्मक होने से सर्वथा शुद्ध है (अ. भा. पृ. 886)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पूर्णानन्द वल्लभ वेदान्त में पुरुषोत्तम भगवान ही पूर्णानन्द हैं। अक्षरानन्द या ब्रह्मानन्द उसकी तुलना में न्यून हैं। इसीलिए ज्ञानियों के लिए ब्रह्मानंद भले ही अभीष्ट हों, परंतु भक्तों के लिए तो पूर्णानन्द पुरुषोत्तम भगवान ही परम अभिप्रेत हैं (अ.भा.पृ. 1321)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

पूर्णाहंताविमर्श देखिए अहम्परामर्श।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पूर्ववत् अनुमान के तीन भेदों में यह एक है (अन्य दो हैं – शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट)। इसकी व्याख्या में मतभेद हैं। एक मत के अनुसार पूर्ववत् = कारण -विषयक ज्ञान, अर्थात् अतीत कारण के आधार पर भविष्यत् कार्य का अनुमान, जैसे मेघ की एक विशेष स्थिति को देखकर होने वाली वृष्टि का ज्ञान। यह देश भविष्यद् वृष्टिमान है, मेघ की अवस्था -विशेष से युक्त होने के कारण, अमुक देश की तरह – यह इस अनुमान का आकार है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि उपयुक्त लक्षणवाक्य में कारण = कारण का ज्ञान और कार्य = कार्य का ज्ञान – ऐसा समझना चाहिए, क्योंकि कार्यविशेष और कारण-विशेष के ज्ञान से ही अनुमान होता है। वाचस्पति के अनुसार पूर्ववत् अन्वयव्याप्ति पर आधारित एवं विधायक होता है (तत्त्वको. 5)। अन्वय = तत्सत्वे तत्सत्वम् – किसी के कहने पर किसी (साध्य) का रहना। पूर्ववत् में साध्य के समानजातीय किसी दृष्टान्त के आधार पर व्याप्ति बनती है। उदाहरणार्थ – पर्वत में जिस वह्नि का अनुमान किया जाता है, उस वह्नि के सजातीय वह्नि का प्रत्यक्ष ज्ञान पाकशाला में (धूम के साथ) पहले हो गया होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

पौरुष अज्ञान अपने आपको परिपूर्ण शिव न समझकर केवल अल्पज्ञ तथा अल्पकर्तृत्व वाला जीव मात्र ही समझना पौरुष अज्ञान कहलाता है। इसे मलरूप अज्ञान भी कहते हैं क्योंकि इसी के आधार पर प्राणी में आणव, मायीय तथा कार्म नामक तीनों मलों की अभिव्यक्ति हो जाती है। इस प्रकार से पौरुष अज्ञान स्वरूप संकोच को कहते हैं। (तं.आ., 1-237, 38)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


पौरुष ज्ञान चित्तवृत्ति से सर्वथा असम्पृक्त अपने मूल स्वरूप को स्वयं अपने ही चित्प्रकाश से परिपूर्ण परमेश्वर ही समझना। अपने में स्वाभाविकतया परमेश्वरता का अनुभव करना। पौरुष ज्ञान बौद्ध ज्ञान के भी मूल में ठहरा रहता है। इसे अपने शिवभाव की साक्षात् अनुभूति कह सकते हैं। पौरुष ज्ञान में पूर्ण स्थिरता के लिए बौद्ध ज्ञान का होना बहुत आवश्यक माना गया है। (देखिए बौद्ध ज्ञान)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रकाश जिस शक्‍ति के द्‍वारा पाशुपत साधक पदार्थों को सम्यक् रूप से जानता है, वह शक्‍ति प्रकाश कहलाती है तथा द्‍विविध होती है – अपर प्रकाश तथा पर प्रकाश (ग.का.टी.पृ.15) :-

अपर प्रकाश – जिस प्रकाश से साधक योग विधि के साधनों का उचित विवेचन करता है तथा ध्येयतत्व ब्रह्म पर समाहित चित्‍त को जानता है वह अपर प्रकाश कहलाता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
पर प्रकाश – जिस प्रकाश के द्‍वारा साधक समस्त तत्वों को उनके धर्मों तथा गुणों के सहित समझकर उनके सम्यक् रूपों का विवेचन करता है वह पर प्रकाश होता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

प्रकाश चेतना का सतत – चमकता हुआ ज्ञानात्मक स्वरूप। चेतना का अपना स्वाभाविक अवभास। ज्ञान। शुद्ध संविद्रूपतत्त्व। शुद्ध अहं रूप चेतना या आत्मा का अनुत्तर स्वरूप। जाग्रत्, स्वप्न एवं सुषुप्ति तथा सुख, दुःख आदि भिन्न भिन्न अवस्थाओं एवं भावों में अनुस्यूत रूप से विद्यमान रहते हुए भी इन सभी अवस्थाओं एवं भावों से उत्तीर्ण तुर्या में स्फुटतया चमकने वाला शुद्ध ज्ञान स्वरूप संवित्। (स्पंदकारिकाका. 3,4,5)। शिव का नैसर्गिक स्वरूप। (ई.प्र. 1-32, 33, 34)। प्रकाश वह तत्त्व है जो स्वयं अपने ही स्वभाव से चमकता हुआ अन्य सभी वस्तुओं को, शरीरों को, अंतःकरणों को, इंद्रियों को, विषयों को, भुवनों को, भावों को अर्थात् समस्त संसार को ज्ञान रूप प्रकाश से चमका देता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रकाश-विमर्श शैव और शाक्त अद्वैतवादी दार्शनिक प्रकाश शब्द को शिव का तथा विमर्श पद को शक्ति का वाचक मानते हैं। इन दोनों शब्दों का विवेचन सभी शैव और शाक्त ग्रन्थों में मिलता है। शब्द और अर्थ की तरह, पार्वती और परमेश्वर की तरह प्रकाश और विमर्श की भी स्थिति यामल भाव में ही रहती है। ये सदा साथ रहते हैं। वस्तुतः शब्द-अर्थ, पार्वती-परमेश्वर और प्रकाश-विमर्श शब्द पर्यायवाची हैं। अर्धनारीश्वर रूप में भगवान् शिव जैसे सतत यामल भाव में रहते हैं, वैसे ही प्रारम्भ में प्रकाश और विमर्श की स्थिति सामरस्य अवस्था में रहती है। इसी को समावेश दशा भी कहते हैं। समावेश दशा में जीव में परिमित प्रमाता का भाव गौण हो जाता है और वह अपने को स्वतन्त्र, बोधस्वरूप समझने लगता है, किन्तु शिव और शक्ति का यह समावेश (सामरस्य) प्रपंच के उन्मेष के लिए होता है। जीव जिस तरह शिव भाव में समाविष्ट होता है, उसी तरह से शिव और शक्ति का यह यामल भाव भी प्रपंच के रूप में समाविष्ट हो जाता है, प्रपंच के रूप में दिखाई देने लगता है। प्रकाश ज्ञान है और विमर्श क्रिया है। इस पारमेश्वरी क्रिया से सतत आविष्ट परम तत्त्व सदैव सृष्टि, संहार आदि लीलाओं के प्रति उन्मुख बना रहता है और वैसे बना रहना ही उसकी परमेश्वरता है। अन्यथा वह शून्य गगन की तरह जड़ होता।

दर्शन : शाक्त दर्शन

प्रकाशविश्रांति अपनी शुद्ध प्रकाशरूपता का ही आश्रय लेकर उसी से सर्वथा कृतकृत्य हो जाना। प्रकाश विश्रांति का अभ्यास करने वाले योगी को उस अभ्यास में सतत गति से अपने असीम, शुद्ध और परिपूर्ण चिद्रूपता का अपरोक्ष साक्षात्कार होता रहता है। उसे प्रकाश के स्वभावभूत ऐश्वर्य की भी साक्षात् अनुभूति होती रहती है। उसे अपने से भिन्न किसी उपास्य देव का ध्यान नहीं रहता है और न ही किसी सुख, दुःख आदि आभ्यंतर विषय का तथा न ही किसी नील, पीत आदि बाह्य विषय का आभास ही शेष रहता है। न ही उसे अपने संकुचित जीव भाव का ही कोई संवेदन शेष रहता है। वह इन सब से ऊपर चला जाता है। इस अभ्यास से साधक में शिवभाव का समावेश हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रकाशावरण योगसूत्र (2/52) में कहा गया है कि प्राणायाम के अभ्यास से प्रकाशावरण का क्षय होता है। व्यास के अनुसार यह प्रकाशावरण विवेकज्ञान को ढकने वाला कर्म (कर्मसंस्कार) है, जो संसरण का हेतु है। यह कर्म संस्कार अधर्मप्रधान है – ऐसा कुछ व्याख्याकार कहते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रकृति सत्व-रजः-तमः की समष्टि प्रकृति है। ‘प्रकृति से सत्त्वादि उत्पन्न या आविर्भूत हुए’, ऐसे शास्त्रीय वाक्य गौणार्थक होते हैं। सत्त्वादिगुणत्रय के अतिरिक्त प्रकृति नहीं है; द्र. गुणशब्द। ‘प्रकृति’ का अर्थ है – उपादानकारण। सांख्य में मूलप्रकृति और प्रकृतिविकृति शब्द प्रायः व्यवहृत होते हैं। बुद्धि से शुरू कर सभी तत्वों का उपादान मूल प्रकृति है और बुद्धि-अहंकार-पंचतन्मात्र ‘प्रकृति-विकृति’ कहलाते हैं, क्योंकि वे स्वयं किसी तत्त्व का उपादान होते हुए तत्त्व के विकार भी हैं। चूंकि ये आठ पदार्थ प्रकृति हैं, अतः ‘अष्टो प्रकृतयः’ यह तत्त्वसमाससूत्र (2) में कहा गया है। सांख्यीय दृष्टि से मूल प्रकृति के विकार असंख्य हैं (यथा महत्तत्त्व संख्या में असंख्य हैं), पर मूल प्रकृति एक है। कोई भी विकार प्रकृति से पृथक् नही है। सत्त्वादिगुण भी परस्पर मिलित ही रहते हैं। प्रकृति की दो अवस्थाएँ हैं – साम्यावस्था एवं वैषम्यावस्था। साम्यावस्था में त्रिगुण का सदृशपरिणाम होता है और वैषम्य-अवस्था में विसदृश परिणाम। वैषम्यावस्था कार्य-अवस्था है, यह ‘व्यक्त’ नाम से अभिहित होती है। व्यक्त प्रकृति महत् आदि तत्त्वों के क्रम में है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रकृति तत्त्व मूल प्रकृति। प्रधान तत्त्व। छत्तीस तत्त्वों के क्रम में तेरहवाँ तत्त्व। परमेश्वर की स्वतंत्र इच्छा ही संकोच की अवस्था में माया तत्त्व के रूप को धारण करती है। भगवान अनंतनाथ इस माया तत्त्व को प्रक्षुब्ध करके पाँच कंचुक तत्त्वों को प्रकट करते हैं। उनके संकोच के भीतर घिरा हुआ चिद्रूप प्रमाता पुरुष तत्त्व के रूप में प्रकट होता है और उसका सामान्याकार प्रमेय तत्त्व सामान्यतः ‘इदं’ इस रूप में प्रकट होता हुआ प्रकृति तत्त्व या मूल प्रकृति या प्रधान तत्त्व कहलाता है। इस सामान्याकार ‘इदं’ में आगे सृष्ट होने वाले सभी तेईस तत्त्व समरस रूप में स्थित रहते हैं। सत्त्व आदि तीन गुण भी इस अवस्था में साम्य रूप से ही स्थित रहते हैं। इसे गुण साम्य की अवस्था भी कहते हैं। (तं.सा.पृ. 83)। देखिए गुण तत्त्व।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रकृतिक्षोभ साम्यावस्था में स्थित गुणत्रय (प्रकृति) का जो वैषम्य होता है, उसका हेतु है – पुरुष का उपदर्शन; पुरुष द्वारा उपदृष्ट होने पर ही गुणवैषम्य होता है। गुणों का यह वैषम्यभाव प्रकृतिक्षोभ कहलाता है। इस क्षोभ के कारण ही प्रकृति से महत् का आविर्भाव होता है जो अहंकार आदि रूप से परिणत होता रहता है। यह ज्ञातव्य है कि यह क्षोभ (साम्यावस्था से प्रच्युति) किसी काल में नहीं होता – यह अनादि है, अर्थात् महत्तत्त्व अनादि है। अनादि होने पर भी उसके दो कारण (पुरुष के रूप में निमित्त-कारण एवं गुणत्रय के रूप में उपादानकारण) माने गए हैं। ब्रह्माण्ड-विशेष की सृष्टि के प्रसंग में भी ‘प्रकृतिक्षोभ’ का प्रसंग आता है। भूतादिनामक तामस अहंकार ब्रह्माण्ड का उपादान है। यह अहंकार एक प्रकृति है जो अणिमादि-सिद्धिशाली सृष्टिकर्त्ता प्रजापति हिरण्यगर्भ में आश्रित है। प्रजापति के सृष्टिसंकल्प से यह अहंकार-रूप प्रकृति क्षुब्ध होकर तन्मात्र-भूतभौतिक रूप से परिणत होता है और ब्रह्माण्ड अभिव्यक्त होता है। क्षुब्ध होने से पहले यह अहंकार रुद्धप्राय सुप्तवत् अवस्था में रहता है, अतः पुराणों में प्रायः अव्यक्त प्रकृति के क्षुब्ध होने का उल्लेख (ब्रह्माण्डसृष्टि -प्रसंग में) मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रकृतिलय सांख्ययोग के अनुसार भवप्रत्यय नामक समाधि जिन योगियों को होती है, वे ‘प्रकृतिलय’ कहलाते हैं। प्रकृति अर्थात् सांख्यशास्त्रीय अष्ट प्रकृतियों में जिनके चित्त का लय होता है, वे ‘प्रकृतिलय’ हैं। यह लय कैवल्य -साधक चित्तलय नहीं हैं। आत्मज्ञान न रहने के कारण इन प्रकृतिलयों का पुनःआवर्तन होता है। प्रकृतिलयों (ये प्रकृतिलीन भी कहलाते हैं) के चित्त उत्थित होने पर वे चित्त महैश्वर्यशाली भी हो सकते हैं – कोई-कोई प्रकृतिलीन ब्रह्माण्ड का सृष्टिकर्ता भी हो सकता है – ऐसा इस शास्त्र की मान्यता है। ‘लय’ के विषय में यह ज्ञातव्य है कि अष्ट प्रकृतियों में से अव्यक्त प्रकृति, महत्तत्व और अहंकार रूप प्रकृतियों में चित्त वस्तुतः लीन हो जाता है (निर्बीजसमाधि रूप निरोध के कारण), पर तन्मात्र रूप जो पाँच प्रकृतियाँ हैं, उनमें चित्त वस्तुतः लीन नहीं हो सकता, क्योंकि तन्मात्र चित्त का उपादान कारण नहीं है। तन्मात्र में तन्मय हो जाना ही उसमें लीन हो जाना है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रकृतिविकृति सांख्यीय पच्चीस तत्त्वों में सात ऐसे हैं, जो प्रकृतिविकृति कहलाते हैं। ये हैं – अहंकार तथा पाँच तन्मात्र (शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध)। चूंकि ये सात अन्य तत्त्वों के उपादान हें, अतः प्रकृति कहलाते हैं, तथा ये किन्हीं तत्त्वों के कार्य भी हैं, अतः विकृति (विकार) भी कहलाते हैं। उदाहरणार्थ – महत्ततत्व अहंकार की प्रकृति (उपादान) है, अहंकार पाँच तन्मात्रों की प्रकृति है; पंचतन्मात्र पंचभूतों की; इसी प्रकार महत् प्रकृति की विकृति (= विकार, कार्य) है, अहंकार महत् की, तन्मात्र अहंकार की। इस प्रकार उपर्युक्त सात तत्त्व प्रकृतिविकृति कहलाते हैं (द्र. सांख्यकारिका 3)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रचारसंवेदन परशरीरावेश (दूसरे के शरीर में प्रवेश) नामक सिद्धि के दो उपायों में से यह एक है (योगसूत्र 3/38)। प्रचार का अर्थ है – नाडी; प्रचार में संयम करना प्रचारसंवेदन है। चूंकि नाडीमार्ग से ही कोई दूसरे के शरीर में प्रवेश कर सकता है, अतः उपर्युक्त सिद्धि के लिए प्रचार में संयम करना आवश्यक होता है – यह व्याख्याकारों का कहना है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रच्छर्दन कोष्ठगत वायु (यहाँ कोष्ठ = उरोगुहा है, क्योंकि श्वास-वायु फुफ्फुस से ही सम्बन्धित है) का दोनों नासिकापुटों के द्वारा निष्कासन करना (योगशास्त्रीय प्रयत्नविशेष के बल पर) प्रच्छर्दन कहलाता है (द्र. योगसूत्र 1/34; भाष्य भी)। किसी-किसी व्याख्याकार के अनुसार एक-एक नासिकापुट से भी प्रच्छर्दन-क्रिया की जा सकती है, जिस प्रच्छर्दन (विधारण के साथ) के द्वारा चित्त ‘स्थिति’ की ओर अग्रसर होता है, वह एक निश्चित प्रकार के प्रयत्न के द्वारा अभ्यसनीय है, जो गुरुपरंपरागम्य है। प्रर्च्छदन के लिए कभी-कभी प्रश्वास शब्द भी प्रयुक्त होता है (द्र. 2/49 व्यास भाष्योक्त प्रश्वासलक्षण)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रज्ञा प्रज्ञा’ को योगशास्त्र में ‘उपायप्रत्यय’ के रूप में माना गया है (योगसूत्र 1/20)। इस सूत्र से यह भी ज्ञात होता है कि यह प्रज्ञा समाधि से उत्पन्न होती है। भाष्यकार ने प्रज्ञा को प्रज्ञाविवेक कहा है, जो प्रज्ञा के स्वरूप को दिखाता है। प्रत्येक वस्तु में त्रिगुण का सन्निवेश कैसा है, यह जानकर वस्तु के स्वरूप की अवधारण करना प्रज्ञा है। इससे वस्तु को यथार्थ रूप से जाना जाता है (येन यथार्थ वस्तु जानाति, भाष्य 1/27 तथा 2/45)। यही कारण है कि बुद्धि-पुरुषभेद-ज्ञान भी प्रज्ञा ही कहलाता है। इस प्रज्ञा की ही एक उत्कृष्ट अवस्था ‘ऋतंभरा’ है (द्र. योगसूत्र 1/48)। जिस प्रकार अज्ञान का संस्कार होता है, उसी प्रकार प्रज्ञा का भी संस्कार होता है। ये संस्कार ही व्युत्थान -संस्कार को अभिभूत करता है। परवैराग्य के द्वारा इस प्रज्ञा-संस्कार का भी निरोध होता है। समाधिज प्रज्ञा के एक सप्तधाविभाग का उल्लेख 2/27 योगसूत्र में मिलता है। इसको ‘प्रान्तभूमि’ प्रज्ञा कहते हैं। द्र. प्रान्तभूमिप्रज्ञा, प्रज्ञाज्योति एवं आलोक शब्द।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रज्ञाज्योति प्रज्ञाज्योतिः योगियों के चार प्रकारों में से तीसरा है (द्र. व्यासभाष्य 3/51)। इस प्रकार के योगी भूतजयी एवं इन्द्रियजयी होते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रज्ञालोक संयम-जय (संयम पर आधिपत्य या संयम का स्थैर्य) होने पर प्रज्ञा-लोक (= समाधिजात प्रज्ञा का प्रकर्ष) होता है (योगसूत्र 3/5)। संयम के विकास के साथ-साथ प्रज्ञा का भी प्रकर्ष या वैशद्य (= अधिकतर सूक्ष्मार्थ -प्रकाशन) होता रहता है। ज्ञानशक्ति का स्थैर्य होने के कारण वह ध्येय विषय में प्रतिष्ठित हो जाती है, अतः संयम से प्रज्ञा का उत्कर्ष होता है। (आलोक यहाँ तेजसपदार्थ-विशेष नहीं है; आलोक=प्रकाशन -सामर्थ्य है – आ = चारों ओ; लोक = लोकन = अवलोकन।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रणव प्रणव’ का अर्थ ओंकार है (योगसू. 1.27, 28)। चूंकि इसके द्वारा सम्यक् रूप से स्तुति की जाती है, अतः ओंकार प्रणव कहलाता है (प्रणूयते अनेनेति प्रणवः) – ऐसा व्याख्याकार कहते हैं। प्रणव को अनादिमुक्त ईश्वर का वाचक माना गया है। व्याख्याकार कहते हैं कि इस सर्ग की तरह अतिक्रान्त सर्गों में भी प्रणव ईश्वर का वाचक था और आगे भी रहेगा। प्रायेण यह माना जाता है कि प्रणव सार्ध -त्रिमात्र है अर्थात् प्रणव में 3 1/2 मात्राएँ हैं। प्रणव का जप (ध्वनि का उच्चारण) एवं प्रणवार्थ की भावना (= चिन्तन) से ईश्वर का प्रणिधान करना सहज होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रणव कला प्रणव की बारह कलाओं का विवेचन स्वच्छन्द तन्त्र (4/254-286) में एकादशपदिका प्रकरण में और तैत्रतन्त्र के 21 वें अधिकार (पृ. 285-296) में मिलता है। विज्ञानभैरव के टीकाकार शिवोपाध्याय ने 42वें श्लोक की व्याख्या में बताया है कि अकार की नाभि में, उकार की हृदय में, मकार की मुख में, बिन्दु की भ्रूमध्य में, अर्धचन्द्र की ललाट में, निरोधिनी की ललाट के ऊर्ध्व भाग में, नाद की शिर में, नादान्त की ब्रह्मरन्ध्र में, शक्ति की त्वक् में व्यापिनी की शिखा के मूल में, समना की शिखा में और उन्मना की स्थिति शिखा के अन्तिम भाग में है। इनमें से बिंदु से लेकर उन्मना पर्यन्त 9 कलाओं का प्रणव के समान कामकला प्रभृति बीजाक्षरों, नवात्म प्रभृति पिण्ड मन्त्रों तथा ह्रींकार (शाक्त प्रणव), हूंकार (शैव प्रणव), प्रभृति बीज मन्त्रों के उच्चारण में भी होता है। योगिनीहृदय के दीपाकारोSर्धमात्रश्व से लेकर तथोन्मनी निराकारा (1/28-35) पर्यन्त श्लोकों में इनका आकार, स्वरूप, उच्चारण काल और स्थान वर्णित है। योगिनीहृदय के आधार पर यह विषय वरिवस्यारहस्य में भी प्रतिपादित है। इस ग्रन्थ के (अड्यार लाइब्रेरी, मद्रास) संस्करण के अन्त में दिये गये एक चित्र में इनके आकार को दिखाया गया है।

  योगिनीहृदय के अनुसार बिन्दु का स्वरूप दीपक के समान प्रभास्वर है। ललाट में गोल बिंदी के रूप में इसकी भावना की जाती है  और उसका उच्चारण काल अर्धमात्रा है। ‘अर्धमात्रास्थिता’ (1/74) प्रभृति दुर्गा सप्तशती के श्लोक की व्याख्या (गुप्तवती) में भास्करराय ने “अनुच्चार्या अर्धचन्द्रनिरोधिन्यादि-ध्वन्यष्टकरूपा” ऐसा कहकर अर्धमात्रा में ही सबकी स्थिति मानी है। हस्व स्वर का उच्चारण काल ‘मात्रा’ कहलाता है। इसका आधा काल बिन्दु के उच्चारण में लगता है। अर्धचन्द्र का आकार बिन्दु के आधे भाग के जैसा होता है। दीपक के समान प्रभास्वर स्वरूप के अर्धचन्द्र की भावना बिन्दु स्थान ललाट में ही कुछ ऊपर की ओर की जाती है। इसका उच्चारण काल मात्रा का चतुर्थ भाग है। निरोधिका (निरोधिनी) का आकार तिकोना है। यह चाँदनी के समान चमकता है। इसका उच्चारण काल मात्रा का आठवाँ भाग है। उज्ज्वल मणि के समान कान्ति वाले नाद का आकार दो बिन्दु और उसके बीच में खिंची सीधी रेखा के समान है। इसका उच्चारण काल मात्रा का सोलहवाँ भाग है। विद्युत के समान कांति वाले नादान्त का आकार हल सरीखा है और इसकी बाईं तरफ एक बिन्दु रहता है। इसका उच्चारण काल मात्रा का बत्तीसवाँ भाग है। दो बिन्दुओं में से बायें बिन्दु से एक सीधी रेखा खींचने पर शक्ति की आकृति बनती है। व्यापिका (व्यापिनी) का आकार बिन्दु के ऊपर बने त्रिकोण का सा है। एक सीधी रेखा के ऊपर और नीचे बिन्दु बैठा देने से समना का और एक बिन्दु के ऊपर सीधी रेखा खींचने से उन्मना का आकार बनता है। शक्ति से लेकर समना पर्यन्त कलाओं का स्वरूप द्वादश आदित्यों के एक साथ उदित होने पर उत्पन्न हुए प्रकाश के समान है। शक्ति का उच्चारण काल मात्रा का 64 वाँ भाग, व्यापिका का 128 वाँ भाग, समना का 256 वाँ भाग और उन्मना का 512 वाँ भाग होता है। अन्य आचार्यों के मत से उन्मना कला मन से अतीत होती है। अतः इसका कोई आकार नहीं होता। विज्ञानभैरव के 42 वें श्लोक के ‘शून्या’ शब्द से उन्मनी का बोध कराया गया है।
 माण्डूक्यकारिका (1/29) में प्रणव (ऊँकार) को अमात्र और अनन्तमात्र कहा गया है। भाष्यकार शंकराचार्य ने बताया है कि तुरीयावस्थापन ऊँकार अमात्र माना जाता है और अन्य अवस्थाओं में इसकी अनन्त मात्राएँ होती हैं। इन्हीं मात्राओं का तन्त्रशास्त्र में प्रणव कला के रूप में वर्णन है। निष्कल, निष्कलसकल और सकल के भेद से भी योगिनीहृदय (1/27-28) प्रभृति ग्रन्थों में इनका वर्णन मिलता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

प्रणव कला प्रणव परमेश्वर का वाचक है। प्रणव की उपासना में परमेश्वरता की सूक्ष्म सूक्ष्मतर विशेषताओं का साक्षात्कार होता है। प्रणव की ध्वनि की उत्तरोत्तर गूंज के अभ्यास के साथ ही साथ योगी उन सभी विशेषताओं का साक्षात्कार क्रम से करता जाता है। उस क्रम में सूक्ष्मतर उच्चारण काल के विभाग की कलना भी होती है। परब्रह्म की उन विशेषताओं का साक्षात्कार कराने वाली प्रणव की ध्वनि की गूंज की उन सूक्ष्मतर कलाओं को प्रणव की कलाएँ कहा जाता है। वे कलाएँ बारह हैं जो क्रम से – अकार, उकार, मकार, बिंदु, अर्धचंद्र, निरोधी, नाद, नादांत, शक्ति, व्यापिनी, समता और उन्मना हैं। बिंदु का काल आधी मात्रा है और उससे आगे वाली कलाएँ उत्तर उत्तर आधे – आधे काल की होती हैं। इस प्रकार के सूक्ष्म सूक्ष्मतर काल-विश्लेषण के सामर्थ्य का उदय शिवयोगी में ही होता है। अंतिम कला उन्मना ब्रह्म की वह विशेषता है जहाँ काल की कलना ही सर्वथा विलीन हो जाती है और अकालकलित शिवतत्त्व ही चमकता हुआ शेष रह जाता है। (स्व.तं. 9.4-225, 256)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रतिज्ञा दृष्टांतानुपरोध श्रुति में निर्दिष्ट प्रतिज्ञा और दृष्टांत का बाध न होना प्रतिज्ञा दृष्टांतानुपरोध है। “उत तमादेशम प्राक्ष्यः येनाश्रुतं श्रुंत भवति” इत्यादि वचन प्रतिज्ञा का बोधक है। क्योंकि उक्त वाक्य में उस तत्त्व को बताने की प्रतिज्ञा की गयी है, जिसके जानने से अश्रुत भी श्रुत हो जाता है। एवं “यथैकेन मृत् पिण्डेन सर्वं मृण्मयं विज्ञातं भवति” इत्यादि श्रुति वचन दृष्टांत का बोधक है। अर्थात् यदि ब्रह्म को जगत की प्रकृति न माना जाए तो श्रुत्युक्त प्रतिज्ञा और दृष्टांत बाधित हो जायेंगे। इस प्रसंग से ब्रह्म जगत् की प्रकृति (उपादान कारण) भी है, यह अवगत होता है (अ.भा.पृ. 530)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रतिपक्षभावना पाँच यम (अहिंसा आदि) एवं पाँच नियम (शौच आदि) के विरोधी हिंसा-अशौच आदि (वितर्कों) में जब चित्त में रुचि उत्पन्न हो तब प्रतिपक्षभावना (‘प्रतिपक्षभावन’ शब्द का भी प्रयोग होता है) करनी चाहिए – यह योगशास्त्र (2/33) की मान्यता है। हिंसा आदि चाहे स्वयंकृत हों, चाहे अन्य द्वारा कारित हों, चाहे अनुमोदित हों, वे दुःख और अज्ञान रूप फल को उत्पन्न अवश्य करेंगे, अतः वे आचरणीय नहीं हैं – ऐसी चिन्ता ही प्रतिपक्षभावना का मुख्य स्वरूप है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रतिप्रसव प्रसव (= सृष्टि, जन्म) का विरोधी = प्रतिप्रसव। इसका नामान्तर है ‘प्रलय’ अर्थात् अपने कारण में लीन हो जाना। किसी सीमित काल के लिए लीन हो जाना या चिरकाल के लिए लीन हो जाना – दोनों ही प्रतिप्रसव हैं। ‘प्रत्यस्तमय’ शब्द भी कहीं-कहीं ‘प्रतिप्रसव’ के लिए प्रयुक्त होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रतिबन्ध सांख्यसूत्र (1/100) में ‘प्रतिबन्ध’ शब्द का अर्थ ‘व्याप्ति’ (=नियत -साहचर्यनियम) है। लिङ्गदर्शन से प्रतिबन्ध की स्मृति होने पर पक्ष में साध्य की अनुमिति होती है, जैसे पर्वत (पक्ष) में धूम (लिङ्ग) को देखने पर ‘जहाँ धूम है वहाँ अग्नि है’ इस व्याप्ति का स्मरण होकर पर्वत में अग्नि की अनुमिति होती है। सांख्ययोग के ग्रन्थों में अन्यत्र कहीं भी इस शब्द का प्रयोग न रहने पर भी न्याय के ग्रन्थों में यह शब्द व्याप्ति-अर्थ में बहुशः प्रयुक्त हुआ है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रतिबिंबवाद वह वाद, जिसके अनुसार संपूर्ण विश्व परमशिव की शुद्ध एवं परिपूर्ण संविद्रूपता में दर्पण प्रतिबिम्ब न्याय से चमकता हुआ ठहरता है। जो कुछ भी जिस भी रूप में आभासित होता है वह उसी संविद्रूपता में आभासित होता है। इस प्रकार उससे भिन्न रूप में बाह्यरूपतया कुछ भी स्थित नहीं है। (तें.आ.वि.खं. 2, पृ. 32)। जिस प्रकार दर्पण में कोई भी प्रतिबिंब विपरीत रूप में प्रकट होता है, अर्थात् दायाँ बायाँ दिखाई देता है तथा बायाँ दायाँ दिखाई देता है, उसी प्रकार यह संपूर्ण विश्व भी परमशिव के प्रकाश रूप दर्पण में प्रतिबिंबित होता हुआ विपरीततया ही प्रकट होता है। यह वस्तुतः शुद्धि ‘अहं’ स्वरूप चिद्रूपप्रमता है, परंतु ‘इदं’ के रूप में अचिद्रूपतया और प्रमेयरूपतया दीखता है। यही इस प्रतिबिंब की प्रतीयता या उल्टापन है। यही भेदावभासन की प्रक्रिया है। समस्त विश्व को उसी के प्रतिबिंब के रूप में समझना मोक्ष है तथा भेद के रूप में समझना बंधन है। वस्तुतः दर्पण में प्रतिबिंबित हो रही वस्तु के प्रतिबिंब की दर्पण से भिन्न कोई अलग सत्ता नहीं है। उसी प्रकार परमशिव की संविद्रूपता में प्रतिबिंबित हो रहे समस्त विश्व की संविद्रूपता से भिन्न कोई अलग सत्ता नहीं है। दर्पण एक जड़वस्तु है, परंतु संवित् चेतना है, प्रकाश और विमर्श का परिपूर्ण सामरस्य है। दर्पण किसी बिंब रूप वस्तु के सामने आने पर ही प्रतिबंब को ग्रहण कर सकता है; उसके बिना नहीं। परंतु संवित् एक चिद्रूप तथा स्वतंत्र दर्पण है, अतः अपनी ही शक्तियों के प्रतिबिंबों को अपने ही भीतर प्रकट करता रहता है। उसी की शक्तियों के प्रतिबिंब छत्तीस तत्त्वों के रूप में प्रमेयतया प्रकट होते रहते हैं और उसी की इच्छा से ऐसा होता रहता है। (वही पृ. 30; तं.आ. 3-4 से 8)। इस प्रकार शैव दर्शन के अनुसार परमशिव ही इस प्रतिबिंब न्याय से अपनी परिपूर्ण स्वातंत्र्य शक्ति द्वारा बिम्ब एवं प्रतिबिंब आदि के चित्र विचित्र रूपों में सतत रूप से अवभासित होता रहता है। (वी.पृ. 12)। इस तरह से जगत की सृष्टि प्रतिबिंब न्याय से ही हुआ करती है। ऐसा सृष्टि सिद्धांत ही शैवदर्शन का प्रतिबिंबवाद है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रतिष्ठा कला तत्वों के सूक्ष्म रूपों को कला कहते हैं। एक एक कला कई एक तत्त्वों को व्याप्त कर लेती है। जल तत्त्व से लेकर पृथ्वी तत्त्व तक की समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म सृष्टि को व्याप्त करने वाली कला को प्रतिष्ठा कला कहते हैं। इस कला पर समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म प्रपंच प्रतिष्ठित हो कर रहता है। (तं.सा.पृ. 109)। प्रतिष्ठा कला को प्राकृत अंड भी कहते हैं। (तं.सा.पृ. 110)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रतिष्‍ठा कला देखिए ‘कला’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

प्रतिष्ठित स्पंद देखिए सामान्य स्पंद।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रतीकालंबन ब्रहमत्व की भावना से रहित प्रतीकमात्र जिसकी उपासना का विषय है, वह प्रतीकालंबन उपासक है अर्थात् सिद्धांत में श्रुतियाँ सर्वत्र ब्रह्मत्व रूप से ही उपासना का विधान करती हैं क्योंकि सभी उपास्य भगवद् विभूति रूप होने से शुद्ध ब्रह्मरूप हैं। किन्तु प्रतीकालंबन उपासकों की मान्यता के अनुसार उन उपास्यों में ब्रह्मत्व ज्ञान किए बिना भी की गयी उपासना को श्रुतियाँ सफल तो बताती हैं किंतु वे उपास्य ब्रह्मरूप हैं, ऐसा नहीं बतातीं। इस प्रकार की मान्यता वाले उपासक प्रतीकालंबन कहे गए हैं। इनके अनुसार प्रतीक की अपने रूप में उपासना भी निरर्थक नहीं हैं।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रतीकोपासना अतद्रूप की तद्रूप में उपासना प्रतीकोपासना है। जैसे, ‘मनो ब्रह्म इत्युपासीत’ यहाँ ब्रह्म भिन्न मन की ब्रह्म रूप में उपासना प्रतिकोपासना है तथा इस प्रकार प्रतीक का आलंबन कर ब्रह्म की उपासना करने वाले उपासक प्रतीकोपासक हैं (अ.भा.पृ. 1259)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रत्यक्-चेतन योगग्रन्थों में ‘प्रत्यक्चेतन’ शब्द ही प्रमुखतः प्रयुक्त होता है (क्वचित् ही प्रत्यक्चेतना शब्द प्रयुक्त हुआ है)। योगसूत्र 1/29 में यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। वाचस्पति के अनुसार विपरीत भाव का बोद्धा प्रत्यक् है; यह चेतन (अपरिणामी कूटस्थ ज्ञाता पुरुष) का विशेषण है, अतः प्रत्यक्चेतन का अर्थ होगा अचित् दृश्य का ज्ञाता अर्थात् अविद्यावान् पुरुष। भिक्षु कहते हैं कि प्रत्येक वस्तु में जो अनुस्यूत है, वह प्रत्यक् है, अर्थात् परमात्मा प्रत्यक् है। यह अर्थ वर्तमान सूत्र में अप्रयोज्य है – यह कई व्याख्याकारों ने भली-भांति दिखाया है। प्रत्यक्चेतन प्रत्यगात्मा भी कहलाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रत्यक्षप्रमाण सांख्य -योग में स्वीकृत तीन प्रमाणों में यह एक है। सांख्यकारिका में इसका लक्षण है – प्रतिविषय-अध्यवसाय (5)। विषय के साथ इन्द्रिय का संपर्क होने पर जो अध्यवसाय (निश्चय) होता है, वह प्रत्यक्ष है। पूर्वाचार्य कहते हैं कि विषय (स्थूल-सूक्ष्म) के साथ इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर बुद्धिगत तमोगुण का अभिभव होने के साथ-साथ सत्त्वगुण का जो स्फुरण होता है, वह प्रत्यक्ष प्रमाण है, जो चित्तवृत्तिविशेष ही है। इसके साथ चेतन पुरुष का जो संबंध (अर्थात् चेतन में समर्पण) है, वह प्रत्यक्षप्रमा कहलाता है। यह प्रत्यक्ष संशय, विपर्यय और स्मृति से भिन्न है। सांख्यसूत्र (1/89) में भी यही मत प्रतिपादित हुआ है। कारिका में प्रत्यक्ष के लिए ‘द्रष्ट’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। योगसूत्र (1/7) का कहना है कि प्रत्यक्ष में विषयगत विशेषधर्म प्रधानतया भासमान होता है। इस प्रमाण से उत्पन्न होने वाली प्रमा को ‘पौरुषेय चित्तवृत्तिबोध’ कहा जाता है। उदाहरणार्थ ‘यह घट है’ ऐसा निश्चय (घटाकारा चित्तवृत्ति) प्रत्यक्ष प्रमाण है और ‘मैं घट जान रहा हूँ’ यह प्रत्यक्ष प्रमा है। बुद्धि में प्रतिबिम्बित होने के कारण बुद्धि के साथ पुरुष की अभिन्नता होती है। और इस प्रकार निर्धर्मक पुरुष में ज्ञानादिधर्मों का उपचार होता है; यही कारण है कि प्रमा को पौरुषेय कहा जाता है। प्रमाणों में प्रत्यक्ष प्रमाण सर्वाधिक बलवान् है। लौकिक प्रत्यक्ष की तुलना में योगज प्रत्यक्ष अधिकतर बलशाली है। समाधि प्रत्यक्षों में निर्विचारा समापत्ति उच्चतम है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रत्यक्षाद्वैत वेदांत आदि अद्वैत शास्त्रों की प्रक्रियाओं में या तो समाधि की अवस्था में अद्वैतता का साक्षात्कार होता है या शरीर के छूट जाने पर अशरीर मुक्ति की दशा में। परंतु शैवशास्त्र की प्रक्रियाओं में इन दो दशाओं के अतिरिक्त सांसारिक व्यवहार की इस जगत् रूपिणी दशा में भी अद्वैत तत्त्व का साक्षात्कार हो सकता है। तद्नुसार एक उत्कृष्टतर शिवयोगी अपनी बाह्य इंद्रियों से सर्वत्र एकमात्र शिवरूपता को ही देखता है। जिस तरह से एक योग्य स्वर्णकार की पैनी दृष्टि बीसों प्रकारों के अलंकारों में एकमात्र स्वर्ण की ही शुद्धि के स्तरों की दशाओं को देखा करती है, अलंकारों के बाह्य आकारों की ओर उसकी अवधान दृष्टि जाती ही नहीं, उसी तरह से ऐसा योगी सांसारिक विषयों के बाह्य आकार की ओर अपने अवधान को न लगाता हुआ सर्वत्र एकमात्र शुद्ध और परिपूर्ण शिवता को ही अपने अवधान की दृष्टि से देखा करता है। इस प्रकार से देखे जाने वाले अद्वैत को आ. अभिवनगुप्त के पिता आ. नरसिहंगुप्त ने प्रत्यक्षाद्वैत कहा है। (मा.वि.वा. 1-760 से 764)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रत्यभिज्ञा पहले जाने हुए, पर आगे विस्मृत हुए अपने परिपूर्ण ऐश्वर्ययुक्त संविदात्मक शुद्ध स्वरूप का पुनः स्मरणात्मक ज्ञान। परमेश्वर अपने स्वातंत्र्य से अपने ही आनंद के लिए जीव रूप में प्रकट होता हुआ अपने वास्तविक स्वरूप और स्वभाव को भुला डालता है। ऐसी अवस्था में आने के अनंतर जीव को जब कभी पुनः अपने परिपूर्ण आनंदात्मक शुद्ध स्वरूप की पहचान हो जाती है तो उसे प्रत्यभिज्ञा कहते हैं। समस्त व्यावहारिक ज्ञान बहिर्मुखी होता है, परंतु प्रत्यभिज्ञा अपने अंतर्मुखी स्वस्वरूप का साक्षात्कार करवाने वाली होती है। यही इसकी प्रतीपता है जो प्रति उपसर्ग से द्योतित होती है। (ई.प्र.वि.खं. 1, पृ. 19-20)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रत्यय चित्त की दो अवस्थाएँ हैं – ज्ञात या लक्षित अवस्था तथा अज्ञात या अलक्षित अवस्था। ज्ञात अवस्था प्रत्यय कहलाती है। चूंकि चित्त -वृत्तियाँ सदा ही ज्ञात रहती हैं (सदाज्ञाताश्चित्तवृत्तयः, योगसूत्र 4/18), अतः वृत्ति प्रत्यय कहलाती है। संस्कार अलक्षित अवस्था में रहते हैं, अतः वे प्रत्ययात्मक नहीं हैं, (द्र. व्यासभाष्य 3/9)। विषयाकार चित्तवृत्ति का जो अनुभवांश है, उसके लिए विशेषतः प्रत्यय शब्द का प्रयोग होता है, जैसा कि 1/11 सूत्र के व्यासभाष्य से ज्ञात होता है। प्रत्यय संस्कारजनित होता है और संस्कार न रहने पर प्रत्यय उत्पन्न नहीं होते हैं। कारण के अर्थ में ‘प्रत्यय’ शब्द का प्रयोग कई योगसूत्रों में मिलता है (द्र. 1/10; 1/18; 1/19; 1/20 आदि)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रत्ययैकतानता प्रत्ययों की एकतानता ध्यान का स्वरूप है। प्रत्यय = ध्येयरूप आलम्बन से संबन्धित चित्तवृत्ति; एकतानता = एकाग्रता = सदृश प्रवाह। आलम्बन संबन्धी वृत्तियों की धारा जब इस प्रकार अखण्ड प्रतीत हो मानो एक ही वृत्ति उदित हुई है – तब वह एकतानता है – ऐसा पूर्वाचार्यों का कहना है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रत्यवमर्श अपने शुद्ध एवं परिपूर्ण स्वरूप का विमर्श। अपने परिपूर्ण अहं के बारे में किया गया परामर्श। शिवशक्ति की परिपूर्ण सामरस्यात्मक अपनी संविद्रूपता का विमर्शन। अह्मात्मक असांकेतिक पर परामर्श। (तं.आ. 3-235; वही वि.पृ. 224)। व्यवहार में अवमर्श प्रायः बाह्य विषयों का या अधिक से अधिक सुख दुःख आदि आभ्यंतर भावों का ही हुआ करता है। जैसे यह नील है, यह पीत है, मैं सुखी हूँ, मुझे आश्चर्य हो रहा है इत्यादि। परंतु चेतना की अंतर्मुखी गति से उसे उल्टा (प्रतीय) अपने ही स्वरूप का अहंरूपतया भी विमर्शन होता ही रहता है। इसी अंतर्मुखी स्वात्म विमर्शन को प्रत्यवमर्श कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रत्याहार अष्टांग योग में प्रत्याहार का स्थान पंचम है; षडंग योग की जो गणना मिलती है, उसमें भी प्रत्याहार गिना जाता है। कई योगग्रन्थों में प्रत्याहार को ‘विषयों से इन्द्रियों को प्रयत्नपूर्वक हटा लेना’ कहा गया है। इस ‘हटा लेना’ मात्र को पतंजलि ने प्रत्याहार नहीं कहा। उनके अनुसार ‘शब्दादि विषयों से चित्त जब प्रतिनिवृत्त होता है जब इन्द्रियों के भी निवृत्त होने पर उनकी चित्त-स्वरूप के अनुकरण-सदृश जो अवस्था होती हैं वह प्रत्याहार है (2/54)। अनुकरण-सदृश कहने का गूढ़ अभिप्राय है। व्याख्याकारगण कहते हैं कि जिस प्रयत्न से चित्त निरुद्ध होता है, उससे इन्द्रियाँ भी निरुद्ध होती हैं, इस प्रकार निरोध-अंश में चित्त और इन्द्रियों में समता है। चित् निवृत्त होकर ध्येय विषय का अवलंबन करता है, पर इन्द्रियाँ विषय-निवृत्त होने पर भी ध्येय का अवलंबन नहीं करतीं – यह दोनों में भेद है। इस समता एवं भेद के कारण ही पतंजलि ने 2/54 सूत्र में ‘इव’ (अर्थात् ‘स्वरूपानुकार की तरह’) का प्रयोग किया है। प्रत्याहार के दृढ़ अभ्यास से इन्द्रियों की वश्यता पूर्णमात्रा में होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रथमकल्पिक योगियों के चार प्रकारों में यह प्रथम प्रकार है (द्र. व्यासभाष्य 3/51)। प्रथमकल्पिक वह योगाभ्यासी है जिसमें अध्यात्मज्ञान अर्थात् योगाभ्यास से उत्पन्न अत्नर्दृष्टि, का आरम्भ मात्र हुआ है। कहीं-कहीं प्राथमकल्पिक पाठ भी मिलता है (द्र. विवरणटीका)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रधान सत्त्व-रजः-तमः नामक तीन गुणों के समुदाय को अर्थात् उनकी साम्यावस्था को ‘प्रधान’ कहा जाता है – ‘प्रधीयतेस्मिन् इति प्रधानम्’ – सभी व्यक्त अनात्म वस्तु इसमें अवस्थित हैं, अतः यह प्रधान कहलाता है। गुणों का यह साम्यावस्था-रूप प्रधान, अलिंग, अव्यक्त आदि नामों से भी अभिहीत होता है। (वैषम्यावस्थ त्रिगुण के लिए प्रधान शब्द का व्यवहार नहीं होता)। प्रधान परार्थ है अर्थात् पुरुष के लिए प्रवर्तित होता है; यह हेतुहीन, परिणामी -नित्य, सर्वव्यापी, एकसंख्यक, अनाश्रित, उपादानकारणशून्य, निरवयव तथा स्वतन्त्र है – गुणसाम्यरूप प्रधान किसी चेतन के अधीन नहीं हैं। इस प्रधान की स्थिति एवं गति नामक दो अवस्थाएँ हैं (द्र. व्यासभाष्य 2/30)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रधान तत्त्व देखिए प्रकृति तत्त्व।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रधानजय प्रधानजय नामक सिद्धि का उल्लेख योगसूत्र 3/48 में है। अष्ट प्रकृति एवं सोलह विकारों पर आधिपत्य करना ही प्रधानजय है। प्रधानजय का नामान्तर प्रधानवशित्व है जिसका उल्लेख व्यासभाष्य (3/1) में हुआ है। इस विभूति से कामनाओं की समाप्ति हो जाती है और विषयों के प्रति कोई आकर्षण नहीं रह जाता। काय एवं इन्द्रियों का यथेच्छ् निर्माण भी इस विभूति के कारण ही हो सकता है (द्र. योगवार्त्तिक एवं तत्त्ववैशारदी 3/18)। प्रधानजयी जीव का उल्लेख व्यासभाष्य 3/26 में है। अपने सर्ग काल में अर्थात् जिस ब्रहमाण्ड में वे हैं उस ब्रहमाण्ड के स्थितिकाल में, ये प्रधानजयी जीव अपनी इच्छा के अनुसार गुणत्रय को प्रवृत करा सकते हैं – ऐसा व्याख्याकारगण कहते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रबुद्ध जब देहात्मवाभिमान रूपी द्वैतपरक अज्ञान (देखिए) का साधना द्वारा नाश हो जाता है तो साधक अपने पशुभाव को भूलकर अपनी शुद्ध संविद्रूपता का आवेश लेने लगता है। ऐसी अवस्था में पहुँच जाने पर वह प्रबुद्ध कहलाता है। (स्व.तं.पटल 3-128, 129)। ऐसी अवस्था ईश्वर के शक्तिपात से ही सुलभ होती है। ईश्वर के शक्तिपात से ही जीव में सद्गुरू के पास जाने की प्रेरणा प्राप्त होती है। गुरु की आज्ञा के अनुसार सतत अभ्यास से उसके मोहपाशों का क्षय हो जाता है। इस प्रकार वह प्रबुद्ध की अवस्था को प्राप्त करता हुआ आगे सुप्रबुद्ध बनने के योग्य बन जाता है। (स्व.वि.पृ. 8, 9, 56)। प्रबुद्ध ज्ञानी को और सुप्रबुद्ध पूर्णज्ञानी को कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रभुशक्ति परमशिव की सर्वत्र अखंडित रूप से चमकने वाली परिपूर्ण स्वातंत्र्य शक्ति। (शि.सू.वा.यपृ. 48; तं.आ. 0 6-53)। देखिए स्वातंत्र्य शक्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रभूत प्रभूत = प्रकृष्ट भूत = स्थूलभूत या महाभूत। क्षिति (पृथ्वी), अप् (जल), तेजः, मरुत् (वायु) और व्योम (आकाश) में शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध गुणों के यथाक्रम पाँच, चार (गन्धवर्जित), तीन (गन्ध-रसवर्जित), दो (गन्ध-रस-रूप-वर्जित) एवं एक गुण (शब्द) ही हैं – ऐसा जब माना जाता है तो वह प्रभूत का स्वरूप होता है। यह प्रभूत भूत (तत्त्व) से स्थूल है। प्रभूत को कोई-कोई ‘पंचीकृत भूत’ समझते हैं। इस दृष्टि के अनुसार क्षिति या पृथ्वी में अर्धांश गन्ध है और बाकी अर्धांश में अन्य चार गुण समान परिमाण में हैं। अप् या जल का अर्धांश रस है, बाकी अर्धांश में अन्य चार गुण हैं। इस प्रकार तेजः, वायु और आकाश के विषय में भी समझना चाहिए। प्रभूत का उल्लेख सांख्यकारिका (का. 39) में है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रभ्वनिंगितार्थ त्याग प्रभु द्वारा असंकेतित जो विषय है, उसका परित्याग प्रभ्वनिंगितार्थ त्याग है। पुष्टिमार्ग में भगवान् द्वारा भक्त अंगीकृत हो जाता है। वैसी स्थिति में उस भक्त द्वारा तीन गुण अपनाए जाते हैं – स्नेह, त्याग और भजन। इनके अतिरिक्त अन्य गुण प्रभ्वनिंगितार्थ हैं। अतः प्रभु द्वारा अनिंगित -असंकेतित होने से उक्त तीनों गुणों से अतिरिक्त सभी विषय परित्याग करने योग्य हैं (अ.भा.पृ. 1306)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रमा प्रमाण के फल को प्रमा कहते हैं। प्रमाण प्रकाश रूप होता है और उसी की विमर्शरूपता को प्रमा या प्रमिति कहते हैं। शैव दर्शन में इसे स्वात्मविश्रांति के रूप में ठहराया गया है। तदनुसार प्रमाण के द्वारा जब प्रमाता प्रमेय के विषय में निश्चय कर लेता है कि यह अमुक वस्तु है और अमुक स्वभाव की है तो तदनंतर उसे एक या संतोषमयी विमर्शात्मिक स्वात्मविभ्रांति का उदय हो जाता है जिसमें प्रमेय और उसका निश्चय दोनों ही प्रमाता के स्वरूप में ही समा जाते हैं। उसका आकार यह होता है – अमुक वस्तु को मैंने जान लिया या अमुक वस्तु के विषय में मैं ज्ञानवान हो गया। प्रमाण के व्यापार में प्रमेय के स्वरूप और स्वभाव के निश्चय की प्रधानता होती है कि यह अमुक वस्तु है। परंतु प्रमा की अवस्था में उस निश्चयात्मक ज्ञान के स्वामी अहंरूपी आत्मा ही की प्रधानता होती है; प्रमेय की या प्रमाण की नहीं। ऐसी प्रमातृ विश्रांति को प्रमा कहते हैं। प्रमा तभी तक प्रमा बनी रहती है जब तक किसी अन्य प्रमाण से उसकी यथार्थता बाधित न हो जाए। बाधित हो जाने पर उसका प्रमाभाव पूर्वकाल से लेकर ही उखड़ जाता है। (देखिएप्रमाण)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रमाण प्रमाणसम्बधी विचार सांख्ययोग का एक मुख्य विषय है। प्राचीनतम ग्रन्थों (जैसे षष्टितन्त्र) में प्रमाण सम्बन्धी जो विचार था, वह उन ग्रन्थों का नाश हो जाने के कारण जाना नहीं जा सकता। तत्त्वसमास-सूत्र में ‘त्रिविधं प्रमाणम्’ (21) इतना ही कहा गया है; इसकी व्याख्याएँ भी अर्वाचीन हैं तथा भिक्षु आदि की व्याख्या का ही अनुसरण करती हैं। योगसूत्र (1/7), सांख्यकारिका (4-5) तथा सांख्यसूत्र (1/87) में प्रमाण -सम्बन्धी जो सांख्यमत हैं, वह टीकाकारों की दृष्टि के अनुसार यहाँ संक्षेपतः दिखाया जा रहा है। प्रमेय पदार्थों की सिद्धि (सत्ता का निश्चय) प्रमाण से होती है – यह माना जाता है (द्र. कारिका 4)। प्रमाण के विषय में सूक्ष्मदृष्टि से विचार वाचस्पति ने तत्त्वकौमुदी -टीका में किया है। प्रमा का जो करण है, वह प्रमाण है। यह प्रमा (सम्यक्ज्ञान) दो प्रकार का है – मुख्य तथा गौण। गौण प्रमा इन्द्रिय अर्थ सन्निकर्षजन्य होती है। यह असन्दिग्ध, अविपरीत एवं अनधिगतविषयक चित्तवृत्ति है। मुख्य प्रमा को पौरुषेय बोध कहते हैं, जो चित्तवृत्ति का फलभूत है; यह पौरुषेयबोध पुरुष में उपचरित होता है, यद्यपि यह भी बुद्धि की ही वृत्ति है। गौण प्रमा का करण है सन्निकर्षयुक्त इन्द्रिय; उसी प्रकार मुख्य प्रमा का करण है – चित्तवृत्ति। सांख्यकारिका एवं योगसूत्र में चित्तवृत्ति -विशेष को ही प्रमाण माना गया है। यह प्रमाणरूप चित्तवृत्ति अध्यवसाय ही है; युक्तिदीपिका के अनुसार यह प्रमाण का प्रमारूप फल पुरुषाश्रित है। अनधिगत अर्थ का अवधारण प्रमा है; यह बुद्धि – पुरुष दोनों का धर्म भी हो सकता है, अथवा किसी एक का। द्र. सांख्यसूत्र 1/87। इस सूत्र की व्याख्या में भाष्यकार ने उपर्युक्त दोनों प्रकार की प्रमा का उल्लेख किया है तथा इन्द्रियसन्निकर्ष को गौण प्रमाण एवं बुद्धिवृत्ति को मुख्यप्रमाण कहा है। भिक्षु चूंकि इन्द्रिय-सन्निकर्ष को गौण प्रमाण कहते हैं; अतः चक्षु आदि इन्द्रियाँ उनके मत में परम्परया ही प्रमाण हैं। सांख्यकारिका की माठरवृत्ति, गौडपादभाष्य, जयमङ्गला-टीका में प्रमाण पर साधारण बातें कही गई हैं। युक्तिदीपिकाकार कहते हैं कि प्रमाण वस्तुतः एक है; एक ही बुद्धिवृत्तिरूप प्रमाण उपाधिभेद से तीन प्रकार की हो जाती है। 1/7 योगसूत्र की व्याख्या में वाचस्पति ने प्रमा -प्रमाण के विषय में जो कहा है, वह तत्त्वकौमुदी में कथित मत ही है; सांख्यभाष्य में प्रतिपादित मत ही 1/7 योगसूत्रीय भिक्षुटीका में मिलता है। प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम के भेद से यह प्रमाण त्रिविध है (द्र. प्रत्यक्ष आदि शब्द)। उपमान, अर्थापत्ति, संभव, अभाव, ऐतिह्य आदि प्रमाणों का अन्तर्भाव इन तीन प्रमाणों में हो जाता है, जैसा कि सांख्यकारिका (4-5) की व्याख्या में व्याख्याकारों ने दिखाया है। प्रमाण चूंकि अध्यवसायरूप है, अतः सभी प्रकार के जीवों में प्रमाण -रूप चित्तवृत्ति है; भले ही हमारी लौकिक दृष्टि में सभी प्राणियों में विद्यमान प्रमाणवृत्ति का स्फुट ज्ञान न होता हो।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रमाण 1. देखिए सूर्य। 2. लौकिक – उस ऐंद्रियिक संवेदन, मानस बोध, अनुमान, शाब्द बोध आदि वस्तु को व्यवहार में प्रमाण कहते हैं जिसके द्वारा किसी प्रमेय के स्वरूप की व्यवस्था हो जाए कि यह अमुक वस्तु है या उसके स्वभाव की व्यवस्था हो जाए कि यह ऐसी या वैसी वस्तु है। प्रमाण रूप ज्ञान क्षणिक होता है। उसका प्रति क्षण उदय और लय होता रहता है। उसके संस्कार प्राणी में अंकित होकर रहते हैं। एक एक प्रमाण रूप ज्ञान का विषय एक एक वस्तु होती है जिसके लिए एक एक शब्द का प्रयोग किया जाता है। प्रमाण तभी तक प्रमाणरूपतया स्मृति के क्षेत्र में ठहरता है जब तक उसकी अपनी मान्यता किसी और बलवान् प्रमाण से बाधित न होने पाए। बाधित हो जाने पर उसकी प्रमाणता पूर्वकाल से ही उखड़ जाती है। प्रमाण वस्तु के और उसकी विशेषताओं के प्रकाश को कहते हैं और उनके विमर्श को प्रमा कहते हैं। माया क्षेत्र में ही प्रमाण का प्रशासन चलता है। माया से ऊपर जो परमेश्वर रूप मूल तत्त्व है वह कभी भी लौकिक प्रमाणों का विषय नहीं बन सकता है। वह तो स्वयं अपने ही प्रकाश से प्रकाशमान बना रहता है। शास्त्रज्ञान और योगाभ्यास भी उसे प्रकाशित नहीं कर सकते। ये उपाय साधक को उस स्थिति पर पहुँचा सकते हैं जहाँ वह स्वयं अपने वास्तविक स्वभावभूत परमेश्वरता के रूप में स्वयं अपने ही प्रकाश से चमकता रहता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रमाण संकर एक विषय में अनेक प्रमाणों का सांकर्य होना अर्थात् मिल जाना प्रमाण संकर है। जैसे, साक्षात्कार के प्रति शब्द को भी जनक मानने में प्रत्यक्ष और शब्द दोनों प्रमाणों का संकर हो जाता है। एक दूसरे के अभाव में रहने वाले दो धर्मों का किसी एक स्थान में समावेश हो जाना संकर है। इसके अनुसार प्रत्यक्ष और शब्द इन दोनों प्रमाणों का सांकर्य हो जाता है। क्योंकि अत्यंत असत् आकाशपुष्प आदि अर्थ में प्रत्यक्ष प्रमाण की प्रवृत्ति नहीं है, किन्तु शब्द प्रमाण वहाँ भी ज्ञान का जनक होता है, जैसा कि “अत्यंतासत्यापि ह्यर्थे ज्ञानं शब्दः करोतिहि” ऐसा कहा गया है (एवं शब्द प्रमाण का प्रयोग हुए बिना भी प्रत्यक्ष प्रमाण से घटादि वस्तु का ज्ञान होता है। किन्तु ‘तत्त्वमसि’ वाक्य स्थल में शब्द प्रमाण प्रयुक्त शाब्दत्व धर्म और प्रत्यक्ष प्रमाण प्रयुक्त साक्षात्कारत्व धर्म इन दोनों का एक जगह समावेश स्वीकार करने से प्रमाण संकर हो जाता है।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रमाता शैव और शाक्त दर्शन में प्रमाता के सात भेद किये गये हैं। ये हैं – शिव, मन्त्रमहेश्वर, मन्त्रेश्वर, मन्त्र, विज्ञानाकल, प्रलयाकल और सकल। शिव और शक्ति तत्त्व मिलकर शिव प्रमाता का रूप धारण करते हैं। इसकी स्थिति राजा के समान है। सदाशिव मन्त्रमहेश्वर, ईश्वर मन्त्रेश्वर और शुद्धविद्या मन्त्र के नाम से प्रसिद्ध हैं। इनकी स्थिति अधिकारी राजपुरुष की सी है। विज्ञानाकल, प्रलयाकल और सकल जीवों पर ये शिव प्रमाता रूपी राजा के प्रतिनिधि होकर शासन करते हैं। मायीय, कार्म और आणव- ये तीन प्रकार के मल माने गये हैं। इनमें से मायीय मल से आवृत विज्ञानाकल, दो मलों से आवृत प्रलयाकल और तीनों मलों से आवृत सकल प्रमाता कहे जाते हैं। ये सभी भेद परिमित प्रमाता के हैं। प्रथम चार भेद शुद्धि सृष्टि के और अन्तिम तीन अशुद्ध सृष्टि के अन्तर्गत हैं। अशुद्ध सृष्टि के प्रमाताओं को ही अपने मलीय आवरणों को हटाने के लिये उपायों का सहारा लेना पड़ता है।

  विरुपाक्षपंचाशिका की 41-44 कारिकाओं में अप्रबुद्ध, प्रबुद्धकल्प, प्रबुद्ध, सुप्रबुद्धकल्प और सुप्रबुद्ध नामक पाँच प्रकार के प्रमाताओं का विवेचन किया गया है। स्पन्दकारिका (श्लो. 17, 19-20, 25, 44) में भी अप्रबुद्ध, प्रबुद्ध और सुप्रबुद्ध प्रमाताओं का स्वरूप वर्णित है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

प्रमाता (तृ) (पारमार्थिक) समस्त प्रमाओं में स्वातंत्र्यपूर्वक विहरण करने वाला तथा उनके उदय और लय को करने वाला, समस्त प्रमारूपी नदियों का एकमात्र विश्रांति स्थान रूपी समुद्रकल्प परिपूर्ण संवित्स्वरूप परमेश्वर। प्रमातृ पद में तृ प्रत्यय कर्तृत्व का द्योतक है और कर्तृत्व स्वातंत्र्य का नाम है। परिपूर्ण स्वातंत्र्य एकमात्र परमेश्वर में ही है। अतः वही वस्तुतः एकमात्र प्रमाता है। शेष सभी लौकिक तथा अलौकिक प्रमातृगण उसी के आकार भेद हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रमाता (तृ) (व्यावहारिक) शुद्ध एवं परिपूर्ण संवित् ही जब अपने स्वातंत्र्य से प्रमाण तथा प्रमेय के भेद का दहन करने वाली चिद्रूप वह्नि (देखिए) का रूप धारण करती है तो उस अवस्था में पहुँचने पर उसके इस परिमित रूप को ही प्रमाता कहते हैं। (तं.आ. 3-123, 124)। शैवदर्शन में सात प्रकार के प्रमाता माने गए हैं : अकल, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर, मंत्र (विद्येश्वर) विज्ञानाकल, प्रलयाकल तथा सकल। (यथास्थान देखिए)। ये प्रमाता प्रमेयों को विविध दृष्टियों से देखते हैं, जानते हैं और उनके विषय में निश्चय करते हैं। मंत्र, मंत्रेश्वर आदि उनका विमर्शन मात्र करते हैं। दर्शन, निश्चय आदि माया के क्षेत्र में ही होते हैं। शुद्ध विद्या में और शक्ति क्षेत्र में केवल विमर्शन ही होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रमाद योगसूत्रोक्त (1/30) नौ अन्तरायों में प्रमाद एक है। भाष्यानुसार इसका स्वरूप है – समाधि के साधनों का अभावन (= न करना)। ‘प्रमाद’ का शाब्दिक अर्थ है – प्रच्युति। अतः प्राप्त कर्त्तव्य से विमुख होना ही प्रमाद है (द्र. गीता 14/9 का शांकरभाष्य)। विरोधी विषय का संग ही मुख्यतया प्रमाद का हेतु होता है। चेष्टा न करने पर भी समाधि स्वतः सिद्ध हो जायेगी – यह समझकर यमादि अंगों का अभ्यास न करना योगक्षेत्र का प्रमाद है। आत्मज्ञान -प्राप्ति में प्रमाद कितना बाधक है, यह मुण्डक उप. 3/2.4 (न च प्रमादात् तपसो वाप्यलिङ्गात्) से जाना जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रयत्नशैथिल्य जिन उपायों से आसन का अभ्यास दृढ़ होता है, उनमें से यह एक है (योगसूत्र 2/47)। आसन में बैठकर शरीर के अवयवों को ढीला छोड़ देना ही इस अभ्यास का स्वरूप है। इसमें यह देखना पड़ता है कि इस शैथिल्य के कारण शरीर में टेढ़ापन न हो जाए। आसन में बैठने पर शरीर के विभिन्न अंगों में जो पीड़ा या अस्वस्थता का बोध होता है (विशेषतः दुर्बलपेशी वालों में) वह प्रयत्नशैथिल्य से नष्ट हो जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रलय पारमेश्वरी लीला की वह भूमिका, जिसमें समस्त बाह्य प्रपंच माया में पूर्णतया विलीन हो जाता है। (तं.सा.पृ. 55)। इस प्रलय के करने वाले अधिकारी भगवान् अनंतनाथ हैं। प्रलय अवांतर पारमेश्वरी लीला की वह भूमिका, जिसमें सारी त्रिगुणात्मक सृष्टि, समस्त कार्यतत्त्व और करण तत्त्व मूल प्रकृति में विलीन हो जाते हैं। (तं.सा.पृ. 54-5) इस प्रलय को भगवान् श्रीकंठनाथ करते हैं। प्रलय महा पारमेश्वरी लीला की वह भूमिका, जिसमें सदाशिव तत्त्व (देखिए) तक का समस्त स्थूल एवं सूक्ष्म प्रपंच शक्ति में विलीन हो जाता है तथा अंततः शक्ति का भी शिव में लय हो जाता है। (तं.सा.पृ. 55-6)। इस प्रलय को अनाश्रित शिव ही स्वयं करते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रलयाकल प्रलयकेवली। प्रलयकाल तक ही अकल अर्थात् कला से और उसके विस्तार से रहित रहने वाले प्राणी। सुषुप्ति में ठहरने वाले प्राणी। इन प्राणियों में आणवमल के दोनों प्रकारों की अभिव्यक्ति होने के कारण इनके प्रकाशात्मक स्वरूप तथा विमर्शात्मक स्वभाव, दोनों में ही संकोच आ जाता हे। परिणामस्वरूप ये प्राणी शून्य, प्राण, बुद्धि आदि जड़ पदार्थे में से किसी एक को अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगते हैं। अपने क्रिया स्वातंत्र्य के अत्यधिक संकोच हो जाने के कारण ये शून्य गगन की जैसी स्थिति में तब तक सुषुप्त हो कर पड़े रहते हैं जब तक भगवान् श्रीकंठनाथ इन्हें नई प्राकृत सृष्टि के समय जगाते नहीं। इनमें कार्ममल भी सुषुप्त होकर ही रहता है। सवेद्य सुषुप्ति में रहने वाले प्राणियों में मायीय मल का भी प्रभाव रहता है। (ई.प्र.वि.2, पृ. 225)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रवाह पुष्टि भक्ति केवल भगवान् के लिए उपयोगी क्रियाओं में निरत जनों की वह भक्ति प्रवाह पुष्टि भक्ति है, जो अहन्ता ममता रूप संसार प्रवाह से मिश्रित हो। इसके उदाहरण निमि श्रुतिदेव प्रभृति हैं। (दृष्टव्य – चतुर्विध पुष्टि भक्ति की परिभाषा) (प्र.र.पृ. 83)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रवृत्ति त्रिगुण के प्रसंग में प्रवृत्ति का अर्थ है – ‘क्रिया’, जो रजोगुण का शील है (सांख्यकारिका 12)। योगसूत्र (2/18) में शब्दतः क्रिया को रजोगुण का शील कहा गया है। इस क्रियास्वभाव के कारण ही रजोगुण को ‘प्रवर्तक’, ‘उद्घाटक’ कहा जाता है (व्यासभाष्य 4/31)। सांख्यकारिका (13) में इसको ‘उपष्टम्भक’ कहा गया है, जिसका अर्थ है – प्रवर्तक। प्रवर्तन के अर्थ में ‘प्रवृत्ति’ का अर्थ ‘परिणत होना’, ‘परिणाम प्राप्त करना’ है – ‘इच्छा’, ‘संकल्प’ आदि के साथ इस प्रवृत्ति का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। ‘विषयों की ओर अन्तःकरण का जाना’ इस अर्थ में भी ‘प्रवृत्ति’ शब्द प्रयुक्त होता है। यह इच्छा के बाद उत्पन्न होती है जो चेष्टाविशेष है। कुछ सांख्याचार्यों का मत है कि जिस प्रकार बुद्धि का धर्म है ‘प्रख्या’ (विज्ञानरूप वृत्ति), उसी प्रकार संकल्पक मन का धर्म है, प्रवृत्ति, जो पाँच प्रकार की है – संकल्प, कल्पना, कृति, विकल्पन एवं विपर्यस्त -चेष्टा।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रशान्तवाहिता व्यासभाष्य (1/13) में अवृत्तिक चित्त की प्रशान्तवाहिता को ‘स्थिति’ कहा गया है। चित्त के पूर्णतः वृत्तिहीन होने पर उसका प्रवाह संभव नहीं होता; अतः किसी-किसी के अनुसार अवृत्तिक का अर्थ है – राजस -तामस वृत्ति से शून्य अर्थात् अभीष्ट सात्विक वृत्ति से युक्त। अतः सात्विक वृत्ति की धारा ही प्रशान्तवाहिता है – यह सिद्ध होता है। ‘वाहिता’ कहने पर यह ध्वनित होता है कि यह सात्त्विक वृत्ति हर्ष-शोक आदि रूप तरंगों से रहित है। अन्य व्याख्याकारों के अनुसार अवृत्तिक चित्त का अपने में परिणत होते रहना (वृत्ति का उत्पादन न करके) ही प्रशान्तवाहिता है। यह अधिक संगत व्याख्या है। निरोधावस्थ चित्त की प्रशान्तवाहिता का उल्लेख योगसूत्र 3/10 में है। यहाँ प्रशान्तवाहिता का अर्थ है – व्युत्थान -संस्कार रहित निरोध -संस्कारों का प्रवाह।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रश्वास कोष्ठगत (कोष्ठ यहाँ उरोगुहा है) वायु का जो स्वाभाविक बहिर्गमन या निःसारण होता है, वह प्रश्वास है। योगशास्त्र में प्राणायामप्रक्रिया में प्रश्वास का विशिष्ट स्थान है, क्योंकि प्रश्वासपूर्वक जो गति-अभाव (=बाह्य वायु का न लेना) है, वह बाह्यवृत्ति नामक प्राणायाम कहलाता है। पातंजल योगसंमत प्राणायाम में उदरसंचालन-पूर्वक श्वास-प्रश्वास करने की पद्धति स्वीकृत हुई है (हमारी परंपरागत मान्यता यही है); वक्ष को संचालित कर श्वास-प्रश्वास करने की पद्धति हठयोगसंमत प्राणायाम के लिए हैं। उद्घात आदि के साथ भी श्वास -प्रश्वास का सम्बन्ध है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रसंख्यान प्रसंख्यान क्लेशक्षयकारक ध्यानविशेष का नाम है, जैसा कि व्यासभाष्य के विभिन्न वाक्यों से ज्ञात होता है (द्र. प्रसंख्यानेन ध्यानेन हातव्याः 2/11; प्रसंख्यानाग्निना प्रतनूकृतान् क्लेशान्, 2/2)। इस ध्यान से विषयों के दोष ज्ञात होते हैं – यह भी कहा जाता है (1/15 भाष्य)। यह प्रसंख्यान विभूति-प्राप्ति का भी हेतु है। योगियों का कहना है कि प्रसंख्यान-हेतुक जो सिद्धियाँ होती हैं, उन पर वितृष्णा होने पर (अर्थात् सिद्धि के प्रति व्यर्थता की बुद्धि होने पर) साधक में ‘विवेकख्याति’ की पूर्णता होती है, जिससे ‘धर्ममेघसमाधि’ की प्राप्ति होती है। विवेकख्याति की यह पूर्णता ‘पर-प्रसंख्यान’ कहलाती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रसव प्र + सू धातु (अदादिगण) का अर्थ है – जन्म देना। अतः प्रसव शब्द का ‘जन्म’ अथवा ‘जन्म देने की क्रिया’ अर्थ होता है। प्रसव और अप्रसव शब्द का प्रयोग में व्यासभाष्य में कई स्थलों पर मिलता है। योगसूत्र में प्रसवविरोधी भाव के लिए ‘प्रतिप्रसव’ शब्द प्रयुक्त हुआ है (2/10, 4/34)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रसाद देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

प्रसाद-लिंग देखिए ‘लिंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

प्रसादिस्थल देखिए ‘अंगस्थल’ शब्द के अंतर्गत ‘प्रसादी’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

प्रसुप्त अस्मिता आदि चार क्लेशों की वह अवस्था ‘प्रसुप्त’ कहलाती है जिसमें वे तब तक व्यापार या कार्य न कर सकें जब तक कोई उद्बोधक उपस्थित न हो (द्र. व्यासभाष्य 2/4)। (प्रसुप्त-अवस्था ‘प्रसुप्ति’ शब्द से भी अभिहित होती है)। यह बीजभाव है, अंकुर-रूप में आने से पूर्व की अवस्था है – ऐसा उपमा की भाषा से कहा जाता है। यह अनभिव्यक्त अवस्था है। प्रबल योगाभ्यास से क्लेशों की ऐसी अवस्था की जा सकती है। इस अवस्था में क्लेश क्रियाशक्ति से सर्वथा शून्य नहीं हो जाता – क्लेश शक्तिरूप अवस्था में रहता है, पर कार्योन्मुख भी रहता है। विदेह और प्रकृतिलीनों में क्लेश प्रसुप्त अवस्था में रहता है – ऐसा पूर्वाचार्यों का कथन है। यह अवस्था क्लेशों की दग्धावस्था नहीं है। प्राकृतिक कारणों से भी यह अवस्था हो सकती है; कुछ क्लेश बाल्यावस्था में अनभिव्यक्त रहते हैं पर यौवनकाल में व्यापारवान् हो जाते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्राकट्य त्रैविध्य प्राकट्य के अर्थात् अभिव्यक्ति के तीन भेद हैं : 1. अनित्य की उत्पत्ति, जैसे, घट आदि की उत्पत्ति। 2. नित्य और परिच्छिन्न वस्तुओं में परस्पर समागम होना, जैसे, नित्य एवं परिच्छिन्न दो परमाणु परस्पर संबद्ध होकर द्वयणुक रूप में अभिव्यक्त होते हैं। 3. नित्य होता हुआ जो अपरिच्छिन्न (विभु) है, उसका प्रकट होना, जैसे, भगवान् का प्राकट्य।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्राकाम्य अणिमादि अष्ट सिद्धियों में एक (द्र. व्यासभाष्य 3/45)। इसका साधारण लक्षण है – इच्छा का अनभिघात (= बाधा का अभाव), पर इसका वस्तुतः स्वरूप है वह संकल्पशक्ति जिससे किसी एक प्रकार की वस्तु का अन्य प्रकार की वस्तु की तरह उपयोग किया जा सके, उदाहरणार्थ, कठिन भूमि का व्यवहार तरल जल की तरह करना – भूमि में जल की तरह उन्मज्जन -निमज्जन करना। शास्त्र में श्रुत स्वर्गादि में तथा लोकदृष्ट जलादि में बाधाहीन गति का होना प्राकाम्य है – यह कोई-कोई कहते हैं (द्र. योगसारसंग्रह, अ. 3)। प्राकाम्य के स्थान पर ‘प्राकाश्य’ सिद्धि का उल्लेख भी क्वचित् मिलता है (द्र. दक्षिणामूर्ति स्रोत की मानसोल्लासटीका 10/15)। यह मत पातंजल संप्रदाय के आचार्यों में दृष्ट नहीं होता

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्राकृत अंड देखिए निवृत्ति कला।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्राण प्राण’ के विषय में सांख्ययोगीय ग्रन्थों में विशद विवेचन नहीं मिलता। हठयोग आदि के ग्रन्थों में प्राण के अवान्तर भेदों के व्यापार आदि के विषय में बहुविध बातें मिलती हैं, यद्यपि प्राण के मूलस्वरूप को जानने में ये ग्रन्थ सहायक नहीं हैं। प्राण के स्वरूप का कथन सांख्यकारिका 29, सांख्यसूत्र 2/31 (जो कारिकावत् है) तथा योगसूत्र 3/39 के भाष्य में मिलता है। इनके व्याख्यान में व्याख्याकारों में मतभेद हैं। किसी के अनुसार प्राण शरीरान्तर्गत वायुविशेष है और विभिन्न अङ्गों में रहकर विभिन्न प्रकार का व्यापार करने के कारण उनके पाँच भेद हैं। अन्य व्याख्याकार कहते हैं कि प्राण अन्तःकरण की वृत्तिविशेष हैं, जो शरीर को धारण करने में सहायक हैं और स्थानभेद से उनके पाँच भेद होते हैं। यह प्राण वायु-विशेष नहीं है। वायु और उसकी क्रिया प्राण नहीं हैं। यह मत ही संगत प्रतीत होता है, क्योंकि वायुभूत या भौतिक वायु से पृथक् करके ही प्राण का प्रतिपादन सर्वत्र किया गया है। वायुवत् संचार के कारण ही प्राण को ‘वायु’ कहा जाता है। एक मत यह भी है कि ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय की तरह प्राण भी बाह्य इन्द्रिय है, जिसका विषय है – बाह्य विषय को शरीररूप से व्यूहित करना। यह प्राण तमः प्रधान है; ज्ञानेन्द्रिय एवं कर्मेन्द्रिय क्रमशः सत्वप्रधान एवं रजःप्रधान हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पूर्वाचार्यों ने चूंकि प्राण को वृत्तिविशेष माना था, अतः पृथक् तत्व के रूप में प्राण की गणना नहीं की गई। विज्ञान भिक्षु ने यह भी कहा है कि महत्तत्त्व की क्रियाशक्ति प्राण है और यह निश्चयशक्ति -रूप बुद्धि से पहले उत्पन्न होता है (ब्रहम्सूत्रभाष्य 2/4/16)। प्राण के पाँच भेदों (प्राण, अपान, समान, उदान और व्यान) के व्यापार संबंधित प्रविष्टियों के अंतर्गत बताए गए हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्राण 1. प्राण, अपान आदि पाँच प्राणों में से प्रथम प्राण। विषयों का उत्सर्ग करने वाली जीवनवृत्ति जो जाग्रत् और स्वप्न दशाओं में चलती रहती है। हृदय से उठकर बाह्य द्वादशांत तक संचरण करने वाली प्रश्वास वायु। (ई.प्र.वि.सं. 2 पृ. 244-245)। 2. खात्मा अर्थात् शून्य प्रमाता (देखिए) भेद की ओर उन्मुख होता हुआ जिस प्रथम परिणाम को प्राप्त होता है उसे ही प्राण, स्पंदी, ऊर्मिक, स्फुरता आदि कहा जाता है। सृष्टि क्रिया के प्रति उन्मुख बने हुए संवित् तत्त्व के प्रथम परिणाम को प्राण कहा जाता है। इसे प्राणन शक्ति और जीवन शक्ति भी कहा जाता है इसी शक्ति से युक्त पदार्थ को प्राणी कहा जाता है। प्राण, अपान आदि पाँचों प्राणों में यही प्राणशक्ति स्पंदित होती है। इस प्रकार इन पाँच प्राणों को व्याप्त करके ठहरने वाला मूल प्राण। (तं.आ.आ. 6-11 से 14)। यह जीवनशक्ति अकल से लेकर सकल तक सभी प्राणिवर्गो में भिन्न भिन्न प्रकारों से जीवन व्यापारों को चलाती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्राण कुण्डलिनी अनच्क कला की और आणव उपाय की व्याख्या के प्रसंग में प्राण शक्ति के संबन्ध में कहा जा चुका है। इसको कुण्डलिनी इसलिए कहते हैं कि मूलाधार स्थित कुण्डलिनी की तरह इसकी भी आकृति कुटिल होती है। जिस प्राण वायु का अपान अनुवर्तन करता है, उसकी गति इकार की लिखावट की तरह टेढ़ी-मेढ़ी होती है। अतः प्राण शक्ति अपनी इच्दा से ही प्राण के अनुरूप कुटिल (घुमावदार) आकृति धारण कर लेती है। प्राण शक्ति की यह वक्रता (कुटिलता=घुमावदार आकृति) परमेश्वर की स्वतन्त्र इच्छा शक्ति का ही खेल है। प्राण शक्ति का एक लपेटा वाम नाड़ी इडा में और दूसरा लपेटा दक्षिण नाडी पिंगला में रहता है। इस तरह के उसके दो वलय (घेरे) बनते हैं। सुषुम्ना नाम की मध्यनाडी सार्ध कहलाती है। इस प्रकार यह प्राण शक्ति भी सार्धत्रिवलया है। वस्तुतः मूलाधार स्थित कुण्डलिनी में ही प्राण शक्ति का भी निवास है, किन्तु हृदय में उसकी स्पष्ट अभिव्यक्ति होने से ब्राह्मणवशिष्ठ न्याय से उसका यहाँ पृथक उल्लेख कर दिया गया है। इसका प्रयोजन अजपा (हंसगायत्री) जप को सम्पन्न करना है। इस विषय पर विज्ञानभैरव के 151 वें श्लोक की व्याख्या में पर्याप्त प्रकाश डाला गया है।

  भर-पेट भोजन-पानी पाने से मोटी अक्ल के आरामतलबी आदमी का शरीर की नहीं, प्राण शक्ति भी मोटी हो जाती है। बाद में सद्गुरु का उपदेश पाकर जब वह योगाभ्यास में लग जाता है, कुम्भक प्रभृति प्राणायामों का अभ्यास करता है, तो धीरे-धीरे उनके शरीर के मोटापे के साथ ही प्राण शक्ति भी कृश होती जाती है, सूक्ष्म से सूक्ष्मतर होती जाती है। शोत्र, चक्षु, नासिका, मुख, उपस्थ प्रभृति प्राण और अपान आदि वायुओं के निकलने के मार्गों को रोक देने पर वायु की गति ऊपर की ओर उठने लगती है। मूलाधार में अथवा हृदय में विद्यमान प्राण शक्ति पद्धति के अनुसार सुषुम्ना मार्ग के अथवा मध्यदशा के विकास के कारण द्वादशान्त तक जाते-जाते अत्यत्न सूक्ष्म होकर अन्त में प्रकाश में विलीन हो जाती है। आधार से लेकर द्वादशान्त पर्यन्त क्रमशः धीरे-धीरे ऊपर की ओर उठ रही इस प्राण शक्ति के द्वादशान्त में प्रविष्ट हो जाने पर स्वात्मस्वरूप का अनुभव होने लगता है। योगशास्त्र की परिभाषा में इसको पिपीलस्पर्श वेला कहा जाता है, जिसमें कि प्राण के ऊपर उठते समय जन्माग्र से लेकर मूल, कन्द प्रभृति स्थानों का स्पर्श होने पर उसी तरह की अनुभूति होती है, जैसी कि देह पर चींटी के चलने से होती है। इसी अवस्था में योगी इसकी परीक्षा कर पाते हैं कि प्राण आज अमुक स्थान से चल कर अमुक स्थान तक उठा। इस स्थिति तक पहुँच जाने पर योगी का चित्र परम आनन्द से भर जाता है और वह इसी अन्तर्मुख वृत्ति में रम जाता है।  
दर्शन : शाक्त दर्शन

प्राण प्रमाता माया से संकुचित संवित् को अपना वास्तविक स्वरूप मानने वाला प्रमेय, प्रमाण आदि के प्रपंच के आभास से रहित प्रमाता। आकाश तुल्य शून्य प्रमाता ही अपनी शून्यता को दूर करने के प्रति उन्मुख होता हुआ और अपने को ग्राह्य विषय से भरना चाहता हुआ जब सुखमयता, भारीपन, हल्कापन आदि भावों का अत्यंत अस्फुट अनुभव करता हुआ आभासित होता है तो ऐसी अवस्था में उसी को प्राण प्रमाता कहा जाता है। इसे प्राण प्रलयाकल भी कहते हैं। यह सवेद्य सुषुप्ति का प्राणी होता है। (तं.आ.वि.खं. 4 पृ. 10)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्राण प्रलयाकल प्राण में ही विश्रांत भाव से ठहरने वाले प्राणी। देखिए प्रलयाकल।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्राण योग (उच्चार/ध्वनि) देखिए उच्चारयोग एवं ध्वनि योग।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्राण सुषुप्ति देखिए सवेद्य सुषुप्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्राणउच्चार/धारणा देखिए उच्चार योग।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्राणलिंग देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘लिंग’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

प्राणलिंगार्चना हृदय की द्‍वादश कमल कर्णिका में ज्योतिस्वरूप से विराजमान शिवविग्रह को ‘प्राणलिंग’ कह गया है और उसकी अर्चना ही ‘प्राणलिंगार्चना’ कहलाती है। इस ज्योतिर्मय प्राणलिंग के भावना-गम्य होने से उसकी अर्चना भी भावनामय वस्तुओं से ही की जाती है। वह इस प्रकार है- प्राणलिंग के अभिषेक के लिये क्षमा (सहनशीलता) ही जल है, नित्यानित्य वस्तुओं का विवेक ही उसे पहनाने का वस्‍त्र कहलाता है। सर्वदा सत्य बोलना ही उस लिंग के अलंकरणीय आभरण है। वैराग्य यही उसे पहनाने की पुष्पमाला है। चित्‍त के शांत हो जाने पर समाधि का लग जाना गंध-समर्पण है। निरहंकार-भावना ही अक्षत है। दृढ़ श्रद्‍धा ही धूप और आत्मज्ञान हो जाना ही दीप है। भ्रांति का निवृत्त हो जाना ही नैवेद्‍य बताया गया है। लौकिक व्यवहार में मौन हो जाना ही घंटानाद कहलाता है। विषय का समर्पण ही ताम्बूल है, अर्थात् प्रमेय वस्तुओं का प्रमाण रूप ज्ञान में, उस प्रमाण रूप ज्ञान का प्रमातृरूप आत्मा में और उस आत्मा का ज्योतिस्वरूप प्राणलिंग में लय का चिंतन करना ही विषय-समर्पण रूप ताम्बूल कहलाता है। यह प्रपंच शिव से भिन्‍न है, इस प्रकार की भेद-बुद्‍धि की निवृत्‍ति हो जाना ही प्रदक्षिणा है। उपासना करने वाली उस बुद्‍धिवृत्‍ति का भी अंत में उस ज्योतिर्लिंग में लय हो जाना ही नमस्कार-क्रिया है। वीरशैवदर्शन में इस उपर्युक्‍त भावनाओं से प्राणलिंग की अर्चना बताई गयी है। इसका तात्पर्य यह है कि साधक की बहिर्मुख बुद्‍धिवृत्‍तियों का निरोध होकर उसके अंतःकरण में उपर्युक्‍त सद्‍गुण, सद्‍ज्ञान और सद्‍भावनओं का उदय होना ही प्राणलिंग की अर्चना है। अतएव इस प्राणलिंग की अर्चना के लिये कोई निश्‍चित समय नहीं है। जब-जब साधक के मन में ये भावनायें उठती रहती हैं तब-तब यह प्राणलिंग अर्चना होती रहती है। (सि.शि. 12/3-8 पृष्‍ठ 6, 7; वी.आ.चं. पृष्‍ठ 456)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

प्राणलिंगि-स्थल देखिए ‘अंगस्थल’ शब्द के अंतर्गत ‘प्राणलिंगी’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

प्राणापान ऊपर हृदय से बाह्य द्वादशान्त तक जाने वाला प्राण और नीचे बाह्य द्वादशान्त से हृदय तक जाने वाला जीव नामक अपान, यह प्राण शक्ति का उच्चारण है। प्राण शक्ति इनका निरन्तर उच्चारण करती रहती है, अर्थात् प्राण और अपान के रूप में स्पन्दित होती रहती है। स्वच्छन्दतन्त्र (7/25-26) में प्राण और अपान को प्राण शक्ति का विसर्ग और आपूरण व्यापार बताया गया है। तदनुसार प्राण का अर्थ है श्वास छोड़ना और अपान का अर्थ है श्वास लेना। पालि बौद्ध वाङ्मय में इसके लिये आनापान (आश्वास-प्रश्वास) शब्द प्रयुक्त है। किन्तु वहाँ इनके अर्थ के विषय में विवाद है। आचार्य नरेन्द्र देव अपने ग्रन्थ बौद्ध-धर्मदर्शन में आश्वास-प्रश्वास शब्द पर टिप्पणी करते हैं- विनय की अर्थकथा के अनुसार ‘आश्वास’ साँस छोड़ने को और ‘प्रश्वास’ साँस लेने को कहते हैं। लेकिन सूत्र की अर्थ कथा में दिया हुआ अर्थ इसका ठीक उल्टा है। आचार्य बुद्धघोष विनय की अर्थ कथा का अनुसरण करते हैं। उनका कहना है कि बालक माता की कोख से बाहर आता है तो पहले भीतर की हवा बाहर निकलती है और पीछे बाहर की हवा भीतर प्रवेश करती है। तदनुसार आश्वास वह वायु है, जिसका निःसारण होता है और प्रश्वास वह वायु है, जिसका कि ग्रहण होता है। सूत्र की अर्थकथा में किया हुआ अर्थ पातंजल योगसूत्र के व्यासभाष्य के अनुसार है (पृ. 81)। योगभाष्य (पृ. 81) में वायु के आचमन (ग्रहण) को श्वास और निःसारण को प्रश्वास बताया गया है।

  विज्ञानभैरव के ‘ऊर्ध्वे प्राणः’ प्रभृति श्लोक में प्राण और अपान शब्द का बुद्धघोष प्रदर्शित अर्थ ही स्वीकृत है। ऊर्ध्व और अधः शब्द का अर्थ पहले और बाद में किया जाना चाहिये। पहले प्राण बाहर निकलता है और बाद में अपान का प्रवेश होता है। अपान को जीव इसलिये कहा जाता है कि प्राण के बाहर निकलने के बाद अपान जब शरीर में पुनः प्रविष्ट होता है, तभी यह बोध हो सकता है कि शरीर में जीवात्मा विद्यमान है। अपान के प्रवेश न करने पर शरीर शव कहा जायेगा। अपान के कारण ही शरीर में जीवात्मा की स्थिति बनी रहती है, अतः स्वाभाविक है कि अपान को जीव के नाम से जाना जाय।
  स्वच्छन्दतन्त्र (7/25-26) भी इसी स्थिति को मान्यता देता है। भगवद्गीता (5/27) की श्रीधरी टीका में प्राण और अपान के लिये उच्छवास और निश्वास शब्द प्रयुक्त हैं। लोक व्यवहार में संकेत (शक्ति=समय) के अनुसार शब्दों के अर्थ बदलते रहते हैं। कभी-कभी वे परस्पर विरोधी अर्थों में भी प्रयुक्त होने लगते हैं। जैसा कि प्राण और अपान तथा उनके पर्यायवाची श्वास-प्रश्वास शब्दों के विषय में देखने को मिलता है। इन शब्दों का हृदय स्थित प्राण वायु और पायु स्थित अपान वायु से कोई संबंध नहीं है, किन्तु प्राण शक्ति की श्वास-प्रश्वास प्रक्रिया से ही इनका संबंध है। प्राण शक्ति की प्राण, अपान प्रभृति पाँच या दस वृत्तियाँ भी इनसे भिन्न हैं। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

प्राणायाम योग के आठ अंगों में प्राणायाम चतुर्थ है। ‘प्राणायाम’ शब्दगत ‘प्राण’ शब्द अवश्य ही श्वासवायु का वाचक है। आयाम का अर्थ निरोध है। अतः प्राणायाम का मुख्य अर्थ ‘श्वासक्रिया का रोध’ है। यह रोध योगशास्त्रीय उपाय द्वारा यदि हो तभी प्राणायाम योगांग होता है, अन्यथा नहीं। हठयोगशास्त्र एवं पातंजल योगशास्त्र में प्राणायाम की प्रक्रिया सर्वथा एकरूप नहीं है। हठयोगीय प्राणायाम प्रधानतः वक्षसंचालनपूर्वक किया जाता है; पातंजल प्राणायाम उदरसंचालनपूर्वक। नासिका के सदैव दोनों छिद्रों द्वारा रेचनपूरण करना पातंजल प्रक्रिया है; हठयोग में मुख्यतया व्यासभाष्य 2/50 में तथा अन्य योगग्रन्थों में विस्तारतः मिलता है। प्राणायामाभ्यास में शरीर को ऋजु रखना आवश्यक है – वक्ष, कण्ठ एवं शिर को एक रेखा में रखना चाहिए। प्राणायामी को मिताहार आदि कई विषयों पर ध्यान देना चाहिए। प्राणायाम यद्यपि वायु -आश्रित क्रिया है, पर इस क्रिया के माध्यम से ज्ञानविशेष का अभ्यास किया जाता था। यही कारण है कि इस अभ्यास से प्रकाश के आवरण का क्षय होता है (योगसूत्र 2/52)। हठयोगीय प्राणायामों में भी अंशतः यह लाभ होता है, यद्यपि उन प्राणायामों का मुख्य लाभ शारीरिक है (हठप्राणायाम के लिए स्वामी कुवलयानन्द कृत ‘प्राणायाम’ नामक ग्रन्थ दृष्टव्य है)। रेचन-पूरण-विधारण का काल शनैः-शनैः बढ़ाया जा सकता है। वायु के आगमन-निर्गमन इतनी अल्पमात्रा एवं सूक्ष्मता के साथ किए जा सकते हैं कि नासाग्रस्थित तूला भी कंपित नहीं होती। प्राणायाम का अभ्यास देश, काल और संख्या के परिदर्शन के साथ किया जाता है; इस परिदर्शन का विवरण सारतः एकतर नासापुट से रेचनपूरण किए जाते हैं। हठयोग में प्राणायाम के जिन मुख्य आठ भेदों का उल्लेख मिलता है (उज्जायी, शीतली आदि), वे पातंजल दृष्टि में व्यर्थप्राय हैं (यद्यपि शारीरिक दृष्टि से उनकी जो निजी सार्थकता है, उसके विरोध में पातंजल शास्त्र का कुछ भी कहना नहीं है)। प्राणायाम-क्रिया सर्वथा वैज्ञानिक है; यथाविधि आचरित होने पर इससे शास्त्रोक्त लाभ होते ही हैं। प्राणायाम प्रक्रिया में पूरण या पूरक का अर्थ है – नासा द्वारा धीरे-धीरे वायु का ग्रहण करना; रेचन या रेचक का अर्थ है – अत्यन्त धीरता के साथ पूरित वायु को छोड़ना। रेचन या पूरण के बाद तत्काल वायु का पूरण या रेचन न करने पर वायु का जो विधारण होता है, वह कुम्भक कहलाता है। पातंजल शास्त्र में बाह्यवृत्ति का अर्थ है – रेचनोत्तर वायु का ग्रहण न करके अवस्थित रहना; आभ्यन्तरवृत्ति का अर्थ है – पूरणोत्तर वायु का त्याग न कर अवस्थित रहना; स्तम्भवृत्ति का अर्थ है – रेचन-पूरण कर ध्यान न देकर श्वास-प्रश्वास का निरोध करना।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्राणायाम प्राण की पूरक, कुंभक और रेचक अवस्थाएँ स्वाभाविक रूप से बिना प्रयत्न के निरन्तर गतिशील रहती हैं। हृदय स्थित कमलकोश में प्राण का उदय होता है। नासिका मार्ग से बाहर निकल कर यह बारह अंगुल चलकर अन्त में आकाश में विलीन हो जाता है। यह बाह्य आकाश योगशास्त्र में बाह्य द्वादशान्त के नाम से प्रसिद्ध है। प्राण की इस स्वाभाविक गति को रेचक कहते हैं। बाह्य द्वादशान्त में अपान का उदय होता है और नासिका मार्ग से चलकर यह हृदयस्थित कमलकोश में विलीन हो जाता है। अपान की यह स्वाभाविक आन्तर गति पूरक कही जाती है। प्राण बाह्य द्वादशान्त में और अपान हृदय में क्षण मात्र के लिये स्थिर होकर बैठता है। यही प्राण की कुंभक अवस्था है। बाहर और भीतर दोनों स्थलों में निष्पन्न होने से इसके बाह्य और आन्तर ये दो भेद होते हैं। इस तरह से प्राण शक्ति की ये चार क्रियाएँ बिना प्रयत्न के निरन्तर गतिशील हैं। अर्थात् प्राण और अपान की यह चतुर्विध गति पुरुष के प्रयत्न के बिना निरन्तर स्वाभाविक रूप से चलती रहती है। पुरुष जब अपने विशेष प्रयत्न से मध्यदशा के विकास के द्वारा क्रमशः अथवा एकदम इसकी गति को रोकता है, इस पर अपना नियन्त्रण स्थापित करना चाहता है, तो प्राण और अपान की गति की यह अवरोध प्रक्रिया योगशास्त्र में प्राणायाम के नाम से जानी जाती है।

  तन्त्रशास्त्र में भूतशुद्धि और प्राण प्रतिष्ठा की विधियाँ प्रसिद्ध हैं। ‘देवो भूत्वा दैवं यजेत्’ स्वयं देवता बनकर इष्टदेव की आराधना करे, इस विधि वाक्य के अनुसार साधक अपने देह में स्थित पाप पुरुष का, मल का शोष और दाह संपन्न कर देवत्वभावना को आप्यायित करता है। वायु बीज के उच्चारण के साथ का प्राणायाम का अभ्यास करने से शोषण, अर्थात् मल का नाश हो जाता है। अग्नि बीज के उच्चारण के साथ प्राणायाम का अभ्यास करने से दाह, अर्थात् वासनाओं का भी उच्छेद हो जाता है। सलिल बीज के उच्चारण के साथ प्राणायाम का अभ्यास करने से शरीर आप्यायित हो उठता है, ज्ञानरूपी अमृत से नहाकर पवित्र हो जाता है, देवतामय बन जाता है। इस प्रकार शोषण, दाहन और आप्यायन की सम्पन्नता के लिये भी प्राणायाम की उपयोगिता तन्त्रशास्त्र में मानी गई है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

प्राणोत्क्रमण दीक्षा यह दीक्षा शिष्य को सद्यः शिव के साथ एक कर देती है। शिष्य के मरणक्षण को गुरु अपने ज्ञान बल से जान लेता है। तब मरणक्षण से जराभर पहले ब्रह्मविद्या के मंत्रों का उच्चारण करते करते शिष्य के प्राणों का पादांगुष्ठ से लेकर ब्रह्मरंध्र तक क्रम से पहुँचाकर उस द्वार से उनका उत्क्रमण करा देता है। तदनंतर शिष्य की आत्मा को मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति, कंचुक आदि पाशों में से ऊर्ध्व संक्रमण करवाता हुआ ब्रह्म विद्या के उन्हीं मंत्रों की सहायता से उसे माया के भी पार ले जाकर तथा शुद्ध विद्या के क्षेत्र से पार करा कर शिवशक्ति स्वरूप परमेश्वर के साथ उसे एक कर देता है। इस दीक्षा का विधान तंत्रालोक के तीसवें आह्मिक में विस्तारपूर्वक बताया गया है। इस दीक्षा को सद्योनिर्वाणदीक्षा या समुत्क्रमणदीक्षा भी कहते हैं। (स्व.तं., खं. 2, पृ. 94)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रातिपदावस्था पाशुपत साधक क एक अवस्था।

पाशुपत मत के अनुसार साधक को साधना की प्रथम अवस्था में अपनी जीविका भिक्षावृत्‍ति से चलानी होती है, गुरु के चरणों में निवास करना होता है। साधना की यह अवस्था प्रातिपदावस्था या प्रथम अवस्था कहलाती है। इस अवस्था में साधक हाथों तथा भिक्षापात्र का शोधन करके, मंत्रों का उच्‍चारण करके देवता और गुरु से आदेश लेकर किसी ग्राम में किसी धर्मार्जित धन का उपयोग करने वाले गृहस्थी के घर से भिक्षा मांग कर लाए, उसे देवता को और गुरु को निवेदन करके, उनसे आदेश लेकर सारी भिक्षावस्तुओं को एक साथ मिलाकर खाए। ऐसे भिक्षाव्रत का पालन प्रातिपदावस्था में करना होता है। (ग.का.टी.पृ.4)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

प्रातिभ योगसूत्र में कहा गया है कि पुरुषज्ञान (अर्थात् बुद्धि का पुरुष-सत्ता-निश्चय अथवा बुद्धिगत पुरुष-प्रतिबिम्ब का आलम्बन) के लिए स्वार्थसंयम आवश्यक है। पुरुषज्ञान होने से पहले जिन छः सिद्धियों का आविर्भाव होता है, उनमें प्रातिभ प्रथम सिद्धि है (3/36)। इस सिद्धि से सूक्ष्म, व्यवहित, दूरस्थ, अतीत एवं अनागत वस्तुओं का ज्ञान होता है। किसी-किसी के अनुसार 3/36 सूत्रोक्त प्रातिभ आदि सिद्धियाँ पुरुष -साक्षात्कार के बाह्य फल हैं जो कामना के बिना भी उत्पन्न होती हैं। एक अन्य प्रातिभ ज्ञान भी है (योगसू. 3/33), जो विवेकज ज्ञान (योगसू. 3/54) का पूर्व रूप है। इस प्रातिभ नामक सिद्धि से अतीतानागतज्ञान, पूर्वजातिज्ञान, सर्वभूतरुतज्ञान आदि (जो 3/33 सूत्र से पहले उक्त हुए हैं) भी सिद्ध होते हैं, यह 3/33 का तात्पर्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रातिभ ज्ञान बिना शास्त्र अध्ययन के, बिना दीक्षा के और बिना योगाभ्यास के स्वयमेव अनायास ही उदय होने वाला ज्ञान। ऐसा ज्ञान प्रायः मध्य तीव्र शक्तिपात का पात्र बने हुए साधक में स्वयमेव उदित होता है। उसे समय दीक्षा, अभिषेक, याग, व्रत आदि की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। उसे न तो शिष्य ही कहा जा सकता है और न गुरु ही। उसके लिए एक और ही परिभाषा है – ‘शिष्ट’। कभी तो प्रातिभ ज्ञान सद्यः सुदृढ़ हो जाता है, परंतु कभी गुरु और शास्त्र की सहायता से ही दृढ़ता को प्राप्त कर जाता है। प्रातिभ ज्ञान के पात्र के विषय में यह माना जाता है कि शिव की शक्तियाँ उसे स्वयमेव उत्कृष्ट ज्ञान की दीक्षा देती हैं। उसी से उनमें ज्ञान का उदय हो जाता है। परंतु वह दीक्षा एक अंतः प्रेरणामयी दीक्षा होती है, कोई वैधी दीक्षा नहीं होती है। अतः उन्हें भी उस बात का कुछ पता ही नहीं चलता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्रान्तभूमिप्रज्ञा समाधिजात प्रज्ञा के एक उत्कृष्ट रूप का नाम ‘प्रान्तभूमि’ है। (‘प्रान्त है भूमि जिसकी’ वह प्रान्तभूमि है; प्रान्त = चरम, भूमि (= अवस्था)। यह प्रज्ञा सात प्रकार की है जैसा कि योगसूत्र 2/27 के भाष्य में विस्तार के साथ दिखाया गया है। इस प्रज्ञा के दो भाग हैं – कार्यविमुक्ति तथा चित्तविमुक्ति। प्रथम भाग में चार प्रकार की प्रज्ञा होती है, जो यथाक्रम हेय, हेयहेतु हान और हानोपाय से सम्बन्धित हैं (हेय आदि शब्द द्रष्टव्य)। द्वितीय चित्तविमुक्ति भाग में तीन प्रकार की प्रज्ञा होती है, प्रथम – बुद्धि की चरितार्थता के विषय में; द्वितीय – गुणविकारभूत बुद्धि आदि के स्वकारण में लय के विषय में; तथा तृतीय – गुणसंबंधातीत पुरुष की सत्ता के विषय में। इस सप्तविध प्रज्ञा से युक्त योगी जीवन्मुक्त कहलाते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्राप्‍ति तप का तृतीय लक्षण।

पाशुपत साधक को जब योग साधना में लाभसंबंध होता है, अर्थात् उसको ऐश्‍वर्य प्राप्‍ति होने पर सिद्‍धियों की उपलब्धि होती है, तो वह प्राप्‍ति कहलाती है। प्राप्‍ति के हो चुकने पर एक तो उसमें अपरिमित ज्ञानशक्‍ति उबुद्‍ध होती है और दूसरे असंभव को भी संभव बनाने की क्रिया सामर्थ्य उसमें प्रकट हो जाती है। इस तरह से वह शिवतुल्य बन जाता है। (ग.का.टी.पृ.15)
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

प्राप्ति यह अष्टसिद्धियों में एक है (द्र. व्यासभाष्य 3/45)। ‘पृथ्वी में रहकर ही हाथ की उंगली द्वारा चन्द्रमा को छूना’ अथवा ‘पाताल में रहकर ब्रह्मलोक को देखना’ प्राप्ति-सिद्धि का एक उदाहरण है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्राप्यकारित्व इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं या अप्राप्यकारी – इस पर दार्शनिक प्रस्थानों में मतभेद हैं। प्राप्यकारी का अर्थ है – संबंधित अर्थ का प्रकाशक। जब किसी विषय का सन्निकर्ष इन्द्रिय के साथ होता है – जब वह इन्द्रिय को उपरंजित करता है – तभी वह साक्षात्कृत होता है, अन्यथा नहीं। इन्द्रियाँ दूरस्थ विषय के साथ वृत्ति के माध्यम से संबंधित होती हैं। सांख्यीयदृष्टि में इन्द्रियाँ अव्यापक हैं (प्रत्येक व्यक्त पदार्थ अव्यापी है, यह सांख्यकारिका (10) में कहा गया है; इन्द्रियाँ व्यक्त पदार्थ हैं), अतः स्वभावतः वे प्राप्यकारी (संबद्ध विषय की प्रकाशिका) ही होंगी। यद्यपि इन्द्रियाँ शारीरिक मन्त्रविशेष नहीं हैं, अहंकारोत्पन्न हैं, (शरीरस्थित मन्त्र इन्द्रियों के अधिष्ठान-मात्र हैं) तथापि वे असंबद्ध विषयों की प्रकाशिका नहीं होतीं। योगजसामर्थ्य-युक्त इन्द्रियाँ भी असंबद्ध विषयों का प्रकाशन नहीं करतीं। वे विषय सूक्ष्म, व्यवहित आदि होने पर भी इन्द्रिय से सम्बन्धयुक्त हो जाते हैं। इन्द्रियमार्ग से चित्त की वृत्तियाँ विषयदेश -पर्यन्त जाकर विषयाकार में परिणत होती हैं – ऐसा एक मत प्रचलित है। ऐसा होना न संभव है और न यह मत सांख्ययोग को अनुमत है – यह वर्तमान लेखक का मत है। चित्तपरिणामभूत वृत्तियों के लिए ऐसा प्रसर्पण करना असंभव है, क्योंकि चित्त और उसके परिणाम दोनों दैशिक व्याप्ति से शून्य हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

प्रायण सर्वोत्कृष्ट पारलौकिक फल प्रायण है, और वह प्रायण पुरुषोत्तम भगवान् स्वरूप है, क्योंकि वे ही स्वतः पुरुषार्थ के रूप में सबके लिए प्राप्य हैं (अ.भा.पृ. 1284)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रीति तप का द्‍वितीय लक्षण।

पाशुपत साधक को शास्‍त्रविहित अनुष्‍ठान संपन्‍न होने पर जो तृप्‍ति या संतोष होता है वह प्रीति कहलाता है। उस तृप्‍ति से उसे साधना के अनुष्‍ठान में रुचि बढ़ती है और उसकी साधना उत्‍तरोत्‍तर तीव्र होती जाती है। यदि साधना के अनुष्‍ठान से साधक को तुष्‍टि न मिले तो उसकी साधना विषयक रूचि मंद पड़ जाती है और फलस्वरूप वह न तो सिद्‍धि को ही पा सकता है और न मुक्‍ति को ही। (ग.का.टी.पृ.15)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

प्रेताचार प्रेत की तरह आचार करना।

पाशुपत साधना में कई तरह के विरुप आचारों का उपदेश दिया गया है ताकि लोग पाशुपत साधक का अपमान करें और वह पूर्णरूपेण जगत से असंपृक्‍त हो जाए, उसमें अधिक से अधिक त्याग भावना का समावेश हो। इस तरह के आचारों में प्रेताचार भी एक तरह का आचार है। यहाँ पर प्रेत शब्द का मृत से तात्पर्य नहीं है अपितु पुरुष विशेष से है। पाशुपत साधक को अपने शरीर को उन्मत्‍त तथा दरिद्र पुरुष सदृश व बिना नहाए मैल से भरा रखना होता है तथा सभी प्रकार की स्वच्छता को त्यागना होता है। इस तरह से प्रेत अर्थात् गन्देव्रउन्मत्‍त पुरुष की तरह रहना होता है, क्योंकि ऐसे रहने से उसे इच्छित अपमान तथा निंदा मिलेगी और वर्णाश्रम धर्म का त्याग करने से संसार के प्रति बंधन शिथिल होते-होते वैराग्य उत्पन्‍न होगा और परिणामत: उसमें वास्तविक पुण्यों का उद्‍भव होगा। (पा.सू.कौ.भा.पृ 83)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

प्रेम भक्ति भगवत्स्वरूप में सुदृढ़ स्नेह स्वरूप भक्ति प्रेम भक्ति है (अ.भा.पृ. 1068)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

प्रोल्लास भूमि आत्म चैतन्य के परिपूर्ण उन्मेष की दशा। इसे निरानंद नामक आनंद को अभिव्यक्त करने वाली भूमिका भी कहा जाता है। (शि.सू.वा.पृ.21)। देखिए निरानंद।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


प्लुति देखिए उद्भव।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


फलभक्ति रसस्वरूप एवं रतिसंज्ञक स्थायी भाव फलभक्ति है, जिसमें भक्त का मन परमेश्वर के चरण की सेवा में पूर्ण समुल्लास से युक्त हो जाता है, तथा जो आत्मानन्द को प्रकट करने वाली है, एवं कार्य-कारण-लिंग आदि से अभिव्यक्त होने वाली है, तथा जो मोक्ष को भी तिरस्कृत करने वाली है (शा.भ.सू.वृ.पृ. 62)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

बटुक शक्तिसंगम तन्त्र के प्रथम खण्ड के बारहवें पटल में बताया गया है कि भूत, प्रेत, वेताल आदि जप, पूजा आदि में विघ्न उपस्थित कर दिया करते हैं। भक्तों के कल्याण के लिये देवी ने बटुक का प्रादुर्भाव किया, जो कि इन विघ्नों को दूर भगा देते हैं। योगिनी, विद्या, भैरव तथा अनन्तकोटि मन्त्रों के तेजःपुंज से बटुक का आविर्भाव हुआ। साक्षात् भगवान् शिव ही बटुक का रूप धारण कर वेताल प्रभृति के उपद्रवों को शान्त कर भक्तों की रक्षा करते हैं। बटुक के प्रसाद से ही सारी विद्याएँ और शाबर प्रभृति मन्त्र फलद होते हैं। इनकी कृपा के बिना कोई भी विद्या अथवा मन्त्र सिद्ध नहीं होते। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी बटुक की तिथि मानी जाती है। इसी दिन इनका प्रादुर्भाव हुआ था। इसीलिये बटुक की जयन्ती के रूप में इसको मान्यता प्राप्त है। हेतु, त्रिपुरान्तक वह्नि वेताल, अग्निजिह्व, काल, कराल, एकपाद, भीम, त्रैलोक्यसिद्ध और बटुक के भेद से यह दशविध माने गये हैं। शक्ति की उपासना में गणपति, बटुक, योगिनी और क्षेत्रपाल की पूजा अनिवार्य है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

बंधन अपने स्वरूप तथा स्वभाव को क्रमशः शुद्ध प्रकाश रूप तथा शुद्ध विमर्श रूप न समझकर केवल शून्य, प्राण, बुद्धि, देह आदि जड़ पदार्थों को ही अपना वास्तविक स्वरूप तथा अल्पज्ञता आदि को अपना स्वभाव समझना बंधन कहलाता है। (ई.प्र.वि. 2 पृ.252-3)। वस्तुतः बंधन और मोक्ष में कोई भी अंतर नहीं है। दोनों का आधार केवल अभिमनन मात्र ही है। ये दोनों पारमेश्वरी लीला के मात्र दो प्रकार हैं। इसमें शिवभाव का अभिमनन मोक्ष तथा जीव भाव का अभिमनन बंधन कहलाता है। (वही पृ. 129-30, बो.पं.द. 14)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बन्ध जीव की बद्ध अवस्था (संसारयुक्तता) को बन्ध कहा जाता है। सांख्ययोग की दृष्टि में बन्ध वस्तुतः चित्त की ही अवस्था है – चित्त ही बद्ध होता है, चित्त ही मुक्त होता है। पुरुष (तत्त्व) में बन्ध-मोक्ष का व्यवहार औपचारिक (गौण) है, अर्थात् चित्त की अवस्थाओं का गौण व्यवहार चित्तसाक्षी कूटस्थ पुरुष में किया जाता है। यह बद्धावस्था सहेतुक है; हेतु है अविद्या। अविद्या अनादि है, अतः यह सिद्ध होता है कि बद्धावस्था का भी आदि नहीं है, अर्थात् बद्ध पुरुष अनादि काल से बद्ध है (‘अनादिकाल से’ – ऐसा कहना न्याय की दृष्टि से सदोष है, पर इस विकल्पवृत्तिजात व्यवहार को करने के लिए हम बाध्य हो जाते हैं – यह ज्ञातव्य है)। जब तक भोग और अपवर्ग रूप दो पुरुषार्थ समाप्त नहीं होते, तब तक यह बद्धावस्था भी रहती है। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि बन्ध का अभाव ही मुक्ति है। यह मुक्ति अविद्या का पूर्णतः नाश होने पर ही होती है। अविद्यानाश विद्या (= विवेकख्याति) द्वारा ही साध्य है, जो योगांगों के अभ्यास से ही प्रकट होता है। बन्ध शब्द का एक विशिष्ट अर्थ में प्रयोग योगसूत्र 3/38 में है। शरीर में मन की (कर्माशयवशता के कारण) जो स्थिति होती है, वह भी बन्ध कहलाता है। (धारणा के प्रसंग में भी ‘बन्ध’ शब्द का प्रयोग होता है, जिसके लिए द्रष्टव्य है ‘देशबन्ध’ शब्द)। सांख्यशास्त्र में तीन प्रकार का बन्ध स्वीकृत हुआ है – प्राकृतिक, वैकृतिक (या वैकारिक) तथा दाक्षिण। अष्ट प्रकृति से सम्बन्धित जो बन्धन हैं, वह प्राकृतिक है। इस बन्धन से युक्त व्यक्ति भ्रमवश इन प्रकृतियों को आत्मा समझते हैं। सोलह विकारों (विकृतियों) से सम्बन्धित जो बन्धन है वह वैकृतिक है। इस बंधन से युक्त व्यक्ति भ्रमवश इन विकारों को आत्मा समझते हैं। दक्षिणासाध्य यज्ञादिकर्मों से संबंधित जो बन्ध है वह दाक्षिण बन्ध या दक्षिणाबन्ध है (दाक्षिणक शब्द भी प्रयुक्त होता है)। विभिन्न लोकों से संबंधित बन्धन वैकारिक बन्धन है – यह किसी-किसी का मत है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

बन्ध-मोक्ष अद्वैतवादी तान्त्रिक दार्शनिकों के मत में बन्ध और मोक्ष की कोई वास्तविक स्थिति नहीं है। ये मात्र विकल्प के व्यापार हैं। विकल्प शब्द की व्याख्या अलग से की गई है। इस दर्शन में वस्तुतः जब बन्ध की ही कोई स्थिति नहीं है, तब मोक्ष की चर्चा कहाँ से उठेगी और मोक्ष प्राप्ति की इच्छा का तो कोई प्रश्न ही नहीं है। चिदानन्दात्मक स्वरूप का परामर्श ही आत्मा का स्वभाव है। इसी को मोक्ष भी कहा जाता है। यह स्वभाव अपूर्णता ख्याति रूप आणव मल से जब आवृत हो जाता है, तो इसी को बन्ध कह देते हैं। ज्ञानदान और पापक्षपण लक्षण दीक्षा से जब मल अपसारित हो जाता है, तो गुरु के कृपा-कटाक्ष से शिष्य पुनः स्वस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं। इस दर्शन में वेदान्त आदि दर्शनों के समान ऐहिक और आमुष्मिक भोगों से विरक्ति को आवश्यक नहीं माना गया है। इस दर्शन की विशेषता यह है कि इसमें भोग और मोक्ष की समरसता प्रतिपादित है। इसकी अनुभूति जीवन्मुक्ति दशा में होती है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

बयलु देखिए ‘शून्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

बल शक्‍तियाँ

पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार जिन शक्‍तियों के द्‍वारा साधक मुक्‍ति को प्राप्‍त कर सकता है, वे शक्‍तियाँ बल कहलाती हैं। बल पाँच प्रकार के होते हैं- गुरुभक्‍ति, प्रसाद, द्‍वन्द्‍वजय, धर्म तथा अप्रमाद (ग.का.इ)। ये पाँच विषय भी पाशुपत दर्शन के प्रतिपाद्‍य विषयों में महत्वपूर्ण विषय हैं। तभी गणकारिका में इन्हें गिनाया गया है और टीका में इन पर प्रकाश डाला गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

बलप्रमथन ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत मत में ईश्‍वर को बलप्रमथन कहा गया है क्योंकि उसमें बलों (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्‍वर्य, अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्‍वर्य, इच्छा, द्‍वेष तथा प्रयत्‍न) की प्रवृत्‍ति का मन्थन अथवा निरोध करने की शक्‍ति होती है। तात्पर्य यह है कि इन बुद्‍धि धर्मों में अपना बल कोई नहीं है, इन्हें ईश्‍वर ही बल प्रदान करता है। उसी के द्‍वारा स्थापित नियति के आधार पर इनमें बल ठहराया जाता है। तो बल केवल शक्‍तिमान ईश्‍वर में ही है। वही किसी को बल दे सकता है और किसी के बल को विरुद्‍ध कर सकता है। अतः उसे बलप्रमथन कहते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.75)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

बहिरंगयोग धारणा, ध्यान और समाधि संप्रज्ञातयोग (द्र. योगसू. 1/17) के अंतरंग साधन माने जाते हैं (क्योंकि इस समाधि में आलम्बन रहता है)। संप्रज्ञात समाधि की दृष्टि में यम, नियम, आसन, प्राणायाम एवं प्रत्याहार ये पाँच योगाङ्ग बहिर्ङ्ग हैं। ये मुख्यतः शरीर आदि को मलहीन करते हैं, जिससे स्थैर्य उत्पन्न होता है। इसी प्रकार असंप्रज्ञात समाधि की दृष्टि में धारणा-ध्यान-समाधि बहिरङ्ग साधन हैं, क्योंकि असंप्रज्ञात समाधि निरालम्बन है। इस समाधि का अन्तरङ्ग साधन परवैराग्य है (परवैराग्य का स्वरूप योगसू. 1/16 में द्र.)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

बहुरुपी रूद्र के विविध रूपों संबंधी जप।

बहुरुपी रौद्री का ही नामांतर है तथा बहुरूप अघोर रूद्र का नामांतर है। रुद्र संबंधी जप में जब रुद्र के बहुत से रूपों का गायन होता है तो वही रौद्री बहुरूपी कहलाती है। अथवा यह जप-विशेष उस बहुरूप की प्राप्ति करवाता है (पा.सू.कौ.भा.पृ. 124)। इस बहुरूपी मंत्र का विस्तार बहुरूपगर्भस्तोत्र में मिलता है। पाशुपतसूत्र के तृतीय अध्याय के इक्‍कीसवें सूत्र से लेकर छब्बीसवें सूत्र तक बहुरूपी ऋचा का उपदेश किया गया है तदनुसार वह ऋचा यह है- अघोरेम्योടथ घोरेभ्य: घोरघोरतरेभ्यश्‍च सवेभ्य: शर्वसर्वेभ्यो नमस्ते अस्तु रुद्ररुपेभ्य:। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 81-91)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

बाह्य द्वादशांत। देखिए द्वादशांत।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बाह्य/बाह्यता जो जो वस्तु संविद्रूपी अहं के साथ अभिन्नतया आलासित होती है उसे आंतर कहते हैं और जो जो उससे भिन्नतया प्रकट होती है उसे बाह्य कहते हैं। ईश्वर प्रत्यभिज्ञा में स्पष्टतया कहा गया है कि प्रमाता के साथ अभेद ही आंतरता है और उससे भेद ही बाह्यता है। (ई.प्र0 1-8-8)। अज्ञानवश शरीर आदि को प्राणी अहं रूपतया जानता है। इसी कारण आणवयोग की स्थानकल्पना में बुद्धि को, प्राण को, शरीर को बाह्य न कहकर केवल ग्राह्य कहा गया है और देशरूप तथा कालरूप छः अध्वारूप आलंबनों को ही बाह्य कहा गया है। बुद्धि आदि केवल ग्राह्य ही हैं, परंतु देश और काल ग्राह्य होते हुए साथ ही बाह्य भी हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बिंदु 1. भ्रूमध्य में ध्यान लगाने से अभिव्यक्त होने वाली ज्योति। (स्वच्छन्द तंत्र खं. 2, पृ. 163)। 2. बिंदु – ईश्वर। यह पद भिदिर अवयवों से बनता है। ईश्वर भट्टारक ही प्रमातृता और प्रमेयता का स्रष्ट्टता और स्रक्ष्यमाणता का भेदमयता या विमर्शन करता है। इस तरह से अवयवन अर्थात् विश्लेषण का श्रीगणेश उसी से होता है। अतः वह बिंदु कहलाता है और शुद्ध विद्या को उसका नाद कहा जाता है। उससे ऊपर शिवभट्टारक को विंदु कहते हैं। विंदु का अर्थ होता है इच्छु : अर्थात् इच्छा शक्ति से आविष्ट। सदाशिव दशा को इसीलिए उस विंदु का नाद कहते हैं। विंदु , पर-प्रकाश, परमेश्वर, शिव। अमा कला। पराजीव कला। (वही पृ. 168)। देखिए विंदु।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बिन्दु प्रपंचसार, शारदातिलक, रत्नत्रय प्रभृति ग्रन्थों में नाद और बिन्दु को शिव और शक्ति से उसी तरह से अभिन्न माना गया है, जैसे कि प्रकाश और विमर्शात्मक शिव तथा शक्ति से शब्द और अर्थ को अभिन्न माना गया है। प्रणव की 12 कलाओं में भी बिन्दु और नाद की स्थिति है। आगम और तन्त्र की विभिन्न शाखाओं में नाद और बिन्दु की अपनी-अपनी व्याख्याएँ हैं।

  त्रिपुरा दर्शन (योगिनीहृदय 1/27-28) में भगवती त्रिपुरसुन्दरी के निष्कल स्वरूप की स्थिति महाबिन्दु में मानी गई है। कामकला विलास में बताया गया है कि विमर्श (शक्ति) रूपी दर्पण में परमशिव रूपी प्रकाश प्रतिबिम्बित होता है, तो वह चित्तमय कुड्य (भित्ति) में महाबिन्दु के रूप में प्रतिफलित होता है। इसको कामबिन्दु भी कहा जाता है। आगे चलकर शिव और शक्ति के प्रतीक शुक्ल और रक्त बिन्दु का उन्मेष होता है, जो कि शब्दमयी और अर्थमयी सृष्टि के जनक हैं। दो होने से इन बिन्दुओं को विसर्ग कहा जाता है। कालक्रम से उक्त दोनों बिन्दु मिलकर समस्त हो जाते हैं और उससे मिश्रि बिन्दु का आविर्भाव होता है। यह हार्दकला के नाम से प्रसिद्ध है। काम बिन्दु, विसर्ग और हार्दकला मिल कर कामकला नामक पदार्थ की रचना करते हैं। इसी से सारे जगत की सृष्टि होती है।
  बिन्दु शब्द की व्याख्या अक्षरबिन्दु, कारण बिन्दु, कार्य बिन्दु शब्दों की परिभाषा के अन्तर्गत भी देखी जा सकती है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

बीज 1. संपूर्ण विश्व की मूलभूता शुद्ध एवं परिपूर्ण संवित्। (शि.द1. वा. पृ. 57,61)। 2. अ से लेकर विसर्ग पर्यंत संवित्स्वरूप सोलह स्वरों का समूह। इन स्वरों में आगे के समस्त वर्ण बीज रूप में स्थित रहते हैं। इस प्रकार सारा वाचक-वाच्य आदि योनि वर्ग (देखिए) इन स्वरों में संवित्स्वरूप में ही रहता है। सभी व्यंजनों आदि की सृष्टि इन्हीं स्वरों से होती है। स्वरों के वर्ण को साक्षात् परसंवित्स्वरूप भैरव भी कहा जाता है। (स्व.तं.अ. 1 पृ. 27, 28)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बीजत्रय गायन्त्री मन्त्र में जैसे तीन पाद हैं, उसी तरह से श्रीविद्या में तीन कूट अथवा बीज हैं। इनमें नाम हैं – वाग्भव, कामराज और शक्ति। प्रत्येक कूट या बीज के अन्त में स्थित हृल्लेखा में कामकला की स्थिति मानी जाती है। योगिनीहृदय (3/172-176) में इसकी 12 कलाओं का वर्णन किया गया है। उक्त तीन कूटों या बीजों में क्रमशः आधार, हृदय और भ्रूमध्य स्थित वह्नि, सूर्य और सोम नामक कुण्डलिनियों में से प्रत्येक में श्रीचक्र के तीन-तीन चक्रों की भावना की जाती है। प्रथम बीज की हृल्लेखा में विद्यमान कामकला की अंगभूत सपरार्ध (हार्ध) कला वह्निकुण्डलिनी, द्वितीय बीज की हार्धकला सूर्यकुण्डलिनी और तृतीय बीज की सपरार्ध कला सोमकुण्डलिनी कहलाती है। वाग्भव बीज का हृदय तक और कामराज बीज का भ्रूमध्य तक उच्चारण होता है। शक्ति बीज से सभी 12 कलाओं का उच्चारण हो सकता है। वाग्भव सृष्टिबीज और कामराज स्थितिबीज, अतः इनका उच्चारण विश्वातीत उन्मनी पर्यन्त नहीं हो सकता। नित्याषोडशिकार्णव, योगिनीहृदय प्रभृति ग्रन्थों में और उनकी टीकाओं में यह विषय विस्तार से वर्णित है। (क) वाग्भव बीज ऋजुविमर्शिनीकार (पृ. 97-99) ने बिन्दु सहित अनुत्तर अकार को भी वाग्भव बीज बताया है। यह सारा विश्व अनुत्तर तत्त्व का ही प्रसार है। यह त्रिपुरा विद्या का प्रथम बीज है। वाग्भव बीज का समुद्धार नित्याषोडशिकार्णव (1/111-112) में मिलता है। अर्थरत्नावलीकार (पृ. 194) वाग्भव बीज को बैखरी वाण का विलास मानते हैं। यह ज्ञान शक्ति का प्रतीक है और इसकी उपासना से मोक्ष की प्राप्ति होती है (पृ. 216)। इसका समुद्धार जिह्वा के अग्रभाग में किया जाता है, अर्थात् इसकी आराधना से जिह्वा में सरस्वती का सतत निवास रहता है। नित्याषोडशिकार्णव (4/21-33) में वाग्भव बीज की साधनविधि, ध्यान का प्रकार और उसका फल वर्णित है। अर्थरत्नावली (पृ. 230-231) में बताया है कि वाग्भव बीज की उत्पत्ति मूलाधार में होती है, मूलाधार से ब्रह्मरन्ध्र पर्यन्त इसकी व्याप्ति रहती है और जिह्वा के अग्रभाग में इसकी विश्रान्ति का स्थान है। यहीं (पृ. 271) वाग्भव बीज के साधन के प्रसंग में होम और उसके लिये उपयुक्त सामग्री का वर्णन मिलता है। सौभाग्यसुधोदय (2/8) में इसे पूर्वाम्नाय का प्रतीक कहा है। तन्त्रशास्त्र में एकादश स्वर एकार को भी वाग्भव बीज कहा जाता है। (ख) कामराज बीज यह त्रिपुरा विद्या का द्वितीय बीज है। इस बीज का भी समुद्धार नित्याषोडशिकार्णव (1/113-116) में मिलता है। अर्थरत्नावलीकार (पृ. 194) कामराज बीज को मध्यमा वाणी का विलास मानते हैं। यह क्रिया शक्ति का प्रतीक है और इसकी उपासना से काम नामक पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है। (पृ. 216)। नित्याषोडशिकार्णव (4/34-46) में ही कामराज बीज की साधनविधि, ध्यान का प्रकार और उसका फल भी वर्णित है। अर्थरत्नावली (पृ. 247) में इस बीज की उत्पत्ति मूलाधार में, व्याप्ति भ्रूमध्यान्त तक तथा विश्रान्ति ब्रह्मरन्ध्र में मानी गई है। ऋजुविमर्शिनीकार (पृ.97-99) ने बिन्दु सहित आनन्दात्मक आकार को भी कामराज बीज माना है। धर्माचार्य ने लघुस्तव में कामराज बीज के निष्फल और सकल दो रूपों का वर्णन किया है। सानुस्वार चतुर्थ वर्ण को ही मूलतः निष्कल बीज कहा है। वही सकल भी बन जाता है। दोनों रूपों में उसकी उपासना की जाती है। (ग) शक्ति बीज यह त्रिपुरा विद्या का तृतीय बीज है। इस बीज का समुद्धार नित्याषोडशिकार्णव (1/116-118) में मिलता है। अर्थरत्नावलीकार (पृ. 194) शक्ति बीज को पश्यन्ती वाणी का विलास मानते हैं। यह इच्छा शक्ति का प्रतीक है और इसकी सहायता से साधक परम शिव के साथ सामरस्य लाभ कर सकता है (पृ. 216-217)। नित्याषोडशिकार्णव (4/47-57) में ही शक्ति बीज की साधनविधि, ध्यान का प्रकार और उसका फल वर्णित है। अर्थरत्नावलीकार (पृ. 217) ने बताया है कि इसकी उपासना से सभी प्रकार के विषयों से भी मुक्ति मिल जाती है। उक्त तीनों बीजों की व्यस्त रूप में और समस्त रूप में भी उपासना की जा सकती है। इस बीज के स्वरूप का स्पष्ट वर्णन परात्रीशिका शास्त्र के ‘तृतीयं ब्रह्म सुश्रोत्रि’ इस पद्य में किया गया है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

बुद्ध सामान्य ज्ञान को धारण करने वाला प्राणी। ऐसे प्राणी में अपने स्वरूप के साक्षात्कार के लिए किसी भी प्रकार की तीव्र उत्कंठा नहीं होती जैसा कि प्रबुद्ध (देखिए) में हुआ करती है परंतु अबुद्ध (देखिए) की तरह इनका ज्ञान अतीव संकुचित भी नहीं होता है। इनमें इतना सा सामान्य ज्ञान होता है कि भक्ति और ज्ञान के माध्यम से वे अपने वास्तविक स्वरूप को पहचान सकते हैं। प्रयास करने पर ये प्रबुद्ध की स्थिति को प्राप्त कर सकते हैं। जाग्रत् अवस्था में ठहरे जीवों का यह द्वितीय प्रकार होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बुद्धि सांख्ययोग में बुद्धि शब्द दो अर्थों में प्रचलित है – (1) ज्ञान अर्थात् वृत्तिरूप ज्ञान तथा (2) बुद्धितत्व अर्थात् महत्तत्त्व (द्र. महत्तत्त्व)। यह ज्ञान निश्चयरूप (प्रमारूप) ज्ञान है। यह बुद्धि विषय-इन्द्रिय-संयोग से प्रकटित होती है। वाचस्पति ने बुद्धिरूपवृत्ति के आविर्भाव की प्रक्रिया के विषय में ऐसा कहा है – ‘विषय के साथ इन्द्रिय का सन्निकर्ष होने पर बुद्धिस्थ आवरक तमोगुण का अभिभव होता है। इस अभिभव के कारण जो सत्वसमुद्रेक होता है वह ज्ञानरूप बुद्धि है’ (तत्त्वकौमुदी 5)। यह ज्ञान इन्द्रिय का धर्म नहीं है, किन्तु बुद्धि का धर्म है। सांख्ययोग में कुछ ऐसे स्थल हैं, जहाँ महत्तत्त्व या चित्त आदि शब्दों का प्रयोग न कर बहुधा बुद्धि शब्द का ही प्रयोग किया जाता है, जैसे ‘पुरुष बुद्धि का प्रतिसंवेदी है’, ‘काल बुद्धिनिर्माण है’, ‘बुद्धिनिवृत्ति ही मोक्ष है’, ‘भोगापवर्ग बुद्धिकृत है’, ‘पुरुष बुद्धिबोधात्मा है’ आदि। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि जो बुद्धि पुरुष की विषयभूत होती है, वह बुद्धिमात्र नहीं; बल्कि पुरुषार्थवती बुद्धि है (पुरुषार्थ = विवेकख्याति एवं विषय-भोग)। महत्तत्त्वरूप बुद्धि प्रकृति का प्रथम विकार है। द्र. महान् शब्द।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

बुद्धि तत्त्व सत्त्वगुण प्रधान महत्-तत्त्व। मूल प्रकृति में स्थित गुणों में विषमता के आ जाने पर सर्वप्रथम प्रकट होने वाला प्रमुख अंतःकरण। करण, ज्ञान तथा क्रिया के साधन को कहते हैं। बुद्धि तत्त्व प्रमेय को प्रकाशित करने के कारण तथा नाम रूप की कल्पना करने के कारण पुरुष के लिए क्रमशः ज्ञान और क्रिया का साधन बनता है। सुख, दुःख तथा मोह का सामान्य रूप से निश्चय करने वाला तत्त्व। (ई.प्र.वि.2, पृ. 205, 212; शिवसूत्रविमर्शिनी पृ. 44)। व्यवहार में समस्त आंतर और बाह्य विषयों का निश्चयात्मक अध्यवसाय कराने वाला पुरुष का मुख्य अंतःकरण बुद्धि तत्त्व कहलाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बुद्धि धारणा देखिए ध्यान योग।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बुद्धि प्रमाता बुद्धि को ही अपना स्वरूप समझने वाला प्राणी। स्वप्न अवस्था में शरीर और बाह्य इंद्रियाँ सभी निष्क्रिय पड़े रहते हैं। फिर भी सारे उपादान, परित्याग आदि व्यापार तीव्रतर गति से चलते रहते हैं। उनको चलाने वाला तथा उनके चलाने के अभिमान को करने वाला सूक्ष्म शरीर रूपी प्राणी ही बुद्धिप्रमाता कहलाता है। यह प्रमाता अन्य सभी करणों के सूक्ष्म रूपों का उपयोग तो करता रहता है और प्राणवृत्तियों का भी उपयोग करता रहता है। फिर भी बुद्धिकृत संकल्प विकल्प आदि की ही इसमें प्रधानता रहती है, अतः इसे बुद्धि-प्रमाता कहते हैं। देहांतरों को यही प्रमाता धारण करता है और स्वर्ग नरक आदि लोकों की गति इसी की हुआ करती है। देवगण सभी बुद्धि प्रमाता ही होते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बुद्धिवृत्ति बुद्धि का व्यापार रूप परिणाम बुद्धिवात्त कहलाता है; विषय के संपर्क से ही बुद्धि से वृत्तियों का आविर्भाव होता है। बुद्धि चूंकि द्रव्य है, इसलिए वृत्ति भी द्रव्य है। वृत्ति को बुद्धि का धर्म कहा जाता है। यह वृत्ति वस्तुतः विषयाकार परिणाम ही है। बुद्धि चूँकि सत्वप्रधान है, अतः वृत्ति ज्ञान रूपा ही होती है; ‘वृत्ति प्रकाशबहुल धर्मरूप है’ ऐसा प्रायः कहा जाता है। यह ज्ञातव्य है कि बुद्धि से वृत्तियों के उद्भव में विषय आदि कई पदार्थों की आवश्यकता होती है, पर वह वृत्ति विषय आदि का धर्म न होकर बुद्धि का ही धर्म मानी जाती है, क्योंकि वृत्ति सत्त्वबहुल होती है। सांख्य में जो बुद्धिवृत्ति है, योग में उसको चित्तवृत्ति कहा जाता है (द्र. चित्तवृत्ति शब्द)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

बुद्धिसर्ग सांख्यकारिका में जिस प्रत्ययसर्ग का उल्लेख है (का. 46) उसका नामान्तर बुद्धिसर्ग है (‘प्रतीयते अनेन इति प्रत्ययो बुद्धिः’ – तत्त्वकौमुदी, 46)। इस प्रत्ययसर्ग के चार भेद हैं – विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि। द्र. प्रत्ययसर्ग तथा विपर्यय आदि शब्द। किसी-किसी व्याख्याकार के अनुसार प्रत्ययसर्ग का अर्थ है – प्रत्ययपूर्वक=बुद्धिपूर्वक सर्ग, अर्थात् सृष्टिकारी प्रजापति का अभिध्यानपूर्वक जो सर्ग = सृष्टि है, वह प्रत्ययसर्ग है। यह सर्ग चार प्रकार का है – मुख्य स्रोत, (उद्भिज्जसर्ग, तिर्यक-स्रोत (पश्वादिसर्ग), ऊर्ध्वस्रोत (देवसर्ग) तथा अर्वाक् स्रोत (मानुषसर्ग)। इन चार प्रकारों में ही यथाक्रम विपर्यय, अशक्ति, तुष्टि और सिद्धि रहती हैं और तदनुसार इन चारों के नाम भी विपर्यय होते हैं (द्र. युक्तिदीपिका, 46 कारिका तथा पुराणोक्त सर्ग -विवरणपरक अध्याय)। इस बुद्धिपूर्वक सर्ग के अतिरिक्त एक अबुद्धिपूर्वक सर्ग भी है, जिसका विवरण पुराणों के उपर्युक्त अध्यायों में मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

बृंहक परब्रह्म, परमेश्वर, परमशिव। परमेश्वर में जो विश्व बीजरूपतया अर्थात् शक्तिरूपतया सदा विद्यमान रहता है उसी को वह दर्पण नगर न्याय से प्रतिबिंब की तरह अपने से भिन्न रूपता में प्रकट करता रहता है। वही विश्व का विकास कहलाता है। ऐसे विकास को बृंहण करते हैं। इस बृंहण को करने वाला विश्वबृंहक या विश्वविकासक स्वयं परमेश्वर ही है। इसी बृंहणसामर्थ्य के कारण उसे शास्त्रों में ब्रह्म कहा गया है। (सा.वि.व. 1-253।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बौद्ध अज्ञान माया आदि छः कंचुकों से घिर कर पशुभाव की अवस्था में आने पर अशुद्ध विकल्पों द्वारा संकुचित ज्ञातृता तथा कर्तृता का आत्माभिमान होना तथा अपने पशुभाव का बुद्धि के स्तर पर निश्चय होना बौद्ध अज्ञान कहलाता है। (तं.आ., 1-39, 40)। अपने तात्त्विक स्वभाव का ज्ञान न होने के कारण अनात्म वस्तुओं पर आत्माभिमान का निश्चय होना भी बौद्ध अज्ञान कहलाता है। (तं.सा,पृ. 3)। इस तरह से बौद्ध अज्ञान बुद्धि के स्तर पर होने वाले अयथार्थ और सीमित तथा विकल्पात्मक निश्चय ज्ञान को कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


बौद्ध ज्ञान बुद्धि के स्तर पर अपने तात्त्विक स्वभाव का निश्चयात्मक ज्ञान बौद्ध ज्ञान कहलाता है। (त.सा.पृ.2)। बौद्ध ज्ञान के बिना पौरुष ज्ञान में स्थिति प्राप्त करना अतीव कठिन है, क्योंकि पौरुष ज्ञान प्राप्त कर लेने पर भी यदि बुद्धि के भीतर किसी प्रकार के संशय रह जाएँ तो पौरुष ज्ञान सफल नहीं हो पाता है . अतः पौरुष ज्ञान से पूर्व बौद्ध ज्ञान का होना आवश्यक माना गया है। (तं.आ. 1.48, 49)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ब्रह्‍म ईश्‍वर का नामांतर।

भगवान पशुपति को ब्रह्‍म नाम से भी अभिहित किया गया है, क्योंकि वह बृहत् (व्यापक अथवा श्रेष्‍ठ) है तथा उसमें बृंहण सामर्थ्य है (ग.का.टी.पृ.12)। बृंहण वृद्‍धि को या विकास को कहते हैं। परमेश्‍वर से ही समस्त ब्रह्‍माण्ड का विकास होता है। वे ही इसके विकासक या बृंहक हैं। इसीलिए उन्हें ब्रह्‍म कहा जाता है। ब्रह्‍म शब्द का ऐसा अर्थ काश्मीर शैव दर्शन के मालिनी विजय वार्तिक पृ.25 तथा पराजीशिका विवरण पृ.121 में भी दिया गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ब्रह्म प्रपंच का बृंहण अर्थात् विस्तार करने के कारण तथा स्वयं बृहत् होने के कारण ब्रह्म कहा जाता है। यह ब्रह्म शब्द का योगार्थ है। यहाँ बृंहण करना उपलक्षण मात्र है। वस्तुतः प्रपंच की उत्पत्ति, स्थिति और लय का कारण ब्रह्म है। ब्रह्म का यही लक्षण “जन्माद्यस्य यतः” इस सूत्र में प्रतिपादित किया गया है। उक्त सूत्र में प्रतिपादित यह लक्षण ब्रह्म का तटस्थ लक्षण है। सत्चित्त और आनंद (सच्चिदानन्द) यह ब्रह्म का स्वरूप लक्षण है। नामरूपात्मक प्रपंच के अंतर्गत जैसे रूप प्रपंच के कर्त्ता ब्रह्म हैं वैसे वेद या नाम प्रपंच के भी विस्तार कर्त्ता ब्रह्म ही हैं। ब्रह्म का कार्य होने से वेद और नाम प्रपंच भी ब्रह्म शब्द से कहा जाता है (अ.भा. 1/1/2)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

ब्रह्म परतत्त्व। परमशिव तत्त्व। पंचकृत्यों द्वारा विश्वलीला का विकासक परमेश्वर। बृहत् अर्थात् असीम और सर्वव्यापक चैतन्यात्मक प्रकाश, जो संपूर्ण जगत् का बृहंक अर्थात् विकासक है। समस्त प्रपंच का बृंहण अर्थात् विकास करने के कारण ही परमेश्वर को ब्रह्म कहते हैं। (पटलजी.वी.पृ. 221)। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, ईश्वर और सदाशिव नामक पाँच कारणों को भी पंच ब्रह्म कहा जाता है क्योंकि ये ही इस विश्व विकास के कार्य को स्फुटतया आगे आगे चलाते रहते हैं। ब्रह्म त्रि श,ष और स – मातृका के ये तीन वर्ण। ब्रह्म पंच 1. श, ष, स, ह, क्ष – मातृका के ये पाँच वर्ण। 2. ब्रह्मा आदि पाँच कारण।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ब्रह्म दृष्टि “यह सब कुछ आत्मा ही है, यह सब कुछ ब्रह्म ही है”। यह दृष्टि ब्रह्म दृष्टि है। उक्त दृष्टि प्रतीकात्मक (आरोपात्मक) नहीं है, किन्तु श्रवण के अनन्तर होने वाला मनन रूप है क्योंकि सभी वस्तु वास्तव में ब्रह्म ही है (आ.भा.पृ. 1273)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

ब्रह्‍मचर्य पाशुपत योग में यमों का एक प्रकार।

मनुष्य की त्रयोदश इन्द्रियों (पञ्‍च कर्मेन्द्रिय, पञ्‍च ज्ञानेन्द्रिय तथा मन, बुद्‍धि व अहंकार) का संयम विशेषकर जिह्वा तथा उपस्था जननेन्द्रिय का संयम ब्रह्‍मचर्य कहलाता है। पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य में जिह्‍वा और उपस्थ के संयम का विशिष्‍ट निर्देश दिया गया है। क्योंकि शेष ग्यारह इन्द्रियाँ इन्हीं दो से संबंधित होती हैं। जिह्वा व उपस्थ को मानव का शत्रु माना गया है, क्योंकि इन्हीं दो की प्रवृत्‍तियों से समस्त देहधारियों का पतन होता है। इन्द्रियों की प्रवृत्‍ति से, अर्थात् उनके किसी भी कर्म में प्रवृत्‍त होने से, दुःख उत्पन्‍न होता है, तथा उनके संयम में रहने से सुख होता है, क्योंकि जब इन्द्रियाँ प्रवृत्‍त नहीं होंगी तो किसी भी परिणाम की जनक नहीं बनेंगी। परिणाम, सुख अथवा दुःखपूर्ण, नहीं होगा तो सुख, दुःख दोनों आपेक्षिक भावों का जन्म नहीं होगा। अतः इन्द्रियों को संयम में रखना अतीव आवश्यक है। पाशुपत योग में ब्रह्मचर्य को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। जो ब्राह्मण ब्रह्मचर्य का सेवन करते हैं, वे दूध, मधु व सोमरस का पान करते हैं और मृत्यु के उपरांत अमरत्व को प्राप्‍त करते हैं। ब्रह्‍मचर्य वृत्‍ति में धैर्य है, तप है। जो ब्राह्‍मण ब्रह्‍मचर्यवृत्‍ति का पालन करते हैं उन्हें स्वर्गलोक की प्राप्‍ति होती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.21)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

ब्रह्मचर्य पंचविध यमों में यह एक है (योगसू. 2/30)। यह मुख्यतः उपस्थसंयम (मैथुनत्याग) है, यद्यपि अन्यान्य इन्द्रियों का संयम भी ब्रह्मचर्य में अन्तर्भूत है। उपस्थसंयम से शरीरवीर्य की अचंचलता अभिप्रेत है। वीर्यधारण से प्राणवृत्ति में सात्त्विक बल बढ़ता है, जो योगाभ्यास के लिए अपरिहार्य है। ब्रह्मचर्य की प्रतिष्ठा होने पर योगी शिष्य के हृदय में ज्ञान का आधान करने में समर्थ होता है। व्याख्याकारों ने कहा है कि ब्रह्मचर्य का भंग आठ प्रकारों से होता है, स्मरण या श्रवण, कीर्तन, केलि, प्रेक्षण, गुह्यभाषण, संकल्प, अध्यवसाय तथा क्रियानिष्पत्ति। पुरुष के लिए स्त्रीसम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना तथा स्त्री के लिए पुरुष सम्बन्धी बातों को सुनना या स्मरण करना (रागपूर्वक, जिससे ब्रह्मचर्य की हानि होती है) श्रवण है। कीर्तन आदि को भी इसी प्रकार जानना चाहिए।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

ब्रह्मपुच्छ “ब्रह्मापुच्छं प्रतिष्ठा” यहाँ पर पुच्छ स्थानीय ब्रह्म आनंदमय का प्रतिष्ठा भूत है क्योंकि “ब्रह्मविदाप्नाति परम्”। इस श्रुति के अनुसार आनंद स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति का साधन ब्रह्मज्ञान है एवं साधनभूत ब्रह्मज्ञान के प्रति ज्ञेय रूप में (विषय रूप में) ब्रह्म शेष (अंग) है। इस प्रकार साधन कोटि के अंतर्गत होने से ब्रह्म उस आनंदमय का प्रतिष्ठाभूत पुच्छ स्थानीय है। अर्थात् आनंदस्वरूप ब्रह्म पुच्छ स्थानीय ज्ञेय ब्रह्म पर प्रतिष्ठित है। इसीलिए ज्ञेय ब्रह्म आनंद का पुच्छ रूप है (अ.भा.पृ. 207)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

ब्रह्मानंद उच्चार योग की प्राण धारणा में भिन्न भिन्न स्तरों पर अभिव्यक्त होने वाली आनंद की छः भूमिकाओं में से चौथी भूमिका। अपान द्वारा प्राण में अनंत प्रमेयों को विलीन कर देने की स्थिति में सहज स्थिरता आ जाने पर साधक प्राण योग में समान प्राण पर विश्रांति का अभ्यास करता है। इस अभ्यास में वह कोई भी आकांक्षा न रखते हुए सभी प्रमेय पदार्थों को भावना द्वारा समरसतया संघट्ट रूप में देखता है। इसके लिए वह समान नामक प्राण वृत्ति को ही आलंबन बनाता है। इस प्रकार समान प्राण पर विश्रांति के सतत अभ्यास से जो आनंद की भूमिका अभिव्यक्त होती है, उसे ब्रह्मानंद कहते हैं। (त.सा.पृ. 38, तन्त्रालोक 5-46, 47)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


ब्राह्म शरीर भगवान् द्वारा अपने भोग के अनुरूप निर्मित सत्य-ज्ञान और आनंदात्मक शरीर ब्राह्म शरीर है (अ.भा.पृ. 1380)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

भक्‍त देखिए ‘अंगस्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्‍त-स्थल देखिए ‘अंगस्थल’ शब्द के अंतर्गत ‘भक्‍त’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्ताक्षर विज्ञान भक्तों को होने वाला पुरुषोत्तम के अधिष्ठान के रूप में अक्षर का विज्ञान भक्ताक्षर विज्ञान है। पुष्टिमार्ग में अक्षर ब्रह्म का भी अधिष्ठाता पुरुषोत्तम भगवान् है, ऐसी मान्यता है (अ.भा.पृ. 1154)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

भक्‍ति परशिव की विमर्शशक्‍ति स्वस्वातंत्र्य के बल से दो भागों में विभक्‍त होकर अंगस्थल और लिंग-स्थल को आश्रय करती है। इनमें लिंगस्थलाश्रित शक्‍ति ‘कला’ और अंगस्थलाश्रित शक्‍ति ‘भक्‍ति’ कहलाती है। यह भक्‍ति निर्धूम दीपक के प्रकाश की तरह है, अर्थात् यह प्रपंच की वासनाओं से निर्मुक्‍त रहती है। भक्‍ति जीव के जीवत्व को हटाकर शिवस्वरूप प्राप्‍त करने में उसकी सहायक बनती है। मोहित गुणों के अधीन न रहने के कारण इसको निवृत्‍तिरूपा, ऊर्ध्वमुखी, निर्माया और शुद्‍धा कहते हैं। कला की अपेक्षा भक्‍ति श्रेष्‍ठ है, क्योंकि यह जीव को स्वस्वरूप का साक्षात्कार कराने में सहायक होती है (अनु. स. 2/23-31)।

जिस प्रकार जल छः रसों से युक्‍त होकर षड्‍रसस्वरूप बन जाता है, उसी प्रकार भक्‍ति भी अंग (शुद्‍ध जीव) के षट्‍भेद से ‘श्रद्‍धा भक्‍ति’, ‘निष्‍ठाभक्‍ति’, ‘अवधानभक्‍ति’, ‘अनुभव भक्‍ति’, ‘आनंदभक्‍ति’, और ‘समरस भक्‍ति’ नाम से छः प्रकार की बन जाती है (अनु. सू. 4/21-27; श.वि.द. पृष्‍ठ 183)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्‍ति क. श्रद्‍धाभक्‍ति साधक का अष्‍टावरण और पंचाचारों में रहने वाला निरतिशय प्रेम ही ‘श्रद्‍धाभक्‍ति’ कहलाता है। इस स्तर में भक्‍ति करने वाले साधक और उपास्य शिव में भेद-बोध रहता है। श्रद्‍धाभक्‍ति से शिव को अर्पित किए जाने वाले पदार्थ स्थूल ही होते हैं। यह भक्‍ति ज्यादातर स्थूल शरीर से ही संबंध रखती है। श्रद्‍धाभक्‍ति भक्‍तस्थल के साधक में रहती है (अनु.सू. 4/27; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्‍ति ख. निष्‍ठाभक्‍ति जब साधक की श्रद्‍धा अत्यंत दृढ़ होती है, तब वह ‘निष्‍ठा – भक्‍ति’ कहलाती है। यह महेश्‍वर-स्थल के साधक में रहती है। इस अवस्था में भी स्थूल पदार्थों का ही अर्पण होता है। श्रद्‍धा-भक्‍ति से शिव को पदार्थो का अर्पण करते समय प्रेम रहता है और निष्‍ठा से अर्पण करते समय प्रगाढ़-प्रेम रहता है। यही ‘श्रद्‍धा-भक्‍ति’ और ‘निष्‍ठाभक्‍ति’ में अंतर है। निष्‍ठाभक्‍ति से मन का चांचल्य धीरे-धीरे कम हो जाता है। इस निष्‍ठा-भक्‍ति को ही ‘नैष्‍ठिक-भक्‍ति’ भी कहते हैं (अनु. सू. 4/27; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्‍ति ग. अवधानभक्‍ति अवधान मन की एकाग्रता से संभव है। ‘अवधान-भक्‍ति’ मन से संबंधित है। निष्‍ठाभक्‍ति की परिपक्‍व अवस्था ही अवधानभक्‍ति है। साधक का मन अपनी उपभोग्य वस्तुओं को शिव को समर्पण करते समय यदि भूत और भविष्य का चिंतन छोड़कर वर्तमानकालिक अर्पण-क्रिया के प्रति जाग्रत् और एकाग्र रहता है, तब मन की उस अवस्था को अवधानावस्था कहते हैं। इस अवस्था में होने वाली अर्पण-क्रिया ही ‘अवधान-भक्‍ति’ कहलाती है। यह ‘प्रसादि-स्थल’ के साधक में पाई जाती है। इस भक्‍ति से साधक के अहंकार का निरसन हो जाता है। अतः अवधान-भक्‍ति-युक्‍त साधक प्रत्येक क्रिया में ‘मैं करता हूँ’ इस भाव को छोड़कर शिव को ही प्रेरक समझता है (अनु. सू. 4/26; शि.श.रको. पृष्‍ठ 51)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्‍ति घ. अनुभव-भक्‍ति साधक अहंकार शून्य होकर निरंतर शिवध्यान में तत्पर होने के कारण ‘भ्रमर-कीट-न्याय’ से, अर्थात् जैसे कीट निरंतर भ्रमर-चिंतन से भ्रमर बन जाता है, वैसे यह साधक भी अपने में शिव-स्वरूप का अनुभव करने लगता है। इस शिवानुभव को शिव की ही कृपा समझना ‘अनुभव-भक्‍ति’ कहलाती है। यह भक्‍ति ‘प्राणलिंगि-स्थल’ के साधक में रहती है (अनु.सू. 4/26; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्‍ति ड. आनंदभक्‍ति अनुभव-भक्‍ति का विकास ही ‘आनंदभक्‍ति’ है। शिवतादात्म्य अनुभव से प्राप्‍त अलौकिक सुख ही आनंद कहलाता है। अतएव साधक के अनुभव का पर्यवसान आनंद में होता है। शिवानुभव से प्राप्‍त आनंद को शिव की कृपा समझना ही ‘आनंद-भक्‍ति’ कहलाती है। यह ‘शरण-स्थल’ के साधक में रहती है। इस आनंदभक्‍ति से युक्‍त साधक की सभी सांसारिक वासनायें प्राय: नष्‍ट हो जाती है। (अनु. सू. 4/25; शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्‍ति च. समरस-भक्‍ति यह श्रद्धाभक्‍ति की पूर्ण परिणति है। साधक अपने संपूर्ण जीवभाव को त्यागकर जिस भक्‍ति की सहायता से अपने मूल स्वरूप परशिव में समरस हो जाता है, उसे ही ‘समरस-भक्‍ति’ कहते हैं। यह ‘ऐक्य-स्थल’ के साधक में रहती है। इस समरस-भक्‍ति को प्राप्‍त कर लेना ही षट्‍स्थल साधना का अंतिम लक्ष्य है। इस समरस-भक्‍ति से संपन्‍न साधक ‘ऐक्य-स्थल’ का सिद्ध शिवयोगी है। (अनु.सू. 4/25 : शि.श.को. पृष्‍ठ 51)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भक्ति काश्मीर शैव दर्शन में उत्कृष्ट पराद्वैत ज्ञान के, समावेशात्मक उत्कृष्ट योग के और पराकाष्ठा पर पहुँचे हुए प्रेम के समन्वयात्मक स्वरूप को ही भक्ति कहा गया है। देखिए परा भक्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भगवच्छास्त्र श्रीमद्भागवत-गीता एवं पंचरात्र ये तीन भगवच्छास्त्र हैं। क्योंकि ये तीनों ही स्वयं भगवान् द्वारा उक्त हैं तथा भगवत्तत्त्व के प्रतिपादक हैं (त.दी.नि.पृ. 12)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

भगवत् शक्तिद्रव्य भगवान् की दो शक्तियाँ हैं – एक प्रवर्तकत्व शक्ति और दूसरी भजनीयत्व शक्ति। भगवान की प्रथम प्रवर्तकत्व शक्ति के कारण जगत की समस्त प्रवृत्तियाँ होती हैं तथा दूसरी भजनीयत्व शक्ति के कारण वे विशुद्ध रूप में भक्तों के भजनीय होते हैं। इनमें प्रवर्तकत्व शक्ति का प्राकट्य तो समस्त प्राणिमात्र के लिए है। किन्तु उनकी भजनीयत्व शक्ति का प्राकट्य केवल भक्तों में ही होता है (भा.सु. 11टी. पृ. 1111)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

भजनकृत्स्न भाव भगवद् भजन में आन्तर और बाह्य सभी इन्द्रियों की सार्थकता का होना भजनकृत्स्न भाव है। उक्त सार्थकता गृहस्थों के ही भगवद् भजन में चरितार्थ है। त्यागियों के भगवद् भजन में तो केवल वाणी और मन ही सार्थक हो पाते हैं, अन्य हस्त, पाद, नेत्र, श्रवणादि इन्द्रियों की तो कोई उपयोगिता नहीं होती है (अ.भा.पृ. 1244)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

भजनानंद दान भक्त की भक्ति के वशीभूत हुए भगवान् भक्त की इच्छा के अनुसार उसे सायुज्य आदि मुक्ति को न देकर भजनानंद प्रदान करते हैं क्योंकि भक्त को मुक्ति से भी अत्यधिक अभीष्ट भगवान् के भजन से उत्पन्न आनंद है। अतः उसे ही वह चाहता है और भगवान उसे प्रदान करते हैं। यही भगवान् का भक्त के लिए भजनानंद दान है (अ.भा.पृ. 1145)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

भवप्रत्यय भवप्रत्यय’ एक प्रकार का चित्तवृत्तिनिरोध रूप समाधि या योग है; जो विदेहों एवं प्रकृतिलयों का होता है (द्र. योगसू. 1/19)। इस समाधि से युक्त जीवों का संसार में पुनः आना अवश्यंभावी है – इस दृष्टि से इस समाधि का नाम ‘भवप्रत्यय’ रखा गया है (भवः = जन्म, प्रत्ययः = कारण यस्य सः)। यद्यपि इस समाधि में निरोध की पराकाष्ठा है, तथापि यह कैवल्य की साधक नहीं है। इस समाधि से युक्त जीवों (विदेह आदि) में पुरुषतत्त्वज्ञान नहीं होता, अतः ये जीव निरोधभंग के बाद पुनः स्थल देह धारण करते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भवोद्‍भव ईश्‍वर का नामांतर।

भव (इस समस्त दृश्य जगत) का उत्पत्‍ति कारक होने के कारण ईश्‍वर को भवोद्‍भव कहा गया है। यद्‍यपि इस बाह्य जगत की उत्पत्‍ति जड़ प्रकृति तत्व से होती है। फिर भी उस तत्व को सृष्‍टि का कारण माना नहीं जाता है, क्योंकि वह तत्व स्वयं सृष्‍टि करने में समर्थ नहीं। उससे विश्‍व की सृष्‍टि तभी होती है जब ईश्‍वर उसमें से इस सृष्‍टि को करवाता है। अतः ईश्‍वर ही सृष्‍टि का प्रधान कारण है। अतः उसे भवोद्‍भव कहते हैं। उसे कारणकारणं भी कहते हैं (पा.सू.कौ.भा.पृ.55)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

भसित देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘विभूति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भस्म पाशुपत विधि का एक आवश्यक अंग।

इन्धन व अग्‍नि के संयोग से जो राख उत्पन्‍न होती है अर्थात् इन्धन को जलाकर जो राख बनती है, वह भस्म कहलाती है। पाशुपत संन्यासी को भस्म की भिक्षा मांगनी होती है, क्योंकि भस्म को पवित्रतम वस्तु माना गया है और यह पवित्रीकरण का एक उत्कृष्‍ट साधन है। अतः पाशुपत योगी को भस्मप्राप्‍ति चाहे थोड़ी मात्रा में ही हो, आवश्यक रूप से करनी होती है। साधक को दिन में कई बार भस्म मलना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.8)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

भस्म देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘विभूति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भस्मशयन पाशुपत विधि का एक अंग।

पाशुपत विधि के अनुसार शारीरिक पवित्रीकरण के लिए भस्मशयन करना होता है। रात्रि में भस्मशय्या को छोड़कर कहीं और शयन करना विधि-विरुद्‍ध है। पाशुपत योगी के लिए रात्रि को भस्मशय्या पर ही शयन करना अतीव आवश्यक है। वह जब कभी लेटे तो उसे भस्म में ही लेटना होता है। उससे उसका शरीर सदा पवित रहता है। मन की पवित्रता भी उससे बढ़ती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.8)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

भस्मस्‍नान पाशुपत विधि का एक अंग।

पाशुपत विधि के अनुसार भस्मस्‍नान विधि का एक आवश्यक अंग है। योगी को जल की अपेक्षा भस्म से ही शारीरिक पवित्रीकरण के लिए स्‍नान करना होता है। शरीर पर भस्म मलना ही भस्मस्‍नान होता है जिससे शरीर पर लगे स्‍निग्ध द्रव, तेल अथवा लेप या स्वेदजनित दुर्गन्ध आदि दूर हो। भस्मस्‍नान दिन में तीन बार पूर्वसन्ध्या, अपराह्नसन्ध्या तथा अपरसन्ध्या अर्थात् दिन के तीन विशेष पहरों में करना होता है। यदि किसी आगंतुक कारण से पवित्रता में भंग आए तो तब भी उसे पुन: भस्मस्‍नान करना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.9)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

भाव सांख्य में तीन प्रकार की सृष्टि मानी गई है – तत्त्वसृष्टि, भूतसृष्टि तथा भावसृष्टि। भाव का अभिप्राय धर्म आदि आठ भावों से है (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य तथा उनके विरोधी अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य) (द्र. सांख्यकारिका 43, 52)। ये भाव त्रयोदश करणों (पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन, अहंकार और बुद्धि) में आश्रित रहते हैं। ये भाव शरीर के उपादान कारणों से भी संबन्धित हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि विशेष प्रकार के शरीर धर्म -ज्ञानादि के साधन में विशेषतः उपयोगी होती हैं। इन आठ भावों को सांसिद्धिक और वैकृतिक नामक दो भागों में बाँटा गया है (द्र. सांख्यका. 43)। सांसिद्धिक भाव वे हैं जो जन्म के साथ ही प्रकट होते हैं (पुरुषान्तर से उपदेश-ग्रहण के बिना)। ये प्राकृतिक भी कहलाते हैं। वैकृत भाव वे हैं जो साधनबल से क्रमशः प्रकट होते रहते हैं। कपिल मुनि प्रथम प्रकार के भाव के मुख्य उदाहरण हैं। कुछ व्याख्याकार भावों के तीन प्रकार बताते हैं – सांसिद्धिक, प्राकृतिक तथा वैकृत (या वैकृतिक)। जन्म के साथ उत्पन्न होने वाले सांसिद्धिक; कुछ आयु बीतने पर आकस्मिक रूप से उत्पन्न होने वाले प्राकृतिक (इसमें पुरुषान्तर से उपदेश की आवश्यकता नहीं है); पुरुषान्तर से उपदेश लेकर साधन करने पर जो धर्मादि उत्पन्न होते हैं, वे वैकृतिक हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भाव सात प्रकार के आचारों के समान ही तन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों में त्रिविध भावों का भी विशद वर्णन मिलता है। ये हैं- पशुभाव, वीरभाव और दिव्यभाव। जन्मकाल से सोलह वर्ष तक पशुभाव, इसके बाद पचास वर्ष तक वीरभाव और पचास वर्ष के पश्चात् मनुष्य दिव्यभाव में रहता है। भावत्रय से अन्ततः भावै की सिद्धि होती है। ऐक्यभाव से साधक कुलाचार में प्रतिष्ठित होता है और इस कुलाचार के द्वारा ही मानव देवमय बन पाता है। भाव एक मानव धर्म है। मन ही मन सर्वदा उसका अभ्यास किया जाता है। दिव्य और वीर ये दो महाभाव हैं, पशुभाव अधम है। वैष्णव को पशुभाव से पूजा करनी चाहिये। शक्ति मन्त्र में पशुभाव भीतिजनक है। दिव्य और वीर भाव में वस्तुतः अन्तर नहीं है, किन्तु वीरभाव अति उद्धत है। रुद्रयामल में बताया गया है कि पशुभाव स्थित साधक किसी एक सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। किन्तु कुलमार्ग अर्थात् वीरभाव स्थित योगी अवश्य ही सब प्रकार की सिद्धियों का अधिकारी हो जाता है। महाविद्याओं के प्रसन्न होने पर ही वीरभाव की प्राप्ति होती है और वीरभाव के प्रसार से ही दिव्यभाव प्रकट होता है। वीरभाव और दिव्यभाव को ग्रहण करने वाले साधक वाञ्छाकल्पतरुलता के स्वामी हो जाते हैं, अर्थात् जब जो चाहे सो प्राप्त कर सकते हैं। (क) दिव्यभाव कुब्जिकातन्त्र प्रभृतति में दिव्यभाव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि यह विश्व देवतामय है। समस्त जगत स्त्रीमय और पुरुष भगवान् शिव है। इस प्रकार अभेद भाव से जो चिन्ता करता है, वह देवतात्मक या दिव्य है। उसको चाहिए कि वह नित्य स्नान, नित्य दान, त्रिसन्ध्या जप-पूजा, निर्मल वसन परिधान, वेदशास्त्र, गुरु और देवता में दृढ़ आस्था, मन्त्र और पितृ-पूजा में अटल विश्वास, बलिदान, श्राद्ध और नित्य कार्य का नियमित आचरण, शत्रु-मित्र में समभाव रखते हुए अन्य किसी के भी अन्न का ग्रहण न करे। शरीर यात्रा के लिये केवल गुरुनिवेदित अन्न स्वीकार करे। कदर्थ और निष्ठुर आचरण का परित्याग कर दिव्यभाव से सदा परमेश्वर की उपासना में निरत रहे। उसको सदा सत्य बोलना चाहिये। जो कभी असत्य का सहारा न ले वह साधक दिव्यभाव में स्थित माना जाता है। सत्ययुग और त्रेता के प्रथमार्ध तक दिव्यभाव की स्थिति मानी जाती है। दिव्यभाव की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इस भाव के द्वारा साधक समस्त विश्व को परमशिव और उसकी पराशक्ति के रूप में ही देखता है तथा अपनी आहार-विहार आदि सभी क्रियाओं को शिवशक्ति की पूजा ही समझता है। (ख) पशुभाव कामाख्यातन्त्र में पशुभाव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि जो पंचतत्व को स्वीकार नहीं करते और न उसकी निन्दा ही करते हैं, जो शिवोक्त कथा को सत्य मानते हैं, पाप कार्य को निन्दनीय समझते हैं, वे ही पशुनाम से प्रसिद्ध हैं। जो प्रतिदिन हविष्य का आहार करते हैं, ताम्बूल नहीं छूते, ऋतु स्नाता अपनी स्त्री के सिवा अन्य किसी भी स्त्री को कामभाव से नहीं देखते, परस्त्री के कामभाव को देखकर उसका साथ त्याग देते हैं, मत्स्य-मांस का सेवन कभी नहीं करते, गन्धमाल्य, वस्त्र आदि धारण नहीं करते, सर्वदा देवालय में रहते हैं और आहार के लिये घर जाते हैं, पुत्र और कन्याओं को अतिस्नेह दृष्टि से देखते हैं, ऐश्वर्य को नहीं चाहते, जो है उससे सन्तुष्ट रहते हैं, धन होने पर सदा दरिद्रों की सहायता करते हैं, कभी कृपणता, द्रोह और अहंकार नहीं दिखाते और जो कभी क्रोध नहीं करते, वे सब जीव पशुभाव में स्थित माने जाते हैं। ऐसे व्यक्तियों को दीक्षा नहीं देनी चाहिये। इनकी कभी मुक्ति नहीं होती।

  रुद्रयामल में लिखा गया है कि जो प्रतिदिन दुर्गापूजा, विष्णुपूजा और शिवपूजा करता है, वही पशु उत्तम है। शक्ति के साथ शिव की पूजा करने वाला भी उत्तम है। केवल विष्णु की पूजा करने वाला मध्यम और भूत-प्रेत आदि की उपासना करने वाला अधम है। शिव, शक्ति, विष्णु आदि की पूजा करने के बाद यक्षिणी आदि की सेवा करने वाला, ब्रह्मा, कृष्ण, तारक ब्रह्म प्रभृति की पूजा करने वाला साधक भी श्रेष्ठ माना जाता है।

(ग) वीरभाव पिच्छिलातन्त्र प्रभृति में वीरभाव का वर्णन करते हुए लिखा गया है कि इस भाव में शक्ति या मद्य, मत्स्य, मांस, मुद्रा और मैथुन के बिना पूजा नहीं की जाती। स्त्री का भग पूजा का आधार है। यहाँ स्वर्ण अथवा रजत का कुश बनाया जाता है। कलियुग में मुख्य द्रव्यों के अभाव में अनुकल्प का भी विधान है। अथवा मानस भावना से ही सारी विधियाँ पूरी की जा सकती हैं। स्नान, भोजन, स्वकीया अथवा परकीया स्त्री, मद्य, मांस, स्वयंभू कुसुम, भगपूजन प्रभृति सभी विधियाँ यहाँ मानसिक भावना द्वारा ही सम्पन्न की जाती हैं। कलिकाल में मनुष्य संशयों से ग्रस्त रहता है। वह वास्तविक वीरभाव का अधिकारी नहीं हो सकता। अतः मानस भावना से ही उसको अपने इष्टदेव की उपासना करनी चाहिये। निशंक वीर ही वीर या दिव्यभाव का अधिकारी होता है। पंचमकार साधन, श्मशानसाधन, चितासाधन जैसी क्रियाएँ दिव्य या वीरभाव स्थित साधक के द्वारा ही सम्पन्न की जा सकती हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

भावना भावना का अर्थ वह शुद्‍ध मानसिक चेष्‍टा है, जिसका विषय शिव ही होता है, अर्थात् शिवविषयक मानसिक व्यापार का नाम है भावना। इसी को अनन्य-श्रद्‍धा भी कहते हैं। इसका आलंबन शुद्‍ध होने से यह भावना भी शुद्‍ध कहलाती है और यही जीव को मुक्‍त कराती है। आलंबन के अशुद्‍ध होने पर वही भावना संस्रति (संसार) का कारण बनती है। अतः वीरशैव आचार्यों ने पूजा आदि कर्म करते समय शुद्‍ध भावना की आवश्यकता बताई है। यह शुद्‍ध भावना एक ऐसी चीज है, जिसकी सहायता से भावुक व्यक्‍ति अत्यंत सूक्ष्म और इंद्रियों के लिये अगोचर परशिव का भी साक्षात्कार कर सकता है।

पूजा आदि धार्मिक कृत्य करते समय आराध्य शिव के प्रति अनन्य श्रद्‍धा रूप भावना रहने पर ही वह पूजा श्रेष्‍ठ और फलदायी मानी जाती है। भावना के बिना केवल यंत्रवत् शारीरिक क्रिया होने पर उस पूजा का कोई मूल्य नहीं होता, चाहे वह कितनी ही बड़ी पूजा क्यों न हो। भावनायुक्‍त पूजा छोटी होने पर भी उसका फल महान् होता है और वही शिव के लिए प्रिय भी होती है।
यह भावना पूजा प्रभृति कर्म करते समय रहने पर ‘श्रद्‍धा’ और ज्ञान के साथ रहने पर ‘निदिध्यासन’ कहलाती है। श्रद्‍धारूप भावना से भावुक को शिव की कृपा प्राप्‍त होती है और निदिध्यासन-रूप भावना से ध्याता शिवस्वरूप होता है (सि.शि. 16/1-4 पृष्‍ठ 93,94; सि.शि. 17/2-5 पृष्‍ठ 115-116)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

भावना भावनोपाय, ज्ञानयोग, शाक्त उपाय, ज्ञानोपाय, शाक्तयोग। ज्ञानयोग का वह अभ्यास, जिसमें साधक शुद्ध विकल्पों के माध्यम से यह अंतः परामर्श करता रहता है कि समस्त प्रपंच के संपूर्ण भावों एवं पदार्थों में एक ही पर तत्त्व विद्यमान है; सारा प्रपंच उसी परतत्त्व में संवित् रूप में ही रहता है; पर तत्त्व और उसमें (साधक में) मूलतः कोई भेद नहीं है; जो कुछ भी है वह उसी पर तत्त्व का अंतः या बाह्य रूप है; इत्यादि। इस प्रकार के शुद्ध विकल्पों द्वारा प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय में कोई भी भेद न मानकर उन्हें विकल्प बुद्धि के द्वारा ही संवित् रूप समझने तथा इस तरह से स्वात्मशिवता को ही सर्वत्र देखने के अभ्यास को भावना या भावनोपाय कहा जाता है। (शि.दृ. 7-5, 6)। देखिए शाक्त उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भावफल सांख्यशास्त्र में आठ भाव माने जाते हैं – धर्म-अधर्म, ज्ञान-अज्ञान, वैराग्य-अवैराग्य तथा ऐश्वर्य-अनैश्वर्य। इन आठों के जो फल हैं, वे भावफल हैं। इन फलों का उल्लेख सांख्यकारिका 844-45 में है, यथा – धर्म का फल है – ऊर्ध्वलोकों (सत्त्वप्रधान लोकों) में गमन; अधर्म का फल है – अधोलोक (तमः प्रधान निरयलोक) में गमन; ज्ञान का फल है – अपवर्ग (कैवल्य); अज्ञान का फल है – बन्धन; वैराग्य का फल है – प्रकृतिलय, अर्थात् आठ प्रकृतियों में चित्त का लीन हो जाना या तन्मय हो जाना (द्र. योगसूत्र 1/19 भी) जो तत्त्वज्ञानहीन केवल वैराग्य से होता है; अवैराग्य का फल है – संसार में बार-बार जन्म ग्रहण करते रहना; ऐश्वर्य का फल है – इच्छा का अनभिधात = बाधाहीनता; अनैश्वर्य का फल है – अभीष्ट अर्थ की अप्राप्ति (अर्थात् अप्राप्ति के कारण मन के क्षोभ आदि)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भावलिंग देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘लिंग’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भावसर्ग सांख्यशास्त्र में दो प्रकार के सर्ग माने गए हैं – लिङ्गसर्ग एवं भावसर्ग (सांख्यकारिका 52)। (कहीं-कहीं लिङ्गसर्ग के लिए ‘भूतसर्ग’ शब्द भी प्रयुक्त होता है)। धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य (बुद्धितत्त्व के चार सात्त्विक रूप) एवं अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनैश्वर्य (बुद्धितत्त्व के चार तामस रूप) – ये आठ ‘भाव’ या ‘रूप’ कहलाते हैं (द्र. सांख्यकारिका 23, 43)। इन आठ पदार्थों की सृष्टि भावसर्ग है। प्रसंगतः यह ज्ञातव्य है कि सांख्य में कहीं-कहीं तत्त्व, भाव एवं लिङ्ग नामक त्रिविध सर्ग माने गए हैं (युक्तिदीपिका 21)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भावाचार देखिए ‘सप्‍ताचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भासाचक्र भासा या महाप्रतिभा भगवान् की स्वातन्त्र्यरूपा चिति शक्ति का ही नामान्तर है। इसी के गर्भ में पंचकृत्यमय अनन्त वैचित्र्य निहित है। यह सर्वातीत होने पर भी सबकी अनुग्राहिका पराशक्ति है। जिस प्रकार दर्पण में नगर आदि दृश्य प्रपंच प्रतिभासित होते हैं, उसी प्रकार इस स्वच्छ चित्मयी पराशक्ति की भित्ति में भी प्रमाता, प्रमाण और प्रमेयात्मक समस्त जगत प्रतिबिम्ब की भाँति स्फुरित हो उठता है। यही निर्विकल्प परम धाम है। सृष्टि आदि समस्त चक्र इसी में प्रतिबिंब रूप से स्फुरित होते हैं। इसी को सप्तदशी कला कहा जाता है। यह स्वातन्त्र्यशक्ति रूपा संविद् देवी संकोच और विकास दोनों प्रणालियों से नाना रूप में प्रतिभात होती है। पचास मातृका रूपी वर्णमाला इसी का विकास है। सृष्टि, स्थिति, संहार अनाख्या और भासा पाँच चक्र ही क्रम दर्शन में पञ्चवाह महाक्रम के नाम से प्रसिद्ध हैं। सृष्टि से लेकर अनाख्या पर्यन्त चार चक्रों की पूजा क्रम-पूजा के नाम से तथा भासा चक्र की पूजा अक्रम-पूजा के नाम से शास्त्रों में वर्णित है। इसका विशेष विवरण महार्थमंजरी प्रभृति क्रम दर्शन के ग्रन्थों में देखना चाहिये।

दर्शन : शाक्त दर्शन

भुवन तत्त्वों के स्थूल रूपों को भुवन कहते हैं। भुवनों को लोक भी कहा जाता है। भुवनों की संख्या भिन्न उपासना क्रमों में भिन्न भिन्न मानी गई है जो सूक्ष्मतर तथा स्थूलतर विश्लेषणों के आधार पर ठहरी रहती है। त्रिकशास्त्र के विशिष्ट गुरुओं ने इस संख्या को एक सौ अठारह माना है। तंत्रालोक आदि ग्रंथों में भुवन अध्वा की धारणा में इनका विस्तार से वर्णन किया गया है। (तं.सा.पृ. 66-68)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भुवन अध्वन् आणवोपाय की देशाध्वा नामक धारणा का वह मार्ग, जिसमें प्रमेय अंश प्रधान भुवन नामक स्थूलतर देश को साधना का आलंबन बनाकर अपने शिवभाव के समावेश को प्राप्त करने के लिए अभ्यास किया जाता है। छत्तीस तत्त्वों के भीतर ही एक सौ अठारह भुवनों की कल्पना की गई है। भुवन अध्वा के अभ्यास में तत्त्वों के इन्हीं स्थूल रूपों को क्रम से आलंबन बनाना होता है। (तं.सा.पृ. 111)। इस योग से उन उन भुवनों को अपने ही भीतर देखने का अभ्यास करना होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भुवनज्ञान योगसूत्र (3/26) में कहा गया है कि सूर्य अर्थात् सूर्यद्वार (=सुषुम्नानाडी) में संयम करने पर (तथा आचार्यों द्वारा उपदिष्ट अन्य प्रकार के संयम से भी) भुवन (अर्थात् भुवन-विन्यास) का साक्षात् ज्ञान होता है, अर्थात् विभिन्न द्वीप, लोक, पाताल, नरक आदि का संस्थान (इस ब्रह्माण्ड में) कैसा है, इसका प्रत्यक्ष ज्ञान संयमकारी के चित्त में उदित होता है। ब्रह्माण्ड में विभिन्न लोकों का सन्निवेश कैसा है – इसका एक लघु विवरण व्यासभाष्य (3/26) में मिलता है। व्यासभाष्योक्त विवरण अंशतः बौद्ध ग्रन्थों में भी मिलता है और इन ग्रन्थों में शब्द प्रयोगों में भी साम्य है। पुराणों के भुवन -कोश-प्रकरण में भी ऐसा विवरण मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भूचरी वामेश्वरी शक्ति से अधिष्ठित वे शक्तियाँ, जो भू अर्थात् शब्द, स्पर्श, रूप आदि पंचात्मक मेयपद पर ही विचरण करती रहती हैं। इस पंचात्मक मेयपद का आभोग करती हुई आश्यानी भाव से तन्मयता प्राप्त करती रहती हैं। ये शक्तियाँ प्रबुद्ध साधक के लिए चित्प्रकाशरूपतया आभासित होती रहती हैं और सामान्य साधक के लिए सभी ओर से भेद का ही प्रसार करती रहती हैं। (स्पंदकारिकासं.पृ. 20, 21)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भूत सांख्य के तत्त्वों में भूततत्त्व सबसे स्थूल है। भूत से पुनः कोई तत्त्व आविर्भूत नहीं होता, यद्यपि भूतों के धर्म, लक्षण और अवस्था नामक तीन परिणाम होते हैं (व्यासभाष्य 2/19)। भूतों के परस्पर संमिश्रण से ही भौतिक जगत् बनता है। जो तन्मात्र के लिए भूत शब्द का प्रयोग करते हैं, वे भूत के लिए महाभूत शब्द का व्यवहार करते हैं – यह ज्ञातव्य है। भूत पाँच हैं – शास्त्रानुसार इनका स्वरूप यह है – आकाश = शब्द-गुण-युक्त जड़ परिणामी, बाह्य द्रव्य; वायु = स्पर्श-(शीत -ऊष्ण)-गुणक बाह्य द्रव्य; तेजस्=रूपगुणक बाह्यद्रव्य; अप् या जल= रसगुणक बाह्य द्रव्य; पृथ्वी या क्षिति = गन्धगुणक बाह्य द्रव्य। क्षिति में शब्दस्पर्शादि पाँच गुण हैं; अप् या जल में गन्ध को छोड़ कर चार गुण हैं; तेज में गन्ध-रस को छोड़कर तीन गुण हैं; वायु में स्पर्श-शब्द हैं और आकाश में शब्दगुण ही है – यह मत भी प्रचलित है। हमारी दृष्टि में यह मत भूततत्त्व को लक्ष्य नहीं करता है। यह व्यावहारिक दृष्टि है। इस विषय में विशेष विवरण के लिए स्वामी हरिहरानन्द आरण्यकृत पातंजल योगदर्शन द्रष्टव्य।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भूतकंचुकी पृथ्वी आदि से बने हुए इस स्थूल शरीर रूपी चोले (कंचुक) को धारण करने वाला ज्ञानी साधक जब तक प्रारब्ध कर्म के भोगों को पूरा नहीं कर पाता है तब तक वह इस संसार से छुटकारा न पाता हुआ यहीं जीवन्मुक्त की अवस्था में निवास करता रहता है परंतु उसे यह निश्चय हुआ होता है कि वह शुद्ध और परिपूर्ण संवित्स्वरूप ही है तथा यह पंच भौतिक शरीर उसका एक चोला मात्र ही है, वास्तविक स्वरूप नहीं है। इस तरह से शरीर को कंचुकवत् मानने वाला जीवन्मुक्त योगी। (शि.सं.वा.पृ. 84)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भूतकैवल्य पंचभौतिक सृष्टि के सभी प्रकार के प्रभाव से मुक्त होकर केवल अपने शुद्ध चिदानंद स्वरूप में स्थिति। शैवी साधना के क्रम में नाडी संहार (देखिए) कर लेने पर भूतजय (देखिए) हो जाता है। भूतजय से साधक पंचभौतिक सृष्टि पर स्वातंत्र्य प्राप्त करके उसमें स्वेच्छा से विचरण करने की सामर्थ्य को प्राप्त कर लेता है। परंतु जब वह भूतजय से प्राप्त ऐश्वर्य को भी छोड़कर केवल अपनी शुद्ध संविद्रूपता में सहज ही प्रवेश कर जाता है तो उसकी उस अवस्था को भूत कैवल्य कहते हैं। (शि.सू.वा.पृ. 48; वही टि. पृ. 47)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भूतजय पंच महाभूतों पर विजय प्राप्त कर लेना। साधक शैवी साधना के अभ्यास से सभी वृत्तियों को इडा आदि तीन नाडियों में शांत करने के पश्चात् शांत हुई वृत्तियों सहित तीनों नाडियों को ब्रह्मरंध्र रूपी चिदाकाश में विलीन करके नाडी संहार (देखिए) करता है। नाडी संहार हो जाने पर पृथ्वी आदि धारणाओं का अभ्यास करता हुआ पंच भौतिक सृष्टि पर विजय प्राप्त कर लेता है। इसे ही भूतजय कहते हैं। इससे साधक पंच भैतिक विश्व में स्वच्छंद रूप से विहार करने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता है। (श.सू.वा.पृ. 48; वही टि.पृ. 47)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भूतपृथक्त्व सभी तत्त्वों पर पूर्णतया अधिकार प्राप्त हो जाने पर उन्हें स्वतंत्र रूप से संयोजन तथा वियोजन करने की सामर्थ्य का प्राप्त होना। शैवी साधना के अभ्यास से नाडी संहार (देखिए), भूतजय (देखिए) तथा भूतकैवल्य (देखिए) में स्थिति हो जाने पर साधक अपने शुद्ध स्वरूप में आनंदाप्लावित होकर रहता है। इस स्थिति में स्थिरता आने से छत्तीस तत्त्वों पर तथा उनकी भिन्न भिन्न प्रकार की पदार्थ रचना पर उसे स्वातंत्र्य प्राप्त हो जाता है। इस स्वातंत्र्य से वह किसी भी पदार्थ या तत्त्व का संघटन या विघटन कर सकता है तथा सभी तत्त्वों को अपनी शुद्ध संविद्रूपता में समरस करके पारमेश्वरी अखंडित स्वातंत्र्य को प्राप्त कर सकता है। छत्तीस तत्त्वों पर उसकी ऐसे सामर्थ्य को भूतपृथक्त्व कहते हैं। (शि.सू.वा.पृ. 48)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भूतभावन बंध से छुटकारे के लिए जीवों को भगवद् भाव से भावित करने वाले भगवान् भूतभावन कहे जाते हैं। चूंकि भगवान् ही संसार में रहते हुए बंधरहित हैं, अतः भगवद् भाव से भावित जीव भी कृतार्थ हो जाता है। इस प्रकार जीव को कृतार्थ करने वाले भगवान् भूतभावन हैं (भा.सु.वे.प्रे.पृ. 7)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

भूतलिपि शारदातिलक (7/1-4) में भूतलिपि का परिचय दिया गया है। वहाँ बताया गया है कि यह भूतलिपि अत्यन्त सुयोग्य है। इसकी प्राप्ति परम दुर्लभ है। भगवान् शिव से इसको पाकर मुनिगण सभी कामनाओं को प्राप्त कर सके थे। कामकला विलास (27 श्लो.) में सूक्ष्म और स्थूल भेद से मध्यमा वाणी के दो प्रकार बताये गये हैं। सूक्ष्म मध्यमा नवनादात्मक तथा स्थूल भूतलिपिमयी है। कामकलाविलास में श्रीचक्र स्थित अष्टकोण, प्रथम दशार, द्वितीय दशार और चतुर्दशार चक्रम में 42 वर्णात्मक भूतलिपि का विन्यासक्रम वर्णित है। टीकाकार नटनानन्द ने चेष्टाविशेष से अभिव्यक्त आकार वाली लिपी को भूतलिपि माना है। इसमें नौ वर्ग होते हैं। इनका क्रम यह है :

 अ इ उ ऋ लृ  प्रथम वर्ग
 ए ऐ ओ औ    द्वितीय वर्ग
 ह य र व ल    तृतीय वर्ग
 ङ क ख घ ग   चतुर्थ वर्ग
 ञ च छ झ ज  पंचम वर्ग
 ण ट ठ ढ ड    षष्ठ वर्ग
 न त थ ध द    सप्तम वर्ग
 म प फ भ ब   अष्टम वर्ग
 श ष स       नवम वर्ग
दर्शन : शाक्त दर्शन

भूतादि अहंकार-रूप तत्त्व के (गुणों के आधिक्य के अनुसार) तीन भाग माने गए हैं – सत्त्वप्रधान अंश, वैकृतिक या वैकृत नामक; रजःप्रधान अंश, तेजस नामक तथा तमःप्रधान अंश, भूतादि नामक (द्र. सांख्यकारिका 25)। भूत का साक्षात् उपादान होने के कारण ही ‘भूतादि’ नाम दिया गया है – ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। जिनका भूतादि-अहंकार तन्मात्र को उद्भूत करता है, वे महैश्वर्यशाली जीव हैं; इनको ब्रह्माण्डाधीश प्रजापति माना जाता है। ऐसा सांख्यविदों का कहना है। प्रत्येक प्राणी में जो भूतादि -अहंकार है, वह तन्मात्र रूप में परिणत नहीं होता – यह ज्ञातव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भूमि योगशास्त्र में ‘भूमि’ का कई अर्थों में प्रयोग हुआ है। इसका एक अर्थ ‘चित्तभूमि’ है, जो व्यासभाष्य के अनुसार पाँच प्रकार की है – क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध (द्र. योगसू. 1/1)। ‘भूमि’ का तात्पर्य उस चित्तावस्था से है जो सहज है अर्थात् वह अवस्था जिसमें चित्त संस्कारवश प्रायः रहता है। संयम के प्रसंग में भी ‘भूमि’ का प्रयोग होता है – भूमियों में संयम करने का विधान किया गया है (योगसू. 3/5)। (भूमि को भूमिका भी कहा जाता है)। सवितर्कभूमि, सविचारभूमि आदि भूमियाँ हैं। योगियों का कहना है कि निम्नभूमि में संयम करने के बाद ही उत्तरभूमियों (उच्च, उच्चतर भूमियों) में संयम करना चाहिए तथा उत्तरभूमियों में जो संयम कर सकता है, उनको निम्नस्थ भूमियों में संयम नहीं करना चाहिए। ‘भूमि’ शब्द प्रान्तभूमि प्रज्ञा के प्रसंग में भी आया है (द्र. योगसू. 2/27), जहाँ वह अवस्थावाची है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भृत्याचार देखिए ‘पंचाचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भेदाभेदोपाय देखिए शाक्त उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भेदोपाय देखिए आणव उपाय।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भैक्ष्यम् भिक्षा द्‍वारा प्राप्‍त किया हुआ अन्‍न।

भैक्ष्य पाशुपत साधक की वृत्‍ति का प्रथम प्रकार है। पाशुपत योग में साधक के जीवन की हर तरह की वृत्‍ति के बारें में उपदेश दिया गया है। उस योग की प्रथम भूमिका में साधक के भोजन के लिए भिक्षा का निर्धारण किया गया है। अतः पाशुपत साधक को भोजन केवल भिक्षा से ही करना होता है उसके अतिरिक्‍ति किसी भी अन्य व्यवसाय से नहीं। उसे शुद्‍धचरित्र गृहस्थों के घर-घर घूमकर भक्ष्य और भोज्य वस्तुओं की भिक्षा लेकर भोजन करना होता है। भिक्षा भी अधिक नहीं लेनी होती है। अपितु एक बार मांगने पर पात्र में जितनी भिक्षा (पात्रागतम्) मिल जाए, बस उसी से काम चलाना होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 118)
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

भैरव अभिनवगुप्त ने तन्त्रलोक (1/95-100) में बृहस्पतिपाद कृत शिवतनुशास्त्र के श्लोकों को उद्धृत कर बताया है कि इनमें अन्यर्थ नामों से भगवान भैरव की स्तुति की गई है। ‘भया सर्वं रवयति’ (श्लो. 127) विज्ञानभैरव के इस श्लोक और उसकी व्याख्या में भी ‘भैरव’ पद की व्युत्पत्ति बताई है। क्षेमराज ने विज्ञानोद्द्योत के मंगल श्लोक में भैरव की स्तुति की है। इन सबका अभिप्राय यह है कि भैरव इस विश्व का भरण, रवण और वमन करने वाले हैं। वे इस संसार का भरण-पोषण करते हैं और वे ही इसकी सृष्टि और संहार भी करते हैं। ऐसा करके वे स्वयं पुष्ट होते हैं, प्रसन्न होते हैं। भगवान शिव ही भैरव है। वे अपनी स्वातन्त्र्य शक्ति रूपी तूलिका से इस संसार को चित्रित करते हैं और इसके बाद वे स्वयं ही इसको देखकर प्रसन्न होते हैं। ये संसारी जीवों को अभयदान करने वाले हैं। संसारी जीवों के आक्रन्द (छटपटाहट) के कारण भी ये ही हैं और त्राहि-त्राहि पुकारने वाले भक्त जनों के हृदय में प्रकट होकर उनका उद्धार भी ये ही करते हैं, अर्थात् निग्रह और अनुग्रह ये दोनों भगवान् भैरव के ही व्यापार हैं। इसलिये यह पंचकृत्यकारी कहलाता है। यह कालका भी काल है। इसलिये इसको कालभैरव कहते हैं। यह कालवंचक योगियों के चित्त में समाधि दशा में स्फुरित होता है और अज्ञानी जीवों के हृदय में भी बाह्य और आन्तर इन्द्रियों (करणों) की अधिष्ठात्री देवियों (खेचरी, गोचरी, दिक्चरी और भूचरी) के रूप में, जो कि संविद्देवीचक्र के नाम से प्रसिद्ध है, प्रकट होता है। भगवान् भैरव का स्वरूप महाभयानक भी है और परम सौम्य भी। यही भैरव 64 भैरवागमों का तथा अन्य अनेक शैव और शाक्त आगमों का अवतारक है। शाक्त पीठों में सर्वत्र देवी के दर्शन के पहले भैरव की अर्चना की जाती है। केवल वैष्णव देवी का मन्दिर ही इसका अपवाद है। वहाँ देवी का दर्शन कर लेने के उपरान्त ही भैरव का दर्शन किया गया है। दस विद्याओं के दस भैरवों का, असितांग प्रभृति आठ भैरवों का तथा मन्थान प्रभृति भैरवों का वर्णन शक्तिसंगम प्रभृति तन्त्र ग्रन्थों (3/11/253-254) में मिलता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

भैरव 1. विश्व का भरण, रमण एवं वमन करने वाला तथा ऐसा करने पर भी अपने अखंडित संवित्स्वरूपता में ही सतत रूप से आनंदाप्लावित रहनेवाला पर-भैरव परमशिव (शि.सू.वा.पृ.8)। 2. भाव, उद्योग, उन्मेष आदि शब्दों से इंगित सतत स्फुरणशील शार्व तत्त्व। (वही पृ.9)। 3. संसरणशील प्राणियों को अभय प्रदान करने वाला। (स्व.तं.उ. 1 पृ. 3)। 4. संसार का संहार करने के कारण त्रास का कारण बना हुआ तथा इस त्रास से उत्पन्न हुए क्रंदन से जो अत्यधिक भयानक घोष वाला है और इस प्रकार के भयावह घोष से जो सतत रूप से चमकता रहता है। (वही)। 5. सांसारिक प्राणियों को अपने स्वरूप का साक्षात्कार करवाने वाली खेचरी, गोचरी आदि संवित्स्वरूपा शक्तियों का स्वामी। (वही.पृ.4)। 6. संसार का संहार करते रहने के कारण भीषण बने हुए रूप वाला। 7. चौसठ अभेद प्रधान आगमों के उपदेश करने वाले मंत्र कोटि के देवता। (भास्करीवि.तं. 1-390, 391)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भैरव-आगम अभेद दृष्टि को लेकर भैरवों द्वारा कहे गए चौंसठ अभेद प्रधान शैव आगम। (मा.वि.वा. 1-390 से 92)। पंच मंत्रों की विविध प्रकार से सम्मिलित दृष्टियों को लेकर के दिव्य शरीरों में प्रकाट होकर अभेद दृष्टि की प्रधानता को अपना कर शैवदर्शन के सिद्धांतों और प्रक्रियाओं का उपदेश करने वाले मंत्र स्तर के स्वच्छंदनाथ के चौंसठ अवतार शरीर भैरव कहलाते हैं। उन्हीं के द्वारा उपदिष्ट आगम शास्त्र भैरव आगम हैं जिनकी संख्या चौसठ है तथा जो आठ आठ के आठ वर्गों में बँटे हैं। वर्तमान युग में उनमें से एक स्वच्छंद आगम ही शेष रहा है; रुद्रयामल के अनेकों खंड मिल रहे हैं; शेष सभी लुप्तप्राय हैं। उनके केवल नाम मिलते हैं और किसी किसी से उद्धृत पंक्तियाँ मिलती हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भैरवी पर संवित्स्वरूप भैरव की पराशक्ति। क से लेकर क्ष पर्यंत समस्त योनि स्वरूपा शक्ति वर्गों की अदिष्ठात्री तथा इन सभी का संहार करने पर भैरव में अभिन्न रूप से ठहरने वाली परादेवी। माहेश्वरी, ब्राह्मी आदि आठ शक्तियों का मातृवर्ग इसी पराशक्ति का रश्मि रूप प्रसार माना गया है। ये आठ शक्तियाँ अ से लेकर क्ष पर्यंत भिन्न भिन्न मातृका वर्गों की अधिष्ठात्री शक्तियों के रूप में विश्व का समस्त व्यवहार चलाती हैं। इन सभी के संघट्ट रूप परम सामरस्य को भैरवी कहते हैं। (स्वं.तं. 1-32 से 36; मा. वि. तं. 3-14)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


भैरवी (शाम्भवी) मुद्रा दृष्टि जब निमेष (पलकों को बन्द करना) और उन्मेष (पलकों को खोलना) इन दोनों व्यापारों से शून्य होकर बाहर की ओर लगी हो और अवधान क्रिया बाहर की ओर न जाकर अन्तः स्थित आत्मा को अपना लक्ष्य बनावे, अर्थात् इन्द्रिय तो बाहर की तरफ खुली हो, किन्तु चित्त भीतर की ओर पलटा हुआ हो तो यह अवस्था भैरवी अथवा शाम्भवी मुद्रा के नाम से शास्त्रों में अभिहित है। इस अवस्था में प्रविष्ट हो जाने पर योगी दर्पण में बनते-बिगड़ते हुए नाना प्रकार के प्रतिबिम्बों की भाँति चिदाकाश में उदित और विलीन हो रहे बाह्य पदार्थों और आन्तर भावों को, अर्थात् समस्त विकल्पों को, निमीलन और उन्मीलन समापत्ति (समाधि) के बीज में अवधान रूपी चरणि से जलाई गई ज्ञानाग्नि के द्वारा भस्म कर अपने समस्त करण चक्र (इन्द्रिय समूह) को आलंबन के अभाव में अपने स्वरूप में ही विस्फारित (विस्तीर्ण) कर लेता है। उस समय ऐसी प्रतीति होती है, मानो ये इन्द्रियाँ अपने अद्भुत स्वरूप को आँखें फाड़ कर देख रही हों।

  इस निर्विकल्प अवस्था में प्रवेश कर लेने पर साधक भैरव स्वरूप हो जाता है, अर्थात् उसको अपने वास्तविक स्वरूप की प्रत्यभिज्ञा हो जाती है, प्राण और अपान की गति के शान्त हो जाने से हृदय और द्वादशान्त में प्राण और अपान की अस्पन्द अवस्था में स्थिति हो जाने से, मध्यदशा का विकास होने पर साधक अपने भैरवीय स्वरूप को पहचान लेता है, वह साक्षात भैरव स्वरूप हो जाता है। भैरवी मुद्रा के सहारे विषयों को देखते हुए भी अनदेखा कर दिया जाता है और इस तरह से अनालोचनात्मक पद्धति से भावों का परित्याग हो जाता है। ‘स्पर्शान्त कृत्वा’ (5/27) प्रभृति गीता के श्लोक में इसी स्थिति का वर्णन मिलता है। क्रम दर्शन में प्रदर्शित पाँच मुद्राओं में भी यह वर्णित है। इसका विशेष विवरण खेचरी मुद्रा के प्रसंग में दिया गया है। हठ योग प्रभृति के ग्रन्थों में शाम्भवी मुद्रा के नाम से यह अभिहित है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

भोक्ता निर्गुण अपरिणामी पुरुष को जिस प्रकार ज्ञाता, अधिष्ठाता कहा जाता है, उसी प्रकार भोक्ता भी कहा जाता है। ‘भोग रूप क्रिया से जो विकारी होता है’ इस अर्थ में पुरुष भोक्ता नहीं हैं, क्योंकि पुरुष (तत्त्व) अपरिणामी हैं। भोग बुद्धि-व्यापार या बुद्धिधर्म है, वह बुद्धि में ही रहता है। स्वप्रकाश पुरुष बुद्धिस्थ भोग का भी प्रकाशक (निर्विकार रूप से) है, इस दृष्टि से ही पुरुष भोक्ता है – भोगकारी के अर्थ में नहीं। जिस प्रकार चिति (पुरुष) को चितिशक्ति कहा जाता है, उसी प्रकार भोक्ता को भोक्तृशक्ति भी कहा जाता है, जैसा कि पंचशिख के वाक्य में (अपरिणामिणी हि भोक्तृशक्तिः – – -; 2/20 व्यासभाष्य के उद्धृत) देखा जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भोग दो पुरुषार्थों में भोग अन्यतम है (दूसरा अपवर्ग है)। व्यासभाष्य में कहा गया है कि इष्ट और अनिष्ट रूप से गुणस्वरूप (अर्थात् त्रैगुणिक वस्तु) का अवधारण करना भोग है (व्यासभाष्य 2/18)। यह भी कहा गया है कि यह भोग भोक्ता पुरुष और भोग्य बुद्धि की एकीभावप्राप्ति होने पर ही संभव होता है (व्यासभाष्य 2/6)। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि भोग एक प्रकार का ज्ञान (भ्रान्तज्ञान) है। यह भोग विषयदृष्टा के पार्थक्यज्ञान से शून्य विषय -ज्ञान है, अतः योगदृष्टि में हेय है। भोग की समाप्ति अपवर्ग में होती है; अपवर्ग भी जब समाप्त हो जाता है तब चित्त का शाश्वत निरोध (=अव्यक्तभावप्राप्ति) हो जाता है। ‘सुख-दुःख-बोध’ के अर्थ में भी भोग शब्द प्रयुक्त होता है, जैसा कि योगसूत्र (2/13) के ‘जात्यायुभोगाः’ अंश में देखा जाता है। इस भोग का आश्रय होने के कारण शरीर को भोगाधिष्ठान कहा जाता है (व्यासभाष्य 2/5)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भोगविपाक भोगरूप विपाक = भोगविपाक। विपाक = कर्मफल। कर्माशय के जो तीन विपाक होते हैं, उनमें भोग एक है (योगसू. 2. 13)। भोग का अर्थ है – विषयाकारा चित्तवृत्ति। योगशास्त्र कहता है कि ऐसा भी दृष्टजन्मवेदनीय कर्माशय होता है जो भोग का ही हेतु होता है (इसका नाम एकविपाकारम्भी कर्माशय है), अथवा आयु और भोग दोनों का ही हेतु होता है (इसका नाम द्विविपाकारम्भी कर्माशय है)। यदि इस विपाक का हेतु पुण्य हो तो फल सुख होता है और यदि हेतु अपुण्य हो तो फल दुःख होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भोगांग देखिए ‘अंग’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

भोगायतन भोग का अर्थ है – सुख-दुःख का अनुभव। यह अनुभव शरीरी आत्मा का होता है (वस्तुतः सुख-दुःख का प्रत्यक्ष सम्बन्ध बुद्धि से ही है; निर्गुण आत्मा में सुख-दुःख का आरोपमात्र किया जाता है)। भोग की शरीर-सापेक्षता के कारण शरीर (स्थूल-सूक्ष्म) को भोग का आयतन (= आश्रय) कहा जाता है। सांख्यसूत्र (5/114; 6/60) में इस दृष्टि से भोगायतन शब्द का प्रयोग भी किया गया है। भोगायतन को भोगाधिष्ठान भी कहा जाता है (व्यासभाष्य 2/5)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भौतिकसर्ग भौतिक = पंचभूतविकार; पर ‘भौतिक सर्ग’ के प्रसंग में भौतिक का अर्थ है – भूतनिर्मित शरीर (शरीर चूंकि शरीरी क्षेत्रज्ञ के बिना नहीं रहता, अतः ‘भौतिक सर्ग’ वस्तुतः देही आत्मा के भेदों को लक्ष्य करता है)। सांख्य के अनुसार देहधारी जीवों की चौदह योनियाँ ही भौतिक सर्ग हैं (सांख्यका. 53) – देवयोनि आठ प्रकार की, तिर्यक्-योनि पाँच प्रकार की तथा मनुष्ययोनि एक प्रकार की है। ये जीव सत्त्व-रजः-तमः के प्राधान्य के अनुसार ऊर्ध्वलोक-मध्यलोक-अधोलोक के निवासी होते हैं – यह ज्ञातव्य है। पाँच भूतों के परस्पर संमिश्रण से जो स्थूल वस्तु बनती है, वह भी भौतिक कहलाती है (घट आदि पदार्थ भौतिक अर्थात् पाँच भौतिक हैं) भौतिक पदार्थों की सर्ग (= सृष्टि) – इस अर्थ में भी ‘भौतिकसर्ग’ शब्द प्रयुक्त होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

भ्रान्तिदर्शन नौ अन्तरायों में यह एक है (द्र. योगसू. 1/30)। स्वरूपतः यह विपर्यय ज्ञान ही है। संशय-ज्ञान से विपर्ययज्ञान में अन्तर है। संशय में दोनों ही कोटियों का ज्ञान होता है, यथा – यह स्थाणु (खूँटा) है या पुरुष है। विपर्यय में एक पदार्थ अन्य पदार्थ के रूप में ज्ञात होता है। योग का अन्तराय-रूप जो भ्रान्तिदर्शन है, वह योगसाधन-सम्बन्धी या तत्वस्वरूप-सम्बन्धी होता है। सत्त्वगुणजात आनन्द निर्गुण आत्मा में है या आत्मा आनन्दरूप है – यह एक भ्रान्तिदर्शन है। इसी प्रकार अनिद्रारोग को निद्राजय के रूप में समझना भी भ्रान्तिदर्शन है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मठिका शैव दर्शन की भिन्न भिन्न शाखाओं को मठिका कहते हैं। वर्तमान युग में शैव दर्शन को तीन गुरुओं ने अभिनवतया चालू कर दिया। वे तीन गुरु भगवान श्रीकंठनाथ की प्रेरणा से ऊर्ध्व लोकों से इस भूलोक पर अवतार बनकर प्रकट हो गए। उनमें से अमर्दक नामक सिद्ध ने द्वैतदृष्टि से शैवदर्शन का उपदेश किया। उसकी मठिका को आमर्द मठिका या आमर्द संतति कहा गया है। दूसरी मठिका का प्रवर्तन श्रीनाथ ने किया। वह मठिका भेदाभेद प्रधान शैव मठिका थी। तीसरे गुरु त्र्यंबक ने अभेद दृष्टि प्रधान दो मठिकाओं को चलाया। उनमें से एक मठिका काश्मीर शैव दर्शन की त्रिक आगम प्रधान अद्वैत मठिका है, जिसे त्र्यंबक मठिका कहा गया है। इसे त्र्यंबक ने अपने पुत्र के द्वारा चलाया। चौथी मठिका को उसने अपनी कन्या के द्वारा चलाया। उसका अर्धत्र्यंबक मठिका नाम पड़ा। इन्हें शैव शास्त्र में साढ़े तीन मठिकाएँ कहा जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मणिपूर चक्र स्वाधिष्ठान चक्र के ऊपर नाभि के मूल भाग में मेघ के समान श्याम वर्ण दस दलों से शोभित मणिपूर चक्र की स्थिति मानी जाती है। इन दलों में अर्धचन्द्र और बिन्दु से भूषित ड से लेकर फ पर्यन्त दस वर्ण सुशोभित हैं। इसके बीच में प्रातःकाल के अरुण वर्ण से सूर्य के समान कान्ति वाले त्रिकोणात्मक वैश्वानर मण्डल में रँ बीज का ध्यान किया जाता है। यह मण्डल तीन स्वस्तिक द्वारों से अलंकृत हैं। रँ बीज का वाहन मेष है, वर्ण रक्त है और इसका शरीर चतुर्भुज है। इस वह्नि बीज के देवता रुद्र है। इनका वर्ण सिन्दूर के समान है और इसकी अधिष्ठात्री योगिनी का नाम लकिनी है। (श्रीतत्वचिन्तामणि, षट्चक्रनिरूपण 6 प्र.)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

मण्टन / मन्दन पाशुपत योग का एक अंग।

पाशुपत योग में मण्टन या मन्दन भी एक योग क्रिया है, जहाँ साधक को लंगड़ाकर चलने का अभिनय करना होता है, जैसे पैर में विरुपता हो। इस तरह के अभिनय से लोग उसका अपमान करेंगे और ऐसे अपमानित व निन्दित होते रहने पर वह उन निन्दकों के पुण्यों को प्राप्‍त करता रहेगा और उसके पाप उनमें संक्रमित होंगे। (पा.सू.कौ.भा.पृ.85)। अपमान से उसका वैराग्य बढ़ता है और लोक के प्रति राग बढ़ता नहीं, उससे चित निर्मल हो जाता है। (अपहतपादेन्द्रियस्येव गमन मन्दनम् – ग.का.टी.पृ.19)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मताचार कुलचार से उत्कृष्ट और त्रिक आचार से एक सीढ़ी नीचे वाले योग मार्ग को काश्मीर शैव दर्शन में मताचार कहा गया है। इस आचार की साधना सर्वथा अभेद दृष्टि को अपनाकर ही की जाती थी। इसमें भी त्रिक आचार की तरह विधि निषेधों के लिए कोई मान्य स्थान नहीं। इस समय इस आचार के न तो कोई अनुयायी ही कहीं मिलते हैं और नही इसका कोई वाङ्मय ही मिलता है। काश्मीर शैव दर्शन के त्रिकाचार के ग्रंथों में इसके सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है। तंत्रालोक की टीका में जयरथ ने चौसठ भैरव आगमों को गिनते हुए जो श्रीकंठी संहिता के श्लोक उद्धृत किए हैं उन्में मताष्टक नाम के आठ भैरव आगमों के नाम दिए गए हैं। बहुत संभव है कि इन्हीं आठ आगमों द्वारा प्रतिपादित साधना मार्ग मताचार कहलाता है। (तं.आ.4-261 से 263; त. आत्मविलास खं. 1 पृ. 47)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मतिप्रसाद बल का एक प्रकार।

पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार बुद्‍धि की पूर्ण अकलुषता (शुद्‍धता) मतिप्रसाद नामक बल होता है। यह बल का द्‍वितीय प्रकार है। बुद्‍धि का अकालुष्य दो तरह का कहा गया है- पर अकालुष्य तथा अपर अकालुष्य। पर अकालुष्य में कलुषता का सबीज उच्छेद होता है अर्थात् जहाँ भविष्य में भी कलुषता के उत्पन्‍न होने की संभावना भी नहीं रहती है। वहाँ पर अकलुषत्व होता है। परंतु जहाँ कालुष्य का बीज तो रहता है लेकिन वर्तमान में उत्‍पन्‍न कालुष्य का निरोध होता है वहाँ बीज उपस्थित होने के कारण कभी भी कलुषता का समावेश हो सकता, अतः वह अपर अकालुष्य कहलाता है। (ग.की.टी.पृ.6)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मंत्र देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मंत्र 1. मनन और त्राण स्वभाव वाला वर्ण समुदाय। (स्वं.तं.उ.पटल 2, पृ. 39)। अर्थात् मनन करने वाले का त्राण करने वाला तथा मनन स्वभाव और त्राणकारी तत्त्व। 2. पारमेश्वरी शक्ति स्वरूप वर्ण समूह। (स्व.तं., पटल 2-63)। 3. चित् शक्ति का स्वभावस्वरूप वर्ण समूह जिसके सतत अभ्यास से साधक अपने शिवभाव में प्रवेश करता है। (शि.सू.वा.पृ. 31)। 4. चित् ही निरूपाधिक एवं अकालकलित शिव है। इस प्रकार के शिव को अपनी शक्तिस्वरूप आनंदरूपता का सतत परामर्श करते रहने के कारण या ऐसा स्वभाव होने के कारण मंत्र कहते हैं। (वही.पृ. 30) 5. आराध्य देवता को अपने ही शुद्ध स्वरूप में अनुभव करने के लिए तथा अभ्यास से अपनी उत्कृष्ट शुद्ध स्वरूपता में प्रवेश के लिए प्रयोग में लाया जाने वाला वर्ण समुदाय। (स्व.वि.पृ. 80, 82, स्व. 26, 27)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंत्र (पंच) देखिएपंच मंत्र।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंत्र प्राणी देखिए विद्येश्वर प्राणी।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंत्र महश्वेर सदाशिव तत्त्व में ठहरने वाले भेदाभेद दृष्टिकोण से युक्त प्रमाता। अकल (देखिए) प्रमाता की तरह ही मंत्र महेश्वर भी शुद्ध संवित् को ही अपना स्वरूप समझते हैं, परंतु इनमें प्रमेय भाव का अत्यंत धीमा सा आभास उभरने को होता है। इसी कारण ये प्राणी ‘अहम् इदम्’ अर्थात् मैं ही यह प्रमेय पदार्थ हूँ, मुझ से भिन्न कुछ नहीं – इस प्रकार का विमर्श करते हैं। इस विमर्श में ‘अहं’ अंश की ही प्रधानता रहती है तथा ‘इदं’ अंश का अत्यधिक धीमा सा आभास उन्मीलित होने को होता है। इस दशा में ‘इदं’ अंश का आभास अस्फुट रूप में ही चमकता रहता है। इस प्रकार का भेदाभेद दृष्टिकोण होने के कारण इन्हें शुद्धाशुद्ध प्राणी (देखिए) भी कहा जाता है। इन प्राणियों में अभी अंतःकरण, शरीर आदि का उदय नहीं हुआ होता है। इनका स्वरूप शुद्ध संवित् ही होता है। (ई.प्र.वि. 2 पृ. 192-3)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंत्र-अध्वन् आणवोपाय की कालाध्वा नामक धारणा में आलंबन बनने वाला दूसरा तथा मध्यम उपाय। पद के सूक्ष्म रूप को मंत्र कहते हैं। मंत्र वर्णो के संयोग से बनता है। काल गणना ज्ञान क्षणों के आधार पर की जाती है। जितनी देर में एक क्षणिक ज्ञान ठहरता है उतने काल को क्षण कहते हैं। ज्ञान विमर्शात्मक होता है। विमर्श अभिलापात्मक होता है। अभिलाप शब्दों द्वारा होता है। शब्द तत्त्व के तीन प्रकार होते हैं। सूक्ष्मतर, (या पर), सूक्ष्म और स्थूल। उन्हीं को क्रम से वर्ण, यंत्र और पद कहते हैं। इस तरह से सूक्ष्म अभिलापमय शब्द ही जिस साधना में चित्त का आलंबन बनता है उस साधना को मंत्राध्वा कहते हैं। प्रमाणात्मक पदाध्वा परस्थिति हो जाने के पश्चात् क्षोभ को प्राप्त हुई प्रमाण स्वरूपता को शांत करने के लिए मंत्र अध्वा की धारणा का अभ्यास किया जाता है। साधक मंत्रात्मक समस्त प्रपंच को भावना के द्वारा अपने एक एक श्वास प्रश्वास में विलीन करता हुआ भावना द्वारा ही उसे व्याप्त कर लेता है। इससे उसे अपने परिपूर्ण और असीम शिवभाव का आणव समावेश भी हो जाता है तथा वह वर्णाध्वा के योग्य भी बन जाता है। (तं.सा., पृ. 47, 61, 112)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंत्रदीक्षा देखिए ‘दीक्षा’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मंत्रवीर्य महामंत्रवीर्य। पूर्ण अहंता परामर्श। (स्व.तं.उ. 1, पृ. 37)। परावाक् परामर्श। मंत्र अर्थात् अ से लेकर क्ष पर्यंत संपूर्ण शब्द राशि को स्फुटतया अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली शुद्ध संविद्रूपता के विमर्श से प्रादुर्भूत वीर्य अर्थात् सामर्थ्य या अपने शुद्ध स्वरूप का परामर्श। किसी आराध्य देवता को अपने स्वरूप में आत्मसात् करने के लिए प्रयुक्त किए गए बीज मंत्रों के सतत अभ्यास से देवता से समरसता प्राप्त कर लेने पर अपने सच्चे स्वरूप का साक्षात्कार हो जाता है, जिसे स्वरूप परामर्श कहते हैं। यही स्वरूप परामर्श मंत्रवीर्य कहलाता है। (शि.सू.वि.पृ. 21; शि.सू.वा.पृ. 27)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंत्रेश्वर ईश्वर तत्त्व में रहने वाले भेदाभेद दृष्टि युक्त प्रमाता। मंत्रेश्वरों में सदासिव तत्त्व में रहने वाले मंत्रमहेश्वरों (देखिए) की अपेक्षा ‘इदं’ का अंश स्फुटतया चमकने लगता है। इसी कारण मंत्रेश्वरों का दृष्टिकोण ‘इदम् अहम्’ अर्थात् ‘यह प्रमेय पदार्थ मैं हूँ’ – इस प्रकार का हो जाता है। ये प्राणी अपने आपको शुद्ध संवित्स्वरूप ही समझते हैं। स्फुटतया आभासमान प्रमेय तत्त्व के प्रति उनका दृष्टिकोण अभेद का ही बना रहता है। इसमें आणवय आदि तीनों मल नहीं होते हैं परंतु इस दशा में प्रमेयता के आभास के स्फुट होने से इन्हें पूर्णतया शुद्ध भी नहीं कहा जा सकता है। इस कारण इन्हें भेदाभेद दृष्टिकोण वाले शुद्धाशुध प्राणी (देखिए) कहा जाता है। (ईश्वर प्रत्यभिज्ञा-विमर्शिनी 2 पृ. 192, 197)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मत्स्योदरी देखिए स्पंद।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंद-तीव्र शक्तिपात परमेश्वर द्वारा की जाने वाली अग्रहात्मक अंतःप्रेरणा (देखिएशक्तिपात) का वह प्रकार, जिसके प्रभाव से प्राणी में अपने शुद्ध आत्मस्वरूप के प्रति उत्पन्न हुए संशयों का सर्वथा उच्छेद करने के लिए सर्वतत्त्ववेत्ता किसी उत्कृष्ट गुरू के पास जाने की तीव्र इच्छा उत्पन्न होती है। गुरु इस शक्तिपात के पात्र मुमुक्षु के सभी संशयों को केवल दृष्टि द्वारा ही या स्पर्श द्वारा या कुछ संवादों द्वारा तथा इस प्रकार के भिन्न-भिन्न दीक्षा क्रमों द्वारा शांत कर देता है। संशयों के दूर हो जाने पर ऐसा मुमुक्षु जीवन्मुक्त हो जाता है तथा देह त्याग देने पर अपनी शिवस्वरूपता को पुनः प्राप्त कर लेता है। (तं.सा.पृ. 122, 123; तन्त्रालोक 13-216 से 220, 225, 226)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंद-मंद शक्तिपात परमेश्वर द्वारा की जाने वाली अनुग्रहात्मक अंतःप्रेरणा (देखिएशक्तिपात) का वह प्रकार, जिसके प्रभाव से प्राणी में अपनी शुद्ध प्रकाश स्वरूपता को पहचानने की अपेक्षा भिन्न भिन्न प्रकार के भोगों को भोगने की तीव्रतर इच्छा होती है। इस कारण ऐसा प्राणी देहपात के पश्चात् अपने अभिमत लोक में क्रम से सालोक्य, सामीप्य एवं सायुज्य नामक भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त करके स्वेच्छित भिन्न भिन्न भोगों को बहुत समय तक भोगता रहता है। अंत में वहीं पर पुनः दीक्षा प्राप्त करके बार बार के अभ्यास से अपने आपको शुद्ध संवित् मानता हुआ शिवता को प्राप्त कर लेता है। (तं.आ. 13-245, 246; तन्त्रालोकवि. 8 पृ. 152-153)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मंद-मध्य शक्तिपात परमेश्वर द्वारा की जाने वाली अग्रहात्मक अंतःप्रेरणा (देखिएशक्तिपात) का वह प्रकार, जिसके प्रभाव से प्राणी में अपने शिवभाव के प्रति सभी संशयों का ‘उच्छेद’ करके अपनी शिवता को प्राप्त करने की इच्छा तो बनी रहती है परंतु भोगों को भोगने की इच्छा अपेक्षाकृत तीव्र होती है। अतः इस जन्म में सद्गरु द्वारा बताए हुए योगाभ्यास के बल से किसी अन्य उत्कृष्ट तत्त्व या लोक में उपयुक्त देह धारण करके इच्छित भोगों का भोग करता है और अंत में वहाँ के उस दिव्य देह को भी त्याग देने पर अपनी शिवस्वरूपता को प्राप्त कर लेता है। (तं.सा.पृ. 123; तन्त्रालोक 13-243, 244)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मधुप्रतीक इन्द्रिय-जय से होने वाली मनोजवित्व, विकरणभाव एवं प्रधानजप नामक तीन सिद्धियों का नाम मधुप्रतीक है (योगसू. 3/48)। वाचस्पति के अनुसार एक प्रकार की चित्तभूमि भी मधुप्रतीक कहलाती है (तत्त्ववैशारदी में ‘मधुमती’, मधुप्रतीका, विशोक और संस्कारशेष नामक चार चित्तभूमियाँ कही गई हैं; 1/1)। विज्ञानभिक्षु ने इस मत का खण्डन किया है (योगवार्त्तिक 3/48)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मधुभूमिक चार प्रकार के योगियों में मधुभूमिक (मधु = मधुमती नामक भूमि है जिसकी, वह द्वितीय है), (द्र. व्यासभाष्य 3/51)। ये योगी ऋतंभरा नामक प्रज्ञा (द्र. योगसू. 1/48) से युक्त होते हैं। ऋतंभरा प्रज्ञा रूप भूमि ही मधुमती भूमि कहलाती है (द्र. विवरण टीका)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मध्य-तीव्र शक्तिपात पारमेश्वरी अनुग्रहात्मक अंतःप्रेरणा (देखिएशक्तिपात) का वह प्रकार, जिसके प्रभाव से जीव के सभी प्रकारों के संशयों का पूर्णतया उच्छेद हो जाता है। इस प्रकारके शक्तिपात के पात्र बने जीव को अपनी शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण प्रकाशरूपता का ज्ञान किसी शास्त्र या गुरु की सहायता के बिना स्वयं ही अपनी प्रतिभा से ही हो जाता है। वह उसे समयाचार आदि के तथा योग के अभ्यासों के बिना ही होता है। इसे यदि अपनी शुद्ध शिवरूपता के प्रति कभी कोई संशय हो भी जाए तो उसका निवारण किसी श्रीष्ठ गुरु के संवादमात्र से ही हो जाता है। (तं.आ. 13-131, 132; तन्त्र सार पृ. 120, 121)। ऐसे प्राणी में शिव के प्रति सुनिश्चित शक्ति उत्पन्न हो जाती है, मंत्र सिद्धि प्राप्त होती है, छत्तीस तत्त्वों पर स्वामित्व प्राप्त होता है, कवित्व एवं सभी शास्त्रों पर अधिकार प्राप्त हो जाता है। (तं.आ. 13-214, 215; मा.वि.वा. 2-13 से 16)। शरीर को छोड़ने पर वह अपनी परमेश्वरता को पूरी तरह से प्राप्त करता हुआ परमेश्वर से अभिन्न हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मध्य-मंद शक्तिपात परमेश्वर द्वारा की जाने वाली अनुग्रहात्मक अंतःप्रेरणा (देखिएशक्तिपात) का वह प्रकार, जिसके प्रभाव से प्राणी को अपने वस्तुभूत स्वरूप को पहचानने की अपेक्षा भोगों को भोगने की इच्छा बहुत अधिक होती है। इसलिए योगाभ्यास के बल से एवं भोगों को भोगने की तीव्र इच्छा से देहपात के बाद किसी या उपयुक्त लोक में जाकर कुछ समय तक वहीं अभिमत भोगों का भोग करता है तथा वहीं उसी लोक के अधिष्ठाता से पुनः दीक्षा प्राप्त करके सतत अभ्यास करने पर अपनी शिवरूपता को प्राप्त कर लेता है। (तं.आ. 13-245, 246; तं.आ.वि. 8, पृ. 152)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मध्य-मध्य शक्ति परमेश्वर द्वारा की जाने वाली अनुग्रहात्मक अंतःप्रेरणा (देखिएशक्तिपात) का वह प्रकार जिसके प्रभाव से प्राणी में अपनी शिवस्वरूपता को प्राप्त करने की उत्कट इच्छा के साथ साथ उत्कृष्ट सिद्धियों के माध्यम से भोगों को भोगने की वासना भी बनी रहती है। अतः उसे सद्गरु से प्राप्त हुए ज्ञान का योगाभ्यास द्वारा दृढ़तर अभ्यास करना होता है। वह योगाभ्यास से प्राप्त हुए भिन्न भिन्न दिव्य लोकाचित भोगों को इसी लोक में भोग करके अंत में देह त्याग कर देने पर शिवरूपता को प्राप्त कर लेता है। (तं.सा.पृ. 123, तं.आ. 137-242, 243)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मध्यधाम मध्यनाडी सुषुम्ना को शाक्त दर्शन में मध्यधाम कहा गया है। इसी को शून्यातिशून्य पदवी भी कहा जाता है। वस्तुतः मध्यधाम सुषुम्ना को शून्य और शिवतत्त्व को शून्यातिशून्य कहते हैं। मध्यधाम या मध्यदशा को शून्यस्वभाव इसलिये कहा जाता है कि यहाँ ज्ञाता-ज्ञान-ज्ञेय, प्रमाज्ञा-प्रमाण-प्रमेय आदि त्रिपुटियों की कोई सत्ता नहीं बची रहती। मध्यधाम के लिये शून्यातिशून्य शब्द का प्रयोग लाक्षणिक है। इसका मुख्य प्रयोग शिवतत्व और उसकी अभिव्यक्ति के स्थान द्वादशान्त के लिये ही किया जाता है। सुषुम्ना नामक मध्यनाडी शून्यातिशून्य धाम द्वादशान्त में जाकर लीन हो जाती है, अतः इसको भी शून्यातिशून्य धाम कह दिया जाता है। इस शून्यातिशून्य स्वभाव मध्यधाम में विश्रान्ति ही योगी के लिये उपेय (प्राप्तव्य) है।

  हृदय के मध्य में इसका निवास है। यह कमलनाल में विद्यमान अत्यन्त सूक्ष्म तन्तुओं के समान कृश आकार वाली है। इस मध्यनाडी के भीतर चिदाकाशरूप शून्य का निवास है। इससे प्राण शक्ति चारो ओर प्रसार करती है। साधक जब मध्यनाडी की सहायता से चिदाकाश में प्रविष्ट होता है, तब सोम और सूर्य, अर्थात् अपान और प्राण अथवा मन और प्राण सुषुम्ना में अपने आप विलीन हो जाते हैं। प्राण और अपान के मध्यवर्ती धाम सुषुम्ना (मध्यनाडी) में जिसका आन्तर और बाह्य इन्द्रिय चक्र (मन और उससे नियन्त्रित चक्षुरादि इन्द्रियाँ) लीन हो जाता है और जो ऊर्ध्व स्थान और अधःस्थान में विद्यमान अकुल और कुल पद्मों के संपुट के मध्य में भावना के बल से प्रविष्ट हो गया है, अर्थात् ऊर्ध्वगत प्रमाण रूपी पद्म और अधःस्थित प्रमेय रूपी पदम् के मध्य में चिन्मात्र प्रमाता के अपने स्वरूप में स्थित हो जाता है और इसीलिये चिन्मात्रता के अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु में जिसका चित्त संलग्न ही है, वह योगी स्वात्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। यहाँ प्रमेय रूप संसार का निमेष और उन्मेष व्यापार पद्मदल के संकोच और विकास के तुल्य है। इसीलिये इसकी पद्मसंपुट से तुलना की गई है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

मध्यपिंड देखिए ‘पिंडज्ञानी’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मध्यमा शब्दब्रह्म संस्कृत पवन से प्रेरित होकर जब हृदय स्थान में अभिव्यक्त होता है, तो वह निश्चयात्मिका बुद्धि से संयुक्त होकर विशेष रूप से स्पन्दित होने वाले नाद का रूप धारण कर मध्यमा वाक् के रूप में प्रसिद्ध होता है। पश्यन्ती से नवनादात्मक मध्यमा वाणी का उन्मेष होता है। यह नाद की अनाहत अवस्था है। संकेतपद्धति, अर्थरत्नावली, वरिवस्यारहस्य, नेत्रतन्त्रोद्द्योत, स्वच्छन्दतन्त्रोदद्योत प्रभृति ग्रन्थों में धर्मशिव प्रभृति आचार्यों के वचनों के प्रमाण पर अष्टविध तथा नवविध नाद का प्रतिपादन किया गया है। इनकी अभिव्यक्ति वाणी की मध्यमा दशा में होती है। यही नादानुसंधान की स्थिति है। इसको मध्यमा इसलिये कहा जाता है कि यह न तो पश्चन्ती के समान उत्तीर्ण है और न वैखरी की तरह स्पष्ट अवयवों वाली है। उक्त दोनों स्थितियों के मध्य में इसकी स्थिति होने से ही इसको मध्यमा कहा जाता है। नवनादात्मक इस मध्यमा वाणी से ही नववर्गात्मिका वैखरी वाणी अभिव्यक्त होती है। योगिनीहृदय में इसको ज्येष्ठा शक्ति कहा है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

मध्यमा वाच् (वाणी) संविद्रूपा परावाक् ही जब एकमात्र बुद्धि में ही स्थित होती हुई द्रष्ट तथा दृश्य अर्थात् प्रमातृ तथा प्रमेय के बीच की दशा के रूप में प्रकट होती है तो उसे मध्यमा वाणी कहते हैं। इस वाणी के माध्यम से प्रमाता अपने से भिन्न प्रमेयों का पृथक् पृथक् विमर्शन करता है। यह सोच समझ की वाणी है। इस अवस्था में आकर वाच्य तथा वाचक की एवं उनमें परस्पर भेद की अभिव्यक्ति हो गई होती है परंतु वह पूर्णतया स्फुट भी नहीं होती है और बुद्धि के स्तर पर भेद की अभिव्यक्ति के कारण इसे स्फुट भी माना गया है। मानस पूजा में, मनन, स्वप्न तथा इस प्रकार के अंतः विमर्श में इसी वाणी का प्रयोग होता है। (तं.आ.वि. 2, पृ. 255)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मध्यविकास प्राण और अपान के आधारभूत स्थान आन्तर आकाश हृदय और बाह्य आकाश द्वादशान्त में प्रत्यावृत्ति के अभाव में एक क्षण के लिये प्राण या अपान की वृत्ति अन्तर्मुख हो जाती है। तब ऐसी प्रतीति होती है कि मानो प्राण और अपान कहीं विलीन हो गये हैं। इस स्थिति को मध्यदशा के नाम से जाना जाता है। इस मध्यदशा का जब विकास किया जाता है, तब धीरे-धीरे साधक की भेद-दृष्टि (दूसरे से अपने को अलग समझने का स्वभाव) घटती जाती है और उसकी बाह्य और आन्तर इन्द्रियाँ अन्तर्मुख होने लगती है। क्रमशः उसका प्राणचार (प्राण और अपान की गति) मध्यनाडी सुषुम्ना में लीन हो जाता है और तब परा शक्ति भैरवी से अभिन्न रूप में विद्यमान भगवान् भैरव का स्वरूप प्रकाशित हो उठता है।

  हृदय, कण्ठ, तालु, ललाट, ब्रह्मरन्ध्र और द्वादशान्त में प्राण की गति रहती है और हृदय-कमल, मुख का संकोच-विकास तथा द्वादशान्त- ये अपान की गति के स्थान है। इनमें एक क्षण के लिये प्राण के अस्त हो जाने पर और अपान का उदय न होने पर बिना प्रयत्न के बाह्य कुम्भक की प्राप्ति होती है। इसी तरह से एक क्षण के लिये अपान के अस्त हो जाने पर और प्राण का उदय होने पर बिना प्रयत्न के अन्तःकुम्भक की प्राप्ति होती है। यह मध्यदशा ही परम पद कहलाती है। प्राण-अपान की इस मध्यदशा को योगी ही जान सकते हैं। एक तुटि, लव अथवा क्षण के लिये भी अन्तर्मुख हो जाने पर योगी में इस मध्यदशा का विकास हो जाता है और तब प्राण और अपान की पुनः प्रत्यावृत्ति नहीं होती, अर्थात् वह मुक्त हो जाता है।
  यह प्राणात्मक और अपानात्मक शक्ति हृदय से द्वादशान्त तक न तो जायेगी और न द्वादशान्त से हृदय की ओर वापस ही लौटेगी, जबकि मध्यनाडी का धाम (स्थान) विकल्पहानिरूप उपाय से विकसित कर दिया जाए। प्राण और अपान की गति के शान्त हो जाने से, हृदय और द्वादशान्त में प्राण और अपान की अस्पन्द अवस्था में स्थिति हो जाने से मध्यदशा का विकास होने पर साधक अपने स्वरूप को पहचान लेता है, वह साक्षात् शिवस्वरूप हो जाता है। प्रत्यभिज्ञाहृदय के 18वें सूत्र में विकल्पक्षय प्रभृति मध्यदशा के विकास के उपाय बताये गये हैं। स्पन्दकारिका में उन्मेष दशा के नाम से इसका वर्णन किया गया है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

मननशक्‍ति चिन्तनशक्‍ति।

पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार सिद्‍ध साधक में मनन शक्‍ति जागृत हो जाती है। सिद्‍ध साधक या मन्ता के द्‍वारा मन्तव्य (चिन्तनयोग्य ज्ञान) को मनन करने की शक्‍ति मननशक्‍ति कहलाती है; अर्थात् युक्‍त साधक समस्त चिन्तन योग्य ज्ञान को मनन करने की शक्‍ति प्राप्‍त कर लेता है। इससे उसकी अपनी समस्त शङ्काएं शान्त हो जाती हैं तथा वह औरों की शङ्काओं का भी प्रशमन कर सकता है। यह मननशक्‍ति पाशुपत योग साधना का एक फल है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मनस् मनस् अथवा मन को ‘अन्तः इन्द्रिय’ (अतःकरण) कहा गया है, क्योंकि शब्दस्पर्शादि रूप बाह्य विषय का ज्ञान साक्षात् मन से नहीं होता, इन्द्रियों के माध्यम से ही होता है। मन आन्तर विषयों का (सुख-दुःख-बोध तथा स्मृति आदि का) करण है। यह मन यद्यपि अहंकार अथवा अस्मिता से ज्ञानेन्द्रिय-कर्मेन्द्रिय की तरह ही उत्पन्न होता है (अतः मन को सोलह विकारों में एक माना जाता है) तथापि इसको इन इन्द्रियों का अधिपति अथवा परिचालक माना गया है। मन के योग के बिना ये इन्द्रियाँ अपना व्यापार करने में समर्थ नहीं होतीं – इस इन्द्रिय -परिचालकत्व के कारण ही मन को उभयात्मक कहा गया है (कारिका 27)। मन का धर्म ‘संकल्प’ माना गया है। ‘संकल्प’ के स्वरूप के विषय में मतभेद हैं। वाचस्पति संकल्प को ‘विशेष्य-विशेषण-भाव रूप से विवेचन’ समझते हैं। यही न्यायशास्त्र का सविकल्प ज्ञान है जिसमें किसी वस्तु का नाम, जाति आदि के साथ ज्ञान होता है। संकल्प, इच्छा, अभिलाषा या तृष्णारूप है – ऐसा भी कोई-कोई व्याख्याकार कहते हैं। संकल्प के विषय त्रैकालिक होते हैं, वर्तमानकालिक नहीं। मन अन्तःकरण होने पर भी इन्द्रिय है, बुद्धि-अहंकार इन्द्रिय नहीं है। सात्त्विक अहंकार से ज्ञान-कर्मेन्द्रिय एवं मन के आविर्भाव होने के कारण ही मन को इन्द्रिय माना जाता है – यह वाचस्पति आदि कहते हैं। करण के रूप में मन बुद्धि-अहंकार का सजातीय है और इस मन का व्यापार है, संकल्प।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मनस् प्रक्षुब्ध अवस्था को प्राप्त हुए गुणतत्त्व से प्रकट होने वाला तीसरा अंतःकरण मन। सत्त्वगुण प्रधान अहंकार से प्रकट होने वाला तीसरा अंतःकरण। प्रमेय पदार्थो के विषय में कल्पित तथा संभाव्यमान अनेकों नाम रूपों को अस्फुट रूप से प्रकट होने वाली जीव की मनन तथा संकल्प करने वाली शक्ति को मन कहा जाता है। (ई.प्र.वि. 2, पृ. 212)। मन को इंद्रियों में भी गिना जाता है। इंद्रियों द्वारा या स्वयं गृहीत विषयों के विषय में मन अनेकों अविरुद्ध और अनुकूल नाम रूपों की कल्पना करता है, परंतु निश्चय नहीं करता। निश्चय बुद्धि करती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मनोजवित्व कार्यसंपादन में अतीव त्वरितता।

पाशुपत दर्शन के अनुसार सिद्‍ध साधक में उद्‍बुद्‍ध क्रियाशक्‍ति का एक प्रकार मनोजवित्व है। साधक में जब ज्ञानशक्‍ति और क्रियाशक्‍ति उद्‍बुद्‍ध होती हैं तो उसकी इच्छाशक्‍ति इतनी सफल तथा स्वतंत्र हो जाती है कि वह जैसे ही मन में किसी कार्य के फलीभूत होने की इच्छा करता है, वह कार्य तुरंत विचार आते-आते ही फलीभूत होता है। ज्यों ही उसे किसी कार्य को करने की इच्छामात्र होती है, वह कार्य उसी क्षण हो जाता है। (निरतिशय शीघ्रकारित्व मनोजवित्वम् – ग.का.टी.पृ.10, पा.सू.कौ.भा.पृ.44)।)
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मनोजवित्व इन्द्रियजय होने पर (इन्द्रियजय की पद्धति योगसूत्र 3/48 में कही गई है) आनुषङ्गिक रूप से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें मनोजवित्व एक है (योगसूत्र 3/48)। शरीर की वह गति जो मन की गति की तरह वेगवान् हो, मनोजवित्व कहलाती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मनोടमन ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत दर्शन में ईश्‍वर को मनोमन नाम से अभिहित किया गया है। सकल (कलाओं सहित) तथा निष्कल (कलाओं रहित) दोनों ही अवस्थाओं में शक्‍तिमान होने के कारण ईश्‍वर को मनोടमन कहा गया है। मन से यहाँ पर अन्तःकरण से तात्पर्य है। पाशुपत दर्शन के अनुसार ईश्‍वर विश्‍वोत्‍तीर्ण तथा विश्‍वमय है। जब वह विश्‍वमय होकर रहता है तो सकल होने के कारण मन (अंतःकरणों) से संपृक्‍त रहने के कारण ‘मन’ कहलाता है। परंतु दूसरे पक्ष में जब वह विश्‍वोत्‍तीर्ण होकर कलाओं से रहित होने पर ‘मन’ से असंपृक्‍त रहता है तो ‘अमन’ कहलता है। तथा इन दोनों पक्षों में समान रूप से रहने के कारण मनोടमन कहलाता है। (पा.सू.कौ.भाऋ पृ. 76)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मन्त्र मन्त्र दो अक्षरों से बना है – मन् और त्र् मन् का अर्थ है मनन करना और त्र का अर्थ त्राण। मनन करने से जो त्राण (रक्षा) करे, वह मन्त्र है। मन्त्र उस अक्षर, शब्द या शब्दों के समुदाय को कहते हैं, जिसके उच्चारण और मनन से शक्ति जगती है। स्वच्छन्दतन्त्र (4/375) प्रभृति ग्रन्थों में मन्त्र को ज्ञान शक्ति का विलास माना गया है। इसकी सहायता से साधक संसार सागर से मुक्त होकर शिव पद से संयुक्त हो जाता है।

  तन्त्रशास्त्र में मन्त्र के लिये मनु शब्द का भी प्रयोग मिलता है। स्त्री देवता वाले मन्त्रों को महाविद्या कहा जाता है। पिण्ड, कर्तरा, बीज, मन्त्र और माला के भेद से, बीज, कूट, पिण्ड और माला के भेद से तथा सिद्ध, साध्य, सुसिद्ध और अरि के भेद से मन्त्र नाना प्रकार के होते हैं। वैष्णव आगमों में पद, पिण्ड, बीज और संज्ञा के भेद से इनके चार प्रकार वर्णित हैं। नेत्रतन्त्र (18/10-12) में संपुटित, ग्रथित, ग्रस्त, समस्त, विदर्भित, आक्रान्त, आद्यन्त, गर्भस्थ, सर्वतोवृत्त, युक्तिविदर्भित ओर विदर्भग्रथित- ये ग्यारह विधियाँ मन्त्रों के विन्यास अथवा उच्चारण की बताई गई हैं। शारदातिलक (23/136) में शान्ति, वश्य, स्तम्भन, विवेशण, उच्चाटन और मारण नामक षट्कर्मों की सिद्धि के लिये ग्रथन, विदर्भ, संपुट, रोधन, योग और पल्लव नामक छः प्रकार की मन्त्रविन्यास की पद्धति वर्णित है। टीकाकारों ने इन पारिभाषिक शब्दों के अर्थों को स्पष्ट किया है। तदनुसार उक्त विधियों में मन्त्राक्षरों अथवा मन्त्रों का विशेष स्थितियों में लेखन अथवा उच्चारण किया जाता है।
  मीमांसा दर्शन में मन्त्र को ही देवता माना गया है। तन्त्रशास्त्र में भी इस सिद्धान्त को स्वीकार किया गया है। यहाँ मनु (मन्त्र) अथवा विद्या को उस देवता का विग्रह ही माना जाता है। दस महाविद्याओं के प्रतिपादक शाक्त तन्त्रों में काली, तारा, त्रिपुरा, प्रभृति शब्दों से मन्त्र और देवता दोनों अभिहित होते हैं। निरुक्त में मन्त्रार्थ के ज्ञान की महिमा वर्णित है। तदनुरूप ही तन्त्रशास्त्र में कहा जाता है कि मन्त्रार्थ की भावना के साथ मन्त्र का जप करने से मन्त्रचैतन्य की अभिव्यक्ति होती है, अर्थात् साधक के समक्ष मन्त्रदेवता अपने स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। मन्त्रार्थ, मन्त्रचैतन्य प्रभृति शब्दों की निरुक्ति के प्रसंग में ये विषय चर्चित हैं।
  मन्त्रस्वरूप, मन्त्रवीर्य, मन्त्रसामर्थ्य, मन्त्र, मन्त्रेश्वर, मन्त्रमहेश्वर, मन्त्रदोष, मन्त्रसंस्कार, मन्त्रसिद्धि प्रभृति विषयों पर तथा मन्त्रदीक्षा के प्रसंग में गुरु, शिष्य, देश, काल, स्थान आदि के विषय में तन्त्रशास्त्र के ग्रन्थों में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। स्त्रीप्रदत्त तथा स्वप्नलब्ध मन्त्रों की साधनविधि तन्त्रों में वर्णित है। मन्त्रदीक्षा के समय कुलाकुलचक्र, नक्षत्रचक्र, राशिचक्र, नामचक्र, आदि की सहायता से मन्त्र का उद्धार और परीक्षण किया जाता है कि किस व्यक्ति को किसी मंत्र की दीक्षा दी जाय। हुं, फट् आदि अंग मन्त्रों के संयोजन की विधि का जानना भी आवश्यक माना गया है। मन्त्र, मण्डल आदि में जैसे प्रधान देवता के अतिरिक्त आवरण देवताओं का विन्यास विहित है, उसी प्रकार मूल विद्या अथवा प्रधान मन्त्र के भी अंग विद्या अथवा अंग मन्त्रों का शास्त्रों में वर्णन मिलता है। कुलार्णव तन्त्र के तृतीय और चतुर्थ पटल में जैसे प्रासाद अथवा पराप्रासाद मन्त्र का सविशेष महत्व वर्णित है, उसी तरह से तन्त्रशास्त्र के प्रत्येक ग्रन्थ अथवा सम्प्रदाय का अपना मूल (मूख्य) मन्त्र होता है। इसी मूल मन्त्र के अंग के रूप में अन्य मन्त्रों का विनियोग बताया जाता है। उक्त विषयों का विशेष विवरण जिज्ञासुओं को नेत्रतन्त्र, शारदातिलक, प्राणतोषिणी प्रभृति ग्रन्थों में देखना चाहिये।
  नेत्रतन्त्र (18/13-14) में कहा गया है कि वही साधक श्रेष्ठ है, जो हृदय और द्वादशान्त में मन्त्र के उन्मेष और विश्रान्ति को जानता है, मन्त्र की शक्ति से परिचित है, उसके ध्यान के स्वरूप और मुद्रा को हृदयंगम कर सका है। तन्त्रालोक (29/83), उत्तरषट्क, अर्थरत्नावली (पृ. 231, 247) प्रभृति ग्रन्थों में उदय, संगम (व्याप्ति) और शान्ति (विश्रान्ति) नामक तीन अवस्थाओं का उल्लेख है। साधक को चाहिये कि वह आधार स्थान में मन्त्र के उदय की स्थिति का, हृदय स्थान में व्याप्ति का तथा ब्रह्मरन्ध्र में मन्त्र की विश्रान्ति दशा का सावधानी से अवलोकन करें। इसके लिये योनिमुद्रा के अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है, जिसका कि निरूपण अलग से किया गया है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

मन्त्र-चैतन्य जपयज्ञ के अभ्यास के वैखरी वाणी के समस्त आगन्तुक मल जब दूर हो जाते हैं, तब इडा-पिंगला का मार्ग अवरूद्ध होने लगता है और सुषुम्ना पथ उन्मुक्त हो उठता है। इस स्थिति में शब्दशक्ति प्राणशक्ति की सहायता से शोधित होकर सुषुम्ना रूप ब्रह्मपथ का आश्रय लेकर क्रमशः ऊर्ध्वगामिनी होती है। यही शब्द की सूक्ष्म या मध्यमा नामक अवस्था है। इसी अवस्था में अनाहत नाद प्रकट होता है और स्थूल शब्द इस विराट प्रवाह में निमग्न होकर उससे भर जाता है तथा चेतनाभाव धारण कर लेता है। इसी स्थिति को मन्त्रचैतन्य का उन्मेष कहा जाता है। प्राणतोषिणी तन्त्र (पृ. 418-419) में बताया गया है कि मन्त्रार्थ, मन्त्रचैतन्य और योनिमुद्रा को जो नहीं जानता, उसकी तांत्रिक उपासना कभी भी सफल नहीं हो सकती। मन्त्र का अधिष्ठाता देवता ही मन्त्रचैतन्य के नाम से अभिहित होता है। शास्त्रों में बताया गया है कि मन्त्र मणि के समान है और मन्त्रदेवता अर्थात् मन्त्रचैतन्य मणि की प्रभा के समान है।

  उत्तरषट्क नामक ग्रन्थ में मन्त्र की पाँच अवस्थाओं का वर्णन किया गया है। उनके नाम हैं- स्पर्शन, अवलोकन, संभाषा, बिन्दुदर्शन और स्वयमावेशन। स्पर्शन का अर्थ मन्त्र के साथ साधक का संबंध है। इसका चिह्न कम्पन है। यह पहले हृदय में उत्पन्न होता है। मन्त्र का साधक को देखना ही अवलोकन है। इसका चिह्न घूनन है। इसकी उत्पत्ति कण्ठ में होती है। मन्त्र का साधक से भाषण संभाषा है। इसका चिह्न स्तोभ है। इस अवस्था में साधक समस्त विद्या और मन्त्रों की कल्पना कर सकता है। बिन्दुदर्शन का अर्थ है मन्त्र की आत्मा का साक्षात्कार। यह साक्षात्कार भ्रूमध्य में होता है। इससे साधक को सभी सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। स्वयमावेशन का अभिप्राय है कि मन्त्र साधक को स्वात्मस्वरूप में समाविष्ट कर लेता है। यही वास्तविक मन्त्रचैतन्य की स्थिति है। यहाँ आकर मन्त्र की साधना फलीभूत हो जाती है। साधक की मन्त्र देवता के साथ समरसता हो जाती है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

मन्त्रयोग राजयोग से निम्नस्तर के जिन योगों का उल्लेख है, उनमें से एक मन्त्रयोग है। मन्त्रजप इस योगाभायास में मुख्य है। इस योग का प्रकृत स्वरूप है – निरन्तर (प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में) ‘हंसः’ मन्त्र का जप करना। अभ्यास की उन्नत अवस्था में सुषुम्ना में यह मन्त्र स्वतः उच्चारित होता रहता है – यह उपांशु जप से उन्नततर अवस्था है। ‘हंसः’ मन्त्र का जप विपरीतक्रम से (‘सोहम्’ रूप से) भी किया जाता है। योगबीज आदि ग्रन्थों में इस योग का विशद् परिचय मिलता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मन्त्रार्थ मन्त्रजप के साथ मन्त्रार्थ की भावना आवश्यक है। राख में डाली गई आहुति जैसे निष्फल जाती है, इसी तरह से अर्थ के ज्ञान के बिना किया गया मन्त्र का उच्चारण भी व्यर्थ माना जाता है। निरुक्त प्रभृति ग्रंथों में भी अर्थज्ञान की महिमा वर्णित है। शास्त्रों में विविध प्रकार के मंत्रार्थों का विवरण पाया जाता है। भास्करराय ने वरिवस्यारहस्य में 15 प्रकार के मन्त्रार्थों का निरूपण किया है। उनमें भावार्थ, सम्प्रदायार्थ, निगर्भार्थ, कौलिकार्थ, रहस्यार्थ और महातत्त्वार्थ – ये छः अर्थ ही प्रधान हैं। योगिनीहृदय के मन्त्रसंकेत प्रकरण में इनका ही निरूपण हुआ है। तदनुसार मन्त्र के अवयवभूत अक्षरों का अर्थ ही भावार्थ है। सर्वकारणकारण पूर्ण परमेश्वर ही सब मन्त्रों के मूल गुरु हैं। उनके मुख से अपने मन्त्र का उद्भव और उसका अवतरण क्रम अथवा परम्परा का ज्ञान सम्प्रदायार्थ है। परमेश्वर, गुरु और निज आत्मा का ऐक्यानुसन्धान निगर्भार्थ है। परमेश्वर निष्कल निरवयव है, गुरु भी वही है। निष्कल परमेश्वर का जो निज आत्मरूप में साक्षात्कार करते हैं, वे ही गुरु हैं। इसलिये गुरु और परमेश्वर अभिन्न हैं। चक्र, देवता, विद्या, गुरु और साधक का ऐक्यानुसन्धान कौलिकार्थ है। मूलाधार स्थित कुण्डलिनी रूपा विद्या ही साधक की स्वात्मा है। इस प्रकार की भावना का नाम रहस्यार्थ है। निष्कल, अणु से अणुतर और महान से महत्तर, निर्लक्ष्य, भावातीत, व्योमातीत परम तत्त्व के साथ प्रकाशानन्दमय, विश्वातीत और विश्वमय, गुरु प्रबोधित, निर्मलस्वभाव स्वकीय आत्मा का ऐक्यानुसन्धान महातत्त्वार्थ है। इन सब अर्थों के ज्ञान से पाशात्मक विकल्पजाल भली-भाँति निवृत्त हो जाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

मयूरांडरस-न्याय देखिए ‘अविभाग-परामर्श’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मरीचि शक्ति प्रवाह। सत्त्व, रज तथा तम नामक तीन गुणों के स्पंद का मूलभूत शक्ति स्वरूप प्रवाह। परमेश्वर की ज्ञान, क्रिया तथा माया नामक तीन नैसर्गिक शक्तियाँ जब माया आदि छः कंचुक तत्त्वों से घिर कर क्रमशः सत्त्व, रज तथा तम गुणों के रूप में आकर उन्हीं के रूप में प्रवाहित होती हैं तब इसी गुण रूप प्रवाह या प्रसार को मरीचि कहते हैं। (शि.सू.वा.पृ. 14) मरीचि निचय तीन गुणों से उत्पन्न होने वाला इंद्रिय समूह। (वही)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मर्यादा प्रयत्न से साध्य शास्त्र विहित ज्ञान एवं भक्ति की साधना मर्यादा है तथा इससे प्राप्त होने वाली मुक्ति मर्यादा मुक्ति है एवं इस मर्यादा से मिश्रित पुष्टिभक्ति मर्यादा पुष्टिभक्ति है। ऐसी भक्ति के उदाहरण भीष्म पितामह प्रभृति हैं (अ.भा.पृ. 1.067)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

मल शिव की संकुचित शक्‍ति को ‘मल’ कहते हैं। इसे ‘अविद्‍या’ भी कहा जाता है। यह ‘आणव’, ‘मायीय’ और ‘कार्म’ भेद से तीन प्रकार का होता है। ये तीनों मल अनादि हैं। इन अनादिमलों से आवृत शिव का अंश ही संसारी जीव कहलाता है – (श.वि.द. पृ. 90,91; सि.शि. 5/34 पृष्ठ 63)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मल क. आणव-मल शिव की इच्छा-शक्‍ति का संकुचित स्वरूप ही ‘आणवमल’ है। इसके आवरण से जीव में ‘मैं अणु हूँ’ यह भावना उत्पन्‍न होती है और वह अपने व्यापक स्वरूप को भूलकर अपने को शिव से भिन्‍न मानने लगता है। इस प्रकार जीव में अणुता का आरोप करके शिव और जीव में भेद-बुद्‍धि को उत्पन्‍न करने वाला मल ही ‘आणव-मल’ है। (श.वि.द. पृष्‍ठ 90,91)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मल ख. मायीय-मल जिस शक्‍ति से संयुक्‍त होकर शिव सर्वज्ञ कहलाता है, उस ज्ञानशक्‍ति का संकुचित स्वरूप ही ‘मायीय-मल’ है। इसे ‘अज्ञान’ भी कहते हैं। वीरशैव दर्शन में अज्ञान का अर्थ ज्ञानाभाव अथवा भावरूप अज्ञान नहीं है, किंतु ‘संकुचित ज्ञान’ ही ‘अज्ञान’ कहलाता है। इसके आवरण से जीव में ‘मैं अल्पज्ञ हूँ’ यह भावना उत्पन्‍न होती है। इस ‘मायीय-मल’ के कारण ही यह जीव शरीर से भिन्‍न अपने अस्तिव को भूलकर शरीर को ही अपना वास्तविक स्वरूप समझने लगता है और पत्‍नी, पुत्र आदि में ‘ये मेरे हैं’ इस भाव से युक्‍त होकर उनमें ही मोहित रहता है। इस प्रकार जीव में अल्पज्ञ भाव को उत्पन्‍न करके उसे संसार में मोहित करने वाला मल ही ‘मायीय-मल’ कहलाता है (श.वि.द.पृ. 91)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मल ग. कार्म-माल शिव की क्रियाशक्‍ति ही संकुचित होकर ‘कार्म-मल’ कहलाती है। यह जीव को आवृत करके उसमें ‘मैं किंचित् कर्ता हूँ’ इस भावना को उत्पन्‍न करता है। इस कार्म-मल के कारण ही जीव पुण्य और पाप कर्मो को करता हुआ स्वकृत कर्मों के फलों को भोगने के लिये मनुष्‍य आदि नानायोनियों में भ्रमण करता रहता है। इस प्रकार जीव से पुण्य-पाप कर्मों को कराकर उनके फलों के उपभोग के लिये जीव को नानायोनियों में भ्रमण कराने वाला मल ही ‘कार्म-मल’ के नाम से अभिहित होता है (श.वि.द.पृ. 91; सि.शि. 5/47, 48 पृष्‍ठ 70-71)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मल अशुद्‍धि।

पाशुपत साधक आत्मा के जिन भावों का क्षय करने के लिए साधना, जप व तप करता है, वे मल कहलाते हैं (ग.का.टी.पृ.4)। मल पाँच प्रकार के होते हैं- मिथ्याज्ञान, अधर्म, सक्‍ति हेतु, च्युति तथा पशुत्व (ग.का.8)। मलों के कारण पशु संसृति के बंधन में पड़ा रहता है। अतः मुक्‍ति को पाने के लिए मलों को धो डालना परम आवश्यक होता है। इसीलिए मलों को भी गणकारिका में शास्‍त्र के प्रतिपाद्‍य विषयों में गिना गया है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मल तत्त्वप्रकाशकार भोजदेव ने 18वीं कारिका में मल का लक्षण बताया है कि मल एक है और वह अनेक प्रकार की शक्तियों से मुक्त है। यह पुरुष की ज्ञान और क्रिया शक्ति को उसी तरह से ढक लेता है, जैसे कि भूसी चावल को और कालिमा तांबे को ढके रहती है। इस तरह से द्वैतवादी शैवों के यहाँ मल जीव में रहने वाला एक द्रव्यविशेष माना गया है। अद्वैतवादी शैव और शाक्त दर्शनिक ऐसा नहीं मानते। वे संसृति के अनादि कारण अज्ञान को ही मल मानते हैं। यह मल तीन प्रकार का होता है – आणव, मायीय और कार्म। अणु (जीव) गत अज्ञान ही उसके परमार्थ स्वरूप को ढक लेता है। इसी को आणव मल कहते हैं। माया शक्ति के अधीन मल मायीय तथा पुण्य और पाप कर्मों की वासना से उत्पन्न मल कार्म मल कहलाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

मल अज्ञान। समस्त बंधन एवं संसृति का मूल कारण बननेवाला सीमित ज्ञान। (मा.वि.तं. 1-23)। अज्ञान को ज्ञान का पूर्ण अभाव नहीं माना गया है। एक निर्जीव पदार्थ संसार में अज्ञ होता हुआ भी संसृति के चक्कर में नहीं आता है। जगत को भेदमयी दृष्टि से देखने के, अपने को जड़, देह, प्राण आदि समझने के तथा समस्त कर्मबंधन के मूल में वही संकुचिता ज्ञान रूपी मल कार्य करता है, इस प्रकार शुद्ध स्वरूप को आच्छादित करने वाले संकुचित ज्ञान को ही मल कहा जाता है। (तं.आ. 1-25, 26)। मल त्रय मल के आणव, मापीय तथा कार्म नामक तीन प्रकार। (यथास्थान देखिए)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महत् ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत मत में ईश्‍वर के स्वतंत्र ज्ञानशक्‍ति व क्रियाशक्‍ति संपन्‍न होने के कारण तथा समस्त पशुओं से उत्कृष्‍ट होने पर उसे महत् कहते हैं। पशु, पक्षी, मानव आदि की अपेक्षा देवगणों में बढ़चढ़कर ज्ञान और क्रिया की शक्‍तियाँ होती हैं। उनसे भी अधिक शक्‍तिमान ब्रह्मा, विष्णु आदि होते हैं। परंतु सभी शक्‍तिमानों की शक्‍तियों से बहुत बड़ी शक्‍तियाँ परमेश्‍वर में ही होती हैं। अतः उसे महान् (महत्) कहा जाता है। (फ.सू.कौ.भा.पृ. 127; ग.का.टी.पृ.11)
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

महत् (महान्) महत् (महान्) बुद्धितत्त्व है; महत् के साथ तत्त्व शब्द को जोड़कर महत्तत्त्व शब्द भी प्रयुक्त होता है। बुद्धि शब्द कभी-कभी ज्ञानवाची के रूप में भी प्रयुक्त होता है, पर महान् सदैव महत्तत्त्व के लिए ही प्रयुक्त होता है। कभी-कभी महान् और बुद्धि (तत्त्व) में अवान्तर भेद भी किया गया है – विषय का सूक्ष्मतम ज्ञाता बुद्धि है और विवेक (प्रकृति-पुरुष-भेद) का सूक्ष्मतम ज्ञाता महान् है। यहाँ वस्तु एक ही है, पर व्यापार के भेद से एक ही वस्तु को दो भागों में बाँट कर दो वस्तु के रूप में दिखाया गया है। महान् में त्रिगुण का सूक्ष्मतम वैषम्य है और यह वैषम्य नष्ट होने पर गुणों का साम्य हो जाता है। ‘मैं ज्ञाता हूँ (अन्तर्बाह्य विषयों का)’ – इस भाव का सूक्ष्मतम रूप ही महान् है। संप्रज्ञातसमाधि का जो चतुर्थ (अर्थात् अस्मितानुगत संप्रज्ञात) भेद है, उसका आलम्बन यह महान् है। यह महत्तत्त्व सदैव पुरुष के द्वारा प्रकाशित होता है। पुरुष या आत्मा से नित्य ही संयुक्त रहने के कारण महत्तत्त्व को ‘महदात्मा’ भी कहा जाता है। कठोपनिषद् (1/3/13) में जो ‘महति आत्मनि’ वाक्य हैं उसमें इस सांख्यीय महदात्मा का प्रतिपादन है – ऐसा सांख्याचार्यों का कहना है। महत्तत्त्व में प्रतिष्ठित (महत्तत्त्व का-साक्षात्कारी) जीव हिरण्यगर्भ होकर ब्रह्माण्ड सृष्टि करने में समर्थ होते हैं। महत्तत्त्व रूप उपाधि से युक्त आत्मा (पुरुष) सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान होता है। प्रकृति के सभी व्यक्त विकार महत्तत्त्व के ही स्थूल रूप हैं, अतः वह सभी विकारों में अनुस्यूत रहता है; यही कारण है कि यह महान् कहलाता है। 1/36 योगसूत्र के व्यासभाष्य में जिस ‘अणुमात्र आत्मा’ का उल्लेख मिलता है, वह भी महदात्मा ही है; महत् के परम सूक्ष्मत्व के कारण उसको लक्ष्य कर अणु शब्द का भी प्रयोग किया जा सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

महत्तत्त्व महत्तत्त्व प्रकृति का सांख्योक्त प्रथम विकार है। सभी विकारों का बीजभूत होने के कारण यह ‘महत्’ कहलाता है – ऐसा प्रतीत होता है। (यह शब्द पुल्लिंग है, द्र. सांख्यकारिका 22; पर क्वचित् नपुंसकलिंग में भी प्रयुक्त होता है, द्र. सांख्यसूत्र 2/15)। इसी का नामान्तर बुद्धितत्त्व है। यह व्यावहारिक आत्मभाव का सर्वसूक्ष्म रूप है – ‘अहमस्मि’ बोध से ही यह लक्षित होता है। यह अभिमान से विहीन है। सास्मित समाधि में ही यह तत्त्व साक्षात्कृत होता है। अध्यवसाय महत् का लक्षण है – ऐसा पूर्वाचार्यों ने कहा है। महत्तत्त्व के साक्षात्कारी योगी ऐश्वर्यसंस्कार से युक्त होकर ब्रह्माण्डसृष्टिकारी प्रजापति हो सकते हैं। महत्तत्त्व एवं आत्मा इन दोनों की समष्टि ‘महदात्मा’ कहलाती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

महत्व पाशुपत साधक का लक्षण।

पाशुपत मत में युक्‍त साधक नाना सिद्‍धियों की प्राप्‍ति से बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्‍त कर लेता है, क्योंकि उसमें और सभी जीवों से अधिक ऐश्वर्य होता है (सर्वपशुम्योടभ्यधिकत्वमैश्‍वपर्याति-शयान्ममहतवम् – ग.का.टी.पृ.10)। साधक के इस महत्व के निरुपण से पाशुपत योग के महत्व पर भी प्रकाश पड़ता है। पातंजल योग से केवल दुःखनिवृत्‍ति हो जाती है परंतु पाशुपत योग से परम ऐश्‍वर्य भी प्राप्‍त हो जाता है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

महादेव ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत मत में ईश्‍वर का एक नामांतर महादेव आया है। ईश्‍वर के अति उत्कृष्‍ट ज्ञानशक्‍ति संपन्‍न होने के कारण उन्हें महादेव कहा गया है। देव शब्द का अर्थ क्रीडनशील, जयशील, प्रकाशनशील आदि होता है। ये गुण इन्द्र आदि सभी देवगणों में होते हैं। उनसे भी बढ़चढ़कर ब्रह्‍मा, विष्णु आदि पाँच कारणों में होते हैं। परंतु सबसे उत्कृष्‍ट जो देवत्व है वह एकमात्र परमेश्‍वर में ही होता है। इस कारण उसको महादेव कहते हैं। (पा.सू.कौ.भा.पृ.14)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

महादेव सतत गति से सृष्टयादि कृत्यों द्वारा विश्वमयी क्रीड़ा का अभिनय करने वाला परमेश्वर। देवाधिदेव। परमशिव। महेश्वर। परमशिव सर्वदा, सर्वतः एवं सर्वथा शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संविद्रूप ही है और अपनी इसी संविद्रूपता के कारण वह समस्त प्रपंच को स्वतंत्रतापूर्वक अपने में ही लय और उदय की क्रीड़ा का अभिनय करता रहता है। यही उसके स्वातंत्र्य का विलास है। इसी विलसनशील या क्रीडनशील स्वभाव के कारण उसे महादेव कहा जाता है। (सि.म.र. 38)। प्रायः कैलासवासी शिव के लिए महादेव शब्द का प्रयोग किया जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महाद्वैत देखिए परम अद्वैत।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महान संबंध जिस दर्शन तत्त्व का स्फुरण परावाणी द्वारा तुर्या के उत्कृष्टतम सोपान पर शिव शक्तिमय प्रकाश विमर्श की उत्कृष्ट स्फुरता के भीतर हुआ, उसी तत्त्व का स्फुरण शिवभट्टारक की अनुग्रहमयी प्रेरणा से सदाशिव भट्टारक को हुआ। शिव भट्टारक की स्फुरता में परावाणी द्वारा स्फुरण हुआ परंतु सदाशिव भट्टारक ने उसका विमर्शन पश्यंती वाणी द्वारा किया। इस तरह प्रश्न रूपी शंका योगी को पश्यंती वाणी में हुई और उसका समाधान उसे उसकी परावाणी के समावेश में हो गया। इस तरह से उत्कृष्टतर योगी ने पश्यंत दशा में प्रश्न की शंका की और परादशा में आरूढ़ होकर समाधान रूप उत्तर के द्वारा उस शंका को शांत किया। शिव और सदाशिव के ऐसे गुरु शिष्य संबंध को महान् संबंध कहते हैं। (पटलत्रि.वि.टि. पृ. 12।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महानंद उच्चार योग के अभ्यास से अभिव्यक्त होने वाली आनंद की छः भूमिकाओं में से पाँचवी भूमिका का आनंद। सभी प्रमेय पदार्थों को पूर्ण संघट्टात्मक रूप से शुद्ध प्रकाश रूप में ही देखने के लिए साधक जब समान प्राण पर विश्रांति प्राप्त करके ब्रह्मानंद की अनुभूति प्राप्त कर लेता है तब उसे उदान प्राण पर विश्रांति का अभ्यास करना होता है। इस अभ्यास में वह सभी प्रमाण एवं प्रमेयों से संबंधित सभी विकल्पात्मक आभासों को उदान के तेज में विलीन करके उदान प्राण पर विश्रांति प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में उसे जिस आनंद की अनुभूति होती है उसे महानंद कहते हैं। इसकी अभिव्यक्ति तुर्या की अवस्था में होती है। (तं.सा.पृ. 38; तं.आ. 5-47, 48)

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महापतन पुष्टि मार्ग में मुक्ति महापतन रूप है क्योंकि मुक्ति भक्ति रस की बहुत बड़ी बाधिका है। “न स पुनरावर्तते” के अनुसार मुक्ति प्राप्त हो जाने पर पुनरावृत्ति नहीं होने से भक्ति रस की आशा भी जाती रहती है (अ.भा.पृ. 1234)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

महापुष्टित्व भगवत्प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधाओं को निवृत्त करने हुए भगवत्पाद की प्राप्ति करा देने वाला भगवान् का अनुग्रह महापुष्टित्व है (प्र.र.पृ. 77)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

महाप्रचय (सततोदित) मालिनीविजय (2/36-45) तथा मन्त्रालोक (10/227-287) में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत अवस्थाओं का निरूपण पिण्ड, पद, रूप, रूपातीत तथा महाप्रचय अथवा सततोदित अवस्था के रूप में किया गया है। तदनुसार तुरीयातीत अवस्था ही महाप्रचय अथवा सततोदित दशा है। इस अवस्था में पहुँचकर साधक निष्प्रपंच, निराभास शुद्ध, स्वात्मस्वरूप, सर्वातीत, शिवभाव में प्रतिष्ठित हो जाता है। यह महान् प्रकाशमय अनन्तपद है। सततोदित पद का अभिप्राय यह है कि यह स्वरूप सर्वत्र व्याप्त है, अखण्ड रूप में सर्वत्र सदा प्रकाशित होता रहता है। इसके पर्याय के रूप में शास्त्रों में नित्योदित पद भी प्रयुक्त होता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

महाप्रलय देखिए प्रलय (महा)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महाभूत महाभूत शब्द यद्यपि ‘भूत’ के लिए भी क्वचित् प्रयुक्त होता है, तथापि अनेक स्थानों में इन दोनों का भेदपूर्वक प्रयोग मिलता है। व्यासभाष्य 3/26 में भूतवशी देवों के अतिरिक्त महाभूतवशी देवों का उल्लेख भी मिलता है। महाभूत भूततत्त्व से स्थूल है। 2/28 भाष्य में जो महाभूत शब्द है, उसकी व्याख्या में वाचस्पति ने कहा है कि पृथ्वी आदि महाभूत पाँच हैं, पृथ्वी में गन्ध-रस-रूप-स्पर्श-शब्द गुण रहते हैं; जल, तेज, आदि भूतों में यथाक्रम एक-एक गुण कम हो जाता है। इन पाँच महाभूतों से जो वस्तुएँ बनती हैं वे भौतिक कहलाती हैं। कोई-कोई भौतिक से महाभूत समझते हैं। कोई-कोई महाभूतों को स्थूलभूत कहते हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

महामाया 1. शुद्ध विद्या तत्त्व से नीचे तथा माया तत्त्व से ऊपर विद्या तत्त्व के ही दो अवांतर प्रकार हैं जिन्हें महामाया कहा जाता है। महामाया का पहला प्रकार शुद्ध विद्या के अधिक पास है तथा दूसरा माया तत्त्व के पास। शुद्ध विद्या से कुछ ही नीचे की महामाया के प्राणी मंत्र या विद्येश्वर प्राणी कहलाते हैं। इन प्राणियों को अपने स्वरूप और स्वभाव के विषय में कोई विपर्यास नहीं होता है; परंतु फिर भी संसार के प्रति इनकी भेद दृष्टि बनी ही रहती है। ये अपने आपको शुद्ध और स्वतंत्र संवित् स्वरूप तो समझते हैं परंतु परमेश्वर को अपने से भिन्न मानते रहते हैं तथा अन्य प्राणियों और प्रमेय तत्त्व के प्रति भेदमय दृष्टिकोण रखते हैं। (ई.प्र. 3-1-6, ई.प्र.वि. 2 पृ. 199-200)। 2. अपने आपको क्रियाशक्ति के चमत्कार से रहित केवल शुद्ध प्रकाशभाव ही समझने वाले विज्ञानाकल प्राणियों के दृष्टिकोण या विश्रांति स्थान को भी महामाया कहते हैं। यह माया का ही अपेक्षाकृत अविकसित रूप होता है। (पटलत्रि. वि. पृ. 118-9)। महामाया परा परमेश्वर की अतिदुर्घट कार्यों को क्रियान्वित करने वाली पराशक्ति को भी महामाया कहा जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महायोग योगसूत्र तथा प्राचीनतम योगग्रन्थों में महायोग नामक योग विशेष का उल्लेख न रहने पर भी पुराणों, अर्वाचीन उपनिषदों एवं योगग्रन्थों में महायोग का विवरण मिलता है। महायोग चार भागों में विभक्त है – मन्त्र, हठ, लय तथा राजा (राजयोग) (योगबीज 144)। लिङ्गपुराण में क्रमिक उत्कर्षयुक्त पाँच योगों की एक गणना भी मिलती है, जिसमें महायोग अन्तिम है (अन्य चार यथाक्रम हैं – मन्त्र, स्पर्श, भाव और अभाव) (लिङ्गपुराण 2/55 अध्याय)। इस प्रकार महायोग के विषय में दो मत हैं। ‘महायोग’ शब्द पुराणों में कहीं-कहीं प्रयुक्त हुआ है (कूर्मपुराण 1/16/94; भागवत पुराण 12/8/14)। विष्णुपुराण (5/10/10) में भी महायोग उल्लिखित हुआ है। योगसूत्र की संप्रज्ञातसमाधि से इसका सादृश्य है। श्रीधर ने टीका में इसकों संप्रज्ञात योग ही माना है। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि महायोग शब्द योगविशेष के लिए रूढ़ है तथा ‘जो योग महान् है’ इस व्युत्पत्ति के अनुसार यह शब्द संप्रज्ञात या असंप्रज्ञात समाधि को भी लक्ष्य कर सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

महालिंग देखिए ‘लिंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

महालिंग स्थल देखिए ‘अंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

महाविद्या परमेश्वर की पराशक्ति का वह रूप जो अपनी स्वातंत्र्य लीला से समस्त विश्व के विविध व्यवहारों को चलाने के लिए विद्या और अविद्या को, या शुद्ध विद्या तथा अशुद्ध विद्या को अभिव्यक्त करता रहता है। पराशक्ति का यही रूप ज्ञान, अज्ञान, बंधन तथा मोक्ष के व्यवहारों को भी समस्त सृष्टि में चलाता रहता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण पराशक्ति को महाविद्या कहा जाता है। इसे महामाया भी कहते हैं। (आ.वि. 4-1)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महाव्याप्ति देखिएघूर्णि।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महाव्रत पाशुपत शास्‍त्र में पाशुपत योगविधि का अनुसरण करना महाव्रत अथवा पाशुपत व्रत कहलाता है। पाशुपतसूत्र के चतुर्थ अध्याय में महाव्रत पाशुपत योगी के आचार मार्ग के रूप में प्रतिपादित हुआ है जहाँ साधक को अर्जित विद्‍या, व्रत, संस्कृत व पवित्र वाणी को गूढ़ (गुप्‍त) रखना होता है। इसके विपरीत उन्मत्‍त, अज्ञानी, मूढ़, दुराचारी आदि की तरह आचरण करना होता है, ताकि लोग उसके वास्तविक, पवित्र व सुसंस्कृत रूप से अपरिचित होने के कारण उसके बाह्य आचार को देखकर उसकी निंदा व अपमान करें।

पाशुपत सूत्र के कौडिन्य भाष्य में बार-बार इस बात पर बल दिया गया है कि लोगों के द्‍वारा निन्दित होते रहने से साधक के समस्त पाप, निन्दा करने वाले लोगों को लगेंगे तथा उनके पुण्य साधक को लगेंगे। परंतु इस तरह के निन्द्यमान आचरण का वास्तविक तात्पर्य साधक की त्यागवृत्‍ति को बढ़ाना है। अर्थात् जब साधक वास्तव में सदाचारी व ज्ञानी होते हुए भी दुराचारी व अज्ञानी मूढ़ की तरह आचरण करेगा तो लोग उसके वास्तविक स्वरुप से अनभिज्ञ रहकर अपमान व निन्दा करेंगे। उस अपमान से साधक का चित्‍त सांसारिक मोह माया से पूर्णतः निवृत्‍त हो जाएगा और सदा रुद्र में ही संसक्‍त रहेगा। यदि साधक का वास्तविक सभ्य व पवित्र आचार लोक में प्रकट हो तो लोग उसकी प्रशंसा करेंगें। प्रशंसा से अहंकार बढ़ता है और अहंकार से चित्‍त मलिन हो जाता है और परिणामतः ईश्‍वर में चित्‍त का योग नहीं होता। प्रशंसा को पाशुपत सूत्र कौडिन्यभाष्य में विष की तरह हानिकारक कहा गया है। इस तरह से पाशुपत साधक को महाव्रत का पालन करना होता है। अथर्वशिरस उपनिषद में भी पाशुपत व्रत का उल्लेख हुआ है। परंतु वहाँ मन्दन, क्राथन, श्रृंगारण आदि साधनाओं का कई उल्लेख नहीं आया है। इन सभी विशेष साधनाओं का आधार पाशुपत सूत्र ही है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

महाव्रत यम के आचरण का उन्नततर रूप महाव्रत कहलाता है (द्र. योगसूत्र 2/31)। यम के आचरण में जब जाति (जन्म से प्राप्य शरीरविशेष); देश (तीर्थ आदि), काल (चतुर्दशी आदि) तथा समय (= कर्त्तव्यता का नियम, सामाजिक -राष्ट्रिक नियम) के अनुसार कोई सीमा या बन्धन नहीं रहता, तब वह आचरण महाव्रत कहलाता है। तीर्थ में ही हिंसा न करूँगा – यह निश्चय देश से अवच्छिन्न अहिंसा है; चतुर्दशी को ही हिंसा न करूँगा – यह काल से अवच्छिन्न अहिंसा है। जाति आदि से सीमित (= अविच्छिन्न) न होने पर अहिंसा आदि सार्वभौम हो जाते हैं। ऐसा सार्वभौम आचरण व्यक्ति विशेष (जैसे संन्यासी) द्वारा ही संभव होता है। अन्य आश्रमवासी यथाशक्ति यम का आचरण कर सकते हैं। टीकाकारों ने यह कहा है कि सार्वभौम न होने पर अहिंसा आदि व्रत कहलाते हैं। 2/31 सूत्रभाष्य में हिंसासम्बन्धी जो विचार मिलता है, उससे यह अवश्य ही सिद्ध होता है कि वैध हिंसा (शास्त्र विधि के अनुसार जो हिंसा की जाती है, वह) अवश्य ही पाप का हेतु है। यह लक्षणीय है कि ‘महाव्रत’ संज्ञा यमों की ही होती है, नियमों की नहीं। शैव संप्रदाय में प्रचलित आचार विशेष का नाम भी महाव्रत है; इससे योगशास्त्रीय महाव्रत का कुछ भी सम्बन्ध नहीं है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

महाशक्ति परादेवी, पराशक्ति। देखिए परादेवी।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महाशून्य अनुत्तर संवित् तत्त्व। अपनी स्वभावभूत पराशक्ति सहित परमशिव का शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण सामरस्यात्मक स्वरूप। वह स्वरूप, जहाँ शिव से लेकर पृथ्वी पर्यंत सभी छत्तीसों ही तत्त्वों, अकल, मंत्र महेश्वर आदि सातों प्रमाताओं, इन तत्त्वों में स्थित सभी एक सौ अट्ठारह भुवनों, इसी प्रकार समस्त भाव जगत् तथा शक्ति चक्र इत्यादि का सूक्ष्मतर भाव भी संविद्रूपता में ही विलीन होकर रहता है। (स्व.तं.खं. 2, पृ. 131)। इसे अनाश्रित शिवदशा कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महासत्ता 1. व्यावहारिक सत्ता एवं व्यावहारिक असत्ता दोनों का एकघन रूप। ये दोनों भाव महासत्ता की ही दो प्रकार की अभिव्यक्तियाँ हैं। व्यावहारिक सत्ता उसकी बाह्य अभिव्यक्ति है तथा पारमार्थिक सत्ता इसी अभिव्यक्ति का अंतःस्थिर एवं शुद्ध रूप है। इस प्रकार छत्तीस तत्त्व महासत्ता में समरस बनकर संविद्रूपता में ही ठहरते हैं। 2. परमशिव का नैसर्गिक स्वभाव। उसकी पराशक्ति। स्फुरत्ता। देखिए महास्फुरत्ता।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महास्फुरत्ता परस्पंद। अचल परमशिव में एक विशेष प्रकार की हलचल तथा उसकी अंतर्मुखी और बहिर्मुखी उभयाकर फड़कन या सूक्ष्मातिसूक्ष्म गतिशीलता। यही उसकी परमेश्वरता का मूलभूत कारण है। इसी के माध्यम से वह अपने परिपूर्ण एवं शुद्ध स्वरूप को अपने अभिमुख लाता हुआ स्वात्मानंद से ओतप्रोत बना रहता है। (ई.प्र.वि. 1:6-14)। देखिए स्पंद। शुद्ध चेतना की एक प्रकार की टिमटिमाने की सी क्रिया।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महाहृद चिदात्मा। परमशिव। शुद्ध प्रकाश एवं विमर्श के संघट्टात्मक शुद्ध तथा समरस रूप को ही परमशिव या परतत्त्व कहते हैं। समस्त शक्ति समूहों का मूल स्रोत होने के कारण उसे ही शक्तिमान् कहा जाता है। समस्त विश्व उसी की अनंत शक्तियों का बहिः प्रसार है। अतः सभी प्रकार के सूक्ष्म एवं स्थूल भावों तथा पदार्थों का मूल वही है। वह देश एवं काल की कल्पना से परे है। इस प्रकार सागर के समान अनवगाह्य स्वभाव वाला होने के कारण परमशिव को ही महाहृद कहा जाता है। (शि.सू.वा.पृ. 26)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


महिम भगवान् भक्त को जब स्वीय के रूप में वरण कर लेते हैं, तब उस भक्त में सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता का उदय हो जाता है। इस प्रकार उदय को प्राप्त सर्वात्म भाव या भगवदात्मकता ही महिम है। विप्रयोग भाव का उदय होने पर भक्त में यह महिमा स्पष्ट रूप में परिलक्षित होती है (अ.भा. 1141)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

महिमा यह अष्टसिद्धियों में एक है (द्र. व्यासभाष्य 3/45)। अपने शरीर को व्यापी (= अत्यन्त विशाल) बनाने की शक्ति (जैसे, शरीर को आकाशव्यापी बनाना) महीमा-सिद्धि का मुख्य स्वरूप है। बाह्य द्रव्यों को अत्यन्त विशाल बनाना भी इस सिद्धि में आता है। भूत का जो स्थूल रूप है, उसमें संयम करने पर यह सिद्धि प्राप्त होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

महेश्‍वर ईश्‍वर का नामांतर। पाशुपत मत में ईश्‍वर को महेश्‍वर नाम से ही अभिहित किया गया है। ईश्‍वर महान् ऐश्‍वर्यशाली होता है अतः महेश्‍वर कहलाता है। ऐश्‍वर्य उसका स्वाभाविक धर्म है। सभी देवताओं का ऐश्‍वर्य उसी के ऐश्‍वर्य पर निर्भर रहता है। देवगण कर्म सिद्‍धांत के अधीन हैं। परंतु पशुपति स्वतंत्र है वह कर्म सिद्‍धांत का अतिक्रमण करके एक मलिन पशु को भी तीव्र अनुग्रह द्‍वारा मुक्‍ति के उत्कृष्‍ट सोपान पर चढ़ा सकता है। उसके ऐश्‍वर्य की तुलना मुक्‍तजीवों के ऐश्‍वर्य के साथ नहीं की जा सकती है। वे शिवतुल्य बन तो जाते हैं परंतु एकमात्र शिव ही परमेश्‍वर बना रहता है। तभी वह महेश्‍वर कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.128, ग.का.टी.पृ. 11)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

महेश्‍वर देखिए ‘अंग-स्थल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

महेश्‍वर-स्थल देखिए ‘अंगस्थल’ शब्द के अंतर्गत ‘महेश्‍वर’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

माट वीरशैव-संत साहित्य में ‘माट’ शब्द का प्रयोग मिलता है। यहाँ पर पूजा या दान आदि उत्‍तम क्रिया को ‘माट’ कहा गया है। यह ‘उपाधि-माट’, ‘निरुपाधि-माट’ और ‘सहज-माट’ के भेद से तीन प्रकार का होता है। इनके लक्षण इस प्रकार हैं –

दर्शन : वीरशैव दर्शन

माट क. उपाधि माट किसी फल की अपेक्षा रख कर किये जाने वाले पूजा, दान आदि सत्कर्म ही ‘उपाधि-माट’ कहे जाते हैं। जैसे कि स्वर्ग आदि की अपेक्षा से किया जाने वाला याग और उसमें दिया गया दान ये दोनों क्रियायें उपाधि-माट कहलाती हैं। अन्य दर्शनों में इन्हें ‘सकाम-कर्म’ कहते हैं।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

माट ख. निरुपाधि-माट किसी प्रतिफल की अपेक्षा न करके निष्काम भावना से, ईश्‍वरार्पण बुद्‍धि से किये जाने वाले पूजा, दान आदि सत्कर्म ‘निरुपाधि-माट’ कहे जाते हैं। दर्शनांतर में इन्हीं को निष्काम-कर्म कहते हैं।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

माट ग. सहज-माट उपास्य और उपासक में भेद-बुद्‍धि के बिना सहज और समरस भाव से होने वाली उपासना ‘सहज-माट’ कही जाती है। उसी प्रकार सहज भाव से होने वाली दान क्रिया को भी ‘सहज-माट’ कहते हैं, अर्थात् जैसे अपने ही एक हाथ की वस्तु को दूसरे हाथ में देते समय लेन-देन की भेद-भावना के बिना सहज भाव से वह क्रिया हो जाती है, उसी प्रकार दान देते समय ‘मैं दे रहा हूँ’ और ‘वह ले रहा है’ इस भेद-बुद्‍धि के बिना ही सहज भाव से हो जाने वाली दान क्रिया भी ‘सहज-माट’ कहलाती है (शि.श.को पृष्‍ठ 84)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

माता (तृ) अपने आप का तथा आंतर और बाह्य विषयों का अवभासन करने वाला संवित्तत्त्व। यह तत्त्व प्रत्येक प्राणी के भीतर ‘अहं’ इस रूप में सदैव प्रकाशमान होता रहता है। प्रमेयों के प्रति समस्त प्रमाणों के व्यापारों को स्वतंत्रतया चलाने वाला तत्त्व प्रमातृतत्त्व कहलाता है। प्रमाता सुषुप्ति में भी चमकता रहता है। माया से अवच्छिन्न ‘अहम्’ को अशुद्ध प्रमाता और उससे उत्तीर्ण को शुद्ध प्रमाता कहते हैं। (तं.आ. 3-125, 126; वही पृ. 129)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


माता (तृ) अपर देह, प्राण, बुद्धि और शून्य को ही अपना आप समझने वाला मायीय प्रमाता। यह प्रमाता बद्ध प्रमाता होता है। इसको पशु कहते हैं। जीव इसी का नाम है। इसे ही कृशता, स्थूलता आदि का, सुख-दुःख आदि का, भूख प्यास आदि का तथा सर्वशून्यता का अभिमान होता रहता है, परंतु शुद्ध संविद्रूपता का अभिमान नहीं होने पाता।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


माता (तृ) पर अहम् अस्मि’ अर्थात् समस्त प्रमाण एवं प्रमेय के विभागात्मक भेद से रहित केवल संविद्रूप शुद्ध प्रकाश के ही प्रति ‘मैं हूँ’ इस प्रकार के शुद्ध विमर्श की स्थिति वाला प्रमाता। स्वरूपनिष्ठ। अपने शुद्ध प्रकाशस्वरूप के प्रति सतत रूप से पर अहं परामर्श करने वाला प्रमाता पर प्रमाता कहलाता है। इसको शुद्ध प्रमाता भी कहा गया है (तं.आ.3-125, 126; वही पृ. 129)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मातृका अकारादि क्षकारान्त वर्णमाला को ही मातृका कहा जाता है। विभिन्न शास्त्रों में यह शब्दराशि, मालिनी, कालिका, भूतलिपि प्रभृति शब्दों से अभिहित होती है। यही सात करोड़ महामन्त्रों की जननी है। सौभाग्यसुधोदय (1/6) में माति, तरति और कायति- इन तीन धातुओं से मातृका पद की निष्पत्ति बताई है। अनाहत मूर्ति, अर्थात् अनाहत नाद मध्यमा वाक् के रूप में यह सारे जगत को अपने में समेटे रहती है। उत्तीर्ण, अर्थात् पश्यन्ती के रूप में यह जगत् से ऊपर उठ जाती है और वैखरी वाणी के रूप में यह नाना नामरूपात्मक प्रपंच का शरीर धारण करती है। इसीलिए इसको मातृका कहा जाता है। तन्त्रसद्भाव नामक ग्रंथ में बताया गया है कि सभी मन्त्र वर्णों से बनते हैं और ये शक्ति से सम्पन्न होते हैं। यह शक्ति मातृका के नाम से शास्त्रों में जानी जाती है, जो कि शिव से अभिन्न है। इस प्रकार परावाक् स्वरूपिणी, अनाहतनादमयी, परमशिव से अभिन्न, 36 तत्त्वों की सृष्टि में कारणभूत परा संवित् को ही तन्त्रशास्त्र में मातृका कहा गया है।

  यह मातृका पहले बीज और योनि, अर्थात् स्वर और व्यंजन के भेद से द्विधा विभक्त होती है। इसका दूसरा विभाग वर्गात्मक है। सात, आठ या नौ वर्गों का विधान विभिन्न शास्त्रों में वर्णित है। अक्षरों की संख्या के विषय में भी विभिन्न मत हैं। किन्तु 16 स्वर और 34 व्यंजनों वाला विभाग प्रायः सर्वमान्य है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

मातृका अ से लेकर ह तक या क्ष तक की वर्णमाला को मातृका कहते हैं। इसे अक्षमाला भी कहा गया है। (पटलव्री.वि.टि.पृ. 194)। जिस प्रकार माला से जाप किया जाता है उसी प्रकार मातृका योग का साधक वर्णमाला के एक एक वर्ण पर अवधान को केंद्रित करता हुआ समस्त विश्व को शिव संवित् से परिपूर्ण देखता है। प्रायः अ से लेकर ह पर्यंत वर्णों को ही मातृका में गिना जाता है परंतु कई आचार्यों ने क्ष को भी मातृका में गिना है, जिसे कूट बीज कहा जाता है। (शि.सु.वि.पृ. 31)। (देखिएक्ष)। परात्रिशका विवरण में मातृका को पराभगवती, परावाक्, भैरवी इत्यादि नामों से भी अभिहित किया गया है। (पटलत्री.वि.पृ. 212, 213)। शिवसूत्र वार्तिक में मातृका को शक्ति, देवी, रश्मि, कला, योनिवर्ग तथा माता कहा गया है। (शि.सू.वा.पृ. 7) मातृका का एक एक वर्ण परमशिव की भिन्न भिन्न शक्तियों का द्योतक माना गया है। इसलिए मातृका को विश्वजननी और परमशिव की परा क्रियाशक्ति माना गया है। (वही पृ. 35; तं.आ. 3-232, 233)। शाम्भव योग का अभ्यासी एक ओर से क से लेकर क्ष तक के वर्णों को अपने में प्रतिबिंबित होता हुआ देखता है और साथ ही साथ ऐसा भी अनुभव करता है कि पृथ्वी तत्त्व से लेकर शक्तित्त्व तक का सारा विश्व ही उसकी अपनी ही शक्तियों का प्रतिबिंब है, जो उसके प्रकाश स्वरूप अपने आप में ही दर्पण नगर न्याय से प्रकाशित हो रहा है। यह मातृका उपासना का रहस्य है। छत्तीस तत्त्व मानो अर्थ (रूप) हैं और मातृका के वर्ण उनके नाम हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मानसी सेवा भगवान् के प्रति भक्त की भक्ति जब व्यसन का स्वरूप धारण कर लेती है, तो वैसी भक्ति भगवान् की मानसी सेवा है (शा.भ.सू.पृ. 1/1/2)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

मानुषसर्ग सांख्यशास्त्र में प्राणियों को तीन विभागों में बाँटा गया है – देवजाति, तिर्यक्जाति तथा मनुष्यजाति (द्र. सांख्यका. 53)। प्रथमोक्त दो जातियों के अवान्तर विभाग हैं, पर मनुष्यजाति का कोई अवान्तर विभाग नहीं है; युक्तिदीपिका टीका में स्पष्टतया कहा गया है कि मनुष्यजाति के अवान्तर भेदों को मानना युक्ति से उत्पन्न नहीं हो सकता। वर्णभेद के अनुसार जो भेद होते हैं, वे यहाँ अप्रयोज्य हैं। यह भी कहा गया है कि मनुष्य रजःप्रधान होते हैं, अतः उनमें दुःख (दुःखबोध) बहुत परिणाम में होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

माया सर्वभवन सामर्थ्य रूपा भगवान् की शक्ति माया है। माया शब्द के सामान्यतः चार अर्थ होते हैं, सर्वभवन सामर्थ्य रूप शक्ति, व्यामोहिका शक्ति, ऐन्द्रजालिक विद्या तथा कापट्य या कपटभाव। इनमें प्रथम शक्ति भगवान् की माया है (त.दी.नि.पृ. 88)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

माया तत्त्व छत्तीस तत्त्वों के अवरोहण क्रम में छठा तत्त्व। भेद दृष्टि का स्फुट आभास कराने वाला तथा संविद्रूपता को आच्छादित करने वाला आवरक तत्त्व। कला से लेकर पृथ्वी पर्यंत संपूर्ण जड़ सृष्टि का उपादान कारण बनने वाला प्रथम जड़ तत्त्व। शैवदर्शन में इसे भी एक वस्तुभूत तत्त्व माना गया है। (तं.सा.पृ. 77)। इस तत्त्व के प्रभाव से जीव अपने आपको शुद्ध संविद्रूप न समझता हुआ शून्य आदि जड़ पदार्थों को ही अपना आप समझता है तथा प्रमाता और प्रमेय में, एक प्रमाता और दूसरे प्रमाता में, एवं एक प्रमेय और दूसरे प्रमेय में भी भेद दृष्टि रखता है। (ईश्वर-प्रत्यभिज्ञावि.खं. 1, पृ. 110)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


माया दशा सर्वथा भेद की भूमिका। सृष्टि एवं संहार आदि के क्रम में यह तीसरी एवं अंतिम भूमिका होती है। इस भूमिका में महामाया से नीचे माया तत्त्व से लेकर पृथ्वी तत्त्व तक सभी इकत्तीस तत्त्व आते हैं। सर्वथा भेद की भूमिका होने के कारण इस भूमिका के प्राणियों में समस्त विश्व एवं अपने प्रति ‘अहम् अहम्’ अर्थात् ‘मैं मैं हूँ’ तथा ‘इदम् इदम्’ अर्थात् ‘यह यह है’ इस प्रकार की पूर्ण भेदमयी दृष्टि उत्पन्न हो जाती है। इतना ही नहीं, इस भूमिका में तो प्रमाता प्रमाता में तथा प्रमेय प्रमेय में भी उत्तरोत्तर भेद बढ़ता ही जाता है। (ई.प्र.वि. 1 पृ. 110)। परमशिव इस सर्वथा भेदमयी भूमिका में समस्त प्रपंच को अपनी अपरा देवी नामक शक्ति के द्वारा धारण करता है। (तं.सा.पृ. 28)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


माया प्रमाता जीव, अण, पशु। मायादशा नामक पूर्णभेद की भूमिका में ठहरने वाला प्रमाता। देखिए माया दशा। यह प्रमाता तीन मलों से बँधा रहता है, जड़ पदार्थों को अपना आप समझता है, अपने को सीमित और अल्पज्ञ तथा अल्पशक्ति समझता है तथा समस्त विश्व को भेदमयी दृष्टि से देखता है। इसे कर्म संस्कार और कर्म वासनाएँ घेर कर रखती हैं। यह संसृति चक्कर में फँसकर गोते खाता रहता है और पूर्ण बंधन का पात्र बना रहता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


माया भूमिका शुद्ध विद्या से नीचे माया तत्त्व से लेकर पृथ्वी तत्त्व तक के समस्त सूक्ष्म तथा स्थूल प्रपंच को माया भूमिका कहते हैं। इस भूमिका में प्रमाता, प्रमाण और प्रमेय इन तीनों में परस्पर सर्वथा भेद ही अभिव्यक्त होता रहता है। इसीलिए इसे भेद भूमिका भी कहते हैं। इसके विपरीत शुद्ध विद्या क्षेत्र के तीन तत्त्वों वाले भेदाभेदमय प्रपंच को विद्या भूमिका और शक्ति तत्त्व तथा शिव तत्त्व के अभेदमय विस्तार को शक्ति भूमिका कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


माया मल मायीय मल। प्रमाता के अपने प्रति तथा प्रमेय जगत् के प्रति भेदमय दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करने वाला संकुचित ज्ञान। आणवमल (देखिए) के दोनों प्रकारों द्वारा अभिभूत होने पर प्रमाता में जिस संकुचित ज्ञान से प्रमाता प्रमाता के प्रति, प्रमेय प्रमेय के प्रति तथा प्रमाता प्रमेय के प्रति पूर्ण भेद दृष्टि अभिव्यक्त हो जाती है उसे माया मल या मायीय मल कहते हैं। (ई.प्र.वि. 3-2-5; वही, 1 पृ. 110; शि.स.वि. पृ. 6)। शुद्ध विद्या की दशा में भेदाभेद के दृष्टिकोण का कारण भी माया मल ही बनता है। वस्तुतः आणव, मायीय तथा कार्म नामक तीनों मल पारमेश्वरी माया शक्ति के उत्तरोत्तर विकास हैं परंतु ज्ञान संकोच की भिन्न भिन्न अवस्थाओं के कारण इन्हें ये नाम दिए गए हैं। (ई.प्र.वि. 2, पृ. 221)। आणव मल के प्रथम प्रकार से शुद्ध प्रमाता के परिपूर्ण प्रकाशात्मक स्वातंत्र्य में संकोच आ जाता है। जब यही संकोच अधिक स्थूलता को प्राप्त करता हुआ बहिर्मुखी हो जाता है तो इसी भेदप्रथात्मक बहिर्मुखता को मायीय मल कहा जा सकता है। (देखिएआणव मल)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मायाशक्ति 1. परमेश्वर की परिपूर्ण एवं अनिरुद्ध स्वातंत्र्य शक्ति। इसे पराशक्ति या परा मायाशक्ति भी कहा जाता है। यह परमेश्वर की स्वभावभूत परमेश्वरता ही है। समस्त प्रपंच एवं इसे चलाने वाला सारा शक्ति समूह इसी पराशक्ति में तथा इसी शक्ति के द्वारा परमशेवर में शुद्ध संविद्रूप में चमकता रहता है तथा इसी शक्ति के सामर्थ्य से बाह्य प्रसार को भी प्राप्त करता है। इसी शक्ति को शिव तत्त्व से लेकर शुद्ध विद्या तत्त्व तक की संपूर्ण शुद्ध सृष्टि का साक्षात् कारण माना गया है। (आ.वि. 4-1, 24)। 2. परमेश्वर की ज्ञान, क्रिया तथा माया नामक तीन सर्वप्रमुख शक्तियों में से तीसरी शक्ति। (ई.प्र.वि. 4-1-4)। ये ही तीन शक्तियाँ पशु भूमिका में तीन गुणों के रूप में प्रकट हो जाती हैं। इस तरह से तमोगुण का मूल स्वभाव भूत पारमेश्वरी शक्ति को भी मायाशक्ति कहते हैं। (वही 2, पृ. 254; 3-1-6, 7)। 3. पशुभाव में भी स्वभावभूत ऐश्वर्य को प्रकाशित करने वाली पराशक्ति ही जब शुद्ध स्वरूप को आच्छादित करने वाली बन जाती है तो उसे भी मायाशक्ति करते हैं। इस शक्ति से प्रभावित जीव पूर्ण भेद दृष्टि वाला बन जाता है, अपने-आपको शुद्ध संविद्रूप न समझता हुआ शून्य, बुद्धि या शरीर रूपी जड़ पदार्थ को ही अपना आप समझने लग जाता है। यही शक्ति माया तत्त्व नामक प्रथम जड़ तत्त्व को अवभासित करने वाली मानी गई है। (वही 3-1-7,8)। माया शक्ति की उत्तरोत्तर अभिव्यक्तियों में इस तत्त्व में रहनेवाले प्राणियों में भेद दृष्टि इतने अधिक विस्तार को प्राप्त कर जाती है कि वे एक प्रमाता और दूसरे प्रमाता में और एक प्रमेय तथा दूसरे प्रमेय में भी पूर्ण भेद दृष्टि रखने लगते हैं। (वही 1 पृ. 110)। इस तरह से काश्मीर शैव दर्शन में ‘माया’ शब्द के कई अर्थ लिए गए हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मायीय अंड देखिए विद्या कला।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मायीय मल देखिए माया मल।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मायीय-मल देखिए ‘मल’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मालिनी मातृका का निरूपण अलग से किया गया है। संक्षेप में अकारादि क्षकारान्त वर्णमाला ही लोक में मातृका के नाम से प्रसिद्ध है। इस वर्णमाला का नादि फान्त क्रम शैव और शान्त तन्त्रों में मालिनी कहा जाता है। मालिनीविजय तन्त्र (3/37-41) में यह क्रम मालिनी न्यास के नाम से वर्णित है। इसी के आधार पर अभिनवगुप्त ने तन्त्रसार (पृ. 134-135), परात्रिंशिकाविवरण (पृ. 120-123) और तन्त्रालोक के तृतीय आह्निनक के अन्त में इसका निरूपण किया है। वहाँ मालिनी को शक्ति का तथा मातृका को शक्तिमत् का वाचक माना गया है। मालिनी की विशेषता यह है कि इसमें स्वर और व्यंजन वर्ण परस्पर घुले-मिले हैं। त्रिकहृदय में मालिनी को नादिनी कहा है और इसकी स्थिति शिखान्त में मानी है। मालिनी न्यास से मन्त्रों के सभी दोष दूर हो जाते हैं और गारुड़, वैष्णव प्रभृति सांजन मन्त्र भी निरंजन बनकर मोक्ष की प्राप्ति में सहायक हो जाते हैं। मालिनी का क्रम इस प्रकार है – न ऋ ऋृ लृ लृृ थ च ध ई ण उ ऊ ब क ख ग घ ङ अ व भ य ड ढ ठ झ ञ ज र ट प छ ल आ स अः ह ष क्ष म श अं त ए ऐ ओ औ द फ।

दर्शन : शाक्त दर्शन

मालिनी प्रक्षुब्ध वर्णमाला को मालिनी कहते हैं। मालिनी न से आरंभ होकर फ पर समाप्त हो जाती है। इसके भीतर स्वर और व्यंजन एक प्रक्षुब्ध क्रम में ठहर कर अपना अपना स्थान लेकर बैठे हैं। वर्णमाला के सभी वर्ण न और फ के बीच में प्रक्षुब्ध क्रम से आते हैं। (पटलत्री.वि.पृ. 121, 122)। संपूर्ण विश्व का स्वरूप धारण करने के कारण भी न से फ पर्यंत क्षुब्ध वर्णमाला को मालिनी कहा गया है। (तं.आ.वि. 2 पृ. 192)। मातृका (देखिए) की अपेक्षा मालिनी के अभ्यास से साधक को शांभव समावेश में सद्यः ही स्थिरता प्राप्त हो जाती है और सभी दिव्यातिदिव्य ऐश्वर्य उसमें अभिव्यक्त हो उठते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मिथ्याज्ञान मल का एक प्रकार।

भासर्वज्ञ के अनुसार मिथ्याज्ञान एक मल है। मिथ्याज्ञान वास्तविक ज्ञान न होकर ज्ञान का आभास मात्र होता है। संशय तथा विपर्यय इसके लक्षण हैं। मिथ्याज्ञान अयथार्थ ज्ञान होता है। इसमें संशय और कालुष्य के बीज होते हैं। अतः वह भ्रामक होता है और इसीलिए मिथ्याज्ञान (झूठा ज्ञान) कहलाता है। मिथ्याज्ञान ही पशु को इस संसृति के चक्‍कर में टिकाए रखता है। मुक्‍ति तभी होती है जब यथार्थ ज्ञान के उदय के साथ ही साथ इस मिथ्याज्ञान का नाश हो जाए। (ग.का.टी.पृ.22)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मुक्तशिव अकल, मंत्रमहेश्वर, मंत्रेश्वर तथा मंत्र (विद्येश्वर) भूमिकाओं के प्राणी। भेद दृष्टि प्रधान, भेदाभेद दृष्टि प्रधान तथा अभेद दृष्टि प्रधान क्रमशः शिव, रुद्र एवं भैरव नामक शुद्ध सिद्ध पुरुष (भास्करीवि.वा, 1-391, 392)। ये प्राणी अपने को शुद्ध और ऐश्वर्यवान् संवित् स्वरूप तो समझते हैं परंतु फिर भी कुछ समय के लिए शिव के साथ सर्वथा अभेदभाव को प्राप्त नहीं करते हैं। अभेदभाव में सर्वथा शिवमय बन जाने तक ये प्राणी मुक्तशिव कहलाते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मुक्ति अपने विषय में शिवभाव का दृढ़तापूर्वक अभिमनन ही मुक्ति है। निश्चयपूर्वक और विश्वासपूर्वक यह ज्ञात हो जाना कि मैं वस्तुतः शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण परमेश्वर ही हूँ। संपूर्ण विश्व को अपनी ही शक्तियों का विलास समझना। (नो.पं.द., 11-13; ई. प 9. वि.2 पृ. 129, 130)। मुक्ति अशरीर देखिए विदेह मुक्ति। मुक्ति जीवन देखिए जीवनमुक्ति। मुक्ति विदेह अशरीर मुक्ति। अपने शिवभाव का दृढ़तापूर्वक पूर्ण निश्चय हो जाने के अनंतर देह त्याग देने पर प्राप्त होने वाली सर्वथा अभेदमयी मुक्ति। इस अवस्था में विदेह मुक्त परिपूर्ण परमेश्वरता को प्राप्त कर लेता है। उसकी पृथक् सत्ता कोई रहती ही नहीं, प्राक्तन् पृथक् सत्ता ही सर्वथा असीम बनकर शिवसत्ता के रूप में चमकने लग जाती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मुक्ति-आभास प्रलयाकल या विज्ञानाकल की अवस्था को प्राप्त कर लेने पर जो प्राणी उसी अवस्था को वास्तविक मुक्ति समझने लगते हैं उन्हें वास्तविक मुक्ति तो प्राप्त होती नहीं है परंतु वे यही समझते हैं कि वे मुक्त हो गए हैं। उनकी इस स्थिति को मुक्ति आभास कहते हैं। मायाशक्ति के प्रभाव से ये उसी दशा को मुक्ति समझकर उसी के प्रति अनुरक्त हो जाते हैं जो दशा वस्तुतः मुक्ति की दशा नहीं होती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मुदिता चार परिकर्मों में मुदिता एक है (द्र. योगसूत्र 1/33)। पुण्यकारी व्यक्तियों के प्रति मुदिता (= हर्ष, प्रीति) की भावना (= चित्त में बार-बार निवेश) करने से अन्य के पुण्य को देखकर मन में स्वभावतः जो असूया आदि भाव उत्पन्न होते हैं, वे नहीं होते। पुण्यवान् के प्रति मुदिताभाव का पोषण करने पर पुण्याचरण की वृद्धि करने की इच्छा होती है – यह भी मुदिताभावना का एक फल है। पुण्य की ओर यह प्रवृत्ति योगी के लिए हानिकारक नहीं होती, क्योंकि योगी में फलकामना नहीं होती है। मुदिता-भावना से चित्त प्रसन्न होता है और ‘स्थिति’ को प्राप्त करने के लिए चेष्टा करता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मुद्रा इसका साधारण अर्थ है छाप, मोहर। योग में इसका अर्थ होता है विशेष अंगविन्यास, विशेष रूप से हाथ और अंगुलियों की निश्चित स्थिति। अधिक व्यापक रूप से इसका अर्थ होता है शरीर के कुछ अवयवों और इन्द्रियों पर विशेष नियन्त्रण, जिससे कि ध्यान और समाधि में सहायता मिलती है। जैसे कि भैरवी मुद्रा के अभ्यास से साधक जीवनमुक्त दशा को प्राप्त कर लेता है।

 स्वच्छन्दतन्त्र (4/375) प्रभृति ग्रन्थों में मुद्रा को क्रिया शक्ति का विलास माना गया है। योगिनीहृदय (1/57) की टीका में अमृतानन्द कहते हैं कि परा संवित ही क्रिया शक्ति के रूप में विश्व को मोद (सुख) से भर देती है और सारे दुःखों का नाश कर देती है। उक्त दोनों गुणों के आधार पर संविन्निष्ट क्रिया शक्ति ही मुद्रा के नाम से अभिहित होती है। अन्यत्र बताया गया है कि ग्रह प्रभृति के दोषों से यह साधक को मुक्त कर देती है, उसके पाशजाल को काट देती है। इस तरह मोचन और द्रावण गुणों के आधार पर इसको मुद्रा कहा जाता है। तंत्रालोक (32/3) में कहा गया है कि देह के माध्यम से देही आत्म को स्वरूपावबोध का सुख देने के कारण इसको मुद्रा कहते हैं।
   नित्याषोडशिकार्णव की अर्थरत्नावली टीका के रचयिता विद्यानन्द बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से मुद्रा के दो प्रकार बनाते हैं। अंगुलियों के विन्यास के आधार पर प्रदर्शित की जाने वाली मुद्रा बाह्य तथा बंध के नाम से प्रसिद्ध मुद्रा आभ्यन्तर कही जाती है। ऋजुविमर्शिनीकार खेचरी मुद्रा के प्रकरण में त्रिविध मुद्राओं का निरूपण करते हैं। स्वच्छन्दतन्त्र (2/103) में भी त्रिविध मुद्रा का उल्लेख है, किन्तु उनके नाम शिवानन्द प्रदर्शित नामों से भिन्न है। क्षेमराज ने बताया है कि ये त्रिविध विभाग मनोजा, बाग्भवा और देहोद्भवा के नाम से शास्त्रों में वर्णित हैं। तन्त्रालोक (32/9) और उसकी टीका विवेक में चतुर्विध मुद्रा प्रतिपादित है – करजा, कायिकी, विलापाख्या और मानसी।
  नित्याषोडशिकार्णव के तृतीय पटल में अंगुलियों के विशेष प्रकार के विन्यास के आधार पर प्रदर्शित की जाने वाली दशविध करजा मुद्राओं का वर्णन मिलता है। इस प्रकार की मुद्राएँ प्रायः सभी तन्त्र ग्रन्थों में वर्णित हैं। परशुराम कल्पसूत्र के परिशिष्ट (पृ. 608-652) में प्रायः शताधिक मुद्राओं का विवरण मिलता है। भगवान् राम की उपासना में प्रयुक्त ज्ञान मुद्रा भी वहाँ वर्णित है। संस्थान विशेष का अनुसरण करने वाली कायिकी मुद्राओं का बन्ध अथवा मुद्रा के नाम से विवरण मिलता है। हठयोगप्रदीपिका के तृतीय उपदेश में कुण्डलिनी शक्ति को जगाने के लिये दस मुद्राओं का वर्णन किया गया है। तंत्रालोक (32/5-6) में बताया गया है कि करंकिणी, क्रोधना, भैरवी और लैलिहाना मुद्रा खेचरी के ही प्रपंच हैं। ये पाँच मुद्राएँ विज्ञानभैरव, चिद्गगनचन्द्रिका, महार्थमंजरी प्रभृति ग्रन्थों में वर्णित हैं। वहाँ बताया गया है कि करंकिणी मुद्रा पाँच भौतिक देह को परम आकाश में विलीन कर देती है, इसके साधक ज्ञानसिद्ध कहलाते हैं। क्रोधनी मुद्रा पृथ्वी से लेकर प्रकृति पर्यन्त चौबीस तत्त्वों को मन्त्रमय शरीर में विलीन कर देती है, इसके साधक मन्त्रसिद्ध कहलाते हैं। भैरवी मुद्रा अपने स्वरूप में सारे जगत को विलीन कर लेती है, इसके साधक मेलापसिद्ध कहे जाते हैं। लैलिहाना मुद्रा सारे जगत का अपने पूर्ण विमर्शमय स्वरूप में बार-बार आस्वादन करती रहती है, इसके साधक शक्तिसिद्ध कहलाते हैं। खेचरी मुद्रा शक्ति, व्यापिनी आदि स्थानों में सदा विचरण करने वाली है। इसके साधक शाम्भवसिद्ध कहे जाते हैं। इनका विलापाख्य तथा मानस विभाग में समावेश होगा। कुछ बन्ध तथा मुद्राओं का भी आभ्यन्तर अथवा मानस विभाग में समावेश होगा।
   महार्थमंजरीकार (पृ. 110) में वेष-विन्यास को भी मुद्रा के अन्तर्गत माना है। यामुनाचार्य आगमप्रामाण्य में पाशुपत मत में प्रसिद्ध कर्णिका, रुचक, कुण्डल, शिखामणि, भस्म और यज्ञोपवीत नामक छः मुद्राओं का तथा कपाल और खट्वाङग नामक उपमुद्राओं का उल्लेख करते हैं। इनका उक्त वेषविन्यासात्मक मुद्रा में ही समावेश किया जा सकता है।
  वैष्णव सम्प्रदाय में शंख, चक्र आदि से शरीर को अंकित किया जाता है। इसको भी वहाँ मुद्रा पद से ही अभिहित किया गया है। तप्त मुद्रा और शीतल मुद्रा के नाम से यह दो प्रकार की मानी जाती है। अग्नि में तपे हुए चक्र आदि के ठप्पों से शरीर पर जो चिन्ह दागे जाते हैं, उन्हें तप्त मुद्रा और चन्दन आदि से शरीर पर जो छाप दिये जाते हैं, उन्हें शीतल मुद्रा कहते हैं। रामानुज सम्प्रदाय में तप्त मुद्रा का विशेष प्रचार है। पंचमकार के अन्तर्गत भी मुद्रा का उल्लेख है। वहाँ खाद्य अन्न विशेष को, अर्थात् विशेष प्रकार के अदूद या चने को मुद्रा कहा गया है। शैव, शाक्त तथा बौद्ध तन्त्रों में इनके भिन्न-भिन्न अर्थ हैं। शक्तिसंगमतन्त्र (2/63/21-45) में अंक, बीज, बीजक, मन्त्र और नाम के भेद से पंचविध मुद्राएँ वर्णित हैं। तदनुसार मोहर और अंगूठी को भी मुद्रा कहा जाता है।
  तन्त्रतन्त्र (21/80) में बताया गया है कि मन्त्र, मुद्रा और ध्यान की सहायता से स्वात्मस्वरूप की अभिव्यक्ति होती है। अद्वैत दृष्टि के प्रतिपादक तन्त्र ग्रन्थों में सब कुछ स्वात्मा का स्वरूप माना जाता है। तदनुसार मुद्रा भी परासंवित् का ही विस्फार है। शिवानन्द के अनुसार बोधगमन में विचरण करने वाली इस स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता, किन्तु क्षेमराज ने तन्त्रसद्भाव प्रभृति ग्रन्थों की सहायता से इसको समझाने का प्रयत्न किया है। खेचरी मुद्रा की व्याख्या में इसका विवरण देखना चाहिये।
  अशिवनी मुद्रा का उल्लेख कर देना भी यहाँ आवश्यक है। “तान्त्रिक वाङमय में शक्ति दृष्टि” नामक ग्रन्थ में बताया गया है कि इसका अभ्यास प्राण शक्ति के संकोच और विकास के लिये किया जाता है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

मुद्रा 1. आनंद प्रदान करने वाला हाथ, अंगुलियों तथा शरीर आदि का संस्थान विशेष, चित्त की विशेष स्थिति तथा वाणी की विशेष वृत्ति। 2. साधक को उसकी परस्वरूपता के आवेश में सहायक बनकर उसे आनंदाप्लावित करने वाली विशिष्ट स्थिति। (तं.आ. 32-)। 3. परमशिव की चैतन्य रूपी अपार संपदा को साधक के चित्त में स्फुटतया अंकित करने में सहायक बनने वाला विशिष्ट शारीरिक सन्निवेश। 4. आणव आदि तीनों मलों को पूर्णतया शांत करके साधक को परसंविद्रूपता का साक्षात्कार करवाने में सहायक बनने के कारण पर स्वरूप का प्रतिबिंब रूप विशिष्ट आसन आदि। (स्व.तं.उ.पटल2 पृ. 60)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मुद्रावीर्य मुद्रा के अभ्यास से सहज में ही प्राप्त हुआ सामर्थ्य अर्थात् शुद्ध स्वरूप का प्रकाश। खेचरी मुद्रा के सतत अभ्यास से भेदनिष्ठ समस्त मायीय प्रपंच से उत्पन्न क्षोभ के पूर्णतया शांत हो जाने पर अपनी शुद्ध संविद्रूपता की अभिव्यक्ति हो जाती है। यह अभिव्यक्ति मंत्रवीर्य (देखिए) स्वरूपा होती है। इसे ही मुद्रावीर्य भी कहते हैं। (शि.स.वि.पृ. 29)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मुर्च्छा मोह, मौर्ख्य, अनुद्योग, अविद्या, अविवेक आदि। शरीर, बुद्धि, प्राण, शून्य आदि के प्रति अहंता के भाव को अभिव्यक्त करने वाली जड़ता अर्थात् अतीव संकोच को प्राप्त हुआ ज्ञान। (शि.स.वा. पृ. 76, 77)। शुद्ध संविन्मयी चेतना को अपना आप न समझते हुए इन उपरोक्त जड़ पदार्थो को ही अपना आप समझना। यह परमेश्वर की मायाशक्ति का एक विशेष प्रभाव होता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


मूढ़भूमि व्यासभाष्य (1/1) में चित्त की जिन पाँच भूमियों का उल्लेख है, मूढ़भूमि (भूमि – चित्त का धर्मविशेष) उनमें द्वितीय है। जिस अवस्था में चित्त सहजरूप से मुग्ध (विचारशून्य) की तरह रहता है, वह मूढ़भूमि है। यह तमःप्रधान अवस्था है। इस भूमि में अवस्थित चित्त तत्त्वजिज्ञासा से शून्य एवं प्रवल मोह के वशीभूत रहता है। ऐसे चित्त में भी एक प्रकार की समाधि हो सकती है, जो योग की दृष्टि में व्यर्थ ही होती है, क्योंकि इस समाधि में तत्त्वज्ञान का उदय नहीं होता तथा यह विक्षेप के द्वारा आसानी से नष्ट हो जाती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मूर्त सादाख्य देखिए ‘सादाख्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मूर्ति पाशुपत विधि में दीक्षा का एक अंग।

दीक्षा के समय महादेव के लिङ्ग विशेष की उचित स्थिति, में, उचित दिशा में स्थापना मूर्ति कहलाती है। उपास्य रूप में लिंग या शिवमूर्ति कहलाती है। उपास्य रूप में लिंग या शिवमूर्ति की स्थापना की जाती और दीक्षित साधक उसकी पूजा विधिपूर्वक करता है। उस मूर्ति के समीपस्थ दक्षिणभाग का नाम भी मूर्ति है। (ग.का.टी.पृ.9)
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मूल रूप पुरुषोत्तम शब्द का वाच्यार्थ भूत-नित्यानंदैक स्वरूप, सदा प्रकटीभूत है अलौकिक धर्म जिसमें, ऐसा नित्य सर्वलीला युक्त कृष्णात्मक पर ब्रह्म ही मूल रूप है (प्र.र.पृ. 48)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

मूलप्रकृति मूलभूत प्रकृति मूलप्रकृति है। मूलभूत कहने का अभिप्राय यह है कि कुछ ऐसी भी प्रकृतियाँ हैं, जो इस प्रकृति के कार्यरूप हैं तथा यह प्रकृति अन्य किसी पदार्थ की विकाररूप नहीं हैं। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि सत्त्व आदि तीन गुणों की जो साम्य-अवस्था है, वही मूल प्रकृति है, क्योंकि अन्य सब प्रकृतियाँ (महत्त्त्व, अहंकारतत्त्व तथा पाँच तन्मात्र) इस प्रकृति का ही साक्षात् या परम्पराक्रम से विकारभूत हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मूलाधार चक्र अन्य चक्रों का यह मूल आधार है, अतः इसे मूलाधार चक्र कहा जाता है। यह सुषुम्ना नाडी के मुख से जुड़ा हुआ है। लिंग के नीचे और गुदा के ऊपर कन्द स्थान में यह स्थित है। भूतशुद्धि तन्त्र में बताया गया है कि गुदा से दो अंगुल ऊपर तथा लिंग से दो अंगुल नीचे चार अगुंल विस्तार से पक्षी के अंडे के समान आकार वाले स्थान को कन्द कहा जाता है। कन्द स्थान स्थित मूलाधार पद्म के चार लाल वर्ण वाले पत्र हैं और इन पत्रों पर पूर्व आदि दिशाओं के क्रम से सुवर्ण की आभा वाले यं शं षं सं ये चार वर्ण विराजमान हैं। यह अधोमुख कमल है। इस आधार पद्म में चतुष्कोण पृथ्वी मण्डल स्थित है और इसकी आठों दिशाओं में आठ शूल शोभा पाते हैं तथा इसके मध्य में पीत वर्ण पृथ्वी का बीजाक्षर लं विराजमान है। धरा (पृथ्वी) बीज चार बाहुओं से युक्त और इसी पर आरूढ़ माना जाता है। सृष्टिकर्ता ब्रहमा इसके अधिपति हैं। इस मूलाधार पद्म में डाकिनी शक्ति का निवास है। ब्रहमनाडी के मूल स्थान में मूलाधार पद्म की, कर्णिका के मध्य में विद्युत् के समान प्रकाशमान भगवती त्रिपुरा का त्रिकोण, जिसका कि नाम कामरूप पीठ भी है, विराजमान है। इसके बीच में पश्चिमाभिमुख स्वयंभू लिंग की स्थिति मानी गई है (श्रीतत्त्वचिन्तामणि, षट्चक्रनिरूपण, पृ. 6)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

मैत्र पाशुपत साधक का लक्षण।

पाशुपत मत के अनुसार युक्‍त साधक की परिपूर्ण समस्थिति का एक लक्षण मैत्र है। (परसमता मैत्रत्वम् – ग.का.टी.पृ.16) जिस साधक का चित्‍त महेश्‍वर पर ध्यानस्थ हो, जो समस्त भूतों को आत्मरूप समझता हो, इच्छा, द्‍वेष, तथा प्रवृत्‍ति (कुछ भी कार्य करने की इच्छा) से पूर्णरूपेण निवृत्‍त हुआ हो, वह साधक मैत्र कहलाता है। अर्थात् जब साधक पूर्ण समरसता को या समदृष्‍टि को प्राप्‍त करता है तब वह समस्त जगत के प्रति मित्रवत् बनकर रहता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.112)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

मैत्री चतुर्विध परिकर्म में मैत्री का स्थान प्रथम है। जो प्राणी सुखी है (सुख के मूल में धर्माचरण है – ‘धर्मात् सुखम्’) उसके सुख को देखकर मन में प्रसन्नता का भाव लाना मैत्री भावना है। सुखी का सुख देखकर एवं अपने में उस सुख को न देखकर सुखी के प्रति ईर्ष्या, मात्सर्य, द्वेष आदि होते हैं। इनसे चित्त विक्षुब्ध रहता है और वह मैत्री-भावना से दूर हो जाता है। मैत्री में संयम करके योगी मैत्रीबल को प्राप्त करते हैं; (द्र. योगसूत्र 3/23)। इस बल को पाकर योगी किसी भी अपकारक शत्रु के प्रति शत्रुभाव नहीं रखते – उनके मन में शत्रुभाव उत्पन्न ही नहीं होता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मोक्ष मोक्ष का शब्दार्थ है मोचन अर्थात् सर्वप्रकार के दुःखों से चिरकाल के लिए मुक्ति। इसी दृष्टि से मोक्ष को ‘दुःखों की अत्यन्त निवृत्ति’ कहा जाता है। दुःख चूंकि सहेतुक है, अतः हेतु के न रहने पर दुःख का उदय (अभिव्यक्ति) नहीं होगा। मोक्ष में दुःख के हेतु का अभाव होने से दुःखाभाव होता है पर यह मोक्षरूप अवस्था अभाव रूप नहीं है। दुःखाभाव एक अवस्थाविशेष का फल है, जिस अवस्था का वर्णन भावरूप से पूर्वाचार्यों ने किया है। यह अवस्था वस्तुतः ‘द्रष्टा पुरुष का स्वरूपावस्थान’ है (स्वरूप-प्रतिष्ठा या चितिशक्तिः – योगसूत्र 4/34)। इस अवस्था में बुद्धिगत वैषम्य-प्राप्त त्रिगुण साम्यावस्थ हो जाते हैं – इस दृष्टि से भी मोक्षावस्था अभावरूप नहीं है। स्वरूपतः भावरूप होने पर भी अभावरूप से इस अवस्था का प्रतिपादन किया जा सकता है, क्योंकि मोक्ष में पुरुष का वृत्तिसारूप्य नहीं रहता।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

मोहकारिणी जो शक्‍ति अपने आश्रय को विपरीत ज्ञान के द्‍वारा मोहित करती है, उसी को मोहकारिणी कहा जाता है। इसको अधोमाया या अविद्‍या भी कहते हैं। यह अविद्‍या शक्‍ति आणव आदि मलत्रय से जीव को आवृत करती है, जिससे कि वह अपने व्यापक स्वरूप को भूलकर अणुता का अनुभव करता है और अनित्य, अशुचि तथा दुःखमय शरीर आदि को नित्य, शुचि और सुखमय मानकर मोह में पड़ जाता है। अतएव इसे मोहकारिणी कहा जाता है। यह ‘स्थूल चित्, अर्थात् अल्पज्ञत्व और स्थूल-अचित्, अर्थात् अल्पकर्तृत्ववती है, अतः जीव भी इससे युक्‍त होने के कारण अल्पज्ञ, अल्पकर्ता, बद्‍ध तथा लिंगांग सामरस्य-ज्ञान-शून्य हो जाता है। इस अविद्‍या के कारण ही जीव अनेक प्रकार के कर्म करता हुआ उन कर्मफलों को भोगने के लिये अनेक प्रकार की योनियों में भ्रमण करता रहता है। इस अविद्‍या के अपने अंश-भेद से अनेक होने के कारण तदुपहित जीव भी अनेक हो गये हैं। इस प्रकार यह मोहकारिणी अविद्‍या शक्‍ति जीव की महिमा को घटाती है (सि.शि. 5/45,47 पृष्‍ठ 70)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

मोहजय काम, क्रोध, लोभ, हर्ष, भय, त्रास, मद, प्रहर्ष आदि भिन्न भिन्न भावों की अभिव्यक्तियों के मूल में स्थित स्वरूप के आवरक भाव को मोह कहते हैं। (शि.सू.वा.पृ. 49)। इस मूल आसक्ति के भाव पर सम्यक् प्रकार से विजय प्राप्त करने को मोहजय कहते हैं। इससे साधक सुप्रबुद्ध की स्थिति को प्राप्त कर जाता है। इस प्रकार वह शुद्ध विद्या की स्थिति पर पहुँच जाने पर अपनी असंकुचित संवित्स्वरूपता के साक्षात्कार के योग्य बन जाता है। (वही पृ. 50)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


यत्रकामावसायित्व अणिमादि सिद्धियों में यह आठवीं सिद्धि है। भ्रमवश कुछ आधुनिक विद्वान् एवं अप्राचीन संस्कृत टीकाकार ‘कामावसायित्व’ नाम का प्रयोग करते हैं। ‘यत्रकामावसायित्व’ का अर्थ है – ‘जिस विषय पर जैसी इच्छा हो, उसकी पूर्ति होना’, पर योगशास्त्र में यह सत्यसंकल्प का वाचक है अर्थात् संकल्पानुसार भूतप्रकृतियों का होना। यह सिद्धि ब्रह्माण्डसृष्टिकर्ता प्रजापति हिरण्यगर्भ में रहती है। इस सिद्धि के बल पर ही उनके अहंकार के तामस भाग से (सृष्टिसंकल्प के कारण) तन्मात्र अभिव्यक्त होते हैं जो ब्रह्माण्ड का उपादान है (द्र. व्यासभाष्य 3/45)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

यथालब्ध वृत्‍ति का भेद।

पाशुपत योग विधि के अनुसार साधक की जीविका की तृतीय प्रकार की वृत्‍ति यथालब्ध होती है। जब साधक को श्मशान में निवास करते हुए एक दिन में या कई एक दिनों में जो भी अन्‍न बिना मांगे अपने आपही मिले, उसी यथालब्ध अन्‍न से उसे जीविका का निर्वाह करना होता है। इस वृत्‍ति का पालन साधना के ऊँचे स्तर पर किया जाता है। अन्‍न कई दिन न मिलने पर उसे जलपान पर निर्वाह करना होता है, परंतु श्मशान से बाहर जाकर भिक्षा नहीं करनी होती है। (ग.का.टी.पृ.5)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

यम योग के आठ अंगों में यम प्रथम है। इसके पाँच भेद हैं – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह (योगसूत्र 2/30)। धर्मशास्त्र का अनुशासन है कि इन यमों का आचरण सतत करना चाहिए (नियमों के लिए ऐसा दृढ़ अनुशासन नहीं है)। अहिंसादि का आचरण जाति (जाति-विशेष), देश (देश, जैसे तीर्थादि), काल (कालविशेष) और समय (जीवन में स्वीकृत नियम) के द्वारा यदि सीमित न हो तो वह आचरण सार्वभौम कहलाता है (योगसूत्र 2/31)। यम की विरोधी भावना (हिंसा आदि) द्वारा यदि यम का आचरण बाधाप्राप्त न हो तो ‘यम सुप्रतिष्ठ हुआ’ यह माना जाता है। इस प्रकार सुप्रतिष्ठ अहिंसा आदि की कुछ सिद्धियाँ भी होती हैं, जो योगसूत्र में कही गई हैं। द्र. अहिंसा, सत्य आदि शब्द।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

याग (ज्ञानयोग) शैवी साधना के त्रिक आचार में ज्ञानयोग का वह प्रकार जिसमें साधक को तीव्र भावना के दावारा समस्त भाव प्रपंच को परमेश्वर को ही अर्पित करना होता है। उससे इस निश्चय पर पहुँचना होता है कि वस्तुतः परमेश्वर से भिन्न और कुछ भी नहीं है और जो कुछ है वह सारा प्रपंच उसी संविद्रूप में ही स्थित है। इस प्रकार के शुद्ध विकल्प के बार बार के अभ्यास से भावना द्वारा परमेश्वर को ही सभी कुछ अर्पण करने को याग कहते हैं। (तं.सा.पृ. 25)। इस याग से साधक को शिवभाव का शाक्त समावेश हो जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


यामल शिव शक्ति का संघट्ट रूप या परिपूर्ण सामरस्यात्मक रूप। उनका वह संघट्ट स्वात्मोच्छलता अर्थात् स्पंदरूपता है जिसे आनंदशक्ति भी कहते हैं। यह आनंदशक्ति ही विश्वसृष्टि का मूल कारण बनती है। शिव और शक्ति वस्तुतः सदैव यामल रूप में ही स्थित रहते हैं। उनका यह सतत संघट्ट या यामल रूप विश्व सृष्टि की प्रत्येक भूमिका में कार्य करता है। (तं.आ. 3-68)। केवल समझाने ही के लिए शिव और शक्ति का पृथक् पृथक् निरूपण किया जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


यामलावस्था (युगनद्ध) तन्त्रशास्त्र में रुद्रयामल प्रभृति आठ यामल प्रसिद्ध हैं। वाराही तन्त्र में बताया गया है कि इन यामल ग्रन्थों में सृष्टि प्रभृति आठ विषयों का प्रतिपादन किया जाता है। यामल ग्रन्थों का आविर्भाव यामल भाव से होता है। अर्थात् परमशिव विश्व का कल्याण करने की दृष्टि से स्वयं ही विमर्श रूप में बदल कर अनुग्राह्य की योग्यता के अनुसार पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणी के माध्यम से प्रश्न करते हैं और प्रकाश रूप में अवस्थित होकर उसी पद्धति से वे प्रश्नों का उत्तर भी देते हैं। इस प्रकार भैरव और भैरवी के यामल भाव से प्रश्न-प्रतिवचन शैली में इन यामलों का आविर्भाव होता है। यमल और यामल शब्द का अर्थ है – युगल भाव। तान्त्रिक साधना प्रधानतः युगलभाव की ही उपासना है। शिव-शक्ति, भैरव-भैरवी, राधा-कृष्ण, सीता-राम, शिव-पार्वती की उपासना युगलभाव की ही उपासना है।

  शाक्त सम्प्रदाय, विशेष कर कौल सम्प्रदाय के योगीगण यामलावस्था में स्थित होकर कुण्डलिनी शक्ति को जगाकर सहस्त्रार चक्र स्थित शिव के साथ उसकी समरसता संपादित करते हैं। इसी को शिव और शक्ति की यामलावस्था कहा जाता है। यही यामली सिद्धि है। बौद्ध तन्त्रों में इस अवस्था को युगनद्ध शब्द से अभिहित किया गया है।
  महायोग के फलस्वरूप जिस षट्कोण की चर्चा शास्त्रों में आती है, वही शैव और शाक्त तन्त्रों में शिव और शक्ति का सामरस्य, वैष्णवों में युगल स्वरूप और बौद्ध तन्त्रों में युगनद्ध के रूप में कल्पित है। युगनद्ध स्वरूप भी मिथुनाकार है। यहाँ प्रज्ञा और उपाय का, शून्यता और करुणा का, कमल और कुलिश का सामरस्य सम्पन्न होता है। अनंगबज्र ने अपने प्रज्ञोपायविनिश्चंय सिद्धि नामक ग्रन्थ में कहा है कि प्रज्ञा का लक्षण निःस्वभाव है तथा उपाय का लक्षण सस्वभाव है। केवल प्रज्ञा के द्वारा अथवा केवल उपाय के द्वारा बुद्धत्व की प्राप्ति नहीं हो सकती। बुद्धत्व की प्राप्ति के लिये प्रज्ञा और उपाय दोनों के साम्य या अभिन्नता का सम्पादन करना चाहिये। यह समरसता शिव और शक्ति की समरसता के ही तुल्य है। बौद्ध तन्त्रों में यह समरसता युगनद्ध दशा, युगनद्ध काय प्रभृति शब्दों से अभिहित है। अद्वयवज्र के युगनद्धप्रकाश (पृ. 49) में तथा नडपाद की सेकोद्देशटीका (पृ. 56-57) में इसका विवरण मिलता है। पूरे प्रकरण पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि युगलभाव, यामलभाव अथवा युगनद्धभाव एक ही स्थिति के सूचक शब्द हैं। इस अवस्था में भोग और मोक्ष की समरसता सम्पन्न हो जाती है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

योग जीव और ईश्‍वर का संयोग।

पाशुपत शास्‍त्र के अनुसार आत्मा का परमात्मा से संयोग ही योग होता है। (अत्रात्मेश्वर संयोगो योग : पा.सू.कौ.भा.पृ.6)। यह संयोग दो प्रकार का कहा गया है। एक तो श्येन का स्थाणु से जैसे संयोग होता है, वहाँ श्येन ही संयोग के लिए चेतनोचित कार्य करता है। स्थाणु तो जड़ होता है। उसी प्रकार से श्‍येन की तरह जीवात्मा अध्ययन, मनन, साधना आदि करके परमात्मा के साथ संयोग प्राप्‍त कर लेता है अर्थात् परमात्मा की ओर से कोई प्रयत्‍न नहीं होता है। समस्त प्रयत्‍न केवल जीवात्मा का ही होता है।
दूसरे प्रकार का संयोग दोनों परमात्मा व जीवात्मा के प्रयत्‍न से होता है। जैसे दो भेड़ों का संयोग उन दोनों के प्रयत्‍नों से होता है, उसी तरह जीवात्मा के पक्ष में उसका अध्ययन, मनन आदि प्रयत्‍न रहता है तथा परमात्मा का प्रयत्‍न जीवात्मा को शक्‍तिपात के रूप में मुक्‍ति के प्रति प्रेरित करना होता है अर्थात् जीवात्मा तभी अध्ययन, मनन रूप यत्‍न करता है जब परमात्मा का प्रयत्‍न (शक्‍तिपात्) कार्य कर चुका हो। इस प्रकार से संयोग जीवात्मा तथा परमात्मा दोनों के प्रयत्‍न का फल होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.6)।
गणकारिका टीका में भी योग का लक्षण दिया गया है। उसके अनुसार पुरुष के चित्त द्‍वारा ईश्‍वर के साथ संयोग ही योग होता है। (चित्‍तद्‍वारेणेश्‍वर संबंधः पुरुषस्य योगः ग.का.टी.पृ. 14)। वह योग दो प्रकार का होता है- क्रियालक्षण योग तथा क्रियोपरमलक्षण योग। क्रियालक्षणयोग में जप, धारण, ध्यान, स्मरण आदि क्रियाएँ होती हैं तथा क्रियोपरमलक्षण योग में समस्त साधना रूपी क्रियाओं का उपरम हो जाता है तथा समाधि आदि सभी योग साधनों के शांत हो जाने पर साधक अतिगति अर्थात् शिवसायुज्य को प्राप्‍त करता है। (ग.का.टी.पृ. 15)। पाशुपत दर्शन के अनुसार योग अकलुषमति तथा प्रत्याहारी साधक को ही सिद्‍ध होता है। (ग.का.टी.पृ. 15)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

योग योग के अधिकांश लक्षणों (परिभाषाओं) में योग को ‘संयोगविशेष’ कहा गया है। जीवात्मा या क्षेत्रज्ञ का परमात्मा या ईश्वर के साथ संयोग योग है। प्राण-अपान का संयोग योग है। इस प्रकार के लक्षणों में उपर्युक्त दृष्टि झलकती है। इन लक्षणों में योग अन्तिम लक्ष्य है और योगाङ्ग उस लक्ष्य के साधनभूत हैं। विक्षेपनाश, अर्थात् एकाग्रता या मानसिक धैर्य के आधार पर भी योग का लक्षण किया गया है। कठोपनिषद् में ‘स्थिर इन्द्रियधारणा’ को योग कहा गया है। ऐसा स्थैर्य किसी आलम्बन का आश्रय लेकर ही होता होगा, यद्यपि मुख्य विक्षेपनाश ही है। विक्षेपनाश को प्रधान मानकर योग का लक्षण पतंजलिकृत योगसूत्र के ‘योगः चित्तवृत्तिनिरोधः’ (1/2) सूत्र में मिलता है। योगशास्त्रीय उपायों से जो वृत्तिरोध होता है – उस रोध को योग का लक्षण कहा गया है। यह वृत्तिरोध यदि चित्त की एकाग्रभूमि में हो तो वह संप्रज्ञातयोग कहलाता है और यदि निरोधभूमि में हो तो असंप्रज्ञातयोग कहलाता है। संप्रज्ञातयोग आलंबन-सापेक्ष है। अतः उसके अवान्तर भेद होते हैं। असंप्रज्ञातयोग आलम्बन-हीन है – इसमें सभी चित्तवृतियों का अत्यन्त निरोध होता है और यही मुख्य योग है। इस योग के साधन अभ्यास और वैराग्य हैं। आठ योगाङ्गों के आचरण की सहायता से अभ्यास-वैराग्य का अनुष्ठान किया जाता है। योगांगों द्वारा अशुद्धि का क्षय होता है जिससे चित्त में अलौकिक ज्ञान एवं शक्ति का प्रादुर्भाव होता है। वृत्ति निरोध रूप योग के साथ सिद्धियों का निकटतम संबंध है, यद्यपि कैवल्य-रूप सर्वोच्च पद की प्राप्ति में सिद्धियों की उपयोगिता नहीं है। विवेक से अविद्या का नाश होना ही कैवल्य अर्थात् मोक्ष है। षडङ्ग-योग की भी प्राचीन परम्परा है; द्र. षडङ्गशब्द। ‘योग’ शब्द का गौण प्रयोग भी है, अर्थात् निःश्रेयस की प्राप्ति के लिए उपायमात्र के अर्थ में भी ‘योग’ का प्रयोग होता है। इसी अर्थ में ‘कर्मयोग’, ‘ज्ञानयोग’, ‘भक्तियोग’ आदि का व्यवहार होता है। कई पूर्वाचार्यों के मतानुसार ‘क्रियायोग’ या ‘कर्मयोग’ भी ‘क्रिया या कर्मविशेष के माध्यम से वृत्तिरोध करना’ के अर्थ में योग का साधनभूत है। योगाङ्गों का अनुष्ठान किसी न किसी रूप में सभी धार्मिक एवं दार्शनिक संप्रदाय करते हैं। कुछ ऐसे भी संप्रदाय हैं जो योगविशेष के नाम से प्रसिद्ध हैं – जैसे हठयोग, राजयोग, नाथयोग, शिवयोग, स्वरोदययोग आदि।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

योग शैवदर्शन में जीव के अपनी शुद्ध एवं परिपूर्ण संविद्रूपता के साथ समरस हो जाने को योग कहते हैं। जीव के परमशिव के साथ एकत्व हो जाने की प्रक्रिया को तथा उसके साधक बनने वाले अभ्यासों को भी योग कहते हैं। (मा.वि.तं. 4-4) शैव दर्शन में योग शब्द की व्युत्पत्ति युजिर योगे धातु से मानी गई है युज् समाधौ से नहीं। चित्तवृत्ति निरोध मुख्य योग का उपाय मात्र है और वास्तविक एकत्वरूपी योग उसका फल है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


योगनिद्रा योगनिद्रा के स्थान पर कभी-कभी ‘अजाड्यनिद्रा’ शब्द भी प्रयुक्त होता है, जिससे इस निद्रा का स्वरूप ज्ञात होता है। साधारण जीव निद्राकाल में आत्मविस्मृत हो जाता है, अर्थात् ‘में अपनी निद्रावृत्ति का ज्ञाता हूँ’, ऐसा ज्ञान सुषुप्ति अवस्था में नहीं रहता। अभ्यासविशेष (जिसको कहीं-कहीं ज्ञानाभ्यास कहा गया है) से चित्त की जड़ता नष्ट होने पर ज्ञानशक्ति इतनी दृढ़ हो जाती है कि सदैव (निद्राकाल में भी) आत्मस्मृति की धारा अटूट चलती रहती है। योगनिद्रा की अवस्था बाह्य निद्रा के सदृश है। योगियों का कहना है कि बैठी हुई अवस्था में भी योगनिद्रा हो सकती है; प्रायः पद्मासनादि में बैठकर ही योगी योगनिद्रा में लीन होते हैं। पांतजलयोगशास्त्र में जो अक्लिष्टनिद्रावृत्ति है, उसकी ही उन्नततर अवस्था योगनिद्रा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

योगांग देखिए ‘अंग’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

योगांग चित्तवृत्तिनिरोध रूप योग के आठ अंग कहे गए हैं, जिनके नाम हैं – यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि। योगांग दो प्रकार के उपकारक हैं – ये अशुद्धियों (शरीर, इन्द्रिय, अन्तःकरण स्थित दोषों) के क्षयकारक हैं तथा विवेकख्याति के प्राप्ति कारक हैं। योगांगों में एक के बाद ही दूसरे योगांग का अनुष्ठान करना चाहिए – इस प्रकार का कोई क्रम योगशास्त्र में सर्वथा नहीं माना जाता। इस विषय में इतना ज्ञातव्य है कि आसन में स्थिर होकर बैठने की शक्ति होने पर ही प्राणायाम का अभ्यास करना चाहिए (आसन-सिद्धि के बाद ही प्राणायाम करणीय है – ऐसा नियम नहीं है)। प्राणायाम धारणा के अभ्यास में अत्यन्त सहायक है, यद्यपि प्राणायामक्रिया के बिना ही धारणा (ज्ञानमयधारणा-विशेष, तत्त्व-ज्ञानमय धारणा) हो सकती है। प्रत्याहार के लिए भी यही बात है। धारणा, ध्यान, समाधि अवश्य ही क्रमिक रूप से अनुष्ठेय हैं। यम-नियम में कोई क्रम नहीं है – दोनों ही एक साथ अनुष्ठेय हैं, एवं समाधिसिद्धिपर्यन्त यम-नियमों का अनुष्ठान अपरिहार्य है। जीवन्मुक्त भी यमनियमविरोधी कर्म नहीं करते हैं। विभिन्न योगविषयक ग्रन्थों में अष्टांगों का विवरण सर्वथा एकरूप नहीं है, यद्यपि सारतः वह विवरण योगसूत्रोक्त विवरण का विरोधी नहीं है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

योगित्व योगी की स्थिति।

रुद्रतत्व अर्थात् परमात्मतत्व पर ही चित्‍त की स्थिति योगित्व होती है। योगित्व युक्‍त साधक का लक्षण होता है जिस दशा पर पहुँचकर साधक बाह्य क्रिया-कलाप से असंपृक्‍त रहता है। (ग.का.टी.पु. 16; पा.सू.कौ.भा.पृ.110)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

योगिनी तन्त्रशास्त्र में योगिनी शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। स्थूल रूप से तन्त्रशास्त्र में, विशेषकर कौल मत में, पुरुष साधक को ‘वीर’ तथा स्त्री साधिका को ‘योगिनी’ कहा जाता है। इस शास्त्र में योगिनी मुख से प्राप्त मन्त्रदीक्षा का विशेष महत्व बताया गया है। 64 योगिनियाँ प्रसिद्ध हैं। अष्टाष्टक पूजा में 64 भैरव और 64 योगिनियों की यामलभाव में उपासना की जाती है। नित्याषोडशिकार्णव प्रभृति ग्रन्थों में भगवती त्रिपुरसुन्दरी की वन्दना योगिनी के रूप में भी की गई है। टीकाकारों का कथन है कि मातृका के अष्ट वर्गों की अधिष्ठात्री ब्राह्मी प्रभृति देवियाँ यहाँ योगिनी पद से अभिप्रेत हैं। अन्य टीकाकार वशिनी प्रभृति आठ देवियों का यहाँ उल्लेख मानते हैं। त्वक्, असृक्, मांस, मेदा, मज्जा और शुक्र नामक धातुओं की स्वामिनी डाकिनी, राकिणी, लाकिनी, काकिनी, साकिनी और हाकिनी नामक देवियाँ कुछ आचार्यों के मत से योगिनी पद से अभिप्रेत हैं। ये षट्चक्र, षडूर्मि और षट्कोशों की अधिष्ठात्री देवियाँ मानी गई हैं। अन्य आचार्य याकिनी का भी इसमें समावेश कर इनकी संख्या सात मानते हैं।

  अर्थरत्नावलीकार (पृ. 74) डाकिनी से लेकर हाकिनी पर्यन्त योगिनियों की संख्या 64 लक्षकोटि, 32 लक्षकोटि, 16 लक्षकोटि, 8 लक्षकोटि, 4 लक्षकोटि और 1 लक्षकोटि मानते हैं। अन्यत्र (पृ, 134) पर, सहज, कुलज और अन्त्यज के भेद से चार प्रकार की योगिनियों का उल्लेख करते हैं। ऋजुविमर्शिनीकार (पृ. 252) का कहना है कि 64 करोड़ योगिनियाँ ब्राह्मी प्रभृति आठ शक्तियों का ही विस्तार है। नव चक्रों में पूजनीय प्रकटा प्रभृति नवविध योगिनियों का भी उल्लेख त्रिपुरा सम्प्रदाय में ही मिलता है। इनको चक्रेश्वरी भी कहा जाता है। यह सारा विस्तार भगवती त्रिपुरा का ही है। इसीलिये उसकी योगिनी के रूप में स्तुति की गई है।
  नाडी शब्द की परिभाषा में बताया गया है कि सहजयान सम्प्रदाय में नाडियों के लिये योगिनी शब्द प्रयुक्त हुआ है। क्रम दर्शन में द्वादश स्वरों की अधिष्ठात्री द्वादश शक्तियों का वर्णन मिलता है। इनको कालिका अथवा योगिनी शब्द से भी अभिहित किया जाता है (भारतीय संस्कृति और साधना, भास्करी 1, पृ. 43)।  
दर्शन : शाक्त दर्शन

योगिनी गण दिव्य शरीर धारिणी पारमेश्वरी शक्तियों के एक विशेष वर्ग को योगिनी वर्ग कहते हैं। इन योगिनियों के कई एक स्तर होते हैं। प्रत्येक योगिनी के साथ एक एक भैरव होता है। दोनों मिलकर ही काम करते हैं और संसार के एक एक प्राणी को बंधन के प्रति, मोक्ष के प्रति और भोग के प्रति प्रेरणा देते रहते हैं। संसार के समस्त व्यवहारों को ये योगिनियाँ और ये भैवर ही वस्तुतः चलाते हैं, सांसारिक प्राणी केवल निमित्त मात्र बनते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


योगी जिस साधक की आत्मा का संयोग परमात्मा से हुआ हो वह योगी कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.110)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

योगी मालिनीविजयतन्त्र (4/32-40) में चार प्रकार के योगी बताये गये हैं। इनके नाम हैं – संप्राप्त, घटमान, सिद्ध और सुसिद्ध (सिद्धतम)। जिसे योग का केवल उपदेश प्राप्त हुआ है, उसे संप्राप्त योगी कहते हैं। तत्त्व से चलित चित्त को जो बार-बार उसी में लगाने का प्रयत्न करता रहता है, वह घटमान योगी कहा जाता है। संप्राप्त और घटमान योगी की न तो ज्ञान में और न योग में ही स्थिर रूढ़ि रहती है। इनके द्वारा अन्य लोगों की परामार्थिक सहायता नहीं हो सकती। तृतीय प्रकार सिद्ध योगी का है। इसका योग सिद्ध हो जाता है। इसमें स्वाभ्यस्त ज्ञान की भी स्थिति रहती है। इस ज्ञान के द्वारा वह दूसरे को भी मुक्त कर सकता है। चतुर्थ प्रकार का सुसिद्ध योगी साक्षात् सदाशिव सदृश हो जाता है, जो कभी अपने स्वरूप से स्खलित नहीं होता। वह किसी भी स्थान में रहे, कैसा ही भोग करे, सदा निर्विकार रहता है। ऐसा योगी सभी स्थितियों में जीवमात्र का उद्धार कर सकता है। युक्त और युंजान के भेद से भी योगी का स्वरूप प्रतिपादित है। इनमें से युक्त योगी योगज धर्म की सहायता से परमाणु प्रभृति सूक्ष्मतम पदार्थों की भी सदा जानकारी रखता है। इसके विपरीत युंजान योगी प्रयत्न करने पर ही उक्त पदार्थों को जान सकता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

योगी (गिन्) शैव साधकों के दो वर्ग होते हैं – ज्ञानी और योगी। उनमें योगी योग के अभ्यास के द्वारा सिद्धियों को प्राप्त करके सामर्थ्यवान् बनते हैं। वे भोगोत्सुक शिष्यों को विविध ऐश्वर्यों के भोग का मार्ग बता सकते हैं और उस मार्ग पर चलाकर उन्हें उन भोगों का अनुभव करा सकते हैं। अतः भोग को चाहने वाले साधक ज्ञानी की अपेक्षा योगी को ही अपना गुरु बनाते हैं। श्रेष्ठ गुरु उसे कहा गया है जो पूर्ण ज्ञानी भी हो और योगसिद्ध भी हो।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


योगेशी शक्ति वामा शक्ति। (देखिए वामा)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


योनि पारमेश्वरी शक्ति। बीज रूप स्वरों से उत्पन्न होने वाले सभी व्यंजक वर्णों का समूह। क से लेकर क्ष पर्यंत सभी योनि वर्गों को भैरवी भी कहते हैं। समस्त विश्व परमेश्वर के शुद्ध चित् प्रकाश में उसकी अनंत शक्तियों के रूप में सदा विद्यमान रहता है। उसकी उन शक्तियों को योनिरूपी व्यंजन वर्ण अभिव्यक्त करते हैं। यह योनि रूप शक्तियाँ ही जब बहिर्मुखतया प्रतिबिंबित हो जाती हैं तो सदाशिव तत्व से लेकर पृथ्वी तत्व तक के सारे प्रपंच की सृष्टि हो जाती है। (मा.वि.तं. 3-11, 12; स्वच्छन्द तंत्र 1-32, 33; वही, उ. 1, पृ. 27, 28)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


योनि वर्ग 1. संपूर्ण विश्व के विभिन्न कार्यों को संपन्न करने वाली पारमेश्वर की भिन्न भिन्न शक्तियों के समूह (मा.वि.तं. – 3, 11, 12 )। 2. अंबा, ज्येष्ठा, रौद्री तथा वामा नामक शिव की चार स्वभावभूत शक्तियों का वर्ग। अकार से क्षकार पर्यंत भिन्न भिन्न समूहों की अधिष्ठातृ शक्तियों का वर्ग। (शि.सू.वा.पृ. 7)। 3. मायाशक्ति तथा क से लेकर क्ष पर्यंत आठ वर्गों की अधिष्ठातृ देवियाँ-माहेशी, ब्राह्मणी आदि आठ शक्तियाँ। वही पृ. 61; मा.वि.तं. 3-14)। 4. अघोर, घोर तथा घोरतरी शक्तियों के वर्ग। (मा.वि.तुं. 3-21 से 33)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


योनिमुद्रा नित्याषोडशिकार्णव प्रभृति त्रिपुरा सम्प्रदाय के ग्रन्थों में दस प्रकार की मुद्राओं का विवरण मिलता है। उनमें से पहली त्रिखण्डा मुद्रा आवाहन में विनियुक्त होती है और बची हुई नौ मुद्राओं का विनियोग नव चक्रों की पूजा में बीज मन्त्रों के उच्चारण के साथ किया जाता है। इन मुद्राओं के बीज मन्त्र अर्थरत्नावली में उद्धृत किये गये हैं। यद्यपि योनिमुद्रा का निरूपण यहाँ सबके अंत में हुआ है, तो भी इसको प्रथम, अर्थात् सर्वोत्कृष्ट माना गया है। क्योंकि सभी मुद्राओं की उत्पत्ति इसी से होती है। बाह्य पूजा में मुद्राओं का क्रम वही है, जो कि उक्त ग्रन्थों में बताया गया है, किन्तु अन्तर्याग में योनिमुद्रा को ही प्रथम स्थान प्राप्त है।

  नित्याषोडशिकार्णव (3/26-27) प्रदर्शित योनिमुद्रा का स्वरूप यह है – दोनों मध्यमाओं को वक्र कर उसके ऊपर तर्जनियों को रखना चाहिये। पीछे अनामिका और कनिष्ठका को मध्यगत करके अंगुष्ठ द्वारा परिपीडित करने से यह मुद्रा बनती है। तन्त्रसार में इसका स्वरूप इस प्रकार लिखा है – दोनों हाथों की मध्यमा को मध्य स्थल में रककर दोनों हाथों के कनिष्ठाद्वय को मध्यमाद्वय द्वारा आबद्ध करना चाहिये। तब दोनों तर्जनियों को दण्डाकार में करके मद्यमाद्वय के ऊपरी भाग पर रखने से यह मुद्रा बनती है। यह परमा मुद्रा सर्वसंक्षोभसारिणी है। इस मुद्रा से त्रिपुरा देवी का ध्यान किया जाता है।
  अंगुलिविरचनात्मा मुद्रा के अतिरिक्त संस्थानविशेष रूप योनिमुद्रा का भी शास्त्रों में वर्णन है। उत्तरषट्व में बताया गया है कि गुदा और मेढ् (लिंग) के मध्य में योनि स्थान, अर्थात् कन्द स्थान है। उसको आकुंचित कर बाँध लेना चाहिये। इसके अभ्यास से मन्त्रों के सभी दोषों का निवारण हो जाता है। हठयोग के ग्रन्थों में इसका महामुद्रा के नाम से वर्णन किया गया है। वहाँ बताया गया है कि इस मुद्रा के अभ्यास से साधक कुण्डलिनी शक्ति को जगा सकता है। प्राणतोषिणी तन्त्र (पृ. 128-132) में भी इसका विस्तृत विवरण मिलता है। वहाँ बाताया गया है कि योनिमुद्रा में स्थित होकर योगी पवन की गति को ऊर्ध्वोन्मुख बनाकर उससे मन्त्राक्षरों का शोधन कर ले। महामुद्रा और मूलबन्ध भी योनिमुद्रा के ही प्रकार हैं। प्राणतोषिणी धृत कुब्जिका तन्त्र में भी इस विषय का विवरण है। इसीलिये शास्त्रों में मन्त्रार्थ, मन्त्रचैतन्य और योनिमुद्रा के ज्ञान को मन्त्रसाधना में अनिवार्य माना जाता है। उच्च कोटि का साधक इस योनिमुद्रा के अभ्यास से ही मन्त्रगत दोषों का निवारण कर सकता है। शारदातिलक में बताया गया है कि जो साधक योनिमुद्रा के अभ्यास में असमर्थ है, उसको चाहिये कि वह मन्त्रगत दोषों के निवारण के लिये उनको दस प्रकार के संस्कारों से संस्कृत करे।
  इसके अभ्यास से योनि स्थान अर्थात् कन्द स्थान मुद्रित हो जाता है। इसीलिये इसको योनिमुद्रा कहते हैं। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

रक्षा देखिए ‘अष्‍टावरण’ शब्द के अंतर्गत ‘विभूति’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

रजोगुण सांख्योक्त प्रसिद्ध त्रिगुण में यह एक है – (अन्य दो हैं – सत्त्व और तमस्)। रजोगुण के लक्षण, स्वभाव आदि के विषय में गुण शब्द के अंतर्गत देखिए। शब्दादि पाँच गुणों में रूप रजःप्रधान है; पृथ्वी आदि पाँच भूतों में तेजस्, पाँच तन्मात्रों में रूपतन्मात्र, पाँच ज्ञानेन्द्रियों में चक्षु, पाँच कर्मेन्द्रियों में पाद, तीन अन्तःकरणों में अहंकार रजःप्रधान हैं। जाग्रत् आदि अवस्थाओं में स्वप्नावस्था रजःप्रधान है, देवादि प्राणियों में मनुष्य रजःप्रधान है। इसी प्रकार विवेक-वैराग्य-निरोध में वैराग्य रजःप्रधान है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

रजोगुण परमेश्वर की क्रियाशक्ति ही जब माया तत्त्व तथा उससे विकसित पाँच कंचुकों से अत्यधिक संकोच को प्राप्त करके जीव में प्रकट होती है तो उसे ही जीव का रजोगुण कहते हैं। संकुचित प्रमाता की चंचलता और अशांति ही उसका रजोगुण है। अपने स्वरूप की सत्ता के आनंद का अंशतः आभास होना तथा साथ ही अंशतः उसका आभास न होना जीव के लिए दुःख का कारण बनता है। यही दुःखात्मक स्वभाव उसका रजोगुण कहलाता है। (ई.प्र.वि., 4-1-4, 6)। इस तत्त्व के सामान्य स्वभाव सांख्य दर्शन के अनुसार ही माने गए हैं। परंतु इसे मुख्यतया पुरुष का स्वभाव माना गया है और इसके बीज की खोज परमेश्वर की क्रियाशक्ति के भीतर ढूँढ निकाली है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


रश्मिचक्र देखिए शक्ति चक्र, योनि वर्ग।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


राग पाँच क्लेशों में राग एक है (द्र. योगसू. 2/3,7)। सुखसाधक पदार्थ में (उसके स्मृत या दृश्यमान होने पर) या सुख में सुख के अनुभवकारी प्राणी का सुखानुस्मृति-पूर्वक जो गर्ध (= आकांक्षा, सदैव चाहते रहना), तृष्णा (अप्राप्त विषय को पाने की इच्छा) या लोभ (= लोलुपता = विषयप्राप्ति होने पर भी पाने की इच्छा) होता है, वह राग है। दूसरे शब्दों में, सुखवासना का अनुस्मरणपूर्वक तदनुकूल जो प्रवृत्ति या चित्तावस्था होती है, वह राग है। यह ज्ञातव्य है कि सुख आदि स्मर्यमाण है तो राग सुखानुस्मृतिपूर्वक होता है; सुख यदि अनुभूयमान है तो सुखानुस्मृति की आवश्यकता नहीं होती।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

राग-तत्त्व माया तत्त्व से विकास को प्राप्त हुए पाँच कंचुक तत्त्वों में से तीसरा कंचुक तत्त्व। परिपूर्ण ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति का संकोच हो जाने पर जब जीव अल्पज्ञ और अल्पकर्ता बन जाता है तो वह किसी किसी विशेष वस्तु को ही गुणाढ्य समझता है, सभी को नहीं। उस बहुतर गुणयुक्त माने गए वस्तु में ही उसे जानने और करने की प्रवृत्ति हो जाती है, अन्य वस्तुओं में नहीं। इसे अभिष्वंग कहा गया है। इसका लक्षण ‘गुणारोपणमयो रागः’ ऐसा कहा गया है। वैराग्य का विरोधी भाव जो राग होता है, वह बुद्धि का एक धर्म होता है। जबकि यह अभिष्वंग रूपी रागतत्त्व पुरुष का एक अंतरंग स्वभाव होता है। किसी प्राणी को वैराग्य ही के प्रति राग होता है, क्योंकि ऐसा प्राणी वैराग्य को ही अतिगुणवान मानता है। इस तरह से राग, द्वेष, वैराग्य, अवैराग्य आदि और सभी इष्ट या अनिष्ट भावों या वस्तुओं के प्रति आसक्ति या अनासक्ति के मूल में जो तत्त्व कार्य करता है उसे राग तत्त्व कहते हैं। (शि.सू.वा.पृ. 44, ई.प्र.वि. 2, पृ. 209, तं.सा.पृ. 82)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


राजयोग यद्यपि प्राचीन योगग्रन्थों में राजयोग शब्द नहीं मिलता, तथापि अर्वाचीन ग्रन्थों में (हठयोग, नाथयोग आदि के ग्रन्थों में) यह शब्द योगविशेष के लिए बहुशः प्रयुक्त हुआ है। केवल राजयोगपरक कोई ग्रन्थ प्रचलित नहीं है। राजयोगपरक कुछ ग्रन्थों के उद्धरण मिलते हैं, जिनसे ज्ञात होता है कि कभी इस योग पर स्वतन्त्र ग्रन्थ भी लिखे गए थे। शंकराचार्य के नाम से प्रसिद्ध एक राजयोगभाष्य नामक ग्रन्थ प्रचलित है, जो न शंकराचार्यकृत है और न ही किसी ग्रन्थ में यह ग्रन्थ स्मृत या उद्धृत हुआ है। विभिन्न ग्रन्थों में राजयोग के स्वरूप एवं साधन पर जो कहा गया है, वह इस प्रकार है – राजयोग का अर्थ है – योगों का राजा (अर्थात् श्रेष्ठयोग)। इस शब्द की अन्य व्याख्या भी हैं। योग चार हैं – मन्त्र, हठ, लय एवं राजा (द्र. मन्त्रयोग आदि शब्द)। ये चार उत्तरोत्तर बढ़कर हैं अर्थात् राजयोग सर्वोच्च योग है। हठयोग के ग्रन्थों में स्पष्टतया हठयोग को राजयोग का साधन ही माना गया है। यह राजयोग योगसूत्रोक्त निर्जीवसमाधि अथवा असंप्रज्ञात योग है – यह स्पष्ट रूप से योगचिन्तामणि तथा हठयोगप्रदीपिका की ज्योत्स्नाटीका में कहा गया है। एक मत यह भी है कि रजः (अर्थात् शक्ति) तथा रेतः (अर्थात् शिव) का योग इस मार्ग से होता है। इसी प्रकार यह भी कहीं-कहीं कहा गया है कि राजयोग के अभ्यास से जीवात्मा सब उपाधियों का त्याग करके परमात्मा के साथ एकीभूत हो जाता है। राजयोग के साधन शंकराचार्य कृत अपरोक्षानुभूति, योगतारावली तथा वाक्यसुधावली में विशेषतः बताए गए हैं। उन्मनीमुद्रा, भ्रूमध्यदृष्टि, नादानुसन्धान आदि इस मार्ग के प्रधान साधन हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

रुद्र ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपतसूत्र के कौडिन्यभाष्य के अनुसार ईश्‍वर इस उत्पन्‍न जगत को भयमुक्‍त कर देता है अतः रुद्र कहलाता है। रुद्र शब्द ‘रूत’ (भय) तथा ‘द्रावण’ (संयोजन) शब्दों से बना है। अतः जो इस स्थूल जगत में विचित्र भयों का संयोजन करता है, उसे रुद्र नाम से अभिहित किया गया है। सांसारिक भय की सृष्‍टि भी तो रुद्र ही करता है। वैसे द्रावण का अर्थ विनाश करना भी होता है। रुद्र साधकों को भयमुक्‍त करता हुआ उनके भय को नष्‍ट कर देता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.57)।
भासर्वज्ञ ने रूद्र को देश का एक प्रकार भी माना है। पाशुपत साधक का साधना की अन्तिम पंचमावस्था में रूद्र में निवास होता है। अर्थात् योग की पर दशा में इस स्थूल शरीर के छूट जाने पर योगी का रुद्र के साथ ऐकात्म्य होता है। अतः रूद्र ही उसका देश होता है। (ग.का.टी.पृ. 17)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

रुद्र 1. प्रमेय जगत को प्रमाता के साथ अभेद भाव के द्वारा उसी में उसे विलीन करने वाला परमेश्वर का कारण शरीर। 2. निचले कार्य तत्त्वों को ऊपर वाले कारण तत्त्वों में विलीन करने वाले संहार कारक उत्कृष्टतर देवगण। 3. जीव के अपनी शुद्ध चैतन्य स्वरूपता में प्रवेश करने के लिए उसके मन की सभी पाशविक वृत्तियों को शांत करने वाला और इस प्रकार स्वरूप साक्षात्कार में उसका सहायक बनने वाला परमशिव का पर रूप (स्व.तं.उ.पटल 1, पृ. 36)। 4. नीलकंठ शिव। (वही, पटल 2 – 79, 80)। 5. पशुपति। (स्व.तं.पटल 10-902)। रुद्र (अनेक) ज्येष्ठा, रौद्री तथा वामा नामक तीन शक्तियों के वैभव से युक्त विविध रुद्र। ये रुद्र माया तत्त्व से लेकर पृथ्वी तत्त्व तक के सभी तत्त्वों में इन तीन शक्तियों सहित शासन करते हैं तथा इन तत्त्वों में जीवों के स्वरूप दर्शनविषयासक्ति तथा अधःपतन के व्यवहारों को चलाते हुए इन तत्त्वों का संहार भी करते रहते हैं। (वि.पं. 4 पृ. 57, 63)। रुद्र (कालाग्नि) पृथ्वी तत्त्व को पूर्णतया व्याप्त करके उसी के मल में ठहरने वाला तथा यहाँ के सभी भुवनों का संहार करने वाला रुद्र। (वही पटल 10, पृ. 2, 4)। रुद्र (प्रमाता) सभी मुक्तशिव। रुद्र (शास्त्र प्रवक्ता) भेदाभेद प्रधान अठारह शैव आगमों का उपदेश देने वाले। (मा.वि.वा. 1-391, 392)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


रुद्रशक्ति समावेश जिस प्राणी पर परमेश्वर मध्य तीव्र प्रकार का शक्तिपात करता है उसके भीतर रुद्र शक्ति का समावेश हो जाता है। उस समावेश के पाँच लक्षण माने गए हैं। – 1. उसमें शिव के प्रति अविचल भक्ति उमड़ आती है। 2. उसे मंत्र सिद्धि हो जाती है। 3. उसे सभी तत्त्वों का वशीकार हो जाता है। 4. उसके समस्त प्रारब्ध कार्य पूरे हो जाते हैं। 5. उसे समस्त शास्त्रों के तत्त्व के ज्ञान का उदय हो जाता है और उसके मुख से सालंकार तथा सुमनोहर कविता का प्रवाह चल पड़ता है। (मा.वि.तं. 2-13 से 16)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


रुद्रसामीप्य रुद्र की समीपता।

पाशुपत दर्शन के अनुसार जीवन का एक परम लक्ष्य रुद्र की समीपता प्राप्‍त करना है और पाशुपत साधक को विविध प्रकार की विधियों का आचरण करते हुए रुद्र सामीप्य अर्थात् रुद्र की सन्‍निधि प्राप्‍त करनी होती है। यह मोक्ष की एक दशा होती है। इस सामीप्यमोक्ष से उत्कृष्‍टतर दशा सायुज्यमोक्ष की होती है। सामीप्य मोक्ष में युक्‍त साधक परमेश्‍वर की सन्‍निधि का अनुभव प्रतिक्षण करता रहता है और उससे उसे अपूर्व आनन्द की अनुभूति हुआ करती है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

रुद्रसायुज्य मुक्‍ति की एक ऊँची अवस्था।

पाशुपत दर्शन में मुक्‍ति का परमस्वरूप रुद्रसायुज्य है। जहाँ जीवात्मा परमात्मा में तन्मय हो जाता है। जीवात्मा का रूद्र के साथ साक्षात् योग हो जाता है। परंतु जीवात्मा का पूर्ण विलोप नहीं होता है। वह अपनी सत्‍ता को बनाए रखते हुए अपने आपको रुद्र से अभिन्‍न मानता है। यह भेदाभेद की उत्कृष्‍ट अवस्था होती है। पाशुपत मत में मुक्‍त आत्मा रूद्र के साथ ऐकात्म्य प्राप्‍त करने के बाद भी अपनी व्यक्‍तिगत सत्‍ता को बनाए रखता है। क्योंकि पाशुपत मत में मोक्ष केवल ऐसा दुःखांत नहीं है जहाँ केवल दुःखों की निवृत्‍ति हो या जहाँ पर जीवात्मा की सत्‍ता ही विलुप्‍त हो जाए, अपितु दुःखांत के उपरांत मुक्‍तात्मा में सिद्‍धियों का समावेश हो जाता है, वह शिवतुल्य बन जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 131)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

रुद्रस्मृति रुद्र का बारम्बार स्मरण करना।

पाशुपत योग के अनुसार साधक को सदा अर्थात् बिना किसी बाधा के रुद्र (परमकारणभूत ईश्‍वर) का स्मरण करना होता है, जिससे वह रुद्र सामीप्य, रुद्रसायुज्य आदि की प्राप्‍ति कर लेता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.122)। सदारुद्रस्मृति पाशुपत साधना के उपायों का एक प्रकार है। यह रुद्रस्मृति पाशुपत योग का एक मुख्य प्रकार होता है। (ग.का.टी.पृ.21)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

रुद्राक्ष देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

रूप मालिनीविजय (2/36-45) तथा तन्त्रालोक (10/227-287) में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत अवस्थाओं का निरूपण पिण्ड, पद, रूप, रूपातीत तथा महाप्रचय अथवा सततोदित अवस्था के रूप में किया गया है। यहाँ मन्त्रेश को रूपस्थ बताया गया है और उसके उदित, विपुल, शान्त और सुप्रसन्न नामक चार भेद किये गये हैं। मालिनीविजय में कुलचक्र की व्याप्ति (19/30-48) और शिवज्ञान के प्रसंग (20/1-7, 18-26) में इस विषय का विवरण मिलता है। जैन तन्त्र ग्रन्थ ज्ञानार्णव के 36वें प्रकरण में रूपस्थ ध्यान वर्णित है। इसमें सर्वज्ञ वीतराग के ध्यान की विधि का निरूपण है। योगिनीहृदय (1/42) में वर्णित है कि रूप में जालन्धर पीठ का निवास है। दीपिकाकार ने रूप का अर्थ बिन्दु किया है और इसकी स्थिति भ्रूमध्य में बताई है। वहीं अन्यत्र (3/94) इसको विध्नरूप माना है। इसीलिये 3/137 की व्याख्या में अमृतानन्द द्वारा उद्धृत एक प्रामाणिक वचन में बताया गया है कि रूप से मुक्त होने पर ही वास्तविक मुक्ति मिलती है। कौलज्ञाननिर्णय में एक स्थान पर (पृ. 4 ) रूप का अर्थ वर्ण तथा अन्यत्र (पृ. 90) कलाविष्ट जीव किया है। यहीं (पृ. 53) यह भी बताया है कि इसके आठ भेद होते हैं। आणव उपाय के प्रसंग में भी इस शब्द की चर्चा आ चुकी है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

रूपस्थ 1. सुषुप्ति दशा में स्थित प्रमाता। योगियों की परंपरा में सुषुप्ति को भी रूपस्थ ही कहते हैं। 2. प्रमाता की सौषुप्तम दशा। संसार की प्रत्येक वस्तु को उसका नील, पीत आदि रूप स्वयं प्रमाता ही अपनी कल्पना के द्वारा देता है। अतः प्रमाता को रूप कहते हैं। सुषुप्ति में प्रमाता अपने आपको प्रमेय एवं प्रमाण से खींचकर अपने ही स्वरूप में ठहराता है। अतः सौषुप्त प्रमाता को रूपस्थ कहते हैं। (तं.आ. 10-261)। इससे योगी सर्वव्यापकता को प्राप्त करता है। (मा.वि.तं. 2-37)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


रूपातीत मालिनीविजय (2/36-45) तथा तन्त्रालोक (10/227-287) में जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीय और तुरीयातीत अवस्थाओं का निरूपण पिण्ड, पद, रूप, रूपातीत तथा महाप्रचय अथवा सततोदित अवस्था के रूप में किया गया है। यहाँ परा शक्ति को रूपातीत बताया है, जो कि क्रियाशील होते हुए भी निर्विकार मानी गई है। मालिनीविजय में कुलचक्र की व्याप्ति (19/30-48) और शिवज्ञान के प्रसंग (20/1-7, 18-26) में भी इस विषय का विवरण मिलता है। जैन तन्त्र ग्रन्थ ज्ञानार्णव के 37वें प्रकरण में रूपातीत ध्यानविधि वर्णित है। इसको वहाँ निष्कल ध्यान बताया गया है। योगिनीहृदय (1/42) में वर्णित है कि रूपातीत में ओड्याण पीठ की स्थिति है। दीपिकाकार ने रूपातीत का अर्थ चिन्मय दशा किया है और इसकी स्थिति ब्रह्मरन्ध्र में बताई है। वहीं अन्यत्र (3/94) में ग्रन्थि रूप होने से इसको भी विघ्नरूप ही माना है। इसीलिये 3/137 की व्याख्या में अमृतानन्द द्वारा उद्धृत एक प्रामाणिक वचन में बताया गया है कि इससे मुक्त होने पर ही वास्तविक मुक्ति मिलती है। कौलज्ञाननिर्णय में एक स्थान पर (पृ. 4) रूपातीत का अर्थ लक्ष्य तथा अन्यत्र (पृ. 90) काष्ठ योगी किया है। वहीं (पृ. 53) यह भी बताया है कि इसके आठ भेद होते हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

रूपातीत तुर्यदशा। सभी बाह्य रूपों से उत्तीर्ण तथा परिपूर्ण स्वरूप की ओर उन्मुखता को प्राप्त हुई स्थिति। रूपस्थ (देखिए) योगी सर्वव्यापकता को तो प्राप्त कर लेता है परंतु अभी भी वह विश्वोन्मुख होने के कारण परिपूर्णता को प्राप्त नहीं हुआ होता है। जब वह विश्वोन्मुखता को छोड़कर केवल अपनी परिपूर्ण संवित् में ही स्थिति प्राप्त करने के प्रति उन्मुख होता है तो उसकी उस स्थिति को रूपातीत कहते हैं। इस अवस्था में पहुँचने पर योगी संपूर्ण विश्व को अपनी शुद्ध संवित् के ही रूप में देखने लगता है। (तं.आ., 10-273, 274) तुर्या दशा को भी योगियों की परंपरा में रूपातीत कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


रौद्र आगम भेदाभेद दृष्टि को लेकर के शैवी सिद्धांतों और शैवयोग की प्रक्रियाओं को प्रतिपादित करने के लिए रुद्रों द्वारा कहे गए भेदाभेद प्रधान अठारह शैव आगम। (मा.वि.वा. 1-390 से 92)। ये आगम दक्षिण भारत में काफी प्रचलित हैं। इनमें से अनेकों आगम अभी तक मिल रहे हैं। दक्षिण भारत में एक शिलालेख में इनके नाम खुदे हुए हैं। तंत्रालोक की टीका में जयरथ ने श्रीकंठी संहिता के वाक्यों को उद्धृत करते हुए इनके नाम गिनाए हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


रौद्री जप में उपयुक्‍त होने वाली रुद्र संबंधी ऋचा रौद्री कहलाती है। यह मंत्र जप रुद्र-सान्‍निध्य की प्राप्‍ति कर लेने में सहायक बनता है। इस जप में रुद्र का ध्यान किया जाता है। अतः जप की यह ऋचा रौद्री कहलाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 39,124)। इस ऋचा का छंद गायत्र होता है। अतः इसे रौद्री गायत्री कहते हैं। वह रौद्री गायत्री यह है-

           (तत् पुरुषाय विद्‍महे।
           महादेवाय धीमहि।
           तन्‍नो रूद्र: प्रचोदयात्)
                    (पा.सू. 4  22, 23, 24)

सायं संध्या को रौद्री सन्ध्या कहते हैं (ग.का.टी.पृ. 18)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

रौद्री सृष्ट विश्व का संहार करने के लिये जब शान्ता शक्ति पुनः अम्बिका शक्ति के साथ समरस होना चाहती है, तो वह लौटकर वहीं आ जाती है, जहाँ से कि वह गतिशील हुई थी। इस तरह से उसका श्रृंगार (त्रिकोण) आकार पूर्ण हो जाता है। यह रौद्री शक्ति का व्यापार है। क्रिया शक्ति से समरस होकर यह वैखरी वाणी के रूप में समस्त स्थूल बागात्मक प्रपंच की सृष्टि करती है (योगिनीहृदय, 1/39-40)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

रौद्री परमेश्वर की अंबा नामक पराशक्ति का वह रूप जिसमें ठहर कर वह जीवों को इसी संसार में टिकाए रखने के कार्य को निभाती है। यह शक्ति अपने घोर नामक अनंत शक्ति समूहों की सहायता से जीवों को इसी संसार में लुभाए रखने के लिए तथा मोक्ष के मार्ग से उन्हें मोड़ने के लिए भिन्न भिन्न प्रकार के सुखों का प्रलोभन देती रहती है और धार्मिक प्रवृत्ति को जगाते हुए उसके लिए सुखों की व्यवस्था भी बनाती रहती है। (तं.आ.खं. 4, पृ. 50; भास्करीवि.वा. 3-32)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


लकुलीश लकुलीश को ऐतिहासिक पाशुपत मत का संस्थापक माना जाता है और चन्द्रगुप्‍त द्‍वितीय के मथुरा शिलालेख के आधार पर इतिहासवेत्‍ताओं ने लकुलीश को द्‍वितीय शती में रखा है। वायुपुराण के तेइसवें अध्याय तथा लिंगपुराण के चौबीसवें अध्याय में उल्लेख आया है कि जब वासुदेव कृष्ण जन्मे तभी महेश्‍वर ने ब्रह्‍मचारी के रूप में लकुलिन नाम से कायावतार या कायावरोहण नामक स्थान के एक श्मशान में पड़े एक शव में प्रवेश करके अवतार लिया। यह कायावतरण या कायावरोहण वर्तमान काल का कारवन है जो बड़ौदा मण्डल के दुनाई तालुक में है। पाशुपत सूत्र के भाष्यकार कौडिन्य ने भी पञ्‍चार्थीभाष्य में इसका उल्लेख किया है। (पा. सू.कौ.भा.पृ. 3)। इसका विशेष वृतांत कारवणमाहात्म्य में आया है।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

लक्षणपरिणाम द्रव्य अथवा धर्मों के जो तीन प्रकार के परिणाम होते हैं, उनमें लक्षणपरिणाम एक है। धर्मी का जो धर्म नामक परिणाम होता है, उस धर्म का ही यह ‘लक्षण’ नामक परिणाम होता है। इस परिणाम का संबंध काल-भेद के साथ है। जब हम किसी वस्तु को लक्ष्य कर यह कहते हैं कि ‘यह पहले अभिव्यक्त नहीं हुई थी, अब अभिव्यक्त हुई है’ या ‘यह उत्पन्न वस्तु अब नष्ट हो गई है’, तब वस्तु-संबंधी जिस परिणाम का बोध होता है, वह ‘लक्षण’ नामक परिणाम है। अभिभव-प्रादुर्भाव-रूप जो लक्षण परिणाम है उसका एक उदाहरण 3/9 योगसूत्र में है, जहाँ दो संस्कारों के अभिभव-प्रादुर्भाव का उल्लेख किया गया है। यह ज्ञातव्य है कि अभिभव-प्रादुर्भाव या आविर्भाव-तिरोभाव होने पर भी धर्म का धर्मत्व नष्ट नहीं होता अर्थात् अभिभव आदि किसी धर्म पर व्यपदिष्ट होते हैं। अभिभव और प्रादुर्भाव परस्पर भिन्न हैं, पर इनसे धर्म की भिन्नता नहीं होती अर्थात् जो धर्म अनागत था, वही उदित होता है और बाद में अतीत हो जाता है। इस लक्षण परिणाम का पुनः अवगत-परिणाम होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

लगुड़ीश लगुड़ीश पाशुपत मत के संस्थापक लकुलीश का ही नामांतर है। लकुलीश को नकुलीश, लकुलिन्, लगुडीश, लकुटपाणि, लगुडपाणि तथा लकुलीश्‍वर नामों से भी अभिहित किया गया है। काश्मीर आगमों में इसे लाकुल भी कह गया है। ये सभी नाम लकुल, लकुट या लगुड शब्द से बने हैं, जिनका अर्थ ‘दण्ड’ है, क्योंकि अभिलेखों में महेश्‍वर के अवतार लकुलीश के हाथ में दण्ड लिए हुए उसे चित्रित किया गया है। उदयपुर के निकट नाथमंदिर में एकलिंगजी शिलालेख में (1000 शती) उल्लेख किया गया है कि भृगु के द्‍वारा महेश्‍वर के मानव अवतार को (जो हाथ में लगुड लिए हुए है) भृगुकच्छ में प्रसन्‍न किया जाता है। ‘कारवणमाहात्म्य’ में भी लकुलीश को लकुटपाणि कहा गया है। (कारवणमाहात्म्यम् पृ. 37 गणकारिका के परिशिष्‍ट में छपा हुआ है)।

दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

लघिमा अणिमा आदि अष्टसिद्धियों में लघिमा एक है (द्र. योगसू. 3/45)। भारवान् शरीर को संकल्पबल से तूल (रूई) की तरह लघु बनाना इस सिद्धि का मुख्य स्वरूप है; बाह्य पदार्थों को अल्पभारवान् बनाना भी इस सिद्धि के अन्तर्गत है। रश्मि में चलना, आकाशगमन आदि इस सिद्धि के बल पर सिद्ध होते हैं। इस सिद्धि के कारण ही अत्यन्त भारवान् पदार्थों को योगी अनायास उठा सकते हैं (मानसोल्लास 10/11)। भूतों का ‘स्थूल’ नामक जो भेद है, उस पर संयम करने से लघिमा सिद्धि का प्रादुर्भाव होता है। लघिमा कायसिद्धि के अन्तर्गत है (तत्त्ववैशारदी 2/43)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

लय सांख्ययोग-शास्त्र में लय का अर्थ है – कारण के साथ कार्य का एकीभाव या अविभाग की प्राप्ति। इस प्रकार ‘लय प्राप्त होना’ कार्य की ही एक अवस्था होती है, इसमें कार्यद्रव्य का अभाव नहीं हो जाता। कारण सूक्ष्म होता है (कार्य की अपेक्षा) और सूक्ष्म की जो स्थूलभाव-प्राप्ति है वही कार्य का स्वरूप माना जाता है। लय के लिए इस शास्त्र में ‘नाश’ शब्द का भी प्रयोग होता है। इस शास्त्र की मान्यता है कि जिससे जिसका जन्म होता है, उसमें ही उसका लय होता है, जैसे भौतिक का लय भूतों में, भूतों का तन्मात्रों में इत्यादि। लीन होने के इस क्रम को ‘प्रतिलोमक्रम’ कहा जाता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

लययोग महायोग के अन्तर्गत या स्वतन्त्र रूप से भी लययोग नामक योगमार्ग-विशेष का उल्लेख कई अनतिप्राचीन ग्रन्थों में (विशेषकर नाथयोगियों के ग्रन्थों में) मिलता है। योगशिखोपनिषद् (1/134 -135) तथा योगबीज (146 इत्यादि) में इस योग के विवरण में कहा गया है कि चित्त के ब्रह्म में लीन होने पर वायु का जो स्थैर्य होता है, वही लययोग है। चित्तलय से स्वात्मानन्द-रूप परमपद की प्राप्ति होती है। चित्त का लय करना ही लययोग है जो ध्यान-साध्य है – यह योगतत्त्वोपनिषद् (23) में कहा गया है। यह लय मन्त्र की सहायता से हो सकता है, यह वराह उपनिषद् में कहा गया है (लय-मन्त्र-हठ रूप तीन योग इस उपनिषद् में स्वीकृत हुए हैं)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

लययोग हठयोगप्रदीपिका के चतुर्थ उपदेश में लय योग का वर्णन मिलता है। वहाँ इस प्रकरण के प्रारंभ में ही बताया गया है कि राजयोग, समाधि, उन्मनी, मनोन्मनी, अमनस्क, लय, तत्त्व, शून्याशून्य, परमपद, अमरत्व, अद्वैत, निरालम्ब, निरंजन, जीवन्मुक्ति, सहजा, तुर्या – ये समस्त शब्द एक ही अर्थ के वाचक हैं। लययोग के प्रसंग में वहाँ बताया गया है कि इन्द्रियों का स्वामी मन है, मन का स्वामी प्राण वायु, प्राण वायु का स्वामी लय है और यह लय नाद पर आश्रित है। इस नाद के अनुसन्धान से ही वह लयावस्था प्राप्त होती है, जिसमें कि मन और प्राण का लय हो जाता है। नादानुसन्धान के माध्यम से मन और प्राण के लय का विधान करने वाली विधि ही लययोग के नाम से जानी जाती है। इससे प्राप्त होने वाली स्थिति को कोई मोक्ष कहे या न कहे, इसमें एक अपूर्व आनन्द की अनुभूति होती है। लययोग का मुख्य लक्षण यह है कि एक बार मन और प्राण के लीन हो जाने पर उसके बाद योगी के चित्त में वासनाओं की पुनः उत्पत्ति नहीं होती और इस प्रकार उसका सभी बाह्य विषयों से सम्पर्क छूट जाता है। वह आत्माराम, जीवन्मुक्त हो जाता है। शाम्भवी मुद्रा में वह प्रतिष्ठित हो जाता है।

दर्शन : शाक्त दर्शन

लाभ पाशुपत साधना से प्राप्‍त होने वाली विशेष उपलब्धियाँ।

पाशुपत साधक पाशुपत योग साधना के अभ्यास से जिन योग फलों को अथवा उपलब्धियों को प्राप्‍त करता है, उन्हें लाभ कहा जाता है। लाभ पंचविध माने गए हैं। वे हैं – ज्ञान, तप, नित्यत्व, स्थिति और सिद्‍धि। (ग.का.टी.पृ.4)। गणकारिका में जिन नौ गणों का नामोल्लेख किया गया है उनमें से एक गण लाभों का भी है। इस तरह से लाभ पाशुपत दर्शन के प्रतिपाद्‍य विषयों में गिनाए गए हैं।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

लाभभूमि अपनी परिपूर्ण शक्तिमत्ता को प्राप्त करने की दशा। इसे परानंद को प्रकट करने वाली भूमिका भी कहा जाता है। (शि.सू.वा.पृ. 21)। देखिए परानंद।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


लिंग चिह्न।

पाशुपत मत में भस्म पाशुपत साधक का लिंङ्ग अर्थात् पाशुपत योगी का चिह्न है जैसे – गृहस्थ, ब्रह्‍मचारी, वानप्रस्थ भिक्षु आदि के अपनी – अपनी अवस्था को व्यक्‍त करने वाले चिह्न होते हैं; उसी तरह से पाशुपत योगी के चिह्न भस्म स्‍नान, भस्मशयन, रूद्राक्ष, मालाधारण, एकवासा आदि हैं जो उसके पाशुपत योगी होने का संकेत देते हैं। इन चिह्नों को धारण करने से साधक ईश्‍वर में लीन होता है तथा औरों से अलग पहचाना जा सकता है। अतः ये लिंग कहलाते हैं। (लीयनाल्लिङ्ग नाच्‍च लिंगनम् पा.सू.कौ.भा.पृ. 12)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

लिंग लिंग शब्द सांख्ययोग में पदार्थविशेष के नाम के रूप में तथा वस्तुधर्म विशेष के वाचक के रूप में प्रयुक्त होता है। ‘जिसका लय होता है वह लिंग है’। इस दृष्टि से महदादि सभी व्यक्त पदार्थों को लिंग कहा गया है (सांख्याका. 10 की टीकायें)। इसी प्रकार जो ज्ञापन करता है (लिंगयति ज्ञापयति) वह लिंग है। इस दृष्टि से भी बुद्धि आदि को लिंग कहा गया है, क्योंकि वे अपने-अपने कारण के ज्ञापक होते हैं (बुद्धि आदि अपने स्वभाव के द्वारा अपने उपादान के स्वरूप को ज्ञापित करते हैं)। कभी-कभी लिंग शब्द केवल बुद्धि के लिए और कभी-कभी बुद्धि-अहंकार-मन रूप अन्तःकरण-त्रय के लिए प्रयुक्त होता है। लिंग सम्बन्धी एक विशेष कथन सांख्यकारिका 20 में मिलता है। वाचस्पति आदि व्याख्याकार कहते हैं कि महदादि-तन्मात्र-पर्यन्त समुदाय लिंग है जो चेतन पुरुष के सान्निध्य से चेतन की तरह होता है। ज्ञातृत्व और कर्तृत्व इस लिंग में आश्रित रहते हैं। वस्तुतः ज्ञातृत्व पुरुष का है और त्रैगुणिक लिंग का वास्तव कर्तृत्व उदासीन पुरुष में उपचरित होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

लिंग लीन, अर्थात् बाह्य इन्द्रियों के अगोचर चिद्रूप अर्थ का बोध कराने वाला तत्त्व लिंग कहा जाता है। मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त के प्रतिरूप कामरूप, पूर्णगिरि, जालन्धर और ओड्याण पीठ इसलिये कहलाते हैं कि ये चिति के स्फुरण के आधार स्तम्भ हैं। चतुर्विध अन्तःकरण में उनकी वृत्तियों के समान उक्त चतुर्विध पीठों में स्वयंभू, बाण, इतर और पर नामक लिंगों की स्थिति मानी गई है (योगिनीहृदय, 1/44)। श्रीतत्त्वचिन्तामणि के षट्चक्र प्रकरण में भी इन लिंगों की विभिन्न चक्रों में स्थिति प्रतिपादित है। (क) इतर लिंग

  बुद्धयात्मक पूर्णगिरि पीठ में बुद्धि की वृत्ति के प्रतिरूप इतर लिंग की स्थिति मानी गई है। यह शरत् पूर्णिमा के चन्द्र के समान कान्ति वाला है। कदम्ब के फल के समान इसकी गोल आकृति है। थकार से लेकर सकार पर्यन्त सोलह व्यंजनों से यह आवृत है। श्रीचक्र के मध्य में स्थित त्रिकोण के वाम भाग में इसकी स्थिति मानी जाती है (योगिनीहृदय, 1/44-46)। श्रीतत्त्वचिन्तामणि के षट्चक्र प्रकरण में इतर लिंग की स्थिति आज्ञा चक्र में मानी गई है।

(ख) पर लिंग

   चित्तमय ओड्याण पीठ में चित्त की वृत्ति के प्रतिरूप पर लिंग की स्थिति मानी गई है। परतेजोमय इस लिंग का कोई वर्ण नहीं है। यह सूक्ष्म, अतीन्द्रिय और बिन्दुमय है। अकार से लेकर क्षकार पर्यन्त समस्त अक्षरों से यह आवृत है। इसमें परमानन्द पद की नित्य स्थिति रहती है। श्रीचक्र के मध्य में स्थित ज्योतिर्बिन्दु में इसका निवास है (योगिनीहृदय, 1/47)। श्रीतत्त्वचिन्तामणि के षट्चक्र प्रकरण में स्वाधिष्ठान चक्र में पर लिंग की स्थिति मानी गई है। वस्तुतः योगिनीहृदय के अनुसार सहस्त्रार चक्र में इसकी स्थिति मानी जानी चाहिये। सम्प्रदाय भेद से इस विरोध का परिहार करना चाहिये।

(ग) बाण लिंग

 अहंकारात्मक जालन्धर पीठ में अहंकार की वृत्ति के प्रतिरूप बाण लिंग की स्थिति मानी गई है। यह बन्धूक पुष्प के समान रक्त वर्ण का है। इसकी आकृति त्रिकोणात्मक है। ककार से लेकर तकार पर्यन्त सोलह व्यजंनों से यह आवृत है। श्रीचक्र के मध्य में स्थित त्रिकोण के दक्षिण भाग में इसकी स्थिति मानी गई है (योगिनीहृदय, 1/44-46)। श्रीतत्त्वचिन्तामणि के षट्चक्र प्रकरण (6 प्रकाश) में अनाहत चक्र में बाण लिंग की स्थिति मानी गई है।

(घ) स्वयंभू लिंग

  मनोमय कामरूप पीठ में मन की वृत्ति के प्रतिरूप स्वयंभू लिंग की स्थिति मानी गई है। यह सुवर्ण के समान पीत वर्ण है। यह तीन शिखर वाला है, अथवा तीन बिन्दुओं के कूट से इसका आकार बनता है। अकार आदि सोलह स्वरों से यह आवृत है। श्रीचक्र के मध्य में स्थित त्रिकोण के अग्र भाग में इसका निवास है (योगिनीहृदय, 1/44-46)। श्रीतत्त्वचिन्तामणि के षट्चक्र प्रकरण (6 प्रकाश) में मूलाधार चक्र में पश्चिमाभिमुख स्वयंभू लिंग की स्थिति बताई गई है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

लिंग वह मूलभूत संवित्तत्त्व, जिसमें समस्त विश्व का लय हो जाता है और जिससे उसका उदय (आगमन) होता है (लयादागयनाच्च)। मिट्टी, पत्थर, स्वर्ण आदि धातुओं से बना हुआ बहिर्लिग तभी फलदायक होता है, जब उस पर उपरोक्त आध्यात्मिक लिंग की भावना की जाए। बाह्य लिंग उस आध्यात्मिक लिंग का प्रतीक मात्र है। (स्व.तं.उ., पटल 3, पृ. 168)। योगधारणा में हृदय में सतत गति से चलने वाले प्राण स्पंदन परचित्त को एकाग्र करने से वहाँ हृदय से ब्रह्मरंध्र तक फैली हुई लिंगमूर्ति के दर्शन होते हैं। उसके ध्यान के अभ्यास से भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हो जाते हैं। उस लिंग का प्रतीक भी बाह्य लिंग है। (मा.वि.तं. 18-श्तः 11)। सृष्टि संसार में लिंग और योनि के परस्पर संगम से हुआ करती है। परमेश्वर शिवरूपतया जगत् पिता है और शक्तिरूपतया जगन्माता है। उन दोनों के परस्पर अभिमुखतया ठहरे हुए एक संघट्टात्मक पर तत्त्व का प्रतीक ही प्रणाली के बीच में खड़ा ठहरा हुआ शिवलिंग है। अतः इस पर शिवशक्ति संघट्ट की भावना की जाती है। तब ही इसकी उपासना भोग और मोक्षरूपी जीवन फलों को देती है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


लिंग देखिए ‘अष्‍टावरण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग त्रय उच्चार योग में भावना के द्वारा स्फुटतया आभासमान तीन उपास्य तत्त्व। उनमें से अव्यक्तलिंग (देखिए) नर, शक्ति और शिव के स्वरूपों वाला होता है। देहादि के विषय में अभिमान के रहते हुए भी जब परतत्त्व का समावेश चित्त में हो जाता है तो नर-शक्ति-स्वरूप व्यक्ताव्यक्त लिंग (देखिए) का उद्बोध हो जाता है। पराद्वैतरूपिणी संवित् शक्ति के गुणीभूत हो जाने पर प्रमेयरूपता ही के प्रधानतया प्रकाशित हो चुकने पर जिस (जगत की सृष्टि और लय के धाम बने हुए) लिंग का उद्बोध होता है, उसे व्यक्तलिंग (देखिए) कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


लिंग धारण देखिए ‘गर्भ-लिंग-धारण’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग-स्थल वीरशैव दर्शन में परमतत्व को ‘स्थल’ कहा जाता है। वह सृष्‍टि-लीला के समय अपनी विभिन्‍न शक्‍तियों या कलाओं से संयुक्‍त होकर महालिंग, ‘प्रसादलिंग’, ‘जंगमलिंग’ (चरलिंग), ‘शिवलिंग’, और ‘आचारलिंग’ नामक छः प्रकार के लीला-विग्रहों को धारण कर लेता है। इस तरह वह ‘स्थल’ तत्व ही लिंगस्वरूप हो जाने से ‘लिंग-स्थल’, अर्थात् लिंगरूपी स्थल-तत्व कहा जाता है। वीरशैव दर्शन के साधक को इन लिंगों की उपासना के माध्यम से ही मूल स्थल तत्व की प्राप्‍ति होती है। इन लिंगों के स्वरूप इस प्रकार हैं (अनु. सू. 3/21-23)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग-स्थल क. महालिंग सूक्ष्म-कार्य और कारण रूप प्रपंच की उपादान-कारणीभूत शक्‍ति को ‘चिच्छक्‍ति’ कहते हैं। इस शक्‍ति का पर्याय नाम है ‘शांत्यतीतोत्‍तरा-कला’। इस ‘शांत्यतीतोत्‍तराकला’ से संयुक्‍त वह स्थलरूप परशिव ही ‘महालिंग’ कहलाता है। यह अखंड, गोलाकार, तेजोमय ऊंकार-स्वरूप है। सृष्‍टि के समय इसी महालिंग से ‘पंचशक्‍ति’, ‘पंचकला’ और ‘पंचसादाख्य’ आदि का उदय होता है। अतः इस महालिंग को भावी सृष्‍टि की हेतुभूत एक पूर्ण गर्भावस्था कह सकते हैं। यह अणु से भी अणु और महत् से भी महान् है। यही सृष्‍टि, संहार आदि पंच कृत्यों का नियामक है। इस ‘महालिंग’ के उपासक अंग (जीव) को ‘ऐक्य’ कहते हैं। यह ऐक्य-अंग इसी महालिंग में समरस होकर मुक्‍त हो जाता है (अनु. सू. 3/28,35,36; वी.आ.चं. पृष्‍ठ 39; च.ज्ञा.आ. क्रियापाद 3/30)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग-स्थल ख. प्रसाद-लिंग चिच्छक्‍ति से संयुक्‍त महालिंग के सहस्रांश से आनंदस्वरूपिणी ‘पराशक्‍ति’ का प्रादुर्भाव होता है। पराशक्‍ति का पर्याय नाम है ‘शांत्यतीत-कला’। इस शांत्यतीत कला से संयुक्‍त वह स्थल-रूप परशिव ही ‘प्रसाद-लिंग’ कहलाता है। यह सत-चित्-आनंदैकरस-स्वरूप है। इस प्रसाद लिंग में ही ‘शिवसादाख्य’ आश्रित रहता है। शिव के ईशानमुख से इस प्रसाद-लिंग की अभिव्यक्‍ति होती है। प्रसाद-लिंग के उपासक अंग (जीव) को ‘शरण’ कहते हैं। इस ‘शरण’ नामक उपासक को इस प्रसाद-लिंग में रहने वाली ‘शांत्यतीत कला’ की कृपा से शिव के सत्-चित्-आनंदस्वरूप का अनुभव होता है (अनु. सू. 3/29, 36,37; वी.आ.चं. पृष्‍ठ 40; च.ज्ञा.आ. क्रियापाद 3/30)।)

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग-स्थल ग. जंगम-लिंग पराशक्‍ति के सहस्रांश से उत्पन्‍न शक्‍ति को ‘आदिशक्‍ति’ कहते हैं। आदिशक्‍ति का पर्याय नाम ‘शांति कला’ है। इस शांति-कला से संयुक्‍त स्थल-रूप परशिव को ‘जंगम-लिंग’ कहते हैं। इस जंगम-लिंग को ‘चरलिंग’ भी कहा जाता है। यही ‘अमूर्त सादाख्य’ का आश्रय है। शिव के तत्पुरुष मुख से इस जंगम-लिंग की अभिव्यक्‍ति मानी जाती है। इस लिंग का उपासक अंग (जीव) ‘प्राणलिंगी’ कहलाता है। जंगम-लिंग में रहने वाली शांति-कला की कृपा से इस लिंग के उपासक जीव के मलरूपी नाश क्षीण हो जाते हैं और उसमें आत्मानुभव की अभिव्यक्‍ति होती है तथा साधक का मन निरंतर शांति से ओत-प्रोत रहता है (अनु.सू. 3/30,38,39; वी.आ.चं. पृष्‍ठ 40; च. ज्ञा.आ. क्रियापाद 3/29)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग-स्थल घ. शिवलिंग आदि-शक्‍ति के सहस्रांश से उत्पन्‍न शक्‍ति को ‘इच्छाशक्‍ति’ कहते हैं। इच्छाशक्‍ति का पर्याय नाम ‘विद्‍याकला’ है। इस विद्‍याकला से संयुक्‍त वह स्थल-रूप परशिव ही ‘शिवलिंग’ नाम से अभिहित होता है। सूक्ष्म साकार-स्वरूप का होने से यह ‘मूर्त सादाख्य’ का आश्रय कहलाता है। शिव के अघोरमुख से इसकी अभिव्यक्‍ति मानी जाती है। इस लिंग के उपासक अंग (जीव) को ‘प्रसादी’ कहते हैं। इस शिवलिंग-निष्‍ठ विद्‍या-कला के द्‍वारा उपासक की अविद्‍या निवृत्‍त हो जाती है और उसको विद्‍या की प्राप्‍ति होती है, जिससे वह साधक माया के कार्यभूत शरीर आदि से भिन्‍न अपने आत्मतत्व को जान लेता है (अनु. सू. 3/31,40; वी.आ.चं.पृष्‍ठ 40; चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद 3/29)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग-स्थल ड. गुरु-लिंग इच्छाशक्‍ति के सहस्रांश से उत्पन्‍न शक्‍ति को ‘ज्ञानशक्‍ति’ कहते हैं और उसका पर्याय नाम ‘प्रतिष्‍ठा-कला’ है। इस प्रतिष्‍ठा कला से संयुक्‍त वह स्थल-रूप परशिव ही ‘गुरुलिंग’ नाम से अभिहित किया जाता है। इसे कर्तृसादाख्य का आश्रय माना जाता है। शिव के वामदेव-मुख से इस गुरु-लिंग की अभिव्यक्‍ति मानी जाती है। इस गुरु-लिंग के उपासक अंग (जीव) को ‘महेश्‍वर’ कहते हैं। गुरु-लिंग-निष्‍ठ प्रतिष्‍ठा-कला के द्‍वारा उपासक के मन में शिव के प्रति अनुराग की प्रतिष्‍ठा होती है (अनु.सु. 3/32,41,42; वी.आ.चं. पृष्‍ठ 40; चं.ज्ञा.आ. क्रियापाद 3/28)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंग-स्थल च. आचार-लिंग ज्ञानशक्‍ति के सहस्रांश से उत्पन्‍न शक्‍ति ही ‘क्रियाशक्‍ति है और उसका पर्याय नाम ‘निवृत्‍ति-कला’ है। इस निवृत्‍ति कला से संयुक्‍त वह स्थलरूप परशिव ही ‘आचार-लिंग’ कहलाता है। इसे कर्म-सादाख्य का आश्रय माना जाता है। शिव के सद्‍योजात मुख से इस ‘आचार-लिंग’ की अभिव्यक्‍ति होती है। इस आचार-लिंग के उपासक अंग (जीव) को ‘भक्‍त’ कहते हैं। आचार-लिंग-निष्‍ठ निवृत्‍ति-कला के द्‍वारा उपासक कर्मभोग से निवृत्‍त हो जाते हैं और वह गुरु-लिंग आदि की उपासना की योग्यता प्राप्‍त कर लेता है। (अनु. सू. 3/33, 42,43, वी.आ.चं. पृष्‍ठ 40; चं.ज्ञा.आ. क्रियापद 3/28)।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंगधारी चिह्न को धारण करने वाला।

हर धर्म के अपने – अपने कुछ चिह्न विशेष होते हैं, जिनसे यह पहचाना जाता है कि अमुक संन्यासी अमुख धर्म से संबंधित है। ये चिह्न भिन्‍न-भिन्‍न धर्मों में भिन्‍न – भिन्‍न होते हैं। पाशुपत धर्म में भस्मस्‍नान, भस्मशयन, अनुस्‍नान तथा निर्माल्यधारण पाशुपत योगी के चिह्न कहे गए हैं और इन चिह्नों को धारण करने वाला योगी लिङ्गधारी कहलाता है। पाशुपत साधना की प्रारंभिक भूमिकाओं में लिंगधारी बनना आवश्यक होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 12)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

लिंगपरिणाम योगसूत्र में गुणों के जो चार पर्व कहे गए हैं, लिंगरूप परिणाम उनमें से एक है (योगसू. 2/19)। यह लिंग महत्तत्त्व या बुद्धि भी कहलाता है जो त्रिगुण का प्रथम विकार है। (लिंग के उपादानभूत त्रिगुण अलिंग कहलाते हैं)। महत् को लिंग (= व्यंजक चिह्न) कहना साभिप्राय है क्योंकि व्यक्त महत् में पुरुष और प्रकृति दोनों का लिंग है – इसमें त्रिगुण का लिंग रूप जाड़्धर्म है तथा पुरुष का लिंग विषयप्रकाशन-सामर्थ्य है। इस लिंग में व्यक्तता की पराकाष्ठा है और यह अहंकार का साक्षात उपादान है। यह लिंग ही व्यावहारिक आत्मा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

लिंगसर्ग इस सर्ग का उल्लेख सां. का. 52 में मिलता है। व्याख्याकार वाचस्पति ने लिंगसर्ग को तन्मात्रसर्ग कहा है। सामान्यतया ‘लिंग’ शब्द सूक्ष्मशरीर का वाचक है, पर प्रस्तुत स्थल में लिंगसर्ग को तन्मात्रसर्ग के अर्थ में लेना युक्तिसंगत है – ऐसा विभिन्न टीकाकारों ने कहा है। किसी-किसी व्याख्या के अनुसार महत् आदि तत्त्वों का सर्ग ‘लिंगसर्ग’ है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

लिंगांग-संयोग देखिए ‘लिंगांग-सामरस्य’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंगांग-सामरस्य वीरशैव-दर्शन में मोक्ष को ‘लिंगांग-सामरस्य’ कहते हैं। यहाँ पर शिव को ‘लिंग’ और जीव को ‘अंग’ कहा गया है। शिव और जीव का परस्पर समरस हो जाना ही लिंगांग-सामरस्य’ है। समरसता की प्राप्‍ति के लिए इस दर्शन में ‘सती-पति’ भावना की आवश्यकता बतायी गयी है, अर्थात् शिव को ‘पति’ और अपने को ‘सती’ मानना चाहिये। साधक की साधना मैं जैसे-जैसे प्रगति होती जाती है, वैसे-वैसे उसके मन में शिव के प्रति प्रेम का आविर्भाव होता है। यही प्रेमभाव प्रगाढ़ होकर साधक में ‘सती-भाव’ को जाग्रत् करता है। जैसे अपने पर अपना प्रेम निर्व्याज रहता है, उसी प्रकार सती-भाव-युक्‍त साधक भी शिव से निर्व्याज प्रेम करता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि साधक के मन में शिव के साथ अभेद-भावना का अंकुर उत्पन्‍न हो जाता है। इस अभेद-बोध से ही साधक को शिव के आनंद-स्वरूप का अनुभव होने लगता है। शिव के आनंदस्वरूप का अनुभव करता हुआ साधक जब उस आनंदस्वरूप परशिव से अपने पृथक् अस्तित्व को भूल जाता है, तब वह शिव के साथ समरस हो जाता है। इसी को ‘लिंगांग-सामरस्य’ कहते हैं। जैसी जल की जल के साथ और ज्योति की ज्योति के साथ एकाकारता होती है, उस कोटि का यह सामरस्य होता है। यही मुक्‍ति है। इसी को ‘अंग-लिंग-ऐक्य’ कहते हैं। ‘लिंगांग-संयोग’ शब्द भी इसी का पर्याय है (सि.शि. 20/2 पृष्‍ठ 210; क्रि.सा.भाग. 3 पृष्‍ठ 33)।

यहाँ पर ‘लिंग’ और ‘अंग’ का यह संयोग घट और पट के संयोग की तरह न होकर ‘शिखी’ और ‘कर्पूर’ के संयोग की तरह माना जाता है, अर्थात् जैसे अग्‍नि के संयोग से कर्पूर अग्‍नि-स्वरूप ही हो जाता है, अग्‍नि से पृथक् कर्पूर की स्थिति नहीं रह जाती, उसी प्रकार लिंग से संयुक्‍त अंग का भी पृथक् अस्तित्व नहीं रह जाता। यही लिंगांग-संयोग है (अनु. सू. 5/56)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंगाचार देखिए ‘पंचाचार’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लिंगायत देखिए ‘वीरशैव’।

दर्शन : वीरशैव दर्शन

लीला सृष्‍टि, स्थिति, संहार, तिरोधान और अनुग्रह रूप शिव के पंचकृत्यों को वीरशैव दर्शन में ‘लीला’ कहा जाता है। शिव के इन पंचकृत्यों को ‘लीला’ इसलिये कहा जाता है कि वे उनके संकल्प मात्र से सिद्‍ध होकर विनोद के कारण बनते हैं। जैसे अत्यंत निपुण नट स्वयं ही अनेक रूप धारण करके नाट्‍य का अभिनय करता है, उसी प्रकार शिव अकेला ही अपनी स्वातंत्र्य शक्‍ति से कभी सृष्‍टि, कभी पालन, कभी संहार करता है और कभी सृष्‍टि जीवों को अपने तिरोधान और अनुग्रह व्यापार से क्रमशः बद्‍ध और मुक्‍त करता है। शिव अपने किसी प्रयोजन की सिद्‍धि के लिये राग-द्‍वेष से प्रयुक्‍त होकर सृष्‍टि, संहार आदि व्यापार में प्रवृत्‍त नहीं होता है, क्योंकि वह आप्‍तकाम है। अतएव इस व्यापार को ‘लीला’ कहते हैं।

प्राणियों को नाना योनियों में सुख-दुःख देने वाली शिव की इस लीला को ‘वैषम्य’ और ‘नैर्घृण्य’ दोष से युक्‍त भी नहीं माना जाता, क्योंकि वह प्राणियों को तत्‍तत् / कर्मानुरूप सुखी, दुःखी, ज्ञानी और अज्ञानियों के रूप में बनाता है। अपनी लीला के लिये प्राणियों के कर्म की अपेक्षा करने से उसके स्वातंत्र्य की हानि नहीं होती, क्योंकि जैसे कोई चक्रवर्ती राजा अपने ही बनाये नियम के अनुरूप कुशल व्यक्‍तियों को पुरस्कृत करता है, तो दुष्‍ट व्यक्‍तियों को दंड भी देता है। यहाँ अपने ही बनाये नियम की परतंत्रता रहते हुए भी वह स्वतंत्र ही कहलाता है, उसी प्रकार स्वरचित नियम के अनुसार प्राणियों के कर्म की अपेक्षा करने पर भी शिव स्वतंत्र ही रहता है। इस प्रकार स्पष्‍ट हो जाता है कि सृष्टि, संहार आदि व्यापार शिव की ‘लीला’ है (ब्र.सू. 2-1-33,34 श्रीकर. भा.; वी.आ.चं. पृष्‍ठ 28; सि.शि. 1/6 पृष्‍ठ 3)।
दर्शन : वीरशैव दर्शन

लीलाकैवल्य लीलारूप कैवल्य या लीला रूप मोक्ष लीलाकैवल्य है। ब्रह्म की एकरसता अथवा उसका अन्य धर्म से रहित होना ही केवलता या कैवल्य है। यह केवलता अर्थात् ब्रह्म की शुद्धता लीलात्मिका ही है क्योंकि शुद्ध ब्रह्म लीला विशिष्ट ही होता है, लीला रहित नहीं। अतएव लीला शुद्ध ब्रह्म स्वरूप है और इसीलिए पुष्टि मार्ग में कैवल्य लीला रूप ही है (अ.भा.पृ. 602, 1414, 1422)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

लीलारस भगवान् की लीलाओं का आनंद या आस्वादन लीलारस है अथवा भगवान् की लीलायें स्वयं ही रस हैं (अ.भा.पृ. 1014)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

लोक 1. शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण चित्प्रकाश (शि.सू.वा.पृ. 21)। 2. देखिए भुवन।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


लोपामुद्रा विद्या लोपामुद्रा सन्तान और कामराज सन्तान के नाम से त्रिपुरा सम्प्रदाय के दो मुख्य विभाग हैं। लोपामुद्रा सन्तान की प्रवृत्ति अगस्त्य मुनि की पत्नी लोपामुद्रा से मानी जाती है। लोपामुद्रा ने ही सर्वप्रथम इस विद्या को लोक में प्रवृत्ति किया था। इसलिये उन्हीं के नाम से यह विद्या प्रसिद्ध हुई। हादिविद्या का अभिप्राय भगवती त्रिपुरसुन्दरी के उस मन्त्र से है, जिसका आरंभ हकार से होता है। दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ क्रम से यह विद्या आज भी लोक में प्रवृत्त है। प्रपंचसार और सौन्दर्यलहरी में पहले हादिविद्या का ही उद्धार किया गया है। योगिनीहृदय में इसी विद्या की व्याख्या की गई है। ऋजुविमर्शिनी, अर्थरत्नावली, ज्ञानदीपविमर्शिनी, सौभाग्यसुधोदय प्रभृति ग्रन्थों में इस विद्या की दिव्यौघ, सिद्धौघ और मानवौघ गुरु परम्परा सुरक्षित है। तदनुसार दिव्यौघ क्रम में चर्यानाथ, ओड्डनाथ, षष्ठिनाथ और मित्रीशनाथ के नाम आते हैं। सिद्धौघ क्रम में लोपामुद्रा, अगस्त्य, कंकालतापस, धर्माचार्य, मुक्तकेशिनी और दीपकाचार्य हैं। इनमें धर्माचार्य लघुस्तव के तथा दीपकनाथ त्रिपुरसुन्दारी-दण्डक के रचयिता हैं। मानवौघ परम्परा में जिष्णुदेव, मातृगुप्तदेव, तेजोदेव, मनोजदेव, कल्याणदेव, रत्नदेव और वासुदेव के नाम उल्लिखित हैं। ऋजुविमर्शिनीकार शिवानन्द वासुदेव के शिष्य थे। कामकलाविलासकार पुण्यानन्द और उनके शिष्य योगिनीहृदयदीपिकाकार योगी अमृतानन्द भी इसी विद्या परम्परा के प्रमुख आचार्य थे। इस विषय की अधिक जानकारी के लिये “सारस्वती सुषमा” (व. 20, अ. 2, पृ. 13-26) में प्रकाशित ‘त्रिपुरादर्शनस्यापरिचिता आचार्याः कृतयश्च’ शीर्षक निबन्ध देखना चाहिये।

दर्शन : शाक्त दर्शन

वरणभेद एक जाति की वस्तु को जब योगी संकल्पबल से अन्य जाति में रूपान्तरित करते हैं तब जिस प्रक्रिया के आधार पर वह वस्तु अन्य जाति में परिणत होती है उस प्रक्रिया का परिचय ‘वरणभेद’ शब्द से योगसूत्रकार ने दिया है (4/3)। वरणभेद का अर्थ है वरण (= प्रतिबन्ध) का नाश। सूत्रकार का कहना है कि किसी वस्तु में जिस जाति की अभिव्यक्ति करानी है उस जाति की प्रकृति वस्तु में पहले से ही रहती है, पर विरुद्ध प्रकृति उसकी अभिव्यक्ति को रोके रहती है। इस आवरण (वरण) को भंग कर देने मात्र से सूक्ष्म रूप से अवस्थित अभीष्ट प्रकृति स्वतः अभिव्यक्त हो जाती है – इस अभिव्यक्ति के लिए अन्य कोई व्यापार पृथक् रूप से नहीं करना पड़ता। उदाहरणार्थ, धर्माचरण से तामस आवरण नष्ट होता है और सत्त्वप्रधान प्रकृतियाँ व्यक्त होती हैं। उसी प्रकार अधर्म से सात्त्विक आवरण नष्ट होता है और तमःप्रधान प्रकृतियाँ व्यक्त होती हैं। ये धर्म-अधर्म प्रकृतियों को प्रवर्तित नहीं करते, केवल उनके आवरणों का नाश करते हैं – यह वरणभेद है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

वर्ण-अध्वन आणवोपाय की कालाध्वा नामक धारणा में आलंबन बनने वाला सूक्ष्मतर मार्ग। पद के पर रूप को वर्ण कहते हैं। मंत्राध्वा के अभ्यास से क्षुब्ध प्रमाणस्वरूपता के शांत हो जाने पर साधक पूर्ण प्रमातृता में विश्रांति प्राप्त करने के लए वर्णाध्वा का अभ्यास करता है। इस अभ्यास में वह समस्त वर्ण प्रपंच को अपने शुद्ध स्वरूप से दृढ़तर भावना द्वारा व्याप्त करता हुआ अपने शिवभाव के समावेश को प्राप्त कर सकता है। (तं.सा.पृ. 47, 59-61, 112)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


वशित्व अणिमादि आठ सिद्धियों में वशित्व (‘वशिता’ शब्द भी प्रयुक्त होता है) एक है (व्यासभाष्य 3/45)। इस सिद्धि के दो पक्ष हैं – भूत (पंचभूत) एवं भौतिक (पंचभूत-निर्मित-घटादि) को अपने वश में रखना तथा अन्यों के वश में न रहना। भूत-भौतिक के कारण-पदार्थ पर आधिपत्य करने पर ही यह सिद्धि उत्पन्न होती है। इस सिद्धि के कारण सभी भूत योगी के नियंत्रण में रहते हैं और वे उसकी इच्छा के अनुसार विपरिणाम को प्राप्त करते हैं। भूतभौतिक की प्राकृतिक शक्तियों का प्रतिबन्ध करने की शक्ति भी इस सिद्धि से होती है। भूतों का सूक्ष्मनामक जो रूप है, उस पर संयम करने से यह सिद्धि प्राप्त होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

वशीकार वशीकार=वशीकरण, जो वश में नहीं था, उसको वश में लाना। ‘वशीकार’ का जो प्रयोग है उससे वशीकार का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। योगसूत्र 1/40 के अनुसार योगशास्त्रीय उपायों से स्थिति प्राप्त होने पर योगी का चित्त परमाणुपर्यन्त सूक्ष्मविषय में तथा स्थूल-भूत-पर्यन्त परममहत् विषय में स्वेच्छ्या बाधाहीन होकर विचर सकता है। चित्त को अभीष्ट किसी भी विषय में निविष्ट करना जब सहजसाध्य हो जाता है, किसी से भी चित्त के संचार से बाधा नहीं होती, तब यह स्थिति वशीकार कहलाती है। यह वशीकार की सर्वोच्च अवस्था है, जो ‘परवशीकार’ कहलाती है। इससे निम्नकोटि का वशीकार भी है, जो ‘अपरवशीकार’ कहलाता है। वैराग्य को ‘वशीकारसंज्ञा’ कहा जाता है। वहाँ ‘वशीकार’ से ‘विषयकृत मनोविकारशून्यता’ का बोध होता है; विषय में हेय-एवं-उपादेय-बुद्धि न होकर जो उपेक्षा-बुद्धि होती है वहीं वशीकारसंज्ञा है (योगसूत्र 1/15 का भाष्य)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

वश्यता

‘वश्यता’ का अर्थ ‘वश्य का भाव’; वश्य = वश में रहने वाला। योगशास्त्र में ‘वश्यता’ का अभिप्राय ‘इन्द्रियवश्यता’ से है, अर्थात् अपने-अपने विषयों की ओर इन्द्रिय की जो प्रवृत्ति है उस प्रवृत्ति पर इन्द्रियाधीश मन का पूर्ण आधिपत्य होना – अनभीष्ट विषय की ओर इन्द्रियों की प्रवृत्ति न होना ही वश्यता है। इस वश्यता के भी कई भेद हैं (द्र. व्यासभाष्य 2/55) और इसका सर्वोच्च उत्कर्ष तब होता है कि जब चित्त की एकाग्रता से ही (अन्य किसी उपाय से नहीं) इन्द्रियों की (विषय की ओर) अप्रवृत्ति होती है।
दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

वह्नि विज्ञानभैरव के 67वें श्लोक में वह्नि और विष शब्दों की चर्चा आई है। यहाँ वह्नि का अधःकुण्डलिनी से संबन्ध है और विष का ऊर्ध्व कुण्डलिनी से। अधःकुण्डलिनी में प्रवेश (आवेश) संकोच अथवा वह्नि कहलाता है और ऊर्ध्व कुण्डलिनी में प्रवेश विकास अथवा विष कहलाता है। वह्नि का प्राण से संबंध है और विष का अपान से। जब प्राण सुषुम्ना में प्रवेश करता है और अधःकुण्डलिनी अथवा मूलाधार तक जाता है, तब इस दशा को वह्नि कहते हैं। अधःकुण्डलिनी के मूल और आधे मध्य तक में प्रवेश वह्नि अथवा संकोच कहलाता है। वह्नि शब्द वह् धातु से निष्पन्न हुआ है, जिसका अर्थ है – उठाकर ले जाना। अग्नि को वह्नि इसलिये कहा जाता है कि यह जो कुछ उसमें हवन किया जाता है, उसे देवों तक उठाकर ले जाता है। प्रस्तुत प्रसंग में वह प्राण को मूलाधार तक उठाकर ले जाता है। इससे जीव का स्वरूप संकुचित हो जाता है। वह्नि शब्द इसी दशा का बोधक है।

  योगशास्त्र में मानव शरीर स्थित आधारों की चर्चा आई है। इनमें से लिंग के ऊपर नाभि से चार अंगुल नीचे वह्नि नामक आधार की स्थिति मानी गई है। नित्याषोडशिकार्णव (5/1) और तन्त्रालोक (3/165-170) में काम तत्त्व के रूप में इसका वर्णन किया गया है। गोरक्षनाथ कृत अमरौघशासन (पृ. 8-9) में भी यह विषय चर्चित है। 
दर्शन : शाक्त दर्शन

वह्नि शुद्ध एवं परिपूर्ण संविद्रूप पर-प्रकाश ही जब प्रमाण एवं प्रमेय के समरस रूप परिमित प्रमाता के रूप में प्रकट हो जाता है तो उस अवस्ता में पहुँचने पर ही परतत्त्व या पर प्रकाश वह्नि कहलाता है। (तं.आ. 3-122, 123) वह्नि को प्रमाण एवं प्रमेय के भेद का दहन करने के कारण ज्वलन प्रधान चिद्रपू माना गया है और इसी रूप के कारण इसे परिमित प्रमातृ रूप भी माना गया है। (वि पृ. 127)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


वाग्विशुद्‍ध ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत मत के अनुसार ईश्‍वर के परस्वरूप का वर्णन वाणी से नहीं हो सकता है, वहाँ वाणी पूर्णरूपेण निवर्तित होती है। अतः वह वाग्विशुद्‍ध कहलाता है। तात्पर्य यह है कि वाणी का विषय बनने से जो प्रमेयतारूपिणी अशुद्‍धि सांसारिक भावों में आती है, परमेश्‍वर उस अशुद्‍धि से सर्वथा हीन है, अतः वाग्विशुद्‍ध कहलाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 127, ग.का.टी.पृ.11)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

वाम ईश्‍वर का नामांतर।

पाशुपत मत में ईश्‍वर को श्रेष्‍ठ शक्‍ति संपन्‍न होने के कारण वाम कहा गया है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 56)। वाम शब्द का अर्थ सुंदर भी होता है। जैसे ‘वामोरू’ शब्द का अर्थ होता है सुंदर ऊरुओं वाली ललना। परमेश्‍वर परम आनन्दमय होने के कारण अतीव सुंदर अर्थात् हृद्‍य तथा स्पृहणीय है। अतः उसे वाम कहते हैं।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

वामदेव स्वच्छंद नाथ (देखिए) के पाँच मंत्रात्मक स्वरूपों में से चौथा रूप। शिव इस रूप में अवतरित होकर भेदात्मक शैवशास्त्र का उपदेश करता है। प्रक्रिया मार्ग की दृष्टि से साधना के क्रम में ईश्वर तत्त्व को ज्ञान शक्ति की अभिव्यक्ति माना गया है। उस दृष्टि से वामदेव को ईश्वर भट्टारक का तथा ज्ञान शक्ति की अभिव्यक्ति का स्फुट रूप माना गया है। (तं.आ.वि. 1-18)। स्वच्छंदनाथ के पाँचमुखों में से उत्तराभिमुख चेहरे का नाम भी वामदेव है। वामदेव मुख का वर्ण पीत माना गया है। इसकी अवस्था अविकसित क्रियाशक्ति प्रधान मानी गई है। यह विष्णुस्थानीय स्वप्न अवस्था है। (मा.वि.वा., 1-252, 271 से 276)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


वामा शान्ता शक्ति जब अम्बिका शक्ति में बीजभाव से अवस्थित जगत् को स्पष्ट भासित करने को उद्यत होती है, तो वह वामा कहलाती है। विश्व का वमन करने से और इसकी गति कुटिल होने से भी इसको वामा कहा जाता है। इसकी कुटिल गति के कारण ही श्रृंगाट (त्रिकोण) की वाम रेखा बनती है। यही वामा शक्ति इच्छा शक्ति से संवलित होकर पश्यन्ती के रूप में अभिव्यक्त होती है (योगिनीहृदय, 1/37-38)।

दर्शन : शाक्त दर्शन

वामा परमेश्वर की अंबा नामक पराशक्ति का वह रूप, जो निग्रह लीला को चलाता है। वामा शक्ति अपने अनंत शक्ति समूहों के समेत जीवों के बंधन की लीला को चलाती रहती है। जीवों को संसृति के चक्कर में ही लगाए रखने के कार्य को यही शक्ति करती है। वामादेवी के अनंत शक्ति समूहों को घोरतरी शक्तियाँ कहा जाता है। (तं.आ. 6-47; मा.वि.वा. 3-31)। संसार का अर्थात् संसृति का वमन करते रहने ही के कारण इसे वामा कहते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


वामेश्वरी चक्र खेचरी, गोचरी, दिक्चरी तथा भूचरी नामक अंतः एवं बाह्य शक्ति चक्रों की वामेश्वरी नामक अधिष्ठातृ देवी के इन सभी शक्तियों के समूह को वामेश्वरी चक्र कहते हैं। भेदाभेदमय तथा पूर्ण भेदमय प्रपंच को अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली तथा भेदमय एवं भेदाभेदमय प्रपंच को पुनः अभेद रूप प्रदान करने वाली वामा शक्तियों की स्वामिनी देवी को वामेश्वरी कहते हैं। इसके इस सारे शक्ति समूह को वामेश्वरी चक्र कहते हैं। (स्व.सं.पृ. 20)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


वार्ता स्वार्थ-संयम’ से पुरुष-ज्ञान उत्पन्न होने से पहले जो सिद्धियाँ प्रयास के बिना प्रकट होती हैं, वार्ता उनमें से एक है (योगसूत्र 3/36)। इस सिद्धि से दिव्यगन्धसंविद् होती है। ह्लादयुक्त अलौकिक गन्ध का ज्ञान इसका स्वरूप है। वर्तमान लेखक की दृष्टि में सिद्धि का नाम वार्ता न होकर वार्त (अकारान्त) है; अर्वाचीन काल के आचार्यों ने भ्रमवश ‘वार्ता’ नाम कल्पित किया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

वास उपाय का एक भेद।

पाशुपत दर्शन में वास के कई अर्थ दिए गए हैं। भासर्वज्ञ के अनुसार इसका पहला अर्थ है – ग्रहण – अर्थात् शास्‍त्रवाक्यों के सम्यक् अर्थ को अच्छी तरह से समझना ग्रहण नामक वास होता है। उन शास्‍त्र सिद्‍धांतों को बड़ी देर तक अच्छी तरह से याद रखना धारण नामक वास होता है। उस समझे हुए ज्ञान का बाहर विविध स्थानों में अर्जित ज्ञान के साथ ठीक तरह से तालमेल बिठाना ऊह नाम वास होता है। अपने मत की दृढ़ प्रतिपत्‍ति के लिए दूसरे मत के दार्शनिक सिद्‍धांतों का खंडन करने की शक्‍ति अपोह को भी वास कहते हैं। जिस श्रुति की अनेकार्थक व्याख्या हुई हो, उसको वास्तविक रूप में समझने की शक्‍ति तथा अपने सिद्‍धांतों को दूसरे लोगों में प्रचार करने की क्षमता विज्ञान नामक वास होता है। पुनरुक्‍तिदोष से मुक्‍त तथा परस्पर व्याघातरहित भाषणशक्‍ति वचन नामक वास होता है। दोष रहित उच्‍चारण से गुरु को प्रसन्‍न रखना तथा उसकी परिचर्या करना क्रिया नामक वास होता है। शास्‍त्रीय सिद्‍धांतों के पूर्वपक्ष तथा उत्‍तरपक्ष दोनों के परस्पर शास्‍त्रार्थ का उचित पर्यालोचन करके फिर उचित अर्थ का अनुष्‍ठान करने का प्रयत्‍न यथान्यायामि निवेश नामक वास होता है। इस तरह से भासर्वज्ञ ने गणकारिका टीका में वास के कई अर्थ दिए हैं और सभी अर्थ प्राय: ज्ञान व शास्‍त्र को समुचित रूप से समझने के अर्थ में ही दिए गए हैं (ग.का.टी.पृ.17)। अतः वास को यहाँ पर निवास के अर्थ में कदापि नहीं लिया जाना चाहिए। यह एक तान्त्रिकी संज्ञा है।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

वासना वासना को आशय भी कहा जाता है (चित्तभूमि में शयन करने के कारण)। जो संस्कार केवल स्मृति को उत्पन्न करते हैं, वे वासना कहलाते हैं (द्र. व्यासभाष्य 2/13); कर्माशय रूप वासना जन्म, आयु एवं सुखदुःखभोग की नियामक है। अनुभवमात्र की वासना होती है; यही कारण है कि मरण-भयरूप स्मृति से पूर्वजन्म का (पूर्वजन्म में संचित वासना का) अनुमान पूर्वाचार्यों ने किया है। वासना अपने अनुरूप कर्मों द्वारा अभिव्यक्त होती है। चित्त की वृत्तियों पर वासना का प्रभाव अत्यन्त प्रबल है। वासना अनादि है और चित्त अनेक प्रकार की वासनाओं द्वारा सदैव अनुरंजित रहता है। जिस प्रकार के कर्म का जैसा फल होता है, उस फल के भोग के अनुरूप वासना होती है। कैवल्य में चित्त एवं चित्तगत वासना का अभाव (अव्यक्त भाव) हो जाता है। यह जिन उपायों से संभव होता है, उनका विवरण योगसूत्र 4/11 में द्रष्टव्य है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विकरण धर्मित्व सिद्‍ध योगी की एकशक्‍ति।

करणरहित होने पर भी ऐश्वर्यरूप ज्ञानशक्‍ति तथा क्रियाशक्‍ति की उपस्थिति विकरणधर्मित्व नामक शक्‍ति होती है। पाशुपात दर्शन के अनुसार सिद्‍ध साधक में ऐसी शक्‍ति उद्‍बुद्‍ध हो जाती है कि वह विकरण होने पर भी अर्थात् इन्द्रिय रहित होने पर भी अपार ऐश्‍वर्य का भोक्‍ता बनता है, उसे ऐश्‍वर्ययुक्‍त कैवल्य की प्राप्‍ति हो जाती है। (पा.सू.कौ.भा.पृ. 45 ग.का.टी.पृ.10)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

विकरणभाव इन्द्रिय जप से जो सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, उनमें से यह एक है (योगसू. 3.48)। देह-संबन्धहीन इन्द्रियों का किसी भी अभीष्ट देश, काल और विषय में वृत्तिलाभ अर्थात् उस देशादि से संबन्धित हो जाना – व्याप्त हो जाना – ही विकरणभाव है। इन्द्रियों की इस ‘विकीर्णता’ के कारण ही ‘विकरण’ नाम दिया गया है – ऐसा प्रतीत होता है। किसी-किसी के अनुसार भवप्रत्यय-समाधि से युक्त विदेहों का ही यह विकरणभाव होता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विकल्प पाँच प्रकार की वृत्तियों में विकल्प एक है। भाषाज्ञान पर आश्रित जो वास्तव में विषयशून्य बोध होता है, वह विकल्प है (योगसूत्र 1/9)। विपर्यस्त ज्ञान होने पर भी यह मिथ्याज्ञान-रूप विपर्यय से पृथक् है, क्योंकि मिथ्याज्ञान को जानने वाला उस मिथ्याज्ञान का व्यवहार नहीं करता। विपर्यय के लिए भाषा का आश्रय अनावश्यक है – विषय और इन्द्रिय ही अपेक्षित हैं। विकल्प-रूप भ्रान्ति ज्ञान का व्यवहार सदैव चलता रहता है, जब तक निर्विचारा समापत्ति अधिगत न हो। (इस समाधि से जात ऋतम्भरा प्रज्ञा में विकल्प की गन्ध भी नहीं है)। भाषाव्यवहार में ही विकल्पवृत्ति रहती है। यह विकल्प वस्तु, क्रिया और अभाव के भेद से तीन प्रकार का होता है। वस्तुविकल्प का उदाहरण है – ‘राहु का शिर’; जो राहु है, वही शिर है, अतः यहाँ अभिन्न पदार्थ में जो भाषाश्रित भेदज्ञान होता है, वह विकल्प है। ‘राहु का शिर’ ऐसा शब्दज्ञानजनित व्यवहार सिद्धवत् चलता ही रहता है। क्रियाविकल्प का उदाहरण यह है – ‘बाण चल नहीं रहा है’ इस वाक्य में वस्तुतः बाण न चलने की कोई क्रिया नहीं कर रहा है; वह अवस्थित ही है और उस अवस्थित भाव को ‘न चलना’ रूप क्रिया कहा जाता है। अभाव-विकल्प का उदाहरण है – पुरुष (तत्त्व) अनुत्पत्तिधर्मा है; यहाँ पुरुष में अनुत्पत्तिरूप धर्म की सत्ता कही गई है, यद्यपि वैसा कोई धर्म पुरुष में नहीं है – उनमें उत्पत्ति-धर्म का अभाव मात्र है। पुरुष ही चैतन्य है; पर ‘पुरुष का चैतन्य’ ऐसा जब कहा जाता है, तब वह वस्तुविकल्प का पारमार्थिक उदाहरण होता है। ‘पुरुष निष्क्रिय (क्रिया का अतिक्रमणकारी) है’ – यह वाक्य (अर्थात् वाक्यजनित ज्ञान) क्रियाविकल्प का उदाहरण है, क्योंकि पुरुष (तत्त्व), वस्तुतः अतिक्रमण क्रिया करते नहीं हैं।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विकल्प तान्त्रिक दर्शन में बाह्य नील-पीत (घट-पट) आदि से लेकर शून्य पर्यन्त सभी पदार्थ विकल्प स्वरूप माने गये हैं। अहं परामर्श दो प्रकार का होता है – शुद्ध और मायीय। इनमें से शुद्ध परामर्श विश्व से अभिन्न रूप में विद्यमान संवित्त्मात्र में अथवा विश्व की छाया से असंस्पृष्ट स्वच्छ आत्मा में होता है। मायीय अथवा अशुद्ध परामर्श वैद्यस्वरूप देह, बुद्धि, प्राण, शून्य आदि को अपना आलम्बन बनाता है, अर्थात् इन्हीं को अपना स्वरूप मान लेता है। इनमें से शुद्ध परामर्श में किसी प्रतियोगी (विरोधी) पदार्थ की सत्ता न रहने से कोई भी अपोहनीय (त्याज्य) नहीं है। घट प्रभृति बाह्य पदार्थ भी इस प्रकाशस्वरूप परमतत्त्व से ही अपना अस्तित्व बनाते हैं, अतः वे उससे अभिन्न ही है, उसके विरोधी नहीं। इस अवस्था में जब कोई स्थिति अपोहनीय नहीं है, तो वह विकल्प कैसे हो सकती है? इसके विपरीत अशुद्ध (मायीय) परामर्श से वैद्यरूप शरीर प्रभृति में उससे भिन्न देह आदि का और घट प्रभृति का भी व्यपोहन (व्यवच्छेद = भेद) विद्यमान है। इसी भेद दशा की प्रतीति को विकल्प के नाम से जाना जाता है। बौद्ध विज्ञानवाद और शून्यवाद में भी विज्ञान अथवा शून्य के अतिरिक्त सभी जागतिक पदार्थ विकल्प स्वरूप ही माने गये हैं।

दर्शन : शाक्त दर्शन

विकल्प सहज ज्ञान के द्वारा ही आभासित होने वाला और वस्तुतः कुछ भी न होने वाला वस्तु शून्य पदार्थ विकल्प कहलाता है। जैसे ‘आत्मा का चैतन्य’ इस वाक्य के शब्दों द्वारा आत्मा में रहने वाले किसी चैतन्य नामक पदार्थ का आभास केवल शब्द ज्ञान से ही आभासमान बनता है, स्वयं वस्तुतः कुछ भी नहीं होता है, क्योंकि आत्मा और चैतन्य दोनों वस्तुतः एक ही वस्तु है परंतु फिर भी कहने सुनने में ये दो पदार्थ परस्पर आधार और आधेय बनकर प्रकट हो जाते हैं। इस तरह से विकल्प बुद्धि की कल्पना मात्र ही होता है, स्वयं मूलतः कुछ नहीं होता।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


विकार भगवान् की लीलाओं से विरुद्ध सभी लोकिक अर्थ विकार हैं। भगवान् की लीलायें सदा निर्विकार एवं शुद्ध हैं (अ.भा.पृ. 1425)।

दर्शन : वल्लभ वेदांत दर्शन

विकृति

‘विकृति’ शब्द दो अर्थों में सांख्योगशास्त्र में प्रयुक्त होता है। एक अवस्था से अन्य अवस्था में जाना ही विकृति/विकार है जो ‘परिणाम’ शब्द से प्रायः अभिहित होता है (द्र. ‘परिणाम’)। ‘विकृति’ (या ‘केवलविकृति’) अथवा ‘विकार’ शब्द पारिभाषिक भी है, जो सांख्यशास्त्रीय सोलह विकारों (पाँच भूत, पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और एक मन) के लिए प्रयुक्त होता है। ये सोलह पदार्थ किसी तत्त्व के उपादान नहीं हैं, यद्यपि भूततत्त्व का भौतिक रूप अतात्त्विक परिणाम होता है (द्र. सां. का. 3 की तत्त्वकौमुदी टीका)।
दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विक्रम विगतः क्रमो यस्मात् स विक्रमः’ अर्थात् जहाँ किसी प्रकार का निश्चित क्रम न हो उसे विक्रम कहते हैं। इच्छा में तो क्रम होता ही नहीं है। इस प्रकार इच्छाशक्ति के व्यवहार को विक्रम कहते हैं। इच्छाशक्ति के व्यवहार में प्रायः इतनी तीव्र गति वाला क्रम होता है कि उसकी क्रमरूपता की प्रतीति ही नहीं होती है। इसलिए भी उसे विक्रम कहते हैं। इस दृष्टि से उसे विशिष्टः सुविचित्रः अप्रतीयमानः क्रमो यत्र, ऐसी व्युत्पत्ति से समझाया जाता है। अति तीव्र को भी विशिष्ट क्रम कहा जाता है और इस कारण भी इच्छा को विक्रम कहते हैं क्योंकि इच्छा योग के अभ्यास से अतितीव्र गति से आत्म साक्षात्कार हो जाता है। सृष्टि क्रम में भी इच्छाशक्ति की गति अत्यंत तीव्र होती है अतः इच्छा को विंशतिकाशास्त्र में विक्रम कहा गया है। (श्री विंशतिकाशास्त्र, 18)।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


विक्षिप्तभूमि चित्त की पाँच भूमियों (= सहज अवस्थाओं) में विक्षिप्त भूमि एक है। इस भूमि में अवस्थित चित्त न क्षिप्तभूमि में स्थित चित्त की तरह सदैव चंचल रहता है और न मूढ़भूमि में स्थित चित्त की तरह तमःप्रधान मोह से युक्त रहता है। कभी-कभी स्थैर्य का उद्भव हो जाना ही इस भूमि का वैशिष्ट्य है तथा इस भूमि में तत्त्वज्ञान का एक अस्पष्ट रूप भी कदाचित् प्रकट हो जाता है। इस भूमि में भी समाधि हो सकती है, पर यह समाधि कैवल्य की दृष्टि से व्यर्थ होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विक्षेप तथा चित्तविक्षेप जब विभिन्न विषयों में संस्कारवश चित्त का संचरण स्वाभाविक-सा होता रहता है, तब वह विक्षेप कहलाता है। चित्त स्वभावतः यदि इस रूप में रहता है, तो उस चित्त को विक्षिप्त-भूमिक चित्त कहा जाता है। योगाभ्यासजात स्थैर्य उद्भूत होने पर भी यह विक्षेप नष्ट नहीं होता; यही कारण है कि विक्षिप्तभूमिक चित्त में उपायविशेष से समाधि आविर्भूत होने पर भी वह प्रकृत योग के पक्ष में नहीं आता – यह व्यासभाष्य में स्पष्टतया कहा गया है (1/1 भाष्य द्र.)। योगसूत्र में चित्त को विक्षिप्त करने वाले पदार्थ भी ‘चित्तविक्षेप’ शब्द से कहे गए हैं। ये चित्त-विक्षेपक पदार्थ योग के अन्तराय हैं, जो संख्या में नौ हैं (योगसूत्र 1/30)। दुःख, दौर्मनस्य, अङ्गमेजयत्व, श्वास और प्रश्वास को विक्षेप के सहभू (= सहजात) के रूप में माना गया है (योगसूत्र 1/31)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विच्छिन्न अस्मिता आदि क्लेशों की चार अवस्थाओं में विच्छिन्न एक है (योगसू. 2/4)। किसी क्लेश का व्यापार जब कुछ क्षण के लिए रुद्ध हो जाता है तब वह क्लेश विच्छिन्न अवस्था में है, ऐसा कहा जाता है। उदाहरणार्थ, रागरूप क्लेश तब विच्छिन्न हो जाता है जब सम्बन्धित विषय पर द्वेष हो जाता है। जिस प्रकार यह विच्छिन्न-अवस्था अन्य क्लेश के द्वारा अभिभूत होने पर होती है उसी प्रकार एक विषय में किसी क्लेश का विच्छेद तब होता है जब अन्य विषय में वह क्लेश रहता है, जैसे एक स्त्री में अत्यधिक राग रहने पर अन्य स्त्री में (कुछ काल के लिए) राग नहीं रहता – राग विच्छिन्न हो जाता है, यद्यपि यह राग उस स्त्री पर भी बाद में हो ही सकता है। क्लेशों की प्रसुप्त अवस्था जिस प्रकार दीर्घकालस्थायी होती है, यह विच्छिन्न अवस्था वैसी दीर्घकालिक नहीं होती। जिस प्रकार प्राकृतिक हेतु से क्लेश विच्छिन्न हो सकता है, उसी प्रकार योगसाधन में भी विच्छिन्न हो सकता है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विज्ञान विशिष्‍ट ज्ञान।

पाशुपत साधक की विज्ञान शक्‍ति साधना के अभ्यास से जागृत हो जाती है। इस सिद्‍धि को प्राप्‍त कर लेने के अनन्तर साधक समस्त विज्ञेय को विशिष्‍ट रूप से जान लेता है। अर्थात् समस्त विज्ञेय का वास्तविक ज्ञान उसे हो जाता है। वह समस्त विषयों को उनके तात्विक स्वरूप में पहचानता है। अतः युक्‍त साधक या विज्ञाता को विज्ञेय का ज्ञान होना विज्ञानशक्‍ति कहलाता है। विज्ञान विशेषकर अनुभूति द्‍वारा वस्तुतत्व का साक्षात्कार रूप विशिष्‍ट ज्ञान होता है। सुनने और पढ़ने तथा सोचने से जो ज्ञान होता है, वह बौद्‍ध अध्यवसाय मात्र होता है। विशिष्‍ट ज्ञान योगज अनुभूति से ही होता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.42)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

विज्ञानकेवल (ली/लिन्) देखिए विज्ञानाकल।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


विज्ञानदेहाख्या विज्ञानदेह अर्थात् शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण संवित्स्वरूप परमेश्वर की आख्यायिका अर्थात् प्रत्यभिज्ञा करवाने वाली शक्तियाँ। आरोहण क्रम में सहायक बनने वाली इन शक्तियों को सौम्य शक्तियाँ भी कहा जाता है। ये शक्तियाँ ईशानी, आपूरणी आदि पाँच शक्तियों का अनुगमन करने वाली होती हैं। (शि.सू. 27, पृ. 23)। वस्तुतः ये शक्तियाँ ज्येष्ठा शक्ति (देखिए) के अधीन काम करने वाली होती हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


विज्ञानाकल विज्ञानकेवल या विज्ञानकेवली। माया तत्त्व (देखिए) के समीपस्थ निम्न स्तर की महामाया (देखिए) में ठहरने वाले प्राणी। (पटलब्री.वि. पृ. 118)। अपने आपको विमर्शात्मक अर्थात् क्रियात्मक स्वभाव से रहित केवल प्रकाशात्मक स्वरूप वाला ही मानने वाला प्राणी। ये प्राणी अपने आपको क्रियात्मक ऐश्वर्य से विहीन मानने पर अपने को केवल विज्ञानात्मक ही मानते हैं जो शून्यता के समीप हैं। इनको प्रमेय जगत् का आभास तो नहीं होता है परंतु किंचित मात्रा में भेद की दृष्टि बनी रहती है। इस कारण इनमें आणवमल (देखिए) के प्रथम प्रकार की स्फुट अभिव्यक्ति मानी गई है। (ई.प्र.वि. 2 पृ. 224)। ये प्राणी तुर्या दशा के निम्नतम स्तर के प्राणी होते हैं।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


वितर्क अपने आपको शुद्ध, असीम एवं परिपूर्ण शिवरूप समझना तथा समस्त प्रपंच को अपनी ही शक्तियों का विस्तार समझना वितर्क कहलाता है। यही वितर्क आत्मज्ञान का सहायक बनता है। (शि.सू.वा.पृ. 20, 21)। यह वितर्क ज्ञानयोग का एक विशेष प्रकार होता है। इसके अभ्यास के द्वारा आत्मा के वास्तविक स्वरूप का संस्कार साधक के मस्तिष्क पर क्रम से गहरा बनता जाता है।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


वितर्क (यम -नियम -सम्बन्धित) यम और नियम का विरोधी चिन्तन वितर्क कहलाता है, अर्थात् हिंसा, मिथ्याभाषण, स्तेय, अब्रह्मचर्य, परिग्रह, अशौच, असन्तोष, अतपः (= सौकुमार्य), अस्वाध्याय एवं अनीश्वर-प्रणिधान- ये दस वितर्क हैं। ये वितर्क जब मन में उठते हैं तब योगाभ्यासी को हिंसा आदि से होने वाले कुफलों की भावना करके उनसे निवृत्त होने की चेष्टा करनी चाहिए। यह भावना प्रतिपक्ष-भावना कहलाती है (योगसूत्र 2/33 -34)। जब इस प्रतिपक्षभावना के द्वारा हिंसा आदि निर्मूल हो जाते हैं, तब अहिंसा आदि (अर्थात् यम एवं नियम) प्रतिष्ठित हुए हैं, यह समझना चाहिए।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

वितर्क (संप्रज्ञातसमाधि सम्बन्धित) संप्रज्ञातसमाधि के जो चार भेद हैं (क्रमिक सूक्ष्मता से युक्त) उनमें वितर्क का अनुगम करके जो समाधि की जाती है (वितर्कानुगत संप्रज्ञात), वह सर्वप्रथम है (योगसूत्र 1/17)। भाष्यकार ने वितर्क का इतना ही परिचय दिया है कि ‘यह स्थूल आलम्बन में चित्त का आभोग है’। यहाँ चित्त से वह चित्त लिया जाता है जिसमें अभीष्ट वृत्तिमात्र को उदित रखने की सामर्थ्य हो। योगिक पद्धति-विशेष के अनुसार (यह गुरु-परम्परामात्र-गम्य है) स्थूल आलम्बन में चित्त को तन्मय रखना अथवा परिपूर्ण रखना ही आभोग है, जो विपर्क कहलाता है (बाह्य दृष्टि से इस वितर्करूप संप्रज्ञातभेद का इससे अधिक स्पष्टीकरण संभव नहीं है)। यह वितर्क अंशतः विचार, आनन्द, अस्मिता का भी अनुगत रहता है – यह भाष्यकार ने कहा है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विदेह समाधिबल-संपन्न योगी में यदि विषयवैराग्य-मात्र हो (जिससे वे विषयसंपर्क से इन्द्रियों को हटाकर इन्द्रियों का अत्यन्त रोध कर सकते हैं), तो देहत्याग के बाद वे जिस रूप में रहते हैं, उसका नाम ‘विदेह’ है। स्थूलशरीर न रहने के कारण वे ‘विदेह’ कहलाते हैं। विदेहों का जो निरोध है, उसका शास्त्रीय नाम ‘भवप्रत्यय’ है (योगसूत्र 1/19)। पुरुषतत्त्वज्ञान न होने के कारण विदेहों का निरोध शाश्वत नहीं होता, और निरोध-संस्कार नष्ट होने पर वे अन्यान्य प्राणियों की तरह जन्मग्रहण करते हैं। कोई-कोई व्याख्याकार कहते हैं कि विदेहों का वैकृतिक बन्धन है, क्योंकि वे इन्द्रियादि को आत्मा समझकर उनकी उपासना करते हैं। विदेह-पद सर्वथा लोकातीत नहीं है; पर यह अंशतः कैवल्यसदृश अवस्था है, क्योंकि इस अवस्था में दुःख नहीं रहता। विदेहावस्था में स्थित योगी के लिए ‘देव’ शब्द का प्रयोग किया जाता है और ‘विदेह देव’ शब्द प्रचलित भी है। कुछ लोग ‘विदेहलय’ या ‘विदेहलीन’ शब्द का व्यवहार करते हैं। यह अशास्त्रीय है। एक ही योग-सूत्र में विदेह एवं प्रकृतिलयों का प्रतिपादन होने से (द्र. 1/19 सूत्र) यह भ्रम प्रचलित हो गया है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विदेह मुक्ति देखिए मुक्ति।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


विदेहमुक्ति मुक्ति दो प्रकार की मानी जाती है – विदेहमुक्ति और जीवन्मुक्ति। पूर्णविवेकज्ञानवान् योगी देहपात के बाद जिस मुक्ति को प्राप्त करता है, वह विदेहमुक्ति कहलाता है – यही प्रकृत मुक्ति है। किसी भी प्रकार के शरीर के साथ किसी भी प्रकार का सम्बन्ध इस मुक्ति में नहीं रहता, जबकि जीवन्मुक्ति की अवस्था में सिद्ध योगी शरीर के साथ वर्तमान रहते हैं। विदेहमुक्ति पुनरावर्तन-शून्य है, जबकि विदेहदेवों की पुनरावृत्ति होती है।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विदेहा यह धारणाविशेष का नाम है। शरीर के बाहर मन का जो वृत्तिलाभ है, वह ‘विदेहा’ नामक धारणा है। इस विदेहा के दो रूप हैं – कल्पिता और अकल्पिता। शरीर में प्रतिष्ठित मन की जो बहिर्वृति होती है, वह कल्पिता है। शरीरबहिर्भूत मन की जो शरीर निरपेक्ष प्रवृत्ति होती है, वह अकल्पिता है’ यह अकल्पिता ‘महाविदेहा’ कहलाती है (योगसूत्र 3/43)।

दर्शन : सांख्य-योग दर्शन

विद्‍या कार्य का एक प्राकर।

पाशुपत मत के अनुसार विद्‍या जीव का एक गुण है। विद्‍या दो तरह की कही गई है- बोधात्मिका (ज्ञानरूपा) अबोधात्मिका (अज्ञानरूपा) बोधात्मिका विद्‍या भी दो तरह की होती है- विवेकप्रवृत्‍ति तथा अविवेकप्रवृत्‍ति। विवेकप्रवृत्‍ति चित्‍त कहलाती है क्योंकि चित्‍त के द्‍वारा ही सभी प्राणियों का विषयज्ञान या विवेकप्रवृत्‍ति होती है। पशु (बद्‍धजीव) के धर्म और अधर्मसंबंधी विद्‍या अबोधात्मिका विद्‍या होती है। (सर्वदर्शन संग्रह प. 168)।
इस विविध विद्‍या के द्‍वारा ही जीव की उत्पत्‍ति, स्थिति व तिरोभाव होते हैं और अन्तत: इसी विद्‍या के द्‍वारा दुःखांत की ओर गति होने लगती है। आगे बोधात्मिका विद्‍या के द्‍वारा पुरुष योग साधना में प्रवृत्‍त होकर दुःखांत प्राप्‍ति के लिए यत्‍न करता है तथा अबोधात्मिका विद्‍या के द्‍वारा सांसारिक विषयों के प्रति प्रवृत्‍त होता हुआ सृष्‍टिकृत्य में बंध जाता है। (पा.सू.कौ.भा.पृ.14)।
दर्शन : पाशुपत शैव दर्शन

विद्या 1. वस्तु के मूलभूत एवं नैसर्गिक स्वरूप का यथार्थ ज्ञान। किसी वस्तु के वास्तविक स्वरूप के देखने, परखने, तथा उसके शुद्ध रूप में ही उसे अनुभव करने एवं अपने संवित् स्वरूप से अभिन्न रूप में ही उसे अनुभव करने एवं अपने संवित् स्वरूप से अभिन्न रूप पहचानने को विद्या कहते हैं। ‘अहमिदम्’ अर्थात् संपूर्ण विश्व को पारमार्थिक रूप में अपने ही परिपूर्ण एवं शुद्ध अहम् का ही विस्तार समझना सविद्या या शुद्ध विद्या है। (इ.प्र.वि. 2 पृ. 197-8)। देखिए शुद्ध विद्या। 2. छत्तीस तत्त्वों के क्रम में छठा तत्त्व। देखिए शुद्ध विद्या एवं विद्या तत्त्व।

दर्शन : काश्मीर शैव दर्शन


विद्या (अशुद्धा) देखिए अशुद्ध विद्या।

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विद्या (महा) (10 महाविद्या) उपनिषदों में नाचिकेतसी विद्या आदि पदों से उन-उन ऋषियों के द्वारा किये गये आत्मविद्या संबन्धी व्याख्यानों को विद्या के नाम से जाना जाता है। बाल्मीकि रामायण में भी बला और अतिबला विद्याओं का उल्लेख मिलता है, किन्तु तन्त्रशास्त्र में पुरुष देवताओं के मन्त्रों के लिये मनु शब्द का और स्त्री देवताओं के मन्त्रों के लिये विद्या शब्द का प्रयोग किया गया है। शाक्त तन्त्रों में दस महाविद्या के नाम से काली, तारा, षोडशी (सुन्दरी-त्रिपुरा), भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती, बगला, मातंगी और कमला, ये देवियाँ प्रसिद्ध हैं। वस्तुतः मन्त्र या विद्या ही देवता का स्वरूप है, इस सिद्धान्त के अनुसार उक्त दस विद्याओं की विशिष्टता के आधार पर इनको महाविद्या कहा गया है। ये शाक्तों की उपास्य विशिष्ट शक्तियाँ हैं। इन शक्तियों की उपासना करने वाले ही वस्तुतः शाक्त कहे जाते हैं। शक्तिसंगम प्रभृति तन्त्र ग्रन्थों में इन महाविद्याओं के मूल स्थान, जयन्ती आदि का तथा किस क्रम, मत या मार्ग से किस महाविद्या की उपासना की जाए, इत्यादि विषयों का विस्तृत वर्णन मिलता है। शाक्त प्रमोद नामक ग्रन्थ में भी इन महाविद्याओं की उपासना विधि संगृहीत है।

  इन दस महाविद्याओं में काली, तारा और त्रिपुरा की उपासना का विशेष प्रचार है। काश्मीर और केरल में कभी क्रम दर्शन की पद्धति से काली की उपासना की जाती थी। आजकल काली की उपासना बंगाल में प्रचलित है, किन्तु उसका आधार क्र