विक्षनरी:ब्रजभाषा सूर-कोश खण्ड-१

ब्रजभाषा सूर-कोश प्रथम खण्ड

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देवनागरी वर्णमाला का प्रथम अक्षर। कंठ्य वर्ण। मूल व्यंजनों का स्वतंत्र उच्चारण इस अक्षर की सहायता से होता है।

निषेधात्मक उपसर्ग; जैसे-अरूप, असुंदर।

अंक

संज्ञा

[सं.]

चिह्न, छाप।

अंक

संज्ञा

[सं.]

लेख, अक्षर, लिखावट।

अदभुत राम-नाम के अंक १-९०

अंक

संज्ञा

[सं.]

लेखा, लेखन।

जोग जुगुति, जप, तप, तीरथ-ब्रत इनमे एको अक न भाल -- -१-१२७।

अंक

संज्ञा

[सं.]

गोद, अंकवार, क्रोड़।

अंक

मुहा.

[सं.]

अक भरि लीन्हों, लीन्हो अंक भरी :- हृदय से लगा लिया, गोद में ले लिया। उ.- (क) पुत्र-कबन्ध अंक भरि लीन्हों धरति न इक छिन धीर-१-२९। (ख) धन्य-धन्य बड़भागिनि जसुमति निगमनि सही परी। ऐसे सूरदास के प्रभु कौं लीन्हों अंक भरी--१०-६९। अंक भरि लेत :- छाती से लगा लेते हैं, गोद में लेते हैं। उ.- छिरकत हरद दही हिय हरषत, गिरत अंक भरि लेत उठाई–१०- १९। अंक भरै :- गोद में लेती है, दुलार करती है। उ.- जैसे जननि जठर.अन्तरगत सुत अपराध करे। तौऊ जतन करै अरु पोषे निकसे अंक भरे-१-११७।

अंक

संज्ञा

[सं.]

बार, मतबा।

अंक

संज्ञा

[सं.]

संख्या का चिह्न।

अंकम

संज्ञा

[सं. अंक]

गोद, अंकवार, क्रोड़।

आनंदित ग्वाल-बाल, करत बिनोद ख्याल, भरि-भरि धरि अंकम महर के-१०-३०।

अंकित

वि.

[सं. अंक]

वर्णित।

अंकुर, अँकुर

संज्ञा

[सं.]

अंखुआ, गाभ।

(क) ग्वालनि देखि मनहिं रिस काँपै। पुनि मन मैं भय अंकुर थापै-५८५। (ख) अदभुत रामनाम के अंक। धर्म अँकुर के पावन द्वै दल मुक्ति-वधू ताटंक -- १-९०

अँकुरनो, अँकुरानो

क्रि. अ.

[सं. अंकुर]

अंकुर फोड़ना, उगना, उत्पन्न होना।

अंकुरित

वि.

[सं. अंकुर]

अंखुवाया हुआ, जिसमें अंकुर हो गया हो।

अंकुरित

वि.

[सं. अंकुर]

उत्पन्न हुए, उगे, प्रकटे।

(क) अंकुरित तरु-पात, उकठि रहे जे गात, बन-बेली प्रफुलित कलिनि कहर के-१०-३०। (ख) फूले फिरैं जादौकुल आनँद समूल मूल, अंकुरित पुन्य फूले पछिले पहर के-१०.३४।

अंकुस

संज्ञा

[सं. अंकुश]

हाथी को हाँकने का टेढ़ा काँटा, अंकुश।

न्यारो करि गयंद तू अजहूँ, जान देहि का अंकुस मारी-२५८९।

अंकुस

संज्ञा

[सं. अंकुश]

प्रतिबन्ध, दबाव, रोक।

मन बस होत नाहिने मेरैं।…..। कहा कहौं, यह चऱयौ बहुत दिन, अंकुस बिना मुकेरैं--१-२०६।

अंकुस

संज्ञा

[सं. अंकुश]

ईश्वर के अवतार राम, कृष्ण आदि के चरणों का एक चिह्न जो अंकुश के आकार का माना जाता है।

ब्रज जुवती हरि चरन मन वै। ….। अंकुस-कुलिस-बज्र-ध्वज परगट तरुनी-मन भरमा ए-६३१।

अंकूर

संज्ञा

[सं. अंकुर]

अँखुआ, अंकुर।

अँकोर

संज्ञा

[हिं. अँकवार]

अंक, गोद, छाती।

(क) खेलत कहूँ रहौं मैं बाहिर, चितै रहहि सब मेरी ओर। बौलि लेहि भीतर घर अपने, मुख चूमति, भरि लेतिं अँकोर-३९८। (ख) झूठे नर कौं लेहि अँकोर। लावहिं साँचे नर को खोर-१२-३।

अंकम

मुहा.

[सं. अंक]

अंकम भरि - छाती से लगाकर। उ.- हँसि हँसि दौरे मिले अंकम भरि हम-तुम एकै ज्ञाति १०-३६। अंकम भर्‌यौ :- [भूत.] (स्नेहवश) छाती से लगाया, गले लगाया। उ.- (क) माता ध्रुव को अकम भर्‌यौ-४-९। (ख) कबहुँक मुरछित ह्वे नृप परयौ। कबहुँक सुत को अंकम भर्‌यौ--६-५। अंकम भरि लेइ :- अपने में लीन करती है। उ.- संत दरस कबहूँ जो होइ। जग सुख मिथ्या जानै सोइ। पै कुबुद्धि ठहरान न देइ। राजा को अंकम भरि लेइ ४-१२। अंकम लैहै :- [भवि.] गोद में लेगा। उ.- अब उहि मेरे कुँअर कान्ह को छिन-छिन अंकम लैहे २७०५।

अंकमाल, अंकमाल

संज्ञा

[सं. अंक]

आलींगन,परि रंभण, गोद, गले लगाना।

सूर स्याम बन तें ब्रज आए जननि लिए अँकमाल-२३७१।

अंकमाल, अंकमाल

मुहा.

दै अंकमाल :- आलिंगन करके, गले लगाकर, गोद लेकर। उ.- जुवति अति भई बिहाल, भुज भरि दै अंकमाल, सूरदास प्रभु कृपाल, डार्‌यो तन‍ फेरी--१०-२७५।

अँकवार

संज्ञा

[सं. अंकपालि, अंकमाल]

गोद, छाती।

अँकवार

मुहा.

अंकवार भरत :- आलिंगन करते हैं, गले या छाती से लगाते हैं। उ.- (सखा) बनमाला पहिरावत स्यामहिं. बार-बार अँकवार भरत धरि-४२९।

अंकवारि

संज्ञा

[हिं. अँकवार]

गोद, छाती।

अंकवारि

मुहा.

[हिं. अँकवार]

भरि धरौं अँकवारि :- छाती से लगा लूँ­, आलिंगन कर लूँ­। उ.- कोउ कहति, मैं देखि पाऊँ, भरि धरौं अंकवारि-१०-२७३। भरि दीन्हीं (लीन्ही) अँकवारि :- छाती से लगा लिया। उ.- (क) झूठे हि मोहिं लगावति ग्वारि। खेलत तैं मोहिं बोलि लियौं इहि, दोउ भुज भरि दीन्हीं अँकवारि-१०-३०४। (ख) बाहँ पकरि चोली गहि फारी भरि लीन्ही अँकवारि-१०-३०६। (ग) सूरदास प्रभु मन हरि लीन्हों तब जननी भरि लए अँकवारि-४३०।"

अंकवारि

संज्ञा

[हिं. अँकवार]

आलिंगन।

नैन मूंदति दरस कारन स्रवन सब्द बिचारि। भुजा जोरति अंक भरि हरि ध्यान उर अंकवारि-७८१।

अंकित

वि.

[सं. अंक]

चिह्नित।

कनक कलस मधुपान मनौ कर भुज निज उलटि धसी। ता पर सुंदरि अंचर झाँप्यो अंकित दंस तसी-सा. उ. २५।

अंकित

वि.

[सं. अंक]

लिखित, खिचित।

अँगेरना

क्रि. स.

[सं. अंग + ईर = जाना]

सहना।

अँगोछि

क्रि. अ.

[हिं. अँगोछना]

अँगोछे या कपड़, से पोंछकर।

उत्तम बिधि सौं मुख पखरायौं ओदे बसन अँगौछि-१०-६०९।

अँगोछे

क्रि. अ.

[हिं. अँगोछना]

गीले कपड़े से पोंछ दिये।

अति सरस बसन तन पोंछ। ले कर-मुखकमल अँगोछे-१०-१८३।

अँगोछे

संज्ञा

अनेक अँगोछे या देह पोछने के कपड़े।

अँचयो,  अँचयौ

क्रि. स. भूत.

[सं. अचमन, हिं. अचवना]

पिया, पान किया।

(क) कछु कछु खाई दूध अँचयौ तब जम्हात जननी जाने-१०-२३०। (ख) ग्वाल सखा सबहीं पय अँचयौ -- ३९६।

अँचयो,  अँचयौ

क्रि. स. भूत.

[सं. अचमन, हिं. अचवना]

भोजन के पश्चात हाथ-मुँह धोकर कुल्ली की।

अंचर

संज्ञा

[सं. अंचल]

अंचल, आँचल, साड़ी का छोर, पला।

निकट बुलाइ बिठाइ निरखि मुख, अंचर लेत बलाइ -- ९-८३।

अँचरा

संज्ञा

[सं. अँचल]

आँचल, पल्ला।

(क) जसुमति मन अभिलाष करै। कब मेरौ अँचरा गहि मोहन, जोइ-सोइ कहि मोसौं झगरै -- १० - ७६। (ख) अँचरा तर लै ढाँकि, सूर के प्रभु कौं दूध पिलावति -- १०-११०।

अंचल,  अँचल

संज्ञा

[सं.]

साड़ी का छोर, आँचल, पल्ला।

(क) इतनी कहत, सुकाग उहाँ तें हरि डार उड़ि बैठ्यौ। अंचल गाँठि दई, दुख भाज्यौ, सुख जु अनि उर पैठ्यौ-९-१६४। (ख) तेजु बदन झाँप्यौ झुकि अचल इहै न दुष मेरे मन मान-सा ० उ० १५।

अंचल,  अँचल

संज्ञा

[सं.]

दुपट्टा, दुशाला।

लोचन सजल, प्रेम पुलकित तन, गर अंचल, कर-माल -- १-१८९।

अत्र

क्रि. वि.

[सं.]

यहाँ, इस स्थान पर।

अत्र

संज्ञा

[सं. अस्त्र]

अस्त्र।

अत्रि

संज्ञा

[सं.]

सप्त ऋषियों में से एक, जिनकी गिनती दस प्रजापतियों में हैं। थे ब्रह्मा के पुत्र थे;अनुसूया इनकी स्त्री थी जिससे तीन पुत्र हुए-दत्तात्रेय दुर्वासा और सोम।

अतूथ

वि.

[सं. अति == अधिक + उत्थ = उटा हुआ]

अबुई।

अतोर

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. तोड़]

जो न टूटे, दृढ़।

अत्त, अति

संज्ञा

[सं. अति]

अत, अधिकता।

अथना

क्रि. अ.

[स, अस्त +ना ( प्रत्य.)]

अस्त होना, डूबना।

अथवत

क्रि. अ.

[हिं. अथवना]

अस्त होने पर, डूबने पर।

भृंग मिले भारजा बिछुरी जोरी कोक मिले उतरी पन च अब काम के कमान की। अथवत आए गृह बहुरि उवत भान उठौ प्राननाथ महा जान मनि जानकी -- -१६०९।

अथवना

क्रि. अ.

[सं. अस्तमन = डूबना, प्रा, अत्थवन]

अस्त होना, डूबना।

अथवना

क्रि. अ.

[सं. अस्तमन = डूबना, प्रा, अत्थवन]

लुप्त होना, नष्ट होना, चला जाना।

अथवा

अव्य.

[सं.]

वियोजक अव्यय जिसका प्रयोग उस स्थान पर होता है, जहाँ कई शब्दों या पदों में से केवल एक को ग्रहण करना हो। या, वा, किंवा।

जंघनि कौं कदली सम जानै। अथवा कनक खंभ सम मानै-३-१३।

अथाई

संज्ञा

[सं. स्थायि = जगह, पा. ठानीय । प्रा. ठाइअँ]

बैठक, चौबारा।

अथाई

संज्ञा

[सं. स्थायि = जगह, पा. ठानीय । प्रा. ठाइअँ]

गाँवों में पंचायत की जगह।

अथाई

संज्ञा

[सं. स्थायि = जगह, पा. ठानीय । प्रा. ठाइअँ]

सभा दरबार।

अथाना, अथाना

संज्ञा

[सं. स्याणु = स्थिर]

अचार।

अथाना

क्रि. अ.

[सं. अस्तमन, प्रा. अत्थवन, हिं. अयवना]

डूबना, अरत होना।

अथाना

क्रि. स.

[स. स्थान = जगह]

थाह लेना, गहराई नापना।

अथाना

क्रि. स.

ढूँढ़ना, छानना।

अथानो

संज्ञा

[सं. स्थ राई =स्थिर, हिं. अथान, अयाना]

अचार।

निबुआ, सूरन, आम, अथानों और कराँदनि की रुचि न्यारी -- १०-२४१।

अथावत

वि.

[सं. अस्तमित-डूबा हुआ. प्रा. उत्थवन अथाना]

आत, डूवा हुआ।

अथाह

वि.

[सं. अ= नहीं + स्था= ठहरना, अथवा अगाध]

बहुत गहरा, अगाध।

मन-कृत-दोष अयाह तरंगिनि, तरि नहिं सक्यौ, समायौ। मेल्यौ जाल काल जब खैंच्‍यो, भयौ मीन जल-हायौ--१-६७।

अथाह

वि.

[सं. अ= नहीं + स्था= ठहरना, अथवा अगाध]

अपरिमिति, अपार, बहुत अधिक।

(क) सूरज-प्रभ गुन अथाह धन्य धन्य श्री प्रियानाह निगमन को अगाध सहसानन नहिं जानै २५५७। (ख) बिरह अथाह होत निसि हमकौं बिन हरि समुद समानी--२७९६।

अथाह

वि.

[सं. अ= नहीं + स्था= ठहरना, अथवा अगाध]

गंभीर, गूढ़।

अथाह

संज्ञा

गहराई, जलाशय।

अथाह

संज्ञा

समुद्र

अथाहु

वि.

[हिं. तथाह]

जिसकी थाह न हो, जिसकी गहराई का अंत न हो, अगाध।

तुम जानकी जनकपुर जाहु। कहा आनि हम संग भरमिहौ गहबर बन दुख-सिंधु अथाहु-९-२३।

अथाहु

वि.

[हिं. तथाह]

अपरिमित, बहुत अधिक

अथिर

वि.

[सं. अस्थिर]

जो स्थिर न हो, चंचल।

अथिर

वि.

[सं. अस्थिर]

अस्थायी, क्षणिक।

अथोर

वि.

[वि. सं.अ = नहीं + सं. स्तोक, पा. थोक, प्रा. थो =हिं. थोड़ा]

जो थोड़ा न हो, अधिक, बहुत।

नीति बिन बलवान सीषत नीक जानन जोर। काज आपन सभुझ कैं किन करैं आप अथोर-सा ६१।

अदक

संज्ञा

[सं. आतंक ]

डर, भय, त्रास।

अदंड

वि.

[सं.]

जो दंड के योग्य न हो।

अदंड

वि.

[सं.]

निर्भय, स्वेछाचारी।

अवंभ

वि.

[सं. अ -- नहीं = दंभ]

दंभर हित, निष्कपट।

अवंभ

वि.

[सं. अ -- नहीं = दंभ]

प्राकृतिक, स्वच्छ।

अदग

वि.

[सं. अदग्ध, पा. अदग्ध]

निष्कलंक शुद्ध।

अदग

वि.

[सं. अदग्ध, पा. अदग्ध]

निरपराध।

अदग

वि.

[सं. अदग्ध, पा. अदग्ध]

अछूत, साफ, बचा हुआ।

अदभुत

वि.

[सं. अदभुत]

विलझण, विचित्र, अनूठा,अपूर्व।

(क) अदभुत राम नाम के अंक-१.९०। (ख) देखौ यह बिपरीत भई। अदभुत रूप नारि इक आई, कपट हेत क्यौं सहैं दई-१०-५३। (ग) ये अदभुत कहिबे न जोग जग देखत हीं बनि आवै--सा. ४। (घ) गृह तैं चलौ गोष कुमारि। बरक ठाढ़ौ देख अदभुत एक अनूपम मार--स.१४।

अदभ्र

वि.

[सं.]

बहुत, अधिक।

अदभ्र

वि.

[सं.]

अपार, अनंत।

अदरख

संज्ञा

[सं. आर्द्रक फा, अदरक]

अदरक।

अदल

संज्ञा

[सं.]

पार्वती।

अदलपति

संज्ञा

[सं. अदल = पर्वती + पति]

पार्व ती के पति शिवा।

अदलपति-रिपु-पिता-पतिनी

संज्ञा

[सं. अदलपति = शिव + रिपु (शिव का शत्रु = काम = प्रद्युम्न) + पिता (प्रद्युम्न का पिता = कृष्ण ) + पत्नी (कृष्ण की पत्नी =यमुना)]

यमुना।

अदलपति-रिपुपिता-पतिनी अब न जह फेर -- -सा , ११६।

अदाई

वि.

[अं]

चतुर, काइयाँ, चालबाज, निर्दयी।

सेवत सगुन स्याम सुन्दर को लही मुक्ति हम चारो। हम सालोक्य सरूप, सरोज्यो रहत समोर सह ई। सो तजि कहत और की औरै तुम अलि बड़े अदाई-३२९०।

अदात

वि.

[सं. अदाता]

जो दानी न हो, जिसने कुछ किया न हो, कृपण।

हरि कौ मिलन सुदामा आयौ। …..'। पूरब जनम अदात जानिकै तातौं कछ मँगायौ। मूठिक तंदुल बाँधि कृष्ण की बनिता बिनय पठायौ -- ६ ० उ.--६५।

अदाता

संज्ञा

[सं.]

न देनेवाला, कृपण व्यक्ति।

अदाता

वि.

जो न वे, कृपण।

अदान

सं. पुं.

[सं. अ = नहीं + दान]

न देनेवाला, कृपण व्यक्ति।

अदान

वि.

[ज्ञं अ = नहीं + फा. दाना == जाननेवाला]

नासमझ।

अदानी

वि.

[सं. अ = नहीं + दानी]

जो दान न दे, अदाता।

अदाठाँ

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + दाम = रस्सी या बधन] कठिनाई, असमंजस।

अदिति

संज्ञा

[सं.]

प्रजापति की पुत्री जो कश्यप ऋषि की पत्नी और सूर्य आदि तेंतीस देवताओं की माता थी।

अदितिपुत

संज्ञा

[सं.]

दक्ष की कन्या के गर्भ स उत्‍पक्ष तेंतीस देवता।

अदिन

संज्ञा

[स. अ = नहीं + इिन]

कुदिन, कुसमय, दुर्भाग्‍य।

अदिष्टी

वि.

[सं. अ = नहीं + दृष्टि = विचार (अथवा अदृष्ट= भाग्य )]

मूर्ख, अदूरदर्शी।

अदिष्टी

वि.

[सं. अ = नहीं + दृष्टि = विचार (अथवा अदृष्ट= भाग्य )]

अभागा।

अदीठ

वि.

[सं. अदृष्ट, प्रा. अदिट्ठ]

बिना देखा हु आ , आतदेखा, गुप्त।

अदीइ

वि.

[सं. अ = नहीं + सं. दीर्घ, या दोघ, प्रा. दीह]

जो बड़ा न हो छोटा।

अदुंद

वि.

[स, अद्वद्व, प्रा. अदुं द]

द्वद्वरहित।

अदुंद

वि.

[स, अद्वद्व, प्रा. अदुं द]

शांत।

अदुंद

वि.

[स, अद्वद्व, प्रा. अदुं द]

अद्वितीय।

अदृश्व

वि.

[सं.]

जो दिखाई न दे।

अदृश्व

वि.

[सं.]

जिसका ज्ञान इंद्रियों को न हो, अगोचर।

अदृश्व

वि.

[सं.]

अंतर्द्धान, लुप्त।

अट्टष्ट

संज्ञा

[सं.]

भाग्य प्रारब्ध, भावी।

काका नाम बताऊँ तोकौं। दुखदायक अदृष्ट मम मोकौं--१-२९०।

अट्टष्ट

वि.

[सं.]

न देखा हुआ. अलक्षित।

अट्टष्ट

वि.

[सं.]

लुप्त, ओझल, अंतर्द्धान।

(क) बछरा भए। अदृष्ट कहूं खोजत नहि पाए -- ४९२। (ख) उ. -- जब रथ भयौ अदृष्ट अगौचर लोचन अति अकुलात २८६१।

अदेस

संज्ञा

[सं. आदेश = आज्ञा, शिक्षा]

आज्ञा, शिक्षा।

अदेस

संज्ञा

[सं. आदेश = आज्ञा, शिक्षा]

प्रणाम।

अदोखित

वि.

[सं. अदोष]

निर्दोष, अकलंक।

अदोस

वि.

[सं. अदोष ( अ = नहीं)]

निर्दोष, निष्कलंक, दूषणहीन

चंपकली सी नासिका राजत अमल अदोस -- २०६५।

अदभुत

वि.

[सं.]

आश्चर्यजनक, विचित्र, अनोखा, अनूठा।

रूप मोहिनी धरि ब्रज आई। अद्भुत साजि सिंगार मनोहर, असुर कंस दै पान पठाई--१०-५०।

अध

अव्य.

[सं. अधः]

नीचे, तले।

उर-कलिंद तैं धँसि जल-धारा उदर धरनि परवाह। जाहि चली धारा ह्वै अध कौं नाभी-हृद अवगाह--६३७।

अध

वि.

[सं. अर्द्ध, प्रा. अद्ध]

आधा, अर्द्ध।

(क) तामै एक छबीलौ सोरग अध सारंग उनहारि। अध सारँग परि सकलई सारग अब सारँग बिचारि-सा. उ-२। भादौं कौं अधराति अँध्यारी --१०-११।

अथकैया

वि.

[सं. अधिक]

अधिक, बहुत।

जैवत रुचि अधिको अधिकैया--२३२१।

अधकट

[सं. अर्द्ध = आषा + हिं. घटना == पूरा उतरना।]

जिसका ठीक अर्थ न निकले, अटपटा।

अधजेठाँत

वि.

[सं. अर्द्ध == जेवना]

जिसने पेट भर खाया न हो, अधखाया।

सूर-स्याम बलराम प्रातहीं अधजेंबत उठि धाए -- ४५४।

अधपर

संज्ञा

[सं. अर्द्ध, प्रा. अद्ध, हि, अध = आधा + पर (प्रत्‍य.)]

आधे मार्ग में, बीच ही में।

हम सब गर्व गँवारि जानि जड़ अध पर छाँड़ि दई--३३०४।

अधपैया

संज्ञा

[सं. अर्द्ध = आधा + पग]

पैर के अगले भाग पर।

अधम

वि.

[सं.]

पापी, दुष्ट,

(क) अब मोसौं अलसात जात है। अधम-उधारनहारे हो-१-२५। (ख) अध कौ मेरु बढ़ाइ अधम तू, अंत भयौ बलहीनौ-१६५।

अधम

वि.

[सं.]

नीच, निकृष्ट, बुरा।

कहा कहौं हरि केतिक तारे पावन-'पद परंतगी। सूरदास यह बिरद सवन सुनि गरजत अघम अनंगी--१.२१।

अधमई

संज्ञा

[सं. अधम + हिं. ई (प्रत्य.)]

नीचता, अधमता, खोटापन।

( क ) औरनि कौं जम कैं अनुसासन कोटिक धावैं। सुनि मेरी अपराध-अधमई, कोऊ निकट न आवैं -- १-१९७। (ख) सूरस्याम अधमई हमहिं सब, लागैं तुमहिं भलाई-१०४९।

अधमता

संज्ञा

[सं.]

खोटापन, नीचता।

अधमाई

संज्ञा

[सं. अधम]

अधमता, नीचता।

( क) हुतीं जिती जग मैं अधमाई सो मैं सबै करी-१-१३०। (ख) अधम की जौ देखौ अधमाई। सुनु त्रिभुवन पति, नाथ हमारे, तो कछु कह्यौ न जाई--१-१८। (ग) नैना लुब्धे रूप को अपने सुख मई।.…. मन इंद्री तहाँई गए कीन्ही अधमाई -- पृ० ३२३।

अधमुख

संज्ञा

[सं. अधोमुख = नीचे की ओर मुह किए]

मुंह या सिर के बल, औंधा।

स्याम भजनि की सुंदरताई।…...। बड़े बिसाल जानु लौं परसत, इक उपमा मन आई। मनौ भुजंग गगत तैं उतरत बधमुल रह्यो झुलाई -- -६४१।

अधर

संज्ञा

[सं.]

नीचे का ओठ।

अधर

संज्ञा

[सं.]

ओठ।

अधर

संज्ञा

[सं. 'अ = नहीं + धृ== धरना]

अंतरिक्ष, आकाश।

अधर

वि.

चंचल, को पकड़ा न जा सके।

अधर

वि.

नीच, बुरा।

अधरम

सं.

[सं. अधरम]

पाप, असद्‍व्‍यवहार अन्याय, कुकर्म।

अधरात

संज्ञा

[सं. अर्द्ध = आधा + रात्रि]

आधी रात

(क) उस पर देखियत ससि सात। सोवत हुती कुँवरि राधिका चौंकि परी अधर--सा. उ.। २६। (ख) तब ब्रज बसत बेनु रव धुनि करि बन बोली अधरातनि-३०२५।

अधरैं

संज्ञा

[सं. अधर + ऐ (प्रत्य.)]

अधर पर, ओठ पर।

भालै जवाक रंग बनानी अधरैं अंजन परगट जानी -- १९६७।

अधर्म

संज्ञा

[पृ.]

पाप, पातक, अन्याय, दुराचार,।

अधर्मो,अवर्मिन

संज्ञा

[सं. अधर्मी]

पापी।

नैन अनीन, अधर्मिन कै बस, जहँ कौ तहाँ छयौ -- १-६४।

अधार

संज्ञा

[सं. आधार]

आश्रय, सहारा, अवलंब।

( क ) एक अधार साधु-संगति कौ, रचि पधि मति सँचरी। याहूँ सौंज संजि नहि राखी, अपनी धरनि धरी--१-१३०। ( ख ) दोनदयाल, अवार सबनि के परम सुजान, अखिल अधिकारी -- १-२१२। ( ग ) अबऊ अधार जु प्रान रहत है, इन बसहिन मिलि कठिन ठई री--२७८९।

अधार

संज्ञा

[सं. आधार]

पात्र।

हरि परीच्छितहिँ गर्भ मॅझार। राखि लियौ निज कृपा-अधार-१-२८९।

अधारा

संज्ञा

[सं. आधार]

अश्रय, सहारा, अवलंब। यौं-प्रानअधारा--प्रान के अधार, परम प्रिय।

ताजे मैं पाती लिखी तुम प्रान अधारा--१० उ. ८।

अंजन

वि.

काला, सुरमई।

रवि-ससि-ज्योति जगत परिपूरन, हरति तिमिर रजनी। उड़त फूल उड़गन नभ अंतर, अंजन घटा घनी-२-२८।

अंजनि

संज्ञा

[सं. अंजनी]

हनुमान की माता अंजना जो कुंजर नामक बानर की पुत्री और केशरी की स्त्री थी।

अंजल

संज्ञा

[सं. अन्न + जल]

अन्नजल।

अंजलि,  अंजली

संज्ञा

[सं.]

दोनों हथेलियों को मिलाकर बनाया गया संपुट, अंजुली।

अंजलि.  अंजली

संज्ञा

[सं.]

अजुली में भरा हुआ जल आदि द्रव अथवा अन्य वस्तु।

प्यारी स्याम अंजली डारै। वा छबि कौ चित लाइ निहारै। मनो जलद-जल डारत ढरै-१८४४।

अँजवाना

क्रि. स.

[सं. अंजन]

अंजन या सुरमा लगवाना।

अँजाइ

क्रि. स.

[हिं. अंजन, अँजाना]

अंजन, सुरमा या काजल लगवाकर।

दोऊ अलबेले बने जु आए आँखि अँजाइ--२४४२।

अँजाय

क्रि. स.

[हिं. अंजन]

काजल या सुरमा लगवाकर।

आपुन हँसत पीत-पट मुख दै आए हो आँख अँजाय-२४४६ (३)।

अंजुरी

संज्ञा

[सं. अंजली]

दोनों हथेलियों को मिलाकर बनाया हुआ संपुट।

अंजुलि

संज्ञा

[सं. अंजली]

हथेलियों को मिलाने से बना हुआ संपुट।

सिर पर मीच, नीच नहिं  चितवत, आयु घटति ज्यौं अजुलि पानी -- १-१४९।

अधारी

संज्ञा

[सं. आधार]

आश्रय, अवलंब।

अधारी

संज्ञा

[सं. आधार]

काठ के डंडे में लगा हुआ साधुओं का पीढ़ा।

( क ) अब यह ज्ञान सिखावन आए भस्म अधारी सेव–२९८३। ( ख) सृङ्गी भस्म अधारी मुद्रा दै यदुनाथ पठाए-३०६०। (ग) दंड कमंडलु भस्मं अधारी तौ युवतिन कहुँ दीजै -- -३११७। (घ) सीगी मुद्रा भस्म अधारी हमको कहा सिखावत-३२१८।

अधारी

संज्ञा

[सं. आधार]

यात्रियों के सामान का झोला।

अधारी

वि.

स्त्री.

सहारा देनेवाली, प्रिय, भली।

अधारो, अधारौ

संज्ञा

[सं. अधार]

आश्रय, सहारा, अधार।

मम आ-घटा, मोह की बूँदे, सरिता मैन अपारौ। बूड़त कतहुँ थाह नहिं पावत, गुरुजन-ओट-अधारौ -- -१-२०९।

अधारो, अधारौ

यौ.

प्रानअधारो-प्राण की आधार, प्राणप्रिय।

सूरदास प्रभु तिहारे मिलन कौ भक्तन प्रान अधारो पृ. ३५१।

अधावट

वि.

[सं. अर्द्ध = आधा + आबर्त = चक्कर]

औटाने पर गाढ़ा होकर आधा रह जानेवाला।

खोवामय मधुर मिठाई। सो देखत अति रुचि पाई। कछु बलदाऊ कौं दीजै। अरु दूध अधावट पीजै -- १०-१८३।

अधिक

वि.

[सं.]

बहुत, विशेष।

अधिक

वि.

[सं.]

अतिरिक्त।

अधिक

क्रि. वि.

तेज।

छाँड़ि सुखधाम अरु गरुड़ तजि साँवरौ पवन के गवन तै अधिक धायौ-१-५।

अधिकइयै

वि.

[हिं. अधिक]

ज्यादा।

अधिकइयै

क्रि. स.

[हिं. अधिकाना]

बढ़ाइए।

अधिकई

वि.

[सं. अधिक]

अधिकता से, बहुत अधिक।

करत भोजन अति अधिकई भुजा सहस पसारि ९२९।

अधिकाई

संज्ञा

[सं. अधिक + हिं. आई (प्रत्य.)]

अधिकता, विशेषता, बढ़ती।

अधिकाई

संज्ञा

[सं. अधिक + हिं. आई (प्रत्य.)]

बढ़ाई, महिमा, महत्व।

(क) स्रवनिन की जु यहै अधिकाई, सुनि हरि-कथा सुधा-रस पावै–२-७। (ख) देखौ काम प्रताप अधिकाई। कियौ परासर बस रिषिराई -- १-२२९। (क) राधे तेरे रूप को अधिकाई। जो उपमा दीजै तेरे तन तामें छवि न समाई-स. उ. १९। (ख) इकटक नैन टरै नहिँ छबि की अधिकाई-पृ. ३१८।

अधिकाई

संज्ञा

[सं. अधिक + हिं. आई (प्रत्य.)]

कुशलता, चतुरता।

जब लौं एक दुहौगे तब लौं चारि दुहौंगो, नंद दुहाई। झूठहि करत दुहाई प्रातहिं देखहिंगे तुम्हरी अधिकाई-६६८।

अधिकाई

वि.

अधिक, विशेष, बहुत।

(क) यह चतुराई अधिकाई कहाँ पाई स्याम बाके प्रेम की गढ़ि पढ़े हो यही--२००८। (ख) सोवत महा मनो सुपने सखि अवधि निधन निधि पाई।•••••••। जो जागौँ तो कहा उठि देखौँ बिकल भई अधिकाई-२७८४।

अधिकाए

क्रि. अ.

[हिं. अधिकाना]

अधिक किया, बढ़ाया, वृद्धि की।

सूरदास-प्रभु-पान पर सि नित, काम-बेलि अधिकाए-६६१।

अधिकार

क्रि. अ.

[हिं. अधिकाना]

अधिक होता है, वृद्धि पाता है।

सारँग सुत छवि बिन नथुनी-रस बिंदु बिना अधिकात -- -सा, ५२।

अधिकानी

क्रि. अ.

[सं. अधिक, हिं. अधिकाना]

बड़ी, अधिक हुई, वृद्धि पाई।

(क) महा दुष्ट लै उडयो गोपालहिँ, चल्यौ अकास कृष्न यह जानी। चापि ग्रीव हरि प्रान हरे, दृग-रकत-प्रवाह चल्यौ अधिकानी-१०-७८। (ख) देखते मूर अग्नि अधिकानी, नभ लौं पहुँची झार--५९३।

अधिकार

संज्ञा

[सं.]

कार्यभार प्रभुत्व, आधिपत्य।

अधिकार

संज्ञा

[सं.]

स्वत्व, हक।

अधिकार

संज्ञा

[सं.]

दावा, कब्जा।

अधिकार

संज्ञा

[सं.]

क्षमता, सामर्थ्य।

अधिकार

संज्ञा

[सं.]

योग्यता ज्ञान।

अधिकारिनि

संज्ञा

[सं. अधिकारी + नि (प्रत्य.)]

योग्य या उपयुक्त व्यक्ति।

धर्म-कर्मअधिकारिन सौं कछु नाहिंन तुम्हरौ काज। भू-भर हरन प्रगट तुम भूतल, गावन सत-समाज -- १-२१५।

अधिकारी

संज्ञा

[सं. अधिकारिन हिं. अधिकार]

प्रभु. स्वामी।

(क) दीनदयाल अधार सबनि के, परम सुज्ञान अखिल अधिकारी -- १-२१२। (ख) कान्ह अचगरयौ देत लेहु सब आँगनवारी। कापहि भागत दान भए कबते अधिकारी -- १११०।

अधिकारी

संज्ञा

[सं. अधिकारिन हिं. अधिकार]

योग्यता रखनेवाला, उपयुक्त पात्र।

(क) ऊधो कोउ नाहिंन अधिकारी। लैं न जाहु यह जोग अपनो कत तुम होत दुखारी ३२९१।

अधिकारी

संज्ञा

अधिकारी की ठसक या ऐंठ, गर्व।

जब जान्यौ ब्रज देव मुरारी। उतर गई तब गर्व खुमारी। ब्याकुल भयौ डर्‌यौ जिंय भारी। अनजानत कीन्ही अधिकारी-१०६६।

अधिकारी

वि.

लिप्त, वशीभूत।

मैं तोहिँ सत्य कहौं दुरजोधन, सुनि तू बात हमारी। बिदुर हमारौ। प्रानपियारौ, तू विषया-अधिकारी-१-२४४

अधिकारी

वि.

अधिक।

लोचन ललित कपोलनि काजर, छबि उपजति अधिकारी -- १०९१।

अधिका

वि.

[सं. अधिक]

अधिक, ज्यादा, बहुत।

हम तुम जाति-पाँति के एकै, कहा भयौ अधिकी द्वै गैयां -- ७३५।

अधिको

वि.

[सं. अधिक]

अधिक-अधिक।

जेंवत रुचि अधिको अधिकैया-२३२१।

अधिपति

संज्ञा

[सं.]

स्वामी, राजा।

हमरे तौ गोपतिसुत अधिपति बनिता और रनते--सा० उ० ३४।

अधिष्ठाता

संज्ञा

[सं.]

अध्यक्ष, प्रधान, नियंता।

अधिष्ठाता

संज्ञा

[सं.]

प्रकृति को जड़ से चेतनावस्था प्राप्त करानेवाला, ईवर।

अधीन

वि.

[सं.]

अश्रित वशीभूत।

अधीन

वि.

[सं.]

विवश, लाचार, दीन।

अब हौं माया हाथ बिकानौ।........। हिंमा-मद-ममता -रस भूल्यो, आसाहीं लपटानौ। याही करत अधीन भयौ हौं निंदा अति न अघ, नौ -- १-७४।

अधीन

संज्ञा

दास, सेवक।

अधीनता

संज्ञा

[सं.]

परवशता, परतन्त्रता, अज्ञाकारिता।

पीछे ललिता आगे स्यामा प्यारी तो आगे पिय मारग फूल बिछावत जात ….। सूरदास-प्रभू की ऐसी अर्धीनता देखत मेरे नैन सिरात--२०६८।

अधीनना

क्रि. अ.

[सं. अधीन + ना (प्रत्य.)]

अधीन होना।

अधीनी

क्रि. अ.

[हिं. अधीनता]

अधीन हुई,  वश में हो गई।

अधीने

वि.

[सं. अधीन]

परवश, आश्रित, वशीभूत।

आयु बँधार पुंजि लै सौंपी हरिरस रति के लीने। ज्यौं डोरे बस गुडी देखियत डोलत सम अधीने–पू० ३३५।

अधीन्यौ

वि.

[सं. अधीन]

आश्रित, आज्ञाकारी, दबैल, वशीभूत।

हरि तुम बलि कौं छली। कहा लीन्यौ। बाँधन गए, बँधाए अपनु, कौन सयानप कीन्यौ ? लए लकुटिया द्वारै ठाढ़े, मन अति रहत अधीन्यौ -- १-१५।

अधीन्हीं

वि.

[सं. अधीन]

अक्षित , वशीभूत, आज्ञाकारी।

जा दिन ते मुरली कर लीन्‍ही।…..। तब ही ते तनु सुधि बिसराई निसि दिन रहति गोपल अधी-ही-२३३५।

अधीर

वि.

[सं.]

धैर्यर हित, बेचैन, व्याकुल।

(क) जोरी मारि भजल उतही कौं, जात जमुन कै तीर। इक धावत पाछैं उनहीं के पावत नहीं अधीर-५३४। (ख) नैंन सारंग सैन मोतन करी जानि अधीर--सा ० ४४।

अधीरज

संज्ञा

[सं. + अधैर्य]

अधीरता, व्याकुलता , उद्विग्तता।

अधीरज

संज्ञा

[सं. + अधैर्य]

उतावलापन।

अधूरन

वि.

[हिं. अधूरा]

अपूर्ण खंडित, अधकचरा, अकुशल, अकेला।

मन वाचा कर्मना एक दोउ एकौ पल न बिसारत। जैसे मीन नीर नहिं त्यागत ए खंडित ए पूरन। सूर भ्याम स्यामा दोउ देखौ इत उत कोऊ न अधूरन--पृ० ३१५।

अधूरे

वि.

[हिं. अधूरा]

अपूर्ण, अममाप्त।

अधोमुख

[स.]

नीचा मुँह किए हुए. मुँह लटकाए हुए।

गर भ-बास दस मास अधोमुख. तहं न भयो विश्राम--१-५७।

अधोमुख

[स.]

औंधा, उलटा, मुँह के बल।

अधोरथ

क्रि. वि.

[सं. अबोध]

ऊपर नीचे।

अनंग

संज्ञा

[सं.]

कामदेव।

अनंग

वि.

बिना देह का शरीररहित।

अनंगना

क्रि. अ.

[स]

बेसुध होना सुधबुध भुलाना।

अनंगवती

वि.

[सं.]

कामवती, कामिनी।

अनंगी

वि.

[सं. अनंगित]

अंगरहित, बनी देह का, अशरीर।

अनंगी

संज्ञा

परमेश्वर।

अनंगी

संज्ञा

कामदेव।

सूरद' स यह बिरद स्रवन सुनिं, गरजत अधम अनंगी १-२१।

अनंत

वि.

[सं.]

असीम, अपार।

अनंत

वि.

[सं.]

असंख्य, अनेक।

एहि थर बनी कीड़ा गज-मोचन और अनंत कथा स्रुतिं गाई-.-१-६।

अनंतनि

वि.

[सं. अनंन + हिं. नि. (प्रत्य.)]

असंख्य अनेकानेक।

फिर-फिरि जोनि अनतनि भरम्यौं, अब सुख-सरन परयौ--१-१५६।

अनंद, अनँद

संज्ञा

[सं. आनंद]

आनंद, हर्ष, प्रसन्नता।

(क) चौक चंदन लीपिकै, धरि आरती सँजोइ। कहति घोषकुमारि, ऐसौ अनँद जौ नित होइ-१०-२६। (ख) बिविध बिलास अनंद रसिक सुख सूरस्थाम तेरे गुन गावति -- -सा. उ. १३ (ग) यह छबि देखि भयौ अनंद अति आपु आपुर्ने ऊपर वारी-सा ९८।

अनंद, अनँद

वि.

आनंदित, प्रसन्न, हर्षयुक्त।

बोल न बोलिए ब्रजचद। कीन है सतोष है सब मिलि, जानि आप अनंद-सा. ५६।

अनंदना

क्रि. अ.

[सं. आनंद]

आनंदित होना, प्रसन्न होना।

अनंदित

वि.

[सं. आनंदित]

हर्षित, मुदित, सुखी।

कह्यो जुधिष्ठिर सेवा करत। तातै बहुत अनंदित रहत-१-२८४।

अनंभ

वि.

[सं. अन् = नहीं + अहं = पाप = विघ्न =बाधा]

निर्विघ्न बाधारहित।

अन

संज्ञा

[सं. अन्न]

खाद्य पदार्थ।

जैसे बने गिरिराज जू तैसो अन को कोट। मगन भए पूजा करौं नर नारी बड़ छोट–९११।

अन

संज्ञा

[सं. अन्न]

अनाज।

अन

क्रि. वि.

[सं. अन]

बिना, बगैर।

अन

वि.

[सं. अन्य]

दूसरा, और।

अनईस

संज्ञा

[हिं. अनैस]

वह जिसका ईश न। हो, परमात्मा, कृष्ण।

दधिसुत बाहन मेखला लेके बैठि अनईस गनोरी-सा, उ, ५२।

अनउतर

वि.

[स. अनुत्तर]

निरुत्तर।

सुनि सखी सूर सरबस हरह्यो साँवरै', अनउतर महरि कै द्वार ठाढ़ो-१०-३०७।

अनऋतु

संज्ञा

[सं. अन + ऋतु]

अनुपयुक्त ऋतु, अकाल, असमय।

जातैं परयाै स्यामधन नाउँ। इतने निठुर और नाहँ काऊ कविं गावत उपमान। चातक की रट नेह सदा, वह ऋतु अनऋतु नहिँ हारत-पृ० ३३०।

अनऋतु

संज्ञा

[सं. अन + ऋतु]

ऋतु के विरुद्ध कार्यं।

अनकान

क्रि. स.

[सं. आकणं, प्रा. आकणन, हिं. अकनना, अनकना]

सुनना।

अनकान

क्रि. स.

[सं. आकणं, प्रा. आकणन, हिं. अकनना, अनकना]

चुपचाप या छिपकर सुनना।

अनकनि

क्रि. स.

[से अकर्ण, प्रा. आकणन हिँ. अकनना, अकनना]

सुनकर।

अनकनि

क्रि. स.

छिपे-छिपे या चुपचाप सुनकर।

अनकनि

मुहा.

अनकनि दिए :- चप रहकर, चुपचाप सुन कर। उ.- सूरदास प्रभु त्रिय मिलि नैन प्रान मुख भयौ चितए करुखिअनि अनकनि दिए-२०६९।

अनकही

वि.

[सं. अन = नहीं + कथ = कहना, हिं. अनकहा]

बिना कही हुई, अकथित।

अनकही दै

मुहा.

अवाक् रहकर, चुप होकर। उ.- मो मन उनही को भयौ। परयौ प्रभु उनके प्रेमकोस में तुमहूँ बिसरि गयौ।......। सुर अनकही दै गोपिन सौं स्रवनि सूँदि उठि धायौ-३४८८।

अनख

संज्ञा

[सं.अन् = बुरा + अक्ष = आँख, प्रा.अनख्ख]

खीझ, झुँझलाहट, क्रोध।

(क) मृगनैनी तू अंजन दै।…...। नैन निरखि अँग अंग निरखियौ अनख पिया जु तजै-२२५४। (ख) धनि धनि अनख उरहनो धनि धनि पनि माखन धनि मोहन खाए--२८४।

अनख

संज्ञा

[सं.अन् = बुरा + अक्ष = आँख, प्रा.अनख्ख]

दुख, ग्लानि खिन्नता।

कर कंकन दरपन लै देखो इहि अति, अनख मरी। क्यों जीवै सुयोग सुनि सूरज बिरहिनि विरह भरी-३२००।

अनख

संज्ञा

[सं.अन् = बुरा + अक्ष = आँख, प्रा.अनख्ख]

ईर्ष्या, द्वेष, डाह।

अनख

संज्ञा

[सं.अन् = बुरा + अक्ष = आँख, प्रा.अनख्ख]

झंझट, अनरीति।

अनख

संज्ञा

[सं.अन् = बुरा + अक्ष = आँख, प्रा.अनख्ख]

डिठौना।

अनख

वि.

बुरा, अप्रिय।

हित की कहे अनख को लागति है समुझहु भले सयानी-२२७५।

अनख

वि.

रुष्ट, खीझी हुई। झुंझलाई हुई।

बेगि चलिए अलख जहँ तुम इहाँ उह वहाँ जरति है २२५९।

अनखना

क्रि. अ.

[हिं. अनख]

क्रोध करना, झुंझलाना, खीझना।

अनखाइ

क्रि. अ.

[हीं अनख]

क्रोध करके , रुष्ट होकर।

गुन अवगुंन की समुझ न संका, परि अई यह टेव। अत्र अनखाइ कहौँ, पर अपनेैँ राखौ बाँधि-बिचारि। सूर स्याम के पालनहारैं आवति हैं नित गारि-१-१५०।

अनखाऊँ

क्रि. स.

[हिं. अनख, अनखाना]

अप्रसन्न करूँ, खिझाऊँ।

उठत सभ। दिन मधि, सैनापति भीर देखि, फिरि आऊँ-न्हात-खात मुख करत साहिबी, कैसे करि अनखाऊँ--९-१७२।

अनखात

क्रि. अ.

[हिं. अनखना]

खीझती है, झुंझलाती है।

( क ) जब लगि परत निमेष अंतरा जुग समान पल जात। सूरदास वह रसिक राधिका निमिष पर अति अनखात--१३४७। (ख) सूर प्रभु दासी लोभाने ब्रज बधू अनखात -- २६८०।

अनखाती

क्रि. अ.

[हिं. अनखना]

क्रोध करती हैं, खीझती हैं, झुँझलाती हैं।

ऊधौ जब ब्रज पहुँचे अइ।…….।गोपनि गृह-ब्योहार बिसारे मुख सम्मुख सुख पाइ। पलक वोट (ओट) निमि पर अनखाती यह दुख कहा समाइ -- ३४४४।

अनखाना

क्रि. अ.

[हिं. अनखना]

क्रोध करना, रिसना, झुँझलामा, खीझना।

अनखाना

क्रि. स.

अप्रसन्न करना, खिझाना।

अजखनी

क्रि. अ.

[हिं. अनखना]

झुँझान ई, रुष्ट हुई।

लाल कुँवर मेरौ कछून जानै, तू है तरुनि किसोर।…….।सूरदास जसुदा अनखानी यह जीवनधन मोर--१०-३१०।

अनखावत

क्रि. स.

[हिं. अनखाना]

खिझाते हो, अप्रसन्न करते हो।

काहे को हो बात बनावत। ••••••। वा देखत हमको तुम मिलिहौ काहे को ताको अनखावत--१८७०।

अनखाहट

संज्ञा

[हिं. अनखना + आहट (प्रत्य.]

अनखने या क्रोध दिखाने की क्रिया, अनख।

अँटक्यौ

क्रि. अ. भूत.

[हिं. अटकना]

फंस गया, उलझा, लगा रहा।

पूर सनेह ग्वालि मन अँटक्यौ अंतर प्रीति जाति नहिं तोरी-१०-३०५। (ख) पद-रिपु पट अँटक्यौ न सम्हारति, उलटपलट उबरी-६५९।

अँटना

क्रि. अ.

[सं. अट् = चलना]

समा जाना।

अँटना

क्रि. अ.

[सं. अट् = चलना]

पूरा होना, खप जाना।

अंड

संज्ञा

[सं.]

ब्रह्मांड, लोकपिंड, विश्व।

(क) सब्दादिक तैं पंचभूत सुंदर प्रगटाए। पुनि सबकौ रुचि अंड, आपु मैं आपु समाए २-३६। (ख) तिनतैं पंचतत्व उपजायौ। इन सबकौ इक अंड बनायो-३-१३। (ग) एक अंड कौ भार बहुत है, गरब धर्‌यौ जिय सेष-५७०।

अंड

संज्ञा

[सं.]

कामदेव।

अति प्रचंड यह अंड महा भट जाहि सबै जग जानत। सो मदहीन दीन ह्वै बपुरो कोपि धनुष सर तानत-३३९२।

अंड

संज्ञा

[सं.]

अंडा।

अंडा

संज्ञा

[सं. अंड]

मादा जीव जन्तुओं से उत्पन्न गोल पिड जिसमें से बाद को बच्चा निकलता है।

यह अंडा चेतन नहिं होई। करहु कृपा सो चेतन होइ-३-१३।

अंडा

संज्ञा

[सं. अंड]

शरीर।

अंत

संज्ञा

[सं.]

समाप्ति, इति, अवसान।

लाज के साज मैं हुती ज्यों द्रोपदी, बढ्यौ तन-चीन नहिं अंत पायौ-१-५।

अंत

संज्ञा

[सं.]

शेष भाग, अंतिम अंश।

सूरदास भगवंत भजन करि अंत बार कछ लहियै-१-६२।

अनखी

क्रि. अ.

[हिं. अनखना]

झुँझलाई, खीझी, रिसाई।

हम अनखी या बात को लेत दान को नाउँ-११४१।

अनखी

वि.

[हिं. अनख]

क्रोधी, जल्दी खीझनेवाली।

अनखुला

वि.

[हिं. अन (उप) + खुलना]

बंद।

अनखुला

वि.

जिसका कारण प्रकट न हो।

अनखैयत

क्रि. स.

[हिं. अनख, अनखाना]

अप्रसन्न करती (है) खिझाती (है)

मेरो बिलग मानति यह जानति या बातन मैं क्छु पैयत है। सूर स्याम न्यारे न बूझिये यह मो को नहि भावै, काहे को अन खैयत है--२१४६।

अनखौही

वि.

[हिं. अलख]

कोधित, रुष्ट।

अनखौही

वि.

चिड़चिड़ी।

अनखौही

वि.

अनुचित, वुरी।

कबहूँ मोकौ कछु लगावति कबहूँ कहूति जनु जाहु कहीं। सूरदास बातैं अनखौहीं नाहिंन मोपै जात सही-१२४८।

अनखौही

वि.

क्रोध दिलानेवाली।

अनंगत

क्रि. अ.

[सं. अनग]

शरीर की सुधि नहीं रख पाता, बेसुध हो जता है, सुध-बुझ भुला देता है। विदेह हो जाता है।

जाकौ निरखि अनंग अनंगत ताहि अनंग बढ़ावै। सूर स्याम प्यारी छबि निरखत आपुहि धन्य कहावै–८७५।

अनग

संज्ञा

[सं. अनंग]

कामदेव।

पंखीपति सबही सकुचाने चातक अनग मर्यौ-२८९५।

अनगन

वि.

[सं. अन् + गणन]

अगणित, बहुत।

नीकैँ गाइ गुपालहिँ मन रे। जा गाए निर्भय पद पाए अपराधी अनगन रे--१-६६

अनगढ़

वि.

[सं. अन = नहीं + हिं. गढ़ना]

बिना गढ़ा हुआ।

अनगढ़

वि.

[सं. अन = नहीं + हिं. गढ़ना]

जिसे किसी ने बनाया न हो, स्वयंभू।

ऊधौ राखिये यह बात। कहत हौ अनगढ़ व अनहद सुनत ही चपि जात--३२९२।

अनगवना

क्रि. अ.

[हिं. अन् + अगवना = आगे होना]

विलंब करना।

अनगाना

क्रि. अ.

[हिं. अन् + अगवना = आगे बढ़ना]

विलंब करना, देर करना।

अनगाना

क्रि. अ.

[हिं. अन् + अगवना = आगे बढ़ना]

टालमटोल  करना।

अनगिने

वि.

[सं. अन् + गणन]

अगणित, बहुत।

हस उज्ज्वल पंख निर्मल, अग मलि मलि न्हाहिँ। मुक्ति-मुक्ता अनगिने फल, तहाँ चुन चुनि खाहँ -- १-३३८।

अनघ

वि.

[स.]

निर्दोष।

अनघ

वि.

[स.]

पवित्र।

अनघ

संज्ञा

पुण्य।

अनवरी

संज्ञा

[सं. अन् = विरुद्ध + घरी = घड़ी]

कुपमय।

अनपैरी

वि.

[सं. अन +हिं. घेरना]

बिना बुलाया हुआ, अभिमंत्रित, अनाहूत।

अनघोर

संज्ञा

[सं. घोर]

अंधेर, अत्याचार।

अनचाहा

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. चाहना]

अप्रिय, अनिच्छित।

अनचाखा

वि.

[हिं. अन् ( उप.) +चखना]

बिना खाया हुआ।

अनचाहत

वि.

[सं. अन् = नहीं + चहना]

जोन चाहे, जो प्रेम न करे।

अनजान

वि.

[सं. अन् + हिं. जानना]

अज्ञानी, नासमझ।

अनजान

वि.

[सं. अन् + हिं. जानना]

अपरिचित, अज्ञात।

अनजान

क्रि. वि.

अज्ञानतावश नासमझी के कारण।

डगरि गए अनजान ही गह्यो जाइ बन घाट -- १००६।

अनजानत

क्रि. वि.

[सं. अन् + हिं. जानना (अनजान )]

अनजाने से, बिना जाने ही, अज्ञानतावश,

(क) धीर-धीर कहि कान्ह असुर यह, कंदर नाहीं। अनजानत सब परे अंधा-मुख-भीतर माहीं -- ४३१। (ख) अनजानत अपराध किए प्रभु राखि सरन मोहिं लेहु -- ५५८। (ग) ब्याकुल भयो डरगौ जिसे भारी। अन जानत कीन्हीं अधिकारी--१०६६।

अनजाने-अनजानैं

क्रि. वि.

[सं. अन् + हिं. जानना =अनजान]

अज्ञानतावश, नादानी में, नासमझी के कारण।

अनजाने मैं करी बहुत तुमसौं बरियाई। ये मेरे अपराध छमहुँ, त्रिभुवन के राई -- ४९२।

अनट

संज्ञा

[सं. अन्त = अत्याचार]

उपद्रव, अन्याय, अत्याचार।

अनडीठ

वि.

[सं. अन् = नहीं + सं. दृष्ट, प्रा. डिट्ट, हिं. डीठ]

अनदेखा, बिना देखा हुआ।

अनत

वि.

[स. अ = नहीं + नत = झुका हुआ]

न झुका हुआ, सीधा।

अनत

क्रि. वि.

[सं. अन्यत्र, प्रा. अन्नत]

और कहीं, दूसरी जगह, अन्य स्थान पर।

(क) हरि चरनारबिंद तजि लागत अनंत कहूँ तिन की मति काँची१-१८। (ख) जोग-जज्ञ-जप-तप नहिं कींन्हौ , बेद बिमल नहि भाख्यौं। अति रस लुब्ध स्वान जूठनि ज्यों, अनत नहीं चित राख्यौ--१-१११। (ग) अंतकाल तुम्हरे सुमिरन गति, अनत कहूँ नहि दउँ १-१६४। (घ) मेरौ मन अनत कहाँ सुख पावै–१-१६८। (ङ) राखियै दृग मद्ध दीजै अनत नाहीं जान सा. १०७।

अनतै

क्रि. वि.

[सं. अन्यत्र, प्रा , अन्नत्त, हिं. अनत]

दूसरी जगह को, अन्य स्थान के लिए, और कहीं।

(क) मुरली मधुर बजावहु मुख ते रुख जनि अनतै फेरौ-सा. ८। (ख) जाके गृह मैं प्रतिमा होई। तिन तजि पूजै अनतै सोइ--१२-३।

अनदेखा

वि.

[सं. अन् = नहीं + देखना]

बिना देखा हुआ।

अनदेखे

क्रि. वि.

[हिं. अनदेखा]

बिना देखे हुए ही, अनजान में ही।

(क) कहहि भूख औ नींद जीवन हौं जानत नाहीं। अनदेखे वे नैन लगे लोचन पथ. वाहीं-१० उ. ८। (ख) सुनहु मधुप अपने इन नैमन अन देखे बलबीर। घर-आँगन न सुहात रैनि दिन बिसरे भोजन-नीर-३१३७।

अनदोषे

वि.

[सं. अन + दोष]

निर्दोषी, निरपराधी।

इहिं मिस देखन अवति मालिनि, मुँह फः टे जुगँवारि। अनदोषे कौं दोष लगावतिं , दई देइगौ टारि-१०-२९२।

अनमो

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + भव = होना]

अचंभा, अनहोनी बात।

अनमो

वि.

अपूर्व, अदभुत, अलौकिक।

तुम घट ही मो स्याम बताए।…..। मोहन बदन बिलोकि मानि रुचि हँसि हरि कंठ लगाये। हम मतिहीन अजान अल्पमति तुम अनभौ पद ल्याए -- ३२०१।

अनमद

वि.

[सं. अन् = नहीं + मद]

गर्वरहित।

अनमना

वि.

[सं. अन्यमनस्क]

उदास, खिन्न।

अनमना

वि.

[सं. अन्यमनस्क]

अस्वस्थ।

अनमनी

वि.

[सं. अयमनस्क, हिं. अनमना (पुं.)]

उदास, खिन्न।

मैं तुम्हें हँसत-खेलत छाँड़ गई, अब न्यारे अनबोले रहे दोऊ। इत तुम रूखे ह्वेै रहे गिरिधर उत अनमनी अंचल उर माई मुख जंच लगाइ रहीं ओऊ -- २२४०।

अनमने

वि.

[सं. अन्यमनस्क, हिं. अनमना]

उदार, खिन्न।

मेरे इन नैन। इते करे। ........। धरे न धीर अनमने रुदन बल सो हठ करनि परे-पृ.३३१।

अनमनै

वि.

[सं. अन्यपनस्‍क, हिं. अनमना ]

खिन्न, उदास, सुम्त उचटे चिल का।

लाल अनमनै कत होत. हो तुम देखो धौँ कैसे कैपे करि लाड होँ-२२०९।

अनमाया

वि.

[हि अन् ( उप ) + सायना = नापन]

जो नापा न जा सके, जो न समावे।

अनमारग

संज्ञा

[सं. अन् = बुरा + मार्ग]

कुमार्ग, बुरी राह।

अनन्य

वि.

[सं.]

एकनिष्ठ, एक में ही लीन।

(क) भक्त अनन्य कछु नहिं माँगे। तातै मोहिं संकुच अति लागै--३-१३। (ख) और न मेरी इच्छा काइ। भक्ति अनन्य तुम्हारी होइ-७-२। (ग) मधुकर कहि कैसे मन मानै। जिनके एक अनन्य ब्रत सूझै क्यौं दूजौ उर आनै-३१३६।

अनप्रासन

संज्ञा

[सं. अन्नप्राशन]

बच्चों को पहलेपहल अन्न चटाने का संस्कार, चटावन, पसनी, पेहनी।

कान्ह कुँवर की करहु पासनी, कछु दिन घटि षट् मास गए। नद महर यह सुनि पुलकित जिय, हरि अनप्राशन जोग भए–१०८८।

अनफॉस

संज्ञा

[हिं. अन् + फाँस = पाश]

मोक्ष, मुक्ति।

अनबन

वि.

[सं. अन् = नहीं + बनना]

भिन्न-भिन्न, अनेक, विविध।

द्रुम फूले बन अनबन भाँती।

अनबोली

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. बोलना, पुं. अनबोला]

चुप या मौन रहने वाली।

(क) हौँ पठई इक सखी सयानी, अनबोली दै दैन। सूरस्याम राधिका मिलै बिनु कहा लगे दुख सैन--७४९। (ख) अनबोली क्योँ न रहै री आली तू आई मौसौँ बात बनावन--२२०४

अनपोले

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. बोलना]

न बोलने वाला, चुप, मौन।

(क) चिबुक उठ य कह्यौ अब देखो अजहुँ रहति अनबोले-१९०९। (ख) जो तुम हमैं जिवायौ चाहत अन बोले होइ रहिए ३०६३।

अनभल

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं +हिं. भला]

बुराई, हानि।

सूर अनभल आन को सुनत बृक्ष बैरि बुताय-सा. उ.-४५।

अनभली

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. भली]

बुरी, हेय निंदित।

सूर प्रभु को मिली भेटं। भली अनभली चून हरदी रंग देह छाही-१७८८।

अनभाया

वि.

[स. अन् + हिं. भाना = अच्छा लगना]

जो न भावे अप्रिय।

अनभावत

वि.

[सं. अन्+हिं. भावना = अन भावना, अन भाया]

जो अच्छा न लगे, जो न रुचे।

खोलि किवार पैठि मंदिर मैं दूध दही सब सखनि खवायौ। ऊखल चढ़ि सीकैँ कौ लीन्हौ, अन धावत भुइँ मैँ ढर कायौ-१०-३३१।

अनमारग

संज्ञा

[सं. अन् = बुरा + मार्ग]

दुराचार, अधर्म, पाप।

प्रकरम, अविधि, अज्ञान, अवज्ञा, अन मारग. अनरीति। जाकौ नाम लेत अघ उपजै , सोई करत अनीति -- १-१२९।

अनमिल

वि.

[स. अन = नहीं +हिं. मिलन।]

बेमेल, बेजोड़, असंबद्ध।

अनमिल

वि.

[स. अन = नहीं +हिं. मिलन।]

पृथक्, भिन्न, निलिप्त।

अनभिलउक्ति

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + मिल = मिलना और उकिन]

अक्रम तिशयोक्ति अलंकार जिसमें कारण के साथ ही कार्य का होना बताया जाता है।

गिरिजापति-पितु-पितु-पितु ही ते सौगुन सी दरसावै। ससिसुत-वेद-पिता की पुत्री आज कहा चित चावै। सूरज सुन माता सुबोध की अ पुत्र आदि ढहावै। सूरज प्रभु मिलाप हित स्यानी अनैमिल उकिन गनावै-सा ० १५।

अभिनतो

वि.

[सं. अन = नहीं + हिं. मिलना पुं. अनमि नता]

बेमेल, बेजोड़, बेतुकी, अनुचित।

ये री मदमत ग्वालि फिरति जोबन मदमाती। गोरस बेचनहारि गुजरी अति इतराती। अनमिलती बातें कहति सुन पै है तेरो नाह। कहँ मोहन कहँ तू रहै कवहिं गहो तेरी बाँह-१०६५।

अभिनतो

वि.

[सं. अन = नहीं + हिं. मिलना पुं. अनमि नता]

अप्राप्य, अलभ्य, अदृश्य।

अनमेष

वि.

[सं. अनिमेष]

स्थिर दृष्टि, टकटकी के साथ।

अनमेष दृग दिए देखे ही मुखमंडली वर वारि-२२१६।

अनमोल

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. मोल ]

अमूल्य, मूल्यवान।

अनमोल

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. मोल ]

सुन्दर।

अनमोलना

क्रि. स.

[सं. उन्मीलन]

आँख खोलना।

अनय

संज्ञा

[सं.]

अमंगल, दुर्भाग्य।

अनय

संज्ञा

[सं.]

अनीति, अन्याय।

अनयास

क्रि. वि.

[सं. अनायास]

बिना प्रयास या परिश्रम, अचानक, एकाएक।

(क) अदभुत राम नाम के अंक……..। अंधकार अज्ञान हरन को रविससि जुगल-प्रकास। बासर-निसि दोउ करेैं प्रकासित महा कुमग अनयास -- १-९०। (ख) घर ही बैठे दो उ दास। ऋष सिद्धि मुक्ति अभयपद दायक आ इ मिले प्रभु हरि अनयास -- १० उ०-१३५।

अनरँग

वि.

[सं. अन् = नहीं + रंग ]

रंगरहित, रंगहीन, दूसरे रंग का।

सेत, हरोै, रातो अरु पियरौ रंग लेत है धोई। कारौ अपनी रंग न छाँडेै, अनरँग कबहुँ न धोई--१-६३।

अनरना

क्रि. स.

[सं. अनादर]

अनादर करना।

अनरस

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + रस)

रस होनता, शुष्कता।

अनरस

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + रस)

कोप, मान।

अनरस

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + रस)

मनोमालिन्य, अनबन, बुराई।

अनरस

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + रस)

दुख, उदासी उत्साहहीनता।

लीन्हे पुहुप पराग पवन कर क्रीड़त चहुँ दि सि ध इ। रस अनरस संय, ग बिरहिनी भरि छाँडति मन भाई--२३१०।

अनरसा

वि.

[सं. अन् = नहीं = रस]

अनमना, माँदा, बीमार।

अनराता

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + रक्त]

बि ना रँगा हुआ, सादा।

अनरीति

संज्ञा

[सं. अन् = बुरी + रीति]

कुरीति, कुचाल कुप्रथा।

अनरीति

संज्ञा

[सं. अन् = बुरी + रीति]

अनुचित व्यवहार, अत्याचार।

इतनी कहत बिभीषन बोल्यौ बधू पाँप परौं। यह अनरीति सुनी नहिं स्रवननि अब नई कहा करौं–९-९८।

अनरुच

वि.

[हिं. अन् (उप.) + रुचि]

जो पसंद न हो, अरुचिकर।

अनरुचि

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + रुचि]

अरुचि, अनिच्छा।

अनरुचि

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + रुचि]

भोजन अच्छा न लगने की बीमारी।

मोहन काहैं न उगिलो माटी। बार-बार अनरुचि उपजावति, महरि हाथ लिए साँटी।१०-२५ ४।

अनरूप

वि.

[सं. अन् = नहीं = बुरा + रूप]

कुरूप।

अनरूप

वि.

[सं. अन् = नहीं = बुरा + रूप]

असमान, अतुल्य।

अनरै

क्रि. स.

[सं. अनादर, हिं. अनरना]

अनादर या अपमान करता है।

मधुकर मन सुनि जोग डरेै। …….। और सुमन जो अमित सुगंधित सीतल रुचि जो करै। क्यौं तुम कोकहिं बनेै सरै औ और सबै निदरै-३३११।

अनर्थ

संज्ञा

[सं.]

उपद्रव, उत्पात, अनिष्ट, बिगाड़।

अनल

संज्ञा

[सं.]

अग्नि, आग।

अनलहते

वि.

[हिं. अन् + लहना]

जो उपयुक्त न हों, । जिन पर विश्वास न किया जा सके, अनुचित।

दिन प्रति सबै उरहने के मिस आवति हैं उठि प्रात। अनलहते अपराध लगावतिँ, बिकट बनावतिँ बात--१०-३२६।

अनलायक

वि.

[सं. अन् = नहीं + अ. लायक-योग्य]

अयोग्य, नालायक।

अनलायक हम हैं की तुम हौ कहो न बात उघारि। तुमहू नवल नवल हमहूँ हैं बड़ी चतुर हो ग्वारि-२४२०।

अनलेख

वि.

[सं. अन् = नहीं + लक्ष्य = देखने योग्य]

अदृश्य, अगोचर।

अनवय

संज्ञा

[सं. अन्वय)

वंश, कुल।

अनवाद

संज्ञा

[सं. अन = नही + वाद = वचन]

कटुवचन, कुबोल।

अनसंग

संज्ञा

[सं. अन्य + सं.ग]

दूसरे का साथ।

देख हुलसत हीय सब के निरखि अद्भुत रूप। सूर अनसँग त जत तावत अयोपतिका सूप-सा० ३८।

अनसंग

संज्ञा

[सं. अन्य + सं.ग]

प्रसंगति' नामक अलंकार जिसमें कार्य का होना एक स्थान पर वर्णित हो और कारण का दूसरे स्थान पर; अथवा जो समय किसी कार्य के लिए निश्चित है तब कार्य का होना ने दिखाकर अन्य समय दिखाया जाय।

अनसत

वि.

[सं. अन् + सत्य]

असत्य, झूठ।

अनसमझ

वि.

[सं. अन् = नहीं + समय]

नासमझ, अनजान।

अँजोर

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल, हिं. उजाला, उजेरा]

उजाला, प्रकाश, चाँदनी

अँजोरना

क्रि. स.

[हिं. अँजुरी]

छीनना, हरना, लेना, मूसना।

अँजोरना

क्रि. स.

[सं. उज्ज्वल]

जलाना, प्रकाशित करना।

अँजोरा

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल]

प्रकाश।

अँजोरि

क्रि. स.

[हिं. अँजुरी, अँजोरना]

छीनकर, हरण करके, मूसकर।

(क) सूरदास ठगि रही ग्वालिनी, मन हरि लियौ अँजोरि–१०:२७०। (ख) मारग तौ कोउ चलन न पावत, धावत गोरस लेत अँजोरि--१०.३२७। (ग) सूर स्याम चितवत गए मो तन, तन मन लियौ अंजोर-६७०।

अँजोरी

संज्ञा

[हिं. अँजोर + ई]

प्रकाश,चमक।

अँजोरी

संज्ञा

[हिं. अँजोर + ई]

चाँदनी।

अँजोरी

वि.

उजेली, प्रकाशमयी, उज्ज्वल।

अँटकाए

क्रि. स.

[हिं. अटकाना]

फँसाए या उलझाए (हुए)।

मनि आभरन डार डारनि प्रति, देखत छबि मनहीं अँटकाए -- ७८४।

अँटकावत

क्रि. स.

[हिं. अटकाना]

रुकता है, बाधक होता है।

भीतर तैं बाहर लों आवत। घरआँगन अति चलत सुगम भए, देहरि अंटकावत १०-१२५।

अनसमै

क्रि. वि.

[सं. अन् = नहीं = समय]

असमय, कुसमय, कुअवसर, बेमौका।

ऋतु बसन्त अनस मेै अधम मति पिक सहाउ लेै धावत। प्रीत म सँग न जान जुवती रुचि बोले हु बोल न आवत--३४८६।

अनसहत

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. सहना]

जो सहा न जा सके, असहनीय।

अनहद (नाद)

संज्ञा

[सं. अनाहत नाद]

योग का एक साधन जि प में हाथ के अंगूठों से कान बंद करके शब्द विशेष सुनते हैं।

(क) ऊधो रखिए वह बात। कहत हो अनगढ़िन अनहद सुनत हो चपि जात -- ३२९२। ( ख) हृदय-कमल मैं ज्योति विराजै, अनहद नाद निरन्तर बाजै--३४४२।

अनहित

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + हित]

अहित, अपकार, बुराई, हानि।

(क) बालबिनोद बचन हित-अनहित बार-बार मुख भाखै। मानौ बग बगदाइ प्रथम दिसि आठ-सात-दस नाखै१-६०। (ख) चाहत गंध बैरी बीर। आपनो हित चहत अनहित होत छोड़त तीर-सा० २८।

अनहित

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं + हित]

अहितचिन्तक, शत्रु।

अनहोता

वि.

[सं. अन् = नहीं + हिं. होना]

अनहोना असंभव, अचंभे का।

अनहोनी

संज्ञा

[सं. अन् = नहीं +हिं. होना]

असंभव बात, अलौकिक घटना।

किहिँ बिधि करि कान्हहिँ समुझेैहौं ? मैं ही भूलि चंद दिखरायौ, ताहि कहत मैं खैहौं। अनहोनी कहुँ भई कन्हैया, देखी-सुनी न बात। यह तो अहि खिलौना सबकौ, खान कहत तिहिँ तात--१०-१८९।

अनाकनी

संज्ञा

[सं. अनाकर्णन, हिं. आनाकानी]

सुनी अनसुनी करना, टालमटोल।

अनागत

क्रि. वि.

[सं.]

अकस्मात, अचानक, सहसा, एकाएक।

सुने हैं स्याम मधुपुरी जात। सकुचति कहि न सकति काहू सौं गुप्न हृदय की बात है संकित बचन अनागत कोऊ कहि जो गई अधरात--२५१९।

अनागत

वि.

अनादि, अजन्मा।

नित्य अखड अनूप। अनागत अबिगत अनघ अनंत। जाको आदि को उ नहिं जानत को उ नहि पावत अंत

अनागत

वि.

अपूर्व अद्भुत।

(क) देखेहू अनदेखे से लागत। यद्यपि करत रंग भरि एकहि एकटक रहे निमिष नहिं त्यागत। इत रुचि दृष्टि मनोज महासुख उत शोभा गुन अमित अनागत-१६९५। (ख) पल इक माँह पलट सौं ली जत प्रगट प्रीति अनागत। सूरदास स्वामी बंसी बस मुरछि निमेष न जागत२३४२।

अनागत

संज्ञा

संगीत के अंतर्गत ताल का एक भेद।

अनागम

संज्ञा

[सं.]

आगमन का अभाव, न आना।

अनाघात

संज्ञा

[स.]

संगीत का वह ताल या विराम जो गायन में चार मात्राओं के बाद आता है। और कभी-कभी सम का काम देता है।

उपजावत गावत अति सुंदर अनाघात के ताल -- २३२०।

अनाचार

संज्ञा

[सं.]

निंदित आचरण, दुराचार।

अनाचार

संज्ञा

[सं.]

कुरीति, कुवाल।

अनाथ

वि.

[सं.]

असहाय, अशरण।

अनाथ

वि.

[सं.]

दीन, दुखी।

(क) परम अनाथ विवेक नैन बिनु, निगम-ऐन क्यों पावै -- १-४८। (ख) सूरदास अनाथ के हैं सदा राखनहर-स. ११७।

अनादि

वि.

[सं.]

जिसका आदि न हो, स्थान और काल से अबद्ध।

अनाना

क्रि. स.

[सं. अ नयन म्]

मँगाना।

अनापा

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. नापना]

बिना नापा हुआ।

अनापा

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. नापना]

जो नापा न जा सके। अमीम।

अनायास

क्रि. वि.

[सं.]

बिना प्रयास या परिश्रम, बैठे बिठाए, अकस्मात, सहसा।

अनारंगिन

संज्ञा

[हिं. नारंगी]

नारंगी के रंग की बस्तु।

अनारंगिन

संज्ञा

[हिं. नारंगी]

नारंगी की तरह लाल ओठ।

कनक संपुट कोकिला रव बिबस ह्वेै दे दान। बिकच कंज अनारंगिन पर लसित करत पै पान स ० उ०-५।

अनारी

वि.

[हिं. अनाड़ी]

नासमझ, नादान।

इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अनारी। अपनो दूध छाँड़ि को पीवै खारे कूप को बारी ३३००।

अनावृष्टि

संज्ञा

[सं.]

पानी न बरसना, सूखा।

सब यादव मिलि हरि सौं इह कह्यो सुफलक सुत जहँ होइ। अनावृष्टि अतिवृष्टि होति नहिं इह जानत सब कोई--१०-उ०-२७।

अनासा

वि.

[सं. अ = नहीं + नाश]

जिसका नाश न हुआ हो, जो टूटा हुआ न हो।

जल चरजासुत-सुत सम नासा धरे अनासा हार -- सा ० ३५।

अनाहक

क्रि. वि.

[फ़. ना + हक = नाहक]

बृथा, व्यर्थ निष्प्रयेजन।

होउ मन, राम-नाम कौ गाहक। चौरासी लख जीव-जोनि मैं भटकत फिरत अनाहक -- १-३१०।

अनाहत

वि.

[सं.]

जिस पर अधात न. हुआ हो।

अनाहत

वि.

[सं.]

जिसका गुणन न हुआ हो।

अनाहत

संज्ञा

योग की एक क्रिया जिसमें हाथ के अंगूठों से कान मूँदकर ध्यान करने से शब्द-विशेष सुनते हैं।

अनाहत बानी

संज्ञा

[सं. अनाहत + वाणी]

आकाश वाणी, देववाणी, गगनगिरा।

समदत भई अनाहत बानो कंस कान झनकारा। याकी कोखि औतरे जो सुत करै प्रान परिहारा।……. तब बसुदेव दीन ह्वै भाष्यौ पुरुष न तिय बध करई। मोको भई अनाहत बानी तातै सोच न टरई-१०४।

अनाहूत

वि.

[सं.]

बिना बुलाया हुआ, अनिमंत्रित।

अनिंद

वि.

[सं. अनिंद्य]

जो निंदा के योग्य न हो.

अनिंद

वि.

[सं. अनिंद्य]

उत्तम, प्रशंसनीय।

अनियाई

वि.

[सं. अन्यायिन, हिं. अन्यायी]

अन्यायी, अनीतिकारी, अंधेर करने वाला।

अरे मधुप लंपट अनियाई यह संदेस कत कहैं कन्हाई -- ३४०८।

अनित्य

वि.

[सं.]

जो सब दिन न रहे, अस्थायी।

अनित्य

वि.

[सं.]

नश्वर।

अनिप

संज्ञा

[हिं. अनी = सेना +प== पालक = स्वामी]

सेनापति।

अनिमा

संज्ञा

[सं. अणिमा]

अष्टसिद्धियों में पहली जिससे सूक्ष्म रूप धारण करके अदृश्य हो जाते हैं।

अनिमिष

वि.

[सं.]

एकटक दृष्टि से देखने वाला।

अनिमिष

क्रि. वि.

बिना पलक गिराये

अनिमिष

क्रि. वि.

निरंतर।

अनिमिष

संज्ञा

देवता।

अनिमेष

वि.

[सं.]

स्थिर दृष्टि, टकटकी के साथ।

अनिमेष

क्रि. वि.

एकटक।

अनिमेष

क्रि. वि.

निरंतर।

अनियाउ

संज्ञा

[सं. अन्याय]

अन्याय, अनीति।

अनियारे

वि.

[सं. अणि = नोक +हिं. आर (प्रत्य.) हिं. अनियारा]

नुकीला, कटीला, धारदार, तीक्ष्ण।

(क) नैन कमल-दल से अनियारे। दरसत तिन्हैं कटैं दुख भरे-३-१३। (ख) उ०-ठाढ़ी कुँअरि राधिका लोचन मीचत तहँ हरि आए। अति बिसाल चंचल अनियारे हरि हाथनि न समाए–६७५।

अनियारो, अनियारौ

वि.

[सं. अणि = नोक + हिं. आर (प्रत्य.) हिं. अनियारा]

नुकीला, कटीला, तीक्ष्ण, पैना।

(क) रघुपति अपनो प्रन प्रतिपारयौ तारयो कोपि प्रबल गढ़, रावन टूक टूक करि डारयौ। ……..रहयौ माँस को पिड, प्रान ले गयौ बान अनियरौ-९-१५९। (ख) जाहि लगै सोई पै जानेै प्रेम-बान अनियरौ--२८४८।

अनिरुद्ध

संज्ञा

[सं.]

श्रीकृष्ण के पौत्र, प्रद्युम्न के पुत्र जिनका विवाह ऊषा से हुआ था।

अनिर्वचनीय

वि.

[सं.]

जिसका वर्णन न हो सके,अकथनीय।

अनिल

संज्ञा  

[सं.]

वायु पवन, हवा।

अनिवार्य

वि.

[सं.]

जो हटे नहीं, अटल।

अनिवार्य

वि.

[सं.]

जो अवश्य घटित हो।

अनिवार्य

वि.

[सं.]

परम आवश्यक।

अनी

संज्ञा

[सं. अणि = अग्रभाग, नोक]

नोक सिर, कोरा।

भौंह कमान समान बान सेना हैं युग नैन अनी।

अनी

संज्ञा

[सं. अनीक = समूह]

समूह. दल, सेना।

नारदादि सनकादि प्रजापति, सुर-नर-असुर-अनी। काल-कर्म-गुन और अन्त नहिं. प्रभु इच्छा रचनी--२-२८।

अनी

संज्ञा

[हिं. आन = मर्यादा]

ग्लानि, खेद।

अनीक

संज्ञा

[सं.]

सेना, कटक समूह।

सारंगसुन नीकन में सोहत मनो अनीक निहार--सा० ३५।

अनीठ

वि.

[सं. अनिष्ठ, प्रा. अनिट]

अप्रिय अनिच्छित।

अनीठ

वि.

[सं. अनिष्ठ, प्रा. अनिट]

बुरा, खराब।

अनीतन

वि.

[सं. अ = नहीं + नीतन == नेत्र]

अनयन, नेत्रहीन, अंधा।

तमहर सुत गुन आदि अंत कवि को मतिवंत विचारो। मेरे जान अनीतन इनको कीनो बिध गुन वीरो-सा ० ४०।

अनीति

संज्ञा

[सं.]

नीति विरोध, अन्याय।

जाको नाम लेत अघ उपजै, सोई करत अनीति--१-१२९।

अनीति

संज्ञा

[सं.]

अंधेर, अत्याचार।

अनीस

वि.

[सं. अनीशा, हिं. अनीश]

अनाथ,असमर्थ।

अनीस

वि.

[सं. अनीशा, हिं. अनीश]

जिसके ऊपर कोई न हो।

अनीस

संज्ञा

विष्णु। जीव, माया।

अनीह

वि.

[सं.]

इच्छारहित, निस्पृह।

अज-अनीह-अबिरुद्ध-एकरस, यहै अधिक ये अवतारी -- १०-१७१।

अनु

अव्य.

[हिं.]

हाँ, ठीक है।

अनुकरण

संज्ञा

[सं.]

देखादेखी आचरण।

अनुकरण

संज्ञा

[सं.]

पीछे आने वाला व्यक्ति।

अनुकूल

वि.

[सं.]

पक्ष में रहने वाला, हितकर।

अनुकूल

वि.

[सं.]

प्रसन्न।

मुकुट सिर धारैँ, बनमाल कौस्तुभ गरैँ चतुर्भुज स्याम सुन्दर हिँ ध्यायौ। भए अनुकूल हरि, दियौ तिहिँ तुरत बर जगत करि राज पद अटल पायौ-४-१०।

अनुकूल

क्रि. वि.

ओर, तरफ।

अनुकूलना

क्रि. स.

[सं. अनुकूलन, हिं. अनुकूल]

पद में होना. हितकर होना।

अनुकूलना

क्रि. स.

[सं. अनुकूलन, हिं. अनुकूल]

प्रसन्न होना।

अनुकूली

क्रि. स.

[हिं. अनुकूलना

प्रसन्न हुई।

अनुकूली

क्रि. स.

[हिं. अनुकूलना

हितकर हुई।

अनुकूले

वि.

[अनुकूल]

समान, मिलता-जुलता।

लोचन सपने के भ्रम भूले। ............। मोते गये कुम्ही के जर लौं ऐले वे नि्रमुले। सूर स्याम जलरामि परे अब रूप-रंग अनुकुले-प्रृं० ३३४।

अनुगामी

वि.

[सं.]

पीछे चलने वाला।

दरभूषन षनषन उठाइ दै नीतन हरि घर हेरत। तनु अनुगामी मनि मैं भैके भीतर सुरुच सकेरत -- सा ०--३।

अनुगामी

वि.

[सं.]

आज्ञाकारी।

अनुग्रह

संज्ञा

[सं.]

कृपा, दया।

अनुग्रह

संज्ञा

[सं.]

अनिष्ट-निवारण।

अनुधातन

संज्ञा

[सं. अनुघात]

नाश, संहार।

कालीदमन के सि कर पातन। अघ अरिष्ट । धेनुक अनुघातन -- -९८२।

अनुच

वि.

[सं. अन् + उच्च]

जो श्रेष्ठ या महान न हो।

इहिँ विधि उच्च-अनुच्च तन धरि-धरि, देस-विदेस बिचरती-१-२०३।

अनुचर

संज्ञा

[सं.]

दास, सेवक।

अनुचर

संज्ञा

[सं.]

सहचर, साथी।

अनुज

वि.

[सं. अनु + ज]

जो पीछे उत्पन्न हुआ हो।

अनुज

संज्ञा

छोटा भाई।

अनुज्ञा

संज्ञा

[सं.]

आज्ञा।

अनुताप

संज्ञा

[स]

तपन, जलन।

अनुताप

संज्ञा

[स]

दुख, खेद।

अनुताप

संज्ञा

[स]

पछतावा।

अनुत्तर

वि.

[सं. अन = नहीं + उत्तर]

निरुत्तर, मौन।

अनुदिन

वि.

[सं.]

नित्यप्रति, प्रतिदिन।

संगति रहे साधु की अनुदिन भवदुख दूरि नसावत २.१७।

अनुनय

संज्ञा

[सं.]

विनय, प्रार्थना।

अनुनय

संज्ञा

[सं.]

मनाना।

अनुपम

वि.

[सं.]

उपमा रहित, बेजोड़।

( क ) सोभित सूर निकट नासा के अनुपम अधरनि की अरुनाई -- ६ १६। (ख) गृह ते चलो गोपकुमारि। खरक ठाढ़ो देख अदभुत एक अनुपम मार--सा ० १४।

अंत

संज्ञा

[सं.]

सीमा, अवधि, पराकाष्ठा।

भुजा बाम पर कर छबि लागति उपमा अंत न पार-६८७। (ख) सोभा सिन्धु न अंत रही री--१०-२९।

अंत

संज्ञा

[सं.]

अंतकाल, मरण, मृत्यु।

(क) छन मंगुर यह सबै स्याम बिनु अंत नहिं सँग जाइ-.-१-३१७। (ख) पर्‌यौ जु काज अंत की बिरियाँ तिनहुँ न अनि छुड़ायौ -- २-३०।

अंत

संज्ञा

[सं.]

फल, परिणाम।

अंत

संज्ञा

[सं. अंतर]

अंतःकरण, हृदय

अंत

संज्ञा

[सं. अंतर]

भेद, रहस्य।

(क) पूरन ब्रह्म पुरान बखानै। चतुरानन सिव अंत न जानै-१०-३। (ख) जाको ब्रह्मा अंत न पावै--३९३।

अंत

संज्ञा

[सं. अंत्र]

आँत, अंतड़ी।

अंत

क्रि. वि.

अंत में, निदान।

अंत

क्रि. वि.

[सं. अन्यत्र -- अनत-अंत]

दूसरे स्थान पर, अलग, दूर।

कुंज कुंज में क्रीड़ा करि करि गोपिन कौ सुख देंहों। गोप सखन सँग खेलत डोलौं तिन तजि अंत न जैहौं।

अंतक

संज्ञा

[सं.]

अंत करनेवाला, यमराज, काल।

भव अगाध-जल-मग्न महा सठ, तजि पद-कूल रह्यो। गिरा रहित ब्रृक-ग्रसित अजा लौं, अन्तक अनि गह्यो-१-२०१,

अंतक

संज्ञा

[सं.]

सन्निपात ज्वर का एक भयंकर भेद जिसमें रोगी किसी को नहीं पहचानता।

व्याकुल नंद सुनते ए बानी।. डसि मानौं नागिनी पुरानी। ब्याकुल सखा गोप भए व्याकुल। अंतक दशा भयौ भय आकुल-२३६४९

अनुप्राशन

संज्ञा

[सं.]

खाना।

अनुभव

संज्ञा

[सं.]

जानकारी, परीक्षा-जग्य ज्ञान।

अनुभवति

क्रि. स.

[सं. अनुभव, हिं. अनुभवना]

अनुभव करती है, समझती है, मानती है।

पुन्य फल अनुभवति सुतहिँ बिलोकि कै नँद-घरनि -- १० १०९।

अनुभवना

क्रि. स.

[सं. अनुभव ]

अनुभव करना।

अनुभवी

वि.

[सं. अनुभविन]

अनुभव या जानकारी रखने वाला।

अनुभेद

संज्ञा

[उप, अनु + सं. भेद]

भेद, उप. भेद।

सखा परस्पर मारि करैं, को‌उ कानि न मा‍नै। कौन बड़ौ को छोट, भेद-अनुभेद न जानै--१०-५८९।

अनुमान

संज्ञा

[सं.]

अटकल, अंदाज।

जमुमन देख अपनी कान। वर्ष सर को भयो पूरन अवै ना अनुमान-सा. ११४।

अनुमान

संज्ञा

[सं.]

विचार, निश्चय, भावना।

सूर प्रभु अनमान कीन्हौ, हरोैं इनके चीर-७८३।

अनुमान

संज्ञा

[सं.]

एक अलंकार जिसमें अटकल के आधार पर कोई बात कही जाय।

लै कर गेंद गए हैं खेलन लरिकन संग कन्हाई। यह अनुमान गयौ काली तट सूर साँवरो माई-सा. १०२।

अनुमानत

क्रि. स.

[सं. अनुमान, हिं. अनुमानना]

अनुमान करते हैं, सोचते हैं।

यह संपदा कहौ क्यों पचिहै बालसँघाती जानत है। सूरदास जो देते कछु इक कहो कहा अनुमानत हैं-पृ. ३३०।

अनुमानना

क्रि. स.

[सं. अनुमान]

अतुमान करना, सोचना।

अनुमानौ

क्रि. स.

[सं. अनुमान, हिं. अनुमानना]

अनुमान करती हूँ, सोचती-विचारती हूँ।

स्यामहूँ मैं कैसे पहिचानौ…...। पुनि लोचन ठहराइ निहारति निमिष मेटि वह छबि अनुमानौं। औरे भाव और कछु सोभा कहौ सखी कैसे उर आनौं -- १४२९।

अनुमान्यौ

क्रि. स. भूत.

[सं. अनुमान, हिं. अनु मानना]

अटकल लगाई, अनुमान किया, सोचा, विचारा।

(क) राधा हरि के भावहिं जान्यो। इहै बात कैहौं इन आगे मन ही मन अनुमान्यौ--१५२५। (ख) मधुबन ते चल्यौ तबहि गोकुल नियरान्यौ। देखत ब्रज लोग स्याम आयौ अनुमान्यो २९४९।

अनुमान्हो

क्रि. स.

[सं. अनुमान हि अनुमानना]

अनुमान किया, सोचा, विचार।

अब नहिं राखौंँ उठाइ, बैरी नहिं नान्हों। मारी गज-पै रुँदाइ मनहिँ यह अनुमान्हौ -- २४७५।

अनुरक्त

वि.

[सं.]

आदर प्रेषयुक्त, लीन।

अनुरक्त

वि.

[सं.]

लीन,

अंबरीष राजा हरि-भक्त। रहै सदा हरि पद अनुरक्त-९-५।

अनुरत

वि.

[सं.]

लीन, आसक्त, अनुरागी।

चरननि चित्त निरंतर अनृरत, रसना चरित-रसाल १-१८९।

अनुराग

संज्ञा

[सं.]

प्रीति, प्रेम, आसक्ति।

सूरदास अनुराग प्रथम तें विषय बिचार बिचारो -- स ० ४•।

अनुरागत

क्रि. स.

[सं. अनुराग, हि अनुरागना]

आलस होता है, प्रेम करता है, लीन होता है।

स्याम बिमुख नर-नारि बृथा सब कैसे मन इनिसों अनुरागत-११७५।

अनुरागत

क्रि. स.

[सं. अनुराग, हि अनुरागना]

प्रसन्न होता है।

लोले पोल झलक कुंडल की, यह उपमा कछु लागत। मानहुँ मकर सुधा-सर क्रीड़त, आपु-आपु अनुरागतअ ६४५।

अनुरागति

क्रि. स.

[सं. अनुराग, हिं. अनुरागना]

आसक्त होती है, प्रीति बढ़ाता है।

गूँगी बातनि योँ अनुरागति, भँवर गुजरत कमल मोँ बंदहिँ -- १०-१०७।

अनुरागन

क्रि. स.

[सं. अनुराग]

प्रेम करना, आसक्त होना।

अनुरागि

क्रि. स.

[सं. अनुराग, हिं. अनुरागना]

सप्रेम, सरुचि, लगन के साथ।

आजु नँद नंदन रंग भरे।…….। पुहुप मंजरी मुक्तनि माला अँग अनुरागि धरे। रचना सूर रची बृंदाबन, आनँद काज करे--६८९।

अनुरागिन

वि.

[सं. अनुरागिन, हिं. अनुरागिनी]

प्रेम करने वाली, अनुराग रखने वाली।

नँदनंदन बस तेरे री। सुनि राधिका परम बड़भागिनि अनुरागिनि हरि केरे री--१६४१।

अनुरागी

वि.

[सं. अनुरागिन]

अनुराग करने वाला, प्रेमी।

अनुरागी

वि.

[सं. अनुरागिन]

श्रद्धा रखने वाला, भक्त।

अबिनासी कौ आगम जान्यौ सकल देव अनुरागी १०-४।

अनुरागे

क्रि. स.

[सं. अनुराग, हिं. अनुरागना]

अनुरक्त हुए, आसक्त हुए।

(क) लै बसुदेव धँसे दह सूधे, सकल देव अनुरागे-१०-४। (ख) नवल गुपाल, नवली राधा, नये प्रेम-रस पागे। अंतर बनबिहार दोउ क्रीड़त, आपु -आपु अनुरागे -- ६८६। (ग) देवलोकि देखत सब कौतुक, बलि-केलि अनुराग-४१६। (घ) आवत बलराम स्याम सुनत दौरि चलीं बाम मुकुट झलक पीताम्बर मन मन अनुराग-२९५६।

अनुरागे

क्रि. स.

[सं. अनुराग, हिं. अनुरागना]

अनुरक्त होता है। प्रीति करता है।

त्रि कुटी संग भ्र भग तराकट नैन-नैन लगि लागेै। हँपनि प्रकास सुमुख कुंडल मिलि चद सूर अनुर गे ३० १४।

अनुरागौ

क्रि. स.

[स. अनुराग, हिं. अनुर गना]

प्रेम करो, प्रीति रखो।

ऐसो जानि मोह कौंत्य गौ। हरिचरनार बिंद अनुरागेै।-७-२।

अनुराग्यौ

क्रि. स. भूत.

[सं. अनुराग, हिं. अनुरागना]

अनुराग किया, प्रीति की।

(क) करि संकल्प अन्नजल त्याग्यौ। केवल हरि-पद सौं अनुराग्यौ-१-३४१। (ख) सिव पद-कमल हृदय अनुराग्यौ -- ४-५।

अनुराध

संज्ञा

[सं.]

विनय, प्रार्थना, याचना।

(क) तुम सन्मुख मैं बिमुख तुम्हारौ, मैं असाध तुम साध। धन्य-धन्य कहि-कहि जुवतिन को आप करत अनुराध--पृ. ३४३ (१)। (ख) वहै चूक जिय जानि सखी सुन मन ले गए चुराय।…….। सूर स्याम मन देहि न मेरौ पुनि करिहौं अनुरोध -- -१४६२।

अनुराधना

क्रि. स.

[सं. अनुरोध]

विनय करना, मनाना, याचना करना।

अनुराध्यो

क्रि. स.

[सं. अनुराध, हिं. अनुराधना]

अराधना की, याचना की, मनाया, विनय की।

ग्रीव मुतलरी तारि कै अचरा सौं बाँध्यौ। इह बहानौ करि लियौ हरि मन अनुराध्यौ -- -१५४१।

अनुरूप

वि.

[सं.]

समाप्त, सदृश।

अनुरूप

वि.

[सं.]

योग्य, अनुकूल।

अनुरोध

संज्ञा

[सं.]

रुकावट, बाधा।

अनुरोध

संज्ञा

[सं.]

प्रेरणा, उत्तेजना।

अनुरोध

संज्ञा

[सं.]

आग्रह।

अनुसंधानना

क्रि. स.

[सं. अनुसं.धान

खोजना, ढुँढ़ना।

अनुसंधानना

क्रि. स.

[सं. अनुसं.धान

सोचना, विचारना।

अनुसरै

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

पीछे पीछे या साथ साथ चलता है।

तुम बिनु प्रभु को ऐसी करै। जो भक्तिन कैं बस अनुसरै--१.२७७।

अनुसरै

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

(आज्ञा आदि का) पालन करता है।

राजा सेव भली बिधि करै। दंपति आयसु सब अनुसरै१-२८४।

अनुसरै

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

अनुकरण करे, नकल करे।

भक्ति-पंथ को जो अनुसरै। सो अष्टांग जोग कौं करै-२-२१।

अनुसार

क्रि. वि.

[सं.]

अनुकल, सदृश, समान।

सुकदेव कह्यो जाहि परकार। सूर कह्यौ। ताही अनुसार-३-६।

अनुसरना

क्रि. स.

[सं. अनुसरण]

अनुसरण करना, देखा देखी कार्य करना।

अनुसरना

क्रि. स.

[सं. अनुसरण]

आचरण या व्यवहार करना।

अनुसारी

क्रि. स.

[सं. अनुसरण, हिं. अनुसारना]

अनुसरण की, अनुकूल क्रिया की।

अनुसारी

यौ. रू.

उच्चारी कही।

(क) ऐसी बिधि बिनती अनुसारी-३-१३। (ख) तब ब्रह्मा बिनती अनुसारी-७-२। (ग) को है सुनत कासों हौ कौन कथा अनुसारी-३२९१।

अनुसारी

यौ. रू.

प्रचलित की, आरंभ की।

सूर इन्द्र पूजा अनुसारी। तुरत करौ सब भोग सँवारी-१००७।

अनुसारी

वि.

अनुसरण करने वाला।

सूरदास सम रूप नाम गुन अंतर अनुचर-अनुसारी-१०-१७१।

अनुसरई

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

साथ चल सके, अनुयायी हो सके।

नहिं कर लकुटि सुमति सतसंगति, जिहिं आधार अनुसरई -- १-४६।

अनुसरत

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

पीछे चलता है, साथ चलता है।

अनुसरत

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

अनुकरण करता है  ।

अनुसरतौ

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

अनुकरण करता, नकल करता।

पतित उद्धार किए तुम, हौं तिनकौं अनुसग्‍तौ -- १-२०३।

अनुसरना

क्रि. स.

[सं. अनुसरण]

पीछे या साथ-साथ चलना।

अनुसरना

क्रि. स.

[सं. अनुसरण]

अनुकरण करना।

अनुसरिए

क्रि. स.

[हिं. अनुमरना]

अनुसरण कीजिए, अपनाइए।

यहि प्रकार बिष मतम तरिए। योग पथ क्रम-कम अनुसरिए-३३०८।

अनुसरिहौं

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

अनुकूल आचरण करूँगा, (आज्ञा आदि) मानूँगा।

नृपति कहयौ सो करिहौं। तुम्हरी अज्ञा मैं अनुसरिहौं-९-२।

अनुसरी

क्रि. स.

[हिं. अनुसरना]

ग्रहण की, अपनायी।

(क) रिषि कह्यौ बहुत बुरोै तैं कीन्हौं। जो यह साप नृपति कों दोन्हौं।…...ताकी रच्छा हरि जूकरी। हरी अवज्ञा तुम अनुपरी-१-२९०। (ख) तिन बहु सृष्टि तामसी करी। सो तामस करि मन अनुसरी-३-७।

अनुसरै

क्रि. स. बहु.

[हिं. अनुसरना]

अनुकूल अचरण करते हैं।

अजहूँ स्रावग ऐसोहि करै। ताही कौ मारग अनुसरैं--५.२।

अनुसाल

संज्ञा

[सं. अनु + हिं. सालना]

वेदना, पीड़ा।

यहाँ और कासौं कहिहौं गरुड़गामी। मधु-कैटभ-मथन, मुर भौम केसी भिदन कंस-कुल काल अनुसाल हारी-१० उ०-५०।

अनुसासन

संज्ञा

[सं. अनुशासन)

आदेश, आज्ञा।

और नि कौं जम कैं अनुसासन, किंकर कौटिक धावै। सुनि मेरी अपराध-अधमई कोऊ निकट न आवै-१-१९७।

अनुसुया

संज्ञा

[सं. अनसूया]

अत्रि मुनि की स्त्री।

अनुहरण

संज्ञा

[सं.]

अनुसरण, अनुकूल, आचरण।

अनुहरत

वि.

[क्रि. स. ‘अनुहरना' का कृदन्त रूप]

उपयुक्त, योग्य, अनुकूल।

मंजु मेचक मृदुल तन अनुहरत भूषन भरनि। मनहूँ सुभग सिँगारसिसु-तरु, फरयौ अदभुत फरनि--१०-१०९।

अनुहरना

क्रि. स.

[सं. अनुसरण]

अनुकरण करना, आदर्श पर चलना।

अनुहरिया

वि.

[सं. अनुहार]

समान।

अनुहरिया

संज्ञा

आकृति।

अनुहार

वि.

[सं.]

एक रूप, समान।

हरि बल सोभित यौं अनुहार। ससि अरु सूर उदै भए मानौ दोऊ एकहिँ बार-२५७२।

अनुहार

संज्ञा

भेद, प्रकार।

अनुहारो

वि.

[सं. अनुहार, हिं. अनुहारि (स्त्री.)]

समान, सदृश।

गति. मराल, केहरि कटि, कदली युगल जंघ अनुहारो-२२००।

अनूज्ञा

संज्ञा

[सं. अनुज्ञा]

आज्ञा।

अनूज्ञा

संज्ञा

[सं. अनुज्ञा]

एक अलंकार जिसमें दूषित वस्तु पाने की इच्छा उसकी कोई विशेषता देखकर हो।

करत अनुज्ञा भूषन मोको सूर, स्याम चित अवै--सा० ६९।

अनूठा

वि.

[सं. अनुत्थ, अनुट्ट]

अनोखा।

अनूठा

वि.

[सं. अनुत्थ, अनुट्ट]

सुन्दर।

अनूतर

वि.

[सं. अनुत्तर]

निरुत्तर, मौन।

अनूतर

वि.

[सं. अनुत्तर]

चुपचाप रहने या मौन धारने वाला।

अनूप

वि.

[सं. अनुपम]

जिसकी उपमा न हो, अद्वितीय, बेजोड़।

अनूप

वि.

[सं. अनुपम]

सुन्दर, अच्छा।

हरि जस बिमल छत्र सिर ऊपर राजन। परम अनूप -- -१-४०।

अनूप

संज्ञा

वह प्रदेश जहाँ जलअधिक हो।

अनुहार

संज्ञा

आकृति।

अनुहारक

संज्ञा

[सं.]

अनुसरण करने वाला।

अनुहारना

क्रि. स.

[सं. अनुहारण]

समान करना।

अनुहारि

वि.

[सं. अनुहार]

समान, सदृश, तुल्य।

(क) सदन-रज तन स्याम सोभित, सुभग इहि अनुहारि। मनहुँ अंग-बिभूति राजति संभु सो मदहारि-१०-१६९। (ख) गिरि समान तन अगम अति पन्नग की अनुहारि-४३१। (ग) रोमावली अनूप बिराजति, जमुना की अनुहारि-६३७। (घ) आज घन स्याम की अनुहारि। उनइ आए साँवरे रे सजनी देखि रूप की आरि-२८२९। (ङ) है कोउ वैसी ही अनुहारि। मधुबन तन ते आवत सखी री देखहु नैन निहारि-२९५१।

अनुहारि

वि.

[सं. अनुहार]

योग्य, उपयुक्त।

अनुहारि

संज्ञा

रूप,-आकृति, प्रतिच्छवि।

(क) बलि गइ बाल रूप मुरारि। पाइ पैजनि रटति रुनझन, नचावति नँदनारि।…...। सूर सुर-नर सबै मोहे, निरखि यह अनुहारि-१०-११८। (ख) सुनहु सखी ते धन्य नारि। जो अपने प्रानबल्लभ की सपनेहु देखते हैं अनुहारि-२७९५.

अनुहारि

संज्ञा

रूप, . भेद, प्रकार।

बहु मिष्टान्न बहुत बिधि भोजन बहु व्यंजन अनुहारि -- ९९२।

अनुहारी

वि.

[सं. अनुहारिन]

अनुकरण करने वाला।

अनुहारी

वि.

[सं. अनुहार]

समान, सदृश।

(क), मुकुट कुण्डल तनु पीत बसन कोउ गोबिंद की अनुहारी-३४४१। (ख) आजु कोउ स्याम की अनुहारी। आवत उत उमँगे. सुन सबही देखि . रूप की वारी--२९५७।

अनुहारे

क्रि. स.

[सं. अनुहारण, हिं. अनुहारना]

तुल्य करना, समान करना, उपमा देना।

देखिः री हरि के चंचल तारे। कमल बीन को कहा एती छबि खंजनहू न ज त अनुहारे-१ ३३३।

अनूपम

वि.

[सं. अनुपम ]

अनुपम, बेजोड़।

(क) स्य म भुजनि की सुन्दरताई। चन्दन खौरि अनूपमा राजतिसो छबि कहीं न जाई-६४१। (ख) अद्भुत एक अनूपम बाग-१६८०।

अनूपी

वि.

[सं. अनुपम, हिं. अनूप]

अद्धितीय, अनुपम।

अनूपी

वि.

[सं. अनुपम, हिं. अनूप]

सुन्दर।

धन्य अनुराग धनि । भाग धनि सौभाग्य धन्य। जोवन-रूप, अति अनूपी । १३२५।

अनृत

संज्ञा

[सं.]

मिथ्या, असत्य।

अनृत

संज्ञा

[सं.]

अन्यथा, विपरीत।

अनेक

वि.

[सं.]

एक से अधिक, असंख्य, अनगिनती।

अनेग

वि.

[सं. अने क]

बहुत, अधिक।

अनेरी

वि.

[सं. अनृत, हिं. पं. अनेरा]

झूठ, व्यर्थ, निप्रयोजन।

कर सौं कर लै, लगाइ, महरि पै गई लिवाय, आनँद उर नहिं समाइ, बात है अनेरी-१०-२७५।

अनेरे

वि.

[स. अनृत, हिं., अनेरा]

व्यर्थ, निष्प्रयोजन

अनेरे

वि.

[स. अनृत, हिं., अनेरा]

झूठा, दुष्ट।

अंतर

क्रि. वि.

भीतर, अंदर।

(क) ज्यों जल मसक जीव-घट अंतर मम माया इमि जानि -- २-३८। (ख) हौं अलि केतने जतन बिचारौं। वह मूरति वाके उर अंतर बसी कौन बिधि टारौं सा. ७५।

अंतर

क्रि. वि.

ऊपर, पर।

निरखि सुन्दर हृदय पर भृगु-पाद परम सुलेख। मनहूँ सोभित प्रभु अन्तर सम्भू-भूषन बेष-६६५।

अंतर

वि.

आंतरिक।

(क) मलिन बसन हरि हेरि हित अंतर गति तन पीरो जनु पातै-सा. उ.४६। (ख) अंगदान बल को दै बैठी। मंदिर आजु आपने राधा अंतर प्रेम उमेठी--सा. १००।

अंतरगत

संज्ञा

[सं. अंतर्गत]

हृदय, अतःकरण, चित।

ज्यों गूँगे मीठे फल को रस अंतरगत ही भावै -- १२।

अंतरजामी, अँतरजामी

वि.

[सं. अंतर्यामी]

हृदय की बात जानने वाला।

(क) कमल-नैन, करुनामय, सकल-अंतरजामी-१-१२४। (ख) सूर बिनती करै, सुनहु नँद-नंद तुम कहा कहौ खोलि कै अंतरजामी-१-२१४।

अंतरदाह

संज्ञा

[सं.]

हृदय की जलन; हृदय का संताप

अंतरदाह जु मिट्यो ब्यास कौ इक चित ह्वै भागवत किऐं-१-८९।

अंतरधान

संज्ञा

[स अतर्द्धान]

लोप, अदर्शन।

अंतरधान

वि.

गुप्त, अलक्ष, अदृश्य।

करि अँतरधान हरि मोहिनी रूप कौं, गरुड़ असवार ह्वै तहाँ आए ८-८।

अंतरध्यान

संज्ञा

[सं. अंतर्द्धान]

अदृश्य, अंतर्हित, लुप्त।

भयैं अंतरध्यान बीते पाछिली निस जाम--सा. ११८।

अंतरपट

संज्ञा

[सं.]

परदा, आड़, ओट

अनेरे

क्रि. वि.

व्यर्थ

अनेरो, अनेरौ

वि.

[सं. अनृत, हिं.अनेरा]

झूठा, अन्यायी, दुष्ट।

(क) रे रे चपल बिरूप ढीठ तू बोलत वचन अनेरौ-९-१३२। (ख) क़ारौ कहि कहि तोहिं खिझावत, बरजत खरो अनेरौं। १००२ १६। (ग) अबलौं मैं करी कानि, सही दूध-दही, हानि, अजहूँ जिय जानि-मानि, कान्ह है अनेरौ-१०-२७६। (घ) अरी ग्वारि मैमंत बोलत बचन जो अनेरौ। कब हरि बालक भये, गर्भ .. कब लियौ बसेरौ--१११४।

अनेरो, अनेरौ

वि.

[सं. अनृत, हिं.अनेरा]

निकम्मा. दुष्ट।

लोक-बेद कुल कानि मानत अति ही रहत अने रौ--पृ० ३२२।

अनेह

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + स्नेह]

अप्रीति, विरक्ति।

अनैस

संज्ञा

[सं. 'अनिष्ट]

बुराई, अहित।

अनैस

वि.

बुरा।

नि कसबी हम कौन मग हो कहै बारी बैस। मोह को यह गर्व सागर भरी आइ अनैस-स०१७

अनैसना

क्रि. अ.

[स. अनिष्ट, हिं. अनैस]

बुरा मानना, रूठना, मान करना।

अनैसा

वि.

[सं. अनिष्ट, हिं. अनैस]

अप्रिय, अरुचि कर,, बुरा।

अनेसी

वि.

[सं. अनिष्ट, हिं. अनैस]

बुरी।

तरुनिन की यह प्रकृति अनैसी थोरेहिं बात। खिसावैं–११५२

अनैसे

क्रि. वि.

[सं. अनिष्ट, हि: अनैस]

बुरे भाव से, बुरी तरह से।

अनैसैं

वि.

[हिं. अनैस, अनैसा]

जो इष्ट न हो, अप्रिय,बुरा।

जनम सिरानी ऐसैं ऐसे। कै घर-घर भरमत जदुपति बिन, कै सोवत, के बैसैं। के कहूँ। खान-पान-रमनादिक, कै कहुँ बाद अनैसें-१-२९६।

अनैहो

संज्ञा

[हिं. अनैसैं ]

उत्पात, उपद्रव।

ज्ञा कारन सुन सुत सुन्दर बर कीन्हौं इती अनैहो ( कीन्हीं ‘इती अरै )। सोइ सुधाकर देखि दमोदर या भाजन में हैं, हो (माँहि परै) १०-१९५।

अनोखी

वि.

[हिं. पुं. अनोखी]

अनूठी, निराली, अदभुत, विलक्षण।

झगरिनि तैं हौं बहुत खिझाई। कंचन हार दिऐै नहिं मानति, तुही अनोखी दाई--१०-१६

अनोखे

वि.

[हिं. अनोखा]

अनूठे, निराले।

अनोखे

वि.

[हिं. अनोखा]

सुन्दर।

भूषनपति अहारजा फल से मेघ अनोखे दोऊ -- -सा. १ ०३।

अनोखौ

वि.

[हिं. अनोखा]

अनूठा, निराला, विलक्षण।

सूर स्याम कौं हटकि न राखौ, तैंही पून अनौखौ जायौ--१०-३३१।

अनोखौ

वि.

[हिं. अनोखा]

प्रिय, सुन्दर। काकै नहीं अनोखौ ढोटा, किहिं न कठिन करि जायौ। मैं हूँ अपने औरस पुतैं बहुत दिननि मैं पायौ १०.३३९।

अनोन्या

सर्व.

[सं. अन्योन्य] परस्पर, आपस में।

दोऊ लगत दुहुन ते सुन्दर भले अनोन्या आजसा ०.४५।

अनोन्या

संज्ञा

एक अलंकार जिसमें दो वस्तुओं की क्रिया या गुण की उत्पत्ति पारस्परिक संबंध के कारण हो।

उक्त पंक्ति।

अन्न

संज्ञा

[सं.]

खाद्य पदार्थ।

अन्न

संज्ञा

[सं.]

अनाज, धान्य।

अन्न

संज्ञा

[सं.]

पकाया हुआ अन्न।

होनों । होउ होउ सो अबहीं यहि ब्रज अन्न न खाऊँ-२७८०।

अन्नकूट

संज्ञा

[सं.]

एक, उत्सव, जो कार्तिक मास में दीपावली के दूसरे दिन प्रतिपक्ष को वैष्णवों के यहाँ मनाया जाता है। इसमें अनेक प्रकार के व्यंजनों और फलों से भगवान् का भोग लगाते हैं।

अन्नकट बिधि करत लोग सब नेम सहित करि पकवान्ह-९१०

अन्नकूट

संज्ञा

[सं.]

अन्न का ढेर।  

अन्नकूट जैसो गोबर्धन--१०२५।

अन्यत्र

वि.

[स]

और जगह, दूसरे स्थान पर।

ता मित्र को परगातम मित्र। इक छिन रहत न सो अन्यत्र-४-१२।

अन्याइ, अन्याई

संज्ञा

[सं. अन्याय]

न्याय विरुद्ध व्यवहार, अनीति।

(क) पुत्र अन्याइ करै बहुतेरे। पिता एक अवगुन नहिं हेरै--५४। (ख) सेए नाहिं चरन गिरधर के, बहुत करी अन्याई। १-१४७।

अन्याइ, अन्याई

वि.

[सं. अन्यायिन्, हिं. अन्यायी]

अनुचित कार्य या अनीति करने वाला।

अन्याई को बास नरक मों यह जानत सब कोई-३४९४।

अन्याय

संज्ञा

[सं. अन्याय] [वि. अन्यायी]

अनीति, न्याय विरुद्ध आचरण।

करत अन्याय न बरजौ कबहूँ अरु माखन की चोरी--२७०८।

अन्याय

संज्ञा

[सं. अन्याय] [वि. अन्यायी]

अंधेर, अत्याचार।

अन्यारा

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. न्यारा].

जो अलग न हो।

अन्यारा

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. न्यारा].

अनोखा, निराला।

अन्यारा

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. न्यारा].

खूब, बहुत।

अन्यारी

वि.

[सं. अ = नहीं + न्यारी]

अनोखी, अनूठी, निरालो।

अंचल चंचल फटी कंचुकी विलुलित बर कुच सटी उघारी। मानो नव जलदबंधु कीनी बिधु निकसी नभ कसली अन्यारी २३०१।

अन्यास

क्रि. वि.

[सं. अनायास]

बिना परिश्रम।

अन्यास

क्रि. वि.

[सं. अनायास]

अकस्मात, अचानक, सहसा।

मोको तुम अपराध लगावत वृथा भई अन्यास। झुकत कहा मोपर ब्रजनारी सुनहु न सूरजदास-२९३४।

अन्योन्य

सर्व.

[सं.]

परस्पर, आपस में।

अन्वय

संज्ञा

[सं.]

परस्पर संबंध

अन्वय

संज्ञा

[सं.]

संयोग, मेल।

अन्वय

संज्ञा

[सं.]

कार्य-कारण का संबंध।

अन्हवाइ

क्रि. स.

[हिं. नहाना]

नहलाकर, स्नान करा के।

फूली फिरत जसोदा तन-मन, उबटि कान्ह अन्हवाइ अमोल-१०-९४।

अन्हवाएँ

क्रि. स. सवि.

[हिं. नहाना, नहलाना]

स्नान कराने, नहलाने से।

गज कौं कहा सरित अन्हवाएँ, बहुरि धरै वह ढंग--१-३३२।

अन्हवाऊ

क्रि. स.

[हिं. नहाना]

स्नान कराऊँ, नहलाऊँ।

मोहन, आउ तुम्हैं अन्हवाऊँ-१०-१८५।

अन्हवायौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. नहाना]

स्नान कराया, नहलाया।

नंद करत पूजा, हरि देखत। घण्ट बजाइ, देव अन्हवायौ, दल चन्दन लेै भेंटत-१०-२६१।

अन्हवावति

क्रि. स.

[हिं. नहाना]

नहलाती है।

यह कहि जननी दुहुँनि उर लावति। सुमना, सत अँग परसि, तरनि-जल, बलि-बलि गई, कहि कहि अन्हवावति-५१४।

अन्वावन

क्रि. स.

[हिं. नहलाना]

स्नान कराने को, नहलाने को।

जसुमति जबहिं कह्यौ अन्हवावन रोइ गये हरि लोटत री -१०.१८६।

अन्हवावहु

क्रि. स.

[हिं. नहाना]

नहलाओ, स्नान कराओ।

बिप्रनि कह्यौ याहि अग्‍हवावहु। याकैँ अंग सुगंध लगाव हु--५-३।

अन्हाइ

क्रि. अ.

[हिं. नहाना]

स्नान करता है, नहाता है।

जबै अवौं साधु संगति, कछुक मन ठहराइ। ज्यौंँ गयंद अन्हाइ सरिता, बहुरि वहै सुभाइ १.४५।

अन्हाए

क्रि. अ.

[हिं. नहाना]

नहाने, स्नान करने।

हम लंकेस-दूत प्रतिहारी, समुद-तीर कौँ जात अन्हाए-९-१२०।

अन्हात

क्रि. अ.

[हिं. नहाना]

स्नान करते हुए, नहाते हुए।

अन्हात-खात

मुहा.

नहाते-खाते :- आशय यह कि दैनिक जीवन सुखमय हो, चिन्ता उनके पास न फटकै। उ.- कुसल रहैँ बलराम स्याम दोउ, खेलत खात अन्हात -- १०-२५७।

अन्हान

क्रि. अ.

[हिं. नहाना]

नहाने, स्नान करने।

यह कहिकै रिषि गए अन्हान . ९-५।

अन्हावै

क्रि. स.

[हिं. नहाना]

स्नान करे, नहाए।

वेद धर्म तजि केै न अन्हावै। प्रजा सकल कोँ। यहै सिखावै -- १-२।

अन्हावहु

क्रि. अ.

[हिं. स्नान, नहान]

नहलाओ, स्नान कराओ।

कान्ह कह्यौ, गिरि दुध अन्हाबहु १०२३।

अन्हैबो, अन्हैबौ

क्रि. अ.

[हिं. नहाना]

नहावें।

(क) कैसे बसन उतारि धरैं हम कैसे जलहि समैबौ। नंद-नंदन हमको देखैगे, कैसे करि जु अन्हैबौ-७७९। (ख) नंद-नंदन हम को देखैगे, कैसे करि जो अन्हैबो ८१८।

अपंग

वि.

[सं. अपाग, हीनांग]

अंगहीन।

अपंग

वि.

[सं. अपाग, हीनांग]

काम करने में अशक्त असमर्थ।

सुभट भए डोलत ए नैन।…….. आपुन लोभ अत्र लै धावत पलक कवच नहिं अंग। हाव भाव रस लरत कटाक्ष न भ्रकुटी धनुष अपंग-पृ० ३२६।

अपंग

वि.

[सं. अपाग, हीनांग]

लँगड़ा।

अपकर्म

संज्ञा

[सं. अ = बुरा + कर्म]

बुरा काम, कुकर्म, पाप।

पतिकौ धर्म इहे प्रतिपालेै, जुवती सेवा ही को धर्म। जुवती सेवा तऊ न त्यागै जो पति कोटि करेै अपकर्म -- पृं० ३४१ (१)।

अपकाजी

वि.

[हिं. आप + काज]

अपस्वार्थी, मतलबी।

अहंकारि लंपट अपकाजी सग न रह्यो निदानी। सूरस्याम बिनु नागरि राधा नागर चित्त भुलानी -- १६४७।

अपकार

संज्ञा

[सं.]

द्वेष, द्रोह, बुराई।

अपकार

संज्ञा

[सं.]

अपमान।

अपकार

संज्ञा

[सं.]

अत्याचार, अनीति।

अपकारी

वि.

[सं. अपकारिन, हिं. अपकार)

हानिकारक, अनिष्टकारी।

यह ससि सीतल काहे कहियत।…...। मीनकेत अम्बुज आनंदित ताते ताहित लहिंयत। बिरहिन अरु कमलनि त्रासत कहुँ अपकारी रथ नहिंयत-२८५६।

अपकारी

वि.

[सं. अपकारिन, हिं. अपकार)

विरोधी, द्वेषी।

अपकारीचार

वि.

[सं. अपकार + आचार]

हानि पहुँचाने वाला।

अपकीरति

संज्ञा

[सं. अपकीर्ति]

अपयश निन्दा,  बुराई।

अपघात

संज्ञा

[सं.]

हत्या, हिंसा।

अपघात

संज्ञा

[सं.]

बचना, धोखा।

अपघात

संज्ञा

[सं. अप = अपना + घात = मार]

आत्मघात।

अपचाल

संज्ञा

[सं.]

कुचाल, खोटाई।

अपच्छी

सं. पुं.

[सं. अ = नहीं + पक्षी = पक्षवाला]

विपक्षी, विरोधी।

अपछरा

संज्ञा

[सं. अप्सरा, प्रा. अच्छरा]

अत्सरा।

अपजस

संज्ञा

[सं. अपयश]

अपकीर्ति, बुराई।

अपजस

संज्ञा

[सं. अपयश]

कलंक, लांछन।

अपडर

संज्ञा

[सं. अप + डर]

भय, शंका।

अपडरना

क्रि. अ.

[हिं. अपडर]

भयभीत होना, डरना, शंकित होना।

अपड़ाई

क्रि. अ.

[सं. अपर, हिं. अपड़ा ना]

खींचा तानी करता।

मन जो कहो करै री माई। ……..। निलज भई तन सुधि बिसराई गुरुजन करत इराई। इत कुलकानि उतै हरिकौ रस मन जो अति अपड़ाई-१६६९।

अपड़ाना

क्रि. अ.

[सं. अपर]

खींचातानी करना।

अपड़ाव

संज्ञा

[सं. अपर, हिं. परावा = पराया]

झगड़ा, रार, तकरार।

(क) महर ढोटौना सालि रहे। जन्महि तें अपड़ाब करत हैं गुनि गुनि हृदय कहे-२४६३। (ख) हँसत कहत कीधौं सतभाव। यह कहती औरै जो कोऊ तासौं मैं करती अपड़ाव-१२४०।

अपत

संज्ञा

[सं. आपत्]

दुर्दशा, दुर्गति।

जौ मेरे दीनदयाल न होते। तौ मेरी अपत करत कौरव-सुत, होत पंड़बनि ओते-१:२५९।

अपत

वि.

[सं. अ = नहीं-+ पत्र, प्रा. पत्त, हिं. पत्ता]

बिना पत्तों का।

अपत

वि.

[सं. अ = नहीं-+ पत्र, प्रा. पत्त, हिं. पत्ता]

नग्न।

अपत

वि.

[सं. अ = नहीं-+ पत्र, प्रा. पत्त, हिं. पत्ता]

निर्लज्ज।

अपत

वि.

[सं. अपात्र, पा. अपत्त]

अधम, पातकी।

प्रभु जू हौं तौ महा अधर्मी। अपत, उतार, अभागौ, कामी, बिषयी निपट कुकर्मी-१-१८६।

अपतई

संज्ञा

[सं. अपात्र, पा. अपत्त + ई (हिं. प्रत्य.)]

निर्लज्जता, ढिठाई।

नयना लुब्धे रूप के अपने सुख माई। …...। मिले धाय अकुलाय कै मैं करति लराई। अति ही करी उन अपतई हरि सों समताई-पृ० ३२३।

अपतई

संज्ञा

[सं. अपात्र, पा. अपत्त + ई (हिं. प्रत्य.)]

चंचलता।

कान्ह तुम्हारी माय महाबल सब जग अपवस कीन्हो हो। सुनि ताकौ सब अपतई सुरु सनकादिक मोहे हो-पृ० ३४९ (५९)।

अपताना  

संज्ञा

[हिं. अप = अपना + तानना]

जंजाल, प्रपंच।

अपति

संज्ञा

[सं. अ = बुरी + पत्ति = गति]

अगति, दुर्गति,दुर्दशा।

बैठी सभा सकल भूपनि की, भीषम-द्रोन-करन ब्रतधारी। कहि न सकत कोउबात बदन पर, इन पतितनि मो अपति बिचारी--१-२४८।

अपति

वि.

पापी, दुष्ट।

अपथ

संज्ञा

[सं.]

कुपथ, कुमार्ग।

( क ) माधौ नैंकु हटकौ गाइ। भ्रमत निसि-बासर अपथपथ, खगह गहि नहिं जाइ-१-५६। ( ख ) अपथ सकल चलि चाहि चहुँ, दिसि भ्रम उघटत मतिमंद--१-२ ० १। ( ग ) हरि हैं राजनीति पढ़ि आए। ते क्यौं नीति करैं आपुन जिन और न अपथ छुड़ाए। राजधर्म सुन इहै सूर जिहि प्रजा न जाहिं सताए -- ३३६३।

अपथ

संज्ञा

[सं.]

बीहड़ राह, विकट मार्ग।

अपद

संज्ञा

[सं.]

बिना पैर के रंगनेवाले जंतु। यथा साँप, केंचअ।

राजा इक पंडित पौरि तुम्हारी।…...अपद-दुपद पसु भाषा बूझत, अबिगत अल्प-अहारी-८-१४।

अपदाँव

संज्ञा

[सं. अप= बुरा + हिं. दाँव ]

चाल बाजी, चालाकी, कुचाल, घात।

कियौ वह भेद मन और नाहीं। पहले ही जाइ हरि सों कियौ भेद वहि और वे काज कासों बताहीं। दूसरें आइकै इद्रियनि लै गयौ ऐसे अपदाँव सब इनहिं कीन्है पृ० ३२१।

अपदेखा

वि.

[हिं. अप--अपने को + देखा = देखने वाला]

अपने को बड़ा समझनेवाला

अपन

सर्व.

[हिं. अपना]

अपना, निजी, स्वयं का।

अपन

संज्ञा

[हिं. अपना + पौ य पा (प्रत्य.)]

आत्मभाव, निजस्वरुप।

अपन

संज्ञा

[हिं. अपना + पौ य पा (प्रत्य.)]

संघा, सुध, ज्ञान।

अपन

संज्ञा

[हिं. अपना + पौ य पा (प्रत्य.)]

आत्मगौरव, मान।

अपनाई

क्रि. स.

[हिं. अपनाना]

ग्रहण की, शरण में लिया।

ज हमकौ कछु सुंदरताई। भक्त जानि के सब अपनाई।

अपनाऊँ

क्रि. स.

[हिं. अपनाना]

अपने पक्ष में करूँ, स्ववश करूँ।

सूरस्यास बिन देखे सजनी कैसे मन अपनाऊँ।

अंतकारी

संज्ञा

[सं.]

अंत या संहार करने वाला,विनाशक।

भक्त भय हरन असुर अंतकारी १० उ. -- ३१।

अंतगति

संज्ञा

[सं.]

अंतिम दशा, मृत्यु।

अंतत

क्रि. वि.

[हि अंत]

अंत में।

जाति । स्वभाव मिटैं नहिं सजनी अंतत उबरी कुबरी-३ १८८।

अंतर

संज्ञा

[सं.]

भेद, भिन्नता, अलगाव।

(क) जब जहाँ तन बेष धारौं तहाँ तुम हित जाइ। नैकु हूँ नहि करौं अंतर, निगम भेद न पाइ ६८३। (ख) जो जासौं अंतर नहि राखै सो क्यों अंतर राखें -- ११९२

अंतर

संज्ञा

[सं.]

मध्यवर्ती काल, बीस का समय।

(क) इहि अंतर नृपतभया आई। (ख) पिता देखि मिलिबे को धाई-९-३। तेजु बदन झाँप्यो झुकि अंचल इहै न दुख मेरे मन मान। यह पैं दुसह जु इतनेहि अंतर उपजि परैं कछु आन --सा० उ. १५।

अंतर

संज्ञा

[सं.]

ओट, आड़।

(क) जा दिन ते नैनन अंतर भयो अनुदिन अति बाढ़ति है बारि २७९५। (ख) एक दिवस किन देखहू, अंतर रहौ छपाई। दस को है धौं बीस को नैननि देखौ जाइ - १०६८। (ग) कठिन बचन सुनि स्रवन जानकी सकी न बचन सँभारि। तृन अंतर दै दृष्टि तरौंधी, दियों नयन जल ढारि-९-७९। (घ) पट अंतर दै भोग लगायो आरति करी बनाइ-२६१।

अंतर

वि.

अंतर्द्धान, लुप्त।

अगर्व जानि पिय अंतर ह्वै रहे सो मैं बृया बढ़ायौ री-१८१६।

अंतर

क्रि. वि.

दूर, अलग, पृथक।

कहाँ गए गिरिधर तजि मोकौं ह्याँ कैसे मैं आई। सुरस्याम अंतर भए मोते अपनी चूक सुनाई-१८०३।

अंतर

संज्ञा

[सं. अंतर]

हृदय, अंतःकरण, मन।

(क) गोबिंद प्रीति सबनि की मानत। जिहिं जिहिं भाइ करत जन सेवा, अंतर की गति जानत१-१३। (ख) सूर तो सुहृद मानि, ईश्वर अंतर जानि, सुनि सठ झूठौ हठ-कपट न ठानि-१-७७। (ग) राजा पुनि तब क्रीड़ा करै। छिन भरहू अंतर नहि धरे-४-१२। (घ) अंतर ते हरि प्रगट भए। रहत प्रेम के बस्य कन्हाई युवतिन को मिल हर्ष दए-१८३२।

अंतर

संज्ञा

[सं. अंतर]

हृदय या मन की बात।

तब मैं कह्यौ, कौन हैं मोसी, अंतर जानि लई-१८०३।

अपनाना

क्रि. स.

[हिं. अपनाना]

अपने अनुकूल करना, अपने वश में करना।

अपनाना

क्रि. स.

[हिं. अपनाना]

ग्रहण करना, । शरण में लेना।

अपनाम

संज्ञा

[सं.]

निंदा, अपयश।

अपनायौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. अपना, अपना]

अपना बनाया, अंगीकार या ग्रहण किया, शरण में लिया।

अब हो हरि, सरनागत आयौ। कृपानिधान सुदृष्टि हेरिये, जिहिं पतितनि अपनायौ-१-२०५।

अपनियाँ

सर्व.

[हिं. अपना]

अपनी।

सूर दास प्रभु निरखि मगन भए, प्रेम-बिबस कछु सुधि न अपनियाँ-१०-१०६।

अपनी

सर्व.

[सं. आत्मनो, प्रा. अतणों, अप्पणो; हिं. अपना]

निजी, निज को।

अपनी

मुहा.

करत अपनी अपनी :- स्वार्थ दिखाते हैं, केवल अपनी ही चिंता करते हैं। उ.- कहा कृपिन की मात्रा गनियै, मरत फिरत अपनी अपनी। खाइ न सकेै, खरच नहिं जानै, ज्यों भुवंग सिर रह। मनी-१-३९। अपनी सी कीन्हीं :- शक्ति भर प्रयत्न किया, भरसक चेष्टा की। उ.- दोवल कहा देति मोहिं सजनी तू तो बढ़ी सुजान। अपनी सी मैं बहुतै कीन्हीं रहित न तेरी आन।

अपने

सर्व.

[हिं. अपना]

निजी, निज के।

अपनैं

सर्व.

[हिं. अपना]

अपने निज के।

अपनै सुख कौं सब जग बाँध्यौ, कोऊ काहू कौ नाहीं--१-७९।

अपनो,अपनौ

सर्व.

[हिं. अपना]

निजी, निज का।

कारौ अपनौ रंग न छाँडै, अनरँग कबहुँ न होई-१६३।

अपबस  

वि.

[हिं. अप = अपना + सं. वश]

अपने वश में, स्ववश।

(क) जो बिधना अपबस करि पाऊँ। ता सखि कही होइ कछु तेरी अपनी साध पुराऊँ। (ख) कान्ह तुम्हारी माइ महाबल सब जग अपबस कीन्हो हो -- पृ. ३४२ (५९)।

अपभय

संज्ञा

[सं.]

निर्भयता।

अपभय

संज्ञा

[सं.]

अकारण भय।

अपभय

संज्ञा

[सं.]

डर, भय।

अपभय

वि.

निर्भय, निडर।

अपमान

संज्ञा

[सं. अप. (उप.) + मान]

अनादर, अवज्ञा।

अपमान

संज्ञा

[सं. अप. (उप.) + मान]

तिरस्कार, दुत्कार।

कौर-कौर-कारन कुबुद्धि, जड़, कितै सहत अप मान-१-१०३।

अपमानत

क्रि. स.

[सं. अपमान, हिं. अपमानना]

अपमान करते हैं, तिरस्कारते हैं।

हारि जीति नैना नहिं जानत। धाए जात तहीं को फिरि फिरि वै कितनो अपमानत-पृ. ३२८।

अपमानना

क्रि. स.

[सं. अपमान]

निंदा करना,तिरस्कारना।

अपमानै

क्रि. स.

[सं. अपमान, हिं. अपमानना]

अपमान करती हैं, तिरस्कारती हैं।

ताको ब्रजनारी पति जानै। कोउ आदर कोऊ अपमानै-१९२६।

अपमारग

संज्ञा

[सं. अपमार्ग]

कुमार्ग, कुपथ।

(क) माया नटी लकुट कर लीन्हे, कोटिक नाच नचावै।…..। महा मोहिनी मोहि आतमा, अपमारगहिं लगावै-१-४२। (ख) चोरी अपमारग वटपारयौ इति पटतर के नहिं कोऊ हैं -- ११५९।

अपमारगौ

वि.

[सं. अमार्गिन, अपगार्मी]

कुमार्गी, अन्यथाचारी, कुपंथी।

नैना नोनहरासी ये। चोर ढुंढ बटपार अन्याई अपमारगी कहावै जे पृ. ३२६।

अपयोग

संज्ञा

[सं. अप= बुरा + योग]

कुयोग।

अपयोग

संज्ञा

[सं. अप= बुरा + योग]

कुसगुन।

अपयोग

संज्ञा

[सं. अप= बुरा + योग]

बुराई।

सबै खोट मधुबन के लोग। जिनके संग स्याम सुन्दर सखि सीखे सब अपयोग-३०५२।

अपरंपार

वि.

[सं. अपर = दूसरा + हिं. पार-छोर]

जिसका पारावार न हो, असीम।

अपर

वि.

[स.]

अन्य, दूसरा, भिन्न, और।

भुज भुजंग, सरोज नैननि, बदन बिधु जित लरनि। रहे बिवरनि, सलिल, नभ, उपमा अपर दुरी डरनि १०-१०९।

अपरछन

वि.

[सं. अप्रच्छन्न]

छिपा, गुप्त।

अपरता

वि.

[हिं. जप = आप + सं. रत = लगा हुआ]

स्वयं में लगा हुआ, स्वार्थी।

अपरती

संज्ञा

[हिं. अप = आप + सं. रति = लीनता]

स्वार्थ।

अपरना

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + पर्णं = पत्ता]

पार्वती का एक नाम।

अपरस

वि.

[सं. अ = नहीं + स्पर्श,चारौं मुख अस्तुति करत, छमौ मोहि अपराध-४९२।. परस]

जो छुआ न जाय।

अपरस

वि.

[सं. अ = नहीं + स्पर्श,चारौं मुख अस्तुति करत, छमौ मोहि अपराध-४९२।. परस]

न छूने योग्य, अस्पृश्य।

अपरस

वि.

[सं. अ = नहीं + स्पर्श,चारौं मुख अस्तुति करत, छमौ मोहि अपराध-४९२।. परस]

जो अछूता न हो, अछूत, जो छूना न चाहे दूर रहने वाला।

ऊधौं तुम हो अति बड़भ'गी। अपरस रहत सनेह लगा ते नाहिन मन अनुरागी -- ३३४९।

अपराध

संज्ञा

[सं.]

दोष, पाप।

अपराध

संज्ञा

[सं.]

भूल, चूक।

अपराधिनि

वि.

[सं. अपराधिन, हिं. अपराधिनी]

दोषयुक्त स्त्री, पापिनी।

अपरा धिनि मर्म न जान्यौ अरु तुमहू ते तूटी-१० उ० ८०।

अपरधी

वि.

[सं. अपराधिन]

अपराध करने वाले, दोषी।

अपरधी

वि.

[सं. अपराधिन]

पाप करने वाले पापी।

तुम मो से अपराधी माधव, केतिक स्वर्ग पठाए (हो)-१-७।

अपराधु

संज्ञा

[सं. अपराध]

दोष, पाप।

अपराधु

संज्ञा

[सं. अपराध]

भूल, चूक।

चारौं मुख अस्तुति करत, छमौ मोहिं अपराध-४९२।

अपराधौ

संज्ञा

[सं. अपराध]

दोष, पाप।

जब ते बिछुरे स्याम तबते रह्यौ न जाइ सुनौ सखी मेरोइ अपराधौ--१८०९।

अपरिमित

वि.

[सं.]

इयत्ताशून्य, असीम्।

अलख अनंत-अपरिमित महिमा, कटि-तट कसे तनीर-९-२६।

अपरिमित

वि.

[सं.]

असंख्य अनंत।

कृपा सिंधु, अपराध अपरिमित छमौ, सूर तैं सब बिगरी-१-११५।

अपलोक

संज्ञा

[सं.]

अपयश, अपकीर्ति।

रहि रहि देख्यौ तेरौ ज्ञान। सुफल कसुत सरबस रस ले गयौ तू करन आयौ ज्ञान। बृथा कत अपलोक लावत कहत यह उपदेस-३१२३।

अपवाद

संज्ञा

[सं.]

विरोध, प्रतिवाद।

अपवाद

संज्ञा

[सं.]

निंदा, अपकीर्ति।

अपवाद

संज्ञा

[सं.]

दोष, पाप।

अपसगुन

संज्ञा

[सं. अपशकुन]

असगुन, बुरा सगुन।

अर्जुन बहुत दुखित तब भये। इहाँ अपसगुन होत नित नये। रोवैं बृषभ, तुरग अरु नाग। स्याम द्यौस, निसि बोलैं काग-१-२८६।

अपसना

क्रि.

[सं. अपसरण = खिसकना]

सरकना।

अपसना

क्रि.

[सं. अपसरण = खिसकना]

चल देना, चंपत होना।

अपसना

संज्ञा

[सं. अपस्मार]

रोग-विशेष, मृगी, । मूर्छ।

सुत भीतमजासुतपित नाहीं चहत हार । चित हेरों। अपसमार जहँ सूर समारत बहु बिषाद उर पेरों--सा ० ६७।

अपसर

वि.

[हिं. अप = अपना + सर प्रत्य.)]

आप ही आप, मनमाना, अपनी तरंग का, अपने मन का।

रहु रे मधु कर मधु मतवारे………। लोटत पीत पराग कीच महँ नीच न अंग सम्हारे। बारंबार सरक मदिरा की अपसर रटत उघारे २९९०।

अपसोच

क्रि. अ.

[सं. अप + हिं. सोचना]

चिंता करके।

काहे को अपसोच मरति है। नैन तुम्हारे नाहीं -- पृ० ३२१।

अपस्तोस

संज्ञा

[फा. अफसोस]

चिंता, सोच,दुख।

अपसोसना

क्रि. अ.

[हिं. अफसोस]

सोच करना, चिंता करना।

अपसोसनि

संज्ञा

[फा. अफसोस, हिं. चिंता ,

सोच या दुख में।

तातैं अब मरियत अपसोसनि। मथुरा हूँ तैं गये सखी री, अब हरि कारे कोसनि–१० उ०-८८।

अपसोसों

संज्ञा

[हिं. अपसोस]

सोच, चिंता।

भैनी मात पिता बंधव गुरु गुरुजन यह कहैं। मोसों। राधा कान्ह एक सँग बिलसत मन ही मन अपसोसों--१२२ १।

अपसौन

संज्ञा

[सं. अपशकुन]

असगुन।

अपस्वारर्थी

वि.

[हिं. अप-अपना + सं. स्वार्थी]

स्वार्थ साधने वाला, मतलबी है।

नैना, लुब्धे रूप को अपने सुख माई। अपराधी अपस्वारथी मोको बिसराई-पृ० ३२३।

अपहरन

संज्ञा

[सं. अपहरण]

हर लेना, हरण।

सोच सोच तू डार देखि दीनदयाल अयो।….। अपहरन पुनि बरन बंस हरि जानि हौं केहि योग भयौ -- १० उ० -- -१८।

अपहरना

क्रि. स.

[सं. अपहरण]

छीनना,लूटना।

अपहरना

क्रि. स.

[सं. अपहरण]

चुराना।

अपहरना

क्रि. स.

[सं. अपहरण]

कम करना, नाश करना।

अपहारी

संज्ञा

[सं. अपहारिन]

चोर, लुटेरा।

अपहारी

संज्ञा

[सं. अपहारिन]

हरने वाला।

अपहारी

वि.

पराजित, हारा हुआ।

तुव मुख देखि डरत ससि भारी। कर करि कै हरि हेरयौ चाहत, भाजि पताल गयौ अपहारी--१०.१९६।

अपा  

संज्ञा

[हिं. आप]

अहकार, गर्व।

अपान

वि.

[सं. अ = नहीं + पान == पेय]

अपेय, न पीने योग्य।

भच्छि अभच्छ, अपान पान करि, कबहुँ न मनसा धापी। कामी बिबस कामिनी कै रस, लोभ लालसा थापी -- १-१४०।

अपान

संज्ञा

[हिं. अपना]

आत्मतत्व, आत्मज्ञान।

अपान

संज्ञा

[हिं. अपना]

आपा, आत्मगौरव,।

अपान

संज्ञा

[हिं. अपना]

सुध, संज्ञा, ज्ञान।

अपान

संज्ञा

[हिं. अपना]

अहम्, अभिमान।

अपान

सर्व.

अपना, निज का।

अपाना

सर्व.

[हिं. अपना]

अपना, अपने वश का, अपने हाथ का।

निकट बसत हुती अस कियौ अब दूर पयाना बिना कृपा भगवान उपा उ न सूर अपान १० ३ ०-८१।

अपाप

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + प्रा.पाप]

जो पाप न हो, पुण्य।

अपाय

संज्ञा

[सं.]

उपद्रव, अन्यथाजार।

अपाय

वि.

[सं. अ-नहीं-पाद, पात = पैर]

लँगड़ा, अपाहिज।

अपाय

वि.

[सं. अ-नहीं-पाद, पात = पैर]

निरुपाय, असमर्थ।

अपार

वि.

[सं.]

सीमा रहित, अनन्त, असीम।  

अपार

वि.

[सं.]

असंख्य, अगणित अधिक।

अपारा

वि.

[सं. अपार]

अपार, असन, अनन्त।

सब मिलि गए जहाँ पुरुोत्तम, जिहिं गति अगम, अपारा -- -१०-४।

अपारी

वि.

[हिं. अपार]

जिसका पार न हो, असीम।

रसना। एक नहीं सत कोटिक सोभा अमित अगरी पृ० -- ३१६।

अपारौ

वि.

[सं. अपार]

जिसका पार न हो, सीमा रहित, बहुत बढ़ी चढ़ी।

ममता-घटा, मोह की बूंदे, सरिता मैन अपारौ। बूड़त कतहुँ थाह नहिँ। पावत, गुरुजन-ओट अधारौ -- १-२०९।

अपावन

वि.

[सं.]

अपवित्र, अशुद्ध।

अपीच

वि.

[सं. अपीच्य]

सुन्दर, अच्छा।

अपुन

सर्व.

[हिं. आत्मनो, प्रा., अत्तणो, आप्पणों हिं. अपना]

अपना।

अपुन

मुहा.

अनुप करि :- अपना करके, अपना समझकर। अपने अनुकूल बनाकर। उ.- जौ हरि ब्रत निज उर न धरैगो। तौ को अस त्राता जु अपुन करि कर कुंठाव पकरैगौ-१-७५।

अपुनपौ  

संज्ञा

[हिं. अपना+पोै या पा (प्रत्य.)]

आत्मभाव, निजस्वरूप, आत्मज्ञान।

(क) अति उन्मत्त मोह-माया-बस नहिं कछु बात बिचारौ। करत उपाव न पूछत काहु, गनत न खोटो खारौ। इन्द्री स्वाद-बिबस निसि बासर आप अपुतपौ हारौ--१-१५२। (ख) अपुनपौ आपुन ही मैं पायौ। सब्दहिं सब्द भयौ उजियारोैं, सतगुरु भेद बतायौ--४-१३।

अपुनपौ  

संज्ञा

[हिं. अपना+पोै या पा (प्रत्य.)]

संज्ञा, सुध, ज्ञान।

(क) अपुनपौ आपुन ही बिसरायौ। जैसे स्वान काँच-मंदिर में भ्रमि भ्रमि भूकि मरचौ--२-२६। (ख) अदभुत इक चितयौ हौं सजनी नंद महर कै आँगन री। सो मैं निरखि अपुनपौ खोयौ, गई मथानी माँगन -- -१०-१३७।

अपुनपौ  

संज्ञा

[हिं. अपना+पोै या पा (प्रत्य.)]

आत्मगौरव, मान, मर्यादा।

ऐसौ कौन मारिहै तोको, मौहि कहै सो आइ। वाकौं मारि अपुनपो राखै, सूरब्रजहिँ सो जाइ-१०६०।

अपुनपौ  

संज्ञा

[हिं. अपना+पोै या पा (प्रत्य.)]

स्वशक्ति ज्ञान।

कृष्ण कियौ मन ध्यान असुर इक बसत अँधेरे। बालक बछरन राखिहौं एक बार लै जाउँ। कछुक जनाऊँ अपुनपोै , अब लौं रह्यौ सुभाउ-४३१।

अपुनपौ  

संज्ञा

[हिं. अपना+पोै या पा (प्रत्य.)]

अपनायत, आत्मीयता, सम्बन्ध।

प्रगनित गुन हरिनाम तिहारैं अनौं। अपुनपौ ) धारौ। सूरदास स्वामी यह जन अब, करत करत स्रम हान्यौ १-१५७।

अपुनपौ  

संज्ञा

[हिं. अपना+पोै या पा (प्रत्य.)]

अहंकार, ममता।

अपूठना

क्रि. स.

[सं. अ = नहीं + पृष्ठ, पा. पुट्ट + पीठ

विध्वंसना, नासना।

अपूठना

क्रि. स.

[सं. अ = नहीं + पृष्ठ, पा. पुट्ट + पीठ

उलटना-पलटना।

अपूठा

वि.

[सं. अपुष्ट, प्रा. अपुट्ठ)

अज्ञानकार, अनभिज्ञ।

अपूठा

वि.

[सं. अस्फुट प्रा. अप्फुट]

जो खिला न हो, अविकसित।

अपूठी

क्रि. स.

[सं. अ = नहीं + पृष्ठ = पीठ, प्रा. पुट्ट = पीठ, हिं. अपूठना]

उलट-पुलट कर।

रावन हति, लै चलौं साथ ही, लका धरौं अपूटी। यातौं जिय सकुवात, नाथ की होइ प्रतिज्ञा झूठी-९-८७।

अपूत

वि.

[सं. अ = नहीं + पूत = पवित्र]

अपवित्र।

अंतरपट

संज्ञा

[सं.]

छिपाव, दुराव।

अंतरपट

संज्ञा

[सं.]

अधोवस्त्र।

अंतरा

संज्ञा

[सं. अंतर]

मध्यवर्ती काल, बीच का समय।

जब लगि हरत निमेष अंतरा युगसमान पल जात -- १३४७

अंतरा

क्रि. वि.

[सं.]

मध्य

अंतरा

क्रि. वि.

[सं.]

अतिरिक्त

अंतरा

क्रि. वि.

[सं.]

पृथक।

अंतरा

संज्ञा

गीत की स्थाई या टेक के अतिरिक्त पद या चरण।

अँतराना

क्रि. स.

[सं. अंतर]

पृथक करना।

अँतराना

क्रि. स.

[सं. अंतर]

भीतर ले जाना।

अंतराय

संज्ञा

[सं.]

बाधा।

अपूत

वि.

[सं. अपुत्र, पा. अपुत्त]

जिसके पुत्र न हो, अपूता।

अपूत

संज्ञा

कुपुत्र।

अपूर

वि.

[सं. आपूर्ण]

पूरा, भरपूर।

अपूरना

क्रि. स.

[सं. आपूर्णन]

भरना।

अपूरना

क्रि. स.

[सं. आपूर्णन]

(बाजा आदि) बजाना या फूँकना।

अपूरा

संज्ञा

[सं. आ + पूर्ण ]

भरा हुआ, फैला हुआ, व्याप्त।

अपेल

वि.

[सं. अ = नहीं + पीड = दबाना, ढकेलना]

जो हटे नहीं, अटल।

अपैठ

वि.

[सं. अप्रविष्ट, पा. अपविठ्ठ, प्रा. अपइठ्ठ]

जहाँ पहुँच न हो सके, दुर्गम।

अप्सरा

संज्ञा

[सं.]

इन्द्र सभा में नाचने वाली देवांगना।

अफरना

क्रि. अ.

[सं. स्फार = प्रचुर]

भोजन से तृप्त होना अधाना।

अफरना

क्रि. अ.

[सं. स्फार = प्रचुर]

ऊबना।

अफुल्ल

वि.

[सं.]

जो फूला या खिला न हो अविकसित।

अबन्ध

वि.

[सं. अ = नहीं + बंध = बंधन]

जो बंधन में न हो, अबद्व, निरंकुश।

हमतौ रीझि लटू भइ लालन महाप्रेम तिय जानि। बंध अबध अमित निसि बासर को सुरझावति आनि-२८११।

अबन्ध्य

वि.

[सं.]

सफल, फलीभूत, अव्यर्थ।

अब  

क्रि. वि.

[सं. अथ, प्रा. अह; अथवा सं. अद्य]

इस समय इस घड़ी।

अवतंस

संज्ञा

[अबतंस]

भूषण, अलंकार।

स्रुति अबतंस बिराजत हरिसुत सिद्ध दरस सुत ओर-सा. उ०-२७।

अबद्ध

वि.

[सं.]

जो बँधा न हो, मुक्त।

अबद्ध

वि.

[सं.]

निरंकुश।

अबद्ध

वि.

[सं.]

असंबद्ध।

अबध

वि.

सं. अबध्य

जिसे मारना उचित न हो।

तोकौं अबध कहत सब कोऊ तातैं सहियत बात। बिना प्रयास मरिहौं तोकौं, आजु रैनि कै प्रात-९-७९। (ख) रावन कह्यौ, सो कह्यौ न जाई, रह्यौ क्रोध अति छाइ। तब ही अबध जानि केै राख्यौ मंदोदरि समुझाइ -- ९-१०४।

अबध

वि.

सं. अबध्य

शास्त्र में जिसे मारने का दान न हो।

अबध

वि.

सं. अबध्य

जिसे कोई मार न सके।

अबधू

वि.

[सं. अबोध पुं. हिं. अबोध]

अज्ञानी, अबोध, मुर्ख।

अबधू

संज्ञा

[स. अवधूत]

त्यागी, संत, साधु, विरागी।

अबर

वि.

[हिं. अवर]

अन्य, और दूसरा।

सरिता सिंधु अनेक अबर सखी बिलसत पति सहज सनेह--२७७१।

अबरल

वि.

[सं. अ = नहीं + वण्र्य]

जो वर्णन न हो सके, अकथनीय।

अबरल

वि.

[सं. अ = नहीं + वर्ण = रंग]

बिना रूप रंग का, वणंशून्य।

सुक सारद से करत विचारा। नारद से पावर्हि नहिं पारा। अबरन बरन सुरति नहिँ धारै। गोपिनि के सो बदन निहारै-१०•३।

अबरल

वि.

[सं. अ = नहीं + वर्ण = रंग]

जो एक रंग का न हो, भिन्न।

अबराधे

क्रि. स.

[सं. आराधन, हिं. अवराधना ]

उपासना करे, पूजे, सेवा करे।

ऊवौ मन न भए दस-बीसं। एक हुतो सो गयौ स्याम सँग को अबराधे ईस -- -३१४६।

अबल

वि.

[सं.]

निर्बल, बलहीन।

अबल प्रहलाद, बलि दैत्य सुखहीं भजत, दास ध्रुव चरन चित-सीस नायौ--१-११९।

अबलनि

संज्ञा

[सं. अबला + नि (प्रत्य.)]

स्त्रियों को।

अबलनि अकेली करि अपने कुल नीति बिसरी अबधि सँग सकल सूर भइ भाजै २८१६।

अबल-हुतासन-सद्ध

संज्ञा

[सं. अबल = अजोर + हुताशन-अग्नि + मध्य-बी च ( अजोर' और 'अग्नि का मध्य = जोग)]

योग।

अबल हुताशन केर संदेसो तुमहुँ मद्ध निकासो -- सा ० १०५।

अबला

संज्ञा

[सं.]

स्त्री।

अबला

संज्ञा

[सं.]

अनाथ अथवा निस्सहाय नारी।

मन मैं डरी, कानि । जिनि तोरै, मोहि अबला जिय जानि-९-७९।

अबाती

वि.

[सं. अ = नहीं + वात]

बिना वायु का।

अबाती

वि.

[सं. अ = नहीं + वात]

भीतर-भीतर सुलगने वाला।

अबाद

वि.

[सं. अ = नहीं + वाद]

वादशून्य, निर्विवाद।

अबध

वि.

[सं.]

बेरोक, बाधा रहित।

अबध

वि.

[सं.]

निविंघ्न।

अबध

वि.

[सं.]

अपार, अपरिमित।

अकल अनीह अबाध अभेद। नेति नेति कहि गावहिँ बेद।

अबाधा

वि.

[सं. अबाध]

अपार, असीम।

खेलौ जाइ स्याम सँग राधा …...सँग खेलत दोउ झगरन लागे, सोभा बढ़ी अबाधा--७०५।

अबार

संज्ञा

[सं. अ = बुरा + बेला = हिं. बेर == समय]

देर, बिलम्ब।

(क) सूरदास प्रभु कहत चलौ घर, बन मैं आजु अबार लगाई ४७१। (ख) चलो आजु प्रातहि दधि बेचन नित तुम करति अबार -- १०७८। बानरहितजापति पतिनी से बाँधे बार अबार-सा० ३५।

अबास

संज्ञा

[सं. अबास]

रहने का स्थान, घर।

उत ब्रजनारि संग जुरि कै वे हँसति करति परिहास। चलौ न जाइ देखियै री वै राधा को जु अबास -- -१६१९।

अबिगत

वि.

[सं. अबिगत]

जो जाना न जाय।

अबिगत

वि.

[सं. अबिगत]

अज्ञात, अनिर्वचनीय।

(क) अबिगत गति कछु कहते न आवै-१-२। (ख) काहू के कुल-तन न बिचारत। अबिगत की गति कहि न परति है, ब्याध अजामिल तारत -- -१-१२।

अबिगत

वि.

[सं. अबिगत]

जो नष्ट न हो, नित्य।

(ग) अपद-दुपद-पसु-भाषा बूझत, अबि गत अल्प अहारी--८-१४।

अबिचल

वि.

[सं. अविचल]

जो विचलित न हो,अचल, स्थिर, अटल।

अजहूँ लगि उत्तानपादसुन अबिचल राज करै-१-३७।

अबिद्या

संज्ञा

[सं.]

मिथ्या, ज्ञान, अज्ञान, मोह।

कोटिक कला काछि दिख राई, जल थल-सुधि नहिँ काल। सूरदास की सबै अबिद्या दुरि करौ। नँदलाल -- -१-१५३।

अबिधि

संज्ञा

[सं. अविधि]

व्यवस्था विरुद्ध, नियम रहित कर्तव्य विरुद्ध।

राग द्वेष विधि अबिधि, असुचि-सुचि, जिहिँ प्रभु जहाँ सँभारौ। कियौं न कबहुँ बिलंव कृपानिधि, सादर सोच निवारौ १.१५७।

अबिनासी

वि.

[सं. अविनाशिन, हिं. अविनाशी]

जिसका नाश न हो, अक्षय।

अज, अबिनासी, अमर प्रभु, जनमै-मरै न सोइ-२-३६।

अबिनासी

वि.

[सं. अविनाशिन, हिं. अविनाशी]

नित्य, शाश्वत।

अबिर

संज्ञा

[अ. अबीर]

रंगीन बुकनी,गुलाल।

चोवा चंदन अबिर, गलिनि छिरकावनि रे-१०-१८।

अबिर

संज्ञा

[अ. अबीर]

अभ्रक का चूर्ण।

अबिर

संज्ञा

[अ. अबीर]

श्देत रंग की बुकनी जो वल्लभ-सम्प्रदायी मंदिरों में उत्सवों पर उड़ाई जाती है।

अबिरथा

वि.

[सं. वृथा]

वृथा, व्यर्थ।

अबिरल

वि.

[सं. अविरल]

घना, सघन।

अलक अबिरल, चारु हार-बिलास, भकुटी भंग-६२७।

अबिवेकी

वि.

[सं. अविवेकिन, हिं. अविवेकी]

अज्ञानी, विवेक रहित।

अबिवेकी

वि.

[सं. अविवेकिन, हिं. अविवेकी]

मूढ़, मूर्ख।

अबिसेक

वि.

[सं. अविशेष]

तुल्य, समान।

प्रेमहिन। करि छीरसागर भई मनमा एक। य्य’म म’न से अंग चंदन अमी के अबिपेक -- सा० उ०-५।

अबिहित

वि.

[सं. अबिहित)

विरुद्ध।

अबिहित

वि.

[सं. अबिहित)

अनुचित, अयोग्य।

अबिहित बाद-बिबाद सकल मत इन लगि भेष धरत। इहिं बिधि भ्रमत सकल निस-दिन गत, कछु न काज सरत–१ ५५।

अबीर

संज्ञा

[अ.]

रंगीन बुकनी जो होली के दिनों में मित्र परस्पर डालते हैं।

उड़न गुलाल अबीर जोर तहँ विदिस दीप उजियारी--२३९१।

अबुध

वि.

[सं.]

अबोध, नादान।

अबूझ

वि.

[सं. अबुद्ध, पाo अबुज्झ]

अबोध, ना समझ, न दान ।

अबेध

वि.

[सं. अविद्ध]

जो छिदा न हो, अनबेधा।

अबेर

संज्ञा

[सं. अवेला]

विलम्ब, देर।

(क) खेलन कौं हरि दुरि गयौ री। संग संग धावत डोलत है, कह धौं बहुत अबेर भयौ री-१०-२१९। (ख) आजु अबेर भई कहुँ खेलत, बोलि लेहु हरि कौं कोउ बाम री--१०.२३५।

अबेरौ

संज्ञा

[सं. अवेला, हिं. अबेर]

देर, विलंब।

चकित भई ग्वालिन-तन हेरौ। माखन छाँड़ि गई मथि वैसेहिं. तब तैं कियो अबेरौ। देखेै जाइ मटुकिया रीती, मैं राख्योै कहुँ हेरि-१०-२७१।

अबेस

वि.

[फ'. बेश = अधिक]

बहुत अधिक।

कीर कंदव मंजुका पूरन सौरभ उड़त अबेस। अगर धूप सौरभ नासा सुख बरसत परम सुदेस।

अझै

क्रि. वि.

[हिं. अव]

इसी समय, अभी-अभी।

(क) हो रघुनाथ, निसाचर कैं संग अबै जात हौं देखी--९.६४। (ख) जसुमति देख आपनो कान। बर्ष सर को भयौ पूरन अबै ना अनुमान-सा. ११४। (ग) हरि प्रति अंग-अंग की सोभा अँखियन मग ह्वै लेउ अबै--१३००।

अबोल

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. बोल]

मौन, अवाक्‌।

अभय

वि.

[सं.]

निर्भय, निडर।

जाकौं दीनानाथ निवाजैं। भवसागर मैं कबहुँ न झुकै, अभय निसाने बाजैं-१-३६।

अभय

मुहा.

अभय दयौ :- शरण दी, निर्भय क्रिया। उ.- ब्रह्मा रुद्रलोक हूँ गयो। उनहुँ ताहि अभय नहिँ दयौ।

अभयदान

संज्ञा

[सं.]

निर्भय करना, शरण देना, रक्षा का वचन देना।

न रहरि देखि हर्ष मन कीन्हौ। अभयदान प्रहलादहिं दीन्हौ -- ७-२।

अभयपद

संज्ञा

[सं.]

निर्भय पद, मोक्ष मुक्ति।

पिता बचन खंडै सो पापी, सोइ प्रहलादहिँ कीन्हौ। निकसे खभ-बीच तै नरहरि, ताहि अभयपद दीन्हौ-१-१०४।

अभर

वि.

[सं. अ = नहीं + भार = बोझा]

न ढोने योग्य।

अभरन

संज्ञा

[सं. आभरण]

गहना, आभूषण।

(क) सूरदास कवन के अभरन लेै झगरिनि पहिराई--१०-१६। (ख) इक अभरन लेहिँ उतारि, देत न संक करें -- १०-२४।

अभरम

वि.

[सं. अ = नहीं + भ्रम]

अभ्रान्त, अचूक।

अभरम

वि.

[सं. अ = नहीं + भ्रम]

निशंक, निडर।

अभरम

क्रि. वि.

निःसंदेह, निश्चय।

अभल

वि.

[अ = नहीं + हिं. भला]

जो भला न हो, बुरा।

अबोल

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. बोल]

जिसके विषय में बोल न सके, अनिर्वचनीय।

अबोल

संज्ञा

कुबोल, बुरा बोल।

अबोला

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + हिं. बोलना]

मान या रिस के कारण न बोलना।

अबोले

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. बोल ]

मौन, अवाक।

कबहुँ न भयौ सुन्यौ नहिँ देख्यौ तनु ते प्रान अबोले-२२७५।

अभंगी

वि.

[सं. अभगिन]

पूर्ण, अखंड।

अभंगी

वि.

[सं. अभगिन]

जिसका कोई कुछ न ले सके।

आए माई दुर्ग स्याम के संगी।….। सूधी कहत सबन समुझावत, ते साँचे सरबंगी। औरन को सरवसु लै मारत आपुन भए अभगी।

अभंगुर

वि.

[सं.]

जो टूट न सके, दृढ़।

अभंगुर

वि.

[सं.]

जो नाश न हो, अमिट।

अभच्छ

वि.

[सं. अभक्ष्य]

जिसके खाने का निषेध हो।

भच्छि अभच्छ, अपान पान करि, कबहुँ न मनसा ध पी--१.१४०।

अभच्छ

वि.

[सं. अभक्ष्य]

अखाद्य, अभोज्य

अभाऊ

वि.

[सं. अ = नहीं + भाव]

जो अच्छा न लगे, अप्रिय।

अभाऊ

वि.

[सं. अ = नहीं + भाव]

जो न सोहे, अशोभित।

अभाग  

संज्ञा

[सं. अमाग्या ]

दुर्भाग्य, बुरा भाग्य।

अभागि

वि.

[हिं. अभागिनी]

भाग्यहीन।

अभागि

वि.

[हिं. अभागिनी]

स्त्रियों को एक गाली।

कबहुँ बाँधति, कबहुँ मारति, महरि बड़ी अभागि-३८७।

अभागिनि

वि.

[सं. अभागिन, हिं. अभागिनी]

भाग्यहीन।

तृष्ना बहिन, दीनता सहचरि, अधिक प्रीति बिस्तारी। अति निसंक, निरलज्ज अभागिनि, घर-घर फिरत न हारी-१-१७३।

अभागे

वि.

[हिं. अभागा]

भाग्यहीन, प्रारब्धहीन।

अभागौ

वि.

[सं. अभाग्य, हिं. अभागा]

अभागा, भाग्यहीन, मन्दभाग्य।

प्रभु जू हौं तौ महा अधर्मी। अपत, उधार, अभागौ, कमी, विषय निपट कुकर्मो--१-१८६।

अभाव

संज्ञा

[सं.]

कुभाब, दुर्भाव, विरोध।

अभास

संज्ञा

[सं. आभास]

प्रतिबिंब, झलक, समानता।

(क) तहँ अरि पंथ पिता जुग उहित बारिज बिबि रंग भजो अमास-सा० उ०-२८ और २७२३। (ख) नाथ तुम्हारी जोति अभास। करत सकल जग मैं परकास १० उ.-१२९।

अंतराय

संज्ञा

[सं.]

ज्ञान का बाधक।

अंतराल

संज्ञा

[सं.]

घेरा, मंडल।

अंतराल

संज्ञा

[सं.]

मध्य, बीच।

अंतरिक्ष

संज्ञा

[सं.]

आकाश।

अंतरिक्ष

संज्ञा

[सं.]

स्वर्गलोक

अंतरिक्ष

वि.

अंतर्द्धान, गुप्त।

अंतरिच्छ

संज्ञा

[सं. अंतरिक्ष]

आकाश, अधर।

जो जन बिस्तार सिला पवनसुत उपाटी। किंकर करि बान लच्छ अंतरिच्छ काटी-९-९६।

अंतरिच्छ

संज्ञा

[सं. अंतरिक्ष]

अधर, ओठ।

(क)अंतरिच्छ श्री बंधु लेत हरि त्यौं ही आप अपनी घाती -- सा. ५०। (ख) अंतरिच्छ में परो बिंबफल सहज सुभाव मिलावों-सा. उ. १०३।

अंतरिच्छन

संज्ञा

[सं. अंतरिक्ष]

दोनों अधर, ओंठ।

अंतरिच्छन सिंधु-सुत से कहत का अनुमान-सा. ७८।

अंतरिछ

संज्ञा

[सं. अंतरिक्ष]

ओठ, अधर।

(क) लगे फरकन अंतरिछ अनूप नीतन रंग--सा. ७५। (ख) हरि को अंतरि छ जब देखी। दिग्गज सहित अनूप राधिका उर तब धीरज लेखी-सा. ८३।

अभिद

वि.

[सं. अभेद्य, हिं. अभेद]

भेवशून्य, एक रूप, समान।

अभिद अछेद रूप मम जान। जो सब घट है एक समान-३-१३।

अलिन

वि.

[सं. अभिन्न]

जो भिन्न न हो, एक मय।

अलिन

वि.

[सं. अभिन्न]

मिला हुआ, सटा हुआ, सबद्ध।

अब इह बर्षा बीति गई।…..। उदित दारु चंद्रिका अवर उर अंतर अमृत मई। घटी घटा सब अभिन मोह मोद तमिता तेज हई-२८५३।

अभिमान

संज्ञा

[सं.]

गर्ब, अहंकार, घमण्ड।

अभिमान

मुहा.

बाँधे अभिमान :- पर्व से युक्त हैं। उ.- अदि रसाल जगफल के सुत जे बाँधे अभिमान। सूरज सुत के लोक पठावत से सब करत नहान--सा० ९-७४।

अभिमानिनि

वि.

[स. अभिमानी +हिं. नि (प्रत्य.)]

अभीमानियो से, अहंकारियों से।

यह आस। पापिनी दहै।…….धन-मद-मूढ़नि, अभिमानिनि मिलि, लोभ लिए दुर्बचन स है-१-५३।

अभिमानी

वि.

[सं. अभिमानिन्]

अहंकारी, घमंडी, दर्पो

अभिरत

वि.

[सं.]

लीन, लगा हुआ।

अभिरत

वि.

[सं.]

युक्त, सहित।

अभिरना

क्रि. स.

[सं. अभि = सामने + रण = युद्ध]

लड़ना, भिड़ना।

अभिरना

क्रि. स.

[सं. अभि = सामने + रण = युद्ध]

टेकना, सहारा लेना।

अभिराम

वि.

[सं.]

आनंददायक, सुन्दर, रम्य।

नैन चकोर सतत ससि, कर अरचन अभिराम२-१२।

अभिराम

संज्ञा

आनंद, सुख।

अभिरामिनि

वि.

[हिं. अभिरामिनी]

रमण करने वाली, व्याप्त होने वाली।

अभिरामिनि

वि.

[हिं. अभिरामिनी]

सुन्दर, रस्य।

यमुना पुलिन मल्लिका मनोहर सरद सुहाई यामिनि। सुन्दर ससि गुन रूप राग निधि अंग अंग अभिरामिनि--पृ० ३४४।

अभिलाख

संज्ञा

[सं. अभिलाष]

इच्छा, मनोरथ।

अभिलाखना

क्रि. स.

[सं. अभिलषण]

चाहना,। इच्छा करना।

अभिलाख्यौ

क्रि. स.

[सं. अभिलषण, हिं. अभिलाखना]

इच्छा की, चाहा।

बिधि मन चक्रित भयौं बहुरि ब्रज कौं अभिलाख्यौ-४९२।

अभिलाष

संज्ञा

[सं.]

इच्छा, मनोरथ।

(क) पट कुचैल, दुरबल द्विज देखत, ताके त दुल खाए (हो)। संपति दै बाकी पतिनी कौं, म म अभिलाष पुराए (हो)--१.७। (ख) पर-तिय-रति अभिलाष निसादिन मन-पिटरी लै भरतौ-१-२०३।

अभिलाष्यौ

क्रि. स. भूत.

[सं. अभिलषण, हिं. अभिलाखना]

इच्छा की, चाहा।

जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यौ, मन मैं अति गरबाऊ-१०-२२१।

अभिलासी

वि.

[सं. अभिलाषिन्, हिं. अभिलाषी]

चाह रखने वाला, इच्छुक, रुचि रखने वाला।

निर्गन कौन देस कौ बासी।……. कैसो बरन भेष है। कैसो केहि रस में अभिलासी–३०६२।

अभिलासा

संज्ञा

[सं. अभिलाषा]

इच्छा, चाह, काम।

अभिषेक

संज्ञा

[सं.]

सविधि मंत्र-पाठ के साथ जल । छिड़कना अधिकार प्रदान करना।

अभिसरन

संज्ञा

[सं. अभिशरण]

सहारा, आश्रय, शरण।

अभिसरना

क्रि. अ.

[सं. अभिशरण]

जाना, प्रस्थान करना।

अभिसार

संज्ञा

[सं.]

सहारा, अवलंब।

अभिसार

संज्ञा

[सं.]

नायक या नायिका का प्रेमिका या प्रेमी से मिलने के लिए संकेत-स्थल को जाना।

अभिसारना

क्रि. अ.

[सं. अभिसारण म्]

जाना,। घूमना।

अभिसारना

क्रि. अ.

[सं. अभिसारण म्]

प्रिय से मिलने के लिए नायिका का संकेत-स्थल को जाना।

अभिसारी

क्रि. अ.

[सं. अभिसारणम्, हिं. अभिसारना]

घूमे-फिरे, बिचरण किया, बिहार किया।

धनि गोपी धनि ग्वारि धन्य सुरभी बनचारी। धनि इह पावन भूमि जहाँ गोविन्द अभिसारी -- -३४४३।

अभू

क्रि. वि.

[हिं. अब + हू = भी]

अब भी।

अखभून

संज्ञा

[सं. आभूषण]

गहने, भूषण।

अभूत

वि.

[सं.]

अपूर्व, विलक्षण, अनूठी।

उपमा एक अभूत भई तब, जब जननी पट पीत उठाए। नील जलद पर उडुगन निरखत, तजि सुभाव मनु तड़ित छपाए-१०.१०४।

अभूषन

संज्ञा

[सं. आभूषण]

गहना, अलंकार।

करि अलिंगन गोपिका, पहिरै अभूषन चीर १०-२६।

अभेद  

संज्ञा

[सं.]

अभिन्नता।

अभेद  

संज्ञा

[सं.]

एकरूपता, समानता।

अभेद  

वि.

भेदशून्य।

इह अछेद अभेद अबिनासी। सर्ब गति अरु सबै उदासी-१२-४।

अभेद  

वि.

एकरूप, समान।

अभेद  

वि.

[सं. अभेद्य]

जिसको भेदा या छेदा न जा सके।

अभेरा

संज्ञा

[सं. अभि = सामने + रण = लड़ाई]

रगड़, टक्कर।

अभेव

संज्ञा

[सं. अभेद]

अभेद, एकता, अभिन्नता।

अभेव

वि.

अभिन्न, एक।

असै

वि.

[सं. अभय]

निर्भय, निडर।

असै

मुहा.

अभै (पद) दियौ :- निर्भय कर दिया। उ.- (क) ध्वहिं अभय पद दियौ मुरारी-१-२८। (ख) सदा सुभाव सुलभ सुमिरन बस, भक्तनि अभै दियौ-१-१२१।

अभोग

वि.

[सं.]

जिसका भोग न किया गया हो, अछुता।

अभोगी

वि.

[सं. अ = नहीं + भोगी = भोग करनेवाला]

इन्द्रियों के सुख से उदासीन।

अभोज

वि.

[सं. अभोज्य]

न खाने योग्य, अखाद्य।

अभ्यन्तर

वि.

[सं. अभी + अन्तर]

भीतरी, हृदय की।

अभ्यन्तर

संज्ञा

[सं.]

हृदय, अन्तःकरण।

अभ्यन्तर अन्तर बसे पिय मो मन भाए-१९६४।

अभ्यन्तर

संज्ञा

[सं.]

मध्य, बीच।

हमारी सुरत लेत नहिँ माधो। तुम अलि सब स्वारथ के गाहक नेह न जानत अधो। निसि लौं मरत कोस अभ्यन्तर जो हिय कहो सु थोरी। भ्रमत भोर सुख ओर सुमन सँग कमल देत नहिँ को री -- ३२४४।

अभ्यास

संज्ञा

[सं.]

बार-बार एक काम को करना, अनुशीलन, आवृत्ति।

नाना रूप निसाचर अद्भुत, सदा करत मद-पान। ठौर-ठौर अभ्यास महाबल करत कुत-असि-बान-९-७५।

अभ्‌

संज्ञा

[सं.]

आकाश,

निरखि‍ सुन्दर हृदय पर भृगु पाद परम सुलेख। मनहुँ सोभित अभ्र अन्तर संभु भूषन बष-६३५।

अभ्‌

संज्ञा

[सं.]

मेघ, बादल।

अमंगल  

वि.

[सं.]

मंगलरहित, अशुभ।

अमंगल  

संज्ञा

अकल्याण, दुख, अशुभ चिह्न।

(क) भागे सकल अमंगल जंग के-१०-३२। (ख) सूर अमंगल मन के भागे--२३६७।

अमंद

वि.

[सं. अ = नहीं]

जो धीमा न हो, तेज (प्रकाश वाला)।

रही न सुधि सरीर अरु मन की पीवति किरन अमंद-१०-२०३।

अमजिया

वि.

[सं. अ + मल, अथवा कमनीय]

शुद्ध,पवित्र, अछुता।

अमनैक  

संज्ञा

[सं. आम्नापिक = वंश का; अथवा सं. आत्मन। प्रा. अप्पण, हिं., अपना से अपनैक' ]

अधिकारी।

अमनैक  

संज्ञा

[सं. आम्नापिक = वंश का; अथवा सं. आत्मन। प्रा. अप्पण, हिं., अपना से अपनैक' ]

ढीठ, साहसी।

अमर

वि.

[सं.]

जो मरे नहीं, चिरजीवी।

(क) मेरे हित इतनौ दुख भरत। मोहिँ अमर काहे नहिँ करत–१-२२६। (ख) अज अबिनासी अमर प्रभु, जनमै-मरेै ने सोइ-२-३६।

अमर

संज्ञा

देवता, सुर।

अमरख

संज्ञा

[सं. अमर्ष = क्रोध]

कोप, रिस।

अमरखी

वि.

[सं. अमर्ष]

क्रोधी, बुरा मानने वाला।

अमरपद

संज्ञा

[सं.]

मोक्ष, मुक्ति।

अमरपन

संज्ञा

[सं.]

अमरत्व, अमरता।

ग्रह नछत्र अरु बेद अरब करि खात हरष मन बाढ़ो। तातैं चहत अमर पद तन को समुझ समुझ चित काढ़ो--सं ० ६५।

अमरपुर

संज्ञा

[सं.]

अमरावती।

अमरपुरी

संज्ञा

[सं.]

अमरावती।

अमरराज

संज्ञा

[सं.]

देवताओं का राजा, इन्द्र।

अमरा

संज्ञा

[सं.]

इन्द्रपुरी, अमरावती।

अमराई, अमराव

संज्ञा

[सं. आम्रराजि]

आम का बगीचा।

अमरराजसुत

संज्ञा

[स. अमरराज = इन्द्र + (इन्द्र का) सुन = अर्जुन = पार्थ (पार्थ = पाय = पंथ)]

मार्ग, रास्ता।

माधौ बिलम बिदेस रहो री अमरराजसुत नाम रइनि दिन निरखत नीर बहो -- -सा. उ. -- -५१।

अभापति

संज्ञा

[सं.]

इन्द्र।

अमरापति चरनन लैं एरयौ अब बीते जुग गुन की जोर -- ९९५

अमल

वि.

[सं.]

निर्भल, स्वच्छ।

भूषन सार सूर स्रम सीकर सोभा उड़त अमल उजियारी -- -सा० ५१।

अमल

वि.

[सं.]

र्निर्दोष , पापशून्य

अमल

वि.

[सं.]

सुन्दर  

चम्पकली सी राधिका राजत अमल अदोष -- २०६५।

अमल

संज्ञा

[अ.]

बान, टेव, आदत।

(क) आनंदकंद चंद मुख निमि दिन अवलोकन यह अमल परयो। सूरदास प्रभु सों मेरी गति जनु लुब्धक कर मीन तरयो-१०-८९१। (ख) हरि दरमन अमल परयो लाज न लजानी।

अमल

संज्ञा

[अ.]

प्रभाव।

अमल

संज्ञा

[अ.]

अधिंकार, शासन।

अमला

संज्ञा

[सं.]

राधा की एक सखी गोपी का  नाम।

कहि राधा किन हार चुरायो। ब्रज युवतिनि सबहिन मँ जानाति घर घर लै लै नाम बतायौ।…….। अमला अबला कंजा सुकुता हीरा नीला प्यारि १५८०।

अमरना

क्रि. स.

[सं. आमंत्रण]

बुलाना, निमंत्रित करना न्योता देना

अमाति

क्रि. स.

[सं. आमंत्रण, हि, अमातना]

आमंत्रित करके, निमंत्रण देकर आह्वान करके।

कह्यो महरि सोैं करौ चड़ाई, हम अपने घर जाति। तुमहूँ करौ भोग सामग्री, कुल-देवता अमाति--८१३।

अमान

वि.

[सं.]

अपरिक्षित, परिमाण रहित।

अमान

वि.

[सं.]

अनगिनतो. बहुत

अमान

वि.

[सं.]

गर्वरहित निरामान सीधा सादा।

अमान

वि.

[सं.]

मानशून्य, अप्रतिष्ठित, अनादृत।

अमान

क्रि. अ.

[सं.अ = पूरा + मान=माप]

समाना, अँटना

अमान

क्रि. अ.

[सं.अ = पूरा + मान=माप]

फूलना, उमड़ना, डतराना।

अमानो

वि.

[सं. अमानिन्]

पमंइरहित निरभिमानी।

अमानो

क्रि. अ.

[हिं. अमाना]

फूल गई, इतराने लगीं।

करि कछु ज्ञान अभिमान जान दै है कैसी मति ठानी। तन धन जानि जाम जुग छाया भूलति कहा अमानी।

अमानु

वि.

[सं.]

जो मनुष्य से न हो सके।

अमानु

वि.

[सं.]

जो मनुष्य के स्वभाव से बाहर हो।

अमाप

वि.

[सं.]

जो मनुष्य के स्वाभाव से बाहर हो। अपरिमित।

उलट रीति नंदनंदन की घरिधरि भयौ सताप। कहियो जाइ जोग आराधै अबिगत अकथ अमाप ....२९७९।

अमाया

वि.

[सं.]

माया, रहित र्लिप्त।

आदि सनातन, हरि अविनासी। सदा निरंतर घट-घट बासी।…..। जरा भरन तेै रहति अमाया। मातु पिता, सुत बंधु न जाया -- १०-३।

अमाया

वि.

[सं.]

निस्वार्थ, निषकपट, निश्छल।

अमारग

संज्ञा

[सं.]

कुमार्ग, कुरा्ह।

माधौजू थह मैरी इक गाय। …..। यह अति हरहाई, हट कत हुँ बहुत अमारग जाति -- -१.५१

अमारग

संज्ञा

[सं.]

बुरी चाल, दुराचरण।

अमिट

[स, अ = नहीं +हिं. मिटना]

जो नष्ट न हो, स्थायी, अटल, अवश्यंभावी।

अमित

वि.

[सं.]

अपरिमित, असीम, बेहद।

अमित

वि.

[सं.]

बहुंत अधिक।

(क) अबिगत-गति कछु कहत न आवै। ज्यौं गूगैं मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै। परम स्वाद सबही सु निरन्तर अमित तोष उपजाबै -- १-२। (ख ) अग अग प्रति अमित माधुरी । प्रगटति रस रुचि ठावहिं ठाउँ ६६३।

अमिय

संज्ञा

[सं. अमृत, प्रा, अमिअ]

अमृत।

अंतरित

[सं.]

छिपा हुआ, गुप्त।

अंतरित

[सं.]

ढका हुआ।

अंतरीक

संज्ञा

[सं. अंतरिक्ष]

आकाश।

अँतरौटा

संज्ञा

[सं. अंतरपट]

महीन साड़ी के नीचे पहनने का वस्त्र जिससे शरीर दिखाई न दे।

चोली चतुरानन ठग्यौ, अमर उपरना राते (हो)। अँतरोटा अवलोकि कैंअसुर महा मदमाते (हो)-१-४४।

अंतर्गत

वि.

[सं.]

भीतर, छिपा हुआ, गुप्त।

अंतर्गत

वि.

[सं.]

हृदय के, हार्दिक।

अंतर्गत

संज्ञा

मन, हृदय, चित।

(क) रुक्म रिसाई पिता सौं कह्यौ। सुनि ताकौ अंतर्गत दह्यौ--१० उ.-७। (ख) बारंबार सती जब कह्यौ। तब सिव अंतर्गत यौं लह्यौ–४.५।

अंतर्गति

संज्ञा

[सं.]

चितवृत्ति, मनोकामना, भावना।

अंतर्गति

संज्ञा

[सं.]

हृदय में।

करि समाधि अंतर्गत ध्यावहु यह उनको उपदेस-२९८८।

अंर्तदृष्टि

संज्ञा

[सं.]

ज्ञानचक्षु, प्रज्ञा।

अभिरती

संज्ञा

[सं. अमृत, हिं. इमरती]

इमरती नाम की मिठाई जो उर्द की फेटी हुई महीन पीठी। और चौरेठे की बनती है।

अमिल

वि.

[सं. अ == नहीं + हिं. मिलन]

जो न मिल सके, अप्राप्य।

अमिल

वि.

[सं. अ == नहीं + हिं. मिलन]

बेमेल, बेजोड़।

अमिल

वि.

[सं. अ == नहीं + हिं. मिलन]

जिससे । मेल जोल न हो।

अमिल

वि.

[सं. अ == नहीं + हिं. मिलन]

ऊबड़-खाबड़, ऊँचा-नीचा।

अमी

संज्ञा

[सं. अमृत, प्रा, अमिआ, हिं. अमिय]

अमृत।

अमी

संज्ञा

[सं. अमृत, प्रा, अमिआ, हिं. अमिय]

अमृत के समान।

(क) अमी-वचन सुनि होत हुलाहल देवनि दिवि दुन्दभी बजाई-९-१६९। (ख) स्याम मनि से अंग चंदन, अमी से अबिसेक--सा० उ० -- -५।

अमीगलित

वि.

[सं.]

अमृत से हीन या रहित।

घट सुत असन समै सुत आनन अमीगलित जैसे मेत-सा ० उ० -- २९।

अमीकर

संज्ञा

[अमृतकर]

चन्द्रमा।

अमीर

संज्ञा

[सं. अमित्र, प्रा. अमित्त]

जो मित्र न हो, शत्रु।

अमीन

संज्ञा

[अ.]

एक अदालती कर्मचारी।

नैन अमीन अधर्मिनि कैं बस, जहँ कौ तहाँ छायौ...१-६४।

अमूल्य

वि.

[सं.]

अनमोल।

अमूल्य

वि.

[सं.]

बहुमूल्य।

अमृत

संज्ञा

[सं.]

पुरा्णानुसार समुद्र से निकले चौदह रत्नों में एक जिसे पोकर जीव अमर हो जाता है।

अमृतकुंडली

संज्ञा

[सं.]

एक प्रकर का बाजा।

अमेली

वि.

[सं. अमेलन]

अनमिल, असंबद्ध।

अमोघ

वि.

[सं.]

अव्यर्थ अचूक, वृथा न होने वाला।

अमोघ

वि.

[सं.]

प्रभु तव माया अगम अमोन है लहि न सकत कोउ पार ....३४९४।

प्रभु तव माया अगम अमोन है लहि न सकत कोउ पार ....३४९४।

अमोचत

संज्ञा

[सं.]

छुटकारा न होना।

अमोचत

वि.

न छूटने वाला, दृढ़।

मूँदि रहे पिय प्यारी लोचन अति हित वेनी उर परसाए बेष्टित भुजा अमोचन-पृ.-३ १८।

अमोरि

संज्ञा

[हिं. अमोरी (आम + औरी-प्रत्य.]

कच्चा आस, अँबिया।

अमोरि

संज्ञा

[हिं. अमोरी (आम + औरी-प्रत्य.]

आमड़ा, अम्मारी।

और सखा सब जुरि-जुरि ठप्ढ़े अप दनुज सँग जोरि। फल को न म बुझावन लागे हरि कहिं दियौ अमोरि -- २३७७।

अमोल

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. मोल]

अमूल्य।

अमोलक

वि.

[सं.आ+ हिं. मोल]

अमूल्य बहुमूल्य।

लोभी, लंपट, विषयिनि सोैं हिंत, यौं तेरी निबही। छाँड़ि कनक-मनि रतन अमोल क काँच की किरच गही-१-३२४।

अमोले

वि.

[हिं. अमोल]

बहुमूल्य।

देखिबे की साध बहुत सुनि गुर बिपुन अतिहि सुन्दर सुने दोउ अमोले -- २४६७।

अमोही

वि.

[सं. अ = नहीं + मोह]

विरक्त उदासी।

अमोही

वि.

[सं. अ = नहीं + मोह]

निर्मोही, निष्ठुर।

अम्मर

संज्ञा

[सं. अम्बर]

वस्त्र।

अम्मर

मुहा.

अम्मर लेत :- वस्त्र हरण करना, वस्त्र हटाना। उ.- सुता दधिपति सौं क्रोध भरी। अम्मर लेत भई खिझि बालहि सारँग संग लरी--२०७५।

अम्रित

संज्ञा

[सं. अमृत]

सुधा, पियूष, अमृत।

हरि कह्यौ साग-पत्र मोहि अति प्रिय, अम्रित ता सम नाहीं -- १-२४१।

अयन

संज्ञा

[सं.]

धर, बासस्थान।

जाको अयन जल में तेहि अनल कैसे भावै ….३१२९।

अयाचक

वि.

[सं.]

न माँगने वाला।

अयाचक

वि.

[सं.]

सन्तुष्ट।

अयाची

वि.

[सं. अयाचिन्

जो न माँगे।

अयाची

वि.

[सं. अयाचिन्

पूर्ण काम सन्तुष्ट।

किए अयाची याचक। जन बहुरि-१० उ०--२४।

अजान

वि.

[सं. अजान]

अनजान, अज्ञानी।

सूरदास प्रभु कहोैं कहाँ लागे है अयान मतिहीनी -- -३४४९

अयानप, अयानपन

संज्ञा

[हिं. अजाम+प या पन]

अनजानपन।

अयानप, अयानपन

संज्ञा

[हिं. अजाम+प या पन]

मोलापन, सीधापन।

अयाना

वि.

[हिं. अजान]

अज्ञानी, बुद्धिहीन अनजान

अयानी

वि.

[हिं. अजान, अयान (पुं.)]

अज्ञान, बुद्धिहीन।

मोहन कत खिझत अयाना लिए लाइ हिऐं नँदरानी -- -१०-१८३।

अयानी

वि.

[हिं. अजान, अयान (पुं.)]

मूर्छिंत, संज्ञाहोन, बेहोश।

द्रिगजापति पतनी पति सुत के देलत हम मुर्झानी। उठि उठि परत धरनि पर सुन्दर मंदिर भई अयानी–सा ० ५५।

अयाने

वि.

[हिं. अजान]

अजान, बुद्धिहीन।

(क) ऊधौ जाहु तुम्हैं हम जानैं।…...बड़े लोग न बिवेक तुम्हारे ऐसे भए अयाने--२९०६। जानत ती नि लोक की महिमा अगलनि काज अयाने-३२२१।

अयानो

वि.

[हिं. अजान]

बुद्धिहीन, अज्ञानी।

जानि-बुझि कैहौ कत पठबौ सट बाबरी अयानो३४६७।

अयान्यौ

वि.

[हिं. अजान]

अज्ञानता से युक्त, मूर्खतापूर्ण।

चूक परी मोको सबही अंग कहा करौं गई भूलि सयान्यौ। वे उतही को गए हरष मन मेरी । करनी समुझि अयान्यौ-१४६०।

अयोग

संज्ञा

[सं.]

योग का अभाव।

अयोग

संज्ञा

[सं.]

कुसमय।

अयोग

संज्ञा

[सं.]

कठिनाई, संकट

अयोग

संज्ञा

[सं.]

अप्राप्ति, असंभव।

अयोग

वि.

[सं.]

बुरा।

अयोग

वि.

[सं.]

अयोग्य. अनुचित।

सिर पर कंस मधुपुरी बैठो छिनकही में करि डारोै सोग। फूँकि-फूँकि धरणी पग धारौ अब लागीं तुम करन अयोग १४९७।

अयोगा

वि.

[सं. अयोग्य]

जो योग्य न हो, निकम्मा, अपात्र।

अयोपतिका

संज्ञा

[सं. आगतपति का]

अवस्थानुसार नायिका के दस भेदों में से एक। ऐसी नायिका जिसका पति बाहर से आया हो।

सूर अन सग तजत आवत अयोपतिका स्रूप-सा, ३९।

अरंग

संज्ञा

[सं. अर्थ्य = पूजा द्रव्य]

सुगंध, महक।

अरंभ

संज्ञा

[सं. आरंभ]

आरंभ, शुरू।

जग अरंभ करि नृर तहँ गयौ--९-३।

अरंभना

क्रि. स.

[सं. अ + रंभ = शब्द करना]

बोलना, नाद करना।

अरंभना

क्रि. स.

[सं. आरंभ]

आरंभ करना, शुरू करना।

अरंभना

क्रि. अ.

[सं. आरंभ]

आरंभ होना, शुरू होना।

अर

संज्ञा

[हिं. अड़)

हठ, अड़, जिद।

हौं तौ न भयोै री घर, देखत्यौ तेरी यौं अर, फोरतौ बासन सब, जानति बलैया--३७२।

अर

संज्ञा

[सं. और]

शत्रु, वैरी।

निसि दिन। कलमलात सुनि सजनी सिर पर गाजत मदन अर। सूरदास प्रभु रहीं मौन ह्वेै कहि न स कति मैन के भर-२७६४।

अरक

संज्ञा

[सं.]

सेवार।

अरकना

क्रि. अ.

[अनु.]

टकराना, अररा कर गिरना।

अरकना

क्रि. अ.

[हिं. दरकना]

फटना।

अरगजा

संज्ञा

[हिं. अरग + जा]

शरीर में लगाने का एक सुगंधित द्रव्य।

खर कोै कहा अरगजा लेपन, मरकट भूषन-अंग-१-३३२।

अरगजी

संज्ञा

[हिं. अरगजा]

एक रंग जो अरगजें . की तरह होता है।

अरगजी

वि.

अरगजे रंग का।

अरगजी

वि.

अरगजा की सुगंध का।

उर धारी लटैं छूटी आनन पर भीजी फूले लन सौं आली हरि संग के लि। सोधे अगरजी अरु मरग जी सारी केसरि खोरि बिराजाति कहुँ कहुँ कुचनि पर दरकी अँगिया घन बेलि–१५८२।

अरगजे

संज्ञा

[हिं. अरगजा]

एक सुगंधित द्रव्य।

भले हाजू जाने लाल अरगजे भीने माल केसरि तिलक भाल मैन मंत्र काचे-२००३।

अरगजे

वि.

अरगजा को सुगंध से युक्त। उ-तहीं जा हु। जहँ रैन बसे हो। काहे को दहन हो आए अंग अंग देखति चिन्ह जैसे हो। अरगजे अंग मर गजो माला बसन सुगंध भरे से हो -- १९५३।

अरगट

वि.

[हिं. अलगट]

अलग भिन्न।

अरगल

संज्ञा

[सं. अर्गल]

ब्योंड़ा, गज।

अरगाइ

क्रि. अ.

[हिं. अलगाना]

अलग, पृथक।

अरगाइ

क्रि. अ.

सन्नाटा खीचे हुए, मौन, चुप साधे हुए।

(क) ब्रह्मादिक सब रहे अर गाइ। क्रोध देखि कोउ निकट न जाइ-७-२। सूनैं सदन मथनियाँ कै ढिग, बैठि रहे अरगाइ--१०-२६५। सुनि लीन्हों उनही को कह्यौ। अपनी चाल समुझ मन माहीं गुनि अरगाइ रह्यौ -- ३४६७।

अरगाइ

मुहा.

प्रान रहे अरगाइ :- प्राण सूख गए. विस्मित हो गए। उ.- जासों जैसी भाँति चाहिए ताहि मिल्यौ त्यौं छाइ। देस देस के नृपति देखि यह प्रान रहे। अर गाइ-१० उ० १६२। पूजा केै अवसर नंद समाधि लगाई। सालिग्राम मेलि मुख भीतर बैठ रहे अरगा ई--१०-२६३। (ख) कुँवरि राधिका प्रात खरिक गई तहाँ कहू” धौं कार खाई। यह सुनि महरि मन हिं मुसुक्यानी, अबहिं रही मेरैं गृह आई। सूर स्याम राधहिं कछु कारन, जसुमति समुझि रही अरगाई-७५४। (ग) जननी अतिहि भई रिसिहाई बार बार कहैं कुँअरि राधिका री मोती श्री कहाँ गँवाई। बूझे ते तोहि जवाब न आवै कहाँ।

अरगाई

क्रि. अ.

[हिं. अलगाना]

सन्नाटा खींच कर, चुप्पी साधकर, मौन होकर।

एक समय रही अरगाई-१५४४। (घ) तबहिं राधा सखियन पै आई। आवत देखि सबनि मुख मूंदयौ जहाँ तहाँ रहीं अरगाई-१२८५।

अरगाई

क्रि. अ.

[हिं. अलगाना]

अलग या पृथक होकर।

अरगाना

क्रि. अ.

[हिं. अलगाना]

अलग होना।

अरगाना

क्रि. अ.

[हिं. अलगाना]

मौन रहना।

अरगाना

क्रि. स.

अलग करना, छाँटना।

अरगानौ

क्रि. स.

[हिं. अलगाना]

छाँट लूँ, चुनूँ. नाम गिनाऊ।

बरनि न जाइ भक्त की महिमा बारंबार बखानौं। थ्रुव रजपूत बिदुर दासीसुत कौन कौन अरगानौं-१-११।

अरघ

संज्ञा

[सं. अर्घ]

वह जल जो फूल, अक्षत आदि के साथ देवता पर चढ़ाया जाय।

अरघ

संज्ञा

[सं. अर्घ]

वह जल जो हाथ-मुँह धोने के लिए किसी अभ्यागत को उसके आते ही दिया जाय।

हरि कौ मिलन सुदामा अ यौ। बिधि करि अरघ पाँवड़े दैदे अंतर प्रेम बढ़ायो।

अरघ

संज्ञा

[सं. अर्घ]

वह जल जो बरास के आने पर भेजा जाय।

अरघ

संज्ञा

[सं. अर्घ]

वह जल जो किसी के आने पर द्वार पर छिड़का जाय।

अरघ

संज्ञा

[सं. अर्घ]

जल का छिड़काव।

हृदय ते नहिं टरत उनके स्याम नाम सुहेत। अस्र सलिल प्रवाह उर मनो अरघ नैनन देत--३४८३।

अरघा

संज्ञा

[सं. अर्घ]

अरघ जल का पात्र।

अरघान

संज्ञा

[स. अघ्राण = सूंघना]

गंध, महक।

अरचन

संज्ञा

[सं. अर्चन]

पूजा, पूजन।

(क) स्रवन सुजस सारंग-नाद-बिधि, चातकबिधि मुख-नाम। नैन:चकोर सतत दरसन ससि, कर अरचन अभिराम-२-१२। (ख) स्रवन-कीतँनसुमिरन करै। पद-सेवन-अरचन उर धारै-९-५।

अरचन

संज्ञा

[सं. अचंन]

आदर, सत्कार।

अरचना

क्रि. स.

[सं. अर्चन]

पूजा करना।

अरचि

संज्ञा

[सं. अर्चि]

ज्योति, दीप्ति।

अरज

संज्ञा

[अ. अर्ज]

विनय, निवेदन, विनती।

तुम न्याय कहावत कमलनैन। कमल-चरन कर कमल बदन छबि अरज सुनावत मधुर बैन -- १९७७।

अरजुन

संज्ञा

[सं. अर्जुन]

पांडु के मंझले पुत्र जो धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुण और श्रीकृष्ण के अत्यंत प्रिय सखा थे। देवराज इन्द्र के आह्वान से कुंती के गर्भ से इनका जन्म हुआ था।

अरझत

क्रि. अ.

[सं. अवरुंधन, प्रा. ओरुज्झन, हिं. अरुझना]

अटकता है, अड़ता हैं, हठ करता है।

ज्यौं बालक जननी सों अरझत भोजन को कछ माँगे। त्योहीं ए अतिही हठ ठानत इकटक पलक न त्यागे-पृ० ३३३।

अरत

वि.

[सं.]

जो आसक्त न हो।

अरत

वि.

[सं.]

विरक्त, उदासीन।

अरत

क्रि. अ.

[सं. अल = वारण करना, हिं. अड़ना]

रुकता है, अटकता है।

अरत

क्रि. अ.

[सं. अल = वारण करना, हिं. अड़ना]

हठ ठानता है; टेक बाँधता है।

अरततपर

वि.

[हिं. अड़ + तत्पर]

हठ से युक्त।

मनसिज माधवे मानिनिहिं मारिहैं। त्रोटि पर लब अरततपर मौ अर निरषिनि मुख कों तारिहैं सा० उ०-४।

अरति

संज्ञा

[सं.]

विरक्ति, चित्त का न लगना।

अरति

क्रि. अ.

[सं. अल = वारण करना,हिं. अड़ना]

रुकती है ठहरती है।

होनहारी होइहै सोइ अब इहाँ कत अरति। सूर तब किन फेरि राखे पाइ अब हेहि परति-२६६७।

अँकोर

संज्ञा

[हिं. अँकवार]

भेंट, घूस, रिश्वत, उत्कोच।

(क) सूरदास प्रभु के जो मिलन को कुच श्री फल सों करति अकोर। (ख) गए छँड़ाय तोरि सब बन्धन दै गए हँस नि अँकोर-३१५३।

अँकोरी

संज्ञा

[हिं. अंकोर (अल्प प्र.) + ई]

गोद।

अँकोरी

संज्ञा

[हिं. अंकोर (अल्प प्र.) + ई]

आलिंगन।

अँकोरे

संज्ञा

[हिं. अँकेवार, अँकोर]

अंक,गोद, छाती।

तीछन लगी नैन भरि आए, रोवत बाहर दौरे। फूँकति बदन रोहिनी ठाढ़ी, लिए लगाए अँकोरे-१०-२२४।

अंक्रित

वि.

[सं. अंकित]

चिह्नित, अंकित।

तापर सुन्दर अंवर झाँप्यो अंकित दंस तसी-२३०३।

अँखड़ी

संज्ञा

[पं. अँक्ख + हिं. डी]

आँख।

अँखड़ी

संज्ञा

[पं. अँक्ख + हिं. डी]

चितवन।

अँखियन

संज्ञा

[हिं. आँख]

आँखों (में)।

कीनी प्रीति प्रगट मिलिवे की अंखियन सर्म गनाए--८३२।

अँखियाँ

संज्ञा

[हिं. औख]

आँखें, नेत्र।

अँखियाँ हरि दरसन की भूखी-३०२९।

अँखियानि

संज्ञा

[हिं. आँख]

नयनों के (को)

अपने ही अँखियानि दोष तै रबिहि उलूक न मानत -- १-२०१।

अंर्तदृष्टि

संज्ञा

[सं.]

आत्मचिंतन।

अंतर्धान

संज्ञा

[सं. अन्तर्द्धान]

लोप, तिरोधान।

अंतर्धान

वि.

गुप्त, अदृश्य, अंतहित।

कै हरि जू भए अन्तर्धान-१-२८६।

अंतर्धाना

वि.

[सं. अंतर्द्धान]

गुप्त, अदृश्य, अंतर्हित।

राधा प्यारी सङ्ग लिए भए अन्तर्धाना-- १७९२।

अंतर्बोधि

संज्ञा

[सं.]

आत्मज्ञान।

अंतर्बोधि

संज्ञा

[सं.]

आंतरिक अनुभव।

अंतर्यामी

वि.

[सं.]

हृदय की बात जानने वाला।

सूरदास प्रभु अंतर्यामी भक्त संदेह हर्‌यौ २५५२।

अंतर्हित

वि.

[सं.]

अंतर्द्धान, अदृश्य, लुप्त।

अंतावरी, अंतावली

संज्ञा

[हिं. अंत + स.  अवलि]

आँते, अंतड़ी समूह।

अंतःकरण

संज्ञा

[सं.]

हृदय, मन, चित्त,बुद्धि।

अरति

क्रि. अ.

[सं. अल = वारण करना,हिं. अड़ना]

हठ करती है, टेक बाँधती है।

अरथाई

क्रि. अ.

[सं. अर्थ + आई (हिं. प्रत्य.)]

समझा-बुझा कर, समाचार देकर।

पठवोै दूत भरत कौ ल्यावन, बचन कह्यौ बिलखाइ। दसरथ बचन राम बन गवने, यह कहियो अरथाई -- -९-४७।

अरथाना

क्रि. स.

[हिं. अर्थ + आना ( प्रत्य. )]

समझाना।

अरथाना

क्रि. स.

[हिं. अर्थ + आना ( प्रत्य. )]

व्याख्या करना, बताना।

अरदना

क्रि. स.

[सं. अर्द्दन]

रौंदना, कुचलना।

अरदना

क्रि. स.

[सं. अर्द्दन]

बध करना।

अरधंग

संज्ञा

[सं. अद्धगिं ]

आधा अंग।

अरधंग

संज्ञा

[सं. अर्द्धांगिनी]

भार्या, पत्नी।

मिली कुबिजा मलै लैकै सो भई अर धंग। सूर प्रभु बस भए ताके करत नाना रंग -- २६७२।

अरधंगी

संज्ञा

[सं. अर्द्धांगिनी]

पत्नी, भार्या।

कुबिजा स्याम सुहागिनि कीन्ही. रूप अपार जाति नहिं चीन्हीं। आपु भए पति वह अरधंगी। गोपिन नाव धरयौ नवरंगी--२६७५।

अरध

वि.

[सं. अर्द्ध]

आधा, अपूर्ण।

(क) अंत औसर अरध-नाम-उच्चार करि सुम्रत गज ग्राह तेैं तुम छुड़ाए--१-११९ कहै तौ जनक गेह दै पठवौं अरध लंक कोै राज-९-७९।

अरध

क्रि. वि.

[सं. अध:]

अन्दर, भीतर।

अरधधाम

संज्ञा

[सं. अर्द्ध = आधा + धाम = घर (घर का आधा == पाखा) (पाखा = पक्ष = दोसप्ताह)]

पक्ष।

सखी री सुनु परदेसी की बात। अरध बीच दै गयौ धाम को हरि अहार चलि जात -- सा० २३।

अरधांगी

संज्ञा

[सं. अर्द्धांगिनी]

पत्नी।

अरनि

संज्ञा

[सं. अल = वारण करना, हिं. अड़ना]

हठ, टेक।

बरषि निकरे मेघ पाइक बहुत कीने अरनि। सूर सुरपति हारि मानी तब परे दुहुँ चरनि -- -९९५।

अरन्य

संज्ञा

[सं. अरण्य]

वन, जंगल।

भली कही यह बात कन्हाई, अतिहीँ सघन अरन्य उजारि--४७२।

अरपन

संज्ञा

[सं. अर्पण]

देना, दान।

अरपन

संज्ञा

[सं. अर्पण]

भेंट।

अरपना

क्रि. स.

[सं. अर्पण]

भेंट करना, देना।

अरपित

वि.

[सं. अर्पित]

अर्पण किया हुआ।

अरपी

क्रि. स.

[सं. अर्पण, हिं. अरपना]

अर्पण की, भेंट को, दान दी।

जांबवती अरपी कन्या भरि मनि राखी समुहाय। करि हरि ध्यान गयौ हरि पुर कौ जहाँ जोगेश्वर जाय।

अरपै

क्रि. स.

[सं. अर्पण हिं. अरपना]

अर्पण किये।

अरपै

मुहा.

प्रान अरपै :- प्रान सूख गये, विस्मित हो गये, अर्पण कर दिये। उ.- तड़ित आधात तररात उतपात सुनि नर-नारि सकुचि तनु प्रान अरपै -- ९४६।

अरप्यौ

क्रि. स. भूत.

[सं. अर्पण, हिं. वर्त, अरपना]

अर्पण किया, भोग लगाया।

(क) पट अंतर दै भोग लगायौ, आरति की बनाइ। कहत कान्ह बाबा तुम अरप्यौ, देव नहीं कछ खाइ--१०-२६१। (ख) हम प्रतीति करि सरबस अरप्यौ गन्यौ नहीं दिन राती-३४१८।

अरबर

वि.

[अनु.]

ऊटपटाँग, असंबद्ध।

अरबर

वि.

[अनु.]

कठिन।

अरबराइ

क्रि. अ.

[हिं. अरबराना]

लड़खड़ाकर, लटपटाकर, अड़बड़ाकर।

(क) सिखवति चलन जसोदा मैया। अरबराइ करि पानि गहावत, डगमगाइ धरनी धरे पैया-१०-११५। (ख); गहे अँगुरिया ललन की नँद चलन सिखावत। अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेक उठावत -- १०-१२२।

अरबराना

क्रि. अ.

[हिं. अरबर]

घबड़ाकर, व्याकुल होकर।

अरबराना

क्रि. अ.

[हिं. अरबर]

लटपटाकर, अड़बड़ाकर।

अरबरी

संज्ञा

[हिं. अरबर]

घबड़ाहट, हड़ बड़ी।

अरबिंद

संज्ञा

[सं. अरविंद]

कमल।

अरबीला

वि.

[अनु.]

भोलाभाला, अंड बंड।

अरभक

वि.

[सं. अर्भक ]

छोटा, अल्प।

अरभक

संज्ञा

बच्चा, लड़का।

अरररात

क्रि. स.

[हिं. अरराना] (अनु.)]

टूटने या गिरने का अरररर शब्द करके गिरते (हुए)।

अरररात दोउ बृच्छ गिरे धर। अति अघात भयौ ब्रज भीतर-३९१।

अरराई

क्रि. स.

[हिं. अरराना (अनु.)]

टूटने या गिरने का अरररर शब्द करके।

तरु दोउ धरनि गिरे भहराइ। जर सहित अरराई कै, आघात सब्द सुनाइ--३८७।

अररात

क्रि. स.

[हिं. अरराना (अनु.)]

अरररर शब्द करते हैं।

(क)बरत बन पात, भहरात, झहरात अररात तरु महा धरनी गिरायौ-५१६। (ख) घटा घनघोर घहरात अररात दररात सररात ब्रज लोग डरपे--९४६।

अरराना

क्रि. स.

[अनु.]

टूटने या गिरने का। अरररर शब्द करना।

अरराना

क्रि. स.

[अनु.]

तुमुल शब्द करके गिरना।

अरराना

क्रि. स.

[अनु.]

सहसा गिर पड़ना।

अरवाती

संज्ञा

[हिं. ओखती]

छाजन का किनारा जहाँ से वर्षा का पानी नीचे गिरता है। ओलती, ओरौनी।

सजनी नैना गये भगाइ। अरवाती को नीर वेरडी कैसे फिरिहैं धाइ पृ.-३३१।

अरस

वि.

[सं.]

नीरस, फोका।

अरस

वि.

[सं.]

गँवार, अनाड़ी।

अरस

संज्ञा

[सं. अलस]

आलस्य।

नहिं दुरत हरि पिय कौ परस। मन को अति आनंद, अधरन रँग, नैनन को अरस--२१०८।

अरस

संज्ञा

[अ. अर्श]

छत, पाटन।

अरस

संज्ञा

[अ. अर्श]

धरहरा, महल।

मार मार कहि गारिहे धृग गाय चरैया। कंस पास ह्वै आइयै कामरी चढ़ैया। बहुरि अरस तेैं आनि कै तब अंबर लीजै।….। अरस नाम है महल को जहाँ राजा बैठे। गारी दै दै सब उठे भुज निज कर ऐंठे-२५७५।

अरसना

क्रि. अ.

[सं. अलस]

शिथिल पड़ना, ढीला होना, मंद होना।

अरसना परसना

क्रि. स.

[सं. स्पर्शन]

छूना।

अरसना परसना

क्रि. स.

[सं. स्पर्शन]

मिलना, भेंटना, आलिंगन करना।

अरस परस

क्रि. स.

[सं. स्पर्शन, हिं. अरसना-परसना]

छूकर, मिलकर, लिपटकर, झपटकर।

(क) खेलत खात गिरावहीं, झगरत दोउ भाई। अरसपरस चुटिया गहैं, बरजति है माई-१०-१६२। (ख) चलत गति करि रुनित किंकिनि घुँघरू झनकार। मनो हंस रसाल बानी अरस परस बिहार-पृ० ३४६। (ग) जो जेहि बिधि तासो तैसेहि मिलि अरस परस कुसलात २९४१।

अरस परस

संज्ञा

[सं. स्पर्श]

आँख मिचौनी का खेल, छुआछुई।

अरसि परसि

क्रि. स.

[सं. स्पर्शन]

मिल-भेंटकर, आलिंगन करके।

काहू के मन कछु दुख नाहीं। । अरसि परसि हँसि हँसि लपटाहीं।

अरसाना

क्रि. अ.

[सं. अलस]

अलसाना, निद्राग्रस्त होना।

अरसाय

क्रि. अ.

[सं. अलस, हिं. अरसाना, अलसाना]

अलसाकर, निद्राग्रस्त होकर।

मरगजे हार बिथुरै बार देखियत आइ गई एक याम यामिनी। और सोभा सोहाई अंग अंग अरसाय बोलति है कहा अलसामिनी--१५८१।

अरसी

संज्ञा

[सं. अतसी]

अलसी, तीसी।

अरस्सीला

वि.

[सं. अलस]

आलस्ययुक्त।

अरसौहाँ

वि.

[सं. आलस्य]

आलस्ययुक्त।

अरहना

संज्ञा

[सं. अर्हण]

पूजा।

अराज

वि.

[सं. अ + राजन्]

बिना राजा का।

जग अशज ह्वेै गयौ, रिषिन तब अति दुख पायौ। लै पृथ्वी कौ दान, ताहि फिरि बनहिँ पठायौ--९-१४।

अराधन

संज्ञा

[सं. आराधन]

पूजा, उपासना।

अराधना

क्रि. स.

[सं. आराधन]

उपासना करना।

अराधना

क्रि. स.

[सं. आराधन]

पूजा करना।

अराधना

क्रि. स.

[सं. आराधन]

ध्यान करना।

अराधा

संज्ञा

[हिं. आराधना]

सेवा, पूजा, उपासन।

जेहि रस सिव सनकादि मगन भए संभु रहत दिन साधा। सो रस दिए सूर प्रभु तोकों सिवा न लहति अराधा-१२३४।

अराध्यौ

क्रि. स.

[हिं. आराधना]

उपासना की।

हम अलि गोकुलनाथ अराध्यौ -- ३०१४।

अराअरी

संज्ञा

[हिं. अड़ना]

अड़ाअड़ी, होड़, स्पर्धा।

अरिंद

संज्ञा

[सं. आरि + इंद्र]

शत्रु।

अरिंदम

वि.

[सं.]

शत्रु का दमन करने वाला।

अरिंदम

वि.

[सं.]

विजयी।

अरि

संज्ञा

[सं.]

शत्रु, वैरी।

अरि

क्रि. अ.

[हिं. अड़ना]

अड़कर, हठ करके।

को कर-कमल मयानो धरिहै को माखन अरि खैहै -- २५१२।

अरिकेसो

संज्ञा

[सं. अरि + के शी]

केशी दैत्य का । शत्रु, कृष्ण।

अरियाना

क्रि. स.

[सं. अरे]

अरे' कहकर बुलाना, तिरस्कार करना।

अरिष्ट

संज्ञा

[सं.]

एक राक्षस का नाम जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था !

अघ-अरिष्ट, केसी काली मथि, दावानलहिँ पियौ -- १-१२१।

अरिष्ट

वि.

[सं.]

दृढ़, अविनाशी।

अरिष्ट

वि.

[सं.]

शुभ।

अरिष्ट

वि.

[सं.]

बुरा, अशुभ।

अरी

अव्य.

[सं. अयि]

संबोधनार्थक अव्यय जिसका प्रयोग प्रायः स्त्रियों के लिए ही होता है।

अरी अरी सुन्दर नारि सुहागिनि, लागौं तेरैँ पाउँ--९-४४।

अरी

क्रि. अ.

[हिं. अड़ना]

अड़ गयी, फँली उलझी।

खेवनहार ने खेवत मेरै, अंब मो नाव अरी-१-१८४।

अरुंधति

संज्ञा

[सं. अरुंधती]

वशिष्ट मुनि की स्त्री।

रमा, उमा अरु सची अरुधति निसि दिन देखन आवैं--पृ० ३४५।

अरु

संयो.

[हिं. और]

शब्दों या वाक्यों को जोड़ने वाला संयोजक शब्द।

बिद्रुम अरु बंधूक बिंब मिलि देत कबिन छबि दान-सा० उ०-१५।

अरुचि

संज्ञा

[सं.]

रुचि का न रहना, अनिच्छा।

अरुझत

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना]

उलझते हैं, फँसते हैं।

इक परत उठत अनेक अरुझत मोह अति मनसा । मही--१० उ०-२४।

अरुझति

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना]

लड़ती झगड़ती है।

कहो तुमहि हमको कहा बूझति। लैलै नाम सुनावहु तुमही मोसों काहे अरुझति -- -११०६।

अरुझाइ

क्रि. स.

[हिं. अरुझाना]

उलझाकर, फँसाकर।

(क) बाबा नंद, झखत किहिँ कारन, यह कहि मयामोह अरुझाइ। सूरदास प्रभु मातु-पिता कौ, तुरतहिँ दुख डरियौ बिसराइ-५३१। (ख) नागरि मन गई अरुझाइ। अति बिरह तन भई व्याकुल घर न नैँ कु समाई-६७८।

अरुझाई

क्रि. स.

[हिं. अरुझना]

उलझाकर, फंसाकर।

अरुझाई

यौ.

रहे अरुझाई-उलझा रहे हैं, फाँस रहे हैं।

कहत सखा हरि सुनत नहीं सो, प्यारी सों रहे चित अरुझाई-७१७।

अरुझाए

क्रि. स.

[हिं. अरुझना, अरुझाना]

उलझा दिये, फँसा दिये।

भक्त बछल बानौं है मेरोै, बिरुदहिँ कहाँ लजाऊँ। यह कहि मया-मोह अरुझाए सिसु ह्वै रोवन लागे-१०-४।

अरुझाए

क्रि. स.

[हिं. अरुझना, अरुझाना]

लटका दिये, टाँग दिये। लीन्हे छीनि बसन सबही के सबही लै कुंजनि अरुझाए-१०९३।

अरुझाने

क्रि. स.

[हिं. अरुझ, ना]

उलझा दिया, फँसा दिया।

मन हरि ली हो कुँवरि कन्हाई …..। कुटिल अलक भीतर अरुझाने अब निरुवारि न जाई-१४७७।

अरुझानो

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना]

उलझ गया, फँस गया।

मेरौ मन हरि चितवनि अरुझानो १२०६।

अरुझावत

क्रि. स.

[हिं. अरुझाना]

उलझाते हो, फँसाते हो, रोकते हो।

सूरस्याम माखन दधि लीजै जुवतिन कत अरुझावत-११०४।

अरुझाहीं

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना]

उलझते हैं, झगड़ते हैं।

ज्ञाइ न मिलो सूर के प्रभु को अरुझेन सों अरुझाहीं-पृ०२३८।

अरुझि

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना]

उलझ गया, फँसा। यौ०-अरुभि परयो (रह्यो) उलझ गया, फँस गया।

(क) ग्वाल-बाल सब संग लगाए, खेलत मैं करि भाव चलत। अरुझि परयौ मेरौ मन तब तैं, कर झटकत चक-डोरि हलत.-६७१। (ख) क्यौं सुरझाऊँ री नंदलाल सौं अरुझि रह्यो मन मेरौ ४१७०।

अरुझी

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना]

उलझ गयी, फँस गयी।

खसि मुद्रावलि चरन अरुझी। गिरी धरनि बलही--३४५१।

अरुझी

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना]

लिपटी है। उलझी है।

रसना जुगल रसनिधि बोलि। कनक-बेलि तमाल अरुझी सुभुज बंध अखोलि-सा० उ०--५।

अरुझे

क्रि. अ. बहु.

[हिं. अरुझना ]

उलझ गये, फँसे।

(क) प्रगटी प्रीति न रही छपाई। परी दृष्टि बृषभानु-सुता की, दोउ अरुझे, निरुवारि न जाई-७२०। (ख) मन तो गयौ नैन हैं मेरे। …….क्रम क्रम गए, कहयौ नहिं काहू स्याम संग अरुझे रे-पृ० ३२०। (ग) चंचल द्रग अंचलपट-दुति छबि झलकत चहुँ दिसि झालरी। मनु सेवाल कमल पर अरुझे भँवत भ्रमर भ्रम चाल री--१०.१४०।

अरुझयो

क्रि. अ.

[हिं. अरुझना (उलझना)]

उलझा, फँसा, अटका।

दधि सुत जामे नँददुवार। निरखि नैन अरुझ्यो मनमोहन, रटत देहु कर बारंबार-१०-१७३।

अरुन

वि.

[सं. अरुण]

लाल।

नली खुर अरु प्रश्न लोचन, सेत सींग सुहाइ-१-५६।

अरुन

संज्ञा

सूर्य।

उगत अरुन बिगत सर्वरी, ससाँक किरनहीन, दीपक सु मलीन, छीन दुति समूह तारे. -- १०-२०५।

अरुनता

संज्ञा

[सं. अरुणता]

ललाई, लालिमा, लाली।

(क) नान्हीं एड़ियनि अरुनता, फल बिंब न पूजै--१३४। (ख) सूर स्याम छबि अरुनता (हो) निरखि हरषि ब्रज-बाल-१०-४२।

अंतःकरण

संज्ञा

[सं.]

नैतिक बुद्धि, विवेक।

अंतःपुर

संज्ञा

[सं.]

महल का मध्यभाग जहाँ रानियाँ रहती हैं, रनिवास।

नप सुनि मन आनन्द बढ़ायौ। अन्त पुर मैं जाइ सुनायौ–४-९।

अँदरसे

संज्ञा

[फा. अंदर + सं. रस]

एक मिठाई जो चौरेठे या पिसे हुए चावल की बनती है।

सुंदर अति सरस अँदरसे। ते घृत दधि-मधु मिलि सरसे--१०-१८३।

अंदेस,अँदेस

संज्ञा

[फा. अदेश]

सोच,चिंता, फिक्र।

इन पै दीरघ धनुष चढ़ै क्यों, सखि यह संसय मोर। सिय-अंदेश जानि सूरज प्रभु लियो करज की कोर-९-२३।

अंदेस,अँदेस

संज्ञा

[फा. अदेश]

भय, डर, आशंका।

(क) सूर निर्गुन ब्रह्म धरि के तजहु सकल अंदेस-१९७४- (ख) छिन बिनु प्रान रहत नहि हरि बिन निसदिन अधिक अंदेस-१७५३।

अंदेस,अँदेस

संज्ञा

[फा. अदेश]

संशय, अनुमान।

अंदेस,अँदेस

संज्ञा

[फा. अदेश]

हानि।

अंदेस,अँदेस

संज्ञा

[फा. अदेश]

दुविधा,असमंजस।

अंदेसो

संज्ञा

[फा. अदेश]

चिंता सोच।

समै पाइ समुझाइ स्याम सों हम जिय बहुत अंदेसो - ३४३१।

अंदेसो

संज्ञा

[फा. अदेश]

हानि, दुख।

रवि के उदय मिलन चकई को ससि के समय अँदेसो-३३६५।

अरुनाई  

सं.

[हिं. अरुणाई ]

लालिमा, रक्तता, लाली।

लछिनन, रचौ हुतासन भाई।...... आसन एक हुतासन बैठी, ज्यों कुन्दन-अरुनाई ९.१६२।

अरुनाए

क्रि. अ.

[सं. अरुण]

लाल रंगे हुए।

नीलांबर, पाटंबर, सारी, सेत, पीत, चूनरी, अरुनाए -- ७८४।

अरुनानी

क्रि. अ.

[हिं. अरुनाना]

लाल हो गयी।

बोले तमचुर चारो याम को गजर मारचौ पौन भयौ सीतल तमतमता गई। प्राची अरुनानी धानि किरिन उज्यारी नभ छाई उडगन चंद्रमा मलिनता लई -- १६१०।

अरुनित

वि.

[सं. अरुणित]

लाल रंग का, लाल किया हुआ है।

अरुनिमा

संज्ञा

[सं. अरुणिम']

लाली, लालिमा।

अरुनाना

क्रि. अ.

[सं. अरुण]

लाल होना।

अरुनाना

क्रि. स.

लाल करना।

अरुनारा

वि.

[सं. अरुण + आरा (प्रत्य.)]

लाल, लाल । रंग का।

अरुनोदय

संज्ञा

[सं. अरुण + उदय]

सूर्योदय, उषाकाल।

अरुराना

क्रि. स.

[हिं. अरुरना]

मरोड़ना।

अरुराना

क्रि. स.

[हिं. अरुरना]

सिकोड़ना।

अरुलना

क्रि. अ.

[सं. अरुस् = बाव]

छिलना, चुभता।

अरुप

वि.

[सं.]

रूप या आकार से रहित।

अरूरना

क्रि. अ.

[सं. अरुस् = घाव]

दुखित होना।

अरे

अव्य.

[सं.]

सम्बोधनार्थक अव्यय; रे, ऐ, ओ।

(क) सुनि अरे अंध दसकंध, लै सीय मिलि, सेतु करि बंध रघुबीर आयौ-९-१२८।

अरे

क्रि. अ.

[सं. अल = धारण करना, हिं. अड़ना]

रुक गये, ठहरे।

अरे

क्रि. अ.

[सं. अल = धारण करना, हिं. अड़ना]

अड़ गये, हठ करने लगे, ठान लिया।

(क) कलबल कै हरि आइ परे। नव रँग बिमल नबीन जलधि पर, मान हुँ द्वै ससि आनि अरे. -- १०-१४१। (ख) पठवति हौं मन तिनहिं मनावन निसि दिन रहत अरे री-१४४२। (ग) को जानै काहे ते सजती हम सों रहत अरे १८४१। (घ) लंपट लवनि अटक नहिं मानत चंचल चपल अरे रे-पृ०-३२५।

अरे

क्रि. अ.

[सं. अल = धारण करना, हिं. अड़ना]

उमड़ कर आये।

( क) को करि लेइ सहाइ हमारौ प्रलय काल के मेघ अरे--९५३। (ख) बादर ब्रज पर आनि अरे ...-९६८।

अरेरना

क्रि. स.

[हिं.]

रगड़ना।

अरै

क्रि. अ.

[सं. अल == धारण करना, [हिं. अड़ना] ।

हठ करता है, टेक पकड़ता है।

जब दधि मथनी टेकि अरै। आरि करत मटुकी गहि मोहन, बासुकि संभु डरै -- १४२।

अरै

क्रि. अ.

[सं. अल == धारण करना, [हिं. अड़ना] ।

भिड़ता हैं, लड़ता है, रगड़ता है।

कह्यौ न काहू को करै बहुरि अरै एक ही पाइ दै इक पग पकरि पछारयौ-१० उ०-५२।

अरै

संज्ञा

[सं. हठ = जिद]

हठ, टेक, जिद।

जा कारन तैं सुनि सुत सुन्दर, कीन्ही इती अरै। सोइ सुधाकर देखि कन्हैया, भाजन माँहि परे-१०-१९५

अरो

क्रि. अ.

[हिं. अड़ना]

अड़ गया, हठ किया, ठान लिया।

क्यौं मारोैं दोउ नन्द ढोटोना ऐसी अरनि अरो-२४६१।

अरोगना  

क्रि. अ.

[हिं. आरोगना]

खाना।

अरोगैं

क्रि. अ.

[सं. आ + रोगना (रुज = हिं.सा), हिं. अरोगना]

खाते हैं. भोजन करते हैं।

नन्द भवन मैं कान्ह अरोगेैं। जसुदा ल्यावै षटरस भोगैं -- ३९६।

अरोच

संज्ञा

[सं. अरुचि]

रुचि का अभाव, अनिच्छा।

अरोहना

क्रि. अ.

[आरोहण]

चढ़ना, सवार होना।

अरौ

क्रि. अ.

[हिं. अड़ना]

रुकते हो, ठहरते हो, अड़ते हो।

हित की कहत कुहित की लागत इहाँ बेकाज अरौ -- ३ ०६६।

अक

संज्ञा

[सं.]

सूर्य।

बेदन अर्क बिभूषित । सोभा बेंदी रिच्छ बखानो-सा० १०३।

अर्गजा

संज्ञा

[हिं. अरगजा]

एक सुगन्धित लेप।

अर्ध

संज्ञा

[सं.]

षोड़शोपचार में से एक, जल दूध आदि मिलाकर देवता पर चढ़ाना।

अर्ध

संज्ञा

[सं.]

जलदान

अर्ध

संज्ञा

[सं.]

भेंट।

अर्चन

संज्ञा

[सं.]

पूजा।

अर्चन

संज्ञा

[सं.]

आदर,  सत्कार।

अर्चमान

वि.

[सं.]

पूजा करने के योग्य, पूजनीय।

अर्चित

वि.

[सं.]

पूजित।

अर्जन

संज्ञा

[सं.]

पैदा करना, उपार्जन।

अर्जन

संज्ञा

[सं.]

संग्रह, संग्रह करना।

अर्जुन

संज्ञा

[सं.]

मझले पांडव का नाम। ये परम वीर और धनुर्विद्या में निपुण थे। श्रीकृष्ण से इनकी बड़ी मित्रता थी।

अर्जुन

संज्ञा

[सं.]

एक वृक्ष।

अर्जुन

संज्ञा

[सं.]

वो वृक्ष जो गोकुल में थे। नारद ऋषि के शाप से कुबेर के दो पुत्र नलकूबर और मणिग्रीव इन पेड़ों के रूप में जन्मे थे। श्रीकृष्ण ने इनका उद्धार किया था।

जमल अर्जुन तोरि तारे, हृदय प्रेम बढ़ा इ-४९८।

अर्जुन

संज्ञा

[सं.]

सहस्रार्जुन।

अर्जुन

संज्ञा

[सं.]

सफेद कनैल।

अर्जुन

संज्ञा

[सं.]

मोर।

अर्थ

संज्ञा

[सं.]

शब्द का अभिप्राय, भाव, संकेत।

एकन कर है अगर कुमकुमा एकन कर केसर लै घोरी। एक अर्थ सों भाव दिखावति नाचति तरुनि बाल बृद्ध भोरी-२४३६।

अर्थ

संज्ञा

[सं.]

अभिप्राय, प्रयोजन।

अर्थ

संज्ञा

[सं.]

हेतु, निमित्त।

अर्थ

संज्ञा

[सं.]

इन्द्रियों के पाँच विषय- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध।

अर्थ

संज्ञा

[सं.]

चतुर्वर्ग (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) में से एक, धन संपत्ति।

कहा कभी जाके राम धनी।......। अर्थ, धर्म अरु काम मोक्ष फल चारि पदारथ देत गनी--१-३९।

अर्थपति

संज्ञा

[सं.]

प्रयोजन का कारण या स्वामी, श्रीकृष्ण

हम तो बँधी स्याम गुन सुन्दर छोरनहार न कोई। जो व्रज त जो अर्थ पति सूरज सब सुखदायक जोई-स० १०५।

अर्थपति

संज्ञा

[सं.]

अर्थापत्ति नामक अलंकार। इसमें एक बात के कहने से दूसरों की सिद्धि आप से आप हो जाती है। उक्त उदाहरण का आशय है--ब्रज में ऐसा कोई नहीं है। जो अपने अर्थपति कृष्ण को छोड़ दे जो सब सुखों के दाता हैं। इससे सिद्ध हो गया कि बिना कृष्ण के सुख नहीं मिल सकता।

अर्थना

क्रि. स.

[सं.]

माँगना।

अर्थाना

क्रि. स.

[सं. अर्थ + आना (प्रत्य.)]

अर्थ समझाकर कहना।

अर्थी

वि.

[सं. अर्थिन]

चाह रखने वाला।

अर्थी

वि.

[सं. अर्थिन]

याचक।

अर्दना

क्रि. स.

[अर्दन = पीड़न]

पीड़ित करना।

अर्धांगिनि

संज्ञा

[सं. अर्द्धंगिनी]

पत्नी, भार्या।

कहाँ स्याम की तुम अर्धांगिनी मैं तुम सर की। नाहींँ.-२९३७।

अर्धंगी

संज्ञा

[सं. अर्द्धगिनी]

पत्नी, भार्या।

ऐसी प्रीति की बलि जाउँ। सिंहासन तजि चले मिलन कौ सुनत सुदामा नाउँ।…...। अर्धगी बूझत । मोहन को कैसे हितू तुम्हारे-१० उ० -- ६२।

अर्द्धांग

संज्ञा

[सं.]

आधा अंग।

अर्द्धांग

संज्ञा

[सं.]

शिव।

अर्द्ध

वि.

[सं.]

दो सम भागों में से एक,आधा।

अर्ध

वि.

[सं. अर्द्ध]

आधा।

अर्ध निसा तिनकौं लै गयौ--१-२८४।

अर्धांगिनी

संज्ञा

[सं. अर्द्धांगिनी]

पत्नी, भार्या।

ऊधो यह राधा सों कहियौ।…...। कहाँ स्याम की तुम अर्धांगिनी , मैं तुम सर की नाहीं--, २९३७।

अर्पत

क्रि. स.

[सं. अर्पण, हिं. अर्पना]

अर्पण करता । है भेंट देता है।

पाँडे नहिंँ भोग लगावन पावे करि करि पाक जबै अर्पत है, तबहीं तब छ्वै आवेै १०-२४९।

अर्पन

संज्ञा

[सं. अर्पण]

अर्पण करने की क्रिया।

सिव-संकर हमकौंँफल दीन्हौ। पुहुप, पान,। नाना फल, मेवा षटरस अर्पन कीन्हौं--७९८।

अर्पना

क्रि. स.

[सं. अर्पण]

अर्पण करना, देना।

अर्पि

क्रि. स.

[सं. अर्पण, हिं. अर्पना, अरपना]

अर्पण करके, भेंट देकर।

अगनिक तरु फल सुगंधमृदुल-मिष्ट-खाटे। मनसा करि प्रभुहिँ अर्पि, भोजन करि डाटे--९-९६

अपै

क्रि. स.

[सं. अर्पण, हिं. अरपना]

अर्पण करने पर, भोग लगाने पर, भेंट देते हैं।

बदत बेद-उपनिषद, छहोँ रस अर्पै भुक्ता नाहिँ। गोपी ग्वालनि के मंडल मेँ हँसि-हँसि जूठनिं खाहिं-४८७।

अन्यौ

क्रि. अ. भूत.

[सं. अल = धारण करना, हिं. जड़ना]

अड़ गया, ठान लिया।

जैसे गज लखि फटिकसिला मैँ, दसननि जाइ अरयौ-२-२६।

अन्यौ

क्रि. अ. भूत.

[सं. अल = धारण करना, हिं. जड़ना]

टिकाकर, अड़ाकर, जमाकर।

लपकि लीन्हों धाइ दबकि उर रहे दोउ भ्रम भयौ जगह कहाँ गए वैयौंँ । अरयौ दै दसन धरनी कढ़े बीर दोउ कहत अबहीं याहि मारेै कैचौं-२५९२।

अलंबन

संज्ञा

[सं. अवलंबन]

आश्रय, सहार, अवलंब।

अब लगि अवधि अलंबन करि करि राख्यौ मनहिंँ सवाहि। सूरदास या निर्गुन सिंधु हँ कौन सकै अवगाहि-३१४५।

अलंकार

संज्ञा

[सं.]

आभूषण, गहना।

अलंकार

संज्ञा

[सं.]

शब्द और अर्थ में विशेषता लाने की युक्ति।

अलंकित, अलंकृत

वि.

[सं.]

विभूषित, आभूषणों से युक्त।

(क) भूषन बार सुधार तासु रंग अँग अंगन दीपत ह्वै है। यह बिधि सिद्ध अलंकृत सूरज सब बिधि सोभा छैहै--सा० ९७। (ख) सुर स्याम के हेत अलंकृत की नौ अमल सुमिल हितकारी -- -सा० ९८।

अलंकित, अलंकृत

वि.

[सं.]

सजाया हुआ, सुन्दर।

यों प्रतषेद अलंकृत जबहू सुमुखी सरस सुनायौ। सूर कहो मुसु काय प्रानप्रिय मो मन एक गनायौ-स० ९५।

अलंकित, अलंकृत

वि.

[सं.]

काव्यालंकार से युक्त।

करत बिंगते बिंग दूसरी जुक्त अलंकृत माँही-सा ० ८७।

अल

संज्ञा

[सं.]

बिच्छू का डंक।

अल

संज्ञा

[सं.]

विष, जहर।

अति बल करि·करि काली हास्यौ। लपटि गयौ सब अंग-अंग प्रति, निविष कियौ सकल अल (बल) झारयौ--५७४।

अलक

संज्ञा

[सं.]

इधर-उधर लटकते हुए छल्लेदार बाल।

अलक लड़ैता

वि.

[हिं. अलक = बाल, लाड़ = दुलार (लडैता = दुलारा)]

दुलारा, लाड़ला।

अलकलड़ैतौ

वि.

[हिं. अलकलड़ैता]

लाड़ला, दुलारा।

सूर पशिक सुन, मोहि रैन दिन बढ्यौ रहत उर सोच। मेरो अलकलड़ै तो मोहन ह्वहै करत सँकोच-२७०७।

अलकसलोरा

वि.

[सं. अलक = बाल + हिं. सलोना == अच्छा]

लाड़ला, दुलारा।

अलकसलोरी

वि.

[हिं. पुं. अलकसलोरा]

लाड़ली, दुलारी।

हम तेरे ही नित ही प्रति आवै सुनहु राधिका गोरी हो। ऐसो आदर कबहुँ न कीन्ही मेरी अल कसलोरी हो-पृ० ३१९।

अलकावलि

संज्ञा

[सं.]

केश, बालों की लटें।

अलकै

संज्ञा

[सं. अलक]

मस्तक के इधर उधर लटकते हुए धुँघराले बाल।

बिथुरि अलकैं रहीं मुख पर बिनहिं बपन सुहाइ--१०-२२५।

अलख

वि.

[सं. अलक्ष्य]

ईश्वर का एक विशेषण।

(क) अलख-अनंत-अपरिमित महिमा, कटितट कसे तूनीर-९-२६। (ख) ब्रह्मभाव करि मैं सब देखौ। अलख निरंजन ही को लेखौ-३३०८।

अलख

वि.

[सं. अलक्ष्य]

अगोचर, इंद्रियातीत।

(क) जोपेै अलख रह्यौ चाहत तौ बादि भए ब्रजन' यक-३३९३। (ख) पूरन ब्रह्म अलख अबिनासी ताके तुम हो ज्ञाता-२९१९।

अलख

वि.

[सं. अलक्ष्य]

अदृश्य, अप्रत्यक्ष।

अलखित

वि.

[सं. अलक्षित]

अप्रकट, अज्ञात।

अलखित

वि.

[सं. अलक्षित]

अदृश्य।

अलखित

वि.

[सं. अलक्षित]

अचिह्नित।

अलगाइ

क्रि. अ.

[हिं. अलग, अलगाना]

अलग हो गये, बिछुड़ गये।

कह्यौ म यत्रेय सों समुझाइ, यह तुम बिदुर हिं कहियौ जाइ। बदरिका सरम दोउ मिलि आइ। तीरथ करत दोउ अलगाइ-३-४।

अलगाना

क्रि. स.

[हिं. अलग + आना (प्रत्य.)]

छाँटना, बिलगाना।

अलगाना

क्रि. स.

[हिं. अलग + आना (प्रत्य.)]

दूर करना।

अलच्छ

वि.

[सं. अलक्ष्य]

जो देख न पड़े।

अलच्छ

वि.

[सं. अलक्ष्य]

जिसका लक्षण ने कहा जा सके।

अलज

वि.

[सं. अ = नहीं + लज्जा]

निर्लज्ज, बेहया।

अलप

वि.

[सं. अल्प]

थोड़ा, कम, न्यून, छोटे।

(क) अँग फरकाइ अलप मुसुकाने-१०-४६। (ख) सोभित सुकपोल-अधर, अलप. अलप दसना--१०-९०। (ग) चपल द्रग, पल भरे अँसुवा कछक ढरि ढरि जात। अलप जल पर सीप द्वै लखि मीन मनु अकुलात-३६०।

अलबेला

वि.

[सं. अलभ्य + हिं. ला (प्रत्य.)]

बाँका, बना-ठना।

अंदेसो

संज्ञा

[फा. अदेश]

आशंका, भय, डर।

भली स्याम कुसलात सुनाई सुनतहि भयौ अँदेसो-३१६३।

अंदोर

संज्ञा

[सं. अंदोल = झूलना, हलचल]

हलचल, हल्ला, कोलाहल।

भहरात झहरात दवा (नल) आयौ। घेरि चहुं ओर, करि सोर अंदोर वन , धरनि आकास चहुँ पास छायौ-५९६।

अंध

वि.

[सं.]

नेत्रहीन।

अंध

वि.

[सं.]

अज्ञानी, अविवेकी।

अंध

वि.

[सं.]

अन्धकारपूर्ण।

जैसें अंधो अंधकूप मैं गनत न खाल-पनार--१-८४।

अंध

वि.

[सं.]

असावधान, अचेत।

अंध

वि.

[सं.]

उन्मत्त, मतवाला।

काम अंध कछु रही न सँभरि। दुर्वासा रिषि कौं पग मारि-६-७।

अंध

वि.

[सं.]

प्रखर, तीव्र।

क्यौं राधा फिर मौन गह्यौ री। जैसे नउ आ अंव भँवर खर तैस हि तै यह मौन कह्यौ री--१३१०।

अंध

संज्ञा

नेत्रहीन प्राणी]।

अंध

संज्ञा

अंधकार।

अलबेला

वि.

[सं. अलभ्य + हिं. ला (प्रत्य.)]

अनूठा, सुन्दर।

अलबेला

वि.

[सं. अलभ्य + हिं. ला (प्रत्य.)]

मनमौजी।

अलबेली

वि.

[हिं. अलबेला (पुं.)]

बनी-ठनी।

अलबेली

वि.

[हिं. अलबेला (पुं.)]

अनोखी, सुन्दर।

आजु राधिका रूप अन्हायौ। देखत बने कहत नहिं आवै मुख छबि उपमा अन्त न पायौ। अलबेली अलक तिलक केसरि कौ ता बिच सेंदुर बिन्दु बनायौ-२०६३।

अलबेली

वि.

[हिं. अलबेला (पुं.)]

अल्हड़, मनमौजी !

इहाँ ग्वालि बनि बनि जुरी सब सखी सहेली। सिरनि लिए दधि दूध सबैं यौवन अलबेली-१००७।

अलस

वि.

[सं.]

आलस्ययुक्त, अलसाया हुआ।

(क) कन्हैया हालरोै हलरोइ। हौं वारी तव इन्दु-बदन पर, अति छबि अलसभरोइ-१० ५६। (ख) कुंजभवन तैं आजु राधिका अलस, अकेली आवत--सा० १३।

अलसाई

क्रि. अ.

[हिं. अलसाना]

अलसा जाती है, कलांत होती है, शिथिलता का अनुभव करती है।

काया हरि के काम न आई। भाव-भक्ति जहँ हरि-जस सुनियत, तहाँ जात अलसाई -- १-२९५।

अलसात

क्रि. अ.

[सं. अलस, हिं. अलसाना]

आलस्य दिखाना, उदासीनता दिखाना।

अब मोसों अलसात जात हौ अधम-उधारनहारे-१२५।

अलसान

संज्ञा

[स. आलस्य]

आलस।

अलसाना

क्रि. अ.

[सं. अलस]

आलस्य या शिथिलता । का अनुभव करना।

अलसाने

क्रि. अ. बहु.

[सं. अलस, हिं. अल साना]

थक गये, क्रांत हुए, शिथिल हो गये।

बल मोहन दोऊ अलसाने-१०-२३०।

अलसामिनी

संज्ञा

[हिं. अलसाना]

वह युवती जो अलसायी हुई या निद्रामग्न हो।

मरगजे हार बिथुरि बार देखियत आइ गई, एक याम यामिनी। औरै सोभा सोहाई अंग अग अरसाय बोलति है कहा अलसामिनी-९५८१।

अलिबाहन को प्रीतम बाला ता बाहन रिपु

संज्ञा

[सं. अलिबाहन (कमल) + प्रियतम (कमल का प्रियतम = समुद्र) + बाला (समुद्र की वाला = समुद्र की स्त्री = गंगा) + बाहन (गंगा का वाहन करने वाला = शिव) + रिपु(शिव का रिपु = काम)]

कामदेव, काम।

अलिसुत

संज्ञा

[सं.]

भौंरा।

अलिसुत प्रीति करी जलसुत सौं संपुट माँझ गह्यौ-२८०९।

अलसेट

संज्ञा

[सं. आलस]

ढील-ढाल,, व्यर्थ की देर।

अलसेट

संज्ञा

[सं. आलस]

बाधा, अड़चन।

अलसेट

संज्ञा

[सं. आलस]

टाल मटूल।

अलसौं हैं

वि.

[सं. अलस + औहौं (प्रत्य.)]

आलस्ययुक्त, क्लांत, शिथिल।

अलिसौं हैं

वि.

[सं. अलस + औहां (प्रत्य.)]

क्लांत, आलस्ययुक्त, शिथिल।

जावक भाल नागरस लोचन मसिरेखा अधरनि जो ठए। बलि या पीठि । बचन अलिसौहैं बिन गुन कंटक हार बनाए--२०९१।

अलाप

संज्ञा

[सं. आलाप]

बातचीत।

अलाप

संज्ञा

[सं. आलाप]

स्वर-साधन, तान।

अलापन

क्रि. अ.

[हिं. अलापना]

बातचीत करना।

अलापन

क्रि. अ.

[हिं. अलापना]

तान लगाना, सुर खींचना।

अलापन

क्रि. अ.

[हिं. अलापना]

गाना।

अलापति

क्रि. स.

[हिं. अलापना]

गाती है।

गावत स्याम स्यामा रंग। सुघरगतिनागरि अलापति सुर धारति पिय संग--पृ०-३५१ (७६)।

अलापति

क्रि. स.

[हिं. अलापना]

सुर खींचती है, तान लगाती है।

अलापि

क्रि. अ.

[हिं. अलापना]

सुर खींचकर, ताल लगाकर।

नटवर बेष धरे ब्रज आवत।….. अधर अनूप मुरलि सुर पूरत गौरी राग अलापि बजावत--२३४६।

अलापी

वि.

[सं. अलापी]

बोलने वाला।

अलापी

वि.

[सं. अलापी]

गाने वाला।

अलाभ

संज्ञा

[सं.]

लाभ का उलटा, हानि।

दुख-सुख, लाभ-अलाभ समुझि तुम, कतहिं मरत हौ राई-१-२६९।

अलायक

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + अ. लायक)

अयोग्य।

अलार

संज्ञा

[सं. अलात ]

अलाव, अँवौ, भट्ठी।

अलाल

संज्ञा

[सं. अलात = अंगार)

घास-फूस से जलायी हुई आग जिसको गाँव के लोग तापते हैं, कौड़ा।

अलिंगन

संज्ञा

[सं. आलिंगन]

हृदय से लगाने की क्रिया, परि रंभण।

( क ) करि अलिंगन गोपिका, पहिरै अभूषन-चीर-१०-२६। (ख) सूर लरयौ गोपाल अलिगन सकल किए कंचन घट .. ८९०।

अलिंद

संज्ञा

[सं. अलीद्र]

भौंरा।

अलि

संज्ञा

[सं.]

भौंरा, भ्रमर।

अलि

संज्ञा

श्यामता।

छिति पर कमलकमल पर कदली पंकज कियौ प्रकास। तापर अलि सारँग प्रति सारँग रिपु लै कीनो बास-सा. उ. २८।

अलि

संज्ञा

[सं. आली, हिं. अली]

सखी, सहचरी।

हौं अलि केतने जतन बिचारौं। वो मूरत वाके उर अन्तर बसी कौन बिधि टारौं सा. ६७।

अलिप्त

वि.

[सं.]

जो लिप्त न हो, जो कोई संबंध न रखे, बेलौस, निर्लिप्त।

जीवन-मुक्त रहै या भाइ। ज्योँ जल-कमल अलिप्त रहा इ--३-१३।

अलिप्त

वि.

[सं.]

रोग द्वेष से मुक्त, अनासक्त।

देहऽभिमानी जीवहिँ जानै। ज्ञानी तन अलिप्त करि मानै -- ५.४।

अलिबाहन

संज्ञा

[सं. अलि = भौंरा + बाहन = राबारी]

कमल।

अली

संज्ञा

[सं. आली]

सखी, सहचरी, सहेली।

(क) गुन गावत मंगलगीत, मिलि दस पाँच अली-१० २४। (छ) का सतरात अली बतरावत उतने नाच नचावै-सा ० ८४। (ग) बन ते आजु नँदकिसोर। अली आवत करत मुरली की भहाधुनि घोर--सा. ३९। श्रेणी, पंक्ति।

अली

संज्ञा

[सं.अलि]

भौंरा।

अलोक

संज्ञा

[सं. अ = नहीं +हिं. लोक ]

अप्रतिष्ठा।

अलोक

वि.

अप्रतिष्टित।

अलोक

वि.

[सं.]

मिथ्या, झूठा।

अलीगन

संज्ञा

[सं. अलि = भौंरा + गण (भौंरों का समूह। भौंरे काले होते हैं, इसलिए अलीगन सें अर्थ लिया गया, कालिमा = श्यामता = काजल )]

अंजन, काजल।

चारि कीर पर पारस बिद्रुम आजु अलीगन खात--सा० ९।

अलीन

वि.

[सं. अ = नहीं + लीन = रत]

अग्राह्य, अनुपयुक्त।

अलीन

वि.

[सं. अ = नहीं + लीन = रत]

अनुचित।

अलीह

वि.

[सं. अलीक]

मिथ्या, असत्य।

अलुझना

क्रि. अ.

[अवरंधन, प्रा. ओरुज्झन, हिं. उलझना]

फँसना, अटकना

अलुझना

क्रि. अ.

[अवरंधन, प्रा. ओरुज्झन, हिं. उलझना]

लिपट जाना।

अलुझना

क्रि. अ.

[अवरंधन, प्रा. ओरुज्झन, हिं. उलझना]

लोन होना।

अलुझना

क्रि. अ.

[अवरंधन, प्रा. ओरुज्झन, हिं. उलझना]

लड़ना, झगडना।

अलुटना

क्रि. अ.

[सं. लुट = लोटना = लड़खड़ाना]

लड़खड़ाना, गिर पड़ना।

अलूप

वि.

[सं. लुप्त = अभाव]

लुप्त, अदृश्य।

अलूला

संज्ञा

[हिं. बुलबुला, बलूता]

भभूका, लपट, उद्गार।

अलेख

वि.

[सं.]

दुर्बोध, अज्ञेय।

अलेख

वि.

[सं.]

अनगिनती, बहुत अधिक।

अलेख

वि.

[सं. अलक्ष्य]

अदृश्य।

अलेखनि

वि.

[सं. अलेख]

अनगिनती, बहुत अधिक।

अलेखनि

वि.

[सं. अलेख]

व्यर्थ, निष्फल।

अलेखा

वि.

[सं. अलेख]

जो गिना न जा सके।

अलेखा

वि.

[सं. अलेख]

व्यर्थ, निष्फल।

अलेखी

वि.

[स. अलेख]

अंधेर करनेवाला, अन्यायी।

अलेखे

वि.

[सं. अलेख, हिं. अलेखा]

अनगिनती, बेहिसाब।

पिवत धूम उपहास जहाँ तहँ अपयस स्रवन अलेखे--३०१४।

अलेखे

वि.

[सं. अलेख, हिं. अलेखा]

व्यर्थ, निष्फल।

सूरदास यह मति आए बिन, सब दिन गए अलेख। कहा जानै दिनकर की महिमा, अंध नैन बिन देखे--२-२५।

अलेखे

वि.

[सं. अलेख, हिं. अलेखा]

असत्य, बेसमझे-बुझे।

का करति तुम बात अलेखे। मोसों कहति स्याम तुम देखे तुम नीके करि देखे-१३११।

अलेखै

वि.

[सं. अलेख]

व्यर्थ, निष्फल।

अरु जो जतन करहुगे हमको ते सब हमहिं अलेखै। सूर सुमन सा तव सुख मानेै कमलनैन मुख देखेैं --३३९३।

अलोक

वि.

[सं.]

जो देखने में न आवे, अदृश्य।

अलोक

वि.

[सं.]

जहाँ कोई न हो, निर्जन।

अलोक

संज्ञा

अनदेखी बात, मिथ्या दोष, कलंक।

अलोकता

क्रि. स.

[सं. आलोकन]

देखना, ताकना।

अलोना

वि.

[सं. अलवण]

जिसमें नमक न हो।

अलोना

वि.

[सं. अलवण]

स्वाद रहित, फीका।

अलोल

वि.

[सं. अ = नहीं + लाल = चंचल]

जो चंचल न हो, स्थिर।

अलौलिक

संज्ञा

[सं. अलोल]

स्थिरता, धीरता।

अलौकिक

वि.

[सं.]

इस लोक से परे, लोको सर।

अलौकिक

वि.

[सं.]

असाधारण, अद्भुत।

अल्प

वि.

[सं.]

थोड़ा, कम, न्यून।

अल्प

वि.

[सं.]

छोटा।

अल्प

संज्ञा

एक अलंकार जिसमें अधेर की तुलना में आधार की अल्पता का वर्णन हो।

नैन सारँग सैन मोतन करी जानि अधीर। आठ रवि तें देख तब तें परत नाहिं गम्भीर। अल्प सुर सुजान का सो कहो मन की पीर-सा० ४४। [यहाँ नेत्रों की अपेक्षा रास्ते की अल्पता का वर्णन होने से ‘अल्प' अलंकार है]

अल्लाना

क्रि. अ.

[सं. अर् = बोलना]

जोर से बोलना, चिल्लाना।

अवकलना

क्रि. अ.

[सं. अवकलन = ज्ञात होना]

समझ पड़ना, विचार में आना।

अवगतना

क्रि. स.

[सं. अवगत + हिं. ना (प्रत्य.)

सोचना, समझना, विचारना।

अवगनना

क्रि. अ.

[सं. अवगणन]

निन्दा, करना, अपमान करना।

अवगनना

क्रि. अ.

[सं. अवगणन]

नीचा दिखाना, पराजित करना।

अवगनना

क्रि. अ.

[सं. अवगणन]

गिनना।

अवगारना

क्रि. स.

[सं. अव + ग]

समझाना बुझाना, जताना।

अवगारे

क्रि. स.

[सं. अव + गृ, हिं. अवगारना]

समझावे-बुझावे, जतावे।

कहा कहत रे मधु मतवारे। …...। हम जान्यौ यह स्याम सखा है। यह तो औरे न्यारे। सूर कहा या के मुख लागत कौन याहि अवगारे--३२६८।

अवगाह

वि.

[सं. अवगाथ]

अथाह, बहुत गहरा, अत्यंत गंभीर।

(क) उर-कलिंद तैं धँसि जलधार। उरर-धरनि परवाह। जाहि चली घारा ह्वै अध कौ, नाभी-हृद अवगाह-६३७। (ख) बिहरत मानसरस कुमारि। कैसे हुँ निकसत नहीं, हो रही करि मनुहारि। मौन पारि अपार रचि अवगाह अंस जु वारि-२०२८।

अवगाह

वि.

[सं. अवगाथ]

अनहोनी, कठिन।

अवगाह

संज्ञा

गहरा स्थान।

अवगाह

संज्ञा

कठिनाई।

अवगाह

संज्ञा

जल में प्रवेश करके स्न न करना।

अवगाहत

क्रि. अ.

[सं. अवगाहन, हिं. अबगहना]

खोजते हैं, ढूँढ़ते हैं, छानबीन करते हैं।

कबहुँ। निरखि हरि आपु छाँह कौं, कर मौं पकरन चाहत। किलकि हँसत राजत द्वै दँतिगाँ, पुनि-पुनि ति हिँ अव. गाहत-१०-११०।

अवगाहत

क्रि. अ.

[सं. अवगाहन, हिं. अबगहना]

सोचते विचारते हैं, समझते हैं।

(क) नागरि नगर पंथ निह रै। …….।अंग सिँगार स्याम हि कीने वृथा होन यह चाहत। सूर स्याम आवहिँ की नाहीं मन-मन यह अवगाहत-१५९८। (ख) कहा होन अबही यह चाहत। जहँ तहँ लोग इहै अवगाहन--१०४९।

अवगाहत

क्रि. अ.

[सं. अवगाहन, हिं. अबगहना]

धारण करते हैं, ग्रहण करते हैं, अपनाते हैं, स्थापित करते हैं।

अवगाहन

संज्ञा

[सं.]

निमज्जन।

अवगाहन

संज्ञा

[सं.]

मथन, मथना।

अंध

संज्ञा

धृतराष्ट्र।

अंध

यौ.

अंधसुत - ध़तराष्ट्र के पुत्र।

अंबर गहत द्रौपदी राखी, पलटि अंधसुत लाजैं - १-३६।

अंधकार

संज्ञा

[सं.]

अँधेरा, तम।

अंधकार

संज्ञा

[सं.]

अज्ञान, मोह।

अंधकार

संज्ञा

[सं.]

उदासी, कांतिहीनता।

अंधकाल

संज्ञा

[सं. अंधकार]

अँधेरा।

अंधकाला

संज्ञा

[सं. अंधकार]

अँधेरा, अंधकार।

ऐसे बादर सजल करत अति महाबल चलत घहरात करि अंधकाला -- ९४६।

अंधकूप

संज्ञा

[सं.]

सूखा कुआँ।

अंधकूप

संज्ञा

[सं.]

अँधेरा।

अंधधुंध

संज्ञा

[सं. अंध = अंधकार + हिं. धुंध]

अंधकार, औधेरा।

अति विपरीत तृनावर्त आयौ। बात चक्र मिस ब्रज के ऊपर नंद पौरि के भीतर आयौ। अंधधुंध (अँधाधुंध) भयौ सब गोकुल जो जहां रह्यो सो तहाँ छपायौ--१०-७७। (ख) कोउ ले ओट रहत बृच्छन की अंधधंध दिसि बिदिस भुलाने-९५१। (ग) अँधधुंध मग कहूँ न सूझे--१०५०।

अवगाहन

संज्ञा

[सं.]

थहाना, खोज, छानबीन।

अवगाहन

संज्ञा

[सं.]

लीन होकर विचार करना।

अवगाहना

क्रि. अ.

[सं. अवगाहना]

धँसना, मग्न होना।

अवगाहना

क्रि. अ.

[सं. अवगाहना]

निमज्जन करना।

अवगाहना

क्रि. अ.

छानबीन करना।

अवगाहना

क्रि. अ.

मथना।

अवगाहना

क्रि. अ.

सोचना, विचारना।

अवगाहना

क्रि. अ.

धरण करना,  ग्रहण करना।

अवगाहि

क्रि. स.

[सं. अवग'हन. हिं. अवगाहना]

सोच-विचार कर, समझ-बूझ कर।

जब मोहिँ अंगद कुसल पूछि हैं, कहा कहोैंगो ताहि। या जीवन तेै मरन भलो है. मैं देख्यौ अवगहि-९-७५। (ख) यह देखत जननी मन ब्याकुल बालक मुख कहा अ हि। नैन उघारि, बदन हरि मूँघोै, माता मन अवगाहि-१०-२५३।

अवगाहैं

क्रि. अ. बहु.

[सं. अवगाहन, हिं. अवगाहना]

सोचते-विचारते हैं।

कोउ कहै दैहैँ दाम नृपति जेतौ धन चाहैं। कोउ क है जैऐ सरन सबै मिलिबुधि अवगा हैं-५८९।

अवगाहै

क्रि. स.

[सं. अवगाहन, हिं. अवगाहना]

ग्रहण करता है, धारण करता या अपनाता है।

(क) तमोगुनी चाहै या भाइ। मम बैरी क्यौ हूँ मरि जाइ। सुद्धा भक्ति मोहि कौं चाहैं। मुक्ति हुँ कौं सो नहिं अवगा है-३-१३। (ख) तमोगुनी रिपु। मारि बो चाहै। रजोगुती धन कुटुँबऽवगा है-३-१३।

अवगाहौ  

क्रि. अ.

[सं. अवगाहन, हिं. अवगाहना] ।

निमज्जित होता हूँ, धँसता या पैठता हूँ, मग्न होता हूँ।

अवगाहौ  

क्रि. स.

मथता हूँ, हलचल करता हूँ।

अवगाहौ  

क्रि. स.

मथता हू, हलचल करता हूँ।

अवगाहौ  

क्रि. स.

चलाता या हिलाता डुलाता हूँ।

अवगाहौ  

क्रि. स.

सोचता-विचारता हूँ।

अवगाहौ  

क्रि. स.

धारण या ग्रहण करता हूँ।

अवगुन

संज्ञा

[सं. अवगुण]

दोष, दूषण।

अवगुन

संज्ञा

[सं. अवगुण]

अपराध, बुराई।

अवग्रह

संज्ञा

[सं.]

रुकावट, अड़चन।

अवग्रह

संज्ञा

[सं.]

प्रकृति, स्वभाव।

अवघट

वि.

[सं. अव + घट्ट = घाट]

अटपट, विकट, कठिन, दुघंट।

घाट-बाट अवघट जमुना तट बातै करत बनाइ। कोऊ ऐसौ दान लेते है कौने सिख पढ़ाय-१०२९।

अवचट

संज्ञा

[सं. अव = नहीं +हिं. चित्त]

अनजान, अचक्का।

अवछंग

संज्ञा

[सं. उत्सं.ग, प्रा. उच्छंग, हिं. छग]

गोद, केड़, कोरा।

इक-इक रोम बिराट किए तन, कोटि-कोटि ब्रह्मांड। सो लीन्हों अवछंग जसोदा, अपनै भरि भुजदंड -- ४८७।

अवज्ञा

संज्ञा

[सं.]  

अपमान, अनादर।

अवज्ञा

संज्ञा

[सं.]  

आज्ञा का उल्लंघन, अवहेला।

अवज्ञा

संज्ञा

[सं.]  

अपमान, अनादर, तिरस्कार।

जोपै हृदय माँझ हरी। तो पै इती अवज्ञा उनपै कैसे सही परी–३२००।

अवघटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, प्रा. आवट्टन]

मथना।

अवघटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, प्रा. आवट्टन]

औटाना।

अवटि

क्रि. स.

[हिं. अवटना]

औटाकर, आँच पर गरमाने से गाढ़ा करके।

अवडेर

संज्ञा

[हिं. अव = रार या राड़]

झंझट, बखेड़ा।

अवडेरना

क्रि. स.

[हिं. अवडेर + ना (प्रत्य.)]

. चक्कर में डालना, फँसाना।

अबडेरा

वि.

[हिं. अवडेर]

घुमाव फिरावदार, चक्करदार।

अबडेरा

वि.

[हिं. अवडेर]

बेढब।

अवढर

वि.

[सं. अव + हिं. ढार या ढाल]

जैसी मौज हो, वैसा ही करने वाला, मनमौजी।

लच्छ सौं बहु लच्छ दीन्हो, दान अवढर-ढरन-१-२०२।

अवतंस

संज्ञा

[सं.]

भूषण, अलंकार।

अवतंस

संज्ञा

[सं.]

मुकुट, श्रेष्ठ।

अवतरतौ

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, हिं. अवतरना)

प्रकट होता, जन्मता, उत्पन्न होता।

जौ हरि कौ सुमिरन तू करतौ। मेरैं गर्भ आनि अवतरतो ४-९।

अवतरना

क्रि. अ.

[सं. अवतरना]

प्रकट होना, उपजना, जन्मना।

अवतरते

क्रि. अ.

[हिं. अवतरना]

जन्मते, प्रकट होते, अवतार लेते।

जो प्रभु नर देही नहि धरते। देवै गर्भ नहीं अवतरते -- ११८६।

अवतरि  

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, हिं. अवतरना]

अवतरे, उत्पन्न हुए, जन्म लिया।

धनि माता, धनि पिता, धन्य सो दिन जिहि अवतरि-५८९।

अवतरिहउँ

क्रि. अ.

[हिं. अवतरना]

जन्म लूँगा, प्रकट होऊँगा।

अवतरी

क्रि. स.

[हिं. अवतरना]

प्रकट हुई, जन्मी।

बहुरि हिमाचल केँ अवतरी। समय पाइ सिव बहुरो बरी-४-५।

अवतरे

क्रि. अ.

[हिं. अवतरना]

प्रकट हुए, अवतार लिया, जन्मे।

बिष्नु-अंस सौँ दत्त अवतरे--४-३।

अबतरैँ

क्रि. अ.

[हिं. अवतरना]

प्रकट हों, उपजें जन्म लें।

याकै गर्भ अवतरैं जे सुत, सावधान ह्वै लीजै-१०-४।

अवतप्यौ

क्रि. अ.

[हिं. अवतरना]

प्रकटा, जन्मा र उपजा पैदा हुआ।

धन्य कोषि वह महरि जसोमति, जहाँ अवतरयौ यह सुत आई-७६१।

अवतार

संज्ञा

[सं.]

उतरना नीचे आंना

अवतार

संज्ञा

[सं.]

जन्म, शरीर-ग्रहण।

नहिं ऐसौ जनम बारंबार। पुरबलो लौं पुन्य प्रगट्यौ, लह्यौ नर अवतार-१-८८।

अवतार

संज्ञा

[सं.]

विष्णु का संसार में ना।

अवतार

संज्ञा

[सं.]

सृष्टि, शरीर रचना।

अवदात

वि.

[सं.]

स्वच्छ, निर्मल। पीत, पीला।

अवध

संज्ञा

[सं. अयोध्या]

कोशल देश जिसकी प्रधान नगरी अयोध्या थी।

अवध

संज्ञा

[सं. अयोध्या]

अयोध्या नगरी।

दसरथ चले अवध आनंदत--९-२३।

अवध

संज्ञा

[सं. अवधि]

सीमा, हद, पराकाष्ठा।

ग्रह निरुक्ति की अवध बाम तू भड सूर हत सखी नवीन--सा० ९६

अवध

संज्ञा

[सं. अवधि]

निर्धारित। समय, मियाद।

(क) लोचन चातक जीवो नहिं चाहत। अवध गए धावस की आसा क्रम क्रम करि निरबाहत--२७७१। ( ल ) सूर प्रान लटि ला ज न छौंड़त सुमिरि अवध आधार-२८८६।

अवध

वि.

[सं. अबध्य]

न मरने योग्य।

सिव न अवध सुन्दरी बधो जिन--१६८७।

अवधपुर

संज्ञा

[सं. अयोध्या]

अयोध्या नगरी।

अवधपुरी

संज्ञा

[सं.]

अयोध्या नगरी

अवधा

संज्ञा

[हिं.]

राधा की एक सखी का नाम।

सुखमा सीला अवधा नंद बृंदा जमुना सारि--१५८०।

अवधारना

क्रि. स.

[सं. अवधारण]

धारण करना, ग्रहण करना।

अवतार

मुहा.

लीन्हौ अवतार :- जन्म लिया, शरीर ग्रहण किया। उ.- तुम्हरेैं भजन सबहिं सिंगार। ........। कलिमल दूरि करन के काजैं, तुम लीन्हों जग मैं अवतार -- १-४१। अवतार धरना :- जन्म ग्रहण। अवतार करना :- शरीर धारण किया।

अवतारा

संज्ञा

[सं. अवतार]

जन्म, शरीर-ग्रहण।

परसुराम जमदाग्नि गेह लीनौ अवतारा -- ९१४।

अवतारी

वि.

[सं. अवतार]

अवतार ग्रहण करनेवाला।

त्रिभुवन नायक भयौ आनि गोकुल अवतारी-४९२।

अवतारी

वि.

[सं. अवतार]

देवांशधारी, अलौकिक।

(क) बारंबार बिचारति जसुमति, यह लीला अवतारी। सूरदास स्वामी की महिमा, कापै जात बिचारी-१०-३८८। कहत ग्वाल जसुमति धनि मैया बड़ौ पूत तेैँ जायौ। यह कोउ आदि पुरुष अवतारी भाग्य हमारे आयो।

अवतारी

क्रि. स.

[हिं. अवतारना]

जन्म दिया।

धन्य कोख जिहिं तोको राख्यौ, धन्य घरी जिहिं तू अवतारी-७०३।

अवतारना

क्रि. स.

[सं. अवतारण]

उत्पन्न करना, रचना।

अवतारना

क्रि. स.

[सं. अवतारण]

जन्म देना।

अवतारे

क्रि. स.

[हिं. अवतारना]

रचे, बनाये, उत्पन्न किये।

आपु स्वारथी की गति नाहीं। बिधिना ह्याँ काहे अवतारे जुवती गुनि पछिनाहीं-पृ. ३२०।

अवताच्यौ

क्रि. स.

[हिं. अवतारना]

उत्पन्न किया, रचा, बनाया।

अब यह भूमि भयानक लागै बिधिना बहुरि कंस अवतार यौ-२८३२।

अवदात

वि.

[सं.]

उज्ज्वल, श्वेत।

अवधि

संज्ञा

[सं.]

सीमा, हद, पराकाष्ठा।

यह ही मन आनन्द अवधि सब। निरखि सरूप बिबेक नयन भरि, या सुख तेैँ नहिं और कछु अब-१-६९।

अवधि

संज्ञा

[सं.]

निर्धारित समय, प्रति ज्ञात काल।

(क) इतने हिँ में सुख दियौ सबन कौ मिलिहैं अवधि बताइ -- २५३३। (ख) दिवसपति सुतमात अवधि विचार प्रथम मिलाइ-सा० ३२।

अवधि

संज्ञा

[सं.]

अंत समय, अंतिम कल।

तेरी अवधि कहत सब कोउ तातै कहियत बात। बिनु बिस्बास मरि है तो कौं आजु रैन के प्रात।

अवधि

मुहा.

अबधि बदी :- समय नियत किया। उ.- निसि बसि बे की अवधि बदी--मोहिं साँझ गएँ कहि आवन। सूर स्याम अनतहिं कहुँ लुबधे नैन भए दोउ सावन। अवधि देना -- समय निश्चित करना।

अवधि

अव्य.

[सं.]

तक, पर्यन्त।

अवधिमान

संज्ञा

[सं.]

समुद्र।

अवधूत

संज्ञा

एक संन्यासी, योगी।

अवधूत

संज्ञा

साधुओं का एक भेद।

अवधेस

संज्ञा

[सं. अवध + ईश]

श्री रामचन्द्र।

दै सीता अवधेस पाइँ परि, रहु लकेस कहावत ९-१३३।

अवन, अवनु

संज्ञा

[सं.]

प्रसन्न करना।

अवन, अवनु

संज्ञा

[सं.]

रक्षण, बचाव।

अवन, अवनु

संज्ञा

[सं. अवनि]

भूमि।

अवन, अवनु

संज्ञा

[सं. अवनि]

राह, सड़क।

अवना

क्रि. अ.

[सं. आगमन]

आना।

अवनि

संज्ञा

[सं.]

पृथ्वी, जमीन।

हमारी जन्म भूमि यह गाउँ। सुनहु सखा सुग्रीव-विभीषन, अवनि अजोध्या नाउँ-९-१६५।

अवनिधरि

संज्ञा

[सं. अवनि = पृथ्वी + हिं. धरि ==धारण करने वाला]

शेषनाग।

भृकुटि को दंड अवनिधरि चपला बिबस ह्वेै कीर अरयौ-सा० उ० १४।

अवनी

संज्ञा

[सं. अवनि]

पृथ्वी।

कुटिल अलक बदन की छबि, अवनी परि लोलै-१०-१०१।

अवनीप

संज्ञा

[सं. अवनि +प= पति )

राजा।

अवर

वि.

[हिं. और]

अन्य, दूसरा, और।

(क) नहिं मोतैं कोउ अवर अनाथा-१ ०६९। (ख) नवमो छोड़ अवर नहिँ ताकत दस जिन राखेै साल स,-२९।

अवर

वि.

[हिं. और]

अधम, नीच।

अवर

वि.

[सं. अ = नहीं + बल]

निर्बल, बलहीन।

अवराधक

वि.

[सं. आराधक]

पूजा या आराधना करने वाला।

अवराधन

संज्ञा

[सं. आराधक]

उपासना, पूजा।

योग ज्ञान ध्यान अवराधन साधन मुक्ति उदासी। नाम प्रकार कहा रुचि मा नहि जो गोपाल उदासी ३१०१।

अवराधना

क्रि. स.

[सं. आराधन]

उपासना करना, पूजा या सेवा करना।

अवराधहु

क्रि. स.

[हिं. अवराधना]

उपासना या पुजा करो।

अवराधा

क्रि. स.

[हिं. अवराधना]

उपासना की, सेवाअर्चना को।

ननी निरखि चकित रही.ठाढ़ी, दम्पति-रूप अगाधा। देखति भाव दुहुँ न कौ साई,जो चित करि अवराधा-७०५।

अवराधि

क्रि. स.

[हिं. अवराधना]

उपासना या पूजा-सेवा करके।

जोगी जन अदराधि फिरत जिहिँ ध्यान लगाए। ते ब्रजबासिनि संग फिरत अति प्रेम बढ़ाए-४९२।

अवराधी

वि.

[सं. आराधन]

उपासक, पूजक।

अवराधौं

क्रि. स.

[हिं. अवराधना]

उपासना करते हैं। पूजते हैं।

पति कै हेत नेम, तप साध। संकर सौं यहि कहि अवराधै-७९९।

अवराधो

क्रि. स.

[हिं. अवराधना]

उपासना या पूजा करो।

ऐसी बिधि हरि का अवराधो।

अंधधुंध

संज्ञा

[सं. अंध = अंधकार + हिं. धुंध]

अंधेर, अनरीति।

अंधबाई

संज्ञा

[सं. अंधवायु]

धूलभरी आँधी, अंधड़।

स्याम अकेले आँगन छाँड़े, आपु गई कछु काज घरै। यहि अंतर अँधबाइ उठी (अँधवाह उठ्यो) इक गरजत गगन सहित घहरै-१०-७६।

अंधमति

वि.

[सं.]

नासमझ मूर्ख।

रे दसकंध, अंधमति, तेरी आयु तुलानी आनि -- ९-७९।

अंधर

वि.

[सं. अंधकार]

अंधकारमय।

अँधरा

संज्ञा

[सं. अंब)

अंधा प्राणी।

अँधरा

वि.

जो अंधा हो।

अँधवाह

संज्ञा

[सं. अंधवायु. हिं. अँधबाई]

आँधी।

( क ) इहि अंतर अँधबाह उठ्यौ इक, गरजत गगन सहित घहरै-२०-७६। ( ख ) धावहु नन्द गोहारि लगौ किन, तेरी सुत अँधवाह उड़ायो-१०-७७।

अंधाधुंध

संज्ञा

[हिं. अंधा + धुंध]

बड़ा अँधेरा, घोर अंधकार।

अति बिपरीत तृनाबर्त आयौ। बात-चक्र-मिस ब्रज ऊपर परि, नद पौरि के भीतर धायौ।…..। अँधाधुंध भयो सब गोकुल, जो जँह रह्यौ सो तहीं छपायौ--१०-७७।

अंधाधुंध

संज्ञा

[हिं. अंधा + धुंध]

अंधेर, अधिचार।

अंधार

संज्ञा

[सं. अंधकार, प्रा. अँबयार]

अँधेरा, अंधकार।

अवरेखना

क्रि. स.

[सं. अत्रलेखन]

लिखना, चित्रित करना।

अवरेखना

क्रि. स.

[सं. अत्रलेखन]

देखना।

अवरेखना

क्रि. स.

[सं. अत्रलेखन]

अनुमान करना, सोचना।

अवरेखना

क्रि. स.

[सं. अत्रलेखन]

मानना, जानना।

अवरेखत

क्रि. स.

[हिं. अवरेखना]

अनुमान या कल्पना करता है, सो वता है।

अवरेखत

क्रि. स.

[हिं. अवरेखना]

मानता है, जानता है।

अवरेखिए

क्रि. स.

[हिं. अवरेखना]

(वित्र) खचिए या बनाइए, चित्रित कीजिये।

स्याम तन देखि री आपु तन देखिए। भीति जौ होइ तौ चित्र अवरेखिए-१०-३०७।

अवरेखी

वि.

[हिं. अवरेखना]

लिखित, चित्रित, खचित।

चंपक-पुहुप-बरन-तन-सुन्दर मनौ चित्र-अवरेखी। हो रघुनाथ, निसाचर कै संग अबै जात हौं देखी--९-६४।

अवरेखी

क्रि. स.

देखी।

फिरत प्रभु पूछत बन द्रुम बेली। अहो बंधु काहू अवरेखी (अवलोकी) इहिं मग । बधू अकेली-९-६४।

अवरेखु

क्रि. स.

[हिं. अवरेखना]

लिखी है, चित्रित है।

अवरोहना

क्रि. अ.

[सं. आरोहण]

उतरना, नीचे आना।

अवरोहना

क्रि. अ.

[सं. आरोहण]

चढ़ना, ऊपर जाना।

अवरोहना

क्रि. अ.

[हिं. उरेहना]

अंकित या चित्रित करना

अवरोहना

क्रि. स.

[सं. अवरोधना, प्रा. अवरोहन]

रोकना, घेरना।

अवर्त

संज्ञा

[सं. आवर्त]

भंवर, नाँद।

अवर्त

संज्ञा

[सं. आवर्त]

घुमाव, चक्कर।

अवलंघना

क्रि. स.

[सं. अब + लंघन]

लाँघना, फाँदना

अवलंध्यौ

क्रि. स.

[सं. अव + लघना, हिं. अवलघना]

लाँघ लिया, पार कर लिया।

राम प्रताप, सत्य सीता कौ, यहै नाव-कन्धार। तिहि आधार छिन मेै अवलंध्यौ, आवत भई न बार-९-८९।

अवलंब

संज्ञा

[सं.]

आश्रय, सहारा।

अवलंबन

संज्ञा

[सं.]

आश्रय, आधार, सहारा।

वे उत रहत प्रेम अवलंबन इतर ते पठयौ योग-३४९२ १

अवरेखे

वि.

[हिं. अवरेखना]

लिखे हुए, रँगे हुए, चित्रित।

ऐसे मेघ कबहुँ नहिँ देखे। अति कारे काजर अवरेखे-१०४८।

अवरेखैं

क्रि. स.

[हिं. अवरेखना]

अनुमान या कल्पना करते हैं, सोचते हैं।

अवरेख्यौ

क्रि. स.

[हिं. अवरेखना]

देखा।

ऐसे 5, कहत गये अपने पुर सबहिं बिलक्षण देख्यौ। मनिमय महल फटिक गोपुर लखि कनक भूमि अवरेख्यौ।

अवरेब

संज्ञा

[सं. अब = विरुद्ध-+ रेव = गति]

वक्र गति, तिरछी चाल।

अवरेब

संज्ञा

[सं. अब = विरुद्ध-+ रेव = गति]

पेंच, उलझन।

अवरेब

संज्ञा

[सं. अब = विरुद्ध-+ रेव = गति]

बिगाड़, खराबी।

अवरेब

संज्ञा

[सं. अब = विरुद्ध-+ रेव = गति]

झगड़ा, विवाद।

अवरेब

संज्ञा

[सं. अब = विरुद्ध-+ रेव = गति]

वक्रोक्ति।

अवरे

वि.

[हिं. अवर]

अन्य, दुसरे, बदले हुए।

(क) ऊधौ हरि के अवरै ढंग-३३२७। (ख) ऊधौ अवरै कान्ह भए-३३८४।

अवरोधना

क्रि. स.

[सं. अवरोधन]

रोकना, मना करना।

अवलंबन

संज्ञा

[सं.]

धारण, ग्रहण।

अवलंबना

क्रि. स.

[सं. अवलंबन]

आश्रय लेना, टिकना।

अवलंबित

वि.

[सं. अवलंबन]

आश्रित, सहारे पर स्थित, टिका हुआ।

ऐसे और पतित अवलंबित ते छिन माहिं तरे -- १-१९८

अवलंबित

वि.

[सं. अवलंबन]

निर्भर।

अवलंबिये

क्रि. स.

[हिं.अवलंबना]

सहारा लीजिए,आश्रित होइए।

अवला

संज्ञा

[देश.]

राधा की एक सखी गोपी का नाम।

ब्रज जुवतिनि सबहिन मैं जान ति घर-घर लै-लै नाम बतायी ........। अमला अबला कंजा मुकुता हीरा नीला प्यारि-१५८०।

अवलि

संज्ञा

[सं. आवलि ]

समूह, झुंड।

(क) मुख आँसू अरु माखन-कनुका, निरखि बैन छबि देत। मानौ स्रवत सुधानिधि मोती उडुगन अवलि-सभेत--३४९। (ख) अति रमनीक कदंब छाँह-रुचि परम सुहाई। रजत मोहन मध्य अवलि बालक छबि पाई-४९२।

अवली

संज्ञा

[सं. आवलि ]

पंक्ति, पाँति।

अति सुदेश मृदु हरत चिकुर मन मोहन-मुख बगराई। मानौ प्रगट कंज पर मंजुल अलि-अवली फिरि आई -- -१०-१०८।

अवली

संज्ञा

[सं. आवलि ]

समूह, झुंड।

अवलेखन

क्रि. स.

[सं. अवलेखन]

खोदना, खुरचना।

अवलोकला

क्रि. स.

[सं. अवलोकन]

देखना।

अवलोकला

क्रि. स.

[सं. अवलोकन]

जाँचना खोज करना।

अवलोकहु

क्रि. स.

[हिं. अवलोकना]

देखो, निहारो।

चित दै अवलोकहु नँदनंदन पुरी परम रुचिरूप। सूरदास प्रभु कंस मारि कै हो उ यहाँ के भूप-२५६१।

अवलोकि

क्रि. स.

[हिं. अवलोकना]

देखकर, निहार हरि केरी-२४५७।

(ख) सखी रही राधा मुख हेरी। चकृत भई कछु कहत न आवै, करन लगी अवसेरी-१६५२। (ग) जब तें नयन गए मोहिं त्यागि।इंद्री गई, गया तन तें मन उनहिंबिना अवसेरी लागि -- १८८४।

अवसेरें

संज्ञा

[हिं. अवसेर]

चिन्ता, व्यग्रता।  

ढूँढ़ति है द्रुम-वेली बाला भईं बेहाल करति अवसेरे-१८१३।

अवसेष  

वि.

[सं. बचा हुआ, शेष]

सोहौं एक अनेक भाँति करि सोभित नाना भेष। ता पाछे इन गुननि गए तैं, रहिहोैं अवसेष-२-३८।

अवसेस

वि.

[सं. अवशेष]

बचा हुआ, शेष।   

बिपति-काल पांडव-बधु बन मैं राखी स्य म ढरी। करि भोजन अवसेस जज्ञ को त्रिभुवन भूख हरी-१-१६।

अवसेस

वि.

[सं. अवशेष]

समाप्त।

अवसेस

संज्ञा

शेष या बची हुई वस्तु।

अवसेस

संज्ञा

समाप्ति, अन्त।

अवलेखन

क्रि. स.

[सं. अवलेखन]

चिह्नित करना, लकीर खींचना।

अवलेखी

क्रि. स.

[हिं. अवलेखना]

चिह्नित करो।

अवलेप

संज्ञा

[सं. अवलेपन]

उबटन, लेप।

कुच कुंकुम अवलेप तरुनि किए सोभित स्यामल गात।

अवलेप

संज्ञा

[सं. अवलेपन]

घमंड, गर्व।

अबलोकत

क्रि. स.

[हिं. अवलोकना।]

दिखाई देता है, सूझता है, निहारने ले।

(क) हृद बिच नाभि, उदर त्रिबली बर, अबलोकत भव-भय भाजै १-६९। ( ख) भव सागर मै पैरि न लीन्हौ।………...। अति गंभीर तीर नहिं नियरैं किहिं बिधि उतरयौ जात। नहिं अधार नाम अवलोकत, जिततित गोता खात-१-१७५।

अबलोकत

क्रि. स.

[हिं. अवलोकना।]

जाँचता हुआ, खोजता हुआ।

फिरत बृथा, भाजन अवलोकत सूनैं भवन अजान-१-१०३।

अवलोकन

संज्ञा

[सं.]

देखना।

अवलोकन

संज्ञा

[सं.]

जाँच, निरीक्षण।

रबि करि बिनय सिवहिं मन लीन्हौं। हृदय माँझ अवलोकन कौन्हौं-७९९।

अवलोकनि

संज्ञा

[सं. अवलोकन]

आँख, दृष्टि।

अवलोकनि

संज्ञा

[सं. अवलोकन]

चितबन।

(क) मैं बलि जाऊ स्थाम-मुख-छबि पर। ……..। बलि-बलि जाऊँ चारु अवलोकनि, बलि-बलि कुण्डल-रबि की-६६४। (ख) उ.--.-मृदु मुसुकनि नेक अवलोक नि हृदये ते न हरै -- -१८८३। (ग) देखि अचेत अमृत अवलोकनि चले जु सी चि हियौ-२८८६।

अवस्था

संज्ञा

[सं.]

आयु, उम्र।

अवस्था

संज्ञा

[सं.]

समय, काल।

मरन अवस्था को नृप जानै। तो हूँ घर न मन मैं ज्ञाने-४-१२

अवहेलना

क्रि. स.

[सं. अवहेलना]

तिरस्कार करना, अवज्ञा करना।

अवाँ

संज्ञा

[सं. आपाक = हिं. आवाँ]

वह गढ़ा जिसमें कुम्हार बर्तन पकाते हैं।

अवाई  

संज्ञा

[सं. आयन = आगमन]

आगमन।

अवागी  

वि.

[सं. अवाग्विन् = अपटु]

मौन, चुप।

अवाज  

संज्ञा

[फा. आवाज)

ध्वनि, शब्द।

(क) 'अबलौ नान्हे-नुन्हे तारे, ते सब बृथा-अकाज। साँचे बिरद सूर के तारत, लोकनि-लोक अवाज -- १-९६। (ख) कहियत पतित बहुत तुम तारे, स्रवननि सुनी अवाज-१-१०८। (ग) त्राहि त्राहि द्रोपदी पुकारी, गई बैकुण्ठ-अवाज खरी -- १-२४९।

अवाजैं

संज्ञा

[फा. आवाज]

ध्वनि शब्द।

ब्रज पर सजि पावस-दल आयौ।'......। चातक मोर इतर पर दागन करत अवाजै कोयल। स्याम घटा गज असन बाजि रथ चित बगाँति सजोयल--२८१९।

अवाया

वि.

[सं. अवार्य]

उच्छृङ्खल, उदधृत।

अकरम अविधि अज्ञान अवाया (अवज्ञा) अनमारग अनरीति। जाकौ नाम लेत अघ उपजे, सोई करत अनीति-१-१२९।

अवारजा

संज्ञा

[फा.]

जमा खर्च की बही।

अविगत

वि.

[सं.]

जो नष्ट न हो, नित्य।

अविचर

वि.

[सं. अविचल]

जो विचलित न हो। । सदा बनी रहने वाली, अटल, स्थिर।

खेलत नवल किसोर किसोरी।……...। देत असीम सकल ब्रज जुवती जुग-जुग अबिचर जोरी–२३९३।

अविचल

वि.

[सं.]

अचल, स्थिर, जटल।

अविजन

संज्ञा

[सं.]

कुल, वंश।

अविद्य

वि.

[सं. अविद्यमान]

नष्ट।

अविद्या

संज्ञा

[सं.]

मिथ्या, ज्ञान, मोह।

अविद्या

संज्ञा

[सं.]

माया।

अविद्या

संज्ञा

[सं.]

माया का एक भेद।

अविनय

संज्ञा

[सं.]

विनय का अभाव, उद्दं डता।

अविनासी

संज्ञा

[सं. अविनाशिन, हिं. अविनाशी]

ईश्वर, ब्रह्म।

सूर मधुपुरी आइकेै ये भए अविनासी।

अवारजा

संज्ञा

[फा.]

संक्षिप्त लेखा या वृत्तांत।

करि अवारजा प्रेम-प्रीति को, असल तहाँ खतियावै। दूजे करज दूरि करि देयत, नैकुँ न तामै आवै-१-१४२।

अवास

संज्ञा

[सं. आवास]

निवास स्थान, घर।

(क) भयौ पलायमान दानव-कुल, व्याकुल सायक-त्रास। पजरत धुना, पताक, छत्र, रथ, मनिमय कनक-अवास -९-८३। (ख) बाजत नंद-अवास बधाई। बैठे खेलत द्वार आपने सात बरस के कुँअर कन्हाई-९-१२।

अवासा

संज्ञा  

[सं. आवास]

घर, निवास स्थान।

चितवत मन्दिर भए आवास। महल महल लाग्यौ मनि पासा-२६४३।

अविकल

वि.

[सं.]

पूर्ण, पूरा।

अविकल

वि.

[सं.]

अव्याकुल,शांत।

अविकार

वि.

[सं.]

विकाररहित, निर्दोष।

अविकार

संज्ञा

[स.]

विकार का अभाव।

अविकारी

वि.

[सं. अवि कारिन]

जिसमें विकार न  हो, निर्दोष।

अविगत

वि.

[सं.]

जो जाना न जाय।

अविगत

वि.

[सं.]

अज्ञात, अनिर्वचनीय।

अविनासी

वि.

जिसका विनाश न हो, अक्षय।

अविनासी

वि.

नित्य, शाश्वत।

अविरल

वि.

[सं.]

जो भिन्न न हो, सटा हुआ।

अविरल

वि.

[सं.]

धना, सघन।

अविरोध

संज्ञा

[सं.]

मेल, संगति।

अविर्था

क्रि. वि.

[सं. वृथा]

व्यर्थ हो, निष्प्रयोजन ही, वृथा ही।

सूतत रही अविर्था सुरपति--१०३९।

अविहङ

वि.

[सं. अ + विघट]

जो खंडित न हो, अनश्वर।

अव्यक्त

वि.

[सं.]

अप्रत्यक्ष, अगोचर।

अव्यक्त

वि.

[सं.]

अज्ञात, अनिर्वचनीय।

अव्यक्त

संज्ञा

विष्णु।

अँधियार

संज्ञा

[सं. अंधकार. प्रा. अँधयार]

अंधेरा, अंधकार।

अँधियार

वि.

अंधकार, तमाच्छादित।

भयउदधि जमलोक दर सै निपट ही अँधियार-१-८८।

अँधियारा

संज्ञा

[सं. अंधकार, प्रा. अँधयार]

अंधेरा, अंधकार धुंधलापन।

अँधियारा

वि.

प्रकाशरहित।

अँधियारा

वि.

धुँधला।

अँधियारा

वि.

उदास; सूना।

अंधियारी

संज्ञा

[प्रा. अँधयार +हिं. ई = अँधारी]

तेज आँधी जिससे अंधकार छा जाय,काली आँधी।

ता सँग दासी गई अपार। न्हान लगीं सब बमन उतार। अँधियारी आई तहँ भारी। दनुज सुता तिहिं तैं न निहारी। बसन सुक्र तयना के लीन्हे। करत उतावलि परे न चीन्हे-९-१७४।

अंधियारी

संज्ञा

[प्रा. अँधयार +हिं. ई = अँधारी]

अंधकार।

अंधियारी

वि.

अंधिकारपूर्ण अँधेरी।

अँधियारी भादौं की रात--१०-१२।

अँधियारै

संज्ञा सवि.

[हिं. अँधियारा]

अंधेरे में।

सूर स्याम मंदिर अँधियारै, ( जुबति ) निरखति बारंबार-१०-२७७।

अव्यक्त

संज्ञा

शिव।

अव्यक्त

संज्ञा

प्रकृति।

अवेश  

वि.

[सं. आवेश]

उन्मत्त, मतवाले, आवेशयुक्त।

आयौ पर समझैँ नहीं हरि होरी है। राजा रंक अवेश अहो हरि होरी है-२४५३।

अवेश  

संज्ञा

आवेश, मनोवेग।

अवेश  

संज्ञा

चेतनता।

अवेश  

संज्ञा

भूत लगन। या चढ़ना।

अशन

संज्ञा

[सं.]

भोजन, आहर।

गरल अशन अहि भूषण धारी -- ८३७।

अशन

संज्ञा

[सं.]

भोजन की किया।

अशनि

संज्ञा

[सं.]

वज्र, बिजली।

अशुन

संज्ञा

[सं. अश्विनी]

अश्विनी नक्षत्र।

अशेष

वि.

[सं.]

पूरा, सब।

अशेष

वि.

[सं.]

अनंत, अपार, अनेक।

अषाढ़

संज्ञा

[सं. अषाढ़]

आषाढ़ नामक महीना जो ज्येष्ठ के पश्चात् और श्रावण के पूर्व आता है।

अष्ट

वि.

[सं.]

आठ।

अष्टकृष्ण

संज्ञा

[सं.]

वल्लभकुल में मान्य आठ कृष्ण-श्रीनाथ, नवनीतप्रिय मथुरानाथ, विट्ठलनाथ,द्वारकानाथ, गोकुलनाथ, गोकुल चन्द्र, नदनमोहन।

अष्टम

वि.

[सं.]

आठवाँ।

अष्टम मास सँपूरने होइ-३-१३।

अष्टमग्रह

संज्ञा

[सं. अष्टम = आठवाँ ( + ग्रह) सूर्य से आठवाँ ग्रह ‘राहु', फिर ‘राहु' शब्द से राह या रास्ता अर्थ हुआ)]

राह, रास्तां।

आवत थी बृषभानु नँदिनी आजु सषी के संग। ग्रह अष्टम मिली नंदसुत अंग अनंग उमंग-सा० ८२।

अष्टमी

संज्ञा

[सं.]

आठवीं तिथि, आटैं।

अष्टसुर

संज्ञा

[सं. अष्ट ( = आठ = वसु, क्योंकि वसु आठ माने जाते हैं। + सुर ( = देव) (वसु + देव से बना वसुदेव )

श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव।

अष्टसुरन-सुत

संज्ञा

[सं. (अष्ट == आठ, 'वसु' आठ होते हैं अतएव अष्ट = वसु) + सुर( = देव... दोनों को मिलाने से बना 'वसुदेव') + सुत (= (वसु देव के पुत्र)

श्री कृष्ण।

ये है हेमपुर अष्ट सुरन सुन दिनपति ही को बास -- सा० ९५।

अष्टांग

संज्ञा

[सं.]

योग-क्रिया के आठ भेद--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि।

भक्तिपंथ कौं जो अनुसर। सो अष्टांग जोग कौं करैं-२-२१।

अष्टाकुल

संज्ञा

[सं. अष्टाकुल]

पुराणानुसार सर्पो के आठ कुल शेष, वासुकि कंबल, कार्बोटिक, पद्‍म, महापद्म, शंख और कुलिक। दूसरों के मत से आठ कुल ये हैं तक्षक, महापदभ, शंख, कुलिक, कंबल, अश्वतर, धृतराष्ट्र और बलाहक।

चिता मानि चितै अंतरगति, नाग-लोक कौं धाए। पारथ-सीस सोधि अष्टाकुल तब यदुनंदन ल्याए-१ २९।

अष्टाक्षर

संज्ञा

[सं.]

आठ धक्षरों का मंत्र।

अष्टाक्षर

संज्ञा

[सं.]

वल्लभ-संप्रदाय में मान्य- श्रीकृष्णः शरणं मम।

अष्टौ

वि.

[सं. अष्ट]

आठौं।

भोजन सब लै धरे छहौं रस कान्ह संग अष्टौ सिधि-९२३।

असंक

वि.

[सं. अशंक]

निर्भय, निडर।

असंख

वि.

[सं. असं.ख्य]

अगणित, बहुत अधिक।

असंग

वि.

[सं.]

अकेला, एकाकी।

असंग

वि.

[सं.]

किसी से संबंध न रखने वाला, न्यारा, निर्लिप्त, माया रहित।

मृग.तन तजि, ब्राह्मन-तन पायौ। पूर्व-जन्म-सुमिरन तहँ आयौ। मन मैं यहै बात ठहराई। होय असंग भजौं जदुराई-५ ३।

असंग

वि.

[सं.]

अलग पृथक।

असंगत

वि.

[सं.]

अयुक्त जो ठीक न हो।

असंगत

वि.

[सं.]

अनुचित।

भ्रम-भायौ मन भयो पखावज, चलत असंगत चाल--१-१५३।

असंत

वि.

[सं.]

खल, दुष्ट, बुरा।

यह पूरन हम निपट अधूरी, हम असंत यह संत-१३२४।

असंतुष्ट

वि.

[सं.]

जो संतुष्ट न हो।

असंतुष्ट

वि.

[सं.]

जो अघाया न हो, अतृप्त।

असंतुष्ट

वि.

[सं.]

अप्रसन्न।

असंभार

वि.

[सं.]

जिसकी सम्हाल या देख भाल न हो सके।

असंभार

वि.

[सं.]

अपार, बहुत बड़ा।

असंभाव

वि.

[सं. असं. भाव्य]

न कहने योग्य।

असंभाव

संज्ञा

बुर बचन, खराब बात।

असंभाव बोलन आई है, ढीठ ग्वालिनी प्रात-१०-२९०।

असंभु

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + शंभु = कल्याण]

अशुभ, अमंगल।

नसै धर्म मन बचन कार्य करि सभु असंभु करई। सिंधु अचं भौ करई)। अचला चल चलत पुनि थाकै, चिरंजीति सो मरई-९-७८।

अस

वि.

[सं. एष = यह, अथवा ईदृश]

ऐसा, इस प्रकार का।

(क) जौ हरि ब्रत निज उर न धरैगौ। तौ को अस त्राता जु अपुन करि, कर कुठावँ पकरैगौ -- १-७५। (ख) धन्य नंद, धनि धन्य जसोदा, जिन जायौ अस पूत--१०-३६।

अस

वि.

[सं. एष = यह, अथवा ईदृश]

तुल्य, समान।

असक्त

वि.

[सं. आसक्त]

अनुरक्त, लीन, लिप्त।

ज्वाला-प्रीति, प्रगट सन्मुख हठि, ज्यौं पतंग तन जारयौ। बिषय-असक्त , अमित अध ब्याकुल, तबहूँ कछु न सँभारचौ-१.१०२।

असगुन

संज्ञा

[सं. अशकुन]

बुरा, शकुन, बुरा, लक्षण।

असत

वि.

[सं. असत्]

खोटा, असाधु, असज्जन।

साधु-सील सद्रूप पुरूष कौ, अप जस बहु उच्चरतौ। औधड़ असत कुचीलनि सौं मिलि, माया जल मेँ तरतो -- -१-२०३।

असत

वि.

[सं. अ = नहीं + सत्य]

मिथ्या।

असत्कार

संज्ञा

[सं.]

अपमान, निरादर।

असद्व्यय

संज्ञा

[सं.]

बुरे कमों में खर्च।

हुतौ आढय तब कियौ असदव्यय करी न ब्रजबन-जात्र। पोषे नहिं तुव दास प्रेम सौं पोष्यौ अपनौ गात्र -- १-२१६।

असन

संज्ञा

[सं. अशन]

भोजन, आहार।

असन, बसन बहु बिधि दए (रे) औसर-औसर आनि-१-३२५।

असनान

संज्ञा

[सं. स्नान]

स्नान।

नृपति सुरसरी कैँ तट आइ। कियौ असनान मृत्तिका लाइ…...-१-३४१।

असभई

संज्ञा

[सं. असभ्यता]

अशिष्टता।

असमंत

संज्ञा

[सं. अश्मंत]

चूल्हा।

असम

वि.

[सं.]

जो सम या तुल्य न हो।

असम

वि.

[सं.]

ऊँच-नीच, ऊबड़-खाबड़।

असभबान

संज्ञा

[सं. अस मवाण]

कामदेव।

असमय

संज्ञा

[स]

विपत्ति का समय।

असमय

वि.

कुअवसर, कुसमय।

असनाथ

वि.

[सं. असमर्थ]

सामर्थ्यहीन, अशक्त।

असनाथ

वि.

[सं. असमर्थ]

अयोग्य।

असमसर

संज्ञा

[सं. असमशर)

कामदेव।

अंजन रंजित नैन, चितवनि चित चोरै, मुख-सोभा पर बरौँ अमित असमसर -- १०-१५१।

असमेध

संज्ञा

[सं. अश्वमेध]

अश्वमेध।

असयाना

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. सयाना]

भोलाभाला, सीधासादा।

असयाना

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. सयाना]

अनाड़ी, मूर्ख।

असरन

वि.

[सं. असरण]

जिसे कहीं शरण या आश्रय न हो, अनाथ।

प्रभु, तुम दीन के दुख-हरन। स्यामसुन्दर, मदनमोहन, बान असरन-सरन ५ २०२।

असरनसरन

संज्ञा

[सं. अशरण + शरण]

जिसे कहीं आश्रय न हो उसे शरण देने वाले, अनाथ के आश्रय दाता।

सो श्रीपति जुग-जुग सुमिरनब, बद विमल जस गावै। असरन-सरन सूर जाँचत है, को अब सुरति करावे -- १-१७।

असरार

क्रि. वि.

[हिं. सर सर]

निरन्तर, लगातार, बराबर।

कहो नंद कहाँ छाँड़े कुमार। करुना कर जसोदा माता नैनन नीर बहै असरार-२६७१।

असल

वि.

[अ.]

सच्चा, खरा।

असल

वि.

[अ.]

उच्च, श्रेष्ठ।

असल

वि.

[अ.]

बिना मिलावट' का शुद्ध।

असल

संज्ञा

[अ.]

जड़, मूल, बुनियाद तत्व।

असल

संज्ञा

[अ.]

मूल धन।

बटटा काटि कसूर भरम को, फरद तले लेै डारेै। निहवेै एक असल पै राखेै, टरै ईश्वर, ब्रह्म। सूर मधुपुरी आइकै ये भए अविनासी।

असल

वि.

जिसका विनाश न हो, अक्षय।

असल

वि.

नित्य, शाश्वत।

अविरल

वि.

[सं.]

जो भिन्न न हो, सटा हुआ।

अविरल

वि.

[सं.]

धन, सघन।

अविरोध

संज्ञा

[सं.]

मेल, संगति।

अविर्था

क्रि. वि.

[सं. वृथा]

व्यर्थ हो, निष्प्रयोजन ही, वृथा ही।

सूतत रही अविर्था सुरपति--१०३९।

अविहङ

वि.

[सं. अ + विघट]

जो खंडित न हो, अनश्वर।

अव्यक्त

वि.

[सं.]

अप्रत्यक्ष, अगोचर।

अव्यक्त

वि.

[सं.]

अज्ञात, अनिर्वचनीय।

अव्यक्त

संज्ञा

विष्णु।

अव्यक्त

संज्ञा

शिव।

अव्यक्त

संज्ञा

प्रकृति।

अवेश  

वि.

[सं. आवेश]

उन्मत्त, मतवाले, आवेशयुक्त।

आयौ पर समझैँ नहीं हरि होरी है। राजा रंक अवेश अहो हरि होरी है-२४५३।

अवेश  

संज्ञा

आवेश, मनोवेग।

अवेश  

संज्ञा

चेतनता।

अवेश  

संज्ञा

भूत लगन। या चढ़ना।

अशन

संज्ञा

[सं.]

भोजन, आहर।

गरल अशन अहि भूषण धारी -- ८३७।

अशन

संज्ञा

[सं.]

भोजन की किया।

अशनि

संज्ञा

[सं.]

वज्र, बिजली।

अशुन

संज्ञा

[सं. अश्विनी]

अश्विनी नक्षत्र।

अशेष

वि.

[सं.]

पूरा, सब।

अशेष

वि.

[सं.]

अनंत, अपार, अनेक।

अषाढ़

संज्ञा

[सं. अषाढ़]

आषाढ़ नामक महीना जो ज्येष्ठ के पश्चात् और श्रावण के पूर्व आता है।

अष्ट

वि.

[सं.]

आठ।

अष्टकृष्ण

संज्ञा

[सं.]

वल्लभकुल में मान्य आठ कृष्ण-श्रीनाथ, नवनीतप्रिय मथुरानाथ, विट्ठलनाथ,द्वारकानाथ, गोकुलनाथ, गोकुल चन्द्र, नदनमोहन।

अष्टम

वि.

[सं.]

आठवाँ।

अष्टम मास सँपूरने होइ-३-१३।

अष्टमग्रह

संज्ञा

[सं. अष्टम = आठवाँ ( + ग्रह) सूर्य से आठवाँ ग्रह ‘राहु', फिर ‘राहु' शब्द से राह या रास्ता अर्थ हुआ)]

राह, रास्तां।

आवत थी बृषभानु नँदिनी आजु सषी के संग। ग्रह अष्टम मिली नंदसुत अंग अनंग उमंग-सा० ८२।

अष्टमी

संज्ञा

[सं.]

आठवीं तिथि, आटैं।

अँधियारै

वि.

अंधकारमय, प्रकाशरहित।

अँधियारै घर स्याम रहे दुरि--१०.२७८।

अँधियारौ

संज्ञा

[हिं. अँधियारा]

अंधकार।

अँधियारौ

संज्ञा

[हिं. अँधियारा]

धुंधलापन।

अँधियारौ

वि.

प्रकाशरहित।

जब तैं हौं हरि रूप निहारौ। तब तैं कहा कहाँ री सजनी लागत जग अँधियारौ--सा. ४०।

अँधियारौ

वि.

धुंधला।

अँधियारौ

वि.

उदास, सूना, निराशापूर्ण।

स.- कहौ सँदेस सूर के प्रभु को यह निर्गून अँधियारो-३२९४।

अंधु

वि.

[सं. अंध ]

अंधकारपूर्ण, अज्ञानतायुक्त।

तुम्हारी कृपा बिनु सब जग अंधु-पृ० ३६१।

अंधेरना

क्रि. स.

[हिं. अंधेरा ]

अंधेर करना, अंधकारमय करना।

अँधेरा

संज्ञा

[सं. अंधकार, प्रा. अंबयार, हिं. अधेर]

अंधकार।

अँधेरा

संज्ञा

[सं. अंधकार, प्रा. अंबयार, हिं. अधेर]

अन्याय, अविचार, अत्याचार।

अष्टसुर

संज्ञा

[सं. अष्ट ( = आठ = वसु, क्योंकि वसु आठ माने जाते हैं। + सुर ( = देव) (वसु + देव से बना वसुदेव )

श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव।

अष्टसुरन-सुत

संज्ञा

[सं. (अष्ट == आठ, 'वसु' आठ होते हैं अतएव अष्ट = वसु) + सुर( = देव... दोनों को मिलाने से बना 'वसुदेव') + सुत (= (वसु देव के पुत्र)

श्रीकृष्ण।

ये है हेमपुर अष्ट सुरन सुन दिनपति ही को बास -- सा० ९५।

अष्टांग

संज्ञा

[सं.]

योग-क्रिया के आठ भेद--यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारण, ध्यान और समाधि।

भक्तिपंथ कौं जो अनुसर। सो अष्टांग जोग कौं करैं-२-२१।

अष्टाकुल

संज्ञा

[सं. अष्टाकुल]

पुराणानुसार सर्पो के आठ कुल शेष, वासुकि कंबल, कार्बोटिक, पद्‍म, महापद्म, शंख और कुलिक। दूसरों के मत से आठ कुल ये हैं तक्षक, महापदभ, शंख, कुलिक, कंबल, अश्वतर, धृतराष्ट्र और बलाहक।

चिता मानि चितै अंतरगति, नाग-लोक कौं धाए। पारथ-सीस सोधि अष्टाकुल तब यदुनंदन ल्याए-१ २९।

अष्टाक्षर

संज्ञा

[सं.]

आठ धक्षरों का मंत्र।

अष्टाक्षर

संज्ञा

[सं.]

वल्लभ-संप्रदाय में मान्य-श्रीकृष्णः शरणं मम।

अष्टौ

वि.

[सं. अष्ट]

आठौं।

भोजन सब लै धरे छहौं रस कान्ह संग अष्टौ सिधि-९२३।

असंक

वि.

[सं. अशंक]

निर्भय, निडर।

असंख

वि.

[सं. असं.ख्य]

अगणित, बहुत अधिक।

असंग

वि.

[सं.]

अकेला, एकाकी।

असंभाव

वि.

[सं. असं. भाव्य]

न कहने योग्य।

असंभाव

संज्ञा

बुर बचन, खराब बात।

असंभाव बोलन आई है, ढीठ ग्वालिनी प्रात-१०-२९०।

असंभु

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + शंभु = कल्याण]

अशुभ, अमंगल।

नसै धर्म मन बचन कार्य करि सभु असंभु करई। सिंधु अचं भौ करई)। अचला चल चलत पुनि थाकै, चिरंजीति सो मरई-९-७८।

अस

वि.

[सं. एष = यह, अथवा ईदृश]

ऐसा, इस प्रकार का।

(क) जौ हरि ब्रत निज उर न धरैगौ। तौ को अस त्राता जु अपुन करि, कर कुठावँ पकरैगौ -- १-७५। (ख) धन्य नंद, धनि धन्य जसोदा, जिन जायौ अस पूत--१०-३६।

अस

वि.

[सं. एष = यह, अथवा ईदृश]

तुल्य, समान।

असक्त

वि.

[सं. आसक्त]

अनुरक्त, लीन, लिप्त।

ज्वाला-प्रीति, प्रगट सन्मुख हठि, ज्यौं पतंग तन जारयौ। बिषय-असक्त , अमित अध ब्याकुल, तबहूँ कछु न सँभारचौ-१.१०२।

असगुन

संज्ञा

[सं. अशकुन]

बुरा, शकुन, बुरा, लक्षण।

असत

वि.

[सं. असत्]

खोटा, असाधु, असज्जन।

साधु-सील सद्रूप पुरूष कौ, अप जस बहु उच्चरतौ। औधड़ असत कुचीलनि सौं मिलि, माया जल मेँ तरतो -- -१-२०३।

असत

वि.

[सं. अ = नहीं + सत्य]

मिथ्या।

असत्कार

संज्ञा

[सं.]

अपमान, निरादर।

असंग

वि.

[सं.]

किसी से संबंध न रखने वाला, न्यारा, निर्लिप्त, माया रहित।

मृग.तन तजि, ब्राह्मन-तन पायौ। पूर्व-जन्म-सुमिरन तहँ आयौ। मन मैं यहै बात ठहराई। होय असंग भजौं जदुराई-५ ३।

असंग

वि.

[सं.]

अलग पृथक।

असंगत

वि.

[सं.]

अयुक्त जो ठीक न हो।

असंगत

वि.

[सं.]

अनुचित।

भ्रम-भायौ मन भयो पखावज, चलत असंगत चाल--१-१५३।

असंत

वि.

[सं.]

खल, दुष्ट, बुरा।

यह पूरन हम निपट अधूरी, हम असंत यह संत-१३२४।

असंतुष्ट

वि.

[सं.]

जो संतुष्ट न हो।

असंतुष्ट

वि.

[सं.]

जो अघाया न हो, अतृप्त।

असंतुष्ट

वि.

[सं.]

अप्रसन्न।

असंभार

वि.

[सं.]

जिसकी सम्हाल या देख भाल न हो सके।

असंभार

वि.

[सं.]

अपार, बहुत बड़ा।

असनाथ

वि.

[सं. असमर्थ]

सामर्थ्यहीन, अशक्त।

असनाथ

वि.

[सं. असमर्थ]

अयोग्य।

असमसर

संज्ञा

[सं. असमशर)

कामदेव।

अंजन रंजित नैन, चितवनि चित चोरै, मुख-सोभा पर बरौँ अमित असमसर -- १०-१५१।

असमेध

संज्ञा

[सं. अश्वमेध]

अश्वमेध।

असयाना

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. सयाना]

भोलाभाला, सीधासादा।

असयाना

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. सयाना]

अनाड़ी, मूर्ख।

असरन

वि.

[सं. असरण]

जिसे कहीं शरण या आश्रय न हो, अनाथ।

प्रभु, तुम दीन के दुख-हरन। स्यामसुन्दर, मदनमोहन, बान असरन-सरन ५ २०२।

असरनसरन

संज्ञा

[सं. अशरण + शरण]

जिसे कहीं आश्रय न हो उसे शरण देने वाले, अनाथ के आश्रय दाता।

सो श्रीपति जुग-जुग सुमिरनब, बद विमल जस गावै। असरन-सरन सूर जाँचत है, को अब सुरति करावे -- १-१७।

असरार

क्रि. वि.

[हिं. सर सर]

निरन्तर, लगातार, बराबर।

कहो नंद कहाँ छाँड़े कुमार। करुना कर जसोदा माता नैनन नीर बहै असरार-२६७१।

असल

वि.

[अ.]

सच्चा, खरा।

असद्व्यय

संज्ञा

[सं.]

बुरे कमों में खर्च।

हुतौ आढय तब कियौ असदव्यय करी न ब्रजबन-जात्र। पोषे नहिं तुव दास प्रेम सौं पोष्यौ अपनौ गात्र -- १-२१६।

असन

संज्ञा

[सं. अशन]

भोजन, आहार।

असन, बसन बहु बिधि दए (रे) औसर-औसर आनि-१-३२५।

असनान

संज्ञा

[सं. स्नान]

स्नान।

नृपति सुरसरी कैँ तट आइ। कियौ असनान मृत्तिका लाइ…...-१-३४१।

असभई

संज्ञा

[सं. असभ्यता]

अशिष्टता।

असमंत

संज्ञा

[सं. अश्मंत]

चूल्हा।

असम

वि.

[सं.]

जो सम या तुल्य न हो।

असम

वि.

[सं.]

ऊँच-नीच, ऊबड़-खाबड़।

असभबान

संज्ञा

[सं. अस मवाण]

कामदेव।

असमय

संज्ञा

[स]

विपत्ति का समय।

असमय

वि.

कुअवसर, कुसमय।

असल

वि.

[अ.]

उच्च, श्रेष्ठ।

असल

वि.

[अ.]

बिना मिलावट' का शुद्ध।

असल

संज्ञा

[अ.]

जड़, मूल, बुनियाद तत्व।

असल

संज्ञा

[अ.]

मूल धन।

बटटा काटि कसूर भरम को, फरद तले लेै डारेै। निहवेै एक असल पै राखेै, टरै न कबहूँ टारै। करि अबारजा प्रेम प्रीति को, असल तहाँ खतियावै–१-१४२।

असल

संज्ञा

[सं. शल्य]

वाण, भाला।

असवार

वि.

[फा. सवार]

सवार होकर, चढ़कर।

(क) नृपति रिषिन पर ह्वै असवार। चल्यौ तुरंत सची कैँ द्वार--६-७।

असवार

वि.

[फा. सवार]

करि अँतरधान हरि मोहिनी-रूप कौँ, गरुड़ असवार ह्वै तहाँ आए-८-८

असवारी

संज्ञा

[हिं. सवारी]

सवारी, चढ़ना।

अमरन कह्यो, करौ असवारी मानस कौ लेहु हँकारी -- १०६६।

असवारी

क्रि. अ.

सवार होकर, सवारी करके।

निकसै सवै कुँबर असबारी उच्चैश्रवा के पोर--१० उ०-६।

असह

वि.

[सं. असह्य]

जो सहा न जा सके।

असही

वि.

[सं. असह]

दूसरे की बढ़ती न सहन करने वाला, ईष्र्यालु।

असाँच  

वि.

[सं. असत्य, प्रा. असच्च]

असत्य, झूठ।

असाध

वि.

[सं. असाध्य]

जिसका साधन न हो सके, कठिन, दुष्कर।

असाध

वि.

[सं. असाधु]

दुष्ट, बुरा।

असाधु

वि.

[सं.]

दुष्ट, दुर्जन।

महादेव कौँ । भाषत साध। मैं तौ देखौं बड़ी असाधु-४-५।

असार

वि.

[सं.]

सारहीन, व्यर्थ, निरर्थक।

यह जिय जानि, इहीँ छिन भजि, दिन बीते जात असार। सूर पाइ यह समौ लाहु लहि, दुर्लभ फिरि संसार-१ ६८।

असार

वि.

[सं.]

शून्य, खाली।

असार

वि.

[सं.]

तुच्छ।

असि

संज्ञा

[सं.]

तलवार, खडग।

असित

वि.

[स.]

जो सित (सफेद) न हो, काला।

(क) आसित-अरुन-सित आलस लोचन उभय पलक परि अवै-१०-६५। (ख) उज्ज्वल अरुन असित दीसति है, दुहुँ नननि की कोर-३५९।

असित

वि.

[स.]

दुष्ट, बुरा।

हमारे हिरदै कुलसै जै त्यौ।……….। हमहूँ समुझि परी नीकै करि यहै। असित तन रीत्यौ--२८८४।

असित

वि.

[स.]

टेढ़ा, कुटिल।

असिता

संज्ञा

[सं.]

यमुना नदी।

असी

वि.

[सं. अशीति, प्रा. असीति, हिं. अस्सी]

अस्सी।

(क) तासौं सुत निन्यानबे भए। भरतादिक सब हरि-रँग रए। तिन मैं नव-नव खंड अधिकारी। नव जोगेस्वर ब्रह्म-बिचारी। असी-इक कर्म बिप्र को लियौ। रिषभ ज्ञान सबहीं कौं दियौ ५ २। (ख) असी सहस किंकर-दल तेहिके, दौरे मोहिं निहारि-९-१०४।

असीस

संज्ञा

[सं. आशिष]

आशीर्वाद।

इक बदन उघारि निहारि, देहिं असीस खरी १०.२४।

असीसना

क्रि. स.

[सं. आशिष ]

आशीर्वाद देना।

असीसै

क्रि. स.

[हिं. असीसना]

आशीर्वाद देती हैं।

जोरि कर बिधि सौं मानवति असीसै ले नाम। । न्हात बार न खसै इन कौ कुसल पहुँचे धाम-२५६५

असुचि

वि.

[सं. अशुचि]

अपवित्र।

असुचि

वि.

[सं. अशुचि]

गंदा, मैला।

असुर

संज्ञा

[सं.]

दैत्य, राक्षस।

असुरगुरु

संज्ञा

[सं.]

शुक्राचार्य।

असुराई

संज्ञा

[सं. असुर + हिं. आई (प्रत्य.)]

खोटाई, बुराई।

असूझ

वि.

[सं. अ + हिं. सूझना]

अंधकार मय।

असूझ

वि.

[सं. अ + हिं. सूझना]

अपार, बहुत, विस्तृत।

असूझ

वि.

[सं. अ + हिं. सूझना]

विकट, कठिन।

असूत

वि.

[सं. अस्यूत]

विरुद्ध, असंबद्ध।

असूया

संज्ञा

[सं.]

ईर्ष्या एक संचारी भाव।

चद्र भाग सँग गयौ सुआखर-रिपु सब सुख। बिसराई। एक अबल करि रही असूया सुर सुनत । कह चाई -- सा० ४९।

असैला

वि.

[सं. अ = नहीं + शैली = रीति)

रीति विरुद्ध कर्म करने वाला, कुमार्गी।

असैला

वि.

[सं. अ = नहीं + शैली = रीति)

रीति विरुद्ध,  अनुचित।

असोकी

वि.

[सं. अ = नहीं + शोक +हिं.•ई (प्रत्य.)]

शोकरहित।

अति

संज्ञा

[सं.]

तिरोधान, लोप।

अस्तन

संज्ञा

[सं. स्तन]

स्त्रियों की छाती जिनमें दूध रहता है।

अस्तन

मुहा.

अस्तन पान कराई :- दूध पिलाती है। उ.- बालक लियौ उछंग दुष्टमति, हरषित अस्तनपान कराई--१०-५०।

अस्ति

संज्ञा

[सं. अस्थि]

हड्डी।

बहुरि हरि आवहिंगे किहिं काम।…….। सूर स्याम ता दिन ते बिछुरे अस्ति रही कै चाम -- २८२३।

अस्तुत

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + स्तुति]

निंदा।

ह्वै गए सूर सूल सूरज बिरह अस्तुत फेर--सा ० ३ ३।

अस्तुति

संज्ञा

[सं. स्तुति]

स्तुति, विनती प्रार्थना।

पुनि सिव ब्रह्म अस्तुति करी-४-५।

अस्त

संज्ञा

[सं.]

फेंककर शत्रु पर चलाये जाने वाले हथियार, जैसे वाण, शक्ति।

अस्त

संज्ञा

[सं.]

वह हथियार जिससे दूसरे अस्त्र फेंके जायँ जैसे धनुष, बंदूक।

अस्त

संज्ञा

[सं.]

शत्रु के हथियारों की रोक करने वाले हथियार, जैसे ढाल।

अस्त

संज्ञा

[सं.]

मंत्र द्वारा चलाये जाने वाले हथियार।

अस्वत्यामा बहुरि खिस्याइ। ब्रह्म-अस्त्र कौं दियौ चलाइ-१-२८९।

अँधेरा

संज्ञा

[सं. अंधकार, प्रा. अंबयार, हिं. अधेर]

उपद्रव, गड़बड़, धींगाधिंगी, अनर्थ।

स.- महामत, बुधिबल को होनौ, देखि करै अंधेरा--१-१८६।

अँधेरा

संज्ञा

[सं. अंधकार, प्रा. अंबयार, हिं. अधेर]

उदासी, उत्साहीनता।

अँधेरिया

संज्ञा

[हिं. अंधारी]

अंधकार।

अँधेरिया

संज्ञा

[हिं. अंधारी]

अँधेरी रात।

अँधेरी

वि.

[हिं. पुं. अँधेरा]

अंधकारमय,प्रकाशरहित।

स.- निसि अँधेरी, बीजु चमकै, सघन बरषै मेघ-१०-५।

अँधेरी

संज्ञा

अँधियारी

अँधेरी

संज्ञा

अँधेरी रात।  

अँधेरी

संज्ञा

आँधी।

अँधेरे

संज्ञा

[हिं. अँधेरा]

अंधकारपूर्ण स्थान में।

कृष्ण कियौ मन ध्यान असुर इक बसत अँधेरै-१०-४३१।

अँधेरौ

संज्ञा

[हिं. अँधेरा]

अंधकार।

असोच

वि.

[सं. अ = नहीं + शोच]

निश्चित, बेफिक्र।

माधौ जू, मन सबहीं बिधि पोच। अति उन्मत्त निरंकुश मंगल, चिता राहत असोच-१-१०२।

असोज

संज्ञा

[सं. अश्वयुज]

अश्विन, क्वार।

असोस

वि.

[सं. अ = नहीं + शोप]

न सूखने वाला।

असोध

वि.

[सं. अशोच]

अपवित्र।

हौं असौच आंकत, अपराधी, मनमुख होत लजाऊँ-१.१२८।

असौधि

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + हिं. सौंध = सुगंध]

दुर्गन्धि।

असेस

वि.

[सं. अशेष]

पूरा, सब।

असेस

वि.

[सं. अशेष]

अपार, अधिक, अनंत।

गगन गर्जत बीजु तरपति । मधुर मेह असेस -- २२९०।

अति

वि.

[सं.]

छिपा हुआ,

अति

वि.

[सं.]

अदृश्य, डूबा हुआ।

अति

वि.

[सं.]

नष्ट, ध्वस्त।

अस्थल

संज्ञा

[सं. स्थल]

स्थल, स्थान।

अस्थल लीपि, पात्र सब धोए, काज देव के कीन्हे--१०-२६०।

अस्थान

संज्ञा

[सं. स्थान]

स्थान, ठौर, आश्रय।

पतितपावन जानि सरन आयौ। उदधि ससार सुभ नाम-नौका तरन, अटल अस्थान निजु निगम गायौ-१-११९।

अस्थामा

संज्ञा

[सं. अश्वत्थामा]

द्रोणाचार्य का पुत्र।

भीषम द्रोन करन अस्थामा सकुनि सहित काहूँ न सरी-१-२४९।

अस्थि

संज्ञा

[सं.]

हडडी।

अस्थिर

वि.

[सं.]

जो स्थिर न हो, चंचल।

अस्थिर

वि.

[सं.]

बेठौर-ठिकाने का।

अस्थिर

वि.

[सं.]

स्थिर, अचंचल।

भक्तनि हाट बैठि अस्थिर ह्वै हरि नग निर्मल लेहि। कामक्रोध मद-लोभ मोह तू, सकल दलाली देहि-१-३१०।

अस्नान

संज्ञा

[सं. स्नान]

स्नान।

करि अस्नान नंद घर आए-१०.२६०।

अस्पर्स

संज्ञा

[सं. स्पर्श]

स्पर्श, छूना।

जब गजेंद्र को पग तू गैहै। हरि जू ताको आनि छुटे हैं। भएँ अस्पर्स देव-तन धरिहैं। मेरौ कह्यौ नाहिं यह टरिहै--६-२।

अस्म

संज्ञा

[सं. अश्यन्, अश्म]

पत्थर।

(क) कौर-कौर कारन कुबुद्धि, जड़, किते सहत अपमान। जँह-जँह जात तहीं तिहिं त्रासत अस्म लकुट, पदत्रान--१-१०३। (ख) आपुन तरि तरि औरन तारत। अस्म अचेत प्रकट पानी मैं, बनचर लै लै डारत-९-१२३।

अस्मय

संज्ञा

[सं. असमय]

विपत्ति का समय, बुरा समय।

अस्मय

क्रि. वि.

कुअवसर पर।

अस्व

संज्ञा

[स. अश्व]

घोड़, तुरंग।

अस्वथास, अस्वत्थामा

संज्ञा

[सं. अश्वत्थामा]

द्रोणाचार्य का पुत्र।

अस्वत्थामा भय करि भग्यौ।.....। अस्वत्थामा म जब लगि मारीं। तब लगि अन्न न मुख मै डारोैं -१-२८९।

अस्वमेध

संज्ञा

[स. अश्वमेध]

एक महान् यज्ञ जिसमें घोड़े के मस्तक पर जय पत्र बाँध कर भूमण्डल की दिग्विजय की जाती थी। पश्चात , घोड़े की चर्बी से हवन किया जाता था जो साल भर में समाप्त होता था।

अस्विनिसुत

संज्ञा

[सं. अश्विनीसुत]

त्वष्टा की पुत्री प्रभा नामक स्त्री से उत्पन्न सूर्य के दो पुत्र। एक बार सूर्य का तेज सहन करने में असमर्थ हो, यम-यमुना नामक पुत्र-पुत्री के पास अपनी छाया छोड़, प्रभा भाग गयी और घोड़ी बनकर तप करने लगी। इस छाया से भी सूर्य को शनि और तप्ती नामक दो संतति हुई। पश्चात, प्रभा की छाया ने अपनी संतान से प्रेम और प्रभा के पुत्र-पुत्री का तिरस्कार करना आरंभ किया। फलतः प्रभा के भाग जाने की बात खुल गयी। तब सूर्य अश्वरूप में अश्विनी रूपिणी प्रभा के पास गये। इस संयोग से दोनों अश्विनी कुमारों की उत्पत्ति हुई।

अह

सर्व.

[सं.]

अहंकार, अभिमान।

ज्योँ महाराज या जलधि तैँ पार कियौ, भव-जलधि पार त्यौँ करी स्वामी। अहं ममता हम सदा लागी रहै, मोह-मद-क्रोध-जुत मंद कामी-८-१६।

अहँकार, अहंकार

संज्ञा

[सं. अहंकार)

अभिमान, गर्व।

अहँकार, अहंकार

संज्ञा

[सं. अहंकार)

मैं और मेरा का भाव, ममत्व।

अहंकारी

वि.

[सं. अहंकारिन]

अभिमानी, घमंडी।

अहंभाव

संज्ञा

[सं.]

अपने को सब कुछ समझने का भाव, अहंकार, अभिमान।

अहभाव तैँ तुम बिसराए, इतनहिँ छुटयौ साथ-१-२०८।

अहंवाद

संज्ञा

[सं.]

डींग मारना।

अह

संज्ञा

[स. अहन्]

दिन।

मही एक अह। अरु निसि दुखी--१० उ०-१३८।

अह

यौ.

[सं. अहर्निश]

अहनिसि - दिनरात।

तृष्णा-तड़ित चमकि छनहीँ-छन, अहनिसि यह तम जारौ--१.२०९।

अहकना

क्रि. स.

[हिं. अहक + ना (प्रत्य.)]

इच्छा करना, चाहना।

अहटाना

क्रि. अ.

(हिं. आहट )

आहट लगना, पता घलना।

अहटाना

क्रि. अ.

(हिं. आहट )

टोह लगना।

अहटाना

क्रि. अ.

[सं. आहट]

दुखना।

अहल्या

संज्ञा

[सं.]

गौतम ऋषि की पत्नी।

अहदी

वि.

[अ.]

आलसी।

अहदी

वि.

[अ.]

अकर्मण्य।

अहदी

संज्ञा

[अ.]

अकबर के समय के ऐसे सिपाही जो विशेष आवश्यकता के अवसर पर काम में लगाये जाते थे, शेष समय बैठे खाते थे। मालगुजारी वसूलने जकर ये आकर बैठ जाते थे और बकाया लेकर ही लौटते थे।

घेरयो आय कुटम-लसकर मैँ, जम अहुदो हठयो। सूर नगर चौरसी भ्रमि भ्रमि घर घर कौ जु भयौ-१-६४।

अहना

क्रि. स.

[सं. अस्ति]

वर्तमान, रहना, होना।

अहनिसि  

क्रि. वि.

[सं. अहर्निश]

दिनरात।

अहमिति

संज्ञा

[सं. अहम्मति]

अहंकार।

अहमिति

संज्ञा

[सं. अहम्मति]

अविद्या।

रे मन जनम अकारथ खोइसि। हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि। निस दिन फिरत रहत मुँह बाए, अहमिति जनम बिगोइसि-१-३३३।

अहलना

क्रि. अ.

[सं. आहलनम्]

हिलना, काँपन।

अहलाद

संज्ञा

[सं. आह्लाद)

आनंद, हर्ष।

(क) ताको पुत्र भयौ प्रहलाद। भयौ असुर-मन अति अहलाद-७-२। (ख) आनंदित गोपी-ग्वाल नाचें दै दै ताल, अति अहलाद भयौ जसुमति गाइ कै-१०-३१। (ग) हंस साखा सिखर पर चढ़ि करत नाना नाद। मकरनि जु पद निकट बिहरत मिलन अति अहलाद-सा ० उ०-५।

अहवान

संज्ञा

[आह्वान]

बुलाना, आवाहन।

अहार

संज्ञा

[सं. आहार]

भोजन।

अहिबेल

संज्ञा

[सं. अहिवल्ली, प्रा. अहिबेली]

नागबेलि पान।

अहिर

संज्ञा

[सं. आभीर, हिं. अहीर]

अहीर, ग्वाला।

अहिराइ

संज्ञा

[हिं. अहिराय]

कालियानाग।

उरग लियौ हरिकौ लपटाई। गर्व बचन कहिकहि मुख-भाखत, मोकौं नहिं जानत अहिराइ-५५५।

अहिराज  

संज्ञा

[सं.]

कालियानाग।

सूर के त्याम, प्रभु लोक अभिराम, बिनु जान अहिरराज बिषज्वाल बरसै-५५२।

अहिलता  

संज्ञा

[सं.]

नागबेलि, पान

अहिलता रंग मिटयौ अधरन लग्यौ दीपकजात--२१३०।

अहिल्या  

संज्ञा

[सं. अहल्या]

गौतम ऋषि की पत्नी, जिसका सतीत्व इन्द्र ने भ्रष्ट किया था और जो पति के शाप से पत्थर की हो गयी थी। श्री रामचन्द्र के चरण-स्पर्श से इसका उद्धार हुआ।

अहिवात  

संज्ञा

[सं. अभिवाद्य, प्रा. अहिवाद]

सौभाग्य, सोहाग।

(जब) कान्ह काली लै चले, तब नारि बिनबै देव हो। चेरि कौ अहिवात दीजै, करै तुम्हारी सेव हो -- ५७७।

अहिसायी  

संज्ञा

[सं. अहि + हिं. शायी (सं. शायिन्)]

शेषनाग की शैया पर सोने वाले विष्णु।

हरिहर संकर नमो नमो। अहिसायी, अहिअंग बिभूषन, अमित दान, बल-बिष-हारी--१०-१७१।

अहीर  

संज्ञा

[सं. अभीर]

ग्वाला।

अहीरी

संज्ञा

[हिं. अहीरिन]

ग्वालिन।

नैकहू न थकत पानि, निरदई अहीरी-३४८।

अहारना

क्रि. स.

[सं. आहरणम्]

खाना, भोजन करना।

अहारी

वि.

[सं. आहारिन्, हिं. आहारीन्‌]

खाने वाला।

अपद-दुपद-पसु भाषा बुझत अबिगत अल्प अहारी-८-१४।

अहि

संज्ञा

[सं.]

साँप।

अहिइंद्र

संज्ञा

[सं.]

कालियानाग।

यह कह्यौ नंद रूप बदि, अहि इंद्र पैं गयौ मेरौ नंद, तुव नाम लीन्हौ -- ५८४।

अहित

संज्ञा

[सं.]

बुराई, अकल्याण।

दुर बासा दुरजोधन पठयौ पांडव अहित बिचारी। साक पत्र ले सबै अघाए, न्हात भजे कुस डारी-१ १२२।

अहित

वि.

शत्रु, बैरी।

अहित

वि.

हानिकारी।

छहौं रस जो धरौं आगैं, तंउ न गंध सुहाइ। और अहित भच्छ अभच्छति कला बरनि न जाइ -- १-५६।

अहिनाह

संज्ञा

[सं. अहिनाथ]

शेषनाग।

अहिपति-सुता-सुवन

संज्ञा

[सं. (अहि = नाग) अहिपति = ) ऐरावत = वंशी कौरव्य नाग) + सुता (= कौरव्य नाग की कन्या उलूपी) + सुवन (उलूपी का पुत्र बभ्रुवाहन)]

वभ्रु वहान जो अर्जुन का पुत्र था और जिसने युद्ध में पिता को मूर्छित कर दिया था।

अहिपति-सुता-सुवन सन्मुख ह्वै बचन कह्यौ इक होनौ। पारथ बिमल ब्भ्रुबाहन को सीस खिलौना दीनौं-१-२९।

अहिनी

संज्ञा

[सं. अहि (पुं )]

साँपिन, सर्पिणी।  

चदन खोरि ललाट स्याम के निरखत अति सुखदाई। मानहुँ अर्धचंद्र तट अहिनी सुधा चोरावन आई--१३५०।

अहुटना

क्रि. अ.

[सं. हठ, हिं. हटना]

हटना, दूर होना।

अहुदै

क्रि. अ.

[हिं. अहुटना]

दूर हो, हटे।

हम अबला अति दीन हीन मति तुमही हो बिधि योग। सुर बदन देखत ही अहुटै या सरीर को रोग

अहुटाना

क्रि. स.

[हिं. अहुटना]

हटाना, दूर करना। भगाना।

अहुठ

वि.

[सं. अध्युष्ठ, अर्द्ध मा. अड्ढडुढ]

साढ़े तीन,तीन और आधाँ।

(क) गरि गिरि परत, जाति नहिं उलँघी, अति स्रम होत नघावत अहुँठ पैग बसुधा सब कीनीं, धाम अवधि बिरमावत--१०-१२५। (ख) जब मोहन कर गही मथानी।…..। कबहुँक अहुठ परग करि बसुधा, कबहुँक देहरि उलँधि न जानी।

अहेर

संज्ञा

[सं. आखेट]

शिकॉर, मृगया।

अहेर

संज्ञा

[सं. आखेट]

वह जिसका शिकार खेला जाय।

अहेरी

संज्ञा

[हिं. अहेर]

शिकारी, आखेटक।

लयौ घेरि मनो मृग चहुँ दिसि तु अचूक अहेरी नहिं अजान--२८३८।

अहेरौ

संज्ञा

[सं. आखेट, हिं. अहेर]

आखेट, शिकार, भोजन।

केतिक सख जुगै जुग बीते मानव असुर अहेरौ--९-१३२।

अहै

क्रि. अ.

[सं. अस्ति, हिं. अहना)

वर्तमान है।

(क) राखन हार अहै कोउ औरै, स्याम धरे भुज चारि-७-३। (ख) मुरली मैं बीच प्रान बसंत अहै मेरो-१०.२८४।

अहो

अव्य.

[सं.]

विस्मयादिबोधक अव्यय जिसका बोध करुणा, खेद, प्रशसा, हर्ष विस्मय आदि सूचित करने के लिए होता है। कभी कभी संबोधन की तरह ही यह प्रयुक्त होता है।

(क) जिन तन-धन मोहिं प्रान समरपे, सील, सुभाव, बड़ाई। ताको बिषम बिष अहो मुनि मोपै सह्यौ न जाई ९-७। (ख) अहो महरि पालागन मेरौ, मैं तुमरौ सुत देखन आई--१०-५१। ग) नंद कह्यौ घर जाहु कन्हाई ऐसे मैं तुम जैहो जिनि कहुँ अहो महरि सुत लेहु बुलाई ९१२।

अह्यौ

संज्ञा

[सं. अहि]

सर्प साँप।

सुधि न रही अति गलित गात भयौ जनु डसि गयौ अह्यौ--२६६७।

देवनागरी वर्णमाला का दूसरा अक्षर। यह ‘अ’ का दीर्घ रूप है।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

अंक, चिह्न।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

दाग, धब्बा।

कतर मिलो लोचन बरषत अति दुत मुख के छबि रोयो। राहु केतु मानो सुमीड़ि विधु आँक छुटावत धोयो-३४८२।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

संख्या का चिह्न।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

अक्षर।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

निश्वय, सिद्धांत।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

अंश, भाग, हिस्सा।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

बार, दफा।

एकहूँ आँक न हरि भजे, (रे) रे सठ, सूर गँवार -- १-३२५।

अंक

संज्ञा

[सं. अक]

गोद।

आँकना

क्रि. स.

[सं. अंकन]

चिह्नित या अंकित करना।

आँकना

क्रि. स.

[सं. अंकन]

मूल्य अनुमानना।

आँकना

क्रि. स.

[सं. अंकन]

निश्चित करना ठहरना।

आँकरो

वि.

[सं. आकर = मान (गहरी), हिं. आँकर]

गहरा।

आँकरो

वि.

[सं. आकर = मान (गहरी), हिं. आँकर]

बहुत अधिक।

आँकुस

संज्ञा

[स, अंकुश]

अंकुश।

आँख

संज्ञा

[म, अक्षि प्रा. अकिख, पं. अँक्ख]

लोचन, नेत्र, नयन।

आँखड़ी

संज्ञा

[हिं. आँख + ड़ी (प्रत्य. )

आँख।

आँख

संज्ञा

[हिं. आँख]

नेत्र, लोचन।

हरि ग्वालनि मिलि खेलन लागे बन में आँखि मिचाइ--२३ : ८ ।

आँख

मुहा.

आवत न आँखि तर :- आँख तले नहीं आता, तुच्छ मानता है, कुछ नहीं समझता। उ.- नख-सिख लौं मेरी बह दही है पाप की जहा ज। और पतित आवत न आँखि तर देखत अपनी साज१-९६। आँख गड़ि लागत :- (1 )खटकता है, चुभता है, बुरा लगता हैं। (2) मन में बसता है। ध्यान पर चढ़ता है पसंद आता है। उ.- जाहु भले हो कान्ह दान अँग-अँग को माँगत। हमरौ यौवन रूप आँखि इनके गड़ि लागत--१०२५। आँखि दिखावत :- सक्रोध देखता है, क्रोध से घूरता है, कोप जताता है। उ.- आँखि दिखावत हौ जु कहा तुम कहिौ कहा रिसाय। हम अपनो भयौ करि लै हैं। छुवरि कुँअरि के पाय-२४४७। आँखि धूरि देनी :-धोखा दिया, भ्रम में डाला। उ.- हरि की माया कोउ न जानैं आंखि धूरि सी दीनी। लाल ढिगनि की सारी ताको पीत उढ़नियाँ कीनी-६९४। धूरि दै आँखि :- आँख में धूल झोंककर, धोखा, देकर, भ्रम में डालकर। उ.- सोइ अमृत अब पीसति मुरली सवहिन के सिर नाखि। लिए छँड़ाइ निडर सुनि सूरज धेनू धरि दै आँखि। आँखि लगी :- (1) प्रीति हुई। (2) टकटकी बँधी, दृष्टि जम गयी। (3) नींद आयी झपकी लगी। उ.- बहुरचौ भूलि न आँखि लगी। सुपेनेहू के सुख न सहि सकी नींद जगाइ भगी--२७९०। देखौं भरि आँख :- आँख भरकर देखूँ, इच्छा भर देखूँ, देखकर अघा जाऊँ। उ.- अबकैं जौ परचो करि पावौं अरु देखों भरि आँखि। सूरदास सोने कैं पानी मढ़ौं चोंच अरु पाँखि-९-१६४। आँखि नहिं मारत :- पलक नहीं झपकाते, जरा नहीं थकते, विश्राम नहीं करते, भयभीत नहीं होते। उ.- जिहि जल तृन, पसु दारु बूड़ि, अपनैं सँग औरन पारत। तिहि जल गाजत महाबीर सब तरत आँखि नहिं मारत -- ९-११२।

अँधेरौ

संज्ञा

[हिं. अँधेरा]

धुँधलापन।

अँधेरौ

संज्ञा

[हिं. अँधेरा]

उदासी, उत्साहहीनता, निराशा,

पाछे चढ़ो विमान मनोहर बहुरौ जदुपति होत अँधेरै-२५३२।

अँधेरौ

वि.

अंधकारमय।

अँधेरौ

वि.

अंधा।

एक अँधेरो हिये की फूटी दौरत पहिर खराऊँ-३४६६।

अंधौ

संज्ञा

[सं. अंध, हि, अवा]

अंधा प्राणी, नेत्रहीन व्यक्ति।

जैसे अध अब कूप मैं गनत न खाल-पनार -- १-८४।

अँध्यारी

वि.

[हिं. पुं. अँधियार]

अँधेरी, प्रकाशरहित।

भादौं की अधराति अँध्यारी१०.११।

अँध्यारी

संज्ञा

श्यामता, कालिमा।

अलक वारत अँध्यारी तिलक भाल सुदेस–१४१३।

अँध्यारैं

संज्ञा

[हिं. अँधियारा]

अँधेरे में।

कबहुँ अघासुर बदन सामाने, कबहुँ अँध्यारैं जात न धाम--४९७।

अँध्यारौ

संज्ञा

[हिं. अँधेरा]

अँधेरा।

आवहु बेगि चलौ घर जैऐ, वनहीं होत अँध्यारो-५०५।

अंब

संज्ञा

[सं. आम्, प्रा. अंब]

आम का पेड़।

अंब सुफल छाँड़ि, कहा से मर को धाऊँ १-१६।

आँच

संज्ञा

[सं. अर्वि = आग की लपट, पा. अच्चि]

गरमी, ताप।

मेरे दधि को हरि स्वाद न पायो। धौरी धेनु दुहाइ छानि पय मधुर आँच मैं औटि सिरायौ।

आँच

संज्ञा

[सं. अर्वि = आग की लपट, पा. अच्चि]

आग, अग्नि।

आँच

संज्ञा

[सं. अर्वि = आग की लपट, पा. अच्चि]

ताव।

आँच

संज्ञा

[सं. अर्वि = आग की लपट, पा. अच्चि]

तेज, प्रताप।

आँच

संज्ञा

[सं. अर्वि = आग की लपट, पा. अच्चि]

विपति, संकट, संतपि।

बएँ कर बाजि-बाग दहिने हैं बैठे। हाँकत हरि हाँक देत, गरजत ज्यौं ऐंठ। छाता लौं छाँह किए सोभित हरि छाती। लागन नहिं देत कहूँ समर आँच ताती-१-२३

आँच

संज्ञा

[सं. अर्वि = आग की लपट, पा. अच्चि]

प्रेम, मोह।

आँचना

क्रि. स.

[हिं. आँच]

जलाना तपाना।

आँचर

संज्ञा

[सं. अंचल, हिं. आँचल]

अंचल,-आँचल।

स्रवन मूँदी , मुख आँचर ढांप्यौ, अरे निसाचर, चोर-९-८३।

आँचल  

संज्ञा

[सं. अंचल]

स्त्रियों को धोती, साड़ी आदि का सामने का भाग जो छाती, पर रहता है।

आँचल  

संज्ञा

[सं. अंचल]

पल्ला, छोर।

आँखनि

संज्ञा

[हिं. आँख + नि (प्रत्य.)]

आँखों में, नेत्रों में।

आँखनि

मुहा.

आँखिनि धुरि दई :- आँखों में धूल झोंकी, सरासर धोखा दिया, भ्रम डाला। उ.- ज्यौं मधुमखी सँचति निरंतर, बन की ओट लई। ब्याकुल होइ हरे ज्यौं सरबस आँखिन धूरि दई--१-५०।

आँखी

संज्ञा

[हिं. आँख]

नेत्र, लोचन।

आँग

संज्ञा

[सं. अंग]

अंग, शरीर।

आँग

संज्ञा

[सं. अंग]

कुच स्तन।

आँगन

संज्ञा

[सं. अंगण]

घर का चौक, अजिर।

आँगिरस

संज्ञा

[सं.]

अंगिरा के पुत्र वृहस्पति, उतथ्य और संवर्त।

आँगी

संज्ञा

[सं. अंगिका, प्रा. अँगिआ]

अँगिया, चोली।

आँगुर

संज्ञा

[सं. अंगुली]

अंगुल।

आँगुरी

संज्ञा

[सं. अंगुली, हिं. उंगली]

उँगली।  

कहाँ मेरे कान्ह की तनक सी आँगुरी, बड़े बड़े नखनि के चिन्ह तेरे -- १०-३०७।

आँची  

संज्ञा

[हिं. आँच]

तेज, प्रताप।

आँची  

संज्ञा

[हिं. आँच]

क्रोध।

ब्रह्म रुद्र डर डरत काल कैँ, काल डरत भ्रू भँग की आँची-१-१८।

आँचे

क्रि. स.

[हिं. आँच, आँचना]

जलाया, तपायो।   

प्रीति के बचन बाचे बिरह अनल आँचे अपनी गरज को तुम एक पाइ नाचे–२००३।

आँजति

क्रि. स.

[सं. अंजन]

अंजन लगाती है।

(क) रबि ससि कोटि कला अवलोकत त्रिबिध ताप छय गाइ। सो अंजन कर लै सुतचिच्छुहिँ आँजति जसुमति माइ--८८७। (ख) निमिष निमिष में धोवति आँजति सिखए आवत रंग-पृ० ३२५।

आँजन

संज्ञा

[हिं. अंजन]

काजल, अंजन।

आँजना

क्रि. स.

[हिं. अजन]

अंजन लगाना।

आँजि

क्रि. स.

[सं. अजन, हिं. अँजना ]

अंजन लगाकर।

कान्हँ गरे सोहति मनि-माला, अग अभूषन अँगुरिनि गोल। सिर चौतनी डिठौना दीन्होै आँखि आँजि पहिराइ निचोल-१०-९४।

आँजै

क्रि. स.

[हिं. अंजन, आँजना]

अंजन या काजल लगाकर।

सूरदास सोभा क्यों पावत आँखि आँधरी आँजै-३२३०।

आँट

संज्ञा

[हिं. अटी]

दाँव, वश।

आँट

संज्ञा

[हिं. अटी]

गाँठ, गिरह।

आँधरौ  

वि.

[सं. अंध, हिं. अंधा]

अंधा।

सूर, कूर, आँधरौ, मेँ द्वार परयो गऊँ-१-१६६।

आँधारंभ

संज्ञा

[हिं. अंधेर + प्रारभ]

अंधेरखाता।

आँधी  

संज्ञा

[सं. अंध = अंधेरा]

अंधड़, अंधबाब।

आँव  

संज्ञा

[सं. आभ्र, हिं. आम]

आम।

(क) सालन सकल कपूर सुबासत। स्वाद लेत सुन्दर हरि ग्रासत। आँब आदि दै सबै सँधाने। सब चाखे गोबद्धँनराने--३९६। (ख) नींब लगाइ आँब क्यों खावै--१०४२। (ग) मनौ आँब दल मोर देखिकै कुहुकि कोकिला बानी हो-१५५६।

आँवड़ना

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

उमड़ना।

आँचड़ा

वि.

[हिं. उमड़ना]

गहरा।

आँवरे

संज्ञा

[सं. अमालक, प्रा. आमलओ, हिं. आँवला]

आँवले।

आँवा

संज्ञा

[सं. आपाक]

गड्ढा जिसमें रखकर । कुम्हार मिट्टी के बरतन पकाते हैं।

आँस

संज्ञा

[सं. काश = क्षत, हिं. गाँस]

वेदना, पीड़ा।

आँसी

संज्ञा

[सं. अंश = भाग]

इष्ट-मित्रों के यहाँ । भेजी जाने वाली मिठाई, भाजी।

आँटना

क्रि. अ.

[हिं. अँटना]

समाना, अटना।  

आँटना

क्रि. अ.

[हिं. अँटना]

मिलना, पहुँचना।

आँटू  

संज्ञा

[सं. अंदू = बड़ी]

लोहे का कड़ा, बेड़ी।

आँटू  

संज्ञा

[सं. अंदू = बड़ी]

बाँधने की जंजीर।

आँध  

संज्ञा

[सं. अंध]

अँधेरा, धुन्ध।

आँध  

संज्ञा

[सं. अंध]

अंध।

आँध  

संज्ञा

[सं. अंध]

मतवाला, कामांध।

संकर कौं मन हरयौ कागिनी, सेज छाँड़ि भू सोयो। चारु मोहिनौ आइ आँध कियौ तब नख-सिख तै रोयौ १४३

आँधना  

क्रि. अ.

[हिं. आँधी]

सवेग आक्रमण करना।

आँधर, आँधरा

वि.

[सं. अंध]

अंधा, नेत्रहीन।

आँधरि, आँधरी

संज्ञा

[हिं. आँधरी]

अंधी स्त्री।

(क) कच खुबि आँधरि काजरी कानी नकटी पहिरै बरारि--३०२५। (ख) सूरदास सोभा क्योँ पावत आँखि आँधरी आँजै–३२३९।

आँसु

संज्ञा

[सं. अश्रु. पा. प्रा. अस्सु]

अश्रु।

निजकर चरन पखारि प्रेम-रस आनंद-आँसु ढरे-९-१७१।

आँसुवनि

संज्ञा

[सं. अश्रु, पा. प्रा. अस्सु हिं. आँसू]

आँसुओं से।

आँसुवनि

मुहा.

आँसुवनि मुख धोवै :- बहुत रो रहा है, बड़ा विलाप कर रहा है। उ.- देखो माई कान्ह हिलकियनि रोवै। इतनक मुख मखन लपटान्यौ, डरनि आँसुवन धोवै-३४७।

आँसू

संज्ञा

[सं. अश्रु पा. प्रा. अस्सु]

अश्रु।

अव्य.

[सं.]

सीमा, व्याप्ति अदि सूचक अव्यय जैसे-अमरण आजीवन। उप यह प्राय: ‘गति' सुचक धातुओं के पूर्व जुड़कर अर्थ में विशेषता लाता है जैसे-आगमन।

संज्ञा

ब्रह्मा।

आइ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आकर, पहुँचकर।

(क) कहा बिदुर की जति बरन है, आइ साग लियौ मंगी-१-२१। (ख) सुख में आइ सबै मिलि बैठत,अ रहन। चहुँदसि घेरे-१ ७९।

आइ

मुहा.

आइ परै :- आजा, उपस्थित हो, सहना पड़े। उ.- सुख दुख कराति भाग आपने आइ परै सो गहियै --१-६२।

आइ

संज्ञा

[सं. आयु ]

आयु उम्र।

(क) सतयुग लाख वरस की आइ। त्रेता दस सहस्र कहि गाइ -- -१-२३०। (ख) पाँच बरस की भई जब आइ। संडा गकंहि लियौ बुलाइ-७-२। (ग) बीतैं जाम बोलि तब आयौ, सुनहु कस तब अइ सरयौ--१०-५९।

आइयै

क्रि. अ.

[हिं. आना]

( आदर सूचक सम्बोधन) आगमन कीजिए, पधारिये।

टेरत हैं बार-बार आइयै कन्ह ई-६ १९।

आइयाँ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आये हैं।

कंस कारन गेंद खेलत कमल कारन आइयां-५७७।

आइस, आइसु

संज्ञा

[सं. आयसु]

आज्ञा।

आइहैं

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आवेंगे। यौ. - लै आइहैं - ले आवेंगे।

नाग नाथि लै आइहैं, तब कहियौं बलराम -- ५८९।

आइहै

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आयगा।

सर्प इक आइहैं बहुरि तुम्हरैं निकट-८-१६।

आई

क्रि. अ.

[हिं. आना)

स्थल-विशेष पर एकत्र हुई या पहुँची।

आजु बधायौ नंदराइ कैं, गावहु मंगलाचार। आईं मंगल-कलस साजिकै, दधि फल नूतन डा र-१०-२७।

आई

क्रि. अ.

[पुं. हिं. आवाना, हिं. आना)

आना' क्रिया का भूतकालिक स्त्रीलिंग रूप

बकी कपट करि मारन आई, सो हरि जू बैकुण्ठ पठाई-१-३।

आई

मुहा.

जो सुख आई सो आई :- बिना सोचे समझे जो बात ध्यान में आयी, कह दी। उ.- भवन गई आतुर ह्वै नगरि जे आई मुख सबै कहो-२१४२।

आई

संज्ञा

[सं. आयु]

आयु, जीवन।

आउ

क्रि. अ.

[हिं. आना)

आ, आँ जा, आओ।

हरि की सरन महँ तू आउ--१-३१४।

आउ

संज्ञा

[सं. आयु]

आयु, जीवन।

आउज

संज्ञा

[सं. वाद्य,प्रा. बज्ज]

ताशा नामक बाजा।

बीना-झाँझ-पखाउज-आउज और राजसी भोग। पुहुप-प्रजंक परी नवजोवनि, सुख रिमल-सजोग -- ९-७५।

आउबाउ

संज्ञा

[सं. वायु = हवा]

अंड-बंड, निरर्थक प्रलाप।

आऊँ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आगमन करूँ।

नौका हौं नाहीं लै आऊँ-१-४१।

आउँगो

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आऊँगा।

स्याम बाम को सुख दै बोले रै न तुम्हारे आऊँगो -- १९४४।

आऊ

क्रि. अ.

[हिं. आंना]

आये, आओ।

मैया बहुत बुरी बलदाऊ। कहन लग्यौ) बन बड़ौ तमासो, सब मौड़ा मिलि ओऊ--४८१।

आए

क्रि. अ.

[पु. हिं. आवना, हिं. आना]

‘आना' क्रिया का भूतकालिक बहुवचन अथवा आदरसूचक रूप।

संतत भक्तमीत-हितकारी, स्याम बिदुर कैं आए--१-१३।

आऐं

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आने पर, जाने से।

पकरयौ चीर दुष्ट दुस्सास न, बिलख बदन भइ डौलै। जैसे राहु नीच ढिग आऐं, चन्द्र-किरन झक झौलै-१-२५६।

आक

संज्ञा

[सं. अर्क, प्रा. अक्क]

मदार, अकौआ।

जिहि दुहि धेनु औटि पय चाख्यो ते मुख परसैं छाक। ज्यौं मधुकर मधुकमलकोश तजि रुचि मानत है आक-पृ० ३३३।

आकबाक

संज्ञा

[सं. वाक्य]

अंडबंड या ऊटपटाँग बात।

आकर

संज्ञा

[सं.]

खानि, उत्पत्ति-स्थान।

आकर

संज्ञा

[सं.]

भंडार।

आकर

संज्ञा

[सं.]

भेद, प्रकांर।

आकर

वि.

श्रेष्ठ, उत्तम।

आकर

वि.

अधिक।

आकर

वि.

दक्ष, कुशल।

आकरखना

क्रि. स.

[हिं. आकर्षना]

आकर्षित करना।

आकरषन

संज्ञा

[सं. आकर्षण]

खिंचाव।

आकरषन

क्रि. प्र.

करी-खींची।

तिन माया आकरषन करी। तब वह दृष्टि नृपति कैं परी -- ९२।

आकरषि

क्रि. स.

[सं. आकर्षण, हिं. आकर्षना]

खींचकर, आकर्षित करके।

सुर-प्रभु आकरषि ताते संकर्षन है नाक-२५८२। (ख) कालिन्दी को निकट बुलायो जल-क्रीड़ा के काज। लियौ आकरषि एक छन में हलिकति सम रथ यदुराज।

आकर्ष

संज्ञा

[सं.]

खिंचाव।

आकर्षक

वि.

[सं.]

अपनी ओर खींचनेवाला।

आकर्षण

संज्ञा

[सं.]

खिंचाव।

आकर्षन

संज्ञा

[सं. आकर्षण]

खिंचाव।

आकषना

क्रि. स.

[सं. आकर्षण]

खींचना।

आकष्र्यौ

क्रि. स.

[सं. आकर्षण, हिं. आकर्षना]

आकर्षित किया, खींचा।

(क) सजन कुटुँब परिजन बढ़े (रे) सुत-दारा-धन-धाम। महामूढ़ बिषयी भयौ, (रे) चित आकष्या काम -- १-३२५। (ख) चित आकष्याँ नंद-सुत मुरली मधुर बजाइ ११८२।

आकलन

संज्ञा

[सं.]

ग्रहण लेना।

आकलन

संज्ञा

[सं.]

संग्रह, संचय।

आकलन

संज्ञा

[सं.]

गिनती करना।

आकली

संज्ञा

[सं. अकुल + ई (प्रत्य.)]

आकुलता, बेचैनी।

आकसमात, आकस्मात

क्रि. वि.

[सं. अकस्मात्]  

सहसा, एकाएक।

अंब

संज्ञा

[सं. आम्, प्रा. अंब]

माता

अंबर

संज्ञा

[सं.]

वस्त्र, कपड़ा, पट।

नृपति रजक अंबर नृप धोबत--२५७४।

अंबर

संज्ञा

[सं.]

स्त्रियों की धोती, सारी।

करषत सभा द्रुपद-तनया को अंबर अछय कियौ-१-१२१।

अंबर

संज्ञा

[सं.]

आकास, आसमान।

रिपु कच गहत द्रुपद-तनया जब सरन सरन कहि भाषी। बढ़े दुकूल-कोट अंबर लौं, सभा-माँझ पति राखी-१-२७।

अंबरबानी

संज्ञा

[सं. अंबर = आकाश+वाणी]

आकाशवाणी।

अंबरबानी

संज्ञा

[सं. अंबर = आकाश+वाणी]

गर्जन।

अबरवानी । भईसजल बादल दल छाए -- १० उ.-६।

अँबराई

संज्ञा

[सं. आम्र + राजी = पंक्ति]

आम का बगीचा।

अति दरेर की झरेर टपकत सब अँबराई-१५६५।

अबराव

संज्ञा  

[सं. आम्र + राजी = पंक्ति]

आम का बगीचा।

अंबरीष, अँबरीष

संज्ञा

[सं.]

अयोध्या के एक सूर्यवंशी राजा। इन्हें कहीं प्रशुश्रक का पुत्र कहा गया है और कहीं नाभाग का। राजा इक्ष्वाकु से ये अट्ठाइसवीं पीढ़ी में हुए थे : ये विष्णु के बड़े भक्त थे और उनके चक्र ने परम क्रोधी दुर्वासा मुनि के शाप से इनकी रक्षा की थी।

अँबा

संज्ञा

[सं.]

माता जननी।

आकार

संज्ञा

[सं.]

बनावट, संघटन।

(क) सागर पर गिरि, गिर पर अंबर, कपि घन केैं आकार--९ १४। (ख) इत धरनि उत ब्योम कैं बिच गुहा कैं आकारा। पैठि बदन बिदारि डारयो अति भये बिस्तार -- ४२७।

आकार

संज्ञा

[सं.]

आकृति, मूर्ति।

आकार

संज्ञा

[सं.]

तरह, भाँति, प्रकार, रूप।

सुन्दर कर आनन समीप अति राजत इहिं आकार। जलरुह मनौ बैर बिधु सौं तजि, मिलत लए उपहार -- १०.२८३।

आकार

संज्ञा

[सं.]

डील-डौल।

आकारि

संज्ञा

[सं. आकार]

स्वरूप, आकृति, मूर्ति, रूप।

एक मास यह ह्वै है नारि। दूजे मास पुरुष आकारि-९-२।

आकारी

वि.

[सं. आकारण = आह्वान]

बुलानेवाला।

आकास

संज्ञा

[सं. आकाश]

अंतरिक्ष, गगंन।

आकास

संज्ञा

[सं. आकाश]

शून्य स्थान जहाँ चंद्र, सूर्य आदि स्थित हैं।

लंका राज बिभीषन राजैं, ध्रव आकाश बिराजैं--१-३६।

आकास

मुहा.

बाँधति आकास :- अनहोनी या असंभव बात कहती हो। उ.- कहा कहति डरप. इ कछु मेरे घट जैहै। तुम बाँधति आकास बात झूठी को सेहै।

आकासकुसुम

संज्ञा

[सं. आकाश कुसुम]

आकाश का फूल।

आकासकुसुम

संज्ञा

[सं. आकाश कुसुम]

अनहोनी या असंभव बात।

आकाशबानी

संज्ञा

[सं. आकाशवाणी]

देववाणी, आकाशवाणी।

सूर आकासबानी भई तबै तहँ यहै बैदेहि है, करु जुह। रा -- ९-७६।

आकुलता  

संज्ञा

[सं.]

व्याकुलता, घबराहट।

कबहुँक बिरह जरति अति ब्याकुल अकुलता मन मो अति--१९४९।

आकुलित

वि.

[सं.]

व्याकुल, घबराया हुआ।

आकुलित

वि.

[सं.]

व्याप्त।

आकृति

संज्ञा

[सं.]

बनावट, गढ़न, ढाँचा,अवयव।

आकृति

संज्ञा

[सं.]

मूर्ति रूप।

जानु सुजघन करभ कर आकृति, कटि प्रवेश किंकिनि राजै -- १-६९।

आकृति

संज्ञा

[सं.]

मुख।

आकृति

संज्ञा

[सं.]

मुख का भाव, चेष्टा।

आक्रमण

संज्ञा

[सं.]

चढ़ाई, धावा।

आक्रमण

संज्ञा

[सं.]

आक्षेप करना, निंदा करना।

आक्रोश

संज्ञा

[सं.]

कोसना, गाली देना।

आक्षेप

संज्ञा

[सं.]

आरोप, दोष लगाना।

आक्षेप

संज्ञा

[सं.]

कटूक्ति, हिंदा।

आखत

संज्ञा

[सं. अक्षत, प्रा. अवखत]

अक्षत।

आखना

क्रि. स.

[सं. आख्यान, प्रा. अक्खान प. आखना]

कहना, बोलना।

आखना

क्रि. स.

[स. आकांक्षा]

चाहना, इच्छा करना।

आखना

क्रि. स.

[सं. अक्षि, प्रा. अक्खि = आँख]

देखना, ताकना।

आखर

संज्ञा

[सं. अक्षर, प्रा. अक्खर]

अक्षर।

गौरि गनेस्वर बीनऊ (हो) देवी सारद तोहिं। गावौं हरि को सोहिलोै (हो), मन आखर दै मोहिं १०-४०।

आखा

वि.

[सं. अक्षय, प्रा. अक्वय]

कुल पूरा।

आखा

वि.

[सं. अक्षय, प्रा. अक्वय]

अनगढ़ा।

आखिर

वि.

[फा. आखिर]

अंतिम, पिछला।

आखिर

वि.

[फा. आखिर]

समाप्त।

आखिर

संज्ञा

अन्त

आखिर

संज्ञा

परिणाम, फल।

आखिर

क्रि. वि.

अंत में, अंत को।

और न सी मोहू को जानति मोते वहुरि रम वंगी। सूर स्याम तोहिं बहुरि मिलैहौं आखिर हौं प्रगटावैगी--२१७७।

आखिर

क्रि. वि.

हार मानकर लाचार होकर।

आखिर

क्रि. वि.

अवश्य।

आखिर

क्रि. वि.

भला, अच्छा, खेर।

आखेट

संज्ञा

[सं.]

अहेर, शिकार।

आखेटक

संज्ञा

[सं.]

अहेर, मृगया।

आखेटक

वि.

शिकारी, अहेरी।

आखो

वि.

[सं. अक्षय, प्रा. अक्खय, हिं. आखा]

कुल, पूरा, समस्त।

कहिबे जीय न कछु सक राखो। लावा मेलि दए हैं तुमको बकत रहो दिन आखो-३०२१।

आख्या

संज्ञा

[सं.]

कीर्ति, यश।

आख्या

संज्ञा

[सं.]

व्याख्या।

आख्यात

वि.

[सं.]

प्रसिद्ध, विख्यात।

आख्यात

वि.

[सं.]

कहा हुआ।

अ्रख्यान

संज्ञा

[सं.]

वर्णन, वृत्तांत।

अ्रख्यान

संज्ञा

[सं.]

कथा, कहानी।

आख्यानक

संज्ञा

[सं.]

वर्णन, वृत्तांत।

आख्यानक

संज्ञा

[सं.]

कथा, कहानी।

आख्यानक

संज्ञा

[सं.]

पूर्व विवरण।

आगंतुक  

संज्ञा

[सं.]

अतिथि, पाहुना, आने वाला व्यक्ति।

आग

संज्ञा

[सं. अग्नि, प्रा. अग्गि]

अग्नि, व वसुन्दर।

तप कीन्हैं सो दैहैं आग। ता सेती तुम कीनौ जाग-९-२

आग

संज्ञा

[सं. अग्र]

ऊख का अगौरां।

मिल्यो सुहायौ साथ स्याम कौ कहाँ हंस कहाँ काग। सूरदास प्रभु ऊख छाँड़ि कै चतुर चचोरत आग--३०९५।

आगत

वि.

[सं.]

आंया हुआ प्रांप्त, उपस्थित।

आगत

संज्ञा

मेहमान, अतिथि।

आगत स्वागत

संज्ञा

[सं. आगत + स्वागत]

आये हर व्यक्ति का आंदर-सत्कार, आवभगत।

मेरी कही साँचि तुम जानी कोजै आगत स्वागत। सूर स्य म राधाबर ऐसे प्रीति हिये अनुरागत-१४८२

आगम

संज्ञा

[सं.]

अवाई, आगमन।

(क) श्री मथुरा ऐसी आजु बनी। देखहु हरि जैसे पति आगम सजति सिंगार धनी--२५६१। (ख) अविनासीकौ आगम जान्यो सकल देव अनुरागी-१०४ (ग) गिरि गिरि परत बदन तैं उर पर हैं दधि-सुत के बिंदु। मानहु सुभग सुधाकन बरसत प्रियजन आगम इन्दु--१०-२८३। (घ) स्याम कह्यौ सब सखन सौं लावहु गोधन फेरि। संध्या कौ आगम भयौ ब्रज तन हाँकौ हेरि। (ङ) निसि आगम श्रीदामा के सँग नाचत प्रभुहिं देखावौ--३४१०।

आगम

संज्ञा

[सं.]

आने वाला समय।

आगर

संज्ञा

[सं. आकर = खान]

समूह, ढेर।

सूर स्याम ऐसे गुन आगर नागरि बहुति रिझाई (हो)-७० ०।

आगर

संज्ञा

[सं. आकर = खान]

कोष, निधि।

सूर स्याम बिनु क्यौं मन राखौं तन जोबन को आगर -- २९८०।

आगर

संज्ञा

[सं. अर्गल = ब्योंड़ा]

ब्योंड़ा, अगरी।

आगर एक लोहजरित लीन्हो बलबंड। दुहूँ करन असुर हयौ भयौ माँस पिंड--९.९६।

आगर

संज्ञा

[सं.आगार = घर]

घर।

आगर

संज्ञा

[सं.आगार = घर]

छप्पर। छाजन।

आगर

वि.

[सं. आकर = श्रेष्ठ]

श्रेष्ठ, उत्तम।

(क) सोचि बिचारि सकल स्रति सम्मति हरि तें और ने नागर-१-९१। (ख) ठाढ़े हैं द्विजबावन। चारौ बेद पढ़त मुख आगर, अति सुकंठ सुर गावन ८.१३।

आगर

वि.

[सं. आकर = श्रेष्ठ]

चनुर, दक्ष, कुशल।

आगरी

संज्ञा

[स. आकर-खान, हिं. पुं. आगर]

समूह, ढेर।

(क) मोहन तेरे अधीन भये री। इति रिस कबते कीजत री गुन आगरी नागरी--२२५०।

आगरी

संज्ञा

[स. आकर-खान, हिं. पुं. आगर]

मोहन ते रसरूप आगरी करति न जानि निकाई-१२३५।

आगरी

वि.

समृद्ध, संपन्न, पूर्ण, भरी-पूरी।

तेरे अनउत्तर सुनि सुनि स्याम हँस हँसि देत नैक चितै इत भाग आगरी -२२५०।

आगम

संज्ञा

[सं.]

होनहार, भवितव्यता।

आगम

संज्ञा

[सं.]

समागम, संगम।

आगम

संज्ञा

[सं.]

शास्त्र।

भजि मन नंद-नंदन चरन। परम पंकज अति मनोहर, सकल सुख के करन। सनक संकर ध्यान धारत, निगम-आगम बरन १-३०८।

आगम

संज्ञा

[सं.]

उत्पत्ति।

प्रथम समागम आनँद आगम दुलह वर दुलहिनीं दुलारी–१० उ.-३९।

आगम

संज्ञा

[सं.]

नीति।

आगम

वि.

[सं.]

आने वाला, आगामी।

दर्शन दियौ कृपा करि मोहन बेगि दियौ बरदान। आगम कल्प रमन तुव ह्वै हैं श्रीमुख कहीं बखान।

आगमन

संज्ञा

[सं.]

अवाई, आना।

आगमवाणी

संज्ञा

[सं.]

भविष्यवाणी।

आगमी

संज्ञा

[सं. आगम = भविष्य]

ज्योतिषी।

आगर

संज्ञा

[सं. आकर = खान]

खान,आकर।

आगरे

संज्ञा

[सं. आकर = खान, हिं. आगर]

समूह, ढेर।

(क) सूर एक ते एक आगरे वा मथुरा की खानि–३ ०५१। (ख) मधुकर जानत हैं सब कोऊ। जैसे तुम अरु सखा तिहारे गुनन-आगरे दोऊ-३३५३।

आगल  

संज्ञा

[सं. अर्गल]

अगरी, बयोंड़ा।

आगवन

संज्ञा

[स. आगमन]

आना।

आगा

संज्ञा

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग]

छाती, वक्षस्थल।

आगा

संज्ञा

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग]

ललाट, माथा।

आगान

संज्ञा

[सं. अ + गान = बात]

प्रसंग वृत्तांत।

आगामी

वि.

[सं. आगामिन्]

होनहार, आने वाला।

आगार  

संज्ञा

[सं.]

घर, मदिर।

आगार  

संज्ञा

[सं.]

स्थान।

आगार  

संज्ञा

[सं.]

निधि, कोष।

आगि  

संज्ञा

[सं. अग्नि, हिं. आग]

आग आँच।

इहि उर आनि रूप देखे की आगि उठै अगि आई-३३४३।

आगिल

वि.

[हिं. आगे]

आगे का अगला।

आगिल

वि.

[हिं. आगे]

भावी, होने वाला।

आगिला  

वि.

[हिं. अगला]

आगे का,

आगिला  

वि.

[हिं. अगला]

आने वाला।

आगिलौ  

वि.

[हिं. आगे, अगला]

भविष्य का होने वाला, आगे आने वाला।

जौ तु राम नाम धन धरतौ। अबकौ जन्म, आगिलौ तेरो, दोऊ जनम सुधरतौ--१-२९७।

आगिवर्त

संज्ञा

[सं. अग्निवर्त]

एक प्रकार के मेघ।

सुनत मेघवतं क सजि सैन लै आए। जलवर्त, वारिवर्त, पवनवर्त, बज्रवर्त, आगिदतं, जलद संग आए।

आगी

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अ्ग्ग, हिं. आगे]

आगे, पहले, प्रथम।

ग्वालिन संग तुरंत वै धाई। अपने मन मैं हर्ष बढ़ाई। काहू पुरुष निवारयौ अई। कहाँ जाति है री अतुराइ। दिन तौ कह्यौ न कीन्हौ कानी। तन तजि चली बिनह अकुलानी। धन्य धन्य वै परम सभागी मिलीं जाइ सबहिनि तैं आगी-८००।

आगे

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग.

और दूर पर और बढ़कर।

आगे

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग.

जीते जी, जीवन में, भविष्य के लिए।

पछिले कर्म सम्हारत नहीं करत नहीं कछु आगे -- १-६१।

अंग, अँग

संज्ञा

[सं.]

शरीर, तन, गात्र।

(क) अमिष, रुधिर, अस्थि अँग जौलों तौलों कोमल चाम-१-७६। (ख) प्रकृति जो जाके अंग परी। स्वान पूछ को कौटिक लागे सूधी कहूँ न करी ... ३०१०

अंग, अँग

संज्ञा

[सं.]

अवयव, शरीर के भाग

( क ) गर्भबास अति त्रास मैं ( रे ) जहाँ न एको अंग-१-३२५। ( ख ) अंग-अंग-प्रति-छबि-तरंग.गति सूरदास क्यौं कहि आवे-१-६९। (ग) सकल भूषन मनिनि के बने सकल अँग, बसन बर अरुन सुन्दर सुहायौ -- ८.८।

अंग, अँग

संज्ञा

[सं.]

भेद, प्रकार, भाँति

दधिसुत-धर-रिपु सहे सिली मुख सुष सबै अंग नसायो-सा० ४६।

अंग, अँग

संज्ञा

[सं.]

सहायक, स्वपक्ष का।

अंग, अँग

संज्ञा

[सं.]

गोद।

अंग, अँग

मुहा.

अंग छुअत हौं :- शपथ खाता हूँ। उ.- सुर हृदय तें टरत न गोकुल अग छुवत हौं तेरौ-१०. उ०-१२४। अंग करै :- अपना ले, अंगीकार कर ले। उ.- जाकों मनमोहन अंग करै। ताकों केस खसै नहिं सिरतैं जौं जग बैर परै.-१-३७। अंग भरै :- गोद में लेती है। उ.- मुख के रेनु झारि अंचल सौं जसुमति अंग भरे-२८०३।

अंगज

वि.

[सं. अंग + ज = उत्पन्न]

शरीर से उत्पन्न।

अंगज

संज्ञा

पुत्र।

अंगज

संज्ञा

बाल, रोम।

अंगज

संज्ञा

कामदेव।

अँबा

संज्ञा

[सं.]

गौरी, देवी।

अँबा

संज्ञा

[सं. आपाक = प्रवाँ, हिं. आँवा अँवा]

वह गढ़ा जिसमें कुम्हार मिट्टी के बरतन पकाते हैं।

विधि कुलाल कीने काचे घट ते तुम आनि पकाए।…...ब्रजकरि अँबा जोग ई धन सम सुरति अगि सुलगाए-३१९१।

अँबा

संज्ञा

[सं. आम्र, हिं. आम ]

आम।

अंबा

संज्ञा

[सं.]

माता, जननी।

अंबा

संज्ञा

[सं.]

गौरी, देवी।

अंबा

संज्ञा

[सं.]

अँवा।

अंबावन

संज्ञा

[सं.]

इलावृत खंड का एक स्थान जहाँ जाने से पुरुप स्त्री हो जाता था।

पुति सुद्युम्न बसिष्ठ सौं कहयौ। अबाबन मैं तिय ह्वै गयौ ९.२।

अंबिका

संज्ञा

[सं.]

माता, माँ।

अंबिका

संज्ञा

[सं.]

दुर्गा, भगवती।

गए सरस्वती तट इक दिन सिव-अंबिका पूजन हेत-२२९१।

अंबिका

संज्ञा

[सं.]

काशी के राजा इंद्रद्युम्न की मझली कन्या जिसे हर कर भीष्म ने विचित्रवीर को ब्याह दिया था। विचित्रवीर को मृत्यु के बाद इससे व्यास जी ने नियोग किया जिससे धृतराष्ट्र का जन्म हुआ।

आगे

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग.

समक्ष, सम्मुख, सामने।

(क) श्रीदामा चले रोइ जाइ कहिहौं नँद आगे-५८९। (ख) माँगि लेहु एही बिधि मोसे मो आगे तुम खाहू-१००४। (ग) अब न देहिं उराहनो जसुमतिहिं आगे जाइ-२७५६।

आगे

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग.

अनंतर, बाद।

आगे

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग.

पूर्व, पहले।

आगे हूँ के लोग भले हो पर हित लागे डोलत-३३६३।

आगे

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग.

अतिरिक्त, अधिक।

आगे

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग.

तुलना, समता, बराबरी।

पूजत सुरपति तिनके आगे-१०१६।

आगे

मुहा.

आगे कियौ :- आगे बढ़ाया, चलाया। उ.- चक्र-सुदर्सन आगे कियौ। कोटिक सूर्य प्रकासित भयौ। आगे लेन सिधायौ :- स्वागत किया, अभ्यर्थना की। उ.- हरि आगमन जानि कै भीषम आगे लेन सिधायौ। आगे ह्वै लयौ :- आगे बढ़कर स्वागत किया। उ.- तब ब्रजराज सहित सब गोपिन आगे ह्वै लयौ--३४४४।

आगैं

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग, हिं. आगे)

समक्ष, सम्मुख, सामने।

माधौ जू, यह मेरी इक गाइ।…...। अब आज तैं आप आगैं दई, लै आइए चराइ-१-५१। (ख) माधौ, नैंकु हटको गाइ। …...छहौं रस जौ धरौं आगैं, तऊ न गंध सुहाइ -- १-५६। (ग) दोउ भुज धरि गाढ़ैं करि लीन्हे गई महिर के आगे-१०-३१७।

आगैं

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग, हिं. आगे)

भविष्य में, आगे चलकर।

(क) कहत हे आगैं जपिहैं राम। बीचहिं भई और की औरे, परयौ काल सौं काम -- -। (ख) पाछै भयो न आगे ह्वै है, सब पतितनि सिरताज-१९६। (ग) यह तौ कथा चलैगी अगै सब पतितनि मैं हाँसी-१-१९२।

आगैं

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग, हिं. आगे)

और दूर, और बढ़कर।

यह कहि ऊधव आगैं चले–३-४।

आगौन

संज्ञा

[सं. आगमन, प्रा. आगवन]

अवाई, आना।

आग्नेय

वि.

[सं.]

अग्नि का।

आग्नेय

वि.

[सं.]

अग्नि से उत्पन्न, अग्नि-जनित।

आग्यौ

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा, अग्ग, हिं. आगे]

आगे, भविष्य में।

आग्यौ

वि.

[हिं. आग]

दग्ध, दुखित, पीड़ित।

तौ तुम कोऊ तारयौ नाहिंन जोै मोसा पतित न दाग्यौ। स्रवननि सुनि कहत न एकोै, सूर सुधारौ आग्यौ-१-७३।

आग्रह

संज्ञा

[सं.]

अनुरोध, हठ।

आग्रह

संज्ञा

[सं.]

तत्परता।

आग्रह

संज्ञा

[सं.]

बल, आवेश।

आघ

संज्ञा

[सं. अर्ध, प्रा. अग्घ = मूल्य]

मूल्य, दाम, कीमत।

आघात

संज्ञा

[सं.]

धक्को, ठोकर।

आघात

संज्ञा

[सं.]

शब्द, ध्वनि, गूँज, गरज।

(क) चढ़ि गिरि-सिखर सब्द उचरयौ, गगन उठ्यौ आघात-९७४। (ख) सागर पर गिरि, गिरि पर अंबर, कोप घन कैं आकार। गरज किलक आघात उठत, मनु दामिनि पावक झार ९.१२४। (ग)महाप्रलय के मेघ उठि करि जहाँ तहाँ आघात-१०.६४।

आघात

संज्ञा

[सं.]

मार, प्रहार, चोट, आक्रमण।

सुनत घहरानि ब्रज लोग चक्रित भये, कहा आघात धुनि करत आवेै--१०-६२।

आघ्राण

संज्ञा

[सं.]

सूँघना।

आघ्राण

संज्ञा

[सं.]

अघाना, तृप्ति।

आचमन

संज्ञा

[सं.]

जल पीना।

आचमन

संज्ञा

[सं.]

शुद्धि के लिए मुँह में जल डालना।

आचरज

संज्ञा

[हिं. अचरज]

आश्चर्य, विस्मय।

यमुना तट आइ अक्रूर अन्हाए। स्याम बलराम कौ रूप ज़ल में निरखि बहुरि रथ देखि आचरज पाए-२५७०।

आचरण

संज्ञा

[सं.]

व्यवहार, चाल-चलन।

आचरण

संज्ञा

[सं.]

आचार-शुद्धि।

आचरण

संज्ञा

[सं.]

अनुष्ठान।

आचरतौ

क्रि. स.

सं. [आचरना]

आचरण करता, व्यवहार करता।

मुख मृदु बचन जानि मति जानहु, सुद्ध पंथ पग धरतौ। कर्म बासना छाँड़ि कबहुँ नहिं साप पाप आचरतौ-१-२०३।

आचरन

संज्ञा

[सं. आचरण]

आचरण -व्यवहार, चाल चलन।

आचरना

क्रि. स.

[सं. आचरण]

आचरण या व्यवहार करना।

आचरित

वि.

[सं.]

किया हुआ।

आचरु

क्रि. स.

[हिं. आचरना]

व्यवहार में लाओ। आचरण करो।

आचानक

क्रि. वि.

[हिं. अचानक]

सहसा, एकाएक।

आचार

संज्ञा

[सं.]

रहन-सहन, कार्यव्यवहार।

आचार

संज्ञा

[सं.]

चरित्र, चाल-चलन।

आचार

संज्ञा

[सं.]

शील।

(क) मृग तृष्ना आचार-जगत जल, तो सँग मन ललचावै। कहत जु सूरदास संत नि मिलि हरिजस काहे न गावै-२-१३। (ख) जो चहै मोहिं मैं ताहि नाहीं चहौं, असुर को राज थिर नाहिं देखौं। तपसियन देखि कह्यौ, क्रोध इनमें बहुत, ज्ञानियनि मै न आचार पेखौं-८-८।

आचारज

संज्ञा

[सं. आचार्य]

आचार्य।

आचारी

वि. स.

[सं. आचारिन्]

चरित्रवान, शुद्ध आचरण का।

आचार्य

संज्ञा

[सं.]

पुरोहित।

आचार्य

संज्ञा

[सं.]

अध्यापक।

आचिंत्य

वि.

[सं.]

चिंतन करने योग्य।

आचिंत्य

संज्ञा

[सं.]

परमेश्वर, जो चिंतन में नहीं आ सकता।

आछन्न

वि.

[सं.]

ढका हुआ आवृत्त।

आच्छादन

संज्ञा

ढक्कन।

आच्छादन

संज्ञा

ढकने का वस्त्र।

आच्छादित

वि.

[सं.]

ढका हुआ आवृत्त।

आच्छादित

वि.

[सं.]

छिपा हुआ।

आच्छादित

वि.

[सं.]

सघन, घटायुक्त।

निसि सम गगन भयो आच्छादित बरषि बरषि भर इन्दु -- ९६७।

आछो, आछौ

वि.

[हिं. अच्छा]

मंगलकारी, शुभ घड़ीवाला।

आछौ दिन सुनि महरि जसोदा सखिनि बोलि सुभ गान करयौ-१०-८८।

आछयौ

वि.

[हिं. आछा, अच्छा]

अच्छा, भला, सुन्दर।

एक सखी हलधर वपु काछ्यौ। चढ़ी नीलपट ओढ़े आछयौ--२४१७।

आज

संज्ञा

[सं. अज्ज, पा. अज्ज]

वर्तमान दिन, जो दिन बीत रहा है, वह।

माधौ जू, यह मेरी इक गाइ। अब आज तेैं आप आगेैं दई लै आइयेै चराइ-१-५१।

आज

संज्ञा

[सं. अज्ज, पा. अज्ज]

वर्तमान काल।

आज

क्रि. वि.

वर्तमान दिन में।

आज

क्रि. वि.

वर्तमान समय में।

आजन्म

क्रि. वि.

[सं.]

जीवन भर, जन्म भर।

आजानबाहु

वि.

[सं.]

जिसके हाथ घुटने तक लंबे हों।

आजानु  

वि.

[सं.]

घुटने तक लम्बा।

आजीबन

क्रि. वि.

[सं.]

जीवन भर।

आछत

क्रि. वि.

[अ. क्रि. 'आछना' का कृदंत रूप]

होते हुए, विद्यमानता में सामने।

आछना

क्रि. वि.

[सं. अस = होना]

होना।

आछना

क्रि. वि.

[सं. अस = होना]

विद्यमान रहना।

आछा

वि.

[हिं. अच्छा]

अच्छा, भला।

आछी

वि.

[हिं. पुं. अच्छी]

भली, अच्छी, उत्तम खरी।

(क) लै पौढ़ी आँगन हीं सुत कौं. छिटकि रही अछाउजियरिया-१०-२४६। (ख) सूर लखि भई मुदित सुंदर करत आछी उक्ति सा१४।

आछी

वि.

[सं. अशिन]

खाने वाला।

आछे

वि.

[हिं. अच्छा]

अच्छे, भले, उत्तम, श्रेष्ठ।

(क)आछे मेरे लाल (हो), ऐसो आरि न कीजै १०.१९०। (ख) जैहैं बिगरि दाँत ये आछै, तातैं कहि समुझावति-१०-२२२। (ग) मोर-मुकुट मकराकृति कुंडल, नैन बिसाल कमल हैं आछे ……. पहुँचे आई स्याम ब्रजपुर मैं, घरहिं चले मोहन-बल आछे--५०७।

आछे

क्रि. वि.

अच्छी तरह, खूब, बहुत।

बाँसुरी बजाइ आछे रंथ सौं मुरारी। सुनिकै धुनि छूट गई शंकर की तारी-६४९।

आछै

क्रि. वि.

[हिं. अच्छा]

अच्छी तरह, खूब।

आधैं औटचौ मेलि मिठ ई, रुचि करि अँचवत क्यौं न नन्हैया-१०-२२९।

आछो, आछौ

वि.

[हिं. अच्छा]

श्रेष्ठ, उत्तम भला।

(क) आछौ गात अकारथ गारयौ। करी न प्रीति कमल-लोचन सौं, जनम-जुवा ज्यौं हारचौ-१-१०१। (ख) तुरत मथ्यौ दधि लागत अति प्यारो, और न भावै मोहिं-४९४

आजीविका

संज्ञा

[सं.]

वृत्त, रोजी, जीवन का सहारा।

बहुरि सब प्रजा मिलि आइ नृप सौं कह्यौ, बिना-आजीविका मरत सारी-४-११।

आजु

क्रि. वि.

[सं. अद्य, पा. अज्ज]

आज।

आजु हौं एक-एक करि टरिहोै-११३४।

आज्ञा

संज्ञा

[सं.]

आदेश, निर्देश

आज्ञा

संज्ञा

[सं.]

स्वीकृति, अनुमति।

आज्ञाकारी

वि.

[सं.आज्ञाकारिन्]

आज्ञा माननेवाला।

(क) सती सदा मम आज्ञाकारी-४-५। (ख) पतिव्रता अति आज्ञाकारी--१० उ.-५९।

आटना

क्रि. स.

[सं. अट्ट]

तोपना, दबाना।

आठ

वि.

[सं. अष्ट, प्रा. अट्ठ]

चार की दूनी सूचक  संख्या।

आठक

वि.

[सं. अष्टम, पा, अट्ठ, + हिं. एक]

आठ, लगभग आठ।

आठवाँ

वि.

[सं. अष्टम, प्रा. अट्‌ठत्र]

अष्टम।

आँठहूँ

वि.

[सं. अष्ट, प्रा. अट्‍ठ, हिं. आठ]

आठों, कुल आठ।

सूर स्याम सहाइ हैं तौ आठहूं। सिधि लेहि-१-३१४।

आड़

संज्ञा

[सं. अल = बारण, रोक]

टेक, थुनी।

आड़

संज्ञा

[सं. आलि = रेखा]

माथे पर लगाने की लंबी टिकली।

आड़

संज्ञा

[सं. आलि = रेखा]

स्त्रियों के माथे का आड़ा तिलक।

आड़

संज्ञा

[सं. आलि = रेखा]

माथे पर पहनने का एक गहना।

आड़ना

क्रि. स.

[सं. अल् = वारण वरना]

रोकना, घेरना

आड़ना

क्रि. स.

[सं. अल् = वारण वरना]

बाँधना।

आड़ना

क्रि. स.

[सं. अल् = वारण वरना]

मना करना।

आड़ना

क्रि. स.

[सं. अल् = वारण वरना]

गिरवीं रखना।

आढ़

संज्ञा

[हिं. आड़]

ओट, पनाह।

आढ़

संज्ञा

[हिं. आड़]

सहारा, ठिकाना।

आठें

संज्ञा

[सं. अष्टम]

अष्टमी तिथि।

आठें

संज्ञा

[सं. अष्टमी]

अष्टमी तिथि।

(क) आठैं कृष्न पच्छ भादोैं, महर कैं दधिकादौं, मोतिन बँधायौ बार महल मैं जाइकै -- १०-३१। (ख) संबत सरस बिभावन, भादौं, आठैं तिथि, बुधवार। कृष्न पच्छ, रोहिनी, अर्द्ध निसि, हर्षन जोग उदार-१०.८६। (ग) आठैं सुनि सब सानि भए हरि होरी है -- १४१०।

आठों

संज्ञा

[सं. अष्टम]

अष्टमी तिथि।

आठ्य

वि.

[सं.]

संपन्न, पूर्ण धनी।

हुतौ । आठ्य तब कियौ असदब्यय, करी न ब्रज-वन-जात्र। होषे नहिं तुव दास प्रेम सौं, पोष्यौ अपनी गात्र -- १-२१६।

आठ्य

वि.

[सं.]

युक्त, विशिष्ट।

आडंबर  

संज्ञा

[सं.]

तड़क-भड़क टीमटाम, झूठा आयोजन।

पहिरि पटंबर, करि आडंबर, यह तन झूठ सिंगार्‌यो। काम-क्रोध मद-लोभ, तिया-रति, बहु बिधि काज बिगार्‌यो-१-३३६।

आडंबर  

संज्ञा

[सं.]

गंभीर शब्द।

आड़

संज्ञा

[सं. अल = बारण, रोक]

ओट, परदा।

आड़

संज्ञा

[सं. अल = बारण, रोक]

शरण, आश्रय।

आड़

संज्ञा

[सं. अल = बारण, रोक]

रोक

अंबिकाबन

संज्ञा

[सं.]

पुराणों के अनुसार इलावृत खंड का एक स्थान जहाँ जाने से पुरुष स्त्री हो जाते थे।

एक दिवस सो अखेटक गयौ। जाइ अंबिकाबन तिय भयौ--९-२।

अंबु

संज्ञा

[सं.]

जल, पानी।

अंबु

संज्ञा

[सं.]

आँसू।

सारंग मुख ते परत अंबु ढरि मनु सिव पूजति तपति बिनास-सा० उ० २८।

अंबु

संज्ञा

[सं. आम्र, प्रा. अब]

आम का पेड़।

जंबुवृक्ष कहौ क्यों लंपट फलबर अंबु फरै ३३ १ १।

अँबुआ

संज्ञा

[सं. आम्र, प्रा. अंब, हिं. आम]

आम, रसाल।

द्वादस बन रतनारे देखियत चहूँ दिसि टेमू 'फूले। भौंरे अँबुआ अरु द्रुम बेली मधुकर परिमल भुले--२३९१।

अंबुज

संज्ञा

[सं.]

जल से उत्पन्न वस्तु।

अंबुज

संज्ञा

[सं.]

कमल।

अंबुनिधि

संज्ञा

[सं.]

समुद्र, सागर।

अंबूजी

संज्ञा

[सं. अंबु = जल + जा (स्त्री. [जल से उत्पन्न वस्तु)]

कमलिनी।

मनुदिन काम बिलास बिलासिनि वै अलि तू अंबू -- २२७५।

अंबोधि

संज्ञा

[सं. अबुधि]

समुद्र, सागर।

आढ़

संज्ञा

[हिं. आड़]

अंतर, बीच।

आढ़

मुहा.

आढ़ आढ़ कियौ :- टाल-मटोल किया, आजकल किया। उ.- जारि मोहिनी आढ़ आढ़ कियौ (चारु मोहिनी आइ आँधु कियौ) तब नखसिख तैं रोयौ-१-४३।

आढ़

वि.

[सं. आढय = सं.पन्न]

कुशल, दक्ष।

आढ़

संज्ञा

[हिं.आड़ = टीका]

माथे पर पहनने का । स्त्रियों के लिये एक आभूषण।

आतंक

संज्ञा

[सं.]

प्रताप, रोब।

आतंक

संज्ञा

[सं.]

भय, शंका।

आततायी

संज्ञा

[सं. आततायिन्]

अत्याचारी।

आतप

संज्ञा

[सं.]

धूप, धाम।

आतप

संज्ञा

[सं.]

उष्णता।

आतप

संज्ञा

[सं.]

सूर्य का प्रकाश।

आतिथ्य

सं.

[सं.]

अतिथि का उपहार।

आतुर

वि.

[सं.]

व्याकुल, ब्यग्र, अधीर।

(क) जब गज गह्यौ ग्राह जलफीतर, तब हरि कैं उर ध्याए (हो)। गरुड़ छाँड़ि, आतुर ह्वै धाए, सो ततकाल छुड़ाए (हो)-१-७। (ख) नवसत साजि सिंगार बनी सुन्दरि आतुर पंथ निहारति-२५६२।

आतुर

वि.

[सं.]

उत्सुक।

आतुर

वि.

[सं.]

दुखी।

आतुर

क्रि. वि.

शीघ्र, जल्दी।

आतुर रथ हाँको। मधुबन को ब्रज जन भए अनाथ-२५३४।

आतुरता

संज्ञा

[सं.]

ब्याकुलता, ब्यग्रता, अधीरता।

आतुरता

संज्ञा

[सं.]

उतावलीपन, शीघ्रता।

आतुरताइ, आतुरताई

संज्ञा

[सं. आतुरता + ई प्रत्य.]

शीघ्रता।

(क) सैननि नगरी समुझाइ। खरकि वहु दोहनी लै, यहै मिल छल लाइ। गाइ-गनती करन जैहैं, मोहि लै नैदराई। बोलि बचन प्रमान कीन्हौ, दुहुनि आतुरता इ-६७६। (ख) स्याम काम तनु आतुरताइ-६७६। (ख) स्याम काम तनु आतुरताई ऐसे बामा बस्य भए री-पृ.३५३ (९८)।

आतुरताइ, आतुरताई

संज्ञा

[सं. आतुरता + ई प्रत्य.]

घबड़ाहट, व्याकुलता,व्यग्रता।

(क) स्याम कुंज बैठारि गई। चतुर दूतिका सखियन लीन्हें आतुरताई जानि लई–१८७६। (ख) ज्यौं ज्यौं मौन भई तुम, उनके बाढ़ी आतुरताई २२७५।

आतुरी

क्रि. वि.

[सं. आतुर]

शीघ्र, जल्दी।

अ्रतपत्र

संज्ञा

[सं.]

छाता, छतरी।

आत पत्र मयूर चन्द्रिका लसति है रवि ऐनु--२७८५।

आतम

वि.

[सं. आत्मन्, हिं. आत्म]

अपना, स्वकीय, निजी।

मोह-निसा को लेस रह्यौ नहिं. भयो विवेक बिहान। अतिम-रूप सकल घट दरस्यौ, उदय कियौ रवि-ज्ञान-२-३३।

आतम

संज्ञा

[स. आत्मा]

( क) आत्म अजन्म सदा अविनासी। ताकौं देह-मोह बड़ फाँसी-५-४। (ख) एकइ आतम ह-मतुम माँही-११-६।

आतमज्ञान

संज्ञा

[सं. आत्मा ज्ञान]

स्वरूप को जानकारी।

आतमा

संज्ञा

[सं. आत्मा ]

जीव।

आतमा

संज्ञा

[सं. आत्मा ]

चित्त।

आतमा

संज्ञा

[सं. आत्मा ]

बुद्धि

आतमा

संज्ञा

[सं. आत्मा ]

मन।

आतमा

संज्ञा

[सं. आत्मा ]

ब्रह्म।

आतिथ्य

सं.

[सं.]

अतिथि-सत्कार।

आतुरी

वि.

घबड़ाई हुई।

नारि गई फिरि भवन आतुरी-३९१।

आतुरी

संज्ञा

[सं. आतुर + ई (प्रत्य.)]  

व्याकुलता, व्यग्रता।

आतुरी

संज्ञा

[सं. आतुर + ई (प्रत्य.)]  

शीघ्रता, उतावली।

आतुरे

वि.

[सं. आतुर]

अधीर, उद्विग्न।

सूर स्याम भए काम आतुरे भुजा गहन पिय लागे-१८६६।

आत्म

वि.

[सं. आत्मन]

अपना, निजी।

आत्मकल्याण

संज्ञा

[सं.]

अपनी भलाई।

आत्मकाम

वि.

[सं.]

अपना ही मतलब साधने वाला, स्वार्थी।

आत्मिगौरव

संज्ञा

[सं.]

अपनी प्रतिष्ठा का ध्यान।

आत्मज

संज्ञा

[सं.]

पुत्र।

आत्मज

संज्ञा

[सं.]

कामदेव।

आदमी

संज्ञा

[अ.]

नौकर, सेवक।

आदमी

संज्ञा

[अ.]

पति।

आदर

संज्ञा

[सं.]

सम्मान, सत्कार, प्रतिष्ठा।  

अपने कौं कोन आदर देइ-१-२००।

आदरणीय

वि.

[सं.]

सम्मान के योग्य।

आदरना

क्रि. स.

[सं. आदर]

आदर करना, मानना।

आदरभाव

संज्ञा

[सं. आदर + भाव]

सम्मान, सत्कार।

ऊधो, चलौ बिदुर केैं जइयेै। दुर जोधन के कौन काज जँह आदर-भाव न पइयै -- १-२३९

आदरयौ

क्रि. स.

[हिं. आदरना]

आदर या सम्मान, किया।

तेहिं आदरयौ त्रिभुवन के नायक अब क्यौं जात भिरयौ -- १० उ-६८।

आदर्श

संज्ञा

[सं.]

वह जिसका अनुकरण किया जाय।

आदर्श

संज्ञा

[सं.]

दर्पण।

आदर्श

संज्ञा

[सं.]

टोका व्याख्या

आत्मा

संज्ञा

[सं.]

ब्रह्म।

आत्मा

संज्ञा

[सं.]

स्वभाव, धर्म।

आत्मीय

वि.

[सं.]

निजी, अपना।

आत्मीय

संज्ञा

स्वजन, स्वसंबंधी।

आथना

क्रि. अ.

[सं. अस् = होनी, सं. अस्ति, प्रा. अस्थि)

होना।

आथी

संज्ञा

[सं. स्थातृ; हिं. थाती]

धन-संपत्ति।  

आथी

संज्ञा

[सं. अर्थ]

समृद्धि, संपन्नता

आदत

संज्ञा

स्वभाव, प्रकृति।

आदत

संज्ञा

अभ्यास।

आदमी

संज्ञा

[अ.]

मनुष्य, मानव जाति।

आत्मज्ञ

वि.

[सं. आत्मा = निज +ज्ञ = जानने वाला]

अपना स्वरूप जाननेवाला।

आत्मज्ञ

संज्ञा

[सं.]

स्वरूप की जानकारी।

आत्मज्ञ

संज्ञा

[सं.]

जीव और परमात्मा के सम्बन्ध की जानकारी।

आत्मज्ञ

संज्ञा

[सं.]

ब्रह्म का साक्षात्कार।

आत्मभू

वि.

[सं.]

स्वशरेर से उत्पन्न।

आत्मभू

वि.

[सं.]

स्वयं उत्पन्न।

आत्मिश्लाघा

संज्ञा

[सं.]

अपनी प्रशंसा।

आत्मा

संज्ञा

[सं.]

जीव।

आत्मा

संज्ञा

[सं.]

वित्त।

आत्मा

संज्ञा

[सं.]

मन

आदान-प्रदान

संज्ञा

[सं.]

लेना-देना।

आदि

अव्य.

[सं.]

इत्यादि, आदिक।

सिंह-सावक ज्यौं तजैं गृह, इंद्र आदि डरात -- १-१०६।

आदि

वि.

[सं.]

प्रथम, पहला शुरू का।

गाउँ. गाउँ के बत्सला मेरे आदि सहाई। इनकी लज्जा नहिं हमैं, तुम राज बड़ाई-१-२३८।

आदि

अव्य.

[सं.]

आदिक, इत्यादि।

आदि

मुहा.

आदि दै :- आदि से लेकर, इत्यादि। उ.- इहिं राजस को, को न बिगोयौ ? हिरनकसिपु, हिरनाच्छ आदि दै, रावन, कुम्भकरन कुल खोयौ--१-५४।

आदि

संज्ञा

[सं.]

परमात्मा, ईश्वर  

आदिक

अव्य.

[सं.]

आदि, इत्यादि।

कौसल्या आदिक महतारी आरति करहिं बनाइ-९-२९।

आदित

संज्ञा

[सं. आदित्य]

देवता।

आदित

संज्ञा

[सं. आदित्य]

सूर्य।

हरि दर्सन सत्राजित यायौ। लोगन जान्यौं आबत आदित इरिसौं जाइ सुनायौ -- १० उ०-२६।

आदित्य

संज्ञा

[सं.]

देवता।

आदित्य

संज्ञा

[सं.]

सूर्य।

आदित्य

संज्ञा

[सं.]

इन्द्र।

आदित्य

संज्ञा

[सं.]

विश्वेदेवा।

आदित्य

संज्ञा

[सं.]

वामन।

आदिष्ट

वि.

[सं.]

जिसको आदेश दिया गया हो।

आदृत

वि.

[सं.]

आदर किया हुआ, सम्मानित।

आदेश

संज्ञा

[सं.]

अज्ञा।

चतुर चेट की मधुरानाथ सौं कहियो जाइ आदेश-३१३३। [सूर ने इसको प्रायः स्त्रीलिंग रूप में लिखा है।]

आदेश

संज्ञा

[सं.]

उपदेश।

आदेश

संज्ञा

[सं.]

प्रणाम, नमस्कार।

आदेस

संज्ञा

[सं. आदेश]

आज्ञा।

आद्यंत

क्रि. वि.

[सं. आदि + अंत]

आदि से अंत तक।

आध

वि.

[हिं. आधा]

आधा।

(क) आधा पैंड बसुधा दै राजा, ना तरु चलि सतहारी-८-१४। (ख) हैं प्रभु कृपा करन रघुनन्दन, रिरा न गहैं पल आघ -- ९-११५।

आधा

वि.

[सं. अर्द्ध, १. अद्धो, प्रा. अद्ध]

किसी वस्तु के दो बराबर भागों में से एक,अर्द्ध।

आधार

संज्ञा

[सं.]

आश्रय, सहारा, अवलंब।

(क) यहै निज सार, आधार मेरौ यहै, पतित-पावन बिरद बेद गावै-१-११०। (ख) बेद, पुरान, सुमृति, संतनि कों, यह आधार मीन कौं ज्यौं जल-१-२०४।

आधार

संज्ञा

[सं.]

पात्र।

आधार

संज्ञा

[सं.]

नींव, मूल।

आधार

संज्ञा

[सं.]

आश्रयदाता। सहारा देने वाला व्यक्ति।

आधि

संज्ञा

[सं.]

चिन्ता, सोच।

आधिक

वि.

[हिं. आधा +एक]

आधा।

आधिक

क्रि. वि.

आधे के लगभग, थोड़ा।

अंभ

संज्ञा

[सं. अभस्]

जल, पानी।

ससि चदन लरु अंभ छाँड़ि गुन बपु जु दहत मिलि तीन २८६६।

अंभोज

संज्ञा

[सं.]

कमल।

अंभर

संज्ञा

[सं. अंबर]

आकाश, गगन।

चढ़ि चढ़ि अमर विमान परम सुख कौतुक अमर छाए २६२२।

अँवदा

वि.

[सं. अधौध]

औंधा, उलटा

अँवदा

वि.

[सं. अधौध]

नीचे को ओर मुँहवाला।

अँवा

संज्ञा

[सं. आपाक = आवाँ, हिं. आवाँ,अँवा ]

कुम्हार का आँचा।

अंश

संज्ञा

[सं.]

भाग, विभाग।

अंश

संज्ञा

[सं.]

हिस्सा।

अंश

संज्ञा

[सं. अश्रु]

आँसू।

पेमघट उच्छवलित ह्वै है अंश नैन बहाइ-२४८६।

अंशी

वि.

[सं. अंशिन्]

अंशधारी, अंश रखनेवाला।

द्वारपाल इहै कही जौधा कोउ बचे नाहि, कांधे गजदत धरे सूर ब्रह्माअंशी--२६१०।

आधिक्य

संज्ञा

[सं.]

अधिकता।

आधी

वि.

[हिं. पुं. आधा]

किसी वस्तु के दो बराबर भागों में से एक।

आधीन

वि.

[सं. अधीन]

आश्रित, वशीभूत, लिप्त।

(क) ज्यौं कपि सीत-हतन-हित गुंजा सिमिटि होत लौलीन। त्यौं सठ वृथा तजत नहिं कबहूँ, रहत विषय-आधीन--१-१०२। (ख) भग्न भाजन कंठ, कृमि सिर, कामिनी-आधीन-१-३२१। (ग) सूरदास प्रभु बिन देखियत है सकल बिरह आधीन--२५३९।

आधीन

वि.

[सं. अधीन]

विवश, लाचार, दीन।

आधीन

वि.

[सं. अधीन]

अति आधीन होन मति ब्याकुल कहाँ लौं कहौं बनाइ--२८११।

आधीन

संज्ञा

दास, सेवक।

आधीनता

संज्ञा

[सं. अधीनता]

परवशता।

आधीनता

संज्ञा

[सं. अधीनता]

लाचारी, दीनता।

आधीनौ

वि.

[सं. अधीन]

आश्रित, वशीभूत, दबैल।

(क) पंच प्रजा अति प्रबल बली मिलि, मनबिधान जौ कीनौ। अधिकारी जम लेखा माँगे, तातै हौं आधीनौ--१-१८५। (ख) मैं निज भक्तनि कैं आधीनौ-९-५।

आधीर  

वि.

[सं. अधीर]

व्याकुल, अधीर।

समर मारहु कीट की रट सहत त्रिय आधीर-३१८०।

आनंदित, आनंदी

वि.

[सं.]

प्रसन्न, सुखी, हर्षित।

आनंदन

संज्ञा

[सं. आनंद]

आनंद, सुख।

(क) कुटिल अलक मुख, चंचल लोचन, निरखत अति आनंदन--४७६। (ख) कुँवरि सुनि पायौ अति अनिंदन-१० उ०-१६।

आनन्दना

क्रि. अ.

[हिं. आनंद]

सुख मानना, प्रसन्न होना।

आनंदबधाई

संज्ञा

[सं. आनंद + हिं. बधाई]

मंगल, उत्सव।

आनंदबधाई

संज्ञा

[सं. आनंद + हिं. बधाई]

मंगल अवसर।

आनंदवन

संज्ञा

[सं.]

काशी, सप्त पुरियों में चौथी, बनारस।

आनंदवन

क्रि. अ.

[सं. आनन्द]

आनंदित हुए।

(क) ब्रज भयौ महर कैं पूत, जब यह बात सुनी। सुनि आनंदे लोग सब, गोकुल-गनक-गुनी -- १०-२४। (ख) सूरदास प्रभु के गुन सुनि-सुनि अनन्दे ब्रजबासी-१०-८४।

आनंदै

संज्ञा

[सं. आनन्द]

आनंद ही आनंद।

आनंदै आनंद बढ्यौ अति। देवनि दिवि दुन्दुभी बजाई, सुनि मथुरा प्रगटे जादव पति--१०-६।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

मर्यादा।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

शपथ, सौगंध।

(क) केतिक जीव कृपिन मम बपुरौ, तजै कालहू प्रान। सूर एकहीं बान बिदारैं, श्री गोपाल की आन-१-२७५। (ख) मेरे जिय अब यहै लालसा लीला श्री भगवान। स्रवन करौं निसि-बासर हित सौं, सूर तुम्हारी आन-२-३३। (ग) मोंहि. बृषभान बबा की मैया मंत्र न लैहै--स० १०।

आधुनिक

वि.

[सं.]

वर्तमान समय का।

आधे

वि.

[सं. अर्द्ध, पा. अद्धो, प्रा. अद्ध, हिं. अ धा]

आधा भाग।

आधे-मैं जल वायु समावै -- ३-२३।

आधे

क्रि. वि.

आधे के समीप, थोड़ा।

हलधर निरखत लोचन आधे--२६०६।

आधैं  

वि.

[सं. अर्द्ध, पा. अद्धो, प्रा. अद्ध, हिं. आधा]

आधा ही।

लालहिँ जगाइ बलि गई माता। निरखि मुख-चंद-छबि, मुदित भई मनहिँ मन, कहत आधै बचने भयो प्राता--४४०।

आधो, आधौ

वि.

[सं. अद्धं, पा. अद्धो, प्रा. अद्ध, हिं. आधा]

आधा।

(क) हौँ तौ पतित सिरोमनि माधौ। अजामील बातनि हीँ तारयो, हुतौ जु मोतौं आधौ--१.१३९। (ख) बारंबार निरखि सुख मानत तजत नहीं पल आधो-२५०८।

आधो, आधौ

वि.

[सं. अद्धं, पा. अद्धो, प्रा. अद्ध, हिं. आधा]

थोड़ा, जरा भी।

तुम अलि सब स्वारथ के गाहक नेह न जानत आधो -- ३२४४।

आध्यात्मिक

वि.

[सं.]

आत्मा सम्बन्धी।

आनंद, आँनंद

संज्ञा

[सं.]

हर्ष, प्रसन्नता, सुख, मोद, आह्लाद।

आनंद, आँनंद

वि.

सानंद, आनंदमय, प्रसन्न।

आनंदत

क्रि. अ.

[सं. आनद]

आनंद मनाते हुए, प्रसन्न, हर्षित।

दसरथ चले अवध आनंदत -- -९.२७।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

दुहाई, विजय घोषणा।

(क) मेरे जान जनकपुर फिरि है रामचन्द्र की आन। (ख) रीछ लंगूर किलकारि लागे करन, आन , रघुनाथ की जाइ फेरी–९.१३८।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

ढंग, अदा, छवि।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

क्षण, अल्पकाल।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

अकड़, ऐंठ, ठसक।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

दबाव, शंका, डर।

हम दधि बेचन जाति हैं। मथुरा मारग रोकि रहत गहि अंचल कंस की आन न मानै-१०४३।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

लज्जा, अदब।

आन

संज्ञा

[सं. आणि = मर्यादा, सीमा]

प्रतिज्ञा, प्रण, हठ।

आन

वि.

[सं. अन्य]

दूसरा और।

(क) आन देव की भक्ति भाइ करि कोटिक कसब करैगौ -- १-७५। (ख) सूर सु भुजा समेत सुदरसन देखि बिरंचि भ्रम्यौ। मानौ आन सृष्टि करिबे कौं अंबुज नाभि जभ्यौ-१.२७३। (ग) जै दिवि भूतल सोभा समान। जै जै जै सूर, न सब्द आन-९-१६६।

आनक

संज्ञा

[सं.]

डंका, नगाड़ा।

आनक

संज्ञा

[सं.]

गरजता हुआ बादल।

आनक दुंदभी

संज्ञा

[सं.]

बड़ा नगाड़ा।

आनक दुंदभी

संज्ञा

[सं.]

कृष्ण के पिता वसुदेव जी जिनके जन्म पर देवताओं ने नगाड़े बजाये थे।

आनत

वि.

[सं.]

अत्यंत झुका हुआ, अति नम्र।

आनत

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आता है, होती है।

(क) माया मंत्र पढ़त मन निसि दिन, मोह मूरछा आनत-१-४९। (ख) इनकैं गृह रहि तुम सुख मानत। अति निलज्ज कछु लाज न आनत १-२८४।

आनत

क्रि. स.

[सं. आनयन, हिं. आनना]

लाता है।

इते मान यह सूर महासठ हरि-नग बदलि बिषय बिष आतत--१-१४४।

आनति

क्रि. स.

[सं. आनयन, हिं. आनना]

लाती है, रखती है।

तात कठिन प्रन जानि जानकी, आनति नहिडर धीर-९-२६।

आनद्ध

वि.

[सं.]

बँधा हुआ।

आनद्ध

वि.

[सं.]

मढ़ा हुआ।

आनद्ध

संज्ञा

[सं.]

मुख, मुँह।

आनद्ध

संज्ञा

[सं.]

चेहरा।

कुटिल भृकुटि, सुख की निधि अनत, कलकपोल की छबि न उपनियाँ--१०-१०६।

आनना

क्रि. स.

[सं. आनयन]

लाना।

आजबान

संज्ञा

[हिं.]

सजधज, ठाटबाट।

आजबान

संज्ञा

[हिं.]

ठसक।

आनयन

संज्ञा

[सं.]

लाना।

आनहु

क्रि. अ.

[सं. आनयन, हिं. आनना]

आओ।

आनहु

यौ.

लै आनहु- ले आओ।

आजु बन कोउ वै जनि जाइ। सब गाइनि बछरनि समेत, लै आनहु चित्र बनाइ -- १०-२०।

आना

संज्ञा

[सं. आणक]

रुपये का सोलहवाँ भाग।

आना

संज्ञा

[सं. आणक]

किसी वस्तु का सोलहवाँ भाग

आना

क्रि. अ.

[पुं. हिं. आवना]

किसी स्थान की ओर चलना, पहुँचना।

आना

क्रि. अ.

[पुं. हिं. आवना]

जाकर वापस आना लौटना।

आनी

क्रि. अ.

[हिं. आनन]

ठानी, निश्चित की।

रिषभदेव तबहीं यह जानी। कहयौ, इन्द्र यह कहा मन आनी-५-२।

आनीजानी

वि.

[हिं. आना + जाना]

अस्थिर, क्षणभंगुर।

आने

क्रि. अ.

[हिं. आनना]

ले आये, छुड़ा लाये।

गृह आने बसुदेव-देवकी, कंस महा खल मारयौ -- १-१७।

आनै

वि.

[सं. अन्य हिं. आन]

दूसरा, और।

अब मैं जानी, देह बुढ़ानी। सीस, पाउँ, कर कहयौ न मानत, तन की दसा सिरानी। आन कहत आनै केहि आवत, नैन-नाक बहै पानी -- १-३०५।

आनै

क्रि. स.

[सं. आनयन, हिं. आनना]

लावे, ले आये।

कालीदह के फूल कहौ धौं, को आनै, पछितात-५२७।

आनैँ

क्रि. अ.

[हिं. अन्ना]

लाऊँगा, मनूँगा।

जब रथ साजि चढ़ौं रने सन्मुख जय न आनौं तंक। राघव सैन समेत सँहारौं, करौं रुधिरमय पंक-९-१३४।

आनौ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

(कोई भाव या विशेषता) उत्पन्न करो।

(क) जड़ स्वरूप सब माया जानौ। ऐसौ ज्ञान हृदै मैं आनौ-३-१३। (ख) सो अब तुम सौं सकल बखानौं। प्रेम-सहित सुनि हिरदै आनौं--१०.२।

आनौ

क्रि. स.

[सं. आनयन, हिं. आनना]

लाओ, ले अओ

(ख) कान्ह कयौ हौं मातु अघानौ। अब मो कौं सीतल जल आनौ--३९७। (ख) गेंद खेलत बहुत बनिहै आनौ ६ देऊ जाइ-५३२।

आन्यौ

क्रि. अ.

[पुं. हिं. आवना, हिं. आना]

(कोई भाव) उत्पन्न हुआ या किया।

"(क) ब्रह्मा क्रोध बहुत मन आन्यौ-३.७। (ख) नेक मोहिं मुसकात जानि मनमोहन मन मुख आन्यौ-२२७५।"

आप

सर्व.

[सं. आत्मन्, प्रा. अत्तणो, अप्पण, पु. हिं. आपन]

स्वयं, अपने आप।

पारथ के सारथि हरि आप भए हैं-१-२३।

आना

क्रि. अ.

[पुं. हिं. आवना]

प्रारम्भ होना।

आना

क्रि. अ.

[पुं. हिं. आवना]

फलना, फूलना।

आना

क्रि. अ.

[पुं. हिं. आवना]

किसी भाव का जन्मना।

आनाकानी

संज्ञा

[सं. आनाकणंन]

सुनी अनसुनी करना, ध्यान न देना।

आनाकानी

संज्ञा

[सं. आनाकणंन]

टालमटोल।

आनाकानी

संज्ञा

[सं. आनाकणंन]

कानाफूसी, इशारों से बात।

आनि

क्रि. स.

[सं. आनयन, हिं. आनना]

लाकर, पकड़कर।

(क) सभा मँझार दुष्ट दुस्सासन द्रोपदि आनि धरी–१-१६। (ख) गुरु-सुत आनि दिए जमपुर तैं-१-१८।

आनि

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आकर, पहुँचकर।

हरि सौँ मीत न देख्यौं कोई। बिपति-काल सुमिरत तिहिँ ओसर आनि तिरीछौ होई-१-१६। ख) सूर स्याम अबकै इहिँ औसर आनि राखि ब्रज लीजै-२८१९।

आनिय

क्रि. स.

[हिं. आनना]

लाकर, लाना।

सगुन मूरति नंदनंदन हमहि आनिय देहुँ-३२८९।

आनी

क्रि. अ.

[हिं. आनन]

लायी गयी, उपस्थित की गयी।

जब गहि राजसभा मैं आनी। द्रुपद-सुता पट-हीन करन कौं दुस्साहन अभिमनी -- १-२५०।

आप

सर्व.

[सं. आत्मन्, प्रा. अत्तणो, अप्पण, पु. हिं. आपन]

तुम' और 'वे' के स्थान में आदरार्थक प्रयोग।

आप

सर्व.

[सं. आत्मन्, प्रा. अत्तणो, अप्पण, पु. हिं. आपन]

ईश्वर।

अस्तुति करी बहुत धुब सब बिधि सुनि प्रसन्न भे आप।

आप

मुहा.

आप आप सौं :- स्वयं से, अपने मन में से। उ.- पूरब जनम ताहि सुधि रही। आप आप सौं तब यौं कही-५-३।

आप

संज्ञा

[सं. आपः = जल]

जल, पानी।

आपगा

संज्ञा

[सं.]

नदी।

आपत

संज्ञा

[सं. आपद]

विपत्ति।

आपत

संज्ञा

[सं. आपद]

दुःख, कष्ट।

आपत्काल

संज्ञा

[सं.]

विपत्ति।

आपत्काल

संज्ञा

[सं.]

कुसमय।

आपत्ति

संज्ञा

[सं.]

दुख, क्लेश।

आपत्ति

संज्ञा

[सं.]

विपत्ति, संकट।

आपत्ति

संज्ञा

[सं.]

उन्न, एतराज।

आपदा

संज्ञा

[सं.]

दुख, क्लेश।

आपदा

संज्ञा

[सं.]

विपत्ति,  संकट।

आपदा

संज्ञा

[सं.]

कष्ट का समय।

आपन

सर्व.

[हिं. अपना]

अपना, निजी।

सुनि कृतघन, निसि दिन को सखा आपन, अब जो बिसारयौ करि बिनु पहचानि -- १-७७।

आपनपो

संज्ञा

[हिं. अपना + पौयापा (प्रत्य.)]

अपनायत।

आपनपो

संज्ञा

[हिं. अपना + पौयापा (प्रत्य.)]

आत्मभाव।

आपनी

सर्व.

[हिं. पुं. अपना]

निज़की, अपनी।

गनिका तरी आपनी करनी, नाम भयौ प्रभु तोरौ १-१३२।

आपने, आपनैं

सर्व.

[हिं. अपना]

अपने, अपने ही।

दुख, सुख, कीरति भाग आपनै आइ परै सो गहियै-१-६२।

अंशु

संज्ञा

[सं.]

किरण, प्रभा।

अंशु

संज्ञा

[सं.]

लेश, बहुत सूक्ष्म भाग।

दुख आवन कछ अटक न मानतः सूनो देखि अगार। अंशु उसाँस जात अंतर ते करत न कछू विचार--२८८८।

अंशुक

संज्ञा

[स.]

उपरना, उत्तरीय, दुपट्टा।

अंशुमान

संज्ञा

[सं.]

अयोध्या के सूर्यवंशी राजा जो सगर के पौत्र और असमंजस के पुत्र थे। सगर के साठ हजार पुत्रों के भस्म हो जाने पर अश्वमेध का घोड़ा खोजने ये ही निकले थे और इन्हें ही सफलता मिली थी।

अंशुमाली

संज्ञा

[सं.]

सूर्य।

अंस, अँस

संज्ञा

[सं. अंश]

भाग, शक्ति।

(क) विष्नु-अंस सौं दत्तऽउतरे। रुद्र-अंस दुर्बासा धरे। ब्रह्म-अंस चंद्रमा भयौ -- ४-३। (ख) राजा मंत्री सौं हित मानै। ताकैं दुख दुख, सुख-सुख जानै। नरपति ब्रह्म, अरु सुख-रूप। मन मिलि परयौ दुख कै कूप-.--.४.१२।

अंस, अँस

संज्ञा

[सं. अंश]

कला, सोलहवाँ भाग।

हरि उर मोहनि बेलि लसी। ता पर उरग ग्रसित तब सोभित पूरन अंस ससी-स. उ.-२५।

अंस, अँस

संज्ञा

[सं. अंश]

आत्मीयता, अपनत्व, अधिकार, संबंध।

इनके कुल ऐसी चलि आई सदा उजागर बंस। अब इन कृपा करी ब्रज आए जानि आपनो अंस३०४९।

अंस, अँस

संज्ञा

[सं. अंश]

कंधा।

बाम भुजहिं सखा अँस । दीन्हें, दच्छिन कर द्रुम-डरिया-४७०।

अंसक

वि.

[सं. अंशक]

अंश रखनेवाला, अंशी, अंशधारी।

आपनौ

सर्व.

[हिं. अपना]

अपना, स्वयं का, निजी, अपना ही।

रह्यौ मन सुमिरन को पछितायौ। यह तन राँचि राँचि करि बिरच्यौ, कियौ आपनो भयौ-१-६७।

आपन्न

वि.

[सं.]

दुखी।

आपन्न

वि.

[सं.]

प्राप्त।

आपस

संज्ञा

[हिं. आप + से]

सम्बन्ध, नाता।

आपस

संज्ञा

[हिं. आप + से]

एक दूसरे का साथ।

आपहु

सर्व.

[हिं. आप + हु (प्रत्य.)]

स्वयं भी, आप भी।

उग्रसेन की अपदा सुनि सुनि बिलखावै। कंस मारि, राज करै, आपहु सिरनावै--१-४।

आपा

संज्ञा

[हिं. आप]

अपनी सत्ता, अपना अस्तित्व।

आपा

संज्ञा

[हिं. आप]

अहंकार, गर्व।

आपा

संज्ञा

[हिं. आप]

होशवास, सुधबुध।

आपा

मुहा.

आप सँभारचौ :- होशियार हुआ, सजग हुआ, सँभल गया। उ.- जाइहौ अब कहाँ सिसु पाँव लैही इहाँ छाँड़ि तीजार आपा सँभारयौ-१० उ० ५६।

आपाधापी

संज्ञा

[हिं. आप + घाव]

अपनी अपनी चिंता या धुन।

आपाधापी

संज्ञा

[हिं. आप + घाव]

खींचतान, लागडाँट।

आपु

सर्व.

[हिं. आप]

स्वयं को, आप को।

सुत कुबेर के मत्त गगन भए, बिषै रस नैननि छाए (हो)। मुनि सहाय तैं भए जमल तरु, तिन्ह हित आपु बँधाए (हो)-१-७।

आपुन

सर्व.

[हिं. आप]

आप, स्वयं।

दुखित गयंदहिं जानि कै आपुन उठि धावै-१-४।

आपुनपौ

संज्ञा

[हिं. अपन +पौ या पा (प्रत्य.)]

आत्म गौरव, मान, मर्यादा।

धन-सुत-दारा काम न आवै, जिनहिं लागि आपुनपौ हारौ -- १-८०।

आपुनी

सर्व.

[हिं. पुं. अपना]

निज की।

भक्ति अनन्य आपुनी दीजै-३-१३।

आपुनौ

सर्व.

[हिं. अपना]

अपना।

आपुनो कल्यान करिलै मानुषी तन पाइ-१-३१५।

आपुस

संज्ञा

[हिं. आप + से = आपस]

एक दूसरे का साथ या संबंध। इसका प्रयोग कभी-कभी विशेशण की तरह भी होता है।

(क) दम्पति होड़ करत आपुस मैं स्याम खिलौना कीन्है री--१०-९८। (ख) आपुस मैं सब करत कुलाहल, धौरी धूमरि धेनु बुलाए-४४०। (ग) आपुम मैं सब कहत हँसत, येई अबिनासी -- ४९२। (घ) इर्ज बिजै दोऊ आपुस मे निरये बिधना आनि-१५७२।

आपुहिं

सर्व.

[हिं. आप + हिं. (प्रत्य.)]

अपने को, अपने को ही, स्वयं को।

सूरदास आपुहिं समुझावै, लोग बुरौ जिनि मानौ--१०६३।

आपूरना

क्रि. अ.

[सं. आपूरण]

भरना।

आबद्ध

वि.

[सं.]

बंदी, कँद।

आब्दिक

वि.

[सं.]

वार्षिक।

आभ

संज्ञा

[सं. आभा]

शोभा, कांति।

आभ

संज्ञा

[सं. अभ्र]

आकाश।

आभ

संज्ञा

[फा. आब]

पानी।

आभरन

संज्ञा

[सं. आभरण]

गहना, भूषण, अभूषण।

(क) पहिरि सब आभरन, राज्य लागे करन, आनि सब प्रजा दडवत कीन्हौ--४-११। (ख) मनि आभरन डार-डारन प्रतिं, देखत छबि मनहीं अँटकाए--७८४।

आभा

संज्ञा

[सं.]

चमक, दमक, कांति, प्रभा।

मुख-छबि देखि हो नँदघरनि। सरस निसि को अंसु अगनित इन्दु आभा हरनि-३५१।

आभा

संज्ञा

[सं.]

झलक, प्रतिबिंब, छाया।

आभार

संज्ञा

[सं.]

बोझ।

आभार

संज्ञा

[सं.]

गृहस्थी का बोझ।

आपूरि

क्रि. अ.

[सं. आपूरण, हिं. अपूरना]

भरा हुआ, पूणं है, घिरा है।

कहा कहैं छबि आजु की मुख मंडित खुर धूरि। मावौं पूरन चन्द्रमा, कुहर रह्योै आपूरि-४-३७।

आप

सर्व.

[हिं. आप]

आप ही, स्वयं ही।

हर्त्ता कर्त्ता आपै सोइ। घट-घट व्यापि रह्यौ है जोइ -- ७-२।

आप्त

वि.

[सं.]

प्राप्त, लब्ध।

आप्त

वि.

[सं.]

कुशल, दक्ष।

आप्लवन

संज्ञा

[सं.]

डुबाना, बोरना।

आब

संज्ञा

[फा.]

चमक, तड़क-भड़क, छटा, आभा।

आब

संज्ञा

[फा.]

प्रतिष्ठा, महिमा।

आब

संज्ञा

[फा.]

शोभा, छवि।

आब

संज्ञा

पानी।

आबद्ध

वि.

[सं.]

बँधा हुआ।

आभार

संज्ञा

[सं.]

उपहार, निहोर।

(क) हरि बंसी हरि दासी जहाँ। हरि करुना करि राखहु तहाँ। नित बिहार आभार दै-१८५६ (३०)। (ख) योग मिटि पति आहुब्योहारु। मधुबन बसि मधुरिपु सुनु मधुकर छाँड़े ब्रज आभार-३३७१।

आभरित

वि.

[सं.]

सजाया हुआ, अलंकृत।

आभारी

वि.

[सं. अभारिन्]

उपकार मानने वाला, उपकृत।

आभास

संज्ञा

[सं.]

छाया, झलक।

आभास

संज्ञा

[सं.]

पता, संकेत।

आभास

संज्ञा

[सं.]

मिथ्या ज्ञान।

आभीर

संज्ञा

[सं.]

अहीर, ग्वाल।

आभूषण, आभूषन

संज्ञा

[सं. आभूषण]

गहना, अलंकार।

उलटि अंग आभूषन साजति रही न देह सँभार -- -२५७२।

आभ्यंतर

वि.

[सं.]

भीतरी, अंदर का।

आमंत्रण

संज्ञा

[सं.]

संबोधन, बुलाना।

आमंत्रण

संज्ञा

[सं.]

निमंत्रण, न्योता।

आमंत्रित

वि.

[सं.]

बुलाया हुआ, सम्बोधित।

आमंत्रित

वि.

[सं.]

निमंत्रित।

आम

संज्ञा

[सं. आम्र]

रसाल नाम का फल।

आसरखना

क्रि. अ.

[सं. आमर्ष = क्रोध]

क्रुद्ध होना, क्रोध करना।

आमरण  

क्रि. वि.

[सं.]

मृत्यु तक।

आमर्ष

संज्ञा

[सं.]

क्रोध, गुस्सा।

आमर्ष

संज्ञा

[सं.]

असहनशीलता।

आमर्ष

संज्ञा

[सं.]

एक संचारी भाव।

आमलक

संज्ञा

[सं.]

आँवला।

आमिर

संज्ञा

[अ. आमिल]

अधिकारी, हाकिम।

आमिल

वि.

[सं. अम्ल]

खट्टा।

आमिष

संज्ञा

[सं.]

मांस, गोश्त।

आमिष

संज्ञा

[सं.]

भोग्य  वस्तु।

आमिष

संज्ञा

[सं.]

लोभ, लालच।

आसी

संज्ञा

[हिं. आम]

छोटा आम, अँबिया। जो बहुत खट्टी होती है।

आई प्रीति उघटि कलई सी जैसी खाटी आमी-३०८०।

आमोद

संज्ञा

[सं.]

आनन्द, हर्ष, प्रसन्नता।

सूर सहित आमोद चरन-जल लैकरि सीस धरे ९-१७१।

आमोद

संज्ञा

[सं.]

मनोरंजन

आमोद

संज्ञा

[सं.]

सुगंधि।

आमोद-प्रमोद

संज्ञा

[सं.]

भोग-विलास,-हँसी खुशी।

आमोदित

वि.

[सं.]

प्रसन्न, हर्षित

आमोदित

वि.

[सं.]

जिसका जी बहला हो

आमोदित

वि.

[सं.]

सुगधित।

आमीदी

वि.

[सं.]

प्रसन्न रहने वाला, हँसमुख।

आम्र

संज्ञा

आम का पेड़।

आम्र

संज्ञा

आम का फल।

आय

संज्ञा

[सं.]

आमदनी।

आय

क्रि. अ.

[सं. अस् = होना]

‘आसना' याँ आहना क्रिया का वर्तमानकालिक रूप। 'आहि शुद्ध रूप है।

आयत

वि.

[सं.]

विस्तृत, दीर्घ, विशाल।

आयत दृग अरुन लोल कुण्डल मंडित कपोल अधर दसन दीपति की छबि क्यों हूँ न जात लखी री-२३६२।

आयतन

संज्ञा

[सं.]

घर।

आयुः

संज्ञा

[सं. आयु]

वय, आयु।

शत। संबत आयुः कुल होइ-१२३।

आयुर्दा

संज्ञा

[सं. आयुर्दाय]

दीर्घायु।

नृप ऐसे आयुर्दा पाई। पृथ्वी हित नित करैं उपाई -- १२-३।

आयुष्मान

वि.

[सं.]

दीर्घजीवी।

आयोजन

संज्ञा

[सं.]

किसी कार्य में लगना,। नियुक्ति।

आयोजन

संज्ञा

[सं.]

प्रबन्ध, तैयारी।

आयोजन

संज्ञा

[सं.]

उद्योग।  

आयोजन

संज्ञा

[सं.]

सामग्री, सामान।

आयौ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आना' क्रिया के भूतकालिक रूप 'आया का ब्रज भाषा रूप, आया।

आयौ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

जन्मा, पैदा हुआ।

तिहिं घर देव-पितर काहे को जा घर कान्हर आयौ-३४६।

आयौ

प्र.

बाँधि क्यौं आयौ-किस प्रकार बाँधा गया, बाँधते समय इतनी कठोर कैसे रह सकी।

जसुदा तोहि बाँधि क्यों आयौ। कसक्यो नाहिं नैंकु मन तेरौ, यहै कोखि कौ जायौ -- -३७४।

आरंभ

संज्ञा

[सं.]

किसी काम की प्रथम अवस्था, उत्थान, शुरू।

आरंभ

संज्ञा

[सं.]

उत्पत्ति, आदि।

आआरंभना

क्रि. अ.

[सं. आरंभण]

शुरू करना।

आरंभ्यौ

क्रि. अ. भूत.

[हिं. आरंभना]

आरम्भ किया।

आर

संज्ञा

[हिं. अड़]

हठ, जिद।

(क) अँखियाँ करति हैं अति आर। सुँदर स्याम पाहुने के मिस मिलि न जाहु दिन गार -- -२७६९। (ख) कबहुँक आर करत माखन की कबहुँक मेघ दिखाइ बिनानी।

आर

संज्ञा

[अ.]

तिरस्कार, घृणा।

आर

संज्ञा

[अ.]

बैर, शत्रुता।

इहाँ नाहिंन नन्दकुमार। इहै। जानि अजान मधवा करी गोकुल आर-२०३४।

आरक्त

वि.

[सं.]

लाली लिये हुए, लाल।

आरक्त

वि.

[सं. आयं]

श्रेष्ठ, उत्तम।

(क) बिनु देखैं अब स्याम मनोहर, जुग भरि जात घरी। सूरदास सुनि आरज-पथ तेैं, कछु न चाइ सरी -- -- ६५ १। (ख) जब हरि मुरली अवर धरी। गृह ब्यौहार तजे आरज-पथ, चलत न सक करी-६५९। (ग) आरज पंथ चले कहासरिहै स्यामहि संग फिरौं री -- १६७२। (घ) इतने मान ब्याकुल भइ सजनी आरज पंथहुँ ते बिडरी -- -- २५४४। ( ङ ) आरज पथ छिड़ाय गौपिन अपने स्वारथ भोरी-२८६३।

आरत

वि.

[सं. आत्त]

दुखित, दुखी, कातर।

( क ) हा जदुनाथ, द्वारिका–वासी, जुग-जुग भक्त--आपदा फेरी। बसन-प्रबाह बढ़यौ सुनि सूरज, आरत बचन कहे जब टेरी-१-२५१। ( ख ) नंद पुकारत आरत, ब्याकुल टेरत फिरत कन्हाई –६०४।

अंसु

संज्ञा

[सं. अंशु]

किरण, प्रभा।

(क) मुख-छबि देखि हो नंद घरनि। सरद-निसि कौ अंसु अगनित इंदु आभा हरनि--३५१। (ख) जागिये गोपाल लाल, प्रगट भई अंसु-माल, मिट्यौ अंधकाल, उठौ जननी-सुखदाई-६१९।

अंसु

संज्ञा

[सं. अंश]

कंधा।

सखा अंसु पर भुज दीन्हें, लीन्हे मुरलि, अधर मधुर, बिस्व भरन--६२४।

अँसुपात

संज्ञा

[सं. अश्रु+ हिं. पात]

आँसू, आँसू की झड़ी।

इहिं बिधि सोच करत अति ही नृप, जानकि ओर निरखि बिलखात। इतनी सुनत सिमिटि सब आए, प्रेम-सहित धारे अँसुपात ९-३८।

अंसुमान

संज्ञा

[सं.]

[अंशुमान] अयोध्या के एक राजा जो सूर्यवंशी राजा सगर के पौत्र और असमंजस के पुत्र थे। राजा सगर के अश्वमेध का घोड़ा कपिल मुनि के यहाँ से ये ही लाए थे।

अँसुव

संज्ञा

[सं. अश्रु, पा. प्रा. अस्सु, हिं. आँसू]

आँसू।

हृदय ते नहि टरत उनके स्याम नाम सुहेत। अँसुव सलिल प्रवाह डर मनौं अरघ नैनन देत--३४८३।

अँसुवा

संज्ञा

[सं. अश्रु, पा. प्रा. अस्सु, हिं. आँसू]

आँसू।

(ख) देखि भाई हरि जू की लोट नि। यह छबि निरखि रही नंदरानी, अँसुवा ढरि-ढरि परत करोटनि-१०-१८७। (ख) चपल दृग, पल भरे अँसुवा, कछुक ढरि-ढरि जात-३६०।

अँसुवाना

क्रि. अ.

[सं. अश्रु]

डबडबा आना, आँसू आ जाना।

अइयै

क्रि. अ.

[हिं. आना, आइए]

पधारिए।

चरन धोइ चरनोदक लीन्हों, तिया कहै। प्रभु अइयै -- १-२३९।

अऊत

वि.

[सं. अपुत्र, प्रा. अउत्त]

निपूता, निसंतान।

अऊलना

क्रि. अ.

[सं. उल् = जलना]

जलना, गरम होना।

आयतन

संज्ञा

[सं.]

निवासस्थान।

आयतन

संज्ञा

[सं.]

देव-वंदना का स्थान।

आयत्त

वि.

[सं.]

अधीन, वशीभूत।

आयसु

संज्ञा

[सं.]

आज्ञा।

आया

क्रि. अ. भूत.

[हिं. आना]

उपस्थित हुआ, प्रस्तुत हुआ।

आया

क्रि. अ. भूत.

[हिं. आना]

जन्म लिया, पैदा हुआ, जन्मा।

हरि कह्यों अब न ब्यापिहैं माया। तब वह गर्भ छाँड़ि जग आया-१-२२६।

आयास

संज्ञा

[सं.]

परिश्रम।

आयु

संज्ञा

[सं.]

वय, उम्र, जीवनकाल।

आयु

मुहा.

आयु गई सिराइ :- आयु का अंत हो गया। उ.- काल अगिनि सबही जग जारत। तुम कैसे कैं जिअन बिचारत ? आयु तुम्हारी गई सिराइ। बन चलि भजौ द्वारिकाराइ--१-२८४। आयु खुटानी :- आयु कम हो गई। आयु तुलानी :- उम्र समाप्त हो गई। अन्त काल आ गया। उ.- रे दसकंध, अंधमति तेरी आयु तुलानी आनि-९-७९।

आयुध

संज्ञा

[सं.]

शस्त्र।

उरग इन्द्र उनमान सुभग भुज, पानि पदुम आयुध राजैं-१-६९

आराधक

वि.

[सं.]

उपासक, पूजनेवाला।

आराधन

संज्ञा

[सं.]

सेवा, पूजा, उपासना।

जिहिं मुख कौ समाधि सिव. साधी आराधन ठहराने (हो)। सो मुख चूमति महरि जसोदा, दूध लार लपटाने (हो)-१०-१२८।

आराधन

संज्ञा

[सं.]

तोषण, प्रसन्न करना।

आराधना

संज्ञा

[सं.]

पूजा, उपासना।

आराधना

क्रि. स.

[सं. आराधन]

उपासना करना, पूजन।

आराधना

क्रि. स.

[सं. आराधन]

संतुष्ट करना, प्रसन्न करना।

आराधनीय

वि.

[सं.]

अराधना के योग्य।

आधारित

वि.

[सं.]

जिसकी उपासना हुई हो, पूजित।

आराधे

क्रि. स.

[सं. आराधन, हिं. आराधन]

उपासना की, पूजे।

सूर भजन महिमा दिखरावत, इमि अति सुगम चरन आराधे-९-५८।

आराधैँ

क्रि. अ.

[सं. आराधन, हिं. आराधना]

उपासना या पूजा करें।

(क) जती, सती, तापस आराधैँ, चारौं बेद रटै। सूरदास भगवंत-भजन-बिनु करम-फाँस न कटै-१-२६३। (ख) कहियोै जाई जोग आराधैं अबिगत अथक अमाप--२९७९। ]

आरभटी

संज्ञा

[सं.]

कोघाधिक उग्र भावों की चेष्टा।

झूठौ मन, झूठी सब काया, झूठी आरभटी। अरू झूठति के बदन निहारत मारत फिरत लटी -- १-९८।

आरव

संज्ञा

[सं.]

शब्द।

आरव

संज्ञा

[सं.]

आहट।

आरषी

वि.

[सं. आर्ष]

ऋषियों का।

आरस

संज्ञा

[सं. आलस्य]

आलस्य।

आरस

संज्ञा

[हिं. आरसी]

शीशा, दर्पण।

आरसी

संज्ञा

[सं. आदर्श]

शीशा, दर्पण।

आरसी

संज्ञा

[सं. आदर्श]

एक गहना जिसमें शीशा जड़ा रहता है और जिसे स्त्रियाँ दाहिने अंगूठे में पहनती हैं।

आराज

वि.

[सं. अ + राजन्, हिं. अराज]

बिना राजा का।

होइ तिन क्रोध तब साप ताकौं दियौ, मारिकै ताहि जग-दु:ख टारौ। भयौ आराज जब, रिषिन तब मंत्र करि, बेनु की जाँघ को मथन कीन्हौ-४-११।

आरति

संज्ञा

[सं.]

शत्रु, वैरी।

आरत

संज्ञा

दुखी व्यक्ति, दीन मनुष्य।

सूर दाम सठ तातैं हरि भजि आरत के दुख-दाइक -- १-१९।

आरति

संज्ञा

[सं. आरात्रिक, हिं. आरती]

आरती, नीराजन।

( क) राम, लखन अरु भरत सत्रुहन, सोभित चारों भाई। .........। कौसिल्य आदित महतारी, अरति करहिं बनाइ--९-२९। (ख) अति सुख कौसिल्या उठि धाई। उदित बदन मन मुदित सदन तेैं, आरति साजि सुमित्रा ल्याई -- ९. १६९।

आरति

संज्ञा

[सं. आर्ति]

दुख, क्लेश।

आरति

संज्ञा

[सं. आर्ति]

हठ, जिद।

साँझ हि तेैं अति हीं बिरू झानौं, चंदहिं देखि करी अति आरति-१०-२००।

आरति

संज्ञा

[सं. आर्ति]

अनीति।

नंद घरनि ब्रजनारि बिचारति ब्रजहि बसत सब जनम सिरानौ, ऐसी करी न आरति -- -५२९।

आरति

संज्ञा

[सं.]

विरक्ति।

आरतिवंत

संज्ञा

[सं. आतं + वंत]

दुखी पर दया करनेवाला व्यक्ति।

सब-हित-कारन देव अभय पद, नाम प्रताप बढायौ। आरतिवंत सुनत गज कुंदन फंदन काटि छुड़ायौ-१-१८८

आरती

संज्ञा

[सं. आरात्रिक]

नीराजन

आरती

संज्ञा

[सं. आरात्रिक]

वह पात्र जिसमें कपूर आदि रखकर आरती की जाती है।

हरि जु की आरती बनी। अति बिचित्र रचना रचि राखी परति न गिरा गनी -- २-२८।

आरन

संज्ञा

[सं. अरण्य]

जंगल, वन।

आराध्य

वि.

[सं.]

पूज्य, पूजनीय।

आराध्यौ

क्रि. स. भूत.

[सं. आराधन, हिं. आराधना]

उपासना या पुजा की।

(क) लै चरनोदक निज ब्रत साध्यौ। ऐसी बिधि हरि कौं आराध्यौ ९.५ (ख)ब्रह्मबान कानि करी, बल, करि नहिँ बाँध्यौ। कैसेँ परताप घठै, रघुपति आराध्यौ-९-९७।

आराम

संज्ञा

[सं.]

उपवन, फुलवारी, बाग।

आराम

संज्ञा

[फा.]

सुख, चैन, विश्राम।

आरि

संज्ञा

[हिं. अड़]

हठ, टेक, जिद।

( क ) आरि करत कर चपल चलावत, नंद-नारि-आनन छुवै मदहिं। मनौ भुजंग अमीरस-लालच, फिरि-फिरि चाहत सुभग सुचंदहिँ-१०-१०७। (ख) कलबल कै हरि-आरि परे। नव रँग बिमल नवीन जलधि पर, मानहु द्वै ससि-आनि अरे-१०-१४१। (ग) जब दधि-मथनी टेकि अरै। आरि करत मटुकी गहि मोहन, बासुकि संभु डरै-१०-१४२।

आरी

संज्ञा

[सं. आर = किनारा]

किनारा, ओट, तरफ।

आरूढ़

वि.

[सं.]

चढ़ा हुआ, सवार।

(क) आजु अति कोपे हैं रन राम। ब्रह्मादिक आरूढ़ बिमाननि. देखत हैँ संग्राम--९-१५८। (ख) रथ आरूढ़ होत बलि गई होइ आयौ परभात--२५३१।

आरूढ़

वि.

[सं.]

दृढ़, स्थिर।

आरे

संज्ञा

[सं. आलय, हिं. आला]

आला, ताख।

दै मैया भौँरा चक डोरी। जाइ लेहु आरे पर राख्यो, काल्हि मोल लेै राख्यौ कोरी--६६९।

आरोगत

क्रि. स.

[सं. आ + रोगना == हिं. आरोगना]

खाते हैं, भोजन करते हैं।

(क) उज्ज्वल पान, कपूर, कस्तुरी, आरोगत मुख की छबि रूरी-३९६। (ख) आरोगत हैँ श्रीगोपाल। षटरस सौंज बनाइ। जसोदा, रचिकै कंचन-थाल–३९७।

आरोगना

क्रि. स.

[सं. आ + रोगना (रूज् = हिं.सा)]

खाना, भोजन करना।

आरोगे

क्रि. अ.

[हिं. आरोगना]

खाया, भोजन किया।

सबरी परम भक्त रघुबर की बहुत दिनन की दासी। ताके फल आरोगे रघुपति पूरन भक्ति प्रकासी।

आरोग्य

वि.

[सं.]

रोग रहित, स्वस्थ।

आराधन

संज्ञा

[सं. आ + रुंधन-फेंकना]

रोकने या छेंकने की क्रिया।

मौनाऽपवाद पवन आरो धन हित काम निकंदन -- ३०१४।

आरोधना

क्रि. स.

[सं. आ + रुंधन]

रोकना, छेंकना।

आरोधि

क्रि. स.

[सं. आरोधना]

रोककर, छेंककर।

अति आतुर आरोधि अधिक दुख तेहि कह डरति न यम औ कालहिं।

आरोप

संज्ञा

[सं.]

स्थापित करना, लगाना।

आरोप

संज्ञा

[सं.]

मिथ्याभास, झूठी कल्पना।

आरोपण

संज्ञा

[सं.]

स्थापित करना।

आरोपण

संज्ञा

[सं.]

एक वस्तु के गुण को दूसरी में मानना

आरोपण

संज्ञा

[सं.]

मिथ्याज्ञान, भ्रम।

आरोपना

क्रि. स.

[सं. आरोपण]

लगाना, स्थापित करनां।

आरोह

संज्ञा

[सं.]

ऊपर की ओर जाना।

आरोह

संज्ञा

[सं.]

आक्रमण।

आरोह

संज्ञा

[सं.]

सवारी।

आरोह

संज्ञा

[सं.]

अविर्भाव, विकास।

आरोह

संज्ञा

[सं.]

संगौस के स्वरों का चढ़ाव।

आरोहण

संज्ञा

[सं.]

चढ़ना, सबार होना।

आरोहण

संज्ञा

[सं.]

वश में करना।

आसन बैसन ध्यान धारण मन अरोहण कीजै -- ३२६१।

आरोहण

संज्ञा

[सं.]

अंकुर निकलना।

आरोही

वि.

[सं. आरोहिन्]

ऊपर जाने वाला।

आरोही

वि.

[सं. आरोहिन्]

उन्नतिशील।

आरोही

संज्ञा

संगीत में वह स्वर जो उत्तरोत्तर चढ़ता जाम।

आरोही

संज्ञा

सवार।

आर्जव

संज्ञा

[सं.]

सीधापन।

आर्जव

संज्ञा

[सं.]

सुगमता।

आर्जव

संज्ञा

[सं.]

व्यवहार को सरलता।

आर्त्त

वि.

[सं.]

चोट खाया हुआ।

आर्त्त

वि.

[सं.]

दुखी कातर।

आर्त्त

वि.

[सं.]

अस्वस्थ।

आर्तनाद

संज्ञा

[सं. आत्तं= दुखी + नाद = शब्द]

दुखसूचक।

आर्तस्वर

संज्ञा

[सं. आत्तं = दुख + स्वर]

दुख सूचक शब्द।

आर्त्ति

संज्ञा

[सं.]

पीड़ा, दर्द।

आर्त्ति

संज्ञा

[सं.]

दुख, कष्ट।

आर्थिक

वि.

[सं.]

धन संबंधी।

आर्द्र

वि.

[सं.]

गीला।

आर्द्र

वि.

[सं.]

सना, लथपथ।

आर्द्रता

संज्ञा

[सं.]

गीलापन।

आर्द्रा

संज्ञा

[सं.]

एक नक्षत्र।

आर्द्रा

संज्ञा

[सं.]

आर्द्रा नक्षत्र के उदय का समय।

आर्य

वि.

[सं.]

श्रेष्ठ, उत्तम।

आर्य

वि.

[सं.]

बड़ा, पूज्य।

आर्य

वि.

[सं.]

श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न।

आर्य

संज्ञा

श्रेष्ठ कुल में उत्पन्न पुरुष।

आर्य

संज्ञा

एक प्राचीन सभ्य जाति। ये कैस्पियन सागर से गंगा-यमुना तक बसे थे। वर्तमान हिंन्दू जाति अपने को इन्हीं का वंशज मानती है।

आर्य पुत्र

संज्ञा

[सं.]

आदरसूचक शब्द।

आर्य पुत्र

संज्ञा

[सं.]

पति के संबोधन का संकेत।

आर्यावर्त

संज्ञा

[सं.]

उत्तरीय भारत जहाँ आर्य । बसे थे।

आरयौ

संज्ञा

[हिं. आर = अड़]

अड़, हठ।

आरयौ

संज्ञा

[हिं. आर = अड़]

निवेदन, अनुरोध

बृषभानु की घरनि जसोमति पुकारयौ। पठै सुत-काज कोँ कहति हौँ लाज तजि, पाइ परिकै महरि करति आरयौ-७५१।

अऊलना

क्रि. अ.

[सं. = अच्छी तरह + शुलन प्रा. सूलन, हिं. हूलना]

छिदना, चुभना।

अएरना

क्रि. स.

[सं. अंगीकरण, प्रा. अंगिअरण, हिं. अंगरना]

स्वीकार करना, धारण करना।

अकंटक

वि.

[सं.]

बिना काँटे का।

अकंटक

वि.

[सं.]

निर्विघ्न, बाधारहित, बिना खटके का।

अकत्थ

वि.

[स. अकथनीय]

न कहने योग्य, अकथनीय।

अकथ

वि.

[सं.]

जो कहा न जा सके, वर्णन के बाहर, अकथनीय, अवर्णनीय,।

(क) अकथ कथा याकी कछू, कहत नहीं कहि आई (हो)१-४४। (ख) य अब कहति देखावहु हरि कौ देख हु री यह अकथ कहानी-१-१२७६। (ग) सिंह रहै जंबुक सरनागत, देखी-सुनी न अकथ कहानी-.-पृ० ३४३। (घ) कमल जैन जगजीवन के सखी गवत अकथ कहानी-२७९६। किनहूँ के सँग धेनु चरावत हरि की अकथ कहानी-३४११।

अकथन

वि.

[सं. अकथ, अकथ्य]

जो वर्णन न किया जा सके, अवर्णनीय, अकथनीय।

मन, बच करि कर्म रहित बेदहु की बानी। कहये जो नि बहिबे अकथन कहुँ सोही। सूरस्याम मुख सुचंद्र लीनि जुवति मोही-३२८९।

अकधक

संज्ञा

[सं. धू = धड़कना, काँपना]

आशंका भय, डर।

अकनत

क्रि. स.

[सं. आकर्णन = सुनना, हिं. अकनना]

ध्यान से, कान लगाकर, आहट लेकर।

नगर सोर अकनत सुनत अति रुचि उपजावत -- २५६१।

अकनना

क्रि. स.

[सं. आकर्णन-सुनना]

कान लगाकर सुनना, आहट लेना।

आर्ष

वि.

[सं.]

ऋषि-सम्बन्धी।

आर्ष

वि.

[सं.]

वैदिक।

आलंकारिक

वि.

[सं.]

अलंकार-संबंधी। अलंकार-युक्त।

आलंब

संज्ञा

[सं.]

आश्रय, सहारा।

आलंब

संज्ञा

[सं.]

गति, शरण।

आलंबन

संज्ञा

[सं.]

आश्रय, सहारा।

आलंबन

संज्ञा

[सं.]

वह अवलंब जिससे रस की उत्पत्ति होती है।

आलंबन

संज्ञा

[सं.]

साधन, कारण।

आलंबित

वि.

[सं.]

आश्रित, अवलम्बित।

आलंभ

संज्ञा

[सं.]

मिलना, पकड़ना।

आलंभ

संज्ञा

[सं.]

वध, हिंसा।

आल

संज्ञा

[अनु.]

झंझट, बखेड़ा।

आल

संज्ञा

[सं• आर्द्र] गीलापन, तरी।

आल

संज्ञा

आँसू

आल

संज्ञा

[सं. अल् = भूषित करना]

एक पौधा जिसका उपयोग रंग बनाने के लिए होता है।

आल मजीठ ल.ख सैदुर कहुँ ऐसेहि बुधि अबरेखत -- ११०८।

आलय

संज्ञा

[सं.]

स्थान।

जानोँ हौँ बल तेरौ रावन। पठवोँ कुटुँब सहित जम-आलय, नैँकु देहि धौँ मोकाँ आबन-९-१३१।

आलय

संज्ञा

[सं.]

घर, मदिर।

मनिमय भूमि नंद कैं आलय, बलि बलि जाउँ तोतरे बोलनि--१०-१२१।

आलबाज

संज्ञा

[सं.]

थाला, अवाल।

रजत, रूचिर कपोल महावर रद मुद्रावलि नाइ दई री मनहुँ पीक दल सींचि स्वेद जल आलबल रीति बेलि बई री--२११५।

आलस

सं.

[सं. आलस्य]

आलसय, सुस्ती।

(क) सुनि सतसंग होत िअय आलस-बिष यिनि सँग विसरानी-१.१४८। ( ख ) उनके अछत अपने आलस काहे कंत रहन कृसगात -- -१० उ-५९।

आलस

वि.

आलली , सुस्त, जो शीघ्रता से काम न करे।

आलसवंत

वि.

[सं. आलसवंत]

आलस्ययुक्त। डगमगात डग धरत परत पग आलसवंत जम्हात। मानहु मदन दंत दै छाँड़े चुटकी द्वै द्वै गात-२१६५।

आलसी

वि.

[हिं. आलस]

सुम्त काम करने में धीमा।

आलस्य

सं.

[सं.]

सुस्ती, काहिली।

आला

वि.

[सं. आर्द्र या ओल]

गीला, भीगा,

आला

वि.

[सं. आर्द्र या ओल]

हरा, ताजा।

आला

संज्ञा

[सं. आलात]

कुम्हार का आवाँ।

आलान

संज्ञा

[सं.]

हाथी बाँधने की रस्सी।

आलान

संज्ञा

[सं.]

बंधन, रस्सी।

आलाप

संज्ञा

[सं.]

बातचीत।

आलाप

संज्ञा

[सं.]

स्वरसाधन, तान।

आलापक

वि.

[सं.]

बात करने वाला।

आलापक

वि.

[सं.]

गाने . वाला।

आलापना

क्रि. स.

[सं.]

गाना, सुर साधना।

आलापित

वि.

[सं.]

कथित, संभाषित।

आलापित

वि.

[सं.]

गया हुआ।

आलापिनी

संज्ञा

[सं.]

बाँसुरी, बंशी।

आलापी

वि.

[सं. अलापिन्]

बोलने वाला।

कामी, बिबस कामिनी कैँ रस, लोभ-लालसा थापी। मन-क्रम-बचन दुसह सबहिन सौ, कटुक बचन आलापी-१-१४०।

आलापी

वि.

[सं. अलापिन्]

तान लगाने वाला, गायक।

आलिंगन

संज्ञा

[सं.]

गले से या छाती से लगाने की क्रिया, परिरंभण।

आलिंगना

क्रि. स.

[सं.]

हृदय से लगाना, गले लगाना।

आलिंगित

वि.

[सं.]

हृदय से लगाया हुआ, परिरंभित।

आलि

संज्ञा

[सं.]

सखी, सहेली।

आलि

संज्ञा

[सं.]

भ्रमरी।

आलि

संज्ञा

[सं.]

पंक्ति, अवली।

आली

संज्ञा

[सं. अलि]

सखौ, सहेली, गोइयाँ।

स्याम सुभग कैं ऊपर वारौं, आली कोटि अनंग-६४०।

आली

वि.

[सं. आद्रं]

गीली, तर।

आली

वि.

[हिं. आल)

आंल के रंग का।

आलेख

संज्ञा

[सं.]

लिखावट, लिपि।

आलेख्य

संज्ञा

[सं.]

चित्र, तसवीर।

आलेप

संज्ञा

[सं.]

लेप।

आलेपन

संज्ञा

[सं.]

लेप करने का काम।

आलै

संज्ञा

[सं. आलय]

घर, निधान।

जो पै प्रभु करुना के आलै। तौ कत कठिन कठोर होत मन मोहिं बहुत दुख सालै--३४९१।

आलोक

संज्ञा

[सं.]

प्रकाश, चाँदनी।

आलोक

संज्ञा

[सं.]

चमक, ज्योति।

आलोक

संज्ञा

[सं.]

दर्शन।

आलोकन

संज्ञा

[सं.]

दर्शन।

आलोचक

वि.

[सं.]

देखने वाला।

आलोचक

वि.

[सं.]

आलोचना करने यो जाँचने वाला।

आलोचन

संज्ञा

[सं.]

दर्शन।

आलोचन

संज्ञा

[सं.]

गुणदोष-विचार, विवेचन।

आलोड़न

संज्ञा

[सं. आलोड़न]

मथना।

आलोड़न

संज्ञा

[सं. आलोड़न]

सोच विचार।

आलोड़ना

क्रि. स.

[सं. आलोड़न]

मथना।

आलोड़ना

क्रि. स.

[सं. आलोड़न]

हिलोरना।

आलोड़ना

क्रि. स.

[सं. आलोड़न]

सोचना-विचारना, ऊहापोह करना।

आव

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आता है।

आव

संज्ञा

[सं. आयु]

आयु, उम्र।

आव आदर

संज्ञा

[हिं. आना + सं. आदर]

आवभगत, आदर-सत्कार।

आवई

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आती है।

मन प्रतीति नहिं आवई, उड़िबौ ही जाने-९-४२।

आवई

मुहा.

(मथनि नहिं) आवई :- मथने का ज्ञान या जानकारी नहीं है। उ.- मथन नहिं मोहिं आवई तुम सौंह दिवायो-७१६।

आवनहार

वि.

[हिं. आवन = आना +हार(प्रत्य.) = वाला]

आने वाला, आने को।

माधव जी आवनहार भए। अंचल उड़त मन होत गहगहो फरकत नैन खए-१० उ.-१०७।

आवनो

संज्ञा

[पं. हिं. आगवन, आवन]

आगमन, आना।

सुनि स्यामा नवसत सँग सखी लै बरसाने तेहि आवनो--२२८०।

आवभगत

संज्ञा

[हिं. आवना + भकि]

आदर. सत्कार।

आवभाव

संज्ञा

[हिं. आवना + सं. भाव]

आदर सत्कार।

आवरण  

संज्ञा

[सं.]

आच्छादन, ढकना।

आवरण  

संज्ञा

[सं.]

परदा।

आवर्त्त

संज्ञा

[सं.]

पानी का भवर।

आवर्त्त

संज्ञा

[सं.]

वह बादल जिससे पानी न बरसे।

आवर्त्त

वि.

घूमा हुआ।

आवर्तन

संज्ञा

[सं.]

चक्कर, घुमाव, फिराव।

आवज

संज्ञा

[सं. आवाद्य, पा. आवज्ज]

एक बाजा जो ताशे के ढंग का होता है और जिसे चमार बजाते हैं।

आवझ

संज्ञा

[हिं. आवाज)

ताशे की तरह का एक बाजा।

एक पटह एक गोमुख एक आवझ एक झालरी एक अमृतकुण्डली एक डफ एक कर धारे--२४२५।

आवटना

संज्ञा

[सं. आवर्त, पा. आवट्ट]

हलचल, उथलपुथल

आवटना

संज्ञा

[सं. आवर्त, पा. आवट्ट]

सोचविचार, ऊहापोह।

आवटना

क्रि. स.

[हिं. औटना]

गरम करना, खौलाना।

आवत

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आता है।

(क) सूर स्याम् बिनु अंतकाल मैं कोउ न आवत नेरे -- १-८५। (ख) देखे स्याम राम दोउ आवत गर्व सहित तिन जोवत-२५७४।

आवति

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आती है।

कह्यौ, सुतनि-सुधि आवति व बहीं-१-२८४।

आबिते

क्रि. अ.

[पु. हिं. आवना, हिं. आना]

आते हैं।

इहिं बिरिया बन ते ब्रज आवत-२७३५।

आवन

संज्ञा

[सं. आगमन, पु. हिं. आगवन]

आगमन, आनाँ, आने की क्रिया।

(क) अपने आवन को कहौ कारन-४-३। (ख) बाणी सुनि बलि पूजन लागे, इहाँ बिप्र करो आवन-८.१३। (ग) मृदु मुसुकानि आनि राखो पिय चलत कह्यौ है आवन-२७५२। (घ) धनि हरि लियो अवतार, सु धनि दिन आवन रे--१०अ.२८। (ङ) सुन्दर पथ सुन्दर गति-आवन, सुन्दर मुरली सब्द रसाल-४७४।

आवन

क्रि. अ.

[हिं. आना]

किसी भाव का उत्पन्न होना।

संतोषादि न आवन पावैं। बिषय भोग हिरदै हरषावै–४.१२।

आवर्तन

संज्ञा

[सं.]

विलोड़न, मथन।

आवलि आवली

संज्ञा

[सं.]

पंक्ति, श्रेणी।

आवश्यक  

वि.

[सं.]

जरूरी।

आवश्यक  

वि.

[सं.]

काम की।

आवश्यकता

सं.

[सं.]

अपेक्षा, जरूरत।

आवश्यकता

सं.

[सं.]

प्रयोजन, मतलब।

आवहिंगे   

क्रि. अ.

[हिं. आवना]

आयेंगे

ऐसे जो हरि आवहिंगे-२८८९।

आवहीं

क्रि. अ.

[हिं. आवना या आनना]

लाये जायँगे।

काल्हि कमल नहिं आवहीं, तोै तुमको नहिं चैन-५८९।

आवागमन

संज्ञा

[हिं. आवा = आना +सं. गमन]

आना-जाना।

( १ ) कहौ कपि जनक-सुताकुसलात। आवागमन सुनावहु अपनो, देहु हमेैं सुख गात -- ९-१०४। (२) जन्म और मरण।

आवागवन, आवागौन

संज्ञा

[स. आवागमन]

आना-जाना।

अकना

क्रि. अ.

[सं. अकुल]

अब ना, उकताना।

अकनि

क्रि. स.

[सं. अ कर्णन = सुनना, हिं. अकनना]

सुनकर।

अकनि

यौ.

अकनि रहत-कान लगा कर या चुपचाप सुनते रहते (हैं) ध्यान में मग्न।

आलस गात जात मनमोहन, सोच करत, तनु नाहिंन चंनु। अकनि रहत कहुं , सुनत नहीं कछु, नहिँ गो-रंभन बालक-बैनु-५०१।

अकनी

क्रि. स.

[सं. अकर्णन = सुनना, हिं. अकनन]

आहट ली, सुनी।

क ह्यो तुम्हारो सबै कही मैं और कछु अपनी। स्रवनन बचन सुनत हूं उनके जो घट मॅह अकनी-३४६५।

अकबक

संज्ञा

[सं. अवाक्य, अवाच्य]

असंबद्ध प्रलाप।

अकबक

संज्ञा

[सं. अवाक्य, अवाच्य]

धड़क, चिता।

अकबक

संज्ञा

[सं. अवाक्य, अवाच्य]

चतुराई,सुध।

अकबक

वि.

[सं. अवाक्]

भौचक्का, अवाक्, चकित।

अकबकात

क्रि. अ.

[सं. अवाक्, हिं. अकब का ना]

चकित होते हैं, भौचक्के रह जाते हैं, घबड़ाते हैं।

सकसकात तन, धकधकात उर अकब कात सब ठाढ़। सूर उपंगमुत बोलत नाहीं अति हिरदै ह्वै गाढ़े -- २९६९।

अकबकाना

क्रि. अ.

[सं. अवाक]

चकित होना; भौचक्का रह जाना।

आवाहन

संज्ञा

[स]

निमंत्रित करना।

आविर्भाव

संज्ञा

[सं.]

उत्पत्ति, जन्म।

दशरथ नृपति अयोध्या-राव। नाकैं गृह कियौ आविर्भाव -- ९-१५।

आविर्भाव

संज्ञा

[सं.]

प्रकाश।

आविर्भाव

संज्ञा

[सं.]

आवेश।

आविर्भूत

वि.

[सं.]

प्रकाशित, प्रकटित।

आविर्भूत

वि.

[सं.]

उत्पन्न।

आविष्कर्ता

वि.

[सं.]

नयी वस्तु का आविष्कार करने वाला।

आविष्कार

संज्ञा

[सं.]

प्रकाश, प्राकट्य।

आविष्कार

संज्ञा

[सं.]

सर्वथा नयी वस्तु प्रस्तुत करना।

आवृत्त

वि.

[सं.]

छिपा हुआ।

आवागवन, आवागौन

संज्ञा

[स. आवागमन]

जन्म-मरण।

आवाज

संज्ञा

तुं. [फा. आवाज)

शब्द, ध्वनि।

आवाज

संज्ञा

तुं. [फा. आवाज)

बोली, स्वर।

आवाज

संज्ञा

तुं. [फा. आवाज)

कोलाहल, शोर।

आवाय  

संज्ञा

[सं.]

थाला।

आवाय  

संज्ञा

[सं.]

हाथ का कड़ा, कंकण।

आवाल

संज्ञा

[सं.]

थाला।

आवास

संज्ञा

[सं.]

निवासस्थान।

आवास

संज्ञा

[सं.]

मकान।

आवाहन

संज्ञा

[स]

मंत्र द्वारा किसी देवता को बुलाना।

आवृत्त

वि.

[सं.]

आच्छादित।

आवृत्त

वि.

[सं.]

घिरा हुआ।

आवृत्ति

संज्ञा

[सं.]

दोहराना।

आवृत्ति

संज्ञा

[सं.]

पाठ  करना, पढ़ना।

आवेग  

संज्ञा

[सं.]

चित्त की प्रबल वृत्ति, जोश।

आवेग  

संज्ञा

[सं.]

एक संचारी भाव।

आवेदन

संज्ञा

[सं.]

अपनी दशा बताना, निवेदन।

आवेश

संज्ञा

[सं.]

व्याप्ति, संचार।

आवेश

संज्ञा

[सं.]

चित्त की प्रेरणा, आतुरता।

आवेष्ठन

संज्ञा

[सं.]

छिपाना, ढकना।

आवैं

क्रि. अ. बहु.

[हिं. आना]

आते हैं। यौ-कहत न आवै -- वणंन नही किये जा सकते।

सूर विचित्र चरित स्याम के रसना कहत न आवै--१०-९७।

आवैंगे  

क्रि. अ.

[सं. आगमन, पुं. हिं. आवना, हिं. आना)

आवेंगे, अ पहुँचेंगे।

जहाँ तहाँ तै तब आवैगे, सुनि-सुनि सस्तो नाम-१-१९१।

आबैं

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आवे, आ जाय।

आबैं

मुहा.

आवै-जावै :- आना-जाना, आवागमन।

आवौं  

क्रि. अ.

[हिं. आवना, आना]

आ जाउँ, आउँ, आता हूँ।

जबै आवौं साधु संगीत, कछक मन ठहराइ-१ ४५।

आशंका

संज्ञा

[सं.]

डर, भय।

आशंका

संज्ञा

[सं.]

सन्देह।

आशंका

संज्ञा

[सं.]

अनिष्ट की भावना।

आशय

संज्ञा

[सं.]

अभिप्राय, तात्पर्य।

आशय

संज्ञा

[सं.]

वासना, इच्छा।

आशा

संज्ञा

[सं.]

किसी इच्छित बस्तु के पाने का थोड़ा-बहुत निश्चय।

आशिष

संज्ञा

[सं.]

आशीर्वाद, आसीस

आशिष

संज्ञा

[सं.]

एक अलंकार जिसमें ऐसी वस्तु के लिए प्रार्थना होती है जो अप्राप्त हो।

आशिषा

संज्ञा

[सं.]

आशीर्वाद, आसीस।

सूर प्रभु चरित पुर नारि देखत खरी महल पर आशिषा देत लोभा -- २५९१।

आशिषाक्षेप

संज्ञा

[सं.]

एक अलंकार।

आशीर्वाद

संज्ञा

[सं.]

आशिष, आसीस।

आशु

क्रि. वि.

[सं.]

शीघ्र, तुरन्त।

आशुतोष

क्रि. वि.

[सं.]

शीघ्र सन्तुष्ट या प्रसन्न होने वाला।

आशुतोष

संज्ञा

शिव, महादेव।

आश्चर्य

संज्ञा

[सं.]

विस्मय, अचरज।

आश्चर्य

संज्ञा

[सं.]

एक स्थायी भाव।

आश्रिम

संज्ञा

[सं.]

तपोवन।

आश्रिम

संज्ञा

[सं.]

विश्राम का स्थान।

आश्रिम

संज्ञा

[सं.]

हिंदुओं के जीवन की चार अवस्थाएँ-ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ और संन्यास।

आश्रय

संज्ञा

[सं.]

आधार, सहारा।

आश्रय

संज्ञा

[सं.]

शरण, ठिकाना

आश्रय

संज्ञा

[सं.]

भरोसा।

आश्रय

संज्ञा

[सं.]

घर।

आश्वासन

संज्ञा

[सं.]

सांत्यना, धीरज।

आश्रित

वि.

[सं.]

सहारे टिका या ठहरा हुआ।

आश्रित

वि.

[सं.]

शरणागत।

आश्रित

वि.

[सं.]

सेवक, दास।

आषत

संज्ञा

[सं. अक्षत]

देवताओं पर चढ़ाने का बिना टूटा चावल, अक्षत।

सूर समूह पय धार परम हित आषत अमल चढ़ावो-सा ० ९।

आषाढ़

संज्ञा

[सं.]

आषाढ़ का महीना जो जेष्ठ के बाद आता है।

आषी

संज्ञा

[हिं. आँख]

आँख।

तो हम को होती कत यह गति निसि दिन बरषत आषी--२-७३९।

आसंग

संज्ञा

[सं.]

साथ, संग।

आसंग

संज्ञा

[सं.]

लगाव, सम्बन्ध।

आसंग

संज्ञा

[सं.]

आसक्ति, अनुरक्ति।

आसंदी

संज्ञा

[सं.]

मचिया, मोढ़ा।

आसंदी

संज्ञा

[सं.]

खटोला।

आस

संज्ञा

[सं. आशा]

आशा।

इतनेहि धीरज दियो सबन को अवसि गए दै आस--२५३४।

आस

संज्ञा

[सं. आशा]

लालसा, कामना।

आस

संज्ञा

[सं. आशा]

सहारा, भरोसा।

आस

मुहा.

आस लगाये :- भरोसे पर रहना, सहारे पर रहना। उ.- पद-नौका की आस लगाये बूड़त हौं बिनु छाँह-१-१७५। आस पुजविहु :- इच्छा या आशा पूरी करो। उ.- तुम का हूँ धन दैलै, आवहु, मेरे मन की आस पुजाबहु -- ५-३।

आसक्त

वि.

[सं.]

लीन, लिप्त।

आसक्त

वि.

[सं.]

मुग्ध, मोहित।

आसक्ति

संज्ञा

[सं.]

अनुरक्ति, लिप्तता।  

आसक्ति

संज्ञा

[सं.]

लगन, चाँह, प्रेम।

आसति

संज्ञा

[सं. आसति]

निकटता, समीपता।

सूर तुरत तुम जाय कहौ यह ब्रह्म बिना नहिं आसति -- -२९१९।

आसतीक

संज्ञा

[सं. आस्तीक]

एक ऋषि जो जरत्कारु ऋषि और वासुकि नाग की कन्या के पुत्र थे। इन्होंने जनमेजय के सर्पसत्र में तक्षक का प्राण बचाया था।

आसन  

संज्ञा

[सं.]

बैठने के लिए मूँज, कुश आदि को चौखूँटो बिछावन।

कुस-आसन दै तिन्हहिं बिठायौ -- १-३४१।

आसन  

संज्ञा

[सं.]

बैठने की विधि।

आसना

क्रि. अ.

[सं. अस् = होना]

होना।

आसना

संज्ञा

[सं. आसन]

जीव।

आसना

संज्ञा

[सं. आसन]

वृक्ष।

आसन्न

वि.

[सं.]

समीप आया या पहुँचा हुआ, प्राप्त।

आसपास

क्रि. वि.

[अनु. आरा + सां. पाश्र्व]

चारों ओर, निकट, इर्द-गिदे, अगल-बगल।

कटि ठट पीत, मेखला मुखरित, पाइनि नूपुर सोहै। आसपास बर ग्वाल-मंडली, देखत त्रिभुबन मोहै -- ४५१।

आसमान  

संज्ञा

[फा.]

आकाश।

आसमान  

संज्ञा

[फा.]

स्वर्ग, देवलोक।

आसय  

संज्ञा

[सं. आशय]

अभिप्राय, तात्पर्य।

आसा

मुहा.

आसा लागी :-( काम पूरा होने या कुछ प्राप्त होने की) आशा बँधी है। उ.- बहुत दिननि की आसा लागी, झगरिनि झगरौ कीनौ १०-१५। लागि आसा रही :- प्राप्ति होने या काम पूरा होने की सम्भावना थी। उ.- जन्म तेैं एक टक लागि आसा रही, बिषय-बिष खात नहिं तृप्ति मानी -- -१-११०।

आसामुखी

वि.

[सं. अशा + मुख]

(दूसरे का ) मुँह जोहने वाला, (किसी की) सहायता चाहनेवाला।

आसावरी

संज्ञा

[सं. आशावरी अथवा अशावरी, हिं. असावरी]

एक प्रधान रागिनी जो भैरव राग की स्त्री मानी गयी है। इसके गाने का समय प्रातःकाल सात से नौ बजे तक है।

माल्वाई राग गौरी अरु आसाबरी राग। कन्हरो हिंडोल कौतुक तान बहु बिधि लाग -- २२७९।

आसी

वि.

[सं. अशिन, हिं. आशी]

खाने वाला, भक्षक।

मथि मथि सिंधु-सुधा सुर पोषे संभु भए बिष आसी-३३०६।

आसीन

वि.

[सं.]

बैठा हुआ, विराजमान।

आसीस

संज्ञा

[सं. आशिष ]

आशीर्वाद।

पुनि कह्यौ, देहु आसीस मम प्रजा कौं, सबैं हरिभक्ति निज चित्त धारैं -- ४.११।

आसीस

संज्ञा

[सं. आ+शीर्ष]

तकिया।

आसु

सर्व.

[सं. अस्य]

इसका।

आसु

क्रि. वि.

[सं. अशु]

शीघ्र, तुरंत।

आसुर

संज्ञा

[सं. असुर ]

असुर राक्षस।

अकरखना

क्रि. स.

[सं. आकर्षण]

खींचना, तानना।

अकरखना

क्रि. स.

[सं. आकर्षण]

चढ़ाना।

अकरतौ

क्रि. अ.

[हिं. आ = अच्छी तरह + कड्ड = कड़ा पन, हिं. अकड़ना]

अभिमान दिखाता, घमंड करता, अकड़ जाता।

कबहुंक राम-मान मद पूरन, कालहु तैं नहिं डरतौ। मिथ्या बाद आप-जस सुनि-सुनि, मूछहिं पकरि अकरतौ –१-२०३।

अकरन

वि.

[सं. अ = नहीं + करण, अकरणीय]

न करने योग्य।

दयानिधि तेरी गति लखि न परै। धर्म अधर्म, अधर्म धर्म करि, अकरन करन करै १-१०४।

अकरन

वि.

[सं. अ = नहीं + करण, अकरणीय]

बिना कारण का, अकारण।

अकरम

संज्ञा

[सं. अकर्म]

न करने योग्य कार्य, बुरा काम, दुष्कर्म।

अकरम, अबिधि, अज्ञान, अवज्ञा, अनमारग, अनरीति। जाकौ नाम लेत अध उपजै, सोइ करत अनीति-१-१२९।

अकराथ

वि.

[सं. अकायर्थ, प्रा. अकारियल्थ]

अकारथ, व्यर्थ, निष्फल।

अकरी

वि.

[सं. अक्रय्य, हिं. अकरा (पुं.)]

मॅहगी, अधिक दाम की।

ऊधौ तुम बज मैं पैठ करी। लै आए हो नफा जानि कै सबै बस्तु अकरी--३१०४।

अकरी

वि.

[सं. अक्रय्य, हिं. अकरा (पुं.)]

खरी, श्रेष्ठ, उत्तम, अमूल्य।

अकरुन

वि.

[सं. अकरुण]

निर्दयी, निष्ठर।

आसय  

संज्ञा

[सं. आशय]

वासना, इच्छा।

आसरना

क्रि. स.

[सं. आश्रय़]

अश्रय या सहारा लेना।

आसरा  

संज्ञा

[सं. आश्रय]

सहांरा, आधार।

आसरा  

संज्ञा

[सं. आश्रय]

आशा, भरोसा।

आसरा  

संज्ञा

[सं. आश्रय]

शरण।

आसरो

संज्ञा

[सं. आश्रय, हिं. आसरा]

भरोसा, आशा।

जब उनको आसरो कियो जिय तबही छोड़ि गए-पृ० ३२०।

आसव

संज्ञा

[सं.]

फलों के खमीर से तैयार किया हुआ मद्य।

आसवी

वि.

[सं.]

मद्यप, शराबी।

आसा

संज्ञा

[सं. आशा]

आशा, अप्राप्त के पाने की इच्छा।

हिंसा-मद-ममता-रस भूल्यौ, आसाहीं लपटानौ-१-४७।

आसा

संज्ञा

[सं. आशा]

इच्छित वस्तु के पाने के कुछ निश्चय का सन्तोष।

आसुरी

वि.

[सं.]

असुर सम्बन्धी, असुरों का।

आसुरी

संज्ञा

राक्षसी।

आसौं

क्रि. वि.

[सं. अस्मिन, प्रा. अस्सि = इस + सं. साल = वर्ष]

इस वर्ष।

आस्चर्य

संज्ञा

[सं. आश्चर्य]

अचरज की बात, असंगत बात।

कहाँ धनुष कहाँ हम बालक कहि आस्चर्य सुनाए--२५८६।

आस्तिक

वि.

[सं.]

वेद, ईश्वर आदि पर जिसका विश्वास हो।

आस्तिक

वि.

[सं.]

ईश्वर के अस्तित्व परजिसे विश्वास हो।

आस्था

संज्ञा

[सं.]

श्रद्धा।

आस्था

संज्ञा

[सं.]

सभा, बैठक।

आस्था

संज्ञा

[सं.]

आलम्बन।

आस्पद

संज्ञा

[सं.]

स्थान।

आह

संज्ञा

कराहना, उसाँस, ठंडी साँस।

मारै मार करत भट दादुर पहिरे बहु बरन सनाह। अरै कवच उघरे देखियत मनो बिरहिनि घाली आह-२८२६।

आह

संज्ञा

[सं. साहस = स + आहस्]

साहस।

आह

संज्ञा

[सं. साहस = स + आहस्]

बल।

आहट

संज्ञा

[हिं. आ= आना + हट (प्रत्य.)]

चलने का शब्द, पाँव को चाप, खड़का।

आहट

संज्ञा

[हिं. आ= आना + हट (प्रत्य.)]

आवाज जिससे किसी स्थान पर किसी के रहने का अनुमान हो।

आहट सुनि जुवती घर आई देख्यौ नन्द कुमार। सूर स्याम मन्दिर अँधियारैं, निरखति बारंबार-१०-२७७।

आहट

वि.

[सं.]

घायल।

आहट

वि.

[सं.]

कंपित, थर्राता  हुआ।

आहर

संज्ञा

[सं. अहः]

समय, दिन।

आहाँ  

संज्ञा

[सं. आह्वान]

हाँक, दुहाई।

आहाँ  

संज्ञा

[सं. आह्वान]

पुकार, बुलावा।

आस्पद

संज्ञा

[सं.]

कार्य।

आस्पद

संज्ञा

[सं.]

पद, प्रतिष्ठा।

आस्पद

संज्ञा

[सं.]

वंश, कुल।

आस्वाद

संज्ञा

[सं.]

रस, स्वाद।

आस्वादन

संज्ञा

[सं.]

चखना, रस या स्वाद लेना।

आस्रम

संज्ञा

[सं. आश्रम]

आश्रम, तपोवन।

रिषि समीक केैं आस्रम आयौ। रिषि हरि-पद सौ ध्यान लगायौ -- १-२९०।

आस्रित

वि.

[सं. अश्रित]

सहारे पर टिका याठ्हरा हुआ।

आस्रित

वि.

[सं. अश्रित]

भरोसे पर रहने वाला, अधीन।

आह

क्रि. अ.

[आसना का वर्त. रूप]

है, रहा है।

(क) तिन कह्यौ--मेरो पति सिव आह-४-७। (ख) नृपति कह्यौ, मारग सम आह -- ५-४। ताके देखन की मोहिं चाह। कह्यौ, पुरुष वह ठाढ़ौ आह-९-२

आह

अव्य.

[सं. अहह]

पीड़ा, शोक, खेद सूचक अव्यय।

आहा

अव्य.

[सं. अहह]

आश्चर्य और हर्षसूचक अव्यय।

आहार

संज्ञा

[सं.]

भोजन, खाना।

जेतक सस्त्र स्रो किए प्रहार सो करि लिए असुर आहार-६-५।

आहार

संज्ञा

[सं.]

खाने की वस्तु।

आहार-विहार

संज्ञा

[सं.]  

रहन-सहन, शारीरिक व्यवहार।

आहिं

क्रि. अ. बहु.

[‘आसना' का वर्तमानकालिक रूप]

हैं।

गीध ब्याध, गनिकाऽरुअजामिल, ये को आहिं बिचारे। ये सब पतित न पूजत मो सम जिते पतित तुम तारे-१-१७९।

आहि

क्रि. अ.

एक [’आसना' का वर्तमानकालिक रूप] है।

(क) उमा आहि यह सो मुँडमाल। जब जब जनम तुम्हा्रौ भयौ तब तब मुण्डमाल मैं लयौ-१-२२६। (ख) तृनावर्त प्रभु आहि हमारो इनहीं मारचौ ताहि-२५७४।

आहूत

वि.

[सं.]

बुलाया हुआ, निमंत्रित।

आहुति

संज्ञा

[सं.]

मंत्र पढ़कर देवता के लिए द्रव्य अग्नि में डालना, होम, हवन।

सिव आहुति-बेरा जब आई। बिप्रनि दच्छहिं पूछयौ जाई -- ४.५।

आहुति

संज्ञा

[सं.]

होम-द्रव्य की वह मात्रा जो एक बार कुंड में डाली जाय।

आहुति जज्ञ कुण्ड मैं डारी। चह्यौ, पुरुष उपजै बल भारी-४-५।

आहुति

संज्ञा

[सं.]

हवन में डालने की सामग्री।

इंचना

क्रि. अ.

[हिं. खिंचना]

आकर्षित होना।

इँडहर

संज्ञा

[सं. इष्ट + हर (प्रत्य.)]

उर्द और चने की दाल को पीठी का बना हुअ सालन।

अमृत इँडहर है रससागर। बेसर सालन अधिकी नागर।

इंदा

संज्ञा

[सं. इन्द्रा अयवा इंदिरा]

राधा की एक सखी का नाम।

इंद्रा बिदा राधिका स्यामी कामा नारि -- पृ० २५२ (२)।

इंदारुन

संज्ञा

[इंद्रावारुणी]

इंद्रायन।

इंदिरा

संज्ञा

[सं.]

लक्ष्मी।

इंदिरा

संज्ञा

[सं.]

शोभा, कांति।

इंदीवर

संज्ञा

[सं.]

नीला कमल।

इन्दीवर-सुत

संज्ञा

[सं. इन्दीवर = कमल + सुत पुत्र]

कमल को चूर्ण या सिंदूर।

ईंदीवर-सुत कर कपोल में है सिंगार रस राधे-सा० ६।

इन्दु

संज्ञा

[सं.]

चन्द्रमा।

इन्दु

संज्ञा

[सं.]

कपूर।

इंग

संज्ञा

[सं.]

चिह्न।

इंग

संज्ञा

[सं.]

हाथी का दाँत।

इंगन

संज्ञा

[स.]

हिलना-डोलना।

इंगन

संज्ञा

[स.]

संकेत करना।

इंगला

संज्ञा

[सं. इड़ा]

बाई ओर की एक नाड़ी जो बाएँ नथने से श्वास निकालती है।

इंगला (इड़ा) पिंगला सुखमना नारी। सून्य सहज में बसहिं मुरारी-३४४२ (८)।

इंगित

संज्ञा

[सं.]

संकेत, चेष्टा, इशारा।

इंगित

वि.  

हिलता हु्‍आ, चकित।

इँगुदी

संज्ञा

[सं.]

एक पेड़, हिंगोट का पेड़।

इंगुर

संज्ञा

[सं. हिं.गूल, प्रा. इंगुल, हिं. ईगुर]

ईगुर।

इंगुरौटी

संज्ञा

[हिं. ईगुर + औटा प्रत्य. )]

सिंदूर रखने की डिबिया।

आहुती

संज्ञा

[सं. आहुति]

होम, हवन।

आहुती

संज्ञा

[सं. आहुति]

हवन की सामग्री।

आहैं

क्रि. अ. बहु.

[आसना' का वर्त. बहु. रूप]

हैं, हुए हैं।

महरि स्याम कौं बरजति काहैं न। जैमे हाल किए हरि हमकौं, भए कहूँ जग आहैं न-७७२।

आहै

क्रि. अ.

['आसना' का वर्तमान कालिक रूप]

है।

प्रबल सत्रु आहैं यह मार यातैं संतौ, चलौं सँभार-१-२२९।

आह्लाद

संज्ञा

[सं.]

आनंद, हर्ष।

आह्लादित

वि.

[सं.]

प्रसन्न, हर्षित, आनंदित।

आल्लान

संज्ञा

[सं.]

बुलाना, आमंत्रित करना।

देवनागरी वर्णमाला का तीसरा स्वर। तालु इसका स्थान है।

इंग

संज्ञा

[सं.]

हिलना-डुलना।

इंग

संज्ञा

[सं.]

संकेत।

इन्दु

संज्ञा

[सं.]

एक की संख्या।

इन्दुकर

संज्ञा

[सं.]

चन्द्रमा को किरण।

इन्दुकला  

संज्ञा

[सं.]

चन्द्रमा की कला।

इन्दुकला  

संज्ञा

[सं.]

चन्द्रमा की किरण।

इन्दुमती

संज्ञा

[सं.]

पूर्णिमा।

इन्द्र

वि.

[सं.]

ऐश्वर्यवान्।

इन्द्र

वि.

[सं.]

श्रेष्ठ, बड़ा।

इन्द्र

संज्ञा

एक वैदिक देवता जो पानी बरसाता है। यह देवराज कहाँ गया है। ऐरावत इसका वाहन; वज्र, अस्त्र; शची, स्त्री जयंत पुत्र ; अमरावती नगरी; नन्द, वन; उच्चैश्रवा, घोड़ा; और मातलि , सारथी है। इसकी सुधर्मा नामक सभा में देव, गंधर्व और अप्सरायों रहती हैं। वृत्र, वलि और विरोचन इसके प्रधान शत्रु हैं। यह ज्येष्ठ नक्षत्र और पूवं दिशा का स्वामी है।

इन्द्र

संज्ञा

स्वामी।

इन्द्र

संज्ञा

चौदह की संख्या।

इन्द्रजाल

संज्ञा

[सं.]

जादूगरी, मायाकर्म।

इन्द्रजित

वि.

[सं.]

इन्द्रियों को जीतने वाला।

देखिकै उमा कौं रुद्र लज्जित भए कह्यौ मैं कौन यह काम कीनौ। इन्द्रजित हाैं कहावत हुतौ, आपु. कौं समुझि मन माँहिं ह्वै रह्यौ खीनौ-८-१०।

इन्द्रजित

संज्ञा

[सं.]

रावण का पुत्र मेघनाद जिसने देवराज को जीता था।

लंकापति इन्द्रजित कौं बुलायौ-९-१३५।

इन्द्रजीत

वि.

[सं.]

इन्द्र को जीतने वाला।

इन्द्रजीत

संज्ञा

[सं.]

रावण का पुत्र मेघनाद जिसने इन्द्र को जीता था।

इन्द्रद्युम्न

संज्ञा

[सं.]

एक राजा जो अगस्त्य ऋषि के शाप से गज हो गया था और ग्रह से युद्ध होने पर जिसका उद्धार नारायण ने किया।

इन्द्रधनुष

संज्ञा

[सं.]

वर्षाकाल में आकाश में दिखायी देने वाला सतरंगी अर्द्ध वृत्त। यह सूर्य की विपरीत दिशा में जल से पार उसकी किरणों की प्रतिच्छया से बनता।

इंद्रनील

संज्ञा

[सं.]

नीलमणि, नीलम।

इन्द्रनील-मनि तैं तन सुन्दर, कहा कहै बल चेरौ--१०-२१६।

इन्द्रपुर

संज्ञा

[सं.]

स्वर्ग।

नृप कह्यौ, इंन्द्र पुर की न इच्छा हमैं -- ४-११।

इंद्रपुरी

संज्ञा

[सं.]

अमरावती।

अकर्त्ता

वि.

[सं.]

कर्म न करने वाला, कर्म से निलिप्त।

अकर्म

संज्ञा

[सं.]

न करने योग्य कार्य, बुरा काम।

अकर्मा

वि.

[सं.]

काम न करने वाला, काम के लिए अनुपयुक्त।

अकर्षि

क्रि. स.

[सं. आकर्षण, हिं. आकर्षना]

खींच कर, आकर्षित कर के।

जेहि माया बिरंचि सिव मोहे, वहै बानि करि चीन्हौ। देवकि गर्भ अकर्षि रोहिनी, आप बास करि लीन्हौ-१०-४।

अकलंक

संज्ञा

[सं. कलंक]

दोष, लांछन।

अकलंकता

संज्ञा

[सं.]

कलंकहीनता, निदोंषिता।

अकलंकित

वि.

[सं.]

निष्कलंक, निर्दोष, शुद्ध, निर्मल।

अलक तिलक राजत अकलंकित मृगमद अंग बनी -- -पृ. ३१६।

अकल

वि.

[सं.]

अखंड, सर्वांगपूर्ण

[प्रेम पिये बर बारुनी बलकल बल न सँभार। पग डगड जिउ तित धरति मुकुलित अकल लिलार-११८२।

अकल

वि.

[सं.]

परमात्मा का एक विशेषण।

(क) पहिले हौं ही हो तब एक। अमल, अकल, अज, भेदबिवर्जित , सुनि बिधि विमल बिबेक-२-३८। (ख) फिरत बन बन बिकल सहस सोरह सकल ब्रह्मपुरन अकल नहीं पावै-। १८०६।

अकल

संज्ञा

[अ. अक्ल]

बुद्धि, समझ, ज्ञान।

इंद्र ढोठ बलि खाइ हमारी देखौ अकल गमाई-९८५।

इंद्रप्रस्थ

संज्ञा

[स.]

एक प्राचीन नगर जो आधुनिक दिल्ली के निकट था और जिसे पांडवों ने खांडव बन जलाकर बसाया था।

इन्द्रबाहन

संज्ञा

[इन्द्र + वाहन = सवारी (इन्द्र की सवारी = ऐरावत]

हाथी।

चाहत गंध बैरी बीर। आपनो हित चहत अनहित होत छोड़त तीर। नृत भेद बिचार वा बिनु इन्द्रबाहन पास--सा. २८।

इन्द्रलोक

संज्ञा

[सं.]

स्वर्ग।

इंद्रा

संज्ञा

[सं.]

इन्द्र की स्त्री शची।

इन्द्राणी  

संज्ञा

[सं.]

इन्द्र की पत्नी, शची।

इन्द्राणी  

संज्ञा

[सं.]

दुर्गा देवी।

इंद्रानी

संज्ञा

[सं. इन्द्राणी]

इन्द्र की पत्नी, शची।

इन्द्रायन

संज्ञा

[सं. इन्द्राणी]

एक फल जो देखने में बड़ा सुन्दर पर स्वाद में कडुवा होता है।

इन्द्रायुध

संज्ञा

[सं.]

वज्र।

इन्द्रायुध

संज्ञा

[सं.]

इन्द्रधनुष।

इंद्रासन  

संज्ञा

[सं.]

इंद्र का सिंहासन।

इंद्रासन  

संज्ञा

[सं.]

राज सिंहासन।

इन्द्रिय

संज्ञा

[सं.]

वह शक्ति जिससे वाह्य वस्तुओं के गुणों और रूपों का ज्ञान प्राप्त होता है।

इन्द्रिय

संज्ञा

[सं.]

शरीर के अवयव जिनके द्वारा वाह्य वस्तुओं के रूप-गुण का अनुभव होता है। इनके दो वर्ग हैं- ज्ञानेंद्रिय और कर्मेंद्रिय। ज्ञानेंद्रियाँ पाँच हैं जो केवल गुणों को अनुभव कराती है -- चक्षु (रूप-ज्ञान) श्रोत्र (शब्द-ज्ञान), नासिका (गंध ज्ञान), रसना (स्वादज्ञांन) और त्वचा (स्पर्श द्वार ज्ञान) कर्मेंद्रियाँ भी पाँच हैं जिनके द्वारा विविध कर्म किये जाते हैं- वाणी हाथ, पैर गुदा और उपस्थ। इन दसों इन्द्रियों के अतिरिक्त एक उभयात्मक अंतरंद्रिय है ‘मन' जिसके चार विभाग हैं--मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त।

अपनी रुचि जित ही जित एचति इंद्रिय कर्मगटी। हौं तितहीं उठि चलत कपट लगि, बाँधे नैनपटी-१९८।

इन्द्रयजित्

वि.

[सं.]

जिसने इन्द्रियों को वश में कर लिया हो, जो विषय में लीन न हो।

इन्द्रयजित्

संज्ञा

रावण का पुत्र मेघनाद जिसने इंद्र को पराजित किया था।

इंद्रियार्थ

संज्ञा

[सं. इन्द्रिय + अर्थ]

रूप, रस, गंध,शब्द आदि विषय जिनका अनुभव या ज्ञान इन्द्रियों द्वारा होता है।

इन्द्री

संज्ञा

[सं. इन्द्रिय]

पाँच ज्ञानेंद्रिय और पाँच कर्मेंद्रिय जिनसे क्रमशः विषय-ज्ञान और कर्म होते हैं।

(क) मीन इंद्री तनहिं काटत मोट अघ सिर भार। (ख) त्रिगुन प्रकृति तेैं महत्तत्व, महत्तत्व तैं अहँकार मन-इन्द्री-सब्दादि पँच, तातैं कियौ बिस्तार-२०३५।

इन्द्री

संज्ञा

[सं. इन्द्रिय]

स्त्री-पुरुष सूचक अवयव लिंग।

पंचम मास हाड़ बल पावै। छठैं मास इन्द्री प्रगटावै--३:१३।

इकंग

वि.

[सं. एकांग]

एक ओर का एकांकी।

इकंत

वि.

[सं. एकांत]

निर्जन, अकेला, सूनसान।

इक

वि.

[सं. एक]

एक।

(क) (कुंति) धरति न इक छिन धीर-१-२९। (ख) सखी री स्याम सबै इक सार-२६८७।

इकआँक

क्रि. वि.

[सं. इक == एक + अंक = निश्वय]

निश्चय, अवश्य।

इकइस

वि.

[सं. एकविंशत्, प्रा. एक्कबीस, हिं. इक्कीस]

इक्कीस।

इकजोर

क्रि. वि.

[सं. एक + हिं. जोर = जोड़ना]

इकट्‍ठा, एक सTथ।

देखि सखि चारि चन्द्र इकजोर। निरखति बैठि नितंबिनि पिय सँग सारसुता की ओर।

इकटक

संज्ञा

[हिं. एकटक]

टकटकी लगाकर देखने की क्रिया, स्तब्ध, दृष्टि।

(क) बलिहारी छबि पर भई, इकटक चख लावै। फरकत बदन उठाइ कै, मनहीं मन भावै-१०-७२। (ख) इकटक रूप निहारि, रहीं मेटति चित-आरति -- ४३७।

इकट्ठा

वि.

[सं. एक + स्थ = एकस्थ, प्रा. इकट्ठो]

एकत्र।

इकठाईं

वि.

[सं. एक + हिं. ठाई = स्थान]

एक स्थान पर इकट्ठा, एकत्र।

तब सब गाइ भई इकठाई--६१४।

इकठाई

वि.

[सं. एक + हिं. ठाँव = स्थान]

एक स्थान पर।

इकठाई

वि.

[सं. एक + हिं. ठाँव = स्थान]

एकांत।

इकठैन

वि.

[सं. एक + स्थान]

एक स्थान पर, एक ठौर, इकट्ठा।

सुनति हीं सब हाँकि ल्याए, गाइ करि इकठैन--४२७।

इकठौरी

वि.

[सं. एक + हिं. ठौर]

एक ठौर या एक स्थान पर, इकटठा।

अपनी अपनी गाइ ग्वाल सब, आनि करौ इकठौरी-४४५।

इकठौर

वि.

[हिं. इक + ठौर]

एक स्थान पर एकत्र, एक साथ, एक पास है।

(क) जब पाँड़े इत-उत कहुँ गए। बालक सब इकठौरे भए... ७.२। (ख) जेवत कान्हु नंद इकठौरे -- -१०-२२४।

इकतन

क्रि. वि.

[हिं. एक + तन(ओर)]

एक ओर।

इकतन ग्वाल एकतन नारी। खेल मच्‍यौ ब्रज के बिच भारी--२४०८।

इकतर  

वि.

[सं. एकत्र]

इकट्ठा।

इकताई

संज्ञा

[भा. यकता]

एक होने का भाव, एकत्व।

इकताई

संज्ञा

[भा. यकता]

अकेले रहने की चाहया प्रकृति।

इकतना  

वि.

[सं.एक+हिं. तानना =खिंचाय]

एकसा स्थिर, अनन्य।

इकतारा  

संज्ञा

[हिं. एक + हिं. तार]

बराबर, समान।

इकतारा  

संज्ञा

[हिं. एक + तार]

एक प्रकार का तानपूरा या तँबूरा।

इकतीस

संज्ञा

[सं. एकत्रिंशत्, पा. इकतीस]

तीस और एक की संख्या।

इकत्र

क्रि. वि.

[सं. एकत्र]

इकट्ठा।

इकरस

वि.

[सं. एक + रस]

समान, बराबर।

इकला

वि.

[हिं. अकेला]

एकही, अकेला।

इकलाई

संज्ञा

[सं. एक + हिं. लाई या लोई = पर्व]

एक पाट की महीन सारी या चादर।

इकलाई

संज्ञा

[सं. एक + हिं. लाई या लोई = पर्व]

अकेलापन।

इकसर  

वि.

[सं. एक + हिं. सार (प्रत्य.)]

अकेला, एकाकी।

इकसार

वि.

[सं. एक + हिं. सार = समान]

,एक समान, एक सा, समान।

नीच-ऊँच हरि कैं इकसार--७-८।

इकसारी  

वि.

[सं. एक + हिं.सार]

एक सी।

अति निसंक, निरलज्ज अभागिन, घर घर फिरत न हारी। मैँ तो बृद्ध भयौं वह तरूनौ, सदौ बयस इकसारी। याकैँ बस मेँ बहु दुख पायौ, सोभा सबै बिगारी--१-१७३

इकसून  

वि.

[सं. एकश्रुत = लगातार]

एक साथ, एकत्र।

इकहाई  

क्रि. वि.

[सं. एक + हिं. हाई (प्रत्य.)]

एक साथ।

इकहाई  

क्रि. वि.

[सं. एक + हिं. हाई (प्रत्य.)]

एक दम, अचानक।

इकांत

वि.

[सं. एकांत]

निर्जन, सुनसान, एकांत।

इकीस

वि.

[सं. एकविंशत्, प्रा. इक्कबीस, हिं. इक्कीस]

इक्कीस।

इकैट

वि.

[सं. एक स्थ. पी. एकट्ठ]

इकट्ठा।

इकौसो

वि.

[सं. एक + आवास]

एकांत, निराला।

ईक्का

वि.

[सं. एक]

एकाकी, अकेला।

ईक्का

वि.

[सं. एक]

अनुपम, बेजोड़।

ईक्का

संज्ञा

वह योद्धा जो लड़ाई में अकेला लड़े।

इक्ष

संज्ञा

[सं.]

ईख।

इक्ष्वाकु

संज्ञा

[सं.]

सूर्यवंश का एक प्रतापी राजा जो वैवस्वत मनु का पुत्र कहा गया हैं। राम इसी के वंशज थे।

इच्छना

क्रि. स.

[सं. इच्छा]

चाह करना।

इच्छवाकु

संज्ञा

[सं. इक्ष्वाकु]

सूर्यवंश को एक प्रधान शासक जो वैवस्वत मनु का पुत्र माना गया है।

दस सुत मनु के उपजे और भयो इच्छवाकु सबनि सिरमौर-९-२।

इच्छा

संज्ञा

[सं.]

कामना, लालसा, अभिलाषा, मनोरथ, चाह, आकांक्षा।

इच्छित

वि.

[सं.]

चाहा हुआ, वांछित।

इच्छु

संज्ञा

[सं. इश्रु]

ईख।

इच्छु

वि.

[स]

चाहनेवाला।

इच्छुक

वि.

[सं.]

अभिलाषी, चाह रखनेवाला।

ईठलाति

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना = इठलाना]

मटकती या नखरे दिखाती है।

कहाँ मेरे कुँवर पाँच ही बरष के, रोइ अजहूँ सुरवै पान माँगैँ। तू कहाँ ढीठ, जोबन-प्रमत्तं सदरी, फिरति इठलाति गोपाल आगैँ-१०.३०७।

इठलाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना]

गर्व या ठसक दिखाना, इतराना।

इठलाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना]

चटकना मटकना, नखरे करना।

इठलाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना]

दूसरे को छकाने के लिए जानकर अनजान बनना।

इठलाहट

संज्ञा

[हिं. इठलाना]

इठल ने को क्रिया या भाव, ठसक, ऐंठ।

इठाई

संज्ञा

[सं. इष्ट. पा. इट्ट + आई (प्रत्य.)]

रूचि।

इठाई

संज्ञा

[सं. इष्ट. पा. इट्ट + आई (प्रत्य.)]

मित्रता, प्रेम।

ईड़ा

संज्ञा

[सं.]

भूमि।

ईड़ा

संज्ञा

[सं.]

एक प्रधान नाड़ी जो पीठ की रीढ से बाएँ नथने तक है। चन्द्रमा इसका प्रधान देवता माना गया है।

इड़ा पिंगला सुषमन नारी। सहज सुता में बस मुरारी ३४४२ (८)।

इत

क्रि. वि.

[सं. इत]

इधर, इस ओर।

इत की भई न उतकी सजनी भ्रमत भ्रमत मैं भई अनाथ पृ. ३२९।

इत

मुहा.

इत उत :- इधर उधर। उ.- (क) पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह-सिवार-१-९९। (ख) जब साँड़े इतउत कहुँ गए। बालक सब इकठौरे भष -- ७-१।

इतनक

क्रि. वि.

[हिं. इतना]

इतना छोटी-सा, बिलकुल जरा सा, नाममात्र का।

(क) कबहिं करन गयौ माखन चोरी। जानेै कहा कटाच्छ तिहारेै, कमलनैन मेरौ इतनक सौ री-१०--३०५। (ख) (कान्ह कौं) ग्वालिनि दोष लगावति चोर। इतनक दधि माखन कैं कारन कबहिं गयौ तेरी ओर-१०३१०। (ग) देखौ माई कान्ह हिलकियानि रोवेै। इतनक मुख माखन लपटायो, डरनि आँसुवनि धोवै--१०-३०७।

इतना

वि.

[सं. इयत]

इस मंत्रा का।

इतना

मुहा.

इतने में :- इसी बीच में।

इतनिक

वि.

[हिं.इतना]

इतनी, इस मात्रा की, इतनी जरा सी, थोड़ी।

इतनिक दुरि । जाहु चलि कासी जहाँ बिकत है प्यारी-३३१६।

इतनी

वि.

[हिं. इतना]

इस मात्रा की, इस कदर, यह, ऐसी।

इतनी सुनत कुंति उठि धाई बरषत लोचन-नीर-१-२९।

इतनी, इतनौ

वि.

[हिं. इतना]

इस मात्रा का, इस कदर।

बौरे मन समुझि-समुझि कछु चेत इतनौ जन्म अकारथ खोयौ, स्याम चिकुर भए सेत १-३२२।

इतर

वि.

[सं.]

दूसरा, और।

इतर

वि.

[सं.]

नीच, साधारण।

इतराइ, इतराई

क्रि. अ.

[हिं. इतराना]

ऐंठ जाना, घमंड या ठसक दिखाकर।

दिन दिन इनकी करौं बड़ाई अहिर गए इतराइ–२५७८।

इतरात

क्रि. अ.

[हिं. उतराना, इतराना]

इतराते हो, घमंड करते हो, फूले नहीं समाते हो,

(क) जम कै फंद परयो नहिं जब लगि, चरननि किन लपटात। कहत सूर बिरथा यह देही, एतौ कत इतरात-१-३१३। (ख) तातै कहत सँभारहि रे नर, काहैं को इतरात-२-२२।

इतरात

क्रि. अ.

[हिं. उतराना, इतराना]

रूप-यौवन का घमंड़ दिखाते हो, ऐंठते हो, ठसक दिखाते हो, इठलाते हो।

तुम कत गाय चरावन जात ? अब काहू के जाउ कहीं जनि, आवति हैं युवती इतरात। सूर स्याम मेरे नैनन आगे रहो काहे कहूँ। जात हो तात-५०९।

इतराति, इतराती

क्रि. अ.

[हिं. इतराना]

रूप-यौवन का गर्व या ठसक दिखाती है, इठलाती या ऐंठती है।

(क) देहीं लाइ तिलक के सरि कौं, जोबन मद इतराति। सुरज दोष देति गोबिंद को, गुरू लोगनि म लजाति--१०-२९४। (ख) देखि हरि मथति ग्वालि दधि ठाढ़ी। जोबन मदमाती इतराती, बेनि ढ़ुरति कटिलोैं, छबि बाढ़ी--१०-३०० (ग) धन माती इतराती डोलेै, सकुच नहीं करै सोर-१०-३२०। (घ) जननि बुलाइ बहिँ गहि लीन्हो, देख हु री मदमाती। इनकी कौं अपराध लगावति, कहा फिरति मदमाती--७७५।

इतराना

क्रि. अ.

[सं. उत्तरण, हिं. उतारना]

सफलता पर गर्व या ठसक दिखाना मदांध होना।

इतराना

क्रि. अ.

[सं. उत्तरण, हिं. उतारना]

रूप, गुण, यौवन आदि पर घमंड़ करना, इठलाना।

इतरानी

क्रि. अ.

[हिं. इतराना]

घमंड करने लगी, मदांध हो गयी।

सुर इतर ऊसर के बरसे थोरेहि जल इतरानी--२०२४।

इतराहट  

संज्ञा

[हिं. इतराना]

मद, गर्व, घमंड।

इतरेतर

क्रि. वि.

[सं. इतर + इतर]

परस्पर, आपस में।

इतरौहाँ  

वि.

[हिं. हतराना + औहाँ ( प्रत्य.]

जिससे ठसक या इतराना प्रकट हो।

इतस्तत

क्रि. वि.

[सं.]

इधर-उधर, यहाँ-वहाँ।

इति

अव्य.

[सं.]

समप्ति या अंत सूचक अव्यय।

इति

संज्ञा

[सं.]

समप्ति, अंत पूर्णता

अकल

वि.

[सं. अ = नहीं + कला]

बिना कला या चतुराई का।

अकल

वि.

[सं. अ = नहीं + हि कल = चैन]

विकल, व्याकुल, बेचैन।

अकलै

वि.

[सं. अकल]

बिना कला या चतुराई का, निर्गुणी।

अकलै

संज्ञा

[सं.अ = नहीं + हिं.कल = चैन]

विकलता, व्याकुलता।

अकलै

संज्ञा

[सं.अ = नहीं + हिं.कल = चैन]

गुणहीनता।

लंगर, ढीठ, गुमानी, टूँडक, महा मसखरा, रूखा। मचला, अकले-मूल, पातर, खाऊ खाऊँ करि भूखा--१-१८६।

अकस

संज्ञा

[अ.]

बैर, द्वेष, डाह, ईर्ष्या, विरोध, होड़।

अकसना

क्रि. स.

[हिं. अकस]

बैर या शत्रुता करना, रार ठानना।

अकसर

क्रि. वि.

[सं. एक + सर ( पत्य.)]

अकेले, बिना किसी को साथ लिए।

अकह

वि.

[सं. अकथ, प्रा. अकह]

जो कही न जा सके, अकथनीय, अवर्णनीय।

अकह

वि.

[सं. अकथ, प्रा. अकह]

अनुचित, बुरी।

इतिवृत्त

संज्ञा

[सं.]

पुरानी कथा, कहानी।

इतिहास

संज्ञा

[सं.]

गत प्रसिद्ध घटनाओं और तत्संबंधी व्यक्तियों का काल-क्रमानुसार वर्णन।

सर्व सास्त्र को सार इतिहास सर्व जो। सर्व पुरान को सार युत सुतनि को-१८६१।

इतिहास

संज्ञा

[सं.]

पुस्तक जिसमें प्रसिद्ध घटना और पुरुषों का वर्णन हो।

इती

वि.

[सं. इयत = इतना]

ऐसी, इतनी, इस मात्रा की।

(क) आजु जौ हरिहिं म सस्त्र गहाऊँ। …..। स्यंदन खंडि, महारथि खंडौं, कपिध्वज सहित गिराऊँ। पांव-दल सन्मुख ह्वै धाऊँ, सरिता रुधिर बहाऊँ। इती न करौं, सपथ तो हरिकी, छत्रिय-गतिहिं न पाऊँ-१-२७०। (ख) कैसे करि आवत स्याम इती। मन क्रम बघन और नहिं मेरे पदरज त्यागि हिती-११-३। (ग) इती दूर सम कियो राज द्विज भये दुखारे-१० उ०--८।

इते

क्रि. वि.

[हिं. इत]

इतने, यहाँ, इन या इतने स्थानों में।

(क) (गाइ) ब्योम, धर, नद, सैल, कानन इते चरि न अघाइ-१-५६। (ख) इते मान इहि जोग सँ देस नि सुनि अकुलानी दुखी -- -३०३९।

इतेक  

वि.

[हिं. इन + एक]

इतना एक।

इतै

क्रि. वि.

[सं. इतः, हिं. इत]

इधर, इसे ओर, यहाँ।

(क) हौं बलहारी नद नदन की नैंकु इतै हँसि हेरौ-१०-२१६। (ख) आवहू आवहु इतै, कान्ह जू पाई हैं सब धेनु-५०२।

इतो

वि.

[सं. इयत = इतना]

इतना, इस मात्रा का।

उतोई

वि.

[सं. इयत = इतना, हिं. इतो + ई (प्रत्य.)]

इतना हो, यही।

है हरि नाम को आधर। और इहिं कलिकाल नाहीं, रह्यौ विधि-ध्यौहार।…...। सकल स्रुति-दधि मथत पायौ, इसोई घृत सार -- -२-४।

इतौ

वि.

[सं. इयत = इतना]

इतना, इस मात्रा का।

(क) सूर एक पल गहरु न कीन्हयौ, किहिं जुग इतौ सहयौ--१-४९। (ख) तब अंगद यह बचन कह्योै। को तरि सिंधु सिया-सुधि ल्यावै, किहिं बल इतोै लह्योै ….९-७४। (ग) रंक रावन, कहा इतकतेरी इतौ, दोउ कर जोरि बिनती उचारौं-९-१२९ (घ) तनक दधि कारन जसोदा इतौ कहा रिसाई--३५०।

इत्यादि

अव्य.

[सं.]

इसी प्रकार, अन्य, और।

इत्यादिक

वि.

[सं.]

इसी प्रकार के अन्य या और।

इत्यौं

वि.

[हिं. इतना]

इतना, इस मात्रा का।

अवधि गनत इकटक मग जोबत तब ए इत्यों नहिं झूखी-३०२९।

इधन

संज्ञा

[सं. इंधन, हिं. ईधन]

जलाने की लकड़ी यो कंडा, जलाशन।

घरवर मूढ़ा उठि खेलत बालक सुठि आनित इधन दौरि दौरि संचारयौ। ऐसे इहू नृप नर सकल सकेलि घर के साककरत हृद रस बकुल जारचौ–१० उ०-५२।

इधर

क्रि. वि.

[सं. इतर]

इस ओर, यहाँ।

इध्म

संज्ञा

[सं.]

काठ, लकड़ी।

इध्म

संज्ञा

[सं.]

यज्ञ की समिधा।

इन

सर्व.

[हिं.]

‘इस' का बहु।

इन पतितनि कौं देखि-देखि कै पाछैं सोच न कीन्हौ--१.१७५।

इनतैं

सर्व.

[हिं. इन + तें = से]

इनसे

भीषम, द्रोन, करन, सब निरखत, इनतैं कछु न सरी-१-२५४।

इनहूँ  

सर्व. सवि.

[हिं. इन +हूँ (प्रत्य.)]

इन्होंने भी।

अर्जुव भीम महाबल जोधा, इनहूँ मौन धरी १-२५४।

इनि

सर्व.

[हिं. 'इस’ का बहु.]

इन, इन्होंने।

इति तव राज बहुत दुख पाए। इनकैं गृह रहि तुम , सुख मानत। अति निलज्ज, कछु लाज न आनत--१--२८४।

इने-गिने

वि.

[अनु. हिं. इन-गिनना]

कुछ, थोड़े से।

इने-गिने

वि.

[अनु. हिं. इन-गिनना]

चुने हुए, गिने-गिनाए।

इनै

सर्व.

[हिं. इन]

इनको।

बड़ो गिरिरज गोबर्धन इनै रहौ तुम माने -- ९३३।

इन्ह

सर्व.

[हिं. इन]

इन।

इभ

संज्ञा

[सं.]

हाथी।

राथे तेरे रूप की अधि. न काइ………। इभ तुटत अरु अरुन पंक भए बिधिना आन बनाई -- २२२४।

इभकुंभ

संज्ञा

[सं.]

हाथी का मस्तक।

ईभ्य

वि.

[सं.]

जिसके पास हाथी हो, धनी।

ईभ्य

संज्ञा

राजा।

इमरती

संज्ञा

[सं. अमृत]

एक मिठाई।

इमली

संज्ञा

[अम्ल + हिं. ई (प्रत्य.)]

एक बड़ा पेड़ जिसमें लंबी खट्टे गूदेदार फलियाँ लगती हैं।

इमि

क्रि. वि.

[सं. एवम्]

इस तरह, इस प्रकार।

(क) ज्यौं जल मसक जीव-घट-अंतर, मम माया इमि जानि-३८१। (ख) सूर भजन-महिमा दिखरावत, इमि अति सुगम चरन अराधे-१०-५८।

इयत्ता

संज्ञा

[सं.]

सीमा, हद।

इरषा

संज्ञा

[सं. ईर्ष्या]

ईर्ष्या, डाह, जलन।

इंद्र देखि इरषा मन लायौ। करकेै क्रोध न जल बरसायौ -- ५-२।

इरा

संज्ञा

[सं.]

भूमि, पृथ्वी।

इरा

संज्ञा

[सं.]

वाणी।

इरा

संज्ञा

[सं.]

मदिरा।

इंषना

संज्ञा

[सं. एषण]

प्रबल इच्छा, कामना, वासना।

इला

संज्ञा

[सं.]

वैवस्वत मनु की कन्या जो बुध को ब्याही थी और जिससे पुरुरवा उत्पन्न हुआ था।

इला

संज्ञा

[सं.]

पृथ्वी।

इला

संज्ञा

[सं.]

वाणी, सरस्वती।

इलाचीपाक

संज्ञा

[सं. एला + ची (फा. + प्रत्य. 'च') + सं. पाक]

एक प्रकार की मिठाई जो इलाइची के दानों को चीनी में पागकर बनायी जाती है।

इलावर्त, इलावृत्त

संज्ञा

[सं. इलावृत्त]

जंबू द्वीप के एक खंड का नाम।

ईव

अव्य.

[सं.]

समान, तरह, तुल्य।

इषण

संज्ञा

[सं. एषण]

प्रबल इच्छा, कामना, वासना।

इषु

संज्ञा

[सं.]

बाण, तीर।

ईषुधी

संज्ञा

[सं.]

तूणीर, तरकश।

इषुमान

वि.

[सं.]

बाण चलाने वाला।

इष्ट

वि.

[सं.]

इञ्छित, चाहा हुआ।

इष्ट

वि.

[सं.]

अभिप्रेत।

इष्ट

वि.

[सं.]

पूजित।

इष्ट

संज्ञा

[सं.]

वह देवता जिसकी पूजा से कामना की सिद्धि होती है, इष्टदेव, कुलदेव।

ये बसिष्ट कुल-इष्ट हमारे, पालागन कहि सखनि सिखावत-९-१६३।

इष्टता

संज्ञा

[सं.]

मित्रता।

इष्टदेव

संज्ञा

[सं.]

आराध्य देव, कुल देवता।

इष्टसुर

संज्ञा

[सं.]

आराध्यदेव, कुलदेव, इष्‍टदेव।

इष्टसुरनि बोलत नर तिहिं सुनि, दानव-सुर बड़ सुर-०९-२६।

इष्टि

संज्ञा

[सं.]

इच्छा, अभिलाषा, यज्ञ विशेष।

इष्य

संज्ञा

[सं.]

वसंत ऋतु।

इस

सर्व.

[सं. एष:]

’यह' का विभक्ति के पूर्व अदिष्ट रुप।

इस

सर्व.

[सं. एष:]

यह’ का कर्मकारक और संप्रदानरूप।’

इस्त्री

संज्ञा

[सं. स्त्री]

स्त्री, नारी।

स्त्री. पुरुष नहीं कुछ नाम-१० ०५।

इहँ

सर्व.

[सं. इह]

यह।

देव-दानव-महाराज-रावन सभा, कहन कौं मंत्र इहँ कपि पठाऔ–९.१२८।

इहँई

क्रि. वि.

[हिं. इह + ई(प्रत्य.)]

यहाँ ही इसी स्थान पर।

(क) इहँई रहौ तौ बदौं कन्हाई। आपु गई जसुमतिहि सुनावन देै गई स्यामहि नंद दुहाई-८५७। (ख) की इहँई पिय को न बुलावै की ताँई चलि जाहीं--२१४५।

इह

क्रि. वि.

[सं.]

इस जगह, इस लोक में, यहाँ।

इह

संज्ञा

यह ससार, यह लोक।

इह

वि.

यह, इस प्रकार की।

तासों भिरहु तुमहिं मों लायक इह हेरनि मुसकानि-२४२०।

इहई

वि.

[हिं. इह = गह]

यही, ऐसा ही।

(क) इहई बात मधुपुरी जहँ तहँ दासी कहत डरत जिय भरी-२६४०। (ख) रसना इहई नेम लियौ है और नहीं भाखौं मुख बैन-२७६८।

इहलौकिक

वि.

[सं.]

सांसारिक, इस लोक से सम्बन्ध रखने वाला।

इहलौकिक

वि.

[सं.]

इस लोक में सुख देने वाला।

इकबाँ

क्रि. वि.

[हिं. इह]

इस जगह यहाँ।

इहाँ

क्रि. वि.

[हिं. इह]

यहाँ, इस जगह।

नाहक मैं लाजनि मरियत है, इहाँ आइ सब नासी-१-१९२।

इहाँ

क्रि. वि.

[हिं. इह]

इधर, इम ओर।

तहँ भिल्लनि सौं भई लराई। लूटे सब बिन स्याम-सहाई। अर्जुन बहुत दुखित तब भए। इहाँ अपसगुन होत नित नए१-२८६।

इहाँ

क्रि. वि.

[हिं. इह]

इस लोक या संसार में

ते दिन बिसारि गए इहाँ आए। अति उन्मत्त मोह-मढ छाक्यौ, फिरत केस बगराए--१-३२०।

इहाँई , इहाई

क्रि. वि.

[हिं.यहाँ + उ प्रत्य.]

यहाँ भी। इस लोक में भी

प्रगट पाप-संताप सूर अव कायर हठै गहौं। और इहाँउ बिवेक-अगिनि के बिरह-बिपाक दहौं-३-२।

इंहिं

वि.

[हिं. इह = यह]

इस, इसी, यही, इस प्रकार।

(क) इहिं लाजनि मरिऐ सदा, सब कोउ कहंत तुम्हारी (हो)-१.४४। (ख) सुंदर कर आनन समीप अति राजत इहिं आकार। जलरूह मनौ बैर बिधु सौं तजि, मिलत लए उपकार-१०-२८३।

इंहिं

सर्व.

इसे, इसको, इसने ।

(क) सूर स्याम इहिं बरजि कै मेटौ अब कुल-गारी ( हो )१-४४। ( ख ) इहिं बिधि इहिं डहके सबै जल-थल-नभ-जिय जेते (हो)-१-४४।

इहि

वि.

[हिं. इह = इस]

इस, यही।

इहि आँगन गोपाललाल को कबहूँ कनियाँ लैहैं-२५५०।

इहि

सर्व.

इस, इससे।

बिरद छुड़ाइ लेहु बलि अपनौ, अब इहि तैं हद पारौ-१-१९२।

इही

वि.

[हिं. इह = यह]

इसी।

मह जिय जानि इहीं छिन भजि, दिन बीते जात असार -- १-६८।

इहै

सर्व.

[हिं. इह]

यही, यहही।

(क) तीनौ पन ओर निबहि, इतै स्वाँग कों काछे-१-१३६। (ख) यही गोत्र, यह ग्वाल इहै सुख, यह लीला कहूँ तजत न साथ। (ग) मानो भाई सबन इहै है भावत-२८३५

देवनागरी वर्णमाला का चौथा स्वर। यह 'ह' का दीर्घ रूप है। तालु इसका उच्चारण स्थान है। यह प्रत्यय की भाँति शब्दों में जुड़कर विभिन्न शब्द रूप बनाता है।

ईगुर

संज्ञा

[सं. हिं.गुल, प्रा. इंगुल]

चमकीले लालरंग का एक खनिंज पदार्थ जिसकी बिंदी सौभाग्यबती हिंदू स्त्रियाँ माथे पर लगाती हैं।

ईंचना

क्रि. स.

[सं. अंजन = जाना, ले जाना, खीचना]

खीचना, ऐंचना।

ईंडरी

संज्ञा

[सं. कुंडली]

वह कुँडल' कार मढदी जो सर पर घडा या बोक्ष उठाते समय रखी जाती है।

ईंधन

संज्ञा

[सं. इंधन]

जलाने के लकड़ी य कंडा।

सर्व.

[सं. ई = निकट का सं.केत]

यह।

अव्य.

[सं. हिं.]

प्रयोग या शब्द पर जोर देने का अव्यय, ही।

ईक्षण

संज्ञा

[सं.]

दर्शन।

ईक्षण

संज्ञा

[सं.]

नेत्र।

ईक्षण

संज्ञा

[सं.]

जाँच, विद्धार।

ईख

संज्ञा

[सं. इश्रु, मा. इक्खु]

ऊख, गन्ना।

ईछन

संज्ञा

[सं. ईक्षण = आँख]

आँख।

ईछना

क्रि. स.

[सं. इच्छा]

इच्छा करना, चाहना।

ईछा

संज्ञा

[स. इच्छा]

चाह, रुचि।

ईछी  

संज्ञा

[सं. इच्छा]

इच्छा, चाह, रुचि।

ईठ

संज्ञा

[सं. इष्ट, प्रा. इट्ट]

मित्र, सखा, सखी।

ईठना

क्रि. अ.

[सं. इष्ट]

इच्छा करना।

ईठि

संज्ञा

[सं. इष्टि, प्रा. इट्टि]

मित्रता, प्रीति।

ईठि

संज्ञा

[सं. इष्टि, प्रा. इट्टि]

चेष्टा, यत्न।

ईठीदाड़

संज्ञा

[हिं.ईठी + दंड]

चौगान खेलने का डंडा।

ईड़ा

संज्ञा

[सं. ईडा = स्तुति]

स्तुति, प्रशंसा।

अंगजा, अंगजाई

संज्ञा

[सं.]

कन्या, पुत्री।

अंगद

संज्ञा

[सं.]

किष्किंधा के राजा बालि का पुत्र जो श्रीराम की सेना में था।

अंगद

संज्ञा

[सं.]

बाहु में पहनने का एक गहना, बाजूबन्द।

उर पर पदिक कुसुम बनमाला, अगदे खरे बिराजैं। चित्रित बाँह पहुँचिया पहुँचै; हाथ मुरलिया छाजै - ४५१।

अंगदान

संज्ञा

[सं.]

युद्ध से भागना, पीठ दिखाना।

अंगदान

संज्ञा

[सं.]

तन-समर्पण, सुरति।

अंगदान

संज्ञा

[सं.]

पीठ, पीढ़ा, आसन।

अंगदान बल को दै बैठी। मंदिर आजु अपने राधा अंतर प्रेम उमेठी -- सा० १००।

अंगन

संज्ञा

[सं. अंगण, हिं. आँगन]

आंगन, सहन, चौक।

(क) विरह भयौ घर अगन कोने। दिन दिन बाढ़त जात सखी री ज्यौं कुरखेत के डारे सोने--२८९६। (ख) एक कहत अंगन दधि माड्यौ-१०५१।

अंगन

संज्ञा

[सं. अंग]

शरीर के अंग, इंद्रियाँ।

जब ब्रजचद चंद-मुख लषि हैं। तब यह बान मान को तेरी अंगन आपु न रषिहैं-सा ०९७।

अँगना

संज्ञा

[हिं. आँगन]

आंगन, सहन, चौक।

ललिता बिसाषा अँगना लिपः वो चौक पुरावो तुम रोरी-२३९५।

अंगना

संज्ञा

[सं.]

अच्छे अंगवाली स्त्री, कामिनी।

अकहुवा

वि.

[स, अकथ, प्रा. अकह]

जो कहा न जा सके, अकथनीय।

अकाज

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + हिं. काज]

कार्य हानि, विघ्न, बिगाड़।

अकाज

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + हिं. काज]

दुष्कर्म, खोटा काम।

अकाज

क्रि. वि.

व्यर्थ, निष्प्रयोजन।

अकाज

वि.

महत्वहीन।

अबलौं नान्हे-नून्हे तारे, ते सब बुथा-अकाज। साँचे बिरद सूर के तारत लोकनि-लोक अवाज-१-९६।

अकाजना

क्रि. अ.

[हिं. अकाज]

हानि होना,खो जाना।

अकाजना

क्रि. अ.

[हिं. अकाज]

मर जाना।

अकाजना

क्रि. स.

हानि करना, विघ्न डालना।

अकाजी

वि.

[हिं. अकाज]

कार्य को हानि करनेवाला, बाधक, विघ्नकारी।

अकाथ

क्रि. वि.

[स, अकृतार्थ]

अकारथ, व्यर्थ, निष्फल, निरर्थक।

(क) कर्म, धर्म, तीरथ बिनु राधन, ह्वै गए सकल अकाथ। अभय दान दे अपनो कर धरि सूरदास कै माथ--१ २०८। (ख) रह्यौ न परै से प्रेम आतुर अति जानी रजनी जात अकाथ--२७३६।

ईड़ित

वि.

[सं.]

प्रशंसित।

ईढ़

वि.

[सं. इष्ट, प्रा. इट्ट]

हठ, जिद टेक।

ईतर

वि.

[हिं. इतराना]

इतरराने वाला, ढीठ।

गई नंद घर को जसुमति जहँ भीतर। देखि महर को कहि उठीं सुत कीन्हो ईतर।

ईतर

क्रि. अ.

इतराते हैं।

नान्हे लोग तमक धन ईतर -- -१०४२।

ईतर

वि.

[सं. इतर]

निम्न श्रेणी का, साधारण, नीच।

ईति

संज्ञा

[सं.]

खेती को हानि पहुँचानेवाले छह प्रकार के उपद्रव--अति वृष्टि, अनावृष्टि , टिड्‍डी पड़ना,चूहे लगना, पक्षियों की बढ़ती शत्रु का अकमण।

अब राध ना हिनें ब्रजनीति।....। पोच पिसुन लस दसत समासद प्रमु अनंग मंत्री बिनु भीति। राखि बिनु मिलौ तो ना बनि ऐहै कठिन कुराजाराज की ईति-२२२३।

ईति

संज्ञा

[सं.]

पीड़ा, दुख।

तुम हो संत सदा उपकारी जानत हौ सब रीति। सूरदास ब्रजनाथ बचै हौ ज्यों नहिं आवै ईति -- -३४२०।

ईदृश

क्रि. वि.

[सं.]

इस प्रकार, ऐसे।

ईदृश

वि.

इस प्रकार का, ऐसा।

ईप्सा

संज्ञा

[सं.]

इच्छा, अभिलाषा।

ईप्सित

वि.

[सं.]

इच्छित, अभिलाषत।

ईप्सु

वि.

[स]

चाहनेवाला।

ईरखा

संज्ञा

[सं.ईर्ष्या]

डाह, द्वेंष।

ईरिण

संज्ञा

[सं.]

बलुआ मैदान, ऊसर।

ईर्षणा

संज्ञा

[सं.ईर्ष्यण]

ईर्ष्या, डाह।

ईर्षा

संज्ञा

[सं.ईर्ष्या]

डाह, द्वेष।

ईर्षालु

वि.

[सं.]

दूसरे से डाह रखनेवाला।

ईष्र्या

संज्ञा

[सं.]

डाह, द्वेष।

ईश

संज्ञा

[सं.]

स्वामी।

ईश

संज्ञा

[सं.]

राजा।

ईश

संज्ञा

[सं.]

ईश्वर।

ईश

संज्ञा

[सं.]

महादेव।

ईश

संज्ञा

[सं.]

ग्यारह की संख्या।

ईशपुर

संज्ञा

[सं.]

शिवजी का नगर।

जो गाहक साधन के ऊधो ते सब बसत ईशपुर का शी ३३१५।

ईशा

संज्ञा

[सं.]

ऐश्वर्य।

ईशा

संज्ञा

[सं.]

ऐश्वर्य संपन्न नारी।

ईशान

संज्ञा

[सं.]

स्वामी, अधिपति।

ईशान

संज्ञा

[सं.]

शिव।

ईशान

संज्ञा

[सं.]

ग्यारह की संख्या।

ईशान

संज्ञा

[सं.]

पूरब-उत्तर का कोना।

ईशिता, ईशित्व

संज्ञा

[सं.]

आठ सिद्धियों में से एक जिससे साधक सब पर शासन कर सकता है।

ईश्वर

संज्ञा

[सं.]

स्वामी।

ईश्वर

संज्ञा

[सं.]

भगवान।

ईश्वरीय

वि.

[सं.]

ईश्वर सम्बन्धी।

ईश्वरीय

वि.

[सं.]

ईश्वर का।

ईषत्

वि.

[सं.]

थोड़ा कुछ, अल्प।

ईषद, ईषद्

वि.

[सं.]

थोड़ा, कुछ, कम, अल्प।  

(क) ईषद हास दंत-दुति बिगसति, मानिक मोती धरे जनु पोइ-१० २१०। (ख) असन अधरकपोल नासा सुभग ईषद हास-१३५९।

ईषना

संज्ञा

[सं. एषण]

प्रबल इच्छा।

ईस

संज्ञा

[सं. ईश]

शिव।

ईस

संज्ञा

[सं. ईश]

राजा।

ईस

संज्ञा

[सं. ईश]

भगवान।

ईस

संज्ञा

[सं. ईश]

स्वामी, अधिष्ठाता।

कर्म भवन के ईस सनीचर स्याम बरन तन ह्वै है-१०-८६।

ईसन

संज्ञा

[सं. ईशान]

पूरब और उत्तर के बीच का कोना।

ईसर

संज्ञा

[सं. ऐश्वर्य]

धन-सम्पति।

ईसान

संज्ञा

[सं. ईशान]

स्वामी।

ईसान

संज्ञा

[सं. ईशान]

शिव।

ईसान

संज्ञा

[सं. ईशान]

पूरब उत्तर का कोना।

ईस्वर

संज्ञा

[सं. ईश्वर]

परमेश्वर, भगवान।

ईस्वरता

संज्ञा

[हिं. ईश्वरता]

ईशता, स्वामित्व, प्रभुत्व।

कै कहूँ खान-पान रमनादिक, कै कहुँ बाद अनैसे। कै कहुँ रंक, कहूँ ईश्वरता, नट-बाजी गर जैसैं -१-२९३।

ईहा

संज्ञा

[सं.]

चेष्टा।

ईहा

संज्ञा

[सं.]

इच्छा।

इहित

वि.

[सं.]

इच्छित, अभीष्ट।

ईह्याँ

क्रि. वि.

[हिं. यहाँ]

यहाँ, इस स्थान पर।

अब वै बातैं ईह्याँ रहीं। मोहन मुख मुसकाइ चलत कछु काहू नहीं कही-२५४२।

देवनागरी वर्णमाला का पाँचवाँ स्वर। ओष्ठ इसका ऊच्चारण स्थान है।

उँगली

संज्ञा

[सं. अंगुलि]

अँगुली।

उँचाइ

क्रि. स.

[हिं. उँचोना]

उठाकर, ऊँचा करके।

सुनौं किन कनकपुरी के राइ। हौं बुधि-बलछल करि पवि हारी, लख्यौ न सीस उँचाइ -- ९-७८।

उँचाई  

संज्ञा

[सं. उच्च]

ऊँचापन।

उँचाई  

संज्ञा

[सं. उच्च]

बड़प्पन, महत्व।

उँचाई  

क्रि. स.

[हिं. उचाना]

उठाकर, ऊँचा करके।

बलि कहयौ बिलब अब नेकु नहिं कीजिए मंद. राचत अचल चलौ धाई। दोउ एक मन्त्र करि जाइ पहूँचे तहाँ कहयौ अब लीजिए यहि उँचाई।

उँचान

संज्ञा

[हिं. ऊँवा]

ऊँचाई।

उँचाना  

क्रि. स.

[हिं. ऊँवा]

ऊँचा करना, उठाना।

उँचाव

संज्ञा

[सं. उच्च]

ऊँचाई, ऊँचापन।

उँचास

संज्ञा

[हिं. ऊँचा]

ऊँचा होने का भाव,  ऊँचाई।

उँजरिया

संज्ञा

[हिं. अंजोरी, अँजोरिया)

प्रकाश।

उँजरिया

संज्ञा

[हिं. अंजोरी, अँजोरिया)

चाँदनी।

उँजियार

संज्ञा

[हिं. उजाला]

उजाला, प्रकाश।

उँजेरा,उँजेला

संज्ञा

[हिं. उजाला]

प्रकाश,उजाला।

उँज्यारी

संज्ञा

[हिं. उजियाला]

प्रकाश।

उँज्यारी

संज्ञा

[हिं. उजियाला]

चाँदनी।

उँदुर

संज्ञा

[सं.]

चूहा मूसा।

उँह

अव्य.

[अनु.]

घृणा अथवा अस्वीकृति सूचक शब्द।

उँह

अव्य.

[अनु.]

वेदना-सूचक अव्यय।

संज्ञा

[सं.]

ब्रह्मा।

संज्ञा

[सं.]

नद

अव्य.

भी।

उअ्रना

क्रि. अ.

[हिं. उदयना]

उदय होना, उठना।

उअ्रना

क्रि. स.

[हिं. 'उआना' का प्रे.]

उगाना, उदय करना।

उअ्रना

क्रि. स.

[सं. उद्गुरण, पा. उग्गुरन == हथियार तानना]

मारने के लिए शस्त्र उठना।

उई  

क्रि. अ.

[हिं. उदयन, उ अना]

उदय हुई, जन्मी, उगी।

जानौं नहीं कहाँते आवति वह मूरति मन माँह उई-१४३३।

उऋण  

वि.

[सं. उत् + ऋण]

जिसका ऋण से उद्धार हो गया हो, ऋण-मुक्त।

कैसेहु करि उऋण कीजै बधुन ते मोहिं-२९२४।

उकचन

संज्ञा

[सं. मुचकुन्द]

मुचकुन्द का फूल।

उकचना  

क्रि. अ.

[सं. उत्कर्ष, पा. उककस = उखाड़ना]

उखड़ना, अलग होना।

उकचना  

क्रि. अ.

[सं. उत्कर्ष, पा. उककस = उखाड़ना]

भागना, स्थान त्यागना।

उकटना

क्रि. स.

[सं. उत्कथन, पा. उक्कथन]

बार बार कहना, उघटना।

उकटा  

वि.

[हिं. उकटना]

उपकार जताने वाला।

उकठ

क्रि. अ.

[हिं. उकठना]

सूखकर।

मधु बन तुम क्यों रहत हरी……..। कौन काज ठाढ़ी रही बन में काहे न उकठ परी-२७४१।

उकठना  

क्रि. अ.

[सं. अव + काष्ठ = लकड़ी]

सूखना, ऐंठ जाना।

उकठा

वि.

[हिं. उकठना]

शुष्क, सूखा।

उकठि

क्रि. अ.

[हिं. उकठना]

सूखकर, शुष्क होकर।

अंकुरित तरु-पात, उकठि रहे जे गात, बन बेलि प्रफुलित कलिनि कहर के--१०-३०।

उकठे

क्रि. अ.

[हिं. उकठना]

सूख गये, शुष्क हो गये।

उकताना

क्रि. अ.

[सं. आकुल, पु. हिं. अकुताना]  

ऊबना।

उकताना

क्रि. अ.

[सं. आकुल, पु. हिं. अकुताना]  

आकुल होना,उतावली करना, जल्दी मचाना।

उकति

संज्ञा

[सं. उक्ति]

कथन, वचन।

उकलना

क्रि. अ.

[सं. उल्कनल = खुलना]

अलग होना।

उकसन उकसनि

संज्ञा

[हिं. उकसना)

उभाङ, अंकुरित होने की क्रिया।

उकसाना

क्रि. अ.

[सं. उत्कर्षण या उत्सुक]

ऊपर को उठना।

उकसाना

क्रि. अ.

[सं. उत्कर्षण या उत्सुक]

अंकुरित होना।

उकसाना

क्रि. अ.

[सं. उत्कर्षण या उत्सुक]

खोदना।

उकसाना

क्रि. स.

[हिं. 'उकसना' का प्रे.]

उत्तेजित करना।

उकसाना

क्रि. स.

[हिं. 'उकसना' का प्रे.]

उठा देना, हटाना।

अकाथ

वि.

[सं., अकथ्य]

न कहने योग्य, अकथनीय, अनिर्वचनीय

अकाम

वि.

[सं.अ = नहीं + काम = इच्छा]

कामनारहित,निस्पृह, इच्छारहित।

अकामी

वि.

[सं. अकामिन्]

कामनारहित, इच्छाहीन।

अकार

संज्ञा

[सं. आकार]

स्वरूप, आकृति, मूर्ति, रूप।

कुच युग कुंभ सुंडि रोमावलि नाभि सुहृदय अकार। जनु जल सोखि लयौ से सविता जोबन गज मतवार--२०६२।

अकार

संज्ञा

[सं. आकार]

सादृश्य, साम्य।

नैन जलद निमेष दामिनि आँसु बरषत धार। दरस रबि ससि दुत्यौ धीरज स्वास पवन अकार -- २८३४।

अकार

संज्ञा

[सं. आकार]

बनावट, संघटन।

अकार

संज्ञा

[सं. आकार]

चिह्न।

अकारज

संज्ञा

[सं. अकार्य]

हानि, कार्य को हानि।

अकारथ

वि.

[सं. आकार्य्यया , प्रा. अकारिपत्थ]

निष्फल, निष्प्रयोजन, व्यर्थ, वृथा।

अकारथ

क्रि. वि.

व्यर्थ, निष्प्रयोजन।

(क) आछौ गात अकारथ गार्‌यौ। करी न प्रीति कमल लोचन सौं, जनम जुवा ज्यौं हारयो-१-१०१। (ख) रे मन, जनम अकारथ खोइसि। हरि की भक्ति न कबहूँ कीन्हीं, उदर भरे परि सोइसि--१.३३२। (ग) पाँच बान मोहिं संकर दीन्हे, तेऊ गए अकारथ-१-२८७।

उकसाय

क्रि. स.

[हिं. उकसाना)

उत्तेजित करके।

उकसाय

क्रि. स.

[हिं. उकसाना)

हटाकर, उठाकर।

उकसाय

क्रि. स.

[हिं. उकसाना)

खोदकर।

उकसारत

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

ऊपर उठाकर।

कहा भयौ जो घर केै लरिका, चोरी माखन खायौ। इतनी कहि उकसारत बाहैं, रोष सहित बल धायौ -- ६७४।

उकसि

क्रि. अ.

[हिं. उकसना]

उभरवर ऊपर उठकर।

उकसि

क्रि. अ.

[हिं. उकसना]

खुदकर।

उकसौंहोँ

वि.

[हिं. उकसना + औंहाँ (प्रत्य.)]

उमड़ता हुआ।

उकासत

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

उभाड़ते हैं, ऊपर को खींचते हैं।

उकासत

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

खोदते हैं।

गैवाँ बिडरि चलीं जित तितको सखा जहाँ तहँ धेरै। बृषभ सृंग सों धरनि उकासत बल मोहन तन हेरेैं।

उकासना

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

उभाड़ना।

उकासना

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

खोदना।

उकुति

संज्ञा

[सं. उक्ति]

कथन, वचन।

उकुसना

क्रि. स.

[हिं. उकसना]

उजाड़ना, नष्ट करना।

उकुसि

क्रि. स.

[हिं. उकसना]

उजाड़ कर, नष्ट करके।

उकेलना

क्रि. स.

[हिं. उकलना]

उजाड़ना, नोचना।

उक्त

वि.

[सं.]

कथित, कहा हुआ, ऊपर का।

उक्त

संज्ञा

कथन, बात।

उक्त

संज्ञा

अनोखा, विशेषार्थपूर्ण कथन।

सूरदास तज ब्याज उक्त सब मोसो कौन चेतावे-सा० ८४।

उक्तगूढ़

संज्ञा

[सं. उक्ति + गूढ़ = गूढ़ोक्ति]

एक अलंकार जिसमें विशेषर्थिक गूढ़ बात करने वाले के अतिरिक्त किसी तीसरे व्यक्ति के प्रति कही जाय।

उक्तगूढ़

संज्ञा

[सं. उक्ति + गूढ़ = गूढ़ोक्ति]

गूढ़ वचन, विशेषार्थक कथन।

उक्तगढ तें भाव उदे सब सूरज स्याम सुनावै-सा०

ऊखाड़ना

क्रि. स.

ध्वस्त करना।

उखारति

क्रि. स.

[हिं. उखाड़न (’उखड़ना' का स. रूप)]

उखाड़ती है, तोड़ती है।

माधौ जू यह मेरी गाइ।….। फिरति बेद-बन ऊख उखारति, सब दिन अरु सब राति--१०५१।

ऊखारना

क्रि. स.

[हिं. उखाडना ]

उखाडना।

उखारि

क्रि. स.

[हिं. उखाडना ]

उखाड या खोदकर।

कहौ तौ लंक उखारि डारि दउँ जहाँ पिता संपति को--९.८४।

ऊखेरना

क्रि. स.

[हिं. उखाड़ना]

अलग करनां छुड़ाना।

उखेरे

क्रि. स.

[हिं. उखाड़ना)

उखेड़ना, अलग करना, छुड़ाना।

मन तो गए नैन हैं मेरे…...। क्रम क्रम गए कह्यौ नहिं काहू स्याम संग अरुझे रे।….। सूर लटकि लागे अँग छबि पर निठुर न जात उखेरे पृं० ३२०।

उखेरो

क्रि. स.

[हिं. उखाड़न]

उखाड़ लो, अलग करो, पृथक करो।

कियो उपाइ निरिक्षर धरिबे को महि ते पकरि उखेरो-९५९।

उखेलना

क्रि. स.

[सं. उल्लेखन]

लिखना, चित्र खींचना।

उखेला

क्रि. स.

[हिं. उखेलना]

चित्रित किया, लिखा।

उगटना

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन]

बार बार कहना।

उक्ति

संज्ञा

[सं.]

कथन, वचन।

उक्ति

संज्ञा

चमत्कार वाक्य।

सूरज प्रभु मिलाप हितस्यासी अनमिल उक्ति गनावै--सा०.१५।

उक्तियुक्ति

संज्ञा

[सं.]

सम्मति और उपाय।

उखटना

क्रि. अ.

[सं. उत्कषंण]

लड़खड़ाना। कुतरना।

उखड़ना

क्रि. अ.

[हिं.]

अलग होना।

उखड़ना

क्रि. अ.

टूट जाना।

उखरना

क्रि. अ.

[हिं. उखरना]

उखड़ना, अलग होना।

ऊखरे

क्रि. अ.

[हिं. उखड़ना]

अलग हुए, छूट गये।

माड़े माड़ि दुनेरो चुपरे। वह घृत पाइ आपुहि उखरे-२३२१।

ऊखाड़ना

क्रि. स.

[हिं. 'उखड़ना' का प्रे.]

अलग करना।

ऊखाड़ना

क्रि. स.

भड़काना, बिचकोना।

उगटना

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन]

ताना मारना।

उगत

क्रि. अ.

[सं. उद्गमन, पा. उग्गवन, हिं. उगना)

निकलता है, उदय होता है।

उगत अरुन बिगत सर्वरी, ससांक किरन-हीन दीप सु मलीन, छीन-दुति समूह तारे-१०-२०५।

उगन

क्रि. अ.

[सं. उद्गमन, हिं. उगना]

उगना, उदय या प्रकट होना।

कहौ तौ सुरज उगन देहुँ नहिं. दिसि दिसि बाढ़ै ताम-९-१४८।

उगना

क्रि. अ.

[सं. उद्गमन, पा. उग्गवन]

उदय होना, निकलना।

उगना

क्रि. अ.

जमना, अंकुरित होना।

उगना

क्रि. अ.

उपजना, उत्पन्न होना।

उगरना

क्रि. अ.

[सं. अग्र]

सामने निकलना।

उगलत  

क्रि. स.

[हिं. उगलना]

मुँह से बाहर निकलता या गिरता है।

स्रवत जलकुच परत धारा नहीं उपमा पार। मनौ उगलत राहु अमृत कनक गिरि पर धार-१८४९।

उगलना

क्रि. स.

[सं. उदगिलन]

मुँह की वस्तु को थूकना।

उगलना

क्रि. स.

दूसरे का लिया हुआ माल वापस करना।

उगलना

क्रि. स.

गुप्त भेद खोलना।

उगवना

क्रि. स.

[हिं. 'उगना' का स. रूप]

उगाना, उदय करना।

उगवना

क्रि. स.

उत्पन्न करना।

उगवै  

क्रि. स.

[हिं. उगवना]

उदय करती है।  

उगवै  

क्रि. स.

उत्पन्न करती है।

उगवे

क्रि. अ.

[हिं. उगना]

उपजे, उत्पन्न हो।

उगसाना

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

उभाड़ाना, उत्तेजित करना।

उगसाना

क्रि. स.

उठाना।

उगसारना

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

कहना, प्रकट करना।

उगसारा

क्रि. स.

[हिं. उकसाना]

कहा, प्रकट किया।

उगाना

क्रि. स.

[हिं. 'उगना' का सं. रूप]

अंकुरित करना, उत्पन्न करना।

उगाना

क्रि. स.

उदय करना।

उगाना

क्रि. स.

मारने को शस्त्र तानना।

उगार, उगारु

संज्ञा

[सं. उद्गार, पा, उग्गाल, हिं. उगाल]

रस, आनंद।

(के) स्यामल गौर कपोल सुचारु। रात्रि परस्पर लेत उगारु-१८२७। (ख) गौर स्याम कपोल सुललित अधर अमृत सार। परस्‍पर दोउ पियरु प्यारी रीझि लेत उगार -- पृं. ३५१ (७५)।

उगाहत

क्रि. स.

[हिं. उगाहना]

वसूल करते हैं।

हाट बाट सब हमहिं उगाहत अपनो दान जगात--१०६७।

उगाहना

क्रि. स.

[सं. उद्ग्रहण, प्रा. उग्गहन]

वसूल करना।

उगाही

संज्ञा

[हिं. उगाहना]

वसूल करने का कार्य या भाव।

उगाही

संज्ञा

[हिं. उगाहना]

वसूल हुआ धन।

उगाहु

क्रि. स.

[हिं. उगाहना]

वसूल करो, ले लो।

सद माखन तुम्हरेहि मुख लायक लीजै दान उगाहु -- -११७४।

उगिलै

क्रि. स.

[हिं. उगलना]

उगल दे, थूके।

मारति हौं तोहिं बेगि कन्हैया, बेगि न उगिलै माटी ।१०-२५५।

उगिलौ

क्रि. स.

[स, उद्गिलन, पा. उग्गिलन, हिं. उगलना]

थूक दो,उगल दो।

मोहन कान्हेैं न उगिलोै माटी--१०.२५४।

उगेउ

क्रि. अ.

[हिं. उगना]

उगा, उदय हुआ।

उगैया

वि.

[हिं. उगाना]

उगाने वाले, उत्पन्न करने वाले, प्रकटाने

जिहिं सरूप मोहे ब्रह्मादिक, रवि-ससि कोटि उगैया। सूरदास तिन प्रभु चरननि की , बालि-बलि मैं बलि जैया-१०.१३१

उग्यो

क्रि. अ. भूत.

[सं. उद्गमन; पा. उग्गवन, हिं. उगना]

निकला, उदय हुआ, प्रकटा।

सूर दास रसरशसि रस बरस केै चली, जानौं हरतिलक कुहू उग्यौ री-६९१।

उग्र

वि.

[सं.]

प्रचंड, प्रबल, घोर, तेज।

उग्रता

संज्ञा

[सं.]

प्रचंडता, प्रबलता, तेजी।

उग्रधन्वा

संज्ञा

[सं.]

इंद्र।

उग्रधन्वा

संज्ञा

[सं.]

शिव।

उग्रशेखरा

संज्ञा

[सं.]

शिव के मस्तक की गंगा।

उग्रसेन

संज्ञा

[सं.]

मथुरा के राजा जो कंस के पिता थे। कंस ने इन्हें बन्दीगृह में डाल रखा था। श्री कृष्ण ने कंस को मार कर इनका उद्धार किया और पुनः इन्हें सिहासन पर बैठाया।

उग्रा

संज्ञा

[सं.]

दुर्गा, महाकाली।

उग्रा

संज्ञा

[सं.]

कर्कशा स्त्री।

उर्ग  

संज्ञा

[सं. उरग]

सर्प।

बेनी लसति कहौं छबि ऐसी महलनि चित्रे उर्ग-२५६२।

उघट

क्रि. अ.

[सं. उत्कथन, पा. उक्कथन, अथवासं. उद्घाटन, पा. उग्घाटन, हिं. उघटना]

ताल देकर, सम पर तान तोड़कर।

कोउ गावत, कोउ मुरलि बजावत, कोउ बिषान, कोउ बेनु। कोउ निरतत कोउ उघटि तार दै, जुरी ब्रज-बालक सेनु-४४८।

उघटत  

क्रि. अ.

[सं. उघटना]

ताल देकर, सम पर तान तोड़कर।

(क) कोउ गावत, कोउ नृत्य करत कोइ उघडत, कोउ करताल बजावत--४८०। (ख) कालि नाग के फन पर निरतत, संकषन कौ बीर। लाग मान थेइ-थेइ करि उघटत, ताल मृदंग गँभीर -- -५७५। (ग) उधटत स्याम नृत्यत नारि पृं० ३४६ (४५)।

उघटति

क्रि. अ.

[हिं. उघटना]

ताल देती हैं, सम पर तान तोडती हैं।

कबहुँक गावति, कबहुँ नृत्यत, कबहुँ उघटति रंग-पृं. ३४६ (४५ )।

उघटति

क्रि. अ.

[हिं. उघटना]

किसी को बुरा-भला कहते कहते बाप-दादे तक पहुँचना।

उघटति हौ तुम माता-पिता लौं नहिं जानौ तुम हमको -- १०८९।

उघटना  

क्रि. अ.

[सं. उत्कथन, पा. उक्‍कथन अथवा स उद्घाटन, पा. उग्घाटन]

ताल देना, सस पर तान तोड़ना।

उघटना  

क्रि. अ.

[सं. उत्कथन, पा. उक्‍कथन अथवा स उद्घाटन, पा. उग्घाटन]

बीती बात को उभाड़ना।

उघटना  

क्रि. अ.

[सं. उत्कथन, पा. उक्‍कथन अथवा स उद्घाटन, पा. उग्घाटन]

उपकार जताना।

उघरत

क्रि. अ.

[हिं. उघड़ना]

ऊपर उठता है, उभरता है।

हेरत हरष नन्दकुमार। बिनु दिये बिपरीत कवजा पग छपाईन भार'। रंच उघरत द्वेष नीकन मान उरवर भेद--सा ० ३६।

उघरना   

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, पा. उग्घाटन हिं. उघड़ना]

खुलना, आवरण रहित होना।

उघरना   

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, पा. उग्घाटन हिं. उघड़ना]

नग्न होना।

उघरना   

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, पा. उग्घाटन हिं. उघड़ना]

प्रकट या प्रकाशित होना।

उघरना   

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, पा. उग्घाटन हिं. उघड़ना]

भेद खुलना, भण्डा फूटना।

उधरथौ   

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, पा. उदघाटन, हिं.उघरना]

खुल गया खिसक गया।

(क) छोरे निगड़, सो आए, पहरू, द्वारे कौ कपाट उघरचौ १०-८। (ख) डोलत तनु सिर अंचर उघरचौ बेनी पीठ डुलति इहिं भाइ -- १०२९८।

उघरारा

संज्ञा

[उघरना]

खुला हुआ स्थान।

उघरारा

वि.

खुला हुआ।

उघरारा

वि.

खुला रहने वाला।

उघरार

संज्ञा

[हिं. उघरारा]

खुले स्थान में।

अकारन

वि.

[स. अकारण]

बिना कारण का।

अकारन

वि.

[स. अकारण]

निस्वार्थ।

अकारन

वि.

[स. अकारण]

जो किसी से उत्पन्न  न हो।

अकार्थ

वि.

[सं. अकार्याथं , प्रा. अकारियत्थ, हिं. अकारथ]

व्यर्थ, निष्प्रयोजन।

अकार्थ

क्रि. वि.

व्यर्थ, निष्प्रयोजन।

साधु-संग भक्ति बिना तन अकार्थ जाई -- १-३३०।

अकाल

संज्ञा

[सं.]

अनुपयुक्त समय, कुसमय।

यह बिनती हौं करौं कृपानिधि, बार-बार अकुलाइ। सूरजदास अकाल प्रलय प्रभु, मेटौ दरस दिखाइ-९-११०।

अकास

संज्ञा

[सं. आकाश]

अंतरिक्ष, आसमान, गगन।

अकास

संज्ञा

[सं. आकाश]

शून्य।

जदुपति जोग जानि जिय सांचो नयन अकस चढ़ायो-२९२२।

अकास

मुहा.

गहौ अकास :- अनहोनी या असंभव बात करते हो। उ.- बातनि गहौ अकास सुनहि न अवै साँस बोलि तौ कछु न आवै ताते मौन गहियै--१२७३।

अकास गुन

संज्ञा

[सं. आकाश + गुण]

आकाश का गुण, शब्द।

गुन अकास को सिद्ध साधना सास्त्र करत बिस्तार--सा० १०४।

उघटना  

क्रि. अ.

[सं. उत्कथन, पा. उक्‍कथन अथवा स उद्घाटन, पा. उग्घाटन]

किसी को गाली देते-देते बाप-दादे तक पहुँचना।

उघटा

वि.

[हिं. उघटना]

उपकार जताने वाला।

उघटथौ    

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, पा. उग्घाटन, हिं. उधटना]

ताल दी, सम पर तान तोड़ी।

मन मेरैं नट के नागर ज्यौं तिनहीं नाच नचायौ। उघट्यौ सकल सँगीत-रीति भव अंगनि अंग बनायौ। कामक्रोध-मद-लोभ-मोह की तान तरंगनि गायौ-१-२०५१

उघड़ना

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घाटन]

खुलना, आवरण रहित होना।

उघड़ना

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घाटन]

प्रकट होना, प्रकाशित होना।

उघड़ना

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घाटन]

नग्न होना।

उघड़ना

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घाटन]

भेद खुलता, भंडा फूटना।

उधर

क्रि. अ.

[हिं. उधरना]

प्रकट होना, ज्ञात होना।  

उधर आयौ परदेसी को नेह-१० उ.-९०।

उघरत

क्रि. अ.

[हिं. उघड़ना]

खुलता हैं, आवरण या परदा हटता है।

(क) राखौ पति गिरिवर गिरिधारी। अब तौ नाथ रह्यौ कछु नहिंन उघरत माथ अनाथ पुकारी-१-२४८। (ख) जैसे सपनो सोइ देखियत तैसोै यह संसार। जात बिलय ह्वै छिनक मात्र मैं उघरत नैन-किवार।

उघरत

क्रि. अ.

[हिं. उघड़ना]

असली रूप में प्रकटती है, असलियत खुलती है, भंडो फूटता है।

सेमर फूल सुरंग अति निरखत, मुदित होत खग-भूप। परसत चोंच तूल उघरत मुख, परत दु:ख कै कूप--१.१०२।

उघरि

क्रि. अ.

[हिं. उघरना]

खुलता है, आवरण हटता है।

स्यामा स्याम सो होरी खेलत आज नई।….सूरदास जसुमति के आगे उघरि गई कलई।

उघरि

क्रि. अ.

[हिं. उघरना]

खुल गये, बन्द न रहे।

सहज कपाट उघरि गए ताला कूँजी टूँटि -- -२६२५।

उघरि

क्रि. अ.

[हिं. उघरना]

नंगा होकर।

उघरि

मुहा.

उधर नच्‍यौ चाहत हौं :- लोकलाज की परवाह न करके मनमानी करता चाहता हूँ। उ.- हौं तौ पतित सात पीढ़िन कौ पतितै ह्वै निस्तरिहौं। अब हौं उघरि नच्यौ चाहत हौं तुम्हैं बिरद बिन करिहौं-१-१३४।

उघरि

क्रि. अ.

[हिं. उघरना]

प्रकट होना।

उघरि

क्रि. अ.

[हिं. उघरना]

भेद खुलना, भण्डा. फूटना।

"(क) थोरे ही में उघरि परेंगे अतिहि चले इतराइ--पृं० ३२२। (ख) हम जातहिं वह उघरि परैगी दूध दूध पानी सो पानी -- १२६२।"

उघरी

क्रि. अ.

[हिं. उघरना]

प्रकट हो गयी।

ह्याँ ऊधो काहे को आए कौन सी अटक परी। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन बिनु सब पाती उघरी-३३४६।

उघरे

क्रि. अ.

[सं. उद्घाटन, पा, उग्घाटन, हिं. उघरना]

खुले, आवरणरहित हुए।

बदन उघारि दिखायौ अपनौ, नाटक की परिपाटी। बड़ी बार भई लोचन उघरे, भरम-जवनिका फाटी-१०-२५४।

उघाड़ना

क्रि. स.

[हिं. ‘उघड़ना' का सक.]

खोलना, आवरण हटाना।

उघाड़ना

क्रि. स.

[हिं. ‘उघड़ना' का सक.]

प्रकट करना।

उघारी

क्रि. स.

[सं. उदघाटन, प्रा. उघाड़न, हिं. उघाड़न]

खोल कर, अवरणहीन की, नंगी की।

(क) याकै बस मैं बहु दुख पायौ, सोभा सबै बिगारी। करिये कहा, लाज मरियै जब अपनी जाँघ उघारी १०.१७३। (ख) बिदुर सस्त्र सब तहीं उतारी। चल्यौ तीरथनि मुंड उघारी-१-१४४।

उघारी

क्रि. स.

[सं. उदघाटन, प्रा. उघाड़न, हिं. उघाड़न]

खोल कर, पलक न झपकाकर।

सिव की लागी हरिपद तारी। तातैं नहिं उन आँखि उघारी -- ४-५।

उघारी

वि.

[हिं. उघाड़ना]

नग्न, वस्त्रहीन।

अब तौ नाथ न मेरौ कोई, बिनु श्रीनाथ-मुकुंदमुरारी। सूरदास अवसर के चूकैं, फिरि पछितैहौ देखि उघारी -- -१-२४८।

उघारे

क्रि. स.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घा ड़न, हिं. उघारना]

(आवरण आदि हटाकर) खोले।

दुरलभ भयौ दरस दसरथ कौ, सो अपराध हमारे। सुरदारा स्वामी करुनामय, नैन जात उघारे-९-५२।

उघारे

क्रि. स.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घा ड़न, हिं. उघारना]

नग्न होकर।

उघारे

क्रि. स.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घा ड़न, हिं. उघारना]

लोक लाज छोड़कर।

उघारौ  

क्रि. स.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उग्घाड़न, हिं. उघाड़ना]

खोलत (है) , आबरणहीन या नंगा (करता है)।

द्रुपद-सुता कौ मिट्यौ महादुख, जबहीं सो हरि हेरि पुकारौ। हौं अनाथ, नाहिंन कोउ मेरौ, दुस्सासन तन करत उधारो-१-१७२।

उघारयौ  

क्रि. स.

[हिं. उघारना]

खोला, आवरण रहित किया।

प्राप्त समय उठि सोवत सुत को बदन उधारयौ नंद-१०-२०३।

उघेलना

क्रि. स.

[हिं. उघारना]

खोलना।

उचकना

क्रि. अ.

[सं. उच्च = ऊँचा +करण = करना]

उछलना, कूदना।

उघाड़ना

क्रि. स.

[हिं. ‘उघड़ना' का सक.]

भेद खोलना, भण्डा फोड़ना।

उघार  

क्रि. स.

[हिं. उघारना]

खोलकर, खोल दे

(क) पलक नेक उघार देखत काय सुन्दर गात-सा. ६६। (ख) मनिन बार बस उघार ६ संभु-कोग दुआर आयौ आद को तनु मार--सा, ८९।

उघारत

क्रि. स.

[हिं. उघारना]

खोलते है, ढकना हटाते हैं।

सूनै भवन कहूँ कोउ नाहीं मनु याही को राज। भाँड़े धरत, उघारत, मूँदत दधि माखन कैं काज -- -१०-२७७।

उघारन

क्रि. स.

[सं. उदघाटन, प्रा. उग्धाड़न] हिं. उघारन]

खोलना, आवरण हटाना।

लाल उठौ मुख धोइए, लागी बदन उघारन-४३९।

उघारना

क्रि. स.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उघाड़न, हिं. उघाड़ना]

खोलना, आवरण रहित करना।

उघारना

क्रि. स.

[सं. उद्घाटन, प्रा. उघाड़न, हिं. उघाड़ना]

प्रकट करना, प्रकाशित करना।

उघारि

क्रि. स.

[हिं. उघारना]

खोलकर, आवरण रहित करके, नग्न करके।

(क) जीरन पट कुपीन तन धारि। चल्यौ सुरसरी, सीस उघारि-१३४१। (ख) बिदुर सस्त्र सब तबहिं उतारि। चल्यौ,तीरथनि मुंड उघारि-१-२८४।

उघारि

क्रि. स.

[हिं. उघारना]

खोलकर, प्रकट करके, बताकर।

नीके जाति उघारि आपनी जुवतिन भले हँसायौ -- १०९८।

उघारि

क्रि. वि.

साफ-साफ, स्पष्ट रूप से।

अनलायक हम हैं को तुम हो कहौ न बात उघारि -- २४२०।

उघारि

क्रि. वि.

प्रकट करके, प्रकाशित रूप से।

चलीं गावति कृष्न के गुन हृदय ध्यान बिचारि। सबके मन जो मिलै हरि कोउ न कहत उघारि १०८०

उचका

क्रि. वि.

[हिं. अचाका]

अचानक, सहसा।

उचकाइ

क्रि. स.

[हिं. उचकाना]

उठाकर, ऊपर करके।

केतिक लंक, उपारि बाम कर, लै आवेै उचकाइ-९-७४।

उचकाई

क्रि. स.

[हिं. उचकाना]

उठाकर, ऊपर करना।

(क) सत बचन गिरिदेव कहत है कान्ह लेई मोहिं कर उचकाई। (ख) गोबर्धन लीन्हो उचकाई-१०५६।

उचकाना

क्रि. स.

[हिं. उचकाना' का सक.]

उठाना ऊपर करना।

उचकाय

क्रि. स.

[हिं. उचकाना]

उचकाकर, ऊपर उठाकंर, ऊँचा करके।

मिलि दस पाँच अली बलि कृष्नहिं गहि लावत उच काय। भरि अरगजा अबीर कनक घट देति सीस ते नाय--२४९९।

उचकि

क्रि. अ.

[हिं. उचकना]

पैर के पंजों के बल ऊपर उठकर तथा सिर ऊँचा करके।

अति ऊँचो बिस्तार अतिहि बहु लीन्हो उचकि करज भुज बाम--९९७।

उचकी

क्रि. अ.

[हिं. उचकना]

उछली, कूदी।

उचक्का

संज्ञा

[हिं. उचकना]

उठाईगीरा।

बट मारी, ठग, चोर उचक्का, गाँठकटा, लठ बाँसी--१-१८६।

उचक्का

संज्ञा

[हिं. उचकना]

ठग।

उचक्यौ

क्रि. अ.

[स. उच्च = ऊँचा + करण = करना, हिं. उचकना]

ऊपर उठा, उठकर ऊपर आया, उतरया।

हम सँग खेलत स्याम जाइ जल माँझ धँसायौ। बूड़ि गयौ, उचक्यौ नहीं तो बातहि भई अबेर ५८९।

उचटत

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन, हिं. उचटना]

अलग होती हैं, छूटती है, छिटकती है।

(क) लटकि जात जरि-जरि दुम-बेली, पटकत बाँस, काँस कुस ताल। उचटत भरि अंगार गगन लौं, सूर निरखि ब्रजजन-बेहाल-५९४। (ख) पटकत बाँस, काँस कुस चटकत, लटकत ताल तमाल। उचटत अति अंगार, फुदत फर, झपटत लपट कराल -- ६१५

उचटना

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन]

उखाड़ना, अलग होना, छूटना।

उचटना

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन]

जमी वस्तु का पृथ्वी से अलग होना।

उचटना

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन]

भड़कना, बिचकना।

उचटना

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन]

विरक्त होना, हट जाना।

उचटाइ

क्रि. स.

[हिं. उचटाना]

खिल करके, उदासीन करके, विरक्त करना।

अब न पियहिं उचटाइ हौं मोकों सरमात है त्रास करत मेरी जिती आवत सकुचात -- -२१७४।

उचटाए

क्रि. स.

[हिं. उचटाना]

खिन्न किया, विरक्त कर दिये।

नैननि हरिकौ निठुर कराए। चुगली करी जाइ उन आगे हमतें वे उचटाए--पृ० ३३०।

उचटाना  

क्रि. स.

[सं. उच्चाटन]

अलग करना, नोचना।

उचटाना  

क्रि. स.

[सं. उच्चाटन]

खिन्न करना, विरक्त करना।

उचटाना  

क्रि. स.

[सं. उच्चाटन]

भङ्काना।

उचटायौ

क्रि. स.

[हिं. उचटना

अलग किया, पृथक किया।

उचटायौ

क्रि. स.

[हिं. उचटना

खिन्न या विरक्त किया।

उचटायौ

क्रि. स.

[हिं. उचटना

भड़काया।

उचटावत

क्रि. स.

[हिं. उचटाना]

भड़काते हो, बिचकाते हो।

वा देखत हमको तुम मिलिहौं काहे को ताको अनखावत। जैहै कहूँ निकसि हरिदै ते जानि-बूझि ते हि क्यौं उचटावत-१८७०।

उचटावत

क्रि. स.

[हिं. उचटाना]

खिन्न करते हो, उदासीन करते हो विक्त करते हो।

जल बिनु मीन रहत कहुँ न्यारे यह सो रीति चलावत। जब ब्रज की बातैं यह कहियत तबहिं तबहिं उचटावत-२९१२

उचटि

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन, हिं. उचटना]

उचट कर, छिटककर, छूटकर।

अति अगिनझार, भँभार धुंधार करि, उचटि अंगार झंझार छायौ.५९६।

उचटे

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन, हिं. उचटना]

खुल गये।

जागहु जागहु नंद कुमार। रवि बहु । चढ्यौ, रैनि सब बिधटी, उचटे सकल किवार -- -४०८।

उटटैं

क्रि. अ.

[हिं. उचटना]

उखड़ती है, भूमि से अलग होती हैं।

उवड़ना

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन, प्रा. उच्चाड़न]

जुडी चीजों का अलग होना।

उवड़ना

क्रि. अ.

[सं. उच्चाटन, प्रा. उच्चाड़न]

भागना, जाना।

उचत

क्रि. अ.

[हिं. उचना]

उचकता है, ऊँचा  उठता हैं।

उचना   

क्रि. अ.

[सं. उच्च]

ऊँचा या ऊपर उठना, उचकना।

उचना   

क्रि. अ.

[सं. उच्च]

उठना।

उचना   

क्रि. स.

उचकाना, ऊपर उठाना।

उचनि

संज्ञा

[सं. उच्च]

उभाड़, उठान।

(क) परी दृष्टि कुच उचनि पिया की वह सुख कह्यौ न जाइ। (ख) चिबुक तर कंठ श्री माल मोतीन छबि कुच उचनि हेमगिरि अतिहि लाजै।

उचरना

क्रि. स.

[सं. उच्चारण]

बोलना, मुँह से शब्द निकालना।

उचरना

क्रि. अ.

मुँह से शब्द निकालना

उचरी  

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उच्चरना]

उच्‍चारण की, मुँह से कही।

निज पुर आइ, राइ भीषम सौं, कही जो बातैं हरि उचरी -- १-२६८।

उचरयौ

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचरना]

उच्छरित किया, कहा।

लियौ तँबोल माथ धरि हनुमत, कियौ, चतुरगुन गात। चढ़ि गिरिसिखर सब्द इक उचरयौ, गगन उठयौ। आघात...९-७४।

उचाइ  

क्रि. स.

[सं. उच्च + करण, हिं. उजाला]

ऊँचा करके, उठाकर, ऊपर करके।

(क) सुनौ। किन कनकपुरी के राइ। हौं बुधि-बल-छल करि हारी लख्यौ न सीस उचाइ-९-७५। (ख) बाँह उचाइ काल्हि की नाइ धौनी धेन बुलावहु--१०-१७९।

उचाइ  

क्रि. स.

[सं. उच्च + करण, हिं. उजाला]

उठाकर , उठाना।

दरकि कंचुक, तरकि माला, रही धरणी जाइ। सूर प्रभु करि निरखि करुना, तुरत लई उचाई।

उचाई

क्रि. स.

[सं. उच्च + करण]

उठा लेना, उखाड़ लेना।

बलि कहचौ, बिलँब अब नैंकु नहिं कीजिए, मंदराचल अचल चले धाई। दोउ इक मंत्र ह्वै जाइ पहुँचे तहाँ, कहयौ, अब लीजिये इहिं उचाई--८८।

उचाए

क्रि. स.

[हिं. उचाना)

उठाया, उठाकर खड़ा किया, गिरे से उठाया।

तब परे मुरछाइ धरनी काम करे अकाजु। सखिन तब भुज गहि उचाए कहा बावरे होत-२२६०।

उचाट

वि.

[सं. उच्चाट]

उदास, विरक्त, अनमना

चितै मंद मुसुकाय कै री जिय करि लेय उचाट -- २४१३।

उचाट

संज्ञा

मन का न लगना, विरक्ति, उदासीनता।

उचाटन

संज्ञा

[सं. उच्चाटन]

जुड़ी वस्तु को अलग करना।

उचाटन

संज्ञा

[सं. उच्चाटन]

चित्त को किसी ओर से हटाना।

उचाटन

संज्ञा

[सं. उच्चाटन]

अनमनापल विरक्ति, उदासीनता।

उचाटना

क्रि. स.

[सं. उच्चाटन]

चित्त को किसी ओर से हटाना।

उचाटी

संज्ञा

[सं. उच्चाट]

अनमना, विरक्ति, उदासीनता।

उचाटू

वि.

[हिं. उचाट]

जिसका मन उदास हो, अनमना।

उघाड़ना

क्रि. स.

[हिं. उचड़ना]

उखाड़ना, अलग करना।

ऊचाढ़ी

वि.

[सं. उच्चाट, हिं. उचाटी]

उचाट, उदासीन, अनमनी, विरक्त।

सखी संग की निरखति यह छबि भई व्याकुल मन्मथ की डाढ़ी। सूरदास प्रभु के रस-बस सब, भवन-काज तैं भई उचाढ़ी -- ७१६।

उचाना

क्रि. स.

[सं. उच्च + करण]

ऊँचा करना ऊपर उठाना।

उचाना

क्रि. स.

[सं. उच्च + करण]

गिरे से उठाना।

उचायौ

वि.

[सं. उच्च + करण, हिं. उचाना]

ऊँचा उठा हुआ।

इंद्र हाथ ऊपर रहि गयौ। तिन कह्यौ, दई कहा यह भणौ। कह्यौ सुरनि तुम रिषहिं सतायौ। तातै कर रहि गयौ उचायौ-९.३।

उचार

संज्ञा

[सं. उच्चार]

बोलना, कथन।

उचार

क्रि. स.

[हिं. उच्चारना]

उच्चारण करके, कहकर

दो हकार उचार थाको रहे काढ़त प्रान–सा ० ५७।

उचारत

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चारण करते हैं, कहते हैं।

तात-तात कहि बैन उचारत,हवै गए भूप अचेत-९-३९।

उचारा

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चारण किया, कहा, बोला।

(क) नृपति कछु नहिं बचन उचारा-९-४। (ख) छीरसमुद्र-मध्य तैं यौं हरि दीरघ बचन उचारा-१०.४।

अकासबानी

संज्ञा

[सं. आकाशवाणी]

आकाश से कहे हुए शब्द, देववाणी।

भई अकासबानी तिहि बार। तु ये चारि श्लोक बिचार -- २-३७।

अकासैं

संज्ञा

[सं. आकाश]

आकाश में, आकाश को।

यह कहिके सो चलो पर ई। जैसै तड़ित अकासै जाई-९.२।

अकीरित

संज्ञा

[सं., अकीर्ति]

अयश अपयश।

अकुंठ

वि.

[सं.]

तीक्ष्ण, पैनी।

अकुंठ

वि.

[सं.]

तीव्र, तेज।

अकुचत

क्रि. अ.

[हिं. सकुचता अकुचना]

मलिन या उदास होता है।

काहे को पिय सकुचत हौ। अब ऐसौ जिनि काम करौ कहुँ जो अति ही जिये अकुवत हौ-२१८३।

अकुल

वि.

[सं.]

कुलरहित, परिवारहीन।

अकुल

वि.

[सं.]

नीचे वंश का।

अकुलाइ, अकुलाई

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

घबड़ा कर, व्याकुल होकर, दुखी होकर।

(क) रोवत देखि कह्यो अकुलाई, कहा करयो तै बिप्र अन्याई१०-५७। (क) बिरहा-बिया तन गई लाज छुटि, बरंवार उठै अकुलाई-९.५६। (ग) मैं अज्ञान अकुलाइ अधिक लै, जरत माँझ घृत ने।यौ--१-१४५। (ग) निसि दिन पथ जोहत जाइ। दधि को सुन-सुत तासु आसन बिकल हो अकुलाई सा ० २२।

अकुलाए

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

उतावले हुए, ऊब गए, उकता गए।

(क) लिखि मम अपराध जनम के चित्रगुप्त अकुलाए-१-१२५। (ख) रथ हैं उतरि अवनि आतुर हूँ, चले चरन अति धाए। भू संचित भू-सार उतारन, चपल भए अकुलाए-१-२७३

उचारन

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चारण करना

बिप्र लगे धुनि बेद, जुवतिन मगल गाए--९.२४।

उचारना

क्रि. स.

[सं. उच्चारण]

उच्चारण करना, बोलना।

उचारना

क्रि. स.

[सं. उच्चारन]

उखाड़ना, नोचना।

उचारि

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चारण करके, मुँह से शब्द निकालकर, बोलकर।

तब अर्जुन नैननि जल डारि। राजा सौं कह्यौ बचन उचारि-१-२८६।

उचारी

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चारण की, कही, मुँह से निकाली।

(क) अधिक कष्ट मोहिं परयौ लोक मै, जब यह बात उचारी। सूरदास-प्रभ हँसत कहा है, मेटौ बिपति हमारी -- १-१७३। (ख) पकरि लियो छन माँझ असुर बल डारयौ नखन बिदारी। रुधिर पान करि माल आँत धरि जय जय शब्द उचारी। (ग) सूर प्रभु निरखि दण्डवत सबहिनि कियौ, सुर रिषिन सबनि अस्तुति उचारी -- ४ ६।

उचारी

क्रि. स.

[सं. उच्चाटन, हिं. उचारना]

उखाडी, नोच ली।

रिषी क्रोध करि जटा उचारी। सो कृत्या भइ ज्वाला भारी।

उचारे

क्रि. स.

[सं. उच्चाटन, हिं. उचारना]

उच्चारण किये, कहे।

सूर प्रभु अगम-महिमा न कछु कहि परत, सिद्ध गंधर्ब जैजै उचारे-९-१६३।

उचार

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चारण करें, कहें।

हाँसी मैं कोउ नाम उचारैं। हरि जू ताकौ सत्य बिचारैं।…..। जो-जो मुख हरि नाम उचारैं-६-४।

उचारौं

क्रि. स.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चरण करूँ, कहूँ।

रंक रावन, व हाऽतंक तेरौ इतौ, दोउ कर जोरि बिनती उचारौं -- ९.१२९।

उचारयौ

क्रि. स. भूत.

[सं. उच्चारण, हिं. उचारना]

उच्चारण किया, कहा।

जैसे कर्म, लहौ फल तैसे, तिनका तोरि उचारचौ -- १-३३६।

उचालना

क्रि. स.

[हिं. उचाड़ना, उचारना]

उखाडड़ना, नोचना।

उचि

क्रि. अ.

[हिं. उचना]

उचक कर, ऊँची ऊठकर।

उचित

वि.

[सं. औचित्य]

योग्य, ठीक।

उचै

क्रि. स.

[हिं. अचना]

ऊँचा कर के, उठाकर।

उचौंहा

वि.

[हिं. ऊँचा + औंहाँ (प्रत्य. )]

ऊँचा उठा हुआ, उभड़ा हुआ।

उचौं हैं  

वि.

[हिं. ऊँचा + औंहों (प्रत्य.)]

ऊँचे, उभरे हुए।

उच्च

वि.

[सं.]

ऊँचा।

उच्च

वि.

[सं.]

श्रेष्ठ, महान, उत्तम्।

उच्चरण

संज्ञा

[सं.]

बोलना, शब्द निकालना।

उच्चतम

वि.

[सं.]

सबसे ऊँचा।

उच्चतम

वि.

[सं.]

सबसे श्रेष्ठ।

उच्चता

संज्ञा

[सं.]

ऊँचाई।

उच्चता

संज्ञा

[सं.]

श्रेष्ठता, बड़ाई।

उच्चता

संज्ञा

[सं.]

उत्तमता, अच्छाई।

उच्चरतौ

क्रि. स.

[हिं. उच्चरना]

उच्चारण करता, बोलता, कहता।

साधु सील सद्रूप पुरुष को, अपजस बहु उच्च रतौ--१-२०३।

उच्चरना

क्रि. स.

[सं. उच्चारण]

बोलना, कहना।

उच्चरी

क्रि. स.

[हिं. उच्चरना]

उच्चारण की, कही।

जज्ञ पुरुष बानी उच्चरी -- -४-५।

उच्चरै

क्रि. स.

[हिं. उच्चरना]

उच्चारण करे, कहे, बोले।

ज्यौं-त्यों कोउ हरि-नाम उच्चरै। निस्चय करि सो तरै परै-६-४।

उच्चरौं

क्रि. स.

[हिं. उच्चरना]

उच्चारण करूँ, कहूँ।  

अब मैं यहै बिनै उच्चरौं। जो कछु आज्ञा होइ कराँ–४-१२।

उच्चरौ

क्रि. स.

[हिं. उच्चना]

उच्चारण करो, कहो,बोलो।

रामहिं राम सदा उच्चारौ-७-२।

उच्चरथौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. उच्‍चरना]

उच्चारण किया, बोला।

पुनि सो सुरूचि कैं चरननि मस्यौ। तासौं बचन मधुर उच्चरचौ -- ४-९।

उच्चाद

संज्ञा

[सं.]

नोचना।

उच्चाद

संज्ञा

[सं.]

विरक्ति, अनमनापन।

उच्चाटन

संज्ञा

[सं.]

अलग करना।

उच्चाटन

संज्ञा

[सं.]

नोचना।

उच्चाटन

संज्ञा

[सं.]

चित्त को हटाना।

उच्चाटन

संज्ञा

[सं.]

विरक्ति, अनमनापन।

उच्चार

क्रि. स.

[हिं. उच्चारना]

बोलना, कहना, उच्चारण करके, मुँह से बोलकर।

अत ओसर अरध-नाम-उच्चार करि सुस्रत गज ग्राह तेैं तुम छुड़ायौ--१-११९।

उच्चारण

संज्ञा

[सं.]

बोलने की क्रिया।

बोलने का ढंग।

उच्चारना

क्रि. स.

[सं. उच्चारण]

उच्चारण करना, बोलना।

उच्छवसित

वि.

[सं.]

साँस से युक्त।

उच्छवसित

वि.

[सं.]

खिला हुआ।

उच्छवासित

वि.

[स.]

साँस से पूर्ण।

उच्छवासित

वि.

[स.]

जीवित।

उच्छवासित

वि.

[स.]

फूला हुआ, विकसित।

उच्छवास

संज्ञा

[सं.]

ऊपर खींची हुई साँस।

उच्छवास

संज्ञा

[सं.]

साँस।

उच्छाव

संज्ञा

[सं. उत्साह, प्रा. उच्छाह]

उत्साह उमंग

उच्छाव

संज्ञा

[सं. उत्साह, प्रा. उच्छाह]

धूमधाम।

उच्छास

संज्ञा

[सं. उच्छवास]

साँस।

उच्चारित

वि.

[सं.]

बोला या कहा हुआ।

उच्चारी  

क्रि. स.

[हिं. उच्चारना]

उच्चारण की, मुँह से बोली, कही।

नब कुंती बिनती उच्चारी–१२८१।

उच्चारे

क्रि. स.

[हिं. उच्चारना]

उच्चारण किये, बोले, वर्णित किये, बखाने।

दोउ जन्म ज्यौं हरि उद्धारे। सो तौं मैं तुमसौं उच्चारे -- १०-२।

उच्चारैं

क्रि. स.

[हिं. उच्चारना]

उच्चारण करें बोले, कहें।

हरि-हरि नाम सदा उच्चारैं-७-२।

उच्चारथौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. उच्चारना]

उच्चारण किया, बोला, कहा।

बिप्रनि जज्ञ बहुरि बिस्ता रयौ। बेद भली बिधि सौं उच्चारचौ -- ४.५।

उच्चैःश्रवा

संज्ञा

[सं.]

एक सुन्दर धोड़ा जो समुद्र के चौदह रत्नों में था। इसके कान खड़े और यह सात थे। इन्द्र इसका अधिकारी है।

निकसे सबै कुँवर असवारी उच्चैःश्रवा के पोर-१० उ० -- ३-६।

उच्छन्न

वि.

[सं.]

दबा हुआ, लुप्त।

उच्छरना, उच्छलना

क्रि. अ.

[हिं. उछरना, उछलना]

उछलना, कूदना।

उच्छलित

क्रि. अ.

[हिं. उच्छलना]

छलकता हुआ, उमड़ाता हुअ।

कुसल अंग, पुलकित वचन, गद्गद् महि मन सुख पाइ। प्रेमघट उच्छलित ह्वै है नैन अंस बहाइ -- २४८६।

उच्छव

संज्ञा

[सं. उत्सव, प्रा. उच्छब]

उत्साह।

उछकना

क्रि. अ.

[हिं. उचकना, उझकना = चौंकना]

चौंकना, चेत में आना।

उछकै

क्रि. अ.

[हिं. उछकना]

चौके, चेत में आये।

उछरना

क्रि. अ.

[हिं. उछलना]

उछलना, कूदना।

उछरत

क्रि. अ.

[सं. उच्छलन, हिं. उछलना]

उछलता है, ऊपर उठता और गिरता है।

उछरत सिन्धु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ--१०-६४।

उछरि

क्रि. अ.

[सं. उच्छलन, हिं. उछलना]

उछलकर।

स्रोनित छिछ उछरि आकासहि, गज-बाजिन सिर लागि -- ९-१५७।

उछरैं

क्रि. अ.

[हिं. उछलना]

उभड़ते है, चिह्न पड़ते है, उछलते हैं।

उछलता

क्रि. अ.

[सं. उच्छलन]

नीचे-ऊपर उठना।

उछलता

क्रि. अ.

[सं. उच्छलन]

कूदना।

उछलता

क्रि. अ.

[सं. उच्छलन]

प्रसन्न होना।

उछलता

क्रि. अ.

[सं. उच्छलन]

उभड़ना।

उच्छंखल

वि.

[सं.]

किसी की परवाह न करनेवाला, उद्दंड।

उच्छेद, उच्छेदन

संज्ञा

[स.]

खंडन।

उच्छेद, उच्छेदन

संज्ञा

[स.]

नाश।

उछंग

संज्ञा

[सं.उत्सं.ग, प्रा. उच्छंग]

गोद, क्रोड़ कोरा।

(क) लै उछंग उपसग हुतासन, ‘निहकलक रघुराई। ' लई बिमान चढ़ाई जानकी, कोटि मदन छबि छाई-९-१६२। (ख) बंधन छोरि नंद बालक को लेैं उछंग करि लीन्हो। (ग) बालक लियौ उछंग दुष्टमति हरषित अस्तन पान कराई १०-५०।

उछंग

संज्ञा

[सं.उत्सं.ग, प्रा. उच्छंग]

हृदय।

उछंग

मुहा.

उछंग लई :- छाती से लगा लिया, अलिंगन किया। उ.- सुर स्याम ज्यौ उछग लई मोहिं. त्यौं मैं हूँ हँसि भेटौंगी।

उछँगना

संज्ञा

[हिं. उछंग]

गोद।

धूसर घूरि दुहुँ तन मंडित, मातु जसोदा लेति उछंगना १०-११३।

उछंगि

संज्ञा

[हिं. उछंग]

गोद।

उछंगि

संज्ञा

[हिं. उछंग]

हृदय।

उछंगि

मुहा.

उछंगि लेई :- छाती से लगाया। उ.- स्याम सकुच प्यारी उर जानी। उछंगि लेई बाम भुज भरिकै बार-बार कहि बानी-१६०१।

उच्छाह

संज्ञा

[सं. उत्साह]

उमंग।

उच्छिन्न

वि.

[सं.]

कटा हुआ।

उच्छिन्न

वि.

[सं.]

तोड़ा या उखाड़ा हुआ।

उच्छिन्न

वि.

[सं.]

नष्ट, निर्मूल

उच्छिष्ठ

वि.

[सं.]

जूठा।

उच्छिष्ठ

वि.

[सं.]

दूसरे का उपयोग किया हुआ।

उच्छिष्ठ

संज्ञा

जूठी चीज।

उच्छिष्ठ

संज्ञा

मधु शहद।

उच्छंखल

वि.

[सं.]

जो क्रम से न हो।

उच्छंखल

वि.

[सं.]

मनमाना काम करनेवला, निरंकुश।

उछार

संज्ञा

[हिं. उछाल]

ऊँचाई जहाँ तक उछला या उछाला जाय।

उछार

संज्ञा

[हिं. उछाल]

छींटा, उछलती हुई बूंद।

उछारना

क्रि. स.

[हिं. उछालना]

उछालना, ऊपर फेंकना।

उछाल

संज्ञा

[सं. उच्छाल]

उछालने की क्रिया।

उछाल

संज्ञा

[सं. उच्छाल]

कुदाना, छलाँग।

उछाल

संज्ञा

[सं. उच्छाल]

ऊँचाई जहाँ तक उछला जाय।

उछालना

क्रि. स.

[सं.उच्छालन]

ऊपर फैंकना।

उछालना

क्रि. स.

[सं.उच्छालन]

प्रकट या प्रकाशित करना।

ऊछाला

संज्ञा

[हिं. उछाल]

जोश, उबाल।

उछाह

संज्ञा

[सं. उत्साह. प्रा. उच्छाह]

उमंग, हर्ष।

अकुलाए

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

घबड़ाए, व्याकुल हुए।

अकुलात

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

व्याकुल होकर,घबड़ाकर।

गोति लषन के बैरी आन के अकुलाय। पक्षिराज सुनाथ पति नी भोगिबो चित चाय-स. उ. ४५।

अकुलात

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

ब्याकुल या दुखी हैं, घबड़ाते हैं।

(क) दसरथ-सुत कोसलपुरवासी, क्रिया हरी तातै अकुलात -- ९-६९। (घ) बिधि लिखी नहिं टरत कैसेहु, यह कहत अकुलात-२९१७। (ग) सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन कौं अति आतुर अकुलात-सा० उ० ३।

अकुलात

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

जल्दी करता है, उतावला है।

कल्प:समान एक छिन राघव, क्रम-क्रम करि हैं चित वत। तातै हौं अकुलात, कृपानिधि ह्वै हैं पैड़ो चितवत--९-८७।

अकुलात

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

धीरज खोता है,  बेचैन है।

पूछौ जोइ तात सौं बात। मैं बलि जाउँ मुखारबिंद की तुमहीं काज कंस अकुलात-५३०।

अकुलान

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

घबड़ाया, व्याकुल हुआ, बेचैन हुआ।

डोलत महि अधीर भयौ फनिपति कृर म अति अकुलान-९:२६।

अकुलानी

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

व्याकुल हुई, दुखी या बेचैन हुई।

(क) परै बज्र या नृपति-सभा पै, कहति प्रजा अकुलानी--१-२५०। (ब) जब जानी जननी अकुलानी। आप बँधायौ सारंगपानी-३९१।

अकुलानी

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

घबरा गई, चकपका गई।

कर तै साँटि गिरत नहि जानी, भुज छाँड़ि अकुलानी। सूर क है जसुमति मुख मूँदौ, बलि गई सारंगपानी--१०-२५५।

अकुलाने

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना)

घबड़ाए, व्याकुल हुए, बेचैन हुए।

(१)....हरि पीवत जब पाई। बढ़यो बृच्छ बट, सुर अकुलाने, गगन भयौ उतपात। महा प्रलय के मेघ उठे करि जहाँ तहाँ आघात -- १०-३४।

अकुलाने

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना)

आवेग में आए, झुँझलाए।

अति रि सही तैं तनु छीजै, सूठि कोमल अंग पसीजै। ब रजत बरजत बिरुझाने। करि क्रोध मनहि अकुलाने-१०-१८३।

उछलता

क्रि. अ.

[सं. उच्छलन]

तरना, उतरना।

उछलि

क्रि. अ.

[सं. उछलना]

उछलकर वेग से ऊपर उठ और गिरकर।

आनन्द-मगन धेनु स्रवैं थनु पय-फेनु, उमग्यौ जमुन-जल उछलि लहर के-१०-३०।

उछलित

क्रि. अ.

[हिं. उछलना]

उछलता है, छलकता हुआ।

स्याम रस घट पूरि उछलित बहुरि धरयौ सँभारि--१२१७।

उछलै

क्रि. अ.

[हिं. उछलना]

उछले, कूदे।

उछलै

क्रि. अ.

[हिं. उछलना]

उतराये, तैरे।

उछल्यौ

क्रि. अ. भूत.

[हिं. उछलना]

ऊपर-नीचे हुआ, उठा-गिरा।

उमंगि आनंद-सिंधु उछल्यौ स्याम के अभिलाष-पृ०३४३ (२२)

उछाँगे

संज्ञा

[हिं. छलाँग]

छलाँग, उछाल।

लैं बसुदेव धँसे दह सूधे, सकल देव अनुरागे। जानु, जंघ, कटि, ग्रीव, नासिका, तब लियौ स्याम उछाँगे। चरन पसारि परसी कालिंदी, तरवा नीर तियागे-१०-४।

उछाँटना

क्रि. स.

[सं. उच्चाटन, हिं. उचाटना]

उदासीन या विरक्त, करना।

उछाँटना

क्रि. स.

[हिं. छाँटना]

छाँटना, चुनना।

उछार

संज्ञा

[हिं. उछाल]

उछालने की क्रिया।

उछाह

संज्ञा

[सं. उत्साह. प्रा. उच्छाह]

उत्सव, धूमधाम।

उछाह

संज्ञा

[सं. उत्साह. प्रा. उच्छाह]

उत्कंठा, लालसा।

उछाही

वि.

[हिं. उछाह]

उत्साहित, आनंदित।

उछाहु

संज्ञा

[हिं. उछाह]

उत्साह, उमंग, हर्ष।

उरनि उरनि वै परत आनि कै जोधा परम उछाहु--२८२६।

उछाहू

संज्ञा

[हिं. उछाह]

हर्ष, प्रसन्नता।

उछाहू

संज्ञा

[हिं. उछाह]

उत्सव, धूमधाम।

उछाहू

संज्ञा

[हिं. उछाह]

इच्छा।

उछिन्न

वि.

[सं. उच्छिन्न]

कटा हुआ।

उछिन्न

वि.

[सं. उच्छिन्न]

नष्ट।

उछष्टि

वि.

[सं. उच्छिष्ट]

जूठा।

उजराना

क्रि. स.

[सं. उज्ज्वल]

स्वच्छ करना, उज्ज्वल करना।

उजराय

क्रि. स.

[स. उज्ज्वल]

स्वच्छ करके, निर्मल कराकर।

उजरे

क्रि. अ.

[हिं. उजड़ना]

नष्ट हुए, उजड़ गये।

उजला

वि.

[सं. उज्ज्वल, प्रा. उज्ज्वल]

सफेद, श्वेत।

उजला

वि.

[सं. उज्ज्वल, प्रा. उज्ज्वल]

निर्मल, स्वच्छ।

उजवास

संज्ञा

[सं. उद्यास = प्रयत्न]

चेष्टा, तैयारी।

उजागर

वि.

[सं.उद् = ऊपर, अच्छी तरह + जागर = जागना, जलना, प्रकाशित होना]

कोर्तियुक्त, प्रकाशित, दीप्तिमान, जगमगाता हु‍आ।

(क) क्रिया-कर्म करत हु निसि-बासर भक्ति कौ पंथ उजागर--१-९१।

उजागर

वि.

[सं.उद् = ऊपर, अच्छी तरह + जागर = जागना, जलना, प्रकाशित होना]

वंश को गौरवान्वित करनेवाला।

(क) सूर धन्य जदुबंस उजागर धन्य ध्वनि घुमरि रह्यो-२६१६। (ख) इनके कुल ऐसी चलि आई सदा उजागर बंस--३०४९।

उजागर

वि.

[सं.उद् = ऊपर, अच्छी तरह + जागर = जागना, जलना, प्रकाशित होना]

प्रसिद्ध, विख्यात।

(क) जांबवान जो बली उजागर सिंह मारि मनि लीन्ही। (ख) दिन द्वै घाट रोकि जमुना को जुवतिन में तुम भए उजागर -- ११२३।

उजागर

वि.

[सं.उद् = ऊपर, अच्छी तरह + जागर = जागना, जलना, प्रकाशित होना]

चतुर, कुशल, दक्ष।

(क) झूमत नैन जम्हात बारही रीति-संग्राम उजागर हो--२१४०। (ख) कहियौ मधुर सँदेस सुचित दै मधुबन स्याम उजागर -- -२९८०।

उछष्टि

वि.

[सं. उच्छिष्ट]

उपयोग  में लाया हुआ, प्रयुक्त।

उछीनना

क्रि. स.

[सं. उच्छिन्न]

उखाड़ना, नष्ट करना।

उछेद

संज्ञा

[सं. उच्छेद]

नाश, विरोध।

जय अरु विजय कर्म कह कीन्हौ, ब्रह्म सराप दिवायौ। असुर-जोनि ता ऊपर दीन्ही। धर्म-उछेद करायौ। -- १-१०४।

उछेद

संज्ञा

[सं.पुं उच्छेद]

उखाड़ने की क्रिया।

उछेद

संज्ञा

[सं.पुं उच्छेद]

नाश।

उजट

संज्ञा

[सं.उटज]

पर्णकुटी, झोपड़ी।

उजड्ड

वि.

[सं. उद = बहुत + जड़ = मूर्ख अथवा सं. उद्दड]

जंगली, गँवार, वज्र मूर्ख।

उजड्ड

वि.

[सं. उद = बहुत + जड़ = मूर्ख अथवा सं. उद्दड]

जो मनमानी करे, निरंकुश।

उजड़ना

क्रि. अ.

[हिं. जड़ना = जमना]

नष्ट । होना।

उजड़ना

क्रि. अ.

[हिं. जड़ना = जमना]

तितर-बितर होना।

उजड़ना

क्रि. अ.

[हिं. जड़ना = जमना]

निर्जन होजाना, बसा न रहना।

उजड़ा

वि.

[हिं. उजड़ना)

तितर-बितर, गिरागिराया।

उजड़ा

वि.

[हिं. उजड़ना)

नष्ट।

उजर

[हिं.उजड़]

उजाड़ ध्वस्त।

आय क्रूरलै चले स्याम को हित नाही कोउ हरि कै।….। सूरदास प्रभु सुख के दाता गोकुल चले उजर कै-२५२९।

उजरउ

क्रि. अ.

[हिं. उजड़ना]

उजड़ जाय, नष्ट हो जाय।

उजरा

वि.

[हिं. उजला]

सफेद।

उजरा

वि.

[हिं. उजला]

निर्मल, स्वच्छ।

उराइ

क्रि. स.

[हिं. उजराना]

स्वच्छ करके, साफ करके।

उजराई

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल हिं. उज्जर]

सफेदी।

उजराई

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल हिं. उज्जर]

स्वच्छता, कांति।

उजागरि

वि.

[हिं. उजागरी]

प्रसिद्ध, विख्यात।

उजाड़

संज्ञा

[हिं. उजड़ना]

उजड़ा हुआ स्थान।

उजाड़

संज्ञा

[हिं. उजड़ना]

निर्जन स्थान।

उजाड़

संज्ञा

[हिं. उजड़ना]

जंगल।

उजाड़

वि.

नष्ट, ध्वस्त, गिरा हुआ।

उजाड़

वि.

जन रहित, जो आबाद न हो।

उजाड़ना

क्रि. स.

[हिं. उजाड़ना]

बिखराना, तितर-बितर करना।

उजाड़ना

क्रि. स.

[हिं. उजाड़ना]

नष्ट करना, खोद फेंकना।

उजाड़ना

क्रि. स.

[हिं. उजाड़ना]

बिगाड़ना, हानि पहुँचाना।

उजान

क्रि. वि.

[सं. उद् = ऊपर + यान]

धारा से उलटी अर्थात चढ़ाव की ओर।

उजारौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. उजाड़ना]

नष्ट किया, बिगाड़ा।

सूरदास-प्रभु सबहिनि प्यारो। ताहि डसन जाको हिय उजारो -- ७६२।

उजारयौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. उजाड़ना]

उजाड़ डाला, ध्वस्त कर दिया।

तुरतहिं गमन कियौ सागर तैं, बीच हि बाग उजार यौ--९-१०३।

उजारयौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. उजाड़ना]

प्रकट हुआ, प्रकाशित किया।

(क) दाऊ जू, कहि स्याम पुकारयौ। नीलांबर कर ऐंचि लियौ हरि, मनु बादर तेैं चंद उजारयौ -- -४०७। (ख) तब हँसि चितए स्याम से ज तैं बदन उघारयौ। मानहुँ पयनिधि मथत, फेन फटि चंद उजारयौ-४३१।

उजारयौ

वि.

[हिं. उजाला]

प्रकाशमान, कांतियुक्त।

हरि के गर्भ बस जननी को बदन उजारयौ (उजारौ) लाग्यौ। मानहुँ सरद-चंद्रमा प्रगटयौ, सोचतिमिर तन भाग्यौ-१०-४।

उजालना

क्रि. स.

[सं. उज्ज्वलन]

प्रकाशित करना।

उजालना

क्रि. स.

[सं. उज्ज्वलन]

चमकाना, स्वच्छ करना।

उजाला

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल]

प्रकाश, चाँदना

उजाला

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल]

श्रेष्ठ व्यक्ति।

उजाला

वि.

प्रकाशमान।

उजाली

संज्ञा

[हिं. उजाला]

चाँदनी, चंद्रिका।

उजार

संज्ञा

[हिं. उजाड़]

उजड़ा स्थान।

उजार

संज्ञा

[हिं. उजाड़]

निर्जन स्थान।

उजार

वि.

उजड़ा हुआ।

उजारा

संज्ञा

[हिं. उजाला]

उजाला, प्रकाश।

उजारा

वि.

प्रकाशमान, कांतियुक्त।

उजारि

क्रि. स.

[हिं. उजाड़ना]

उखाड़कर, खोदखाद कर।

भली कही यह बात कन्हाई अतिहिं सघन अरन्य उजारि -- ४७२।

उजारि

क्रि. स.

[हिं. उजाड़ना]

ध्वस्त या ध्वंस करके।

जो मोकौं नहिं फूल पठावहु तौ ब्रज देहू उजारि -- ५३६।

उजारी

क्रि. स.

[हिं. उजाड़ना]

नष्ट की, खोद डाली, उजाड़ दी।

उजारौ

संज्ञा

[हिं. उजाला]

उजाला, प्रकाश।

उजारौ

वि.

प्रकाशमान कांतियुक्त।

हरि कैं गर्भ बास जननी को बदन उजारौ लाग्यौ। म नहु सरदचंद्रमा प्रगटयौ, सोच-तिमिर तन भाग्यौं-१०४।

उजियाला

संज्ञा  

प्रकाश, चाँदना।

उजीर

संज्ञा

[अ. वजीर]

मंत्री, अमात्य, दीवान।

पाप उशीर कह्यौ सोई मान्यौ, धर्म-सुधन लुटयौ-१-६४।

उजेर  

संज्ञा

[हिं. उजाला]

उजाला, प्रकाश।

उजेरत  

क्रि. अ.

[हिं. उजियारा]

उजेला फैला रही है, प्रकाशित है, चमक रही हैं।

पुनि कहि उठी जसोदा मैया, उठहु कान्ह रवि-किरनि उजेरत ४०५।

उजेरना

क्रि. स.

[हिं. उजाला, उजियारा]

प्रकाशित करना, प्रकाश फैलाना।

उजेरा, उजेरो

संज्ञा

[हिं. उजाला]

उजाला, प्रकाश।

उजेरा, उजेरो

वि.

प्रकाशयुक्त।

उजेला

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल]

प्रकाश, चाँदना।

उजेला

वि.  

प्रकाशमान।

उज्जल

वि.

[सं. उज्ज्वल)

दीप्तिमान, प्रकाशमान।

उजियारा

वि.

प्रकाशमय।

उजियारा

वि.

कांतियुक्त, दीप्तिमान।

उजियारी

संज्ञा

[हिं. पुं. उजियारा]

चंद्रिका,चाँदनी।

के हरि-नख उर पर रुरै, सुठि सोभाकारी। मनौ स्याम घन मध्य मैं नव ससि उजियारी-१०-१३४।

उजियारी

संज्ञा

[हिं. पुं. उजियारा]

प्रकाश, उजांला, रोशनी।

बदन देखि बिधु-बुधि सकात मन, नैन कंज कुंडल उजियारी-१०-१९६।

उजियारी

संज्ञा

[हिं. पुं. उजियारा]

वंश को उज्ज्वल करने वाली, सती-साध्वी स्त्री।

बलिहारी वा बाँस बंस की बंसी-सी सुकुमारी।…...। बलिहारी वा कुंज-जात की उपजी जगत उजियारो-३४१२।

उजियारी

वि.  

प्रकाशयुक्त, उजाला।

(क) कबहुँक रतनमहल चित्र सारी सरदनिसा उजियारी। बैठे। जनकसुता सँग बिलसत मधुर केलि मनुहारी। (ख) भूपन सार ‘सूर' भ्रम सीकर सोभा उड़त अमल उजियारी -- सा ० ५१।

उजियार

संज्ञा

[हिं. उजियाला]

उज्ज्वल या गौरवान्वित करने वाला पुरुष।

माखन-रोटी तातीताती लेहु कन्हैया बारे। मन मैं रुचि उपजावै, भावै त्रिभुवन के उजियारे-४१९।

उजियारौ

संज्ञा

[हिं. उजाला]

प्रकाश, उजाला।

अपुनपौ आपुन ही मैं पायौ। सब्दहिं सब्द भयौ उजियारौ सतगुरु भेद बतायौ-४-१३।

उजियाला

संज्ञा

[हिं. उजाला]

प्रकाश, उजाला।

उजियाला

वि.

[सं. उद्योत, प्रा. उज्जोत]

प्रकाशमान।

अकुलानै

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

उतावला होकर, घबराकर।

पालभाव अनुसरति भरत दृग, अम्र अंसुकन आनै। जनु खंजरीट जुगल जठरातुर लेत सुभष अकुलाने--२०५३।

अकुलानौ

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

घबड़ाने लगा,व्याकुल हुआ।

यह सुनि दूत गयौ लंका मैं, सुनत नगर अकुलानौ-९-१२१।

अकुलान्यौ

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

घबड़ाया, दुखी या बेचैन हुआ।

यह सुनि नंद डराइ, अतिहि मन-मन अकुलान्यौ-५८९।

अकुलात

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

व्याकुल होकर,घबड़ाकर।

गोति लषन के बैरी आन के अकुलाय। पक्षिराज सुनाथ पतिनि नी भोगिबो चित चाय-सा . उ. ४५।

अकुलायो

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाया]

व्याकुल हुअर।

अकुलायो

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाया]

चकित हुआ, चकपकाया।

कपिल कुलाहल सुनि अकुलायौ -- ९-९।

अकुलाहीं

क्रि. अ.

[हिं. अकुलाना]

दुखी होती हैं, घबड़ाती हैं।

माघ-तुषार जुवति अकुलाहीं। हयाँ कहूँ नंद-सुवन तौ नहीं--७९९।

अकुलीन

वि.

[सं.]

बुरे कुल का नीच वंश की।

पुरुष अरु नारि को भेद भेदा नहीं कुलनि । अकुलीन अबित हौ काके-२६३५।

अकूत

वि.

[सं. अ + हिं. कूतना]

जिसका अनुमान न लगाया जा सके, जो कूता न जा सके, असीम, अपरिमित।

(क) धन्य नंद, धनि धन्य जसोदा, जिन जायौ अस पूत। धन्य भूमि, ब्रजबासी धनि धनि, अनंद करत अकूत--१०-३६। (ख) निसि सपने को तृषित भए अति सुन्यौ कंस को दूत। सूर नारि नर देखन धाए घर घर सोर अकूत--२४९२।

अकूहल

वि.

[देश.]

बहुत अधिक, असंख्य।

खेलत हँसत करें कौतूहल। जुरे लोग जहँ तहाँ अकूहल -- १०२२।

उजास

संज्ञा

[हिं. उजाला + स (प्रत्य.)]

प्रकाश, उजाला, चमक।

उजियर

वि.

[सं. उज्ज्वल]

उजाला, सफेद।

उजियरिया

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल, हिं. उजियारी]

चाँदनी, चंद्रिका।

लै पौढ़ी आँगन हीं सुत । कौ° छिटकि रही आछी उजियरिया--१०-२४६।

उजियार

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल)

उजाला, प्रकाश।

उजियार

वि.

दीप्तिमान, प्रकाशयुक्त,

उजियार

वि.

चतुर, बुद्धिमान।

उजियारना

क्रि. स.

[हिं. उजियारा]

प्रकाशित । करना।

उजियारना

क्रि. स.

[हिं. उजियारा]

जलाना।

उजियारा

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल]

प्रकाश, चाँदना।

उजियारा

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल]

वश को गौरवान्वित करने वाला पुरुष।

उज्ज्वलन

संज्ञा

[सं.]

स्वच्छ करने की क्रिया।

उज्ज्वलित

वि.

[सं.]

प्रकाशित किया हुआ।  

उज्ज्वलित

वि.

[सं.]

स्वच्छ किया हुआ।

उझकत

क्रि. अ.

[हिं. उचकना, उझकना]

उचकतेकूदते हुए, जाते-जाते।

बरज्यौ नहिं मानत उझकत फिरत हौ कान्ह घर घर--१६४३।

उझकति

क्रि. अ.

[हिं. उचकना]

देखने के लिए । ऊँची होती है, उचककर।

द्रुम-बेली पूँछति सब उझकति देखति ताल तमाल-१८२७।

उझकना

क्रि. अ.

[हिं. उचकना]

उछलना, कूदना,।

उझकना

क्रि. अ.

[हिं. उचकना]

उमड़ना, उपड़ना।

उझकना

क्रि. अ.

[हिं. उचकना]

झाँकने के लिए सिर बाहर निकालना।

उझकना

क्रि. अ.

[हिं. उचकना]

चौंकना, सजगहोना।

उझकि

क्रि. अ.

[हिं. उचकना, उझकना]

उचक कर, कूद कर।

(क)जैसे के हरि उझकि कूप-जल देखत अपनी प्रति-१-३००। (ख) अलंबित जु पृष्ट बल सुन्दर, परसपरहिं चितवत हरिराम। झाँकि-उझकि बिहँसत दोऊ सुत, प्रेम-मगन भइ इकटक जान-१०-१५७। (ग) जैसे केहरि उझकि कूप जल देखे आप मरत।

उज्जल

वि.

[सं. उज्ज्वल)

शुभ्र, विशद, स्वच्छ, निर्मल।

उज्जल

वि.

[सं. उज्ज्वल)

श्वेत, सफेद।

हँस उज्जल, पंख निर्मल, अंग मलिमलि न्हहिं-१-३३८।

उज्जल

क्रि. वि.

[सं. उद् = ऊपर + जल = पानी]

चढ़ाव की ओर, उजान।

उज्जर  

[सं. उज्ज्वल]

प्रकाशयुक्त।

उज्जर  

[सं. उज्ज्वल]

स्वच्छ, निर्मल।

उज्जागरी

वि.

[हिं. उजागरी]

उज्ज्वल या गौरवान्वित करने वाली।

मध्य ब्रजनागरी रूपरस आगरी घोष उज्जागरी स्याम प्यारी -- १२९०।

उज्झड़  

वि.

[सं. उद् = बहुत+जड़ = मूर्ख]

झक्की, मूर्ख।

उज्यारा

संज्ञा

[हिं. उजाला]

प्रकश, चाँदना

उज्यारी

संज्ञा

[हिं. उजियारा]

प्रकाश, कांति, दीप्ति, प्रभा।

गरजत मेघ, महा डर लागत, बीच बढ़ी जमुना जल-कारी। तातैं यहै सोच जिय मोरैं, क्यौं दुरिहै ससि-बदन उज्यारी-१०-११।

उज्यारे

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल, हिं. उजियारा]

उजाला प्रकाश।

प्रात भयो उठ दे खऐ, रवि किरनि उज्यारे-४३९।

उज्यारौ

संज्ञा

[सं. उज्ज्वल, हिं. उजाला]

प्रकाश, चाँदना, रोशनी।

देखत आनि सँच्यौ उर अंतर, दै पलकनि कौ तारौ री। मोहिं भ्रम भयौ सखी, उर अपनैं, चहुँ दिसि भयौ उज्यारौ री--१०.१३५।

उज्यास

संज्ञा

[हिं. उजास]

प्रकाश, उजाला।

उज्वल

वि.

[स. उज्ज्वल]

श्वेत, सफेद।

खारिक, दाख चिरोैंजी, किसमिस, उज्वल गरी बदाम -- १०-२१२

उज्ज्वल

वि.

[सं.]

प्रकाशमान।

उज्ज्वल

वि.

[सं.]

स्वच्छ, निर्मल।

उज्ज्वल

वि.

[सं.]

श्वेत, सफेद

उज्ज्वलता

संज्ञा

[सं.]

कांति, चमक।

उज्ज्वलता

संज्ञा

[सं.]

स्वच्छता।

उज्ज्वलता

संज्ञा

[सं.]

सफेदी।

उज्ज्वलन

संज्ञा

[सं.]

प्रकाश।

उटकना

क्रि. स.

[सं.अट्‍ = घूमना. बार-बार + कलन = गिनना या उत्कलन]

अनुमान करना।

उटज

संज्ञा

[सं.]

पर्णकुटी, झोपड़ी।

उटँगना

क्रि. अ.

[सं. उत्य + अंग]

ऊँची या ऊपर उठी हुई वस्तु को सहारा लेना, टेक लगाना।

उटँगना

क्रि. अ.

[सं. उत्य + अंग]

पड़ जाना, लेट रहना।

उठइ

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

उठती है, ऊपर की ओर जाती है।

उठत

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, प्रा. उट्ठान, हिं. उठना]

उठते (हो), उठता (है)।

बैठत-उठत सेज-सोवत मैं कंस-डरनि अकुलात-१०-१२।

उठत

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, प्रा. उट्ठान, हिं. उठना]

बनता है। प्रकट होता है।

बारि मैं ज्यौं उठत बुदबुद लागि बाइ बिलाइ-१-३१६।

उठत

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, प्रा. उट्ठान, हिं. उठना]

उत्पन्न होता है, (सुप्त भाव जैसे दुख) जागता है।

भानुसुत-हित-सत्रु-पित लागत उठत दुख फेर-सा. ३ ३।

उठत

यौ.

[सं.यो. क्रि.]

उठत (गाइ) - उठती है, (गाने) लगती है।

एक परस्पर देत बधाई, एक उठत हँसि गाई-१०-२०।

उठत

यौ.

[सं.यो. क्रि.]

जागते हैं।

नंद कौ लाल उठत जब सोई। निरखि मुखारबिंद की सोभा. कहि, काकैं मन धीरज होइ-१०-२१०।

उझकि

क्रि. अ.

[हिं. उचकना, उझकना]

ऊपर उठकर, उमड़कर।

उझकि

क्रि. अ.

[हिं. उचकना, उझकना]

देखने के लिए सिर उठाकर, झाँकने के लिए सिर बाहर निकालकर।

(क) जहँ तहँ उझ कि झरोखा झाँकति जनक-नगर को नार। चितवनि कृपाराम अवलोकत , दीन्हौ सुख जो अपार। (ख) सूखे भवन अकेली मेैहों नीकै उझकि निहारयौ। मोते चूक परी मैं जानी, तातैं मौहिं बिसारयौ। (ग) फिरि फिरि उझकि झाँकत बाल-सा. ३४।

उझलना

क्रि. स.

[सं. उज्झरण]

(द्रव पदार्थ को) ऊपर से गिराना या बहाना।

उझलना

क्रि. अ.

उभड़ना, बढ़ना।

उझकुन

संज्ञा

[हिं. उचकन]

उचकने की क्रिया या भाव।

उझकै

क्रि. अ.

[हिं. उचकना, उझकना]

उछलेकूदे

उझरना

क्रि. स.

[सं. उत् + सरण]

ऊपर करना, ऊपर उठाना, ऊपर खिसकाना।

उझाँकना  

क्रि. स.

[हिं. झाँकना]

उचककर देखना।

उटंग

वि.

[सं. उत्तंग]

छोटा कपड़ा जो पहनने पर ऊँचा-ऊँचा लगे

उटकत

क्रि. स.

[हिं. उटकना]

अनुमान करता है, अटकल लगता है।

उठति

क्रि. अ.

[सं.ज्ञाउत्थान, प्रा. उटठान, हिं. उठना]

ऊँची होती है, ऊँचाई तक जाती हैं।

या संसार-समुद्र, मोह-जल, तृष्ना-तरंग उठति अतिभारी-१-२१२।

उठन

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, प्रा. उट्ठान, हिं. उठाना]

उठना, खड़ा होना।

उठन

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, प्रा. उट्ठान, हिं. उठाना]

सोकर जागना।

अनि मथानी दह्यौ बिलोबौं जौ लागि लालन उठन न पावै। जागत ही उठि रारि करत है, नहिं मानै जौ ईद मनावै -- १०-२३१।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

खड़ा होना, ऊँचा होना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

ऊँचाई तक पहुँचना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

ऊपर की ओर बढ़ना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

उछलना, कूदना

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

जागना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

उदय होना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

उत्पन्न होना।

उठाई

यौ.

शिरोधार्य की, मानी।

करै उपाय सो बिरथ जाई। नृप की आज्ञा लियो उठ ई।,

उठाए

क्रि. स.

[हिं. उठाना ('उठना' का स. रूप)]

खड़ा किया।

अमृत-गिरा बहु बरषिं सूर प्रभु, भुज गहि पार्थ उठाए--१-२९।

उठान

संज्ञा

[सं. उत्थान, पा. उट्‍ठान

उठने की क्रिया।

उठान

संज्ञा

[सं. उत्थान, पा. उट्‍ठान

बाढ़।

उठान

संज्ञा

[सं. उत्थान, पा. उट्‍ठान

आरंभ।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

गिरी हुई वस्तु को खड़ा करना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

ऊपर ले जाना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

कुछ काल तक अपने ऊपर धारण करना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

उत्पन्न करना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

सहसा आरंभ करना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

८. सहसा आरंभ हो जाना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

तैयार हो जाना।

उठना

क्रि. अ.

[सं. उत्थान, पा. उट्ठान]

अंक या चिह्न उभड़ना।

उठहि

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

उठनां, उछलनाकूदना।

उठहि

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

उत्पन्न होता है।

उठाइ

क्रि. स.

[हिं. उठना]

उठकर।

तब हरि धरि बाराह-बपु, ल्याए पृथी उठाइ–३-११।

उठाइ

मुहा.

खड़ग उठाइ :- मारने को तलवार उठाई, मारने को प्रस्तुत हुए। उ.- ताहि परिच्छित खड्ग उठाइ--१-२९०।

उठाई

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

उठाकर, हटाकर, अलग करके।

उठाई

यौ.

सकै उठाई- उठा या हट सके।

कोपि अंगद कह्यौ, धरौं धर चरन मैं ताहि जो सकै कोऊ उठाई।-९-१३५।

उठाई

यौ.

किसी गिरी हई वस्तुको ऊपर उठाना।

लकुट लिए कर टेरत जाई। कहत परस्पर लेहु। उठाई-१०५८।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

६. हटाना, अलग करना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

जगाना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

प्रस्तुत या तैयार करना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

खर्च करना।

उठाना

क्रि. स.

[हिं. 'उठाना' का सक.]

स्वीकार करना, मानना।

उठाने

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

उठा।

को जानै केहि कारन प्यारी सो लष तुरत उठाने। चपला और बराह रस आखर आद देख झपटाने -- सा० ७२।

उठायौ

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

( बोझ आदि) ले जाने के लिए उठाया, धारण किया।

(क) दौना गिरि हनुमान उठायौ। संजीवनि कौ भेद न पायौ, तब सब सैल उठायौ–९.१५०। (ख) मंदराचल उपारत भयौ स्रम बहुत बहुरि लै चलन को जब उठायौ -- ८-८।

उठाव

संज्ञा

[हिं. उठना]

उठान।

उठावत

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

उठाते या खड़ा करते हैं।

गहे अँगुरिया ललन की नँद चलन सिखावत। अरबराइ गिरि परत हैं, कर टेकि उठावत -- -१०-१२२।

उठावत

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

नीचे से ऊपर ले जाता है।

आलस सौं कर कौर उठावत, नैननि नींद झपकि रही भारी-१०-२२८।

अकृत

वि.

[सं.]

निकम्मा, कर्महीन, मद।

ताहिन मेरै और कोउ, बलि चरन-कमल बिनु ठाउँ। हौं असौच, अकृत (अक्रित) अपराधी; सन्मुख होत लजाउँ = १-१२८।

अकृत

वि.

[सं.]

प्राकृतिक।

अकृत

वि.

[सं.]

नित्य, स्वयंभू।

अकृत

संज्ञा

[सं. आकृति]

आकृति।

ताटक तिलक सुदेस झलकत खचित चूनी लाल। अकृत बिकुल बदन प्रहसित कमल नैन बिसाल -- २२९०।

अकृपा

संज्ञा

[सं. अ + कृपा]

कृपा का अभाव; क्रोध,।

बदन प्रसन्न-कमल सन मुख ह्न देखत हौं हरि जैसैं। बिमुख भए अकृपा न निमिषहूँ, फिरि चितयौं तौ तैसैं।

अकेल

वि.

[सं. एक + हिं. ल (प्रत्य.) = अकेला]

बिना संगी-साथी का, अकेला, एकाकी।

(क) भारत, जुद्ध बितत जब भयौ। दुर जोधन अ के ल रहि गयौ१-२८९। (ख) बैठी आजु रही अकेल। आइगो तब लौं बिहारी रसिक रुच बरबेल-सा. १०१।

अकेली

वि.

[सं. एक + हिं. ली (प्रत्य.)]

जिसके साथ कोई न हो, एकाकी।

(क) अहो बंधु, काहूँ अवलोकी इहिं मग बधू अकेली-९-६४। (ख) आजु अकेली कुंज भवन में बैठी बाल बिसूरतसा. ३। (ग) कुं न भवन ते आज राधिका अलस अकेली आवत-सा. १३।

अकेली

वि.

[सं. एक + हिं. ली (प्रत्य.)]

केवल, सिर्फ।

दूध अकेली धौरी को यह तन कौं अति हितकारि-४९६।

अकेलौ

वि.

[सं. एक + हिं. ला (प्रत्य.) = अकेला]

जिसके साथ कोई न हो, बिना साथी का।

संग लगाइ बीचहीं छाड्यौ, निपट अनाथ अकेलौ-११७५।

अकोट

वि.

[सं. कोटि]

करोड़ों, असंख्य।

उठीं

क्रि. अ. बहु.

[हिं. उठना]

उठीं, खड़ी हुईं।

उठीं

यौ.

[सं.यो. क्रि.]

उठीं गाइ गाने लगीं, गाना शुरू किया।

उठी सखी सब मंगल गाइ-१०-१४।

उठी

क्रि. अ.

[हिं. उठाना]

खड़ी हुई।

उठी रोहिनी परम अनंदित हार-रतन लैं आई -- १०.१८।

उठे

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

उठकर तैयार हुए।

सुनत यह उठे जोधा रिसाई-९.१३५।

उठे

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

धिरे, धिर आये।

उरज अनूप उठे चारों दिससिवसुत बाहन साद--सा ० ३७।

उठै

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

ऊँचा होता है, ऊँचाई तक जाता है।

सूर सरद-ससि-बदन दिखाऐं, उठै । लहर जननिधि की-१-२ १३।

उटैया

संज्ञा

[हिं. उठना]

उठाने वाला।

उटैया

यौ.

लिए उठैया-उठा लिया।

बाम भुजा गिरि लिए उठैया-१०५९।

उठौ

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

जागो, बिस्तर छोडो।

उठौ नंदलाल भयौ भिनसार जगावत नंद की रानी-१०-२०८।

उठथौ

क्रि. अ. भूत.

[हिं. उठना]

उठा, खड़ा हुआ।

उठथौ

यौ.

बर उठ्यो-जल उठा।

हरि नाम हरिनाकुस बिसारयौ,उठ्यौ बरि बरि बरि। प्रहलाद-हित जिहि असुर म रयौ, ताहि डरि डरि डरि-१-३०६।

उड़

संज्ञा

[सं.]  

नक्षत्र, तारा।

उड़

संज्ञा

[सं.]  

पक्षी।

उड़

संज्ञा

[सं.]  

मल्लाह।

उड़प

संज्ञा

[सं.]

चंद्रमा नाव।

उड़प

संज्ञा

[हिं. उठना]

एक तरह का नाच।

उड़पति, उड़राज

संज्ञा

[सं.]

चंद्रमा।

उड़गन

संज्ञा

[सं. उड्ड + गण (प्रत्य.)]

तारों का समूह।

उड़त

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

उड़ता हुआ।

उड़त उड़त सुक पहुँच्यौ तहाँ-१-२२६।

उड़त

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

(ख) फहराता है।

कछुक अंग तैं उड़त पीतपट, उन्नत बाहु बिसाल-२७३।

उठावति

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

उठाती है, हाथ में लेती है।

जल-ब सन कर लेै जु उठावति, याही मैं तू तन धरि आवै-१०-१९१।

उठावति

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

सहसा आरंभ करती है, अचानक उभाड़ती या छेड़ती है।

अब समुझी मैं बात सबन की झूठे ही। यह बात उठावति–११५०।

उठावहु

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

ऊँचा करो, उठाओ।

ऐसैं नहिं रीझौं मैं तुम सौं तटहीं बाहँ उठावहु -- -७९१।

उठावै

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

उठाकर बैठाती है, खड़ा करती है।

उठावै

क्रि. स.

[हिं. उठाना]

जगाती है।

ह्याँ नागिनि । सौं कहत कान्ह, अहि कयौं न जगावै। बालक बालक करति कहा, पति कयौं न उठावै – ५८९।

उठि

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

उठकर, खड़े होकर।

उठि

मुहा.

उठि धावै :- दौड़ पड़ता है। उ.- लच्छागृह तैं काढ़ि कैं पांडव गृह ल्यावै। जैसेैं मैया बच्छ कैं सुमिरत उठि धावै -- १-४।

उठिऐ

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

जानिए, बिस्तर, त्यागिए।

उठिऐ स्याम, कलेऊ कीजे-१०-२११।

उठिबे

क्रि. अ.

[हिं. उटना]

ऊपर जाना, उड़ सकना।

धनुष देखि खंजन बिवि-डरपत उड़ि न सकत उठिबे अकुलावत-२३४६।

उठिहै

क्रि. अ.

[हिं. उठना]

उठेगा, उठकर, बैठेगा।

सूर पतित तबहीं उठिहै, प्रभु, जब हँसि दैहौ बीरा-१-१३४।

उड़त

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

हवा में गर्द आदि उड़ती है।

(क) नितप्रति अलि जिमि गुंज मनोहर उड़त जु प्रेम-पराग-२-१२। (ल) हरि जू की आरती बनी।….। उड़त फूल उड़ग न नभ अन्तर, अंजन घटा धनी -- २-२८।

उड़ति

वि.

[हिं. उड़ना]

उड़ती हुई।

बाल-अबस्था मैं तुम धाइ। उड़ति भँमारी पकरी जाइ-३-५।

उड़न

संज्ञा

[हिं. उड़ना]

उड़ने की क्रिया, उड़ान।  

जनु रवि गत सकुचित कमल जुग, निसि अलि उड़न न पावै–१०-६५।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

पक्षियों का आकाश में इधर-उधर जाना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

हवा में निराधार फिरना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

हवा में ऊपर उठना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

हवा में फैल जाना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

हवा में तितर-बितर हो जाना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

फहराना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

सवेग चलना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

कटकर दूर जा भिरना।  

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

मिट जाना।

उड़ना

क्रि. अ.

[सं. उडुपन]

बातों में भुलावा देना।

उड़पति

संज्ञा

[सं. उडुपति]

चंद्रमा।

प्रगटयौ । भानु मंद भयौ उड़पति फूले तरुन तमाल-१०-२०६।

उड़सना

क्रि. अ.

[देश.]

नष्ट होनो खंडित होना।

उड़ाँक

वि.

[हिं. उड़ना]

उड़ने वाला।

उड़ाँक

वि.

[हिं. उड़ना]

जो उड़ सकता हो।

उड़ाई   

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

हवा में निराधार उड़ती है।

(क) सरवर नीर भरे, भरि उमड़ेै,सूखे खेह उड़ाइ-१ २६५। (ख) हरि हरि कहत पाप पुनि ज इ। पवन लागि ज्यों रूह उड़ाइ--१२. ३।

उड़ाई   

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

जाता रहना, दूर होना, नष्ट होना।

ऊधो हरि बिनु ब्रजरिपु बहुरि जिये। उर ऊँचे उसाँस तृनादर्त तिहिं सुख सकल उड़ाइ दिए–३ ०७३।

उड़ाइए

क्रि. स.

[हिं. उड़ान]

हवा में इधर-उधर फलाइये।

उड़ाइक

संज्ञा

[सं. उडाय क]

पतंग (आदि) उड़ानेवाला।

उड़ाई

क्रि. स.

[हिं. उड़ाना]

उड़ने को प्रवृत्त की।

तुरत गए नन्द-सदन कन्हाई। अंकम दै राधा नहिं मा्नै। मन प्रतीति नहिं आवई, उड़िबो ही जानैं ९-४२।

उड़ाई

संज्ञा

उड़ने की क्रिया।

चलि सखि, तिहिं सरोवर जाहिं।......। देखि नीर जु छिलछिलो जग समुझि क छु मन माहिं। सूर क्यौं नहिं चलै उड़ि तहँ, बहुरि उड़िबौ नाहिं—१-३३८।

उड़ियै

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

उढ़कर, उड़ी उड़ी,उड़ती हुई।

उड़िये उड़ी फिरति नैनन सँग फर फूटै ज्यौं आक रूई-१४३३।

उड़ी

संज्ञा

[हिं. उड़ना]

कलाबाजी।

उडु

संज्ञा

[सं.]

पानी।

उड़ेलना

क्रि. स.

(सं. उद्धारण = निकालना अथवा उदीरण = फैंकन]

एक पात्र का तरल पदार्थ दूसरे में डालना।

उड़ेलना

क्रि. स.

(सं. उद्धारण = निकालना अथवा उदीरण = फैंकन]

तरल पदाथं को फेंकना।

उड़ैनी

संज्ञा

[हिं. उड़ना]

जुगुनू।

उड़ैहैं

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

हवा में उड़ती फिरेगी।

उड़ैहैं

क्रि. अ.

[हिं. उड़ना]

हवा में निराधार फिरेगी।

या देही को गरब न करिये, स्यार-काग गिध खैहैं। तीननि में तन कृमि, के बिष्टा, कै ह्वै खाक उड़ैहैं--१-८६।

उड़ौहाँ

वि.

[हिं. उड़ना + औहाँ (प्रत्य.)]

उड़नेवाला।

उड्यो

क्रि. अ. भूत.

[हिं. उड़ना]

उड़ा, उड़ गया।

पौढ़ स्याम अकेले आँगन, लेत उड़यौ अकाश चढ़ायौ-१०-७७।

उड़कना

क्रि. अ.

[हिं. उढ़कन]

ठोकर खाना।

उड़कना

क्रि. अ.

[हिं. उढ़कन]

रुकना, ठहरन।

उड़कना

क्रि. अ.

[हिं. उढ़कन]

सहारा लाना।

उड़कना

क्रि. स.

[हिं. उढ़ान']

सहारे टेकना, भिड़ाना।

उड़निया

संज्ञा

[हिं. अढ़नी]

ओढ़ने की वस्तु ओढ़नी, उपरेनी, फरिया।

उड़निया

संज्ञा

[हिं. अढ़नी]

पीतांबर   

पीत उढ़नियाँ कहां बिमारी। यह तो लाल ढिगनि की औरै, है काहू की सारी-६९३।

उड़रना  

क्रि. अ.

[सं. ऊढ़ा = विवाहिता]

विवाहिता स्त्री का अन्य पुरुष के साथ निकल जाना।

उढ़ाऊँ

क्रि. स.

[सिं. ओढ़ाना, उढ़ाना]

कपड़ा ढकूँ, आच्छादित करूँ।

वे मारे सिर पटिया पारे कथा काहि उढ़ाऊँ-६४६६।

उढ़ाए

क्रि. स.

[हिं. ओढ़ना]

ढक दिया, कपड़े से ढक दिये गये।

उपमा एक अभूत भई तब-जब जननी पट पीत उढ़ाए-१०-१०१।

उढ़ाना

क्रि. स.

[हिं. ओढ़ाना]

कपड़ा ढकना।

उढ़ावनी

संज्ञा

[हिं. उढाना]

चद्दर, ओढ़नी।

उतंक  

संज्ञा

[सं. उत्तुंक]

एक ऋधि।

उतंक  

वि.

[सं. उतुंग]

ऊँचा।

उतंग

वि.

[सं. उतुंग]

ऊँचा।

(क) अतिहिं उतंग बयारि न लागत, क्यौं टूटे तरू भारी-६८८। (ख) लेहौं दान अंग अंगन को। गोरे भाल लाल सेंदु' छबि मुक्ता बर सिर सुभग मंग को। नक बेसरि खुटिला तरिवन को गरह मेल कुच युग उतंग को -- १०४२।

उतंग

वि.

[सं. उतुंग]

उच्च, श्रेष्ठ।

उतंगनि

वि. बहु.

[हिं. उतंग + नि (प्रत्य.)]

ऊँचे।

अति मंद गलित ताल फल ते गुरु इनि जुग उरज उतंगनि को -- -१०३२।

उतंत

वि.

[स, उन्नत या उत्तत्त = ऊँचा]

सयाना, बड़ी उम्र का

उत

क्रि. वि.

[सं. उत्तर]

वहाँ, उधर, उस ओर।

सुनत द्वारवती मारु उतसों भयो सूर जन मगलाचार गए-१० उ. २१।

उत

क्रि. वि.

[सं. उत्तर]

दूसरी तरफ, मुँह फेर कर।

पचि हारे मैं मनायो न मानौं प्रापुन चरन छुए इरि हाथ। तव रिसि धरि सोई उत मुख करि झुकि झाँक्यौ उपरैना माथ-२७३६।

उतकंठ

वि.

[सं. उत्कंठित]

उत्सुक, उत्कंठायुक्त, चावयुक्त।

स्रवन सुनन उत्कंठ रहत है, जब बालत तुतरात री--१०-१३६।

उतकंठा

संज्ञा

[सं. उत्कंठा]

चाह, लालसा, इच्छा।

उतका

क्रि. वि.

[हिं. (१) उत + का (२) उत्स]

उधर, उस ओर।

उतका

क्रि. वि.

[हिं. (१) उत + का (२) उत्स]

( श्लेषसे दूसरा अर्थ उत्का = ) उत्कंठित नायिका के पास।

हौं कहत न जाउ उतका नद नंदन बेग,। सूर कर आछेप राषी आजु के दिन नेग-सा ३४।

उतन

क्रि. वि.

[सं. उ + तनु]

उस ओर।

उतना

वि.

[हिं. उस +तन (प्रत्य.े.सं. तावान' से )]

उस मात्रा का।

उतपति

संज्ञा

[सं. उत्पत्ति]

सृष्टि।

(क) तुम हीं करत त्रिगुन बिस्तार। उतपति, थिति, पुनि करत सँहार -- -७-२। (ख) उतपति प्रलय करत है येई, शेष सहस-मुख सुजस बखाने -- ३८०।

उतपन्न

वि.

[सं. उत्पन्न]

जन्मा हुआ।

उतपल

संज्ञा

[सं. उत्पल]

कमल।

(क) लालन कर उतपल के कारन साँझ समै चित लावै -- सा ७९। (ख) जोर उतपल आदि उर तें निकस आयो कान -- सा, ७७।

उतपाटि

संज्ञा

[हिं. उत्पाटना]

उखाड़ कर।

दूम गहि उतपाटि लिए, दै दै किलकारी। दानव बिन प्रान भए, देखि चरित भारी-९-९५।

उतपात

संज्ञा

[सं. उत्गत]

कष्टदायक आक स्मिक घटना।

उतपात

संज्ञा

[सं. उत्गत]

अशांति हलचल।

उतपात

संज्ञा

[सं. उत्गत]

ऊधम, उपद्रव।

(क)लोक-लाज सब छुटि गई, उठि धाए संग लागे (हो)। सुनि याके उतपात कौं सुक सनकादिक भ गे (हो)-४४ (ख) नदुकुल में दोउ संत सबै कहैं तिनके ए उतपात-३३५ १। (ग) तुम बिन इहाँ कुँवर वर मेरे होते जिते उतपात --२७०३

उतपानना

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न]

उपजाया, पैदा किया।

उतपाने

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, हिं. उतपानना]

ऊत्पन्न या पँदा किये, उपजाथे।

तासौं मिलि नृप बहु सुख माने। अष्ट पुत्र तासौं उतपाने-९-२।

उतमंग

संज्ञा

[सं. उत्तमांग]

सिर, मस्तक।

उतर

संज्ञा

[सं. उत्त]

उत्तर जबाब।

(क) बुझ ग्वालि निज गृह मैं आयौ, नैंकु न सका मानि। सूर स्याम यह उतर बनायौ, चींटी काढ़त पानि--१०-२८०। (ख) ठढ़ो थक्यो उतर नहिं आवै लोचन जल न समात-२६५७।

उतरत

क्रि. अ.

[हिं. उतरना]

उतरता है, पार जाता हैं।

सूरदास-ब्रत यहै कृष्ण भजि, भव-जल नि ध उतरत -- १-५५।

अकोट

संज्ञा

[हिं. कोट]

कोट के भीतर काकोट, अंतदुर्ग।

रही दे घूँघट पट की ओट। मनो कियौ फिरि मान मवासो मनमथ बिकटे कोट। नहसुत कील कपाट सुलच्छन दै दृग द्वार अकोट। भीतर भाग कृष्ण भूपति को राषि अधर मधु मोट-सा. उ.१६

अकोर

संज्ञा

[सं. अंकपालि या अंकमाल, हिं.अँकवार अँकोर]

भेंट, घूस, रिश्वत।

(क) फूले फिरत दिखावत औरन निडर भए दै हँमनि अकोर-२१३१। (ख) गए छँड़ाइ तोरि सब बंधन दै गए हँसनि अकोर-३१५३

अकोर

संज्ञा

[सं. अंकपालि या अंकमाल, हिं.अँकवार अँकोर]

गोद।

अकोरी

संज्ञा

[स. अंकपा लि, अकमाल, हि, अँक वार]

गोद छाती।

यहि ते जो नेकु लुबुधियौरी। गहत सोइ जो समात अकोरी-३३४५।

अकोविद

वि.

[सं.]

मूर्ख, अज्ञानी।

अकोसना

क्रि. स.

[सं. अक्रोशन]

कोसना, गालियाँ देना।

अक्रम

वि.

[सं.]

क्रमरहित, बेसिलसिले।

अक्रित

वि.

[सं.: अकृत]

निकम्मा, बेकाम, कर्महन, मंद।

हौं अमौव, अक्रिन, अपराधी, सन मुख होत लजाउँ। तुम कृपाल, करुनानिधि, के सव, अधम उधारन-नाउ-१-१२८।

अकूर

संज्ञा

[सं.]

एकः यादव जो श्रीकृष्ण का चाचा लगता था। यह श्वफल्‍क और गाँदिनी का पुत्र था। कंस की आज्ञा से श्रीकृष्ण बलराम को यही मथुरा बुला ले गया।

अक्षयवृक्ष

संज्ञा

[सं.]

प्रयाग और गया में बरगद का एक वृक्ष जो प्रलय में भी नष्ट न होने के कारण ‘अक्षय' कहलाता है।

अक्षय बृक्ष बट बढ़नु निरंतर वहा ब्रज गोकुल गाइ-९४५।

उतरतौ

क्रि. स.

[हिं. उतरना]

अवनति करता हुआ, घटता हुआ।

मोतैं कछू न उबरी हरि जू, आयौं चढ़त-उतरतौं। अजहुँ सूर पतित-पद. तरतौ, जौं औरहु निस्तरतौ--१-२०३।

उतरना

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण]

ऊपर से नीचे आना।

उतरना

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण]

अवनति पर होना।

उतरना

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण]

स्वर या कांति मलिन होना।

उतरना

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण]

मनो विकार की उग्रता शांत होना।

उतरना

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण]

अंकित होना।

उतरना

क्रि. स.

[सं. उत्तरना]

नदी, पुल आदि को पार करना।

उतराई

संज्ञा

[हिं. उतराना']

नदी पार उतारने का महसूल।

(क) दई न जात खेवट उतराई, चाहत चढ़यौ जहाज-१-१०८। (ख) लै भैया केवट उतराई। महाराज रघुपति इत ठाढ़े तैं कत नाव दुराई--१०-४०।

उतराई

संज्ञा

[हिं. उतराना']

ऊपर से नीचे आने की क्रिया।

उतरात

क्रि. अ.

[हिं. उतराना]

पानी की सतह पर तैरता है।

हेरि मथानी धरी माट तैं, माखन हो उतारत। आपुन गई कमोरी माँगन, हरि पाई ह्यां घात-१०-२७०

उतरात

क्रि. अ.

[हिं. उतराना]

उबलता है, उफान खाता हैं।

करत फन-घात, बिष जात उतरत अति, नीर जरि जात, नहिं गात परसै-५५२।

उतराना

क्रि. अ.

[सं. उत्तरण]

पानी पर तैरना।

उतराना

क्रि. अ.

[सं. उत्तरण]

उबलना, उपनाना।

उतराना

क्रि. अ.

[सं. उत्तरण]

प्रगट होना

ऊतरानी

क्रि. अ.

[हिं. उतराना]

पाने की सतह पर तैरने लगी, उतराने लगी।

या ब्रज कौ बसिबो हम छोड्यौ, सो अपने जिय जानी। सूरदास ऊसर की बरषा, थोरे जल उतरानी-१०.३३७।

उतरायल

वि.

[हिं. उतराना]

बहका बहका या इधर-उधर मारा मारा फिरने वाल।

उतरायल

वि.

[हिं. उतराना]

उतरा हुआ, पुराना।

उतरायौ

क्रि. अ.

[हिं. उतराना]

नदी आदि के पार हुआ तर गया, तारा गया।

ऐपौ को जु न सरन गहे तेैं कहत सूर उतरायौ -- १-१५।

उतरारी

वि.

[सं. उत्तर + हिं. वारी]

उत्तरकी (विशेषता 'हवा')।

उतराव

संज्ञा

[हिं. उतरना]

उतार, ढाल।

उतराबै

क्रि. अ.

[सं. उत्तरण, हिं. उतराना]

साथ साथ घुमावे-फिरावे, चलावे।

ताको लिए नन्द की रानी, नाना खेल खिलावै। तब जसुमति कर टेकि स्याम को, क्रम क्रम करि उतरावै--१०-१२६।

उतराहा

क्रि. वि.

[सं. उत्तर + हा (प्रत्य.)]

उत्तर की ओर।

उतरि

क्रि. स.

[सं. उत्तरण , हिं. उतरना]

(नदी आदि के) पार जाओ, पार कर लो।

(क)भव-उदधि जम-लोक दरसै, निपट ही अँधियार। सुर हरि कौ भजन करि करि उतरि पल्ले-पार--१-८८ (ख) सकल विषय-विकार तजि, तू उतरि सायर-सेत--१-३११।

उतरि

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उतरण, हिं. उतरना]

उग्र प्रभाव या उद्वेग दूर हुआ।

उतरि गई तब गर्व खुमारी-१० ६६।

उतरि

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उतरण, हिं. उतरना]

ऊपर से नीचे आकर।

(क) रथतैं उतरि अवनि आतुर ह्वै चले चरन अति धाए -- १-२७३। (ख) नाभि-सोज प्रकट पदमासन उतरि नाल पछितावै-१०.६५।

उतरि

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा. उतरण, हिं. उतरना]

घट जाना, कम हो जाना।

(क) सबनि सनेहौं छांड़ि दयौ। हा जदुनाथ ! जरा तन ग्रस्यौ, प्रति भौ उतरि गयौ-१-२९८। (ख) आवत देखे स्याम हरष कीन्हो ब्रजबसी। सोकसिंधु गयौ उतरि, सिंधु आनंद प्रकासी-५८९।

उतरिन

वि.

[सं. उऋण]

ऋण से मुक्त।

ऊतरिहै

क्रि. स.

[हिं. उतारना]

उतारेगा, पार पहुँचावेगा।

को कौरव-दल-सिंधु मंथन करि या दुख पार उतरिहै--१-२९।

उतरे

क्रि. स.

[सं. उत्तरण, हिं. उतरना]

( नदी, नाले अदिं के) पार गये।

कहोै कपि, कैसेैं उतरे पार-९-८९।

उतरे

क्रि. स.

[सं. उत्तरण, हिं. उतरना]

डेरा या पड़ाव डाला, टिके, ठहरे।

कटक-सोर अति घोर दसौं दिसि. दीसति बनचर भीर। सूर समुझि, रघुबंस-तिलक दोउ उतरे सागर-तीर-९-११५।

उतरथौ

क्रि. स.

[सं. उत्तरण, हिं. उतरना]

उतरा, (नदी आदि के)पार गया।

भवसागर मैं पैरि न लीन्हौ।…...। अति गंभीर, तीर नहिं नियरैं, किंहिं बिधि उतरयौ जात। नहिं अधार नाम अवलोकत, जित तित गोता खात-१-१७५।

उतरथौ

क्रि. अ.

[सं. अवतरण, प्रा उत्तरण, हिं. उतरना]

उग्र प्रभाव दूर हुआ।

अजहुँ सावधान किन होहि। माया विषम भुजगिनि को विष, उतरयौ नाहिंन तोहिं -- २-३२।

उतलाना

क्रि. अ.

[हिं. आतुर]

जल्दी मचाना।

उतवंग

संज्ञा

[उत्तमंग]

मस्तक, सिर।

उतसहकंठा

संज्ञा

[सं. उत्कठा]

तीव्र इच्छा, प्रबल अभिलाषा।

सरद सुहाई आई राति। दुहुँ दिस फूल रही बन जाति।…..। एक दुहावत तें उठि चली। एक सिराबत मन महँ मिली। उतसह कंठा हरि सौं बढ़ी-१८७३।

उतसाहु

संज्ञा

[सं. उत्साह]

उमंग, उछाह।

उतसाहु

संज्ञा

[सं. उत्साह]

साहस, हिम्मत।

उताइल

वि.

[हिं. उतावला, उतायल]

जल्दी, शीघ्र।

दधिसुत-अरि-भष-सुत सुभाव चल तहाँ उताइल आई -- सा० ८७।

उताइली

संज्ञा

[हिं. उतावली, उतायली]

जल्दी, शीघ्रता।

करत कहा पिय अति उताइली मैं कहुँ जात परानी-१६०१।

उतान

वि.

[सं. उत्तान]

चित, सीधा।

उतानपाद

संज्ञा

[सं. उत्तानपाद]

एक राजा जो स्वयंभुव मनु के पुत्र और ध्रुव के पिता थे।

उतायल

वि.

[सं. उत् + त्वरा]

झल्दी, तेज।

उतायली

संज्ञा

[सं. उत् + त्वरा, हिं. उतावली)

जल्दी, शीघ्रता।

उतार

संज्ञा

[हिं. उतारना

उतरिन, निकृष्ट।

प्रभुजू हौं तौ महा अधर्मी। अपत, उतार, अभागौ, कामी, विषयी, निपट कुकुर्मी-१-१८६।

उतार

संज्ञा

[हिं. उतारना

उतारने की क्रिया।

उतार

संज्ञा

[हिं. उतारना

ढाल।

उतार

संज्ञा

[हिं. उतारना

घटाव, कनी।

उतार

संज्ञा

[हिं. उतारना

उतारा, न्योछावर।

उतार

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

खोलकर, अलग करके।

हान लगीं सब बसन उतार -- ९-१७४।

उतारत

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारन]

(धारण की हुई वस्तु को ) अलग करते हैं, खोलते हैं।

उतारत है कंठनि तैं हार। हरि द्वित मिलन होत है अतर, यह मन कियौ बिचार -- ६८७।

उतारत

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारन]

उतार रहा है, स्वयं अपना रहा हैं। दूसरे को घटाना चाहता है।

मानिन अजहूँ छाँड़ो मान। तीन बिवि दधि सुत उतारत राम दल जुत सान-सा २१।

उतारत

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारन]

सामने रखती है दिखाती है।

ग्रह मुनि दुत हित के हित कर ते मुकर उतारत नाघे -- -सा. ६।

उतारति

क्रि. स.

[हिं. उतारना]

उतारती है, शरीर के चारों ओर घुमाती है।

खेलत मैं कोउ दीठि लगाई-लै-लै राई लौन उतारति .. १०-२००।

उतारति

क्रि. स.

[हिं. उतारना]

धरण की हुई वस्तु को खोलती या अलग करती है।

अरु बनमाल उतारति गर तै सुर स्याम की मातु--५११।

उतारन

संज्ञा

[हिं. उतारना]

उतरन, उतारा हुआ कपड़ा।

उतारन

संज्ञा

[हिं. उतारना]

नोछावर।

उतारन

संज्ञा

[हिं. उतारना]

निकृष्ट वस्तु।

उतारन

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

( किती उग्र प्रभाव को ) दूर करने के लिए,(किसी भार को हल्का करने के उद्देश्य से।

(क) रथ तैं उतरि अवनि आतुर ह्वै चले चरन अति धाए। मनुसंचित भू-भार उतारन, चपल भए अकुलाए = १-२७२। (ख) आजु दशरथ कैं आँगन भीर। ये भू-भर उतारन कारन प्रकटे स्याम सरीर-९-१६।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

ऊँचे से नीचे उतरना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

चित्र आदि खींचना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

काटना, अलग करना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

धारण की हुई वस्तु को खोलना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

न्योछावर करना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

उग्र प्रभाव को दूर करना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

जन्म देना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. अवतरण]

वस्तु या पदार्थ तैयार करना।

उतारना

क्रि. स.

[सं. उत्तारण]

नदी आदि के पार ले जाना।

उतारा

संज्ञा

[हिं. उतरना]

ठहरने या डेरा ड'लने की क्रिया।

उतारा

संज्ञा

[हिं. उतरना]

उतरने का स्थान, पड़ाव।

उतारा

संज्ञा

[हिं. उतारना]

क्लेश या ग्रह-शांति के लिए कुछ सामग्री व्यक्ति विशेष के चारो ओर घुमा कर चौराहे पर रखना।

उतारा

संज्ञा

[हिं. उतारना]

उतारे की सामग्री।

उतारि

क्रि. स.

[स. उत्तारण, हिं. उतारना]

(नदी आदि के) पार करके, पार पहुँचाकर, पार करो।

लीजै पार उतारि सूर कौं महाराज ब्रजराज। नई न करन कहत प्रमु, तुम हौ सदा गरीब-निवाज -- १-१०८।

उतारि

क्रि. स.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण, हिं. उतारना]

धारण की या पहनी हुई वस्तु को खोलकर।

( क) बिदुर सस्त्र तब सबहिं उतारि। चल्यौ तीरथनि मुंड उघारि--१-२८४। (ख) इक अभरन ले हि उतारि देत न संक करैं-१०-२४। (ग) ईस जनु रजनीस राख्यौ. भाल तैं जु उतारि १० -- १६९।

उतारि

क्रि. स.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण, हिं. उतारना]

जुडी या लगी हुई वस्तु को काट कर, अलग करके।

अस्वत्थामा निसि तहँ आए। द्रोपदी-सुत तहँ सोवत पाए। उनके सिर ले गयौ उतारि। कह्यो, पांड नि आयौ मारि--१-२८९।

उतारि

क्रि. स.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण, हिं. उतारना]

उठायीं हई वस्तु को पृथ्वी पर रखना।

सूर प्रभु कर ते गुबर्धन धरयौ धरनि उतारि-९९४।

उतारि

क्रि. स.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण, हिं. उतारना]

उतारा करके, नजर उतार कर।

कबहुँ अँग भूषन बनावति, राइ-लोन उतारि-१०-११८।

उतारि

क्रि. स.

[सं. अवतरण, प्रा. उत्तरण, हिं. उतारना]

ऊपर रखी वस्तु को नीचे रखना।

(क) उफनत दूध न धरयौ उतारि-१८०३। (ख) एक उफनत ही चलीं उठि धन्यौ नाहिं उतारि-पृ.३३९ (४)।

उतारिए

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

ठहराइए।

उतारिए

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

न्योछावर कीजिए, वारिए।

उतारी

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

(पहने हुए वस्त्र आदि ) खोलकर।

(क) बसन धरे जल-नीर उतारी। आपुन जल पैंठी सुकुमारी -- -१०-७९९। (ख) उरते सखी दूर कर हारहिं ककन धरहु उतारी--२७८२।

उतारी

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

आरोही को किसी यान से नोचे पृथ्वी पर उतार कर, व्हरा कर डेर। देकर।

निर खति ऊधो सुख पायौ। सुन्दर सुजल सुबंस देखियत याते स्याम पठायौ। .......। महर लिवाय गये निज मंदिर हरषित लियौ उतारी -- २९६३।

उतारी

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

सिर पर उठाए हुए भारकोनीचे रखकर।

(क) योग मोट,सिर बोझ आनि तुम कत धौं घोष उतारी.-३३ १६। (ख) लादि खेप गुन ज्ञान योग की ब्रज मैं आनि उतारी-३३४०।

उतारू

वि.

[हिं. उतरना]

तैयार, तत्पर।

उतारे

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

संकट आदि दूर करे।

निर्विष होत नहिं कँसेहूँ बहुत गुनी उचि हारे। सुर स्याम गारुड़ी बिना को, जो सिर गढ़ उतारे -- ७४७।

उतारे

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

उग्र प्रभाव या उद्वेग को दूर करे।

आनहुँ बेगि गारुरी गोबिंदहिं जो यहि बिषहिं उतारे-३२५४।

उतारैं

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना)

(पहने हुए वस्त्रादि) खोले।

इत-उत चितवति लोग निहारैं। कह्यौ सबनि अब चीर उतारैं-७९९।

उतारै

क्रि. स.

[सं. उत्तारण, हिं. उतारन]

(नदी आदि के) पार पहुँचना।

भवसमुद्र हरि-पदनौका बिनु कोउ न उतारै पार-१-६८।

उतारै

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

उतारा करे, नजर आदि उतारे।

जाको नाम कोटिभ्रम टारै। तापर राई-लौन उतारै–१०-१२९।

उतारौं

क्रि. स.

[सं. उत्तारण, हिं. उतारना]

(नदी नाले आदि को पार ले जाऊँ, पार पहुँचा दूँ। )

(क) सोखि समुद्र, उतारौं कपि-दल, छिनक बिलंब न लाऊँ-९-१०९। (ख) आज्ञा होइ, एक छिन भीतर, जल इक दिसि करि डारोैं। अन्तर मारग होइ, सबनि कौं इहिं बिधि पार उतारौं--९.१२१।

उतारौं

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना

जुड़ी हुई वस्तु को सफाई के साथ काटूँ, काटकर अलग करूँ।

तबै सूर संधान सकल हौं, रिपु कौ सीस उतारौं–९-१३७।

उतारौं

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना

बोझ उतार कर हल्का करूँ।

असुर कुलहिं संहारि, धरनि कौं भार उतारौं-४३१।

उतारौ

संज्ञा

[हिं. उतरना]

उतारा, उतरने योग्य स्थान, पड़ाव।

(क) जल औड़े में चहुँ दिसि पैरयौ, पाँउ कुल्हारी मारौ। बाँधी मोट पसारि त्रिबिध गुन, नहिं कहुँ बीच उतारी। देख्यौ सूर बिचारि सीस परी, तब तुम सरन पुकारोै-१-१५२। (ख) ममता-घटा, मोह की बूँदैं, सरिता मैन अपारौ। बूड़त कत हुँ थाह नहिं पावत, गुरुजन-ओट अधारौ। गरजत क्रोध-लोभ कौ नारौ, सूझत कहूँ न उतारौ १-२०९।

उतार्यौं

क्रि. स.

[सं. उतारण, हिं. उतारना]

(नदी-नाले आदि के) पार ले गया।

नारद जू तुम कियौ उपकार। बुड़त मोहिं उतारचौ पार -- ४-१२।

उतार्यौं

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

उठाया हुआ भार पृथ्वी पर रखा।

हरि करते गिरिराज उतारचौ-१०७०।

उतार्यौं

क्रि. स.

[सं. अवतरण, हिं. उतारना]

उग्र प्रभाव को दूर किया।

भले कान्ह हो बिषहिं उतारयौ। नाम गारुड़ी प्रगट तिहारो-७६२।

उताल

क्रि. वि.

[सं. उद् + स्वर]

जल्दी, शीघ्र।

(क) सो राजा जो आगमन पहुँचे सूर सु भवन उताल। जौ जैहैं बलदेव पहिलैं ही, तौ हँसि हैं सब ग्वाल -- १०-२२३। (ख) कहै न जाइ उताल जहाँ भूपाल तिहारौ। हौं बृंदाबन चद्र कहा कोउ करै हमारौ-१११२।

उताल

संज्ञा

शीघ्रता, जल्दी।

उताली

संज्ञा

[हिं. उताल]

शीघ्रता, उतावली, फुर्ती।

उताली

क्रि. वि.

शीघ्रता से, जल्दी से।

उतावल

क्रि. वि.

[सं. उद्+ त्वर]

शीघ्रता से।

कोउ गावत, कोउ बेनु बजावत, कोऊ उतावल धावत। हरि दर्सन लालसा कारनै बिबिध मुदित सब आवत -- १० उ०-११२।

अक्ष

वि.

[स. अक्षय]

जिसका क्षय न हो, कभी न चुकनेवाला।

हरि-पद-सरन अक्षै फल पावै–१९२४।

अक्षोनि

संज्ञा

[सं. अक्षौहिणी]

अक्षौहिणी सेना।

अखंड

वि.

[सं.]

समूचा पूरा, जो खंडित न हो।

अखंड

वि.

[सं.]

जिसका क्रम, सिलसिला या धार न टूटे, अटूट।

सलिल अखंड धार धर टूटत कियौ। इंद्र मन सादर। मेघ परस्पर यहै कहत हैं धोइ के रहु गिरि खादर-९४८।

अखंड

वि.

[सं.]

निर्विघ्न।

अखंडन

वि.

[सं. अखंड]

अखंड, अटूट।

अखंडन

वि.

[सं. अखंड]

पूरा सारा।

अखंडित

वि.

[सं.]

भागरहित, अविच्छिन्न।

अखंडित

वि.

[सं.]

संपूर्ण, पूरा।

(क) सर्वोपरि आनंद अखंडित सूरपरम लपिटानी-१-८७। (ख) बे हरि सकल ठौर के वासी। पूरने ब्रह्म अखंडित मंडित पंडित मुनि न बिलासी।

अखंडित

वि.

[सं.]

निर्विघ्न, वाधारहित।

उतावल

वि.

उतांवला, जल्दी मचाने वाला।

उतावला

वि.

[सं. उद् + त्वर]

जल्दी मचाने वाला।

उतावला

वि.

[सं. उद् + त्वर]

घबराया हुआ।

उतावलि

संज्ञा

[सं. उद् + त्वर, हिं. उतावली]

जल्दी, शीघ्रता, हड़बड़ी।

अँधियारी आई तहँ भारी। दनुज-सुता तिहि तैं न निहारी। बसन सुक्रतनया के लीन्हे। करत उनावलि परे न चीन्हे--१-१७३।

उतावली

वि.

[हिं. पुं. उतावला]

जल्दो मचाने वाली।

उतावली

वि.

[हिं. पुं. उतावला]

घबरायी हुई, व्यग्र।

प्रातहिं धेनु दुहावन आई, अहिर तहाँ नहिं पाई। तबहिं गई मैं ब्रज उतावली, आई ग्वाल बुलाई-७२८।

उतावली

संज्ञा

जल्दबाजी, हड़बड़ी।

उतावली

संज्ञा

व्यग्रता , चंचलता।

उताहल

क्रि. वि.

[सं. उद् + त्वर]

शीघ्रता से, बहुत जल्दी से।

उताहल

वि.

उतावला, घबराया हुआ।

ऊत्कंठिता

संज्ञा

[सं.]

वह नायिका जो मिलन के स्थान पर प्रिय के न आने से चिंतित हो।

उत्कंप

संज्ञा

[सं.]

कँपकँपी।

उत्कट

वि.

[सं.]

तीव्र, उग्र, प्रबल।

उत्कलिका

संज्ञा

[सं.]

चाह, लालसा।

उत्कलिका

संज्ञा

[सं.]

कली।

उत्कलिका

संज्ञा

[सं.]

तरंग।

उत्कर्ष

संज्ञा

[सं.]

बड़ाई, प्रशंसा।

उत्कर्ष

संज्ञा

[सं.]

बढ़ती, अधिकता !

उत्कर्ष

संज्ञा

[सं.]

समृद्धि, उन्नति।

उत्कर्षता

संज्ञा

[स.]

श्रेष्ठता, उत्तमता।

उताहिल

क्रि. वि.

[हिं. उताहल]

जल्दी-जल्दी, शीघ्रता से।

उतिस

वि.

[सं. उत्तम]

उत्तम, श्रेष्ठ।

नृतकार उतिम बनाइ बानिक संग चंद न अर्व -- सा ० ९१।

उतृण

वि.

[सं. उद + ऋण]

ऋण से मुक्त।

उतृण

वि.

[सं. उद + ऋण]

उपकार का बदला चुका देने वाला।

उतै

क्रि. वि.

[हिं. उस + त (प्रत्य.) = उत]

उधर, उस ओर, वहाँ।

उतै देखि धावेै, अचरज पावेै, सूर सुरलोक-ब्रजलोक एक ह्वै रहयो-४८४।

उतैला

क्रि. वि.

[हिं. उतावला]

हड़बड़ी करने बाला।

उतैला

क्रि. वि.

[हिं. उतावला]

घबराया हुआ।

उत्कंठा

संज्ञा

[सं.]

प्रबल इच्छा।

उत्कंठा

संज्ञा

[सं.]

एक संचारी भाव।

उत्कंठित

वि.

[सं.]

चाव से भरा हुआ, उत्सुक।

उत्कर्षता

संज्ञा

[स.]

अधिकता।

उत्कर्षता

संज्ञा

[स.]

समृद्धि।

उत्‍क्रम

संज्ञा

[सं.]

क्रमभंग, उलट पलट।

उत्क्रमण

संज्ञा

[सं.]

क्रम का ध्यान न रखना।

उत्क्रमण

संज्ञा

[सं.]

मृत्यु।

उत्कीर्ण

वि.

[सं.]

लिखा या खुदा हुआ।

उत्कृष्ट

वि.

[सं.]

उत्तम, श्रेष्ठ।

उत्कृष्टता

संज्ञा

[सं.]

श्रेष्ठता, उत्तमता।

उत्कोच

संज्ञा

[सं.]

घूस, रिश्वत।

उत्कोचक

वि.

[सं.]

घूस लेने वाला।

उत्तम  

वि.

[सं.]

सबसे अच्छा, श्रेष्ठ।

उत्तगंधा

संज्ञा

[सं.]

चमेली।

उत्तमतया

क्रि. वि.

[सं.]

अच्छी तरह से।

उत्तमता

संज्ञा

[सं.]

श्रेष्ठता, भलाई।

उत्तमताई

संज्ञा

[सं.]

श्रेष्ठता, भलाई।

उत्तप्त

वि.

[सं.]

तप्त हुआ।

उत्तप्त

वि.

[सं.]

दुखी, पीड़ित।

उत्तप्त

वि.

[सं.]

क्रोधित।

उत्तमश्लोक

वि.

[सं.]

यशस्वी, कीर्तियुक्त।

उत्तमश्लोक

संज्ञा

पुण्य, वश।

उत्क्रांति

संज्ञा

[सं.]

पूर्णता या उत्तमता की ओर क्रमशः बढ़ने की प्रवृत्ति।

उत्खाता

वि.

[सं.]

उखाड़ने वाला।

उत्तंस

संज्ञा

[सं. अवतंस]

भूषण, गहना।

उत्तंस

संज्ञा

[सं. अवतंस]

टीका।

उत्तंस

संज्ञा

[सं. अवतंस]

मुकुट, श्रेष्ठ।

उत्तंस

संज्ञा

[सं. अवतंस]

माला।

उत्त

संज्ञा

[सं. उत]

अश्चर्य।

उत्त

संज्ञा

[सं. उत]

संदेह।

उत्त

क्रि. वि.

उस ओर, उधर।

उत्तम  

संज्ञा

[सं.]

ध्रुव का सौतेला भाई जो राजा उतानपाद की छोटी रानी सुरुचि से उत्पन्न हुआ था।

उत्तमश्लोक

संज्ञा

भगवान, विष्णु।

उत्तमांग

संज्ञा

[सं.]

सिर, मस्तक।

उत्तमा

वि.

[सं. पुं. उत्तम]

अच्छी, भली।

उत्तमोतम

वि.

[सं.]

सबसे अच्छा, अच्छे-अच्छे।

उत्तमौजा

वि.

[सं. उत्तमोजम्]

उत्तम बल या तेज वाला

उत्तर

संज्ञा

दक्षिण के सामने की दिशा।

उत्तर

संज्ञा

प्रश्न के समाधान में कही गयी बात।

उत्तर

संज्ञा

बदला।

उत्तर

संज्ञा

राजा विराट का पुत्र।

उत्तर

संज्ञा

एक काव्यालंकार।

उत्तर

वि.

पिछला, बाद का।

उत्तर

वि.

ऊपर का

उत्तर

वि.

बढ़कर, श्रेष्ठ।

उत्तर

क्रि. वि.

पीछे, बाद।

उत्तरदाता

[सं. उत्तरदातृ]

जिम्मेदार।

उत्तरदायित्व

संज्ञा

[सं.]

जिम्मेदारी।

उत्तरदायी

वि.

[सं. उत्तरदायिन्]

उत्तर देने वाला, जिम्मेदार।

उत्तरपट

संज्ञा

[सं.]

दुपट्टा, चादर।

उत्तरपट

संज्ञा

[सं.]

बिछाने की चादर।

उत्तरवयस

संज्ञा

[सं.]

बुढ़ापा।

उत्तरा

संज्ञा

[सं.]

राजा विराट की पुत्री जो अभिमन्यु को ब्याही थी। महाभारत के युद्ध में जब अभिमन्यु मारा गया था तब यह गर्भवती थी। इसी के गर्भ से आगे चल कर परीक्षित उत्पन्न हुए थे।

उत्तराखंड

संज्ञा

[स.]

हिमालय के समीप का प्रदेश।

उत्तराधिकार

संज्ञा

[सं.]

किसी के मरने के बाद धन-संपत्ति का अधिकार।

उत्तराधिकारी

संज्ञा

[सं. उत्तराधिकारिन]

वह व्यक्ति जो किसी के मरने के बाद उसकी संपत्ति का अधिकारी हो।

उत्तराभास

संज्ञा

[सं.]

झूठा या अंटसंट उत्तर।

उत्तरायण   

संज्ञा

[सं.]

मकर रेखा से उत्तर कर्क रेखा की ओर सूर्य की गति।

उत्तरायण   

संज्ञा

[सं.]

छह महीने का समय जब सूर्य मकर रेखा से कर्क रेखा तक बढ़ता रहता है।

उत्तरार्द्ध

संज्ञा

[सं. उत्तर + अर्द्ध]

पीछे या बाद का आधा भाग।

उत्तरीय

संज्ञा

[सं.]

उपरना, दुपट्टी, ओढ़ने की चादर।

उत्तरीय

वि.

ऊपर का, ऊपरी।

उत्तरीय

वि.

उत्तर दिशा सम्बन्धी।

उत्तरोत्तर

क्रि. वि.

[सं.]

एक के बाद एक, लगातार, क्रमशः।

उन्ता

वि.

[हिं. उतना]

उतना, उस मात्रा का।

उत्तान

वि.

[सं.]

चित; सीधा।

उत्तानपाद

संज्ञा

[सं.]

एक राजा जो स्वायंभुवमनु के पुत्र और प्रसिद्ध भक्त ध्रुव के पिता थे।

उत्ताप

संज्ञा

[सं.]

गर्मी, तपन।

उत्ताप

संज्ञा

[सं.]

कष्ट, वेदना।

उत्ताप

संज्ञा

[सं.]

दुख, शोक।

उत्ताप

संज्ञा

[सं.]

क्षोभ।

उतापित

वि.

[सं.]

तपाया हुआ।

अखंडित

वि.

[सं.]

लगातार।

अखर

संज्ञा

[सं. अक्षर]

अक्षर।

अखर्ब

वि.

[सं. अ = नही + हिं. खर्ब = छोटा]

जो छोटा न हो, बड़ा, लंबा।

अखाद

वि.

[सं. अखाद्य]

न खानेयोग्य, अभक्ष्य।

खाद .अखाद न छाँडै अब लौं, सब मैं साधु कहावै -- १-१८६।

अखारा

संज्ञा

[सं. अक्षवाट, प्रा. अक्ख आडोहिं. अखाड़ा]

सभा, दरबार, रंगशाला।

तहाँ देखि अप्सरा-अखारा। नृपति बछू नहि बेचन उचार-९-४।

अखिल

वि.

[सं.]

संपूर्ण, समग्र।

(क)तुम सर्वज्ञ, सबै विधि पूरन, अखिल भुवन निज नाथ १-१०३। (ख) तुन हर्त्ता तुम कर्त्ता एकै तुम हौ अखिल भुवन के साँई-२५५८।

अखिल

वि.

[सं.]

सर्वांगपूर्ण, अखंड।

तुमहीं ब्रह्म अखिल अबिनासी भक्तन सदा सहय।

अखीन

वि.

[सं. अक्षीण, प्रा. अक्खीण.]

स्थिर, नित्य, अक्षीण।

अखुटित

वि.

[सं. अ = नहीं + खुटना = समाप्त होना]

निरंतर, असमाप्त।

अखुटित रहत सभीत ससंकित सुकृत सब्द नहिं पावै--१:४८।

अखूट

वि.

[सं. अ = नही + खंडन = तोड़ना, खंडित करन]

अखंड, अक्षय, बहुत, अधिक।

नैना अतिही लोभ भरे।::::::::। लूटत रूप अखट दाम को स्याम बस्य भो मोर। बड़े भाग मानी गह जानी इनते कृपिन न और--१८३३।

उत्तोलन

संज्ञा

[सं.]

ऊँचा करना, तानना।

उत्तोलन

संज्ञा

[सं.]

तौलना।

उत्थपऊ

क्रि. स. भूत.

[सं. उत्थापन, हिं. उत्थावना]

आरंभ किया।

उत्थवना

क्रि. स.

[सं. उत्थापन]

आरम्भ करना, अनुष्ठान करना।

उत्थान

संज्ञा

[सं.]

उठना।

उत्थान

संज्ञा

[सं.]

आरंभ।

उत्थान

संज्ञा

[सं.]

बढ़ती, उन्नति।

उत्थापन

संज्ञा

[सं.]

ऊँचा उठाना, तानना।

उत्थापन

संज्ञा

[सं.]

हिलाना-डुलाना।

उत्थापन

संज्ञा

[सं.]

जगाना।

उतापित

वि.

[सं.]

दुखी, क्षुब्ध।

उर्त्तीण

वि.

[सं.]

पारंगत, पूर्ण ज्ञाता।

उर्त्तीण

वि.

[सं.]

मुक्त।

उर्त्तीण

वि.

[सं.]

परीक्षा में सफल।

उत्तुंग

वि.

[सं.]

बहुत ऊँचा

उत्तेजक

वि.

[सं.]

उकसाने वाला, उभाड़ने वाला,

उत्तेजक

वि.

[सं.]

मनोवेगों को तीव्र करने वाला।

उत्तेजन

संज्ञा

[सं.]

उत्साह, बढ़ावा।

उत्तेजना

संज्ञा

[सं.]

प्रेरणा, बढ़ावा।

उत्तेजना

संज्ञा

[सं.]

मनोवेगों को तीव्र करने वाला।

उत्पट

संज्ञा

[सं.]

उपरना, दुपट्टा।

उत्पतन

संज्ञा

[सं.]

ऊपर उठना।

उत्पत्ति

संज्ञा

[सं.]

जन्म, उद्भव।

उत्पत्ति

संज्ञा

[सं.]

सृष्टि।

उत्पत्ति

संज्ञा

[सं.]

आरंभ।

उत्पन्न

वि.

[सं.]

जन्मा हुआ।

उत्पल

संज्ञा

[सं.]

कमल।

उत्पल

संज्ञा

[सं.]

नील कमल।

उत्पाटन

संज्ञा

[सं.]

उखाड़ना

उत्पात

संज्ञा

[सं.]

उपद्रव, दुखदायी घटना।

उत्पात

संज्ञा

[सं.]

अशांति, हलचल।

उत्पात

संज्ञा

[सं.]

उधम।

उत्पातक

वि.

[सं.]

उपद्रव करने वाला, उपद्रवी।

उत्पाती

संज्ञा

[सं. उत्पातिन्]

उपद्रवी, अशांति फैलाने वाला व्यक्ति।

उत्पाती

वि.

अशांतिकारिणी, हलचल मचाने वाली।

उत्पादक

वि.

[सं.]

उत्पन्न करने वाला।

उत्पादन

संज्ञा

[सं.]

उत्पन्न करने का काम।

उत्पीड़क

वि.

[सं.]

दुखदायी।

उत्पीड़क

वि.

[सं.]

अत्याचारी।

उत्पीड़न

संज्ञा

[सं.]

दुख देना, पीड़ा पहुँचाना।

उत्प्रेक्षा

संज्ञा

उदभावना।

उत्प्रेक्षा

संज्ञा

एक अर्थालंकार जिसमें उपमान को भिन्न समझते हुए भी उपमेय में उसकी प्रतीति की जाय।

उत्फुल्ल

वि.

[सं.]

खिला हुआ, विकच।

उत्फुल्ल

वि.

[सं.]

चित, सीधा।

उत्संग

संज्ञा

[सं.]

गोद, अंक।

उत्संग

संज्ञा

[सं.]

निर्लिप्त, विरक्त।

ऊत्सर्ग

संज्ञा

[सं.]

त्याग, छोड़ना।

ऊत्सर्ग

संज्ञा

[सं.]

दान, निछावर।

उत्सर्जन

संज्ञा

[सं.]

त्याग।

उत्सर्जन

संज्ञा

[सं.]

दान।

उत्साह

संज्ञा

[सं.]

उमंग, उछाह, जोश।

उत्साह

संज्ञा

[सं.]

सहस, हिम्मत।

उत्साही

वि.

[सं. उत्साहिन]

उमंग वाला।

उत्सुक

वि.

[सं.]

इच्छुक, चाह से युक्त।

उत्सुक

वि.

[सं.]

उद्योग में तत्पर।

उत्सुकता

संज्ञा

[सं.]

तीव्र इच्छा, उकंठा।

उत्सुकता

संज्ञा

[सं.]

एक संचारी भव, किसी कार्य के करने में, दूसरे की राह न देखकर, स्वयं तत्पर हो जाना।

उत्सूर

संज्ञा

[सं.]

सायंकाल।

उत्सृष्ट

वि.

[सं.]

त्यागा हुआ है।

उत्सेध  

संज्ञा

[सं.]

बढ़ती।

उत्सेध  

संज्ञा

[सं.]

ऊँचाई।

उत्सेध  

वि.

ऊँचा।

उत्सेध  

वि.

श्रेष्ठ।

उथपना

क्रि. स.

[सं. उत्थापन]

उखाड़ाना, उजाड़ना।

उथपै

क्रि. स.

[हिं. उथपना]

उजड जाय, नष्ट हो।

उथलना

क्रि. अ.

[सं. उत् + स्थल]

डगमगाना।

उथलना

क्रि. अ.

[सं. उत् + स्थल]

नीचे-ऊपर होना।

उथलना

क्रि. अ.

[सं. उत् + स्थल]

पानी का छिछला होना।

उथलपुथल

संज्ञा

[हिं. उथलना]

उलट-पुलट।

उथलपुथल

संज्ञा

[हिं. उथलना]

हलचल।

उथलपुथल

वि.

इधर का उधर।

उथला

वि.

[सं. उत् + स्थल]

कम गहरा, छिछला।

उदंत, उदंतक

संज्ञा

[सं.]

वार्ता, वृत्तांत।

उदक

संज्ञा

[सं.]

जल, पानी।

उइकना

क्रि. अ.

[सं. उद् = ऊपर + क = उदक]

कूदना, उछलना।

उदकि

क्रि. प्र.

[हिं. उदकना]

कूदना, कूद कर।

उदगार

संज्ञा

[सं. उद्गार]

उबाल, उफान।

उदगार

संज्ञा

[सं. उद्गार]

घोर शब्द।

उदगार

संज्ञा

[सं. उद्गार]

मन की बात सवेग कहना।

उदगारना

क्रि. स.

[सं. उद्गार]

बाहर निकलना, उगलना।

उदगारना

क्रि. स.

[सं. उद्गार]

भड़काना, उत्तेजित करना, प्रज्वलित करना।

उदगारी

क्रि. स.

[हिं. उद्गारना]

उत्तेजित की, प्रज्वलित की।

उदगारी

वि.

उगलने वाला।

उदगारी

वि.

बाहर निकालने वाला।

उदग्ग

वि.

[सं. उदग्र, पा. उदग्ग]

ऊँचा, उन्नत।

उदग्ग

वि.

[सं. उदग्र, पा. उदग्ग]

उग्र, प्रचंड।

उदग्र

वि.

[सं.]

ऊँचा, उन्नत।

उदग्र

वि.

[सं.]

बढ़ाया हुआ।

उदग्र

वि.

[सं.]

प्रचंड उग्र।

उदघटत

क्रि. स.

[हिं. उदघटना]

प्रगट होता हैं, उदय होता है।

उदभव

वि.

[सं. उद्भव]

उत्पत्ति, सृष्टि।

उदभव

वि.

[सं. उद्भव]

वृद्धि, बढ़ती।

उदभौत

संज्ञा

[सं. अदभुत]

अद्भुत वस्तु, अचम्भा।

उदभौति

संज्ञा

[सं. अद्भुत]

अदभुत्व वस्तु होना या घटना।

अँखियनि तैं मुरली अति प्यारी वह बैरिनि यह सौति। सूर परस्पर कहत गोपिका यह उपजी उदभौति--पृ.३२८।

उदमद्

वि.

[सं. उद् + मद]

उन्मादपूर्ण, मतवाला।

उदमद यौवन आनि ठाढ़ि केै कैसे रोको जाइ-३ ११३।

उदमदना

क्रि. अ.

[सं. उद् + मद]

उन्मत्त या मतवाला होना।

उदमदे

वि.

[हिं. उदमाद]

उन्मत्त, मतवाला।

गोपन के उदमाद फिरत उदमदे कन्हाई

उदमाद

संज्ञा

[सं. उद् + माद]

उन्माद, मतवालापन, पागलपन।

सरदकाल रितु जानि दीपमालिका बनाई। गोपन के उदराद फिरत उदमदे कन्हाई।

ऊदमादी

वि.

[हिं. उदभाद]

उन्मत्त, मतवाला।

मेरो हरि कहँ दसहिं बरस को तुम ही यौवन मद उदमादौ--१०५७।

उदमान

वि.

[सं. उन्मत्त]

उन्मत्त मतवाला।  

अग्नि कबहुँक बरखि बारि बरषा करै प्रद्युम्न सकल माया निवारी। शाल्व परधान उदमान मारी गदा प्रद्युम्न मुरछित भए सुधि बिसारी १० उ०-५६।

अंगनाइ, अँगनाई

संज्ञा

[हिं. पु. आँगन]

आँगन, चौक, अजिर।

(माई) बिहरत गोपाल राइ मनि मन रचे अँगनाइ लरकत पररिंगनाइ, घुटरूनि डोलै-१०-१०१।

अंगभंग

संज्ञा

[सं.]

अंग का भंग या खंडित होना।

अंगभंग

वि.

अपाहिज, लूला, लुंज।

अंगभंगी

संज्ञा

[सं.]

मोहित करने की स्त्रियों की क्रिया। अंगों को मोड़ना, मरोड़ना।

अंगभंगी

संज्ञा

[सं.]

आकृति।

अंगराग

संज्ञा

[सं.]

शरीर में लगाने का सुगन्धित लेप।

अंगराग

संज्ञा

[सं.]

वस्त्राभूषण।

अंगराग

संज्ञा

[सं.]

महावर आदि स्त्रियों के लेप।

अँगवाना

क्रि. स.

[सं. अंग]

अंगीकार करना।

अँगवाना

क्रि. स.

[सं. अंग]

सहना।

अखेट

संज्ञा

[सं. आखेट]

अहेर, शिकार, मृगया।

जब अखेट पर इच्छा होइ। त ब रथ साजि चलै पुनि सोइ-४-१२।

अखेटक

संज्ञा

[सं. आखेटक]

शिकार, अहेर।

(क) सब दिन याहो भाँति बिहाइ। दिन भए, बहुरि अखेटक जाइ -- -४-१२। (ख) इक दिन ताते अनुज सौं मागी लै गयौ अखेटक राजा--१० उ--२६।

अखेलत

वि.

[सं. अ = नहीं + के लि = खेल]

अचंचल, अलोल।

अखेलत

वि.

[सं. अ = नहीं + के लि = खेल]

आलस्ययुक्त, उनींदा।

अखै

वि.

[सं. अक्षय]

अक्षय, अविनाशी।

अखोलि

क्रि. वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. खोलना]

कस कर, दृढ़तापूर्वके।

रसना जुगल र सनिधि. बोलि। कनकबेलि तमाल अरुझी सुभ ज बंध अखोलि सा. उ.--५।

अख्यान

संज्ञा

[सं. अख्यान]

वर्णन, वृत्तांत।

अख्यान

संज्ञा

[सं. अख्यान]

कथा, कहानी।

अग

वि.

[सं.]

न चलनेवाला, अचर, स्थावर।

अग जग जीव जल थल गनत सुनत न सुधि लहौं -- १० उ.--२४।

अग

वि.

[सं. अज्ञ]

मूढ़, अनजाम।

उदधिसुत

संज्ञा

[सं.]

शंख।

उदधिसुत

संज्ञा

[सं.]

कमला।

दिन पति चले धौं कहा जात। धरा धरन धरनिसुत न लीनो कहो उदधि सुत बात...सा ० ८।

उदधिसुता

संज्ञा

[सं.]

लक्ष्मी

उदधिसुता

संज्ञा

[सं.]

सीप।

उदपान

संज्ञा

[सं.]

कमंडलु।

उदबस

वि.

[सं. उद्वासन = स्थान से हटाना]

उजाड़, सूना।

उदबस

वि.

[सं. उद्वासन = स्थान से हटाना]

स्थान से निकाला हुआ, एक स्थान पर न रहने वाला।

अब तो बात घरी पहरन सखि ज्यों उदबस की भी त्यो। सूरस्याम दासी सुख सोलहु भयो उभय मन चीत्यौ-२८८४।

उदबासना

क्रि. स.

[सं. उद्वासन, हिं. उदबस]

स्थान से उठाना या भागना।

उदबासना

क्रि. स.

[सं. उद्वासन, हिं. उदबस]

उजाड़ना।

उदभट

वि.

[सं. उद्भट]

प्रबल, प्रचंड।

उदघटना

क्रि. स.

[सं. उद्घट्टन = सं.चालन]

प्रगट होना, उदय होना।

उदघाटन

संज्ञा

[सं. उद्घाटन]

प्रकट करना।

ऊदघाटना

क्रि. स.

[सं. उदघाटन]

प्रकट करना, खोलना।

उद्घाटी

क्रि. स.

[हिं. उदघाटना]

प्रकट की, खोली।

उदथ

संज्ञा

[सं. उद्गीथ = सूर्य]

सूर्य।

उदधि

संज्ञा

[सं.]

समुद्र।

उदधितनयापति

संज्ञा

[सं. उदधि (= समुद्र) + तनया = पुत्री = शुक्ति = सीप) + पति (शुक्तिपति = मेघ = नीरद = जीवनद)]

जीवनदान।

बेगि मिलौ सूर के स्वामी उदधितनया-पति मिलिहै आईसा० उ० ३ ०।

उदधि मेखला

संज्ञा

[सं.]

पृथ्वी।

उदधिसुत

संज्ञा

[सं.]

चंद्रमा।

उदधिसुत

संज्ञा

[सं.]

अमृत।

उदमाननी

क्रि. अ.

[सं. उन्मादन]

उन्मत्त होना।

उदमानी

क्रि. अ.

[हिं. उदमादना]

उन्मत्त हुई, मनबाली बनी।

मेरो हरि कहँ दसहिं बरस को तुमही जोबन मद उनमानी (उदमादी)-१० ५७।

उदय

संज्ञा

[सं.]

निकलना, प्रकट होना।

उदय

क्रि. प्र.

उदय कीनो- प्रकट किया, प्रकाशित किया।

तिलक भाल पर परम रुचिर गोरौचन की दीनो। मानो तीन लोक की सोभा अधिक उदध सो कीनो।

उदय

मुहा.

उदय अरु अस्त लौं- सारे संसार में, सारी पृथ्वी पर। उ.- हिरनकस्यप बढ्यो उदय अरु अस्त लौं. हठी प्रह्लाद चित चरन लायौ। भीर के परे तैं घीर राबहिनि तजी, खंभ तैं प्रगट ह्वै जन छुड़ायो-१-५।

उदय

संज्ञा

[सं.]

वृद्धि, उन्नति बढ़ती।

उदय

संज्ञा

[सं.]

निकलने का स्थान, उदगम।

उदयगढ़

संज्ञा

[सं. उदय + हिं. गढ़]

उदयाचल जिसके पीछे से सूर्य निकलता है।

उदयगिपिर

संज्ञा

[सं.]

उदयाचल जिसके पीछे से सूर्य निकलता हैं।

उदयाचल

सं.

[सं. उदय + अचल = पर्वत]

पूर्व दिशा का एक पर्वत जिसके पीछे से सूर्य निकलता दिखायी देता है।

उदवना

क्रि. अ.

[सं. उदयन]

निकलना, प्रकट होना।

उदवाह

संज्ञा

[सं. उद्वाह]

विवाह।

उद्वेग

संज्ञा

[उद्वेग]

चित्त की घबड़ाहट।

उद्वेग

संज्ञा

[उद्वेग]

आवेग, जोश।

उदसन

क्रि. अ.

[सं. उदसन = नष्ट करना। अथवा उद्वासन]

उजड़ना।

उदसन

क्रि. अ.

[सं. उदसन = नष्ट करना। अथवा उद्वासन]

अंडबंड होना।

उदात

संज्ञा

[सं. उदात्त]

एक अलंकार जिसमें संभावित वैभव ऐश्वर्य या समृद्धि का बहुत बढ़ाचढ़ाकर वर्णन हो।

यह उदात अनूप भूषन दियो सब घर तोर। सूर सब रे लच्छनन जुत सहित सब त्रिन तोर-सा-९४।

उदात्त

वि.

[सं.]

ऊँचे स्वर से उच्चरित।

उदात्त

वि.

[सं.]

दयालु।

उदात्त

वि.

[सं.]

दाता, दानी।

उद्याद्रि

संज्ञा

[सं. उदय + अद्रि = पर्व]

उदयाचल।

उदर

संज्ञा

[सं.]

पेट, जठर।

उदर

मुहा.

उदर जियाऊँ :- पेट पालूँ, पेट भरूँ, खाऊँ। माँगत बार-बार सेष ग्वालन को पाऊँ। आप लियौ कछु जानि भक्ष करिं उदर जियाऊँ। उदर भरै-पेट पाले। भिक्षा-वृत्ति उदर नित भरै निसि दिन हरि हरि सुमिरन करे।

उदर

संज्ञा

[सं.]

किसी वस्तु के बीच का भाग।

उदर

संज्ञा

[सं.]

भीतरी भांग।

उदरज्वाला

संज्ञा

[सं.]

जठराग्नि।

उदरज्वाला

संज्ञा

[सं.]

भूख

उदरना

क्रि. अ.

[हिं. उदारना]

फटना।

उदरना

क्रि. अ.

[हिं. उदारना]

ढहना, नष्ट होना।

उदवत

क्रि. अ.

[सं. उदयन, हिं. उ६वना]

निकलते या प्रकट होते ही (या होकर)।

मेरौ हरन मरन है तेरौ, स्यौं कुटुम्ब-संतान। जरिहै लक कनकपुर तेरौ, उदवत रघुकुल-भान-९-७९।

उदात्त

वि.

[सं.]

श्रेष्ठ।

उदात्त

वि.

[सं.]

समर्थ योग्य।

उदात्त

वि.

[सं.]

स्पष्ट, विशद।

उदात्त

संज्ञा

[सं.]

ऊँचा स्वर।

उदात्त

संज्ञा

[सं.]

एक काव्यलकार।

उदान

संज्ञा

[सं.]

प्राणवायु का एक भेद जिसकी गति हृदय से कंठ और सिर के भ्रमध्य तक है।

उदान

वि.

उड़े-उड़े, मारे मारे अस्थिर।

अब मेरी को बोलेै साखि। कैसे हरि के संग सिधारे अब लौं यह तन राखि। प्रान उदान फिरत ब्रज बीथिनि अवलोकनि अभिलाषि--२८४७।

उदाम

वि.

[सं. उद्दाम]

उग्र, उद्दंड।

उदाम

वि.

[सं. उद्दाम]

स्वतंत्र।

उदाम

वि.

[सं. उद्दाम]

गंभीर।

उतारता

संज्ञा

[सं.]

उच्च विचार, विशालहृदयता।

उदारन

क्रि. स.

[स. उदारण]

फाड़ना।

उदारन

क्रि. स.

[स. उदारण]

ढहाना, नष्ट करना।

उदारी

वि.

[सं. उदार]

उदार, दयालु।

धावत कनक-मृग के पाखैं, राजिव-लोचन परम उदारी -- ९-१९८।

उदाराशय

वि.

[सं. उदार + आशय]

उच्च विचारवाला विशाल हृदय, महात्मा।

उदारौं

क्रि. स.

[हिं. उदारना]

तोड़ फोड़ दूँ, छिन्नभिन्न कर दूँ, नष्ट कर डालूँ

जो तुम आज्ञा तेहु कृपानिधि तो एहि पुर सहारौं। कहहु तो लंक उदारौं (बिदारौं ) -- ९-१०७।

उदास

वि.

[सं.]

खिन्न चित्त, दुखी।

( क ) हरि अमृत लैं गए अकास। असुर देखि यह भए उदास -- ७-७। (ख) रामचन्द्र अवतार कहत है सुनि नारद मुनि पास। प्रगट भयो निसचर मारन को सुनि यह भयो उदास

उदास

वि.

[सं.]

जिसका चित हट गया हो, बिरक्त।

(क) राजिव रवि को दोष न मानत, ससि सो सहज उदास -- ३२१९। (ख) ऐसे रहत उतहिं को आतुर मोसों रहत उदास। सूर ध्याम के मन क्रम बच भए रीझे रूप प्रकास--प.--३३४।

उदास

वि.

[सं.]

जो किसी से सम्बन्ध न रखे, तटस्थ, निरपेक्ष।

मैं उदास सबसों रहौं इह मम सहज सुधाइ। ऐसोजानै मोहि जो मम माया न रचाइ-१० उ.-४७

उदास

संज्ञा

दुख, खेद।

उदायन

संज्ञा

[सं. उद्यान = बाग[बाग]

वाटिका, उपवन।

उदार

संज्ञा

[सं.]

दयालु, दानशील।

उदार

यौ.

उदार-उदधि-बहुत दयालु, महानदानी।  

प्रभु ओ देख एक सुभाइ। अति-गंभीर-उदारउदधि हरि जान-सिरोमनि राइ-१-८।

उदार

संज्ञा

[सं.]

महान, श्रेष्ठ।

उदार

संज्ञा

[सं.]

उदार विचारवाला।

उदार

संज्ञा

[सं.]

सरल, सीधा, शिष्ट।

उदार

संज्ञा

[सं.]

अनुकूल।

उदारचति

वि.

[सं.]

उच्च आचार विचार रखनेवाला।

उदारचेता

वि.

[सं. उदर रचेत]

उदार चित्त वाला।

उतारता

संज्ञा

[सं.]

दानशीलता।

उदासना

क्रि. स.

[सं. उद्वासन]

उजाड़ना, नष्ट करना।

उदासना

क्रि. स.

[सं. उद्वासन]

लपेटना।

उदासा

वि.

[सं. उदास]

जिसका चित्त हट गया हो, विरक्त।

नि:कबन जिनमें मम बासा। नारि संग मै रहौं उदासा--१० उ० ३२।

उदासा

वि.

[सं. उदास]

खिन्न चित्त, दुखी।

अरुणोदय उठि प्रात हो अक्रूर बोलाए।…..। सोवत जाइ जगाइ के चलिए नृप पासा। उहै मंत्र मन जानि के उठि चले उदासा -- --२४७६।

उदासा

संज्ञा

दुख का प्रसंग, दुख की बात।

मन ही मन अक्रूर सोच भारी …..। कुबलिया मल्ल मुष्टिक चाणूर से कियो मैं कर्म यह अति उदासा २५५१।

उदासिल

वि.

[सं. उदास + हिं. इल (प्रत्य.)]

उदास, उदासीन।

उदासी

संज्ञा

[सं. उदास + हिं. ई (प्रत्य.)]

विरक्त या त्यागी पुरुष, संन्यासी।

उदासी

संज्ञा

विरक्ति, त्याग।

जोग, ज्ञान ध्यान, अवराधन साधन मुक्ति उदासी। नाम प्रकार कहा रुचि मानहि जो गोपाल उपासी-१०९।

उदासी

संज्ञा

खिन्नता, दुख।

बिनु दसरथ सब चले तुरत ही कोसलपुर के बासी। आए रामचन्द्र मुख देख्यौ सबकी मिटी उदासी।

उदासी

वि.

दुखी, विरक्त, त्यागी. उदास।

(क) ब्रज बासी सब भए उदासी को संताप हरै--३०४७ ( ख ) किहि अपराध जोग लिखि पठवत प्रेम भक्ति ते करत उदासी। सूरदास तो कौन बिरहिनी माँगे मुक्ति छाँडे गुनरासी -- ३ १५।

उदित

वि.

[सं.]

उज्ज्वल, ग्वच्छ।

उदितयौवना

संज्ञा

[सं.]

वह मुग्धा नायिका जिसमें बचपन का भोलापन शेष हो।

उदियाना

क्रि. अ.

[सं. उद्विग्न]

धबड़ाना, हैरान होना।

उदीची

संज्ञा

[सं.]

उत्तर दिशा।

उदीच्य  

वि.

[सं.]

उत्तर दिग। अथवा प्रदेश का रहने वाला।

उदीच्य  

वि.

[सं.]

उत्तर दिशा का।

उदीपन

संज्ञा

[सं. उद्दीपन]

उत्तेजित करने की क्रिया, जगाना।

उदीपन

संज्ञा

[सं. उद्दीपन]

उत्तेजित करने की बस्तु।

उदेग

संज्ञा

[सं. उद्वेग]

चित्त की व्याकुलता।

उदै

संज्ञा

[सं. उदय]

उदय, निकलना या प्रकट होना।

डुलै सुमेरु सेष सिर को पश्चिम उदै करै बास पति। सुनि त्रिजट, तौहूँ नहिं छाडौं मधुर मूर्ति रंघुनाथ-गात रति-९-८२।

अगड़

संज्ञा

[हिं. अकड़]

अकड़, ऐंठ।

अगति

संज्ञा

[सं.]

दुर्दशा, दुर्गति।

अगति

संज्ञा

[सं.]

मृत्यु के पीछे की बुरी दशा, मोक्ष की अप्राप्ति, नरक।

(क) सूरदास हरि भजौ गर्ब तजि, बिमुख अगति कौं जाहीं-२-२३। (ख) कहौ तौ लंक उखारि डारि देउँ, जहाँ पिता संपति कौ। कहौ तौ मारि सँहारि निसाचर, राबन करौं अगति कौ--९-८४।

अगतिक

वि.

[सं.]

अनाथ, निराश्रित।

अगतिनि

संज्ञा

[सं. अगती + नि ( हिं. प्रत्य.)]

पापी मनुष्य, कुमार्गी व्यक्ति, वे जो मोक्ष के अधिकारी न हों।

जय जय जय जय माधबवेन। जग हित प्रगट करी करुनामय, अगनिति के गति दैनी -- -९-११।

अगती

वि.

[सं. अगति]

कुमार्गी, दुराचारी।

अगनत, अगनित

वि.

[सं. अगणित]

अनगिनती, असंख्य, अनेक, बहुत।

(क) बंदौ चरने.सरोज तिहारे।•••••••। जे पद-पदुम रमत बृंदाबन अहि. सिर धरि अगनित रिपु मारे--१-९४। (ख) अगनित गुन हरिनाम तिहारै-१-१५७।

अगनत, अगनित

वि.

[सं. अगणित]

महान, अपार।

सूरदास प्रभु-अगनित महिमा, भगतनिकै मन भावत--१-१२५।

अगनिया

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. गिन ना]

अगणित, अनगिनती।

जेंवत स्याम नंद की कनियाँ-... ! बरी, बरा, बेसन बहु भाँतिन, ब्यंजन बिबिध,अगनियाँ-१०-२३८।

अगनू, अगनेउ, अगनेत

संज्ञा

[सं. अग्नेय]

अग्निकोण।

उदासी

वि.

रुष्ट, आसन्न।

सूर सुनत सुरपती उदासी। देखहुए आए जलरासी-१०६१।

उदासीन

वि.

[सं.]

जिसका चित्त किसी वस्तु या व्यक्ति से हट गया हो, विरक्त।

उदासीन

वि.

जो किसी के झगड़े में न पड़े, निष्पक्ष तटस्थ।

उदासीन

वि.

रूखा, उपेक्षा से पूर्ण।

उदासीनता

संज्ञा

[सं.]

चित्त का हटना, विरक्ति।

उदासीनता

संज्ञा

[सं.]

उदासी, खिन्नता।

उदाहरण

संज्ञा

[सं.]

दृष्टांत।

उदित

वि.

[सं.]

जो उदय हुआ हो, निकला हो।  

(क) धर अंबर, दिन-विदिसि, बढ़े अति सायक किरन-समान। मानौ महाप्रलय के कारन, उदित उभय षट भान -- ९.१५८। (ख) उदित चारु चन्द्रिका अवर उर अंतर अमृत मई-२८५३।

उदित

वि.

[सं.]

प्रफुल्लित, प्रसन्न।

अति सुख कौसल्या उठि ध।ई। उदित बदन मन मुदिन सदन तैं, आरति साजि सुमित्रा ल्याई -- ९-१६९।

उदित

वि.

[सं.]

प्रकट।

उदो

संज्ञा

[सं. उदय]

वृद्धि, उन्नति, बढ़ती, उदय।

(क) तुम्हरो कठिन बियोग बिषम दिनकर सम उदो करै। हरिपद बिमुख भए सुनु। सूरज को इहि ताप हरै -- ३ ४५८। (ख) राकापति नहिं कियो उदो सुनि या सम ये नहिं आवत -- सा ० उ० १३।

उदोत

संज्ञा

[सं. उद्योत]

प्रकाश, दीप्ति।

नव-तन चन्द्र रेख-मधि राजत, सुर गुरु-शुक्र-उदोत परस्पर-१०-९३।

उदोत

वि.

प्रकाशित दीप्त।

उदोत

वि.

उत्तम।

उदोतकर

वि.

[सं., उद्योतकर]

प्रकाश करने वाला।

उदोतकर

वि.

[सं., उद्योतकर]

उज्ज्वल करने वाला।

उदोती

वि.

[सं. उद्योत]

प्रकाशित।

उदोती

वि.

[सं. उद्योत]

उत्तम।

उदोती

वि.

[सं. उद्योत]

प्रकाश करने वाला विकाशक।

उदोती

संज्ञा

प्रकाश।

उद्गम

संज्ञा

[सं.]

उत्पत्ति का स्थान।

उद्गम

संज्ञा

[सं.]

स्थान जहाँ से नदी निकलती है।

उद्गार

संज्ञा

[सं.]

उबाल, उपान।

उद्गार

संज्ञा

[सं.]

तरल पदार्थ जो सवेग बाहर निकले।

उद्गार

संज्ञा

[सं.]

घोर शब्द।

उद्गार

संज्ञा

[सं.]

मन की पुरानी बात जो सतेज और एकबारगी कही जाय।

उद्गार

संज्ञा

[सं.]

वमन होने क क्रिया और वस्तु।

उद्गार

संज्ञा

[सं.]

बाढ़, अधिकता।

उद्गारी  

संज्ञा

[सं. उद्गरिन]

प्रकट करने वाला।

उद्गीर्ण  

वि.

[सं.]

निकला हुआ, कहा हुआ।

उदौ  

संज्ञा

[सं. उदय]

उदय, प्रकटना, जन्म।

नंद उदौ सुनि आयौ हो, बृषभानु कौ जगा -- १०-३७।

उद्

उप.

[सं.]

एक उपसर्ग जो शब्दों के आदि में जुड़कर इन अर्थों की विशेषता लाता है। ऊपर, जैसेउदगमन। अतिक्रपण, जैसे-उत्तीर्ण। उत्कर्ष-जै उद्बोधन-जैसे उदगार। प्रधानता--जैसे उद्देश्य। कमी, जैसे उद्वासन। प्रकाश,-जैसे उच्चारण। दोष,-जैसे उदमार्ग ( उन्मार्ग)।

उद्

संज्ञा

मोक्ष, सुगति।

उद्

संज्ञा

ब्रह्मा।

उद्

संज्ञा

सूंर्य।

उद्

संज्ञा

जल।

उद्गत

वि.

[सं.]

उत्पन्न जन्मा हुआ।

उद्गत

वि.

[सं.]

प्रकट।

उद्गत

वि.

[सं.]

फैला हुआ व्याप्त।

उद्गम

संज्ञा

[सं.]

उदय।

उद्गीर्ण  

वि.

[सं.]

उगला हुआ।

उद्घाट

संज्ञा

[सं.]

खोलने की क्रिया।

उद्घाटन

संज्ञा

[सं.]

खोलना।

उद्घाटन

संज्ञा

[सं.]

प्रकट करना, प्रकाशित करना।

उद्घात

संज्ञा

[सं.]

धक्का, ठोकर।

उद्घात

संज्ञा

[सं.]

आरम्भ।

उद्घातक

वि.

[सं.]

धक्का देने वाला।

उद्घातक

वि.

[सं.]

अरम्भ करने वाला।

उद्घातक

संज्ञा

सूत्रधार की नाटकीय प्रस्तावना में उसकी बात का मनमाना अर्थ लगाकर नेपथ्य से कुछ कहना।

उद्घाती

वि.

[सं. उद्घातिन्]

ठोकर या धक्का मारने वाला।

उद्योपक

वि.

[सं.]

उतेजित करने वाला, भावों को उभाड़ने वाला।

उद्दीपन

संज्ञा

[सं.]

उत्तेजित करना, जगाना।

उद्दीपन

संज्ञा

[सं.]

उत्तेजित करने वाला पदार्थ या वातावरण।

उद्दीपन

संज्ञा

[सं.]

रस को उत्तेजित करने वाला विभ व।

उद्देश  

संज्ञा

[स.]

चाह, इच्छा।

उद्देश  

संज्ञा

[स.]

कारण, = हेतु।

उद्देश्य

वि.

[सं.]

इष्ट, लक्ष्य।

उद्देश्य

संज्ञा

आशय, अभिप्राय, अभिप्रेत अर्थ।

उद्देश्य

संज्ञा

वाक्य में जिसके विषय में कुछ कहा जाय, विशेष्य।

उद्दौत

संज्ञा

[सं. उद्योत]

प्रकश।

उद्घाती

वि.

[सं. उद्घातिन्]

जो ऊँचा-नीचा या ऊबड़-खाबड़  हो।

उद्दंड

वि.

[सं. उदंड]

अक्खड़, निडर।

उद्दाम

वि.

[सं.]

बंधन रहित।

उद्दाम

वि.

[सं.]

उग्र, उद्दंड।

उद्दाम

वि.

[सं.]

स्वतंत्र।

उद्दाम

वि.

[सं.]

महान।

उद्दाम

संज्ञा

वरुण।

उद्दित  

वि.

[सं. उदित]

उज्ज्वल, स्वच्छ, प्रकाशपूर्ण, कांतिवान।

(क) नव-मन-मुकुट-प्रभा अति उद्दित, चित्त. चकित अनुमान न पावति--१०-७। (ख) तहँ अरि-पंथ-पिता जुग उद्दित वारिज बिबि रंग भजो आकास--सा ० उ० २८।

उद्दिष्ट

वि.

[सं.]

दिखाया या संकेत किया हुआ।

उद्दिष्ट

वि.

[सं.]

लक्ष्य, अभिप्रेत।

उद्दौत

वि.  

प्रकाशयुक्त चमकीला।

उद्दौत

वि.  

उत्पन्न, उदित।

उद्ध  

क्रि. वि.

[सं. ऊर्द्ध, पा. उद्ध]

ऊपर।

उद्धत  

वि.

[सं.]

उग्र, प्रचड।

उद्धत  

वि.

[सं.]

प्रकांड, महान।

उद्धना

क्रि. अ.

[सं. उद्धरण]

उड़ना, बिखरना, ऊपर उठना।

उद्धरण  

संज्ञा

[सं.]

ऊपर उठना।

उद्धरण  

संज्ञा

[सं.]

मुक्त होना।

उद्धरण  

संज्ञा

[सं.]

दशा अच्छी होना।

उद्धरण  

संज्ञा

[सं.]

किसी पुस्तक आदि से उसका कुछ अश नकल करना।

उद्धरण  

संज्ञा

[सं.]

उखाड़ना।

अद्धरणी

संज्ञा

[सं. उद्धरण + हिं. ई (प्रत्य.)]

पाठ का अभ्यास।

अद्धरणी

संज्ञा

[सं. उद्धरण + हिं. ई (प्रत्य.)]

अभ्यास, रटना।

उद्धरन  

वि.

[स. उद्धरण, हिं. उद्धार, उद्धरना]

उद्धार करनेवाले।

(क) गए तरि लै नाम केते, पतित हरि-पुर-धरन। जासु पद-रज-परस गौतम--नारि-गति उद्धरन-१-३०८। (ख) भक्तबछल कृपारन अररन-मरन पतित-उद्धरन कहै वेद गई--८-९। (ग) देखि देखि री नंदकुल के उधारी। मातु पितु दुरित उद्धरन, ब्रज उद्धरन धरनि उद्धरन सिर मुकुट धारी-१४०३।

उद्धरना  

क्रि. स.

[सं. उद्धरण]

उद्धार करना।

उद्धरना  

क्रि. अ.

मुक्त होना, छूटना।

उद्धरि

क्रि. स.

[सं. उद्धरण, हिं. उद्धरना]

तर गयी, मुक्त हो गयी।

जे पद परसि सिला उद्धरिगई, पांडव गृह फिरि आए-५६८।

उद्धरिहौ

क्रि. स.

[सं. उद्धरण, हिं. उद्धार]

उबरोगे, मुक्त होगे छुटकारा पाओगे।

स्रुति पढ़ि कै तुल नहिं उद्धरिहौ। विद्या बेचि जीविका करिहौ-४-५।

उद्धरौ  

क्रि. स.

[सं. उद्धरण, हिं. उद्धरना]

उद्धार करो, उबारो।

और जो मो पर किरपा करौ। तौ सब जीवनि को उद्धरोै-७-२।

उद्धव  

संज्ञा

[सं.]

उत्सव।

उद्धव  

संज्ञा

[सं.]

कष्‍ण के सखा, ऊधव।

उद्धार  

संज्ञा

[सं.]

मुक्ति, छुटकारा, मरण, निस्तार दुख निवृत्ति।

(क) अब मिथ्य। तप जाप ज्ञान सब, प्रगट भई ठकुराई। सूरदास उद्धार सहज गति, चिंता सकल गँवाई-१-२०६। (ख) धन्य भाग्य, तुम दरसन पाए। मम उद्‍धार करन तुम आए -- -१-३४१। (ग) बाल गोप बिहाल गाई करत कोटि पुकार। राख गिरिधर लाल सूरज नाथ बिनु उद्धर-सा. ३०।

उद्धार  

संज्ञा

[सं.]

सुधार, उन्नति।

उद्धार  

संज्ञा

[सं.]

ऋण से छूटना।

उद्‍धारन

संज्ञा

[सं. उद‍धार]

मुक्ति, छुटकारा, निवृत्ति, निस्तांर।

उद्धारना  

क्रि. स.

[स उद्धार]

मुक्त करना, छुटकारा देना।

उद्धार

क्रि. स.

[सं. उद्धार, हिं. उद्धारना]

उद्धार करके, मुक्त करके।

सखासुर मारि कै. वेद उद्धारि केै आपदा चतुरमुख की निवारी-६-१७।

उद्धारिहौं

क्रि. स.

[सं. उद्धार, हिं. उद्धारना]

उद्धार या मुक्त करूँगा छुटकारा दूँगा।

कस को मारिहौ, धरनि निरवारिहो, अमर उद्धाररिहौ, उरगघरनी-५५१।

उद्धारे

क्रि. स.

[सं. उद्धार, हिं. उद्धारना]

तार दिये, मुक्त किये।

दोउ जन्म ज्यौं हरि उद्धारे सा तौ मैं तुमसोैं उच्च रे -- -१०-२।

उद्‍धृत

वि.

[सं.]

किसी पुस्तक पत्र आदि से नकल किया हुआ अंश)

अगम

वि.

[सं. अगम्य]

जहाँ कोई जा न सके। पहुँच के बाहर।

(क) जीव जल थल जिते, बेप धरि धरि तिते, अटत दुरगम अगम अचल भारे -- -१-१२०। (ख) देखत बन अति अगम डरौं वै मोहिं डरपावैं–४३७।

अगम

वि.

[सं. अगम्य]

न मिलने योग्य, दुर्लभ।

भक्त जमुने सुगम, अगम औरै-१.२२२।

अगम

वि.

[सं. अगम्य]

अपार, अत्यंत, बहुत।

समुझि अब निरखि जानकी मोहिं। बड़ौ भाग गुनि, अगम दसानन, सिव बर दीनौ तोहिं-९-७७।

अगम

वि.

[सं. अगम्य]

न जानने योग्य, बुद्धि से परे, दुर्बोध।

(क) मन-बानी कौं अगमअगोचर, जो जानै सो पावै -- १-२। (ख) ब्रह्म अगोचर मन-बानी तैं, अगम अनंत प्रभाव-२.३४।

अगम

वि.

[सं. अगम्य]

अथाह, बहुत गहरा।

(क) अगम सिंधु जतननि सजि नौका, हठि क्रम भार भरत। सूरदास ब्रत यहै, कृष्ण-भजि, भव-जल निधि उतरत-१-५ ५। (ख) सूर मरत मीन तुरत मिले अगम पानीं-२९५२।

अगम

वि.

[सं. अगम्य]

विशाल बड़ा।

(क) लंका बसत दैत्य अरु दानव उनके अगम सरीर.-.-९-८६। (ख) कैसे बचे अगम तरु के तर मुख चूमति, यह कहि पछितावति-३९०।

अगम

संज्ञा

[सं. अयम]

अबाई, आगमन।

दादुर मोर कोकिला बोलै पावस अगम जनावै--२८२५।

अगमति

वि.

[सं. अगभ +अति]

बहुत अधिक, बड़ी।

आजु हौं राजकाज करि आॐ। बेगि सँहारौं सकल घोष-सिसु, जौ मुख आयसु पाऊँ। मोहन मुर्छन-बसीकरन पढ़ि, अगमति देह बढ़ाऊँ १०-४९।

अगमन

क्रि. वि.

[सं. अग्रवान]

आगे, पहले, प्रथम।

सो राजा जो अगमन पहुंचै, सूर सु भवन उताल-१०-२२३।

अगमने, अगमनै

क्रि. वि.

[सं. अग्रवान, हिं. अगमन]

आगे, आगे से, प्रथम ही।

(क) इह ले देहु मारु सिर अपने जासों कहत कंत तुम मेरी। सूरदास सो गई अगमने सब सखियन सों हरि मुख हेरी -- ९०३। (ख) पौढ़े हुते पर्यंक परम रुचि रुक्मिनि चमर डुलावति तीर। उठि अकुलाइ अगम ने ली ने मिलत नैन भरि आये नीर -- -१ ० उ.-६ १। (ग) मोहन बदन बिलोकि थकित भए माई री ये लोचन मेरे। मिले जाइ अकुलाइ अगमने कहा भयौ जो घूघँट घेरे-पृ० ३३१।

उद्बुद्ध

वि.

[सं.]

खिला हुआ, विकसित।

उद्बुद्ध

वि.

[सं.]

जगा  हुआ।

उद्बुद्ध

वि.

[सं.]

चेतयुक्त मजग।

उदबुद्धा

संज्ञा

[सं.]

उपपति से स्वयं प्रेम करने वाली परकीया नाकाि।

उद्बोधक

वि.

[सं.]

ज्ञान कर नेवाला सचेत करनेवाला।

उद्बोधक

वि.

[सं.]

सूचित करनेवाला।

उद्बोधक

वि.

[सं.]

उत्तेजित करनेवाला।

उद्बोधक

वि.

[सं.]

जगानेवाला।

उदबोधन  

संज्ञा

[सं.]

चिताना,ध्यान दिलाना।

उदबोधन  

संज्ञा

[सं.]

उत्तेजित करना।

उदबोधन  

संज्ञा

[सं.]

जगाना।

उदबोधिता

संज्ञा

[सं.]

उपपति की इच्छा समझ कर प्रेम करने वाली परकीया नायिका।

उद्‍भट

वि.

[सं.]

श्रेष्ठ, उ्त्तम।

उद्‍भट

वि.

[सं.]

उच्च वि्चार वाला।

उद्‍भव  

संज्ञा

[सं.]

उत्पत्ति, सृष्टि।

उद्‍भव  

संज्ञा

[सं.]

बृद्धि, उन्नति, बढ़ती।

उद्‍भावन

संज्ञा

[सं.]

मन में विचार लाना।

उद्‍भावन

संज्ञा

[सं.]

उत्पन्न होना।

उद्‌भावना  

संज्ञा

[सं.]

कल्पना।

उद्‌भावना  

संज्ञा

[सं.]

उत्पत्ति।

उद्‍भूत

वि.

[सं.]

उत्पन्न।

उद्‍भेद

संज्ञा

[सं.]

प्रकाशन।

उद्‍भेद

संज्ञा

[सं.]

एक काव्यालंकार जिसमें गुप्त बात लक्षित की जाय।

उद्‍भेदन

संज्ञा

[सं.]

तोड़ना, फोड़ना, भेदना।

उद्यत

वि.

[सं.]

तैयार, उतारू, प्रस्तुत।

उद्यत

वि.

[सं.]

ताना हुआ।

उद्यत

संज्ञा

[सं.]

प्रयास, प्रयत्न, उद्योग।

(क) अति प्रचड पौरुष बल पाएँ, केहरि भूख मरै। अनायास विनु उद्यम कीन्हैं, अजगर उदय भरे -- १-१०५। (ख) साधन, जंत्र, मंत्र, उद्यम, बल, ये सब डरो खोई। जो कछु लिखि राखी नँदनंदन, मेटि सकै नहिं कोई-१-२६२। मम सरूप जो सब घट जान। मगन रहै तजि उद्यम आन--३-१३।

उद्यत

संज्ञा

[सं.]

कामधंधा व्यापार।

उद्यमी

वि.

[सं. उद्यमिन्]

परिश्रमी उद्योगी।

उद्यान

संज्ञा

[स.]

बगीचा, उपवन।

उद्‍भास

संज्ञा

[सं.]

प्रकाश, आभा।

उद्‍भास

संज्ञा

[सं.]

मन में कोई बात जन्मना।

उद्‌भासित  

वि.

[सं.]

उत्तेजित।

उद्‌भासित  

वि.

[सं.]

प्रकट, प्रकाशित।

उद्‌भासित  

वि.

[सं.]

प्रतीति, विदित।

उद्भ्रांत

वि.

[सं.]

घूमता या चक्कर खाता हुआ।

उद्भ्रांत

वि.

[सं.]

भूला भटका।

उद्भ्रांत

वि.

[सं.]

भौचक्का।

उद्‌भिज  

संज्ञा

[स. उद्‌भिज]

पृथ्वी से पैदा होने‍वाले प्राणी, वनस्पति।

ऊद्‍भिद

संज्ञा

[सं.]

भूमि में पैदा होने वाले प्राणी, वनस्पति।

उद्यापन

संज्ञा

[सं.]

किसी व्रत के समाप्त हो जाने पर किये जानेवाले हवन, दान आदि कायं।

उद्युक्त

वि.

[स]

तैयार, तत्पर।

उद्योग

संज्ञा

[सं.]

प्रयत्न, प्रयास।

उद्योग

संज्ञा

[सं.]

काम धंधा।

उद्योगी

वि.

[सं. उद्योगिन]

प्रयत्न करनेवाला।

उद्योत

संज्ञा

[सं.]

प्रकाश, उजाला।

(क) सूरदास प्रभु तो जीवहिं देखहिं रविहिं उद्योत--३३६०। (ख) दामिनी थिर घनघटा बर कबहुँ ह्वै एहि भाँति। कबहु दिन उद्योत कबहूँ होत अति कुहुराति--सा० उ० ५।

उद्योत

संज्ञा

[सं.]

चमक, झलक।

उद्योतन  

संज्ञा

[सं.]

चमकना या चमकाना, प्रकट या व्यक्त करना।

उद्रेग

संज्ञा

[सं.]

बढ़ती अधिकता।

उद्रेग

संज्ञा

[सं.]

एक काव्यालंकार जिस में धस्तु के कई गुणों या दोषों का एक के आगे मन्द हो जाना वर्णित होता है।

उद्विग्न

वि.

[सं.]

घबराया हुआ।

उद्घिग्नता

संज्ञा

[सं.]

घबराहट, ब्याकुलता या व्यग्रता।

उद्वेग

संज्ञा

[सं.]

घबराहट।

उद्वेग

संज्ञा

[सं.]

आवेश।

उद्वेग

संज्ञा

[सं.]

झोंक

उद्वेग

संज्ञा

[सं.]

रसशास्त्र में वियोग की व्याकुलता।

उद्वेजन  

संज्ञा

[सं.]

घबड़ाना।

उधर

क्रि. वि.

[सं. उतर]

उस ओर, दूसरी ओर।

उधड़ना

क्रि. अ.

[सं. उद्धरण = उखड़ना]

उखड़ना, तितर-बितर होना।

उधड़ना

क्रि. अ.

[सं. उद्धरण = उखड़ना]

फटना, अलग होना।

उधरत

क्रि. स.

[उद्धरण, हिं. उधरना]

उद्धार पाता है, मुक्त होता है, छूटता है।

धर्म बहैं, सरसयन गंग-सुत, तेतिक नाहिं सँतोष। सुत सुमिरत आतुर द्विज उधरन, नाम भयौ निर्दोष--१. २१५। (ख) उधरत लोग तुम्हारे नाम-११-५।

उधरना

क्रि. स.

[सं. उद्धरण]

मुक्त, होना, छुटकारा पाना।

उधरना

क्रि. स.

मुक्त करना, छुटकारा देना।

उधराइ

क्रि. अ.

[हिं. उधराना]

हवा में इधर उधर उड़कर, बिखरकर।

लोक सकुच मर्यादा कुल वी छिन ही में बिसराइ। ब्याकुल फिरतिं भवन वन जहँ तहँ तूल आक उधराइ -- पृ० ३२१।

उधराना

क्रि. अ.

[स. उद्धरण]

हवा में इधर उधर उड़ना, बिखरना।

उधराना

क्रि. अ.

[स. उद्धरण]

ऊधम मचाना

उधरी

क्रि. स.

[सं. उद्धरण हिं. उद्धार, उधरना]

उद्धार पा गयी, मुक्त हो गयी।

गीध ब्याध गज गनिका उधरी, लै लै नाम तिहारौ--१-१७८।

उधरै

क्रि. अ.

[सं. उद्धरण, हिं. उधरना]

उद्धार या छुटकारा पावे, मुक्त हो।

(क) भक्त सकामी हू जो होइ। क्रम-क्रम करिकै उधरै सोइ-३-१३। (ख) राज-लच्छमी मद नहिं होइ। कुल इकीस लौं उधरै सोइ। ७-२। (ग) बिना गुन क्योैं पुहुमि उधारै यह करत मन डौर-२९०९।

उधरै

क्रि. स.

उद्धार या मुक्त करे, छुटकारा दिलावे।

सूर स्याम गुरु ऐसौ समरथ, छिन मैं लै उधरै-६-६।

उधरौं

क्रि. स.

[सं. उद्धरण, हिं. उद्धरना]

उद्धार करूँ, उबारूँ, रक्षा करूँ।

छीर-समुद्र-मध्य तैं यौं हरि दीरघ बचन उचारा। उधरौं धरनि, अमुरकुल-मारौं, धरि नर-तन अवतारा--१०-४।

उधर्यौं

क्रि. स.

[सं. उद्धारण, हिं. उधरना]

उद्धार या छुटकारा पाया, मुक्त हुआ।

तिन मैं कहौं एक की कथा। नारायन कहि उधरचौ जथा-६-३

उधार

संज्ञा

[सं. उद्धार]

उद्धार, मुक्ति, निस्तार।

इहिं सराप सौं मुक्ति ज्यौं होइ। रिपि कृपलु भाषौ अब सोइ। क्ह्यौ जुधिष्ठिर देखै जोइ। तब उद्धार नृप तेरौ होइ-६-७।

उधार

संज्ञा

[सं. उद्धार = बिना ब्याज का ऋण]

ऋण।

उधारक

वि.

[सं. उद्धारक]

मुक्त करनेवाला।

उधारन

संज्ञा

[सं. उद्धार, हिं. उधारना]

उद्धारकरनेवाले, उद्धारक।

(क) अब कहाँ लौं कहौं एक मुख या मन के कृत काज। सूर पतित, तुम पतित उधारन, गहौ विरद की लाज -- १-१०२। (ख) कांपन लागी धरा, पाप तैं ताड़ित लखि जदुराई। आपुन भए उधारन जग के, मैं सुधि नीके पाई--१-२०७।

उधारनहारे

संज्ञा

[हिं. उधारन + हारे]

उद्धारक, उद्धार करनेवाले।

अव मोसौं अलसात जात हौ अधम उधारनहारे-१-२५।

उधारना

क्रि. स.

[सं. उद्धरण]

मुक्त करना, उद्धार करना।

उधारा

संज्ञा

[सं. उद्धार]

उद्धार, मुक्ति, छुटकारा।

सूरदास सब तजि हरि भजिये जब कब करै। उधारा-१० उ०-३६।

उधारि

क्रि. स.

[सं. उद्धरण, हिं. उधारना]

उद्धारो. मुक्त करो, पार लगाओ।

अब कैं नाथ, मोहिं उधारि। मगन हौं भव-अंबुनिधि मैं, कृपासिंधु मुरारि. -- १-९९।

उधारी

वि.

[सं. उद्धारनि]

उद्धार करनेवाला, उद्धारकं।

देखि देखि री नंदकुल के उधारी। मातु पितु । दुरित उद्धरन ब्रज उद्धरन धरनि उद्धरन सिर मुकुट धारी--१४७३।

उधारे

क्रि. स. बहु.

[सं. उद्धरण, हिं. उद्धार]

तार दिये, मुक्त किये ( उनका) उद्धार किया।

(क) गज, गनिका अरु बिप्र अजामिल, अगनित अधम उधारे-१-१२५। (ख) अवगाहौं पूरन गुन स्वामी, सूर से अधम उधारे–१-१९७।

उधारैं

क्रि. स.

[सं. उद्धरण, हिं. उधारना]

उद्धार या मुक्त करें।

जो-जौ मुख हरि-नाम उचारै। हरि-गन तिहिं तिहिं तुरत उधारैं–६-४।

उधारै

क्रि. स.

[सं. उद्धार, हिं. उधारना]

उद्धार करे, मुक्त करे, छुटकारा दिलावे।

तुम बिनु करुना सिंघु और को पृथी उधारै-३-११।

उधारौं

क्रि. स.

[सं. उद्धरण, हिं. उधारना]

उद्धार करूँ, मुक्त करूँ।

नारद-साप भए जमलार्जुन, । तिनकौं अब जु उधारौं-१०-३४२।

उधारौ

क्रि. स.

[सं. उद्धारण, हिं. उधारना]

उद्धार करो, मुक्त करो।

(क)संततदीन, महा अपराधी, काहैं सूरज कर बिंसाराँ सोकहि नाम रह्यौ प्रभु तेरोै, बनमाली, भगवान, उघारौ-१-१७२। (ख) प्रभु मेरे मोसों पतित उधारौ-१-१७८। (ग) नाथ सको तौ मोहिं उधारौ -- १-१३१।

उधारयौ

क्रि. स.

[हिं. उधारना]

उद्धारा, मुक्त किया, रक्षा की।

(क) संकट तैं प्रह्लाद उधारयौ हरिनाकसिपु-उदर नख फारी-१-२२। (ख) धरनीधर बिधि बेद उधारयौ मधु सों सत्रुहयो-२२६४।

उधेड़ना

क्रि. स.

[सं. उद्धरण-उखाड़ना]

अलग करना, उचाड़ना।

उधेड़ना

क्रि. स.

[सं. उद्धरण-उखाड़ना]

सिलाई खोलना।

उधेड़ना

क्रि. स.

[सं. उद्धरण-उखाड़ना]

बिखराना।

उधेड़बुन  

संज्ञा

[हिं. उधेड़ना + बुनना]

सोचविचार, ऊहापोह।

उधेड़बुन  

संज्ञा

[हिं. उधेड़ना + बुनना]

युक्ति सोचना।

उनंत  

वि.

[सं. उन्नयन]

झुका हुआ।

उन

सर्व.

[हिं. ‘उस' का बहु.]

उन्होने।

उन तौ करी पाहिले की गति, गुन तोरयौ बिच धार--१-१७५।

उनइ

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

छा जाना, घिरकर, उमड़कर।

आजु घन स्याम की अनुहारि। उनइ आए साँवरे ते सजनी देखि रूप की आरि--२८२९।

उनई

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

घिरी, छा गयी, उमड़ी।

माया देखत ही जु गई।…...। सुत-संतानस्वजन-बनिता-रति, घन समान उनई। राखे सूर पवन पाखंड हति, करी जो प्रीति नई-१-५०।

उनईस

वि.

[हिं. उन्नीस]

बीस से एक कम।

जपत अठारहो भेद उठईस नहिं बीसहू बिसो ते सुखहि पैंहै-१२७८।

उनचास

वि.

[सं. एकोनपं वाशत: पा. एकोनपंचास, उनपंचास]

पचास से एक कम।

उनतीस

वि.

[सं. एकोनत्रिंशत; पा. एकुंतीसा, उन्तीसा]

तीस से एक कम।

उनत

सर्व.

[हिं. ‘उस' का बहु. 'उन' + तैं(प्रत्य.)]

उनसे।

उनदा

वि.

[सं. उन्निद]

नींद से भरा, उनींदा।

अगमैया

वि.

[सं. अगम्य, हिं. अगम]

न जानने योग्य, अगम, गहन।

अगमैया

वि.

[सं. अगम्य, हिं. अगम]

अपार, अत्यंत, बहुत।

ब्रज मैं को उग्‍ज्यौ यह भैया। संग सखा सब कहत परस्पर, इनके गुन अग मैया--४२८।

अगम्य

वि.

[सं.]

न जाने योग्य, गहन।

अगम्य

वि.

[सं.]

अज्ञ य,दुबोध

अगर

संज्ञा

[सं. अगरू[

एक पेड़ जिसकी लकड़ी सुगंधित होती है।

चंदन अगर सुगंध और घृत, बिधि करि चिता बनायौ-९.५०।

अगरन

क्रि. अ.

[सं. अग्र]

आगे आगे जाना, वढ़ना।

अगरी

[सं. अनर्गल]

अनुचित बात, बुरी बात।

अगरी

[सं. अनर्गल]

धृष्टतायुक्त बात, अनचित कथन।

गेंड्डरि दई फटकारि कै हरि करत हैं लँगरी। नित प्रति ऐसेई ढंग करैं हमसों कहै अगरी-८५८।

अगरी

[सं. अनर्गल]

असंगत बात।

अगरु

संज्ञा

[सं.]

अगर की लकड़ी, ऊद।

उनदौहाँ

वि.

[सं. उन्निद, हिं. उनींदा]

नींद से ऊँघता हुआ।

उनसत  

वि.

[सं. उन्मत्त]

उन्मत्त, मतवाला।

(क) निद्रा-बस जो कबहूँ सोवै। मिलि सो अविद्या सुधि-बुध खोवै। उनमत ज्यो सुख दुख नहिं जानैं। जागै वहै रीति पुनि ठानै-४-१२ (ख) बहुरोै भरतहिं दै करि राजा। रिषभ ममत्व देह कौ त्याग। उनमत की ज्यों बिचरन लागे। असन--बसन की सुरतिहिं त्यागे--५-२।

ऊलमत्त

वि.

[सं. उन्मत्त]

मतवाला, मदांध।

माधो जू मन सबही बिधि पोंच। अति उन मत्त, निरंकुस, मैगल, चिंतारहित, असोच-१-१०२।

उनमद

वि.

[सं. उद् + मद]

उन्मत्त, मतवाला।

उनमा

वि.

[हिं. अनमना]

उदास, खिन्न, उचाट चित्त का।

उनमाथना

क्रि. स.

[सं. उम्मथन]

मथना।

उनसाथी

वि.

[हिं. उन माथना]

मथनेवाला, बिलोनेवाला

उनमाद

संज्ञा

[सं. उन्माद]

मतवालापन, पागलपन।

भानुतपन किसान ग्रह के रच्छपालक आप। मद्ध ठाढ़ो होत नंदनंदन कर उनमाद सा०-११६।

उनमान

संज्ञा

[सं.]

अनुमान, ध्यान, समझ।

(४) कहिबे मैं न क छू सक राखी। बुधि बिबेक उनमान आपने मुख आई सो भाखी-३४६९। (ख) सुनि स्रवन उनमान करति हौं निगम नेति यह लखनि लखी री-२११३।

उनमान

संज्ञा

[सं.]

अटकल।

उनमान

संज्ञा

[सं. उद् + मान]

नाप, थाह, परिणाम।

आगम निगम नेति करि गायौं, सिव उनमान न पायौ। सूरदास बालक रसलीला यह अभिलाष बढ़ायौ।

उनमान

संज्ञा

[सं. उद् + मान]

शक्ति, सामर्थ्य, योग्यता।

उनमान

वि.

तुल्त, समान।

(क) तुव नासापुट गत मुक्त फल अधर बिंब उनमान। गंजाफब सब के सिर धारत प्रकटी मीन प्रमान। (ख) उरगइंदु उन सान सुभग भुज पानि पदुम आयुधराजैं-१ ६९।

उनमानना

क्रि. स.

[हिं. उन मान]

अनुमान करना,, सोचना समझना।

उनमीलत

वि.

[सं. उन्मीलित]

स्पष्ट, प्रकट, खुला, हुआ।

बाँसुरी तै जान मोको परो ना सुत सोइ। सूर उनमीलत निहारो कहें का मति भोइ सा० ७७।

उनमीलत

संज्ञा

एक काव्यालंकार जिसमें दो वस्तुओं को बहुत अधिक समानता हो, पर केवल थोड़ी बात का ही उन में भेद दिखायी दे।

उनमुना

वि.

[सं. अन्यमनस्क, हिं. अनमना]

मौन चुप।

उनमुनी

संज्ञा

[सं. उन्मनी]

हठयोग की एक मुद्रा जिसमें भौं को ऊपर चढ़ाते और दृष्टि को नाक का नोक पर गड़ाते हैं।

उनमूलना

क्रि. स.

[सं. उन्मूलन]

उखाड़ना।

उनमेखना

क्रि. स.

[सं. उन्मेष]

आँख खुलना।

उनमेखना

क्रि. स.

[सं. उन्मेष]

खिलना, फूलना।

उनमेद

संज्ञा

[सं. उद् + मेद = चरबी]

पहली वर्षा के पश्चात जल में उत्पन्न जहरीला फेन जिससे मछलियाँ मर जाती हैं, माँजा।

इन्द्री-स्वाद बिबस निसि बासर आपु अपुनपौ हारयौ। जल उनमेद मीन ज्यौं बपुरो पाँव कुल्हारो मारयौ।

उनय

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

झुकती हैं, लटक रही है।

उनयो

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

छाये, घिर आये।

(क) अजु सखी अरुनोदय मेरे नैनन धोख भयौ। की हरि आजु पंथ यहि गौने कीधौं स्याम जलद उनयो-१६२८। (ख) नेक मोहिं मुसुकात जानि मनमोहन मन सुख आन्ययौ। मानो देव द्रुम जरत आरा भघो उनयो अंबर पान्यो-२२७५।

उनरत

क्रि. अ.

[हिं. उनरना]

उठता है, उमड़ता है।

उनरना

क्रि. अ.

[सं. उन्नरण]

उठना, उभड़ना।

उनरी

क्रि. अ.

[हिं. उनरना]

उमड़ी, उमड़ उमड़ कर आयी।

उनरोगी

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

उठोगी, उमड़ोगी, झुकोगी, प्रवृत्त होगी।

उनवत

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

घिरकर, चारों ओर छा जाती है।

उनवना

क्रि. अ.

[सं. उन्नमन]

झुकना, लटकना।

उनवना

क्रि. अ.

[सं. उन्नमन]

छा जाना, घिर आना।

उनवना

क्रि. अ.

[सं. उन्नमन]

ऊपर गिरना, टूट पड़ना।

उनवर

वि.

[सं. ऊन = कम]

कम, तुच्छ।

उनवा

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

टूट पड़ा, ऊपर आ पड़ा।

उनवान

संज्ञा

[सं. अनुमान]

सोच, ध्यान, समझ।

उनसठ

वि.

[सं. एकोनषष्ठि, प्रा. एकुन्नसटि, उनसट्टि]

पचास और नौ।

उनहार

वि.

[सं. अनुसार, प्रा. अनुहार]

समान, तुल्य, सदृश।

नैननि निपट कठिन ब्रत ठानी।….। समुझि समुझि उनहार स्याम को अति सुन्दर बर सारँगपानी। सूरदास ए मोहि रहे अति हरि मूरति मन माँझ समानो--३०३७।

उनहारि

संज्ञा

[हिं. उनहार]

समानता, एक रूपता।

उनहारि

वि.

समान, सदृश।

तामै एक छबीलो सारग अध सारंग उनहारि-सा० उ० २।

ऊनहीं

सर्व.

['उस' का बहु.]

उन्हीं।

उनाना

क्रि. स.

[सं. उन्नमन]

झुकाना।

उनाना

क्रि. स.

[सं. उन्नमन]

प्रेरित या प्रवृत्त करना।

उनाना

क्रि. स.

[सं. उन्नमन]

सुनना, ध्यान देना आज्ञा मानकर काम करना।

उनि  

सर्व.

[हिं. उन]

उन्होंने।

कह्यौ, सरमिष्ठा सुत कहँ पाए ? उनि कह्यौ, रिषि किरपा तैं जाए-९-१७४।

उनिहारि

संज्ञा

[सं. अनुसार, प्रा. अनुहारि]

समानता, एकरूपता।

उनिहारी

वि.

[सं. अनुसार, प्रा. अनुहार, हिं. उनहार]

सदृश, समान।

तब चिंतामनि चितै चित्त इक बुधि बिचारी। बालक बच्छ बनाइ रचे वेही उनहारी-४९२।

उनिहारे

संज्ञा

[सं. अनुसार, प्रा. अनुहारि, हिं. उनहार]

समानता, एकरूपता।

उनींदा

वि.

[सं. उन्निद्र]

नींद से भरा हुआ, ऊँघता हुआ।

उनींदे

वि. बहु.

[हिं. उनींदा]

नींद से भरे हुए, ऊँघते हुए।

(क) बछरा-वृंद घेरि आगैं करि जन-जन सृंग बजाए। जनु बन कमल सरोवर तजिकै, मधुप उनींदे आए--४३२। (ख) स्याम उनींदे जानि मातु रचि सेज बिछाई। तापर पौढ़ ताल अतिहिं मन हरष बढ़ाई-४३७।

उनै

सर्व. सवि.

[हिं. उन]

उनसे, उनको।

उन्नायक

वि.

[सं.]

बढ़ाने वाला।

उन्निद

वि. [संज्ञा]

निद्रा रहित

उन्निद

वि. [संज्ञा]

जिसे निद्रा न आयी हो।

उन्निद

वि. [संज्ञा]

खिला हुआ, फूला हुआ।

उन्नैना

क्रि. अ.

[सं. उन्नयन]

झुकना।

उन्मत्त  

वि.

[सं.]

मतवाला, मदांध।

ते दिन बिसरि गये इहाँ आए। अति उन्मत्त मोह-मद छाक्यौ, फिरत केस बगराए--१-३२०।

उन्मत्त  

वि.

[सं.]

जो अपे में न हो, बेसुध।

उन्मत्त  

वि.

[सं.]

पागल, बावला, मत वाला।

उन्मत्तता

संज्ञा

[सं.]

मतवालापन।

उनमनी

संज्ञा

[सं.]

हटयोग की एक मुद्रा जिसमें दृष्टि को नाक की नोक पर गाड़ते और भौंह, को ऊपर चढ़ाते हैं।

उनै

क्रि. अ.

[सं. उन्नमन, हिं. उनवना]

उमड़ उमड़ कर, घिरकर, छाकर।

उनै घन बरषत चख उर सरित सलिल भरी-२८१४।

उन्नत

वि.

[सं.]

ऊँचा, ऊपर उठा हुआ।

(क) गोबिंद कोपि चक्र करु लीन्हो।.....। कछक अंग तैं उड़त पीतपट, उन्नत बहु बिसाल-१-२७३। (ख) आवहु बेगि सकल दुहुँ दिसि तैं कत डोलत अकुलाने। सुनि मृदु बचन देखि उन्नत कर, हरषि सबै समुहाने-५०३।

उन्नत

वि.

[सं.]

बढ़ा हुआ।

उन्नत

वि.

[सं.]

श्रेष्ठ, बड़ा।

उन्नत

क्रि. वि.

ऊपर की  ओर।

हतासन' ध्वज उमँगि उन्नत चलेउ हरि दिसि वाउ--२७१५।

उन्नति

संज्ञा

[सं.]

ऊँचाई, चढ़ाव।

उन्नति

संज्ञा

[सं.]

वृद्धि, बढ़ती।

उन्नाय  

संज्ञा

[सं.]

ऊपर ले जाना, उठाना

उन्नाय  

संज्ञा

[सं.]

सोच-विचार।

उन्नायक

वि.

[सं.]

ऊपर उठानेवाला।

उन्माद

संज्ञा

[सं.]

पागलपन।

उन्माद

संज्ञा

[सं.]

एक संचारी भाव जिसमें वियोग दुख आदि के कारण चित्त ठिकाने नहीं रहता।

उन्मादक

वि.

[सं.]

पागल बनाने वाला।

उन्मादक

वि.

[सं.]

नशा करने वाला।

उन्मादल

संज्ञा

[सं.]

मतवाला करने की क्रिया।

उन्मादल

संज्ञा

[सं.]

कामदेव का एक वाण।

उन्मादी

वि.

[सं. उन्मादिन्]

उन्मत्त, पागल।

उन्मार्ग

संज्ञा

[सं.]

कुमार्ग।

उन्मार्ग

संज्ञा

[सं.]

बुरा आचरण।

उन्मार्गी

वि.

[सं. उनमागिन्]

बुरे आचरण वाला, कुमार्गा।

उन्मीलन  

संज्ञा

[सं.]

नेत्र का खुलना।

उन्मीलन  

संज्ञा

[सं.]

खिलना, विकणित होना।

उन्मीलना

क्रि. स.

[सं. उन्मीलन]

खोलना।

उन्मीलित

वि.

[सं.]

खुला हुआ।

उन्मीलित

संज्ञा

एक काब्य लंकार जिसमें दो वस्तुओं की बहुतँ अधिक समानता वर्णित हो और अंतर केवल एक छोटी बात का रह जाय।

उमुख

वि.

[सं.]

ऊपर मुँह करके ताकता हुआ।

उमुख

वि.

[सं.]

उत्सुक।

उमुख

वि.

[सं.]

तैयार, प्रस्तुत।

उन्मूलक

वि.

[सं.]

जड़ से नाश करने वाला।

उन्मूलन

संज्ञा

[सं.]

जड़ से नाश करना।

उन्मेख

संज्ञा

[उन्मेष]

आँख का खुलना,

उन्मेख

संज्ञा

[उन्मेष]

फूल खिलना।

उन्मेख

संज्ञा

[उन्मेष]

प्रकाश।

उन्मेष

संज्ञा

[सं.]

आँख का खुलना।

उन्मेष

संज्ञा

[सं.]

खिलना। थोड़ा प्रकाश।

उन्हानि

संज्ञा

[हिं. उन्हारि]

समता, बराबरी।

उपंग

संज्ञा

[सं. उरांग]

एक बाजाँ, नस तरंग।

(क) उघटत स्याम नृत्यत नारि। धरे अधर उपंग उपजै लेत हैं गिरिधारि-पृ० ३४६ (४५)। (ख) बीज मुरज उपग मुरली झाँझ झालरि ताल। पढ़त होरी बोलि गारी निरखि कै ब्रजलात २४ १५। (ग) डिमडिमी पतह ढोल डक बीणा मृदग उपंग चंग तार। गावत है प्रीति सहित श्री दामा बढ्यौ है रंग अपार--२४४६।

उपंग

संज्ञा

[सं. उरांग]

ऊधव के पिता एक यादव।

उपाँसुत

संज्ञा

[सं.]

उपंग का पुत्र, ऊधव जो उपंगसुत श्री कृष्ण का सखा था।

(क) हरि गोकुल की प्रीति चलाई। सुनहुँ उपँगसुत मोहि न बिसरत ब्रज निवास सुखदाई (ख) कहत हरि सुन उपँगसुत यह कहत हौं रसरीति-१९१६।

उपंत

वि.

[सं. उत्पन्न, प्रा. उप्पन्न]

उत्पन्न, पैदा, जन्मा।

अगरे

क्रि. वि.

[सं. अग्र]

सामने, आगे।

अगरौ

वि.

[सं. अग्र, हिं. अगरो]

बढ़कर, श्रेष्ठ, उत्तम।

( क) हम तुम सब बैस एक, काते को अगरौ। लियो दियौ सोई कछु, डारि देहु झगरौ -- १०.३३६। (ख) सूर सनेह ग्वारि मन अटक्यो छाँडहु दिए परत नहि पगरौ। परम मगन ह्वै रहो चितै मुख सबते भाग यही कौं अगरौ-पृ. २३५। (ग) हम तुम एक सम कोन कातैं अगरौ -- -१०५६।

अगरौ

वि.

[सं. अग्र, हिं. अगरो]

अधिक ज्यादा।

योजन बीस एक अरु अगरो डेरा इहि अनुमान। ब्रजबासी नर नारि पति नहिं मानो सिंधु समान -- -९२२।

अगरौ

सं.

[सं. आकर = वान, हिं. अगर]

खान, आकर

अगरौ

सं.

[सं. आकर = वान, हिं. अगर]

समूह, ढेर।

सूरदास प्रभु सब गुननि अगरौ। और कहूँ जाइ रहे छाँड़ि ब्रज बगरौ--१० ५६।

अगरौ

वि.

[सं. आकर = श्रेष्ठ]

चतुर, दक्ष, कुशल्द।

सूर स्याम तेरी अति गुननि माहि अगरौ। चोली अरु हार तोरि छोरि लियौ सगरौ -- -१०-३३६।

अगवना

क्रि. अ.

[हिं. आगे + ना (प्रत्य.)]

किसी कार्य के लिए प्रस्तुत होना, आगे बढ़ना।

अगवाई

संज्ञा

[सं. अग्र = आगे + आयाम = आना]

आगे से जाकर लेना, अभ्यर्थना।

अगवाई

संज्ञा

[सं. अग्रगामी]

आगे चलनेवाला, अगुआ।

अगवान

संज्ञा

[सं. अग्र + वान]

विवाह में बारात का स्वागत करने वाले कन्या पक्ष के लोग।

उप

[सं.]

समीपता, सामथ्र्य, न्यूनता आदि अर्थों का द्योतक एक उपसर्ग।

उपकरण

संज्ञा

[सं.]

साधन, सामग्री।

उपकरण

संज्ञा

[सं.]

छत्र चँवर आदि राजचिह्न।

उपकरन

संज्ञा

[सं. उपकरण]

सामग्री, सामान।

उपकरना

क्रि. स.

[सं. उपकार]

भलाई करना।

उपकार

संज्ञा

[सं.]

भलाई।

उपकार

संज्ञा

[सं.]

लाभ।

उपकरिनि

संज्ञा

[सं. उपकारिणी]

उपकार करनेवाली।

तोसी नहीं और उपकारिनि यह बसुधा सब बुधि करि हेरी--२७५२।

उपकारी

वि.

[सं.ज्ञा उपकारिन्]

भलाई करने वाला।

उपकारी

वि.

[सं.ज्ञा उपकारिन्]

लाभ पहुँचाने वाला।

उपगति

संज्ञा

[सं.]

प्राप्ति।

उपगति

संज्ञा

[सं.]

ज्ञान।

उपचय

संज्ञा

[सं.]

वृद्धि, उन्नति।

उपचय

संज्ञा

[सं.]

संचय।

उपचर्या

संज्ञा

[सं.]

सेवा, पूजा।

उपचर्या

संज्ञा

[सं.]

चिकित्सा।

उपचरना  

संज्ञा

[सं. उपचरण]

पास जाना।

उपचरना  

संज्ञा

[सं. उपचरण]

सेवा या पूजा करना।

उपचार

संज्ञा

[सं.]

चिकित्सा, दवा, इलाज।

(क) जा कारन तुम यह बन सेयौ, सो तिय मदन-भुअंगम खाई।……..। ताहि कछू उपचार न लागत, कर मीड़ैं सहचरि पछिताई-७४८। (ख) दिसिअति कालिंदी अति कारी। अहो पथिक कहियो उन हरि सों भई बिरह ज्वर जरी।…..। तट बारू उपचार चूर जल परी प्रसेद पनारी -- २७२८। (ग) आपुन को उपचार करौ कछु तउ औरन सिख देहु। बड़ो रोग उपज्यौ है तुमको मौन सबारे लेहु३०१३। (घ) आगम सुख उपचार बिरह ज्वर बासर ताप नसावते–२७३५।

उपचार

संज्ञा

[सं.]

सेवा।

उपकूल  

संज्ञा

[सं.]

किनारा, तट।

उपकूल  

संज्ञा

[सं.]

किनारे या तट की भूमि।

उपक्रम

संज्ञा

[सं.]

कार्यारंभ।

उपक्रम

संज्ञा

[सं.]

भूमिका।

उपक्रम

संज्ञा

[सं.]

तैयारी।

उपक्रमण

संज्ञा

[सं.]

आरंभा, उठान।

उपक्रमण

संज्ञा

[सं.]

तैयारी।

उपक्रमण

संज्ञा

[सं.]

भूमिका।

उपक्रिया

संज्ञा

[सं.]

भलाई।

उपखान  

संज्ञा

[सं. उपाख्यान]

पुरानी कथा, पुराना वृत्तांत।

मोसों बात सुनहु ब्रजनारि। एक उपखान चलत त्रिभुवन में तुमसों आजु उघारि--१०९९

उपचार

संज्ञा

[सं.]

व्यवहार, प्रयोग।

उपचार

संज्ञा

[सं.]

पूजा के सोलह अंग--आव हन, आसन, अर्धंपाद्य, आचमन, मधुपर्क, स्नान वात्राभरण, यज्ञोपवीत, गंध, (चंदन) , पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, तांबूल, परिक्रमा, वंदना।

उपचार

संज्ञा

[सं.]

खुशामद।

उपचार

संज्ञा

[सं.]

घूस।

उपचारना

क्रि. स.

[सं. उपचार]

काम में लाना।

उपचारना

क्रि. स.

[सं. उपचार]

विधान करना।

उपचारे

क्रि. स.

[हिं. उपचारना]

चिकित्सा करे, इलाज करे।

बिरही कहाँ लौ आपु सँभारे।.......। सूरदास जाके सब अंग बिछरे केहि विद्या उपचारे-३१८९।

उपचारे

क्रि. स.

[हिं. उपचारना]

विधान करे।

घर घर तें आई ब्रज सुन्दरि मंगल काज सँवारे। हेम कलस सिर पर धरि पूरन काम मंत्र उपचारे।

उपचारे

क्रि. स.

[हिं. उपचारना]

काम में लाये, व्यवहार करे।

उपचित

वि.

[सं.]

बढ़ा हुआ

उपजाई

क्रि. स.

[हिं. उपजना, का स. रूप, ‘उपजाना']

उत्पन्न की, पैदा की।

अजहुँ लौं मन मगन काम सौं, विरति नाहिं उपजाई-१-१८७।

उपजाऊँ

क्रि. स.

[हिं. उपजाना]

उत्पन्न या पैदा करूँ।

संकट परैं जो सरन पुकारौं, तो छत्री न कहाउँ। जन्महिं तैं तामस आराध्यौ, कैसें हित उपजाऊँ--९-१३२।

उपजाऊ

वि.

[हिं. उपज + आऊ ( प्रत्य.)]

जिसमें अच्छी उपज हो उर्वरा।

उपजाए

क्रि. स.

[हिं. उपजाना ( ‘उपजाना' का स. रूप)]

उत्पन्न किये, पैदा किये।

गो सुत अरु नर-नारि मिले अति हेत लाइ गई। प्रेम सहित वे मिलत है जे उपजाए आजु-४३७।

उपजाए

क्रि. स.

[हिं. उपजाना ( ‘उपजाना' का स. रूप)]

प्रदान किया, दिया।

गिरि कर धारि इंद्र-मद मद्यौं, दासनि सुख उपजाए-१-२७।

उपजाना

क्रि. स.

[हिं. ‘उपजना' का सक.]

उत्पन्न करना।

उपजाया

क्रि. स. भूत.

[हिं. उपजाना]

उत्पन्न किया, रचा।

पंचतत्व तैं जग उपजाया-१०.३

उपजायौ

क्रि. स. भूत.

[हिं. 'उपजना' का स. रूप ‘उपजाना]

उत्पन्न किया, पैदा किया।

नरतन, सिंह-बदन, बपु कीन्हौ, जन ल गि भेष बनायौ। निज जन दुखी जानि भय तैं अति, रिपु हति, सुख उपजायौ-१-१९०।

उपजावत

क्रि. स.

[हिं. उपजना का स, रूप ‘उपजाना']

उत्पन्न करता है, पैदा करता है, स्थितिविशेष उपस्थित करता है।

(क) मन्त्री कामक्रोध निज, दोऊ अपनी-अपनी रीति। दुविधा-दंद रहै निसि-बासर, उपजावत बिपरीत-१-१४१। (ख) नँदनँदन बिनु कपट कथा एकत कहि रुचि उपजावत-२९८९।

उपजावहु

क्रि. स.

[हिं. उपजना]

उत्पन्न करो, पैदाकरो।

तारी देहु आपने कर की परम प्रीति उपजावहु-१०.१७९।

उपचित

वि.

[सं.]

संचित।

उपज

संज्ञा

[सं.]

उत्पत्ति, पैदावार।

उपज

संज्ञा

[सं.]

नयी उक्ति। सूझ।

उपज

संज्ञा

[सं.]

मनगढ़ंत।

उपज

संज्ञा

[सं.]

गान में राग की निश्चित तानों के अतिरिक्त नयी तानें अपनी ओर से मिलाना।

उर बनमाला सोहै सुन्दर बर गोपिन के संग गावै। लेत उपज नागर-नागरि संग बिच बिच तान सुनावै -- पृं. ३५१-(७०)।

उपजत  

क्रि. अ.

[हिं. उपजना]

उत्पन्न होता है, पैदा होता है, मिलता है।

मोहन के मुख ऊपर वारी। देखत नैन सबै सुख उपजत, बार बार तातैं बलिहारी--१-३०

उपजति

क्रि. अ.

[हिं. उपजना]

पैदा होती है, उत्पन्न होती है।

चितवत चलत अधिक रुचि उपजति, भँवर परति सब अंग-६२८।

उपजना

क्रि. अ.

[सं. उपज]

उगना, पैदा होना।

उपजाइ

क्रि. अ.

[हिं. उपजाना]

उत्पन्न करता हैं, पैदा करके।

यह बर दै हरि कियौ उपाइ। नारद-मन संसय उपजाइ-१-२२६।

उपजाइ

क्रि. अ.

[हिं. उपजाना]

ध्यान में लगाकर  

करौं जतन, न भजौं तुम कौं, कछुक मन उपजाइ। सूर प्रभु की सबल माया, देति मोहि भुलाइ-१-४५।

उपजावै

क्रि. स.

[हिं. उपजना का स. रूप उपजाना]

उत्पन्न करता है।

(क) परम स्वाद सबही सु निरन्तर अमित तोष उपजावै -- १-२। (ख) पुरुष वीर्य सौं तिय उपजावै – ३-१३। (ग) मन में रुचि उपजावै, भावै, त्रिंभुवन के उजियारे-४१९।

उपजि

क्रि. अ.

[सं. उपज, हिं. उपजना]

उत्पन्न होकर, पैदा होकर।

उपजि परयौ, सिसु कर्म-पुन्य-फल समुद्र-सीप ज्यौं लाल-१०-१३८।

उपजि

मुहा.

उपजि परी :- सामने आयी, ज्ञात हुई, जान पड़ी। उ.- तनु आत्मा समर्पित तुम कहँ पाछे उपजि परी यह बात -- -१० उ.-११।

उपजीं  

क्रि. अ. बहु.

[हिं. उपजना]

जन्मीं पैदा हुई।

दच्छ के उपजी पुत्री सात-४-३।

उपजी

क्रि. अ.

[सिं. उपजना]

उत्पन्न हुई, पैदा हुई।

(क) भाव-भक्ति कछु हृदय न उपजी, मन विंषया मैं दीनौं--१-६५। (ख) काढ़ि काढ़ि थाक्यौ दुस्सासन, हाथनि उपजी खाज-१-२५५। (ग) विषय-विकार दवानल उपजी, मोह-ब्यारि लई--१-२९९। (घ) सूरदास मोहन मुख निरखत उपजी सकल तन काम गुँभी -- १४४६।

उपजी

क्रि. अ. बहु.

[हिं. उपजना]

उत्पन्न हुए,जन्मे, पैदा हुए।

दस सुत मनु के उपजे और। भयौ इच्छवाकु सब्रनि सिरमौर-९-२।

उपजी

क्रि. अ. बहु.

[हिं. उपजना]

उपजने पर, उत्पन्न होने पर।

समुझि न परत तुम्हारी ऊधो। ज्यौं त्रिदोष उपजे जक लागत पोलत वचन न सूधो-३०१३।

उपजैं  

संज्ञा

[सं. उपज]

गाने में राग की निश्चित तानों के अतिरिक्त नयी ताने मिलाना।

धरि अधार उमंग उपजैं लेत हैं गिरिधारि--पृं० ३ ४६ (४५)

उपजै  

क्रि. अ.

[हिं. उपजना]

उपजता है, उत्पन्न होता है।

(क) जाकौ नाम लेत अब उपजै, सोई करत अनीति-१-१२९। (ख) प्रेम-कथा अनुदिन सुनै (रे) तऊ न उपजै ज्ञान -- १-३२५। (ग)ज्ञानी संगति उपजै ज्ञान-३-१३।

उपजैहै

क्रि. स.

[हिं. उपजाना]

उत्पन्न करेगा।

बान सखी सुत है पुत्री के मदन बहुत उपजैहै सा० ८१।

उपजौ

क्रि. अ.

[हिं. उपजना]

उत्पन्न हुआ, पैदा हुआ।

अब मेरी राखौ लाज मुरारी। संकट मैं इक संकट उपजोै, कहै मिरग सौं नारी--१-२२१।

उपज्यौ

क्रि. अ.

[हिं. उजना]

उत्पन्न किया हुआ। जन्मा, पैदा हुआ।

(क) गनिका उपज्यौ पूत सो कौन कौ कहावै-२.९। (ख) बड़ो रोग उपज्यौ है तुमको मौन सवारे लेहु-३०१३।

उपटना

क्रि. अ.

[सं. उत्पट = पट के ऊपर अथवा उत्पतन + ऊपर उठना]

चिह्न बनना, निशान पड़ना।

उपटना

क्रि. अ.

[सं. उत्पट = पट के ऊपर अथवा उत्पतन + ऊपर उठना]

उखड़ना।

उपटाना

क्रि. अ.

[हिं. उपटना' का प्रे.]

उबटन लगवाना।

उपटाना

क्रि. स.

[सं. उत्पाटन]

उखाड़कर।

उपटाय

क्रि. स.

[हिं. उपटाना)

उखाड़कर, तोड़कर।

द्विरद को दंत उपटाय (उपठाय) तुम लेत हौ उहै बल आज काहे न सँभारचौ-२६०२।

उपटारना

क्रि. स.

[सं. उत्पटन]

उठाना, हटाना।

उपटारि

क्रि. स.

[हिं. उपटारना]

उठाकर, हटाकर।

कोकिल हरि को बोल सुनाव। मधुबन तैं उपटारि (उपठारि) स्याम को यहि ब्रज लै करि आव-२८५१।

उपठाय

क्रि. स.

[सं. उत्पाटन, हिं. उपटाना]

उखाड़कर।

द्विरद को दंत उपठाय (उपटाय) तुम लेत हो उहै बल आज काहे न सँभारयो-२६०२।

उपठारि

क्रि. स.

[सं. उत्पटन, हिं. उपटारना]

उठाकर, हटाकर।

कोकिल हरि को बोल सुनाव। मधुबन से उपठारि (उपटारि) स्याम को यहि ब्रज लै करि आव-२८५१।

उपदंस  

संज्ञा

[सं. उपदंस]

मद्य की ऊपरी वस्तु, चाट।

राधिका हरि अतिथि तुम्हारे। अधर सुधा उपदंस सीक सुचि बिधु पूरन मुख बास सँचारे।

उपदेश  

संज्ञा

[सं.]

हित की बात, शिक्षा।

उपदेश  

संज्ञा

[सं.]

दीक्षा, गुरुमंत्र।

उपदेशना  

क्रि. स.

[सं. उपदेश]

शिक्षा देना।

उपदेशना  

क्रि. स.

[सं. उपदेश]

दीक्षा देना।

उपदेस  

संज्ञा

[सं. उपदेश]

शिक्षा।

सतगुरु हृदय धरि, जिन भ्रम सकल निवारयौ--१-३३६।

उपदेसत

क्रि. स.

[सं. उपदेश, हिं. उपदेशना]

सिखाते हैं, शिक्षा देते हैं।

(क) गोविन्द-भजन करौ इहिं बार। संकर पारवती उपदेसत, तारक मंत्र लिख्यौ स्रुति-द्वार-२-३। (ख) जद्यपि अलि उपदेसत ऊधो पूरन ज्ञान बखानि। चित चुभि रही मदन मोहन की जीवन मृदु मुसुकानि-३२१४।

उपदेसना

क्रि. स.

[सं. उपदेश +ना (प्रत्य.)]

शिक्षा देना।

उपदेसैं

संज्ञा

[हिं. उपदेशना]

उपदेश देने पर, उपदेशों से।

जैसे अंधौ अंध कूप मैं गनत न खाल-पनार। तैसेहिं सूर बहुत उपदेसैं सुनि सुनि गे कै बार-१-८४।

उपदेसौं

क्रि. अ.

[सं. उपदेश, हिं. उपदेशना]

उपदेश या शिक्षा दूँ, समझाऊँ।

अब मैं याकौ दृढ़ देखौं। लखि बिस्वास, बहुरि उपदेसौं-४९।

उपदेस्यौ

क्रि. स.

[हिं. उपदेशना)

शिक्षा दी, सिखलापा।

तुम हमको उपवेस्यौ धर्म। ताको कछु न पायो मर्म-१८१२।

उपद्रव

संज्ञा

[सं.]

उद्यम, गड़बड़।

इहाँ सिव-गननि उपद्रव कियौ-४•५।

उपद्रव

संज्ञा

[सं.]

उत्पात, हलचल, विप्लव।

उपधरना

क्रि. अ.

[सं. उपधरण = अपनी ओर आकर्षित करना]

अपनाना, शरण में लेना।

उपधान

संज्ञा

[सं.]

सहारे की चीज।

उपधान

संज्ञा

[सं.]

तकिया गेड़ुआ।

उपधान

संज्ञा

[सं.]

प्रेम।

उपनंद  

संज्ञा

[सं.]

द्रजाधिप नंद के छोटे भाई।

उपनना

क्रि. अ.

[हिं. उपजना]

पैदा होना।

अगवान

संज्ञा

[सं. अग्र + यान]

आगे से जाकर लेना।

अगवान

संज्ञा

[सं. अग्र + यान]

विवाह में बात का स्वागत करने कन्या पक्षवालों के जाना।

अगवानी

संज्ञा

[सं. अग्र + दान]

आने वाल का आगे पहुँचकर स्वागत करना, पेशवाई।

अगवानी

संज्ञा

[सं. अग्र + दान]

आगे चलने की क्रिया।

पाँच-पचीस साथ अगवानी, सब मिलि काज बिगारे। सुनीं तगीरी, बिसरि गई सुधि मो तजि भए नियारे -- १-१४३।

अगवानी

संज्ञा

[सं. अग्रगामी]

अगुआ, अग्रसर, पेशवा।

सखी री पुर बनिता हम जानी। याही तैं अनुमान होता है षटपद-से अगवानो-३४०२।

अगवानी

क्रि. अ.

आगे चली, अग्रगामिनी हुई :

क्यों करि पावै विरहिन पारहिं बिन केवट अगवानौ -- २७९६।

अगसार, अगसारी

क्रि. वि.

[सं. अग्रसर]

आगे।

अगस्त्य

संज्ञा

[सं.]

एक ऋषि जो मित्रा वरुन के पुत्र थे। ऋग्वेद में इनकी ऋचाएँ हैं

अगस्त्य

संज्ञा

[सं.]

एक ऊँचे पेड़ की फली जिसको तरकारी बनती है।

फूल करील करी पाकर नम। फली अगस्त्य करी अमृत सम-२३२१।

अगह

वि.

[सं. अग्राह्य]

जो पकड़ी न जा सके, अति चंचल।

माधौ नैकुँ हटकौ गाय। भ्रमत निसि-बासर अपय पथ, अगह गहि नहिं जाइ -- १-५६।

उपनय

संज्ञा

[सं.]

पास ले जाना।

उपनयन  

संज्ञा

[सं.]

पास ले जाना।

उपनयन  

संज्ञा

[सं.]

यज्ञोपवीत, संस्कार।

उपना  

क्रि. अ.

[सं. उत्पन्न]

पैदा होना।

उपनियाँ

क्रि. अ.

[हिं. उपनना]

पैदा हुई, उपजी,उत्पन्न हुई, जन्मी।

कुटिल भृकुटि, सुख की निधि आनन, कल कपोल की छबि न उपनियाँ १०. १०६।

उपनिषद

संज्ञा

[सं.]

ब्राह्मण ग्रंथों के वे अंतिम भाग जिन में आत्म-परमात्मा का सम्बन्ध निरूपण मिलता है। इनकी संख्या के सम्बन्ध में मतभेद है। कोई इन्हें १८ मानता है तो कोई १०६।

उपपत्ति

संज्ञा

[सं.]

मेल मिलाना, चरितार्थ होना।

उपपत्ति

संज्ञा

[सं.]

युक्ति।

उपप्‍लव

संज्ञा

[सं.]

उत्पात, हलचल।

उपप्‍लव

संज्ञा

[सं.]

विघ्न, बाधा।

उपबन  

संज्ञा

[सं. उपवन]

बाग, बगीचा।

उपबन  

संज्ञा

[सं. उपवन]

छोटे-मोटे जंगल।

उपभोग

संज्ञा

[सं.]

बस्तु के व्यवहार का आनंन्द।

उपभोग

संज्ञा

[सं.]

सुख या विलास की बस्तु।

उपमा

संज्ञा

[सं.]

सादइय, समानता, तुलना, मिलान।

(क) सूरदास-प्रभु भक्त-बछल हैं, उपमा कौंन बियौ -- १-३८। (ख) परम सुसील सुलच्छन जोरी, बिधि की रची न होइ। काकी तिनकौं उपमा दीजै, देह धरैं धौं कोइ-९-४५। (ग) अजिर पद-प्रतिबिंब राजत चलत उपमा-पुंज। प्रति चरन मनु हेम बसुधा, देति आसन कज--१०-२१८।

उपमा

संज्ञा

[सं.]

एक अलंकार जिसमें दो भिन्न वस्तुओं में समान धर्म बताया जाय।

उपमाइ

संज्ञा

[सं.]

उपमा, सादृश्य तुलनाँ पटतर।

मुक्तमाल बिसाल उर पर, कछु कहौं उपमाइ। मनौ। तारा-गगनि वेष्ठत गगन निसि रह्यौ छाइ--१०-२३४।

उपमान  

संज्ञा

[सं.]

वह वस्तु जिससे उपमा दी जाय।

प्रथम डार उपमान कहा मुख बैठी मंत्र सु डारो -- सा ० २०।

उपमेय

संज्ञा

[सं.]

वह वस्तु जिसकी उपमा दी जाय।

(क) तीन दस कर एक दोऊ आप ही में दौर। पंच को उपमान लीनो दाव आपुन तौर--सा० १० १। (ख) भामिन आजु भवन में बैठी। मानिक निपुन बनाय नीकन में धनु उपमेय उमेठी-सा. ११२।

उपयुक्त

वि.

[सं.]

ठीक, उचित।

उपयोग

संज्ञा

[सं.]

प्रयोग, व्यवहार।

उपयोग

संज्ञा

[सं.]

योग्यता।

उपयोग

संज्ञा

[सं.]

आवश्यकता।

उपर

क्रि. वि.

[सं. उपरि, हिं. ऊपर]

पर, ऊपर

(क) नैन कमल-दल बिसाल, प्रीति बापिका मराल, मदन ललित बदन उपर कोटि वारि डारे--१०-२०५। (ख) सूर प्रभु नाम सुनि मदन तन बल भयो अंग प्रति छबि उपर रमा दासी--१=९४।

उपरना

संज्ञा

[हिं. ऊपर + ना (प्रत्य.)]

ओढ़ना, दुपट्टा, चद्दर।

(क) पहिरे राती चूनरी, सेत उपरना सोहे (हो) -- १-४४। (ख) लियो उपरना छीनि दूरि डारनि अटकायो -- -११२४।

उपरना

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न]

उखड़ना।

उपरफट

वि.

[सं. उपरि + स्फुट]

ऊपरी, इधर-उधर का, व्यर्थ का, निष्प्रयोजन।

बाहँ तुम्हारी नैंकु न छाँड़ौं, महर खीझिहैं हमकौं। मेरी बाहँ छाड़ि दै राधा, करत उपरफट बातैं। सूर स्याम नागर नागरि सौं करत प्रेम की घातैं ६८१।

उपरफट्ट

वि.

[सं. उपरि + स्फुट]

ऊपर का, अलग का।

उपरफट्ट

वि.

[सं. उपरि + स्फुट]

व्यर्थ का, निष्प्रयोजन।

उपरांत

क्रि. वि.

[सं.]

अनंतर, बाद।

उपराग

संज्ञा

[सं.]

रंग।

उपराग

संज्ञा

[सं.]

वासना, विलास की इच्छा।

उपराग

संज्ञा

[सं.]

चन्द्र या सूर्य-ग्रहण।

बिनु परवहि उपराग आजु हरि तुम है चलन कह्यौ। को जानै उहि राहु रमापति कत ह्वै सोध लह्यौ -- २५२७।

उपरागा

संज्ञा

[सं. उपराग]

चन्द्र या सूर्य-ग्रहण।

उपराज

संज्ञा

[हिं. उपज]

पैदावार।

उपराजना

क्रि. स.

[सं. उपार्जन]

पैदा करना, उपजाना।

उपराजना

क्रि. स.

[सं. उपार्जन]

बनाना, रचना

उपराजना

क्रि. स.

[सं. उपार्जन]

उपार्जन करना।

उपराजा

क्रि. स.

[हिं. उपराजना]

रचा, बनाया।

उपराजी

क्रि. स.

[हिं. उपराजना]

पैदा की, उत्पन्न की।

बाँधो सुरति सुहाग सबन को हरि मिलि प्रीति उपराजी-३०९४।

उपराजै

क्रि. स.

[हिं. उपराजना]

उत्पन्न करे।

उपराजै

क्रि. स.

[हिं. उपराजना]

उपार्जन करे।

उपराना

क्रि. अ.

[सं. उपरि]

प्रकट होना।

उपराना

क्रि. अ.

[सं. उपरि]

उतराना।

उपराना

क्रि. स.

उठाना, ऊपर करना।

उपराम

संज्ञा

[सं.]

त्याग, विरक्ति।

उपराम

संज्ञा

[सं.]

आराम, विश्राम।

उपराम

संज्ञा

[सं.]

छुटकारा।

उपराला  

संज्ञा

[हिं. ऊपर + ला (प्रत्य.)]

सहायता, रक्षा।

उपरावटा  

वि.

[सं. उपरि +आक्त]

गर्व से सिर ऊँचा किये हुआ,अकड़ता हुआ।

उपराहना

क्रि. स.

[देश.]

बड़ाई करना।

उपराही  

क्रि. वि.

[हिं. ऊपर]

ऊपर।

उपराही  

वि.

श्रेष्ठ, बढ़कर।

उपरि

क्रि. वि.

[सं.]

ऊपर।

उपरी-उपरा

संज्ञा

[हिं. ऊपर]

एक वस्तु के । लिए कई आदमियों का प्रयत्न।

उपरी-उपरा

संज्ञा

[हिं. ऊपर]

होड़, स्पर्द्धा, प्रतियोगिता।

उपरैना

संज्ञा

[हिं. ऊपर +ना (प्रत्य.)]

दुपट्टा, चद्दर।

(क) सिर पर मुकुट, पीत उपरैना, भृगु-पद उर, भुज चारि धरे-१०८। (ख) तब रिस धरि सोई उत मुख करि झुक झाँक्यो उपरैना माथ--२७३६।

उपरैनी

संज्ञा

[सं. उत् + परणी]

ओढ़नी।

ऊपरोध

संज्ञा

[सं.]

रुकावट, अटकाव।

ऊपरोध

संज्ञा

[सं.]

ढकना, आड़।

उपरौना

संज्ञा

[हिं. उपरना]

दुपट्टा, चादर।

उपल

संज्ञा

[सं.]

पत्थर।

हिम के उपल तलाई अंत ते याके जुगुत प्रकासो-सा० १०५।

उपल

संज्ञा

[सं.]

ओला।

उपल

संज्ञा

[सं.]

मेघ।

उपलक्ष्य

संज्ञा

[सं.]

संकेत।

उपलक्ष्य

संज्ञा

[सं.]

उद्देश्य।

उपलै

संज्ञा

[सं. उपल]

पत्थर, उपल।

इहिंबिधि उपलै तरत पान ज्यौं, जदपि सैल अति भारत। बुद्धि न सकति सेतु रचना रचि, राक-प्रताप बिचारत-९-१३।

उपवन

संज्ञा

[सं.]

बाग, फुलवारी।

उपवन बन्यो चहूँधा पुर के अति ही मोको भावत-२५५९।

उपवना  

क्रि. अ.

[सं. उप + यमन]

उड़ जाना, लोप, हो जाना।

उपवना  

क्रि. अ.

[सं. उदय]

उगना, उदय होना।

उपवास

संज्ञा

[सं.]

भोजन न करना।

उपवीत

संज्ञा

[सं.]

जनेऊ।

उपवीत

संज्ञा

[सं.]

यज्ञोपवीत संस्कार।

उपशम

संज्ञा

[सं.]

वासना को दबाना, इन्द्रियों को वश में करना।

उपशम

संज्ञा

[सं.]

निबारण करना, दूर करता है।

उपसंहार

संज्ञा

[सं.]

समाप्ति।

उपसंहार

संज्ञा

[सं.]

पुस्तक का अतिंम अध्याय।

उपसंहार

संज्ञा

[सं.]

सार, सारांश।

उपसुंद

संज्ञा

[सं.]

एक दैत्य जो सुंव का छोटा भाई था। ये दोनों परस्पर युद्ध करके एक दूसरे के हाथ से मारे गये थे।

उपस्थान

संज्ञा

[सं.]

सामने आना।

उपस्थान

संज्ञा

[सं.]

खड़े होकर स्तुति या पूजा करना।

उपस्थान

संज्ञा

[सं.]

पूजा का स्थान।

उपस्थान

संज्ञा

[सं.]

सभा।

उपस्थित

वि.

[सं.]

सामने या पास आया हुआ।

उपस्थित

वि.

[सं.]

विद्यमान, मौजूद।

उपहार

संज्ञा

[सं.]

भेंट, नजराना।

(क) सुन्दर कर आनन समीप, अति राजत रहिं आकार। जलरुह मनौ बैर बिधु सौं तजि मिलत लए उपहार ३८३।, (ख) आये गोप भेंट लै लै के भूषन-बरान सोहाए। नाना बिधि उपहार दूध दधि आगे धरि सिर नाए।

उपहास

संज्ञा

[सं.]

हँसी, ठट्ठा।

उपहास

संज्ञा

[सं.]

निंदा; बुराई।

(क) निंदा जग उपहास करत, मग बंदीजन जस गावत। हठ, अन्याय, अधर्म सूर नित नौबत द्वार बजावत -- -१-१४१। (ख) सूरदास स्वामी तिहुँ पुर के, जग-उपहास डराइ-९-१६१। (ग) घेरि राखे हमहिं नहिं बूझे तुमहिं जगत में कहा उपहास तैहो-२६०५। ( घ) हम अलि गोकुलनाथ अराध्यौ।…..। गुरुजन कानि अग्नि चहुँ दिसि नभ तरनि ताप बिनु देखे। पिवत धूम उपहास जहाँ तहँ अपयस स्रवन अलेखे -- ३०१४।

उपहासी

संज्ञा

[सं. उपहास]

हँसी। निंदा।

उपही

संज्ञा

[हिं. ऊपरी]

अपरिचित या अजनवी व्यक्ति।

उपांग

संज्ञा

[सं.]

अंग का भाग।

उपांग

संज्ञा

[सं.]

तिलक, टीका।

उपांग

संज्ञा

[सं.]

एक प्राचीन बाजा।

उपाइ

संज्ञा

[सं. उपाय]

युक्ति, साधन उपाय।

(क) अबकी बार मनुष्य-देह धरि, कियौ न कछू उपाय-१-१०५। (ख) यह बर दै हरि कियौ उपाइ। नारद मन-संसय उपजाइ-१-२२६।

उपाइ

संज्ञा

[सं. उपाय]

शत्रु पर विजय पाने का साधन या युक्ति।

जब तैं जन्म लियौ ब्रज-भीतर तब तैं यहै। उपाइ। सूर स्याम के बल-प्रताप तैं, बन बन चारत गाइ -- ५०८।

उपाइ

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, पा. उत्पन्न, हिं. उपाना]

उत्पन्न की, उपजायी।

सकल जीव जल-थल के स्वामी चींटी दई उपाय। सूरदास प्रभु देखि ग्वालिनी, भुज पकरे दोउ आइ-१०-२७८।

उपाई  

संज्ञा

[सं. उपाय]

उपाय, युक्ति, साधन।  

(क) गुरु-हत्या मौतैं ह्वै आई। कह्यौ सो छूटै कौन उपाई-१-२६१। (ख) पृथ्वी हित नित करै उपाई-१२-३।

उपाई  

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, प्रा. उप्पन्न, हिं. उपाना]

उत्पन्न की।

(क) सूरदास सुरपति रिस पाई। कीड़ी तनु ज्यों पाँख उपाई-१०४१। (ख) ब्रह्मा मन सो भली न भाई। सूर सृष्टि तब और उपाई -- ३-७।

उपाई  

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, प्रा. उप्पन्न, हिं. उपाना]

संपादन की, की।

(क) तबहिं स्याम इक युक्ति उपाई-३८३। (ख) सुने जदुनाथ इह बात तब पथिक सौं धर्म सुत के हृदय यह उपाई-१० उ०-५०। (ग) प्रीति तिनकी सुमुरि भय अनुकूल हरि सत्यभामा, हृदय यह उपाई-१० उ०-३१।

उपाउ

संज्ञा

[सं. उपाय]

युक्ति, तदबीर।

सखी मिल करहु कछू उपाउ--सा० उ०-४०।

अगह

वि.

[सं. अग्राह्य]

जो वर्णन और चिंतन से बाहर हो।

अगमते अगह अपार आदि अबिगत है सोऊ। आदि निरंजन नाम ताहि रंजै सब कोऊ -- ३४३।

अगह

वि.

[सं. अग्राह्य]

न धारण करने योग्य।

ऊधौ जो तुम हमहिँ बतायौ।…..। जोग जाचना जबहिँ अगह गहि तबही” सौ है ल्यायौ।

अगहर

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग + हिं. हर ( प्रत्य.)]

आगे।

अगहर

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग + हिं. हर (प्रत्य.)]

पहले, प्रथम।

अगहुँड़

वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग + हिं. हुँड (प्रत्य.)]

अगुआ, आगे चलनेवाला।

अगहुँ ड़

क्रि. वि.

आगे, आगे की ओर।

अगा

क्रि. वि.

[सं. अग्र]

आगे ही, पहले ही, अभी से।

सोवत कहा चेत रे रावन, अब क्यों खात दगा ? कहति मँदोदरि, सुनु पिय रावन, मेरी बात अगा-९-११४।

अगाउनी

क्रि. वि.

[सं. अग्र]

आगे।

अगाऊ

वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग + हिं. आऊ (प्रत्य.)]

अगला, आगे का।

जब हिरनाच्छ जुद्ध अभिलाष्यौ, मन मैँ अति गरबाऊ। धरि बाराह रूप सो मारयौ, लै छिति दंत-अगाऊ -- १०-२२१।

अगाऊ

क्रि. वि.

आगे, अगाड़ी, पहिले।

(क) हौं डरपौं, काँपौं अरु रोवौं, कोउ नहिं धीर धराऊ। थरसि गयौँ नहिँ भागि सकोँ, वै भागे जात अगाऊ-४८१। (ख) प्रीतम हरि हमकोँ सिधिं पठई आयौ जोग अगाऊ--३११०।

उपाऊँ  

क्रि. स.

[हिं. उपाना]

उत्पन्न करूँ, पैदा करूँ।

(क) अब मैं उनकौं ज्ञान सुनाऊँ। जिहिं तिहिं बिधि बैराग्य उपाऊँ-१-२८४। (ख) जैसी तान तुम्हारे मुख को तैसिय मधुर उपाऊँ--पृ० ३११। (ग) सुनहु सूर प्यारी हृदय रस बिरह उपाऊ पृ० ३१२।

उपाए

क्रि. स.

[हिं. उपान]

उत्पन्न किये।

तीनि पुत्र तिन और उपाए। दच्छिन राज करन सो पठाए--९-२।

उपाख्यान

संज्ञा

[सं.]

प्राचीन कथा।

उपाख्यान

संज्ञा

[सं.]

वृत्तांत।

उपाख्यान

संज्ञा

[सं.]

कथा के अंतर्गत प्राँसंगिक कथा।

उपादत

क्रि. स.

[हिं. उपाटना]

उखाड़ता है, नष्ट करता है, नोचता है।

जन कै उपजत दुख किन काटत? जैसे प्रथम अषाढ़ आँजु तृन, खेतिहर निरखि उपाटत-१-१०७।

उपाटना

क्रि. स.

[सं. उत्पाटन]

उखाड़ना।

उपादि

क्रि. स.

[हिं. उपाटना]

उखाड़कर

तरुवर तब इक उपाटि हनुमत कर लीन्होै -९-९६।

उपाटी

क्रि. स.

[हिं. उपाटना]

उखाड़ या खोद ली।

जोजन बिस्तार सिला पवन-सुत उपाटी--९-९६

उपाती

संज्ञा

[सं. उत्पत्ति]

जन्म, उपज।

उपादान

संज्ञा

[सं.]

ग्रहण, स्वीकार।

उपादान

संज्ञा

[सं.]

झान, बोध।

उपादान

संज्ञा

[सं.]

इंद्रियनिग्रह।

उपादेय

वि.

[सं.]

स्वीकार करने योग्य।

उपादेय

वि.

[सं.]

उत्तम, श्रेष्ठ।

उपादेय

वि.

[सं.]

उपयोगी।

उपाध

संज्ञा

[सं. उपाधि]

उपद्रव, उत्पात।

संगति रहति सदा पिय प्यारी क्रीड़त करत उपाधा। कोक कला बितपन्न भई है कान्ह रूप तनु आधा--१४३७।

उपाधि

संज्ञा

[सं.]

छल, कपट।

उपाधि

संज्ञा

[सं.]

कर्तव्य का विचार धर्मचिंता।

उपाधि

संज्ञा

[सं.]

प्रपंच, माया। झंझट।

(क) मन-बच-कर्म और नहिं जानत, सुमिरत और सुमिरावत। मिथ्याबाद-उपाधि-रहित ह्वै, बिमल-बिमल जस गावत-२-१७। (ख) क्रम-कम क़म सों पुनि करै समाधि। सूर स्याम भजि मिटै उपाधि-२-२१।

उपाधि

संज्ञा

[सं.]

प्रतिष्ठासूचक पद।

उपाधि

संज्ञा

[सं.]

उपद्रव, उत्पात।

उपाधी

वि.

[सं. उपाधिन्]

उत्पात करने वाला, उपद्रवी।

उपानत्

संज्ञा

[सं.]

जूता, पनही।

उपानत्

संज्ञा

[सं.]

लड़ाऊँ।

उपानह

संज्ञा

[सं.]

जूता।

उपाना

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, पा. उप्पन्न]

पैदा  करना, उपजाना।

उपाना

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, पा. उप्पन्न]

विचार सूझना, सोचना।

उपाना

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, पा. उप्पन्न]

करना।

उपाय

संज्ञा

[सं.]

साधन, युक्ति।

उपाय

संज्ञा

[सं.]

पास पहुँचना निकट आना।

उपायन

संज्ञा

[सं.]

भेंट, उपहार।

उपाया

क्रि. स.

[हिं. उपाना]

उत्पन्न किया, रचा, बनाया।

तुम्हारी माया जगत उपाया--१०उ.-१२९।

उपायौ

क्रि. स.

[हिं. उपाना]

किया, संपादन किया।

(क) ता रानी सौं नृप-हित भयौ। और तियनि कौ मन अति तयौ। तिन सबहिनि मिलि मंत्र उपायौ। नृपति-कुँवरि कौं जहर पियायौ-६-५। (ख) धर्मपुत्र जब जज्ञ उपायौ द्विज मुख ह्वै पन लीन्हौ-१-२९।

उपायौ

क्रि. स.

[हिं. उपाना]

उत्पन्न किया।

(क) तिन प्रथमहि महतत्व उपायौ। तातैं अहंकार प्रगटायौ -- ३-१३। (ख) तातैं कीने और ब्रह्म-नाल उपायौ-४३७।

उपारत

क्रि. स.

[हिं. उपारना, उपाटना]

उखाड़ते समय, उखाड़ने में।

मंदराचल उपारत भयौ स्रम बहुत, बहुरि लै चलन कौं जब उठायौ-८-८।

उपारना

क्रि. स.

[सं. उत्पाटन, हिं. उपाटना]

उखाड़ना।

उपारि

क्रि. स.

[हिं. उपाटना, उपारना]

उखाड़ कर, अलग करके।

(क) स्वर्ग-पाताल माहिं गम ताकौ, वहिये कहा बनाई। केतिक लंक उपारि बाम कर, लै आवै उचकाइ-९-७४। (ख) कहौ तौ सैल उपारि पेड़ि तैं, दै सुमेरु सौं मारौं-९-१०७। (ग) कंध उपारि डारिहौं भूतल सूर सकल सुख पावत-९-१३३।

उपारी

क्रि. स.

[हिं. उपाटना, उपारना]

उखाड़ ली।

(क) सिब ह्वै क्रोध इक जटा उपारी। बीरभद्र उपज्यौ बलभारी-४-५। (ख) क्रुद्ध होइ इक जटा उपारी-६-५। (ग) पटक्यौ भूमि फेरि नहिं मटक्यो लीन्हे दंत उपारी-२५९४।

उपारे

क्रि. स.

[हिं. उगरना, उपाटना]

उखाड़ लिये।

रजक धनुष जोधा हति दंतगज उपारे--१६०१।

उपारौं

क्रि. स.

[हिं. उपारना, उपाटना]

उखाड़ूँ, नोचूँ, तोड़ूँ।

(क) जारौं लंक छेदि दस मस्तक, सुर संकोच निवारौं। श्रीरघुनाथ-प्रताप-चरन करि, डर तैं भुजा उपारौं-९-१३२। (ख) प्रबल कुवलिया वंत' उपारौं-११६१

उपारौ

क्रि. स.

[हिं. उपाटना]

उखाड़ लो, (किसी वस्तु से) अलग कर लो।

गउ चटाइ, ममत्वचा उपारौ। हाड़नि कौ तुम बज्र सँवारौ-६-५।

उपार्जन

संज्ञा

[सं.]

पैदा करना, प्राप्त करना।

ऊपारथौ

क्रि. स.

[सं. उत्पाटन, हिं. उपाटना, उपारना]

उखाड़ लिया, नोच-खसोट लिया।

बीरभद्र तब दच्छईि मारयौ। अरु भृग रिषि कौ केस उपारयोै –४.५।

उपलंभ

संज्ञा

[सं.]

उलाहना।

उपाव

संज्ञा

[सं. उपाय]

उपाय, साधन, युक्ति।

(क) अति उनमत्त मोह-माया-बस, नहिं कछु बात बिचारौ। करत उपाव न पूछत काहू. गनत न खाटौ-खारी--९-१५२। (ख) कहौ पितु, मोसौं सोइ सति भाव। जातैं दुरजोधन-दल जीतौं, किहिं बिधि करौं उपाव-१-२७५।

उपावैं

क्रि. स.

[हिं. उपाना]

उत्पन्न करें, रचें, बनावे।

बहुरो ब्रह्मा सृष्टि उपावैं-१२-४।

उपास

संज्ञा

[सं. उपवास]

भोजन न करना, लधन।

उपासक

वि.

[सं.]

भक्त, सेवक।

उपासल

संज्ञा

[सं.]

सेवा, पूजा, आराधना।

जौ मन कबहुँक हरि कौ जाँचै। आन प्रसंग उपासन छाँडै, मन-बच-क्रम अपनै उर साँचै-२-११

उपासना

संज्ञा

[सं. उपासन]

आराधना, पूजा।

उपासना

क्रि. स.

पूजा-सेवा करना, भजना।

उपासना

क्रि. अ.

[सं. उपवास]

निराहार रहना।

उपासी

वि.

[सं. उपसिन्]

सेवक, भक्त।

(क) नाम गोपाल जाति कुल गोपक गोप गोपाल उपासी -- ३३१४। (ख) हम ब्रज बाल गोपाल उपासी-३४४२।

उपासे

क्रि. स.

[हिं. उपासना]

भजे, सेवा की।

उपास्य  

वि.

[सं.]

पूजा सेवा के योग्य, पूज्य, सेष्य,आराध्य।

उपेंद्र

संज्ञा

[सं. उप + इंद्र]

वामन, विष्णु, कृष्ण।

उपेक्षा

संज्ञा

[सं.]

चित्त का हटना, विरक्ति।

उपेक्षा

संज्ञा

[सं.]

घृणा, तिरस्कार।

उपे

क्रि. अ.

[सं. उप + यमन, हिं. उपदना]

लोप होना, उड़ जाता है, विलीन होता है।

उपैना

वि.

[सं. उ + पहव]

खुला हुआ, नग्न।

उपैना

क्रि. अ.

[देश.]

उड़ना, लोप हो जाना।

उपैनी

वि.

[हिं. उपैना]

खुली हुई, नंगी, आच्छादन रहित। जय जय जय माधव-बेनी। जगहित प्रगट करी करुनामय, अगतिनि कौं गति दैनी। जानि कठिन कलिकाल कुटिल नृप, संग सजी अघ--सैनी। जनु ता लगि तरवारि त्रिविक्रय, धरि धरि कोप उपैनी-९-११।

उपैहौं  

क्रि. स.

[सं. उत्पन्न, पा. उत्पन्न, हिं. उपाना]

करूँगा, संपादन करूँगा।

स्याम तुम्हारी कुसल जानि एक मंत्र उपेैहौं -- ९३३ (४)।

उफड़ना

क्रि. अ.

[हिं. उफनना]

उबलना', उफान खाना।

उफनत

क्रि. अ.

[सं. उप् + फेन, हिं. उफनना]

उबलता है, उफनता है।

(क) उफनत छीर जननि करि व्याकुल इहि बिधि भुजा छुड़ाई-१०३४२। (ख) एक दुहनी दूध जावत को सिरावत जाहिं। एक उफनत ही चलीं उठि धरयौ नही उतारि--पृ०३३९ (८४)। (ग) उतसहकंठा हरि सो बढ़ी। उफनत दूध न धरयौ उतारि। सीझो थूली चूल्हे दारि--१८०३।

उफनना  

क्रि. अ.

[सं. उत् + फेन]

उबलना, उफान आना

उफनना  

क्रि. अ.

[सं. उत् + फेन]

अंकित होना, चिह्न पड़ना।

उफनात

क्रि. अ.

[हिं. उफनाना]

उबलता है। फेन उठता है।

उफनात

क्रि. अ.

[हिं. उफनाना]

उमड़ता है हिलोरें मारताहै।

उफनाना

क्रि. अ.

[सं. उत् + फेन]

आँच या गरमी से फेना उठना।

उफनाना

क्रि. अ.

[सं. उत् + फेन]

हिलोरा मारना, उमड़ना।

उफनि

क्रि. अ.

[हिं. उफनना]

उबलकर, उफान आकर फेना उठकर, छिटक कर।

छलकति तक्र उफनि अँग आवत नहिं जान ति तेहि कालहि सो -- १ १८०।

उफन

संज्ञा

[हिं. उफनना]

उबाल, फेना उठना।

उबट

संज्ञा

[सं. उफनना]

ऊबड़खाबड़ मार्ग।

उबट

वि.

ऊँचा नीचा ऊबड़खा बड़।

उबटन

संज्ञा

[सं. उद्वतंन, पा. उबटन]

उबटन, अभ्यंग।

क्यौं हुँ जतन जतन करि पाए। तन उबटन तेल लगाए-१०-१८३।

उबटन

संज्ञा

[हिं. उबटन]

सुगन्धित लेप, बटना।

एक दुहावत ते उठि चली।….। लेत उबटना त्यागो दुरि। भागन पाई जीवन मूरि।

उबटन

क्रि. अ.

बटना मलना, उबटन लगना।

उबटनो

संज्ञा

[हिं. उबटन]

बटना, उबटना।

तेल उबटनो अरु तातो जल ताहिं देखि भजि जाते -- २७७७।

उबटनौ

संज्ञा

[हिं. उबटन]

उबटन, बटना, अभ्यंग।

(क) तब महरि बाँह गहि आनै। लै तेल उबटनो सानै--१०--१८३। (ख) केसरि कौ उबटनौं बनाऊँ रचि रचि मैल छुड़ाऊँ-१०-१८५।

उबटि

क्रि. अ.

[हिं. उबटना]

बटना सलकर, उबटन लगाकर।

(क) जननी उबटि न्हवाइ कै (सिसु क्रम सोैं लीन्‍हे गोद--१०-४२। (ख) जसुमति उबटि न्हवाइ कान्ह कौं पट-भूषन पहराइ-१०८९। (ग) इक उबटि खौरि सृंगारि सखिअनि कुँअरि चोरी आनियो—पृ० ३४८ (५८-१)

उबरते

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

मुक्त होते, बचते, छुटकारा पाते।

यह कुमाया जो तबहीं करते। तौ कत इन ये जियत आजु लौं या गोकुल के लोगअ उबरते-२७३८।

उबरन

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

उद्धार पाना, मुक्त होना, छुटकारा या निस्तार पाना।

सुनि याके उतपात कौं, सुक सनकादिक भागे (हो)। बहुत कहाँ लौं बरनिऐ, पुरुष न उबरन पावै (हो)-१-४४।

उबरन

संज्ञा

रक्षा, बचाव, मुक्ति  

बड़े भाग्य हैं महर महरिके। लै गयौ पीठि चढ़ाइ असुर इक कहा कहौं उबरन या हरि के--६०७।

उबरना

क्रि. स.

[सं. उद्वारण, पा. उब्बारन]

मुक्त होना, छूटना।

उबरना

क्रि. स.

[सं. उद्वारण, पा. उब्बारन]

बच रहना, बाकी बचना।

उबरा

वि.

[हिं. उबरना]

बचा हुआ।

उबरा

वि.

[हिं. उबरना]

जिसका उद्धार हुआ हो।

उबरिबो

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

छुटकारा पाना, बच सकना।

मिलहु लोकपति छाँडि कै हरि होरी। है नाहिं उवरिबो निदान अहो हरि होरी हैं।--२४१५।

उबरिहौ

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

उद्धार, मुक्ति या छुटकारा पाओगे।

उनकैं क्रोध भस्म हूँ जैहौ, करौ न सीता चाउ। तब तुम काको सरन उबरिहौ, सो बलि मोहिं बताउ -- -९-७८।

उबरी

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

मुक्त हुई, उद्धार हुआ, रक्षा हुई, बची।

(क) सभा मँझार दुष्ट दुस्सासन द्रौपदि आनि धरी। सुमिरत पट को कोट बढ्यौ तब, दुखसागर उबरी-१-१६। (ख) सूरदास प्रभु सों यों कहियो केला पोष सँग उबरी बेरि३२५८। (ग) जाति स्वभाव मिटै नहिं सजनी अंतत उबरी कुबरी -- ३१८८।

उबरी

वि.

मुक्त, जिसका उद्धार हुआ हो।

उबरी

वि.

बची हुई, शेष।

उबरी

संज्ञा

[सं. विवर, हिं. ओबी]

कोठरी, छोटा कमरा।

बिलग मति मानहु ऊधो प्यारे। वह मथुरा काजरि कौं उबरी जे आवै ते कारे--३१७५।

उबरे

क्रि. अ.

[सं. उद्बरण, पा. उब्बारण, हिं. उबरना]

बच गये, मुक्त हुए।

(क) बड़े भाग्य हैं नंद महर के, बड़ भागिनी नंदरानी। सूर स्याम उर ऊपर उबरे, यह सब घर-घर जानी--१० -- ५३। (ख) तात कहि तब स्याम दौरे, महर लियौ अँकवारि। कैसैाँ उबरे बृच्छतर तैं सूर है बलिहारी -- -३८७।

उबरैं

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

बच जायँ, मुक्त रहें, निस्तार पा जायँ।

कैसहुँ ये बालक दौउ उबरेँ, पुनि पुनि सोचति परी खभारे–५९५।

उबरैं

क्रि. अ.

[हिं उबरना] बच जायँ, मुक्त रहें, निस्तार पा जायँ।

कैसहुँ ये बालक दौउ उबरेँ, पुनि पुनि सोचति परी खभारे–५९५।

उबरै

क्रि. अ.

[हिं. उबरना)

उद्ध र पा सकता है, मुक्त हो सकता है, छूट सकता है निस्तार पा सकता है।

(क) सूरदास भगवंत. भजन करि, सरन गए उबरै-१०-३७। (ख) इहिं कालिकाल-ब्याल-मुखग्रसित सूर सरन उबरै-१-११७।

उबरै

क्रि. अ.

[हिं. उबरना)

रक्षित रहेगा, बच जायगा, छुटकारा पा जायगा।

(क) रे मन, राम सोैं करि हेत। हरि-भजन की बारि करि लै, उबरेै तेरौ खेत-१-३११। (ख) सुनत धुनि सब ग्वाल डरपे अब न उबरै स्याम। हमहिं बरजत गयौ, दे्खौ, किए कैसे काम -- ४२७।

अगाध

वि.

[सं.]

अथाह, बहुत गहरा।

अगाध

वि.

[सं.]

जिसका कोई पार न पा सके, जो समझ में न आए, दुर्बोध।

(क) मनसा और मानसी सेवा दोउ अगाध करि जानौं-१-२११। (ख) ऐसी कहि मोहिँ कहा सुनावत तुम को यही अगाध -- ११२७। (ग) सूरज प्रभु गुन अथाह धन्य धन्य श्री प्रिय नाह, निगमन कौ अगाध सहसामन नहिँ जानैं -- २५५७। (ध) के सी अव पूतना निपाती लीला गुननि अगाध--२५८०। (ङ) रसना रटत सुनते ज स स्रवनन इतनी अगम अगाध-२७७८।

अगाध

वि.

[सं.]

अपार, असीम, अत्यंत, बहुत।

पोड़स सहस नारि सँग मोहन कीन्हो सुख अगाध-१८३८।

अगाधा

वि.

[सं. अगाध]

अपार, असीम, अत्यंत।

(क) जननी निरखि चकित रही ठाढ़ी दंपति-रूप अगाधा-७०५। (ख) भृकुटी धनुष नैंन सर सीधे बदन बिकास अगाधा--१२३४।

अगाधा

वि.

[सं. अगाध]

जो समझ में न आवे, अदभुत, विचित्र। थाह या अनुमान से परे।

मोकौं संग बोलि तू लेती करनी करी अगाधा--१४७९।

अगाधो

वि.

[सं. अगध]

अपार, असीम, बहुत।

(क) करिहै कहा अक्रूर हमारौं दैहै प्रान अगाधो-२५०८। (ख) सूरदास राधा बिलपति है हरि कौ रूप अगाधौ--२७५८।

अगान

वि.

[सं. अज्ञान]

अनजान।

अगामै

क्रि. वि.

[सं. अग्रिम]

आगे।

अगार

संज्ञा

[स. आगार]

घर, निवासस्थान, धाम।

दुख आवन कछु अटक न मानत सूनो देखि अगार--२८८८।

अगार

संज्ञा

[स. आगार]

राशि, समूह।

उबरो

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

मुक्त हुआ, छूटा।

उबरो

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

बाकी रहा, शेष रहा।

भली करी हरि माखन खायौ। इहौ मान लीन्ही अपने सिर उबरो सो ढर कायौ-११२८।

उबरौगे

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

निस्तार पाओगे, छूटोगे, बचोगे, उद्धार पाओगे।

अपनौं पिंड पोषिबे का रन, कोटि सहज जिय मारे। इन पापनि तैं क्यों उबरौगे, दामनगीर तुम्हारे-१-३३४।

उबरयौ

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

मुक्त हुआ, रक्षित, रहा, उद्धार या निस्तार पाया।

(क) गाए सूर कौन नहिं उबरयौ. हरि परिपालन पन रे-१-६६। (ख) उबरयौ स्याम, महरि बड़भागी। बहुत दूर, तैं आइ परयौ धर, धौं कहुँ चोट न लागी-१-७९।

उबरयौ

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

जीवित बचा, बाकी रहा।

मारे मल्ल एक नहिं उबरयौ-२६४३।

उबरयौ

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

काम न आया, बाकी बचा शेष रहा।

(क) फोरि भाँड़ दधि माखन खायौ, उबरयौ सो डारयौ रिस करिकै -- १०-३१८। (ख) माखन खाइ, खवायौ ग्वालिन, जो उबरयौ सो दियौ लुढ़ाई-१०-३०३।

उबलना  

क्रि. अ.

[सं. उद् + वजन = जाना]

उफनता।

उबलना  

क्रि. अ.

[सं. उद् + वजन = जाना]

उमड़ता।

उबहना  

क्रि. स.

[सं. उद्वहनी, पा. उब्बहन = ऊपर उठना]

शस्त्र उठाना, शस्त्र खींचना।

उबहना  

क्रि. स.

[सं. उद्वहनी, पा. उब्बहन = ऊपर उठना]

पानी उलीचना।

उबहना  

वि.

[सं. उपानह]

बिना जूते का, नंगे पैर।

उबहना  

क्रि. अ.

[सं. उद्वहन]

ऊपर उठना।

उबहने

वि.

[हिं. उबहना]

बिना जूता पहने।

उबहे

क्रि. स.

[हिं. उबहना]

शस्त्र उठाया।

उबॉट  

संज्ञा

[सं. उद्वांत]

उलटी, वमन, केै।

उबाना

वि.

[हिं. उबहना]

नंगे पैर।

उबार  

संज्ञा

[सं. उद्धारण, हिं.उद्धार]

उद्धार, निस्तार छुटकारा, बचाव, रक्षा।

(क) अब उबार नहिं दीसत कतहूँ सरन राखि को ले इ-५२८। ( ख) यासौं मेरो न उबार। मोहि मारि मारे परिवार--५८५। (ग) झरझराति भहराति लपट अति देखियत नहीं उबार ५९३।

उबारन

संज्ञा

[हिं. उबारना]

उबारने वाले, उद्धारकर्त्ता।

सत-उबारन, असुर-सँहारन दूरि करन दुख-दंदा-१०-१९२।

उबारना

क्रि. स.

[सं. उद्धारण]

उद्धार, करना रक्षा करना, मुक्त करना।

उबारा  

संज्ञा

[हिं. उबार]

उद्धार, छुटकारा।

उबासी

संज्ञा

[सं. उश्वास]

जँभाई।

उबाहना

क्रि. स.

[हिं. उबहन]

हथियार उठाना।

उबीठना

क्रि. स.

[सं. अब, पा. औ + सं. इष्ट, पा. इट्ट = ओइटठ]

अरुचि हो जाना, मन भर जाना।

उबीठना

क्रि. अ.

ऊबना, घबराना।

उबीठे

क्रि. स.

[हिं. उबीठना]

अरुचिकर हुए, न भाये।

सुठि मोती लाड़ मीठे। वेै खात न कबहुँ उबीठे -- १०-१८३।

उबीधना

क्रि. अ.

[सं. उद्विद्ध]

फँसना।

उबीधना

क्रि. अ.

[सं. उद्विद्ध]

गड़ना।

उबीधा

वि.

[हिं. उबीवना]

धँसा हुआ, गड़ा हुआ।

उबीधा

वि.

[हिं. उबीवना]

काँटों से युक्त।

उबेना

वि.

[हिं.उ = नहीं + सं. उपानह = जूता]

नंगे पैर, बिना जूते का।

उबारि

क्रि. स.

[हिं. उबारना]

उद्धार या मुक्त करके, रक्षा या विस्तार करके।

करि बल-बिगत उबारि दुष्ट देैं, ग्राह ग्रसत बैकुंठ दियौ-१-२६।

उबारी

क्रि. स.

[हिं. उबारना]

उद्धार किया, रक्षा की मुक्त किया, बचाया।

द्रुपद-सुता जब प्रगटपुकारी। गहत चीर हरि-नाम उबारी-१-२८।

उबारे  

क्रि. स.

[हिं. उबारना]

उद्धार किया, रक्षा की, मुक्त करे, छुड़ाये ।

(क)लाखागृह तैं जरत पांडु सुत बुधि-बल नाथ, उबारे-१-१०। (ख) तुम्हारी कृपा बिनु कौन उबारे-१-२५७।

उबारैं

क्रि. ह.

[हिं. उबरना]

उद्धार करें, छुटकारा दिलाएँ, बचाएँ।

गाइ मिलि अंध दसकंध, गहि दंत तृन, तौ फलैं मृत्युमुख तैं उबारैं-९-१२९।

उबारै

क्रि. स.

[हिं. उबारना]

उद्धार करे, मुक्ति दे, छुट का रा दे।

दुहुँ भांति दुख भयौ आनि यह, । कौन उबारेै प्रान-१-९७।

उबारौं  

क्रि. स.

[हिं. उबारना]

रक्षा करूँ, बचाऊँ।

कंस बस कोै नास करत है, कहँ लौं जीव उबारोैं-१०-४।

उबारौ

क्रि. स.

[हिं. उबारना]

उद्धारो, छुड़ाओ, निस्तरो, मुक्त करो। द.-अब मोहि भज्जत क्यौं न उबारोै। दीनब धु, करुनामय, स्वामी, जन के दुःख निबारौ-१.२०९।

उबार थौ

क्रि. स.

[हिं. उबारना]

मुक्त किया, उद्धार किया, रक्षा की।

(क) सरन गए को को न उबारयो। जब जब भीर परी संतनि कोैं, चक्र सुदरसन तहाँ सँभारयौ-१-१४। (ख) ततकालहिं तब प्रगट भए हरि, राजा जीव उबारयौ--१-१०९।

उबाल

संज्ञा

[हिं. उबलना]

उफान।

उबाल

संज्ञा

[हिं. उबलना]

जोश, क्षोभ, झुँझलाहट।

उभइ

वि.

[सं. उभय]

दोनों।

उबटना

क्रि. अ.

[हिं. उभरना]

अभिमान करना।

उभड़ना

क्रि. अ.

[सं. उदिभदन, अथवा उद्भरण,  प्रा. उब्भरण]

प्रकट होना, उत्पन्न होना।

उभड़ना

क्रि. अ.

[सं. उदिभदन, अथवा उद्भरण,  प्रा. उब्भरण]

बढ़ना, अधिक होना।

उभय

वि.

[सं.]

दोनों।

उभरौंहाँ

वि.

[हिं. उभार + औहाँ (प्रत्य.)]

उभरा हुआ।

उभाड़

संज्ञा

[हिं. उभड़ना]

उठना

उभाड़

संज्ञा

[हिं. उभड़ना]

ओज, वृद्धि।

उभाना

क्रि. अ.

[हिं. अभुआना]

हाथ पैर पटकना और सिर हिलाना जिससे सिर पर भूत आना समझा जाता है।

उभिटना

क्रि. अ.

[हिं. उबीठना]

हिचकना, ठिठकना।

उमंगी

संज्ञा

[हिं. उमंग]

उभाड़।

उमंगी

संज्ञा

[हिं. उमंग]

अधिकता, पूर्णता

उमंगी

वि.

अधिक, बहुत, ज्यादा, अपार।

पारथ तिय कुरुराज सभा में बोलि करन च है नंगी। स्रवन सुनत करुना-सरिता भए, बढ़यौ बसन उमंगी -- -१-२१।

उमँगी

क्रि. अ.

[हिं. उमंग +ना (प्रत्य.)]

उभड़ने लगी, उमड़ी।

उमँगी

वि.

उमड़ी हुई, उमड़ कर प्रवाहित होती हुई।

उमँगी प्रेम-नदी छबि पावैं। नंद नंदन सागर कौं धावैं--१०-२।

उमँगे

क्रि. अ.

[हिं. उमंग + ना (प्रत्य.)]

उमड़ने लगे, उमड़ चले, बह चले।

सूरदास उमँगे दोउ नैना, सिंधु-प्रवाह बह्यौ--१-२४७।

उमँगे

क्रि. अ.

[हिं. उमंग + ना (प्रत्य.)]

आनंदित होकर, हुलास से भरकर।

उमँगे लोग नागर के निरखत, अति सुख सबहिनि पाइ-९-२९।

उमँगै

क्रि. अ.

[हिं. उमग + ना (प्रत्य.) = उमगना]

उमड़े, उभड़े, उमड़ कर बह चले।

उमँगै प्रेम नैन ह्वैके, कापे रोक्यौ जात जरी-१०-१३६

उमग

संज्ञा

[हिं. उमंग]

आनंद, उल्लास।

उमग

संज्ञा

[हिं. उमंग]

अधिकता।

उभिटे

क्रि. अ.

[हिं. उभिटना]

ठिठके, हिचके।

उभै

वि.

[सं. उभय]

दोनों।

मनु उभैं अंभोजभाजन, लेते सुधा भराइ -- -६२७।

उमँग, उमंग

संज्ञा

[सं. उद् = ऊपर +मंग =चलना, हिं. उमंग]

उल्लास, मौज, आनंद।

(क) उमँगो ब्रजनारि सुभग, कान्ह वरष-गाँठउमँग, चहत बरष बरषनि--१०-९६। (ख) बसे जाय आनंद उमँग सौं गैयाँ सुखद चरावेैं।

उमँग, उमंग

संज्ञा

[सं. उद् = ऊपर +मंग =चलना, हिं. उमंग]

उभाड़, उभड़ना।

उमँग, उमंग

संज्ञा

[सं. उद् = ऊपर +मंग =चलना, हिं. उमंग]

अधिकता, पूर्णता।

उमँगना

क्रि. अ.

[हिं. उमंग + ना (प्रत्य.)]

उमड़ना, बढ़ चलना।

उमँगना

क्रि. अ.

[हिं. उमंग + ना (प्रत्य.)]

हुलसना, आनंद में होना।

उमँगि

क्रि. अ.

[हिं. उमगना]

सोल्लास, हुलास-सहित, जोश में आकर।

(क) भ्रातमुख निरखि राम बिलखाने। मुंडित केस-सीस बिहवल दोउ, उमँगि कंठ लपटाने-९-५२। (ख) आनंद भरी जसोदा उमँगि अँग न माति, आनंदित भई गोपी गावति चहर के -- १०-३०।

उमँगि

क्रि. अ.

[हिं. उमगना]

उमड़ कर, ऊपर, उठकर।

भरत गात सीतल ह्वै आयौ, नैन उमँगि जल ढारे। सूरदास प्रभु दई पाँवरी, अवध पुरी पग धारे-९-५४।

उमंगी

संज्ञा

[हिं. उमंग]

मौंज, उल्लास, आनंद।

उमगन

संज्ञा

[हिं. उमंग]

आनंद, उल्लास।

उमगना

क्रि. अ.

[हिं. उमंग + ना]

उमड़ना।

उमगना

क्रि. अ.

[हिं. उमंग + ना]

आनंदित होना।

उमचना

क्रि. अ.

[सं. उन्मञ्च = ऊपर उठना]

तलुए को जोर देकर किसी वस्तु को दबाना, हुमचना।

उमचना

क्रि. अ.

[सं. उन्मञ्च = ऊपर उठना]

चौंकना, चौकन्ना होना।

उमचि

क्रि. अ.

[हिं. उमचना]

चौंककर, चौकन्ना होकर।

चकृत भई बिचार करत यह बिसरि गई सुधि गात। उमवि जात तबही सब सकुचति बहुरि मगन ह्वै जाति। सूर स्याम सौं कहौं कहा यह कहत न बनत लजाति-११९०।

उमड़

संज्ञा

[सं. उन्मंडन]

बाढ़, बढ़ाव।

फिरि फिरि उझ कि झाँकत बाल। बह्नि-रिपु की उमड़ देखत करत कोटिन ख्याल--सा० ३४।

उमड़

संज्ञा

[सं. उन्मंडन]

छाजन, घिराव।

उमड़

संज्ञा

[सं. उन्मंडन]

धावा, उठान।

उमड़ना

क्रि. अ.

[हिं. उमंग]

द्रव पदार्थ के अधिक होने से बह चलना।

उमड़ना

क्रि. अ.

[हिं. उमंग]

उठकर फैलना, घेरना।

उमड़ना

क्रि. अ.

[हिं. उमंग]

आवेशयुक्त होना, क्षुब्ध होना।

उमड़ि

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

(द्रव की बहुतायत के कारण ) ऊपर उठकर, उतराकर।

हा सीता, सीता कहि सियपति, उमड़ि नयन जल भरि-भरि ढारत--९-६२।

उमड़ी

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

द्रव पदार्थ अधिक भर जाने से बह चली।

उमड़ी

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

आवेश में भर गयी।

उमड़ी

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

छा गयी, घेर लिया।

उमड़े

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

फैलकर, चारों ओर छा कर, धिरकर।

अति आनंद भरे गुन गावत उमड़े फिरत अहीर -- ९२०।

उमड़ै

क्रि. अ.

[हिं. उमंग]

उतराकर वह चलता है।

सरवर नीर भरै, भरि उमड़ै, सूखेै, खेह उड़ाइ--१०-२६५।

उमड़यौ

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

भर आया, उतराकर बह चला।

उमड़यौ

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

उठकर फैला, छाया, घेरा।

अब हौं कौन को सुख हेरौं ? रिपु-सैना-समूह-जल उमड़यो, काहि संख लै फे हैं-९-१४६।

उमदना

क्रि. अ.

[सं. उन्मद]

उमंग में भरना।

उमदना

क्रि. अ.

[सं. उन्मद]

उमड़ना।

उमदात  

क्रि. अ.

[हिं. उमदाना]

मतवाला होता है, उन्मत होता है।

उमदाना

क्रि. अ.

[सं. उन्मद, हिं. उमदाना]

मतवाला होना उमग में भरना

उमदाना

क्रि. अ.

[सं. उन्मद, हिं. उमदाना]

आवेशयुक्त होना।

उमद्द

क्रि. अ.

[हिं. उमदना]

उमड़ते हैं।

उमराव

सं.

[अ. उमरा]

प्रतिष्ठित व्यक्ति, सरदार। दरबारी।

असुरपति अति ही गर्व धरयौ।…..। महा महा जो सुभट दैत्यबल बैठे सब उमराव। तिहूँ भुवन भरि गम है मेरौ मो सम्मुख को आव -- २३७७।

उमहना

क्रि. अ.

[सं. उन्मंथन, प्रा. उम्महन अथवा। सं. उद् + मह = उभड़ना]

(द्रव पदार्थ को अधिकता के कारण ) बहना, उमड़ना।

उमहना

क्रि. अ.

[सं. उन्मंथन, प्रा. उम्महन अथवा। सं. उद् + मह = उभड़ना]

घेरना, छा जाना।

उमहना

क्रि. अ.

[सं. उन्मंथन, प्रा. उम्महन अथवा। सं. उद् + मह = उभड़ना]

आवेशयुक्त होना।

अगार

क्रि. वि.

आगे, पहले।

अगास

संज्ञा

[सं ० आकाश] आकाश।

का यह सूर अजिर अवनो तनु तजि अगास पिय भवन समैं हौं-१२०७।

अगाह

वि.

[सं. अगाध]

अथाह, गहरा

अगाह

वि.

[सं. अगाध]

अत्यंत, बहुत।

अगाह

क्रि. वि.

[हिं. आगे]

आगे से, पहले से।

अगिअई

क्रि. अ.

[सं. अग्नि, हिं. अगि याना]

सुलग जाय, बले।

और कवन अबलन ब्रत धार्‌यौ जोग समाधि लगाई। इहि उर आनि रूप देखे की आगि उठै अगि आई-३३४३।

अगिधा

वि.

[सं. अग्नि + दग्ध]

आग से जला हुआ।

अगिदाह

संज्ञा

[सं. अग्नि + दाह]

आग में जलाना, भस्म करना।

अगिन

संज्ञा

[सं. अग्नि]

आग।

अगिन

वि.

[सं.:अ = नहीं + हिं. गिनना]

अगणित अपरिमित।

साँव कौ लक्ष्मण सहित लाए बहुरि दियो दायज अगिन गिनी न जाइ-१० उ. ४६।

उमहायो

क्रि. अ.

[हिं. उमड़ना]

(द्रव पदार्थ की अधिकता से) बह चला, उमड़ा।

नहिं स्रुति सेस महेप प्रजापति जो रस गोपिन गायौ। कथा गंग लागी मोहि तेरी उहि रस सिंधु उमहायो-३४९०।

उमही

क्रि. अ.

[हिं. उमहना]

उमंग में भर गयी, आवेश युक्त हो गयी।

(क) सिर मटुकी मुख मौन गही। भ्रमि-भ्रसि बिबस भई नव ग्वालिन नवल कान के रस उमही -- १२१३।

उमही

क्रि. अ.

[हिं. उमहना]

उमड़ पड़ी है।

पालगौं तुमही बूझत हौं तुम पर बुधि उमही -- ३३७०।

उमहे

क्रि. अ.

[हिं. उमहना]

छा गये, घेर लिया।

सघन बिमान गगन भरि रहे। कौतुक देखन अम्मर उमहे--१८ १९।

उमहै

क्रि. अ.

[हिं. उमहना]

उमंग में आती है, आवेश युक्त हो जाती है।

(क) पहिले अग्नि सुनत चन्दन सी सती बहुत उमहै। समाचार ताते अरु सीरे पीछे जाइ लहै-२७१३।

उमह्यो, उमझौ

क्रि. अ.

[हिं. उपहना]

छा गये, एकत्र हुए।

(क) आनंद अति सेै भयौ घर-घर, नृत्य ठाँवहि-ठाँई। नंद-द्वारे भेंट लै लै उम ह्यौ गोकुल गाँव--१०-२६। (ख) उमह्यौ मानुष घोष यों रंग भीजी ग्वालिनि -- २४०५

उमह्यो, उमझौ

क्रि. अ.

[हिं. उपहना]

उसंगयुक्त हुआ, उमड़ पड़।

मदन गुपाल मिलन मन उमह्यौ कौन बसै इह यदपि सुदेस--३२२५।

उमह्यो, उमझौ

क्रि. अ.

[हिं. उपहना]

उमड़ पड़ा, उतरा कर बह चला

तौलोैं भार तरंग महँ उदधि सखी लोचन उमह्यौ-३४७०।

उम

संज्ञा

[सं.]

शिव की स्त्री, पार्वती।

उमाकन  

क्रि. अ.

[सं. उ = नहीं + मंक = जाना]

नष्ट करना।

उसाकिनी

वि.

[हिं. उमाकना]

खोद कर फेंक देने वाली।

उमागुरु   

संज्ञा

[सं.]

पार्वती के पिता हिमांचल।

उमाचना

क्रि. स.

[हिं. उन्मचना]

ऊपर उठाना।

उमाचना

क्रि. स.

[हिं. उन्मचना]

निकालना।

उमाची

क्रि. स.

[हिं. उमाचना]

निकाली है।

उमाधव

संज्ञा

[सं.]

पार्वती के पति, शिव।

उमापति

संज्ञा

[सं.]

महादेव शंकर शिव।

यहै कहहिं पति देहु उमापति गिरिधर नन्दकुमार -- ७६६

उभाह

संज्ञा

[सं. उद् + माह = उमगाना, उत्साह करना]

उत्साह, उमंग।

उमाहना

क्रि. अ.

[हिं. उमहना]

उमड़ना।

उमाहना

क्रि. अ.

[हिं. उमहना]

उमंग में आना।

उमाहना

क्रि. स.

वेग से बढ़ाना।

उमाहल

वि.

[हिं. उमाह]

उमंगयुक्त, उत्साहित।

ब्रज घर घर अति होत कोलाहल। ग्वाल फिरत। उमँगे जहँ तहँ सब अति आनन्द भरे जु उमाहल।

उमेठन

संज्ञा

[सं. उद्वेष्ठन]

ऐंठन, बल, मरोड़।

उमेठी

वि.

[हिं. उमेठना]

ऐंठी हुई, अप्रसन्न।

भामिनि आजु भवन में बैठी। मानिक निपुन बनाय नीकन में धनु उपमेय उमेठी-सा० ११२।

उमेठी

वि.

[हिं. उमेठना]

इतराती हुई, गर्व भरी।

अंगदान बल कों दे बैठी। मन्दिर आजु आपने राधा अन्तर प्रेम उमेठी-सा० १००।

उमेल

संज्ञा

[सं. उन्मीलन]

वर्णन।

उमेलना

क्रि. स.

[सं. उन्मीलन]

खोलना, प्रकट, करना।

उमेलना

क्रि. स.

[सं. उन्मीलन]

वर्णन करना।

उये

क्रि. अ.

[सं. उद्गमन, पा. उग्गवन, हिं. उगना]

उदय हुए, प्रकटे, उगे।

नँदनँदन मुख देखौ माई। अंग-अंग छबि मनहू उये रवि, ससि अरु समर लजाई-६२६।

उयौ

क्रि. अ.

[हिं. उदयन, उअना]

उदय हुआ, उगा।

उरग, उरंगम

संज्ञा

[सं.]

साँप।

उर

संज्ञा

[सं. उरस्]

वक्षस्थल, छाती।

(क) भृगु कौ चरन राखि उर ऊपर बोले बचन सकल सुखदाई-१-३। (ख) दनुष दरचौ उर दरि सुरसाँई-१-६।

उर

मुहा.

उर आनना या लाना :- छाती से लगाना, आलिंगन करना। लियो उर लाई--छाती से लगा लिया। उ.- महाराज कहि श्री सुख लियो उर लाई--२६१९।

उर

संज्ञा

[सं. उरस्]

हृदय, मन, चित्त।

उर

मुहा.

उर आनना या धरना :- ध्यान करना, विचारना। उर धरना :- ध्यान में रखना। उर धरी :- मन में सोचा, निश्चय किया। उ.- सदा सहाय करी दासिन की, जो उर धरी रोइ प्रति पारी-११६०।

उरई

संज्ञा

[सं. उशीर]

खस।

उरकना

क्रि. अ.

[हिं. रुकना]

ठहरना।

उरग

संज्ञा

[सं.]

साँप।

उरग

मुहा.

भई रीति हठि उरग छछूँदर :- साँप छछूँदर की गति होना, दुविधा या असमंजस में पड़ना। उ.- जब वह सुरति होति है बात। सुनौ मधुप या वेदन की रति मन जानेै केै गात। रहत नहीं अंतर अति राखे कहत नहीं कहि जात। भई रीति हठि उरग छछूँदर छाँडै बनै न खात-३१२७।

उरग

संज्ञा

[सं.]

वेणी, चोटी, (क्योकि इसकी उपमा साँप = उरग से दी जाती है।)

हरि उर मोहनि बेलि लसी। तापर उरग ग्रसित तब सोभित पूरन अस ससी-सा. उ. २५।

ऊरगइंद

संज्ञा

[सं.]

सर्पराज, बासुकी।

उरग-इंद्र उनमान सुभग भुज, पानि पदुम आयुध राजै-१-६९।

उरगना

क्रि. स.

[सं. ऊरीकरण]

मानना, स्वीकारना।

उरगाद

संज्ञा

[सं.]

गरुड़।

उरगारि

संज्ञा

[सं. उरग + अरि]

साँप का शत्रु, । गरुड।

उरगिनी

संज्ञा

[सं. उरगी, हिं. उरगिनी]

सर्पिणी, नागिनी।

सूर-प्रभु के बचन सुनत, उर गिनी कह्यौ, जाहि अब क्यौं न, मति भई भरनी-५५१।

उरज

संज्ञा

[सं. उरोज]

कुच, स्तन।

(क) दै दै दगा बुलाइ भवन मैं भुज भरि भेंटत उरज कठोरी-१०-३०५। (ख) उरज भँवरी भँवर मोन मीन मनि की कांति--१४१६।

उरजात

संज्ञा

[सं. उरस् + जात]

कुच, स्तन।

ऊरझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझना]

फँसना, अटकना।

उरझाई

क्रि. अ.

[हिं. उलझना]

उलझकर, गुँथकर, फंसकर।

मन चुभि रही माधुरी मूरति अंग अंग उरझाई-३३ १७।

उरझाना

क्रि. स.

[हिं. उलझना]

फँसाना, अटकाना।

उरझानो

क्रि. स.

[हिं. उलझना]

उलझ गया, फँसा, लिप्त हुआ।

नवकिसोर मोहन मृदु मूरति तासौं मन उरझानौ-३०६४।

उरझि

क्रि. अ.

[हिं. उलझना]

फँसकर, अटककर, उलझकर।

पग न इत उत धरन पावत, उरझि मोह सिबार--१-९९।

उरझयौं

क्रि. अ. भूत.

[हिं. उलझना]

उलझी, फँमी, अटकी।

मोह्यौ जाई कनक-कामिनि-रस ममता-मोह बढ़ाई। जिह्व-स्वाद मीन ज्यौं उरझ्यों, सूझी नहीं फँदाई-१-१४७।

उरझयौं

क्रि. अ. भूत.

[हिं. उलझना]

काम में फँस गया, लिप्त हुआ, लगा रहा।

बात-चक्र-बासना प्रकृति मिलि, तन तृन तुच्छ गह्यौ। उरझ्यौ बिबस कर्म-निरअंतर, स्रमि सुख-सरनि चह्यौ -- १-१६२।

उरझे

क्रि. अ.

[हिं. उलझना]

लिपटे, उलझ गये।  

उरझे संग अग अंग प्रति बिरह बेलि की नाई--१८२१।

उरद

संज्ञा

[सं. ऋद्ध, पा. उद्ध]

एक अनाज।  

मूँग मसूर उरद चनदारी। कनक-फटक धरि फटकि पछारी-३९६।

ऊरध

क्रि. वि.

[सं. उर्दध्व]

ऊपर, ऊपर की ओर।

उरधारना

क्रि. स.

[हिं. उधाड़न]

बिखराना, छितराना।

उरधारी

वि.

[हिं. उधड़ना, उरधारना]

बिखरी हुई।

उरधारी लटैं छूटी आनन पर भीजीं फुलेलन सों आली सँग केलि।

उरबसी

संज्ञा

[सं. उर्वशी]

उर्वशी नाम की अप्सरा।

उराहना

संज्ञा

[सं. उपालंभ]

उलाहना।

उराहनौ

संज्ञा

[हिं. उलाहना]

उलाहना।

(क) आंखैं भरि लीनी उराहनौ देन लाग्यो। तेरौ री । सुवन मेरी, मुरली लै भाग्यौ-१०-२८४। (ख) अब न देहिं उराहनो जसुमतिहिं आगे जाइ--२७५६।

उरोज

संज्ञा

[सं.]

कुच, स्तन, छाती।

उरिन

वि.

[सं. उऋण]

ऋण से मुक्त।

उरु

वि.

[सं.]

लंबा-चौड़ा।

उरु

वि.

[सं.]

विशाल, बड़ा।

उरु

संज्ञा

[सं. ऊरु]

जाँघ।

उरुक्रम

वि.

[सं.]

बली।

उरुक्रम

वि.

[सं.]

लंबे डग भरने के वाला।

उरुक्रम

संज्ञा

वामन अवतार।

उरस

वि.

[सं. कुरस]

फीका, नीरस।

तू कहि भोजन करयौ कहा री। बेसन मिले उरस मैदा सों अति कोमल पूरी है भारी।

उरस

संज्ञा

[सं.]

छाती, वक्षस्थल।

उरस

संज्ञा

[सं.]

हृदय, चित्त ,

उरसना

क्रि. अ.

[हिं. उड़सना]

ऊपर नीचे करना, हिलाना।

जसुदा भदन-गुपाल सोवायै। स्‍बाँस उदर उरसति (उससित) यौं मानों दुग्ध-सिंधु छबि पावै-१०-६५।

उरसिज

संज्ञा

[सं.]

स्तन।

उरस्क

संज्ञा

[सं.]

वक्षस्थल, छाती।

उरहना

संज्ञा

[सं. उपालंभ या अवलंभन, पा. ओलं भन, हिं. उलाहना]

उलाहना।

उराना

क्रि. अ.

[हिं. ओर + आना (प्रत्य.)]  

समाप्त होना।

उरारा

वि.

[सं. उरु]

विस्तृत, विशाल।

ऊराव

संज्ञा

[सं. उरस + आव]

चाव, उमंग, चाह।

जे पद-कमल सुरसरी परसे तिहूँ भुवन जस छाव। सूरस्याम पद-कमल परिसहाैं मन अति बढ़यौ उराव--२४८४।

उरमत

क्रि. अ.

[हिं. उरमना]

लटकता है।

उरमना

क्रि. अ.

[सं. अवलंबन, प्रा. ओलंबन)

लटकना।

उरमाई

क्रि. स.

[हिं. उरमाना]

लटकाया।

उरमान

क्रि. स.

[हिं. उरमना]

लटकानां।

ऊरला

वि.

[हिं. विरल]

विरला, निराला।

उरविज

संज्ञा

[सं. उर्वी = पृथ्वी + ज = उत्पन्न]

मंगल ग्रह।

उरवी

संज्ञा

[सं. उर्वी ]

पृथ्वी।

उरहन

संज्ञा

[हिं. उरहना, उलाहना]

उलाहना।

(क) उरहन दिन देउँ काहि, काहै तू इतौ रिसाइ। नाहीं ब्रज बास, सास, ऐस बिधि मेरौ-१०-२७६। (ख) ग्वालिनि उरहन कैं मिस आई। नंदनंदन तन-मन हरि-लीन्हौ, बिनु देखँ छिन रहयौ न जाइ १०-३०४। (ग) वृथा ब्रज की नारि नित प्रति देइ उरहन आन--सा० १४४।

उरहने

संज्ञा

[हिं. उरहना]

उलाहना।

आवति सूर उरहने कैं मिस, देखि कुँवर मुसुक नी-१०-३११

उरहनो, उरहानौ

संज्ञा

[हिं. उरहना, उलाहना]

उलाहना।

नैननि झुकी सुमन मैं हँसी नागरि उरहनो देत रुचि अधिक बाढ़ी-१०-३०७।

उरुक्रम

संज्ञा

सूर्य।

उरेह

संज्ञा

[सं. उल्लेख]

चित्रकारी।

उरेहना

क्रि. स.

[सं. उल्लेखन]

चित्र आदि खींचना, लिखना।

उरेहना

क्रि. स.

[सं. उल्लेखन]

रँगना।

उर्मिला

संज्ञा

[सं. ऊर्मिला]

सीताजी की छोटी बहन जो लक्ष्मण को ब्याही थीं।

उर्वरा

संज्ञा

[सं.]

उपजाऊ भूमि।

उर्वरा

संज्ञा

[सं.]

पृथ्वी

उर्वरा

वि.

उपजाऊ।

उर्वशी

संज्ञा

[सं.]

एक अप्सरा।

उर्वी

संज्ञा

[सं.]

पृथ्वी।

अगिनि

संज्ञा

[सं. अग्नि, हिं. अगिन]

आग।

अब तुम नाम गहौ मन-नागर। जातै काल. अगिनि तै बाँचौ, सदा रहौ सुखसागर-३-९१।

अगिनित

वि.

[सं. अगणित]

अनगिनती, असंख्य।

कट क अगिनित जुर्‌यौ, ल क खरभर पर्‌यौ, सूर कौ तेज धर-धूरि-ढाँप्यो-९,१०६।

अगियाना

क्रि. अ.

[स. अग्नि]

जल उठना, सुलग जाना।

अगिलेऊ

वि.

[सं. अप्र, हिं. अगला + ऊ(प्रत्य.)]

अगला भी, भावी भी, आगामी भी।

तु पंखि पपीहा पिउ पिउ पिउ अधराति पुकारत। .......। सूर स्याम बिनु ब्रज पर बोलत हठि अगिलेऊ जनम बिगारत-२०४९।

अगीठा

संज्ञा

[सं. अगीत = आगे मं. अग्र, प्रा. अग्ग +सं. इष्ट ; प्रा. इट्ठ (प्रत्य.)]

आगे का भाग।

अगुसरना

क्रि. अ.

[सं. अग्रसर + ना (प्रत्य.)]

आगे बढ़ना, अग्रसर होना।

अगूठा

संज्ञा

[सं. अगूढ़]

घेरा।

अगेह

वि.

[सं. अ = नहीं + गेह = घर]

जिस का घर न हो, गृहहीन।

अगोचर

वि.

[सं.]

इंद्रियाँ जिसका अनुभव न कर सकें। इंद्रियातीत, अव्यक्त।

मम बानी कौं अगम अगोचर जो जानै सो पाबै--१-२।

अगोचर

वि.

[सं.]

दिखाई न देना, अदृश्य।

जब रथ भयौ अदृष्ट अगोचर लोचन अति अकुलात-२५४१।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

लीन होना, रत होना।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

प्रेम करना।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

लड़ना, झगड़ नो। विवाद करना।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

७. कठिनाई में फँसना।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

रुक जाना।

उलझाना

क्रि. स.

[हिं. उलझना]

फँसाना,  अटका देना।

उलझाना

क्रि. स.

[हिं. उलझना]

अटकाये रखना।

उलझाना

क्रि. अ.

उलझना, फँसना।

उलझाव

संज्ञा

[हिं. उलझना]

अटकाव।

उलझाव

संज्ञा

[हिं. उलझना]

(२) झंझट।

उलंघना-उलँधना

क्रि. स.

[सं. उल्लंघन]

नाँघना, फाँदना, उल्लंघन करना।

बसुधा त्रिपद करत नहिं आलस तिन हिं कठिन भयो देहरी उलंघना -- १०-११३।

उलंघना-उलँधना

क्रि. स.

[सं. उल्लंघन]

न मानना, अवहेलना करना।

उलंघि

क्रि. स.

[हिं. उलंघना]

नाँघना, फाँदना, पार करना।

कबहुँक तीनि पैग भुव नापत. कबहुँक देहरि उलँघि न जानी-१०-१४४।

उलँघी

क्रि. स.

[हिं. उलंबना]

नाँघी, फाँदी, उल्लंघन की।

घर आँगन अति चलत सुगम भए, देहरि अँटकावत। गिरि-गिरि परत, जात नहिं उलँघी, अति स्रम होत नँघावत-१०-१२५।

उलझन

संज्ञा

[सं. अवरुधन, या ओरुज्झन]

अटकाव

उलझन

संज्ञा

[सं. अवरुधन, या ओरुज्झन]

बाधा।

उलझन

संज्ञा

[सं. अवरुधन, या ओरुज्झन]

समस्या, चिंता।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

फँसना, अटकना।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

लिपटना।

उलझना

क्रि. अ.

[हिं. उलझन]

गुथ जाना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

अचेत होना, बेहोश होना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

इतराना।

उलटना

क्रि. स.

औंधा करना।

उलटना

क्रि. स.

अस्तव्यस्त करना।

उलटना

क्रि. स.

बात दोहराना।

उलटना

क्रि. स.

खोद डालना।

उलटना

क्रि. स.

नष्ट करना।

उलटना

क्रि. स.

रटना, जपना।

उलटहु

क्रि. अ.

[हिं. उलटना]

लौट आओ, पलट आओ, वापस आ जाओ।

अब हलधर उलटहु काह तुम धावहु ग्वाल जोर—२४४६ (३)।

उलटाइ

क्रि. स.

[हिं. उलटाना]

उलटाकर, चित करते, पेट के बल से पीठ के बल लिटा कर।

महरि मुदित उलटाइ कै, मुख चूमन लागी-१०-६८।

उलझाव

संज्ञा

[हिं. उलझना]

समस्या, चक्कर।

उलझौहाँ

वि.

[हिं. उलझना]

अटकानेवाला।

उलझौहाँ

वि.

[हिं. उलझना]

लुभाने वाला।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

औंधा होना, पलटना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

घूमना, पीछे मुड़ना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

उलझ पड़ना, उमड़ आना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

अस्तव्यस्त हो जाना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

कुछ का कुछ हो जाना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

क्रुद्ध होना।

उलटना

क्रि. अ.

[सं. उल्लोंठन]

नष्ट होना।

उलटाना

क्रि. स.

[हिं. उलटाना]

पीछे फेरना।

उलटाना

क्रि. स.

[हिं. उलटाना]

कुछ का कुछ कहना या करना।

उलटावहु

क्रि. स.

[हिं. उलटाना]

पलटाओ, लौटाओ, पीछे फेरो।

बिहारीलाल आवहु आई छाक भई अबार, गाइ बहुरावहु, उलटाव हु दै हाँक-४६४।

उलटि

क्रि. अ.

[हिं. उलटना]

लौटकर, उलट कर, वापस आकर, पीछे मुड़कर, घूमकर।

(क) उलटि पवन जब बावर जरिंयौ, स्वान चल्यो सिर झारी-१-२२१। (ख) जैसे सरिता मिलै सिंधु को उलटि प्रवाह न आवैहो-२८०४। (ग) हम रुचिकरी सूर के प्रभु सौं दूजे मन न सुहाइ। उलटि जाहि अपने पुर माहीं बादिहि करत लराई–३ ११०। (घ) जाइ समाइ सूर वा निधि मैं, बहुरि न उलटि जगत मैं नाचै--२-११।

उलटि

क्रि. अ.

[हिं. उलटना]

ऊपर नीचे होकर, उलट पलट कर।

नृत्यत उलटि गए अँग भूषण बिथुरी अलक बाँधौ सँवारि-पृ० ३५२ (८४)।

उलटि

क्रि. अ.

[हिं. उलटना]

ऊपर से नीचे गिर कर।

ससि-सन्मुख जो धूरि उड़ावै, उलटि ताहि के मुख परै--१-२३४।

उलटी

वि.

[हिं. उलटना]

औंधा, ऊपर का नीचे।

उलटी

वि.

[हिं. उलटना]

क्रम-विरुद्ध, इधर का उधर।

उलटी

वि.

[हिं. उलटना]

अनुचित, अंडबंड, अयुक्त।

(क) इंद्री अजित ,बुद्धि बिषया रत, मन की दिन-दिन उलटी चाल-१-१२७। (ख ) हँसति रिसाति बोलावति बरजति देखहु उलटी चालहि-११८१। (ग) अब समीर पावक सम लागत सब ब्रज उलटी चाल-३१५५।

उलटी

वि.

[हिं. उलटना]

असमान विरुद्ध, विपरीत।

उलटी

क्रि. वि.

लौटकर, पीछे की ओर, पलटकर।

जमुना उलटी धार चली बहि पवन थकित सुनि बेनु -- -पृ० ३४७ (५३)।

उलटी

मुहा.

उलटी परी :- आशा के विरुद्ध हुआ, दूसरे को हानि पहुँचाने के प्रयत्न में स्वयं हानि उठायी या स्वय नीचा देखा। उ.-अंबरीष को साप देन गयौ बहुरि पठायौ ताकौं। उलटी गाढ़ परी दुर्बासैं दहत सुदरसन जाकौं-१-११३। उलटी-पलटी :- भली-बुरी, उचित-अनुचित। उ.- तब उलटी पलटी फबी जब सिसु रहे कन्हाई। अब उहि कछु धोखैं करौं तौं छिनक माँह पति जाई -- १०१०। उलटी-पुलटी :- अंड-बंड, बिना ठीक-ठिकाने। उ.- तुमहिं उलटी कहाै तुमहिं पुलटी कहौ, तुमहिं रिस करति मैं कछु न जानौं।

उलटे

वि.

[हिं. उलटना, उलटा]

औंधे, पट, पेट के बल।

(क) हँसे तात मुख हेरि कै, करि पगचतुराई। किलकि झटकि उलटे परे, देबनि मुनिराई १०-६६। (ख) स्याम उलटे परे देखे,बढ़ी सोभा लहरि-१०-६७।

उलटे

वि.

[हिं. उलटना, उलटा]

पीछे करके, पीठ की ओर मोड़ कर।

पलना पौढ़ाई जिन्हैं बिकट बाउ काटै। उलटे भुज बाँधि तिन्हैं लकुट लिए डाँटै--३४८।

उलटोइ

वि. सवि.

[हिं. उलटा + ही (प्रत्य.)]

विपरीत, अयुक्त, अनुचित, विरुद्ध।

उलटोइ ज्ञान सकल उपदेसत सुनि सुनि हृदय जरै-३३११।

उलटौ

वि.

[हिं. उलटा]

उलटा, पट, पेट के बल।

एक पाख त्रय मास कौ मेरौ भयौ कन्हाई। पटकि रान उलटौ परयौ, मैं करौं बधाई-१०-६८।

उलटयौ

क्रि. स.

[हिं. उलटना]

उलटा हो गया, पीछे की ओर चला।

अतिं थकित भयौ। समीर। उलटयौ जु जमुना-नीर-६२३।

उलथना

क्रि. अ.

[सँ. उत्थलन]

ऊपर-नीचे होना। उलटना।

उलथना

क्रि. स.

उलट-पुलट करना।

उलद

संज्ञा

[हिं. उलदना]

वर्षा की झड़ी।

उलदत

क्रि. स.

[हिं. उलदना]

गिराता है, लौटाता हैं, बरसाता है।

उलदना

क्रि. स.

[हिं. उलटना]

गिराना, बरसाना।

उलमना

क्रि. अ.

[सं. अवलंबन, पा. ओलंबन = लटकना]

लटकना, झुकना।

उलसना

क्रि. स.

[सं. उल्लसन]

सोहना, शोभित होना।

उलहना

क्रि. स.

[सं. उल्लंभन]

निकलना, उगना।

उलहना

क्रि. स.

[सं. उल्लंभन]

हुलसना, प्रसन्न होना

उलहना

संज्ञा

[हिं. उलाहना]

उलाहना।

उलाहना

संज्ञा

[सं. उपालंभन, प्रा. उवाहन]

शिकायत, गिला।

उलाहना

क्रि. स.

गिला करना।

उलाहना

क्रि. स.

दोष देना।

उलीचना

क्रि. स.

[सं. उल्लुंचन]

पानी फेंकना या उछालना।

उलीचै

क्रि. स.

[हिं. उलीचना]

उचीलती है, पानी फेंकती है।

चिरिया कहा समुद्र उलीचै--१-२३४।

उलूक

संज्ञा

[सं.]

उल्लू चिड़िया।

उलूक

संज्ञा

[सं.]

इंद।

उलूक

संज्ञा

[सं. उल्का]

लौ, लुक।

उलूखल

संज्ञा

[सं.]

ओखली।

उलूखल

संज्ञा

[सं.]

खल, खरल।

उलेड़ना

क्रि. स.

[हिं. उड़ेलना]

ढरकांना, एक पात्र से दूसरे में ढालना।

उलेड़े

क्रि. स.

[हिं. उड़ेलना]

उँडेले, ढरकाये।

गारी होंरी देत दिवावत। ब्रज में फिरत गोपिकन गावत। रुकि गए बाहन नारे पैंड़े। नवकेसर के माट उलेड़े।

उलेल

संज्ञा

[हिं. कुलेल]

उमंग, जोश।

उलेल

वि.

अल्हड़, बेपरवाह।

उल्लंघन

संज्ञा

[सं.]

लाँधना।

उल्लंघन

संज्ञा

[सं.]

पालन न करना, नीति-विरुद्ध आचरण।

उल्का

संज्ञा

[सं.]

प्रकाश, तेज।

उल्का

संज्ञा

[सं.]

लुक, लौ।

उल्का

संज्ञा

[सं.]

दिया, दीपक।

उलकापात

संज्ञा

[सं.]

तारा टूटना।

उलकापात

संज्ञा

[सं.]

उत्पात, बिध्न।

उल्लसन

संज्ञा

[सं.]

हष करना।

उल्लसन

संज्ञा

[सं.]

रोमांच।

उल्लापन

संज्ञा

[सं.]

खुशामद, ठकुरसुहाती।

उल्लास

संज्ञा

[सं.]

झलक, प्रकाश।

उल्लास

संज्ञा

[सं.]

हर्ष, उत्साह।

हो चाहे तासो सब सीख रसबप रिझवो कान। जागि उठी सुन सूर स्याम संग का उल्लाम बखान-सा ०-६८।

उल्लास

संज्ञा

[सं.]

एक अलंकार जिसमें एक के गुण-दोष से दूसरे में गुण-दोष आना वणिंत हो।

उल्लासना

क्रि. स.

[सं. उल्लासन]

प्रकट करना, प्रकाशित करना।

उल्लिखित

वि.

[सं.]

लिखा हुआ।

उल्लिखित

वि.

[सं.]

खोदा  हुआ।

उल्लिखित

वि.

[सं.]

चित्रित।

उलेख

संज्ञा

[सं.]

लिखना, लेख।

उलेख

संज्ञा

[सं.]

वर्णन, चर्चा।

अँगवान्यो

क्रि. स.

[सं. अग]

अंग में लगाया, शरीर में मला।

चदन और अरगजा आन्यो। अपने कर बल के अँगवान्यो-२३२१।

अंगहीन

वि.

[सं. अंग + हीन = रहित]

खंडित अंग का, लँगड़ा-लूला।

अंगहीन

संज्ञा

कामदेव।

अंगा

वि.

[सं. अंग]

अंगोंवाली।

मनौ गिरिवर तैं आवति गंगा। राजति अति रमनीक राधिका यहि बिधि अधिक अनूपम अंगा १०-१९०५।

अंगा

संज्ञा

अँगरखा, चपकन।

अंगा

संज्ञा

अंग।

नख सिखे लौं मीन जाल जड़यो अंग-अंगा-९-९७।

अंगा

संज्ञा

मोटी रोटी या रोट (अंगकरी) बड़ी लीटी।

अँगार, अंगार

संज्ञा

[सं.]

दहकता हुआ कोयला।

पद-नख-चन्द-चकोर विमुख मन, खात अँगार मई-१-२९९।

अँगार, अंगार

संज्ञा

[सं.]

चिनगारी।

(क) उचटत भरि अंगार गगन लौं, सूर निरखि ब्रज जन बेहाल-५९४। (ख) अति अगिनि-झार, भंभार धुंधार करि, उचटि अंगार झंझार छायौ-५९६।

अँगिया

संज्ञा

[सं. अंगिका, प्रा. अँगिआ]

चोली, अधपेटी।

अगोट

संज्ञा

[सं. अग्र = हिं. ओट = आड़]

रोक, ओट, आड़।

नहसुत कील कप ट सुलक्षण दै दृग द्वार अगोट। भीतर भाग कृष्ण भूपति कौ राखि अधर मधु मोट--२२१८।

अगोट

संज्ञा

[सं. अग्र = हिं. ओट = आड़]

अश्रय, आधार।

अगोटना

क्रि. स.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग+ हिं. ओट + ना (प्रत्य.)]

रोकना घेरना।

अगोटना

क्रि. स.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग+ हिं. ओट + ना (प्रत्य.)]

पहरे में रखना, बंदी करना।

अगोटना

क्रि. स.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग+ हिं. ओट + ना (प्रत्य.)]

छिपाना।

अगोटना

क्रि. स.

[सं. अंग = शरीर + हिं. ओटना (प्रय.)]

अंगीकार करना।

अगोटना

क्रि. स.

[सं. अंग = शरीर + हिं. ओटना (प्रय.)]

पसंद करना।

अगोटना

क्रि. अ.

रुकना, अड़ना।

अगोटना

क्रि. स.

[सं. अगूढ़]

चारो ओर से घेरना।

अगोटी

क्रि. अ.

[हिं. अगोटना]

रुकी हुई, फँसी हुई, उलझी हुई।

दोउ भैया मैंया पै माँगत, दै री मैया, माखन-रोटी। सुनत भावती बात सुतनि की, झूठहिं धाम के काम अगोटी-१०-१६५।

उलेख

संज्ञा

[सं.]

एक अलंकार जिसमें एक वस्तु या व्यक्ति का अनेक रूपों में दिखायी पड़ना वर्णित हो।

मुरली मधुर बजावहु मुख ते रुख जनि अनतै फेरो। सूरज प्रभु उल्लेख सबन को हौ पर पतनी हेरो-सा ० ८।

उवत

क्रि. अ.

[हिं. उवना]

उगता है, उदय होता है।

अथवत आये गृह बहुरि उवत भान उठी प्राननाथ महाजान मनि जानकी -- १६०९।

उवना

क्रि. अ.

[हिं. उगन]

उत्पन्न होना।

उवनि

संज्ञा

[हिं. उवना]

उदय, प्रकाश।

उशीर

संज्ञा

[सं.]

खस।

उषा

संज्ञा

[सं.]

प्रभात, ब्रह्मबेला।

उषा

संज्ञा

[सं.]

सूर्योदय कौ लालिमा।

उषा

संज्ञा

[सं.]

वाणासुर की पुत्री जो अनिरुद्ध को ब्याही थी।

उषाकाल

संज्ञा

[सं.]

भोर, प्रभात।

उष्णता

संज्ञा

[सं.]

गरमी, ताप।

उष्णीष

संज्ञा

[सं.]

पगड़ी।

उष्णीष

संज्ञा

[सं.]

मुकुट।

उष्न

वि.

[सं. उष्ण]

तप्त, गरम।

धर बिधमि नल करत किरषि हल, बारि बीज बिथरै। सहि सन्मुख तउ सील उष्न कौं सौई सुफल करै-१-११७।

उष्न

संज्ञा

ग्रीष्म ऋतु।

उस

सर्व.

[हिं. वह]

बह का विभक्तियुक्त रूप।

उसरना

क्रि. अ.

[सं. उद्‍ + सरण = जाना]

दूर होना, चले जाना।

उसरना

क्रि. अ.

[सं. उद्‍ + सरण = जाना]

बीतना।

उसरना

क्रि. अ.

[सं. उद्‍ + सरण = जाना]

याद न रहना।

उसरे

क्रि. अ.

[हिं. उसरना]

बीतने पर, बीतती है।

सघन कुंज ते उठे भोर ही स्याम घरे। जलद नवीन मिली मानों द मिनी बरषि निसा उसरे।

उससत

क्रि. स.

[हिं. उसमन]

खिसकता है, हट जाता है।

गोरे गात उस सत जो असित पट और प्रगट पहिचानै। नैन नि कट ताटंक की सोभा मडल कवनि बखानै।

उससना

क्रि. स.

[सं. उत + सरण]

खिसकना, हट जाना।

उससना

क्रि. स.

[सं. उत + सरण]

साँस लेना।

उससित

क्रि. स.

[हिं. उससना]

साँस लेकर, दम लेकर, साँस से फूलकर।

स्वास उदर उससित यौं मानौं दुग्ध सिंधु छबि पावै--१०-६५।

उसारना

क्रि. स.

[सं. उद् + सरण]

हटाना।

उसारना

क्रि. स.

[सं. उद् + सरण]

उखाड़ना।

उसारौ

क्रि. स.

[हिं. उसारना]

खोदना, तैयार करना, बनाना।

नवग्रह परे रहैं पाटी-तर, कपहिं काल उसारौ। सो रावन रघुनाथ छिनक मैं, कियौ गोध । कौ चारौ--१-१५९।

उसालना

क्रि. स.

[सं. उत् + शालन]

उखाड़ना।

उसालना

क्रि. स.

[सं. उत् + शालन]

हटाना।

उसालना

क्रि. स.

[सं. उत् + शालन]

भगाना।

उसास

संज्ञा

[सं. उत् + श्वास]

लंबी साँस, ऊपर को चढ़ती हुई साँस।

(क) गइ सकल मिलि संग दूरि लौं, मन न फिरते पुर–बाँस। सूरदास स्वामी के बिछुरत, भरि भरि लेत उसास-९:४५। (ख) लेति उसास नयन जल भरि भरि धुकि सो परै धरि धरनी। सूर सोच जिय पोच निसाचर, रामनाम की सरनी-९-७३। (ग) त्रिजटी बचन सुनत बैदेहो अति दुख लेति उसास--९-८३।

उसासी

संज्ञा

[हिं. उसास]

ठंडी साँस, लंबी साँस।

कबहुँक आगे कबहुँक पाछे पग-पग भरत उसासी-१८१२।

उसासी

संज्ञा

[हिं. उसास]

अवकाश, छुट्टी।

उहँई

क्रि. वि.

[हिं. वहाँ + ई = ही]

वहाँ ही, वहीं।

सूरस्याम सुन्दर रस अटके हैं मनो उहँइ छएरी -- सा ० उ० ७।

उहवाँ

क्रि. वि.

[हिं. वहाँ]

वहाँ, उस जगह।

उहाँ

क्रि. वि.

[हिं. वहाँ]

वहाँ।

उहाँ जाइ कुरु-पति बल-जोग। दियौ छाँड़ि तन को संजोग १-२८४।

उहि

सर्व.

[हिं. वही]

उसे, उन्हें।

(क) दच्छ तुम्हारौ मरम न पायौ जैसाै कियौ सो तैसो पायौ। अब इहिं चाहियै फेरि जिवायौ-४५। (ख) एक बिटिनियाँ सँग मेरे ही, कारैं खाई ताहि तहाँ री।…...। कहत सुन्यौ नंद कौ यह बारौ, कछु पढ़ि कै तुरतहिं उहिं झारी-६९७।

उहीं  

सर्व.

[हिं. वही]

वही, उसी।

जसुमति बाल विनोद जानि जिय, उहीं ठोर लै आई-१०-१५७।

उहै

सर्व.

[हिं. वही]

वही।

फन-फन-निरतत नद नंदन।…...। उहै काछनी कटि, पीतांबर, सीस मुकुट अति सोहत -- ५६५।

सर्व.

[हिं. वही]

देवनागरी वर्णमाला का छठा अक्षर। ओष्ठय वर्ण।

ऊँघ

संज्ञा

[सं. अवाङ = नीचे मुँह]

उँधाई, झपकी।

ऊँघना

क्रि. अ.

[हिं. ऊँघ]

झपकी लेना, नींद में झूमना।

ऊँच

वि.

[सं. उच्च]

ऊँचा, ऊपर उठा हुआ।

ऊँच

वि.

[सं. उच्च]

बड़ा, श्रेष्ठ, उत्तम।

अंबरीष, प्रह्नद, नृपति बलि, महा ऊँच पदवी तिन पाई-१-२४।

ऊँच

वि.

[सं. उच्च]

कुलीन, उत्तम कुल का।

ऊँच

यौ.

ऊँच-नीच - छोटा-बड़ा।

ऊँच नीच हरि गिनत न दोइ-९-२।

ऊँच

यौ.

ऊँच-नीच - भला-बुरा

ऊँचा

वि.

[सं. उच्च]

ऊपर उठा हुआ।

ऊँचा

वि.

[सं. उच्च]

श्रेष्ठ, बड़ा।

ऊँचा

वि.

[सं. उच्च]

जोर का, तेज।

ऊँचाई

संज्ञा

[हिं. ऊचा + ई (प्रत्य.)]

ऊपर की ओर का विस्तार, उठान।

ऊँचाई

संज्ञा

[हिं. ऊचा + ई (प्रत्य.)]

बड़ाई, श्रेष्ठता।

ऊँची

वि.

[हिं. ऊँच]

तेज, तीव्र।

स्रवन सुनाइ गारि दै गावति ऊँची तानि लेति प्रिय गोरी २४४८ (२)।

ऊँचे, ऊँचैं

क्रि. वि.

[हिं. ऊँचा]

ऊँचे पर, ऊपर की ओर।

ऊँचे, ऊँचैं

क्रि. वि.

[हिं. ऊँचा]

जोर से, जोर देकर।

सतगुरु कौ उपदेस हृदय धरि निज भ्रम सकल निवारयौ। हरि भजि, बिलँब छाँड़ि सूरज सठ, ऊँचैं टेरि पुकारचौ-१-३३६।

ऊँचे, ऊँचैं

क्रि. वि.

[हिं. ऊँचा]

लंबे, बड़े, देर तक खिंचने वाले।

उर ऊँचे उसाँस तृणावर्त तिहि सुख सकल उड़ाइ दिये-३०७३।

ऊँचो

वि.

[हिं. ऊँचा]

ऊँचा, ऊपरी।

ऊँचो

क्रि. वि.

ऊपर की ओर।

भूमुतत्रिय तलफत सफरी भौ वार हीन तन हेरो। ‘सूरज' चितै नीच जल ऊचो लयौ बिचित्र बसेरौ -- सा० ४२।

ऊँछ

संज्ञा

[देश.]

एक राग का नाम।

ऊँछ अड़ाने के सुर सुनियत निपट नायकी लीन। करत बिहार मधुर केदारौ सकल सुरन सुख दीन।

ऊँट

संज्ञा

[सं. उष्ट, पा. उट्ट]

एक ऊंचा चौपाया जो रेगिस्तानो में सर्वंत्र होता है और जिसके बिना वहाँ के निवासियों का काम कदाचित चल ही नहीं सकता। भारी बोझ लादने के यह काम आता है। कवियों ने ऐसे लोगों की उपमा इससे दी है जो नीरस जीवन का भार भर ढोया करते हैं, कोई सार्थक काम नहीं करते।

सूरदास भगवत भजनबिनु मनौ ऊँट बृष-भैंसों--२-१४।

ऊड़ा

संज्ञा

[सं. कुंड]

तहखाना।

ऊड़ा

वि.

गहरा, गम्भीर।

संज्ञा

महादेव।

अव्य.

चन्द्रमा।

सर्व.

वह।

ऊअना

क्रि. अ.

[सं. उदयन, हिं. उगना]

उगना, उदय होना।

ऊआ

क्रि. अ.

[हिं. ऊअना]

उगा, उदित हुआ।

ऊआबाई

वि.

[हिं. आव, बाव। सं. वायु = हवा]

अडबंड, निरर्थक, व्यर्थ।

जनम गँवायौ ऊआबाई। भजे न चरन कमल जदुपनि के, रह्यौ बिलोकत छाई -- १-३२८।

ऊक

संज्ञा

[स. उल्का]

टूटता तरा, उल्का।

ऊक

संज्ञा

[स. उल्का]

आँच, ताप, ताव।

हृदय जरत है दावानल ज्यों कठिन बिरह की ऊक।

ऊकना

क्रि. अ.

[हिं. चूकना का अनु.]

चूकना, भूल जाना।

ऊकना

क्रि. स.

छोड़ जाना।

ऊकना

क्रि. स.

[सं. उल्का, हिं. ऊक]

जलाना, भस्म करना।

ऊख

संज्ञा

[सं. ईक्षु]

ईख, गन्ना।

हरि-स्वरूप सब घट यौं जान्यौ। ऊख माहिं ज्यौं रस है सान्यौ ३-१३।

ऊख

संज्ञा

[सं. उष्ण]

गर्मी, ताप।

ऊख

वि.

गरम, तप्त।

ऊखम

संज्ञा

[सं. उष्म]

गरमी, तपन।

ऊखल  

संज्ञा

[सं. उलूग्वल)

ओखलो, काँडी, हावन।

ऊखल  

संज्ञा

[सं. उलूग्वल)

एक तरह का पत्थर।

ऊखा

संज्ञा

[सं. ऊष्मा]

आग,ताप।

और दिनन ते आजु दहो हम ऊखा ल्याई। देखत ज्योति बिलास दई मुख बचन डिठ'ई-११४१।

ऊखा

संज्ञा

[स. उषा]

प्रातः काल, उषाकाल।

ऊगत

क्रि. अ.

[हिं. उगना।]

उदय होकर, उदय होते होते।

मानिक मध्य पास चहुँ मोती पंगति पंगति झलक सिंदूर। रेंग्यौ जनु तम तट तारागन ऊगत घेरेयौ सूर--१८९६।

ऊगना

क्रि. अ.

[हिं. उगना]

उदय होना, निकलना।

ऊज

संज्ञा

[सं. उद्धन]

उपद्रव, ऊधम।

ऊजड़

वि.

[हिं.उजड़ना]

उजड़ा हुआ सूनसान, बिनाँ बसा हुआ।

ऊजर

वि.

[हिं. उजाला]

सफेद, उजला।

ऊजर

वि.

[हिं. उजड़ना]

उजाड़, बिना बसा  हुआ।

ज्यों ऊसर खेरे के देवन को पूगै को मानै। त्यों हम बिनु गोपाल भए ऊधो कठिन प्रीति को जानै-३३०६।

ऊजरा

वि.

[हिं. उजला]

सफेद, उजला।

ऊटना

क्रि. अ.

[हिं. औंटना = खलबल ना]

उत्सहित होना, उमंग में आना।

ऊटना

क्रि. अ.

[हिं. औंटना = खलबल ना]

सोच विचार करना।

ऊटपटाँग

वि.

[हिं. ऊँट + पर + टाँग]

बेढंगा, बेमेल, टेढ़ा-मेढ़ा।

ऊटपटाँग

वि.

[हिं. ऊँट + पर + टाँग]

व्यर्थ, निरर्थक।

ऊड़ना

क्रि. स.

[सं. ऊढ़]

बिचार करना।

ऊढ़ना

क्रि. अ.

[स. ऊह = सं.देह पर विचार]

सोचविचार करना, अटकल लगाना।

ऊढ़ा

संज्ञा

[सं.]

विवाहिता स्त्री।

ऊढ़ा

संज्ञा

[सं.]

वह परकीया नायिका जो पति को छोड़ कर किसी अन्य से प्रेम करे।

ऊत

वि.

[सं. अपुत्र]

जिसके पुत्र न हो, निपूता।

ऊत

वि.

[सं. अपुत्र]

उजडु।

ऊतर

संज्ञा

[सं. उत्तर)

उत्तर, जबाब।

ऊतर

संज्ञा

[सं. उत्तर)

बहाना।

ऊतला

वि.

[हिं. उतावला]

चंचल, तेज।

अगोरना

क्रि. स.

[सं. अग्र = आगे]

बाट जोहना, प्रतीक्षा करना।

अगोरना

क्रि. स.

[सं. अग्र = आगे]

रखवाली करना।

अगोरना

क्रि. स.

[सं. अग्र = आगे]

रोकना, छेकना।

अगोरि

क्रि. स.

[सं. अग्र = आगे, हिं. अगोर ना]

रोककर, छेंक कर।

मेरे नैनन ही सब खोरि। स्याम बदन छबि निरख जु अट के बहुरे नहीं बहोरि। जो मैं कोटि जतन करि राखति घूँघट ओट अगोरि। पृ. ३३३।

अगौनी

क्रि. वि.

[सं. अग्र, प्रा. अग्ग हिं. अगवानी]

आगे।

अगौनी

संज्ञा

अगवानी।

अगौहैं

क्रि. वि.

[सं. अग्र मुख]

आगे, आगे की ओर।

अग्नि

संज्ञा

[सं.]

आग, उष्णता।

जठर । अग्नि कौ व्यापै ताव-३-१३।

अग्नीध्र

संज्ञा

[सं.]

स्वयंभू मनु के आत्मज राजा प्रियव्रत का पुत्र।

ब्रह्मा स्वयंभुव मनु जायौ। तातै जन्म प्रियव्रत पायौ। प्रियव्रत के अग्नी ध्र सु भयौ-५-२।

अग्यान

वि.

[सं. अज्ञान]

ज्ञानशून्य, जड़, मूर्ख।

मैं अग्यान अकुलाइ, अधिक लै, जरत माँझ घृत नायौ-१:१४५।

ऊतिम

वि.

[सं. उत्तम]

अच्छा, श्रेष्ठ।

ऊदा

वि.

[अ. ऊद अथवा फा कबूद]

बैंगनी रंग का।

ऊधम

संज्ञा

[सं. उद्धम = ध्वनित]

उपद्रव, उत्पात हल्ला-गुल्ला।

ऊधव

वि.

[हिं. ऊधम]

उत्पाती, उपद्रवी।

ऊधव, ऊधो

संज्ञा

[सं. उद्धव]

श्रीकृष्ण के सखा ए यादव जिन्हें ज्ञान का गर्व था और जो गोपियों क ज्ञानोपदेश देने गये थे।

ऊन

संज्ञा

[सं. ऊर्ण]

भेड़ बकरी के रोएँ जिसे गरम कपड़े बनते है।

ऊन

संज्ञा

[सं. ऊर्ण]

दुख, ग्लानि।

ऊन

वि.

[स.]

कम, थोड़ा।

ऊन

वि.

[स.]

तुच्छ, हीन

ऊनता

संज्ञा

[सं. ऊन]

कमी, घटी।

ऊनता

संज्ञा

[सं. ऊन]

हीनता, तुच्छता।

ऊना

वि.

[सं. ऊन]

कम।

ऊना

वि.

[सं. ऊन]

हीन।

ऊनी

संज्ञा

[सं. ऊन]

उदासी, ग्लानि।

ऊनो, ऊनौ

वि.

[सं. ऊन]

कम,थोड़ा।

ऊनो, ऊनौ

वि.

[सं. ऊन]

तुच्छ, हीन

ऊपर  

क्रि. वि.

[सं. उपरि]

ऊँचाई पर।

ऊपर  

क्रि. वि.

[सं. उपरि]

आधार पर, सहारे पर।

(क) भृगु कौ चरन राखि उर ऊपर बोले बचन सकल सुखदाई--१-३। (ख)-मेरे हेत दुखी तू होत। कै अधर्म तो ऊपर होत-१-२९०। (ग) तुव ऊपर प्रसन्न मैं भयौ-९-३। (घ) दूत पठाइ देहु ब्रज ऊपर नन्दहिं अति डरपावहु--५२२।

ऊपर  

क्रि. वि.

[सं. उपरि]

प्रकट में, प्रत्यक्ष में।

ऊपर  

क्रि. वि.

[सं. उपरि]

अतिरिक्त, पर।

ऊपर  

मुहा.

ऊपर (से) :- इसके अतिरिक्त. इसके साथ-साथ। उ.- जय अरु विजय कर्म कह कीन्हौ, ब्रह्म सराप दिवायौ। असुर-जोन ता ऊपर दीन्हीं धर्मउछेद करायौ-१-१०४। ऊपर ऊपर :- बिना किसी को बताये या जताये।

ऊपरी

वि.

[हिं. ऊपर]

ऊपरी।

ऊपरी

वि.

[हिं. ऊपर]

बाहरी, दिखाऊ।

ऊब

संज्ञा

[हिं. ऊभ = हौसला, उमंग]

उत्साह, उमंग।

नँदनँदन लै गए हमारी अब ब्रज कुल की ऊब। सूर स्याम तजि और सूझे ज्यों खेरे की दूब--३३६१

ऊब

संज्ञा

[हिं. ऊबना]

घबराहट उद्वेग।

ऊबट

सं.

[सं. उद्= बुरा + बत्र्म, प्रा. बट्ट == मार्ग]

अट पट राता, कुमार्ग।

ऊबट

वि.

ऊँचा नीचा।

ऊबड़-खाबड़

वि.

[अनु.]

जो समतल न हो, ऊँचा नीचा, अटपट।

ऊबना

क्रि. अ.

[सं. उद्वेजन, पा. उब्‍बिजन, पु. हिं. उबियाना]

उकताना, घबराना।

ऊबर

संज्ञा

[हिं. उबरना]

उबरने का भाव या क्रिया।

ऊबर

वि.

बचा हुआ, शेष।

ऊबरना

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

उबरना।

ऊबरी

क्रि. अ.

[हिं. उबरना]

मुक्त हुई, बच गयी, छुटकारा पाँ गयी।

बड़ी करबर टरी, साँप सौं उबरी, बात कैं कहत तोहिं लगति जरनी-६९८।

ऊभ

वि.

[हिं. ऊभना = खड़ा होना]

ऊँदा, उठा हुआ।

ऊभ

संज्ञा

[हिं. ऊब]

उद्वेग, घबराहट।

ऊभ

संज्ञा

[हिं. ऊब]

हौसला, उमंग।

ऊभ

संज्ञा

[हिं. ऊब]

उमस, गरमी।

ऊसचूभ

संज्ञा

[हिं. ऊभ]

पानी में डूबनाउतराना।

ऊझट

संज्ञा

[हिं. ऊबड़, ऊबट]

ऊबड़-खाबड़ मार्ग, कुमार्ग।

ऊझट

वि.

ऊँचा-नीचा, अटपटा।

ऊभना

क्रि. अ.

[सं. उद्भवन = ऊपर होना]

उठना, खड़ा होना।

ऊभना

क्रि. अ.

[हिं. ऊबना]

घबराना उकताना।

ऊर्भ

क्रि. अ.

[हिं. ऊभना]

उठीं, उमड़ पड़ीं. खडी हुई।

करुन करति मँदोदरि रानी। चोदहमहम सुन्दरी ऊभी (उमद्दीं) उठै न कंत महा अभिमानी-९-१६०।

ऊमक

संज्ञा

[सं. उभंग]

झोंक, उठान, झपेटा, वेग।

ऊमना

क्रि. अ.

[देश.]

उमड़ना, उमगना है ऊमर, ऊमरि संज्ञा पुं०[सं० उदुंबर) गूलर।

ऊमस

संज्ञा

[हिं. उमरा]

गरमी, उमस।

ऊर

संज्ञा

[देश.]

ओर, सीमा।

ऊरज

संज्ञा

[हिं. उरोज, उरज]

स्तन, कुच।

चारु कपोल पीक कहाँ लागी ऊरज पत्र लिखाई--२१२९।

ऊरज

वि.

[सं. ऊर्ज]

बली, शक्तिशाली।

ऊरज

संज्ञा

बल, शक्ति।

ऊरध

वि.

[सं. ऊदध्र्व]

ऊँचा, ऊपर का।

(क) ऊरध स्वाँस चरन गति थाक्यो, नैनन नीर न रहाई-२६५०। (ख) परी रहत ना कहत कबहूँ कछु भरि भरि ऊरध श्वाँस-सा ०.२६।

ऊरध

वि.

[सं. ऊदध्र्व]

खड़ा।

ऊरध

क्रि. वि.

ऊपर, ऊपर की ओर।

अदभुत राम नाम के अक।….। मुनि मन-हंस-पच्छ-जुग जाकैं बल उड़ि ऊरध जात -- -१-९०।

ऊरधरेता

यि.

[सं. ऊर्द्धवरेता]

इंद्रियों को वश में रखनेवाली, ब्रह्मचारी।

ऊरधरेता

संज्ञा

योगो।

ऊरु

संज्ञा

[सं.]

जानु, जंघा।

ऊर्ज

वि.

[सं.]

बली

ऊर्ज

संज्ञा

बल।

ऊर्ज

संज्ञा

एक काव्यालंकार जिस में सहायकों के रहने पर भी उत्तम बने रहने या घमंड न रहने का वर्णन रहता है।

ऊर्जस्वल, ऊर्जस्वित, ऊर्जस्वी

वि.

[सं.]

बली, शक्तिशाली।

ऊर्जस्वल, ऊर्जस्वित, ऊर्जस्वी

वि.

[सं.]

प्रतापी, ओजयुक्त।

ऊर्जित

वि.

[सं. ऊर्ज]

बली, शक्तिशाली।

ऊर्ण

संज्ञा

[सं.]

ऊन।

ऊर्ध्व

वि.

[सं. ऊद्ध्व]

ऊँची, ऊपर की।

कहा पुरान जु पढ़े अठारह, ऊध्र्व धूम के घूँटै --२-१९।

ऊर्ध्व

वि.

[सं. ऊद्ध्व]

खड़ा।

ऊर्ध्व

क्रि. वि.

ऊपर की ओर।

ऊद्‍ध्र्वगामी

वि.

[सं.]

ऊपरकी ओर जाने वाला।

ऊद्‍ध्र्वगामी

वि.

[सं.]

मुक्त।

ऊद्‌‍ध्र्वद्वार

संज्ञा

[सं.]

दसवाँ द्वार, ब्रह्मरंध्र।

ऊद्‌ध्र्वबाहु

संज्ञा

[सं.]

भुजा उठाये रह कर तप करने वाले तपस्वी।

ऊद्‍ध्र्वरेता

वि.

[सं.]

इन्द्रियों को वश में रखने वाला, ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय।

ऊद्‍ध्र्वरेता

संज्ञा

शिव।

ऊद्‍ध्र्वरेता

संज्ञा

भीष्म।

ऊद्‍ध्र्वरेता

संज्ञा

हनुमान।

ऊद्‍ध्र्वरेता

संज्ञा

योगी।

ऊर्मि, ऊर्मी

संज्ञा

[सं.]

लहर, तरंग।

ऊर्मि, ऊर्मी

संज्ञा

[सं.]

पीडा, दुख।

ऊर्मिमाली

संज्ञा

[सं.]

समुद्र।

ऊषा

संज्ञा

[सं.]

प्रभात।

ऊषा

संज्ञा

[सं.]

पौ फटने की लाली।

ऊषा

संज्ञा

[सं.]

वाणासुर की कन्या जो अनिरुद्ध को ब्याही थी।

ऊषाकाल

संज्ञा

[सं.]

प्रात काल।

ऊषापति

संज्ञा

[सं.]

श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध।

ऊष्म

संज्ञा

[सं.]

गरमी, तपन।

ऊष्म

वि.

गरम।

ऊष्मवर्ण

संज्ञा

[सं.]

श, ष, स और ह।

ऊसर

संज्ञा

[सं. ऊषर]

वह भूमि जिसमें रेह की अधिकता के कारण कुछ न ज मे

( क) एक अंश पृथ्वी कौं दयौ। ऊसर तामैं तातैं भयौ-६-५। (ख) या ब्रज को बसिबौ हम छाँड़यौं सो अपनैं जिय जानी। सूरदास ऊसर की बरषा थोरे जल उतरानी-१०-३३७।

ऊह

संज्ञा

[सं.]

विचार, अनुमान।

ऊह

संज्ञा

[सं.]

तर्क।

ऊह

अव्य.

दुख या आश्चर्यसूचक शब्द।

ऊहा

संज्ञा

[सं.]

सोच-विचार।

ऊहा

संज्ञा

[सं.]

तर्क-वितर्क।

ऊहापोह

संज्ञा

[सं. अह् + अपोह]

तर्क-वितर्क। सोच-विचार।

देवनागरी वर्णमाला का सातवाँ स्वर। इसका उच्चारण स्थान मूर्द्धा है।

संज्ञा

[सं.]

देवताओं की माता अदिति।

संज्ञा

[सं.]

बुराई, निंदा।

ऋक

संज्ञा

[सं.]

वेदमंत्र।

ऋक

संज्ञा

[सं.]

ऋग्वेद।

ऋक्थ

संज्ञा

[सं.]

धन।

ऋक्थ

संज्ञा

[सं.]

सोना, स्वर्ण।

अग्यान

संज्ञा

मुग्धा नायिका।

हान दिनपति सीस सोभा रंच राजत आज। सूर प्रभु अग्यान मानो छपी उपमा साज-स ० २।

अग्र

संज्ञा

[सं.]

आगे का भाग, सिरा, नोक।

हरि जब हिरन्याच्छ कौं मारयौ। दसन अग्र पृथ्वी कौं धारयौ--७-२।

अग्र

क्रि. वि.

आगे।

(क) निधरक भयौ चल्यौ ब्रज आवत अग्र फौजपति मैन-२८१९। (ख) दसनराज जो महारथी सो आवत अग्र अनूपसा। ० ८२।

अग्र

क्रि. वि.

में, पर, ऊपर।

(क) बहुत श्रेय पुन कुंत अग्र में नीतन सो रंग सारो -- सा ० ८३। (क) कुंत अग्र गज औ नीकन में ऑपुन ही ते देहैं -- सा ० ९७।

अग्र

वि.

अगला, प्रथम, श्रेष्ठ, उत्तम।

अग्र

क्रि. वि.

आगे करके, सामने रखकर, ओट लेकर।

मधुकर काके मीत भए। दिवस चारि करि प्रीति सगाई, रस लै अनत गए। डहकत फिरत आपने स्वारथ पाखंड अग्र दए। चाड़ सरे पहिचानत नाहिंन प्रीतम करत नए-५१२।

अग्र

क्रि. वि.

आगे से, पहिले ही से, अभी से।

याहि मारि तोहिं और बिवाहौं अग्र सोच क्यों मरई-१० ४।

अग्रज

संज्ञा

[सं.]

बड़ा भाई।

अग्रज

संज्ञा

[सं.]

नायक, नेता।

अग्रज

वि.

श्रेष्ठ, उत्तम।

ऋक्थ

संज्ञा

[सं.]

प्राप्त, संपत्ति।

ऋक्ष

संज्ञा

[सं.]

भालू।

ऋक्ष

संज्ञा

[सं.]

नक्षत्र।

ऋक्षपति

संज्ञा

[सं.]

भालुओं का नायक जांबवान।

ऋक्षपति

संज्ञा

[सं.]

नक्षत्रों का राजा चंद्रमा।

ऋग्वेद

संज्ञा

[सं.]

चार वेदों में एक।

ऋचा

संज्ञा

[सं.]

वेदमंत्र, स्तुति।

ब्रज सुन्दरि नहिं नारि ऋचा स्रुति की सब अहिं-१८५१

ऋच्छ

संज्ञा

[सं. ऋक्ष]

भालू।

ऋच्छ

संज्ञा

[सं. ऋक्ष]

नक्षत्र।

ऋच्छराज

संज्ञा

[सं. ऋक्ष + राज]

जांबवान।

ऋच्छराज वह मनि तासों लै जांबवती को दीन्हीं १०-३०-२६।

ऋजु

वि.

[सं.]

जो टेढ़ा न हो, सीधा।

ऋजु

वि.

[सं.]

जो कठिन न हो सरल।

ऋजु

वि.

[सं.]

सरल स्वभाव वाला।

ऋजु

वि.

[सं.]

अनुकूल, प्रसन्न।

ऋजुता

संज्ञा

[सं.]

सीधापन।

ऋजुता

संज्ञा

[सं.]

सुगमता।

ऋजुता

संज्ञा

[सं.]

सिधाई, सज्जनता।

ऋण

संज्ञा

[सं.]

उधार, कर्ज।

ऋणी

वि.

[सं. ऋणिन्]

जिसने ऋण लिया हो।

ऋणी

वि.

[सं. ऋणिन्]

उपकार मानने वाला।

ऋत

संज्ञा

[सं.]

मोक्ष।

ऋत

संज्ञा

[सं.]

जल।

ऋत

संज्ञा

[सं.]

कर्मफल।

ऋत

वि.

दीप्त।

ऋत

वि.

पूजित।

ऋतु

संज्ञा

[सं.]

प्रकृति की स्थिति के अनुसार वर्ष के विभाग।

ऋतु

संज्ञा

[सं.]

यज्ञ।

ऋतु

संज्ञा

[सं.]

रजोदर्शन के बाद का समय।

ऋतुचर्या

संज्ञा

[सं.]

ऋतु के अनुसार खानपान की व्यवस्था।  

ऋतुराज

संज्ञा

[सं.]

वसन्त ऋतु।

ऋत्विज

संज्ञा

[सं.]

यज्ञ करनेवाला।

ऋद्ध

वि.

[सं.]

संपन्न, समृद्ध।

ऋद्धि

संज्ञा

[सं.]

समृद्धि, बढ़ती।

ऋन

संज्ञा

[सं. ऋण]

उधार, कर्ज।

सबै कूर मोसौं ऋन चाहत कहौ कहा तिनौदीजै-१-१९६।

ऋन

संज्ञा

[सं. ऋण]

ऋण, उपकार।

जौ पै नाहीं मानत प्रभु बचन ऋन। तौ का कहिए सूर स्याम सिन-३ ३९४।

ऋनिया

वि.

[सं. ऋणी]

ऋणी, देनदार।

ऋनी

क्रि.

[सिं. ऋणी]

जिसने ऋण लिया हो।

ऋनी

क्रि.

[सिं. ऋणी]

उपकार माननेवाला, उपकृत, अनुग्रहीत।

गर्भ देवकी के तन धरिहौं जसुमति कों पय पीहौं। पूरब तप बेहु कियो कष्ट करि इनको बहुत ऋनी हौं। -- -११८३।

ऋषभ

संज्ञा

[सं.]

बैल।

ऋषभ

संज्ञा

[सं.]

राम की सेना का एक बंदर।

ऋषभ

संज्ञा

[सं.]

संगीत के सात स्वरों में से दूसरा।

ऋषभदेव

संज्ञा

[सं.]

राजा नाभि के पुत्र जो विष्णु के चौबीस अवतारों में माने जाते हैं।

ऋषभदेव

संज्ञा

[सं.]

जैन धर्म के आदि तीर्थकर।

ऋषभध्वज

संज्ञा

[सं.]

शिव, महादेव।

ऋषि

संज्ञा

[सं.]

वेदमंत्रों को प्रकाश करने वाला।

ऋषि

संज्ञा

[सं.]

तत्वज्ञानी।

देवनागरी वर्णमाला का आठवाँ स्वर। 'अ' और 'इ' के संयोग से बना है। कंठ और तालु से इसका उच्चारण होता है।

एचपेंच

संज्ञा

[फा. पेच]

उलझन।

एचपेंच

संज्ञा

[फा. पेच]

दाँवपेच।

ऍडा-बेंडा

वि.

[हिं. बेड़ा]

अंडबंड, उलटा-सीधा।

एँडुआ

संज्ञा

[हिं. ऐंडना]

गेंडुरी, कुंडली, बिडुआ।

संज्ञा

[सं.]

विष्णु।

अव्य.

एक अव्यय जिसका प्रयोग संबोधन के लिए किया जाता है।

सर्व.

[सं. एषः]

यह, ये।

(क) छाँड़त छिन में ए जो सरीर हि गहि कै ब्यथा जात हरि लैन-२७६८। (ख) लोचन लालच ते न टरैं। हरि-मुख ए रंग सँग बिधे दाधौं फिरैं जरैं--२७७०।

एई

सर्व. सवि.

[सं. एष. + हिं. ही]

यह ही, ये हो।

(क) आधा बका संहारन ऐई असुर सँहारन आए-२५८१। (ख) एई माधव जिन मधु मारे--२५६८।

एऊ

सर्व. सवि.

[सं. एष. + हिं. ऊ (प्रत्य.)]

यह भी, ये भी।

ताही के मोहन विरहिनि को एऊ ढीठ करे-२८४१।

एकंग,एकंगी

वि.

[हिं. एक + अंग]

एक तरफ का, एक पक्ष का।

एकंत

वि.

[सं. एकांत]

जहाँ कोई न हो, सूना।

एकांत

वि.

[सं.]

अत्यन्त नितांत।

एकांत

वि.

[सं.]

अलग, पृथक।

एकांत

संज्ञा

[सं.]

निर्जन, एकांत।

बैठि एकांत जोहन लगे पंथ सिव, मोहिनी रूप कब दै दिखाई-८-१०।

एक

वि.

[सं.]

इकाइयों में सबसे पहली संख्या।

एक

वि.

[सं.]

अकेला, अद्वितीय।

प्रभु कौ देखी एक सुभाई-१८।

एक

वि.

[सं.]

एक ही प्रकार का, समान, तुल्य।

एक

मुहा.

एकटक लागि आशा रही :- बहुत समय से आसरा बँधा था। उ.- जन्म ते एकटक लागि आसा रही विषय विष खात नहिं तृप्ति मानी-१-११०। एक आँक (या अंक) :- पक्की बात। एकटक :- दृष्टि गड़ाकर। एकताक :- समान, बराबर। उ.- सखन संग हरि जेंवत छाक। प्रेम सहित मैया दै पठयो सबै बनाए हैं एक (इक) ताक-४६६। एकतार :- (१) वि.- समान रूप-रंग-नाम का। (२) क्रि. वि.- सम भाव से। एक एक कर :- अलग अलग, अकेले-अकेले। उ.- आजु हौं एक-एक करि टहिौं। कै तुमहीं कै हमहीं. माधौ, अपने भरोसैं लरिहौं-१-१३४।

एकचक्र

संज्ञा

[सं.]

सूर्य का रथ जिसमें एक ही चक्र माना गया है।

एकचक्र

संज्ञा

[सं.]

सूर्य।

एकचक्र

वि.

चक्रवर्ती।

एकचित

वि.

[सं. एकचित्त]

स्थिर या एकाग्र मन का।

एकचित

वि.

[सं. एकचित्त]

समान विचार का।

एकछत्र

वि.

[सं.]

अपने पूर्ण अधिकार से युक्त, निष्कंटक।

एकछत्र

क्रि. वि.

प्रभुत्व के साथ।

एकज

संज्ञा

[सं.]

शूद्र।

एकज

संज्ञा

[सं.]

राजा।

एकज

वि.

[सं. एक + एव, प्रा. ज्जेव] केवल एक, एक मात्र, अकेला।

एकटक

वि.

[हिं.]

जो पलक न झपाये, अपलक।

एकठी

वि.

[हिं. इकट्ठा]

एक स्थान पर, एक ठौर एकत्र।

इतहुँ की उनहुँकी सबै जुरी एकठी कहति राधा कहाँ जाति हैरी-१५२६।

एकत

क्रि. वि.

[सं. एकत्र, प्रा. एकत]

एक जगह इकट्ठा. एकत्र।

एकता

संज्ञा

[सं.]

मेल, एका।

एकता

संज्ञा

[सं.]

समानता।

एकतान

वि.

[सं.]

लीन, एकांग्रति।

एकत्र

क्रि. वि.

[सं.]

इकटठा, एक जगह।

एकत्रित

वि.

[सं.]

जो इकट्ठा हुआ हो जुटाया हुआ।

एकदंत

संज्ञा

[स]

गणेश।

एकदेशीय

संज्ञा

[सं.]

एकही स्थान यो समय से संबंध रखनेवाला, जो सदा न घटे।

एकन, एकनि

सर्व.

[सं. एक + हिं. नि]

किसी किसी, कोई-कोई।

एकनि कौं दरसन ठगै, पकनि के सँग सोवै (हो)। एकनि लै मंदिर चढ़ै, एकनि विरचि बिगोवै (हो)-१-४४।

एकनिष्ठ  

वि.

[सं.]

एक ही पर श्रद्धा या निष्ठा रखनेवाला।

एकरस

वि.

[सं.]

एक ढंग का, सदा एक-सा रहने वाला, अपरिवर्तनीय।

(क) सिसु, किसोर, बिरधौ तनु होइ। सदा एकरस आतम सोइ-७--२। (ख) अज-अनीह-अबिरुद्ध-एकरस, यहै अधिक ये अवतारी-१०-१७१।

एकरूप

वि.

[सं.]

समान रूप-रंग का, एक सा, एक समान।

एकरूप

वि.

[सं.]

ज्वों का त्यों, जैसे का तैसा।

एक रूप ऊधो फिरि आए हरि चरनन सिर नायौ।

एकरूपता

संज्ञा

[सं.]

समानता।

एकरूपता

संज्ञा

[सं.]

सायुज्य मुक्ति जिसमें जीवात्मा परमात्मा से मिल जाता है।

एकल

वि.

[हिं. एक]

अकेला।

एकल

वि.

[हिं. एक]

एकता ।

एकल

वि.

[हिं. एक]

बेजोड़।

एकला

वि.

[हिं. एक]

अकेला।

एकलिंग

संज्ञा

[सं.]

शिव का एक नाम।

एकलिंग

संज्ञा

[सं.]

कुबेर।

एकसर

वि.

[हिं. एक + सर (प्रत्य.)]

अकेला।

एकसर

वि.

[हिं. एक + सर (प्रत्य.)]

एक पल्ले या पर्त का।

अग्रज

वि.

[सं. अग्र = आगे]

अग्रिम, पहला।

प्रभुजू यों कीन्हीं हम खेती।•••••••। इंद्रिय मूल किसान, महातृन-अग्रज बीज बई। जन्म-जन्म की विषय-बासना उपजत लता नई -- १.१८५।

अब

संज्ञा

[सं.]

पाप, पातक, अधर्म।

प्रतिहिं किए अघ भारे--१-२७।

अब

संज्ञा

[सं.]

मथुरा के राजा कंस का एक सेनापति अघासुर जो श्रीकृष्ण द्वारा मारा गया था।

(क) अघ-अरिष्ट-केसी काली मथि दावानलहिं पियौ--१.१२१। (ख) अघ बक बच्च अरिष्ट केसी मथि जल तैं काढ़यो काली--२५६७। (ग) नंद नहिं नि कंद कारन अघ संवारन धीर-सा. ९३।

अघट

वि.

[सं. अ = नहीं + घट् = होना]

जो कार्य में परिणत न हो सके।

अघट

वि.

[सं. अ = नहीं + घट् = होना]

दुर्घट, कठिन।

अघट

वि.

[सं. अ = नहीं + घट् = होना]

जो ठीक न घटे, बेमेल, अनुपयुक्त।

अघट

वि.

[सं. घट = हिं.सा करना]

जो कभी न घटे, अक्षय।

अघट

वि.

[सं. घट = हिं.सा करना]

एकर स, स्थिर।

जहँ तहँ मुनिवर निज मर्यादा थापी अघट अपार।

अघट

वि.

[सं. घट = हिं.सा करना]

सवंगियुक्त पूर्ण।

अघट उपमा

संज्ञा

[सं. अ = नही + घट = घटना कम होना, अघट == जो कम न हो = पूर्ण + उपमा]

अलुप्तोपमा, पूर्णोपमा अलंकार। वह अलकार जिसमें उपसा के चारों अंग उपमान, उपमेय, साधारण धर्म और वाचक शब्द वर्तमान हों।

सूरस्याम सुजान सुकिया अघट उपमा दाव-सा, १।

एकहिं

वि.

[सं. एक + हिं. ही (पत्य.)]

केवल एक, एक ही।

सूरदास कंचन अरु काँचहिं. एकहिं धगा पिरोगै -१-४३।

एकांगी

वि.

[सं.]

एक ओर को, एकपक्षीय।

एकांगी

वि.

[सं.]

हठी।

एकांत

वि.

[सं.]

अति, अत्यन्त।

एकांत

वि.

[सं.]

अलग, अकेला।

एकांत

संज्ञा

सुना स्थान।

एकांतिक

वि.

[सं. एकांत]

एक स्थान से सम्बन्ध रखनेवाला, एकदेशीय।

एका

संज्ञा

[सं. एक]

मिलकर रहना, एकता।

एकाएकी

क्रि. वि.

[हिं. एक]

सहसा, अचानक।

एकाएकी

वि.

[सं. एकाकी]

अकेला, एकानी।

एकाकी

वि.

[सं. एकाकिन्]

अकेला।

एकाक्ष

वि.

[सं.]

एक आँख का काना।

एकाक्ष

संज्ञा

शुक्राचार्य।

एकाक्ष

संज्ञा

कौआ।

एकाग्र

वि.

[सं.]

एक ओर लगा हुआ

एकाग्र

वि.

[सं.]

एक ओर ध्यान रखनेवाला।

एकात्मता  

संज्ञा

[सं.]

एक होना।

एकात्मता  

संज्ञा

[सं.]

एकता।

एकादशी

संज्ञा

[सं.]

प्रत्येक पक्ष की ग्यारहवीं तिथि। इस दिन वैष्णव मतावलम्बी व्रत रखते हैं।

एकादश

वि.

[सं. एकादश]

ग्यारह।

एकादश

संज्ञा

ग्यारह का संख्याबोधक अंक।

एकादश

संज्ञा

ग्यारहवीं राशि अर्थात कुंभ। इससे अर्थ निकला उरोज, स्तन।

नवमी छोड़ अवर नहिं ताकत दस निज राखैं साल। एकादस लै मिलो बेगहुँ जानहु नवल रसाल--सा ० २९।

एकादसी  

संज्ञा

[सं. एकादशी]

प्रत्येक पक्ष को ग्यारहवीं तिथि। इस दिन वैष्णव लोग अनाहार अथवा फलाहार करते हैं।

एकादसी करैनिराहार-९-५।

एकै

वि.

[हिं. एक]

एकही, केवल एक, निश्चित रूप से यही।

(क) एकै चीर हुतौ मेरे पर, सो इन हरन चह्यौ-१-२४७। (ख) मेरैं मात-पिता-पति-बंधू, एकै टेक हरी--१-२५४।

एको

वि.

[हिं. एक]

एक भी।

(क) सूरदास प्रभु बिनु ब्रज ऐसो एको पल न सुहाइ-२५३८। (ख) सूरस्याम देखत अनदेखत बनत न एको बीर--सा. ७२।

एकौ

सर्व.

[सं. एक + हिं. औ (प्रत्य.)]

एक भी।

माया देखते ही जु गई। ना हरि-हित, न तू-हित, इन मैं एकौ तौ न भई-१-५०।

एकौझा

वि.

[हिं. एक, अकेला]

अकेला।

एड़ियनि

संज्ञा

[हिं. एड़ी]

ऐड़ियों की।

नान्हीं एड़ियनि, फल बिब न पूजै-१०-१३४

एड़ी

संज्ञा

[सं. एडुक = हड्डी]

पैर की गद्दी का पीछे की ओर निकला हुआ भाग।

एत

वि.

[सं. इयत्]

इतना (अधिक), इतनी (अधिक मात्रा का)।

(क) कहि धौं री तोहिं क्यौं करि आवै, सिसु पर तामस एत--३४९।

एतदर्थ

क्रि. वि.

[सं.]

इसके लिए।

एतदर्थ

वि.

इस काम के लिए बना हुआ।

एतद्देशीय

वि.

[स.]

इस देश का, इस देश से संबंधित।

एता

वि.

[हिं. एत]

इतना, ऐसा।

तनक दधि कारन जसोदा एना कहा रिसाही।

एतिक

वि.

[हिं. एती = इतनी + एक]

इतनी ( अधिक) इस मात्रा की।

जेतिक सैल-सुमेरु धरनि मै, भुज भरि आनि मिलाऊँ। सप्त समुद्र देउँ छाती तर, एतिक देह बढ़ाऊँ--९-१०७।

एती  

वि.

[हिं. एता]

इतनी, ऐसी। ( संख्या वाचक)

(क) एती करबर हैं हरी, देवनि करी सहाय। तब तैं अब गाढ़ी परी, मोकौं कछु न सुझाई-५८९। (ख) एती के ती तुमरी उनकी कहत बनाइ बनाइ-३३३४।

एते  

वि.

[हिं. एता]

इतने (अधिक, संख्या वाचक)।

गाँउ बसत एते दिवस नि मैं, आजु कान्ह मैं देखे -- १०-७३०।

एते  

वि.

[हिं. एता]

इस मात्रा के।

हौं तो कहत तिहारे हित को एते मो कत भरमत--३३८७।

एते  

क्रि. वि.

इतने पर भी, ऐसा होने, पर भी।

एते पर नहिं तजस अधोड़ी कपटी कस कुचाली--२५६७।

एतै

वि.

[सं. इयत्]

इस मात्रा का, इतना।

( क ) कहत सुर बिरथा यह देही, एयौ कत इतरात--१-३११। (ख) तनक दधि कारनै यसोदा, एतौ कहा रिसाहो। (ग) सो सपूत परिवार चलावै एतो लोभी धृग इनही–पृ० ३२२।

एरी  

अव्य.

[सं. अयि, हिं. हे, ऐ-+ री]

एक संबोधन।

(एरी) आनन्द सौं दधि मथति जसोदा, धमकि मथनियाँ घूमै--१०-२४७।

एला

संज्ञा

[सं. एलाम]

इलायची।

एवं

क्रि. वि.

[सं.]

ऐसा ही इसी प्रकार।

एब

अव्य.

[सं.]

ही।

एब

अव्य.

[सं.]

भी।

एवमस्तु

यौ. वा.

[सं. एवं]

ऐसा ही हो ( शुभाशीर्वाद)।

एव मस्तु निज मुख क ह्यौ पूरन परमानंद--१८६१।

एषण

संज्ञा

[सं.]

इच्छा।

एषण

संज्ञा

[सं.]

छानबीन।

एषण

संज्ञा

[सं.]

खोज।

एषणा  

संज्ञा

[सं.]

इच्छा।

एह, एहा

सर्व.

[सं. एष:]

यह, ये।

भक्तनि । हित तुम धारी देह। तरिहैं गाइ-गाइ गुन एह--७-२।

एह, एहा

वि.

यह।

एहि

सर्व.

[हिं. एह + हि (प्रत्य.)]

यही।

(क) एहि थर बनी कीड़ा गज-मोचन और अनन्त कथा स्रुति गाई -- १-६। (ख) भूसुत आइगो एहि बेर-सा० ५४।

एहि

वि.

यहाँ, इसी।

(क) एहि थर बनी कोड़ा गज-मोचन और अनन्त कथा स्रुति गाई -- १-६। (ख) भूसुत आइगो एहि बेर-सा० ५४।

एहु

सर्व.

[हिं. एह]

यह।

समय बिचारि मुद्रिका दीजौ सुनौ मत्र सुत एहु -- -९-७४।

एहो

अव्य.

[हिं. हे, हो]

हे, ऐ। (सम्बोधन शब्द)।

देवनागरी वर्णमाला का नवाँ स्वर। कठ और तालु से इसका उच्चारण होता है।

ऐंचत

क्रि. स.

[पुं. हिं. हींचना, हिं. ऐंचना =खींचना]

खींचता हैं।

इत-उत देखि द्रौपदी टरी। ऐंचत बसन, हँसत कौरव-सुत, त्रिभुवननाथ सरन हौं ते री-१-१५१।

ऐंचति

क्रि. स.

[हिं. ऐंचना]

खींचती है।

अपनी रुचि जित ही जित ऐंचति इंद्रिय-कर्म-गटी। हौं तिनहीं उठि चलत कपट लगि, बाँधे नैन-पटी -- १-९८।

ऐंचना

क्रि. स.

[हिं. खींचना, पू. हिं. हींचना]

खींचना, तानना।

ऐंचि  

क्रि. स.

[हिं. खींचना, ऐंचना]

उखाड़ कर, खींचकर।

(क) नोरहू तैं न्यारौ कीनौ, चक्र नक्र-सीस छीनौ, देवकी के प्यारे लाल ऐंचि लाए थल मैं-८-५। (ख) नीलांबर पट ऐंचि लियो हरि मनु बादर ते चांद उतारयौ–४० ७। (ग) गहि पटकि पुहुमि पर नेक नहिं मटकियो दत मनु मृनाल से ऐंचि लीन्हे-२५९६।

ऐंछना

क्रि. स.

[स. उच्छन = चुनना]]

साफ करना, झाड़ना।

बाल में कंघी करना

ऐंठ

संज्ञा

[हिं. ऐंठना]

अकड़, ठसक।

ऐंठ

संज्ञा

[हिं. ऐंठना]

गर्व, घमंड।

ऐंठ

संज्ञा

[हिं. ऐंठना]

द्वेष, विरोध।

ऐंठति

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठना]

टर्राती हैं सीधी तरह बात नहीं करती।

आँखियन तब ते बैर धरयौ। ....... तब ही ते उन हमहीं भुलाई गयी उतही को धाई। अब तो तरकि तरकि ऐठति हैं लेनी लेति वनाई।

ऐंठन

संज्ञा

[सं. आवेष्ठन]

घुमाव, लपेट, बल।

ऐंठन

संज्ञा

[सं. आवेष्ठन]

तनाव, खिंचाव।

ऐंठना

क्रि. स.

[हिं.ऐंठन]

बटना, घुमाव या बल देना।

ऐंठना

क्रि. स.

[हिं.ऐंठन]

धोखा देकर ले लेना।

ऐंठना

क्रि. अ.

बल खाना, खिचना।

ऐंठना

क्रि. अ.

अंक ड़ना।

ऐंठना

क्रि. अ.

घमण्ड करना, इतराना।

ऐंठना

क्रि. अ.

टर्राना।

ऐंठि

क्रि. स.

[हिं. ऐंठना]

बल या घुमाव देकर बटकर।

भुजा ऐंठि रज-अग चढ़ायो--२६०६।

ऐंठी

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठना]

तन गयो, खिची, अकड़ी।

चतुराई कहाँ गई बुद्धि कैसी भई चूक समुझे बिना भौंह ऐंठी-१८७१।

ऐंठी

वि.

जिसने मान किया हो, जो अप्रसन्न हो।

ऐंठे

वि.

[हिं. ऐंठना]

अभिमानी, गर्व भरे।

बाएँ कर बाजि-बाग दाहिन हैं बैठे। हाँकत हरि हाँक देत गरजत ज्यौं ऐंठे-१-२३।

ऐंठयो

क्रि. अ.

[हिं.ऐंठना]

घमण्ड किया, अकड़दिखायी।

कुबलिया मल्ल मुष्ठिक चानूर सो होउ तुम सजग कहि सबन ऐंठयो-२६६३।

ऐंड़त

संज्ञा

[हिं. ऐंठ]

ठसक, गर्व, शान।

ऐड़त

क्रि. स.

[हिं. ऐड़ना]

अँगड़ाई लेते हैं।

ऐंड़त अंग जम्हात बदन भरि कहत सबै यह बानी--१८५४।

ऐंड़ना  

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ना]

बल खाना।

ऐंड़ना  

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ना]

अँगड़ाई लेना।

ऐंड़ना  

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ना]

घमंड दिखाना।

ऐंड़ात

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ना]

अँगड़ाई लेते हैं,बदन तोड़ते हैं।

आलस हैं भरे नैन बैन अटपटात जात ऐंड़ात जम्हात जात अंग मोरि बहियां झेलि-१५८२।

ऐंड़ात

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ना]

इठलाते हैं।

ऐंड़ाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ना]

अँगड़ाई लेना।

ऐंड़ाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ना]

ठसक दिखाना।

ऐंड्रोनी

क्रि. अ.

[हिं. एैंड़ाना]

अँगड़ाई ली।

बाँह उँचाइ ज़ौरि जमुहानी ऐंड़ानी कमनीय कामिनी--२११७

ऐड़ाघत

क्रि. अ.

[हिं. ऐंड़ाना]

अँगड़ाई लेते हैं।

(क) खेलत तुल निसि अधिक गई, सुत नैननि नींद झँपाई। बदन जँभात, अग ऐंड़ावत, जननि पलोटहि पाई-१०-२४२। (ख) कबहुँक बाँह जोरि ऐंड़ाबत बहुत जम्हात खरे -- १९७४।

ऐंडी

क्रि. अ.

[हिं. ऐड़ना]

घमण्ड करके, इठलाकर।

जिन सों कृपा करी नँदनदन सो कहे न ऐंड़ी डोलै-३०९ १।

एड़ो,ऐंड़ी

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठना,ऐंड़ना]

इतरांकर, घमण्ड करके।

धन-जोबन-मद ऐंडौ. ऐंड़ौ, ताकत नारि पराई। लालच-लुब्ध स्वान जूठनि ज्यौं, सोऊ हाथ न आई-१३२८।

एड़ो, ऐंड़ी

मुहा.

ऐंड़ो डोलै :- इतराता फिरता है, अकड़ दिखाता घूमता है। उ.- जिन पर कृपाकरी नंदनंदन सो ऐंड़ो काहे नहिं डोलै -- ३०९१।

संज्ञा

[सं.]

शिव।

अव्य.

[सं. अयि या हिं. हे]

सम्बोधन-सूचक अव्यय।

ऐक्य

संज्ञा

[सं.]

एक होने का भाव।

ऐक्य

संज्ञा

[सं.]

एका, मेल।

ऐगुन

संज्ञा

[सं. अवगुण]

दोष, बुराई।

ऐन

संज्ञा

[सं. अयन]

गति, चाल।

ऐन

संज्ञा

[सं. अयन]

मार्ग, राह।

परम अनाथ, बिबेक नैन बिनु, निगम ऐन क्योँ पावै ? पग-पग परत कर्म-तप, कूपहिं. को करि कृपा बचावै-१-४८।

अघटित

वि.

[सं.]

जो घटित न हुआ हो।अ

अघटित

वि.

[सं.]

जिसका घटना संभव न हो।

अघटित

वि.

[सं.]

अमिट, अनिवार्य।

अघटित

वि.

[सं.]

अयोग्य, अनुचित।

अघटित

वि.

[सं. घट = हिं.सा]

न घटने योग्य, बहुत अधिक।

अघटित

वि.

[सं. घट = हिं.सा]

अभक्ष्य, अखाद्य।

उदर-अर्थ चोरी हिंसा करि, मित्र बंधु सौं ल रतौ। रसना-स्वाद सिशिल, ल ट ह्व अघटित भोजन करतौ--१-२०३।

अवहर

संज्ञा

[सं. अघ = पाप + हर =हरण करने बाली]

पापों का हरण करने वाले त्रिवेणी। इसका संक्षिप्त रूप होता है ‘वेणी' जिसका दूसरा अर्थ ‘केशपाश' या चोटी होता है।

अघहर सोहत सुरन समेत। नीतन ते बिछुरो सारंगसुत कुंत अग्र ते बंदन रेख -- -सा, ९६।

अघा

संज्ञा

[सं. अघ]

अघासुर जो मथुरा के राजा कंस का सेनापति था और कृष्ण द्वारा मारा गया था।

अन ज्ञानत सब परे अघा-मुख-भीतर माहीं --४३१।

अघाइ

क्रि. अ.

[हिं. अघाना]

भोजन पान से तृप्त होती है, छकती है।

(क) माधो नैकु हटकौ गाइ…... ब्योम, धर, नद सैल, कानन इतै चरि न अघाइ--१-५६। (ख) राजनीति जानौ नहीं, गोसुत चरवारे। पीवौ छाँछ अघाइ कै, कब के रयवारे--१-२३८।

अघाई

क्रि. अ.

[हिं. अघाना]

इच्छा पूर्ण हुई, संतुष्ट या तृप्त होता है, मन भरता है।

(क) जब तै जनम-मरन अंतर हरि, करत न अबहि ई१-१८७ ( ख ) किरि दरस करत एही मिसि प्रेम न प्रीति अघाई -- १० ० ०।

ऐन

संज्ञा

[सं. अयन]

स्थान।

सोभा सिंधु समाइ कहाँ लौं हृदय साँकरे ऐन-२७६५

ऐन

संज्ञा

[सं. अयन]

अश।

गंग-तरंग बिलोकत नैन।…….। त्रिभुवन हार सिंगार भगबती, सलिल चराचर जाके ऐन-९-१२।

ऐन

संज्ञा

[सं. अयन]

निंधि, राशि, भंडार।

(क) निरखत अंग अधिक रुचि उपजी नख-सिख सुन्दरता को ऐन-७४२। (ख) हौं जल गई जमुना लेन। मदन रिस के आदि ते मिल मिली गुनगन ऐन -- सा० ६६।

ऐन

संज्ञा

[सं. अयन]

समय, काल।

उर काँप्यौ नन पुलकि पसीज्यौ, बिसरि गए मुख-बैन। ठढ़ी ही जैसैं तैसें झुकि, परी धरनि तिहिं ऐन-७४९।

ऐनु  

संज्ञा

[सं. अयन, हिं. ऐन]

मार्ग, राह।

त्रिबिधि पवन जहँ बहत निसादिन सुभग-कुंजघर.ऐनु। सूर स्याम निज धाम बिसारत, आवत यह सुख लैनु-४४८।

ऐनु  

संज्ञा

[सं. अयन, हिं. ऐन]

आश्रम, भवन।

इहाँ रहहु जहँ जूठनि पालहु, ब्रजवासिनि कैं ऐनु। सूरदास ह्याँ की सरवरि नहिं. कल्पवृच्छ सुर-धैनु-४९१।

ऐनु  

संज्ञा

[सं. अयन, हिं. ऐन]

अंश।

आतपत्र मयूर चंदिका लसति है रवि ऐनु -- २७५५।

ऐनु  

संज्ञा

[सं. अयन, हिं. ऐन]

भाग, प्राप्य वस्तु।

रह न सकति मुरली मधु पीवत चाहत अपनो ऐनु -- २३५५।

ऐनोखी  

वि.

[हिं. अनोखी]

अनोखी, विचित्र।

लीन्हे फिरति रूप त्रिभुवन को ऐनोखी बैनि जारिनि-१०४०।

ऐपन

संज्ञा वि.

[सं. लेपन]

चावल और हल्दी से। बना एक मांगलिक द्रव्य जिसका छापा पूजा के अवसर पर दीवार, कलश आदि पर लगाते हैं।

ऐपन

संज्ञा वि.

[सं. लेपन]

सुनहरी कांति।

ऐपन की सी पूतरी (सब) सखियनि कियौ सिंगार-१०-४०।

ऐबौ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आना, आवेंगे।

अंकम भरि भरि लेत सूर-प्रभु, काल्हि न इहिं पथ ऐबौ -- ७७९।

ऐबौ

संज्ञा

[हिं. आना]

आना, आने की क्रिया।

(क) बनत नहीं जमुना को ऐवो। सुन्दर स्याम घाट पर ठाढ़े-कहौ कौन बिघि जैबो-७७९। (ख) सूरदास अबसोई करिए बहुरि गोकुलहिं ऐवो-३३७२।

ऐरापति

संज्ञा

[सं. ऐरावत]

ऐरावत हाथी।

सुरगन राहित इंद्र ब्रज आवत। धवल बरन ऐरापति देख्यो उतरि गगन तैं धरनि धँसावत।

ऐरावत

संज्ञा

[सं.]

इन्द्र का हाथी जो पूर्व दिशा का दिग्गज है।

ऐल  

संज्ञा

[सं.]

पुरूरवा जो इला का पुत्र था।

ऐल  

संज्ञा

[हिं. अहिला]

बाढ़।

ऐल  

संज्ञा

[हिं. अहिला]

अधिकता

ऐल  

संज्ञा

[हिं. अहिला]

शोरगुल, खलबली।

ऐल  

संज्ञा

[हिं. अहिला]

समूह।

ऐल  

संज्ञा

[देश.]

एक कँटीली लता जिसकी पत्तियाँ लगभग एक फीट लंबी होती हैं।

ऐलि

संज्ञा

[देश , ऐल]

एक कँटीली लता।

फूले बेल निवारी फूली एलि फूले मरुवी मोगरो। सेवती फूल बेल सेवती संतन हित ही फूल डोल--२४०५।

ऐश्वर्य

संज्ञा

[सं.]

धन संपत्ति।

ऐश्वर्य

संज्ञा

[सं.]

अधिकार, प्रभुत्व।

ऐसनि  

वि.

[सं. ईद्दश, हिं.ऐसा]

ऐसे-ऐसे।

तृ्ना बर्त से दूत पठाए। ता पाछै कामासुर धाए। बकी पठाइ दई पहिलैहीं। ऐसनि को बलवै सब लैहीं-५२१।

ऐसा

वि.

[सं. ईदृश]

इस प्रकार का।

ऐसिये  

वि. सवि.

[सं. ईदृश, हिं. ऐसा]

ऐस ही, ऐसी।

(क) ब्रह्मा कह्यौ, ऐसिये होइ-१७-२। (ख) लागे लैन नैन जल भरि भरि तब मैं कानि न तोरी। सूरदास प्रभु देत दिनहिं दिन ऐसियै लरिकसलोरी-१०-२८६।

ऐसी

वि.

[सं. ईदृश]

इस प्रकार की, इस ढंग या तरह की, इसके समान।

ऐसी को करी अरु भक्त। काजैं। जैसी जगदीस जिय धरी लाजैं-१-५।

ऐसे

क्रि. वि.

[हिं. ऐसा]

इस तरह, इस ढब से, इस ढंग के।

बिनु दीन्हें ही देत सूर-प्रभु, ऐसे हैं जदुनाथ गोसाई-१-३।

ऐसैं  

वि.

[हिं. ऐसा]

इस प्रकार इस तरह।

कोटि छ्यानबे नृप-सेना सब जरासँघ बँध छोरे। ऐसैं जन परतिज्ञा, राखत, जुद्ध प्रगट करि जोरे-१-३१।

ऐसोई

वि.

[हिं. ऐसा +ही (प्रत्य.)]

ऐसा ही, इसी प्रकार का।

फिरि फिरि ऐसोई है करत। जैसैं प्रेम-पतंग दीप सौं, पावक हू न डरत-१-५५।

ऐसौ  

वि.

[हिं. ऐसा]

ऐसा, इस प्रकार का, इसके समान।

(क) ऐसौ को जुन सरन गहे तैं कहत सूर इतरायौ-१-१५। (ख) ऐसौ सूर नाहिं कोउ दूजौ, दूरि करै जम-दायो-१-६७।

ऐस्वर्य

संज्ञा

[सं. ऐश्वर्य]

विभूति, धन-संपत्ति।

भाग्य-भवन मैं मीन महीसुत, बहु ऐस्वर्यं बढ़ेहैं-१०८६।

ऐहिक  

वि.

[सं.]

इस लोक से सम्बन्ध रखने वाला, सांसारिक।

ऐहैं  

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आयँगे।

(क) काके हित नृपति ह्याँ ऐहैं, संकट रच्छा करिहैं ? १-१-२९। (क) कैहो कहा जाइ जसुमति सो जब सनमुख उठि ऐहैं-२६५०।

ऐहैं  

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आवेगा।

(क) श्रमतैं तुम्हैं पसीना ऐहै, कत यह टेक करी -- १:१३०। (ख) सो दिन त्रिजटी कहु सब ऐहै। जा दिन चरन कमल रघुपति के हरषि जानकी हृदय लगैहै -- -९.८१।

ऐहौं

क्रि. अ.

[हिं. आना]

जन्म लूँगा, आऊँगा।

(क) मन-बच-कर्म जानि जिय अपनै, जहाँ-जहाँ जन तहँ तहँ ऐहौं-७-५। (ख) बरस सात बीतैं हौं ऐहौं-९-२। (ग) यह मिथ्या संसार सदाई यह कहि कै उठि ऐहौं-२९२३।

ऐहौ

क्रि. अ.

[हिं. आना]

आओगे।

क्यों रहिहैं। मेरे प्रान दरस बिनु जब सध्या नहिं ऐहौ-२६५०।

देवनागरी वर्णमाला का दसवाँ स्वर। उच्चारण ओष्ठ और कंठ से होता है। 'अ' और 'उ' के योग से बना है।

ओं

अव्य.

[सं.]

हाँ, अच्छा।

ओं

अव्य.

[सं.]

परब्रह्मवाचक शब्द। इसके 'अ' 'उ' और 'म्' वर्ण क्रमशः विष्णु, शिव और ब्रह्मा के वाचक माने जाते हैं।

ओंठ

संज्ञा

[सं. ओष्ट, प्रा. ओट्ट]

होंठ।

ओड़ा

वि.

[सं. कुंड]

गहरा।

ओड़ा

संज्ञा

सेंध।

ओड़ा

संज्ञा

गड्ढा।

संज्ञा

[सं.]

ब्रह्मा।

अव्य.

सम्बोधनसूचक शब्द।

अव्य.

स्मरण सूचक शद।

ओऊ

सर्व.

[हिं. ओ + ऊ (प्रत्य.)]

वे भी, उन्हें भी।

चुप करि रहो मधुप लंपट तुम देखे अरु ओऊ--३३४९।

ओक

संज्ञा

[सं.]

घर, निवास स्थान। आश्रम।

(क) सूर स्याम काली पर निरतत, आवत हैं। ब्रज-ओक--५६५। ( ख ) मारयो कंस धरनि उद्धारयाै ओक-ओक आनद भई-२६१६।

ओक

संज्ञा

[सं.]

आश्रम, ठिकाना।

ओक

संज्ञा

[सं.]

ग्रहों-नक्षत्रों का समूह।

ओक

संज्ञा

[हिं. बूक = अजली]

अंजली।

ओकपति

संज्ञा

[सं.]

सूर्य या चाद्रमा।

नागरी स्याम सों कहत बानी।…...।रुद्रपति, छुद्रपात, लोकपति, ओकपति, धरनिपति, गगनपति अगम बानी।

ओकि  

संज्ञा

[हिं. बुक = अंजली]

अंजली।

ओखद

संज्ञा

[सं. औषध]

दवा।

ओखरी, ओखली

संज्ञा

[सं. उलूखल]

काँड़ी, हवन, उलूखन, उखली।

ओखा

संज्ञा

[सं. ओख = वारण करना, बच ना]

बहाना, हीला।

ओखा

वि.

[सं. ओख = सूखना]

(रूखा)-सूखा।

ओखा

वि.

[सं. ओख = सूखना]

कठिन, टेढ़ा।

ओखा

वि.

[सं. ओख = सूखना]

जो शुद्ध न हो, खोटा।

ओग

संज्ञा

[हिं. उगहना]

कर, महसूल, उगहनी।

पैड़ो देहु बहुत अब कीनो सुनत हँसेगे लोग। सुर हमैं मारग जनि रोकहु घर तें लीजै ओग।

ओग

संज्ञा

[हिं. ओक]

गोद।

ओघ

संज्ञा

[सं.]

समूह, ढेर।

ओघ

संज्ञा

[सं.]

बहाव, धारा।

ओघ

संज्ञा

[सं.]

संतोष, तुष्टि।

ओछत

क्रि. स.

[हिं. ओछना]

बालों में कंघी करता है।

ओछना

क्रि. स.

[हिं. ऊँछना]

बाल सँवारना,  कंघी करना।

ओछनि

वि.

[हिं. ओछा + नि (प्रत्य.)]

तुच्छ व्यक्ति क्षुद्र मनुष्य, खोटे।

ऐसे जनम-करम के ओछे ओछनि हूँ ब्याैहरात -- -१-१२।

ओछा

वि.

[सं. तुच्छ, प्रा. उच्छ]

क्षुद्र, नीच, खोटा।

ओछा

वि.

[सं. तुच्छ, प्रा. उच्छ]

छिछला, कम गहरा।

ओछा

वि.

[सं. तुच्छ, प्रा. उच्छ]

हल्का।

ओछाई  

संज्ञा

[हिं. ओछा]

नीचता छिछोरापन, क्षु्द्रता।

हमहिं ओछाई भई जबहिं तुमको प्रतिपाले। तुम पूरे सब भाँति मातु रितु संकट घाले--११३७।

ओछी

वि.

[हिं. ओछा]

क्षुद्र, तुच्छ, बुरी।

ओछी बुद्धि जसोदा कीन्ही--३९१।

ओछे  

वि.

[हिं. ओछा]

जो गंभीर या उच्चाशय न हो, तुच्छ, क्षुद्र, छिछोरा, बुरा, खोटा।

इन बातन कहुँ होत बड़ाई। डारत, खात देत नहिं काहू ओछे घर निधि आई।

ओज

संज्ञा

[सं.]

तेज, प्रताप।

ओज

संज्ञा

[सं.]

उजाला, प्रकाश।

ओज

संज्ञा

[सं.]

काव्य का एक गुण जिससे सुनने वाले के चित्त में उत्साह उत्पन्न होता है।

ओजना

क्रि. स.

[सं. अवरुंधन, प्रा. ओरुज्झन, हिं. ओझन]

(भार) ऊपर लेना, सहन करना।

ओजस्विता  

संज्ञा

[सं.]

तेज, कांति, प्रभाव।

प्रोजस्वी

वि.

[सं. ओजस्विन]

तेजयुक्त, प्रतापो, ओजपूर्ण।

ओझ, ओझर  

संज्ञा

[सं. उदर, हिं. ओझर]

पेट।

ओझ, ओझर  

संज्ञा

[सं. उदर, हिं. ओझर]

आँ त।

ओझा  

संज्ञा

[सं. उपाध्याय, प्रा. उवज्झाओ, उवज्झाय]

ब्राह्मणों की एक जाति।

ओझा  

संज्ञा

[सं. उपाध्याय, प्रा. उवज्झाओ, उवज्झाय]

भूत-प्रेत झाड़ने वाला।

ओट

संज्ञा

[सं. उट  -घास फूस]

रोक, आड़, अतर, व्यवधान, ओझल।

(क) ना हरि-हित, ना तु हित, इनमें एकौ तौ न भई। ज्यौं भधु माखी सँचति निरन्तर, बन की ओट लई -- १-५०। (ख) बसन ओट करि कोट बिसंभर, परन न दीन्हौं झाँको -- १-११३। (ग) ममता-घटा मोह की बूंदै, सरिता मैने अपारी। बूड़त कतहुँ थाह नहिं पावत, गुरुजन ओट अधारौ--१.२०९। (घ) पलक भरे की ओट ने सहतौ अब लागे दिन जान-२७४७। (ङ) सगुन सुमेर प्रगट देखि यत तुम तृन की ओट दुरावत-३ ११५ (च) ललना लै लैं उछंग अधिक लोभ लागै। निरखति निंदति निमेष करत ओट आगैं-१०.९०। (छ) सूरदास प्रभु दुरत दुराये डुँगरनि ओट सुमेरु -- ४५८।

ओट

संज्ञा

[सं. उट  -घास फूस]

शरण, रक्षा।

(क) बड़ी है राम नाम की ओट। सरन गये प्रभु काढ़ि देत नहिं करत कृपा कैं कोट--१-२३२। (ख) भागी जिय अपमान जा न जनु सकुच ने ओट लई -- २७९१।

ओटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, पा. आवटठन ]

कपास के बिनौले अलग करना।

ओटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, पा. आवटठन ]

अपनी ही बात बार बार कहना।

ओटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, पा. आवटठन ]

स्वयं (आपत्ति, बात आदि) सहन करना।

ओड़न

संज्ञा

[हिं. ओड़ना]

बार रोकने की बस्तु।

ओड़न

संज्ञा

[हिं. ओड़ना]

ढाल।

ओड़ना

क्रि. स.

[हिं. ओट]

रोकना, आड़ करना।

ओड़ना

क्रि. स.

[हिं. ओट]

सहन करना, झेलना।

ओड़ना

क्रि. स.

[हिं. ओट]

फैलाना, पसारना।

ओड़ना

क्रि. स.

[हिं. ओट]

धारण करना, पहनना।

ओड़हु

क्रि. स.

[हिं. ओड़ना]

फैलाओ, पसारो।

लेहु मातु सहिदानि मुद्रिका, दई प्रीति करि नाथ। सावधान ह्वै सोक निवारहु, ओड़हु इच्छिन हाथ -- ९.८३

ओड़ि

क्रि. स.

[हिं. ओड़ना]

[अपने] ऊपर ले, स्वीकार कर, भागी बन जा, सहन कर।

बोल्यौ नहीं रह्यौ दुरि बानर, द्रम मैं देहि छपाइ। कै अपराध औड़ि तू मेराै, कै तूं देहि दिखाइ -- -९-८३।

ओड़िये

क्रि. स.

[हिं. ओड़ना]

आड़ करो, रोको, सहो।

ओड़िये नँदनंद जू के चलत ही दृगवान। राखिये दृग मद्ध दीजै अनत नाही जान -- -सा० १०७।

ओड़ैं  

क्रि. स.

[हिं. ओढ़ना]

रोकता है, सहता है।

नृप भूषन कपि पितु गज पहिलो आस बचन की छोड़ै। तिथि नछत्र के हेतु सदाई महाबिपति तन ओड़ैं-सा० ४३।

अघाउ

क्रि. अ.

[हिं. अधाना]

तृप्त यह संतुष्ट होऊँ।

ऐसो को दाता है ससरय, जाके दियें अघाऊँ -- १-१ ६४।

अघाऊँ

क्रि. अ.

[हिं. अघाना] संतुष्ट या तृप्त करू, इच्छा पूर्ण करूँ।

घरैं भहराय भभकत रिपु घाइ सौं, करि कदन रुधिर भैरों अघाऊँ -- ९-१२९।

अघाए

क्रि. अ.

[हिं. अघाना]

भोजन से तृप्त हो। गए।

कौरव काज चले रिषि सापन साक-पत्र सु अघाए-१-२३।

अघाए

क्रि. अ.

[हिं. अघाना]

तृप्त हुये।

अघाए

क्रि. अ.

[हिं. अघाना]

प्रसन्न हुये।

अघात

वि.

[हिं. अधाना]

पेट भर, खव, अधिक, बहुत।

तब उन माँगी इन नहिं दीन्ही, बढ़चौ बाढ़चौ बैर अघात।

अघात

क्रि. अ.

[सं. अघ्राण = नाक तक, हिं. अधाना]

संतुष्ट या तृप्त होता है।

निपट निसंक बिबादति सम्सुख, सुनि सुनि नंद रिसात। मोसों कहति कृपन तेरे घर ढोटाहू न अधात -- -१०-३२६।

अघात

संज्ञा

[सं. आघात]

चोट, मार, प्रहार धक्का।

दुहुँ कर माट गह्यौ नँदनंदन, छिटकि बूंद-दधि परत अघात। मानौं गज-मुक्ता मरकत पर सोभित सुभग साँवरे गात -- १०-१५९।

अघाति

क्रि. अ.

[हिं. अधाना]

भोजन पान से तृप्त होती है, छकती है।

माधौ नैकु हटकौ गाइ••••• छुधित अति न अघाति कबहूँ, निगम-द्रुम-दलि खा इ १-५६।

अवाना

क्रि. अ.

[स. आघ्राण = नाक तक]

भोजन या पान से तृप्त होना।

ओढ़  

क्रि. स.

[हिं.ओढ़ना]

अपने ऊपर ले, भागी बने, सहन करे।

कै अपराध ओढ़ (ओड़ि) अब मेरौ, कै तू देहि दिखाइ-९-८३।

ओढ़त  

क्रि. स.

[हिं.ओढ़ना]

ओढ़ता है। (वस्त्र से शरीर) ढकता हैं।

पीतांबर यह सिर तैं ओढ़त, अंचल दै मुसुकात--१०-३३८।

ओढ़न  

संज्ञा

[हिं. ओढ़ना]

ओढ़ने की क्रिया।

डासन काँस कामरी ओढ़न बैठन गोप सभा की--२२७५।

ओढ़ना  

क्रि. स.

[सं. उपवेष्ठन, प्रा. ओवेड्ढन]

किसी वस्त्र से ढकना।

ओढ़ना  

क्रि. स.

[सं. उपवेष्ठन, प्रा. ओवेड्ढन]

अपने सिर लेना, भागी बनना।

ओढ़ना  

संज्ञा

ओढ़ने का कपड़ा।

ओढ़नि, ओढ़नी

संज्ञा

[हिं. ओढ़ना]

स्त्रियों के ओढ़ने का वस्त्र, उपरैनी, चादर, फरिया।

(क) पीतांबर काकैं घर बिसरयौ, लाल ढिगनि की सारी आनी। ओढ़नि आनि दिखाई मोकौं, तरुनिनि की सिखई बुधि ठानी-६९५। (ख) सूरदास जसुमति सुत सौं क है, पीत ओढ़नी कहाँ गँवाई-६९२।

ओढ़र  

संज्ञा

[हिं. ओढ़ना]

बहाना, मिस।

ओढ़ावा  

क्रि. स.

[हिं. ओढ़ना, ओढ़ाना]

ढकना, आच्छादित करना।

ओढ़िए

क्रि. स.

[हिं. ओढ़ना]

देह ढकिये।

ओढ़िए

मुहा.

ओढ़िये पीठ :- (अवसर और स्थिति के अनुकूल) काम कीजिए। उ.- सूरदास के प्रिय प्यारी आपुहों जाई मनाइ लीजै जैसी बयारि बहै तैसी ओढ़िए जु पीठि-२०७५।

ओढ़े  

क्रि. स.

[हिं. ओढ़ना]

( वस्त्र से) शरीर ढके, पहने हुए।

पियरी पिछौरी झीनी, और उपमा न भीनी, बालक दामिनि मानौ ओढ़ो बारौ बारि-धर --१०-१५१।

ओढ़ैं  

क्रि. स.

[हिं. ओढ़ना]

देह ढकें।

ओढ़ैं  

मुहा.

ओढ़ै कि बिछावैं :- क्या करें, किस काम में लावें। उ.- दुस्सह बचन हमें नहिं भावैं। जोग कथा ओढ़ैं कि बिछावैं।

ओढ़ौनी

संज्ञा

[हिं. ओढ़ना]

ओढ़ने की चादर, ओढ़नी।

ओत  

संज्ञा

[सं. अवधि]

आराम, चैन।

ओत  

संज्ञा

[सं. अवधि]

आलस्य।

ओत  

संज्ञा

[सं. अवधि]

मितव्ययता।

ओत  

संज्ञा

[हिं. आवत]

प्राप्ति, लाभ।

ओत  

संज्ञा

[सं.]

ताने का सूत।

ओत  

वि.

बुना हुआ, गुथा हुआ।

ओत-पोत

वि.

[सं.]

गुथा हुआ, बहुत मिला-जुला।

ओता,ओतो, ओत्ता

वि.

[हिं. उतना]

उतना।

ओद

वि.

[सं. उद = जल]

गीला, तर, नम।

ओद

वि.

[सं. उद = जल]

मग्न, निमग्न, लीन।

आनँद कंद, सकल सुखदायक, निसि दिन रहत, केलि-रस-ओद-१०-११९।

ओद

संज्ञा

नमी, तरी।

ओदन

संज्ञा

[सं.]

पका हुआ चावल, भात।

(क) दधि ओदन दोना भरि दैहौं, अरु भाइन मैं थपिहौं--९-१६४। (ख) ओदन भोजन दै दधि काँवरि, भूख लगै तैं खैहौं–४१२। (ग) व्यंजन बर कर बर पर राखत ओदन मधुर दह्यौ -- ४८६।

ओदर  

संज्ञा

[सं. उदर]

पेट।

ओदरना

क्रि. अ.

[हिं. ओदारना]

फटना।

ओदरना

क्रि. अ.

[हिं. ओदारना]

गिर पड़ना, नष्ट होना।

ओदा  

वि.

[सं. उद = जल]

गीला, नम।

ओदारना

क्रि. स.

[सं. अवदारण]

फाड़ना।

ओदारना

क्रि. स.

[सं. अवदारण]

गिराना, ढाना, नष्ट करना।

ओदे  

वि.

[सं. उद् = जल]

गीले, नम, तर।

उत्तम बिधि सौं मुख पखरायौ, ओदे बसन अँगोछि -- -६०९।

ओधना

क्रि. अ.

[सं. आबंधन]

फँसना, उलझना।

ओधना

क्रि. अ.

[सं. आबंधन]

काम में व्यस्त होना।

ओधे

संज्ञा

[सं. उपाध्याय]

स्वामी, अधिकारी।

ओनंत

वि.

[सं. अनुन्नत]

झुका हुआ, नत।

ओनवना

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

झुकना, नत  होना।

ओनवना

क्रि. अ.

[हिं. उनवना]

घिर आना, उमड़ना।

ओनाना

क्रि. स.

[हिं. उनाना]

कान लगाकर सुनना।

ओप

संज्ञा

[हिं. ओपना]

चमक, दीप्ति, शोभा।

(क) सूरदास प्रभु प्रेम हेम ज्यों अधिक ओप ओपी-३४८७ (ख) राधे तैं बहु लोभ करयौ। लावन रथता पति आभूषन आनन-ओप हरयौ-सा. उ० -- १४।

ओप

संज्ञा

[हिं. ओपना]

गौरव, सम्मान।

रघुकुल-कुमुद-चंद चितामनि प्रगटे भूतल महियाँ। आए ओप देन रघुकुल कौं, आनँदनिधि सब कहियाँ--९-१९।

ओपना

क्रि. स.

[हिं. ओप]

साफ करना, चमकाना, स्वच्छ करना।

ओपना

क्रि. अ.

झलकना, चमकना।

ओपनिवारी

वि.

[हिं. ओप]

चमकनेवाली।

ओपनी  

संज्ञा

[हिं. ओप]

पत्थर या ईट का टुकड़ा जिससे कोई वस्तु माँजी या (घिसकर) साफ की जय।

ओपी

क्रि. अ.

[हिं. ओपना]

झलकने लगी, चमकी।

जेती हती हरि के अवगुन की ते सबई तोपी। सूरदास प्रभु प्रेम हेम ज्यों अधिक ओप ओपी-३४८७।

ओबरी

संज्ञा

[सं.विवर]

छोटी कमरा, कोठरी।

बिलग मति मानौ ऊधो प्यारे। वह मथुरा काजर की ओबरी (उबरी) जे आवैं ते कारे--३१७५

ओभा

संज्ञा

[हिं. आभा]

कांति, चमक।

देखो री झलक कुंडल की आभा-२९५२।

ओर

संज्ञा

[सं. अवार= किनारा]

अंत, सीमा, सिरा, छोर, किनारा।

सोभा-सिंधु अंगअंगनि प्रति, बरनत नाहिंन ओर री-१०-१३९

ओर

मुहा.

ओर (निबाह्यौ) निबाहे :- अंत तक कर्तव्य का पालन किया। उ.- (क) और पतित आवत न आँखि-तर देखत अपनौ साज। तीनौं पल भरि ओर निबाह्यौ तऊ न आयौ बाज-१-९६। (ख) तीन्यौ पन मैं ओर निबाहे, इहै स्वाँग कौं काछै। सूरदास कौं य है बड़ो दुख परत सबनि के पाछे-१-१३६। ओर आयौ :- अंत निकट आ गया।

ओर

संज्ञा

[सं. अवार= किनारा]

आदि, आरम्भ।

हरि जू की आरती . बनी।.........। नारदादि सनकादि प्रजापति, सुरनर-असुर अनी। काल-कर्म-गुन-ओर-अंत नहिं. प्रभु इच्छा रचनी--२-२८।

ओर

संज्ञा

[सं. अवार= किनारा]

दिशा, तरफ।

ओर

संज्ञा

[सं. अवार= किनारा]

पक्ष।

यादव बीर बराइ बटाई इक हलधर इ४ आपै ओर -- १० उ०-६।

ओरती

संज्ञा

[हिं. ओलती]

ढलुआ छप्पर के किनारे का वह भाग जहाँ से वर्षा का पानी नीचे गिरता है।

ओरती

संज्ञा

[हिं. ओलती]

वह भाग जहाँ यह पानी गिरे।

ओरभना  

क्रि. अ.

[सं. अवलंबन]

लटकना।

ओरहना

संज्ञा

[हिं. उरहना]

उलाहना।

ओरा  

संज्ञा

[हिं. ओला]

ओला, पत्थर।

ओरा  

क्रि. अ.

[हिं. ओर == अंत + आना]

चुक जाना, समाप्त होना।

ओराहना  

संज्ञा

[हिं. उराहना]

उलाहना।

ओरी

संज्ञा

[रिं. ओखती]

छप्पर का वह भाग जहाँ से पानी नीचे गिरे।

ओरी

अव्य.

[हिं. ओ + री]

स्त्रियों के लिए संबोधन।

ओरी

सर्व.

[हिं. ओर]

और कोई, दुसरी, अन्य।

यह उपदेस सुनहिं ते ओरी-३३४५।

ओरी

संज्ञा

[हिं. ओर]

ओर, दिशा, तरफ।

मनहुँ प्रचंड पवन बस पंकज गगन धूरि सोभित चहुँ ओरी–२४०४।

ओरी

संज्ञा

[हिं. ओर]

पक्ष।

ओरे

संज्ञा

[हिं. ओला, ओरा]

ओला।

अपराधी मतिहीन नाथ हौं, चूक परी निज भोरे। हम कृत दोष छमौ करुनामय, ज्यौं भू परसत ओरे -- --४८८ ।

ओरै

संज्ञा

[हिं. ओर]

अंत, सिरा, छोर, किनारा।

कागद धरनि, करैं द्रुम लेखनि, जल-सायर मसि घोरै। लिखै गनेस जनम भरि मम कृत, तऊ दौष नहिं ओरै-१-१२५।

ओलंबा, ओलंभा

संज्ञा

[सं. उपालंभ]

उलाहना।

ओल  

संज्ञा

[सं. क्रोड़]

गोद।

ओल  

संज्ञा

[सं. क्रोड़]

आड़, ओट।

ओल  

संज्ञा

[सं. क्रोड़]

वह वस्तु या व्यक्ति जो कोई शर्त पूरी न होने तक किसी दूसरे के पास रहे या रखा जाय।

बने बिसाल अति लोचन लोल। चितै चितै हरि चारु बिलोकनि मानौ माँगत हैं मन ओल ६३०।

ओल  

संज्ञा

[सं. क्रोड़]

शरण, रक्षा।

ओल  

संज्ञा

[सं. क्रोड़]

बहाना, मिस।

ओल  

वि.

[हिं. ओला]

गीला, तर।

ओलती

संज्ञा

[हिं. ओलमना]

छप्पर का वह किनारा जहाँ से बरसा हुआ पानी नीचे गिरता है।

ओलती

संज्ञा

[हिं. ओलमना]

वह स्थान जहाँ यह पानी गिरता है।

ओलना

क्रि. स.

[हिं. ओल = आड़]

परदा करना, ओट या आड़ में करना।

ओलना

क्रि. स.

[हिं. ओल = आड़]

सहन करना, अपने ऊपर लेना।

ओलना

क्रि. स.

[हिं. हूल]

घुमाना, चुभाना।

ओलरन

क्रि. अ.

[हिं. ओल, ओलना]

सोना, लेटना।

ओलराना

क्रि. स.

[हिं. ओल, ओलना]

सुलाना, लिटाना।

ओला

संज्ञा

[सं. उपल]

मेह के जमे हुए पत्थर या गोले।

ओला

संज्ञा

[हिं. ओल]

परदा. ओट।

ओला

संज्ञा

[हिं. ओल]

भेद, रहस्य।

ओलिक  

संज्ञा

[हिं. ओल + आड़]

ओट, परदा।

ओलियाना

क्रि. स.

[हिं. ओल, ओला]

गोद में भरना।

ओलियाना

क्रि. स.

[हिं. हूलना]

घुसना, प्रवेश कराना।

ओली  

संज्ञा

[हिं. ओल]

गोद।

ओली  

संज्ञा

[हिं. ओल]

अंचल।

ओली  

संज्ञा

[हिं. ओल]

झोली।

ओली  

मुहा.

ओली ओड़ना :- आँचल पसार कर याचना करना।

ओलै  

संज्ञा

[सं. कोड़, हिं. ओल]

गोद।

ओलै  

संज्ञा

[सं. कोड़, हिं. ओल]

शरण, आश्रय।

जाकैं मीत नंदनंदन से, ढकि लइ पीत पटोलै। सूरदास ताकौं डर काको, हरि गिरिधर के ओलै-१२५६।

ओलै  

संज्ञा

[सं. कोड़, हिं. ओल]

आड़, ओट।

ओलै  

संज्ञा

[सं. कोड़, हिं. ओल]

जमानत-रूप में रखी हुई वस्तु या व्यक्ति।

ओल्यौ

संज्ञा

[हिं. ओल]

बहाना, मिस।

ओषधि, ओषधी

संज्ञा

[सं.]

वनस्पति या, जड़ी-बूटी जो दवा के काम कीहो।

ओषधि, ओषधी

संज्ञा

[सं.]

फलने के बाद सूखे हुए पौधे।

अवाना

क्रि. अ.

[स. आघ्राण = नाक तक]

संतुष्ट होना, इच्छा पूर्ण होना। प्रसन्न होना।

अवाना

क्रि. अ.

[स. आघ्राण = नाक तक]

थकना, ऊ बना।

अवाना

क्रि. अ.

[स. आघ्राण = नाक तक]

पूर्णता को पहुँचना।

अघाने

क्रि. स. बहु.

[हिं. अघाना]

भोजन-पान से तृप्त हुये, छक गए।

(क) बल-मोहन दो उ जोंवत यचि सौं, सुख लूट ति नँदरानी। सूर स्याम अब कहत अघाने, अँचवन माँगत पानी -- -४४२। (ख) बिस्वं भर जगदीस कहावत ते दधि दोना माँझ अघाने -- ११८७।

अघानौ

क्रि. अ.

[हिं. अवाना]

संतुष्ट हुआ, इच्छा पूरी हुई, मन भरा।

(क) याही करत अधीन भयो हौं, निद्रा अति न अघानौ-१-४६ (ख) बहुत प्रपंच किए माया के तऊ न अधम अधानौ-१३२९।

अघानौ

क्रि. अ.

[हिं. अवाना]

पेट भर गया, छक गया, तृप्त होगया

कान्ह कहयौ हौं मातु अघानौ-३९६।

अघारि

संज्ञा

[सं.]

पाप नाश करने वाले।

अघासुर

संज्ञा

[सं.]

एक दैत्य जो कंस का सेनापति था और जिसे श्रीकृष्ण ने मारा था।

अघो

वि.

[सं. , अध = पाप]

पापी, पातकी, कुकर्मी।

अघैहौ

क्रि. अ.

[सं. आघृाण = नाक तक, हिं. अघाना]

तृप्त होगे, छक जाओगे।

भक्ति बिनु बैल बिराने ह्व हो।.........। चारि पहर दिन चरत फिरत बन, तऊ न पेट अघैहौ हौ--१-३ ३१।

ओषधि, ओषधी

संज्ञा

[सं.]

दवा।

ओषधीश

संज्ञा

[सं. ओषधि + ईश]

चंद्रमा।

ओषधीश

संज्ञा

[सं. ओषधि + ईश]

कपूर।

ओष्ठ

संज्ञा

[सं.]

होंठ, ओठ।

ओष्ठ्य  

वि.

[सं.]

ओठ का।

ओष्ठ्य  

वि.

[सं.]

जिन (अक्षरों) का उच्चारण ओठ से हो। ( उ ऊ प फ ब भ म ओष्ठ्य वर्ण हैं।)

ओस

संज्ञा

[सं० अवश्याय, पा० उस्पाव] हवा से मिली हुई भाप जो उससे अलग होकर गिर जाती है।

ओस

मुहा.

ओस का मोती :- शीघ्र नष्ट हो जानेवाला।

ओसारा

संज्ञा

[सं. उपशाला]

दालान।

ओसारा

संज्ञा

[सं. उपशाला]

छाजन, सायबान।

ओह

अव्य.

[अनु.]

दुख या आश्चर्यसूचक अव्यय।

ओहट

संज्ञा

[हिं. ओट]

ओट, ओझल।

ओहार

संज्ञा

[सं. अवधार]

रथ या पालकी का परदा।

ओहि

सर्व.

[हिं. वह]

उसे। सब हलधर, माखन प्यारोै तोहि। ब्रज प्यारौ, जाकौ मोहिं गारौ, छोरत काहे न ओहि-३७५।

देवनगरी वर्णमाला का ग्यारहवा स्वर जो अ और ओ के संयोग से बना है। इसका उच्चारण कंठ और ओष्ठ, से होता है।

औंगा

वि.

[हिं. औंगी]

जो बोल न सके, गूँगा।

औंगी

संज्ञा

[सँ. आवङ]

चुप्पी, गुँगापन।

औंघना

क्रि. अ.

[सं. अवाङ]

अलसाना, झपकी लेना।

औंधाई  

संज्ञा

[हिं. औंघना]

झपकी, उँघाई, आलस्य।

औंघान

क्रि. अ.

[हिं. औंधाना]

ऊँघना, झपकी लेना।

औंछि

क्रि. स.

[हिं. पौंछनी ओंछना]

पोंछकर, झाड़पोंछकर, हाथ फेरकर।

दोऊ भैया कछु करौं कलेऊ लई बलाई कर औंछि-६०९।

औंजाना

क्रि. अ.

[सं. आवेजन = व्याकुल होना]

ऊबना, अकुलाना, घबराना।

औंठ

संज्ञा

[सं. ओष्ठ, प्रा. ओटट]

उठा हुआ किनारा, बारी।

औंड़

संज्ञा

[स. कुंड = गडढा]

गड्ढा खोदनेवाला, बेलदार।

औंड़ा

वि.

[सं. कुंड]

गहरा, गम्भीर।

औंड़ा

वि.

[हिं. औड़ना, उमड़ना]

उमड़ता हुआ, चढ़ा या बढ़ा हुआ।

औंड़े  

वि.

[हिं. औंड़ा]

गहरा, गम्भीर।

औंड़े  

वि.

[हिं. औंड़ना, उमड़ना]

बढ़ा हुआ, चढ़ा हुआ।

इन्द्री-स्वाद-बिबस निसि बासर, आपु अपुनपौ हाराै। जल ओड़े मैं चहुँ दिसि पैरयौ, पाउँ कुल्हारौ माराै-१-१५२।

औंदना

क्रि. अ.

[सं. उन्माद या उद्विग्न]

उन्मत्त हो जाना।

औंदना

क्रि. अ.

[सं. उन्माद या उद्विग्न]

घबराना, आकुल होना।

औंदाना

क्रि. अ.

[सं. उद्वेलन]

ऊबना।

औंदाना

क्रि. अ.

[सं. उद्वेलन]

दम घुटने से घबराना।

औंधना  

क्रि. अ.

[हिं. औधा]

उलट जाना।

औंधना  

क्रि. स.

उलटा कर देना।

औंधा

वि.

[सं. अधोमुख

उलटा, पेट के बल, पट।

औंधा

वि.

[सं. अधोमुख

जिस (पात्र) का मुँह नीचे हो।

औंधा

वि.

[सं. अधोमुख

नीचा।

औंधाना

क्रि. स.

[हिं. औंधा]

उबटना, पलट देना।

औंधाना

क्रि. स.

[हिं. औंधा]

(पात्र का) मुख नीचे करके (द्रव आदि) गिराना।

औंधाना

क्रि. स.

[हिं. औंधा]

नीचे लटकाना।

अव्य.

[सं. अपर, प्रा. अवर, हिं. और]

और   

मन बच-कर्म और नहिं जानत सुमिरत औ सुमिरावत-२-१७।

संज्ञा

[सं.]

अनंत, शेष।

संज्ञा

पृथ्वी।

औकन

संज्ञा

[देश.]

राशि, ढेर।

औगत  

संज्ञा

[सं. अव + गति]

दुर्दशा, दुर्गति।

औगत  

वि.

[हिं. अवगत]

जाना हुआ, विदित।

औगाहना  

क्रि. अ.

[सं. अवगाहना]

नहाना।

औगाहना  

क्रि. अ.

[सं. अवगाहना]

घुसना, धंसना, प्रवेश करना।

औगाहना  

क्रि. अ.

[सं. अवगाहना]

प्रसन्न होना।

औगाहना  

क्रि. स.

छानबीन करना।

औगाहना  

क्रि. स.

गति उत्पन्न करना।

औगाहना  

क्रि. स.

धारण करना।

औगाहना  

क्रि. स.

सोचना-विचारना।

औगाह्यौ

क्रि. अ.

[सं. अवगाहन, हिं. अवगाहना]

ग्रहण किया, अपनाना सीखा, छानबीन की।

सब आसन रेचक अरु पूरक कुंभक सीखे पाइ। बिनु गुरु निकट सँदेसन कैसे यह औगाह्यौ जा इ--३१३४।

औगुन

संज्ञा

[स. अवगुण]

दोष, दूषण।

औगुन

संज्ञा

[स. अवगुण]

अपराध, बुराई, खोटाई।

औगुनी  

वि.

[सं. अवगुणिन्]

निर्गुणी

औगुनी  

वि.

[सं. अवगुणिन्]

दोषी।

औघट  

संज्ञा

कठिन या दुर्गस मार्ग।

औघड़  

संज्ञा

[सं. अघोर = भयानक]

अघोरी, अघोरपंथी।

औघड़-असत-कुचीलनि सौं मिलि, माया-जल में तरतौं-१-२०३।

औघड़  

संज्ञा

[सं. अघोर = भयानक]

मनमौजी।

औघड़  

वि.

अटपट, उलट-पलटा।

औघर

वि.

[सं. अव + घट]

उलट-पलटा, अंड बंड।

औघर

वि.

[सं. अव + घट]

अनोखा, विचित्र।

(क) बलिहारी वा रूप की लेति सुघर औ औघर तान दै चुम्बन आकर्षति प्रान। (ख) मोहन मुरली अधर धरी।::::::::। औघर ताने बंधान सरस सुर अरु रस उमगि धरी।

औचक

क्रि. वि.

[सं. अब + चक = भ्रांति]

अचानक, एकाएक, सहसा।

(क) यह सुनतहिं जसुमति रिस मानी। कहाँ गयौ कहि सारंगपानी। खेलत हैं। औचक हरि आए। जननी बाँह पकरि बैठाए३९१। (ख) गए स्याम रवि तनया कैं तट, अग लसति चन्दन की खोरी। औचक ही देखी तहँ राधानैन बिसाल भाल दिए रोरी -६२७।

औचट  

क्रि. वि.

[सं. अ = नहीं +हिं. उचटना = हटना]

संकट, कठिनता, सँकरा।

लग्यौ फिरत सुरभी ज्यौ सुत-रँग, औचट गुनि गृह बन कौं--१-९।

औचट  

क्रि. वि.

अचानक, अकस्मात।

औचट  

क्रि. वि.

भूल से, अनचीते में।

औचित  

वि.

[सं. अव = नहीं + चिंना]

निश्चिंत।

औचिती

संज्ञा

[सं. औचित्य]

उचित बात या रीति।

औचित्य  

संज्ञा

[सं.]

उपयुक्तता।

औज

संज्ञा

[सं. ओझ]

तेज, बल।

औज

संज्ञा

[सं. ओझ]

प्रकाश।

औजक

क्रि. वि.

[हिं. औवक]

अचानक, सहसा।

औजड़

वि.

[सं. अव + जड़]

उजड्डु, अनाड़ी।

औझड़, औझर

क्रि. वि.

[सं. + हिं. झड़ी]

लगातार, निरन्तर।

औदन

संज्ञा

[हिं. औटना]

उबाल, ताव।

औटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, प्रा. आवट्टन]

किसी द्रव को ऑग पर खौलाना या गाढ़ा करना।

औटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, प्रा. आवट्टन]

घूमना, भटकना।

औटना

क्रि. स.

[सं. आवर्तन, प्रा. आवट्टन]

तप करना।

औटाइ

क्रि. स.

[हिं. औटाना]

औटाकर, खौलाकर।

रस लै लै औटाइ करते गुर, डारि देत है। खोई.--१-६३।

औटाए

क्रि. स.

[हिं. औटना]

औटाने पर, खौलाने पर।

फिरि औटाए स्वाद जात है, गुर तैं खाँड न होई--१-६३।

औटाना

क्रि. स.

[हिं. औटाना]

आँच पर खौलाना या गाढ़ा करना।

औटि

क्रि. स.

[हिं. औटाना]

औटा कर, खौला कर,गर्म करके।

(क) आछौ दूध औटि धौरी को, लै आई रोहिनि महतारी-१०-२२७। (ख) ग्वाल सखा सब हीं पय अँचयौ। नीकैं औटि जसोदा रचयौ--३९६।

औटयौ  

क्रि. स. भूत.

[हिं. औटाना]

औटाया खौलाया।

आछेेैं औटयौ मेलि मिठाई, रुचि करि-अँचवत क्यौं न नन्हैया--१०-२२९।

औटयौ  

वि.  

औटा हुआ, खौला हुआ, पका हुआ।

औटायौ दुध, सद्य दधि, मधु, रुचि सौं खाहु लला रे--४२९।

औठपाय

संज्ञा

[सं. उत्पात]

नटखटी, शरारत।

औढर

वि.

[सं. अव + हिं. ढार या ढाल]

मनमौजी।

औढर

वि.

[सं. अव + हिं. ढार या ढाल]

शीघ्र ही या थोड़े ही में प्रसन्न हो जाने वाला।

औतरना

क्रि. अ.

[हिं. अवतरना]

अवतार लेना।

औतरे

क्रि. अ.

[सं. अवतार, हिं. अवतारन]

अवतार ले, जन्म ग्रहण करे।

याकीं कोख औतरै जो सुत, करै प्रान-परिहारा -- १०-४।

औतार

संज्ञा

[सं. अवतार]

शरीर ग्रहण करना, जन्मना, सृष्टि, अवतार।

औत्सुक्य  

संज्ञा

[सं.]

उत्सुकता, उत्कंठा।

औथरा, औथरो

वि.

[सं. अवस्थल]

उथला, छिछला।

औदकन

क्रि. अ.

[हिं. उदकना]

कूदना।

औदकन

क्रि. अ.

[हिं. उदकना]

चौंकना।

औदसा

संज्ञा

[सं. अवदशा]

बुरी दशा, दुख।

औदार्य

संज्ञा

[सं.]

उदार होने की क्रिया या भाव।

औद्योगिक

वि.

[सं.]

उद्योग-धन्धों से संबंधित।

औध

संज्ञा

[सं. अवध]

अवध, कौशल देश।

अघोरी

संज्ञा

[सं.]

घृणित व्यक्त।

अघोरी

वि.

घृणित, घृणा के योग्य !

जिन द्वति सकट लब तृन वृत इंद प्रतिज्ञा टाली। एते पर नहि तजत अवोरी कपटी कंस कुचाली--२५६७।

अघौघ

संज्ञा

[सं.]

पाप-समूह।

अघ्रानना

संज्ञा

[सं. आघ्राण]

सूँ घना।

अचंचल

वि.

[सं.]

स्थिर, ठहरा हुआ।

अचंभव

संज्ञा

[सं. असं.भव]

अंचभा, आश्चर्य, विस्मय।

अचंभव

वि.

आश्चर्यजनक, विस्मयकारी।

तुम याही बात अचंभव भाषत नाँगी आवहु नारी -- -८२६।

अचंभित

वि.

[हिं. अचंभा]

चकित, विस्मित।

अचंभित

संज्ञा

अचंभा, विस्मय।

यह मेरे जिय अतिहि अचंभित तौ बिछुरत क्यों एक घरी-२०९२।

अचंभु

संज्ञा

[सं. असं.भव, हिं. अचंभा]

अचंभा, विस्मय।

देख सखी पँच कमल द्वै संभु। एक कमल ब्रज ऊपर राजत निरखत। नैन अचंभु-१९१८ और सा. उ.--४४।

औध, औधि

संज्ञा

[सं. अवधि]

समय, अवसर काल।

कहँ लगि समुझाऊँ सूरज सुनि, जाति मिलन की औधि टरी-८०६।

औध, औधि

संज्ञा

[सं. अवधि]

निर्धारित, समय, काल।

सिसिर बसन्त सरद गत सजनी बीती औधि करी--२८१४।

औधारना

क्रि. स.

[हिं. अवधारना]

ग्रहण करना, धारण करना।

औनि

संज्ञा

[सं. अवनि]

भूमि, पृथ्वी।

औनिप

संज्ञा

[सं. अवनि + प]

पृथ्वी का पालक, राजा।

औम

संज्ञा

[सं.]

वह तिथि जिसकी हानि हो गयी हो

और

अव्य.

[सं. अपर, प्रा. अवसर]

एक संयोजक शब्द; दो शब्दों, वाक्यांशों या वाक्यों को जोड़ने वाला शब्द।

एहि थर बनी क्रीड़ा गज-मोचन और अनत कथा स्रति गाई-१-६।

और

वि.

दूसरा, अन्य, भिन्न।

हरि सौं ठ कुर और न जन कौं-१-९।

और

वि.

कुछ।

कानन सुनै आँखि नहिं सूझै। कहै और और कछु बूझै -- ४-१२।

और

मुहा.

भई और की और (औरै): -विशेष परिवर्तन हो गया, भारी उलट-फेर हो गया, कुछ का कुछ हो गया। उ.- (क) कहत हे आगैं जपिहैं राम। बीचहिं भई और की औरै, परयौ काल सौं काम -- १.५७। (ख) बीचहिं भयी और की औरे, भयौ शत्रु को भायौ -- ९-१४६। (ग) हम सौं कहत और की और इन बातनु मन भावहुगे--१९७८। (घ) अब ही और की और होत कछु लागै बारा -- -१०। ८। और की औराई (औरै) :- कुछ का कुछ। उ.- (क) कहति और की औराई मैं तुमहिं दुरैहौं।-२१०२। (ख) तैं अलि कहत और की औरै स्रुतिमति की उर लीनी--१३८०।

और

वि.

अधिक, ज्यादा।

औरस

वि.

[सं.]

जो संतान विवाहिता पत्नी से उत्पन्न हो।

मैं हूँ अपनेैं औरस पूतैं बहुत दिननि मैं पायौ--१०-३३९।

औरसना

क्रि. अ.

[सं. अव = बुरा + रस]

नष्ट होना, उदासीन होना।

औरासा

वि.

[हिं. औरसना]

विचित्र, बेढंगा।

औरासी

वि.

[हिं. औरसना]

रुष्ट, उदासीन।

औरासी

वि.

विचित्र, बेढंगा।

बिसरो सूर बिरह दुख अपनो अब चली चाल औरासी-२८७७।

औरेब

संज्ञा

[सं. अव = विरुद्ध या उलटी + रेव = गति]

तिरछी चाल।

औरेब

संज्ञा

[सं. अव = विरुद्ध या उलटी + रेव = गति]

चाल भरी बातें, छल-कपट की घात।

औरै

नि. सवि.

[हिं. और]

और को, दूसरे को।

कृपन, सूम, नहिं खाइ खवावैं, खाइ मारि के औरै.--१-१८६।

औरौ

वि.

[हिं. और]

और भी, अन्य, अनेक।

(क) जो प्रभु अजामील कौ दीन्हों, सो पाटाै लिखि पाऊँ। तौ बिस्वास होइ मन मेरैं, औरौ पतित बुलाऊँ-१-१४६। (ख) अबहिं निवछरौ समय, सुचित ह्वै, हम तो निरधक कीजे। औरौ आइ निकसिहैं तातैं, आगैं हैं सो कीजै-१-१९१।

औरौ

वि.

[हिं. और]

अन्य, दूसरा।

औरौ दँडदाता दोउ आहि। हम सौं क्यौं न बतावो ताहि-६.४।

औलना

क्रि. अ.

[हिं. जलना]

गरमी पड़ना, तप्त होना।

औषध

संज्ञा

[सं.]

रोग दूर करने की वस्तु, दवा।

बिन जानैं कोउ औषध खाइ। ताकौ रोग सफल नसि जाइ -- ६-४।

औषधि, औषधी

संज्ञा

[सं. औषध]

दवा, औषधि।

तुम दरसन इक बार मनोहर, यह औषधि इक सखी लखाई-७४८।

औसर

संज्ञा

[सं. अवसर]

समय, काल।

(क) हरि सौं मीत न देख्यौ कोई। विपति काल सुमिरत तिहिं औसर आनि तिरीछौ होई--१-१०। (ख) गए न प्रान सूरता औसर नंद जतन करि रहे घनेरो-२५३२।

औसर

मुहा.

औसर हारयौ :- मौका चूक गये। उ.-औसर हारयौ रे तैं हारयौ। मानुष-जनम पाइ नर बौरे, हरि को भजन बिसरायाै--१-३३६।

औसान

संज्ञा

[सं. अवसान]

अंत।

औसान

संज्ञा

[सं. अवसान]

परिणाम।

जेहि तन गोकुलनाथ भज्यौ। ऊधो हरि बिछुरत ते बिरहिनि सो तनु त बहिं नज्यो। अब औसान घटत कहि कैसे उपजी मन परतीति।

औसान

संज्ञा

सुध-बुध, धैर्य।

सुरसरि-सुवन रन भूमि आए। बान वर्षा लागे करन अति क्रोध ह्वै पार्थं औसान (अवसान) तब सब भुलाए -- १-२७३।

औसाना

क्रि. स.

[हिं. औसाना]

फल पाल में रखकर पकाना

औसि

क्रि. वि.

[सं. अवस्य]

जरूर, अवश्य।

औसेर

सं.

[सं. अवसे रु = बाधक, हिं. अवसेर]  

चित, व्यग्रता।

गोपिन बैठि औसेर कीनो--२४३२ (४)।

औहत

संज्ञा

[सं. अपघात, अवहन = कुचलना, कूटना]

दुर्गति, अपमृत्यु।

औहाती

वि.

[सं. अहिवाती]

सोहागनि, सौभाग्यवती।

अचंभो, अचंभौ

संज्ञा

[हिं. अचंभा]

आश्चर्य, विस्मय।

(क) अचंभौ इन लोगनि को आवै। छाँडै स्याम-नाम-अम्रित-फल, माया-बिष-फल भावै--२-१३। (ख) डोलै गगन सहित सुरपति अरु पुहुमि पलटि जग परई। नसै धर्म मन बचन काय करि, सिंधु अचंभौ करई-९-७८। (ग) मोसों कहत तुहूँ। नहिं आवैं सुनत अचंभो पाऊँ रौ -- पुं. ३२३। (घ) सोवत थी मैं स जनी आज। तब लग सुपन एक यह देखो कहत अचंभो साज-सा. ६८।

अचई

क्रि. स.

[सं. आचमन, हिं. अजवना]

पान कर ली, पी ली।

यह मूरति कबहूँ नहिं देखी मेरी । अँखियन कछु भूल भई सी। सूरदास प्रभु तुम्हरे मिलन कौ मनमोहन मोहनी अचई सी -- -१६८३।

अचक

वि.

[सं. चक्र = समूह]

भरपूर, पूर्ण।

अचक

संज्ञा

[सं.चक् = भ्रांत होना]

भौचक्कापन।

अचकाँ

क्रि. वि.

[हिं. अचानक, अचक्‌‍का]

सहसा, एकाएक।

अचगरी

संज्ञा

[सं. अति, प्रा. अच + करणम् =ज्यादती]

नटखटपन, शरारत, शैतानी, छेड़छाड़।

(क) सूर स्याम कत करत अ व गरी, बार-बार ब्रह्मनहिं खिझायौ-१०-२४८। (ख ) माखन दधि मेरौ सब खायौ, बहुत अ नगरी कीन्ही। अब तो घात परे हौ लालन तुम्हैं भलै मैं चीन्ही-१०-२९७। (ग) मैं बरजे तुम करत अचगरी। उरहन कौं ठाढ़ी र हैं सिगरी-३९१। (घ) बहुत अचगरी यहिं करि रखो प्रथम मा रिहैं याहि -- २५७४। (ङ) अगचरी करि रहे बचन एई कहे डर नहीं करत सुत अहीर केरे--२६११।

अचगरौ

वि.

[हिं. अचगरी]

नटखट, चंचल, छेड़खानी करनेवाला।

(क) ऐसौ नाहिं अवगरौ मेरौ, कहा बनावति बात-१०-२९०। जसुमति तेरौ बारौ कान्ह अति ही जु अवगरौ -१०-३३६।

अचना

क्रि. स.

[सं. आचमन]

आचमन करना, पीना।

अचपल

वि.

[सं.]

धीर, गंभीर।

अचपल

वि.

[सं.]

चंचल, शोख।

अचपली

संज्ञा

[हिं. अचपल + ई]

अठखेलो, क्रीड़ा।

अचभौन, अचभौना

संज्ञा

[सं. असं.भव हिं. अच भा]

आश्चर्यजनक, विस्मयकारक।

कहा करत तू नद डिठौना। सखी सुनहु री बातैं जैसी करत अतिहि अचभौना-पृं. २३६।

अचमन

संज्ञा

[सं. आचमन, हिं. अचवन]

भोजन के पश्चात हाथ मुँह धोकर कुल्लो करने की किया।

भोजन करि नँद अचमन लीन्हौ, माँगत सूर जुठनिया-१०-२३८।

अचर

वि.

[स.]

न चलने वाला, जड़, स्थावर।

अचरज

संज्ञा

[सं. अश्चर्य, प्रा. अच्‌‌चरिय]‍

आश्चर्य, अचंभा, विस्मय।

(क) अविगत, अबिनासी पुरुषोत्तम, हाँ कत रथ कै आन। अचरज कहा पार्थ जौ बेधें, तीन लोक इक बान-१-२६९। ( ख ) अचरज सुभग बेद जल जातक कलस नीलमनि गात -- १९०७। (७) आजु अली लषि अचरज एक। सुत सुत लखत तिपीपी गोपी सुत सुत बाँधे टेक-- सा, ४५।

अचर

संज्ञा

[सं. अंचल]

अंचल।

राधे तु अति रंग भरी। मेरे जान मिली मनमोहन अचर। पीक परी–२१०६।

अचल

वि.

[सं.]

जो न चले, स्थिर, निश्चल।

जिहिं गोविंद अचल भुव राख्यौ, र विससि किए प्रदच्छिनकारी-१३४।

अचल

वि.

[सं.]

सदा रहनेवाला, चिरस्थायी।

अचल

वि.

[सं.]

ध्रुव, दृढ़, अटल

अचल

वि.

[सं.]

जो नष्ट न हो, अटूट, अजेय।

अँगिरा, अंगिरा

संज्ञा

[सं. अंगिरस]

एक प्राचीन ऋषि जिनकी गणना दस प्रजापतियों में है और जो अथर्ववेद के कर्ता माने जाते हैं। उनके पिता का नाम उरु और माता का आग्नेयी था। इनकी चार स्त्रियां थीं-स्मृति, स्वधा, सती और श्रद्धा। इनकी कन्या का नाम ऋचस् और पुत्र का मनस् था।

अंगीकार

संज्ञा

[सं.]

स्वीकार, ग्रहण।

अँगुठा

संज्ञा

[सं. अंगुष्ठ, प्रा अंगुट्‍ठ, हि अँगूठा]

अंगूठा।

कर गहे चरन अँगूठा चचो रैं -१०-६२।

अँगुर

संज्ञा

[सं. अगुल]

एक नाप जो आठ जौ के पेट की लंबाई के बराबर होती है।

अंगुर द्वै धटि होति सबनि सौ पुनि पुनि और मँगायौ -- १०-३४२।

अँगुर

संज्ञा

[सं. अगुल]

एक अंगुली की मोटाई भर की नाप।

अंगुरिनि

संज्ञा

[सं. अँगुरी, हिं. उँगली]

उंगलियों में।

अंग अभुषन अँगुरिनि गोल -- -१०-९४।

अँगुरियनि

संज्ञा

[हिं. उँगली]

उंगलियों से।

दुहत अँगुरियनि भाव बतायौ--६६७।

अंगुरिया

संज्ञा

[सं. अँगुरी-अल्प.]

छोटी उंगली

गहे अँगुरिया ललन की, नँद चलन सिखावत -- - १०-१२२।

अँगुरी

संज्ञा

[सं. अँगुरी]

उंगली।

चौथ मास कर-अँगुरी सोई-३-१३।

अँगुरीनि

संज्ञा

[सं. अँगुली]

उँगली, उँगलियों (को) (से)।

मैं तौ जे हरे हैं, ते तौ सोबत परे हैं, ये करे हैं कौनैं आन, अँगुरीनि दंत दै रह्यौ - १०-४५४

अचल

संज्ञा

[सं.]

पर्वत, पहाड़।

अचल जा

संज्ञा

[सं. अचल = पर्वत + जा = पुत्री]

पार्वती।

अचलजपति

संज्ञा

[सं. अचन जा = पार्वती + पति]

पार्वती के पति शिव।

अचलजापति अंग-भूषन

संज्ञा

[सं. अवलजा -- पति = शिव + अग = शरीर + भूषण = अलंकार]

शिव के शरीर का भूषण, सर्प, शेषनाग।

अचलजपति अंग-भूषन भार-हित-हित

संज्ञा

[सं. अचल जापति-अंग-भूषन = शेष + भार (शेष का भार = पृथ्वी ) का हित (पृथ्वी का हित यः हितू = इंद्र) + हित। ( इंद्र का हितू या प्रिय = मेघ = वन =घनश्याम )]

घनश्याम, कृष्ण।

अचला

संज्ञा

[सं.]

पृथ्वी।

अचवन

संज्ञा

[सं. आचमन]

आचमन या प.न की क्रिया।

अचवन

संज्ञा

[सं. आचमन]

भोजन के बाद हाथ मुँह धोकर कुल्ली करना।

अचवना

क्रि. स.

[सं. आचमन]

आचमन याअ पान की क्रिया।

अचवना

क्रि. स.

[सं. आचमन]

भोजन के बाद हाथ मुँह धोने और कुल्ली करने की क्रिया।

अचवना

क्रि. स.

[सं. आचमन]

पचाने की । क्रिया, हजम कर जाना।

अचवाई

वि.

[हि अचवना]

स्वच्छ, निर्मल।

अचवाना

क्रि. स.

[सं. आचमन]

आचमन कराना, पिलाना।

अचवाना

क्रि. स.

[सं. आचमन]

भोजन के बाद हाथ मुँह धुलाकर कुल्लो कराना।

अचवाहीँ

क्रि. स.

[सं. आचमन, हिं.अचवना]

आचमन करते हैं, पीते हैं, पान करते हैं।

रुक्मिनि चल हु जनम भूमि जाहीं। जदपि तुम्हारो हतो द्वारका मथुरा के सम नाहीं। यमुना के तट । गाय चरवत अमृत जल अ च वाहीं-१० उ.-१ ०४।

अचवो

क्रि. स.

[सं. अचमन, हिं. अचवना]

पान करूँ, रस चखूँ।

सुनहु सूर अधरन रस अँचवो दुहुँ मन तृषा बुझ ऊँगो-१९४४।

अचाक, अचाका

क्रि. वि.

[सं. आ = अच्छी तरह + चक्र= भ्रांति]

अचानक, सहसा।

अचान

क्रि. वि.

[सं. आ + चक् अथबा सं. अज्ञान]

सहसा, अकस्मात।

अचानक

क्रि. वि.

[स. अ = प्रच्छी तरह + चक् = भ्रांति, अथवा सं. अज्ञानात्]

बिना पूर्व सूचना के, एकबारगी, सहसा, अकस्मात।

(क) बरजि रहे सब, कह्यौ न मानत, करि करि जतन उड़ात। परै अचानक त्यों रस-लंपट, तनु तजि जमपुर जात -- २-२४। (ख) नृपति जजाति अचानक आयौ। सुक्र सुता को दरसन पायौ-९-१७४। (ग) बटाऊ होहिँ न काके मीत। संग रहत सिर मेलि ठगौरी हरत अचानक चीत-२७३०।

अचार

संज्ञा

[फ़ा]

नमक, मिर्च, राई आदि मसाले मिलाकर तेल, सिरके आदि में कुछ दिन रखकर खट्टे किए हुए फल या तरकारी।

पापर बरी अचार परम सुचि-२३ २१।

अचारी

वि.

[सं. आचारी]

आचार विचार से रहने वाला।

अचाह

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + चाह = इच्छा]

अनिच्छा, अप्रीति, अरुचि।

अचाहा

वि.

[सं. अ + चाह = इच्छा, अचाह]

अप्रिय, अरुचिकर, अप्रीतिपात्र।

अचिंत

वि.

[सं.]

चिंतारहित, निश्चिंत।

अचीता

वि.

[सं. अचतित]

असंभावित, आकस्मिक।

अचीता

वि.

[सं. अर्चित]

निश्चिंत, चिंतारहित

अचूक

वि.

[सं. अच्युत]

जो (वार आदि) खाली न जाय, जो निर्दिष्टकार्य अवश्य करे।

अचूक

वि.

[सं. अच्युत]

जिसका वार खाली न जाय, अति कुशल।

एहि वन मोर न ही ए काम बान। बिरह खेद धनु पुहुप भृंग गुन करिल तरैया रिपु समान। ल यौ घेरि मनो मृग चहुँ दिसि तै अचूक अहेरी, नहिं अजान-२८३८।

अचूक

वि.

[सं. अच्युत]

ठीक, निश्चित, पवका।

अचूक

क्रि. वि.

कौशल से।

अचूक

क्रि. वि.

निश्चय, अवश्य।

अचेत

वि.

[सं.]

बेसुध, मूछिंत, संज्ञाशून्य।

पौढ़े कहा समर-सेज्या सुत, उठि किन उत्तर देत। थकित भए कछु मंत्र न फुरई कीन्हे मोह अचेत-१-२९।

अचेत

वि.

[सं.]

ब्याकुल, विकल।

अचेत

वि.

[सं.]

असावधान।

अचेत

वि.

[सं.]

अनजान, नासमझ, अज्ञान।

अचेत

वि.

[सं.]

सूर सकल लागत ऐसी यह सो दुख कासौं कहिये। ज्यों अचेत बालक की बेदन अपने ही तन सहिये -- १४४२।

अचेत

वि.

[सं.]

मूढ़, मूर्ख।

(क) ऐसौ प्रभू छाँड़ि क्यौं भटके, अजहूँ चेति अचेत-१-२९६। (ख ) कुँ अर जल लोचन भरि भरि लेत। बालक वदन बिलोकि जसोदा, कत रिस करति अचेत--३४९।

अचेत

वि.

[सं.]

जड़।

आपुन तरि तरि और न तारत अस्म अचेत प्रकट पानी मैं बनचर लै लै डारन-९-१२३।

अचै

क्रि. स.

[स. अचमन, हि अचवना]

पीकर, पान करके।

(क) कालीदह जल अचै गए मरि तब तुम लियै जिवाय-९८६। (ख) मोहन माँग्यौ अपनी रूप। यहि ब्रज बसत अ वै तुम बैठी ता बिन तहाँ निरूप।

अचैन

संज्ञा

[सं. अ = नहीं + शयन = सोना आराम करना]

व्‍याकुलता, दुख।

अचैन

वि.

व्याकुल, विकल।

ससि पावस कपिल । के बिच मूँद राखे नैन। सह सिकारी नाग मनसिप सखिन वोर (ओर) अचैन--सा, ९२।

अचोना

संज्ञा

सं. [सं. आचमन]

पीने का बरतन, कटोरा।

अच्छ

वि.

[सं.]

स्वच्छ, निर्मल।

सारंग पच्छ अछ सिर ऊपर मुष सारंग सुष नीके–सा० १००।

अच्छ

संज्ञा

[सं. अक्ष]

आँख।

अच्छ

संज्ञा

[सं. अक्ष]

अक्षकुमार जो रावण का पुत्र था और हनुमान द्वारा मारा गया था।

अच्छत

संज्ञा

[सं. अक्षत]

बिना टूटा चावल जो मंगल-द्रव्य माना गया है।

अच्छत दूब लिये रिषि ठाढ़े, बारनि बंदनवार बँधाई-१०-१९।

अच्छत

वि.

अखंडित, निरन्तर।

अच्छर

संज्ञा

[सं. अक्षर]

अक्षर, वर्ण।

अच्छरा, अच्छ‌री

संज्ञा

[सं. अप्सरा, प्रा. अच्छरा]

अप्सरा।

अच्छु

संज्ञा

[सं. अक्ष]

आँख, नेत्र।

भछ विध के षरक फरकत अच्छु चारो ओर-सा ०३४।

अच्छोत

वि.

[सं. अक्षत, प्रा, अच्छत]

पूरा, अधिक, बहुत।

बृषभ धर्म पृथ्वी सो गाइ। बृषभ कह्यौ तासौं या भाइ। मेरे हेत दुखी तू होत। कै अधर्म्म तुम अच्छोत (के अधर्म तो ऊपर होत]-१-२९०।

अच्छोहिनी

संज्ञा

[सं. अक्षौहिणी]

चतुरंगिनी सेना जिसमें १०९३५० पैदल, ६५६१० घोड़े, । २१८७० रथ और २१८७० हाथी होते थे।

अच्युत

वि.

[सं.]

स्थिर, नित्य, अविनाशी।

(क) अच्युत रहै सदा जल-साई। परमानंद परम सुखद ई-१०-३। (ख) मूरज प्रभु अच्युत ब्रजमंडल, घर हीँ घर लागे सुख देनु-४३८।

अच्युत

संज्ञा

[सं.]

विष्णु और उनके अवतारों का नाम।

अछक

वि.

[सं. चषु, प्रा. चक, छक]

अतृप्त, भूखा।

अछकना

क्रि. वि.

[सं. अ = नहीं + वर्ष = खाना]

अतृप्त रहना, न अघाना।

अछत

संज्ञा

[सं. अक्षत, हिं. अच्छत]

अक्षत, देवताओं पर चढ़ाने के अक्षत।

मेरे कहैँ बिप्रनि बुलाइ, एक सुभ घरी धराइ, बागे चीरे बनाइ, भूषन पहिरावौ। अछत-दूब दल बँधाइ, लालन की गांठि जुराइ, इहैं मोहिँ लाहौ नैननि दिखरावौ -- १०-९५।

अछत

क्रि. वि.

[अ. क्रि. 'अछना' का कृदन्त रूप]

रहते हुए, विद्यमानता में, सम्मुख।

(क) माता अछत छीर बिन सुत मरै, अजा कंठ-कुच से इ-१-२००। (ख) ता रावन केैं अछत अछयसुत सहित सैन संहारी-९-१०० (ग) कुँवर सबै घेरि फेरे फेरत छुड़त नाहिने गुपाल। बलै अच्छत छलबल करि सूरदास प्रभु हाल-१० उ०-६।

अछत

क्रि. वि.

[अ. क्रि. 'अछना' का कृदन्त रूप]

सिवाय अतिरिक्त।

अछत

क्रि. वि.

[सं. अ = नहीं + अस्ति, प्रा. अच्छाइ -- है]

न रहते हुए, अनुपस्थित।

अछन

संज्ञा

[स. अं = नहीं + क्षण]

दर्घकल्ल, चिर. काल।

अछन

क्रि. वि.

धीरे धीरे, ठहर ठहर कर।

अछना

क्रि. अ.

[सं. अस्, प्रा. अच्छ-होना]

विद्यमान रहना।

अछय

वि.

[सं. अक्षय]

जिसका अंत न हो, जो समास न हो।

करषत सभा द्रपद-तनया को अंवर अछय कियौ -- १-१२१।

अछय

वि.

[सं. अ = नहीं + छय == छिपना]

प्रकट, प्रत्यक्ष।

अछयकुँ वर, अछयकुमार

संज्ञा

[सं. अक्ष कुमार, हिं. अक्षयकुमार]

रावण का एक पुत्र जो लंका का प्रमोइवन उजाड़ते समय मारा गया था।

अछरा, अछरी

संज्ञा

[सं. अप्सरा, प्रा. अछरा]

अप्सरा।

अछवाना

क्रि. स.

[सं. अच्छ = साफ]

सँवारना।

अछास

वि.

[सं. अक्षाम्]

बड़ा, भारी।

अछास

वि.

[सं. अक्षाम्]

हृष्‍टपुष्ट, बली।

अछूता

वि.

[सं. अ = नहीं + छुप्त = छुआ हुआ, प्रा. अछुत]

जो छुआ न गया हो, अस्पृष्ट।

अछूता

वि.

[सं. अ = नहीं + छुप्त = छुआ हुआ, प्रा. अछुत]

जो काम में न लाया गया हो, कोरा।

अछूते

वि. बहु.

[सं. अ = नहीं +छुप्त-छुआहुअ]

जो काम में न लाए गए हों, नए, कोरे।

मेरे घर को द्वार, सखी री, लाबलोैं देखति रहियोै। दधिमाखन द्वै माट अछूतें तोहिँ सौँ पति होँ सहियौ -- १०-३१३।

अछेद

वि.

[सं. अच्छेद्य]

जिसका छेदन न हो सके, अभेद्य, अखंड्य।

(क) अभिद् अछेद रूप मम जान। जो सब घट है। एक समान--३-१३। (ख) इह अछेद अभेद अबिनासी। सर्व गति अरु सर्व उदासी-१२-४।

अछेद

सं. पुं.

अभेद, छल छिद्र का अभाव।

अछेव

वि.

[सं. अच्छेय या अछिद्र]

निर्दोष।

अछेह

वि.

[सं. अछेक]

निरंतर, लगातार।

अछेह

वि.

[सं. अछेक]

बहुत अधिक

अछोभ

वि.

[सं. अक्षोभ]

गंभीर शांत।

अछोभ

वि.

[सं. अक्षोभ]

मोह-मायारहित।

अछोभ

वि.

[सं. अक्षोभ]

निडर।

अछोह

संज्ञा

[सं. अक्षोभ, प्रा. अच्छोह]

शांति, स्थिरता।

अछोह

संज्ञा

[सं. अक्षोभ, प्रा. अच्छोह]

दयाहीनता, निदंयता

अज

वि.

[सं.]

अजन्मा, जन्म-बंधन-रहित स्वयंभू।

अज, अविनासी, अमर प्रभु, जनमै-मरै न सोह --२.३६।

अज

क्रि. वि.

[स. अद्य, प्रा. अज्ज]

अब अभी तक।

अजगर

संज्ञा

[स.]

बहुत मोटा साँप जो बकरी और हिरन तक निगल जाता है। यह जंतु रथूलता और निरुद्यमता के लिए प्रसिद्ध है।

अति प्रचंड पौरुष बन पागें, केहरि भूख मरै। अनायास बिनु उद्यम कीन्हैं, अजगर उद र अरै -- १-१०५।

अजगरी

संज्ञा

[सं. अजगरीय]

बिना परिश्रम की जीविका।

अजगुत

संज्ञा

[सं. अयुक्न, पु. हिं. अजुगुति]

अचंभे की बात, अमाधारण। व्यापार, अप्राकृतिक घटना।

(क) गोपाल सबनि प्यारो, ताकौं तैं कीन्हौ प्रहारौ जाकौ कौ है मोहुं कौ गारौ, अजगुन कियनौ-३७३। ( ब ) स्वान सँग सिंहिनि रति अजगुत वेद विरुद्ध असुर करै आइ-१० उ. -- १०।

अजगुत

संज्ञा

[सं. अयुक्न, पु. हिं. अजुगुति]

अनुचित बात, बेजोड़ प्रसंग या व्यापार।

(क) सरबस लूटि हमाराै लीनोै राज कूबरी पावै। तापर एक सुनौ री अजगुत लिख लिख जोग पठावै ३०९९। (ख) द्विज बेगि धाव हु कहि पठा यहु द्वारकाते जाइ। कुंदनपुर एक होत अजवुत बाघ घेरी गाइ -- १० उ०-१३।

अजगुत

वि.

आश्चर्यजनक, अदभुत, बेजोड़।

(क) पापी जाउ जीभ गलि तेरी अजगुत (अजुगुन) बात बिचारी। सिह कौ भच्छ सृगाल न पावै हौं समरथ की नारी-९-७९। (ख) रंगभूमि मुष्टिक चनूर हति भुजबल तर बजाए। नगर में नारि देहिं गारि कंस कौ अजगुत युद्ध बनाए -- २६२२।

अजन

वि.

[सं.]

जन्‍मरहित, जन्म-बंधन-मुक्त स्वयंसू।

(क) सफल लोकनायक, सुखदायक, अजन जन्म धरि आयौ -- -१०-४। (ख) शंख, चक्र, गदा, पद्म, चतुर्भुज अजन जन्म ले आयौ।

अजन

वि.

[सं.]

निर्जन, सुनसान।

अजन्म

वि.

[स, अजन्मा]

जन्म बंधन से रहित, अनादि, नित्य।

आत्म, अजन्म सदा अबिनासी ताकौं देह भोह बड़ फाँसी-५-४।

अजन्मा

वि.

[सं.]

जन्मरहित, अनादि, नित्य।

अजपा

वि.

[सं.]

जिसका उच्चारण न किया जाय।

अजपा

वि.

[सं.]

जो न जपे या भजे।

अजपा

संज्ञा

उच्चारण न किया जानेवाला तांत्रिकों का मंत्र।

षटदल अष्ट द्वादस दल निर्मल अजपा जाप-जपाली। त्रिकुटी संगम ब्रह्मद्वार मिट यौं मिलिहैं बनमाली।

अजभष

संज्ञा

[सं. अजा = बकरी + भक्ष्य = भोजन]

बकरी का भक्षण या भोजन, पत्ता, पत्र। 'पत्र' का दुसरा अर्थ चिटठी भी होता हैं।

कबै द्रग भर देखबोजू सबौ दुख बिसराइ। अजाभष की हान हमको अधिक ससि मुख चाइ -- सा. २२।

अजय

वि.

[सं. अजेय]

जो जीता न जा सके।

अजयारिपु

संज्ञा

[सं. अजय === भाँग = भंग + रिपु= शत्रु]

भंग का शत्रु, उद्दीपन, उतेजाना।

षटकंध अधर मिलाप उर पर अजयारिषु की घोर। सूर। अबलान मरत ज्यावो मिलो नंद किशोर–सा.उ. -- ४७।

अँगुरीनि

मुहा.

अँगुरीनि दंत दै रह्यौ :- चकित हुआ, अचंभे में आ गया।

अँगुसा

संज्ञा

[सं. अंकुश = टेढ़ी नोक]

अंकुर, अँखुआ, गाभ।

अँगुसा

संज्ञा

[सं. अंकुश = टेढ़ी नोक]

अँगुसी।

अँगूठी

संज्ञा

[हिं. अँगूठा + ई]

उँगली में पहनने का छल्ला, मुँदरी, मुद्रिका।

अंगूर

संज्ञा

[सं. अंकुर]

अंकुर

अंगूर

संज्ञा

[सं. अंकुर]

अँखुवा।

अंगूर

संज्ञा

[सं. अंकुर]

एक फल जिसको सुखा कर किशमिश या दाख बनती है।

अँगेजना

क्रि. स.

[सं. अंग = शरीर+एज = हिलना, कँपना]

सहन करना।

अँगेजना

क्रि. स.

[सं. अंग = शरीर+एज = हिलना, कँपना]

स्वीकार करना, अपनाना।

अँगेरना

क्रि. स.

[सं. अंग + ईर = जाना]

अंगीकार करना।

अजर

वि.

[सं. अ = नहीं + जरा = बुढ़ापा]

जो बूढ़ा न हो,

अजर

वि.

[सं. अ = नहीं + जरा = बुढ़ापा]

जो सदा एकरस रहे, ईश्वर का एक विशेषण।

अजरायल

वि.

[सं. अजर]

अमिट, चिरस्थायी, पक्का।

दिनाचारी में सब मिटि जैहै। स्यामरंग अजरायल रैहै -- -१४८८।

अजरायल

वि.

[सं. अ = नहीं + दर = भय]

निर्भय निशंक।

अजरावन

वि.

[सं. अजर]

जो सदा एकरस रहे, ईश्वर का एक विशेषण।

जसुमति धनि यह कोखि, जहाँ रहे बा वन रे। गिरैं भलैं सु दिन भयौ पूत, अमर अजरावन २-.-१६.३८।

अजरुढ़

वि.

[सं. अज--भेड़ा + सं. अरूढ़ = सवार]

कबरे पर सवार।

अजरुढ़

वि.

[सं. अज--भेड़ा + सं. अरूढ़ = सवार]

भेड़े पर सवार।

असुर अजरूढ़ होइ गदा मारे फटकि स्याम अंग लागि सो गिरैं ऐसे। बाद के हाथ ते कमल अमलनाल जुत लागि गजराज तन गिरत जैसे-१० उ०-३१।

अजवाइन

संज्ञा

[सं. यवनिका, हिं. अजवायन]

एक तरह का इस मसाला, अजवायन, यवानी।

(क) हींग, मिरच, पिपरि, अजवाइन ये सब बनिज कहावैं -- ११०८। ( ब) रोटी रुचिर कनक बेसन करि। अजवाइनि सैंधौ गिलाइ धरि -- २३ ११।

अजस

संज्ञा

[स. अयश]

अपयश, अपकीर्ति।  

अजस

संज्ञा

[स. अयश]

निंदा ।

अजस

संज्ञा

[स. अयश]

अपकार, बुराई।

पार्वं अबार सुधारि रमापति अजस करत जस पायौ -- १-१८८।

अजहुँ, अजहूँ

क्रि. वि.

[सं. अद्य, प्रा. अज्ज, हिं.अज + हूँ (प्रत्य.)]

अब, अब भी, अभी तक।

(क) अजहँ लगि उत्तानपाद:सुन अविचल राज करै-१-३७। (ख) रे मन, अजहूँ क्यों न सम्हारे--१६३। (ग) मैया कबहिं बढ़ेैगी चोटी। किती बार मोहिं दूध पियत भई यह अजहूँ है छोटी-१०-१७५। (घ) मानिनि अजहूँ मान बिसारो--सा० २०।

अज्ञा

संज्ञा

[सं.]

बकरी।

अज्ञा

संज्ञा

[सं.]

शक्ति, दुर्गा।

अजाचक

संज्ञा

[सं. अयाचक]

न माँगनेवाखा आदमी, संपन्न व्यक्ति।

अजाचक

वि.

जो न माँगे, भरा-पूरा, संपन्न।

अजाची

वि.

[सं. अयाचिन, हिं. अयाची.]

जिसे माँगने की आवश्यकता न हो, धन-धान्य से पूर्ण, भरा-पूरा।

बित्रसुदः मा कियौ अजाची, प्रीति पुरातन जानि-१-१८ और १-१ ३५।

अजाति, अजाती

संज्ञा

[सं. अजाति]

जाति रहित।

सूरदास प्रभु महाभक्ति तैं जाति अजातिहि साजै १-३६।

अजाद

वि.

[फ़, आज़ाद]

स्वतंत्र, स्वाधीन।

हमैं नँदनंदन मोल लिये। जमके फंद काटि मुकराये, अभय आजाद किये--१-१७१।

अजान

वि.

[सं. अ = नहीं + ज्ञान, प्रा. ज्ञान]

अनजान, अबोध, नासमझ।

सिव ब्रह्मादिक कौन जाति प्रभु हों अजान नहिं जानौं-१-११। (ख) इहाँ नाहिन नंदकुमार। इहै जानि अजान मघवा करी गोकुल आरि-२८३ १।

अजान

वि.

[सं. अ = नहीं + ज्ञान, प्रा. ज्ञान]

अपरिचित, अज्ञात।

अजान

संज्ञा

अज्ञानता।

अजान

संज्ञा

एक पेड़ जिसके नीचे जाने से बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है।

अजान

क्रि. वि.

अनजान स्थिति में, अज्ञानतावश।

जान अजान नाम जो लेइ हरि बैकुंठ-बास f हिं देइ -- ६-४।

अजामिल, अजामील

संज्ञा

[स.]

पुराणानुसार जीवन भर पाप कर्मौ में ही लिप्त रहनेवाला एक पापी ब्राह्मण। मरते समय यमदूतों का भयानक रूप देख कर इसने अपने पुत्र 'नारायण' का नाम लिया और अनजान में ही इस प्रकार ईश्वर का नाम लेने से तर गया।

अजित

वि.

[सं.]

अपराजित, जो जीता न गया हो।

इंद्रि अजित, बुद्धि बिषयारत, मन की दिन-दिन उलटी चाल--१-१२७। (ख) पौरुषरहित, अजित इंद्रिनि बस, ज्यौं गज पंक परचौ -- १-२०१।

अजित

संज्ञा

[सं.]

विष्णु।

तुम प्रभु अजित, अनादि, लोकपति, हौं अजान मतिहीन-१-१८१।

अजितेंद्र

वि.

[सं. अजितेंद्रिय]

जो इंद्रियों को जीत न सका हो, विषयासक्त, इंद्रियलोलुप।

पाइ सुधि मोहिनी की सदासिव चले, जाइ भगवान सौं कहि । सुनाई असुर अजितेंद्रि जिहिं देखि मोहित भए, रूप सो मोहिं दीजै दिखाई--८-१०।

अजिर

संज्ञा

[स]

आँगन, सहन।

धरे निसानं अजिर गृह मंडल, बिप्र बेद अभिषेक करायौ ९-२५।

अजीरन

संज्ञा

[सं. अजीर्ण]

अजीर्ण, अपच, अध्यसन।

अब यह बिरह अजीरन ह्वैंकैं वमि लाग्यो दुख दैन। मूर बैद ब्रजनाथ मधुपुरी काहि पठाॐ लैन--२७६५।

अजीरन

संज्ञा

[सं. अजीर्ण]

अधिकता, बहुतायत।

अजीरन

वि.

जो पुराना न हो, नया।

अजुगुत

संज्ञा

[सं. अयुक्त, पु. हिं. अजुगुति, हिं. अजुगुन]

अयुक्त बात, अनुचित बात।

अजुगुत

वि.

आश्चर्यजनक, अनुचित।

पापी, जाउ, जीभ गरि तेरी, अजुगुत बात विचारी।सिंह कौ भच्छ सृगाल न पावै, हौं समरथ की नारी-९-७९

अजूरा

वि.

[सं. अ + युज् = जोड़ना]

अप्राप्त, पृथक्।

अजूह

संज्ञा

[सं. युद्ध, प्रा.जुच्झ]

युद्ध।

अजेइ, अजेय

वि.

[सं. अ = नहीं + जेय]

जो जीता न जा सके।

अजोग

वि.

[सं. अयोग्य]

जो योग्य न हो, । अनुचित।

अजोग

वि.

[सं. अयोग्य]

बेजोड़, बेमेल।

अजोध्या

संज्ञा

[सं. अयोध्या]

सूर्यवंशी राजाओं की पुरानी राजधानी जो सरयू के किनारे बसी थी। इसकी गिनती सप्त पुरियों में है।

अजोरि

क्रि. स.

[हिं. अँजोरना]

छीनना, हरण करना।

(क) सूरदास प्रभु रसिक सिरोमनि चित-चिंतामनि लियौ अजोरि--११५८। (ख) बुधिविवेक बल बचन चातुरी पहिले हि लई अजोरि -- पृ० ३ ३ ३।

अजोरी

वि. स्त्री.

[हिं. अँजोरना]

छीनकर, हरण करके।

(क) राधा सहित चंद्रावलि दौरी। औचक लीनी पीत पिछौरी। देखत ही ले गई अजोरी। डारि गई सिर स्याम ठगोरी--२४५४। (ख) सूरस्याम भए निडर तबहिं ते गोरस लेत अजोरी-१४७२।

अजौं, अजो

क्रि. वि.

[सं. अद्य, प्रा. अज्ज, हिं. आज]

अब भी, अब तक, अद्यापि।

बालक अजौं अजान न जानै, केतिक दह्यो लुटायौ :-३५६।

अज्ञ

वि.

[सं.]

अनजान, नादान।

खेलत श्याम पौरि कै बाहर, ब्रज लरिका संग जोरी। तैसेई आपु तैसई लरिका, अज्ञ सबनि मति थोरी -- १०-२५३।

अज्ञता

संज्ञा

[सं.]

मूर्खता, नासमझो।

अज्ञा

संज्ञा

[सं. अज्ञा]

आज्ञा।

अज्ञाकारी

वि.

[सं. आज्ञाकारिन्, हिं. आज्ञाकारी]

आज्ञाकारी, आज्ञापालक।

तेऊ चाहन कृपा तुम्हारी। जिनकैं बस अनिमिष अनेक जन अनुचर आज्ञाकारी-१-१६३।

अज्ञात

वि.

[सं.]

अविदित, अपरिचित।

अज्ञात

वि.

[सं.]

जसे ज्ञात न हो।

अज्ञात

क्रि. वि.

बिना जाने, अनजाने में।

अज्ञान

संज्ञा

[सं.]

जड़ता, मूर्खता, अविद्या, मोह।

अज्ञान

संज्ञा

[सं.]

अविवेक।

अज्ञान

वि.

ज्ञानशून्य, मूर्ख, जड़, अनजान।

मै अज्ञान कछू नहि समुझ्यौं, परि दुख-पुंज सह्यौ -- -१-४६।

अज्ञानता

संज्ञा

[सं.]

जड़ता, मूर्खता।

अज्ञानी

वि.

[सं.]

ज्ञानशून्य, अबोध, अनजान।

अज्ञेय

वि.

[सं.]

जो समझ में न आये, ज्ञानातीत,बोधागम्य।

अझोरी

संज्ञा

[सं. दोल = झूलना]

कपड़े की लम्बी थैली, झोली।

अटक

संज्ञा

[सं.अ = नहीं + टिक् = चलना अथवा सं. अ + टक = बंधन]

रोक, रुकावट, विघ्न, अड़चन, व्याघात।

(क) घाट-बाट कहुँ अटक होइ नहिँ सब कोउ देहिँ निबाहि--१-३१०। (ख) अब लौं सकुच अटक रही अब प्रगट क अनुराग री -- ८८०। (ग) जैसे तैसे ब्रज पहिचानत। अटक रहीं अटकर करि आनत-१०५०। (ध) लोचते मधुप अटक नहिँ मानत जद्यपि जतन करौं--११०५। (ङ) सोषति तनु सेज सूर चले न चपल प्रान। दच्छिन रवि अवधि अटक इजली जिय आन--२७४३। (च) गह्यौ कर श्याम भुज मल्ल अपने धाइ झट कि लीन्हों तुरत पटकि धरनी। भडक अति सब्द भयौ खुटक नृप के हिये, अटक प्रानन परयो धटक करनो-२६०९। (छ) अब सखि नींदाै लो गई। भागी जिय अपमान जानि जनु सकुचनी ओट लई। अति रिस अहनिसि कंत किए बस आयम अटक दई -- २७९१।

अटक

संज्ञा

[सं.अ = नहीं + टिक् = चलना अथवा सं. अ + टक = बंधन]

अकाज, हर्ज, बड़ी आवश्यकता।

(क) गैपनि भई बड़ी अवार, भरि भरि पय थन नि भार, बछरा गन करैं पुकार तुम बिन जदुराई। तातैं यह अटक परी, दुहन काज सौंह करी आवहु उठ क्यों न हरी, बोलत बल-भाई-६ १९। (ख) ह्याँ ऊबो काहे को आए कौन सी अटक परी–३ ३ ४६।

अटक

संज्ञा

[सं.अ = नहीं + टिक् = चलना अथवा सं. अ + टक = बंधन]

संकोच है

नितही झगरत हैं मनमोहन देखि प्रेम रस-चाखी। सूरदास प्रभु अटक न मानत, ग्वाल सबैं हैं साखी -- -७७४।

अटकना

क्रि. अ.

[सं. अ = नहीं + टिक = चलता]

ठहरना, अड़ना।

अटकना

क्रि. अ.

[सं. अ = नहीं + टिक = चलता]

फॅसना, उलझना।

अटकना

क्रि. अ.

[सं. अ = नहीं + टिक = चलता]

प्रीति करना।

अटकना

क्रि. अ.

[सं. अ = नहीं + टिक = चलता]

झगड़ना।

अटकर

संज्ञा

[सं. अट् = घूमना + कल = गिनना, हिं. अटकल]

अनुमान, कल्पना, अटकल।

जैसे तैसे ब्रज पहिचानत। अटक रहीं अटकर करि आनत -- --१०५०।

अटकरना

क्रि. स.

[हिं. अटकर, अटकल]

अनु मानना, अटकल लगाना।

अटकरि

क्रि. स.

[हिं. अटकरना]

अटकल लगाकर, अनुमान करके।

बार-बार राधा पछितानी। निकसे स्याम सदन ते मेरे इन अटकरि पहिचानी।

अटकल

संज्ञा

[सं. अट् = घूमना + कल् = गिनना]

अनुमान कल्पना।

अटकलता

क्रि. स.

[सं. अट् + कल्]

अनुमान लगाना, कल्पना करना।

अटकाइ

क्रि. स.

[हिं. अटकाना]

रोक लिया, ठहराकर।

एक बार माखन के काजे राखे मैं अटकाइ-२७ ०४।

अटकाई

क्रि. स.

[हिं. अटकाना]

फँसाना, उलझाना।

त बहिं स्याम इस बुद्धि उफाई। जुवती गई घरनि सब अपने, गृह-कारज जननी अटकाई-३८३।

अटकाइ

क्रि. स.

[हिं. अटकाना]

फँसा लिया, उलझाया।

(क) मनि अभिरन डार डारन प्रति देखत छबि मन ही अटकाए-८२२। (ख) लोचन भ ग को सरस पागे। स्याम कमल-पदसौं अनुरागे......। गए तबहिं ते फेरि न आए। सूर स्याम बेगहिं अटकाएं--पृ० ३२५।

अटकायौ

क्रि. स.

[हि अटकाना]

टाँगा, लटकाया।

लियो उपर ना छीनि दूरी डारनि अटका यौ--११२४।

अटकाव

संज्ञा

[हिं. अटक]

रुकावट, प्रतिबंध, अड़चन, बाधा।

अटकावडु

क्रि. स.

[हिं. अटकाना]

अटकाते या ठहराते हो, रोकते या अड़ाते हो, बाँधते हो।

कैसे लै नोई पग बाँधत, ले गया अटकाव हु-४०१।

अटकाठी

क्रि. स.

[हिं. अटकाना]

रोकता है, ठहराता है।

सो प्रभु दधिदानी कहवावैं। गोपिन कौ मारग अटकावैं--११८६।

अटकि

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

अटक कर, टिककर, ठहरकर।

स्याम कर मुरली अतिहिं बिराजति ……..। ग्रीव नवाइ अटकि बसी पर कोटि मदनछबि लाजति--६४५।

अटकि

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

उलझकर, फँसकर।

मुकुट लट कि अरु भृकुटी मटक देखौ कुंडल की चटक सौं अटकि परी दुगानि लपट-८३९।

अटकी

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

रुकी, ठहरी अड़ी।

ललित कपोल निरखि कोउ अटकी; सिथिल भई ज्यों पानी। देह गेह की सुधि नहिं काहूं हरषति कोउ पछितानी-६४४।

अटकी

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

उलझी, प्रीति में फँसी।

देखी हरि राधा उत अटकी। चितै रही इकटक हरि ही तन ना जाइयै (जानिये ?) कौन अँग अटकी -- १३०१।

अटकी

संज्ञा

[हिं. अटक]

गरजमंद।

ऐसी कहौ बनिज का अटकी। मुख-मुख हेरि तरुनि मुसुकानी नैन सैन दै दै सब मटकी-११०५।

अटके

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

रुके, ठहरे, अड़े।

घर पहुंच अबहीं नहिं कोई। मारग में अटके सब लोई -- -१०३६।

अटके

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

फँस गए, उलझे, चिपटे हैं।

(क) लोचन भए स्याम के चर।.... ललित त्रिभंगी छबि पर अट के फटके मोसा तारि--पृ० ३२२। (ख) छूटत नहीं प्रान क्यौं अटके कठिन प्रेम की फाँसी-३४०९।

अटके

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

प्रीति से फेंसे, प्रेम करने लगे, पग गए।

तुमहिं दियौ बहराइ इतेै को वे कुबिजा सौं अटके-३ १०७। (ख) सूर स्याम सुन्दर रस अटके हैं मनो उहँहि छएरी-सा ० उ०-७।

अटके

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

झगड़ने लगे।

अटकै

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

फँसे रहकर,। उलझकर।

जनम सिरानौ अट के अटकेै है। राजकाज, सुत बित की डोरी, बिनु बिवेक फिर्‌र्यौ‍ फटकें -- १.२९२।

अटकै

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

रोकने से मना करने से, ठहरने से।

नैंना न रह री मरे अटकै पृ० २३९।

अटक्यौ

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

झगड़ पड़ा, लड़ा, जूझा।

अज गजराज ग्राह सौं अटक्योै, बली बहुत दुख पायौ। नाम लेत ताही छिन हरि जू, गरुड़हिं छाँड़ि छुड़ायौ -- १-३२।

अटक्यौ

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

अकाज हुआ, आवश्यकता पड़ी, हर्ज हुआ।

अति आतुर नृप मोहिं बुलायौ। कौन काज ऐसौ अटक्यौ है, मन मन सोच बढ़ायौ-२४६५।

अटक्यौ

क्रि. अ.

[हिं. अटकना]

फँसा, उलझा, रम गया।

(क) कहा करों चित चरन अटक्यौ सुधा-रस कै चाई-३-३। (ख) सूर दास प्रभु सौ मन अटक्यौ से देह गेह की सुधि बिसराई८७८। (ग) तनु लीन्हे डोलत फिरेैं रसना अटक्यौ। जस -- ११७७।

अटखट

वि.

[अनु.]

टूटा-फूटा।

अटत

क्रि. अ.

[सं. अट्, हिं. अटना]

घूमते फिरते। हैं

जीव जल-थल जिते, वेष धरि धरि तिते, अटत दुरगम अगम अचल भारे-१-१२०।

अटन, अटनि

संज्ञा

[सं.]

घूमने फिरने की क्रिया, यात्रा, भ्रमण।

अटन, अटनि

संज्ञा

[सं. अट्ट = अटारी, हिं. अटा]

अटारियाँ, कोठे, छतें।

(क) सखी री वह देखौ रथ जात। कमलनैन काँधे पर न्यारो पीत बसन फहरात। लई जाइ जब ओर अट न की चीर न रहत कृष गात-२५३९। (ख) ऊँच अटन पर छत्रन को छबि सी सन मानो फूली-२५६१। (ग) ऊँचे अटनि छाज की सोभा सीस उचाइ निहारी--२५६२।

अटना

क्रि. अ.

[स. अट, हिं. अटन]

धूमना-फिरना,

अटना

क्रि. अ.

[स. अट, हिं. अटन]

यात्रा करना।

अटना

क्रि. अ.

[सं. उट = घास-फूस, हिं. ओट]

आड़ करना, घेरना।

अटपट

वि. अ.

[सं. अट = चलना + पट = गिरना]

ऊटपटाँग, उल्टा सीधा, बेठिकाने।

अटपट आसन बेैठि कैं गो-धन कर लीन्हौं -- ४०९।

अटपट

वि. अ.

[सं. अट = चलना + पट = गिरना]

टेढा बिकट, कठिन, अनोखा।

अटपट

वि. अ.

[सं. अट = चलना + पट = गिरना]

गूढ़, जटिल।

अंचल,  अँचल

मुहा.

(लियौ) अचल :- अंचल डाल कर थोड़ा मुंह ढक लिया। उ.- रुद्र कौ देखि के मोहिनी लाज करि, लियो अचल, रुद्र तब अधिक मोह्यौ -- ८-१०। अंचले जोरे :- दीनता दिखाकर। उ.- अंचल जोरे करत बीनती, मिलिबे को सब दासी३४२२। अंचल दै :- आँचल की ओट करके, घूँघट काढ़ कर। उ.- पीताम्बर वह सिर ते ओढ़त अंचल दै मुसुकात–१०-३३८।

अँचवत

क्रि. स.

[हिं. अचवना]

पीते (हुए) पान करते (ही)।

अँचवत पय तातौ जब लाग्यौ रोवत जीभ डढ़ै -- १०-१७४।

अँचवति

क्रि. स.

[हिं. अचवना]

आचमन करती है, पीती है।

माधौ, नैंकु हटकौ गाइ। ....अष्टदस घट नीर अँचवति, तृषा तउ न बुझाति--१-५६।

अँचवन

संज्ञा

[हिं. अचवना]

भोजन के पीछे हाथ मुँह धोना, कुल्ली करना; और आचमन का जल या आचमन किया हुआ जल।

अँचवन लै तब धोए कर-मुख-३९६। (ख) सूरस्याम अब कहत अघाने, अँचवन माँगत पानी-४४२।

अचवौं

क्रि. स.

[हिं. अँचवना, अचवना]

आचमन करूँगा, पान करूगा, पिऊँगा।

आजु अजोध्या जल नहिं अँचवौं, मुख नहिं देखौं माई-९-४७।

अँचै

क्रि. स.

[हिं. अचवना]

आचमन करके, पीकर।

(क) सुत-दारा को मोह अँचै विष, हरि-अमृत-फल डार्‌‍यौ-३६६। (ख) दवानल अँचै ब्रजजन बचायौ--५९७।

अंजत

क्रि. स.

[हिं. अंजना, आँजना]

अंजन या सुरमा लगाता है।

प्यारी नैननि को अंजन लै अपने लोचन अंजत है—पृ० ३११।

अंजन

संज्ञा

[सं.]

सुरमा, काजल।

अंजन आड़ तिलक आभूषन सचि आयुध बड़ छोट- सा ० उ० १६।

अंजन

संज्ञा

[सं.]

रात।

उदित अंजन पै अनोषी देव अगिन जराय–सा. ३२।

अंजन

संज्ञा

[सं.]

स्याही।

अटपट

वि. अ.

[सं. अट = चलना + पट = गिरना]

गिरता पड़ता, लड़खड़ाता।

अटपटात

क्रि. अ.

[हिं. अटपट, अटपटाना]

घबड़ाकर, अटक कर, लड़खड़ाकर।

(क) स्याम करन माता सौं झगरौ, अटपटात कलबल करि बोल--१०९४। (ख) कबहुँ जम्हात कबहुँ अँग मोरत अटपटात मुख बात आवै, रोैन कहूँ धौं था के--२०८०। मूच्छम चरन चलावत बल करि। अटपटात कर देति सुंदरी, उठत तबै सुजतन तनमनधरि-१०-१२०।

अटपटात

क्रि. अ.

[हिं. अटपट, अटपटाना]

हिचकिचाकर, संकोचकर के।

अटपटी

संज्ञा

(हिं. अटपट)

नटखटी, अनरोतीं

(क) कर हरि सौं सनेह मन साँचौ। निपट कपट की छाँड़ि अटपटी, इंद्रिय बस राखहि किन पाँचौं -- -१-८३ (ख) सूधे दान काहे न लेत। और अटपटी छाँड़ि नंदसुत रहहु कॅपावत बेत–१०३६।

अटपटी

वि.

अनरीतियुत, अनुचित, नटखटपन से भरी हुई।

मधुकर छाँड़ि अटपटी बातें -- ३०२४।

अटपटी

वि.

लडखडाती हुई, गिरती पड़ती है.

छाँड़ि देहु तुम लाल लटपटी यहि गति मंद मराल १०-२२३।

अटपटे

वि.

[सं. अट् = चलना + पट् = गिरना (अटपट)]

गिरते-पड़ते, लड़खड़ाते।

निरतत लाल ललित मोहन, पण परत अटपटे भू मैं--१०-१४७।

अटपटे

वि.

[सं. अट् = चलना + पट् = गिरना (अटपट)]

ऊटपटाँग, अंङबंड, उदासीधा, बेठिकाने।

आए हो सुरति किए ठाठ करख लिए सकस की धकवकी हिये। छूटे बन्धन अरु पाग का बाँधनि छटी लटपटे पेट अटपटे दिये -- २००९।

अटपटो

वि.

[सं. अटपट]

गूढ़, जटिल, गहरा, अनोखा'।

राखो सब इह योग अटपटो ऊधौ पाइ परोैं --३०२७।

अटल

वि.

[सं. अ = नहीं + टल = चंचल होना]

जो न टले, स्थिर, दृढ़।

(क) पतितपावन जानि सरन आयौ। उदधि संसार सुभ नाम-नौका तरन, अटल अस्थान निजु निगम गायौ -- १-११९।

अटल

वि.

[सं. अ = नहीं + टल = चंचल होना]

जो सदा बना रहे, नित्य चिरस्थायी।

(क) दास ध्रव कौं अटल पद दियौ, राम-दरबारी१-१७६। (ख) बौरे मन, रहन अटल करि जान्यौ--१-३१९।

अटल

वि.

[सं. अ = नहीं + टल = चंचल होना]

ध्रुव, पक्का।

अटल

वि.

[सं. अ = नहीं + टल = चंचल होना]

जिसका घटना निश्चय हो, अवश्यंभावी

चिरंजीवि सीता तरुवर तर अटल न कबहूँ टरई-९-९९।

अटा

संज्ञा

[सं. अट्ट = अटारी]

अटारी, कोठा, छत,।

(क) नँदनंदन को रूप निहारत अहनिसि अटा चढ़ी-२७९४। (ख) बिधि कुणाल कीन्हें काचे घट ते तुम आनि पकाए।••••••••। याते गरे न नैन मेंह हैं अवधि अरा पर छाए--३ १९१

अटारी

संज्ञा

[सं. अटाली = कोठ]

मकान के ऊपर की कोठरी या छत।

तुम्हरे हिँ तेज-प्रताप रही बिच, तुम्हरी य है अटारी-९-१००।

अठंग

संज्ञा

[सं. अष्टांग]

अष्टांग योगी।

अठ

वि.

[सं. अष्ट, प्रा. अट्ठ]

आठ।

अठई

संज्ञा

[सं. अष्टमी]

अष्टमी तिथि।

अठयाव

संज्ञा

[सं. अष्टपाद, पा. अटठपाद, प्रा. अटठपाव]

ऊधम, उपद्रव।

अठलाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना]

इतराना, ठक दिखाना।

अठलाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना]

चोंचले करना, नखरा दिखाना।

अठलाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना]

उन्मत्त होना, मस्ती दिखाना।

अठलाना

क्रि. अ.

[हिं. ऐंठ + लाना]

किसी को छेड़कर अनजान बनना।

अठवना

वि.

[सं. स्थान, पा, ठान = ठहराव]

जमना, ठनना।

अठाई

वि.

[सं. अस्थायी]

उपद्रवो, उत्पती।

अठार

संज्ञा

[अ = नहीं + हिं. ठानना]

अयोग्य । कर्म। वैर, शत्रुता, झगड़ा।

अठाना

क्रि. स.

[सं. अट्ट = वध करना]

सताना, पीड़ित करना।

अठाना

क्रि. स.

[सं. स्थान = स्थिति, ठहराव, ठामना; प्रा. ठान]

ठानना, छेड़ना।

अठारइ

वि.

[सं. अष्टादश, पा, अट्ठादस, प्रा. अट्ठारस]

दम और आठ मिलने से बनी हुई संख्या।

अठारइ

संज्ञा

काव्य में पुराण सूचक संकेत या शब्द।

ढारि पासा साधु-संगति केरि रसना हारि। दाँव अबकै परयो पूरो कुमति पिछली हारि। राखि सत्ररह मुनि अठारह चोर पाँचौं मार।

अठारइ

संज्ञा

चौसर की एक दाँव, पासे की एक संख्या।

अठामी

वि.

[से. अष्टासीति, प्रा. अट्ठासीइ, अप. अट्ठासि]

अस्सी और आठ की संख्या।

अठिलात

क्रि.

[हिं. अठलाना ( = ऐंठ + लाना )]

ऐंठते हो, इतराते हो, ठसक दिखाते हो।

(क) नद दोहाई देत कहा तुम कंस दोहाई। काहे को अठिलात कान्ह छाँडौ लरिकाई-पृ. २३५। (ख) बात कहत अठिलात जाति सब हँसत देति कर तारि। सूर कहा ये हम को जातै छ। छिहि बेचनहारि -- १०९९।

अठिलाना

क्रि. अ.

[हिं. अठलाना]

इतराना, ठसक दिखाना।

अठिलाना

क्रि. अ.

[हिं. अठलाना]

चोचले दिखाना।

अठिलानी

क्रि. वि.

[हिं. अठलाना]

मदोन्मत्त होती हुई, इठलाई हुई।

सूरदास प्रभु मेरो नन्हीं तुम तरुणी डोलति अठिलानी ढ़-१ ०५७।

अठोठ

संज्ञा

[हिं. ठाट]

टेढ़ा, तिरछा।

अड़ार

वि.

[सं. अराल]

टेढ़ा, तिरछ।

अडारना

क्रि. स.

[हिं. डालना]

ढालना, देना।

अडारी

क्रि. अ.

[सं. अलु === वारण करना, हिं. अड़ना]

रुके, अड़े, अटके, ठहरे।

सहि न सकत अति विरह त्रास तन आग सलाकनि जारी। ज्यों जल थाके मीन कहा करेै ते उ हरि मेल अडारी -- -सा. उ. ३५ और ३२४६।

अडिग

वि.

[सं. अ -- नहीं == हिं. डिगना]

जो न डिगे, निश्चल, स्थिर।

अडीठ

वि.

[सं. अदष्ट, या अदिष्ट प्रा. अडिट्ठ]

जो दिखाईन पड़े, लुप्त।

अड़ोल

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. डोलना]

जो हिले नहीं, अटल।

अड़ोल

वि.

[सं. अ = नहीं + हिं. डोलना]

स्तब्ध, ठकमारा।

अड़ना

क्रि. अ.

[सं. अल = वाराण करना]

रुकना, अटकना, फँसना।

अड़ना

क्रि. अ.

[सं. अल = वाराण करना]

हठ करना, टेक बाँधना।

अड़ाना

क्रि. स.

[हिं. अड़ना]

रोकना, अटकाना, फँसाना

अड़ाना

क्रि. स.

[हिं. अड़ना]

टेंकना।

अड़े

क्रि. अ.

[हिं. अड़ना]

अटक गए फँस गए।

इह उर माखन चोर गड़े। अब कैसे निकसत सुन ऊधौ तिरछे ह्व जो अड़े-३१५१।

अदुक

संज्ञा

[देश.]

चोट, ठोकर

अदुकना

क्रि. अ.

[सं. अ = अच्छी तरह + टक् = बंधन =रोक, हिं. अढ़ूूुक]

ठोकर खाना,चोट खाना।

अदुकना

क्रि. अ.

[सं. अ = अच्छी तरह + टक् = बंधन =रोक, हिं. अढ़ूूुक]

सहारा लेना, टेक ना।

अढ़वना

क्रि. स.

[आ + जा = बोध कराना, आज्ञापन, या अभ्भापनं, प्रा, आणदनं]

आज्ञा देना, काम में लगाना।

अतंक

संज्ञा

[सं. आतक]

भय, शंका।

जब तै तृनावतं ब्रज अयौ, तब तै मो जिय संके। वैननि ओट होत पल एको, मैं मन भरति अतंक-६० ५।

अतंद्रिक, अतंद्रित

वि.

[सं.]

आलस्य हित, चंबल।

अतंद्रिक, अतंद्रित

वि.

[सं.]

व्याकुल।

अतदगुन

संज्ञा

[अतदगुण]

एक अलंकार जिसमें एक वस्तु का अपने निकट,की वस्तु के गुण को ग्रहण न करना दिखाया जाय।

आजु रन कोप्यौ भी मकुमार।….। बैंठे जदपि जुधिष्ठिर सामे सुनत सिखाई बात। भयौ अतदगुन सूर सरस बढ़ बली बीर बिख्यात। सा, ७४।

अतनु

वि.

[सं.]

बिना शरीर का।

अतनु

वि.

[सं.]

मोटा।

अतनु

संज्ञा

अनंग, कामदेव।

अतरौटा

संज्ञा

[सं. अन्तर + उट]

देखिए अँतरौटा।

अतक्रर्य

वि.

[सं.]

जिम पर तर्क-वितर्क न हो सके, अचिंत्य

अतबान

वि.

[सं. अ्ति्वान]

अधिक, अत्यंत।

अलसी

संज्ञा

[सं.]

अलमी जिसके फूल नीले और बहुत सुन्दर होते हैं।

(क) स्यामा स्याम सुभग जमुना-जल नि भ्रम करत विहार। …..। अतसी कुसुम कलेवर बूंदे प्रतिबिंबत निरधार -- --१८४७। (ख) आवत बन ते साँझ देखे मैं गायन माँझ काहू के ढोटा री एक सीस मोरखियाँ। अतसी कुसुम जैसे चचल दीरघ नैन मानों रस भरी जो लरति युगल अँखियाँ -- २३६६।

अतापी

वि.

[सं.]

दुखरहित।

अति

वि.

[सं.]

बहुत अधिक।

देत नंद कान्ह अति सोवत। भूखे भए आजु बन भीतर, यह कहि कहि मुख जोवत-५ १६।

अति

वि.

[सं.]

जरा सा, छोटा।

सूर स्याम मेरी अति बालक मारत ताहिं रिगाई--५१०।

अति

वि.

[सं.]

जरूरी, अवश्यक।

यह कालीदह के फूल मॅगए, पत्र लिखा इ ताहि कर दी हौ। यह कहियौ ब्रज जाइ नंद सौं कंसराज अति काज मेगायौ -- -५२३।

अति

संज्ञा

अधिकता, सीमा का उल्लंघन।

अतिउक्त

संज्ञा

[सं. अत्युक्ति]

एक अलंकार जिसमे गुणों का बहुत बढ़ा-चढ़ा कर अतथ्य वर्णन किया जाता है।

सेस ना कहि सकत सोभा जान जो अति उक्त। कहै बाचिके बाचते हे कहा सूर अनुक्त--सा. ९३।

अतिक

वि.

[सं. अति]

बहुत, अधिक, तीच, अत्यंत।

अति आतुर आरोधि अतिक दुख तोहिं कहा डर तिन यम कालहि -- -८९८।

अतिगत

वि.

[सं.]

बहुत, अधिक, अत्यंत।

अतिगति

संज्ञा

[स.]

उत्तम गति, मोक्ष।

अतिथि

संज्ञा

[सं.]

अभ्यागत, मेहमान, पाहुन।

अतिबल

वि.

[सं.]

प्रचंड, बली।

अतिवष्टि

संज्ञा

[सं.]

छह ईतियों में से एक जिसमें पानी बहुत बरसता है।

सब यादव मिलि हरि सौं इहे कह्योै सुफलक सुत जहँ होइ। अनावृष्टि अतिवृष्टि होत नहिं इह जानत सब कोइ -- १० उ.-२७।

अतिसय

वि.

[सं. अतिशय]

बहुत, अत्यंत, अधिक।

चित चकोर-गति करि अतिसय रति, तजि स्रम सघन बिषय लोभ.-१-६९।

अतिसै

वि.

[सं. अतिशय]

बहुत, अत्यंत।

कह्यौ हरि कैं भय रवि-ससि फिरै। बायु वेग अतिसै नहिं करै-३-१३।

अतीत

वि.

[सं.]

गत, व्यतीत, भूत।

अतीत

वि.

[सं.]

निर्लेप, असंग , बिरक्त।

अतीत

क्रि. वि.

परे, बाहर।

गुन अतीत, अबिगत, न जनवै। जस अपार, सुत पार न पावै -- १०-३।

अतीत

संज्ञा

संन्यासी, विरक्त।

अतीत

संज्ञा

संगीत में सम' से दो मात्राओं के उपरांत आनेवाली स्थान।

बसी रो बन कान्ह बजावत। ......। सुर स्रुति तान बयान अमित अति सप्त अतीत अनागत आवत--..-६४८।

अतीतना

क्रि. अ.

[सं. अतीत]

बीतना, गत होना।

अतीतना

क्रि. स.

बिताना।

अतीतना

क्रि. स.

छोड़ना, त्यागना।

अतीथ

संज्ञा

[सं. अतिथि]

अभ्यागत, पाहुन।

अतीव

वि.

[सं.]

बहुत अधिक, अत्यंत।

अतुराइ, अतुराई

क्रि. वि.

[हिं. अतुराना]

घबड़ाकर, अकुल होकर।

(क) तुरत जाइ लै आउ उहाँ , निलंब न करि मो भाई। सूरदास प्रभु ब वन सुनत हीं हनुमत चल्यौ अतुराई ९-१४९।

अतुराइ, अतुराई

क्रि. वि.

[हिं. अतुराना]

वाकौ सावधान करि पठ्यौ चली आपु जल कौं अतुराई-१०-८५१।

अतुराइ, अतुराई

क्रि. वि.

[हिं. अतुराना]

हड़बड़ाकर, जल्दी करके।

चलौ सखी, हमहूं मिलि जैऐ, नैकु करौ अतुराई-१०-२२। (ख) कीरति महरि लिवावन आई। जाहु न स्याम करहु अतुराई-१०-७५७।

अतुरात

क्रि. अ.

[हिं. अनुराना]

आतुर होता है। छबड़ाता है।

(क) तुरत हीं तोरि, गनि, कोरि सकटनि जोरि, ठाढ़े भए पैरिया तब सुनाए। सुनत यह बात, अनुरात और डरत मन, महल तै निकसि नृप आपु आए-५८४। (ख) एक एक पल युगअ सबन को मिलन को अतुरात--२९५५

अतुराना

क्रि. अ.

[सं. आतुर]

आतुर होना, घबड़ाना, अकुलाना।

अतुरानी

क्रि. अ.

[हिं. अतुराना]

घबड़ा गई, हड़बड़ ई, अकुलाई, जल्दी मचाने लगी।

(क) सुनत बात यह सखी अतुरानी -- -८ ४७। (ख) सूर स्याम मूखधाम, राधा है जाहि नाम, आतुर पिय जानि गवन प्यारी अतुरानी। (ग) सूर स्याम वनघाम जानि कै दरसन को अतुरानी-१८८८।

अतुराने

क्रि. अ.

[हिं. अतुराना]

आतुर हुए, हड़ बड़कर, घबड़ाकर।

(क) कर सौं ठोंकि सुतहिं दुलरावत, चटपटाइ बैठ अतुराने -- १०-१९७। (ख) बालक बछरा धेनु सबै मन अतिहिं सकाने। अंध कार मिटि गयौ देखि जहँ तहँ अतुराने--४३२। धेनु रही बन भूलि कहूँ ह्वै बालक, भ्रमत न पाए। यातै स्याम अतिहिं अतुराने, तुरत तहाँ उठि धए -- ४३६।

अतुल

वि.

[सं.]

अमित, असीम, अपार।

कै रघुनाथ अतुन बल राच्छस दसकधर डरहीं -- ९-९१।

अतुल

वि.

[सं.]

अनुयम, अद्वितीय।

अतुलित

वि.

[सं.]

अपार, बहुत, अधिक।

अतुलित

वि.

[सं.]

असंख्य, अन गिलती।

अतुलित

वि.

[सं.]

अनुपम, अद्वितीय।