प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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वंशी संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. मुँह से फूँककर बजाया जानेवाला एक प्रकार का बाजा जो बाँस में सुर निकालने के लिये छेद करके बनाया जाता है । बाँसुरी । मुरली । विशेष—पुराने ग्रंथों में लिखा है कि वंशी बाँस ही की होनी चाहिए, पर खैर, लाल चंदन आदि की लकड़ी की अथवा सोने, चाँदी की भी हो सकती है । यह वास्तव में बाँस की एक पोली नली होती है, जिसके बजानेवाले छोर पर एक जीभ लगी होती है और दूसरी ओर नली के ऊपर एक पंक्ति में सुर निकलने के छेद होते हैं । मार्तंग ऋषि का मत है कि नली का छेद कनिष्ठा उँगली के मूल के बराबर होना चाहिए । जो छोर मुँह में रखकर फूँका जाता है, उसे 'फूत्काररंध्र' और सुर निकालनेवाले सात छेदों को 'ताररंध्र' कहते हैं । इस बंसी के अतिरिक्त मातंग के अनुसार चार प्रकार की मुरलियाँ और होती हैं, जिन्हें मदानंदा, नंदा, विजया और जया कहते हैं । मदानंदा में ताररंध्र फूत्कारंध्र से दस अंगुल पर, नंदा में ग्यारह अंगुल पर, विजया में बारह अगुल पर और जया में चौदह अंगुल पर होते हैं । आजकल वह वशी जो एक साथ दो बजाई जाती है, अलगोजा कहलाती है । प्राचीन काल के गोपी में इस बाजे का प्रचार बहुत था । यौ॰—वंशीधर ।

२. चार कर्ष का एक मान, जो आठ तोले के बराबर होता है ।

३. बंसलोचन ।

४. धमनी । नाड़ी (को॰) ।