लिङ्ग
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनलिंग संज्ञा पुं॰ [सं॰ लिङ्ग]
१. वह जिससे किसी वस्तु की पहचान हो । चिह्न । लक्षण । निशान ।
२. न्याय शास्त्र में वह जिससे किसी का अनुमान हो । साधकहेतु । जैसे,—पर्वत में आग है, वहाँ धूम होने के कारण—यहाँ धूम अग्नि का लिंग है; अर्थात् धूम से अग्नि के होने का अनुमान होता है । विशेष—लिंग चार प्रकार के होते हैं—(क) संबद्ध; जैसे,—धूम अग्नि के साथ संबद्ध है । (ख) न्यस्त; जैसे,—सींग गाय के साथ है । (ग) सहवर्तो; जैसे,—भाषा मनुष्य के साथ है । और (घ) विपरीत; जैसे भला बुरे के साथ है ।
३. सांख्य के अनुसार मूल प्रकृति । विशेष—विकृति फिर प्रकृति में लय को प्राप्त होती है; इसी से प्रकृति को लिंग कहते हैं ।
४. पुरुष का चिह्नविशेष जिसके कारण स्त्री से उसका भेद जाना जाता है । पुरुष की गुप्त इंद्रिय । शिश्न । पर्या॰—उपस्य । मदनांकुश । मोहन । कंदर्पमुषल । शेफस् । मेढ़ । घ्वज । साधन ।
५. शिव की एक विशेष प्रकार की मूर्ति ।
६. एक पुराण का नाम । विशेष—लिंग पुराण में लिखा है कि शिव के दो रूप हैं । निष्क्रिय और निर्गुण शिव अलिंग हैं और जगत्कारण रूप शिव लिंग हैं । अलिंग शिव से ही लिंग शिव की उत्पत्ति हुई है । शिव को लिंगी भी कहते है; और वह इसलिये कि लिंग या प्रकृति शिव की ही है । इस प्रकार लिंग जगत्कारण रूप शिव का प्रतीक है । पद्मपुराण में शिव के इस रूप के संबंध में यह कथा है—एक बार मंदराचल पर ऋषियों ने बड़ा भारी यज्ञ किया । वहाँ उन्होंने यह चर्चा छेड़ी कि ऋषियों का पूज्य देवता किसे बनाना चाहिए । अंत में यह निश्चय हुआ कि शिव, विष्णु और ब्रह्मां तीनों के पास चलकर इसका निर्णय करना चाहिए । सब ऋषि पहले शिव के पास गए । पर उस समय वे पार्वती के साथ क्रोड़ा कर रहे थे; इससे नंदी ने द्वार पर उन्हें रोक दिया । ऋपियों को प्रतीक्षा करते बहुत काल बीत गया । इसपर भृगु ऋषि ने कोप करके शाप दिया—हे शिव ! तुमन े कामक्रीड़ा के वशीभूत होकर हमारा अपमान किया, इससे तुम्हारी मूर्त्ति योनि लिंग रूप होगी और तुम्हारा नैवेद्य कोई ग्रहण न करेगा' । पर इस कथा के संबंध में यह ध्यान रखना चाहिए कि पद्मपुराण वैष्णावों का पुराण है । किसी समय जगत्कारण के रूप में देवता या ईश्वर की उपासना के लिये लिंग का ग्रहण प्राचीन मिस्र, अरब, यहूद, यूनान और रोम आदि देशों में भी था । प्राचीन यूनानी लिंग को 'फेलस' कहते थे । यहूदियों में 'बाल' देवता की प्रतिष्ठा लिंग रूप में ही थी । बाबुल के खंडहरों में मंदिरों के अंदर बहुत से 'लिंग' निकलते हैं, जो भारतीयों के शिवलिंग से बिल्कुल मिलते है । पर प्राचीन आर्यों में इस प्रकार की उपासना का पता नहीं लगता । वैदिक समय में कुछ अनार्य जातियों में 'लिंगापूजा' प्रचलित थी, इसका कुछ अभास वेद के एक मंत्र में मिलता है । उसमें 'शिश्नदेवाः' के प्रति उपेक्षा का भाव प्रकट किया गया है । पर कब से वह शिव की प्रतिमा के रूप में गृहीत हुआ, इसका ठीक पता नहीं । इसके अतिरिक्त 'मोहनजोदड़ों' और हरप्पा की खोदाई से प्राप्त अवशेषों में लिंग या उससे मिलते जुलते आकार की उपास्य मूर्तियाँ मिली हैं ।
६. व्याकरण में वह भेद जिससे पुरुष और स्त्री का पता लगता है । जैसे,—पुल्लिंग, स्त्रीलिग ।
७. मीमांसा में छह् लक्षण जिनके अनुसार लिंग का निर्णय होता है । यथा—उपक्रम, उपसंहार अभ्यास, अपूर्वता, अर्थवाद और उपपत्ति ।
८. अठारह पुराणों में से एक । विशेष दे॰ 'लिंगपुराण' ।
९. जाति । यह दो प्रकार को हीती है—पुरुष तथा स्त्री (को॰) ।
१०. वेदांत दर्शन के अनुसार सूक्ष्म शरीर । विशेष दे॰ 'लिंगदेह' (को॰) ।
११. धब्बा । निशान । दाग (को॰) ।
१२. संज्ञा का मूल रूप । प्रातिपदिक (को॰) ।
१३. कार्य । विपाक । परिणाम । फल (को॰) ।
१४. उपाधि (को॰) ।
१५. एक प्रकार का सकेत या संबंध (संयोग, वियोग, साहचर्य आदि) जो किसी शब्द के किसी विशिष्ट अर्थ का द्योतन करने में सहायक होता है । अर्थद्योतक शक्ति (को॰) ।
१६. प्रमाण । सबूत (को॰) ।
१७. छद्म चिह्न, निशान या वेप (को॰) ।
१८. रोग का निदान (को॰) ।
१९. ईश्वर का प्रतीक चिह्न । देवमूर्ति (को॰) ।