रास
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनरास ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰]
१. कोलाहल । शोरगुल । हल्ला ।
२. गोपों की प्राचीन काल की एक क्रीड़ा जिसमे वे सब घेरा बाँधकर नाचते थे । विशेष—कहते हैं, इस क्रीड़ा का आरंभ भगवान् श्रीकृष्ण ने एक बार कार्तिकी पूर्णिमा को आधी रात के समय किया था । तब से गोप लोग यह क्रीड़ा करने लगे थे । पीछे से इस क्रीड़ा के साथ कई प्रकार के पूजन आदि मिल गए और यह मोक्षप्रद मानी जाने लगी । इस अर्थ में यह शब्द प्रायः स्त्रीलिंग बोला जाता है । यौ॰—रासमंडल ।
३. एक प्रकार का नाटक जिसमें श्रीकृष्ण की इस क्रीड़ा तथा दूसरी क्रीड़ाओं या लीलाओं का अभिनय होता है । यौ॰—रासधारी ।
४. एक प्रकार का चलता गाना ।
५. श्रृंखला । जंजीर ।
६. विलास ।
७. लास्य नामक नृत्य ।
८. नाचनेवालों का समाज ।
रास ^२ संज्ञा स्त्री॰ [अ॰]
१. घोड़े की लगाम । बागडोर । मुहा॰—रास कड़ी करना = घोड़े की लगाम अपनी ओर खींचे रहना । रास में लाना = अधिकार में लाना । वशीभूत करना ।
२. सिर (को॰) ।
३. पशुओं के लिये संख्यावाचक शब्द ।
रास ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ राशि]
१. ढेर । समूह ।
२. ज्योतिष की राशि । विशेष दे॰ 'राशि' ।
३. एक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में ८ + ८ + ६ के विराम से २२ मात्राएँ और अंत में सगण होता है । प्रस्तार की रीति से यह छंद नया रचा गया है । जैसे,—ईस भजौ जगदीश भजौ यह बान धरौ । सीख हमारी अति हितकारी कान धरौ ।—छंद॰, पृ॰ ५१ ।
४. जोड़ ।
५. चौपायों का झुंड ।
६. एक प्रकार का धान जो अगहन में तैयार होता है । इसका चावल सैकड़ों वर्षों तक रखा जा सकता है ।
७. गोद । दत्तक । मुहा॰—रास बैठाना या लेना = गोद बैठाना । दत्तक लेना ।
८. सूद । व्याज ।
रास पु ^४ वि॰ [फ़ा॰ रास्त ( = दाहिना)] अनुकूल । ठीक । मुआफिक । उ॰ काँचे बारह परा जो पाँसा । पाके पैंत परी तनु रासा ।—जायसी (शब्द॰) ।
रास करनेवालों का वृत्ताकार समूह । उ॰—रासमंडल बने श्याम श्यामा । नारि दुहुँ पास गिरिधर वने दुहुनि विच सहस शशि बीस द्वादश उपमा ।—सूर (शब्द॰) ।
३. रासधारियों का अभिनय ।
४. रासवारियों का समाज ।