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योग का अर्थ जोड़ना या मिलाना है।

अर्थ

जोड़ना

उदाहरण

  1. योग करना शरीर के लिए अच्छा होता है।
  2. दो या उससे अधिक संख्या का योग करने कि क्रिया को जोड़ना कहते हैं।

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

योग संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. दो अथवा अधिक पदार्थों का एक में मिलना । संयोग । मिलान । मेल ।

२. उपाय । तरकीब ।

३. ध्यान ।

४. संगति ।

५. प्रेम ।

६. छल । धोखा । दगाबाजी । जैसे, योगविक्रय ।

७. प्रयोग ।

८. औषध । दवा ।

९. धन । दौलत ।

१०. नैयायिक ।

११. लाभ । फायदा ।

१२. वह जो किसी के साथ विश्वासघात करे । दगाबाज ।

१३. कोई शुभ काल । अच्छा समय या अवसर ।

१४. चर । दूत ।

१५. छकड़ा । बैलागाड़ी ।

१६. नाम ।

१७. कौशल । चतुराई । होशियारी ।

१८. नाव आदि सवारी ।

१९. परिणाम । नतीजा ।

२०. नियम । कायदा ।

२१. उपयुक्तता ।

२२. साम, दाम, दंड और भेद ये चारों उपाय ।

२३. वह उपाय जिसके द्वारा किसी को अपने वश में किया जाय । वशीकरण ।

२४. सूत्र ।

२५. संबंध ।

२६. सद् भाव ।

२७. धन और संपत्ति प्राप्त करना तथा बढ़ाना ।

२८. मेल मिलाप ।

२९. तप और ध्यान । वैराग्य ।

३०. गणित में दो या अधिक राशियों का जोड़ ।

३१. एक प्रकार का छंद जिसके प्रत्येक चरण में १२, ८ के विश्राम से २० मात्राएँ और अंत में यगण होता ।

३२. ठिकाना । सुभीता । जुगाड़ । तारघात । उ॰— नहिं लग्यो भोजन योग नहीं कहुँ मिल्यो निवसन ठौर ।—रघुराज (शब्द॰) ।

३३. फलित ज्योतिष में कुछ विशिष्ट काल या अवसर जो सूर्य और चंद्रमा के कुछ विशिष्ट स्थानों में आने के कारण होते हैं और जिनकी संख्या २७ है । इनके नाम इस प्रकार हैं—विष्कंभ, प्रीति, आयुष्मान, सौभाग्य, शोभन, अतिगंड, सुकर्मा, धृति, शूल, गंड, वृद्धि, ध्रुव, व्याघात, हर्षण, वज्र, असृक, व्यतीपात, वरीयान्, परिघ, शिव, सिद्ध, साध्य, शुभ, शुक्र, ब्रह्म, इंद्र, और वैधृति । इनमें से कुछ योग एसे हैं, जो शुभ कार्यो के लिये वर्जित हैं और कुछ ऐसे हैं जिनमें शुभ कार्य करने का विधान है ।

३४. फलित ज्योतिष के अनुसार कुछ विशिष्ट तिथियों, वारों और नक्षत्रों आदि का एक साथ या किसी निश्चित नियम के अनुसार पड़ना । जैसे, अमृत योग, सिद्धि योग ।

३५. वह उपाय जिसके द्वारा जीवात्मा जाकर परमात्मा में मिल जाता है । मुक्ति या मोक्ष का उपाय ।

३६. दर्शनकार पतंजलि के अनुसार चित्त की वृत्तियों को चंचल होने से रोकना । मन को इधर उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तु में स्थिर रखना ।

३७. शत्रु के लिये की जानेवाली यंत्र, मंत्र, पूजा, छल, कपट आदि की युक्ति ।

३८. छह दर्शनों में से एक जिसमें चित्त को एकाग्र करके ईश्वर में लीन करने का विधान है । विशेष— योग दर्शनकार पतंजलि ने आत्मा और जगत् के संबंध में सांख्य दर्शन के सिद्धांतों का ही प्रतिपादन और समर्थन किया है । उन्होंने भी वही पचीस तत्व मने हैं, जो सांख्यकार ने माने हैं । इनमें विशेषता यही है कि इन्होंने कपिल की अपेक्षा एक और छब्बीसवाँ तत्व 'पुरुषविशेष' या ईश्वर भी माना है, जिससे सांख्य के अनीश्वरवाद से ये बच गए हैं । पतंजलि का योगदर्शन, समाधि, साधन, विभूति और कैवल्य इन चार पारदों या भागों में विभक्त है । समाधिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के उद्देश्य और लक्षण क्या हैं और उसका साधन किस प्रकार होता है । साधनपाद में क्लेश, कर्मविपाक और कर्मफल आदि का विवेचन है । विभूतिपाद में यह बतलाया गया है कि योग के अंग क्या हैं, उसका परिणाम क्या होता है और उसके द्वारा अणिमा, महिमा आगदि सिद्धियों की किस प्रकार प्राप्ति होती है । कैवल्यपाद में कैवल्य या मोक्ष का विवेचन किया गया है । संक्षेप में योग दर्शन का मत यह है कि मनुष्य को अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ये पाँच प्रकार के क्लेश होते हैं; और उसे कर्म के फलों के अनुसार जन्म लेकर आयु व्यतीत करनी पड़ती है तथा भोग भोगना पड़ता है । पतंजलि ने इन सवसे बचने और मोक्ष प्राप्त करने का उपाय योग बतलाया है; और कहा है कि क्रमशः योग के अंगों का साधन करते हुए मनुष्य सिद्ध हो जाता है और अंत में मोक्ष प्राप्त कर लेता है । ईश्वर के संबंध में पतंजलि का मत है कि वह नित्यमुक्त, एक, अद्वितीय और तीनों कालों से अतीत है और देवताओं तथा ऋषियों आदि को उसी से ज्ञान प्राप्त होता है । योगवाले संसार को दुःखमय और हेय मानते हैं । पुरुष या जीवात्मा के मोक्ष के लिये वे योग को ही एकमात्र उपाय मानेत हैं । पतंजलि ने चित्त की क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और एकाग्र ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ मानी है, जिनका नाम उन्होंने चित्तभूमि रखा है; और कहा है कि आरंभ की तीन चित्तभूमियों में योग नहीं हो सकता, केवल अंतिम दो में हो सकता है । इन दो भूमियों में संप्रज्ञात और असंप्रज्ञात ये दो प्रकार के योग हो सकते हैं । जिस अवस्था में ध्येय का रू प प्रत्यक्ष रहता हो, उसे संप्रज्ञात कहते हैं । यह योग पाँच प्रकार के क्लेशों का नाश करनेवाला है । असंप्रज्ञात उस अवस्था को कहते हैं, जिसमें किसी प्रकार की वृत्ति का उदय नहीं होता; अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय का भेद नहीं रह जाता, संस्कारमात्र बच रहता है । यही योग की चरम भूमि मानी जाती है और इसकी सिद्धि हो जाने पर मोक्ष प्राप्त होता है । योगसाधन का उपाय यह बतलाया गया है कि पहले किसी स्थूल विषय का आधार लेकर, उसके उपरांत किसी सूक्ष्म वस्तु को लेकर और अंत में सब विषयों का परित्याग करके चलना चाहिए और अपना चित्त स्थिर करना चाहिए । चित्त की वृत्तियों को रोकने के जो उपाय बतलाए गए हैं, वे इस प्रकार हैं— अभ्यास और वैराग्य, ईश्वर का प्रणिधान, प्राणायाम और समाधि, विषयों से विरक्ति आदि । यह भी कहा गया है कि जो लोग योग का अभ्याम करते हैं, उनमें अनेक प्रकार को विलक्षण शक्तियाँ आ जाती है जिन्हें विभूति या सिद्धि कहते हैं । विशेष दे॰ 'सिद्धि' । यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि ये आठों योग के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों के अंग कहे गए हैं, और योगसिद्धि के लिये इन आठों अंगों का साधन आवश्यक और अनिवार्य कहा गया है । इनमें से प्रत्येक के अंतर्गत कई बातें हैं । कहा गया है जो व्यक्ति योग के ये आठो अंग सिद्ध कर लेता है, वह सब प्रकार के क्लेशों से छूट जाता है, अनेक प्रकार की शक्तियाँ प्राप्त कर लेता है और अंत में कैवल्य (मुक्ति) का भागी होता है । ऊपर कहा जा चुका है कि सृष्टितत्व आदि के संबंध में योग का भी प्रायः वही मत है जो सांख्य का है, इससे सांख्य को ज्ञान- योग और योग को कर्मयोग भी कहते हैं । पतंजलि के सूत्रों पर सबसे प्राचीन भाष्य वेदव्यास जी का है । उसपर वाचस्पति का वार्तिक है । विज्ञानभिक्षु का 'योगसारसंग्रह' भी योग का एक प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है । सूत्रों पर भोजराज की भी एक वृत्ति है । पीछे से योगशास्त्र में तंत्र का बहुत सा मेल मिला और 'कायव्यूह' का बहुत विस्तार किया गया, जिसके अनुसार शरीर के अंदर अनेक प्रकार के चक्र आदि कल्पित किए गए । क्रियाओँ का भी अधिक विस्तार हुआ और हठयोग की एक अलग शाखा निकली; जिसमें नेती, धोती, वस्ती आदि षट्कर्म तथा नाड़ीशोधन आदि का वर्णन किया गया । शिवसंहिता, हठयोगप्रदीपिका, घेरंडसंहिता आदि हठयोग के ग्रंथ है । हठयोग के बड़े भारी आचार्य मत्स्येंद्रनाथ (मछंदरनाथ) और उनके शिष्य गोरखनाथ हुए हैं ।