प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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मोक्ष संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. किसी प्रकार के बंधन से छूट जाना । मोचन । छुटकारा ।

२. शास्त्रों और पुराणों के अनुसार जीव का जन्म और मरण के बंधन से छूट जाना । आवागमन से रहित हो जाना । मुक्ति । नजात । विशेष—हमारे यहाँ दर्शनों में कहा गया है कि जीव अज्ञान के कारण ही बार बार जन्म लेता और मरता है । इस जन्ममरण के बंधन से छूट जाने का ही नाम मोक्ष है । जब मनुष्य मोक्ष प्राप्त कर लेता है, तब फिर उसे इस संसार में आकार जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती । शास्त्रकारों ने जीवन के चार उद्देश्य बतलाए हैं—धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष । इनमें से मोक्ष परम अभीष्ट अथवा परम पुरूषार्थ कहा गया है । मोक्ष की प्राप्ति का उपाय आत्मतत्व या ब्रह्मतत्व का साक्षात् करना बतलाया गया है । न्यायदर्शन के अनुसार दुःख का आत्यंतिक नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । सांख्य के मत से तीनों प्रकार के तापों का समूल नाश ही मुक्ति या मोक्ष है । वेदांत में पूर्ण आत्मज्ञान द्वारा मायासंबंध से रहित होकर अपने शुद्ध ब्रह्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना मोक्ष है । तात्पर्य यह है कि सब प्रकार के सुख दुःख और मोह आदि का छूट जाना ही मोक्ष है । मोक्ष की कल्पना स्वर्ग नरक आदि की कल्पना से पीछे की और उसकी अपेक्षा विशेष संस्कृत तथा परिमार्जित है । स्वर्ग की कल्पना में यह आवश्यक है कि मनुष्य अपने किए हुए पुण्य वा शुभ कर्म का फल भोगने के उपरांत फिर इस संसार में आकार जन्म ले; इससे उसे फिर अनेक प्रकार के कष्ट भोगने पड़ेंगे । पर मोक्ष की कल्पना में यह बात नहीं है । मोक्ष मिल जाने पर जीव सदा के लिये सब प्रकार के बंधनों और कष्टों आदि से छूट जाता है ।

३. मृत्यु । मौत ।

४. पतन । गिरना ।

५. पाँडर का वृक्ष ।

६. छोड़ना । फेकना । जैसे, बाणमोक्ष (को॰) ।

७. ढीला या बंधनमुक्त करना । जैसे, बेणीमोक्ष, नीवीमोक्ष (को॰) ।

८. नीचे गिराना या बहाना । जैसे, बाष्पमोक्ष, अश्रुमोक्ष (को॰) ।