प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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मैदान संज्ञा पुं॰ [फा़॰]

१. धरती का वह लंबा चौड़ा विभाग जो । समतल हो और जिसमे पहाड़ी या घाटी आदि न हो । दूर तक फैली हुई सपाट भूमि । उ॰—जब कढी़ कोशल नगर तें मैदान माहिं बरात । तब भयो देवन भोर मानहु सिंधु द्वितिय देखात ।—रघुराज (शब्द॰) । मुहा॰—मैदान छोड़ना या करना = (१) किसी काम के लिये बीच में कुछ जगह खाली छोड़ना । (२) मैदान जना = शौचादि के लिये जाना । (विशेषतः वस्ती के बाहर) ।

२. वह लंबी चौड़ी भूमि जिसमें कोई खेल खेला जाय अथवा इस ी प्रकार का और कोई प्रतियोगिता या प्रतिद्वंद्विता का काम हो । उ॰—(क) चहुँ दिसि आव अलोपत भानू । अव यह गोय यही मैदानू ।—जायसी (शब्द॰) । (ख) श्री मनमोहन खेलत चौगान । द्वारावती कोट कंचन में रच्यौ रुचिर मैदान ।—सूर (शब्द॰) । मुहा॰—मैदान में आना = मुकाबले पर आना । प्रायोगिता या प्रातिद्वंद्विता के लिये सामने आना । उ॰—अग्ग आउ मैदान ज्वान मरदुन मुप जोरहि ।—पृ॰ रा॰, ६४ ।१४० । मैदान में उतरना = कुश्ती के लिये अखाड़े में आना । कार्यक्षेत्र में आना । मैदान साफ होना = मार्ग में कोई बाधा आदि न होना । मैदान मारना = प्रातियोगिता में जीतना । खेल, बाजी आदि में जीतना ।

३. वह स्थान जहाँ लड़ाई हो । युद्धक्षेत्र । रणक्षेञ । मुहा॰—मैदान करना = लड़ना । युद्ध करना । उ॰—जेहि पर पढ़ि करि मैं मैदाना । जीतहुँ सकल बीर बलवान ।—विश्राम (शब्द॰) । मैदान छोड़ना = लड़ाई के स्थान से हट जाना । मैदान बदना = लड़ने या बलपरीक्षा के लिये दिन, स्थान नियत करना । मैदान मारना = विजय प्राप्त करना । मैदान हाथ रखना = लड़ाई में विजयी होना । जीतना । मैदान होना = युद्ध होना ।

४. किसी पदार्थ विस्तार ।

५. रत्न आदि का विस्तार । जवाहिर की लंबाई चौड़ाई । (जौहरी) ।