प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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मूत्र संज्ञा पुं॰ [सं॰] शरीर के विपैल पदार्थ को लेकर प्राणियों के उपस्थ मार्ग से निकलनेवाला जल । पेशाब । मूत । विशेष—मूत्र के द्वारा शरीर के अनावश्यक और हानिकारक क्षार, अम्ल या और विपैली वस्तुएँ निकलती रहती हैं, इससे मूत्र का वेग रोकना बहुत हानिकारक होता है । कई प्रकार के प्रमेहों में मूत्र के मार्ग से विपैली वस्तुओं के अतिरिक्त शर्करा तथा शरीर की कुछ धातुएँ भी गल गलकर गिरने लगाती हैं । अतः मूत्रपरीक्षा चिकित्साशास्त्र का एक प्रधान अंग पहले भी था और अब भी हे । भारतवर्ष में गोमूत्र पवित्र माना गया है और पंचगव्य के अतिरिक्त धातुओं और ओपधिओं के शोधने में भी उसका व्यवहार होता है । वैद्यक में गोमूत्र, महिषमूत्र, छागमूत्र मेषमूत्र, अश्वमूत्र आदि सवके गुणों का विवेचन किया गया है और विविध रोगों में उनका प्रयोग भी कहा गया है । स्वमूत् र द्वारा चिकिस्ता का भी अनेक रोगों में विधान है । मूत्रदोष से अश्मरी, मूत्रकृच्छ आदि अनेक रोग हो जाते हैं ।