मरुआ
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनमरुआ ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ मरुव] बनतुलसी या बबरी की जाति का एक पौधे का नाम । नागबेल । नादबोई । उ॰— अति व्याकुल भइ गोपिका ढूंढत गिरिधारी । बुझति हैं बनबेलि सों देर बनवारी । बूझा मरुआ कुंद सौ कहे गोद पसारी । बकुर बहुल बट कदम पै ठाढ़ी ब्रजनारी ।—सूर (शब्द॰) । विशेष— यह पौधा बागों में लगाया जाता है । इसकी पत्तिय बबरी की पत्तियाँ से कुछ बड़ी, नुकीली, मोटी, नरम और चिकनी होती हैं जिनमें से उग्र गंध आती है । इसके दर देवताओं पर चढ़ाए जाते हैँ । इसका पेड़ ड़ेढ दो हाथ ऊँचा होता है और इसकी फुनगी पर कार्तिक अगहन में तुलसी के भाँति मंजरी निकलती है जिसमें नन्हें नन्हें सफेद फूल लगते हैं फूलों के झड़ जाने पर बीजो से भरे हुए छोटे छोटे बीजकोश निकल आते हैं जिनमें से पकने पर बहुत बीज निकलते हैं ये बीज पानी में पड़ने पर ईसबगोल की तरह फूल जाते हैं यह पौधा बीजों से उगता हे; पर यदि इसकी कोमल टहन या फुनगी लगाई जाय तो वह भी लग जाती है । रंग के भ े से मरुआ दो प्रकार का होता है, काला और सफेद । काले मरुए का प्रयोग औषधि रूप में नहीं होता और केवल फूल आदि के साथ देवताओं पर चढ़ाने के काम आता है । सफेद मरुआ ओषधियों में काम आता है । वैद्यक में यह चरपरा, कड़ुआ, रूखा और रुचिकर तथा तीखा, गरम, हलका, पित्तवर्धक, कफ और वात का नाशक, विष, कृमि और कृष्ठ रोग नाशक माना गया है । पर्या॰—मरुवक । मरुत्तक । फणिज्जक । प्रस्थपुष्प । समीरण । कुलसौरभ । गधंपत्र । खटपत्र ।
मरुआ ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ मण्ड़ या मेरु या अनु॰]
१. मकान की छाजन में सब से ऊपर की बल्ली जिसपर छाजन का ऊपरी सिरा रहता है । बँड़ेर ।
२. जुलाहों के करघे में लकड़ी का वह टुकड़ा जो ड़ेढ वालिश्त लंबा और आठ अगुंल मोटा होता है और छत की कड़ी में जड़ा होता है ।
३. हिंड़ोले में वह ऊपर की लकड़ी जिसमें हिंड़ोला लटकाया जाता है या हिंडोले को लटकाने की लकड़ी जड़ी या लगाई जाती है । उ॰— कंचन के खंभ मयारि मरुआ डाड़ी खचित होरा बीच लाल प्रवाल । रेसम बुनाई नवरतन लाई पालनो लटकन बहुत पिरोजा लाल ।—सूर (शब्द॰) ।
मरुआ ^२ संज्ञा पुं॰ [हि॰ माँड़] माँड़ ।