प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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मदिरा संज्ञा स्त्री॰ [सं॰] भबके सै खीच या सड़ाकर बनाया हुआ प्रसिद्ध मादक रस । वह अकं जिसके पीने से नशा हो । शराब । दारू । मद्य । विशेष—मदिरा के प्रधान दो भेद हैं । एक वह जिसे आग पर चढ़ाकर भबके से खींचते हैं, जिसे अभिस्रवित कहते है । दूसरा वह जिसमें सड़ाकर मादकता उत्पन्न की जाती हैं और जिसे पयुंषित कहते हैं । दोनों प्रकार की मदिराएँ उत्तेजक, दाहक, कषाय और मधुर होती हैं । वैदिक काल से ही मादक रसों के प्रयोग की प्रथा पाई जाती है । सोम का रस भी, जिसकी स्तुति प्रायः सभी संहिताओं में है, निचोड़कर कई दिन तक ग्राहों में रखा जाता था जिससे खमीर उठकर उसमे मादकता उत्पन्न हो जाती थी । यजुर्वेद में यवसुरा शब्द आया है, जिससे यह पता चलता है कि यजुर्वेद के काल में यव की मदिरा खींचकर बनाई जाती थी । स्मृतियों में सुरा के तीन भेदों गौड़ी, पेष्टी और माध्वी—का निषेध पाया जाता है । वैद्यक में सुरा, वारुणी, शीघु, आसव, माध्वीक, गौड़ी, पेष्टी, माध्वी, हाला, कादबंरी आदि के नाम मिलते है । जटाधक ने मध्वीक, पानास, द्राक्ष, खर्जूर, ताल, ऐक्षव, मैरेय, माक्षिक, टाँक, मबूक, नारिकेलज, अन्नविकारोत्थ, इन बारह प्रकार की मदिराओं का उल्लेख किया है । इनमे खर्जूर और ताल आदि पर्युषित और शेष अभिस्त्रवित हैं । इन दोनों के अतिरिक्त एक प्रकार की और मदिरा होती है, जिसे अरिष्ट कहते हैं । यह क्वाथ से बनाई जाती है । धान या चावल की मदिरा को सुरा, यव की मदिरा को कोहल, गेहूँ की मदिरा की मधुलिका, मीठे रस की मदिरा को शीधु, गुड़ की मदिरा को गाड़ी, और दाख की मदिरा को मध्वीक कहते हैं । धर्मशास्ञों में गौड़ी, पेष्टी और माध्वी को सुरा कहा गया है । वैद्यक ग्रंथों में भिन्न भिन्न प्रकार की मदिराओं के गुण लिखे हैं ओर उनका प्रयोग भिन्न भिन्न अवस्थाओं के लिये लाभकारी बतलाया गया है । क्रि॰ प्र॰—खींचना ।—पीना ।—पिलाना ।

२. मत्त खंजन (को॰) ।

३. दुर्गा का एक नाम (को॰) ।

४. वसुदेव की एक स्त्री का नाम ।

५. बाइस अक्षरों के वर्णिक छंद का नाम जिसके प्रत्येक चरण में सात भगण और अंत में एक गुरु होता है । इसे मालिनी, उमा और दिवा भी कहते हैं । जैसे,—तोरि शरासन संकर के शुभ सीय स्वयंवर माँझ बरी ।—केशव (शब्द॰) ।