भूमिका
संज्ञा
- कार्य में श्रेय, योगदान
प्रकाशितकोशों से अर्थ
शब्दसागर
भूमिका ^१ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]
१. रचना ।
२. अभिनय करना । भेस बदलना ।
३. वक्तव्य के संबंध में पहले की हुई सूचना ।
४. किसी ग्रंथ के आरभ की वह सूचना जिससे उस ग्रंथ के संबंध की आवश्यक और ज्ञातव्य बातों का पता चले । मुखबध । दीवाचा ।
५. स्थान । प्रदेश (को॰) ।
६. मरातिब । मंजिल । तल्ला । खंड (को॰) ।
७. लिखने की तखती या पाटी (को॰) ।
८. नाटक में प्रयुक्त वेशभूषा (को॰) ।
९. वेदांत के अनुसार चित्त की पाँच अवस्थाएँ जिनके नाम ये हैं— क्षिप्त, मूढ़ विक्षिप्त एकाग्र और निरुद्व । विशेष— जिस समय मन चंचल रहता है, उस समय उसकी अवस्था क्षिप्त; जिस समय वह काम, क्रोध आदि के वशी- भूत रहता है और उसपर तम या अज्ञान छाया रहता है, उस समय मूढ़; जिसे मन चंचंल होने पर भी बीच में कुछ समय के लिये स्थिर होता है, उस समय विक्षिप्त; जिस समय मन बिलकुल निश्चल होकर किसी एक वस्तु पर जम जाता है, उस समय एकाग्र; और जिस समय मन किसी आधार की अपेक्षा न रखकर स्वतः बिलकुल शांत रहता है, उस समय निरुद्ध अवस्था कहलाती है ।
१०. पृथ्वी । जमीन । भूमि । धरती । उ॰— रसा अनंता भूमिका विलाइला कह जाहि ।— नंददास (शब्द॰) । मुहा॰— भूमिका बाँधना = किसी बात को कहने के लिये पृष्ठ- भूमि तैयार करना । किसी बात को थोड़े में न कहकर उसमें इधर उधर की बहुत सी बातें लाकर जोड़ तोड़ भिड़ाना । यौ॰—भूमिकागत = अभिनय में निर्दिष्ट नाटकीय वस्त्र पहननेवाला । भूमिकाभाना = कुट्टिम । (१) फर्श । (२) किसी ग्रंथादि का वह अंश जिसमें प्रस्तावना लिखी हो ।