प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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भाग्य ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰] वह अवश्यंभावी दैवी विधान जिसके अनुसार प्रत्येक पदार्थ और विशेषतः मनुष्य के सब कार्य— उन्नति, अवनति नाश आदि पहले ही से निश्चित रहते हैं और जिससे अन्यथा और कुछ हो ही नहीं सकता । पदार्थों और मनुष्यों आदि के संबंध में पहले ही से निश्चित और अनिवार्य व्यवस्था या क्रम । तकदीर । किस्मत । नसीब । विशेष— भाग्य का सिद्धांत प्रायः सभी देशों और जातियों में किसी न किसी रूप में माना जाता है । हमारे शास्त्रकारों का मत है कि हम लोग संसार में आकर जितने अच्छे या बुरै कर्म करते हैं, उन सबका कुछ न कुछ संस्कार हमारी आत्मा पर पड़ता है और आगे चलकर हमें उन्हीं संस्कारों का फल मिलता है । यही संस्कार भाग्य या कर्म कहलाते हैं और हमें सुख या दुःख देते हैं । एक जन्म में जो शुभ या अशुभ कृत्य किए जाते हैं, उनमें से कुछ का फल उसी जन्म में और कुछ का जन्मांतर में भागना पड़ता है । इसी विचार से हमारे यहाँ भाग्य के चार विभाग किए गए हैं— सचित, प्रारब्ध, क्रियमाण और भावी । प्रायः लोगों का यही विश्वास रहता है कि संसार में जो कुछ होता है, वह सदा भाग्य से ही होता है और उसपर मनुष्य का कोई अधिकार नहीं होता । साधारणतः शरीर में भाग्य का स्थान ललाट माना जाता है । पर्या॰—दैव । दिष्ट । भागधेय । नियति । विधि । प्रारब्ध | होनी | प्राक्तन । कर्म्म । भवितव्यता । अदृष्ट । यौ॰—भाग्यक्रम, भाग्यचक्र = भाग्य का क्रम या चक्र । भाग्य का फेर । भाग्यदोष । भाग्यपंच । भाग्यवल । भाग्यभाव । भाग्यलिपि । भाग्यवान् । भाग्यशाली । भाग्यहीन । भाग्यो- दय । आदि । मुहा॰— दे॰ 'किस्मत' के मुहा॰ ।

२. उत्तर फाल्गुनी नक्षत्र ।

भाग्य ^२ वि॰ जो भाग करने के योग्य हो । हिस्सा करने लायक । भागार्ह ।