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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

भगंदर संज्ञा पुं॰ [सं॰ भगन्दर] एक रोग का नाम जो गुदावर्त के किनारे होता है । विशेष—यह एक प्रकार का फोड़ा है जो फूटकर नासूर हो जाता है और इतना बढ़ जाता है उसमें से मल मूत्र निकलता है । जब तक यह फोड़ा फूटता नहीं, तब तक उसे पिड़िका वा पीड़िका कहते है; और जब फुट जाता है तब उसे भगंदर कहते हैं । फूटने पर इससे लगातर लाल रंग का फेन और पीर निकलता है । यहाँ तक कि यह छेद गहरा होता जाता है और अंत को मल और मूत्र के मार्ग से मिल जाता है और इस राह से मल का अश निकलने लगता है । वैद्यक में भगंदर की उत्पत्ति पाँच कारणों से मानी गई है और तदनुसार उसके भेद भी पाँच ही माने गए हैं—वात, पित्त, कफ, सन्निपात औऱ आगंतु; और इनसे उत्पन्न होनेवाले भगंदर क्रमशः शतपानक, उष्ट्रग्रीव, परिस्रावी, शंबूकावर्त और उन्माग कहलाते है । वैद्यक में यह रोग विशेषकर सन्निपातज असाध्य माना गया है । वैद्यों का मत है कि भगंदर रोग में फुन्सियों के होने पर बड़ी खुजलाहट उत्पन्न होती है; फिर पीड़ा, जलन और शोथ होता है । कमर में पीड़ा होती है और कपोल में भी पीड़ा होती है । वैद्यक में इस रोग क ी चिकित्सा व्रण के समान ही करने का विधान है । डाक्टर लोग इसे एक प्रकार का नासूर समझते हैं और चीर फाड़ के द्वारा उसकी चिकित्सा करते हैं ।