प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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भंडारा संज्ञा पुं॰ [हिं॰ भंडार]

१. दे॰ 'भंडार' ।

२. समूह । झुंड । क्रि॰ प्र॰—जुड़ना वा जुटना ।—जोडना ।

३. साधुओं का भोज । वह भोज । जिसमें संन्यासी ओर साधु आदि खिलाए जाते है । उ॰—विजय कियो भरि आनंद भारा । होय नाथ इत ही भंडारा ।—रघुराज (शब्द॰) । कि॰ प्र॰—करना ।—देना ।—होना ।—जुड़ना ।—खाना ।

४. पेट । उ॰—उक्त पुरुष ने अपने स्थान से उचककर चाहा कि एक हाथ कटार का ऐसा लगाए कि भंडार खुल जाय, पर पथिक ने झपटकर उसके हाथ से कटार छिन लिया ।— अयोध्यासिंह (शब्द॰) । मुहा॰—भंडारा खुल जाना = पेट फटने से आँतों का निकल पड़ना । उ॰—और बाँक बनौट से वाकिफ न होते तो भंडारा खुल जाता ।—फिसाना॰, भा॰ ३, पृ॰ १३६ ।