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संज्ञा

  1. सृजक

प्रकाशितकोशों से अर्थ

शब्दसागर

ब्रह्मा संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. ब्रह्म के तीन सगुण रूपों में से सृष्टि की रचना करनेवाला रूप । सृष्टिकर्ता । विधाता । पितामह । विशेष—मनुस्मृति के अनुसार स्वयंभू भगवान ने जल की सृष्टि करके जो बीज फेंका, उसी से ज्योतिर्मय हुआ । (दे॰ ब्रह्मांड) । भागवत आदि पुराणों में लिखा है कि भगवान विष्णु ने पहले महत्तत्व, अहंकार, पंचतन्मात्रा द्वारा एकादश इंद्रियाँ ओर पंचमहाभूत इन सोलह कलाओं से विशिष्ट विराट् रूप धारण किया । एकार्णव में योगनिद्रा में पडकर जब उन्होंने शयन किया, तब उनकी नाभि से जो कमल निकला उससे ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई । ब्रह्मा के चार मुख माने जाते है जिनके संबध में मत्स्यपुराण में यह कथा है—ब्रह्मा के शरीर से जब एक अत्यंत सुंदरी कन्या उत्पन्न हुई, तब वे उसपर मोहित होकर इधर उधर ताकने लगे । वह उनके् चारों ओर घूमने लगी । जिधर वह जाती, उधर देखने के लिये ब्रह्मा को एक सिर उत्पन्न होता था । इस प्रकार उन्हें चार मुँह हो गए । ब्रह्मा के क्रमशः दस मानसपुत्र हुए—मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वसिष्ठ, भृगु ओर नारद । इन्हें प्रजापति भी कहते हैं । महाभारत में २१ प्रजापति कहे गए हैं । दे॰ 'प्रजापति' । पुराणो में ब्रह्मा वेदों के प्रकटकर्ता कहे गए हैं । कर्मानुसार मनुष्य के शभाशुभ फल या भाग्य को गर्भ के समय स्थिर करनेवाले ब्रह्मा माने जाते हें ।

२. यज्ञ का एक ऋत्विके ।

३. एक प्रकार का धान जो बहुत जल्दी पकता है ।