बुनना
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनबुनना क्रि॰ स॰ [सं॰ वयन]
१. जुलाहों की वह क्रिया जिससे वे सूतों या तारों की सहायता से कपड़ा तैयार करते हैं । बिनना । उ॰— हमै बात कहै कौ प्रयोजन का बुनिबे मैं न बीन बजाइबै मैं ।— ठाकुर॰, पृ॰ १५ । विशेष— इस क्रिया में पहले करगह में लंबाई के बल बहुत से सूत बराबर बराबर फैलाए जाते हैं, जिसे ताना कहते हैं । इसमें करगह की राछों की सहायता से ऐसी व्यवस्था कर दी जाती है कि सम संख्याओं पर पड़नेवाले सूत आवश्यकता पडने पर विषम संख्याओं पर पड़नेवाले सूतों से अलग करके ऊपर उठाए या नीचे गिराए जा सकें । अब ताने के इन सूतों में से आधे सूतों को कुछ ऊपर उठाते और आधे को कुछ नीचे गिराते हैं । और तब दोनों के बींच में से होकर ढरकी, जिसकी नरी में बाने का सूत लपेटा हुआ होता है, एक ओर से दूसरी ओर को जाती है, जिससे बाने का सूत तानेवाले सूतों में पड़ जाता है । इसके उपरांत फिर ताने के सूतों में से ऊपरवाले सूतों को नीचे और नीचेवाले सूतों को ऊपर करके दोनों के बीच से उसी प्रकार बाने के सूत को फिर पीछे की ओर ले जाते हैं । इसी प्रकार बार बार करने से तानों के सूतों में बाने के सूत पड़ते जाते हैं जिनसे अंत में कपड़ा तैयार हो जाता है । ताने के सूतों में उक् त नियम के अनुसार बाने के सूतों को बैठाने की यही क्रिया 'बुनना' कहलाती है ।
२. बहुत से सीधे और बेड़े सूतों को मिलाकर उनकों कुछ के ऊपर और कुछ के नीचे से निकालकर अथवा उनमें गोट आदि देकर कोई चीज तैयार करना । जैसे, गुलूबंद बुनना । जाल बुनना ।
३. बहुत से तारों आदि की सहायता से उक्त क्रिया से अथवा उससे मिलती जुलती किसी और क्रिया से कोई चीज तैयार करना । जैसे, मकड़ी का जाला बुनना । संयो॰ क्रि॰—डालना ।—देना ।