प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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बीर वि॰ [सं॰ वीर] दे॰ 'वीर' ।

बीर ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ बीर] भाई । भ्राता । उ॰—(क) सबै ब्रज है यमुना के तीर । काली नाग के फन पर नितंत संकर्षण को बीर ।—सूर (शब्द॰) । (ख) चिरजीवी जोरी जुरे क्यों न सनेह गँभीर । को घटि ये वृषभानुजा वे हलधर के बीर ।—बिहारी (शब्द॰) ।

२. एक देवयोनि जिनकी संख्या ५२ कही जाती है । उ॰—प्रसन चंद सम जतिय दिन्न इक मंत्र इष्ट जिय । इह आराधत भट्ट प्रगट पचास बीर बिय ।—पृ॰ रा॰, ६ । २६ ।

बीर ^३ संज्ञा स्त्री॰

१. सखी । सहेली । उ॰—(क) बार बुद्धि बालनि के साथ ही बढ़ी है बीर कुचनि के साथ ही सकुच उर आई है ।—केशव (शब्द॰) । (ख) यह जा यसोदा के पास बैठी ओर किशल पूछ अशीश दी कि बीर तेरा कान्ह जीवे कोठि बरस ।—लल्लू (शब्द॰) ।

२. एक आभूषण जिसे स्त्रियाँ कान में पहनती है । बिरिया । चाँद बोल । उ॰—लसैं बीरैं चका सी चलैं श्रुति में भृकुटी जुवा रूप रही छबि छवै । (ख) अंग अंग अनंग झलकत सोहत कानन बीरै सोभा देत देखत ही बनै जोन्ह सी फूली ।—हरिदास (शब्द॰) । विशेष—यह गोल चक्राकार होता है ओर इसका ऊपरी भाग ढालुआँ ओर उठा हुआ होता है । इसके दूसरी ओर खूँटी होती है जो कान के छेद में डालकर पहनी जाती है । इसमें ढाई तीन अंगुल लंबी कँगनीदार पूँछ सी निकली रहती है जिसमें प्रायः स्त्रियाँ रेशम आदि का झब्बा लगवाती हैं । यह झब्बा पहनते समय सामने कान की ओर रहता है ।

३. कलाई में पहनने का एक प्रकार का गहना । बेरवा । उ॰— हाथ पहुँची बीर कंगन जरित मुँदरी भ्राजई ।—सूर (शब्द॰)

४. पशुओं को चराने का स्थान । चरागाह । चरी ।

५. चरागाह में पशुओं को चराने का वह महसूल जो पशुओं की संख्या के अनुसार लिया जाता है ।