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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

बास ^१ संज्ञा पुं॰ [सं॰ वास]

१. रहने की क्रिया या भाव । निवास ।

२. रहने का स्थान । निवासस्थान ।

३. बू । गंध । महक । उ॰—फूली फूली केतकी भौरा लीजै बास ।—पलटू॰, भा॰ १, पृ॰ ५२ ।

४. एक छंद का नाम ।

५. वस्त्र । कपड़ा । पोशाक । उ॰—(क) जहाँ कोमलै बल्कलै बास सोहैं । जिन्हें अल्पधी कल्पशाखी विमोहैं ।—केशव (शब्द॰) । (ख) पाँच धरी चौथे प्रहर पहिरति राते बास । करति अंगरचना बिबिध भूषण भेष विलास ।—देव (शब्द॰) ।

बास ^२ संज्ञा पुं॰ [सं॰ वसन] छोटा वस्त्र । उ॰—दासि दास बास रोम पाट को कियो । दायजो बिदेहराज भाँति भाँति को कियो ।—केशव (शब्द॰) ।

बास ^३ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ वासना] वासना । इच्छा । लालच । उ॰—तिय के सम दूजो नहीं मुख सोई त्रिरेख लिख्यो बिधि बास धरे ।—सेवक स्याम (शब्द॰) ।

बास ^४ संज्ञा स्त्री॰ [सं॰ वाशिः]

१. अग्नि । आग ।

२. एक प्रकार का अस्त्र । उ॰—गिरिधनरदास तीर तुपक तमंचा लिए लरैं बहु भाँति बास धार बरसैं अखड ।—गिरधर (शब्द॰) ।

३. तेज धारवाली छुरी, चाकू, कैंची इत्यादि छोटे छोटे शस्त्र जो रण में तोपों में भरकर फेंके जाते हैं ।

बास ^५ संज्ञा पुं॰ [देश॰] एक पर्वतीय वृक्ष जो बहुत ऊँचा होता हैं । बिपरसा । विशेष—इस वृक्ष की लकड़ी रंग में लाली लिए काली और इतनी मजबूत होती है कि साधारण कुल्हाड़ियो से नहीं कट सकती । यह लकड़ी पलग के पावे और दूसरे सजावटी सामान बनाने के काम में आती है । इसमें बहुत ही सुगंधित फूल लगते हैं और गोद निकलता जो कइ कामों में आता है । पहाड़ों में यह वृक्ष ३००० फुट की ऊँचाई तक होता है ।