बरगद

हिन्दी सम्पादन

प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

बरगद संज्ञा पुं॰ [सं॰ वट, हिं॰ बड़] बड़ का पेड़ । पीपल, गूलर आदि की जाति का एक प्रसिद्ध बड़ा वृक्ष जो प्रायः सारे भारत में बहुत अधिकता से पाया जाता है । विशेष—अनेक स्थानों पर यह आपसे आप उगता है । पर इसकी छाया बहुत घनी और ठंढ़ी होती है, इसलिये कहीं कहीं लोग छाया आदि के लिये इसे लगते भी हैं । यह बहुत दिनों तक रहता, बहुत जल्दी बढ़ता और कभी कभी अस्सी या सो फुट की ऊँचाई तक जा पहुँचता है । इसमें एक विशेषता यह होती है कि इसकी शाखाओं में से जटा निकलती है जिसे बरोह कहते हैं और जो नीचे की और आकर जमीन में मिल जाती है और तब एक नए वृक्ष के तने का रूप धारण कर लेती है । इस प्रकार एक ही बरगद की डालों में से चारों ओर पचासों जटाएँ नीचे आकर जड़ और तने का काम देने लगती हैं जिससे वृक्ष का विस्तार बहुत शीघ्रता से होने लगता है । यही कारण है कि बरगद के किसी बड़े वृक्ष के नीचे सैकड़ों हजारों आदमी तक बैठ सकते हैं । इसके पत्तों और डालियों आदि में से एक प्रकार का दूध निकलता है जिससे घटिया रबर बन सकता है । यह दूध फोड़े फुंसियों पर, उनमे मुँह करने के लिये, और गठिया आदि के दर्द में भी लगाय जाता है । इसकी छाल का काढ़ा बहुमूत्र होने में लाभदायक माना जाता है । इसके पत्ते, जो बड़े और चौड़े होते हैं, प्रायः दोने बनाने और सौदा रखकर देने के काम आते हैं । कहीं कहीं, विशेषतः अकाल के समय में, गरीब लोग उन्हें खाते भी हैं । इसमें छोटे छोटे फल लगते जो गरमी के शुरू में पकते हैं और गरीबों के खाने के काम आते हैं । यों तो इसकी लकड़ी फुसफुसी और कमजोर होती है और उसका विशेष उपयोग नहीं होता, पर पानी के भीतर वह खूब ठहरती है । इसलिये कुएँ की 'जमवट' आदि बनाने के काम आती है । साधारणतः इसके संदूक और चौखटे बनते हैं । पर यदि यह होशियारी से काटी जाय और सुखाई जाय तो और रसमान भी बन सकते हैं । ड़ालियों में से निकलनेवाली मोटी जटाएँ बहँगी के डंडे, गाड़ियों के जुए और खेमों के चोव बनाने के काम आती हैं । इस पेड़ पर कई तरह के लाख के कीड़े भी पल सकते हैं । हिंदू लोग बरगद को बहुत ही पवित्र और स्वयं रुद्रस्वरूप मानते हैं । इसके दर्शन तथा स्पर्श आदि से बहुत पुण्य होना और दुःख तथा आपत्तियों आदि का दूर होना माना जाता है और इसलिये इस वृक्ष का लगाना भी बड़े पुण्य का काम माना जाता है । वैद्यक के अनुसार यह कषाय, मधुर, शीतल, गुरु, ग्राहक और कफ, पित्त, व्रण, दाह, तृष्णा, मेह तथा योनि- दोष-नाशक माना गया है । पर्य्या॰—न्यग्रोध । बहुपात । वृक्षनाथ । यमप्रिय । रक्तफल । श्रृंगी । कर्मज । ध्रुव । क्षीरी । वैश्रवणावास । भांडरी । जटाल । अवरोही । विटपी । स्कंदरुइ । महाच्छाय । भृंगी । यक्षावास । यक्षतरु । नील । बहुपाद । वनस्पति ।