बबूल

प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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बबूल संज्ञा पुं॰ [सं॰ बब्बुल, प्रा॰ बबूल] मझोले कद का एक प्रसिद्ध काँटेदार पेड़ । कीकर । विशेष—यह वृक्ष भारत के प्रायः सभी प्रांतों में जंगली अवस्था में अधिकता से पाया जाता है । गरम प्रदेश और रेतीलौ जमीन में यह बहुत अच्छी तरह और अधिकता से होता है । कहीं कहीं यह वृक्ष सौ वर्ष तक रहता है । इसमें छोठी छोटी पत्तियाँ, सुई के बराबर काँटे और पीले रंग के छोटे छोटे फूल होते हैं । इसके अनेक भेद होते हैं जिनमें कुछ तो छोटी छोटी कँटीली बैलें हैं और बाकी बड़े बड़े वृक्ष । कुछ जातियों के बबूल तो बागों आदि में शोभा के लिये लगाए जाते हैं । पर अधिकांश से इमारत और खेती के कामों के लिये बहुत अच्छी लकड़ी निकलती है । इसकी लकड़ी बहुत मजबूत और भारी होती है और यदि कुछ दिनों तक किस ी खुले स्थान पर पड़ी रहे तो प्रायः लोहे के समान हो जाती है । इसकी लकड़ी ऊपर से सफेद और अंदर से कुछ कालापन लिए हुए लाल रंग की होती है । इससे खेती के सामान, नावें, गाड़ियों और एक्कों के घुरे तथा पहिए आदि अधिकता से बनाए जाते हैं । जलाने के लिये भी यह लकड़ी बहुत अच्छी होती है, क्योंकि इसकी आँच बहुत तेज होती है और इसलिये इसके कोयले भी बनाए जाते हैं । इसकी पतली पतली टहनियाँ, इस देश में, दातुन के काम में आती हैं और दाँतों के लिये बहूत अच्छी मानी जाती हैं । इसकी जड़, छाल, सूखे बीज और पत्तियाँ ओषधि के काम में भी आती हैं । छाल का प्रयोग चमड़ा सिझाने और रँगने में भी होता है । पत्तियाँ और कच्ची फलियाँ पशुओं के लिये चारे का काम देती हैं और सूखी टहनियों से लोग खेतों आदि में बाड़ लगाते हैं । सूखा फलियों से पक्की स्याही भी बनतो है और फूलों से शहद की मक्खियाँ शहद भी निकालती हैं । इसमें गोंद भी होता है जो और गोंदों से बहुत अच्छा समझा जाता हैं । कुछ प्रांतों में इसपर लाख के कीडे़ रखकर लाख भी पैदा की जाती है । रामबबूल, खैर, फुलाई, करील, बनरीठा, सोनकीकर आदि इसी की जाति के वृक्ष हैं ।