प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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फोटोग्राफी संज्ञा स्त्री॰ [अं॰ फोटोग्राफी़] प्रकाश की किरनों द्वारा रासायनिक पदार्थों में उत्पन्न कुछ परिवर्तनों से सहारे वस्तुओं की आकृति या प्रतिकृति उतारने की क्रिया । प्रकाश की सहायता से चित्र उतारने की कला या युक्ति । विशेष—यह काम संदुक के आकार के एक यंत्र के सहारे से किया जाता है जिसे 'केमरा' कहते हैं । इसके आगे की ओर बीच में गोल लंबा चोंगा सा निकला रहता है जिसमें एक गोल उन्नतोदर शीशा लगा रहता है जिसे लेंस कहते हैं । दुसरी ओर एक शीशा और एक किवाड़ होता है जो खटके से खुलना और बंद होता है । केमरे के बीच का बाग माथी की तरह होता है जो यथेच्छ घटाया और बढ़ाया जा सकता है । लेंस के सामने चोंगे के बंद करने का ढक्कन होता है । केमरे के भीतर अँधेरा रहता है औऱ उसमें सिवाय आगे के लेंस की ओर से और किसी ओर से प्रकाश आने का मार्ग नहीं होता है । जिसे वस्तु की प्रतिकृति लेनी होती है वह सामने ऐसे स्थान पर होती है जहाँ उसपर सूर्य का प्रकाश अच्छे प्रकार पड़ता हो । उसके सामने कुछ दुर पर केमरे का मुँह उसकी ओर करके रखते हैं । पिर लेंस का ढक्कन खोलकर चित्र लेनेवाला दुसरी ओर के द्वार को खोलकर सिर पर काला कप़ड़ा (जिसमें कहीं से प्रकाश न आवे) डालकर देखता है कि उस वस्तु की प्रतिकृति ठीक दिखाई देती है कि नहीं । इसे फोकस लेना कहते हैं । इसके बाद लेंस के सामने के ढक्कन को फिर बंद कर देते हैं और दुसरी ओर लकड़ी के बंद चौकठे में रखे प्लेट को, जिसमें रासयानिक पदार्थ लगे रहते हैं, बड़ी सावधानी से, जिसमें प्रकाश उसे स्पर्श न करने पाए लगा देते हैं, फिर लेंस के मुँह को थोड़ी देर के लिये खोल देते हैं जिसमें प्लेट पर उस पदार्थ की छाया अंकित हो जाय । ढक्कन फिर बद कर दिया जाता है और अंकित प्लेट बड़ी सावधानी से बंद चौखटे में बंद करके रख दिया जाता है । उस प्लेट को अँधेरी कोठरी में ले जाकर लाला लालटेन के प्रकाश में रासयनिक मिश्रणों में कई बार डुबाते हैं और अंत में फिटकरी के पानी में डालकर ठंढे पानी की धार उसपर गिराते हैं । इस क्रिया से प्लेट काले रंग का हो जाता है और उसपर पदार्थ अंकित दिखाई पड़ने लगता है, इसे निगेटिव कहते हैं । इसी निगेटिव पर रासायनिक पदार्थ लगे हुए कागज के टुकड़ों को अँधेरी कोठरी के भीतर सटाकर प्रकाश दिखाते ओर रासायनिक मिश्रणों में धोते हैं । इस प्रकार कागज पर प्रतिकृति अंकित हो जाती है । इसी को फोटो कहते हैं । प्रकाश के प्रभाव से वस्तुओं के रंगों में परिवर्तन होता हैं । इस बात का कुछ कुछ ज्ञान लोगों को पहले से था । चमड़ा सिझाते समय सूर्य का प्रकाश पाकर चमड़े का रंग बदलता हुआ बहुत से लोग देखते थे । सोलहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में इटली के एक मनुष्य को, जिसका नाम पोर्टी था, वृक्ष के सघन पत्तों में से होकर सूर्य की किरणों का प्रकाश छनते देखकर उत्सकुता हुई । उसने अपने घर की कीठरी की दावार में एक छोटा सा छेद किया । फिर बाहर की ओर दीपक जलाकर दुसरी ओर एक पदार्थ टागकर परीक्षा करने लगा । दीपशिखा उसे पर्दे पर उलटी लटकी दिखाई पड़ी । वह इस प्रकार दुसरे पदार्थों की प्रतिकृतियाँ भी पर्दें पर लाने का यत्न करने लगा । सुबीते के लिये उसने एक नतोदर शीशा उस छेद में लगा दिया । उसी समय फ्रांस देश के एक और वैज्ञानिक ने परीक्षा करके नाइट्रेट अफ सिलवर नामक रासायनिक मिश्रण बनाया जो यद्यपि सफेद होता है तथापि सूर्य की किरन पड़ते ही धीरे धीरे काला होने लगता है । सन १७२० में स्विट्जरलैंड के एक विद्वान् चाल्स ने अँधेरी कोठरी में नाइट्रेट आफ सिलवर के सहारे से चित्र बनाने की चेष्टा की । चित्र तो खिंच गया पर स्थायी न हो सका । बहुत से वैज्ञानिक चित्र को स्थायी करने की चेष्टा करते रहे । अंत को सौ बरस पीछे, एमन्योपस नामक एक वैज्ञानिक की सहायता से डगर साहेब ने पारे के रासायनिक मिश्रण द्वारा चित्र को स्थायी करने में सफलता प्राप्त की । डगर ने चित्र को पहले 'पोटास ब्रोमाइट में डुबा डुबाकर देखा पर अंत मे उसे 'हाइपो सल्फाइट सोडा' द्वारा सफलता हुई । इसी समय एक अंग्रेज ने गैलिक एसिड और नाइट्रेट आफ सिलवर की सहायता से कागज पर चित्र छापने की विधि निकाली । धीरे धीरे यह विद्या उन्नति करती, गई और सन् १८५० में प्लेट पर चित्र लिए जाने लगे । १८७२ में डा॰ मैडाक्ष ने जेलेटीन की सहायता से प्लेट बनाने की प्रथा जारी की जो उत्तरोत्तर उन्नत होकर अबतक प्रचलित है । अब आर्द्र प्लेट का बहुत कम व्यवहार होता है, प्रायः सब जगह शुष्क प्लेट काम में लाया जाता है ।