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प्रकाशितकोशों से अर्थ सम्पादन

शब्दसागर सम्पादन

प्रासाद संज्ञा पुं॰ [सं॰]

१. प्राचीन वास्तुविद्या के अनुसार लंबा, चौड़ा, ऊँचा और कई भूमियों का पक्का या पत्थर का घर जिसमें अनेक श्रृंग, श्रृंखला, अंडकादि हों तथा अनेक द्वारों और गवाक्षों से युक्त त्रिकोश, चतुष्कोण, आयत, वृत्त शालाएँ हों । विशेष— आकृति के भेद से पुराणों में प्रासाद के पाँच भेद किए गए हैं— चतुरस्र, चतुरायत, वृत्त, पृत्ताय और अष्टास्त्र । इनका नाम क्रम से वैराज, पुष्पक, कैलास, मालक और त्रिविष्टप है । भूमि, अंडक, शिखरादि की न्यूनाधिकता के कारण इन पाँचों के नौ नौ भेद माने गए हैं । जैसे, वेराज के मेरु, मंदर, विमान, भद्रक, सर्वतोभद्र, रुचक, नंदन, नंदिवर्धन और श्रीवत्स; पुष्पक के वलभी, गृहराज, शालागृह, मंदिर, विमान, ब्रह्ममंदिर, भवन, उत्तंभ और शिविकावेश्म; कैलास के वलय, दुंदुभि, पद्म, महापद्म, भद्रक सर्वतोभद्र; रुचक, नंदन, गुवाक्ष या गुवावृत्त; मालव के गज, वृषभ, हंस, गरुड़, सिंह, भूमुख, भूवर, श्रीजय और पृथिवीधर, और त्रिविष्टप के वज्र, चक्र, मुष्टिक या वभ्रु, वक्र, स्वस्तिक, खड्ग, गदा, श्रीवृक्ष और विजय । पुराणों में केवल राजाओं और देवताओं के गृह को प्रासाद कहा है ।

२. बहुत बड़ा मकान । महल । उ॰— वे प्रासाद रहें न रहें, पर, अमर तुम्हारा यह साकेत ।—साकेत, पृ॰ ३७१ ।

३. महल की चोटी ।

४. कोठे के ऊपर की छत ।

५. बौद्धों के संघाराम में वह बड़ी शाला जिसमें साधु लोग एकत्र होते हैं ।

६. मंदिर । देवालय (को॰) ।

७. दर्शकों के लिये बना हुआ स्थान (को॰) ।