प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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प्राणायाम संज्ञा पुं॰ [सं॰] योग शास्त्रानुसार योग के आठ अंगों में चौथा । विशेष—श्वास और प्रश्वास की गति के विच्छेद के पतंजलि दर्शन में प्राणयाम माना है । बाहर की वायु को भीतर ले जाना श्वास और भीतर की वायु को बाहर फेंकना प्रश्वास है । इन दोनों प्रकार की वायुओं की गतियों को प्रयत्नपूर्वक धीरे धीरे कम करने का नाम प्राणायाम है । इसकी तीन वृत्तियाँ मानी गई है—ब्राह्म, आभ्यंतर और स्तंभ । इन्हीं तीनों को रेचक, पूरक और कुंभक भी कहते हैं । भीतर की वायु को बाहर फेंकना रेचक, बाहर की वायु को भीतर ले जाना पूरक और भीतर खींची हुई वायु को उदरादि में भरना कुंभक कहलाता है । इसके अतिरिक्त एक और शक्ति है जिसे बाह्माभ्यंतर विषयाक्षेपी कहते हैं । इसमें श्वास प्रश्वास की बाह्य और आभ्यंतर दोनों वृत्तियों का निरोध करके उसे रोक देते हैं । इन चारों वृ्तियों के देश काल और संख्या के भेद से दीर्घ और सूक्ष्म नामक दो दो भेद होते है । योग शास्त्र में प्राणायाम की बड़ी महिमा है । पतंजलि ने इसका फल यह माना है कि इससे प्रकाश का आवरण क्षीण होता है और धारणा में, जो योग का छठा अंग है, योग्यता होती है । प्राण के निरोध से चित्त की चंचलता निवृत्ति होती है और फिर योगी को प्रत्याहार सुगम होता है । योगाभ्यास के लिये यह प्रधान कर्म माना गया है । इसके अतिरिक्त प्राणायाम संख्या का एक अंग है । शास्त्रों में इसे सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ तप माना है और कहा गया है कि प्राणायाम करने से सब प्रकार के पाप नष्ट होते हैं ।