पित्त
प्रकाशितकोशों से अर्थ
सम्पादनशब्दसागर
सम्पादनपित्त संज्ञा पुं॰ [सं॰] एक तरल पदार्थ जो शरीर के अंतर्गत यकृत में बनता है । इसका रंग नीलापन लिए पीला और स्वाद कड़वा होता है । आयुर्वेद शास्त्र के त्रिदोषों (कफ, वात, पित्त) में एक । विशेष—इसकी बनावट में कई प्रकार के लवण और दो प्रकार के रंग पाए गए हैं । यह यकृत के कोषों से रसकर दो विशेष नालियों द्बारा पक्वाशय में आकर आहार रस से मिलता है और वसा या चिकनाई के पाचन में सहायक होता है । यदि पक्वाशय में भोजन नहीं रहता तो यह लौटकर फिर यकृत को चला जाता है और पित्ताशय या पित्त नामक उससे संलग्न एक विशेष अवयव में एकत्र होता रहता है । वसा या स्नेहतत्व को पचाने के लिये पित्त का उससे यथेष्ट मात्रा में मिलना अतीव आवश्यक है । यदि इसकी कमी हो तो वह बिना पचे ही विष्ठा द्बारा शरीर से बाहर हो जाता है । इसके अतिरिक्त इसके और भी कई कार्य हैं, जैसे आमाशय से पक्वाश्य मे आए हुए आहार रस की खटाई दूर करना, आँतों में भोजन को सड़ने न देना, शरीर का तापमान स्थिर रखना, आदि । पित्त की कमी से पाचन क्रिया बिगड़ जाती है और मंदग्नि, कब्ज अतिसार आदि रोग होते हैं । इसी प्रकार इसकी वृद्धि से ज्वर, दाह, वमन, प्यास मूर्छा और अनेक चर्मरोग होते हैं । जिसका पित्त के बढ़ गया हो उसका रंग बिलकुल पीला हो जाता है । पित्त के बढे़ या बिगड़े हुए होने की दशा में वह अकसर वमन द्बारा पेट से बाहर भी निकलता है । वैद्यक के अनुसार पित्त शरीर के स्वास्थ्य और रोग के कारण- भूत तीन प्रधान तत्वों अथवा दोषों में से एक है । जिस प्रकार रस का मल कफ है उसी प्रकार रक्त का मल पित्त है जो यकृत या जिगर में उससे अलग किया जाता है । भावप्रकाश के अनुसार यह उष्ण, द्रव, आमरहित दशा में पीला और आमसहित दशा में नीला, सारक , लघु, सत्वगुणायुक्त, स्निग्ध, रस में कटु परंतु विपाक के समय अम्ल हैं । अग्नि स्वभाववाला तो स्वयं अग्नि है । शरीर में जो कुछ उष्णता तत्व है उसका आधार यही है । इसी से अग्नि, उष्ण, तेजस् आदि पित्त के पर्याय हैं । इसमें एक प्रकार की दुर्गंधि भी आती है । शरीर में इसके पाँच स्थान हैं जिनमें यह अलग अलग पाँच नामों से स्थिर रहकर पाँच प्रकार के कार्य करता है । ये पाँच स्थान हैं—आमाशय (कहीं कहीं आमाश य और पक्वाश्य का मध्य स्थान भी मिलता है), यकृत, प्लीहा, ह्वदय, दोनों नेत्र, और त्वचा । इनमें रहनेवाले पित्तों का नाम क्रम से पाचक, रंजक, साधक, आलोचक और भ्रजक हैं । पाचक पित्त का कार्य खाए हुए द्रव्यों को अपनी स्वाभाविक उष्णता से पचाना और रस, मूत्र और मल को पृथक् पृथक् करना है । रंजक पित्त आमाशय से आए हुए आहार रस को रंजित कर रक्त में परिणत करता है । साधक पित्त कफ और तमोगुण को दूर करता और मेधा तथा बुद्धि उत्पन्न करता है । आलोचक पित्त रूप के प्रतिबिंब को ग्रहण करता है । यह पुतली के बीचोबीच रहता है और मात्रा में तिल के बराबर है । भ्राजक पित्त शरीर की कांति, चिकनाई आदि का उत्पादक तथा रक्षक है । आमाशय या अग्न्याशय में स्थित पाचक पित्त अपनी स्वाभाविक शक्ति से अन्य चार पित्तों की क्रिया में भी सहायक होता है । पाचक पित्त को ही पाचकाग्नि या जठराग्नि भी कहा है । गरम, तीखी, खट्टी, आदि चीजें खाने से पित्त बढ़ता है और कुपित होता है, शीतल मधुर, कसैली, क्डवी, स्निग्ध वस्तुओं से वह कम और शांत होता हैं । अरबी में पित्त को सफरा और फारसी में तलखा कहते हैं । उपादान उसका अग्नि और स्वभाव गरम खुश्क माना है । जिस प्रकार शारीरिक उष्णता का कारण पित्त माना गया है उसी प्रकार मनोवृत्तियों के तीव्र होने अर्थात् क्रोध आदि मनोविकारों के पैदा करने में भी वह कारण माना गया है । पित्त खौलना, पित्त उबलना, आदि मुहावरों की— जिनका अर्थ क्रुद्ध हो जाना है—उत्पत्ति में इसी कल्पना का आधार जान पड़ता है । अँगरेजी में भी पित्तार्थक बाइल (Bile) शब्द का एक अर्थ क्रोधशीलता है । पर्या॰—मायु । पलज्वल । तेजस् । तिक्त । धातु । उष्मा । अग्नि । अनल । रंजन । मुहा॰—पित्त उबलना या खौलना = दे॰ 'पित्ता उबलना या खौलना' । पित्त गरम होना = शीघ्र क्रुद्ध होने का स्वभाव होना । क्रोधशील होना । मिजाज में गरमी होना । क्रोध की अधिकता होना । जैसे,—अभी तुम जवान हो इसी से तुम्हारा पित्त इतना गरम है । पित्त डालना = कै करना । वमन करना । उलटी करना ।