प्रकाशितकोशों से अर्थ

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शब्दसागर

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पालि संज्ञा स्त्री॰ [सं॰]

१. कर्णलताग्र । कान की लौ । कान के पुट के नीचे का मुलायम चमड़ा । विशेष— पुट के जिस निचले भाग में छेद करके बलियाँ आदि पहनी जाती है उसे पालि कहते हैं । इस स्थान पर कई प्रकार के रोग हो जाते हैं, जैसे, उत्पाटक जिसमें चिराचिराहट होती है, कंड़ु जिसमें खुजली होती है, ग्रंथिक जिसमें जगह जगह गाँठें सी पड़ जाती हैं, श्याव जिसमें चमड़ा काला हो जाता है, स्नावी जिसमें बराबर खुजली होती और पनछा बहा करता है, आदि ।

२. कोना ।

३. पंक्ति । श्रेणी । कतार ।

४. किनारा ।

५. सीमा । हद ।

६. मेड़ । बाँध । उ॰— ढाढी एक संडेसड़उ ढोलइ लागि लइ जाइ । जोबण फट्टि तलावड़ा, पालि न बंधउ काँई ।— ढोला॰, दू॰, १२२ ।

७. पुल । करारा । कगार । भीटा । उ॰— खेलत मानसरोदक गई । जाइ पालि पर ठाढ़ी भई ।— जायसी (शब्द॰) ।

८. देग । बटलोई ।

९. एक तौल जो एक प्रस्थ के बराबर होती थी ।

१०. वह बँधा हुआ भोजन जो छात्र या व्रह्मचारी को गुरुकुल में मिलता था ।

११. अंक । गोद । उत्संग ।

१२. परिधि ।

१३. जूँ या चीलर ।

१४. स्त्री जिसकी दाढ़ी में बाल हों ।

१५. अंक । चिह्न ।

१६. संस्तवन । प्रशंसन (को॰) ।

१७. श्रोणी । नितंब (को॰) ।

१८. लंबा तालाब (को॰) ।